वज्रसूची

विशेष रुप से प्रदर्शित

उपनिषद((सामवेद)

हिंदी अनुवादक : ओमप्रकाश कश्यप

[‘वज्रसूचि’ बौद्ध विद्वान अश्वघोष(50 ईस्वी पूर्व—50 ईस्वी) द्वारा विरचित लघु उपनिषद है. इसमें हिंदुओं की वर्ण-व्यवस्था पर प्रहार किया गया है. अश्वघोष की वर्ण-व्यवस्था के औचित्य के खंडन के लिए अश्वघोष ब्राह्मण ग्रंथों से ही उदाहरण देते हैं. उनके तर्क तीखे, कहीं-कहीं व्यंजना लिए हुए हैं. इस उपनिषद का पहला अंग्रेजी अनुवाद रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के लिए बी.एच. हॉडग्सन द्वारा 1829 में किया था, जो लंदन से 1835 में प्रकाशित किया गया था. उससे पहले रॉयल सोसाइटी के सचिव के नाम 11 जुलाई 1929 को लिखे गए पत्र में हॉडग्सन ने लिखा था कि ‘वज्रसूची’ के अनुवाद में मदद करने के लिए उन्होंने ‘बनारस के एक पंडित’ को रखा था, लेकिन वह बीच में ही काम को अधूरा छोड़कर चला गया था. जैसे-तैसे उन्होंने अनुवाद कार्य को पूरा किया.

उपनिषद् के हिंदी अनुवाद हेतु सुजीत कुमार मुखोपाध्याय के अंग्रेजी अनुवाद की मदद ली गई है, जो विश्वभारती, शांतिनिकेतन द्वारा प्रकाशित 1849 में प्रकाशित हुआ था. अपने तीखे और विद्वतापूर्ण तर्कों के माध्यम से अश्वघोष जिस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, वह कालातीत और चिर-प्रासंगिक है—

‘हे राजन्। मनुष्य की जाति नहीं देखी जाती। उसके गुण ही उसके श्रेष्ठत्व की पहचान हैं। सिर्फ वही महत्वपूर्ण हैं। ऐसा व्यक्ति जो परोपकारी जीवन जीता है, जो सदैव धैर्य-धृत्ति और क्षमा का अनुसरण करता है, ईश्वर की दृष्टि में वही श्रेष्ठ जन है।’]

पुस्तक की खूबी है कि तर्क पूर्ण विवेचना से अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने के बावजूद अश्वघोष अपनी ओर से कोई फैसला थोपते नहीं हैं, अपितु आगे का काम पाठकों के विवेक पर छोड़ देते हैं. यह गुण इसे दूसरे उपनिषदों से अलग करता है.

वज्रसूची का अर्थ है—हीरे की सुई. तो अब आप हीरे की सुई को पढ़िए, परखिए और काम लीजिए.

 

वज्रसूची

ओम नमो मञ्जुनाथाय।

मैं अश्वघोष सर्वप्रथम अपने गुरु मंजुनाथ को नमन करता हूं

जगद्गुरुं मञ्जुघोषं नत्वा वाक्कायचेतसा

अश्वघोषो वज्रसूचीं सूत्रयामी यथामतम्।1।

अपनी अंतरात्मा और पूरी शक्ति के साथ जगद्गुरु मंजुनाथ का नमन और स्मरण करने के पश्चात मैं शास्त्र के अनुसार वज्रसूची नामक इस ग्रंथ को लिखना आरंभ करता हूं।1।

वेदाः प्रमाणं स्मृतयः प्रमाणं धर्मार्थयुक्तं वचनं प्रमाणम्।

यस्य प्रमाणं न भवेत्प्रमाणं कस्तस्य कुर्याद्वचनं प्रमाणम्।2।

आपके वेद प्रमाण हैं, स्मृतियां प्रमाण हैं। धर्म-सम्मत आधार पर कहे गए वचन भी प्रमाण हैं। जो प्रमाण को प्रमाण के रूप में स्वीकारने से इन्कार करेगा, उसके कथन को प्रमाण के रूप  में भला कौन स्वीकार करेगा।

  1. इह भवता यदिष्टं सर्ववर्ण प्रधानं ब्राह्मणवर्णइति, वयमत्र ब्रूम: कोऽयं ब्राह्मणो नाम। किं जीवः किं जातिः किं शरीरं किं ज्ञानं, किमाचारः किं कर्म किं वेद इति।

आपके शास्त्रों के अनुसार सृष्टि में ब्राह्मण ही सर्वश्रेष्ठ हैं। यदि ऐसा है तो यह बताइए कि ब्राह्मण कौन हैं? किसे ब्राह्मण कहा जाए? क्या आत्मा को? अथवा शरीर को? मनुष्य ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से ब्राह्मण होता है अथवा ज्ञान से? क्या व्यक्ति का आचार उसे ब्राह्मण बनाता है, अथवा उसका ज्ञान? किसी व्यक्ति के कर्म उसे ब्राह्मण बनाते हैं, अथवा वेद-शास्त्रों में प्रवीणता प्राप्त कर लेने के पश्चात वह ब्राह्मण बन पाता है?

  1. तत्र जीवस्तावद् ब्राह्मणो न भवति। कस्माद्। वेदस्य प्रामाण्याद्। उक्तं हि वेदेः।

यदि आप कहते हैं कि जीव ही ब्राह्मण है तो यह सच नहीं है। क्योंकि वेद जीव(आत्मा) को ब्राह्मण नहीं मानते।

  1. ओं सूर्यः पशुरासीत्, सोमः पशुरासीद्, इंद्र पशुरासीत्।

पश्वो देवाः। आद्यन्ते देवपशवः। श्वपाका अति देवा भवन्ति।।

  • ओं, वेदों के अनुसार पहले सूर्य पशु था, चंद्रमा पशु था और इंद्र भी पशु ही था। कुछ देवता पहले पशु थे, बाद में(जन्मांतर के पश्चात) वे देवता कहलाए। यहां तक कि कुत्ते का मांस खाने वाला भी बाद में देवता(ब्राह्मण) बन गया था।
  1. अतो वेदप्रामाण्यान्मन्यामहे जीवस्वाद् ब्राह्मणो न भवति।

भारत-प्रामाण्यादपि। उक्तं हि भारतेः।

  • वेदों के आधार पर प्रमाणित होता है कि जीव(आत्मा) ब्राह्मण नहीं है। इसे महाभारत भी पुनःप्रमाणित करता है।
  •  

सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालञ्जरे गिरौ।

चक्रवाकाः शरद्वीपे हंसाः सरसि मानसे।3।

तेऽपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा  वेदपारगाः।4।

उसके अनुसार एक बार कलिंजर पहाड़ी के सात शिकारी, दस हरिण, मानस-सरोवर झील की एक बत्तख और शरद् द्वीप का चावक पक्षी—इन सभी का जन्म कुरुक्षेत्र में ब्राह्मण के रूप में हुआ था, आगे चलकर ये सभी वेद-पारंगत हुए।3-4।

  • अतो भारतप्रामाण्याद् व्याधमृगहंसचक्रवाकदर्शन सम्भवान्मन्यामहे जीवस्तादु ब्राह्मणो न भवति। मानवधर्मप्रामाण्यादपि। उक्तं हि मानवे धर्मेः।

अधीत्य चतुरो वेदान्सांगोपांगेन तत्त्वतः

शूद्रात्प्रतिग्रहग्राही ब्राह्मणो जायते खरः।5।

खरो द्वादशजन्मानि षष्टिजन्मानि सूकरः

श्वानः सप्ततिजन्मानि—इत्यमेवं मनुरब्रवीत्।6।

5. अतएव महाभारत के अनुसार, हम मानते हैं कि एक भेड़िया, एक हरिण, एक हंस, एक चक्रवाक पक्षी को भी ब्राह्मण के रूप में देखना(पुनर्जन्म लेना) संभव है। इसलिए जन्म लेने मात्र से ही कोई ब्राह्मण नहीं बनता है। यह मनुस्मृति से भी प्रमाणित है। उसमें कहा गया है—

“ब्राह्मण, वेद-वेदांगों के सांगोपांग अध्ययन द्वारा जो ग्रहण करता है, शूद्र से भिक्षा अथवा दान लेने पर वह नष्ट हो जाता है । मरणोपरांत वह गधे के रूप में जन्म लेता है।5 ।

बारह जन्मों तक गधे की योनि में जन्म लेने के बाद वह साठ जन्मों तक सूअर के रूप में जन्मता है. तदनंतर उसे लगातार सत्तर बार कुत्ते की योनि में जन्म लेना पड़ता है।6।   

  • अतो मानवधर्म प्रामाण्याज्जीवस्तावद् ब्राह्मणो न भवति।

6. अतएव मानवशास्त्र, श्रुति एवं स्मृति के आधार पर यह आत्मा ब्राह्मण नहीं हैं।

  • जातिरपि ब्राह्मणें न भवति। कस्मात्। स्मृति प्रामाण्याद्। उक्तहिं स्मृतौः

7. सिर्फ जन्म मात्र ही कोई मनुष्य ब्राह्मण नहीं हो जाता। क्यों? स्मृति में यही कहा गया है। स्मृति-ग्रंथों में लिखा है—

हस्तिन्यामचलो जात उलूक्यां केशपिंगलः

अगस्त्योऽगस्तिपुष्पाच्च कौशिकः कुशसम्भवः।7।

कपिलः कपिलाजातः शर गुल्माच्च गौतमः

द्रोणाचार्यस्तु कलशात्तित्तिरिस्तित्तिरीसुतः।8।

रेणुकाऽजनयद्राममृष्यशृंगमुनिं मृगी

कैवर्तिन्यजनयद् व्यासं कुशिकं चैव शूद्रिका।9।

विश्वामित्रं च चण्डाली वशिष्ठं चैव उर्वशी

न तेषां ब्राह्मणी माता लोकाचाराच्च ब्राह्मणाः।10।

अचल मुनि का जन्म हथिनी के गर्भ से, केशपिंगल ऋषि का उल्लू से, आगस्त्य मुनि का अगस्ति पुष्प से, कौशिक का जन्म कुश(घास) से हुआ था। पुनश्चः कपिल मुनि का जन्म कपिता(अग्नि, बंदर) से, और गौतम का चीटिंयों से, द्रोणाचार्य का कलश से, तैत्तिरीय मुनि का तीतरी के गर्भ से, परशुराम का रेणु(धूल) से, श्रृंगी ऋषि का हरिणी के गर्भ से, व्यासमुनि का जन्म एक मल्लाह स्त्री से, कौशिक मुनि का जन्म एक शूद्र स्त्री से, विश्वामित्र का जन्म चांडाल स्त्री के गर्भ से तथा वशिष्ट मुनि का जन्म उर्वशी नामक अप्सरा के गर्भ से हुआ था। इनमें से किसी की भी मां ब्राह्मणी नहीं थी। बावजूद इसके ये सभी शुद्ध ब्राह्मण के रूप में विख्यात हुए। इन्हें सिर्फ लोकाचार में ब्राह्मण का दर्जा दिया गया है, ग्रंथों के आधार इनके ब्राह्मणत्व की पुष्टि संभव नहीं है।7-10।

  • अतः स्मृतिप्रामाण्या न्मन्यामहे जातिस्तावद् ब्राह्मणो न भवति।

8. इस तरह स्मृति ग्रंथों द्वारा प्रमाणित होता है कि जन्म के आधार पर कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होता।

IX.  अथ मन्यसे माता वाऽब्राह्मणी भवेत्। तेषां पिता ब्राह्मण स्ततो ब्राह्मणो भवतीति। यद्येवं दासीपुत्रा अपि ब्राह्मणजनिता ब्राह्मणा भवेयुः। न चैतद्भवतामिष्ठम्।

9. अब यदि आप यह कहते हैं कि माता भले अब्राह्मणी हो, पिता यदि ब्राह्मण है तो संतान ब्राह्मण ही मानी जाएगी। यदि इसे मान लिया जाए तो ब्राह्मण द्वारा दासियों द्वारा उत्पन्न संतान को भी ब्राह्मण का ही दर्जा मिलना चाहिए। लेकिन आप इसे स्वीकार नहीं करेंगे।

  • किं च। यदि ब्राह्मणपुत्रो ब्राह्मणस्तर्हि ब्राह्मणाभावः प्राप्नोति। इदानीन्तानेषु ब्राह्मणेषु पितरि सन्देहाद्। गोत्रब्राह्मणमारभ्य ब्राह्मणीनां शूद्राभिगमनदर्शनाद्। अतो जातिर्ब्राह्मणो न भवति। मानवधर्मप्रामाण्यादपि। उक्तं हि मानवे धर्मेः।

10. क्या आप यह कहें कि ब्राह्मण की औरस संतान ही ब्राह्मण होती है। यदि आप उसी को शुद्ध और सच्चा ब्राह्मण मानते हैं तो मुझे उससे भी आपत्ति है। क्योंकि आज के युग के ब्राह्मण, ब्राह्मणों से ही उत्पन्न हैं, यह बात ही संदेहास्पद है। माना जाता है कि आरंभ से ही, यहां तक कि जब से ब्राह्मणत्व की संकल्पना जन्मी, ब्राह्मण गोत्र की स्त्रियों का संबंध शूद्रों से था; और आज भी है। यदि वास्तविक पिता ही शूद्र है तो उनकी संतान ब्राह्मण हो ही नहीं सकती। इसका मां के ब्राह्मण होने से कोई संबंध नहीं है। इसके आधार पर मैं कहना चाहता हूं कि ब्राह्मणत्व को सिर्फ जन्म के आधार पर सिद्ध नहीं किया जा सकता। मनुस्मृति से भी यही प्रमाणित होता है। उसमें कहा गया है—

सद्यः पतति मांसेन लाक्षया लवणेन च

त्याहाच्छूद्रश्च भवति ब्राह्मणः क्षीरविक्रयी।11।

आकाशगामिनो विप्राः पतन्ति मांसभक्षणात्

विप्राणां पतनं दृष्टा ततो मांसानि वर्जयेत्।12।

मनुस्मृति इस बात का प्रमाण है कि जो ब्राह्मण मांस भक्षण करता है, वह अपना ब्राह्मणत्व गंवा देता है। यही नहीं सोम, नमक या दूध का व्यापार करने वाला ब्राह्मण भी तीन दिनों के भीतर शूद्र हो जाता है। जो ब्राह्मण चमत्कारी शक्ति से आकाश-गमन करते हैं, यदि वे मांस भक्षण करें तो जमीन पर आ गिर पड़ते हैं। ऐसे पराभव की संभावना को टालने के लिए ब्राह्मणों के लिए मांस सेवन को वर्जित किया गया है।11-12।

XI. अतो मानवधर्मप्रामाण्याज्जातिस्तावद् ब्राह्मणो न भवति। यदि हि जातिर्ब्राह्मणः स्यात् तदा पतने शूद्रभावो नोपद्यते। किं खलु द्रुष्टोऽप्यश्वः सूकरो भवेत्। तस्माज्जातिरपि ब्राह्मणो न भवति।

11. स्पष्ट है कि मनु धर्म के प्रमाणनुसार ब्राह्मणत्व वह नहीं है जो  जन्म से प्राप्त होता है। यदि किसी को जन्म से ब्राह्मण दर्जा प्राप्त है तो कर्म के आधार पर उसे शूद्र माना ही नहीं जा सकता। क्या कभी किसी घोड़े को किसी दोष के कारण सूअर बनते देखा है! इससे स्पष्ट है कि जन्म से कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होता।

XII.  शरीरमपि ब्राह्मणो न भवति। कस्माद्। यदि शरीरं ब्राह्मणः स्यात् तर्हि पावकोऽपि ब्रह्महा स्याद्। ब्रह्महत्या च बंधूनां शरीरं दहनाद्भवेद्। ब्राह्मणशरीरनिस्यन्दजातश्च क्षत्रियवैश्यशूद्रा अपि ब्राह्मणा स्युः। न चैतदद्ष्टं। ब्राह्मणशरीविनाशाच्च यजनयाजनाध्ययनाध्यापनदान -प्रतिग्रहादीनां ब्राह्मण-शरीरजनितानां फलस्य विनाशः स्यात्। न चैतदिष्टम्। अतो मन्यामहे शरीरमपि ब्राह्मणो न भवति।

12. क्या आप कहते हैं कि यह शरीर ब्राह्मण है? तब भी आप गलत हैं। इसलिए कि यदि यह शरीर ही ब्राह्मण है तो मृत्योपरांत ब्राह्मण के शरीर को अग्नि के सुपुर्द करने वालों को ब्रह्म-हत्या का पापी समझा जाना चाहिए। यह दोष मृतक ब्राह्मण के सभी मित्रों-संबंधियों को जो अंतिम संस्कार के समय उपस्थित थे, लगना चाहिए।

फिर यदि शरीर ही ब्राह्मण है तो क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जो ब्राह्मण के शरीर से अथवा जो ब्राह्मण द्वारा क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि स्त्रियों के साथ संसर्ग द्वारा उत्पन्न हैं, उन्हें भी ब्राह्मण का दर्जा प्राप्त होना चाहिए। किंतु ऐसा नहीं होता।

पुनश्चः यदि शरीर ही ब्राह्मण है तो यज्ञादि कर्मकांडों में भाग लेना या दूसरों को उसके लिए प्रेरित करना, अध्ययन-अध्यापन, दान देना, दान लेना आदि ये सभी कृत्य शरीर द्वारा ही निष्पादित किए जाते हैं. जो उनको जो लोग मानते हैं, उनसे पूछना चाहिए कि क्या ब्राह्मण के शरीर के नष्ट हो जाने से इन सब कृत्यों के गुण-धर्म भी नष्ट हो जाते हैं? निश्चित रूप से ऐसा नहीं होता। सो स्पष्ट है कि यह शरीर ब्राह्मण नहीं है।

XIII.    ज्ञानमपि ब्राह्मणो न भवति। कुतः। ज्ञानबाहुल्याद्। ये ये ज्ञानवन्तः शूद्रास्ते सर्व एव ब्राह्मणाः स्युः। दृश्यन्ते च क्वचित शूद्रा अपि वेदव्याकरणमीमांसासांख्य-वैशेषिकलग्ना जीवकादिसर्वशास्त्रार्थ विदः। न चे ते ब्राह्मणाः स्युः। अतो मन्यामहे ज्ञानमपि ब्राह्मणो न भवति।

13. तो क्या आप मानते हैं कि ज्ञान व्यक्ति को ब्राह्मण बनाता है? यह भी गलत है। क्यों? इसलिए कि यदि यह सच होता तो अनेक शूद्र जिन्होंने अपने ज्ञान के बल पर बहुत-सा ज्ञान अर्जित किया है, जिन्हें प्रकांड पांडित्य हासिल है, उन्हें भी ब्राह्मण बन जाना चाहिए था। ऐसे अनेक शूद्रों को देखा गया है जो सभी वेद-वेदांगों, विद्याओं, धर्मशास्त्रों तथा उनकी शाखा-प्रशाखाओं, व्याकरण-मीमांसा-सांख्य-वैशेषिक-जैन धर्म, आजीवक दर्शन सहित ज्योतिष, तत्वज्ञान आदि समस्त विद्याओं में निष्णात हैं। लेकिन उनमें से कितनों को ब्राह्मणत्व हासिल हो पाया है?

इससे स्पष्ट है कि ज्ञान, अध्ययन-अध्यापन आदि भी ब्राह्मणत्व का लक्षण नहीं है। सिर्फ ज्ञानी होने से किसी को ब्राह्मणत्व से युक्त नहीं माना जा सकता।

XIV. आचारोऽपि ब्राह्मणो न भवति। कुतः यद्याचारो  ब्राह्मणः स्यात् तदा ये य आचारवन्तः शूद्रास्ते सर्वे ब्राह्मणाः स्युः। दृश्यन्ते च नटभटकैवर्तभण्डप्रभृतयः प्रचण्डतरविविधारवन्तो, न चे ते ब्राह्मणा भवन्ति। तस्मादाचारोऽपि ब्राह्मणो न भवति।

14.  आचार से भी मनुष्य को ब्राह्मण का दर्जा हासिल नहीं होता। यदि ऐसा होता तो जितने भी आचारवान शूद्र हैं, वे सब के सब कभी के ब्राह्मण बन गए होते। यह देखा भी जाता है कि अनेक नट, भाट, भांड, कैवर्त और अन्य लोग तरह-तरह के सदाचरण का बहुत गंभीरता से पालन करते हैं। उनका आचरण निर्मैल्य होता है। फिर भी वे ब्राह्मण नहीं बन जाते।

तदनुसार यह सिद्ध है कि आचार के आधार पर भी किसी मनुष्य को ब्राह्मण घोषित नहीं किया जा सकता।

XV. कर्मापि ब्राह्मणो न भवति। कुतः। दृश्यन्ते हि क्षत्रियवैश्य शूद्रा यजन-याजनाध्ययनाध्यापनदानप्रतिग्रह प्रसंग विविधानि कर्माणि कुर्वन्तो न च ते ब्राह्मणा भवतां सम्मताः। तस्मात्कर्मापि कर्माणि ब्राह्मणो न भवति।

15. व्यक्ति अपने कर्मों से भी ब्राह्मण नहीं बनता। न ही व्यक्ति की जीवनवृति उसे ब्राह्मण बनाती है। कैसे? अकसर देखा गया है कि क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि भी अध्ययन-अध्यापन, यज्ञादि कर्मकांड, दान-प्रतिग्रह, जिन्हें ब्राह्मणत्व का लक्षण माना गया है—करते पाए जाते हैं। उन सब कर्मों को करने के बाद भी कोई व्यक्ति ब्राह्मण न नहीं बन पाता है।

इससे सिद्ध है कि व्यक्ति की वृति उसे ब्राह्मण नहीं बनाती।

XVI.  वेदेनापि ब्राह्मणो न भवति। कस्माद्। रावणो नाम राक्षसोऽभूत्। तेनाधीताश्चत्वारो वेदाः। ऋग्वेदो, यजुर्वेद, सामवेदोऽथर्ववेदश्चेति। राक्षसानामपि गृहे-गृहे वेद-व्यवहारः प्रवर्तत एव। न चे ते ब्राह्मणः स्युः। अतो मान्यामहे वेदेनापि ब्राह्मणो न भवतीति।

16. तो क्या वेदाध्ययन के माध्य्यम  व्यक्ति ब्राह्मण बन पाता है? नहीं। वेदाध्ययन से भी व्यक्ति ब्राह्मण नहीं बन पाता। ऐसा क्यों होता है? रावण नामक राक्षस चारों वेदों यथा ऋक्, यजु, साम और अथर्ववेद का ज्ञाता था। राक्षसों के यहां हर घर में वेदानुरूप आचरण किया जाता था। तथापि वे ब्राह्मण नहीं होते थे।

स्पष्ट है कि वेदों में प्रवीणता ही किसी व्यक्ति के ब्राह्मण होने का प्रमाण नहीं है।

XVII.   कथं तर्हि ब्राह्मणत्वं भवति। उच्यते:

ब्राह्मणत्व न शास्त्रेण न संस्काररैर्न जातिभि:

न कुलेन, न वेदेन न कर्मणा भवेत्तत:।13।

17. तब ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर पाना कैसे संभव है? खासकर तब जब यह कहा गया कि न तो शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन से, न आचारों के पालन से, न ही ब्राह्मणों के लिए निर्धारित आजीविका को अपनाकर ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया जा सकता है।

फिर ब्राह्मणत्व का आधार क्या है। कोई व्यक्ति कैसे ब्राह्मण बन सकता है?

XVIII. कुन्देन्दुधवलं हि ब्राह्मणत्वं नाम सर्वपापस्यापा करणमिति।

18. सभी प्रकार के प्रापों, दुष्कर्मों से विरत हो जाना ही ब्राह्मणत्व का लक्षण है, यह श्वेतकुंद पुष्प और धवल चंद्रमा जैसा निर्मेल्य हो जाना है।

XIX. उक्तं हि। ब्रततपोनियमोपवास दानदमशमसंयमो पचाराच्च। तथा चोक्तं वेदेः।

19. यह भी कहा गया है कि आचरण और शील के परिपालन द्वारा, तप, व्रत, दानादि कर्मो तथा आंतरिक और ब्राह्यः पर नियंत्रण हो जाने से ब्राह्मणत्व की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है।

निर्ममो निरहंकारो निःसंगो निष्परिग्रहः

रागद्वेष विनिर्मुक्तस्तं देवा ब्राह्मण विदुः।14।

वह जो मोह-ममत्व से परे है, जिसने अहंकार को जीत लिया और जो निरासक्त तथा असंग्रही है। साथ ही जो व्यक्ति राग-द्वेष से रहित है, तथा विलासिता और घृणा से मुक्ति पा चुका है—देवताओं ने ऐसे व्यक्ति को ही ब्राह्मण का दर्जा दिया है।

सर्वशास्त्रेऽप्युक्तम् :

सत्य ब्रह्म तपो ब्रह्म ब्रह्म चेन्द्रियःनिग्रहः

सर्वभूते दया ब्रह्म एतद् ब्राह्मणलक्षणम्।15।

सत्यं नास्ति तपो नास्ति नास्ति चेन्द्रियनिग्रहः

सर्वभूते दया नास्ति एतच्चाण्डाललक्षणम्।16।

देवमानुष नारीणां तिर्यग्योनिगतेष्वपि

मैथुन नाधिगच्छन्ति ते विप्रास्ते च ब्राह्मणाः।इति।।17।

शुक्रेणाप्युक्तं

न जातिदृश्यते तावद् गुणाः कल्याणकारकाः

चाण्डालोऽपि हि तत्रस्थतं देवा ब्राह्मणं विदुः।18।

वेद-वेदांगों और शास्त्रों का कथन है कि

सत्य ही ब्राह्मणत्व है, तप ब्राह्मणत्व है, इंद्रियों पर नियंत्रण कर लेना भी ब्राह्मणत्व का लक्षण है। प्राणिमात्र के प्रति करुणा का भाव ब्राह्मणत्व है। ये सब ब्राह्मणत्व के लक्षण हैं।15।

दूसरी ओर,

मिथ्याभाषी और तपरहित हो जाना, इंद्रियों पर अधिकार न होना, प्राणिमात्र के प्रतिकरुणा का अभाव होना—ये सब चांडाल के लक्षण हैं।16।

देव, मनुष्य, स्त्रियों, पशु आदि में जो भी मनुष्य मैथुन कर्म से विरक्त  और शीलवान हैं, उन्हीं को ब्राह्मण बताया गया है।17।

शुक्राचार्य ने कहा था—

ईश्वर जाति नहीं देखता, किस कुल में जन्म लिया है यह भी नहीं देखता। बजाय इसके सुंदर, कल्याणोन्मुखी आचरण ही मनुष्यों के गुणों का आधार है। ये गुण यदि किसी चांडाल में भी मौजूद हैं तो देवता उसे भी ब्राह्मण ही मानते हैं।18।

XX. तस्मान्न जातिर्न जीवो न शरीरं न ज्ञानं नाचारो न कर्म न वेदो ब्राह्मण इति।

20. इससे निष्कर्ष निकलता है कि जन्म, आत्मा, शरीर,  ज्ञान, आचरण, कर्म और वेद-वेदांग मनुष्य को ब्राह्मण नहीं बनाते। इनमें से एक भी मनुष्य को ब्राह्मणत्व का दर्जा देने में सक्षम नहीं है।

XXI. अन्यच्च भवतोक्तम्। इह शूद्राणां प्रवज्या न विधीयते। ब्राह्मणशुश्रूषैव तेषां धर्मों विधीयते। चतुर्षु वर्णेष्वन्ते वचनात्तेनीचा इति।

21. अन्यत्र ऐसा भी कहा गया कि शूद्र मुक्ति के अधिकारी नहीं हैं। उन्हें प्रवज्या नहीं दी जा सकती। ब्राह्मणों की सेवा करना ही शूद्रों का एकल कर्तव्य बताया गया है। चारों वर्णों में जिस प्रकार शूद्र का नाम सबसे नीचे आया है, समाज में भी वे सबसे निचले स्तर पर आते हैं।

XXII. यद्येवमिन्द्रोऽपि नीचः स्यात्। ‘श्वयुवमघोनामतद्धिते’ इति सूत्रवचनात्। श्वा इति कुक्कुरः। युवा इति पुरुषः। मघवा इति सुरेंन्द्रः। तयोःश्वपुरुषयोरिन्द्र एव नीचः स्यात्। न चैतद् दृष्टं। किं हि वचनमात्रेण दोषो भवति। तथा च। उमामहेश्वरौ दन्तौष्ठमित्यपि लोके प्रयुज्जते। न च दन्ताः प्रागुत्पन्नाः उमा वा। केवलं वर्षसमासमात्रं क्रियते। ब्रह्मक्षत्र विट्शूद्रा इति। तस्माद्या भवदीय प्रतिज्ञा ब्राह्मणशूद्रश्रुषैव तेषां धर्मो, (सा) न भवति।

22. उक्त आधार पर यदि शूद्र सबसे नीचे हैं तो देवराज इंद्र भी नीच हैं। पाणिनी नें ‘श्वयुवमघोनामतद्धिते’ सूत्र का उल्लेख किया है, जिसमें श्वान का अर्थ है कुत्ता, युवा यानी पुरुष और मघवा या मेघ का अभिप्रायः इंद्र से है। यदि उक्त कसौटी को मान लिया जाए तो श्वान यानी कुत्ता जो इस सूत्र में सबसे पहले स्थान पर आया है, उसे इंद्र और पुरुष दोनों से श्रेष्ठतर होना चाहिए। अंत में स्थित होने के कारण इंद्र को सबसे नीच। लेकिन ऐसा तो नजर नहीं आता। क्या किसी को इसलिए नीच या कमतर  मान लेना उचित होगा कि उसका उल्लेख श्रेणीक्रम में सबसे बाद में आया है। प्रत्येक भाषा में संयुक्त और मिश्रित शब्द आते हैं। दंतोष्ट समास में दांत होठों से श्रेष्ठतर हैं। ‘उमा-महेश’ जैसे सामासिक शब्द का यह अभिप्रायः होगा कि पार्वती शिव से श्रेष्ठ है? ‘ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र’ तो शब्दक्रम मात्र है। इसके आधार पर किसी शूद्र को चाहे वह कितना ही सज्जन क्यों न हो, ब्राह्मण की तुलना में नीच और दुर्जन मान लेना क्या मूर्खता की हद नहीं है।

इसलिए यह दावा कि ‘ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र’ में शूद्र सबसे अंत में आया है, इसलिए उसका कर्तव्य ब्राह्मणों की सेवा करना हैं—उचित नहीं है।

XXIII. किं चानिश्तिऽयं ब्राह्मणप्रसंग। उक्तं हि मानवे धर्मः।

वृषलीफेनपीतस्य निःश्वासोपहतस्य च

तत्रैव च प्रसूतस्य निष्कृतिर्नोपलभ्यते।19।

शूद्रीहस्तेन यो भुंक्ते मासमेकं निरन्तरम्

जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वानश्च जायते।20।

शूद्रीपरिवृतो विप्रः शूद्री च गृहमेधिनी

वर्जितः पितृदेवेन रीरवं सोऽधिगच्छति।21।

23. गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो मनु के धर्मशास्त्र की कसौटी पर ब्राह्मणत्व टिकता ही नहीं है।

मनुस्मृति में लिखा है कि ब्राह्मण जो शूद्र स्त्री के साथ शयन करता है, उसे चूमता-आलिंगन करता है, उससे संतान उत्पन्न करता है—वह पतित हो जाता है। जिसका प्रायश्चित संभव ही नहीं है।19। और

वह जो शूद्र स्त्री के हाथों से बनाया गया भोजन  लगातार एक महीने तक खाता है, वह जीते-जी शूद्र हो जाता है। मृत्योपरांत उसे कुत्ते की योनि में जन्म मिलता है।20।

यही नहीं, कोई ब्राह्मण जो शूद्राओं से घिरा रहता है, जो शूद्र स्त्रियों का सान्निध्य ग्रहण करता है, शूद्रा के साथ विवाह करके उसे पत्नी या उपपत्नी(रखैल) के रूप में स्वीकार कर लेता है—वह पितरों और देवों की सेवा-भोग का अधिकार खो देता है। पितर और देवता उसके भोग को अस्वीकार कर देते हैं। ऐसा ब्राह्मण मृत्यु के बाद रौरव नर्क में जाकर कष्ट भोगता है।21।

XXIV.  अतोऽस्य वचनस्य प्रामाण्यादनियतोऽयं ब्राह्मण प्रसंगः।

24. मनुस्मृति से दिए गए इन सब प्रमाणों द्वारा स्पष्ट है कि किसी भी व्यक्ति या समूह को ब्राह्मणत्व से मंडित कर देना अथवा उन्हें ब्राह्मण का दर्जा दे देना उचित नहीं हैं।

XXV.   कि चान्यत्। शूद्रोऽपि ब्राह्मणों भवति। को हेतुः। इह हि मानवे धर्मेऽभिहितं:।

25. एक बात और भी। मनुस्मृति में कहा गया है कि धर्माचरण करते हुए कई शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो चुके हैं।

अरणी गर्भसम्भूतः कठो नाम महामुनिः

तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम्।22।

कैवर्तीगर्भसम्भूतो व्यासो नाम महामुनिः

तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम।23।

उर्वशीगर्भ सम्भूतो वसिष्ठोऽपि महामुनिः

तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम।24।

हरिणीगर्भ सम्भूत ऋष्यश्रृंगी महामुनिः

तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम।25।

चाण्डाली गर्भसम्भूतो विश्वामित्रो महामुनिः

तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम।26।

ताण्डूली गर्भसम्भूतो नारदो हि महामुनिः

तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम।27।

उदाहरण के लिए दो लकड़ियों की रगड़ से उत्पन्न काष्ठाग्नि से जन्मे कठ, अपने तप से ब्राह्मण बने और महान ऋषि कहलाए—इसलिए जन्म ब्राह्मणत्व का कारण नहीं है। मछुआरे की बेटी के गर्भ से पैदा हुए व्यास भी अपने तप और स्वाध्याय के बल पर मुनि कहलाए। इसलिए जन्म ब्राह्मणत्व का कारण नहीं है। उर्वशी नामक अप्सरा के गर्भ से जन्मे वशिष्ठ अपने तप के बल पर ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। अतएव जन्म ब्राह्मणत्व का आधार नहीं है। हरिणी के गर्भ से जन्मे ऋंगी ऋषि अपने तप के बल पर ही महान ऋषि बने, वहां भी जाति बाधक नहीं हुई। इसलिए जन्म ब्राह्मणत्व का कारण नहीं। चांडाल स्त्री के गर्भ से उत्पन्न विश्वामित्र एक महान ऋषि की गरिमा को प्राप्त हुए। केवल अपने तप के बल पर। इसलिए जन्म ब्राह्मणत्व का आधार नहीं। चावल की मदिरा बेचने वाली स्त्री के गर्भ से उत्पन्न नारद अपने तप के बल पर ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। महान ऋषि कहलाए। इससे भी सिद्ध है कि जन्म ब्राह्मणत्व का आधार नहीं होता।22-27।

जितात्मा निष्प्रतिद्वन्द्वः पञ्च जित्वा यतेन्द्रियः।

तपसा ब्राह्मणो  जातो ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः।28।

न च ते ब्राह्मणीपुत्रास्ते च लोकस्य ब्राह्मणाः

शीलशौचमयं ब्रह्म तस्मात्कुलम कारणम्।29।

शीलं प्रधानं न कुलं प्रधानं कुलेन किं शीलविवर्जितेन

बहवो नरा नीचकुल प्रसूताः स्वर्ग गताः शीलमुपेत्य धीराः।30।

क्या अब भी नहीं समझ पाए कि जन्म ब्राह्मणत्व का आधार नहीं है? लोकप्रसिद्ध है कि जिसने भी खुद को जीत लिया वह यति और जितेंद्रिय कहलाया। जिसने तपस्या की वह तापस की गरिमा को प्राप्त हुआ। ब्राह्मण की औरस संतान होने से कोई ब्राह्मण नहीं बनता। जिसने ब्रह्मचर्य का पालन किया, वह ब्राह्मण बना। इससे साफ है कि जिसका जीवन शुद्ध और पवित्र है, जो सहनशील और सदा खुश दिखने वाला है वही सच्चा  ब्राह्मण है। इसके लिए जाति-कुल का कोई भी संबंध नहीं है। सिर्फ मनुष्य का सदाचरण और नैतिकता ही देखी जाती है। जो मनुष्य नैतिक स्तर पर पतित है, जाति या वंश का गौरव उसे क्या दे सकता है! दूसरी ओर शील-सदाचार से युक्त नीतिवान मनुष्य नीच कुल से उत्पन्न होने के बावजूद ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर स्वर्ग पहुंचे हैं। साफ है कि व्यक्ति का जन्म उसके ब्राह्मण होने का प्रमाण नहीं है।

XXVI. के पुनस्ते कठव्यासवसिष्ठ ऋष्यश्रृंगविश्वामित्र प्रभृतयो ब्रह्मर्षयो नीचकुल प्रसूतास्ते च लोकस्य  ब्राह्मणाः। तस्मादस्य वचनस्य प्रामाण्याद् प्यनियतोऽयं  ब्राह्मणप्रसंग इति, शूद्रकुलोऽपि  ब्राह्मणो भवति।

26. कठ, व्यास, वशिष्ठ, विश्वामित्र और ऋंगी  जैसे ऋषि यद्यपि शूद्रकुल में जन्मे थे। तथापि विश्व में उनकी ख्याति ब्राह्मण के रूप में ही है।  इन प्रमाणों के आधार पर सिर्फ ब्राह्मणकुलोत्पन्न व्यक्ति को ब्राह्मण मान लेना प्रमाणित नहीं है। शूद्र कुल या शूद्र माता-पिता की संतान होकर भी मनुष्य ब्राह्मणत्व को प्राप्त करता आया है।

XXVII. किं चाप्यन्द् भवदीय मतंः

मुखतो ब्राह्मणो जातो ब्राहुभ्यां क्षत्रियस्तस्था

ऊरुभ्यां वैश्यः संजातः पदुभ्यां शूद्रक एव च।31।

  • अतएव आपका यह मत कि ब्राह्मण का जन्म परमपुरुष ब्रह्मा के मुंह से हुआ, क्षत्रिय का भुजाओं, वैश्य का उदर से और शूद्र का पैरों से हुआ है—कहीं प्रमाणित नहीं होता।31।

XXVIII. अत्रोच्यते। ब्राह्मणा बहवो, न ज्ञायन्ते कुतो मुखतो जाता ब्राह्मणा इति। इह हि कैवर्तरजकचण्डालकुलेष्वपि ब्राह्मणाः सन्ति। तेषामपि चूडाकरणमुंञ्जदण्डकाष्ठादिभि संस्काराः क्रियन्ते। तेषामपि ब्राह्मणासंज्ञा क्रियते। तस्माद् ब्राह्मणघत्क्षत्रिया दयोऽपि। इति पश्याम एकवर्णो, नास्ति चातुर्वर्ण्यमिति।

28. हम देखते हैं कि ब्राह्मणों में अनेक भेद हैं। उनमें जो ब्राह्मण ब्रह्मा से मुख से जन्मे हैं, वे कहां है—यह पता ही नहीं चलता। यहां तक कि केवट, रजक, चंडाल कुलोत्पन्न ब्राह्मण भी यहां हैं। ब्राह्मणोचित पुण्यानुष्ठान यथा मूंज से आहूति देना, यज्ञोपवीत धारण कराना, इनके लिए भी संपन्न किए जाते हैं। उन सभी को ब्राह्मण का दर्जा प्राप्त है। यह क्षत्रिय तथा वैश्य के बारे में भी उतना ही सत्य है।

इससे प्रमाणित होता है कि मनुष्यों के चार वर्ण(जातियां) न होकर सिर्फ एक ही जाति है।

XXIX. अपि च। एकपुरुषोत्पन्नानां कथं चातुर्वर्ण्यम्। इह कश्चिद्देवदत्त एकस्यां स्त्रियां चतुरः पुत्राञ्जनयति। न च र्तेषां वणभेदोऽस्ति। अयं ब्राह्मणोऽयं क्षत्रियोऽयं, वैश्योऽयं शूद्र इति। कस्मात एकपितृकत्वाद्। एवं ब्राह्मणदीनां कथं चातुर्वर्ण्यम्।

29. पुनश्च! एक ही व्यक्ति(यथा ब्राह्मण) द्वारा उत्पन्न संतान की चार जातियां भला कैसे संभव हैं। एक व्यक्ति, मान लीजिए उसका नाम देवदत्त है की एक पत्नी से जन्मे चार पुत्र हैं। उन पुत्रों की अलग-अलग जातियां नहीं हो सकतीं। ऐसा नहीं है कि उन चारों में से आप एक को ब्राह्मण, दूसरे को क्षत्रिय, तीसरे को वैश्य और चौथे को शूद्र मान लें। क्यों? एक ही पिता की संतान होने के कारण क्या ऐसा विभाजन तर्कसंगत है। फिर एक ही कथित परमपुरुष(ब्राह्मण) से जन्मी संतानों की शारीरिक बनावट हाथ, पैर, नाक, कान आदि में कोई भेद न होने के कारण हम उनमें एक जैसी समानता पाते हैं। फिर उनमें ब्राह्मण, शूद्रादि वर्णभेद कैसे  संभव है।

XXX. इह हि गोहस्त्यश्वमृगसिंहव्याघ्रादीनां पदविशेषो दृष्टः। गोपदमिदं हस्तिपदमिदम्श्वपदमिदं सिंहपदमिदं व्याघ्रपदमिदमिति। न च ब्राह्मणादीनां ब्राह्मणपदमिदं क्षत्रियपदमिदं वैश्यपदमिदं शूद्रपदमिदमिति। अतः पदविशेषाभावादिपि पश्याम एक वर्गो, नास्ति चातुर्वर्ण्यमिति।

30. संसार में गाय, हाथी, मृग, घोड़े, सिंह, व्याघ्र आदि पशुओं के हाथ-पैर भिन्न-भिन्न होते हैं। इससे उनकी अलग जाति की पहचान सुनिश्चित हो जाती है। यथा गाय की बनावट अलग है, हाथी की अलग है, अश्व की इस प्रकार की है, हरिण की अमुक प्रकार की है, यह सिंह की हैं और वह अमुक पशु की प्रजाति की। इस भेद के आधार पर ही उनकी भिन्न पहचान संभव है। लेकिन ब्राह्मणादि चार वर्णों के बारे में यह बात सच नहीं है। वहां व्यक्ति के शरीर की बनावट से उसकी जाति का अनुमान लगा पाना असंभव है। न ही शरीर शारीरिक अंगों की बनावट के आधार पर मनुष्य को ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्रादि में बांटा जा सकता है।

इस तरह शरीर की बनावट के आधार पर, मानव शरीर के अवयवों नाक, कान, आंख आदि में अंतर न होने के कारण, हम मनुष्य में केवल एक ही जाति को पाते हैं, चार नहीं।

XXXI. इह गोमहिषाश्वकुञ्जरखरवानरछागैडकादीनां भगलिंगवर्णसंस्थानमलमूत्रगंधध्वनि विशेषो दृष्टः। न तु ब्राह्मणक्षत्रिया दीनाम् अतोऽप्यविशेषादेक एव वर्ण इति।

31. हम दुनिया में मौजूद गाय, भैंस, घोड़े, हाथी, गधा, बंदर, बकरी, भेड़ आदि की शारीरिक संरचना में भेद पाते हैं। शारीरिक अंगों के आधार पर उनकी प्रजाति सहित, नर और मादा की पहचान भी की जा सकती है। मल-मूत्र, आवाज का वैभिन्न्य को भी परखा जा सकता है। क्षत्रिय, ब्राह्मण, शूद्रादि के मामले में ऐसा भेद कहीं नहीं दिखा।  पशु-पक्षियों से अलग मनुष्य को एक ही चीज अलग करती है, वह है उसकी शारीरिक रचना, जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के आधार पर कोई अंतर नहीं दिखता। तदनुसार मनुष्य की केवल एक ही जाति है।

XXXII. अपि च। यथा हंसपारावतशुककोकिलशिखण्डि प्रभृतीनां रूपवर्णलोमतुण्डविशेषो दृष्ट, न तथा ब्राह्मणादीनाम्। अतोप्यविशेषादेक एव वर्ण इति।

32.  और जैसे कि हम हंस, मोर, तोता, कोकिल, कबूतर आदि की शारीरिक संरचना, उनकी चौंच, पंखों आदि में भेद पाते हैं, इस तरह का कोई भी भेद ब्राह्मणादि चारों वर्णों के मनुष्यों में खोज पाना असंभव है। इस तरह का कोई भेद न होने के कारण भी मनुष्य की सिर्फ एक ही जाति है, वह है मनुष्य।

XXXIII. यथा वटबकुलपलाशाशोकतमालनागकेशर शिरीषचम्पकप्रभृतीदनां वृक्षाणां विशेषो दृश्यते, यदुत दण्डततश्च, पत्रततश्च, पुष्पततश्च, फलततश्च त्वगस्थिबीजरसगन्धतश्च, न तथा ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्राणामंग, प्रत्यंगविशेषो न च त्वङ्प्रत्यङ्गविशेषो च त्वङमांसशोणितास्थिशुक्रमलवर्णसंस्थानविशेषणं नापि प्रसवविशेषो दृश्यते। ततोऽप्यविशेषादेक एव वर्णो भवति।

33. विभिन्न वृक्षों यथा वट, बकुल, पलाश, अशोक, तमाल, नागकेशर, शिरिस, चंपकादि वृक्ष, लता आदि के पत्तों, फलों, छिलकों, बीज, रस, गंध आदि में भेद होता है, वे सभी अलग-अलग प्रकार के हाते हैं—इस आधार पर उन सबको अलग-अलग प्रजाति का कहा जाना स्वाभाविक है। पर शूद्र, क्षत्रिय, वैश्यादि वर्णों के मनुष्यों में इस प्रकार का कोई भेद नहीं होता। फिर उन्हें अलग-अलग कहा जाना कैसे संभव है? ये चारों वर्णों के लोग अपनी आंतरिक और बाहरी शरीर रचना में एक ही प्रजाति के हैं। हड्डी, मांस, रक्त, शारीरिक अंग-उपांग, इंद्रियों तथा उनके उपयोग आदि लक्षणों के आधार पर उनमें कोई अंतर नहीं है। इसलिए उन्हें चार वर्णों में कैसे बांटा जा सकता है?

XXXIV. अपि भो ब्राह्मण सुखदुःखएवजीवितबुद्धि व्यापार-व्यवहारमरणोत्पत्ति भयमैथुनोषचार समत्तया नास्त्येव विशेषो ब्राह्मणादीनाम्।

34. पुनश्चः मुझे बताओ कि क्या ब्राह्मण की सुख-दुख, हर्ष-शोक आदि अनुभव करने की क्षमता क्षत्रिय-वैश्य शूद्रादि से भिन्न होती है। क्या ब्राह्मण भी बाकी लोगों के समान जीवन नहीं जीते। क्या दूसरों की तरह वे भी मृत्यु को प्राप्त नहीं होते? क्या वे बुद्धि कर्म, अथवा उनके परिणामों से मुक्त होते हैं, जन्म के समय, भय, मैथुन, आशा से क्या वे भी ऐसे ही प्रभावित नहीं होते जैसे बाकी वर्णों के लोग। यदि इन सब मामलों में ब्राह्मण तथा शेष वर्णों में कोई अंतर नहीं है, तो मानना पड़ेगा कि वे सभी एक हैं।

XXXV.  इदं चावगभ्यतां। यथैकवृक्षोत्पन्नानां फलानां नास्ति वर्णभेद उदुम्बरपणसफलवद्। उदुम्बरस्य हि पणसस्य च फलानि कानिचित् शाखातो भवन्ति, कानिचिद् दण्डतः, कानिचित्स्कन्धतः, कानिचिन्मूलतः। न च तेषां भेदोऽस्तीदं ब्राह्मणाफलमिदं क्षत्रियफलमिदं वैश्यफलमिदं शूद्रफलमिति। एकवृक्षोत्पन्नत्वाद्। एवं नराणामपि नास्ति भेदः। एकपुरुषोत्पन्नत्वाद्।

35. जिस प्रकार गूलर और कटहल के वृक्षों की टहनी, तना, जोड़, जड़ आदि में फल लगते हैं।  वे फल चाहे टहनी पर लगें, तने पर लगें, या फिर जड़ और जोड़ पर लगें—अपने रंग, आकृति, स्पर्श  आदि की दृष्टि से सब एक समान होते हैं। उन फलों को एक वृक्ष का उत्पाद माना जाता है। उन्हें अलग-अलग जातियों की पहचान नहीं दी जाती। गूलर के वृक्ष के सभी हिस्सों पर फल लगता है। तो क्या जो फल टहनी पर लगा है उसे ब्राह्मण, तने पर लगने वाले को क्षत्रिय या वैश्य और सबसे नीचे लगने वाले फल को शूद्र गूलर कहना चाहिए। जैसे एक वृक्ष पर लगे सभी फल समान होते हैं, वैसे ही सभी मनुष्य भी समान होते हैं। एक पिता के पुत्रों की भांति उनमें कोई अंतर नहीं होता। अतएव  ब्राह्मण-शूद्रादि का भेद करना वृथा है।

XXXVI. अन्यच्च दूषणं भवति। यदि मुखतो जातो भवति ब्राह्मणो ब्राह्मण्याः कुत उत्पत्तिः? मुखादेवेति चेद्, हन्त तर्हि भवतां भगिनीप्रसंगस्यात्। तथा गम्यागम्यं त सम्भाव्यते। तच्च लोकेऽत्यन्तविरुद्धम् तस्मादनियतं  ब्राह्मण्यम्।

36. आपके इस कथन में एक और दोष है। यदि  ब्राह्मण की उत्पत्ति परमपुरुष के मुख से हुई थी तो  ब्राह्मणी की कहां से हुई? निस्संदेह वह भी मुख से ही होगी। अरे! यदि यही सत्य है तो दोनों भाई-बहन हुए।। ऐसे में क्या आप उनके बीच देह संबंध की वैधता-अवैधता पर विचार नहीं करेंगे! उनका संबंध लोकाचार के सर्वथा विरुद्ध माना जाएगा। अतएव किसी भी व्यक्ति का ब्राह्मणत्व अनिश्चित और असंभावित है।

XXXVII. क्रिया-विशेषेण खलु चतुर्वर्णव्यवस्था क्रियते। तथा च युधिष्ठिराध्येषितेन वैशम्पायनेनाभिहितं क्रियाविशेषतश्चातुर्वर्ण्यमितिः।

37. वर्ण-व्यवस्था का विधान कर्म के अनुसार किया गया है। युधिष्ठिर ने जब वैशम्पायन से पूछा तो उन्होंने भी यही उत्तर दिया था—‘‘वर्ण-व्यवस्था की रचना समाज में श्रम के बंटवारे की खातिर की गई थी.’’

पाण्डोस्तु विश्रतुः पुत्र: स व नाम्ना युधिष्ठिरः

वैशम्पायनमागम्य प्राञ्जलिः परिपृच्छति।32।

के च ते ब्राह्मणाः प्रोक्ताः किं वा ब्राह्मणलक्षणम्

एतदिच्छामि भी ज्ञातुं तद्भवान व्याकरोतु मे।33।

लोकप्रसिद्ध पांडुपुत्र युधिष्ठिर वैशम्पायन के पास पहुंचे। हाथ जोड़कर उनकी प्रणति की। तदनंतर बोले।32।

ब्राह्मण किसे कहते हैं? किन लक्षणों से कोई व्यक्ति  ब्राह्मण बनता है। यह मैं जानना चाहता हूं। कृपया मेरी जिज्ञासा को शांत करें।।33।

वैशम्पायन उवाच :

क्षान्त्यादिभिर्गुणैर्युक्तस्त्यक्त दण्डो निरामिषः

न हन्ति सर्वभूतानि प्रथमं ब्रह्मलक्षणम्।34।

यदा  सर्वं परद्रव्यं पथि वा यदि वा गृहे

अदत्तं नैव गृह्णाति द्वितीयं ब्रह्मलक्षणम्।35।

त्यक्तवा क्रूरस्वभावं तु निर्ममो निष्परिग्रहः

मुक्तश्चरति यो नित्य तृतीयं ब्रह्मलक्षणम्।36।

देवमानुष नारीणां तिर्यग्योनिगतेष्वपि

मैंथुनं हि सदा त्यक्तं चतुर्थ ब्रह्मलक्षणम्।37।

सत्यं शौचं दया शौचं शौचमिन्द्रियनिग्रहः

सर्वभूत दया शौचं तपः शौचञ्च पञ्चमम्।38।

पञ्चचलक्षणमसम्पन्नः ईदृशो यो भवेद् द्विजः

तमहं ब्राह्मणं ब्रूयां शेषाः शूद्रा युधिष्ठिर।39।

न कुलेन न जात्या वा क्रियाभिर्ब्राह्मणो भवेत्

चाण्डालोऽपि हि वृत्तस्थो ब्राह्मणः स युधिष्ठिर।40।

युधिष्ठिर का प्रश्न सुनने के पश्चात वैशम्पायन बोले—

हे युधिष्ठिर! ऐसा मनुष्य जो क्षमा-शांति से युक्त शीलवान और गुणवान है, जिसने शस्त्र का परित्याग कर दिया है, जो मांस भक्षण छोड़ चुका है। जो किसी की भी हत्या नहीं करता—यह ब्राह्मणत्व का पहला लक्षण है।34।

चाहे वह घर में हो या मार्ग में पड़ी हो, जो दूसरे की वस्तु किसी भी अवस्था में बिना दिए ग्रहण नहीं करता, यह ब्राह्मण होने का दूसरा लक्षण है।35।

वह जो निस्स्वार्थ है, किसी भी प्रकार की क्रूरता से सर्वथा मुक्त और दयावान है, जो निष्परिग्रही होकर सभी प्रकार के प्रलोभनों से मुक्त होकर विचरण करता है, उसे ब्राह्मणत्व के तीसरे लक्षण से युक्त मानना चाहिए। 36।

वह जो देव-मनुष्य-नारी किसी भी योनि में होते हुए, मैथुन की इच्छा से सर्वथा मुक्त हो चुका है, यह  ब्राह्मण होने का चौथा लक्षण है।37।

ऐसा मनुष्य जो सत्य को पवित्र मानता है, करुणा को पवित्र मानता है, जिसके लिए इंद्रिय संयम पवित्रता है, जिसके लिए प्राणिमात्र के प्रति करुणाभाव होना ही पवित्रता है, वह  ब्राह्मणत्व के पांचवे लक्षण से युक्त है।38।

हे युधिष्ठिर जिस व्यक्ति में भी ये पांचों लक्षण हैं, मैं बस उसी को  ब्राह्मण मानता हूं। मेरी दृष्टि में अन्य सभी शूद्र हैं।39।

जन्म से, कुल से, यज्ञादि कर्मकांडों के निष्पादन से कोई व्यक्ति ब्राह्मण नहीं बनता। यदि किसी चांडाल में भी उपर्युक्त पांचों विशेषताएं/लक्षण हैं, हे युधिष्ठिर उसे ब्राह्मण ही समझना चाहिए।40।

किं च भूयो वैशम्पायनेनोक्तम

एकवर्णमिदं पूर्वं विश्वमासीद् युधिष्ठिर

कर्म-क्रियाविशेषेण चातुर्वर्ण्यं प्रतिष्ठितम्।41।

सर्वे वै योनिजा मर्त्याः सर्वे मूत्रपुरीषिणः

एकेन्द्रियेन्द्रियार्थाश्च तस्माच्छीलगुणैर्द्विजाः।42।

शूद्रोपि शीलसम्पन्नो गुणवान ब्राह्मणो भवेत्

ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः शूद्रात्प्रत्यवरो भवेत।43।

फिर वैशम्पायन ने इसकी व्याख्या करते हुए बताया—

‘हे युधिष्ठिर। प्राचीनकाल में समस्त संसार में मात्र एक ही वर्ण था। चार वर्णों की उत्पत्ति कर्मों और व्यवसायों की भिन्नता के कारण हुई है।41।

प्राणिमात्र की उत्पत्ति एक ही स्रोत से हुई है। सभी गर्भाशय से जन्मे हैं। सभी में मल-मूत्र जैसी गंदगियां हैं, सभी में समान इंद्रियां हैं उनका इंद्रिय-बोध भी एक जैसा होता है। ऐसे में कोई मनुष्य केवल श्रेष्ठ आचरण करके ही ब्राह्मणत्व प्राप्त कर सकता है।42।

यहां तक कि कोई शूद्र भी शील एवं सदाचार का अनुसरण करके  ब्राह्मण बन सकता है। यदि कोई  ब्राह्मण गुण-शील से हीन, स्वार्थी और परिग्रही है, जो क्रोधी, कामी और लालची है, वह शूद्र से भी गिरा हुआ है।43।

इदं च वैशम्पायन वाक्यम्

पञ्चेन्द्रियावर्णवं घोरं यदि शूद्रोऽपि तीर्णवान्

तस्मैं दानं प्रदातव्यमप्रमेयं युधिष्ठिर।44।

न जातिर्दृश्यते राजन गुणाः कल्याणकारकाः

जीवतं यस्यधर्मार्थे परार्थे यस्यजीवितम्

अहोरात्रं चरेत्क्षान्ति तं देवा ब्राह्मणं विदुः।45।

परित्यज्य गृहावासं ये स्थिता मोक्षकाङ् क्षिण:

कामेष्वसक्ताः कौन्तेय ब्राह्मणास्ते युधिष्ठिर।46।

अहिंसा निर्ममत्वं चा मतकृतस्य वर्जनम्

रागद्वेषनिवृत्तिश्च एतद् ब्राह्मणलक्षणम्।47।

क्षमा दया दमो दानं सत्यं शौचं स्मृतिर्घृणा

विद्याविज्ञानमास्तिक्यमेतद् ब्राह्मणलक्षणम्।48।

गायत्रीमात्र सारोऽपि वरं विप्रः सुयन्त्रितः

नायन्त्रितश्चतुर्वेदी सर्वाशी सर्वविक्रयी।49।

एकरात्रौषितस्यापि या गतिर्ब्रह्मचारिणः

न तत्क्रतुसहस्त्रेण प्राप्नुवन्ति युधिष्ठिरः।50।

पारगं सर्ववेदानां सर्वतीर्थाभिषेचनम्

मुक्तश्चरित यो धर्मं तमेव ब्राह्मणं विदुः।51।

यदा न कुरुते पापं सर्वभूतेषु दारुणम्

कायेन मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा।52।

अस्माभिरुक्तं यदिदं द्विजानां मोहं निहन्तुं हतबुद्धिकानाम्

गृह्रन्तु सन्तो यदिदं युक्तमेतन्मुञ्चन्त्वथायु क्तमिदं यदि स्यात्।53।

कृतिरियं सिद्धाचार्याश्वघोषणपादानामिति।शुभम्।

इससे आगे वैशम्पायन ने कहा है कि—

है युधिष्ठिर! यदि कोई शूद्र भी पांचों इंद्रियों के भीषण समुद्र को पार कर चुका है, अर्थात अपनी सभी इंद्रियों पर विजय हासिल कर चुका है तो उसे भी निस्सीम दानादि देकर सम्मानित करना चाहिए।44।

हे राजन्। मनुष्य की जाति नहीं देखी जाती। उसके गुण ही उसके श्रेष्ठत्व की पहचान हैं। सिर्फ वही महत्वपूर्ण हैं। ऐसा व्यक्ति जो परोपकारी जीवन जीता है, जो सदैव धैर्य-धृत्ति और क्षमा का अनुसरण करता है, ईश्वर की दृष्टि में वही श्रेष्ठ जन है।45।

हे कौन्तेय! जो सांसारिक आसक्ति से परे हो चुके हैं, जो सभी प्रकार के प्रलोभनों और तृष्णाओं से मुक्त होकर निर्वाण प्राप्ति की दिशा में अग्रसर हैं, वही ब्राह्मण कहलाने के अधिकारी हैं।46

पुनश्चः अहिंसा, स्वार्थरहित होना, शास्त्र-विरुद्ध कर्मों से सर्वथा विरत हो जाना, लालच, लोभ और घृणा से ऊपर उठ जाना ही ब्राह्मण की विशेषताएं हैं।47

सहिष्णुता, क्षमा, करुणा, इंद्रियनिग्रह, दान, सत्य, शुद्धता, पवित्रता को धारण करना, शास्त्र विरुद्ध आचरण न करना, ज्ञानवान होना—ये ब्राह्मण के लक्षण हैं।48।

यदि कोई व्यक्ति सिर्फ गायत्री मंत्र को ही आत्मसात् कर शील-संयम से युक्त जीवनयापन करता है, तो वह ब्राह्मण है। चारों वेदों का ज्ञाता होकर भी जो असंयमी, सर्वभक्षी, सर्वग्राही और प्रलोभनों में डूबा हुआ है—वह ब्राह्मण नहीं है।49।

कोई व्यक्ति ब्रह्मचारियों की गम्य अवस्था को इंद्रिय संयम द्वारा एक रात्रि के लिए भी प्राप्त कर लेता है तो उस अवस्था को यज्ञादि कर्म करते हुए, सहस्रों पशुओं की बलि देकर प्राप्त कर पाना भी संभव नहीं है।50।

ऐसा परमशील व्यक्ति जो सभी वेद-वेदांगों में प्रवीण है, जो अपने संभाषण द्वारा लोगों को पवित्र करने का सामर्थ्य रखता है, जो कर्मों से विरक्त न ही होता, लेकिन आसक्ति जिसे छू नहीं पाती, वही ब्राह्मण कहलाने योग्य है।51।

ऐसा परमशीलवान जो मन, वचन, कर्म से कभी भी हिंसा नहीं करता, वह ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर पाता है।52।

हतबुद्धि और भटके हुए ब्राह्मणों के भ्रम को दूर करने के लिए हमने यहां जो भी कहा है, यदि वह मान्य और तर्कसम्मत है—तो सच्चरित व्यक्ति को चाहिए कि उसे स्वीकार करे। अन्यथा जाने दे।

सिद्धाचार्य अश्वघोष द्वारा विरचित। इति शुभम्।

कबीर और तुलसी : कौन ज्यादा प्रासंगिक

विशेष रुप से प्रदर्शित

डॉ. रामचंद्र शुक्ल का पूर्वाग्रह ही है जो उन्होंने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में कबीर और तुलसी को एक ही समूह में रखा है। जबकि कबीर तुलसी, सूर, मीरा और रसखान जैसे व्यक्तिपरक भक्ति-भाव वाले कवि हरगिज नहीं हैं। उनकी अध्यात्म चेतना प्रखर है। वह सदैव नए सत्य की तलाश में रहती है। वे कहीं रहस्यवादी हैं, तो कहीं उच्छेदवादी। लोकहित की खातिर बड़ी से बड़ी सत्ता से टकरा जाने का साहस कबीर को अपने समय का विलक्षण कवि बनाता है। यही उन्हें अंतिम समय में काशी से मगहर प्रस्थान की हिम्मत देता है। शुक्लजी चाहते तो कबीर, तुलसी, पल्टूदास जैसे लोकवादी कवियों की अलग श्रेणी बना सकते थे। किंतु अव्वल तो लोकसत्ता को महत्व देना उनके संस्कार का हिस्सा नहीं है। दूसरे इससे उनके आदर्श कवि तुलसी की महिमा फीकी पड़ सकती थी। साहित्य का गुण मनोरंजन, संवेदनशीलता और सर्वकल्याण की भावना के अनुरूप पाठक के व्यक्तित्व का परिष्कार करना है। इसके अनुसार कबीर तुलसी की अपेक्षा बड़े सरोकारों वाले कवि हैं।  

अच्छी बात है कि अधिकांश विद्वान कबीर को तुलसी जैसा भक्त कवि न मानकर निर्गुण धारा का संत कवि मानते हैं। आखिर दोनों में अंतर क्या है? क्या इसी कसौटी पर दोनों के व्यक्तित्व की पड़ताल संभव है? भक्त हों या संत, दोनों ही अलौकिक शक्ति में भरोसा रखते हैं। दोनों मानते हैं कि सृष्टि का संचालन और नियंत्रण किसी परासत्ता के हाथों में हैं। संत कवि आमतौर पर उस शक्ति को निराकार मानते हैं, जबकि तुलसी सूर जैसे सगुण कवि साकार। अगर ऐसा है तो भी क्या फर्क पड़ता है? तुलसी ने तो उदारतापूर्वक कह भी दिया है, जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तिन तैसी। निर्गुण हो या सगुण, व्यक्ति का मन, जो पसंद को उसे पूजे! अपनाए!! साधना करे!!! पर क्या इतनी-सी ही बात है?

आगे बढ़ने से पहले उचित होगा कि ‘संत’ और ‘भक्त’ शब्दों के बारे में जान लिया जाए। दोनों ही शब्द संस्कृत साहित्य में आए हैं। प्रायः दोनों को समानधर्मा मान लिया जाता है। ‘भक्ति’ और ‘भजन’ दोनों शब्द ‘भज्’ धातु से बने हैं। इसका अर्थ है—‘सेवा करना’, ‘प्रेम के वशीभूत होकर अपने आराध्य के आगे समर्पित हो जाना’। उसके प्रति अटूट आस्था और विश्वास रखना। नारद भक्ति-सूत्र के अनुसार, ‘सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा’—‘भक्ति ईश्वर के प्रति प्रेमानुराग का प्रदर्शन करना’ है। श्रीमद्भागवद में नवधा भक्ति द्वारा उसके विभिन्न रूप या चरणों के बारे में बताया गया है, उसके अनुसार—

श्रवणं, कीर्तन, विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वंदनं, दास्यं, सख्यात्मानिवेदनम्।।

अर्थात श्रवण, कीर्तन, पूजा, नाम-स्मरण, पादसेवन, वंदन, अर्चन, दास्य-सख्य भाव से आत्मनिवेदन—इसी से भक्ति भाव सामने आ जाता है। भक्ति की पराकाष्ठा में भक्त अपने आराध्य को समर्पित हो जाता है। उसकी तलाश पूर्ण हो चुकी होती है। सिर्फ आराध्य को पाना शेष रह जाता है। भक्ति की पराकाष्टा में घर-परिवार, रिश्ते-नाते सब पीछे छूट जाते हैं। आस्था और विश्वास पर जोर दिया जाता है। तर्क अथवा संदेह के लिए उसमें कोई स्थान नहीं होता। इस तरह भक्ति ठेठ व्यक्तिपरक आयोजन है, जिसमें आत्मरति की भावना प्रधान होती है। जैसे-जैसे मनुष्य उसमें आगे बढ़ता है—सांसारिक रिश्ते-नाते, यहां तक कि लोक और लोककल्याण की भावना भी पीछे छूटती जाती है। जहां धर्म और उसके प्रति रूढ़ आस्था है, वहां भक्ति है। केवल हिंदू धर्म इसका अपवाद नहीं है। ईसाई धर्म में यीशु कहते हैं कि सभी को अपने पूरे दिल और दिमाग के साथ ईश्वर से प्यार करना चाहिए। यह सवाल करने पर पर कि हे स्वामी, धर्म में सबसे बड़ा विधान कौन-सा है? यीशु उत्तर देते हैं—‘अपने परमेश्वर यहोवा से, अपने सारे मन, प्राण और बुद्धि से प्रेम करना, यही सबसे बड़ी आज्ञा है।’(मत्ती 22/36/40)।

‘संत’ और ‘संतई’ में लोकोन्मुखता प्रधान होती है। ‘संत’ शब्द का प्रयोग सामान्यतः पवित्रात्मा, बुद्धिमान, परोपकारी, सज्जन और सदाचारी व्यक्ति के लिए किया जाता है। ऐसे व्यक्ति के लिए किया जाता है जो सांसारिक मोह-माया से परे, लोककल्याण में लीन रहता है। जो प्राणिमात्र का भला चाहता है। उसकी सारी साधना, तप परोपकार को ही समर्पित होते हैं। संत आत्ममुक्ति की साध तो रखता है, किंतु शेष दुनिया से संबंध तोड़कर नहीं। न ही उससे निर्लिप्त होकर रहता है। बल्कि संतई का स्तर के बढ़ने के साथ-साथ वह और अधिक उदार, और ज्यादा मानवीय तथा करुणामूलक होता जाता है। ‘संत’ का अंग्रेजी पर्याय, इसी से मिलता-जुलता शब्द Saint है, जिसका अर्थ है—पवित्र कर देना। संत के लिए आचरण पवित्र होता है। एक तरह से आदर्श की पराकाष्ठा पर स्थित माना जाता है, जिससे यह माना जाता कि उसमें वे  गुण और शक्तियां भी समा जाती हैं, जो ईश्वर में अभिकल्पित की जाती हैं। उसके पास आते ही मनुष्य का मन पवित्रताबोध से भर जाता है। पश्चिम में चमत्कार करने की शक्ति को संत का विशेष लक्षण माना गया है, तथापि यह आवश्यक नहीं है। कबीर के अनुसार जो निर्वैर और निष्कामी हो, विषय-वासनाओं से विरक्त रहता हो, वही संत है—‘निबैरी, निहकामता साईं सेती नेह। विशया सूं न्यारा रहे संतन का अंग सह।’

साफ है कि भक्ति में व्यक्तिपरक्ता है। प्रहलाद की भक्ति की प्रशंसा होती है। दृष्टांत के अनुसार रात-दिन की भक्ति के बाद वह अपने आराध्य को प्रसन्न करने में सफल होता है और ‘स्वर्ग में सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त कर लेता है।’ ऐसी भक्ति से दुनिया को क्या मिला, इसकी न तो भक्त को चिंता होती है, न ही उसके आराध्य को है। भक्त आमतौर पर संसार को मोह-माया मानकर उसे अपने लक्ष्य में बाधक मानता है, इसलिए वह इसे सुधारने पर कोई ध्यान नहीं देता। वह अपना सारा ध्यान कथित ‘परमपद’ को प्राप्त करने पर लगाए रहता है, ताकि बाद में उसे दुनिया में आना ही न पड़े। इस अंधी-दौड़ से उसे सचमुच कुछ हासिल होता है या नहीं, इस सवाल को छोड़ देते हैं। दूसरी ओर संत का पूरा ध्यान लोककल्याण पर निहित होता है। इसके लिए उपदेश से ज्यादा वह अपने आचरण से प्रेरणा जगाता है। वह परोपकार, दया, करुणा, समानता, बंधुता का प्रचार करता है, ताकि यह दुनिया बेहतर हो सके। संत कवि की कल्पना में उसके आराध्य, लोक यहां तक कि मुक्ति की कामना भी निहित हो सकती है। लेकिन भक्त-कवि की तरह उसकी यात्रा अकेली नहीं होती। बल्कि शेष समाज को साथ लेकर चलने की होती है।

अब सवाल है कि इनमें साहित्य किसके करीब है? या इनमें से कौन साहित्य को उसकी संपूर्ण मूल्यवत्ता के साथ अभिव्यक्ति दे सकता है? ‘भक्त’ और ‘संत’ के अंतर को समझ लेने के बाद इस प्रश्न का उत्तर दे पाना मुश्किल नहीं रह जाता। चूंकि भक्त कवि के लिए उसका आराध्य ही सब कुछ होता है, इसलिए वह जो लिखेगा उसकी प्रशंसा में ही लिखेगा। उसकी कविता बहुत कुछ चारणगीत की तरह होगी, जिसमें दोहराव और अतिश्योक्तियां स्वाभाविक है। जैसे चारण और भाट अपने आश्रयदाताओं की प्रशस्ति में लिखते-गाते थे, भक्त कवि अपने अलौकिक आराध्य की प्रशस्ति में लेखन करेगा। तुलसी का संपूर्ण साहित्य, रामचरितमानस से लेकर, कवितावली और विनयपत्रिका तक इसके अलावा क्या है? चूंकि इन कृतियों का संबंध धर्म-विशेष से है इसलिए हम इन्हें ज्यादा से ज्यादा  प्रचार-साहित्य कह सकते हैं।

तुलसी और मानस के प्रशंसक उनकी प्रशंसा में अकसर कहते हैं कि तुलसी ने रामचरित मानस में सामाजिक आदर्श को सामने रखा है। कुछ इससे भी आगे बढ़कर राम को आदर्श राजा दर्जा देकर रामराज्य का गुणगान करने लगते हैं। रामायण के आदर्श क्या हैं? पूछो तो तत्काल कह दिया जाता है कि रामायण हमारे सामने लक्ष्मण जैसे आज्ञाकारी भाई, भरत जैसे त्यागी, राम जैसे पुत्र, कौशल्या जैसी मां और सीता जैसी पत्नी का आदर्श सामने रखती है। थोड़ा आगे बढ़ें तो हनुमान जैसे भक्त और विभीषण जैसे मित्र इस सूची को और आगे बढ़ा देते हैं। यहां हम इन पात्रों के चरित्र का स्वतंत्र विश्लेषण न भी करें, तो भी यह मानना ही पड़ेगा कि जिन्हें रामचरितमानस में ‘आदर्श’ के रूप में दर्शाया गया है, असल में वे पारिवारिक या दरबारी आदर्श हैं। समाज में मनुष्य की क्या भूमिका होनी चाहिए? और समाज का अपनी इकाइयों के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए? यहां तक कि एक पड़ोसी का दूसरे पड़ोसी के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए—इस बारे में ‘मानस’ हमें कुछ नहीं बताता। वह ‘रामराज’ को आदर्श कहकर महिमामंडित करता है। मगर प्रजा के अधिकारों, उसकी इच्छा को लेकर उसमें कोई टिप्पणी नहीं है। रामराज्य को कल्याणकारी मान भी लिया जाए, तो भी इतना साफ है कि उसमें कल्याण(यदि वह कहीं है तो) तो ऊपर से थोपा हुआ प्रतीत होता है। प्रजा क्या चाहती है, राजा की इच्छा, महत्वाकांक्षा या जिद के आगे आगे उसका कोई मूल्य नहीं होता। एक शंबूक अपनी मर्जी से पढ़ना चाहता है तो राजा राम की तलवार उसकी गर्दन तराश देती है। तुलसी की वर्गदृष्टि, शूद्रों और स्त्रियों के प्रति उनके हेय विचारों पर तो चर्चा होती ही रहती है।  

समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे आधुनिक मूल्यों की बात तो जाने ही दीजिए। आस्था और भक्ति में इन मूल्यों को गैर-जरूरी और अप्रासंगिक मान लिया जाता है। निःशर्त समर्पण की शर्त के कारण, आत्मसम्मान और स्वाभिमान जैसे उदात्त मानवीय मूल्य भी भक्ति-मार्ग में बाधक मान लिए जाते हैं। कह सकते हैं कि भक्ति की पराकाष्ठा व्यक्ति को नितांत आत्मपरक बना देती है। इतना कि अपनी समूची प्रतिभा के बावजूद ‘भक्त’ अपने दैन्य और दास्यबोध से मुक्त नहीं हो पाता। इसे हम तुलसी की कविता में जगह-जगह रेखांकित कर सकते हैं। उनके जीवन का दैन्य(विडंबना) ही  उनकी कविता में समाया हुआ है। राम के प्रति अनन्य आस्था भी इसे कम नहीं कर पाती—

अगुण-अलायक-आलसी जानि अधम अनेरो

स्वारथ के साथिन्ह तज्यो तिजराको-सो टोटक, औचट उलटि न हेरो।। विनयपत्रिका, 272

(‘मुझे गुणहीन, नालायक, आलसी, नीच अथवा निकम्मा समझकर, स्वार्थी लोगों ने तिजारी के टोटके की तरह त्याग दिया है और भूलकर भी मेरी ओर नहीं देखा’); अथवा

तनु जन्यो कुटिल कीट ज्यों तज्यो मातु-पिताहूं।

काहे को रोष-दोष काहि धौं मेरे ही अभाग मोसां सकुचत छुई सब छाहूं। विनयपत्रिका, 275

(जैसे कुटिल कीड़ा(सांप) अपनी देह से उत्पन्न हुई केंचुली को छोड़ देता है; वैसे ही मेरे मातापिता ने मुझे जन्मते ही त्याग दिया था। मैं किस पर क्रोध करूं, और किसे दोष दूं? मेरे ही अभाग से सब मेरी छाया छूने से भी  सकुचाते हैं।’)

रामचरितमानस को पारिवारिक आदर्श(!) तक सीमित कर देना, कदाचित तुलसी की निजी कुंठा की ही देन था। उनके माता-पिता अत्यंत गरीब थे। भीख मांगकर गुजारा करते थे। ऊपर से, प्रतिकूल(!) नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उन्होंने तुलसी को बचपन में त्याग दिया था। सो उनका बचपन घोर विपन्नता के बीच, ही बीता था—

जायो कुल मंगन बधावो न बजायो सुनि, भयो परिताप पाप जननी-जनक को।

बारे तें ललात बिललात द्वार-द्वार दीन जानत हौं चारि फल चारि ही चनक को।(कवितावली, उत्तर कांड, 73)

(मैंने भिखमंगों के कुल में जन्म लिया। मेरा जन्म सुनकर बधावा नहीं बजाया गया, मेरे मातापिता को अपने पाप पा परिताप हुआ। मैं बचपन से ही भूख से व्याकुल होकर दरिद्रता के कारण अन्न के लिए द्वारद्वार बिललाता फिरता था।)

‘जाति के, सुजाति के, कुजाति के पेटागि-बस,

खाए टूक सबके विदित बात दुनी सो।कवितावली, 72  

(पेट की आग बुझाने के लिए मैंने जाति, सुजाति और कुजाति सबके टुकड़े खाए हैं। यह बात समूचा संसार जानता है।)

तुलसी के इस दैन्य का मुख्य कारण है श्रम से विलगाव। माता-पिता की ओर से मिला परजीविता का संस्कार, जिसे जाति-व्यवस्था में अपने अटूट विश्वास के चलते वे लांघ ही नहीं पाते। कवि होने के कारण बस इतना कर पाते हैं कि जो भौतिक जीवन में जो याचनाभाव लोक के प्रति है, कविता में वह आराध्य के प्रति मुखर होने लगता है। जिसे उन्हीं जैसा परजीवी समाज भक्ति का आदर्श बताने लगता है।

दूसरी ओर कबीर हैं। जन्म उनका भी अज्ञात कुल में हुआ था। माता-पिता हिंदू थे या मुसलमान, कभी इसे लेकर चिंता में नहीं पड़े।  पालन-पोषण एक श्रम-शील आजीवक परिवार में हुआ था। सो अपने ही श्रम के भरोसे जीना, मेहनत करके खाना, उन्हें संस्कार में मिला। एक मेहनतकश किसान, मजदूर या शिल्पकार की तरह कबीर का हृदय भी साफ है। आत्मविश्वास से भरा हुआ। वे करघा चलाते-चलाते कविता रचते थे। उनके चारों ओर अपना समाज था, जिसका वे भला चाहते थे। इसलिए उनकी कविता में न तो किसी प्रकार का दैन्य झलकता है न ही परिताप की भावना। भावना के वशीभूत होकर कभी-कभार खुद को राम की बहुरिया भी कह जाते हैं। लेकिन जब उनका स्वाभिमान हुंकारता है तो उसे भी आड़े हाथ लेने लगते हैं—

हम बहनोई राम मोर सारा, हमहिं बाप हरि पुत्र हमारा

कहै कबीर हरी के बूता, राम रमैतैं कुकरि के पूता—बीजक, 100

कबीर की कविता तुलसी की कविता जैसी  चारणगीत नहीं है। न ही वे भक्ति के नाम पर खुद को और समाज को पंगु बनाने का संदेश देते हैं। कबीर को खुद पर भरोसा है। इसलिए ईश्वर से कुछ अपेक्षा ही नहीं रखते। अपनी संतई में इतने निरपेक्ष हैं कि ईश्वर का नाम भी बिसर जाए तो खुशी मनाने लगाते हैं—भला हुआ हरि बिसरे मोरे सिर से टली बला।

सवाल यह है कि इतना कुछ होते हुए भी भक्ति को आदर्श क्यों मान लिया गया? कारण है—धर्मसत्ता और राजसत्ता का स्वार्थपूर्ण गठजोड़ और जातिप्रथा। स्वार्थ के कारण ये दोनों ही वर्ग नहीं चाहते थे कि निचले वर्ग के लोग सवाल करना सीखें। इसलिए भक्ति को महिमा-मंडित किया। इससे उन्हें तो लाभ हुआ, लेकिन उनके कहने पर भक्ति की राह पर चल पड़ा जनसमुदाय कब पत्थर की मूर्ति को अपना ईश्वर, ब्राह्मण को अपना देवता और नाम-पाठ को ही ज्ञान समझने लगा, यह वह समझ ही नहीं पाया। आस्था और विश्वास को ही सबकुछ मान लेने से वह जान ही नहीं पाया कि भक्ति का जन्म अज्ञानता और ज्ञान के टोटमीकरण की प्रक्रिया के दौरान हुआ है। नाम रटते-रटते भक्त नाम को ही सब-कुछ मानने लगता है, ठीक ऐसे ही जैसे मूर्ति को पूजते-पूजते व्यक्ति पत्थर को ही देवता मान बैठता है। खुद तुलसी इसी मानसिकता के शिकार नजर आते हैं—

राम नाम को कल्पतरु कलि कल्यान निवास

जो सुमिरत भयो भाग ते तुलसी तुलसीदास

कबीर नाम जप को सिवाय प्रदर्शन के कुछ नहीं मानते। ऐसे दिखावा करने वालों को वे आड़े हाथों लेते हैं—

राम कहे जो जगत गति पावै, खांड कहे मुख मीठा

पावक कहे पांव जो डाहै, जल कहे त्रिषा बुझाई

बिनु देखु बिनु अरस-परस बिनु नाम लिए का होई

धन के कहे धनिक जो होवै, निरधन रहै न कोई

कुल मिलाकर भक्ति के आवरण जहां तुलसी नाम रटने तक सीमित हो जाते हैं, वहीं, कबीर की संतई उन्हें ज्ञान के स्वागत को सदैव तत्पर रहती है—‘संतो भई आई ग्यांन की आंधी… ’

यह अनायास नहीं है कि बीती कुछ शताब्दियों में  ‘भगत’ और ‘भगतजी’ जैसे संबोधन दलित और पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। जबकि ब्राह्मण ने अपने लिए ‘पंडिज्जी’ संबोधन को सुरक्षित रखा हुआ है। कबीर इस षड़यंत्र का जगह-जगह पर्दाफाश करते हैं। उनकी कविता का यही गुण उसे युगप्रवर्त्तक और कालातीत बताता है, जबकि राम-राम रटते-रटते तुलसी(और उनके भक्त) कब जड़ हो जाते हैं, इसे वे स्वयं भी नहीं जान पाते।

ओमप्रकाश कश्यप

महुआ डाबर : एक  गुमशुदा गांव, जहां चिराग नहीं जलते

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आदमी कहीं चला जाए, कितना ही कमा ले, खुशियों की चाहे जितनी बरसात हो, यदि वह अपनी जड़ों से अनजान है तो चैन नहीं मिलता. कसक बनी ही रहती है. जड़ों की खोज का सिलसिला कभी-कभी ऐसी स्थिति में ला खड़ा करता है जो उम्मीद से एकदम परे हो. कभी-कभी तो चमत्कार की तरह महुआ डाबर जैसा पूरा गांव धरती की छाती पर उभरने लगता है.  

आजादी के इतिहास की इस महत्वपूर्ण मगर गुमशुदा कहानी की शुरुआत 1994 में 65 वर्षीय अब्दुल लतीफ अंसारी नामक व्यापारी से होती है. करीब डेढ़ सौ साल पहले उनके पूर्वजों को अपना जमा-जमाया धंधा छोड़कर पलायन करना पड़ा था. अहमदाबाद, पुणे जैसे नगरों-उपनगरों में भटकते हुए वे मुंबई पहुंचे थे. वहां उन्होंने अपना धंधा जमाया. धीरे-धीरे खाते-पीते व्यापारी बन गए. अब्दुल लतीफ को विरासत में जहां पूर्वजों का जमा-जमाया व्यापार मिला, धन-दौलत मिली—साथ में वे कहानियां भी मिलीं, जिन्हें उनके पूर्वज अकथ पीड़ा के साथ सुनाया करते थे. उन्हें सुनते-सुनते महुआ डाबर नाम का वह गांव कैसा था? कहां था? देश की आजादी के पहले संग्राम में उनके पुरखों की हिस्सेदारी की बात कितनी सच है? यह जानने की उनकी उत्कंठा लगातार बढ़ती गई. आखिरकार वे उस गांव की तलाश में जुट गए जो सरकारी रिकार्ड और नक्शों से भी कभी का गायब हो चुका था—

‘मैं अपने पूर्वजों के गांव को खोजने की जिद ठाने हुए था. मुझे पुरखों के इस दावे की हकीकत का पता लगाना था, जिसमें उनका कहना था कि 1857 के सैन्य विद्रोह के बाद, आरंभ हुए अंग्रेजी दमन के कारण उन्हें अपना गांव छोड़ना पड़ा था.’1 

वे आगे कहते हैं, ‘मुझे अपनी शुरुआत शून्य से करनी थी. बस्ती जिले के नक्शे पर उस गांव का कहीं अता-पता न था.’2 आखिरकार 8 फरवरी, 1994 को, पूर्वजों के ठिकाने को खोजने का जुनून उन्हें जिले के बहादुरपुर विकास खंड तक ले गया. आगे वे जिस स्थान पर पहुंचे वहां गैहूं, मटर और अरहर की फसल लहलहा रही थीं. महुआ डाबर के बारे में किसी को कोई पता नहीं था. खोज के दौरान गैहूं की लहलाती फसल के बीच दो जली हुई मस्जिदों के अवशेष दिखाई पड़े. फिर उन्होंने बहादुरपुर से दो किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित उस टीले को भी खोज निकाला, जो जले हुए घरों के मलबे के साथ, अतीत की किसी आबाद बस्ती की ओर संकेत करता था. मगर प्रशासन को खुदाई के लिए तैयार करने के लिए कुछ और सुबूतों की आवश्यकता थी. वे बस्ती जिले के अधिकारियों से मिले. स्थानीय पुस्तकालयों की खाक छानी. थानों में जाकर मौजूद रिकार्ड को खंगाला. उन सुबूतों के साथ वे बस्ती के जिला अधिकारियों से मिले. उनके बार-बार आग्रह और साक्ष्यों को देखकर जिला अधिकारी एक समिति के गठन को तैयार हो गए. खोज का सिलसिला कमजोर न पड़े, इसके लिए अब्दुल लतीफ ने व्यापार को अपने बेटों के हवाले कर, बस्ती को दूसरा ठिकाना बना लिया. धीरे-धीरे बात आगे बढ़ी. साक्ष्य जुटने लगे.

पता चला कि 1865 तक बस्ती जिले का इलाका गोरखपुर जिले में आता था. इसलिए तत्संबंधी सभी दस्तावेज गोरखपुर जिले के कलेक्टर के कार्यालय से प्राप्त होंगे. खोज के दौरान उन्हें कलावरी थाने में एक उल्लेख मिला, जिसमें उस महुआ डाबर के उजाड़ने और दुबारा न बसने देने के निर्देश थे. अंग्रेज अफ़सर सार्जेन्ट बुशर का वह पत्र प्राप्त हुआ जिसमें महुआ डाबर गांव का उल्लेख मनोरमा नदी(घाघरा नदी की उपशाखा) के किनारे किया गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के एक दस्तावेज से पता चला कि फ्रांसिस बुकनेन ने 1800-1801 की यात्रा में महुआ डाबर का उल्लेख करते हुए बताया था कि वह छोटा-सा कस्बा था, जिसमें खपरैल की छत वाले लगभग 200 घर थे. उनमें से कुछ पक्के घर भी थे.3 जिलाधिकारी द्वारा गठित समिति आखिरकार बस्ती जिले का 1813 का नक्शा खोजने में कामयाब हो गई, जिसमें महुआ डाबर को दर्शाया गया था. उसके बाद सब कुछ अनुकूल होता चला गया.

राज्य और केंद्र सरकार की मंजूरी आने के बाद 14 जून 2010 से खुदाई का काम आरंभ हुआ. देखते ही देखते एक जमींदोज गांव इतिहास के पन्नों पर उबरने लगा. अगले पंद्रह दिनों तक दर्जनों मजदूर और पुरातत्वविद खुदाई के काम में जुटे रहे. सफलता करीब आने लगी. कुआं, लाखौरी ईंटों से बनी दीवारें, छज्जे, नालियां, लकड़ी के जले टुकड़े, राख, मिट्टी के बर्तन, ईस्ट इंडिया कंपनी के 1835 के सिक्के, कुछ पुराने सिक्के, मिट्टी के खिलौने और हड्डियां प्राप्त हुई हैं. जो बताती हैं कि कुछ वर्ष पहले वहां एक भरा-पूरा संपन्न गांव रहा होगा.

क्या हुआ था वहां?

कहानी अठारहवीं शताब्दी के साथ शुरू होती है. भारत में पांव जमा लेने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी जमकर मुनाफा कमाना चाहती थी. वस्त्र उद्योग उस समय का सबसे लाभदायक उद्योग था. इसलिए उसका तेजी से मशीनीकरण किया गया था. इस काम में बाधक बने थे गांव-गांव बसे बुनकर, रंगरेज जैसे कारीगर. वे स्थानीय निवासियों से जरूरी कपास या सूत खरीदकर गांव के लोगों वस्त्र-संबंधी जरूरत की पूर्ति करते थे. कंपनी ने कारीगरों का दमन करना आरंभ दिया. मुर्शिदाबाद, ढाका जैसे शहरों में बुनकरों के हाथ काट डाले गए. जिन कारीगरों की वस्त्र-कला की दुनिया-भर में पहचान थी, जिनके हाथों की बुनी मलमल दुनिया-भर में नाम कमाती थी—वे कारीगर आए दिन के अत्याचार और दमन के कारण वे स्थान छोड़ने को मजबूर हो गए. उनीसवीं शताब्दी की शुरुआत के आसपास, पलायन के लिए मजबूर बुनकरों के बीस सदस्यों का ऐसा ही एक कारवां, मुर्शिदाबाद और नादिया जैसे शहरों से चलकर भटकता हुआ अवध की धरती पर पहुंचा. वहां के जमींदार ने उन्हें महुआ डाबर में शरण दी. मेहनती और कारीगर लोग थे. हुनर बोलता था. कुछ ही अर्से में उन्होंने अपने दैन्य को पीछे छोड़ दिया. उनकी कला के बल पर महुआ डाबर कस्बे के रूप में उभरने लगा. उनके बनाए वस्त्र न केवल बस्ती और गोरखपुर के बाजारों में, बल्कि नेपाल तक भी धड़ल्ले से बेचे जाते थे.

महुआ डाबर पहुंचे बुनकरों में कुछ ऐसे भी थे जिनके पूर्वजों के हाथ अंग्रेजों ने काट डाले थे. उनके मन में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश था. इसलिए 1857 में विद्रोह की चिंगारी जब महुआ डाबर पहुंची तो उनका खून भी उबलने लगा. बुनकरों ने छापामार दल का गठन किया, जिसमें पिरई खां और जाकिर अली जैसे बहादुर बुनकर शामिल थे.

सैन्य-विद्रोह की चिंगारी

सैन्य विद्रोह की शुरुआत 10 मई 1857 को मेरठ से हुई थी. जल्दी ही दिल्ली से लेकर कानपुर, लखनऊ, झांसी आदि क्षेत्र उसके प्रभाव में आने लगे. उनकी देखा-देखी फैजाबाद में 22वीं नैटिव इन्फैंट्री ने 8 जून 1957 को विद्रोह का बिगुल फूंक दिया. फैजाबाद पर कब्जा करने के बाद उन्होंने वहां मौजूद अंग्रेज सैन्य अधिकारियों को अपने अधिकार में ले लिया. किंतु एक रात कैद रखने के बाद उन्होंने अंग्रेजों को वहां से चले जाने को कहा. यही नहीं उन्होंने अंग्रेज सिपाहियों की यात्रा का इंतजाम करने के साथ-साथ उन्हें अपने हथियार भी साथ ले जाने की अनुमति दे दी.

अगले दिन यानी 9 जून की सुबह 22 अंग्रेज सैन्य अधिकारी घाघरा नदी के रास्ते दीनापुर(पटना) छावनी जाने के लिए चार नावों पर सवार होकर निकल पड़े. जब वे बेगमगंज के करीब से गुजर रहे थे, तब उनका सामना आजमगढ़ की 17वीं नेटिव इन्फेंट्री के विद्रोही सैनिकों से हुआ. उस लड़ाई में जान बचाकर भाग रहे अंग्रेजों की दो नावें डुबा दी गईं. फैजाबाद के सुपरिटेंडेंट कमीश्नर कर्नल गोल्डने, सार्जेंट मेजर मैथ्यू और ब्राइट उस संघर्ष में मारे गए. जबकि मिल, करी और पारसन ने खुद को बचाने के लिए नदी में छलांग लगा दी. और डूब गए.

बाकी बचे अंग्रेज बचते-बचाते 10 जून को वे कप्तानगंज(बस्ती) पहुंचे. वहां के तहसीलदार ने उनका स्वागत किया. बताया कि बस्ती में विद्रोही सैनिकों ने डेरा डाला हुआ है. इसलिए उनका वहां जाना सुरक्षित नहीं है. उन्होंने सैनिकों को गोरखपुर जाने की सलाह दी. तहसीलदार ने रास्ता दिखाने के लिए एक जमादार के अलावा पांच खच्चर, सुरक्षा के लिए तीन बंदूकची और रास्ते के खर्च के लिए 50 रुपये भी दिए.    

तहसीलदार के कहे अनुसार अंग्रेज अधिकारियों का कारवां आगे बढ़ गया. करीब 13 किलोमीटर की यात्रा के बाद वे महुआ डाबर पहुंचे. वहां साथ चल रहे बंदूकचियों में से एक ने कहा कि वे उस गांव में कुछ देर के लिए आराम कर सकते हैं. इतना कहकर वह सुरक्षित ठिकाने और खाने-पीने की चीजों का प्रबंध करने के लिए आगे बढ़ गया. उसके बाद की घटना का वर्णन प्रत्यक्षदर्शी सार्जेंट बुशर ने अपने बयान में किया था, उसके अनुसार—

‘हम आगे बढ़ गए. कुछ भी संदेहास्पद नहीं था. हमें अपनी सुरक्षा का भरोसा हो चला था. जैसे ही हम गांव के पास पहुंचे, वह बंदूकची हमें फिर दिखाई दिया. वह दो अन्य व्यक्तियों से बात कर रहा था. उसके पास पहुंचते ही हम भय से थर्रा उठे. पूरा गांव हथियारों के साथ तैयार था. बिना कोई टिप्पणी किए हम तीन सिपाहियों के पीछे-पीछे चुपचाप आगे बढ़ते गए. गांव के पार होते ही हमें एक नाला दिखाई पड़ा. नाला बहुत गहरा नहीं था. हम उसमें पार जाने के लिए उतर पड़े. अचानक गांववालों ने बंदूक और तलवार साथ हमपर हमला बोल दिया. यह देख हमने जल्दी से जल्दी नाला पार करने की कोशिश की. लेफ्टीनेंट लिंडसे हमलावरों की पकड़ में आ गए. उन्होंने उन्हें वहीं टुकड़े-टुकड़े कर दिया.

जैसे ही हम नाले के दूसरे सिरे पर पहुंचे, गुस्साए गांव वाले हम पर टूट पड़े. उन्होंने हमला करके हमारे दल के पांच सदस्यों को मौत के घाट उतार दिया. मैं और लेफ्टीनेंट कॉटली वहां से भागने में कामयाब हो गए. लेकिन भीड़ हमारे पीछे थी. लगभग 300 मीटर तक दौड़ने के बाद कॉटली की हिम्मत जवाब दे गई. वे जमीन पर गिर पड़. हमलावरों ने उन्हें भी टुकड़े-टुकड़े कर दिया.’5

सार्जेंट बुशर किसी तरह खुद को बचाने में कामयाब हो गया. उसने एक गांव में शरण ली. जहां से उसे विलियम पेपे, डिप्टी मजिस्ट्रेट ने सुरक्षित बाहर निकाल लिया. अंग्रेजी दस्तावेजों में महुआ डाबर के क्रांतिकारियों के मुखिया के रूप में जाफ़िर अली का नाम दिया गया है, जबकि दैनिक जागरण सहित दूसरे अखबारों के में पिरई खान को महुआ डाबर की गुरिल्ला टुकड़ी का मुखिया बताया गया है. अखबार के अनुसार—

‘10 जून 1857 को अंग्रेजी सेना के लेफ्टिनेंट लिंडसे, लेफ्टिनेंट थामस, लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लेफ्टिनेंट रिची, सार्जेन्ट एडवर्ड, लेफ्टिनेंट काकल व सार्जेंट बुशर फैजाबाद से बिहार के दानापुर(पटना) जा रहे थे. इधर पिरई खां के नेतृत्व में उनके गुरिल्ला क्रांतिकारी साथियों ने अंग्रेजी सेना के कुख्‍यात अफसरों की घेराबंदी करके तब तक मारा, जब तक उनकी मौत नहीं हो गई. अंग्रेजी सेना के छह अफसरों के मौत के बाद सार्जेंट बुशर घायल अवस्था में किसी तरह से अपनी जान बचाकर भाग निकला और अंग्रेजी हुकूमत के उच्च अधिकारियों को सारी घटना की जानकारी दी.’6

महुआ डाबर : नरसंहार का शिकार दूसरा जलियांवाला बाग

महुआ डाबर के निवासियों छह अंग्रेज सैन्य अधिकारियों की हत्या का आरोप था. अनियोजित होने के कारण अंग्रेजों ने शीघ्र ही उस घटनाक्रम पर काबू पर लिया. उसके बाद डिप्टी मजिस्ट्रेट विलियम पेपे के नेतृत्व में ग्रामीणों के दमन की शुरुआत हुई. महुआ डाबर को पूरी तरह से मिटा देने के आदेश उसे गोरखपुर के कार्यकारी कमिश्नर डब्ल्यू. विनयार्डे की ओर से प्राप्त हुए थे. 15 जून 1857 को लिखे गए पत्र में पेपे को ‘मजिस्ट्रेट’ की शक्तियां और अधिकार देते हुए विनयार्ड ने लिखा था कि वह 12वीं अनियमित घुड़सवार सेना की एक टुकड़ी के साथ तुरंत बस्ती के उन क्षेत्रों में जाए जहां विद्रोही सिर उठाए हुए हुए हैं. बस्ती थाने से पुलिसबल, मुशिंफ तथा कुछ मजदूरों को लेकर महुआ डाबर के लिए प्रस्थान करे, जहां पांच अंग्रेजों की बेरहमी से हत्या की गई है. पत्र में गांव को ‘पूरी तरह जलाने और नष्ट कर देने के लिए आवश्यक बारूद ले जाने’ का भी निर्देश था. आगे हर संभव मदद का भरोसा दिलाते हुए लिखा था कि महुआ डाबर पूरी तरह जला देने का भरोसा हो जाने के बाद ही उस गतिविधि को अंजाम दे. पत्र में पूरे गांव की संपत्ति, जिसमें जानवरों और फसल को कुर्क कर लेने की भी सूचना थी. विनयार्ड ने लिखा था कि उसे यह सुनकर खुशी होगी कि महुआ डाबर को पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया गया है, और किसी भी मकान का एक भी पत्थर सही-सलामत नहीं बचा है.7

विलियम पेपे को जैसा आदेश मिला था, उसने वैसा ही किया. यह बात पेपे द्वारा 22 जून 1859 को लॉर्ड केनिंग, गवर्नर जनरल और उच्च अधिकारियों को भेजे गए पत्र द्वारा प्रमाणित होती है. पत्र में उसने लिखा था—

‘3 जुलाई(1957) को मैंने महुआ डाबर नाम के बड़े गांव को पूरी तरह नष्ट कर दिया है, जहां 22वीं देशी पैदल सेना के अधिकारियों की हत्या की गई थी.’ यही नहीं पत्र में पेपे ने 26 जून को इलाके के ही सौसीपुर(संसारपुर) गांव को भी आग लगा देने का उल्लेख था, जहां के किसान विद्रोही सैनिकों को मदद पहुंचा रहे थे.

उस समय महुआ डाबर की आबादी 5000से ऊपर थी. वह भरा-पूरा संपन्न गांव था. आग लगाने से पहले वहां भीषण कत्लेआम मचाया गया था. लोगों की गिरफ्तारियां की गई थीं. विद्रोह में हिस्सा लेने वाले गुलजार खान, निहाल खान, घीसा खान, बदलू खान को 18 फरवरी 1858 को फांसी पर लटका दिया गया. ये सभी महुआ डाबर के पठान थे. इनके अलावा भैंरोंपुर के गुलाम खान, बखीरा के बाबू को भी फांसी की सजा दी गई. जाफिर अली, जिसे महुआ डाबर विद्रोह का प्रमुख सूत्रधार बताया है, उपर्युक्त घटनाक्रम के बाद मक्का चला गया था. यात्रा से लौटते ही उसे भी गिरफ्तार कर लिया, जिसे बाद में फांसी लगा दी गई. गौरतलब है कि 1857 के विद्रोह में देशी सैनिकों का साथ देने वालों में अकेले महुआ डाबर के लोग शामिल नहीं थे. अपितु अमोधा की रानी ताहोरी कुमारी, नागर के राजा उदयप्रताप सिंह, अथ्दमा के राजा शिवगुलाम सिंह, तिल्जा के शेख वली मोहम्मद आदि अनेक सेनानी शामिल थे. शेख गुलाम मोहम्मद को उनके साथियों शेख सुल्तान, शेख तालिब, अब्दुल बहाव और बुझारत के साथ वलीबाग में इसलिए फांसी दे दी गई थी कि उन्होंने बस्ती के तहसीलदार को उस समय मार डाला जब वह स्वाधीनता सेनानियों की संपत्ति को कुर्क करने की धमकी दे रहा था.8 समाचार के अनुसार अंग्रेजों ने तिल्जा गांव का भी वही हश्र किया था, जो महुआ डाबर का किया था.

अब्दुल लतीफ अंसारी को जिन्हें महुआ डाबर के इतिहास के दबे सच को दुनिया के सामने लाने का श्रेय हासिल है, पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम द्वारा सम्मानित किया गया. हाल ही में कर्नल तिलक राज ने महुआ डाबर के बहादुर बुनकरों को याद करते हुए ओज-भरा गीत रचा है—

महुआ डाबर! महुआ डाबर!!                        

इतिहास का है काला दिन!!

शहीदों के त्याग का है अदभुत दिन

आज़ादी संग्राम के हिम्मत के दिन

शहीदों के लहू की इज्ज़त के दिन

इन्क़िलाब! ज़िन्दाबाद! इन्क़िलाब! ज़िन्दाबाद!

—ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भ

  1. दि टेलीग्राफ, 8 दिसंबर, 2008.
  2. वही
  3. ए गजेटियर ऑफ टेरीटरीज अंडर दि गवर्नमेंट ऑफ ईस्ट इंडिया कंपनी, खंड 3, एडवर्ड थॉरंटन, 1854, पृष्ठ 877.
  4. मॉर्निंग क्रोनीकल, लंदन, 30 सितंबर, 1857http://www.pastpresented.ukart.com/mahuadabar/index.htm
  5. वही
  6. दैनिक जागरण, आजादी की समरगाथा में हो गई महुआ डाबर की शहादत, 13 अगस्त 2021.
  7. विनयार्ड का विलियम पेपे को संबोधित पत्र दिनांक 15 जून, 1857, http://www.pastpresented.ukart.com/mahuadabar/mahuadabar-peppe-mutiny.htm
  8. याद करो कुर्बानी, लाइव हिंदुस्तान, दिनांक 26 जनवरी 2018,  https://www.livehindustan.com/uttar-pradesh/gorakhpur/story-the-british-had-wiped-out-the-first-freedom-struggle-the-existence-of-tilja-1767740.htm

बौद्ध-धर्म धर्म न होकर बुद्धि का मार्ग है

विशेष रुप से प्रदर्शित

पेरियार ई.वी. रामासामी

एक तिब्बती पेंटिंग

हम बुद्ध जयंती क्यों मनाते हैं? गौतम बुद्ध का जन्मोत्सव मनाने का आशय कपूर, नारियल, कुमकुम और खाद्य-पदार्थों से बुद्ध के चित्र अथवा मूर्ति की प्रार्थना करना नहीं है. इसका आशय है कि हमने अपने जीवन में बुद्ध के जीवन और उपदेशों से कुछ सीखने तथा उनके बताए मार्ग पर चलने का निश्चय कर लिया है. मुझे नास्तिक कहा जाता है. यदि नास्तिक का आशय वेद, पुराणों एवं धर्मशास्त्रों में को प्रमाण मानने से इन्कार करना है, उनमें आस्था न रखना है तो निस्संदेह मैं नास्तिक ही हूं. मुझे लगता है कि बुद्ध पर बोलने के लिए यह अभीष्ट एवं पर्याप्त योग्यता है.

ऐसा व्यक्ति जो वेदों, धर्मशास्त्रों और पुराणों में विश्वास रखता हो, उसे इस प्रकार के अवसरों पर बोलने के लिए काफी चालाक होना चाहिए. उसे ऐसे लोगों में से एक होना चाहिए जो जनता को मूर्ख बनाने में भली-भांति दक्ष होते हैं. उन्हें पाखंडी और आडंबरप्रिय होना चाहिए. ऐसे व्यक्ति द्वारा बुद्ध को प्राचीन ऋषि, साधु, या महात्मा, जिनका वह वास्तव में सम्मान करता है—के समकक्ष ठहरा देना असामान्य नहीं है.

ऋषि और ही महात्मा

बुद्ध न तो साधु थे, न ऋषि और न ही महात्मा. वे उन लोगों में से थे जिन्होंने पुराने जमाने के हिंदू साधुओं, ऋषियों का वास्तविक विरोध किया था. यही वह कारण है कि उनका जन्मदिवस मनाने के लिए आज हम सब यहां एकत्र हुए हैं. जिस प्रकार बुद्ध ऋषि या महात्मा नहीं हैं, वैसे ही धर्म की स्वीकार्य परिभाषा के अनुसार बौद्ध धर्म भी कोई धर्म नहीं है. बहुत से लोग बौद्ध मार्ग को धर्म की श्रेणी में रखते हैं. वे गलत हैं. धर्म होने के लिए आवश्यक है कि उसके केंद्र में एक ईश्वर हो. दूसरी चीजें जो धर्म होने के लिए अपरिहार्य हैं वे है स्वर्ग, नर्क, मोक्ष, पाप-पुण्य, आत्मा और परमात्मा जैसी अवधारणाएं. बड़ा धर्म बनने के लिए कोई एक ईश्वर भी पर्याप्त नहीं होता. उसके अनेक ईश्वर हो सकते हैं. उन ईश्वरों की पत्नियां, रखैलें, तथा स्वीकार्य मानव-संबंध भी होने चाहिए. भारतीय सिर्फ ऐसे ही धर्म के बारे में जानते और उसे पसंद करते हैं.

 तर्कशीलता : बौद्ध धर्म का महानतम लक्षण

बुद्ध ने आरंभ में बता दिया था कि मनुष्य के लिए खुद को किसी ईश्वर से जोड़ना, उसकी चाहत रखना कतई आवश्यक नहीं है. वे चाहते थे कि मनुष्य सिर्फ मनुष्य की ही चिंता करे. उन्होंने मोक्ष, स्वर्ग, नर्क जैसी ख्याली बातों पर कुछ नहीं कहा. उनका आग्रह मनुष्य के चरित्र, आचरण और सद-व्यवहार के प्रति था. बुद्धिवादी सोच और ज्ञान, उनके अनुसार मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है. वही उसके श्रेष्ठत्व का आधार है. किसी बात पर सिर्फ इसलिए भरोसा नहीं करना चाहिए कि एक ऋषि ने ऐसा कहा था, अथवा किसी महात्मा ने वैसा लिखा है. किसी भी प्रज्ञावान मनुष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है कि वह स्थितियों की अपने विवेक के अनुसार समीक्षा करने के बाद, स्वयं किसी स्वतंत्र निष्कर्ष तक पहुंचे.

इस कसौटी पर आंका जाए तो बौद्ध धर्म वास्तव में कोई धर्म ही नहीं है. इसी कारण हमें बौद्ध जयंती पर आयोजित इस कार्यक्रम में हिस्सा लेते हुए विशेष प्रसन्नता हो रही है. गौतम बुद्ध के बुद्धिवादी दृष्टिकोण की प्रतिक्रियावादियों द्वारा घोर आलोचना हुई थी. वे 2500 वर्ष पहले जन्मे थे. उन दिनों इस देश में धर्म के नाम पर आदिम कर्मकांड प्रचलित थे. उन्होंने साहस और दृढ़ता के साथ उन आदिम धार्मिक कर्मकांडों और रूढ़ियों के विरुद्ध आवाज उठाई. प्रतिक्रियावादियों द्वारा उनका तीव्र विरोध ही बुद्ध की महानता तथा उनके शब्दों की ताकत को दर्शाता है. बुद्ध के बाद उनके बुद्धिवादी दर्शन और संप्रदाय को नष्ट करने के लिए जिन लोगों ने लिखा और बोला, उन्होंने असभ्य हिंदू धर्म की जंजीरों को दुबारा मजबूत करने के लिए मूर्खतापूर्ण आख्यान गढ़े और सुनाए.

रामायण में बुद्ध का संदर्भ

रामायण में बौद्ध धर्म की बुराई की गई है. रामायण का बड़ा हिस्सा बाद में बुद्ध की शिक्षाओं का सामना करने, उन्हें बेअसर करने के लिए लिखा गया. गौतम बुद्ध से पहले की रामायण एक छोटी कहानी मात्र थी. वैष्णव ग्रंथ ‘नलायिरा प्रबंधम’(तमिल में 4000 की संख्या को नलायिरा कहा जाता है. ‘नलायिरा प्रबंधम’ में भी 4000 पद हैं, जिनकी रचना 12 अलवार संतों ने मिलकर, पांचवी से दसवीं शताब्दी के बीच, की थी. ‘नलायिरा प्रबंधम’ का उपलब्ध  संस्करण नौवीं और दसवीं शताब्दी के बीच का है, जो श्री रंगनाथ मुनि द्वारा रचित है) तथा शैव ग्रंथ ‘थीवरम’(शैव ग्रंथ थीवरम सातवीं-आठवीं शताब्दी की रचना है. उसकी रचना भी कई तमिल शैव संतों ने मिलकर की थी. रचनाकारों में तीन प्रमुख संत हैं—संबंदर, अप्पार और सुंदरार) जैसी विशालकाय कृतियाँ बौद्ध धर्म-दर्शन के प्रभाव को कम करने के लिए ही रची गई थीं. उनमें बौद्ध एवं जैन मतावलंबियों को नास्तिक, डाकू, हत्यारा यहां तक कि वैदिक बलि प्रथा का दुश्मन बताया गया. शैव मतावलंबी अपने आराध्य की प्रार्थना कर, उनसे बौद्ध मतावलंबियों की पत्नियों के साथ बलात्कार करने की ताकत मांगते हैं.

नास्तिक का अभिप्राय

बुद्ध व्यक्तिवाचक संज्ञा है. व्यक्ति के संबंध में ही आमतौर पर उसका उपयोग किया जाता है. बुद्ध का अभिप्राय बुद्धि अथवा मेधा से है. कोई भी व्यक्ति जो स्थितियों की विवेचना के लिए अपनी तर्कबुद्धि का उपयोग करता है—वही बुद्ध है. यूं तो सभी मनुष्यों के पास कुछ न कुछ तर्कबुद्धि अवश्य होती है. लेकिन सिर्फ वही लोग जो अपने विवेक का समझदारी से, सकारात्मक संदर्भों में उपयोग करते हैं—‘बुद्ध’ कहे जा सकते हैं. सिद्ध शब्द का भी वही अर्थ है. सिद्ध ऐसे व्यक्ति को माना गया है, जिसका अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण हो.

वैष्णव संप्रदाय के केंद्र में विष्णु है, जिसे अवतार और ईश्वर का दर्जा प्राप्त है. दूसरी ओर बौद्ध धर्म के केंद्र में सिर्फ मानवीय बुद्धि या विवेक है. इन दिनों किसी भी व्यक्ति को जो ईश्वरीय सत्ता में अविश्वास रखता है, नास्तिक घोषित कर दिया जाता है. मगर सचाई यह है कि ऐसा व्यक्ति जो ईश्वर के अस्तित्व को नकारने के साथ-साथ अपने विवेक का तर्कसंगत ढंग से उपयोग करता है, वही नास्तिक कहलाने का अधिकारी है. ब्राह्मणवाद का विरोध करने वालों को भी उनके विरोधी नास्तिक मान लेते हैं.

बौद्ध धर्म के संदेशों के साथ बुरी तरह छेड़छाड़

कुछ समय पहले, इरोड(तमिलनाडु का एक शहर) में बौद्ध सम्मेलन हुआ था. उसमें ‘विश्व बौद्ध सभा’ के मुखिया भंते मल्लाल शेखर ने, अपने बीज भाषण में स्पष्ट रूप से कहा था कि जितने भी लोग वहां एकत्र हुए थे, वे सभी बुद्ध थे. इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में बौद्ध को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है, जो अंधविश्वास का खंडन करते हुए, सिर्फ अपने बुद्धि-विवेक का प्रयोग करता है.

इन दिनों सार्वजनिक जीवन में बुद्धि-विवेक के उपयोग को शायद ही महत्व दिया जाता है. स्कूल और कॉलेजों में विद्यार्थियों को अपनी बुद्धि और तर्कशक्ति का प्रयोग करने की शिक्षा नहीं दी जाती. न ही उन्हें परंपरा, रूढ़ियों और अंधविश्वासों पर सवाल उठाना सिखाया जाता है. यदि थोड़े-बहुत लोग अपने तर्क-सामर्थ्य का स्वतंत्र उपयोग करते भी हैं तो तत्काल उनपर नास्तिक होने का ठप्पा लगा दिया जाता है, जो असल में ऐसी पदवी है जिसका कोई अर्थ ही नहीं है. तर्कवादी यदि नास्तिक होने से इन्कार करे, खुद को बुद्धिवादी कहलवाना पसंद करे तो उसे ऐसा सिद्ध करने के लिए भारी परेशानी उठानी पड़ती है. कारण है कि नास्तिक के शब्द के अर्थ को बुरी तरह बदल दिया गया है.

बुद्ध ने भी अपने समर्थकों से यह कभी नहीं कहा था कि वे जो उपदेश देते हैं, उसपर ज्यों का त्यों विश्वास कर लेना चाहिए. उन्होंने कहा था कि उनके शब्दों को जांचे-परखें और अपने बुद्धि-विवेक के अनुसार ही उन पर फैसला करें. बुद्धिसंगत होने के बाद ही उन्हें स्वीकार करें.

नंगी आंखों से स्वर्ग को देखा

गौतम बुद्ध ने अपने विचार 2500 वर्ष पहले अभिव्यक्त किए थे. वे तात्कालिक समाज की शिक्षा और ज्ञान के अनुरूप थे. मनुष्य के ज्ञान की सीमा है. अपने समय और समाज की परिस्थितियों में उन्होंने जो भी कहा था, वह आज की परिस्थितियों में न तो पूरी तरह सही है, न ही शत-प्रतिशत लागू हो सकता है. बुद्ध के विचारों को शब्दशः ग्रहण करना, मेरी दृष्टि में अलग किस्म की आस्तिकता है. उस समय के लोग नंगी आँखों से आसमान में झांकते थे. प्रकृति और समाज के बारे में बहुत मोटी जानकारी उनके पास थी. आजकल शक्तिशाली दूरदर्शी से आसमान की पड़ताल की जाती है. फलस्वरूप सूरज पर बने काले धब्बों का परीक्षण भी संभव है. हमारे पूर्वज जितना जानते थे, उसी को सबकुछ समझकर विश्वास करना—मनुष्य की रचनात्मक मेधा तथा उसके सृजन-सामर्थ्य को सीमित कर देने जैसा है.

आर्यवाद ने देश को असभ्य बनाया है

बौद्ध धर्म के बारे में हमें यही कहना सही होगा कि समय के साथ मनुष्य के ज्ञान-सामर्थ्य में वृद्धि होती है; अतएव हमें भी अपने विचारों को प्रगति और समसामयिक परिवर्तनों के अनुरूप समायोजित करते रहना चाहिए. पुराने कथनों को ही अंतिम मानकर, उनपर अड़े रहना समाज के प्रति बौद्धिक विश्वासघात और पिछड़ापन है. यह मानवीय मेधा के विकास को अवरुद्ध कर देने जैसा है.

बुद्ध ऐसे समय में उभरकर आए जब आर्यवाद ने इस देश को आदिम, बर्बर, तर्कहीनों और जड़ बुद्धिजीवियों की भूमि बना दिया था. जिन लोगों ने धर्मशास्त्रों और पुराणों की रचना की वे अपनी तरह से बुद्धिमान रहे होंगे. उन्होंने वही लिखा था जो उनकी साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक प्रवृतियों के अनुकूल था. सभी लोगों का कल्याण हो, पूरा समाज फले-फूले—यह उनकी चिंता का विषय कभी नहीं था. उनके द्वारा रचे गए धर्मशास्त्र और पुराण निर्विवाद रूप से इसकी पुष्टि करते हैं.

थिरुवेल्लुवर और उनकी सीमाएं

थिरुवेल्लुवर(श्री वेल्लुवर, प्राचीन तमिल संत कवि) के प्रति मेरे हृदय में गहरा सम्मान है, किंतु उनकी भी सीमाएं थीं. यहां तक कि प्राचीन काल का सबसे महानतम ग्रंथ, अपने समय में उपलब्ध मेधा या उस समय तक मनुष्यता के बौद्धिक विकास से परे नहीं जा पाया है.(पेरियार यहां ‘थिरुक्कुरल’ की चर्चा कर रहे हैं. थिरुक्कुरल तमिल भाषा के  प्राचीनतम ग्रंथों में से एक है. उसकी रचना थिरुवेल्लुवर ने की थी. पेरियार ने कई जगह इस ग्रंथ की प्रशंसा की है. साथ ही उसकी कमजोरियों या असामयिक हो चुकी अनुशंसाओं की ओर इशारा भी किया है. उनका यह भी मानना है कि मूल ‘थिरुक्कुरल’ ऐसी कमजोरियों से मुक्त था. ब्राह्मणों के दक्षिण आगमन के बाद उन्होंने निहित स्वार्थ के अनुसार वहां के प्राचीन ग्रंथों को प्रदूषित किया था). इसलिए प्राचीन ऋषि-मुनियों, बुद्ध या थिरुवेल्लुवर ने जो कहा, वही अंतिम है, या उसी को एकमात्र सत्य या मानवीय मेधा की सीमा मान लेना—पूर्णत: अनुचित है.

बावजूद इसके गौतम बुद्ध और थिरुवेल्लुवर का हम इसलिए सम्मान करते हैं कि ऐसे दौर में जब हिंदू धर्म और समाज पूरी तरह असभ्य था, लोग बर्बर थे—समाज का बहुसंख्यक हिस्सा बाकि बचे मामूली हिस्से के सुखोपभोग, वैभव और विलासिता की खातिर गुलामों की तरह काम करता था—उस दौर में बुद्धिवाद को स्थापित करना, तर्क और ज्ञान के महत्व से लोगों को परचाना—केवल उन्हीं के लिए संभव था. अपने साहस के भरोसे यह उन्होंने कर दिखाया था.

धार्मिक प्रवृति के लोग पुराणों में कही गई मनगढंत और ऊल-जुलूल बातों पर विश्वास करेंगे. उनका गुणगान भी करते रहेंगे, किंतु यदि उन्हें असली इतिहास के बारे में बताया जाए तो प्रतिक्रिया में बस इतना कहेंगे, ‘गोरे अंग्रेजों ने भारत के बारे में जो कहा है, उसपर विश्वास मत करो.’ ये ऐसे लोग हैं जो अपने विवेक और अपनी अंतश्चेतना के विरुद्ध मिथ्या भाषण करते हैं. वे हमेशा ऐसे लोगों से घिरे रहते हैं जो अपनी मुक्त चिंतन शक्ति को गंवा चुके हैं. धर्म और ईश्वर के नाम पर धार्मिक लोगों ने जो भी मन में आए, बकवास करना और डींगे हांकना सीख लिया है. भले ही उनके शब्दों का इतिहास या तत्कालीन सामाजिक यथार्थ से कोई संबंध हो या न हो. उनके लिए यह महत्वहीन है. स्पष्ट है कि धर्म ने खुद को अंधविश्वास तक सीमित कर दिया है. 

पुराण गौतम बुद्ध के बाद की रचना हैं 

जिन दिनों यह कहा जा रहा था कि ब्रिटिश इतिहासकारों ने भारत के बारे में जो लिखा है, उसपर विश्वास नहीं करना चाहिए, उन दिनों उत्तर भारत स्थित भारतीय विद्या भवन नामक संस्था के तत्वावधान में, मूर्खतापूर्ण धार्मिक आख्यानों तथा अलोकतांत्रिक शास्त्रों पर केंद्रित पुस्तकें लगातार छापी जा रही थीं. मि. मुंशी(कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी) उस संस्था के अध्यक्ष; तथा अरबपति बिरला(घनश्यामदास बिरला) और डॉक्टर राधाकृष्णन(सर्वपल्ली) उसके  विशिष्ट सदस्य थे. उन्होंने ‘वैदिक युग’(प्राचीन इतिहास और संस्कृति पर प्रकाशित पुस्तकमाला थी. प्राच्यविद रमेशचंद मजुमदार उसके संपादक थे.)  नामक पुस्तक प्रकाशित की थी. उस पुस्तक की रचना में मिस्टर मुंशी की बड़ी भूमिका थी. उस पुस्तक की प्रस्तावना में भी लिखा गया था, ‘पुराण और महाकाव्य इतिहास नहीं हैं. उनमें समकालीन घटनाओं का वर्णन नहीं है. ‘व्यास’ शब्द का अर्थ कहानी लेखक(किस्सागो) है.’ वही  पुराण लोगों के दिलो-दिमाग में पैठ गए. लोगों की सहज बुद्धि पर कब्जा जमाकर वे उनका मार्गदर्शन करने लगे. यही हमारी परेशानियों का सबसे बड़ा कारण है.

तीन-चौथाई से अधिक पुराणों का लेखनकाल बुद्ध के बाद का बताया गया है. बुद्ध द्वारा प्रचारित तर्कवादी शिक्षा के विरोध में, उसकी ओर से लोगों का ध्यान हटाने तथा उन्हें ब्राह्मणवाद की ओर आकृष्ट करने के लिए—पौराणिक ऋषियों ने अवतारों की मनगढंत कहानियां रचीं. कृष्ण को उनका मुखिया बनाया गया. हिंदू देवी-देवताओं के चमत्कारपूर्ण कारनामे हमेशा ही लोगों के विशिष्ट आकर्षण और उत्तेजन का कारण रहे हैं. कृष्ण महाकाव्य तो पूरी तरह कामुकता और फूहड़पन से भरपूर है. इतना कुछ होने के बाद, उसे दैवीय भी घोषित कर दिया गया. भगवदगीता को तो महाभारत में बहुत बाद में, आगे चलकर जोड़ा गया था.

जाति से मेरा अभिप्राय अलग है

ऐसे अश्लील और कामुक परिवेश में कृष्ण जैसा देवता गढ़ने तथा उसकी प्रशस्ति में भजन गाने, नाटक और नृत्यों के आयोजन का भला क्या औचित्य है! कृष्णलीलाएं तो सिनेमा के पर्दे पर भी आ चुकी हैं. जो भक्त कृष्णलीला स्थल पर हाथ जोड़े या तालियां बजाते, तन्मयता से गाते-झूमते हुए नजर आते हैं, वे उसी भगवान को अपने घर में, अपनी पत्नी के पास जाने की अनुमति देने का साहस नहीं कर पाएंगे. लोगों का अंतःकरण जिस बात को करने से रोकता है, आम व्यवहार में उसका खंडन न करने का आखिर क्या कारण है? भगवान की अश्लीलता, संकीर्णता और व्यभिचार को जश्न की तरह दर्शाने वाले त्योहारों को समाज में जगह क्यों मिलनी चाहिए?

आज कोई भी व्यक्ति जाति प्रथा का समर्थन करने का साहस नहीं जुटा पाता. सी. राजगोपालाचारी कदाचित इसके अपवाद हैं. वे जातिवाद को बनाए रखना चाहते हैं. यदि उनसे सीधे मिलकर, आमने-सामने सवाल किया जाता तो वे कदाचित यही कहते, ‘जाति से मेरा अभिप्राय कुछ अलग है.’ वेदों, धर्मशास्त्रों और पुराणों के समर्थन के अभाव में जाति क्या टिक सकती थी? वेदों, धर्मशास्त्रों और पुराणों के बहिष्कार के बगैर जाति का उच्छेद कभी भी, भला कैसे संभव है? धर्मशास्त्रों का एकमात्र उद्देश्य है गैर-ब्राह्मणों जैसे कि शूद्रों और पारिया जैसे अछूतों का  सदा-सर्वदा तिरस्कार तथा पुरोहित वर्ग को संरक्षण प्रदान करना.

कंधे पर देवता और बुद्ध की स्तुति

बुद्ध जयंती या बुद्ध दिवस को मनाना हमारे लिए जरूरी क्यों है? यदि बुद्ध को अलवार और नयनमार संतों की श्रेणी में रखना है तो उन्हें भुला देना ही बेहतर होगा. बुद्ध जयंती वस्तुत: वैदिक धर्मावलंबियों के लिए शत्रु-दिवस है. ब्राह्मण वर्चस्व वाला मीडिया इस तरह के सम्मेलनों की कार्रवाही के बारे में ईमानदारी से रिपोर्टिंग नहीं करेगा. बजाय इसके उनके अखबारों में एक या अधिक पौराणिक सभाओं की घोषणाओं की भरमार मिलेगी. बाद में उन सभाओं से संबंधित समाचारों से अखबार के पन्ने भर दिए जाएंगे. ऐसे परिवेश में जाति को विनष्ट कर, बुद्धिवाद के वर्चस्व को पुनर्स्थापित कर पाना कितना  कठिन है. उस स्थिति का बयान संभव नहीं, अच्छा है  उसकी कल्पना से तसल्ली कर ली जाए.

दुनिया के भला किस देश में इतने सारे भगवान हैं जितने हमारे देश में हैं? इतने सारे चरित्रहीन ईश्वरों की मौजूदगी का औचित्य ही क्या है? ऐसे भगवानों में आस्था और विश्वास रखते हुए, उन्हें अपने कंधों पर लादकर, बुद्ध को ससम्मान याद करने तथा उनकी स्तुति करने से कोई भला नही होने वाला. इन ईश्वरों का बहिष्कार करने के लोग स्वयं बुद्ध बन जाएंगे. मनुष्य की आकृति में, मनुष्य को दुःख और सुख देने वाला, मानवीय अपराधों और सद्गुणों लिप्त रहने वाला ईश्वर हो ही नहीं सकता. विष्णु, शिव और ब्रह्मा, इन हिंदू त्रिदेवों की कहानियों में अश्लीलता, हिंसा, फूहड़पन, हत्या आदि की भरमार है. 

गंदे पुजारी के चरण पखारना

आश्चर्य की बात यह है कि पुराणों में विश्वास रखने वाले लोग भी यहाँ आने, और बौद्ध जयंती के उत्सव में हिस्सा लेने का साहस जुटा लेते हैं. ये वही लोग हैं  जो मंदिर बनवाने वाले को ही दयावान और परोपकारी मानते हैं. सोचते हैं कि भक्ति सिर्फ पत्थर के स्तंभ से माथा रगड़ने पर व्यक्त की जा सकती है, यही लोग गंदे पुजारियों के पैर धोने को भी भक्तिकर्म मानते हैं. गौतम जैसे विश्व के महान बुद्धिवादी चिंतक के व्यापक प्रभाव को बेअसर करने के लिए ही इन पौराणिकों ने उनके बारे में सत्य को तोड़-मरोड़कर, उसे प्रदूषित करते हुए पेश किया है.

जाति को नष्ट करने की हिम्मत ही नहीं है 

रामायण और महाभारत के बारे पुस्तकें आज भी हजारों की संख्या में लिखी और बेची जाती हैं. इनका क्या उद्देश्य है? क्या इसका सीधा और साफ उद्देश्य जातिवाद, अंधविश्वासों और लोगों की दास मानसिकता को बनाए रखना नहीं है? यदि भारत में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे जीवनमूल्यों से भरपूर वास्तविक लोकतंत्र की जड़ें जमानी हैं तो जातिवाद को जड़ से उखाड़ना पड़ेगा. सरकार ऐसी होनी चाहिए जिसमें यह सब करने का साहस हो. जो जातिवाद जैसी विकृति से समाज को मुक्त कर सके. आज हमारे पास ऐसी सरकार है जो जातिवाद की बुराइयों पर बात तो करती है, लेकिन उसमें इसे उखाड़ फेंकने का साहस नहीं है.

डॉ. राधाकृष्णन ने यह कहने का साहस दिखाया है, ‘हमने राजाओं और जमींदारों को उखाड़ फैंकने का साहस  कर दिखाया है. स्थायी और दूरगामी लाभों के लिए हमें जातिवाद को नष्ट कर देना चाहिए. यह करने के लिए हमारे पास लोहे के दिल वाले इंसान होने चाहिए.’ सरकार के पास ऐसा विचार तो है किंतु जातिवाद पर हमला करने की इच्छा नहीं है. हमारा लक्ष्य ईश्वरविहीन समाज की स्थापना करना नहीं है. हम ऐसा समाज चाहते हैं जिसमें सत्य और विवेक देवताओं के रूप में मौजूद हों.

बुद्ध : क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए  अपरिहार्य  

23 जनवरी  1954 को हमने इरोड में एक बौद्ध सम्मेलन का आयोजन किया था. उसके आयोजन के पीछे हमारा उद्देश्य क्या था? क्या उससे हमारा इरादा खुद को बौद्ध धर्म का अनुयायी घोषित करना था? उसके माध्यम से क्या हम हिंदू धर्म को उजाड़ कर बौद्ध धर्म को लाना चाहते थे? नहीं. फिर बुद्ध के नाम पर सम्मलेन आयोजित करने का क्या कारण था? वह इसलिए कि हम मानते हैं कि हम जो बदलाव लाना चाहते हैं, हिंदुओं की जिन बुराइयों को हम नष्ट करना चाहते हैं—गौतम बुद्ध की शिक्षाएं उसका संपूर्ण समर्थन करती हैं. गौतम बुद्ध का दर्शन, उनके सिद्धांत और उपदेश हमारे स्व:सम्मान एवं बुद्धिवादी आंदोलन के साथ—उसके समर्थन में खड़े हैं. ईश्वर, जाति, गौत्र, धर्मशास्त्र, पुराण और महाकाव्य हमारी पराधीनता का कारण हैं. ऐसी चीजें हैं जिनसे हम मुक्त होना चाहते हैं. जबकि जीवनमूल्यों से भरपूर गौतम बुद्ध की शिक्षाएं और उनका दर्शन हमारे क्रांतिधर्मा लक्ष्यों के लिए बेहद मूल्यवान हैं.

हमारे आदर्शों के प्रतीकपुरुष

कुछ चीजें जिनका हम आज प्रचार-प्रसार करते हैं, वे गौतम बुद्ध की ढाई हजार वर्ष पुरानी शिक्षाओं में पहले से ही शामिल हैं. बौद्ध धर्म हमारे आदर्शों के लिए आधार स्रोत, मानक संस्था की तरह है. जिन दिनों इस रामासामी(पेरियार) द्वारा स्व:सम्मान आंदोलन के आदर्शों का प्रचार आरंभ किया गया था, तब कुछ ऐसे भी लोग थे, जिनका मानना था उसमें कोई बड़ी, अनोखी या महत्वपूर्ण बात नहीं है. वे सोचते थे कि मैं गीता से बड़ा नहीं हो सकता. ऐसे लोगों के लिए कम से कम बौद्ध धर्म का होना बड़ा ही प्रोत्साहनपरक और उत्साहवर्धक है. हमारे आदर्शों को किनारे करना, उन्हें मिटा पाना परंपरावादियों के लिए आसान नहीं होगा. उन्हें यह बताने की जरूरत है कि बुद्धिवाद उतना ही पुराना है जितना कि बौद्ध धर्म; और हम जो आज प्रचार कर रहे हैं—उसमें कुछ भी नया नहीं हैं.

बुद्ध हिंदुओं के लिए भी मान्य और पूजनीय

ऐतिहासिक जरूरतों की खातिर हिंदुओं ने बुद्ध के धर्म-दर्शन को स्वीकार किया था. यहां तक कि उनकी पूजा भी की जाती रही है. हालांकि इतिहास हमें यह भी बताता है कि बौद्ध धर्मालंबियों को सताया जाता था. उनकी हत्या भी कर दी जाती थी. उनके मठों को जला दिया गया था. यहाँ तक कि उनके धर्म-दर्शन को भी हिंदू कट्टरपंथियों ने बहुत पहले ही उखाड़ दिया था. कुछ बौद्ध मतावलंबियों को गहरे समुद्र की तलहटियों में डुबा दिया गया था. इतने सारे षड्यंत्रों और दमन के बावजूद हिंदुओं के लिए कभी संभव नहीं हो पाया कि वे हिंदू मानस में बसी गौतम बुद्ध की यादों को मिटा सकें.

ब्राह्मणों ने उन्हें विष्णु का अवतार घोषित किया

आखिरकार ब्राह्मणों को, गौतम बुद्ध को विष्णु के दसवें अवतार के रूप में मान्यता देनी ही पड़ी. इस तरह सब कुछ को पचा लेने वाले हिंदू धर्म ने शैव और वैष्णव संप्रदाय की भांति, बौद्ध धर्म को भी हिंदू धर्म की उपशाखा मान लिया. संभव है प्राचीनकाल में उन्होंने अच्छा व्यवहार किया हो, संभव है न भी किया हो—लेकिन यह सचाई है कि भारत भूमि से बौद्ध धर्म कभी भी पूरी तरह गायब नहीं हो सका. यहाँ तक कि स्वतंत्र भारत की सरकार को भी मानना पड़ा कि इस देश में बुद्ध को भुला पाना आसान नहीं है. इसलिए शैव और वैष्णव संपद्राय, जो हिंदू धर्म का दायां और बायां हाथ थे, को छोड़ते हुए बुद्ध की शिक्षाओं को बौद्ध धर्म-दर्शन की शिक्षाओं को सरकारी पहचान के रूप में सहेजा गया.

राष्ट्रीय झंडे में धम्मचक्क

बौद्ध धर्म के प्रतीक धम्मचक्क को हमारे राष्ट्रीय झंडे में सम्मानित स्थान प्राप्त हुआ. सारनाथ स्थित अशोक स्तंभ के शिखर पर बनी चार शेरों की मूर्ति को राष्ट्रीय प्रतीक की मान्यता मिली, वही हमारे सैन्य अधिकारियों ने कंधों पर, मंत्रियों की गाड़ियों के बोनेट्स पर, सरकारी वाहनों, आम आदमी के काम आने वाले पोस्टकार्ड जिनका सुदूर गांवों में बहुतायत से प्रयोग होता है—शोभायमान है. आजादी के बाद से ही गौतम बुद्ध के जन्मदिवस को सरकारी अवकाश घोषित किया जा चुका है.

क्या हमारे आंदोलन को कमजोर किया जा सकता है  

इन शब्दों का अभिप्राय क्या है. इसका अभिप्राय है कि आजाद भारत की सरकार ने गौतम बुद्ध और उनकी शिक्षाओं को मान्यता दी है. उन्हें राष्ट्रीय महत्व का माना है. सरकार के लिए यह संभव नहीं था कि किसी हिंदू, शैव या वैष्णव प्रतीक को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में स्वीकार कर सके. इसका आशय यह है कि भारत के राष्ट्रीय हितों की दृष्टि से हिंदू प्रतीक सर्वथा अनुपयुक्त हैं. अपनी जनता के इतिहास में मैं इसे एक क्रांतिकारी पड़ाव के रूप में चिह्नित करता हूं.

इसलिए,  यदि हम यह कहते हैं कि हमारे द्वारा शुरू किया स्व:सम्मान आंदोलन बुद्ध की 2500 वर्षों पुरानी शिक्षाओं पर आधारित, उसी का विस्तार था, तो लोग आसानी से समझ सकते हैं कि हम जो करते हैं—वह सरकार द्वारा अनुमन्य, उसके द्वारा अनुशंसित कार्यक्रम से परे कुछ भी नहीं है. इसलिए ब्राह्मणों, कांग्रेसियों, धर्माधीशों, शंकराचार्यों और मठाधिपतियों के लिए हमारे आंदोलन को, जो असल में सुधारवादी आंदोलन है—रोकना/ सीमित कर पाना असंभव है.

कुरल में ब्राह्मणवादी शिक्षाओं के अनुरूप प्रक्षेपण  

ब्राह्मणों की एक कुटिलनीति बुद्धिवादी चिंतकों को अपना बताकर, उनकी शिक्षाओं को तोड़-मरोड़कर पेश करने की रही है, जिससे वे उन्हें अलोकतांत्रिक और वर्चस्ववादी ब्राह्मणवादी शिक्षाओं के अनुरूप ढल सकें. पहले यह काम उन्होंने बुद्ध के लिए किया, उसके बाद थिरुवेल्लुवर के साथ. स्व:सम्मान आंदोलन द्वारा कुरल को अपना नीति-ग्रंथ मानने से पहले ब्राह्मण, साथ में उनके शूद्र अनुचर भी, कुरल के बारे में बढ़-चढ़कर दावे करते थे. उनका असली उद्देश्य कुरल की शिक्षाओं को, ब्राह्मणवाद के अनकूल ढालने की नीयत से—तोड़ना-मरोड़ना तथा उसके अर्थ का अनर्थ करना था.

ब्राह्मण टीकाकार पेरीमेलाझगर ने अपनी टीका में आर्यों की बहुत-सी शिक्षाओं को शामिल किया है. इस प्रकार वे थिरुवेल्लुवर की शिक्षाओं को पूरी तरह तोड़ने-मरोड़ने, उनमें अंतर्निहित मूल सत्य पर पर्दा डालने में लगभग कामयाब रहे हैं. (पेरीमेलाझगर 13वीं के टीकाकार थे. कुरल पर उनकी टीका के कारण जहाँ अनेक विद्वान उनकी सराहना करते हैं, वहीं अनेक विद्वान उन पर कुरल में प्रक्षेपण का आरोप भी लगाते हैं.) हमारे आंदोलन द्वारा कुरल तथा उसमें निहित सत्य को दुबारा दुनिया के सामने लाने के बाद ही, उसके प्राचीन गौरव और दीप्ति की वापसी संभव हो सकी है. आज पूरी तमिल-भूमि कुरल संगठनों और समूहों से भरी है. स्कूलों और कॉलेजों में कुरल के अध्ययन में लगातार वृद्धि हो रही है. जैसे-जैसे कुरल के अध्ययन को बढ़ावा दिया जा रहा है, वैसे वैसे रामायण एवं महाभारत जैसे जातिवादी और अंधविश्वासों से भरपूर आर्य ग्रंथों का प्रभाव कमजोर पड़ता जा रहा. 

यही कार्य अब हम बौद्ध धर्म के साथ कर रहे हैं. रूढ़िवादी और परंपरापोषी हिंदुओं को हतोत्साहित करने के लिए बौद्ध धर्म के आदर्शों, उसमें अंतर्निहित वास्तविक मूल्यों का प्रचार किया जा रहा है. उनकी ईर्ष्या और क्रोध हमें परेशान नहीं करते.

ऋषिमुनियों के उपदेश वृथा हैं

गौतम बुद्ध ने तर्क और बुद्धिवाद को प्रथम स्थान पर रखा था. उन्होंने प्राचीन ऋषियों अथवा कथित दिव्य मनीषियों के लिखे को बुद्धिसंगत(ज्ञान) मानने से इन्कार कर दिया था. वे चाहते थे लोग अपने विवेक से काम लें और उसकी मदद से खुद सत्य का साक्षात करें. तथाकथित ईश्वर के अस्तित्व अथवा उसकी सत्ता पर कोई टिप्पणी करने से इन्कार के साथ-साथ उन्होंने आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारने से भी मना कर दिया था. दावा किया जाता है कि कथित आत्मा स्वयं तथाकथित परमात्मा के तेज से अस्तित्ववान होती है. इस कारण वह ईश्वर के विचार को ही परोक्ष रूप में स्थापित करती है. चूंकि ईश्वर को प्रत्येक दृष्टि से संपूर्ण एवं विकाररहित बताया गया है, अतएव ईश्वर की अनुभूति को पाप, पुण्य, अवगुण या सद्गुण, अच्छे अथवा बुरे कर्मों से नहीं जोड़ा जा सकता. इस तरह से आत्मा और परमात्मा के बीच अनुचित और अप्रमाणिक तादात्मय के कारण, गौतम बुद्ध की कसौटी पर उन्हें भारी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था.

बुद्ध ने सभी प्रकार की मूर्तिपूजा, मानवरूपी देवताओं की अभ्यर्थना, रूढ़िवाद, परंपरावाद और अंधविश्वास की निंदा करते हुए उनका बहिष्कार करने का उपदेश दिया था. लगभग वे सभी बातें जिन्हें आर्यमत के अनुसार पवित्र एवं दिव्य माना जाता था, उन्हें गौतम बुद्ध की तीखी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था.

विध्वसंक हथियारों वाले देवता

पुरातत्वविद भली-भांति सिद्ध कर चुके हैं कि हिंदुओं के जितने भी प्राचीन मंदिर हैं, वे पहले कभी बौद्ध विहार थे. यहां तक बताया गया है कि श्रीरंगम, कांचीपुरम, पालनी, तिरुपति आदि मंदिर भी मूल रूप से बौद्ध विहार ही थे. ऐसे मंदिर जो कभी गौतम बुद्ध की आभा से पूरी तरह देदीप्यमान थे—जहां प्यार, अनुराग,  समर्पण, सहानुभूति सब कुछ सहज प्राप्य थे, उन मंदिरों को युद्धोन्मादी देवताओं की रम्यस्थली बना दिया. उनके हाथों में जानलेवा हथियार थमा दिए गए. ऐसा कोई हिंदू देवता नहीं है जो जानलेवा, विध्वंसक हथियारों से न खेलता हो. ये दिखाते हैं कि भगवान बनने के लिए उस सत्ता के खाते में कुछ हत्याओं का होना जरूरी है.

शैव और वैष्णव उपदेशों के दौरान बढ़-चढ़ कर दावे करते हैं कि उनका देवता प्यार करने वाला है. यह  सब मनगढ़ंत तानाशाही और पाखंड पूर्ण है. उनके ये लंबे-चौड़े दावे देवताओं की हथियार बंद छबि को देखते ही हवा हो जाते हैं. प्रेम और हिंसा के बीच भला क्या संबंध हो सकता है? सबसे आश्चर्यजनक और दिलचस्प बात यह है कि युद्धोन्मादी देवताओं की भीड़ के बावजूद—दूसरे राष्ट्र के नागरिकों की अपेक्षा हिंदू कुल मिलाकर—तुलनात्मक रूप से सर्वाधिक कायर हैं.

(स्रोत : कलेक्टेड वर्क ऑफ़ पेरियार, संपादक के. वीरामणि, सेल्फ रेस्पेक्ट प्रोपेगेंडा फाउंडेशन चेन्नई. पेरियार ने यह संबोधन 15 मई, 1957 को चेन्नई के एगमोरे स्थित महाबोधि संगठम् परिसर में बुद्ध की 2501वीं जयंती के मौके पर आयोजित समारोह में किया था। (स्रोत : Velivada.com)]

अंग्रेजी से अनुवाद

ओमप्रकाश कश्यप

दक्षिण भारतीय संस्कृति में ब्राह्मणवाद विरोधी चेतना और पेरियार

विशेष रुप से प्रदर्शित

[बताया गया है कि छूआछूत को बनाने वाला ईश्वर है। यदि यह बात  सही है तो हमें सबसे उस ईश्वर को ही नष्ट कर देना चाहिए। यदि ईश्वर इस परंपरा से अनजान है तो उसका और भी जल्दी उच्छेद होना चाहिए। यदि वह इस अन्याय को रोकने या इससे रक्षा करने में असमर्थ है तो इस दुनिया में उसका कोई कोई काम नहीं है—पेरियार, कुदी अरासू 17 फरवरी, 1929] 

चीजें किस प्रकार दिमाग में बैठतीं या बैठा दी जाती हैं—इस बारे में प्रायः हमें पता नहीं चलता। जैसे कि लोककथाओं का एक सबक जिसे जाने-अनजाने उनके आरंभ में ही जोड़ दिया जाता था। शिकार, नौकरी अथवा किसी और काम से ‘परदेस’ जाने वाले कथानायक को घर-परिवार के बुजुर्ग समझाते—‘बेटा पूरब जाना, पश्चिम जाना, उत्तर दिशा तो खुशी-खुशी जाना, मगर दक्षिण में हरगिज न जाना।’ कहानियों के अनुसार दक्षिण में या तो कोई राक्षस रहता था अथवा डायन। कोई ऐसी खूबसूरत राजकुमारी भी हो सकती थी, जिसे प्राप्त करना आग के दरिया को पार करने जैसा हो। कहानियों में जो डर जाते या असफल रहते वे सफर से वापस नहीं लौटते थे। या यूं कहो कि उनकी कहानियां ही नहीं बनती थीं। जो व्यक्ति तमाम हिदायतों और बंदिशों को लांघकर साहस के साथ निषिद्ध लक्ष्य की ओर प्रस्थान कर; वहां से सकुशल लौट आता—वह कथानायक कहलाता था। दक्षिण की यात्रा आपदाओं को चुनौती देने की यात्रा थी। नायक बनने या यूं कहो कि नायक गढ़ने की यात्रा थी।

आखिर कौन-से दबाव थे कि ऐसी कहानियों में प्रायः दक्षिण दिशा को ही निषिद्ध बताया जाता था? कुछ लोग कह सकते हैं कि इसके पीछे लेखक-किस्सागो का उद्देश्य कहानी को रहस्यपूर्ण और रोचक बनाना होता था। मना करने के बावजूद नायक का दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान, उसके साहसी होने का प्रमाण था। लेकिन यदि यही उद्देश्य होता तो किस्सागो—कथानायक के नाम, स्थान की तरह, दिशा में भी मनचाहा परिवर्तन कर सकता था। दक्षिण के अलावा वह पूरब, पश्चिम या उत्तर को भी निषिद्ध बता सकता था। हमेशा एक ही दिशा क्यों? कुछ चतुर-सुजान कहेंगे कि वास्तुशास्त्र के अनुसार दक्षिण में यमराज का अधिष्ठान है। अगर ऐसा है तब भी हमारा मूल प्रश्न कायम रहता है कि यमराज ने अपने लिए; अथवा वास्तुशास्त्रियों ने यमराज के लिए दक्षिण दिशा को ही क्यों चुना था?

इसके लिए हमें मिथ-निर्माण की प्रक्रिया को समझना पड़ेगा। मिथों के निर्माण में पूरे समाज की भूमिका होती है। मगर उसे विशिष्ट चरित्र प्रदान करने, खास अवसरों से जोड़ने और मनमाना इस्तेमाल करने का काम समाज का अभिजन समुदाय करता है। यह भी सच है कि मिथ में आमजन का भरोसा ही उसे अभिजन समुदाय की निगाह में महत्वपूर्ण बनाता है। इसके पीछे उसकी नीयत खुद को दूसरों से अलग और खास दिखाने के लिए होती है। वह चाहता है कि उसके द्वारा छलपूर्वक कब्जाए गए अभिजात्यपन तथा विशेषाधिकारों को, लोग दैवीय अनुकंपा मान लें। मान लें कि समाज में उसकी हैसियत किसी षड्यंत्र अथवा दुरभिसंधि का परिणाम न होकर, विशिष्ट ईश्वरीय अनुकंपा है। दक्षिण को यमराज का अधिष्ठान घोषित करना, इसी सांस्कृतिक कूटनीति का हिस्सा है। इसी से जुड़ा एक सच गांव-बस्तियों में अछूतों और शूद्रों को दक्षिण में बसाया जाना भी है।

सवाल है कि दक्षिण दिशा ही क्यों? आखिर क्यों दक्षिण को राक्षस-राक्षसियों की दिशा बताया गया? क्यों यमराज को टिकने के लिए वही दिशा दी गई थी? क्यों शूद्रों और दलितों को दक्षिण दिशा तक सीमित कर दिया जाता है?

पेरियार के संघर्ष को समझने; या यूं कहो कि भारतीय समाज की जिस मानसिकता के विरुद्ध उन्हें संघर्ष करना पड़ा था; और जो इसकी अनेकानेक व्याधियों की वजह है—की पृष्ठभूमि को समझने के लिए—इन सबको जानना आवश्यक है। इसके लिए कुछ हजार वर्ष पहले के इतिहास में लौटना होगा। यह स्थापित तथ्य है कि करीब 12 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक में फैली सिंधु सभ्यता(3300-1750 ईस्वीपूर्व) अपनी समकालीन सभ्यताओं में सर्वाधिक उन्नत और समृद्ध नागरी सभ्यता थी। जलवायु परिवर्तन के कारण उस फली-फूली सभ्यता का अवसान काल आया तो उसके निवासी सुरक्षित ठिकानों की ओर पलायन करने लगे। 1500 ईस्वी पूर्व आर्य हमलावरों ने भारत में प्रवेश किया तो उसमें और भी तेजी आई। पलायन के दो प्रमुख रास्ते थे। पहला पंजाब के रास्ते मैदानी इलाकों में गंगा-यमुना के तराई क्षेत्र की ओर। इस ओर जो दल गए, उन्होंने तराई क्षेत्र में समृद्ध सभ्यता की नींव रखी जिसे गंगा-यमुनी सभ्यता कहते हैं। दूसरे दल राजस्थान, गुजरात, कोंकण प्रदेश से होते हुए दक्षिण दिशा में गए। और दक्षिण भारत में पहले से रह रहे आदिवासी कबीलों में घुल-मिल गए। कलाभ्र शासकों के सिक्कों पर प्राप्त लिपि संकेतों और सिंधु घाटी से प्राप्त लिपि संकेतों में गहरी समानता, दोनों को आपस में जोड़ती है।

कालांतर में गंगा-यमुना के तराई क्षेत्र की ओर गए सिंधुवासी कबीलों और आर्य कबीलों में समन्वय हुआ। वहां के अनार्य कबीलों ने आर्य संस्कृति के आगे करीब-करीब समर्पण कर दिया। जबकि दक्षिण जाकर बसे कबीलों ने अपनी पारंपरिक संस्कृति और उसके मूल्यों को बनाए रखा। उसके बाद लगभग एक सहस्राब्दी तक दक्षिण भारतीय सभ्यता, जो अपनी प्रकृति में अनार्य सभ्यता थी, और उत्तर-पश्चिमी सभ्यता एक-दूसरे से अनजान बनी रहीं। ईसा से छह-सात सौ वर्ष पहले, आर्यों को उस सभ्यता के बारे में पता तो उनकी पुरानी स्मृतियां ताजा होने लगीं। आर्यों की दृष्टि में वे वही अनार्य कबीले थे, जिन्होंने सिंधु उपत्यका में उनका मार्ग रोकने की कोशिश की थी। जो आर्य संस्कृति की श्रेष्ठता के मिथ को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं थे। इसी कुंठा और ईर्ष्या के चलते उन्होंने अपने गीतों में, अनार्य कबीलों को राक्षस, दैत्य, दानव आदि घोषित करना शुरू कर दिया। बाद में रचे संस्कृत ग्रंथों में भी यही प्रवृत्ति बनी रही।

ईसा-पूर्व चौथी-पांचवी शताब्दी में बौद्ध और जैन श्रमणों ने दक्षिण पहुंचना शुरू किया। व्यावहारिक नैतिकता पर आधारित इन दर्शनों का दक्षिण में खूब स्वागत किया गया। प्राचीन तमिल, बौद्ध एवं जैन दर्शन के समन्वय से वहां संगम साहित्य की नींव रखी गई। करीब दो सौ वर्ष बाद, बौद्ध धर्म-दर्शन के पराभव के दौर में ब्राह्मण भी वहां पहुंचे। अपने साथ वे जातीय भेदभाव से लबरेज अपनी संस्कृति को भी ले गए। वहां उन्होंने राजाओं और प्रभावशाली वर्गों को फुसलाना आरंभ कर दिया। नए-नए मिथकीय आख्यान गढ़कर उनका अवतारीकरण किया जाने लगा। अवतारीकरण की प्रक्रिया उन्हें राजसत्ता का नैसर्गिक उत्तराधिकारी बनाती थी। उसकी आड़ में मनमाने फैसले भी थोपे जा सकते थे। इस कारण लोग धीरे-धीरे उनके प्रभाव में आने लगे। ब्राह्मणों को खुश करने के लिए गांव के गांव दान किए जाने लगे। इससे उन लोगों के आगे आजीविका का संकट पैदा होने लगा, जो उन जमीनों पर खेती करते थे।

ब्राह्मणों का बढ़ता वर्चस्व, कभी मंदिर, यज्ञ तो कभी ब्राह्मणों को बसाने के लिए गांव के गांव दान देने से उपजा आक्रोश, महान कलाभ्र विद्रोह के रूप में सामने आया। कलाभ्र शूद्र-किसान और आदिवासी कबीले थे। तीसरी शताब्दी के आरंभ में उन्होंने पांड्य, चेर, पल्लव आदि ब्राह्मणवाद के रंग में रंग चुके शासकों पर हमला किया और उन्हें परास्त कर, कलाभ्र साम्राज्य की नींव डाली। पूरा तमिल प्रदेश, जिसमें आधुनिक केरल, तमिलनाडु के अलावा कर्नाटक और आंध्र प्रदेश का भी बड़ा हिस्सा शामिल था, कलाभ्र साम्राज्य की परिसीमा में आते थे। मंदिर, धर्मस्थान आदि के बहाने ब्राह्मणों को जो जमीनें दान में दी गई थीं, कलाभ्र शासकों ने उन्हें छीन लिया। राज्य के संरक्षण में होने वाले यज्ञ और बलिप्रथाएं समाप्त हो गईं। बौद्ध धर्म को पुनर्स्थापित किया गया।

कलाभ्र शासकों ने तीसरी शताब्दी से लेकर पांचवी शताब्दी तक दक्षिण पर राज्य किया। उतनी अवधि के बीच ब्राह्मणवाद वहां निस्तेज बना रहा। देखा जाए तो यही वह दौर था जब ब्राह्मण रामायण, महाभारत, गीता तथा पुराणादि ग्रंथों के लेखन-पुनर्लेखन में लगे थे। वेदों सहित सभी संस्कृत ग्रंथों में जमकर प्रक्षेपण किया जा रहा था। उत्तर भारत में राज्य के संरक्षण में ब्राह्मण धर्म खूब फलफूल रहा था। मनुस्मृति के विधान लागू होने के बाद शूद्रों-अतिशूद्रों से पढ़ने-लिखने सहित अन्यान्य का अधिकार छीन लिए गए थे। इससे ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती देने वाला कोई नहीं था। कलाभ्र शासकों के शासनकाल दक्षिण से ब्राह्मण धर्म के उखड़ने की प्रतिक्रिया, रामायण-महाभारत आदि के बहाने दक्षिण पर नकली विजयगीतों के रूप में हुई थी। चूंकि ब्राह्मण धर्म के दक्षिण प्रवेश से बहुत पहले बौद्ध और जैन धर्म वहां अपनी पैठ बना चुके थे, इसलिए रामायण जैसा काव्य जो उत्तर भारतीय संस्कृति की दक्षिण पर विजय दिखाता था, ब्राह्मणवादियों को मानसिक संतुष्टि देता था। रामायण और अन्यान्य पुराणों के माध्यम से, उन परिश्रमी और स्वाभिमानी लोगों को असुर, राक्षस आदि घोषित किया जा रहा था, जो दक्षिण में रहकर खुद को आर्य संस्कृति के प्रभाव से न केवल बचाए हुए थे, अपितु अच्छी-खासी, समृद्ध सभ्यता के निर्माता भी थे।

अनार्यों के प्रति आर्यों की नफरत के रामायण आदि ग्रंथों में कई आयाम हैं। जरा उस प्रसंग को याद कीजिए जब राम लंका जाने के लिए समुद्र से रास्ता मांगते हैं। समुद्र द्वारा अनसुनी करने पर अपना वाण तान लेते हैं। समुद्र हाजिर होकर वाण तूणीर में डालने की प्रार्थना करता है। राम के यह कहने पर कि संधान किया हुआ वाण वापस तूणीर में नहीं जा सकता, समुद्र वाण को उत्तर दिशा में द्रुमकुल्य की ओर छोड़ने का आग्रह करता है—

उत्तरेणावकाशोऽस्ति कश्चित् पुण्यतरो मम।

द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान्।।32।।

उग्रदर्शनं कर्माणो बहवस्तत्र दस्यवः।

आभीर प्रमुखाः पापाः पिवंति सलिलम् मम।।33।।

तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पाप कर्मभिः।

अमोघ क्रियतां रामोऽयं तत्र शरोत्तमः ।।34।।

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मनः।

मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात्।।35।। वाल्मीकि रामायण, युद्धकांड, 22वां सर्ग।

गौर करने की बात यह है कि दक्षिण में रावण का ठिकाना है। हरण के बाद रावण सीता को वहीं लेकर गया है। वहां राक्षसों का वास है, समुद्र उनसे लंका की ओर शर-संधान करने का आग्रह नहीं करता, बल्कि उत्तर दिशा की ओर शर-संधान करने को कहता है, जहां आभीर, किरात, यवन आदि लोग रहते थे। बताता है कि ऐसे ‘पापी’ प्राणियों के स्पर्श से उसका जल अपवित्र हो जाता है। राम जैसे ब्राह्मण के कहने पर शंबूक की गर्दन तराश देते हैं, ठीक ऐसे ही बिना कुछ सोचे-समझे, समुद्र के कहने पर तीर को उसी की बताई दिशा में छोड़ देते हैं। ये अभीर, किरात वही लोग थे, जिन्होंने सिंधु घाटी में आर्यों को जोरदार टक्कर दी थी। ऋग्वेद में इस युद्ध को दासराज्ञ युद्ध; अर्थात दस राजाओं का युद्ध के रूप में दिखाया गया है। रामायण आदि ग्रंथों के माध्यम से, आर्यों-अनार्यों की राजनीतिक राजनीतिक प्रतिद्विंद्वता को, धार्मिक-सांस्कृतिक घृणा में बदल दिया जाता है। उपर्युक्त प्रसंग से यह भी पता चलता है कि छुआछूत की भावना, जिसके शूद्रों और अछूतों को सार्वजनिक तालाबों का जल पीने से रोक दिया जाता था, रामायण काल में ही पनप चुकी थी।

ईसापूर्व पहली-दूसरी शताब्दी में दक्षिण जाने वाले वैदिक संस्कृति के प्रचारक वहां के राजाओं और कुछ शीर्ष वर्गों को तो अपने प्रभाव में लेने में कामयाब रहे थे, लेकिन वहां की आम जनता, विशेष रूप से स्थानीय कबीले ब्राह्मण-संस्कृति के प्रभाव से मुक्त थे। उन्हें अपनी संस्कृति पर गर्व था। दोनों संस्कृतियों के संधि-स्थल, विंध्य के पठारों और जंगलों में, जब वे लोग मिलते तो टकराव की संभावनाएं बन ही जाती थीं। इस कारण दक्षिण को लेकर एक अजाना भय, ईर्ष्या उत्तर भारतीय संस्कृति के संरक्षक ब्राह्मणों के हृदय में समाया हुआ था। उत्तर भारत श्रेष्ठ है, दक्षिण भारत निकृष्ट, यह सोच तथा इससे उपजा डर लोककथाओं में दक्षिण-यात्रा के प्रति निषेधाज्ञा के रूप में सामने आया। चूंकि ब्राह्मणों के लिए असुरों, राक्षसों की तरह शूद्र और पंचम भी बाहरी थे, इसलिए गांव में उनके रहने के लिए दक्षिण दिशा सुनिश्चित की गई।

एक हजार ईस्वी के आसपास उत्तर भारत बाहरी हमलों का शिकार होने लगा। जबकि शंकराचार्य के नेतृत्व में दक्षिण, आठवीं शताब्दी में ही ब्राह्मण धर्म की केंद्र-स्थली बन चुका था। सो उत्तर भारत में भारी राजनीतिक उथल-पुथल के चलते, आने वाली शताब्दियों में दक्षिण, ब्राह्मण धर्म के लिए सुरक्षित ठिकाना बन गया। उस दौर में ब्राह्मणों को विशेषाधिकार दिए गए। वर्णाश्रम धर्म की पुनर्स्थापना की गई। राज्य की मदद से जाति-व्यवस्था को इतना मजबूत किया गया कि शूद्रातिशूद्र जातियां सांस तक न ले सकें। इसकी प्रतिक्रिया संत साहित्य के रूप में हुई। लेकिन कई कारणों से संत ब्राह्मण धर्म को वैसी चुनौती नहीं दे सके, जैसी उनसे अपेक्षित थी। उनके सारे सुधार कार्यक्रम धर्म के दायरे में थे, जो ब्राह्मणवादियों के सबसे सुरक्षित दायरा है।

ब्राह्मण धर्म को चुनौती उनीसवीं शताब्दी में उस समय मिलनी शुरू हुई जब औपनिवेशिक सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों के अंतर्गत शूद्रातिशूद्रों को पढ़ने-लिखने का अवसर मिला। तभी उन्हें अपनी सामाजिक परतंत्रता का अहसास हुआ। पता चला कि वे अंग्रेजों के अलावा ब्राह्मणों के भी गुलाम हैं। धर्म और जाति उन्हें परतंत्र रखने वाले ब्राह्मणी औजार हैं। वे छुआछूत के सुरक्षा-कवच भी हैं। आरंभ में सामाजिक मुक्ति की पहल के रूप में धर्मांतरण का सहारा लिया गया। लेकिन कुछ ही दशकों में यह साफ हो गया कि धर्म अपने आप में एक सत्ता है और किसी भी प्रकार की सत्ता के रहते, न तो मानवीय गरिमा की रक्षा हो सकती है। न मानव-मुक्ति के लक्ष्य को पाया जा सकता है। इस सोच के साथ दक्षिण की राजनीति में उभरे पेरियार ने सीधे ईश्वर की सत्ता को चुनौती दी। कहा कि सामाजिक आजादी प्राप्त करने के लिए द्रविड़ों को सबसे पहले ब्राह्मणों द्वारा गढ़े गए, ईश्वर और धर्म से मुक्त होना होगा। द्रविड़ों की समानता, स्वतंत्रता और आत्मसम्मान के लिए ऐसा करना जरूरी है।

1932 में वे श्रीलंका में बसे तमिलों के आमंत्रण पर वहां गए थे। वहां कोलंबो में दिए गए भाषण में उन्होंने कहा था कि आत्मसम्मान और मनुष्यता की स्थापना के लिए तमिलों को ईश्वर, धर्म और राष्ट्रवाद के मोह से बाहर निकल आना चाहिए(कुदी आरसु, 30 अक्टूबर, 1932)। उनका मानना था कि धर्म और ईश्वर मानव-प्रगति के सबसे बडे़ दुश्मन हैं। गौरतलब है कि ईश्वर और धर्म के औचित्य पर सवाल उठाने वाले, उन्हें मानव-मात्र की गरिमा, आत्मसम्मान, स्वतंत्रता और समानता के लिए हानिकारक मानने वाले पेरियार अकेले नहीं थे। पश्चिम में दो शताब्दी पहले ही ऐसे सवाल उठने लगे थे। धर्म की सत्ता शोषक की सत्ता है। वह शोषण को बढ़ावा देने वाली है, इस तथ्य को वहां बार-बार रेखांकित किया जा रहा था। मिखाइल बकुनिन का कहना था कि बाईबिल का ईश्वर—‘पक्के तौर पर सर्वाधिक ईर्ष्यालु, सबसे बकवास, सबसे ज्यादा क्रूर, सबसे अन्यायी, सबसे निरंकुश, सर्वाधिक खून का प्यासा, सबसे ईर्ष्यालु तथा मानवीय गरिमा एवं स्वतंत्रता के लिए सबसे डरावना और वैरभाव रखने वाला है। जबकि शैतान शाश्वत विद्रोही और पहला स्वतंत्र विचारक था।’(ईश्वर और राज्य, मिखाइल बकुनिन) 

हिंदू धर्म की आलोचना करते समय पेरियार रामायण, गीता और मनुस्मृति को निशाना बनाते हैं। राम, लक्ष्मण, सीता, दशरथ जैसे चरित्र जिन्हें हिंदू धर्म में ‘आदर्श’ के तौर पर पेश किया जाता रहा है, की चारित्रिक दुर्बलताओं को गिनाते हुए वे रावण को आदर्श चरित्र वाला और द्रविड़ों के महानायक के रूप में पेश करते हैं। वे एक-एक कर उन सभी हिंदू मिथों को निशाना बनाते हैं, जिनके माध्यम से ब्राह्मण हिंदू धर्म और उनकी आड़ में अपनी शताब्दियों से अपनी अधिसत्ता को बनाए हुए हैं। पेरियार की धर्म और जाति-संबंधी स्थापनाओं को पढ़ना, हिंदू धर्मशास्त्रों की विखंडनात्मक व्याख्या करने जैसा है। इसलिए वे धर्म की आड़ में राजनीति करने वालों को सबसे ज्यादा अखरते हैं।

2002 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री सुश्री मायावती आंबेडकर पार्क में पेरियार की मूर्ति की स्थापना कराना चाहती थीं। लेकिन भारतीय जनता पार्टी को यह कतई स्वीकार नहीं था। भाजपा के भारी विरोध के कारण उन्हें अपना इरादा बदलना पड़ा था। यही क्यों, 1980 में पेरियार के अपने राज्य तमिलनाडु के कांचीपुरम में पेरियार की मूर्ति की स्थापना की अनुमति देने से तत्कालीन मुख्यमंत्री एमजी रामाचंद्रन ने मना कर दिया था। उन्हें लगता था कि इससे कांची के शंकराचार्य नाराज हो सकते हैं। यह बात अलग है कि सरकार के फैसले के बाद विपक्षी दल द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ने मद्रास उच्च न्यायालय में अपील की और अदालत की अनुमति के बाद, मूर्ति को स्थापित कर दिया गया। 

अच्छी बात यह है कि इन दिनों पेरियार के प्रति उत्तर भारतीयों का दृष्टिकोण बदल रहा है। उनकी स्वीकार्यता लगातार बढ़ती जा रही है। जो आने वाले वर्षों में बढ़ती ही जाएगी. विचारों को पकने, फैलने और और उन्हें क्रांति में ढलने में इतना समय तो लगता ही है.

ओमप्रकाश कश्यप

इंटरनेट लर्निंग : भारतीय परिदृश्य और नई शिक्षा नीति

विशेष रुप से प्रदर्शित

ओमप्रकाश कश्यप

‘दूर-शिक्षण’ यानी ‘ऑनलाइन शिक्षा’ अथवा ‘ई’लर्निंग’ प्रौद्योगिकीय विकास की देन है। एक लोकोपयोगी प्रौद्योगिकी में जितने गुण होने चाहिए, वे लगभग सभी इसमें मौजूद हैं। यह स्कूली शिक्षा से सस्ती हो सकती है। प्रयोगात्मक अवस्था में है, इसलिए हम इसके निरंतर बेहतर होने की उम्मीद कर सकते हैं। तकनीकी सुधार द्वारा इसे अधिकाधिक रचनात्मक, आकर्षक, संप्रेषणीय एवं प्रभावशाली बनाया जा सकता है। आज देश के विभिन्न हिस्सों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम में भारी अंतर है। यहां तक कि एक ही शहर में प्राइवेट तथा सरकारी स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम का स्तर एक जैसा नहीं होता। शिक्षा  स्तर में यह अंतर प्रकारांतर में सामाजिक असमानता को बढ़ावा देता है। इसलिए शिक्षा-नीति-2020 में इस अंतर को पाटने का संकल्प लिया गया है. दूर-शिक्षण पद्धति पाठ्यक्रम के मानकीकरण में सरकार की मददगार सिद्ध हो सकती है। सरकार चाहे तो एनसीईआरटी तथा उसकी अनुषंगी संस्थाओं की मदद से दूर-शिक्षण सामग्री के वाक्-चित्रण(आडियो विजुलाइजेशन) का मानकीकरण भी कर सकती है। ऑनलाइन शिक्षा के सामुदायिकरण द्वारा हम वहां भी आसानी से पहुंच सकते हैं, जहां अभी तक स्कूली शिक्षा नहीं पहुंच पाई है। कुल मिलाकर, तात्कालिक मजबूरी में ही सही, ऑनलाइन शिक्षा को अपनाना घाटे का सौदा नहीं है। देखना यह है कि समाजार्थिक विषमता से भरपूर भारतीय परिदृश्य में वह कितनी और किस प्रकार उपयोगी हो सकती है!

भारत में ‘ऑनलाइन क्लासिस’ की दशा-दिशा पर बातचीत करने से पहले इसके इतिहास पर सरसरी नजर डाल लेना उचित होगा।

ऐतिहासिक विहंगावलोकन

‘ऑनलाइन क्लासिस’, दूर-शिक्षण(डिस्टेंस एजुकेशन) का आधुनिक संस्करण है। दूर-शिक्षण की संकल्पना उनीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जन्मी थी। उद्देश्य था, जो लोग किसी कारणवश स्कूली शिक्षा से वंचित हैं—उनके लिए शिक्षा के वैकल्पिक माध्यम विकसित किए जाएं। 1833 में एक स्वीडिश अखबार में प्रकाशित एक विज्ञापन ने लोगों को चौंकाने का काम किया था। विज्ञापन में डाक के माध्यम से शिक्षा देने की सूचना थी। उस समय तक पत्राचार द्वारा शिक्षा की एकदम अवधारणा नई थी। इसलिए लोगों का ध्यान उसकी ओर कम ही गया। फिर भी विचार की नींव तो पड़ ही चुकी थी। सो उत्साही लोग ‘दूर-शिक्षण’ को कामयाब बनाने में जुट गए। इस बीच इंग्लेंड सरकार की ओर से पूरे देश के लिए एक समान डाक-नीति लागू करने की घोषणा की गई। उसका लाभ उठाते हुए 1840 में सर ईसाक पिटमेन(1813-1897) ने पोस्टकार्ड को पत्राचार की शिक्षा का माध्यम बनाया। प्रति पत्राचार एक पेनी की शुल्क पर वे दूरदराज के क्षेत्रों में रह रहे विद्यार्थियों को आशुलिपि सिखाने लगे। ये वही पिटमेन थे, जिन्हें ‘शार्टहेंड’ का जनक माना जाता है। उनके सम्मान में शार्टहेंड को ‘पिटमेन शार्टहेंड’ का नाम भी दिया गया है। पिटमेन साहब पोस्टकार्ड के माध्यम से अपने विद्यार्थियों को शार्टहेंड के बारे समझाते। लगे हाथ उन्हें ‘एक्सरसाइज’ के बारे में बता देते थे। विद्यार्थी भी पोस्टकार्ड के जरिए उनका हल भेजते और अपनी समस्याएं सामने रखते थे। प्रयोग इतना ज्यादा कामयाब हुआ कि मात्र 3 वर्ष के भीतर पिटमेन के नेतृत्व में ‘फोनोग्राफिक कोरसपोंडेंस सोसाइटी’ का गठन हुआ। उसके तत्वावधान में पत्राचार  कॉलेज की स्थापना हुई, जिसे दुनिया का पहला पत्राचार कॉलेज कह सकते हैं। 

एक कामयाब प्रयोग की देर थी। उसके बाद तो ‘दूर-शिक्षा’ का सिलसिला जोर पकड़ने लगा। 1891 तक अमेरिका में पत्राचार द्वारा डिग्री कोर्स कराने की सुविधा आरंभ हो चुकी थी। ग्रेट ब्रिटेन के बाद अमेरिका, जर्मनी आदि देशों में पत्राचार द्वारा शिक्षा के स्कूल खोले जाने लगे। सबसे बड़ी सफलता मिली, शिकागो विश्वविद्यालय को। वहां प्रतिवर्ष 125 अनुदेशक, 3000 विद्यार्थियों को पत्राचार द्वारा शिक्षा प्रदान करते थे। विश्वविद्यालय में पत्राचार शिक्षा के लिए 350 पाठ्यक्रम निर्धारित थे। कह सकते हैं कि वह शिक्षा-जगत की पहली क्रांति थी। रेडियो का प्रचलन हुआ तो विश्वविद्यालयों ने उसे भी दूर-शिक्षा का माध्यम बना लिया। 1920 के दशक में, अकेले अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने दूर-शिक्षण के लिए 176 रेडियो स्टेशन स्थापित किए थे। फिर आया दूरदर्शन। आने के साथ ही उसने मनोरंजन उद्योग के साथ-साथ शिक्षा क्षेत्र को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया। गौरतलब है कि 1891 में ‘चलचित्र कैमरा’ का आविष्कार करते समय थॉमस अल्वा एडीसन ने कहा था कि चलती-फिरती तस्वीरें शिक्षाजगत में क्रांति का आगाज करेंगी। वे शिक्षा को और अधिक मनोरंजक, आकर्षक एवं रचनात्मक बनाएंगी। एड़ीसन के बाद जन्मे मार्शल मेक्लुहान ने ‘मीडिया ही संदेशवाहक’ कहते हुए उसे ‘मनुष्य के विस्तार’ के रूप देखा। आगे सबकुछ  एडिसन की भविष्यवाणी के अनुरूप हुआ। 1950 के दशक तक दुनिया के कई देश, दूरदर्शन को दूर-शिक्षा के उपयोगी माध्यम के रूप में अपना चुके थे। खासतौर पर दूरस्थ गांवों में शिक्षा देने के लिए दूरदर्शन विशेष मददगार सिद्ध हुआ। अमेरिका के अलास्का में, दूर-शिक्षण प्रविधि द्वारा गांव-गांव शिक्षा पहुंचाने के लिए 1980 में ‘लर्न अलास्का’ परियोजना आरंभ की गई। उसकी ओर से प्रतिदिन छह घंटे का शैक्षिक कार्यक्रम प्रसारित किया जाता था, जिसकी पहुंच कई सौ गांवों तक थी।

भारत में दूर शिक्षा की नींव 1962 में रखी गई। उसी वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा ‘स्कूल ऑफ़ कॉरसपोडेंस कोर्सिस एंड कंटीन्युइंग एजुकेशन’ की शुरुआत की गई। उसका भरपूर स्वागत किया गया। मात्र एक दशक में कई और भी संस्थान दूर-शिक्षण प्रणाली को अपना चुके थे। 1982 में हैदराबाद में डॉ. भीमराव आंबेडकर मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना दूर शिक्षण की दिशा में क्रांतिकारी कदम थी। आज देश में 242 विश्वविद्यालय/संस्थान ऐसे हैं जो सामान्य कक्षाओं के साथ-साथ दूर शिक्षण के माध्यम से भी शिक्षा प्रदान करते हैं। 2009-10 में देश में उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में दूर शिक्षा संस्थानों का योगदान 23.38 प्रतिशत था। उसी वर्ष दूर-शिक्षा संस्थानों में पंजीकरण कराने वाले विद्यार्थियों की संख्या लगभग 40,00,000 थी।

जिसे आज हम ई’लर्निंग(इलेक्ट्रानिक्स लर्निंग) कहते हैं, उसकी शुरुआत 1980 के दशक से ही हो चुकी थी। आज लाखों की संख्या में बेवसाइटें किसी न किसी रूप में शिक्षा प्रदान करने या उसके प्रचार-प्रसार में जुटी हैं। इंटरनेट द्वारा शिक्षण के क्षेत्र में नई क्रांति का आगाज हुआ, ‘वेब-2’(वर्ल्ड वाईड वेब-2) के आविष्कार के बाद। वेब-1 का दौर 1980 से 2004 तक चला था। उसमें प्रयोक्ता की हैसियत महज उपभोक्ता जैसी थी। उस एकल-मार्गी माध्यम का उद्देश्य उपभोक्ता तक सूचनाएं पहुंचाना मात्र था। उपभोक्ता वेबसाइट पर मौजूद सामग्री को केवल देख सकता था। इंटरनेट की पहुंच सीमित थी। गति कम। इंटरनेट सामग्री निर्माता भी कम थे। उपभोक्ता की प्रतिक्रिया जानने के लिए ‘गेस्टबुक’ हुआ करती थी। जिसपर दी गई प्रतिक्रियाएं मुख्य सामग्री से अन्यत्र जमा होती थी। वेब-2 के आविष्कार इस क्षेत्र में क्रांति ने उपभोक्ता को भी ‘सामग्री उत्पादक’ की श्रेणी में ला दिया। उपभोक्ता को यह छूट दी जाने लगी कि वह उपलब्ध सामग्री में विषयगत संशोधन कर सके। फिर ऐसी बेवसाइटें भी बनने लगीं जिनमें सामग्री उत्पादक और उपभोक्ता के बीच कोई अंतर न था। प्रयोक्ता अपनी ओर से नई सामग्री जोड़ने तथा उसके मनचाहे प्रस्तुतीकरण के लिए स्वतंत्र था। आज लाखों बेवसाइट केवल उपभोक्ताओं द्वारा सृजित सामग्री के भरोसे चलती हैं। सामग्री उसकी अपनी या किसी और व्यक्ति/संस्था की हो सकती है। वेबसाइट निर्माताओं का काम केवल ‘सामग्री सर्जकों’ और ‘सामग्री प्रयोक्ताओं’ के बीच पुल बनाना है। उन्हें ‘सूचनाप्रदेश के वासी’ अथवा ‘डिजिटल नेटिव्स’ का नाम दिया। आज जिसे सोशल मीडिया कहते हैं, वह असल में इंटरनेट पर फैला ‘वैश्विक सूचनाप्रदेश’ है, जिसमें आमोखास सभी को दखलंदाजी करने का अधिकार प्राप्त है। ई’लर्निंग सूचना-प्रदेश की विस्मयकारी सफलताओं तथा उसके महाविस्तार का ही हिस्सा है।   

सवाल है कि इन सब खूबियों के बावजूद क्या ऑनलाइन शिक्षा, स्कूली शिक्षा का समानोपयोगी अथवा बेहतर विकल्प बन सकती है? प्रश्न यह भी हो सकता है कि क्या शिक्षा का माध्यम, उसकी गुणवत्ता को प्रभावित करता है। इस संबंध में दो अमेरिकी प्रोफेसरों, रिचर्ड एडवर्ड क्लार्क तथा राबर्ट बी। कोझमा के बीच लंबी बहस चली थी। 1983 में बहस की शुरुआत करते हुए क्लार्क ने कहा था—‘संज्ञानात्मक प्रक्रियाएं एवं रणनीतियां जो सीखने के लिए आवश्यक हैं, उनका उपयोग विद्यार्थी अपने लिए नहीं कर सकते। वे करेंगे भी नहीं।’1 क्लार्क के अनुसार मीडिया सूचनाओं एवं अनुदेशों को विद्यार्थी तक पहुंचाने का महज एक माध्यम है। इससे इतर उसकी और कोई भूमिका नहीं है। जैसे खाने-पीने की चीजों की पौष्टिकता, उन्हें ढोने वाले ट्रक के प्रभाव से बेअसर रहती है, इसी तरह शिक्षा भी मीडिया के प्रभाव से अछूती रहती है। एक तरह से क्लार्क ने मीडिया को महज सूचना-प्रदाता तथा विद्यार्थियों को सूचना-संग्राहक मात्र मान लिया था।

करीब एक दशक बाद, 1994 में कोझ़मा ने क्लार्क की आलोचना करते हुए कहा कि शिक्षा पर मीडिया के असर को समझने के लिए उन दोनों के संबंधों को समझना जरूरी है। कोझ़मा के अनुसार, क्लार्क की धारणा इन दोनों के अंतःसंबंध को सही-सही न समझ पाने के कारण बनी थी। उसका कहना था कि यदि माध्यम को तकनीक; तथा शिक्षा-अनुदेशों को अध्यापन प्रविधि मान लिया जाए तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए बाध्य हूं कि शिक्षण माध्यम से अधिक प्रविधि से प्रभावित होता है।2 कोझ़मा का तर्क एक तरह से क्लार्क के निष्कर्ष की ही पुष्टि करता था। बावजूद इसके कोझ़मा को नकार पाना संभव नहीं है। निरंतर शक्तिशाली होते इंटरनेट-मीडिया, खासकर तब जब उपभोक्ता को वेबसाइटों पर उपलब्ध सामग्री को संपादित करने की छूट प्राप्त हो, उससे निरपेक्ष सूचना-प्रदाता बने रहने की उम्मीद करना ही व्यर्थ है।

तकनीकी का मूल स्वभाव गतिशीलता है। प्रत्येक प्रौद्योगिकी अपने से बेहतर प्रौद्योगिकी की संभावनाएं लिए रहती है। वह न केवल स्वयं गतिशील रहती है, अपितु अपने प्रयोक्ता को भी गतिमान बनने के लिए उकसाती है। इसलिए वह शिक्षण की समग्र प्रक्रिया के साथ-साथ विद्यार्थी क्या सीखता है, कब सीखता है, कैसे सीखता है—को प्रभावित करती है। ई’लर्निंग की प्रक्रिया में विद्यार्थी केवल अपने अनुदेशक या शिक्षण संस्थान से जुड़ा नहीं होता। बल्कि इंटरनेट के जरिए लाखों जालपट्टों, इलेक्ट्रॉनिक सामग्री के प्रयोक्ताओं, सर्जकों, उत्पादकों तथा उनका व्यापार करने वालों से भी जुड़ा होता है। यदि यह मान लिया जाए कि प्रयोक्ता(विद्यार्थी) इंटरनेट पर उपलब्ध पाठेत्तर सामग्री के आकर्षण से खुद को बचाए रखता है, तब भी वहां मौजूद दर्जनों शब्दकोश, अनुवाद सुविधाएं, तरह-तरह के संदर्भ ग्रंथ, विश्वकोश, पूरक पाठ्य-सामग्री, अखबार, शोध पत्रिकाएं आदि से उसका निरपेक्ष रह पाना संभव नहीं है। इसलिए क्लार्क का कथन कि माध्यम का संबंध केवल सूचना के आवागमन तक सीमित रहता है, उचित नहीं है। गौरतलब है कि क्लार्क और कोझ़मा के बीच बहस उन दिनों हुई थी, जब तक वेब-2 का आविष्कार नहीं हो पाया था। अधिकतर वेब-सामग्री एकतरफा सूचना-प्रदाता माध्यमों पर सुरक्षित थी। यदि क्लार्क आधुनिक वेबसाइटों को देखते, ऐसी वेबसाइटों को देख पाते जिनपर वेबसाइट मालिकों की हैसियत महज सूचना प्रबंधक जैसी है—तब उनका निष्कर्ष अवश्य ही कुछ और होता।

     

इंटरनेट लर्निंग : भारतीय परिदृश्य और नई शिक्षा नीति

भारतीय संविधान में 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार माना गया है। भारत में इस आयु-वर्ग में करीब 30 करोड़ विद्यार्थी हैं। 300 विश्वविद्यालय स्तरीय शिक्षण संस्थान हैं, जिनसे जुड़े कॉलेजों की संख्या 12,600 से अधिक है। उनमें 80 लाख विद्यार्थी हैं। देश में स्कूल अध्यापकों की संख्या लगभग 95 लाख है। इनमें से 4,00,000 कॉलेज स्तर की संस्थाओं में अध्यापन करते हैं। बावजूद इसके देश में साक्षरता अनुपात मात्र 56 प्रतिशत है। अनेक ऐसे ठिकाने हैं जहां औपचारिक शिक्षण संस्थाओं का बेहद अभाव है। कुछ, खासकर उच्चशिक्षण संस्थान, अत्यंत महंगे होने के कारण गरीब आदमी की पहुंच से बाहर हैं। इसे देखते हुए ऑनलाइन शिक्षा देश के लिए वरदान सिद्ध हो सकती है।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में शिक्षा को प्रतिस्पर्धी एवं सर्वसुलभ बनाने पर जोर दिया गया है। इसके लिए उसमें ‘ऑनलाइन शिक्षा’ को बढ़ावा देने तथा उसके लिए नवीनतम प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल का भी संकल्प है। कहा गया है कि ऐसे क्षेत्रों में जहां बालक को सीधे शिक्षा देना संभव नहीं है—वहां ऑनलाइन शिक्षा बेहतर विकल्प बन सकती है। इसके लिए मानव संसाधन मंत्रालय के तहत, एक सशक्त ढांचा खड़ा करने की योजना बनाई गई है। ऐसा ढांचा जो स्कूली स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक, ऑनलाइन अध्ययन-अध्यापन हेतु प्रभावशाली डिजीटल सामग्री और कारगर सिस्टम का निर्माण करेगा; तथा सरकार और शिक्षण संस्थानों के लिए मार्गदर्शक का काम करेगा।

नई शिक्षा नीति में शिक्षा-क्षेत्र में सुधार तथा उसके बहुआयामी विस्तार हेतु, नवीनतम प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल पर जोर दिया गया है। एक ‘राष्ट्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी फोरम’ बनाने का संकल्प लिया है। यह फोरम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के विस्तार हेतु डिजीटल सामग्री के निर्माण, मूल्यांकन, योजना, प्रशासन, प्रबंधन आदि क्षेत्रों में नवीनतम प्रौद्योगिकी के प्रयोग के बारे में सलाह देगा। फोरम की सभी सेवाएं, स्कूल स्तर से लेकर उच्च शिक्षण संस्थानों तक, निःशुल्क उपलब्ध होंगी। फोरम क्लासरूम शिक्षा के क्षेत्र में नई तकनीकी के उपयोग के साथ-साथ, ऑनलाइन शिक्षा हेतु ई-सामग्री के निर्माण तथा अध्यापकों के प्रशिक्षण के क्षेत्र में नवीनतम तकनीक के उपयोग की संभावनाओं पर विचार कर, उनके कार्यान्वन हेतु भरोसेमंद मार्गदर्शक तंत्र का काम करेगा।

ऑनलाइन शिक्षा की समस्याएं

एक ओर जहां ऑनलाइन शिक्षा की उपयोगिता स्वयं-सिद्ध है, वहीं दूसरी ओर यह भी सच है कि भारत जैसे बड़े देश के भारी-भरकम और विविधतापूर्ण शिक्षातंत्र का संपूर्ण डिजिटलाइजेशन एकाएक संभव नहीं है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में प्राइमरी तथा प्री-प्राइमरी स्तर पर कुछ ऐसे स्कूल, शृंखलाबद्ध तरीके से खोले गए हैं, जिनमें अध्यापक की भूमिका कक्षा में अनुशासन बनाए रखने; अथवा विद्यार्थी की तात्कालिक जिज्ञासाओं के समाधान तक सीमित होती है। ऐसे स्कूलों में जोर केवल शिक्षण-सामग्री का डिजिटलाइजेशन पर होता है। बच्चे सामान्य तौर पर स्कूल आते हैं। कक्षा लगती हैं, किंतु दीवार पर ब्लैक बोर्ड के स्थान पर सिल्वर स्क्रीन या टेलीविजन सेट होता है। उसके द्वारा पूर्वनिर्धारित पाठ-सामग्री, स्रोत केंद्र से सीधे विद्यार्थियों तक पहुंचाई जाती है। अभी तक ऐसे स्कूल, नर्सरी और प्राईमरी स्तर तक हैं। अलग-अलग स्थान पर कक्षाएं चलाने के लिए बड़े कोचिंग संस्थान भी इस प्रौद्योगिकी का सहारा लेने लगे हैं।

कुछ महीनों से कोविड-19 की महामारी के दौरान शिक्षण को लेकर आ रही मुश्किलों के लिए परंपरागत स्कूलों ने भी ऑनलाइन कक्षाएं चलाना आरंभ किया है। यह मजबूरी में अपनाया गया रास्ता है। क्योंकि ऐसे स्कूलों द्वारा चलाई जा रही ऑनलाइन कक्षाओं में उपलब्ध प्रौद्योगिकी के दसवें हिस्से का भी उपयोग नहीं हो पा रहा है। लगभग सभी अध्यापक परंपरागत शिक्षा के माहौल से आए हैं। उनका समूचा अनुभव और ज्ञान, क्लासरूम शिक्षा तक सीमित है। सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी उनकी जानकारी बहुत सामान्य स्तर की है। ऑनलाइन शिक्षा के लिए जो आवश्यक उपकरण, लैब, डिजिटलीकृत पाठ-सामग्री आदि चाहिए, स्कूलों में उसका भी अभाव है। ऑनलाइन शिक्षा के नाम पर वे केवल भरपाई कर रहे हैं, ताकि स्कूलों के नाम पर चल रही उनकी दुकानें बंद न हों। विद्यार्थियों, खासकर प्राथमिक स्तर के बच्चों की हालत और भी बुरी है। उनमें से अधिकांश बच्चों की जानकारी कंप्यूटर खोलने और बंद करने तक सीमित है। इस हकीकत को उनके अभिभावक भी जानते हैं। लेकिन फिलहाल इसके अलावा उनके सामने कोई विकल्प भी नहीं है। विडंबना यह है कि यह आधी-अधूरी ऑनलाइन शिक्षा भी केवल एक-चौथाई बच्चों के लिए उपलब्ध है। देश में करीब 76 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो अन्यान्य कारणों से ऑनलाइन शिक्षा का लाभ उठाने से वंचित हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत के लगभग 22 फीसदी ग्रामीण घरों में आज भी बिजली की सप्लाई नहीं है। कुछ राज्यों में तो हालत और भी खराब है। ऑनलाइन शिक्षा का सारा दारोमदार इंटरनेट पर टिका है। देश में अभी कुल 31 प्रतिशत, लगभग 40 लोगों के पास इंटरनेट की आधी-अधूरी सुविधा उपलब्ध है। आंकड़े बताते हैं कि अगले कुछ वर्षों में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या दो गुनी हो जाएगी। इसी आधार पर सरकार का इरादा 2025 तक, शिक्षा को ऑनलाइन मोड में लाने का है। संकल्प बुरा नहीं है, मगर चुनौतियां भी कम नहीं हैं।

डिजिटल माध्यम द्वारा पाठ को विद्यार्थी तक पहुंचाने के लिए चाहिए एक कंप्यूटिंग मशीन, निर्बाध इंटरनेट कनेक्शन, जरूरी साफ्टवेयर। इसके अलावा उसे चाहिए एकांत। ऐसी जगह जहां विद्यार्थी बगैर किसी व्यवधान के दूर-शिक्षण का लाभ उठा सके। मुश्किल यह है कि भारत जैसे विविधताओं वाले देश में जहां आमदनी के हिसाब से लोगों के बीच जमीन-आसमान का अंतर है। गांवों और शहरों में बड़ी संख्या उन लोगों की है जिनके पास एक कमरे के घर हैं। जहां एक ही छत के नीचे छह-सात लोग रहते हैं। उनमें से काफी लोगों के लिए ये संसाधन जुटाना मुश्किल काम है। करीब चार महीने के घोषित-अघोषित लॉकडाउन और उस दौरान कीर्तिमान रच चुकी बेरोजगारी के कारण, विद्यार्थियों के माता-पिता की हालत ऐसी नहीं है कि वे बच्चों के लिए कंप्यूटिंग मशीन, इंटरनेट आदि का इंतजाम कर सकें। एक समाचार के अनुसार बच्चे की ऑनलाइन शिक्षा के लिए असम के एक परिवार को गाय बेचना पड़ी.  इस तरह के समाचार पूरे देश से प्राप्त हो रहे हैं।

‘इंडियन एक्सप्रेस’ में 27 जुलाई 2020 को प्रकाशित, हरियाणा की बडेशर तहसील के मोरनी गांव से जुड़े समाचार से ऑनलाइन शिक्षा की जमीनी हकीकत को समझा जा सकता है।3 उसके अनुसार गांव में गिने-चुने लोगों के पास स्मार्ट फोन हैं। जिनके पास हैं, वे ठीक-ठाक इंटरनेट सिग्नल न मिलने से परेशान रहते हैं। ऐसे में जिन विद्यार्थियों के पास स्मार्ट फोन नहीं है, उन्हें उन बच्चों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिनके पास फोन की सुविधा है। यह सुविधा उन्हें स्कूल समय में उपलब्ध नहीं हो पाती। उस समय जिसका फोन है, वह खुद ऑनलाइन क्लास से जुड़ा होता है। इसलिए बच्चे स्कूल समय के बाद उनके पास जाते हैं। ऐसे परिवार भी हैं, जिनके माता-पिता बच्चों को तत्काल मोबाइल फोन खरीदकर देने में असमर्थ हैं। गांव के एक किसान के ये शब्द पूरे भारत के मजदूर-किसानों की त्रासदी बयान करते हैं—‘मैंने कुछ रुपये बचाए थे। मगर लॉकडाउन के कारण सब घर-गृहस्थी की जरूरतों पर खर्च हो गए। अब सोच रहा हूं कि एक महीने में टमाटरों की फसल बिक जाएगी। उसके बाद मैं अपने बच्चों के लिए स्मार्ट फोन खरीद दूंगा।’ उस किसान की दो बेटियां हैं। छोटी पांचवी कक्षा में पढ़ती है, बड़ी सातवीं में। स्मार्टफोन न होने के कारण वे गांव के एक लड़के के घर जाती हैं। किसान के अनुसार—

‘मेरे पास साधारण फोन है, लेकिन यह बच्चों के किसी काम नहीं आ सकता। इसलिए जब तक टमाटरों की फसल उठ नहीं जाती, मैं अपनी बेटियों को उस लड़के के पास भेजने को विवश हूं, जिसके पास स्मार्ट फोन है। हमने कभी नहीं सोचा था कि पढ़ाई केवल टच फोन के सहारे ही संभव हो पाएगी।’

अखबार में स्थानीय पॉलिटेक्निक की छात्रा, देवी नामक लड़की का बयान भी छपा है। देवी के अनुसार, मोबाइल पर अपना काम निपटाने के बाद वह बच्चों को कापी-कलम के साथ अपने घर बुला लेती है—

‘शाम के समय उन सभी को अपने खेतों में काम करना पड़ता है। इसलिए वे दोपहर के बाद आते हैं और अध्यापक द्वारा भेजे गए नोट्स और वीडियो के पाठ को अपनी कापी में उतार लेते हैं।’

गौरतलब है कि पंचकुला जिले में शिवालिक की पहाड़ियों पर बसा मोरनी एक ऐतिहासिक गांव है। वह हरियाणा का टूरिस्ट स्थल भी है। यदि वहां के बच्चों की यह हालत है तो आप पूर्वी उत्तरप्रदेश, बिहार और उड़ीसा के गांवों के बच्चों के हालात का सहज अनुमान लगा सकते हैं।

ऑनलाइन शिक्षा की सफलता में भाषा की समस्या भी है। अभी तक जितने सॉफ्टवेयर बने हैं, वे सभी अंग्रेजी में है। यह ठीक है कि यूनीकोड ने कंप्यूटर पर भाषायी लेखन को आसान बनाया है। मगर उन बच्चों से जिन्होंने आपात-सुविधा के रूप में दूर-शिक्षण को अपनाया है, जो अंग्रेजी के की’बोर्ड को देखकर भी टाइप करना नहीं जानते, यह उम्मीद करना कि वे हिंदी अथवा अपनी मातृभाषा को यूनीकोड में टाइप करना सीखकर, कक्षा में सक्रिय भागीदार बन पाएंगे—एक दुष्कर कल्पना है। न केवल विद्यार्थी, अपितु अधिकांश अध्यापकों के आगे भी यह समस्या है। इस कमी को पेशेवर प्रोग्रामरों द्वारा तैयार ‘पाठ’ के माध्यम से काफी हद तक दूर किया जा सकता है। लेकिन वह खर्चीला उद्यम है, जिसे खानापूर्ति के नाम पर ऑनलाइन कक्षाएं चला रहे स्कूल शायद ही स्वीकार करें।

ऑनलाइन कक्षाओं के लिए जो साफ्टवेयर और पोर्टल, खासतौर पर भारत में इस्तेमाल किए जा रहे हैं, वे स्वयं विकास की प्रारंभिक अवस्था में हैं। ऐसे में लिखित उत्तर की अपेक्षा वाले प्रश्नों का उत्तर दे पाना विद्यार्थी के लिए, खासतौर पर छठी-सातवीं तक के बच्चों के लिए असंभव होगा। इस कमी को नजरंदाज करने के लिए स्कूल वस्तुनिष्ठ प्रश्नमालाओं के विकल्प को आजमा रहे हैं। उनके उत्तर कंप्यूटर या मोबाइल पर महज क्लिक के जरिए दिए जाते हैं। इससे विद्यार्थी की तात्कालिक समस्या का समाधान हो सकता है, परंतु लिखने का अभ्यास, खुद को अभिव्यक्त करने की कला, जो शिक्षा का अनिवार्यता है, वह ढंग से विकसित नहीं हो पाएगी।    

क्या ऑनलाइन शिक्षा स्कूली शिक्षा का विकल्प बन सकती है

क्या ऑनलाइन शिक्षा स्कूली शिक्षा का विकल्प बन सकती है? ऑनलाइन शिक्षा से समय अपना समय घर पर, अपने परिजनों के बीच अपेक्षाकृत आत्मीय माहौल में बिताने का अवसर मिलेगा। आने-जाने की थकान, रास्ते के प्रदूषण से उसका बचाव होगा। बावजूद इसके घर-बैठे ऑनलाइन शिक्षा, विशेषकर वर्तमान परिस्थितियों में, स्कूली शिक्षा का सार्थक विकल्प बन सकेगी—इसमें संदेह है। बालक जब स्कूल जाता था तो घर से निकलने के बाद उसका वास्ता तरह-तरह के लोगों से पड़ता था। अपने साथियों से मिलता-मिलाता था। अध्यापकों और स्कूल के बाकी स्टाफ से संपर्क में आता था। इससे स्कूली शिक्षा के साथ-साथ बालक के समाजीकरण का सिलसिला, जो पुस्तकीय शिक्षा से भी अधिक महत्वपूर्ण है—चलता रहता था। बालक को प्रबुद्ध नागरिक में ढालने के लिए उन अनुभवों की महत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। ऑनलाइन क्लासिस के दौरान बालक का जीवन केवल परिवार के दायरे में सिमटकर रह गया है। एक बात और….सहपाठियों के साथ पढ़ते हुए बालक के मन में अनायास एक स्पर्धा जन्म ले लेती थी। उसमें थोड़ी-बहुत नकारात्मकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। मगर उसका बड़ा हिस्सा सकारात्मक ही होता था। वह बालक को और अधिक परिश्रम करने, आगे बढ़ने की प्रेरणा देती थी। सहपाठियों के बीच रहकर बालक के बीच स्वतः मूल्यांकन की प्रक्रिया सतत चलती रहती थी। दूर-शिक्षण ने इन अवसरों को उनसे छीन लिया है।

बंद कमरे में दूर-शिक्षण के लिए कंप्यूटर स्क्रीन पर नजर गढ़ाए बैठा बालक पाठ सामग्री के रूप में केवल सूचनाएं समेट सकता है। सूचनाओं को ज्ञान में बदलने के लिए जो आपसी संवाद, परिचर्चाएं और अनुभव चाहिए, वे ऑनलाइन शिक्षा द्वारा संभव नहीं हैं। दूसरे शब्दों में ऑनलाइन शिक्षा ने सूचनाओं को ज्ञान में परिवर्तित करने, उसे अनुभवों के रूप में दोहराने का अवसर बच्चों से छीन लिया गया है। यदि महामारी के कारण, आधे-अधूरे संसाधनों पर टिकी वर्तमान दूर-शिक्षण प्रणाली लंबे समय तक अपनायी जाती है तो उससे बालक को शिक्षा के क्षेत्र में जो हानि होगी, उसकी अभी हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं।

इन कमियों के बावजूद मानना पड़ेगा कि भविष्य आनलाइन शिक्षा के साथ है। जैसे-जैसे इंटरनेट और संचार प्रौद्योगिकी का विस्तार होगा, ऑनलाइन शिक्षा के क्षेत्र में आ रही मुश्किलें भी कम होती जाएंगीं। पहले चरण में कक्षाओं का डिजिटलीकरण होगा। वह दिन दूर नहीं जब आने वाले दशकों में ब्लैक बोर्ड बिलकुल गायब हो जाएंगे। उनकी जगह टेलीविजन स्क्रीन सेट ले लेंगे। अध्यापकों का काम स्कूलों में पढ़ाने के बजाए, पाठ्यसामग्री तैयार करने तथा उसे प्रयोगशाला से, इंटरनेट के माध्यम से छात्रों तक पहुंचाना भर रह जाएगा। राष्टीय शिक्षा नीति—2020 में सरकार ने, पाठ-सामग्री के निर्माण हेतु ‘स्वयं’, ‘दीक्षा’, ‘स्वयंप्रभा’ नाम से डिजिटलीकृत प्रयोगशालाएं बनाने पर जोर दिया है। ऑनलाइन परीक्षा के लिए भी ‘परख’ नाम से पोर्टल बनाने का सुझाव है। यदि इस दिशा में प्रभावशाली ढंग से आगे बढ़ा गया तो संभव है आने वाले चंद दशकों में ही औपचारिक कक्षाओं की जगह, वर्चुअल कक्षाएं छा जाएं और बड़े-बड़े स्कूल उसी तरह बेमानी लगने लगें जैसे आज सिनेमाघर दिखते हैं। तब हम ‘अपना देश, अपनी भाषा, सबको समान शिक्षा’ के लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ सकेंगे; और विद्यार्थियों को उनकी पसंद की शिक्षा उंनकी सुविधा अनुकूल समय पर उपलब्ध हो सकेगी।

ओमप्रकाश कश्यप

 संदर्भ : 

  1. Clark, R. E. (1994). Media will never influence learning. Educational, Technology Research and Development,  Page 5.
  2. Kozma, R. B. (1994). Will media influence learning? Reframing the debate. Educational Technology Research & Development,42(2), 7-19. Retrieved February 15, 2006, fromhttp://mmtserver.mmt.duq.edu/mm416-01/gedit704/articles/kozmaArticle.html
  3. इंडियन एक्सप्रेस, 27 जुलाई 2020,https://indianexpress.com/article/cities/chandigarh/haryana-struggling-to-study-at-remote-morni-village-students-travel-miles-to-access-a-smartphone-6524856/  

ईश्वर और धर्म से मुक्ति : पेरियार और धर्म 

विशेष रुप से प्रदर्शित

धर्म और राज्य में व्यावहारिक रूप में चाहे जितना अंतर नजर आता हो, उनकी उत्पत्ति का कारण समान है। वह कारण है—व्यक्ति का अहंबोध। यह मान लेना कि वही श्रेष्ठतम है….दूसरों को उसका आदेश मानना ही चाहिए। इन दोनों की अवधारणा उस क्षण जन्मी थी, जिस क्षण किसी व्यक्ति के मन में श्रेष्ठतम होने का एहसास जन्मा था।( यहाँ  धर्म और अध्यात्म को एक-दूसरे से अलग ही रखें तो अच्छा। अध्यात्म का संबंध मनुष्य की आंतरिक और बाह्य: जगत को लेकर उपजी जिज्ञासा और कौतूहल से है। उसमें नवीनता और वैभिन्न्य के लिए भरपूर गुंजाइश होती है। एक ही समूह के अलग-अलग व्यक्ति अपने स्वतंत्र अध्यात्मबोध के साथ जी सकते हैं। उनमें किसी एक का अध्यात्मबोध दूसरे के अध्यात्मबोध की राह में बाधक नहीं बनता। धर्म के साथ ऐसा नहीं है।) धर्म वर्चस्व की भावना एवं स्पर्धा को जन्म देता है। चूंकि राज्य और धर्म की उत्पत्ति का क्षण एक; तथा प्रवृत्ति लगभग समान है, इसलिए उनका इतिहास भी एक-दूसरे से मेल खाता है। अपने-अपने विस्तार के लिए दोनों ने खूब खून-खराबा किया है। चूंकि दोनों के स्वार्थ एक-दूसरे से जुड़े हैं, इसलिए जरूरत पड़ने पर राज्य यह कहकर कि उसने जो किया, धर्म के लिए किया….तथा धर्म यह दावा करते हुए कि उसने जो किया, वही देवेच्छा थी, इसी में सबका कल्याण है—दोनों एक-दूसरे का सुरक्षा-कवच बनते आए हैं। इस कोशिश में दोनों न केवल एक दूसरे की कमजोरियों पर पर्दा डालते हैं, अपितु मनमानी करने का अवसर भी देते हैं।  

समाज और संस्थाओं का स्तरीकरण धर्म की प्रवृत्ति है। वह खुद भी एक बहुस्तरीकृत संस्था है। अपने स्थायित्व के लिए वह पूरी सृष्टि को ‘देवता’ और ‘देवता नहीं हैं’ में बांट देता है। फिर ‘देवता नहीं हैं’ का एक छोटा-सा हिस्सा खुद को उससे अलग कर लेता है। वह स्वयं को ‘देवता’ का विशेषज्ञ और उसका जानकार होने का दावा करने लगता है। अपनी जानकारी के दावे के समर्थन में वह ‘देवता’ को लेकर कुछ चमत्कारयुक्त मिथ गढ़ लेता है। उन मिथों के सहारे ‘देवता’ से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संबंध स्थापित कर, बचे हुए ‘देवता नहीं हैं’ वर्ग के आगे श्रेष्ठतर होने का दावा पेश कर देता है। चूंकि चमत्कार और मिथों से जुड़ी कहानियां सभी को लुभाती हैं, इसलिए आरंभ में केवल मनोरंजन और कौतूहल की वांछा से, ‘देवता नहीं है’ समूह के बाकी लोग उन्हें सहज भाव से अपना लेते हैं। धीरे-धीरे जब वे मिथ और चमत्कार, प्रतीकों, कलाओं, लिखित सामग्री, श्रुति आदि के रूप में अगली पीढ़ी तक, उत्तराधिकार के रूप में पहुँचते हैं, तो आगंतुक पीढ़ी उनके प्रति ठीक वैसी ही निरपेक्ष नहीं रह जाती, जैसी उससे पिछली पीढ़ी थी। नई पीढ़ी उन्हें पिछली पीढ़ी के ‘पवित्र’ अवदान के रूप में सहेजकर रखती है। उसके बाद तो हर नई पीढ़ी के साथ ‘पवित्रताबोध’ का अनुपात बढ़ता ही जाता है। किसी सामान्य घटना, विचार अथवा वस्तु के ‘धर्म’ अथवा ‘टोटम’ बनने के पीछे यही प्रवृत्ति काम करती है। इस बात को शासकवर्ग भी भली-भांति जानता था। वह धर्म की शक्ति का उपयोग अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए करता है। इसलिए यह अन्यथा नहीं है कि भारत में धर्मसत्ता के मजबूत होने का जो समय है, वही समय राजसत्ता के मजबूत होने का भी है। पहली बार गौतम बुद्ध ने दुनिया को संगठित धर्म की ताकत का अहसास कराया था। अशोक ने उसका उपयोग कलिंग युद्ध के बाद बिगड़ चुकी अपनी छवि के सुधार के लिए किया। इससे लोगों को पहली बार धर्म की सांगठनिक क्षमता के बारे पता चला। उसके बाद तो हर राजा अपने मंसूबे साधने के लिए धर्म की मदद लेने लगा। ईसा मसीह और मोहम्मद साहब दोनों को अपने क्रांतिधर्मा विचारों के कारण समाज में विरोध का सामना करना पड़ा था। लेकिन कुछ अरसे बाद जब जनता में उनके विचारों का प्रभाव बढ़ा और लोग उनके प्रति सम्मोहित नजर आने लगी तो राजाओं और राजसत्ता का सपना देखने वाले लोगों ने भी जनता को अपने प्रभाव में लेने के लिए उनके विचारों का इस्तेमाल करना आरंभ कर दिया। धर्म और राजनीति के गठजोड़ ने ही साम्राज्यवाद को संभव बनाया है। यही कारण है कि समानता और स्वतंत्रता को मनुष्य का मौलिक अधिकार मानने वाले, लगभग सभी आधुनिक विचारकों ने धर्म और उसके सहारे पलने वाले सांस्कृतिक वर्चस्व की आलोचना की है।

मिखाइल बकुनिन ने कहा था कि धर्म का खास गुण, ईश्वर के महिमामंडन द्वारा मनुष्यता का अनादर करना है। हिंदू धर्म की स्थिति थोड़ी अलग है। हिंदुओं में ब्राह्मण खुद को ईश्वर और धर्म का व्याख्याकार बताकर खुद को बाकी लोगों से अलग कर लेता है। बकौल ‘मनुस्मृति’ वह पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि बनकर रहता है। इसलिए हिंदू धर्म में मनुष्यता का अनादर मुख्यतः गैर-ब्राह्मणों तक, जो कुल आबादी का 90 प्रतिशत हैं, सीमित होकर रह जाता है। इसलिए धर्म और ईश्वर के प्रति चुनौती को ब्राह्मण, अपने अस्तित्व को चुनौती मान लेते हैं। ‘ईश्वर और राज्य’ में बकुनिन ने लिखा है कि ईश्वर, ‘मानवीय गरिमा तथा उसकी स्वतंत्रता के प्रति निश्चित रूप से सर्वाधिक ईर्ष्यालु, सर्वाधिक अहंकारी, सर्वाधिक क्रूर, सर्वाधिक अन्यायी, सर्वाधिक जालिम, सर्वाधिक निरंकुश और सबसे ज्यादा शत्रुतापूर्ण था।’ उसके बनिस्पत शैतान या राक्षस बकुनिन के शब्दों में—‘शाश्वत विद्रोही, प्रथम मुक्त चिंतक तथा मनुष्यता का मुक्तिदाता है। वह पहला प्राणी है जो मनुष्यता की समस्त बंधनों से मुक्ति का सपना देखता है।’ बकुनिन ने यह मुख्यतः बाईबिल के बारे में लिखा है। लेकिन हर धर्म के ‘ईश्वर’ की यही स्थिति है। हर ‘ईश्वर’ अपने पक्ष को अंतिम और सर्वोपरि मानता है। संवाद का अवसर दिए बिना, वह चाहता है कि लोग केवल उसका आदेश मानें। उल्लंघन करने पर दंड के लिए तैयार रहें। मनमानी करना सत्ता का लक्षण है। इसलिए दुनिया में जितने भी ‘ईश्वर’ हैं, वे सत्ता के समर्थन से ही ‘ईश्वर’ बने हैं। सत्ता ने उन्हें गढ़ा ही इसलिए कि ईश्वर के नाम पर वह अपनी मनमानियों को वैध बना सके। एक बार ‘ईश्वर’ स्थापित हो जाए तो सर्वसत्तावादियों का खेल आसान हो जाता है। अपने स्वार्थ को ईश्वरेच्छा बताकर वे अपनी इच्छाओं को अपने अनुयायियों पर थोपने लगते हैं। अनुयायी उनपर तथा उनके गढ़े हुए ईश्वर पर भरोसा करें, इसलिए उसके नाम पर चमत्कारों भरे आख्यान गढ़ लिए जाते हैं। जनता उन्हें धर्म, परंपरा और संस्कृति के नाम पर सहेजती जाती है। लोक-स्मृति से उन्हें मिटाना असंभव नहीं तो कठिन बहुत होता है। इसके लिए लंबा और सतत बुद्धिवादी संघर्ष अपेक्षित होता है।

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जनता के बीच धर्म का सीधा अर्थ आध्यात्मिक शक्ति पर विश्वास से है। लोगों को यही बताया भी जाता है वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार इसका अर्थ उन आध्यात्मिक एवं सांसारिक गतिविधियों से भी है, जिन्हें कोई व्यक्ति जाति-विशेष से संबद्ध होने के नाते करता है; अथवा वर्ण-विधान के आधार पर उससे ऐसा करने की अपेक्षा की जाती है। धर्म पर टिके इस जाति-विधान में ब्राह्मण का दर्जा सर्वोपरि है। वही धर्म का मुख्य कर्ता-धर्ता है। इस कारण उसके कुछ विशेषाधिकार भी हैं। जाति चूंकि मानवीय विवेक, चयन के नैसर्गिक अधिकार का निषेध करती है, इसलिए जब से बनी है, तभी से उसकी आलोचना होती आई है। लेकिन कुछ लोगों के लिए वह पवित्र विधान है। अत: जब भी उसपर संकट आता है, या बड़ी चुनौती खड़ी होती है, धर्म उसका सुरक्षा-कवच बन जाता है। धर्म ऐसा क्यों करता है? जाति तो उसकी अनिवार्यता नहीं है। हिंदू धर्म को छोड़ और किसी धर्म में समाज के जातीय विभाजन की अवधारणा नहीं है। हिंदू धर्म में इसलिए है क्योंकि इसका मुख्य कर्ता-धर्ता ब्राह्मण जातिक्रम में भी शिखर पर हैं। शीर्षस्थ शक्ति होने के कारण इस व्यवस्था में वह हमेशा लाभ की स्थिति में रहता है। जब भी जाति को चुनौती मिलती है, वह धर्म और संस्कृति के अपसंस्करण का मुद्दा खड़ा कर देता है। उन्हीं की आड़ में वह जाति को बचा ले जाता है। चुनौतियों के बीच यदि कुछ समजौते करने पड़ें तो करता है, लेकिन अपनी सामाजिक प्रस्थिति और विशेषाधिकारों पर कोई आंच नहीं आने देता। 

जाति-व्यवस्था और उसके सर्वाधिक विकृत रूप छूआछूत को चुनौती देने के लिए धर्म को आलोचना की जद में लाना आवश्यक था। ऐसा किसी न किसी रूप में जाति और धर्म की उत्पत्ति के समय से ही होता आया है। बीसवीं शताब्दी में यदि किसी ने जाति, धर्म और धार्मिक आडंबरवाद,  यहाँ  तक कि धर्म की शीर्षतम परिकल्पना ईश्वर को भी खुली चुनौती दी, तथा अपने स्वार्थ के लिए उनका प्रचार-प्रसार करने वाले पुरोहित वर्ग ब्राह्मणवाद के विरोध में खुलकर संघर्ष किया तो वे थे—ई. वी. रामासामी पेरियार। यद्यपि ज्योतिबा फुले और डॉ. आंबेडकर ने भी हिंदू धर्म में व्याप्त रूढि़यों और आडंबरों के लिए ब्राह्मणवाद को जिम्मेदार माना था। फुले तो उसके जन्मदाता ही थे। फुले ने ‘तृत्तीय रतन’, ‘किसान का कोड़ा’ और ‘गुलामगिरी’ जैसी पुस्तकों में ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा जनसाधारण के शोषण के बारे में बताया है।  ‘गुलामगिरी’ हिंदू धर्म और संस्कृति का विखंडनात्मक पाठ है। डॉ. आंबेडकर ने ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’, ‘जाति का उच्छेद’ जैसी पुस्तकें लिखकर हिंदूधर्म की विकृतियों की बारीकी से पड़ताल की थी। पेरियार ने जनसंवाद का रास्ता अपनाया। ब्राह्मणवाद की कटु आलोचना की; और द्रविड़ संस्कृति को उसके समानांतर लाकर, आमने-सामने की लड़ाई बना दिया था। धर्म और जाति के मामले में वे सीधे उच्छेदवादी थे। देखा जाए तो डॉ. आंबेडकर और पेरियार के बीच यही मामूली अंतर भी है। आंबेडकर जाति को लेकर पूरी तरह उच्छेदवादी हैं। जबकि धर्म के प्रति उनका दृष्टिकोण सुधारवादी था। आरंभ में उन्हें उम्मीद थी कि हिंदू धर्म अपने भीतर सुधार करेगा। ‘जाति का उच्छेद’ पुस्तक लिखकर उन्होंने हिंदू समाज के उस नासूर को सामने लाने का काम किया था, जिससे छुटकारा पाए बगैर हिंदू धर्म का स्वस्थ, मानवीय धर्म बन पाना असंभव था। हिंदू धर्म के नेता, धर्माचार्य उस विकृति का उपचार करेंगे, इसकी वे 20 वर्ष तक प्रतीक्षा करते रहे। इस बीच दूसरे धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन भी करते रहे। अंत में हिंदू धर्म और धर्माचार्यों की ओर से जन्मी निराशा ने उन्हें बौद्ध धर्म की ओर प्रवृत्त कर दिया।  

1920 से 1927 तक पेरियार भी जाति-व्यवस्था और छूआछूत के कारण हिंदू धर्म पर हमलावर रहते हैं। वे जातीय असमानता और धर्म दोनों की आलोचना करते हैं, परंतु धर्म-सत्ता पर पूरी तरह हमलावर नहीं होते। बदलाव उनकी विदेश यात्रा के बाद आता है। यूरोप और सोवियत संघ की प्रगति देखकर वे अचंभित होते हैं। समानता, सहयोग और सहअस्तित्व के आधार पर बनीं वहाँ की नई सामाजिक संरचना उन्हें लुभाती है। वहाँ से ठेठ बुद्धिवादी बनकर लौटते हैं। यात्रा से पहले केवल हिंदू धर्म उनके निशाने पर था। इसलिए कि वह जातिवाद और छूआछूत को प्रश्रय देता; और उन्हें दैवीय बताता था। धीरे-धीरे समूची धर्मसत्ता उनकी आलोचना की जद में आ जाती है। एक नए पेरियार का जन्म होता है, जो बुद्धिवाद का समर्थक है। तर्क और ज्ञान-विज्ञान को महत्व देता है। समाजवादी राज्य का सपना देखता है। मिजाज से नास्तिक है। धर्मसत्ता पर बगैर हिचके प्रहार करता है। 

इस दृष्टि से उनकी तुलना मिखाइल बकुनिन से की जा सकती है। मार्क्स का विचार था कि ‘शक्तिशाली वर्ग राज्य की मदद से शासन करता है’। ‘राज्य और ईश्वर’ में बकुनिन ने लिखा है कि ‘राज्य शक्तिशाली वर्ग की मदद से राज करता है।’ राज्य कुछ और नहीं, शक्तिशाली वर्ग की इच्छा की परिणति होता है। वह इस तरह छाया रहता है कि शक्तिशाली वर्ग की इच्छा ही राज्य की इच्छा मान ली जाती है। जनसाधारण राजनीति और पूँजीवाद के गठजोड़ को न समझ पाए, इसके लिए वह धर्म की मदद लेता है। इसलिए मार्क्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा दी थी। बकुनिन धर्म के अभिजन चरित्र को उजागर करता है। कहता है कि राज्य और धर्म का अपवित्र गठबंधन कमजोरों और गरीबों की स्वतंत्रता की सबसे बड़ी बाधा है, अपने स्वार्थ के लिए दोनों उसे विपन्न बनाए रखते हैं। पेरियार मिजाज से अराजकतावादी थे। फिर भी राज्य के प्रति उतने सख्त नहीं थे। कारण यह है कि जिस वर्ग की लड़ाई वे लड़ रहे थे, उसके अधिकारों पर धार्मिक-सांस्कृतिक शक्तियों ने डाका डाला हुआ था। उनके विरुद्ध संघर्ष में राज्य कभी-कभी मददगार की भूमिका निभाने लगता था। उनकी असल लड़ाई ब्राह्मणों तथा उनके धर्म से थी। राज्य के प्रति आलोचक थे तो इसलिए थे कि अपने स्वार्थ के लिए वह पुरोहितवाद को संरक्षण देने लगता है। उनका कहना था कि शूद्रों को ‘वेश्या की संतान’ बनाए रखने के राज्य और ब्राह्मण दोनों मिलकर काम करते हैं। 

अज्ञात का डर समाज में धर्म के लिए जगह बनाता है। इसलिए शूद्रातिशूद्र धर्म की ओर आकर्षित होते हैं। बिना यह जाने कि वे सब व्यवस्थाएं ब्राह्मणों ने अपने वर्गीय हितों को सुरक्षित रखने के लिए बनाई हैं। यह शूद्रातिशूद्रों की अज्ञानता ही है कि उन्होंने अपनी ऊर्जा का बड़ा हिस्सा मंदिरों में प्रवेश के लिए खपाया है। पेरियार के इस विषय में क्या विचार थे, इसे वायक्कम आंदोलन से समझ सकते हैं। नारायण गुरु ने वायक्कम मंदिर में प्रवेश के अधिकार के लिए शूद्रों के आंदोलन का नेतृत्व किया था। उन दिनों शूद्रों को चुनींदा मार्गों पर ही चलने का अधिकार था। वायक्कम मंदिर के आसपास से गुजरती सड़कों पर भी उन्हें चलने का अधिकार नहीं था। वायक्कम सत्याग्रह की शुरुआत के बाद एक समय ऐसा आया जब पेरियार को उसमें सहभागी बनने के लिए आमंत्रित किया गया। उनके लिए मंदिर प्रवेश कोई मुद्दा नहीं था। वे सत्याग्रह में शामिल हुए। जीत भी मिली, परंतु उनकी प्राथमिकता, अस्पृश्यों की सार्वजनिक मार्गों पर चलने की आजादी को लेकर थी। 25-26 दिसंबर, 1958 को पेरियार ने अपने एक भाषण में उस घटना को याद किया था—

”महारानी(त्रावणकोर) निचली जाति के शूद्रों और अछूतों के लिए सभी मार्ग खोल देने को तैयार थीं। लेकिन, उन्होंने अपने डर के बारे में बताया। उन्हें लगता था कि मैं अछूतों के मंदिर प्रवेश के अधिकार की खातिर आंदोलन को उसके बाद भी जारी रख सकता हूं। गाँधी यात्री-भवन में पहुँचे, जहां मैं ठहरा हुआ था। उन्होंने मेरी राय जाननी चाही। मैंने कहा, ‘क्या अछूतों को सार्वजनिक मार्गों पर चलने का अधिकार प्राप्त होना बड़ी उपलब्धि नहीं है! यूं भी, क्या मंदिर प्रवेश कांग्रेस के आदर्शों में से एक नहीं है। जहां तक मेरी बात है, यह मेरे प्रमुख सरोकारों में से एक है। लेकिन, आप महारानी को खबर कर सकते हैं कि फिलहाल मंदिर प्रवेश के अधिकार को लेकर आंदोलन खड़ा करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। मैं आगे क्या करूंगा, इसे तय करने से पहले माहौल शांत होने दीजिए।”18 

पेरियार नास्तिक कैसे बने? क्यों बने? नास्तिक बनने की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली? इसकी खोज करते हुए जी. अलोसियस औपनिवेशिक शासन के दौरान प्रशासनिक बदलावों की शुरुआत तक चले जाते हैं।19 उन्हीं के कारण गैर-ब्राह्मणों को शिक्षा के अवसर मिले। औद्योगिकीकरण से वैकल्पिक रोजगार के अवसर बढ़े। इन दोनों ने जाति-प्रथा को कमजोर करने का काम किया। पहले हिंदुओं के प्रमुख ग्रंथ संस्कृत में थे। उसे पढ़ने-लिखने का अधिकार भी केवल ब्राह्मणों तक सीमित था। इसलिए धर्म की व्याख्या के लिए ब्राह्मणेत्तर जातियां ब्राह्मणों पर निर्भर थीं। जैसा वे कहते वैसा मानना ही पड़ता था। बदले परिवेश में वे सभी ग्रंथ अँग्रेजी और दूसरी यूरोपीय भाषाओं में उपलब्ध होने लगे। धर्म-ग्रंथों को पढ़ने-लिखने से लेकर उनकी आलोचना तक का अधिकार समाज के सभी वर्गों को प्राप्त हो गया। पूर्व-स्थापित मान्यताओं का विश्लेषण कर, उनके नए अर्थ निकाले जाने लगे। इस बीच धार्मिक अंतरण के नए रास्ते खुले। धर्मों के बीच स्पर्धा बढ़ने से उनके काम में लगी शक्तियों को सुरक्षात्मक मुद्रा में आना पड़ा। इससे मनुष्य का आत्मविश्वास बढ़ा और वह मुक्ति के नए आयाम खोजने लगा।

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आधुनिक भारत में नास्तिकता को वापस लाने का श्रेय दक्षिण भारत को जाता है। 1878 में वहाँ ‘मद्रास सेकुलर सोसाइटी’ का गठन हुआ था। उसके सदस्य संख्या में कम, मगर सक्रियता के मामले में बहुत आगे थे। अगले दस वर्षों तक वे धर्मसत्ता और उसके विभिन्न अपररूपों पर लगातार प्रहार करते रहे। ‘असुर’, ‘राक्षस’ आदि जिन्हें हिंदू संस्कृति का खलपात्र माना गया है, की उन्होंने पुनर्व्याख्या की। आर्य-श्रेष्ठता के मिथ को चुनौती दी। धर्म के आलोचना पक्ष को मजबूत करने के लिए ‘दि थिंकर’ नाम का अखबार निकाला, जो नास्तिक विचारों का प्रचार करता था। उसके फलस्वरूप धर्म वैसी पवित्र गाय नहीं रह गया था, जैसा वह पहले था। धार्मिक सुधारों की मांग बढ़ रही थी। पेरियार के समय तक हिंदू धर्म के सुधारवादी और यथास्थितिवादी आमने-सामने आ चुके थे। एक वर्ग आधुनिक विचारों के तत्वावधान में उसका नवोन्मेषण चाहता था। दूसरे को उसकी स्वयं-घोषित महानता पर पूरा विश्वास था। इसलिए वह किसी भी प्रकार के बदलाव का विरोधी था। 

हिंदू धर्म की बढ़ती आलोचना और ब्राह्मणों के यथास्थितिवादी दृष्टिकोण ने असंतुष्टों को करीब एक हजार वर्ष पहले लुप्त हो चुके बौद्ध धर्म की खोज के लिए प्रेरित किया। उसकी शिक्षाओं को अपेक्षाकृत आधुनिक और लोकतांत्रिक मूल्यों के करीब माना गया। प्राचीन ‘संघम साहित्य’ एवं बौद्ध धर्म के अंतःसंबंधों की खोज से स्वतंत्र द्राविड़ अस्मिता की अवधारणा को बल मिला। इस क्षेत्र में पहल करने वाले थे—आयोथि थास। उन्हें दक्षिण भारतीय समाज में नवजागरण का अग्रदूत माना जाता है। दक्षिण भारत में प्रचलित जातिप्रथा तथा उसके प्रति लोगों के दुराग्रह पर टिप्पणी करते हुए, आयोथि थास ने कहा था कि द्रविडि़यन आर्यों की जाति-प्रथा को मानते हैं। इस तरह मानते हैं मानो वह उन्हीं का आविष्कार हो। जाति-प्रथा के चलते कृषि, उद्योग, व्यापार, शिक्षा आदि का विकास नहीं हो सकता। क्योंकि ब्राह्मण का उद्देश्य केवल ज्ञानार्जन होता है। क्षत्रिय शासन करता है और व्यापारियों का काम लेन-देन तक सीमित होता है। केवल शूद्र वर्ग ऐसा है जो खेती और उत्पादन दोनों की जिम्मेदारी संभालता है। लेकिन उसे ज्ञानार्जन का अधिकार नहीं होता। उसके अभाव में वह परंपरागत तरीके से ही काम चलाता है। प्राचीन सभ्यताओं में यह निभ सकता था। क्योंकि उस समय मनुष्य की सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति स्थानीय उत्पादक आसानी से कर सकते थे। परंतु वर्तमान में जब मनुष्य की जरूरतें बढ़ती जा रही हैं, परंपरागत ढंग की प्रणालियों से काम चलना आसान नहीं है। इसलिए शोषणकारी जातिप्रथा का उन्मूलन जितनी जल्दी संभव हो, हो जाना चाहिए।‘ थॉस ने अशिक्षित और गरीब जनता को लूटने वाले राजनेताओं को फटकार लगाई थीा उनका कहना था कि वे लोग जनता का हितैषी बनकर उसे लूटने का काम करते हैं। ब्राह्मण कहते हैं कि शूद्रों को वेदादि ग्रंथ पढ़ने का अधिकार नहीं है। इस तरह की भेदभावपूर्ण नीतियों को बनाने वाला ईश्वर हो ही नहीं सकता। वह कुटिल ब्राह्मण अथवा कोई निरंकुश ताकत हो सकता है. ऐसे ईश्वर के प्रति आस्था का प्रदर्शन करने से अच्छा है कि किसी महापुरुष की अभ्यर्थना कर ली  जाए।

आगे बढ़ने से पहले एक बात और। भारत में धार्मिक-सामाजिक सुधारवाद की शुरुआत का श्रेय बंगाल को देने की परंपरा रही है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि राजाराममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, केशवचंद सेन, देवेंद्रनाथ ठाकुर आदि भारत के आरंभिक सुधारवादियों का संबंध बंगाल से था। उनकी विशेषता, जिसे उनकी कमजोरी भी कहा जा सकता है, थी कि वे हिंदू धर्म की परिसीमा में रहते हुए, धार्मिक-सामाजिक सुधारों को अंजाम देना चाहते थे। धार्मिक-सामाजिक सुधारवाद की समानांतर लहर दक्षिण से भी चली थी, जो अपेक्षाकृत निर्णायक और अधिक परिवर्तनकामी थी। दक्षिण में जन्मे संत अय्यंकालि, आयोथि थास आदि ने वहाँ धार्मिक-सामाजिक सुधारवादी आंदोलनों का नेतृत्व किया था। उनमें और बंगाल के सुधारवादियों में मूल-भूत अंतर यह था कि बंगाल के सुधारवादी हिंदू धर्म के प्रति अधिक आशान्वित थे। मानते थे कि सुधारों के माध्यम से हिंदू धर्म को अधिक मानवीय बनाया जा सकता है। वहीं दक्षिण के सुधारवादी हिंदू धर्म को सुधार का अवसर देना चाहते थे। लेकिन यदि हिंदू धर्म अपेक्षित सुधारों के लिए तैयार नहीं होता है तो उन्हें उसे छोड़ देने से भी गुरेज नहीं था। एक और बड़ा अंतर जिसका संबंध पहले से ही है, वह यह है कि बंगाल और उत्तर भारत के सुधारवादियों का विश्वास था कि यदि हिंदू धर्म में ऊपर के वर्गों में सुधार होता है, तो सुधार की वह प्रक्रिया, प्रकारांतर में निचले वर्गों में भी अंतरित होगी। इसलिए धार्मिक सुधारवाद की पहल उन्होंने समाज के शीर्षस्थ वर्गों के साथ आरंभ की थी। जबकि संत अय्यंकालि, पेरियार जैसे दक्षिण भारतीयों ने अपना कार्यक्रम निचले वर्गों के बीच से शुरू किया था। ठीक ऐसे ही जैसे ज्योतिबा फुले ने महाराष्ट्र में किया था। वे निचले वर्गों को मजबूत करके, ऊपर के वर्गों को चुनौती देना चाहते थे कि धर्म, समाज और देश-हित में उन्हें आवश्यक सुधारों को स्वीकार लेना चाहिए। इसके बीजतत्व दक्षिण भारतीय साहित्य और संस्कृति में पहले से ही मौजूद थे। तमिल में तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व के संघम साहित्य से लेकर, संत तिरुवेलुवर तक साहित्य और संस्कृति की प्राचीनतम परंपरा थी, जो आर्य-संस्कृति की श्रेष्ठता के मिथ को नकारती थी। पेरियार के आत्मसम्मान आंदोलन की पृष्ठभूमि में वही विचारधारा थी। पांचवी शताब्दी का जैन काव्य ‘नीलकेसी’ तथा उसकी प्रतिक्रिया में रचा गया, बौद्ध काव्य ‘कुंडालकेसी’ वहाँ बौद्ध एवं जैन धर्म की न केवल उपस्थिति दर्शाता है। बल्कि जिस तरह ‘नीलकेसी’ की प्रतिक्रिया में बौद्ध आचार्य ‘कुडांलकेसी’ की रचना करते हैं, उससे लगता है कि उस समय भारतीय धर्म-दर्शन की ये दोनों शाखाएं दक्षिण में काफी जीवंत रूप में विद्यमान थीं। उनके बीच बहस होती रहती थी। इनके साथ-साथ मक्खलि गोशाल का ‘आजीवक’ संप्रदाय भी हर्षवर्धन के काल तक अपनी उपस्थिति बनाए हुए था। 

नास्तिकता, पेरियार के बचपन के अनुभवों का उपहार थी। उनके पिता की दुकान पर हिंदू साधु-संत आते थे। अधिकांश का मकसद होता था, दान-दक्षिणा के नाम पर कुछ न कुछ ऐंठ लेना। पेरियार ने इसे करीब से देखा था। ब्राह्मणों का लालच देखकर कभी-कभी वे उनका उपहास भी करने लगते थे। इसके अलावा, किशोरावस्था से ही पेरियार को जिन्होंने प्रभावित किया, उनमें से एक थे मुरुथैया पिल्लई। मरुथैया इरोड के ही रहने वाले थे। वे तमिल के प्रखर विद्वान, ओजस्वी वक्ता, जाति, परंपरावाद, धार्मिक आडंबरों और धर्म के कटु आलोचक थे। ब्राह्मण उनके सामने पड़ने से कतराते थे। पेरियार को आलोचना दृष्टि को समृद्ध करने वालों में दूसरा नाम था—कैवल्य सामियार का। मुरुथैया पिल्लई की भांति कैवल्य सामियार भी तर्कवादी और ब्राह्मणवाद के कट्टर आलोचकों में से थे। इन दोनों के जीवन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। पेरियार के जीवनीकार और आत्मसम्मान आंदोलन के नेता चिदंबरानार के अनुसार, इन दोनों की पेरियार के चरित्र-निर्माण में बड़ी भूमिका थी। 

काशी यात्रा के दौरान उनका परिचय हिंदू धर्म की विकृतियों से हुआ था। 1933 में विदेश यात्रा के बाद तो उनका विश्वास धर्म नामक संस्था से बिलकुल उठ चुका था। मास्को पहुँचने पर उन्होंने ‘एंटी रिलीजियस प्रापेगेंडा ऑफिस में अपना पंजीकरण भी कराया था। उनका मानना था कि वर्गहीन समाज की रचना हेतु धर्म से मुक्ति आवश्यक है। सोवियत संघ की प्रगति, वहाँ की सामाजिक रचना से वे इतने प्रभावित थे कि वहाँ से लौटते ही उन्होंने आत्मसम्मान आंदोलन की वैचारिकी और संगठन में भारी फेरबदल करने का निर्णय किया था। बावजूद इसके सोवियत संघ की तरह सत्ता का सघन केंद्रीकरण, उसकी समस्त कार्यकारी शक्तियों का एक जगह जमा हो जाना—उन्हें स्वीकार न था। भारत के लिए वे उदार साम्यवाद की कल्पना करते थे। उनका मानना था कि ब्राह्मणों की धार्मिक-सामाजिक अधिसत्ता के रहते, भारत में सोवियत मॉडल को लागू कर पाना संभव नहीं है। 7 जून, 1931 के ‘कुदीआरसु’ में उन्होंने लिखा था कि गैर-ब्राह्मणों और अछूतों, गरीब और कामगार लोगों को यदि वे समानता और समाजवाद लाना चाहते हैं, तो सबसे पहले हिंदुत्व को खत्म करना होगा। सोवियत संघ से वे श्रीलंका के रास्ते भारत लौटे थे। वहाँ कोलंबों में दिए गए भाषण में उन्होंने एक बार फिर मनुष्यता, आत्मसम्मान और देश के लिए ईश्वर तथा धर्म का बहिष्कार करने का आग्रह किया था।20

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विदेश यात्रा से लौटने के बाद ‘कुदीआरसु’ में समाजवाद और नास्तिकता विषयक लेखों की संख्या बढ़ी थी। भगतसिंह के लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ का तमिल अनुवाद, ‘नान नाथिकन येन’ शीर्षक से पी. जीवानंदम् ने किया था। पी. जीवानंदम् ‘मद्रास प्रांत नास्तिक संगठन’ के सचिव, विचारों से साम्यवादी और पेरियार के सहयोगी थे। ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ का प्रथम पुस्तिकाकार प्रकाशन पेरियार द्वारा स्थापित ‘पहुथारिवु पब्लिशिंग हाउस लिमिटेड’ ने 1934 में किया था। तमिल शब्द ‘पहुथारिवु’ का अर्थ ‘तर्कशील’ है। पुस्तक में पेरियार द्वारा 29 मार्च 1931 को ‘कुदीआरसु’ में भगतसिंह की शहादत पर लिखित संपादकीय को भी शामिल किया गया था। भूमिका में प्रकाशक की ओर से लिखा गया था कि वे भगतसिंह की राजनीतिक विचारधारा से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। पुस्तिका का मूल उद्देश्य आम जनता, विशेषकर नास्तिकों तथा कांग्रेसजनों को भगतसिंह के ईश्वर-संबंधी विचारों से परचाना है। 46 पृष्ठों की पुस्तिका के पहले 40 पृष्ठों पर मूल लेख छपा था। बाद के 6 पृष्ठों में ‘कुदीआरसु’ के संपादकीय को जगह मिली थी। संपादकीय में पेरियार ने भगतसिंह तथा उनके साथियों के साहस और बलिदान की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उसमें भगतसिंह द्वारा पंजाब के गवर्नर को लिखे गए पत्र के एक अंश को भी उद्धृत किया गया—

‘हमारी लड़ाई निश्चित रूप से उस समय तक चलती रहेगी, जब तक कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में नहीं आ जाती और लोगों के स्तर में जो अंतर है, वह समाप्त नहीं हो जाता। यह युद्ध हमें मार देने से समाप्त नहीं होगा। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप यह संघर्ष हमेशा जारी रहेगा।’

संपादकीय में गाँधी के साथ-साथ लार्ड इरविन की भी आलोचना थी। विचित्र बात यह है कि भगतसिंह द्वारा मूल अँग्रेजी में लिखे गए उस लेख में औपनिवेशिक सरकार को कुछ भी ‘निषिद्ध’ या ‘आपत्तिजनक’ नहीं लगा था। हालाँकि धर्माचायों की आंखों की किरकिरी वह आरंभ से ही था। पेरियार द्वारा तमिल अनुवाद के साथ पंजाब के गवर्नर को लिखे पत्र का संदर्भ जोड़ देने से वह औपनिवेशिक शासकों की दृष्टि में भी ‘अपराध’ बन चुका था। इसलिए पुस्तिका के छपते ही उसका संज्ञान लिया गया। अगस्त 1934 में ‘आपराधिक जांच विभाग’ की स्थानीय शाखा ने उसके बारे में सरकार को लिखा। बिना समय गंवाए सीआईडी ने पुस्तिका की प्रतियां सरकार को भिजवा दीं। मद्रास सरकार के मुख्य सचिव जी.टी.एच. ब्राकेन ने मद्रास सरकार के कार्यालय में कार्यरत तमिल अनुवादक एन. सरवण मुदलियार, से पूरी पुस्तिका का अनुवाद करने को कहा। मुदलियार ने आपत्तिजनक अंशों को हाईलाइट करते हुए, 16 अक्टूबर 1934 को अनुवाद की प्रति ब्राकेन को भेज दी गई। ब्राकेन ने 22 अक्टूबर, 1934 को भारतीय प्रेस(आपातकालीन शक्तियां) अधिनियम—1931 के अनुच्छेद 19(1) के अंतर्गत पुस्तिका और उससे जुड़ी सामग्री को जब्त करने के आदेश जारी कर दिए। आदेश में पुस्तिका की सामग्री को अधिनियम की धारा 4(1) के अंतर्गत आपत्तिजनक माना गया था। नोटिफिकेशन जारी होते ही, पुस्तिका की प्रतियां जब्त कर ली गईं। तब तक भगतसिंह के विचारों की चिंगारी वडवानल बन चुकी थी। पुस्तिका से प्रेरणा लेकर तरह-तरह के पंपलेट, पुस्तिकाएं, चित्र, कार्टून वगैरह भारी मात्रा में प्रकाशित हो चुके थे। न केवल तमिल, अपितु क्षेत्रीय भाषाओं मलयालम, तेलुगू, कन्नड़ आदि में भी भगतसिंह और उनके साथियों के समर्थन में विपुल सामग्री का प्रकाशन हुआ था। नतीजा यह हुआ कि सरकार द्वारा पुस्तक तथा संबंधित सामग्री, की जब्ती की कार्रवाही, 1938 तक चलती रही। कह सकते हैं कि दक्षिण तक भगत सिंह के विचारों को ले जाने तथा उन्हें लोकप्रिय बनाने में पेरियार की बड़ी भूमिका थी। यह कहना भी अन्यथा न होगा कि जिस परिवेश और परिस्थिति में पेरियार ने वह काम किया, वैसा करने का साहस भी उन दिनों किसी में नहीं था। 

भगतसिंह की पुस्तक के अलावा बर्ट्रेंड रसेल की ‘व्हाई आम एम नाट ए क्रिश्चन’, लेनिन की जीवनी, राबर्ट इंगरसोल की समाजवाद विषयक पुस्तकों के तमिल अनुवाद भी पेरियार के प्रकाशन द्वारा छापे गए थे। उनका मानना था कि ईश्वर, धर्म और उनसे जुड़े अनगिनत कर्मकांड प्रगतिशील समाज के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा हैं। लेकिन समाज में सभी के लिए नास्तिक बन पाना आसान नहीं है। खासकर तब जब कुछ अपवादस्वरूप लोगों को छोड़, लगभग सभी धर्मविहीन जीवन को असंभव मानते हों। इसलिए उन लोगों के लिए पेरियार ने, महज रणनीति के तौर, यह सोचकर कि दबाव में आने पर हिंदू धर्म संभवतः अपने पुनरावलोकन के लिए तैयार हो—उन्होंने इस्लाम और बौद्ध धर्म का समर्थन किया था। हालाँकि व्यक्तिगत जीवन में वे पूरी तरह नास्तिक थे। 1969 में उन्होंने कहा था—

‘मैं मनुष्यता का सुधारक हूं। मैं किसी देश, ईश्वर, धर्म, भाषा अथवा राज्य की परवाह नहीं करता। मेरे सरोकार केवल और केवल मानव समाज की उन्नत्ति और विकास तक सीमित हैं।’

तमिल नाडु में कम्युनिस्ट आंदोलन की नींव रखने का श्रेय सिंगरावेलु चेट्टियार, जिन्हें लोग सम्मान के साथ ‘सिंगरावेलु’ कहते थे—को जाता है। उन्होंने ही मद्रास में 1 मई 1923 को ‘लेबर किसान पार्टी ऑफ़ हिंदुस्तान’ की स्थापना की थी। उसी दिन भारत में ‘मई दिवस’ को उत्सव की तरह मनाने की शुरुआत हुई थी। सिंगरावेलु, पेरियार से बीस वर्ष बड़े थे। दोनों के प्रगाढ़ संबंध थे। धर्म और जाति के प्रति दोनों के विचारों में एकरूपता थी। सिंगरावेलु का कहना था, ‘प्रत्येक धर्म समाज के शिखर पर बैठे लोगों का समर्थन करता है। वह ‘सर्वसंपन्न’ एवं ‘सर्वविपन्न’ के भेद को स्थायी भाव देता है, असमानता को नियतिसिद्ध कहकर मनुष्य को जन्म के आधार पर छोटा-बड़ा मान लेता है। सभी भाई हैं, सभी का एक ईश्वर है, यदि हम अपने आसपास की दुनिया को देखें तो ये बातें एकदम मिथ्या और प्रपंच सिद्ध होती हैं, मगर समाज में इन्हीं पर घमासान छिड़ा रहता है।’

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सिंगरावेलु के संपर्क में आने के बाद पेरियार ने अपने साथियों को ‘कामरेड’ कहना आरंभ किया था। बावजूद इसके पेरियार का मार्क्सवाद, खासकर उसकी वर्ग-संघर्ष की वैचारिकी में ज्यादा विश्वास नहीं था। वे सिंगरावेलु के बुद्धिवादी सोच से प्रभावित थे। उनके आग्रह पर ही सिंगरावेलु ने ‘कुदीआरसु’ के लिए कई विज्ञान-केंद्रित लेख लिखे थे। ‘इरोड कार्यक्रम’ का ड्राफ्ट भी सिंगरावेलु ने ही तैयार किया था। उस समय सिंगरावेलु ने आत्मसम्मान आंदोलन के नाम को लेकर एक सवाल उठाया था। उनका कहना था कि इसे ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ कहना उचित होगा; अथवा ‘अवमानना आंदोलन’?21 इस प्रश्न के पीछे सिंगरावेलु के भीतर छिपा वर्ग-संघर्ष का योद्धा बोल रहा था। ‘अवमानना आंदोलन’ का आशय था, सामाजिक असमानता के लिए लिए जिम्मेदार ‘बुर्जुआ’ सोच वाली शक्तियों का तिरस्कार। उन्हें सीधी चुनौती, तथा उनकी सार्वजानिक भर्त्सना। पेरियार को सीधे टकराव से किसी प्रकार का संकोच नहीं था। भविष्य में ऐसे कई अवसर आए जब पेरियार तथा उनके विरोधी आमने-सामने थे; और पेरियार ने ‘न दैन्यम न पलायनम’ की भावना के साथ उनका सामना किया था। बावजूद इसके वे ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ का नाम बदलने को तैयार नहीं थे। सिंगारवेलार ने भले ही मजाक में नाम बदलने का सुझाव दिया हो, परंतु नाम न बदलकर पेरियार ने एक तरह से अच्छा ही किया था। क्योंकि आगे चलकर वे समाज को ‘ब्राह्मण बनाम गैर-ब्राह्मण’ और ‘आर्य बनाम द्रविड़’ में बांटने में सफल रहे थे। 

पेरियार का विश्वास साम्यवाद से ज्यादा समाजवाद में था। इसका एक कारण यह भी है कि नवगठित कम्युनिस्ट पार्टी में भी प्रमुख पदों पर ब्राह्मण छाने लगे थे। वर्ग-संघर्ष उनके लिए महज नारा था। एक तरह से कृत्रिम लड़ाई। जिन यूरोपीय देशों में जहां साम्यवाद को कामयाबी मिली थी, वहाँ मशीनीकरण काफी तरक्की कर चुका था। भारत में मशीनीकरण आरंभिक दौर में था। कहने को तो वर्ग-क्रांति के समय सोवियत संघ भी भारत की तरह औद्योगिक प्रगति में पिछड़ा हुआ था। परंतु वहाँ लेनिन और ट्रोट्स्की ने वर्ग-संघर्ष की वैचारिकी का स्थानीयकरण करते हुए, संयुक्त खेती का विचार रखा था। उसके फलस्वरूप वहाँ वोल्शैविक क्रांति की जमीन तैयार हुई। भारत में अधिकांश कृषि भूमि पर समाज की ऊंची जातियों का कब्जा था, उन्हीं से निकले नेता कम्युनिस्ट पार्टी तथा उसके सहायक संगठनों को कब्जाए हुए थे। सामूहिक खेती के विचार से उनके अपने हितों को नुकसान पहुँच सकता था। इसलिए उनकी राजनीति मजूदर आंदोलनों और हड़तालों से आगे न बढ़ सकी। दूसरे शब्दों में भारतीय कम्युनिस्ट संगठन ऐसे वर्ग के भरोसे वर्ग-संघर्ष का सपना देखते रहे, जो वास्तव में था ही नहीं। शताब्दियों पहले जो काम तुलसी, सूरदास, मीरा जैसे भक्त कवियों ने रैदास, कबीर, दादूदयाल आदि संत कवियों द्वारा शुरू की गई सामाजिक क्रांति को तेजहीन करके किया था, वही धत्त-कर्म भारत के साम्यवादी दलों ने कम्युनिस्ट विचारधारा के साथ किया था। 

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दुनिया भर में प्रचलित धर्मों में पेरियार यदि किसी धर्म के प्रति नर्म नजर आते हैं तो वह है, बौद्ध धर्म। हिंदू धर्म के अलावा उन्होंने यदि किसी धर्म पर लगातार चर्चा की है, तो वह बौद्ध धर्म की। हिंदू धर्म के प्रति उनकी दृष्टि आलोचनात्मक है, वहीं बौद्ध धर्म के प्रति हम उन्हें सहानुभूतिपरक पाते हैं। दोनों के बीच वे बौद्ध धर्म श्रेष्ठतर मानते थे। हिंदू धर्म में बढ़ती धर्मांतरण की घटनाओं के लिए ब्राह्मण ईसाई मिशनरियों को जिम्मेदार मानते थे। पेरियार का विचार था कि हिंदू धर्म ने ही भारत में ईसाई धर्म और इस्लाम की राह आसान की है—

‘जो दुष्टता वे(ब्राह्मण) गैर-ब्राह्मणों के साथ बरतते हैं, वह उस दुष्टता से कम है जो वे मुस्लिमों और ईसाइयों के साथ बरतते हैं। मगर अछूतों के साथ वे जिस निर्दयता के साथ पेश आते हैं, वह किसी भी अन्य अत्याचार से बढ़कर है। अपरोक्ष रूप में हिंदू धर्म ने ही इस्लाम और ईसाई धर्म के फलने-फूलने के लिए रास्ता तैयार किया है। हिंदू धर्म बाकी दोनों धर्मों के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ है। अतएव हिंदू धर्म को नष्ट करना, गैर-ब्राह्मणों और अछूतों की सबसे बड़ी प्राथमिकता है।’22 

गौरतलब है कि दक्षिण भारत में हिंदू धर्म से इस्लाम और ईसाई धर्म की ओर अंतरण की प्रक्रिया बहुत पहले आरंभ हो चुकी थी। उनीसवीं शताब्दी में ईसाई मिशनरियों को भारत में प्रवेश की अनुमति मिलने के बाद उसमें और भी तेजी आई थी। ब्राह्मणों का मानना था कि ईसाई मिशनरियां निचली जातियों को तरह-तरह के प्रलोभन देकर उन्हें धर्मांतरण के लिए उकसाती हैं। मुगलों के शासनकाल में जहां बलपूर्वक कुछ लोग मुस्लिम बनाए गए, वहीं स्वेच्छा से इस्लाम में शामिल होने वालों की संख्या भी काफी थी। पेरियार के लिए धर्मातंरण का मुद्दा आस्था से ज्यादा सामाजिक महत्व का था। उनका मानना था कि हिंदू धर्म की आंतरिक संरचना, उसमें गैर-ब्राह्मणों एवं अछूतों की निम्नतम स्थिति उन्हें धर्मांतरण के लिए विवश करती है—

‘हमारे देश के एक करोड़ ईसाई कौन हैं? हमारे राष्ट्र में 7 करोड़ मुस्लिम कौन हैं? ब्राह्मणों एवं धार्मिक नेताओं के अत्याचारों के कारण वे धर्मांतरण के लिए बाध्य हुए थे। वे हमारे ही भाई हैं। वे यरोशलम या अरब से नहीं आए हैं।

हम 24 करोड़ लोग खुद को सम्मानित कैसे मान सकते हैं? मुस्लिम हमें ‘काफिर’ कहते हैं। ईसाई हमें ‘धार्मिक रूप से भटके हुए लोग’ बताते हैं। अँग्रेज हमें ‘कुली’ कहते हैं। ब्रिटेन हमें ‘असभ्य’ बताता है; और ब्राह्मण हमें ‘शूद्र’ कहते हैं। हम इन संबोधनों से अपमानित महसूस नहीं करते। धर्म के नाम पर चुनींदा सार्वजनिक मार्गों पर चलने से हमें आज भी रोका जाता है। वेदों में केवल चार जातियां हैं, लेकिन अब  यहाँ  4000 से अधिक जातियां हैं। ये जातियां भी अपनी पहचान बनाए रखने के लिए जूझती रहती हैं।’23 

पेरियार ने हिंदू धर्मग्रंथों की खुली आलोचना की थी। इतने तीखे स्वरों में कि विरोधी तिलमिला उठते थे। उनके निष्कर्ष तर्क केंद्रित होते थे। तार्किक विश्लेषण करते समय प्रायः वे निर्मम भी हो जाते थे। ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ की पत्रिकाओं विदुथलाई, कुदीआरसु और रिवोल्ट में हिंदू धर्म की आलोचना से जुड़े सैंकड़ों आलेख प्रकाशित हुए थे। लेखकों में पेरियार के अलावा एस. गुरुसामी और रामानाथन शामिल थे। प्रकाशित लेखों में कुछ की शैली विवेचनात्मक है तो कुछ की व्यंग्य प्रधान। कल्पना कर सकते हैं कि जिन दिनों ‘हिंदू महासभा’ जैसे संगठन हिंदू धर्म के पुनरुद्धार में जुटे थे। जिनका सपना स्वतंत्र भारत को ‘हिंदू राज्य’ के रूप में देखना था, उन्हीं दिनों पेरियार अपने सहयोगियों के साथ हिंदू देवी-देवताओं तथा उनसे जुड़े मिथों की निरंतर पड़ताल में लगे थे। यदि हिंदू कट्टरपंथी, पेरियार की तीखी, तेज-तर्रार भाषा को सहने के लिए विवश थे तो इसलिए कि लगभग पूरा का पूरा गैर-ब्राह्मण समाज पेरियार के समर्थन में था। उनका मानना था कि मनुस्मृति, गीता, रामायण, महाभारत, पुराणादि ग्रंथ ब्राह्मणवाद को थोपने के लिए रचे हैं। उनमें वर्णित आख्यान विशुद्ध काल्पनिक हैं। उन्होंने लोकप्रिय हिंदू देवताओं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रयी के अलावा इंद्र, कार्तिकेय, गणेश, राम और कृष्ण के चरित्र की बिना किसी झिझक या भय के आलोचना की थी। हमें ध्यान रखना चाहिए कि जिस समय गाँधी गीता और रामायण को भारत की राष्ट्रीय एकता का आधारग्रंथ घोषित कर रहे थे, राम को आदर्श पुरुष बताते हुए रामराज्य का सपना पूरे देश को दिखा रहे थे, उन्हीं दिनों पेरियार उनकी अन्वीक्षा में लगे थे। उपलब्ध रामकथाओं का विश्लेषण करते हुए उन्होंने ‘रामायण’ का पुनर्पाठ किया था, जो आगे चलकर ‘सच्ची  रामायण’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ विवाद का कारण बना। रावण को वे द्रविण संस्कृति के आदि संरक्षक के रूप में देखते थे। रामायण के बारे में उनका विचार था—

‘रामायण एक षड्यंत्रकारी कथा है, उसे केवल ब्राह्मणों ने वर्णाश्रम धर्म की रक्षा हेतु रचा था। उसके माध्यम से वे अपनी वैचारिकी को स्थापित करना चाहते हैं, कहते हैं कि विष्णु ने राम के रूप में अवतार लिया था।’

सीता को रावण की कैद से छुड़ाने के बाद राम राजगद्दी पर थे। तभी एक किशोर ब्राह्मण बालक मर गया। उसका पिता राम के पास जाकर बोला—‘तुम और तुम्हारे लोग धर्म के विरुद्ध काम कर रहे हैं, इसलिए आज मेरा बेटा मृत्यु को प्राप्त हुआ। एक ब्राह्मण को सौ वर्ष तक जीना चाहिए। ब्राह्मण पुत्र के अकाल मौत मरने का मतलब है कि उस देश का राजा शास्त्र-विरुद्ध काम कर रहा है।’24 ‘रामायण का अंत कैसे होता है? यह बताते हुए कि शूद्र ऋषि शंबूक की प्रार्थना करने पर ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु हुई थी। राम द्वारा शंबूक की हत्या करते ही ब्राह्मण का मृत पुत्र जीवित हो उठता है। इससे वे लोगों को क्या समझाना चाहते हैं? यह कि शूद्र को ईश्वर की सीधे पूजा नहीं करनी चाहिए। वह केवल ब्राह्मण के माध्यम से पूजा कर सकता है।’25 वर्णाश्रम व्यवस्था में मनुष्य के लिए सौ वर्ष की आयु निर्धारित की गई। लेकिन, वाल्मीकि या तुलसी यह नहीं बताते कि उस समय गैर-ब्राह्मणों की औसत आयु और सामाजिक स्थिति क्या थी। गौरतलब है कि धर्म और जाति के आधार पर समाज का विभाजन प्रकारांतर में आर्थिक विभाजन को भी न्योता देता है। जनसाधारण का उस ओर ध्यान न जाए, इसलिए कर्म-सिद्धांत गढ़ा गया है। धर्म किस प्रकार आर्थिक विषमता को जायज बनाता है। इस बारे में पेरियार का विचार था—

‘इन दिनों भिक्षा मांगने वाला ब्राह्मण भी दिन में दो बार कॉफ़ी पी लेता है, परंतु एक किसान जो कड़ी धूप में दिन-भर श्रम करता है, उसे नमक मिले मांड से काम चलाना पड़ता है। जबकि मंदिर या होटल में काम करने वाला ब्राह्मण अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देकर कलेक्टर, जज, मंत्री, प्रधानमंत्री तक बना सकता है। दूसरी ओर मेहनतकश लोगों को निचले पदों से संतोष करना पड़ता है।’26 

अपने लेखों में पेरियार बार-बार धर्म और जाति की बात उठाते हैं। हर बार मांग करते हैं, कि जाति को आमूल नष्ट होना चाहिए। इसलिए कि जाति की मदद से समाज के बड़े हिस्से को मूलभूत सुख-सुविधाओं तथा जीवन के मामूली अधिकारों से भी वंचित किया गया है। 

7

सवाल है कि ब्राह्मणवाद को मजबूत करने में धर्म की भूमिका बड़ी है या जाति की। पेरियार का निष्कर्ष है, जाति की। ब्राह्मण जाति और धर्म दोनों के शिखर पर मौजूद है। अकेले धर्म की मदद से वह समाज के शिखर पर नहीं रह सकता। जाति ब्राह्मण के अधिकारों का संरक्षण करती है। वह न हो तो किसी भी जाति-वर्ग का व्यक्ति धार्मिक कर्मकांडों का संचालन कर सकता है। जैसा विदेशों में है। वहाँ मोची का बेटा चर्च में पादरी या बड़ा धर्म-पुरुष बन सकता है। हिंदू धर्म में ये पद केवल ब्राह्मणों के लिए आरक्षित हैं। इसलिए जाति की सुरक्षा के लिए ब्राह्मण कोई भी धत्तकर्म करने को तैयार रहता है। गौतम बुद्ध, महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद से लेकर गाँधी तक, जिन्होंने भी जाति-संबंधी नियमों को शिथिल करने की कोशिश की थी, सभी को अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े थे। गाँधी की ह्त्या भी एक ब्राह्मण ने की थी। पेरियार के अनुसार गाँधी स्वयं जातिवाद के समर्थक थे—

‘‘महात्माओं में सबसे बड़े महात्मा(गाँधी) कहते हैं, दुनिया सदगुण-संपन्न है। क्या उन्होंने कभी यह मांग की कि जाति का उच्छेद होना चाहिए? उन्होंने बस इतना कहा है कि छूआछूत नहीं रहनी चाहिए। क्या उन्होंने एक शब्द भी इस बारे में कहा है कि जाति का नाश होना चाहिए? उन्होंने बस यही कहा है, ‘मैंने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष किया है। मैं वर्णाश्रम धर्म समर्थित समाज से हूं। मेरा प्रथम उद्देश्य रामराज्य की स्थापना करना है।’ बावजूद इसके गाँधी को छूआछूत उन्मूलन के कार्यक्रमों की कीमत अपने प्राण देकर चुकानी पड़ी थी।(इसका आशय है कि लोग गाँधी जितना उदार बनने या उनसे कुछ सीखने को भी तैयार नहीं हैं)। वर्णाश्रम व्यवस्था कहती है कि शूद्रों को पढ़ने का अधिकार नहीं है। परंतु गाँधी अपने समय के दबावों के चलते यह मानने को विवश थे कि शूद्रों को भी पढ़ने का अधिकार है। आखिर क्या हुआ?—‘उन्हें तीन गोलियों का शिकार बनना पड़ा….उन्हें एक ब्राह्मण द्वारा गोली मारी गई थी। गाँधी ने कहा था कि हिंदू धर्म और इस्लाम एक ही हैं(अल्लाह, ईश्वर सब एक ही परमशक्ति के नाम हैं), इसलिए उनकी हत्या कर दी गई।”27  

साफ है कि ब्राह्मण के लिए धर्म से ज्यादा जाति प्रिय है। यदि कुल जनसंख्या के मात्र 3 प्रतिशत ब्राह्मण अपने स्वार्थ के लिए संगठित होकर, धर्म और जाति का इस्तेमाल करते हैं, तो बाकी लोगों का भी दायित्व बनता है कि स्वयं को अमानवीय जातीय विषमता से बचाने के लिए उसका इस्तेमाल अपने संगठन को मजबूत करने के लिए करें । इसके लिए जरूरी है—

‘द्रविड़ जनता उन मंदिरों में न जाए, केवल ब्राह्मण पुरोहित पूजा कराते हैं। खासतौर पर उन मंदिरों का बहिष्कार करे, जहां यह नियम है कि केवल ब्राह्मण ही पुरोहित बनकर पूजा-पाठ करा सकते हैं। यदि वे ऐसे मंदिरों में जाते भी हैं तो उन्हें चाहिए कि ब्राह्मणों द्वारा संपन्न कराई जाने वाले पूजा-पाठ अथवा दूसरे कर्मकांडों में हिस्सा न लें।’28 

पेरियार बहुत पढ़े-लिखे भले न हों, मगर सत्ता और धर्म के गठजोड़ को भली-भांति समझते थे। जानते थे कि धर्म को चुनौती देने के लिए उन मिथों को संद्धिग्ध बनाना होगा, जिनके माध्यम से कोई धर्म जनमानस में पैठ बनाता है। इसलिए बिना कोई नर्मी दिखाए उन्होंने हिंदू धर्मशात्रों तथा उनके द्वारा स्थापित मिथों की आलोचना की थी। जैसे गाय और हनुमान का मिथ। शंकराचार्य का वेदांत दर्शन ईश्वास्योपनिषद के इस कथन पर विश्वास करता है—’सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शांत उपासीत’—यानी जो दृष्टिगोचर है, वह ब्रह्म है। लेकिन व्यवहार में तो मनुष्यों की भांति पशुओं के बीच भी रंग और प्रजाति के आधार पर भेदभाव किया जाता है। पेरियार इस तरह के अंधविश्वासों पर मुखर थे—

‘प्रत्येक संस्कृति में अंधविश्वास नकारात्मक सोच की तरह पैठा है। वह मानव-मस्तिष्क में वैज्ञानिक सोच और तर्कशीलता को ग्रस लेता है। सांपों के प्रति डर उन्हें पूजनीय बनाता है। यह सरासर अंधविश्वास है कि सांप को पूजने के बाद वह मनुष्य को नुकसान नहीं पहुँचाएगा। विद्वानों के अनुसार आधुनिक भारत में अंधविश्वास इतना शक्तिशाली है कि  यहाँ  बंदरों की पूजा भी हनुमान के रूप में की जाती है। जिसकी छोटी-छोटी मूर्तियां देश-भर में जगह-जगह लगी हैं। उनके अलावा राजमार्गों पर विशालकाय मूर्तियां भी नजर आती हैं। इसकी न तो कोई वैज्ञानिक तुक है, न ही कारण। हमारे देश में 21वीं शताब्दी का सबसे बड़ा अंधविश्वास है, बंदर की पूजा। हनुमान की 60 फुट ऊंची प्रतिमा की पूजा तमिल नाडु में होती है। इस मूर्खता पर कोई सवाल क्यों नहीं उठाता!

उसके अलावा गाय है, जिसे हिंदू पवित्र मानते हैं और जिसे सभी हिंदुओं की मां कहा जाता है….कुल मिलाकर, पवित्रता और अपवित्रता की अवधारणाएं महज धार्मिक टोटम हैं।’29 

गाय को लेकर एक जगह वे लिखते हैं, ‘शंकराचार्य कहते हैं, गौहत्या पाप है। वे सभी जानवरों की प्राण-रक्षा की मांग नहीं करते, केवल गाय की करते हैं।30 

पेरियार का मानना था कि विशेषाधिकार प्राप्त अभिजन ब्राह्मण, भारत में वर्गहीन, समानता पर आधारित समाज की स्थापना की सबसे बड़ी बाधा हैं। उन्होंने गैर-ब्राह्मणों, दलितों और स्त्रियों की अवमानना, उनके लिए निराशाजनक स्थितियों का निर्माण करने, आजादी की राह में मुश्किल खड़ी करने के लिए ब्राह्मणों को जिम्मेदार माना था। स्त्री-समानता पर उनके विचार अपने समकालीन नेताओं की अपेक्षा कहीं ज्यादा आधुनिक थे। वैदिक रीति से विवाह, जिसमें पंडित मंत्रोच्चार करता है, वर-वधु अग्नि की सप्तपदी लेते हैं, के वे घोर विरोधी थे। मानते थे कि स्त्री-पुरुष का विवाह स्वर्ग में बनी जोड़ियां नहीं हैं। वह दांपत्य सुख के लिए किया गया समझौता मात्र है, जिसमें लड़का और लड़की दोनों बराबर के सहभागी होते हैं। मातृत्व स्त्री का चयन होना चाहिए। कर्तव्य नहीं। यदि कोई स्त्री संतान नहीं चाहती, तो उसे संतानोत्पत्ति के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। 

पेरियार ने ब्राह्मणों को विदेशी मूल के आर्यों का उत्तराधिकारी बताते हुए, द्रविड़ अस्मिता का मामला उठाया। मैक्समूलर से लेकर तिलक तक, सभी ने इस विषय पर खूब लिखा है। ‘गुलामगिरी’ और दूसरी कई पुस्तकों में फुले ने ब्राह्मणों को भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास में गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार ठहराया था। सो पेरियार का द्रविड़ अस्मितावादी आंदोलन जनता के दिल की आवाज बन गया। सांस्कृतिक वर्चस्व बनाए रखने में धर्म की भूमिका सर्वोपरि होती है। फुले ने इसे समझा था। उन्होंने धर्म और संस्कृति के आधार पर थोपे गए सांस्कृतिक प्रतीकों, मिथों की तार्किक स्तर पर पड़ताल की थी, जिसका समाज पर सकारात्मक असर पड़ा। उन्होंने धार्मिक और सांस्कृतिक शोषण को द्रविड़ अस्मिता से जोड़ा । समाज में नैतिकता और सदाचरण का पर्याय मान लिए गए धार्मिक प्रतीकों और मिथों की तार्किक व्याख्या की । रामायण की प्रतियों का दहन किया । लोगों से अपील की थी कि धर्म को धंधा बना देने वाले पंडे पुरोहितों के चक्कर में आने के बजाय स्वयं उनकी समीक्षा करें । तर्क-बुद्धि से काम लें ।     

उन दिनों देश में स्वाधीनता आंदोलन तेजी पर था। दक्षिण भी उससे अछूता न था। पेरियार के नेतृत्व में एक और समानांतर आंदोलन उभरने लगा, जिसका उद्देश्य सामाजिक-सांस्कृतिक आजादी प्राप्त करना था। इसी सिलसिले में पेरियार 1926 में बंगलुरू आए गाँधी से मिले। उन्होंने कहा कि वर्ण-व्यवस्था के उन्मूलन के बगैर छूआछूत पर काबू कर पाना मुश्किल है। गाँधी के सामने उन्होंने उस समय की तीन प्रमुख बुराइयों का उल्लेख करते हुए, उन्हें तत्काल मिटाने का आवश्यकता पर जोर दिया। पहला ब्राह्मणों के नियंत्रण वाली कांग्रेस पार्टी, दूसरा हिंदू धर्म और उसकी जाति पृथा तथा तीसरा समाज में ब्राह्मणों का वर्चस्व।

‘वायक्कम सत्याग्रह’ की सफलता के बाद पिछड़ों और अतिपिछड़ों का हौसला बढ़ा था। स्वयं पेरियार कांग्रेस से त्यागपत्र देने के बाद ब्राह्मणवाद विरोधी कार्यक्रमों में उतर चुके थे। ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ दक्षिण भारत में द्रविड़ अस्मिता की पहचान बनकर उभर रहा था। पेरियार छूआछूत विरोधी आंदोलन के प्रमुख नेतृत्वकर्ता थे। 10 फरवरी 1929 को छूआछूत उन्मूलन के मुद्दे पर बुलाई गई सभा में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था—

‘वे कहते हैं कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है। ऊंच-नीच का भेद नहीं मानता। दूसरी ओर वे कहते हैं कि अछूतों पर हो रहे अत्याचारों के लिए एकमात्र ईश्वर जिम्मेदार है। यह कितने शर्म की बात है। यह भी कहा जाता है कि छूआछूत की रचना स्वयं ईश्वर ने की है। यदि यह सही है तो सर्वप्रथम हमें उस ईश्वर का बहिष्कार करना चाहिए। उसके बाद ही किसी और कार्यक्रम पर विचार किया जा सकता है। यदि ईश्वर छुआछूत के बारे में अनजान है तो भी जितना जल्दी हो सके, उसका बहिष्कार कर देना चाहिए। यदि ईश्वर इस अन्याय को मिटाने में असमर्थ है, यदि वह ब्राह्मण पुरोहितों पर नियंत्रण करने में नाकाम रहता है तो उसे दुनिया के किसी भी स्थान पर बसने का अधिकार नहीं है। ऐसे में जितनी जल्दी हो सके, उसे उखाड़ फेंकना ही न्यायसंगत होगा। 

यदि ऐसा कोई आधार है, जो यह बताता है कि ईश्वर या धर्म छूआछूत के लिए जिम्मेदार नहीं हैं, तो उसे भी जलाकर खाक कर देना चाहिए। बजाय यह जाने कि वह क्या है अथवा किसने कहा है?’31 

पेरियार का मानना था कि भारत में ऊंची जातियां समानता की राह की सबसे बड़ी बाधा हैं। वे धर्म का उपयोग अपनी वर्गीय श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए करती हैं। राज्य के अधिकांश निर्णायक पदों पर उन्हीं का वर्चस्व होता है। इसलिए राज्य भी उनके हितों का ज्यादा ख्याल रखता है। धार्मिक जड़ता का एक कारण धर्म का उत्तराधिकार के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपा जाना है। इससे एक तो ब्राह्मण की सर्वोच्चता का विचार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को अंतरित होता रहता है। दूसरे व्यक्ति बगैर धर्म की खूबियों और खामियों की पड़ताल के, उसे अपनाने को विवश होता है। उसे अपने जीवन में धर्म की समीक्षा करने का अवसर कभी मिल ही नहीं पाता। धर्माचार्य या पुरोहित भी नहीं चाहते कि लोग धर्म के चयन में अपने विवेक और तर्क-शक्ति का इस्तेमाल करें। उपलब्ध धर्मों के गुणों-अवगुणों का परस्पर निष्पक्ष और तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद ही किसी एक धर्म को अपनाएं। ऐसे में धर्माचार्य हो अथवा धर्मानुयायी, सभी को धर्म के बाहरी प्रतीकों से अपना काम चलाना पड़ता है। कुल मिलाकर धर्म मनुष्य के विवेकीकरण में कोई मदद नहीं करता। इस कारण मानव-जीवन के लिए उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। अछूतों, गैर-ब्राह्मणों और स्त्रियों का सामाजिक अवमूल्यन करने, उनकी मुक्ति की राह में अनावश्यक अड़चन पैदा करने के लिए पेरियार ने ब्राह्मणों तथा उनके धर्म की आलोचना की थी। पेरियार के अनुसार धर्म विवेकशील मनुष्य की उसके जीवन में कोई मदद नहीं करता। इसलिए वह अनावश्यक है।  फिर भी यदि कोई व्यक्ति खूब सोच-विचार के बाद किसी धर्म का स्वेच्छापूर्वक चयन करे—तब उन्हें कोई आपत्ति न थी। उनके अनुसार केवल भली-भांति सोचने के बाद स्वेच्छापूर्वक ढंग से अपनाया गया धर्म लोगों को मुक्त कर सकता है वही उनकी धार्मिक दासता को समाप्त कर सकता है। धर्म और मानवीय विवेक को परस्पर विरोधी बताते हुए पेरियार का कहना था कि केवल तर्क-सम्मत आधार पर, स्वेच्छापूर्वक अपनाया गया धर्म ही, जाति और धर्म की मदद से दास बनाए गए लोगों का आत्मसम्मान वापस दिला सकता है। 

पेरियार की नजर में ‘शुचिता’

विशेष रुप से प्रदर्शित

ई. वी. रामासामी पेरियार

[पेरियार की गिनती बीसवीं शताब्दी के महान विचारकों और समाज सुधारकों में की जाती है। उनका चिंतन बहुआयामी तथा अपने समय से बहुत आगे था। जहां अन्य समाज सुधारक सती प्रथा, विधवा विवाह, बाल विवाह जैसी कुरीतियों के समाधान में उलझे हुए थे, पेरियार स्त्री समानता, स्वाधीनता तथा उनके नागरिक अधिकारों के पक्ष में जोरदार तरीके से अभियान चला रहे थे। 1934 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘पेन्न यीन अदीमाई आनल’, स्त्री-विमर्श की दृष्टि से भारतीय भाषाओं की पहली मौलिक पुस्तक कही जा सकती है। चाहें तो हम इसे भारत में स्त्री-विमर्श का पहला ‘मेग्नाकार्टा’(अधिकारपत्र) भी कह सकते हैं। इस पुस्तक में पेरियार के, ‘कुदीआरसु’ में 1926 से 1931 के बीच प्रकाशित लेखों में से दस चुने हुए लेखों को शामिल किया गया था। पुस्तक के फ़्रांसिसी अनुवाद का विमोचन जुलाई 2005 में पेरिस में किया गया था। 

पुस्तक का मूल तमिल से अंग्रेजी में अनुवाद सुश्री मीना कंडासामी ने ‘व्हाई वूमेन वर इनस्लेव्ड'(स्त्रियों को गुलाम क्यों बनाया गया?) शीर्षक से किया है। प्रकाशक हैंㅡपेरियार सेल्फ रेस्पेक्ट प्रोपेगेंडा इंस्टीट्यूशन, चैन्नई। यह लेख उसी पुस्तक के 2019 में प्रकाशित तीसरे संस्करण के प्रथम लेख की हिंदी रूपांतर है। भारतीय मनीषा स्त्री की शुचिता पर जोर देती है। हिंदू धर्मशास्त्रों में पतिव्रता स्त्री का बड़ा महिमामंडन किया गया है। पेरियार इसे स्त्री की दासता का सबसे बड़ा कारण मानते हैं। लेख में वे शुचिता की जिस तरह तात्विक विवेचना करते हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है।]

यदि हम तमिल शब्द ‘कार्पू’(शुचिता) के घटक तत्वों के आधार पर इसकी विवेचना करें, तो पाएंगे कि मूल शब्द ‘काल’ से इसकी उत्पत्ति हुई है, जिसका अभिप्राय है—‘सीखने के लिए’। यदि हम इस शब्द को, जैसा कि यह ‘कार्पू येनप पदुवथु सोलथिरंबमई’ कहावत में प्रयुक्त हुआ है—पर नजर डालें तो पाएंगे कि ‘कार्पू’ शब्द का अभिप्राय, ‘किसी के वचन पर खरा उतरना’ है(यही इस कहावत के मायने हैं)। इस तरह इस शब्द में सत्यनिष्ठा, सचाई और समझौते की शर्तों पर ईमानदारी से टिके रहने की भावना समाविष्ट है।

यदि हम ‘कार्पू’ शब्द का उसकी समग्रता में विश्लेषण करें, तो इसे ‘मगालिर नीराई’(स्त्रियों के सद्गुणों) को दर्शाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। यहां हम यह समझने में असमर्थ हैं कि ‘नीराई’(सद्गुण) शब्द को विशेषतः स्त्रियों पर कब से थोप दिया गया। ‘नीराई’ शब्द का पर्याय—अभेद्यता(अविनाशिता), दृढ़ता अथवा शुचिता है। मगर किसी के लिए भी यह सिद्ध करना पूरी तरह सेअसंभव है कि ‘कार्पु’ सिर्फ स्त्रियों के संबंध में प्रासंगिक है। हम केवल उसके अर्थ खोज सकते हैं—‘अविनाशी’, मजबूत और टिकाऊ।

यदि हम ‘अविनाशी’ शब्द का समग्र विवेचन करें तो यहां उसका सही अर्थ है—शुद्ध,  अर्थात ‘अविकारित’ और अकलुषित। अंग्रेजी में भी ‘प्योर’(शुद्ध) शब्द का आशय किसी अविकारित वस्तु या विचार से है। ऐसी वस्तु से है जिसे खराब न किया गया हो। इस तरह अंग्रेजी शब्द ‘चेस्टिटी’(शुचिता) का अर्थ है—‘वर्जिनिटी’(कौमार्य)। यदि हम संदर्भ में समझा जाए तो, यह शब्द स्त्रियों तथा पुरुषों में से किसी एक के पक्ष में परिभाषित नहीं है। अपितु संपूर्ण मानव जाति को लक्षित है। और इसका अर्थ है—‘लिंग विशेष की सीमा से परे, परमशुद्धता की अवस्था।’ कुल मिलाकर ‘शुचिता’ का संबंध सिर्फ स्त्रियों से नहीं है। इसे इस तरह से भी देखा जा सकता है कि जब कोई पुरुष/स्त्री सहवास करता/कर चुका होता है, उन दोनों की अनुवर्ती पवित्रता के बावजूद, वह(चाहे स्त्री हो या पुरुष) अपनी शुचिता को गंवा देता है।

केवल ‘इंडो-आर्यन’ भाषा संस्कृत में ‘शुचिता’ को पतिव्रता(निष्ठावान पत्नीपन) के रूप में परिभाषित किया गया है। मैं समझता हूं कि यहीं, इसी जगह(इसी भाषा में) पराधीनता की अवधारणा को शुचिता शब्द में समाविष्ट कर दिया गया था। ‘पतिव्रता’ शब्द स्पष्ट रूप से स्त्री-पराधीनता की स्थिति को दर्शाता है। न केवल इसलिए कि इसका अभिप्राय ऐसी पत्नी से है जो, ‘अपने पति को भगवान का दर्जा देती है; पति की दासी बनकर रहने को ही जो अपना ‘संकल्प’(व्रत) मान लेती है, और अपने पति के अलावा वह किसी अन्य पुरुष का विचार तक नहीं रखती। इसलिए भी कि ‘पति’ शब्द का आशय ही स्वामी, रहनुमा और सर्वेसर्वा से है।

यद्यपि, तमिल शब्द ‘थलायवी’(नेतृत्व करने वाली महिला) अथवा ‘नायकी’(नायिका) पत्नी के ही बोधक हैं, किंतु इन शब्दों का उपयोग विशिष्ट अवस्था में तब किया जाता है जब कोई स्त्री प्रेम की अवस्था में हो। जैसे कि ‘थलायवी’ शब्द का प्रयोग उसके वास्तविक अर्थों में नहीं किया जाता, ऐसी स्त्री के संदर्भ में नहीं जो विनीत भाव से जीवन में तल्लीन हो। यही नहीं, उसके समकक्ष शब्दों ‘नायकन’(नायक) और ‘नायकी’(नायिका) का प्रयोग भी सिर्फ महाकाव्यों, कहानियों और विशेषरूप से ऐसी जगह मिलता है, जहां स्त्रियों और पुरुषों के मनोरथ पर जोर दिया गया हो। इसी तरह समानधर्मा शब्दों ‘नायकन-नायकी’(नायक-नायिका) तथा ‘थलायवन-थलायवी’ का प्रयोग प्रेम के विभिन्न चरणों तथा इच्छाओं को दर्शाने के लिए जाता है, जबकि शुचिता की अवस्था केवल स्त्रियों से संदर्भित  है, जिनसे कहा जाता है कि वे अपने-अपने पति को अपना स्वामी और भगवान समझें।

इस मामले में, तिरुवेल्लुवर के विचारों को लेकर मैं थोड़ा भ्रमित हूं। मैं महसूस करता हूं कि तिरुक्कुल के छठे अध्याय, ‘वाझकई थुनेईनलम’(जीवनसाथी का महत्त्व), 91वें अध्याय ‘पेन्नवझी चेराल’(स्त्रियों के नेतृत्व में) तथा कुछ अन्य स्वतंत्र दोहों में, स्त्री के संदर्भ में चरम दासता और घटियापन का वर्णन  किया गया है। यहां तक कह दिया गया है कि जो स्त्री देवताओं को पूजने के बजाय अपने पति की पूजा करती है, उसके आदेश पर बादल भी बरसने लगते हैं, स्त्री को हमेशा अपने पति की सेवा करनी चाहिए—इसी तरह के अनेक घटिया विचार उसमें मिलते हैं।

यदि कुछ लोग इससे असहमत हैं, तो मैं उनसे तिरुक्कुरल के छठे और 91वे अध्यायों का पढ़ने का आग्रह करूंगा, खासतौर पर इसके बीस दोहों(दोहे जैसा दो पंक्तियों का छंद) को, उनके मूल स्वरूप में पढ़ें। न कि उनकी टीकाओं के माध्यम से। सामने कोई भी आए, उनके चरम तर्कों की परवाह किए बिना, अंतत: मैं उनसे एक ही तथ्य पर ध्यान देने का आग्रह करूंगा कि, ‘यदि इन पदों की रचना करने वाले तिरुवेल्लुवर पुरुष न होकर कोई स्त्री रहे होते, क्या तभी वे इन्हीं विचारों का चित्रण कर रहे होते? इसी तरह यदि स्त्रियों ने ही, स्त्रियों के बारे में धर्मशास्त्रों सहित दूसरी पुस्तकें भी रची होतीं, अथवा स्त्रियों ने ‘शुचिता’ शब्द को परिभाषित किया होता, तब क्या वे भी ‘शुचिता’ को ‘पतिव्रता’ जैसा ही अर्थ देतीं?

चूंकि ‘शुचिता’ को ‘पतिव्रता’ के रूप में परिभाषित किया गया है और चूंकि धन-संपत्ति, आमदनी और शारीरिक बल की दृष्टि से पुरुष को स्त्री की अपेक्षा अधिक बलशाली बनाया गया है, सो इसने ऐसी परिस्थितियों को जन्म दिया है, जो स्त्री पराधीनता को बनाये रखने के पक्ष में हैं। दूसरी ओर मनुष्य यह सोचकर मूर्ख बना रहता है कि ‘शुचिता’ से संबंधित कोई भी अवधारणा उसके ऊपर लागू नहीं होती। पुनश्चः, पितृसत्तात्मकता ही एकमात्र कारण है जिससे ऐसे शब्द जो दिखाएं कि शुचिता पुरुष के लिए भी उतनी ही अभीष्ट है, हमारी भाषाओं से गायब कर दिए गए है।

यह नहीं कहा जा सकता कि किसी देश, धर्म अथवा समाज ने इस विषय को लेकर ईमानदारी से काम किया है। केवल रूस(सोवियत भूमि) इसका अपवाद है। उदाहरण के लिए, हालांकि ऐसा प्रतीत होता है कि यूरोपियन स्त्रियों को ढेर सारी स्वाधीनता है, बावजूद इसके श्रेष्ठत्व और हेयत्व का बोध वहां ‘पति’ और ‘पत्नी’ के पर्यायवाची के रूप में निर्दिष्ट किए गए शब्दों में साफ नजर आता है। यहां तक कि वहां का कानून भी स्त्री को पुरुष की आज्ञाकारिणी बने रहने को आवश्यक मानता है। 

पुनश्चः कुछ समाजों में परदे की प्रथा लागू है। वहां स्त्रियों की घर की चौखट पार करने की आजादी नहीं होती। यदि जाना ही हो तो उन्हें मुंह को ढंककर जाता निकलना पड़ता है। वहां एक पुरुष अनेक स्त्रियों से विवाह कर सकता है, जबकि स्त्री को एक से अधिक पुरुषों से विवाह करने की अनुमति नहीं होती। और अपने देश में, हमारे यहां तो स्त्री पर अनेकानेक प्रतिबंध हैं। एक बार पुरुष की विवाहिता बन जाने के बाद मृत्युपर्यंत, स्त्री से उसकी स्वाधीनता छिन जाती है। उसका पति अनेक स्त्रियों से विवाह कर, उसके सामने घर में रह सकता है,  और यदि पत्नी अपने पति के घर में हो, तब भी आपसी विश्वासहीनता के कारण वह अपने पति से केवल भोजन की अपेक्षा कर सकती है। पति पर अपनी कामेच्छाओं की संतुष्टि हेतु दबाव डालने का उसे कोई अधिकार नहीं है।

यह कहना मुश्किल है कि केवल कानून और धर्म ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। चूंकि स्त्रियों ने हालात से खुद समझौता कर लिया है, इस कारण स्थिति दुस्संशोध्य/दीर्घस्थायी हो चुकी है। ठीक ऐसे ही जैसे शताब्दियों पुरानी परंपरा के चलते उन लोगों ने जिन्हें नीची जाति का घोषित किया गया था, मान लिया था कि वे सचमुच नीच जाति के हैं। इस कारण उनमें सिर झुकाने, छिपने या दूर हटकर सवर्णों के लिए रास्ता खाली करने की होड़-सी मच जाती है। इसी तरह, स्त्रियां भी सोचती हैं कि वे पुरुष की संपत्ति हैं। इसके मायने हैं कि उन्हें पुरुष के अधीन रहना चाहिए और मनुष्य के गुस्से का पात्र नहीं बनना चाहिए। इस कारण वे अपनी स्वाधीनता की भी चिंता नहीं करतीं।

यदि स्त्रियां वास्तव में अपनी आजादी चाहती हैं, तो शुचिता की अवधारणा को जो लिंग के आधार पर स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग न्याय का प्रावधान करती है—को तत्काल नष्ट कर देना चाहिए। उसके स्थान पर स्त्री-पुरुष दोनों के लिए एकसमान, स्वःशासित शुचिता की अवधारणा विकसित होनी चाहिए। बलात विवाह, जिसमें बिना किसी प्रेम-भाव के, सिर्फ शुचिता की रक्षा के नाम पर, लोगों को एक-दूसरे के साथ दांपत्य जीवन में बांध दिया जाता है—का नाश हो जाना चाहिए।

निर्दयी धर्म और कानून, जो शुचिता/पातिव्रत धर्म के नाम पर स्त्रियों को पति की पशुवत हरकतों को भी सहते जाने का आदेश देते हैं—उन्हें नष्ट हो जाना चाहिए।

यही नहीं, समाज की क्रूर व्यवस्थाएं, जो यह अपेक्षाएं करती हैं कि शुचिता और पवित्रता के नाम पर हृदय में उमड़ते प्रेम और अनुराग को दबाकर, ऐसे व्यक्ति के साथ रहना चाहिए जिसके साथ न प्रेम हो न ही अनुराग—तत्क्षण बंद हो जाना चाहिए।

इसलिए, कोई व्यक्ति समाज में तभी वास्तविक शुचिता, प्राकृतिक शुचिता, एवं संपूर्ण स्वाधीन शुचिता के दर्शन कर सकता है, जब इन क्रूरताओं का अंत हो जाए। ऐसा जोर-जबरदस्ती से कभी नहीं होगा, न ही विभिन्न लिंगों के लिए अलग-अलग कानून बना देने से होगा, न ही यह शक्तिशाली वर्ग द्वारा कमजोरों के लिए कलमबद्ध निर्देशों के दम पर यह संभव है, इससे केवल दासवत और थोपी गई शुचिता ही संभव है।

मैं तो यहां तक कहूंगा कि इसकी तुलना में समाज में दूसरा और कोई घिनौना कृत्य ही  नहीं है।

कुदीआरसु

8 जनवरी, 1928

अनुवाद : ओमप्रकाश कश्यप

बहुजन राजनीति : कामयाबी के लिए जरूरी हैं बड़े सामाजिक आंदोलन

विशेष रुप से प्रदर्शित

देश इस समय दो प्रकार की ताकतों के प्रभाव में हैं। अपने-अपने स्वार्थ के लिए दोनों ही इसके भविष्य से खिलवाड़ कर रही हैं। पहली━हिंदुत्व समर्थक ताकतें, जो धर्म का इस्तेमाल राजनीतिक औजार की तरह करती हैं। उनका असल उद्देश्य जाति तथा उसके आधार पर सवर्णों को प्राप्त विशेषाधिकारों को सुरक्षित रखना है। भाजपा और आरएसएस जैसे संगठन इसके उदाहरण हैं। आज वे राष्ट्रवादी होने का दावा करते हैं, जबकि आजादी से पहले उनका बड़ा हिस्सा अंग्रेजों का पिट्ठू बना था। अंग्रेजी राज बना रहे, उससे प्राप्त सुविधाएं मिलती रहें━इसके लिए उन्होंने अंग्रेजों की हरसंभव मदद की थी। 

दूसरी पूंजीवादी ताकतें, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के समय से ही अंग्रेजों के साथ थीं। विश्वयुद्धों के दौरान उन्होंने खूब चांदी काटी थी। बाद में देशभक्त होने का दावा करते हुए वे भी खुद को ‘राष्ट्रवादी’ कहने लगीं। मौका देख कुछ पूंजीपति अखबार और मीडिया के धंधे में घुस गए। उद्देश्य था सरकार और जनता दोनों पर अपनी पकड़ बनाए रखना। ताकि उसका उपयोग मनमाफिक सरकार चुनने; तथा निर्वाचित सरकार से मनमुताबिक काम लेने के लिए कर सकें। 

हिंदुत्व : जातिवाद का सुरक्षाकवच

जातिवादी ताकतों के लिए धर्म अध्यात्म-चेतना का स्वाभाविक विस्तार न होकर, शुद्ध राजनीति है। वे चाहती हैं कि भारत हिंदूवादी राष्ट्र बने। लेकिन वे हजारों वर्ष पुराने जाति-भेद को मिटाने की बात नहीं करतीं। उन जातियों को मिटाने की बात नहीं करतीं जिन्होंने पूरे समाज को ‘शासक’ और ‘शासित’ में बांट दिया है। यह कौन नहीं जानता कि बहुलांश शासित जातियां ही समाज की वास्तविक उत्पादक शाक्ति हैं। मगर देश और समाज के सुखोपभोग हेतु दिन-रात पसीना बहाने के बावजूद उन्हें अधिकार-विपन्न अवस्था में, अपमानित होकर जीना पड़ता है। इस विसंगति को मिटाने की उनकी पार्टी या सरकार के पास कोई योजना नहीं है। शिखर पर बने रहने की उनकी चाहत कभी मंडल बनाम कमंडल, कभी गुजरात मॉडल, कभी मंदिर-मस्जिद और कभी हिंदू-मुस्लिम के नाम से बाहर आती रहती है। जिस हिंदू राष्ट्र की बात वे करती हैं, उसमें संविधान के लिए कोई जगह नहीं है। उनका ‘आदर्शलोक’ मनुस्मृति के कथित ‘दिव्यादेशों’ को ही महत्व देता है।  

अपने स्वार्थपूर्ण गठजोड़ के बल पर ये शक्तियां आजादी के दौरान विकसित सामाजिक-सांप्रदायिक सौहार्द्र को कमजोर करने में कामयाब रही हैं। बहुजन समाज को उन्होंने इतने छोटे-छोटे गुटों में बांट दिया है कि अल्पसंख्यक अभिजन की संगठित ताकत की तुलना में उसकी प्रभावी शक्ति शून्य नजर आती है। इसके लिए केवल भाजपा या आरएसएस दोषी नहीं हैं। विपक्ष भी बराबर का जिम्मेदार है। वह भूल चुका है कोरी राजनीति से केवल सत्ता परिवर्तन संभव है। सामाजिक परिवर्तन की त्वरा को बनाए रखने के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता आवश्यक है। बीसवीं शताब्दी में भारतीय समाज जिन परिवर्तनों से गुजरा है, उनके पीछे सामाजिक आंदोलनों की बड़ी भूमिका थी। उनके मूल में फुले, पेरियार, डॉ. आंबेडकर, रामस्वरूप वर्मा, बाबू जगदेवप्रसाद, राममनोहर लोहिया जैसे महापुरुषों की प्रेरणाएं थीं। आज उनकी विचारधाराएं भले ही पहले से कहीं परिपक्व अवस्था में मौजूद हों, मगर उनसे कट जाने तथा केवल सत्ता की राजनीति करने के कारण━आज पूरा विपक्ष हताश, निराश और किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आता है।

हुजन हितों की कीमत पर राजनीति की बिसात

ऐसा नहीं है कि राजनीति और पूंजीवाद का गठजोड़ एकदम नया हो। आजादी के बाद से ही दोनों एक-दूसरे का सहारा बनते आए हैं। मगर भाजपा ने धर्म को भी इसमें शामिल कर लिया है। संविधान सम्मत धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर उस भरोसा नहीं है। इस कारण यह पहले से कहीं ज्यादा बेशर्म, कहीं अधिक विकृत रूप में हमारे सामने है। सात साल पहले विकास के नारे के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार, बहुजन हितों की कीमत पर, अपने सांप्रदायिक एवं राजनीतिक हितों को साधने में लगी है। 

यह वही भाजपा है जो एक-डेढ़ दशक पहले तक स्वदेशी का राग अलापती थी। कांग्रेस की यह कहकर आलोचना करती थी कि उदारीकरण के नाम पर उसने विश्वबैंक सहित विदेशी आर्थिक शक्तियों के आगे समर्पण कर दिया है। मगर सत्ता में आने के बाद वह स्वदेशी की बात करना भूलकर, सार्वजनिक उद्यमों को ओने-पौने दाम बेचने पर तुली है। गौरतलब है कि धर्म, पूंजी और राजनीति के ऐसे ही बेशर्म गठजोड़ ने फ्रांसिसी क्रांति को जन्म दिया था। इस देश में समाजवाद तो कभी नहीं रहा। कुछ हिस्सों को छोड़कर वामपंथ को भी अपेक्षित समर्थन नहीं मिल पाया है। किंतु पूंजीवादी ताकतों के आगे सर्वस्व समर्पण कर देने का साहस तो मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार का भी नहीं था━जिसे देश में उदार आर्थिक नीतियां लागू करने का श्रेय दिया जाता है।

विकास के आरंभिक दौर से ही पूंजीवाद व्यक्ति-स्वातंत्र्य का समर्थक रहा है। इसलिए नहीं कि उसे व्यक्ति-मात्र की आजादी से प्यार है। बल्कि इसलिए कि अर्थव्यवस्था के बाजारीकरण के लिए व्यक्ति-स्वातंत्र्य अपरिहार्य है। फिर भारत में पूंजीवाद तथा हिंदुत्व जैसी घोर सांप्रदायिक विचारधारा के गठजोड़ का कारण? गंभीरतापूर्वक विचार करें तो पता चलेगा कि भारत में यह पूंजीवाद की जरूरतों के चलते नहीं, बल्कि फासीवादी ताकतों की स्वार्थपरता के कारण संभव हुआ है।

यह भी कह सकते हैं कि स्वार्थ-सिद्धि की खातिर फासीवादी ताकतों ने पूंजीवाद के समक्ष खुद को समर्पित कर दिया है। रणनीति के रूप में पूंजीवाद ने भी इसे स्वीकार कर लिया है, ताकि वह मजबूर सरकार से मनचाहे फैसले करा सके। धर्म तथा पूंजीवाद के गठजोड़ की सफलता का कारण है कि ये दोनों ही, समाजार्थिक असमानता को नैसर्गिक मानते हैं। समानता, स्वाधीनता और न्याय जैसे मानवतावादी मूल्यों के लिए उनके यहां कोई जगह नहीं है। अपनी स्वार्थपरता पर पर्दा डालने के लिए दोनों ही दान-धर्म, पुण्यादि का बढ़-चढ़कर प्रचार करते हैं। इससे वे जन-असंतोष को कम करने में सफल हो जाते हैं। उनके निरंतर प्रचार-प्रसार से प्रभावित जनसाधारण, सरकार तथा दूसरी शीर्ष शक्तियों को अपना एकमात्र उद्धारक मानकर, समझौतावादी बन जाता है। 

षड्यंत्र को बहुजन भी समझते हैं

ऐसा नहीं है कि बहुजन धर्म, राजनीति और पूंजीवाद के स्वार्थपूर्ण गठजोड़ से सर्वथा अनजान हों। धर्म की आड़ में उत्तरोत्तर फलता-फूलता ब्राह्मणवाद उनकी नजरों से छिपा हो। मुश्किल यह है कि धर्म-राजनीति और पूंजीवाद के संगठित हमलों का सामना करने के लिए जो जमीनी संघर्ष तथा उसे दिशा देने वाले आंदोलन चाहिए━वे इन दिनों पूरी तरह नदारद हैं। ऐसा कोई सामाजिक-राजनीतिक संगठन नहीं है जिसकी पैठ पूरे देश में हो और जो सभी बहुजनों को स्वीकार्य हो। उसके अभाव में आक्रोश की परिणति कथित ‘सोशल मीडिया’ तक सिमटकर रह जाती है, जो किसी भी तरह से ‘सोशल’ नहीं है। वह लोगों को जिस सांगठनिक एकता की प्रतीति कराता है वह पूर्णतः आभासी है। इंटरनेट के माध्यम से मनुष्य विद्युतीय त्वरा के साथ अपने समूहों, मित्रों आदि से तत्क्षण संपर्क कर सकता है, इसलिए वह जमीनी माध्यमों जो आमने-सामने का संपर्क कराते हैं, तथा उनके द्वारा बने संगठनों की आवश्यकता से मुंह मोड़े रहता है।

‘सोशल मीडिया’ के हिसाब से देखा जाए तो पूंजीवाद और भाजपा सहित दूसरे फासीवादी संगठनों के विरुद्ध बहुजनों में आक्रोश उमड़ता हुआ दिखाई देगा। जबकि वास्तविकता इससे अलग है। असल में यह ऐसा माध्यम है जिसे पूंजीवादी तंत्र ने अपने मुनाफे तथा दीर्घकालिक स्वार्थों की सिद्धि हेतु खड़ा किया है। उसका उपयोग जो जितना ज्यादा शक्तिशाली है, वह उतने ही प्रभावशाली ढंग से कर सकता है। 

सोशल मीडिया ठेठ पूंजीवादी आयोजन है  

दरअसल जिसे ‘सोशल मीडिया’ कहा जाता है उसे पूंजीवादी शक्तियों ने जनाक्रोश के समयानुसार शमन हेतु खड़ा किया है। जैसे प्रेसर कुकर, समय-समय पर भाप को निकालकर, दबाव को एक सीमा से अधिक नहीं बढ़ने देता, यही काम ‘सोशल मीडिया’ कर रहा है। वह पूंजीवादी संस्थानों द्वारा अपने मुनाफे और बढ़ती आर्थिक-सामाजिक विषमताओं की ओर से ध्यान हटाने के लिए खड़ा किया गया, ठेठ पूंजीवादी आयोजन है। वह जनाक्रोश को स्वर तो देता है, किंतु एक विचार की दूसरे विचार पर इतनी तीव्र ‘ओवरलेपिंग’ करता है कि दिमाग चकराने लगता है। उसके माध्यम से विचारधाराओं के बोन्साई संस्करण, इतनी तेजी से संज्ञान में आते हैं कि पाठक को उन्हें आत्मसात करने, उनके साथ अपनी स्थिति का तादात्मय बिठाने तथा उन्हें आंदोलन का रूप देने के लिए समय ही नहीं मिल पाता। परिणामस्वरूप वैचारिक स्फुर्लिंग, जुगनुओं की तरह टिमटिमाकर अंधेरे में विलीन होते रहते हैं।

सोशल मीडिया का  उपयोग : सावधानी जरूरी है

यहां सोशल मीडिया की उपयोगिता और आवश्यकता को नकारने का हमारा कोई उद्देश्य नहीं है। खासकर ऐसे समय जब टेलीविजन और अखबार बड़े पूंजीपति घरानों के कमाऊ पूत बनकर रह गए हैं, विरोधी स्वरों को संगठित कर आगे बढ़ाने के लिए ‘सोशल मीडिया’ से जनमाध्यम का काम लिया जा सकता है। उसने आमजन को मुखर होना सिखाया है। यह अनायास नहीं है कि सरकार के चहेते पूंजीपतियों अंबानी और अडानी के विरुद्ध कथित ‘सोशल मीडिया’ पर आवाजें बुलंद हो रही हैं। कभी धीरूभाई अंबानी के आर्थिक साम्राज्य को खड़ा करने में मददगार रही कांग्रेस के नेता राहुल गांधी सार्वजनिक मंचों से सरकार को पूंजीपतियों की अवांछित मदद करने का आरोप लगा चुके हैं। ऐसा पहली बार हुआ है जब आक्रोशित किसानों ने रिलायंस के टावरों को उखाड़ फेंकने की कोशिश की हो, और अंबानी समूह को मदद के लिए सरकार के आगे गुहार लगानी पड़ी हो। यह भी पहली बार हो रहा है कि जनता के कोप से बचने के लिए पंजाब में रिलायंस के स्टोर महीनों से बंद पड़े हैं। इसलिए ऐसे समय में जब टेलीविजन, अखबार तथा संचार के अन्यान्य साधनों को पूंजीवादियों और राजनेताओं ने अपने कब्जे में कर लिया हो, यह कम से कम ऐसा मंच तो है जिसके माध्यम से समाज के एकदम निचले वर्ग के लोगों की भावनाएं सामने आ रही हैं। इसलिए जन-अभिव्यक्ति को स्वर देने वाले किसी भी माध्यम की उपयोगिता से इन्कार नहीं किया जा सकता। किंतु आवश्यक है कि उनका प्रयोग आंदोलन को एकजुट करने के लिए सहायक के तौर पर किया जाए, न कि निर्देशक शक्ति के रूप में। 

जनता के गुस्से को बदलाव का संवाहक बनाना जरूरी

धर्म-पूंजीवाद और राजनीति के विरुद्ध उमड़ा आक्रोश समाज में वास्तविक बदलाव का कारक नहीं बन पा रहा है। आखिर क्यों? यहां 2011 की घटनाओं को याद करने की कोशिश करें। टयुनीशिया से भड़के जनविद्रोह ने देखते ही देखते यमन, बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात, लीबिया, इराक सहित यूरोप के भी कई देशों को अपनी चपेट में ले दिया था। विद्रोह इतना प्रबल था कि कई अरब देशों में निरंकुश सत्ताधीशों को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी। कुछ देशों में तो गृह-युद्ध जैसे हालात बन चुके थे। उसके पीछे सोशल मीडिया का बड़ा योगदान था। इतना कि आम भाषा में उसे ‘फेसबुकिया विद्रोह’ भी कह दिया जाता है। 

सोशल मीडिया के बल पर हुई वे आधी-अधूरी क्रांतियां, कुछेक देशों में तख्तापलट के बावजूद, अपेक्षित व्यवस्था-परिवर्तन करने में नाकाम सिद्ध हुई थीं। कारण वही जो हमने ऊपर गिनाए हैं। इंटरनेट पर विद्युतीय त्वरा से आ रही सूचनाएं, समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित कर, केवल विद्रोह की मनःस्थिति पैदा कर सकती हैं, जमीनी चेतना के अभाव में वास्तविक परिवर्तन की संवाहक नहीं बन सकतीं। उसके लिए क्रांतिकारी विचारधाराओं को केवल जानना ही नहीं, उन्हें लोकमानस में उतारना पड़ता है। जबकि सोशल मीडिया पर एक के बाद एक तेजी से आ रहे विचार, सूचनाओं का रूप लेकर, विचारहीनता के हालात पैदा कर देते हैं। परिणामस्वरूप समाज भीड़ की तरह वर्ताब करने लगता है। 

सोशल मीडिया और पूंजीवाद

2011 की जनक्रांतियां भले ही नाकाम हुई हों, किंतु उनके माध्यम से पूंजीवादी ताकतें विभिन्न राजनीतिक दलों और सरकारों को यह समझाने में कामयाब हुई थीं कि वे जनता को बड़े पैमाने पर भड़काकर न केवल जनविद्रोह के हालात पैदा कर सकते हैं, बल्कि चाहें तो तख्तापलट भी करा सकते हैं। बिना उनकी मदद के सत्ता में बने रहना तो क्या, वहां तक पहुंचना भी संभव नहीं है। अप्रत्यक्ष रूप से वह सत्ता-लोलुप दलों के लिए एक संदेश भी था कि सोशल मीडिया और पूंजीपतियों के समर्थन से वे अपने सपनों को साकार कर सकते हैं। भारत में उन घटनाओं पर बहुत कम लिखा गया। संभवतः लिखने से जानबूझकर बचा गया। लेकिन उनसे सबक लेने वाले संगठन कम नहीं थे। उनमें प्रमुख थे आरएसएस, भाजपा तथा उनके अनुषंगी संगठन, जो आजादी के बाद से ही अपने जातिवादी एजेंडे को थोपने के लिए सत्ता में आने को लालायित थे। ‘आम आदमी पार्टी’ का उदय भी ऐसे ही आंदोलन से हुआ था। 

बदलाव के लिए जमीनी आंदोलन जरूरी

सोशल मीडिया की मदद से बहुजन बुद्धिजीवी अपने विचारों को तेजी से अपने समर्थकों और विरोधियों तक पहुंचा सकते हैं। उसके माध्यम से बहुजन समाज में जागरूकता भी पैदा कर सकते हैं। ब्राह्मणवाद की धूर्तताओं से अपने लोगों को परचाकर उन्हें बड़े आंदोलन के लिए तैयार भी कर सकते हैं। लेकिन क्रांतिधर्मा विचारधाराओं को आमूल परिवर्तन की संवाहक बनाने के लिए, जमीनी आंदोलनों की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। 

दूसरे शब्दों में डॉ. आंबेडकर, पेरियार, डॉ. रामस्वरूप वर्मा, स्वामी अछूतानंद, गाडगे महाराज, ललई सिंह ‘पेरियार’, कांशीराम आदि महापुरुषों की विचारधाराओं से प्रेरणा लेने के साथ-साथ उनके द्वारा शुरू किए गए आंदोलनों को भी━नए समय और संदर्भों के साथ, नए रूप में आगे बढ़ाने की जरूरत आज भी पहले जितनी ही है। मार्क्स के शब्दों में कहें तो विचारधाराएँ अनेक हैं, समस्या उन्हें परिवर्तन का वाहक बनाने की है। इसलिए बहुजन हितैषियों को चाहिए कि वे परिवर्तनकारी विचारधाराओं को समझने के साथ-साथ, उन्हें जनांदोलन में बदलने के लिए भी काम करें।

ओमप्रकाश कश्यप

डॉ. आंबेडकर और बौद्ध धर्म : कुछ सवाल

विशेष रुप से प्रदर्शित

चातुर्वर्ण्य न केवल श्रम का विभाजन है, अपितु श्रमिकों का भी विभाजन है। इसलिए वर्गहीन अर्थात जात-पात विरहित समाज की संरचना हेतु संघर्ष किया जाना चाहिए। इसकी प्रारंभिक आवश्यकता है कि उच्च जातियों की अनुकंपा, दया, सहानुभूति तथा सामंजस्यपूर्ण सक्रिय सहयोग उम्मीद छोड़कर समस्त निचली जातियां दलित शक्ति के रूप में संगठित हों। फिर आंतरिक और बाह्यः दोनों मोर्चों पर संघर्ष के वरण से, वर्गवाद-वर्णवाद के उन्मूलन प्रक्रिया को तेज करते हुए, मनुष्यत्व की स्थापना के संघर्ष को आगे बढ़ाएं─डॉ. आंबेडकर। 

डॉ. आंबेडकर ऐसे महामानव थे जो शताब्दियों में जन्म लेते हैं। वे भारतीय गणतंत्र के वास्तुकार और संविधान निर्माता थे। यह संविधान प्रदत्त अधिकारों की ही देन है कि वे फासीवादी शक्तियां, जिनकी आंखों में भारतीय लोकतंत्र बुरी तरह खटकता है, अपने तमाम षड्यंत्रों और मनोरथों के बावजूद संविधान में छेड़छाड़ का साहस नहीं कर पा रही हैं। लेकिन आंबेडकर साहब के प्रति अपनी कुल श्रद्धा और सम्मान के बावजूद मैं उनके धर्मांतरण संबंधी फैसले से सहमत नहीं हो पाता। हालांकि मैं जानता हूं कि हिंदू धर्म से बौद्ध धर्म तक की उनकी यात्रा एक गाड़ी से उतरकर, दूसरी में सवार हो जाने जितनी आसान नहीं थी। वह पूरी तैयारी के साथ उठाया गया कदम था। फिर भी वह हिंदू धर्म पर वैसी चोट नहीं कर पाया, जैसी अपेक्षित थी; या जिसकी भारतीय समाज को जरूरत थी।  

हिंदू धर्म से नाराजगी और संघर्ष

जाति आरंभ से ही हिंदू धर्म की आलोचना का कारण रही है। वह जन्म के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में भेद करती है। रुचि और कार्यक्षमता के बजाए वह मनुष्य की योग्यता का आकलन उसकी जाति देखकर करती है। इस विकृति के कारण हिंदुओं के तीन-चौथाई हिस्से को दुख, हताशा, नैराश्य, अभाव और अपमान से भरपूर जीवन जीना पड़ता है। अछूत कही जाने वाली जाति में जन्म लेने के कारण डॉ. आंबेडकर को भी जीवन में अनेक बार अपमान का सामना करना पड़ा था। बचपन में जब वे स्कूल जाते थे, तब कक्षा में बैठने से लेकर पानी पीने तक उनके साथ भेदभाव किया जाता था। महाराजा गायकबाड़ द्वारा दी गई सैन्य सचिव की नौकरी उन्हें जातिगत भेदभाव के कारण छोड़नी पड़ी थी। उसके बाद परिवार के भरण-पोषण हेतु उन्होंने और भी नौकरियों की तलाश की। किंतु अछूत होने के कारण हर बार नाकाम रहना पड़ा। अक्टूबर 1929 में खानदेश(महाराष्ट्र) के दौरे पर ‘चालीस गांव’ के दौरे पर पहुंचे तो तांगेवालों ने उन्हें गंतव्य स्थल तक पहुंचाने से मना कर दिया था।

डॉ. आंबेडकर समझते थे कि यदि उन जैसे पढ़े-लिखे व्यक्ति के साथ हिंदू असहनीय दुर्व्यवहार कर सकते हैं, तो साधारण अछूत का भला क्या हाल होता होगा। इसलिए लंदन में पढ़ाई पूरी करके भारत लौटने के बाद उन्होंने खुद को अछूतों के मुक्ति-समर में झोंक दिया था। 20 मार्च 1927 को महाड़ सत्याग्रह के दौरान चवदार तालाब का पानी पीकर उन्होंने शताब्दियों से चली आ रही छूआछूत की प्रथा को चुनौती दी थी। 25 दिसंबर 1927 को जाति एवं जातिभेद को दैवीय घोषित करने वाली ‘मनुस्मृति’ का दहन किया। अछूतों और शूद्रों में जागरूकता लाने के लिए अखबार निकाले।

उन दिनों गांधी और कांग्रेस के उदारवादी नेता, दलितों के मंदिर प्रवेश का समर्थन करने लगे थे। आंबेडकर के लिए मंदिर प्रवेश कोई महत्वपूर्ण मुद्दा न था। वैसे भी जो धर्म रूढ़ियों, कर्मकांडों, मूर्तिपूजा और जड़-विश्वासों पर टिका हो, उसमें दलितों को मंदिर प्रवेश का अधिकार मिल जाने से उनकी सामाजिक स्थिति पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था। इसलिए 1933 में गांधी द्वारा सुब्ब्रायन विधेयक के समर्थन की मांग पर आंबेडकर का उत्तर था─‘मैं महात्मा को बताना चाहता हूं कि यह केवल हिंदुओं तथा हिंदू धर्म की विफलता ही नहीं है, जिसने मुझमें घृणा और अवमानना की भावना पैदा की है। मुझे हिंदुओं और हिंदू धर्म दोनों से घृणा है। क्योंकि मुझे विश्वास है कि वे गलत आदर्शों और अनुचित सामाजिक जीवन का नेतृत्व करते हैं। हिंदुओं और हिंदू धर्म के साथ मेरा वैर, उनके सामाजिक आचरण की खामियों के कारण नहीं है। बल्कि यह उससे भी अधिक मौलिक है। मेरा उनसे दुराव उनके आदर्शों के कारण है।’

हिंदू धर्म में दलितों के अपमान तथा अत्याचारों से आहत डॉ. आंबेडकर ने 1935 में उसे छोड़ने की घोषणा कर दी। उस समय उन्होंने कहा था─‘मैं जन्म से हिंदू था क्योंकि मेरा इस पर कोई नियंत्रण नहीं था, लेकिन मैं हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं।’ धर्मांतरण, डॉ. आंबेडकर के लिए निजी आस्था का विषय नहीं था। प्रबुद्ध व्यक्ति धर्म की बैशाखी के बिना भी नैतिक जीवन जी सकता है। लेकिन अशिक्षा और रूढ़ियों में डूबे जिस समाज का वे नेतृत्व करते थे, वह अपनी अच्छी-बुरी सभी प्रेरणाओं के लिए धर्म पर निर्भर था। धर्म-रहित जीवन की एकाएक परिकल्पना करना उसके लिए असंभव था। बावजूद इसके हिंदू धर्म से बौद्ध धर्म तक जाने में आंबेडकर ने पूरे बीस वर्ष लगाए थे। इस बीच हिंदू धर्म से अपनी शिकायतों को लेकर उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की थी। उनमें जातिवाद का उच्छेद(1936), ‘शूद्र कौन थे?’(1946) तथा ‘हिंदू धर्म की पहेलियां(1956) दस्तावेजी महत्व की कृतियाँ हैं।

डॉ. आंबेडकर और बुद्ध का धर्म

1935 में जब डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्म छोड़ने की घोषणा की थी, गांधी सहित अनेक नेता हिंदू धर्म में सुधार में लगे थे। उनके अलावा कई समाज-सेवी संस्थाएं भी उनके नेतृत्व में जमीनी स्तर पर कार्यरत थीं। उन सबके प्रयासों को देखकर हिंदू धर्म में सुधार की क्षीण-सी उम्मीद डॉ. आंबेडकर को थी। मगर आजादी के बाद वह उम्मीद खत्म होने लगी थी। आखिरकार 1956 में, यह मानते हुए कि हिंदू धर्म के कर्ताधर्ता सुधार के लिए तैयार नहीं हैं, अपनी मृत्यु से कुछ ही महीने पहले, लाखों समर्थकों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। उन्हीं दिनों उन्होंने ‘भगवान बुद्ध और उनका धर्म’ शीर्षक से पुस्तक की रचना भी की थी। यह पुस्तक कई मायनों में मौलिक थी। 

अधिकांश विद्वानों ने गौतम बुद्ध के संन्यास को जीवन-जगत के प्रति उपजी निराशा की परिणति माना है। उनके अनुसार कपिलवस्तु के मार्गों से गुजरते हुए युवा सिद्धार्थ की नजर सबसे पहले बूढ़े, फिर एक बीमार व्यक्ति पर पड़ी। परिणामस्वरूप उनके मन में जीवन-जगत को लेकर निराशा पैदा होती है। उस निराशा से वे उबर भी नहीं पाए थे कि अगली बार एक व्यक्ति की शवयात्रा देखकर उनका मन संसार से पूरी तरह उचट गया। उसके बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पूरा संसार ही दुखमय है। इसी से उनके मन में वैराग्य जन्म लेता है; और वे अर्धरात्रि में, बगैर किसी को बताए, पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को सोते हुए छोड़, घर से निकल पड़ते हैं। बुद्ध के संन्यास के बारे में हर जगह यही कहानी सुनने को मिलती है, जिससे बुद्ध और संसार के प्रति निराशाजनक तस्वीर बनती है। डॉ. आंबेडकर इस व्याख्या को स्वीकार नहीं करते। उन्हें यह स्वीकार्य नहीं कि 29 वर्षीय राजकुमार सिद्धार्थ ने उससे पहले किसी बीमार, वृद्ध और मृत व्यक्ति का साक्षात ही न किया हो। बुद्ध द्वारा ‘बूढे-रोगी-मृत-साधु’ को देखकर घर छोड़ देने का विवरण त्रिपिटक साहित्य में भी नहीं है। इसलिए बुद्ध के गृह-निष्क्रमण संबंधी मान्यताओं का खंडन करते हुए वे लिखते हैं─‘जीवन स्वाभावतः दुख है, यह सिद्धांत बौद्ध धर्म की जड़ पर ही कुठाराघात करता प्रतीत होता है। यदि जीवन ही दुख है, मरण भी दुख है, पुनरुत्पत्ति भी दुख है, तब तो सभी कुछ समाप्त हो जाता है। न धर्म ही किसी आदमी को संसार में सुखी बना सकता है और न दर्शन ही। यदि दुख से मुक्ति ही नहीं है तो फिर धर्म भी क्या कर सकता है और बुद्ध भी किसी व्यक्ति को दुख से मुक्ति दिलाने के लिए क्या कर सकता है, क्योंकि जन्म ही स्वाभावतः दुखमय है।’1

अहिंसा और गणतंत्र के प्रति सकारात्मक रवैया तथा बुद्धिवादी दृष्टिकोण─बौद्ध धर्म की ये विशेषताएं उसे आधुनिक धर्म बनाती हैं। इन्हीं के कारण डॉ. आंबेडकर उसकी ओर आकर्षित हुए थे। उनके  अनुसार, ‘जो बात बुद्धि-संगत है, जो बात तर्क-संगत है─वही बुद्ध वचन है।’ इसलिए, ‘कोई भी ऐसी बात जिसका मानव कल्याण से कोई संबंध न हो, यदि भगवान बुद्ध के सिर मढ़ी जाती है तो उसे बुद्ध-वचन नहीं कहा जा सकता।’2

अश्वघोषकृत ‘बुद्धचरित’ तथा धम्मानंद कोसंबी से प्रेरणा लेते हुए वे बुद्ध के गृह-त्याग की नवीन व्याख्या करते हैं। तदननुसार शाक्यों के राज्य से सटा हुआ कोलियों का राज्य था। रोहिणी नदी दोनों के बीच विभाजक रेखा थी। नदी के पानी के बंटवारे को लेकर दोनों के बीच संघर्ष चलता ही रहता था। समस्या के स्थायी समाधान हेतु शाक्यों ने सभा बुलाई। उसमें सेनापति ने कोलियों के राज्य पर हमला कर देने की सलाह दी। इसपर सिद्धार्थ ने सेनापति के प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा─‘युद्ध से कभी किसी समस्या का हल नहीं होता। युद्ध छेड़ देने से हमारे उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी। इससे एक दूसरे युद्ध का बीजारोपण हो जाएगा….केवल अवैर से ही वैर शांत हो सकता है।’3

यह जानते हुए भी कि बहुमत सेनापति के साथ है, बुद्ध न केवल युद्ध के प्रस्ताव का विरोध करते हैं, बल्कि अनिवार्य सैन्य भर्ती को भी गैर-जरूरी बताकर युद्ध में शामिल न होने की घोषणा कर देते हैं। लगातार विरोध से नाराज सेनापति संघ के नियमों का हवाला देकर, सिद्धार्थ तथा उनके परिवार के सामाजिक बहिष्कार की धमकी देता है। इसपर वे परिवार को दंडित करने के बजाय, खुद नगर छोड़ देने का वचन देते हैं। पूरी बहस लोकतांत्रिक विमर्श का शानदार नमूना है। उसके माध्यम से आंबेडकर केवल बुद्ध के चरित्र का नवोन्मेष करते हैं, बल्कि पाठकों को लोकतांत्रिक विमर्श का महत्व भी समझा रहे होते हैं। केवल आंबेडकर जैसा तर्कवादी लेखक ही ऐसा कर सकता था।

बुद्ध के गृह-त्याग की यह व्याख्या इतनी अनूठी और क्रांतिधर्मी है कि उसने अनेक बौद्ध विद्वानों को भी नाराज कर दिया था। 1957 में जब यह पुस्तक पहली बार प्रकाशित होकर बाजार में आई तो न केवल भारत, अपितु विश्व के बौद्ध विद्वानों ने भी उसकी जोरदार आलोचना की थी। लोग यहां तक कहने लगे थे कि पुस्तक ‘बुद्धिज्म नहीं अबेंडकरिज्म है’। आरोप था कि बुद्ध ने अपनी बात की पुष्टि हेतु के लिए आवश्यक संदर्भ नहीं दिए हैं। बाद में जब उस पुस्तक का भदंत आनंद कौसल्यायन ने हिंदी अनुवाद को संदर्भ के साथ प्रकाशित कराया तो आलोचकों के मुंह बंद हो गए।

क्या धर्मांतरण अपरिहार्य था

ऊपर हमने हिंदू समाज में जातिवाद और छुआछूत की बुराई की चर्चा की। उन कारणों पर विचार किया, जिन्होंने डॉ. आंबेडकर को हिंदू धर्म छोड़ने पर विवश किया था। उसके बाद बौद्ध धर्म की उन विशेषताओं की चर्चा भी की, जिन्होंने उन्हें बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित किया था। सवाल है कि क्या बौद्ध धर्म को अपनाना उतना ही अपरिहार्य था? हिंदू धर्म की जिन बुराइयों से बचने के लिए उन्होंने उसका त्याग किया था, क्या बौद्ध धर्म उनसे सर्वथा मुक्त रह सका? ‘भगवान बुद्ध और उनका धम्म’ में डॉ. आंबेडकर ने बौद्ध धर्म की जिन विशेषताओं को रेखांकित किया, जरूरत पड़ने पर उनकी मौलिक व्याख्या की लोकतांत्रिक छूट भी ली थी─उनकी प्रेरणा से बौद्ध धर्म अपनाने वाले दलित उन मूल्यों को कितना आत्मसात कर पाए? बौद्ध धर्म को अपना चुके दलित क्या जातिभेद की भावना से मुक्त हो पाए? यदि हिंदू धर्म ब्राह्मणवादी राजनीति का औजार रहा है तो क्या बौद्ध धर्म अतीत में दलित राजनीति तथा वर्तमान में बहुजन राजनीति का औजार नहीं है? उत्तर में कहा जा सकता है कि यह कांटे से कांटा निकालने की युक्ति है। लेकिन क्या इससे बुद्धिवाद और लोकतंत्र, जो ब्राह्मणवादी वर्चस्व से मुक्ति के कारगर औजार हो सकते हैं─की उपेक्षा नहीं हो रही है? धर्म के समानांतर दूसरे धर्म को खड़ा करने का ही दुष्परिणाम है कि बीते वर्षों में भारतीय राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर अनेक हमले हुए, तो दलित-बहुजन उसके विरुद्ध बड़ा मोर्चा नहीं खोल पाए।    

यह ठीक है कि बुद्ध ने जातिभेद को नकारा। भिक्षु-विहारों में सभी जाति-वर्ग के लोगों को शामिल होने की अनुमति थी। प्रवज्या ग्रहण करने वालों में उपालि(नाई), सुणीत(वाल्मीकि), सोपाक तथा सुप्पिय(अछूत), सुमंगल(अतिशूद्र), प्रकृति(चांडाल) के अलावा अंगुलिमाल जैसे डाकू भी शामिल थे।  इसके बावजूद यह भी सत्य है कि बुद्ध को केवल जाति और वर्ण-व्यवस्था पर आधारित भेदभाव से शिकायत थी। समाज में जाति और वर्ण के आधार पर विभाजन की पद्धति समाप्त हो, इसे लेकर बुद्ध का कोई निर्देश नहीं है। बुद्ध द्वारा मना करने के बावजूद भिक्षु संघों में जातिभेद कायम था। यही कारण है कि बौद्ध धर्म के रास्ते सभी जाति-वर्गों के लिए खोल देने के बावजूद बहुत कम शूद्रातिशूद्र, मात्र 8 प्रतिशत उसकी ओर आकर्षित हुए थे। जातक कथाओं में बुद्ध के पूर्वजन्मों की कहानियां दी गई हैं। उनमें बुद्ध के विभिन्न जातियों में पुनर्जन्म लेने के उल्लेख है। लेकिन उनमें जितना उल्लेख ब्राह्मणों का हुआ है, उतना किसी और जाति का नहीं। अपने पूर्वजन्मों में खुद बुद्ध भी सबसे ज्यादा बार ब्राह्मणों के घर ही जन्म लेते हैं।

पीछे संकेत किया गया है कि डॉ. आंबेडकर जैसी विलक्षण प्रतिभा, ऐसे विद्वान के लिए जो ज्ञान तक पहुंचाने वाली संश्लेष्णात्मक और विश्लेषणात्मक, दोनों प्रकार की प्रविधियों में दक्ष हो, को सदाचारी और नैतिक बने रहने के लिए, जिसे धर्म का उद्देश्य बताया जाता है─बौद्ध धर्म या किसी भी अन्य धर्म की कतई आवश्यकता नहीं थी। वे कबीर और रैदास की संत-परंपरा से निकले थे, जो हर तरह के कर्मकांड को ललकारने की साहस रखती थी। मुझे लगता है कि धर्मांतरण संबंधी घोषणा के मूल में ‘बुद्धत्व’ के प्रति विश्वास से अधिक, हिंदू धर्म को छोड़ देने की अपनी वर्षों पुरानी घोषणा का दबाव था। संभव है इसके पीछे हिंदू धर्म के चंगुल में फंसे लाखों-करोड़ों बहुजनों को निकालने का संकल्प भी रहा हो। कदाचित वे सोचते थे हजारों वर्षों से आस्था के गुलाम रहे बहुजनों के हाथ से धर्म की बैशाखी एकाएक छीन लेना, उचित न होगा। इसलिए धर्मांतरण के पक्ष में लिया गया उनका निर्णय आस्था और विश्वास का विषय न होकर, राजनीतिक था। धर्मांतरण के स्थान पर यदि वे धर्म को ही त्याग देने का फैसला करते तो वह युगांतरकारी कदम होता। बुद्ध के समय में भी निचली जातियाँ आजीवक दर्शन में विश्वास रखती थीं।

गौरतलब है कि ब्राह्मणों के लिए भी धर्म मूलतः राजनीति है, जो उनके विशेषाधिकारों का संरक्षण करती है। किंतु अशिक्षित समाज जब सामान्य राजनीति को नहीं समझ पाता तो धर्म के नाम पर चली जाने वाली राजनीति की महीन चालें वह भला कैसे समझ पाता! अधिसंख्यक बहुजनों के धर्मांतरण का महत्व एक नाव से दूसरी नाव में सवार हो जाने जितना है। यही कारण है कि दलित और बहुजन राजनीति के शोर-शराबे के बावजूद बौद्ध धर्म की प्रगति पूरी तरह ठहरी हुई है। 1951 में भारत में बौद्धों की संख्या मात्र 0.05 प्रतिशत थी। डॉ. आंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद, 1961 में कुल जनसंख्या का 0.74 प्रतिशत बौद्ध धर्मावलंबी थे। 1991 में वे बढ़कर 0.76 प्रतिशत हो गए। उसके बाद उनका जनसंख्या-अनुपात निरंतर गिर रहा है। 2011 की जनगणना के अनुसार दलितों की कुल जनसंख्या 20.14 करोड़ थी। उनमें से मात्र 84.43 लाख, लगभग 0.70 प्रतिशत ने खुद को बौद्ध घोषित किया था। नए-नए बने बौद्धों में से 87 प्रतिशत अछूत जातियों से थे।

समाधान क्या हो?

उपर्युक्त आंकड़ों से साफ है कि हिंदू धर्म की ब्राह्मणवादी राजनीति का सामना बौद्ध धर्म से करने का प्रयोग असफल सिद्ध हो चुका है। वैसे भी हर धर्मसत्ता की कोई न कोई केंद्रीय शक्ति होती है, जो मानव स्वभाव के लोकतांत्रिकरण का निषेध करती है। उससे मनुष्य और समाज दोनों के प्रबोधीकरण की प्रक्रिया अवरुद्ध होती है। इसलिए जिन्हें बौद्ध धर्म या किसी और धर्म में आस्था है, वे उस धर्म का चयन करें। लेकिन जिन्हें समाज में व्याप्त असमानता, असुरक्षा, सामाजिक भेदभाव आदि से शिकायत है, जो मनुष्य को अधिकाधिक स्वतंत्र और खुशहाल देखने चाहते हैं─उनके लिए अच्छा होगा कि वे बुद्धिवादी बनें, आधुनिक जीवन मूल्यों को अपनाएं जिनकी व्याख्या भारतीय संविधान में मौजूद है। अन्यथा वे कभी धर्म, कभी जाति, कभी अर्थ तो कभी राजनीति की राजनीति का शिकार होते ही रहेंगे।

ओमप्रकाश कश्यप

  1. डॉ. आंबेडकर, भगवान बुद्ध और उनका धर्म, बुद्धभूमि प्रकाशन, नागपुर, अनुवाद भदंत आनंद कौसल्यायन,  1997, पृष्ठ 28।
  2. उपर्युक्त, पृष्ठ-279।
  3. उपर्युक्त, पृष्ठ-279।

रूढ़ियों के शिकार धर्म-दर्शन

विशेष रुप से प्रदर्शित

आधुनिकता की ओर बढ़ती आज की दुनिया के आगे सर्वाधिक ज्वलंत प्रश्न है—क्या दुनिया को धर्म की सचमुच जरूरत है? क्या उसके बिना दुनिया का कारोबार एकदम थम जाएगा? धर्म के आलोचक आज भी कम नहीं हैं। धर्मानुयायी मानते हैं कि उनके आलोचक धर्म के मर्म को समझ ही नहीं पाते। यह बात अलग है कि स्वयं धर्म के अनुयायी भी उसे पूरी तरह समझने का दावा नहीं करते। धर्म की आलोचना, अन्वीक्षा से वे प्रायः यह कहकर पीछे हट जाते हैं कि उसे  समझना आसान नहीं है। इसके पीछे उनकी मंशा धर्म के नाम पर गुरुडम को थोपने तथा उसे ‘नेति-नेति’ कहते हुए इतना महान बना देने की होती है कि सामान्य आलोचना-समीक्षा को भी समाज और राष्ट्रीय भावना के विरुद्ध मान लिया जाता है। असल में वे तयशुदा सीमाओं से, उन सीमाओं से जो उन्होंने धर्म से बंधकर अपने लिए सहर्ष चुनी हैं, अथवा किसी न किसी बहाने उनपर थोप दी गई हैं, बाहर आना ही नहीं चाहते। न ही वे चाहते हैं कि उनका कोई अनुयायी उस सीमा रेखा को लांघने की हिमाकत करे। हम धर्म को ऐसी हवेली मान सकते हैं, जिसके अनेकानेक दावेदार हैं। कदाचित इसी कारण वह हजारों वर्षों से बंद है। ताजी हवा का प्रवेश उसमें निषिद्ध है। उसके भीतर झांकने की इजाजत तक किसी को नहीं है। यदि कोई उस हवेली के भीतर जाकर झाड़-पौंछ करना चाहे तो उसके दावेदार नाराज हो जाते हैं। डरते हैं कि हवेली साफ हुई तो उनकी सत्ता गई। बाहरी हस्तक्षेप को रोकने के लिए वे कई बार इतनी कुटिल चालें चलते हैं कि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली उनके आगे घुटने टेक देते हैं। जनसाधारण को बस इतनी अनुमति होती है कि अपने विवेक को गिरवी रखकर उस हवेली के दूर से ही दर्शन कर सके।

ऐसा आज से नहीं, सैकड़ों वर्षों से है। मध्यकाल में इसका सटीक उदाहरण मीमांसक कुमारिल भट्ट हैं। अपने समय के विलक्षण प्रतिभाशाली कुमारिल भट्ट ने बौद्ध विद्वानों को शास्त्रार्थ में परास्त करने के लिए बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया था। वे अपने मकसद में कामयाब भी हुए। बौद्ध पराजित हुए। लेकिन कुमारिल भट्ट अपनों से हार गए। प्रायश्चित स्वरूप उन्हें धीमी आंच में तपकर मृत्यु का वरण करना पड़ा। केवल इसलिए कि उन्होंने गुरु की अनुमति लिए बिना बौद्धमत का अध्ययन किया था। हिंदू धर्म में व्याप्त जड़ता, गुरुडम तथा नए और समकालीन ज्ञान-विज्ञान से जान-बूझकर बनाई गई दूरी को समझने के लिए यहाँ उनकी विशेष चर्चा प्रासंगिक है।

शंकराचार्य से एक पीढ़ी, लगभग 650 ईस्वी पूर्व जन्मे कुमारिल भट्ट वैदिक परंपरा में विश्वास रखते थे। तिब्बतीय बौद्ध ग्रंथों के हवाले से यह भी बताया गया है कि कुमारिल भट्ट के पास धान का विशाल खेत था, जिसमें 500 पुरुष और इतनी ही स्त्रियां दास के रूप में काम करते थे। उन दिनों भारत में बौद्ध दर्शन का बोलबाला था। कुमारिल भट्ट मानते थे कि बिना बौद्ध धर्म-दर्शन के पराभव के वैदिक परंपरा का पुनर्जीवन असंभव है। वैदिक धर्म को पुनःस्थापित करने की प्रेरणा उन्हें एक राजकुमारी से मिली थी। राजकुमारी बौद्ध दर्शन से घबराई हुई थी। बौद्ध दर्शन सनातन वर्ण-व्यवस्था और वंशगत अधिकारों का विरोध करता था। द्विज वर्ग की परंपरागत श्रेष्ठता के विचार को अस्वीकार करते हुए वह निर्वाण(मोक्ष) को सर्वसाधारण के लिए संभव बताता था। समानता आधारित दर्शन के कारण बौद्ध दर्शन का प्रभाव, भारत के अलावा आसपास के देशों पर भी था। राजकुमारी को डर था कि बौद्ध धर्म के प्रभाव के चलते उसके वंशगत अधिकार उससे छिन सकते हैं। अद्वितीय प्रतिभा के धनी कुमारिल भट्ट उन दिनों वैदिक परंपरा के ग्रंथों के अध्ययन-अनुशीलन में लगे थे। गुरुजन उनकी मेधा से अत्यंत प्रभावित थे। वंशानुगत अधिकारों के छिन जाने की आशंका से बुरी तरह घबराई राजकुमारी कुमारिल भट्ट से मिलते ही रो पड़ी। उसने रोते-रोते ही अपनी व्यथा प्रकट की—

‘क्या करूं, कहां जाऊं, वेदों का उद्धार कौन करेगा?’

‘हे सुकुमारे! रो मत!! वेदों का उद्धार कुमारिल भट्ट करेगा।’1 

राजकुमारी के आंसुओं से विगलित युवा कुमारिल भट्ट के मुख से सहसा निकला। कहते हैं कि कुमारिल भट्ट ने उसी दिन से बौद्ध धर्म-दर्शन की प्रतिष्ठा को कम करना अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। उन दिनों बिना गुरु की अनुमति के किसी और धर्म-दर्शन की शिक्षा लेना अपराध माना जाता था। लक्ष्य-सिद्धि हेतु कुमारिल भट्ट ने पहले तो बौद्ध धर्म का गहरा अध्ययन किया। तदनंतर, राजकुमारी को दिए गए वचन का निर्वहन करते हुए उन्होंने बौद्ध धर्म-दर्शन की जमकर आलोचना की। यहां तक कि नालंदा जाकर उस समय के प्रसिद्ध बौद्ध आचार्यों को शास्त्रार्थ में पराजित भी किया। लेकिन अपने गुरु से छिपकर बौद्ध दर्शन की शिक्षा लेने की ग्लानि उन्हें लगातार सालती रही। इसलिए प्रायश्चित स्वरूप उन्होंने खुद को धीमी अग्नि शिखाओं के समर्पित कर दिया। बौद्ध धर्म-दर्शन के पराभव के लिए उन्होंने जो जमीन तैयार की, उसी पर चलते हुए वेदांती शंकराचार्य ने अपनी कीर्ति-कथा लिखी। इस योगदान हेतु वैदिक परंपरा के अनुयायी कुमारिल भट्ट को पहला बलिदानी ब्राह्मण मानते हैं।

कहते हैं कि वेदांत की ध्वजा फहराने के लिए निकले शंकराचार्य काशी-मार्ग में कुमारिल भट्ट से भी मिले थे। अपने मत को स्थापित करने के लिए वे उनसे शास्त्रार्थ करना चाहते थे। जिस समय शंकराचार्य कुमारिल के पास पहुंचे, वे स्वयं को धीमी अग्नि युक्त चिता को समर्पित कर चुके थे। उनकी टांगें और शरीर का निचला हिस्सा जल चुका था। उस अवस्था में वे शंकराचार्य से शास्त्रार्थ नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने अपने शिष्य मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने का सुझाव दिया। कुमारिल भट्ट को अग्नि-शैय्या पर झुलसता हुआ छोड़, शंकराचार्य वहां से चल दिए। धार्मिक दृष्टिकोण से वह भले ही कुमारिल भट्ट का प्रायश्चित रहा हो, लेकिन व्यापक अर्थों में क्या वह अवसाद-जनित आत्महत्या नहीं थी? यदि ऐसा है तो शंकराचार्य का कुमारिल भट्ट को अग्नि-चिता पर छोड़कर जाना क्या उचित था? क्या उनका यह कर्तव्य नहीं था कि वे कुमारिल भट्ट से आत्महत्या का इरादा त्याग देने का निवेदन करते? उन्हें उस आत्म-ग्लानि से बाहर लाने की कोशिश करते, जिसने आत्महत्या जैसा घृणित कदम उठाने को विवश किया था? सामान्य नैतिकता कहती है कि आत्महत्या को उद्यत व्यक्ति को, वह चाहे जिस कारण से प्राणांत चाहता हो, किसी भी प्रकार से रोका जाए। लेकिन जिस दौर की यह घटना है, उसमें धार्मिक आग्रह हठधर्मी की सीमा तक प्रभावी होते थे। धार्मिक वाद-विवाद प्रायः जीवन-मरण का सवाल बन जाता था। ऐसे में व्यक्ति के साथ उसके विचार का अंत भी स्वाभाविक था। शंकराचार्य से हारकर मींमासक मंडन मिश्र, वेदांती सुरेश्वराचार्य बनकर उसके प्रचार-प्रसार में लग जाते हैं। उसके बाद मीमांसा दर्शन बौद्धिक विमर्श और जीवन दोनों से गायब हो जाता है।

इस प्रसंग के कुछ खास संकेत हैं। पहला प्राचीन गुरु नहीं चाहते थे कि उनका शिष्य ज्ञान और यश में उनसे आगे जाए। दूसरे प्राचीन ऋषियों के लिए बौद्धिक शास्त्रार्थ शारीरिक कुश्ती से भी गया-गुजरा था। कुश्ती में हारा हुआ पहलवान नई तैयारी और हौसले के साथ उसी पहलवान को दुबारा चुनौती दे सकता है। लेकिन शास्त्रार्थ में विजेता, पराजित व्यक्ति के तन और मन दोनों पर अधिकार जमा लेता था। व्यक्ति के साथ उसकी विचारधारा भी पराजित मान ली जाती थी। केवल विजेता का धर्म रह जाता है। कुल मिलाकर विचार को भी अखाड़े में उतर कर प्रतिद्विंद्वी विचारधारा को चुनौती देनी पड़ती थी।

2

जैन और बौद्ध धर्म-दर्शन इसके अपवाद थे। यहाँ जैन दर्शन की तो हमें खास तौर पर प्रशंसा करनी होगी। वैदिक हिंसा और गलाकाट बौद्धिक स्पर्धा के बीच उसने ‘स्याद्वाद’ का सिद्धांत सामने रखा था। वह विभिन्न विचारों को स्वतंत्र रूप से, एक-दूसरे के समानांतर बहने की अनुमति देने का उदारतापूर्ण विधान था। इसके अनुसार कोई भी विचार अंतिम सत्य नहीं है। प्रत्येक विचार अपने भीतर सत्य का कोई न कोई अंश छिपाए रखता है। वह पूरा सत्य हो ही नहीं सकता। चार अंधे एक ही बार में हाथी के पूर्ण रूप का बयान नहीं कर सकते। इसलिए उनमें से प्रत्येक द्वारा दिया गया विवरण, सत्य होने के बावजूद सत्य नहीं है। वह पूर्ण सत्य की एकांगी अथवा आंशिक अनुभूति है। ‘स्याद्वाद’ का दर्शन, वैदिक दर्शन की वैचारिक हिंसा के विरोध में उपजा था। लेकिन राजाओं के साम्राज्यवादी मनसूबे साधने के लिए युद्ध आवश्यक थे; और बगैर हिंसा के युद्ध लड़ना संभव ही नहीं था। ऐसे समाज में वैचारिक अहिंसा का कोई व्यावहारिक महत्व न था। अतः कालांतर में हिंसा को उसके स्थूल रूप; यानी केवल जैविक हिंसा तक सीमित मान लिया गया।

‘स्याद्वाद’ से पता चलता है कि जैन दर्शन में अहिंसा का अर्थ कहीं व्यापक था। उसकी कामना थी कि समाज में विभिन्न मतांतर वाले लोग, एक-दूसरे का सम्मान करते हुए जीवन जिएं। उनमें कोई द्वैष न हो। यदि वैचारिक लोकतंत्र होगा, तो लोग एक-दूसरे की भावनाओं का ख्याल रखेंगे, तभी समाज में वैचारिकता के प्रति अनुराग होगा। मगर केवल अपने विचारों को सर्वोपरि समझने, बताने की जिद के चलते, ‘स्याद्वाद’ का विचार समाज में गहरी जड़ें न जमा सका। यह बात भुला दी गई कि हिंसा प्रधान समाज में वैचारिक अहिंसा का टिके रहना असंभव है। वैचारिक लोकतंत्र के समर्थक, ‘स्याद्वाद’ जैसे दर्शन के कमजोर पड़ने का परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणों ने न केवल दूसरे विचारों की ओर से अपने आँख-नाक-कान बंद कर लिए, अपितु गैर-ब्राह्मण उनके धर्म-ग्रंथों के पढ़ न पाएँ, इसके लिए भी उनपर बड़े-बड़े प्रतिबंध थोप दिए।

हम पुनः कुमारिल भट्ट की कहानी पर लौटते हैं। हमने जाना कि कुमारिल भट्ट को अग्नि-शिखाओं पर आसीन देखकर भी शंकराचार्य का हृदय मोम न हुआ। शायद उनकी उत्कृष्ट मेधा का भय शंकराचार्य को रहा हो; यह आशंका कि कुमारिल भट्ट जैसे विद्वान को पराजित करना शायद उनके लिए संभव न हो! यह भी संभव है कि  वेदोक्त धर्म-दर्शन के शीर्ष-पुरुष बनने की महत्वाकांक्षा के साथ निकले शंकराचार्य, ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना चाहते हों, जिससे उनपर वैदिक परंपरा का दोषी होने का आरोप लगाया जा सके। इसलिए उन्होंने कुमारिल भट्ट को बचाने की कोई कोशिश न की। आज शंकराचार्य के समर्थक उस प्रसंग को गोल-मोल कर जाते हैं। हिंदू परंपराओं के जानकार के लिए इसमें कुछ भी अजूबा नहीं है। परंपरानुगामी भारतीय मेधा घटनाओं के निष्पक्ष विवेचन के बजाय श्रद्धा को महत्व देती है। उसकी कोशिश व्यक्तिगत श्रद्धा को सामूहिक श्रद्धा में बदल देने की रहती है। उस समय यदि शंकराचार्य कुमारिल भट्ट को चिता से उबार लेते तो वेदांत भले ही न जीतता, लेकिन इंसानियत अमर हो जाती।

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यहां एक किस्सा याद आ रहा है। बताते हैं कि रामानुजाचार्य को उनके गुरु ने एक मंत्र दिया था। मंत्र देते समय उन्होंने शिष्य रामानुज के कान में कहा—

‘बहुत पवित्र मंत्र है। जिसे बताओगे वह तर जाएगा।’

‘जी….गुरु जी।’ रामानुज ने गुरु का धन्यबाद किया।

‘लेकिन एक शर्त है। इस मंत्र को किसी अपात्र के समक्ष कभी प्रकट मत करना।’

‘अपात्र कौन?’

‘शूद्र, अछूत, स्त्री….शास्त्रों में उनका उल्लेख है।’

‘यदि मैं ऐसा करूं तो….’

‘घोर पाप….घोर पाप। सीधे रौरव नर्क में जाओगे।’

गुरुजी को दंडवत कर रामानुज वहां से चल दिए। रास्ते में उन्हें जो भी पात्र व्यक्ति दिखाई दिया, सभी को मंत्र दिया। गुरु को जब पता चला कि रामानुजाचार्य पात्र-अपात्र का ध्यान रखे बिना ही दीक्षा दे रहे हैं तो उन्होंने उन्हें बुलवाया, बरजा। गुरु के आदेश का उल्लंघन करने का आरोप लगाया। तब रामानुजाचार्य ने कहा—

‘आप ही ने कहा था कि जो भी व्यक्ति इस मंत्र का पाठ करेगा, उसका उद्धार होगा?’

‘मैंने यह भी कहा था कि अपात्र को इस मंत्र की दीक्षा दी तो तुम सीधे रौरव नर्क में जाओगे।’

‘यदि मुझ अकेले के नर्क में जाने से इतने सारे लोगों को मुक्ति मिलती है तो मुझे सौ-सौ जन्मों तक नर्क स्वीकार्य है।’ रामानुज का उत्तर था।

इसकी प्रतिक्रिया में रामानुज के गुरु ने क्या कहा होगा, मालूम नहीं। लेकिन उनके साथ अप्रत्यक्ष स्पर्धा में जीत शंकराचार्य की हुई थी। कैसे? रामानुज विशिष्टाद्वैत दर्शन के प्रवर्त्तक थे, और शंकराचार्य अद्वैत के। रामानुज मानते थे कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं, मगर संसार में आकर उनकी अलग-अलग प्रतीति होती है। शंकराचार्य आत्मा और परमात्मा को एक मानते थे। ब्राह्मणों ने घोषित रूप से शंकराचार्य के मत को स्वीकार किया। इस्लाम के सूफीवाद की और से मिल रही चुनौती से निपटने के लिए यह जरूरी था। किंतु आत्मा और परमात्मा एक हैं, इस आधार पर सभी मनुष्य बराबर हैं—इस सत्य को वे कभी गले से नहीं उतार पाए।  

हम यह नहीं कहते कि रामानुज का विशिष्टाद्वैत आदर्श दर्शन है। असल में न तो स्वर्ग होता है, न ही नर्क। मुक्ति स्वयं एक मिथ है। अतएव ऊपर दी गई कहानी को उसकी प्रतीकात्मकता, यानी सामाजिक संदर्भों में समझना चाहिए। कहानी बताती है कि किसी काम से यदि एक व्यक्ति को नुकसान, मगर अनेक को लाभ पहुंचता है तो वह कार्य करणीय हो सकता है, और व्यावहारिक नैतिकता के दायरे में आता है। पूर्ण नैतिकता तब होगी जब बाकी सब लोग, व्यक्ति विशेष को जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई करने की ठान लें।

अपने मान-अपमान और आलोचनाओं की चिंता किए बिना शंकराचार्य कुमारिल भट्ट जैसे मनीषी की प्राण रक्षा को आगे आते; तो वे मनुष्यता के लिए आदर्श उदाहरण पेश करते। मगर परंपरा से भयभीत शंकराचार्य उस अवसर की जानबूझकर उपेक्षा कर जाते हैं। बहरहाल, बौद्ध दर्शन के अध्ययन हेतु प्रस्थान करते समय कुमारिल भट्ट की मनःस्थिति को लेखक और क्रांतिकारी यशपाल ने खूब समझा था। वे लिखते हैं—

‘कुमारिल भट्ट दो बातें खूब समझते थे। पहली बात यह कि बौद्ध दर्शन उनकी प्रतिपालक और रक्षक द्विज श्रेणी के हित और अधिकारों पर आघात कर रहा है; और दूसरी बात, द्विज श्रेणी के सामाजिक और आर्थिक शासन की वेदोक्त व्यवस्था….द्विज श्रेणी के शासन के अधिकारों का विरोध करने वाले बौद्ध दर्शन की सत्य, अहिंसा और न्याय की मांग—द्विज श्रेणी के अधिकारों की हिंसा करती है। अतः बौद्ध दर्शन से ‘फाइट’ करना आवश्यक है।’2 

कुमारिल भट्ट के प्रायश्चित की घटना द्वारा हम, न केवल उनकी मनोरचना, अपितु तत्कालीन समाज के मनोविज्ञान को  भी समझ सकते हैं। उन दिनों धर्म, दर्शन और विचार की प्रामाणिकता को परखने के उपाय कभी-कभी इतने विचित्र, अविचारी और अस्वाभाविक होते थे कि आज उनपर विश्वास करना कठिन जान पड़ता है। बताते हैं कि नालंदा में बौद्ध दर्शन के अध्ययन के लिए कुमारिल भट्ट ने छद्म नाम से प्रवेश लिया था। वहां के विद्यार्थियों को जब पता चला तो वे बहुत कुपित हुए। उन्होंने कुमारिल को सबक सिखाने की ठान ली। कुछ शरारती लड़कों ने उन्हें विश्वविद्यालय की छत से फैंकने का निश्चय किया।  बौद्ध विचारक वेदों को अप्रामाण्य और मानवकृत मानते थे। बौद्ध दर्शन को मिटाने के कुमारिल भट्ट के संकल्प के पीछे यही मुख्य वजह थी। जब वे लड़के उन्हें कुमारिल को ढकेलने जा रहे थे तब उन्होंने उन सभी को सुनाते हुए कहा था—‘यदि वेद प्रामाण्य हैं तो मुझे कोई भी चोट नहीं पहुंचेगी।’

संयोगवश वे सकुशल बच गए। उसी दिन से कुमारिल ने मान लिया कि वेद स्वतः प्रामाण्य हैं। वह विवेक पर  अंधश्रद्धा की जीत थी। आत्मदहन से पहले कुमारिल भट्ट ने विपुल वाङ्मय की रचना की थी। लेकिन विलक्षण मेधा के बावजूद वे मीमांसा दर्शन को वह सम्मान दिलाने में नाकाम रहे, जिसके वे आचार्य थे। जिसके लिए उन्होंने बौद्धों को पराजित करने की कामना के साथ गुरु-द्रोह किया था। मंडन मिश्र के पराजित होते ही मीमांसा दर्शन लगभग पूरी तरह उखड़ गया। बाद में ब्राह्मणों ने उनके प्रायश्चित का खूब महिमामंडन किया। उससे दर्शन में विचार को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह लगातार कम होता गया। उसके स्थान पर कर्मकांड और रूढ़ियां अपनी पकड़ बनाते गए।

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शब्द की कसौटी शब्द; और विचार की कसौटी केवल विचार बन सकता है। बावजूद इसके चमत्कारों और संयोगों के माध्यम से किसी विचार या वस्तु को प्रमाणित करने की प्रवृत्ति भारतीय समाज में बहुत पुरानी है। रूढ़ियों को विचारधारा का रूप देने तथा विरोधी विचारों से सीख लेने के बजाय उन्हें मिटा देने के उदाहरण भी कई हैं। कहीं पढ़ा था कि उज्जैन नगरी में एक ऐसा तालाब था, जिसका उपयोग शास्त्रीय ग्रंथों की जांच के लिए कहा जाता था। तरकीब निराली थी। यदि ग्रंथ तैर जाए तो उसको मौलिक और महत्वपूर्ण मानकर सम्मान मिलता था। अगर डूब जाए तो उसे स्थायी जल-समाधि के लिए छोड़ दिया जाता था। समझ सकते हैं कि वह गुणवत्ता जांच के नाम पर ग्रंथ को ही मिटा देने की बौद्धिक वर्ग की साजिश थी। लोकश्रुति के अनुसार उस तालाब में पांच हजार से अधिक ग्रंथों को इसी तरह डुबोया गया था। बाद में उस तालाब को पाट दिया गया। इस तरह न जाने कितनी बहुमूल्य पांडुलिपियां, केवल इसलिए कि उनमें व्यक्त विचार शासन और उसके चहेते बुद्धिजीवी वर्ग की विचारधारा से मेल नहीं खाते थे, हमेशा-हमेशा के लिए दफन कर दिए गए। बौद्ध काल में चार्वाक, लोकायत और आजीवक धर्म जैसी भौतिकवादी विचारधाराएं विमर्श में थीं। अजित केशकंबलि, मक्खलि घोषाल, पूर्ण कस्सप जैसे विचारक उनके पोषण में लगे थे। वैदिक परंपरा के पुरोहितों और आचार्यों से उनका शास्त्रार्थ चलता रहता था। इसके बावजूद इन विचारधाराओं से संबंधित स्वतंत्र ग्रंथ हमें प्राप्त नहीं होता। इसके पीछे तत्कालीन आचार्यों की विरोधी विचारधारा के प्रति असहिष्णुता रही है।

संवैधानिक व्यवस्थाओं और लोकतंत्र के इस दौर में होना तो यह चाहिए कि हम इतिहास से कुछ सबक लें, किंतु विचार के नाम पर जड़ता और धर्म-दर्शन के नाम पर असहिष्णुता निरंतर बढ़ती ही जा रही है। शायद ऐसी ही परिस्थितियां डॉ.  आंबेडकर की बहुचर्चित पुस्तक ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ लिखने की प्रेरणा बनी थीं।

ओमप्रकाश कश्यप 

1.   किं करोमि क्वगच्छामि को वेदानुधरिष्यति.

मा रुदसि बाले, कुमारिलभट्टोवेदानुद्धारिष्यति. —यशपाल द्वारा ‘अपने संपर्कों के प्रति मेरे देय’ से उद्धृत, यशपाल के निबंध, पृष्ठ 431.

2 .   यशपाल के निबंध, अपने संपर्कों के प्रति मेरे देय, 431।

भगतसिंह : एक क्रांतिकारी की विचारयात्रा

विशेष रुप से प्रदर्शित

देशभक्ति के लिए यह(फांसी) सर्वोच्च पुरस्कार है। मुझे गर्व है कि मैं यह पुरस्कार पाने जा रहा हूं। वे सोचते हैं कि मेरे पार्थिव शरीर को नष्ट करके वे इस देश में सुरक्षित रह जाएंगे। यह उनकी भूल है। वे मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकते। वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं, लेकिन मेरी भावनाओं को नहीं कुचल सकते। ब्रिटिश हुकूमत के सिर पर मेरे विचार उस समय तक एक अभिशाप की तरह मंडराते रहेंगे, जब तक वे यहां से भागने के लिए मजबूर न हो जाएं।’─भगतसिंह, 27 जुलाई 1930।

भारतीय स्वतंत्रता लंबे संघर्ष का परिणाम है। उसके लिए लाखों बलिदानियों ने मौत को खुशी-खुशी गले लगाया था तो उससे कहीं ज्यादा ने कठोर यातनाएं सही थीं। देश उन सबका ऋणी है। उनमें से किसी के भी बलिदान को छोटा या बड़ा कहना स्वतंत्रता की अवमानना करने जैसा है। किंतु आजादी की खातिर जान कुर्बान कर देने वालों में से यदि किसी एक को आदर्श बलिदानी रूप में चुनने को कहा जाए, तो निस्संदेह वे भगतसिंह होंगे। इसलिए नहीं कि मात्र 23 वर्ष की अवस्था में उन्होंने खुशी-खुशी फांसी के फंदे को चूम लिया था। न इसलिए कि उन्होंने असंबेली में बम फेंका था, और न ही इसलिए कि उन्होंने ‘इन्कलाब जिंदाबाद’जैसा नारा बुलंद किया था─जिसे लगाते हुए हजारों-लाखों स्वतंत्रता प्रेमी औपनिवेशिक सत्ता के समक्ष छाती तानकर खड़े हो गए थे। अपितु इसलिए कि उन्हें न केवल भारतीय समाज की विकृतियों तथा अंग्रेजों के साम्राज्यवादी चरित्र की सही-सही पहचान थी, बल्कि भविष्य के भारत की सम्यक रूपरेखा भी उनके पास थी। लोकहित के लिए क्रांति को सही-सही परिभाषित करने में जितना योगदान भगतसिंह का है, उतना किसी और का नहीं है।

कहावत है कि जीवन लंबा नहीं, महत्वपूर्ण होना चाहिए─भगतसिंह ने इसे चरितार्थ कर दिया था। मात्र 23 वर्ष की उम्र में उन्होंने जो प्राप्त किया, उतना इतनी कम वयस् में शायद ही कोई प्राप्त कर सका। यही कारण है कि उनके बलिदान ने जहां गांधी को संपादकीय लिखने के लिए विवश कर दिया था, वहीं डॉ. आंबेडकर तथा सुदूर दक्षिण में आंदोलनरत रामासामी पेरियार ने भी, अपनी-अपनी तरह से उनके योगदान की सराहना की थी। भगतसिंह की जीवनयात्रा, एक स्वप्न-दृष्टा युवक के महान क्रांतिकारी बनने की कथा है। ऐसा युवक जो अपने देश और समाज के लिए सोचता है। उनके मान-सम्मान, आजादी तथा अस्मिता की सुरक्षा हेतु संघर्ष करता है। ऐसा व्यक्ति जो समाज से जितना ग्रहण करता है, उससे कहीं ज्यादा परिमाण में वापस लौटा देता है। 

1923 में विद्यार्थी जीवन में ही घर छोड़कर, खुद को ‘मकसदे आला….आजादी-ए-हिंद के असल के लिए वक्फ’ कर देने के साथ उनका क्रांतिकारी जीवन आरंभ होता है। उनके लेखन के उत्तरोत्तर विकास से उनके क्रांतिकारी जीवन की यात्रा को समझा जा सकता है। देशभक्ति और क्रांति का पाठ उन्हें परिवार से ही मिला था। दादा सरदार अर्जुन सिंह बड़े जमींदार थे। 80 वर्ष से ज्यादा की उम्र में भी वे राष्ट्रवादी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। सरदार अर्जुन सिंह के भाई सरदार बहादुर दिलबाग सिंह सरकारी कर्मचारी थे; और सरकार की ओर से कई पुरस्कार ले चुके थे। भगतसिंह की दादी श्रीमती जय कौर घरेलू होने के साथ-साथ बहादुर महिला थीं। परिवार में राष्ट्रवादी नेताओं तथा क्रांतिकारियों का नियमित आना-जाना था। एक बार पुलिस प्रसिद्ध क्रांतिकारी सूफी अंबाप्रसाद को गिरफ्तार करने उनके घर पहुंची। तब श्रीमती जय कौर ने बुद्धिमानी और साहस के साथ हालात को संभालकर पुलिस को बैंरग लौटने को मजबूर कर दिया था।

भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह पंजाब के बड़े किसान नेता थे। वे ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ आंदोलन के मुख्य सूत्रधारों में से थे। परिणामस्वरूप सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करके बर्मा की मांडले जेल भेज दिया था। लाला लाजपतराय भी वहीं थे। लेकिन अजीत सिंह की लोकप्रियता ऐसी थी कि गिरफ्तारी के बाद जनता भड़क उठी। जनाक्रोश ऐसा उमड़ा कि सजा पूरी होने से पहले ही, सरकार को उन्हें रिहा कर देने का आदेश देना पड़ा। बाद में वे विदेश जाकर आजादी के आंदोलन को मजबूत करने के लिए काम करने लगे। वे गदर पार्टी से जुड़े, 1946 में सुभाषचंद बोष के संपर्क में भी आए तथा उनके संघर्ष को आगे बढ़ाने में योगदान दिया। भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह तथा एक और चाचा सरदार स्वर्ण सिंह भी, भड़काऊ भाषण देने के आरोप में जेल की सजा प्राप्त कर चुके थे। इस तरह क्रांति का पहला सबक भगतसिंह को अपने परिवार से ही प्राप्त हुआ था।

यह प्रभाव इतना गहरा था कि 1924 में भगतसिंह ने ‘पंजाब की भाषा और लिपि की समस्या’ शीर्षक भाषण लिखा तो वह केवल भाषा, लिपि और अनुवाद की समस्या तक सीमित नहीं था। उस पर शुरू से अंत तक, भगतसिंह को विरासत में मिले संस्कार हावी थे। भाषण उन्होंने ‘पंजाब हिंदी साहित्य सम्मेलन’ के आमंत्रण पर लिखा था। सम्मेलन द्वारा आयोजित भाषण प्रतियोगिता में प्रथम आने पर उन्हें 50 रुपये का पुरस्कार भी मिला था। उस भाषण में वे दक्ष भाषाविद की तरह तर्क देते हुए पंजाबी को ‘हिंदी-लिपि’ में लिखने की सलाह देते हैं। हालांकि अंतिम फैसला विद्वानों पर छोड़ देते हैं। लेख में वे जगह-जगह सामाजिक क्रांति के संदर्भ में साहित्य की भूमिका को रेखांकित करते हैं। एक जगह उन्होंने स्वामी रामतीर्थ द्वारा गाए जाने वाले प्रयाण गीत को उद्धृत किया है, जो बूढ़े दिलों में भी जोश भर देने का सामर्थ्य रखता है─

‘हम रूखे टुकड़े खाएंगे, भारत पर वारे जाएंगे।

हम सूखे चने चबाएंगे, भारत की बात बनाएंगे

हम नंगे उमर बिताएंगे, भारत पर जान मिटाएंगे।

मात्र 17 वर्ष की अवस्था में वे जिस तरह दुनिया-भर के क्रांतिकारी आंदोलनों को याद करते हैं, उससे उनके विशद् अध्ययन का अनुमान लगाया जा सकता है─

‘शायद गैरीबाल्डी को इतनी जल्दी सेनाएं न मिल पातीं, यदि मैजिनी ने 30 वर्ष देश में साहित्य तथा साहित्यिक जागृति पैदा करने में ही न लगा दिए होते….रूसो, वाल्तेयर के साहित्य के बिना फ्रांस की राज्य-क्रांति घटित न हो पाती। यदि टाल्सटाय, कार्ल मार्क्स तथा मैक्सिम गौर्की आदि ने प्रगतिशील साहित्य रचने में वर्षों न लगाए होते, तो रूस की क्रांति सफल न हो पाती, साम्यवाद का प्रचार तो दूर रहा।’

वस्तुतः वे भगतसिंह के लिए ‘भगतसिंह’ बनने के दिन थे। उनकी पढ़ने में रुचि तो बचपन से ही थी। कॉलेज में दाखिला लेने के बाद किताबों की भूख और ज्यादा भड़क चुकी थी। लाहौर के अनारकली बाजार में स्थित ‘रामकृष्ण एंड संस’ नामक किताबों की दुकान, भगतसिंह तथा उनके साथियों का पसंदीदा ठिकाना थी। दुकान पर जब्तशुदा पुस्तकें भी मिल जाया करती थीं। अच्छी पुस्तकें मिलने का एक और ठिकाना थी─लाला लाजपतराय की ‘द्वारकादास लाइब्रेरी’। उसमें रूसी साहित्य और राजनीति पर पुस्तकों का खासा भंडार था। जिस नेशनल कॉलेज में भगतसिंह पढ़ते थे, उसका पुस्तकालय भी समृद्ध था। वहां वैचारिक पुस्तकों का बहुमूल्य खजाना था। इटली, रूस, आयरलेंड की क्रांतियों से संबंधित अनेक पुस्तकें लाइब्रेरी में उपलब्ध  थीं। उनमें से बहुत-सी पुस्तकें भगतसिंह के आग्रह पर ही मंगवाई गई थीं। भगतसिंह के पुस्तक प्रेम के बारे में ‘द्वारकादास लाइब्रेरी’ के संचालक राजाराम शास्त्री का कहना था─

‘भगतसिंह वस्तुतः पुस्तकों को पढ़ता नहीं निगलता था। फिर भी उसकी ज्ञान-पिपासा सदा अनबुझी ही रहती थी। वह पुस्तकों के नोट्स बनाता, अपने साथियों के साथ विचार-विचार करता, अपनी समझ को नए ज्ञान की कसौटी पर आत्मालोचनात्मक ढंग से परखने का प्रयास करता था।’

महान क्रांतिकारी अपने लक्ष्य को देश-प्रदेश की सीमाओं में बांधकर नहीं रखता। उसके सरोकार मानवीय होते हैं, इसलिए उसके दायरे में संपूर्ण मनुष्यता आ जाती है। भगतसिंह का भी एक आदर्शलोक(यूटोपिया) था। एक लक्ष्य जिसे वे क्रांति के माध्यम से प्राप्त करना चाहते थे। उनका आदर्शलोक किसी एक देश की सीमा तक सीमित नहीं था। पूरी दुनिया उसमें शामिल थी─

‘सभी अपने हों, कोई भी पराया न हो। कैसा सुखमय होगा वह समय जब संसार से परायापन सर्वथा नष्ट हो जाएगा। जिस दिन यह सिद्धांत समस्त संसार में व्यावहारिक रूप में परिणित होगा, उस दिन संसार को उन्नति के शिखर पर कह सकेंगे….उस दिन इतनी शक्ति होगी कि ‘शांति-शांति’ की पुकार भी शांति भंग नहीं कर सकेगी। भूख लगने पर रोटी के लिए किसी को भी चिल्ल-पौं मचाने की आवश्यकता नहीं हुआ करेगी। व्यापार उस दिन उन्नति के शिखर पर होगा। परंतु फ्रांस और जर्मनी में व्यापार के नाम पर घोर युद्ध न हुआ करेंगे। उस दिन अमेरिका और जापान दोनों होंगे, परंतु उनमें पूर्वीपन और पश्चिमीपन न होगा….शांति होगी, किंतु पीनलकोड की आवश्यकता न होगी। अंग्रेज भी होंगे और भारतवासी भी, मगर उनमें गुलाम और शासक का भाव न होगा….उस समय होगी पूर्ण स्वतंत्रता।’

ऐसा था उस 17 वर्ष के युवा का दर्शन। ऐसी उम्र में जब अधिकांश युवती-युवक तरुणाई के सपने देखते हैं, विपरीत लिंगी के साथ प्यार और मनुहार की पींगें बढ़ाते हैं, भगतसिंह के युवा सपनों में पूरी मनुष्यता समाहित थी। लेखन-पत्रकारिता के आरंभिक दौर में वे भूले-बिसरे क्रांतिकारियों और जनविद्रोहों को याद करते है। निहिलिज्म, अनार्किज्म, समाजवाद, साम्यवाद जैसे राजनीतिक दर्शनों पर अपनी समझ को न केवल पुख्ता करते हैं, अपितु लोगों को उनके बारे में समझाते भी हैं। जिन राजनीतिक दर्शनों पर उन दिनों बहस छिड़ी हुई थी, उनमें ‘अराजकतावाद’ भी था।

विगत शताब्दियों में जिन शब्दों का सर्वाधिक अर्थ-विरूपण किया गया है, उनमें से एक ‘अराजकता’ भी है। ‘अराजकतावाद’ के उत्स की खोज हमें यूनानी दार्शनिक जीनो और चीनी विचारक लाओत्जे तक ले जाती है। आधुनिक विद्वानों में प्रूंधों को इसका पितामह माना जाता है। कार्ल मार्क्स का साथी रूसी दार्शनिक मिखाइल बकुनिन भी अराजकतावादी था। मार्क्स जहां वर्ग संघर्ष में विश्वास रखता था और बुर्जुआ शासन को हटाकर, सर्वहाराओं के शासन का सपना देखता था, वहीं बकुनिन किसी भी प्रकार के राज्य को मनुष्य की स्वतंत्रता के लिए बाधक मानता था। आरंभ में भगतसिंह का रुझान भी अराजकतावादी था। 1928 में उन्होंने ‘किरती’ में ‘अराजकतावाद’ पर एक लेखमाला आरंभ की थी, जिसमें उन्होंने साम्यवाद और समाजवाद की तुलना में ‘अराजकतावाद’ को ‘सबसे ऊंचा और आदर्श’ बताया था। भगतसिंह की उक्त लेखमाला में तीन लेख शामिल थे। उन्होंने लिखा था─

‘जिस आदर्श स्वतंत्रता की कल्पना की जाती है, वह पूर्ण स्वतंत्रता है।’ उसमें न ईश्वर, धर्म, निजी संपत्ति, धर्म और जाति संबंधी विशेषाधिकारों तथा शासन-प्रशासन के प्रतिबंधों के लिए कोई स्थान नहीं है। मानव मात्र की अधिकतम स्वतंत्रता के लिए अराजकतावाद मोटे तौर पर जिन शक्तियों को पूरी तरह खत्म कर देना चाहता है, उनमें पहली है─चर्च, भगवान और धर्म। दूसरी स्टेट(राज्य और सरकार) तथा तीसरी निजी संपत्ति।’

 अराजकतावादियों के अनुसार राज्य संकेन्द्रित और संगठित रूप में हिंसा का प्रतिनिधित्व करता है। उसका अस्तित्व हिंसा पर टिका होता है। व्यक्ति के पास आत्मा होती है, चूंकि राज्य आत्मा-विहीन तंत्र होता है, इसलिए उसे हिंसा से विरत कभी नहीं किया जा सकता। शांति-व्यवस्था के नाम पर ज्यों-ज्यों कानून सख्त होते हैं त्यों-त्यों भ्रष्टाचार बढ़ता है। अराजकतावादी मानवमात्र की अधिकतम स्वतन्त्रता हेतु राज्य के विलोपन को जरूरी मानते हैं। कहने को तो गांधी ने भी जब-तब खुद को अराजकतावादी घोषित किया था। वे सरकार को अनिवार्य बुराई मानते थे। मगर गांधी द्वारा खुद को ‘अराजकतावादी’ कहना, उनका अपने ही मुंह खुद को दलितों का सबसे बड़ा हितैषी होने का दावा करने जैसा था। बहरहाल, भगतसिंह द्वारा अराजकतावाद पर लिखे तीसरे लेख के दो संदर्भ विशेष उल्लेखनीय हैं। उनके बाद के अभियानों पर उन दोनों का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। लेख में उन्होंने अराजकतावादी पीटर क्रोप्टोकिन को उद्धृत किया है, जिसमें क्रांति का पूरा दर्शन समाहित है। मिखाइल बकुनिन के अनुयायी क्रोप्टोकिन ने कहा था─

‘कोई एक व्यावहारिक कार्य हजारों पर्चों से अधिक प्रचार कर सकता है। सरकार अपना बचाव करती है। वह बुरी तरह जलती और गुस्साती है। अवसर देख कुछ और लोग प्रतिरोध के लिए आगे आ जाते हैं। सरकार फिर दमन करती है, जो नागरिकों को विद्रोह के लिए उकसाता है। सरकार क्षुब्ध होती है। धीरे-धीरे उसमें अंतर्विरोध उभरने लगते हैं। सरकार अलग-अलग खानों में बंट जाती है। उनमें आपस में ही नोंक-झोंक होने लगती है। इससे जनता की मांगों को स्वीकारने में विलंब होता है। फलस्वरूप इन्कलाब की जंग शुरू हो जाती है।’

आगे वे फ्रांसिसी क्रांतिकारी आगस्ट वैलेंट(27 दिसंबर 1861─5 फरवरी, 1894) का उल्लेख करते हैं। वैलेंट ने 9 दिसंबर, 1893 को फ्रांसिसी संसद के निचले सदन में बम फैंका था। बम बहुत हल्का था, इसलिए कुछ ‘डिप्टियों’ के घायल होने के अलावा उससे कोई और नुकसान न हुआ। बाद में अदालत में सुनवाई के दौरान वैलेंट ने अपना जुर्म स्वीकारते हुए कहा कि ‘बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत पड़ती है।’ ठीक यही शब्द 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा में बम धमाके के बाद भगतसिंह ने भी कहे थे। अदालत ने वैलेंट को गिलोटीन पर चढ़ा दिया था। भगतसिंह को भी फांसी की सजा मिली थी।

भगतसिंह की वैचारिक-यात्रा उनके दो लेखों, ‘अछूत का सवाल’(जून 1928); तथा ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’(अक्टूबर 1931) के उल्लेख के बिना अधूरी मानी जाएगी। उस समय तक भारतीय समाज और राजनीति में अस्पृश्यों से जुड़े प्रश्न महत्वपूर्ण हो चुके थे। हजारों वर्षों से शोषण और दमन का शिकार रहे शूद्र एवं दलित अपने अधिकारों के लिए एकजुट होने लगे थे। कुल जनसंख्या का पांचवा हिस्सा होने के कारण वे बड़ी राजनीतिक शक्ति भी थे। इसलिए उन्हें लुभाने के लिए इस्लाम, ईसाई आदि धर्मावलंबियों में होड़ मची हुई थी। ऐसे में भगतसिंह ने ‘विद्रोही’ उपनाम से ‘अछूत का सवाल’ शीर्षक से लेख लिखा था, जो ‘किरती’ के जून 1928 अंक में प्रकाशित हुआ था। वे अछूतों की समस्याओं को वर्गीय समस्या के रूप में देख रहे थे। लेख में उन्होंने मदनमोहन मालवीय जैसे कांग्रेसी नेताओं के दोगले चरित्र पर कटाक्ष किया था─

‘इस समय मालवीय जैसे बड़े समाज सुधारक, अछूतों के बड़े प्रेमी और न जाने क्या-क्या पहले एक मेहतर के हाथों गले में हार डलवा लेते हैं, लेकिन कपड़ों सहित स्नान किए बिना स्वयं को अशुद्ध समझते हैं!’

दलितों को गंदा और अपवित्र मानने वाली मानसिकता पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा था─‘वे गरीब हैं। गरीबी का इलाज करो। ऊंचे-ऊंचे कुलों के गरीब लोग भी कम गंदे नहीं रहते। गंदे काम करने का बहाना भी नहीं चल सकता, क्योंकि माताएं बच्चों का मैला साफ करने से अछूत नहीं जातीं।’ अस्पृश्यों को उनके आत्मगौरव की याद दिलाते हुए,  वे आगे लिखते हैं─

‘हम मानते हैं कि उनके(अछूतों के) अपने जन-प्रतिनिधि हों। वे अपने लिए अधिक अधिकार मांगें। हम तो कहते हैं कि उठो! अछूत कहलाने वाले असली जनसेवको तथा भाइयो उठो! अपना इतिहास देखो। गुरु गोविंद सिंह की फौज की असली ताकत तुम्हीं थे। शिवाजी तुम्हारे भरोसे ही सब कुछ कर सके। जिस कारण उनका नाम आज भी जिंदा है। तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं….लेंड एलिएनेशन एक्ट के अनुसार तुम धन एकत्र कर भी जमीन नहीं खरीद सकते….अपनी शक्ति को पहचानो और संगठनबद्ध हो जाओ। असल में स्वयं कोशिश किए बिना कुछ भी न मिल सकेगा….स्वतंत्रता की चाहत रखने वालों को गुलामी के विरुद्ध खुद विद्रोह करना पड़ना पड़ेगा….लातों के भूत बातों से नहीं मानते। संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो। तब देखना कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इन्कार करने की जुर्रत न कर सकेगा। तुम दूसरों की खुराक मत बनो। दूसरों के मुंह की ओर न ताको….तुम असली सर्वहारा हो। संगठनबद्ध हो जाओ। तुम्हारी कुछ हानि न होगी। बस गुलामी की जंजीरें कट कट जाएंगी। उठो और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो। तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो। सोये हुए शेरो, उठो! और बगावत खड़ी कर दो।’’ 

मुझे नहीं पता भारत के इतिहास में किसी गैर-बहुजन नेता ने इतना आवाह्नपरक भाषण दिया हो─‘मैं नास्तिक क्यों बना’ शीर्षक से एक और लेख है, जिससे भगतसिंह की विवेचनात्मक क्षमता का पता चलता है। 1930 में जिन दिनों भगतसिंह ने यह लेख लिखा, खुद को नास्तिक कहना आसान नहीं था। धर्म का भूत जनसाधारण के दिलो-दिमाग पर इस कदर सवार था कि धर्म-विहीन जीवन की संकल्पना ही उसके लिए असह् थी। हालांकि माधवाचार्य ने छह हिंदू दर्शनों में चार्वाक दर्शन को पहले स्थान पर रखा है; और चार्वाक दर्शन भारत का अकेला भौतिकवादी संप्रदाय नहीं था। इसके अलावा 62 भौतिकवादी दर्शनों का उल्लेख ‘दीघनिकाय’ में है, जो दर्शन बुद्ध के पहले से ही भारत में प्रचलित थे। बावजूद इसके इस देश में खुद को नास्तिक कहना सरल न था। असुर, राक्षस जैसे गालीनुमा विशेषण पुरोहित वर्ग में नास्तिक लोगों के लिए ही रचे थे। सार्वजनिक जीवन में तो खुद को नास्तिक घोषित करना, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था। खुद को नास्तिक घोषित करने के बावजूद जिन दो नेताओं ने भरपूर लोकप्रियता बटोरी, और समाज को प्रभावित करने में सफल रहे, उनमें पहले भगतसिंह, दूसरे दक्षिण के रामासामी पेरियार थे। हालांकि भगतसिंह के लिए ‘नास्तिकता इतनी नई चीज नहीं थी।’ भगतसिंह के अनुसार उन्होंने ‘ईश्वर को मानना तभी बंद कर दिया था’ जब वे अज्ञात नौजवान थे। आस्था और विश्वास ने मनुष्य और मनुष्यता का कितना नुकसान किया है, इसे वे अप्टन सिंक्लेयर के उद्धृण द्वारा समझाते हैं─

‘मनुष्य को दैवी शक्तियों में विश्वास करने वाला बना दो और उसके पास धन-संपत्ति आदि जो कुछ भी सब लूट लो। वह उफ् नहीं करेगा, यहां तक कि अपने आप के लूटने में खुद आपकी मदद करेगा। धार्मिक उपदेशों और सत्ताधारियों की मिलीभगत से ही जेलों, फांसियों, कोड़ों तथा शोषणकारी सिद्धांतों का निर्माण हुआ है।’

भगतसिंह को पढ़ते हुए प्रायः मैं अपने स्कूली दिनों में पहुंच जाता हूं। उन दिनों एक कहानी पढ़ी थी, जिसमें बालक भगतसिंह अपने पिता को खेतों में काम करते समय पूछता है कि ‘हम इन खेतों में बंदूकें क्यों नहीं बोते?’ उन दिनों बंदूक को ही क्रांति का अनिवार्य अस्त्र माना जाता था। स्कूल में एक अध्यापक महोदय हारमोनियम में रागनियां सुनाते थे। उक्त कहानी पर उन्होंने एक रागिनी तैयार की थी, जिसे वे तन्मय होकर सुनाते थे। आवाज इतनी ओजमय होती कि श्रोताओं के रोंगटे खड़े हो जाते। हर विद्यार्थी खुद को भगतसिंह समझने लगता था। लेकिन गांव के सामंती परिवेश में आपसी हिंसा को ही क्रांति समझ लिया जाता था। आज भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो हिंसा और क्रांति के बीच फर्क नहीं कर पाते और क्रांति को बंदूक के नजरिये से देखते हैं। जबकि भगतसिंह ने अपनी प्रतिष्ठा वैचारिक क्रांति के दम पर हासिल की थी। उनके विचारों में मौलिकता भले ही न हो, मगर जिन विचारों और मूल्यों पर उनका विश्वास था, उनके साथ वे न केवल ईमानदारी से जिए, बल्कि दिखा दिया कि कोई भी विचार ऐसा नहीं है जिसे मनुष्य द्वारा अपने आचरण में उतार पाना असंभव हो।

‘थीसिस ऑन फायरबाख’ में मार्क्स ने लिखा है─‘दार्शनिकों ने इस संसार की तरह-तरह से व्याख्या की है। मुख्य समस्या है कि इसे बदला कैसे जाए?’ क्रांति के दर्शन को अपने जीवन में उतारकर भगतसिंह सिद्ध कर देते हैं कि विशाल पृथ्वी; तथा अनंत आसमान के नीचे ऐसा कुछ नहीं जो असंभव हो। चलते-चलते उनके लेख ‘युवक’(मई 1925) की कुछ पंक्तियां, जो आज भी उतनी ही प्रेरणास्पद हैं, जितनी 95 वर्ष पहले थीं─

‘अलविदा, अलविदा मेरे सच्चे प्यार

सेनाएं आगे बढ़ चुकी हैं

प्रिय, यदि तुम्हारे पास और रुका

तो कायर कहलाऊंगा मैं।

ओमप्रकाश कश्यप

नोट : सभी उद्धृण भगतसिंह तथा उनके साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज,’ संपादक सत्यम, राहुल फाउंडेशन, लखनऊ से।

सार्वजनिक उद्यमों का विनिवेशीकरण

विशेष रुप से प्रदर्शित

निजीकरण के माध्यम से जातिवादी एजेंडे को साधने की कोशिश

आर्थिक मंदी से उबरने का सरकार को जो सबसे आसान तरीका नजर आता है, वह है विनिवेशीकरण। नीति-आयोग की ऑनलाइन बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा कि उद्योग-धंधे चलाना सरकार का काम नहीं है। वित्त-मंत्री भी बजटीय भाषण में विनिवेशीकरण का ऐलान कर चुकी हैं। फैसले की आलोचना कर रहे लोगों से प्रधानमंत्री का कहना है कि ‘निजी क्षेत्र की महत्ता से भली-भांति परिचित होने के बाद भी कुछ नेता, न केवल अप्रासंगिक हो चुके समाजवादी सोच से चिपके हुए हैं, बल्कि निजी क्षेत्र के उद्यमियों को खलनायक की तरह पेश करने का भी काम कर रहे हैं’1 पुनः 24 फरवरी को बजट पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था कि सरकार द्वारा संचालित उद्यमों के सुनियोजित निनिवेशीकरण द्वारा नागरिकों के विकास एवं रोजगार हेतु नए संसाधन प्राप्त होंगे। उस भाषण में उन्होंने 100 सरकारी उद्यमों के विनिवेशीकरण द्वारा 2.5 लाख करोड़ की धनराशि जुटाने की बात कही थी।2 इस लेख का उद्देश्य पाठकों को  पूंजीवाद और समाजवाद की बहस पर उलझाना नहीं है। लेकिन यह याद दिलाना जरूरी है कि ‘संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ बनाने का संकल्प आज भी उस भारतीय संविधान की प्रस्तावना का हिस्सा है, जिसकी शपथ लेकर हमारे मंत्री और सांसद, संसद भवन की शोभा बनते आए हैं।

2014 में जब यह सरकार सत्ता में आई थी, तो विकास सबसे बड़ा मुद्दा था। विदेशी निवेशकों को रिझाने के लिए मोदीजी अगले दो वर्षों तक इस देश से उस देश तक घूमते रहे। उन वर्षों में उन्होंने जितनी विदेश यात्राएं की थीं, वह स्वयं एक रिकार्ड है। यह बात अलग है कि अपेक्षित तो क्या न्यूनतम सफलता भी उन्हें इस काम में नहीं मिल सकी। इसके लिए कोई और नहीं, भाजपा के अपने ही नेता जिम्मेदार थे। खासकर वे नेता जिनके लिए हिंदुत्व का मुद्दा, देशहित के किसी भी मुद्दे से बढ़कर था। जीत के साथ ही वे हिंदुत्व के एजेंडे को लागू करने में जुट गए थे। उससे समाज में अशांति और असुरक्षा का वातावरण पनपा, जिसकी क्रूर परिणति मुजफ्फरनगर दंगे के रूप में हुई। अर्थव्यवस्था की दृष्टि से सरकार का दूसरा ध्वंसात्मक कदम था─विमुद्रीकरण का फैसला। काले धन को बाहर निकालने के नाम पर उठाए गए उस कदम का वास्तविक उद्देश्य उत्तर प्रदेश चुनावों से ठीक पहले विपक्ष को धराशायी कर देना था। कालाधन तो बाहर नहीं आया, उल्टे पुराने नोटों के स्थान पर नए नोट छापने में देश को अरबों रुपयों का चूना लग गया। सामाजिक अविश्वास, अशांति, निरंतर बढ़ते ध्रुवीकरण तथा विमुद्रीकरण के फैसले ने छोटे-उद्योगों और व्यापारियों की कमर तोड़कर रख दी। उसके बाद तो लोग विकास की उम्मीद छोड़, जो था उसी को बचाने की फिक्र करने लगे। ऐसा वातावरण पूंजीवादी कंपनियों के लिए, जो निवेश से पहले नए ठिकाने की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों की भली-भांति पड़ताल करती हैं, उपयुक्त नहीं था। कोविड-19 के कारण फैली महामारी की शुरुआत में, चीन के निरंकुश आचरण से खिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने नए ठिकाने की तलाश शुरू कर दी थी। भारत उनके लिए वैकल्पिक ठिकाना हो सकता था। मगर बढ़ती सांप्रदायिकता के कारण, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की खराब होती छवि ने भारत को उन अवसरों का लाभ उठाने से वंचित रखा।

सवाल है कि विनिवेशीकरण के मुद्दे से इस सबका क्या संबंध है? क्यों हम सरकार की कमजोरियां गिना रहे हैं? वस्तुतः देश आज जिस आर्थिक मंदी का शिकार है, उसके पीछे सरकार की नीतियों का बड़ा योगदान है। एक ओर जहां सरकार और जनसाधारण को आर्थिक मोर्चे पर बुरी तरह जूझना पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर इसी अवधि में देश के चुनींदा घरानों की पूंजी में बेइंतहा वृद्धि हुई है। मई 2014 में जब मोदी सरकार पहली बार सत्ता में आई थी, सेन्सेक्स 24,000 था। फ़िलहाल वह 50,000 के शिखर को पार कर नई ऊंचाइयों की ओर अग्रसर है। इसका मोटा-मोटा संकेत यह है कि सात वर्ष से भी कम समय में, देश के शीर्ष पूंजीपति घरानों के खजाने में दो गुने से ज्यादा की वृद्धि हुई है। दूसरी ओर मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से भारत 189 देशों में 2014 में भी 131वें स्थान पर था, आज भी वहीं टिका है। साफ है सरकार की नीतियों का जितना लाभ पूंजीपतियों और सरमायेदारों को मिला, उतना छोटे-उद्यमियों, व्यापारियों और आम आदमी को नहीं मिल पाया है। साफ है पूंजी का निचले वर्गों से ऊपर की ओर प्रवाह हुआ है; और जो मंदी है वह पैदा की हुई है। यह अन्यथा नहीं है कि देश के शीर्ष उद्योगपति वर्तमान सरकार से ज्यादा आशान्वित हैं। वे चाहते हैं कि सरकार विनिवेशीकरण की प्रक्रिया में तेजी लाए।

सवाल उठता है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम यदि लाभ नहीं कमा रहे हैं, सरकार के अनुसार उन्हें चलाए रखने के लिए हर वर्ष करीब 400 अरब रुपये का घाटा उठाना पड़ता है─तब उन्हें चलाए रखने का फायदा क्या है? पहली बात तो यह कि यह रकम उससे बहुत कम है जो सरकार को लगभग हर साल बैंकों के घटते एनपीए, कारपोरेट सेक्टर की कर्ज माफी/ब्याज माफी वगैरह के रूप में समायोजित करनी पड़ती है। दूसरा और महत्वपूर्ण प्रश्न, आखिर क्या कारण है कि जो उद्यम सरकार के नियंत्रण में रहते हुए लगातार घाटे में रहते हैं, वे निजी हाथों में जाते ही सोना उगलने लगते हैं? उदाहरण के लिए ‘भारत एल्युमिनियम कारर्पोरेशन लिमिटेड’(बाल्को) तथा ‘हिंदुस्तान जिंक’ जैसी कंपनियां जो कभी घाटे में थीं। निजी हाथों में जाने के बाद ही उनका कायापलट हो चुका है। इनमें से बाल्को की स्थापना 1965 में की गई थी। 2001 तक यह कंपनी शत-प्रतिशत स्वामित्व के साथ भारत सरकार के नियंत्रण में थी। कंपनी विशेष प्रकार के एलुमिनियम धातु का निर्माण करती है, जिसका उपयोग मध्यम और लंबी दूरी की मिसाइलों यथा अग्नि, पृथ्वी आदि के निर्माण के लिए किया जाता था। 2001 में उसकी 51 प्रतिशत साझेदारी वेदांता समूह को बेच दे दी गई। दूसरी कंपनी ‘हिंदुस्तान जिंक’ भी वेदांता के अधिकार में हैं। आज ये कंपनियां अपने मालिकों के लिए सालाना अरबों रुपये का मुनाफा कमाती हैं। इन्हीं के कारण वेदांता समूह के अध्यक्ष अनिल अग्रवाल को आजकल ‘मेटल टाइकून’ कहा जाता है। निजी हाथों में जाते समय कंपनी ने इनमें कोई छंटनी नहीं की थी। यानी कमी प्रबंधन के स्तर पर थी, जिसके लिए सरकार और नौकरशाही ज्यादा जिम्मेदार है। इस बात को देश का पूंजीपति वर्ग भी समझता है। वेदांता समूह के अनिल अग्रवाल विनिवेशीकरण की प्रक्रिया का लंबे इंतजार कर रहे उद्यमियों में से हैं। इसलिए अवसर मिलते ही वे न केवल सरकार को विनिवेशीकरण के फायदे गिनाने लगते हैं, बल्कि बीमार सार्वजनिक उद्यमों की खरीद पर, चरणबद्ध तरीके से लगभग 74,000 हजार रुपये के निवेश की घोषणा भी कर देते हैं।3

सार्वजनिक क्षेत्र किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं। वे देश की आधारभूत संरचना को मजबूत करने के काम आते हैं। पूंजीवादी अर्थतंत्र की कमजोरी होती है कि एक अंतराल के बाद उसमें मंदी के दौर आते हैं। सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले, पूंजीवाद का आदर्श कहे जाने वाला अमेरिका 1785 से अब तक, यानी 240 वर्ष के इतिहास में कुल 47 आर्थिक मंदी के दौर झेल चुका है।4 भारत में औद्योगिकीकरण की शुरुआत बीसवीं शताब्दी के आरंभ की घटना है। बावजूद इसके आजादी के बाद इस देश में आर्थिक मंदी के 5 दौर आ चुके हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि इसी अवधि; यानी 1947 के बाद अमेरिका को मंदी के छोटे-बड़े 12 झटकों से गुजरना पड़ा है। मंदी से उबारने के लिए पूंजीवादी अर्थतंत्र को बाहरी मदद पहुंचानी पड़ती है। उस समय वे सरकार से करीब-करीब इतनी ही धनराशि ऐंठ लेते हैं, जितनी उन्होंने अपने अच्छे दिनों में कराधान आदि के रूप में सरकार को प्रदान की थी। कभी-कभी आर्थिक मंदी पूर्णतः कृत्रिम होती है। फिर भी मजबूर सरकारों को कर्ज लेकर भी, पूंजीवादी अर्थतंत्र को मदद पहुंचानी पड़ती है। 2008 से 2011 की भीषण आर्थिक मंदी के दौरान अमेरिका की अर्थव्यवस्था इतनी रसातल में पहुंच चुकी थी कि दिवालियापन से बचने से लिए उसे कर्ज लेना पड़ा था।

एक समय था जब किसी सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक मसलों पर क्षेत्र विशेष के विशेषज्ञों और विद्वानों की राय महत्वपूर्ण मानी जाती थी। समाचारपत्र-पत्रिकाएं गर्व के साथ समाजविज्ञानियों, अर्थशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों  को जगह देते थे। कथित सोशल मीडिया इस गंभीर कार्य को भी ग्लैमराइज्ड कर दिया है। सोशल मीडिया पर आए दिन कोई अभिनेता, अभिनेत्री, क्रिकेटर सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों की विवेचना करता हुआ नजर आता है। ट्विटर और फेसबुक के चलताऊ विमर्श के आधार पर सरकारें भी अपनी राय बनाती नजर आती हैं। ऐसे कृत्रिम बौद्धिकता के माहौल में समाजवाद को समय-बाह्यः मान लेना, न तो अस्वाभाविक है, न ही चौंकाने वाला। असलियत कुछ और ही है। 

एडीसन मेंगस की रिपोर्ट के अनुसार 1700 ईस्वी में जब भारत में औद्योगिकीकरण की हवा तक नहीं पहुंची थी, और पश्चिम में मशीनीकरण की धूमधाम के साथ शुरुआत हो चुकी थी─सकल वैश्विक उत्पादन में भारत और चीन का योगदान 24.4 प्रतिशत और 22.3 प्रतिशत था। इसमें गिरावट का दौर ईस्ट इंडिया कंपनी के आने के बाद शुरू हुआ। ये कंपनियां दोनों ही देशों में पहुंचीं। परिणामस्वरूप 1913 में भारत 7.5 प्रतिशत; तथा चीन 8.8 प्रतिशत पर सिमटकर रह गया। 1947 में भारत आजाद हुआ और चीन 1949 में साम्यवादी झंडे के नीचे चला गया। मगर 1950 तक चीन और भारत की अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक अंतर नहीं था। उस समय वैश्विक सकल उत्पादन में भारत और चीन का योगदान क्रमश 4.2 प्रतिशत और 4.5 प्रतिशत था। यही नहीं, 1991 तक लोकतंत्रात्मक भारत, अपनी मिश्रित अर्थव्यवस्था के बल पर, चीन को टक्कर देता था। उस समय दोनों की वैश्विक उत्पादकता लगभग समान थी।5 इसमें परिवर्तन 1991 के बाद भारत, उस समय आया जब भारत ने अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के नाम पर अपने दरवाजे बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए खोल दिए। दूसरी ओर चीन मिश्रित अर्थव्यवस्था की डगर पर आगे बढ़ गया। आज भारत और चीन की आर्थिक हैसियत में जमीन-आसमान का अंतर है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में चीन का सकल घरेलू उत्पाद 14.34 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर था, जो भारत के 2.9 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर, से पांच गुना अधिक है।6

उपर्युक्त विवरण से साफ है कि आर्थिक उदारीकरण के साथ देश ने जो सपने देखे थे, वे महज छलावा सिद्ध हुए हैं। बावजूद इसके पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विरोध में कोई आवाज नहीं उठती। सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा, मजदूरों और छोटे व्यापारियों की आवाज को दबाकर निजी क्षेत्र को मजबूत करने के लिए प्राण-प्रण के साथ जुटी है। खुद प्रधानमंत्री समाजवाद को समयबाह्य दर्शन कह जाते हैं। आखिर क्यों? हमें इसके पीछे निहित षड्यंत्र को समझना पड़ेगा। समझना पड़ेगा कि वे कौन से कारण हैं जिन्होंने कुछ वर्ष पहले तक ‘स्वदेशी’ के पैरोकार रही ‘भारतीय जनता पार्टी’ नेता अब उसका नाम तक लेना नहीं चाहते। निश्चय ही इसका तात्कालिक उद्देश्य येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहना है। साथ ही इसका एक दीर्घकालिक उद्देश्य भी है।

संविधान प्रदत्त अधिकारों का लाभ उठाकर, दलित और पिछड़ी जातियों के लोग सरकारी नौकरियों, उद्योगों और व्यापार में जगह बनाने लगे हैं। हालांकि शिखरस्थ जातियों की अपेक्षा उनकी भागीदारी, उनके जनसंख्या अनुपात  से अभी भी बहुत कम है। बावजूद इसके विप्र मानसिकता के लोगों को यह बहुत रास नहीं आ रहा है। येन-केन-प्रकारेण वे दलितों और पिछड़ों के सबलीकरण की प्रक्रिया को अवरुद्ध करना चाहते हैं। चूंकि संवैधानिक प्रावधानों के कारण वे सरकार में रहकर ज्यादा कुछ नहीं कर सकते, इसलिए निजी क्षेत्र को मजबूत किया जा रहा है, जहां पिछड़ों और दलितों की उपस्थिति नगण्य है। विनिवेशीकरण इसलिए किया जा रहा है ताकि आरक्षित वर्गों के सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के रास्ते सरकारी नौकरियों में जाने के अवसर कम से कम हो जाएँ। अपने इस प्रयोग से वर्तमान सरकार इतनी खुश है कि प्रशासनिक सेवाओं के जिन पदों के लिए युवा घर-परिवार से अलग रहकर रात-दिन मेहनत करते हैं, उनपर भी निजी क्षेत्र से उधार लिए अधिकारियों को बैठाया जा रहा है। कुल मिलकर ‘2014 में सरकार बनाते समय मोदी जी द्वारा दिया गया नारा ‘सबका साथ-सबका विकास’, सरकार के जातिवादी एजेंडे पर चढ़कर, ‘सबका साथ अपनों का विकास’ बनकर रह गया है।

ओमप्रकाश कश्यप

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संदर्भ

1. जागरण संपादकीय, 21 फरवरी, 2021.

2. दि टाइम्स ऑफ इंडिया, 25 फरवरी, https://timesofindia.indiatimes.com/india/pm-sets-target-of-2-5l-cr-from-asset-monetisation/articleshow/81200196.cms

3. नवभारत टाइम्स, 19 दिसंबर, 2020 https://navbharattimes.indiatimes.com/business/business-news/anil-agarwal-vedanta-and-centricus-to-invest-10-billion-dollar-in-indian-companies/articleshow/79812797.cm

4. बिजनिस साइकिल्स: थ्योरी, हिस्ट्री, इंडीकेटर्स एंड फोरकास्टिंग, विक्टर जार्नोविट्ज, शिकागो यूनीवर्सिटी, शिकागो प्रेस, 221-226

5. डेवलपमेंट सेंटर स्टडीज दि वर्ल्ड इकॉनामी स्टेटीटिक्स, ओईसीडी, फ्रांस, पृष्ठ 261-262  

6. विश्वबैंक, वर्ल्ड डेवलपमेंट इंडीकेटर्स, 2 जुलाई 2020 https://en.wikipedia.org/wiki/List_of_countries_by_GDP_(nominal)

भक्ति-वेदांत : बहुजन समाज को बौद्धिक दास बनाए रखने का ब्राह्मणवादी प्रपंच

विशेष रुप से प्रदर्शित

जाति बहुजन के गले की फांस है, वही मुट्ठी-भर लोगों के लिए उनके विशेषाधिकारों का सुरक्षा-कवच है। ब्राह्मण तथा दूसरे सवर्ण नहीं चाहते कि जातिप्रथा समाप्त हो। वे तो चाहते हैं कि शूद्र सदैव शूद्र, दलित हमेशा दलित बना रहे। इसके लिए कदम-कदम पर साजिशें रची जाती हैं। यह षड्यंत्र जितना सामाजिक दिखता है, उससे कहीं ज्यादा मनोवैज्ञानिक है। जितना हिंसक है, उतना अहिंसक भी है। ब्राह्मणों की सदैव कोशिश होती है कि दलित और शूद्र दोनों दिलो-दिमाग से उनके अधीन बने रहें। वे जहां भी, जिस हालत में भी हैं, उसी को अपनी नियति मान लें। इसके लिए वे न केवल गैर-ब्राह्मणों की संस्कृति में जबरन दखलंदाजी करते हैं, बल्कि उनसे उनका इतिहास, उनके महापुरुष तक छीन लेते हैं। चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले ‘भक्तमाल’ से एक दृष्टांत—

‘रामानंद जी का एक ब्रह्मचारी शिष्य था। वह नित्य चून की चुटकी मांगकर लाता। उसी से ठाकुर का भोग लगता, और उसी से संतों का सत्कार किया जाता था। कुटिया के आसपास एक बनिया रहता था। उसने दस-बीस बार ब्रह्मचारी से सीधा लेने का आग्रह किया, किंतु स्वामी जी की आज्ञानुसार उसने कभी उस बनिये से भिक्षा लेना स्वीकार नहीं किया था। एक दिन मूसलाधार वर्षा हो रही थी। भिक्षा द्वारा अन्न-संग्रह करना भी आवश्यक था। उस दिन गुरु-आज्ञा का उल्लंघन कर, ब्रह्मचारी बनिये द्वारा दिया गया सीधा ले आया। गुरु ने उससे बने हुए पदार्थ को मूर्ति के सामने भोग के लिए रखा और ध्यान किया तो प्रभु की मूरत ध्यान में नहीं आई। इसपर उन्होंने शिष्य से पूछा—‘अरे! आज भीख कहां-कहां से मांगकर लाए हो?’

शिष्य ने सच बता दिया। तब गुरु ने उस दुकानदार के बारे बताया। मालूम हुआ कि वह अत्यंत नीच मनोवृत्ति का है। रुपये के लोभ से एक चमार से साझा कर, व्यापार करता था। स्वामीजी ने इसपर शिष्य को शाप दिया—‘चूंकि तूने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया है, अतः तू हीन-कुल में जन्म ग्रहण करेगा। वही शिष्य दूसरे जन्म में रैदास नाम से एक चमार के घर के घर पैदा हुआ।’1 

इस मिथकीय आख्यान के निहितार्थों पर चर्चा बाद में, पहले दृष्टांत का अगला हिस्सा—

‘बालक रैदास को अपनी माता का दूध पीना तो दूर रहा, उसके शरीर का स्पर्श करना भी बुरा लगता था। गुरु सेवा के प्रभाव से उसे पिछले जन्म की सब याद बनी रही। वह सोचता यदि चमार के यहां भिक्षा मांगने से यह दंड मिला है, तब यदि दूध पी लूंगा तो न जाने क्या गति होगी! इसी बीच स्वामी रामानंद जी को आकाशवाणी हुई कि तुम्हारा शिष्य चमार के घर जन्मा है, उसकी सहायता करिए। सुनकर उनके हृदय को बड़ा कष्ट हुआ। वे तुरंत वहां पहुंचे जहां रैदास जन्मे थे। बच्चे के दूध न पीने के कारण माता-पिता बहुत दुखी थे। स्वामी रामानंद को देखते ही वे उनके पैरों पर गिर पड़े और प्रार्थना की कि कुछ ऐसा उपाय करिए जिससे बच्चा दूध पीने लगे। इसपर रामानंदजी ने बालक को वहीं राम नाम(रं रामाय नमः) की दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया। फलस्वरूप उसके सब पाप धुल गए; और वह मां का दूध पीने लगा। दूध पीते ही बच्चे का मानो पुनर्जन्म हो गया और वह स्वामी रामानंद को ईश्वर करके मानने लगा। उसका पूर्वजन्म की भूल का सारा संताप मिट गया।2

आगे दिए गए विवरण के अनुसार, बड़ा होने पर रैदास भक्ति में लीन रहते। घर आए साधु-संतों की पूजा, आदर-सत्कार करते। मजदूरी करके जो कमाते, उसे भिखारियों में बांटकर बचे हुए को आप खाते। धन और मोह-माया से पूरी तरह निर्लिप्त। आखिरकार, नाभादास के शब्दों में— 

‘भगवान की कृपा के फलस्वरूप श्रीरैदास जी ने इसी मर्त्य शरीर से परम-पद प्राप्त किया और राजसिंहासन पर बैठे। अपने शरीर में यज्ञोपवीत का चिन्ह दिखाकर, अपने लोगों को यह विश्वास दिलाया कि आप पूर्व जन्म में ब्राह्मण थे।’3

‘भक्तमाल’ को भक्तिभाव से पढ़ने वालों से पूछा जा सकता है कि जिस घर में चमड़ा पकाया जाता हो, जो वर्ण-व्यवस्था के हिसाब से अतिशूद्रों और चांडालों की बस्ती हो—वहां रामानंद जैसा ब्राह्मण भला कैसे जा सकता है? यह शंका भी जायज होगी कि एक अबोध शिशु कथित राम-मंत्र को कैसे हृदयंगम कर सकता है? सवाल यह भी है कि जन्म के तुरंत बाद मां की जाति के कारण उसका दूध त्याग देने वाला अबोध शिशु, उसके गर्भ में कैसे रहा था? और राम-नाम का रट्टा मारने से ही यदि ‘रैदास’ बनना संभव था, तो रामानंद के कथित 52 के 52 शिष्यों को रैदास जैसा महाज्ञानी बन जाना चाहिए था, फिर वे क्यों नहीं बन पाए? लेकिन भक्तिमार्ग आस्था पर टिका होता है। भक्त को सवाल उठाने की अनुमति वह नहीं देता। चूंकि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, इसलिए कह सकते हैं कि भक्तिमार्ग, जिसे कुछ लोग भक्ति-वेदांत भी कहते हैं—मनुष्य के विवेकीकरण का अवरोधक, समाज को अपने जाल में फंसाए रखने के लिए ब्राह्मणवादी प्रपंच हैं। 

2

रैदास ने कहीं भी रामानंद को अपना गुरु स्वीकार नहीं किया है। उन्होंने न केवल ब्राह्मणों द्वारा स्थापित वर्ण-व्यवस्था और धर्माडंबरों की आलोचना की, अपितु शूद्र होने के कारण जिन वेदों को पढ़ने का अधिकार उन्हें नहीं था, जिनके सुनने मात्र से दंड का सहभागी बनना पड़ता हो—उन्हें प्रामाणिक मानने से ही इन्कार कर दिया—

चारिउ वेदि किया खण्डोति

ताको विप्र करै दंडोति। 

            ***

जग में वेद वैद्य जानये

पढ़त समझ कुछ न आवत

रैदास की तरह कबीर को भी नहीं बख्शा गया। उनके जन्म के बारे में फैलाई गई कहानी, श्यामसुंदर दास के शब्दों में, कुछ इस प्रकार है—

‘काशी में एक सात्विक ब्राह्मण रहते थे। वे स्वामी रामानंद के बड़े भक्त थे। उनकी एक विधवा कन्या थी। उसे साथ लेकर एक दिन वे रामानंद के आश्रम पर गये। प्रणाम करने पर स्वामी रामानंद ने उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया। ब्राह्मण देवता ने चौंककर जब पुत्री का वैधव्य निवेदन किया तब स्वामी ने सखेद कहा कि मेरा वचन तो अन्यथा नहीं हो सकता है। इतने से संतोष करो कि इससे उत्पन्न पुत्र बड़ा प्रतापी होगा। आशीर्वाद के फलस्वरूप जब उस ब्राह्मण कन्या को पुत्र उत्पन्न हुआ तो लोकलज्जा और लोकापवाद के भय से उसने उसे लहर तालाब के किनारे डाल दिया।4 वही बालक बाद में नीरू नामक जुलाहे के घर पला-बढ़ा और श्यामसुंदर दास के शब्दों में, ‘परम भगवद्भक्त कबीर’ हुआ। कबीर के सूर-तुलसी की तरह भक्तिमार्गी होने में किसी प्रकार का संदेह न रह जाए, इसलिए बाद में उन्हें रामानंद का शिष्य दर्शाने के लिए कहानी भी गढ़ी गई। यह बात अलग है कि रैदास की तरह कबीर भी ब्राह्मणों और पुरोहितों के कर्मकांडों, पूजा-पाखंडों के विरोधी बने रहे। वेदों की दुहाई देने वाले ब्राह्मणों तथा उनकी बनाई गई हर व्यवस्था पर उन्होंने जमकर कटाक्ष किया है। ‘वेद पढ़ते हैं और आत्मप्रशंसा करते हैं। लेकिन मन से संशय की गांठ आज भी नहीं छूटती— 

     पढ़ें वेद और करें बढ़ाई,

     संशय गांठि अजहुं नहिं जाई।।  

कबीर की कविता जीवन-सत्य की खोज की कविता है। उसके लिए बाह्याडंबरों का आमूल बहिष्कार आवश्यक है। धर्म और जाति के नाम पर मिथ्याभिमान वहां चल नहीं सकता—

कबिरा का घर सिखर पै जहां सिलहली गैल

पांव न टिकै पिपीलिका पंडित बांधै बैल

कबीर ज्ञान के शिखर पर विराजमान हैं। वहां का रास्ता फिसलन-भरा है। चींटी(बौद्धिक रूप से क्षुद्र लोगों) का वहां पहुंचना असंभव है; और पंडित उसे ज्ञानाडंबर और मिथ्याभिमान के जरिये प्राप्त करना चाहते हैं।  

3

सवाल है कि रैदास, कबीर जैसी प्रतिभाओं के ब्राह्मणीकरण के पीछे क्या ब्राह्मणों की उदारता है? क्या ऐसी कोशिशें वर्ण-व्यवस्था को लचीला दर्शाने के लिए की जाती है? क्या शूद्रातिशूद्र वर्ग के महापुरुषों-मनीषियों को ब्राह्मणत्व या कभी-कभी ‘ईश्वरत्व’ मिलने पर, बहुजन समाज को खुश होना चाहिए? प्रसन्न होना चाहिए कि उनमें से कम से कम एक व्यक्ति तो खुद को जाति की जलालत से बाहर निकालने में सफल हुआ? अगर बहुजन समाज ऐसा ही सोचता है, तो यह सचमुच ब्राह्मणवाद की जीत है। इसका मतलब होगा कि उसने जाति-व्यवस्था को, जो प्राकृतिक एवं सामाजिक न्याय दोनों के विपरीत है—स्वीकार कर लिया है। उस हालत में वे समझ ही नहीं पाएंगे कि किसी एक युग-प्रवर्त्तक महापुरुष के ब्राह्मणीकरण(अथवा ईश्वरीकरण), परिवर्तन की बनती हुई संभावनाओं को एकाएक खारिज कर देने जैसा है। ब्राह्मणीकरण के साथ ही वह ‘महापुरुष’ अपना सारा तेज गंवा देता है। अपने नए ‘अवतार’ में वह उन्हीं बातों का समर्थन करता हुआ नजर आता है, जिनके विरुद्ध कभी उसने आवाज उठाई थी। इस तरह एक उभरता हुआ आंदोलन असमय ही दम तोड़ने लगता है।

गैर-ब्राह्मण महापुरुषों का ब्राह्मणीकरण कर, उन्हें उनके समाज से छीन लेने की प्रवृत्ति और तरीका बहुत पुराना है। इसी प्रवृत्ति के चलते दो हजार वर्ष पहले ब्राह्मणों ने गौतम बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित किया था। यही प्रवृत्ति वाल्मीकि को ब्राह्मण संतान घोषित करते समय काम कर रही थी। इसके लिए वे संबंधित व्यक्ति के जीवन या कथित पूर्वजन्म/जन्मों के बारे में, कोई न कोई चमत्कारपूर्ण आख्यान गढ़ लेते है। लोकश्रुति या शास्त्रों के माध्यम से उसे प्रचारित भी कर लेते हैं। जरूरत पड़े तो उसे पुराणों और दूसरे धर्मग्रंथों में जगह देकर ब्राह्मण-परंपरा का हिस्सा बना लेते हैं। ऐसा करते समय वे मनमानी छूट लेते हैं। जिसके अंतर्गत संबंधित महापुरुष के क्रांतिकारी विचारों को तोड़-मरोड़कर इस तरह पेश किया जाता है कि अंततः वे ब्राह्मणवाद के पोषक, समर्थक और पूरक नजर आने लगते हैं। लोकश्रुतियों/शास्त्रों का हवाला देकर वे भोले-भाले लोगों को, यह विश्वास दिलाने लगते हैं कि उस महापुरुष की विशिष्ट मेधा तथा उसका योगदान, केवल उसकी अपनी प्रतिभा, श्रम और समर्पण का सुफल न होकर दैवीय अनुकंपा की देन है। उस अवस्था में उसके अनुयायी, महापुरुष के विचारों को पढ़ने-समझने तथा उनसे प्रेरणा लेने के बजाय, उन्हें पूजने लग जाते हैं। उन्हें लगता है कि उनके (गैर-ब्राह्मण)महापुरुष की इज्जत अफजाई के लिए ब्राह्मण खुद आगे आ रहे है। अतिविश्वास में वे यह भी मानने लगते हैं कि ब्राह्मणों की नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी जैसी कठोर नहीं है। इससे उनके मन में ब्राह्मणों तथा उनकी व्यवस्था के प्रति आक्रोश घटने लगता है। यानी एक महापुरुष का ब्राह्मणीकरण, चाहे वह झूठमूठ ही क्यों न हो, उसके समाज के ब्राह्मणीकरण के दरवाजे भी खोल देता है। इससे परिवर्तन की प्रक्रिया, जो महापुरुष द्वारा ब्राह्मणवाद को चुनौती के फलस्वरूप आरंभ हुई थी, धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगती है। 

4

परिवर्तन के लिए समाज में परिवर्तन की इच्छा का होना भी आवश्यक है। वर्तमान के प्रति असंतोष जितना प्रबल होगा, उसे बदलने की इच्छा भी उतनी ही तीव्रतर होगी। उसके लिए उदात्त, सकारात्मक एवं यथार्थोन्मुखी प्रेरणाएं अपरिहार्य हैं। ब्राजील के शिक्षाशास्त्री पाब्लो फ्रेरा के शब्दों में—‘उत्पीडि़तों को अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष में सफल होने के लिए यथार्थवादी होना पड़ेगा। उन्हें उत्पीड़न के यथार्थ को ऐसी बंद दुनिया के रूप में हरगिज नहीं देखना चाहिए, जिससे निकल पाना असंभव है। उन्हें उसको ऐसी अवरोधक स्थिति के रूप में देखना चाहिए, जिसे वे बदल सकते हैं।’5 बहुजन मुक्ति के लिए भी ऐसी दृष्टि चाहिए जो धर्मशास्त्रों और सांस्कृतिक परंपराओं, रिवाजों में अंतनिर्हित सत्य की बहुजन-दृष्टि से पड़ताल कर सके। उनके बारे में स्थापित सत्य के विखंडन एवं नवोन्मेषण द्वारा वास्तविक और जनोन्मुखी सत्य को सामने ला सके। यहां छांदोग्योपनिषद का एक दृष्टांत द्रष्टव्य है—

‘विद्याध्ययन को उत्सुक सत्यकाम हरिद्रमुत गौतम के आश्रम में पहुंचा। शिष्य बनाने से पहले हरिद्रमुत ने आगंतुक से उसके कुल-गौत्र के बारे में पूछा। वापस आकर सत्यकाम अपनी मां से मिला। पूछने पर उसकी मां ने बताया—‘उन दिनों मैं घर-घर चक्की पीसने का काम करती थी। वहां किसके संसर्ग से तू मेरे गर्भ में चला आया, मुझे नहीं पता….’ सत्यकाम दुबारा हरिद्रमुत के आश्रम में पहुंचा। पूछने पर बोला—‘मेरी मां एक पिसनहारी है। उसका कहना है कि घर-घर जाकर काम करते हुए मैं कब उसके गर्भ में चला आया, उसे पता ही नहीं चला। मैं सत्यकाम हूं। मेरी मां का नाम जाबाला है। सो मैं सत्यकाम जाबालि हुआ।’ यह सुनकर हरिद्रमुत प्रसन्न होकर बोले—‘इतना सत्यभाषी बालक सिवाय ब्राह्मण के और कौन हो सकता है। जा समिधा ले आ। मैं तुझे दीक्षा दूंगा।’

यह कहानी प्राचीन वर्ण-व्यवस्था के उदात्त पक्ष के रूप में अकसर दोहराई जाती है। इस तरह कि पढ़ने-सुनने वाला गदगद् हो जाता है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन सहित अनेक विद्वानों ने प्राचीन भारत के दर्शन एवं संस्कृति का विवेचन करते समय इसका उल्लेख किया है। उनके प्रभाव में मान लिया जाता है कि वर्ण-व्यवस्था की आरंभिक संकल्पना एकदम दोष-विहीन थी। सदियों से ब्राह्मणों के बताए झूठ को सच मानता आया बहुजन मानस इसके ठेठ ब्राह्मणवादी निहितार्थ को समझ ही नहीं पाता। हरिद्रमुत गौतम यह कहकर कि इतना सत्यभाषी बालक सिवाय ब्राह्मण के और कौन हो सकता है, पूरे गैर-ब्राह्मण समुदाय को मिथ्याभाषी घोषित कर देते हैं। यही नहीं वे घर-घर जाकर चक्की पीसने वाली गरीब-मजबूर स्त्री के यौन-शोषण को भी नजरंदाज कर देते हैं, जो उस समाज में स्त्री की दुर्दशा को दर्शाता है। धर्मशास्त्रों में इस तरह के प्रसंग भरे पड़े हैं। उन्हें समझने के लिए उनकी बहुजन दृष्टि से पड़ताल जरूरी है। फुले इसकी शुरुआत बहुत पहले कर चुके थे। बाद में डॉ. आंबेडकर, पेरियार आदि ने इसे विस्तार दिया। समकालीन बुद्धिजीवियों में कांचा इलैया, डॉ. धर्मवीर ऐसे ही मौलिक व्याख्याकार हैं।  

माओत्से-तुंग ने कहा था कि सत्ताएं बंदूक की गोली से निकलती हैं। यह उनका सच था। सत्ताएं बंदूक की गोली से निकल सकती हैं। मगर इतिहास उनका नहीं होता जिनके हाथों में तलवार होती है। इतिहास उनका होता है जिनके हाथों में कलम होती है। अगर तलवार के जोर पर कलम वाले हाथों को मनमाना इतिहास गढ़ने को मजबूर कर भी दिया जाए तो वह रचना अस्थायी होती है। मुक्त होते ही कलम वाले हाथ, इतिहास को नया रूप देने लगते हैं। अतएव ब्राह्मणवाद के स्वार्थपूर्ण और अवांछित हस्तक्षेप से बचने का एकमात्र रास्ता है कि बहुजन बुद्धिजीवी आगे आएं; वे अपनी मेधा को तराशें तथा धर्म और संस्कृति के नाम पर थोपे गए प्रतीकों-मिथों के निर्माण के पीछे ब्राह्मणवादी षड्यंत्र को समझते हुए, न्याय, स्वतंत्रता और समानतावादी दृष्टि से उनकी पुनर्व्याख्या करें। यह बहुजन अस्मिता और सम्मान की रक्षा का एकमात्र तरीका है। 

ओमप्रकाश कश्यप

  1.  रामानंदुजू कौ शिष्य ब्रह्मचारी रहे एक गहे वृत्ति चुटकीकी कहे तासों बानियों। 

करौ अंगीकार सीधो दस-बीस बार बरसे प्रबल धार तामें वापै आनियों।

भोग कों लगावै प्रभु ध्यान नहीं आवै अरे कैसे करि ल्यावै जाय पूछी नीच मानियों।

दियो शाप भारी बात सुनी न हमारी घटि कुल में उतारि देहि सोईं याको जानियों—श्रीभक्तमाल, नाभादास, भक्ति-रस-बोधिनी-टीका, व्याख्याकार श्रीरामकृष्णदेव गर्ग, श्री अखिल भारतीय  श्रीनिंबार्काचार्य पीठ, वृंदावनधाम, 1960।)

  • माता दूध प्यावै याकों छुयोऊ न भावै सुधि आवै सब पाछिली सुसेवा कों प्रताप है

भई नभ-बानी रामानंद मन जानी बड़ो दंड दियो मानी वेगि आयो चल्यौ आप है

दुखी पितु-मात देखि धाय लपटाये पाय कीजिए उपाय किये शिष्य गयो पाप है। 

स्तन पान किसी जियो जिलयो उन्हें ईस जाति निपट अज्ञानि फेरि भूले भयो ताप है। —वही

  • भगवत कृपा प्रसाद परम गति इहि तन पाई

राजसिंहासन बैठि ग्याति परतीति दिखाई—वही

  • श्यामसुंदर दास द्वारा संपादित ‘कबीर ग्रंथावली’ की प्रस्तावना, हिंदी समय।
  • पाब्लो फ्रेरा, उत्पीडि़तों का शिक्षाशास्त्र, रमेशचंद शाह द्वारा अनूदित, ग्रंथशिल्पी, नई दिल्ली।

धर्म के बहाने बौद्धिक जड़ता का सनातनीकरण

विशेष रुप से प्रदर्शित

आधुनिकता की ओर बढ़ती आज की दुनिया के आगे सर्वाधिक ज्वलंत प्रश्न है—क्या दुनिया को धर्म की सचमुच जरूरत है? क्या उसके बिना उसका कारोबार एकदम थम जाएगा? धर्म के आलोचक आज भी कम नहीं हैं। धर्मानुयायी मानते हैं कि आलोचक धर्म के मर्म को समझ ही नहीं पाते। यह बात अलग है कि स्वयं धर्म के अनुयायी भी उसे पूरी तरह समझने का दावा नहीं करते। धर्म की आलोचना, अन्वीक्षा से वे प्रायः यह कहकर पीछे हट जाते हैं कि उसे  समझना आसान नहीं है। इसके पीछे उनकी मंशा धर्म के नाम पर गुरुडम को थोपने तथा उसे ‘नेति-नेति’ कहते हुए इतना महान बना देने की होती है कि सामान्य आलोचना-समीक्षा को भी समाज और राष्ट्रीय भावना के विरुद्ध मान लिया जाता है। असल में वे तयशुदा सीमाओं से, उन सीमाओं से जो उन्होंने धर्म से बंधकर अपने लिए सहर्ष चुनी हैं, अथवा किसी न किसी बहाने उनपर थोप दी गई हैं, बाहर आना ही नहीं चाहते। न ही वे चाहते हैं कि उनका कोई अनुयायी उस सीमा रेखा को लांघने की हिमाकत करे। हम धर्म को ऐसी हवेली मान सकते हैं, जिसके अनेकानेक दावेदार हैं। कदाचित इसी कारण वह हजारों वर्षों से बंद है। ताजी हवा का प्रवेश भी उसमें निषिद्ध है। यहाँ तक कि उसके भीतर झांकने की इजाजत भी किसी को नहीं है। यदि कोई उस हवेली के भीतर जाकर झाड़-पौंछ करना चाहे तो उसके दावेदार नाराज हो जाते हैं। डरते हैं कि हवेली साफ हुई तो उनकी सत्ता गई। बाहरी हस्तक्षेप को रोकने के लिए वे कई बार इतनी कुटिल चालें चलते हैं कि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली उनके आगे घुटने टेक देते हैं। जनसाधारण को बस इतनी अनुमति होती है कि अपने विवेक को गिरवी रखकर उस हवेली के दूर से ही दर्शन कर सके।

ऐसा आज से नहीं, सैकड़ों वर्षों से है। मध्यकाल में इसका सटीक उदाहरण मीमांसक कुमारिल भट्ट हैं। अपने समय के विलक्षण प्रतिभाशाली कुमारिल भट्ट ने बौद्ध विद्वानों को शास्त्रार्थ में परास्त करने के लिए बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया था। वे अपने मकसद में कामयाब भी हुए। बौद्ध पराजित हुए। लेकिन कुमारिल भट्ट अपनों से हार गए। प्रायश्चित स्वरूप उन्हें धीमी आंच में तपकर मृत्यु का वरण करना पड़ा। केवल इसलिए कि उन्होंने गुरु की अनुमति लिए बिना बौद्धमत का अध्ययन किया था। हिंदू धर्म में व्याप्त जड़ता, गुरुडम तथा नए और समकालीन ज्ञान-विज्ञान से जान-बूझकर बनाई गई दूरी को समझने के लिए यहाँ उनकी विशेष चर्चा प्रासंगिक है।

शंकराचार्य से एक पीढ़ी, लगभग 650 ईस्वी पूर्व जन्मे कुमारिल भट्ट वैदिक परंपरा में विश्वास रखते थे। तिब्बतीय बौद्ध ग्रंथों के हवाले से यह भी बताया गया है कि कुमारिल भट्ट के पास धान का विशाल खेत था, जिसमें 500 पुरुष और इतनी ही स्त्रियां दास के रूप में काम करते थे। उन दिनों भारत में बौद्ध दर्शन का बोलबाला था। कुमारिल भट्ट मानते थे कि बिना बौद्ध धर्म-दर्शन के पराभव के वैदिक परंपरा का पुनर्जीवन असंभव है। वैदिक धर्म को पुनःस्थापित करने की प्रेरणा उन्हें एक राजकुमारी से मिली थी। राजकुमारी बौद्ध दर्शन से घबराई हुई थी। बौद्ध दर्शन सनातन वर्ण-व्यवस्था और वंशगत अधिकारों का विरोध करता था। द्विज वर्ग की परंपरागत श्रेष्ठता के विचार को अस्वीकार करते हुए वह निर्वाण(मोक्ष) को सर्वसाधारण के लिए संभव बताता था। राजकुमारी को डर था कि बौद्ध धर्म के प्रभाव के चलते उसके वंशगत अधिकार उससे छिन सकते हैं। अद्वितीय प्रतिभा के धनी कुमारिल भट्ट उन दिनों वैदिक ग्रंथों के अध्ययन-अनुशीलन में लगे थे। गुरुजन उनकी मेधा से अत्यंत प्रभावित थे। वंशानुगत अधिकारों के छिन जाने की आशंका से बुरी तरह घबराई राजकुमारी कुमारिल भट्ट से मिलते ही रो पड़ी। उसने रोते-रोते ही अपनी व्यथा प्रकट की—

‘क्या करूं, कहां जाऊं, वेदों का उद्धार कौन करेगा?’

‘हे सुकुमारे! रो मत!! वेदों का उद्धार कुमारिल भट्ट करेगा’1 राजकुमारी के आंसुओं से विगलित युवा कुमारिल भट्ट के मुख से सहसा निकला। कहते हैं कि कुमारिल भट्ट ने उसी दिन से बौद्ध धर्म-दर्शन की प्रतिष्ठा को कम करना अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। उन दिनों बिना गुरु की अनुमति के किसी और धर्म-दर्शन की शिक्षा लेना अपराध माना जाता था। लक्ष्य-सिद्धि हेतु कुमारिल भट्ट ने पहले तो बौद्ध धर्म का गहरा अध्ययन किया। तदनंतर, राजकुमारी को दिए गए वचन का निर्वहन करते हुए उन्होंने बौद्ध धर्म-दर्शन की जमकर आलोचना की। यहां तक कि नालंदा जाकर उस समय के प्रसिद्ध बौद्ध आचार्यों को शास्त्रार्थ में पराजित भी किया। लेकिन अपने गुरु से छिपकर बौद्ध दर्शन की शिक्षा लेने की ग्लानि उन्हें लगातार सालती रही। इसलिए प्रायश्चित स्वरूप उन्होंने खुद को धीमी अग्नि शिखाओं के समर्पित कर दिया। बौद्ध धर्म-दर्शन के पराभव के लिए उन्होंने जो जमीन तैयार की, उसी पर चलते हुए वेदांती शंकराचार्य ने अपनी कीर्ति-कथा लिखी। इस योगदान हेतु वैदिक परंपरा के अनुयायी कुमारिल भट्ट को पहला बलिदानी ब्राह्मण मानते हैं।

वेदांत की ध्वजा फहराने के लिए निकले शंकराचार्य काशी-मार्ग में कुमारिल भट्ट से भी मिले थे। अपने मत को स्थापित करने के लिए वे उनसे शास्त्रार्थ करना चाहते थे। जिस समय शंकराचार्य कुमारिल के पास पहुंचे, वे स्वयं को धीमी अग्नि युक्त चिता को समर्पित कर चुके थे। उनकी टांगें और शरीर का निचला हिस्सा जल चुका था। उस अवस्था में वे शंकराचार्य से शास्त्रार्थ नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने अपने शिष्य मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने का सुझाव दिया। कुमारिल भट्ट को अग्नि-शैय्या पर झुलसता हुआ छोड़, शंकराचार्य वहां से चल दिए। धार्मिक दृष्टिकोण से वह भले ही कुमारिल भट्ट का प्रायश्चित रहा हो, लेकिन व्यापक अर्थों में क्या वह अवसाद-जनित आत्महत्या नहीं थी? यदि ऐसा है तो शंकराचार्य का कुमारिल भट्ट को अग्नि-चिता पर छोड़कर जाना क्या उचित था? क्या उनका यह कर्तव्य नहीं था कि वे कुमारिल भट्ट से आत्मदहन का इरादा त्याग देने का निवेदन करते? उन्हें उस आत्म-ग्लानि से बाहर लाने की कोशिश करते, जिसने आत्महत्या जैसा घृणित कदम उठाने को विवश किया था? सामान्य नैतिकता कहती है कि आत्महत्या को उद्यत व्यक्ति को, वह चाहे जिस कारण से प्राणांत चाहता हो, किसी भी प्रकार से रोका जाए। लेकिन जिस दौर की यह घटना है, उसमें धार्मिक आग्रह हठधर्मी की सीमा तक प्रभावी होते थे। धार्मिक वाद-विवाद प्रायः जीवन-मरण का सवाल बन जाता था। ऐसे में व्यक्ति के साथ उसके विचार का अंत भी स्वाभाविक था। शंकराचार्य से हारकर मींमासक मंडन मिश्र, वेदांती सुरेश्वराचार्य बनकर उसके प्रचार-प्रसार में लग जाते हैं। उसके बाद मीमांसा दर्शन बौद्धिक विमर्श और जीवन दोनों से गायब हो जाता है।

इस प्रसंग के कुछ खास संकेत हैं। पहला प्राचीन गुरु नहीं चाहते थे कि उनका शिष्य ज्ञान और यश में उनसे आगे जाए। दूसरे प्राचीन ऋषियों के लिए बौद्धिक शास्त्रार्थ शारीरिक कुश्ती से भी गया-गुजरा था। कुश्ती में हारा हुआ पहलवान नई तैयारी और हौसले के साथ उसी पहलवान को दुबारा चुनौती दे सकता है। लेकिन शास्त्रार्थ में विजेता, पराजित व्यक्ति के तन और मन दोनों पर अधिकार जमा लेता था। व्यक्ति के साथ उसकी विचारधारा भी पराजित मान ली जाती थी। केवल विजेता का धर्म रह जाता है। कुल मिलाकर विचार को भी अखाड़े में उतर कर प्रतिद्विंद्वी विचारधारा को चुनौती देनी पड़ती थी।

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जैन और बौद्ध धर्म-दर्शन इसके अपवाद थे। यहाँ जैन दर्शन की तो हमें खास तौर पर प्रशंसा करनी होगी। वैदिक हिंसा और गलाकाट बौद्धिक स्पर्धा के बीच उसने ‘स्याद्वाद’ का सिद्धांत सामने रखा था। वह विभिन्न विचारों को स्वतंत्र रूप से, एक-दूसरे के समानांतर बहने की अनुमति देने का उदारतापूर्ण विधान था। इसके अनुसार कोई भी विचार अंतिम सत्य नहीं है। प्रत्येक विचार अपने भीतर सत्य का कोई न कोई अंश छिपाए रखता है। वह पूरा सत्य हो ही नहीं सकता। चार अंधे एक ही बार में हाथी के पूर्ण रूप का बयान नहीं कर सकते। इसलिए उनमें से प्रत्येक द्वारा दिया गया विवरण, सत्य होने के बावजूद सत्य नहीं है। वह पूर्ण सत्य की एकांगी अथवा आंशिक अनुभूति है। ‘स्याद्वाद’ का दर्शन, वैदिक दर्शन की वैचारिक हिंसा के विरोध में उपजा था। लेकिन राजाओं के साम्राज्यवादी मनसूबे साधने के लिए युद्ध आवश्यक थे; और बगैर हिंसा के युद्ध लड़ना संभव ही नहीं था। ऐसे समाज में वैचारिक अहिंसा का कोई व्यावहारिक महत्व न था। अतः कालांतर में हिंसा को उसके स्थूल रूप; यानी केवल जैविक हिंसा तक सीमित मान लिया गया।

‘स्याद्वाद’ से पता चलता है कि जैन दर्शन में अहिंसा का अर्थ कहीं व्यापक था। उसकी कामना थी कि समाज में विभिन्न मतांतर वाले लोग, एक-दूसरे का सम्मान करते हुए जीवन जिएं। उनमें कोई द्वैष न हो। यदि वैचारिक लोकतंत्र होगा, तो लोग एक-दूसरे की भावनाओं का ख्याल रखेंगे, तभी समाज में वैचारिकता के प्रति अनुराग होगा। मगर केवल अपने विचारों को सर्वोपरि समझने, बताने की जिद के चलते, ‘स्याद्वाद’ का विचार समाज में गहरी जड़ें न जमा सका। यह बात भुला दी गई कि हिंसा प्रधान समाज में वैचारिक अहिंसा का टिके रहना असंभव है। वैचारिक लोकतंत्र के समर्थक, ‘स्याद्वाद’ जैसे दर्शन के कमजोर पड़ने का परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणों ने न केवल दूसरे विचारों की ओर से अपने आँख-नाक-कान बंद कर लिए, अपितु गैर-ब्राह्मण उनके धर्म-ग्रंथों के पढ़ न पाएँ, इसके लिए भी उनपर बड़े-बड़े प्रतिबंध थोप दिए।

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हम पुनः कुमारिल भट्ट की कहानी पर लौटते हैं। हमने जाना कि कुमारिल भट्ट को अग्नि-शिखाओं पर आसीन देखकर भी शंकराचार्य का हृदय मोम न हुआ। संभवत: उनकी उत्कृष्ट मेधा का भय शंकराचार्य को रहा हो। यह आशंका कि कुमारिल भट्ट जैसे विद्वान को पराजित करना शायद उनके लिए संभव न हो! यह भी संभव है कि  वेदोक्त धर्म-दर्शन के शीर्ष-पुरुष बनने की महत्वाकांक्षा के साथ निकले शंकराचार्य, ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना चाहते हों, जिससे उनपर वैदिक परंपरा का दोषी होने का आरोप लगाया जा सके। इसलिए उन्होंने कुमारिल भट्ट को बचाने की कोई कोशिश न की। आज शंकराचार्य के समर्थक उस प्रसंग को गोल-मोल कर जाते हैं। हिंदू परंपराओं के जानकार के लिए इसमें कुछ भी अजूबा नहीं है। परंपरानुगामी भारतीय मेधा घटनाओं के निष्पक्ष विवेचन के बजाय श्रद्धा को महत्व देती है। उसकी कोशिश व्यक्तिगत श्रद्धा को सामूहिक श्रद्धा में बदल देने की रहती है। उस समय यदि शंकराचार्य कुमारिल भट्ट को चिता से उबार लेते तो वेदांत भले ही न जीतता, लेकिन इंसानियत अमर हो जाती।

यहां एक किस्सा याद आ रहा है। रामानुजाचार्य को उनके गुरु ने एक मंत्र दिया था। मंत्र देते समय उन्होंने शिष्य रामानुज के कान में कहा—

‘बहुत पवित्र मंत्र है। जिसे बताओगे वह तर जाएगा।’

‘जी….गुरु जी।’ रामानुज ने गुरु का धन्यवाद किया।

‘लेकिन एक शर्त है। इस मंत्र को किसी अपात्र के समक्ष कभी प्रकट मत करना।’

‘अपात्र कौन?’

‘शूद्र, अछूत, स्त्री….शास्त्रों में उनका उल्लेख है।’

‘यदि मैं ऐसा करूं तो….’

‘घोर पाप….घोर पाप। सीधे रौरव नर्क में जाओगे।’

गुरुजी को दंडवत कर रामानुज वहां से चल दिए। रास्ते में उन्हें जो भी पात्र व्यक्ति दिखाई दिया, सभी को मंत्र दिया। गुरु को जब पता चला कि रामानुजाचार्य पात्र-अपात्र का ध्यान रखे बिना ही दीक्षा दे रहे हैं तो उन्होंने उन्हें बुलवाया, बरजा। गुरु के आदेश का उल्लंघन करने का आरोप लगाया। तब रामानुजाचार्य ने कहा—

‘आप ही ने कहा था कि जो भी व्यक्ति इस मंत्र का पाठ करेगा, उसका उद्धार होगा?’

‘मैंने यह भी कहा था कि अपात्र को इस मंत्र की दीक्षा दी तो तुम सीधे रौरव नर्क में जाओगे।’

‘यदि मुझ अकेले के नर्क में जाने से इतने सारे लोगों को मुक्ति मिलती है तो मुझे सौ-सौ जन्मों तक नर्क स्वीकार्य है।’ रामानुज का उत्तर था।

इसकी प्रतिक्रिया में रामानुज के गुरु ने क्या कहा होगा, मालूम नहीं। लेकिन उनके साथ अप्रत्यक्ष स्पर्धा में जीत शंकराचार्य की हुई थी। कैसे? रामानुज विशिष्टाद्वैत दर्शन के प्रवर्त्तक थे, और शंकराचार्य अद्वैत के। रामानुज मानते थे कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं, मगर संसार में आकर उनकी अलग-अलग प्रतीति होती है। शंकराचार्य आत्मा और परमात्मा को एक मानते थे। ब्राह्मणों ने घोषित रूप से शंकराचार्य के मत को स्वीकार किया। इस्लाम के सूफीवाद की और से मिल रही चुनौती से निपटने के लिए यह जरूरी था। किंतु आत्मा और परमात्मा एक हैं, इस आधार पर सभी मनुष्य बराबर हैं—इस सत्य को वे कभी गले से नहीं उतार पाए।  

हम यह नहीं कहते कि रामानुज का विशिष्टाद्वैत आदर्श दर्शन है। असल में न तो स्वर्ग होता है, न ही नर्क। मुक्ति स्वयं एक मिथ है। अतएव ऊपर दी गई कहानी को उसकी प्रतीकात्मकता, यानी सामाजिक संदर्भों में समझना चाहिए। कहानी बताती है कि किसी काम से यदि एक व्यक्ति को नुकसान, मगर अनेक को लाभ पहुंचता है तो वह कार्य करणीय हो सकता है, और व्यावहारिक नैतिकता के दायरे में आता है। पूर्ण नैतिकता तब होगी जब बाकी सब लोग, व्यक्ति विशेष को जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई करने की ठान लें।

अपने मान-अपमान और आलोचनाओं की चिंता किए बिना शंकराचार्य कुमारिल भट्ट जैसे मनीषी की प्राण रक्षा को आगे आते; तो वे मनुष्यता के लिए आदर्श उदाहरण पेश करते। मगर परंपरा से भयभीत शंकराचार्य उस अवसर की जानबूझकर उपेक्षा कर जाते हैं। बहरहाल, बौद्ध दर्शन के अध्ययन हेतु प्रस्थान करते समय कुमारिल भट्ट की मनःस्थिति को लेखक यशपाल ने खूब समझा था। वे लिखते हैं—

‘कुमारिल भट्ट दो बातें खूब समझते थे। पहली बात यह कि बौद्ध दर्शन उनकी प्रतिपालक और रक्षक द्विज श्रेणी के हित और अधिकारों पर आघात कर रहा है; और दूसरी बात, द्विज श्रेणी के सामाजिक और आर्थिक शासन की वेदोक्त व्यवस्था….द्विज श्रेणी के शासन के अधिकारों का विरोध करने वाले बौद्ध दर्शन की सत्य, अहिंसा और न्याय की मांग—द्विज श्रेणी के अधिकारों की हिंसा करती है। अतः बौद्ध दर्शन से ‘फाइट’ करना आवश्यक है।’2 

कुमारिल भट्ट के प्रायश्चित की घटना द्वारा हम, न केवल उनकी मनोरचना, अपितु तत्कालीन समाज के मनोविज्ञान को  भी समझ सकते हैं। उन दिनों धर्म, दर्शन और विचार की प्रामाणिकता को परखने के उपाय कभी-कभी इतने विचित्र, अविचारी और अस्वाभाविक होते थे कि आज उनपर विश्वास करना कठिन जान पड़ता है। कुमारिल भट्ट के जीवन का ही एक किस्सा और है। उन्होंने बौद्ध दर्शन के अध्ययन हेतु नालंदा विश्वविद्यालय में छद्म नाम से प्रवेश लिया था। बौद्ध विचारक वेदों को अप्रामाण्य और मानवकृत मानते थे। बौद्ध दर्शन को मिटाने के कुमारिल भट्ट के संकल्प के पीछे यही मुख्य वजह थी। जब उनके बारे में विश्वविद्यालय में पता चला तो सब बहुत कुपित हुए। कुछ शरारती लड़कों ने उन्हें सबक सिखाने का फैसला कर लिया। जब वे लड़के कुमारिल भट्ट को ढकेलने जा रहे थे, तब उन्होंने उन सभी को सुनाते हुए कहा था—

‘यदि वेद प्रामाण्य हैं तो मुझे कोई भी चोट नहीं पहुंचेगी।’

संयोगवश वे सकुशल बच गए। उसी दिन से कुमारिल ने मान लिया कि वेद स्वतः प्रामाण्य हैं। वह विवेक पर  अंधश्रद्धा की जीत थी। आत्मदहन से पहले कुमारिल भट्ट ने विपुल वाङ्मय की रचना की थी। लेकिन विलक्षण मेधा के बावजूद वे मीमांसा दर्शन को वह सम्मान दिलाने में नाकाम रहे, जिसके वे आचार्य थे। जिसके लिए उन्होंने बौद्धों को पराजित करने की कामना के साथ गुरु-द्रोह किया था। मंडन मिश्र के पराजित होते ही मीमांसा दर्शन लगभग पूरी तरह उखड़ गया।

शब्द की कसौटी शब्द; और विचार की कसौटी केवल विचार बन सकता है। बावजूद इसके चमत्कारों और संयोगों के माध्यम से किसी विचार या वस्तु को प्रमाणित करने की प्रवृत्ति भारतीय समाज में बहुत पुरानी है। रूढ़ियों को विचारधारा का रूप देने तथा विरोधी विचारों से सीख लेने के बजाय उन्हें मिटा देने के उदाहरण भी कई हैं। कहीं पढ़ा था कि उज्जैन नगरी में एक ऐसा तालाब था, जिसका उपयोग शास्त्रीय ग्रंथों की जांच के लिए कहा जाता था। तरकीब निराली थी। यदि ग्रंथ तैर जाए तो उसको मौलिक और महत्वपूर्ण मानकर सम्मान मिलता था। अगर डूब जाए तो उसे स्थायी जल-समाधि के लिए छोड़ दिया जाता था। समझ सकते हैं कि वह गुणवत्ता जांच के नाम पर ग्रंथ को ही मिटा देने की बौद्धिक वर्ग की साजिश थी। लोकश्रुति के अनुसार उस तालाब में पांच हजार से अधिक ग्रंथों को इसी तरह डुबोया गया था। बाद में उस तालाब को पाट दिया गया। इस तरह न जाने कितनी बहुमूल्य पांडुलिपियां, केवल इसलिए कि उनमें व्यक्त विचार शासन और उसके चहेते बुद्धिजीवी वर्ग की विचारधारा से मेल नहीं खाते थे, हमेशा-हमेशा के लिए दफन कर दिए गए।

बौद्ध काल में चार्वाक, लोकायत और आजीवक धर्म जैसी भौतिकवादी विचारधाराएं विमर्श में थीं। अजित केशकंबलि, मक्खलि घोषाल, पूर्ण कस्सप जैसे विचारक उनके पोषण में लगे थे। वैदिक परंपरा के पुरोहितों और आचार्यों से उनका शास्त्रार्थ चलता रहता था। इसके बावजूद इन विचारधाराओं से संबंधित स्वतंत्र ग्रंथ हमें प्राप्त नहीं होता। इसके पीछे तत्कालीन आचार्यों की विरोधी विचारधारा के प्रति असहिष्णुता रही है। संवैधानिक व्यवस्थाओं और लोकतंत्र के इस दौर में होना तो यह चाहिए कि हम इतिहास से कुछ सबक लें, किंतु विचार के नाम पर जड़ता और धर्म-दर्शन के नाम पर असहिष्णुता निरंतर बढ़ती ही जा रही है। शायद ऐसी ही परिस्थितियां डॉ.  आंबेडकर की बहुचर्चित पुस्तक ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ लिखने की प्रेरणा बनी थीं।

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धर्म से अपेक्षा की जानी चाहिए कि राजनीतिक और आर्थिक कार्य-कलापों से दूर, नैतिक व्यवस्था बने। लेकिन व्यवहार में वह ऐसा धंधा है जो बिना निवेश के स्थायी लाभ देता है। अमीर जनसाधारण की धार्मिक भावनाओं के दोहन के लिए मंदिर बनवाता है। नियमित पूजन-अर्चन के लिए पुजारी स्वयं हाजिर हो जाता है। जो कुछ ज्यादा अमीर है, वह पुजारी और पूजा का खर्च भी उठा लेता है। ऐसे धनाढ्य को मंदिर की ओर देखने की जरूरत नहीं पड़ती। इसके बावजूद पुजारी उसे धर्म-रक्षक, ईश्वर प्रेमी, भक्त शिरोमणि, ईश्वरानुरागी जैसी पदवियां सौंपता है। इससे उसको व्यापार करने, व्यापार के नाम पर मनमाना लाभ कमाने की छूट मिल जाती है। अपने बनाए मंदिर में व्यापारी स्वयं पूजा करे, आवश्यक नहीं है। इसके लिए वह मंदिर बनवाता ही नहीं। पूजा-पाठ उसके लिए तीसरे-चैथे दर्जे या  बैठे-ठाले का काम होता है। अवसर विशेष को छोड़कर वह उस ओर झांकता तक नहीं है। केवल पुजारी को दी गई तनख्वाह और यदा-कदा की दान-दक्षिणा से उसका ‘धर्म’ सधता रहता है। पुराने जमाने में इसलिए प्राचीन राजा-महाराजा, जमींदार, सेठ आदि का धर्मालय प्रवेश भी खास घटना हुआ करती थी। आज भी व्यापारी वर्ग मोटे दान-दक्षिणा द्वारा वह पुरोहितों को प्रसन्न रखता है। बदले में पुजारी वर्ग उसके मुनाफा कमाने के तरीकों, व्यापारिक अनाचार और भ्रष्टाचार की ओर से आंख मूंद लेता है। गलती के लिए आर्थिक शक्तियों को जिम्मेदार ठहराने की तो मानो उस युग में परंपरा ही नहीं थी। इसलिए भारतीय और विश्व वाङ्मय में राजनीतिकों के अनाचार और दुराचार के किस्से तो अनगिनत हैं, यहां तक कि देवताओं को भी नहीं छोड़ा गया है, मगर आर्थिक दुराचार के बारे में चर्चाएं नगण्य हैं। यहां कुबेर के खजाने का बखान हुआ है। राजा-महाराजाओं, सेठ-साहूकारों के खजाने को भी कुबेर का खजाना कहकर महिमा-मंडित किया जाता रहा है। उस खजाने में धन कैसे आता है, कहां से आता है, धनार्जन के रास्ते नैतिक हैं या अनैतिक—इस पर चर्चा कम ही हो पाती है। हालांकि कौटिल्य, कात्यायन, याज्ञवल्क्य आदि ने कराधान और राज्य के वित्त प्रबंधन संबंधी आवश्यक निर्देश दिए गए हैं, लेकिन उनका वास्तव में कितना पालन होता था, उल्लंघन करने पर कब, किसे, कितना दंड दिया गया था, इस तरह का कोई उदाहरण धर्म-ग्रंथों में नहीं मिलता।

धर्म के नाम पर जीवन के जरूरी सवालों से बच निकलने के प्रसंग इतिहास में अनगिनत हैं। धर्मानुयायी आस्थावादी दृष्टि से उनका महिमामंडन करते हैं। लेकिन विमर्श से बच निकलते हैं। यदि कहीं फंसते हुए दिखें तो ‘नेति-नेति’ कहकर तत्काल पीछा छुड़ा लेते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि धर्म आज भी समाज के बहुसंख्यक वर्ग के लिए मानवीय कम, आस्था का विषय ज्यादा है। हालांकि अपनी नैतिक प्रेरणाओं के लिए करोड़ों लोग धर्म पर आज भी आश्रित हैं। धर्म उनके लिए अस्मिता का मसला है। धर्म-विहीन जीवन के बारे में वे सोच भी नहीं सकते। हरिद्वार के कुंभ और गढ़-मुक्तेश्वर के गंगा मेले को देखिए, श्रद्धालुओं का चारों ओर से उमड़ता हुआ हुजूम….कड़कड़ाती ठंड और वर्फ-से हाड़ जमा देने वाले पानी में, आपको सत्तर-अस्सी वर्ष तक के बूढ़े-बूढ़ियां गोते लगाते हुए नजर आएंगे। अनगिनत कष्ट सहकर भी वे खुद को धन्य मानते हैं; या यूं कहो कि श्रद्धातिरेक में काया-कष्ट को भूल जाते हैं। माक्र्स इसे अफीम कहता है। कदाचित धर्म एक नशा है भी। वाल्तेयर, फायरबाख, ब्रूनो बायर, मिखाइल बकुनिन, बर्ट्रेण्ड रसेल जैसे विचारकों ने भी अलग-अलग अंदाज में धर्म को नशा और शोषण का जरिया माना है। लेकिन जब कोई नशा ही समाज के अधिसंख्यक लोगों को प्रिय हो, लोग उसको अपनी पहचान से जुड़ा हुआ मानते हों, और जो पूरी दुनिया के तीन-चौथाई से ज्यादा लोगों की जीवनचर्या को किसी न किसी रूप में प्रभावित करता हो, तब उसके प्रति एकाएक उपेक्षा या तिरस्कार-भाव कैसे संभव है? क्या ऐसा करना लोगों की नैसर्गिक स्वतंत्रता का अपमान नहीं है? अवश्य होता; बशर्ते मनुष्य अपना धर्म स्वयं तय करता। उसको अपना ईश्वर चुनने का अधिकार होता और जन्म के साथ ही धर्म उसपर थोप नहीं दिया जाता। यह किसी से छिपा नहीं कि जन्म के समय शिशु का मस्तिष्क कोरी सलेट जैसा होता है। कम से कम ईश्वर और धर्म को लेकर तो वह कुछ भी नहीं जानता। ऐसे में जन्म के साथ ही शिशु के धर्म और ईश्वर का निर्धारण कैसे संभव है! क्या यह खुली हवा में पहली सांस के साथ ही मनुष्य के विवेक को बांध देने की साजिश नहीं है? असल में यह धर्म के आधार पर संगठित होने वाले समाजों का मूक समझौता है, जिसके आधार पर वे अपने अनुयायी बांटते रहते हैं।  

धर्म की प्रमुख विशेषता उसका लचीलापन, परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढालने की ताकत है। लेकिन परिस्थितियों के अनुसार कैसे बदलना है, यह तय करने का अधिकार जनसाधारण को नहीं होता। तय करता है पुरोहित वर्ग। इस काम को वह शास्त्रों की  दुहाई देकर करता है। यहां शास्त्र व्यापक पद है। उसमें ग्रंथों के अलावा श्रुति, परंपरा, यहां तक की शास्त्र के नाम पर मनमानी और अपने मत को ही प्रामाण्य मानने के दुराग्रह के साथ, एकाएक गढ़ ली गई संकल्पनाएं भी शामिल होती हैं। शास्त्रीय पैमाने पुरोहित वर्ग पर भी ज्यों की त्यों लागू हों, यह आवश्यक नहीं है। उनके लिए आपद् धर्म की व्यवस्था हर समय रहती है। जीवन महत्वपूर्ण है इसलिए क्षुधा पीड़ित विश्वामित्र की जीवन रक्षा हेतु मृत पशु का मांस खाने की अनुमति शास्त्र देते हैं। यह इजाजत सभी को; और हमेशा नहीं थी। जो धर्म भूखे विश्वामित्र के प्राण बचाने के लिए लचीलापन दिखाता है, वह महाभारत में राजनीति के साथ जुड़कर बेहद आक्रामक हो जाता है। वहां पांच पांडव बंधुओं को न्याय दिलाने के नाम पर महाभारतकार अठारह अक्षौहिणी सेना को युद्ध की आग में झोंक देने की घटना को धर्म युद्ध की संज्ञा देता है, जिसमें सब कुछ ऊपर से तय होता है और तथाकथित धर्म के नाम पर 19,68,300 सैनिक, 3,93,660 हाथी तथा 11,80,980 घोड़े युद्ध की बलि चढ़ा दिए जाते हैं।

साफ है, सामान्य व्यवहार में धर्म केवल आध्यात्मिक विषय नहीं रह जाता। उसमें शीर्षस्थ वर्ग की स्वार्थपूर्ण राजनीति, उसके मनसूबों और महत्वाकांक्षाओं को साधने का पूरा व्यवहारशास्त्र होता है। नैतिकता का आवरण तो लोगों को लुभाने के लिए होता है। समाज में अपनी पैठ बनाने के लिए कुछ प्रावधान आवश्यक हैं, जैसे—‘अपने पड़ोसी से प्यार करो, सत्यभाषी बनो, आवश्यकता से अधिक संचय मत करो, सभी जीवों पर दया, क्षमा, धृत्ति, करुणा, परोपकार आदि। धर्म की ये व्यवस्थाएं उसके चेहरे को मानवीय बनाती हैं। उसके लिए लोगों के दिल में जगह पैदा करती हैं। जनसाधारण उनसे यथोचित प्रेरणाएं भी लेता है। लेकिन यदि किसी क्षण पुरोहित वर्ग की मदद या व्याख्या की जरूरत आ पड़े तब वह धार्मिक प्रावधानों का उपयोग निहित स्वार्थ के लिए करता है। स्थितियां प्रतिकूल हों तो धर्म तत्क्षण अपने दिखावटी रूप को सामने लाकर उदार सामाजिक मूल्यों का हवाला देने लगता है। चूंकि नैतिकता के स्तर पर सभी धर्मों में अनूठी समानता है, इसलिए उस स्तर पर वे सभी विद्वेष एकाएक मिट जाते हैं, जिन्हें धर्म से जुड़ा सांप्रदायिक सोच जन्म देता हैं। सच तो यह है कि उस समय सिवाय कर्मकांडों और मिथकीय कल्पनाओं के धर्म का अपना कुछ रह ही नहीं जाता, बल्कि दबाव मैं धर्म स्वयं उन्हें दूसरे दर्जे का मानने लगता है। लेकिन दबाव हटते ही धार्मिक दुराग्रह फिर प्रबल होने लगते हैं। वर्गीय सोच के कारण प्रत्येक धर्म किसी न किसी रूप में सामाजिक स्तरीकरण का समर्थन करता है। ऊंच-नीच को स्थायी बनाता है।

ऐसे धर्म की जरूरत आखिर किसे है? पूंजीपति को या जनसाधारण उपभोक्ता को? मेरा उत्तर होगा, दोनों के लिए। पूंजीपति की धार्मिक प्रतीकों में कोई आस्था न हो तो भी वह स्वयं को धार्मिक इसलिए दर्शाता है, क्योंकि उसको अपना सर्वस्व समझने वाले गरीब, मेहनतकश यह मानते हुए कि उसकी संपन्नता के पीछे उसकी चालाकियां, अंधाधुंध मुनाफाखोरी, लालच, झूठ और बेईमानी न होकर ईश्वर की विशेष अनुकंपा है, उसकी ओर से उदासीन हो जाते हैं। इससे केवल अपने लाभ के लिए उत्पादन करनेवाली पूंजीपति कंपनियों को बढ़ावा मिलता है। इस तरह धर्म सचाई पर पर्दा डालने का काम करता है। उल्लेखनीय है कि अमीर के लिए धर्म का अभिप्राय धार्मिक प्रतीकों, रीति-रिवाजों में आस्था तक सीमित नहीं होता, न वह केवल स्वर्ग के सुखों तक फैला होता है, बल्कि वह उसकी सीधी-सादी व्यापारिक रणनीति का हिस्सा होता है। धर्म की शरण में जाकर अमीर अपने इस जन्म की समृद्धि को पक्का करता है। जबकि गरीब अपने लिए सहनशीलता की मांग करता है, ताकि वर्तमान दुख-अभाव, उत्पीड़न की मार से बच सके। इसी खातिर वह अपने दुखों से खेलता तथा गरीबी और दुश्वारियों को गले लगाता है। वह ताकतवर के अत्याचार को नतभाव से सह लेता है। केवल इस उम्मीद में कि सब कुछ ईश्वर के नाम कर देने से या उसके नाम पर अपने दुखों की ओर से उदासीन हो जाने पर वह प्रसन्न होगा। बदले में उसका भविष्य बेहतर होगा। दूसरे शब्दों में धर्म धनवान और शक्तिशाली के हितों की तात्कालिक सिद्धि करता है, जबकि कमजोर को भरमाता है। उसे प्रलोभन से बांधे रखता है। उल्लेखनीय है कि धर्म और ईश्वर का महिमा-मंडन केवल आस्था-प्रदर्शन तक सीमित नहीं रहता। उसके सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ भी होते हैं। जो मनुष्य को अपनी सीमाओं में बांधते हुए सामाजिक असमानता में उत्तरोत्तर वृद्धि करते हैं।

ईश्वर नामक काल्पनिक और गढ़ी गई सत्ता का प्रयोग प्रायः दो प्रकार के लोग करते हैं। एक जो उसे चाहते या उससे डरते हैं; तथा डर और चाहत के चलते यथा-सामर्थ्य वह सबकुछ करते हैं, जैसा उनसे पुरोहितवर्ग द्वारा कराया जाता है। दूसरे वे जो लोगों पर उसके प्रभाव का उपयोग निहित स्वार्थ हेतु करते हैं। जो लोग ईश्वर को चाहते या उससे डरते हैं—वे इस भ्रम के नाम पर लगातार छले जाते हैं। ईश्वरत्व की वास्तविकता कि वह केवल मनुष्य की मनोरचना है, को समझने वाले ईश्वर की काल्पनिक तस्वीर गढ़ते हैं।  निहित स्वार्थ के लिए वे उसके चारों ओर झूठे किस्से-कहानियों और गाथाओं का पूरा शास्त्र खड़ा कर लेते हैं। फिर उसके माध्यम से उस वर्ग का जो अपने भोलेपन के कारण ईश्वर के अस्तित्व पर भरोसा करता है, को बरगलाते तथा उसका तरह-तरह से शोषण करते हैं।

धर्मशास्त्रों में बार-बार बताया जाता है कि दुनिया धर्म पर टिकी है। धर्म के न होने से सामाजिक व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी। इंसान इंसान को खाने लगेगा। चारों ओर अराजकता छा जाएगी। असल में यह डर ही धर्म की नींव, उसकी प्राणवायु है। यह डर मनुष्यों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास पैदा करता है, जिसे पैदा करने में धर्म की बड़ी भूमिका होती है। एक-दूसरे के प्रति डर और अविश्वास उन्हें अनावश्यक स्पर्धा में उलझाए रखता है। यह धर्म के संबंध में परस्पर विरोधाभासी मान्यताओं को सामने लगाता है। क्योंकि एक ओर तो वह मानवीय स्नेहानुराग को बनावटी, दुनिया को नकली और मोह-माया ग्रस्त, भव-प्रपंच आदि बताकर जीवन-संघर्ष से पलायन को उकसाता है, दूसरी ओर वह देवताओं की ऐसी कृपालु और महिमामयी तस्वीर गढ़ता है, जो पलक झपकते ही भक्त को उसके समस्त दुखों, अभावों, कमजोरियों और दुश्वारियों से मुक्ति दिला सकते हैं। हालांकि जैसा कि माना जाता है, देवताओं की ‘कृपा’ विनीत बने रहने पर ही संभव हो पाती है। सचाई और साफगोई किसी देवता को पसंद नहीं है। न ही आंख से आंख मिलाकर बात करने वाले भक्त उन्हें रास आते हैं। देवता उन भक्तों को पसंद करते हैं, जो हमेशा गिड़गिड़ाते हुए नजर आएं। खुद सत्तु खाकर उन्हें पकवानों का भोग लगाएं। इस तरह पुरोहितों द्वारा गढ़े गए देवता और तानाशाह में कोई अंतर नहीं रह जाता। बल्कि कई बार तो देवता तानाशाह से भी कहीं अधिक क्रूर और सनकी नजर आते हैं। तानाशाह नाराज होने पर अधिक से अधिक कैद कर लेता है अथवा मनुष्य को मौत के घाट उतार देता है। देवता नाराज हों तो मृत्युदंड के बाद आत्मा युगों-युगों तक दंड की भागी बनती है। बल्कि तानाशाह की अपेक्षा देवताओं के नाराज होने की संभावना अधिक होती है। क्यांकि वहां मानवीय भूलों के लिए कोई स्थान नहीं होता। मानो गुस्सा और नाराजगी देवताओं की नाक पर रखी रहती है। भक्तों से सुबह-शाम नाम लिवाना देवताओं को सर्वाधिक प्रिय है। इस काम यदि भूल से भी चूक हो जाए तो देवताओं का कोप-भाजन बनना पड़ता है। नाराजगी मानो उनकी नाक पर रखी रखती है। दावा किया जाता है कि देवताओं की मर्जी के बिना सृष्टि में पत्ता तक नहीं हिलता, बावजूद इसके यदि कोई चूक हो जाए तो दंड का भागी केवल इंसान को बनना पड़ता है। धर्म की माने तो माया का भरमाया मनुष्य कोई न कोई चूक हर घड़ी करता ही रहता है। इसलिए हर किए-अनकिए की जिम्मेदारी मनुष्य पर आ पड़ती है। माया या माया बनाने वाले का कोई दोष नहीं मानता। प्रत्येक कार्य के पीछे दैवी-विधान मान लेने का नुकसान यह है कि इससे जीवन में सामान्य सुख, यहां तक कि नैसर्गिक स्वतंत्रता भी मनुष्य का अधिकार होने के बावजूद, ‘दैवी-कृपा’ मान लिए जाते हैं। जो लोग किसी कारणवश इन सुविधाओं तथा मौलिक अधिकारों से वंचित हैं, उन्हें देवी कृपा से भी वंचित और ‘अभागा’ कहा जाता है।

धर्म का यह चरित्र तभी से है जब से साम्राज्यवादी चेतना का उदय हुआ। तभी से राजा-महाराजाओं, जमींदारों के इर्द-गिर्द चाटुकारों का वर्ग बनने लगा था। चाटुकार वर्ग में पुरोहित भी सम्मिलित थे। वे राजा की सहानुभूति प्राप्त करने तथा जनता पर अपने प्रभाव को स्थायी बनाने के लिए धार्मिक अनुशंसाओं की मनमानी व्याख्याएं करते थे। राजाओं और सामंतों को भोग-विलास प्रिय था। इसलिए पुरोहितों ने देवताओं को भी  स्वार्थी, विलासी, स्वर्णाभूषणों से मंडित दिखाया है। परिणाम यह हुआ कि धर्म की नैतिक और सामाजिक व्यवस्थाएं केवल दिखावे की चीज बनती गईं। धार्मिक मान्यताएं जैसे-जैसे फैलीं, सामाजिक असहिसुष्णता लगातार बढ़ती गई। कालांतर में यही दिखावा देवताओं के चरित्र-चित्रण में भी समा गया। परिणामस्वरूप जो देवता चित्रित किए गए, आदमी की तरह वे भी अपनी आत्मप्रशंसा के भूखे थे। गुस्सा उन्हें भी आता था। साधारण इंसान की भांति मनमानी करने से उनका अहं भी ठंडा होता था। यहां तक कि षड्यंत्र रचने, भोग-विलास और वैभव प्रदर्शन करने में भी वे कम नहीं हैं।

प्रमाण के लिए लक्ष्मी से लेकर विष्णु या किसी और हिंदू देवी-देवता का चित्र देख लीजिए, सभी स्वर्णाभरण से सज्जित हैं। उनके मुकुट हीरे के जड़े हैं। वे चढ़ावे की कीमत देखकर आनुपातिक रूप से प्रसन्न होते हैं। केवल पाशुपति इसके अपवाद हैं। वे देवताओं में सबसे पुराने भी हैं। उनके बारे में प्रस्तर शिल्प से लेकर लिखित साहित्य में इतना कुछ मौजूद था कि पुरोहितों द्वारा उसमें फेरबदल कर पाना, आसान नहीं था। उपलब्ध साक्ष्य यह भी बताते हैं कि शिव अवैदिक देवता हैं। त्रिदेवों में ब्रह्मा को सृजन और विष्णु को पालन का दायित्व सौंपा गया है। थोड़ा-सा विचार करने पर इस रूपक के अभिप्राय को आसानी से समझा जा सकता है। ब्रह्मा के हाथ में वेद हैं, जिसके पीछे असली मंशा वेदों को अपौरुषेय दिखाने की है। विष्णु को पालक देवता का दर्जा प्राप्त है। उन्हें अवतार लेकर बार-बार सृष्टि में आना पड़ता है। यह क्षत्रियों के बीच पीढ़ी-दर-पीढ़ी सत्ता हस्तांतरण का संकेतक है।

शिव को संहार का देवता बताया जाता है। आखिर द्रविड़ों या अनार्यों का देवता ही संहार का देवता क्यों? इसके पीछे की मानसिकता का आकलन कठिन भले हो, असंभव नहीं है। आर्यों के आगमन से पहले इस देश में शिव की प्रतिष्ठा थी। इसके भी प्रमाण हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में पांव जमाने से पहले आर्यों को न केवल यहां के मूल निवासियों से संघर्ष करना पड़ा था, बल्कि अनेक समझौते भी उन्हें करने पड़े थे। आर्यों के साथ निरंतर चलने वाले युद्धों में अंततः अनार्यों को पराजित होना पड़ा पड़ा था, तथापि अनार्यों का डर आर्यों के मन से गया नहीं था। शिव के चिर संगी के रूप में भूत, प्रेत, वैताल आदि हैं, जो अलग-अलग कबीलों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यही गणशक्ति शिव को संहार का देवता मानने के लिए विवश करती है। शासक वर्ग के मन में जनता का डर, यह डर कि शिव के एक संकेत पर कबीलाई समूह आर्यों के श्रेष्ठ योद्धा होने के सपने को चकनाचूर कर सकते है, शिव को देवताओं का देवता, महादेव और संहार का देवता बनाता है। शिव की भांति गणेश भी गण-प्रमुख यानी कबिलाई संगठनों के नेता हैं। लंबे समय तक उन्हें अनार्यों के मुखिया के रूप में मान्यता मिलती रही। गणेश को उनका वर्तमान रूप आर्यों की गणतंत्र के प्रति अनास्था के कारण, उसके उपहास के कारण मिला है।

विभिन्न धर्मावलंबियों की कोशिश होती है, अपने धर्म को पुराने से पुराना दिखाने की। इसके पीछे उनकी कोशिश अपने-अपने धर्म के रीति-रिवाज, कर्मकांड आदि को ज्यों की त्यों, चलाते जाने की होती है। यह बात अलग है कि उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर दुनिया में धर्म की आमद को 5000 वर्ष से पहले नहीं ले जाया जा सकता। यह वही समय है जब इंसान ने संगठित होकर रहना सीखा। नगर राज्यों की नींव रखी गई। उन्हीं दिनों धर्म की सांगठनिक शक्ति को पहचाना गया और उसके आधार पर लोगों को जोड़ने की शुरुआत की गई। हालांकि सभ्यता का इतिहास इससे भी काफी पुराना है। यदि प्रबोधीकरण के युग को ही लें तो करीब 12000 वर्ष बीत चुके हैं। यानी प्रबोधीकरण का दो-तिहाई हिस्सा मनुष्य ने बगैर किसी धार्मिक विश्वास के बिताया है। लेकिन एक बार धर्म के अस्तित्व में आने के बाद उससे पीछा छुटा पाना मनुष्य के लिए असंभव रहा है। इस बीच राजसत्ताएं बदलीं। सत्ताओं के रूप और मायने बदले। साथ-साथ धर्म के मायने तथा उसके अभीष्ट भी बदलते रहे हैं। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि धर्म गायब हुआ हो। संगठित राजसत्ता के दौर में धर्म सत्ता और भी फली-फूली और मजबूत हुई है। ऐसे में धर्म से मुक्ति, उसके कर्मकांडों से मुक्ति क्या संभव है? खासकर गत दो हजार वर्षों से धर्म दुनिया-भर के समाजों, लोक-परंपराओं में जितनी गहराई से अंतर्गुंफित हुआ है। उससे मनुष्य की धर्म से मुक्ति आसान नहीं लगती। खासकर तब जब धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों के स्वार्थ एक समान हों। दोनों एक-दूसरे को समर्थन और बल प्रदान करती हों। यह धर्म की ही माया है कि कंप्यूटर अपने ईजाद होने के साथ ही भविष्यवाणी करने लगता है।

यह ठीक है कि आधुनिक युग में धर्म से मुक्ति आसान नहीं दिखती। लेकिन जो कठिन दिखती हो, वह असंभव भी हो, यह बात जमती नहीं। बल्कि इतिहास ने दर्शा दिया है कि कठिनता का जीवनकाल बस कुछ वर्ष का होता है। उसके बाद वह व्यवहार का हिस्सा बन जाती है। आज से सत्तर-अस्सी वर्ष पहले एवरेस्ट की गगनचुंबी चोटी पर पहुंचना असंभव बात थी। बाद में हिलेरी, शेरपा तेनसिंह के साथ गए। असंभव संभव हुआ। आज तो यह स्थिति है कि वहां अपेक्षाकृत आसानी से जाया जाता है। ऐवरेस्ट यात्रा खबरें कोई खास रोमांच नहीं बना पातीं। यही हाल धर्म का है। आज भले ही लोग मानते हों कि सृष्टि धर्म के बल पर टिकी है। पर कल हालात बदल भी सकते हैं। कोई भी दो सत्ताएं जिनके अपने-अपने स्वार्थ हों, लंबे समय तक एक-दूसरे के समर्थन में नहीं रह सकतीं। खासकर तब जब शक्ति के केंद्र बदल रहे हों। पहले भू-संपदा पूंजी का प्रतीक थी। उससे पहले कुछ और था। इसलिए वह दिन दूर नहीं कि जब धर्म की असलियत भी लोगों के सामने होगी। वे उन चेहरों को देख सकेंगे, जो उसकी महिमा मंडन के पीछे हैं।

दूसरी ओर यह भी सही है कि आदमी के मन से आगत-अनागत का डर निकल जाए, धर्म अपने आप ‘फालतू’ मान लिया जाएगा। यह भ्रम भी जाता रहेगा कि धर्म मनुष्य को जोड़ता है। भ्रम टूटते ही मनुष्य समझने लगेगा कि जीवन के जो लक्ष्य हैं, उन्हें प्राप्त करने के लिए किसी तीसरी शक्ति की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य आपसी सहयोग, समर्पण और विश्वास द्वारा भी जीवन-लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है। इससे उसका दैन्य घटेगा। आत्मविश्वास में वृद्धि होगी। भटकाव में कमी आएगी। जीवन के लक्ष्य जब तीसरी अदृश्य सत्ता को बीच में रखकर लेने के बजाय समाज और सामाजिकता को ध्यान में रखकर तय होने लगेंगे तो सामाजिक अंतद्र्वंद्वों का हृास होगा। तनाव में कमी आएगी। समाज की ऊर्जा सामाजिक कार्यों में विकास के लिए खर्च होने लगेगी। अपने पुरुषार्थ पर भरोसा मनुष्य को जीवन और एक-दूसरे के करीब लाएगा। हमें उस दिन की प्रतीक्षा तो कर ही सकते हैं।

ओमप्रकाश कश्यप 

1.  किं करोमि क्वगच्छामि को वेदानुधरिष्यति.

मा रुदसि बाले, कुमारिलभट्टोवेदानुद्धारिष्यति. —यशपाल द्वारा ‘अपने संपर्कों के प्रति मेरे देय’ से उद्धृत, यशपाल के निबंध, पृष्ठ 431.

2 . यशपाल के निबंध, अपने संपर्कों के प्रति मेरे देय, 431।

सिंधू घाटी की सभ्यता और आर्य श्रेष्ठता के मिथ

विशेष रुप से प्रदर्शित

आलेख

क्षेत्रीयता के आधार पर भारतीय संस्कृति को दो भागों में बांटा जा सकता है। उत्तर भारत की संस्कृति जिसे आर्य संस्कृति, वैदिक संस्कृति अथवा सीधे-सीधे ‘ब्राह्मण संस्कृति’ कह दिया जाता है। दूसरी अनार्य संस्कृति अथवा द्रविड़ संस्कृति, जिसकी जड़ें सिंधू सभ्यता तक जाती हैं। भारत का सांस्कृतिक इतिहास इन्हीं संस्कृतियों के बीच समय-समय पर हुए संघर्ष एवं सम्मिलन का लेखा है। यह भी मान लिया गया है कि सिंधू सभ्यता के पराभव के साथ ही, उसकी संस्कृति भी दम तोड़ चुकी थी। अब जो भारतीय संस्कृति है वह मुख्यत: हिंदू यानि ब्राह्मण संस्कृति है। पर क्या सचमुच? सिंधू सभ्यता की भांति क्या उसकी संस्कृति भी पूरी तरह काल-कवलित हो चुकी है? भारतीय संस्कृति की जड़ों की खोज हमें 3500-4000 वर्ष पहले तक ले जाती है। शुरुआत सिंधू घाटी की सभ्यता से होती है। यह ज्ञात तथ्य है कि सिंधू-नदी के तटवर्ती इलाकों में 3300-1750 ईस्वी पूर्व में एक समृद्ध नागरी सभ्यता विद्यमान थी। समकालीन सभ्यताओं में सर्वाधिक उन्नत सिंधू सभ्यता का विस्तार करीब नौ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में था, जो आधुनिक पाकिस्तान के क्षेत्रफल से भी अधिक है। 

अपने वैभवकाल में सिंधू सभ्यता के सबसे विकसित नगर मोहेनजो-दरो की आबादी अनुमतः 35,000-41,000 तथा हड़प्पा की आबादी अनुमतः 23,500 से 35,000 के बीच थी। 35-40 लाख आबादी वाले आधुनिक महानगरों के आगे यह आबादी भले ही छोटी लगे, किंतु उस समय के गांवों की जनसंख्या 50-100 को देखते हुए, वे वास्तव में अपने समय के ‘महानगर’ कहलाने के अधिकारी थे। सिंधू नदी की उपजाऊ भूमि पर बसी वह एक समृद्ध सभ्यता थी। इसका प्रमाण वहां से प्राप्त तरह-तरह के आभूषण, विशालकाय अन्न भंडार तथा बेहतरीन नगर संरचनाएं हैं। खुदाई में बहुत कम मात्रा में हथियारों का मिलना दर्शाता है कि सिंधू सभ्यता के निवासी शांतिमय जीवन जीने में विश्वास रखते थे। वे लोग, ‘लड़ाके नहीं थे; और बाहरी आक्रमण की आशंका भी उन्हें कम ही थी।’1 ऐसी सुसमृद्ध और फलती-फूलती सभ्यता, करीब 1750 ईस्वी पूर्व पहले प्राकृतिक कारणों से पराभव की ओर बढ़ चुकी थी। सभ्यता के अवसानकाल में सिंधूवासियों को एक मानव-जनित आपदा का सामना भी करना पड़ा था। वह था—2000 से 1500 ईस्वी पूर्व हुआ आर्य कबीलों का आक्रमण।2 माना जाता है कि उन आक्रमणों ने ही अनार्यों को उत्तर-पश्चिम की दिशा में विस्थापन के लिए विवश कर दिया था।

इतिहासकारों का दावा है कि आर्य अपेक्षाकृत उच्च सभ्यता के दावेदार थे। ‘अमरकोश’(7/3) में उन्हें ‘महाकुलकुलीनआर्यसभ्यसज्जनसाधवः,’ महाकुल, कुलीन, आर्य, सभ्य, सज्जन, साधु बताया गया है। सिवाय ऐसे उल्लेखों के भारत में आने से पहले आर्यों की प्राचीन सभ्यता के बारे में, उस सभ्यता के बारे में जिसे वे पीछे छोड़कर आए थे—हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। ऐसा भी कोई साक्ष्य नहीं है जो उस दौर में उनकी सभ्यता को सिंधू-घाटी के अधिवासियों की सभ्यता से श्रेष्ठ दर्शाता हो। तथ्यों को खँगालने पर यह तर्क भी विश्वसनीय नहीं लगता कि अनार्यों के सिंधू घाटी से विस्थापन का एकमात्र कारण, आर्यों का अनपेक्षित आक्रमण था। 

इतिहासकारों के अनुसार आर्यों ने भारत में अलग-अलग समय में कबीलों के रूप में प्रवेश किया था। दूसरी ओर सिंधूवासी आर्येत्तर अपने समय की सर्वाधिक विकसित, नागरी सभ्यता के निर्माता थे। वे पशु-पालक अर्थव्यवस्था को पार करके, उन्नत कृषि एवं व्यापार-केंद्रित अर्थव्यवस्था के स्तर को प्राप्त कर चुके थे। वे भविष्य के लिए अन्न संग्रह करना जानते थे। ऋग्वेद में ‘पणि’ शब्द कई स्थानों पर आया है। ‘निरुक्त’(6/27) के अनुसार पणि ‘व्यवसायी’ लोग थे। वही सिंधू उपत्यका की व्यापार-प्रधान सभ्यता के निर्माता थे। ऋग्वेद में उन्हें आर्य-विरोधी के रूप दर्शाया गया है। बताया गया है कि पणि ऋषिगणों से उनका धन छीनकर ले जाते थे। एक स्थान पर सोम से लालची पणियों को नष्ट कर देने की प्रार्थना की गई है(ऋग्वेद, 6.51.14)। पशु-पालन अर्थव्यवस्था में अंतनिर्हित यायावरी ही आर्यों को भारतीय प्रायद्वीप तक खींच लाई थी। 

सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आर्यों ने जब सिंधू घाटी में कदम रखा तब तक वे लिपि के प्रयोग से अनजान थे। जबकि  सिंधूवासियों के पास 396 अक्षरों वाली समृद्ध लिपि थी।3 वे गणित के प्रयोग में भी दक्ष थे। सिंधूवासियों के साहित्य के बारे में अभी तक कोई जानकारी नहीं है। आर्यों की पद्य-रचनाओं के बारे में अवश्य पता चलता है, जिन्हें वे कंठस्थ करके रखा करते थे। राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार—‘अनेक विद्वान समझते हैं कि भारतवर्ष में 800 ईस्वी पूर्व से पहले तक लेखनकला ज्ञात न थी। किंतु यह मत सभी को मान्य नहीं है। पर इतना निस्संदेह है कि भारत में लिपि से बहुत पहले साहित्य बन चुका था।’4 स्पेन, फ्रांस और भारत में भीम बेटका की गुफाओं में बने भित्तिचित्रों से पता चलता है मनुष्य 30,000-35,000 वर्ष पहले कहानी गढ़ना सीख चुका था। मान सकते हैं कि लिखित हो या मौखिक—सिंधू सभ्यता के अधिवासियों का भी कोई न कोई साहित्य अवश्य रहा होगा। वह सब खुद मिटा या मिटा दिया गया, प्रमाणों के अभाव में इसपर कुछ भी कह पाना संभव नहीं है।

ऋग्वेद में पृथ्वी और उर्वी अर्थात लंबी-चौड़ी धरती, जो गायों से भरी हुई होती थी(गोमती), के अलावा नगर और पुर तथा सौ खंबों वाले(शतभुजी), पत्थरों से बने(अश्वमयी) और शरद-ऋतु में काम आने वाले(शारदी) दुर्गों का भी वर्णन है, जिनमें लोग नदियों की बाढ़ के दौरान आत्मरक्षा करते थे।5 किंतु उन दुर्गों के निर्माता आर्य ही थे—यह बात दावे से नहीं कही जा सकती। कारण यह है कि वेदों को लिपि के आविष्कार, यानी 800 ईस्वीपूर्व के आसपास ही लिपिबद्ध किया जा सका था। उस समय तक आर्यों को भारत आए सात-आठ शताब्दियां बीत चुकी थीं। इसलिए इस बात की पर्याप्त संभावना है कि भारत आने के बाद, आर्यों ने जिन नई ऋचाओं की रचना की, उनमें सिंधू सभ्यता के मूल नागरिकों द्वारा बनाए गए पुरों का वर्णन भी शामिल था। राधाकुमुद मुखर्जी ऋग्वैदिक सभ्यता को सिंधू सभ्यता की ‘पूर्वगामिनी अथवा उत्तराधिकारिणी’ कहने से बच जाते हैं। लेकिन इससे वे भी इन्कार नहीं कर पाते कि, ‘जिन भौगोलिक एवं ऐतिहासिक परिस्थितियों में ऋग्वेद की रचना हुई, उनमें आर्येत्तर लोगों की संस्कृति एवं जीवन-परिस्थितियों से आर्यों का परिचित हो जाना स्वाभाविक था, जिनमें से कुछ का उल्लेख ऋग्वेद में आ गया। और जो मोहनजो-दरो से प्राप्त सामग्री से मिलता-जुलता है। तात्पर्य यह है कि ऋग्वेद के आर्येत्तर वे लोग हो सकते हैं, जिन्होंने सिंधू सभ्यता का निर्माण किया था।’6 अन्यत्र वे लिखते हैं कि ‘सिंधू घाटी में आर्यों को एक उन्नत सभ्यता से टक्कर लेनी पड़ी। वह अनेक नगरों में फैली हुई थी।’7 शरद-ऋतु में काम आने वाले(शारदी) दुर्ग….जिनमें लोग नदियों की बाढ़ के दौरान आत्मरक्षा करते थे’—का आशय भी यही है कि आर्य कबीले उनके निर्माता न होकर, उपयोगकर्ता मात्र थे। ऐसे में आर्यों को सभ्यता के स्तर पर आर्येत्तर सिंधूवासियों से उन्नत दर्शाने का कोई औचित्य नहीं है।  

सभ्यता के स्तर पर सिंधूवासियों की श्रेष्ठता को क्या आर्यों ने कभी स्वीकार किया? संस्कृत साहित्य में अनार्यों के प्रति जो अवमाननापूर्ण टिप्पणियां हैं, उन्हें देखकर तो लगता है कि कभी नहीं। स्थापत्य की दृष्टि से ऋग्वेद की भाषा ध्वंस की भाषा है। भारत आने के बाद आर्य शनैः-शनैः नष्ट हो रही उस सभ्यता को सहेजने की कोशिश नहीं करते। कदाचित उनके लिए वह संभव भी नहीं था। संस्कृत साहित्य में भौतिक जगत के प्रति नकार का स्थायी भाव दर्शाता है कि सिंधू सभ्यता के भग्नावशेषों ने आर्यों के मनस् में, भौतिक जगत के प्रति गहन नैराश्य को जन्म दिया था। इस बोध को जन्म दिया था कि प्राकृतिक शक्तियों के समक्ष मनुष्य की शक्तियां नगण्य हैं। कदाचित उससे जन्मा डर ही आगे चलकर ब्राह्मणों के धर्म-दर्शन में मायावाद के प्राबल्य का कारण बना। डरे हुए आर्यों ने वन-प्रांतरों को अपना ठिकाना बनाया। वहीं रहते हुए प्राकृतिक शक्तियों की अभ्यर्थना के लिए रचे गए मंत्रों को लिपिबद्ध किया। 

वन-प्रांतर में रहने के लिए आग जलाकर बैठना सुरक्षा का भरोसा देता था। प्रकारांतर में उसी से यज्ञों का जन्म हुआ। प्राकृतिक शक्तियों के परामानवीकरण की शुरुआत कदाचित लोगों को यज्ञ का औचित्य समझाने के लिए हुई। सूर्य, वरुण, चंद्र, पूषा, उषा जैसे मानवरूपी देवता गढ़े जाने लगे। इंद्र नामक नायक की परिकल्पना की गई। उसे ‘पुरों को तोड़ने वाला’(पुरंदर) घोषित किया गया(ऋग्वेद 1/103/3)। धीरे-धीरे देवताओं का पूरा कल्पनालोक गढ़ लिया गया। इस तरह सिंधू सभ्यता के भग्नावशेष, इंद्रादि काल्पनिक देवताओं के पराक्रम एवं शौर्य-कथाएं गढ़ने के काम आने लगे। आगे चलकर जैसे-जैसे यज्ञ-संस्कृति का विस्तार हुआ, प्राकृतिक शक्तियों के परामानवीकरण तथा उनकी प्रशस्ति में रचा गया मिथकीय साहित्य, आर्यों के लिए खुद को अनार्यों से विकसित और सभ्य दिखाने का एकमात्र माध्यम बन गया। 

कर्मकांड प्रधान ब्राह्मण संस्कृति में प्रदर्शन, वास्तविकता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण था। संभवत: सिंधू सभ्यता को देखकर जन्मी कुंठा ही उन्हें आडंबरों की शरण में जाने को उकसा रही थी। उसी के चलते इंद्रादि देवताओं के महिमामंडन हेतु ऋग्वेद में आर्य-अनार्य संघर्ष के बड़े-बड़े रूपक गढ़े गए। एक जगह(4/16/13) 50,000 कृष्ण-योनि दासों का युद्धभूमि में संहार करने का उल्लेख है। इसी तरह मंत्र 4/30/21 में 30,000 दासों को माया से मूर्छित कर देने का उल्लेख है। कह सकते हैं कि पुराणों की तरह चामत्कारिक विवरण की शुरुआत ऋग्वेद के समय में ही हो चुकी थी। वर्चस्व की लड़ाई केवल आर्यों और अनार्यों के बीच ही नहीं थी, अपितु आर्यों के बीच भी थी। ऋग्वेद में वशिष्ट और विश्वामित्र के भिड़ंत की कहानी आर्यों में पनप चुकीं दो समानांतर संस्कृतियों के अंतर्द्वंद्व को दर्शाती है।

ऋग्वेद में सुदास और दस राजाओं(कबीलों) के युद्ध तथा उसमें अनार्य कबीलों की पराजय का उल्लेख है। अन्य युद्ध में कृष्णासुर को इंद्र से पराजित दिखाया गया है। इस तरह के और भी कई युद्ध उसमें हैं, जिनमें इंद्र को अनार्यों का वध करते, उनके दुर्गों को ध्वस्त करते हुए बताया गया है। इन्हीं के आधार पर इतिहासकारों की राय बनी कि आर्यों के हमलों से पराजित अनार्य सिंधू कबीले दक्षिण और उत्तर-पश्चिम की ओर पलायन करने लगे थे। लेकिन रमाप्रसाद चंद्रा के अनुसार, ऋग्वैदिक इतिहास का संबंध आर्यों तथा इंद्रपूजक राजाओं के मध्य घरेलू युद्ध से था, न कि आर्यों और अनार्यो के बीच हुए युद्ध से। वे तो यहां तक लिख जाते हैं कि अनार्यों की केवल एक जाति, निषाद इतनी बड़ी संख्या में थी कि उसे समाप्त करना आसान नहीं था। निषाद इतने शक्तिशाली भी थे कि उन्हें दास बनाना अथवा सभी को एक साथ खदेड़ पाना असंभव ही था। इसलिए उन्होंने निषादों से समझौता करने में ही अपनी भलाई समझी।8 सिंधूघाटी की बसावट से जुड़े आंकड़े भी रमाप्रसाद चंद्रा के निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं। 

2000 ईस्वीपूर्व में भारतीय प्रायद्वीप की कुल जनसंख्या अनुमतः 60 लाख थी। उसमें से 50 लाख लोग सिंधू-क्षेत्र के अधिवासी थे। उस जनसंख्या में 9.4 प्रतिशत प्रति शताब्दी की दर से वृद्धि हो रही थी।9 इस तरह 1500-1600 ईस्वी पूर्व में, जब आर्यों ने भारत-भूमि पर कदम रखा, यहां की कुल जनसंख्या लगभग 85 लाख थी। उनमें 70 लाख से अधिक लोग सिंधू घाटी में रखते थे। 20-22 लाख वर्ग किलोमीटर में फैली, इतनी बड़ी जनसंख्या को, कुछ सौ या हजार की टुकड़ियों में जब-तब आने वाले आर्य विस्थापित नहीं कर सकते थे। इसलिए आर्यों को यदि सिंधू-क्षेत्र खाली करना पड़ा तो उसके पीछे आर्यों के हमलों से कहीं ज्यादा, कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों का योगदान था। सिंधू-सभ्यता के निवासियों का मुख्य व्यवसाय खेती था; और मौसम पर आधारित खेती की अपनी विडंबनाएं होती हैं। कभी बाढ़ तो कभी सूखा। जाहिर है कि जैसे-जैसे सिंधू-परिक्षेत्र की जनसंख्या बढ़ रही थी, बाढ़-क्षेत्र में खेती की अनिश्चितता उन्हें सुरक्षित ठिकानों की खोज के लिए प्रेरित कर रही थी। कह सकते हैं कि बेहतर ठिकानों की खोज ने ही अनार्यों को गंगा और यमुना के मैदानों तक पहुंचा दिया था। यह विस्थापन आर्यों के भारत आगमन के बाद आरंभ नहीं हुआ था। अपितु सिंधू सभ्यता के आरंभिक दौर में ही आरंभ हो चुका था।

हड़प्पा सभ्यता को लेकर नए पुरातात्विक शोध भी इसकी पुष्टि करते हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा राखीगढ़ी के उत्खनन को लेकर जारी रिपोर्ट के अनुसार, सिंधू घाटी सभ्यता उत्तर जम्मू और कश्मीर की तलहटी में बसे मंदा तथा ऊपरी अफगानिस्तान के शोर्तुघाई से लेकर, दक्षिण में देमावाड़ तक 1600 किलोमीटर तथा पूरव में आलमगीरपुर से लेकर पश्चिम में सुक्ताघर डोई तक 1600 किलोमीटर से अधिक में उसका विस्तार था। सिंधू सभ्यता के दो प्रमुख नगरों, मोहेंजो-दरो और राखीगढ़ी के बीच ही 1000 किलोमीटर से अधिक का फासला है।10  रिपोर्ट के अनुसार 1800 ईस्वी के आसपास उस क्षेत्र को भीषण सूखे का सामना करना पड़ा था। वर्षों लंबे सूखे के से परेशान होकर  सिंधूवासी उत्तर-पूरव ओर प्रस्थान करने लगे थे। वही हड़प्पा सभ्यता के पराभव का कारण बना था।11 आधुनिक शोध भी इसकी पुष्टि करते हैं।

दूसरे, यदि आर्यों से पराजय ही अनार्यों के सिंधू क्षेत्र से पलायन का प्रमुख कारण होता तो वे भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर वैसा असर कतई न छोड़ पाते, जैसा आज दिखाई पड़ता है। आर्य संस्कृति का 3000 वर्ष पुराना इतिहास भी उसे मिटा नहीं पाया है। इसमें से हम कुछ की चर्चा करेंगे। पहला है लिंग पूजा। ऋग्वेद(7/21/5, 10/93/3) में आर्येत्तर लोगों के बारे में कहा गया कि वे ‘केवल अपने नियमों का पालन करने वाले’(अन्यवृत) तथा ‘लिंग पूजक’(शिश्नदेवा) थे। सिंधूवासियों की संस्कृति में भी लिंग पूजा का विशेष स्थान था। सिंधू घाटी से विस्थापित अनार्य जहां-जहां गए, वहां उनके साथ लिंग पूजा भी गई। अपने देश में आज भी लिंग पूजा, मूर्ति पूजा का सबसे प्रचलित रूप है। ब्राह्मणों ने ब्रह्मा को भले ही सृष्टि के निर्माता का दर्जा दिया हो, मगर ‘महादेव’ का दर्जा अनार्य देवता ‘शिव’ या ‘पशुपति’ को ही प्राप्त है। गांव-देहात के मंदिरों और पूजा स्थानों पर कोई और मूर्ति हो न हो, शिवलिंग अवश्य दिखाई दे जाता है।

सिंधू सभ्यता में मातृदेवी की पूजा का संकेत भी मिलता है। कुछ स्त्री-मूर्तियां मिलती हैं—‘बहुसम्मत विचार के अनुसार ये महामातृदेवी(महीमाता), या मातृरूप में स्थित प्रकृति की मूर्तियां हैं….यही ऋग्वेद के आदित्यों की माता अदिति हैं। आर्य और अनार्य दोनों प्रकार की भारतीय प्रजा भुइयां आदि ग्रामदेवियों से लेकर आज तक इसी अंबिका या मातृदेवी के नाना रूपों की पूजा करती आई है।’12 कुछ वर्ष पहले तक गांव-देहात में मंदिर हो न हो, मगर कोई न कोई देवी अवश्य होती थी, जिसे कहीं ग्राम देवी कहा जाता था, कहीं चामुंडा तो कहीं कुछ और। निचली जातियां प्रायः उन्हीं देवियों की पूजा करती थीं। आज भी गांवों में ऐसे देवी-स्थान बहुतायत में मिलते हैं। 

सिंधूवासियों का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण योगदान लिपि के क्षेत्र में था। सिंधू घाटी में आने के पहले और यहां आने के बाद, करीब 800 ईस्वी पूर्व तक आर्यों ने जो भी साहित्यिक रचनाएं कीं, वे मौखिक थीं। ई. टॉमस का विचार था कि आर्यों ने ‘विभिन्न देशों में भ्रमण करते हुए किसी लिपि का आविष्कार नहीं किया, किंतु जिस देश में वे जाकर बसे, वहीं की लिपि को अपनी भाषा लिखने के काम में ले लिया।’13 यद्यपि सिंधू लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं गया है। तथापि भाषाशास्त्रियों के अनुसार ब्राह्मी लिपि के कई अक्षरों पर सिंधू लिपि से ही लिए गए हैं। जॉर्ज बुहलर ने अशोककालीन ब्राह्मी लिपि और प्राचीन सिंधू लिपि का तुलनात्मक अध्ययन किया था। उसने एक सूची बनाई थी, तदनुसार ब्राह्मी लिपि के कम से कम 36 अक्षर सिंधू घाटी से प्राप्त लिपि से लिए गए हैं।14 इसके अलावा रक्षावीटिका(गंडा-ताबीज), योग, वृक्षों और पशुओं की देवताओं/अर्धदेवताओं के रूप में पूजा तथा योग जो आज भी भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं—सभी सिंधू-सभ्यता की देन हैं।  बाद में ब्राह्मण संस्कृति ने थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ अपना लिया था।

उपर्युक्त से साफ है कि उत्तर से दक्षिण तक भारत की जनसंस्कृति आज भी सिंधू सभ्यता के प्रभावों से मुक्त नहीं है। फिर इसमें आर्यों का अवदान क्या है? इसे ब्राह्मण संस्कृति क्यों कहा जाता है? इसका एक ही कारण है, भारतीय समाज का जाति और वर्ण-आधारित विभाजन। सभ्यता और संस्कृति के नाम पर जो कुछ है सभी को ब्राह्मणों की देन मान लेने की प्रवृत्ति। यह सब एक दिन में नहीं हुआ। धर्म और अध्यात्म के नाम पर ब्राह्मणों ने संस्कृति और ज्ञान के सभी केंद्रों पर कब्जा कर लिया था। शासक देशी हो या विदेशी जो उनके विशेषाधिकारों की रक्षा का आश्वासन देता, वे उसी के अनुशासन में ढल जाते थे। बाहर से आए शासकों के लिए भी, बजाय पूरे समाज को खुश करने के, मुट्ठी-भर पुरोहित वर्ग को संतुष्ट करके अपने पक्ष में कर लेना आसान था। यही कारण है कि पिछले ढाई हजार वर्षों के इतिहास में अनेक राजा बदले, राजाओं के धर्म बदले, ठिकाने बदले। ब्राह्मण सदैव सत्ता केंद्र में बने रहे। जिस तरह उन्हें राजाओं और शक्ति केंद्रों के बदलने  से कोई फर्क नहीं पड़ता, वैसे ही देवताओं के घटने-बढ़ने, नई पूजा पद्धतियों के शामिल होने या कुछ लोगों द्वारा उनका बहिष्कार किए जाने से भी उनपर कोई फर्क नहीं पड़ता। आज भी, जब तक जाति के नाम पर मिले उनके विशेषाधिकारों को कोई ठेस न पहुंचे, वे हर समझौते के लिए तैयार रहते हैं। प्राप्त विशेषाधिकारों के बल पर वे जो कह दें उसे धर्म मान लिया जाता है; और जो कर दें वह संस्कृति का हिस्सा बन जाता है।

ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भ  

  1.  हिंदू सभ्यता, राधाकुमुद मुखर्जी, राजकमल प्रकाशन, हिंदी अनुवाद वासुदेवशरण अग्रवाल, पंचम संस्करण, पृष्ठ 36।  
  2.  ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ इंडिया, दूसरा संस्करण, ज्यूडिथ ई. वाल्श, स्टेट यूनीवर्सिटी ऑफ न्यू यार्क, पृष्ठ 19।
  3.  हिंदू सभ्यता, राधाकुमुद मुखर्जी, पृष्ठ 37। अक्षरों की बनावट के लिए जॉन मार्शल की द्वारा संपादित मोहेनजो-दरो एंड हड़प्पा सिविलाइजेशन, खंड-दो, पृष्ठ 434-449 को देखा जा सकता है।
  4. हिंदू सभ्यता, राधाकुमुद मुखर्जी, पृष्ठ 22।
  5. उपर्युक्त, पृष्ठ 48। 
  6. उपर्युक्त, पृष्ठ 50। 
  7. उपर्युक्त, पृष्ठ 90।
  8. दि इंडो-आर्यन रेसिस, रमाप्रसाद चंद्रा, दि वारेंद्र रिसर्च सोसाइटी, 1916, पृष्ठ-5।
  9. एटलस ऑफ वर्ल्ड पोपुलेशन हिस्ट्री, कॉलिन मेकएवडी और रिचर्ड जोन्स, प्रकाशक फेक्ट ऑन फाइल, न्यू यार्क, पृष्ठ 91।
  10. डॉ. अमरेन्द्र नाथ, एक्सकेवेशंस एट राखीगढ़ी, भारतीय पुरातत्व विभाग विभाग, पृष्ठ 4
  11. उपर्युक्त, पृष्ठ 50-51
  12. हिंदू सभ्यता, राधाकुमुद मुखर्जी, 38। 
  13. उपर्युक्त, पृष्ठ 56।
  14. दि इंडस स्क्रिप्ट, एस. लेंगड़न, मोहेनजो-दरो एंड इंडस सिविलाइजेशन, संपादक जॉन मार्शल, आर्थर प्रोबस्थियन, लंदन, 1931, पृष्ठ 433।

दक्षिण भारत की बहुजन वीरांगनाएं : वेलु नाचियार और कुयिली

विशेष रुप से प्रदर्शित

गलत धारणा है कि इतिहास केवल विजेताओं का होता है। इतिहास उनका भी होता है जिनके हाथों में कलम होती है। तलवार भरोसे जीत हासिल करने वालों को भी इतिहास-सिद्ध बनने के लिए कलमकार हाथों की जरूरत पड़ती है। वे प्रायः उन्हीं व्यक्तियों और घटनाओं को इतिहास में जगह देते हैं, जिनसे उनकी स्वार्थ-सिद्धि होती हो। वेलु नाचियार की जगह रानी लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों के विरुद्ध संग्राम में उतरने वाली पहली वीरांगना घोषित कर देना, ऐसे ही छल का नतीजा है।

इतिहास

तमिलनाडु में एक ऐतिहासिक जिला है—शिवगंगा। राजधानी चैन्नई से 450 किलोमीटर दूर दक्षिण; तथा ऐतिहासिक नगरी मदुरै से 48 किलोमीटर हटकर पूरब में बसा हुआ। पिछले कुछ वर्षों से यह जिला एक और कारण से चर्चा में है। शिवगंगा और मदुरै के बीच कीझदी नामक कस्बे में संगमकालीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उत्खनन के दौरान प्राप्त ‘तमिल-ब्राह्मी लिपि’ के अक्षरों की बनावट, सिंधु लिपि से मेल खाती है। उससे सिंधु सभ्यता और द्रविड़ सभ्यता के अंतःसंबंधों को समझा जा सकता है। शिवगंगा का पुराना नाम सेतुनाडु था। वह ‘नायक साम्राज्य’ द्वारा स्थापित 72 छावनियों में एक थी। नायक अधिपति अपने नाम के आगे ‘सेतुपति’ लगाते थे। संस्कृत कृति ‘रघुनाथअभ्युदम’ के अनुसार उनकी गिनती शूद्र वर्ग में की जाती है।1

वेलुनाचियार का जन्म

वेलु नाचियार का जन्म 3 जनवरी, 1730 में रामनाथपुरम के राजपरिवार में हुआ था। उसके पिता राजा चेलामुत्तु विजयारगुंडा सेतुपति तथा मां रानी सक्कांदिमुथल नाचियार थीं। माता-पिता की इकलौती संतान वेलु जन्म से ही विलक्षण प्रतिभा की धनी थी। राजा ने उसका लालन-पालन बेटे की तरह किया था। बचपन में वेलु को पढ़ने-लिखने के अलावा हथियार चलाने का भी शौक था। सो कुछ ही अवधि में उसने तलवारबाजी, तीरंदाजी, घुड़सवारी, वलारी(हंसिया फैंकने), सिलंबम(लाठी चलाने) तथा भाला फेंकने जैसी युद्ध कलाओं में महारत हासिल कर ली थी। किशोरावस्था पार करते-करते वह तमिल, फ्रांसिसी, उर्दू, मलयालम, तेलुगू, तमिल और अंग्रेजी भाषा का ज्ञान अर्जित कर चुकी थी। कम उम्र में ही महान तमिल ग्रंथों का अध्ययन कर उसने खुद को अपने पिता का योग्य उत्तराधिकारी सिद्ध कर दिया था। वेलु की प्रतिभा और लगन देख उसके माता-पिता भी बेटे न होने की चिंता को भूल चुके थे।

1746 में 16 वर्ष की अवस्था में वेलु नाचियार के पिता ने उसका विवाह शिवगंगा के महाराज शशिवर्मा थेवर के बेटे मुत्तु वेदुंगानाथ थेवर के साथ कर दिया। शशिवर्मा महत्वाकांक्षी राजा थे। उन्होंने शिवगंगा के आसपास के जंगलों को साफ कराया था, ताकि वहां खेती की जा सके। इसके अलावा जगह-जगह तालाब, सड़कें और मंदिर बनवाकर उन्होंने शिवगंगा को संवारने-सजाने का काम किया था। शशिवर्मा के निधन के उपरांत मुत्तु वेदुंगानाथ थेवर को शिवगंगा का अधिपति बनाया गया। उस समय वेलु नाचियार अपने पति की मित्र, सलाहकार और भरोसेमंद सहयोगी सिद्ध हुईं। कुछ समय बाद दोनों के एक पुत्री का जन्म हुआ। उसका नाम उन्होंने वेलाची नाचियार रखा।

ईस्ट इंडिया कंपनी की नजर

वह समय था जब ईस्ट इंडिया कंपनी दक्षिण में अपने पांव पसारने में लगी थी। आरकोट का नबाव उसके आगे समर्पण कर चुका था। कंपनी की नजर शिवगंगा पर थी। बदलते राजनीतिक घटनाक्रम के चलते रामनाथपुरम और शिवगंगा के शासकों ने नबाव को टैक्स का भुगतान करने से इन्कार कर दिया। इससे आरकोट के नबाव ने ईस्ट इंडिया कंपनी से शिकायत कर दी। अंग्रेज पहले से ही उपयुक्त अवसर की तलाश में थे। नबाव के सहयोग ने उनका काम आसान कर दिया था। शिवगंगा जिले के कालियार कोविल नामक कस्बे में महाकालेश्वर का अति प्राचीन मंदिर था। मुत्तुवेदुंगानाथ थेवर के शासनकाल में उसकी यशकीर्ति चारों-दिशाओं में फैली हुई थी। जून 1772 में मुत्तु वेदुंगानाथ थेवर अपनी दूसरी पत्नी गोरी नाचियार के साथ महाकालेश्वर के दर्शन के लिए गए हुए थे। इस बीच कर उगाही के बहाने आरकोट के नबाव तथा कंपनी की फौजों ने शिवगंगा पर हमला कर दिया।

नबाव और अंग्रेजों के बीच पक रही खिचड़ी की ओर से वेदुंगानाथ सावधान थे। हमले की आशंका को देखते हुए रानी वेलु नाचियार के साथ वे सुरक्षा प्रबंधों में लगे थे। शिवगंगा के चारों और कंटीली झाड़ियों से भरे हुए मैदान थे। हमलों से बचाव के लिए थेवर ने शिवगंगा की ओर आने वाले रास्तों को खुदवाकर जगह-जगह खाइयां बनवा दीं। उपयुक्त स्थानों पर सैनिक चौकियां बनाकर सुरक्षा के इंतजाम किए गए। आखिर वह समय भी आ पहुंचा जिसकी आशंका थी। 21 जून को कर्नल जोसेफ स्मिथ पूरब तथा कैप्टन बिंजोर पश्चिम से आगे बढ़ा। अंग्रेजों तथा नबाव की संयुक्त फौज के आगे शिवगंगा की सुरक्षा के सभी इंतजाम नाकाफी सिद्ध हुए। देखते ही देखते कीरानूर और शोलापुरम चौकियों पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। 25 जून 1772 को मुत्तुवेदुगानाथ थेवर की फौजों तथा अंग्रेजों के बीच निर्णायक युद्ध हुआ। अपने सेनानायकों के साथ राजा ने दुश्मनों का जमकर सामना किया। मगर दो-तरफा हमले में घिरकर उन्हें तथा गोरी नाचियार को अपनी जान गंवानी पड़ी। उनके गिरते ही अंग्रेज फौज ने भीषण मारकाट मचा दी। मंदिर और बस्ती को लूट लिया गया। सैकड़ों स्त्री-पुरुष और बच्चे मौत के घाट उतार दिए गए।

बचाव की कोई संभावना न देख वेलु नाचियार ने अपनी बेटी के साथ शिवगंगा दुर्ग छोड़ दिया। उसके जाते ही दुर्ग पर आरकोट के नबाव ने कब्जा कर लिया। शिवगंगा का नाम बदलकर हुसैन नगर कर दिया गया। उस बदलाव को कंपनी की मंजूरी भी मिल गई। उधर ब्रिटिश और नबाव की सेना से बचती-बचाती, अपने गिने-चुने अंगरक्षकों साथ रानी डिंडीगुल के निकट विरुपाक्षी पहुंची। वहां का राजा गोपाल नायक्कर रानी का हितैषी था। उसने रानी को संरक्षण दिया। कुछ समय बाद रानी के भरोसेमंद सेनानायक पेरिया मुरुंडू तथा चिन्ना मुरुंडू भी वहां पहुंच गए। क्षुब्ध रानी अंग्रेजों से बदला लेने की सोच रही थी। दूसरी ओर अंग्रेजी फौजें उसे खोजती हुई आगे बढ़ रही थीं। बढ़ते हुए खतरे को देख रानी के शुभचिंतकों सेनापति टी. पिल्लई तथा मुरुंडू बंधुओं ने उसे किसी सुरक्षित स्थान पर चले जाने की सलाह दी।

हैदर अली से मुलाकात

उस समय मैसूर पर हैदर अली का शासन था। वह चीते जैसा बहादुर था। अंग्रेज उसके नाम से भी घबराते थे। वेलु नाचियार ने हैदर अली को पत्र लिखा। कुछ ही अवधि के बाद रानी को हैदर अली की ओर से बुलावा आ गया। मुलाकात के लिए डिंडीगुल किले को चुना गया। वेलु जब डिंडीगुल पहुंची तो हैदर अली ने उसका स्वागत रानी की तरह किया। वेलु ने उसे सारे घटनाक्रम के बारे में बताया। कहा कि वह अंग्रेजों को खदेड़कर शिवगंगा की वापसी चाहती है। इससे खुश होकर हैदर अली ने वेलु को 400 पाउंड मासिक की आर्थिक सहायता, 5,000 पैदल सेना, इतने ही घुड़सवार सैनिक और भारी मात्रा में अस्त्र-शस्त्र भी प्रदान किए।2 यही नहीं, रानी वेलु नाचियार के प्रति अपनी मैत्री का भरोसा दिलाते हुए हैदर अली ने वहां एक मंदिर भी बनवा दिया।

उदायल नारीसेना’ का गठन

हैदर अली का समर्थन प्राप्त करने के बाद रानी वेलु नाचियार विरुपाक्षी लौट आई। वहां रहते हुए उसने सेना का गठन किया। अलग से स्त्रियों की सेना बनाई, जिसे उसने उदायल नामक बहादुर स्त्री के नाम पर ‘उदायल नारी सेना’ नाम दिया। उन दिनों वेलु नाचियार शिवगंगा से निकलकर सुरक्षित ठिकाने की तलाश में भटक रही थी। ब्रिटिश सैनिक उसके पीछे लगे थे। उनसे बचते-बचाते वेलु ने अरियाकुरिची कोविल में शरण ली थी। इस बीच उसका पीछा करते हुए अंग्रेज सैनिक वहां पहुंच गए। उन्होंने उदायल से वेलु नाचियार का पता बताने को कहा। उदायल ने साफ मना कर दिया और अकेली ही अंग्रेजों पर टूट पड़ी। क्रुद्ध सैनिकों ने उदायल को वहीं मार दिया।

उसी वीरांगना के नाम पर वेलु ने अपनी नारी सेना का नामकरण किया था। उसने साथ रह रही स्त्रियों को समझाया कि वे पुरुषों से किसी भी मायने में कम नहीं हैं। अवसर आने पर बड़े से बड़े खतरे का सामना कर सकती हैं। वेलु नाचियार महिला सैनिकों को खुद प्रशिक्षण देती थी। अपनी सबसे भरोसेमंद, बहादुर तथा तीक्ष्ण मति कुयिली को उसने नारी सेना का सेनापति नियुक्त किया था।

कुयिली का आत्मबलिदान और शिवगंगा पर जीत

वेलु नाचियार जोर-शोर से सैन्य तैयारियों में जुटी थी। स्त्री और पुरुष सेनाएं प्रातःकाल प्रशिक्षण में जुट जातीं थीं। रानी खुद उसमें हिस्सा लेती थी। उसने स्त्रियों को तलवारबाजी के अलावा ‘हांसिया’ से निशाना लगाने का प्रशिक्षण भी दिया था। 8 वर्षों तक वेलु नाचियार युद्ध की तैयारी में लगी रही। आखिर वह अवसर आ ही गया, जिसकी उसे लंबे समय से प्रतीक्षा थी।

शिवगंगा दुर्ग के भीतर देवी राजराजेश्वरी का मंदिर था। उसमें प्रतिवर्ष दशहरे का उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। देवी-पूजन के समय स्त्रियां बड़ी संख्या में शामिल होती थीं। वेलु नाचियार उसी अवसर का लाभ उठाने का निर्णय किया। उसे अपनी सेनाओं पर भरोसा पर था। उसके बलपर वह कई लड़ाइयां भी जीत चुकी थी। लेकिन अंग्रेजों के पास उस समय के आधुनिकतम हथियार थे। भारी-भरकम सेना थी। उससे पार पाना, असंभव नहीं तो आसान भी नहीं था।

उस समय कुयिली के मस्तिष्क में एक और योजना काम कर रही थी। जिसका अंदाजा स्वयं रानी को भी नहीं था। वह जानती थी कि दशहरे के दिन राज्य-भर की स्त्रियां शिवगंगा के दुर्ग में राजराजेश्वरी देवी की पूजा के लिए जाती हैं। उस दिन दुर्ग के दरवाजे खोल दिए जाते हैं। मंदिर के पास ही अंग्रेजों का शस्त्रागार होने के कारण पुरुषों को उस उत्सव में शामिल होने की अनुमति नहीं होती। दशहरे के दिन जैसे ही दुर्ग का मुख्य द्वार खुला, कुयिली के साथ ‘उदायल रानी सेना’ की वीरांगनाएं भी दुर्ग में प्रवेश कर गईं। वे सब साधारण वस्त्रों में थीं। फूलों और फलों की टोकरियों में उन्होंने अपने हथियार छिपाए हुए थे। अंग्रेजों के सैनिकों को उसकी भनक तक न लगी।

भीतर जाने के बाद वेलु नाचियार को अंग्रेजों के शस्त्रागार का पता लगाने में देर न लगी। दुर्ग में नबाव और अंग्रेजों की बड़ी सेना मौजूद थी। अवसर देख कुयिली की स्त्री सेना ने हमला बोल दिया। अंग्रेज उनसे जूझने लगे, कुयिली के मस्तिष्क में चल रही योजना के बारे में सिवाय उसके किसी को अंदाजा न था। मंदिर में दीपक जलाने के लिए घी का इंतजाम था। भीड़-भाड़ का फायदा उठाकर कुयिली ने अपने सैनिकों से घी को अपने ऊपर उंडेल देने को कहा। घी से तर-बतर होने के बाद, भीड़ का फायदा उठाकर वह शस्त्रागार की ओर बढ़ गई। भीतर जाते ही उसने अपने कपड़ों में आग लगा ली। वहां तैनात रक्षक कुछ समझ पाएं उससे पहले ही शस्त्रागार में आग भड़क उठी। देखते ही देखते पूरा शस्त्रागार आग की लपटों से घिर गया।

इसी के साथ वेलु नाचियार ने अपनी सेना के साथ शिवगंगा किले पर धावा बोल दिया। अंग्रेज उसका युद्ध कौशल देखकर हैरान थे। कुछ ही देर में वे मैदान छोड़कर भागने लगे। किले पर वेलु नाचियार का कब्जा हो गया। कुयिली सहित उन सभी महिलाओं, जिन्होंने उस युद्ध में बलिदान दिया था, को वेलु नाचियार ने अपनी धर्म-पुत्री का दर्जा दिया। युद्ध में अद्वतीय वीरता का प्रदर्शन करने वाले मुरुंडू बंधुओं, पेरिया मुरुंडू तथा चिन्ना मुरुंडू को मंत्री बनाया गया। उसके बाद रानी करीब 10 वर्षों तक शिवगंगा पर शासन किया।

प्रथम महिला बम कुयिली

शिवगंगा की लड़ाई में आत्मबलिदान करने वाली कुयिली को भारत की प्रथम ‘महिला बम’ होने का गौरव प्राप्त है। तमिल नाडु में लोग उसे ‘वीरामंगाई’(बहादुर स्त्री) और ‘वीरदलपति’(बहादुर सेनानायक) कहकर बुलाते हैं। उसका जन्म ‘अरुण्थथियार’ नामक दलित जाति में हुआ था। तमिलनाडु में इस जाति के लोग आमतौर पर मेहनत-मजदूरी और चमड़े का काम करते हैं। कुयिली के पिता का नाम पेरियामुथन और मां का नाम राकू था। दोनों ही खेतिहर मजदूर थे। कुयिली की मां राकू साहसी और बहादुर महिला के रूप में विख्यात थीं। एक बार एक जंगली सांड ने उसके खेत पर हमला कर दिया था। साहसी राकू अकेले ही उससे भिड़ गई। उसी संघर्ष में उसने अपनी जान दे दी। पत्नी की मृत्यु से विक्षुब्ध पेरियामुथुन, कुयिली को लेकर शिवगंगा चला गया। वहां वह मोची का काम करके अपना जीवनयापन करने लगा।

पेरियामुथुन ने कुयिली को उसकी मां की बहादुरी के किस्से सुनाते हुए बड़ा किया था। वह खुद भी बहादुर था। जिन दिनों वेलु नाचियार सैन्य-संगठन के काम में लगी थी —पेरियामुथुन भी उसकी सेना में शामिल हो गया। वेलु नाचियार ने उसे गुप्तचर का काम सौंप दिया। इसी बीच कुयिली और वेलु नाचियार का परिचय हुआ, जो निरंतर घनिष्टता में बदलता गया। पेरियामुथुन और कुयिली रानी के सबसे भरोसेमंद सहयोगियों में थे। वे आवश्यकतानुसार कभी भी, बेरोकटोक रानी के पास आ-जा सकते थे।

कुयिली रानी की निजी सुरक्षा का काम देखती थी। उसने अनेक अवसरों पर रानी के प्राणों की रक्षा की थी। एक रात वेलु नाचियार सोई हुई थी। तभी एक धोखेबाज ने उस पर जान लेवा हमला कर दिया। कुयिली उससे भिड़ गई। उनकी आवाजें सुन हमलावर भाग गया। आवाज सुनकर वेलु नाचियार बाहर आई तो उसने कुयिली को घायल अवस्था में देखा। रानी ने तत्क्षण अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर कुयिली के घावों पर बांध दिया। कुयिली की वीरता, तीक्ष्ण मति की इसके अलावा और भी कई कहानियां हैं।

कुयिली की वीरता और बलिदान की झलक 77 वर्ष बाद झलकारी बाई में भी दिखाई पड़ती है।

ओमप्रकाश कश्यप

1. वी. वरिद्धागिरीसन, दि नायक्स ऑफ तंजोर, एशियन एजुकेशनल सर्विस, दिल्ली 1995, पृष्ठ 26।

2. राज्य सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, शिवगंगा, दिनांक 7 नवंबर, 2017

संत गाडगे महाराज : कीर्तन से क्रांति

विशेष रुप से प्रदर्शित

जीवन चारि दिवस का मेला रे

बांभन(ब्राह्मण)झूठा, वेद भी झूठा, झूठा ब्रह्म अकेला रे

मंदिर भीतर मूरति बैठी, पूजति बाहर चेला रे

लड्डू भोग चढावति जनता, मूरति के ढिंग केला रे

पत्थर मूरति कछु न खाती, खाते बांभन चेला रे

जनता लूटति बांभन सारे, प्रभु जी देति न अधेला रे

पुन्य-पाप या पुनर्जन्म का , बांभन दीन्हा खेला रे

स्वर्ग-नरक, बैकुंठ पधारो, गुरु, शिष्य या चेला रे

जितना दान देवे देव गे ब्राह्मण को देवोगे, वैसा निकरै तेला रे

बांभन जाति सभी बहकावे, जन्ह तंह मचै बबेला रे

छोड़ि के बांभन आ संग मेरे, कह रैदास अकेला रे

                                       —संत रैदास

इन दिनों परिस्थितिकीय असंतुलन सर्वाधिक चिंता का विषय है. होना भी चाहिए. वातावरण में रोज तरह-तरह के जहर घुलकर जिस तरह से उसे विषाक्त कर रहे हैं, यह चिंता वाजिब है. लेकिन एक और किस्म का प्रदूषण होता है. पहले वाले प्रदूषण पर बड़ी-बड़ी पोथियां लिखने वाले, रोज जार-जार आंसू बहाने वाले लोग दूसरी किस्म के प्रदूषण की ओर से चुप्पी साधे रहते हैं. इस प्रदूषण का नाम है—सामाजिक-सांस्कृतिक प्रदूषण. इसे फैलाते हैं, जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्रीयता, रंगभेद जैसे विषाणु. पहली किस्म का प्रदूषण समाज के बीच भेद नहीं करता. उसका असर सभी पर बराबर पड़ता है, हालांकि चपेट में गरीब और निचले वर्ग ही आते हैं, क्योंकि वे उससे जूझने लायक संसाधन नहीं जुटा पाते. दूसरे प्रकार का प्रदूषण समाज को नीची जाति-ऊंची जाति, स्वामी-मालिक, निदेशक-अनुपालक आदि में बांट देता है. पहली प्रकार के प्रदूषण से निपटने के लिए समाज की सामूहिक चेतना काम करती है. दूसरे प्रदूषण से निपटने के लिए केवल प्रभावित वर्गों को आगे आना पड़ता है. संघर्ष के दौरान उन्हें शीर्षस्थ वर्ग जो उस विकृति का लाभकारी, परजीवी वर्ग है—उसका विरोध भी सहना पड़ता है. इसलिए दूसरे प्रदूषण से मुक्ति आसान नहीं होती. ऐसे में जो लोग तमाम अवरोधों और मुश्किलात के बावजूद अपने अनथक संघर्ष द्वारा, धूल अटी संस्कृति को थोड़ा-भी साफ कर पाते हैं, मनुष्यता का इतिहास उन्हें संत, महात्मा, महापुरुष, युगचेता, युगनायक आदि कहकर सहेज लेता है. ऐसे ही कर्मयोगी संत थे—गाडगे महाराज. जिन्हें हम संत गाडगे या गाडगे बाबा के नाम से भी जानते हैं.

मराठी में ‘गाडगा’ का अर्थ है—खप्पर. टूटे हुए घड़े या हांडी का नीचे का कटोरेनुमा हिस्सा. गाडगे महाराज की वही एकमात्र पूंजी थी. कहीं जाना हो तो उसे अपने सिर पर रख लेते. हाथ में झाड़ू लगी होती. जहां भी गंदगी दिखाई पड़ती, वहीं झाड़ू लगाने लगते. कोई कुछ खाने को देता तो उसे गाडगा में रखवा लेते. कालांतर में गाडगा और झाड़ू ही उनकी पहचान बन गई. झाड़ू से बाहर की सफाई. विचारों से लोगों के मन में जमा उस मैल को साफ करने की कोशिश, जो सैकड़ों वर्षों से उनके मन में जमा था. जिसे हमने दूसरी श्रेणी के प्रदूषण के लिए जिम्मेदार माना है. गांव में एक दिन से ज्यादा ठहरते नहीं थे. रोज नया गांव, नई जगह की सफाई. नए-नए लोगों को सदोपदेश.

संत गाडगे का असली नाम था, डेबुजी झिंगराजी जाणोरकर. उनका जन्म 23 फरवरी 1876 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के शेड्गांव के धोबी परिवार में हुआ था. पिता का नाम था, झिंगराजी और मां थीं—साखूबाई. गरीब परिवार था. जब शिक्षा की उम्र थी, तब उन्हें गृहस्थी चलाने में परिवार की मदद करनी पड़ती थी. चुनौतियां बस इतनी नहीं थीं. आठ वर्ष की अवस्था में उनके पिता का साया सिर से उठ गया. मां ने उन्हें अपने भाई के यहां भेज दिया. मामा खेती-बाड़ी करते थे. डेबू जी भी उनके साथ खेतों पर जाने लगे. वे शरीर से हृष्ट-पुष्ट और परिश्रमी थे. सो कुछ ही दिनों में मामा की खेती संभाल ली. युवावस्था में कदम रखने के साथ ही उनका विवाह कर दिया गया. पत्नी का नाम था, कुंतीबाई. दोनों के चार बच्चे हुए. उनमें दो लड़के और दो बेटियां थीं. उस समय तक डेबुजी खेतों में काम करते. खूब मेहनत करते. साहस उनमें कूट-कूट कर भरा था. जरूरत पड़ने पर आततायी से अकेले ही भिड़ने का हौसला रखते थे.

उन दिनों खेती करना आसान बात न थी. जमींदार लगान और साहूकार ब्याज के बहाने किसान की सारी मेहनत हड़प लेता था. कई बार किसान के पास अपने खाने तक को अनाज न बचता था. डेबुजी को यह देखकर अजीब लगता था. एक बार जमींदार का कारिंदा उनके पास लगान लेने पहुंचा तो किसी बात पर डेबुजी का उनसे झगड़ा हो गया. हृष्ट-पुष्ट डेबुजी ने कारिंदे को पटक दिया. उस शाम घर पहुंचने पर उन्हें मामा की नाराजगी झेलनी पड़ी. कुछ दिनों के बाद उनके मामा का भी देहावसान हो गया. डेबुजी के लिए वह बड़ा आघात था. सांसारिक सुखों के प्रति आसक्ति पहले ही कम थी. मामा की मृत्यु के बाद तो उनपर वैराग्य-सा छा गया. डेबुजी को भी समझ में आ गया कि किसानों और मजूदरों की लूट की असली वजह लोगों की अशिक्षा है. लोग गरीबी के असली कारण को जानने के बजाए, उसे अपना भाग्यदोष मानकर चुप हो जाते हैं. बीमार पड़ते हैं तो वैद्य-हकीम से ज्यादा गंडे-ताबीज पर भरोसा करते हैं. 1905 में उन्होंने अपना घर छोड़ दिया. उसके बाद 12 वर्षों तक लगातार भटकते रहे. आरंभ में उनकी यात्रा ईश्वर की खोज को समर्पित थी. लेकिन मंदिरों और शिवालयों में धर्म की धंधागिरी देख पारंपरिक धर्मों से उनका विश्वास उठ गया. उसके बाद उन्होंने अपना समूचा जीवन मनुष्यता की सेवा को समर्पित कर दिया.

संत रविदास और कबीर का प्रभाव था. सो सीधी नजर समाज में व्याप्त गंदगी पर पड़ती थी. वे देखते कि लोग अशिक्षा के कारण अज्ञानता में फंसे हैं. अज्ञानता उन्हें जाति की मार सहने को मजबूर करती है. वही सामंत की चाटुकारिता को विवश करती है. वही समाज में व्याप्त तरह-तरह की रूढ़ियों और अंधविश्वास का कारण है—‘उससे उद्धार का एकमात्र रास्ता है—शिक्षा. इसलिए शिक्षित बनो और बनाओ.’ सादगी उनका जीवन थी. झाड़ू उठाए वे गांव-गांव घूमते. जहां जाते, वहां सफाई में जुट जाते. फकीरनुमा आदमी को सफाई करते देख, लोग कौतूहलवश सवाल करते—‘शाम को कीर्तन होगा, आ जाना.’ इतना कहकर वे पुनः सफाई में लग जाते. ‘कीर्तन के लिए गांव में साफ-सुथरे ठिकाने है’—लोग कहते. ‘हमें सिर्फ अपना घर नहीं, पड़ोस भी साफ रखना चाहिए.’ गाडगे महाराज बातों-बातों में सामूहिकता की महत्ता बता देते. शाम को कीर्तन होता. उसमें वे लोगों को सफाई का महत्त्व समझाते. अशिक्षा, रूढ़ि, धार्मिक-सामाजिक आडंबरों की आलोचना करते. मौज में होते तो ‘गाडगा’ को ही वाद्ययंत्र बना लेते. लकड़ी की मदद से उसे बजाते-बजाते अपनी ही धुन में खो जाते. लोगों को समझाते—‘मनुष्यता ही सच्चा धर्म है. मनुष्य होना सबसे महान लक्ष्य है. इसलिए मनुष्य बनो. भूखे को रोटी दो. बेघर को आसरा दो. पर्यावरण की रक्षा करो.’ कीर्तन करते-करते कभी उनमें कबीर की आत्मा समा जाती तो कभी संत रविदास उनकी जिव्हा पर उतर आते. एक जगह काम पूरा हो जाता तो ‘गाडगा’ को सिर पर औंधा रख, फटी जूतियां चटकाते हुए, किसी नई बस्ती की ओर बढ़ जाते. फटेहाल अवस्था, मिट्टी के कटोरे और झाड़ू के साथ देखकर कई बार लोग उन्हें पागल समझने लगते. विचित्र भेष के कारण आवारा कुत्ते उनपर भौंकते. लोग हंसी उड़ाते, मगर आत्मलीन गाडगे बाबा आगे बढ़ते जाते थे. कोई उनकी वेशभूषा को लेकर सवाल करता तो मुस्कराकर कहते—‘इंसान को हमेशा सीधा-सादा जीवन जीना चाहिए. शान-शौकत उसे बरबाद कर देती है.’

विदेशों में व्यक्ति की महानता का आकलन उसकी योग्यता और लोकहित में किए गए कार्यों द्वारा किया जाता है. भारत में योग्यता और सत्कर्म दूसरे स्थान पर आते हैं. पहले स्थान पर आती है, उसकी जाति. ब्राह्मण की संतान को जन्म से ही सबसे ऊपर की श्रेणी में रख दिया जाता है और जो शूद्र और अंतज्य हैं, उन्हें सबसे निचली श्रेणी प्राप्त होती है. इसलिए एक शूद्र को समाज में अपनी योग्यता को स्थापित करने के लिए, न केवल अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है, अपितु चुनौतियों के बीच अपनी योग्यता भी प्रमाणित करनी पड़ती है. गाडगे बाबा का हृदय करुणा से आपूरित था. स्वार्थ के नाम पर निरीह पशु-पक्षियों की बलि देना उन्हें स्वीकार्य न था. वे उसका विरोध करते. जरूरत पड़ने पर उसके लिए परिजनों और पड़ोसियों से भी लड़ जाते थे. ईश्वर और धर्म की उनकी अपनी परिभाषा थी. लोग धर्म के बारे में सवाल करते तो कहते—‘गरीब, कमजोर, दुखी, बेबस, बेसारा और हताश लोगों की मदद करना, उन्हें हिम्मत देना ही सच्चा धर्म है. वही सच्ची ईश्वर भक्ति है.’ ईश्वर को प्रसन्न करना है तो—‘भूखे को रोटी, प्यासे को पानी, वस्त्रहीन को वस्त्र तथा बेघर को घर दो. यही ईश्वर सेवा है.’

पूरी तरह निस्पृह जीवन था. कहते थे कि, ‘अगर आप दूसरों के श्रम पर सिर्फ अपने लिए जिएंगे तो मर जाएंगे. लेकिन यदि आप अपने श्रम से, दूसरों के लिए जिएंगे तो अमर हो जाएंगे.’ कई बार गांव वाले भोजन के साथ कुछ पैसे भी थमा देते. उन पैसों को वे जोड़ते चले जाते. जब पर्याप्त रकम जमा हो जाती तो लोगों की जरूरत के हिसाब से जमाराशि को स्कूल, धर्मशाला, अस्पताल, सड़क आदि बनाने पर खर्च कर देते थे. अपने विचारों को सीधी-सरल भाषा में व्यक्त करते. यह मानते हुए कि धर्मप्राण लोग शब्द-कीर्तन पर ज्यादा विश्वास करते हैं, इसलिए अपने विचारों के बारे में कीर्तन के माध्यम से लोगों को समझाते. कहते कि मंदिर-मठ आदि साधु-संतों के अड्डे हैं. ईश्वर, आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग-नर्क जैसी बातों पर उन्हें विश्वास ही नहीं था. आंख मूंदकर राम नाम जपने या रामनामी ओढ़ लेने को वे पंडितों का ढोंग बताते थे. पंढरपुर भक्तिमार्गी हिंदुओं का बड़ा तीर्थ है. गाडगे महाराज प्राय: वहां जाते. लेकिन विट्ठल भगवान के दर्शन करने के लिए लोगों को मानव-धर्म का उपदेश देने के लिए. उनके लिए मानव-धर्म का मतलब था—’प्राणिमात्र के प्रति करुणा की भावना.’   

उनके जीवन की एक रोचक घटना है. गाडगे महाराज को मथुरा जाना था. उसके लिए मथुरा जाने वाली गाड़ी में सवार हो गए. सामान के नाम पर उनका वही चिर-परिचित ‘गाडगा’, लाठी, फटे-पुराने चिथड़े कपड़े और झाड़ू था. रास्ते में भुसावल स्टेशन पड़ा तो वहीं उतर गए. कुछ दिन वहीं रुककर आसपास के गांवों में गए. वहां झाड़ू से सफाई की. कीर्तन कर लोगों को उपदेश दिए. मथुरा जाने की सुध आई तो वापस फिर रेलगाड़ी में सवार हो गए. इस बार टिकट निरीक्षक की नजर उनपर पड़ गई. गाडगे बाबा के पास न तो टिकट था, न ही पैसे. टिकट निरीक्षक ने उन्हें धमकाया और स्टेशन पर उतार दिया. उससे यात्रा में आकस्मिक व्यवधान आ गया. लेकिन जाना तो था. देखा, स्टेशन के पास कुछ रेलवे मजदूर काम रहे हैं. डेबुजी उनके पास पहुंचे. कुछ दिन मजदूरों के साथ मिलकर काम किया. मजदूरी के पैसों से टिकट खरीदा और तब कहीं मथुरा जा पाए.

जीवन में वे डॉ. अंबेडकर, गांधी सहित अपने समय के कई प्रगतिशील नेताओं से उनका संपर्क था.  सभी ने गाडगे जी के कार्यों की सराहना की. वे अंबेडकर से वे 15 वर्ष बड़े थे. डॉ. अंबेडकर ने दलितोद्धार के लिए आंदोलन आरंभ किया तो डेबुजी भी अपनी तरह जुट गए. मगर उसके लिए रास्ता नहीं बदला. अपने कीर्तन के माध्यम से वे मनुष्य की समानता और स्वतंत्रता का समर्थन करते. छूआछूत को अमानवीय बताकर उसकी आलोचना करते. लोगों को सामाजिक कुरीतियों से दूर रहने की सलाह देते. डॉ. अंबेडकर का साधु-संतों से दूर ही रहते थे. परंतु संत गाडगे के कार्यों की उपयोगिता को वे समझते थे. दूर-दराज के गांवों में, अत्यंत विषम परिस्थितियों में रह रहे दलितों के उद्धार का एकमात्र रास्ता है कि उनके बीच रहकर लोगों को समझाया जाए. उन्हीं की भाषा में, उनके करीब रहते रहते हुए. संत गाडगे यही काम करते थे. इसलिए दोनों समय-समय पर मिलते रहते थे.

हिंदू धर्म में साधुओं की कमी नहीं है. एक आम साधु-संत के पास पैसे जाएं तो वह सबसे पहले मंदिर बनवाता है, या फिर धर्मशालाएं, ताकि बैठे-बैठाए जीवनपर्यंत दान की व्यवस्था हो जाए. गाडगे बाबा ने अपने लिए न तो मंदिर बनवाया, न ही मठ. एक सच्चा, त्यागमय और निस्पृह जीवन जिया. कभी किसी को अपना शिष्य नहीं बनाया. रवींद्रनाथ के एकला चलो के सिद्धांत पर वे हमेशा अकेले ही आगे बढ़ते रहे. उनके कार्यों और उपदेशों से प्रभावित होकर लोग कई बार उन्हें रोकने का प्रयास करते. इसपर वे मुस्करा कर कहते—‘नदिया बहती भली, साधू चलता भला. धीरे-धीरे उनका यश बढ़ता जा रहा था. कीर्तन में सभी वर्गों के लोग आते थे. उनसे कभी-कभी मोटी दक्षिणा भी हाथ लग जाती. उसे वे ज्यों का त्यों संस्थाओं के निर्माण के नाम पर खर्च कर देते थे. शिक्षा के बारे में बात होती तो कहते—‘शिक्षा बड़ी चीज है. पैसे की तंगी आ पड़े तो खाने के बर्तन बेच दो. औरत के लिए कम दाम की साड़ियां खरीदो. टूटे-फूटे मकान में रहो. मगर बच्चों को शिक्षा जरूर दो.’ धनी लोगों को समझाते—‘शिक्षित करने से बड़ा कोई परोपकार नहीं है. गरीब बच्चों को शिक्षा दो. उनकी उन्नति में मददगार बनो.’ दान में मिले पैसों की पाई-पाई जोड़कर उन्होंने लगभग 60 संस्थाओं का निर्माण कराया. सारा पैसा उन्होंने गरीबों के लिए स्कूल खोलने, अस्पताल और ब्रद्धाश्रम बनवाने, धर्मशालाएं परिश्रमालय, वृद्धाश्रम बनवाने पर खर्च करते रहे.

संत गाडगे जी की 13 दिसंबर 1956 को अचानक तबियत खराब हुई और 17 दिसंबर 1956 को बहुत ज्यादा खराब हुई, 19 दिसंबर 1956 को रात्रि 11 बजे अमरावती के लिए जब गाड़ी चली तो रास्ते में ही उनकी तबियत बिगड़ने लगी. गाड़ी में सवार चिकित्सकों ने उन्हें अमरावती ले जाने की सलाह दी. लेकिन गाड़ी कहीं भी जाए, गाडगे बाबा तो अपने जीवन का सफर पूरा कर चुके थे. बलगांव पिढ़ी नदी के पुल पर गाड़ी पहुंचते-पहुंचते मध्यरात्रि हो चुकी थी. उसी समय, रात्रि के 12.30 बजे अर्थात 20 दिसंबर 1956 को उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली. संत गाडगे सच्चे संत थे. दिखावा उन्हें नापसंद था. अपने अनुयायियों से अकसर यही कहते, मेरी मृत्यु जहां हो जाए, वहीं मेरा संस्कार कर देना. न कोई मूर्ति बनाना, न समाधि, न ही मठ या मंदिर. लोग मेरे जीवन और कार्यों के लिए मुझे याद रखें, यही मेरी उपलब्धि होगी. गाडगे ही इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार जिस जगह किया गया, वह स्थान गाडगे नगर कहलाता है. आज वह वृहद अमरावती शहर का हिस्सा है.

ओमप्रकाश कश्यप

बुद्धिवाद की प्रासंगिकता

विशेष रुप से प्रदर्शित

—ई.वी. रामासामी पेरियार

(बुद्धिवाद की प्रासंगिकता पर यह भाषण पेरियार ने 22 जून 1971 को कोयंबटूर जिले के मेट्टुपलायम नामक कस्बे में दिया था। अवसर था, ‘तर्कवादी संगठन’ (रेशनलिष्ट एसोशिएसन) के उद्घाटन का। भाषण में वे ईश्वर, धर्म, महाकाव्य, पुराण, धर्मशास्त्र आदि ब्राह्मणवाद के विभिन्न रूपाकारों की बेबाक समीक्षा करते हैं। हर उस चीज पर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से विचार करते हैं, जो मनुष्य को भीरू और बौद्धिक दास बनाकर उसकी अज्ञानता; प्रकारांतर में शोषण की नींव तैयार करती है। यह भाषण उनके वैचारिक सातत्य का उदाहरण भी है। उससे सात दशक पहले, 1922 में पेरियार ने कहा था कि ‘रामायण’ और ‘मनुस्मृति’ को आग के हवाले कर देना चाहिए। 1925 में उन्होंने सलाह दी थी कि बड़ी-बड़ी मूर्तियों को नदी किनारे रख देना चाहिए, जहां वे गंदे कपड़े धोने, पछारने के काम आ सकें। 1930 में ‘दि रामायण: ए ट्रू रीडिंग’ की रचना की। 1956 में राम की तस्वीरों का दहन किया। मूर्तियां तोड़ने का आंदोलन भी चलाया। आरंभ में वे केवल हिंदू धर्म और ब्राह्मणवाद के आलोचक थे। आगे चलकर उन्होंने संपूर्ण धर्मसत्ता को आलोचना के दायरे में ले दिया। उनका मानना था कि धर्म, ईश्वर, वर्ण-व्यवस्था, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क, अवतारवाद आदि ब्राह्मणवादी प्रपंच हैं। इनका एकमात्र उद्देश्य सामाजिक विषमता को स्थायी बनाना है। तदनुसार ब्राह्मणों को सर्वेसर्वा मान अधिकार-शून्य और मतिविहीन हो जाना है। इस भाषण में वे राम, कृष्ण, शिव, ब्रह्मा जैसे हिंदुओं के सभी देवताओं पर निशाना साधते हैं। जहां तक कृष्ण की बात है, पेरियार ब्राह्मणों द्वारा सृजित उस ‘कृष्ण’ की आलोचना करते हैं जो ‘गीता’ के बहाने चातुर्वर्ण्य धर्म का समर्थन करता है। यदुओं के वास्तविक नायक, ऋग्वेद में वर्णित दशराज्ञ युद्ध में यदुसेना का नेतृत्व करने वाले, 10000 योद्धाओं के साथ इंद्र से समरांगण में लोहा लेने वाले महानायक कृष्ण, ब्राह्मणों द्वारा गढ़े गए कृष्ण से एकदम अलग हैं।

पेरियार की खूबी है कि वे अपने विचारों को पाठक पर थोपते नहीं है। वे श्रोताओं से निरंतर आग्रह करते हैं कि उनकी कही बातों पर इसलिए विश्वास न करें कि वे कह रहे हैं। अपितु मुक्त मन से उनपर विचार करें। उसके बाद जो जंचे फैसला करें। जिस समय पेरियार ने यह भाषण दिया, वे 92 वर्ष के थे। इस उम्र तक आते-आते मनुष्य प्रायः अपने विचारों के प्रति दुराग्रही हो जाता है। अपने अनुभवों के आगे दूसरों के अनुभव उसे बेमानी लगने लगते हैं। अपने विचार दूसरों पर लादने में उसे कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता। पेरियार इसके अपवाद थे। 92 की उम्र में करीब 3 घंटे धाराप्रवाह, विषय से भटके बगैर बोलना, बगैर ऐसी उदात्त भावना के संभव ही नहीं था।

साथियो!

यहां आकर मैं अत्यंत प्रसन्न हूं। मुझे बताया गया है कि करीब दस वर्ष पहले भी मैं यहां आया था। मुझे भी याद है। लेकिन इससे पहले मैं यहां किस वर्ष आया था, वह मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है। इसके बावजूद मैं खुश हूं। इस बात से खुश हूं कि मुझे आपसे दुबारा मिलने का अवसर दिया गया है। मुझसे पहले यहां कई विद्वान अपनी बात कह चुके हैं। उन सभी के भाषण विचारोत्तेजक थे। कुछ बातें मैं भी आपसे आपसे करना चाहता हूं। आगे मैं जो भी कहूं, उससे पहले मेरा आग्रह है कि मेरी बातों पर, बिना भली-भांति विचार किए हरगिज विश्वास न करें। न ही बिना विचारे उनका अनुसरण करें। मैं बस इतना चाहता हूं कि मैं जो भी कहूं, आप खुले दिमाग से उसपर चिंतन करें। सोचें कि मैंने जो भी कहा है—वह सही है; अथवा नहीं। मेरी बातों में यदि आपको कुछ भी सार्थक लगता है, तभी उसे ग्रहण करें। उसके बाद यदि आपकी इच्छा हो तो उन विचारों को आगे बढ़ाने के लिए जैसा उचित लगे—वैसा कदम उठाएं।

मैंने कहा है, अथवा हमने कहा है—सिर्फ इसीलिए किसी बात पर भरोसा न करें।

किसी व्यक्ति को आखिर क्यों सोचना चाहिए?

मैं आपको बताऊंगा, किसलिए….

हम यहां बुद्धिवाद के प्रचार के लिए आए हैं। हम चाहते हैं कि मनुष्य तर्कशील प्राणी के रूप में जीवनयापन करें। हम अविश्वसनीय और तर्कातीत समझी जाने वाली बातों का प्रचार नहीं करते। न ही हम ईश्वर, ईश्वर की संतान, अवतारों, धर्म, धर्मशास्त्रों, रीति-रिवाजों तथा परंपरा वगैरह के प्रचार में अपना श्रम खपाते हैं। हम केवल उन्हीं चीजों का प्रचार करने में विश्वास रखते हैं, जो आपकी तर्कबुद्धि को हर तरह से स्वीकार्य हो। यदि हमारा समाज तार्किकता और तार्किक मनोवृत्ति को अपना चुका होता, तब चिंता का कोई कारण नहीं था। लेकिन हमारे लोगों को ऐसा करने से रोका गया है।

‘हमने जो कहा है वह आपको सुनना ही चाहिए। हमने जो भी, जैसा भी कहा है वह सब निरा ईश्वरीय कथन है। मैं ईश्वर का ही एक अवतार हूं। इसलिए आपको वही करना चाहिए, जैसा मैं कहता हूं।’—दूसरों पर अपने विचार लादने के लिए इस तरह के भाषण और धार्मिक आख्याएं जरूरी थीं। इनकी मदद से लोगों को स्वतंत्रतापूर्वक सोचने, स्वयं किसी निष्कर्ष तक पहुंचने से रोक दिया गया था। यह आज का चलन नहीं है। आरंभ में मनुष्य तर्क और बौद्धिक सामर्थ्य से संपन्न था। 2000-3000 वर्षों के बाद आज हम आपसे दुबारा वहीं अपील करना चाह रहे हैं कि स्वतंत्र भाव से सोचो, अपने विवेक पर भरोसा रखो। कितने अफसोस की बात है!

आज यहां हमने एक बुद्धिवादी संगठन का उद्घाटन किया है। यह बात स्वयं-सिद्ध है कि यह बुद्धिवादी लोगों की संस्था है। हम यहां जीवनयापन के सही तरीके पर चर्चा करने जा रहे हैं।

वे लोग जो सोचने अथवा तर्कसम्मत आचरण से इन्कार करते हैं, वे पशुओं के समान हैं। यह मैंने किस आधार पर कहा है? जीवित प्राणियों में, पशुओं के पास तार्किक दृष्टिकोण तथा चिंतन-मनन की शक्ति का अभाव होता है। मनुष्य उनकी तरह नहीं है। मानवीय प्राणियों के पास स्वतंत्र विवेक होता है। उनकी चेतना बहुआयामी होती हैं। पेड़-पौधों और झाड़ियों के बारे में कहा जाता है कि उनकी चेतना का स्वरूप एकांगी होता है। समानांतर चेतनाओं यानी अपने से बाहर की दुनिया से वे अनभिज्ञ होते हैं। कीड़े-मकोड़ों तथा अन्यान्य जीवाणुओं के पास दो तरह की संवेदनशीलता होती हैं। तैरने वाले प्राणियों यथा—मछली, व्हेल वगैरह के पास त्रिआयामी संवेदन शक्तियां बताई गई हैं। उड़ने वाले पक्षियों के पास चार प्रकार का संवेदन-सामर्थ्य; तथा घूमने-फिरने वाले जीवों यथा गाय, घोड़ा आदि के पास पांच प्रकार की संवेदन-शक्तियां बताई जाती हैं। बुद्धिवाद यानी तर्क करने की शक्ति, स्वतंत्र भाव से सोचने-समझकर निर्णय लेने की आत्मनिर्भरता, जिसे छठी संवेदन-शक्ति भी कहा जाता है—वह केवल मानवीय प्राणी में ही देखी जाती है।

ऐसे भी जीवित प्राणी हैं जिनमें विशिष्ट शक्तियां होती हैं। कुछ ऐसे प्राणी भी हैं जो उन कार्यों को भी कर सकते हैं, जिन्हें कर पाना मानव-सामर्थ्य से परे है। जैसे कि चींटियां। उनकी सूंघने की शक्ति मनुष्य से बेहतर होती है। पक्षियों को देखिए। वे ऊंची उड़ान भर सकते हैं। लंबी दूरी बहुत कम समय में तय कर सकते हैं। मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता। बंदरों को लीजिए। वे एक जगह से दूसरी जगह तक लंबी छलांग लगा सकते हैं। एक शेर अपने से कहीं बड़े हाथी को धराशायी कर सकता है। इस तरह की और भी अनेक विशेषताएं हैं जो मानवेत्तर प्राणियों में ही पाई जाती हैं। कई ऐसे कार्य हैं जिन्हें मनुष्य नहीं कर सकता, जबकि दूसरे प्राणी उन्हें सहज भाव से; तथा बड़ी मात्रा में कर सकते हैं। लेकिन मनुष्य के भीतर सोचने-समझने तर्क करने की ताकत और अपनी अनुभव तथा मानसिक विकास के अनुसार निर्णय लेने की शक्ति उसे सुखी जीवन जीने का अवसर प्रदान करता है। सोच-समझकर निर्णय लेने की क्षमता सिवाय मनुष्य के अन्य किसी प्राणी के पास नहीं है।

अपनी तर्क-शक्ति से मनुष्य ने अपनी मेधा को निरंतर विकसित किया है। मगर, ऐसा यानी तर्कशक्ति से संपन्न मनुष्य भी अपने तर्क-सामर्थ्य के प्रयोग में असफल होता आया है। इस कमी के कारण अनेक क्षेत्रों में मनुष्य की प्रगति शून्य है। हम द्रविड़ जनों को तो देखते ही पता चल जाता है कि उनमें स्वाभिमान चेतना का अभाव है। इस बात की उन्हें चिंता भी नहीं है। हमारे लोग यह जानते हुए भी कि दूसरे देशों में मनुष्य लगातार आगे बढ़ रहा है—अपनी तरक्की कर पाने में असमर्थ हैं। दूसरे देशों की प्रगति के बारे में हम लगातार पढ़ते ही रहते हैं। उनके से अनेक महान आविष्कार हमारी नजरों के सामने हैं।

हम ‘शूद्र’ हैं।

हमें शूद्र कहा जाता है। शूद्र का आशय है—वेश्या की संतान। यदि हम पूझते हैं यह कैसे? वे कहते हैं कि शास्त्रों में लिखा है; या किसी ने ऐसा कहा था; और बहुत पहले ईश्वर का भी यही कहना था। इस बात को पूरी तरह सच मान लेने के कारण हम अपनी मर्यादा, आत्मगौरव और स्वाभिमान को गंवा चुके हैं। हमें केवल अपनी भूख की चिंता रहती थी। केवल भोजन की चाहत हम रखते थे। हमारी प्रगति को हर लिया गया था। हमें बस उन चीजों की चिंता रहती थी जिनकी मदद से हम जैसे-तैसे अपना जीवन बिता सकें। यह तो पशुओं की विशेषता है। हम भी जानवरों जैसा जीवन बिता रहे हैं।

अपने देश में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं था जो आगे बढ़कर बुद्धिवाद के समर्थन में खड़ा हो पाता। यदि किसी ने तर्कवाद की चर्चा की थी, तो 2000-3000 वर्ष पहले।1 वे जो कहते थे, उनके जमाने के लोग उसपर विश्वास भी करते थे। आज हम बावजूद इसके आजकल कोई उनका सम्मान नहीं करता। हमारे तर्कशील बुद्धिजीवियों को भी आज वे बातें स्वीकार्य नहीं हैं। किसी में भी उनके बारे में सोचने-समझने की हिम्मत नहीं है। ऐसा किसलिए हुआ?

वे बीच में भगवान को ले आए। उन्होंने सृष्टि की निर्मितियों पर बात की। उन्होंने बताया कि केवल ईश्वर ही सर्वशक्तिमान हैं। उन्होंने कहा कि ईश्वर-पुत्रों ने कुछ विशिष्ट उपदेश दिए हैं।  उनके अलावा ईश्वर के संदेश-वाहकों ने भी कुछ बातें कही हैं। ये बातें समाज पर इस तरह थोप दी गई थीं कि मनुष्य का स्वयं विचार करना, स्वतंत्र विवेक से निर्णय लेना अनावश्यक मान लिया गया।

इस तरह की गंदी और रूढ़ धारणाएं मनुष्य के दिलोदिमाग में बैठा दी गई थीं। अब उसका कर्तव्य केवल ईश्वर के नाम पर कही गई बातों पर बगैर सोचे-समझे, विश्वास कर लेना था। हर वस्तु के साथ यह मानकर व्यवहार करना था कि वह ईश्वर प्रदत्त है। इस सोच ने मनुष्य को बौद्धिक रूप से जड़ बनाने का काम किया। हमारे यहां कोई तरक्की न होने का भी यही कारण है। आप पूछ सकते हैं कि यह सब हमारे विकास को कैसे अवरुद्ध करता है? कैसे इसने हमारी प्रगति को नाकाम किया है? विदेशों में मनुष्य, पृथ्वी से करीब 4 लाख किलोमीटर दूर चांद तक जाने लगा है। वे 8000-10000 किलोमीटर प्रति घंटा के हिसाब से उड़ान भरने में सक्षम हैं। सोचने समझने, तर्क करने, अपने मस्तिष्क से काम लेने की क्षमता ने उन्हें इतने सारे आविष्कारों के करने के योग्य बनाया है। क्या हम इस तरह का कोई भी लक्ष्य हासिल करने में सक्षम हैं?

हम मानते हैं कि हमारे पास ऋषि-मुनियों और अवतारों की ढेर सारी शुभकामनाएं, आज्ञाएं, उपदेश, संदेश आदि हैं। हमारे यहां हजारों नेता, ऋषि, मुल्ला, पादरी, धर्माचार्य और सनातनी पंडित हैं। हमारे यहां अनेक धर्म भी हैं। मगर इन सबसे मिला हमें क्या है? सिर्फ अपने बल पर हम कुछ भी करने में सक्षम नहीं हैं। आखिर किसलिए? मनुष्य पहली बार जब इस धरती पर आया, उसे कितने वर्ष बीत चुके हैं? हम यह बताने में असमर्थ हें कि पहला व्यक्ति कब जन्मा था। कुछ शोधकर्ता बताते हैं एक लाख वर्ष पहले। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो बताते हैं कि मनुष्य इस धरती पर 18 लाख वर्ष पहले जन्मा था। कुछ अन्य विद्वानों का दावा है कि मनुष्य उससे भी पहले आया था। इतने वर्षों के दौरान हमने क्या प्राप्त किया है? हमने पिछले सौ वर्षों में अनेक बदलाव देखे हैं। लेकिन उनमें से कितने आविष्कार अपने देश में हुए हैं? इतनी लंबी अवधि में हमें कितना कुछ प्राप्त कर लेना चाहिए था? हम ऐसा करने में असमर्थ क्यों रहे? इतने सारे साधु-महात्माओं और ईश्वरों के अस्तित्व का औचित्य क्या है। क्या मिला है हमें उनसे?

हमारे पास असंख्य ‘महान’ थे। हमारे समाज में कोई भी व्यक्ति बड़ी आसानी से साधु, महात्मा, भक्त या धार्मिक नेता बन सकता है। फिर भी हम अपने भरोसे कुछ भी नया हासिल करने में अक्षम हैं।

वे सभी सुख, सुविधाएं और आराम के संसाधन जिनका हम आनंद उठा रहे हैं, सब के सब दूसरे देशों के वैज्ञानिकों का आविष्कार हैं। हमारे देवताओं को अत्यधिक शक्तिशाली बताया गया है। असलियत में उनकी उपलब्धि क्या है? ईश्वरीय अवतारों से जुड़े मिथकीय आख्यानों में बड़े-बड़े चमत्कारी दावे किए गए हैं। बताया गया है कि कुछ ऐसे भगवान हैं जो पर्वतों से ऐसे खेल सकते हैं मानों गैंद से खेल रहे हों। हमारे देवताओं की अनेक विचित्र गुण हैं। लेकिन क्या बाहरी देशों के लिए हम एक भी चमत्कार दिखा पाए; या मनुष्यता के लिए एक भी मौलिक खोज कर पाए हैं? अभी तक तो नहीं!

यदि यूरोपवासी इस देश में नहीं आते होते तो हमारे देश में माचिस भी नहीं आ पाती। हम अंधेरे में पड़े रहने को मजबूर होते। जीवन ठहरा हुआ होता। हम यात्रा के लिए बैलगाड़ी का इस्तेमाल कर रहे होते। अब आप हवाई जहाज का इस्तेमाल कर सकते हैं? वे सब कहां से आए थे? क्या वे किसी प्रार्थना की देन हैं; अथवा श्लोकों के पाठ से प्राप्त हुए हैं? क्या ये किसी पूजा-पाठ की देन है? नहीं? हरगिज नहीं। ईश्वर की मदद से आप कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते।

यही कारण है कि हम लोगों से अपने विवेक का इस्तेमाल करने, तथा तर्कशील प्राणी के रूप में जीवन जीने का आग्रह करते हैं। ईश्वर के प्रति पारंपरिक अंधश्रद्धा, धर्म, वेद, शास्त्र एवं धर्माचार्यों के प्रति अंधश्रद्धा के कारण आज हमारे लोग अपने सुखमय जीवन के लिए अपेक्षित संसाधन जुटाने में असमर्थ हैं। धार्मिक नेताओं तथा उनकी शिक्षाओं पर आंख मूंदकर भरोसा करने के कारण ही हम दूसरों की अपेक्षा बहुत पीछे हैं।

कुछ वक्ताओं ने हमें हमारे अज्ञान के बारे में बताया है। मत सोचिए कि शास्त्र क्या कहते हैं। धर्माज्ञाएं क्या हैं? हमें बदलना चाहिए। हमें सोचना ही चाहिए। आप ऐसे लोगों को देखते होंगे जो बिल्ली के रास्ता काटने पर उल्टे पांव लौट आते हैं। कुछ देर विश्राम करने के बाद फिर आगे बढ़ते हैं। कारण जानने के लिए आप ऐसे किसी व्यक्ति से पूछ सकते हैं। वह कहेगा कि यह बुरा शकुन है। समाधान के बारे में वह कहेगा कि कुछ देर बैठने के बाद वह फिर आगे जाएगा। जब कोई कौआ कांव-कांव करता है, तब भी ऐसा व्यक्ति आगे बढ़ने से झिझकता है। सोचता है कि अपनी कांव-कांव के जरिए कौआ उसे सावधान कर रहा है। वह मानता है कि पक्षी की बीट पड़ने से वह अपवित्र हो जाएगा। उस अवस्था में वह दूसरों को छूने से इन्कार कर देगा। वह पहने हुए वस्त्रों के साथ ही स्नान करेगा। उसकी ऐसी हरकतें देखकर क्या हम उसे आदमी कह सकते हैं?

ऐसा व्यक्ति मानता है कि दिन का खास समय ही ‘शुभ’ होता है। क्या इस बकवास का, ऐसी भ्रांत धारणा का कोई अर्थ है? इन मूर्खतापूर्ण रीति-रिवाजों का खंडन किसने किया है? कौन है जो ऐसे लोगों को अपने दिमाग से काम लेने की सलाह देता है? अपने ज्ञान और अनुभव से हम कितनी ही वस्तुएं प्राप्त कर सकते थे? लेकिन हमने उनका इस्तेमाल ही नहीं किया। यही कारण कि हम असभ्य दुनिया में रह रहे हैं। मैं बस इतना ही कह सकता हूं।

अच्छा ही हुआ जो विदेशी हमारे देश में आए। उन्होंने साहसपूर्वक कई सुधार लागू किए। उनपर हमारे धर्म और शास्त्रों में हस्तक्षेप करने के आरोप लगाए गए। यदि अंग्रेज यहां नहीं आए होते तो हम आज भी बहुत पिछड़े हुए होते। विदेशियों पर तरह-तरह के आरोप लगाने के पीछे लोगों के अपने स्वार्थ थे। उनके चले जाने के बाद किसी ने भी लोगों को जागरूक करने की कोशिश नहीं की। केवल ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ के हम कार्यकर्ता ही बुद्धिवाद के प्रचार जैसे श्रेष्ठ कार्य हेतु स्वेच्छा से आगे आए थे। यह देखकर कि धर्म और ईश्वर के नाम पर धोखादड़ी और लूट मची हुई है, तथा धर्माचार्य और राजनेता अपनी मनमानी कर रहे हैं—हमने बुद्धिवाद के प्रचार-प्रसार का खतरा मोल लिया है। हमारा मानना है कि बुद्धिवाद का प्रचार-प्रचार ही अंधविश्वासों से मुक्ति का एकमात्र रास्ता है।

हमारी कोशिश समाज के भले के लिए है। हमारे प्रयास मनुष्य को विवेकवान बनाने के लिए हैं। हमने ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ जैसे बुद्धिवादी आंदोलन की शुरुआत की थी। उसके माध्यम से हम लोगों के मन में स्वाभिमान चेतना लाना चाहते थे। चाहते थे कि लोग अपनी अस्मिता के प्रति सजग हो जाएं। जिस समय हमने वह आंदोलन आरंभ किया था, अनेक लोगों ने हमारा विरोध किया था। उन्हीं दिनों एक जिम्मेदार मंत्री ने अपनी सुंघनी सूंघते हुए मुझसे पूछा था—‘आत्मसम्मान से तुम्हारा भला क्या मतलब है? इसका तो नाम ही हास्यास्पद है। कोई भी सुनकर हंसने लगेगा।’

मैंने शांतिपूर्वक उसे उत्तर दिया था—‘इसका हमें भी खेद है। कृपया बताएंगे कि आप क्या हैं?’ उन्होंने पूछा कि मैं उनसे ऐसे प्रश्न क्यों कर रहा हूं? मैंने उनसे पूछा था कि इस समय समाज में उनकी हैसियत क्या है? जातीय अनुक्रम में उनका स्थान क्या है? उन्होंने बताया कि वे मंत्री हैं। यही उनकी उपलब्धि है। आगे उन्होंने बताया था कि जाति से वे रेड्डियार हैं। उन्हें यह बताते हुए कि रेड्डी, गाउंडर, नायडु, नायकर आदि वे नाम हैं जो हमने स्वयं गढ़े हैं, लेकिन शास्त्रों के अनुसार, धर्म और परंपरा के अनुसार हम सभी ‘शूद्र’ यानी चौथा वर्ण हैं। यही लंबे समय से चला आ रहा है। मैंने उनसे कहा कि हमने अपना आंदोलन लंबे समय से चले आ रहे इस अवमाननाकारी विभाजन को खत्म करने के लिए आरंभ किया था। उसके बाद मैंने उनसे पूछा, ‘शूद्र से क्या अभिप्राय है?’ फिर मैंने खुद की उनसे कह दिया—‘शूद्र के मायने हैं, वेश्या की संतान।’

उसके बाद मैंने अपना कथन जारी रखा। मैंने बताया, ‘आप उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। आपने बीए, बीएल की उपाधियां प्राप्त की हैं। आप तीन वर्षों तक मंत्री थे। आज भी आप मंत्री हैं। आप अभी भी ‘शूद्र’ यानी वेश्या की संतान हैं। बावजूद इसके आप अपने हीन सामाजिक स्तर पर शर्मिंदा नहीं है। एक व्यक्ति जो आपके दरवाजे पर भिक्षा मांगने आता है, एक व्यक्ति जो आपके लिए अपनी स्त्रियों को वेश्यावृति में ढकेलने को भी तैयार है—वह ऊंची जाति का होने का दावा करता है। उसे जाति के आधार पर खुद से ऊंचा मान लेते हैं, आप उसके कदमों पर झुक जाते हैं।’

अंत में मैंने उससे पूछा—‘अब आप बताएं, क्या आप ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ की जरूरत महसूस करते हैं या नहीं?’ उसने बस इतना ही कहा था कि यह सब बहुत लंबे समय से चला आ रहा है।

आप स्वयं महसूस करेंगे कि हमारे आंदोलन का उद्देश्य बहुत महान है। हमारा लक्ष्य आसान भी नहीं है। हमें कठिन परिश्रम करना होगा। जख्म हाल का हो तो उसका इलाज करना आसान होता है। लेकिन यह घाव(कैंसर) तो बहुत पुराना है। ऑपरेशन करके अवांछित से मुक्ति पाने के अतिरिक्त इसका और कोई उपचार नहीं है। हमारी सामाजिक बुराइयों की जड़ें बहुत गहरी हैं। इसकी चीर-फाड़ करने के लिए हमें सर्जन की भूमिका में आना ही पड़ेगा।

आत्मसम्मान आंदोलन: एक बुद्धिवादी अभियान

‘आत्मसम्मान आंदोलन’ की विचारधारा क्या है? किस सैद्धांतिकी पर वह टिका है? इसे समझने से पहले हमें वास्तविक समस्या को समझना पड़ेगा। उन चीजों को समझना पड़ेगा जिन्होंने हमें नीचा दिखाया है। उन कारणों की खोज करनी पड़ेगी जिन्होंने हमें लज्जाजनक परिस्थितियों में लाकर खड़ा किया है। हमने देखा है कि ईश्वर की रचना भी हमें लज्जाजनक परिस्थितियों में ढकेलने की एक वजह है, इसलिए हमें ईश्वर को नष्ट कर देना चाहिए। हमने पाया है कि हमें शर्मनाक हालात तक पहुंचाने कांग्रेस पार्टी का भी योगदान रहा है। इसलिए हम कांग्रेस को खत्म कर देना चाहते हैं। हमने मोहनदास कर्मचंद गांधी को भी हमारे हितों के विरुद्ध काम करते हुए देखा था। इसलिए हम उनके प्रभाव-क्षेत्र से उबरना चाहते हैं। इसी तरह हमने देखा है कि हमें इस विपन्नावस्था में पहुंचाने में ब्राह्मणों का बड़ा योगदान है। इसलिए हम उनके विरुद्ध हैं। हमने देखा है कि धर्म एक सामाजिक बुराई है। इसलिए हम धर्म को भी नष्ट कर देना चाहते हैं।

‘आत्मसम्मान आंदोलन’ इन पांचों बुराइयों के विरुद्ध है। संक्षेप में आत्मसम्मान आंदोलन ने धर्म, कांग्रेस, गांधीवाद, ईश्वर और ब्राह्मणों के विरुद्ध संघर्ष की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली है। यही पांचों ताकतें हैं जो समाज में हानिकारक विचार फैलाकर हमारे लोगों को निशाना बनाती हैं। उन्होंने हमारे लोगों को दास बनाया हुआ है। जब तक हम इस पांचों बुरी ताकतों को ध्वस्त नहीं कर देते, तब तक हम अपने लोगों को उनके उत्तरोत्तर बिगड़ते हालात से, भयावह और चुनौतीपूर्ण सामाजिक जीवन से बाहर नहीं ला सकते। हम अपने लोगों के आत्मसम्मान को लौटाने के लिए संकल्परत हैं।

मेरा मतलब यह नहीं है कि हम राजनीति में छलांग लगाने जा रहे हैं। ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ राजनीतिक संगठन नहीं है। यह विशुद्ध रूप से समाज सुधारवादी आंदोलन है। लेकिन यदि ये प्रतिक्रियावादी ताकतें हमारी प्रगति के रास्ते में आएंगीं, हमारे लक्ष्य की बाधा बन खड़ी होंगी—तब उनका विरोध करने के अतिरिक्त हमारे पास अन्य कोई उपाय न होगा। आप जरा कांग्रेसी की नीतियों पर विचार कीजिए। कांग्रेस ने अपनी नीतियों को गांधी, धर्म, जाति तथा ब्राह्मणों के हितों की सुरक्षा के लिए तैयार किया है। ब्राह्मण अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए गांधी की मदद लेना चाहते थे। चूंकि गांधी का सोच पूरी तरह प्रतिक्रियावादी था, इसलिए उन्होंने गांधी को ‘महात्मा’ घोषित किया था। गांधी ब्राह्मणों के साथ हमेशा खड़े होते थे।

एक शराबी और विक्षिप्त व्यक्ति की भांति गांधी हमेशा ईश्वर, धर्मशास्त्र, वर्णाश्रम धर्म, राम और हिंदू धर्म पर बातें करते थे। लोगों पर उनके प्रचार का कुछ असर भी था। आज सभी पत्र-पत्रिकाएं ब्राह्मणों के एकल प्रभाव में हैं। हमारे पास अपनी कोई प्रभावशाली पत्रिका नहीं है। उनके प्रचारतंत्र ने हमारे लोगों को अपने प्रभाव में ले लिया है। जैसे ही किसी ब्राह्मण का जिक्र होता है, उनके मन में आदरभाव उमड़ आता हैं। यही कारण है कि हमने ब्राह्मणवाद को समाज से उखाड़ फैंकने की कसम खाई है। धर्म और ईश्वर दोनों को समाज से बाहर खदेड़ देना चाहिए। गांधी जिन्होंने हमेशा ही वर्णाश्रम व्यवस्था का पक्ष लिया था, का विरोध होना चाहिए। जो सरकार उन सबका, कानून की ताकत के साथ जोरदार समर्थन करती है, उसे बदल देना चाहिए। जो ब्राह्मण विभेदकारी वर्णव्यवस्था के समर्थक हैं, जो जाति के नाम पर अपने विशेषाधिकारों को सुरक्षित रखना चाहते हैं—उन्हें कड़वा पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। चारों ओर शर्मनाक घटनाएं घट रही हैं।

आप कृपया इन बातों पर विचार कीजिए। मैंने जो कहा वह सही है या नहीं, इसपर सोचिए। मेरे विचार किसी शास्त्र या वेद पर केंद्रित नहीं हैं। मैं बस वही कहता हूं जो मेरे मस्तिष्क को सही जंचता है। आपके पास भी तर्क और विवेचन का सामर्थ्य है। सोचिए….लगातार सोचिए। यदि आपको लगता है कि मैंने जो कहा, उसमें सचाई है, तो उसे अपना लीजिए। नहीं तो जाने दीजिए। मैं अपने विचार किसी ऐसे व्यक्ति पर नहीं थोपना चाहता जिन्हें वे पसंद न हों। दूसरों को अपने इशारों पर हांकने की मेरी  कोई इच्छा नहीं है।

मैं बस आपको इतनी याद दिलाना चाहता हूं कि आप सभी के पास अपना स्वतंत्र विवेक है। उसकी मदद से आप तथ्यों की विवेचना कर सकते हैं। उनके पीछे निहित अच्छे और बुरे की पहचान कर सकते हैं। इसके लिए मैं आपके ऊपर कोई दबाव बनाना नहीं चाहता। मैं तो आपका ध्यान केवल इस तथ्य की ओर दिलाना चाहता हूं कि ब्राह्मणवाद के विनाशकारी औजारों ने आपको विचारहीन गुलाम में बदल दिया है। आप अपनी सोचने-समझने की ताकत गंवा चुके हैं। यही कारण है कि मैं समाज के पुनर्गठन की आवश्यकता पर जोर देता हूं। अनेक नेताओं ने अपने बेहतर जीवन के लिए दूसरे रास्तों को चुना है। वे स्वार्थी हैं। मैं अपने मकसद को लेकर थोड़ा जिद्दी हूं।

तर्कवाद

हमारे समाज को क्रांतिकारी नीतियों की आवश्यकता है। इसके लिए समाज में बुद्धिवाद के प्रचार-प्रसार में तेजी लानी होगी। इस पुनीत उद्देश्य हेतु हमने ‘तर्कवादी मंच और संगठन’(रेशनलिष्ट फोरम एंड एसोशिएसन) का गठन किया है। कुछ ऐसे लोग भी हो सकते हैं जिन्हें इस ‘तर्कवादी संगठन’ के विस्तार से परेशानी हो। जो नहीं चाहते हों  कि यह मंच फले-फूले। वे यह दुष्प्रचार कर सकते हैं कि हमारा आंदोलन अमुक व्यक्ति अथवा वस्तु के विरुद्ध है। मैं आपको स्पष्ट रूप से बता देना चाहता हूं। वस्तु या विचार विशेष के विरुद्ध हम चाहे हों, या न हों। लेकिन हम न तो कभी न्याय के विरुद्ध हो सकते हैं, न ही कभी तर्क की उपयोगिता पर सवाल खड़े कर सकते हैं। हमने अपने संगठन को ‘तर्कवादी संगठन’ का नाम दिया है। यह आपके ऊपर है कि आप अपने बारे में क्या सोचते हैं। आप सोचें, बस इतनी ही हम आपसे अपेक्षा रखते हैं। वस्तुतः यही एकमात्र यही श्रेष्ठ कार्य है जिसे आपको नि:संकोच करना ही चाहिए।

जरा देखें, दूसरे लोग क्या कर रहे हैं। समानधर्मा लोगों के साथ मिलकर वे आज भी कुटिल कर्मों में संलिप्त हैं। उन्होंने ‘वर्णाश्रम धर्म संगठन’ आरंभ किया है। उसका उद्देश्य जाति-व्यवस्था को संरक्षण प्रदान करना है। उन्होंने ‘सनातनी संघों’ का गठन किया है, जिससे वे प्राचीन रीति-रिवाजों और परंपराओं को बचाए रखना चाहते हैं। वे ऊंची आवाज में रामकथा की महिमा बखानते हैं। कृष्ण के उपदेशों की बढ़ाई करते हैं और ऐसे ही निरर्थक कार्यों में लगे रहते हैं। इस काम के बदले वे अपने लिए विशेषाधिकारों का दावा करते हैं। वे आपको स्वतंत्र रूप से सोचने-विचारने की अनुमति नहीं देते। ईश्वर, धर्म, धर्माचार्यों तथा दूसरी वस्तुओं के बारे में अभी तक जो कहा गया है, वे आपको उसपर सोचने का अधिकार नहीं देते। उनका यह कहना गलत है कि हमारा अभियान उनके ईश्वर, धर्म और धर्मशास्त्रों के विरुद्ध है। वे चीख-चीख कर कहते हैं कि हमारा आंदोलन उनकी भावनाओं को क्षति पहुंचा रहा है। कि हमारी बातों से उनकी भावनाएं आहत होती हैं। इस सब का हमारे लिए इसका क्या मतलब है? बस इतना कि वे जितना नीचा गिरते हैं, गिरने दो।

आखिर हम कब तक सहन कर सकते हैं कि कोई ‘शूद्र’ कहकर हमारी अवमानना करे। मुझे अपने लोगों की बेहद चिंता है। आखिर कब तक हम हर तरह के अपमान को गर्दन झुकाकर सहते रहेंगे? ब्राह्मण जो कहते हैं, उसपर हम और कब तक आंखें मूंदकर विश्वास करते रहेंगे? अगर ऐसा है तो हमारे दिमागों की उपयोगिता ही क्या है? हम लोगों को खुली हवा में उड़ान भरते देखते हैं। क्या हम सिर्फ ब्राह्मणों के पांव धोकर, गंदे पानी को पीकर संतुष्ट हो जाने वाले लोग हैं? जब वे कहते हैं कि हमारे अभियान से उनकी भावनाएं आहत होती हैं, तो हमें उसकी जरा भी परवाह क्यों करनी चाहिए? वे हमसे ज्यादा उदार नहीं हैं। न ही उनका दिल हमारे दिलों से बड़ा हैं। हमें जो ठीक लगता है, वही करना चाहिए। हम जानते हैं कि हमें खतरों और मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। उसके लिए हम सदैव तैयार हैं। जान की बाजी लगानी पड़े तब भी तैयार हैं। मौत को तो किसी न किसी दिन आना ही है। उसके भय से हम अब और ज्यादा चुप नहीं रह सकते।

अतीत में चूकि हम अत्यधिक विनम्र और सहनशील रहे थे, इसलिए हम कोई विकास नहीं कर सके। पढ़े-लिखे द्रविड़ लोग भी आलसी थे। परिणामस्वरूप उपद्रवी और ठेकेदार किस्म के लोग धर्म की सुरक्षा के के नाम पर एकजुट होते गए। अन्यथा आज तक हम शानदार प्रगति कर चुके होते। आज भी यदि हम(धर्म के विरुद्ध) कुछ कहने के लिए मुंह खोलते हैं, तो ईसाई हमपर हमलावर होकर आ जाते हैं। हम कुछ और कहते हैं तो मुसलमान उसका विरोध करने लगते हैं। उन्हें छोड़कर जब हम केवल अपने धर्म की बारे में बात करते हैं, तब ब्राह्मण अपनी भृकुटियां तान लेते हैं। विरोध प्रदर्शन के लिए ब्राह्मण खुद कभी सामने नहीं आते। ऐसे लोग जो आज भी वेश्या और रखैलों की संतान कहे जाने को तैयार हैं, ऐसे लोग जो माथे पर भभूत मलकर खुद को धन्य समझते हैं; और ऐसे लोग जो ‘राम-राम’, ‘शिव-शिव’ का मंत्रजाप कर रहे होते हैं—वही लड़ने के लिए हमारे आगे तन जाते हैं।

मैं अदालत में अपने ऊपर दायर मुकदमे के बारे में कुछ नहीं कहना चाहता। जब हमने सलेम में राम के चित्रों को पैरों तले कुचला था, तब हमारे विरुद्ध कोई ब्राह्मण कोर्ट में नहीं गया था। वे हमारे ही लोग हैं जिन्होंने मेरे ऊपर मुकदमा दायर किया था। उन्होंने शिकायत की थी कि मेरे कृत्य ने उनकी भावनाओं को आहत किया है। मुझे अदालत का सम्मन प्राप्त हुआ था। उसके बारे में आपने अखबारों में पढ़ा ही होगा। जब तक हम इस भयानक और जानलेवा बीमारी के इलाज के लिए बड़ा ऑपरेशन नहीं करते, तब तक मुझे नहीं लगता कि हम इसका इलाज कर सकते हैं। आज यह छूत का रोग बन चुका है। यही कारण है कि मैं समस्या की जड़ तक जाना चाहता हूं। केवल बातों द्वारा लक्ष्य सिद्धि असंभव है। इस ‘तर्कवादी संगठन’ का आरंभ हमने कुछ क्रांतिकारी विचारों के प्रचार-प्रसार हेतु किया है। यदि हम स्वयं को तुच्छ, हीन और निचले स्तर का मान लें, यदि हम हिंदू होने को स्वीकार कर लें तो हमें उनके शास्त्रों, रीति-रिवाजों, परंपराओं, ईश्वर तथा रूढ़िवादी मिथों तथा कर्मकांडों को भी उसी तरह स्वीकार करना पड़ेगा।

क्या हमें यह सवाल नहीं करना चाहिए कि हमें ‘शूद्र’ यानी वेश्या की संतान किसने कहा था? क्या वह तुम्हारा भगवान कृष्ण था? यदि हां, तो उसने ऐसा कहां कहा था? यदि उसने गीता में ऐसा कहा था तो क्या हमें अपनी चप्पलें निकालकर कृष्ण और उसकी गीता की पिटाई नहीं करनी चाहिए? यदि तुम्हें इससे डर लगता है तब तुम सचमुच एक शूद्र का जीवन जीते हो। क्या हुआ अगर हम राम की चप्पलों से पिटाई करते हैं। क्योंकि उसने कहा था कि हम शूद्र हैं।  उसने शूद्रों की हत्या की थी। चूंकि शंबूक शूद्र था, इसलिए उसकी पीट-पीटकर हत्या की गई थी। शंबूक ब्राह्मण के बजाय ईश्वर की पूजा करता था। इसलिए उसके शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर दिया था। शूद्रों को भगवान की पूजा करने का कोई अधिकार नहीं था। उन्हें केवल ब्राह्मण को पूजना चाहिए। यही राम ने कहा था। यह प्रसंग धूर्त्ततापूर्ण ढंग से गढ़ा गया था कि शूद्र द्वारा ईश्वर की प्रार्थना करने से एक ब्राह्मण की मौत हुई है; और उसका मृत शरीर राम के आगे लाकर रख दिया गया था।

मैं आपसे सवाल करना चाहता हूं कि कोई ब्राह्मण इस प्रकार कैसे मर सकता है? उसे तो केवल स्वर्ग जाना चाहिए। यदि एक ब्राह्मण मर भी गया तो क्या हुआ?

कहानी के अनुसार, कहा यह गया है कि राम के शासनकाल में ‘अधर्म’ होने के कारण एक ब्राह्मण की मृत्यु हुई थी। किसके पाप से ऐसा हुआ—राम ने पूछा था। ब्राह्मणों ने उसका कोई तर्कसंगत उत्तर नहीं दिया था। उन्होंने राम से कहा था कि वह जाएं और खुद इसका पता लगाएं। इसलिए वह वन में गया। वहां उसने शंबूक को तपस्या करते देखा था।

‘तुम क्या कर रहे हो?’ राम ने पूछा था।

‘मैं ईश्वर की साधना कर रह हूं।’ शंबूक का उत्तर था।

राम नाराज हो गया। वह चिल्लाया, ‘तुम शूद्र हो। तुम्हें केवल ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए। वह करने के बजाय तुम यहां ईश्वर की पूजा कर रहे हो? यह ‘अधर्म’ है। तुम्हें तो टुकड़े-टुकड़े कर देना चाहिए।’ और कसाई की तरह राम ने शंबूक को मार डाला।

कल्पना कीजिए, यदि हम यहां न हों तो ये ब्राह्मण क्या कर सकते हैं। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि ब्राह्मण मारने के लिए निकल आएंगे? यहां तक कि उन्हें भी जो ईश्वर की पूजा करते हैं। क्या वे हमारे लोगों को दोष नहीं देते? वे इस बात का रोना रोएंगे कि शूद्रों ने हमें बदनाम किया है। वर्णाश्रम पद्धति यानी जाति प्रथा के नियमों को ढंग से लागू न करने के लिए वे शासकों को पहले ही दोष देते रहते हैं।

गीता

ब्राह्मण कहते हैं कि जाति-व्यवस्था की रचना कृष्ण ने की थी। कहा जाता है कि कृष्ण ने ही प्रत्येक जाति के लिए उसके विशिष्ट कर्तव्य का विधान किया था। शूद्रों का जन्म परमपुरुष के पैरों से हुआ था। चूंकि वह असम्मानजनक स्थान है, इसलिए शूद्र चौथे वर्ण में आते हैं। उन्हें दास बनकर ब्राह्मणों की सेवा करनी चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं, तो वे दंड के पात्र हैं। बताया गया है कि दंड के रूप में कृष्ण उन्हें नर्कवास की सजा देगा।

गीता का यही संदेश है। चूंकि गीता में ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान पर रखा गया है, इसलिए सभी ब्राह्मण गीता का विशेष सम्मान करते हैं। जरा सोचिए ऐसे कृष्ण की यदि हम चप्पलें निकालकर पिटाई न करें, तो हमारा भविष्य क्या होगा? लेकिन जब हम कहते हैं कि उसकी चप्पलों से पिटाई होनी चाहिए, तो लोग नाराज हो जाते हैं। वे उस समय नाराज नहीं होते जब यह कहा जाता है कि हम वेश्या के गर्भ से जन्मे हैं। क्या हम इस बात को सहन कर सकते हैं कि हमारी सब की माताएं वेश्याएँ थीं।

ब्राह्मणों के इस घोषणा ने हमें बरबाद किया है कि कोई भी ईश्वर, धर्म, और शास्त्रों का अनादर नहीं करेगा। उनपर सवाल नहीं उठाएगा। उन्होंने हमें हिंदुत्व के विरुद्ध कुछ भी कहने से रोका हुआ है। जब हम सच बोलते हैं, तब वे कहते हैं कि हमने उन्हें आहत किया है। वे धमकी देते हैं कि बदले में हमारे साथ कुछ बुरा होगा। इस व्यवस्था के तहत उन्होंने हमारे लोगों को प्रतिक्रियावादी बना दिया है। हम द्रविड़ियन तमिलों को  तिरष्कृत और अपमानित किया गया है। इस देश में आज भी यही हो रहा है। क्या त्रासदी है। यहां तक कि पढ़े-लिखे लोगों को भी आजीवन यही झेलना पड़ता है. यह सब देखकर एक विदेशी की क्या प्रतिक्रिया होगी?

कल्पना कीजिए एक विदेशी एक धर्मप्राण हिंदू से मिलकर सवाल करता है—

‘आप कहां जा रहे हैं?’ इसपर हिंदू का जवाब होगा—

‘मैं ईश्वर की पूजा करने मंदिर जा रहा हूं।’

‘कैसा ईश्वर?’ वह प्रश्न करेगा।

‘मंदिर में उसकी मूर्ति है।’ उत्तर होगा।

‘कितने मूर्ख हो तुम! पत्थर या मिट्टी की मूर्ति भला भगवान कैसे हो सकती है? तुम्हें किसने बताया कि यह भगवान है?’

एक विदेशी यह सवाल कर सकता है। लेकिन हमारे लोग यह पूछने से हिचकिचाएंगे। यहां तक कि मुस्लिम भी यह सवाल करने के लिए आगे नहीं आते कि पत्थर के टुकड़े में क्या भगवान सचमुच समाया हुआ है। क्यों? क्योंकि वे बहुसंख्यक हिंदुओं से डरते हैं। वही क्यों, ईसाई भी इसी तरह के हैं।

कौन यह सिद्ध करने की जहमत उठाता है कि पत्थर में भगवान समाया हुआ है? लेकिन आदमी चुपचाप यह विश्वास कर लेता है कि भगवान पत्थर में छिपा हुआ है। मैं पूछता हूं क्या किसी ने भी स्वर्ग या नर्क के दर्शन किए हैं? आने वाले समय में संसार द्वारा हमें दोष नहीं दिया जाना चाहिए। इसके लिए यहां हमारे लोगों की चिंता करने, उनके हितों के निमित्त काम करने वाला कौन है? कौन है जो उनकी मुक्ति के रास्ते तलाशेगा? यदि हर आदमी ब्राह्मणों के पैरों पर गिरकर महान भक्त बनने जिद ठाने है तो कौन हमारी रक्षा करने करने करने की सोचेगा? इसीलिए मैं ‘तर्कवादी संगठन’ को मजबूत करने की आवश्यकता पर जोर देता हूं। यह काम किसी भी कीमत पर होना चाहिए। तभी कोई आदमी, आदमी की तरह ससम्मान जी सकता है। हर आदमी, आदमी की तरह वर्ताब करे, उसी के लिए हमारे अभियान की आवश्यकता है। हमें साहसी होना चाहिए। हमें किसी भी चुनौती, किसी भी परीक्षा के लिए तैयार रहना चाहिए। आप जानते हैं कि मुस्लिमों ने अपने धर्म को कैसे सुरक्षित बनाया है। क्या उन्होंने कोई बलिदान नहीं दिया था? यहां तक कि ईसाइयों ने भी अपने धर्म की सुरक्षा के लिए काफी कष्ट सहे हैं। इस अभियान से मुझे काफी उम्मीदें हैं। हमें अच्छे संकेत भी मिल रहे हैं। हवा हमारे अनुकूल है। इस महान अवसर का उपयोग हमें ज्ञान के प्रसार के लिए करना चाहिए।

ब्राह्मणों ने बौद्ध धर्म को किस प्रकार नष्ट किया था? उन्होंने हिंसात्मक तरीकों का सहारा लिया था। बौद्धों का कत्लेआम किया गया था. उनके घरों को आग के हवाले कर दिया था। उनके मठों पर कब्जा कर लिया गया था।

श्रमण(जैन) धर्म को कैसे नष्ट किया गया था? क्या उन्होंने जैन श्रमणों का तेज धार वाले हथियारों द्वारा बेरहमी से कत्ल नहीं किया था? उस नरसंहार में 8000 श्रमणों की जानें गई थीं।2 आज उस भीषण नरसंहार की याद में उत्सव मनाया जाता है। आगे चलकर उन्होंने इस घटना को अपने धर्मशास्त्रों जैसे ‘थेवरम’ और ‘प्रबंधम’3 में इस तरह शामिल किया, मानो वे इस अमानवीय कृत्य से प्रसन्न हों।

आज ब्राह्मण शिकायत करते हैं हम जो भाषण देते हैं वे बहुत कड़वे और असहनीय हैं। देखें कि प्रबंधम में क्या लिखा गया है। क्या ये ग्रंथ हिंसा का उपदेश नहीं देते। क्या ये नहीं बताते कि दूसरे धर्मों तथा आध्यात्मिक विश्वासों को बलपूर्वक नष्ट-भ्रष्ट कर देना चाहिए।  

क्या तुमने देखा नहीं कि हिंदू आस्थावादी—स्त्रियों के साथ बलात्कार करने, दूसरे धर्मावलंबियों को उत्पीड़ित करने, यहां तक कि उनकी हत्या हेतु आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए भी, ईश्वर की प्रार्थना करते आए हैं? यहां तक कि ‘प्रबंध’ महाकाव्य भी, जो उनके अनुसार पवित्र ग्रंथ हैं—हिंदुओं को दूसरे धर्मावलंबियों को मारने, उनकी हत्या करने, सताने तथा उन्हें कष्ट पहुंचाने के लिए अधिकृत करते आए हैं।

बाइबिल क्या कहती है? उसके अनुसार ईश्वर में विश्वास नहीं रखने वाला व्यक्ति मूर्ख है। दूसरे धर्मों में भी यही सब लिखा हुआ है।

उस अवस्था में हम भला चुप क्यों रहेंगे। हमारे यह कहने में भला क्या बुराई है कि जिसने धर्म का प्रचार किया; और जो ईश्वर की पूजा करता है—मूर्ख हैं। किसी व्यक्ति विशेष पर प्रहार करने के बजाय हम कह सकते हैं—

ईश्वर नहीं है

ईश्वर हरगिज नहीं है

जिसने भी ईश्वर की रचना की वह मूर्ख है

जो भी ईश्वर का प्रचार करता है, वह कपटी और बदमाश है

जो ईश्वर को पूजता है वह असभ्य है।

यह बात हम किस आधार पर कहते हैं, आगे मैं उसकी सविस्तार विवेचना करूंगा। जिसने भी आत्मा, स्वर्ग, नर्क, यमलोक आदि की रचना की, वह दुष्ट था। उससे भी बड़ा दुष्ट वह है जो इन बातों पर विश्वास रखता है। वे सब हमें अज्ञानी बताते हैं। कहते हैं कि हम कुछ नहीं जानते। हम अज्ञानियों में दिमाग ही नहीं है। वे हमें असभ्य और मूर्ख कहते हैं।

हम उनके झूठे प्रचार तथा धूर्ततापूर्ण आरोपों पर शर्मिंदा नहीं है। क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो ‘पुनर्जन्म’ की व्याख्या कर सके। बता सके कि पुनर्जन्म के मायने क्या हैं? क्या आप सचमुच ऐसे स्थान की परिकल्पना करते हैं, जहां दिवंगत पूर्वज निवास करते हैं? केवल ब्राह्मण ही इस तरह के प्रवचन देते हैं। हमारे अपने लोग उन्हें दाल, चावल आदि देकर, उनके समक्ष दंडवत प्रणाम करते हैं। ब्राह्मण दावा करता है कि वे सब वस्तुएं उसने हमारे पूर्वजों के लिए ली हैं। आप ब्राह्मण से पूछिए कि वह हमारे दिवंगत पूर्वजों से कब और कहां मिला था? स्वर्ग में या नर्क में अथवा उनके पुनर्जन्म होने के बाद इसी दुनिया में? उसकी ओर से आपको कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलेगा। ब्राह्मण हमारे लोगों को डराते और भरमाते हैं। बावजूद इसके प्रत्येक आदमी जो ब्राह्मणों तथा उनकी बनाई व्यवस्था में विश्वास रखता है और दिवंगत पूर्वजों के नाम पर उनकी बताई वस्तुएं भेंट करता है—ब्राह्मणों से सवाल करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। वह सहज भाव से कहेगा, ‘मैं इस सबके बारे में कुछ भी नहीं जानता। मैं तो अपनी पत्नी और बच्चों के साथ ब्राह्मण के आगे महज दंडवत था। इस प्रकार के मूर्खतापूर्ण आचरण के बारे में हम क्या सोचें? ऐसे लोगों को मूर्ख कहने में हमारी भला क्या गलती है?

ईश्वर

ईश्वर के अस्तित्व के बारे में कौन दावा कर सकता है? कोई यह नहीं कह सकता कि फलां-फलां व्यक्ति ने ईश्वर के दर्शन किए थे। वे केवल आंखें मिचमिचाते रहेंगे। जोर देने पर सिर्फ इतना कहेंगे कि ईश्वर के बारे में कुछ लोग यही बताते हैं। धर्माचार्य कहते हैं कि ईश्वर किसी का बनाया हुआ नहीं है। वह अपनी इच्छा से स्वयं अस्तित्ववान है। उस अवस्था में वे भला मुझसे क्यों लड़ाई मोल लेंगे? मैं तो सिर्फ ईश्वर के निर्माता को दोषी मानता हूं। जबकि वे कहते हैं कि ईश्वर की रचना ही नहीं हुई है। वह अजन्मा है।

उस अवस्था में, थोड़ा साहस करते हुए मैं सवाल करना चाहूंगा कि ईश्वर के अस्तित्ववान होने की प्रक्रिया, उसके जन्म होने के बारे में ब्राह्मणों को जानकारी कैसे और कहां से मिली? जबकि दूसरे लोग उसके व्युत्पत्ति के बारे में कुछ नहीं जानते। ईश्वर अपनी मर्जी से कैसे अस्तित्व में आया इस प्रक्रिया से भी वे अनजान हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर अत्यंत शक्तिशाली है। परंतु इस बात का उन्हें पता कैसे चला? यह कैसे संभव है कि केवल ब्राह्मण ही इस बारे में जान सकते हैं, दूसरे लोग नहीं? क्या बाकी सभी लोग मूर्ख हैं? यह क्यों कहा जाता है कि ईश्वर से संबंधित जानकारी केवल ब्राह्मण ही रख सकता है? दूसरों को भी ऐसा क्यों नहीं बनाया गया कि वे ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में जान सकें? चूंकि हमारे पास प्रतिभा और बुद्धि है, हम अपने तर्कों के सहारे आगे बढ़ सकते हैं।

ईश्वर की उत्पत्ति

यह तय है कि मानव सभ्यता के आरंभिक दौर में ईश्वर जैसी कोई चीज नहीं थी। ईश्वर का प्रचलन केवल विगत 3000 वर्षों में हुआ है। उससे पहले उसका कोई जिक्र तक नहीं करता था। न ही उसके बारे में कोई कुछ जानता था। जब मनुष्य ने तूफान की आवाज सुनी, तब उसके डर से बाहर निकलने की चाहत में उसने कल्पना की कि ऐसी कोई महाशक्ति है जो हवाओं पर नियंत्रण रखती है। तूफानों को बांधे रखना जिसका स्वभाव है। अंधेरे को देखकर भी उसके मन में ऐसे ही विचार उमड़े होंगे। फिर जब सूरज की चमक देखी होगी तब भी उसने ऐसा ही सोचा होगा।

इस तरह की छोटी-छोटी बातों से उसका देवताओं और ईश्वर के प्रति विश्वास बढ़ता गया। फिर सहज भाव से लोगों ने मान लिया कि ढेर सारे देवता और ईश्वर ब्रह्मांड में घट रही घटनाओं पर नियंत्रण रखते हैं। आगे चलकर देवताओं के राजा के रूप में इंद्र की कल्पना की गई। बाद में कुछ और देवता भी गढ़े गए। कल्पना की गई कि उनमें एक ऐसा देवता है जो संपूर्ण प्राणिजगत के जन्म की देखभाल करता है। दूसरा देवता मानव जीवन और पूरी सृष्टि को संभालता है। जबकि तीसरा देवता सृष्टि को नष्ट करने के लिए है। उन्हें क्रमशः विष्णु, ब्रह्मा, विष्णु और महेश का नाम दिया गया। ऐसी चीजों के बारे में जो मानवीय समझ से परे थीं, मनुष्य सोचने लगा कि देवताओं से परे भी कोई शक्ति है जो सबपर नियंत्रण रखती है। हालांकि अभी तक उसने शीर्षतम शक्ति को परमात्मा का दर्जा नहीं दिया था। वह उसका उसी तरह सम्मान करता था, जैसे हम आजकल मंत्रियों का सम्मान करते हैं। हमारे यहां मंत्रीमंडल में अनेक मंत्रीगण होते हैं। इसी तरह मनुष्य ने कल्पना की कि एक सर्वशक्तिमान परमात्मा है जो हर चीज को नियंत्रित करता है।

वेद के अनुसार हर विशिष्ट शक्ति को नियंत्रित करने वाला एक देवता है। ईसाइयों ने सिर्फ 2000 वर्ष पहले ईश्वर में विश्वास करना शुरू किया। मुसलमानों ने भी सर्वशक्तिमान अल्लाह के बारे में महज 1500 वर्ष सोचना आरंभ किया। इस्लाम में लगभग 1500 वर्ष पहले एक बदलाव हुआ था। लेकिन ब्राह्मणों ने 3000 वर्ष पहले ही अपना ईश्वर गढ़ दिया था। ऐसा वेदों की रचना के बाद ही संभव हो सका। वैदिक युग में कोई भगवान नहीं था। हिंदुओं के देवताओं की निर्मिति वेदों की रचना के बाद हुई थी।

उन दिनों ब्राह्मण अपने देवताओं को क्या कहते थे? वे कहते थे कि एक परमात्मा है। जब पूछा गया कि वह कहां है? ब्राह्मण का उत्तर था, ‘वह अदृश्य है। उसे देख पाना असंभव है।’ जब ईश्वर के अस्तित्व पर शंका करते हुए पूछा गया कि यदि ईश्वर है तो कम से ब्राह्मण ने उसे देखा ही होगा? यदि ‘हां’ तो वह कैसा दिखाई पड़ता है? उसने जवाब दिया, ‘उसे छूना-देखना संभव नहीं है।’ उसने बताया कि ईश्वर की कोई आकृति नहीं है। जब आपने पूछा कि इसपर विश्वास कैसे किया जाए? उसने बताया कि ईश्वर इंद्रियगोचर नहीं है। वह अगम्य, अगोचर, अनुभवातीत है।

यदि मामला इतना ही गड़बड़ है तो इससे कैसे इन्कार किया जाए कि ब्राह्मण मूर्ख हैं। हम उन्हें बुद्धिमान कैसे मान सकते हैं? यदि ईश्वर को कोई भी देख, छू या महसूस नहीं कर सकता तो यह कैसे मान लिया जाए कि केवल ब्राह्मण ही ईश्वर के बारे में जानता है? उन्हें ईश्वर के अस्तित्व की जानकारी कहां से मिली? हमारे लोग ब्राह्मण जो भी उपदेश दें, उसपर आसानी से विश्वास कर लेते हैं। क्या यह मूर्खता नहीं है? क्या ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए नवीनतम और पुख्ता साक्ष्यों के साथ कोई कम से कम एक प्रमाण आवश्यक नहीं है? ऐसा साक्ष्य जिससे ईश्वर की मौजूदगी को असंद्धिग्ध रूप से प्रमाणित किया जा सके।  

क्या ब्राह्मण यहीं पर रुक जाता है? वह कहता है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है। कि दुनिया में जो कुछ भी घटता है, उसके पीछे ईश्वरीय इच्छा है। वह ईश्वर को उच्चतम गुणों का अधिष्ठान मानता है। वह कहता है कि ईश्वर पवित्र है, करुणानिधान, सत्य और निष्पक्ष है। यदि आप उससे पूछें कि किस आधार पर वह ऐसा मानता है? उसका बस यही जवाब होगा कि लोगों को उसकी सभी बातों पर विश्वास करना चाहिए। यदि यह सत्य है कि ईश्वर परमशक्ति अथवा परा-प्राकृतिक शक्ति है, तो वह अपने होने का प्रमाण क्यों नहीं देता? कुछ ऐसा क्यों नहीं करता कि मैं उसपर विश्वास कर सकूं? यदि वह ऐसा करने में असमर्थ है, जो मैं उसका सम्मान भला कैसे कर सकता हूं? उसकी परमशक्तियां कहां हैं? उसकी शक्तियां इस योग्य नहीं हैं कि उनके माध्यम से लोग उसके बारे में जान सकें।

यदि दुनिया ईश्वर के अस्तित्व को मानने से ही इन्कार कर दे तो उसका क्या बिगड़ जाएगा? कौन-सी ऐसी चीज है जो उसके हाथों से फिसल जाएगी? विश्व की कुल जनसंख्या 450 करोड़(1971 में) आंकी गई है। इतने सारे लोगों में 200 करोड़ लोग नास्तिक हैं। किसी भी ईश्वर में ऐसा इतना सामर्थ्य नहीं है जो इन नास्तिकों को आस्थावादी बना सके।

क्या ब्राह्मण ईश्वर की रचना के बाद शांत बैठ जाता है? नहीं, उसके बाद वह ईश्वर का प्रचार करना चाहता है। इसलिए मैं कहता हूं कि वह धूर्त्त है। वह कहता है कि ईश्वर शक्तिशाली है। तब उसे ईश्वर का प्रचार करने की क्या आवश्यकता है? आप देखिए ब्राह्मण ने क्या किया है। उसने मंदिर बनाया। मूर्तियां गढ़कर देवताओं को आकार दिया। यह कहते हुए कि ईश्वर निराकार है उसने ईश्वर को अनेकानेक रूपों में ढाल दिया। आखिर ईश्वर के इतने सारे रूपाकारों के बारे में उसे पता कैसे चला? जब भी उसने ईश्वर के बारे में कुछ बताने के लिए मुंह खोला, हमेशा उसे मनुष्य जैसा ही बताया। बाकी सभी धर्म कहते हैं कि ईश्वर निराकार है। उसकी कोई आकृति नहीं है। केवल ब्राह्मणों का दावा है कि हिंदू देवी-देवता साकार हैं। इसका क्या मतलब है? आकृति तो स्थायी बनी रहती है। विभिन्न ईश्वरों को विभिन्न रूपाकारों में गढ़ने के पीछे क्या उसका कोई तर्क अथवा विशिष्टानुभूति थी?

एक देवता के धड़ पर सिर्फ एक सिर है। दूसरे देवता के धड़ पर दो सिर उगे हैं। इनके अलावा जो देवता हैं, उनके चार, पांच यहां तक कि छह सिर भी हैं। क्या वह इतने भर से रुक गया? रावण जिनसे राम का प्रतिकार किया था, उसके दस सिर थे। आप जानते हैं, क्यों? उसका उद्देश्य था राम की महानता को स्थापित करना। ऐसी की पराकल्पना देवताओं के हाथों की संख्या के बारे में भी देखी जा सकती है। कुछ देवताओं के महज दो हाथ हैं। कुछ देवताओं के छह हाथ हैं। कुछ देवताओं के इससे भी ज्यादा हाथ हैं। यह सब मनुष्य को छलने, धोखा देने के लिए किया गया। लोगों को मूर्ख बनाने के लिए ही ब्राह्मणों ने चमत्कारों से भरपूर कहानियां गढ़ी थीं। कोई भी औसत बुद्धिवाला, संवेदनशील व्यक्ति ऐसी मूर्खतापूर्ण परिकल्पनाओं पर कैसे भरोसा कर सकता है? यदि हम दादी-दादा मार्का इन कहानियों पर विश्वास न करें तो हमारा क्या बिगड़ जाएगा?

एक बुद्धिजीवी को इस सबके बारे में क्यों नहीं सोचना चाहिए? इन कुत्ता-बिल्ली मार्का कहानियों पर अपना सिर हिलाते हुए हम आखिर कब तक, दीन-हीन और निम्न जातीय शूद्र का जीवन जीते रहेंगे? यदि हमारे भीतर जरा-भी आत्मसम्मान है, तो क्या हमें इस मूर्खतापूर्ण चीजों को नष्ट नहीं कर देना चाहिए? एक भी ऐसा ईश्वर नहीं है जो श्रेष्ठ गुणों से संपन्न हो।

आप शिव के बारे में विचार कर सकते हैं। उसके पांच सिर थे। दूसरे देवता ‘ब्रह्मा’ के भी पांच सिर थे। बताया गया है कि शिव की पत्नी पार्वती इससे भ्रमित हो गई। ब्रह्मा और शिव दोनों के पांच-पांच सिर होने के कारण वह अपने पति की पहचान ही नहीं कर पाती थी। अपनी दुविधा के बारे में उसने अपने पति से शिकायत की। शिव परेशान हो गया। पार्वती की उलझन को दूर करने के लिए उसने तत्क्षण कदम उठाने का फैसला कर लिया। आप जानते हैं कि उसने क्या किया था। उसने ब्रह्मा के पांच सिरों में से एक को उड़ा दिया था, ताकि पार्वती उसे आसानी से पहचान सके। ईश्वर की इस कहानी के बारे में आप क्या सोचते हैं? क्या आप मानते हैं कि पार्वती की समस्या के समाधान के लिए शिव ने जो किया, वह सही था?

मुझे ब्राह्मणों से पूछना चाहिए कि ईश्वरों को चार या पांच सिरों की जरूरत किसलिए पड़ती है। क्या भोजन करने के लिए इतने सारे हाथों की आवश्यकता पड़ती है? वे कहते हैं कि चार सिर चारों दिशाओं में और पांचवा आसमान पर नजर रखने के लिए चाहिए। इस सबका आधिकारिक प्रमाण क्या है? हिंदू धर्म से संबंधित ये लोग हमेशा ही काल्पनिक कहानियां गढ़ने में लगे रहते हैं।  

ईश्वर को बनाने वाले ने कहा था कि उसकी कोई आकृति नहीं है। वह निराकार है। उसने यह नहीं कहा था कि ईश्वर के अनेक हाथ हैं। उसने कहा था कि ईश्वर महज एक विचार है। ईश्वर को मानवेंद्रियों की सीमा से परे, अगम-अगोचर बताया गया है। अलवारों, नयनमारों और महानों में से किसी ने भी नहीं कहा था कि ईश्वर की सुनिश्चित आकृति या कोई निर्धारित रूपाकार है। तब हमारे आज के देवताओं को उनकी तयशुदा देह-यष्टि कहां से प्राप्त हुई? मंदिर में मूर्तियां रख, उन्हें अलग-अलग ईश्वर नामों से पुकारना कैसे सही हो सकता है? क्या ईश्वर को रचने वाला धूर्त्त नहीं था? क्या वह आदमी मूर्ख नहीं था जिसने ईश्वर को सुनिश्चित रूपाकार में ढालने का काम किया था?

यदि यह सच है कि ईश्वर को न तो देखा जा सकता है, न ही स्पर्श किया जा सकता है, तब उसको भोग लगाने का, वह भी दिन में छह-छह बार—भला क्या कोई औचित्य है? चूंकि समाज में ऐसे मूर्खों की संख्या पर्याप्त है जो इन सब बातों पर अपने धन को बरबाद कर सकते हैं, इसलिए ये धूर्त्त लोग अपना षड्यंत्र रचते रहते हैं। ईश्वर को भोजन करते हुए किसने देखा है? क्या ईश्वर को अपने शरीर के लिए दिन में छह बार भोजन की आवश्यकता है? कौन आदमी ईश्वर के मुंह में भोजन का कौर रखता है? क्या ईश्वर भोजन को पचा सकता है? क्या किसी ने भगवान को, दिन में कम से कम एक बार, शौच के लिए जाते हुए देखा था? ईश्वर को पेशाब करते हुए किसने देखा है? वह चल-फिर नहीं सकता। तब वह इन प्राकृतिक क्रियाओं को कैसे संपन्न करता होगा? वे लोग जो सोचने-विचारने में असमर्थ हैं, जिनका दिमाग कुंद हो चुका है, उन्हें महान समझ लिया गया है। ऐसे ही लोगों को आस्तिक माना जाता है।

यदि यह सही है कि ईश्वर संपूर्ण है। उसे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। तब ये ब्राह्मण ईश्वर का ब्याह क्यों रचाते हैं? उसे पत्नी, बच्चों आदि की आवश्यकता ही क्या है?

एक ईश्वर के दो पत्नियां हैं। किसी के हजारों पत्नियां हैं। ईश्वर को हजारों पत्नियों की क्या जरूरत है? इन प्रश्नों के उत्तर के बारे में वे विचार नहीं करते। वे चीजों को उसी रूप में नहीं रहने देना चाहते जैसी कि वे हैं। हमारे लोग जो ईश्वर के विवाह को साल-दर-साल पूरी श्रद्धा के साथ मनाते  हैं, वे एक बार भी यह नहीं पूछते कि पिछले वर्ष जो विवाह हुआ था, उसका क्या हुआ? क्या ईश्वर की पत्नी किसी के साथ भाग गई है? अथवा किसी बीमारी के कारण उसका निधन हो चुका था? अथवा ऐसा कोई कानून है कि ईश्वर का विवाह केवल एक वर्ष के लिए ही वैध माना जाएगा? इस प्रकार के सवालों की किसे परवाह है? कैसी मूर्खता है कि लोग हर साल ईश्वर के विवाह में शामिल होने के लिए जाते हैं। आप देख सकते हैं कि किस तरह हमें मूर्ख बनाया जाता था। यदि यह सही है कि ईश्वर सद्गुणों का आधार, उनका एकमात्र स्रोत है, तब हम ईश्वरों को वेश्याओं के साथ संबंध स्थापित करते हुए कैसे देख सकते हैं?

महाकाव्यों के अनुसार सुब्रमानिया, शिव, विष्णु, कृष्ण आदि सभी भगवानों की बहुपत्नियां(रखैल) हैं! क्या किसी ने पूछा है कि अनेक पत्नियों के रहते हुए भी ईश्वर को रखैलों की क्या आवश्यकता है!

जिन लोगों ने देवताओं को गढ़ा है, वे बस यही विराम नहीं लेते। उन्होंने उनके चरित्र और आचरण के बारे में अनेक कहानियां गढ़ी हैं। उनके देवताओं के बारे में यह सोचना कितना डरावना है कि वे अनैतिक और लंपट जैसा व्यवहार करते हैं।

कुछ देवताओं के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने दूसरों की पत्नियों के साथ बलात्कार किया था। कुछ मामलों में उनका भेद खुल गया था। कुछ देवताओं को मामूली दंड मिला था। कुछ को गंभीर रूप से दंडित किया गया था। यह सब देवताओं के नाम पर गढ़ा गया है। आप देख सकते हैं कि इस तरह की चीजें हिंदू मंदिरों में आज भी उत्सव की तरह मनाई जाती हैं। श्रीरंगम का देवता एक वेश्या की खोज में उड़ायुर तक पहुंच जाता है। ये ब्राह्मण देवता को अपने कंधों पर लादकर ले जाते हैं। वहां पूरी रात वे प्रतीक्षा करते हें। अगली सुबह वे पत्थर की मूर्ति को वापस श्रीरंगम ले जाते हैं। इसे प्रतिवर्ष एक उत्सव की भांति मनाया जाता है। इसी तरह आप देखते हैं त्योहारों के दौरान देवतागण भी वेश्याओं के घर जाते हैं। कोई ऐसा ईश्वर नहीं है, जिसके मन में नैतिकता के प्रति सम्मान भाव हो। शिव और विष्णु के चरित्र एवं आचरण तो बुरी तरह चित्रित किया गया है।

क्या आप सोचते हैं कि इन देवताओं के चरित्र के अनुसरण द्वारा मनुष्य अपने आपको सुधार सकते हैं? क्या उनसे प्रेरणा लेकर उच्च नैतिक गुणों पर आधारित समाज की रचना संभव है? क्या ईश्वर के लिए एक पत्नी और वेश्या दोनों का होना आवश्यक हे? कोई भी संवेदनशील मनुष्य हिंदू धर्म में झूठ और प्रपंच के इस दलदल से भला कैसे सहमत हो सकता है?

क्या ईश्वर दयावान है

वे कहते हैं कि ईश्वर प्रेम और करुणा के प्रतीक हैं। आप जाकर देवताओं पर नजर डालिए। उनके हाथों में कटार, तलवार, चक्र, त्रिशूल, वाण, हथौड़ा, तेजधार वाले तथा डरावने हथियार दिखाई देंगे। क्या हिंदू देवता ठग, डकैत, लुटेरे और हत्यारे हैं? हम इस कथन से भला कैसे सहमत हो सकते हैं कि देवता दयालु हैं? यदि यह मान लिया जाए कि शिव प्रेम के प्रतीक हैं, तो उन्होंने अपने हाथ में त्रिशूल क्यों थामा हुआ है?(श्रोताओं की हंसी)। मैं ये बातें सिर्फ हंसी-मजाक के लिए नहीं कह रहा हूं। आप द्रविड़ियन लोगों को इन बातों पर अत्यंत गंभीर होकर विचार करना चाहिए। आपको समझना चाहिए कि हमें किस सीमा तक मूर्ख बनाया गया है। हम इन देवताओं के बीच मनुष्य की भांति रहते हैं। हमें इन देवताओं की जरूरत ही क्या है? देवताओं के इतने सारे अवतार किसलिए हैं? शिव के अवतार का जन्म क्यों होता है? भगवान के रूप में विष्णु की क्या उपयोगिता है? उन्होंने किया क्या है?

यह कहा जाता है कि उन्होंने अनेक लोगों की हत्याएं की हैं। किस्से-कहानियों में सविस्तार बताया गया है कि उन्होंने असुरों, राक्षसों तथा करोड़ों लोगों को मारा था, ठीक ऐसे ही जैसे कोई कसाई  असंख्य बकरियों को मौत के घाट उतार देता है। क्या ये देवता कसाई और हत्यारे हैं? वे खुद को भगवान कहते हैं। रामायण महाकाव्य में कहा गया है कि राम ने करोड़ों लोगों की हत्या की थी। बताया गया है कि इतने लोगों की हत्या उन्होंने भूमा देवी(पृथ्वी) का भार कम करने के लिए की थी। हिंदू धर्म में देवताओं का मुख्य कार्य क्या है? वे सिर्फ मारकाट करने, नरसंहार और लोगों की हत्याएं करने के लिए हैं। यदि आप सोचना आरंभ करेंगे, तभी आप इन देवताओं, मंदिरों और धर्म के बारे में अनेक मूर्खतापूर्ण एवं हास्यास्पद दावों की असलियत को समझ पाएंगे।

कोई मूर्ख ही होगा जो यह मान बैठेगा कि ये सब बातें उससे संबंधित नहीं हैं।

आप देखेंगे कि तमिलवासी द्रविड़ों को अतीत में किस प्रकार छला जाता रहा है। कितने लोगों को मूर्ख बनाया गया होगा? इन बातों पर आपको कम से कम अब तो विचार करना चाहिए। सोचना चाहिए कि हिंदू धर्मशास्त्रों, मंदिरों, भगवानों और मूर्तियों से अब तक हमें क्या लाभ हुआ है।

ये ब्राह्मण अभी तक हिंदू धर्म के लिए सिर्फ पौराणिक ग्रंथ ही रच पाए हैं। पुराणों की संख्या अनगिनत है। वे रामायण से बात शुरू करते हैं। फिर अचानक स्कंद पुराण, वैनायक पुराण आदि  पर चले जाते हैं। ये पुराण वगैरह क्या हैं? आप किसी भी एक पुराण को उठा लीजिए। उसमें केवल अश्लील, अशिष्ट और अविश्वसनीय प्रसंगों की भरमार मिलेगी।

ब्राह्मण हिंदू देवताओं का खूब बखान करते हैं। किंतु एक भी ऐसा देवता नहीं खोज पाएंगे जो अश्लीलता, अनैतिकता और हिंसक व्यवहार के मुक्त हो। कम से कम ईश्वर के मामले में, यदि वह ईश्वर है तो उसके चरित्र में क्या थोड़ी सी भी सचाई, थोड़ा-सी शुभता नहीं होनी चाहिए! हमारी यह चिंता व्यर्थ है, क्योंकि ब्राह्मणों ने जानबूझकर इन कपटपूर्ण चीजों को ईश्वर के नाम पर गढ़ा है। इनके द्वारा ही वे अज्ञानी जनता को धोखा देने में सफल रहे हैं! लेकिन मैं बेहूदा चित्रों और छवियों द्वारा परिकल्पित नीच, दुष्ट, अनैतिक और हत्यारे देवताओं की असलियत को भली-भांति समझता हूं। क्या कोई सचमुच ऐसा ईश्वर है जिसे मनुष्य अपनी इच्छा से स्वीकार कर सके?

अपने समाज में ढेर सारा पुलिस बल, अदालतें और कारागार हैं। क्या इन सब का श्रेय इतने सारे देवताओं को जाता है?

इसलिए मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि असंख्य हिंदू देवताओं ने ही हम द्रविड़ों को मूर्ख बनाया है। ये हिंदू देवता ही समाज में निरंतर बढ़ते भीषणतम अपराधों तथा नैतिक पतन के लिए जिम्मेदार हैं। हम द्रविड़जन आज पहले की अपेक्षा कहीं अधिक साहसी हैं। हम कुछ भी कर सकते हैं। सही हो गलत, अच्छा हो या बुरा—सभी तरह का काम करने की हिम्मत हमारे भीतर है।

यदि हम सब संगठित हो, लोगों को तार्किक बनाकर समाज को बदलना चाहें तो हम अवश्य ही एक बेहतर समाज की रचना कर सकते हैं। एक बार व्यक्ति तर्कशील बन जाए, तब वह दूसरों को नुकसान पहुंचाने के बारे में कभी नहीं सोचेगा। केवल तर्कशील मनुष्य ही दूसरों की भावनाओं को भली-भांति समझ सकता है। वह सोचेगा कि उसका पड़ोसी भी उसी की तरह मनुष्य है। क्या यह भावना हमें आज, इस समाज में दिखाई पड़ती है? वहां तो ऐसे लोग हैं जो दूसरों का शोषण करते रहते हैं। लोगों का शोषण करने के लिए उनके पास आज भी ज्यादा से ज्यादा अवसर हैं। वे अपनी समाज-विरोधी गतिविधियों में संलिप्त हैं। इसलिए मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि आप हमारे जीवन को बरबाद करने वाले कारकों एवं कारणों के बारे में अच्छी तरह सोचें। हमारे इस दीन-हीन जीवन की वजह क्या है? करोड़ों तमिलों की प्रगति और सुधार की राह में अवरोध उत्पन्न करने वाले कारक कौन से हैं?

क्या ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्र, रीति-रिवाज, परंपरा, वेदादि ग्रंथ तथा हिंदू धर्माचार्य हमारे पतन और पिछड़ेपन का वास्तविक कारण नहीं हैं? इस दोषारोपण के कारण मुझे गलत मत समझिए। इन बातों पर यदि आप स्वयं स्वतंत्रतापूर्ण विचार करेंगे, तो अवश्य ही मुझसे सहमत होंगे।

ब्राह्मणों ने इन सब चीजों को कब गढ़ा था? कमोबेश 3000 वर्ष पहले इन देवताओं की रचना की गई थी। उसके बाद ही देवताओं से जुड़ी कहानियां रची गईं। मेरे विचार में रामायण की रचना लगभग 2000 वर्ष पहले हुई। ईसाई धर्म का आगमन ठीक 2000 वर्ष हुआ था। इस्लाम की उम्र तो मात्र 1500 वर्ष है।

आदिम मनुष्य

प्राचीन काल में मानव-जीवन कैसा था? क्या आप जानते हैं कि लगभग 5000 वर्ष पहले मनुष्य किस तरह से रहता था? क्या वह वस्त्र धारण करता था? उन दिनों तन ढकने के लिए वह केवल पत्तों का इस्तेमाल करता था। जंगलों में घूमता रहता था। हरी वनस्पतियों और कच्चे फलों का सेवन करता था। बिना पकाए मछलियों को खा जाता था। जानवरों के कच्चे मांस का भक्षण करता था। उसका भोजन तथा उसके बाकी सभी कार्य उसके अपने ज्ञानानुभवों के अनुसार थे। उसे आधुनिक शिक्षा के वैसे अवसर प्राप्त नहीं थे, जैसे आज हमें प्राप्त हैं।

ऐसे ही दौर में कुछ चतुर किस्म के लोगों ने हमारे अज्ञान का लाभ उठाना उठाना शुरू कर दिया। घोर निराशा के आलम में हमने भी उन अविश्वसनीय बातों पर विश्वास करना आरंभ कर दिया। मानवीय विवेक, विश्वास और तर्क से परे की चीजें हर धर्म में शामिल हैं। धर्म की रचना ही मूर्खतापूर्ण विश्वासों तथा अंतहीन झूठ के बल पर हुई है।

आप रामायण, महाभारत, हिंदू, शैव, वैष्णव, ईसाई और इस्लाम किसी भी धर्म को देख सकते हैं। ऐसा कोई धर्म या संप्रदाय नहीं है जो सत्य को पूरी तरह दर्शाता हो। चूंकि विभिन्न धर्मों का समय अलग-अलग समय में हुआ है, इसलिए उनके मिथ्याचार की मात्रा और प्रकृति में अंतर है। मान लीजिए यदि आज कोई व्यक्ति नए धर्म की रचना का संकल्प लेता है, तो वह केवल आज की परिस्थितियों के अनुसार उसकी रचना करेगा। नए धर्म को अधिकाधिक तर्कसंगत, वस्तु-जगत के करीब और आधुनिकतम ज्ञान से समृद्ध करने की कोशिश करेगा। पुराने धर्मप्रवर्त्तकों ने धर्म को अपने समय के अज्ञान के अनुसार गढ़ा है।

पुराने समय में किसी भी धर्म के लिए ‘ईश्वर’ की संकल्पना अनिवार्य थी। ईश्वर भी ऐसा जो पराभौतिक शक्तियों से समृद्ध हो। हिंदू धर्म की रचना भी इसी तरह हुई। बाकी धर्मों ने भी उसी की नकल की। यही सच है। कल को ब्राह्मण कह सकते हैं कि महान परमात्मा गाय के गोबर को भी चंदन लेप जैसा बना सकता है। ऐसा कैसे हो सकता है, इस बात पर कोई विचार नहीं करेगा। वे हमारे साथ ऐसे छल क्यों करते हैं? वह कोई झक्की-पागल ही होगा जो यह दावा करेगा कि कोई शक्ति मरे हुए आदमी को जिंदा कर सकती है। वे इसी तरह लोगों को झांसा देते रहते हैं। वे देव-पुरुषों के चमत्कारों की चर्चा करते हैं। मानते हैं कि कथित ‘ऋषि-मुनियों’ में परामानवीय शक्तियां होती हैं। उनका सारा जोर दिव्यता, धार्मिक नेताओं और ऋषि-मुनियों के महिमा-मंडन पर केंद्रित रहता है। कुल मिलाकर वे सब लोग झूठे हैं।

महाकाव्य

जरा सोचिए, रामायण और महाभारत क्या हैं? बिना धोखे, छल और प्रपंच वे टिक नहीं सकते। वे कहते हैं कि राम दशरथ की संतान थे। यह भी बताया जाता है कि दशरथ 60,000 वर्षों तक जीवित रहा था; तथा उसकी 40,000 रानियां थीं। आजकल वह कहां है? क्या हम यह सवाल नहीं करेंगे? कोई व्यक्ति 60,000 वर्षों तक कैसे जीवित रह सकता है? कोई आदमी भला 60,000 वर्षों तक जीवित क्यों रहेगा? लोगों को धोखे में रखने के लिए ही रामायणकार ने लिखा था कि वह 60,000 वर्षों तक जीवित रहा था। लेकिन कोई व्यक्ति 40,000 स्त्रियों के साथ विवाह भला क्यों करेगा? उस इसकी आवश्यकता ही क्या है? क्या यह कभी भी संभव है?

मान लीजिए ऐसा आदमी किसी एक पत्नी के पास एक दिन गया। तब उससे दुबारा मिलने के लिए उसे 300 वर्ष लगेंगे। वह रानी 300 वर्षों तक क्या करेगी? क्या आप सोचते हैं कि 300 वर्षों तक वह सद्गुणी और ईमानदार पत्नी बनी रहेगी? क्या कमाल की कहानी है? इन बातों पर विश्वास भी कैसे किया जाए। व्यक्ति 40,000 पत्नियों के साथ कैसे निभा सकता है? क्या वह मशीन है? क्या झूठ का अंबार लगाने की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए?  

इतनी सारी बेतुकी और हास्यास्पद बातों के रहते क्या कोई राम को ईश्वर के रूप में स्वीकार सकता है? क्या ईश्वर को गढ़ते समय शिष्टता के नियमों का पालन आवश्यक नहीं है? क्या यह जरूरी नहीं था कि वे कम से कम भगवान के प्रति आदर-भाव बनाए रखते? और राम ने क्या किया था? उसने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया था। क्या वह यज्ञ उसने एक शिष्ट मानवीय प्राणी के नाते संपन्न किया था? क्या एक निरर्थक कार्य में पत्नी के साथ भाग लेना, और जिस अनैतिक तरीके से यज्ञ किए जाते हैं, उसमें अपनी पत्नी और बच्चों को सहभागी बनाना जरूरी था? यहां मैं अपनी ओर से कुछ नहीं कह रहा। यज्ञ के बारे में यह सब स्वयं रामायण में ही वर्णित है।

यह साफ तौर पर लिखा है कि विवाहिता स्त्रियां दैहिक संबंधों के लिए ब्राह्मणों को सौंप दी जाती थीं। स्त्रियां ब्राह्मणों का वीर्य अपने गर्भ में धारण करतीं तथा उनकी संतान को जन्म देती थीं। इस कार्य के भी ब्राह्मणों को अकूत धन-संपदा भेंट की जाती थी। यही वह विधि थी, जिससे दशरथ को संतान प्राप्ति हुई थी? फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि राम उनके पुत्र थे? यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि दशरथ के बेटों का जन्म उसकी पत्नियों के ब्राह्मणों के साथ सहवास के बाद हुआ था।

राम को ईश्वर का अवतार बताया जाता है। उसके जन्म के बारे में विस्तार के साथ सूचना है। ब्राह्मणों ने राम की मां कौश्लया को नंगा किया था। उससे जमीन पर लेट जाने को कहा गया था। एक घोड़ा मंगवाया गया। उसके लिंग को कौश्लया की योनि में प्रविष्ट कराया गया। इसी विधि से अश्वमेध यज्ञ संपन्न हुआ था।

इसके लिए आपको मेरे शब्दों पर विश्वास करने की आवश्यकता नहीं है। आपको खुद ही रामायण का अध्ययन करना चाहिए। ये सभी बातें आपको उसमें मिल जाएंगीं। मैं ये बातें आपको विस्तार से क्यों बता रहा हूं? आपको जानना चाहिए कि पुराने लोग कितने अज्ञानी थे। ब्राह्मणों ने चतुराईपूर्वक, शातिराना ढंग से ईश्वर की रचना की, जिससे वे द्रविड़ियन लोगों शोषण कर सकें। क्या हम आज भी उस समय के लोगों जितने ही मूर्ख और नासमझ हैं? इसलिए मैं साफ तौर पर, बिना किसी संदेह या हिचक के कहता हूं कि सारे के सारे देवता ब्राह्मणों की कल्पना की उपज थे।

यदि वे मान लें कि राम-कथा काल्पनिक है, तब  हम रामायण को स्वीकार भी कर सकते हैं। यहां तक कि राम को जन्म देने का तरीका भी उतना बुरा नहीं था। परंतु क्या ब्राह्मणों का कर्तव्य नहीं था कि वे राम के चरित्र को शिष्ट और सद्गुण संपन्न इंसान के चरित्र की तरह गढ़ते। उन्होंने क्या किया था? वे कहते हैं कि उसने अपने मददगारों, राक्षस-असुर(द्रविड़ियन) बाली तथा दूसरे कई साथियों, जिनसे वह मिला था—का वध किया था। आप जानते हैं, किसलिए? मेरी बातें आपको सावधानीपूर्वक सुननी चाहिए। ध्यान देना चाहिए कि उसने किसकी हत्या की थी; और किसलिए की थी। राम ने खुद कहा है—‘क्या आप मेरे बारे में जानते हैं। मेरा जन्म ब्राह्मणों के समस्त दुश्मनों के विनाश के लिए हुआ है।’

भले मानुषो! आप यह सब रामायण में पढ़ सकते हो।

यदि ऐसा ही है, तब हम क्या समझें? क्या इसका मतलब यह नहीं है कि ब्राह्मणों ने रामायण की रचना हमारे अपमान, अवमानना और हमें शर्मिंदा करने के लिए नहीं की है? हमें शूद्र जिसका अभिप्राय वेश्या की संतान है, क्यों कहा जाता है? राम को शूद्रों की हत्या क्यों और किसलिए करनी चाहिए थी? इस अवस्था में हमें खुद को हिंदू क्यों मानना चाहिए? देवता के रूप में राम की पूजा हमें क्यों करनी चाहिए?

अब आप देखिए कि ब्राह्मणों ने अपनी सुरक्षा के लिए क्या किया था? वे सिर्फ इसलिए कामयाब हुए क्योंकि हम द्रविड़ियन लोग मूर्ख थे।

रामायण की रचना शूद्रों के उपहास, उनकी अवमानना करने के लिए की गई है। लेकिन क्या ब्राह्मण राम को सम्मानित देवता बनाने में कामयाब हुए थे? उसकी पत्नी के साथ क्या हुआ था? वह किसी और के साथ भाग निकली थी। वह उसके साथ रही और गर्भवती हुई। उसी अवस्था में वह लौटकर आई। इस कहानी के दूसरे रूप भी हैं। दूसरी कहानी में बताया गया है कि राम की पत्नी सीता का अपहरण किया गया था। यदि राम सचमुच भगवान था, और यह बात यदि सच है तो वह इससे अनभिज्ञ कैसे हो सकता था? उसे इस बात की जानकारी होनी चाहिए थी कि उसके पीछे कोई आकर बलपूर्वक उसकी पत्नी का हरण करके ले जाएगा। अपनी पत्नी की समुचित सुरक्षा का इंतजाम किए बिना ही वह उसे छोड़कर भला कैसे जा सकता था? अपनी पत्नी की सुरक्षा के लिए उसने क्या सावधानियां बरती थीं? कुछ भी नहीं!

क्या राम वास्तव में देवता था? क्या उसकी शक्ति असली थीं? वह अपनी पत्नी को जंगल में बिलकुल अकेले कैसे छोड़ सकता था, जबकि वह खुद भी जंगल में अकेला ही था। जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ। मानो सीता ने पहले से ही यह इंतजाम किया हुआ था कि रावण उससे मिले। रावण ने सीता से साथ चलने को कहा था। वह शांतिपूर्वक उसके साथ चली गई। वह वापस नहीं आई थी। जब वह लौटी तब उसे चार महीनों का गर्भ था।

सज्जनो, क्या यह भगवान की कहानियां गढने का तरीका है? यही कारण है कि हम रामायण को स्वीकार नहीं करते। आप देखेंगे कि ब्राह्मणों ने सीता को एक देवी के रूप में गढ़ा है, जिसकी पूजा की जानी चाहिए। राम के चरित्र के बारे में तो आप जानते ही हैं! उसे ईश्वर बनाया गया था। ब्राह्मण राम को ईश्वर बनाकर ही शांत नहीं हुए। उन्होंने राम की पत्नी को भी देवी बना दिया।

कोई विदेशी हमारे बारे में क्या सोचेगा? क्या वह यह कहने में संकोच करेगा कि हमारे देवता दुष्ट प्रवृत्ति के हैं? हमारी देवियां वेश्या हैं?

क्या हमें इनपर विचार करने की कोई समझ नहीं होनी चाहिए? यदि हमारे भीतर थोड़ा स्वाभिमान भी बाकी है तो हम इन सब चीजों को कैसे सहन कर सकते हैं? इस तरह की बेतुकी और हास्यास्पद कहानियां और कलंककारी देवता किसलिए हैं?

कृष्ण, स्कंद, कार्तिकेय, विनायक(गणेश), शिव, विष्णु आदि दूसरे देवताओं को देखिए! वे कौन थे? उनका जन्म कैसे हुआ था?

कृष्ण का जन्म

आपको पता होना चाहिए कि कृष्ण का जन्म कैसे हुआ था। इस बारे में ब्राह्मणों ने बड़ा रोचक  विवरण दिया है। बताया जाता है कि महाविष्णु ने अपने दो बाल उखाड़े। उनका एक बाल काला था, दूसरा सफेद। सो एक बाल कृष्ण बन गया, दूसरा उसका भाई बलराम।4 सोचकर देखें, क्या यह सही है? बालों की मदद से देवताओं के जन्म लेने का क्या यह श्रेष्ठ, सम्मानजनक और भरोसेमंद तरीका है? यदि आपको मुझपर विश्वास नहीं होता तो आप स्वयं पुराणों का अध्ययन कर सकते हैं। देखें, यह कितना भद्दा और बेहूदा है!

विनायक पुराणम्

अब मैं आपको बताऊंगा कि दूसरे भगवान की रचना किस तरह की गई थी। ब्राह्मणों ने गणेश को भी हिंदू देवता के रूप में रचा था। आपको यह जानने में रुचि होगी कि उसका जन्म कैसे हुआ था?

यह बताया गया है कि परमशिव(महादेव) और पार्वती जंगल में विचरण करने के लिए गए थे। वहां उन्होंने एक हाथी युगल रतिक्रिया में तल्लीन देखा? उसे देखकर पार्वती के मन में भी अपने पति के साथ हाथी की तरह संभोग करने की इच्छा जागी। महादेव राजी हो गए। दोनों हाथी-युगल बन गए। उन्होंने परस्पर संभोग किया। उसके बाद गणेश का जन्म हुआ, जो हाथी के बच्चे की तरह था। क्या आप इस कहानी से सहमत हैं? क्या यह देवता गढ़ने का एक सभ्य तरीका है? यह डरावना देवता विनायक(मूर्तियों के रूप में) तमिल नाडु में हर जगह दिखाई पड़ता है। वह यहां अपेक्षाकृत ज्यादा लोकप्रिय है। इस देवता की उत्पत्ति एकदम हाल में हुई है।

यह बताया गया है कि नरसिंह पल्लव का सेनापति वाथापी5 गया था। वहीं से वह नए देवता को हमारे क्षेत्र में लेकर आया। आप मिस्टर टी. पी. मीनाक्षीसुंदरम को जानते हैं। वे विद्वान अध्येता और उपकुलपति हैं। गहन शोध के पश्चात वे कुछ ठोस निष्कर्षों तक पहुंचे हैं। बिना किसी संदेह के, वे सप्रमाण दावा करते हैं कि 1200-1300 वर्ष पहले देवता के रूप में विनायक को उत्तर में स्थित वाथापी से लेकर आया था। आज उसकी हिंदुओं के बड़े देवता के रूप में पहचान है।

सुब्रमणियम देवता

सुब्रमणियम देवता की कहानी क्या है? इस हिंदू देवता को 2000 वर्ष पहले गढ़ा गया था। इस देवता के जन्म के बारे में ब्राह्मणों ने दो कहानियां गढ़ी हुई हैं। एक कथा रामायण में ही उपलब्ध है। मेरे पास यह पुस्तक है(पेरियार ने वह पुस्तक सम्मेलन की अध्यक्ष को सौंपी थी और श्रोताओं को संबंधित हिस्सा पढ़कर सुनाया था)।

सज्जनो! उन दिनों हमारे लोग केवल मूर्ख ही नहीं थे, अपितु वे अपने आत्मसम्मान को भी गंवा चुके थे।

यह कहा गया है कि एक बार सभी देवता मिलकर कैलाश पहुंचे। महादेव के ठिकाने पर पहुंचकर उन्होंने उनकी तपस्या की तथा उनसे देवताओं का सेनापति देने का आग्रह किया। लगता है कि देवताओं की तपस्या को स्वीकार शिव उन्हें उनका सेनापति देने को तैयार हो गए। देवता वापस लौट आए। तदनंतर शिव पार्वती से मिले और कहा कि उन्हें देवताओं को उनका सेनापति देना चाहिए। उसके बाद दोनों ने संभोग आरंभ कर दिया।

क्या किसी सेनापति को जन्म देने का यह उचित तरीका है? संसर्ग का आनंद लेने के लिए वे इस बहाने सहवासरत क्यों हुए होंगे? मैं ये बातें सप्रमाण बता रहा हूं। ठीक है, उसके बाद क्या हुआ था। उनका संभोग लंबा खिंचता गया। केवल कुछ घंटे, दिन, सप्ताह या महीने नहीं। देवताओं का सेनापति पैदा करने के लिए वे दोनों 1000 वर्षों तक एक-दूसरे के साथ सहवासरत पड़े रहे। बावजूद इसके उनके कोई बच्चा नहीं हुआ। बेचारे देवता परेशान थे। वे घबराये हुए थे। आखिरकार वे महादेव और पार्वती के निकट पहुंचे तथा उनसे अपनी अनिच्छा जाहिर की। इसपर महादेव और पार्वती ने उसका कारण जानना चाहा। देवताओं को भय था कि 1000 वर्षों लंबे संभोग से पैदा हुआ देवता खुद उन्हें भी नष्ट कर सकता है। यह सुनते ही पार्वती और महादेव संभोग छोड़कर एक-दूसरे से अलग हो गए। इस बीच महादेव स्खलित हुए और उनका वीर्य नदी की तरह बह निकला। बहता-बहता वह नदी में जा मिला। तुरंत उसने बाढ़ का रूप ले लिया। नदी से होती हुई वीर्य की लहर समुद्र तक पहुंची। समुद्र की सतह पर तैरती हुई वीर्य की उस लहर ने छह सिरों का रूप ले लिया।

यह कैसी गणना है? उसके केवल छह सिर ही क्यों थे? इस शंका का समाधान, इसकी व्याख्या करने कौन करेगा?

छह सिरों वाली वीर्य की वह लहर धारा गंगा तक पहुंची। वहां एक स्त्री खड़ी थी। उसने अपने हाथ बढ़ाकर उस वीर्य को उठाया तथा अपने गले से लगा लिया। वीर्य तत्क्षण छह सिर वाले मनुष्य में बदल गया। उस स्त्री ने किसी तरह उस छह मुंह वाले देवता को दुग्ध पान कराया; तथा उस बच्चे को नाम दिया—अरमुगम। यह वैष्णवियों द्वारा की गई व्याख्या है। इसका विवरण वाल्मीकि रामायण में उपलब्ध है।

शैव मतावलंबी इसकी अलग व्याख्या करते हैं। उसके अनुसार शिव और पार्वती को संभोगरत हुए 1000 वर्ष बीत जाने से प्रतीक्षारत देवता अकुला गए। उन्होंने उन दोनों से संभोग रोक देने का आग्रह किया। शिव ने मना कर दिया। कहा कि यदि उसने संभोग बीच ही में रोक दिया तो उनका वीर्य उद्दाम वेग से बह निकलेगा। उन्होंने देवताओं से कहा कि हाथ खड़े होकर उसे अपने हाथों में संभाल लें। देवताओं ने ऐसा ही किया। शिव ने संभोग रोक दिया। वीर्य बह निकला। देवताओं ने उसे अपनी हथेलियों में संभाल लिया। तदनंतर शिव ने देवताओं से वीर्य को पी लेने का आग्रह किया। देवताओं ने उसे पी लिया। उसी क्षण उनके गर्भ ठहर गया। यह देख वे फिर चिंतातुर हो गए। उन्होंने फिर शिव की प्रार्थना की। तब शिव ने उन्हें मुक्ति का मार्ग बताया। उन्होंने देवताओं से एक विशिष्ट तालाब में जाकर स्नान करने का आग्रह किया। परेशान देवता तुरंत उस तालाब तक पहुंचे और वहां स्नान किया। इससे उनका गर्भ स्खलित हो गया।

सज्जनो! ये सब कहानियां पौराणिक ग्रंथों में तरह-तरह से दी हुई हैं।

गर्भ स्खलित होने के बाद शिव के वीर्य की कुछ बूंदें गिर पड़ीं, उन्हीं से सुब्रमणियम का जन्म हुआ। उसे ‘कांदन’ भी कहा जाता है। संस्कृत में ‘कांदन’ का अर्थ ‘वीर्य’ है। तमिल में हम जिसे ‘कांदन’ कहते हें। संस्कृत में उसको ‘स्कंद’ कहा जाता है। ‘संस्कृत में उसका अर्थ ‘निकल पड़ना’ या ‘उछलना’ है। उसका आशय स्खलन से है। तमिल में जो ‘अरुमुगम’ है, वही ब्राह्मणों के लिए ‘सुब्रमणियम’ है।

देखें, ब्राह्मणों ने देवताओं को कितना सम्मान दिया हैं। ब्राह्मणों ने देवताओं को इसी तरह के घृणास्पद तरीकों से गढ़ा है।

ब्रह्मा

अब एक और देवता ब्रह्मा के आचरण पर गौर करें। यह बताया गया है कि उसने अपनी ही पुत्री सरस्वती के साथ विवाह किया था। यह भी पुराणों में आया है।

ब्रह्मा ने एक लड़की की रचना की। वह बहुत सुंदर थी। इसलिए वह उस लड़की पर इतना सम्मोहित हो गया कि उसने अपनी इच्छापूर्ति के लिए दबाव डाला। सरस्वती ने मना कर दिया और अपनी ऐड़ियों तक झुक गई। उसके बाद ब्रह्मा हरिण बन गया और उसकी पुत्री हरिणी बन गई। दोनों दौड़ते-दौड़ते शिव के पास पहुंचे। सरस्वती ने शिव के आगे अपने पिता की शिकायत की। महादेव ने ब्रह्मा को फटकारा। ब्रह्मा ने कहा कि सरस्वती के सौंदर्य को देखकर ही उसमें उससे सहवास की इच्छा जन्मी है और प्यार जब वासना में बदल जाए तो किसी के लिए भी उसे नियंत्रित कर पाना संभव नहीं है। माताओं, बहनों और बेटियों में भेद न कर पाने के पीछे उनकी भला कौन-सी समझदारी, कैसा देवत्व था? जो बात ब्रह्मा ने शिव से कही थी, वही बात शिव ने सरस्वती के आगे रख दी। सरस्वती ने महसूस किया कि स्वयं शिव भी अपनी पुत्री से प्रेम करते थे।

दोस्तो! इस तरह की कहानियां गढ़ने का उद्देश्य क्या था? किसके लिए? इन कहानियों से किसे लाभ पहुंचता था? आप बस इतना समझ लें कि ये कहानियां उन दिनों गढ़ी गई थीं, जब लोग अशिक्षित थे। किसी भी विषय पर गहन विचार कर पाने का सामर्थ्य उनमें नहीं था। आजकल लोगों के पास ज्ञानार्जन के सभी अवसर हैं। वे सोच-समझकर किसी निष्कर्ष तक पहुंचने में सक्षम हैं।

मैं समझता हूं कि यह बात आप भली-भांति समझ चुके होगे कि पुराणों में जो लिखा है, वह सच से सर्वथा परे है। उसे गंदा, अश्लील, गंवारू, असभ्य और मनुष्य के विकास का अवरोधक मानकर उसकी भत्र्सना की जानी चाहिए।

‘आत्मसम्मान आंदोलन’ के बुद्धिवादी अभियान का उद्देश्य लोगों का ध्यान भटकाने के लिए नहीं है। बुद्धिवाद का मकसद ‘कुदाल’ को ‘कुदाल’ यानी जो जैसा है, वही बताना है। दूसरी ओर खुद को शंकराचार्य और माधवाचार्य का शिष्य बताने वाले लोग भी हैं, जो लोगों का ध्यान उनकी प्रगति से हटाना चाहते हैं। ऊंचे-ऊंचे मंचों पर विराजमान ये आध्यात्मिक गुरु लोगों के सम्मान के पात्र हैं। लोग उनपर विश्वास करने के लिए ही बने हैं। यही कारण है कि हमने एक अलग संस्था का गठन किया है, जिसका उद्देश्य लोगों को जागरूक करना है। हमारे अभियान के बिना मनुष्य को जागरूक नहीं किया जा सकता। न ही वह वुद्धिमान बन सकता है।

एक सभा के दौरान मैं कुनराक्कुदी आदिगलार6 से मिला था। उनकी उपस्थिति में मैंने देवताओं और पुराणों पर भाषण दिया था। मैंने उनके अस्तित्व से इन्कार किया था। कहा था कि केवल मूर्ख लोग ही ईश्वर पर विश्वास कर सकते हैं। आदिगलार भाषण के लिए खड़े हुए तो उन्होंने बताया कि वे ईश्वर में विश्वास करते हैं। उन्होंने मुझपर नास्तिकता के प्रचार का आरोप लगाया था, लेकिन कुल मिलाकर उनका आरोप उन लोगों पर था जिन्होंने अस्वाभाविक तरीके से ईश्वर को गढ़ा था। वे मेरे साथ तर्क करने, मेरे कथन का तर्कसंगत खंडन में सक्षम नहीं थे। इसलिए चतुराईपूर्वक वहां से निकल गए थे।

कोई भी व्यक्ति भला तार्किकता और तर्कसंगत बनने से कैसे इन्कार कर सकता है। खासकर तब जब सारी की सारी पुराकथाएं इतने बेहूदा तरीके से लिखी गई हों। अब विचारणीय बात यह है कि इस तरह की कहानियां 2000 वर्ष ही क्यों रची गई थीं। उन दिनों के लोग मूर्ख थे। लेकिन आज भी उन्होंने मंदिर बना लिए हैं। उन्होंने देवताओं की रचना की है। धर्म को फैलाया है। यह सब वे यह सोचकर करते हैं कि आम जनता आज भी मूर्ख है। आखिर क्या कारण हैं कि वे हमारे बुद्धिवादी आंदोलन से ईर्ष्या करते हैं? जबकि हम तो नि:स्वार्थ सेवा में लगे हैं।

आज तक भी, हमारे पास अपनी और ऐसी सरकार नहीं है जिसमें ब्राह्मणों का वर्चस्व न हो। पुराने जमाने में जो राजा-महाराजा शासन करते थे, वे ब्राह्मणों का पूरा-पूरा साथ देते थे। उनके आगे गुलामों की तरह झुके रहते थे. हमारे चेर, चोल, पांडया सम्राट क्या कर रहे थे? वे भी ब्राह्मणों के सम्मान में झुके रहते थे।

केवल इसी शताब्दी में स्थितियों ने बदलना शुरू किया है। यहां तक कि जब मैं बच्चा था, स्त्रियां  ब्राह्मण की पहली नजर को आशीर्वाद जैसा मानती थीं। यह भावना उनके भीतर थी कि ब्राह्मण की उपस्थिति मात्र से स्वर्ग के दरवाजे उनके लिए खुल सकते हैं। संभव है ये सब बातें आज आपकी जानकारी में न हों। मैं आपको पिछले जमाने के बारे में बता रहा हूं। उन दिनों गाय के गोबर को छूना भी पवित्र माना जाता था, जैसा कि आज भी माना जाता है। इसलिए ब्राह्मण को पवित्र समझना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

नास्तिक

हमने दुनिया में कितने बदलाव देखे हैं? अनुमान लगाया गया है कि इस समय(1971 में) दुनिया की जनसंख्या 400 से 450 करोड़ है। उनमें से करीब 125 करोड़ लोग स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वे ईश्वर में विश्वास नहीं करते। 100 करोड़ लोग खुद को गर्व से बुद्धिवादी बताते हैं। सोवियत संघ में करीब 35 करोड़ लोग नास्तिक हैं। उन्होंने गिरिजाघरों को ढहा दिया है। बाइबिल को उन्होंने आग के हवाले कर दिया है। धर्माचार्यों की उन्होंने हत्या कर दी है। परिणाम क्या हुआ? आप इसे खुद देख सकते हैं। वहां न कोई धनवान है, न ही विपन्न। सभी समान हैं। सभी खुश हैं। चीन के 85 करोड़ लोगों में से 75 करोड़ जनता बौद्ध धर्म में विश्वास करती है। बर्मा में 2 करोड़ लोग बौद्ध धर्म को मानते हैं। श्रीलंका में दो-तिहाई जनता बौद्ध धर्म को मानने वाली है। स्याम(थाइलेंड) में तीन-चौथाई लोग बौद्ध हैं। इतने सारे लोग ईश्वरीय सत्ता की मौजूदगी से इन्कार करते हैं। वे ईश्वर में आस्था नहीं रखते। वे सभी नास्तिक हैं।

यूरोप में अनेकानेक तर्कवादी संगठन हैं। जर्मनी, स्पेन, ग्रीक तर्कवादी संगठनों, शोध-केंद्रों, सत्यशोधक संगठनों, थिंकर्स ऐसोशिएसन, नास्तिक संगठन आदि के बल पर आधुनिक सभ्यता का उदाहरण बन चुके हैं। हर शहर में इन संगठनों के लाखों सदस्य मौजूद हैं। मैं उन सभी स्थानों का भ्रमण कर चुका हूं। पेरिस में मैं एक नास्तिक संगठन का मेहमान बना था। उन्होंने एक पत्रिका प्रकाशित की थी। आप उसमें ‘क्रास’ के निशान को तलवार से कटते हुए देख सकते हैं। यह दर्शाता है कि ‘क्रास’(ईसाइयों का धार्मिक चिह्न) महज दिखावटी है। ईश्वर को मारा जा रहा है। केवल इस्लाम ही है जो धर्म के नाम पर इधर-उधर की बातों में उलझा हुआ है। वे केवल सामाजिक एकता पर ध्यान देते हैं।

त्योहार

भारत में मंदिरों की भरमार है। हर मील पर कम से कम पांच-छह मंदिर नजर आ जाएंगे। प्रत्येक मंदिर में 20, 30 से लेकर सौ-सौ भगवान हो सकते हैं। इन मंदिरों में तीन से लेकर छह-छह बार इन प्रभुओं की पूजा की जाती है।

इसके अलावा, प्रतिवर्ष तीन-चार बड़े त्योहार आते हैं। लड़कियों से मिलने के लिए युवा लड़के इन त्योहारों की बेताबी से प्रतीक्षा करते हैं। लड़कियां अच्छी तरह सज-धजकर लड़कों को लुभाने मंदिर और त्योहारों में शामिल होती हैं। इस मुलाकात को ही वे त्योहार कहते हैं। कुछ वर्ष पहले तक, भीड़ जुटाने के लिए मंदिरों में वेश्याओं को बुलाया जाता था। बड़े मंदिरों में तो सौ-सौ वेश्याओं को आमंत्रित किया जाता था। अपने शहर कस्बे में तो हर वेश्या मंदिर के उत्सव में शामिल होती थी। यह पुरानी परंपरा थी। आजकल यह परंपरा धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। हम अपने परिवार की स्त्रियों को बाहर जाने की आजादी नहीं देते। मगर उन्हें मंदिर जाकर उत्सव में शामिल होने की अनुमति होती है। वे क्या कर सकती थीं? केवल स्त्रियों के मंदिर जाने के नाम पर ही पुरुष शांत रहते हैं। इसलिए उनके पास युवाओं के मिलने के लिए उससे अच्छा और कोई बहाना ही नहीं होता। स्वाभाविक रूप से कि मंदिर उत्सव, युवा लड़के-लड़कियों के एक-दूसरे से मिलने के लिए अच्छा अवसर लेकर आते हैं। बड़ी भीड़ जुटाने के इसके अलावा और इंतजाम भी करने पड़ते हैं। ईश्वर को इतने सारे प्रचार की क्या आवश्यकता है? इतनी चमक-दमक, तामझाम और दिखावा किसलिए? इन उत्सवों की आखिर क्या आवश्यकता है?

हम, तर्कशील लोग इन मंदिरों, भगवानों और उत्सवों के विरुद्ध हैं। हम बड़े परिवर्तन की कामना करते हैं। यह कैसे संभव है? हम मानते हैं कि बड़े बदलाव के लिए प्रचार-प्रसार ही एकमात्र रास्ता है। हम लोगों को अपने तर्कों द्वारा समझाने की कोशिश करते हैं। उन्हें वास्तविक तथ्यों से अवगत कराते हैं। बिना इसके उनकी मुक्ति का दूसरा कोई रास्ता नहीं है। इसलिए हम लोगों को जागरूक करने की कोशिश करते हैं। हमें ईश्वरों पर हमला करते देख कुछ लोगों को दुख होता है। वे इस बात को नहीं समझते कि ईश्वर, मंदिर और धर्म जैसी बुराइयों को चुनौती दिए बिना समाज में अभीष्ट परिवर्तन असंभव है।

इस निरंतर परिवर्तनशील दुनिया की ओर देखो। एक साथ कई बदलाव बड़ी तेजी से हो रहे हैं। हम सफलता की सीढ़ी के आखिरी पायदान पर हैं। हम शैक्षिक रूप से काफी पिछड़े हुए थे। दो हजार वर्ष पहले, हजार लोगों में केवल एक व्यक्ति पढ़ा-लिखा होता था। वह भी ब्राह्मण हुआ करता था। वह भी आधी-अधूरी शिक्षा प्राप्त होता था। जो रटाई गई चीजों को केवल कंठस्थ करके रखता था। लिखना और पढ़ना उसे नहीं आता था।

आप संस्कृत के बारे में क्या सोचते हैं। ब्राह्मण अपनी भाषा के बारे में गर्व के साथ बात करते हैं। क्या वह लोकप्रिय लिपि है? वेदों का तो वे खूब महिमामंडन करते हैं। उनकी भी कोई लिपि नहीं है। वह महज ध्वनियां हैं। उन्होंने हाल ही में सुधरना शुरू किया है।

जनसंख्या

जिस समय ईसा मसीह का जन्म हुआ, दुनिया की आबादी महज 20 करोड़ थी। सन 1460 में यह आवादी 47 करोड़ थी। आबादी को दुगुना होने में 1500 वर्ष लगे थे। 1800 ईस्वी में वह बढ़कर 74 तक पहुंच गई। जनसंख्या बढ़ने के पीछे अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं का बड़ा योगदान था। 1914 में विश्व की जनसंख्या 165 करोड़ थी। उसके बाद वैश्विक जनसंख्या ने तेज गति से बढ़ना शुरू कर दिया। हर 15 वर्ष में वह दो गुनी हो जाती थी। 1955 वह बढ़कर 360 करोड़ हो गई। 1964 में उसने 380 करोड़ का आंकड़ा छू लिया। उसके छह वर्ष बाद, 1970 में विश्व की जनसंख्या बढ़कर 400 करोड़ तक पहुंच गई। विज्ञान और प्रौद्योगिकीय आविष्कारों की मदद से स्वास्थ्य सेवाओं में हुए सुधार के कारण विगत शताब्दी में दुनिया की जनसंख्या तेजी से बढ़ी है। तमिलनाडु में यह 4 करोड़ से बढ़कर 5 करोड़ तक पहुंच चुकी है। इन दिनों मनुष्यों की जनसंख्या अपेक्षा सुरक्षित है। मृत्युदर में आई कमी के कारण वह तेजी से बढ़ रही है।

आज मनुष्य की औसत जीविता 45 वर्ष है। पश्चिमी देशों में मानव जीविता 70 वर्ष है। हम इन निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि अगले तीन दशकों के बाद मनुष्य की औसत उम्र 75 वर्ष हो चुकी होगी।7 जबकि यूरोपवासियों का औसत जीवनकाल 100 वर्ष को भी पार कर चुके होगा। यहां आंकड़ों की गणना औसत के आधार पर की गई है। बहुत से लोग इस वृद्धि के कारण को नहीं समझते।

प्राचीन काल में यदि किसी एक गांव में हैजा फैलता था तो पूरे गांव पर मौत बरस पड़ती थी। कई बार तो एक आदमी भी जीवित नहीं बचता था। हाल-फिलहाल की बात यह है कि एक बड़े शहर में 8 लोग हैजे के कारण मारे गए। इससे वहां के स्वास्थ्य अधिकारियों की खिंचाई हुई। उनसे पूछा गया कि बीमारी को रोकने के लिए उन्होंने पहले ही आवश्यक कदम क्यों नहीं उठाए थे। यह सब विज्ञान के क्षेत्र में तरक्की के कारण संभव हुआ कि हम लोगों के जीवन और स्वास्थ्य दोनों का ध्यान रख पा रहे हैं। मुझे थातमबट्टी की एक घटना याद है। वह मेरी मां का पैत्रिक गांव है। उस गांव में हैजा फैला, तो पचास घर एकदम वीरान हो गए। आज भी वहां 3-4 घर हैं।

उन दिनों सलेम में जब हैजा फैलता था तो हर साल 2000 से 3000 जानें ले लेता था। जिन दिनों में इरोद नगरपालिका का अध्यक्ष था, वहां एक साल हैजे के कारण 400 जानें गई थीं। अब इस तरह की मौतें अपवाद बनती जा रही हैं। क्यों? इसलिए कि स्वास्थ्य अधिकारियों ने महामारियों की रोकथाम के लिए सुरक्षात्मक कदम उठाए हैं। नहरें खोदी गई हैं। पानी को छानकर घरों में पहुंचाया जाता है। पानी में बैक्टीरिया नाशक रसायन डाले जाते हैं। इंजेक्शन लगवाने को अनिवार्य कर दिया गया है। उसके फलस्वरूप संक्रामक बीमारियों से होने वाली मौतें थम चुकी हैं।

उन दिनों यदि किसी को टीबी हो जाती तो उसकी मौत निश्चित थी। आज ऐसा नहीं है। अनेक मामलों में सफल इलाज हो चुका है। उन दिनों अनेक बीमारियों का तो इलाज ही नहीं था। इसलिए उनसे होने वाली मौतें भी ज्यादा थीं। आज अस्पतालों में डॉक्टर लगभग सभी बीमारियों का उपचार करने में सफल होते हैं।

सज्जनो! क्या आपने विज्ञान और स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में हुई महान प्रगति के बारे में नहीं सुना है? आजकल डॉक्टर किडनी और हृदय का प्रत्यारोपण करने में भी सफल हैं। वे झूठे नहीं हैं। आगे आप और भी चमत्कार देखने वाले हैं। सन 2000 ईस्वी में आप देखेंगे कि लोग 100 वर्ष लंबा जीवन जी रहे हैं। आने वाले समय में मनुष्य की जीविता 150 वर्ष भी हो सकती है। अपने बुद्धिबल की बदौलत मनुष्य ढेर सारी उपलब्धियां प्राप्त करने वाला है।

आपने देखा, मैं 92 वर्ष पार करने के बाद भी जिंदा हूं। अनेक लोगों ने मुझे आराम करने की सलाह दी थी। मैं नाराज हो गया। आराम की जरूरत किसे है? आराम की जरूरत तो धनवानों के लिए है। उन लोगों के लिए है जो महान होने के गुमान में घर से तने-तने निकलते हैं। मैं आराम क्यों करूं? मैं मानता हूं कि कुछ न करना और शांत पड़े रहना भी एक बीमारी है। जहां तक मेरा मामला है, मेरे पास पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं। मैं तो जहां भी जाता हूं, वहां जो भी मिले खा लेता हूं। मैने रेलगाड़ियों में कई रातें बिताई हैं। बावजूद इसके मैं 92 वर्ष की उम्र में भी जीवित हूं।

यदि आप पुराने ढंग से अंधविश्वासियों की तरह सोचें तो मुझे बहुत पहले मर जाना चाहिए था। मैं वह हूं जिसने भगवान को चप्पलों से पीटा था। ऐसा व्यक्ति भला जीवित कैसे रह सकता है? इस समय तक तो मुझे अंधा हो जाना चाहिए था। शरीर को अनगिनत बीमारियों का डेरा बन जाना चाहिए था। आप क्या देखते हैं? मैं अभी तक चुस्त-तंदुरुस्त हूं। आज सभी बीमारियों के उपचार के लिए संसाधन हैं।

एक बार मुझे मूत्राशय संबंधी समस्या हुई थी। ऑपरेशन द्वारा डॉक्टरों ने उसका इलाज कर दिया। मुझे उसके बारे में कुछ भी मालूम नहीं था। डॉक्टरों ने मुझसे पूछा था, क्या मैं ऑपरेशन कराना पसंद करूंगा। मैंने उनसे कहा कि यदि उन्हें अपने ऊपर पूरा विश्वास है तो वे कुछ भी कर सकते हैं। मैं बिस्तर पर था। नींद में डूबा हुआ। वे मुझे ऑपरेशन कक्ष में ले गए। ढाई घंटों तक वे ऑपरेशन करते रहे। उसके बाद मुझे बाहर लाकर बिस्तर पर लिटा दिया गया। एक-दो घंटे के बाद मुझे होश आ गया। मैं जानता था कि मेरा ऑपरेशन हुआ था। मैंने उसके बारे में पूछाताछ की। उन्होंने बताया कि सब कुछ निपट चुका है। ‘सबकुछ’ के बारे में अगले दिन ही जान पाया। वह सब कैसे हुआ था? उन्होंने कुछ दवाइयां लिखी थीं। मुझे इंजेक्शन भी लगे थे। उनसे मैं कुछ देर के लिए बेहोश हो गया था। आखिर सब कुछ ठीक-ठाक निपट गया। इस बीमारी की तरह दूसरी बीमारियों के इलाज के लिए भी हर दिन नई-नई औषधियों की खोज की जा रही है।

लेकिन हमारे बारे में क्या है? हम आज भी चिकने पत्थर से बने लिंग को भगवान मानकर पूज रहे हैं। हम उसके साथ विवाह करते हैं। हम मूर्तियों को वेश्या के कोठे तक ले जाते हैं। भगवान के रथ को खींचते हैं। इन सब मूर्खतापूर्ण गतिविधियों से हम क्या हासिल करने वाले हैं?

इसके ऊपर प्रतिवर्ष लाखों रुपये खर्च किए जाते हैं। रथ का वजन 150 टन है। उसे खींचने के लिए लगभग 5000 लोगों की जरूरत पड़ती है। प्रत्येक को मजदूरी के रूप में दो रुपये दिए जाते हैं। आज, 1971 में भी सरकार उसका समर्थन करती है। देखा कितने मूर्ख हैं हम। हमारे लिए मुक्ति का ठौर कहां है?

इसलिए मेरे प्यारे साथियो, हमें सभ्य आदमी बनने का प्रयत्न भी करना चाहिए। उसके लिए हमें धर्म, ईश्वर, शास्त्र तथा अन्यान्य अंधविश्वासों से पीछा छुड़ाना होगा। मुक्ति पानी होगी उनसे। हमें पुराणों को फाड़कर, उनकी चिंदी-चिंदी करके कूड़ेदान में फैंक देना चाहिए। हमें यह पता होना चाहिए कि मनुष्य से बड़ी कोई शक्ति नहीं हैं। ईश्वर नाम की कोई चीज नहीं हैं।

सज्जनो, मैं बहुत लंबा बोल चुका हूं। फिर भी बहुत-सी चीजें छूट रही हैं। कई बातों पर बोलना बाकी है। आपको इस तरह की कहानियां दुनिया में और कहीं नहीं मिलेंगीं। ब्राह्मण और शूद्र आपको केवल यहीं तमिल नाडु, भारत में ही मिलेंगे।

स्वयं शंकराचार्य ने भी माना है कि ये कहानियां पढ़े-लिखे लोगों के लिए नहीं हैं। वे केवल अशिक्षित लोगों के लिए हैं। आम लोग ईश्वर के अस्तित्व पर भरोसा करने लगें, केवल इसलिए कि इन कहानियों को रचा गया है।

यदि हम चुप रहकर, चीजों पर आंख मूंदकर विश्वास करते रहे, तो कभी प्रगति नहीं कर पाएंगे। ब्राह्मण अपने स्वार्थ की फसल काटते रहेंगे। यही कारण है कि हम ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ के अभियान द्वारा लोगों को जागरूक करने का काम करते हैं। हम लोगों से अपील करते हैं कि वे अपने अंध विश्वासों से मुक्ति पाएं। हम अपने तर्कवादी देश के लोगों को सुख-सुविधामय और सम्मानित जीवन के योग्य बनाना चाहते हैं। जैसा कि दूसरे देशों के नागरिकों को उपलब्ध है।

अंत में, मैं आपसे कहता हूं कि मैंने जो भी कहा है, उसपर आंख मूंदकर विश्वास न करें। अपने आप सोचें। यदि आपको लगता है कि जो मैंने कहा वह सही है, तो उसे स्वीकार करें और कल से ही अपने जीवन को नया मोड़ दें। यदि आप हमारे संगठन का सदस्य बनना चाहते हैं, तो मंदिरों में जाना छोड़ दें। अपनी पहचान के साथ कोई जातिसूचक चिह्न न लगाएं। ब्राह्मणों को एक पैसा भी दक्षिणा के रूप में न दें। उनके विशेषाधिकारों, मनमानियों और शोषण यहीं खत्म कर दें।

इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपने भाषण को समाप्त करता हूं।

—ई. वी. रामासामी पेरियार

संदर्भ:

1. ईसापूर्व छठी-सातवीं शताब्दी में भौतिकवादी चिंतन अपने देश में चरम पर था। आजीवक, चार्वाक, लोकायत, वैनायिक जैसी अनीश्वरवादी विचारधाराएं वैदिक धर्म को चुनौती देती रहती थीं। दीघनिकाय(ब्रह्मजाल सुत्त) में गौतम बुद्ध ने अपने समय में प्रचलित 62 दार्शनिक मतों का उल्लेख किया है। बौद्धधर्म, ठेठ अनीश्वरवादी विचारधाराओं और ईश्वरवादी विचारधाराओं(वैदिक धर्म-दर्शन) के सम्मिलन से जन्मा मध्यममार्गी दर्शन था। उसकी गिनती नास्तिक दर्शनों की परंपरा में की जाती है। उन दिनों ब्राह्मण धर्म-दर्शन समाज के अल्पसंख्यक अभिजनों का धर्म-दर्शन था। बहुसंख्यक समाज आजीवक और लोकायत परंपरा में विश्वास रखता था।

2. 11वीं शताब्दी के शैव संत नांबियार नंबी के अनुसार, मदुरै में सातवीं शताब्दी के शैव संत संबदार ने जैन श्रमणों को लंबे शास्त्रार्थ के दौरान पराजित किया था। उससे प्रभावित होकर जैन सम्राट सुंदर पांडयान, जिसे कून पांडयान भी कहा जाता है, ने शैव धर्म अपना लिया था। उससे पहले वह शैव मतावलंबी ही था। जैन धर्म से प्रभावित होकर उसने उस धर्म में दीक्षा ली थी। उसके बाद वह दिगंबर साधु बना और कालांतर में एक मठ का अध्यक्ष भी। बताते हैं कि जैन मठ का अध्यक्ष रहते वह बीमार पड़ गया। तब शैव संत संबदार ने उसका इलाज किया था। ठीक होने के बाद सुंदर पांडयान ने जैन धर्म छोड़ वापस शैव धर्म में शामिल हो गया। संबदार के कहने पर ही उसने 8000 जैन श्रमणों को सूली पर चढ़ा दिया था। कुछ विद्वानों का मत है कि उसके बाद मदुरै से जैन धर्म का अंत हो गया था। पॉल दुंडास के अनुसार उस घटना को मदुरै के प्रसिद्ध मीनाक्षी मंदिर सहित अनेक मंदिरों तथा शैव एवं जैन ग्रंथों में दर्शाया गया है। —स्रोत: दि जैन्स, पॉल दुंडास, रालिज, टेलर एंड फ्रांसिस ग्रुप, लंदन/न्यु यार्क, दूसरा संस्करण, पृष्ठ 127।

3. ‘थेवरम’ और ‘प्रबंधम’ प्रसिद्ध तमिल शैव ग्रंथ हैं.

4. भगवान नारायण ने अपने मस्तक से दो केश निकाले, उनमें एक सफेद था और दूसरा श्याम। ये दोनों केश यदुवंश की दो स्त्रियों देवकी तथा रोहिणी के भीतर प्रविष्ट हुए। उनमें से रोहिणी के बलदेव प्रकट हुए, जो भगवान नारायण के श्वेत केश थे। दूसरा केश जिसे श्याम वर्ण बताया गया है, वह देवकी के गर्भ से भगवान श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हुआ. महाभारत, आदिपर्व—196/32—33, गीता प्रेस गोरखपुर, 16वां संस्करण. हिंदी : अनुवाद गीता प्रेस,  

5. उत्तरी कर्नाटक, उन दिनों वह चालुक्यों की राजधानी थी। सातवीं शताब्दी में नरसिंह पल्लव ने चालुक्यों को हराकर, विनायक को अपने अधिकार में लिया था। आजकल यह स्थान उत्तरी कर्नाटक के बागलकोट जिले में पड़ता है।

6. कुनराकुद्दी आदिगलार(1925—1995) देवता मुरुगन को अपना आराध्य मानने वाले शैव मतावलंबी, तमिल आध्यात्मिक गुरु।  

7. सन 2001 में भारत में मनुष्य की औसत जीविता 62.69 वर्ष थी। 2020 में वह 69.63 वर्ष तक पहुंच चुकी है।

सच्ची रामायण का विरोध धार्मिक से कहीं ज्यादा राजनीतिक है

विशेष रुप से प्रदर्शित

मैं मानव समाज का सुधारक हूँ. मैं देश, धर्म, ईश्वर, भाषा अथवा राज्य की परवाह नहीं करता. मुझे केवल मनुष्यता के विकास और उसके कल्याण की चिंता है—पेरियार

बाइबिल का परमात्मा पक्के तौर पर सर्वाधिक ईर्ष्यालु, सर्वाधिक नाकारा, सर्वाधिक क्रूर, सर्वाधिक अन्यायी, सर्वाधिक रक्त पिपासु, सबसे ज्यादा निरंकुश तथा मानवीय गरिमा एवं स्वतंत्रता का सबसे बड़ा शत्रु था. जबकि शैतान शाश्वत विद्रोही और पहला मुक्त चिंतक था—मिखाइल बकुनिन, ईश्वर और राज्य.

‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी.’ प्रथम दृष्टया लोकतांत्रिक लगने वाली ये पंक्तियां तुलसी की हैं. पढ़कर लगता है कि लिखने वाले का लोकतंत्र में अटूट विश्वास है. वह साधक को अपनी भावना के अनुसार साध्य गढ़ने की छूट देता है. मगर इनमें लोकतंत्र की व्याप्ति मान लेना वैसा ही संभ्रम है, जैसे यह कहना कि कण-कण में भगवान हैं, इसलिए चराचर जगत में सभी बराबर हैं, दुनिया में आदर्श समानता है. ऊंच-नीच, जात-पात, छोटा-बड़ा, छूत-अछूत जैसा कुछ भी नहीं है. असल में, धर्म का यह उदार चेहरा उतना ही बनावटी है, जितना किसी पुरोहित का दक्षिणा मिलते ही ‘कल्याणम् भव’ कह, निस्पृह भाव से आगे बढ़ जाना. भारतीय समाज छोटे-छोटे समुदायों, धार्मिक और सांप्रदायिक समूहों, गोत्रों-उपगोत्रों तथा जातियों-उपजातियों में हमेशा बंटा रहा. उनके बीच वर्चस्व को लेकर संघर्ष भी लगातार चलते रहे.

हालांकि एक सीमा तक तुलसी गलत भी नहीं थे. जिस दौर में वे रामचरितमानस लिख रहे थे, समाज में रामकथा के अलग-अलग रूप प्रचलित थे. प्रत्येक समूह अपनी रामकथा को असली मानता था. बावजूद इसके रामायण के भिन्न कथारूपों पर विश्वास करने वाले समूहों में परस्पर कोई द्वेष नहीं था. अकेले राम सभी के ‘भगवान’ नहीं थे, लेकिन कोई राम को सबसे बड़ा देवता और भगवान माने, इसपर उन्हें कोई आपत्ति न थी. आदिवासियों, जनजातियों, शूद्रों, अतिशूद्रों के अपने-अपने देवता थे, जो राम जैसे अवतारी, उतने ही पराक्रमी और चमत्कारी; कहीं-कहीं तो उनसे भी आगे थे. राम के देवत्व पर भरोसा कर अपना आराध्य मानने वालों ने भी, उन्हें अपनी परंपरा और संस्कृति के अनुसार ढालने के बाद ही स्वीकार किया था. यही कारण है कि उस जमाने में सीता को राम की बहन बताने वाली जैन रामायण ‘पउमचरिय’ उतनी ही लोकप्रिय और सम्मानीय मानी जाती रही, जितनी राम-सीता को पति-पत्नी बताने वाली वाल्मीकि रामायण.

विभिन्न रामायणों के मुख्य पात्र भले ही एक हों, किंतु उनके चरित्र में आधारभूत अंतर है. जैन रामायण में ब्राह्मणों पर रावण को बदनाम करने का आरोप लगाया गया है. जैन मान्यता के अनुसार रावण उनके 63 शलाकापुरुषों में से एक था. उसके अनुसार राम और रावण दोनों जैन थे. मृत्यु के बाद राम को कैवल्य; तथा लक्ष्मण को नर्क प्राप्त हुआ था. वाल्मीकि, तुलसी, विमलसूरि(पउमचरिय) द्वारा रचित रामायणों के अलावा भी रामकथा के सैंकड़ों रूप दुनिया-भर में प्रचलित हैं. फादर कामिल बुल्के ने देश-विदेश में प्रचलित रामकथाओं की गणना कर, उनकी संख्या को 300 माना था. अपने लेख ‘थ्री हंड्रेड रामायण’ में ए. के. रामानुजन रामकथा की विविधता को दर्शाने के लिए जिस लोकश्रुति का सहारा लेते हैं, उसके अनुसार रामकथा अनंत रूपों में, अनादिकालीन कथा है. फिर पेरियार ने ऐसा क्या लिखा था, जिससे उनकी लिखी ‘सच्ची रामायण’ का नाम सुनकर ब्राह्मणवादी लाल-पीले होने लगते हैं?

मुख्य कारण था, पेरियार का रामकथा के प्रति दृष्टिकोण. पेरियार स्वयं नास्तिक थे. जहां रामायण के अन्य प्रारूपों के साथ कोई न कोई धार्मिक दृष्टिकोण जुड़ा था, पेरियार उसे धार्मिक पुस्तक मानने से ही इन्कार करते थे. उनका कहना था कि रामायण एक राजनीतिक ग्रंथ है. उसकी रचना ब्राह्मणों ने द्रविड़ों पर अपना प्रभुत्व दर्शाने के लिए की गई है. वह द्रविड़ों के आत्मसम्मान की विरोधी, उनकी अस्मिता का हनन करने वाली है. ‘दि रामायण: एक ट्रू रीडिंग’ की भूमिका में वे लिखते हैं—

‘रामायण और बरधाम(महाभारत) काल्पनिक ग्रंथ हैं….इन्हें आर्यों ने द्रविड़ों को अपने जाल में फंसाने, उनके आत्मसम्मान को नष्ट करने, निर्णय सामथ्र्य को कुंद करने तथा उनकी इंसानियत को पथभ्रष्ट करने के लिए रचा है. इन दोनों कथाओं के नायक क्रमशः राम और कृष्ण हैं. जो कि आर्य हैं और बेहद साधारण व्यक्ति हैं. ये कथाएं इसलिए थोपी गईं हैं, ताकि इनके कथानायकों, उनके परिजनों एवं सहायकों को अलौकिक एवं अतिमानवीय मान लिया जाए; तथा उन्हें पूजनीय मानकर, जनसाधारण द्वारा उनकी पूजा-अभ्यर्थना की जाए.’ बावजूद इसके रामासामी पेरियार की पुस्तक ‘दि रामायण: ए ट्रू रीडिंग’ जब तक तमिल और अंग्रेजी में थी, तब तक हिंदी पट्टी के ब्राह्मणवादियों को उससे कोई आपत्ति नहीं थी. इसलिए करीब 40 वर्षों तक उसके तमिल और अंग्रेजी में संस्करण पर संस्करण निकलते रहे.

पुस्तक को लेकर तूफान तब उठा जब कानपुर देहात के रहने वाले पेरियार ललई सिंह ने ‘सच्ची रामायण’ शीर्षक से उसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया. हिंदी अनुवाद दुलालपुर निवासी, राम आधार द्वारा किया गया था. उसे छापने के लिए उस समय कोई प्रकाशक तैयार नहीं था. इसलिए ललई सिंह ने उसे अपने प्रकाशन, ‘अशोक पुस्तकालय’ कानपुर से 1 अक्टूबर, 1968 को प्रकाशित किया था. मूल कृति ‘रामायण पादिरंगल’(रामायण के कथापात्र) शीर्षक से 1930 में प्रकाशित हुई थी. 1972 तक उसके दस संस्करण प्रकाशित हो चुके थे. पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद 1959 में आया था. उसके बाद दो और संस्करण क्रमशः 1972 और 1980 में प्रकाशित हुए. पुस्तक के हिंदी में आने की संभावना उसके अंग्रेजी अनुवाद के बाद ही बनी थी. ‘रामायण पादिरंगल’ की रचना से पहले पेरियार ने लगभग सभी उपलब्ध रामकथाओं यथा जैन, बौद्ध, कंब आदि का गहन अध्ययन किया था. विषय से संबंधित विद्वानों से बातचीत की थी.

रामकथा संबंधी उनके अध्ययन-चिंतन की सफल परिणति एक साथ दो पुस्तकों के रूप में हुई थी. दूसरी पुस्तक का नाम था—रामायण कुरीप्पुकल(रामायण के बारे में कुछ बातें). वह पहली की अपेक्षा अधिक गंभीर तथा कथानक की दृष्टि से मूल रामकथा के करीब थी. उनमें प्रसिद्धि मिली पहली पुस्तक को. अंग्रेजी में उसे मूल शीर्षक से थोड़ा हटकर, ‘दि रामायण: एक ट्रू रीडिंग’ शीर्षक से छापा गया. उसका हिंदी अनुवाद ‘सच्ची रामायण’ के रूप में सामने आया. हम सोच सकते हैं कि तमिल कृति ‘रामायण पादिरंगल’ यानी ‘रामायण के कथापात्र’ के हिंदी में ‘सच्ची रामायण’ के रूप में अनूदित होते-होते, शीर्षक के स्तर पर भी काफी अर्थ-परिवर्तन हो चुका था.

‘सच्ची रामायण’(रामायण पादिरंगल) की रचना विखंडनात्मक शैली में हुई है. वह रामकथा की स्थापित छवियों का खंडन करती थी. उसका उद्देश्य रामायण के कथापात्रों के चरित्र का वस्तुनिष्ट विवेचन है. जिस राम को तुलसी मर्यादापुरुषोत्तम कहकर ईश्वरतुल्य बना देते हैं, उसके बारे में पेरियार आरंभ में ही साफ कर देते हैं कि—‘राम कोई आदर्श व्यक्ति नहीं है.’ आगे वे विस्तार से राम के चरित्र को लेकर अपने विचार पेश करते हैं. शंबूक प्रसंग का उल्लेख करते हुए वे आगे लिखते हैं—

‘राम जिसने तपस्या कर रहे शंबूक की बगैर किसी गलती के, निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी थी, उस राम को विष्णु का अवतार माना जाता है. अगर आज राम की तरह का कोई राजा होता तो उन लोगों की क्या दशा होती, जिन्हें शूद्र(जो गालीनुमा संबोधन है) कहा जाता है!’

ऐसी वैचारिक प्रखरता, प्रतिबद्धता और साफगोई के कारण वह उसकी लोकप्रियता उत्तरोत्तर बढ़ती गई.

पेरियार ललई सिंह ने न केवल ‘दि रामायण: ए ट्रू रीडिंग’ का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया था, अपितु ‘सच्ची रामायण’ में पेरियार के तर्कों की पुष्टि के लिए, विभिन्न रामकथाओं से कुछ संदर्भ भी दिए थे. जिसे उन्होंने ‘सच्ची रामायण की चाबी’ कहा था. पाठकों की सुविधा के लिए दोनों पुस्तकों को एक ही जिल्द में छापा गया था. उदाहरण के लिए पेरियार ने सीता का वर्णन करते हुए उसके चरित्र की दुर्बलताओं को उजागर किया था तो पेरियार ललई सिंह ने उसकी पुष्टि के लिए रामचंद्र शुक्ल की पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ से, ‘श्रीरामावतार भजन तरंगिनी’ से एक पद उद्धृत किया था. पद में यूं तो पति-पत्नी का सहज रति प्रसंग है. लेकिन एक ‘वनवासी मर्यादा पुरुषोत्तम’ के संदर्भ से जुड़कर वह अशालीन लगने लगता है. पद में सीता का कथन देखिए—

‘हमारे प्रिय ठाड़े सरजू तीर।।टेक।।

छोड़ लाजि मैं जाय मिली, जहां खड़े लखन के वीर

मृदु मुसुकाय पकरि कर मेरी खेच लियो तब चीर

झाऊ वृक्ष की झाड़ी भीतर करन लगे रति धीर.1

कह सकते हैं कि पेरियार द्वारा, ‘दि रामायण: ए ट्रू रीडिंग’, के रूप में रामायण की विखंडनवादी अन्वीक्षा, ‘सच्ची रामायण’ में थोड़ी और मुखर, और अधिक व्यंजनात्मक हो चुकी थी. इसलिए ब्राह्मणवादियों के कान खड़े होना स्वाभाविक था. हिंदी में प्रकाशित होने के साथ पूरे हिंदी जगत में तूफान सा उठ गया. ललई सिंह पर मुकदमा ठोक दिया गया. यह कहकर कि पुस्तक हिंदुओं की भावनाओं को आहत कर, सामाजिक विद्वेष फैलाने वाली है, उसकी सभी प्रतियों को जब्त करने के आदेश सुना दिए गए. गौरतलब है कि प्रतिबंध और जब्ती के आदेश पुस्तक के केवल अंग्रेजी और हिंदी संस्करण के थे. तमिल तथा दूसरी दक्षिणी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित पुस्तक की बिक्री पर कोई पाबंदी नहीं लगाई गई थी. गोया तमिलनाडु या दक्षिण भारत के दूसरे हिस्सों में हिंदू रहते ही नहीं थे. इससे पेरियार के कथन कि रामायण एक राजनीतिक ग्रंथ है—की पुष्टि होती है. सच तो यह है कि ‘सच्ची रामायण’ के माध्यम से ब्राह्मणवादी राजनीतिक ताकतें, अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक सत्ता की पुनर्वापसी को अंजाम देने में लगी थीं.

पुस्तक को प्रतिबंध मुक्त कराने के लिए ललई सिंह यादव को लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी. उसका समापन 16 सितंबर, 1976 के उच्चतम न्यायालय के फैसले से हुआ. शीर्षतम अदालत ने प्रतिबंध को गलत बताकर, पुस्तक की जब्त की गई प्रतियां लौटाने का आदेश दिया था. उच्चतम न्यायालय के आदेश के बावजूद उत्तर प्रदेश सरकार औपचारिक आदेश जारी करने से बचती रही. 1995 में मायावती सरकार के दौरान पुस्तक प्रतिबंध-मुक्त हो सकी. उसके बाद से हिंदी पट्टी में ‘सच्ची रामायण’ की लोकप्रियता बढ़ती गई, मगर पोंगापंथी भी शांत न थे. वे विरोध के लिए नए सिरे से एकजुट होने लगे थे. नया दौर हिंदुओं का न होकर, हिंदुत्ववादियों का था. उनके भीतर पेरियार के प्रति नफरत कूट-कूट कर भरी थी. इसलिए नहीं कि पेरियार ने रामायण के पात्रों के चरित्र पर उंगलियां उठाई थीं. बल्कि इसलिए कि उन्होंने इन धर्मग्रंथों के पीछे छिपे ब्राह्मणवादियों के राजनीतिक मंसूबों को उजागर कर दिया था. पेरियार के प्रति उनके भीतर कितनी नफरत भरी थी, इस समझने के लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा.

2002 में लखनऊ स्थित आंबेडकर पार्क जब बन रहा था तो उसमें योजनानुसार ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, शाहूजी महाराज, डॉ. आंबेडकर, बिरसा मुंडा, कांशीराम जैसी बहुजन शख्सियतों की मूर्तियां स्थापित की गईं. मायावती उसमें पेरियार की मूर्ति भी लगवाना चाहती थीं. कलाकार को मूर्ति-निर्माण का आदेश जारी हो चुका था. उस समय प्रदेश में भाजपा के सहयोग से बनी बहुजन समाज पार्टी की सरकार थी. पेरियार का नाम सुनते ही विश्वहिंदू परिषद, बजरंग दल, हिंदू महासभा जैसे उग्रपंथी संगठन भड़क उठे. विनय कटियार ने ऐलान किया कि पेरियार की मूर्ति लगाई गई तो वे उसे ढहा देंगे. भाजपा ने समर्थन वापस लेने की धमकी दे डाली. बसपा पेरियार को अपना ‘आइकन’ मानती थी. उसके हर कार्यक्रम में ज्योतिबा फुले, डॉ. आंबेडकर, शाहूजी महाराज के साथ-साथ पेरियार के चित्र भी लगे होते थे. उस समय मायावती चाहतीं तो सामाजिक न्याय समर्थित वैचारिकी को महत्व देकर, सरकार को दाव पर लगाने का खतरा उठा सकती थीं. लेकिन उन्होंने राजनीतिक सत्ता को बचाने का अवसरवादी विकल्प चुना. बयान दिया कि सरकार का पेरियार की मूर्ति लगाने का कोई इरादा नहीं है. जबकि मूर्ति तैयार होकर शिल्पकार के स्टूडियो में प्रतीक्षारत थी.

मंदिर आंदोलन की आड़ में प्रदेश में दक्षिणपंथी ताकतें दुबारा मजबूत हुई तो उच्चतम न्यायालय के फैसले के बावजूद पुस्तक पर नए सिरे से प्रतिबंध लगाने की मांग की जाने लगी. 2007 में प्रदेश में सुश्री मायावती की सरकार थी. उस समय भाजपा की प्रादेशिक इकाई ने आरोप लगाया कि ‘बहुजन समाज पार्टी’ सच्ची रामायण का प्रचार-प्रसार कर रही है. उसके संरक्षण में प्रदेश में बड़े पैमाने पर पुस्तक की बिक्री की जा रही है. भाजपा की प्रदेश इकाई ने, पुस्तक को हिंदुओं की भावनाओं को आहत करने वाली बताकर, उसपर तत्काल प्रतिबंध लगाने की मांग की थी. भाजपा विधान मंडल के तत्कालीन नेता ओमप्रकाश सिंह ने सरकार से मांग की थी कि—‘हिंदू देवी-देवताओं के विरोधी तथा द्रविड़िस्तान की मांग करने वाले, अलगाववादी पेरियार रामासामी की सरकार निंदा करे तथा उन्हें महापुरुषों की श्रेणी में स्थान न दे.’ भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष रमापति राम त्रिपाठी ने दावा किया था कि 9 अक्टूबर को बसपा की रैली में ‘सच्ची रामायण’ की 4000 प्रतियां बेची गई थीं. हैरानी की बात यह है कि सामाजिक न्याय की बात करने वाली समाजवादी पार्टी भी, ‘सच्ची रामायण’ के विरोध में भाजपा का साथ दे रही थी. विधानसभा में विपक्ष के नेता और समाजवादी पार्टी के सदस्य अहमद हसन ने ‘सच्ची रामायण’ के जरिये सरकार पर निशाना साधते हुए कहा था कि—

‘भगवान राम के प्रति अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करना अच्छी बात नहीं है. पूरी दुनिया के मुसलमान स्वीडिश कार्टूनिस्ट द्वारा बनाए गए पैगंबर मोहम्मद के कार्टून की भर्त्सना कर रहे हैं. विवादित पुस्तक पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए.2

इससे अनुमान लगाया जाता है कि मामला जब धर्म की आलोचना का हो तो समय-समय पर एक-दूसरे के प्रतिद्विंद्वी की भूमिका में उतरने वाले धर्मावलंबी भी एक-दूसरे के समर्थन पर उतर आते हैं.

देखा जाए तो भाजपा का आरोप सरकार पर न होकर, ‘बहुजन समाज पार्टी’ पर था. उस पार्टी पर जो पेरियार को अपना आदर्श मानती थी. अपनी वैचारिकी पर दृढ़ रहने के बजाए, मुख्यमंत्री मायावती ने एक बार फिर पीछे हटने का फैसला किया. उनकी ओर से वक्तव्य जारी हुआ—‘बसपा तथा सरकार का सच्ची रामायण की बिक्री से कोई लेना—देना नहीं है.’ मामले पर राजनीति करने के बजाय, पुस्तक पर प्रतिबंध की मांग कर रहे नेताओं को केंद्र सरकार से संपर्क करना चाहिए, जहां उनकी अपनी पार्टी की सरकार है.3

इस प्रसंग का सबसे रोचक पहलू यह है कि जिस ‘सच्ची रामायण’ के विरोध को लेकर भाजपा सरकार पर लगातार आरोप लगा रही थी, तथा बिना आगा-पीछा सोचे कांग्रेस और समाजवादी पार्टी उसका साथ दे रही थीं, उसकी प्रति न तो भाजपा के पास थी, न सपा, न कांग्रेस और न ही बसपा के पास. यहां तक कि बसपा के साहित्य के प्रकाशक ‘बहुजन चेतना मंडप’ के पास भी उस पुस्तक की प्रतियां उपलब्ध नहीं थी. जबकि लखनऊ के सबसे बड़े पुस्तक विक्रेता ‘यूनीवर्सल बुक सेलर’ का दावा था, ‘हमने वह पुस्तक कभी नहीं बेची, न ही वह पुस्तक फिलहाल हमारे पास है.’ उल्लेखनीय है कि भाजपा के लखनऊ मुख्यालय में ‘सच्ची रामायण’ को लेकर 27—28 अक्टूबर 2007 को एक बैठक हुई थी. उसमें पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह और नेता लालकृष्ण आडवाणी भी मौजूद थे. उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं से प्रदेश भर में ‘सच्ची रामायण’ की बिक्री का विरोध करने को कहा था. जबकि जिस पुस्तक का बहिष्कार किया जाना था, उसकी एक भी प्रति उस बैठक में उपलब्ध नहीं थी.

भाजपा नेताओं द्वारा विधानसभा परिसर के आगे स्थित, अपने पार्टी मुख्यालय में ‘सच्ची रामायण’ की प्रतियों का दहन(का नाटक) किया था.4 भाजपा का ‘सच्ची रामायण’ के दहन का दावा कितना खरा था, इसे इंडियन एक्सप्रेस में अलका एस. पांडे की 7 नबंवर की रिपोर्ट से समझा जा सकता है. उसके अनुसार पार्टी ने जैसे-तैसे ‘सच्ची रामायण’ के कुछ पन्ने जुटाए थे. उन्हीं को जलाकर, पुस्तक के दहन का नाटक किया गया था. वे भूल गए कि किसी व्यक्ति को महापुरुष मानना या न मानना, सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा तय नहीं होता. थोपे गए महापुरुषों की कलई अल्पावधि में ही खुलने लगती है. उसके बाद जनता की निगाह में वे खलनायक सरीखे बन जाते हैं.

एक महत्वपूर्ण बात और भी है. रामायण को धार्मिक ग्रंथ न मानकर पेरियार ने उसे विशुद्ध राजनीतिक ग्रंथ माना है. पेरियार के आलोचक भी उनपर कुछ ऐसा ही आरोप लगाते हैं. उनके अनुसार पेरियार द्वारा हिंदू धर्म तथा उसके मिथकों की आलोचना पूर्णतः राजनीति से प्रेरित थी. पेरियार इससे इन्कार नहीं करते थे. अंतर सिर्फ इतना है कि ब्राह्मण कभी यह मानने को तैयार नहीं होते कि रामायण तथा रामकथा को हिंदू संस्कृति के केंद्र में रखने के पीछे उनकी राजनीति है. खुद को सबसे ऊपर, शिखर पर बनाए रखने की राजनीति. जबकि पेरियार अपनी मंशा को छिपाते नहीं हैं—

‘मैं अपने समाज के कुछ ऐसे पहलुओं पर प्रहार करता हूं, जो हमें नीचा दिखाते हैं. मेरा जोर इस बात पर है कि जब तक हिंदू धर्म, हिंदू देवताओं, हिंदू शास्त्रों, पुराणों, वेदों और इसके इतिहास पर हमारा विश्वास रहेगा, और जब तक हम इनका अनुसरण करते जाएंगे, तब तक हमारा दमन और शोषण जारी रहेगा. हम समाज की असमानताकारी स्थितियों से कभी उबर ही नहीं पाएंगे. इन सड़ी हुई स्थितियों से उबरने की कोशिश के बजाए, जो केवल इनका पालन करने में लगा रहेगा—वह चाहे जितनी बेहतर स्थिति में आ जाए, खुद को अपनी अवनति और अपमानजनक स्थितियों से कभी उबार नहीं पाएगा.’5

एक अन्य भाषण में उन्होंने कहा था—

‘मैं किसी को चाहे प्यार करूं अथवा घृणा; दोनों स्थितियों में मेरा सिद्धांत एक ही रहता है. वह सिद्धांत यह है कि मैं यह शिक्षा देता हूं कि धनी लोगों और प्रशासनिक अधिकारियों को गरीब लोगों का खून नहीं चूसना चाहिए.’6

पेरियार का मानना था कि बगैर हिंदू धर्म को मिटाए, जाति-भेद को मिटाना संभव नहीं है. वे धर्मांतरण के विरोधी थे. जाति-आधारित उत्पीड़न और अवमानना से बचने के लिए जिन लोगों ने धर्मांतरण का सहारा लिया था, उनकी सामाजिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया था. हिंदू धर्म में जो अछूत था, धर्मांतरण के बाद भी उसकी हैसियत अछूत जैसी ही रहती थी. इसलिए शूद्रों और अतिशूद्रों की राजनीतिक, सामाजिक भागीदारी को आवश्यक मानते थे. राजनीति में प्रवेश के साथ ही उन्होंने सभी वर्गों को उनकी संख्या के अनुपात में संरक्षण की मांग शुरू कर दी थी. उन दिनों अस्पृश्यों को मंदिरों में प्रवेश की स्वतंत्रता नहीं थी. पेरियार स्वयं नास्तिक थे. मगर मंदिर प्रवेश का मसला सामाजिक स्वतंत्रता से भी जुड़ा था. इसलिए तमिलनाडु कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद उसके तिरुपुर सम्मेलन में उन्होंने एक प्रस्ताव पेश किया, जिसमें सभी अस्पृश्यों को मंदिरों में प्रवेश की इजाजत की मांग की गई थी. लेकिन कांग्रेस कमेटी के ब्राह्मण सदस्यों ने उस प्रस्ताव का जोरदार विरोध विरोध किया. नाराज पेरियार ने तत्काल घोषणा की कि वे मनुस्मृति, रामायण आदि पुस्तकों, जिनका उपयोग कुटिल ब्राह्मणों द्वारा धार्मिक हथियारों के रूप में किया जाता है—दहन करेंगे.

वह अवसर 1956 में आया. पेरियार ने ऐलान किया कि 1 अगस्त 1956 को वे मद्रास के समुद्री तट पर राम की तस्वीरों की होली जलाएंगे. उत्तर भारत में दशहरे के अवसर पर हर वर्ष रावण के पुतले को आग लगाई जाती है. पेरियार रावण को आदर्श द्रविड़ राजा मानते थे. इसलिए उत्तर भारतीयों द्वारा रावण के पुतले को आग लगाने के विरोध में उन्होंने राम की तस्वीरों का दहन करने का ऐलान किया था. एक तरह से वह ब्राह्मणवादी संस्कृति का प्रतीकात्मक विरोध था. पेरियार की घोषणा के बाद तमिलनाडु के सभी नेताओं ने उनसे संपर्क कर, कार्यक्रम को टाल देने का अनुरोध किया. तमिलनाडु कांग्रेस के अध्यक्ष पी. काक्कन ने कहा कि राम की तस्वीरें जलाना ईश्वर के प्रति उस विश्वास की अवमानना होगी, जिसके भरोसे गांधी ने आजादी प्राप्त की है. उन्हें पेरियार के प्रस्तावित कदम को ‘असामाजिक कृत्य’ घोषित किया था. इसपर पेरियार ने अपने निश्चय पर दृढ़ रहते हुए जवाब दिया कि उनका यह कदम सामाजिक परिवर्तन के लिए अपरिहार्य है.

अगले ही दिन सुबह, घर से निकलने के साथ ही पुलिस उपायुक्त ने पेरियार को गिरफ्तार कर लिया. पेरियार इस स्थिति के लिए पहले से ही तैयार थे. घर से निकलते समय उनके पास माचिस की डिब्बियों, राम की तस्वीरों के अलावा एक बिस्तर भी था, जिसे वे जेलयात्रा की संभावना के कारण अपने साथ लेकर निकले थे. पेरियार के गिरफ्तार होते ही उनकी पत्नी समुद्र तट पर पहुंची जहां उनके समर्थक इकट्ठा थे. उन्होंने पेरियार की गिरफ्तारी की सूचना दी. इससे उनके समर्थक उग्र हो गए और साथ लाई राम की तस्वीरों को आग के हवाले करने लगे. उस समय तक पुलिस भी वहां पहुंच चुकी थी. करीब आधा घंटे तक पुलिस से बचने और गिरफ्तार होने का नाटक चलता रहा. लोग पिटते रहे, खुद को बचाने के लिए भागते भी रहे. भागते-भागते एक व्यक्ति रेत पर फिसल गया. पुलिस उसे गिरफ्तार करने को दौड़ी. लेकिन तब तक वह राम की तस्वीर को आग लगा चुका था. बाद में पेरियार सहित सभी को रिहा कर दिया गया. पेरियार का उद्देश्य पूरा हो चुका था.

पेरियार के जीवन से जाना जा सकता है कि उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था. वे जनता के बीच में खड़े होकर खुलेआम देवी-देवताओं का मखौल उड़ाते थे. धर्म और उसके प्रतीकों में आस्था और विश्वास को जनसाधारण की गरीबी और दैन्य के लिए जिम्मेदार मानते थे. कहते थे कि धर्म का मूल उद्देश्य, ईश्वर के गौरवगान की खातिर मनुष्यता का तिरष्कार करना है. इसपर धर्म भीरू लोग कहते कि पेरियार मूर्ख है. एक न एक दिन ईश्वर का कोप उनपर कहर टूटेगा. उस समय वह संभल नहीं पाएंगे. मगर पेरियार ने 94 वर्ष लंबा संघर्षमय जीवन जिया. अपनी मृत्यु से एक दिन पहले भी वे अपने मिशन को लेकर सतर्क थे. वे अंत तक कहते रहे कि यदि ईश्वर में जरा-भी शक्ति तो वह उन्हें दंड क्यों नहीं देता! उनसे उनका जीवन छीन क्यों नहीं लेता! खुद को ‘पंडित’ और धर्माधिकारी कहने वाले लोगों के पास पेरियार के इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था. आस्था और धर्म के नाम पर दूसरों को मूर्ख बनाते आए लोगों के पास पेरियार के तार्किक प्रश्नों का उत्तर हो भी नहीं सकता था.

ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भ :

  1. सच्ची रामायण और सच्ची रामायण की चाबी, अंबेडकर प्रचार समिति, मोती कटरा आगरा, पृष्ठ 76
  2. वेब दुनियाhttps://news.webindia123.com/news/ar_showdetails.asp?id=711050918&cat=&n_date=20071105
  3. वेब दुनियाhttps://news.webindia123.com/news/articles/India/20071027/805535.html.
  4. वन इंडियाhttps://www.oneindia.com/2007/10/30/bjp—workers—burnt—copies—of—sacchi—ramayan—1193744742.html
  5. रिपब्लिक 19 जनवरी, 1945
  6. दि रामायण: ए ट्रू रीडिंग के प्रथम संस्करण के प्रकाशकीय से उद्धृत, 1959

वायकम सत्याग्रह : अस्पृश्यता के विरुद्ध निर्याणक जंग

विशेष रुप से प्रदर्शित

 (वायकम केरल का खूबसूरत नगर है। आजादी से पहले त्रावणकोर राज्य का हिस्सा था। और वहां राजा का शासन था। 1924 तक आधुनिक केरल, तमिलनाडु सहित दक्षिण के कई राज्यों में निचली जाति के सदस्यों को कुछ सार्वजनिक मार्गों पर चलने की आजादी नहीं थी। वायकम में शिव का प्राचीन मंदिर था। उससे जोड़ने वाली सड़कों पर चलना भी निचली जाति के शूद्रों और अस्पृश्यों  के लिए निषिद्ध था। माना जाता था कि उससे देवता और देवस्थान दोनों अपवित्र हो जाएंगे। सार्वजनिक मार्गों पर चलने के मानवतावादी अधिकार को लेकर जार्ज जोसेफ और उनके साथियों द्वारा आरंभ किया गया था। पहले चरण में सरकार आंदोलन को बलपूर्वक दबाने में सफल हो गई। हताशा की उस घड़ी में पेरियार को नेतृत्व के लिए आमंत्रित किया गया। उनके पहुंचते ही कार्यकर्ताओं में जान आ गई। आंदोलन के लिए पेरियार दो बार जेल गए। अंततः उनकी जीत हुई। पेरियार को ‘वायकम नायक’ की उपाधि मिली। 25-26 दिसंबर, 1958 को पेरियार ने अपने एक भाषण में उस घटना को याद किया था। उससे गांधी सहित तत्कालीन नेताओं और ब्राह्मणों की मानसिकता जाहिर होती है, अपितु संघर्ष की गंभीरता का भी अनुमान लगाया जा सकता है। भाषण का मूल तमिल ने अंग्रेजी अनुवाद ऐ. एस. वेणु ने किया है। हिंदी पाठ उसी का भाषांतर है)

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

 भाइयो और बहनो,

आपके साथियों की ओर से मुझे कन्याकुमारी जिले में आने का निमंत्रण कई बार दिया गया था। चूंकि मैं दूसरे जिलों के दौरों में व्यस्त था, इसलिए पहले नहीं आ सका था। जहां-जहां भी मैं गया, वहां मैंने देखा कि समाज में काफी जागृति आई है। हजारों की संख्या में लोग वहां जमा हुए थे। 

दस वर्ष पहले, यहां मार्तंडम में मैंने एक सभा को संबोधित किया था। उन दिनों आप स्थानीय राज्य के नागरिक थे। आपके ऊपर राजा का कानून चलता था, जबकि हम ब्रिटिश सरकार के नागरिक थे। बावजूद इसके आज भी हम सब ‘शूद्र’ हैं। हम द्रविड़ लोग अपमान-भरा जीवन जीते थे। यह हमारे साथ हुए धोखे का परिणाम  था। हमें आगे भी, हमेशा शूद्र बने रहना है। 

आज हम एक देश के नागरिक हैं। हम तमिलनाडु के तमिल हैं। आज हमें एक सूत्र में बांध दिया गया है।  हमारी एकता मजबूत हुई है। चूंकि हम सब एक ही देश के नागरिक हैं, इसलिए आज हम एक परिवार की तरह परस्पर जुड़े हुए हैं। हमें एक ही जाति माना गया है, अतएव अपने आदर्शों की प्राप्ति हेतु हम सभी को साथ-साथ, एकजुट होकर काम करना पड़ेगा।  

जहां तक मेरा संबंध है, 35 वर्ष पहले मैंने तमिलनाडु में एक आंदोलन का नेतृत्व किया था। उद्देश्य था, सामाजिक कुरीतियों, विशेषरूप से जातिभेद और घृणित छूआछूत को खत्म करना। हजारों वर्षों से हमें कुछ तयशुदा सार्वजनिक मार्गों पर चलने की अनुमति नहीं थी। जो लोग आज कम से कम पचास वर्ष के हैं, वे उन दिनों को याद कर सकते हैं। इस पीढ़ी के युवा अतीत की इन सच्चाईयों से अपरिचित हो सकते हैं।  

यदि उन दिनों आंदोलन नहीं हुआ होता, तो आज हममें से बहुत से लोग अनेक मार्गों पर चलने के अधिकार से वंचित होते। उन दिनों इस देश में बहुत बुरे हालात थे। सरकार कट्टरपंथी ब्राह्मणों के हाथों में थी। वर्णव्यवस्था अपने पूरे चरम पर थी। हमारे देश में, ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलनों के उभार द्वारा, गैर-ब्राह्मणों के अनेक अधिकारों की वापसी हुई है। ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलनों ने ब्राह्मण-आधिपत्य का सफलतापूर्वक मुकाबला किया है। गैर-ब्राह्मण आंदोलन को लोकप्रचलित रूप में ‘जस्टिस पार्टी’ के नाम से भी जाना जाता है, जिसका नामकरण उसकी पत्रिका ‘जस्टिस’ के आधार पर मिला था।  

ब्राह्मणों के भी अपने संगठन थे, जैसे कि ‘ब्राह्मण-समाज’ और ‘ब्राह्मण महासभा’। वे हमारे हितों के विरोध में काम करते थे; तथा वैध अधिकारों की प्राप्ति हेतु हमारे संघर्ष में बाधा बनकर खड़े थे। ब्राह्मण खुद को ‘सर्वोच्च  जाति’ का बताकर गर्व का अनुभव करते थे।  वे जोर देते थे कि उन्हें ‘ब्राह्मण’ संबोधित किया जाए। जबकि हम सभी को वे ‘शूद्र’ कहने पर अड़े रहते थे। ‘मनुस्मृति’ तथा दूसरे धर्मशास्त्रों में भी हमें केवल ‘शूद्र’ कहा गया है।  कितना अधिक अत्याचार और अपमान  हमें सहना पड़ता था! ऐसे विपरीत हालात ने हमारी प्रगति और जीवन दोनों को प्रभावित किया था।

यदि हमारे पास अपने संगठन के लिए ‘द्रविड़ कझ़गम’(द्रविड़ सभा) या ‘तमिल कझ़गम’ में से कोई एक चुनने का विकल्प न हो तो उसके लिए उपयुक्त नाम के रूप में केवल ‘शूद्र कझ़गम’(शूद्र पार्टी या शूद्र सभा) को चुनना होगा। यही कारण है, जिससे हमें ‘साउथ लिबरल फेडरेशन’ जिसे बाद में ‘जस्टिस पार्टी’ कहा जाता था—का नाम बदलकर ‘द्रविड़ कझ़गम’ रखना पड़ा था, ताकि हम दुनिया को बता सकें कि हम क्या हैं! हम द्रविड़ लोग गौरवशाली राष्ट्र हैं—यह दुनिया जानती है।  

वर्ष 1919 और 1920 में चले गैर-ब्राह्मणवाद आंदोलन(जस्टिस पार्टी) तथा मेरे प्रांत तमिलनाडु में हुए आंदोलनों के फलस्वरूप, सार्वजनिक मार्गों के उपयोग का अधिकार, बिना किसी जातिभेद के सभी नागरिकों को, न केवल तमिलनाडु, अपितु आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में भी प्राप्त हो चुका है। 

‘जस्टिस पार्टी’ के हाथों में विहित शक्तियों के इस्तेमाल के फलस्वरूप सार्वजनिक मार्गों पर चलने का अधिकार भी सभी जातियों के लिए अमल में लाया गया था। यही नहीं, उन्हीं  दिनों ‘जस्टिस पार्टी’ द्वारा लाए गए एक विधेयक में तथाकथित निचली जातियों को ऐसे कुंओं से पानी लेने के अधिकार को भी शामिल किया गया था, जिन्हें उससे पहले विशेष रूप से ब्राह्मणों के इस्तेमाल के लिए आरक्षित रखा जाता था।  

ये सभी वे घटनाएं हैं जो गांधी के(भारतीय राजनीति में) सक्रिय होने से पहले ही घट चुकी थीं। यह कहना बेतुका और कपटपूर्ण है कि यह सब उपलब्धियां केवल गांधी की देन हैं। 

केवल इतना ही नहीं। ‘जस्टिस पार्टी’ के कार्यकर्ता ही वे लोग थे जिन्होंने, पंचायतों, नगर-निकायों, क्षेत्रीय मंडलों, जिला स्तरीय मंडलों तथा विधायिकाओं में, सभी जाति के लोगों प्रवेश हेतु, सर्वप्रथम रास्ता तैयार किया था। वह भी गांधी के भारतीय राजनीति में सक्रिय होने से बहुत पहले। उन्होंने ही, यहां तक कि  गांधी से भी पहले, तथाकथित निचली जातियों के प्रतिनिधियों को लगभग सभी निकायों में मनोनीत किया था। अतः यह कहना उचित नहीं है कि गांधी ने निचली जातियों जैसे कि पारिया के लिए, तथाकथित उच्च जातीय ब्राह्मणों के समकक्ष, विधायिकाओं में प्रवेश का अधिकार दिलाया था। सच तो यह है कि गांधी से भी बहुत पहले, तथाकथित निचली जातियां जैसे कि पारिया, चक्किलीस, पल्लार विधायिकाओं की सदस्य बन चुकी थीं। मैं चाहता हूं कि आप सब इस सत्य को भली-भांति आत्मसात कर लें।  

यह प्रमाणित सत्य है कि गांधी की योजना एकदम अलग थी। उच्च जातीय ब्राह्मणों की भांति वे भी सभी शूद्रों तथा अछूतों को, कुंओं और तालाबों से पानी लेने का समान अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे। न ही वे अस्पृश्यों को उच्च जातियों की तरह मंदिर प्रवेश की अनुमति देने का समर्थन करते थे। सच तो यह है कि गांधी उच्च जातियों के विशेषाधिकारों को, आगे भी उन्हीं के अधीन रखने के पक्ष में थे। उन्होंने मनुस्मृति का समर्थन किया था। वे उच्च जातीय ब्राह्मणों तथा निम्न जातीय शूद्रों एवं अस्पृश्यों के लिए अलग-अलग मंदिर, तालाब, आवास तथा कुंए बनवाने के पक्ष में थे। यही गांधी की असली योजना थी।  मैं इसे जानता हूं। कोई मना करके दिखाए। आज गांधी के बारे में झूठा प्रचार किया जाता है। गांधीवाद और गांधी की जीवनशैली के बारे में तो बढ़-चढ़कर कहा गया है। 

मैं तमिलनाडु कांग्रेस समिति का सचिव था। अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की ओर से 48,000 रुपये की अनुदान राशि निचली जाति के शूद्रों यथा पारिया, चिक्कलीस, पल्लारों आदि के लिए अलग मंदिर और स्कूल बनवाने के लिए तमिलनाडु भेजी गई थी। इस बात का सख्त आदेश था कि ये अछूत लोग, उच्च जातिवाले हिंदुओं द्वारा विशेषरूप से इस्तेमाल किए जाने वाले स्थानों पर जाकर किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न न करें। 

उस समय तक जस्टिस पार्टी के नेता ऐसा आदेश लागू कर चुके थे, जो सभी वर्ग के विद्यार्थियों को, बगैर किसी जातीय पक्षपात के, सभी स्कूलों में अध्ययन करने का अधिकार देता था। उन्होंने सभी के एक साथ पढ़ने की व्यवस्था की थी। शिक्षा के क्षेत्र में जाति-आधारित प्रतिबंध बहुत पहले ही समाप्त किए जा चुके थे। इस सुधार को सख्ती से लागू किया गया था। ऐसा कानून बनाया गया था जो प्राइवेट स्कूलों को अपने यहां निश्चित अनुपात में शूद्र विद्यार्थियों को प्रवेश देने के लिए बाध्य करता था। ऐसा न करने पर स्कूल की सरकारी अनुदान की पात्रता समाप्त हो जाती थी।   

आदेश था कि निरीक्षण के समय अधिकारी स्कूल प्रशासन से पूछेंगे, ‘इस संस्था में कितने अछूत विद्यार्थी अध्ययन कर रहे हैं?’ यदि उत्तर नकारात्मक हो तो अधिकारी अगला सवाल करेगा, ‘क्यों?’ यदि कोई यह कहेगा कि संस्थान में प्रवेश के लिए किसी अछूत ने संपर्क नहीं किया है, तब अधिकारी कहेगा—‘तब तुम जाओ और कुछ अछूत विद्यार्थियों को अपने विद्यालय में भर्ती कराओ।’ मैं आपको उन व्यवस्थाओं के बारे में बता रहा हूं जो हमारे राज्य में, गांधी के आने से पहले ही लागू थीं। 

जिन दिनों तमिलवासी बहुत अधिक प्रगतिशील थे, आपके कन्याकुमारी जिले में स्थितियां बहुत खराब थीं। उच्च जाति वाले हिंदू निम्न जातीय अस्पृश्य हिंदुओं के अधिकारों को सह ही नहीं पाते थे। यहां तक कि उनकी छाया भी तथाकथित उच्चतम जाति के लोगों पर नहीं पड़ सकती थी।  यह आपके प्रांत की दर्दनाक त्रासदी थी। निचली जाति के शूद्रों को अपनी उपस्थिति और स्थान के बारे में, जहां वह छिपा होता था—दूर से ही चिल्लाकर बताना पड़ता था।  वे तो थिरु. नारायण सामी के अनथक और प्रशंसनीय प्रयास थे, जिससे शूद्रों में जागृति आई थी। वायकम आंदोलन के कारण हालात में बदलाव हुआ था। अछूतों को यहां काफी कुछ मिला है। यहां मौजूद युवा इन उपलब्धियों से अनजान हो सकते हैं। 

हमने छूआछूत के विरुद्ध, वायकम में हुए संघर्ष की कीमत चुकाई थी।  हम कई बार जेल भी गए थे। अनेक बार हमारी पिटाई हुई।  छूआछूत उन्मूलन के निमित्त हमारे बलिदानों के कारण हमें बदनाम भी किया गया।  

उन दिनों जेल में श्रेणियां नहीं होती थीं। उनके साथ बहुत बुरा वर्ताब होता था। अस्पृश्यता के कलंक को मिटाने के लिए वह सबकुछ हमने सहा; और आखिरकार परिवर्तन के वाहक बने। यह बदलाव कैसे संभव हुआ था? हमारी वर्तमान स्थिति क्या है? यदि आप इसपर विचार करेंगे, और सुधार की नई संभावना की तलाश करेंगे, तो आप निश्चित ही इस तथ्य को स्वीकार करेंगे कि जातिवाद तथा उसकी बुराइयों को मिटाने के लिए हमारी रफ्तार बहुत धीमी थी। हमें और अधिक ताकत, और तीव्र गति से आगे बढ़ना चाहिए। 

आपको वायकम आंदोलन के इतिहास की जानकारी होनी चाहिए। अत्यंत मामूली घटना वायकम आंदोलन की संवाहक बनी थी। 

कामरेड माधवन एक वकील थे। एक मुकदमे में उन्हें अपने मुव्वकिल की तरफ से माननीय न्यायाधीश के समक्ष पेश होना था। अदालत महाराजा त्रावणकोर के भवन परिसर में थी। उस समय महाराज के जन्मदिवस की तैयारियां चल रही थीं।  राजभवन का पूरा परिवेश ताड़ की पत्तियों द्वारा खूबसूरती के साथ आच्छादित था। ब्राह्मणों का मंत्रोच्चारण आरंभ हो चुका था। चूंकि कामरेड माधवन इझ़वा(नाडार) समुदाय से थे, इसलिए उन्हें भवन परिसर में प्रवेश करने या गुजरने; और अदालत पहुंचने की अनुमति नहीं मिली।  

उन्हीं दिनों जस्टिस पार्टी तमिलनाडु में जाति-प्रथा और छूआछूत उन्मूलन के लिए आंदोलन चला रही थी।  अंतर्जातीय विवाह के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया जा रहा था। स्कूलों को सभी जाति-वर्गों के लिए खोल दिया गया था। ‘अंतर्जातीय भोजन’ लोकप्रिय हो चुका था।  इस तरह के सुधारवादी कार्यक्रम जस्टिस पार्टी द्वारा पूरे तमिलनाडु में चलाए जा रहे थे। जब गांधी को जस्टिस पार्टी द्वारा तमिलनाडु में चलाए जा रहे कार्यक्रमों के बारे में पता चला, तब उन्होंने हमारी अन्य योजनाओं सहित उन कार्यक्रमों को भी अपने रचनात्मक आंदोलन में शामिल किया। 

उन दिनों जस्टिस पार्टी के कार्यक्रर्ताओं ने ब्राह्मणों के षड्यंत्रों को साहसपूर्वक उजागर किया था। परिणामस्वरूप वे सड़क पर अकेले चलते हुए भी घबराते थे। गैर-ब्राह्मण नेताओं जैसे कि डॉ. टी.  एम. नायर तथा सर पी. थियागराया ने शूद्रों और अस्पृश्यों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु लगातार, बड़े-बड़े कार्यक्रम चलाए, और राज्य में शक्तिशाली पदों पर आसीन हुए। ब्राह्मण जस्टिस पार्टी की सरकार के प्रति ज्यादा ईष्यालु थे। उन दिनों उनकी जमीन खिसकी हुई थी।  

उन दिनों ब्राह्मण धूर्ततापूर्वक एक ही बात बार-बार दोहराते थे—‘हम सत्ता के दलाल नहीं हैं’, ‘हम चुनावों का बहिष्कार करते हैं!’ इस तरह के झूठे और फरेबी नारों से वे लोगों को छलते रहे, निरंतर नई-नई साजिश रचते रहे। जस्टिस पार्टी की लोकप्रियता को देखते हुए गांधीजी ने छूआछूत की समस्या पर विचार करना आरंभ किया, क्योंकि तमिलनाडु में जस्टिस पार्टी को सत्ता से बाहर करने का वही एक तरीका था।  

उन दिनों मैं जस्टिस पार्टी के नेताओं से भली-भांति परिचित था।  अनेक पदों पर आसीन होने के कारण मेरे प्रति उनके मन में बड़ा सम्मान था। राजगोपालाचार्य मुझसे मिले थे और उन्होंने मुझे गांधी का अनुयायी बनने के लिए प्रवृत्त किया था। उनका कहना था कि गांधी अकेले अपरिहार्य सामाजिक सुधारों को आगे बढ़ाने में सक्षम हैं। मैंने इरोद नगर निगम से इस्तीफा दे दिया; और कांग्रेस में शामिल हो गया। कांग्रेस में मेरे प्रवेश से पहले किसी भी तमिलवासी को कांग्रेस पार्टी का सचिव या अध्यक्ष बनने का सम्मान नहीं मिला था।  तमिल कांग्रेस के इतिहास में मैं पहला तामिल था, जिसे तमिलनाडु कांग्रेस के इतिहास में इस पदों पर आसीन होने का अवसर मिला था। 

कामरेड टी. वी.  कल्याणसुंदरम्(थिरू वी. के.) स्कूल अध्यापक थे। डॉ.  पी.  वरदराजुलू(नायडू) ‘प्रापंच मित्रन’ के संपादक थे। बावजूद इसके ब्राह्मण उनपर विश्वास नहीं करते थे। कामरेड वी. ओ.  चिदंबरम(पिल्लई), अपने सभी संसाधनों को खर्च कर देने के बावजूद, कस्तूरी रंगा आयंगर पर आश्रित थे। 

इसलिए ब्राह्मणों ने उनका सम्मान नहीं करते थे।  वे मेरी उपेक्षा नहीं कर सकते थे, क्योंकि मैं पहले से ही बड़े पदों पर था और बड़े व्यापारिक समुदाय के बीच सम्मानित था। प्रत्येक मामले में, सभी तरह से राजगोपालाचार्य मुझपर भरोसा करते थे, और उनका मुझपर काफी विश्वास था। बदले में मैं भी उनपर विश्वास करता था और उस विश्वास की रक्षा को समर्पित था।  हम दोनों ने साथ-साथ काम किया था। मैंने एक सघन प्रचार कार्यक्रम चलाया था, परिणामस्वरूप ब्राह्मण एक बार पुनः सत्ता केंद्र पर लौट आए। अपने बुद्धिवादी विचारों की अभिव्यक्ति को लेकर मैं बहुत साहसी था। ईश्वर संबंधी अपने विचारों को मैंने खुलकर व्यक्त किया था, ‘यदि लोगों के स्पर्श मात्र से मूर्ति अपवित्र हो जाती है, तो ऐसी ईश्वर की हमें आवश्यकता नहीं है। ऐसी मूर्ति के टुकड़े-टुकड़े करके उसका इस्तेमाल अच्छी सड़कें बनाने के लिए किया जाना चाहिए।  नहीं तो उन्हें नदी किनारे रख देना चाहिए, जहां वे कपड़े धोने के काम आ सकें। मुझे प्रायः ब्राह्मणों द्वारा ही बोलने के लिए खड़ा किया जाता था, चूंकि मैं किसी शक्तिशाली पद या प्रतिष्ठा की दौड़ में नहीं था, ब्राह्मण उस समय चुप्पी साध लेते थे। 

ईश्वर, धर्म और जाति के बारे में मैं आज जो भी कहता हूं, ठीक वही मैं उन दिनों भी कहा करता था। मेरे भाषणों को सुनने के बाद राजगोपालाचार्य प्रायः मुझसे कहा कहते थे कि मैं बहुत सख्त भाषा का इस्तेमाल किया है। उत्तर में मैं उनसे अकसर यही कहता था कि जब तक लोग मूर्ख बने रहेंगे, तब तक आसान शब्दों में अपनी बात रखने का कोई औचित्य नहीं है।  मेरी बात सुनकर वे बस मुस्कुरा देते थे। इस तरह, हमने ब्राह्मणों के सत्ता केंद्रों पर आसीन होने की राह आसान की थी। 

एडवोकेट माधवन को अदालत जाते समय रोकने के बाद से ही इझ़वा समुदाय के नेता उसके विरुद्ध आंदोलन करना चाहते थे। केरल कांग्रेस समिति के अध्यक्ष के.  पी.  केशवमेनन, टी.  के.  महादेवन तथा दूसरे नेताओं ने मोर्चा संभाला। उन्होंने राजभवन में होने पूजा-पाठ के दिन विरोध प्रदर्शन की शुरुआत का निर्णय लिया। सर्वाधिक उपयुक्त स्थान के रूप में उन्होंने वायकम को चुना।  केवल वायकम ही ऐसा स्थान था, जहां चार प्रवेश-द्वारों वाला मंदिर था। चारों दरवाजों से एक-एक सड़क गुजरती थी। विरोध प्रदर्शन के लिए वह सर्वोपयुक्त स्थान था। इसलिए सत्याग्रह के निमित्त उन्होंने वायकम को चुना था।  

नियम यह था कि निम्न जाति के अछूत जैसे कि ‘’अवर्णस्थानांस’ तथा ‘अयीतक कर्णस’ उन सड़कों पर प्रवेश नहीं करेंगे। यदि कोई अछूत मंदिर की दूसरी दिशा में जाना चाहे तो उसे मंदिर से 400 से 600 मीटर की दूरी बनाकर चलना पड़ता था। इस तरह उसे डेढ़ किलोमीटर से अधिक रास्ता और तय करना पड़ता था। यहाँ तक कि ‘असारियों’, ‘वनियारों’ तथा जुलाहों को भी मंदिर के चारों ओर बनी सड़कों पर चलने की पाबंदी थी। दूसरे मंदिरों विशेषकर शचींद्रम पर भी यही नियम लागू था।  इस कानून का पालन पूरी शक्ति के साथ किया जाता  था।  

प्रमुख सरकारी कार्यालय, अदालत, पुलिस स्टेशन आदि वायकम मंदिर की दूसरी दिशा में, उसके प्रवेश द्वार के निकट थे। यहां तक कि सरकारी कर्मचारियों के स्थानांतरण के समय भी ध्यान रखा जाता था कि कोई अछूत कर्मचारी वहां स्थानांरित नहीं किया जाएगा, क्योंकि उन्हें मंदिर के आसपास बने रास्तों से गुजरने की अनुमति प्राप्त न थी।  यहां तक कि मजदूरों का दुकानों तक जाने के लिए भी, उन सड़कों से होकर गुजरना निषिद्ध था। 

जैसे ही वायकम सत्याग्रह आरंभ हुआ, राजा ने 19 नेताओं जिनमें एडवोकेट माधवन, बैरिस्टर केशव मेनन, टी. के. महादेवन, जार्ज जोसेफ आदि शामिल थे—को गिरफ्तार करने का आदेश सुना दिया। उन्हें विशिष्ट कैदी के रूप में रखा गया था। उन दिनों अंग्रेज अधिकारी पिट, पुलिस महानिदेशक के पद पर राजा के अधीन कार्यरत थे। उन्होंने आंदोलनकारियों से जुड़े मामलों को भली-भांति संभाल लिया था। 19 आंदोलनकारियों के जेल जाते ही वायकम आंदोलन पटरी से उतर चुका था। उन्हीं दिनों मुझे केशव मेनन तथा बैरिस्टर जार्ज जोसेफ की ओर से एक पत्र प्राप्त हुआ। 

‘आपको यहां आकर आंदोलन को नवजीवन देना चाहिए। अन्यथा हमारे पास राजा के सामने आत्मसमर्पण कर, उनसे क्षमा-याचना करने के अलावा दूसरा कोई उपाय न होगा। उस अवस्था में हमारा तो कोई नुकसान न होगा, परंतु एक महान कार्य अधूरा रह जाएगा। असल में वही हमारी चिंता का कारण है। इसलिए आप कृपया तत्काल पहुंचें और आंदोलन की जिम्मेदारी संभालें।’

यही बातें उन्होंने अपने पत्र में लिखीं थीं। उन्होंने मुझे स्वयं चुना था और मुझे पत्र लिखा था, क्योंकि उन दिनों मैं मुखर होकर छूआछूत के कलंक पर लगातार हमले कर रहा था। इसके अलावा न केवल उग्र प्रचारक अपितु सफल आंदोलनकारी के रूप में भी मैं जाना-पहचाना और स्थापित नाम था।  जब उन्होंने पत्र भेजा, मैं यात्रा पर निकला हुआ था।  पत्र इरोद से पुन:प्रेषित होकर मुझे मदुरै जिला के पन्नईपुरम स्थान पर प्राप्त हुआ। पत्र मिलते ही मैं वायकम जाने के लिए आगे की यात्रा स्थगित कर इरोद के लिए दौड़ा। एक पत्र लिखकर मैंने राजगोपालाचार्य से अनुरोध किया कि वे मेरे स्थान पर तमिलनाडु कांग्रेस के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाल  लें। अपने पत्र में मैंने वायकम सत्याग्रह की महत्ता के बारे में बताया था। मेरे लिए वह अच्छा अवसर था। इसलिए मैं उसे छोड़ना नहीं चाहता था। मैंने अपने दो साथियों के साथ वायकम के लिए प्रस्थान कर दिया। 

किसी तरह यह बात फैल गई कि मैं वायकम आंदोलन का नेतृत्व करने  के लिए आ रहा हूं। जब में नाव के रास्ते वायकम पहुंचा, पुलिस कमिश्नर और तहसीलदार ने हमारा स्वागत किया। 

हमें बताया गया कि राजा ने उन्हें हमारा स्वागत करने तथा हमारे ठहरने का प्रबंध करने का आदेश दिया है। मैं सचमुच बेहद अचंभित था। राजा मुझपर अत्यंत मेहरबान थे, क्योंकि जब भी उन्हें दिल्ली जाना होता था, वे इरोद में हमारे ही बंगले में ठहरते, जबकि उनके कर्मचारी हमारी सराय में आश्रय पाते थे। रेलगाड़ी पर सवार होने से पहले, जब तक वे इरोद में रहते, तब तक राजा तथा उनके कर्मचारियों का भरपूर स्वागत किया जाता था। वायकम में मुझे अप्रत्याशित आदर-सत्कार मिलने के पीछे यह कारण भी हो सकता था। जब वायकम के निवासियों को मेरे और राजा के संबंधों के बारे में पता चला, वे सभी अत्यंत प्रसन्न हुए।  

बावजूद इसके कि राजा ने मेरे साथ मेहमानों जैसा व्यवहार किया था, मैंने वायकम आंदोलन के समर्थन में अनेक सभाओं में हिस्सा लिया। मैंने छूआछूत जैसी घृणित प्रवृत्ति कि आलोचना की। मैंने कहा कि ऐसे  ईश्वर को जिसे लगता है कि वह अछूतों के स्पर्श-मात्र से अपवित्र हो जाएगा—मंदिर में रहने का अधिकार नहीं है। ऐसी मूर्ति को तुरंत हटा देना चाहिए और उसका इस्तेमाल कपड़े धोने के लिए किया जाना चाहिए। मेरे प्रचार के फलस्वरूप रोज नए-नए लोग आंदोलन से जुड़ने की इच्छा जताने लगे। प्रतिदिन नए-नए लोग आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए अलग-अलग स्थानों से आने लगे। उससे राजा की परेशानी बढ़ने लगी।  बावजूद इसके वह पांच-छह दिन शांत रहा।  मेरे भाषण को लेकर कई लोगों ने उससे शिकायत की। राजा मेरी और अधिक उपेक्षा नहीं कर सकता था। इसलिए, दस दिन के बाद उसने पुलिस अधिकारी को दंड संहिता की धारा 26 को, जो आज की धारा 144 जैसी ही थी, लागू करने की अनुमति दे दी।  

मेरे पास उस प्रतिबंध के उल्लंघन के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं था। तदनुसार मैंने प्रतिबंध का उल्लंघन कर, एक सभा को संबोधित किया। परिणामत: मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। मेरे साथ मि. अय्युमुथु ने भी प्रतिबंध का उल्लंघन किया था। उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। हम सभी को एक महीने के कड़े दंड के साथ कारावास भेज दिया गया।  मुझे अरुविक्कुथ जेल में रखा गया। मेरे जेल चले जाने के बाद मेरी पत्नी नागम्मई, बहन एस. आर. कन्नमल तथा दूसरों ने मिलकर राज्य-भर में आंदोलन किया। जैसे ही मैं जेल से बाहर आया, एक बार फिर आंदोलन में कूद पड़ा। 

जब मैं जेल में था, आंदोलन में यकायक तेजी आ गई। अनेक लोगों ने अदालत से उन्हें जेल भेजने की फरियाद की। प्रचार-प्रसार में तेजी ने भी लोगों को वायकम सत्याग्रह में उतरने के लिए उत्साहित किया। दुश्मन उपद्रवों और गुंडागर्दी पर उतर आए थे। उपद्रवी तत्वों ने अफवाह फैलाकर हमारे आंदोलन को ठप्प कर देने के लिए अनेक चालें चलीं। उनके गंदे मनसूबों और कोशिशों का अंत नाकामी के रूप में सामने आया। यही नहीं जो लोग विदेशों में थे, उन्हें भी देश में जाति के नाम पर हो रहे दमन और अत्याचारों की जानकारी मिल गई। वे स्वेच्छापूर्वक दान देने लगे। प्रतिदिन ढेर सारे मनीआर्डर आने लगे। आंदोलनकारी स्वयंसेवकों के लिए बड़ा पंडाल बनवाया गया था। प्रतिदिन 300 से अधिक लोगों को भोजन खिलाया जाता था। अनेक किसान और प्रतिदिन सब्जियां और नारियल भेजते थे।  उन्हें एक साथ, एक साथ ढेर लगाकर रख दिया गया था। देखने में वह छोटी पहाड़ी जैसा नजर आता था।  पूरा स्थल वैवाहिक पंडाल जैसा दिखता था। 

उसी समय राजगोपालाचार्य ने मुझे एक पत्र लिखा।  आप हमारे देश को छोड़कर दूसरे राज्य में परेशानी खड़ी क्यों कर रहे हैं? आपके लिए इस तरह करना अनुचित है।  कृपया उसे छोड़कर, मुझसे अपना पद-भार वापस लेने के लिए तुरंत यहां पहुंचें। उस पत्र में यही बातें लिखी थीं। श्रीनिवास अय्यंगर मुझसे मिलने के लिए तमिलनाडु से आए थे। उन्होंने भी मुझसे वही सलाह दी जो राजगोपालाचार्य ने अपने पत्र में लिखी थीं। उस समय तक 1000 स्वयंसेवक वायकम आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए तैयार हो चुके थे। प्रतिदिन जगह-जगह बड़े-बड़े जुलूस, भजन-कीर्तन आदि होते थे।  आंदोलन गति पकड़ चुका था। 

समाचार पंजाब तक पहुंचा। वहां स्वामी श्रद्धानंद ने एक अपील की। उन्होंने लगभग 30 पंजाबियों को वायकम भेजा। उन्होंने आंदोलन के लिए 2000 रुपये की सहायता राशि का प्रस्ताव भेजा, साथ ही आंदोलन में हिस्सा ले रहे स्वयंसेवकों के भोजन के खर्च को वहन करने की सहमति जताई। यह देखकर ब्राह्मणों ने गांधी को लिखा। उन्होंने आरोप लगाया कि सिख हिंदुत्व के विरुद्ध युद्ध भड़का रहे हैं। गांधी के विचार भी सामने आए। उन्होंने कहा था कि मुस्लिम, सिख, ईसाई और बाकी लोग जो हिंदू नहीं हैं—वे आंदोलन में हिस्सा नहीं ले सकते। उनकी अपील के बाद मुस्लिम, ईसाई और सिखों ने खुद को आंदोलन से अलग कर लिया। राजगोपालाचार्य ने जोसफ जार्ज के नाम एक और पत्र भेजा। उसमें लिखा था कि उनके लिए हिंदुत्व से जुड़े मामले में हस्तक्षेप करना गलत है। लेकिन जोसेफ जार्ज ने राजगोपालाचार्य की सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया। जवाब में उन्होंने लिखा कि वे कांग्रेस से निष्कासन के लिए तैयार थे। उन्होंने जोरदार शब्दों में लिखा कि वे अपना आत्मसम्मान नहीं गंवाएंगे।  मिस्टर सेन, डाॅ. एम. ई. नायडु तथा दूसरे नेता  आंदोलनकारियों के साथ मजबूती से खड़े थे। लेकिन कुछ लोगों को भय था कि गांधी आंदोलन की निंदा करते हुए उसे मिल रहे दान, सहायता आदि पर रोक के लिए लिखेंगे। लेकिन उसी समय स्वामी श्रद्धानंद वायकम पहुंचे और उन्होंने वित्तीय सहायता का आश्वासन दिया।  

वायकम आंदोलन गांधी के विरोध के बावजूद शुरू किया गया था।  मुझे दुबारा गिरफ्तार करके छह महीने की सजा के लिए जेल भेज दिया गया था। कुछ नंबूदरी ब्राह्मणों तथा कट्टरपंथी हिंदुओं ने एकजुट होकर वायकम आंदोलन के विरोध करने की योजना बनाई। जिसे उन्होंने ‘शत्रु समाहार यज्ञ’(शत्रु मर्दन यज्ञ) का नाम दिया। काफी धनराशि खर्च करके उन्होंने यज्ञ किया। उसके बारे में मैंने कारावास में सुना। एक रात को अचानक मैंने गोलियों की आवाज सुनी। मैंने पहरा दे रहे सिपाही से पूछा, क्या जेल के निकट कोई उत्सव मनाया जा रहा है? उसने बताया कि राजा का निधन हो चुका है और उससे हुई हानि को दर्शाने के लिए बंदूकों की सलामी दी जा रही है। जब मुझे पता चला कि राजा का निधन हो चुका है, मेरा हृदय विषाद से भर गया। बाद में मुझे यह सोचकर प्रसन्नता हुई कि ब्राह्मणों और कट्टरपंथीं हिंदुओं द्वारा अपने दुश्मनों को नष्ट करने के लिए की गई प्रार्थना का असर महाराज की मृत्यु के रूप में सामने आया है। उनकी प्रार्थना ने वायकम आंदोलनकारियों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया है।  लोग भी खुश थे। उसके बाद, महाराजा के दाह-संस्कार के दिन हम सभी को रिहा कर दिया गया। हमारे दुश्मनों की चाल-ढाल और भाषा भी बदल गई। 

बाद में, महारानी ने आपसी बातचीत से समस्या का समाधान करने की इच्छा व्यक्त की।  वे समस्या पर मेरे साथ बातचीत करना चाहती थीं। लेकिन राज्य का दीवान, जो जाति से ब्राह्मण था—हमारी बातचीत के बीच में बाधक बन गया। बोला कि महारानी मुझसे सीधे बातचीत नहीं करेंगी। इसलिए उसने राजगोपालाचार्य को पत्र लिखा। राजाजी जानते थे कि प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा मेरे पक्ष में हैं, अतएव उसका श्रेय भी मुझी को प्राप्त होगा। इसलिए उन्होंने कपटपूर्ण ढंग से तय किया कि महारानी गांधी से बातचीत करेंगी। राजाजी की प्रपंच का ही परिणाम था कि गांधी का नाम वायकम सत्याग्रह के इतिहास में घसीट लिया गया। वायकम आंदोलन का श्रेय और प्रतिष्ठा किसे प्राप्त होती है, व्यक्तिगत रूप से मुझे इसकी चिंता नहीं थी। मैं निजी प्रशस्ति के लिए आंदोलन से नहीं जुड़ा था। मेरा एकमात्र उद्देश्य समस्या का सफल समाधान था।  

गांधी आए और उन्होंने महारानी से बातचीत भी की। महारानी निचली जाति के शूद्रों और अछूतों के लिए सभी मार्ग खोल देने को तैयार थीं। लेकिन, उन्होंने अपने डर के बारे में बताया। उन्हें लगता था कि मैं अछूतों के मंदिर प्रवेश के अधिकार को लेकर आंदोलन को उसके बाद भी जारी रख सकता हूं। गांधी यात्री-भवन में पहुंचे, जहां मैं ठहरा हुआ था। उन्होंने मेरी राय जाननी चाही। मैंने कहा, ‘क्या अछूतों को सार्वजनिक मार्गों पर चलने का अधिकार प्राप्त होना बड़ी उपलब्धि नहीं है! यूं भी, क्या मंदिर प्रवेश कांग्रेस के आदर्शों में से एक नहीं है। जहां तक मेरी बात है, यह मेरे प्रमुख सरोकारों में से एक है। लेकिन, आप महारानी को खबर कर सकते हैं कि फिलहाल मंदिर प्रवेश के अधिकार को लेकर आंदोलन खड़ा करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। मैं आगे क्या करूंगा, इसे तय करने से पहले माहौल शांत होने दीजिए। 

गांधी ने रानी को सूचना दी और उन्होंने मंदिर के चारों ओर बनी सड़कों के चलने का अधिकार, सभी वर्गों के लिए बहाल कर दिया। इस तरह निचली जाति के शूद्रों और अस्पृश्यों को, उच्च जातीय ब्राह्मणों और कट्टरपंथी हिंदुओं की तरह, सार्वजनिक मार्गों पर चलने के अधिकार की प्राप्ति हुई।  

मैं कुछ समय के लिए इरोद में देवस्थान समिति का अध्यक्ष था। जब मैं बाहर गया हुआ था, कामरेड एस. गुरुस्वामी, पोन्नंबलन तथा ईश्वरन ने मेरे कार्यालय में, दो आदि-द्रविड़ों को अपने माथे पर पवित्र राख(विभूति) मलने के लिए उकसाया। उसके बाद वे उन्हें मंदिर के भीतर ले गए। उन्हें देखते ही ब्राह्मण जोर-जोर से चिल्लाने लगे कि उन्होंने देवस्थान को अपवित्र कर दिया है। मजदूरों को वहीं बंद कर, उनके ऊपर मुकदमा दायर कर दिया गया। जिला न्यायालय में उन्हें दंडित किया गया। लेकिन एक अपील पर सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने उन्हें निर्दोष मानकर रिहा कर दिया। यह सब ब्रिटिश शासन के दौरान हुआ था।  

सुचिंद्रम(कन्याकुमारी, केरल) पहला स्थान था, जहां मंदिर प्रवेश के अधिकार को लेकर पहला सार्वजनिक आंदोलन चलाया गया था। स्वाभिमान सम्मेलन का आयोजन भी मेरी अध्यक्षता में किया गया था। उसमें अनेक प्रस्ताव स्वीकृत किए गए थे, जिनमें जाति उन्मूलन तथा अस्पृश्यों के मंदिर प्रवेश के अधिकार को सुनिश्चित करने की मांग की गई थी।  

स्वाभिमान आंदोलन की अगली सभा का आयोजन इर्नाकुलम में हुआ था। उस सम्मेलन में जाति प्रथा की निंदा करते हुए हिंदुओं को सुझाव दिया गया था कि वे मुसलमान बन जाएं, क्योंकि इस्लाम में कोई जातिभेद नहीं है। कुछ और लोगों ने संशोधन प्रस्ताव के माध्यम से ईसाई बनने का सुझाव दिया था। अंत में लोगों को दोनों धर्मों में से किसी एक को अपनाने का विकल्प दिया गया।  

एक दिन लगभग 50 हिंदुओं(जो जाति से पुलायार थे) ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। यह सिलसिला  आगे बढ़ता गया, उसने रूढ़िवादी हिंदुओं और ब्राह्मणों को बुरी तरह डरा दिया था। 

एक दिन, अल्लेपी में इस्लाम अपना चुका एक व्यक्ति(जो पहले जाति से पुलायार था) नायर की दुकान से कुछ सामान खरीदने गया। वहां उसकी पिटाई कर दी गई। उस घटना की परिणति हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बड़े टकराव के रूप में सामने आई। हिंदू-मुस्लिम दंगे हर जगह फैल गए। तत्कालीन दीवान, सर सी. आर. रामासामी अय्यर जो ब्राह्मण थे, ने उस  टकराव को बलपूर्वक दबा दिया था। बाद में राजा को बताया गया कि अधिकांश निचली जाति के अस्पृश्य हिंदू जैसे इझ़वा, पुलायार आदि मुसलमान बन रहे हैं। उन्हें यह सलाह भी दी गई कि इस भगदड़ से हिंदुत्व को बचाने का एकमात्र उपाय है कि सभी मंदिरों को अस्पृश्यों के प्रवेश के लिए खोल दिया जाए। उस दिन ब्राह्मण राजा की दीर्घायु के लिए यज्ञ कर रहे थे। उन दिनों यह परंपरा थी कि राजा अपने जन्मदिवस पर प्रजा के लिए कोई अच्छी घोषणा करता था। सो राजा ने अच्छे अवसर पर एक अच्छी घोषणा करने का निश्चय किया। उसने ऐलान किया कि उसके जन्मदिवस के अवसर पर सभी मंदिर सभी के लिए खोल दिए जाएंगे, जिनमें निचली जाति के हिंदू और अछूत भी शामिल हैं। संघर्ष का ऐसा ही इतिहास रहा है। इस तरह अछूतों को मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त हुआ। 

इतना सब हो जाने के बाद ही राजगोपालाचार्य और गांधी सामने आए और मंदिर प्रवेश के पक्ष में बयान दिया। यह कहना एकदम बकवास है कि ये बदलाव गांधी के कारण संभव हो पाए थे। सच तो यह है कि अछूतों के भले के लिए अणुमात्र काम भी गांधी ने नहीं किया। ये सब बातें आपको डाॅ. आंबेडकर द्वारा लिखित पुस्तक ‘कांग्रेस और गांधी ने अस्पृश्यों के लिए क्या किया है’ पढ़ने से ज्ञात हो जाएंगी।  

जिन दिनों में तमिलनाडु कांग्रेस का सचिव था, पार्टी फंड द्वारा चेरंमादेवी में गुरुकुलम(नि:शुल्क छात्रावास) का संचालन किया जाता था। सचिव के रूप में मैंने 10000 रुपये देने की अनुमति दी, और बतौर पहली किश्त 5000 रुपये का भुगतान भी कर दिया गया।  गुरुकुलम को चलाने की जिम्मेदारी वी. वी. एस.  अय्यर नामक एक ब्राह्मण की थी। उस गुरुकुलम में ब्राह्मण विद्यार्थियों की विशेष देखभाल की जाती थी। उन्हें अलग भोजन दिया जाता था। जबकि गैर-ब्राह्मण बच्चों को बाहर भोजन कराया जाता था। ब्राह्मण विद्यार्थियों को ‘उप्पम’ परोसा जाता था, जबकि अब्राह्मण बच्चों को केवल दलिया से संतोष करना पड़ता था। ये बातें मुझे ओमनदुर रामासामी रेडियार(मद्रास प्रांत के भूतपूर्व मुख्यमंत्री) के बेटे ने रोते-रोते बताई थीं।  मैंने राजगोपालाचार्य से इसकी शिकायत की। जब उन्होंने वी. वी. एस. अय्यर से मामले की तहकीकात की तो उसने आरोपों से न तो इन्कार किया, न ही खेद व्यक्त किया। बल्कि दृढ़ स्वर में सभी के साथ एक समान व्यवहार करने से इन्कार कर दिया। उसने कहा कि गुरुकुलम के आसपास कट्टरपंथी लोग रहते हैं, इसलिए वह कुछ नहीं कर सकता। इसपर मैंने कहा कि मैं बाकी 5000 तभी दूंगा जब गुरुकुलम में सुधार हो जाएगा। वह जंगली की तरह व्यवहार करने लगा। उसने रूखे शब्दों में मुझसे कहा, ‘क्या यही तुम्हारी राष्ट्रसेवा है?’ इस गंभीर मामले ने ही मुझे गैर-ब्राह्मणों(तमिलों) के लिए अलग से दल बनाने के लिए प्रोत्साहित किया था। 

इन दिनों भी आप देख सकते हैं कि कांग्रेस की सभाओं में केवल ब्राह्मणों को भोजन बनाने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। जबकि उन्हीं दिनों जस्टिस पार्टी और स्वाभिमान आंदोलन के सम्मेलनों के लिए विरुदुनगर के नाडारों को भोजन बनाने के लिए नियुक्त किया गया था। 

मैं इन पुराने प्रसंगों को क्यों याद कर रहा हूं? आपको पता होना चाहिए कि जब तक हम इस तरह से आंदोलन नहीं करेंगे, तब तक हम समाज में व्याप्त असमानता को मिटाकर, उसे प्रगतिशील नहीं बना सकते।  

इसके अलावा, आप सभी को यह पता होना चाहिए कि किसी भी सामाजिक सुधार का श्रेय न तो कांग्रेस को जाता है, न ही गांधी को उसके लिए जिम्मेदार माना जाना चाहिए, हमारे पास इसके साक्ष्य हैं।  

आज भी, ‘द्रविड़यार कझ़गम’ के केवल हम ही वे लोग हैं जो सिर उठाकर पूछते हैं कि जब मेहनतकश किसानों और मजदूरों को निम्न जाति का समझा जाता है, तो आलसी ब्राह्मणों को ऊंची जाति का क्यों समझा जाना चाहिए। हमें ऐसे ईश्वर की आवश्यकता क्यों है जो शूद्रों की अवमानना करता है?

फिलहाल उन्होंने संविधान में जातिवाद के बचाव हेतु सभी सुरक्षा-उपाय कर लिए हैं। एक ब्राह्मण में इतना साहस है वह कहीं से भी यहां आता है और धृष्टतापूर्वक कुछ भी बोलकर, धमकी देकर चला जाता है। क्यों? इसलिए कि उनके हाथ में ताकत है।  

वे कहते हैं कि हम दब्बू रहकर सदैव शूद्र की तरह पेश आएं।  वे हमें जेल का डर दिखाकर आतंकित करते हैं। क्या किसी में उनसे सवाल करने की हिम्मत थी?

केवल हम वे लोग हैं निडर, निष्कपट और निर्बंध थे।  

यदि हमें हिंदुत्व हमें शूद्र मानता है तो सिवाय इसके कि हम हिंदू धर्म को ही नष्ट कर दें, दूसरा उपाय क्या है? हमारा ‘द्रविड़यार कझ़गम’ राजनीतिक संगठन नहीं है।  हम चुनावों में हिस्सा नहीं लेते।  हमें आपके मतों की आवश्यकता नहीं है। हम शासक वर्ग भी नहीं है। दूसरों को कुदाल को कुदाल कहने में संकोच हो सकता है? सत्ता चाहने वाले लोग निर्दोष मतदाताओं की चापलूसी कर सकते हैं। अपने स्वार्थ के लिए वे आपकी आंखों में धूल झोंक सकते हैं। किसी ताकत या पद-प्रतिष्ठा के लिए गांधी के नाम को बीच में घसीटकर मैं आपको धोखा नहीं दे सकता। मैं उस घृणित, निश्रेयस जीवन के लिए नहीं बना हूं। 

हमने अपने जीवन निर्वाह के लिए सार्वजनिक जीवन को पेशा या व्यापार नहीं बनाया है। फिर किसलिए, सोचो? आपके भीतर स्वाभिमान की भावना जगाने के लिए हम अपना भोजन खाते हैं, समय खर्च करते हैं, अपनी ऊर्जा खपाते हैं, क्यों?

1938 तक आपने देखा कि पूरी दुनिया में ज्ञान का बोलबाला था। परंतु यहां हम आज भी बर्बर लोगों की तरह हैं। हमारा ईश्वर, धर्म और धर्मशास्त्र हमें कूपमंडूकता से बाहर नहीं आने देते। सरकार स्वयं अविवेकी और असभ्य लोगों के हाथों में है। हमारे सिवाय किसी में भी सवाल उठाने हिम्मत नहीं है।  

ब्राह्मणों ने हमें वेश्यावृति द्वारा उत्पन्न संतान कहा था।  हमारी संतान को वेश्याओं की संतान क्यों कहा जाना चाहिए? इस अपमान के बारे में कोई नहीं सोचता। जो लोग राजनीति में सक्रिय हैं, इसकी परवाह नहीं करते। आंख मूंदकर वे वही सब करते और कहते हैं, जो ब्राह्मण उनसे कहते हैं। 

जब मैं वायकम सत्याग्रह का नेतृत्व कर रहा था, नीलांबन जमींदार के पुत्र, सेतुकुट्टी अकसर मुझसे मिलने और विचार-विमर्श के लिए आया करते थे। वे मुझे ‘नायकर सामी’ संबोधित करते थे। केवल यही नहीं, वे अपनी जाति को ऊंचा बताया करते थे, क्योंकि उनका जन्म नंबूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे अकसर कहा करते थे कि मैं उन्हें नायर के जन्मा हुआ न समझ बैठूं। जबकि वे बीए तक पढ़े स्नातक थे। हमारे लोगों में इस मानसिकता की निंदा करने वाला कौन है?

पल-भर के लिए सोचिए कि इन अझ़वारों ने क्या किया था। उन्होंने अपनी पत्नियों से वेश्यावृति कराकर मोक्ष की कामना की थी। यह ‘भक्त विजयम’ पुराण में बताया गया है। 

एक शूद्र जो जाति से अझ़वार था, उसे अपनी पत्नी को वेश्यावृत्ति के पेशे की ओर प्रवृत्त होने की अनुमति देने के बाद स्वर्ग मिला था। नयांमारों ने अपनी पत्नियां ब्राह्मणों को भेंट की थीं। इन दिनों भी कट्टरपंथी लोग, बगैर किसी शर्म अथवा स्वाभिमान के, इन बातों का प्रचार-प्रसार करते हैं। जब मैं इन बातों की ओर इशारा करता हूं, तो मुझपर पुराणों(धर्मशास्त्रों) को ध्वस्त करने वाली बातें करने का आरोप लगाया जाता है। इनपर दूसरा कौन साहसपूर्वक बोलता है? इन पुराणों ने हमारी नैतिकता को नष्ट किया है। इसके अलावा हम और क्या कह सकते हैं?

इसके अतिरिक्त ब्राह्मण सरकारी पदों से भी चिपके हुए हैं। ब्रिटिश शासन से मुक्त होने के पश्चात समस्त शक्तियां ब्राह्मणों के हाथों में जा चुकी हैं। मैं इसके लिए गांधी को दोषी ठहराता हूं। हमें अनंतकाल तक शूद्र बनाए रखने के लिए बड़ी साजिश रची गई थी। आज(1958) सारी शक्तियां उनके अधीन हैं।  आज देश का राष्ट्रपति ब्राह्मण है। उपराष्ट्रपति ब्राह्मण है।  प्रधानमंत्री ब्राह्मण है। उपप्रधानमंत्री भी ब्राह्मण है।1 संसद का सभापति भी ब्राह्मण है। यह देखते हुए जब हम जाति-उन्मूलन के लिए गुहार लगाते हैं, तो वे हमे दोषी ठहराकर तीन वर्ष के लिए कारावास में भेज देते हैं। इन सबके लिए कौन चिंतातुर है? सार्वजनिक जीवन के अधिकांश शिखर व्यक्तित्व सरकार, जातिवाद, धर्मशास्त्रों, पुराणों, धर्म और ईश्वर की रक्षा करना चाहते हैं। वे जानते हैं कि अस्तित्व-रक्षा के लिए, उनके पास इसके अलावा  कोई और रास्ता नहीं है। 

कोई भी व्यक्ति जो वोट और भ्रष्टाचार के सहारे जिंदा है, वह धर्म, ईश्वर, सरकार और जाति के नाम पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध आवाज नहीं उठाएगा। 

अंग्रेज हमें कम से कम बराबर अधिकार तो देते थे। आज सरकार ब्राह्मणों के हाथों में है, जो हमें वेश्या की संतान(शूद्र) कहते हैं। यही कारण है कि वे संवैधानिक व्यवस्था में भी स्वयं को आसानी से सुरक्षित पाते हैं। कानून के अनुसार वे लोग जो जाति को मिटाने की मांग करते हैं, उन्हें तीन वर्ष की सजा काटने के लिए तैयार रहना चाहिए। 

जातिप्रथा लाइलाज बीमारी है, जो हमारे समाज को शताब्दियों से खाए जा रही है। जिन दवाइयों का इस्तेमाल हम खाज-खुजली के इलाज के लिए करते हैं, उनसे केंसर का इलाज नहीं किया जा सकता। हमें शरीर का आपरेशन कर, उससे केंसर-प्रभावित हिस्से को अलग करना होगा। भिन्न बीमारियों के लिए इलाज भी अलग-अलग तरीके से होगा। हिंदू विधान के अनुसार हम 3000 वर्षों से अधिक से शूद्र हैं। 3000 वर्षों से हम वेश्या की संतान कहलाते आए हैं। हमारा संविधान इस बुराई को भरपूर संरक्षण देता है। 

हमें इस बुराई को जड़ से खत्म कर देना चाहिए। हमें इस उपहासजन्य स्थिति से बाहर निकाल आना चाहिए। यह सचमुच कठिनतम कार्य है। जब तक आप इसकी जड़ों पर उबलता हुआ पानी नहीं डालेंगे, तब तक इसका मिटना नामुमकिन है। सख्त कदम उठाए बिना हम जाति को नहीं मिटा सकते।  

न केवल तमिलनाडु, अपितु पूरे भारतवर्ष में और कोई ताकत नहीं है, जो हमारे बराबर हिम्मत जुटाकर अपनी आवाज बुलंद कर सके। जो लोग सत्ता के लालची हैं, वे कभी उसके विरोध का सपना नहीं देखेंगे। केवल वही लोग जो निःस्वार्थ और समर्पण भावना से जनता की सेवा में लगे हैं, अपने जीवन को जाति-व्यवस्था के उन्मूलन के लिए भी, दाव पर लगा सकते हैं। जो लोग विधायिकाओं में पहुंचे हैं, उन्होंने अभी तक क्या किया है? वे कुछ भी नहीं कर सकते? हम मामूली संदेश भेजकर भी जवाब प्राप्त कर सकते हैं।  बावजूद इसके हम तैयार नहीं हैं। 

कुछ दिन पहले नेहरू ने विधानसभाओं तथा दूसरे निर्वाचित संस्थानों पर एक दुखद टिप्पणी की थी। यहां तक कि उन्होंने धमकी दी थी कि वे रिटायर होकर संन्यास ग्रहण कर लेंगे। क्या हुआ? उन्होंने चुपचाप अपनी सारी टिप्पणियां पचा लीं और सत्ता से चिपके हुए हैं। यह महज लोकप्रियता हासिल करने के लिए पुरानी गांधीवादी चाल का प्रदर्शन था। हमारे साथ रहे ‘द्रविड़ मुनेत्र कझ़गम पार्टी के नेताओं ने भी, जब तक वे ‘द्रविड़यार कझ़गम’ में थे, विधानमंडलों में प्रवेश की निंदा की थी। यहां तक कि उन्होंने निर्वाचित प्रतिनिधियों और संस्थाओं पर हमला करने वाले लेख भी लिखे थे। बल्कि नेहरू और राजेंद्र प्रसाद ने तो विधायिकाओं के विरुद्ध बोला भी था। लेकिन आज उनके लिए वहां संभावनाएं हैं, इसलिए वे उनमें प्रवेश के अत्यंत इच्छुक हैं। वे अपने अतीत को भूल चुके हैं। अब वे साम-दाम-दंड-भेद द्वारा विधायिकाओं की शोभा बनना चाहते हैं। इसके लिए वे आंतरिक तोड़फोड़ से लेकर दूसरों का कच्चा चिट्ठा खोलने तक, किसी भी काम को तैयार हैं। किसी तरह, कैसे भी हर कोई ऊपर उठना चाहता है। कोई भी हमारी द्रविड़ अस्मिता के गौरव तथा उसकी युगों लंबी अवमानना को लेकर चिंतित नहीं है।  

पूरा देश पांच बीमारियों और तीन प्रेतों के जबड़ों में दबा हुआ है। मान लीजिए कि प्रेत वास्तव में नहीं होते; हमारा आशय है—

ईश्वर, जाति और लोकतंत्र—ये तीन प्रेत हैं। 

ब्राह्मण-समाचारपत्र-राजनीतिक दल-विधायिकाएं और सिनेमा—ये पांच बीमारियां हैं। ये बीमारियां मानव शरीर पर केंसर, कुष्ठ-रोग और मलेरिया की तरह धावा बोल रही हैं। यदि समाज को प्रगतिगामी बनाना है, तो इन बीमारियों से हमें जमकर संघर्ष करना; और इन्हें पूरी तरह नष्ट कर देना होगा। 

—ई.  वी. रामासामी पेरियार 

(हिंदी अनुवाद :  ओमप्रकाश कश्यप)

विदुथलाई, 8 ओर 9 जनवरी, 1959। इस भाषण का अंग्रेजी अनुवाद द्रड़ियार कझ़गम, चेन्नई द्वारा प्रकाशित ‘कलेक्टिड वर्क्स आफ पेरियार ईवीआर, 2005(तीसरा संस्करण) से लिया गया है। अंग्रेजी अनुवादक: ए. एस. वेणु।  

1. 1958 में जब यह भाषण दिया गया, उपप्रधानमंत्री पद खाली था। 

अय्यंकाली : सामाजिक क्रांति का महानायक

विशेष रुप से प्रदर्शित

सुनो, सुनो, सुनो—गीत मेरा सुनो

विपन्न, निढाल गरीबी में घिसटते हुए लोगो सुनो 

‘यहां से जाएं, तो कहां जाएं?’

वे रो रहे हैं, बिलख रहे हैं, आंसू बहा रहे हैं

हमारा न कोई घर है, न देश

न ही सिर छिपाने को जंगल

दिन के उजाले में जंगलों की सफाई करना

रात्रि को वहीं निढाल पड़ जाना

बीज बोने के बाद

पेड़ जब देने लगते हैं फल

मालिक आकर कब्जा लेता है उन्हें

हमारे पास अब केवल रोना ही बचा है

हमारे हिस्से है श्रम, केवल श्रम

ढेर सारा, बल्कि सारे का सारा श्रम

हम सड़कों पर चल नहीं सकते

बाजार में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है हमें

लेकिन हम बढ़ेंगे….बढ़ेंगे

बढ़ते रहेंगे, बढ़ते ही रहेंगे।

ऊपर दिया गया गीत करीब 100 वर्ष पुराना है। अय्यंकाली द्वारा स्थापित ‘साधुजन परिपालन संघम’ की बैठकों में गाया जाने वाला गीत। केरल के दलितों और आदिद्रविड़ों में आधुनिक भावबोध जगाने में इस गीत का बड़ा योगदान है। चक्कोला कुरुंबम दीविथन इसे गाया करते थे। ऐसे मार्मिक स्वर में कि श्रोतागणों की आंखें डबडबा जाती थीं। इस बारे में आगे चर्चा करने से पहले अय्यंकाली के जीवन से दो शब्द चित्र—

बैलगाड़ी से क्रांति

वर्ष 1891(कुछ विद्वान इसे 1893 मानते हैं)। करीब 30 वर्ष का एक हृष्ट-पुष्ट और सुदर्शन युवक। एकदम नई बैलगाड़ी, जोतने के लिए एक जोड़ी युवा-छरहरे, सफेद बैल। एक जोड़ी पीतल की बड़ी-बड़ी घंटियां—सब उसने आज ही के लिए खरीदे हैं। इनके अलावा अपने लिए चमकीला अंगवस्त्र, शानदार पगड़ी और रौवदार जूतियां। मानो अपने अनूठे बाने से काल के कपाल पर सुनहरी इबारत टांकने को आतुर हो। बैलों को गाड़ी में जोतने से पहले वह उन्हें प्यार से सहलाता है। फिर उनके गले में घंटियां बांधकर बैलगाड़ी में जोत देता है। उसके बाद पूरी शान से बैलगाड़ी में सवार होता है। सधे बैल इशारा पाते ही आगे बढ़ने लगते हैं। ‘टनश्टन’ बजती घंटियां पचासियों मीटर दूर से उसके आने का पता दे देती हैं। लोग घंटियों की आवाज सुनकर बाहर निकल आते हैं। स्त्रियां और बच्चे खिड़कियों-दरवज्जों से झांकने लगते हैं। 

युवक जिस जाति से आता है, उसे न तो बैलगाड़ी पर सवार होने का अधिकार है। न अंगवस्त्र धारण करने का। न ही उन मार्गों पर चलने का जिनपर उसके बैल हाथियों जैसी मस्त चाल से आगे बढ़े जा रहे हैं। उसकी शान देखकर उसके अपने लोगों का सीना शान से चौड़ा हो जाता है। कुछ को ईर्ष्या होती है। कुछ की आंखों की अंगार फूटने लगते हैं। वे घरों से लाठियां, डंडे वगैरह निकालकर बैलगाड़ी के रास्ता रोक लेते हैं। जो हो रहा है, इसकी उसे उम्मीद थी। इसलिए वह तैयार होकर आया है। रोज-रोज अपमान सहते रहने से अच्छा है, उसका प्रतिकार किया जाए। फैसला इस पार हो या उस पार। विरोधियों को तना देख वह अपनी खुखरी निकाल लेता है। उसका रौद्र रूप देख रास्ता रोकने वाले भयभीत हो जाते हैं। जीत का जश्न मनाती हुई बैलगाड़ी आगे बढ़ जाती है। 

दुनिया में अनेक महापुरुष हुए। सामाजिक परिवर्तन के लिए उन्होंने बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ीं, परंतु बैलगाड़ी पर चढ़कर क्रांति का शंखनाद करने वाले वे अकेले ही थे। 

बाजार जाने की आजादी

भारत में जाति से बड़ा कलंक दूसरा नहीं। यह जन्म के आधार पर आदमी-आदमी में फर्क करना सिखाती है। ‘द्विज’ कहकर मुट्ठी-भर लोगों के हाथों में अकूत अधिकार थमा देती है। दूसरी ओर समाज के बड़े हिस्से को शूद्र और अछूत बताकर उनसे उनका मान-सम्मान, सुख-सुविधा और मामूली खुशियां तक छीन लेती है। केरल सहित पूरे दक्षिण भारत में वह और भी विकृत अवस्था में थी। इसलिए 1892 में केरल यात्रा के दौरान, विवेकानंद ने उसे ‘जातियों का पागलखाना’1 तक कह दिया था। बीसवीं शताब्दी में वहां के सवर्ण पुलाया, पारया, कुरुवा जैसी जातियों की छाया से भी बचते थे। दलितों का उत्पीड़न आम बात थी। उन्हें न सार्वजानिक मार्गों पर चलने की स्वतंत्रता थी, न बाजार जाने की। न ही अच्छे वस्त्र पहनने की। गुलामों जैसा जीवन था उनका। बैलगाड़ी पर चढ़कर सार्वजनिक मार्गों पर चलने की आजादी छीन लेने वाला हमारा महानायक, 1898 में उनके मान-सम्मान की खातिर एक बार फिर नए जोश के साथ उठ खड़ा हुआ। इस बार संघर्ष बाजार जाने की आजादी को लेकर था।   

उसने अपने साथियों को इकट्ठा किया। इरादा आरालुम्मुद बाजार में प्रवेश करने का था। अपने साथियों को लेकर उसने पठानकाडा से आगे बढ़ना शुरू किया। सभी जोश में थे। इस डर से कि विरोधी कभी भी, किसी भी दिशा से हमला कर सकते हैं, वे सावधानी से आगे बढ़ रहे थे। जैसे ही उनका कारवां चेट्टियार स्ट्रीट, बलरामपुर पहुंचा—हथियारों से लैस ऊंची जातियों के लड़ाके उनके रास्ते में अड़ गए।2 दोनों ओर से घात-प्रतिघात होने लगा। संघर्ष बढ़ा तो बढ़ता ही गया। दलितों के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न था। देखते ही देखते मनाक्कुडु, नेय्याट्टिंकर, नेमोन, अमरविला, परसाला, कोझाकुट्टम, कनियापुरम आदि इलाकों में विद्रोह की चिंगारियां फूटने लगीं। जो अछूत सवर्णों को देख कई हाथ पहले ठिठक जाया करते थे—वे अब नई चेतना और आत्मविश्वास से भरे थे। अपने नेता के इशारे पर कुछ भी करने को सनद्ध। पूरे त्रावणकोर में गृहयुद्ध की स्थिति बन चुकी थी। विद्वान 1857 के विद्रोह को प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहते हैं। लेकिन स्वाधीनता की असली लड़ाई तो वे दलित और आदिद्रविड़ लड़ रहे थे। एक सप्ताह बाद हालात सामान्य हुए। तब तक इतिहास उस घटना को ‘चलियार विद्रोह’ के नाम से अपने भीतर टांक चुका था। 

केरल को आधुनिक राज्य बनाने में इन आंदोलनों की बड़ी भूमिका है। वहां अय्यंकाली का उतना ही योगदान है, जितना ज्योतिराव फुले और डॉ. आंबेडकर का महाराष्ट्र में, पेरियार का तमिलनाडु में है। अय्यंकाली का जन्म 28 अगस्त 1863 को त्रावणकोर जिले में, त्रिरुवनंतपुरम् से 13 किलोमीटर उत्तर दिशा में स्थित वेंगनूर नामक गांव में हुआ था। आठ भाई-बहनों में वे सबसे बड़े थे। जाति थी पुलाया। उस जाति के लोग आमतौर पर गुलामों की तरह काम करते थे। अय्यंकाली के पिता अय्यन भी एक जमींदार के गुलाम थे। उनकी मेहनत और वफादारी से प्रसन्न होकर जमींदार ने उन्हें पांच एकड़ जमीन उपहार में दे दी थी। इसलिए अपनी जाति के लोगों में अय्यंकाली के परिवार की हैसियत काफी अच्छी थी। पिता अय्यन पुलाया बस्ती के मुखिया थे।

उस समय समाज पूरी तरह जाति में जकड़ा हुआ था। उस परिवेश से गुजरने वाले बच्चों को समाज में जो उत्पीड़न, उलाहने और तिरष्कार सहना पड़ता है, वैसा अय्यंकाली के साथ भी हुआ था। बचपन से ही वे सुंदर थे। शरीर गठीला और स्वस्थ था। उनका व्यक्तित्व अलग ही छाप छोड़ता था। फुटबाल खेलने का शौक था। एक बार फुटबाल नैय्यर के घर में जा गिरी। वे बॉल लेने पहुंचे तो नैय्यर ने उनका अपमान कर दिया। हिदायत दी कि भविष्य में बॉल उसके घर न आने पाए। उस अपमान ने अय्यंकाली को आहत कर दिया। फुटबाल खेलते समय कुछ सवर्ण लड़के भी उनके साथ शामिल हो जाते थे। अय्यंकाली की जाति के बारे में पता चलते ही उन्होंने आना छोड़ दिया। अय्यंकाली को यह बहुत अखरा। उन्होंने भविष्य में उन बच्चों के साथ कभी न खेलने का फैसला किया। 

अय्यंकाली बचपन से ही रचनात्मक प्रवृत्ति के थे। गाने-बजाने का शौक था। अपनी जाति के बच्चों को इकट्ठा कर उन्होंने एक नाटक मंडली की शुरुआत की। आरंभ में वे परंपरागत नाटक खेलते थे। धीरे-धीरे अपने रचे नाटक भी खेलने लगे। उनके नाटकों में एक संदेश होता था। फलस्वरूप लोग तेजी से उनकी ओर आकर्षित होने लगे। बचपन से ही वे निडर और साहसी थे। इस कारण किसी न किसी मुद्दे को लेकर सवर्णों ने उनका अकसर टकराव होता रहता था। उससे निपटने के लिए विद्रोही अय्यंकाली ने अपने साथियों को संगठित करना आरंभ किया। उन्हें कुश्ती और लाठीबाजी का प्रशिक्षण दिलवाया। इसके लिए कलारी असान नामक प्रशिक्षक को बाहर से बुलवाया गया। इससे पलाया युवकों के भीतर आत्मसम्मान की भावना बढ़ने लगी। चूंकि इस बदलाव के मूल में अय्यंकाली की प्रेरणा और श्रम था, इसलिए प्रशंसक उन्हें सम्मान के साथ ‘उरपिल्लई’ या ‘मूथापिल्लई’ कहते थे। 1888 में उनका विवाह चेल्लमा से हो गया। पति-पत्नी के बीच अगाध प्रेम था। दोनों के सात बच्चे हुए। अय्यंकाली खुद को अच्छा गृहस्थ सिद्ध कर चुके थे। लेकिन उनकी मंजिल वहीं तक सीमित नहीं थी। अछूत होने के कारण उनपर कई प्रकार के बंधन थे। उनसे निपटने के लिए 1893 में बैलगाड़ी पर सवार अय्यंकाली ने वह कर दिखाया, जैसा उनसे पहले किसी न सोचा तक न था। 

शिक्षा हेतु संघर्ष

मैकाले की सलाह पर आगे बढ़ते हुए तत्कालीन वायसराय विलियम बैंटिक 7 मार्च 1835 को एक संकल्पपत्र प्रस्तुत किया था। उद्देश्य था समाज के निचले वर्गों तक शिक्षा का विस्तार। हजारों वर्षों से ज्ञान के नाम पसरे शूण्य की भरपाई करना। लेकिन कानून बनना एक बात है, जरूरतमंदों तक उसका लाभ पहुंचना दूसरी बात। अधिकांश स्कूलों का प्रबंधन द्विज जातियों के हाथ में था। कानून बन जाने बावजूद वे उसकी अवहेलना करती आ रही थीं। फुले का विचार था कि बदहाली से मुक्त होने के लिए शूद्र-अतिशूद्रों को स्वयं प्रयास होंगे, समाज को जगाना होगा। नेतृत्व हेतु प्रभावशाली नेता भी अपने ही भीतर से पैदा करने होंगे। यह सब बिना शिक्षा के असंभव है। अतएव 1848 से ही वे  शूद्रों-अतिशूद्रों के लिए अलग स्कूलों की स्थापना में जुट गए थे। आने वाले 3 वर्षों में 18 स्कूलों की स्थापना कर उन्होंने एक तरह से कीर्तिमान रचा था। 

उसी दिशा में आगे बढ़ते हुए अय्यंकाली ने 1904 में वेंगनूर में पहले स्कूल ‘कुदी पल्लिकूदम’ की नींव रखी। लेकिन सवर्णों से यह सहन न हुआ। निर्माण कार्य शुरू होने के पहले ही दिन उन्होंने अय्यंकाली के स्कूल में आग लगा दी। लोगों के सहयोग से, उन्होंने बिना देर किए नए सिरे से निर्माण शुरू कर दिया। परंतु विद्रोही बाज आने वाले न थे। उन्होंने स्कूल को दूसरी बार भी वही किया। कोई और होता तो कदाचित हार मान लेता। मगर बचपन से ही जुझारू रहे अय्यंकाली के नेतृत्व में निर्माण कार्य चलता रहा। आखिरकार स्कूल बना। बच्चे वहां जाने लगे। वह केरल में किसी दलित द्वारा, दलित बच्चों की शिक्षा के स्थापित पहला स्कूल था। 

अछूत जातियों से जुड़े बच्चों को सरकारी स्कूलों में भर्ती करने नियम 1907 में ही बन चुका था। परंतु उसपर अमल दूर था। सवर्णों के दबाव में त्रावणकोर के दीवान ने उस आदेश को दबा लिया था। अपने संगठन के माध्यम से अय्यंकाली उसके लिए निरंतर प्रयत्नरत थे। आखिरकार, सवर्णों के रवैये से निराश होकर उन्होंने आर-पार की लड़ाई लड़ने का फैसला कर लिया। उन्होंने अछूतों से कहा कि जब तक उनके बच्चों को स्कूल में प्रवेश नहीं मिलता है, तब तक वे नैय्यरों के खेतों में काम करना छोड़ दें। यही हुआ। पुलायाओं ने हड़ताल की घोषणा कर दी। शुरू-शुरू में नैय्यरों ने इसे गीदड़ भभकी माना। सोचा कि भूख से बेहाल, गरीब पुलाया, कुरुवा आदि अछूत, बहुत जल्दी खेतों में लौटने को मजबूर हो जाएंगे। लेकिन अछूतों की आंखों में रोपा गया सपना, उनकी भूख से कहीं ज्यादा बड़ा था। सो हड़ताल खिंचती चली गई। सवर्णों ने अछूतों को डराना-धमकाना शुरू कर दिया। अय्यंकाली और उनके साथियों ने उसका भी सामना किया। 

बुबाई का मौसम आया तो कुछ नैय्यरों ने खुद ही अपने खेतों में धान रोपने की कोशिश की। परंतु दूसरों के श्रम पर जीवन जीते-जीते आलसी हो चुके नैय्यरों के लिए वह काम आसान नहीं था। एक पुलाया जितना काम एक दिन में कर लेता था, उतना काम करने में उन्हें पांच-छह दिन लगते थे। हड़ताल खिंचने से गरीब पुलायाओं के आगे भोजन का संकट उत्पन्न होने लगा। उस समय अय्यंकाली ने बुद्धिमानी से काम लिया। उन्होंने मछुआरों से समझौता किया कि हर मछुआरा मछली पकड़ने के लिए अपने साथ एक पुलाया को साथ ले जाएगा। यह फार्मूला कामयाब रहा। इससे विरोधी बुरी तरह चिढ़ गए। उधर हड़ताल का दायरा बढ़ाने के लिए अय्यंकाली ने कुछ नई मांगे जोड़ दीं। उनमें मजदूरों को स्थायी करने, झूठे आरोपों में फंसाकर दंडित करने तथा कोड़ों से प्रहार करने पर रोक, सार्वजनिक मार्गों पर आने-जाने की आजादी, सप्ताह में एक दिन अवकाश जैसी नई मांगें शामिल थीं। 

अय्यंकाली के नेतृत्व का ही जादू था कि शताब्दियों से बैल की तरह सर झुकाए श्रम करते आए अछूत पहली बार जमींदारों के आगे तने खड़े थे। हालात बिगड़ते जा रहे थे। अछूतों के आगे भोजन का संकट था। वहीं जमींदारों की हालत अच्छी न थी। क्षुब्ध होकर उन्होंने पुलायाओं की झोंपड़ियों में आग लगा दी। बदले में अय्यंकाली के हरावल दस्ते ने जमींदारों के मकानों को आग के हवाले कर दिया। इससे उनके गुस्से का ठिकाना न रहा। यह सोचते हुए कि सारे मामले के पीछे अय्यंकाली है, नीचता की हद तक जाते हुए उन्होंने उन्हें मरवाने का फैसला कर लिया। उसके लिए मुंबई के एक गुंडे को नियुक्त किया गया। अय्यंकाली को जीवित लाने पर 2000 रुपये तथा मृत लाने पर 1000 रुपये का ईनाम देने की घोषणा कर दी गई।4 

धमकियों और खून-खराबे के बावजूद अय्यंकाली अपने साथियों के साथ डटे हुए थे। नैय्यरों ने अय्यंकाली तथा उनके अंगरक्षक याकूब के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी। याकूब को गिरफ्तार कर लिया। अय्यंकाली तत्काल पुलिस स्टेशन पहुंचे। वहां तब तक डटे रहे, जब तक पुलिस ने याकूब को रिहा न कर दिया। हड़ताल करीब एक वर्ष(1907-08) तक चली। इस बीच शिक्षा निदेशक मिशेल ने त्रावणकोर के दीवान को 1907 के नीतिगत आदेश पर तुरंत अमल करने की सलाह दी। चौतरफा दबाव के बीच त्रावणकोर के दीवान की ओर से 1910 में अछूत बच्चों को सरकारी स्कूलों में प्रवेश संबंधी आदेश जारी कर दिए गए। उस समय के कई बुद्धिजीवियों की ओर से उसका विरोध किया गया था। उनमें से एक खुद को प्रगतिशील बताने वाले ‘स्वदेशाभिमानी’ के संपादक रामकृष्ण पिल्लई भी थे। अछूतों बच्चों को सरकारी स्कूल में प्रवेश पर उन्होंने लिखा था कि यह आदेश—

‘पीढ़ियों से ज्ञान-विज्ञान की खेती करते आए लोगों के बच्चों को, उनके खेतों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी मजदूरी करते आए लोगों के बच्चों के साथ रखना—घोड़े और भैंस को एक साथ जोत देने जैसा है।’5 

आदेश का जमीनी असर देखने के लिए अय्यंकाली पूजारी अय्यपन की 8 वर्ष की बेटी पंजामी को लेकर ऊरुट्टमबलम गवर्नमेंट गर्ल्स स्कूल पहुंचे। उनके पास डाइरेक्टर ऑफ़ पब्लिक इंस्ट्रक्शन मिशेल के विशेष आदेश थे। प्रधानाचार्य ने बच्ची का दाखिला करने में अपनी असमर्थता जाहिर की। अय्यंकाली द्वारा विशेष आदेश दिखाने के बाद वह पंजामी को कक्षा के अंदर बिठाने के लिए तैयार हो गया। परंतु उस बच्ची के कक्षा में बैठते ही, नैय्यर विद्यार्थियों ने कक्षा का बहिष्कार कर दिया।6 प्रधान अध्यापक हालात को संभालने की कोशिश कर ही रहे थे कि कंडाल गांव के कुछ नैय्यर वहां जा धमके। वे लाठी-डंडों से लैस थे। अय्यंकाली के साथ भी उनके साथी थे। विवाद बढ़ता गया। गांवों से शुरू हुए उस संघर्ष ने शीघ्र ही आसपास के जिलों को अपनी चपेट में ले लिया। यहां तक कि दक्षिणी त्रावणकोर भी उस आंदोलन के असर से बच न सका। दलितों के प्रवेश को लेकर नैय्यर इतने विध्वंसात्मक थे कि उन्होंने उन दो स्कूलों में आग लगा दी, जिनमें अय्यंकाली ने अपने समाज के बच्चों का दाखिला कराने के उद्देश्य से पहुंचे थे।

साधुजन परिपालन संघम

भूख, अभाव, विपन्नता और दास जैसा जीवन जीने वाले लोगों को अय्यंकाली ने नया नाम दिया था—‘साधु जन’। अपने आंदोलन को सांस्थानिक रूप देने के लिए उन्होंने 1904 में ‘साधु जन परिपालन संघ’(गरीब रक्षार्थ संघ) की स्थापना की थी। उनके कुछ जीवनीकारों के अनुसार इस संस्था का गठन 1907 में हुआ था। संस्था का ‘कनक्कन’(महासचिव) अय्यंकाली को बनाया गया। अन्य सदस्यों में मूलायिल कालि, थॉमस वाडयार, गोपालन आदि शामिल थे। उसकी सदस्यता सभी अछूत जातियों के लिए खुली थी। उसका प्रमुख उद्देश्य था पुलाया सहित सभी अछूत जातियों को अपने अधिकारों पक्ष में संगठित करना। उन्हें अंधविश्वास, गुलामी, अशिक्षा, गरीबी और सवर्णों के आतंक से मुक्ति दिलाना। संस्था के प्रचार-प्रसार के लिए स्थानीय सभाओं और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का सहारा लिया जाता था। सवर्ण उस संस्था के गठन से नाराज थे। इसलिए आरंभ में उसकी बैठक, बस्ती से दूर पेड़ों की ओट में या पहाड़ी के पीछे किसी गोपनीय स्थान पर की जाती थी। धीरे-धीरे लोगों के मन से यह डर निकलने लगा। ‘साधु जन’ का उद्देश्य पुलायाओं, पारयाओं जैसी अछूत जातियों का उत्थान था। बावजूद इसके उन्होंने अपनी संस्था को ‘धर्म एवं जाति’ संबंधी दुराग्रहों से परे रखा था। इससे उन्हें इन जातियों के राजनीतिकरण में मदद मिली। 

संस्था का प्रबंधन बड़े ही सुनियोजित तरीके से किया जाता था। आमतौर पर हर गांव में उसकी शाखा थी। संस्था का वार्षिक सम्मेलन त्रिरुवनंतपुरम के ‘विक्टोरिया जुबली हाल’ में किया जाता था। उसमें केरल के अलग-अलग गांवों और शहरों से आए लोग हिस्सा लेते थे। सम्मेलन के दिन त्रिरुवनंतपुरम की सड़कें, काली चमड़ी वाले अछूतों से पट जाती थीं। उसमें संस्था के सदस्यों और अधिकारियों के अलावा विभिन्न सरकारी और राजकीय अधिकारियों को भी आमंत्रित किया जाता था। संस्था के महासचिव के रूप में उसके कार्यक्रमों, उपलब्धियों और मांगों को सभा के सम्मुख पेश करने का दायित्व अय्यंकाली का था। वे अनपढ़ थे। लेकिन संस्था का संचालन इस प्रकार करते थे कि लोग उनकी प्रबंधन क्षमता के कायल हो जाते थे। ‘साधु जन परिपालन संघ’ के कार्यक्रमों को लोगों तक पहुंचाने के लिए ‘साधु जन परिपालिनी’ नामक मासिक पत्रिका की शुरुआत भी की गई। कालि कोदिक्कुरुप्पन को उसका संपादक नियुक्त किया गया। आने वाले 30 वर्षों तक यह संस्था सुचारू रूप से काम करती रही। 

नेदमंगादु विद्रोह

चालियार विद्रोह के बाद कई बाजारों में पुलायाओं को आने-जाने की आजादी प्राप्त हो चुकी थी। बावजूद इसके कुछ बाजारों में अभी भी उनका आना प्रतिबंधित था। जो पुलाया अपना सामान बेचने के लिए आते थे, उन्हें भी मुख्य बाजार में आने से रोका जाता था। सवर्णों ने उन्हें अलग स्थान दिया था। 1912 में अय्यंकाली ने एक बार फिर अपने साथियों को इकट्ठा किया। इस बार उनके अभियान में स्त्रियां और बच्चे भी शामिल थे। जैसे-जैसे पुलायाओं का दल आगे बढ़ा, उनका साथ देने और हौसला बढ़ाने के लिए दूसरी जातियों के लोग भी उनके साथ आ मिले। उन्होंने अपना अभियान त्रिवेंद्रम से आरंभ किया। नेदमंगाडु तक पहुंचने के लिए उन्होंने जंगल का रास्ता चुना था। मगर बाजार तक पहुंचने से पहले ही सवर्णों ने उनपर हमला बोल दिया। दोनों पक्ष पक्के इरादे से आए थे। विवाद एक बार फिर संघर्ष में बदल गया। एक रणनीति के तहत अय्यंकाली ने पुलायाओं के एक हिस्से को दूसरी दिशा से बाजार में प्रवेश के लिए भेज दिया। घने जंगलों के रास्ते, चुनौतियों से जूझता हुआ हुआ वह जत्था आखिरकार नेदमंगाडु बाजार में प्रवेश करने में कामयाब हो गया।

श्री मूलम प्रजा सभा की सदस्यता

अय्यंकाली के सघर्ष और उनकी ख्याति सरकार तक पहुंच चुकी थी। लोग उनसे प्रभावित थे। इसके फलस्वरूप 1912 में उन्हें ‘श्री मूलम् प्रजा सभा’ का सदस्य मनोनीत कर दिया गया। सभा के समक्ष उनका प्रथम संबोधन छोटा, किंतु प्रभावशाली था। अपने भाषण में उन्होंने पुलायाओं की गरीबी, अशिक्षा के अलावा उन्हें आवास एवं खेती हेतु जमीन दिए जाने की मांग की थी। उनका नारा था, ‘खेत उनके लिए जो जोतें’। अपनी पहली सभा में ही सरकारी अधिकारियों की मनमानी की ओर ध्यान आकर्षित कराते हुए उन्होंने कहा था—

‘हमारे कई परिवारों को धनवान जमींदारों ने इस आश्वासन के साथ उनके घर से निकाल दिया था कि उन्हें वे घर बनाने के लिए अलग से जमीन देंगे। अब वन-विभाग के कर्मचारी, जमींदारों से मिलकर मेरे लोगों पर उन घरों को खाली करने के लिए दबाव डाल रहे हैं। इसके साथ-साथ ये अधिकारी जमींदारों को उनकी भूमि पर कब्जा करने में मदद कर रहे है। मैं इस समस्या के निराकरण की प्रार्थना करता हूं।’

अय्यंकाली की अपील पर दीवान ने पुलायाओं को यथासंभव मदद का भरोसा दिलाया। दीवान के मन में उनके प्रति कितना सम्मान था, यह इस घटना से भी जाहिर होता है—

‘एक बार अय्यंकाली प्रजा सभा के सदस्य की हैसियत से, दीवान से मिलने उनके कार्यालय में पहुंचे। वहां तैनात दरबानों ने उन्हें भीतर जाने से रोक दिया। उन्होंने अय्यंकाली के साथ अभद्रतापूर्ण व्यवहार भी किया। उनका नाम लेकर पुकारा। अय्यंकाली वहां से चले गए। बाहर जाकर उन्होंने तार भेजकर दीवान को सारी घटना से अवगत करा दिया। दीवान ने तुरंत अय्यंकाली को अपने कार्यालय बुला भेजा। वे जब दीवान के कार्यालय में पहुंचे तो दोनों दरबान भी वहां मौजूद थे—

‘मिस्टर अय्यंकाली, अपने साथ किए गए दुर्व्यवहार के लिए आप इन्हें क्या दंड देना चाहेंगे?’ दीवान ने पूछा। यह सुनकर वे दंग रह गए। कुछ पल सोचने के बाद उन्होंने कहा—

‘इन्होंने जो किया, लापरवाही के कारण किया। इन्हें माफ कर दिया जाए।’

दीवान अय्यंकाली से प्रभावित हुआ। आखिरकार दोनों दरबानों को अय्यंकाली के पैर छूकर माफी मांगने के बाद छोड़ दिया गया। 

कोचु कली : अय्यंकाली के वक्ष-कर विरोधी आंदोलन की नायिका

उनीसवीं शताब्दी के त्रावणकोर में सभी जातियों के लिए ड्रेसकोड लागू था। तदनुसार निचली जाति की स्त्रियों को वक्ष ढकने की आजादी नहीं थी। दलित स्त्री-पुरुष दोनों को टैक्स देना पड़ता था। पुरुषों का मूंछें रखना, छाता लेकर चलना निषिद्ध था। ये सब नियम ब्राह्मणों द्वारा अपनी जातीय श्रेष्ठता के नाम पर बनाए गए थे। खुले वक्ष को ऊंची जातियों के प्रति सम्मान माना जाता था। इसलिए उन स्त्रियों को भी, जिन्हें जाति के आधार पर वक्ष ढकने का अधिकार प्राप्त था, ऊंची जाति के पुरुष के समक्ष पहुंचने पर अपना ऊपरी वस्त्र हटा देना पड़ता था।

जब स्त्री का वक्ष ही उसका दुश्मन था

स्त्री का अपना वक्ष ही उसका दुश्मन था। अनेक कहानियां उसे लेकर समाज में प्रचलित थीं। एक कहानी नंगेली नामक आदिवासी स्त्री की थी। 1803 में वक्ष-कर न दे पाने की मजबूरी में उसने अपना स्तन काटकर अधिकारी को भेंट कर दिया था। एक लोककथा के अनुसार निचली जाति की एक स्त्री रानी के पास अपना वक्ष इसलिए ढककर पहुंची थी, ताकि  रानी नाराज होकर उसके स्तनों को काटने का आदेश सुना दे। 1859 के सन्नार विद्रोह तथा उसके बाद चले लंबे सघर्ष के फलस्वरूप नडार स्त्रियों को वक्ष ढकने का अधिकार प्राप्त हो चुका था। लेकिन इझ़वा, पुलाया, कुरुवा आदि पिछड़ी और अछूत जाति की स्त्रियों को यह अधिकार 1915 तक भी प्राप्त नहीं था। 

सोने-चांदी के गहने पहनने पर प्रतिबंध  

अछूतों को सोने और चांदी के आभूषण पहनने का भी अधिकार नहीं था। वे केवल पत्थर अथवा कांच के मनकों की ‘कल्लामाला’(कंठमाला) पहन सकती थीं। कान में लोहे का छल्ला जिसे ‘कुन्नकु’ कहा जाता था, पहनने की अनुमति थी। इसलिए युवा स्त्रियां अपने वक्ष को यथासंभव ढकने की कोशिश में पत्थर और कांच के मनकों की कई-कई मालाएं पहने रहती थीं। ‘कल्लामाला’ उनके दासत्व का प्रतीक थी। वक्ष कर के विरोध में कई आंदोलन चल चुके थे, परंतु उसके ताबूत में अंतिम कील ठोकने का काम किया था अय्यंकाली ने।

कौन थी कोचु कली

उस आंदोलन में अय्यंकाली को आदिवासी स्त्रियों का पूरा सहयोग मिला। उनमें से एक का नाम था—कोचु कली। कोचु कली आदि द्रविड़ समाज से थी। तांबई रंग और लंबे कद के कारण उसे दूर से ही पहचाना जा सकता था। उसका जन्म उनीसवीं शताब्दी  के अंतिम दशक में, इरनाकुलम जिले के एलुवा नामक गांव में हुआ था। पिता का नाम था, पींगन। मां पल्ली कुरुंबा कीझनाद गांव की रहने वाली थी। सात भाई-बहनों में कोचु तीसरे नंबर की थी। 21 वर्ष की उम्र में उसका विवाह, परंबू हाउस बंगले में काम करने वाले पल्ली के साथ कर दिया गया। विवाह के तीन वर्ष पश्चात दोनों के घर एक पुत्री का जन्म हुआ।

उस समय तक केरल में वक्ष-कर विरोधी आंदोलन जोर पकड़ चुका था। जगह-जगह उसके समर्थक और विरोधी आमने-सामने थे। उन्हीं दिनों अपनी संस्था ‘साधुजन परिपालन संघ’ के एक कार्यक्रम के दौरान अय्यंकाली पारंबू हाउस में ठहरे थे। वे एक सभा के सिलसिले में वहां पधारे थे। वक्ष-कर विरोध को लेकर चल रहे प्रदेश-व्यापी संघर्ष के बीच वह सभा कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण थी। सभा में शिरकत के लिए अय्यंकाली ने कुछ उदार नैय्यर नेताओं को भी आमंत्रित किया था। 

दासता के प्रतीकों का बहिष्कार

सभा में सभी नेताओं ने वक्ष कर का विरोध किया। अय्यंकाली का नंबर आया तो उन्होंने भी उसकी तीव्र आलोचना की। भाषण के दौरान उन्होंने दो स्त्रियों को मंच पर आमंत्रित किया। उनमें से एक  कोचु कली थी। उस समय वह 24 वर्ष की थी। दोनों स्त्रियां सकुचाती हुई मंच पर पहुंचीं। अय्यंकाली ने उन्हें बताया कि यहां बैठक में मौजूद सभी लोग गुलामी की प्रतीक ‘कल्लामालाओं’ को उतार फैंकने की सहमति दे चुके हैं। उसके बाद उन्होंने चाकू से, उन स्त्रियों के गले में पड़ी ‘कल्लामालाओं’ को काट फैंका। इसके साथ ही उन्होंने उनके तोड़ा(कान में पहने जाने वाला पत्थर का पारंपरिक आभूषण) को तोड़ दिया—

‘आगे से तुम इन्हें कभी मत पहनना। बजाय इसके तुम ‘धोती और ब्लाउज’ पहना करना।’ अय्यंकाली ने कहा। उन्होंने उन स्त्रियों को कपड़े खरीदने के लिए कुछ पैसे भी दिए। उसके बाद कोचु कली वक्ष-कर विरोधी आंदोलन के स्त्री दस्ते की नेता बन गई। 1915 में उसके नेतृत्व में वक्ष-कर विरोधी कई प्रदर्शन हुए। उनमे सबसे महत्वपूर्ण कोल्लम जिले के पेरिनाड में दलित-आदिवासी स्त्रियों का आंदोलन था। उस ऐतिहासिक कार्यक्रम में स्त्रियों ने गले में पहनी कल्लामालाओं को खुद उतार फेंका था।

सवर्णों की हिंसा

वक्ष कर विरोधी आंदोलन में स्त्रियों की भागीदारी ने सवर्णों को हिलाकर रख दिया था। वे मनमानी पर उतर आये थे। मलयालम पत्रिका ‘मीतावदी’ के जनवरी 1916 के अंक के अनुसार एक पुलाया स्त्री ने अय्यंकाली से मुलाकात के बाद ‘कल्लामाला’ पहनना छोड़ दिया था। एक दिन वह अपने काम पर जा रही थी। अचानक एक आदमी उसके पास पहुंचा और ‘कल्लामाला’ के बारे में पूछा। स्त्री के यह कहने पर कि वह उसे उतार कर फ़ेंक चुकी है, उस आदमी को इतना गुस्सा आया कि उसने तत्काल उस स्त्री के कान काट लिए।

अय्यंकाली की यादों के साथ काटी जिंदगी   

आधुनिक केरल के प्रमुख वास्तुकार अय्यंकाली से जुड़ी जादुई यादों का ही असर था, जिससे कोचु कली ने लंबी उम्र प्राप्त की थी। उनका निधन, 115 वर्ष की अवस्था में 2013 में हुआ था। अय्यंकाली को याद करते समय कोचु कली का चेहरा दमकने लगता था। गर्दन अभिमान से कुछ और तन जाती थी। एक साक्षात्कार में उसने बताया था कि अय्यंकाली के शब्द आज भी उनके कानों में घंटी की तरह गूंजते हैं। उसके अनुसार अय्यंकाली तीन दिन और तीन रात ‘परंबू हाउस’ में ठहरे थे। भोजन में उन्हें चावल और सूखी झींगा मछली की कढ़ी परोसी गई थी। कोचु कली उस दिन को याद करके गर्व से भर जाती थी, जब उसने ‘धोती और ब्लाउज’ को पहली बार पहना था—

‘धोती और ब्लाउज पहनते समय मैं बहुत डरी हुई थी। सोचती थी कि सवर्ण डंडों से हमारी पिटाई करेंगे। लेकिन जब अय्यंकाली ने हमसे बात की, हमारा सारा डर गायब हो गया।’

28 अगस्त 2020 को अय्यंकाली का 157वां जन्मदिवस है। यह अवसर अय्यंकाली के साथ-साथ कोचु कली के संघर्ष को याद करने का भी है।

वक्ष-कर का विरोध

अय्यंकालि द्वारा चलाए गए महत्वपूर्ण आंदोलनों में से एक था—वक्ष-कर के विरोध में चलाया गया आंदोलन। वह ऐसा अभियान था, जो उन्हें अपने समकालीन और पूर्ववर्ती कई समाज-सुधारकों से आगे खड़ा सिद्ध कर देता है। उनीसवीं शताब्दी के त्रावणकोर में सभी जातियों के लिए ड्रेसकोड लागू था। उसमें सर्वाधिक प्रताड़ना स्त्रियों को झेलनी पड़ती थी। तदनुसार निचली जाति की स्त्रियों को वक्ष ढकने की आजादी नहीं थी। यदि कोई स्त्री अपना वक्ष ढकना चाहे तो बदले में उसे सरकार को कर देना पड़ता था। कर की मात्रा वक्ष के आकार के अनुरूप तय की जाती थी। जितना बड़ा वक्ष, उतना ज्यादा टैक्स। उसकी उगाही के लिए एक अधिकारी नियुक्त था। वक्ष-कर लगाने वाले ब्राह्मण थे। खुले वक्ष को ऊंची जातियों के प्रति सम्मान माना जाता था। तदनुसार नैय्यर स्त्रियों को नंबूदरी ब्राह्मणों के समक्ष अपना वक्ष ढकने की स्वतंत्रता नहीं थी। जबकि ब्राह्मण अपना वक्ष केवल मंदिर में देवताओं के समक्ष खुला रखता था। यहां तक उन स्त्रियों को भी, जिन्हें जाति के आधार पर वक्ष ढकने का अधिकार प्राप्त था, ऊंची जाति के पुरुष के समक्ष पहुंचने पर अपना ऊपरी वस्त्र हटा देना पड़ता था।

स्त्री का अपना वक्ष ही उसका दुश्मन था। अनेक कहानियां उसे लेकर समाज में प्रचलित थीं। एक कहानी नंगेली नामक आदिवासी स्त्री की थी। वक्ष-कर न दे पाने की मजबूरी में उसने अपना स्तन काटकर अधिकारी को भेंट कर दिया था। एक लोककथा केरलीय समाज में लंबे समय से प्रचलित थी। उसमें निचली जाति की एक स्त्री रानी के पास अपना वक्ष केवल इसलिए ढककर पहुंचती है कि वह नाराज होकर उसके स्तनों को काटने का आदेश सुना दे। ताकि इस ‘आफत’ से  उसे हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाए। 1859 में शुरू हुए सन्नार विद्रोह तथा उसके बाद चले लंबे सघर्ष के फलस्वरूप नडार स्त्रियों को अपना वक्ष ढकने की आजादी प्राप्त हो गई। लेकिन इझ़वा, पुलाया आदि पिछड़ी और अछूत जाति की स्त्रियों को 1915 तक वक्ष ढकने का अधिकार प्राप्त नहीं था। 

अछूतों को सोने और चांदी के आभूषण पहनने का भी अधिकार नहीं था। वे केवल पत्थर अथवा कांच के मनकों की ‘कल्लु माला’(कंठ माला) पहन सकती थीं। कान में केवल लोहे का छल्ला जिसे ‘कुन्नकु’ कहा जाता था, पहनने की अनुमति थी। इसलिए युवा स्त्रियां अपने वक्ष को यथासंभव ढकने की कोशिश में पत्थर और कांच के मनकों की कई-कई मालाएं पहने रहती थीं। ‘कल्लुमाला’ उनके दास होने की निशानी भी थी। 1915 में एक सभा के दौरान अय्यंकाली ने अछूत स्त्रियों से कहा था कि वे दासता के प्रतीक उन आभूषणों को हमेशा के लिए उतार फेंके। उनके स्थान पर धोती और ब्लाउज जैसे वस्त्र पहनें। उनके आवाह्न पर पेरीनाड की हजारों दलित स्त्रियों ने पत्थर की कंठमालाओं को उतारकर ऊपरी वस्त्र पहनना आरंभ कर दिया। यह देखकर शीर्ष जातियों में खलबली मच गई। उन्होंने इसे स्थापित समाज-व्यवस्था का उल्लंघन माना। ‘अपमान’ का बदला लेने के लिए वे दलितों पर हमलावर होने लगे। वक्ष ढकने के कारण कई दलित स्त्रियों के स्तन काट डाले गए। कइयों के घरों को आग के हवाले कर दिया गया। परिजनों पर जानलेवा हमले किए गए। अनेक स्त्रियों के पति, भाई और माता-पिता को मौत के हवाले कर दिया गया। उस आंदोलन में अय्यंकाली को आदिवासी स्त्रियों का पूरा सहयोग मिला। उन जुझारू स्त्रियों में से एक का नाम था—कोचु कली। वह पहली स्त्री थी जिसके गले में पड़ी ‘कल्लुमाला’ को अय्यंकाली ने अपने हाथों से काटा था।

अय्यंकाली के सभी चित्रों में हम उन्हें कोट पहने हुए देखते हैं। वह भेषभूषा भी उन्होंने, ब्राह्मणों द्वारा निर्धारित ड्रेस कोड को चुनौती देने के लिए अपनाई थी। जिस जाति में उनका जन्म हुआ था, उसकी सामाजिक हैसियत गुलामों जैसी थी। एक पुलाया अपने शरीर पर केवल पुराना, लंगोटीनुमा वस्त्र लिपेट सकता था। अय्यंकाली उससे विद्रोह करना चाहते थे। लेकिन सोचते थे कि कोट पहनने का अधिकार केवल पढ़े-लिखे लोगों को है, जबकि वे पूरी तरह अनपढ़ थे। कुन्नुकुझी एस. मणि के अनुसार, श्री मूलम प्रजा सभा का सदस्य मनोनीत किए जाने पर, जॉन हेनरी नामक एक यूरोपियन ने उन्हें एक कोट भेंट किया था। प्रजा सभा के अगले सत्र में वे उसी कोट को पहनकर उपस्थित हुए थे। अगले सत्र के लिए वे कुछ और कोट सिलवाना चाहते थे। मगर उन दिनों त्रिरुवनतपुरम् में ऐसा कोई दर्जी नहीं था, जो कोट की सिलाई कर सके। इसलिए उन्होंने कोट्टयम के एक दर्जी को दो कोट सीने का आर्डर दिया। श्रीमूलम पोपुलर असेंबली के अगले सत्र में उन्होंने अपने सिलवाए कोट पहनकर हिस्सा लिया था। नैय्यर उसे देखकर जल-भुन रहे थे। लेकिन अब कुछ भी कर पाना उनके बस से बाहर था। 

केरल के इतिहास में अस्पृश्यता, अशिक्षा और दासता को सबसे जोरदार चोट देने वाला वह पुरोधा, 18 जून, 1941 को सघर्ष चिरनिद्रा में लीन हो गया। एक अवसर पर एक पत्रकार ने उनसे पूछा था—‘आपकी दिली तमन्ना क्या है?’ इस पर अय्यंकाली का उत्तर था—‘आंख मूंदने से पहल मैं अपने समाज के दस-बारह विद्यार्थियों को ग्रेजुएट बने देखना चाहता हूं…बस।’ एक कविता के जरिये  मलयाली कवि पी. जी. बिनॉय उन्हें इस तरह याद करते हैं—

तुम्हीं ने जलाया था प्रथम ज्ञानदीप

बैलगाड़ी पर सवार हो

गुजरते हुए प्रतिबंधित रास्तों पर

अपनी देह की यंत्रशक्ति से

पलट दिया था, कालचक्र को

ओमप्रकाश कश्यप

1. एम. निसार, मीना कंडासामी—अय्यंकाली : ए दलित लीडर ऑफ़ आर्गेनिक प्रोटेस्ट, पृष्ठ 15.

2. एम. वेलकुमार, ट्रांसफार्मेशन फ्राम अनटचेबल टू टचेबल: एक स्टडी ऑफ़ अयंकाली कंटीब्यूशन टू दि रेनेसां ऑफ़ ट्रावणकोर दलितस, 2018

3. जेटिंल टी. वर्गिस, दि कंन्सट्रक्शन ऑफ़ साधुजनम्: अय्यंकालि एंड दि स्ट्रगल ऑफ़ दि स्लेव कॉस्ट्स फॉर ए न्यू आइडेंटिटी-1884-1941, (2016), पेज 72

4. Ayyankali, dalit e-forum, dalits@ambedkar.org,

5. Ayyankali, dalit e-forum, dalits@ambedkar.org,

6.  कन्नुकुझी मणि, महात्मा अय्यंकलि, डी.सी.बुक्स, कोट्यम, 2008, जेटिंल टी. वर्गिस, पृष्ठ 81

7. कोचु कली, दि हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन स्लेव वूमेन, http://dravidagallery.blogspot.com/2013/06/?m=0

8. एम. वेलकुमार, पृष्ठ-197-198

हिंदी महाकाव्यों(महाभारत और रामायण) की विखंडनवादी पुनरीक्षा

विशेष रुप से प्रदर्शित

महाभारत और रामायण. हिंदुओं के दो महाकाव्य. दोनों विश्व-साहित्य की क्लासिक धरोहरों में आते हैं. कुछ लोग इन्हें इतिहास मानते हैं. परंतु इतिहास के लिए घटनाओं और पात्रों का समय से सुसंगत होना अनिवार्य है. यदि पुराना है तो उसके कुछ पुरातात्विक साक्ष्य होने चाहिए, जैसे सिंधु घाटी की सभ्यता के हैं. महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, सम्राट अशोक आदि के हैं. ऐसे कोई प्रामाणिक साक्ष्य इन महाकाव्यों से संबंधित घटनाओं के नहीं मिलते. कुछ शहरों और नदियों के नाम जरूर मेल खाते हैं. किंतु नगर की मौजूदगी, उसमें व्यक्ति विशेष के प्रवास को तब तक प्रमाणित नहीं करती जब तक कोई दूसरा साक्ष्य न हो. उनके अलावा विभिन्न देवताओं के जगह-जगह फैले कुछ मंदिर आदि है. उनमें से अनेक 1000-1200 वर्ष पुराने और अपनी स्थापत्य कला में बेजोड़ हैं. ये धर्मस्थल श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक हैं. इसलिए जब भी महाकाव्यों में वर्णित घटनाओं की ऐतिहासिकता को चुनौती दी जाती है, प्रमाण के अभाव में ‘भक्तगण’ आस्था के खोल में समा जाते हैं. उसमें दूसरों का प्रवेश निषिद्ध होता है. वे खुद उससे बाहर झांकने की कोशिश कभी नहीं करते.

उनके लिए यदि आस्था कहती है—’राम थे, तो थे! सूर्यग्रहण का कारण उसपर केतु द्वारा उत्पन्न किया गया संकट है, तो यही सच है! यदि ग्रंथों में लिखा है कि बाल हनुमान ने खेल-खेल में सूरज को निगल लिया था, तो संदेह की गुंजाइश कहां बचती है! आस्था को सर्वोपरि मानने वालों का खुद आस्थावान होना आवश्यक नहीं है. आस्था सिर्फ उनकी लोकलुभावन राजनीति का हिस्सा होती है. आस्थावादी कहता है, जो कहा गया है, उसपर विश्वास करो. धर्मग्रंथों पर संदेह करना पाप है. आस्था जितनी ज्यादा संदेह-मुक्त हो, उतनी ही पवित्र मानी जाती है. जबकि ज्ञान की खोज बगैर संदेहाकुलता के संभव ही नहीं है. कह सकते हैं कि आस्था मानवीय विवेक की ऐसी बाड़ाबंदी है, जिसका दूसरा छोर अंधविश्वास से जुड़ा होता है. अंधविश्वास भी ऐसा कि ज्ञान कब अज्ञान में ढल जाता है, व्यक्ति को पता ही नहीं चल पाता. जिन धर्मग्रंथों के आधार पर आस्था का समर्थन किया जाता है, उनमें परस्पर विरोधी सूचनाओं की भरमार है. उदाहरण के लिए ऋग्वेद के कुछ मंत्रों(1/139/11, 8/28/1) में देवताओं की संख्या 33 बताई गई है, जबकि दूसरे मंत्र(3/9/9, 1/52/6) के जरिये 3339 देवताओं का आवाह्न किया गया है. 

हिंदू अतीतोन्मुखी धर्म है. हिंदुओं के लिए पुरातन ही महानतम है. हिंदू धर्म को अधिकाधिक प्राचीन दिखाने के लिए वे लंबी-लंबी, बिना सिर-पैर की कल्पना करते हैं. उनके अनुसार सतयुग की अवधि 17,28,000 वर्ष, त्रेता की 12,96,000 तथा द्वापर की 8,64,000 वर्ष थी. जबकि कलयुग मात्र 4,32,000 वर्ष का होगा. युगावधि की तरह मनुष्य की आयु और लंबाई भी घटती जाती हैं. तदनुसार सतयुग में मनुष्य की आयु 1,00,000 वर्ष, लंबाई 21 हाथ(32 फुट), त्रेता में 10,000 वर्ष, लंबाई 14 हाथ(21 फुट) द्वापर में 1000 वर्ष लंबाई 7 हाथ(11 फुट) तथा कलयुग में मात्र 100 लंबाई 4 हाथ( लगभग फुट) होती है. चारों युगों की अवधि बराबर क्यों नहीं है? युग बदलने के साथ ही मनुष्य की लंबाई और वयस में इतना अंतर अचानक कैसे आ जाता है? क्या दो युगों के बीच कोई शून्यकाल भी होता है? क्या युग का बदलना वर्ष या शताब्दी बदलने जैसा है—जैसे प्रश्नों से वे कन्नी काट जाते हैं. चारों युगों में सतयुग को सर्वोत्तम बताया गया है. महाभारत(149.11-25) में हनुमान भीम को बताते हैं—’‘सतयुग में प्रत्येक मनुष्य पुरुषार्थ सिद्धि कर कृतकृत्य होता था, इसलिए वह कृतयुग कहलाया. उसमें धर्म अपनी संपूर्ण अवस्था में था….किसी को कुछ करना नहीं पड़ता था. इच्छामात्र से जरूरत की वस्तुएं प्राप्त हो जाती थीं.’ रामायण के अनुसार हनुमान का जन्म त्रेता में हुआ था. सतयुग की जानकारी का उनका स्रोत क्या था, इस बारे में वे कुछ नहीं बताते.

गीता के अनुसार जब भी पृथ्वी जब-जब पाप बढ़ते हैं, धर्म संकट में पड़ जाता है—’तब-तब अवतार होते हैं. श्रद्धा के अतिरेक में हम इसपर विश्वास भी कर लेते हैं. यह ख्याल तक नहीं आता कि यदि सतयुग में धर्म चरमोत्कर्ष पर था तो सर्वाधिक अवतार उसी युग में क्यों हुए? स्मरणीय है विष्णु के कुल दस अवतारों में से चार—’मत्स्य, कूर्म, वाराह और नृसिंह, सतयुग के खाते में जाते हैं.  त्रेता के हिस्से में तीन—’वामन, परशुराम और राम तो द्वापर में केवल कृष्ण हैं. गौतम बुद्ध को सनातन धर्म के खांचे में फिट करने के लिए ‘कलयुग’ में उन्हें भी अवतार का दर्जा दिया गया है. दसवें और आखिरी अवतार के रूप में ‘कल्कि’ की पूर्वकल्पना की गई है. गीता के हिसाब से देखा जाए तो धर्म पर सबसे ज्यादा संकट सतयुग के दौरान आए थे, जिससे उस युग में विष्णु को चार अवतार लेने पड़े और सबसे कम द्वापर में जिसमें केवल एक अवतार लेना पड़ा था. हमारा सवाल बस इतना है कि यदि सतयुग में धर्म अपने चरमोत्कर्ष पर था, सभी कुछ ठीक-ठाक था तो उस युग में विष्णु को सर्वाधिक चार-चार अवतार क्यों लेने पड़े थे?  

हमारी शंकाएं बस यहीं तक सीमित नहीं है. त्रेता और द्वापर में अवतार उस समय होते हैं, जब वे अवसान के निकट थे. राम के सरयू में जलसमाधि लेते ही त्रेता भी ‘जलसमाधि’ ले लेता है. इसी तरह कृष्ण की मृत्यु के साथ द्वारिका समुद्र में समा जाती है, द्वापर उड़नछू हो जाता है. अवतार पुरुष की मृत्यु के तुरंत बाद युग-समापन का क्या औचित्य है? क्या किसी राजा का युद्ध जीतकर राजगद्दी पर विराजमान हो जाना सत्ता-परिवर्तन का अभीष्ट हो सकता है? गौरतलब है कि विष्णु के ये दो अवतार ऐसे हैं जिन्हें ‘धर्म की स्थापना’ के नाम पर लाखों-करोड़ों को अपने प्राणों ही आहूति देनी पड़ी थी. बावजूद इसके जो व्यवस्था उन कथित अवतार पुरुषों ने गढ़ी, वह लंबे समय तक क्यों नहीं टिक पाई थी? क्या उनका कार्य नाटक में यवनिका गिराने वाले पात्र जितना सीमित था? क्यों हर अवतार अपने युग का उच्छिष्ट साफ करने के लिए जन्मता है? समाज को सुधारने की जिम्मेदारी वह क्यों नहीं उठाता? जिस धर्मराज्य की स्थापना के लिए वह लाखों योद्धाओं की बलि चढ़ाता है, वह कैसा होता है? अंत तक वह मिथ ही क्यों बना रहता है? यदि हर युग की अवधि सीमित है? यदि तथाकथित धर्म-राज्य की स्थापना के साथ ही युग का पराभव होना पूर्व-निर्धारित है तो ऐसे धर्मराज्य का औचित्य ही क्या है? यदि धर्म-राज्य का लाभ जनसाधारण को नहीं मिल पाता तो उसकी स्थापना किसके लिए की जाती है? जैसे अनगिनत प्रश्न इस व्यवस्था को लेकर हो सकते हैं? लेकिन हमेशा वे प्रश्न ही रह जाते हैं. आस्था और धर्म ने नाम पर फैलाया गया डर, हर जिज्ञासु के मुंह पर ताला डालने का काम करता है.

मानवीय विवेक के सापेक्ष आस्था को अतिरेकी महत्व देना अनायास है? क्या यह किसी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है? क्या यह भी अनायास है कि रामायण के नायक राम और दशरथ के बाकी तीनों पुत्र तथा महाभारत के नायक पांडुपुत्रों में से एक भी अपने पिता की औरस संतान नहीं है. सभी नियोग जनित हैं. क्या ये कथाएं इसलिए गढ़ी गईं कि कोख किसी की भी हो, वीर्य ब्राह्मण का होगा तभी सर्वतेजोमय संतान जन्म ले सकती है? अथवा अश्वमेध आदि यज्ञों की आड़ में जो वासना का वीभत्स खेल खेला जाता था, उसको वैध बनाने के लिए ये मिथ गढ़े गए थे? ध्यातव्य है कि दोनों महाकाव्यों के महानायकों, जिन्हें बाद में ईश्वर मान लिया जाता है—की मृत्यु भी सामान्य नहीं थी. राम सीता को वनवास देने के बाद आत्मग्लानि से भर जाते हैं. वही उनको सरयू में जलसमाधि लेने को विवश करती है. महाभारत की जंग जीत लेने के बाद पांडु भी सुखी नहीं रह पाते. आत्मशांति की तलाश उन्हें हिमालय की ओर ले जाती हैं. वहां द्रोपदी के साथ उसके पांचों पति भी, एक-एक कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं.

महाभारत के कृष्ण उस तथाकथित ‘धर्मयुद्ध’ के महानायक हैं. 18 अक्षौहिणी सेनाओं; यानी मनुष्यों और जानवरों को मिलाकर दो करोड़ से ज्यादा प्राणियों की आहूति देने के पश्चात युधिष्ठिर का राज्यारोहण संभव हो पाता है. इसी के साथ धर्म के राज्य की घोषणा कर दी जाती है. लेकिन सब कुछ शांत नहीं हो जाता. थोड़े ही समय के बाद द्वारिका में यादव अंतर्कलह के शिकार हो जाते हैं. उस अंतर्कलह को रोकने के लिए कृष्ण की बुद्धि काम नहीं आ पाती. धरती पर धर्मराज्य की स्थापना का दावा करने वाले कृष्ण अपने ही बंधु-वांधवों को आपस में लड़-लड़कर देखने को विवश हैं. पूरी धरती पर धर्म की स्थापना का दावा करने वाले अवतार-पुरुष कृष्ण अपने ही परिजनों को क्यों नहीं संभाल पाए? महाभारत का यह अंत क्या स्वाभाविक है? क्या गांधारी का शाप और यादव कुल का आपस में लड़-झगड़कर मर जाना, नियतिबद्ध घटना थी? अथवा ऋग्वैदिक कृष्ण के तेज को, उनकी गौरवशाली स्मृतियों को धुंधला करने के लिए जानबूझकर रचा गया षड्यंत्र था?

राजनीतिक और सामाजिक विमर्श के हिसाब से देखा जाए तो महाभारत रामायण से कहीं आगे की रचना है. रामायण का कथानक एकदिशीय है, महाभारत का बहुआयामी. रामायण मुख्यत: पारिवारिक संबंधों की गाथा है, जबकि महाभारत में संबंधों का दायरा बढ़कर सामाजिक-राजनीतिक हो जाता है. बावजूद इसके प्रतिष्ठा रामायण की कहीं ज्यादा है. उसे पांचवा वेद माना जाता है. वे लोग जिनके कानों में वेदमंत्र पड़ते ही पिघला हुआ सीसा भर देने की बात कही गई थी, उन्हें भी रामायण को पढ़ने और घर में रखने की छूट थी. दूसरी ओर महाभारत को घर लाना निषिद्ध माना गया. कहा गया कि उसे घर में जगह देने से आपस में द्वैष पनपता है. अंतर्कलह बढ़ने से परिवार में फूट पड़ जाती है. क्या इस मान्यता को महज जनसाधारण का अंधविश्वास कहकर टाला जा सकता है?

रामायण में विचारधाराओं का कोई टकराव नहीं है. वहां ब्राह्मण के मुंह से निकले शब्द ही शास्त्र हैं. राम वही करते हैं, जो गुरु कहते हैं. गुरु कहते हैं वाण चलाओ, तो राम, रावण की वनरक्षक और अधेड़ उम्र की स्त्री ताड़का पर शर-संधान करने में देर नहीं करते. ब्राह्मण कहता है कि शंबूक के वेदपाठन से धरती पर पाप बढ़ रहा है, इसे मार डालो तो बिना किसी शंका के राम उसका सिर धड़ से अलग कर देते हैं. रामकथा के अनुसार, ब्रह्म-कथन से विचलन का एकमात्र दंड है—’मौत. समन्वय, सहिष्णुता अथवा भिन्न वैचारिकी से समझौते के लिए उसमें कोई गुंजाइश नहीं है. राम ब्राह्मण द्वारा गढ़ी मर्यादा का पालन आंख मूंदकर, निःशंक भाव से करते हैं, इसलिए तुलसी ने उन्हें ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा है. रावण उनकी बनाई व्यवस्था का पालन नहीं करता. उल्टे मखौल उड़ाता है—’इसलिए उसे राक्षस कहा गया है. मगर युद्ध में राम द्वारा रावण का वध होते ही रामायणकार को सहसा याद आ जाता है कि रावण ब्राह्मण है. रावण भले मरे, किंतु ब्राह्मणत्व सुरक्षित रहना चाहिए. इसके लिए चलते-चलते एक प्रसंग गढ़ा जाता है. विभीषण राम को मरणासन्न रावण से राजनीति का ज्ञान लेने की सलाह देता है. राम उस समय विजय के मद में हैं. वे खुद न जाकर लक्ष्मण को रावण के पास भेजते हैं. लक्ष्मण रावण के सिरहाने खड़े होकर राजनीतिक ज्ञान की प्रार्थना करते हैं. रावण आंखें मूंदे पड़ा रहता है. लक्ष्मण वापस लौट जाते हैं. तब राम स्वयं उपस्थित होकर रावण के पैरों की ओर खड़े होकर राजनीति का पाठ पढ़ाने का आग्रह करते हैं. रावण तैयार हो जाता है. ‘राम भले ही अवतार सही. मगर पृथ्वी का सर्वेसर्वा तो ब्राह्मण है—’ पाठकों को यह एहसास कराने के साथ ही रामायणकार का उद्देश्य पूरा हो जाता है. यहां इस बात पर कोई विमर्श नहीं होता कि रावण का राजनीतिक दर्शन क्या था? लंका की समृद्धि में उस दर्शन का कितना योगदान था? अथवा ‘रामराज्य’ के निर्माण में रावण के दिए राजनीतिक ज्ञान की क्या भूमिका थी? आस्था यह सवाल उठाने की इजाजत नहीं देती. ‘खट्टर काका’ में हरिमोहन झा इसे बड़े ही रोचक ढंग से दिया है. उपन्यास के अनुसार मिथिला के नैयायिक(न्यायशास्त्र के जन्मदाता गौतम) ने राम से उनके वनवास के बारे में सवाल कर दिया—’

‘‘वनवास का क्या अर्थ? ‘सर्व वनेषु वासः(सभी वनों में वास) अथवा ‘कस्मिंश्चिद् वने वासः(किसी एक वन में वास). यदि पहला अर्थ लो तो सो उन्होंने किया ही नहीं. संभव भी नहीं था. और, यदि दूसरा अर्थ लो, तो फिर अयोध्या के निकट ही किसी वन में रह जाते. चित्रकूट में ही चौदह वर्ष बिता देते. तो भी पिता की आज्ञा का पालन हो जाता. फिर, हजारों मील दूर भटकने की क्या जरूरत थी!  वह भी सुकुमारी सीता को साथ लेकर….राम कुछ उत्तर नहीं दे सके. खीझकर कह दिया— 

‘यः पठैत गौतमी विद्यां शृगालीयोनिमाप्नुयात’(जो भी गौतम की विद्या, उनके तर्कशास्त्र को पढ़े सो गीदड़ होकर जन्म ले).

आखिर राम ब्राह्मणों से इतना भयभीत क्यों थे? इसके लिए उनके पूर्वजों की कथा का स्मरण करना पड़ेगा. राम के पूर्वज थे पृथु. वेन1 की संतान. वेन को धरती का पहला निर्वाचित राजा कहा जाता है. वेन को जगत्कल्याण के लिए राजा नियुक्त किया गया था. इसलिए उसकी निष्ठाएं अपनी जनता के प्रति थीं. एक बार राज्य में अकाल पड़ा. उस समय वेन ने सिर्फ ब्राह्मणों का हित साधने के बजाए, अपनी जनता को वरीयता दी. इसपर ब्राह्मण नाराज हो गए. अकाल के लिए वेन को दोषी ठहराकर वे जनता को भड़काने लगे. अशिक्षित भूख से अकुलाई जनता का विवेक तो पहले ही समाप्त हो चुका था. ब्राह्मणों के इशारे पर वह अपने ही राजा पर झपट पड़ी. वेन के बाद उसके पुत्र पृथु को राजा नियुक्त करने से पहले ब्राह्मणों ने कहा—

‘वेननंदन! जिस कार्य में नियमपूर्वक धर्म की सिद्धि हो, उसे निर्भय होकर करो. लोक में जो कोई भी मनुष्य धर्म से विचलित हो उसे सनातन धर्म पर दृष्टि रखते हुए अपने बाहुबल से परास्त करके दंड दो. यह प्रतीज्ञा करो कि मैं मन, वाणी और कर्म द्वारा भूतलवासी ब्रह्म के आदेश का निरंतर पालन करूंगा….कभी स्वच्छंद नहीं होऊंगा. ब्राह्मण मेरे लिए सदैव अदंडनीय होंगे तथा मैं संपूर्ण जगत को वर्णसंकरता और धर्मसंकरता से बचाऊंगा.’2 

पिता की हत्या से डरे पृथु ने, ऋषिगणों के आदेशानुसार प्रतिज्ञा ली—’‘नरश्रेष्ठ महात्माओ! महाभाग ब्राह्मण मेरे लिए सदैव वंदनीय होंगे.’3 पृथु द्वारा ब्राह्मणों के आगे समर्पित करते ही धर्मसत्ता और राजसत्ता का ऐसा गठजोड़ बना जो पीढ़ियों तक चलता रहा. ब्राह्मणों ने जो दंड उनके पूर्वज वेन को दिया था, उसकी स्मृतियां राम के मन में अवश्य ही रही होंगी. इसलिए वे ब्राह्मणों के आदर्श आज्ञाकारी बने रहने को ही श्रेय मानते हैं.

महाभारत और रामायण दोनों में जातियां हैं. वर्ण-व्यवस्था का महिमामंडन है. रामराज्य में शूद्रों के जीवन, उनके सुख-दुख का वर्णन नहीं है. शूद्र केवल सीता पर लांछन लगाने के लिए उपस्थित होता है. उसकी भूमिका कथानक को विस्तार देने के लिए है. पूरी रामायण में राम के देवत्व को लेकर कोई चुनौती नहीं है. यहां तक कि राम के साथ वैर-भाव रखने वाले रावण और कुंभकरण जैसे महान योद्धा भी उनके देवत्व को चुनौती नहीं देते. वे केवल इसलिए राम के विरुद्ध युद्धरत हैं ताकि उनके हाथों से मृत्यु का वरण कर, अपने पुराने शापों से मुक्ति पा सकें. कृष्ण की एक विशेषता उनका सखा-भाव है. इसमें अर्जुन और सुदामा ही नहीं ब्रज के सभी गोप-गोपियां सम्मिलित हैं. दूसरी ओर राम इतने ‘बड़े’ हैं कि उनके साथ मैत्री-भाव संभव ही नहीं है. हनुमान, सुग्रीव आदि को वे मित्र कहें तो इसे उनकी उदारता बताया जाता है. यदि हनुमान, सुग्रीव आदि खुद को राम का मित्र समझने लगें तो यह उनकी धृष्टता होगी. वह एक तरह से राजा को सर्वाधिकार संपन्न, यहां तक कि निरंकुश बना देने का षड्यंत्र था. ऐसी निरंकुशता जो सिवाय ब्राह्मण के किसी पर भी बरस सकती थी. यहां तक कि रावण भी इसका अपवाद नहीं है. इसलिए कि उसके पूर्व जन्म की कथाएं गढ़कर और मृत्योपरांत स्वर्ग भेजकर, रामकथा लेखक उसकी भरपाई कर देता है. शूद्र मनीषी शंबूक का क्या हुआ, जिन्हें राम ने अपने हाथों से मौत के घाट उतारा था. अगर राम के हाथों से मरने पर स्वर्ग प्राप्ति होती है तो शंबूक को भी स्वर्ग मिलना चाहिए था. लेकिन राक्षस होने के बावजूद ब्राह्मण कुलोत्पन्न रावण को जो सुविधा प्राप्त है, वह शंबूक को नहीं मिल पाती. इसलिए उनके उनके पूर्वजन्म और मृत्यु के बाद को लेकर रामायण में कोई अंतर्कथा नहीं है.

राम की अपेक्षा कृष्ण का चरित्र बहुआयामी है. उन्हें 16 कलाओं से संपन्न माना गया है. वे प्रबुद्ध हैं, कूटनीतिज्ञ हैं. अर्जुन को असमंजस में देखकर गीता का उपदेश देते हैं. इसलिए अपने समय के खास बौद्धिकों की श्रेणी में भी आते हैं. इसके उलट राम बौद्धिक जीव नहीं हैं. वे हर जगह ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे उनका विवेक किसी ने हर लिया हो. राम का चरित्र ब्राह्मणवादी आकांक्षाओं के अनुरूप गढ़ा गया है. वे ब्राह्मणत्व के आगे न केवल स्वयं नतमस्तक हैं, अपितु जो भी उसके आड़े आता है, उसे बड़े से बड़ा दंड देने को सदैव तत्पर रहते हैं. बदले में ब्राह्मण उन्हें भगवान घोषित कर रहते हैं. कह सकते हैं कि राम की भगवत्ता उपहार में प्राप्त भगवत्ता है. जबकि कृष्ण ने अपनी भगवत्ता अपने बौद्धिक पराक्रम, संगठन-सामर्थ्य और यदुओं की संगठित राज्यशक्ति के बल पर स्वयं हासिल की थी. राजनीति के ज्ञान के लिए वे अपने परमशत्रु रावण के पास अवश्य जाते हैं, परंतु रावण से कुछ सीख पाए, इसमें संदेह है. रावण के राज्य में स्त्रियों का सम्मान था. वे राजकीय सेवा में थीं. अवसर पड़ने पर मंदोदरि रावण को सलाह देती है. उसे बुरा कर्म करने से बरजती है. यह सुविधा रघुकुल की स्त्रियों को प्राप्त नहीं थी. वे घर की शोभा मात्र थीं. केवल रनिवासों में आंसू बहाना जानती थीं. इतनी कोमलांगी कि रावण की दृष्टि पड़ते ही सीता का शील आहत हो जाता है, जिसके लिए उसे अग्नि-परीक्षा से गुजरना पड़ा था.

कृष्ण का आदि विवरण ऋग्वेद में मौजूद है. वहां वे अनार्य यदु कबीले के महापराक्रमी योद्धा हैं. इंद्र का प्रभुत्व उन्हें स्वीकार्य नहीं है. ऋग्वेद में उन्हें ‘वृत्र, नमुचि, शंबर, शुष्ण, पणि आदि इंद्र के सात शत्रुओं में से एक माना गया है’(ऋ. 8/96/16). ‘द्रुतगामी कृष्ण अंशुमति(दृषद्वती) नदी तटवर्ती गूढ़ स्थान और विस्तृत प्रदेश में विचरण और सूर्य के समान अवस्थान करता है….इंद्र ने अपनी बुद्धि से उस दीप्तिमान, द्रुतगामी और घोर नाद करने वाले कृष्ण को खोजा तथा लोकहित में, बृहश्पति की सहायता से, कृष्ण और उसकी सेना का नाश किया.(ऋ. 8/96/14-15).4 आर्यों के लिए इंद्र इसलिए भी पूज्य है क्योंकि उसने केवल कृष्ण और उसकी सेनाओं को ही नहीं, उसकी गर्भवती स्त्रियों को भी नहीं छोड़ा—’‘जिस इंद्र ने ऋजिश्वा राजा के साथ कृष्ण नामक असुर की गर्भवती स्त्रियों को निहत किया था, हम उन्हीं शक्तिशाली इंद्र के निमित्त अन्न के साथ हवि एवं स्तुति अर्पित करें’(ऋ. 1/101/1).

ऋग्वेद में इंद्र के हाथों कृष्ण का वध दिखाया गया है. लेकिन संभावना यही है कि कृष्ण अपने यदु कबीले के साथ बच निकले थे. कदाचित इन्हीं स्मृतियों को भिन्न कथानक के माध्यम से महाभारत सहेजा गया है, जिससे कृष्ण के नाम के साथ ‘रणछोड़’ की उपाधि जुड़ जाती है. ‘रणछोड़’ होना कृष्ण के चरित्र का नकारात्मक लक्षण नहीं है. इसके माध्यम से वे दर्शाते हैं कि बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए छोटे लक्ष्यों का बलिदान करना ही बुद्धिमानी है. ऋग्वैदिक रणछोड़ कृष्ण के नेतृत्व में; अथवा उनकी प्रेरणा से, कालांतर में गंगा-यमुना के घने, उपजाऊ और तराई क्षेत्र में महान सभ्यता विकसित हुई, जिसे भारतीय इतिहास में गंगा-जमुनी सभ्यता कहा जाता है. कुछ ही शताब्दियों में, संगठित गणशक्ति के बल पर उनकी गिनती भारत के महाशक्तिशाली राज्यों में होने लगी. इतनी कि आर्यों के लिए उनकी उपेक्षा संभव ही नहीं थी. संस्कृतियों के सम्मिलन के दौर में, आर्यों को यदुनायक कृष्ण को भगवान के रूप में स्वीकारना ही पड़ा. क्या उन्होंने सचमुच कृष्ण के चरित्र के उदात्त पक्षों को ज्यों की त्यों स्वीकार लिया था? उत्तर है, नहीं.

महाभारत में कृष्ण का चरित्र उनके ऋग्वैदिक चरित्र से भिन्न है. गीता में वे वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते हैं. अवतार घोषित करने की यह अनिवार्य शर्त थी. दरअसल ब्राह्मणों ने कृष्ण को अवतार तो माना, मगर उनके चरित्र-हनन में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसके लिए ब्रह्मवैवर्त्त पुराण को देखा जा सकता है. जिसमें कृष्ण को स्त्री-लोलुप और लंपट व्यक्ति के रूप में किया है, जो अनेक स्त्रियों के साथ संसर्ग करता है. बाद की रचनाओं को ‘गीत गोविंद’ भी है. यहां कुछ लोग कह सकते हैं कि कृष्ण योगेश्वर हैं. गोपियों के साथ उनका व्यवहार समर्पण की पराकाष्ठा है. सवाल यह है क्या यही छूट वे राम के चरित्र-चित्रण में ले सकते थे? ब्राह्मण लेखकों की चालाकी का यहीं अंत नहीं होता. उन्होंने कृष्ण को तो ईश्वर का दर्जा तो दिया, लेकिन यादव कृष्ण का वंशज होने का दावा न कर सकें, इसके लिए महाभारत में एक आख्यान जोड़ा गया. उसके अनुसार सारे यादव मूर्खों की तरह ही आपस में लड़-झगड़कर मर जाते हैं.

यदुओं के प्रति ब्राह्मण लेखकों की ईर्ष्या रामायण में भी नजर आती हैं. याद करें, वह प्रसंग जब राम लंका पर चढ़ाई करते समय समुद्र से रास्ता मांगते हैं. समुद्र द्वारा निवेदन को अनसुना करने पर वे कुपित होकर वाण-संधान कर लेते हैं. घबराया हुआ समुद्र तत्क्षण हाजिर होकर क्षमा-याचना करते हुए अपनी मजबूरी बताता है. इसपर राम तने हुए वाण को तूणीर में वापस लेने से इन्कार करते हुए कहते हैं—’‘हे समुद्र! मेरा वाण अमोध है. मैं इसे वापस नहीं ले सकता.’ उस समय समुद्र के मुंह से कहलवाया गया है—’‘उत्तर दिशा में द्रुमकुल्य नामक एक विख्यात देश है. वहां आभीर(अहीर) आदि जातियों के बहुत-से मनुष्य निवास करते हैं. उनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं. वे सबके सब पापी और लुटेरे हैं. वे लोग मेरा जल पीते हैं. उन पापाचारियों का स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पाप को मैं सह नहीं सकता. अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए.’ समुद्र के कहने पर राम उस अत्यंत प्रज्जवलित वाण को बताई हुई दिशा में छोड़ देते हैं. यदुओं के प्रति इस ईर्ष्या का कारण क्या केवल उनकी जाति अथवा ऋग्वेद-कालीन वैर-भाव की स्मृतियां थीं? क्या इसके कुछ और कारण भी खोजे जा सकते हैं?

गौतम बुद्ध से पहले भारत में 16 महाजनपद अस्तित्व में थे, जहां गणतांत्रिक पद्धति से शासन चलता था. उन महाजनपदों में से एक वृष्णि संघ का केंद्र मथुरा था, जिसके मुखिया शूरसेन थे. बुद्धकाल में तत्कालीन भारत के सबसे बड़े और शक्तिशाली लिच्छिवी गणतंत्र की राजधानी वैशाली थी. मगध सम्राट अजातशत्रु की निगाह वैशाली की समृद्धि पर थी. वह उसपर अधिकार करना चाहता था. सलाह के लिए वह गौतम बुद्ध के पास पहुंचा. तब गौतम बुद्ध ने उससे कहा था कि जब तक लिच्छिवीगण अपने फैसले मिल-जुलकर करते हैं, उनके बीच कोई मतांतर नहीं है, तब तक उन्हें पराजित कर पाना असंभव है. अजातशत्रु लौट जाता है. बाद में वह अपने मंत्री वस्सकार को वैशाली भेजता है. जो छद्मरूप में वहां रहकर लिच्छिवियों में फूट डालने का काम करता है. उसके बाद अजातशत्रु की विजय संभव हो पाती है. महाभारत में यदुओं(वृष्णि) को आपस में लड़ते-झगड़ते दिखाकर, महाभारत लेखक का उद्देश्य गणतांत्रिक प्रणाली की निरर्थकता को भी सिद्ध करना था. क्योंकि बिना उसके ‘धर्मराज्य’ के मिथ की स्थापना संभव ही नहीं थी. गौरतलब है कि महाभारत का मूल कथानक भले ही ईसा से कुछ शताब्दी पुराना हो, लेकिन उसमें लगातार संशोधन होता रहा. रामायण और महाभारत को उनका वर्तमान स्वरूप गुप्तकाल में, या कदाचित उसके भी बाद प्राप्त हुआ है.

ब्राह्मणों के छल का शिकार केवल कृष्ण हुए हों, यह बात नहीं है. स्वयं महादेव भी उनके ऐसे ही षड्यंत्र का शिकार हैं. शिव अनार्यों के देवता हैं. सिंधु सभ्यता के उत्खनन से प्राप्त मूर्तियां बताती हैं कि वे सिंधुवासियों के भी आराध्य रहे होंगे. वहां वे पाशुपत हैं. कबीलों के सर्वमान्य मुखिया हैं. आर्यों और अनार्यों के बीच समन्वय की प्रक्रिया के फलस्वरूप शिव को त्रिदेवों में स्थान मिला. सिंधु सभ्यता की आपेक्षिक प्राचीनता का सम्मान करते हुए उन्हें आदिदेव भी माना गया. सवाल हैं कि समन्वयीकरण के दौरान शिव तथा उनके अनुयायियों को क्या वही मान-सम्मान प्राप्त हुआ, जिसके वे वास्तविक अधिकारी थे? उन्हें महाविनाश का देवता ही क्यों स्वीकारा गया? शिव-वाद्य डमरू तथा उनके तांडव के क्या और भी निहितार्थ हो सकते हैं? ‘भोला’ कहकर शिव का उपहास उड़ाना क्या उनकी देवताओं और असुरों के प्रति समदृष्टि, उनके न्याय-भाव की उपेक्षा करना नहीं है?

गौरतलब है कि सिंधु सभ्यता का क्षेत्रफल करीब नौ लाख वर्ग किलोमीटर तक विस्तृत था. शिव उन सभी के आराध्य थे. जबकि ब्रह्मा और विष्णु आक्रामक कबीलों के रूप में आए आर्यों की मानस कल्पना थे. समन्वयीकरण की आवश्यकता के चलते आर्य लेखकों ने उन्हें त्रिदेवों में स्थान दिया, मगर बड़ी चतुराई से उन्हें भंगैड़ी, नशाखोर और यायावर सिद्ध कर दिया. शिव की उदारता को भी, यह कहकर कि वे असुरों को भी वैसे ही वरदान लुटाते हैं, जैसे देवताओं को—नकारात्मक रूप में देखा गया. यही नहीं उनके समर्थक कबीलों को भूत, प्रेत, कापालिक आदि कहकर अपमानित किया जाता है. नशाखोर और यायावर होने के कारण के शिव शासन करने के अयोग्य हैं. इसलिए उन्हें हमेशा के लिए कैलाश पर ठहराकर अवतारों के माध्यम से राज्य करने की जिम्मेदारी विष्णु को सौंप दी गई.  लेकिन लोकशक्ति तो हर युग में सर्वोपरि रही है. वह भड़क जाए तो बड़ी से बड़ी सत्ताएं डोल जाती हैं. त्रिदेवों में यह शक्ति न तो ब्रह्मा के पास थी, न विष्णु के पास. शिव के पीछे खड़ी लोकशक्ति का भय ही था जिससे ब्राह्मण उन्हें विनाश के देवता का दर्जा देते हैं. डमरू कबीलों को युद्ध या जनसभा के लिए एकजुट करने का वाद्य रहा होगा; और तांडव लोकशक्ति को युद्ध के लिए जाग्रत करने की शैली. शिव की तीसरी आंख के माध्यम से सृष्टि के जन्म और विनाश के मिथ गढ़े जाते रहे.

ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भ :

1. पृथु की कथा : ठाकुर प्रसाद सिंहhttps://www.hindisamay.com/content/838/4/-कहानी-कथा-संस्कृति-खंड-दोकथा-भूमि–संपादन-कमलेश्वर-उर्वशी-और-पुरुरवा.cspx

2. महाभारत, शांतिपर्व, 59/103-108

3. महाभारत, शांतिपर्व, 59/109

4. हिंदी ऋग्वेद, रामगोविंद त्रिवेदी, इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग, पृष्ठ -1057  

संस्कृति और सामाजिक न्याय

विशेष रुप से प्रदर्शित

प्रत्येक समाज अपनी संस्कृति से पहचाना जाता है. उसका प्रमुख कार्य समाज में एकता की अनुभूति जगाना पैदा करना है. इसके लिए जरूरी है कि वह सामाजिक संबंधों, नागरिकों के सामान्य व्यवहारों, सार्वकालिक जीवन-मूल्यों और भविष्य के सपनों से अनुप्रेत हो. प्रायः धर्म एवं संस्कृति को एक मान लिया जाता है. जबकि आस्था और विश्वास को अपनी पीठ पर ढोने वाला धर्म विराट संस्कृति का अंग तो हो सकता है, उसका पर्याय नहीं. किसी समाज द्वारा धर्म की केंचुल से बाहर आने की छटपटाहट विवेकीकरण के प्रति उसकी उत्सुकता को दर्शाती है. जहां तक भारतीय संस्कृति का प्रश्न है, अधिकांश विद्वान इसे ‘विविधता की संस्कृति’ मानते तथा ‘सनातन संस्कृति’ कहकर इसका महिमा-मंडन करते हैं. इनमें से एक भी धारणा मूल्यबोधक नहीं हैं. सांस्कृतिक वैविध्य तभी सार्थक है जब वह मानवीय चेतना का स्वयं-स्फूर्त विस्तार हो. साथ ही लोकतांत्रिक सोच को बढ़ावा देता हो. प्राचीनता काल-सापेक्ष स्थिति है. वह केवल घटना-विशेष की ऐतिहासिकता को दर्शाती है. संस्कृति का असल बड़प्पन इसमें है कि अपने अनुयायियों के बीच न्याय, समानता और समरसता के वितरण को लेकर वह कितनी उदार है! कितने प्रयास उसने अपने अंतर्विरोधों के समाहार हेतु किए हैं. और इन सब के लिए वह लोकतंत्र के कितने करीब है. इस कसौटी पर भारतीय संस्कृति उतनी सफल सिद्ध नहीं होती, जितनी बताई जाती है.

सच तो यह है कि स्मृति-ग्रंथों, पुराणों, महाकाव्यों आदि के माध्यम से जो संस्कृति हमारे जीवन में दाखिल होती है, या एक अल्पसंख्यक अभिजन वर्ग द्वारा बहुसख्यक जनसमुदाय पर बरबस थोप दी जाती है, वह सामाजिक न्याय की अवरोधक तथा सामूहिक विवेक का क्षरण करने वाली है. सामान्य नैतिकता एवं लोकादर्शों को अमल में लाने के बजाय वह धर्म के हाथों में खेलती है; और खुद को बड़ी आसानी से उसकी सामंती वृत्तियों के अनुसार ढाल लेती है. वह लोगों से अपेक्षा रखती है कि वे क्या करें, क्या खाएं, क्या पियें, क्या पढ़े-लिखें, और किन लोगों से कैसे संबध बनाएं? न तो उसे मानवीय विवेक की परवाह रहती है, न उसकी रुचियों का परिष्कार. बावजूद इसके जीवन में अनावश्यक दखल देकर, वह समानता और स्वतंत्रता की भावना का हनन करती है. कभी धर्म, कभी समाज और कभी परंपरा-वैविध्य के बहाने, असमानता को मानवीय नियति घोषित करना उसकी मूल प्रवृत्ति रही है. वह असल में शासक संस्कृति है, जो व्यक्ति को जन्म के साथ ही बता देती कि उसका जन्म शासन करने के वास्ते हुआ है या शासित होने के लिए. जो लोग शासक वर्ग में जन्म लेते हैं, अभिजनोन्मुखी संस्कृति का रेशा-रेशा उनकी मदद में जुटा होता है. शासितों की कोटि में जन्मे व्यक्ति, यदि दुर्दशा से उबरना चाहें या इस तरह का सपना भी देखें तो वह लगातार अवरोध उत्पन्न कर, परिवर्तन की चाहत को ही मिटाने पर तुल जाती है. लोगों के सवाल करने की आदत को छुड़ाकर वह उनके निर्मानवीकरण को गति देती है. इससे सामूहिकताबोध, जो संस्कृति का प्रमुख उद्देश्य है, का हृास होता है. सांप्रदायिकता पनपती है; और जनशक्ति छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटकर निष्प्रभावी हो जाती है. इससे परिवर्तन का लक्ष्य निरंतर दूर खिसकता रहता है.

हम भारतीयों, विशेषकर जो लोग स्वयं को हिंदू मानते हैं, का जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक तरह-तरह के कर्मकांडों से बंधा होता है. वे अनेक प्रकार के हो सकते हैं. एक समाज से दूसरे समाज, यहां तक कि एक जाति समूह से दूसरे जाति-समूह के बीच उनका रूप बदलता रहता है. कर्मकांडों का उद्देश्य होता है, किसी महाशक्ति को प्रसन्न करना. उनमें एक पक्ष दाता(जाहिर है काल्पनिक), दूसरा याचक की भूमिका में होता है. याचक अपने श्रेष्ठतम को समर्पित करने की भावना के साथ दाता के आगे नतशिर होता है. तत्क्षण खुद को दाता का प्रतिनिधि घोषित करते हुए पुरोहित बीच में आ टपकता है. याचक द्वारा दाता के नाम पर समर्पित सामग्री के अलावा वह दक्षिणा की भी दावेदारी करता है. कर्मकांडों को लोक की सामान्य स्वीकृति प्राप्त होने के कारण उनसे पैदा स्तरीकरण समाज में गहरी पैठ बना लेता है. तदनुसार जो दाता या उसके स्वयं-घोषित प्रतिनिधि की इच्छा है, उसे उसी रूप में, बगैर किसी ना-नुकर के, स्वीकार कर लेना याचक की विवशता होती है. इसका लाभ शिखर पर बैठे लोग उठाते हैं. राज्य की कुल उत्पादकता में नगण्य योगदान के बावजूद वे किसी न किसी बहाने लाभ के नब्बे प्रतिशत को हड़पे रहते हैं. उसी के दम पर वे दाता की भूमिका निभाए जाते हैं. उनके नेतृत्व में पूरी संस्कृति कर्मकांडों में सिमटकर रह जाती है.

कर्मकांडों की व्याख्या जिन ग्रंथों में है, सब ब्राह्मणों द्वारा रचे गए हैं. उनकी समीक्षा अथवा संशोधन-विस्तार का अधिकार ब्राह्मणेत्तर वर्गों को नहीं है. उनसे बस इतनी अपेक्षा होती है कि ब्राह्मणों द्वारा गढ़े गए लिखित-अलिखित विधान का बगैर ना-नुकुर अनुसरण करें. उनपर किसी भी प्रकार का संदेह, आलोचना, समीक्षा पाप की कोटि में आती है. सांस्कृतिक-सामाजिक असमानता का पोषण करने वाली इस संस्कृति के प्रति विरोध के स्वर आरंभ से ही उठते रहे हैं. उनके दस्तावेजीकरण का काम हमें अपेक्षाकृत उदार एवं समावेशी संस्कृति के करीब ला सकता है. उसे हम जनसंस्कृति अथवा मूल भारतवंशियों की संस्कृति भी कह सकते हंै.

सत्य यह भी है कि कोई भी संस्कृति स्वयं लक्ष्य नहीं होती. वह केवल मार्ग चुनने में मदद करती है. उसका काम मानवीय वृत्तियों को सुसंस्कृत करना है, किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की रोजमर्रा की आदतों पर नियंत्रण करना नहीं. विडंबना है कि भारतीय संस्कृति की अधिकांश ऊर्जा नकारात्मक कार्यों में खपती आई है. वह बड़ी आसानी से उन लोगों के हाथों में खेलने लगती है, जिनका काम दूसरों के मूल-भूत अधिकारों का हनन करना है. शिखरस्थ ब्राह्मण उसके विधान का निर्माता, व्याख्याता, पालक-अनुपालक सब होता है. विशेष मामलों में, या यूं कहिए कि अपवाद-स्वरूप संस्कृति के विशिष्ट प्रवत्र्तकों को, जन्मना ब्राह्मण न हों तो भी उन्हें कर्मणा ब्राह्मण मान लिया जाता है. व्यास, वाल्मीकि, महीदास आदि शास्त्रीय परंपरा के ब्राह्मण नहीं हैं. फिर भी उन्हें ब्राह्मण माना गया है. क्योंकि वे उस संस्कृति के सिद्ध संहिताकार हैं, जो वर्ण-व्यवस्था को आदर्श तथा ब्राह्मणों को समाज का सर्वेसर्वा मानकर उन्हें अंतहीन अधिकार सौंप देती है. कुछ लोग इसे भारतीय संस्कृति की उदारता या उसका लचीलापन मानते हैं. असल में यह दूसरे वर्गों के बुद्धिजीवी, उनकी उपलब्धियों का श्रेय हड़प लेने की स्वार्थ-पूर्ण व्यवस्था है. इससे निम्न वर्गों की उच्च स्तरीय मेधा, उच्चस्थ वर्गों की स्वार्थ-सिद्धि में लगी रहती है.

इस प्रवृत्ति के दर्शन ऋग्वेद से लेकर आधुनिक साहित्य तक मौजूद हैं. गुरु उद्दालक के पास सत्यकाम जाबाल जब यह कहता है कि वह घरों में काम करने वाली दासी के गर्भ से जन्मा है और पिता का नाम पता नहीं है, तो महर्षि उसे यह कहकर कि ‘तूने सत्य कहा, ऐसा सत्यभाषी ब्राह्मण पुत्र ही हो सकता है.’-दीक्षा देने को तैयार हो जाते हैं. भारतीय संस्कृति के अध्येता इस उद्धरण को उसके उदात्त लक्षण के रूप में प्रस्तुत करते आए हैं. वस्तुतः यह बौद्धिक धूर्तता है, जिससे ब्राह्मणेत्तर वर्गों को एक ही झटके में ‘मिथ्याभाषी’ घोषित दिया जाता है. सत्यकाम जाबालि की भांति महीदास भी दासी पुत्र था. जन्म से शूद्र किंतु मन-बुद्धि से ब्राह्मण संस्कृति का प्रतिभाशाली संहिताकार. ऋग्वेद शाखा के ‘ऐतरेय ब्राह्मण’, ‘ऐतरेय उपनिषद’ और ‘ऐतरेय आरण्यक’ का रचियता. इस संस्कृति ने महीदास को भी शूद्रों से झटक लिया. अपवादस्वरूप ही सही, ब्राह्मणेत्तर वर्ग के कुछ अतिप्रतिभाशाली बुद्धिजीवियों को अनुलोम परंपरा के अनुसार ब्राह्मण मान लिए जाने की नीति, प्रतिभाहीन ब्राह्मण पुत्रों के लिए शिखर का स्थान सुरक्षित रखती है. स्तर से ऊपर उठने के लिए ब्राह्मणेत्तर वर्ग के बुद्धिजीवियों को जहां विरलतम प्रतिभा, सर्जनात्मक मेधा एवं विभेदकारी ब्राह्मण-संस्कृति के प्रति अटूट निष्ठा का प्रदर्शन करना पड़ता है, वहीं ब्राह्मण-संतति को उसका स्वाभाविक उत्तराधिकारी मान लिया जाता है. प्रमुख प्रतिभाओं के पलायन के बाद निचले वर्ग आवश्यक बौद्धिक नेतृत्व से वंचित रह जाते हैं. दूसरे षब्दों में भारतीय संस्कृति, उसके नामित देवता, कर्मकांड, धर्म-दर्शन आदि केवल ब्राह्मणों का सृजन नहीं हंै. उसमें ब्राह्मणेत्तर वर्गों का भी भरपूर योगदान रहा है. हालांकि लाभ सर्वाधिक ब्राह्मणों ने उठाया है.

ब्राह्मण संस्कृति के व्याख्याकारों की प्रशंसा करनी होगी कि वर्गीय श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए उन्होंने अपनी रचना का श्रेय स्वयं लेने के बजाय वर्गीय श्रेय को प्राथमिकता दी. ब्राह्मण होने के नाते व्यक्तिगत श्रेय-सम्मान तो उन्हें आसानी से मिल ही जाता है. व्यास, याज्ञवल्क्य, वशिष्ट आदि किसी मनीषी के नहीं, गौत्र या परंपरा के नाम हैं. उनका उल्लेख स्मृतिग्रंथों से लेकर रामायण, महाभारत, पुराण यहां तक कि उत्तरवर्ती ग्रंथों में भी, मुख्य सिद्धांतकार के रूप में होता आया है. व्यक्तिगत श्रेय के आगे वर्गीय श्रेय को वरीयता दिए जाने का अच्छा उदाहरण ‘योग वशिष्ट’ है. लगभग एक हजार वर्ष पुराने, 29000 से अधिक पदों वाले तथा शताब्दियों के अंतराल में अनाम लेखकों द्वारा रचित, परिवर्धित इस विशद् ग्रंथ का रचनाकार होने का श्रेय आदि कवि वाल्मीकि को प्राप्त है, जबकि वाल्मीकि का नाम लगभग दो हजार वर्ष पुरानी कृति ‘पुलत्स्य वध’ जो निरंतर प्रक्षेपण के उपरांत ‘रामायण’ महाकाव्य के रूप में ख्यात हुआ-से भी जुड़ा है. ज्ञान को परंपरा में ढाल देने का लाभ तो केवल ब्राह्मणों को जबकि नुकसान पूरे बहुजन समाज को उठाना पड़ा है. वर्ण-व्यवस्था के चलते पोंगा पंडितों को भी बौद्धिक नेतृत्व का अवसर मिलता रहा. पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही धारा के लेखन से मौलिकता का हृास हुआ. चूंकि धर्म-ग्रंथों में प्रक्षेपण अलग-अलग समय में हुआ था, इसलिए उनमें परस्पर विरोधी बातें भी शामिल होती गईं. जिस महाभारत(शांतिपर्व) कहा गया था, ‘वर्ण-विभाजन जैसी कोई चीज असलियत में नहीं है. यह पूरी सृष्टि ब्रह्म है, क्योंकि इसे ब्रह्मा ने बनाया है.’ उसी में द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा मांग लेने के धत्तकर्म को भी ‘धर्म’ मान लिया गया.

उधर व्यवस्था से अनुकूलित गरीब-विपन्न लोग निरंतर यह आस बांधे रहे कि जो पंडित लोग चैंसठ लाख योनियों का हिसाब रखते हैं, आदमी के ‘भाग्य’ का अगला-पिछला सब बांच लेने का दावा करते हैं, वे उनका भी ‘हिसाब’ रखेंगे! यदि परमात्मा छोटे-बड़े, गरीब-अमीर, ब्राह्मण और शूद्र में भेद नहीं रखता तो वे भी नहीं रखेंगे. इस भरोसे के साथ वे अपने अधिकारों की ओर से, इतिहास की ओर से मुंह फेरे रहे. समय के दस्तावेजीकरण के प्रति निचले वर्गों की उदासीनता का लाभ ऊपर वालों ने खूब उठाया. उन्होंने कर्मफल का सिद्धांत पेश किया. उसके जरिये शोषित वर्गों को समझाया जाने लगा कि उनकी दुर्दशा के लिए कोई दूसरा नहीं, वे स्वयं जिम्मेदार हैं. संस्कृति के आवरण में उन्होंने पहले अवसर छीने, फिर मान-सम्मान. अपने से नीचे के लोगों को बर्बर, असभ्य, गंवार, गलीच घोषित करके खुद इतिहास में तोड़-मरोड़ करते रहे. उनके द्वारा रचे गए इतिहास में ‘भेड़ों’ और ‘मेमनों’ को जंगल में अव्यवस्था का दोषी बताया जाता रहा तथा ‘भेड़ियों’ और ‘लक्कड़बघ्घों’ को प्रत्येक अपराध से बरी रहने की व्यवस्था की गई. पंडित, देवता, करुणानिधान, अन्नदाता, रक्षक, सेठ, साहूकार जैसे सुशोभन विशेषण उन्होंने अपने लिए सुरक्षित कर लिए. पिछले दो हजार साल का सांस्कृतिक खेल उनकी चालों और समझौतापरस्ती से बना है. ऐसी संस्कृति में जनसाधारण के लिए न्याय की उम्मीद करना खुद को धोखा देना है.

‘सांस्कृतिक वर्चस्व’ बनाए रखने की कोशिश के समानांतर उससे उबरने की छटपटाहट भी मानव-इतिहास का हिस्सा रही है. भारत में उसका पहला उदाहरण मक्खलि गोशाल के चिंतन-कर्म में दिखाई पड़ता है. वह पहला विद्वान था जिसने श्रम-शोषक, परजीवी ब्राह्मण संस्कृति के बरक्स समाज में मेहनतकशों, शिल्पकारों तथा उसके श्रम-कौशल के सहारे आजीविका जुटाने वाले लोगों को संगठित कर आजीवक संप्रदाय की स्थापना की थी. मक्खलि की लोकप्रियता का अनुमान इससे भी लगाया जाता है कि उसके जीवनकाल में आजीवक संप्रदाय के अनुयायियों की संख्या बौद्ध अनुयायियों से अधिक थी. विद्वता के मामले में भी वह अद्वितीय था. सम्राट प्रसेनजित ने बुद्ध से कहा था कि वह गोशाल को उन(बुद्ध)से अधिक प्रतिभाशाली मानते हैं. बुद्ध की हिंसा तथा कर्मकांड विरोधी भौतिकवादी विचारधारा पर आजीवक संप्रदाय का ही प्रभाव था. मक्खलि तथा बुद्ध के अलावा निगंठ नागपुत्त, संजय वेठलिपुत्त, पूर्ण कस्सप, अजित केशकंबलि, कौत्स आदि विद्वान भी यज्ञों में दी जाने वाली बलि तथा कर्मकांड का विरोध कर रहे थे. निगंठ नागपुत्त आगे चलकर महावीर स्वामी के नाम से जैन दर्शन के प्रवर्त्तक माने गए. इनमें सर्वाधिक ख्याति मध्यमार्गी गौतम बुद्ध को मिली, जो उस समय की चर्चित दार्शनिक समस्याओं ‘आत्मा’, ‘परमात्मा’ आदि पर विमर्श करने के बजाय उन्हें टालने के पक्ष में थे. क्षत्रिय कुल में जन्म लेने के कारण बुद्ध और उनके विचारों को उन राजदरबारों में आसानी से प्रवेश मिलता गया, जो ब्राह्मण पुरोहितों के बढ़ते दबाव से तंग आ चुके थे. ‘आजीवक’ और ‘लोकायत’ धारा का प्रतिनिधि साहित्य आज अप्राप्य है. उनका छिटपुट उल्लेख ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में ही प्राप्त होता है. सभी में उनकी पड़ताल नकारात्मक दृष्टिकोण के साथ की गई है. संकेत साफ हैं कि विजेता संस्कृतियों ने, पराजित संस्कृति के ग्रंथों को मिटाने का काम पूर्णतः योजनाबद्ध ढंग से किया.

धर्म और संस्कृति का आधार कहे जाने वाले ग्रंथों में, लंबे प्रक्षेपण के बावजूद ऐसे अनेक तत्व हैं, जो वैकल्पिक जनसंस्कृति के प्रवत्र्तक और संवाहक रहे हैं. महिषासुर, बालि, पौराणिक सम्राट वेन के अलावा गणेश, शिव जैसे अनेक नाम मिथक भी हो सकते हैं और यथार्थ भी. लेकिन यदि इन्हें मिथक मान लिया जाए तो ब्राह्मण संस्कृति के प्रमुख संवाहक ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, हनुमान तथा अन्य देवी-देवताओं को भी मिथक मानना पड़ेगा. क्योंकि उसका पूरा का पूरा भवन इन्हीं के कंधों पर टिका है. शिव भारत की आदिम जातियों के मुखिया रहे होंगे. उनके सहयोगी के रूप में भूत, पिशाच, प्रेत आदि हमें भारत के आदिम कबीलों की याद दिलाते हैं. आर्यों ने शिव को तो अपनाया. मगर उनके सहयोगी कबीलों की पूरी तरह उपेक्षा की. अप्रत्यक्ष रूप से बख्शा शिव को भी नहीं गया. उन्हें आक, धतूरा खाने और भभूत लगाकर रमने वाले अवधूत की तरह दर्शाते हुए सृष्टि चलाने(शासन करने) का अधिकार ‘ब्राह्मण ब्रह्मा’ तथा ‘क्षत्रिय विष्णु’ की बपौती मान लिया गया. गणेश का मिथक भी प्राचीन भारतीय गणतंत्रों के मुखिया की याद दिलाता है. गणतांत्रिक व्यवस्थाओं में मुखिया को प्रथम सम्मानेय माना जाता था. कालांतर में बड़े राज्यों का गठन होने लगा तो सभा का नेतृत्व करने वाले गण-प्रमुख के चरित्र का भी विरूपण किया जाने लगा. बैठे-बैठे सूंड लटक आना और लंबोदर जैसे प्रतीक गण-प्रमुख पर कटाक्ष तथा उसे अपमानित करने के लिए रचे गए.

‘सामाजिक न्याय’ का सपना देखने वाले बुद्धिजीवियों की असली लड़ाई धार्मिक वर्चस्ववाद, विपन्नता और जड़ हो चुकी वर्ण-व्यवस्था से है. इस लक्ष्य की सिद्धि वर्चस्वकारी संस्कृति से मुक्ति के बिना असंभव है. ब्राह्मण संस्कृति ईश्वरीय न्याय में विश्वास करती है. न्याय का स्वरूप क्या हो? वंचित तबकों की उन्नति में वह किस भांति सहायक हो सकता है-यह नहीं बताती. ‘सामाजिक न्याय’ के पैरोकारों का प्रथम लक्ष्य ऐसी संस्कृति का पुनरुद्धार करना है, जिसमें संगठित धर्म का हस्तक्षेप न्यूनतम हो. जो पूरी तरह उदार एवं लोकतांत्रिक हो. इसके लिए आवश्यक है कि प्राचीन संस्कृति के उन प्रतीकों को रेखांकित किया जाए जो कभी ब्राह्मण संस्कृति के विरोध में या उसके समानांतर खड़े थे. क्या यह धर्म के भीतर एक और धर्म की खोज सिद्ध नहीं होगी? यह आशंका पूर्णतः निर्मूल नहीं है. ध्यान यह रखना होगा कि समानांतर संस्कृति के इन प्रतीकों, नायकों, मिथकों का योगदान दमित-शोषित वर्गों के आत्मविश्वास को लौटाने तक सीमित हो. यह एहसास दिलाने के लिए हो कि वे हमेशा से ही ‘ऐसे’ नहीं थे. वे न केवल ‘वैसे’ बल्कि कई मायनों में उनसे भी बढ़कर थे-रावण की लंका में विभीषण को अपनी आस्था और विश्वास के साथ ससम्मान जीने की स्वतंत्रता प्राप्त थी. रामराज्य में शंबूक से यह स्वतंत्रता छीन ली जाती है. इसी तरह राक्षस-सम्राट जलंधर अपनी विष्णु-भक्त पत्नी वृंदा के साथ सुखी जीवन जीता है और उनके दांपत्य के बीच अविश्वास की किरच तक मौजूद नहीं है, जबकि सीता को रावण की अशोकवाटिका में रहने के लिए भी अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है. यह गरीबी तथा जाति-भेद द्वारा पैदा की गई अन्यान्य विषमताओं के विरुद्ध जंग भी है. सदियों से जाति के आधार पर सुख-सुविधा और सम्मान भोगते आए समूह, परिवर्तनकामी समूहों पर जातिभेद को बढ़ावा देने का आरोप लगा रहे हैं. दूसरी ओर जातीय उत्पीड़न का शिकार रहे वर्गों को लगता है कि लोकतांत्रिक माहौल का लाभ उठाकर वे अपने संघर्ष को आगे बढ़ा सकते हैं. इसलिए वे जाति को संगठनकारी ‘टूल’ की तरह इस्तेमाल कर रहे है. लेकिन जाति-आधारित संगठनों की अपनी परेशानियां हैं. इस देश में हजारों जातियां हैं. अपनें दम पर कोई भी जाति परिवर्तनकारी ताकत बनने में अक्षम है. अतः लोग समझने लगे हैं कि सामाजिक न्याय के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए समानांतर लड़ाई संस्कृति के मोर्चे पर भी लड़नी होगी. जीत उन्हीं की होगी जो संगठित रहने के साथ-साथ सामूहिक विवेक से काम लेंगे.

ओमप्रकाश कश्यप

प्राचीन भारत में दास प्रथा : एक सामाजिक-सांस्कृतिक कलंक

विशेष रुप से प्रदर्शित

अरस्तु ने कहा था, कुछ व्यक्तियों का जन्म दास बनने के लिए ही हुआ है। मैं इससे इन्कार करता हूं। क्योंकि मैं नहीं मानता कि कुछ लोग जन्मजात मालिक होते हैं—डेनियल वी. चेप्पल

कहा जाता है कि सभ्यता को दासों की जरूरत पड़ती है। मैं कहता हूं, गुलामों की मदद से कोई भी सभ्य और सुसंस्कृत समाज नहीं बनाया जा सकता—विल्हेम रीश

संस्कृति के बारे में जितनी अच्छी-अच्छी बातें संभव हैं, सब भारतीय संस्कृति में भी कही जाती हैं। जैसे कि भारतीय संस्कृति उदार है। समरस है। पुरानी है। नए विचारों का स्वागत करने वाली है। दास प्रथा के बारे में पूछा जाए तो अधिकांश का उत्तर होगा—‘नहीं, यह तो पश्चिम की विशेषता है। खासकर रोम की। भारत का इससे दूर-दूर तक नाता नहीं है।’ जवाब में कोई देवदासी का जिक्र छेड़ दे तो आस्था का मामला कहकर तुरंत दबा दिया जाएगा। बड़े-बड़े विद्वानों का भी यही हाल रहा है। ‘हिंदू सभ्यता’ में राधाकुमुद मुखर्जी इस कुप्रथा पर लगभग मौन साधे रहते हैं। रामविलास शर्मा कुछ ईमानदार हैं। उनके अनुसार यह प्रथा भारत में थी, मगर बहुत बड़े स्तर पर नहीं।1 हालांकि इससे हमारी समस्या कम नहीं होती। महाभारत(सभापर्व-52/45, विराटपर्व-18/21) में युधिष्ठिर द्वारा 88,000 स्नातकों में से प्रत्येक को 30, कुल 26,40,000 दासियां दान में देने का उल्लेख है। यह एक राजा द्वारा अवसर-विशेष पर दिए गए दान का उदाहरण है। धर्मशास्त्रों में एक बार में हजारों दासियां दान करने के उल्लेख कई जगह हैं। रामविलासजी दास-प्रथा के और कितने बड़े स्तर की कल्पना करते थे, कहना मुश्किल है। काणे थोड़ा संतुलित करने का प्रयास करते हैं—‘ऐसा प्रतीत होता है कि यहां दास का अर्थ गुलाम या अर्धदास है।’2 यहां ‘गुलाम’ और ‘दास’ में पारिभाषिक दृष्टि से क्या अंतर है, यह तो काणे साहब ही बता सकते हैं। रोम में अर्धदास को ‘शेरिफ’ अथवा ‘हेलोट’ कहा जाता था। वे कृषि-भूमि के साथ जुड़े होते थे। भूमि के खरीद-बिक्री में उनकी खरीद-फरोख्त भी शामिल होती थी। उपर्युक्त ऋचा में कृषि-भूमि अथवा खेती का कोई उल्लेख नहीं है। कौटिल्य या नारद के विभाजन में कृषिदास का अलग से कोई उल्लेख नहीं है। ए. एल. बाशम ने ‘दास’ शब्द का प्रयोग आक्रमणकारी आर्यों द्वारा पराजित प्राग्वैदिक अनार्यों के लिए किया है।

सिंधु सभ्यता में दास

भारत सहित प्राचीन सभ्यताओं में दास प्रथा के कम से कम 5200 पहले तक के प्रमाण उपलब्ध हैं। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो आदि सिंधु सभ्यता(3300—1750 ईस्वीपूर्व) के प्रमुख नगरों में बड़े-बड़े भवनों के साथ एक कमरे के मकान भी मिले हैं। उससे तत्कालीन समाज के आर्थिक-सामाजिक विभाजन का अनुमान लगाया जाता है। पुरातत्ववेत्ता जॉन मार्शल के अनुसार एक कमरे के मकान नौकरों अथवा दासों के हो सकते हैं। हालांकि यह केवल अनुमान है। व्हीलर ने हड़प्पा और सुमेरियन सभ्यता के बीच हाथीदांत, कपास के साथ-साथ दासों के व्यापार की संभावना भी व्यक्त की है। उसके अनुसार लागेश के बाउ के मंदिर परिसर में एक फैक्ट्री थी। उसमें 21 डबलरोटी बनाने वाले, 27 दासियां, 25 शराब खींचने वाले और छह दास, बुनकर और कताई करने वाले, लुहार तथा अन्य शिल्पकर्मी काम करते थे। व्हीलर के अनुसार कारखाने की संरचना हड़प्पा शैली के अनुरूप थी।3 अब यदि मान लिया जाए कि हड़प्पा और सुमेरियन सभ्यता के बीच दासों का व्यापार भी होता था, तो सिंधु सभ्यता में दासों के मौजूगी स्वतः प्रमाणित हो जाती है। दास प्रथा की उत्पत्ति का संबंध, खेती के विकास से भी बताया जाता है। उसके लिए अतिरिक्त श्रम की आवश्यकता थी। इसलिए आरंभ में ताकत के बल पर लोगों को खेतों में काम करने के लिए बाध्य किया जाने लगा। कुछ लोग जो प्रकृति-आधारित खेती की अनिश्चितता के स्थान पर निश्चित आजीविका को पसंद करते थे, वे दूसरों को अपना श्रम बेचने लगे होंगे। कालांतर में उसी से दास प्रथा का जन्म हुआ, फिर धीरे-धीरे इस प्रथा को समाज की स्वीकृति मिलने लगी। खेती के अलावा घरों, उद्यमों में भी दासों की मदद ली जाने लगी। ऐसा विकास के आरंभिक चरणों में सभी समाजों में हुआ था। फिर जैसे-जैसे राज्य नामक संस्था मजबूत हुई, दासप्रथा के अन्यान्य रूपों का विस्तार होता गया। गौरतलब है कि भारतीय और रोम तथा सुमेरियन समाज में दासों की स्थिति में बड़ा अंतर है। रोम और सुमेर में दास तत्कालीन अर्थव्यवस्था के उपकरण मात्र थे। वे खरीदे-बेचे जाते थे। उस दासप्रथा का जन्म सामंतशाही की चरम अवस्था में हुआ था। सिंधु सभ्यता में दासों की उपस्थिति के जो संकेत मिले हैं, वे रोम और सुमेर की तरह आर्थिक दास ही हैं। जिनका उस समय की अर्थव्यवस्था के संचालन में बड़ा योगदान था। लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, भारतीय दासप्रथा वर्णव्यवस्था के अनुरूप ढलने लगती है।

ऋग्वेदकालीन दासप्रथा

प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में ऐसे शताधिक विवरण मौजूद जिनसे तत्कालीन भारतीय समाज में दास प्रथा की बड़े स्तर पर उपस्थिति का पता चलता है। ऋग्वेद में ‘दास’ शब्द अनेक स्थानों पर आया है। उसमें दासों के खरीदने-बेचने, भेंट करने, उपहार अथवा दान में देने, यहां तक कि दान लेने के भी, अनेकानेक प्रसंग हैं। ऋग्वेद(8/56/3) के बालखिल्य सूक्तों में पृषध्र मुनि की उक्ति है—‘शतं मे गर्दभानां, शतमूर्णावतीनाम्। शतं दासाः अति स्रजः।।

‘मुझे एक सौ गधे, एक सौ भेड़ें और एक सौ दास दो।’—यहां दास को गधे और भेड़ के समकक्ष रखकर उसे मनुष्य की संपदा माना गया है।

ऋग्वेद में मोटे तौर पर दो प्रकार के दासों का उल्लेख है। पहले वे जो अपने स्वामी की संपत्ति कहे जाते थे। जिनके शरीर पर उनके मालिक का अधिकार होता था। यानी ऐसे दास जिनका जिक्र होते ही श्रीविहीन, दीन-हीन, अपने मालिक के इशारों पर नाचने वाले व्यक्ति की छवि मन में उभर आती है। इस श्रेणी में आर्य और अनार्य दोनों प्रजातियों के दास शामिल थे। दूसरी श्रेणी उन अनार्य दासों की थी, जो अपेक्षाकृत साधन-संपन्न थे। जिनके पूर्वजों ने सिंधु सभ्यता की नींव रखी थी। उस समय वह सभ्यता अपने पराभवकाल में थी, मगर उसका वैभव पूरी तरह क्षीण नहीं हुआ था। 8 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक में फैली उस सभ्यता के मूल बाशिंदों से आर्य कहीं जूझ रहे थे, तो कहीं मैत्री का हाथ बढ़ा रहे थे। ऋग्वेद(7/99/4) में वृषशिप्र नामक दास का उल्लेख है, जिसमें विष्णु और इंद्र की स्तुति करते हुए कहा गया है—‘तुमने वृषशिप्र नामक दास की माया को संग्राम में विनष्ट किया है।’ एक मंत्र(ऋग्वेद-10/22/8) से आर्यों एवं अनार्यों के बीच भीषण संघर्ष का पता चलता है। युद्धरत आर्य इंद्र की स्तुति कर, उससे अनार्यों के विनाश के लिए प्रार्थना करते हैं—‘हम सब चारों ओर से दस्युओं से घिर चुके हैं। वे यज्ञ कर्म नहीं करते(अकर्मन)। न वे किसी वस्तु को मानते हैं(अमंतु)। उनके व्रत हमसे भिन्न हैं(अन्यव्रत)। वे मनुष्यों जैसा व्यवहार नहीं करते(अमांतुष)। हे शत्रुनाशक इंद्र! तू उन दासों का विनाश कर।’ जाहिर है, इस श्रेणी के ‘दास’ केवल नाम के दास थे—‘दासों और दस्युओं, दोनों ही के कब्जे में अनेक किलाबंद बस्तियां थीं….माना जाता है कि घुमक्कड़ आर्यों की आंखें दुश्मनों की बस्तियों पर संचित संपत्ति पर लगी हुई थीं। उसके लिए दोनों में सतत संघर्ष होता रहता था….ऐसे दो दास प्रमुखों का उल्लेख किया गया है कि जो धनलोलुप माने गए हैं। कामना की गई है कि इंद्र दासों की शक्ति को क्षीण करें तथा उनके द्वारा जमा की गई संपत्ति को लोगों में बांट दें।’4 

‘निरुक्त’ में ‘दास’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘दश्’ धातु से हुई है। इसका तात्पर्य संपन्न करना है। तदनुसार जो व्यक्ति अपने स्वामी के विविध कार्य संपन्न करता है, वह दास कहलाता है। इसका अर्थ ‘देना’ भी है। सवाल है कि दास का देने से क्या संबंध है? जिसकी देह पर भी उसके स्वामी का कब्ज़ा है, जिसे संपत्ति रखने का कोई भी अधिकार नहीं है, वह दूसरों को क्या देगा. ऋग्वैदिक काल के  ‘तरुक्ष’ और ‘बल्बूथ’ नामक अनार्य दास इस कसौटी पर खरे नजर आते हैं। श्रेणी में आते थे। ऋग्वेद में दोनों का उल्लेख दास-प्रमुख के रूप में हुआ है। ऋग्वेद(8/46/32) में लिखा गया है—‘मैंने बल्बूथ नामक दास से सौ गौ और अश्व प्राप्त किए थे।’ बल्बूथ की भांति तरुक्ष नामक दासप्रमुख का उल्लेख भी दानदाता के रूप में आया है। इन दोनों की ओर से पुरोहितों को जो उपहार दिए गए थे उससे उनकी बड़ी सराहना हुई थी।5 ऋग्वेद(8/19/36) में त्रसदस्यु को पचास युवतियां दान करते हुए बताया गया है। निश्चय ही वे युवतियां दासकर्म के निमित्त दान की गई होंगी। ऋग्वेद(10/33/4) में त्रसदस्यु के पुत्र कुरुश्रवण राजा को भी श्रेष्ठ दाता बताया गया है—‘मैं कवष ऋषि हूं। मैं त्रसदस्यु के पुत्र कुरुश्रवण राजा के पास याचना करने गया था; क्योंकि वे श्रेष्ठ दाता हैं।’ अथर्ववेद के आरंभिक अंशों में भी दासप्रथा का विवरण दिया है। उसमें दासियों के संबंध में प्रमाण मिले हैं। उसमें एक दासी का उल्लेख है जिसके हाथ भीगे होते थे। वह ओखल-मूसल कूटती थी; तथा गाय के गोबर पर पानी छिड़कती थी।6 

केवल संपदा नहीं, ज्ञान के क्षेत्र में भी दासों का हस्तक्षेप था। ऋग्वेद के उद्गाता ऋषियों में एक महत्त्वपूर्ण नाम कक्षीवान का है। उनका जन्म दीर्घतमस और उशिज नामक स्त्री जो दास कन्या थी, के संसर्ग से हुआ था। उशिज अंगदेश की महारानी की दासी थी। ऋग्वेद में एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण और लोकोपयोगी प्रसंग है, जुआरी का। उसके उद्गाता ऋषि कवष ऐलूष भी एक दासी की संतान थे। सूर्यकांत बाली ने ‘भारत गाथा’ में कवष ऐलूष को ‘वैदिक कविता को जमीन से जोड़ने वाला कवि’ कहा है। कवष के ऋग्वेद के दशम मंडल में कुल पांच(10/30-34) मंत्र हैं। जिनमें वह जुआरी की मनःस्थिति का वर्णन करता है। अंतः में उसे महत्त्वपूर्ण लौकिक संदेश तक ले जाता है—‘ओ जुआरी। जुआ मत खेल। मत खेल जुआ। जा अपने खेतों को देख। भार्या को देख। खेती करेगा तो धन आएगा। उसी से तुझे इज्जत मिलेगी। उसी से गौएं आएंगी। तेरी भार्या प्रसन्न होगी….घर जा। जुआ मत खेल।’ इस प्रसंग को महाभारतकार ने युधिष्ठिर के प्रसंग में ज्यों का त्यों अपना लिया गया है। बौद्ध धर्म के उभार से पहले भारत में भौतिकवादी दर्शन अपने शिखर पर था। उस समय के पांच प्रमुख आजीवक चिंतकों में से एक पूर्ण कस्सप को दास बताया गया है। बाकी दो आजीवक विद्वानों अजीत केशकंबलि और मक्खलि गोसाल की समाजार्थिक स्थिति भी दास की तरह ही थी।

ऋग्वेद(1/24) में शुनःशेप का कथासूत्र आता है। उस कथा का विस्तार ऐतरेय ब्राह्मण, भागवत पुराण, ब्रह्मपुराण आदि में भी देखने को मिलता है। कहानी के अनुसार राजा हरिश्चंद्र संतान की आकांक्षा के साथ वरुण की प्रार्थना करता है। वरुण प्रसन्न होते हैं। परंतु उनका वरदान सशर्त है—‘तुम्हारे संतान तो अवश्य होगी। लेकिन उसके लिए तुम्हें बलि देनी होगी।’ वरदान के फलस्वरूप हरिश्चंद्र के रोहित नामक पुत्र का जन्म होता है। लेकिन राजा बलि देना भूल जाता है। आखिरकार उसे याद दिलाया जाता है। रोग से पीडि़ता, दारुण अवस्था में हरिश्चंद्र 100 गायों के बदले अजीगर्त के पुत्र शुनःशेप को बलि के लिए खरीद लेता है। बाद में विश्वामित्र उसकी रक्षा करते हैं।

ऋग्वेद(2/12/4) तथा अथर्ववेद(20/34/4) में कहा गया है कि इंद्र ने दासों को गुफाओं में रहने को बाध्य कर दिया था। अनार्य दासों को आर्य ‘असुर’ मानते थे(ऋग्वेद, 9/71/2)। उन्हें पराधीन बनाने की जिम्मेदारी इंद्र पर डाली गई है। इंद्र से दासों को पराधीन करने के लिए जिस तरह बार-बार प्रार्थना की गई है, उससे लगता है, कि यह संबोधन उस समय के पूरे आर्येत्तर समुदाय के लिए रहा होगा, जो आर्यों के आगमन के पहले से ही इस भूभाग पर रहते आ रहे थे। ऋग्वेद में ‘दास’ के अलावा ‘दस्यु’ शब्द का भी कई बार प्रयोग हुआ है। सामान्यत दासों एवं दस्युओं को एक मान लिया जाता है। लेकिन ऋग्वेद में दस्युहत्या के उल्लेख हैं, जबकि दासहत्या का कोई उल्लेख नहीं है। दासों की अपेक्षा दस्युओं के विनाश तथा उन्हें पराधीन बनाने की चर्चा अधिक की गई है। इंद्र से अनुरोध किया गया है कि वे दस्युओं से युद्ध कर उन्हें परास्त करें, ताकि आर्यों की शक्ति बढ़ सके। ऋग्वेद(4/30/21) के एक प्रसंग में 30 सहस्र दासों को माया द्वारा मूर्छित करने का उल्लेख है। इससे पता चलता है कि दस्यु भारत आर्यों के आने से पूर्व शासक कबीले थे। ऋग्वेद में दस्युओं की हत्या की चर्चा कम से कम 12 स्थानों पर हुई है। अधिकांश हत्याएं इंद्र द्वारा ही कराई गई है।7 अंतर्जातीय युद्धों में दासों को भी सहायक सेना के रूप भर्ती किया जाता था। बावजूद इसके ‘कृष्णवर्ण अनार्यों को पराजित करना हंसी-खेल न था। अनार्य अपनी बढ़ी-चढ़ी सभ्यता के साथ अपने दुर्गों में सुरक्षित थे। ऋग्वेद(1/4/1/3) में उनके सैकड़ों पुरों और दुर्गों का उल्लेख है। उनमें लोहे(आयसी, 2/58/8), पत्थर(अश्ममयी, 4/30/20), लंबे-चौड़े(पृथ्वी), विस्तृत(उर्वी), गउओं से भरे हुए(गोमती, अथर्व 8/6/23), सौ खंबों वाले(शतभुजी) तथा शरतकालीन जलौघ से बचाने वाले दुर्ग शामिल थे.

अनार्य दास काले रंग(कृष्ण-योनि) के और अनास या चपटी नाक वाले थे। इसके अलावा कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक भिन्नताएं भी थीं; यथा—

1. उनकी भाषा वैदिक-संस्कृति से भिन्न थी जो स्पष्ट नहीं थी(मृध-वाक्)।

2. वे वैदिक कर्मकांड से शून्य थे।(अकर्मन)

3. वे वैदिक देवों को नहीं पूजते थे(अदेवयु)।

4. वे देवों के लिए भक्ति से रहित थे(अब्रह्मन्)।

5. वे यज्ञ से विरहित थे(अयज्वन्)।

6. वे वैदिक व्रतों का पालन नहीं करते थे।(अव्रत)।

7. उनके स्थान पर भिन्न प्रकार व्रतों या धार्मिक नियमों को मानते थे(अन्यव्रत)।

8. वे वैदिक देवों के निंदक थे(देवपीयु)।

9. वे लिंग की पूजा करते थे(शिश्नदेव)।

ऋग्वेद में इंद्र को पुरंदर और शत्रु हंता कहा गया है। इसलिए कि उसने अनार्यों के सैकड़ों दुर्गों को नष्ट किया था। हजारों हत्याएं की थीं। इंद्र ने ये हत्याएं क्यों कीं? इन्हें समझना कठिन नहीं है। आर्य अपने लिए बेहतर देश की खोज में भारत तक पहुंचे थे। भारत पहुंचने पर उनका सिंधुवासियों से सामना हुआ। जो अपनी नागरी सभ्यता पर गर्व करने वाले, भले और शांतिप्रिय लोग थे। आर्यों ने कहीं बलपूर्वक, तो कहीं सहयोग-समझौते से सिंधु सभ्यता के मूल निवासियों को अपने प्रभाव में लेना आरंभ किया। इस कार्य में उन्हें जैसे-जैसे सफलता मिली, उनका लक्ष्य भी बदलता गया। राजनीतिक विजय के बाद उनका लक्ष्य था, देव-संस्कृति की श्रेष्ठता को स्थापित करना; तथा अनार्यों की श्रम संस्कृति, जिसका विकास कृषि के विकास के साथ-साथ हुआ था, को हेय सिद्ध कर, धीरे-धीरे नष्ट कर देना।

गौरतलब है कि अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक श्रेष्ठता को श्रेष्ठतम मानकर, पराजित समूहों को अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक परिधि में लाने का काम लगभग सभी ब्राह्मणेत्तर धर्मों और संस्कृतियों में हुआ था। ईसाई और इस्लाम के अनुयायियों ने तो उसके लिए बल-बुद्धि दोनों का प्रयोग किया था। मगर ब्राह्मणों ने एकदम उलटा तरीका अपनाया था। वर्ण-व्यवस्था की मदद से उन्होंने न केवल आर्येत्तर समूहों को, अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सेदारी से दूर रखा, अपितु अपने ही एक हिस्से पर जिसे उन्होंने शूद्र की संज्ञा दी थी, ऐसे अनेक प्रतिबंध लागू कर दिए जिससे उनका सामाजिक जीवन, अत्यंत कष्टकारी होता गया। इसके पीछे आर्यों की कुंठा का योगदान भी रहा होगा। सिंधुवासी समृद्ध नागरी सभ्यता के उत्तराधिकारी थे, जो समकालीन संस्कृतियों से श्रेष्ठतम थी। 1500 ईस्वीपूर्व में आर्यों के आगमन तक, उसका प्राचीन वैभव यद्यपि क्षीण होने लगा था, तथापि घुमक्कड़ आर्यों की संस्कृति की अपेक्षा वे कहीं अधिक विकसित थे। यह जानते हुए कि भौतिक प्रगति के मामले में वे सिंधुवासियों से होड़ कर पाना असंभव है, आर्यों ने यज्ञ केंद्रित वायवी संस्कृति की नींव रखी। उन्होंने प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण किया। दावा करने लगे कि यज्ञादि के माध्यम से वे देवताओं से सीधे संवाद कर सकते हैं। आवश्यकता पड़ने पर उन्हें बुला भी सकते हैं। चूंकि उन दिनों सिंधु सभ्यता अपने अवसानकाल में थी, इसलिए एक समृद्ध सभ्यता के पराभव से निराश हुए सिंधुवासी धीरे-धीरे ब्राह्मणों की वायवी संस्कृति के प्रलोभन में फंसने लगे। ब्राह्मणों ने उन्हें आर्य संस्कृति में जगह दी, मगर इसके लिए उन्हें अपना आत्मसम्मान गंवाना पड़ा। ब्राह्मणों ने उन्हें शूद्र और दास के रूप में स्वीकार किया। दासों की कोई जाति नहीं थी। मगर कई शूद्र जातियों का सामाजिक स्तर शूद्र से भी बदतर था।

ऋग्वेद की कई ऋचाएं इसकी साक्षी हैं कि आरंभिक विजयों के साथ ही आर्यों को अपनी सांस्कृतिक विजय की चिंता होने लगी थी। वे अनार्यों के संसाधनों को कब्जाने के साथ-साथ उनकी संस्कृति को भी तहस-नहस कर देना चाहते थे। कभी छल तो कभी बल-पूर्वक वे लड़ाई को जीतते भी रहे। यह लड़ाई आसान नहीं थी। लोग ईसाइयों पर आरोप लगाते हैं कि मिशनरियों ने जनता के बीच जाकर लोगों को धर्मांतरण के लिए उकसाने, प्रलोभन देकर अपनी ओर मिलाने की कोशिशें कीं। वे इस्लाम के प्रसार हेतु जेहाद छेड़ने वाले मुस्लिमों को भी दोषी ठहराते हैं। जबकि भारत में सबसे पहला ‘जेहाद’ तो आर्यों ने अनार्यों के साथ किया था। बाद में वैसा ही जेहाद पुष्यमित्र शुंग ने वौद्धों का कत्लेआम करके किया था।

उपनिषदों में दासप्रथा

उपनिषदों को आमतौर पर दार्शनिक विमर्श के लिए जाना जाता है। कहा जाता है कि वेदों में जो दार्शनिक विचार सूत्र रूप में दिए हैं, उपनिषदों में आकर वे स्वतंत्र धारा का रूप ले लेते हैं। उपनिषदों में भी सबसे बड़ा है—छांदोग्योपनिषद। उसके चौथे अध्याय में राजा जानश्रुति और वायु को सृष्टि का मूल तत्व मानने वाले ऋषि रैक्व का संदर्भ आता है। रैक्व की ख्याति से प्रभावित जानश्रुति धर्मोपदेश की कामना के साथ अपनी पुत्री और धन-धान्य उन्हें भेंट कर देता है। उपनिषदों में ऐसे और प्रसंग भी हैं, जिनमें स्त्री के साथ दास जैसा व्यवहार किया गया है। कुछ विद्वान ऋग्वेद के दिवोदास को जो स्वयं कई ऋचाओं के उद्गाता थे, दासी-पुत्र मानते हैं।9

दासियों से मनोरंजन का काम लेने का भी उल्लेख है। तैत्तिरीय संहिता में सिर पर कलश रखकर नाचती-गाती हुई दासियों का वर्णन आया है। इसी ग्रंथ में दास के दान का भी उल्लेख है(2/2/6/3)। कठोपनिषद में दासियां नचिकेता को अपनी ओर लुभाने का यत्न करती हैं।11 ऐतरेय ब्राह्मण(39.8) में जिक्र आता है कि राजा ने राज्याभिषेक वाले पुरोहित को दस हजार दासियां और दस हजार हाथी दिए। वृहदारण्यकोपनिषद्(4.4.23) में आया है कि याज्ञवल्क्य से बृह्मविद्या की शिक्षा लेने के पश्चात जनक ने उनसे कहा, ‘विदेहों के साथ मैं स्वयं को दास बनने की कामना के साथ, आपको दान-स्वरूप प्रदान करता हूं।’ छांदोग्योपनिषद(7.24.2) में लिखा है, ‘इस संसार में लोग गायों, घोड़ों, हाथियों, सोने, खेतों, घरों एवं दासियों के साथ अपने घरों को समृद्ध करते हैं।’ इसी उपनिषद के एक प्रसंग में राजा अश्वपति ने सत्ययज्ञ से कहा था—‘खच्चरों से जुता हुआ यह रथ, दासियों तथा हार सहित प्रस्तुत है।12 इससे पता चलता है कि ऋग्वेदयुगीन दास प्रथा का वेदोत्तरकाल में खूब विकास हुआ था। यह प्रथा तत्कालीन अभिजन समाज के लिए गर्व की बात थी। यहां तक कि स्वयं को तापस और साधक कहने वाले तथाकथित वेदज्ञ ब्राह्मण भी उससे बचे न थे। आरुणि जब अपने पुत्र श्वेतकेतु के साथ ज्ञान-प्राप्ति की आकांक्षा में पांचाल नरेश प्रवाहण जाबालि के निकट पहुंचे तो वहां गाय, अश्व, परिवार और परिधानों के अतिरिक्त ‘दासी’ भी मौजूद थी।13 

स्मृतिकालीन दासप्रथा

हिंदू धर्म में स्मृतियों का स्थान वेद-वेदांगों के बाद आता है। उन्हें हिंदू धर्म का आधारभूत ढांचा माना गया है। सभी धर्मशास्त्र, पुराण, महाकाव्य, सूत्र आदि स्मृतियों का अंग माने गए हैं। जहां तक दासप्रथा का सवाल है, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद, बृहस्पति, कात्यायन स्मृति सहित दोनों महाकाव्यों तथा अन्य धर्मशास्त्रों में उसका उल्लेख हुआ है। स्मृतियों का रचनाकाल बौद्ध धर्म के बाद से, चौथी शताब्दी तक फैला हुआ है। इस बीच दासों के कार्यक्षेत्र में भी वृद्धि हुई थी। गृह्मसूत्रों में सम्मानित अतिथियों के चरण धोने के लिए दासों की नियुक्ति का उल्लेख है। मनु(1.91, 8.413-414) के अनुसार शूद्रों का प्रमुख कर्तव्य है, उच्च वर्णों की सेवा करना। उसके बाद उसने जो व्यवस्थाएं की हैं, उनमें अधिकांश वही हैं, जो दासों के लिए थीं। धन-संचय का अधिकार न शूद्रों को था, न ही दासों को। यदि कोई शूद्र अथवा दास संपत्ति संचय में सफल हो जाए तो उसकी संपत्ति को छीनकर ब्राह्मणों को देने का नियम था। जैसे कुम्हार की संतान कुम्हार, जुलाहे की जुलाहा कही जाती थी, ठीक उसी प्रकार दास की संतान भी दास कहलाती थी। अंतर बस एक था। विशिष्ट परिस्थितियों में दास को स्वतंत्र किया जा सकता था। वह सामान्य जीवन जी सकता था। परंतु शूद्र को अपने जातिगत पेशे से हटकर काम करने की अनुमति नहीं थी। यहां तक कि आजाद होने के बाद भी दास पर उसकी जाति चिपकी रहती थी।

स्मृतिकाल तक दास प्रथा सांस्थानिक रूप ले चुकी थी। दास-दासियों को लेकर कानून बनाए जाने लगे थे। याज्ञवल्क्य किसी दास के साथ विवाद न करने की सलाह देते हैं। वहीं जैमिनी(6.7.6) ने शूद्रों के दान को निषिद्ध माना है, जबकि मनु ने शारीरिक दंड की व्यवस्था में दास एवं पुत्र को एक ही श्रेणी में रखा है(8.299-300)। आपस्तंबधर्मसूत्र(2.4.9.11) में आया है कि अतिथि के अकस्मात पहुंच जाने पर, खुद को, स्त्री या पुत्र को भूखा रखा जा सकता है, किंतु उस दास को नहीं, जो रात-दिन सेवा में लिप्त रहता है। नारद के अनुसार गृहस्वामी चाहे तो दास को पुत्र की भांति अपनी संपत्ति का एक हिस्सा प्रदान कर सकता है। वर्ण-व्यवस्था के बंधन दासों पर भी उसी प्रकार लागू होते थे। याज्ञवल्क्य (2.183) तथा नारद (39) के अनुसार ब्राह्मण के अतिरिक्त बाकी तीनों वर्ण ब्राह्मण के दास बन सकते थे। क्षत्रिय के दास केवल वैश्य अथवा शूद्र बन सकते थे। क्षत्रिय किसी वैश्य या शूद्र का तथा वैश्य शूद्र का दास नहीं सकता था। कात्यायन ब्राह्मण के दासत्व ग्रहण करने पर थोड़ी छूट प्रदान करते हैं। उनके अनुसार ब्राह्मण किसी ब्राह्मण का भी दास नहीं बन सकता। यदि बनना ही चाहता है तो उसे किसी चरित्रवान, एवं वैदिक ब्राह्मण का दास बनने की अनुमति है। वह भी केवल पवित्र कार्यों के लिए।14 कात्यायन(7.33) ने व्यवस्था थी कि संन्यास से भटके हुए ब्राह्मण को राज्य से बाहर निकाल देना चाहिए। लेकिन संन्यास भ्रष्ट क्षत्रिय एवं वैश्य राजा के दास होते हैं। कौटिल्य(3.13) एवं कात्यायन(7.23) के अनुसार यदि स्वामी दासी से संसर्ग करे और संतानोत्पत्ति हो तो दासी एवं पुत्र दोनों को दासत्व से मुक्ति मिल जाती है। दास की गवाही अमान्य थी। परंतु विशिष्ट परिस्थिति में जब कोई अन्य साक्ष्य अनुपलब्ध हो तो मनु(8.70) ने नाबालिग, स्त्री, नौकर आदि के साथ दास की गवाही को भी मान्य ठहराया है।

स्मृतिकाल तक दासों की कई कोटियां बन चुकी थीं। मनुस्मृति(8.415) में 7 प्रकार के दासों का उल्लेख है। कौटिल्य का मत भी मिलता-जुलता है, जबकि नारदस्मृति दासों की 15 कोटियों की लंबी सूची प्रस्तुत करता है—‘1. घर में पैदा हुआ, 2. खरीदा हुआ।, 3. दान अथवा किसी अन्य प्रकार से प्राप्त, 4. वसीयत से प्राप्त, 5. अकाल में रक्षित, 6. किसी अन्य स्वामी द्वारा प्रतिश्रुत, 7. बड़े ऋण से युक्त, 8. युद्धबंदी, 9. बाजी में जीता हुआ, 10. ‘मैं आपका हूं’ कहकर दासत्व ग्रहण करने वाला, 11. संन्यास से च्युत, 12. जो कुछ दिनों के लिए स्वेच्छापूर्वक दास बना हो, 13. भोजन के लिए दास बना हुआ, 14. दासी के प्रेम से आकृष्ट(बड़वाहृत) तथा 15. स्वयं को बेच देने वाला।15  

‘अर्थशास्त्र’ के अनुसार स्मृतिकाल में दासों की खरीद-फरोख्त, उन्हें दान में लेने-देने, गिरवी रखने का प्रचलन बढ़ चुका था। कौटिल्य ने लिखा था कि प्रत्येक स्वतंत्र परिवार उदरदास(दास के पेट से उत्पन्न संतान) अवश्य रखता है। दास अपने स्वामी की संपदा कहे जाते थे। उन्हें गिरवी रखा जा सकता था। यहां तक कि उनकी हत्या भी की जा सकती थी। दासों को न्यूनतम न्याय देने के लिए स्मृतियों में कुछ अनुशंषाएं की गई थीं। परंतु व्यवहार में उनका उपयोग बहुत कम हो पाता था। इसलिए स्वामी द्वारा दास पर दंडात्मक कार्यवाही के विरुद्ध किसी अदालत में सुनवाई नहीं थी।16 

उन दिनों दासों का जीवन अत्यंत कष्टकारी होता था। बीमार पड़ जाने पर उनके लिए इलाज की कोई व्यवस्था न थी। नियमानुसार दास अपना मूल्य चुकाकर अपनी आजादी खरीद सकता था। परंतु व्यवहार में ऐसा संभव ही नहीं था। इसलिए दास और उसका परिवार मालिक के लिए जो भी परिश्रम और धनार्जन करता था, उससे उत्पन्न आय उसके स्वामी की मानी जाती थी। दास का अपनी आय का कोई स्रोत नहीं था। इसलिए उसकी आजादी, सिवाय किसी चमत्कार के, असंभव जैसी थी। मुक्ति की चाहत में कई बार कुछ दास अपने स्वामी का घर छोड़कर भाग भी जाते थे। दास पर अत्याचार के समय मौन रहने वाला, उसके विरुद्ध मनमानी दंडात्मक कार्यवाही को दास-स्वामी का विशेषाधिकार मानने वाला राज्य, उस समय एकाएक बीच में कूद पड़ता था। राज्य के कर्मचारी भगोड़े दास को पकड़कर पुनः उसके स्वामी के सुपुर्द कर देते थे। खुद को गिरवी रखने वाला व्यक्ति यदि घबराकर भाग जाता तो उसे जीवन-भर के लिए दास बना लिया जाता था। मालिकों द्वारा दासियों का मान-भंग करने तथा उन्हें दूसरों के आगे पेश करना तो शान की बात मानी जाती थी।

स्मृतिकाल के दौरान दास-प्रथा पर काफी लिखा गया है। विशेषकर नारद और कात्यायन स्मृति में। नारद ने दूसरों की सेवा करने वाले(शुश्रूषक) को पांच भागों में बांटा है—1. वैदिक छात्र, 2. अंतःवासी, 3. पर्यवेक्षक(अधिकर्मकृत), 4. भृतक, तथा 5. दास। इनमें प्रथम चार को कर्मकार कहा जाता था। पवित्र कार्यों के समय उन्हें आवश्यकतानुसार बुलाया जा सकता था। दासों के लिए काम की कोई तय सूची नहीं थी। उनसे कोई भी काम लिया जा सकता था। नारद स्मृति(6.7) के अनुसार दासों के कुछ सामान्य कार्य थे—‘साज-सफाई करना, यथा झाड़ू लगाना, गंदे गड्ढों, मार्ग, गोबर, कूड़ा, तालाब आदि की सफाई करना गुप्तांगों को खुजलाना, मल-मूत्र फेंकना आदि। गौतम धर्मसूत्र(2.1.59) में भी ‘पुरुष दासादयः वंशोवंध्या’ कहकर समाज के उच्च वर्गों की सेवा को उनका कर्तव्य कहा गया है।

दासों के छूटने के नियम तथा उसके मुक्त होने की पूरी पद्धति थी। याज्ञवल्क्य(2.182) के अनुसार यदि दास किसी हमले या दुर्घटना के कारण स्वामी के संकट में पड़े जीवन की रक्षा कर ले, तो उसे मुक्त किया जा सकता है। नारद ने भी इसकी पुष्टि की है। दासत्व से मुक्ति का प्रावधान भी धर्मशास्त्रों में दिया गया है। नारद स्मृति के अनुसार स्वामी जल से भरे मिट्टी के एक घड़े को दास के कंधे से उतारकर उसे तोड़ डालता था। तदनंतर अन्न एवं पुष्पमिश्रित जल को दास के सिर पर छिड़कते हुए तीन बार उसके स्वतंत्र होने की घोषणा करता था।17 ध्यातव्य है कि यूनानी लेखक  मेगस्थनीज, जो चंद्रगुप्त मौर्य की सभा में सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था—ने अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में भारत में दासप्रथा की मौजूदगी से इन्कार किया है। जबकि उस दौरान लिखे जा रहे सभी धर्मग्रंथ दास प्रथा की मौजूदगी का समर्थन करते हैं।

महाकाव्यों में दास प्रथा

भारतीय जनमानस में रामायण और महाभारत की बड़ी प्रतिष्ठा है। इनमें रामायण को महाभारत से पहला माना जाता है। परंतु जिस तरह उसमें ब्राह्मणवाद मुखर होकर आया है, वह बौद्ध धर्म से पहले की रचना नहीं हो सकती। अपने वर्तमान स्वरूप में दोनों ही ग्रंथ पुष्यमित्र शुंग के बाद की रचना है। हालांकि उनके कुछ कथासूत्र प्राचीन हो सकते हैं। ईसा पूर्व पांचवी-छठी शताब्दी में आजीवकों और बौद्धों की ओर से मिल रही चुनौतियों के कारण आभाहीन हो चुका ब्राह्मण-धर्म, अनुकूल माहौल में अपने राजनीतिक एवं सांस्कृतिक वर्चस्व को पुनःस्थापित करने में लगा था। इसके लिए समर्थन और विरोध दोनों नीतियों पर काम जारी था। एक ओर बुद्ध को दसवें अवतार के रूप में प्रतिष्ठित करके उनके विचारों को भारतीय धर्म-दर्शन की शाखा के रूप में मान्यता दी जा रही थी, दूसरी ओर ब्राह्मण धर्म को मजबूत करने के लिए वर्ण-व्यवस्था को दैवीय घोषित करने वाले ग्रंथ रचे जा रहे थे। उन सबका एकमात्र उद्देश्य था, जनसाधारण को यह विश्वास दिलाना कि ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ है और वर्ण-व्यवस्था उसका आदर्श विधान है।

जो लोग रामायण और महाभारत की अतिप्राचीनता का दावा करते हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए कि रामायण का मूल संस्करण, जिसे वाल्मीकि ने ‘पुलत्स्य वध’ शीर्षक से लिखा था, वह अनुपलब्ध है। महाभारत के पूर्व संस्करणों ‘जय’, ‘विजय’ और ‘भारत’ के बारे में भी हमारी जानकारी शून्य है। यहां तक कि हम उनकी शैली और कथा-वस्तु के बारे में कुछ भी दावे के साथ नहीं कह सकते। लेकिन इतना अवश्य कह सकते हैं कि इनके मूल कथानक अपने समय की साहित्यिक संपदा रहे होंगे। बाद की कृतियों में राम का अतिमानवीकरण, गौतम बुद्ध की श्रीलंका तथा पड़ोसी देशों में ‘धम्म विजय’ के बाद, ब्राह्मणों के मन में जन्मी कुंठा की सृजनात्मक परिणति थे। यह काम बौद्ध धर्म के कमजोर होने के बाद ही संभव था।

महाभारत में जिस प्रकार गणसंघों का प्रमुखत: उल्लेख हुआ है, वह रामायण में मौजूद समाज से करीब 200-300 वर्ष पुराने समाज की प्रतीति कराता है। उन दिनों भारत में गणराज्य काफी मजबूत अवस्था में थे। महाभारत छोटे राज्यों की अप्रासंगिकता को भी दर्शाता है। भारतीय समाज में यह बोध सिकंदर के आक्रमण के बाद बना था। उल्लेखनीय है कि सिंकदर के आक्रमण से पहले भी भारत पर यूनान की तरफ से दो बड़े हमले हो चुके थे। उनमें पहला हमला असीरिया की साम्राज्ञी सेमिरामिस की ओर से था। दूसरा आक्रमण ईरान के प्रसिद्ध विजेता कुरु की ओर से। कुरु को अंग्रेजी में साइरस लिखा जाता है। कुरु ने काबुल से लेकर इराक, शाम, टर्की, बेबिलोन, मिस्र तथा यूनान के कुछ हिस्से पर अपनी विजय पताका लहराई थी। भारत पर आक्रमण के बाद उसे सेमिरामिस की तरह ही शर्मनाक पराजय का रूप देखना पड़ा था। कुरु की मृत्यु भारतीय योद्धा के हाथों ही हुई थी। सिंकदर का आक्रमण इन सबमें बड़ा था। मगर उसका सामना चंद्रगुप्त मौर्य जैसे राजा से था, जिसके पास विश्व की सबसे विशाल सेना थी। उसमें छह लाख से ज्यादा पैदल सिपाही थे। चंद्रगुप्त ने उसमें से पांच लाख सैनिक सिंकदर से लड़ने के लिए उतारे थे। भारतीय कवियों, लेखकों ने पहली बार बड़ी सेना को दुश्मन से लोहा लेते हुए देखा था। उसी से बड़े राज्यों की अवधारणा ने जन्म लिया। कदाचित वही महाभारत की  18 अक्षौहिणी सेना के मिथ की प्रेरणा बना। उसका परिणाम रामायण और महाभारत के उपलब्ध आख्यानों के पुनर्लेखन के रूप में सामने आया। उसके बाद भी इन दोनों ग्रंथों में शताब्दियों तक प्रक्षेपण होते रहे हैं। दो हजार वर्ष पहले तक भारत में दास प्रथा, सामाजिक व्यवस्था का आवश्यक अंग बन चुकी थी। इसलिए रामायण और महाभारत में उनका खूब उल्लेख हुआ है। तत्कालीन परिस्थितियों में इतनी बड़ी सेना का खर्च उठाने के लिए भारी-भरकम अर्थव्यवस्था; तथा उसके लिए दासप्रथा का होना अपरिहार्य जैसा था। इसके प्रमाण इन दोनों महाकाव्यों में उपलब्ध हैं।  

रामायण में राम के चरित्र को उदात्त बताया गया है। तुलसी उसे ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ तक कह जाते हैं। तुलसी के लिए ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ का मतलब ब्राह्मणवादी संस्कृति और वर्णव्यवस्था के प्रति अंध-समर्पण है। दास-दासियों के मामले में भी वह ठेठ परंपरावादी हैं। इसलिए विवाह में खुशी-खुशी दहेज लेते हैं। बकौल तुलसीदास—‘दहेज इतना अधिक था कि उसका वर्णन संभव ही नहीं है। स्वर्ण आभूषणों तथा मणियों से मंडप भर गया था। वहां हाथी, स्वर्णाभूषण, माणिक-मणियां, घोड़े, दास और दासियां तथा अलंकारों से सजी कामधेनु सरीखी बहुत-सी गौएं थीं।’

‘कहि न जाय कछु दायज भूरी, रहा कनक मणि मंडप पूरी

गज रथ तुरग, दास अरु दासी, धेनु अलंकृत काम दुहासी।

इस बात से वाल्मीकि भी इत्तफाक रखते हैं। राम के विवाह में दिए गए दहेज का वर्णन करते हुए वे भी गदगद हो जाते हैं—‘कन्या के पिता जनक ने दास-दासियों सहित, सोने, मोती-माणिकों और मुद्राएं दहेज में अर्पित की थीं।’18 यह तो राजा जनक द्वारा वरपक्ष यानी राम और उसके परिवार को दिए गए दहेज का वर्णन है। इसके अलावा उन्होंने सीता और अपनी बाकी पुत्रियों को भी सौ-सौ कन्याएं तथा उत्तम दास-दासियां दहेज के रूप में प्रदान की थीं। उत्तरकांड में अयोध्या के सामंत और छोटे राजाओं ने दासियां प्रदान की थीं।19 उन दिनों गुरु लोग आश्रमवासी हुआ करते थे। परंतु दासियों का दान लेने से उन्हें भी इन्कार न था। सो मर्यादापुरुषोत्तम गुरु, ब्राह्मणों और आचार्यों को कैसे भूल जाते। खुशी का अवसर नहीं था। वनवास के लिए निकलना था। राजमहल में क्लेश व्याप्त था। फिर भी गुरु को प्रसन्न करने के लिए राम ने उन्हें अपने दास-दासियों को भेंट कर दिया था—‘दासी-दास बोलाइ बहोरी, गुरहि सौंपि बोले कर जोरि’ (रामचरितमानस, अयोध्याकांड)। दशरथ का महल दास-दासियों से भरा हुआ था। राम का भवन हो या लक्ष्मण का; या फिर भरत की आरामगाह हो। सभी जगह दास-दासियों की भरमार थी। कैकई तो मंथरा नामक दासी को मैके से अपने साथ लेकर आई थी। चूंकि मंथरा के लिए कैकई ही उसकी स्वामिनी और सबकुछ थी। इसलिए वह चाहती थी कि भरत ही अयोध्या का भावी सम्राट बने। हनुमान का अपना आचरण दासत्व को पूरी तरह स्वीकार लेने वाला प्राणी जैसा है। उसकी अष्ठ सिद्धियां और नवनिधियां राम के चरणों में पड़े-पड़े गारत हो जाती हैं। शुनःशेप की कहानी रामायण में कुछ और विस्तार से प्रस्तुत है।

रामायण में हमारा तीन समाजों और संस्कृतियों से वास्ता पड़ता है। पहला अयोध्या और उसकी संस्कृति है। दूसरी किश्किंधा और तीसरी लंका की। किश्किंधा में बालि, सुग्रीव अंगद जैसे नेता हैं। वे आखेटक समुदाय से हैं जो प्रकृति से अपना भोजन जुटाते थे। बालि के राज्य में अथवा सुग्रीव के ठिकाने पर किसी दास के दर्शन नहीं होते। आवश्यकता पड़ने पर सभी वानर स्वेच्छा से राम की सेना में भागीदारी करते हैं। उनमें पदानुक्रम तो है परंतु दास और अदास का विभाजन नहीं है। लंकाकांड के दौरान हनुमान राम का संदेश लेकर लंका जाता है। वहां का वैभव देखकर वह हतप्रभ रह जाता है। लंका के सभी घर बराबर थे। धन-धान्य और वैभव से भरपूर। रामायण में लंका की अर्थव्यवस्था के बारे में कोई उल्लेख नहीं है। मगर जिस तरह की समृद्धि का वर्णन हनुमान करता है, उससे पता चलता है कि वहां अवश्य ही व्यापार केंद्रित अर्थव्यवस्था रही होगी, जबकि अयोध्या का समाज कृषि-केंद्रित था। जहां तक दास-दासियों का सवाल है, उनका उल्लेख न तो किश्किंधा के वानर समाज में था, न ही लंका के राक्षसों के बीच। यहां तक कि रावण के दरबार में भी किसी दास या दासी का उल्लेख नहीं है। अशोकवाटिका में राक्षसियां पहरा देती थीं। मगर वे सभी अनुचरी थीं। यह भी संभव है कि दास प्रथा को शान और समृद्धि का प्रतीक माना जाता था, इस कारण वाल्मीकि और तुलसी दोनों ने वहां दासों की कल्पना न की हो। यह बात पात्रों के चरित्र-चित्रण में भी नजर आती है। रावण के दरबारी जरूरत पड़ने पर अपने राजा से बहस करते, उसे समझाते हैं। राम के दरबारियों को यह सुविधा प्राप्त नहीं थी। वहां सिर्फ ‘हां’ में ‘हां’ मिलाने और जय-जयकार करने का अवसर था। कह सकते हैं कि समाज का दासभाव दरबारियों के चरित्र की भी विशेषता था, इसलिए वहां दास-प्रथा के मजबूत होने के सभी अवसर थे। रामायण का आदर्श भी ऐसा ही समाज है, जहां कुछ लोग मालिक हों और बाकी लोग दास जैसा आचरण करते हों।

महाभारत के नायक कृष्ण हैं। वे अंधक गणराज्य के मुखिया है। गणतंत्र में भरोसा रखते हैं। इसलिए दासत्व के लिए उनके यहां वैसी जगह नहीं है, जैसी राम के यहां हैं। कृष्ण स्वयं अपने साथियों-सहयोगियों के साथ मैत्री-भाव रखते हैं। मगर कृष्ण के देवत्व को मान्यता देने वाले ब्राह्मण उन्हें खुली छूट देने को तैयार नहीं थे। इतिहासचक्र के अचानक घूम जाने की बात है जिससे ब्राह्मणों को एक ग्वाले के देवत्व को स्वीकारना पड़ा। फिर भी इतना ध्यान उन्होंने रखा कि वे ब्राह्मण विरोधी न दिखें। ऋग्वेद में इंद्र को चुनौती देने वाले कृष्ण का नया रूपाकार ब्राह्मणवाद का आराधक हो, इस कारण उन्हें सुदामा के पैर धोते हुए दिखाया गया है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में अतिथियों के पांव धोने की जिम्मेदारी भी उन्हीं को ओटनी पड़ी। महाभारतकार उसी का महिमा मंडन करता है। यदि अतिथियों के पांव-प्रक्षालन करना इतना ही पुनीत कार्य था तो यह काम किसी ब्राह्मण को क्यों नहीं सौंपा गया? अथवा वह जिम्मेदारी युधिष्ठिर या उसके किसी भाई न स्वयं क्यों न संभाल ली? महाभारत में इस सवालों के लिए कोई जगह नहीं है। वैसे भी, जहां धर्म होता है, वहां सवाल या शंकाएं नहीं होतीं। केवल आस्था होती है। आंख मूंदकर विश्वास करना पड़ता है। अगर सवाल होते तो महाभारत धर्मयुद्ध कभी न बन पाता।

महाभारत में दास प्रथा का उल्लेख अनेक अवसरों पर हुआ है। हमने आरंभ में ही बता दिया है कि राजसूय यज्ञ कराने के उपलक्ष्य में युधिष्ठिर ने 88,000 ब्राह्मण पुरोहितों में से प्रत्येक को तीस दासियां उपहार स्वरूप दी थीं। वनपर्व में दिया है कि वैन्य ने अत्रि को एक हजार सुंदर दासियां प्रदान कीं।20 विराटपर्व(18.21) में 30 दासियां दान करने का एक और उल्लेख आया है। दासों का वर्णन जितना खुलकर दिया गया है, उससे लगता है कि समाज में शूद्र और दास में बहुत अंतर नहीं था। सभापर्व में युधिष्ठिर के महल में एक लाख दासियां होने का वर्णन हुआ है। यह वर्णन अतिश्योक्तिपूर्ण हो सकता है। संभव है हस्तिनापुर की कुल शूद्र स्त्रियों को ही युधिष्ठिर की दासी मान लिया हो। क्योंकि आगे उसमें लिखा है कि युधिष्ठिर अपनी दासियों का अनुरोध सुनने के लिए सदैव तत्पर रहता था। विराटपर्व(7.17) के अनुसार पांडवों के निजी कक्ष भी दास-दासियों से समृद्ध थे।। दास-दासियों की संख्या को लेकर यह अतिरंजना अन्य स्थानों पर भी पाई जाती है। उदाहरण के लिए देवयानी और शर्मिष्ठा के विवरण को ही लें। उन दोनों की एक-एक हजार दासियां बताई गई हैं। उन दिनों दहेज में दास-दासियां देने का चलन था। द्रोपदी के विवाह में भी द्रुपद की ओर से पांडवों को बड़ी संख्या में दासियां दी गई थीं।21 महाभारत काल में दास-दासियों की उपस्थिति के प्रचुर प्रसंग हैं। दुर्योधन के साथ जुआ खेलते समय युधिष्ठिर ने दावा किया था कि उसके पास एक लाख तरुण दासियां हैं। वे सुंदर हैं। सुवर्णमय मांगलिक आभूषण तथा मनोहारी वस्त्र धारण करती हैं। मणि और स्वर्णाभूषणों से लदीं, चौसठ कलाओं में निपुण उन दासियों को युधिष्ठिर अपना धन मानते थे।22 

महाभारत एक वृहद ग्रंथ है। उसके भीतर अनेक उपकथाएं समाहित हैं। कद्रु-वनिता, नल-दमयंती, देवयानी, शर्मिष्ठा जैसे उपाख्यानों में भी दास प्रथा का उल्लेख है। इसमें भी नल-दमयंती का प्रकरण इतना रोचक है कि वह स्वतंत्र लोककथा के रूप में भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में ख्यात रहा है। इस उपकथा में भी जुए की बुराई को दर्शाया गया है। नल-दमयंती आख्यान के अंतिम हिस्से में पुष्कर जुए में खुद को हार जाता है। परिणामस्वरूप उसे अपनी स्वतंत्रता लुटाकर दास बनना पड़ता है। कालांतर में वह पुनः मुक्त हो जाता है। उन दिनों एक नियम यह भी था कि युद्ध में पराजित को, विजेता का दासत्व स्वीकारना  वह आमतौर पर तब तक रहता था, जब तक फिरौती या बदले में कुछ हासिल न हो जाए।23 प्राय:  विजेता को प्रसन्न करने के लिए बाकी भेंटों के अलावा दासियां भी भेंट की जाति थीं, इस कारण उन दिनों दास-दासियां प्रचुर संख्या में होती थीं।  महाभारत(3.76.77)। लोपामुद्रा की सेवा में 1000 दासियां रहती थीं। एक प्रसंग में च्यवन ऋषि मछुआरे के जाल में फंसकर उसकी संपत्ति बन जाते हैं। आखिरकार एक राजा उन्हें खरीदकर उनकी स्वतंत्रता वापस दिलाता है। भरत दक्षिणा स्वरूप दासों की भेंट करते हैं। असल में वह शक्तिशालियों का समाज था। स्त्री, पुरुष, धन-धान्य, पशु, भूमि कुछ भी हो, इन सभी को ताकत के बल पर जीता जा सकता था। जीतने के बाद वे विजेता की संपत्ति मान लिए जाते थे। ताकत का बोलबाला था। जो ताकतवर था, वह लोगों गरीबों, विपन्नों और कमजोरों को कैद करने, उन्हें दास बनाने यहां तक कि हत्या करने की धमकी भी देते रहते थे। दास का कर्तव्य था, अपने प्राणों पर खेलकर भी अपने स्वामी के आदेश का पालन करना। कुरुक्षेत्र में युद्ध के दौरान एक अवसर ऐसा आता है जब भीष्म(भीष्मपर्व 4.15.534) कृष्ण को अपना स्वामी मानकर अपने हथियार डाल देते हैं—‘हे प्रभो! तुम मुझ पर चाहे जैसे आक्रमण करो, मैं तुम्हारा दास हूं।’ युधिष्ठिर द्वारा खुद को तथा अपने भाइयों को दाव पर लगा देने के बाद, पांडवों की स्थिति भी दास जैसी बन चुकी थी। दास बनने के साथ ही वे अपनी इच्छाएं, अपनी स्वतंत्रता और विरोध की क्षमता भी गंवा चुके थे। उनके शरीर, इच्छाएं सभी कुछ दुर्योधन के अधीन हो चुके थे, जिसने उन्हें जुए में जीता था। एक स्थान पर आता है कि पुत्र, पत्नी और दास का संपत्ति में कोई अधिकार नहीं होता, क्योंकि उनपर क्रमशः पिता, पति और स्वामी का अधिकार होता है।

दास प्रथा में स्त्रियों की और भी अधिक दुर्दशा होती थी। प्राचीन मनीषी मानते थे कि कन्या गिरवी रखे आभूषण की तरह है, जिसे मांगे जाने पर उसके वास्तविक स्वामी को वापस लौटाना ही धर्म है। इस धारणा का विकृत विस्तार मंदिरों में देवदासी प्रथा के रूप में मिलता है जिसमें ईश्वर को समर्पित करने के नाम पर नन्ही बालिकाएं मंदिर के पुजारियों को सौंप दी जाती थीं। महाभारत में एक और प्रसंग आया है जो उस समाज में स्त्री की दुर्दशा को दर्शाता है, जिसके अनुसार स्त्री की हैसियत उस समाज में दास और कहीं-कहीं तो उससे भी बदतर थी। विश्वामित्र ने ऋषि गालव से गुरु दक्षिणा के रूप में 800 श्यामकर्णी घोड़ों की मांग की। 800 श्यामकर्णी घोड़ों का प्रबंध करना हंसी-खेल नहीं था। अगर इससे दस गुनी दासियां मांगी होतीं तो कोई भी राजा पलक झपकते इंतजाम कर देता। लेकिन 800 श्यामकर्णी घोड़े! परेशान गालव अपने मित्र गरुड़ से मिला। गरुड़ ने उसे सम्राट ययाति के पास जाने की सलाह दी। ययाति के पास श्यामकर्णी घोड़े तो थे नहीं। परंतु द्वार पर आए याचक को लौटाए कैसे? अंतत: उसने माधवी नामक अपनी सुंदर पुत्री गालव ऋषि को सौंपते हुए कहा—

‘हे महर्षि! यह मेरी कन्या है। यह अपूर्व सुंदरी, लावण्यमयी एवं सर्वगुणसंपन्न है। तीनों लोकों में ऐसा कोई भी नहीं जो इसे वरण करने की इच्छा न रखता हो। इसमें सुर, नर, किन्नर, आर्यों, अनार्यों सभी को सम्मोहित करने की अभूतपूर्व शक्ति है। मैं इस कन्या को आपको अर्पित करता हूं। इसे किसी भी राजा के पास बेचकर आप आसानी से गुरु दक्षिणा का इंतजाम कर सकते हैं।’24

मानो लड़की न होकर कोई ‘हुंडी’ हो। अपने मित्र गरुण के साथ गालव माधवी को लेकर अयोध्या नरेश हर्यश्व के दरबार में पहुंचा। हर्यश्व के कोई पुत्र नहीं था। ऋषि ने दो सौ श्यामकर्णी अश्वों के बदले माधवी को उसके हवाले कर दिया—‘आप इससे एक पुत्र उत्पन्न कर लें।’(उद्योगपर्व 116.15)। हर्यश्व के माधवी से वसुमना नामक पुत्र पैदा हुआ। कुछ समय बाद गालव ने हर्यश्व से मालती को वापस ले लिया। तदनंतर उस ‘हुंडी’ को लेकर वह राजा दिवोदास के पास पहुंचा। वहां भी दो सौ घोड़ों के बदले उसने लड़की राजा को सौंप दिया(उद्योगपर्व 117.7)। दिवोदास के यहां माधवी से प्रतर्दन नामक पुत्र का जन्म हुआ। निश्चित अवधि के बाद गालव पुन: राजा दिवोदास के दरबार में जा धमका तथा उससे माधवी को वापस ले लिया। तदनंतर वह राजा उशीनर से मिला। राजा उशीनर से भी 200 घोड़े लेकर उसने माधवी को सौंप दिया। उशीनर और माधवी के संयोग से शिवि नामक पुत्र का जन्म हुआ। अब तक गुरु दक्षिणा के 600 घोड़ों का प्रबंध हो चुका था। बाकी दो सौ का प्रबंध कहां से किया जाए? आखिरकार गालव माधवी को लेकर विश्वामित्र के पास पहुंचा और पूरी कहानी सुनाने के बाद, उसने 200 घोड़ों के बदले माधवी को रखने को कहा। मेनका को देखकर आपा खो देने वाला विश्वामित्र भला क्यों इन्कार करता! उसने माधवी को रख लिया। दोनों के संयोग से अष्टक नामक पुत्र का जन्म हुआ(उद्योगपर्व 118.3-8)। बाद में गालव माधवी को उसके पिता के पास वापस लौटाने पहुंचता है। ययाति ने माधवी का स्वयंवर करने की इच्छा प्रकट की। अनिच्छा से चार अलग-अलग पुरुषों की संतान को जन्म देने के बाद बुरी तरह टूट चुकी माधवी ने विवाह से इन्कार कर, संन्यास धारण कर लिया।

इस घटना में माधवी की स्थिति दासी से भी बदतर है। सामान्य दासी का अपनी संतान पर अधिकार होता था। परंतु इस कहानी में माधवी पशुवत एक राजा से दूसरे राजा तक ले जाई जाती है। ले जाने वाला एक ऋषि है और उसका भोग करने वाले उस समय के प्रतिष्ठित राजा हैं, जिनपर न्याय की रक्षा का भार होता है।   

बौद्धकालीन दासप्रथा

बौद्ध धर्म में अष्ठधम्म पद गृहस्थ जनों के लिए आचारसंहिता है। इसका पांचवा ‘धम्म’ ‘सम्यक आजीव’ है। बौद्ध धर्म गृहस्थ जनों के लिए धनार्जन का निषेध नहीं करता। किंतु चोरी, डकैती, हिंसा, लूटमार जैसे दूसरों के लिए कष्टकारी कार्यों द्वारा अर्जित धन को उसमें वर्ज्य माना गया है। ‘अपण्णकसुत्त’ में कहा गया है—‘वही व्यक्ति न्यायपथ पर है, जिसका मस्तिष्क शुद्ध एवं सात्विक है। जो अपने मन को प्रसन्न रखता है, तथा दास अथवा दासी रखने से बचता है।’ दीघनिकाय, ‘सामञ्ञफलसुत्त’ में ‘संतोष’ की स्थितियों का वर्णन करते समय कहा गया है—‘जैसे महाराज कोई पुरुष दास हो। जो पराधीन हो। जिसे अपनी इच्छा से कहीं भी आने-जाने का अधिकार न हो। समय आने पर जब वह दासता से मुक्त हो जाए। स्वतंत्र, अपराधीन, यथेच्छगामी हो जाए। तब उसके मन में ऐसे भाव होने के साथ प्रसन्न एवं आनंदित होना चाहिए—‘मैं पहले दास था, अब स्वतंत्र हूं। जहां जी चाहे वहां जा सकता हूं।’ भिक्षु संघ के नियमों के अनुसार समाज का कोई भी व्यक्ति उसकी दीक्षा ग्रहण कर सकता था। परंतु सैनिक,कर्जदार, दास आदि को भिक्षु संघ में शामिल होने के लिए संबंधित व्यक्ति की अनुमति लेनी पड़ती थी। 

अंगुत्तर निकाय(5.177) के अनुसार बुद्ध ने पांच प्रकार की आजीविकाओं, जो दूसरों के लिए कष्टकारी हो सकती हैं, को अपनाने से मना किया है। जैसे हथियारों, विष, दास-दासी, वेश्यावृति, मांस तथा उसके उत्पादों की खरीद-बिक्री द्वारा अर्जित धन। इसका आशय यह नहीं है कि बौद्ध काल में दास प्रथा का अभाव था; अथवा बौद्ध धर्म की उपस्थिति से दास-प्रथा में परिमाणात्मक कमी आई थी। अन्य सभ्यताओं और संस्कृतियों की भांति बौद्धकाल में भी दासप्रथा अपने निकृष्टतम रूप में मौजूद थी। सस्ता श्रम, विकास की चाहत और स्वामी के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा—दासप्रथा की ऐसी देन थीं, जिसके कारण सुकरात से लेकर अरस्तु तक सभी ने उसे आवश्यक माना था। भारत में भी बुद्ध जैसे कुछेक अपवादों को छोड़कर लगभग सभी बुद्धिजीवी, दास प्रथा का या तो समर्थन कर रहे थे, अथवा उसकी ओर से मौन साधे हुए थे। ध्यातव्य है कि बौद्ध धर्म के प्रभाव में चलते यज्ञ-बलियों में कमी आई थी। बची हुई पशु-शक्ति का उपयोग उत्पादक कार्यों में होने लगा था। उसका सकारात्मक प्रभाव विकास पर भी पड़ा था। व्यक्तिगत संपत्ति की लालसा में निरंतर वृद्धि हो रही थी। उसके लिए सस्ता, लगभग मुफ्त श्रम उपलब्ध कराने वाली दासप्रथा का महत्त्व बढ़ता ही जा रहा था। यह भी कह सकते हैं कि अधिकाधिक लाभ की वांछा के कारण तत्कालीन व्यापारी वर्ग उसे छोड़ने को तैयार नहीं था।

बौद्धकाल तक बड़े राज्यों का बनना आरंभ नहीं हुआ था। उन दिनों भारत में मगध और उज्जैनी जैसे राजतंत्र थे। उनके साथ-साथ लिच्छिवी, वाहीक, शाक्य, मल्ल, वृष्णि जैसे गणों की भी प्रतिष्ठा थी। दासों की उपस्थिति राजतंत्र और गणतंत्र दोनों में थी। राजतंत्र में सेना के दरवाजे समाज के सभी वर्गों के लिए खुले थे।25 आवश्यकता पड़ने पर दासों को सेना में भी भर्ती किया जा सकता था। हालांकि उनका स्तर, बाकी सैनिकों से कमतर होता था। कई बार राजा युद्धकाल में मृत्युदंड पाए अपराधियों को दास के रूप में सेना में शामिल कर लेता था। वे सैनिकों और जानवरों की देखभाल के काम आते थे। सेना में भर्ती दासों को ‘दासकपुत्त’ कहा जाता था। उन्हें गृह-दास योद्धा का नाम भी दिया गया था। कई बार राजा किसी अपराधी का मृत्युदंड माफ करने के बाद, उसे अपनी सेना में शामिल कर लेता था।

कृषिकर्म के लिए भी दासों की मदद ली जाती थी। समाज के संपन्न वर्गों के पास हजारों एकड़ जमीन पर अधिकार होता था। इतनी बड़ी जमीन पर खेती करने के लिए दासों की मदद लेना तत्कालीन समाज का सामान्य चलन था। उस समय रोम की तरह भारत में दासों की दो श्रेणियां थीं। पहली श्रेणी में वे दास थे, जिनका दासत्व कृषि-भूमि से जुड़ा था। भूमि की बिक्री के साथ वे भी नए स्वामी के अधिकार में चले जाते थे। दूसरे स्वतंत्र दास थे। वे घरों और संस्थानों में काम करते थे। थेरीगाथा एक की कहानी के अनुसार, बौद्धकाल में बनारस के पास ‘दासग्राम’ था, जिसमें संपूर्ण आबादी दासों की थी। यह उन 14 गांवों में से एक था, जिनपर बुद्ध के शिष्य ‘पिप्पली मानव’ यानी महाकाश्यप का नियंत्रण था। विशाखा को दहेज में कृषि औजारों से भरी 500 गाडि़यां तथा सैकड़ों दास भेंट किए गए थे। उन दिनों दासों को अंतःवासी, अहेटक, केटक, दता, मानुस्स, सेवक, उपत्थका जैसे नाम दिए जाते थे, जबकि स्त्री दासों को अंतःपुरिका, अट्ठककारिका, इत्थी, पसेन दारिका आदि नामों से पुकारा जाता था। उनसे दासत्व की प्रवृत्ति तथा उसके कार्यक्षेत्र का बोध भी होता था।  

बुद्ध के समकालीन दार्शनिकों में भौतिकवादी चिंतक पूर्ण कस्सप की बड़ी प्रतिष्ठा थी। वे अपने समय के महान आजीवक चिंतक थे। उनके जीवन के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं है। उनके नामकरण के साथ एक कहानी जुड़ी है। हालांकि उसपर विश्वास करना कठिन है। बौद्धग्रंथों के अनुसार वे एक दास थे। जो स्वामी उन्हें दास बनाने के लिए लाया था, उसके 99 दास पहले से ही थे। पूर्ण कस्सप के आने के बाद सौ होने पर, स्वामी को लगा कि उसके दासों की संख्या पूरी हो चुकी है, इसलिए स्वामी ने ही उसका नामकरण पूर्ण या पूरण कस्सप नाम दिया था। उस समय के दूसरे आजीवक एवं लोकायत चिंतकों मक्खलि गोसाल और अजित केशकंबलि की सामाजिक स्थिति भी एक दास की तरह थी। डॉ. धर्मबीर ने ‘महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल’(पृष्ठ-227) नामक पुस्तक में कबीर के ‘बीजक’ के शीर्षक की मुख्य प्रेरणा ‘महानारद कश्यप जातक’ के कथासूत्र को बताया है। उक्त जातक में बीजक आजीवक विद्वान है। उसका जन्म पानी लाने वाली दासी के गर्भ से हुआ था। दासता को उन्होंने करीब से देखा था। धर्मवीर के अनुसार बीजक, ‘अपने धर्म और दर्शन में आजीवक थे और दासता के विरोध में लड़ रहे थे।’

मेगस्थनीज चंद्रगुप्त के शासनकाल में भारत आया था। वह चंद्रगुप्त के दरबार में सेल्यूकस की ओर से राजदूत था। अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में मेगस्थनीज ने भारत में दासप्रथा की उपस्थिति से इन्कार किया है। जबकि उन्हीं दिनों रचे जा रहे बौद्ध साहित्य में दासों का खुला उल्लेख है। क्या मेगस्थनीज भारतीय दासप्रथा से सचमुच अनभिज्ञ था? अथवा उसने जानबूझकर उसे छिपाया था? जबकि वह स्वयं ऐसे देश से आया था, जहां जनसंख्या का करीब एक-तिहाई हिस्सा दास की श्रेणी में आता था। असल में मेगस्थनीज की जानकारी का स्रोत केवल ब्राह्मण थे। अतएव एक कारण तो यह हो सकता है कि ब्राह्मणों ने भारत में मौजूद दासप्रथा को जानबूझकर छिपाया हो। दूसरा कारण यह कि भारत में शूद्र एवं दास की स्थिति में बहुत अंतर नहीं था। इसलिए संभव है मेगस्थनीज स्वयं उस समय के शूद्रों एवं दासों के जीवन में अंतर करने में असमर्थ रहा हो।

उन दिनों दास प्रथा अपने चरम पर था। दासों के शरीर पर उसके स्वामी का अधिकार होता था। नाराज होने पर स्वामी उसे दंडित कर सकता था। एक जातक में एक दासी का उल्लेख हुआ है जिसे उसके स्वामी ने दूसरे व्यक्ति के पास काम के लिए भेजा था। जब वह काम करने में असमर्थ रही तो बेंतों से उसकी पिटाई की थी। दूसरी ओर दास द्वारा आत्म-उत्थान के भी उदाहरण है। कटहक का एक दास तीव्र बुद्धि था। वह स्वामी के पुत्रों के साथ पढ़ना-लिखना सीख गया। अन्य कर्मों के साथ-साथ वह भाषण कला में भी पारंगत था। मालिक ने प्रसन्न होकर उसे भंडारगृह के रक्षक के रूप में नियुक्त कर दिया था। लेकिन उसे सदैव यह भय रहता था कि उसे कभी भी किसी अपराध के कारण काम से हटाया अथवा प्रताडि़त किया जा सकता है।26

बौद्धकाल में दासों की उपस्थिति प्रायः सभी पेशों और उद्यमों में थी। विनयपिटक, दीघनिकाय, जातक कथाओं आदि में दासों की उपस्थिति बनी हुई है। बौद्ध साहित्य में आठ प्रकार के दासों का उल्लेख मिलता है—ध्वजाहृत(युद्ध में जीता गया), उदरदास(भरण-पोषण), आमाय दास(जीवकोपार्जन हेतु दासता स्वीकारना), भयाक्रांत दास(भय के कारण), स्वैच्छिक दास(स्वेच्छापूर्वक दासता को अपनाने वाला), क्रीतदास(धन देकर खरीदा गया), पादमूलिक(राजा और राजपरिवार का विश्वसनीय एवं अंतरंग दास), कम्मंतदास(खेत एवं कार्यशाला में काम करने वाला) तथा दौवारिक(द्वार पर नियुक्त रहकर स्वामी की रक्षा करने वाला)। ‘थेरवादी अट्ठकथा’ के अनुसार सेट्ठि सुदंत अनाथिपिंडक ने विहार की रक्षा के लिए एक दास दिया था। बौद्ध ग्रंथों में दासियों के भी भेद मिलते हैं। दासियां घर के प्रत्येक काम में सहयोग करती थीं। दासी की बेटी भी दासी ही कहलाती थी। ‘विदुर जातक’(जातक संख्या 545) के अनुसार कुछ लोग केवल दासी के पेट से जन्म लेने के कारण दास होते हैं। कुछ लोग धन से खरीदे जाने के बाद दास बनते हैं। कुछ भय से दास बनते हैं तो कुछ स्वयं दास बन जाते हैं। 

दास को योनि मान लिया था। उससे पता चलता था की दासप्रथा को कुछ लोग दैवी विधान घोषित करने  में लगे थे तदनुसार जो व्यक्ति एक बार दास बन जाता वह हमेशा दास ही बना रहता है। इसी जातक में एक जगह माणवक कहता है—’निश्चित रूप से मैं दास योनि में पैदा हुआ हूं। चाहे राजा की वृद्धि हो, चाहे अवृद्धि हो, दूर जाकर भी मैं देव का दास ही रहूंगा।’ ‘निमी जातक’ की बिरानी दासी को दासत्व उत्तराधिकार में मिला था। एक जातक में लापरवाह और आलसी ब्राह्मण स्त्री अपने पति को यह कहकर भिक्षा लेने के लिए भेजती है कि वह उसके लिए दासी खरीदकर लाए। पत्नी की इच्छा पूरी करने के लिए ब्राह्मण 700 कार्षापण मांग कर लाता है। उतने मूल्य में एक दासी खरीदी जा सकती थी। दासियां दहेज में भी दी जाती थीं। ‘सुप्पारक जातक’ के अनुसार विशारक को दहेज में दासियां प्रदान की गई थीं। गणिकाओं के यहां 500 दासियों के होने का उल्लेख है। ‘खंडहाल जातक’ में चंद्रकुमार स्वयं को दास बनाने के लिए समर्पित करता है—

‘देव! हमारा वध न करें। हमें दास बनाकर ‘खंडहाल’ को दे दें। पैरों में बेड़ी पड़ी रहने पर भी हम हाथी-घोड़ों का पालन करेंगे। देव हमारा वध न करें….हम हाथियों की लीद बटोरेंगे….हम घोड़ों की लीद बटोरेंगे….हमें चाहे जिसे दास बनाकर दे दें।’27

ऐसे ही वास्संत्र जातक में एक राजकुमार स्वयं को 1000 पण में बेच देता है। ‘कुस्सजातक’ से पता चलता है कि विधुर के घर में 700 दासियां थीं। दास-दासियों का प्रमुख कार्य परिवार के सदस्यों की सेवा करना था। अतिथियों के आने पर उनके पैर धोना, आवष्यकता पड़ने पर उनके पैर दबाना जैसे कार्य दासों के जिम्मे थे। ‘मझिम्मनिकाय’ के अनुसार ‘काली’ नामक एक दासी चावल पकाने, बिस्तर लगाने, गाय दुहने से लेकर दीपक जलाने जैसे काम करती थी। दासियां धाय का काम भी करती थीं। वे खासतौर पर लड़कियों को पालती-पोसतीं, उन्हें बड़ा करतीं और लड़की के विवाह के बाद, उसकी ससुराल वालों को दान दे जाती थीं। एक जातक कथा के अनुसार एक राजकुमार के 64 दासियां थीं। दासों का रोजमर्रा का जीवन आमतौर पर बड़ा ही कठिन था। वे अपनी नियति को जानते थे, इसलिए उनके सपने बहुत छोटे होते थे। एक जातक कथा में राजा ने प्रसन्न होकर अपने कुलपुरोहित से वरदान मांगने को कहा। इसपर पुरोहित ने अपने परिजनों के साथ-साथ घर में काम करने वाली दासी पुण्णा से उसकी आवष्यकता के बारे में भी पूछा। जवाब में पुण्णा अपने लिए मूसल, सूप तथा गारा मांगती है। दासियों को अपने स्वामी की काम-वासना का षिकार भी होना पड़ता था। जो दासियां सुंदर होतीं, वे अपने स्वामी की रखैल बनकर रहने से खुद को कृतार्थ समझने लगती थीं। उद्दालक जातक के अनुसार एक ब्राह्मण राजपुरोहित अपनी दासी पर आसक्त हो गया। आगे चलकर दासी के गर्भ से उद्दालक का जन्म हुआ। आगे चलकर वह बड़ा ऋषि बना। इस तरह हम देखते हैं कि बुद्ध ने हालांकि दासप्रथा को हेय माना, तथा दास अथवा दासी न रखने की सलाह दी थी। तथापि इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि बौद्ध काल में दासप्रथा पूरे जोरों पर थी।

प्राकृत भाषा में ‘दास’ का उल्लेख अन्य अर्थों में देखने को मिलता है। वह उसकी अब तक स्थापित सामाजिकी से बिलकुल अलग है. प्राकृत में दास का अर्थ है, देखना। ‘दर्शन’ का अर्थ भी यही है। ऐसे लोग जो संसार के आंतरिक और बाहरी रहस्यों को समझते थे, जितनी अंतर्चेतना प्रबल थी, उन्हें दास कहा जाता था। वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा, बिहार में प्राचीन भारतीय इतिहास के गंभीर अध्येता डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह के अनुसार, दास मूल रूप से बौद्ध थे. उनके अनुसार साँची और भरहुत के स्तूपों पर अनेक दास तथा दासी उपाधिधारक बौद्धों के शिलालेख हैं, जिन्होंने स्तूप-निर्माण में मदद की थी।’ वे लिखते हैं—

”अरहत दास थे, अरहत दासी थीं, यमी दास थे, जख दासी थीं….अनेक, सभी के नाम लिखे हुए हैं। एक बौद्धकालीन शिलालेख पर प्राकृत में ‘थूप दास’ का वर्णन मिलता है। उसपर लिखा है-‘मोरगिरिह्मा थूपदासस दान थंभे।’ थूप दास मोरगिरि(महाराष्ट्र) के निवासी थे। उन्होंने भरहुत के एक स्तंभ-निर्माण में मदद की थी। वैदिक साहित्य में वर्णित आर्यों का सांस्कृतिक संघर्ष इन्हीं बौद्ध दास-दासियों से हुआ था। वैदिक साहित्य इन दास-दासियों के बारे में बताता है कि ये लोग यज्ञ नहीं करते और न ये इंद्र-वरुण की पूजा करते हैं…स्पष्ट है कि ये बौद्ध हैं। प्राकृत भाषा में ‘दास'(दसन) का अर्थ द्रष्टा है। मगर आर्यों ने सांस्कृतिक दुश्मनी के कारण अपनी पुस्तकों में ‘दास’ का अर्थ ‘गुलाम/नौकर’ कर लिया है। दास और आर्यों का यह सांस्कृतिक संघर्ष 1500 ई.पू. में नहीं बल्कि मौर्य काल के बाद हुआ था।”

इस संबंध में अभी और शोध की अपेक्षा है. यह सच है कि समय और परिस्थितियों में आए बदलाव के कारण शब्द अपनी अर्थ-छवियां बदलती रही हैं। अठारहवीं-उनीसवीं शताब्दी में ‘अराजकतावाद’ शब्द ‘जनतंत्र’ की उच्चतम अवस्था का प्रतीक था। उसका अर्थ ऐसे राज्य से था, जहां के प्रबुद्ध नागरिक अपने आप में ही इतने अनुशासित और समर्पित हों कि राज्य की आवश्यकता और उसका औचित्य ही जाता रहे। आज यह शब्द एकदम भिन्न अर्थों में अव्यवस्था और कानून विरोध के संदर्भ में प्रयुक्त किया जाने लगा है। अराजक शब्द का उपयोग कई बार गाली की तरह भी किया जाता है.

जैन दर्शन भी बौद्ध दर्शन का समकालीन है। जैन धर्म में अहिंसा पर अत्यधिक जोर दिया गया है। वहां अहिंसा की परिभाषा बहुत व्यापक है। उसमें मनसा-वाचा-कर्मणा किसी भी प्रकार की हिंसा का निषेध है। चूंकि दास प्रथा में स्वामी दास के विवेक को पनपने नहीं देता। उसपर हमेशा अपना निर्णय लादे रहता है। दास से जीवन के कई मौलिक अधिकार जैसे संपत्ति संचय, छीन लिए जाते हैं। इसलिए कह सकते हैं कि प्रत्यक्ष न सही, परोक्ष में ही—जैन धर्म दास प्रथा का विरोध करता है। हालांकि उसमें सीधे तौर पर कहीं भी दास प्रथा का विरोध नहीं है। जैन दर्शन में महावीर स्वामी के आरंभिक अनुयायियों में चंदनबाला का उल्लेख मिलता है। वह महावीर स्वामी की प्रथम महिला शिष्या थी। कहानी के अनुसार चंदनबाला चंपानगरी के राजा दधिवाहन की बेटी थी। उसका मूल नाम वसुमती था। एक बार चंपानगरी पर पड़ोसी राजा शतानीक ने हमला कर दिया। आकस्मिक हमले से आक्रांत दधिवाहन जंगलों की ओर भाग गए। उनकी पत्नी और बेटी वसुमती को शत्रु सेना ने कैद कर लिया। बाद में उन्होंने वसुमती को बेचने के लिए कोशांबी के चौराहे पर खड़ा कर दिया। वहां उसे धन्नासेठ नाम के व्यापारी ने खरीद लिया। यह देखते हुए कि वसुमती किसी संभ्रांत घर की लड़की है, धन्ना ने उससे दासी का काम लेने के बजाए, चंदनबाला नाम देकर अपनी पुत्री की तरह उसका लालन-पालन किया। बदलते घटनाचक्र के दौरान चंदनबाला महावीर स्वामी के संपर्क में आई और उनकी शिष्या बन गई।

बुद्धेत्तर भारत में दास प्रथा

बाद के कालखंड में भी दास प्रथा की मौजूदगी के पर्याप्त प्रमाण हैं। संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिकम’ में दासों की मंडी का उल्लेख किया गया। एक व्यक्ति उधार चुकाने में असमर्थ रहता है। इसपर साहूकार के आदमी उसे पीटते हुए मंडी में ले जाते हैं। जहां उसको नीलाम करके अपना कर्ज वसूल लिया जाता है। भारतीय दास प्रथा की चर्चा मध्य एशिया की ओर से आए योद्धाओं की चर्चा के बिना पूरी नहीं हो सकती। अपने लिए स्थायी राज्य की चाहत में उन्होंने हजारों किलोमीटर लंबी कठिन यात्राएं की थीं। बीच-बीच में उन्हें अस्थायी सफलताएं भी मिलती रहीं। कारण है कि एक अंतराल के पश्चात उनके सहयोगी सैनिकों, जिनमें उनके अपने परिजन भी होते थे—की अपनी महत्त्वाकांक्षाएं अंगड़ाई लेने लगती थीं। जिससे विजित क्षेत्र के शासन-प्रशासन के अधिकार को लेकर उनके बीच सत्ता-संघर्ष शुरू हो जाता था। उससे बचने के लिए कुछ लड़ाकों ने दास प्रथा का सहारा लिया था। दास के पास सिवाय ‘स्वामीभक्ति’ के अपना और गर्व करने लायक कुछ नहीं होता था। यह प्रत्यय भी दास प्रथा को दैवीय उठान देने के मंशा के साथ मालिक ही दासों के मनस् में रोपते आए थे। समय के साथ दास उस अमानवीय प्रथा से अनुकूलित होने लगे। एक समय ऐसा आया, जब दास उन असमानताकारी पृथा को अपना चुके थे। परिणामस्वरूप स्वामीभक्ति उनके लिए बड़ा जीवनमूल्य, बन गई। इसकी पराकाष्ठा हमें पन्ना धाय के चरित्र में दिखाई पड़ती है। सोलहवीं शताब्दी की वह स्त्री जिसका स्तर समाज में दास जैसा ही था, महाराणा संग्राम सिंह के बेटे और मेवाड़ के भावी सम्राट उदय सिंह को बचाने के लिए, अपने बेटे चंदन को हत्यारे बनवीर के आगे कर देती है। बनवीर बिना कोई दया दिखाए एक झटके में उस मासूम की हत्या कर देता है। ऐसा उदात्त दासत्व सत्तानशीनों के बड़े काम का था, इसलिए राजस्थान के इतिहास में पन्ना धाय के त्याग का खूब महिमामंडन किया गया। पन्ना धाय जैसे स्वामीभक्त हर शासक की जरूरत थे। बगैर उनके बड़े और स्थायी राज्य स्थापित कर पाना असंभव था।  

दास के लिए अपने मालिक के सुख-वैभव के अलावा कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं था। वे मानापमान की भावना से कोसों परे थे। इसे समझने के लिए एक खलीफा की यह स्वीकारोक्ति काफी होगी—

‘जब मैं दरबार में बैठता हूं तो एक गुलाम को बुलाकर अपने बगल में बिठा सकता हूं। इस तरह कि उसके और मेरे घुटने एक-दूसरे को जकड़ें। जैसे ही दरबार समाप्त हो जाए तो मैं उसे अपने घोड़े की मालिश को कह सकता हूं। उसे इसमें तनिक भी बुरा नहीं लगेगा। अगर में यही काम किसी और से करने को कहूं तो वह कहता, ‘मैं आखिर तुम्हारे पक्षधर का बेटा हूं।’ या ‘तुम्हारा खास साथी हूं।’ और मैं उसे राजी नहीं करवा पाता।’28 

तो बात मध्य एशिया, ईरान और अफगानिस्तान के जुझारू लड़ाकों की हो रही थी। दसवीं शताब्दी में वे अपनी-अपनी सैन्य टुकडि़यों के साथ संघर्षरत थे। उन्हें जहां भी कमजोर राज्य दिखता, फौरन हमला कर देते थे। मगर वह जीत स्थायी न होती थी। कुछ दिनों बाद उनके अपने बीच भी सत्ता संघर्ष पनपने लगता था। उसे शांत रखने के लिए उन्हें या तो राज्य का बंटवारा करना पड़ता; अथवा अपने अधिकारों में कटौती करनी पड़ती थी। उससे मुक्ति के लिए कुछ महत्त्वाकांक्षी लड़ाकों ने प्रशिक्षित और ख्यातिनाम सैनिकों के बजाए, अपनी सेना में दासों को भर्ती करना शुरू कर दिया। उन्हें सैन्य-प्रशिक्षण देकर लड़ने लायक बनाया। प्रयोग कामयाब रहा। उदाहरण के लिए कुतबुद्दीन ऐबक शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी का गुलाम था। गौरी के साथ उसने कई युद्धों में हिस्सा लिया था। मुहम्मद गौरी ने भारत में गौरी-साम्राज्य की नींव डाली थी। परंतु उसका शासन ज्यादा लंबा न खिंच सका। अवसर मिलते ही कुतबुद्दीन ऐबक ने मुहम्मद गौरी के उत्तराधिकारियों से सत्ता छीन ली। कुतबुद्दीन ऐबक के बाद दिल्ली सल्तनत उसके भाई आरामशाह के हाथों में चली गई। वह अपने नामानुरूप ऐशोआरामपरस्त था। उसे मारकर इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत पर कब्जा कर लिया। इल्तुततमिश कुतबुद्दीन ऐबक का दास, यानी गुलाम का भी गुलाम था। विद्रोहियों के दमन के लिए उसने 40 भरोसेमंद गुलामों को लेकर ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ नामक संगठन बनाया था, जो साये की तरह उसकी सुरक्षा में रहता था। इल्तुतमिश दास-योद्धाओं से अपने बेटों से भी अधिक प्यार करता था। भारत में गुलाम वंश का शासन 84 वर्षों(1206—1290 ईस्वी) तक रहा। लेकिन वह गुलाम वंश का शासन था, गुलामों का नहीं। क्योंकि न तो उससे समाज के गुलामों के प्रति नजरिये में बदलाव आया, न बाकी गुलामों में उससे आत्मविश्वास का संचार हुआ था और न ही उन शासकों का गुलामों के प्रति नजरिया बाकी लोगों से बहुत ज्यादा अलग था।

दासों का जीवन बहुत चुनौतीपूर्ण और कष्टकारी होता था। इस मामले में शूद्रों की स्थिति भी उनसे खास अच्छी नहीं थी। अछूतों का तो और भी बुरा हाल था। डॉ. आंबेडकर ने छूआछूत को दास प्रथा से भी घृणित एवं निदंनीय माना है—

‘अस्पृश्यता, दासत्व से कहीं अधिक निकृष्ट है, क्योंकि यह अछूतों को उनके हाल पर ऐसे स्थान पर पटक देती है, जहां उनकी आजीविका का कोई साधन ही न हो….दास अपने स्वामी की संपत्ति होता था। इसलिए स्वामी द्वारा उसे मुक्त व्यक्ति के सापेक्ष वरीयता दी जाती थी। मूल्यवान होने के कारण उससे स्वामी के स्वार्थ भी जुड़े होते थे, वह दास के स्वास्थ की देखभाल करता था। रोम में दासों को दलदल  और मलेरिया से ग्रस्त स्थान पर कभी नहीं ठहराया जाता था। वहां केवल मुक्त व्यक्तियों को ही नियुक्त किया जाता था।’29

बावजूद इसके भारतीय छूआछूत को हजारों वर्षों तक गले लगाए रहे। अंग्रेजों ने दास प्रथा को निंदनीय मानते हुए, 1843 में ही समाप्त कर दिया था। मगर छुआछूत को पूरी तरह खत्म करने के लिए संविधान के लागू होने तक प्रतीक्षा करनी पड़ी।

ओमप्रकाश कश्यप

9013 254 232 

संदर्भ

1. डॉ. रामविलास शर्मा, मानव सभ्यता का विकास, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ-74

2. डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा उद्धृत, उपर्युक्त, पृष्ठ-74

3. मोर्टीमर व्हीलर, दि इंडस सिविलाइजेशन, कैंब्रिज यूनीवर्सिटी प्रेस, लंदन, 1968, पृष्ठ-34 & 135

4. रामशरण शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, राजकमल प्रकाशन, 1992, पृष्ठ- 17

5.  उपर्युक्त, 25

6. यद्वा दास्र्याद्रहस्ता समत उलूखल मुसलम् शुम्भताप-अथर्ववेद, 12/3/13)

7. रामशरण शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, राजकमल प्रकाशन, 1992, पृष्ठ-16

8. राधाकुमुद मुखर्जी, हिंदू सभ्यता, पृष्ठ 89

9. रामशरण शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, 25

10. उदकुंभानधिनिधाम दास्यौ मार्जालीयं परिनृत्यंति पदों

      निध्नतीरिदं मधुगायन्त्यों मधु वै दैवानां परममन्नाधाम—तैत्तिरीय संहिता, 7/5/101

  1. डॉ. रामविलास शर्मा, मानव सभ्यता का विकास, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ-74

12. प्रवृत्तोऽश्वतरीरथो दासीनिष्कोऽत्स्यन्नं पश्यसि—छांदोग्योपनिषद, 5.13.2

13. स होवाच विज्ञायते हस्ति, हिरण्यस्पापस्तं गौ, अश्वानां दासीनां—बृहदारण्यक उपनिषद(6.2.7)।

14. ओमप्रकाश प्रसाद, प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास, राजकमल प्रकाशन, 2006

15. गृह जातस्था, क्रीतो लब्धो, दायादुपागतः

अनाकाल भृतो, लोके अहितः स्वामिना च यः। 24

मोक्षितो महतश्चार्णात्प्राप्तो, युद्धात्पणार्जितः

तवाह मित्युपगतः प्रवज्यावसितः कृतः। 25

भक्तदासश्चविज्ञेयस्तथैव वडवाहतः

विक्रेता चात्मनः शास्त्रै दासाः पंचदशस्मृताः। 26

  1. श्रीपाद अमृत डांगे, आदिम साम्यवाद, हिंदी अनुवाद आदित्य मिश्र, राजकमल प्रकाशन, 1978,  पृष्ठ 195

17. डॉ. सुरेद्र कुमार शर्मा अज्ञात, क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म, विश्व बुक्स प्रा. लिमिटेड,

18. ददौ कन्यापिता तासां दासीदासमनुत्तमम्।

हिरण्यस्य सुवर्णस्य मुक्तानां विद्रुमस्य च। रामायण, बालकांड, 1.74.5

19. रूपाजीवाश्म वादिन्यो वणिजश्य महाधनाः

शोभयंतु कुमारस्य वाहिनी सुप्रसारिताः।। उत्तरकांड-6.74.2

20. तस्माततेऽहं प्रदास्यामि विविधं वसु भूरि च

      दासी सहस्राश्यामानं सुवस्त्राणामलंकृतम्।। वनपर्व, 185.34

21. ‘दासाश्च दास्याश्च सुमृष्ठवेषाः। संभोजकाश्चाप्युपजहृनुरत्नम्।। आदिपर्व-193।

22. शतं दासीसहस्राणि तरूण्यो हेमभद्रिकाः

कंबूकेयूर धारिष्यो निष्ककंठयः स्वलंकृता-महाभारत, 2.61.8

23.  दासॊऽसमीति तवया वाच्यं संसत्सु च सभासु च।
       एवं ते जीवितं दद्याम एष युद्धजितॊ विधिः।। महा.3.256.11

24.  इयं सुरसुतप्रख्या सर्वधर्मोपचायिनी

सदा देवमनुष्याणामसुराणां च गालव।।

कांछिता रूपतो बाला सुता मे प्रतिगृह्यताम्

अस्याः शुल्कं प्रदास्यंति नृपा राज्यमपि ध्रुवम्।। उद्योगपर्व, 115.2-3

25. देवराज चानना, सलेवरी इन एन्शीएंट इंडिया, पिपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1960, पृष्ठ-40

26. डांगे, आदिम समाज, पृष्ठ 195

27. खंडहाल जातक, भदंत आनंद कौसल्यायन, जातक संख्या 542, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग।

28. सी.एन.सुब्रह्मण्यम, जब गुलाम सुल्तान बने, शैक्षिक संदर्भ, मार्च-अप्रैल 1996

29. कौन ज्यादा बुरा है—गुलामी या अस्पृश्यता?, डॉ. भीमराव आंबेडकर।

दक्षिण भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के जन्मदाता : सिंगारवेलु चेट्टियार

विशेष रुप से प्रदर्शित

जब भी कोई नया महापुरुष जन्मता है, मनुष्यता का भी पुनर्जन्म होता है। प्रत्येक महापुरुष अपने विचारों से, कर्मों से नई इबारत लिखता है। ऐसे कि लोग सम्मोहित होकर उसका उसका अनुसरण करने लगते हैं। फलस्वरूप जड़ और अप्रासंगिक हो चुकी विचारधाराएं पीछे छूटने लगती हैं। कुल मिलाकर बात इतनी-सी है कि जब भी किसी महापुरुष का जन्म होता है, इस दुनिया का भी पुनर्जन्म होता है।

आजकल लोग सवाल नहीं गूगल करते हैं। तो चलिए गूगल कर लेते हैं—‘भारत में मई दिवस मनाने की शुरुआत किसने की थी? वर्ग-क्रांति का प्रतीक लाल झंडा भारत में पहली बार किसने फहराया था? कौन था वह भारतीय जिसने खचाखच भरे सभागार में पहली बार ‘कामरेड’ शब्द का संबोधन किया था। जिसे सुनकर पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजने लगा था? भारत में मजदूर आंदोलनों का पितामह कौन था? कौन था, दक्षिण भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का जन्मदाता? गूगल बाबा इन प्रश्नों का थोड़ा घुमा-फिराकर एक ही जवाब देंगे—‘सिंगारवेलु चेट्टियार। लोग उन्हें सम्मान से सिंगारवेलार कहते थे।

अब आप सिंगारवेलु को गूगल करना चाहेंगे। पर थोड़ा धीरज रखिए। पहले कुछ बातें ‘मई दिवस’ पर कर ली जाएं। मशीनीकरण के आरंभ में आदमी को भी मशीन मान लिया गया था। ‘कार्य-दिवस’ का अर्थ था, सूरज निकलने से दिन ढलने तक काम करना। मौसम के अनुसार दिन घटता-बढ़ता तो काम के घंटे भी बदल जाते। कामगार को प्रतिदिन 14 से 16 घंटे काम करना पड़ता था। कभी-कभी तो एक कार्यदिवस 18 घंटे तक पहुंच जाता था। अगस्त 1866 में ‘नेशनल लेबर यूनियन’ 8 घंटे की मांग का समर्थन किया।1 आंदोलन होने लगे। परंतु न सरकारें चेतीं न कारखाना मालिकों ने ही कोई ध्यान दिया। आखिरकार अमेरिकी मजदूरों ने 1 मई 1886 से देशव्यापी हड़ताल की घोषणा कर दी। तीन और चार मई, को प्रदर्शन के दौरान पुलिस और मजदूर संगठनों की भिड़ंत हुई। 4 मई को शिकागो के हेमार्किट चौक पर हुई घटना तो नरसंहार जैसी थी। उसी की याद में मई दिवस मनाया जाता है। मई की पहली तारीख का संबंध 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग तथा उसके लिए श्रमिकों द्वारा दी गई कुर्बानियों से है।

भारत में पहला मई उत्सव, 1 मई, 1923 को मद्रास में मनाया गया था। उसी दिन देश में पहले मजदूर संगठन का जन्म हुआ था, नाम था—‘हिंदुस्तान लेबर एंड किसान पार्टी’।2 उसी दिन लाल झंडा पहली बार फहराया गया था।3 आगे चलकर यह झंडा मजदूर आंदोलनों की पहचान बन गया। इन सबका श्रेय जाता है—सिंगारवेलु चेट्टियार को। भारत में ‘कामरेड’ शब्द का पहली बार इस्तेमाल उन्होंने ही, दिसंबर 1922 में कांग्रेस के गया अधिवेशन में किया था।4 यह जादुई शब्द आगे चलकर साम्यवादी चेतना की पहचान बन गया। गया सम्मेलन में सिंगारवेलु ने ही पहली बार भारत के लिए ‘संपूर्ण स्वराज’ की मांग रखी थी।5

जीवन परिचय

सिंगारवेलु  का जन्म 18 फरवरी, 1860 को एक मछुआरा परिवार में हुआ था। समुद्र किनारे जिस बस्ती में वे रहते थे, उसे वे ‘कप्पम’ कहते थे। बस्ती के प्रायः सभी पुरुष मछली पकड़ने का काम करते। बांस और तख्तों से बनी डोंगी से समुद्र की लहरों को चीरते हुए वे आगे बढ़ जाते। कभी समुद्र की बन आती। उसकी उन्मत्त लहरें, किनारे बसीं झुग्गियों को अपने साथ बहा ले जातीं। मगर कुछ दिनों बाद वे फिर उसी जगह उभर आती थीं। प्रकृति और पुरुष की डांडा-मेंडी….झुग्गियों का बनना-मिटना भी मानो लहरों जैसा हो। सिंगारवेलु के पिता का नाम था—वेंकटचलम चेट्टियार। मां थीं—वाल्लमई। बताया जाता है कि उनके दादा मामूली डोंगी के सहारे बर्मा के तटवर्ती क्षेत्रों तक चले जाते। वहां से चावल और इमारती लकड़ी मद्रास तक ले आते थे।6 कह सकते हैं कि धैर्य और दुस्साहस सिंगारवेलु को विरासत में प्राप्त हुए थे।

जिस जाति में सिंगारवेलु का जन्म हुआ था, उसमें पढ़ने-पढ़ाने की कोई परंपरा न थी। परंतु वेंकटचलम थोड़ा आधुनिक मिजाज थे। उन्होंने सिंगारवेलु को पढ़ाने का फैसला किया। खुद को प्रखर बुद्धि सिद्ध करते हुए सिंगारवेलु ने 1881 में मेट्रिक की परीक्षा पास की। 1884 में क्रिश्चन कॉलेज से एफए पास करने के पष्चात उन्होंने बीए के लिए प्रेसीडेंसी कॉलेज मद्रास में दाखिला ले लिया। आगे की पढ़ाई के लिए मद्रास लॉ कॉलेज से जुड़े। 1902 में कानून की डिग्री मिली। उसके बाद वे मद्रास उच्च न्यायालय में प्रक्टिश करने लगे। प्रतिभाषाली थे ही। सो वकालत के जमने में देर न लगी।7

1889 में उनका विवाह आंगम्मल से हुआ। वह अंतररजातीय विवाह था। दोनों के एकमात्र संतान, बेटी का जन्म हुआ। जिसका नाम उन्होंने कमला रखा था। 1932 में उन्होंने अपने धेवते, कमला के पुत्र सत्यकुमार को उन्होंने कानूनी तरीके से गोद ले लिया।

आरंभ में सिंगारवेलु व्यापार में हाथ आजमाना चाहते थे। इसलिए 1902 में वे चावल के व्यापार की संभावना तलाशने के लिए ब्रिटेन चले गए। सिंगारवेलु के लिए वह यात्रा बहुत परिवर्तनकारी सिद्ध हुई। वहां उन्हें नई-नई पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिला। लंदन में उन्होंने बौद्ध अधिवेशन में हिस्सा लिया। उससे बौद्ध धर्म-दर्शन के प्रति ऐसा अनुराग बना कि मद्रास लौटने पर अपने घर पर ही ‘महाबोधि सोसाइटी’ की बैठकें आयोजित करने लगे।8 इससे प्रसन्न होकर उन्हें मद्रास महाबोधि सोसाइटी का अध्यक्ष भी मनोनीत कर दिया गया। उन्हीं दिनों समाज सेवा से लगाव हुआ। वे चाहते थे कि बस्ती के बच्चे पढ़-लिखकर आगे बढ़ें। इसके लिए वे बच्चों तथा उनके माता-पिता को प्रोत्साहित करने लगे। आवश्यकता पड़ने पर गरीब बच्चों को पुस्तक, स्टेशनरी, भोजन वगैरह देकर मदद भी करते। पढ़ने का शौक था। सो धर्म, दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि विषयों की नई से नई पुस्तकें अपने लिए जुटाते, पढ़ते। अपने पढ़े हुए पर दूसरों से बातचीत करते। सुब्रह्मयम भारती, वी. चक्करई चेट्टियार जैसे नेताओं के संपर्क में आने के बाद वे राजनीति की ओर मुड़ गए।

प्लेग के दौरान

1905 में रूसी क्रांति की खबरें मिलीं, जिससे पहली बार उनका कम्युनिस्म की ओर वे रुझान बढ़ा। इस बीच उनके कांग्रेस से अच्छे संबंध बन चुके थे। पार्टी में वे तिलक जैसे उग्रपंथी नेता माने जाते थे। वे मानते थे कि देश को आजाद कराने के लिए बल प्रयोग अपरिहार्य है। बिना उसके साम्राज्यवादी अंग्रेजों से मुक्ति असंभव होगी। 1914 में पहला विश्वयुद्ध छिड़ा तो सिंगारवेलु का ध्यान युद्ध की खबरों से ज्यादा जनसाधारण की बढ़ती समस्याओं की ओर गया। खासकर उन समस्याओं की ओर जो युद्ध की, पूंजीवादी लिप्साओं की देन थीं। उन्हीं दिनों एक बड़ी चुनौती सामने आ गई। मुंबई सहित पूरे महाराष्ट्र में तबाही मचाने वाली प्लेग 1898 में मद्रास तक आ पहुंची। वहां उसने ‘कुप्पम’ को भी अपनी चपेट में लिया। सब कुछ छोड़कर सिंगारवेलु जनसेवा में जुट गए। लोगों को भुखमरी से बचाने के लिए उन्होंने ‘सामुदायिक रसोई’ का संचालन किया। 1910 के बाद प्लेग से छुटकारा मिला तो मलेरिया ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। सिंगारवेलु जूझते रहे। इससे उन्हें गरीबी तथा उसके कारणों को समझने की दृष्टि मिली। वही उन्हें साम्यवाद की ओर ले गई।

राजनीति में दस्तक

13 अप्रैल 1919 भारतीय इतिहास का रक्त-रंजित दिन था। उस दिन जलियांवाला हत्याकांड 379 लोग मारे गए थे। लगभग 1500 हताहत हुए थे। क्षुब्ध जनता अंग्रेजों के विरुद्ध प्रदर्शन करने लगी। उत्तर से दक्षिण तक सब अंग्रेजों के खिलाफ थे। फिर सिंगारवेलु कैसे पीछे रह सकते थे! उन्होंने युवाओं को संगठित कर, कई शांतिपूर्ण प्रदर्शन किए। गांधी ने असहयोग आंदोलन का आह्वान किया। उससे प्रेरित होकर सिंगारवेलु ने भी एक जनसभा में अपने गाउन को अग्नि-समर्पित कर अदालत से नाता तोड़ने की घोषणा कर दी। मई 1921 में उन्होंने गांधी को लिखा—‘मैंने आज अपने वकालत के पेशे से मुक्ति पा ली है। देश-सेवा के लिए मैं भी आपका अनुसरण करूंगा।’9 इसी दौरान वे कांग्रेस के संपर्क में आए। जनमानस में अपनी पैठ, प्रतिभा और सरोकारों के चलते बहुत जल्दी प्रदेश कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में उनकी गिनती होने लगी।

हैलो कामरेड्स

दिसंबर 1922 में उन्हें कांग्रेस के गया अधिवेशन में शामिल होने का अवसर मिला। उस समय वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य भी थे। अधिवेशन में दिए गए भाषण में सिंगारवेलु का रंग एकदम निराला था। गए वे प्रदेश कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में थे, मगर भाषण में वे खुद को कुछ और ही बता रहे थे—‘अध्यक्ष, हाल में मौजूद कामरेड्स, साथी मजदूरो, प्रजाजनो, हिंदुस्तान के किसानो और हलवाहो….मैं आपके बीच आपके मजदूर साथी के रूप में बोलने आया हूं। मैं यहां पूरी दुनिया के लिए महा-कल्याणकारी, कम्युनिस्टों की दुनिया के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचा हूं। मैं यहां उस महान संदेश को दोहराऊंगा, जिसे साम्यवाद दुनिया-भर के मजदूरों को देता आया है।’10 उन दिनों अंग्रेज ‘कम्युनिज्म’ शब्द से ही खार खाते थे। ऐसे में किसी प्रतिनिधि के मुंह से ‘कामरेड्स’ संबोधन सुनना, खुद को साम्यवादी जगत का प्रतिनिधि बताना, कामगारों, मजदूरों और किसानों की बात करना, वहां मौजूद सदस्यों के लिए यह एकदम अप्रत्याशित था। सो सिंगारवेलु की पहली पंक्ति के साथ ही सभागार तालियों से गूंजने लगा।

भाषण में सिंगारवेलु ने कहा था—‘हम स्वराज के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह लड़ाई हम अहिंसा और असहयोग जैसे हथियारों की मदद से लड़ रहे हैं। मेरा उनमें विश्वास है। मगर इन हथियारों से वर्गहीन समाज की रचना संभव नहीं है।’ उन्होंने कहा था—‘धनाढ्य संभल जाएं। ताकतवर ध्यान दें….दुनिया में जितनी भी अच्छी चीजें हैं, सब मेहनतकश लोगों ने ही तुम्हें दी हैं। तुमने उन्हीं को हाशिये पर ढकेल दिया। वे हमेशा तुम्हारी इच्छाओं के खटते रहते हैं। फिर भी तुम उनकी उपेक्षा करते हो….याद रखो, भारतीय मजदूर अब जाग चुके हैं। वे अपने अधिकारों को धीरे-धीरे समझने लगे हैं।’11 कांग्रेस के इतिहास में वह पहला अवसर था, जब उसके सम्मेलन में किसान और मजदूर वर्ग पर चर्चा हो रही थी। लोग कांग्रेस के कायाकल्प का श्रेय गांधी को देते हैं। लेकिन उस समय की परिस्थितियां ऐसी थीं कि उनसे समझौता किए बगैर कांग्रेस की राष्ट्रव्यापी स्वीकार्यता संभव ही नहीं थी। डॉ. आंबेडकर, रामासामी पेरियार और सिंगारवेलु जैसे नेताओं का दबाव कांग्रेस और गांधी दोनों को बदलने को विवश कर रहा था।

कांग्रेस का गया सम्मेलन सिंगारवेलु की राजनीति की दिशा तय कर चुका था। उनके भाषण ने देश-विदेश के लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था। देश-भर से पहुंचे प्रतिनिधियों ने मांग की कि सिंगारवेलु को कांग्रेस की श्रमिक मामलों की प्रस्तावित उपसमिति में स्थान दिया जाए। मानवेंद्रनाथ राय ने मजदूरों तथा आम जनता की समस्या की ओर कांग्रेस तथा सरकार का ध्यान आकर्षित कराने के लिए सिंगारवेलु की प्रशंसा की थी। अपनी उग्र कार्यशैली और साम्यवादी रुझान के कारण वे पहले ही अंग्रेजों की नजर में आ चुके थे। 1921 में पुलिस ने उनके घर पर दबिश दी थी। वह कथित रूप से ‘चुनौती’ शीर्षक से प्रकाशित पंपलेट्स की तलाशी लेने गई थी। लेकिन पुलिस को वहां से खाली हाथ लौटना पड़ा था।12

सिंगारवेलु और गांधी

अपने आरंभिक राजनीतिक जीवन में सिंगारवेलु गांधी से प्रभावित थे। परंतु उनकी कार्यशैली गांधी से अलग थी। प्रिंस ऑफ़ वाल्स भारत दौरे पर आए। शेष भारत की तरह दक्षिण में भी उनकी यात्रा का बहिष्कार किया गया। मद्रास में सिंगारवेलु के नेतृत्व में हड़ताल का आह्वान किया गया था। हड़ताल पूरी तरह कामयाब थी। बाद में पता चला कि हड़ताल में शामिल होने के लिए कुछ दुकानदारों पर दबाव बनाया गया था। कुछ कार्यकर्ताओं की शिकायत पर गांधी ने 9 फरवरी, 1922 के ‘यंग इंडिया’ में ‘सत्याग्रह की मूल भावना का पालन न करने पर’ सिंगारवेलु की आलोचना की थी।13

कम्युनिज्म की ओर

गया सम्मेलन में ही उनकी भेंट श्रीपाद अमृत डांगे से हुई। मानवेंद्रनाथ राय से उनका संपर्क पहले से ही था। अबनीनाथ मुखर्जी, जो अपने साथियों में अबनि मुखर्जी के नाम से पहचाने जाते थे, सिंगारवेलु से मिलने दो बार मद्रास पहुंचे थे। इस तरह सिंगारवेलु कांग्रेस में रहकर भी अपनी स्वतंत्र राजनीति कर रहे थे। पेरियार की तरह वे भी कांग्रेसी नेताओं की कथनी और करनी के अंतर को समझते थे। जानते थे कि कांग्रेस कभी भी मजदूरों और किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए सरकार से सीधे टकराव का खतरा मोल नहीं लेगी। इसलिए मद्रास लौटते ही उन्होंने अपने विचारों को कार्यरूप देने के लिए काम शुरू कर दिया था। उसके फलस्वरूप ‘हिंदुस्तान लेबर किसान पार्टी’ का गठन हुआ। वह कम्युनिस्ट विचारधारा पर आधारित पहला संगठन था। ध्यातव्य है कि मानवेंद्रनाथ राय, अबानी मुखर्जी, इवेलिना राय आदि नेता मिलकर 17 अक्टूबर, 1920 को ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया’(ताशकंद पार्टी) के गठन की घोषणा कर चुके थे, परंतु 25 दिसंबर 1925 को विधिवत गठन से पहले उसका अस्तित्व केवल अनौपचारिक था।

सिंगारवेलु  के नेतृत्व में पहली बार, 1 मई 1923 को भारत में मई दिवस का आयोजन किया गया। उसी दिन ‘हिंदुस्तान लेबर किसान पार्टी’ तथा उसके गठन के उद्देश्यों के बारे में लोगों को बताया गया था। मई दिवस का आयोजन सिंगारवेलु ने मद्रास में दो स्थानों पर किया था। पहला उच्च न्यायालय के आगे समुद्र तट पर। दूसरा ट्रिप्लीकेंस तट पर। पहली बैठक की अध्यक्षता स्वयं सिंगारवेलु ने की थी। दूसरे कार्यक्रम की अध्यक्षता एस. कृष्णास्वामी सरमा ने। उस अवसर पर सिंगारवेलु ने कहा था कि मई दिवस का आयोजन स्वयं मजदूरों द्वारा किया गया है। उन्होंने उम्मीद जाहिर की थी कि देश में शीघ्र ही मजदूरों की सत्ता स्थापित होगी, जो लोगों के विकास को गति देगी। ‘मद्रास मेल’ नामक अखबार ने ‘लेबर किसान पार्टी’ द्वारा मई दिवस की आलोचना का जवाब देते हुए कहा था कि केवल वास्तविक मजदूर ही इस उत्सव को मना रहे थे, इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है। उस अवसर पर लाल-क्रांति का प्रतीक ‘लाल-झंडा’ भी फहराया गया था। सार्वजनिक कार्यक्रम में लाल झंडा फहराने की वह घटना, न केवल भारत, अपितु एशिया में भी पहली घटना थी। उस अवसर पर 2 मई 1923 के ‘दि हिंदू’ में छपा था—

‘लेबर किसान पार्टी ने मद्रास में मई दिवस उत्सव आरंभ किया है। कामरेड सिंगारवेलु ने उस बैठक की अध्यक्षता की थी। प्रदर्शन कामयाब था। मीटिंग में मई दिवस को सार्वजनिक अवकाश घोषित करने की मांग भी की गई। पार्टी अध्यक्ष ने पार्टी के अहिंसक सिद्धांतों के बारे में लोगों को बताया था। उसमें लोगों से आर्थिक मदद की अपील भी की गई। इस बात पर जोर दिया गया था कि भारतीय मजदूरों को दुनिया-भर के मजदूरों के साथ एकजुट हो जाना चाहिए।’14

दिसंबर 1923 में उन्होंने ‘दि लेबर किसान गजट’ शीर्षक से पाक्षिक की शुरुआत की। इसके साथ-साथ तमिल भाषा में ‘तोझीलालान’(कामगार) शीर्षक से साप्ताहिक भी निकाला था। ‘कामगार’ के एक अंक का मूल्य ‘आधा आना’ था। अंग्रेजों की सिंगारवेलु पर नजर थी। उनकी दृष्टि में ‘हिंदुस्तान लेबर किसान पार्टी’, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से कहीं अधिक खतरनाक थी। 1924 में ‘कानपुर बोल्शेविक षड्यंत्र’ मामले में सिंगारवेलु को उनके घर पर नजरबंद कर लिया गया। उन दिनों उनकी उम्र 64 वर्ष थी। बाद में उन्हें जमानत मिल गई।

1925 में कानपुर में पहले कम्युनिस्ट सम्मेलन का आयोजन किया गया था। उसकी अध्यक्षता सिंगारवेलु ने की। उस बैठक में ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया’ के गठन को स्वीकृति मिली थी। अपने अध्यक्षीय भाषण में सिंगारवेलु ने छूआछूत की समस्या की चर्चा भी की थी। उनका दृष्टिकोण साम्यवादी दृष्टिकोण से मेल खाता था,

‘हमें साफ तौर पर समझ लेना चाहिए कि साम्यवाद की नजर में छूआछूत पूरी तरह आर्थिक समस्या है। अछूतों को मंदिर प्रवेश, सार्वजनिक तालाबों और मार्गों पर चलने का अधिकार प्राप्त है अथवा नहीं, इन प्रश्नों का ‘स्वराज’ के संघर्ष से कोई संबंध नहीं है….कम्युनिस्टों की न तो कोई जाति होती है, न धर्म। व्यक्ति का हिंदू, मुसलमान या ईसाई होना उसका निजी मामला है….जैसे ही उन(अस्पृश्यों) की आर्थिक पराश्रितता खत्म होगी, छूआछूत की समस्या भी अपने आप समाप्त हो जाएगी।’15

उन दिनों पेरियार राजनीति में, गैर-ब्राह्मण जातियों को समुचित प्रतिनिधित्व न दिए जाने के कारण कांग्रेस से नाराज चल रहे थे। उन्होंने ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ की स्थापना की थी। सिंगारवेलु की ख्याति उन दिनों शिखर पर थी। उसी दौरान दोनों नेता एक-दूसरे के करीब आए। सिंगारवेलु ने ही पेरियार को कांग्रेस छोड़ने के लिए प्रोत्साहित किया था। पेरियार के मनस् में साम्यवाद का बीजारोपण करने वाले भी वही थे। सिंगारवेलु की सलाह पर ही पेरियार ने सोवियत संघ की यात्रा पर गए थे। लौटने के बाद पेरियार ने सोवियत संघ के अनुभवों के आधार पर ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ की कार्यनीति में बदलाव करने का निर्णय लिया। पेरियार के आग्रह पर सिंगारवेलु ने ‘इरोद कार्यक्रम’ का ड्राफ्ट तैयार किया। ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ का एक सम्मेलन 4 मार्च 1934 को मन्नारगुडी, तमिलनाडु में हुआ था। सिंगारवेलु ने उसकी अध्यक्षता की थी। अपने भाषण में सिंगारवेलु ने भारतीय समाज के आर्थिक वैषम्य पर चिंता व्यक्त की थी—

‘देश की 40 प्रतिशत जनता को भरपेट भोजन भी नहीं मिलता। मृत्यदर दूसरे देशों से कहीं ज्यादा है। यह 1000 में 30 है। 100 में से 30 बच्चे एक साल का होते-होते मर जाते हैं। भारत में औसत आयु मात्र 20 है, जबकि इंग्लेंड में 53 साल है….लोग घोर दारिद्रय में जीते हैं, बावजूद इसके मंदिरों की घंटियां टनटनाती रहती हैं। मस्जिदों में नमाज और चर्च में प्रार्थनाएं चलती रहती रहती हैं। लोग जिसे ईश्वर समझकर पूजते हैं, उसके बारे में वे कुछ नहीं जानते। ईश्वर महज मनुष्य की रचना है।’16

उस भाषण में सिंगारवेलु ने अपने पूर्वजों को भी नहीं छोड़ा था—

‘मेरे अपने पूर्वजों ने ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए 1 लाख रुपये अलग रख दिए थे। लेकिन जब उनकी बस्ती के मछुआरे बीमार पड़े, वे केवल देवता को पूजा-अर्चना, प्रार्थना और बलि तक सीमित रहे। मेरी जाति की तरह और भी जातियां हैं। वे भी धर्मादे के लिए रकम एक ओर रख देती हैं और मुष्किल समय में प्रार्थनाओं और बलि देकर मन को तसल्ली देती रहती हैं।’17

पेरियार के मन में सिंगारवेलु के प्रति गहरा सम्मान था। खासकर उनकी वैज्ञानिक सोच पर। पेरियार के आग्रह पर ही सिंगारवेलु ने ‘कुदी अरासु’ में लिखना शुरू किया था। मगर उन दोनों के साथ आने से न तो कांग्रेस खुश थी, न ही अंग्रेज सरकार। अंग्रेजों का मानना था कि यह सिंगारवेलु ने ही पेरियार को ‘बिगाड़ा’ है। ब्रिटिश सरकार नहीं चाहती थी कि देश में कम्युनिस्ट आंदोलन को बढ़ावा मिले। उसे देखते हुए सिंगारवेलु ने ‘मजदूर एवं किसान’ जैसे शब्दों को अपनाया। मगर अपनी उग्र कार्यषैली के कारण वे सरकार और विरोधियों की आंखों में हमेशा ही खटकते रहे।

मजदूर नेता के रूप में  

बकिंघम एंड कार्नेटिक मिल, मद्रास की सबसे बड़ी कपड़ा मिल थी। उसका महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि भारत की पहली लेबर यूनियन18, ‘मद्रास लेबर यूनियन’ का गठन अप्रैल 1918 में वहीं के मजदूरों ने मिलकर किया था। ब्रिटिश अधिकारी यूनियन के गठन का विरोध कर रहे थे। घटना की नींव 1920 में पड़ी थी। ब्रिटिश अधिकारी रिवाल्वर लिए मजदूरों को धमकाता फिर रहा था। एक मजदूर ने उसकी रिवाल्वर छीनकर पुलिस को सौंप दी। इसपर पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी। बाबूराव और मुरुगन नामक दो युवा मजदूर उस गोलीबारी में मारे गए। मद्रास में श्रम आंदोलन में मरने वाले ये दोनों पहले थे। घटना से नाराज 13000 मजदूर हड़ताल पर उतर आए। बाद में पुलिस और कामगारों के बीच कई भिड़ंत हुईं, जिनमें दर्जनों मजदूरों को प्राण गंवाने पड़े। सिंगारवेलु ने न केवल हड़ताल के नेतृत्व में हिस्सा लिया, बल्कि लगातार लेख लिखकर मजदूरों के उत्पीड़़न के विरुद्ध आवाज उठाते रहे।

उन्हीं दिनों उत्तरी मद्रास में मैसी कंपनी के कामगार भी हड़ताल पर चले गए। वी. चक्करई और ओदीकेसवेलु नायकर जैसे मजदूर नेताओं के साथ सिंगारवेलु एक बार फिर मजदूरों के समर्थन में उतर गए। अपने आग उगलते भाषणों से इन तीनों नेताओं ने सरकार को हिला दिया था। 1927-28 उत्तरी-पश्चिमी रेलवे, बंगाल-नागपुर रेलवे तथा ईस्ट इंडियन रेलवे के कर्मचारी अपनी मांगों को लेकर हड़ताल पर चले गए। रेलवे कर्मचारियों को समर्थन देने, उनका हौसला बढ़ाने के लिए सिंगारवेलु ने भोपाल, हावड़ा और बंगाल की यात्राएं कीं। हावड़ा और बंगाल में 30,000 मजदूर-कामगार हड़ताल पर थे। सिंगारवेलु ने अपने साथियों के साथ हड़ताल में हिस्सा लिया था। उत्तरी भारत की यात्रा से लौटे ही थे कि दूसरी हड़ताल की सूचना मिली। 1928 में दक्षिण भारतीय रेलवे के मजदूरों ने भी हड़ताल का ऐलान कर दिया। मजदूर उनकी योग्यता के नए सिरे से छंटनी का विरोध कर रहे थे। छंटनी के लिए प्रबंधकों ने कर्मचारियों की योग्यता के नए मानदंड तैयार किए थे, जो मजदूरों को स्वीकार्य नहीं थे। दूसरे रेलवे ने मजदूरों को अलग-अलग ठिकानों पर भेजने का निर्णय लिया था। मजदूर इनका विरोध कर रहे थे। मांगे न मानने पर मजदूर 19 जुलाई 1928 से हड़ताल पर चले गए। उनके समर्थन में बाकी मजदूरों और कामगारों ने भी हड़ताल की घोषणा कर दी। परिणामस्वरूप 21 जुलाई से रेलवे का चक्का जाम हो गया। वह हड़ताल आखिरकार नाकाम सिद्ध हुई। सिंगारवेलु को दस वर्षों की सजा हुई। लेकिन बाद में अपील पर, उनकी बीमारी और उम्र को देखते हुए सजा की अवधि 18 महीने कर दी गई।

1927 में ही जब हड़ताली मजदूर चाको और विंसेंट पुलिस की गोली से मारे गए। मद्रास तक जब वह समाचार पहुंचा तो सिंगारवेलु ने बिना कोई पल गंवाए उनकी स्मृति में शोक सभा का आयोजन किया। जिसमें पुलिस के दमन की निंदा की गई। मजदूर और कामगारों की समस्याओं के समाधान को लेकर वे इतने समर्पित थे कि जब भी, जहां से भी बुलावा मिलता, तुरंत पहुंच जाते थे।

सिंगारवेलु का निधन 11 फरवरी 1946 को हुआ। जब तक जिये तब तक उन्हें मजदूरों के हितों की चिंता सताती रही। जीवन के आखिरी दिनों में जब बढ़ी उम्र के कारण सक्रियता घट गई तो उन्होंने पेरियार की पत्रिकाओं, ‘कुदी अरासु’, ‘रिवोल्ट’ तथा अंग्रेजी दैनिक हिंदू में लेख आदि लिखकर संघर्ष की लौ को जलाए रखा। उनकी आंखों में समानता पर आधारित, वर्गहीन समाज का सपना बसता था। इस कसौटी पर कांग्रेस की ‘स्वराज’ की अवधारणा भी उन्हें अधूरी दिखाई पड़ती थी। उनका गांधी के नाम लिखा गया एक पत्र 24 मई 1922 को ‘नवशक्ति’ में प्रकाशित हुआ था। पत्र में उन्होंने लिखा था कि कि प्रत्येक परिवार को उतनी जमीन मिलनी चाहिए, जिससे वह अपनी जरूरत के लायक अन्न उपजा सके। अपना घर होना चाहिए, ताकि किसी को भी किराया न चुकाना पड़े। इसके अलावा मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य की व्यवस्था भी सरकार की ओर से करनी चाहिए। जिस स्वराज में यह गारंटी न हो, उसका कोई मूल्य नहीं है। असली स्वराज केवल जनता द्वारा, और केवल जनता के लिए आएगा। वे बेहद पढ़ाकू थे। उनका पुस्तकालय मद्रास के सबसे बड़े निजी पुस्तकालयों में से था।

ओमप्रकाश कश्यप

 संदर्भ

  1.  अलेक्जेंडर ट्रेक्टनबर्ग,दि हिस्ट्री ऑफ़ मे डे, इंटरनेशनल पंपलेट, 14,799 ब्रोडवे न्यू यार्क, पृष्ठ 3
  2.  के.मुरुगेशन एंड सी.एस. सुब्रमण्यम- सिंगारवेलु : फर्स्ट कम्युनिस्ट इन साउथ इंडिया, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृष्ठ-1
  3.  पी.मनोहरन, जेनेसिस एंड ग्रोथ ऑफ़ कम्युनिस्ट पार्टी इन इंडिया, पृष्ठ 191।
  4.  पी. मनोहरन, पृष्ठ-189
  5.  पी. मनोहरन, पृष्ठ-190
  6.  के.मुरुगेशन एंड सी.एस. सुब्रमण्यम, पृष्ठ-1
  7.  पी.वसंतकुमारन, गॉडफादर ऑफ़ इंडियन लेबर, एम. सिंगारवेलु, पूर्णिमा प्रकाशन, चैन्नई।
  8.  के.मुरुगेशन एंड सी.एस. सुब्रमण्यम, पृष्ठ-2
  9.  वसंतकुमारन, पूर्णिमा प्रकाशन, चैन्नई।
  10.  के.मुरुगेशन एंड सी.एस. सुब्रमण्यम, पृष्ठ 164-165
  11.  उपर्युक्त 165
  12.  पी. मनोहरन, पृष्ठ 183
  13.  दि कलैक्टिड वर्क्स ऑफ़महात्मा गांधी, खंड-26, पृष्ठ 132-134।
  14.  के.मुरुगेशन एंड सी.एस. सुब्रमण्यम, पृष्ठ-169
  15. उपर्युक्त पृष्ठ 203
  16.  उपर्युक्त पृष्ठ 221-22
  17.   उपर्युक्त पृष्ठ 222
  18.  पी. मनोहरन, पृष्ठ-11

मई दिवस : संघर्ष की याद और संकल्पों का दिन

विशेष रुप से प्रदर्शित

मई दिवस पर विशेष

यदि तुम सोचते हो कि हमें फांसी पर लटकाकर तुम मजदूर आंदोलन को, गरीबी, बदहाली और विपन्नता में कमरतोड़ परिश्रम करने वाले लाखों लोगों के आंदोलन कोकुचल डालोगे….अगर तुम्हारी यही राय है तो हमें खुशीखुशी फांसी के तख्ते पर चढ़ा दो। किंतु याद रहे, आज तुम एक चिंगारी को कुचल रहे हो, कल यहांवहां, तुम्हारे आगेपीछे, प्रत्येक दिशा से लपटें उठेंगीं। यह जंगल की आग है। तुम इसे कभी भी बुझा नहीं पाओगे। एक दिन आएगा, जब हमारी खामोशी उन आवाजों से कहीं ज्यादा ताकतवर होगी, जिनका तुम आज गला घोंट रहे हो ऑगस्ट स्पाइस।

मई दिवस’ के साथ कोई खुशनुमा प्रसंग नहीं जुड़ा है। न यह मजदूरों के लिए उत्सव मनाने का दिन है। फिर भी हर मेहनतकश के लिए इस दिन का महत्त्व है। यह उन्हें संगठन की ताकत का एहसास दिलाता है। उस हौसले की याद दिलाता है जिसके बल पर उनके लाखों मजदूर भाई अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतर आए थे। चार्ल्स. रथेनबर्ग के शब्दों में, ‘मई दिवस वह दिन है जो मजदूरों के दिलों में उम्मीद तथा पूंजीपतियों के मन में खौफ पैदा करता है।’ यह अकेला दिन है जिसे मजदूरों के नाम पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। मजदूरों के लिए यह याद रखने का दिन है। ठीक ऐसे ही जैसे कोई जीवंत समाज अपनी आजादी के महानायकों के किस्सों को सहेजकर रखता है।

मशीनीकरण के बाद का दौर पूंजी के केंद्रीकरण का था। उसमें आदमी को भी मशीन मान लिया गया था। फैक्ट्रियों में काम के घंटे निर्धारित नहीं थे। उनीसवीं शताब्दी के आरंभ तक ‘कार्यदिवस’ का अर्थ था, सूरज निकलने से सूरज छिपने तक काम करना।1 मौसम के अनुसार दिन घटताबढ़ता तो काम के घंटे भी घटबढ़ जाते। हर कामगार को प्रतिदिन 14 से 16 घंटे काम करना पड़ता था। कभीकभी तो एक कार्यदिवस 18 घंटे तक पहुंच जाता था।2 कार्यघंटों को लेकर महिलाओं और पुरुषों, बच्चों और बड़ों में कोई भेद नहीं थाइसके आलावा मजदूरी बहुत कम थी। 16 से 18 घंटों तक काम करने के बावजूद मजदूरों को इतनी मजदूरी नहीं मिलती थी, जिससे वे सामान्य जीवन भी जी सकें। ऊपर से बार-बार आने वाली मंदी के कारण मजदूरों को बेरोजगारी का सामना करना पड़ता था। आड़े वक्त में सरकार भी उद्यमियों और पूंजीपतियों का ही पक्ष लेती थी। 1834 में ‘वर्किंगमेन्स एडवोकेट’ नामक अखबार ने छापा था, ‘डबलरोटी के पैकेटों को लानेले जाने के काम में लगे मजदूरों की हालत मिस्र के बंधुआ मजदूरों से भी बुरी थी। उन्हें दिन के 24 घंटों में 18 से 20 घंटे काम करना पड़ता था।’ मजदूर उसे 10 घंटों तक सीमित करने की मांग करते आ रहे थे। 1791 में फिलाडेफिया के बढ़इयों ने 10 घंटे के कार्यदिवस के लिए हड़ताल की थी। उसके बाद 1827 में ‘मेकेनिक्स यूनियन ऑफ़ फिलाडेफिया’, जिसे विश्व का पहला मजदूर संगठन कहा जा सकता है, के नेतृत्व में निर्माण कार्य के मजदूरों ने, 10 घंटों के कार्यदिवस की मांग को लेकर हड़ताल की थी।3 उनके बैनरों पर लिखा होता था—‘छह से छह तक, दस घंटे काम के, दो घंटे आराम के।’ 1830-40 के बीच उनकी मांग में और भी तेजी आ गई। उसके फलस्वरूप 1860 तक लगभग सभी देशों ने कार्यदिवस के औसत घंटों को 12 से घटाकर, 11 कर दिया था

मजदूर कार्यदिवस को 10 घंटों तक सीमित करने की मांग पर अड़े थे। 1837 में अमेरिका में उसे लेकर चक्काजाम जैसी स्थिति बन गई। आखिरकार संयुक्त राष्ट्र के राष्ट्रपति वेन बुरान ने सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए प्रतिदिन 10 घंटे करने का आदेश जारी कर दिया। उसकी देखादेखी कारखाना मजूदरों ने यह कहते हुए कि उनसे भी सरकारी कर्मचारियों के बराबर काम लिया जाए, आंदोलन को और तेज कर दिया4 1853 में नएनए बने कैलीफोर्निया राज्य ने कार्यघंटों को सीमित करने से संबंधित पहला, मगर आधाअधूरा कानून बनाया था। मूल प्रस्ताव में दस घंटे के वैध कार्यदिवस के साथ, उससे अधिक काम लेने वाले नियोक्ताओं को दंडित किए जाने का प्रावधान था। उसकी काफी चर्चा भी हुई थी। प्रस्ताव कानून की शक्ल ले, उससे पहले ही उद्यमियों ने सरकार पर जोर डालकर, उसे कमजोर करने का षड्यंत्र रच दिया। जो कानून बना उसमें कहा गया था कि ‘राज्य की किसी भी अदालत में 10 घंटों के श्रम को, एक कार्यदिवस का श्रम माना जाएगा।’5 इस तरह दस घंटों के कार्यदिवस की घोषणा महज कानूनी अवधारणा तक सीमित थी। वह नियोक्ताओं को न तो कोई निर्देश देता था, न उसमें क़ानून के उल्लंघन पर किसी तरह के दंड काप्रावधान था। कानून की कमजोरी का लाभ उठाकर नियोक्ता मजदूरों के साथ खूब सौदेबाजी करते थे। मजदूर संगठन उस कानून में आवश्यक संशोधन की मांग कर रहे थे।

10 घंटे के कार्यदिवस की मांग अभी चल ही रही थी कि श्रमिकों ने 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग तेज कर दी। इस बार वह मांग सिर्फ अमेरिका तक सीमित नहीं थी। बल्कि जहां-जहां भी श्रमिक उत्पीड़न का शिकार थे, वहांवहां वे अपनी मांग के समर्थन में सरकार और उद्योगों पर दबाव बनाने में लगे थे। 1856 में आस्ट्रेलिया के निर्माण मजदूरों ने, 8 घंटे की मांग को लेकर नारा गढ़ा था—‘8 घंटे काम, 8 घंटे मनोरंजन और 8 घंटे आराम।’ इस मांग को तब बल मिला जब अगस्त 1866 में ‘नेशनल लेबर यूनियन’ ने 8 घंटे की मांग का समर्थन किया। वह अमेरिका का पहला मजदूर संगठन था। अपने स्थापना समारोह में ही 8 घंटे के कार्यदिवस की मांग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाते हुए संगठन की ओर कहा गया था कि पूंजीवादी दासता से श्रमिकों की मुक्ति हेतु वर्तमान समय की सबसे पहली और बड़ी जरूरत है, अमेरिका के सभी राज्यों में 8 घंटे के कार्यदिवस को वैध माना जाए। सितंबर 1866 में फर्स्ट इंटरनेशनल द्वारा अपने जिनेवा सम्मेलन में 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग, घोषणा के साथ ही अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गईफर्स्ट इंटरनेशनल का निष्कर्ष था—

काम के घंटों की वैध सीमा तय होना आवश्यक है। इसके अभाव में कामगार वर्गों की स्थिति में सुधार तथा शोषण से मुक्ति का कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सकता…..एक वैध कार्यदिवस के लिए यह सभा 8 घंटों की सीमा के प्रस्ताव को मंजूर करती है।’6

1867 में ‘पूंजी’ का प्रथम खंड प्रकाशित हो चुका था। उससे पहले माना जाता था कि उत्पादकता सांस्कृतिक उपादानों पर निर्भर करती है। मार्क्स ने शताब्दियों से चली आ रही इस धारणा का खंडन किया था। कहा था कि संस्कृति स्वयं उत्पादकता के साधनों द्वारा तय होती है। उस पुस्तक में मार्क्स ने श्रमिक शोषण की विशद विवेचना की थी। पूंजीवादी शोषण के लगभग सभी पक्ष उसमें शामिल थे। उसका विश्लेषण इतना गहन था कि श्रमिक शोषण से जुड़ी छोटी-सेछोटी बात भी उसकी पैनी नजर से बच नहीं पाई थीमार्क्स ने ‘नेशनल लेबर यूनियन’ के 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग का समर्थन किया था। कहा था कि श्रमिकों को रंग-भेद की भावना से ऊपर उठकर, अपने अधिकारों के पक्ष में आवाज उठानी चाहिए। उन दिनों अमेरिका में मजदूर को प्रति सप्ताह 63 घंटे काम करना पड़ता थामार्क्स चाहता था कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका श्रमिक अधिकारों के समर्थन में 8 घंटों के वैध कार्यदिवस की घोषणा करेपूंजीपतिवर्ग दूसरों को दास बनाकर रखने की मानसिकता से बाहर आए। उसने लिखा था—

जब तक दासता उसके गणतंत्र को विरुपित करती रहेगी, तब तक श्रमिक मुक्ति की दिशा में उठाया गया कोई भी कदम नाकाम सिद्ध होगा। जब तक काले श्रमिकों की पहचान उनके रंग के आधार पर होगी, तब तक श्वेत मजदूरों के लिए भी शोषणमुक्ति संभव नहीं है….24 घंटे के सामान्य दिन में मनुष्य अपनी कार्यशक्ति का भरपूर इस्तेमाल सीमित घंटों तक ही कर सकता है। यहां तक कि एक घोड़ा भी, प्रतिदिन अधिकतम 8 घंटे काम कर सकता है। दिन के बाकी घंटों में 8 घंटे कार्यशक्ति को आराम करना चाहिए, बाकी घंटे उन्हें अपने भौतिक आवश्यकताओं स्नान, भोजन आदि के लिए मिलने चाहिए।’7

8 घंटे के कार्यदिवस की मांग असामयिक नहीं थी। उसके पीछे भरा-पूरा वैचारिक दर्शन था। उसे जमीन दी थी, पीयरे जोसेफ प्रूधों, मार्क्स, मिखाइल बकुनिन, एंगेल्स जैसे विचारकों ने। वे अर्थव्यवस्था के समाजीकरण की मांग कर रहे थे। उसके पीछे समानता और स्वतंत्रता का दर्शन था। मान्यता थी कि यदि सब बराबर हैं, तो सभी को अपनी जरूरत के अनुसार भोग करने का भी अधिकार है। इसलिए मार्क्स का कहना था—‘प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार। प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुरूप।’ समाजवाद की दिशा में सबसे क्रांतिकारी पहल प्रूधों ने की थी। वह अराजकतावादी चिंतक था। मानता था कि व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा गुलामी जितनी ही घातक है। उसका कहना था—‘व्यक्तिगत संपत्ति चोरी है। संपत्तिधारक व्यक्ति चोर है।’ वह संपत्ति को सामाजिक दासता का कारक मानता था—

यदि मुझसे कोई यह पूछे कि गुलामी क्या है? तो मैं उसका एक ही शब्द में उत्तर दूंगा—‘गुलामी, हत्या है!’ मेरा मंतव्य पूरी तरह सरल और स्पष्ट है। उसके लिए किसी अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य की चेतना, उसके मस्तिष्क तथा व्यक्तित्व को छीन लेने की शक्ति—उसके जीवनमृत्यु का फैसला करने की शक्ति के समान हैं। यह मनुष्य को गुलाम बनाती है। यह उसकी हत्या है, क्यों? अब यदि कोई मुझसे पूछे—‘संपत्ति क्या है?’ क्या मुझे इसका वैसा ही उत्तर नहीं देना चाहिए! कहना चाहिए कि यह डकैती है!’ इसमें गलत समझे जाने की कतई गुंजाइश नहीं है। दूसरा निष्कर्ष निश्चित रूप से पहले का ही रूपांतरण है?8

प्रूधों की धारा का ही दूसरा विचारक था, मिखाइल बकुनिन। उसका राजनीतिक दर्शन नागरिक स्वतंत्रता, समाजवाद, संघवाद, नास्तिकता और भौतिकवाद से मिलकर बना था। बकुनिन का मानना था कि किसी समाज में व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह को दिए गए विशेषाधिकार उसके बुद्धि-विवेक एवं संवेदनशीलता को मार देते हैं। विशेषाधिकार चाहे राजनीतिक हों अथवा आर्थिक, वे मनुष्य के समाजीकरण की धारा को अवरुद्ध करते हैं। उसे स्वार्थी और आत्मपरक बनाते हैं। मनुष्य की अधिकतम स्वतंत्रता का समर्थक बकुनिन लोकतंत्र का भी आलोचक था। उसका कहना था कि जब जनता पर लाठियां बरसाई जा रही हों तो लोगों को यह जानकर कोई प्रसन्नता नहीं होगी कि वे लोकतंत्र की लाठियां हैं। बुद्धिजीवियों और दार्शनिकों से उसकी अपील थी—

हमें अपने सिद्धांतों का प्रचार शब्दों के माध्यम से नहीं, कार्यों के माध्यम से करना चाहिए। यही प्रचार का सबसे लोकप्रिय, शक्तिशाली और अनूठा तरीका है….दुनिया में क्रांतिकारी गतिविधियों को बढ़ावा देने में सत्तावादी क्रांतिकारियों का बहुत कम योगदान रहा है। इसलिए कि वे जनमानस को आड़ोलित कर, क्रांति की ओर उन्मुख करने के बजाय, मात्र अपने दम पर, अपनी योग्यता, सत्ता और विचारों के माध्यम से क्रांति लाना चाहते थे….उन्हें क्रांति के समर्थन में फरमान जारी करके नहीं, अपितु जनता को अपने लक्ष्यप्राप्ति की दिशा में प्रोत्साहित करके, क्रांति को बढ़ावा देना चाहिए।’9

मई दिवस के आंदोलन का चरित्र मूलतः ‘अराजकतावादी’ था। बता दें कि अराजकतावाद का आशय, जैसा प्रचार किया जाता है, राज्य तथा उसकी शक्तियों का लोप हो जाना नहीं है। उसके मूल में यह विचार है कि राज्य जनता का चयन है। उसका गठन जनता द्वारा अपने सुख एवं सुरक्षा के लिए किया जाता है। वह जनता के तभी हितकारी हो सकता है, जब उसपर जनता का अधिकाधिक नियंत्रण हो। अराजकतावाद में राज्य की अधिकतम शक्तियां जनता की ओर अंतरित हो जाती हैं। परिणामस्वरूप राज्य की शक्तियां प्रतीकात्मक होकर रह जाती हैं। सरकार की आवश्यकता नहीं रह जाती, यदि हो भी तो वह न्यूनतम अधिकारों के साथ न्यूनतम शासन करती है।

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प्रूधों और बकुनिन का उल्लेख यहां इसलिए प्रासंगिक समझा गया क्योंकि मई दिवस आंदोलन की बागडोर मुख्यतः अराजकतावादियों के हाथों में थी, जो किसी भी प्रकार के सत्तावाद का विरोध करते थे। ‘अंतरराष्ट्रीय वर्किंग मेन्स ऐसोशिएसन’ जिसे ‘प्रथम इंटरनेशनल’ के नाम से भी जाना जाता है, समाजवादी संगठन था। उसके पीछे सोच था कि मजदूर चाहे किसी देश का हो, उसकी मूलभूत समस्याएं और चुनौतियां एक जैसी होती हैं, इसलिए उसके विरोध में लड़ाई भी संगठित होकर लड़ी जानी चाहिए। वे समाजवाद के समर्थक थे, किंतु उसके लिए रास्ता क्या हो, इसे लेकर उनमें मतभेद थे। उसमें से कुछ राबर्ट ओवन के अनुयायी थे, कुछ लुइस ब्लेंक के। कुछ का भरोसा संघवाद में था, तो कुछ अपना तारणहार गणतंत्र को मानते थे। यह विभाजन ऊपर की श्रेणी के बुद्धिजीवियों में भी था। हीगेल से प्रभावित कार्ल मार्क्स द्वंद्ववादी विचारधारा का समर्थक था। उसका मानना था कि सत्ता प्रतिष्ठानों और उत्पादन केंद्रों पर श्रमिक वर्गों का नियंत्रण होना चाहिए। बकुनिन किसी भी प्रकार के सत्तावाद का विरोधी था। उसे वह मनुष्य की स्वतंत्रता में बाधक मानता था। दोनों गुटों के मतभेद इतने बढ़े कि इंटरनेशनल की छठी कांग्रेस के बाद, दोनों के बीच विभाजन हो गया। अराजकतावादी बकुनिन के नेतृत्व में अलग हुए टुकड़े को ‘एंटी-आथरटेरियन इंटरनेशनल’ का नाम दिया गया था। ‘एंटी-आथरटेरियन इंटरनेशनल’ के नेता मानते थे कि ‘हड़ताल का संघर्ष का बेशकीमती हथियार’ है। इसलिए श्रमिकों को ‘महान एवं अंतिम चुनौती’ के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए। अराजकतावादी नेताओं के मनस् में नई वर्गहीन, समाजवादी आदर्शों से युक्त और सभी प्रकार यहां तक राज्य के वर्चस्व से भी मुक्त नए समाज का सपना कौंधता रहता था। 8 घंटे के कार्यदिवस से जुड़ी हड़ताल में इसी गुट के नेता थे, जो ‘बेहतर समाजवादी दुनिया’ के सपने के साथ जूझ रहे थे

1872 में ‘प्रथम इंटरनेशनल’ का कार्यालय, लंदन से न्यू यार्क शिफ्ट कर दिया गया था। इससे उसकी गतिविधियों में व्यवधान आया था। प्रभाव भी घटने लगा था। लेकिन मजदूर 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग पर अडिग थे। उसके लिए धरना, प्रदर्शन, हड़ताल चलते ही रहते थे। 1877 में मार्टिंग्स वर्ग, पश्चिमी वर्जिनिया में रेलवे कर्मचारियों ने हड़ताल का ऐलान कर दिया। मामला इतना बढ़ा कि उसपर काबू करने के लिए सेना बुलानी पड़ी। बलप्रयोग के कारण हड़ताल तो दब गई, परंतु उससे जो चिंगारियां फूटीं उसने बहुत जल्दी वाल्टीमोर, ओहियो, पेनसिल्वेनिया जैसे शहरों की रेलवे कंपनियों को अपनी गिरफ्त में ले लिया। धीरे-धीरे दूसरे उद्यमों से जुड़े मजदूर भी हड़ताल पर उतर आए। पहली बार मजदूरों ने सरकार और पूंजीपतियों को अपनी विराट शक्ति का एहसास कराया था। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ा था। वह ऐसा जनउभार था, जिसका असर राष्ट्रव्यापी था

1884 का वर्ष अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलनों के इतिहास में बड़ा परिवर्तनकारी सिद्ध हुआ। उसी वर्ष फेडरेशन ऑफ़ आर्गनाइज्ड ट्रेड एंड लेबर यूनियंस, जिसे बाद में ‘अमेरिकन फेडरेशन ऑफ़ लेबर’ के कूटनाम से भी जाना गया—का शिकागो में चौथा राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ। 7 अक्टूबर, 1884 को आयोजित उस सम्मेलन में निम्नलिखित प्रस्ताव को स्वीकृति मिली थी—

‘‘फेडरेशन ऑफ़ आर्गनाइज्ड ट्रेड एंड लेबर यूनियंस ऑफ़ दि यूनाइटिड स्टेट्स एंड कनाडा’ तय करती है कि पहली मई तथा उसके बाद से 8 कार्यघंटों का एक कार्यदिवस, वैध कार्यदिवस के रूप में जाना जाएगा। हम सभी श्रमिक संगठनों से अपील करते हैं कि वे अपने-अपने नियमों को इस प्रकार निर्धारित करें कि वे इस प्रस्ताव के अनुकूल हों10

अमेरिकन फेडरेशन ऑफ़ लेबर’ स्वैच्छिक और संघीय आधार पर बना था। फेडरेशन के राष्ट्रीय सम्मेलन के निर्णय सिर्फ उससे जुड़े श्रमिक संगठनों पर लागू होते थे; वह भी तब जब श्रमिक संगठन उन निर्णयों का विधिवत समर्थन करें। 8 घंटे के प्रस्तावित कार्यदिवस की घोषणा में हड़ताल का संकल्प भी छिपा था। चूंकि हड़ताल के दौरान श्रमिकों के पास अपनी आजीविका का कोई साधन नहीं होता, इसलिए हड़ताल लंबी खिंचने पर मजदूरों को संगठन की आर्थिक मदद की जरूरत पड़ सकती थी। परोक्ष रूप में फेडरेशन का संकेत बड़ी हड़ताल की ओर था। उसके लिए सदस्य श्रमिक संगठनों का समर्थन और सहभागिता आवश्यक थी। उस समय फेडरेशन के सदस्यों की संख्या लगभग 50000 थी। राष्ट्रीय स्तर पर यह बहुत ज्यादा भी नहीं थी। सरकारों पर दबाव बनाने की स्थिति में तो वह संगठन बिलकुल भी नहीं था

उस दिनों अमेरिका का श्रमिक आंदोलन तीन प्रमुख धाराओं में बंटा हुआ था। उसके सबसे बड़े मजदूर संगठन का नाम था—‘आर्डर ऑफ़ दि नाइट्स ऑफ़ लेबर’ यानी योद्धाओं का संगठन।’ 1886 में सदस्य संख्या की दृष्टि से वह सबसे बड़ा मजदूर संगठन था। उसके लगभग 7 लाख से अधिक सदस्य थे। उसमें कई महिलाएं भी शामिल थीं। टेरेंस वी. पोव्देर्ली उसका नेता था। यह संगठन 1878 में ही 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग करता हुआ आ रहा था। उसकी ख्याति एक जुझारू संगठन की थी। 1886 में उसकी लोकप्रियता शिखर पर थी। इस कारण उसके सदस्यों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। उसके प्रमुख नेता हड़ताल के बजाए सरकार के साथ सहयोग और बातचीत करते हुए, उसका हल निकालना चाहते थे। हालांकि उसका एक हिस्सा हड़ताल के लिए तैयार था। नाइट ऑफ़ लेबरने 1886 की 8 घंटों के कार्यदिवस हेतु ऐतिहासिक हड़ताल में हिस्सा न लेने का निर्णय लिया था।. नतीजा यह हुआ कि उसका प्रभाव कम पड़ने लगा।। उसके बाद जितनी तेजी से उसकी सदस्य संख्या बढ़ी थी, उतनी ही तेजी से उसकी सदस्य संख्या और प्रतिष्ठा कम होने लगी थी। दूसरी धारा अराजकतावादियों की थी। उन्होंने 1883 में ‘इंटरनेशनल वर्किंग पिपुल्स एसोशिएसन’ का गठन किया था। वे लोग न केवल कानून अपितु राज्य की सत्ता को ही श्रमिक हितों में बाधक मानते थे। इसलिए वे सहयोग या बातचीत के बजाए, मांग को लेकर जोरदार संघर्ष छेड़ने के पक्ष में थे। उसके लिए मारक हथियारों के प्रयोग से भी उन्हें आपत्ति नहीं थी।

तीसरा संगठन ‘अमेरिकन फेडरेशन ऑफ़ लेबर’ था। इस संगठन के कई सदस्य मार्क्सवादी विचारधारा के थे। यह संगठन शुरू से ही आठ घंटों के कार्यदिवस की मांग करता आया था। आरंभ में इसका तरीका भी संवाद और सहयोग पर आधारित था। उसमें एक गुट ऐसा भी था जिसे बातचीत के तरीके पर शुरू से ही विश्वास न था। यह गुट आगे चलकर न केवल फेडरेशन के बाकी सदस्यों को हड़ताल के लिए तैयार करने में सफल रहा, अपितु अपने अनुषंगी संगठनों के कुछ गुटों को हड़ताल के लिए अपने साथ लाने में सफल रहा था

यह दिखाने के लिए कि 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग केवल घोषणा नहीं है, श्रमिक संगठन उसके बारे में पूरी तरह से गंभीर हैं, ‘फेडरेशन ऑफ़ लेबर’ ने अपरोक्ष तैयारियां आरंभ कर दी थीं। आने वाले वर्ष में श्रमिक नेताओं की जगह-जगह सभाएं आयोजित की गईं। हर जगह 8 घंटों के कार्यदिवस के संकल्प को दोहराया गया। उसे सबसे सुधारवादी कदम बताया जा रहा था। कहा जा रहा था कि उससे ‘पूंजीवाद’ की जड़ पर प्रहार होगा। हालांकि कुछ अराजकतावादी अब भी यह मानकर चल रहे थे कि 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग से श्रमिकों की हालत में सुधार होने की संभावना बहुत कम है। श्रमिक नेताओं में ऑगस्ट स्पाइस जैसे उग्र अराजकतावादी भी थे, जो 8 कार्यघंटों की मांग से सहमत थे, मगर श्रमिकों के कल्याण के लिए उन्हें अपर्याप्त मानते थे। स्पाइस का विचार था कि—‘हमारी समस्याओं का वास्तविक समाधान बुराई की जड़ पर सीधा प्रहार किए बगैर संभव नहीं है।’11 एक और अराजकतावादी सेमुअल फील्डेन ने हेमार्किट नरसंहार से एक वर्ष पहले अराजकतावादी अखबार ‘दि अलार्म’ में लिखा था—‘‘कोई आदमी चाहे दिन में आठ घंटे काम करे या दस घंटे, वह गुलाम है, गुलाम रहेगा।’12 फील्डेन ने कहा था कि मजदूरों की समस्या का एकमात्र समाधान है, ‘निजी संपत्ति का खात्मा और प्रतिस्पर्धा का अंत।’

8 कार्यघंटों की मांग को श्रमिकों का चौतरफा समर्थन मिल रहा था। मजूदर संगठन भी अपनी-अपनी तरह से सक्रिय थे। ‘कारपेंटरर्स एंड सिगार मेकर्स’, ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ की सदस्य संख्या में दिन दूनी, रात चौगुनी वृद्धि हो रही थी। इसका अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है, कि फेडरेशन की घोषणा के बाद, श्रमिक संगठन ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’(मजदूरों के शूरवीर) की सदस्य संख्या 1884 में 70000 से 1885 तक 200000 और फिर 1886 तक 700000 हो चुकी थी13 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग नाइट आफ लेबर के कार्यक्रम का हिस्सा थी। आरंभ में वह उस मुद्दे पर हड़ताल के लिए बाकी सदस्यों का साथ देने को तत्पर था. मगर बाद में, कदाचित मजदूर संगठनों पर अराजकतावादियों के प्रभाव के चलते, नाइट ऑफ़ लेबरके नेता हड़ताल से कटने लगे थे. स्वयं पोव्देर्ली, फेडरेशन से जुड़ी यूनियनों से हड़ताल में भाग लेने को कहने लगा था।

दूसरे कई संगठनों में भी बढ़ती सदस्य संख्या को देखकर उत्साह था। उसका असर किसी एक शहर तक सीमित नहीं था, बल्कि अमेरिका के विभिन्न शहरों के श्रमिक इस मांग को लेकर जोश से भरे हुए थे। मजदूरों को अंदाजा था कि 8 कार्यघंटों की मांग के लिए होने वाली हड़ताल लंबी खिंच सकती है। इसलिए कुछ सरकार पर दबाव बनाने के लिए निर्धारित तिथि से पहले अल्पावधिक हड़तालों का सिलसिला शुरू हो चुका था। उन हड़तालों में ‘कुशल और अकुशल, काले और गोरे, स्त्री और पुरुष, नेटिव और प्रवासी सभी शामिल होते थे

3

मजूदर संघर्ष का केंद्र शिकागो बना था। क्या इसके पीछे कोई खास कारण था? बिलकुल। अमेरिकी गृहयुद्ध(1861-1865) के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था को जोरदार झटका लगा था। वह भयानक मंदी के दौर से गुजर रही थी। 1873 से 1879 के बीच 18000 कंपनियां दिवालिया घोषित हो चुकी थीं। 8 राज्य और सैकड़ों बैंक तबाह हो चुके थे14 मगर जैसे ही मंदी का दौर समाप्त हुआ, अमेरिका खासकर उसके शिकागो शहर में जो उन दिनों बड़ा औद्योगिक केंद्र था—बाहर से आने वाले मजदूरों की संख्या अचानक बढ़ चुकी गई। इससे शहर की समस्याएं भी बढ़ी थीं। उन दिनों अमेरिका में प्रति सप्ताह औसत 63 घंटे काम का प्रावधान था15 मंदी से उबरने की छटपटाहट में जहां उद्योगपति अधिक से अधिक मुनाफा कमाना चाहते थे। वहीं श्रमिक संगठन अपने लिए बेहतर मजदूरी की मांग कर रहे थे। कारण यह था कि मंदी के बाद जिस अनुपात में मंहगाई में वृद्धि हो रही थी, उस अनुपात में वेतनवृद्धि नहीं हो पा रही थीतनाव तब और बढ़ गया था जब बाल्टिमोर एंड ऑहियो रेलरोड ने मंदी के बहाने मजदूरों की पगार में 10 की कटौती की घोषणा की नतीजा यह हुआ की जुलाई 25, 1877 से मजदूरों ने हड़ताल कर दी देखते ही देखते उसने पूरे अमेरिका को अपनी चपेट में ले लिया स्थानीय पुलिस और सुरक्षा बल हड़ताल पर काबू पाने में नाकाम रहे तो सेना बुलानी पड़ी दो सप्ताह चलने वाली उस हड़ताल ने सैकड़ों की जान ली थी करोड़ों डॉलर की संपत्ति को नुकसान पहुंचा था जार्ज शिलिंग नाम के एक मजदूर नेता ने उसे ‘सामाजिक और औद्योगिक ग़दर’ की संज्ञा की थी

महत्त्वपूर्ण बात यह कि ‘गृह युद्ध की समाप्ति के एक दशक के भीतर ही उद्योगपति शिकागो पुलिस को गैरभरोसेमंद बताने लगे थे। उनका मानना था कि सरकारी सुरक्षाबल मजदूरों के प्रति उदारता बरतते हैं। ऐसा न हो, इसके लिए सुरक्षा बलों की जगह अपने खर्च पर पेशेवर संगठन बनाने की कोशिश जारी थी। 1870 और 1880 के दशक में उन्होंने प्राइवेट सशस्त्र बलों की भर्ती शुरू कर दी थी। निजी तथा सरकारी सशस्त्र बलों की सुरक्षा के लिए मजबूत हथियार-घर और किले बनाए जा रहे थे16 इसके साथसाथ मजदूर संगठनों पर लगाम लगाने के प्रयत्न भी जारी थे। वे मजदूरों को डराने, धमकाने, उनके संगठनों को काली सूची में डालने जैसे काम कर रहे थे। श्रमिक संगठनों में फूट डालने के लिए जासूसों, ठगों, निजी सुरक्षा बलों, और भेदियों की भरती की जा रही थी। सीधे-साधे गरीब मजदूरों को अनार्किस्ट और कम्युनिस्ट जैसे नाम देकर नौकरी से हटाया जा रहा था। मंदी के नाम पर मजदूरों के वेतन की कटौती की जा रही थी।

इसके बावजूद मुख्य धारा के अखबार पूंजीपतियों का समर्थन कर रहे थे। शिकागो ट्रिबून, दि टाइम्स, जैसे बड़े अखबारों का किसी न किसी रूप में राजनीतिकरण हो चुका था। मजदूरों की ओर ‘सोशलिष्ट’ और ‘अनार्किस्ट’ जैसे कुछ जनवादी तेवर के अखबार थे। लेकिन तुलनात्मक रूप से उनकी पहुंच बहुत छोटे समूह तक थी। उदाहरण के लिए 1890 के दशक में शिकागो डेली न्यूज की पाठकसंख्या जहां 2,00,000 थी, वहीं सोशलिष्ट और अनार्किस्ट जैसे प्रतिबद्ध विचारधारा के अखबारों की संयुक्त पाठक संख्या महज 30,000 थी17 जैसेजैसे मई का महीना करीब आ रहा था, मजदूरों का जोश भी बढ़ता जा रहा था। 1886 के आरंभ में, जहां जाओ वहां, 8 घंटे के कार्यदिवस, मजदूर एकता और पूंजीपतियों के शोषण पर चर्चा होती सुनाई पड़ती थी। सड़कों पर, सेलूनों और बाजारों में जोशीले गीत सुनाई पड़ते थे —

लाखों मेहनतकश, जागे हुए है

आओ उन्हें मार्च करते हुए देखें

उधर देखो, तानाशाह कांप रहे हैं,

अरे! उनकी ताकत खत्म होने लगी है

ओ श्रमयोद्धाओं किलों को उड़ा दो

अपने उद्देश्य की खातिर लड़ो

लड़ो, ताकि तुम्हें और तुम्हारे

सभी पड़ोसियों को बराबर का हक मिल सके

उठो, इन निरंकुश कानूनों को दफन कर दो

ऐसे गीतों ने श्रमिकों की आंखों में सपने रोपने का काम किया था। सपने बराबरी और एकता के। समानता और स्वतंत्रता के। फेडरेशन ऑफ़ लेबर की 8 कार्यघंटों को कानूनी घोषित करने की मांग के साथ ही श्रमिक संगठन उसके लिए तैयारियों में जुटने लगे थे। कामगारों का जुझारूपन, लक्ष्यप्राप्ति के लिए बलप्रयोग से न हिचकने का संकल्प श्रम आंदोलनों को विस्तार दे रहा था। अराजकतावादी नेताओं में से अल्बर्ट पार्सन्स, जोहान्न मोस्ट, ऑगस्ट स्पाइस, लुईस लिंग्ग जैसे नाम घरघर के जानेपहचाने नाम बन चुके थे। 1885 में ही हड़तालों का सिलसिला आरंभ हो चुका था। अपनी एकजुटता दर्शाने के लिए मजदूर बेंड-बाजे के साथ परेड के निकलते थे। 1881-1884 के बीच अमेरिका में हड़ताल और तालाबंदी की घटनाओं का वार्षिक औसत लगभग 500 था। उनमें करीब 1,50,000 श्रमिकों ने हिस्सा लिया था। मगर 1885 में हड़ताल और तालाबंदी की घटनाओं की संख्या 700 तक पहुंच चुकी थी। उनमें 2,50,000 मजदूरों की भागीदारी थी। उससे अगले साल यानी 1886 में हड़तालों तथा तालाबंदी की संख्या पिछले साल, यानी 1885 के मुकाबले दुगुनी से भी ज्यादा, 1572 थी। उनमें 6,00,000 श्रमिकों की हिस्सेदारी थी। 1885 में जहां 2467 औद्योगिक संस्थान हड़ताल और तालाबंदी से प्रभावित थे, वहीं उससे अगले वर्ष में 11562 कारखाने प्रभावित हुए थे। ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ के नेताओं ने हालांकि हड़ताल में भाग न लेने का खुला ऐलान कर दिया था बावजूद इसके उसके लगभग 7,00,000 सदस्यों में से 5,00,000 कामगार हड़ताल में सीधे तौर पर शामिल थे18

आसन्न संकट को सामने देख सावधान हो जाना मनुष्य का प्राकृतिक लक्षण है। संकट जितना अधिक बड़ा हो, वह उतनी ही अधिक शक्ति से उसका सामना करता है। 1870 और 1880 के बीच श्रमिक संगठनों की भी यही हालत थी। इसलिए एक और जहां पूंजीपति और राज्य मिलकर मजदूर एकता और उनके संगठनों को कमजोर करने में लगे थे, उनसे निपटने की तैयारियां की जा रहीं थीं, वहीं श्रमिक भी 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग को लेकर एकजुट हो रहे थे। इस बीच श्रमिक संगठनों में ही कुछ ऐसे नेता भी थे, जो मजदूर एकता में खलल डालकर, हड़ताल की संभावना का टालने या उसे कमजोर करने में लगे थेउनमें ऐसे लोग भी थे जिन्हें पूंजीपतियों ने इस काम के लिए नियुक्त किया था। लेकिन मजदूरों में जोश था। 1 मई से ठीक पहले एक गुमनाम प्रकाशक की ओर से छपा पर्चा मजूदरों में बांटा गया, जिसमें अपील थी—

    • मजदूर हथियारों के लिए!

    • महल के लिए युद्ध, झोपड़ी के लिए शांति, विलासितापूर्ण सुस्ती के लिए मौत

    • मजदूरी प्रथा दुनिया की बदहाली की एकमात्र वजह है। वह धनाढ्यों द्वारा समर्थित है। इसे नष्ट करने के लिए उन्हें या तो काम करना होगा, अथवा मरना होगा

    • एक पाउंड डायनामाइट, एक बुशेल मतदातापत्रों से बेहतर है!(बुशेल: 32 सेर या 25.4 किलोग्राम की माप)

    • पूंजीपति लकड़बघ्घों, पुलिस और लड़ाकुओं का समुचित सामना करने के लिए, अपने हाथों में हथियार लेकर, आठ घंटों की मांग उठाओ19

साफ है कि दोनों ओर से कमानें तन चुकी थीं। हड़ताल का केंद्र शिकागो था। लेकिन आंदोलन केवल वहीं तक सीमित नहीं था। न्यू यार्क, बाल्टीमोर, सिनसिनाटी, सेंट लुईस, वाशिंग्टन, डेट्रोइट, पिटसबर्ग, मिलवोकी, कैलीफोर्निया सहित दूसरे और भी कई शहरों में मजदूर भड़के हुए थे। अफवाहों का बाजार गर्म था। इतिहासकार और समाज-वैज्ञानिक एक और गृह युद्ध की संभावना जता रहे थे। पूंजीपतियों के प्रति घृणा चारों ओर पसरी हुई थी। मजदूर मान चुके थे कि कार्यघंटों को लेकर सरकार और कारखाना मालिकों ने उन्हें और रियायत मिलने वाली नहीं है। मैकार्मिक कंपनी ने अपने सैकड़ों कर्मचारियों को लॉकआउट के बहाने बाहर निकाल दिया था। बाहर किए गए कर्मचारी किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न न करें, इसके लिए 300 सुरक्षा कर्मियों को नियुक्त किया गया था। कंपनी के इस निर्णय को लेकर कर्मचारियों में खासी कड़वाहट थी। मैकार्मिक के लॉकआउट में ‘इंटरनेशनल कारपेंटरर्स यूनियन’ की बड़ी भूमिका था। उसके नेताओं में से एक लुइस लिंग्ग चरमपंथी था। वह निर्भीक और मुखर वक्ता था तथा जो डायनामाइट को ‘सच्चा औजार’ मानता था।

4

आखिर वह दिन भी आ पहुंचा जिसके लिए दोनों ही वर्गों ने भरपूर तैयारी की थी। सबसे ज्यादा क्रांतिधर्मा श्रमिक संगठन शिकागो में ही जमा हुए थे। विभिन्न संगठनों के बीच तालमेल बनाए रखने के लिए ‘8-घंटा समिति’ का गठन किया गया था। दूसरी ओर उग्र वामपंथी मजदूर संगठनों ने हड़ताल का मोर्चा संभालने के लिए ‘सेंट्रल लेबर यूनियन’ का गठन किया था। समन्वय की व्यवस्था ‘8-घंटा समिति’ और ‘सेंट्रल लेबर यूनियन’ के बीच भी थी। उन्होंने हड़ताल के संचालन के लिए एक संयुक्त मोर्चा बनाया हुआ था। ‘सेंट्रल लेबर यूनियन’ ने अभ्यास के लिए 1 मई से पहले रविवार के दिन लामबंदी प्रदर्शन किया था। उसमें कई श्रमिक संगठनों के लगभग 25000 मजदूरों ने हिस्सा लिया था। उसके साथ नाइट्स ऑफ़ लेबर, सोशलिष्ट लेबर पार्टी भी थीं। लेकिन नाइट्स ऑफ़ लेबर ने, शिकागो में एकदम अंतिम क्षण में खुद को प्रस्तावित हड़ताल से अलग कर लिया20 इससे नाराज उसका एक गुट, हड़ताल के सक्रिय समर्थन में उतर आया था। 1 मई का ‘दि आर्बीटर जाइटुंग’ हड़ताल के आवाह्न के साथ पाठकों तक पहुंचा था—

बहादुरो आगे बढ़ो! संघर्ष शुरू हो चुका है….साथियो! इन शब्दों पर ध्यान रखना—कोई समझौता नहीं। कापुरुष पीछे चले जाएं, बहादुर आगे आ जाएं। अब हम पीछे नहीं हट सकते। यह मई की पहली तारीख है….अपनी बंदूकों को साफ करो, कारतूसों को संभालकर रखो। पूंजीपतियों द्वारा किराये पर बुलाए गए हत्यारे, पुलिस और सैन्यबल, हत्या के लिए तैयार हैं। इन दिनों कोई भी मजदूर खाली जेब घर से बाहर कदम नहीं रखेगा।’21

उद्योगपतियों और व्यापारियों ने अपनी सुरक्षा के लिए निजी सुरक्षा बलों का गठन किया था। दूसरी ओर मजदूर संगठन भी 8 घंटे कार्यदिवस की मांग को अपने जीवन और मरण का सवाल बना चुके थे। पूंजीपतियों के सुरक्षाबलों का जवाब देने के लिए जर्मन तथा बोहेमियन समाजवादियों की ओर से शिकागो में ‘लेहर अंड वेहर वीरीन’(शैक्षिक एवं सुरक्षा समिति) का गठन किया गया था22 उद्देश्य था कि राज्य यदि श्रमआंदोलनों को रोकने के लिए बल का इस्तेमाल करे तो उसका उत्तर बलपूर्वक उसी अंदाज में दिया जा सके। साथी मजदूरों से संवाद करने के लिए श्रमिक संगठनों के पास ‘अलार्म’ और ‘आर्बीटर जाइटुंग’ जैसे समाचारपत्र थे। उनका सर्कुलेशन मुख्यधारा के अखबारों के मुकाबले बहुत कम था। मगर मजदूरों पर उनका प्रभाव दूसरे अखबारों की अपेक्षा कहीं ज्यादा था। उनकी भाषा आह्वानकारी होती थी। इसे एक उदाहरण के जरिये समझना उपयुक्त होगा। नवंबर-1884 में ‘इंटरनेशनल एसोशिएसन ऑफ़ वर्किंगमेन’ ने, स्थानीय श्रमिक संगठनों और संस्थाओं की मदद से समाजवाद को परिभाषित करने की कोशिश की थी23

1. निष्ठुर क्रांति तथा अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों की मदद से वर्तमान वर्गीय वर्चस्व को समाप्त करना

2. साम्यवादी संगठनों अथवा उत्पादन को लेकर मुक्त समाज की रचना

3. उत्पादक संगठनों के माध्यम से, बगैर लार्भाजन तथा लूट के बराबर श्रममूल्य के आधार पर वस्तुओं का विनिमय।

4. ऐसा शिक्षातंत्र खड़ा जिसमें स्त्रीपुरुष सभी धर्मरहित, वैज्ञानिक सूझबूझ तथा बराबरी के सिद्धांत के अनुरूप शिक्षा ग्रहण कर सकें।

5. लिंग अथवा जातीय भेदभाव से परे, सभी के लिए समान अधिकार

6. जनता के आपसी कार्यकलापों को संघों एवं कम्यूनों के बीच समझौतों के माध्यम से नियंत्रित करना

इस समाचार को 3 नवंबर 1884 के ‘अलार्म’ ने निम्नलिखित टिप्पणी के साथ प्रकाशित किया गया था—

दुनियाभर के मजदूर भाइयो! एक हो जाओ। साथियो! इस महान लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जो सबसे आवश्यक है, वह है हमारा संगठन और हमारी एकता…..सो एकजुट होने का दिन आ पहुंचा है। हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो जाओ। ड्रम बजाकर बेखटके युद्ध की मुद्रा में आ जाओ—दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ। तुम्हारे पास खोने के लिए जंजीरों के अलावा कुछ भी नहीं है, जीतने के लिए दुनिया पड़ी है।’24

जैसे ही पहली मई का दिन आया, मजदूरों ने अपने औजार रख दिए। उनके चेहरों पर विश्वास था। हर कोई अपने अधिकारों के लिए लड़ने का उद्धत था। श्रमिक आंदोलनों के इतिहास का वह सबसे अविस्मरणीय दिन था। शिकागो मजदूर क्रांति का केंद्र था। वहां मेकार्मिक हार्वेस्टर नामक कंपनी थी, जो खेती के औजार, मशीनें और ट्रक बनाने का काम करती थी। उसके आधे कामगार पहले ही दिन सड़क पर उतर आए। अकेले शिकागो में लगभग 40000 मजदूर हड़ताल पर थे25 उनके चेहरों पर जोश था। होठों पर गगनभेदी नारे थे—‘‘8 घंटे काम के। आठ घंटे आराम के। 8 घंटे हमारी मर्जी के।’ काम के घंटे घटाओ-मजदूरी बढ़ाओ।’ हड़ताल में 11562 कारखानों के मजदूर शामिल हुए थे26 शिकागो के अलावा केलीर्फोनिया जैसे दूसरे बड़े शहर भी हड़ताल में शामिल थे। पूरे अमेरिका में पांच लाख से अधिक मजदूर सड़कों पर थे। नेतागण अपने भाषण द्वारा मजदूरों को प्रोत्साहित कर रहे थे। अल्बर्ट पार्सन्स, ऑगस्ट स्पाइस, जोहन्न मोस्ट, लुईस लिंग्ग, सेमुअल फील्डेन जैसे अराजकतावादी नेताओं के भाषण आग उगल रहे थे। हड़ताल के बारे में एक अखबार ने लिखा था—‘फैक्ट्रियों और मिलों की ऊंची-ऊंची चिमनियों से उस दिन धुंआ नहीं निकला था। लगता था, जैसे छुट्टी के दिन, सब कुछ ठहरा हुआ हो।’27 उल्लेखनीय स्तर पर शांत रही पहले दिन की हड़ताल ने अमेरिका के श्रम आंदोलन के इतिहास में बड़ा अध्याय जोड़ दिया था

3 मई को हड़ताली फिर सड़क पर थे। इस बार मैकार्मिक हार्वेस्टर कंपनी के अलावा ‘लंबर शोवर’ के 6000 कर्मचारी भी सड़क पर थे। गौरतलब है कि मैकार्मिक कंपनी में 16 फरवरी, 1886 से लॉकआउट चल रहा था। उसके कर्मचारी पिछले तीन महीनों से काम न मिलने के कारण क्षुब्ध थे। सच तो यह है कि वे हताश हो चुके थे। इसलिए उनमें दो वर्ग बन चुके थे। हड़ताली मजदूर मैकार्मिक हार्वेस्टर से थोड़ा हटकर जमा हुए थे। कुछ और हड़ताली वहां पहले से ही जमा थे। कुल लगभग 15000 हडताली वहां जमा थे। हड़ताल का नेतृत्व कर रहे नेताओं में से एक ऑगस्ट स्पाइस ने जोरदार भाषण दिया था। अपने भाषण में उसने पूंजीवादी दमन, उसकी क्रूरताओं और कुटिलताओं पर चर्चा की थी। कहा था कि मजदूरों की हालत गुलामों से भी बदतर है। उसने मजदूरों से अपील की थी कि एकजुट होकर खड़े रहें। अपने मालिकों और हड़ताल तोड़ने वालों को बीच में न घुसने दें। मजदूर सावधान थे। हड़ताली मजदूर सड़क पर आकार मार्च करने लगे। इस बीच उनके बीच कुछ भेदिये भी आ मिले थे, जिन्हें मजदूरों ने वापस लौटने को विवश कर दिया था। मजदूरों का जुलूस शांतिपूर्वक आगे बढ़ रहा था। चारों तरफ से जत्थे निकलकर उसमें शामिल हो रहे थे। तभी हड़तालियों पर पत्थरों, ईंटों और लाठीडंडों से मार पड़ने लगी। मजदूर समझ पाएं, तभी 200 पुलिसकर्मियों का जत्था उनके सामने पहुंच गया। बिना किसी चेतावनी के लिए उसने मजदूरों पर लाठियों और बंदूकों से हमला कर दिया। उसमें चार मजदूरों की मृत्यु हो गई। अनेक घायल हो गए।28

3 मई की घटना के बारे में शिलिंग नामक मजदूर ने पीटर आल्टगोल्ड के सामने इस प्रकार बयान दिया था—‘‘मैकार्मिक कारखाने पर आयोजित प्रदर्शन सिर्फ लंबर शोवर्स यूनियन का ही प्रदर्शन नहीं था, वहां पर मैकार्मिक कारखाने के भी एक हजार से अधिक हड़ताली मजदूर थे। हालांकि ऑगस्ट स्पाइस वहां बोला था, पर उसने गड़बड़ी करने का नारा नहीं दिया था। उसने एकता का आह्वान किया था….गड़बड़ी तो तब शुरू हुई जब हड़तालभेदिये कारखाने से बाहर जाने लगे। हड़तालियों ने उन्हें देख लिया और भला-बुरा कहना, गालियां देना शुरू कर दिया जो यहां दोहराने लायक नहीं हैं। उस दृश्य की कल्पना करो। दो यूनियनों के छह हजार हड़ताली मजदूर बाहर सभा कर रहे हैं और उनकी नजरों के सामने से हड़ताल भेदिये चले जा रहे हैं। मैंने देखा वहां क्या हुआ। मैकार्मिक के हड़ताली कारखाने की ओर बढ़ने लगे। किसी ने उनसे कहा नहीं था। किसी ने उन्हें उकसाया नहीं था। उन्होंने सुनना बंद कर दिया था और वे फाटकों की ओर बढ़ रहे थे। हो सकता है उन्होंने कुछ पत्थर उठा रखे हों, हो सकता है उन्होंने भद्दी बातें कही हों। लेकिन उनके कुछ कहने से पहले की कारखाने की पुलिस ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं। हे भगवान लगता है, जैसे कोई युद्ध हो। हड़ताली निहत्थे और पुलिस मानो चांदमारी कर रही हो, पिस्तौलें हाथभर की दूरी पर थीं। रायफलें भी तनी हुई थीं—धांय, धांय, धांय…..मजदूर ऐसे गिर रहे थे, जैसे लड़ाई का मैदान हो। जब उन्होंने टिककर खड़े होने की कोशिश की तो पुलिस वाले चढ़ दौड़े और लाठियों से पीटकर उन्हें अलग कर दिया। जब वे तितर-बितर होकर दौड़े तो पुलिसवालों ने उनका पीछा किया। पीछे से लाठियां बरसाईं। देखा नहीं जाता था। वह क्रूरता थी। बहशीपन था। भाग जाने का मन कर रहा था। लगता था कै हो जाएगी। और यही किया मैंने.’29

ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि हड़तालियों पर पुलिस का हमला न केवल आकस्मिक, अपितु पूर्वनिर्धारित षड्यंत्र जैसा था। क्रोधित ऑगस्ट स्पाइस अराजकतावादी दैनिक आर्बीटर जाइटुंग के कार्यालय में पहुंचा था। वहां उसने हड़तालियों के नाम एक पोस्टर जारी किया। उसका शीर्षक था—‘बदला।’ घटना के कुछ ही घंटों बाद सड़कें उन पोस्टरों से पटी हुई थीं—

‘‘तुम्हारे मालिकों ने अपने शिकारी कुत्ते, पुलिस भेज दी है। इस दोपहर उन्होंने मैकार्मिक के पास तुम्हारे छह साथियों को मार गिराया है। उन्होंने उन गरीब दुखियारों को मार गिराया है, क्योंकि तुम्हारी तरह उन्होंने भी अपने मालिकों के आगे झुकने से इन्कार कर दिया था….तुम वर्षों से अंतहीन असमानता को झेलते आ रहे हो। तुम उनके लिए मृत्युपर्यंत काम करते हो। उनके लिए तुम अपनी इच्छाओं के साथसाथ, अपनी और अपने बच्चों की भूख को अनंतकाल से दबाते आए हो। यहां तक कि अपने बच्चों को भी तुमने अपने मालिकों के लिए कुर्बान कर दिया है। तुम हमेशा से दुखियारे और आज्ञाकारी गुलाम रहे हो। क्यों? अपने सुस्त और चोर मालिकों के अंतहीन लालच और उनकी तिजोरियों को भर देने के लिए….

यदि तुम इंसान हो, यदि तुम अपने उन पूर्वजों की संतान हो, जिन्होंने तुम्हें आजाद करने के लिए अपनी कुबार्नियां दी हैं, तो महाशक्तिशाली हरकुलिस की तरह उठो। और उन छिपे हुए राक्षसों का अंत कर दो, जो तुम्हें मिटा देना चाहते हैं। हथियार उठाओ….हम तुमसे कहते हैं….हथियार उठा लो।’’30

5

4 मई की सुबह ‘दि आर्बीटर जाइटुंग’ के मुख्य पृष्ठ पर मोटे अक्षरों में छपा था—

खून! असंतुष्ट मजदूरों की सेवा के लिए सिर्फ गोली और बारूद….यह है कानून और पुलिस! वे महलों में महंगी शराब से अपने जाम भरकर कानून और पुलिस के खूनी दरिंदों के स्वास्थ्य की कसमें उठा रहे हैं। गरीब और दुखियारो, अपने आंसू पोंछ डालो। अपनी ताकत को पहचानकर उठे खड़े हो और इस बेईमान शासन को धूल में मिला दो।’31

रातभर में पोस्टरों और पर्चों की एक और खेप सड़कों पर आ चुकी थी। लिखा था—‘मजदूरो, हथियार बांध लो। पूरी ताकत के साथ मोर्चे पर डट जाओ।’ पूरा शहर अफवाहों से भरा हुआ था। दोपहर होते-होते हेमार्किट चौक पर भीड़ जुटने लगी। उपस्थित श्रमिकों में बहुत से बेरोजगार थे। भूख से व्याकुल थे। अनेक लोग ऐसे भी थे, जिनके पास सिर छिपाने के लिए कोई ठिकाना तक नहीं था। सैकड़ों ऐसे थे जिनके सिर पर महीनों से मंदी की तलवार लटकी हुई थी। ऐसा लग रहा था कि जो वे कर रहे या करने जा रहे हैं, खुद को और अपने परिवार को बचाए रखने के लिए, उसके अलावा उनके पास दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है। उनके पूंजीपति मालिक उन्हें रोजगार देते हैं। लेकिन उनके सपने देखने के अधिकार को छीन लेना चाहते है। यदि कोई सपना बचता-बचाता कहीं से चला आए तो वे उसे नोंचने पर उतारू हो जाते हैं। उनके नेताओं ने उन्हें सपना देखना सिखाया है। अपने ऊपर विश्वास करना सिखाया है। बताया है कि अपनी तमाम लाचारी, बेकारी, हताशा, विपन्नता और दैन्य के बावजूद वे इन्सान हैं। सपने देखने का हक उन्हें भी है। संगठन उनके सपनों के पूरा होने का भरोसा दिलाता है। सपने पूरे हों न हों, लेकिन वे सपनों को छोड़ना नहीं चाहते। 8 घंटे का कार्यदिवस तो असल में बहाना है। हड़ताल तो सपनों को बचाने के लिए है। जीवन रहे या जाए, बस सपने बचे रहें

पूरा शहर दो हिस्सों में बंट चुका था। एक ओर मजदूर थे। भूख और बेरोजगारी के मारे हुए, ठंडे, गरीब और बदहाल। उन्हीं के सामने, उनकी ओर बंदूकें थामें, पुलिस के सिपाही और सुरक्षाबल थे। उनमें और मजदूरों में ज्यादा अंतर नहीं था। बल्कि उन्हीं के बीच से निकलकर आए थे। उन्हीं के भाई-बंधुपड़ोसीरिश्तेदार थे। मालिकों ने उन्हें बंदूकें और लाठियां थमायी थीं। उन हथियारों का असर था कि अब वे अपने ही भाई-बंधुपड़ोसी या रिश्तेदारों को पहचानने को भी तैयार न थे। मालिकों के इशारे पर वे कुछ भी कर सकते थे। दूसरी ओर बड़े-बड़े उद्योगपति, व्यापारी, पूंजीपति, राजनेता और व्यापारी थे। उनके पास धन था। ताकत थी। अखबार थे, जिनके मदद से वे अपने झूठ को भी सच बनाते आए थे। अपने वर्चस्व को बचाने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार थे।

अचानक आसमान घिर आया। तेज हवाएं चलने लगीं। ऊपर काले बादलों की मोटी परत छा गई। फिर बूंदाबांदी होने लगी। मानो मौसम उन्हें सावधान कर देना चाहता हो। मैदान पर उस समय मात्र तीन हजार लोग थे। जिनमें स्त्री-पुरुष, बच्चेबड़े सभी शामिल थे। मजदूर नेता भाषण दे रहे थे। उनके भाषण में हिंसा की कोई बात नहीं थी। पार्संस ने अर्थव्यवस्था पर बात रखी थी। समानांतर से रूप से उसी समय कारखाना मालिकों की भी गुप्त बैठक चल रही थी। गोपनीय ढंग से आदेश आ-जा रहे थे। घटना स्थल से थोड़ी दूर पर पुलिस स्टेशन था। वहां पुलिस कप्तान पूरे दल-बल के साथ मौजूद था। इस बीच मौसम कुछ और खराब हुआ था। झील की ओर से आती तेज-ठंडी हवाएं चल रही थीं। उससे पहले कि तूफान आए लोग घर लौट जाना चाहते थे।

उस समय शिकागो के मेयर कार्टर एच. हरीसन थे। अपनी लोकप्रियता के दम पर चौथी बार मेयर चुना गया था। हरीसन झुकाव मजदूरों की ओर था। शिकागो को वह अपनी ‘दुल्हन’ मानता था। वह चाहता था कि मजदूर उसपर भरोसा करें—‘मैं चाहता हूं कि लोग यह जान लें कि उनका मेयर यहीं पर है।’32 कार्यघंटों के लिए चल रहे आंदोलन के दौरान उसने अपनी ओर से तनाव को कम करने की पूरी कोशिश की थी। उसने यह कहते हुए कि मजदूर भी शिकागो के नागरिक हैं, सुरक्षा बलों को बुलाने से इन्कार कर दिया था। लेकिन मेयर होने के बावजूद सब कुछ उसके नियंत्रण में नहीं था। अनजाना भय उसे खाए जा रहा था। घबराया मेयर कभी निकट के पुलिस स्टेशन पर जाता तो कभी हेमार्किट चौक पर लौट आता था। थाने में कुछ सिपाही तैयार बैठे थे। कुछ काली पोशाक पहले लोग भी वहां थे।33 बावजूद इसके मेयर के लिए मजदूरों की सभा ‘अनुशासित’ थी। उसके नेताओं के भाषण अहिंसक थे।

10 बजे, मेयर हरीसन अपने बुझे हुए सिगार को चबाता हुआ पुलिस स्टेशन पहुंचा। और वहां मौजूद पुलिस अधिकारी से बोला—‘ऐसा कुछ भी होने की संभावना नहीं है, जिससे हस्तक्षेप की जरूरत पड़े।’ इसके बाद वह घर चला गया। मानो सब मेयर के वहां से चले जाने की प्रतीक्षा में हों। उसके जाने के 15 मिनट के भीतर ही पुलिस इंस्पेक्टर ने अपने सहायक से सारी पुलिस को आगे बढ़ने को कहा। उसमें 176 अधिकारी थे। आदेश मिलने पर वे घटनास्थल की ओर बढ़ने लगे। पुलिस इंस्पेक्टर बोनाफाइड को संभवतः उसे किसी बड़े अधिकारी, कदाचित मेयर से भी ऊंचे अधिकारी, का आदेश मिला था, जो निस्संदेह दंगा कराना चाहता था34

उस समय फील्डेन का भाषण चल रहा था। हड़ताली घर वापसी की तैयारी कर रहे थे। बारिश के कारण अधिकांश जा भी चुके थे। मैदान पर अब केवल 500 लोग जमा थे। फील्डेन आखिरी वक्ता था। वह अपने भाषण को समेटना चाहता था। पुलिस इंस्पेक्टर को करीब आते देख उसने कहा—‘यहां सब कुछ शांतिपूर्वक है। बस कुछ मिनट दीजिए, हम सब जाने ही वाले हैं।’ उसके बाद वह वहां उपस्थित लोगों की ओर मुड़ा और अपने भाषण का समापन करते हुए कहने लगा, ‘और अंत में….तभी उसने पुलिस के दस्ते को आंदोलनकारियों की ओर बढ़ते हुए देखा। मंच से कुछ फुट दूर रहने पर इंस्पेक्टर ने सिपाहियों को रुकने का आदेश दिया ओर स्वयं मंच की ओर बढ़ा। फील्डेन के पास पहुंचकर उसने जोर से कहा—‘मैं तुम्हें गिरफ्तार करता हूं।’

मैं लोगों की ओर से तुम्हें अभी इसी क्षण यहां से शांतिपूर्वक हट जाने का आदेश देता हूं।’ उसकी बात सुनते ही वहां शांति पसर गई। अब केवल हवाओं का शोर था जो झील से होकर आ रही थीं। आसमान में बादल मंडरा रहे थे।

किसलिए कैप्टन, यहां सब शांतिपूर्वक चल रहा है।’ फील्डेन ने कहा। फील्डेन ने गलत नहीं कहा था। बैठक पिछले सात-आठ घंटों से शांतिपूर्वक जारी थी। किसी भी पक्ष ने शिकायत का अवसर नहीं दिया था। एक सफल बैठक के शांतिपूर्वक समापन के अवसर पर फील्डेन इसके अलावा कुछ और कह ही नहीं सकता था। बावजूद इसके पुलिस की ओर से जो फील्डेन का जो बयान अदालत के सामने पेश किया गया, वह उपर्युक्त बयान से पूर्णतः भिन्न था। पुलिस रिकार्ड के अनुसार फील्डेन के शब्द थे, ‘यहां कुछ शिकारी कुत्ते हैं! जाओ, अपना काम करो और मैं अपना काम करूंगा।’ फील्डेन के बयान के बाद वहां पुनः शांति छा गई। हालांकि भविष्य में क्या होने वाला है, कुछ लोग यह अवश्य जानते थे

और तब अचानक, एक भयानक विस्फोट हुआ। तेज रोशनी में कुछ चेहरे दमके, और वातावरण दुर्गंध से भर गया। पुलिस की टुकड़ी की दायीं ओर से फैंका गया, हवा में लहराता हुआ बम स्पीकर स्टेंड से कुछ फुट दूरी पर फटा था। इसी के साथ वहां अव्यवस्था फैल गई। क्या हुआ किसी की कुछ समझ में नहीं आया। बम किसी अराजकतावादी ने फैंका था अथवा किसी उपद्रवी ने, अथवा पूंजीपतियों ने मिलकर हड़ताली नेताओं के विरोध में साजिश रची थी। या किसी सिरफिरे का काम था—इस बारे में अंत तक कुछ पता नहीं चला। हड़बड़ी में पुलिस ने भी फायरिंग शुरू कर दी। उधर मजदूर भी गोलियां बरसाने लगे। बम का धुंआ फैलने से कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था। पुलिस मजदूरों के साथ अपने साथियों पर भी गोली चला रही थी। बदहवासी का वह आलम 2-3 मिनट में समाप्त हो गया। उसके बाद किसी की लाश जमीन पर पड़ी थी। कोई घायलों में अपने मित्र, परिचित या रिश्तेदार को खोज रहा था। कोई खुद घायल पड़ा कराह रहा था। कानून की तरफ से 7 पुलिसकर्मियों की मृत्यु हुई थी। 67 घायल हुए थे35 मजदूरों की ओर से मरने वालों तथा हताहतों की संख्या उससे कई गुना था। परंतु सचमुच कितनी थी, यह कभी पता नहीं चल सका। अगले दिन के अखबारों ने मुख्यपृष्ठ पर उस घटना को जगह दी थी। सभी ने अराजकतावाद को अमेरिकी लोकतंत्र के लिए खतरा बताया था।

आठ अराजकतावादी नेता, अल्बर्ट पार्संस, ऑगस्ट स्पाइस, सेमुअल फील्डेन, ऑस्कर नीबे, माइकल श्वाब, जार्ज एंजिल, एडोल्फ फिशर तथा लुईस लिंग्ग को गिरफ्तार कर दिया गया। आठों मामूली मजदूर और कारीगर थे। अल्बर्ट पार्संस, प्रिंटिंग प्रेस का मजदूर था; और ‘अलार्म’ नाम का अख़बार निकलता गस्ट स्पाइस फर्नीचर तैयार करने वाला बढ़ई। फिशर भी प्रिंटिंग प्रेस में काम करता था। जार्ज एंजिल खिलौने बेचता था। ऑस्कर नीबे के अनुसार, एंजिल मजदूर वर्ग के संघर्ष का एक बहादुर सिपाही था। वह मेहनतकशों की मुक्ति के लिए जीजान लड़ा देने वाला बागी था।’ सेमुअल फील्डेन कारखाने में सामान की ढुलाई करने वाला साधारण मजदूर था। वह कहा करता था, ‘लिखनेपढ़ने वालों के बीच से अगर कोई क्रांतिकारी बन जाए तो आमतौर पर उसे गुनाह नहीं माना जाता। लेकिन अगर कोई गरीब क्रांतिकारी बन जाए तो वह भयंकर गुनाह हो जाता है।’ लुईस लिंग्ग बढ़ई था। विचारों से अराजकतावादी लिंग्ग के क्रांति रग-रग में बसी थी। वह कहा करता था, ‘मजदूरों को दबाने के लिए ताकत का इस्तेमाल किया जाता है। इसलिए उसका जवाब भी ताकत से ही दिया जाना चाहिए।’ माइकल श्वाब बुकबाइंडर था। ऑस्कर नीबे साधारण मजदूर संगठनकर्ता था। दिल का साफ और सरल। उसकी खमीर बेचने वाली एक दुकान में भागीदारी थी।

आठों पर हत्याओं का आरोप था। लेकिन एक को भी बम फैंकने का आरोपी नहीं बताया गया था। बम वास्तव में किसने फैंका था, यह कभी पता नहीं चल सका। साफ था कि अदालत को उन नेताओं के कारनामे से ज्यादा उनकी विचारधारा से चिढ़ थी। हालांकि केवल ऊपर दिए गए नामों में से मात्र 3 नेता ही घटनास्थल पर मौजूद थे। बावजूद इसके जज जोसेफ ई. गैरी की अध्यक्षता में जूरी का गठन किया गया था, जो एक प्रतिक्रियावादी राजनेता था। अदालत ने उन सभी को फांसी की सजा सुनाई। यह वही अमेरिका था जिसने अपने संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ससम्मान अपने संविधान में जगह दी थी, और उसके लिए अपनी पीठ थपथपाता था। उसी अमेरिका में 8 लोगों को फांसी की सजा इसलिए सुनाई गई थी, क्योंकि वे खास विचारधारा में विश्वास रखते थे। लोकतांत्रिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सबसे बड़े दावेदार अमेरिका के लिए तो वह कलंक जैसा था यह हुआ क्योंकि वहां का लोकतंत्र पूंजीपतियों के कब्जे में जा चुका था। जूलिस ग्रिनेल्ल जिसकी राजनीतिक संपर्क किसी से छिपे न थे, को मुदकमे का एटोर्नी बनाया गया था। जूरी के सामने अपने तर्क का समापन उसने इन शब्दों में किया था—

यह कानून की परीक्षा है, अराजकता की परीक्षा है। इन लोगों को जिन्हें सामने लाया गया है, जिन्हें इस महान जूरी द्वारा अभियुक्त ठहराया गया है, और चिन्हित किया गया है, क्योंकि वही नेता थे। ये उन हजारों लोगों से बड़े अपराधी नहीं हैं जो इनका अनुसरण करते हैं। जूरी के माननीय सदस्यो, इन लोगों को दंडित करो। फांसी पर लटकाकर इन्हें दूसरों के लिए नजीर बनाओ, और हमारी संस्थाओं और हमारे समाज की रक्षा करो36

11 नवंबर 1887 को पार्सन्स, स्पाइस, जार्ज एंगेल्स और एडोल्फ फिशर को मृत्युदंड दे दिया गया। लुईस लिंग्ग ने जल्लाद को फांसी लगाने का मौका तक नहीं दिया। उसने अपने मुंह में विस्फोटक दबाकर खुद को उड़ा दिया था। विस्फोटक सिगार की आकृति में लाया गया था। लाने वाला लिंग्ग का करीबी दोस्त था। जिस दिन उन्हें दफनाया गया, उस दिन उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए 600000 लोग शिकागो की सड़कों पर थे। फील्डेन, नीबे और श्वाब की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। पूंजीवादी मीडिया ने, जिसे बुद्धिजीवियों ने मुख्यधारा का मीडिया कहना आरंभ कर दिया था, अराजकतावाद, समाजवाद आदि की इतनी आलोचना की कि इन्हें अमेरिका के लिए निषिद्ध मान लिया गया। मुदकमें के दौरान आठों अभियुक्तों को अदालत को संबोधित करने का अवसर मिला था। फील्डेन ने तीन घंटे समाजवाद सहित मजदूरों की समस्या पर भाषण दिया था। उसने कहा था—

‘‘आज, ठंडी मनभावन हवाओं के साथ शरत्काल की रुपहली किरणें हर आजाद ख्याल इंसान के चेहरे को स्पर्श कर रही हैं। लेकिन मैं यहां अपने चेहरे को फिर कभी सूर्य-रश्मियों में स्नान न कराने के लिए खड़ा हूं। मैं अपने साथियों से प्यार करता हूं। मैं अपने आप से प्यार करता हूं। मैं धोखेबाजी, बेईमानी और अन्याय से नफरत करता हूं। यदि इससे कुछ भला होगा, तो मैं मुक्त भाव से इन्हें अपना लूंगा।’

स्पाइस का भाषण जोशीला था—

यदि तुम सोचते हो कि हमें फांसी पर चढ़ा देने से तुम मजदूर आंदोलन को दबा दोगे, तब बुलाओ अपने जल्लाद को….तुम इसे नहीं समझ सकते।’

नीबे;

ठीक है, यह सब अपराध था मैं मान लेता हूं: मैंने मजदूर आंदोलनों को संगठित किया था। मैं कार्यघंटों को सीमित कराने को, मजदूरों की शिक्षा को, श्रमिकों के अखबार दाई आर्बीटर जाइटुंग को नए सिरे से आरंभ करने को समर्पित था। इसका कोई प्रमाण नहीं है कि बम फेंकने से मेरा कोई संबंध है, या मैं उसके पास था, या मैंने कुछ वैसा किया था।’

फिशर;

इन मांगों के लिए जितने ज्यादा लोग फांसी पर चढ़ाए जाएंगे, विचार उतनी ही जल्दी हकीकत बन जाएंगे

पार्संस;

मैं उनमें से एक हूं, यद्यपि मैं वृत्तिकदास हूं, जो मानता है कि यह मेरे लिए अपराध है, मेरे पड़ोसी के लिए गलत है….मेरे लिए यह….गुलामी से पीछा छुड़ाने अपना स्वामी आप बनने के लिए था….अनंत आकाश के नीचे यह मेरा इकलौता अपराध है।

एंजिल;

मैं भी ऐसे बहुत कुछ ऐसे व्यक्ति की तरह हूं, वर्तमान से टकराने से बचने की सोचता है। प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को ऐसी सत्ता से जूझना चाहिए तो एक आदमी को कुछ ही वर्षों में विलासी और जमाखोर बना देती है, दूसरी ओर हजारों बेरोजगार आवारा और भिखमंगे बना दिए जाते हैं।’

श्वाब ने अराजकतावाद को परिभाषित करते हुए कहा था—

ऐसे समाज में जिसमें केवल सरकार को नीतिसंगत कहा जाता हो, ऐसे समाज में(बदल देना) जिसमें सभी मनुष्य सामान्य हितों के लिए नीतिसंगत कार्य करें और ऐसी चीजों से घृणा करें जो सचमुच घृणा के योग्य हैं

लिंग्ग पूरी अदालती कार्रवाही के दौरान सबसे निर्भीक सबसे विद्रोही बनकर उभरा था। अपने दिलेर और तिरस्कारपूर्ण भाषण में उसने कहा था—

मैं फिर याद दिलाता हूं कि मैं आज के ‘कानून’ का दुश्मन हूं। और मैं फिर से यह दोहराता हूं कि जब तक भी मेरे शरीर में सांस रहेगी, अपनी पूरी शक्तियों के साथ में इससे जूझता रहूंगा। मैं साफ तौर पर, सबके सामने कहता हूं कि मैं बलप्रयोग का हिमायती था। मैंने कैप्टन स्काक से कहा था(जिसने उसे गिरफ्तार किया था) और मैं आज भी उसपर कायम हूं, ‘यदि तुम हम पर गोली चलाओगे, हम तुम्हें बम से उड़ा देंगे। ओह! तुम्हें हंसी आ रही है! शायद तुम सोचते हो, ‘तुम और ज्यादा बम नहीं फेंक सकते।’ परंतु मुझे यह विश्वास है कि मैं फांसी के फंदे पर पर भी इसी तरह खुशी-खुशी चढ़ जाऊंगा और मुझे आपको आश्वस्त करना चाहिए कि सैकड़ों, हजारों लोग ऐसे होंगे जो मेरे इन शब्दों को याद रखेंगे, वे बम फैंकना जारी रखेंगे। इस उम्मीद के साथ मैं आपको कहना चाहूंगा कि मैं आपसे घृणा करता हूं! आपके ‘आदेश’ आपके कानून, बलप्रयोग पर टिकी आपकी सत्ता से नफरत करता हूं। इसके लिए मुझे फांसी पर लटका दिया जाए।’

उन आठों ने अदालत के सामने जो कहा था, वह मुख्यधारा के अखबारों में ठीक उसी भावना के साथ भले ही न आया हो, लेकिन बाद में इश्तहारों, पर्चों और पोस्टरों के रूप में लोगों के बीच फैल गया आज भी उनके विचार लोगों को प्रभावित करते हैं दुख की बात यह नहीं है कि लाखों मजदूरों के समर में उतरने के बावजूद अमेरिका में 1 मई, 1886 की क्रांति की नाकाम क्यों रही थी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जिस अमेरिका ने अब्राह्मम लिंकन के नेतृत्व में दासता को शिकस्त दी थी जिसके पास थॉमस जेफरसन और मानव थॉमस पेन ने द्वारा तैयार किया गया आधुनिकतम संविधान था ऐसा संविधान जो नागरिक अधिकारों को राज्य के अधिकारों जितना ही महत्त्व देता था—वह सातआठ दशक के भीतर ही वह अप्रासंगिक क्यों होने लगा था क्यों उनके विरुद्ध मजदूरों को कामगारों को खड़ा होना पड़ा जो लोकतंत्र से सर्वाधिक उम्मीद पाले रहते हैं, और जिन्हें उसकी सर्वाधिक आवश्यकता पड़ती है—वहां अराजकतावाद को जमीन कैसे मिली इस प्रश्न का उत्तर कुछ जटिल हो सकता है लेकिन यदि हम इसका उत्तर खोज लें तो भारतीय समाज में उभर रहे असंतोष, जिसे कुछ लोग भीड़तंत्र भी कह रहे हैं, का जवाब मिल सकता है

इस बारे में हम अभी सिर्फ इतना कहना आवश्यक समझते हैं कि अराजकतावाद लोकतंत्र का पुरोगामी दर्शन हैं। लोकतंत्र को न संभाल सकने वाली जनता, अराजकतावादी समाज गढ़ ही नहीं सकती। उसे संभालने के लिए लोकतंत्र से कहीं अधिक प्रबुद्ध जनता चाहिए। उस अवस्था में सत्ता परिवर्तन के लिए हिंसा गैर जरूरी हो जाती है। दूसरे शब्दों में अराजकतावाद का रास्ता लोकतंत्र की बहुविध सफलता से निकल सकता है। ऐसे लोकतंत्र से जो अपने नागरिकों के प्रबोधीकरण को भी आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक विकास जितना ही महत्त्व देता है। अमेरिकी क्रांति की असफलता के पीछे भी उसमें हिस्सेदारी कर रहे नेताओं तथा उनके अनुयायियों की अधूरी समझ थी। वे राज्य की आवश्यकता को समाप्त करने के बजाय, राज्य को ही समाप्त कर देना चाहते हैं। जबकि अराजकतावाद में राज्य समाप्त नहीं होता, अपनी खूबियों के साथ वह नागरिकों के रोजमर्रा के व्यवहार का हिस्सा बन जाता है। वह नागरिकीकरण की उच्चतम अवस्था है। इस बात को शिकागो के भोले-भाले मजदूर समझ ही नहीं पाए थे। इसलिए पूंजीवाद के शिकंजे में जकड़े हुए अमेरिकी राज्य की शक्ति द्वारा कुचल किए गए। अच्छा जनतंत्र चलाने की जिम्मेदारी नेताओं से ज्यादा जनता की होती है। जो जनता नेताओं पर जितनी कम निर्भर होगी, वह उतनी ही लोकतांत्रिक बन सकेगी
अमेरिका में 8 घंटे के कार्यदिवस की मांग 1836 से आरंभ हुई थी। 1864 में वह अमेरिकी मजदूरों की प्रमुख मांग बन चुकी थी। आखिरकार 1916 एडमसन एक्ट के माध्यम से अमेरिका रेलरोड वर्कर्स के लिए पहली बार 8 घंटे का कार्यदिवस लागू किया गया। फैक्ट्री मजदूरों को यह अधिकार मिला, फेयर लेबर स्टेंडर्डस् एक्ट—1938 के लागू होने के बाद। इस तरह से देखा जाए तो 8 घंटे के कार्यदिवस के लिए मजदूरों को एक शताब्दी से भी लंबा संघर्ष करना पड़ा था। चलतेचलते एक अवांतरसी चर्चा अमेरिका में धर्मसंसद का आयोजन 1893 में किया गया था कहा यह गया था कि धर्मसंसद का आयोजन क्रिस्ठोफर कोलंबस के अमेरिकी महाद्वीप पर पहुंचने की 400वीं सालगिरह के तौर पर मनाया गया था लेकिन क्या यही एकमात्र कारण था? ध्यान रहे कि हेमार्केट नरसंहार के दौरान ज्यादा नुकसान मजदूर पक्ष को उठाना पड़ा था लेकिन उससे न तो मजदूर अपनी मांगों को लेकर पीछे हटे थे न वहां समाजवादी आंदोलन में कमी आई थी फिर 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग और धर्मसंसद का क्या संबंध? सही मायने में तो यह शोध का विषय है। लेकिन जो लोग धर्म के अभिजन चरित्र को जानते हैं, जिन्होंने वोलनी, मोसका और परेतो को पढ़ा है, उनके लिए इस पहेली को सुलझा पाना कठिन नहीं होगा। आखिर क्या कारण है कि जिस अमेरिका में 8 घंटे के कार्यदिवस की मांग के समर्थन में सबसे बड़ी वर्गक्रांति ने जन्म लिया था, उस देश में वह मांग 1937 में मानी गई, जबकि दुनिया के छोटेबड़े दर्जनों देश 191819 में ही इसे मान चुके थे?
© ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भ

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2. वही पृष्ठ 3

3. वही, पृष्ठ 3

4. वही, पृष्ठ 4

5. जे. डेविड सेकमेन, मे डे एंड दि स्ट्रगल फॉर दि एट आवर डे इन कैलीफोर्निया

6. अलेक्जेंडर ट्रेक्टनबर्ग, दि हिस्ट्री ऑफ़ मे डे, इंटरनेशनल पंपलेट, 14, 799 ब्रोडवे, न्यू यार्क, पृष्ठ 6

7. कार्ल मार्क्स, पूंजी, अध्याय 10, प्रोग्रेस पब्लिशर, मास्को, 2015, पृष्ठ 162,

8. संपत्ति क्या है? पियरे जोसेफ प्रूधों

9. मिखाइल बकुनिन, लेटर टू फ्रेंचमेन, ऑन दि प्रजेंट क्राइसिस, 1870

10. अलेक्जेंडर ट्रेक्टनबर्ग, दि हिस्ट्री ऑफ़ मे डे, इंटरनेशनल पंपलेट, पृष्ठ 8

11. पॉल एवरिच, दि हेमार्किट ट्रेजेडी, प्रिंस्टन यूनीवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ 182

12. पॉल एवरिच, पृष्ठ 182

13 अलेक्जेंडर ट्रेक्टनबर्ग, दि हिस्ट्री ऑफ़ मे डे, इंटरनेशनल पंपलेट, 14, 799 ब्रोडवे, न्यू यार्क। पृष्ठ 10

14 दि इकोनॉमिक्स पर्फोमेंस इंडेक्स, इंटरनेशनल मोनेटरी फंड, वादिम खरामोव एंड जॉन राइडिंग्स ली, अक्टूबर 2013

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18. अलेक्जेंडर ट्रेक्टनबर्ग, दि हिस्ट्री ऑफ़ मे डे, इंटरनेशनल पंपलेट, 14, 799 ब्रोडवे, न्यू यार्क, पृष्ठ 10-11.

19. ऐरिक चेज द्वारा उद्धृत, दि ब्रीफ ओरीजिंस ऑफ़ मे डे, 1993

20. लुईस एडामिक, डायनामाइट : स्टोरी ऑफ़ क्लास वायलेंस इन अमेरिका, 1931, पृष्ठ-69

21. लुईस एडामिक, पृष्ठ-69

22. न्यू यार्क टाइम्स, 20 जुलाई 1886

23. पॉल एवरिच, दि हेमार्किट ट्रेजेडी, पृष्ठ 75

24. पॉल एवरिच, दि हेमार्किट ट्रेजेडी, पृष्ठ 75

25. ऐरिक चेज द्वारा उद्धृत, दि ब्रीफ ओरीजिंस ऑफ़ मे डे, 1993(कुछ स्थानों पर यह संख्या 400000 दी है)

26. अलेक्जेंडर ट्रेक्टनबर्ग, पृष्ठ-11

27. मिशेल जे. स्काक, अनार्की एंड अनार्किस्ट, एफ. जे. स्कल्ट एंड कंपनी, न्यू यार्क, 1889, पृष्ठ-83

28. अनार्किस्ट ओरीजिन ऑफ़ मे डे, लीफलेट बाई वर्कर्स सोल्डरिटी मूवमेंट.

29. हॉवर्ड फ़ास्ट, शिकागो के शहीद मजदूर नेताओं की कहानी, राहुल फाउंडेशन, पृष्ठ-16

30. लुईस एडामिक, डायनामाइट : स्टोरी ऑफ़ क्लास वायलेंस इन अमेरिका, 1931, पृष्ठ-70

31. लुईस एडामिक, डायनामाइट, पृष्ठ-71

32. लुईस एडामिक, डायनामाइट, पृष्ठ-71

33. लुईस एडामिक, डायनामाइट, पृष्ठ-71

34. लुईस एडामिक, डायनामाइट, पृष्ठ-74

35. उपर्युक्त, पृष्ठ-74

36. उपर्युक्त, पृष्ठ-72

संस्कृति और सामाजिक न्याय

विशेष रुप से प्रदर्शित

प्रत्येक समाज अपनी संस्कृति से पहचाना जाता है. उसका प्रमुख कार्य समाज में एकता की अनुभूति जगाना पैदा करना है. इसके लिए जरूरी है कि वह सामाजिक संबंधों, नागरिकों के सामान्य व्यवहारों, सार्वकालिक जीवनमूल्यों और भविष्य के सपनों से अनुप्रेत हो. प्रायः धर्म एवं संस्कृति को एक मान लिया जाता है. जबकि आस्था और विश्वास को अपनी पीठ पर ढोने वाला धर्म विराट संस्कृति का अंग तो हो सकता है, उसका पर्याय नहीं. किसी समाज द्वारा धर्म की केंचुल से बाहर आने की छटपटाहट विवेकीकरण के प्रति उसकी उत्सुकता को दर्शाती है. जहां तक भारतीय संस्कृति का प्रश्न है, अधिकांश विद्वान इसे ‘विविधता की संस्कृति’ मानते तथा ‘सनातन संस्कृति’ कहकर इसका महिमामंडन करते हैं. इनमें से एक भी धारणा मूल्यबोधक नहीं हैं. सांस्कृतिक वैविध्य तभी सार्थक है जब वह मानवीय चेतना का स्वयंस्फूर्त विस्तार हो. साथ ही लोकतांत्रिक सोच को बढ़ावा देता हो. प्राचीनता कालसापेक्ष स्थिति है. वह केवल घटनाविशेष की ऐतिहासिकता को दर्शाती है. संस्कृति का असल बड़प्पन इसमें है कि अपने अनुयायियों के बीच न्याय, समानता और समरसता के वितरण को लेकर वह कितनी उदार है! कितने प्रयास उसने अपने अंतर्विरोधों के समाहार हेतु किए हैं. और इन सब के लिए वह लोकतंत्र के कितने करीब है. इस कसौटी पर भारतीय संस्कृति उतनी सफल सिद्ध नहीं होती, जितनी बताई जाती है.

सच तो यह है कि स्मृतिग्रंथों, पुराणों, महाकाव्यों आदि के माध्यम से जो संस्कृति हमारे जीवन में दाखिल होती हैय या एक अल्पसंख्यक अभिजन वर्ग द्वारा बहुसख्यक जनसमुदाय पर बरबस थोप दी जाती है, वह सामाजिक न्याय की अवरोधक तथा सामूहिक विवेक का क्षरण करने वाली है. सामान्य नैतिकता एवं लोकादर्शों को अमल में लाने के बजाय वह धर्म के हाथों में खेलती है; और खुद को बड़ी आसानी से उसकी सामंती वृत्तियों के अनुसार ढाल लेती है. वह लोगों से अपेक्षा रखती है कि वे क्या करें, क्या खाएं, क्या पियें, क्या पढ़ेलिखें, और किन लोगों से कैसे संबध बनाएं? न तो उसे मानवीय विवेक की परवाह रहती है, न उसकी रुचियों का परिष्कार. बावजूद इसके जीवन में अनावश्यक दखल देकर, वह समानता और स्वतंत्रता की भावना का हनन करती है. कभी धर्म, कभी समाज और कभी परंपरावैविध्य के बहाने, असमानता को मानवीय नियति घोषित करना उसकी मूल प्रवृत्ति रही है. वह असल में शासक संस्कृति है, जो व्यक्ति को जन्म के साथ ही बता देती कि उसका जन्म शासन करने के वास्ते हुआ है या शासित होने के लिए. जो लोग शासक वर्ग में जन्म लेते हैं, अभिजनोन्मुखी संस्कृति का रेशारेशा उनकी मदद में जुटा होता है. शासितों की कोटि में जन्मे व्यक्ति, यदि दुर्दशा से उबरना चाहें या इस तरह का सपना भी देखें तो वह लगातार अवरोध उत्पन्न कर, परिवर्तन की चाहत को ही मिटाने पर तुल जाती है. लोगों के सवाल करने की आदत को छुड़ाकर वह उनके निर्मानवीकरण को गति देती है. इससे सामूहिकताबोध, जो संस्कृति का प्रमुख उद्देश्य है, का हृास होता है. सांप्रदायिकता पनपती है; और जनशक्ति छोटेछोटे टुकड़ों में बंटकर निष्प्रभावी हो जाती है. इससे परिवर्तन का लक्ष्य निरंतर दूर खिसकता रहता है.

हम भारतीयों, विशेषकर जो लोग स्वयं को हिंदू मानते हैं, का जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक तरहतरह के कर्मकांडों से बंधा होता है. वे अनेक प्रकार के हो सकते हैं. एक समाज से दूसरे समाज, यहां तक कि एक जाति समूह से दूसरे जातिसमूह के बीच उनका रूप बदलता रहता है. कर्मकांडों का उद्देश्य होता है, किसी महाशक्ति को प्रसन्न करना. उनमें एक पक्ष दाता(जाहिर है काल्पनिक), दूसरा याचक की भूमिका में होता है. याचक अपने श्रेष्ठतम को समर्पित करने की भावना के साथ दाता के आगे नतशिर होता है. तत्क्षण खुद को दाता का प्रतिनिधि घोषित करते हुए पुरोहित बीच में आ टपकता है. याचक द्वारा दाता के नाम पर समर्पित सामग्री के अलावा वह दक्षिणा की भी दावेदारी करता है. कर्मकांडों को लोक की सामान्य स्वीकृति प्राप्त होने के कारण उनसे पैदा स्तरीकरण समाज में गहरी पैठ बना लेता है. तदनुसार जो दाता या उसके स्वयंघोषित प्रतिनिधि की इच्छा है, उसे उसी रूप में, बगैर किसी नानुकर के, स्वीकार कर लेना याचक की विवशता होती है. इसका लाभ शिखर पर बैठे लोग उठाते हैं. राज्य की कुल उत्पादकता में नगण्य योगदान के बावजूद वे किसी न किसी बहाने लाभ के नब्बे प्रतिशत को हड़पे रहते हैं. उसी के दम पर वे दाता की भूमिका निभाए जाते हैं. उनके नेतृत्व में पूरी संस्कृति कर्मकांडों में सिमटकर रह जाती है.

कर्मकांडों की व्याख्या जिन ग्रंथों में है, सब ब्राह्मणों द्वारा रचे गए हैं. उनकी समीक्षा अथवा संशोधनविस्तार का अधिकार ब्राह्मणेत्तर वर्गों को नहीं है. उनसे बस इतनी अपेक्षा होती है कि ब्राह्मणों द्वारा गढ़े गए लिखितअलिखित विधान का बगैर नानुकुर अनुसरण करें. उनपर किसी भी प्रकार का संदेह, आलोचना, समीक्षा पाप की कोटि में आती है. सांस्कृतिकसामाजिक असमानता का पोषण करने वाली इस संस्कृति के प्रति विरोध के स्वर आरंभ से ही उठते रहे हैं. उनके दस्तावेजीकरण का काम हमें अपेक्षाकृत उदार एवं समावेशी संस्कृति के करीब ला सकता है. उसे हम जनसंस्कृति अथवा मूल भारतवंशियों की संस्कृति भी कह सकते हंै.

सत्य यह भी है कि कोई भी संस्कृति स्वयं लक्ष्य नहीं होती. वह केवल मार्ग चुनने में मदद करती है. उसका काम मानवीय वृत्तियों को सुसंस्कृत करना है, किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की रोजमर्रा की आदतों पर नियंत्रण करना नहीं. विडंबना है कि भारतीय संस्कृति की अधिकांश ऊर्जा नकारात्मक कार्यों में खपती आई है. वह बड़ी आसानी से उन लोगों के हाथों में खेलने लगती है, जिनका काम दूसरों के मूलभूत अधिकारों का हनन करना है. शिखरस्थ ब्राह्मण उसके विधान का निर्माता, व्याख्याता, पालकअनुपालक सब होता है. विशेष मामलों में, या यूं कहिए कि अपवादस्वरूप संस्कृति के विशिष्ट प्रवत्र्तकों को, जन्मना ब्राह्मण न हों तो भी उन्हें कर्मणा ब्राह्मण मान लिया जाता है. व्यास, वाल्मीकि, महीदास आदि शास्त्रीय परंपरा के ब्राह्मण नहीं हैं. फिर भी उन्हें ब्राह्मण माना गया है. क्योंकि वे उस संस्कृति के सिद्ध संहिताकार हैं, जो वर्णव्यवस्था को आदर्श तथा ब्राह्मणों को समाज का सर्वेसर्वा मानकर उन्हें अंतहीन अधिकार सौंप देती है. कुछ लोग इसे भारतीय संस्कृति की उदारता या उसका लचीलापन मानते हैं. असल में यह दूसरे वर्गों के बुद्धिजीवी, उनकी उपलब्धियों का श्रेय हड़प लेने की स्वार्थपूर्ण व्यवस्था है. इससे निम्न वर्गों की उच्च स्तरीय मेधा, उच्चस्थ वर्गों की स्वार्थसिद्धि में लगी रहती है.

इस प्रवृत्ति के दर्शन ऋग्वेद से लेकर आधुनिक साहित्य तक मौजूद हैं. गुरु उद्दालक के पास सत्यकाम जाबाल जब यह कहता है कि वह घरों में काम करने वाली दासी के गर्भ से जन्मा है और पिता का नाम पता नहीं है, तो महर्षि उसे यह कहकर कि ‘तूने सत्य कहा, ऐसा सत्यभाषी ब्राह्मण पुत्र ही हो सकता है.’-दीक्षा देने को तैयार हो जाते हैं. भारतीय संस्कृति के अध्येता इस उद्धरण को उसके उदात्त लक्षण के रूप में प्रस्तुत करते आए हैं. वस्तुतः यह बौद्धिक धूर्तता है, जिससे ब्राह्मणेत्तर वर्गों को एक ही झटके में ‘मिथ्याभाषी’ घोषित दिया जाता है. सत्यकाम जाबालि की भांति महीदास भी दासी पुत्र था. जन्म से शूद्र किंतु मनबुद्धि से ब्राह्मण संस्कृति का प्रतिभाशाली संहिताकार. ऋग्वेद शाखा के ‘ऐतरेय ब्राह्मण’, ‘ऐतरेय उपनिषद’ और ‘ऐतरेय आरण्यक’ का रचियता. इस संस्कृति ने महीदास को भी शूद्रों से झटक लिया. अपवादस्वरूप ही सही, ब्राह्मणेत्तर वर्ग के कुछ अतिप्रतिभाशाली बुद्धिजीवियों को अनुलोम परंपरा के अनुसार ब्राह्मण मान लिए जाने की नीति, प्रतिभाहीन ब्राह्मण पुत्रों के लिए शिखर का स्थान सुरक्षित रखती है. स्तर से ऊपर उठने के लिए ब्राह्मणेत्तर वर्ग के बुद्धिजीवियों को जहां विरलतम प्रतिभा, सर्जनात्मक मेधा एवं विभेदकारी ब्राह्मणसंस्कृति के प्रति अटूट निष्ठा का प्रदर्शन करना पड़ता है, वहीं ब्राह्मणसंतति को उसका स्वाभाविक उत्तराधिकारी मान लिया जाता है. प्रमुख प्रतिभाओं के पलायन के बाद निचले वर्ग आवश्यक बौद्धिक नेतृत्व से वंचित रह जाते हैं. दूसरे षब्दों में भारतीय संस्कृति, उसके नामित देवता, कर्मकांड, धर्मदर्शन आदि केवल ब्राह्मणों का सृजन नहीं हंै. उसमें ब्राह्मणेत्तर वर्गों का भी भरपूर योगदान रहा है. हालांकि लाभ सर्वाधिक ब्राह्मणों ने उठाया है.

ब्राह्मण संस्कृति के व्याख्याकारों की प्रशंसा करनी होगी कि वर्गीय श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए उन्होंने अपनी रचना का श्रेय स्वयं लेने के बजाय वर्गीय श्रेय को प्राथमिकता दी. ब्राह्मण होने के नाते व्यक्तिगत श्रेयसम्मान तो उन्हें आसानी से मिल ही जाता है. व्यास, याज्ञवल्क्य, वशिष्ट आदि किसी मनीषी के नहीं, गौत्र या परंपरा के नाम हैं. उनका उल्लेख स्मृतिग्रंथों से लेकर रामायण, महाभारत, पुराण यहां तक कि उत्तरवर्ती ग्रंथों में भी, मुख्य सिद्धांतकार के रूप में होता आया है. व्यक्तिगत श्रेय के आगे वर्गीय श्रेय को वरीयता दिए जाने का अच्छा उदाहरण ‘योग वशिष्ट’ है. लगभग एक हजार वर्ष पुराने, 29000 से अधिक पदों वाले तथा शताब्दियों के अंतराल में अनाम लेखकों द्वारा रचित, परिवर्धित इस विशद् ग्रंथ का रचनाकार होने का श्रेय आदि कवि वाल्मीकि को प्राप्त है, जबकि वाल्मीकि का नाम लगभग दो हजार वर्ष पुरानी कृति ‘पुलत्स्य वध’ जो निरंतर प्रक्षेपण के उपरांत ‘रामायण’ महाकाव्य के रूप में ख्यात हुआसे भी जुड़ा है. ज्ञान को परंपरा में ढाल देने का लाभ तो केवल ब्राह्मणों को जबकि नुकसान पूरे बहुजन समाज को उठाना पड़ा है. वर्णव्यवस्था के चलते पोंगा पंडितों को भी बौद्धिक नेतृत्व का अवसर मिलता रहा. पीढ़ीदरपीढ़ी एक ही धारा के लेखन से मौलिकता का हृास हुआ. चूंकि धर्मग्रंथों में प्रक्षेपण अलगअलग समय में हुआ था, इसलिए उनमें परस्पर विरोधी बातें भी शामिल होती गईं. जिस महाभारत(शांतिपर्व) कहा गया था, ‘वर्णविभाजन जैसी कोई चीज असलियत में नहीं है. यह पूरी सृष्टि ब्रह्म है, क्योंकि इसे ब्रह्मा ने बनाया है.’ उसी में द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा मांग लेने के धत्तकर्म को भी ‘धर्म’ मान लिया गया.

उधर व्यवस्था से अनुकूलित गरीबविपन्न लोग निरंतर यह आस बांधे रहे कि जो पंडित लोग चैंसठ लाख योनियों का हिसाब रखते हैं, आदमी के ‘भाग्य’ का अगलापिछला सब बांच लेने का दावा करते हैं, वे उनका भी ‘हिसाब’ रखेंगे! यदि परमात्मा छोटेबड़े, गरीबअमीर, ब्राह्मण और शूद्र में भेद नहीं रखता तो वे भी नहीं रखेंगे. इस भरोसे के साथ वे अपने अधिकारों की ओर से, इतिहास की ओर से मुंह फेरे रहे. समय के दस्तावेजीकरण के प्रति निचले वर्गों की उदासीनता का लाभ ऊपर वालों ने खूब उठाया. उन्होंने कर्मफल का सिद्धांत पेश किया. उसके जरिये शोषित वर्गों को समझाया जाने लगा कि उनकी दुर्दशा के लिए कोई दूसरा नहीं, वे स्वयं जिम्मेदार हैं. संस्कृति के आवरण में उन्होंने पहले अवसर छीने, फिर मानसम्मान. अपने से नीचे के लोगों को बर्बर, असभ्य, गंवार, गलीच घोषित करके खुद इतिहास में तोड़मरोड़ करते रहे. उनके द्वारा रचे गए इतिहास में ‘भेड़ों’ और ‘मेमनों’ को जंगल में अव्यवस्था का दोषी बताया जाता रहा तथा ‘भेड़ियों’ और ‘लक्कड़बघ्घों’ को प्रत्येक अपराध से बरी रहने की व्यवस्था की गई. पंडित, देवता, करुणानिधान, अन्नदाता, रक्षक, सेठ, साहूकार जैसे सुशोभन विशेषण उन्होंने अपने लिए सुरक्षित कर लिए. पिछले दो हजार साल का सांस्कृतिक खेल उनकी चालों और समझौतापरस्ती से बना है. ऐसी संस्कृति में जनसाधारण के लिए न्याय की उम्मीद करना खुद को धोखा देना है.

सांस्कृतिक वर्चस्व’ बनाए रखने की कोशिश के समानांतर उससे उबरने की छटपटाहट भी मानवइतिहास का हिस्सा रही है. भारत में उसका पहला उदाहरण मक्खलि गोशाल के चिंतनकर्म में दिखाई पड़ता है. वह पहला विद्वान था जिसने श्रमशोषक, परजीवी ब्राह्मण संस्कृति के बरक्स समाज में मेहनतकशों, शिल्पकारों तथा उसके श्रमकौशल के सहारे आजीविका जुटाने वाले लोगों को संगठित कर आजीवक संप्रदाय की स्थापना की थी. मक्खलि की लोकप्रियता का अनुमान इससे भी लगाया जाता है कि उसके जीवनकाल में आजीवक संप्रदाय के अनुयायियों की संख्या बौद्ध अनुयायियों से अधिक थी. विद्वता के मामले में भी वह अद्वितीय था. सम्राट प्रसेनजित ने बुद्ध से कहा था कि वह गोशाल को उन(बुद्ध)से अधिक प्रतिभाशाली मानते हैं. बुद्ध की हिंसा तथा कर्मकांड विरोधी भौतिकवादी विचारधारा पर आजीवक संप्रदाय का ही प्रभाव था. मक्खलि तथा बुद्ध के अलावा निगंठ नागपुत्त, संजय वेठलिपुत्त, पूर्ण कस्सप, अजित केशकंबलि, कौत्स आदि विद्वान भी यज्ञों में दी जाने वाली बलि तथा कर्मकांड का विरोध कर रहे थे. निगंठ नागपुत्त आगे चलकर महावीर स्वामी के नाम से जैन दर्शन के प्रवर्त्तक माने गए. इनमें सर्वाधिक ख्याति मध्यमार्गी गौतम बुद्ध को मिली, जो उस समय की चर्चित दार्शनिक समस्याओं ‘आत्मा’, ‘परमात्मा’ आदि पर विमर्श करने के बजाय उन्हें टालने के पक्ष में थे. क्षत्रिय कुल में जन्म लेने के कारण बुद्ध और उनके विचारों को उन राजदरबारों में आसानी से प्रवेश मिलता गया, जो ब्राह्मण पुरोहितों के बढ़ते दबाव से तंग आ चुके थे. ‘आजीवक’ और ‘लोकायत’ धारा का प्रतिनिधि साहित्य आज अप्राप्य है. उनका छिटपुट उल्लेख ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में ही प्राप्त होता है. सभी में उनकी पड़ताल नकारात्मक दृष्टिकोण के साथ की गई है. संकेत साफ हैं कि विजेता संस्कृतियों ने, पराजित संस्कृति के ग्रंथों को मिटाने का काम पूर्णतः योजनाबद्ध ढंग से किया.

धर्म और संस्कृति का आधार कहे जाने वाले ग्रंथों में, लंबे प्रक्षेपण के बावजूद ऐसे अनेक तत्व हैं, जो वैकल्पिक जनसंस्कृति के प्रवत्र्तक और संवाहक रहे हैं. महिषासुर, बालि, पौराणिक सम्राट वेन के अलावा गणेश, शिव जैसे अनेक नाम मिथक भी हो सकते हैं और यथार्थ भी. लेकिन यदि इन्हें मिथक मान लिया जाए तो ब्राह्मण संस्कृति के प्रमुख संवाहक ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, हनुमान तथा अन्य देवीदेवताओं को भी मिथक मानना पड़ेगा. क्योंकि उसका पूरा का पूरा भवन इन्हीं के कंधों पर टिका है. शिव भारत की आदिम जातियों के मुखिया रहे होंगे. उनके सहयोगी के रूप में भूत, पिशाच, प्रेत आदि हमें भारत के आदिम कबीलों की याद दिलाते हैं. आर्यों ने शिव को तो अपनाया. मगर उनके सहयोगी कबीलों की पूरी तरह उपेक्षा की. अप्रत्यक्ष रूप से बख्शा शिव को भी नहीं गया. उन्हें आक, धतूरा खाने और भभूत लगाकर रमने वाले अवधूत की तरह दर्शाते हुए सृष्टि चलाने(शासन करने) का अधिकार ‘ब्राह्मण ब्रह्मा’ तथा ‘क्षत्रिय विष्णु’ की बपौती मान लिया गया. गणेश का मिथक भी प्राचीन भारतीय गणतंत्रों के मुखिया की याद दिलाता है. गणतांत्रिक व्यवस्थाओं में मुखिया को प्रथम सम्मानेय माना जाता था. कालांतर में बड़े राज्यों का गठन होने लगा तो सभा का नेतृत्व करने वाले गणप्रमुख के चरित्र का भी विरूपण किया जाने लगा. बैठेबैठे सूंड लटक आना और लंबोदर जैसे प्रतीक गणप्रमुख पर कटाक्ष तथा उसे अपमानित करने के लिए रचे गए.

सामाजिक न्याय’ का सपना देखने वाले बुद्धिजीवियों की असली लड़ाई धार्मिक वर्चस्ववाद, विपन्नता और जड़ हो चुकी वर्णव्यवस्था से है. इस लक्ष्य की सिद्धि वर्चस्वकारी संस्कृति से मुक्ति के बिना असंभव है. ब्राह्मण संस्कृति ईश्वरीय न्याय में विश्वास करती है. न्याय का स्वरूप क्या हो? वंचित तबकों की उन्नति में वह किस भांति सहायक हो सकता हैयह नहीं बताती. ‘सामाजिक न्याय’ के पैरोकारों का प्रथम लक्ष्य ऐसी संस्कृति का पुनरुद्धार करना है, जिसमें संगठित धर्म का हस्तक्षेप न्यूनतम हो. जो पूरी तरह उदार एवं लोकतांत्रिक हो. इसके लिए आवश्यक है कि प्राचीन संस्कृति के उन प्रतीकों को रेखांकित किया जाए जो कभी ब्राह्मण संस्कृति के विरोध में या उसके समानांतर खड़े थे. क्या यह धर्म के भीतर एक और धर्म की खोज सिद्ध नहीं होगी? यह आशंका पूर्णतः निर्मूल नहीं है. ध्यान यह रखना होगा कि समानांतर संस्कृति के इन प्रतीकों, नायकों, मिथकों का योगदान दमितशोषित वर्गों के आत्मविश्वास को लौटाने तक सीमित हो. यह एहसास दिलाने के लिए हो कि वे हमेशा से ही ‘ऐसे’ नहीं थे. वे न केवल ‘वैसे’ बल्कि कई मायनों में उनसे भी बढ़कर थेरावण की लंका में विभीषण को अपनी आस्था और विश्वास के साथ ससम्मान जीने की स्वतंत्रता प्राप्त थी. रामराज्य में शंबूक से यह स्वतंत्रता छीन ली जाती है. इसी तरह राक्षससम्राट जलंधर अपनी विष्णुभक्त पत्नी वृंदा के साथ सुखी जीवन जीता है और उनके दांपत्य के बीच अविश्वास की किरच तक मौजूद नहीं है, जबकि सीता को रावण की अशोकवाटिका में रहने के लिए भी अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है. यह गरीबी तथा जातिभेद द्वारा पैदा की गई अन्यान्य विषमताओं के विरुद्ध जंग भी है. सदियों से जाति के आधार पर सुखसुविधा और सम्मान भोगते आए समूह, परिवर्तनकामी समूहों पर जातिभेद को बढ़ावा देने का आरोप लगा रहे हैं. दूसरी ओर जातीय उत्पीड़न का शिकार रहे वर्गों को लगता है कि लोकतांत्रिक माहौल का लाभ उठाकर वे अपने संघर्ष को आगे बढ़ा सकते हैं. इसलिए वे जाति को संगठनकारी ‘टूल’ की तरह इस्तेमाल कर रहे है. लेकिन जातिआधारित संगठनों की अपनी परेशानियां हैं. इस देश में हजारों जातियां हैं. अपनें दम पर कोई भी जाति परिवर्तनकारी ताकत बनने में अक्षम है. अतः लोग समझने लगे हैं कि सामाजिक न्याय के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए समानांतर लड़ाई संस्कृति के मोर्चे पर भी लड़नी होगी. जीत उन्हीं की होगी जो संगठित रहने के साथसाथ सामूहिक विवेक से काम लेंगे.

ओमप्रकाश कश्यप

क्रांति-मशाल सावित्रीबाई फुले

विशेष रुप से प्रदर्शित

हम भारतीय अपनी सभ्यता पर गर्व करते हैं. ऐसे लोग जो प्राचीनतम को ही महानतम की कसौटी मानते है, वे और भी ज्यादा गर्व करते हैं. इतिहास की बात करें तो सभ्यताकरण के पिछले तीन हजार वर्षों में भारतीय समाज ने उथलपुथल के अनेक दौर देखे हैं. ढाई हजार वर्ष पहले जब बुद्ध के नेतृत्व में भारत दुनिया पर ‘धम्मविजय’ का सपना देख रहा था, उस समय कुछ विदेशी भारत पर राजनीतिक विजय का झंडा गाढ़ना चाहते थे. उन्हें लगता था कि महावीर और गौतम बुद्ध के प्रभाव में अहिंसा को अपना चुके भारतीय शासकों को युद्ध में हराना आसान होगा. लेकिन वह उनका भ्रम ही सिद्ध हुआ. खुद को सिकंदर महान करने वाले यूनानी शासक ने भारत पर जब हमला किया तो उसे जैन धर्म को अपना चुके चंद्रगुप्त की ओर से जोरदार टक्कर मिली. अहिंसावादी भारत ने सिकंदर के विश्वविजेता बनने के ख्बाव को चकनाचूर कर दिया. उसकी पराजय के पश्चात भारतीय पराक्रम की छाप विदेशियों के दिल पर ऐसी पड़ी कि अगले बारहतेरह सौ वर्षों में किसी विदेशी की भारत की ओर नजर उठाने की हिम्मत न पड़ी. बुद्ध के बाद भारत लगभग 1500 वर्षों तक विदेशी आक्रमणों से सुरक्षित रहा. लेकिन आंतरिक स्तर पर निरंतर कमजोर पड़ता गया. कारण था ब्राह्मणों का जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ता वर्चस्व. इसी दौर में पुराणों का लेखन हुआ. बुद्ध ने संगठन का आधार व्यक्तिगत और सामाजिक शुचिता को बनाया था. ब्राह्मण उसकी जगह वर्णव्यवस्था ले आए. आरंभ में वर्णव्यवस्था खुली थी. यानी कोई भी व्यक्ति अपने गुणकर्म के आधार पर अपना वर्णनिर्धारित कर सकता था. क्षत्रिय कुल में जन्मे विश्वामित्र और दासीपुत्र शूद्र महीदास ब्राह्मण कहलाए. ऊपर के वर्गों से निचले वर्गों में भी पलायन हुआ. चूंकि ब्राह्मण का समाज की कुल ज्ञानसंपदा पर एकाधिकार था. इसलिए उन्होंने धीरेधीरे वर्णव्यवस्था को जाति का रूप देना आरंभ कर दिया.

बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित होने के बावजूद भारतीय समाज के विकास की दिशा में वह कालखंड बहुत अधिक सहायक सिद्ध न हो सका. हालांकि उस अवधि में समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय जैसे पराक्रमी सम्राट हुए. परंतु समाज में, विशेषरूप से मानवीय स्वतंत्रता और समानता की दृष्टि से हालात निरंतर बिगड़ते गए. क्योंकि पूरा समाज छोटीछोटी जातियों और उपजातियों में बंटने लगा था. स्त्रियों के लिए परिवेश और भी निराशाजनक था. उनपर जाति के अलावा पितृसत्तात्मकता के बंधन भी थे. उसके बाद मुस्लिमों का शासन आया. वे बहुत जल्दी समझ गए कि इस देश में ब्राह्मणों को संतुष्ट किए बगैर लंबे समय तक टिके रहना संभव नहीं है. इसलिए उन्होंने हिंदू धर्म की मूल संरचना में अधिक छेड़छाड़ करने की कोशिश नहीं की. अपितु हिंदू भावनाओं का सम्मान करते हुए मंदिरों और धार्मिक कार्यों को खूब मदद दी. ब्राह्मणों को ऊंचे पद दिए. उसका लाभ ब्राह्मणों ने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए उठाया. भक्ति साहित्य के सहारे अवतारवाद की नींव पड़ी. उसकी मदद से ब्राह्मणवाद अपनी जड़ें मजबूत करने में लगा रहा. परिणामस्वरूप जातियों की संख्या जो मनुस्मृति के रचनाकाल तक मात्र कुछ दर्जन तक सीमित थी, मुगलकाल आतेआते हजारों में पहुंच गई. जातियां आर्थिकसामाजिक भेदभाव बनाए रखने में सहायक थीं. वे शूद्रों को जो मेहनतकश समुदाय था एकदूसरे का प्रतिद्विंद्वी बनाती थीं. समाज की कुल उत्पादकता के लिए जिम्मेदार होने के बावजूद उन्हें न तो अपने श्रम पर अधिकार था, न ही श्रमोत्पाद पर. राजसत्ता, धर्मसत्ता और अर्थसत्ता तीनों उसके शोषण पर तुली थीं. स्पर्धा ऊपर के तीनों वर्गों में भी थी. लेकिन चौथे वर्ग से टकराव की स्थिति में वे सभी एकजुट हो जाते थे. जातिप्रथा का सबसे विकृत और कलंकित रूप अस्पृश्यता के रूप में उपस्थित थी. उसने समाज के बड़े हिस्से से उसके मूलभूत अधिकार छीनकर, उसे नारकीय परिस्थितियों में रहने के लिए विवश कर दिया.

अंग्रेज इस देश में व्यापारी बनकर आए थे. आरंभ में उनका यहां शासन करने का कोई इरादा नहीं था. लेकिन जब उन्होंने इस देश को छह सौ से अधिक रियासतों में बंटे हुए पाया, यह देखा कि लोग आपस में ही लड़झगड़ रहे हैं तो उन्होंने अर्थसत्ता के साथसाथ राजसत्ता को भी साधना आरंभ कर दिया. इस कार्य में उन्हें स्थानीय शासक वर्ग की भरपूर मदद मिली. राजनीतिक औपनिवेशीकरण का मूल उद्देश्य आर्थिक उपनिवेश को सुरक्षित करना था. ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में प्रवेश के समय पश्चिम में बौद्धिक जागरण दस्तक दे चुका था. अगली दो शताब्दियों में एशिया और अफ्रीका के लगभग सभी देश औपनिवेशीकरण की जद में आ चुके थे. चारों ओर यूरोप की वैचारिक क्रांति की धूम मची थी. स्वाभाविक रूप से यूरोपीय लोगों को उनपर गर्व था. वे स्वयं को नई सभ्यता का संवाहक कहते थे. उनका दावा था कि उनका शासन उपनिवेशों को उनकी संस्कृतियों के बर्बर तत्वों से मुक्ति दिलाएगा. साम्राज्यवादी लिप्सा और आर्थिक दोहन को कुछ देर के लिए भुला दिया जाए तो औपनिवेशिक ताकतों के इस दावे में दम था. राजनीतिक सत्ता हथियाने के बाद अंग्रेजों ने भारत में जो कानून बनाए, उनपर वहां की वैचारिक क्रांति का असर था. फलस्वरूप शताब्दियों से शोषण एवं उत्पीड़न का शिकार रहे शूद्रों और अतिशूद्रों को शिक्षाप्राप्ति का अवसर मिला. समान नागरिकता का कानून लागू होने से उनमें अधिकार चेतना बढ़ी. सरकारी नौकरियों के दरवाजे उनके लिए खुलने लगे. लेकिन कानून बनाना अलग बात थी. उत्पीड़ितों को उनका लाभ उस समय तक मिलना संभव न था, जब तक उनके भीतर परिवर्तन की मौजूद न हो. इस काम के लिए आगे आए ज्योतिराव फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले. ज्योतिराव फुले ने जिन्हें सब प्यार से ज्योतिबा कहते थे, दो स्तरों पर काम किया. यह मानते हुए कि जातिवाद की नींव धर्मशास्त्रों तथा उस पुरोहित वर्ग पर टिकी है, जो धर्म और धर्मशास्त्रों की मनमानी व्याख्या करते हैं, उन्होंने धार्मिक मिथों की पड़ताल की. दर्जनों स्कूल खोले, उसके फलस्वरूप समाज में नई क्रांति ने दस्तक दी और देश आधुनिक राज्य बनने की ओर अग्रसर हुआ.

2

सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के नायगांव में हुआ था. यह स्थान पुणेसतारा मार्ग पर पुणे से 50 किलोमीटर दूर है. उनके पिता का नाम खांडोजी नेवासे पाटिल तथा मां का नाम लक्ष्मी था. वे अपने पिता की सबसे बड़ी बेटी थीं. सावित्रीबाई का बचपन ठीक ऐसे ही बीता जैसे उस उम्र में दूसरी लड़कियों का बीतता था. अपनी सहेलियों के साथ खेलतेकूदते, हंसतेबतियाते हुए. बस एक बात उन्हें अपनी हमउम्र लड़कियों से अलग करती थी. सावित्रीबाई बचपन से ही निडर और साहसी थीं. हमेशा नया सीखने को उत्सुक रहती थीं. तैराकी उनका शौक था. गुलेल का निशाना इतना पक्का था कि एक निशाने से फल जमीन पर आ गिरता. दबंग इतनी कि लड़कों से जूझने में भी पीछे नहीं हटती थीं. खासतौर पर यदि कोई लड़का लड़की को सताए तो उनका कोप देखते ही बनता था. आगे बढ़कर वे उसकी पिटाई कर देती थीं. खेलकूद के अलावा घुमक्कड़ी भी उनके शौक में शामिल थी. इसलिए सहेलियों के साथ घूमते हुए दूर निकल जातीं. वहां नएनए पेड़पौधों को देखना, उनका नामगुण की जानकारी हासिल करना, उनका स्वभाव था. जिज्ञासा और कौतूहल से ही उनके पसंदीदा खेल बने थे.

उनके बचपन की एक घटना है. एक बार वे बच्चों के साथ ऐसे ही जंगल में घुमक्कड़ी कर रही थीं. तभी उनकी नजर एक सांप पर पड़ी जो अपने कुत्सित इरादों के साथ एक घौंसले की ओर बढ़ रहा था. प्रखर बुद्धि सावित्रीबाई समझ गईं कि सांप का निशाना घौंसले में रखे पक्षी के अंडे या बच्चे हैं. बस फिर क्या था! उन्होंने रास्ते से पत्थर उठाया और सांप में दे मारा. निशाना अचूक था. सांप जमीन पर आ गिरा. बाकी बच्चे घबराकर अपनेअपने घर की ओर भाग गए. परंतु सावित्रीबाई तत्क्षण आगे बढ़कर उसपर डंडे से प्रहार करने लगीं. सांप को अशक्त करने के बाद ही उन्होंने उसका पीछा छोड़ा.

उन दिनों लड़कियों को पढ़ाने का चलन नहीं था. शूद्रों और अतिशूद्रों के लिए तो यह और भी कठिन था. मगर यदि कोई सावित्रीबाई जैसा जिज्ञासु हो तो अज्ञानता की पकड़ स्वतः ढीली पड़ने लगती है. सावित्रीबाई बचपन से ही अक्षरों के प्रति सम्मोहित थीं. प्रखर बुद्धि तो वे थीं ही. एक और घटना है. एक बार वे पड़ोस के शिखल गांव में मेला देखने गई हुई थीं. उस समय उनकी उम्र मात्र छहसात वर्ष थी. बच्चों के साथ उन्होंने भी मेले से खाने के लिए खरीदा. उसे खातेखाते वे मेला घूम ही रही थीं कि कानों में संगीत ध्वनि पड़ी. एक पेड़ के नीचे कुछ अंग्रेज गाबजा रहे थे. घूमतीघामती सावित्री उनके पास चली गईं. वहां एक अंग्रेज ने उन्हें खाते हुए देखा तो टोक दिया—‘चलतेफिरते खाना अच्छी बात नहीं होती.’ अच्छी सीख को मानने में सावित्रीबाई ने विलंब नहीं किया. उन्होंने खाने की सामग्री तुरंत फेंक दी. अंग्रेज पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा. उसने प्रसन्न होकर सावित्री को एक पुस्तक उपहार में दी. पुस्तक अंग्रेजी में थीं. वे अंग्रेज का मुंह देखने लगीं. अंग्रेज ने हंसकर कहा—‘पढ़ना नहीं आता, कोई बात नहीं. पुस्तक को अपने पास रखो. फिलहाल चित्र देखकर जितना समझ सको, उनका काफी होगा.’ पुस्तक लेकर सावित्रीबाई घर चली आईं.

उन दिनों लड़कियों को पढ़ानेलिखाने का चलन न था. कई जगह तो वह पाप समझा जाता था. उपहार में मिली पुस्तक को निहारते हुए सावित्रीबाई अक्षरों की उष्मा को महसूस कर ही रही थीं कि उनके मातापिता ने उन्हें देख लिया. बेटी के हाथों में अंग्रेजी की पुस्तक देख वे आगबबूला हो गए. सावित्रीबाई ने घबराकर वह पुस्तक खिड़की से फैंक दी. पिता का गुस्सा शांत होने के बाद सावित्री उस पुस्तक को उठाकर लाईं, फिर पिता से बोलीं—‘देख लेना, एक दिन मैं इस पुस्तक को अवश्य पढ़ लूंगी.’ उसके बाद उन्होंने वह पुस्तक संदूक के हवाले कर दी. बात आईगई हो गई. उस समय कौन जानता था कि सावित्री बाई फुले न केवल उस पुस्तक को पढ़ने में सक्षम होंगी, अपितु ऐसा करिश्मा कर दिखाएंगी कि अशिक्षा के अंधकार में रह रहीं देश की बाकी स्त्रियां भी पुस्तकें पढ़लिख सकेंगीं. वह संभव हुआ. बहुत जल्दी, कुछ ही अंतराल के बाद सावित्रीबाई फुले ने बड़े आंदोलन के साथ परिवर्तन की शुरुआत की.

उन दिनों लड़कियों का विवाह अल्पायु में ही हो जाता था. 1840 में सावित्रीबाई के परपंराजीवी परिवार ने भी उनका विवाह मात्र दस वर्ष की अवस्था में ज्योतिबा फुले के साथ कर दिया गया. फुले की उम्र उस समय 13 वर्ष थी. वह उम्र खेलनेकूदने और दुनिया को समझने की शुरुआत करने की थी. हजारों वर्षों से भारत में राजनीतिक सत्ता चाहे जिनके भी हाथ में रही हो, सामाजिक सत्ता पर ब्राह्मणों का ही अधिकार था. जाति के माध्यम से उन्होंने पूरे समाज को दो हिस्सों में बांटा हुआ था. एक ओर ब्राह्मण और वे ऊंची जातियां थीं, जिन्हें मनुवादी विधान अतिरिक्त अधिकार देता था. उनमें ब्राह्मण सर्वोपरि थे. बाकी दो वर्ग क्षत्रिय और वैश्य क्रमशः राजसत्ता और अर्थसत्ता की मदद से ब्राह्मणवाद का पोषण करते थे. चौथे वर्ग में शूद्र और अतिशूद्र आते थे. शूद्र यानी क्षुद्र. शिक्षा और संसाधनों से विपन्न. ब्राह्मण ग्रंथों में उन्हें पंचम वर्ण, दास, दस्यु जैसे नाम दिए गए थे. मनुवादी विधान में उनका काम था बाकी तीनों वर्गों की सेवा करना. असल में चौथा वर्ग ही समाज का प्रमुख उत्पादक वर्ग था. बाकी तीनों वर्ग पूरी तरह अनुत्पादक और परजीवी थे. बावजूद इसके उनके पास अधिकारों की अफरात थी, जबकि चौथे वर्ग को पूरी तरह अधिकारविपन्न अवस्था में रखा गया था. अपनी धार्मिक सत्ता को बनाए रखने के लिए ब्राह्मणों ने दलितों पर तरहतरह के सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंध लागू किए थे. जहां ब्राह्मण को पृथ्वी की समस्त संपदा का अधिकारी बताया गया था, वहीं शूद्रों एवं अतिशूद्रों को संपत्ति रखने के अधिकार से भी वंचित किया गया था. हिंदू धर्म का रवैया उनके प्रति पक्षपातपूर्ण था. हिंदुओं के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से अर्थ और मोक्ष शूद्रों और अतिशूद्रों पर लागू नहीं थे. यदि अपने श्रमकौशल से कोई शूद्र कुछ धनराशि जुटा भी ले तो ‘मनुस्मृति’ उस धर्म को बलात् छीन लेने की अनुशंसा करती थी.

मनुस्मृति के प्रावधानों का लाभ उठाते हुए ब्राह्मण न केवल सामाजिक सत्ता में सर्वोपरि स्थान पर थे, अपितु सरकारी पदों पर भी वही छाए हुए थे. इस अन्याय का सामना करने के लिए नवंबर 1916 में मद्रास में ‘जस्टिस पार्टी’ की स्थापना की गई थी. दिसंबर 1916 में पार्टी ने ‘दि नाॅन ब्राह्मण मेनीफेस्टो’ जारी किया था. उस मेनीफेस्टो में पार्टी ने 1912 में सत्ता प्रतिष्ठानों पर ब्राह्मणों के अधिपत्य का ब्यौरा दिया था—

जाति वर्ग

कुल

जनसंख्यानुपात

डिप्टी

कलेक्टर

उपन्यायाधीश

जिला मुंसिफ

ब्राह्मण

3.2

77

15

93

गैरब्राह्मण हिंदू

0

30

3

25

मुस्लिम

6.6

15

0

2

भारतीय ईसाई

2.7

7

0

5

यूरोपीय तथा अन्य यूरेशियाई नागरिक

नगण्य

11

0

3

गैरब्राह्मण हिंदुओं भी अधिकांश उच्च सवर्ण जातियों के लोग ही सरकारी सेवा में थे. शूद्रों और अतिशूद्रों की भागीदारी पूर्णतः नदारद थी. शिक्षा की दृष्टि से वे अत्यंत पिछड़े हुए थे. सरकारी नौकरियों में प्रवेश न होने का यह भी बड़ा कारण था. महाराष्ट्र में इस स्थिति को ज्योतिबा फुले ने समझा था. उनकी जाति माली की गिनती पिछड़ी जातियों में की जाती थी. वह न केवल शिक्षा, अपितु संसाधनों के आधार पर भी अत्यंत पिछड़ी हुई थी. अपनी जाति में फुले के पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी थी. लेकिन शिक्षा के प्रति उनमें भी किसी प्रकार की जागरूकता न थी. लेकिन रिश्ते की बहन सगुणाबाई के जोर डालने पर फुले के पिता ने उन्हें प्राथमिक पाठशाला में भर्ती करा दिया गया. ज्योतिबा प्रखर बुद्धि थे, मगर वहां पढ़ाई लंबी न खिंच सकी. ब्राह्मणों के बहकावे में आकर फुले के पिता ने उन्हें विद्यालय से निकाल लिया. और जैसा कि उन दिनों चलन था, 13 वर्ष की उम्र में फुले का विवाह कर परंपरानुसार गृहस्थ आश्रम में ढकेल दिया गया था. उस समय फुले के मार्गदर्शक बनकर आए मुंशी खान गफ्फार बेग और सर लिजिट. गफ्फार बेग अध्यापक थे और शिक्षा के महत्त्व को भलीभांति समझते थे. जबकि लिजिट अंग्रेज अधिकारी थे. उन्होंने न केवल फुले को शिक्षा का महत्त्व समझाया, अपितु उनके मातापिता को भी उनकी आगे की पढ़ाई के लिए राजी कर लिया. विवाह के एक वर्ष बाद फुले को पूना के स्काटिश मिशन स्कूल में भर्ती करा दिया गया.

स्कूल के पुस्तकालय में फुले का परिचय यूरोप की वैचारिक क्रांति के प्रवत्र्तकों तथा उसे आंदोलन का रूप देने वाले विचारकों से हुआ. थाॅमस पेन की ‘मनुष्य के अधिकार’ उन्होंने पढ़ी. वहीं अश्वेतों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले मार्टिन लूथर किंग के बारे में पढ़ने को मिला. उनके अलावा जार्ज वाशिंग्टन, शिवाजी, थाॅमस जेफरसन, मिल, रूसो के विचारों का असर भी उनपर पड़ा. इसी से उनके मन में समाज सुधार की प्रेरणा जगी. फुले के एक मित्र थे, सदाशिव गोवड़े. अच्छे और संवेदनशील इंसान थे. जज के कार्यालय में काम करते थे. एक बार फुले उनसे मिलने गए. भविष्य की योजनाओं पर बात की. भारत में मिशनरियों को आने की अनुमति 1831 में मिल चुकी थी. अहमदनगर में जहां सदाशिव कार्यरत थे, मिशनरियों के अनेक स्कूल थे. एक दिन फुले और सदाशिव उन स्कूलों को देखने गए. सदाशिव के साथ वे एक स्कूल की संचालिका, श्रीमती फरार से भी मिले. बातचीत हुई. श्रीमती फर्रार ने फुले को भारतीय स्त्रियों की दुर्दशा के बारे में बताया. फुले से भी भारतीय स्त्रियों की दुर्दशा छिपी न थी. श्रीमती फर्रार ने जब उन्हें स्त्रीशिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए कहा तो फुले को मानो अपना आरंभिक लक्ष्य मिल गया. वहां से लौटते समय वे बहुत प्रसन्न थे.

फुले के व्यक्तित्व निर्माण में उनकी बुआ सगुणाबाई का बहुत बड़ा योगदान था. इसलिए स्त्रियों के प्रति विशेष सम्मान बचपन से ही उनके मन था. लेकिन जिस जाति में वे जन्मे थे, उसमें शिक्षा के प्रति कोई जागरूकता न थी. फुले इसे भलीभांति समझते थे, परंतु उन्हें विश्वास था कि एक बार शुरुआत हो जाए तो लोग झिझक छोड़कर स्वयं आने लगेंगे. सो शुरुआत के लिए उन्होंने अपने परिवार को ही चुना. सबसे पहले सावित्रीबाई से बात की. पढ़नालिखना तो सावित्रीबाई का सपना था. उन्होंने तत्क्षण अपनी स्वीकृति दे दी. उसी ‘हां’ के साथ समाज में एक शीत क्रांति का सूत्रपात हुआ. फुले ने न केवल सावित्रीबाई को घर में पढ़ाना आरंभ कर दिया, अपितु सुगणाबाई को भी उनके साथ शामिल कर लिया. दिन में वे अपना काम देखते. शाम को भोजन के उपरांत दोनों को पढ़ाने बैठ जाते. इस तरह सगुणाबाई आधुनिक भारत की प्रथम प्रौढ़ विद्यार्थी भी अनायास ही बन गईं.

1831 के बाद ईसाई मिशनरियों को भारत में आकर काम करने की अनुमति मिल चुकी थी. उन्होंने भारत में जगहजगह स्कूल खोले हुए हुए थे. मिशनरी स्कूलों में सैद्धांतिक रूप से सभी वर्गों के विद्यार्थी पढ़ सकते थे. परंतु ऊंची जातियों के लोग ऐसे विद्यालयों में जहां शूद्र भी पढ़ते हों, अपने बच्चों को भेजने के लिए तैयार नहीं होते थे. जो शूद्र और अतिशूद्र उन विद्यालयों में पढ़ना चाहें उन्हें तरहतरह के अपमान का सामना करना पड़ता था. इसलिए उन स्कूलों में शूद्र और अतिशूद्र विद्यार्थियों की संख्या बहुत कम, करीबकरीब नगण्य होती थी. मिशनरियों के अलावा भारतीय द्वारा खोले गए स्कूल भी थे, जिनमें सिर्फ ऊंची जातियों के बच्चों को शिक्षा की अनुमति थी. शूद्रों और अतिशूद्रों के लिए शिक्षा के अवसर बहुत विरल थे. फुले की चिंता उन्हीं को लेकर थी. वे पुणे के महारबाड़े में स्कूल खोलना चाहते थे. मगर स्कूल के लिए अध्यापकों की आवश्यकता थी. सवर्ण उन्हें पढ़ाना तो दूर पास भी न फटकने देते थे. फुले की उम्मीद फिर अपनी पत्नी पर आकर टिक गई. घरेलू पढ़ाई से सावित्रीबाई खुद पढ़नालिखना सीख चुकी थीं. मगर अध्यापन के लिए तो विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता थी. यह जिम्मेदारी फुले के दो मित्रों, सुखराम यशवंत परांजपे और केशव शिवराम भावलकर ने उठाई. उनकी मदद से सावित्रीबाई और सुगणाबाई ने पुणे की छबीलदास हवेली में चलाए जा रहे नार्मल स्कूल में प्रवेश ले लिया.

वह एक मिशनरी स्कूल था, जिसका संचालन मिशेल नामक ब्रिटिश महिला के जिम्मे था. उसके बाद सावित्रीबाई ने पुणे से अध्यापक प्रशिक्षण प्राप्त किया. इसके अलावा उन्होंने श्रीमती फरार द्वारा अहमदनगर में चलाए जा रहे अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम में हिस्सा लिया. इस तरह सावित्रीभाई भारत की पहली प्रशिक्षित अध्यापिका बनीं. पति की तरह सावित्रीबाई को भी पुस्तकों से प्रेम था. अध्ययन के दौरान उन्होंने अनेक आधुनिक विचारकों को पढ़ा था. उनपर सबसे ज्यादा प्रभाव थाॅमस क्लार्कसन(1760-1846) का पड़ा था. क्लार्कसन मूलतः ब्रिटिश नागरिक थे. उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा उपनिवेशों में चलाए जा रहे गुलामों के कारोबार के विरोध में बड़ा आंदोलन किया था. जिसके फलस्वरूप उस घृणित कारोबार पर रोक लगी थी. सावित्रीबाई को लगा कि भारत में शूद्रों और अतिशूद्रों, विशेषकर उन वर्गों में महिलाओं की स्थिति अफ्रीकी गुलामों जैसी ही है. इस गुलामी से उन्हें केवल एक ही चीज मुक्ति दिला सकती है, वह है शिक्षा.

जिस समय सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने शूद्रों और अतिशूद्रों के लिए पाठशाला खोलने का संकल्प लिया, दोनों की उम्र क्रमशः 18 और 22 वर्ष थी. शुरुआत उन्होंने महारबाड़ा से की. उस जमाने में वह बड़ा साहसी कदम था. उन दिनों समाज में न केवल शिक्षा के प्रति उपेक्षा का भाव था, अपितु उसे बुरा भी माना जाता था. खासतौर पर लड़कियों की शिक्षा को लेकर. इसलिए जैसी आशंका थी, वही हुआ. ब्राह्मणों के बहकावे में लोग स्कूल के विरोध में उतर आए. विरोध इतना बढ़ा कि फुले दंपति को स्कूल बंद करना पड़ा. फुले के लिए यह बहुत बड़ा आघात था. परंतु वे इतनी जल्दी हार मानने वाले न थे. उन्होंने शूद्रों और अतिशूद्रों की सभा का आयोजन किया. उस सभा में उन्होंने जोरदार भाषण दिया. उसी सभा में तात्यासाहब भिड़े भी उपस्थित थे. वे फुले दंपति द्वारा किए जा रहे प्रयासों से विशेष प्रभावित थे. उन्होंने भिडे़वाड़ा स्थित अपने घर को स्कूल के लिए देने का प्रस्ताव रखा रखा. साथ ही स्कूल के लिए 101 रुपये एकमुश्त तथा प्रतिमास 5 रुपये चंदा देने की भी घोषणा की. यह बड़ा प्रोत्साहन था. इस तरह 1 जनवरी 1848 को लड़कियों के लिए पहले स्कूल की

स्थापना भिड़ेबाड़ा में हुई. मगर स्कूल खुलना ही समस्या का समाधान न था. बड़ी चुनौती थी लोगों को लड़कियों की शिक्षा के लिए तैयार करना. अधिकांश मातापिता लड़कियों को पढ़ाने के विरुद्ध थे. ऊपर से ब्राह्मण उन्हें भड़काते, शास्त्रों का डर दिखाते थे. कहते कि लड़कियों को पढ़ाने से सात पुश्तों तक नर्क भोगना पड़ता है. लोकनिंदा के भय से फुले के परिजन भी उनके द्वारा खोले गए स्कूल से अप्रसन्न थे. विशेषकर ब्राह्मण. उन्होंने फुले के पिता को समझाया कि वे धर्मविरुद्ध काम कर रहे हैं. स्वजातियों ने उन्हें जातिबहिष्कार करने की धमकी दी. लोगों के निरंतर विरोध पर फुले के पिता उनके दवाब में आ गए. अंततः वह समय भी आया जब 1849 में फुले को अपना पैत्रिक आवास छोड़ना पड़ा. घर के साथसाथ पैत्रिक व्यवसाय भी उनके हाथों से निकल गया. आजीविका चलाने के लिए फुले सरकारी निर्माण कार्य के ठेके लेने लगे. तीन वर्ष बाद, उस घटना को याद करते हुए फुले ने कहा था—

मेरे स्वजातीय भी नहीं चाहते थे कि लड़कियों को शिक्षा दी जाए. मेरे अपने ही पिता ने हमें घर से बाहर निकाल दिया था. स्कूल के लिए न तो कोई घर देने को तैयार था, न ही हमारे पास उसे बनाने के लिए आवश्यक था. लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजने को भी तैयार न थे.’3

पहले स्कूल के लिए घरघर जाकर बड़ी मुश्किल से फुले दंपति 6-7 मातापिताओं को अपने बच्चों को स्कूल भेजने को तैयार कर सके थे. उन लड़कियों के नाम थे, अन्नपूर्णा जोगी, सुमिति मोकशी, दुर्गा देशमुख, माधवी धन्ना, सोनू पवार तथा जरनाकार्दले. सावित्रीबाई और सगुणाबाई ने मिलकर उन्हें पढ़ाना आरंभ कर किया. विद्यालय को फुले के मित्रों की ओर से भी मदद प्राप्त होने लगी. अहमदनगर से सदाशिव गोवड़े ने विद्यार्थियों के लिए पुस्तकें भिजवाने का काम किया था. उसके बाद तो सहयोगी मिलते गए और संघर्ष के बीच सफलता भी साथ निभाने लगी. 1851 तक पुणे में फुले दंपति लड़कियों के लिए तीन पाठशालाएं खोल चुके थे. जबकि इसी अवधि में उनके द्वारा स्थापित स्कूलों की कुल संख्या 18 तक पहुंच चुकी थी. जहां स्कूलों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही थी, वहीं फुले विद्यार्थियों को पढ़ाने वाली विषयवस्तु को लेकर भी सतर्क थे. उनके विद्यालयों में बच्चों को गणित, विज्ञान, भाषा के अलावा अंग्रेजी के अध्यापन को भी शामिल किया गया.

आंदोलन की शुरुआत के लिए शिक्षा के क्षेत्र को ही क्यों चुना? इस बारे में अपने एक साक्षात्कार में फुले ने कहा था—‘अज्ञानता, भाषा एवं जातिआधारित भेदभाव इस देश के पतन का कारण हैं. यदि सब इससे दुखी हैं तो सवाल खड़ा होता है कि इनसे मुक्ति की पहल कौन करेगा? इस तरह के प्रश्नों को नजरंदाज करने से अच्छा है, उन लोगों की मदद के लिए काम किया जाए, जो इससे त्रस्त हैं. इनमें महार और मांग लोग जातिभेद से बुरी तरह प्रभावित हैं. केवल शिक्षा के माध्यम से ही वे उस दलदल से बाहर निकल सकते हैं. इसीलिए मैंने उनके लिए काम करने का फैसला किया था.’ ‘दार्शनिकों ने इस संसार की तरहतरह से व्याख्या की है, असली चुनौती इसे बदलने की है’ ये शब्द मार्क्स ने ‘थीसिस ऑन फायरबाख’ में 1845 में लिखे थे. 1888 में वह रचना प्रकाशित होकर दुनिया के सामने आई. फुले उससे करीब 40 वर्ष पहले की उसे अपने कर्तव्य के माध्यम से दुनिया के सामने ला चुके थे. लड़कियों के लिए शिक्षा क्यों आवश्यक है? इस बारे में भी फुले के विचार एकदम स्पष्ट थे. 15 सितंबर 1853 को मराठी अखबार ‘ज्ञानोदय’ को दिए गए एक और साक्षात्कार में उन्होंने कहा था—

मैं समझ चुका था कि बालक में मां के माध्यम से होने वाला विकास ही महत्त्वपूर्ण होता है. इसलिए जो इस देश का भला चाहते हैं, जो चाहते हैं कि हमारा समाज विकास की ओर अग्रसर रहे, उन्हें स्त्रियों की हालत में सुधार करने, उन्हें पढ़ानेलिखाने के सभी आवश्यक प्रयास करने चाहिए.’4

पूना काॅलेज के प्रधानाध्यापक केंडी को लिखे गए पत्र दिनांक, 5 फरवरी 1852 के अनुसार तीनों विद्यालयों में पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या 48, 51 और 33 थी. उन्हें पढ़ाने के लिए क्रमशः 4, 3 और 1 अध्यापक उन विद्यालयों में कार्यरत थे. सावित्रीबाई फुले उनमें से एक स्कूल की प्रधानाध्यापिका थीं. उन्होंने अपने साथ फातिमा शेख और सगुणाबाई को भी शामिल कर लिया था. फातिमा शेख ज्योतिबा शेख के मित्र उस्मान शेख की बहन थीं. फुले के आग्रह पर उस्मान शेख अपनी बहन को पढ़ाने के लिए तैयार हुए थे. बाद में फातिमा शेख सावित्रीबाई फुले के साथ उनके स्कूल में अध्यापन करने लगीं. उन्हें मुस्लिम बालिकाओं को स्कूल में दाखिला लेने के लिए भी प्रोत्साहित किया था. स्वयं ज्योतिबा फुले भी शिक्षा के प्रचारप्रसार को समर्पित थे. वे जानते थे कि मिशनरी और दूसरों स्कूलों के सामने तभी टिका जा सकता है, जब उनके स्कूलों में दी जा रही शिक्षा गुणवत्ता पूर्ण हो. इसलिए पाठ्यक्रम निर्धारण से लेकर अध्ययन की प्रविधियों तक, सभी का पूरापूरा ध्यान रखा जाता था. स्कूलों में प्रबंधन के स्तर पर कोई कमी न हो, इसे ध्यान में रखते हुए सावित्रीबाई बाई फुले ने 1852 में ‘महिला मंडल’ नामक संस्था का गठन किया, जो उन स्कूलों के संचालन पर नजर रखती थी.

एक ओर जहां फुले दंपत्ति का अभियान मजबूती से आगे बढ़ रहे थे, वहीं दूसरी ओर रूढ़िवादी थे, जो सामाजिक क्रांति के उस अभियान को असमय ही रोक देने पर उतारू थे. उनके लिए लड़कियों को पढ़ानालिखाना उन्हें गलत संस्कार देना, समाज को बिगाड़ने जैसा उद्यम था. कुछ उनपर बच्चों के ईसाईकरण की कोशिश का इल्जाम लगाते. ऐसे लोग फुले दंपति की मार्ग में तरहतरह से अड़चन पैदा कर रहे थे. सावित्रीबाई स्कूल जातीं तो स्त्रियां उनपर तरहतरह के ताने कसतीं. उन पर पत्थरों, गोबर, अंडे और कीचड़ फेंककर बाधा पहुंचाई जाती. उस समय सावित्रीबाई बस एक ही बात कहती—‘ईश्वर उन्हें क्षमा करे. मैं केवल अपना काम कर रही हूं. भगवान उन्हें सुखी रखे.’ लोगों की ओर से विरोध को देखते हुए फुले ने सावित्रीबाई को अतिरिक्त साड़ियां खरीदकर दी थीं. स्कूल जाते समय वे एक धुली हुई साड़ी अपने थैले में रखतीं. आवश्यकता पड़ने पर स्कूल में कपड़े बदल लेती थीं. एक बार एक व्यक्ति ने सावित्रीबाई फुले के साथ अभद्रता की तो उन्होंने उसे एक चांटा जड़ दिया था. उसके सावित्रीबाई को लानेलाने के लिए एक व्यक्ति रख दिया गया.

धीरेधीरे परिस्थितियां अनुकूल होने लगीं. फुले के शुभचिंतक स्कूल के लिए आवश्यक वस्तुएं, पुस्तकें तथा उनकी आवश्यकता की दूसरी वस्तुएं भेंट करने लगे. मोरो विट्ठल वाल्वेकर, देवराव थोसर, मेजर केंडी ने स्कूलों के लिए पुस्तकें भेट कीं. लेकिन फुले के लिए जरूरी था, उनके विद्यालयों का शिक्षा विभाग के आकलन पर खरा उतरना. उसके लिए दादोबा पांडुरंग नामक स्कूल निरीक्षक ने फुले की पाठशाला का निरीक्षण किया था. 16 अक्टूबर 1851 को उनके सामने विशेष परीक्षा का आयोजन किया गया. उस समय तक स्कूल को आरंभ हुए यद्यपि कुछ ही अर्सा हुआ था, बावजूद इसके परीक्षा में बैठी लड़कियों ने आश्वस्तकारी प्रदर्शन किया. दादोबा पांडुरंग उससे बेहद प्रसन्न थे. 17 फरवरी 1852 को स्कूलों में पहली वार्षिक परीक्षा का आयोजन किया गया. दूसरी वार्षिक परीक्षा 12 फरवरी 1852 को आयोजित की गई. पूना शहर के लिए ये दोनों घटनाएं खासी कौतूहलपरक थीं. उन्हें देखने के लिए जनसमुदाय उमड़ पड़ता था. दोनों बार लगभग 3000 लोग लड़कियों की स्कूल परीक्षा को देखने के स्कूल परिसर में जमा हुए थे. परिसर के बाहर भी काफी भीड़ जमा होती थी. दूसरी वार्षिक परीक्षा में 237 लड़कियों ने हिस्सा लिया था. पांडुरंग ने स्कूल के बहीखातों की भी जांच की थी. दानदाताओं तथा स्कूल प्रबंधकों की ओर से कुल 1947 रुपये 50 पैसे विद्यालय में जमा हुए थे. जमाखातों की जिस तरह देखभाल की जाती थी, उसने स्कूल निरीक्षक को आश्वस्त किया था. उसके परिणामस्वरूप स्कूलों को सरकारी दक्षिणा फंड से 900 रुपये की सहायता राशि स्वीकृत की गई थी. यह फुले दंपति द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों को सरकारी मान्यता जैसा ही था. फुले दंपति स्कूलों की संख्या बढ़ाना चाहते थे. लेकिन उनके पास उपयुक्त धनराशि का अभाव था. 1857 के बाद दक्षिणा राशि से सरकारी सहायता भी घटकर मात्र 300 रुपये सालाना रह गई. लेकिन 1858 में सरकार ने 5000 रुपये की धनराशि स्कूल के भवन निर्माण के नाम पर स्वीकृत की थी. उस समय तीनों स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या 258 तक पहुंच चुकी थी. फुले दंपति द्वारा संचालित स्कूलों में शिक्षा की जांच के लिए शिक्षा परिषद के अध्यक्ष जाॅन वार्डन ने भी निरीक्षण किया था. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा था—

जब मैंने 1851 में पुणे के कमिश्नर का कार्यभाल संभाला, तब मैंने लड़कियों के विद्यालय का निरीक्षण किया था. मुझे याद था कि यहूदियों के डर से ईसाई स्कूलों में कक्षाएं मुख्य द्वार से हटकर, ऊपर की मंजिल पर चलाई जाती थीं. उस स्कूल की अध्यापिका ‘माली’ की पत्नी थी. उनके पति ने उन्हें पढ़नालिखना सिखाया था, ताकि वे विपन्न हालात में जी रहे अपने बंधुबांधवों को उनकी त्रासद स्थिति से उबार सकें. वहां विवाहिता महिलाओं को शिक्षा का प्रशिक्षण देने के लिए भी कक्षाएं चलाई जा रही थीं. मैंने उनसे अपनी उपस्थिति में लड़कियों से कुछ प्रश्न पूछने का आग्रह किया था.’5

लड़कियों की प्रगति देख जाॅन वार्डन भी खुश हुए थे. उन्होंने फुले के स्कूलों में पढ़ रही छात्राओं को सरकारी स्कूल के विद्यार्थियों से अधिक योग्य माना था. यह तब था, जब फुले दंपति द्वारा चलाए जा रहे स्कूल संसाधनों के अभाव से जूझ रहे थे. इस संबंध में ‘पुणे ओवरसियर’ में 29 मई 1852 के अंक में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. उसमें लिखा था कि फुले दंपति—‘द्वारा संचालित विद्यालयों में लड़कियों की स्थिति सरकारी स्कूलों में अध्ययनरत लड़कों की स्थिति से दस गुना बेहतर थी. यह इसलिए था क्योंकि फुले दंपति के स्कूलों में अध्यापन की प्रविधि सरकारी स्कूलों के अध्यापकों की अध्ययन प्रविधि से काफी अच्छी थी.’ रिपोर्ट में सरकारी स्कूल के संचालकों को सावधान किया गया था—

यदि यही हालात रहे तो फुले दंपति के स्कूलों में अध्ययनरत छात्राएं, बहुत जल्द सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को पीछे छोड़ देंगी. इस उपलब्धि को वे आने वाली परीक्षाओं में ही प्राप्त कर सकती हैं. यह उनकी सबसे बड़ी जीत होगी. यदि सरकारी स्कूल के शिक्षातंत्र ने जल्दी ही कुछ नहीं किया तो बेहद साधारण परिवारों से आई ये लड़कियां हमें शर्म से सिर झुकाने को विवश कर देंगीं.’

निश्चय ही इसके पीछे सावित्रीबाई फुले का बड़ा योगदान था. फुले दंपति द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में किए जा रहे सराहनीय प्रयासों से प्रसन्न होकर कंपनी सरकार की ओर से उन्हें 16 नवंबर 1852 को पुणे के विश्रामवाडा में सम्मानित किया गया था. उसपर पुरातनपंथियों ने यह कहकर आपत्ति दर्ज की थी कि ज्योतिराव जैसे शूद्र को, उनके रहते कैसे ‘महावस्त्र’ प्रदान किया जा सकता है. उन्होंने सम्मान समारोह में विघ्न डालने की कोशिश भी की थी, जिसे फुले के स्वयं सेवकों ने उनके षड्यंत्र को समय रहते असफल कर दिया था.

शिक्षा को लेकर फुले दंपति की दृष्टि कितनी व्यापक थी, यह इससे भी पता चलता है कि उनीसवीं शताब्दी में जब भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव डालने की कोशिशें की जा रहीं थीं, तभी उन्होंने शिक्षा को रोजगार से जोड़ने की पहल की थी. यह उनकी दूरदर्शिता को दर्शाता था. दरअसल फुले दंपति जिस वर्ग का शिक्षा के माध्यम से उद्धार करना चाहते थे, वह समाज का सबसे विपन्न तबका था. केवल श्रम ही उसकी पूंजी थी. उनके पास न तो जमीन थी, न ही दूसरे संसाधन जिससे वे सुुनिश्चित रोजगार प्राप्त कर सकें. दूसरी ओर देश मेें औद्योगिकीकरण की नींव पड़ रही थी. कोलकाता, मुंबई, सूरत, अहमदाबाद, मद्रास जैसे बड़े शहरों में कपड़े और लोहे के कारखाने लगाए जा रहे थे. फुले जानते थे कि भविष्य में कुशल कामगारों की मांग बढ़ने वाली है. विद्यार्थियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए 1852 की रिपोर्ट में अनुशंसा की गई थी कि स्कूलों को किसी उद्योग विभाग से जोड़ा जाना चाहिए, ताकि वहां अध्ययन करने वाले बच्चे दस्तकारी तथा दूसरे उद्यमों का परिचय प्राप्त हो; और स्कूल से निकलने के बाद वे अपना उद्यम स्थापित कर, आत्मनिर्भर जीवन की शुरुआत कर सकें. विद्यालयों में अवकाश के दौरान विद्यार्थियों को व्यवसायसंबंधी प्रशिक्षण दिया जाता था.

अधिकांश बच्चे गरीब परिवारों से संबंधित थे. ऐसे परिवारों के बच्चे थे जहां रोजमर्रा की आवश्यकता पूरी करने के लिए परिवार के सभी सदस्यों को जुटना पड़ता था. इसलिए अनेक विद्यार्थी बीच ही में स्कूल छोड़ने को विवश हो जाते थे. पारिवारिक जरूरतें उन्हें अध्ययन से दूर जाने को मजबूर कर देती थीं. फुले दंपति के स्कूलों में इस समस्या पर भी विचार किया गया था. स्कूलों की ओर से समाज के निर्धनतम वर्ग से आए विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देने की भी व्यवस्था की गई थी. कई बार विद्यार्थी बहुत छोटीछोटी वजहों से स्कूलों छोड़ देते थे. मेलों और त्योहारों में भागीदारी के नाम पर भी विद्यार्थी स्कूल बंक कर जाते थे. इसे समाज में शिक्षा के प्रति जागरूकता के बगैर रोक पाना असंभव था. इसलिए फुले दंपति ने शूद्रों और अतिशूद्रों को शिक्षा का महत्त्व बताने के लिए नियमित कार्यक्रम चलाए. आजाद भारत में साक्षरता मिशन आरंभ होने से एक शताब्दी पहले ही फुले दंपति उसका प्रयोग शूद्र एवं दलित बस्तियों में कर चुके थे. अपने भाषणों में फुले बारबार यह दोहराते थे कि शिक्षा केवल अक्षर ज्ञान नहीं है. शिक्षा विद्यार्थी के भीतर सम्मानित जीवन जीने की चाहत पैदा करती है. साथ ही बताती है कि सम्मानित जीवन जीने के लिए समाज में दूसरों का सम्मान करना अपरिहार्य है. बिना दूसरों की इज्जत किए हम उनके दिल में अपने प्रति इज्जत पैदा नहीं कर सकते.

फुले दंपति द्वारा संचालित विद्यालयों में शिक्षा व्यक्तित्व निर्माण को समर्पित थी. वह उन्हें सही और गलत के बारे में निर्णय लेना सिखाती थी. कोशिश की जाती थी कि विद्यार्थी जब तक स्कूल में रहे, उसकी रचनात्मकता में निरंतर सुधार हो. इसका आकलन इससे भी किया जाता है कि उन स्कूलों में पढ़ने वाली कोई लड़की जब पुरस्कार के लिए मंच पर आती तो कार्यक्रम में मौजूद अतिथियों से वह प्रायः यही निवेदन करती थी—‘सर! मैं अपने लिए खिलौने या उपहार नहीं चाहती. हम आपसे इस स्कूल के लिए पुस्तकालय की उम्मीद करती हैं.’ यह शिक्षार्जन के प्रति समर्पण के बिना, उसे अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बनाए बगैर संभव न था. फुले दंपति के स्कूलों में अध्ययनरत लड़कियों के अभिभावक कभीकभी यह ‘शिकायत’ लेकर पहुंचते थे—‘सर! उनकी बेटी प्रतिदिन आधी रात तक पढ़ाई में तल्लीन रहती है.’ सावित्रीबाई की एक छात्रा मुक्ता के आत्मकथात्मक निबंध का उल्लेख पीछे भी किया जा चुका है. 1855 में जब मुक्ता ने वह पत्र लिखा था, उसकी आयु महज 14 वर्ष की थी. उस निबंध को मराठी साहित्य में मील का पत्थर माना जाता है. अपने निबंध में मुक्ता ने पुरोहितों को ‘लड्डुखाऊ’(लड्डू भकोसने वाला) कहकर संबोधित किया था. लिखा था—‘ये ‘लड्डुखाऊ’ ब्राह्मण सोचते हैं कि वेदों पर उनका विशेषाधिकार है. गैरब्राह्मणों को उन्हें पढ़ने का अधिकार नहीं है. चूंकि हमें धार्मिक साहित्य पढ़ने की अनुमति नहीं है, तो क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता है कि हमारा कोई धर्म नहीं है. हे ईश्वर! हमें बताओ की तुमने हमारे लिए कौनसा धर्म निर्धारित किया है, ताकि हम उसको अपना सकें.’ इस पत्र ने उस समय के बुद्धिजीवियों और समाजशास्त्रियों को झकझोरने का काम किया था. मुक्ता का वह निबंध बाद में मराठी दैनिक ज्ञानोदय में प्रकाशित हुआ. यही नहीं उसे मुंबई प्रेसीडेंसी की शिक्षा रिपोर्ट में भी जगह मिली थी.

फुले दंपति के स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश विद्यार्थी महार, मांग जैसी अतिशूद्र जातियों के थे. उन वर्गों से आते थे जिन्हें धर्म और जाति के आधार पर शिक्षा और संसाधनों से दूर रखा जाता था. उनके अलावा मुस्लिम बच्चों की भी बड़ी संख्या थी. सावित्रीबाई की मित्र फातिमा शेख भी उनकी मदद कर रही थीं. स्कूलों के प्रति जनसामान्य का आकर्षण बढ़े और शिक्षा को समाजीकरण की अनिवार्य सीढ़ी माना जाए—इसके लिए फुले ने एक ‘मंडली’(संस्था) का गठन किया था. समाज के प्रबुद्ध लोगों को उस ‘मंडली’ का सदस्य मनोनीत किया गया था. शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए आरंभ में जिन दो संस्थाओं का गठन किया गया था, उनके नाम थे—‘नेटिव फीमेल स्कूल, पुणे’ तथा ‘सोसाइटी फाॅर प्रोमोटिंग दि एजुकेशन ऑफ़ महार्स एवं मांग्स.’ फुलेदंपति द्वारा संचालित सभी स्कूल इन संस्थाओं के अधीन थे. उनमें सभी वर्गों के विद्यार्थी के पढ़ने की छूट थी. अपनी सहयोगियों फातिमा शेख और सगुणाबाई के साथ मिलकर सावित्रीबाई फुले ने शिक्षा के क्षेत्र में जो क्रांति की, वह न केवल महाराष्ट्र अपितु पूरे भारत के लिए प्रेरणादायी बनी थी.

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अशिक्षा अज्ञानता को बढ़ावा देती है. अज्ञानी मनुष्य अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं कर पाता. जरूरी मसलों पर वह दूसरों पर निर्भर हो जाता है. चालाक लोग उसकी अज्ञानता का लाभ उठाकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं. परिणामस्वरूप एक क्षेत्र की अज्ञानता अनेक क्षेत्रों में प्रभावी हो जाती है. अज्ञानी धर्म और धार्मिक मूल्यों के बीच, जिनके लिए किसी धर्म को समाजहित में आवश्यक माना जाता है—अंतर नहीं कर पाता. ऐसे में धर्म उसके लिए टोटम बन जाता है. अध्यात्मिक जिज्ञासा मूर्तिपूजा और कर्मकांडों में फंसकर दम तोड़ लेती है. शिक्षा के अभाव में भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा जिन कुरीतियों का शिकार था, उनमें विधवा विवाह, बाल विवाह, दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां प्रमुख थीं. सोचीसमझी नीति के तहत शूद्रों, अतिशूद्रों तथा महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता था. दूसरे शब्दों में उनकी अज्ञानता उनपर थोपी गई अज्ञानता थी. फुले दंपति ने उन सभी पर भी विचार किया और अपनी सीमाओं के अंतर्गत उनसे जूझने का प्रयास भी किया.

उन दिनों बड़ी समस्या विवाहेत्तर संबंधों से जन्मी संतान की भी थी. लोकलाज या समाज के भय से प्रायः ऐसे शिशुओं को असमय ही मार दिया जाता था. काशीबाई नाम की एक विधवा स्त्री ज्योतिबा फुले के मित्र और शुभचिंतक सदाशिव गोवड़े के यहां खाना बनाने का काम करती थी. वह गरीब और सुंदर भी थी. एक धूर्त्त ब्राह्मण ने काशीबाई की मजबूरी का फायदा उठाया. परिणामस्वरूप वह गर्भवती हो गई. स्त्री ने गर्भपात कराने के लिए यथासंभव प्रयत्न किए, मगर वे सभी नाकाम हुए. अंततः उसने एक सुंदर से शिशु को जन्म दिया. काशीबाई ने उस ब्राह्मण से जिम्मेदारी उठाने का आग्रह किया. उसके आगे रोईगिड़गिड़ाई, मगर ब्राह्मण ने उसकी एक न सुनी. किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी ओटने से साफ इन्कार कर दिया. लोकलाज और समाज के डर के कारण काशीबाई ने उस शिशु की हत्या कर, उसे गोवड़े के आंगन में बने कुंए में फेंक दिया. कुछ दिनों के बाद ही बच्चे की मृत देह कुंए से बरामद कर ली गई. पुलिस आई. काशीबाई को गिरफ्तार कर लिया गया. मुकदमा चला और उसे हत्या का अपराधी मानते हुए अंडमान जेल में उम्र कैद के लिए भेज दिया गया. यह 1963 की घटना है. पहला अवसर था जब किसी महिला को इतनी गंभीर सजा दी गई थी. वह भी ऐसे अपराध के लिए जिसके लिए वह पूरी तरह जिम्मेदार नहीं थी.

1968 की घटना है. सावित्रीबाई अस्वस्थ थीं और अपने मायके नायगांव, खंडाला आई हुई थीं. वहां रहते हुए उन्होंने ज्योतिबा फुले को 29 अगस्त 1968 को एक पत्र लिखा, जिसमें इसी तरह की एक और घटना का उल्लेख किया था. घटना इस प्रकार है—‘एक ब्राह्मण युवक गणेश था. वह पूजापाठ के माध्यम से अपनी आजीविका चलाता था. उसी दौरान गणेश का महार लड़की शारजा से मिलना हुआ. दोनों के प्रेमप्रसंग का नतीजा यह हुआ कि शारजा गर्भवती हो गई. गांव वालों को पता चला तो वे दोनों को मारने पर उतारू हो गए. दोनों का गांव जुलूस निकाला जाने लगा. सावित्री को पता चला तो बीमारी की अवस्था में भी वे तत्काल गांव के लोगों से मिलीं. उन्हें समझाया कि यदि वे प्रेमी युगल को मारने का अपराध करते हैं तो सरकारी कानून के अनुसार उन्हें मौत की सजा सुनाई जा सकती है. गांव वालों की समझ में आ गया. अंततः प्रेमी युगल के गांव छोड़ने की शर्त पर उन्हें छोड़ दिया गया. सावित्रीबाई की पहल के कारण दो लोगों की जान बच गई.’

पत्र के माध्यम से ज्योतिबा फुले को जब इस घटना का पता चला तो वे स्तंभित होकर रह गए. समाधान क्या हो, इसपर विचार किया जाने लगा. फुले दंपति के पास संसाधनों की कमी थी. उस समस्या से दूसरे बुद्धिजीवी और समाजकर्मी भी जूझ रहे थे. मगर उसके समाधान की पहल फुले ने की. उन्होंने तत्क्षण फैसला करते हुए अपने आवास—395 गंज पेठ, पुणे में मातृसदन बनाने की घोषणा कर दी. वह मातृसदन विशेषरूप से व्याभिचार की शिकार ब्राह्मण स्त्रियों के लिए था. काशीबाई को कालापानी की सजा पुणे में चर्चा का विषय थी. लोग उससे सहमे हुए थे. मातृसदन की स्थापना के बाद फुले ने महाराष्ट्र के प्रमुख शहरों और तीर्थस्थानों में एक इश्ताहार जारी किया. उसमें लिखा था कि कालापानी की सजा से बचने के लिए मातृसदन की सुविधा का उपयोग किया जाए. विज्ञापन का अनुकूल असर हुआ. 1884 तक उस मातृसदन में 35 ब्राह्मण विधवाएं प्रसव के लिए पहुंच चुकी थीं. सावित्रीबाई ने स्वयं उन महिलाओं की प्रसव में मदद की और शिशु को अपने संरक्षण में रख लिया.

1874 में ऐसी ही एक उत्पीड़ित ब्राह्मण विधवा मातृसदन पहुंची. फुले दंपति ने उसके बच्चे को गोद ले लिया. उसका नाम यशवंतराव रखा गया. दोनों ने उस बच्चे को प्यार से पालपोसकर बड़ा किया. पढ़ालिखाकर डाॅक्टर बनाया. कन्याओं की भ्रूण हत्या रोकने के लिए 10 जुलाई 1887 को फुले दंपति ने एक वसीयतनामा पंजीकृत कराया. उसमें घोषणा की गई थी कि सावित्रीबाई मातृसदन में पल रही बच्चियों की अपनी बेटियों की तरह देखभाल करेंगी. एक क्रांति दूसरी क्रांति को सहज ही जन्म दे देती है. विवाहेत्तर संबंधों से जन्मे बच्चों की भ्रूण हत्या रोकने के लिए सावित्रीबाई ने जो क्रांतिकारी कदम उठाए थे. उनका असर महाराष्ट्र के दूसरे समाजसेवियों पर भी पड़ा. नारायण मेघजी लोखंडे ‘दीनबंधु’ के संपादक थे. वे बड़े मजदूर नेता और समाज सुधारक थे. उन दिनों तक सती प्रथा पर कानूनन रोक लगाई जा चुकी थी. मगर पति की मृत्यु के बाद विधवा स्त्री का जीवन नारकीय बन जाता था. वह न तो अच्छा खापी सकती थी, न ही मनचाहा पहनओढ़ सकती थी. विधवा स्त्री के मेलेत्योहारों में हिस्सा लेने, घूमनेफिरने पर भी प्रतिबंध लागू थे. पति की मृत्यु के तुरंत बाद उसकी विधवा स्त्री के बाल काट दिए जाते थे. सावित्रीबाई की प्रेरणा से लोखंडे ने विधवाओं के मुंडन के विरोध में आंदोलन की शुरुआत की. उनके प्रभाव में शहरभर के नाइयों ने विधवाओं का मुंडन करने से इन्कार कर दिया. दबाव डाला गया तो उन्होंने हड़ताल कर दी. ‘नाइयों की हड़ताल’ की चर्चा दुनियाभर में हुई. अंग्रेजी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘दि टाइम’ ने उस हड़ताल की खबर अपने 9 अप्रैल 1890 के अंक में प्रकाशित की. उसे पढ़ने के बाद इंग्लेंड की महिलाओं ने लोखंडे को प्रशंसाभरे पत्र लिखे.

1877 में महाराष्ट्र को अकाल ने घेर लिया. समाज सुधार के साथसाथ प्रत्येक कार्य में लोगों की मदद को तत्पर रहने वाले फुले दंपति के लिए ऐसे अवसर पर निष्क्रिय होकर बैठ जाना असंभव था. अकाल बड़ा था. हजारों लोग उससे प्रभावित थे. उनके लिए सहायतासामग्री जुटाने के लिए फुले दंपति ने लोगों से सहायता की फरियाद की. मदद जुटाने के लिए उन्होंने गांवगांव की यात्राएं कीं. फुले की देखादेखी उनके कुछ मित्र भी मदद के लिए आगे आए. डाॅ. शिवप्पा जैसे मित्रों की सहायता से उन्होंने धानकवाड़ी में ‘विकटोरिया बालाश्रम’ की स्थापना की. आश्रम के माध्यम से प्रतिदिन एक हजार गरीबों और जरूरतमंदों को भोजनादि की सुविधा मिलने लगी. बालाश्रम के संचालन में भी सावित्रीबाई का योगदान बढ़चढ़कर था. वे अपने सहयोगियों की मदद से स्वयं भोजनव्यवस्था देखतीं. यही नहीं सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ताओं को लेकर वे अकालपीड़ित क्षेत्रों में भी र्गइं. अप्रैल 1877 में वे पश्चिमी महाराष्ट्र के जुनेर परिक्षेत्र में थीं. वहां से उन्होंने 20 अपै्रल 1877 को ज्योतिबा फुले के लिए एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने अकाल का दिलों को झकझोर देने वाला विवरण दिया है—

वर्ष 1876 बीत चुका है. लेकिन अकाल नहीं गया. इस क्षेत्र में वह भीषण विभीषिका के रूप में ठहरा हुआ है. लोग भूख से मर रहे हैं. जानवर जमीन पर गिरकर दम तोड़ रहे हैं. यहां भोजन का बेहद अभाव है. जानवरों के लिए चारा नहीं है. लोग अपना गांव छोड़ने के लिए मजबूर हैं. कुछ लोग अपने बच्चों को, अपनी जवान लड़कियों को बेचकर गांव छोड़कर जा रहे हैं. नदीनाले और तालाब पूरी तरह सूख चुके हैं. पीने के लिए पानी नहीं है. पेड़ सूखते जा रहे हैं, उनके पत्ते झर चुके हैं. सूखी, बंजर धरती में दरारें पड़ चुकी हैं. सूरज जला और झुलसा रहा है. लोग भोजन और पानी के लिए चिल्लातेचिल्लाते धरती पर गिरकर दम तोड़ रहे हैं. भूख से व्याकुल कुछ लोग जहरीले फल खाने को मजबूर हैं. प्यास बुझाने के लिए वे अपना ही मूत्र पीने को मजबूर हैं. वे भोजनपानी के लिए हाहाकार करते हुए दम तोड़ रहे हैं.’

अकाल की विभीषिका का ऐसा मर्माहत कर देने वाला विवरण वही लिख सकता था, जिसने उसे अपनी आंखों से देखा हो. जो उनकी पीड़ा को घनीभूत संवेदना के साथ आत्मसात कर रहा हो. उस पत्र में एक घटना का विवरण भी दिया है. सत्यशोधक मंडल के स्वयंसेवकों ने अकालपीड़ितों की मदद के लिए एक कमेटी का गठन किया था. एक बार सावित्रीबाई अपने सहयोगियों आर.बी. कृष्णजी पंत तथा लक्षमण शास्त्री के साथ अकालपीड़ित क्षेत्र का दौरा करने निकली हुई थीं. उन्होंने उस घटना का विवरण भी अपने पत्र में दिया है—

‘‘साहूकार लोग निर्दयतापूर्वक लोगों का शोषण कर रहे हैं. अकाल के कारण अनेक बुरी घटनाएं हो रही हैं. दंगे शुरू हो चुके हैं. कलेक्टर ने जब इस बारे में सुना तो वह हालात संभालने के लिए वहां पहुंचा. उसने अंग्रेज सिपाहियों को ड्यूटी पर लगाकर दंगों पर काबू पाने की कोशिश की. सिपाहियों ने 50 सत्यशोधक कार्यकर्ताओं को भी अपने घेरे में ले लिया. उसके बाद कलेक्टर ने मुझे बुलाया. मैंने उनसे पूछा कि भले स्वयंसेवकों को किसलिए गिरफ्तार किया गया है? क्यों उनपर झूठे आरोप लगाए गए हैं? मैंने उससे उन्हें तत्काल बरी कर देने को कहा. कलेक्टर भला और निष्पक्ष इंसान था. वह अपने सिपाहियों पर चिल्लाया—‘क्या उन्होंने पाटिल किसानों को लूटा है? उन्हें तत्काल बरी किया जाए.’ कलेक्टर लोगों को दयनीय अवस्था में देखकर विचलित था. उसने उसी क्षण चार गाड़ी ज्वार का इंतजाम किया.’’

दूरदराज के रहने वाले विद्यार्थियों के लिए फुले दंपति की ओर से छात्रावास भी बनाया हुआ था. अलग से जगह की व्यवस्था न होने के कारण वह उनके घर से ही संचालित था. उसकी देखभाल भी सावित्रीबाई फुले के अधीन थी. छात्रावास में रहने वाला एक विद्यार्थी लक्षमण कराडी मुंबई से पढ़ने पहुंचा था. उसने सावित्रीबाई की प्रशंसा करते हुए लिखा है—‘मैंने सावित्रीबाई जितना प्यार करने वाली दूसरी औरत नहीं देखी. उन्होंने मुझे मेरी मां से भी ज्यादा प्यार दिया था.’ एक और विद्यार्थी ने सावित्रीबाई के स्वभाव और जीवनशैली के बारे में संवेदनपरक टिप्पणी की थी. उसके अनुसार सावित्रीबाई का जीवन बहुत ही सादा था. सिवाय मंगलसूत्र के वे कोई आभूषण धारण नहीं करती थीं. फुले दंपति में एकदूसरे के प्रति बेहद प्रेम था. महादु सहादु वागले नाम का वह विद्यार्थी लिखता है—‘सावित्रीबाई बहुत ही विनम्र और ममतामयी स्त्री थीं. उनके दिल में दूसरों के प्रति अगाध प्रेम था. गरीब और जरूरतमंद लोगों की मदद के लिए वे सदैव आगे रहती थीं. वे उन्हें भोजन और जरूरत की दूसरी चीजें बांटती रहती थीं. यदि किसी स्त्री की देह पर फटेचिथड़े वस्त्र देखतीं तो तत्काल अपनी साड़ी निकालकर उसे भेंट कर देती थीं. इस कारण उनका खर्च बढ़ जाता था. तात्या(ज्योतिराव) उनसे कभीकभी कहते—‘किसी को इतना खर्च नहीं करना चाहिए.’ इसपर वे मुस्कराकर कहतीं—‘क्या हमें यह मरने के बाद अपने साथ ले जाना है.’ तात्या सोच में पड़ जाते. उनके पास उसका कोई जवाब नहीं होता था. पतिपत्नी दोनों के बीच अगाध प्रेम था.

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अपने आंदोलन को संस्थागत रूप देने के लिए फुले ने 24 सितंबर 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की थी. उसके कार्यक्रमों में भी सावित्रीबाई बढ़चढ़कर हिस्सा लेती थीं. सत्यशोधक समाज का उद्देश्य था, शूद्रों और अतिशूद्रों में शिक्षा का विकास करना, जातिवादी सहित किसी भी प्रकार के पुरोहितवाद को नकारना तथा सामाज में व्याप्त दहेज प्रथा, भ्रूणहत्या, बालविवाह जैसी कुरीतियों को समाप्त करना. सावित्रीबाई फुले सत्यशोधक समाज के प्रत्येक कार्यक्रम में आगे थीं. पुरोहितवाद को समाप्त करने के लिए सत्यशोधक समाज ने बगैर पुरोहित के विवाह संपन्न कराने का कार्यक्रम आरंभ किया था. उसके अंतर्गत पहला विवाह 25 दिसंबर 1873 को संपन्न हुआ. लड़की राधा सावित्रीबाई के मित्र बेजुबाई ज्ञानोबा की बेटी थी और लड़का सीताराम जाबाजी आलहत सत्यशोधक समाज का सक्रिय कार्यकर्ता था. वह बिना दहेज और न्यूनतम खर्च में संपन्न हुआ विवाह था. सत्यशोधक समाज की विवाह पद्धति के अनुसार दूल्हा अपनी पत्नी से प्रतिज्ञा करता था कि वह उसे प्रत्येक मामले में बराबरी का अधिकार देगा. विवाह के मंत्र दूल्हा और दुल्हन द्वारा स्वयं पढ़े जाते थे. उनका निहितार्थ वे प्रतिज्ञाएं थीं जो सुखी और सफल जीवन के लिए दांपत्य का आधार हो सकती थीं. उस अवसर के लिए ‘मंगलाष्ठक’(वैवाहिक गान) स्वयं फुले ने लिखा था, जिसका भावार्थ है—

दूल्हा : ईश्वरीय विधान के अनुसार अपने परिवार के रीतिरिवाजों का पालन करना. सत्य सर्वोपरि है—उसका आदर करना. सभी वंचितों के साथ पक्षपात रहित वर्ताब करो, उन्हें ज्ञानवान बनाओ. तुम्हारे आचरण का सम्मान करते हुए मैं तुम्हें अपने दांपत्य जीवन में स्वीकार करता हूं—शुभमंगल सावधान.

दुल्हन : भले ही तुम नित्यप्रति मेरा सम्मान करो, तुम्हारा आचरण संतोषजनक हो, हम सभी स्त्रियां शोषित होती आई हैं, तुम मेरे साथ कैसा आचरण करोगे? हमें स्वतंत्रता का अनुभव है और आत्मनिर्भर हो चुकी हैं. हमारी उस कामना के लिए क्या तुम स्त्रियों को अधिकार दोगे? प्रतीज्ञा करो—शुभमंगल सावधान.

दूल्हा : मैं प्रत्येक कीमत पर सभी स्त्रियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करूंगा. मैं सभी स्त्रियों को अपनी बहन मानूंगा और तुम्हें प्रेयसि. तुम्हारी देखभाल को मैं अपना कर्तव्य मानूंगा—शुभमंगल सावधान.

दुलहन : यहां बैठे सभी बंधुबांधवों के समक्ष मैं तुम्हें अपना पति स्वीकार करती हूं. मैं कभी अपनी प्रतीक्षा नहीं तोड़ूंगी और सदैव अपने कर्तव्य का पालन करूंगी. सभी चिंताओं और दुश्वारियों को भुलाकर हमें लोगों के भले के लिए संघर्ष करना चाहिए. तुम्हारे हाथ को थामकर मैं, यहां उपस्थित लोगों के सामने मैं यह प्रतीज्ञा करती हूं—शुभमंगल सावधान.

अभिभावकों की शुभेच्छा : अपने मातापिता के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करो, अपने मित्रों से प्यार करो. वृद्धजनों, अपंगों और बच्चों की मदद करो, उन्हें पढ़नालिखना सिखाओ. हर्षोल्लास के साथ खुशियां बांटों, और एकदूसरे से हाथ मिलाओ. शुभमंगल सावधान.

28 नवंबर 1890 को ज्योतिबा फुले का निधन हो गया. सावित्रीबाई विवाह के बाद से ही जीवन के प्रत्येक कदम में अपने पति के साथ थीं. मृत्यु के समय भी वे ज्योतिबा के करीब ही थीं. ज्योतिबा की इच्छा थी कि उनके शरीर को जलाने के बजाए नमक के साथ दफना दिया जाए. इसके लिए उन्होंने अपने घर के पीछे एक गड्ढ़ा भी खुदवा लिया था. लेकिन नगर निगम की ओर से आवासीय भूमि पर शव को दफनाने की अनुमति न मिल सकी. इसलिए उनकी देह को अग्निसमर्पित करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा था. परंपरा थी कि जो भी शव के साथ ‘तित्व’(मिट्टी का बर्तन) लेकर चलता है, वह दिवंगत का उत्तराधिकारी माना जाता है. संपत्ति पर भी उसी का अधिकार होता है. यह देखकर ज्योतिराव के दत्तक पुत्र यशवंत को पीछे कर, उनका भतीजा आगे आ गया. उस समय सावित्रीबाई फुले साहस करते हुए आगे आईं और ‘तित्व’ को अपने हाथों में ले लिया. उसे थामे हुए वे ज्योतिबा फुले की अंतिम यात्रा में श्मशान घाट तक गईं, भारत के इतिहास में सावित्रीबाई फुले पहली महिला थीं, जिन्होंने अपने पति को मुखाग्नि दी थी. दो दिन बाद, 30 नवंबर को ज्योतिबा फुले ही अस्थियां लाई गईं और उन्हें उसी स्थान पर दफना दिया गया, जहां उनकी इच्छा थी. उसके बाद सावित्रीबाई ने अपने हाथों से उस स्थान पर ‘तुलसी वृंदावन’(तुलसी के पौधे) रोप दिए. एक बहुत ही साधारण पत्थर, जिसपर ज्योतिबा फुले के पदचिन्ह बने थे, उस स्थान पर लगा दिया. वही उस महान पुरुष की अंतिम यादगार बना.

ज्योतिबा फुले के निधन के पश्चात 1893 में सत्यशोधक समाज का सम्मेलन सासवद में हुआ. सावित्री बाई फुले ने उसकी अध्यक्षता की. 1896 में महाराष्ट्र को फिर अकाल ने घेर लिया. सावित्रीबाई अपने कार्यकर्ताओं के साथ गरीबों और जरूरतमंदों की मदद में जुट गईं. लेकिन इस बार अकाल अकेला नहीं था. वह प्लेग की विभीषिका भी साथ लाया था. 1897 में पुणे के आसपास के इलाकों को प्लेग ने घेर लिया. प्रतिदिन सैकड़ों लोग प्लेग के शिकार हो रहे थे. यशवंत पढ़लिख कर डाॅक्टर बन चुका था और सेना में नौकरी कर रहा था. सावित्रीबाई फुले ने उसका विवाह भी सत्यशोधक समाज की रीति के अनुसार किया था.

पुणे पर प्लेग का हमला देख सावित्रीबाई ने उसे भी रोगियों की देखभाल के लिए बुला लिया. यशवंत छुट्टी लेकर प्लेग के रोगियों के उपचार में जुट गया. सरकार अपनी ओर से प्लेग की महामारी पर काबू पाने का भरसक प्रयत्न कर रही थी. सावित्रीबाई ने मरीजों की देखभाल के लिए अस्पताल का निर्माण कराया. यह जानते हुए भी कि प्लेग महामारी है सावित्रीबाई जीजान से मरीजों की देखभाल में जुटी थीं. वे मरीजों को उनके घर से स्वयं अस्पताल तक लाती थीं. इसी बीच उन्हें पता चला कि मुंधावा गांव के बाहर महार बस्ती में पांडुरंग बाबाजी गायकबाड़ का बेटा भी महामारी से ग्रस्त है. सावित्रीबाई उनके घर पहुंच गईं. लेकिन छूत के भय से कोई भी बीमार बालक के करीब जाने को तैयार न था. तब वे उस बालक को अपनी पीठ पर लादकर अस्पताल तक ले गईं. प्लेग के मरीजों के निरंतर संपर्क में रहने का दुष्प्रभाव तो उनके शरीर पर भी पड़ना ही था. सो वह पड़ा और अंततः 10 मार्च 1897 को उनका निधन हो गया.

उनकी मृत्यु पर मराठी समाचारपत्र ‘दीनबंधु’ ने शोक समाचार प्रकाशित किया. जिस समय बालक के अपने ही परिजन उससे हाथ लगाने को तैयार नहीं थे, सावित्रीबाई अपनी पीठ पर प्लेगग्रस्त महार बालक को ढोकर अस्पताल तक लेकर गई थीं. ‘दीनबंधु’ में इस साहसी कदम के कारण उनकी तुलना लक्ष्मीबाई से की गई थी. ज्योतिबा फुले से विवाह 1848 में विवाह से लेकर 1897 तक, पूरे पचास वर्ष वे समाज की सेवा को समर्पित रहीं. सावित्रीबाई के बारे में सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ता नारायण महादेव उर्फ मामा परमानंद ने 31 जुलाई 1890 को लिखा था—

ज्योतिराव से ज्यादा उनकी पत्नी प्रशंसा की हकदार हैं. हम उनकी जितनी भी प्रशंसा करें, वह कम है. कोई कैसे उस महान व्यक्तित्व का वर्णन कर सकता है! उन्होंने पूरी तरह से अपने पति का साथ दिया, उनकी राह में आने वाली प्रत्येक मुश्किल और झंझावात का सामना किया. उच्च शिक्षित सवर्णों में भी ऐसी त्यागमयी स्त्री का मिलना असंभव है. उस दंपति ने अपना सारा समय परोपकार करते हुए बिताया था.’

क्रांतिज्योति सावित्रीबाई ने महाराष्ट्र में शिक्षा और स्त्रीसुधार की जो मशाल जलाई, उसकी रोशनी आज तक कायम है.

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सावित्रीबाई फुले अच्छी कवि, लेखक, वक्ता और संपादक थीं. उनका कविता संग्रह ‘काव्यफुले’ 1854 में ही प्रकाशित हो चुका था. संकलन में 41 कविताएं थीं. ‘काव्यफुले’ मराठी में प्रकाशित किसी भारतीय महिला का संभवतः सबसे पहला कविता संग्रह था. सावित्रीबाई की कविताओं की विशेषता है, समाज के शोषित, वंचित और जमीन से जुड़े हुए लोगों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता. अपने पति के साथ वे भारत की सबसे बड़ी और पहली यथार्थवादी कवि और लेखक थीं. जिन दिनों भारतीयता की खोज के नाम पर अधिकांश भारतीय लेखक किसी न किसी रूप में संस्कृत ग्रंथों की टीकाएं, उनके अनुवाद अथवा किसी न किसी रूप में उनका पुनःप्रस्तुतीकरण कर रहे थे— सावित्रीबाई फुले भारत की जनता के दुःखदर्द को अभिव्यक्ति दे रहीं थीं. वे शब्द की ताकत, लेखन के उस मर्म को पहचान चुकी थीं, जिसे आत्मसात करने के बाद ही कोई रचना साहित्य का दर्जा प्राप्त कर पाती है. ज्योतिराव फुले ने ब्राह्मणों के सांस्कृतिक आधिपत्य के बरक्स जनसंस्कृति को खड़ा करने के लिए प्राचीन मिथों और धर्मग्रंथों की क्रांतिकारी व्याख्या की थी. उनकी परंपरा को मजबूती देते हुए सावित्रीबाई भी कविताओं का सहारा लिया. अपनी कविताओं के माध्यम से जहां शूद्रों में फैली रूढ़ियों पर प्रहार करती हैं, उनमें व्याप्त अशिक्षा के लिए उन्हें चेताती हैं, वहीं दूसरी ओर ‘अंग्रेजी माता’ की अभ्यर्थना भी करती हैं, जिसने भारतीयों को अज्ञानता के अंधकार से बाहर लाकर तर्क और ज्ञानविज्ञान की ओर प्रवृत्त किया है. उनकी एक कविता अज्ञानता को लेकर है, जिसमें वे उसे शूद्रों और अतिशूद्रों का सबसे बड़ा दुश्मन बताती हैं—

अपना एक ही दुश्मन/उससे अधिक खतरनाक नहीं कोई/आओ, उसे खदेड़ दें हम सब मिल कर/खोजोखोजो मन की भीतर झांको….क्या नाम है उसका?’

चलो चलो मैं बताती हूँ/उस दुष्ट खतरनाक दुश्मन की पहचान/ध्यान से सुनो उस दुश्मन का नाम/उस दुश्मन को कहते हैं अज्ञान’

अज्ञान शूद्रों और अतिशूद्रों का सबसे बड़ा दुश्मन है. बल्कि वह उनकी दुर्दशा का वास्तविक कारण है—

शूद्र और अतिशूद/अज्ञान की वजह से पिछड़े/देव, धर्म, रीतिरिवाज/अर्चना के कारण/अभावों से घिरकर कंगाल हुए.’

गुलामगिरी’ में फुले ने हिंदू धर्म का आधार कहे जाने वाले मिथों की व्याख्या की थी. इस कारण फुले से ब्राह्मण वर्ग चिढ़ा हुआ था. उनपर हमला भी हो चुका था. सामान्य स्त्री होती तो पति को ऐसा करने से बरजती. आगे उनकी जान पर कोई संकट न आए, ऐसे कदम उठाने से रोकती. लेकिन सावित्रीबाई साधारण स्त्री न थीं. वे असाधारण स्त्रियों में भी असाधारण थीं. एक कविता में वे प्रति की विचारधारा को ही आगे बढ़ाती हैं. कविता फुले दंपति के बीच वैचारिक साम्य को दर्शाती है—

शूद्र शब्द का/सही अर्थ है हिनेटिव/आक्रामक शासकों ने/शूद्र का ठप्पा लगाया/पराजित शूद्र हुए गुलाम….असल में शूद्र ही हैं/स्वामी इंडिया के/नाम उनका थाइंडियन/वे शूद्र पराक्रमी हमारे पूर्वज/उन्हीं प्रतापी योद्धाओं के/हम सब वंशज.’

कविताओं के अलावा उनके पत्र भी ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं. सावित्रीबाई फुले ने अपने पति ज्योतिबा फुले को तीन पत्र लिखे थे. एक पत्र में उन्होंने अपने परिजनों की ज्योतिबा के प्रति नाराजगी का वर्णन किया था. ज्योतिबा ब्राह्मण ग्रंथों पर उंगली उठाते थे. पूजापाठ, यज्ञकीर्तन आदि को आडंबर बताते थे. ऐसे में उनसे केवल ब्राह्मण और सवर्ण ही नहीं, उनके अपने लोग भी नाराज रहते थे. ऐसे ही लोगों में सावित्रीबाई के मायके वाले भी थे. पत्र में उन्होंने लिखा था कि कैसे उनका भाई ज्योति बा की आलोचना करता रहता है. कहता है कि फुले जो काम कर रहे हैं, वह अछूतों का है. इसीलिए समाज ने उनका बहिष्कार किया है.’ पत्र में सावित्रीबाई अपने भाई पर टिप्पणी करती हैं कि उसकी मति खराब हो चुकी है. पत्र में ज्योतिबा फुले को यह भी बताया था कि उन्होंने अपने भाई का समझाने का प्रयत्न किया है. और इसका असर साफ नजर आता है. भाई के नाम की चिट्ठी में वे लिखती हैं—‘आपकी मति ब्राह्मणों की चाल की शिकार है. उनकी घुट्टी पी पी कर, उनके पाखंडी उपदेश सुन कर आपकी बुद्धि दुर्बल हो गयी है और इसी कारण आपके स्वयं के विवेक ने काम करना बंद कर दिया है, एक तरफ आप इतने दयालु बनते हैं कि बकरी और गाय को खूब प्यार करते हैं, उन्हें दुलारते हैं, नागपंचमी के त्योहार में विषैले सांपों को दूध पिलाते हैं, ये कृत्य आपके लिए धर्म सम्मत है और महार, मांग अपने जैसे इंसानों को तुम इंसान नहीं समझते. उनसे तुम परहेज करते हो, उन्हें अछूत, अस्पृष्य समझ कर दुत्कारते हो. क्यों करते हो ऐसा? क्या तुम नहीं जानते के ब्राह्मण लोग तुम्हें भी अछूत ही समझते हैं. हमारे स्पर्श से भी उन्हें नफरत है.’ पत्र के अनुसार वे अपने भाई के सामने ज्योतिबा की प्रशंसा भी करती हैं—

मैंने अपने भाई से यह भी कहा कि मेरा पति तुम्हारे जैसे लोगो में से नहीं है. ऐसा तो बिलकुल नहीं है जो धर्म यात्रा के नाम पर पंढरपुर तक पैदल हरी नाम जपते हुए चलता जाए और अपने लिए पुण्य कमाने का ढोंग करे. वे असली और सच्चा काम करते हैं, मानवता को जीवित रखते हैं, अनपढ़ों को पढ़ालिखाकर, उन्हें ज्ञान देकर उनके जीवन में रोशनी भरते हैं, उनमें स्वाभिमान जगा कर जीने की राह दिखाते हैं. यही सच्चा रास्ता है. उनका ध्येय अब मेरा भी ध्येय बन गया है. लोगों को शिक्षित करने में मुझे बहुत शांति मिलती है, स्त्रियों को पढ़ाने से मुझे खुद को प्रेरणा, प्रोत्साहन और उर्जा मिलती है. यह काम मुझे खुशी देता है. इससे मुझे सुख शांति, आत्मतृप्ति मिलती है. ये ही वो काम है जिसमें इंसानियत और मानवता दीख पड़ती है.’

सात्रिवीबाई कुशल वक्ता थीं. ज्योतिबा फुले की तरह उन्होंने भी देशीविदेशी साहित्य का खूब अध्ययन किया था. लोग उनकी बात को ध्यान लगाकर सुनते थे. आरंभ में सावित्रीबाई की आलोचक, उनपर ताना कसने वाली, उनका मजाक उड़ाने वाली, राह चलते समय उनपर कीचड़ और गालियों मी बौछार करने वाली स्त्रियां बाद में उनकी प्रशंसा करने लगी थीं. समाज में उनकी इज्जत थी. यह सावित्रीबाई की बड़ी उपलब्धि थी. मगर वे इतनेभर से शांत होने वाली न थीं. सावित्रीबाई का मानना था कि बगैर सम्मानजनक रोजगार के शिक्षा की कोई उपयोगिता नहीं हैं. भूमि रोजगार सृजन का बड़ा साधन है. लेकिन उसपर ब्राह्मणों और सवर्ण सामंतों का कब्जा है. शूद्र और अतिशूद्र उनके यहां काम करते हैं. यह भी उनकी दासता की वजह है. वे चाहती थीं कि शूद्र और अतिशूद्र उद्यमों में रुचि लें. इसीलिए उनके स्कूलों में बच्चों को रोजगार की दृष्टि से आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा दी जाती थी. अपने भाषण में भी सावित्रीबाई लोगों को श्रम और सामूहिकता का अर्थ समझाती थीं—

कामधंधे और उद्यमशीलता ज्ञान एवं प्रगति का प्रतीक हैं. सामूहिक श्रम का महत्त्व हैउद्यमी व्यक्ति अपने सुखसुविधा में बढ़ोतरी करते हुए, अन्य लोगों को भी सुखी करने का प्रयास करता है. ठीक इसके विपरीत देवदेवतावादी, भाग्यवादी, किस्मत और भगवान के भरोसे जीने वाला व्यक्ति आलसी और मुफ्तखोर होने के कारण हमेशा दुखी ही रहता है तथा वह अन्य लोगों की सुखशांति को मिट्टी में मिलाने का काम करता है. आलस्य ही गरीबी का पर्याय है. ज्ञान, धन, सम्मान का आलस्य दुश्मन होता है. आलसी आदमी को कभी धन, ज्ञान और सम्मान नहीं मिलता. लगातार परिश्रम, इच्छा शक्ति, सकारात्मक सोच के बल पर ही सफलता प्राप्त होगी. निश्चित रूप से प्राप्त होगी. ऐसा मेरा विश्वास है.’

काव्य फुले’ के बाद सावित्रीबाई फुले का ‘बावन काशी सुबोध रत्नाकर’ शीर्षक से दूसरा कविता संग्रह प्रकाशित हुआ. इन पुस्तकों के अलावा उन्होंने ‘ज्योतिबा के भाषण’ नाम पुस्तक जिसमें ज्योतिबा फुले के भाषणों का संग्रह है, जैसी पुस्तक भी संपादित की. सावित्रीबाई फुले के अपने भाषणों और गीतों का संग्रह ‘सावित्रीबाई भुले के भाषण और गीत’ शीर्षक संग्रह से उपलब्ध है.

सावित्रीबाई फुले ने जो किया वह आज इतिहास में दर्ज है. वे भारत में स्त्रीशक्ति का प्रतीक हैं. लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों के साथ संघर्ष के लिए भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की महानायिका कहा जाता है. यदि देखा जाए तो लक्ष्मीबाई की अपेक्षा सावित्रीबाई फुले का योगदान कहीं अधिक बड़ा है. लक्ष्मीबाई जो कर रही थीं, उनके पीछे हिंदुस्तान का हर वह व्यक्ति खड़ा था, जो अंग्रेजों से मुक्ति चाहता था. सावित्रीबाई फुले के पीछे अपने ही लोग और सबसे अधिक उनका अज्ञान पड़ा था, जिसे उन्होंने अपनी कविताओं और जीवनसंघर्ष द्वारा निरंतर और अनथक चुनौती दी. रानी लक्ष्मीबाई और सावित्रीबाई फुले के कर्मक्षेत्र एकदम अलग थे. बावजूद इसके सावित्रीबाई का इस देश को बनाने में जो योगदान रहा, उसके कारण वे लक्ष्मीबाई को पीछे छोड़ देती हैं.

ओमप्रकाश कश्यप

भारतीय नवजागरण के पुरोधा : स्वामी अछूतानंद

विशेष रुप से प्रदर्शित

जातिवाद ने भारतीय समाज को पिछड़ा बनाया है। उसने सिवाय बरबादी के हमें कुछ नहीं दिया। लोगों की निगाह में हमें हीन,वंचित एवं विपन्न बनाने वाला भी जातिवाद है….शताब्दियों पुराने जाति-आधारित भेदभाव ने हिंदू समाज को अज्ञानता के अंधकूप में ढकेल दिया है। उसी ने हिंदुओं की चारित्रिक एकता और अखंडता को विरूपित किया है। जातीय ऊंच-नीच का हिंदू मानस पर इतना गहरा प्रभाव है कि उसने उसकी सामान्य बुद्धि को भी कुंठित कर दिया हैᅳपेरियार

 

जाति भारतीय समाज का ऐसा कोढ़ है, जिसे प्रत्येक हिंदू अपनी विशिष्ट पहचान के तौर पर अपनाता है। उसे विश्वास होता है कि समाज में कुछ लोग उससे ऊपर हैं। कि जातीय अनुक्रम में कुछ लोगों का ऊपर होना उनके किसी गुण-विशेष के कारण नहीं है। वे ऊपर सिर्फ इसलिए हैं, क्योंकि उन्होंने जाति-विशेष में जन्म लिया है। विचित्र यह है कि जाति के दम पर जबरन नीचे ढकेल दिए गए व्यक्ति के मन में इससे कोई स्थायी हीनताबोध नहीं पनपता। क्योंकि उसे विश्वास होता है कि समाज में अनेक लोग ऐसे भी हैं, जिनका जन्म उससे निचली जाति में हुआ है। यह कृत्रिम गर्वानुभूति जातिगत ऊंच-नीच से जन्मे हीनताबोध से उसकी रक्षा करती है। जातीय ऊंच-नीच के एहसास से दबा-सहमा व्यक्ति जब कथित ऊंची जातियों के संपर्क में आता है, तो खुद के कमतर होने का एहसास उसके मनस् पर छाया रहता है। लेकिन जैसे ही उसका सामना निचली जाति के व्यक्ति से होता है, उसकी झुकी गर्दन एकाएक तन जाती है। चेहरा गर्व से दमकने लगता है। मुश्किल उस व्यक्ति की होती है जिसका जन्म सबसे निचली जाति में हुआ है। कोई और रास्ता न देख वह धर्म की शरण लेता है। मान लेता है कि जो वह है, वही उसकी नियति है। इस जन्म में उससे त्राण असंभव है। उसे लगातार यह समझाया जाता है कि जाति की मर्यादाओं का पालन करने में ही उसकी भलाई है। यही देवताओं की इच्छा है। इसी में उसका कल्याण है। धीरे-धीरे वह मानने लगता है कि जाति-सिद्ध व्यवस्था से अनुकूलित होकर ही वह देवताओं की निगाह में ऊपर उठ सकता है। 

जहां-जहां हिंदू समाज है, वहां-वहां जाति है। जहां-जहां जाति है, वहां सामाजिक भेदभाव, धर्म के नाम पर कट्टरता, ऊंच-नीच, आर्थिक असमानता को साफ परखा जा सकता है। उत्तर प्रदेश भी इससे अछूता नहीं है। 1931 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में अनुसूचित जातियों की संख्या 21 प्रतिशत, पिछड़े लगभग 41.9 तथा सवर्ण मात्र 22.1 प्रतिशत थे। यह हिंदुओं के दो बड़े अवतारों राम और कृष्ण की जन्म भूमि रहा है। काशी जैसी नगरी के अलावा कुछ वर्ष पहले तक हरिद्वार भी प्रदेश का हिस्सा था। ये विशेषताएं इस प्रदेश को बाकी प्रदेशों के मुकाबले खास बनाती हैं। हिंदू संस्कृति के निर्माण में इनकी बड़ी भूमिका है। इनके प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव में लोग मानने लगते हैं कि धर्म को केंद्र में रखकर बनाए गए नियम ही श्रेष्ठतम हैं। वे विश्वास कर लेते हैं कि जाति दैवीय विधान है। इसलिए जिस जाति, समाज में वे हैंᅳवहां होना ही उनकी नियति है। यही कारण है कि उनीसवीं और बीसवीं शताब्दी के सामाजिक सुधार के लिए चलाए गए आंदोलनों से यह प्रदेश करीब-करीब अछूता रहा है। दक्षिण भारतीय राज्यों की तरह यहां न तो कोई बड़ा जाति-विरोधी आंदोलन पनपा, न महामना फुले, अय्यंकालि, डॉ. आंबेडकर या पेरियार जैसा बहुजन नेतृत्व उभर पाया। धर्म सामाजिक असमानता का किस तरह पालन-पोषण करता है। शास्त्र-सम्मत बताकर जनमानस को किस तरह उसके अनुसार ढाल लेता है, श्रद्धा और भक्ति व्यक्ति के आक्रोश, स्वाभिमान और आत्मगौरव को किस प्रकार निस्तेज कर देते हैंᅳउत्तर प्रदेश का हिंदू समाज इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। प्रदेश में दलितों और पिछड़ों की  हालत आज भी लगभग वैसी ही है, जैसा ‘सत्यशोधक समाज’ के नेता मुकुंदराव पाटिल ने वर्षों पहले लिखा थाᅳ

‘भारत एक विचित्र देश है जहां तरह-तरह के लोग रहते हैं, जो अपने धर्म, विचारों, व्यवहारों और समझ के आधार पर अनेक भागों में बंटे हुए हैं। लेकिन साफ-साफ कहा जाए तो केवल दो ही श्रेणियां हैंᅳबहुसंख्यक निचली जातियां, जिनसे उनके मनुष्य होने के सामान्य अधिकार भी छीन लिए गए हैं। दूसरी विशेषाधिकार प्राप्त ऊंची जातियां जो खुद को दूसरों से श्रेष्ठतर मानती हैं, और बहुसंख्यक जातियों के श्रम के बल पर समस्त सुख-सुविधाओं का आनंद लेती हैं। एक का सुख दूसरे के लिए मुसीबत है, यही उनका संबंध है।’1   

जाति, सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्ववाद, धार्मिक पोंगापंथी के विरोध में पहली और निर्णायक आवाज महात्मा फुले की थी। उन्होंने शूद्रों-अतिशूद्रों को शिक्षा का महत्त्व समझाया, उनके लिए विशेष शिक्षा-संस्थान खोले, जाति को संरक्षण देने वाले हिंदू धर्म को सीधी चुनौती दी। अपनी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ के माध्यम से उन्होंने हिंदू अवतारवाद के साथ-साथ उन मिथों की व्याख्या की, जो हिंदू मानस की संरचना का आधार रहे है। ब्राह्मण ग्रंथों में हिंदू धर्म को सनातन कहा गया है। फुले ने इतिहास और मिथ में अंतर करते हुए मूल-निवासी सिद्धांत को प्रस्तुत किया। जिसमें उन्होंने बताया कि शूद्र और अतिशूद्र इस देश के मूल निवासी हैं। आर्यों ने उनकी प्राचीन समृद्ध संस्कृति को तहस-नहस किया था। आर्य इस देश में बाहर से आए, इसकी पुष्टि ऋग्वेद करता था। पश्चिमी विद्वानों के अलावा तिलक भी यही मानते थे। इसलिए फुले द्वारा प्रस्तुत मूल-निवासी सिद्धांत शूद्रों और अतिशूद्रों के दिलो-दिमाग पर तेजी से असर दिखाने लगा। बहुत जल्दी उसका असर देश के बाकी हिस्सों में भी नजर आने लगा। बंगाल में यह ‘नामशूद्र, पंजाब में ‘आदि-धर्म’, आंध्र प्रदेश में ‘आदि आंध्र’, दक्षिण में द्रविड़ बनाम आर्य आंदोलन के रूप में नजर आया। तमिलनाडु में ई. वी. रामासामी पेरियार ‘द्रविड़ संस्कृति’ को भारत की मूल संस्कृति बताते हुए ‘आत्म-सम्मान’ आंदोलन का सूत्रपात किया। उन्होंने कहा कि द्रविड़ आर्यों से अलग और भारत के मूल निवासी हैं। इससे सवर्णों के आगे अल्पसंख्यक होने का खतरा मंडराने लगा। उससे पहले अपने श्रेष्ठता दंभ के चलते वे स्वयं शूद्रों और अतिशूद्रों धर्म-बाह्यः मानते आए थे। चौथे  वर्ण के रूप में स्वीकार करने के बावजूद शूद्रों के सामाजिक-आर्थिक योगदान को नकारा जाता था। अधिकांश मामलों में उसके साथ दास जैसा वर्ताब किया जाता था। 

शिक्षा क्रांति के साथ-साथ स्थानीय निकायों में भारतीयों को स्थान देने की शुरुआत उनीसवीं शताब्दी में ही हो चुकी थी। उसमें संख्याबल का महत्त्व था। इससे सवर्ण हिंदुओं के आगे अल्पसंख्यक हो जाने का खतरा मंडराने लगा। उन्हें लगने लगा था कि अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए शूद्रों और अतिशूद्रों को साथ रखना आवश्यक है। परिणामस्वरूप अनेक सामाजिक आंदोलनों का जन्म हुआ। इनमें दयानंद सरस्वती का ‘आर्य-समाज’ आंदोलन प्रमुख था। स्वामी दयानंद जाति का बहिष्कार करते थे, लेकिन वर्ण-व्यवस्था के समर्थक थे। उन्हें ब्राह्मण वर्चस्व से भी इन्कार न था। ‘आर्य-समाज’ असलियत में उदार ब्राह्मणवाद का सुरक्षा-कवच था। उसके बैनर तले कट्टरपंथी हिंदू उदार और प्रगतिशील होने का नाटक करने लगे थे। भारतीय समाज पर ‘आर्यसमाज’ का, विशेषकर उत्तर-पश्चिम भारत में, व्यापक असर पड़ा। पंजाब, गुजरात, हरियाणा, उत्तर-प्रदेश आदि प्रदेशों में निचली और मंझोली जातियां उसकी ओर आकर्षित होने लगीं। मगर आर्य-समाज में शामिल हुए पिछड़ों और अतिपिछड़ों को बहुत जल्दी समझ में आने लगा कि जातिवाद की आलोचना करने वाला आर्यसमाज संगठन के स्तर पर उससे मुक्त नहीं है। इसी बीच ‘हिंदू महासभा’ जैसे संगठन भी उभरे, जो नई शिक्षा प्रणाली का विरोध करते थे। संस्कृति और परंपराओं की दुहाई देकर वे हर परिवर्तन को रोके रखना चाहते थे। इस घेराबंदी का विरोध करने के लिए अनेक दलित नेता और सामाजिक कार्यकर्ता आगे आए। उन्हीं में से एक स्वामी अछूतानंद भी थे, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में दलित-अस्मिता के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद की थी।  

 

स्वामी अछूतानंद : जीवन परिचय

अछूतानंद हरिहर का जन्म फर्रुखाबाद जिले के सौरिख गांव में 6 मई 1879; को चमार जाति में हुआ था। उनके पिता का नाम था, मोतीराम तथा मां थीं रामप्यारी। माता-पिता ने उनका नाम हीरालाल रखा था। सौरिख गांव में ब्राह्मणों तथा दूसरी सवर्ण जातियों का बोलबाला था। एक बार उनके पिता और चाचा का ब्राह्मणों से झगड़ा हुआ था। गांव वाले दलितों को किसी भी प्रकार की छूट देने को तैयार न थे। तंग आकर मोतीराम और उनके भाइयों ने सौरिख छोड़ दिया। पलायित होकर वे मैनपुरी जिले की तहसील सिरसागंज के उमरी गांव में आ बसे, जहां उनके सजातीय लोगों का संख्यानुपात अपेक्षाकृत अधिक था।2  ध्यातव्य है कि बीसवीं शताब्दी के आरंभ में मैनपुरी में चमार अहीरों के बाद सबसे बड़ी जाति थी। उनमें से कुछ अच्छे काश्तकार थे तो कुछ पारंपरिक धंधे को अपनाए हुए थे। जबकि कुछ मजदूरी करके अपना जीवनयापन करते थे। इस बीच कुछ शिक्षा प्राप्त कर, सरकारी पदों पर विराजमान थे। फलस्वरूप उनके समाज में नई महत्त्वाकांक्षाएं पनपने लगी थीं, जिससे सवर्णों के बीच ईर्ष्याभाव बढ़ता ही जा रहा था। हीरालाल के पिता ने उनका दाखिला उमरी की प्राथमिक पाठशाला में कराने का निर्णय लिया। जब वे हीरालाल को लेकर पाठशाला पहुंचे तो वहां मौजूद ब्राह्मण अध्यापक एक अछूत बालक को देखकर आनाकानी करने लगाᅳ

‘तुम्हारी जात वालों का काम-धंधा पहले से तय है। उसके लिए तुम्हें अपने बच्चे को पढ़ाना आवश्यक नहीं है। दूसरे एक अछूत बालक को दाखिला देकर मैं अपने विद्यालय की बदनामी नहीं करना चाहता।’

स्कूल मास्टर का व्यवहार अनोखा नहीं था। वह समाज में दलितों साथ होने वाले भेदभाव को ही दर्शाता था। बालक हीरालाल के मन पर वर्षों तक पड़ा रहा। पिता के निधन के बाद वे अपने अविवाहित चाचा मथुरा प्रसाद के साथ नसीराबाद, अजमेर में आकर रहने लगे, जो उन दिनों फौज में सूबेदार थे। उन दिनों ब्रिटिश सेना में कार्यरत दलितों के आश्रितों के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान था। और इस तरह मान सकते हैं कि ब्रिटिश सेना का दलितों के उद्धार में बड़ा योगदान रहा था। 

बालक हीरालाल के लिए गांव में रहते हुए शिक्षा के जो दरवाजे बंद थे, अजमेर आने के साथ एकाएक खुल गए। सेना के स्कूल में रहते हुए उन्होंने प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की। बुद्धि प्रखर थी, सो अल्पावधि में ही हिंदी के अलावा अंग्रेजी और उर्दू भाषा का ज्ञान भी हासिल कर लिया। हीरालाल के चाचा की आस्था कबीरपंथ में थी। उनके यहां रविदासियों और कबीरपंथियों का निरंतर आना-जाना लगा रहता था। हीरालाल के मन पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा। किशोरावस्था में उनके भीतर निर्गुण भक्ति के प्रति अनुराग बढ़ने लगा। वे कबीर और रविदास के पद अपने चाचा को गाकर सुनाया करते थे। उस समय तक पिता की मृत्यु हो चुकी थी, जिसका उन्हें बहुत दुख था। कबीर और रविदास की निर्गुण भक्ति का असर और पिता के मृत्यु से जन्मे वैराग्य भाव ने एक दिन उन्हें घर छोड़ने पर विवश कर दिया। स्वामी हरिहरानंद बनकर वे सत्य की खोज में भटकने लगे। उनके लिए वह केवल आध्यात्मिक खोज की यात्रा न थी। कबीरपंथी साधुओं की मंडली के साथ देश की विभिन्न अछूत बस्तियों में यात्रा करते, वहां निर्गुण भक्ति का प्रचार करते। दलितों की दुरावस्था देखकर उनका मन आहत होता। 24 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने हिंदी, उर्दू के अलावा संस्कृत, गुरमुखी, मराठी, गुजराती और बांग्ला भाषा का ज्ञान अर्जित कर लिया। युवावस्था में उनका विवाह इटावा जिले के पीधासर गांव की कन्या दुर्गाबाई से हो गया। उसके बाद पीधासर उनका अस्थायी ठिकाना बन गया। दुर्गाबाई से उन्होंने तीन बेटियों, विद्याबाई, शांतीबाई और सुशीलाबाई को जन्म दिया। दुर्गाबाई उनकी सच्ची जीवनसंगिनी सिद्ध हुईं। वे हरिहरानंद के साथ दलित बस्तियों की यात्रा करतीं। वहां दलित स्त्रियों को समझातीं। उन्हें अपने बच्चों को पढ़ाने की प्रेरणा देतीं। उनमें आत्मसम्मान की भावना जगातीं। धीरे-धीरे दलित बस्तियों में उनका प्रभाव बढ़ने लगा। लोग तन-मन-धन के साथ उनकी मदद को आगे आने लगे।  

 

आर्यसमाज की ओर

उन्हीं दिनों हरिहरानंद का संपर्क आर्यसमाजी स्वामी सच्चिदानंद से हुआ। आर्यसमाज जाति-प्रथा का विरोध और समाज के सभी वर्गों के लिए शिक्षा का समर्थन करता था। अछूतों के लिए हाॅस्टल बनवाने का आश्वासन भी देता था। इससे प्रभावित होकर हरिहरानंद ने 1905 में आर्यसमाज के अजमेर कार्यालय में विधिवत रूप से आर्यसमाजी के रूप में दीक्षा ग्रहण कर ली। उसके बाद उन्होंने वेदादि  ग्रन्थों का गंभीर अध्ययन किया। आर्यसमाजी के रूप में उनका जीवन बहुत सक्रिय रहा। आर्यसमाज के महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों में से एक शिक्षा का प्रसार भी था। वे अछूत बस्तियों में जाकर शिक्षा का प्रचार करने लगे। इसी बीच उन्होंने आगरा में ‘आल इंडिया जाटव महासभा’ की स्थापना की। आर्यसमाज के प्रचारक के रूप में उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों की यात्रा की। उससे समाज में व्याप्त जाति-व्यवस्था को एक नए दृष्टिकोण से जानने का अवसर मिला। 

धीरे-धीरे आर्यसमाजियों की कथनी और करनी का अंतर साफ नजर आने लगा। आर्यसमाज की स्थापना हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए की गई थी। लेकिन उसका असली उद्देश्य हिंदुओं के धर्मांतरण पर रोक लगाना था। जातीय उत्पीड़न और भेदभाव से आहत शूद्र इस्लाम और ईसाई धर्म की ओर आकर्षित रहे थे। इससे सवर्ण हिंदुओं के आगे अल्पसंख्यक होने का खतरा मंडराने लगा था। आर्यसमाज धर्मांतरित हिंदुओं की वापसी के लिए शुद्धि कार्यक्रम चलाता था। लेकिन शुद्धि के बाद हिंदू धर्म में लौटे हिंदुओं के लिए उसकी कोई विशिष्ट नीति नहीं थी। धर्म में वापस आए हिंदुओं को पुनः उसी गलीच जाति-व्यवस्था के बीच लौटना पड़ता था, जिससे क्षुब्ध होकर उन्होंने या उनके पूर्वजों ने धर्मांतरण का सहारा लिया था। हिंदू धर्म में वापस लौटे व्यक्तियों को ससम्मान जीवन जीने के अवसर प्राप्त हों, इसकी ओर से वह पूर्णतः उदासीन था। 1920 के दशक में उसने हिदुंत्व की राह पकड़ ली। वह वेदादि के अलावा उन्हीं प्रतीकों का समर्थन करने लगा, जो जाति-व्यवस्था का समर्थन करते थे। धीरे-धीरे स्वामी अछूतानंद को आर्यसमाज की कमजोरियों का एहसास होने लगा। उन्हें लगने लगा कि आर्यसमाज असल में ब्राह्मणवाद की सुधरे हुए रूप में वापसी का उपक्रम हैं। सवर्ण हिंदू दलितों और पिछड़ों का उपयोग सांप्रदायिक संघर्ष की स्थिति में मुस्लिमों से सामना करने के लिए करना चाहते हैं। 

‘शुद्धि’ कार्यक्रम विशुद्ध राजनीतिक अभियान था। ब्रिटिश सरकार ने 1909 में जातीय प्रतिनिधित्व के कानून के आधार पर मुस्लिमों के प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दे दिया था। उससे अगले ही वर्ष मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि मंडल ने वायसराय से मिलकर यह अपील की थी कि जाति-बाह्यः दलितों और शूद्रों को जिन्हें यज्ञादि हिंदू कर्मकांडों का अधिकार प्राप्त नहीं है, हिंदू न माना जाए। इससे सवर्ण हिंदुओं के सामने अल्पसंख्यक हो जाने का खतरा और भी साफ हो गया था। अछूतों को यज्ञोपवीत संस्कार का समर्थन करने वाला शुद्धिकरण अभियान, उसी की प्रतिक्रिया में उपजा था। आरंभ में उसे बहुत प्रसिद्धि मिली थी। ‘शुद्धि’ की रस्म का उपयोग अछूतों के ‘शुद्धिकरण’ के लिए भी किया जाता था। प्रकारांतर में वह अछूतों को ‘प्रायश्चित’ के लिए प्रेरित करता था। उसका अर्थ था कि शुद्धिकरण से पहले अछूतों की स्थिति पापमय थी। शुद्धिकरण के लिए मुंडन, यज्ञ, जनेऊ धारण कराने जैसी रस्में थीं। गायत्री मंत्र का उच्चारण किया जाता था। परंतु यज्ञोपवीत के बावजूद अछूतों को बराबरी का अधिकार न मिलने से यह साफ हो गया था कि हिंदुओं के लिए जाति का मसला धर्म से बड़ा है।3 वे समझने लगे कि शुद्धिकरण के माध्यम से अछूतों को आर्यसमाजी बनाकर हिंदुओं के दायरे में लाना सिवाय नंबरों के खेल के और कुछ नहीं है। उससे अछूतों का वास्तविक उत्थान संभव नहीं है। 

इसी बीच एक घटना ऐसी घटी जिससे उनका आर्यसमाज से मन उचट गया। अछूतों के बीच शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने अपने गृहनगर मैनपुरी में स्कूल खोलने का फैसला किया। उसके लिए समाज के सभी वर्गों की ओर से दान राशि प्राप्त हुई। उनकी पत्नी दुर्गाबाई के पास आभूषण के नाम पर एकमात्र अंगूठी थी। उन्होंने उसे भी स्कूल के लिए दान कर दिया था। स्कूल के उद्घाटन के अवसर पर वे मैनपुरी पहुंचे। 1912 का वर्ष था। कार्यक्रम का आयोजन स्थानीय आर्यसमाजी कार्यकर्ताओं की ओर से किया गया। समारोह स्थल पर उन्होंने जो देखा कि उससे वे हैरान रह गए। आर्यसमाज के प्रति मोह एकाएक भंग हो गया। उन्होंने देखा कि समारोह में ऊंची जाति के बच्चों के बैठने के लिए कालीन का इंतजाम था। जबकि अछूत बच्चों को सीधे जमीन पर बिठाया गया था। उसे देखकर अछूतानंद को आर्यसमाज के सिद्धांतों और व्यवहार में साफ अंतर नजर आने लगा। इससे स्वामी अछूतानंद का आर्यसमाज से मोह-भंग होना स्वाभाविक था। 1912 में ही उपर्युक्त घटना के बाद मेरठ में आयोजित एक सभा में उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा थाᅳ

‘आर्यसमाज का शुद्धिकरण अभियान, वैदिक धर्म के नाम पर मुस्लिमों और ईसाइयों से ब्राह्मणवाद को बचाए रखने का प्रपंच मात्र है। उसका दर्शन और ‘शुद्धि’ अभियान अज्ञानी जनता को गुमराह करने वाले, कह सकते हैं ᅳशब्दों की बाजीगरी मात्र हैं। इस तरह आर्यसमाज न केवल इतिहास का दुश्मन है, अपितु सत्य का हत्यारा भी है। उसका एकमात्र उद्देश्य हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों के बीच वैर-भाव को बढ़ावा देना, प्रकारांतर में उन्हें(बहुसंख्यक गैरसवर्णों को) वेदों और ब्राह्मणों का गुलाम बनाए रखना है।’4 

अंततः यह कहते हुए कि ‘अभी तक हम सोचते थे कि आर्यसमाज जाति-आधारित भेदभाव से मुक्त है; यही कारण है कि हम अपनी पूरी शक्ति से उसके लिए काम कर रहे थे, लेकिन हम अंधेरे में थे। मैनपुरी की घटना हमें अपने पैरों पर खड़े होने तथा अपने समाज के भले के लिए काम करने की शक्ति दी है5ᅳ उन्होंने आर्यसमाज को अलविदा कह दिया। उसके बाद उन्होंने स्वयं को पूरी तरह से अछूतों और वंचितों के लिए समर्पित कर दिया। 

 

हरिहरानंद से अछूतानंद

उस समय तक आर्यसमाज से जुड़े दूसरे अछूत नेता भी समझने लगे थे कि उसका शुद्धि अभियान महज ब्राह्मणधर्म को बनाए रखने का षड्यंत्र है। वह हिंदुओं के शक्तिशाली वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में काम कर रहा है, जिसका उद्देश्य जाति-व्यवस्था का उन्मूलन न होकर येन-केन-प्रकारेण ब्राह्मणों के वर्चस्व की रक्षा करना है। आर्यसमाज छोड़ने की घोषणा के साथ ही स्वामी अछूतानंद ने दलितों का आवाह्न किया कि वे आर्यसमाज द्वारा फैलाए जा रही भ्रांतियों से बाहर निकलें। उसके फलस्वरूप अस्पृश्यों के कई नेता, आर्यसमाज छोड़कर उनके समर्थन में आ गए। 1917 में उन्होंने दिल्ली में देवीदास, जानकीदास, जगतराम आदि नेताओं के साथ मिलकर ‘अखिल भारतीय अछूत महासभा’ की नींव रखी। उसी दौरान उन्होंने उन्होंने ‘अछूत’ शब्द की नई व्याख्या प्रस्तुत की। ब्राह्मणवादी ग्रंथों में अछूत को गंदा और अपवित्र बताते हुए अस्पृश्य कहा जाता था। स्वामी अछूतानंद ने कहा कि अछूत वे हैं जो किसी भी प्रकार की ‘छूत’ यानी अपवित्रता और गंदगी से मुक्त हैं। जो पूरी तरह पवित्र हैं। इसलिए उन्हें अपने भीतर किसी प्रकार की कुंठा या अपवित्रता की भावना रखने की आवश्यकता नहीं है। नैराश्य और हताशा से ऊपर उठकर उन्हें अपने ऊपर गर्व करना चाहिए। यह अछूतपन की एकदम नई व्याख्या थी, जिसके मूल में जातीय स्वाभिमान का भाव था। फलस्वरूप अस्पृश्य स्वामी अछूतानंद के पीछे संगठित होने लगे। 

स्वामी अछूतानंद का अगला लक्ष्य था, जाति का विनाश। वे समझ चुके थे हिंदू धर्म की परिधि में रहते हुए यह कार्य संभव नहीं है। इसलिए 1920 के दशक आरंभिक वर्षों में ही उन्होंने उत्तरप्रदेश में आदि-हिंदू आंदोलन की शुरुआत की थी। उल्लेखनीय है कि ‘आदि-हिंदू’ के ‘हिंदू’ का हिंदू धर्म से कोई संबंध नहीं है। यह भौगोलिक पद है, जिसे अरबी कबीलों ने सिंधु के इस पार रह रहे भारतीयों के लिए प्रयोग किया था। ‘आदि-हिंदू’ के मूल में भारत के ‘मूल निवासी’ का विचार था, जिसे सबसे पहले ज्योतिराव फुले ने प्रयोग किया था। उन्हीं से प्रेरणा लेकर भाग्यरेड्डी वर्मा ने 1913 में अस्पृश्यों के लिए ‘पंचम’ वर्ण की संज्ञा को नकारकर आदि-हिंदू की पहचान दी थी। उनके अनुसार ‘आदि-हिंदू’ आर्यों के आगमन से पहले से ही भारत में रह रहे, यहां के मूलनिवासी तथा समृद्ध सभ्यता के स्वामी थे। 

स्वामी अछूतानंद द्वारा आर्यसमाज पर किए जा रहे हमलों से उसके नेता परेशान थे। 1921 में स्वामी अछूतानंद को आर्यसमाज के प्रचारक पंडित अखिलानंद की ओर से शास्त्रार्थ की चुनौती मिली, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। उससे पहले वे ऋग्वेद सहित दूसरे ग्रंथों का अध्ययन कर चुके थे। 22 अक्टूबर 1921 को अखिलानंद और अछूतानंद के बीच शाहदरा दिल्ली की अनाजमंडी में शास्त्रार्थ हुआ। शास्त्रार्थ का मुख्य विषय आर्यों के मूल निवास स्थान को लेकर था। ऋग्वेद में इंद्र द्वारा दस्युओं के किलों के ध्वंस का उल्लेख अनेक स्थान पर हुआ है। अछूतानंद ने उन्हीं उद्धरणों के माध्यम से आसानी से अखिलानंद को परास्त कर दिया। शास्त्रार्थ के दौरान आर्यसमाजी प्रचारक पंडित रामचंद्र, नौबत सिंह, स्वामी दातानंद सहित आर्यसमाज की स्थानीय शाखा के कई प्रचारक और दलित नेता उपस्थित थे। शास्त्रार्थ में विजयी होने पर उन्हें ‘श्री-108’ की उपाधि प्रदान की गई, जिसका प्रस्ताव पंडित रामचंद्र की ओर से आया था। ‘श्री-108’ की उपाधि संत समाज में बड़ी सम्मानित मानी जाती थी। इस उपाधि के धारक व्यक्ति को पुण्यात्मा, दार्शनिक विषयों का पंडित और शास्त्रार्थ का धनी माना जाता था। किसी अछूत को यह उपाधि मिलना अपने आप में ऐतिहासिक उपलब्धि थी। उससे भी बड़ी बात थी कि अछूत व्यक्ति द्वारा उच्च जाति के ब्राह्मण को खुले शास्त्रार्थ में पराजित करना। उस घटना को व्यापक प्रसिद्धि मिलना स्वाभाविक था। अछूतानंद की विजय का समाचार श्री देवीदास द्वारा संपादित ‘प्राचीन भारत’ समाचार के मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, आदि में उस विजय को लेकर पोस्टर बंटवाए गए। वह दलित मेधा को पहली सार्वजनिक स्वीकृति थी, वह भी वैदिक ज्ञान के क्षेत्र मेें जिसपर ब्राह्मण शताब्दियों से अपना दावा ठोकते आए थे। इस घटना के बाद ही स्वामी हरिहरानंद ने अपना नाम बदलकर स्वामी अछूतानंद रख लिया। इस नाम का प्रस्ताव शास्त्रार्थ की समाप्ति के बाद, जाटव समाज के नेताओं चौधरी जानकी दास, देवीदास और जगतराम की ओर से आया था। 

 

सामाजिक आंदोलन का राजनीतिक विस्तार  

1919 में ब्रिटिश सरकार ने भारत में ‘कम्यूनल अवार्ड’ लागू किया था। उसके अनुसार धार्मिक संप्रदायों की संख्या के आधार पर उन्हें राजनीतिक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व दिया जाना था। इसलिए हर संप्रदाय अपनी अधिक से अधिक संख्या बताने में लगा था। आर्यसमाज द्वारा चलाया जा रहा शुद्धि आंदोलन भी उसी से प्रेरित था। वह धार्मिक से ज्यादा राजनीतिक अभियान था। इस पर टिप्पणी करते हुए स्वामी अछूतानंद के सहयोगी रामचरन ने कहा थाᅳ‘1919 के सुधार लागू हो चुके थे….उसके अनुसार प्रत्येक धार्मिक समूह को उसकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाना था। जिसकी जितनी बड़ी संख्या, उसे उतना ही बड़ा प्रतिनिधित्व। उसके बाद से ही जगह-जगह ‘अछूतोद्धार’ के नाम पर सम्मेलन आयोजित किए जा रहे थे।’6   इस तरह 1920 के दशक से ही आर्यसमाज का इस्तेमाल राजनीति के लिए होने लगा था। स्वामी अछूतानंद सहित पढ़े-लिखे अछूत नेताओं पर उसका सकारात्मक असर पड़ा था। वे संगठन की ताकत को समझने लगे थे। 

1923 तक आदि-हिंदू आंदोलन को औपनिवेशिक सरकार की मान्यता मिल चुकी थी। उसे देश में चल रहे दूसरे सुधारवादी कार्यक्रमों के समकक्ष मान लिया गया था। आंदोलन का मुख्य केंद्र कानपुर था। उसका निरंतर विस्तार हो रहा था। इसके साथ-साथ कांग्रेस और उसके नेताओं की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वे अछूतों को हिंदू धर्म के दायरे में रखना चाहते थे। दूसरी ओर आदि-हिंदू के नेता अपने आप को इस देश की प्राचीनतम सभ्यता का उत्तराधिकारी बता रहे थे। उनके अनुसार ब्राह्मण बाहर से आए आर्यों के उत्तराधिकारी थे। उन्हीं दिनों गांधी के छोटे बेटे देवदास ने स्वामी अछूतानंद से हिंदू समाज तथा कांग्रेस की भलाई के नाम पर आंदोलन को रोक देने की अपील की। यही नहीं, उन्होंने स्वामी अछूतानंद को कुछ धन का प्रलोभन भी दिया। इस पर अछूतानंद ने ब्रेड के एक टुकड़े को दिखाते हुए कहा थाᅳ‘मेरे लिए यही पर्याप्त है।’ देवदास गांधी को यह अपमानजनक लगा। क्षुब्ध होकर उन्होंने स्वामी अछूतानंद को ‘जूतानंद स्वामी’ कहना आरंभ कर दिया।’7 गांधी जो लगभग अपने हर भाषण में मनसा-वाचा-कर्मणा अहिंसा का समर्थन करते थे, के बेटे का ऐसा व्यवहार पूर्णतः अशोभनीय था। लेकिन उसमें अलग कुछ न था। देवदास दलितों के प्रति सवर्ण हिंदुओं के सामान्य व्यवहार का अनुसरण कर रहे थे।

अक्टूबर 1921 में ‘वाल्स के राजकुमार’ एडवर्ड अष्टम, अपने पांच महीने लंबे दौर पर भारत पहुंचे थे। कांग्रेस उनका बहिष्कार कर रही थी। जबकि डॉ. आंबेडकर सहित लगभग सभी बड़े दलित नेता अपनी मांगों को ब्रिटिश सरकार तक पहुंचाने के लिए उसे अच्छा अवसर मान रहे थे। उनका मानना था कि कांग्रेस तथा दूसरे सवर्ण नेता ‘वाल्स के राजकुमार’ का विरोध निहित स्वार्थों के लिए कर रहे हैं। राजकुमार के स्वागत के लिए स्वामी अछूतानंद ने 1922 में दिल्ली में ‘विराट अछूत सम्मेलन’ का आयोजन किया, जिसमें उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था। सम्मेलन में देश के कोने-कोने से आए 25000 से अधिक दलित उपस्थित थे। राजकुमार के सम्मान में भाषण देते हुए स्वामी अछूतानंद ने ‘मुल्की हक’(राष्ट्रीय अधिकार) की आवाज उठाते हुए दलितों की दुर्दशा का मामला उठाया। अपने भाषण में दूर-दूर से आए दलितों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा थाᅳ

‘बाहर से आए आर्य हमलावरों ने हमें दबाया हुआ था। उन्होंने हमें गुलामी और छूआछूत की दहलीज पर पटक दिया था। अब हमें अपने दमन के विरुद्ध आवाज उठानी होगी। इस देश का मूल निवासी होने के कारण हमें अपने ‘मुल्की हक’ की मांग करनी होगी। हमें ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के बजाए, राजकुमार का स्वागत करना होगा।’8

‘मुल्की हक’ से स्वामी अछूतानंद का आशय था, वे सभी अधिकार जो किसी स्वयंभू देश के नागरिक को प्राप्त होते हैं। जो दलितों को आर्यों के आगमन से पहले स्वाभाविक तौर पर प्राप्त थे। उन्होंने ‘वाल्स के राजकुमार’ एडवर्ड के आगे लिखित प्रतिवेदन भी प्रस्तुत किया था, जिसमें दलितों की 17 मांगें शामिल थीं। उन मांगों का असर यह हुआ कि उसी वर्ष यानी 1922 में औपनिवेशिक सरकार ने दलितों को संयुक्त प्रांत में कहीं भी सभाएं करने का अधिकार दे दिया। सरकारी अधिकारियों को आदेश दिया गया था कि वे दलितों को समुचित सुरक्षा प्रदान करें। स्वामी अछूतानंद की वह एक और बड़ी जीत थी। ब्राह्मणों शताब्दियों से शूद्रों को ‘क्षुद्र’ कहकर तथा वर्णव्यवस्था से बाहर के लोगों को दास, दस्यु, राक्षस आदि कहकर अपने धर्म से बाहर मानते आए थे। पूरा संस्कृत वाङ्मय इस तरह के किस्सों से भरा पड़ा है। उन्होंने न केवल गैर सवर्णों के पढ़ने-लिखने पर पाबंदी लगाई थी, बल्कि उन्हें उनके सामान्य अधिकारों से भी वंचित किया हुआ था। बदले समय में पहली बार था, जब सवर्ण अल्पसंख्यक होने के भय से गैर सवर्णों को अपने साथ रखना चाहते थे। आर्यसमाज और दूसरे संगठन इसी कोशिश में लगे थे, जबकि दलित उनके साथ जाने को तैयार न थे। अपितु स्वयं को इस देश का मूल निवासी बताकर अपनी स्वतंत्र संस्कृति और सभ्यता के दावे कर रहे थे। बड़ी बात यह कि जिन धर्मग्रंथों को पढ़ने से दलितों को रोका जाता था, जिनके आधार पर ब्राह्मण पांडित्य का दावा करते आए थे, उन्हीं के आधार पर अछूत ब्राह्मणों को विदेशी मूल का ठहरा रहे थे। 

स्वामी अछूतानंद पर कबीर, रविदास सहित भारतीय संतों का गहरा प्रभाव था। किशोरावस्था में अपने कबीरपंथी चाचा मथुरादास को कबीर और रविदास के पद सुनाया करते थे। उन्हीं से उनकी मानस-रचना हुई थी, वह सभी मनुष्यों को एक समान मानती थी। जाति को कबीरादि संत कवियों ने निशाने पर लिया था और अब वह अछूतानंद के भी निशाने पर थी। बस एक अंतर था। प्राचीन संत दुनियादारी के प्रति आसक्त नहीं थे। इसलिए संतोष पर जोर देते थे। कबीर तो रूखी-सूखी खाकर संतोष करने और दूसरे की चुपड़ी रोटी देख जी न ललचाने की बात खुलेआम करते हैं। कुल मिलाकर संत कवियों के लिए आर्थिक असमानता कोई बड़ा मुद्दा न थी। कबीर ने ‘अमरपुरी’ और रविदास ने ‘बे-गमपुरा’ के बहाने सामाजार्थिक ऊंच-नीच और भेदभाव से मुक्त समाज का सपना जरूर देखा था, मगर तत्कालीन परिस्थितियों में वह महज सपना ही था। उनीसवीं-बीसवीं शताब्दी के दलित आंदोलनों की नींव व्यक्ति स्वातंत्र्य और सहभागिता पर रखी गई थी। इसलिए फुले से लेकर स्वामी अछूतानंद तक, दलित नेताओं की प्रमुख मांगें थींᅳछूआछूत का विरोध, दलितों के साथ सम्मान-भरा व्यवहार, समानता और सहभागिता।   

1927 तक आते-आते देश-भर के दलित अपने अधिकारों के लिए उठ खड़े हुए थे। महाराष्ट्र में डॉ.  आंबेडकर, तमिलनाडु में ई. वी. रामासामी पेरियार, केरल में पोयकाइल योहन्नान अपनी-अपनी तरह से दलितों की मांगों को आगे बढ़ाने में लगे थे। छूआछूत और दलित उत्पीड़न उन सभी के निशाने पर था। उत्तर प्रदेश में यह जिम्मेदारी स्वामी अछूतानंद संभाले हुए थे। कुल मिलाकर पूरे देश के दलित अपने अधिकारों के लिए उठ खड़े हुए थे। कांग्रेसी नेताओं का कहना था कि इस समय देश के लिए सबसे बड़ी जरूरत आजादी प्राप्त करना है। अछूतों और अंत्यजों के नेता भी आजादी चाहते थे। लेकिन आजादी की उनकी संकल्पना कांग्रेस और दूसरे सवर्ण नेताओं से भिन्न थी। उसी वर्ष कानपुर में हुए ‘आदि हिंदू सम्मेलन’ में स्वामी अछूतानंद ने आजादी की अपनी संकल्पना को प्रस्तुत करते हुए कहा था कि इस समय देश में, ‘आजादी के वास्तविक हकदार यदि कोई है तो वे अछूत हैं। क्योंकि उन्हें हजारों वर्षों से गुलामी में रखा गया है।’ कांग्रेस द्वारा आजादी की मांग की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा था कि कांग्रेस द्वारा आजादी की मांग केवल समाज के अभिजन तबके, जो पहले से ही विशेषाधिकार प्राप्त है, की स्वार्थपूर्ति तक सीमित है। अछूतों का उस आजादी से कोई संबंध नहीं है। दिसंबर 1927 में दलित जातियों के प्रतिनिधियों की विशेष बैठक हुई थी। उस समय तक साइमन कमीशन के आने की घोषणा हो चुकी थी। बैठक का साइमन कमीशन के सामने दलितों की मांगों तथा अगले सुधारवादी कार्यक्रमों पर चर्चा होनी थी। बैठक की अध्यक्षता एम. सी. राजा(मिलै चिन्ना थंबी पिल्लई राजा) ने की थी। स्वामी अछूतानंद स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। उस सभा में दलित जातियों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र तथा विधायिकाओं में अधिक सीट सुरक्षित करने की मांग की गई थी।

स्वामी अछूतानंद और डॉ. आंबेडकर का लक्ष्य एक समान था। दोनों पिछड़ी और दमित जातियों के उत्थान के लिए सक्रिय थे। लेकिन दोनों की सीधी भेंट अभी तक नहीं हो पाई थी। यह अवसर 1928 में आया। अवसर था, मुंबई में होने वाला ‘आदि हिंदू सम्मेलन’। भेंट के दौरान दोनों ने एक-दूसरे के कार्यक्रमों की सराहना की। डॉ. आंबेडकर ने स्वामी अछूतानंद से साइमन कमीशन के आगे दलितों की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करने का आग्रह किया। दोनों का संबंध आगे भी बना रहा। 30 नवंबर 1930 को साइमन कमीशन कमीशन भारत आया तो स्वामी अछूतानंद ने अपने सहयोगी नेताओं तिलकचंद कुरील, गिरधारीलाल भगत, लक्षमण प्रसाद, किरोड़ीमल खटीक आदि के साथ कमीशन से लखनऊ में मुलाकात की। कांग्रेस साइमन कमीशन का बहिष्कार करने पर तुली हुई थी। स्वामी अछूतानंद ने आरोप लगाया कि कांग्रेस कमीशन के आगे दलितों और पिछड़ों की गलत तस्वीर पेश कर रही है। उन्होंने कांग्रेस पर दलित बस्तियों में नए कपड़े बांटने का आरोप भी लगाया। स्वामी अछूतानंद ने साइमन कमीशन के आगे दलितों के लिए स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र की मांग की। उन्होंने कहा थाᅳ‘हमें ब्रिटिश सरकार की सहानुभूति की आवश्यकता नहीं है। हम केवल अपने लिए सम्मान और आदर-भाव की इच्छा रखते हैं।’ डॉ. आंबेडकर ने बहिष्कृत हितकारिणी सभा के अध्यक्ष के नाते साइमन कमीशन से मुलाकात की थी। उन्होंने सभा की ओर से एक मांगपत्र प्रस्तुत किया था, जिसमें दमित जातियों की दुर्दशा का विवरण तथा सभा की ओर से मांगें थीं। दलितों और पिछड़ों के उत्थान के लिए स्वामी अछूतानंद द्वारा किए जा रहे अनथक प्रयासों के कारण देश-विदेश में उनकी ख्याति बढ़ती ही जा रही थी। 

दलितों और पिछड़ों का आत्मविश्वास लौटाने के लिए आदि हिंदू अभियान लगातार अपना काम कर रहा था। स्वामी जी का कहना था कि दलित हमेशा ही दलित न थे। बल्कि वे समृद्ध संस्कृति के जन्मदाता रह चुके हैं। आर्यों के आगमन से पहले उनके भी किले थे। एक समृद्ध सभ्यता थी, जिसमें ऊंच-नीच का भेद न था। आर्यों ने न केवल उस सभ्यता को तहस-नहस किया है, अपितु उसके तथ्यों से भी छेड़छाड़ की है। इलाहाबाद में 17 सिंतबर 1930 को आयोजित आठवें ‘अखिल भारतीय आदि हिंदू सम्मेलन’ की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता पर जोर दिया था। 1930 में लंदन में होने वाली ‘राउंड टेबल कान्फ्रेंस’ में डॉ. आंबेडकर और रतनमालाई श्रीनिवासन को मिले आमंत्रण का समर्थन करते हुए सरकार को तार भेजे थे, जिसमें उन्होंने दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग का समर्थन किया था। उस टेलीग्राम में उन्होंने ‘राजा-मुंजे समझौता’ का विरोध भी किया था। यह समझौता अछूतों द्वारा अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग को देश की एकता के लिए खतरा मानता था। गांधी द्वारा दलितों को दिया गया ‘हरिजन’ नाम भी उन्हें स्वीकार्य न था।  

स्वामी अछूतानंद चाहते थे कि ब्रिटिश सरकार गोलमेज सम्मेलन में डॉ. आंबेडकर की बात को गंभीरता से ले। इसके लिए उन्होंने अपने समर्थकों से सरकार को पत्र लिखने का आग्रह किया। उनके संकेत मात्र पर हजारों पत्र डॉ. आंबेडकर के समर्थन में संबंधित अधिकारियों तक पहुंचे थे। उसके फलस्वरूप असर ब्रिटिश सरकार ने डॉ. आंबेडकर को शोषित जातियों का प्रतिनिधि मानकर 1932 में ‘कम्यूनल एवार्ड’ को स्वीकृति दी। उसके फलस्वरूप दलितों की अलग मतदान की मांग को स्वीकार लिया गया। यह दलित आंदोलन की ऐतिहासिक विजय और कांग्रेस की सबसे बड़ी पराजय थी। उसके लिए गांधी को आगे आना पड़ा। कांग्रेस का तर्क था कि दलितों के लिए स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र घोषित होने से हिंदू समाज बंट जाएगा। इससे उसका हिंदू राष्ट्र बनने का स्वप्न भी जाता रहेगा। यह अनोखा तर्क था। कुछ दशक पहले तक ही सवर्ण निचली जातियों को अपने से अलग मानते आए थे। उनके बड़े हिस्से को वे हिंदू मानने से भी इन्कार कर देते थे। मगर बदली परिस्थिति में ऐसा कतई संभव न था।  

‘आदि हिंदू आंदोलन’ लगातार विस्तार ले रहा था। इसके साथ ही स्वामी अछूतानंद की ख्याति भी बढ़ती जा रही थी। उत्तर भारत में वे दलितों के डॉ. आंबेडकर के बाद सबसे बड़े नेता थे। चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ‘आदि हिंदू आंदोलन’ को असली समाजवादी आंदोलन मानते थे। स्वामी अछूतानंद और आंबेडकर को वे क्रमशः कार्ल मार्क्स और लेनिन की संज्ञा देते थे। द्विज उनके लिए बुर्जुआ समुदाय था, जबकि आदि हिंदू सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि। ‘आदि हिंदू आंदोलन’ और अछूतानंद की निरंतर बढ़ती ख्याति सवर्ण हिंदुओं, विशेषकर आर्य समाजियों के लिए सिरदर्द बन चुकी थी। इसलिए उन्होंने स्वामी अछूतानंद तथा उनके आंदोलन को बदनाम करने के लिए तरह-तरह की अफवाहें फैलाना आरंभ कर दिया था। कुछ कहते कि स्वामी अछूतानंद ईसाई बन चुके हैं। वे ईसाई संस्थाओं से पैसा लेते हैं। एक दिन वे अपने समर्थकों को भी ईसाई बना देंगे। कुछ आरोप लगाते कि स्वामी अछूतानंद मुस्लिमों के लिए काम कर रहे हैं। एक अफवाह यह भी फैलाई जा रही थी कि स्वामी अछूतानंद को आर्यसमाज विरोधी गतिविधियों के कारण उससे निकाल दिया था। उसी अपमान से आहत होकर वे आर्यसमाज और हिंदुओं को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन स्वामी अछूतानंद को उसकी कोेई परवाह न थी। वे केवल अपने काम में लगे थे। उनके लिए उनके आंदोलन का लक्ष्य व्यक्तिगत प्रतिष्ठा या बदनामी से कहीं बड़ा था। इसके लिए भूखे-प्यासे रहकर भी काम करना पड़े तो पीछे नहीं रहते थे। चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने उनके बारे में लिखा है कि आंदोलन की गतिविधियों को आगे बढ़ाने में इतने लिप्त रहते थे कि खाने-पीने की सुध न रहती थी। कभी चना-चबैना के भरोसे वक्त बिताना पड़ता तो कभी भूखे भी सोना पड़ता था। मिशन के काम के लिए मीलों पैदल चलने का तो उन्हें अभ्यास था। बावजूद इसके कभी कोई प्रलोभन, कोई सत्ता उन्हें डिगा नहीं पाती थी। अपने लक्ष्य के प्रति वे कितने सतर्क थे, इसे इस उदाहरण से भी समझा जा सकता हैᅳ

आदि हिंदू आंदोलन के प्रचार के सिलसिले में एक बार उन्हें कन्नौज जाना पड़ा। कन्नौज पुराना शहर है। तय किया गया था कि आदि हिंदू आंदोलन के तहत वहां बड़ा कार्यक्रम होगा। हजारों अस्पृश्य उसमें हिस्सा लेंगे। प्रजा की सहानुभूति बटोरने के लिए उन दिनों राजा-महाराजा भी ऐसे आंदोलनों को मदद पहुंचाया करते थे। हालांकि व्यवहार में वे पूरी तरह परंपरावादी होते थे। केवल पैसे के बल पर हर वर्ग पर अपनी धाक जमाना, प्रकारांतर में उसकी सहानुभूति बटोरना उनका मकसद होता था। कन्नौज के कार्यक्रम के लिए तिरवा के राजा की ओर से मदद का प्रस्ताव आया। वह टेंट और स्टेज पर होने वाले खर्च के लिए मोटी रकम देने को तैयार था। अगर राजा पैसे के दम पर दलित समुदायों की सहानुभूति और प्रशंसा अर्जित कर मसीहा बनना चाहता था तो दलितों में भी एक ऐसा वर्ग था जो सम्मेलन के बहाने राजा को खुश करना चाहता था। उस वर्ग ने प्रस्ताव रखा था कि सम्मेलन की अध्यक्षता राजा तिरवा द्वारा कराई जाए। समाचार अछूतानंद स्वामी तक पहुंचा तो मामला अड़ गया। अछूतों के सम्मेलन की अध्यक्षता कोई गैर-अछूत करे, यह उन्हें बिलकुल स्वीकार्य न था। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि सम्मेलन की अध्यक्षता किसी उपयुक्त अछूत से ही कराई जानी चाहिए। स्वामी जी के विरोध का सुफल यह हुआ कि राजा से सम्मेलन की अध्यक्षता कराने का प्रस्ताव टाल दिया गया। उसके बजाए अध्यक्षता के लिए वयोवृद्ध दलित नेता रामचरन कुरील को चुना गया।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                

28 अप्रैल 1930 को स्वामीजी ने ‘आदि हिंदू सामाजिक परिषद’ की अमरावती बरार में बैठक हुई। उस बैठक में उन्होंने खुलासा किया कि कुछ लोग उन्हें मारने की योजना बना रहे हैं। इससे पहले भी अखबारों में ऐसी सूचना प्रकाशित हो चुकी थी। आगरा की एक सभा में उनपर हमला हो चुका था, जिससे वे किसी तरह सुरक्षित बच निकलने में कामयाब रहे थे। लगातार बढ़ रहे हमले स्वामी अछूतानंद की बढ़ती लोकप्रियता और उनके आंदोलन की सफलता का प्रमाण थे। बड़ी बात यह थी कि स्वामी अछूतानंद ने दलित आंदोलन को बड़ा मोड़ दिया था। उससे पहले के दलित उद्धार से जुड़े कार्यक्रम मुख्यतः सामाजिक होते थे। डॉ. आंबेडकर और अछूतानंद के आने से उसमें राजनीतिक लक्ष्य भी जुड़ चुका था। उसका अर्थ था, राजनीति के क्षेत्र में सहभागिता। ‘आदि हिंदू आंदोलन’ के मूल में ही राजनीति थी। उसके अनुसार आदि हिंदू इस देश के पुराने शासक-संचालक थे। वह कांग्रेस को उसके स्वराज का जवाब था। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस स्वराज के माध्यम से राजनीतिक सहभागिता की मांग तो करती थी, लेकिन उसमें समाज के पिछड़े वर्गों की हिस्सेदारी भी सुनिश्चित हो, इसका कोई विचार न था। उन दिनों तक सत्ता के दो प्रमुख दावेदार थेᅳहिंदू और मुसलमान। मुस्लिमों का दावा था कि इस देश पर सात-आठ सौ वर्षों तक उनके पूर्वजों का राज्य रहा है। इसलिए अंग्रेजों को चाहिए कि देश को छोड़ते समय उन्हीं के हाथों में सत्ता सौंपकर जाएं, जिनसे उन्होंने सत्ता छीनी थी। हिंदुओं का दावा था कि वे बहुसंख्यक हैं। देश-दुनिया की प्राचीनतम संस्कृति के वारिस हैं। इस्लाम के आगमन से पहले हजारों वर्षों से देश उन्हीं के अधीन रहा है। इसलिए देश की सत्ता के वही वास्तविक उत्तराधिकारी हैं। 

उनके लिए हिंदुओं का आशय चंद ऊंची जातियों से था। अछूत और शूद्रों को सत्ता में भागीदारी के अयोग्य माना जाता था। मुस्लिमों के प्रतिनिधि मोहम्मद अली जिन्ना थे। गांधी ने दावा किया था कि वे हिंदुओं के एकमात्र प्रतिनिधि हैं। इसपर डॉ. आंबेडकर ने कहा कि अस्पृश्य हिंदू नहीं हैं। उन्होंने अछूतों के प्रतिनिधि के रूप में ही उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेकर उनके लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों की मांग की थी। आर्यसमाज और कांग्रेस नहीं चाहते थे कि आंबेडकर की योजना सफल हो। ऐसे में स्वामी अछूतानंद ने न केवल खुले मन से डॉ. आंबेडकर का समर्थन किया था, अपितु अपने समर्थकों से कहकर हजारों पर ब्रिटिश सरकार को भिजवाए थे, जिनसे डॉ. आंबेडकर को दलितों का प्रतिनिधि बताया गया था। उसी के फलस्वरूप आंबेडकर की दावेदारी मजबूत हुई थी और गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटिश सरकार उनकी मांग मानने को बाध्य हुई थी। गांधी जी जानते थे कि डॉ. आंबेडकर की पृथक निर्वाचन क्षेत्र की मांग के केवल राजनीतिक निहितार्थ नहीं है। यदि वह मान ली जाती है तो सवर्णों और गैरसवर्णों के बीच हमेशा के लिए गहरी खाई बन जाएगी। उससे डॉ. आंबेडकर की मान्यता जिससे वे अस्पृश्यों को हिंदू मानने से इन्कार करते थेᅳको बल मिलेगा। यह कहने पर कि इससे हिंदू राष्ट्र की संकल्पना ही समाप्त हो जाएगी, डॉ. आंबेडकर का गांधी को उत्तर थाᅳ‘सही मायने में तो भारतीयों का कोई राष्ट्र नहीं है। अभी उसका सृजन किया जाना है।’ उन्होंने आगे कहा था कि ‘राष्ट्र के सृजन का तरीका यह नहीं है कि किसी अलग और विशिष्ट समुदाय का दमन किया जाए। दूसरे अस्पृश्य यदि अस्पृश्य प्रतिनिधि का चयन करता है तो इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि निर्वाचित प्रतिनिधि उनका वास्तविक प्रतिनिधि होगा। यदि यही सही स्थिति है तो अलग निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था ही अस्पृश्यों के वास्तविक प्रतिनिधित्व की गारंटी हो सकती है।’ 18 मई 1932 को ‘अखिल भारतीय दलित वर्ग सम्मेलन’ उत्तरप्रदेश के कामठी में हुआ। सम्मेलन में देश के विभिन्न भागों से आए सौ से अधिक प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। जिसमें एक बार फिर दलितों के लिए स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र की मांग पर जोर दिया गया।  

यह बात अलग है कि आगे चलकर गांधी की जिद और डॉ. आंबेडकर पर चौतरफा दबावों के बाद उन्हें पूना समझौते के लिए बाध्य होना पड़ा और उन्हें स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र की अपनी मांग छोड़नी पड़ी थी। पूना समझौते के विरोध में स्वामी अछूतानंद ने सितंबर 1932 में कई प्रदर्शन किए थे। समझौते का विरोध करते हुए उन्होंने देश के विभिन्न भागों की यात्राएं की थीं। उन्हीं दिनों गांधी ने अछूतों को ‘हरिजन’ नाम दिया था। डॉ. आंबेडकर सहित विभिन्न दलित नेताओं और स्वामी अछूतानंद ने उसका तीखा विरोध किया। स्वामी अछूतानंद कवि थे। अपना विरोध दर्शाते हुए उन्हीं दिनों उन्होंने कविता लिखी थी। उस कविता में जहां अछूतों के अतीत के गौरव को याद दिलाया गया था, वहीं उसमें उनकी पीड़ा भी समाई हुई थीᅳ

कियौ हरिजन-पद हमैं प्रदान

अन्त्यज, पतित, बहिष्कृत, पादज, पंचम, शूद्र महान

संकर बरन और वर्णाधम पद अछूत-उपमान

                            ….

हम तो कहत हम आदि-निवासी, आदि-वंस संतान

भारत भुइयाँ-माता हमरी, जिनकौ लाल निशान

आर्य-वंश वारे-सारे तुम, लिये वेद कौ ज्ञान

पता नहीं कित तें इत आये, बांधत ऊँच मचान

….

हम हरिजन तौ तुम हूँ हरिजन कस न, कहौ श्रीमान?

कि तुम हौ उनके जन, जिनको जगत कहत शैतान

स्वामी अछूतानंद भारत के नवजागरण के प्रतीक और सच्चे समाज सुधारक थे। मृत्यु से कुछ महीने पहले उन्होंने ग्वालियर में ‘विराट आदि-हिंदू सम्मेलन’ में भी हिस्सा लिया था, जहां उन्होंने स्त्रियों के शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद की थी। उन्होंने कहा था कि आदि-हिंदू संस्कृति में स्त्री का सम्मान होता आया है। विधवा विवाह पर रोकथाम, बाल-विवाह हिंदुत्व की कुरीतियां हैं। आदि हिंदूओं में इन बुराइयों के लिए कोई स्थान नहीं था। उन्होंने जोर देकर कहा था कि आर्यों के आगमन से पहले महिलाओं का समाज में सम्मान होता था। उन्हें शिक्षा दी जाती थी। सम्मेलन में उन्होंने महिलाओं, बच्चों और अछूतों पर अत्याचार करने वाले जमींदारों का सम्मान करने के लिए सरकार की आलोचना भी की थी। पूना समझौते का असर उनके मन-मस्तिष्क पर था। ग्वालियर सम्मेलन के बाद वे बीमार पड़ गए। शरीर लगातार क्षीण पड़ने लगा। अंततः 22 जुलाई 1933 को कानपुर में उन्होंने देह-त्याग निर्वाण का रास्ता पकड़ लिया। उस समय उनकी उम्र मात्र 54 वर्ष की थी। मृत्यु से कुछ दिन पहले जब ‘पूना समझौता’ पर उनकी राय जाननी चाही तो उनका कहना थाᅳ

‘जो हुआ, वह भी काफी अच्छा है। इसे स्वीकार कर लेने में ही बुद्धिमानी है। इससे एक ओर तो महात्मा गांधी के प्राणों की रक्षा हुई, और हम कलंक से बच गए, दूसरे हम अपने बड़े भइयों(हिंदुओं) से मेल-जोल बना रहा। देखना है, अब हिंदू किस तरह अपना प्रायश्चित और आत्मशुद्धि करते हैं। किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि इस समझौते से हमारा सामाजिक और धार्मिक आंदोलन बंद हो जाएगा। उसे तो और जोरों से चलना चलना चाहिए। हमें हिंदुओं के मंदिर में जाने की जरूरत नहीं है। हमारे आत्मदेव का मंदिर समस्त विश्व है और प्रत्येक घट मंदिर है। यह जो कुछ हुआ है, सब हमारे ‘आदि-हिंदू आंदोलन’ का ही फल है।’9  

फुले और आंबेडकर की भांति स्वामी अछूतानंद भी अछूतों और पिछड़ी जातियों के संगठन की कामना करते थे। उनका कहना था कि यदि ये वर्ग एकजुट हो जाएं तो अपने आप में बड़ा समूह होंगे। उन्हें राजनीतिक रूप से परास्त करना असंभव होगा। वे अपनी सरकार स्वयं बना सकेंगे। पिछड़ों और अतिपिछड़ों को फुले की तरह वे भी ‘बहुजन समाज’ कहकर पुकारते थे। जो आज भी प्रासंगिक है। जिसमें भविष्य की सामाजिक न्याय की राजनीति के बीजतत्व छिपे हुए हैं। नेता और मार्गदर्शक के अलावा स्वामी अछूतानंद अच्छे कवि, लेखक और नाटककार भी थे। उनकी छह पुस्तकों में राजा राम न्याय(नाटक), मायानंद बलिदान(जीवनी), पाखंड खंडिनी, अछूत पुकार(दोनों कविता संग्रह) आदि शामिल हैं। शोषित जातियों में जागरूकता लाने के लिए उन्होंने दिल्ली से ‘अछूत’ मासिक पत्र की शुरुआत की थी। पत्रिका ज्यादा दिन न चल सकी। उसके तुरंत बाद उन्होंने ‘प्राचीन हिंदू’ शीर्षक से पत्रिका का आरंभ किया। संयोगवश वह अखबार भी एक वर्ष ही निकल पाया। उसके बाद उन्होंने कानपुर से ‘आदि हिंदू जर्नल’ की शुरुआत की। अपने भाषण के बीच-बीच वे कविता का उपयोग करते थे। लेख के समापन पर उनकी कविता के कुछ पद प्रस्तुत हैं, जिसे उन्होंने 1927 में ‘उत्तर प्रदेश आदि सभा सम्मेलन’ के समापन पर पढ़ा थाᅳ

निसिदिन मनुस्मृति ये हमको जला रही है,

उपर न उठने देती नीचे गिरा रही है

हमको बिना मजूरी, बैलों के संग जोते,

गाली व मार उस पर हमको दिला रही है

लेते बेगार, खाना तक पेट भर न देते,

बच्चे तड़पते भूखे, क्या जुल्म ढा रही है

….

ब्राह्मण व क्षत्रियों को सबका बनाया अफसर

हमको ‘पुराने उतरन पहनो’ बता रही है

दौलत कभी न जोड़े, गर हो तो छीन लें वह

फिर ‘नीच’ कह हमारा, दिल भी दुखा रही है

कुत्ते व बिल्ली, मक्खी, से भी बना के नीचा

हा शोक! ग्राम बाहर, हमको बसा रही है

ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भ

1. एम. पाटिल, जून-1913, दीनमित्र, गेल ओमवेड ‘कल्चर रिवोल्ट इन कोलोनियल सोसाइटी : नाॅन ब्राह्मन मूवमेंट इन  वेस्टर्न इंडिया, 1873ᅳ1930, पुणे साइंटिफिक सोशलिष्ट एजुकेशन ट्रस्ट’ में उद्धृत पृष्ठ -157.
2. ई. आर. नीव द्वारा संपादित और संकलित, मैनपुरी गजैटियर, संयुक्त प्रांत जिला आगरा और अवध, खंड-10, इलाहाबाद : सुपरिटेंडेंट, गवर्नमेंट प्रेस, उ.प्र. 1910, पृष्ठ 89.
3. केनिथ डब्ल्यू जोन्स, आर्यधर्म : हिंदू काॅसियशनेस इन नाइनटीथ सेन्चुरी पंजाब, नई दिल्ली, मनोहर पब्लिकेशन, 1976, पृष्ठ 310
4. डॉ. अमरजीत द्वारा ‘स्वामी अछूतानंद एंड राइज आफ दलित कानशियसनेस’ लेख से उद्धृत।  
5. उपर्युक्त, मूलतः गुरुप्रसाद मदान: स्वामी अछूतानंद हरिहर : जीवन और कृतित्व, अप्रकाशित पांडुलिपि 1969,
6. अछूतानंद स्वामी जी, इंजीनियर हेमराज फोंसा का आलेख, दलित विजन: http://dalitvision.blogspot.com/2017/06/achhutanand-swami-ji-1879-to-1933-his.html 
7. नंदिनी गोप्तू, दि पाॅलिटिक्स आफ अर्बन पूअर इन अर्ली ट्वंटीथ सेन्चुरी इंडिया, पृष्ठ-157
8. चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, भारतीय मौलिक समाजवाद : सृष्टि और मानव समाज का विकास, आदिहिंदू ज्ञान प्रसारक ब्यूरो, 1941, पृष्ठ 271-272, से डॉ.अमरदीप द्वारा उद्धृत 
9. कंवल भारती, ‘स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ का जीवनवृत’ से उद्धृत :
https://www.forwardpress.in/2019/01/swami-acchutanad-harihari-profile-story-hindi/#_ftn23

क्रांतिकारी कवि, लेखक, नाटककार और समाजसुधारक : अन्नाभाऊ साठे

विशेष रुप से प्रदर्शित

आगे बढ़ो! जोरदार प्रहार से दुनिया को बदल डालो। ऐसा मुझसे भीमराव कह कर गए हैं। हाथी जैसी ताकत होने के बावजूद गुलामी के दलदल में क्यों फंसे रहते हो। आलस त्याग, जिस्म को झटककर बाहर निकलो और टूट पड़ो।1                                                                

                                                    अन्नाभाऊ साठे

अन्नाभाऊ साठे कौन थे, क्या थे? कहां के थे? बहुत कम लोग जानते हैं। खासकर हम हिंदी वालों में। ‘अन्ना’ नाम सुनकर हमारे मस्तिष्क में सिर्फ अन्ना हजारे की तस्वीर बनती है। क्योंकि निहित स्वार्थ के अनुरूप खबरें गढ़ने वाला पूंजीवादी मीडिया, इस नाम को किसी न किसी बहाने बार-बार हमारे बीच ले आता है। सुनकर शायद हैरानी हो कि अन्नाभाऊ से जुड़े एक प्रश्न ने नेहरू जी को भी उलझन में डाल दिया था। उन दिनों रूस और भारत की गहरी मैत्री थी। नेहरू जी वहां पहुंचे हुए थे। यात्रा के बीच एक व्यक्ति ने अकस्मात पूछ लियाᅳ‘आपके यहां गरीबों और वंचितों की कहानी कहने वाला एक कलाकार और समाज सुधारक अन्नाभाऊ साठे है….कैसा है वह?’

नेहरू जी चुप्प। उन्होंने ऐसे किसी अन्नाभाऊ साठे के बारे में नहीं सुना था। देश लौटे। यहां पता लगाना शुरू किया। पर मुश्किल। काफी कोशिश के बाद पता चला कि मुंबई की चाल में ऐसा ही आदमी रहता है। कद पांच फुट, रंग तांबई, बदन इकहरा। आंखों में चमक। सीधे दिल में उतर जाने वाली तेज, जोशीली आवाज। लिखता, गाता-बजाता, तमाशे करता है। मजदूर आंदोलनों में हिस्सा लेकर उनकी बात उठाता है। बोलने के लिए खड़ा होता है तो बड़ी से बड़ी भीड़ में भी सन्नाटा छा जाता है। लोकप्रियता ऐसी कि तमाशा करे तो दर्शकों का हुजूम उमड़ पड़ता है। अमीरी-गरीबी के बीच भारी अंतर को वह मार्क्सवादी नजरिये से देखता है। लेकिन जातिवाद और छूआछूत की व्याख्या के समय उसे सिर्फ आंबेडकर याद आते हैं। जो सामाजिक न्याय के लिए वर्ग-क्रांति को आवश्यक मानता है।

मराठी साहित्य और कला-जगत के शिखर पुरुष अन्नाभाऊ साठे का जन्म 1 अगस्त 1920 को महाराष्ट्र के सांगली जिले की वालवा तहसील के वाटेगांव के मांगबाड़ा में हुआ था। उनके बचपन का नाम तुकाराम था। पिता का नाम भाऊराव और मां का नाम था बालूवाई। जाति थी मांग(मातंग)। अछूत और देश की सर्वाधिक विपन्न जातियों में से एक, जिसका कोई स्थायी धंधा तक नहीं था। पेट भरने के लिए उस जाति के सदस्य शादी-विवाह, पर्व-त्योहार के अवसर पर ढोल और तुरही बजाते। नाच-गाकर लोगों का मनोरंजन करते। रस्सी बुनते। उससे जो आय हो जाती उससे जैसे-तैसे गृहस्थी चलाते थे। लेकिन ये काम हमेशा तो मिलने वाले नहीं थे। इसलिए बाकी समय में वे मेहनत-मजदूरी वाला कोई भी काम कर लेते थे। अछूत होने के कारण गांव में रहने की मनाही थी। सो गांव-बाहर रहते। चैन वहां भी नहीं था। गांव में जब भी कोई अपराध होता तो शक ‘मांगबाड़ा’ पर ही जाता। शर्म की बात यह कि मानव-मात्र के अधिकारों की सुरक्षा का दावा करने वाली औपनिवेशिक सरकार ने पूरी ‘मांग’ जाति को ‘क्रिमिनल ट्राइव एक्टᅳ1871’ के अंतर्गत अपराधी घोषित किया हुआ था। कुछ ‘समझदार’ किस्म के ग्रामीण किसी ‘मांग’ को ही गांव की चौकीदारी सौंप देते थे। कहीं-कहीं यह कहावत भी चलती थी कि मांग के घर में आटे का बर्तन भले खाली हो, दीवार पर बंदूक जरूर टंगी होती है।  

अन्ना के पिता मुंबई में एक अंग्रेज के घर माली का काम करते थे। बाकी परिवार गांव में रहता था। भाऊराव नौकरी करते थे, इस कारण बाकी सजातीय परिवारों की अपेक्षा उनकी आर्थिक हैसियत थोड़ी अच्छी थी। फिर भी जीवन संघर्षमय था। भाऊराव बेटे को पढ़ाना चाहते थे। एक बार छुट्टी लेकर गांव पहुंचे तो अन्ना की मां ने उनका स्कूल में दाखिला कराने की सलाह दी। लेकिन स्कूल मास्टर कुलकर्णी ‘अपराधी’ जाति के बालक को दाखिला देने को तैयार न था। काफी अनुनय-विनय के बाद वह राजी हुआ। फिर भी जाति-द्वेष बना रहा। अपमान और तिरस्कार भरे माहौल में अन्नाभाऊ ने कुछ दिन जैसे-तैसे काटे। शीघ्र ही उनका स्वाभिमानी मन वहां से ऊब गया। आखिर प्राथमिक शिक्षा पूरी होने से पहले ही, स्कूल को हमेशा के लिए अलविदा कह, वे जीवन की पाठशाला में भर्ती हो गए। उसके बाद कुछ दिन यायावरी और सिर्फ यायावरी चली। जो सीखा जीवनानुभवों से सीखा। जितना सीखा उतना समाज को लगातार लौटाते भी रहे।

उन दिनों मनोरंजन का प्रमुख साधन गाना-बजाना था। अन्ना का दिमाग तेज था। याददाश्त गजब की। बचपन से ही अनेक लोकगीत उन्हें उन्हें कंठस्थ थे। वे गा-बजाकर अपना और दूसरों का मनोरंजन करते। खेल ही खेल में यदा-कदा कुछ नया भी रच देते थे। यही नहीं, वे तलवार, भाला, दांडपट्टा, कटार आदि चलाने में भी सिद्धहस्त थे। इन हथियारों का प्रयोग अवसर विशेष पर शौर्यकला का प्रदर्शन करने के लिए किया जाता था। असल में वे सामंतों के मनोरंजन का साधन थे। वैभव और शौर्य लुटा चुके जमींदार, सामंत शौर्यकलाओं का मंचन देखकर ही आत्मतुष्ट हो जाया करते थे। बात-बात पर न्याय, नैतिकता, धर्म और संस्कृति की दुहाई देने वाले पंडितजन, जाति के नाम पर आदमी-आदमी में भेद के सवाल पर चुप्पी साध जाते थे।

उन दिनों देश में स्वाधीनता आंदोलन की गर्मी थी। क्रांतिकारी गतिविधियों में तेजी आई हुई थी। अंग्रेजों का भारतीयों पर संदेह बढ़ता ही जा रहा था। ऊपर से 1930 के दशक की भीषण आर्थिक मंदी का असर। एक दिन भाऊराव को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। हताश-निराश भाऊराव गांव पहुंचे। यह सोचकर कि वहां जैसे बाकी लोग जीते हैं, वैसे वे भी दिन बिता लेंगे। लेकिन गांव पहुंचते ही एक नई आफत से सामना हुआ। उस वर्ष पूरे महाराष्ट्र में सूखा पड़ा था। अकाल जैसे हालात बन चुके थे। उन दिनों मुंबई औद्योगिक नगरी के रूप में तरक्की कर रही थी। लोग रोजगार की तलाश में उसकी ओर आ रहे थे। रोजी-रोटी के सवालों से जूझ रहे भाऊराव साठे ने भी मुंबई जाने का फैसला कर लिया। मगर किराये के लिए जरूरी पैसे उनके पास न थे। बस मुंबई पहुंचने की ललक थी, जो देखते ही देखते उनका संकल्प बन गई। किराये का इंतजाम न हुआ तो परिवार को साथ ले, एक दिन पैदल ही मुंबई की ओर निकल पड़े। गांव-गांव भटकते, खाते-कमाते, पैदल चलते-चलते पूरा परिवार किसी तरह पूना पहुंचा। वहां वे लोग एक ठेकेदार के लिए पत्थर तोड़ने का काम करने लगे। अन्ना भी काम में उनकी मदद करता। लगातार मेहनत से वह कमजोर पड़ने लगा था। ठेकेदार अपने मजदूरों को बंधुआ समझता था। आखिरकार एक पठान की मदद से भाऊराव परिवार को लेकर वहां से निकल लिए। आगे फिर वही पैदल यात्रा। वही संघर्ष और जहालत से भरा जीवन। वाटेगांव से मुंबई करीब 255 किलोमीटर था। इस दूरी को पैदल पाटने में ही दो महीने गुजर गए।2

रास्ते में कुछ कड़वे अनुभव भी हुए। एक बार की बात। चलते-चलते अन्ना को भूख लग आई थी। सामने पके आमों से लदा एक पेड़ देखा तो भूख और भड़क उठी। उसी बेचैनी में उन्होंने पेड़ के मालिक से पूछे बगैर दो-चार आम तोड़ लिए। अचानक मालिक ने आकर उन्हें दबोच लिया। घबराए अन्ना ने आम वापस लौटाने की पेशकश की, लेकिन वह माना नहीं। डरा-धमकाकर आमों को दुबारा डाल से लटकाने की जिद करने लगा।3 इस तरह की अपमानजनक घटनाओं से जन्मे आक्रोश का असर रचनात्मक निखार के साथ अन्नाभाऊ की करीब-करीब हर रचना में है। उनकी बहुप्रसिद्ध कहानी ‘खुलांवादी’ का एक पात्र कहता हैᅳ

‘ये मुरदा नहीं, हाड़-मांस के जिंदा इंसान हैं। बिगडै़ल घोड़े पर सवारी करने की कूबत इनमें है। इन्हें तलवार से जीत पाना नामुमकिन है।’

मुंबई पहुंचते समय तुकाराम उर्फ अन्नाभाऊ की उम्र महज 11 वर्ष थी। गांव में जहां अछूत होने के कारण कोई काम न देता था, मुंबई में काम की कमी न थी। सो घर चलाने के लिए मुंबई में अन्ना ने कुलीगिरी की। होटल में बर्तन धोने से लेकर वेटर तक का काम किया। घरेलू नौकर रहे, कुत्तों की देखभाल के लिए एक अमीर की चाकरी की। घर-घर जाकर सामान बेचा। कुछ और काम न मिलने पर बूट-पालिश पर हाथ भी आजमाया। इस बीच फिल्म देखने का शौक पैदा हुआ। मूक फिल्मों का जमाना था। पर शौक ऐसा कि अपनी मामूली आमदनी का बड़ा हिस्सा टिकट खरीदने पर खर्च कर देते थे। जीवन-संघर्ष के बीच अक्षर जोड़ना और पढ़ना-लिखना सीखा। फिल्मी पोस्टरों और दुकानों के आगे लगे होर्डिंग्स से पढ़ना-लिखना सीखने में मदद मिली। चेंबुर, कुला, मांटुगा, दादर, घाटकोपर वगैरह….मुंबई में काम के अनुसार उनके ठिकाने भी बदलते रहे।

अन्ना भाऊ के निकट रिश्तेदार बापू साठे एक ‘तमाशा’ मंडली चलाते थे। गाने-बजाने का शौक अन्ना को उन्हीं तक ले गया। वे ‘तमाशा’ से जुड़ गए। इस बीच एकाएक ऐसी घटना हुई जिससे अन्नाभाऊ के सोचने का ढंग ही बदल गया। तमाशा मंडली को एक गांव में कार्यक्रम करना था। तमाशा शुरू होने से पहले उसके मंच पर महाराष्ट्र में ‘क्रांतिसिंह’ के नाम से विख्यात नाना पाटिल वहां पहुंचे। वहां उन्होंने ब्रिटिश सरकार की शोषणकारी नीतियों का खुलासा करने वाला जोरदार भाषण किया। मिलों में हो रहे शोषण के लिए पूंजीपतियों और सरमायेदारों की कारगुजारी पर भी बात की। भाषण सुनने के बाद अन्ना भाऊ को अब तक का गाया-सुना अकारथ लगने लगा। छुटपन में वे ‘भगवान विठ्ठल’ की सेवा में अभंग गाया करते थे। उनमें जातीय ऊंच-नीच को धिक्कारा गया था। बराबरी का संदेश भी था। अब समझ में आया कि गरीबी सामाजिक समानता की राह में सबसे बड़ी बाधक है। आर्थिक असमानता केवल नियति की देन नहीं है। उसका कारण वे लोग हैं जो देश और समाज के धन पर कुंडली मारे बैठे हैं। यह भी समझ में आया कि गाने-बजाने का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं है। उससे सोये हुए समाज को जगाया भी जा सकता है। उसी दिन अन्ना के ‘लोकशाहिर’(लोककवि) अन्ना भाऊ बनने की नींव पड़ी। समाज में अमीर-गरीब की खाई को वे कम्युनिस्ट विचारधारा की कसौटी से परखने लगे। यही उन्हें कालांतर में कम्युनिस्ट पार्टी तक ले गया। 

तमाशा में उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का भरपूर अवसर मिला। ‘तमाशा’ में वे कोई भी वाद्य बजा लेते। किसी भी प्रकार की भूमिका कर लेते थे। निरंतर सीखने और नए-नए प्रयोग करने की योग्यता ने उन्हें रातों-रात तमाशा मंडली का महानायक बना दिया। कुछ दिनों बाद अपने दो साथियों के साथ मिलकर अन्ना ने 1944 में ‘लाल बावटा कलापथक’(लाल क्रांति कलामंच) नामक नई तमाशा मंडली की शुरुआत की। जिसके तहत उन्होंने कई क्रांतिकारी कार्यक्रम पेश किए। उस समय तक देश में आजादी के प्रति चेतना जाग्रत हो चुकी थी। ‘तमाशा’ जनता से संवाद करने का सीधा माध्यम था। ‘लाल बावटा’ के माध्यम से अन्नाभाऊ मजदूरों के दुख-दर्द को दुनिया के सामने लाते, लोगों को स्वतंत्रता का महत्त्व समझाते थे। इससे वे मजदूरों के बीच तेजी से लोकप्रिय होने लगे। अपनी मंडली को लेकर वे महाराष्ट्र के गांव-गांव तक पहुंचे। वहां लोगों को आजादी के लिए तैयार रहने और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने का आवाह्न किया। लोग उन्हें ‘शाहिर अन्ना भाऊ साठे’ और ‘लोकशाहिर’ कहकर पुकारने लगे। 

आगे चलकर सरकार ने ‘तमाशा’ पर प्रतिबंध लगा दिया। जिसके तहत ‘लाल बावटा’ को भी बंद करना पड़ा। लेकिन अन्ना भाऊ के भीतर छिपा कलाकार इतनी जल्दी हार मानने को तैयार न था। उन्होंने अपने विचारों को लोकगीतों में ढालना आरंभ कर दिया। तमाशा मंडली छोड़ वे एक मिल में काम करने लगे। वहां मजदूरों की समस्याओं से सीधा परिचय हुआ। कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति लगाव तो ‘क्रांतिसिंह’ नाना पाटिल का भाषण सुनने के बाद से ही था। मिल में मजदूरी करते हुए वे कम्युनिस्ट पार्टी के भी संपर्क में आए और उसके सक्रिय सदस्य बन गए। लोकगीतों के माध्यम से कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने लगे। पार्टी के लिए दरियां बिछाने से लेकर भाषण देने तक का काम किया। इसी बीच विवाह हुआ। लेकिन पहला विवाह ज्यादा जमा नहीं। दूसरा विवाह एक परित्यक्त स्त्री से किया। संतान भी हुई, लेकिन वह संबंध भी ज्यादा दिन टिक न सका।

उद्योगनगरी के रूप में पनपती मुंबई हजारों मजदूरों, किसानों की शरण-स्थली थी। गांव में गरीबी, बेरोजगारी और सामंती उत्पीड़न से त्रस्त मजदूर वर्ग बेहतर जीवन की आस में उसकी ओर खिंचे चले आते थे। उनके लिए वही एक उम्मीद थी। लेकिन बेतरतीव मशीनीकरण ने लोगों की समस्या में इजाफा किया था। एक ओर बड़ी-बड़ी स्लम बस्तियां उभर रही थीं, दूसरी ओर ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं। अमीर-गरीब के बीच निरंतर बढ़ते अंतराल से उन्हें लगने लगा था कि जिन सपनों के लिए उन्होंने अपना गांव-घर छोड़ा था, वे मुंबई आकर भी फलने वाले नहीं है। उस समय तक रूस को आजाद हुए करीब 25 वर्ष बीत चुके थे। अन्नाभाऊ सोवियत संघ की तरक्की के बारे में सुनते, प्रभावित होते। रूस की क्रांतिगाथाएं सुनकर मन उमंगित होने लगता। 1943 के आसपास उन्होंने स्तालिनग्राद को लेकर एक पावड़ा(शौर्यगीत) लिखा। उस पावड़े का अनुवाद रूसी भाषा में भी हुआ। उसके बाद तो अन्नाभाऊ की कीर्ति-कथा देश-देशांतर तक व्यापने लगी।

इस बीच उन्होंने कई उपन्यास और कहानियां लिखीं। कम्युनिस्ट पार्टी के साहित्य को पढ़ा। उन्हें समझ आने लगा कि सामाजिक और आर्थिक विकास परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। वगैर एक के दूसरे को साधना संभव नहीं। खासकर भारत जैसे समाजों में जहां जाति मजबूत सामाजिक संस्था के रूप में वर्षों से अपनी पकड़ बनाए हो। धर्म उसका समर्थन करता हो। लोग मानते हों कि वे वही हैं, जो उन्हें होना चाहिए। जहां तथाकथित ईश्वरीय न्याय को ही सर्वश्रेष्ठ न्याय माना जाता हो। बड़ा वर्ग मानता हो कि समाज में जो जहां, जैसा हैᅳसब ईश्वरेच्छा से है। भारतीय समाज में ऊंच-नीच, अमीर-गरीब की बेशुमार खाइयां हैं। बावजूद इसके वर्ग-संघर्ष के लिए यह सबसे अनुपजाऊ धरा है। लोगों की यथास्थितिवादी मनोवृति, परिवर्तन की हर संभावना को विफल कर देती है। जब कभी उसके विरुद्ध आवाज उठी, धार्मिक संस्थाएं लोगों को नियतिवाद का पाठ पढ़ाने के लिए सामने आ गईं। गौतम बुद्ध ने जाति को चुनौती दी। उनका आभामंडल इतना प्रखर था कि उनके रहते प्रतिक्रियावादी शक्तियां वर्षों तक सिर छुपाए रहीं। उनके जाते ही देश में फिर ब्राह्मणवादी साहित्य की बाढ़-सी आ गई। नियतिवाद को शास्त्रीय मान्यता देने के लिए पुराणों और स्मृतियों की रचना की गई। शताब्दियों के बाद संत कवियों ने जाति को ललकारा तो तुलसीदास अपनी रामचरितमानस लेकर आ गए। सामाजिक समानता का सपना शताब्दियों के लिए पुनः नेपथ्य में खिसक गया। धर्म जाति का सुरक्षा-कवच है। इस रहस्य से पर्दा उठा उनीसवीं शताब्दी में। नई शिक्षा और विचारों के आलोक में लोगों ने जाना कि वगैर धर्म को चुनौती दिए जाति से मुक्ति असंभव है। कि आर्थिक और सामाजिक समानता के लिए सांस्कृतिक वर्चस्व से बाहर निकलना जरूरी है। इस संबंध में सबसे पहली पुकार ज्योतिराव फुले की थी। पुकार क्या मानो मुक्ति-मंत्र था। उस मुक्ति-मंत्र को सिद्धि-मंत्र में बदला डाॅ. आंबेडकर ने। जाति का दंश डाॅ. आंबेडकर ने भी झेला था और अन्नाभाऊ ने भी। साम्यवादी चेतना जहां अन्नाभाऊ के लोकगीतों को ओज से भरपूर बनाती थी, वहीं आंबेडकर से उन्हें हालात से टकराने की प्रेरणा मिलती थी। मार्क्स और आंबेडकर, अन्नाभाऊ के लिए दोनों ही प्रेरणास्रोत थे।

एक क्रांतिधर्मी कलाकार की तरह अन्नाभाऊ ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन, संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन तथा गोवा मुक्ति आंदोलन के लिए काम किया। जनता के हित में एक कलाकार के रूप में वे हर आंदोलन में आगे रहे। उनके लिखे पावड़े, लावणियां मुक्ति आंदोलनों को ऊर्जा प्रदान करते रहे। 1945 में अन्ना भाऊ ने साप्ताहिक ‘लोकयुद्ध’ के लिए पत्रकार के रूप में काम करना आरंभ किया। अखबार साम्यवादी विचारधारा को समर्पित था। आम आदमी के संघर्ष, उसकी पीड़ा और उसके अभावों को वे एक पत्रकार के रूप में लगातार उठाते रहे। इसने उन्हें जनसाधारण के बीच नायकत्व प्रदान किया। अखबार के लिए काम करते हुए उन्होंने अक्लेची गोष्ट, खाप्पया चोर, मजही मुंबई जैसे नाटक लिखे। सरकार ने ‘तमाशा’ पर प्रतिबंध लगाया तो अन्नाभाऊ ने ‘लाल बावटा’ के लिए लिखे गए नाटकों को आगे चलकर उन्होंने लावणियों और पावड़ा जैसे लोकगीतों में बदल दिया। तमाशे में वे अकेले गाते थे, लोकगीत बनने के बाद वे जन-जन की जुबान पर छाने लगे। अन्नाभाऊ की रचनाओं पर 12 फिल्में बनीं जो सफल मानी जाती हैं।

निरंतर संघर्षमय जीवन जीते हुए अन्नाभाऊ ने 14 लोकनाटक, 35 उपन्यास और 300 से ऊपर कहानियां लिखी। लगभग 250 लावणियां उन्होंने लिखीं। लगभग छह फिल्मों की पटकथाएं और यात्रा वृतांत लिखा। उनकी लिखी 14 कहानियों/उपन्यासों का फिल्मांकन भी हुआ। यात्रा वृतांत ‘मेरी रूस यात्रा’ को दलित साहित्य का पहला यात्रा-वृतांत होने का गौरव प्राप्त है। उनके उपन्यासों और नाटकों की देश-विदेश में खूब चर्चा हुई। 1959 में प्रकाशित ‘फकीरा’ उपन्यास को खूब सराहा गया। इसे उन्होंने डाॅ. आंबेडकर को समर्पित किया था। यह उपन्यास इसी नाम के मातंग जाति के क्रांतिकारी की शौर्यकथा है, जिसमें उसका सामाजिक जीवन भी समाया हुआ है। इस उपन्यास का 27 देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ। 1961 में इसे महाराष्ट्र सरकार के शीर्ष पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनकी दूसरी रचनाएं भी रूसी, फ्रांसिसी, चेक, जर्मनी आदि भाषाओं में अनूदित हुईं। अन्नाभाऊ द्वारा लिखित पुस्तकों में फकीरा, वारण का शेर, अलगुज, केवड़े का भुट्टा, कुरूप, चंदन, अहंकार, आघात, वारणा नदी के किनारे, रानगंगा आदि उपन्यास; चिराग नगर के भूत, कृष्णा किनारे की कथा, जेल में, पागल मनुष्य की फरारी, निखारा, भानामती, आबी आदि 14 कहानी संग्रह; इनामदार, पेग्यां की शादी, सुलतान आदि नाटक हैं। उनके लिखे लोकनाटकों में तमाशा(नौटंकी), दिमाग की काहणी, खाप्पया चोर, देशभक्ते घोटाले, नेता मिल गया, बिलंदर पैसे खाने वाले, मेरी मुंबई, मौन मोर्चा आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कई फिल्मों की पटकथाएं भी लिखीं, जिनमें फकीरा, सातरा की करामात, तिलक लागती हूं रक्त से, पहाड़ों की मैना, मुरली मल्हारी रायाणी, वारणे का बाघ तथा वारा गांव का पाणी प्रमुख हैं।

मुंबई में रहते हुए अन्नाभाऊ ने तरह-तरह के काम किए, पैसा भी कमाया, लेकिन गरीबी से पीछा नहीं छूटा। वे 22 वर्ष तक घाटकोपर की खोलियों में रहे। यहां एक सवाल उठ सकता है। कई बड़े अभिनेताओं और फिल्म निर्माताओं से अन्नाभाऊ का संपर्क था। उनकी कहानियों पर फिल्में बन चुकी थीं। उपन्यास ‘फकीरा’ का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका था। बावजूद इसके क्यों अपने लिए ठीक-ठाक घर का इंतजाम न कर सके? इस तरह की जिज्ञासा अन्नाभाऊ के एक मित्र को भी थी। वर्षों तक घाटकोपर की चाल में रहते देख उसने अन्नाभाऊ से पूछा थाᅳ

‘आपकी अनेक पुस्तकों का देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। फिल्मों की पटकथाएं भी आपने लिखी हैं। आपकी कई कहानियों और उपन्यासों पर फिल्में बन चुकी हैं। ‘फकीरा’ के रूसी भाषा में अनुवाद से रायल्टी भी मिली होगी। उससे आप बड़ा-सा बंगला क्यों नहीं बनवा लेते?’

इसपर अन्नाभाऊ ने हंसते हुए कहा थाᅳ

‘ठीक कहते हो। लेकिन बंगले में आरामकुर्सी पर बैठकर लिखते समय मैं गरीबी की सिर्फ कल्पना कर सकता हूं। गरीबी की पीड़ा और उसका दर्द तो भूखे पेट रहकर ही अनुभव किया जा सकता है।’ 

अनुभूति की इसी प्रामाणिकता के लिए अन्नाभाऊ ने गरीब-मजदूरों के बीच रहते थे। बिना किसी अहमन्यता, बगैर किसी विशिष्टताबोध के। 1968 में राज्य सरकार कुछ मेहरबान हुई। अन्नाभाऊ के रहने के लिए छोटा-सा घर उपलब्ध करा दिया गया। लेकिन गरीब मजदूरों के बीच, उन्हीं की तरह रहने वाले उस जिंदादिल इंसान को नया ठिकाना रास नहीं आया। एक साल के भीतर ही, 18 जुलाई 1969 को वह महान कलाकार मुंबई को हमेशा के लिए अलविदा कह, दुनिया से चला गय

1 अगस्त 2002 को भारत सरकार ने उनके 82वें जन्म दिवस पर डाक टिकट जारी किया। सरकार का यह प्रयास एक शाश्वत विद्रोही, प्रखर प्रतिभा को मूर्तियों में कैद कर देने जैसा ही माना जाएगा, क्योंकि दर्जनों सरकारी अकादमियां और सांस्कृतिक संस्थाएं होने के बावजूद अन्नाभाऊ के कृतित्व का एकांश भी हिंदी में उपलब्ध नहीं है। परिणामस्वरूप हिंदी के लेखक इस मराठी कला-संस्कृति और साहित्य की महानतम प्रतिभा के लेखकीय और कलात्मक अवदान से वंचित हैं।

अन्नाभाऊ की रूस यात्रा : एक सपने का सच होना

अन्नाभाऊ का जन्म सोवियत क्रांति के तीन वर्ष बाद हुआ था। किसी देश के बनने में तीन वर्ष की अवधि बहुत ज्यादा नहीं होती। इसलिए कह सकते हैं कि अन्नाभाऊ की जीवनयात्रा और सोवियत रूस की विकास यात्रा एक-दूसरे की सहगामी थीं। रूस रूपहले सपने की तरह अन्नाभाऊ की आंखों में बसता था। वे प्रायः सोचते, काश! श्रमिक क्रांति के बाद रूस के समाज में आए बदलावों को करीब से देख पाते। यह चाहत तब और प्रबल हो जाती जब रूस की शानदार प्रगति का कोई समाचार उन तक पहुंचता। रूस यात्रा की उनकी अभिलाषा कितनी गहरी थी, इसका वर्णन उन्होंने अपने यात्रा-वृतांत में स्वयं किया हैᅳ

‘मेरी अंतःप्रेरणा थी कि अपने जीवन में मैं एक दिन सोवियत संघ की अवश्य यात्रा करूंगा। यह इच्छा लगातार बढ़ती ही जा रही थी। मेरा मस्तिष्क यह कल्पना करते हुए सिहर उठता था कि मजदूर-क्रांति के बाद का रूस कैसा होगा। लेनिन की क्रांति और उनके द्वारा मार्क्स के सपने को जमीन पर उतारने की हकीकत कैसी होगी! कैसी होगी वहां की नई दुनिया, संस्कृति और समाज की चमक-दमक! मैं 1935 में ही कई जब्तशुदा पुस्तकें पढ़ चुका था। उनमें से ‘रूसी क्रांति का इतिहास’ और ‘लेनिन की जीवनी’ ने मुझे बेहद प्रभावित किया था। इसलिए मैं रूस के दर्शन को उतावला था।’4

रूस यात्रा से पहले उन्होंने दो बार पासपोर्ट के लिए आवेदन किया था। पहली बार उनके आवेदन को बगैर कारण बताए निरस्त कर दिया गया था। असल में सरकार अन्नाभाऊ जैसे प्रतिभा-संपन्न कलाकार को, जिसकी लोकमानस पर गहरी पकड़ हो, जो जनता से उसी की भाषा में संवाद करने का हुनर जानता होᅳरूस भेजने से घबराती थी। इस बारे में जब उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री से संपर्क किया, तो उनका उत्तर भी तिरस्कार भरा थाᅳ‘तुम हमारे प्रति शत्रु-भाव रखते हो। यह हमारी उदारता है जो तुम अभी तक बाहर हो; अन्यथा तुम जेल की सलाखों के पीछे होते।’5 शत्रु-भाव! माने जनवादी चेतना। अन्नाभाऊ जनता से उसी भाषा में संवाद करने में निपुण थे। अपने कई लोकगीतों में अन्नाभाऊ ने मुंबई में बसे श्रमिक वर्ग के जीवन की त्रासदियों का जीवंत चित्रण कर, उनके स्वप्न-भंग की स्थिति को दर्शाया था। ऐसी रचनाएं किसी भी गैरजिम्मेदार सरकार के लिए बेचैनी का कारण बन सकती थीं।

प्रसंगवश उनकी दो लावणियों का उल्लेख किया जा सकता है। ‘मुंबईची लावणी’(मुंबई की लावणी) तथा ‘माझी मैना गावावीर राहिली’(मेरी प्रिया गांव में रहती है)। उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मुंबई में औद्योगिकीकरण की शुरुआत हुई थी। उससे रोजगार की तलाश में गांवों से श्रमिकों और कामगारों का पलायन आरंभ हुआ। उनमें से अधिकांश वे थे जिन्हें गांवों में भीषण गरीबी और सामंती उत्पीड़न का सामना करना पड़ता था। जो वहां रोजगार के अभाव में फाकाकशी का जीवन जीते थे। सामंती उत्पीड़न से मुक्ति और उपयुक्त रोजगार की साध लेकर वे मुंबई पहुंचे थे। वहां पहुंचकर पता चला कि हालात में लगभग ज्यों के त्यों हैं। केवल उत्पीड़क चेहरों में बदलाव आया है। गांव में वे सामंती उत्पीड़न और जातिवाद का शिकार थे। शहर में जातिभेद ज्यादा अंतर नहीं आया है, जबकि सामंत की जगह पुलिस और कानून के नाम पर बनी संस्थाओं ने ले ली है। ‘मुंबईची लावणी’ में इसी पर कटाक्ष किया गया थाᅳ

‘‘मुंबई में शिखर पर मालाबार की पहाड़ियां हैं….वह इंद्रपुरी है, इंद्र देवता की नगरी….वह धनकुबेरों की बस्ती है….रात-दिन सुख में आकंठ डूबे रहने वाले श्रीमंत लोग वहां रहते हैं….दूसरी और परेल हैं, जहां गरीब, मजदूर, कबाड़ी, भिखारी डेरा डाले हुए हैं। वे रात-दिन पसीना बहाते हैं। कड़ी मेहनत के बाद जो मिल जाता है, उसे खा लेते हैं। तीन बत्ती, गोलपीठ और फोरस रोड पर, जिंदा रहने की कीमत पर, न जाने कितने शरीर रोज खरीदे-बेचे जाते हैं।’’

दूसरी लावणी ‘माझी मैना गावावीर राहिली’ में उन मजदूरों की विरह-वेदना और पीड़ा समाई थी, जो घर-परिवार को छोड़कर नए सपने और उम्मीदें लेकर मुंबई आए थे। वहां पहुंचकर वे स्वप्न-भंग की अवस्था में जी रहे थे। इंग्लेंड में अनियोजित मशीनीकरण से पनपी ऐसी ही विषमता ने कार्ल मार्क्स को भी उद्वेलित किया था, जिससे वे पूंजीवाद के विशद अध्ययन को उन्मुख हुए। फलस्वरूप दुनिया को ‘दि कैपीटल’ जैसा महान ग्रंथ प्राप्त हुआ था। गरीब-मजदूरों का दुख-दर्द देख अन्नाभाऊ का संवेदनशील मन आहत होता तो कहानी, उपन्यास और लोकगीतों के रूप में बाहर आता था। उनकी रचनाएं मुंबइया जीवन की हकीकत बयान करती थीं। ऐसा कलाकार लोगों के दिल पर भले ही राज कर ले, उस सरकार को, जिसमें श्रीमंतों का आधिक्य हो, कतई रास नहीं आता। अपने सरोकारों के कारण अन्नाभाऊ भी सरकार की आंखों की किरकिरी बने रहते थे।

बहरहाल, अन्नाभाऊ को रूस जाने का दूसरा अवसर 1948 में मिला था। इस बार उन्हें ‘विश्वशांति सम्मेलन’ के लिए आमंत्रित किया गया था। इस बार अभिनेता मित्र बलराज साहनी ने उनके लिए टिकटों का इंतजाम भी कर दिया था। लेकिन अन्यत्र व्यस्तता के कारण वे समय न निकाल सके। 1961 में अन्नाभाऊ के उपन्यास ‘फकीरा’(1959) को महाराष्ट्र सरकार का सर्वाेच्च सम्मान प्राप्त हुआ। उस समय तक परिस्थितियां थोड़ी अनुकूल होने लगीं थीं। सरकार के मन में भी कम्युनिस्टों के प्रति पूर्वाग्रह में कमी आई थी। इस बार ‘भारत-सोवियत सांस्कृतिक समिति’ ने उनकी रूस-यात्रा का कार्यक्रम बनाया। दोनों सरकारें यात्रा के लिए राजी थीं, इससे पासपोर्ट-वीसा जैसी समस्या न थी। मगर किराये के लिए पैसों की किल्लत पहले जैसी बनी थी। फिर भी इस बार हालात कुछ अलग थे। अन्नाभाऊ को रूस यात्रा का निमंत्रण मिलने का समाचार जैसे ही प्रकाशित हुआ, स्वयं अन्नाभाऊ के शब्दों में ‘रुपयों की मानो बौछार-सी होने लगी। देखते ही देखते आधे खर्च का इंतजाम हो गया।’ जनता की सहानुभूति देख, अपनी इस मान्यता, ‘जो कलाकार जनता के लिए जीता है, जनता उसके पीछे दीवार बनकर खड़ी होती हैᅳपर उनका विश्वास और भी दृढ़ हो गया।

मुंबई से दिल्ली के रास्ते रूस जाने के लिए जब वे जहाज में बैठे तो अपनी साधारण वेशभूषा के कारण बाकी यात्रियों के बीच अलग नजर आ रहे थे। इस बात का उन्हें एहसास भी था। लेकिन यात्रा के दौरान विमान में ऐसी घटना घटी जिससे उनका सारा मलाल जाता रहा। उन्होंने स्वयं लिखा हैᅳ

‘‘उस उड़ान में सम्मेलन में हिस्सा लेने रूस जा रहे, श्रीलंकाई प्रतिनिधि भी सम्मिलित थे। उन्हीं में से एक जो संसद संदस्य और कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्य समाचारपत्र का संपादक थेᅳने मुझे पहचान लिया। उसी महीने साहित्यिक पत्रिका ‘मनोहर’ में मेरा सचित्र परिचय मेरे तमाशे ‘खाप्पया चोर’ के चित्र के साथ प्रकाशित हुआ था। विमान के उड़ान भरने के कुछ ही समय बाद एक यात्री ने मुझे पहचान लिया। पत्रिका का अंक हवा में लहराते हुए उसने चुनौती दी कि ‘खाप्पया चोर’ को जो उड़ान के दौरान हवाई जहाज में ही मौजूद है, कौन पहचानेगा? उसके बाद यात्री उसे लेकर फुसफुसाने लगे। अंत में मुझे मेरे श्रीलंकाई मित्र के साथ पहचान लिया गया।’7

उस समय तक अन्नाभाऊ का दूसरा उपन्यास ‘चित्रा’ भी रूसी भाषा में अनूदित हो चुका था। इसके अलावा उनकी कई कहानियां भी अनूदित होकर रूस पहुंच चुकी थीं। जिनमें उनकी कहानी ‘सुलतान’ भी थी। ‘सुलतान’ एक कैदी पर आधारित कहानी थी, जिससे लेखक की मुलाकात अमरावती की सेंट्रल जेल में हुई थी। अन्नाभाऊ के रूस पहुंचने से पहले सुलतान वहां चर्चित हो चुकी थी। इसलिए अगले दिन के अखबारों की मुख्य खबर थीᅳ”मशहूर कहानी ‘सुलतान’ का लेखक रूस में।” अन्नाभाऊ का लिखा नाटक ‘स्तालिनग्राद’ भी वहां चर्चा का विषय था।

मास्को में उन्होंने होटल के वेटरों, माली, फोटोग्राफर, ड्राइवर, लिफ्ट आपरेटर से दोस्ती की, और वहां के जनजीवन के बारे में जानकारी हासिल की। लेनिनग्राद में उन्होंने संग्रहालय में चंद्रगुप्त मौर्य के कार्यकाल के अनेक सिक्के देखे। रूस में नेहरू की लोकप्रियता को दर्शाती एक घटना का उल्लेख उनके यात्रा-वृतांत में है। जो नेहरू के प्रति उनके दिल में छिपे सम्मान को दर्शाता हैᅳ

‘‘मैं होठों के बीच सिगरेट दबाए रेड स्कवायर से क्रेमलिन की ओर बढ़ रहा था। मेरे पास माचिस नहीं थी और मैं उसके लिए इधर-उधर देख रहा था। सहसा एक आदमी मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। उसने लाइटर से मेरी सिगरेट सुलगा दी। मेरे लिए वह अप्रत्याशित था।

‘क्या तुम भारतीय हो?’ उस आदमी ने पूछा।

‘जी हां….’ कहकर मैंने उसे धन्यवाद देना चाहा। लेकिन अगले ही पल उसने मुझे अपनी बाहों में भर लिया और कहने लगाᅳ

‘कैसे हैं नेहरू जी?’

‘वह बिलकुल ठीक हैं,’ मैंने बताया, ‘आज वे यूएनओ में भाषण देने जा रहे हैं।’ सुनकर वह व्यक्ति बेहद प्रसन्न हुआ और नेहरू जी को धन्यवाद देता हुआ वहां से प्रस्थान कर गया।’’

‘भारत-रूस सांस्कृतिक समिति’ द्वारा रूस की यात्रा के लिए गठित प्रतिनिधिमंडल में अन्नाभाऊ सबसे साधारण और सामान्य दिखने वाले इंसान थे। परंतु रूस की यात्रा पूरी होते-होते अन्नाभाऊ के बारे में उनके सहयात्रियों की धारणा एकदम बदल चुकी थी। प्रतिनिधिमंडल में मद्रास निवासी गिटारवादक जैकोब जिम भी शामिल था। स्तालिनग्राद से अजरबेजान की राजधानी बाकू की ओर वायुयान से जाते समय जैकोब ने अन्नाभाऊ से कहा थाᅳ‘साठे जी, जब हम आपसे पालम एयरपोर्ट पर मिले तो सोचते थे कि आप इस देश से अनजान होंगे और हमारे बीच जम नहीं पाएंगे। लेकिन वह हमारी चूक थी। आप इस देश में बहुत प्रसिद्ध हैं। और निस्संदेह आप अच्छे लेखक हैं। आपके ओजस्वी भाषणों से मैंने बहुत कुछ ग्रहण किया है।’8

अन्नाभाऊ की 40 दिनों की रूस यात्रा अनेक अनुभवों से भरी थी। उनके लिए वह यात्रा एक सपने से गुजरने जैसी थी। एक समानता पर आधारित स्वतंत्र समाज का सपना जो वर्षों से उनके मानस में जड़ जमाए हुए था। रूस में उन्होंने विचार को वास्तविकता में बदलते हुए देखा। जाना कि संकल्प बड़े और नीयत अच्छी हो तो आदर्श और यथार्थ के बीच की दूरी कम होने लगती है। स्वप्न हकीकत में ढलने लगते हैं।

वर्ग-संघर्ष और सामाजिक न्याय को एक साथ साधने वाला जमीनी लेखक

अपनी किशोरावस्था से ही अन्नाभाऊ वामपंथ के संपर्क में आए थे। सामाजिक विषमता और छूआछूत को उन्होंने बचपन से देखा-भोगा था। इसलिए छूआछूत और सामाजिक विषमता के विरुद्ध भारत में संघर्ष कर रहे डाॅ. आंबेडकर के प्रति उनकी श्रद्धा भी स्वाभाविक थी। उपन्यास ‘फकीरा’ को जो इसी नाम के मातंग जाति के क्रांतिकारी के जीवन पर आधारित था, उन्होंने डाॅ. आंबेडकर को समर्पित किया था। उनका समूचा लेखन उनके जीवनानुभवों का दस्तावेज है। एक कहानी संग्रह की प्रस्तावना में उन्होंने अपने इस द्रष्टिकोण को बड़ी बेबाकी से प्रस्तुत किया हैᅳ

‘जो जीवन मैंने जिया, जीवन में जो भी भोगा, वही मैंने लिखा….मैं कोई पक्षी नहीं हूं जो कल्पना के पंखों पर उड़ान भर सकूं। मैं तो मेडक की तरह हूं, जमीन से चिपका हुआ।’

एक प्रसिद्ध दोहे में उन्होंने हिंदुओं के शेषनाग के मिथ पर टिप्पणी करते हुए लिखा थाᅳ‘यह पृथ्वी शेषनाग के मस्तक पर नहीं टिकी है। अपितु वह दलितों, काश्तकारों और मजदूरों के हाथों में सुरक्षित है।’ उनका कहना था कि कला शिवजी की तीसरी आंख की तरह होती है, जो संसार को भेदती हुई सभी मिथों को जलाकर भस्म कर देती है। इस आंख को सदैव सतर्क रहना चाहिए, तथा मनुष्य के हितों की देखभाल करनी चाहिए। अन्नाभाऊ के सरोकार मानवीय थे। उनके लेखन में कल्पनातत्व सिर्फ उतना है, जितना रचनात्मक बने रहने के लिए आवश्यक होता है। वे रूसी लेखकों में गोर्की से बेहद प्रभावित थे, जिन्होंने हाशिये के पात्रों को मुख्यधारा के साहित्य में जगह दी थी। अन्नाभाऊ भी अपनी लावणियों, लोकगीतों, कहानियों, उपन्यासों आदि के माध्यम से आम आदमी की चिंताओं और सरोकारों को जगह देते हैं। विशेषरूप से अछूत जातियों की समस्याओं तथा उनके चरित्र के उदात्त पहलुओं को बार-बार उठाते हैं। यही कारण है कि लिखते समय उन्होंने कल्पना का कम से कम सहारा लिया है। ‘मेरे सभी पात्र जीते-जागते समाज का हिस्सा हैं। यह उनका दावा भी था।

अन्नाभाऊ को लेकर एक घटना का उल्लेख सुप्रसिद्ध अभिनेता ए. के. हंगल ने अपने संस्मरणों में भी किया है, जिससे उनके सरोकार स्पष्ट नजर आते हैंᅳ

‘‘एक दिन वह(अन्नाभाऊ) मेरे कमरे पर पहुंचा। उसके हाथों में उसका लिखा एक नाटक भी था। उस समय वह बेहद निरुत्साहित था। उसने बताया कि वह उस नाटक को एक प्रसिद्ध मराठी लेखक के पास उसकी राय जानने के लिए लेकर गया था। उस लेखक ने नाटक को नापसंद किया और तिरस्कारपूर्ण ढंग से कहाᅳ‘जाओ, जाकर मजदूरों के लिए ‘तमाशे’ और ‘पावड़े’ लिखो।

मैं उसकी मदद करना चाहता था। इसलिए मैंने स्वेच्छा से उसके नाटक का हिंदी अनुवाद किया, जो ‘इनामदार’ के नाम से मंचित हुआ। आर. एम. सिंह उसके निर्देशक थे। उसके बाद हम दोनों मित्र बन गए।

एक दिन साहसी मनोस्थिति में मैंने अपना एक नाटक निकाला, जिसे मैंने 15 वर्ष पहले लिखा था। उसपर मैंने अन्नाभाऊ की प्रतिक्रिया जाननी चाही। नाटक ‘छूआछूत’ पर आधारित था, जो उन दिनों की बड़ी समस्या थी। अन्नाभाऊ ने नाटक की पांडुलिपि को धैर्यपूर्वक सुना, बोलाᅳ

‘कामरेड, इसे फाड़कर फेंक दें, यह नाटक नहीं है।’ मैंने उसका विरोध किया और आलोचना का कारण जानना चाहा। इसपर उसका उत्तर थाᅳ‘आप ब्राह्मण के घर जन्मे हैं, दलित की पीड़ा  महसूस कर ही नहीं सकते।’

‘लगभग सभी यहूदी पूंजीपति थे। कार्ल मार्क्स भी यहूदी था, जिसने पूंजीवाद की बखिया उधेड़ दी थी।’ मैंने मजाकिया लहजे में कहा; और पांडुलिपि को किनारे रख दिया। उसके बाद हम दोनों खुले मन से हंसने लगे।

अन्नाभाऊ तेज-तर्रार आलोचक था, लेकिन वह खुद को भी नहीं बख्शता था।’’9

हंगल साहब के नाटक पर अन्नाभाऊ की टिप्पणी उनका पूर्वाग्रह भी हो सकती है। सहानुभूति और स्वानुभूति के लेखन को लेकर हिंदी साहित्य में भी खासी बहस होती होती है। पल-भर के लिए मान लिया जाए कि अन्नाभाऊ पूर्वाग्रह-ग्रस्त थे, तब उस प्रसिद्ध मराठी लेखक को भी पूर्वाग्रस्त मानना पड़ेगा, जिसने अन्नाभाऊ के नाटक को तिरस्कार पूर्ण ढंग से लौटा दिया था।

अन्नाभाऊ ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में गरीबी और जातीय उत्पीड़न के सताए लोगों को जगह दी थी। ऐसे लोग जो साहित्य में उपेक्षित थे। उनकी कहानियों में महार, मांग, रामोशी, बालुतेदार और चमड़े का काम करने वाले पात्र समाए हुए हैं। न केवल उनकी जीवंत उपस्थिति है, अपितु उनकी पीड़ाओं और संघर्ष को भी सम्मान के साथ सहेजा गया है। अन्नाभाऊ की एक बहुत ही मार्मिक कहानी हैᅳ‘तीन भाकरी’। गांव में दो औरतें रहती हैं। उनके बीच सास-बहू का रिश्ता है। दोनों मेहनत-मजदूरी करती हैं। अगर किसी दिन मेहनत से चूक जाएं तो घर का चूल्हा ठंडा पड़ा रहता है। बेहद गरीबी का जीवन जी रही वे औरतें आपस में हमेशा लड़ती रहती हैं। गांव के लोग अशिक्षित, रूढ़िवादी और भूत-प्रेत में विश्वास रखने वाले हैं। दोनों स्त्रियां अछूत हैं। इस कारण गांव-भर की उपेक्षा और तिरस्कार का शिकार हैं। एक दिन सांताजी, कहानी का एक पात्र बताता है कि दोनों भुखमरी की कगार पर हैं। उनके पास कुछ भुट्टे थे, जिससे केवल तीन रोटियां बन सकती हैं। दोनों स्त्रियां पेशोपेश में हैं कि रोटियों का बंटवारा कैसे होगा। दोनों सोचती है कि अगर वह रोटी बनाए तो दो रोटियों पर उसका अधिकार होगा। बहू का भी यही विचार था। परिणाम यह होता है कि दोनों सोचते-सोचते लेट जाती हैं। अगले दिन भूख के कारण उनके प्राण चले जाते हैं।

उनकी सुप्रसिद्ध कहानी ‘सुलतान’ जो एक कैदी की कहानी पर केंद्रित हैᅳके प्रमुख पात्र सुलतान का मानना है कि मनुष्य को उसकी जरूरत की चीजें रोटी, कपड़ा और मकान आसानी से प्राप्त होनी चाहिए। लेकिन गरीबी के कारण उसका सोच आगे नहीं बढ़ पाता। अंततः वह केवल इसलिए जेल चला जाता है क्योंकि मनुष्य को वहां उसकी न्यूनतम आवश्यकता की तीनों चीजें आसानी से उपलब्ध होती हैं। कुछ ऐसा ही दूसरी कहानी के पात्र भोमक्या और गोपिकाबाई भी करते हैं। भुखमरी से बचने के लिए भोमक्या सुलतान की तरह जेल चला जाता है तो गोपिकाबाई एक किसान की शरण ले लेती है। भोमक्या या सुलतान में से कोई भी अपराधी मनोवृत्ति का नहीं था। उन्होंने जेल में रहना केवल इसलिए पसंद किया था, क्योंकि वहां उनकी न्यूनतम आवश्यकताएं आसानी से पूरी हो जाती थीं। अन्नाभाऊ जेल जाने को भुखमरी की समस्या का समाधान नहीं मानते। बल्कि जेल को ऐसा ठिकाना मानते हैं, जहां नागरिक जीवन और मनुष्य का विकास एक साथ ठहर जाते हैं।

एक और कहानी ‘सांवला’ का उल्लेख यहां आवश्यक है। कथानायक सांवला पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री के पक्ष में सवाल उठाता है। रामोशी और मांग जाति के अपने मित्रों के साथ वह ब्रिटिश सत्ता से टकराता है। वे सभी अपने कार्य के प्रति ईमानदार हैं। इस बीच सांवला और उसके साथियों को काशी नाम की युवती के बारे में पता चलता है। ससुराल में दहेज-उत्पीड़न की शिकार है। अपने साथियों के साथ सांवला काशी को उसके सास-ससुर के चंगुल से मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष करता है। इसपर उसके सास-ससुर सांवला पर काशी के साथ बलात्कार का आरोप लगा देते हैं। आरोप से क्षुब्ध सांवला काशी से ससुर से कहता हैᅳ

‘दादा पाटिल! क्या आप सोचते हैं कि सिर्फ आप ही बेदाग चरित्र वाले हैं, क्या आप हमें चरित्रहीन मानते हैं, आपसे किसने यह कहा है?

‘लोग कहते हैं कि सभी मांग बलात्कारी होते हैं।’ यह सुनकर सांवला को क्रोध आ जाता है। वह कहता है, ‘कौन हैं वे लोग, मुझे बताओ। मैं उनकी पूरी दुनिया को जलाकर भस्म कर दूंगा।’ कहानी स्त्री समानता और स्वाधीनता के पक्ष में समाप्त होती है।

ऐसे विद्रोही चरित्रों से अन्नाभाऊ की कहानियां भरी पड़ी हैं।

अन्नाभाऊ के रचनाकर्म का कोई भी उल्लेख उनके उपन्यास ‘फकीरा’ के बिना संभव नहीं है। उनके अधिकांश कथापात्रों की तरह इस उपन्यास का कथापात्र फकीरा भी वास्तविक जीवन से उठाया गया है। वह जाति से मांग और शाश्वत विद्रोही है। फिर भी मानवीय है। अवसर आने पर वह अपने पिता के हत्यारों को मारने के बजाय, उन्हें महज दंड देकर छोड़ देता है। उपन्यास जहां सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार करता है, वहीं जाति के जंजाल में फंसी अछूत जातियों की पीड़ा को भी सामने लाता है। महाराष्ट्र में मांग और महार कहीं-कहीं प्रतिद्विंद्वी जातियों के रूप में सामने आती हैं। इस उपन्यास में अन्नाभाऊ इन दोनों अछूत जातियों की एकता पर भी जोर देते हैं।

कुल मिलाकर अन्नाभाऊ का समस्त रचनाकर्म समाज में हाशिये पर पड़े लोगों के संघर्ष और चारित्रिक विशेषताओं को सामने लाता है। यह दुख की बात है कि उनके रचनाकर्म का हिंदी अनुवाद उनके निधन के 50 वर्ष बाद भी अनुपलब्ध है। अन्नाभाऊ की आस्था मार्क्स और आंबेडकर दोनों में थी। वे दोनों को साथ-साथ साधना चाहते थे। जबकि अधिकांश दलित लेखक मार्क्स और मार्क्सवादी लेखन की उपेक्षा करते आए हैं। अन्नाभाऊ के रचनाकर्म के हिंदी में न आने के पीछे कदाचित यह भी बड़ा कारण है। लेकिन इससे अन्नाभाऊ के प्रति जो अन्याय हुआ है, उसकी भरपाई असंभव है।

ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भ

1.         जग बदल घालूनी घाव

            सांगुनी गेले मला भीमराव

            गुलामगिरीच्या या चिखलात

            रुतुन बसला का ऐरावत

            अंग झाडूनी निघ बाहेरी- जनगीत, साहित्यरत्न लोकशाहीर अन्नाभाऊ साठे

2          My Journey to Russia, Translated by Dr. Ashwin Ranjanikar, New Voices Publications, Juna           Bazar, Aurangabad, 2014, Page-5 & 47.

3.         Dr. Sunil Bhise, Annabhau Sathe: A Socialist Thinker, as quoted from Kathale       Nanasaheb,       2001,    (2nd Edition), ‘Annabhau Sathe : Jeevan Aani Sahitya’, Samata Sainik Dal Prakashan, Parasaran Vyavastha, P-32.

4.         My Journey to Russia, Page-9

5.         Ibidजन

6.         दलित-क्रांति के कवि अण्णा भाऊ साठे, by अमरित लाल उइके http://amritlalukey.blogspot.com/2011/11/anna-bhau-    sathhe.html

7.         My Journey to Russia, Page-12

8.         Ibid page-31

9.        A. K. Hangal, in Life and Times of A. K. Hangal, Sterling Paperbacks,1999, Page 80-81

बहुजन चेतना का निर्माण और अर्जक संघ

विशेष रुप से प्रदर्शित

धार्मिक यंत्रणाएं, एक साथ और एक ही समय में वास्तविक यंत्रणाओं की अभिव्यक्ति तथा उनके विरुद्ध संघर्ष हैं।  धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह, निष्ठुर, हृदयहीन संसार का हृदय, आत्माहीन परिस्थितियों की आत्मा है।  यह लोगों के लिए अफीम है। । । । मनुष्य ने धर्म की रचना की है, न कि धर्म ने मनुष्य को बनाया है। ’                             

                                                                    कार्ल मार्क्स 

दुनिया में अनेक धर्म है, लेकिन अपने ही भीतर जितनी आलोचना हिंदू धर्म को झेलनी पड़ती है, शायद ही किसी और धर्म के साथ ऐसा हो।  इसका कारण है हिंदुओं की जाति-व्यवस्था, जो मनुष्य को जन्म के आधार पर अनगिनत खानों में बांट देती है।  ऊंच-नीच को बढ़ावा देती है।  मुट्ठी-भर लोगों को केंद्र में रखकर बाकी को हाशिये पर ढकेल देती है।  ऐसा नहीं है कि इसकी आलोचना नहीं हुई।  गौतम बुद्ध से लेकर आज तक, जब से जन्म हुआ है, तभी से उसके ऊपर उंगलियां उठती रही है।  जाति और जाति-भेद मिटाने के लिए आंदोलन भी चले हैं, बावजूद इसके उसे मिटाना चुनौतीपूर्ण रहा है।  इसलिए कि हिंदू धर्म का प्रमुख लाभकर्ता ब्राह्मण, धर्म के साथ-साथ जाति के भी शिखर पर है, समाज में अतिरिक्त रूप से प्रभावशाली है।  वही किसी न किसी रूप में जाति को बचाए रखता है।  लोगों का विश्वास जीतने के लिए कभी-कभार कुछ समझौते या सुधारवाद का दिखावा करना पड़े तो बेझिझक करता है।  मध्यकाल में संत रविदास, कबीर, नानक आदि ने जाति के नाम पर समाज के बंटवारे को चुनौती दी थी।  उनीसवीं शताब्दी में केशवचंद सेन, स्वामी दयानंद, विवेकानंद आदि ने जाति उन्मूलन की दिशा में गंभीरता से काम किया।  लेकिन उनका प्रभाव सीमित और अल्पकालिक रहा।  उनीसवीं शताब्दी के बौद्धिक जागरण के दौरान, यह मानते हुए कि बिना धर्म को चुनौती दिए जातीय भेदभाव से मुक्ति असंभव हैᅳफुले ने हिंदू धर्म तथा उसको संरक्षण देने वाले ब्राह्मणवाद पर सीधा प्रहार किया।  उसके बाद उसे बहुआयामी चुनौती डॉ।  आंबेडकर, ई।  वी।  रामास्वामी पेरियार, स्वामी अछूतानंद, श्रीनारायण गुरु आदि की ओर से मिली।  इस बीच बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘त्रिवेणी संघ’ ने पिछड़ी जातियों और अछूतों को संगठित करना शुरू किया।  1970 के आसपास ‘अर्जक संघ’ ने जातीय शोषण और धार्मिक आडंबरवाद के विरुद्ध आवाज बुलंद की।  आरंभ में उसका प्रभाव कानपुर और आसपास के क्षेत्रों तक सीमित था।  पिछले कुछ वर्षों से उसकी लोकप्रियता में तेजी आई है।  संचार-क्रांति के इस दौर में सैकड़ों युवा उससे जुड़ चुके हैं।  इसके फलस्वरूप वह उत्तर प्रदेश की सीमाओं से निकलकर बिहार, उड़ीसा जैसे प्रांतों में भी जगह बना रहा है।

‘अर्जक संघ’ की स्थापना रामस्वरूप वर्मा ने 1 जून 1968 को की थी।  उसके पीछे ‘बिहार का लेनिन’ कहे जाने वाले बाबू जगदेवप्रसाद सिंह की प्रेरणा थी।  आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम महाराज सिंह भारती, मंगलदेव विशारद जैसे बुद्धिवादी चेतना से लैस नेताओं ने किया।  स्थापना के लगभग दो महीने बाद बाबू जगदेवप्रसाद सिंह भी ‘अर्जक संघ’ से जुड़ गए।  उन सभी का एकमात्र उद्देश्य था, सामाजिक न्याय की लड़ाई को विस्तार देना।  ऊंच-नीच, छूआछूत, जात-पांत, तंत्र-मंत्र, भाग्यवाद, जन्म-पुनर्जन्म आदि के मकड़जाल में फंसे दबे-कुचले लोगों को, उनके चंगुल से बाहर लाना।  फुले हिंदू धर्म की विकृतियों की ओर बहुत पहले इशारा कर चुके थे।  उसके बाद से ही उसमें सुधार के दावे किए जा रहे थे।  स्वाधीनता संग्राम के दौरान एक समय ऐसा भी आया जब दलितों और पिछड़ों का नेता कहलाने की होड़-सी मची थी।  उससे लगता था कि लोकतंत्र जातीय वैषम्य को मिलाने में सहायक होगा।  लेकिन हो एकदम उलटा रहा था।  जिन नेताओं पर संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी थी, वे चुनावों में जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगते थे।  पुरोहितों के दिखावे और आडंबर में कोई कमी नहीं आई थी।  ऊपर से समाज के निचले वर्गों पर होने वाले जाति-आधारित हमले।  उन्होंने साफ कर दिया था कि हिंदू धर्म के नेता अपनी केंचुल से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं।  वे जाति और धर्मांधता को स्वयं नहीं छोड़ने वाले।  लोगों को स्वयं उसके चंगुल से बाहर आना पड़ेगा।  पिछले आंदोलनों से यह सीख भी मिली थी कि जाति-मुक्त समाज के लिए धर्म से मुक्ति आवश्यक है।  मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म मनुष्यता है।  जियो और जीने दो उसका आदर्श है।  मामला धार्मिक हो या सामाजिक, मनुष्य यदि अपने विवेक से काम न ले तो उसके मनुष्य होने का कोई अर्थ नहीं है।  

 रामस्वरूप वर्मा का जन्म कानपुर(वर्तमान कानपुर देहात) जिले के गौरीकरन गांव में पिछड़ी जाति के किसान परिवार में दिनांक 22 अगस्त 1923 को हुआ था।  उनके पिता का नाम वंशगोपाल और मां का नाम सुखिया देवी था।  चार भाइयों में सबसे छोटे रामस्वरूप वर्मा की प्राथमिक शिक्षा कालपी और पुखरायां में हुई।  हाईस्कूल और इंटरमीडिएट परीक्षा पास करने के पश्चात उन्होंने  इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया।  वहां से 1949 में हिंदी में परास्नातक की डिग्री हासिल की।  उसके बाद उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री प्राप्त की।  वे शुरू से ही मेधावी थे।  हाईस्कूल और उससे ऊपर की सभी परीक्षाएं उन्होंने प्रथम श्रेणी में पास की थीं।  

छात्र जीवन से ही रामस्वरूप वर्मा की रुचि राजनीति में थी।  बौद्धिक स्तर पर वे समाजवादी विचारधारा के निरंतर करीब आ रहे थे।  उनका संवेदनशील मन सामाजिक ऊंच-नीच और भेदभाव को देखकर आहत होता था।  लोहिया उनके आदर्श थे।  फिर भी छात्र जीवन में वे राजनीति से दूरी बनाए रहे।  माता-पिता चाहते थे कि उनका बेटा उच्चाधिकारी बने।  उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए रामस्वरूप वर्मा ने भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षाएं दीं और उत्तीर्ण हुए।  उनकी मेधा और अध्ययनशीलता का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि प्रशासनिक सेवा के लिए उन्होंने इतिहास को चुना था और सर्वाधिक अंक उसी में प्राप्त किए थे, जबकि परास्नातक स्तर पर इतिहास उनका विषय नहीं था।  एक अच्छी नौकरी और भविष्य की रूपरेखा बन चुकी थी, लेकिन नौकरी के साथ बंध जाने का मन न हुआ।  वे स्वभाव से विनम्र, मृदुभाषी तथा आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे।  आत्मविश्वास उनमें कूट-कूट कर भरा था।  इसलिए प्रशासनिक सेवा के लिए साक्षात्कार का बुलावा आया तो उन्होंने शामिल होने से इन्कार कर दिया।  

परिचितों को उनका फैसला अजीब लगा।  कुछ ने टोका भी।  लेकिन परिवार को उनपर भरोसा था।  इस बीच उनकी डॉ।  राममनोहर लोहिया और सोशलिष्ट पार्टी से नजदीकियां बढ़ी थीं।  सार्वजनिक जीवन की शुरुआत के लिए उन्होंने अपने प्रेरणा पुरुष को ही चुना।  वे सोशलिष्ट पार्टी के सदस्य बनकर उनके आंदोलन में शामिल हो गए।  1957 में उन्होंने ‘सोशलिस्ट पार्टी’ के उम्मीदवार के रूप में कानपुर जिले के भोगनीपुर से, विधान सभा का चुनाव लड़ाय और मात्र 34 वर्ष की अवस्था में वे उत्तरप्रदेश विधानसभा के सदस्य बन गए।  यह उनके लंबे सार्वजनिक जीवन का शुभारंभ था।  उससे अगला चुनाव वे 1967 में ‘संयुक्त सोशलिष्ट पार्टी’ के टिकट पर जीते।  गिने-चुने नेता ही ऐसे होते हैं, जो पहली ही बार में जनता के मनस् पर अपनी ईमानदारी की छाप छोड़ जाते हैं।  रामस्वरूप वर्मा ऐसे ही नेता थे।  जनमानस पर उनकी पकड़ थी।  लोहिया के निधन के बाद पार्टी नेताओं से उनके मतभेद उभरने लगे।  1969 का विधान सभा चुनाव उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा और जीते।  स्वतंत्र राह पकड़ने की चाहत में उन्होंने 1968 में ‘समाज दल’ नामक राजनीतिक पार्टी की स्थापना की थी।  उद्देश्य था, समाजवाद और मानवतावाद को राजनीति में स्थापित करना।  लोगों के बीच समाजवादी विचारधारा का प्रचार करना।  उनका दूसरा लक्ष्य था, ब्राह्मणवाद के खात्मे के लिए अर्जक संघ की वैचारिकी को घर-घर पहुंचाना।  गौरतलब है कि ‘समाज दल’ की स्थापना से कुछ महीने पहले बाबू जगदेवप्रसाद सिंह ने 25 अगस्त 1967 को ‘शोषित दल’ का गठन किया था।  दोनों राजनीतिक संगठन समानधर्मा थे।  क्रांतिकारी विचारधारा से लैस।  ‘शोषित दल’ के गठन पर बावू जगदेवप्रसाद सिंह ने ऐतिहासिक महत्त्व का, क्रांतिकारी और लंबा भाषण दिया था।  उन्होंने कहा था—

‘जिस लड़ाई की बुनियाद आज मैं डालने जा रहा हूँ, वह लम्बी और कठिन होगी।  चूंकि मै एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण कर रहा हूँ इसलिए इसमें आने-जाने वालों की कमी नहीं रहेगी।  परन्तु इसकी धारा रुकेगी नहीं।  इसमें पहली पीढ़ी के लोग मारे जायेंगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जायेंगे तथा तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे।  जीत अंततोगत्वा हमारी ही होगी। ’

बाबू जगदेवप्रसाद सिंह और रामस्वरूप वर्मा के विचार काफी हद तक मिलते थे।  दोनों व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं से मुक्त थे।  आखिकार दोनों नेताओं ने राजनीतिक एकजुटता दिखाने का निर्णय लिया।  7 अगस्त 1972 को ‘शोषित दल’ और ‘समाजदल’ के विलय के बाद ‘शोषित समाज दल’ का जन्म हुआ।  1980 तथा 1989 के विधानसभा चुनावों में वर्मा जी ने ‘शोषित समाज दल’ के सदस्य के रूप में हिस्सा लिया।  दोनों बार उन्होंने शानदार जीतें हासिल कीं।  1991 में उन्होंने ‘शोषित समाज दल’ के उम्मीदवार के रूप में छठी बार विधान सभा चुनावों में जीत हासिल की।  रामस्वरूप वर्मा पर क्षेत्र की जनता का पूरा भरोसा था।  वे एक के बाद एक चुनाव जीतते जा रहे थे।  राजनीतिक क्षेत्र में उनकी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान था।  लेकिन सिर्फ संसदीय राजनीति से उन्हें संतोष न था।  इसलिए सक्रिय राजनीति के साथ जनांदोलनों में भी नियमित सक्रियता बनी हुई थी।  

भारतीय समाज के बड़े हिस्से के पिछड़ेपन का मूल कारण है—धर्म के नाम पर आडंबर।  तरह-तरह के कर्मकांड और रूढ़ियां।  शताब्दियों से दबे-कुचले समाज को पंडित और पुजारी तरह-तरह के बहाने बनाकर लूटते रहते थे।  ‘अर्जक संघ’ के गठन का प्रमुख उद्देश्य लोगों को धर्म के नाम किए जा रहे छल-प्रपंच और पाखंड से मुक्ति दिलाना था।  रामस्वरूप वर्मा पर फुले, पेरियार और आंबेडकर का प्रभाव था।  बाबू जगदेवप्रसाद सिंह तो उनके सहयोगी और प्रेरणा-पुरुष थे ही।  उन दिनों डॉ।  आंबेडकर के प्रभाव से उत्तर प्रदेश और बिहार के दलितों में भी चेतना का संचार हुआ था।  स्वामी अछूतानंद के आंदोलन का भी लोगों पर प्रभाव था।  जाति मुक्ति की मांग तेज हो चुकी थी।  दलित अपने परंपरागत पेशों, जिनके आधार पर उन्हें नीच और गुलाम बनाया हुआ था, को छोड़कर नए धंधे अपनाने को संकल्पबद्ध थे।  

जाति मुक्ति के लिए पेशा-मुक्ति आंदोलन की शुरुआत 1930 से हो चुकी थी।  आगे चलकर अलीगढ़, आगरा, कानपुर, उन्नाव, एटा, मेरठ जैसे जिले, जहां चमारों की संख्या काफी थी─उस आंदोलन का केंद्र बन गए।  आंदोलन का नारा था─‘मानव-मानव एक समान’।  उन दिनों गांवों में मृत पशु को उठाकर उनकी खाल निकालने का काम चमार जाति के लोग करते थे।  जबकि चमार स्त्रियां नवजात के घर जाकर नारा(नाल) काटने का काम करती थीं।  समाज के लिए दोनों ही काम बेहद आवश्यक थे।  मगर उन्हें करने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता था।  अछूत मानकर उनसे नफरत की जाती थी।  डॉ।  आंबेडकर की प्रेरणा से 1950-60 के दशक में उत्तर प्रदेश से ‘नारा-मवेशी आंदोलन’ का सूत्रपात हुआ था।  उसकी शुरुआत बनारस के पास, एक दलित अध्यापक ने की थी।  चमारों ने एकजुटता दिखाते हुए इन तिरष्कृत धंधों को हाथ न लगाने का फैसला किया था।  इससे दबंग जातियों में बेचैनी फैलना स्वाभाविक था।  आंदोलन को रोकने के लिए उनकी ओर से दलितों पर हमले भी किए गए।  बावजूद इसके आंदोलन जोर पकड़ता गया।

रामस्वरूप वर्मा अपने संगठन और सहयोगियों के साथ ‘नारा मवेशी आंदोलन’ के साथ थे।  जहां भी नारा-मवेशी आंदोलन के कार्यक्रम होते अपने समर्थकों के साथ उसमें सहभागिता करने पहुंच जाते थे।  अछूतों के प्रति अपमानजनक स्थितियों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए उन्होंने ‘अछूतों की समस्याएं और समाधान’ तथा ‘निरादर कैसे मिटे’ जैसी पुस्तिकाओं की रचना भी की।  उनमें जातीय आधार पर होने वाले शोषण और अछूतों की दयनीय हालत के कारणों पर विचार किया गया था।  चमारों द्वारा थोपे गए पेशे के बायकाट की सवर्ण हिंदुओं में प्रतिक्रिया होना अवश्यंभावी था।  उनकी ओर से चमारों पर हमले किए गए।  रामस्वरूप वर्मा ने प्रभावित स्थानों पर जाकर न केवल पीड़ितों को ढाढस बंधाने का काम किया, अपितु आंदोलन में डटे रहने का आवाह्न भी किया।  ‘अर्जक संघ’ के विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उन्होंने ‘अर्जक साप्ताहिक’ अखबार भी निकाला।  उसका मुख्य उद्देश्य ‘अर्जक संघ’ के विचारों को जन-जन तक पहुंचाना था।  

1967—68 में उत्तर प्रदेश में ‘संयुक्त विधायक दल’ की सरकार बनी तो रामस्वरूप वर्मा को वित्तमंत्री का पद सौंपा गया।  उस पद पर रहते हुए उन्होंने जो बजट पेश किया, उसने सभी को हैरत में डाल दिया था।  बजट में 20 करोड़ लाभ दर्शाया गया था।  उससे पहले मान्यता थी कि सरकार के बजट को लाभकारी दिखाना असंभव है।  केवल बजट घाटे को नियंत्रित किया जा सकता है।  जहां घाटे को नियंत्रित रखना ही वित्तमंत्री का कौशल हो, वहां लाभ का बजट पेश करना बड़ी उपलब्धि जैसा था।  केवल ईमानदार और विशेष प्रतिभाशाली मंत्री से, जिसकी बजट निर्माण में सीधी सहभागिता हो─ऐसी उम्मीद की जा सकती थी।  बजट में सिंचाई, शिक्षा, चिकित्सा, सार्वजनिक निर्माण जैसे लोकोपकारी कार्यों हेतु, उससे पिछले वर्ष की तुलना में लगभग डेढ़ गुनी धनराशि आवंटित की गई थी।  कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में वृद्धि का प्रस्ताव भी था।  इस सब के बावजूद बजट को लाभकारी बना देना चमत्कार जैसा था।  उस बजट की व्यापक सराहना हुई।  रामस्वरूप वर्मा की गिनती एक विचारशील नेता के रूप में होने लगी।  पत्रकारों के साथ बातचीत के दौरान उनका कहना था कि उद्योगपति और व्यापारी लाभ-हानि को देखकर चुनते हैं।  घाटा बढ़े तो तुरंत अपना धंधा बदल लेते है।  लेकिन किसान नफा हो या नुकसान, किसानी करना नहीं छोड़ता।  बाढ़-सूखा झेलते हुए भी वह खेती में लगा रहता है।  वह उन्हीं मदों में खर्च करता है, जो बेहद जरूरी हों।  जो उसकी उत्पादकता को बनाए रख सकें।  इसलिए किसान से अच्छा अर्थशास्त्री कोई नहीं हो सकता।  जाहिर है, बजट तैयार करते समय सरकार के अनुत्पादक खर्चों में कटौती की गई थी।  कोई जमीन से जुड़ा नेता ही ऐसा कठोर और दूरगामी निर्णय ले सकता था।  

देश में आर्थिक आत्मनिर्भरता की चर्चा अकसर होती है।  मगर बौद्धिक आत्मनिर्भरता को एकदम बिसरा दिया जाता है।  यह प्रवृत्ति आमजन के समाजार्थिक शोषण को स्थायी बनाती है।  समाज का पिछड़ा वर्ग जिसमें  शिल्पकार और मेहनतकश वर्ग शामिल हैं, अपने श्रम-कौशल से अर्जन करते हैं।  जब उसको खर्च करने, लाभ उठाने की बारी आती है तो पंडा, पुरोहित, व्यापारी, दुकानदार सब सक्रिय हो जाते हैं।  धर्म के नाम पर, ईश्वर के नाम पर, तरह-तरह के कर्मकांडों, आडंबरों, ब्याज और दान-दक्षिणा के नाम पर─वे उसकी मामूली आय का बड़ा हिस्सा हड़पकर ले जाते हैं।  धर्म मनुष्य की बौद्धिक आत्मनिर्भरता, उसके वास्तविक प्रबोधीकरण में सबसे बाधक है।  लेकिन जब भी कोई उसकी ओर उंगली उठाता है, विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग तुरंत परंपरा की दुहाई देने लगता है।  इस मामले में हिंदू विश्व-भर में इकलौते धर्मावलंबी हैं, जो पूर्वजों के ज्ञान पर अपनी पीठ ठोकते हैं।  कुछ न होकर भी सबकुछ होने का भ्रम पाले रहते हैं।  तर्क और बुद्धि-विवेक की उपेक्षा करने के कारण कूपमंडूकता की स्थिति में जीते हैं।  ‘अर्जक संघ’ कमेरे वर्गों का संगठन है।  धर्म या संप्रदाय न होकर वह मुख्यतः जीवन-शैली है, जिसमें आस्था से अधिक महत्त्व मानवीय विवेक को दिया जाता है।  उसका आधार सिद्धांत है कि श्रम का सम्मान और पारस्परिक सहयोग।  लोग पुरोहितों, पंडितों के बहकावे में आकर आडंबरपूर्ण जीवन जीने के बजाय ज्ञान-विज्ञान और तर्कबुद्धि को महत्त्व दें।  गौतम बुद्ध ने कहा था─‘अप्पदीपो भव। ’ अपना दीपक आप बनो।  अर्जक संघ भी ऐसी ही कामना करता है।

रामस्वरूप वर्मा विचारों से पूरी तरह समाजवादी थे।  अपने छात्र जीवन के दौरान ही वे डॉ।  नरेंद्र देव और लोहिया के विचारों से प्रभावित थे।  स्वयं लोहिया उनके व्यक्तित्व से प्रभावित थे।  उन्हें पार्टी के लिए ऐसे ही ईमानदार, विचारशील और प्रतिभाशाली युवाओं की दरकार थी।  इसलिए उनके राजनीति में प्रवेश के निर्णय का लोहिया ने खुले दिल से स्वागत किया था।  रामस्वरूप वर्मा ने भी उन्हें निराश नहीं किया।  राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में हिस्सेदारी करते हुए उन्होंने महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के कई राज्यों की यात्राएं कीं।  इस काम में उन्हें मंगलदेव विशारद और महाराज सिंह भारती जैसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले सहयोगी प्राप्त हुए, जिनकी समाजवाद के प्रति निष्ठा असंद्धिग्ध थी।  जिनका सपना रूढ़िमुक्त समाज का था।  जो ब्राह्मणवाद को भारतीय समाज की अनेकानेक समस्याओं के लिए जिम्मेदार मानते थे।  वे जानते थे कि शताब्दियों से जड़ जमाए धर्म और जातिवाद से एकाएक मुक्ति संभव नहीं है।  परंतु लोकतंत्र और वैज्ञानिक सोच की मदद से उन्हें चुनौती दी सकती है।  

‘शोषित दल’ के संस्थापक बाबू जगदेवप्रसाद सिंह ‘अर्जक संघ’ के माध्यम से किए जा रहे कार्यों से बेहद प्रभावित थे।  उनका मानना था का ब्राह्मणवाद के अनाचारों से मुक्ति केवल ‘अर्जक संघ’ द्वारा संभव है।  बाबू जगदेवप्रसाद सिंह और रामस्वरूप वर्मा दोनों का विश्वास था कि श्रम-केंद्रित संस्कृति मानववाद को बढ़ावा देगी।  उसके माध्यम से ब्राह्मणवाद से मुक्ति सहज संभव हो सकेगी।  लेकिन यह काम आसान नहीं है।  क्योंकि शताब्दियों से सत्ता और संसाधनों पर कुंडली मारकर बैठे लोग इतनी आसानी से जगह खाली करने को तैयार न होंगे।  उनके द्वारा फैलाए जा रहे अंधविश्वासों और धार्मिक पाखंडों से मुक्ति के लिए शिक्षा आवश्यक है।  इसलिए उनकी मांग थी कि देश में सभी को शिक्षा के समान अवसर प्राप्त हों।  विद्यालयों का पाठ्यक्रम ऐसा बनाया जाए जो वैज्ञानिक सोच और तर्कबुद्धि को बढ़ावा दे।  नैतिक शिक्षा का आधार मानवीय संबंधों को बनाया जाए।  सरकार को चाहिए कि गरीबों और समाज के पिछड़े वर्गों को प्रोत्साहन देकर आगे लाए।  रामस्वरूप वर्मा, बाबू जगदेवप्रसाद सिंह, महाराज सिंह भारती, बामसेफ के सहसंस्थापक डी।  के।  खापर्डे, पेरियार ललई सिंह यादव जैसे नेताओं के कारण देश में मानो नई सामाजिक-राजनीतिक चेतना अंगड़ाई ले रही थी।  ‘शोषित समाज दल’ का यह नारा उन दिनों गली-गली गूंजता था—

दस का शासन नब्बे पर

नहीं चलेगा, नहीं चलेगा।

सौ में नब्बे शोषित है,

नब्बे भाग हमारा है।

धन-धरती और राजपाट में,

नब्बे भाग हमारा है।

अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए रामस्वरूप वर्मा ने ‘क्रांति क्यों और कैसे’, ‘ब्राह्मणवाद की शव-परीक्षा’, ‘अछूत समस्या और समाधान’, ‘ब्राह्मण महिमा क्यों और कैसे?’, ‘मानवतावादी प्रश्नोत्तरी’, ‘मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक’, ‘निरादर कैसे मिटे’, ‘सृष्टि और प्रलय’, ‘अम्बेडकर साहित्य की जब्ती और बहाली’,  जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की।  उनकी लेखन शैली सीधी-सहज और प्रहारक थी।  ऐसी पुस्तकों के लिए प्रकाशक मिलना आसान न था।  सो उन्होंने उन्हें अपने ही खर्च पर प्रकाशित किया।  जहां जरूरी समझा, पुस्तक  को मुफ्त वितरित किया गया।  उत्तर प्रदेश की प्रमुख भाषा हिंदी है।  रामस्वरूप वर्मा स्वयं हिंदी के विद्यार्थी रह चुके थे।  सरकार का कामकाज जनता की भाषा में हो, इस तरह सहज-सरल ढंग से हो कि साधारण से साधारण व्यक्ति भी उसे समझ सके, यह सोचते हुए उन्होंने वित्तमंत्री रहते हुए, सचिवालय से अंग्रेजी टाइपराइटर हटवाकर, हिंदी टाइपराटर लगवा दिए थे।  उस वर्ष का बजट भी उन्होंने हिंदी में तैयार किया था।  जनता को यह परचाने के लिए कि प्रशासन में कौन कहां पर है, उसके धन का कितना हिस्सा प्रशासनिक कार्यों पर खर्च होता है—बजट में छठा अध्याय विशेषरूप से जोड़ा गया था।  उसमें प्रदेश के कर्मचारियों और अधिकारियों का विवरण था।  उस पहल की सभी ने खूब सराहना की थी।  

1970 में उत्तर प्रदेश सरकार ने ललई सिंह की पुस्तक ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ पर रोक लगा दी।  यह पुस्तक डॉ।  आंबेडकर द्वारा जाति-प्रथा के विरुद्ध दिए गए भाषणों संकलन थी।  सरकार के निर्णय के विरुद्ध ललई सिंह यादव ने उच्च न्यायालय में अपील की।  मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट में था।  रामस्वरूप वर्मा कानून के विद्यार्थी रह चुके थे।  उन्होंने मुकदमे में ललई सिंह यादव की मदद की।  उसके फलस्वरूप 14 मई 1971 को उच्च न्यायालय ने पुस्तक से प्रतिबंध हटा लेने का फैसला सुनाया।

रामस्वरूप वर्मा ने लंबा, सक्रिय और सारगर्भित जीवन जिया था।  उन्होंने कभी नहीं माना कि वे कोई नई क्रांति कर रहे हैं।  विशेषकर अर्जक संघ को लेकर, उनका कहना था कि वे केवल पहले से स्थापित विचारों को  लोकहित में नए सिरे से सामने ला रहे हैं।  उनके अनुसार पूर्व स्थापित विचारधाराओं को, लोकहित को ध्यान में रखकर, नए समय और संदर्भों के अनुरूप प्रस्तुत करना ही क्रांति है।  एक तरह से उनका यह विश्वास सही भी था।  क्योंकि महावीर और बुद्ध के पहले से ही आजीवकों का एक बड़ा संप्रदाय था।  उसके अधिकांश सदस्य अपने श्रम-कौशल द्वारा आजीविका कमाते थे।  जीवन से भागने के बजाय उसका सम्मान करते थे।  मध्यकाल में कबीर और संत रविदास ने भी अपना काम-धंधा करते हुए उपदेश दिए थे।  प्रसिद्ध कहावत है कि ‘आदमी जैसा खाता है, वैसा ही सोचता है’।  तुलसी ने मंदिर में बैठकर, दूसरों के श्रमोत्पाद पर ‘रामचरितमानस’ की रचना की थी।  इसलिए महाकाव्य रचने के बावजूद वे रचनाकार का आत्मविश्वास कभी अर्जित नहीं कर पाए।  अपनी रचनाओं में तुलसी, दुनिया के कदाचित सबसे दीन कवि हैं।  दूसरी ओर अपने श्रम के भरोसे जीवनयापन करने वाले कबीर और रविदास साहित्य में बेहद मुखर हैं।  जहां भी अनैतिकता और अनाचार दिखे, उनकी ललकार दूर तक सुनाई पड़ती है।  

विचारों से कबीर, जीवन में बुद्धिवाद, तर्क और मानववाद को महत्त्व देने वाला, भारतीय राजनीति वह फकीर,  19 अगस्त 1998 को हमसे विदा ले गया।

अर्जक संघ 

भारतीय समाज के संदर्भ में जाति महज सामाजिक समस्या नहीं है।  उसका प्रभाव राजनीतिक और आर्थिक पक्षों पर भी प्रभाव पड़ता है।  इसमें जो जाति के शिखर पर है, वह शुरू से आर्थिक और राजनीतिक सत्ता का लाभ उठाता आया है।  उसका परिणाम भीषण आर्थिक विषमता के रूप में हमारे सामने है।  ऊपर के तीनों वर्ग जो प्रत्यक्ष श्रम से दूर हैं, वे आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सुख-सुविधाओं, पद-प्रतिष्ठा का भरपूर लाभ उठाते हैं।  उनके पास विपुल अधिकार हैं।  दूसरी ओर शूद्र और अतिशूद्र जो समाज के प्रमुख उत्पादक वर्ग हैं, उन्हें उनके श्रम-लाभों से वंचित कर दिया गया है।  उनकी संख्या देश की कुल आबादी की तीन-चौथाई है।  देश और समाज के विकास की जिम्मेदारी उनके कंधों पर है।  लेकिन जब लाभ के बंटवारे का समय आता है, देश की तीन-चौथाई से ज्यादा कमाई ऊपर के 25 प्रतिशत लोगों में बंट जाती है।  भारतीय समाज में व्याप्त भीषण आर्थिक असमानता की यही वजह है।  धर्म और जाति का विधान लोगों को भुलावे में रखने और यथास्थिति बनाए रखने के लिए है।  इस तरह धर्म और जाति से मुक्ति का मसला, केवल सामाजिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं है, उसमें आर्थिक स्वतंत्रता और राजनीतिक समानाधिकार एवं सहभागिता की चाहत भी सम्मिलित हैं।   

रामस्वरूप वर्मा ने स्वयं कहते थे कि ‘अर्जक संघ’ के पीछे कोई नई वैचारिकी नहीं थी।  जैन ग्रंथ ‘भगवती सूत्र’ और बौद्ध त्रिपिटक में आजीवक चिंतकों के बारे में आया है।  हालांकि वहां उनकी उपस्थिति केवल उनके मत के खंडन के लिए है।  जैन और बौद्ध दोनों आजीवक चिंतकों के प्रति आलोचनात्मक हैं।  कभी-कभी लगता है मानो उनपर कटाक्ष कर रहे हों।  यह स्वाभाविक था।  समाज में पहले से जमे-जमाए आजीवक और लोकायत विचारधाराओं को चुनौती दिए बिना, किसी नए धर्म-संप्रदाय की स्थापना संभव भी न थी।  बौद्ध साहित्य के अनुसार आरंभ में आजीवक मक्खलि गोशाल के समर्थकों की संख्या गौतम बुद्ध के अनुयायियों से अधिक थी।  ‘दीघनिकाय’ में मक्खलि गोशाल और पूरण कस्सप को पूर्ण ज्ञानी, मत संस्थापक, अनेक लोगों का शास्ता, धर्म-गुरु, मत-संस्थापक आदि माना है।  

बुद्धकालीन अर्थव्यवस्था, जिसे आजीवक या लोकायतकालीन अर्थव्यवस्था भी कहा जा सकता है—के बारे में विचार करें तो उन दिनों भारत का विदेशी व्यापार शिखर पर था।  जो उत्पादक वर्ग था, उसके अपने संगठन थे।  उन संगठनों का इतना प्रभाव था कि राजा को भी उनके कामकाज में हस्तक्षेप करने का अधिकार न था।  ब्राह्मण उन दिनों भी समाज के शिखर पर थे।  वे मानव-बस्तियों से दूर, यज्ञादि में लिप्त रहते थे।  बलि हेतु पशु तथा अन्य समिधा जुटाने के लिए ही वे राजाओं और श्रेष्ठियों के संपर्क में आते थे।  बदले में वे धार्मिक कर्मकांडों का नेतृत्व करते तथा उनके बच्चों को शिक्षा दिया करते थे।  उनके अलावा एक वर्ग कारीगरों, किसानों और शिल्पकारों का था।  जो अपने काम में लीन रहता था।  उनमे से अधिकांश आजीवक संप्रदाय के मानने वाले थे।  आजीवक संप्रदाय अब भले ही लुप्त प्राय हो, परंतु तमिल भाषा में लिखित जैनग्रंथ ‘नीलकेसी’ के अनुसार जिसका लेखनकाल 10वीं शताब्दी है, काशी में एक धनाढ्य सेठ रहता था, जो आजीवक संप्रदाय में विश्वास रखता था।  आजीवक मूलतः प्रकृतिवादी विचारधारा में विश्वास रखते थे।  श्रम-कौशल उनके लिए सब कुछ था।  यज्ञादि कर्मकांड तथा देवताओं के नाम पर होने वाले आडंबर उन्हें स्वीकार्य न थे।  ‘अर्जक संघ’ को हम भारत की उसी आजीवक परंपरा का आधुनिक संस्करण मान सकते हैं।  

‘अर्जक संघ’ मानवीय विवेक को महत्त्व देकर, तर्क और बुद्धिवाद में यकीन रखता है।  धर्म या दैवी शक्ति के नाम पर थोपा गया, कुछ भी उसे स्वीकार नहीं है।  धर्म और उसके समर्थन से पनपा जातिवाद, आदमी-आदमी के बीच भेद करना सिखाता है।  अर्जक संघ का विश्वास है कि प्रकृति सभी के साथ समान व्यवहार करती है।  इसलिए जन्म के आधार पर किसी को छोटा-बड़ा नहीं माना जा सकता।  वह जाति, वर्ण, क्षेत्रीयता आदि किसी भी प्रकार के कृत्रिम विभाजन को नकारता है।  सभी मनुष्य बराबर हैं।  इसलिए सबके अधिकार भी बराबर हैं।  जन्म के आधार पर किसी को छोटा, बड़ा अथवा विशेषाधिकार संपन्न नहीं बताया जा सकता।  जातियां मनुष्य द्वारा निर्मित हैं।  उन्हें प्राकृतिक संरचना के रूप में महिमा-मंडित करना, मनुष्य और मनुष्यता दोनों का अपमान करना है।  उसका मानना है कि ब्राह्मणवाद की विकृतियों और अनाचारों का समाधान केवल मानवतावाद द्वारा संभव है।  ‘अर्जक संघ’ जाति, धर्म, वर्ण, संप्रदाय के भेदभाव से रहित ऐसे समाज की परिकल्पना करता है, जिसमें सभी बराबर हों।  सभी को समान आजादी, सुख, शांति एवं समृद्धि के अवसर प्राप्त हों।  उसका एक बहुप्रचलित नारा है—

‘मानववाद की क्या पहचान,

ब्राह्मण, भंगी एक समान।  

अर्जक संघ के सिद्धांत

अर्जक संघ के सिद्धांत केवल सिद्धांत नहीं, वे उसके कार्यक्रम भी हैं।  इस तरह वह कोई नया संप्रदाय न होकर मानवीयता, बुद्धिपरकता और सौहार्द्र के साथ जीवन जीने की एक शैली है।  फिर भी उसके मुख्य सिद्धांतों /कार्यक्रमों को निम्नलिखित वर्गों में बांटा जा सकता है—

ब्राह्मणवाद का खंडन 

ब्राह्मणवाद जन्म के आधार पर दूसरों पर अपना आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने की राजनीति है।  उसकी आधार मान्यता है कि कुछ लोग जन्म से ही विशेष होते हैं।  इसके समर्थक, जो इसका लाभकारी वर्ग भी हैं, ईश्वर को सर्वोपरि मानकर दावा करते हैं कि ईश्वर ने उन्हें विशेष अनुकंपा और अधिकारों के साथ धरती पर भेजा है।  चूंकि शिक्षा का समस्त कारोबार उन्हीं के हाथों में रहता है, इसलिए उनमें  नेतृत्व की योग्यता होती है, जिसे वे अपना जन्मजात गुण बताते है।  हालांकि हर युग में उनके विरोधी हुए हैं, जिससे कई बार उन्हें नेपथ्य में जाना पड़ा है।  ऐसे अवसरों पर विरोधियों के साथ समझौता करके जैसे-तैसे खुद को बचाए रखना उनका चारित्रिक गुण रहा है।  द्वि-जन्म के सिद्धांत पर विश्वास रखना, जनेऊ धारण करना, भाग्यवाद आदि ब्राह्मणवाद के शतरंजी मोहरे हैं, जिनके आधार पर वह शताब्दियों से लोगों को भरमाता आया है।  ‘अर्जक संघ’ ब्राह्मणवाद के सभी प्रतीकों यथा पुजारी, यज्ञादि कर्मकांड, भाग्य, द्विजीकरण की परंपरा आदि का खंडन करते हैं।  वह मानता है कि मनुष्य को उन सभी रीति-रिवाजों और मान्यताओं को हतोत्साहित करना चाहिए, जो समाजार्थिक असमानता और शोषण को बढ़ावा देती हैं।  उन्हें नियतिबद्ध बताती हैं।  ‘अर्जक संघ’ के अनुयायी विवाह, सगाई आदि अवसरों पर ब्राह्मण पुरोहित की उपस्थिति को अनावश्यक और गैर-वाजिब मानते हैं।  उनके लिए विवाह धार्मिक बंधन न होकर एक समझौता मात्र है, जिसे पति-पत्नी एक-दूसरे के सुख, संतोष, संतान और समृद्धि के लिए अपनाते हैं।  ‘अर्जक संघ’ मूर्ति-पूजा, दहेज, जनेऊ संस्कार, विवाह में फिजूलखर्ची के साथ-साथ मृत्युभोज, श्राद्ध आदि का भी विरोध करता है।  वह इनको ब्राह्मणवाद का षड्यंत्र मानता है।  सभी मनुष्य समान हैं।  ब्राह्मण को पायलागन कहकर चरण-वंदना करना एक तरह से उसकी सामाजिक सर्वोच्चता को स्वीकार करता है।  अर्जक संघ इसका विरोध करता है।  

जाति-व्यवस्था को स्थायी रूप देने के लिए ब्राह्मणी विधान में शूद्रों और अछूतों को बराबर में बैठने की आजादी नहीं थी।  उसे जमीन पर बैठने को कहा जाता था।  ‘अर्जक संघ’ इसका विरोध करता है।  धर्म की रचना सामाजिक स्तरीकरण को मान्य ठहराती है।  इसलिए ऐसे किसी भी धार्मिक रीति-रिवाज जो समाज में भेदभाव फैलाता हो, आदमी को छोटे-बड़े, ऊंच-नीच में बांटता हो—का ‘अर्जक संघ’ विरोध करता है।  धर्म मनुष्य की आध्यात्मिक चेतना से जुड़ा मसला है।  हर व्यक्ति जीवन और सृष्टि की उत्पत्ति के कारण की खोज या उसमें विश्वास रखने को स्वतंत्र है।  ‘अर्जक संघ’ के अनुसार माता-पिता के धर्म को उसकी संतान पर लाद देने की परंपरा, उसके स्वविवेक और चयन के अधिकार का विरोध करती है।  इसलिए वह जन्म के आधार पर धर्म निर्धारित करने की परंपरा का भी विरोध करता है।  

आमतौर पर मान लिया जाता है कि धर्म नैतिकता को संबल देता है।  वही उसका आधार है।  वास्तव में है बिलकुल उलटा।  मनुष्यता के आदर्श सर्वोपरि हैं।  क्योंकि मनुष्य ने समाजीकरण के लंबे अनुभव के बाद उनका चयन किया है।  इसलिए प्रत्येक धर्म अपनी स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार उन्हें अपनी आचार-संहिता से जोड़ता है।  दुनिया में धर्मों और संप्रदायों की संख्या दर्जनों में है।  परंतु उनकी आचार-संहिता लगभग एक समान है।  वही आदर्श समाज के स्थायित्व, विकास तथा एकीकरण के लिए आवश्यक हैं।  मानव-मूल्यों को बनाए रखने के लिए किसी भी धर्म की बैशाखी की आवश्यकता नहीं है।  नैतिकता को सर्वोपरि मानते हुए ‘अर्जक संघ’ मानवधर्म का समर्थन करता है, जो और कुछ नहीं बल्कि मानव समाज द्वारा सबकी बेहतरी के लिए चुने गए आदर्शों का लेखा है।

मनुष्य के विवेकीकरण के लिए शिक्षा अनिवार्य है।  ब्राह्मणवादी शिक्षा का स्वरूप सामाजिक भेदभाव को बढ़ाने वाला रहा है।  संघ की मान्यता है कि भारतीय संविधान सर्वसमानता और स्वतंत्रता का समर्थक है, इसलिए परोक्ष रूप में वह धर्म का विरोध करता है।  इसलिए उसकी मांग थी कि ब्राह्मणवाद को आश्रय देने वाले सभी विचार और परंपराएं यथा पुनर्जन्म, भाग्यवाद, जाति-प्रथा, जाति और वर्णाधारित भेदभाव, चमत्कारपूर्ण कहानियों को बच्चों के पाठ्यक्रम से दूर रखना चाहिए।  उसके स्थान पर वैज्ञानिक चेतना से युक्त ऐसी शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिए जो मनुष्य को अंधविश्वास, पाखंड, भाग्यवाद, तंत्रमंत्र आदि से मुक्ति दिला सके।  चूंकि सभी मनुष्य एक समान हैं।  स्वतंत्रता और समानता पर सभी का समानाधिकार है, इस आधार पर वह छूआछूत का विरोध करता है।  वह सभी के लिए समान शिक्षा और अवसरों का समर्थक है।  

अर्जक संघ का मानना है कि दांपत्य जीवन की नींव पति-पत्नी की परस्पर सहमति पर रखी जानी चाहिए।  उसके लिए दहेज, फिजूलखर्ची, दिखावे और तड़क-भड़क के लिए कोई स्थान नहीं है।  विवाह के समय पति-पत्नी लिखित सहमति और शर्तें यदि आवश्यक हों, तो तय की जा सकती हैं।  विवाह समारोह साधारण, कम से कम लोगों की उपस्थिति में संपन्न होने चाहिए, ताकि अमीर-गरीब का अंतर जाता रहे।  समाज में कोई भी उसके आधार पर स्वयं को हीन न समझे।  ब्राह्मणवादी संस्कार मनुष्य के जीवन से लेकर मृत्यु तक पीछा नहीं छोड़ते।  और उनके माध्यम से मनुष्य ब्राह्मणों के चंगुल में फंसा रहता है।  ‘अर्जक संघ’ जन्म से लेकर मृत्यु तक सभी ऐसे संस्कारों का विरोध करता है जिसमें ब्राह्मण या वर्ग-विशेष को सामान्य से अधिक अहमियत दी जाती हो।  हिंदुओं के अधिकांश त्योहारों जैसे दीपावली, दशहरा, होली आदि के साथ कोई न कोई मिथ जुड़ा हुआ है।  पर्व-त्योहारों की अपनी प्रासंगिकता है, वे समाज की एकरसता और मेल-जोल बनाए रखने के लिए आवश्यक माने जाते हैं।  ‘अर्जक संघ’ को पर्व-उत्सव आदि से आपत्ति नहीं है।  परंतु वह उन सभी को मिथों को अनावश्यक मानता है जिनसे किसी भी प्रकार की अधिभौतिक सत्ता का नाम जुड़ा है।  वह त्योहारों के रूप में ऐसे मानवीय चलन की कामना करता है, जिससे लोग आपस में मिलें और बराबरी का संदेश जाए।  होली, दीवाली, दशहरा जैसे त्योहार समाज में गैर-बराबरी को पोसते हैं, इसलिए अर्जक संघ इनका बहिष्कार करता है।  वह मुस्लिमों की ईद ओर ईसाइयों के क्रिसमस को भी ऐसा ही त्योहार मानता है।  इनके बजाए वह जिन 14 मानवतावादी त्योहारों को महत्त्व देता है, उनमें गणतंत्र दिवस, आंबेडकर जयंती, बुद्ध जयंती, स्वतंत्रता दिवस, बिरसा मुंडा और पेरियार रामास्वामी की पुण्यतिथियां शामिल हैं।  

‘अर्जक संघ’ मानववाद में विश्वास रखता है।  उसके अनुसार मानववाद या मानवतावाद वह विचारधारा है जो मनुष्य मात्र के लिए समानता, स्वतंत्रता, सुख, समृद्धि और विकास के समान अवसर उपलब्ध कराती हो।  समानता से उसका आशय उठने-बैठने, बोलने, खान-पान, पहनावे, अभिव्यक्ति के अधिकार आदि में किसी भी प्रकार के भेदभाव के निषेध से है।  इसका आदर्श है कि मनुष्य को दूसरों के साथ वही व्यवहार करना चाहिए, जैसा वह अपने प्रति चाहता है।  प्रत्येक मनुष्य का अहं-बोध प्रबल होता है।  भोजन, वस्त्र, आवास आदि की पूर्ति के साथ-साथ प्रत्येक मनुष्य समाज में अपने लिए मान-सम्मान की कामना करता है।  लेकिन सम्मान का स्तर जन्म के आधार पर तय नहीं किया जा सकता।  उसका आधार मनुष्य की योग्यता, बुद्धि-विवेक, साहस, सहृदयता, सद्भाव आदि होना चाहिए।  इसके लिए आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य जाति-धर्म की मर्यादाओं से निकलकर एक-दूसरे का सम्मान करें तथा उनके जीवन-लक्ष्यों में प्राप्ति के प्रति सहायक हों।  

शिक्षा मनुष्य का न केवल प्रबोधीकरण करती है, अपतिु उसे समाज में जीने के योग्य भी बनाती है।  इसलिए आवश्यक है कि सभी नागरिकों को शिक्षा के समान अवसर प्राप्त हों-उसमें किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो।  अर्जक संघ का प्रचलित नारा है—‘चपरासी हो या राष्ट्रपति की संतान, सबको शिक्षा एक सामान’।  शिक्षा हेतु ऐसे पाठ्यक्रम का निर्धारण करना चाहिए जो मनुष्य के विवेकीकरण में सहायक हो।  उसे अंधविश्वासों से बाहर निकालकर रूढ़ि मुक्त करे।  मनुष्य की उत्पादन क्षमता को बढ़ाए तथा तर्क-सामर्थ्य का विस्तार करे।  पुनर्जन्म और भाग्य जैसी धारणाएं मनुष्य की उत्पादकता को प्रभावित करती हैं।  उसके सोच को विकृत करती हैं।  ‘अर्जक संघ’ उनका बहिष्कार करता है।  एक समय था जब उसका नारा—‘पुनर्जन्म और भाग्यवाद, इनसे जन्मा ब्राह्मणवाद’ गली-गली गूंजा करता था।  

‘अर्जक संघ’ का अभिप्राय है, मेहनतकश लोगों का संगठन।  इसमें किसान, मजूदर, शिल्पकार, तकनीशियन आदि वे सभी लोग सम्मिलित हैं जो अपने श्रम-कौशल के आधार पर जीविकोपार्जन करते हैं।  वह बौद्धिक श्रम और शारीरिक श्रम में भेद नहीं करता।  अपितु वह शारीरिक श्रम को बौद्धिक श्रम से ऊंचा मानता है।  उसका मानना है कि बौद्धिक श्रम उत्पादन में सहायक तो हो सकता है, लेकिन वह स्वयं उत्पादन नहीं कर सकता।  दूसरी ओर शारीरिक श्रम द्वारा मनुष्य अपनी जरूरत के लायक कुछ भी उत्पादित कर सकता है।  इसलिए वह बौद्धिक श्रम की अपेक्षा श्रेष्ठतर है।  बौद्धिक श्रम करने वाले प्रायः अपनी स्थिति का लाभ उठाकर समाज में अनुकूल स्थितियों का सृजन कर लेते हैं।  इससे वह वर्ग जो शारीरिक श्रम में लिप्तय और समाज का प्रमुख उत्पादक वर्ग भी है-के साथ अन्याय बढ़ता जाता है।  भारतीय वर्ण-व्यवस्था का स्वरूप कुछ ऐसा है कि इसमें शारीरिक श्रम करने वाले को न केवल सबसे नीचे माना गया है, अपितु उसे मानवोचित मान-सम्मान और सुख से भी वंचित रखा जाता है।  ‘अर्जक संघ’ के अनुसार दूसरों के श्रम पर जीना भिक्षावृत्ति जैसा है।  ब्राह्मण आरंभ से ही दूसरों के श्रम पर जीता आया है।  दूसरी ओर सफाई करने वाला सबसे निकृष्ट काम करता है।  उसे ऐसे काम का उचित मेहनताना तो दूर अपेक्षित मान-सम्मान भी नहीं मिल पाता।  खुद को श्रम से बचाए रखने के लिए ही ब्राह्मणों ने जातिप्रथा की रचना की है।  इसलिए किसी भी रूप में ब्राह्मणवाद का बहिष्कार, व्यक्ति और समाज दोनों के हित में है।  ‘अर्जक संघ’ श्रम को उसका वास्तविक सम्मान दिए जाने का समर्थक है।  इसके लिए वह जाति-प्रथा को गैरजरूरी, भेद-भाव को जन्म देनी वाली अमानवीय प्रथा मानता है।  ‘अर्जक संघ’ संपूर्ण सामाजिक समानता, जिसमें लैंगिक समानता भी सम्मिलित है, का समर्थन करता है।  

दार्शनिक समस्याएं और मानववादी प्रश्नोत्तरी

जब भी कोई व्यक्ति नई राह चलना चाहता है, उसके रास्ते को लेकर तरह-तरह के प्रश्न उठने लगते हैं।  कभी-कभी केवल दिखावे के लिए।  कभी-कभी नई राह की खामियों को पकड़ने का श्रेय लेने की कोशिश में।  ऐसे प्रश्न या जिज्ञासाएं सदैव बेकार नहीं होतीं।  स्थापित विचारधाराओं के बीच नए विचार, धर्म या संप्रदाय की महत्ता दर्शाने के लिए भी कई बार उन प्रश्नों का उत्तर देना आवश्यक हो जाता है।  हालांकि कई बार ऐसे सवाल भी सामने आ जाते हैं जिनका उस संगठन के मुख्य उद्देश्यों से कोई करीबी संबंध नहीं होता।  ‘अर्जक संघ’ के संस्थापक रामस्वरूप वर्मा के आगे भी कुछ ऐसे ही प्रश्न थे।  जैसे ‘अर्जक संघ’ की जीवन, सृष्टि और समाज को लेकर क्या दृष्टि है? जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई? ‘अर्जक संघ’ का मूल उद्देश्य रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिए समाज में व्याप्त कुरीतियों से संघर्ष करना था।  दर्शन की जटिल समस्याओं का समाधान उसका उद्देश्य नहीं था।  समस्या थी कि इन प्रश्नों को टालने पर संघ के प्रति लोगों की गंभीरता में कमी आ सकती है।  ऐसे आध्यात्मिक किस्म के प्रश्नों के कुछ ‘मानववादी प्रश्नोत्तरी’ में दिए गए हैं।  

यह पूछने पर कि मानव शरीर की क्या आवश्यकताएं हैं, उत्तर मिलता है—‘शुद्ध वायु, जल, पौष्ठिक भोजन और स्वास्थ्य। ’ अगला प्रश्न था, ‘क्या मन भी शरीर की तरह ही पदार्थ है? उत्तर मिला, ‘प्रत्येक पदार्थ दृश्यमान है।  उसका कोई कोई रूप, स्पष्ट देहाकृति होती है।  सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ किसी न किसी रूप में गतिमान है।  गति के लिए पदार्थ का होना आवश्यक है।  इसी तरह मन के लिए भी शरीर की उपस्थिति अनिवार्य है। ’ आशय था कि देह मन का आधार है।  बिना पहले के दूसरा असंभव है।  आगे वे कहते हैं कि मन की यदि कोई गति है तो उसे देह की ऊर्जा ही संभव बनाती है।  गति पदार्थ का गुण है।  इस आधार पर पदार्थ स्वयं चैतन्य है।  इसे हम वेदांत का प्रतिचिंतन कह सकते हैं।  वेदांतियों के अनुसार सृष्टि की समस्त गतिशीलता का स्रोत परमात्मा है।  जबकि भौतिकवादियों के लिए चेतना सृष्टि का विशिष्ट गुण है।  वही उसके कण-कण में समायी होती है।  सभी पदार्थ चैतन्य हैं।  दूसरी ओर विज्ञान कहता है, प्रकृति की प्रत्येक वस्तु छोटे-छोटे कणों से मिलकर बनी है।  वे सदैव गतिमान रहते हैं।  नई खोजें बताती हैं कि परमाणु के भीतर भी अत्यंत छोटे-छोटे कण रहते हैं।  नन्हे-नन्हे ऊर्जा पिंड, वे कहीं ठहरते नहीं।  सदैव गतिमान रहते हैं।  सो चेतना सृष्टि के हर पदार्थ में है।  यही चेतना जब जीवन में ढल जाती है तो पदार्थ जीव बन जाता है।  जिनमें जीवन नहीं है, वह केवल पदार्थ रहता है।  

फिर निर्जीव पदार्थ और जैविक पदार्थ में कैसे अंतर किया जाए? ‘अर्जक संघ’ की दार्शनिकी के अनुसार, ‘निर्जीव पदार्थ वह होता है जिसकी गतिशीलता बाहरी कारणों द्वारा नियंत्रित होती है।  उसपर स्वयं पदार्थ का कोई नियंत्रण नहीं होता।  प्रकृति ने जैसा उसे बनाया है, वैसा बने रहना, उसकी नियति है।  इसलिए गतिमान रहकर भी वह अपनी प्रकृति में स्थिर होता है।  इसलिए उसे निर्जीव पदार्थ कहा जाता है।  जीव पदार्थ वे हैं जो कम या ज्यादा अपनी गतियों पर नियंत्रण रखने का गुण रखते हैं।  समय के साथ इस गुण में बदलाव होता रहता है।  निर्जीव पदार्थ में अपेक्षाकृत जड़ता बनी रहती है।  ‘अर्जक संघ’ के अनुसार जीव वह है जो अपने अंदर ऊर्जा का उत्पादन, उत्पादित ऊर्जा की मदद से आवश्यक अणुओं का उत्पादन और प्रजनन कर सके।  ये गुण मनुष्य में भी हैं, इसलिए मनुष्य स्वयं एक जीव है।  लेकिन प्रकृति का हिस्सा होने के कारण है वह पदार्थ ही है।  हम उसे जैविक पदार्थ भी कह सकते हैं, जो विवेक से काम लेना, अपने अनुभवों और ज्ञान को स्मृति के माध्यम से सहेजना जानता है।

सृष्टि की रचना और विनाश जितना विज्ञान का विषय है उतना ही दर्शनशास्त्र का भी विषय है।  अर्से से दार्शनिक और वैज्ञानिक इसपर चर्चा करते आए हैं।  आस्थावादियों के अनुसार सृष्टि की रचना का एकमात्र  स्रोत और कर्ता ईश्वर है।  वही सृष्टि को बनाता मिटाता रहता है।  परमात्मा या ईश्वर क्या है, इसके बारे में हर धर्म ने अपनी-अपनी धारणाएं गढ़ रखी हैं।  वे धर्म इसलिए हैं क्योंकि उनकी धारणाओं में आसानी से बदलाव नहीं होता।  पीढ़ी दर पीढ़ी लोग उनपर विश्वास करते रहते हैं।  भौतिकवादी या विज्ञानवादी की दृष्टि में परमात्मा जैसे मिथ के लिए कोई जगह नहीं है।  प्रकृति स्वयं ही अपना परमात्मा है।  वही खुद को बनाती और मिटाती है।  प्रकृति सनातन है।  उसकी आंतरिक और बाहरी हलचलों से जीवन बनता और मिटता रहता है।  यह सृष्टि के प्रति भौतिकवादी दृष्टिकोण है।  जिसकी विशेषता है कि वह जड़ नहीं है।  कल को यदि विज्ञान जीवन की उत्पत्ति के बारे में नए निष्कर्ष तक पहुंचता है तो प्रकृतिवादी को अपना निर्णय में संशोधन करते में देर न लगेगी।  

अर्जक संघ तर्क और विवेक बुद्धि पर जोर देता है।  विवेकबुद्धि और कुछ नहीं, तर्कसंगत सोचने की कला और सामथ्र्य है।  जिस तरह चेतना पदार्थ का गुण है, वैसे ही विवेक बुद्धि मनुष्य का गुण है।  तो क्या जानवरों में भी बुद्धि होती है? इसका उत्तर नकारात्मक है।  यह स्थापित तथ्य है कि धरती पर मनुष्य अकेला विवेकशील प्राणी है।  लेकिन भूख लगने पर भोजन तो पशु भी मांगते हैं।  प्यास लगने पर वे पानी की ओर चल पड़ते हैं।  फिर मनुष्य और शेष प्राणियों की बुद्धि में क्या अंतर है।  ‘अर्जक संघ’ ने बुद्धि को सहज बुद्धि और विवेक बुद्धि में बांटा है।  सहज बुद्धि वह है तो शरीर की मूल-भूत आवश्यकताओं द्वारा संचालित होती है।  भूख लगने पर नन्हा शिशु रोने लगता है।  वह भूख के बारे में नहीं जानता।  रोने का अर्थ भी नहीं जानता।  लेकिन अपने अनुभव से वह इतना समझ चुका होता है कि उसका रोना सुनकर ‘मां’ उसे भोजन देने चली आएगी।  यह उसकी सहज बुद्धि है।  मनुष्य को छोड़कर सभी रेंगने वाले प्राणी जो उड़ने में असमर्थ होते हैं, तैरने का हुनर उन्हें सहज-बुद्धि से प्राप्त होता है।  धीरे-धीरे बिना बताए भी मनुष्य यह समझ लेता है कि नदी में हाथ-पांव मारने से शरीर गतिमान होने लगता है।  इसी को तैरना कहा जाता है।  

सहज बुद्धि के लिए बाहरी मदद आवश्यक नहीं है।  प्राणी अकेला ही उसमें निपुण हो जाता है।  जबकि अच्छे-बुरे पर विचार करते हुए समुचित निर्णय लेना विवेक बुद्धि है।  मनुष्य जानवर से इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि उसके पास विवेक होता है।  अपने अच्छे-बुरे का निर्णय कर उसके अनुसार कदम आगे बढ़ा सकता है।  जानवरों में इसका अभाव होता है।  ऐसा मनुष्य जिसके पास कुदरती विवेक बुद्धि है, अगर उसका प्रयोग न करे तो वह जानवरों से बदतर ही माना जाएगा।  बावजूद इसके किसी भी स्थिति में मनुष्य जानवर नहीं बन सकता।  क्योंकि मनुष्य होने के कारण विवेक बुद्धि उसको बाकी जानवरों से, जिनके पास केवल सहज बुद्धि है, अलग करती है।  फिर ऐसा क्या है? जिससे मनुष्य की रक्षा और उन्नति हो? कोई भी व्यक्ति अपनी रक्षा के साथ अपने वांछित जीवन लक्ष्यों भी प्राप्त कर सके? इसका उत्तर है, मनुष्य विवेक वुद्धि के प्रयोग द्वारा अपनी ओर दूसरों की रक्षा एवं उन्नति कर सकता है।  मनुष्य का यही गुण बाकी प्राणियों से उसे अलग कर देता है।  

फिर मन और बुद्धि में क्या अंतर है? कहीं ऐसा तो नहीं जिसे विवेक-बुद्धि कहा गया है, वह मन की गतिशीलता का ही परिचायक हो।  अर्जक संघ की दार्शनिकी के अनुसार मन की प्रत्येक स्थिति विवेक को जन्म देती है।  अगर विवेक कुंठित हो, आदमी जानबूझकर उससे काम लेना बंद कर दे, या बहकावे में आकर विवेक के विपरीत जाने लगे तो दुर्बुद्धि पैदा होती है, जो व्यक्ति को कु-मार्ग की ओर ले जाती है।  विवेकशीलता की क्षमता सभी मनुष्यों में बराबर होती है।  व्यक्ति अपने विवेक सामथ्र्य का उपयोग कर दार्शनिक, वैज्ञानिक, भारवाहक, डाॅक्टर, वकील आदि कुछ भी बन सकता है।  इसलिए वह बाकी प्राणियों से श्रेष्ठ है।  जानवर जिनके पास केवल सहज-बुद्धि है, वे अपना स्वाभाविक जीवन तो जी सकते हैं, विवेक के अभाव में प्रगति नहीं कर सकते।

आवश्यक नहीं कि प्रत्येक दर्शन के पास हर उत्तर का जवाब हो।  ऐसी कामना भी नहीं करनी चाहिए।  यह भी संभव नहीं कि किसी दार्शनिक संप्रदाय की प्रत्येक मान्यता हमें आश्वस्त करे।  इस मायने में बुद्ध सचमुच समझदार थे।  उन्होंने शताब्दियों से उलझे हुए सवालों को टाल दिया था।  ईश्वर है या नहीं? आत्मा का अस्तित्व क्या है? सृष्टि का जन्म कैसे हुआ? प्रलय कैसे और क्या होती है? बुद्ध ने इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं दिया।  जब जीवन की समस्याएं ही इतनी अधिक हैं तो जो दृश्यमान नहीं है, जो मनुष्य के बस से बाहर है, उसके बारे में चिंता क्यों की जाए? लेकिन जिज्ञासा तो जिज्ञासा है।  सृष्टि कैसे जन्मी? प्रलय कैसे होती है? ये सब सवाल कभी न कभी तो मनुष्य के दिमाग में आते ही हैं।  रामस्वरूप वर्मा का दृष्टिकोण विज्ञानवादी था।  वे विज्ञान की छांह में ही इन प्रश्नों का समाधान खोजते हैं।  उनके अनुसार पदार्थ अपनी अंतश्चेतना के कारण, गति के कारण जब अंतरिक्ष में फैलने लगता है तो सृष्टि होती है।  और अपने ही आंतरिक बल के कारण, गुरुत्वाकर्षण के कारण जब सिकुड़ने लगता है तो प्रलय आ जाती है।  

आवश्यक नहीं कि जीवन और सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़ा ये प्रश्न और उनके व्यावहारिक उत्तर आपको आश्वस्त ही करंे।  रामस्वरूप वर्मा का उद्देश्य कोई धार्मिक या दार्शनिक मत या संप्रदाय चलाना नहीं था।  जिन लोगों ने इन सवालों की खोज में सहòाब्दियां लगा दीं, उनके मत का क्या हुआ।  खुद को सबसे पुराना, सनातन कहने वाला हिंदू धर्म ही सबसे ज्यादा कुरीतियों का वाहक बना हुआ है।  इसलिए आवश्यक नहीं कि हर नए मत संप्रदाय के पास जीवन और सृष्टि से जुड़े सभी प्रश्नों का उत्तर हो।  हमने पहले भी कहा है कि ‘अर्जक संघ’ को धार्मिक संप्रदाय न होकर महज जीवन शैली है।  मनुष्य पर मनुष्य के भरोसे को, आपसी सहयोग को बढ़ावा देने वाली जीवन-शैली।  यही मानवधर्म है।  जो मनुष्य और उसके कर्तव्यों के बीच आत्मा, परमात्मा, पाप, पुण्य, धर्म-अधर्म को ले आते हैं, वे दरअसल आदमी को भरमाए रखकर अपना उल्लू सीधा करने का काम करते हैं।  असली मजहब इंसानियत है।  इसका उद्देश्य है विकास के रास्ते में सभी को बराबरी पर लाना।  ‘अर्जक संघ’ में जातीयता का बंधन नहीं है।  अर्जक यानी कमेरी (श्रमशील) कौम, जो पसीना बहाकर आजीविका कमाता है—वह अर्जक है।  जो दूसरे के श्रम पर जीता है, वह ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद का पोषक है।  सनातन विचारधारा के उलट अर्जक केवल दो संस्कारों को मानते हैं—विवाह और मृत्यु संस्कार।  शादी के लिए लड़का-लड़की संघ की पहले से तय प्रतिज्ञा को दोहराते हैं और एक-दूसरे को वरमाला पहनाकर शादी के बंधन में बंध जाते हैं।  मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार मुखाग्नि या दफनाना तो होता है।  इसके 5 या 7 दिन बाद दिवंगत की याद में एक शोकसभा होती है, जो सामाजीकरण की आवश्यकता है।  बाकी कर्मकांडों के लिए उनके यहां कोई स्थान नहीं है।  

बहुजन चेतना का निर्माण और अर्जक संघ

मनुष्य को धर्म क्यों चाहिए? किसलिए चाहिए? धर्म है तो क्या ईश्वर भी आवश्यक है? क्या बगैर ईश्वर के धर्म चल नहीं सकता? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जो आरंभ से ही मानवीय सरोकारों का हिस्सा रहे हैं।  इसी के साथ एक और भी सवाल है? क्या दलित और बहुजन के लिए भी धर्म उतना ही अपरिहार्य है, जितना वह ब्राह्मण के लिए है? इस प्रश्न का तुरंता जवाब यह हो सकता है कि ईश्वर जात-पात का भेद नहीं करता।  उसकी निगाह में सभी बराबर हैं।  हालांकि व्यवहार में यह बात सच नहीं बैठती।  धार्मिक व्यवस्थाएं ब्राह्मण और अछूत के लिए अलग-अलग हैं।  ब्राह्मण धर्म का प्रमुख कर्ता है।  जबकि अछूत को ईश्वर का सान्निध्य तो दूर, मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने तक का अधिकार प्राप्त नहीं है।  इसलिए धर्म और ईश्वर का चरित्र वैसा नहीं है, जैसा उसके बारे में दावा किया जाता है।  दोनों सीधे-सीधे अलोकतांत्रिक सत्ताएं हैं।  वहां ब्राह्मण जो धर्मसत्ता के केंद्र में है, सबसे शक्तिशाली है।  उसके अधिकार भी उतने ही अधिक हैं।  सत्ता से दूरी के साथ अधिकार और शक्तियां कमजोर पड़ती जाती हैं।  अछूत और आदिवासी वहां हाशिये के लोग हैं जो शक्ति और अधिकार दोनों से विपन्न हैं।  

अर्जक संघ समानता, स्वतंत्रता और लोकतंत्र का समर्थक है।  वह जन्माधारित भेदभाव को नहीं मानता।  बहुजन कमेरे वर्गों का समूह है, जो समाज के प्रमुख उत्पादक और जीवनी शक्ति हैं।  अर्जक संघ बौद्धिक श्रम और शारीरिक श्रम को बराबर मानता है।  वह श्रम के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव के विरुद्ध है।  वह शिक्षा, रोजगार तथा संसाधनों में सभी की समान भागीदारी का समर्थक है।  वह मानवीय विवेक का समर्थक है।  ऐसे धर्म जिसकी नींव कोरे विश्वास पर टिकी होती है का वह बहिष्कार करता है।  इसके स्थान पर वह मानवधर्म की बात करता है, जिसके अनुसार जन्म के आधार पर न कोई छोटा होता है, न बड़ा। कुल मिलाकर  ‘अर्जक संघ’ ठीक वैसे ही समाज की कामना करता है, जो बहुजन समाज का सपना है।  इसलिए बहुजन समाज उससे आवश्यकतानुसार प्रेरणा ले सकता है।

ओमप्रकाश कश्यप

मदर इंडिया : ईमानदार गटर इंस्टपेक्टर की साहसिक रिपोर्ट

विशेष रुप से प्रदर्शित

समीक्षा

यह पुस्तक चतुराईपूर्वक और जोरदार ढंग से लिखी गई है. सावधानी पूर्वक चुने गए उद्धरण एक सत्य से भरपूर पुस्तक के प्रति मिथ्याभास कराते हैं. इसे पढ़ते हुए जो प्रभाव मेरे मस्तिष्क पर पड़ता है, वह यह है कि यह पुस्तक एक नाला इंस्पेक्टर की रिपोर्ट है, जिसे उसने हमारे पास इसलिए भेजा गया है, ताकि देश के जितने गंदे नाले हैं, उन्हें खोलकर उनका निरीक्षण कर सकें, अथवा उन खुले नालों से रिसती गंदगी का प्रामाणिक चित्रण कर सकें. यदि मिस मेयो यह स्वीकार करती हैं कि वे इस देश के गंदे नालों को खोलने और उनका निरीक्षण करने के सच्चे इरादे से भारत आई है, तो इस पुस्तक से कोई शिकायत नहीं होगी. लेकिन उसने इसे घिनौना बताकर गलत निष्कर्ष पेश करते हुए किंचित जोश में कहा है—’गंदे नाले ही भारत हैं.’ —मोहनदास करमचंद गांधी मेयो की पुस्तक ‘मदर इंडिया’ पर.


बहुत कम पुस्तकें ऐसी होती हैं, जिन्हें आलोचना और सराहना भारी तादाद में, मगर समानरूप से प्राप्त होती हैं. कैथरीन मेयो की ‘मदर इंडिया’ ऐसी ही पुस्तक है. हाल ही में सुप्रतिष्ठित दलित लेखक-विचारक कंवल भारती ने उसका हिंदी अनुवाद किया है, जिसे ‘फारवर्ड प्रेस’ ने प्रकाशित किया है. पुस्तक का समग्र और संतुलित हिंदी अनुवाद आते-आते लगभग 90 वर्ष बीत चुके हैं. हालांकि इससे पहले भी पुस्तक में हिंदी अनूदित हो चुकी थी. लेकिन अनुवादकीय संतुलन, भाषायी धैर्य तथा निष्पक्षता के अभाव में पिछले अनुवाद को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता. दरअसल, पुस्तक के कथ्य की गहराइयों में पैठने के लिए जो संवेदनशीलता चाहिए, उसका तत्कालीन लेखकों-बुद्धिजीवियों में अभाव था. उसे देखते हुए तब इसका संतुलित अनुवाद आ ही नहीं सकता था. इस तरह कंवल भारती ने बड़े अभाव की पूर्ति की है. मूल पुस्तक ‘ब्लू रिबन बुक्स, न्यूयार्क’ से प्रकाशित हुई थी. छपने के साथ ही उसे विवादों ने घेर लिया था. अधिकांश आलोचकों का कहना था कि पुस्तक की रचना भारत को बदनाम करने के लिए की गई है. अपनी भारत यात्रा के बारे में मेयो का दावा था कि यह एकदम स्वतंत्र, एक ऐसे व्यक्ति का यात्रा-विवरण है, जो इस देश को करीब से देखना-समझना चाहता है. आलोचकों का दावा है कि मेयो के औपनिवेशिक सरकार के केंद्रीय खुफिया विभाग से सीधे संबंध थे. दोनों के बीच पत्र-व्यवहार भी था. उसने ही मेयो से भारतीय परंपराओं और सामाजिक स्थिति पर पुस्तक तैयार करने का आग्रह किया था, ताकि गांधी, जो उन दिनों देश की स्वाधीनता के लिए भारतीयों को एकजुट करने में लगे थे—को जवाब दिया जा सके.

बहरहाल, समर्थन और विरोध, जिसमें विरोध की मात्रा कहीं अधिक थी—के बीच पुस्तक की ख्याति-कुख्याति इतनी बढ़ी कि इसकी प्रतिक्रिया में न केवल अंग्रेजी और हिंदी, अपितु तमिल, बांग्ला, उर्दू आदि में अनेक पुस्तकें लिखी गईं. मूल कृति के विरोध और समर्थन में लिखी गईं महत्त्वपूर्ण पुस्तकों और पर्चों की संख्या पचास से भी अधिक थी। आलोचना में लिखी गई प्रमुख पुस्तकों में दलीप सिंह सौंद की ‘माय मदर इंडिया’, धनगोपाल मुखर्जी की ‘ए सन ऑफ मदर इंडिया आन्सवर’, के. नटराजन की ‘ए रिजॉइंडर टू मिस मेयो मदर इंडिया’ तथा श्रीमती चंद्रवती लखनपाल की ‘मदर इंडिया का जवाब’ शामिल हैं. महाकाव्यीन शैली में बनाई गई महबूब खान की बहुचर्चित फिल्म ‘मदर इंडिया’ भी कैथरीन मेयो की पुस्तक का जवाब देने के लिए बनी थी. पुस्तक को लेकर भारत में हो रही जबरदस्त प्रतिक्रियाओं के जवाब में हेरी एच. फील्ड ने मेयो का बचाव करने हुए ‘आफ्टर मदर इंडिया’(1929) की रचना की थी. देश-विदेश में पुस्तक की प्रतियों के साथ मेयो के पुतले का दहन किया गया था. पुस्तक के प्रति भारतीयों की तीव्र नाराजगी को देखते हुए 1936 में, तत्कालीन सरकार ने उसे भारत में लाने पर पाबंदी लगा दी थी. मगर तब तक पुस्तक की लाखों प्रतियां यूरोप और अमेरिका में बिक चुकी थीं. मुफ्त में बंटवाई गई प्रतियों की संख्या इससे अलग थी. अकेले अमेरिका में ही ऐसी पचास हजार से अधिक प्रतियां बंटवाई जा चुकी थीं. अधिकांश आलोचकों का विचार था कि मेयो ने भारतीय समाज की छिछली और पक्षपातपूर्ण आलोचना कर अपनी औपनिवेशवादी दृष्टि का परिचय दिया है. कुछ लोगों ने मेयो पर साम्राज्यवादी तथा रंगभेदी होने का आरोप भी लगाया था. पुस्तक में ऐसे कई वर्णन हैं, जहां यह आरोप सही प्रतीत होता है. पुस्तक को मिली अप्रत्याशित चर्चा के पीछे क्या यही कारण था? यदि नहीं तो इस पुस्तक में आखिर ऐसा क्या था, जिससे भारतीय नेता और बुद्धिजीवी एकसाथ तिलमिला उठे थे. इसे समझना कठिन नहीं है. मेयो पुस्तक की शुरुआत जिस अध्याय से करती हैं, उसका शीर्षक है—मांडले की बस. बस में उसका सहयात्री है—हलदार. एक ब्राह्मण पुजारी. पहले अध्याय से ही लेखिका पाठक को बांध लेती है. लेखन की बेबाक शैली, आंखों देखे को न्यूनतम शब्दों तथा आसान भाषा में पाठक के सामने उतार देने की खूबी—इस पुस्तक को पठनीयता प्रदान करती है. अनुवाद में इसे ज्यों का त्यों सहेजा गया है. इसके लिए अनुवादक की सराहना करनी होगी.

‘मदर इंडिया’ मुख्यतः चार हिस्सों में बंटी है. पहले हिस्से में मेयो सामाजिक रूढ़ियों और अंधविश्वासों का वर्णन करती हैं. उनका विवरण इतना जीवंत है कि कई स्थान पर वह जुगुप्सा उत्पन्न करता है. भारत के गरीब, अशिक्षित जनों की दुर्दशा तथा उनका रूढ़ि-प्रेम देख पाठक सिहर उठता है. पुस्तक के आलोचकों में उस समय के बड़े नेताओं के अलावा स्वयं गांधी भी सम्मिलित थे. हालांकि मेयो ने उनका उल्लेख करते समय अपेक्षित तटस्थता बरती है. मगर गांधी ने पुस्तक को बिना पूरा पढ़े ही उसे ‘नाली इंस्पेक्टर की रिपोर्ट’ कहकर नकार दिया था. पुस्तक के पहले अध्याय से ही पता चल जाता है कि लेखिका अपने यथार्थवादी वर्णन को कहां तक ले जा सकती है; और गांधी की नकारात्मक टिप्पणी का रहस्य क्या है! पुस्तक जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, लगने लगता है कि गांधी ने अनजाने में ही सही, पुस्तक को लेकर एकदम सही बात कह दी थी. ‘ड्रेन’ कहकर उन्होंने भारतीय समाज के जिन अंधकूपों की ओर संकेत किया था, वे काल्पनिक या मेयो के दिमाग की उपज न होकर(आज भी), इसी जीते-जागते भारतीय समाज का हिस्सा हैं. परंपरा और संस्कृति के नाम पर लोग उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी सहेजते आ रहे हैं. प्रकारांतर में गांधी की आलोचनात्मक टिप्पणी भी ‘मदर इंडिया’ का परोक्ष समर्थन करने लगती है.

शुरुआत कलकत्ता से होती है. मेयो आरंभ में ही भारतीय समाज के वर्गीय विभाजन की ओर इशारा कर देती हैं. वह जातीय ही नहीं आर्थिक भी है. या यूं कहें कि घोर जातीय है, इस कारण वह आर्थिक भी है. कलकत्ता के उजले, विकासमान और दिपदिपाते चेहरे का वर्णन वह इस प्रकार करती हैं—‘कलकत्ता भव्य और बनावटी शहर है, जहां सभी धर्मों और रंगों के बनावटी लोग गवर्नमेंट हाउस की गार्डन पार्टियों में जाते हैं. अंग्रेज लाट साहबों सलाम ठोकते हैं. बढ़िया अंग्रेजी बोलते हैं. चाय पीते हैं, आइसक्रीम खाते हैं और सेना का बैंड सुनते हैं.’ उनका कलकत्ता विश्व और भारत के व्यापार का विशाल मुक्त द्वार है. उसमें सबकुछ है—‘आधुनिक इमारतें, राष्ट्रीय स्मारक, पार्क, बगीचे, अस्पताल, संग्रहालय, विश्वविद्यालय, न्यायालय, होटल, कार्यालय, दुकानें, और वह सब कुछ, जो एक समृद्ध अमेरिकी शहर में होता है.’ कलकत्ता का दूसरा चेहरा भारतीय समाज और बाकी शहरों की तरह ही उलझा और मटमैला है. दूसरे भारतीय नगरों की तरह उसमें भी मंदिर, मस्जिद, बाजार, करीने से काटे-छांटे गए मैदान और गलियां हैं. ‘चौराहों, गलियों तथा बाजारों में किताबों की छोटी-छोटी दुकानें हैं, जहां सुस्त चाल वाले, कमजोर नजर वाले और बीमार कद-काठी वाले नौजवान भारतीय छात्रों के झुंड अपनी देशी पौशाकों में रूसी साहित्य के ढेर पर ऐसे टूटे पड़ते हैं, जैसे मक्खियां भिनभिना रही हों(पृष्ठ 19).’ मेयो ने ‘बनावटी’ लोगों की पोशाक का सीधे उल्लेख नहीं किया है. पाठक खुद-ब-खुद समझ जाता है कि वे गवर्नमेंट हाउस की पार्टियों में जाने वाले वही लोग रहे होंगे, जो सत्ता के इर्द-गिर्द रहकर सदैव स्वार्थ-सिद्धि करते आए हैं. कोलकाता भारत के प्रथम औद्योगिक शहर के रूप में पनपा था. उसमें अनियोजित विकास से जुड़ी वे सभी कमजोरियां थीं, जिनसे अनुप्रेत होकर मार्क्स ने ‘पूंजी’ जैसा महाग्रंथ रचा था. 

पुस्तक में विधवा विवाह, बालविवाह, धर्म के नाम पर पाखंड, रूढ़िप्रेम, तंत्र-मंत्र, बलिप्रथा आदि के माध्यम से भारतीय महिलाओं और दलितों की दयनीय अवस्था के दिल-दहलाते वाले दृश्य हैं. इतने प्रामाणिक कि मेयो की आलोचना करते हुए चंद्रवती लखनपाल ने जहां उखड़ी हुई भाषा में कई जगह कुतर्क किए हैं, भारतीय स्त्रियों की दुर्दशा को पश्चिमी देशों में स्त्री की दुर्दशा के साथ तुलना कर, हालात का सामान्यीकरण करने की कोशिश की गई है—वहीं कई स्थानों पर मेयो को लगातार कोसने के बावजूद, वह उससे सहमत दिखाई पड़ती हैं. उदाहरण के लिए हिंदू समाज में विधवाओं की दुर्दशा का वर्णन करते हुए वे मेयो को कोई जवाब नहीं दे पाती. केवल उसके तथ्य को ज्यों का त्यों पेश कर देती हैं—‘‘भारत में विधवाओं की दुर्दशा अवश्य की जाती है; और उसके प्रायश्चित में उसे ‘मदर इंडिया’ जैसे थप्पड़ भी खाने पड़ते हैं. स्त्रियों के प्रति हिंदुओं की हृदयहीनता का मर्मभेदी वर्णन करते हुए मिस मेयो लिखती है—‘जब सती प्रथा को हटाए जाने का ब्रिटिश-सरकार प्रयत्न कर रही थी, उस समय इस घृणित प्रथा को वैसे का वैसा बनाए रखने के लिए इन लोगों ने प्रिवी काउंसिल के दरवाजों तक को खटखटाया था. इस समय भी बालविवाह तथा दहेज आदि कुप्रथाओं के दैत्यों पर कई लड़कियां जीती-जाग्रत साड़ी में आग लगाकर बलि चढ़ गई हैं. परंतु अब भी इस हत-भाग्य देश में, ऐसे लोग मौजूद हैं, जो इन दृष्टांतों से सबक सीखने के स्थान पर बालिका के मृदुल अंगों से उठती लपटों को देखकर उनमें सतीत्व की ज्योति झलकती देखते और हर्ष के आंसू बहाते हैं! 1925 में भारतवर्ष में 2,68,34,838—अढ़ाई करोड़ से ज्यादा विधवाएं मौजूद थीं.’’(मदर इंडिया का जवाब, पृष्ठ 47, दूसरा संस्करण, संवत 1885).

एक अन्य स्थान पर वह मेयो से सहमत होते हुए लिखती हैं—‘मेयो स्वयं एक स्त्री है. इसलिए स्वाभाविक तौर पर उसका ध्यान स्त्रियों की ओर अधिक खिंचा है. हमने स्त्रियों की दुर्गति भी कम नहीं कर रक्खी. ‘स्त्रीशूद्रैनाधीयाताम’ का जयघोष करने वालों को वह याद दिलाती है कि 1911 में 1000 में से 10 स्त्रियां अक्षर पढ़ना जानती थीं, 1921 में 1000 में से 18 को अक्षरबोध था और 1925 में 1000 में यह संख्या 20 हो गई….हम लोगों में स्त्रियों को शिक्षा देने की प्रवृत्ति ही नहीं है.’(पृष्ठ 54).

ऐसा नहीं है कि भारतीय स्त्री की दुर्दशा के जो बिंब मिस मेयो ने पुस्तक में उकेरे हैं, उनकी ओर से भारतीय नेता और बुद्धिजीवी एकदम अनजान हों. भारतीय समाज की उन भयावह विकृतियों पर विधायिकाओं में लंबी बहसें होती थीं. नेताओं की समय-समय पर टिप्पणियां, अखबारों में आलेख भी आते थे. लेकिन उस समय के अधिकांश बड़े नेता, बुद्धिजीवी भारतीय सभ्यता की कथित महानता के नाम पर, उन्हें किसी न किसी रूप में सहेजे रखना चाहते थे. उनपर सरसरी टिप्पणियां पुस्तक में जगह-जगह मौजूद हैं. ध्यातव्य है कि भारत में व्याप्त जातिप्रथा, स्त्रियों की दुर्दशा, धर्म के नाम पर पोंगापंथी, बलिप्रथा के नाम पर निरीह पशुओं पर क्रूर अत्याचार, अशिक्षा और गरीबी के ऊपर उससे पहले भी कई पुस्तकें आ चुकी थीं. विधानसभाओं और परिषदों में होने वाली बहसों और उनकी सालाना रिपोर्ट भी दुनिया के सामने थीं. मेयो ने अपने तथ्य और आंकड़े उन्हीं जुटाए थे. कार्ल मार्क्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश रूल इन इंडिया’(1853) कैथरीन मेयो की पुस्तक के लगभग 72 वर्ष पहले प्रकाशित हो चुकी थी. उसमें अंग्रेजों द्वारा भारत की लूट के साथ-साथ भारतीय समाज की दुरावस्था तथा दास मनोवृत्ति की आलोचना की गई थी. मेयो ने अपनी पुस्तक में दिया था कि किस प्रकार भारत में रह रहे कुल 67432(सैन्यबल 60000, सिविल सेवा 3432 तथा पुलिस 4000, पृष्ठ 33) अंग्रेज, लगभग 25 करोड़ भारतीयों पर हुकूमत जमाए हुए हैं. मार्क्स ने अपने भारत विषयक लेखों में इस तथ्य को भिन्न-भिन्न तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया है. ‘आधुनिक भारत का इतिहास’ में डॉ. विपिन चंद्र ने लिखा है कि 1857 में भारतीय सेनाओं में कुल मिलाकर 3,11,400 सैनिक और अधिकारी थे. उनमें से भारतीयों की संख्या 2,65,900 थी. यूरोपीय सैनिकों की कुल संख्या 45,500 यानी उनके कुल सैन्यबल का मात्र 15 प्रतिशत थी. बाकी क्षेत्रों में उससे कहीं कम अंग्रेज थे. भारत की कुल जनसंख्या के सापेक्ष यहां आधा प्रतिशत से भी कम अंग्रेज थे, लेकिन वे 25 करोड़ से अधिक भारतीयों पर राज करते थे. यह केवल ऐसे समाज में संभव था, जहां लोगों के हितों में एका न हो. लोग अपने स्वार्थ के आधार पर बंटे हों. भारतीय समाज में तो जाति-प्रथा के नाम का कलंक हजारों वर्षों से छाया हुआ था. भारत में तथाकथित सवर्णों के संभ्रांत हिस्से ने बहुसंख्यक दलितों और पिछड़ों को अलग किया हुआ था. बंटे हुए समाज में मुट्ठी-भर चालाक आत्ममुग्धता के साथ जीवनयापन करते थे. सारे संसाधन, वैभव और भोग-विलास उनके कब्जे में थे. बाकी जनसमाज की उन्हें चिंता न थी. न उन्हें जीवन के सामान्य अधिकार और सुख प्राप्त थे. स्त्रियों की दुर्दशा पर मेयो को आंसू बहा-बहाकर कोसने वाली चंद्रवती लखनपाल मेयो द्वारा दलितों की दुर्दशा पर कोई टिप्पणी नहीं करतीं. गोया वे उसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेती हैं. या फिर बाकी सवर्ण लेखकों की भांति दलितों की समस्या, उनका दैन्य और दुर्दशा उनके लिए कोई समस्या थी ही नहीं. लेकिन मेयो ने भारतीय समाज की इस कुरूपता का यथा-तथ्य वर्णन किया है. ‘मद्रास आदि द्रविड़ सभा’ जो मद्रास प्रेसीडेंसी में 60 लाख जनजातियों का प्रतिनिधित्व करती थी, को उद्धृत करते हुए उन्होंने लिखा है—‘हिंदुओं की जाति-व्यवस्था हमें अछूतों के रूप में कलंकित करती है. फिर भी सवर्ण हिंदू हमारी सहायता के बिना नहीं रह सकते. हम जो श्रम करते हैं, वे उसी का फल खाते हैं. पर, वे बदले में हमें सिर्फ जूठन देते हैं.’ (पृष्ठ-151)

आज भाजपा और संघ दलितों को हिंदू धर्म का हिस्सा बताते हैं. जातीय उत्पीड़न का शिकार होकर दूसरे धर्मों की ओर पलायन कर चुके दलितों की घर-वापसी की बात करते हैं, तो इसलिए कि उनके सामने मुस्लिमों के आगे अल्पसंख्यक हो जाने का खतरा उनके सिर पर खड़ा है. जबकि सौ वर्ष पहले तक दलितों के बड़े हिस्से को अछूत बताकर उन्हें हिंदू धर्म से बाहर रखा गया था. सवर्ण उन्हें हिंदू मानने को तैयार ही नहीं थे. मेयो के शब्दों में, भारत की 24.70 करोड़ जनता में से लगभग 25 प्रतिशत अर्थात छह करोड़ लोग अनंतकाल से अशिक्षित बनाकर रखे गए हैं. और साथ ही उन्हें उनके ही भारतीय भाइयों ने मनुष्य से भी गिरा हुआ बनाकर रखा गया है. अवश्य ही यदि भारत में कोई रहस्य है, तो वह इस बात में है कि भारतीय कोई मनुष्य या कोई समाज या कोई राष्ट्र किसी भी परिस्थिति में, कहीं भी भारतीयों को यह याद दिलाए कि भारत में छह करोड़ देशवासी ऐसे हैं जिन्हें तुमने मनुष्य होने के सामान्य अधिकार देने से भी मना कर दिया है. तो वे पलटकर उस मनुष्य, समाज या राष्ट्र पर जातीय पक्षपात का दोष लगा देते हैं.’(पृष्ठ 135).

पुस्तक में स्त्रियों और दलितों की दुर्दशा के दिल दहलाने वाले विवरण जगह-जगह पर हैं—‘उनके(दलितों) के बच्चे स्कूलों में पढ़ नहीं सकते. वे सार्वजनिक कुओं से पानी नहीं ले सकते. और यदि वे ऐसी जगह रहते हैं, जहां पानी उपलब्ध नहीं है तो उन्हें दूर से लाना पड़ता है….वे किसी अदालत में प्रवेश नहीं कर सकते. बीमार पड़ने पर अस्पताल नहीं जा सकते. और किसी सराय में नहीं ठहर सकते. कुछ प्रांतों में वे सार्वजनिक सड़कों पर भी नहीं जा सकते. और मजदूर या किसान के रूप में भी हमेशा उन्हीं को नुकसान उठाना पड़ता है. क्योंकि, वे न तो दुकानों पर जा सकते हैं और न ही उन सड़कों से गुजर सकते हैं, जहां दुकानें होती हैं. इसलिए उन्हें अपना सौदा बेचने या खरीदने के लिए दलालों पर निर्भर होना पड़ता है. इनमें कुछ इतने पतित हैं, उनसे कोई काम नहीं लिया जाता है. वे कुछ बेच नहीं सकते. यहां तक कि मजदूरी भी नहीं कर सकते. वे केवल भीख मांग सकते हैं. और भीख मांगने के लिए भी वे सड़क पर चलने का साहस नहीं कर सकते. उन्हें सड़क से दूर ऐसी जगह—जहां से कोई देख न सके—पर खड़े होकर गुजरने वाले लोगों से चिल्लाकर भीख मांगनी पड़ती है. यह भीख भी उन्हें सड़क से थोड़ा हटकर जमीन पर फेंक दी जाती है. यह भीख भी वे तब तक नहीं उठा सकते जब तब कि भीख फेंकने वाला दृष्टि से ओझल नहीं हो जाता.’ (पृष्ठ-137).

पुस्तक की एक खास बात, जिसकी ओर बहुत कम ध्यान दिया गया है—वह है, पुस्तक के आरंभ में दिया गया अछूत स्त्री का चित्र. एक तो स्त्री ऊपर से दलित. चित्र को कैथरीन की मित्र, सहयोगी, मददगार और भारत यात्रा में उसकी सहयात्री मोयका निवेल ने खींचा था. उन दिनों भारत विषयक किसी पुस्तक का आरंभ दलित स्त्री के चित्र से करना बड़ी बात थी. वह भी स्त्री द्वारा. मानो एक पढ़ी-लिखी संभ्रांत महिला दलित स्त्री को अंधियारे से उजाले में ला रही थी. वह अपनी तरह का अलग स्त्री-विमर्श था. बिना किसी नारेबाजी के मेयो दलित स्त्री के बहाने पूरी स्त्री जाति की पीड़ा, उसके संत्रास, घुटन और छटपटाहट को दुनिया के सामने ले आती है. उस समय के बुद्धिजीवियों को तिलमिलाने के लिए यह भी पर्याप्त था. उससे पहले भारत में पुस्तकों पर या तो लेखक का चित्र होता था; अथवा आशीर्वाद कामना के साथ किसी देवता या साधु-संत के दर्शन. दलित महिला के चित्र को पुस्तक में जगह देकर कैथरीन ने उस परंपरा को उलट दिया था. आगे के अध्यायों में जब वह भारतीय स्त्री की दुर्दशा का बयान करती है, तो उसका वर्णन केवल चित्र में दिखाई गई अछूत स्त्री तक सीमित नहीं रह जाता, अपितु उसमें पूरी स्त्री-जाति की उपेक्षा, अवहेलना और तिरष्कार प्रतिबिंबित होने लगते हैं.

गौरतलब है कि धर्म तथा तत्संबंधी तरह-तरह के कर्मकांड, जाति के नाम पर समाज का अमानवीय विभाजन जिसके दिल दहलाने वाले विवरण मेयो ने अपनी पुस्तक में किए हैं, के बारे में उपयोगितावादी दार्शनिक जेम्स मिल ने भी ‘हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ में तीखी टिप्पणियां की थीं. बावजूद इसके किसी भी पुस्तक का इतना प्रचार नहीं हुआ था, जितना ‘मदर इंडिया’ को लेकर हुआ. दरअसल पूर्ववर्ती विद्वान, ब्रिटिश सरकार की नीति के तहत आलोचना से बचते थे. अंग्रेजों की नीति थी कि केवल तथ्य रखे जाएं, उन्हें लेकर लेखकीय टिप्पणी अथवा आलोचना से बचा जाए. अंधिकांश पुस्तकें इसी आकादमिक निस्पृहता के साथ लिखी गई थीं. मेयो की पुस्तक में ऐसा नहीं था. पुस्तक एक तरह का यात्रा विवरण है. मेयो जो देख रही हैं, उसी को वर्णित कर रही हैं. लेखिका का साक्षी भाव ही ‘मदर इंडिया’ को महत्त्वपूर्ण बना देता है. पुस्तक में दिए गए तथ्यों की काट मेयो के आलोचकों के पास नहीं थी. वे केवल लेखकीय दृष्टि को पक्षपातपूर्ण बताकर उसके महत्त्व को हल्का करने की कोशिश कर सकते थे. यही उन्होंने किया भी. कुछ हद तक यह अवसर स्वयं मेयो ने भी दिया है. मेयो की औपनिवेशिक दृष्टि जॉन स्टुअर्ट मिल की औपनिवेशिक दृष्टि से मेल खाती है. हालांकि दोनों के बीच लगभग सौ वर्ष का अंतराल है. परंतु संकुचित औपनिवेशिक दृष्टि के बावजूद मेयो ने जो लिखा, वह सत्य से एकदम परे नहीं था. यदि मेयो इस देश पर ब्रिटिश राज को जरूरी मानती थीं तो सवर्णों के अत्याचारों के उत्पीड़न का शिकार रहा दलितों का बड़ा हिस्सा, भी वही चाहता था. अंग्रेजों के आने के बाद ही उन्हें शिक्षा और सामाजिक सम्मान के कुछ अवसर उपलब्ध हुए थे. शताब्दियों से जातीय उत्पीड़न का शिकार रहे दलित सोचते थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद उनसे ये अवसर छिन भी सकते हैं. ‘मद्रास आदि द्रविड़ सभा’ ने तत्कालीन वायसराय को लिखे गए पत्र में लिखा था—‘यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि हम लोग स्वराज के प्रबल विरोधी हैं. हम अपने रक्त की अंतिम बूंद तक अंग्रेजों द्वारा भारत की सत्ता हिंदुओं के हाथों में सौंपे जाने के प्रयास के खिलाफ लडेंगे. क्योंकि, जिन हिंदुओं ने अतीत में हम पर जुल्म किए हैं और आज भी कर रहे हैं, वे सत्ता प्राप्त करने के बाद भी हम पर जुल्म करेंगे. अंग्रेजों के कानून ही हमारे रक्षक हैं. आज भी हिंदू हमारे हितों की उपेक्षा करते हैं, बल्कि हमारे अस्तित्व तक से इन्कार करते हैं. यदि, इनके हाथों में प्रशासन का नियंत्रण आ जाएगा, तो वे हमारे हितों का संवर्धन कैसे कर सकते हैं.’(पृष्ठ 151)

मेयो ने ‘ड्रेन थ्योरी’ पर भी सवाल उठाकर, आंकड़ों के आधार पर उसे गलत सिद्ध करने की कोशिश की थी. उन दिनों भारत में दादा भाई नौरोजी की पुस्तक ‘पावर्टी इन ब्रिटिश इंडिया’ की चर्चा थी. उसमें वर्णित ‘ड्रेन थ्योरी’ के अनुसार ब्रिटिश भारत के कच्चे माल को सस्ते दामों पर अपने देश ले जाकर और बदले में ऊंचे दामों पर अपने उत्पाद भारत लाकर यहां का आर्थिक दोहन कर रहे हैं. मेयो ने तथ्यों के साथ बताया था कि भारत का निर्यात बिट्रिश से अधिक जापान को है. भारत के कपास उत्पादन के खरीदारों की सूची में अंग्रेजी बाजार छठे स्थान पर है. लंकाशायर के करघों के लिए सूत की आपूर्ति अमेरिका और सूडान से की जाती है. ब्रिटेन में भारतीय कपास का उपयोग मुख्य रूप से लैंप की बत्ती बनाने, पोंछा और निम्न श्रेणी के कपड़े बनाने में होता है. अच्छा होता कि मेयो के आलोचक इंग्लेंड और भारत के तत्कालीन आर्थिक संबंधों पर भी विचार करते. लेकिन अर्से तक दादा भाई नौरोजी की पुस्तक ‘पावर्टी इन ब्रिटिश इंडिया’ को ही अंतिम और प्रामाणिक मानते रहना बताता है कि उनके पास मेयो के इन तर्कों का कोई उत्तर नहीं था. मार्के की बात यह भी कि यदि आज निर्यात को आयात से बेहतर माना जाता है तो उन दिनों के निर्यात पर सवाल कैसे उठाए जा सकते हैं? आखिर उन दिनों के भारत के निर्यात बाजार पर अंग्रेजी व्यापारियों के साथ-साथ भारतीय उद्योगपतियों की भी बराबर की साझेदारी थी.

पुस्तक में मेयो ने स्त्रियों और दलितों के अलावा ‘ब्राह्मण’, ‘भारत के राजे-महाराजे’, ‘पवित्र गाय’, अशिक्षा की भयावह स्थिति सहित, स्वास्थ्य सेवा के नाम पर पनप रहे नीम-हकीमों पर विस्तृत और तथ्यपरक टिप्पणियां की हैं. जिससे यह पुस्तक उस समय के भारतीय समाज का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज बन जाती है. उचित तो यही होता कि पुस्तक की तीखी आलोचना करने, उससे तिलमिलाने के बजाए उसे आत्मावलोकन का जरिया बनाया जाता. भारतीय सभ्यता और परंपरा के नाम पर जो सहस्रों अंधकूप बने हैं, उन्हें पाटने की कोशिश की जाती, तब शायद हम मिस मेयो की पुस्तक का सही प्रत्युत्तर दे पाते. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. नए अनुवाद के साथ भी यदि यह संभावना बनती है, तब लगेगा कि आधुनिक भारतीय समाज न केवल अपनी कमजोरियों पर खरी-खरी सुनने का साहस रखता है, अपितु उसमें आत्मावलोकन और आत्मपरिष्करण का साहस भी है.

अंत में केवल यह बात कि इस पुस्तक पर कोई टिप्पणी या समीक्षा उसके सत्व को बाहर नहीं ला सकती. उसके लिए अच्छा यही होगा कि पाठक पुस्तक को स्वयं पढ़ें, समझें और तब सही-गलत जो भी लगे, उसके अनुसार जवाब दें या आत्मसुधार की ओर अग्रसर हों. कंवल भारती ने कैथरीन मेयो की बहुचर्चित पुस्तक ‘मदर इंडिया’ को हिंदी में लाकर, वर्षों पहले छूट गई बहस की नए सिरे से शुरुआत करने का काम किया है. इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं.

ओमप्रकाश कश्यप

अरस्तु तथा उसका न्याय-दर्शन

विशेष रुप से प्रदर्शित

ज्ञान और अध्यात्म के क्षेत्र में गुरुशिष्य परंपरा का महत्त्व बताया गया है. आज भी है. भारत में सैकड़ों आश्रम और धर्मगुरु हैं. उनके लाखोंकरोड़ों भक्त हैं. प्रत्येक गुरु अपने शिष्यों के भौतिकअधिभौतिक उत्थान का दावा करता है. शिष्य भी मानते हैं कि उनके गुरु अनन्य हैं. वे अपने और गुरु के बीच मर्यादा की लकीर खींचे रहते हैं. जिसके अनुसार गुरु की आलोचना करना, सुनना यहां तक कि मन में गुरु के प्रति भूल से भी अविश्वास लाना पाप माना जाता है. इसी जड़श्रद्धा के भरोसे गुरुओं का कारोबार चलता है. उस कारोबार में कभी घाटा नहीं आता. जड़श्रद्धा के बल पर ही गुरु कमाते, भक्त गंवाते हैं. बुद्ध ने जड़श्रद्धा का निषेध किया था. अपने शिष्यों को उन्होंने अपना दीपक आप बनने(अप्पदीपो भव), उनके पंथ पर सोचसमझकर विश्वास करने(एहि पस्सिक) का आवाह्न किया था—

‘जैसे सोने को तपाकर, काटकर और कसौटी पर रगड़कर तरहतरह से उसकी परीक्षा ली जाती है, उसके शुद्ध अथवा मिलावटी होने का निर्णय लिया जाता है, उसी प्रकार हे पंडितो और भिक्षुओ! मेरे वचनों को जांचपरखकर स्वीकार करो. केवल मेरे प्रति सम्मान के कारण उन्हें स्वीकार मत करो.’

सभी धर्मदर्शनों की स्थिति ऐसी नहीं थी. मीमांसक कुमारिल भट्ट को मात्र इस कारण खुद को प्रायश्चिताग्नि के सुपुर्द करना पड़ा था, क्योंकि उन्होंने गुरु की पूर्वानुमति के बिना बौद्ध दर्शन का अध्ययन इसलिए किया था, ताकि शास्त्रार्थ में बौद्ध आचार्यों को पराजित कर वैदिक दर्शनों की श्रेष्ठता सिद्ध कर सकें. उद्देश्य सही था. ज्ञान का भी यही तकाजा था. परंतु तत्कालीन परंपरा को स्वीकार्य न था. कुमारिल अपने उद्देश्य में सफल हुए थे, किंतु गुरुद्रोह के अपराध के प्रायश्चितस्वरूप खुद को अग्निसमर्पित करना पड़ा था. सुकरात, प्लेटो और अरस्तु की गुरुशिष्य परंपरा में अंधश्रद्धा के लिए कोई स्थान न था. तीनों परंपरापोषण के बजाय उसके परिमार्जन पर जोर देते हैं. उसका आदिप्रस्तावक सुकरात खुले संवाद में विश्वास रखता था. यह सुनकर कि लोग उसे यूनान का सर्वाधिक बुद्धिमान प्राणी मानते हैं, सुकरात को अपने ही ऊपर संदेह होने लगा था. संदेह दूर करने के लिए वह एथेंस के वुद्धिमान कहे जाने वाले राजनयिकों, दार्शनिकों और तत्ववेत्ताओं से मिला. अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि वह सचमुच सबसे बुद्धिमान है. इसलिए नहीं कि उसे सर्वाधिक ज्ञान है. वह केवल एक चीज दूसरों से अधिक जानता है, वह है—अपने ही अज्ञान का ज्ञान. ‘मुझे अपने अज्ञान का ज्ञान है’—कहकर उसने खुद को उन दार्शनिकों, विचारकों और तत्ववेत्ताओं से अलग कर लिया था, जिन्हें अपने ज्ञान का गुमान था. उसके लिए ज्ञान से ज्यादा ज्ञानार्जन की चाहत और उसकी कोशिश का महत्त्व था. ज्ञान की मौलिकता के लिए वह संदेह को आवश्यक मानता था. सुकरात की इसी प्रेरणा पर अरस्तु ने मनुष्य को विवेकशील प्राणी माना है. विवेकशीलता में स्वयं अपने ज्ञानानुभवों के पुनरावलोकन की, संदेह की भावना अंतर्निहित है. ज्ञानार्जन के लिए संदेह की अनिवार्यता को रेखांकित करते हुए ग्यारहवीं शताब्दी के फ्रांसिसी विचारक पीटर अबलार्ड ने लिखा था—‘संदेह हमें जांचपड़ताल के लिए प्रेरित करता है. जांचपड़ताल हमें सत्य का दर्शन कराती है.’ ‘सुकरातप्लेटो और अरस्तु’ की त्रयी के विचारों में अंधश्रद्धा के लिए कोई जगह न थी. हालांकि इस विद्वानत्रयी को अनुपम और अद्वितीय मानने पर कुछ लेखकों को ऐतराज है.

‘पाॅलिटिक्स’ का अनुवाद करते समय भोलानाथ शर्मा ने ‘सुकरातप्लेटोअरस्तु’ की त्रयी के समकक्ष ‘पराशरव्यास और शुकदेव’ त्रयी का उदाहरण दिया है. इस निष्कर्ष के पीछे उनके पूर्वाग्रह साफ नजर आते हैं. यह ठीक है कि ‘पराशरव्यास और शुकदेव’ की पितापुत्रपौत्र त्रयी में भी तीनों लेखक थे. पराशर को भारतीय परंपरा में पुराणों के आदिरचियता होने का श्रेय दिया जाता है. बताया जाता है कि व्यास ने महाभारत के अलावा पिता के लिखे पुराणों का पुनर्लेखन कर, उन्हें वह कलेवर प्रदान किया जिसमें वे आज प्राप्त होते हैं. तीसरे शुकदेव ने ‘भागवत पुराण’ लिखकर पुराण साहित्य को समृद्धि प्रदान की थी. बावजूद इसके ये तीनों भारतीय लेखक उस कोटि के मौलिक लेखकविचारक नहीं हैं, जिस कोटि के ‘सुकरातप्लेटो और अरस्तु’ हैं. व्यास की कृति ‘महाभारत’ अवश्य अलग है. उसमें अपने समय का सामाजिकसांस्कृतिक एवं राजनीतिक विमर्श मौजूद है, परंतु जिस महाभारत से हम आज परिचित हैं, वह ईस्वी संवत्सर की शुरुआत के आसपास की कृति है, जब देश में एकराष्ट्र की भावना प्रबल थी. गणतांत्रिक पद्धति पर आधारित छोटेछोटे राज्यों को अनावश्यक मान लिया गया था. एकराष्ट्र अथवा साम्राज्यवादी सोच का उद्भव पूरी दुनिया में लगभग एक साथ हुआ था. भारत में इसका प्रवर्त्तक चाणक्य था, जबकि यूनान में अरस्तु ने सिकंदर की साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं का समर्थन करते हुए उसे एशिया पूर्व के छोटेछोटे देशों को अपने अधीन करने की सलाह दी थी. महाभारत मूलतः धार्मिक ग्रंथ है और उसकी रचना शताब्दियों के अंतराल में एकाधिक लेखकों द्वारा की गई है. दूसरे केवल लेखक होना ही शर्त होती तो एक ही धारा के तीन लेखकों के अनेक उदाहरण दुनियाभर में मिल जाएंगे. यहां कसौटी ज्ञान की विलक्षणता, मनुष्यता के प्रति अगाध निष्ठा तथा एकदूसरे से असहमति जताते हुए उसकी ज्ञानपरंपरा को विस्तृत तथा सतत परिमार्जित करने की है—जिसपर यह दार्शनिक त्रयी विश्वपटल पर अनुपम है. प्लेटो के लेखन के हर हिस्से पर सुकरात की छाप है. इसी तरह अरस्तु के लेखन पर भी प्लेटो का प्रभाव छाया हुआ है, लेकिन प्लेटो सुकरात से तथा अरस्तु प्लेटो से कदमकदम पर असहमति दर्शाते हैं. प्लेटो से अरस्तु की असहमतियों का दायरा तो इतना बड़ा है कि उन्हें एक ही दर्शनपरंपरा से जोड़ना अनुचित जान पड़ता है. जैसे कि पारिवारिक जीवन का महत्त्व, सुखस्वास्थ्य प्राप्ति के संसाधन, लोकमत का सम्मान, जनसाधारण की रुचि एवं इच्छाओं का समादर जैसे विषयों पर अरस्तु पर्याप्त उदार था. जबकि प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य में सामूहिक संस्कृति और सहजीवन पर जोर देते हुए परिवार संस्था को अनावश्यक मानते हुए कठोरअनुशासित जीवन जीने की अनुशंसा की है.

फिर प्रभाव किस बात का है? कौनसा सूत्र है जो इन तीनों को परस्पर जोड़ता है? इस तारतम्यता को इन्हें पढ़ते हुए आसानी से समझा जा सकता है. एकसूत्रात्मकता ‘पराशरव्यासशुकदेव’ की त्रयी के बीच भी है. अंतर केवल इतना है कि भारतीय परंपरा के लेखकों पर अध्यात्म प्रभावी रहा है, जो अतिरेकी आस्था और विश्वास के दबाव में अंधानुकरण में ढल जाता है. जबकि ‘सुकरातप्लेटोअरस्तु’ के बीच ज्ञान की लालसा तथा शुभत्व की खोज के लिए एकदूसरे पर संदेह का सिलसिला निरंतर बना रहता है. परंपरापोषी होने के कारण भारतीय लेखक एकदूसरे को दोहराते अथवा परंपरा का पिष्ठप्रेषण करते हुए नजर आते हैं. पश्चिम का लेखन विशेषकर वह लेखन जो सुकरात से आरंभ होकर अरस्तु और आगे थामस हाॅब्स, जान लाॅक, रूसो, वाल्तेयर, बैंथम, हीगेल, माक्र्स आदि तक जाता है, उसमें संदेह का सिलसिला कभी टूटता नहीं है. वाल्तेयर और रूसो एकदूसरे के समकालीन लेखक थे. जीतेजी उनमें हमेशा विलगाव बना रहा. दोनों एकदूसरे के कट्टर आलोचक थे. परंतु वाल्तेयर और रूसो को पढ़ते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें से किसी एक के मन में ज्ञान की ललक, मनुष्यता को बेहतर बनाए जाने की उत्कंठा दूसरे से कम है. जिस तरह प्लेटो सुकरात के प्रति और अरस्तु प्लेटो के प्रति अगाध प्रेम और विश्वास रखते हुए, विनम्र असहमति क साथ विचारपरंपरा को आगे बढ़ाते हैं, वैसा भारतीय परंपरा में दुर्लभ है. प्लेटो के विपुल वाङ्मय में एक भी शब्द, एक भी पंक्ति ऐसी नहीं है, जिसपर सुकरात का असर न हो. बावजूद इसके जहां आवश्यक समझा उसने सुकरात की बात भी काटी है. अरस्तु तो प्लेटो से भी आगे निकल जाता है. उसके मन में गुरु प्लेटो के प्रति गहरा सम्मान था. बावजूद इसके उसके ग्रंथों में प्लेटो के विचारों के प्रति सहमति से अधिक असहमति नजर आती है. इस तरह प्लेटो और अरस्तु दोनों अपनेअपने गुरु के ज्ञान को आत्मसात करते हैं, परंतु उनका विश्वास उस परंपरा को आगे बढ़ाने में है, न कि अनुसरण में. उसका विश्वास केवल मनुष्यता में है. प्लेटो भावुक, कवि हृदय है, जबकि अरस्तु अपेक्षाकृत वैज्ञानिक प्रवृत्ति से युक्त. इसलिए अरस्तु के लेखन में असहमति अधिक मुखर है. इस कारण कुछ विद्वान तो अरस्तु को प्लेटो का शिष्य मानने को ही तैयार नहीं है. लेकिन अरस्तु के लेखन में प्लेटो के प्रति जैसा सम्मानभाव है उसे देखते हुए यह असंभव भी नहीं लगता. दूसरी ओर पुराणों में कथ्य के आधार पर अंतर न के बराबर है. उनमें भयंकर दोहराव भी है. अधिकांश चरित्र मिथकीय हैं. ऐसा महसूस होगा मानो सारे पौराणिक ग्रंथ एक ही लेखक द्वारा रचित अलगअलग कालखंड की कृतियां हैं; अथवा उनके लेखक मंजे हुए किस्सागो थे. उन्होंने समाज में पहले से प्रचलित कहानियों को अतिरेकपूर्ण कल्पनाओं और रोचकता के साथ पौराणिक कलेवर प्रदान किया था.

जीवन परिचय

अरस्तु(जन्म 384 ईस्वीपूर्व) और प्लेटो के जन्म के बीच लगभग चार दशक का अंतराल था. Aristole का अर्थ है—‘श्रेष्ठतम लक्ष्य’(The best purpose). कहने की आवश्यकता नहीं कि अपने नामानुरूप अरस्तु ने जीवन में महान उद्देश्य सिद्ध किए. अरस्तु का मुख्य कर्मक्षेत्र एथेंस रहा, परंतु सुकरात और प्लेटो की भांति वह मूल एथेंसवासी नहीं था. उसका जन्म एथेंस से लगभग 340 किलोमीटर दूर, थ्रेस नदी के किनारे स्थित स्तेगिरा नामक छोटे से शहर में हुआ था. उसके पिता का नाम निकोमारक्स् था. उनके पूर्वज मैसेनिया से ईसापूर्व सातवींआठवीं शताब्दी में स्तेगिरा में आकर बसे थे. उसकी मां का नाम फैस्तिस था और उसके पूर्वज यूबोइया प्रदेश के खालिक्स नामक मामूली शहर के रहने वाले थे. मेसिडन के राजा एमींतस जिसकी प्रतिष्ठा सिंकदर का दादा होने के कारण भी है—का निजी चिकित्सक होने के कारण निकोमाराक्स् की समाज में प्रतिष्ठा थी. वे वैद्यों की पंचायत के सदस्य भी थे. उन दिनों यूनान के अनेक राज्यों में नगरराज्य की व्यवस्था थी, जहां शासन प्रक्रिया में अधिकांश नागरिकों की भागीदारी रहती थी. मेडिसन में राजतंत्र था. और जैसा कि इस प्रकार की राज्य प्रणालियों में होता है, मेडिसन में भी वंशानुक्रम के आधार पर राजा की घोषणा की जाती थी. अरस्तु के बचपन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है. यत्रतत्र बिखरी सूचनाओं से पता चलता है कि उसकी प्राथमिक शिक्षा होमर की रचनाओं से आरंभ हुई थी. उसपर अपने चिकित्सक पिता का विशेष प्रभाव पड़ा. उन दिनों चिकित्सक परिवार के बच्चों को बचपन से ही शल्यचिकित्सा का प्रशिक्षण दिया जाता था. सो अरस्तु को भी शरीर विज्ञान और वनस्पतियों की शिक्षा बचपन से ही मिलने लगी थी.शरीर विज्ञान और प्रकृतिविज्ञान के दूसरे क्षेत्रों में अरस्तु की रुचि को देखते हुए उस समय शायद ही कोई कल्पना कर सकता था कि आगे चलकर यूनानी दर्शन और तर्कशास्त्र का महापंडित कहलाएगा. बचपन के वही अनुभव कालांतर में विज्ञान, विशेषकर वनस्पति शास्त्र के क्षेत्र में उसकी रुचि का कारण बने. यह भी बताया जाता है कि बचपन के चिकित्सा क्षेत्र के अनुभवों के कारण ही अरस्तु को चिकित्सकों की स्थानीय संस्था का सदस्य बना लिया था.

अरस्तु का परिवार समृद्ध था. इसलिए बचपन में उसे सुखसुविधाओं की कमी न थी. उसका बचपन राजपरिवार के लोगों के सान्निध्य में, सुखपूर्वक बीता. संयोगवश अरस्तु के मातापिता की मृत्यु उसकी किशोरावस्था में ही हो चुकी थी. उसके बाद उसकी देखभाल का दायित्व उसके एक रिश्तेदार प्राॅक्सीनस ने संभाला. सुकरात की भांति अरस्तु की आरंभिक इच्छा भी विज्ञान के क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने की थी. उसने अपने जीवन का लंबा समय वैज्ञानिक अनुभवों के लिए लगाया था. अनेक ग्रंथों की रचना की, बाद में वह प्रकृति विज्ञान से उकताने लगा. इसका कारण स्टेगिरा की राजनीति थी. सम्राट एमींतस महत्त्वाकांक्षी था. राज्य की सीमाओं के विस्तार के लिए उसने कई युद्ध लड़े थे. जिसमें उसे सफलता भी मिली थी. लेकिन राज्य की सीमाओं का विस्तार और प्रजा के सुखसंतोष में विस्तार के बीच कोई तालमेल न था. लगातार युद्ध के मैदान में रहने वाले राजा की प्रजा को जो कष्ट भोगने पड़ते हैं, वे कष्ट स्तेगिरा की प्रजा को भी भोगने पड़ते थे. इसी विसंगति सेे अरस्तु के मन में राजनीति को समझने की ललक पैदा हुई. उसने अनुभव किया था कि राज्य के उद्देश्यों तथा उसके कार्यों के बीच कोई तालमेल नहीं है. युवावस्था तक पहुंचतेपहुंचते वह ज्ञान के परंपरागत संसाधनों से उकताने लगा था. उसका झुकाव दर्शन और राजनीति की ओर गया. उस समय पूरे यूनान में प्लेटो द्वारा स्थापित ‘अकादेमी’ की प्रतिष्ठा थी. अरस्तु की प्रतिभा और उच्च शिक्षा के प्रति लगन को देखते हुए प्राॅक्सीनस ने उसका दाखिला प्लेटो की अकादेमी में करा दिया. ईस्वी पूर्व 367 में वह एथेंस पहुँचकर प्लेटो की अकादमी का सदस्य बन गया. उस समय उसकी वयस् मात्र 17 वर्ष थी. अकादमी में आने का उद्देश्य केवल राजनीति और दर्शन की शिक्षा के साथसाथ विश्व के सबसे बड़े विश्वविद्यालय में रहकर अध्ययन करने की लालसा थी.

अरस्तु प्लेटो की अकादेमी में लगभग बीस वर्षों तक रहा. वहां रहते हुए उसने गणित, दर्शन, राजनीति आदि विषयों में ज्ञान प्राप्त किया. उसके बाद कुछ अर्से तक अकादेमी में अध्यापन कार्य भी किया. यहीं उसके और प्लेटो के बीच आत्मीयता का विस्तार हुआ. अरस्तु को पुस्तकें जमा करने का शौक था और अपने धन का बड़ा हिस्सा पुस्तकों और पांडुलिपियों को जुटाने पर करता था. प्लेटो ने उसके आवास को ‘श्रेष्ठ अध्येता का घर’ कहा था. कुछ लोग मजाक में कहा करते थे कि ईश्वर ने अरस्तु के मस्तिष्क में गहरा गड्ढा बना दिया है, जिसमें वह पुस्तकों को सहेज कर रखता है. अकादेमी में रहते हुए अरस्तु पर प्लेटो की विद्वता का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया. प्लेटो की लेखनशैली का अनुकरण करते हुए उसने अकादमी प्रवास के दौरान भौतिकी, जीवविज्ञान, वनस्पति विज्ञान, तर्कशास्त्र, तत्वदर्शन आदि पर अनेक पुस्तकों की रचना की. जहां अरस्तु के मन में अपने गुरु के प्रति बेहद सम्मान था, वहीं प्लेटो भी अपने योग्यतम शिष्य की प्रतिभा का मुरीद था. वह उसे ‘अकादेमी का मस्तिष्क’ और ‘सर्वश्रेष्ठ अध्ययनशील’ विद्यार्थी मानता था. प्लेटो का निधन हुआ, उस समय अरस्तु की उम्र लगभग 37 वर्ष थी. वह प्लेटो के उत्तराधिकारियों में से एक था. प्रतिभा को देखते हुए अरस्तु की दावेदारी भी बनती थी. वह प्लेटो का वास्तविक उत्तराधिकारी है, यह उसने आगे चलकर सिद्ध भी कर दिया था. परंतु ‘अकादमी’ का अध्यक्ष प्लेटो के रिश्तेदार तथा गणित एवं जीवविज्ञान के पंडित स्पूसिपस को बनाया गया. इसका कारण प्लेटो से अरस्तु की वैचारिक असहमतियां भी थीं. अधिकारियों में इतना साहस न था कि अकादेमी का संचालन का दायित्व ऐसे व्यक्ति के हाथों में सौंप दें, जिसकी अकादेमी के संस्थापक और गुरु से घोर असहमतियां रही हों, हालांकि अरस्तु की प्रतिभा को लेकर उन्हें कोई संदेह न था. नतीजा यह हुआ कि अरस्तु का जी अकादेमी से उचट गया. निराश होकर उसने एथेंस छोड़ दिया. वहां से वह माइसिया में एटारनियस नामक स्थान पर पहुंचा. वहां उसे अकादेमी के पूर्व छात्रों की मंडली का सदस्य चुन लिया गया. मंडली में एटारनियस का शासक हरमियाॅस भी शामिल था. इससे अरस्तु को पुनः राजपरिवार के निकट आने का अवसर मिला. कुछ ही दिनों में हरमियाॅस और अरस्तु गहरे दोस्त बन गए. इसका सुखद परिणाम अरस्तु और हरमियाॅस की भतीजी(कुछ विद्वानों के अनुसार भानजी) पिथियास के विवाह के रूप में सामने आया. उसके फलस्वरूप उसके जीवन में स्थायित्व आया. अकादमी में प्राप्त गणित और विज्ञान की शिक्षा बहुत कारगर सिद्ध हुई. पिथियास से विवाह के उपरांत अरस्तु ने खुद को प्रकृति विज्ञान की खोज में लगा दिया. समुद्र तटीय स्थानों पर जाकर वह वनस्पतियों और जीवजंतुओं का अध्ययन करने लगा. उन अनुभवों के आधार पर उसने आगे चलकर कई पुस्तकों की रचना की. एथेंस छोड़ने के बाद 12 वर्षों तक वह इसी तरह अनुभव और ज्ञान बंटोरता रहा. इस बीच राजतंत्र की निरंकुशता को करीब से देखने का अवसर मिला. कदाचित इसी बीच उसके मन में छोटेछोटे राज्यों की विकृतियां सामने आने लगी थीं. वही अनुभव कालांतर में आगे चलकर ‘पाॅलिटिक्स’ एवं ‘एथिक्स’ जैसे ग्रन्थों की प्रेरणा बनीं. अपने उत्तरवर्ती जीवन में अरस्तु ने एक अन्य युवती हरपिलिस से विवाह किया, जिससे उसे संतान हुई. पुत्र का नाम उसने अपने पिता के नाम पर निकोमाराक्स् रखा.

342 ईस्वीपूर्व के आसपास उसको मेसिडन के सम्राट की ओर से निमंत्रण प्राप्त हुआ. इस अवधि में वहां काफी कुछ बदल चुका था. एमींतस के बाद फिलिप मेसिडन का सम्राट था. उसे अपने बेटे सिकंदर के लिए योग्य शिक्षक की तलाश थी. अरस्तु की प्रतिभा के बारे में वह पहले से ही परिचित था. अकादेमी में अरस्तु द्वारा किए गए कार्य भी उसकी जानकारी में थे. ऐसे में सिकंदर की शिक्षा के लिए अरस्तु से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था. निमंत्रण मिलते ही अरस्तु मेसिडन लौट आया. सम्राट फिलिप की ओर से उसका जोरदार स्वागत किया गया. आते ही उसे ‘राॅयल अकादेमी आॅफ मेसिडन’ का अध्यक्ष बना दिया गया. अगले तीन वर्षों तक वह इसी पद पर बना रहा. शिक्षक के तौर पर उसने राजकुमार सिकंदर में साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाएं जगाने का काम किया. उसने सिंकदर को राज्य की सीमाओं के विस्तार के लिए एशियामाइनर तथा अन्य उत्तरपूर्वी राज्यों पर अधिकार करने की सलाह दी. इस बीच एटारनियस से दुखद समाचार आया कि एक ईरानी सेनापति ने उसके मित्र और वहां के शासक हरमियाॅस को धोखे से पकड़कर उसकी हत्या कर दी है. इस सूचना ने अरस्तु को व्यथित कर दिया. 340 ईस्वी पूर्व में फिलिप की मृत्यु के बाद सिकंदर सम्राट बना. सिंकदर के मन में शुरू से ही साम्राज्यवादी भावनाएं जोर मारती थीं. सत्ता हाथ में आते ही वह युद्ध पर निकल पड़ा. अब मेसिडन में अरस्तु को कोई काम न था. इसी बीच उसे एथेंस जाने का अवसर मिला. उसी समय अकादेमी अध्यक्ष पद के रिक्त होने की सूचना मिली. अरस्तु के मन में अकादेमी से जुड़ने की लालसा अब भी शेष थी. परंतु अरस्तु की उपेक्षा करते हुए अकादेमी के अधिकारियों द्वारा खेनोक्रातेस को अकादेमी का मुख्यअधिष्ठाता मनोनीत किया गया. अरस्तु एक बार फिर निराश हो गया. परंतु उसके जैसे मननशील व्यक्ति के आगे निराशा बहुत टिकाऊ नहीं थी. उसने स्वयं को अध्ययन के प्रति समर्पित कर दिया.

335 ईस्वी पूर्व में उसे पुनः एथेंस लौटने का अवसर मिला. इस बार आमंत्रित करने वाला था, हर्मेडयस उस समय अरस्तु की उम्र 51 वर्ष थी और एक विद्वान दार्शनिक के रूप में उसकी ख्याति आसपास के देशों में फैल चुकी थी. एथेंस की ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में धाक थी. अवसर गंवाए बिना अरस्तु एथेंस के लिए प्रस्थान कर गया. उन दिनों एथेंस और मेसीडन के संबंध अच्छे न थे. परंतु अरस्तु की विद्वता की धाक ऐसी थी कि एथेंस में उसका स्वागत हुआ. जाहिर है इसके पीछे एथेंसवासियों की ज्ञान के प्रति सम्मानभावना का असर था. एथेंस के उत्तरपूर्व स्थित उपनगर अपोलो में लीशियस देवी का मंदिर था. एथेंस के कानून के अनुसार वहां बाहरी व्यक्तियों को भूमि खरीदने की अनुमति नहीं थी. इसलिए अरस्तु ने मंदिर के आसपास के क्षेत्रों में कुछ मकान किराये पर लेकर अपने विश्वविद्यालय की स्थापना की. विश्वविद्यालय का नाम लीशियस देवी के नाम के आधार पर ‘लीशियम’ रखा गया. कुछ ही दिनों में एथेंस के अनेक प्रतिष्ठित लोग जिनमें अकादेमी से शिक्षित लोग भी थे, अरस्तु से जुड़ने लगे. इससे अरस्तु और उसके विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा बढ़ने लगी. उस विश्वविद्यालय की खूबी थी कि वहां टहलते हुए शिक्षार्जन पर जोर दिया जाता था. अरस्तु स्वयं टहलते हुए पढ़ाता था. इसलिए कुछ प्लेटो को ‘टहलतेटहलते पढ़ाने वाला अध्यापक’ तथा संस्था को ‘परिभ्रामी विद्यालय’(Peripatetic School) भी कहने लगे थे. लीशियम में रहते हुए अरस्तु ने अध्यापन के अलावा कई महत्त्वपूर्ण काम किए. पुस्तक संग्रह का शौक उसको अकादेमी प्रवास से ही था. लीशियम में उसे पुस्तकें जमा करने के भरपूर अवसर मिला. फलस्वरूप उसने सैकड़ों पुस्तकों एवं पांडुलियों का संग्रह किया. और उन्हें सुरक्षित रखने लिए लीशियम के भीतर एक विशाल पुस्तकालय का निर्माण किया. अरस्तु द्वारा निर्मित पुस्तकालय उसके समकालीन नाटककार यूरीपिडिस के पुस्तकालय को छोड़कर, पूरे यूनान में सबसे बड़ा था. यही नहीं उसने पुस्तकों को व्यवस्थित करने के लिए आवश्यक नियम भी बनाए थे. पुस्तकालय के अलावा उसने विश्वविद्यालय में विचित्र वस्तुओं, शैवालों तथा मानचित्रों का एक अजायबघर तैयार किया. हालांकि स्वयं अरस्तु के पास धन की कमी न थी. उसकी पत्नी धनाड्य परिवार से थी. इसके साथसाथ पुस्तकालय, अजायबघर, वैज्ञानिक उपकरण आदि के लिए सिंकदर की ओर से भी समयसमय पर मदद प्राप्त होती रहती थी. गुरु अरस्तु के प्रति सिंकदर का सम्मान इससे भी जाहिर होता है कि उसने अपने सैनिकों, मछुआरों, बहेलियों और शिकारियों को आदेश दिया था कि काम के दौरान यदि कोई विचित्र वस्तु मिले तो उसे संग्रहित कर, लीशियम के संग्रहालय में जमा करा दें. इसके अतिरिक्त सिंकदर ने जीव विज्ञान एवं भौतिक विज्ञान संबंधी खोजों के वैज्ञानिक उपकरण भेजकर भी अरस्तु की मदद की थी.

अरस्तु ‘लीशियम’ में 12 वर्षों तक रहा. इस बीच उसका विद्यालय निरंतर प्रगति करता रहा. लगभग सभी विषय की शिक्षाओं का वहां प्रबंध था और शिक्षार्थी के रूप में दूरदूर के विद्यार्थी वहां पहुंचते थे. ‘लीशियम’ के प्रशासन हेतु अरस्तु ने विशेष प्रबंध किए थे. उस व्यवस्था को प्लेटो के ‘आदर्श राज्य’ तो नहीं कह सकते, परंतु शिक्षक और विद्यार्थी के बीच अनौपचारिक बातचीत को बढ़ाने, शिक्षा में सहजता लाने की भावनाएं उसके पीछे अवश्य थीं. तदनुसार विद्यार्थी अपने बीच से एक विद्यार्थी को चुनते थे. अगले दस दिनों तक वही विश्वविद्यालय के प्रशासक का काम करता था. इसके बावजूद ‘लीशियम’ में पर्याप्त अनुशासन था. भोजनव्यवस्था वहां सामूहिक थी. महीने में एक दिन विशेष परिचर्चा के लिए सुरक्षित था, जिसके नियम अरस्तु ने निर्धारित किए थे. अरस्तु का यह विश्वविद्यालय प्लेटो द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय ‘अकादेमी’ जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सका. एक तरह से यह उसकी शाखा जैसा ही था. दोनों में एक विशेष अंतर भी था. ‘अकादेमी’ में गणित पर ज्यादा जोर दिया जाता था, जबकि ‘लीशियम’ में जीवविज्ञान और वनस्पति विज्ञान की शिक्षा पर खास ध्यान दिया जाता था. प्रायोगिक शिक्षा का खास महत्त्व था. उन दिनों बाढ़ आम समस्या थी. बरसात के समय नील नदी उफनने लगती. अरस्तु ने नियमित आने वाली बाढ़ों की रोकथाम के लिए भी शोधकार्य किया था. ‘लीशियम’ को प्लेटो के ‘अकादेमी’ जैसी प्रतिष्ठा भले ही प्राप्त न कर सका, परंतु एक दार्शनिक के रूप में अरस्तु को वैसी प्रतिष्ठा प्राप्त हो चुकी थी, जैसी कभी सुकरात और प्लेटो को प्राप्त थी. अरस्तु को नकारकर जिस व्यक्ति को अकादेमी का अध्यक्ष मनोनीत किया गया था, अरस्तु के प्रभामंडल के आगे उसकी प्रतिष्ठा नगण्य थी.

लीशियम में अध्यापन करते हुए अरस्तु ने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की. उस समय सिकंदर विश्वविजय के लिए निकला हुआ था. यात्रा के विवरणों को दर्ज करने के लिए सिंकदर के साथ कल्लिस्थेसनस् नामक युवा भी उसके साथ अभियान पर था. वह अरस्तु का शिष्य था और अपने गुरु की भांति स्पष्टवक्ता भी. अभियान के दौरान किसी कार्य के लिए कल्लिस्थेसनस् ने सिंकदर की आलोचना कर दी. परिणामस्वरूप सिंकदर उससे रुष्ट हो गया. उस समय तक सिंकदर की विश्वविजय की कामनाएं उभार पर थीं. आलोचना उससे सहन न हुई. उसके आदेश पर कल्लिस्थेसनस् को मृत्युदंड सुनाया गया. कल्लिस्थेसनस अरस्तु का करीबी शिष्य था. अरस्तु ने ही उसे सिकंदर के साथ भेजा था, इसलिए कल्लिस्थेसनस् के साथसाथ अरस्तु को भी दोषी माना गया. पता चलता है कि भारत से वापसी के बाद सिंकदर ने भी अरस्तु को दंडित करने का निर्णय कर लिया था. लेकिन भारत अभियान में वह इतनी बुरी तरह से उलझा कि वापस लौट ही नहीं पाया. ईसा पूर्व 323वें वर्ष में उसकी मृत्यु हो गई. सिकंदर की मौत का समाचार जैसे ही मेसिडन पहुंचा वहां विद्रोह हो गया. अरस्तु सिंकदर का गुरु और करीबी रह चुका था, इसलिए विद्रोहियों ने उसे भी दंडित करने का निर्णय किया. लेकिन अरस्तु को दंडित करना आसान न था. उसकी पूरे यूनान में प्रतिष्ठा थी. विद्रोहियों ने उसे ‘नास्तिक’ घोषित कर दिया. आरोप का आधार अरस्तु द्वारा ईसापूर्व 340-341 में अपने दोस्त हरमियाॅस पर लिखी कविता को बनाया गया. वह कविता अरस्तु ने हरमियाॅस की हत्या के बाद लिखी थी, जिसमें उसके गुणों का बखान करते हुए उसे देवतुल्य घोषित किया गया था. बीस वर्ष पुरानी उस कविता के समय और परिस्थिति को देखते हुए इस प्रकार के आरोप बेमानी थे. विरोधी किसी भी प्रकार अरस्तु को दंडित करना चाहते थे, इसलिए अरस्तु को नास्तिक घोषित करना, जनता के बीच उसकी छवि को धूमिल करने की चाल थी. अपने विरुद्ध बढ़ता माहौल देख अरस्तु को एथेंस छोड़ना पड़ा. उसी वर्ष 62 वर्ष की अवस्था में उसकी मृत्यु हो गई.

एथेंस छोड़ते समय उसने घोषणा की थी कि एथेंसवासियों को दर्शनशास्त्र के विरुद्ध दूसरी बार अपराध नहीं करने देगा. दर्शनशास्त्र के विरुद्ध एथेंसवासियों का पहला अपराध उसकी संसद द्वारा सुकरात को दिया गया मृत्युदंड था. एथेंस से वह युबोइया के लिए प्रस्थान कर गया. वहां खाॅल्किस नामक छोटे से नगर में जाकर रहने लगा. वहीं रहते हुए उसने अपनी वसीयत तैयार की, जिसमें उसने अपनी पत्नी हर्पीलियस के स्वभाव की प्रशंसा करते हुए उसके लिए धन की व्यवस्था की थी. पहली पत्नी पिथियास की यादें अब भी उसके दिल में बसी थीं. इसलिए उसने वसीयत में लिखा कि उसे पिथियास के अवशेषों के साथ दफनाया जाए. अपनी संपत्ति का कुछ हिस्सा दासों के नाम किया था और कुछ को उसने दासत्व से मुक्त कर, स्वतंत्र कर दिया था. ये घटनाएं उसकी संवेदनशीलता को दर्शाती हैं. कविहृदय प्लेटो ने भी पाया था, परंतु उसे कविता से अरुचि थी. मानता था कि कविता और नाटक जैसी विधाएं मनुष्य को यथार्थ से परे ले जाकर कमजोर बनाती हैं. अरस्तु मनोमस्तिष्क से वैज्ञानिक होने के साथसाथ संवेदनशील कवि भी था. एक कविता में उसने प्लेटो की विलक्षण मेधा की प्रशंसा करते हुए उसे विद्वानों के बीच अद्वितीय घोषित किया है. देहयष्टि को लेकर भी अरस्तु और प्लेटो के बीच उल्लेखनीय अंतर था. प्लेटो लंबेचैड़े डीलडोल, चैड़ी छाती और सुदर्शन चेहरे वाला व्यक्ति था. उसके नामकरण का कारण ही उसका लंबाचैड़ा डीलडौल था. दूसरी ओर अरस्तु की आंखें छोटीछोटी. पैर पतले. कदकाठी सामान्य थी. बोलते समय वह कभीकभी तुतलाने लगता था. यह भी कहा गया है कि उम्र के आखिरी पड़ाव पर उसके बाल झड़ चुके थे. रहनसहन और बोलचाल में वह असंयमी था. अरस्तु की वाक्पटुता की प्रशंसा की जाती है. दियोगेनस ने उसकी वाक्पटुता के उदाहरणों को पुस्तकाकार संग्रहित किया है. मगर उसकी प्रतिभा बेमिसाल थी. वह अपने समय के शीर्षतम दार्शनिकों और कुछ मामलों में तो अपने गुरु प्लेटो से भी आगे था. दांते ने उसे ‘सभी विद्वानों का गुरु’ घोषित किया है. अरस्तु ने विपुल साहित्य की रचना की. उसके ग्रंथों की संख्या लगभग चार सौ बताई जाती है. उनमें से अनेक ग्रंथ तो दर्शनशास्त्र और राजनीति की धरोहर हैं. लेकिन यह भी विडंबना है कि अरस्तु जैसे महामेधावी दार्शनिक की पुस्तकें भी उसके निधन के लगभग 250 वर्ष बाद ही सिसरो के प्रयासों के फलस्वरूप प्रकाशित हो सकीं. इस बीच उसकी अनेक पांडुलिपियां लुप्त हो चुकी थीं. अब सिवाय संदर्भों के उनका कहीं अतापता नहीं है. लेकिन ‘पाॅलिटिक्स’ और ‘एथिक्स’ जैसे ग्रंथ मानवता के उपहार के रूप में आज भी सुरक्षित हैं.

अरस्तु का न्याय-दर्शन

अरस्तु की विलक्षणता उसके तार्किक विश्लेषण में है. सुकरात और प्लेटो की शैली मुख्यतः निगमनात्मक थी. अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचने से पहले सुकरात अपने प्रतिपक्षी के आगे तर्क करता था. उत्तर प्राप्त होने पर वह प्रति तर्क अथवा प्रत्युत्तर के माध्यम से बातचीत को आगे बढ़ाता था. सुकरात को पढ़ते हुए सुधी पाठक समझ जाता है कि संबंधित विषय को लेकर उसका खास दृष्टिकोण है. परंतु निष्कर्ष को सामने रखने से पूर्व वह उसके सभी पक्षों को गंभीरतापूर्वक परख लेना चाहता है. प्रत्येक तर्क के साथ वह अपने मंतव्य को मजबूत करता जाता है. संवादात्मक शैली इसमें सहायक बनती है. यह तर्क की निगमनात्मक पद्धति है, जिसमें एक परिकल्पना को सिद्धांत में बदलने के लिए उसके समर्थन में तर्क जुटाए जाते हैं. पर्याप्त साक्ष्य हों तो ठीक वरना उस परिकल्पना को किनारे कर नए शोध की शुरुआत की जाती है. इसका मुख्य प्रयोग विज्ञान में होता है, जिसमें एक परिकल्पना के साथ परीक्षण, अनुरीक्षण करते हुए निष्कर्ष तक पहुंचने की कोशिश की जाती है. आगमनात्मक पद्धति में निष्कर्ष भविष्य में निहित होता है. उससे जुड़ी कुछ छोटीछोटी स्थितियां, विचार अथवा अनुभवादि होते हैं. फिर उनकी पड़ताल, पुराने निष्कर्षों के साथ मिलान, व्याख्या और परिणामों में आवश्यक संशोधनपरिवर्धन के बाद अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचा जाता है. अरस्तु को तर्क के क्षेत्र में आगमनात्मक पद्धति के प्रथम उपयोग का श्रेय भी प्राप्त है.

अरस्तु को इस बात का भी श्रेय दिया जाता है कि उसने राजनीति को फुटकर विचारों से ऊपर उठाकर स्वतंत्र विषय के रूप में मान्यता दिलाने का काम किया. उससे पूर्व वह धर्मदर्शन का हिस्सा थी. भारत में तो वह आगे भी बनी रही. अरस्तु का समकालीन चाणक्य ‘अर्थशास्त्र’ में अपने राजनीतिक विचारों को सामने रखता है और मजबूत केंद्र के समर्थन में तर्क देते हुए राज्य की सुरक्षा और मजबूती हेतु अनेक सुझाव भी देता है, परंतु ‘अर्थशास्त्र’ और ‘पाॅलिटिक्स’ की विचारधारा में खास अंतर है. यह अंतर प्राचीन भारतीय और पश्चिम के राजनीतिक दर्शन का भी है. उनमें अरस्तु की विचारधारा आधुनिकताबोध से संपन्न और मानवमूल्यों के करीब है. ‘पाॅलिटिक्स’ के केंद्र में भी मनुष्य और राज्य है. दोनों का लक्ष्य नैतिक एवं सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति है. अरस्तु के अनुसार राजनीतिकसामाजिक आदर्शों की प्राप्ति के लिए आवश्यक है नागरिक और राज्य दोनों अपनीअपनी मर्यादा में रहें. सामान्य नैतिकता का अनुपालन करते हुए एकदूसरे के हितों की रक्षा करें. इस तरह मनुष्य एवं राज्य दोनों एकदूसरे के लिए साध्य भी साधन भी. ‘अर्थशास्त्र’ में राज्य अपेक्षाकृत शक्तिशाली संस्था है. उसमें राज्यहित के आगे मनुष्य की उपयोगिता महज संसाधन जितनी है. लोककल्याण के नाम पर चाणक्य यदि राज्य के कुछ कर्तव्य सुनिश्चित करता है तो उसका ध्येय मात्र राज्य के लिए योग्य मनुष्यों की आपूर्ति तक सीमित है. ‘पाॅलिटिक्स’ के विचारों के केंद्र में नैतिकता है. वहां राज्य का महत्त्व उसके साथ पूरे समाज का हित जुड़े होने के कारण है. राज्य द्वारा अपने हितों के लिए नागरिक हितों की बलि चढ़ाना निषिद्ध बताया गया है. दूसरी ओर ‘अर्थशास्त्र’ के नियम नैतिकता के बजाए धर्म को केंद्र में रखकर बुने गए हैं, जहां ‘कल्याण’ व्यक्ति का अधिकार न होकर, दैवीय अनुकंपा के रूप में प्राप्त होता है. जिसका ध्येय राज्य की मजबूती और संपन्नता के लिए आवश्यक जनबल का समर्थन और सहयोग प्राप्त करना है. ठीक ऐसे ही जैसे कोई पूंजीपति श्रमिककामगार को मात्र उतना देता है, जिससे वह अपनी स्वामी के मुनाफे में उत्तरोत्तर संबृद्धि हेतु अपने उत्पादनसामर्थ्य को बनाए रख सके.

अरस्तु के जीवनकाल में यूनान भारी उथलपुथल के दौर से गुजर रहा था. लोग छोटेछोटे राज्यों से उकताने लगे थे. गणतांत्रिक प्रणाली को नाकाम होते देख साम्राज्यवादियों का हौसला बढ़ा था. वे नए सिरे से साम्राज्यवादी विस्तार की तैयारियों में लगे थे. छोटे राज्यों के असफल होने के दो कारण थे. पहला उनमें आपस में बहुत झगड़े होते थे. जरासी बात पर तलवारें खिंच जाया करती थीं. दूसरा और प्रमुख कारण था—व्यापारिक बाधाएं. ईसा पूर्व पांचवीछठी शताब्दी में अंतर्प्राद्वीपीय व्यापार ने काफी तरक्की की थी. व्यापारिक बेड़े दूरदराज के राज्यों के साथ व्यापार करते थे. दूसरे राज्य में व्यापार की अनुमति पारस्परिक राजनीतिक संबंधों पर निर्भर करती थी. संबंध अनुकूल हों तब भी शिल्पकार संगठनों को दूसरे राज्य में व्यापार हेतु भारीभरकम करों का भुगतान करना पड़ता था. बड़े राज्यों के गठन केे पीछे मूल विचार था कि उनमें मुक्त व्यापार के लिए अधिक बाजार उपलब्ध हो सकेगा. कुल मिलाकर बड़े राज्यों के गठन के पीछे जहां सभ्यताकरण की प्रेरणाएं थीं, वहीं वर्तमान के प्रति असंतोष की भावना भी थी. अरस्तु जैसा प्रखर विद्वान परिवर्तनों का मूकनिष्पंद द्रष्टा बनकर नहीं रह सकता था. वह दार्शनिक था. विचारों का उसकी दुनिया में महत्त्व था. विचारों को वह किसी भी प्रकार के परिवर्तन की आधारशिला मानता था. उसका मानना था कि मनुष्य श्रेष्ठ का चयन तब कर सकता है, जब उसे श्रेष्ठत्व का बोध हो. उन खूबियों की जानकारी हो जो श्रेष्ठ को श्रेष्ठत्व प्रदान करती हैं. ऐसा नहीं है कि इसकी शुरुआत अरस्तु या प्लेटो से हुई हो. दर्शन के रूप में राजनीति के अध्ययन की शुरुआत बहुत पहले हो चुकी थी. प्राचीन यूनान में होमर, लायक्राग्स, सोलन, प्रोटेगोरस, एंडीफोन, पाइथागोरस, जेनोफीन जैसे अनेक नाम हैं, जिन्होंने राजनीति को सभ्यताकरण के उपकरण की भांति प्रयुक्त किया था. तथापि सुसंगत राजनीतिक चिंतन का अभाव था. राजा प्रजा की मांग तथा अपनी सुविधा के अनुसार कुछ नियम बना लिया करते थे. फिर लंबे समय तक उन्हीं को मार्गदर्शक मानकर काम चलाया जाता था. उनमें से कुछ पर अमल हो पाता था, कुछ पर नहीं. प्रजा कुछ समय तक प्रशासन की दुर्बलताओं को सहती. धीरेधीरे असंतोष उमड़ने लगता था. फलस्वरूप नए सिरे से व्यवस्थापरिवर्तन की मांग उठने लगती थी. नियमों में बड़ा परिवर्तन प्रायः बड़े सत्तापरिवर्तन के साथ ही हो पाता था.

प्लेटो ने न केवल विभिन्न राजनीतिक दर्शनों को एक साथ अध्ययनचिंतन का विषय बनाया, वहीं उनकी खूबियों और खामियों पर भी चर्चा की. उसका लक्ष्य सामाजिक आदर्श थे, जिनके लिए वे राजनीति को औजार के रूप में उपयोग करना चाहता था. अरस्तु ने उस अध्ययन को तर्कसम्मत ढंग से विस्तार दिया. उसके लिए कसौटी न्याय और नैतिकता को बनाया. अरस्तु की कामना ऐसे राज्य की थी, जो परमशुभ की प्राप्ति हेतु सतत अग्रसर हो. जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अच्छाइयों के साथ जीने की आजादी हो. और वह अंतःस्फूर्त प्रेरणा के साथ लक्ष्यप्राप्ति हेतु संकल्परत हो. यह तभी संभव है जब व्यक्ति को कानून और समाज की मर्यादा में, वह सब कुछ करने की स्वतंत्रता हो जिसे वह अपने लिए उपयुक्त मानता है. इसके लिए आवश्यक है कि राज्य अपेक्षित रूप में उदार हो. निरंकुश, अल्पतंत्रात्मक राज्यों में जनसाधारण से उसके चयन का अधिकार छीन लिया जाता है. इस कारण प्लेटो ने निरंकुश राज्य को सबसे बुरा माना है. उसके अनुसार निरंकुश राज्य में नीचे से ऊपर तक सभी स्वार्थलिप्त होते हैं. संसाधनों पर कुछ लोगों का अधिकार होता है. बहुसंख्यक वर्ग से अपेक्षा की जाती है कि वह अल्पसंख्यक शासक वर्ग की मनमानियों को सहते हुए शासन में सहयोग करे तथा राज्य के हित को, जो वास्तव में उसपर शासक वर्ग द्वारा थोपा हुआ उसका स्वार्थ होता है—अपना हित समझकर वर्ताब करे. ऐसे राज्य में मनुष्य सज्जन की संगत को तरस जाता है. दुर्जन उसे चारों ओर से घेरे रहते हैं. परिणामस्वरूप वह अपनी ही अच्छाइयों से कट जाता है. दुष्प्रभाव केवल यहीं तक सीमिन नहीं रहता. अपने चारों और स्वार्थपरक माहौल देख भले नागरिकों का अपनी मूलभूत अच्छाई से भरोसा उठने लगता है. वे मान लेते हैं कि अस्तित्व को बचाए रखने के लिए दुर्जनों के बीच दुर्जन जैसा व्यवहार करना उसकी मजबूरी है. बुराई के लिए आपधापी में अच्छाई की बलि चढ़ा दी जाती है. परिणामस्वरूप लोगों के स्वार्थ प्रबल होने लगते हैं. केवल अपने लिए जीने की होड़ मच जाती है. कुल मिलाकर निरंकुश राज्य नागरिकों को स्वार्थ के लिए प्रेरित करता है. ऐसे समाजों में चूंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए जीता है, इसलिए सामूहिक हितों के लिए संगठित प्रतिरोध की उसकी क्षमता निरंतर घटती जाती है. ऐसे समाजों में न्याय के अवसर विरल हो जाते हैं.

प्लेटो व्यक्ति एवं समाज की अंतःनिर्भरता पर जोर देता है. सामाजिकता की शर्त है कि अन्योन्याश्रितता केवल सुखसुविधाओं और संसाधनों की नहीं, आचारव्यवहार की भी बनी रहे. इस दृष्टि से मनुष्य तथा समाज के बीच बहुत अधिक अंतर नहीं होता. श्रेष्ठ मनुष्य श्रेष्ठ नागरिक भी होता है, किंतु अकेले मनुष्य की श्रेष्ठता क्षणभंगुर होती है. मनुष्य अपने आचारव्यवहार में श्रेष्ठतर बना रहे, उसके लिए समाज की श्रेष्ठता अपरिहार्य है. इस तरह जो मनुष्य के लिए आदर्श है, प्रकारांतर में वह राज्य के लिए भी आदर्श होना चाहिए. न्याय मानव जीवन का उद्देश्य तभी बन सकता है, जब वह समाज का उद्दिष्ट हो. यदि समाज में न्याय का अभाव है तो समझना चाहिए कि राज्य एवं नागरिकों के बीच विश्वास एवं तालमेल की कमी है. विचार को आगे बढ़ाता हुआ प्लेटो लिखता है कि मनुष्य के लिए क्या श्रेष्ठ है, इसे उस समय तक नहीं जाना जा सकता, जब तक हम यह न जान लें कि राज्य के लिए क्या श्रेष्ठ है. अथवा राज्य जो उसके नागरिकों के लिए श्रेष्ठ है, उसे अपने लिए भी श्रेष्ठ न मान ले. निरंकुश राज्य में ऐसा संभव नहीं होता. वहां नागरिकों से न केवल उनके चयन का अधिकार छीन लिया जाता है, बल्कि लोगों को विवश किया जाता है कि वे अपने विवेक से काम लेने के बजाय दूसरों के आदेश का अनुपालन करें. इससे मनुष्य अपने नागरिक धर्म को भूल जाता है. दूसरी ओर वे लोग जो दूसरों के श्रम और अधिकारों पर कब्जा जमाए होते हैं, विरोध की कोई संभावना न देख उनका दुस्साहस बढ़ता ही जाता है. परिणामस्वरूप स्तरीकरण स्थायी रूप ले लेता है. इससे समाज दो हिस्सों में बंट जाता है. एक ओर आज्ञाप्रदाता समूह होता है. दूसरी ओर आज्ञापालक लोग, जो संख्या में बहुसंख्यक होने के बावजूद अधिकारवंचित होने के कारण दबाव में रहने को विवश होते हैं. इससे मनुष्य की मूलभूत पहचान जो उसके मानवीकरण की शर्त के साथ जुड़ी है, धूमिल पड़ने लगती है. अरस्तु ने मनुष्य को सभी प्राणियों में श्रेष्ठ माना है. मनुष्य सबके साथ मिलकर जीने को उत्सुक होता है, इस कारण वह दूसरों से श्रेष्ठ है. परंतु सामूहिकरण की भावना जो पशुओं में भी होती है. यहां तक कि कीटपतंगे भी समूह में जीना जानते हैं. फिर मनुष्य की सामूहिकता और मानवेत्तर प्राणियों की सामूहिकता में क्या अंतर है? अरस्तु के अनुसार मनुष्य की सामूहिकता समाज के रूप में कुछ नियमों से बंधी होती है. या यह कहो कि अपनी सूझबूझ का परिचय देते हुए वह सामाजिक नियमों के रूप में कुछ मर्यादाएं चुनता है. फिर उनके अनुपालन हेतु संस्थाओं का गठन करता है. मानवेत्तर प्राणियों में ऐसा नहीं होता. वहां केवल बल का साम्राज्य होता है. इसलिए जब कोई बलशाली प्राणी अपने से कमजोर पर आक्रमण कर उसके लिए संकट उत्पन्न करता है, तो बाकी जानवरों में उसकी कोई स्थायी प्रतिक्रिया नहीं होती. मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है. मानवसमाज में अधिकार एवं कर्तव्य साथसाथ चलते हैं. परंतु ऐसे समाजों में जहां स्तरीकरण बहुत अधिक हो, समाज शक्तिशाली और शक्तिविपन्न वर्गों में बंटा हो, वहां मिलजुलकर रहने की प्रवृत्ति भी कमजोर पड़ती जाती है. न्यायभावना किसी भी मनुष्य की श्रेष्ठता का मापदंड होती है. न्यायभावना से कटा मनुष्य नितांत जंगली हो सकता है.

कविहृदय प्लेटो आदर्श राज्य के सपने को अपनी कल्पना के जरिये विस्तार देता है. उसका वैचारिक स्तर इतना ऊंचा है कि व्यावहारिक कठिनाइयों को कभी समझ ही नहीं पाता. अरस्तु को मानवव्यक्तित्व की जटिलताओं की समझ अपेक्षाकृत अधिक थी. वह जानता था कि मनुष्य के व्यवहार के बारे में कोई भी सटीक भविष्यवाणी कर पाना संभव नहीं है. यह भी नहीं कहा जा सकता कि किसी मनुष्य में जो गुण आज हैं, वे सदैव बने रहेंगे. इसलिए किसी व्यक्ति का दार्शनिक होना उसके चरित्र का स्थायी लक्षण नहीं है. अपने विचारों की व्याख्या के लिए अरस्तु ने ‘पाॅलिटिक्स’ के तीसरे खंड के तेरहवें अध्याय में पेरियांडर का उदाहरण दिया है. पेरियांडर ने 627 ईस्वीपूर्व से 587 ईस्वीपूर्व तक कोरिंथ पर राज किया था. उसकी गिनती ग्रीक के सात प्राचीन संतपुरुषों में होती है. वह दार्शनिक, कवि, आविष्कारक, योद्धा और श्रेष्ठ प्रशासक था. यातायात साधनों की खोज तथा अनेक महत्त्वपूर्ण भवनों के निर्माण के कई आविष्कारों का श्रेय भी उसे दिया जाता है. किंतु उसका आचरण उसकी विद्वता के सर्वथा विपरीत था. अपने आचरण में वह पूरी तरह निरंकुश, क्रोधी, निर्मम, कठोर और कुटिल तानाशाह था. एक बार उसे अपनी पत्नी लिसिडा पर इतना क्रोध आया कि उसे सीढ़ियों पर ढकेल दिया था, जिसमें उसकी मृत्यु हो गई. पेरियांडर और मेनिटस के राजा थ्रेसीबुलस् के बीच गहरी मैत्री थी. पेरियांडर की भांति थ्रेसीबुलस् भी निरंकुश सम्राट था. मेलिटस और लीडिया के बीच लंबा संग्राम चला था. वर्षों तक चलने वाले युद्ध का कोई परिणाम न निकलता देख दोनों राज्य आपस में समझौते के लिए विवश हो गए. थ्रेसीबुलस ने युद्ध विराम की घोषणा तो कर दी, लेकिन वह अपने विरोधियों को मित्र का दर्जा देने को तैयार न था. इस कारण वह भीतर से बहुत आहत था. सो उसने पेरियांडर से सलाह लेने के लिए उसके पास अपना दूत भेजा. पेरियांडर ने दूत की बातें सुनीं. सलाह देने के बजाय वह दूत को बस्ती से बाहर खेत में ले गया. वहां गेहूं की फसल खड़ी थी. पेरियांडर ने साथ आए सैनिकों को सबसे ऊपर निकली बालियों को काटने का आदेश दिया. उसके इशारे पर सैनिकों ने सबसे ऊपर दिखने वाली बालियों को काटकर जमीन पर बिछा दिया. उसके बाद थ्रेसीबुलस् के दूत को वापस लौटा दिया. दूत की कुछ समझ न आया. उसने वापस लौटकर जो कुछ घटा था, सम्राट को बता दिया. सुनकर थ्रेसीबुलस् की आंखों में चमक आ गई. वह पेरियांडर का इशारा समझ गया. सबसे ऊंची बालियों को नष्ट कर देने का अर्थ जो उसने निकाला वह था, अपने सभी प्रमुख विरोधियों का निर्ममतापूर्ण सफाया. अरस्तु का निष्कर्ष था कि सत्ताएं अपना विरोध नहीं सह पातीं. गणतांत्रिक सरकारें तानाशाहों की भांति कठोर फैसले लेने से बचती हैं, लेकिन विरोधियों को वे भी अपवादस्वरूप ही पचा पाती हैं. विरोधियों के क्रूरतापूर्ण दमन से बचते हुए वे आरंभ में अपेक्षाकृत उदार दिखने वाले रास्ते अपनाती हैं. उनकी पहली कोशिश विरोधियों के संगठन को तोड़ने की होती है. फिर उनमें से एक पक्ष को बहलाफुसला या सत्ता में हिस्सेदार बनाकर अपने पक्ष में कर लिया जाता है. यदि उससे समाधान की संभावना कम हो अथवा कोई अड़ जाए राष्ट्रहित का हवाला देते हुए देशनिकाले जैसी सजा देकर उससे मुक्ति पा ली जाती है.

अरस्तु आदर्श और व्यवहार के अंतर को वह भलीभांति समझता था. प्लेटो आदर्श से तनिक पीछे हटने को तैयार न था, जबकि अरस्तु आदर्श और व्यवहार में संतुलन बनाए रखने का समर्थक था. व्यावहारिकता से जराभी पीछे हटे बिना वह समाज में नैतिकता और अनुशासन को बनाए रखने का समर्थन करता है. व्यावहारिक आदर्शोन्मुखता उसके दर्शन का मुख्य लक्षण है. उल्लेखनीय है कि ‘पाॅलिटिक्स’ की रचना से पहले उसने 158 नगरराज्यों के संविधानों का अध्ययन किया था. अंततः वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि प्रत्येक राजनीतिक दर्शन स्वयं में अपूर्ण है. केवल चरित्र की ईमानदारी और निष्ठा से अपेक्षित लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है. किसी एक व्यक्ति अथवा समूह द्वारा भी उन आदर्शों को प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसके लिए समाज के सभी वर्गों के बीच आपसी सहयोग और तालमेल आवश्यक है. समाजवाद की भाषा में कहें तो सब एक के लिए और एक सबके लिए जीने को तैयार हो, तभी अपेक्षित लक्ष्यों की प्राप्ति संभव है. राजनीति के आधुनिक पंडित राजतंत्र की आलोचना इस आधार पर करते हैं कि वहां राजा वंशानुगत आधार पर सत्ता ग्रहण करता है. एक ही वर्ग की मनमानी चलती रहती है. महत्त्वपूर्ण निर्णय लेते समय जनता से सलाहमशविरा करने अथवा लोगों की इच्छाओं का सम्मान करने की जरूरत ही नहीं समझी जाती. प्रायः सत्ता पक्ष की पसंदों को प्रजा की पसंद या उसके लिए सर्वथा हितकारी बनाकर लाद दिया जाता है. ऐसे समाजों में संपन्न लोगों की चलती है और न्याय की संभावना अत्यंत विरल हो जाती है. जबकि अरस्तु के अनुसार न्याय प्रत्येक व्यवस्था का अंतिम उद्देश्य होना चाहिए. तदनुसार न्याय की दृष्टि में जो श्रेष्ठ है, वही राज्य के गठन का उद्देश्य भी है. इसलिए राजतंत्र हो अथवा लोकतंत्र, यदि उसका शासन समाजीकरण की प्रक्रिया को मजबूत बनाते हुए राज्य के उद्देश्यों के प्रति समर्पित है, यदि वह राजकर्म को समाज द्वारा सौंपी गई जिम्मेदारी मानता है तो उसे अनैतिक नहीं माना जा सकता. हालांकि अकेले व्यक्ति के हाथों में सत्ता आने पर उसकी मनमानी के आसार अधिक होते हैं. राजतंत्र में प्रायः यह सोचकर कि राजा के सुख में ही प्रजा का सुख निहित है—नीतियां बनाई जाती हैं. इसलिए प्रजा की पसंदों के बारे में पता ही नहीं चल पाता. प्रजा भी राज्य की ओर से उम्मीद खो बैठती है. उस अवस्था में राज्य के गठन का औचित्य ही समाप्त हो जाता है. यदि प्रजा की उदासीनता बहुत अधिक बढ़ जाए तो वह राज्य की प्रवृत्ति तथा उसके बदलाव में रुचि लेना छोड़ देती है. इससे शीर्ष पर बैठे लोगों की मनमानियां बढ़ती जाती हैं.

भारत में राजा नामक संस्था को असुरों की देन बताया गया है. ऐतरेय ब्राह्मण में रोचक प्रसंग आया है—‘‘देव और असुर परस्पर युद्धरत रहते थे. दोनों के बीच पूरब दिशा में युद्ध हुआ. उसमें देवता पराजित हुए. अगली लड़ाई दक्षिण में हुई. उसमें भी असुरों की जीत हुई. उसके बाद पश्चिम में युद्ध हुआ. असुरों ने एक बार पुनः देवताओं को पराजित किया. फिर उत्तर दिशा में युद्ध हुआ. देवता उस युद्ध में भी पराजित हुए. उसके बाद वे उत्तरपूर्व में युद्धरत हुए. इस बार देवताओं की विजय हुई. देवताओं ने माना, वह दिशा ‘अपराजेय’ है….केवल वही दिशा थी, जिसमें देवताओं को जीत मिली. अंततः देवताओं को समझ आया—‘हम इसलिए पराजित हुए, क्योंकि हमारा कोई राजा नहीं है.’ उसके बाद उन्होंने सोम को अपना राजा चुना.’’ उसके बाद राजा नियुक्ति की जाने लगी. यजुर्वेद में राजा को उसके कर्तव्यों के बारे में चेताते हुए कहा गया है—‘तुम्हें यह राष्ट्र सौंपा जाना है—प्रजा के क्षेम तथा उसके सर्वविध पोषण, कृषि की उन्नति एवं बहुआयामी विकास के लिए.’ अथर्ववेद में कहा गया है—‘प्रजा के सुख में ही राजा का सुख, प्रजा कल्याण में राजा का कल्याण निहित है. लेकिन कल्याण का स्वरूप क्या हो? प्रजा के सुख को तय करने वाले मापदंड कैसे हों? क्या यह संभव है कि कोई एक सुख प्रजा के सभी सदस्यों के लिए समानरूप से सुखकारी हो? राजतंत्र चूंकि किसी एक व्यक्ति या चुने हुए व्यक्तियों के समूह की इच्छा द्वारा नियंत्रित होता है, इसलिए राजतंत्र में इन प्रश्नों को प्रायः अनसुना कर दिया जाता है.

देवासुर संग्राम एक प्रतीक है. मिथकीय आख्यान. परंतु यह ऐतिहासिक सत्य है कि प्राचीन भारत में लंबे समय तक यही हाल रहा. छोटेछोटे राज्य आपस में लड़ते रहते थे. इसलिए प्रजा ‘कोऊ नृप होय हमें क्या हानि’—कहकर राज्य और राजा दोनों की ओर से उदासीन बनी रहती थी. यहां तक कि सत्ता केंद्र पूरी तरह बदल जाने पर भी परिवर्तनों पर उसका ध्यान नहीं जाता था. सामान्यतः इसे राजनीति की असफलता कहा जाएगा. क्योंकि वह उन लोगों के राज्य का नेतृत्व करने का दावा करती थी, जिन्हें पता ही नहीं होता कि उनका राज्य के प्रति और राज्य का उनके प्रति क्या कर्तव्य है? न ही यह मालूम होता है कि राज्य समाज से ऊपर नहीं, बल्कि समाज द्वारा खुद को व्यवस्थित रखने के लिए गढ़ी गई संस्था है, जिसपर एकमात्र जनता का सर्वाधिकार है. यदि उन्हें या उनमें से किसी एक को राज्य की ओर से कुछ समस्या है तो इसका कारण केवल राज्य की दुर्बलता नहीं, बल्कि उनका अपने ही अधिकारों के प्रति उपेक्षाभाव भी है. असल में वे जान ही नहीं पाते कि वास्तविक समस्या राज्य को उत्तराधिकार का विषय और केवल शक्तिकेंद्र समझकर उसपर काबिज होने, फिर उन कर्तव्यों से पलायन से जन्म लेती है, जो राजा नामक संस्था के लिए विहित हैं. इसलिए अरस्तु ने राजतंत्र की आलोचना करने के बजाए राजा के आदर्शों पर ज्यादा जोर दिया है. उसका विचार था कि जिस व्यक्ति में नेतृत्व का गुण हो, वही राजा है. स्टोइक विचारकों के अनुसार केवल वही व्यक्ति सम्राट बनने का अधिकारी था, जो आचरण में सर्वश्रेष्ठ तथा राजपद के लिए अपेक्षित योग्यताएं रखता हो. सुकरात का विचार था कि राजा उसे बनाना चाहिए जिसमें राजा के लिए अपेक्षित सभी गुणों का समावेश हो. इस तरह सिद्धांत के स्तर पर राजशाही में भी लोकहित को साधने पर जोर दिया जाता है. परंतु यदि समाज का बहुसंख्यक समुदाय ही राज्य, उसकी गतिविधियों और अपने अधिकारों की ओर से उदासीन हो जाए तो शिखर पर बैठे लोगों को मनमानी का अवसर सहज ही मिल जाता है. अरस्तु का विचार था कि यदि नागरिक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक तथा शासक वर्ग कर्तव्यों के प्रति पूर्णतः सचेत हो तो कोई भी राजनीतिक दर्शन राज्य के उद्देश्यों को प्राप्त कर सकता है. इसलिए दोष किसी विचार अथवा विचारधारा का न होकर उसका सही अनुपालन न करने तथा राजनीतिज्ञों के स्वार्थ से घिर जाने का है. इसलिए उसने कहा था—

‘कम से कम आधी राजनीति उपलब्ध संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण तथा परिस्थितियों का श्रेष्ठतम उपयोग करने में है.’

ऐसा नहीं है कि अरस्तु राजनीतिक परिवर्तन की संभावनाओं अथवा उसमें नए चिंतन और विचारों को अनावश्यक मानता था. उसका विचार था कि राजनीतिक दर्शनों में सुधार की भरपूर संभावना है. उसके लिए राज्य एवं नागरिकों का आपसी विश्वास एवं सहयोग आवश्यक है. यह तभी संभव है जब राज्य के सभी नागरिक श्रेष्ठतम आचरण का प्रदर्शन करें, तथा राज्य के केंद्र पर आसीन शक्तियां अपने कर्तव्यों के प्रति पूरी तरह सजग एवं समर्पित हों. आदर्श राज्य को लेकर कुछ ऐसा ही स्वप्न प्लेटो का भी था. क्या दोनों का परिकल्पनाएं समान हैं? यदि कुछ अंतर है तो क्या है? ‘दि लाॅज’ प्लेटो की प्रौढ़ वयस् की रचना है. उसकी गिनती राजनीतिक दर्शन की श्रेष्ठतम कृतियों में की जाती है. प्लेटो ने उसमें आदर्श राज्य की संकल्पना को प्रस्तुत किया है. अरस्तु को वह परिकल्पना अव्यावहारिक लगती है. प्लेटो के विचारों को सर्वथा मौलिक और अनुपम बताकर वह उसकी प्रशंसा करता है, साथ में यह भी जोड़ देता है कि उसके विचार उत्कृष्ट वैचारिकता से भरपूर होने के साथसाथ, अत्यधिक क्रांतिकारी किंतु अतिकल्पनात्मक हैं. उसके शब्दों में छिपी व्यंग्यरेख को नजरंदाज नहीं किया जा सकता. अप्रत्यक्ष रूप से वह प्लेटो के विचारों को अव्यावहारिक करार देता देता है. इसका आशय यह नहीं है कि राज्य के लिए जिस उच्चतम आदर्शं की परिकल्पना प्लेटो करता है, उसके स्वरूप एवं संचालन को लेकर अरस्तु की उससे कुछ कम अपेक्षाएं हैं. देखा जाए तो दार्शनिक सम्राट के रूप में उसकी कामना ऐसे महामानव की है जो उच्च मानवादर्शों से युक्त हो. जो लोगों की समानता और स्वतंत्रता में विश्वास रखता हो. उनके सुख एवं सुरक्षा में संवृद्धि के प्रति पूरी तरह संकल्पबद्ध हो. ऐसा महामानव मिलना असंभव है. यदि चमत्कारस्वरूप मिल भी जाए तो उसके परिवत्र्ती सम्राट उसी की भांति गुणवंत होंगे इसकी संभावना अत्यंत विरल है. समय के साथ स्वयं व्यक्ति के आदर्श एवं प्राथमिकताओं में बदलाव आ सकता है. आदर्श राज्य के लिए ‘दार्शनिक सम्राट’ की अनुशंसा करते समय प्लेटो प्रकारांतर में राजतंत्र का ही पक्ष लेता है, जिसमें राजा की इच्छा सर्वोपरि होती है. जबकि व्यक्ति वह चाहे जितना उदार क्यों न हो, अपने ईमानदार सोच, संपूर्ण सदेच्छा और समर्पण के साथ काम भी करता हो, यह आवश्यक नहीं कि जिसे वह विस्तृत जनसमाज के लिए हितकारी मानता है, वह उसके लिए वास्तव में उतना ही हितकारी हो. पेरियांडर का उदाहरण पीछे दिया गया है. छब्बीस शताब्दी पहले ग्रीक में जन्मा पेरियांडर एक साथ वीर, दूरदृष्टा, आविष्कारक, कुशल प्रशासक, महत्त्वाकांक्षी सम्राट आदि सबकुछ था. उसके शासन के दौरान कोरिंथ ने खूब तरक्की की. कई नए आविष्कार उसने किए. महत्त्वपूर्ण इमारतों का निर्माण कराया, परंतु समय के साथ उसकी मान्यताओं में बदलाव आता गया. आज कुछ लोग उसे तानाशाह के रूप में पहचानते हैं, जबकि कुछ के लिए जो उसके आरंभिक जीवन के कार्यकलापों पर अटके रहते हैं, पेरियांडर संत की हैसियत रखता है. ठीक ऐसे ही जैसे राम के बारे में कहा जाता है. रामराज्य को आदर्श बताने वालों के लिए राम इतना आदर्श राजा है कि वे उसे ईश्वर का दर्जा देते है. परंतु जो लोग उसे शंबूक हत्या का दोषी मानते हैं, उनकी निगाह में वह निरंकुश सम्राट है.

अरस्तु ने वैज्ञानिक का स्वभाव पाया था. उस समय मौजूद संविधानों का अध्ययन करने के पश्चात वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि कोई भी राजनीतिक दर्शन अंतिम रूप से आदर्श नहीं हो सकता. अनेक ऐसे राज्य हैं जहां राजतंत्र था, जहां राजा ने लोककल्याण के प्रति अपने दायित्व को समझते हुए लोकहित में बड़ेबड़े काम किए, वहीं अल्पतंत्र, कुलीनतंत्र, गणतंत्रादि के अनेक ऐसे उदाहरण हैं जो जनता की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर सके. कुल मिलाकर राजनीतिक दर्शनों को लेकर अरस्तु का सीधासीधा उपयोगितावादी दृष्टिकोण था, जिसमें वह राज्य के नैतिक आचरण पर जोर देता है. ‘अंत भला सो सब भला’—यदि किसी राजनीतिक तंत्र का कामकाज कल्याणकारी और राज्य के आदर्शों के अनुरूप है, जो नागरिकों के लिए इससे कोई अंतर नहीं पड़ता किस दर्शन का अनुगामी है. परंतु क्या सचमुच ऐसा ही है. यह ठीक है कि राजा यदि उदार और आदर्शोन्मुख है तो वह निस्वार्थ भाव से लोककल्याण की नीतियां अपनाएगा. परंतु ऐसे राजा के अधीन राज्य में अनुकूल परिस्थितियों की गारंटी केवल उस राजा के जीवन या सत्तासीन रहने तक सीमित होगी. राजा बदलने के साथ ही राज्य का नागरिकों के प्रति व्यवहार बदल सकता है. अब यदि लोगों को अपना राजा चुनने की सुविधा न हो, और राजसत्ता उत्तराधिकार में अंतरित होती हो तो अथवा कुछ समय तक सत्तासीन रहने के बाद सम्राट नागरिकों के प्रति अपने कर्तव्य को भूल जाए तो सारे परिणाम उलट सकते हैं. दूसरे यह कतई आवश्यक नहीं है कि आदर्श राजा का उत्तराधिकारी भी उन्हीं आदर्शों का अनुगामी हो. आशय है राजतंत्र में आदर्श की उपस्थिति यदि हो भी तो वह अल्पकालिक होती है. पीछे पेरियांडर का उदाहरण आया है, जिसकी आरंभ में एक संत के रूप में प्रतिष्ठा थी. परंतु आगे चलकर वह निरंकुश सम्राट के रूप में कुख्यात हुआ. यह कभी भी, किसी भी राज्य में संभव है. ऐसे में राजतंत्र की सीमा अपने आप निर्धारित हो जाती है. लेकिन इससे अरस्तु का कहना गलत नहीं हो जाता. ध्यान रखना चाहिए कि वह आदर्श राजनीतिक दर्शन की बात न कहकर राज्य के आदर्श की बात कर रहा है.

इस निष्कर्ष में अरस्तु के अपने निष्कर्षों का बड़ा योगदान था. राजतंत्र को लेकर प्लेटो के जीवनानुभव बहुत ही कड़बे थे. आरंभ में सायराक्स के सम्राट डायनोसियस से उसके अच्छे संबंध थे. उसका संबंधी प्लेटो का गहरा शिष्य था. परंतु कुछ ही अवधि के बाद डायनोसियस प्लेटो का दुश्मन बन गया. नाराज होकर उसने प्लेटो को दास के रूप में बेचना चाहा. कुछ मित्रों की मदद से बड़ी मुश्किल से प्लेटो खुद को बचा पाया था. एथेंस के लोकतंत्र को वह सुकरात की हत्या का दोषी मानता था. उसके सापेक्ष अरस्तु के व्यक्तिगत अनुभव बहुत अच्छे थे. उसके पिता सिकंदर के दादा के राजदरबार में थे. जहां राजतंत्र था. एक अन्य राजतंत्र माइसिया के राजा से उसके व्यक्तिगत संबंध हमेशा ही अनुरागपूर्ण थे. एथेंस के गणतंत्र ने उसका स्वागत किया था तो सिंकदर जैसे महत्त्वाकांक्षी सम्राट उसका मित्र था और कदमकदम पर उसकी मदद करता रहता था. व्यक्ति के जैसे अनुभव हों, उसके विचारों की देहयष्टि उसी के अनुसार ढलती चली जाती है. सुकरात का संबंध साधारण शिल्पकार परिवार से था. सोफिस्टों के बौद्धिक वितंडा को उसने गहराई से देखासमझा था. सोफिस्टों का केवल सत्तावादी नजरिये से जीवन को देखना समझना उसे बहुत अखरता था. उसे लगता था कि समाज की अनेक समस्याएं दिखावे की संस्कृति की वजह से हैं. यहां तक कि गणतांत्रिक शासन प्रणाली भी जिसपर एथेंस को गर्व करता है, दिखावे की संस्कृति का शिकार है. जबकि सत्य दिखावे की नहीं, आत्मसात करने, आचरण में उतारने की वस्तु हैै. इसलिए उसने सोफिस्टों का विरोध किया था, जो तर्क को दूसरों को प्रभावित की कला मानते थे. सोफिस्टों को समाज का समर्थन था. सुकरात का मानना था कि कोरे तर्क को ज्ञान का पर्याय समझने वाले सोफिस्टों को तर्क के आधार पर ही परास्त किया जाए. उसके लिए उसने ऐसी तर्कशैली विकसित की, जिससे सामने वाला स्वयं निरुत्तर हो जाता था. वह कोरे वितंडा से परे, किसी भी निष्कर्ष से पूर्व ज्ञान को प्रत्येक कोण से परख लेने की नीति थी. जिसके लिए विषय का सर्वांगीण बोध आवश्यक था. जाहिर है सोफिस्टों को इसका अभ्यास न था. इसलिए न्याय पर विमर्श के दौरान थ्रेचाइमच्स जैसा सोफिस्ट विद्वान भी सुकरात के आगे पराजय स्वीकारने को विवश हो जाता है.

वस्तुतः राजनीतिक आदर्श के रूप में अरस्तु राज्य के जिस स्वरूप की कल्पना करता है, उसमें और प्लेटो के दर्शन में विशेष अंतर नहीं है. ‘आदर्श राज्य’ के रूप में प्लेटो जो कल्पना करता है, अरस्तु उसी सपने को ‘राज्य के आदर्श’ के रूप में साकार करना चाहता है. इस तरह हम अरस्तु के विचारों पर प्लेटो के दर्शन की छाया देख सकते हैं. बावजूद इसके अरस्तु के विचारों को प्लेटो के दर्शन की पुनरावृत्ति नहीं कहा जा सकता. ‘राज्य के आदर्श’ को परिपक्व दर्शन के रूप में विस्तार देने से पहले वह प्लेटो के ‘आदर्श राज्य’ से उतनी ही प्रेरणा लेता है, जितनी आवश्यक है. ‘लाॅज’ में प्लेटो का यह विचार कि न्याय सभ्यताकरण की कसौटी है तथा न्याय से ही मानव ने सभ्यता का पाठ पढ़ा है—अरस्तु के दर्शन के लिए प्रस्थान बिंदू का काम करता है.

न्याय की व्याख्या करते हुए अरस्तु उसके दोनों रूपों पर विचार करता है. पहला वह जिसके बारे में सामान्यजन सोचता है कि न्याय कानून के तत्वावधान में अदालतों के जरिये प्राप्त होता है. इसके साथसाथ वह मनुष्य के आचरण एवं व्यवहार की व्याख्या करता है. न्याय का यह रूप नागरिक और राष्ट्रराज्य के कानून के अंतर्संबंध को दर्शाता है. उन अनुबंधों की ओर इशारा करता है, जिनसे कोई नागरिक सभ्य समाज का नागरिक होने के नाते जन्म के साथ ही जुड़ जाता है. प्रकारांतर में वह बताता हे कि आदर्शोंन्मुखी समाज में मनुष्य का आचरण एवं कर्तव्य किस प्रकार के होने चाहिए, ताकि समाज में शांति, सुशासन और आदर्शोन्मुखता बनी रहे. प्रायः सभी समाजों में कानून को नकारात्मक ढंग से लिया जाता है. बातबात पर कानून का हवाला देने वालीं, उसके अनुपालन में लगी शक्तियां प्रायः यह मान लेती हैं कि बुराई मानवस्वभाव का स्थायी लक्षण है. जो बुरा है, उसे केवल दंड के माध्यम से बस में रखा जा सकता है. कि मानवव्यक्तित्व पर आज भी अपने उन पूर्वजों के लक्षण शेष हैं जो कभी जंगलों में जानवरों के बीच रहा करते थे. कुछ व्यक्तियों में पाशविक वृत्ति ज्यादा प्रभावी होती है. ऐसे लोगों पर बलप्रयोग उन्हें अनुशासित रखने का एकमात्र उपाय है. है. इसलिए सभ्यताकरण के आरंभ से ही दंडविधान की व्यवस्था प्रत्येक समाज और संस्कृति में रही है. इसे पुष्ट करने के लिए धर्म और संस्कृति से जुड़े ऐसे अनेक किस्से हैं, जिनसे हमारा संस्कार बनता है. स्वर्गनर्क की कल्पना भी इसी का हिस्सा है. उनमें से अधिकांश पर विजेता संस्कृति का प्रभाव है. आधुनिक संदर्भों में वह चाहे जितना लोकतंत्र और मानवस्वांतत्रय का विरोधी हो, प्राचीन इतिहास, धर्म और संस्कृति का हिस्सा होने के कारण उसे धरोहर के रूप में सहेजा जाता है.

प्राचीनकाल में जब अदालतें नहीं थीं, तब न्याय करने की जिम्मेदारी बस्ती के मुखिया या समूह के वरिष्ठ सदस्य जिसकी निष्पक्षता असंद्धिग्ध हो—की होती थी. इस्लामी शासन के दौरान यह जिम्मेदारी काजी के कंधों पर आ पड़ी. राजशाही में राजा को सर्वेसर्वा माना जाता था. दरबार में आए मामलों की सुनवाई के लिए न्यायाधिकारी और दंडाधिकारी दोनों की जिम्मेदारियां वही संभालता था. दंडविधान का आधार परंपरागत अथवा लिखितअलिखित विधिसंहिताओं को बनाया जाता था. किसी न किसी रूप में वे सभी धार्मिक उपादानों द्वारा शासितअनुशासित होती थीं. उसका लाभ धार्मिक कार्यकलापों में लिप्त ‘धंधेबाज’ उठाते थे. उदाहरण के लिए भारत में एक जैसे अपराध के लिए ब्राह्मणों तथा शूद्रों के लिए अलगअलग दंडविधान था. ब्राह्मणों को मृत्युदंड निषिद्ध था, जबकि ब्राह्मणेत्तर वर्गों के लिए इस तरह की कोई पाबंदी न थी. चूंकि दिए गए दंड के विरुद्ध अपील के बहुत कम अवसर थे, इसलिए जनसाधारण मजबूरी में दैवीय न्याय की उम्मीद करने लगता था. आज भी ऐसे लोग कम नहीं हैं. उनका मानना है कि एकमात्र ईश्वर सच्चा न्यायकर्ता है. जिन्हें अपराधी होने के बावजूद इस जन्म में दंड नहीं मिला, वे ईश्वर के दरबार में अवश्य ही दंडित किए जाएंगे—इस विश्वास के साथ साधारणजन बड़े से बड़े अनाचार को पचाते चले जाते थे. आधुनिक समाजों में न्याय की जिम्मेदारी अदालतों पर होती है. उनका आचरण संवैधानिक मर्यादाओं से आबद्ध रहता है. इसलिए यह व्यवस्था न्याय के अपेक्षाकृत अनुकूल है. इसके अनुसार राज्य अपने नागरिकों से अपेक्षा करता है कि वे कानून सम्मत व्यवहार करें, ताकि राज्य को उनके जीवन में हस्तक्षेप की आवश्यकता ही न पड़े. जो व्यक्ति अपने आचरण द्वारा दूसरे व्यक्ति के जीवन में अमर्यादित हस्तक्षेप करता है, वह राज्य को अपने जीवन में हस्तक्षेप करने का अधिकार दे देता है. दूसरों के जीवन में अवांछित और अमर्यादित हस्तक्षेप को राज्य अपराध मानता है. दूसरों के जीवन में अवांछित हस्तक्षेप करने वाला व्यक्ति अपनी निजता का अधिकार भी गंवा देता है. तदनुसार राज्य को समाज द्वारा प्राप्त शक्तियों के बल पर उस व्यक्ति के जीवन में हस्तक्षेप करने का अधिकार स्वतः हासिल हो जाता है. चूंकि राज्य पर समाज में शांति और अनुशासन बनाए रखने की जिम्मेदारी भी होती है, इसलिए वह अपराधी के विरुद्ध दंडनीति के तयशुदा प्रावधानों के अनुसार कार्रवाही करता है. न्याय का यह लोकप्रचलित रूप व्यक्ति के कर्तव्य पालन से जुड़ा है, जिसमें विचलन होते ही दंडनीति प्रभावी हो जाती है. प्रायः इसे सभ्यताकरण की अनिवार्यता के रूप में अपनाया जाता है. जनसाधारण न्याय के इसी रूप से सर्वाधिक प्रभावित होता है.

न्याय का दूसरा रूप कानून और अदालतों से प्राप्त होने वाले न्याय से अलग है. पहला जहां राज्य के अधिकारपक्ष के निकट है, दूसरा उसके कर्तव्य पक्ष की महत्ता एवं कार्यक्षेत्र को व्यापकता दर्शाता है. सिसरो के अनुसार राज्य जनता का सर्वाधिकार है. चूंकि राज्य का गठन लोगों द्वारा सामान्य हितों की पूर्ति हेतु किया जाता है, अतएव उसका वही कृत्य न्यायपूर्ण कहा जाएगा, जो उसके द्वारा संपूर्ण विवेक, निष्पक्षता, समानता और सर्वजन के विकास की चाहत के साथ उठाया जाता है. वह राज्य की नैतिकता तथा उसके गठन के औचित्य को दर्शाता है. अरस्तु इसे और भी स्पष्ट कर देता है. उसके अनुसार अन्याय केवल दूसरों के जीवन में अवांछित हस्तक्षेप, उसका प्रताड़न; अथवा मान्य कानूनों का उल्लंघन करने तक सीमित नहीं है. बल्कि दूसरों के अधिकारों का हनन करना, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित कर देना, जो नागरिकों के प्रति राज्य का कर्तव्य भी हैं—अन्याय की सीमा में आता है. आखिर मनुष्य के अधिकारों की पहचान कैसे हो? इस बात में कैसे अंतर किया जाए कि जो अधिकार किसी एक व्यक्ति का है, वह दूसरे का भी है अथवा नहीं है? तथा उनके आकलन की कसौटी क्या है?

सवाल और भी हैं. जब हम कहते हैं कि भरपेट भोजन प्राप्त करना मनुष्य का अधिकार है? सभ्य समाज में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाएं प्रत्येक व्यक्ति को आसानी से प्राप्त होनी चाहिए, तो इस तर्क का आधार क्या होता है? क्यों न मान लिया जाए कि जो व्यक्ति जीवन में अतिरिक्त रूप से सफल होते हैं, उसके पीछे उनकी अपनी मेहनत और प्रतिभा का भी कमाल होता है. लोकहित में आवश्यक है कि समाज के सभी सदस्य एकदूसरे के हितों का ध्यान रखें. लेकिन यह भी जरूरी है कि योग्य व्यक्ति को उसकी योग्यता का लाभ खुद भी प्राप्त हो. परंतु इतनेभर से समस्या का समाधान नहीं हो जाता. मान लीजिए, दो मजूदर किसी कारखाने में काम करते हैं. उनमें एक की क्षमता दस नग प्रतिदिन तैयार करने की है. दूसरा उतने ही समय में बीस नग बना देता है. तो जो कारीगर बीस नग प्रतिदिन बनाता है, उसके उत्पादन क्षमता का लाभ दस नग प्रतिदिन बनाने वाले के साथ बांट देना क्या उसके प्रति अन्याय नहीं होगा? यदि किसी व्यक्ति को लगे कि उसके उत्पादन का लाभ उसे नहीं मिल रहा है, तो क्या वह अपनी पूर्ण क्षमता के साथ लगातार काम कर पाएगा? अपने लाभ को दूसरों में बंटते देख क्या वह हतोत्साहित नहीं होगा? चलताऊ ढंग से सोचें तो बात एकदम सच जान पड़ेगी. पूंजीवादी अर्थतंत्र कहता है, श्रमिक को उसके श्रम का पूरा लाभ मिले. दावा करता है कि केवल वही है जो श्रमिक को उसके श्रम का पूरा लाभ दिला सकता है. लाभ का आकलन केवल भौतिक मुद्रा के आधार पर करने वाले पूंजीवाद की निगाह में यही न्याय है. ऐसे ही तर्क देकर वह श्रमिकों को बांटे रखता है. वहां इसे स्पर्धा का नाम दिया जाता है. परिणाम यह होता है कि जो मजदूर बीस नग प्रतिदिन बनाता है, वह निरंतर आगे निकलता जाता है. जबकि दस नग बनाने वाला कारीगर स्पर्धा में पिछड़ता चला जाता है. वृहद संदर्भों में यह स्पर्धा दो कारखानों के बीच भी देखी जा सकती है. चूंकि समाज में विशिष्ट लोगों की संख्या बहुत कम होती है, अधिकांश दस नग प्रतिदिन बनाने वाले कामगार जितने ही कार्यक्षम होते हैं. इसलिए अपने उत्पाद का सारा लाभ खुद रखने वाला कामगार स्पर्धा में निरंतर आगे निकलता चला जाता है. इससे समाज में आर्थिक विभाजन बढ़ता चला जाता है. इसका समाधान क्या है? अरस्तु इतना उदार नहीं है कि वह बीस नग बनाने वाले के श्रमलाभों वाले कामगार के लाभ को दस नग प्रतिदिन बनाने वाले श्रमिकों के बीच बांटने पर सहमत हो जाए. इस असमानता को वह प्राकृतिक मानता है. अरस्तु के समय में मौद्रिक लाभ की अवधारणा इतनी पुष्ट नहीं थी, जैसी वह आज है. इसलिए उसका समाधान भी आज के संदर्भों में ही खोजना पड़ेगा.

ऊपर के उदाहरण में मान लिया गया है कि बीस नग प्रतिदिन बनाने वाले कारीगर की उत्पादन क्षमता केवल उसकी अपनी उपलब्धि है. यहां व्यक्ति के कौशलनिर्माण में उसके परिवेश के प्रभाव जो एक तरह से उसका योगदान ही है, बिसरा दिया गया है. मनुष्य और उसके समाज के बीच का संबंध आपसी लेनदेन का होता है. जो समाज को अधिक लौटाते हैं, या जिनसे समाज को अधिकाधिक लौटाने की अपेक्षा की जाती है, वे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में समाज से अधिक ग्रहण भी करते हैं. यदि किसी विद्वान की बात करें तो पहले वह पीढ़ियों से अर्जित ज्ञान का अध्ययनमनन करता है, तदनंतर अपने विचारों को सामने लाता है. इस तरह से वह अपने पूर्ववर्ती विद्वानों का कर्जदार होता है. अतएव जो व्यक्ति समाज से जितना अधिक ग्रहण करता है, समाज को उसी अनुपात में वापस लौटाना उसका कर्तव्य भी है. इसमें मौद्रिक लेनदेन आवश्यक नहीं है. इसलिए इसका समाधान भी अकेले मौद्रिक लेनदेन द्वारा संभव नहीं है. उचित यही है कि मौद्रिक लाभ के स्थान पर सामाजिक लाभ की अवधारणा को स्थापित किया जाए. शांति और खुशहाली के लिए आवश्यक है कि समाज में आर्थिक विभाजन न्यूनतम हो. कुशल कामगार को यह समझाया जाए कि उसकी उपलब्धियां केवल उस अकेले की नहीं हैं. उनमें उसके परिवेश जिसमें उसके मित्र, संबंधी, पड़ोसी यहां तक कि दुश्मन भी सम्मिलित हैं, सभी का साझा है. इसी तरह धनपति को मालूम होना चाहिए कि उसके लाभ पर सिर्फ उसका अधिकार नहीं है, उन श्रमिकों और कारीगरों का भी योगदान है, जो रातदिन मेहनत करने अपने मालिक की समृद्धि को संभव बनाते हैं. अरस्तु राज्य से अपेक्षा रखता है कि दस नग बनाने वाले को निरंतर प्रोत्साहित करता रहे. और बीस नग प्रतिदिन बनाने वाले कामगार को इस बात के लिए राजी करे कि वह मौद्रिक लाभों के बजाए सामाजिक लाभों पर भी ध्यान दे, ताकि दो भिन्न उत्पादनक्षमता वाले कामगारों के बीच अधिकतम समानता संभव हो सके.

समाजीकरण मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है. यदि केवल किसी एक व्यक्ति के सुखदुख, गुणदोष का मामला हो तो समाजीकरण की आवश्यकता ही न पड़े. समाज न तो विशिष्ट व्यक्ति की चयन है, न ही व्यक्तियों की विशिष्ट पसंद. मनुष्यों की सामूहिक सृष्टि है. उसका सृजन सामूहिक रूप से सर्वकल्याण के उद्देश्य से किया जाता है. समाज की जरूरत उस व्यक्ति को भी पड़ती है, जिसकी आवश्यकता व्यक्ति के अस्तित्व से जुड़ी है. इसकी इच्छा वह व्यक्ति भी करता है, जो अतिरिक्त रूप से गुणी और संपन्न है. इसके कारणों में मामूली अंतर हो सकते हैं. जो व्यक्ति जीवन में अतिरिक्त रूप से कामयाब होते हैं, वे अपनी सफलता से दूसरों को प्रभावित करना चाहते हैं. प्रजा न हो तो राजा का होना अर्थहीन हो जाए. इसी तरह अमीर को अपनी अमीरी का प्रदर्शन करने के लिए गरीब की जरूरत पड़ती है. कह सकते हैं कि मनुष्य की किसी भी उपलब्धि का महत्त्व दूसरों के साथ, उन सबके सापेक्ष है. असफलता सफलता की पहली और निर्णायक कसौटी है. असफल व्यक्ति जितने अधिक संख्या में होंगे, सफलता का मूल्य उतना ही अधिक आंका जाएगा. यही प्रवृत्ति न्याय की जरूरत पर बल देती है.

ऊपर संकेत किया गया है कि किसी व्यक्ति की सफलता केवल उसके गुणों पर निर्भर नहीं करती. इस बात पर भी निर्भर करती है कि उस व्यक्ति को जीवन में कामयाबी दर्ज कराने के लिए कितने अवसर और संसाधन प्राप्त थे. तुलना यदि प्राकृतिक स्तर पर हो तो सफल और असफल व्यक्तियों में बहुत अंतर नहीं होता. युद्ध में किसी राजा की जीत केवल इसपर निर्भर नहीं करती कि वह स्वयं कितना बहादुर है, बल्कि उसकी ओर से लड़ रहे सैनिकों की संख्या तथा राजा के प्रति उनकी निष्ठा पर भी निर्भर करती है. इसलिए अपनी सत्ता की सुरक्षा और स्थायित्व के लिए शासक वर्ग स्वामीभक्ति को महिमामंडित करता रहता है. युद्ध में सैनिक और उनके अस्त्रशस्त्र राजा के लिए संसाधन होते हैं. वे राजा को केवल उसकी निजी योग्यता के आधार पर प्राप्त नहीं होते. उनमें से अधिकांश उत्तराधिकार में प्राप्त होते हैं. यदि राजा केवल अपने दम पर, आमनेसामने की लड़ाई करे तो उसकी सफलता की संभावना बहुत सीमित स्तर की होगी. कारखानेदार के मामले में सैनिकों का स्थान पूंजी ले लेती है. संभव है उसमें से पूंजी का बड़ा हिस्सा उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त हुआ हो. यदि यह न भी हो और किसी उद्यमी ने अपने जीवन में ही बेशुमार प्रगति की है तो इसका कारण केवल यह है कि व्यवस्था के चलते उसके कारखानों में कार्यरत श्रमिकों ने अपना श्रमोत्पाद, मामूली वृत्तिका के बदले कारखानेदार को समर्पित किया है. जैसे सैनिकों द्वारा जान की बाजी लगा देना किसी राजा के साम्राज्यवादी मनसूबों को साकार बनाता है. वैसे ही न्यूनतम मजदूरी के बदले अधिकतम श्रमोत्पाद पर कारखानेदार का अधिकार मान लेना और स्वयं मामूली वृत्तिका से संतुष्ट होकर रातदिन काम में जुटे रहना, पूंजीपति को कामयाबी दिलाता है. उद्यमी की सफलता का स्तर बताता है कि श्रमिकों ने उसके उत्पादनस्तर को शिखर तक पहुंचाने के लिए जीजान से काम किया है. यहां त्याग का अर्थ न्यूनतम वृत्तिका के बदले मालिक को अधिकतम मुनाफा कमाकर संतुष्टि प्राप्त कर लेना है. जाहिर है सफलता चाहे राजा की हो या व्यापारी की, उसमें क्रमशः प्रजा अथवा श्रमिकों का योगदान होता है. यहां पूंजी और राष्ट्रवाद दोनों ही वर्चस्वकारी शक्तियों के स्वार्थ से जुड़े होते हैं. दोनों की प्रवृत्ति मानवविवेक पर कब्जा कर लेने की होती है. अंतर केवल इतना है कि पूंजीवाद अपनी चमकदमक और भौतिक सुखों का प्रलोभन देकर लोगों को आकर्षित करता है. राष्ट्रवाद के पास उग्र राष्ट्रप्रेम के सिवाय नागरिकों को देने के लिए कुछ नहीं होता. इसलिए वह भावुक प्रतीकों के माध्यम से लोगों को लुभाने का प्रयास करता है.

अमीरगरीब, राजाप्रजा के इस कृत्रिम विभाजन से बाहर निकलकर देखें तो प्राकृतिक स्तर पर उनके बीच कोई मौलिक अंतर नजर नहीं आता. राजाप्रजा, अमीरगरीब सभी को एकसमान जीवनचक्र से गुजरना पड़ता है. धूपवर्षाशीत सभी को लुभाते हैं.सभी को भूखप्यास लगती है. यह ठीक है कि मनुष्य में प्राकृतिक स्तर पर अंतर होता है. एक मनुष्य शक्तिशाली हो सकता है और दूसरा शक्तिविपन्न. परंतु प्राकृतिक स्तर पर शक्तिशाली और शक्तिविपन्न व्यक्ति में अंतर का अनुपात उतना नहीं होता, जितना सामाजिक स्तर पर अमीरगरीब, शक्तिशाली एवं शक्तिविपन्न के बीच होता है. न प्रकृति अपने स्तर पर किसी प्रकार का भेदभाव करती है. चूंकि समाजीकरण की मूलभूत अवधारणा समानता के सिद्धांत पर गढ़ी होती है, राज्य भी इसी दावेदारी के साथ जनसमर्थन प्राप्त करता है कि वह धनीनिर्धन, शक्तिसंपन्न एवं शक्तिविपन्न के बीच बहुत अंधिक अंतर नहीं करेगा—इसलिए यदि किसी राज्य में ऐसा है तो समझ लेना चाहिए कि वह अपने गठन के मूलभूत उद्देश्यों से भटका हुआ है. दूसरे शब्दों मे समानता का आशय किसी व्यक्ति से राजा या पूंजीपति बनने के अवसर छीन लेना नहीं है. बल्कि जनसाधारण को इस आधार पर होने वाले भेदभाव से मुक्ति दिलाना है. सफलता सदैव सापेक्षिक होती है, परंतु न्याय निरपेक्ष. इस आधार पर अरस्तु न्याय पर विमर्श के आरंभ में ही उसकी दो कसौटियां बना लेता है. पहली के अनुसार तयशुदा कानून की मर्यादा में रहना न्याय है. जिन कार्यों को राज्य की विधिसंहिता स्वीकारे उनका अनुपालन न्याय है. जिनसे राज्यसमाज में शांतिसुव्यवस्था स्थापित होती हो, वह न्याय है. न्याय का दूसरा रूप अपने साथ बाकी लोगों की स्वतंत्रता और समानता का सम्मान करना है. जबकि अन्याय वह है जो कानून के विरुद्ध है. जिससे दूसरों के अधिकारों का हनन होता है. जिससे किसी व्यक्ति को उसके विधिसम्मत देय से वंचित कर दिया जाता है.

समानता का आशय यह नहीं है कि व्यक्ति की पसंदों का ध्यान न रखा जाए. न्याय इसमें है कि प्रत्येक नागरिक को विकास के समान अवसर प्राप्त हों. इसके लिए अवसरों की समानता तथा किसी कारणवश विकास में पिछड़ चुके हैं नागरिकों को विशेष प्रोत्साहन देकर मुख्यधारा में लाने की कोशिश करते रहना—न्याय और समाजीकरण दोनों की प्रथम कसौटी है. अरस्तु ने न्याय को सर्वसाधारण के सामान्य हित की संज्ञा दी है. उसके अनुसार न्याय के दो पक्ष होते हैं. पहला व्यक्ति पक्ष और दूसरा वस्तु पक्ष. व्यक्ति का संबंध भी प्रकारांतर में वस्तुओं से होता है. उसके अनुसार न्याय का तकादा है कि सभी मनुष्यों को समान वस्तुएं निर्दिष्ट की जानी चाहिए. पर कैसे? यहां एक पेंच है जिससे समानता की हमारी सार्वत्रिक अवधारणा संकट में पड़ जाती है. समानता का विचार न तो रूढ़ है न ही व्यक्तिनिरपेक्ष. सभी व्यक्तियों को सभी अवसर दिए जाने का अभिप्राय यह नहीं है कि कोई व्यक्ति अपनी रुचि या अन्यान्य कारण से किसी पद के अयोग्य है तो समानता के सिद्धांत के अनुसार उसे उस पद की जिम्मेदारी सौंप देनी चाहिए. समानता की सीधीसी अवधारणा है कि सभी व्यक्तियों को सभी अवसर प्राप्त हों. तदनुसार प्रत्येक नागरिक को यह अवसर मिलना चाहिए कि यदि वह स्वयं को राजपद के योग्य बना सके, तो वह पद उसकी पहुंच से दूर नहीं है. राज्य का हित भी इसमें है कि नागरिकों को यथायोग्य पद प्राप्त हों. राजा उसी को चुना जाए जो राजा बनने के योग्य है. अरस्तु के अनुसार व्यक्ति के अधिकार उसकी योग्यता पर निर्भर करते हैं. तदनुसार राजा बनने का अधिकार उसी को मिलना चाहिए जो राजपद के योग्य है. श्रेष्ठ राज्य अपने लिए कसौटियां स्वयं तय करता है, जिनके माध्यम से वह स्वयं को नियंत्रित एवं विकासरत रख सकता है. वीरता, व्यक्तित्व, व्यवहार कुशलता, दूरदर्शिता, बुद्धिमानी जैसे उदात्त चारित्रिक गुण यदि राजा बनने के लिए अपरिहार्य हैं—तो समानता के सिद्धांत के अनुसार जिस व्यक्ति में ये सभी गुण पर्याप्त मात्रा में मौजूद हों, उसे राजा बनने का अधिकार मिलना चाहिए. इसपर उसके परिवार अथवा उन गुणों को जिनका राजा के लिए अपेक्षित गुणों से कोई संबंध नहीं है, कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए. ‘पाॅलिटिक्स’ के तीसरे खंड के 12वें अध्याय में अरस्तु बासुंरीवादक का उदाहरण देता है—

‘यदि बहुत से व्यक्ति बासुंरी वादन की कला में निपुण हों तो उनमें से किसी व्यक्ति को सिर्फ इस कारण अच्छी या अधिक बांसुरियां नहीं दी जानी चाहिए, कि उसका संबंध किसी उच्च कुल से है.’

आगे वह स्पष्ट करता है—

‘बासुंरी-वादन एक कला है, जिसका व्यक्ति के कुल से कोई संबंध नहीं है. इसी तरह यदि कोई व्यक्ति बासुंरी वादन की कला में पीछे है, मगर कुल और सुंदरता के मामले में बाकी प्रतिस्पर्धियों से आगे तो भी अच्छी अथवा सर्वाधिक बासुंरिया किसी वाद्य-कला में निपुण व्यक्तियों को ही दी जानी चाहिए….कुल-परिवार की सदस्यता के आधार पर भी व्यक्ति अच्छी बांसुरियों की दावेदारी कर सकता है, परंतु उसमें उन गुणों की प्रधानता अपरिहार्य है, जो बांसुरी वादन की कला के लिए अत्यावश्यक हैं.’

आशय है कि श्रेष्ठ वस्तुएं यथायोग्य व्यक्तियों को प्राप्त हों. उन्हें प्राप्त हों, जिन्हें उनकी आवश्यकता है और जो उनका श्रेष्ठतम उपयोग करने में सक्षम हैं. परंतु योग्यता का मापदंड क्या हो? प्रत्येक व्यक्ति अपनी दृष्टि में योग्यतम होता है. फिर जो अधिकतम की दृष्टि में श्रेष्ठतम है, उसके भी आलोचक हो सकते हैं. इसे ‘एथिक्स’ में समझाया गया है. अरस्तु की यह पुस्तक नीतिशास्त्र की श्रेष्ठतम कृतियों में से है. सर्वथा मौलिक. इसके माध्यम से अरस्तु ने नैतिकता को उस दौर में परिभाषित किया, जब राज्य पर धर्म का नियंत्रण था. उत्तराधिकार में जो भी प्राप्त हो, उसे बचाए रखने और उसके माध्यम से अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को शिखर तक ले जाने के लिए सारे उद्यम किए जाते थे; फिर उन्हें धर्म का नाम दे दिया जाता था. अरस्तु के अनुसार न्याय ज्ञानविज्ञान की विभिन्न शाखाओं का अंतिम और वास्तविक लक्ष्य है. मनुष्य जो ज्ञानार्जन करता है, वह तब तक अनुयोगी या अल्पउपयोगी माना जाएगा, जब तक उससे किसी न किसी रूप में न्याय की पुष्टि न होती है. ताकि प्रत्येक नागरिक को यह विश्वास हो जाए कि जो उसका प्राप्य है, वह उसको यथासमय प्राप्त होता रहेगा. आखिर यह कैसे सुनिश्चित हो कि व्यक्ति को जो अधिकार है, वह उसे प्राप्त हैं. यहां राज्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है. राज्य का कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि उसके राज्य में किसी भी नागरिक के अधिकार बाधित न हों. न ही किसी के साथ कोई पक्षपात हो. यह ध्यान रखते हुए कि समानता न्याय का उद्देश्य है, लेकिन एकमात्र समानता को भी न्याय का पर्याय मान लेना अनुचित होगा. उदाहरण के लिए दो भिन्न व्यक्तियों की कल्पना कीजिए, जिन्हें खराद मशीन पर कोई पुर्जा बनाने को दिया जाता है. मान लीजिए उनमें से पहला दस नगों का उत्पादन करता है और दूसरा उतनी ही अवधि में बीस नगों का. चूंकि व्यक्ति का अपने श्रम पर अधिकार होता है, इसलिए कानून और नैतिकता दोनों दृष्टि में यह उचित माना जाएगा कि जिस व्यक्ति ने अधिक उत्पादन किया है, उसकी अतिरिक्त लाभ में आनुपातिक साझेदारी हो. पूंजीवादी व्यवस्था इसी को न्याय मानती है. उसके अनुसार इससे समाज में स्पर्धा बढ़ती है. चीजें सस्ती होती जाती हैं. उसकी भरपाई के लिए उत्पादक उत्पादनवृद्धि का सहारा लेता है. उससे रोजाकर के अवसर बढ़ते हैं. उसके फलस्वरूप हुई उत्पादन वृद्धि का लाभ पूरे समाज को पहुंचता है. पूंजीवादी राज्यों की सरकारें भी कमोबेश वही सोचती हैं. परंतु राज्य की मजबूरी है कि उसे समाज के विभिन्न वर्गों के बीच संतुलन बनाकर रखना पड़ता है. उसके लिए वे अधिक आय वाले व्यक्तियों पर कराधान की सीमा बढ़ाकर बाकी लोगों को संतुष्ट करने का प्रयास करती हैं. यह केवल दिखावा ही होता है, क्योंकि एक ओर जहां अधिक करउगाही का का नाटक किया जाता है, वहीं दूसरी ओर पूंजीपतियों को विभिन्न प्रकार की छूट देकर, ओनेपौने दाम में राज्य के संसाधन लुटाकर प्रसन्न रखा जाता है.

यदि शतप्रतिशत ऐसा हो जाए कि व्यक्ति को ठीक उतना ही प्राप्त हो, जितनी उसकी क्षमता है, तो सोचिए क्या यह जंगल के न्याय जैसी व्यवस्था न होगी? जंगल में भी प्राणी अपने सामर्थ्य के अनुसार शिकार करते हैं. चिड़िया मामूली कीड़ेमकोड़ों का शिकार करके पेट भरती है. शेर और चीता भारीभरकम सांड को भी अपना शिकार बन सकते हैं. जानवर के लिए उसका शिकार एक तरह से उसका उत्पाद ही है. अतः न्याय दृष्टि से समानता व्यक्ति और समाजनिरपेक्ष नहीं होती. उसमें परिस्थिति अनुसार बदलाव होते रहते हैं. लेकिन समानता ऐसी पहेली भी नहीं है, जिसे समझा न जा सके. आखिर समानता किसकी और कैसे? सामान्य सिद्धांत के अनुसार असमान व्यक्तियों का हिस्सा समान नहीं हो सकता. समानता की न्यूनतम शर्त नागरिकों को न्याय की अबाध प्रतीति है. यह ठीक है जन्म के आधार पर, स्थितियों के आधार पर लोगों की कार्यक्षमता में अंतर होता है. राज्य और समाज का गठन का उद्देश्य भी यही है कि व्यक्तिमात्र की इन दुर्बलताओं का असर उसकी खुशियों पर न पड़े. जहां कोई नियम या व्यवस्था न हो. दूसरों के सुखदुख की परवाह किए बिना सभी मनमानी पर उतारू रहते हों. वहां राज्य की भूमिका नगण्य मानी जाएगी. यह नियम कि व्यक्ति को ठीक उतना ही प्राप्त हो, जितना उसका सामर्थ्य है—प्रकारांतर में समाज को इस स्वार्थी सोच की प्रेरणा बन सकता है. इससे समाजीकरण का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा. अतः राज्य का कर्तव्य है कि वह उस नागरिकों को जो किसी कारण पिछड़े हुए हैं, विशेष प्रोत्साहन देकर दूसरों के बराबर लाने का प्रयास करे. साथ में यह विश्वास भी बनाए रखे की समाज की एकता, किसी भी व्यक्तिगत उपलब्धि से बड़ी है.

अरस्तु न्याय के पर्याय के रूप में सद्गुण को स्थापित करता है. राज्य के संदर्भ में ‘न्याय राज्य का सद्गुण’ है. उसकी व्याप्ति राज्य और उसके नागरिकों के आचरण से आंकी जानी चाहिए. न्याय वह है जिसे सभी नागरिक सही मानें. जिसकी श्रेष्ठतम के रूप में प्रत्येक नागरिक अपने जीवन में कामना करे. ठीक इसी तरह अन्याय वह है जो अधिकतम नागरिकों को नियमविरुद्ध और अनुचित प्रतीत होता हो. किंतु न्याय और अन्याय, उचित और अनुचित की यह बहुत सरलीकृत व्याख्या है. यह दोनों को एक दूसरे का विरोधी दर्शाती है. सामान्यतः यह सही भी दिखता है. न्यायालय का कोई फैसला यदि बहुसंख्यक वर्ग को अनुचित और अन्यायपूर्ण लगता है तो वह उचित और न्यायपूर्ण हो ही नहीं सकता. लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि न्याय और अन्याय, उचित और अनुचित को लेकर सभी नागरिकों की एकसमान राय हो. लोगों का न्यायबोध उनकी संस्कृति और मानसिक प्रशिक्षण पर भी निर्भर करता है. राजशाही में राजा और उसके परिवार की सुरक्षा शेष जनसमाज की सुरक्षा से महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी. उसके लिए अनेकानेक सैनिक की बलि दे देना राजधर्म माना जाता था. अधिकांश युद्ध राजाओं के व्यक्तिगत अहं और राजलिप्सा का परिणाम होते थे. अपने समग्र परिणाम में वे प्रजा के लिए अहितकारी होते थे. बावजूद इसके प्रजा अपने राजा और उसकी व्यवस्था को सराहती थी. क्योंकि उसका मानसिक प्रशिक्षण इसी तरह का होता था. जनतांत्रिक समाजों में नागरिकों का सोच स्वतंत्र होता है. निर्णयविशेष को कुछ लोग उचित मान सकते हैं और कुछ अनुचित. कुछ ऐसे नागरिक भी हो सकते हैं जिन्हें वह निर्णय आंशिक अनुचित और अन्यायपूर्ण अथवा आंशिक उचित और न्यायपूर्ण लगता हो. इस तरह लोगों की दृष्टि के अनुसार न्याय और अन्याय के अनेक रूप संभव हैं. लेकिन राज्य की दृष्टि में न्याय का केवल एक रूप होता है. सभी नागरिकों के साथ समान वर्ताब और समाज में कल्याण विस्तार. ऐसे समाजों में कर्तव्यपरायण मनुष्य, न्यायसंगत बने रहने के लिए वही करता है जो समाज की निगाह में उचित है. वैसा ही सोचता है, जिसे न्यायसंगत माना जा सके.

वे कौनसी स्थितियां हैं, जब मनुष्य के कर्म को न्यायपूर्ण नहीं माना जा सकता? इसे समझना मुश्किल नहीं हैं. उपर्युक्त विवरण के आधार पर देखें तो दो मुख्य स्थितियां हैं जिनके आधार पर मनुष्य के कृत्य को अनुचित या अन्यायपूर्ण कहा जा सकता है. पहला जब वह कानून तोड़ता है. ऐसे काम करता है जो राज्य तथा समाज की निगाह में अनुचित हैं. दूसरी स्वार्थपरता. समाज में रहते हुए उससे अधिक ग्रहण करना जितना अधिकार है. अपने अलावा दूसरों की आवश्यकता पर विचार ही न करना. बल्कि जिसपर दूसरों का अधिकार है, उसे भी हड़प कर जाना. अरस्तु के अनुसार उचित होने के लिए कानून सम्मत और निस्वार्थ होना आवश्यक है. जो कानूनसम्मत नहीं है. जो अपने आचरण में निष्ठावान तथा दूसरों के प्रति ईमानदार नहीं है, इसलिए वह उचित भी नहीं है. उचित की बहुमान्य परिभाषा उपलब्ध संसाधनों, अवसरों और कर्तव्यों में न्यायपूर्ण हिस्सेदारी है. ऐसी सहभागिता जिससे दूसरों के अधिकार निर्बंध रहें. सच यह भी है कि समाज में रहते हुए अपने हिस्से से अधिक लेना हमेशा अन्यायपूर्ण नहीं होता. कई बार अपने हिस्से को छोड़ देना या दूसरों का हिस्सा भी हड़प जाना प्रशंसा का पात्र बना देता है. जब कोई भूखा व्यक्ति अपने आगे रखी थाली, ज्यों की त्यों दूसरे भूखे प्राणी को सौंप देता है तो उसकी नैतिकता हमें भावाकुल कर देती है. ठंड से ठिठुरते किसी व्यक्ति को अपने वस्त्र उतारकर दे देना मानवचरित्र की उदात्तता से परचाता है. इसी प्रकार सारे के सारे दुर्योग को, जिससे बहुतसे लोगों के अनिष्ट की संभावना हो, अपने हिस्से समेट लेना भी उचित और सराहनीय माना जाएगा. ऐसी कई कहानियां हैं, जिनमें अपनी दोषी संतान को बचाने के लिए पिता उनके सारे अपराध अपने सिर ले लेते हैं. समुद्रमंथन की मिथकथा के अनुसार शिव सबके हिस्से का विषपान करके ही नीलकंठ कहलाए थे. किसी व्यक्ति में कम बुराइयां हों, यह भी अच्छी बात है. अब सवाल है कि कानून क्या है? उससे व्यक्ति का हित सधता है या राज्य का. अथवा व्यक्ति और राज्य दोनों का?कुछ विद्वानों का मानना है कि श्रेष्ठ नागरिक आत्मानुशासित होता है. उसे अपने और दूसरों के सुखदुख की चिंता होती है. इसलिए वह किसी के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करता. ऐसे व्यक्ति को कानून की आवश्यकता नहीं पड़ती. यह बात सही हो सकती है. परंतु हमेशा सही हो आवश्यक नहीं है. कानून अदालती प्रक्रिया मात्र नहीं है. कानून का पलड़ा हालांकि समाज के शीर्षस्थ वर्गों की ओर झुका होता है. फिर भी उसमें कई ऐसी खूबियां होती हैं, जिनकी अनुपस्थिति समाज की एकता और अखंडता के लिए खतरा बन सकती है. उनके अभाव में प्रत्येक नागरिक ‘श्रेष्ठ आचरण’ की परिभाषा अपने हिसाब से करेगा. प्रकारांतर में सब मनमानी उतर आएंगे. परिणामस्वरूप समाज के गठन का उद्देश्य ही कमजोर पड़ जाएगा. इसलिए कानून के रूप में सुनिश्चित आचारसंहिता का होना आवश्यक है.

अरस्तु के अनुसार कानून विधायी व्यवस्था है. राज्य यदि नागरिकों के प्रति उदार है तो कानून नागरिकअधिकारों के पक्ष में झुका पाएगा और मानवमात्र के अधिकारों का ध्यान रखेगा. यदि कानून का गठन कुछ लोगों की मर्जी से, स्वार्थभावना के साथ हुआ है तो उसका झुकाव शिखर पर मौजूद अल्पतंत्र अथवा कुलीनतंत्र के पक्ष में नजर आएगा. केवल उन्हीं लोगों के भले की सोचेगा है जो किसी न किसी रूप से सत्ता से जुड़े हों. निरंकुशता की भावना से गठित कानून केवल तानाशाह की मर्जी से संचालित होंगे. सही मायने में तो वे तानाशाह के स्वार्थ से इतर कुछ हो ही नहीं सकते. इससे हम राज्य में न्याय की मौजूदगी को परखने के लिए कुछ मापदंड बना सकते हैं. ऐसे कानून जिनसे राज्य की उदारता झलकती हो, जो समाज के अधिक से अधिक लोगों के कल्याण की भावना से बनाए गए हों, वे कानून न्यायसंगत माने जाएंगे. जबकि ऐसे कानून जिनसे अल्पसंख्यक वर्गों की स्वार्थसिद्धि होती हो, अथवा जिनका गठन तानाशाह की इच्छाओं को दूसरों पर लादने के लिए हुआ हो, उन्हें न्यायसंगत मानने में हमें संकोच होगा. जिस राज्य में पहली कसौटी का पालन होगा, वह कल्याणराज्य के मापदंडों के अनुरूप होगा. उसमें शुभ की व्याप्ति होगी. तदनुसार न्यायकारी शक्तियों का सत्ताप्रेम अथवा उनपर शासक वर्गों का नियंत्रण शासन की निरंकुशता का परिचायक होता है.

इस विवेचन से न्याय को समझा जा सकता है. न्याय हमेशा दूसरों के प्रति होता है. लेकिन मनुष्य दूसरों के प्रति तभी न्याय कर सकता है, जब उसे अपने प्रति न्याय की उम्मीद हो. इस तरह न्याय सद्गुण है. व्यक्ति का समाज और समाज का अपने नागरिकों के प्रति कल्याणभाव जिससे झलकता हो, वह सद्गुण है. समाज में सद्गुण से श्रेष्ठ कुछ नहीं होता. वह निर्मेल्य होता है. अरस्तु के अनुसार ‘न्याय कुल मिलाकर संपूर्ण सद्गुण या सद्गुणों का समुच्चय है. वह इसलिए सद्गुण है, क्योंकि वह व्यक्ति का अपने पड़ोसियों, अपने मित्र, हितैषी यहां तक कि आलोचकों के प्रति न्यायभाव को दर्शाता है. कुल मिलाकर सद्गुण किसी भी समाज की श्रेष्ठतम उपलब्धि हैं. यदि कोई व्यक्ति केवल अपने मित्रों और सगेसंबंधियों के प्रति न्यायपूर्ण आचरण करता है और बाकी समाज के प्रति वैसा करने से बचता है, तो उसका आचरण न्याय की कसौटी पर स्वार्थपूर्ण माना जाएगा. दूसरे शब्दों में न्याय सद्गुण है और सद्गुण वह है, जिसे कोई व्यक्ति दूसरों के प्रति कल्याणभाव के साथ करता है. न्यायपूर्ण व्यक्ति वह है जो दूसरों की हितसिद्धि के लिए बिना किसी स्वार्थभाव से प्रयासरत रहता है. और ऐसा व्यक्ति जो केवल स्वार्थसिद्धि में लीन रहता है, दूसरों को किसी प्रकार का कष्ट पहुंचाता है अथवा उन वस्तुओं पर कब्जा करता है, जो किसी दूसरे का अधिकार हैं, अन्यायी की श्रेणी में आएगा.

©ओमप्रकाश कश्यप

‘दुर्गा चरित्र’ के बहाने मिथ-चर्चा

विशेष रुप से प्रदर्शित

मिथ हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श का महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं. वे वास्तविक हों, न हों, अनगिनत मनुष्यों का अटूट विश्वास उन्हें वास्तविक से कहीं ज्यादा प्रभावशाली बना देता है. आंखों-देखी झूठ मानी जा सकती है, परंतु मिथ में अंतर्निहित या उसके माध्यम से दिया गया संदेश, यदि व्यक्ति का मिथ पर विश्वास है, उसके लिए परमसत्य होता है. यही विश्वास किसी मिथ को दीर्घजीवी और शक्तिशाली बनाता है. मिथ आमतौर पर संस्कृति का हिस्सा होते हैं. कई बार उनकी उपस्थिति को ज्ञान-विज्ञान के दूसरे क्षेत्रों पर भी थोप दिया जाता है. ऐसे मिथों की उम्र सीमित होती है. जबकि धर्म और संस्कृति के नाम पर गढ़े गए मिथ व्यावहारिक जीवन में वास्तविक पात्रों के मुकाबले अधिक शक्तिशाली तथा प्रभावी सिद्ध होते हैं. विशेषकर पारंपरिक समाजों में जो किसी कारण आधुनिक चेतना और शिक्षा से वंचित हैं. ऐसा उन समाजों में भी देखने को मिलता है जो अपनी प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति को लेकर श्रेष्ठताबोध से पीड़ित हों. ऐसे लोग अपने अधिकांश निर्णय, विशेषरूप से परिवार एवं समाज से जुड़े मामलों में, परंपरा और संस्कृति के आधार पर लेते हैं. वहां मिथ बड़ी आसानी से लोगों के सामान्य व्यवहार का हिस्सा बन जाते हैं. संस्कृति स्वयं ऐसे मूल्यों एवं परंपराओं के सहारे गढ़ी जाती है, जिनकी जड़ें सुदूर अतीत तक फैली हों. कभी-कभी इतिहास भी इनकी जकड़ में आ जाता है. हालांकि यह तभी होता है जब संस्कृति पर वर्गीय चरित्र हावी हों.

अशिक्षित समाज अपनी परंपरा एवं संस्कृति को स्मृति के सहारे सहेजता है. ऐसे में मिथों का जानकर अथवा उनकी व्याख्या का दावा करने वाला वर्ग, उन प्रतीकों को संस्कृति का हिस्सा बनाने में सफल हो जाता है, जिनसे उसके स्वार्थ जुड़े हुए हों. उन्हें लेकर कुछ कहानियां गढ़ ली जाती हैं. बार-बार सुने-सुनाए जाने तथा लोगों का विश्वास हासिल कर लेने के पश्चात वे मिथ में ढल जाती हैं. मिथों को लेकर समाज प्रायः दो वर्गों में बंटा होता है. एक वर्ग हमेशा ऐसे मिथों को जीवन की मुख्य प्रेरणा तथा जीवनीशक्ति के रूप में प्रस्तुत करने में लगा रहता है. उसके सदस्य संख्या में कम परंतु समाज में शिखर हैसियत वाले लोग होते हैं. दूसरा वर्ग मिथों की अद्वितीयता में विश्वास रखने वाला, उन्हें अपनी प्रेरणा और मार्गदर्शक मानने अधिसंख्यक लोगों का होता है. समाज की प्रमुख उत्पादक शक्ति होने के बावजूद सामाजिक संरचना में उनका स्थान गौण होता है. उनके लिए आजीविका से जुड़े प्रश्न बेहद महत्त्वपूर्ण होते हैं. उनमें वे इतने उलझे होते हैं कि मिथों की अंतर्रचना तथा उनकी सामाजिकी के बारे में शंका करने या सवाल उठाने का समय ही नहीं मिल पाता. समाज से जुड़े से रहने की इच्छा भी थोपे गए मिथों को अपनाने के लिए विवश कर सकती है. जनसाधारण की आस्था एवं विश्वास के बल पर मिथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी जगह बनाते जाते हैं. प्रचलित परिभाषा में वे लोगों की प्रमुख मार्गदर्शक शक्ति, उनका धर्म बन जाते हैं. अपनी जरूरत तथा आस्था के अनुसार समाज उनके साथ ऐसे मूल्य जोड़ता चला जाता है, जिन्हें वह अपने स्थायित्व के लिए अत्यावश्यक मानता है. सांस्कृतिक मूल्य का परिवर्तनशील होते हैं. हालांकि उसकी गति बहुत धीमी होती है. सामाजिक मूल्यों में पर्याप्त लचीलापन समाज हित में होता है. फिर भी कभी शिक्षा की कमी तो कभी अंध-श्रद्धा के कारण जनसाधारण, यहां तक कि कुछ विशिष्ट जन भी—उन मूल्यों को मिथों में अधिष्ठित तथा उन्हीं से उत्पत्तित माने रहता है.

कभी-कभी परंपरा के प्रति दुराग्रहों का आवेग स्थापित जीवनमूल्यों को भी मिथ बना देता है. महाभारत में हम भीष्म की प्रतीज्ञा को मिथ बनते हुए देखते हैं. भीष्म का पूरा जीवन वचनबद्धता का अतिरेक है. आगे चलकर वही महाभारत का कारण बनता है. कुरुक्षेत्र में अर्जुन को कमजोर पड़ते देख कृष्ण युद्ध में शस्त्र न उठाने की अपनी ही प्रतीज्ञा तोड़, भीष्म को संदेश देना चाहते हैं कि दुराग्रह किसी भी सद्गुण को अवगुण बना सकते हैं. आपत्काल में स्थापित नियमों और परंपराओं पर पुनर्विचार किया जा सकता है. लेकिन भीष्म के लिए उसकी प्रतीज्ञा ही परमसत्य है. महाभारत की कथा भीष्म की सफलताओं और असफलताओं से भरी पड़ी है. वह महाभारत का सबसे दुखी पात्र है. अत्यंत बलशाली होने के बावजूद जिस वर्ग में वह रहता है, उसी को पराजय का सामना करना पड़ता है. एक सद्गुण को मिथ की तरह जीने की सजा न केवल भीष्म, बल्कि पूरे हस्तिनापुर को झेलनी पड़ती है. धर्मयुद्ध में विजेता का पक्ष देवता तथा न्याय का पक्ष भी होता है. वर्चस्वकारी संस्कृति के समर्थक कृष्ण को ईश्वर का दर्जा देते हैं. ऐसे लोग विजेता के पक्ष को अपना पक्ष माने रहते हैं. निहित स्वार्थ के लिए ऐसे ही लोग भीष्म को त्याग और वीरता का पर्याय घोषित कर देते हैं. उसके चलते सरोकारविहीन ‘वचनबद्धता’ प्रतीज्ञा का आदर्श मान ली जाती है.

राम, कृष्ण, शिव, महादेव, गणेश, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, हनुमान आदि भारतीय संस्कृति के स्थापित मिथ हैं. इनमें तात्कालिक जीवनमूल्यों को जिन्हें सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की लालसा में गढ़ा गया था—इस तरह केंद्रीभूत किया गया है कि शताब्दियों के बाद भी वे चरित्र हमारे मनस् में रूढ़ बने हुए हैं. अंध-आस्था के योग से वे मिथ इतने प्रभावशाली हो चुके हैं कि स्वार्थवश अथवा अज्ञानता के कारण काल्पनिक प्रतीकों के आगे हमें यह जीता-जागता संसार भी भ्रम और माया लगता है. उनपर थोपे गए चरित्र से मामूली विक्षेप भी हमें उत्साही कर्म लगता है. ऐसे ही परिवेश में सांप्रदायिकता पनपती है तथा मिथों के दुरुपयोग की संभावना बराबर बनी रहती है. इन्हीं मिथों में से एक दुर्गा, ‘नारी-शक्ति’ का प्रतीक है. मिथ के रूप में उसकी जो भूमिका शास्त्रों(मार्कंडेय पुराण) में तय है, उसमें स्त्री-सुलभ गुणों का कोई योग नहीं है. शत्रु-हंता के रूप में उसे शिव की अर्धांगिनी के रूप में दर्शाया जाता है. उसका मूल चरित्र चामुंडा के करीब है, जो स्वयं असुरों की मातृदेवी से अनुप्रेत है. ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब दलितों की भांति चामुंडा का स्थल गांव-बाहर हुआ करता था. वे ग्रामदेवी की भांति पूजी जाती थीं. उनकी प्रतिष्ठा निचली और किसान जातियों में थी. ब्राह्मण और क्षत्रिय स्थापित पुरुष देवताओं की ही पूजा करते थे.

हिंदू संस्कृति में गृहस्थी पालन भी धर्माचरण है. हनुमान जैसे अर्धदेवता को छोड़ दें तो लगभग सभी देवता विवाहित हैं. उनकी पत्नियां ठीक उसी प्रकार पति-अनुगामिनी हैं, जैसी सामान्य भारतीय पत्नियां होती हैं. परमशक्तिशाली त्रिदेव की पत्नियों पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती की भी यही स्थिति है. हनुमान को रूद्र का अवतार माना गया है, लेकिन रामायण आदि ग्रंथों में जिस तरह से उसका चित्रण है, उससे जाहिर होता है कि हनुमान की शक्तियां उसकी अपनी नहीं हैं. वे किसी न किसी देवता का वरदान हैं. यह तर्क शौर्य की देवी दुर्गा पर भी लागू होता है. मार्कंडेय पुराण के अनुसार उसका जन्म विष्णु की नाभि से हुआ है. असुरों से लड़ने में सक्षम बनाने के लिए विभिन्न देवताओं ने उसे अपनी शक्तियां अंतरित की थीं. पुराणों में जगह-जगह पार्वती, लक्ष्मी और दुर्गा को समकक्ष माना गया है. ऐसा एकेश्वरवाद की भावना के चलते हुआ. भारत में कुछ उपनिषदें भले ही एकेश्वरवाद का समर्थन करती हों, व्यवहार में वह बहुदेववाद ही प्रचलन में रहा है. पंडित-पुरोहितों के स्वार्थ जो उससे जुड़े थे. मगर सूफी मत के रूप में दक्षिण भारत पहुंचा इस्लाम का एकेश्वरवादी दर्शन भारतीय समाज में भी जगह बनाने लगा था. हिंदू धर्म में रहकर जातीय उत्पीड़न से त्रस्त लोगों को सूफियों का एकेश्वरवाद बहुत पंसद आया था. उसकी प्रेरणा से दक्षिण में भी संत आंदोलन का सूत्रपात हुआ. आगे चलकर, हिंदुओं का इस्लाम की ओर पलायन रोकने के लिए ही शंकराचार्य को एकेश्वरवाद के समर्थन में आना पड़ा. यह भी कह सकते हैं कि इस्लाम के राजनीतिक, धार्मिक हमले से बचने के लिए वैष्णव, शैव, पाशुपत, तांत्रिक, पुराणिक, स्मार्त्त आदि मतावलंबियों को एकजुट होकर, निजी पहचान के संकट पर भी, वेदांत का समर्थन में आना पड़ा था.

दुर्गा की कथा मार्कंडेय पुराण में ‘देवी महात्म्य’ के अंतर्गत शामिल की गई है. मार्कंडेय पुराण को एफ. ईडन पार्जिटर ने लगभग नवीं शताब्दी की रचना माना है. ‘देवी महात्म्य’ की उपलब्ध प्रतियों में सबसे पुरानी प्रति नबारी लिपि में है, जिसे हरप्रसाद शास्त्री ने ‘रायल लायब्रेरी ऑफ नेपाल’ से प्राप्त किया था. उसपर 998 ईस्वी की तिथि अंकित है. तदनुसार पार्जिटर इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि मार्कंडेय पुराण का लेखनकाल नवीं या दसवीं शताब्दी होना चाहिए. पुराणों का रचनाकाल ईसापूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से 1000 ईस्वी तक फैला हुआ है. इसकी संभावना है कि पुराणों की रचना बौद्ध एवं जैन कथाओं की प्रेरणा से हुई थी. हालांकि रामायण एवं महाभारत में सैकड़ों उपकथाएं प्राप्त होती हैं, लेकिन जिस रूप में वे आज हमें प्राप्त हैं, वह ईसा पूर्व दूसरी-तीसरी शताब्दी से पहले का नहीं है. जाहिर है, कहानी की ताकत को पहचानकर उसकी पहुंच का उपयोग ब्राह्मणों ने अपने धर्म-दर्शन के प्रचार-प्रसार के लिए किया. चूंकि आरंभिक वैदिक धर्म केवल और केवल ब्राह्मणों द्वारा ब्राह्मणों के लिए रचा गया था, इसलिए पुराणादि ग्रंथ प्रकारांतर में ब्राह्मणवाद के प्रचार-प्रचार का माध्यम बन जाते हैं. उनकी कहानियां पाठक का मनोरंजन तो करती हैं, परंतु खास संदेश नहीं दे पातीं. इसके विपरीत जातक कथाओं तथा जैन कथाओं में, भले ही बुद्ध के माध्यम से हो, एक नैतिक संदेश छिपा हुआ रहता है.

आरंभिक संस्कृत ग्रंथों में मुख्यतः ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्गों की उपस्थिति है. बाकी वर्ग या तो उपेक्षित हैं अथवा उनका उपयोग वहीं तक सीमित है, जहां तक वे ब्राह्मणवाद का समर्थन करते हों. उससे प्रतीत होता है कि आरंभिक ऋषिगण आत्ममुग्ध समाज का हिस्सा थे. और बाकी जनसमाज से कटे-छंटे रहते थे. यज्ञ बलि के लिए पशु अथवा अन्य समिधा की आवश्यकता पड़ती तो उसके लिए राजाओं से मांग लिया करते थे. जो पुनः अपनी प्रजा से जुटाता था. बाद के ग्रंथों में जिनमें मार्कंडेय पुराण भी है, वैश्य वर्ण से जुड़ी कहानियां भी आती हैं. इस पुराण का मुख्य भाग ईसा से तीसरी-चौथी शताब्दी की रचना हैं. जब वैश्य समुदाय मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में खुद को स्थापित कर चुका था. यदि ऋषिगण अलग-थलग रहते थे तो प्रजा का क्या धर्म था? ब्राह्मण ग्रंथों में इसकी कोई चर्चा नहीं है. क्योंकि उस ओर उस समय के बुद्धिजीवी ब्राह्मणों का ध्यान ही नहीं था. लेकिन बौद्ध और जैनग्रंथों में छह भौतिकवादी संप्रदायों का कई जगह उल्लेख किया गया है. वे आजीवक और लोकायत मत के प्रवर्त्तक थे तथा आजीविका को प्रमुख मानते थे. ऋषियों के आश्रम उनके लिए ऐसे ही रहे होंगे जैसे कुछ यायावर कबीले आकर गांव बाहर डेरा डाल लें.

अपने धर्म-दर्शन के प्रचार के लिए बुद्ध ने क्षत्रियों के अलावा उन वर्गों पर ज्यादा ध्यान दिया था, जो ब्राह्मण धर्म से बाहर थे. या बुद्ध के विचारों से सहमत होकर उनके दर्शन की ओर आकृष्ट हुए थे. बुद्ध ने अपने उपदेशों के लिए पालि को इस्तेमाल किया था, जो उन दिनों आमजन की भाषा थी. श्रेष्ठताबोध से दबे ब्राह्मण संस्कृत के दायरे से बाहर आने की हिम्मत न जुटा सके. पुराकथाओं में उन्होंने सृष्टि निर्माण का ठेठ ब्राह्मणवादी नजरिया पेश किया. मार्कंडेय पुराण में मनु और इंद्र के उत्तराधिकारियों की चर्चा है. इनके बीच देवी महात्म्य का सम्मिलित होना अवांतर कथा जैसा है. इसलिए पार्जिटर उसे प्रक्षिप्त मानता है. देवी महात्म्य गीता की तरह सात सौ पदों में फैला हुआ है. पार्जिटर ने यह संभावना भी व्यक्त की है कि मार्कंडेय के अनुयायी उन्हें अपने समय के व्यास के सदृश सिद्ध करना चाहते थे. दूसरे यदि मार्कंडेय पुराण का मूल हिस्सा तीसरी-चौथी शताब्दी की है तब भी दो मुख्य प्रश्न विचार के लिए आवश्यक है. यदि मार्कंडेय पुराण तीसरी-चौथी शताब्दी की रचना है तो क्या उस समय ‘दुर्गा महात्म्य’, भले की स्वतंत्र कृति के रूप में—मौजूद था?  मेरा अनुमान है कि दुर्गा और काली का रूप अन्यत्र देखने को नही मिलता. दुर्गा की महत्ता कदाचित उस दौर में मिली जब पुरुष सत्तात्मक राज्य उजड़ने लगे थे. उनके राजाओं का वैभव क्षीण पड़ चुका था. वह महमूद गजनवी के आने का था. एक के बाद एक हिंदू राजा पराजित हो रहे थे. उस समय लगा कि कदाचित असुर शक्ति से लैस, कोई स्त्री-शक्ति ही उनकी रक्षा कर सकती है. दुर्गा की रचना उन्होंने इसी उद्देश्य से की, बाद में उसे मार्कंडेय पुराण का हिस्सा बना दिया गया.

छंदों की संख्या के कारण ‘दुर्गा महात्म्य’ को ‘दुर्गा सप्तशती’ भी कह दिया जाता है. उसके हिंदी अनुवाद गद्य और पद्य में पहले भी आ चुके हैं. जहां तक मुझे याद पड़ता है, डॉ. राष्ट्रबंधु ने भी ‘दुर्गा सप्तशती’ का काव्यानुवाद किया था. उस अनुवाद के बारे में इससे अधिक जानकारी मुझे नहीं है. इस काम को लेकर हाल ही में एक और नाम जुड़ा है. वह हैं—डॉ. रामपुनीत ठाकुर ‘तरुण’ तथा पुस्तक का शीर्षक है—‘दुर्गाचरित.’ पुस्तक को छापा है, समीक्षा प्रकाशन मुजफ्फरपुर. डॉ. तरुण हिंदी के सिद्ध-हस्त कवि हैं. उनके इस अनुवाद को देख कर इसपर विश्वास होने लगता है. अनुवाद सहज, सरल एवं बोधगम्य है. चौपाई, दोहा आदि रामायण के प्रचलित छंदों में लिखे जाने से पुस्तक की पठनीयता में इजाफा हुआ है. पाठक बड़ी सहजता से पाठ को आत्मसात करता चला जाता है. फिर भी कुछ प्रश्न ‘दुर्गा चरित’ को पढ़ते समय दिमाग में कौंध सकते हैं. जैसे कि कोई लेखक या रचनाकार ऐसी पुस्तकों का चयन ही क्यों करता है, जिनमें उसे मौलिक प्रयोग के न्यूनतम अवसर उपलब्ध हों? दूसरे क्या ऐसी पुस्तकों में लेखक को अपनी ओर से कहने-जोड़ने का क्या कोई अवसर उपलब्ध नहीं होता? इनमें सबसे पहला प्रश्न तो आस्था का है. कदाचित लेखक की अपनी आस्था ही उसे ऐसे ग्रंथों की ओर ले जाती है. स्वयं तुलसीदास इसी भावना के साथ रामचरितमानस की ओर आकृष्ट हुए थे.

मातृशक्ति के रूप में दुर्गा का मिथ हमें हजारों साल पुरानी उस संस्कृति की याद दिलाता है, जो मातृशक्ति प्रधान थी. सिंधू सभ्यता के उत्खनन से जो मूर्तिशिल्प प्राप्त हुए हैं, उनमें एक प्रसिद्ध मातृदेवी की मूर्ति है. ध्यातव्य है कि मातृदेवी की प्रतिमा से मिली-जुली प्रतिमाएं लगभग सभी सभ्यताओं में प्राप्त हुई हैं. उससे दो निष्कर्ष निकाले जाते हैं. पहला आरंभिक संस्कृतियां आपस में जुड़ी हुई थीं. उनके बीच व्यापारिक-सांस्कृतिक संबंध थे. दूसरे यह कि संस्कृति का सीधा संबंध उत्पादन व्यवस्था से होता है. चूंकि आदिम सभ्यताओं में उत्पादन का तौर-तरीका लगभग मिलता-जुलता था, इसलिए उनकी पूजा पद्धतियां, अध्यात्म चेतना आदि में भी अप्रत्याशित समानताएं नजर आती हैं.

जैसा कि ऊपर कहा गया है, प्रस्तुत अनुवाद सरल, सहज और बोधगम्य है. इसके लिए कवि बधाई का पात्र है. मुझे यहां विनोबा की याद आ रही है. संत ज्ञानेष्वर की ‘ज्ञानेश्वरी’ की महाराष्ट्र में बड़ी प्रतिष्ठा है. विनोबा की मां ने उसका सरल मराठी में अनुवाद करने को कहा. मां की इच्छापूर्ति के लिए विनोबा ने ‘ज्ञानेश्वरी’ को सरल ‘गीताई’ के रूप में अनुदित किया. जब वह पुस्तक प्रकाशित होकर बाजार में आई, तब तक मां दुनिया छोड़ चुकी थी. परंतु ‘गीताई’ के रूप में ‘ज्ञानेश्वरी’ महाराष्ट्र के घर-घर तक पहुंच गई. इसे अनुवाद की ताकत भी कह सकते हैं. फिर भी एक बात अखरती है. रचनाकार के लिए आवश्यक है कि उसकी रचना नए विमर्श का दरवाजा खोले. यदि धर्म उसका केंद्रीय विषय है तब भी वह केवल श्रद्धालुओं तक सिमटकर न रह जाए. उसमें साहित्य और दर्शन के विद्यार्थियों के लिए भी संभावना हो. अनूदित पुस्तकों में प्रयोग के सीमित अवसर होते हैं. इसलिए उनमें भूमिका का महत्त्व रचना जैसा ही है. भूमिका में लेखक-रचनाकार न केवल रचना की ऐतिहासिकी पर विचार करता है, अपितु उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका तथा नए अनुवाद, प्रस्तुतीकरण के औचित्य पर भी अपना पक्ष रचता है. प्राचीन पुस्तकों के अनुवाद के लिए ‘एशियाटिक सोसाइटी ऑफ कलकत्ता’ कुछ मार्गदर्शक नियम बनाए थे. उनमें से एक पुस्तक का विस्तृत विवेचनात्मक परिचय भी था. ‘दुर्गा चरित’ सहज अनुवाद की शर्त को तो पूरा करती है, परंतु उसमें सिवाय शैली के, नएपन का अभाव है. अतएव उन लोगों के लिए जो ‘दुर्गामहत्म्य’ के कवित्व का आनंद लेना चाहते हैं, मगर संस्कृत का ज्ञान नहीं रखते, उन्हें यह पुस्तक खूब पसंद आएगी. लेकिन विद्यार्थियों और आलोचकों के लिए पुस्तक में आत्मतुष्टि के बहुत कम अवसर हैं.

फिर भी सहज, सरल अनुवाद और शैलीगत प्रबंध के लिए कवि बधाई का पात्र है.

ओमप्रकाश कश्यप



ओमप्रकाश कश्यप

जी-571, अभिधा, गोविंदपुरम

गाजियाबाद-201013

भविष्यलोक : एक नास्तिक का स्वप्न

विशेष रुप से प्रदर्शित

(आज रामास्वामी पेरियार का जन्मदिवस है, भारत को आधुनिक राज्य बनाने में जितनी भूमिका डॉ. आंबेडकर की है, उतनी ही पेरियार की भी है. अपनी—अपनी भूमिका में दोनों महान हैं. डॉ. आंबेडकर साधारण परिवार से आए थे, अपने श्रम, स्वाध्याय, विद्वता, त्याग और विवेक के बल पर वे इस देश के निर्माता बने. समाज के बड़े वर्ग को जगाने का काम किया. पेरियार के पिता धनी व्यापारी थे. जीवन के आरंभिक वर्षों में धन उन्होंने भी खूब कमाया. धीरे—धीरे उसकी ओर से निस्पृह होते चले गए. आगे चलकर कांग्रेस से जुड़े. बहुत जल्दी समझ में आ गया कि कांग्रेस के सुधार की एक सीमा है. वह समाज के निचले हिस्सों के भले के लिए उतना की कर सकती है, जितना उपकार—भाव के साथ संभव है. पेरियार ने राजनीति को छोड़ा और केवल जनता पर भरोसा किया. खुद को जनांदोलनों के लिए समर्पित कर दिया. राजनीति से दूर रहते हुए बड़े आंदोलन चलाना, जिनसे आगे चलकर पूरे देश की राजनीति प्रभावित हुई, पेरियार जैसी हस्ती के लिए ही संभव था.

आदर्श समाज को लेकर हर महापुरुष का एक सपना रहा है. पश्चिम में प्लेटो से लेकर थॉमस मूर और आल्डोस हक्सले तक. भारत में संत रविदास ने भी समानता, सहयोग और स्वतंत्रता पर आधारित सपना देखा था, जिसे हम बेगमपुराके नाम से जानते हैं. आने वाली दुनियामें रामास्वामी पेरियार भी इसी प्रकार का सपना देखते हैं. यह आलेख उनके भाषण के अंग्रेजी अनुवाद(प्रो. ए. एस. वेणु)  का अनुवाद है, जो उन्होंने आत्मसम्मान आंदोलनके एक कार्यक्रम दिया था. वैज्ञानिक सोच के प्रसारक ईवी रामास्वामी इसमें ऐसे अनेक आष्विकारों की कल्पना करते हैं, जो आज हमारे सामने हैं. इससे उनकी दूरंदेशी का अनुमान लगाया जा सकता है. ओजस्वी विचारकों के कारण पेरियार को यूनेस्को ने दक्षिण एशिया का सुकरातकहा तो कुछ विद्वानों ने उन्हें भारत का वाल्तेयरमाना है. कुछ विद्वान उनकी तुलना रूसो से करते हैं. यह भाषण पुस्तकाकार भी प्रकाशित हुआ, जिसकी समीक्षा सुप्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक दि हिंदूमें छपी थी, जहां उनकी तुलना बीसवीं ताब्दी का एच.जी.वेल्स कहा गया था. लेख में गांधी का नाम नहीं है. उनकी ओर संकेत-भर है. परंतु इससे गांधी और पेरियार के सोच का अंतर पूरी तरह सामने आ जाता है.

यह लेख एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुआ था. पेरियार की भूमिका के साथ, जो लेख जितनी ही महत्त्वपूर्ण है.  परियार के जन्मदिन पर उन्हें याद करते हुए उन्हीं के लेख का अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैंओमप्रका कश्यप)

 

प्राक्कथन

कल की दुनिया कैसी थी? आज की दुनिया कैसी है? आने वाले कल की दुनिया कैसी होगी? समय के साथ-साथ, शताब्दियों के अंतराल में कौन-कौन से परिवर्तन होंगे? केवल तर्कवादी इन बातों को सही-सही समझ सकता है. धर्माचार्य के लिए इन्हें समझना अत्यंत कठिन है. यह बात मैं किस आधार पर कह रहा हूं?

धर्माचार्य मात्र उतना जानते हैं, जितना उन्होंने धर्मशास्त्रों और ऊटपटांग पौराणिक साहित्य को रट्टा लगाते हुए समझा है. उन सब चीजों से जाना है, जो ज्ञान और तर्क की कसौटी पर कहीं नहीं ठहरतीं. उनमें से कुछ केवल भावनाओं में बहकर सीखते-समझते हैं. दिमाग के बजाए दिल से सोचते हैं. अंध-श्रद्धालु की तरह मान लेते हैं कि उन्होंने जो सीखा है, वही एकमात्र सत्य है. बुद्धिवादियों का यह तरीका नहीं है. वे ज्ञानार्जन को महत्त्व देते हैं. अनुभवों से काम लेते हैं. उन सब वस्तुओं से सीखते हैं, जो उनकी नजर से गुजर चुकी हैं. प्रकृति में निरंतर हो रहे परिवर्तनों, जीव-जगत की विकास-प्रक्रिया से भी वे ज्ञान अर्जित करते हें. इसके साथ-साथ वैज्ञानिक शोधों, महापुरुषों के ज्ञान, व्यक्तिगत खोजबीन, उपलब्ध शोधकर्म को भी वे आवश्यकतानुसार और विना किसी पूर्वाग्रह के ग्रहण करते हैं.

धर्माचार्य सोचता है कि परंपरा-प्रदत्त ज्ञान ही एकमात्र ज्ञान है. उसमें कोई भी सुधार संभव नहीं है. अतीत को लेकर जो पूर्वाग्रह और धारणाएं प्रचलित हैं, वे उसमें किसी भी प्रकार के बदलाव के लिए तैयार नहीं होते. दूसरी ओर तर्कवादी मानता है कि यह संसार प्रतिक्षण आगे की ओर गतिमान है. सबकुछ तेजी से बदल रहा है. इसलिए वह अधुनातन और श्रेष्ठतर के स्वागत को सदैव तत्पर रहता है. मेरा आशय यह नहीं है कि दुनिया-भर के सभी धर्माचार्य एक जैसे हैं. लेकिन जहां तक ब्राह्मणों का सवाल है, वे सब के सब  बुद्धिवाद का विरोध करते हैं. परंपरा नएपन की उपेक्षा करती है. वह लोगों को तर्क और मुक्त चिंतन की अनुमति नहीं देती. न ही शिक्षा-तंत्र और परीक्षा-विधि को उन्नत करने में उन्हें कोई मदद पहुंचाती है. उलटे वह लोगों के पूर्वाग्रह रहित चिंतन में बाधा उत्पन्न करती है. यह जानते हुए भी परंपरा-पोषक धर्माचार्य अज्ञानता के दलदल में बुरी तरह धंसे हैं, पुराणों के दुर्गंधयुक्त कीचड़ में वे आकंठ लिप्त हैं. अंधविश्वाश और अवैज्ञानिक विचारों ने उन्हें खतरनाक विषधर बना दिया है.

हमारे धार्मिक नेता, विशेषकर हिंदू धर्म के अनुयायी धर्माचार्यों से भी गए-गुजरे हैं. यदि धर्माचार्य लोगों को 1000 वर्ष पीछे लौटने की सलाह देता है, तो नेता उन्हें हजारों वर्ष पीछे ढकेलने की कोशिश में लगे रहते हैं. ये जनता को सदियों पीछे ढकेल भी चुके हैं. बुद्धिवाद न तो धर्माचार्यों को रास आता है, न ही हमारे हिंदू नेताओं को. उन्हें केवल अवैज्ञानिक, मूर्खतापूर्ण और बुद्धिहीन वस्तुओं से लगाव है.

अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं, ये लोग नई दुनिया में भी उम्मीद लगाए रहते हैं कि आने वाला समय उन जैसे असभ्य और गंवारों का होगा. ‘स्वर्णिम अतीत’(ओल्ड इज गोल्ड) की परिकल्पना पर वही व्यक्ति विश्वास कर सकता है, जिसने नए परिवर्तन को न तो समझा हो, न उसकी कभी सराहना की हो. केवल अकल के अंधे लोग उनका अनुसरण कर सकते हैं.

हम जैसे तर्कवादी लोग पुरातन को पूर्णतः खारिज नहीं करते. उसमें जो अच्छा है, हम उसका स्वागत करते हैं. उसे अपनाने के लिए भी अच्छाई और नएपन में विश्वास करना अत्यावश्यक है. तभी हम नए और अधुनातन सत्य की खोज कर सकते हैं. समाज तभी प्रगति कर सकता है, जब हम नए और बेहतर समाज की रचना के लिए नवीनतम परिवर्तनों के स्वागत को तत्पर हों.

लोग चाहे वे किसी भी देश  अथवा संस्कृति के क्यों न हों, पुरातन से संतुष्ट कभी नहीं थे. उनकी दृष्टि सदैव अधुनातन ज्ञान एवं प्रगति पर केंद्रित रही हैं. वे जिज्ञासु और निष्पक्ष थे. इसी कारण वे विस्मयकारी वस्तुओं की खोज कर पाए. आज दुनिया के हर कोने के लोग मानवोपयोगी आविष्कारों का लाभ उठा रहे हैं. इसलिए यह आलेख केवल उन लोगों के लिए है जो सत्य को अनुभव करना जानते हैं. उसे आत्मसात् करने को तत्पर हैं. ऐसे ही लोग शताब्दियों आगे के परिवर्तनों की कल्पना कर सकते हैं.  

 

भविष्यलोक : एक नास्तिक का स्वप्न

अतीत के विहंगावलोकन और महान इतिहासकारों की राय से पता चलता है कि आने वाले समय में राजशाही का अंत हो जाएगा. बहुमूल्य सोना-चांदी, हीरे-जवाहरात प्रभु वर्ग का विशेषाधिकार नहीं रह पाएंगे. उस दुनिया में न तो शासक की आवश्यकता होगी, न शासन की. न राजा होगा, न ही राज्य. लोगों की आजीविका और सुख-शान्ति पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं होगा, जैसा आजकल का चलन है. आज रोजी-रोटी के लिए किया जाने वाला श्रम अत्यधिक है, अपनी ही मेहनत का सुख प्राप्त करने के अवसर अपेक्षाकृत अत्यंत सीमित. जबकि हमारे पास खेती-किसानी और सुखामोद, यहां तक कि वैभव-सामग्री जुटाने के विपुल संसाधन हैं. दूसरी ओर भूख, गरीबी और दैन्य के सताए लोग बड़ी संख्या में हैं. ऐसे लोगों के पास सामान्य सुविधाओं का अभाव हमेशा बना रहता है. उनके पास न तो भरपेट भोजन है, न ही जीवन का कोई सुख. हालांकि दुनिया में अवसरों की भरमार है. उनसे कोई भी व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार जीवन के लक्ष्य निर्धारित कर सकता है, अपने आप को ऊंचा उठा सकता है. फिर भी ऐसे लोग बहुत कम हैं जो उन सबका आनंद उठा पाते हैं. कच्चे माल और उत्पादन के क्षेत्र तेजी से विकास की ओर अग्रसर हैं. दूसरी ओर ऐसे लोग भी अनगिनत हैं जो मामूली संसाधनों के साथ गुजारा करने को विवश हैं. समाज में जीवन की मूलभूत अनिवार्यताएं होती हैं. उनके अभाव में जीवन बहुत कठिन हो जाता है. बहुत-से लोग न्यूनतम सुविधाओं के लिए तरसते हैं. बड़ी कठिनाई में वे जीवनयापन कर पाते हैं. हमारे पास कृषि भूमि की कमी नहीं. बाकी संसाधन भी पर्याप्त मात्रा में है. मगर ऐसे लोग भी हैं जिनके पास जमीन का एक टुकड़ा तक नहीं है. ऐसी दुनिया में एक ओर सुख-पूर्वक जीवनयापन के भरपूर संसाधन मौजूद हैं, दूसरी ओर भुखमरी गरीबी, और दुश्चिंताओं की भरमार है. उनके कारण समाज में चुनौतियां ही चुनौतियां हैं.

क्या इन सबके और ईश्वर के बीच कोई संबंध है?

क्या इन सबके और मनुष्य के बीच कोई तालमेल है?

ऐसे लोग भी हैं जो सांसारिक कार्यकलापों को ईश्वर से जोड़ते हैं. परंतु हमें ऐसा कोई नहीं मिलता जो दुनिया की बुराइयों के लिए ईश्वर को जिम्मेदार ठहराता हो. तो क्या यह मान लिया जाए कि आदमी नासमझ है, उसमें इन बुराइयों से निपटने का सामर्थ्य ही नहीं है?

प्राणीमात्र के बीच मनुष्य सर्वाधिक बुद्धिमान है. यह आदमी ही है, जिसने ईश्वर, धर्म, दर्शन, अध्यात्म को गढ़ा है. कहा यह भी जाता है कि असाधारण मनुष्य ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल हुए थे. कुछ लोगों के बारे में तो यह दावा भी किया जाता है कि वे ईश्वर में इतने आत्मलीन थे कि स्वयं भगवान बन चुके थे. मैं बड़ी हिम्मत के साथ पूछता हूं—आखिर क्यों ऐसे महान व्यक्तित्व भी दुनिया में व्याप्त तमाम मूर्खताओं को उखाड़ फेंकने में नाकाम रहे? क्या इससे स्पष्ट नहीं होता कि लोग अपने सामान्य बोध से यह नहीं समझ पाए कि सांसारिक चीजों का ईश्वर, धर्म, आध्यात्मिक निर्देश, न्याय, मर्यादा, शासन आदि से कोई संबंध नहीं है. ये सिर्फ इसलिए हैं क्योंकि अधिकांश लोग स्वतंत्र रूप से सोचने तथा निर्णय लेने में अक्षम हैं?

पश्चिमी देशों में अनेक विद्वानों ने बुद्धि को महत्त्व देते हुए तर्कसंगत ढंग से सोचना आरंभ किया. उन विचारों की मदद से उन्होंने विलक्षण ज्ञान के साथ-साथ चामत्कारिक आविष्कार किए हैं. उसके फलस्वरूप वे अपनी आध्यात्मिकता के परिष्कार के साथ-साथ, अंधविश्वासों और आत्म-वंचनाओं का समाधान खोजने में भी कामयाब रहे. अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्राचीन ढकोसले ज्यादा दिन टिकने वाले नहीं हैं. यही कारण है कि उन्होंने नए युग पर ध्यान-केंद्रित करना आरंभ कर दिया है.

हम क्यों जन्मे हैं? आम आदमी को आज भी रोजी-रोटी के लिए संघर्ष क्यों करना पड़ता है? क्यों लोग भूख और गरीबी के कारण अकाल मौत मरते हैं? जबकि दुनिया में संसाधनों का प्राचुर्य है. ये मानव-मस्तिष्क को स्तब्ध कर देने वाले प्रश्न हैं. आज हालात बदल रहे हैं. आजकल बुद्धिवादी तरीके से अनेक चीजों का वास्तविक रूप हमारे सामने है. कालांतर में यही तरीका न केवल परिवर्तन का वाहक बनेगा, बल्कि सामाजिक क्रांति को भी जन्म देगा. एक समय ऐसा आएगा जब धन-संपदा को सिक्कों में नहीं आंका जाएगा. न सरकार की जरूरत रहेगी. किसी भी मनुष्य को जीने के लिए कठोर परिश्रम नहीं करना पड़ेगा. ऐसा कोई काम नहीं होगा जिसे ओछा माना जाए; या जिसके कारण व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखा जाए. आज सरकार के पास असीमित अधिकार हैं. किंतु भविष्य में ऐसी कोई सरकार नहीं होगी, जिसके पास अंतहीन अधिकार हों. दास प्रथा का नामोनिशान नहीं बचेगा. जीवनयापन हेतु कोई दूसरों पर आश्रित नहीं रहेगा. महिलाएं आत्मनिर्भर होंगी. उन्हें विशेष संरक्षण, सुरक्षा और सहयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी.

आने वाली दुनिया में मनुष्य को सुख-पूर्वक जीवन-यापन करने के लिए एक अथवा दो घंटे का समय पर्याप्त होगा. उससे वह उतना ही वैभवशाली जीवन जी सकेगा, जैसा संत-महात्मा, जमींदार, शोषण करने वाले धर्मगुरु और तत्वज्ञानी जीते आए हैं. सामान्य सुख-सुविधाओं तथा समस्त आनंदोपभोग के लिए मात्र दो घंटे का श्रम पर्याप्त होगा. मनुष्य के सामान्य रोग जैसे पैरों का दर्द, कान, नाक, पेट, हड्डी आदि के विकार तथा अन्यान्य रोग सहन नहीं किए जाएंगे. आने वाली नई दुनिया में अकेले मनुष्य की दुश्चिंताएं और कठिनाइयाँ समाज द्वारा सही नहीं जाएंगीं. उस दुनिया में समाज एकता और सहयोग के आधार पर गठित होगा.

युद्ध जो इन दिनों आम हैं, भविष्य में उनके लिए कोई जगह नहीं होगी. लोगों को युद्ध में जान देने के लिए मजूबर नहीं किया जा सकेगा. हत्या और लूटमार की घटनाओं में उल्लेखनीय गिरावट होगी. कोई बेरोजगार नहीं रहेगा. न कहीं भोजन और आजीविका के लिए मारामारी होगी. लोग काम की तलाश अपने आप को सुखी और स्वस्थ रखने के लिए करेंगे. बहुमूल्य वस्तुएं, मनोरम स्थल, मनभावन दृश्य और दमदार प्रदर्शनियां, जहां लोग मिल-जुलकर जीवन का आनंद ले सकें—सभी को समान रूप से सदैव उपलब्ध होंगी. आने वाली दुनिया में साहूकार, निजी व्यापारी, उद्योगपति और पूंजीपतियों के अधीन चल रही संस्थाओं के लिए कोई जगह नहीं होगी. केवल लाभ की कामना के साथ करने वाला कोई एजेंट, ब्रोकर या दलाल आने वाली दुनिया में नजर नहीं आएगा.

सहयोगाधारित विश्व-राज्य में जल, थल और वायुसेना बीते जमाने की चीजें बन जाएंगी. बस्तियों को तबाह कर देने वाले युद्धक जहाज और हथियार खुद नष्ट कर दिए जाएंगे. आजीविका के लिए रोजगार की तलाश आसान और मानव-मात्र की पहुंच में होगी. सुखामोद में चौतरफा वृद्धि होगी. ज्ञान-विज्ञान की मदद से मनुष्य की औसत आयु में बढ़ोत्तरी होगी. जनसंख्या बृद्धि की चाहे जो रफ्तार हो, आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता तथा उन्हें जुटाने में लगने वाला श्रम मूल्य न्यूनतम स्तर पर होगा. मशीनी-क्रांति उसे सहज-संभव कर दिखाएगी.

मिसाल के तौर पर, कभी वे दिन थे जब एक कारीगर एक मिनट में औसतन 150 धागे बुन पाता था. आज ऐसी मशीनें हैं जो किस्म-किस्म के कपड़े 45,000 धागे प्रति मिनट की रफ्तार से आसानी से बुन लेती हैं. इसी तरह पहले कारीगर के लिए प्रति मिनट 2-3 सिगरेट बनाना भी मुश्किल हो जाता था. आज एक मशीन प्रति मिनट में ढाई हजार सिगरेट बना देती है. आज मशीन के डेशबोर्ड पर केवल तंबाकू की पत्तियां, कागज आदि रखने की जरूरत होती है. सिगरेट बनाने से लेकर उनके पैकेट बनाने, फिर पैक करने तक का काम मशीनें करती हैं. वहां से उन्हें आसानी से बाहर भेजा जा सकता है. इसके अलावा खराब सिगरेटों को अलग करने से लेकर नष्ट करने तक का काम मशीनें स्वत: कर लेती हैं. आज जीवन के सभी क्षेत्रों में मशीनों के जरिये आसानी से काम हो रहा है. प्रौद्योगिकी विषयक ज्ञान में तीव्र वृद्धि हो रही है. तकनीक की मदद से आने वाली दुनिया में ऐसा संभव होगा जब कोई आदमी सप्ताह में मात्र दो श्रम करके साल-भर के लिए जरूरी वस्तुओं का उपार्जन कर सकेगा.

इस बात से डरने की जरूरत नहीं है कि लोग इससे सुस्त और आराम पसंद हो जाएंगे. इस तरह की चिंता किसी को भी नहीं करनी चाहिए. यही नहीं जैसे-जैसे जीवनोपयोगी वस्तुएं के उपार्जन के तरीकों और संसाधनों का विकास होगा, और जैसे-जैसे सुख-सुविधाओं की मांग बढ़ेगी, स्वाभाविक रूप से मनुष्य के श्रम और क्षमताओं का लोकहित में पूरे वर्ष उपयोग करने के लिए आवश्यक कदम भी उठते रहेंगे. ऐसी योजनाएं बनाई जाएंगी जिससे मनुष्य के खाली समय का सार्थक सदुपयोग संभव हो सके. आधुनिकतम मानवोपयोगी आविष्कारों की कोई सीमा नहीं होगी. सभी लोगों को काम मिलेगा, विशेषरूप से गुणी, प्रतिभाशाली और मनुष्यता के हित में आधुनिक सोच से काम लेने वालों के लिए काम की कोई कमी नहीं होगी. मजदूर केवल मजदूरी के लिए काम नहीं करेगा, बल्कि वह अपने मानसिक विकास के लिए भी काम को समर्पित होगा. उससे प्रत्येक व्यक्ति व्यस्त रहेगा. केवल लार्भाजन के लिए कोई उत्पादन नहीं किया जाएगा.

अपने से बड़ों को काम करते देख छोटे भी समाज हित में बहुउपयोगी योगदान देने को आश्चर्यजनक रूप से तत्पर होंगे. ठीक है, कुछ लोग सोच सकते हैं कि उनके कुछ उत्तराधिकारी सुस्त और आराम-पसंद होंगे. मैं ऐसा नहीं मानता. यह सोचते हुए कि कुछ लोग आलसी और निकम्मे हो सकते हैं, वे समाज के लिए बोझ नहीं रहेंगे. समाज की प्रगति पर उनसे न्यूनतम प्रभाव पड़ेगा. यदि कोई जानबूझकर सुस्त रहने की जिद ठाने रहता है, तो वह उसके लिए नुकसानदेह होगा, न कि पूरे समाज के लिए. सच तो यह है कि आने वाले समय में कोई भी खुद को आलसी और सुस्त कहलवाने में लज्जित महसूस करेगा. लोगों में समाज के लिए कुछ न कुछ उपयोगी करने की स्पर्धा बनी रहेगी. उनके लिए अपेक्षाकृत अधिक काम होगा. और किसी काम को करने वाले हाथों की कमी नहीं रहेगी. कोई किसी काम को पूरा न करने का दोष अपने सिर नहीं लेना चाहेगा.

आप पूछ सकते हैं कि क्या कुछ आदमी ऐसे भी होंगे जिन्हें ओछे और गंदे कार्यों पर लगाया जाएगा? अभी तक गंदे और खराब कार्यों से हमारा जो मतलब रहा है, आने वाली दुनिया में उन्हें ऐसा नहीं माना जाएगा. न उनके कारण किसी को हेय दृष्टि से देखा जा सकेगा. आनी वाले समय में झाडू़ लगाना, मैला उठाना, झूठे बर्तन धोने, कप-प्लेट धोने जैसे कार्यों के लिए मशीनों की मदद ली जाएगी. आदमी से उम्मीद की जाएगी कि तकनीकी कौशल प्राप्त कर, मषीनों का उपयोग करना सीखे. सिर पर भारी बोझा ढोने, खींचने या गड्ढा खोदने के लिए मानव-श्रम की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. किसी भी कार्य को असम्मानजनक नहीं माना जाएगा. कवियों, कलाकारों, कलमकारों और मूर्तिकारों के बीच नई दुनिया गढ़ने के लिए स्पर्धा रहेगी. अच्छे आदमियों को अच्छे काम सौंपे जाएंगे, ताकि वे नाम और नामा दोनों कमा सकें.

कोई भी व्यक्ति आत्मगौरव, चरित्र और मान-मर्यादा से शून्य नहीं होगा. चूंकि व्यक्तिगत लाभ के सभी रास्ते बंद कर दिए जाएंगे, इसलिए कोई भी आदमी गलत चाल-चलन में नहीं पड़ेगा. ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जिसका झुकाव अनुचित और अनैतिक कार्य की ओर हो. ये शर्तें प्रत्येक व्यक्ति को उच्च नैतिक मापदंडों के अनुसरण की प्रेरणा देंगीं. उसे अधिक सुसभ्य और संवेदनशील बनाएंगी. यदि कहीं ऊंच-नीच, विशेषाधिकार और अधिकारविहीनता दिखेगी, वहां घृणा, जुगुप्सा, और विरक्ति के कारण भी मौजूद होंगे—और जहां ये चीजें अनुपस्थित होंगी, वहां अनैतिकता के लिए कोई स्थान न होगा. नए विश्व में किसी को कुछ भी चुराने या हड़पने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी. पवित्र नदियों जैसे कि गंगा के किनारे रहने वाले लोग उसके पानी की चोरी नहीं करेंगे. वे केवल उतना ही पानी लेंगे, जितना उनके लिए आवश्यक है. भविष्य के उपयोग के लिए वे पानी को दूसरों से छिपाकर नहीं रखेंगे. यदि किसी के पास उसकी आवश्यकता की वस्तुएं प्रचुर मात्रा में होंगी, वह चोरी की सोचेगा तक नहीं. इसी प्रकार किसी को झूठ बोलने, धोखा देने या मक्कारी करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, क्योंकि उससे उसे कोई प्राप्ति नहीं हो सकेगी. नशीले पेय किसी को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे. न कोई किसी की हत्या करने का ख्याल दिल में लाएगा. बक्त बिताने के नाम पर जुआ खेलने, शर्त लगाने जैसे दुर्व्यसन समाप्त हो जाएंगे. उनके कारण किसी को आर्थिक बरबादी नहीं झेलनी पड़ेगी.

पैसे की खातिर अथवा मजबूरी में किसी को वेष्यावृत्ति के लिए विवश नहीं होना पड़ेगा. स्वाभिमानी समाज में कोई भी दूसरे पर शासन नहीं कर पाएगा. कोई किसी से पक्षपात की उम्मीद नहीं करेगा. ऐसे समाज में जीवन और काम-संबंधों को लेकर लोगों का दृष्टिकोण उदार एवं मानवीय होगा. वे अपने स्वास्थ्य की देखभाल करेंगे. प्रत्येक व्यक्ति में आत्मसम्मान की भावना होगी. स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करेंगे और किसी का प्रेम बलात् हासिल करने की कोशिश नहीं की जाएगी. स्त्री-दासता के लिए कोई जगह नहीं होगी. पुरुष सत्तात्मकता मिटेगी. दोनों में कोई भी एक-दूसरे पर बल-प्रयोग नहीं करेगा. आने वाले समाज में कहीं कोई वेष्यावृत्ति नहीं रहेगी.

मानसिक अपंगता के शिकार लोगों को विशेषरूप से देखभाल की जरूरत पड़ सकती है. बावजूद इसके ऐसे व्यक्तियों को तभी बंद किया जा सकेगा, जब वे दूसरे लोगों के लिए परेशानियां खड़ी कर रहे हों. स्त्री-पुरुष दोनों पर किसी प्रकार के प्रतिबंध लागू करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. क्योंकि वे दोनों ही संबंधों की अच्छाई-बुराई की ओर से सावधान रहेंगे.

यातायात के साधन मुख्यतः हवाई होंगे और वे तीव्र से काम करेंगे. संप्रेषण प्रणाली बिना तार की होगी. सबके लिए उपलब्ध होगी और लोग उसे अपनी जेब में उठाए फिरेंगे. रेडियो प्रत्येक के हेट में लगा हो सकता है. छवियां संप्रेषित करने वाले उपकरण व्यापक रूप से प्रचलन में होंगे. दूर-संवाद अत्यंत सरल हो जाएगा और लोग ऐसे बातचीत कर सकेंगे मानो आमने-सामने बैठे हों. आदमी किसी से भी कहीं भी और कभी भी तुरंत संवाद कर सकेगा. शिक्षा का तेजी से और दूर-दूर तक प्रसार करना संभव होगा. एक सप्ताह तक की जरूरत का स्वास्थ्यकर भोजन संभवतः एक केप्सूल में समा जाएगा जो सभी को सहज उपलब्ध होंगे

मनुष्य की आयु सौ वर्ष अथवा उससे भी दो गुनी हो चुकी होगी.

नपुंसक स्त्री या पुरुष को संतान के लिए संभोग करने की जरूरत नहीं पड़ेगी. यही नहीं पषुओं की उन्नत नस्ल के लिए ताकतवर और सुदृढ़ सांड विशेषरूप से लाए जाएंगे, स्वस्थ्य और बुद्धिमान पुरुषों को वीर्य-दान के लिए तैयार किया जाएगा, तथा उसे वैज्ञानिक ढंग से स्त्री के गर्भाशय में स्थापित किया जाएगा. वह ऐसा रास्ता होगा जिससे आने वाली संतान शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ एवं तेजवंत होगी. बच्चे के जन्म की प्रक्रिया सरल होगी, जिसके लिए दंपति को संभोग की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. जनता के इच्छा और सहयोग से जनसंख्या-नियंत्रण का काम आसान हो जाएगा.

दैनिक उपभोग की वस्तुएं जैसी वे आज हैं, भविष्य में उससे अलग हांगीं. उदाहरण के लिए वाहनों का भार उल्लेखनीय रूप से कम हो जाएगा. उससे पैट्रोल की खपत में कमी आएगी. भविष्य की कारें बिजली अथवा दुबारा चार्ज होने वाली बैटरियों से चल सकेंगी. बिजली का उपयोग इस प्रकार किया जाएगा ताकि प्रत्येक व्यक्ति उसका लाभ उठा सके. वह मनुष्यता के लिए बहुउपयोगी होगी. इस तरह के अनेक वैज्ञानिक सुधार देखने में आएंगे. विज्ञान का बड़ी तेजी से विकास होगा, उसके माध्यम से नए-नए और उपयोगी आविष्कार सामने आएंगे.

उस दुनिया में आविष्कारों के दुरुपयोग के लिए कोई गुंजाइष नहीं होगी. आजकल संपत्ति, कानून और व्यवस्था की देखभाल, न्याय, प्रशासन, शिक्षा आदि के सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार संभालती है. इसके लिए सरकार के अलग-अलग विभाग हैं. आगे चलकर ये सब माध्यम अनावश्यक और अप्रचलित हो जाएंगे. इन कार्यों के लिए आजकल प्रचलित प्रणालियां कालांतर में अर्थहीन लगने लगेंगी.

संभव है आने वाली दुनिया में भी कोई व्यक्ति ईश्वर को समझने की चाहत रखे.

ईश्वर की संकल्पना स्वतः और स्वाभाविक रूप से नहीं जन्मी है. यह विश्वास की प्रक्रिया है, जो बड़ों द्वारा छोटों में अंतरित और उपदेशित की जाती है. आने वाली दुनिया में ईश्वर की चर्चा तथा कर्मकांड करने वाले लोग नगण्य होंगे. यही नहीं ईश्वर के नाम पर जितने चमत्कारों का दावा किया जाता है, कालांतर में वे लुप्त हो जाएंगे. मनुष्य ईश्वर की चर्चा करेगा किंतु बिना किसी अलौकिताबोध के. आज आदमी यह सोचकर ईश्वर को याद करता है, क्योंकि उसे उसकी आवश्यकता बताई जाती है. यदि हम काम करते समय अचानक बीच में आ जाने वाली बाधाओं के रहस्य को समझ लें, यदि मनुष्य की सामान्य जरूरतें उसकी आवश्यकता के अनुसार समय रहते आसानी से पूरी हो जाएं, तब उसे ईश्वर और सृष्टि की परिकल्पना की आवश्यकता ही न पड़े. स्वर्ग की परिकल्पना अवैज्ञानिक और अप्रामाणिक है. यदि मानव-मात्र के लिए धरती पर ही स्वर्ग जैसा वातावरण उपलब्ध हो जाए, तब उसे स्वर्ग जैसी आधारहीन कल्पना की आवश्यकता ही नहीं पड़े. न ही स्वर्ग मिलने की चाहत उसे परेशान करे. यही मानवीय बोध की चरमसीमा है. ज्ञान-विज्ञान और विकास के क्षेत्र में ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है.

यदि व्यक्ति में खुद को जानने की योग्यता हो तो उसे ईश्वर की जरूरत ही नहीं है. यदि मनुष्य इस दुनिया को ही अपने लिए स्वर्ग मान ले तो वह स्वर्ग के आकाश में; तथा नर्क के पाताल में स्थित होने की जैसी भ्रामक बातों पर विश्वास ही नहीं करेगा. जागरूक और विवेकवान व्यक्ति इत तरह के अतार्किक सोच को तत्क्षण नकार देगा. जहां व्यक्तिगत इच्छाओं का लोप हो जाता है, वहां ईश्वर भी मर जाता है. जहां विज्ञान जिंदा हो, वहां ईश्वर को दफना दिया जाता है.

सामान्य धारणा में अपरिवर्तनीयता या अनश्वरता के बारे ठोस परिकल्पनाएं संभव हैं. इसका आशय क्या है? इसमें भ्रम पैदा करने वाले कारक कौन से हैं? अनश्वरता को लोग ईश्वर के पर्याय और गुण के रूप में देखते आए हैं. वैज्ञानिकों की दृष्टि में इस तरह का अर्थ निकालना मूर्खता है. हम अपने निजी अनुभवों को दूसरों को बताने में प्रायः संकोची रहे हैं. इसलिए दूसरों के अनुभव और विचार हमारे मस्तिष्क पर प्रभावी हो जाते हैं. हम अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन करते हैं, जो प्रायः हमारी नहीं होती. जबकि वे दुनिया के जन्म और उसकी ऐतिहासिक सहनशीलता को समझने का आदर्श माध्यम हो सकती है. इन हालात में जबकि दुनिया के अनेक रहस्य हमें अभी तक अज्ञात हैं, आभार ज्ञापन के बहाने ही सही, कोई भी बुद्धिवादी ईष्वर की पूजा नहीं करेगा.

कोई भी व्यक्ति ज्ञानार्जन द्वारा अपने जीवन में सुधार ला सकता है. यही दुनिया का नियम है. जब कोई तर्कबुद्धि से घटनाओं की सही व्याख्या नहीं कर पाता, तब वह चुपचाप अज्ञानता के वृक्ष के नीचे शरण लेकर ईश्वर को पुकारने लगता है. इस तरह के अबौद्धिक कार्यकलाप आने वाले समय में सर्वथा अनुपयुक्त माने जाएंगे.

 आने वाले समय में न तो स्वर्ग होगा, न नर्क. क्योंकि उसमें सनातन पाप या पुण्य के लिए के लिए कोई स्थान नहीं होगा. किसी को किसी की मदद की जरूरत नहीं पड़ेगी. सिवाय पागल के कोई दूसरों को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहेगा. इसलिए स्वर्ग और नर्क की परिकल्पना भविष्य में मनुष्यता के लिए अर्थहीन मान ली जाएगी.

इस तरह की आदर्श दुनिया अचानक नहीं गढ़ी जा सकती. धीर-धीरे, कदम-दर कदम आगे बढ़ते हुए मेहनती लोगों द्वारा, क्रमिक परिवर्तन के बाद, लंबे अंतराल में इस तरह की दुनिया अवश्य बनाई जा सकती है. समाज की विभिन्न समस्याओं के समाधान तथा मानवमात्र के बेहतर जीवन के लिए, नई दुनिया की संरचना के लिए यह रास्ता आदर्श होगा.

उस समाज में कोई यह नहीं पूछेगा, ‘हम क्या करें? जब सबकुछ ईश्वर की मर्जी से संचालित है.’ मनुष्यता की जो भी कमियां सामने आएंगी, लोग उनपर शांत नहीं बैठेंगे. लक्ष्य तक पहुंचने के लिए वे उनका समाधान अवश्य करेंगे. नियति और दुर्भाग्य की कोई बात नहीं होगी. प्रत्येक कार्य संपूर्ण आत्मविश्वास के साथ किया जाएगा. समाज में जो भी बुराइयां सामने आएंगी, बेहतर समाज की रचना के लिए उनका निदान तत्क्षण और निपुणता के साथ किया जाएगा.

प्राचीन रीति-रिवाजों और पंरपराओं में अंध-आस्था ने लोगों के सोचने समझने, तर्क-बुद्धि से काम लेने की प्रवृत्ति का लोप कर दिया है. ये चीजें दुनिया की प्रगति में बाधक बनी हुई हैं. कुछ लोगों के स्वार्थ इनसे जुड़े हैं. निहित स्वार्थ के लिए वही लोग, जो इन पुरानी और बकवास चीजों से ही कमाई करते रहते हैं. ऐसे लोग ही नई दुनिया की संरचना का विरोध करते हैं. उस दुनिया का विरोध करते हैं जिसमें खुशियों की, सुख-शांति की भरमार होगी. लोगों के विकास की प्रचुर संभावनाएं भी रहेंगी. बावजूद इसके जो मनुष्य के अज्ञान तथा कुछ लोगों के स्वार्थ के विरुद्ध खुलकर खड़े होंगे, वही नई दुनिया की रचना करने में समर्थ होंगे. नई दुनिया के निर्माताओं को मजबूत करते के लिए हमें उनके साथ, उनकी कतार में शामिल हो जाना चाहिए. युवाओं और बुद्धिवादियों के लिए उचित अवसर है कि वे नए विश्व की रचना हेतु अपने प्रयासों को अपने विचार, ऊर्जा और सपनों को समर्पित कर दें.

ई वी रामास्वामी पेरियार(1944)

छोटा मंदिर—बड़ा मंदिर/पचीस लघुकथाएं

विशेष रुप से प्रदर्शित

1/छोटा मंदिरबड़ा मंदिर

एकांत देख बड़े मंदिर का ईश्वर अपने स्थान से उठा.

बैठेबैठे शरीर अकड़ा, पेट अफरा हुआ था. डकार लेतेलेते नजर सामने खड़ी कृषकाय आकृति पर नजर पड़ी. बड़े मंदिर का ईश्वर कुछ पूछे उससे पहले ही वह बोल पड़ी—

हम दोनों एक हैं.’

होंगे, मुझे क्या!’ बड़े मंदिर के ईश्वर ने तपाक से कहा.

बस्ती में अकाल पड़ा है. लोगों के पा अपने पेट के लिए कुछ नहीं है तो मेरे लिए कहां से लाएंगे.’

इसमें मैं क्या कर सकता हूं.’

इस मंदिर में रोज अकूत चढ़ावाहै. मामूली हिस्सा भी मिल जाए तो हमारा काम चल जाएगा.’

चढ़ावे का हिसाब तो पुजारी रखता है.’

पुजारी तुम्हारा कहना नहीं टाल पाएगा.’

पर मैं उससे क्यों कहने लगा?’

इतनी रात गए कौन है?’ कहता हुआ पुजारी बाहर आया. छोटे मंदिर के ईश्वर को देख त्योरियां चढ़ गईं.

यह छोटे मंदिर का ईश्वर है. आपके पास मदद के लिए आया है.’ बड़े मंदिर के ईश्वर ने बताया.

चल हटशहर में सैकड़ों मंदिर हैं. हर मंदिर का ईश्वर फरियादी बनकर आ गया तो मेरा क्या होगा?’ कहते हुए पुजारी ने धक्का देकर छोटे मंदिर के ईश्वर को बाहर निकाल दिया. बड़े मंदिर का ईश्वर चुपचाप अपनी मूर्ति में समा गया.

2/वयं ब्रह्माव

तानाशाह हंटर फटकारता है. लोग सहमकर जमीन पर बिछ जाते हैं. कुछ पल बाद उनमें से एक सोचता है—‘तानाशाही की उम्र थोड़ी है. जनता शाश्वत है.’ उसके मन का डर फीका पड़ने लगता है.

अहं ब्रह्मास्मिः!’ कहते हुए वह उठ जाता है. उसकी देखादेखी कुछ और लोग खड़े हो जाते हैं. सहसा एक नाद आसमान में गूंजता है

वयं ब्रह्माव.’ एकदूसरे की देखादेखी बाकी लोग भी खड़े हो जाते हैं. जनता को खड़े देख तानाशाह के हाथ से हंटर छूट जाता है. वह जमीन पर पसर जाता है.

3/तानाशाह

तानाशाह ने हंटर फटकारा —‘मैं पूरे राज्य में अमनचैन कायम करने की घोषणा करता हूं. कुछ दिन के बाद तानाशाह ने सबसे बड़े अधिकारी को बुलाकर पूछा—‘घोषणा पर कितना अमल हुआ?’

आपका इकबाल बुलंद है सर! पूरे राज्य में दंगाफसाद, चोरी चकारी, लूटमार पर लगाम लगी है. आपकी इच्छा के बिना लोग सांस तक लेना पसंद नहीं करते.’ तानाशाह खुश हुआ. उसने अधिकारी को ईनाम दिया. कुछ दिनों के बाद एक गुप्तचर ने तानाशाह को खबर दी—‘लोगों के दिलोदिमाग में हलचल मची है सर!’

तानाशाह को एटमबम से इतना डर नहीं लगता था, जितना लोगों के सोचने से. परंतु डर सामने आ जाए तो तानाशाह कैसा—

आदमी हैं तो दिलोदिमाग दोनों होंगे.’ तानाशाह ने लापरवाही दिखाई. गुप्तचर के जाते ही तानाशाह ने अधिकारी को तलब किया—‘हमें खबर मिली है कि लोगों के दिलोदिमाग में हलचल मची है. लोग जरूरत से ज्यादा सोचें, यह हमें हरगिज पसंद नहीं है.’

आदेश दें तो सबको जेल में डाल दूं. चार दिन भीतर रहेंगे तो अकल ठिकाने आ जाएगी.’

नहीं, तुम उनसे बस इतना करो कि जैसे हम हमेशा अपने बारे में सोचते हैं, वे भी केवल हमारे बारे में सोचें.’ तानाशाह ने हंटर फटकारा. कुछ दिन के बाद गुप्तचर फिर हाजिर हुआ.

सर! लोग कुछ ज्यादा ही सोचने लगे हैं.’

हमारे बारे में ही सोचते हैं न.’ तानाशाह हंसा. मानो गुप्तचर का मखौल उड़ा रहा हो.

जी, बस आप ही के बारे में सोचते हैं.’

उनके भाग्यविधाता जो ठहरे.’ तानाशाह ने हंटर फटकारा. गुप्तचर की आगे कुछ कहने की हिम्मत न हुई. वह चलने को हुआ. सहसा पीछे से तानाशाह ने टोक दिया—

जरा बताओ तो वे हमारे बारे में क्या सोचते हैं?’

जीमैंने लोगों को कहते सुना है….’

रुक क्यों गए, जल्दी बताओ?’

सब यही कहते हैं कि तानाशाह बुरा आदमी है.’

तानाशाह का चेहरा सफेद पड़ गया. हंटर हाथ से छूट गया. सहसा वह चिल्लाया—‘हरामखोरों को जेल में डाल दो. मैंने कहा था, मुझे सोचनेसमझने वाले लोग नापसंद हैं. सबको जेल में डाल दो.’

आजकल वह पागलखाने में है.

4/समाधान

तानाशाह ने पुजारी को बुलाया—‘राज्य में सिर्फ हमारा दिमाग चलना चाहिए. हमें ज्यादा सोचने वाले लोग नापसंद हैं.’

एकदो हो तो ठीक, पूरी जनता के दिमाग में खलबली मची है सर!’ पुजारी बोला.

तब आप कुछ करते क्यों नहीं?’

मुझ अकेले से कुछ नहीं होगा.’

फिर….’ इसपर पुजारी ने तानाशाह के कान में कुछ कहा. तानाशाह ने पूंजीपति को बुलवाया. पूंजीपति का बाजार पर दबदबा था. अगले ही दिन से बाजार से चीजें गायब होने लगीं. बाजार में जरूरत की चीजों की किल्लत बढ़ी तो लोग परेशान होने लगे. रोजमर्रा की चीजों के लिए एकदूसरे से झगड़ने लगे. एकदूसरे पर अविश्वास बढ़ गया. समाज में आपाधापी, मारकाट और लूटखसोट बढ़ गई. मौका देख पुजारी सामने आया. लोगों को संबोधित कर बोला—

हमारी धरती सोना उगल रही है. कारखाने रातदिन चल रहे हैं. फिर भी लोग परेशान हैं, जरा सोचिए, क्यों?’

आप ही बताइए पुजारी जी….’

ईश्वर नाराज है. उसे मनाइए, सब ठीक हो जाएगा.’

जैसा सोचा था, वही हुआ. मंदिरों के आगे कतार बढ़ गई. कीर्तन मंडलियां संकट निवारण में जुट गईं.

तानाशाह खुश है. पुजारी और पूंजीपति दोनों मस्त हैं.

5/अच्छे दिन

चारों ओर बेचैनी थी. गर्म हवाएं उठ रही थीं. ऐसे में तानाशाह मंच पर चढ़ा. हवा में हाथ लहराता हुआ बोला—

भाइयो और बहनो! मैं कहता हूं….दिन है.’

भक्तगण चिल्लाए—‘दिन है.’

मैं कहता हूं….रात है.’

भक्तगण पूरे जोश के साथ चिल्लाए—‘रात है.’

हवा की बेचैनी बढ़ रही थी. बावजूद उसके तानाशाह का जोश कम न हुआ. हवा में हाथ को और ऊपर उठाकर उसने कहा—‘चांदनी खिली है. आसमान में तारे झिलमिला रहे हैं.’

पूनम की रात है….आसमान में तारे झिलमिला रहे हैं.’ भक्तों ने साथ दिया.

अच्छे दिन आ गए….’ भक्तगण तानाशाह के साथ थे. दुगुने जोश से चिल्लाए—

अच्छे दिन आ…’ यही वह बात थी, जिसपर हवा आपा खो बैठी. अनजान दिशा से तेज झंझावात उमड़ा और तानाशाह के तंबू को ले उड़ा.

6/संविधान

आखिर जनता ने ठान लिया कि वह अपनी आस्था का ग्रंथ स्वयं चुनेगी. सारे धर्मग्रंथ उस दिन की प्रतीक्षा करने लगे. हर किसी को अपने देवता, अपने मसीहा की श्रेष्ठता पर भरोसा था. उनमें से प्रत्येक को अपने देवता की सर्वोच्चता पर गुमान था—

मेरा देवता सबसे पवित्र है. वह सबको बराबर मानता है. सबके साथ एक जैसा व्यवहार करता है.’ एक धर्मग्रंथ बोला.

मेरा मसीहा करुणानिधान है. वह हमारे पिता जैसा है. हमेशा हमारे भले की सोचता है.’ दूसरे ने दावा किया.

मेरा देवता सर्वाधिक शक्तिशाली है. उसके पास दिव्य अस्त्रशस्त्रों की भरमार है. पलक झपकते नई दुनिया को बना सकता है और मिटा भी सकता है.

एकएक कर सभी धर्म ग्रंथ आए. इतने कि आदमी गिनती करना भूल गया. आखिर में उसकी निगाह एक पुस्तक पर पड़ी.

क्या तुम अपने देवता के बारे में नहीं बताओगे?’

मेरा कोई देवता नहीं है.’

यदि देवता नहीं है तो तुम धर्मग्रंथ कैसे हुए?’

लाखों लोग मुझमें विश्वास रखते हैं. उन्हीं में से कुछ मुझे अपना मार्गदर्शक भी मानते हैं.’

यदि देवता नहीं तो ताकत कहाँ से पाते हो.’

जनता से?’

आखिर तुम हो कौन?’

संविधान.’

संविधान के पीछे नैतिकता का बल, न्याय की चाहत और जनता का विश्वास था. इसलिए बाकी सब धर्म ग्रंथ कन्नी काटते हुए वहां से खिसक गए.

7/एंटीक

मंदिर में अपनी मूर्ति के बराबर एक और मूर्ति देख ईश्वर चौंका. पुजारी के आते ही पूछा—

यह किसलिए?’

छोड़िए, क्या करेंगे जानकर?’ पुजारी ने टालने की कोशिश की.

इस मंदिर का देवता मैं हूं. यहां क्या हो रहा है, उसके बारे में मुझे ही मालूम न हो, यह ठीक नहीं है.’

महाराज कंपटीशन का जमाना है….ग्राहक उस शोरूम में ज्यादा जाते हैं, जिसमें ज्यादा वैराइटीज हों.’

तुम मुझे ‘वेराइटी’ मानते हो?’ ईश्वर ने नाराजगी जताई.

मैंने तो बस हकीकत बयां की है. बराबर की बस्ती में बहुत बड़ा मंदिर बना है. एक ही छत के नीचे सैकड़ों देवताओं के दर्शन हो जाते हैं. हर किस्म का श्रद्धालु वहां जाता है. जबकि यहां आने वाले गिनती के हैं. हम दोनों की तरक्की के लिए यहां दोचार ईश्वर और आ जाएं तो क्या बुराई है?’

पुजारी ने लाख समझाया, लेकिन उस मंदिर का ईश्वर अपनी बगल में दूसरे देवता की मूर्ति रखने को तैयार न हुआ. पुजारी भुनभुनाता हुआ घर लौट गया. ईश्वर हमेशा की तरह आत्ममुग्धता में खो गया. लेकिन पुजारी तो पुजारी था. जो पत्थर को देवता बना सकता है, वह खुद को देवता समझने लगे पत्थर को उसकी औकात की याद भी दिला सकता है. अगले दिन पुजारी ने मंदिर में कीर्तन का ऐलान कर दिया. कीर्तन समाप्त हुआ तो उसके लिए आई मूर्तियां मंदिर की शोभा बढ़ाने लगीं. पुरानी मूर्ति नई मूर्तियों के पीछे दबसी गई.

अगले दिन श्रद्धालुओं की संख्या कई गुना थी. नए श्रद्धालु तरहतरह का चढ़ावा लेकर आए थे. रात हुई. चढ़ावे को समेट पुजारी गुनगुनाते हुए, मग्नमन बाहर निकला. तभी पुराने ईश्वर ने उसे टोक दिया—‘बहुत निष्ठुर हो. मैंने बीसियों वर्ष तुम्हारा साथ दिया था. अपने ही मंदिर में किनारा करते हुए तुम्हें जरा भी नहीं सोचा!’

सुनकर पुजारी हंसा—‘भगवन! धर्म का धंधा सोचने से नहीं, सोच पर पर्दा डालने से चलता है. नई मूर्तियां चीन से आयातित हैं. निखालिस मूर्तियां. कुछ तो इतनी क्यूटकि भक्तजन उनके साथ सेल्फी लेते दिखे.’ कहकर वह आगे बढ़ा. फिर चलतेचलते पलटकर बोला—‘पर तुम चिंता मत करो. इस धंधे में ‘एंटीक’ की बड़ी महिमा है. जल्दी ही यहां भव्य मंदिर बनेगा. वहां आसन पर तुम मजे से लोट लगाना.’

ईश्वर निरुत्तर. पुजारी गुनगुनाते हुए आगे बढ़ गया.

8/तानाशाहदो

बड़े तानाशाह के संरक्षण में छोटा तानाशाह पनपा. मौका देख उसने भी हंटर फटकारा—‘सूबे में वही होगा, जो मैं चाहूंगा. जो आदेश का उल्लंघन करेगा, उसे राष्ट्रद्रोह की सजा मिलेगी.’ हंटर की आवाज जहां तक गई, लोग सहम गए. छोटा तानाशाह खुश हुआ. उसने फौरन आदेश निकाला—‘गधा इस देश का राष्ट्रीय पशु है, उसे जो गधा कहेगा. उसे कठोर दंड दिया जाएगा.’

आदेश के बाद से सूबे में जितने भी गधे थे सब ‘गदर्भराज’ कहलाने लगे. उन्हें बांधकर रखने पर पाबंदी लगा दी गई. कुछ गधे तो फूल कर कुप्पा हो गए. वे मौकेबेमौके जहांतहां दुलत्ती मारने लगे. पूरे सूबे में अफरातफरी मच गई. कुछ दिनों के बाद छोटे तानाशाह ने एक भाषण में कहा—‘पिछली सरकारें, इतने वर्षों में कुछ नहीं कर पाई थीं. हमनें आने के साथ ही ‘गधा’ को ‘गदर्भराज’ बना दिया. इसे कहते हैं—‘सबका साथ—सबका विकास.’

भक्तगण जयजयकार करने लगे. ठीक उसी समय गधों का एक रेला आया. लोग उनके सम्मान में खड़े हो गए. अकस्मात एक गधा मंच के पीछे से आया और छोटे तानाशाह को एक दुलत्ती जड़ दी. छोटा तानाशाह जमीन बुहारने लगा.

इसे समझा देना. हर गधा, ‘गधा’ नहीं होता. कहकर वह वहां से नौदो ग्यारह हो गया.

9/ ईश्वर का पलायन

ईश्वर को जिज्ञासा हुई. 140 करोड़ की आबादी वाला भारत देश जिस संविधान के भरोसे चलता है, उसमें अपने अस्तित्व को खोजा जाए. उसे ज्यादा पढ़नेलिखने का अभ्यास तो था नहीं. फिर भी आखरआखर पूरा संविधान बांच डाला. ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को देखते ही उसका माथा ठनका. पुरोहित आया तो ईश्वर ने उसे आड़े हाथों लिया—‘तुम तो कहते थे कि देश में सारा कामकाज धर्मभरोसे चलता है. यहां तो पूरी सरकार धर्मनिरपेक्ष रहने का दावा करती है.’

महाराज! वह गफलत में लिखी गई ‘किताब’ है, भक्तगण उसे बदलने की कोशिश कर रहे हैं.’

तो बदलते क्यों नहीं….’

इतना आसान नहीं है. लोग नाराज हो जाएंगे.’ ईश्वर ने झूठ पकड़ लिया—

यानी लोग चाहते हैं कि सरकार धर्म की ओर से तटस्थ रहे.’

पुरोहित चुप. ईश्वर को लगा कि वह गफलत में था. उसका मन ग्लानि से भर गया. उसी रात सारा तामझाम समेट वह मंदिरों से कूंच कर गया. उस दिन के बाद से भक्त लोगों को धर्मनिरपेक्ष शब्द से चिढ़ होने लगी है. ‘सेकुलर’ शब्द उन्हें गालीजैसा लगता है.

कुछ भी हो, जनता इससे खुश है….

10/सबसे बड़ा देवता

स्कूल में निरीक्षण पर निकले प्रधानाचार्य का बच्चों का टेस्ट लेने का मन हुआ तो बराबर की कक्षा में घुस गए. बच्चे सम्मान में खड़े हो गए. प्रधानाचार्य कभी विज्ञान पढ़ाया करते थे. पर थे पूरी तरह धार्मिक. कक्षा में बच्चों को पढ़ाते कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, घर जाकर शेषनाग को जल चढ़ाते—

बच्चो! हिंदू धर्म के तीन सबसे बड़े देवताओं के नाम कौन बताएगा?’

ब्रह्माविष्णुमहेश….सारे बच्चे एक साथ बुदबुदाने लगे. सिवाय एक बालक के जो कक्षा में सबसे पीछे, शांत बैठा था. मानो चोर पकड़ा गया हो. प्रधानाचार्य उसी की ओर इशारा करके बोले—‘ऐ तुम, हां तुम….हिंदुओं के तीन प्रमुख देवताओं के नाम बताओ?’

ब्राह्मण….!’ लड़के ने झट कहा. बच्चे उसके ‘अज्ञान’ पर हंसने लगे. कक्षाध्यापक की उंगलियां बैंत पर कस गईं. अपने धैर्य की छाप छोड़ने के लिए प्रधानाचार्य ने आराम से पूछा—‘कैसे?’

घर में मां सत्यनारायण की कथा कराती है. कथा शुरू करने से पहले पडिंज्जी देवताओं को बुलाते हैं. कथा समाप्त होते ही देवताओं को अपनेअपने घर भेज देते हैं. देवता उनके इशारे पर ऐसे नाचते हैं, जैसे मदारी के इशारे पर बंदर. फिर सबसे शक्तिशाली कौन हुआ. देवता या ब्राह्मण!.’

बच्चे तो बच्चे थे. फिर हंसने लगे. पर प्रधानाचार्य को कोई बोल न सूझा.

11 /राजा बदरंगा है

तानाशाह को नएनए वस्त्रों का शौक था. दिन में चारचार पोशाकें बदलता. एक दिन की बात. कोई भी पोशाक उसे भा नहीं रही थी. तुरंत दर्जी को तलब किया गया.

हमारे लिए ऐसी पोशाक बनाई जाए, जैसी दुनिया के किसी बादशाह ने, कभी न पहनी हो.’ तानाशाह ने दर्जी से कहा. दर्जी बराबर में रखे हंटर को देख पसीनापसीना था. हिम्मत बटोर जैसेतैसे बोला—

हुजूर, आप तो देशविदेश खूब घूमते हैं. कोई ऐसा देश नहीं, जहां आपके चरण न पड़े हों. वहां जो भी अच्छा लगा हो, बता दीजिए. ठीक वैसी ही पोशाक मैं आपके लिए सिल दूंगा.’

तानाशाह को जहां, जिस देश में, जो पोशाक पसंद आई थी, सब दर्जी को बता दीं. उन सबको मिलाकर दर्जी ने जो पोशाक तैयार की, तानाशाह ने उसे पहनकर एक ‘सेल्फी’ ली और सोशल मीडिया पर डाल दी.

पहली प्रतिक्रिया शायद किसी बच्चे की थी. लिखा था—‘राजा बदरंगा है.’

12/अछूत

ईश्वर पुजारी को रोज चढ़ावा समेटकर घर ले जाते हुए देखता. उसे आश्चर्य होता. दिनभर श्रद्धालुओं को त्याग और मोहममता से दूर रहने का उपदेश देने वाला पुजारी इतने सारे चढ़ावे का क्या करता होगा? एक दिन उसने टोक ही दिया—‘तुम रोज इतना चढ़ावा घर ले जाते हो. अच्छा है, उसे मंदिर के आगे खड़े गरीबों में बांट दिया करो. कितनी उम्मीद लगाए रहते हैं.’

रहने दो प्रभु. तुम क्या जानो इस दुनिया में कितने झंझट हैं. एक दिन मंदिर से बाहर जाकर देखो तब पता चले.’

ईश्वर को बात लग गई. उसने पुजारी से एक दिन मंदिर बंद रखने का आग्रह किया, ‘कल तुम्हें खुद कुछ नहीं करना पड़ेगा. मैं खुद इंतजाम करूंगा.’ पुरोहित सोच में पड़ गया. परंतु यह सोचकर कि लोग ईश्वर को मंदिर से निकलते देखेंगे तो अगले दिन दो गुना चढ़ावा आएगा, वह एक दिन कपाट बंद रखने को राजी हो गया. अगले दिन ईश्वर ने कमंडल उठाया. मंदिर की देहरी पर पहुंचा था कि भीतर से आवाज आई. आवाज में आदेश था. ईश्वर के पांव जहां के तहां जम गए—‘सुनो! सबसे पहले उत्तर दिशा में जाना. उस ओर सेठों की बस्ती है. जो भी नकदी मिले संभाल कर रखना. फिर पश्चिम दिशा में जाना. उस ओर क्षत्रियों की बस्ती है. वे दान देने में कंजूस होते हैं. उनसे धनधान्य जो भी मिले, मना मत करना. जब तक पूर्व दिशा में पहुंचोगे, गृहणियां भोजन की तैयारी कर चुकी होंगी. वहां से जो भी भोजन मिले, संभाल कर रख लेना.’ ईश्वर चलने को हुआ. पीछे से पुजारी ने फिर टोक दिया—‘सुनो! दक्षिण दिशा की ओर जाओ तो किसी को छूना मत. नकदी मिले तो दूर से लेना. भोजन मिले तो हाथ मत लगाना.’

क्यों!’

वे लोग अछूत हैं . किसी ने छू भी लिया तो अपवित्र हो जाओगे.’ ईश्वर को गुस्सा आया. उसने कमंडल फ़ेंक दिया. उसके बाद मंदिर से बाहर निकला तो कभी नहीं लौटा.

13/गैरजिम्मेदार

रात हुई तो बड़े मंदिर का ईश्वर टहलने के इरादे से बाहर निकला. उससे कुछ दूरी पर छोटा मंदिर भी था. बड़े मंदिर के ईश्वर को निकलते देख छोटे मंदिर के ईश्वर की भी टहलने की इच्छा हुई. उस समय तक रात हो चुकी थी. सड़कें सुनसान थीं. दोनों ईश्वर टहलतेटहलते दूर तक निकल गए. बड़े मंदिर का ईश्वर आगे था, छोटे मंदिर का ईश्वर पीछे. सहसा अंधेरे को चीरती चीख उभरी. बड़े मंदिर के ईश्वर के पांव ठिठके.

यह तो छोटे मंदिर के इलाके की स्त्री है.’ सोचते हुए बड़े मंदिर का ईश्वर तत्क्षण आगे बढ़ गया. पीछेपीछे चल रहे छोटे मंदिर के ईश्वर के पांव भी ठिठके.

सबसे ज्यादा चढ़ावा पाने के बावजूद जब वही कुछ नहीं कर रहा तो मैं चक्कर में क्यों पडूं!’ सोचते हुए छोटे मंदिर का ईश्वर भी आगे बढ़ गया. वहीं सड़क किनारे एक कुत्ता आराम कर रहा था. चीखें सुनकर उससे रहा नहीं गया. वह अपने परिवार के साथ उठा और लुटेरों पर टूट पड़ा. एकाएक आक्रमण से लुटेरों के औसान बिगड़ गए और वे वहां से भाग छूटे. उसके बाद कुत्ते की दृश्टि बड़े मंदिर और छोटे मंदिर के ईष्वरों पर पड़ी. वह उनपर भौंकने लगा. बड़े मंदिर के ईश्वर को इसपर हैरानी हुई—‘पहचाना नहीं, हम यहां से रोज गुजरते हैं.’

जानता हूं, पर असलियत आज ही समझ में आई है.’ कुत्ता पूरी ताकत लगाकर भौंकने लगा. दोनों ईष्वरों को धोती समेटकर भागना पड़ा.

14/भक्तगण

गाय और भैंस के बीच गहरी दोस्ती थी. दोनों साथसाथ चरतीं. साथसाथ उठतीबैठतीं. साथसाथ जुगाली करती थीं. अचानक भैंस ने गाय से दूरी बनाना शुरू कर दिया. गाय ने एकदो दिन देखा. कारण समझ न आया तो टोक दिया—‘बहन मुझसे कुछ भूल हुई है?’

ऐसा कुछ भी नहीं है.’ भैंस बोली. लेकिन उसके व्यवहार में परिवर्तन न आया. एक दिन की बात. चुगने के बाद दोनों नदी पर पहुंची. गाय पानी पीने लगी. भैंस भी उससे कुछ दूर हटकर पानी पीने लगी. जहां गाय थी, वहां की जमीन चिकनी थी. पानी गहरा. अचानक उसके पांव फिसले और वह नदी में गिरती चली गई. वहां गड्ढ़ा था. गाय बाहर आने को छटपटाने लगी. मगर जमीन चिकनी होने के कारण नाकाम रही. काफी परिश्रम के बावजूद सफलता न मिली तो वहीं, पसर गई.

भैंस ने गाय की हालत देखी तो रहा न गया. उसने इधरउधर गर्दन घुमाई. जब देखा कि आसपास कोई नहीं है, वह गाय के पास गई और उसके गले में पड़ी रस्सी को सींग में फंसा बाहर खींचने लगी. कठिन परिश्रम के बाद वह गाय को बाहर निकालने में सफल हो गई. भैंस बुरी तरह थक चुकी थी, इसलिए वहीं जमीन पर पसर गई—

तभी न जाने किधर से ‘भक्तों’ का रेला उमड़ा. सब हाथ में डंडे, बर्छी, भाले उठाए थे. उनमें से एक चिल्लाया—‘वो देखो! भैंस ने गाय को मार डाला.’ विवेकहीन भीड़ ‘मारोमारो’ के नारे लगाने लगी. इससे पहले कि गाय कुछ करे, अनगिनत लाठियां भैंस की पीठ पर एक साथ पड़ीं. उसने वहीं दम तोड़ लिया.

भक्तगण जिधर से आए थे—‘गौमाता की जय’ कहते हुए, वापस लौट गए.

15/ठूंठ

शिक्षा पूरी करने के बाद स्नातक भविष्य की योजना बनाता हुआ वापस लौट रहा था. रास्ते में एक साधु से टकरा गया.

क्या सोच रहे हो?’ साधु ने प्रश्न किया. अपने चारों ओर निहारते हुए स्नातक बोला—

यह दुनिया कितनी विविधवर्णी है. जिस रास्ते से मैं आया हूं उसपर नदीझरने, समंदरपहाड़, फूल, पत्तियां, लताएं, भांतिभांति के अनगिनत और विचित्र जीव दिखाई पड़े.’

सब देखा, पर जो देखना था, वह अनदेखा ही रहा.’

क्या?’ स्नातक ने पूछा.

तुमने जो देखा, वह तो नजर का धोखा है, माया है. काश! तुम उस महान रचनाकार को भी देख पाते?’

जिसका साक्षात अनुभव हुआ हो, उसे माया कैसे मान लूं? रचनाकार तो अपनी कृति से पहचाना जाता है, इसलिए मैंने जो देखा, मेरे लिए वही ईश्वर है.’

तुम्हारा ज्ञान अधूरा है. मेरे साथ कणकण में छिपे उस महान रचनाकार को पहचानने का प्रयत्न करो.’ साधु ने पेड़ की ओर इषारा किया—‘साधारण दृष्टि से फूल, पत्तियां, बीज, शाखाएं, तना, यानी जो दिख रहा है, वह वृक्ष है. उसके पीछे जो अदृश्य है, वही ईश्वर सृष्टि का वास्तविक कर्ताधर्ता है.’

जो अदृश्य केवल अनुमान पर आधारित है. आप उसपर विश्वास करें. मैं भी कर सकता हूं. लेकिन उसके लिए मैं जो दिखता है, उसे नहीं नकार सकता.’ साधु स्नातक के अज्ञान को दोष देने लगा. इसपर वह साधु को उस तने के पास ले गया, जो पत्ते झड़ जाने के बाद ठूंठ में बदल चुका था—‘कभी यह भी हराभरा रहा होगा. लेकिन इसके तने को गुमान था कि वही सबकुछ है. नाराज होकर एक दिन पत्तियों ने साथ छोड़ दिया. वे झड़ गईं. उसके बाद जो बचा वही यह ठूंठ है. प्रकृति में जो दिखता है, यदि उससे बाहर सच की खोज करोगे तो सिवाय ठूंठ के कुछ हाथ नहीं लगने वाला.’

साधु निरुत्तर हो गया.

16/ विद्रोही

तानाशाह का आदेश था, जिसकी मुस्कान एक इंच से अधिक होगी, उसे दंडित किया जाएगा. आदेश पाते ही तानाशाह के सैनिक पूरे राज्य में फैल गए. जो भी हंसता दिखाई पड़ता, उसे जेल के हवाले कर दिया जाता. कुछ ही दिनों में सारी जेलें भर गईं, लेकिन अपराधियों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी. एक दिन तानाशाह ने उन सबको दंड सुनाने का फैसला लियाण् सभी कैदियों को खुले स्थान पर लाया गयाण् मैदान खचाखच भर गयाण् दंड सुनाने के लिए तानाशाह मंच पर चढ़ा. लोग गर्दन झुकाए चुपचाप खड़े थे—

प्रत्येक को पचास कोड़े लगाए जाएं.’ तानाशाह ने आदेश दिया. सैनिक कोड़े लेकर जनसमूह की ओर बढ़े. अचानक एक बालक जोर.जोर से हंसने लगा.

कौन बदतमीज है. तानाशाह गुस्से से चिल्लाया. सैनिकों ने बालक को पकड़कर तानाशाह के सामने खड़ा कर दिया—

तुम हंसे क्यों?’

इन लोगों को देखकर, जो इतनी संख्या में और निर्दोष होने के बावजूद गर्दन झुकाए खड़े हैं.’

तुम्हें कोड़ों से डर नहीं लगता?’ तानाशाह ने पूछा.

मैं किसी से नहीं डरता .’

इसके इरादे खतरनाक हैं. इसे मैं अपने हाथों से दंड दूंगा.’ तानाशाह क्रोध से चिल्लाया. उसने बराबर में खड़े सैनिक से हंटर छीन लिया. जैसे लोगों के स्वाभिमान ने अंगड़ाई ली हो. सोयी आत्माएं एक साथ जागी हों. झुकी गर्दनें एकाएक तन गईं. तानाशाह का हंटर बालक की पीठ पर पड़े उससे पहले ही लोगों ने हल्ला बोल दिया.

कुछ देर बाद वहां न तानाशाह था, न उसके सैनिक.

17/ज्ञान

यह सोचते हुए कि दुनिया बदलने का समय आ चुका है, ईश्वर ने अपना पूरा शृंगार किया. गदाशंखचक्र, धनुषवाणकृपा….सारे हथियार संभाले और मृत्युलोक की ओर प्रयाण कर गया. पहली मुलाकात स्कूल जाते बच्चों से हुई—

बहरूपिया.’ ईश्वर की विचित्र भेषभूषा को देख एक बालक ने टिप्पणी की. उसके साथी हंसने लगे.

मूर्खो! मैं ईश्वर हूं.’ ईश्वर चिल्लाया. उसके हाथ धनुषवाण तक पहुंच गए.

तो यहां क्या क्या रहे हैं, जाकर मंदिर संभालिए.’ बालक के स्वर में कटाक्ष था.

मैं दुनिया बदलने निकला हूं.’

गुरुजी तो कहते हैं कि अच्छी दुनिया बनाने के लिए अच्छे विचार जरूरी हैं. देखो, इस पुस्तक में भी यही लिखा है.’ कहकर बालक ने पुस्तक आगे बढ़ा दी. ईश्वर ने दोचार पन्ने पलटे. कुछ समझ में नहीं आया तो पुस्तक को एक ओर फेंक दिया.

समझ गया, तुम सचमुच ईश्वर हो.’ बच्चे हंसने लगे, ‘ज्ञान का तिरष्कार करना तुम्हारी पुरानी आदत है.’

क्या बकते हो?’ ईश्वर का चेहरा तमतमा गया.

गुरुजी कहते हैं, तुमने निर्दोष शंबूक को मारा था….उस दिन शंबूक को मारने के बजाय यदि उससे ज्ञान लिया होता तो पुस्तक की ऐसी उपेक्षा न करते.’

ईश्वर पानीपानी हो गया.

18/बड़ा कौन?

बस्ती के लोग मुखिया के चयन को जमा हुए. उसी समय एक दार्शनिक उधर से गुजरे. उन्हें देख सभी के चेहरे खिल उठे—

आप गुणी इंसान हैं. आ ही गए हैं तो मुखिया चुनने में हमारी मदद कीजिए.’ लोगों ने प्रार्थना की.

मुखिया चुनने का अधिकार तो सिर्फ आपका है?’ दार्शनिक बोले. लोगों के जोर देने पर दार्शनिक ने उनसे एक प्रश्न किया—‘तानाशाह और ईश्वर, दोनों में बड़ा कौन है?’

सुनते ही लोगों की बुद्धि चकरा गई. भला यह भी कोई सवाल हुआ. सवाल हो भी तो इसका मुखिया के चुनाव से क्या संबंध? सुना है, दार्शनिक आधे पागल होते हैं. परंतु यह तो पूरा का पूरा पागल है.’

जो लोग तानाशाह को बड़ा मानते हैं, वे अपने हाथ उठा लें.’ कुछ देर बाद दार्शनिक ने पूछा. एक भी हाथ ऊपर नहीं उठा.

अब वे लोग हाथ ऊपर करें, जो ईश्वर को बड़ा मानते हैं?’ इसपर सारे लोगों ने हाथ खड़े कर दिए. किंतु एक आदमी शांत बैठा रहा.

तुम क्या फैसला है? ईश्वर या तानाशाह?’

दोनों एक जैसे हैं. जीहुजूरी तानाशाह को पसंद है, ईश्वर को भी. अपनी आलोचना न ईश्वर सुन पाता है, न ही तानाशाह. नाराज होने पर तानाशाह बंदूक तान देता है, और ईश्वर….उसके पास तो अनगिनत हथियार हैं. दोनों को मनमानी पसंद है. दूसरों पर अपना फैसला लादने में दोनों को खुशी मिलती है.’

इस आदमी में मुखिया बनने का आवश्यक गुण मौजूद है.’ दार्शनिक ने कहा और आगे बढ़ गया.

19/असलियत


रोज की तरह पुजारी मूर्ति साफ करने लगा. अचानक हाथ चूका. झाड़न ईश्वर की आंख में जा लगी. वह दर्द से तिलमिलाने लगा. सुबह से शाम तक एक जगह, एक ही मुद्रा में बैठे रहने से उसका धैर्य पहले ही जवाब दे चुका था. पुजारी की हरकत ने आग में घी डालने का काम किया—
देखकर हाथ नहीं चला सकते?’
क्षमा करें भगवन. भक्तों के आने का समय हो चुका है, जल्दीजल्दी में….’
केवल आज की बात नहीं है, तुम दिनोंदिन लापरवाह होते जा रहे हो. मत भूलो कि….’ ईश्वर क्रोध में था.
बसबस….अब तुम कहोगे—सतयुग में बस मैं ही मैं था. त्रेता में मैंने रावण को मारा था, द्वापर में पूरा महाभारत मुझ अकेले ने लड़ा था. इस अवतार में मैंने ये किया था, उस अवतार में मैंने वो किया था….’
इसमें झूठ क्या है?’ ईश्वर बोला.
छोड़िए भगवन! मंदिर में बैठेबैठे चार कहानियां क्या सुन लीं, खुद को पंडित समझने लगे….उनमें असलियत कितनी है, यह केवल मैं जानता हूं….मुंह मत खुलवाओ.’
हकीकत से ईश्वर भी वाकिफ था. इसलिए चुप्पी साध गया.

20/ सिफारिश

अनुचर ने भूतआत्माओं को देवता का संदेश सुनाया—‘जल्दी ही तुम्हें इधरउधर भटकने से मुक्ति मिलने वाली है.’ भूतआत्माएं आश्चर्य से अनुचर की ओर देखने लगीं.

देवता तुमपर प्रसन्न हैं. इस बार तुम्हें लड़की के रूप में मृत्यलोक भेजा जाएगा.’

अनुचर के प्रस्थान करने के बाद एक भूतआत्मा दूसरी से बोली—

सुना है, भारत खंड में हरियाणा नामक प्रदेश है. वहां ‘बेटी बचाओ—बेटी पढ़ाओ’ आंदोलन चल रहा है. उस प्रदेश में जन्म हुआ तो जीवन धन्य हो जाएगा.’

देवता हमारी बात मानेंगे?’

देवता खुशामदपसंद हैं. प्रार्थना करने पर मान ही जाएंगे.’ कहकर भूतआत्मा मुस्कराने लगी.

बुलावा आया तो दोनों भूतआत्माएं देवता से मिलने पहुंचीं. वहां अलगअलग प्रांत के कक्ष बने थे. सबसे अधिक भीड़ हरियाणा वाले कक्ष थी. अधिकांश लड़की के रूप में जन्म लेने वाली आत्माएं.

इतनी भीड़ में हमारा नंबर आएगा.’ भूतआत्माएं परेशान हो गईं. तभी वह अनुचर नजर आया. दोनों भूतआत्माएं लपककर उसके पास पहुंची—‘क्या तुम देवता से सिफारिश कर सकते हो कि वह हमें हरियाणा में भेजने की कृपा करें.’

उसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी….तुम्हारा वहां जाना तय है.’ अनुचर ने हंसकर बताया.

क्यों?’

अब वहां कोई नहीं जाना चाहता.’ दोनों भूतआत्माओं की समझ में कुछ नहीं आया. तभी कुछ आत्माएं हाथ में दफ्ती लिए नजर आईं. उनपर नारे लिखे थे. भूतआत्माएं उन्हें पढ़ें उससे पहले ही एक स्क्रीन पर किसी नेता का भाषण दिखाया जाने लगा. पता चला कि हरियाणा का ही कोई नेता है. वह कह रहा था—‘हम आज भी कहते हैं—बेटी बचाओबेटी पढ़ाओ. लेकिन सड़क चलती लड़की की इज्जत की गारंटी नहीं है. जिन लड़कियों को इज्जत प्यारी है, वे घर रहकर चौकाचूल्हा देखें.’

हम भूतआत्मा के रूप में ही भलीं.’ कहते हुए वे दोनों उन आत्माओं में शामिल हो गईं जो हरियाणा न जाने की जिद ठाने थीं.

21/ अवसर

तानाशाह ने सुना कि ईश्वर के पास असीम ताकत होती है. उससे वह कुछ भी कर सकता है. दिव्य अस्त्रशस्त्र होते हैं. उनसे वह दुश्मन को तबाह कर सकता है. उसी दिन से उसने सर्वशक्तिमान बनने की ठान ली. जिन कारखानों में मशीनें बनती थीं, उनमें टेंक बनने लगे. जिनसे वस्त्रों की आपूर्ति होती थी, वहां सैनिकों के लिए बुलेट प्रूफ जॉकटें बनने लगीं. जिस धनराशि से अस्पतालों की औषधियां खरीदी जाती थीं, उनसे गोलाबारूद खरीदे जाने लगे. उस साल अकाल पड़ा. फसल तबाह होने से किसान आत्महत्या करने लगे. बात तानाशाह तक पहुंची—

मजबूत देश बनाने के लिए कुर्बानियां जरूरी हैं.’ तानाशाह ने कहा.

देश की असली ताकत तो जनता में होती है. लोग ही तबाह हो जाएंगे तो देश मजबूत कैसे बनेगा?’ जिस लेखक ने यह लिखा. उसे राज्यद्रोही बनाकर कारावास में ढकेल दिया गया. कुछ दिनों बाद भूख महामारी में बदल गई.

मरने वालों में किस धर्म के ज्यादा हैं?’ नया मृत्यु संदेश लेकर आए मंत्री से तानाशाह ने पूछा—

बराबर हैं?’ तानाशाह चिंता में पड़ गया. थोड़ी देर बाद उसका चेहरा फिर सपाट था—

हमारी संख्या उनसे कहीं अधिक है. दोनों बराबर भी मरे तो ज्यादा नुकसान न होगा, पर देश को विधर्मियों से मुक्ति मिल जाएगी.’

22/नाटक

चमत्कार हुआ. तानाशाह ने घोषणा की—‘आज से तानाशाही खत्म. आगे जनता की मर्जी का राज चलेगा.’ सुनकर ‘भक्तों’ ने जयकारा लगाया. आलोचक मौन हो गए. अधिकारी जोरशोर से चुनाव की तैयारियों में जुट गए. चुनाव के दिन चप्पेचप्पे पर पुलिस तैनात थी. मतदाताओं की सुविधा के लिए हर तरह का इंतजाम था. उत्साहित जनता मुंहअंधेरे मतदानकेंद्रों पर जा डटी.

चुनाव शुरू हुआ. पहला मतदाता भीतर गया; और शोर मचाते हुए तत्क्षण बाहर निकल आया—‘हर बटन पर तानाशाह की तस्वीर छपी है. यह कोई चुनाववुनाव नहीं है.’ लोग कुछ समझ पाएं उससे पहले ही सुरक्षाकर्मियों ने उसे दबोच लिया. वे उसे घसीटते हुए भीतर ले गए. कुछ देर बाद वोट पड़ने की आवाज आई.

चलिए अब आप भी मतदान कीजिए.’ पहले मतदाता को बाहर का रास्ता दिखाते हुए सुरक्षाकर्मियों ने कहा.

उस आदमी ने बताया, मशीन सारे वोट एक ही उम्मीदवार को दे रही है.’

खामोश!’ इंतजाम में लगा बड़ा अधिकारी चिल्लाया—‘तुम्हारा काम केवल वोट डालना है. मशीन ने कैसे वोट दिया, किसे वोट दिया, यह जानने का अधिकार तुम्हें नहीं हैये देखो, सरकार की ओर से भी यही लिखा है न!’ प्रमाण के लिए अधिकारी ने अखबार आगे कर दिया.

फिर हमारी क्या जरूरत है, तुम्हीं लोग काफी हो.’ इस बार कई लोग एक साथ बोल पड़े.

जनता लोकतंत्र चाहती है, तो हमने सोचा, यह नाटक भी सही.’ पीछे खड़ा तानाशाह, जो चुनाव का जायजा लेने निकला था, बोला.

23/ईश्वर की जात

ईश्वर विचारमग्न आगे बढ़ रहा था. चलतेचलते प्यास लगी. उसने इधरउधर देखा. तभी सामने से पुजारी आता दिखाई पड़ा. माथे पर चौड़ा तिलक. कंधे पर पोटली, दाएं हाथ में बड़ासा लोटा थामे. ईश्वर की उम्मीद बढ़ी—‘पानी मिलेगा?’

पुजारी ने ऊपर से नीचे तक देखा, ‘पहले जात बताओ?’

ईश्वर चकराया. देर तक कोई उत्तर न सूझा. प्यास गला जकड़ने लगी थी.

नाम क्या है?’ पुजारी ने अगला सवाल किया.

ईश्वर.’

ऊंह! आजकल नाम से कुछ पता नहीं चलता.’ पुजारी खुद पर झुंझलाया, ‘बाप का नाम?’

मेरा कोई पिता नहीं है.’

यह क्यों नहीं कहते कि वर्णसंकर यानी शूद्र हो!’

भूल गए, मैं वही ईश्वर हूं. जिसकी तुम सुबहशाम रोज आरती उतारते हो.’

चलो मान लिया कि तुम सचमुच के ईश्वर हो. फिर भी मैं तुम्हें पानी क्यों दूं. आज पानी मांग रहे हो, कल दूध, परसों दहीमक्खन, आगे चलकर चढ़ावे में हिस्सा भी मांगने लगोगे. मेरा काम तुम्हारी मूरत से चल जाता है. तुम अपना रास्ता नापो….’ ईश्वर को हटा पुजारी आगे बढ़ गया.

24/देवता का भय

भीषण दरिद्रता, भूखप्यास, गरीबी देखकर अकुलाए एक भलेमानुष ने दुनिया बचाने की ठान ली. समाधान की खोज में चलताचलता वह क्षीरसागर तक पहुंचा. आंखों के सामने दूध का समंदर लहराते देख उसके आनंद का पारावार न रहा—

यहां मेरी चिंताओं का समाधान संभव है?’ आदमी ने सोचा. तभी उसकी दृष्टी शेषनाग पर आंखें मूंदकर लेटी भव्य आकृति पर पड़ी. उसने विनीतभाव से कहा—

जहां से मैं आया हूं वहां भूख का तांडव मचा है. भरपेट भोजन न मिलने से बड़ों की अंतड़ियां सिकुड़ चुकी हैं. मासूम बच्चे माताओं के स्तन से चिपकेचिपके दम तोड़ रहे हैं. इस महासागर से थोड़ासा दूध मिल जाए तो लाखों मासूमों की जान बच सकती है.’

देवता के अधरों पर मुस्कान तैर गई. उसी को सहमति मान भलामानुष धरती की ओर दूध उलीचने लगा. अकस्मात कुछ पंडितजनों की टोली उधर से गुजरी. आदमी को क्षीरसागर के किनारे देख वे चौंक पड़े. उनमें से कई की भृकुटियां तन गईं—‘महाराज! जिस तेजी से यह दूध उलीच रहा है, उससे तो कुछ देर में क्षीरसागर भी खाली कर देगा.’

धरती की भूख मिटाने के लिए यह परमावश्यक है.’ शेषनाग पर लेटे देवता ने कहा.

सोच लीजिए भगवन्! लोग जब तक भूखेप्यासे हैं, तभी तक आपका नाम लेते हैं. भूख और गरीबी न रही तो तुम्हारे साथसाथ हमें भी कोई नहीं पूछेगा.’ देवता ने कुछ देर सोचा. अचानक उसने करवट बदली और मुंह दूसरी ओर कर लिया. भक्तों के लिए इतना इशारा काफी था. ‘असुरअसुर’ कहकर वे उस आदमी पर टूट पड़े.

उस दिन धर्म और भूख के रिश्ते से एक और पर्दा हटा.

25/गाय और ईश्वर

गाय जल्दी से जल्दी बस्ती से चूर निकल जाना चाहती थी. अचानक ईश्वर सामने आ गया—‘जंबूद्वीप में सब कुशल तो हैं?’ ईश्वर ने पूछा. उखड़ी सांसों पर काबू पाने का प्रयत्न करते हुए गाय ने उत्तर दिया—

कुछ भी ठीक नहीं है. लोग धर्म में शांति की खोज करते हैं, जो सर्वाधिक अशांत क्षेत्र है. ऐसी तकनीक के भरोसे बुद्धिमान होना चाहते हैं, जो उन्हें दिमागी तौर पर पंगु बनाने के लिए तैयार की गई है. चाहते सब हैं कि भ्रष्टाचार मिटे, परंतु हवस कोई छोड़ना नहीं चाहता.’

किसी महापुरुष ने कहा है—दुनिया से भागने से अच्छा है, उसे बदलो. वैसे भी भारतवासी तुम्हारी पूजा करते हैं. उन्हें छोड़कर जाना उचित न होगा.’ ईश्वर ने समझाया. गाय झुंझला पड़ी—

आदमी को मेरा दूध और चमड़ी चाहिए. इन दिनों हालात और भी बुरे हैं. हर दंगेफसाद में मेरा नाम घसीट लिया जाता है. जो कुछ नहीं कर पाता सकता, वह गौरक्षक बना फिरता है. मैं ऐसी जगह एक पल भी ठहरना नहीं चाहती.’

मुझसे कहतीं. मैं कभी का ठीक कर देता.’ ईश्वर बोला. गाय का गुस्सा भड़क उठा.

चुप रहो. सारे फसाद की जड़ केवल तुम हो. मंदिर में पड़ेपड़े रोटियां तोड़ते रहते हो. मेहनत न खुद करते हो न भक्तों से करने को कहते हो. तमाशबीन बनकर ईश्वर होने का दावा करने से तो अच्छाहै किसी कुआपोखर में डूब मरो. लोग कुछ दिन हैरानपरेशान रहेंगे. बाद में अपने भरोसे सबकुछ ठीकठाक कर लोगे.

ईश्वर स्तब्ध. वह कुछ उत्तर दे, उससे पहले गाय आगे बढ़ गई.

ओमप्रकाश कश्यप

बहुजन संस्कृति और सामाजिक न्याय

विशेष रुप से प्रदर्शित

भारत के पास अनगिनत आख्यान हैं, इतिहास नहीं है.—हेनरी बर

 

‘संस्कृति’ समाजशास्त्र के सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाले शब्दों में से है. प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके अलग-अलग संदर्भ होते हैं. कई बार परंपरा को संस्कृति समझ लिया जाता है. जबकि अनेक बार लोग संस्कृति और सामान्य व्यवहार के बीच अंतर नहीं कर पाते. जनसामान्य ‘संस्कृति’ को सलीके से परिभाषित भले ही न कर पाए, लेकिन यदि किसी व्यक्ति से उसके सामान्य व्यवहार, कार्यकलापों, सामाजिक-पारिवारिक जीवन की प्रेरणाओं के बारे में प्रश्न किया जाए तो बिना झिझके उसका एक ही उत्तर होगा—‘यही मेरी संस्कृति है.’ संस्कृति मनुष्य और समाज के संबंधों को न केवल व्याख्यायित करती है, अपितु उन्हें सफल एवं सार्थक भी बनाती है. संस्कृति के स्वरूप, उसकी अवधारणा, परिभाषा आदि को लेकर समाजविज्ञानियों के बीच मतभेद रहे हैं. कई बार लोग संस्कृति को मनुष्य के सामान्य व्यवहार से जोड़ने लगते हैं तो कई बार उसे सभ्यता के साथ गड्मड कर दिया जाता है. किसी व्यक्ति अथवा समाज के संदर्भ में संस्कृति उसके समग्र ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला, रोजमर्रा के व्यवहारों, संबंधों, रीति-रिवाजों, परंपराओं आदि का समुच्चय होती है.

संस्कृति का कोई एक स्रोत नहीं होता. मनुष्य संस्कृति के तत्व माता-पिता, गांव-पड़ोस, रीति-रिवाज, किस्से-कहानियों, साहित्य-कला, ज्ञान-विज्ञान आदि विविध स्रोतों से ग्रहण करता है तथा उन्हें अपनी अस्मिता और पहचान के रूप में सहेजकर रखता है. इस तरह कि वे उसके रोजमर्रा के व्यवहार, ज्ञान, सामाजिक संबंधों और मर्यादाओं का आधार बन जाते हैं. दूसरे शब्दों में संस्कृति उत्तराधिकार का विषय है. व्यक्ति अथवा समाज जिन आदतों को यत्नपूर्वक अपनी विरासत के तौर पर संभाले रहता है, जिनसे उसकी विशिष्ट पहचान बनती है, उनका समन्वित, समावेशी और लोकोपकारी रूप संस्कृति कहा जा सकता है. उनमें कला, साहित्य, अर्जित ज्ञान, रीति-रिवाज, परंपराएं, सामूहिक प्रवृत्तियां, खान-पान, आचार-व्यवहार आदि सब सम्मिलित होते हैं. इसके अलावा उसमें वे आदर्श और नियम भी समाहित होते हैं, जिन्हें कोई समाज खुद को दूसरों से अलग और बेहतर दिखाने तथा स्थायित्व की भावना के साथ अपनाता है. मनुष्य की भौगोलिक और परिस्थितिकीय विशेषताएं भी उसकी संस्कृति को प्रभावित करती हैं.

‘संस्कृति’ शब्द ‘सम्’ और ‘कृति’ की संधि से बना है. उसका आशय ऐसी अमूर्त्त सामाजिक संरचना से है, जिसमें सभी का साझा हो. संस्कृति और सभ्यता को प्रायः एक-दूसरे के पर्यायवाची के रूप में देखा जाता है. लेकिन दोनों में अंतर है. सभ्यता की कसौटी भौतिक जगत की उपलब्धियां तथा उनके फलस्वरूप जीवन में आए परिवर्तन को माना जाता है. सभ्यता संस्कृति से प्रभावित होती है, एक तरह से उसका हिस्सा भी है, लेकिन वह स्वयं संस्कृति नहीं होती. ऐसे ही जैसे भाषा ज्ञान की वाहक होती है, स्वयं ज्ञान नहीं होती. हां, भाषा का ज्ञान हो सकता है, जो मनुष्य की संपूर्ण ज्ञान-संपदा का मामूली हिस्सा है. इसी तरह मनुष्य अथवा समाज की भौतिक उपलब्धियां संस्कृति नहीं होतीं. सभ्यता को आमतौर पर संस्कृति का उत्पाद माना जाता है. लेकिन यह बात पूरी तरह सत्य नहीं है. सभ्यता और संस्कृति का संबंध अन्योन्याश्रित होता है, जिनमें संस्कृति का स्थान अपेक्षाकृत ऊपर माना जाता है. अपनी हर उपलब्धि के लिए सभ्यता संस्कृति की ऋणी रहती है. उसे हम संस्कृति का आवरण भी कह सकते हैं. परोक्षतः दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं. किसी समूह अथवा समाज की सभ्यता को उसकी संस्कृति अथवा संस्कृतियों का समुत्पाद भी कहा जा सकता है.

संस्कृति और व्यवहार में भी अंतर है. लोग संस्कृति को रोजमर्रा के आचरण के रूप में देखने की भूल कर बैठते हैं. यह गलत है. मनुष्य का नैमत्तिक व्यवहार कानून, समाज, बाजार आदि से प्रभावित हो सकता है. उसका अध्ययन मानव-व्यवहार के अंतर्गत आता है. इस तरह वह मनोविज्ञान की विषय-वस्तु है. संस्कृति व्यवहार भी नहीं होती. उसे व्यवहार की नियंत्रक शक्ति अवश्य कहा जा सकता है. कोई भी सामाजिक अथवा व्यक्तिगत व्यवहार संस्कृति का हिस्सा हो सकता है, उसे संस्कृति नहीं माना जा सकता. कारण यह कि व्यवहार मूर्त्त होता है, संस्कृति अमूर्त्त. होली के पर्व पर एक-दूसरे पर रंग डालना अथवा रक्षाबंधन के अवसर पर बहन द्वारा भाई को राखी बांधना, सहज सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवहार का हिस्सा हैं, स्वयं संस्कृति नहीं है. संस्कृति उनमें अंतर्निहित प्रेरणा है. ऐसी अंतश्चेतना जो मनुष्य को अधिकाधिक सभ्य तथा प्राणिमात्र के प्रति अधिकतम उपयोगी होने का उत्साह जगाती है. मनुष्य ऐसी प्रेरणाओं को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित कर सकता है. उनके स्वरूप में थोड़ा-बहुत परिवर्तन ला सकता है, किंतु सामाजिक पहचान से जुड़े होने के कारण उन्हें पूर्णतः नकार नहीं सकता. कुल मिलाकर समाज अथवा व्यक्ति-विशेष के संदर्भ में संस्कृति को हम उसकी सामूहिक आदतों, स्वभाव, ज्ञान-विज्ञान, कला, साहित्य आदि के समुच्चय के रूप में देख सकते हैं.

अपने मूल विषय ‘बहुजन संस्कृति’ लौटने से पहले आवश्यक है कि ‘बहुजन’ की अवधारणा तय कर ली जाए. ‘बहुजन’ का अभिधार्थ ‘बहुसंख्यक जन’ अवश्य है, लेकिन इसका आधार मात्र संख्याबल नहीं है. संख्या के माध्यम से बहुजन को परिभाषित करने के अनेक खतरे हैं. इससे ‘बहुजन’ को संख्याबल समझ लिए जाने की संभावना बराबर बनी रहेगी. वह भीड़ को समाज का दर्जा देने के बराबर होगा. प्रकारांतर में वह अनेक भ्रांतियों को जन्म देगा. पुनश्चः ‘बहुजन’ और ‘बहुसंख्यक जन’ दोनों को एक मान लिया गया तो अल्पसंख्यक मुस्लिमों के मुकाबले हिंदू बहुजन होंगे तथा दलितों के सापेक्ष पिछड़ी जातियों के लोग. इस कसौटी पर आदिवासियों के मुकाबले गैर आदिवासी ‘बहुजन’ माने जाएंगे. यह विभाजन आगे भी बढ़ता जाएगा. एक समय ऐसा भी आ सकता है जब बहुजन की संकल्पना का आधार और उद्देश्य दोनों समाप्त हो जाएं. जैसे ‘बहुजन’ को ‘बहुसंख्यकजन’ नहीं कहा सकता, ऐसे ही ‘बहुजन’ के आधार पर ‘बहुजनवाद’ जैसी भी संकल्पना भी अनुचित कही जाएगी. उससे उसके ‘बहुसंख्यकवाद’ में बदलने की संभावना बनी रहेगी. अतएव ‘बहुजन’ की अवधारणा तय करने के लिए संख्या-तत्व को नजरंदाज करना ही उचित होगा.

फिर ‘बहुजन’ किसे माना जाए? इस शब्द का प्रथम उपयोग बौद्ध दर्शन में प्राप्त होता है. बुद्ध इसे परिभाषित नहीं करते, किंतु जिस संदर्भ में वे इसका प्रयोग करते हैं, उससे ‘बहुजन’ की अवधारणा साफ होने लगती है. भिक्षु संघ को संबोधित करते हुए वे कहते हैं—‘चरथ भिक्खवे चारिकम्-बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय.’ ‘हे भिक्षु! बहुजन कल्याण और बहुजन-हित के लिए निरंतर प्रयाण करते रहो.’ बुद्ध राज-परिवार में जन्मे थे. समकालीन राजाओं, विशेषकर श्रेष्ठिवर्ग पर उनका प्रभाव था. फिर भी वे भिक्षुसंघ से ‘बहुजन’ के कल्याण हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहने की कामना करते हैं. आखिर क्यों? तत्कालीन सामाजिक स्थितियों को देखते हुए इसे समझ पाना कठिन नहीं है. उस समय तक वर्ण-व्यवस्था कट्टर रूप ले चुकी थी. कर्मकांड शिखर पर था. लोग जाति देखकर व्यवहार करते थे. इस मामले में सर्वाधिक मुखर ब्राह्मण थे. उनका दावा था कि उन पर सृष्टि-रचियता ब्रह्मा की विशेष कृपा है. जिसने उन्हें अपने मुख से पैदा किया है. निहित स्वार्थ के लिए उन्होंने प्राकृतिक शक्तियों अग्नि, वायु, आकाश, जल, पृथ्वी आदि का देवताकरण किया था और लगातार यह प्रचारित करते रहते कि वे यज्ञों के माध्यम से देवताओं के संपर्क में रहते हैं. दूसरा वर्ग क्षत्रियों का था, जिसे समाज की रक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. देवताओं की दुहाई देते-देते ब्राह्मण खुद देवता होने का गुमान करने लगे थे, जबकि क्षत्रिय राज्य के रखवाले से उसका स्वामी बन बैठे थे. स्वार्थ के लिए ब्राह्मण क्षत्रिय का महिमामंडन करता था, क्षत्रिय ब्राह्मण के पांव पखारता था.

तीसरा व्यापारी वर्ग था. पहले दो वर्गों की तरह अनुत्पादक वर्ग. उसका कार्य दूसरों के उत्पाद बेचकर मुनाफा कमाना था. मुनाफे का एक हिस्सा ब्राह्मण और क्षत्रिय को भेंट कर वह मस्त रहता था. शेष जनसमाज यानी चौथे वर्ग में किसान, मजदूर, शिल्पकार आदि सभी आते थे. उनपर समाज के विकास की जिम्मेदारी थी, परंतु थे सब दूसरों की मर्जी के दास. किसी को अपनी रुचि और हितों के अनुसार निर्णय लेने की स्वतंत्रता न थी. किसान खेत में पसीना बहाता था, मगर फसल पर उसका अधिकार न था. वह राजा और सामंत की मान ली जाती थी. शिल्पकार अपनी कला से संस्कृति और सभ्यता को संवारने का काम करते थे, किंतु अपने ही श्रम-कौशल पर उनका अधिकार न था. उनके श्रमोत्पाद के मूल्यांकन का अधिकार व्यापारी वर्ग के पास था. शूद्र का कर्तव्य था राज्य के लिए कर और ब्राह्मण के लिए दान देना. वफादार रहना तथा उनके प्रत्येक आदेश  को कृपा-भाव के साथ ग्रहण करते हुए दासत्व का धर्म निभाना. इसी में उसकी मुक्ति है—ऐसा कहा जाता था.

संख्याबल में ऊपर के तीनों वर्ग शेष जनसमाज के सापेक्ष बहुत कम थे. कुल जनसंख्या का बमुश्किल पांचवा हिस्सा. लेकिन समाज के कुल संसाधनों पर उनका अधिकार था. इसलिए संख्या-बहुल होने के बावजूद निचले वर्ण के लोग ऊपर के तीन वर्गों की मनमानी सहने के लिए विवश थे. कार्य-विभाजन के नाम पर ब्राह्मणों ने समाज के बहुसंख्यक हिस्से को छोटी-छोटी जातियों और वर्गों में बांट दिया था. बहुजन के पास बुद्धि थी, हस्तकौशल था, अनथक परिश्रम करने का हौसला तथा ईमानदारी भी थी. नहीं था तो आत्मविश्वास और सपने जो जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं. ये सब सेवा-भाव की भेंट चढ़ चुके थे. निरंतर बढ़ते सामाजिक दबावों तथा यह भ्रम कि ईश्वर एकमात्र और सच्चा न्यायकर्ता है, कि इस जीवन में उन्हें जो खोना पड़ रहा है वह मृत्योपंरात जीवन में सहज प्राप्त होगा—के चलते वे पूर्णतः नियतिवादी हो चुके थे. अपने सामान्य हितों के बारे में निर्णय लेने के लिए भी वे समाज के शीर्षस्थ वर्गों पर निर्भर थे; तथा उन्हें अपना स्वामी, सर्वेसर्वा एवं मुक्तिदाता मानते थे. हालात ऐसे थे कि अपने प्रत्येक कार्य में स्वार्थ को आगे रखने वाले तीनों शीर्षस्थ वर्गों के बीच अभूतपूर्व एकता थी, जबकि चौथा और बहु-संख्यक वर्ग सामान्य हितों के लिए एक-दूसरे के साथ स्पर्धा करता हुआ, अपनी प्रभावी ताकत खो चुका था. ‘दिमाग’ और ‘हाथों’ की उस अघोषित-अवांछित स्पर्धा में लाखों हाथ, कुछ सौ या हजार दिमागों की मनमानी के समक्ष बेबस थे. ‘बहुजन’ से बुद्ध का आषय ऐसे ही लोगों से था, जो समाज के प्रमुख कर्ता और उत्पादक वर्ग का हिस्सा होने के बावजूद उपेक्षित, तिरष्कृत, उत्पीड़ित और इस कारण विपन्नता का जीवन जीने को विवश थे. अपने जीवन संबंधी महत्त्वपूर्ण निर्णयों के लिए वे ऐसे लोगों पर निर्भर थे जो उन्हीं के प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष समर्थन से शक्तिशाली होकर बहुजन-हितों के विपरीत कार्य करते थे.

कदाचित अब हम ‘बहुजन’ की अवधारणा तय करने की स्थिति में आ चुके हैं. अभी तक के विवरण जो छवि बनती है, उसके अनुसार ‘बहुजन’ समाज का प्रमुख उत्पादक वर्ग है, जो कभी जाति तो कभी धर्म के नाम पर आरंभ से ही अन्याय, असमानता और शोषण का शिकार रहा है. मानव सभ्यता उसके स्वेद-बिंदुओं की ऋणी है, फिर भी उसे किसी न किसी रूप में, उसके श्रम-लाभों से वंचित रखा गया है. वह खेतों में काम करने वाला मजदूर हो सकता है; और गली-नुक्कड़ पर जूते गांठने वाला मोची भी. स्त्री भी हो सकता है, पुरुष भी. आजीविका उसका धर्म है. वही उसका भरोसा भी. इसी कारण बुद्ध पूर्व भारत में वह आजीवक कहलाता था. उन दिनों प्रकृति पर उसे भरोसा था. वही उसकी श्रद्धा का पात्र भी थी. प्रकृति के प्रति सम्मान-भाव के साथ जिस दर्शन की रचना उसने की थी, विद्वत जगत में वह लोकायत के रूप में ख्यात हुआ. उसकी सहायता से शताब्दियों तक वे लोग आंडबर और याज्ञिक कर्मकांडों पर टिके वैदिक धर्म-दर्शन को चुनौती देता रहा. इस तरह बहुजन की अवधारणा हमें सामाजिक न्याय की भावना से जोड़ती है. अपने साथ-साथ दूसरों के कल्याण के लिए जिम्मेदार बनाती है. यही उसका उद्देश्य है और यही अभीष्ट भी है. हालांकि सामाजिक न्याय की अवधारणा को लेकर मत-वैभिन्न्य हो सकते हैं.

मार्क्स ने पूंजीवादी तंत्र में उत्पीड़ित वर्ग को ‘सर्वहारा’ का नाम दिया था. ‘सर्वहारा’ और ‘बहुजन’ की आर्थिक अवस्था में अधिक अंतर नहीं होता. दोनों ही शोषण का शिकार होते हैं. उनमें से किसी को भी अपने श्रम के मूल्यांकन का अधिकार नहीं होता. फिर भी दोनों की सामाजिक स्थिति में अंतर है. मार्क्स का जन्म ऐसे समाज में हुआ था जहां जाति, वर्ण और धर्म के आधार पर विभाजन न था. अतएव सर्वहारा की उसकी परिकल्पना ठेठ पूंजीवादी समाज में आर्थिक विपन्नता के शिकार श्रमिक-वर्ग के शोषण तथा उसके सामाजिक-सांस्कृतिक दुष्परिणामों तक सीमित थी. बहुजन की समस्याओं का मूल सामाजिक-सांस्कृतिक भेदभाव होते हैं. प्रकारांतर में वही उसकी समाजार्थिक दुरावस्था का कारण बनते हैं. मुख्यधारा से जुड़ने के लिए सर्वहारा को आर्थिक बाधाएं पार करनी पड़ती हैं. जबकि बहुजन को आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं से भी जूझना पड़ता है. चूंकि सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव की गति अत्यंत मंथर होती है, इसलिए बहुजन-कल्याण की राह हमेशा अनेकानेक चुनौतियों से भरी होती है. लोकतांत्रिक परिवेश का लाभ उठाकर सर्वहारा अपनी स्थिति में सुधार ला सकता है. पश्चिमी देशों में ऐसा हुआ भी है. जाति के संबंध में लोकतांत्रिक सरकारें भी अपेक्षानुरूप सफल नहीं हो पातीं. प्रतिगामी शक्तियां जाति को व्यक्ति का निजी मामला बताकर सामाजिक परिवर्तन को टालती रहती हैं. सामाजिक-सांस्कृतिक भेदभाव तथा अवसरों की कमी के कारण बहुजन के लिए आर्थिक विषमताओं के चक्रव्यूह को भेद पाना आसान नहीं होता. जटिल जाति-व्यवस्था तथा उसके साथ धर्म का चिरस्थायी गठजोड़, बहुजन के संघर्ष को कई गुना बढ़ा देते हैं.

‘बहुजन’ का प्रथम उल्लेख भले ही बौद्ध दर्शन में हुआ हो, इसकी भूमिका वैदिक संस्कृति की स्थापना के साथ ही बन चुकी थी. लगभग 1500 ईस्वी पूर्व मध्य एशिया से भारत पहुंचे पशुचारी कबीलों ने खुद को ‘आर्य’ कहा था. इसका अर्थ बताया जाता है—‘श्रेष्ठ’ अथवा ‘श्रेष्ठजन.’ इस संबोधन का आशय था—मूल भारतवासी अथवा उनसे हजारों वर्ष पहले से इस देश में बस चुके जनसमूहों की संस्कृति को हेय मान लेना. भारत के मूल निवासी कौन थे? विद्वान दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में अग्रणी सिंधू सभ्यता को अनार्य सभ्यता मानते हैं. डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी अपने ग्रंथ ‘हिंदू सभ्यता’(राजकमल प्रकाशन, पांचवा संस्करण, 1975, पृष्ठ 46) में मोहनजोदड़ो से प्राप्त नरकंकालों के आधार पर सिंधू सभ्यता के निर्माताओं को चार नस्लों में बांटते हैं—आद्य-निषाद, भूमध्य सागर से संबंधित जन, अल्पाइन तथा मंगोल, किरात. आगे वे लिखते हैं कि आद्य-निषाद भारत महाद्वीप के निवासी थे. भूमध्यसागरीय लोग दक्षिण एशिया से आए थे. अल्पाइन पश्चिमी एशिया तथा मंगोल, किरात वर्ण के लोग पूर्वी एशिया से पलायन कर लंबी यात्रा के उपरांत भारत पहुंचे थे. इनके अलावा  अलग-अलग नस्ल के संसर्ग से जन्मीं संकर नस्लें भी थीं. ऋग्वेदादि ग्रंथों में आर्यजनों ने इन्हीं नस्लों के सापेक्ष जो उनसे सहस्राब्दियों पहले इस प्रायद्वीप पर आकर बस चुकी थीं; तथा अपने श्रम-कौशल के बल पर समृद्ध सभ्यता की स्वामिनी थीं—अपनी वर्ण-श्रेष्ठता का दावा किया है. यदि उनके दावे को स्वीकार कर लिया जाए तो समकालीन बाकी नस्लें जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है, तुलनात्मक रूप से अश्रेष्ठ अथवा निकृष्ट सिद्ध होती हैं, लेकिन पुरातात्विक साक्ष्य इसे वैदिक ब्राह्मणों की आत्ममुग्धता से अधिक मानने को तैयार नहीं है. आज यह प्रमाणित है कि सिंधू घाटी की सभ्यता ऋग्वैदिक सभ्यता की अपेक्षा 1500-2000 पुरानी तथा उससे कहीं अधिक समृद्ध और सुव्यवस्थित थी. पुरातत्ववेत्ता सिंधू सभ्यता की शुरुआत 3200 ईस्वी पूर्व से मानते हैं. 2300 ईस्वी पूर्व से 1750 ईस्वी पूर्व तक वह सभ्यता अपने वैभव के शिखर पर थी. उसके बाद उसके पराभव का दौर शुरू हुआ. 1500 ईस्वी पूर्व में जब आर्यों ने जब भारत में प्रवेश किया, उस समय वह सभ्यता करीब-करीब मिट चुकी थी. उसके अवशेष हड़प्पा, मोहनजोदड़ो’, कालीबंगा, लोथल, मेहरगढ़ जैसे दर्जनों स्थानों पर आज भी सुरक्षित हैं. सिंधुवासियों को दुनिया की सबसे पुरानी और समृद्ध नागरिक सभ्यता की नींव रखने वाला बताया जाता है. पुरातत्ववेत्ता इस बात पर सहमत हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता का कुल क्षेत्रफल आधुनिक पाकिस्तान के क्षेत्रफल से भी अधिक था.

भारतीय इतिहास के संदर्भ में 1500 ईस्वी पूर्व से 700 ईस्वी पूर्व तक के समय को विद्वान ‘अंधकार युग’ मानते हैं. इसलिए कि उस कालखंड के बारे में हमें प्रामाणिक तौर पर कुछ भी ज्ञात नहीं है. विद्वानों के अनुसार ऋग्वेदादि श्रुति ग्रंथों का रचनाकाल भी यही कालखंड है. लेकिन ये ग्रंथ 700 ईस्वी पूर्व में भी लिखित रूप में मौजूद थे, यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. दूसरी ओर यह प्रमाणित तथ्य है कि सिंधू सभ्यता के निर्माताओं को न केवल लिपि बल्कि संख्याओं, वास्तविक और प्रतीक मुद्रा तथा उनके अनुप्रयोगों की भी पर्याप्त जानकारी थी. उनके खेती के तरीके विकसित थे. इतने विकसित कि भारत में बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक भी उनमें खास परिवर्तन नहीं हो पाया था. उनके पास सुनियोजित व्यापार-तंत्र और ऐसी भाषा थी, जिसके माध्यम से वे समकालीन सभ्यताओं से संवाद करने में सक्षम थे. जबकि आर्यजन महज घुमंतु पशुचारी कबीले थे. सभ्यता की दृष्टि से सिंधुवासियों से लगभग हजार साल पिछड़े हुए. इसके बावजूद यदि उन्होंने स्वयं को ‘आर्य’ यानी ‘श्रेष्ठजन’ कहा, तो इसके दो प्रमुख कारण हो सकते हैं. पहला या तो वे सिंधू घाटी की सभ्यता के प्राचीन वैभव तथा उसके महत्त्व से अपरिचित थे. अथवा यह संबोधन उन्होंने बहुत बाद में अनार्यजनों पर अपनी सांस्कृतिक विजय, वैदिक संस्कृति की स्थापना के समय चुना था. वे जानते थे कि अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ बताए बिना जीत को स्थायी बनाना और मूल-भारतवासियों पर ‘आर्यत्व’ को थोप पाना असंभव है. ईसा पूर्व चौथी-पांचवी शताब्दी तक वह लक्ष्य ही बना रहा. यह भी संभव है कि ‘आर्य’ संबोधन मध्य एशिया से प्रयाण से पहले ही उनके साथ जुड़ा हो और उसका अभिप्राय ‘श्रेष्ठजन’ न होकर कुछ और हो. ऋग्वेद को प्राचीनतम वेद, हिंदुओं का पवित्रतम ग्रंथ, जिसकी रचना ब्राह्मणों द्वारा ब्राह्मणों के लिए की गई है—माना जाता है. उसके आरंभिक उद्गाता ऋषियों में सभी वर्णों के रचनाकार सम्मिलित हैं.

वेदादि ग्रंथों को ‘ब्राह्मण-ग्रंथ’ कहने की प्रवृत्ति बहुत बाद में, कदाचित यजुर्वेद की रचना के समय हुई. उस समय तक उस समय तक ‘पुरोहित’, ‘राजा’, सम्राट जैसे पदों का सांस्थानीकरण हो चुका था. धर्म और राजनीति दोनों ही व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति का माध्यम बन चुके थे. वैदिक कर्मकांड जो उससे पहले तक मुख्यतः आश्रमों तक सीमित थे, वे राजा-महाराजाओं तथा धनी व्यापारियों के घर-आंगन तक पहुंचकर वैभव-प्रदर्शन के काम आने लगे थे. ब्राह्मणों की पूरी मेधा यज्ञादि कर्मकांडों को विस्तार देने में जुटी थी. चतुर्भुजी ब्रह्मा के हाथ में ‘ऋग्वेद’ के बजाय ‘यजुर्वेद’ की प्रति का होना, वैदिक धर्म-दर्शन की परपंरा में कर्मकांडों के बढ़ते महत्त्व को दर्शाता है. ऐसे में ज्ञान की परंपरा का अवरुद्ध होना स्वाभाविक था. वही हुआ भी. उसके तुरंत बाद पौराणिक लेखन की बाढ़-सी आ गई, जिसने उस समय तक उपलब्ध ज्ञान-विज्ञान और ऐतिहासिक तत्वों का मिथकीकरण करने का काम किया.

ऋग्वेद में अनार्य पुरों के ध्वंस का जगह-जगह वर्णन है. लेकिन ऋग्वेद की रचना का जो काल है, उस समय तक सिंधु सभ्यता का पराभव हो चुका था. इसलिए संभावना यही बनती है कि ऋग्वैदिक आर्यों ने सिंधु-घाटी के उन नगरों और पुरों पर हमला किया था, जो प्रकृति की मार के चलते पहले से ही निष्प्रभ हो चुके थे. पराजित अनार्यों में से कुछ यहां-वहां छिटक गए. जो बचे उन्हें लेकर ब्राह्मणों ने चातुर्वर्ण्य समाज की नींव रखी. चातुर्वर्ण्य समाज की अवधारणा कदाचित आर्यों की प्राचीन स्मृति का हिस्सा थी. गौरतलब है कि प्राचीन मिस्र तथा पर्शिया में भी चातुर्वर्ण्य वर्ण-व्यवस्था प्रचलित थी. अवेस्ता(यसना, 19/17, फ्रे) में जिन चार वर्णों का उल्लेख मिलता है, वे हैं—असर्वण(पुरोहित वर्ग), अर्तेशत्रण(क्षत्रिय), डबेरियन(वैश्य) तथा वास्त्रोषण(शूद्र). ध्वनि के आधार पर आर्य शब्द ‘असर्वण’ के अपेक्षाकृत निकट है. अवेस्ता में ‘असर्वण’ को वर्ण-क्रम में पहला स्थान पर रखा गया है. संभव है ‘आर्य’ शब्द की उत्पत्ति पार्शियन ‘असर्वण’ से हुई हो; या फिर ‘आर्य’ की अवधारणा के मूल में इस शब्द का प्रभाव रहा हो. ‘अवेस्ता’ के अनुसार ‘अहुरमज्द’ एक प्रमुख देवता है. उसे सृष्टि निर्माता और उसका पालक माना गया है. मान्यतानुसार उसने कई द्वीपों की रचना की थी. भारत में प्रवेश के बाद ‘अहुरमज्द’ का ‘अहुर’ ही प्रकारांतर में ‘असुर का रूप ले लेता है. इससे एक संभावना यह भी बनती है कि भारत पहुंचे आर्य कबीले अपने मूल प्रदेश की संस्कृति का प्रतिपक्ष थे. ‘अहुरमज्द’ को सर्वोच्च पद का दिया जाना, उन्हें स्वीकार न था. इसलिए भारत पहुंचकर उन्हें जैसे ही अवसर मिला, ‘अहुरमज्द’ को नकारात्मक शक्तियों के प्रतीक असुर में ढाल दिया गया. भारत में आर्यों का आगमन अलग-अलग समय में टुकड़ियों के रूप में हुआ था. उधर ऋग्वेद में ‘असुर’ का प्रयोग अच्छे और बुरे दोनों अर्थों में हुआ है. इससे एक संभावना यह भी है कि अलग-अलग समय में आने वाली आर्य-टोलियां भिन्न समाज और संस्कृतियों से संबंधित थीं. यह भी संभव है कि ‘असुर’ शब्द का प्रयोग पहले ‘अच्छे’ के संदर्भ में होता हो, उसे ‘बुरे’ का प्रतीक और आर्यों का दुश्मन बाद में माना गया हो. मानव-संस्कृति के इतिहास में ऐसे बदलाव स्वाभाविक कहे जा सकते हैं. उन्हें हम समाज में निरंतर बदलते शक्ति-केंद्रों का परिणाम भी कह सकते हैं. आरंभ में गणेश को ‘विघ्नकर्ता’ देवता माना जाता था. प्राचीनतम उल्लेखों में उन्हें कर्मकांड और आडंबरों का विरोधी दर्शाया गया है. आगे चलकर वे हिंदुओं के प्रमुख देवता के रूप में प्रतिष्ठित होकर, ‘विघ्नहर्ता’ मान लिए जाते हैं. ऐसे ही शिव जो पहले अनार्यों के लोकनायक के रूप में प्रतिष्ठित थे, उन्हें देवताओं की तिकड़ी में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया.

शिव को संहार का देवता माना जाता है. यह मिथ शिव की अनार्य समूहों के बीच महत्ता को दर्शाता है. भारत में आर्यों का आगमन भले ही उस युग में हुआ हो जब प्राचीन सिंधु सभ्यता का वैभव लुट चुका था. तो भी भारत पहुंचने के बाद उनके लिए यहां के निवासियों पर जीत हासिल करना आसान नहीं रहा होगा. शिव पूरे सिंधु प्रदेश के प्रतिष्ठित लोकनायक थे. उस समय के सभी अनार्य समूहों पर उनका प्रभाव था. इसलिए भारत आने के साथ ही आर्यों को शिव के समर्थकों से जूझना पड़ा होगा. संस्कृत ग्रंथों में इस बात के प्रमाण हैं कि अनार्यों के साथ आरंभिक युद्धों में आर्यों को पराजय का सामना करना पड़ा था. बल्कि लंबे समय तक जीत उनके लिए सपना ही बनी थी. मजबूरी में आर्यों से सहमति और समझौते से काम लिया. वह समझौता था, अनार्य महानायक शिव को आर्य देवताओं के बराबर का दर्जा देना. उनके साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करना. चूंकि वे शिव के पीछे निहित अनार्य कबीलों की जनशक्ति से परिचित हो चुके थे, और परोक्ष रूप में उसका डर भी उनके मनो-मस्तिष्क पर सवार रहता था, कदाचित उसी भय ने उन्हें शिव को संहार का देवता मानने के लिए विवश किया था. आदिवासी आज भी खुद को हिंदू धर्म से अलग मानते हैं. कहते हैं कि उनके पूर्वज वैदिक कर्मकांडों के कटु आलोचक; तथा ‘वर्ण-श्रेष्ठता की सैद्धांतिकी’ का विरोध करते थे.

यहां कुछ प्रश्न एकाएक खड़े हो जाते हैं. पहला यह कि सभ्यताकरण की अनिवार्यता के रूप में कार्य-विभाजन तो दूसरे देशों भी हुआ था. सभ्यताकरण की शुरुआत भी लगभग साथ-साथ हुई थी. अपने आदर्श समाज में प्लेटो ने भी लोगों को तीन वर्गों—स्वर्ण, रजत तथा कांस्य में बांटने की अनुशंसा की थी. भारत की भांति जापान, कोरिया, स्पेन तथा पुर्तगाल के लैटिन अमेरिकी उपनिवेशों, अफ्रीका आदि देशों में भी जातिप्रथा का प्रभाव था. जापान के ‘बराकुमिन’(burakumin) तथा कोरिया के ‘बीकजियोंग’(baekjeong) के हालात भारत के दलितों के समान ही थे. यमन में अल-अखदम(al-Akhdham, Khadem) की स्थिति भारतीय शूद्रां जैसी थी. उन्हें भी जाति-आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ता था. इनके अलावा पाकिस्तान, चीन, नेपाल, बांग्लादेश, इंडोनेशिया आदि देशों का समाज भी छोटी-छोटी जातियों और वर्गों में विभाजित था. विभिन्न जातियों के बीच ऊंच-नीच की भावना भी प्रबल थी. फिर बाकी देशों विशेषकर पश्चिमी देशों के सभ्यताकरण तथा भारत के सभ्यताकरण के परिणामों के बीच भारी अंतर क्यों मिलता है?

इस रहस्य को सभ्यताओं के विकास की सामान्य पड़ताल द्वारा समझा जा सकता है. सुकरात ने जीवन और समाज में नैतिकता की व्याप्ति पर जोर दिया था. गुरु सुकरात के सपने को लेकर प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में आदर्श समाज की परिकल्पना की थी. उसने किशोरावस्था के आरंभ से ही बच्चों को माता-पिता से दूर, उनकी पैत्रिक को पहचान छिपाकर, राज्य के संरक्षण में रखने की सिफारिश की थी. उसके आदर्श राज्य में बच्चों के पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा की संपूर्ण जिम्मेदारी राज्य की थी. एक उम्र तक शिक्षा का स्वरूप भी एक समान था. जबकि भारत में शिक्षा का स्वरूप वर्णानुसार परिवर्तनशील था. वैदिक ज्ञान केवल ब्राह्मण की संतान के लिए सुलभ था. क्षत्रिय और वैश्य की संतान को क्रमशः युद्ध-कौशल और व्यापारिक हिसाब-किताब से संबंधित शिक्षा देने का विधान था. शूद्र के लिए ज्ञान और शिक्षा के अवसर सर्वथा वर्ज्य थे. व्यक्ति की इच्छा और स्वतंत्रता का कोई महत्त्व नहीं था. पुत्र पिता की आजीविका को अपनाने के लिए बाध्य था. जबकि प्राचीन यूनान में सभी के लिए सैन्य शिक्षा एवं सेवा अनिवार्य थीं. तदोपरांत व्यक्ति की योग्यता तथा चारित्रिक विशेषताओं के अनुसार जिम्मेदारी सौंपी जाती थी. व्यक्ति को जन्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव न झेलना पड़े, इसके लिए प्लेटो ने साहसपूर्वक परिवार संस्था की भी उपेक्षा की थी. उसके बाद आए अरस्तु ने हालांकि प्लेटो की आदर्श राज्य संबंधी अनुशंसाओं को नकार दिया, परंतु जीवन और समाज में न्याय एवं नैतिकता के महत्त्व से उसे भी इन्कार न था. ‘श्रेष्ठ प्रजा ही श्रेष्ठ राज्य’ बना सकती है, कहकर उसने जीवन व्यक्तिमात्र के महत्त्व को स्थापित किया था. जिसे आधुनिक लोकतंत्र की आरंभिक प्रेरणा भी मान सकते हैं.

सच यह भी है कि सुकरात से लेकर अरस्तु तक सभी प्रमुख दार्शनिक दास प्रथा के समर्थक थे. और उसे उत्पादकता के स्तर को बनाए रखने के आवश्यक मानते थे. अरस्तु जैसा वैज्ञानिक सोच वाला विचारक जिसने प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में अद्भुत शोध किए थे, उत्पादकता में सुधार के लिए विज्ञान और तकनीक के प्रयोग हेतु कोई सुझाव नहीं देता. चूंकि दास के रूप में सस्ता श्रम आसानी से उपलब्ध था, जिसे वे विकास हेतु अपरिहार्य मान चुके थे—इस कारण उत्पादन वृद्धि हेतु विज्ञान और तकनीक के प्रयोग की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता. कुल मिलाकर विश्व के इन महानतम विचारकों द्वारा दास-पृथा को समर्थन, आगे चलकर में मानव-सभ्यता के विकास का अवरोधक सिद्ध हुआ. इस कमी के बावजूद प्राचीन यूनानी दर्शन में कुछ ऐसा अवश्य था, जो विचारकों की आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता रहा. वह था—मनुष्य को सभ्यता और संस्कृति के केंद्र में रखकर सोचना, तथा जीवन में नैतिकता को अत्यधिक महत्त्व देना, यही विशेषताएं आगे चलकर आधुनिक मानवतावादी दर्शनों की प्रेरणा बनी.

भारत में नैतिकता धर्म का उत्पाद उसका एक लक्षण मानी गई है. अधिकांश मामलों में तो धर्म और नैतिकता में कोई अंतर ही नहीं किया जाता. इसमें कोई बुराई भी नहीं है. एक प्रकार से धर्म भी मनुष्य की वैचारिक और आचरण की प्रतिबद्धता को दर्शाता है. बुराई तब उत्पन्न होती है जब उसकी प्रेरणा का आधार मानवेत्तर शक्तियों को मान लिया जाता है; तथा धर्म की आड़ लेकर कुछ लोग स्वार्थवश देवताओं को, जिनकी हैसियत मिथकीय पात्रों जैसी होती है—मनुष्य के सापेक्ष अतिरिक्त महत्त्व देने लगते हैं. कहने को प्रत्येक धर्म समानता के दावे के साथ जीवन में अपनी जगह बनाता है. परंतु उसकी समानता आभासी होती है. तरह-तरह की असमानताओं से जूझ रहे लोगों को फुसलाने के लिए धर्म ईश्वर के दरबार में बराबरी का भरोसा देता है. उसका वास्तविक जीवन में कोई महत्त्व ही नहीं है. वह जीवन और समाज में कुछ व्यक्ति अथवा व्यक्ति-समूहों के विशेषाधिकार को भी वैध ठहराता है. उसके प्रभाव में कुछ व्यक्तियों को सर्वेसर्वा और खास; जबकि बहुसंख्यक वर्ग को नगण्य एवं उपेक्षित मान लिया जाता है. भारतीय समाज की पहचान बन चुकी इस कुवृत्ति का दुष्परिणाम यह हुआ है कि जो कार्य अतिरिक्त श्रम की अपेक्षा रखते थे, उन्हें पूरी तरह शूद्रों तथा दासों के हवाले कर दिया गया. चूंकि संख्याबल में यह वर्ग तीनों शीर्षस्थ वर्गों की अपेक्षा अधिक था, समाज की जरूरत का उत्पादन उपलब्ध श्रम-शक्ति से आसानी से हो जाता था. इसलिए उत्पादन को बढ़ाने या उत्पादन प्रक्रिया को सरलीकृत करने का कार्य लंबे समय तक टलता रहा.

आने वाली शताब्दियों में यूनान का प्राचीन वैभव लुट-सा गया. प्लेटो का आदर्श राज्य चर्च के अधीन होकर धर्म के कुचक्र में हांफता हुआ नजर आया. इसके बावजूद वहां समय-समय पर स्वतंत्र मेधा का धनी ऐसे विचारक हुए जो प्राचीन चिंतकों से प्रेरणा लेकर राज्य को उसकी सीमा और कर्तव्य का एहसास कराते रहे. पंद्रहवीं शताब्दी की वैज्ञानिक क्रांति ने उत्पादन के वैकल्पिक साधनों का विकास किया. उससे पुरानी विचारधाराओं का नवोन्मेष हुआ, उसके साथ-साथ नए विचारों के सृजन में भी तेजी आई. मानव-मुक्ति के प्रश्न नए सिरे से अंगड़ाई लेने लगे. फलस्वरूप राज्य को चर्च के चंगुल से आजाद कराने लायक माहौल बना. नई वैचारिक चेतना ने सामंती व्यवस्था के सभी लक्षणों को जिनमें जाति भी शामिल थी, कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया. जापान, कोरिया जैसे देशों में जहां जातिप्रथा अपने विकृत रूप में उपस्थित थी, वहां उसके संपूर्ण उन्मूलन के लिए सघन कार्यक्रम चलाए गए, जिन्हें वहां के राज्य का पूरा समर्थन मिला. अमेरिकी और फ्रांसिसी क्रांति की सफलता के पश्चात पश्चिम में व्यक्ति-स्वाधीनता की मांग जोर पकड़ने लगी थी. उसका असर उनके उपनिवेशों पर भी पड़ा. फलस्वरूप उन देशों में जाति का संपूर्ण उच्छेद संभव हो सका.

भारत में ऐसा नहीं हो सका. इसलिए कि यहां ज्ञान-विज्ञान को धर्म का अनुचर बना दिया गया था. ऊपर से धर्म की परिकल्पना इतनी अस्पष्ट थी कि हर कोई अपने स्वार्थ को धर्म का नाम दे सकता था. ‘महाभारत’ में कुरुक्षेत्र का भीषण युद्ध, एकलव्य का अंगूठा काट लेना और बाद में छल से उसकी हत्या कर देना जैसे अनेक धत्त्कर्म धर्म के नाम पर ही किए जाते हैं. पश्चिम, विशेषकर प्राचीन यूनानी दर्शन सुकरात और प्लेटो के नैतिकतावादी दर्शनों से प्रभावित था. इन दार्शनिकों ने नैतिकता को मनुष्यता के आदर्श के रूप में सामने रखा था. जबकि भारत में सबकुछ धर्म के अधीन था; और धर्म की संरचना ऐसी थी कि उसे सामंतवाद से अलग देख पाना असंभव था. जाति और धर्म ने एक-दूसरे के समर्थन से भारतीय समाज में जो विकृतियां पैदा की हैं, उनका समाधान आज तक नहीं हो पाया है. भारत में पिछले 2500 वर्षों से ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों पर शीर्षस्थ वर्गों का एकाधिकार रहा है. उत्पादक कर्म से दूर रहने के बावजूद उन्होंने अर्थव्यवस्था को अपने स्वार्थ के अनुरूप ढाला हुआ था. बदली वैश्विक परिस्थितियों के फलस्वरूप समाज के निचले वर्गों को आजादी तो मिली, मगर वह आधी-अधूरी थी. जातीय आधार पर थोपे गए बंधन उसकी स्वतंत्रता की बाधा बने थे. आर्थिक आवश्यकताओं के लिए वे शीर्षस्थ वर्गों पर निर्भर थे. यह उत्तरोत्तर बढ़ती समाजार्थिक विषमता का प्रमुख कारण बना.

इस संबंध में बड़ा रोचक विश्लेषण डॉ. देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय की पुस्तक ‘साइंस एंड टेक्नालॉजी इन एनशिएंट इंडिया’ में मिलता है. जार्डन क्लिड के लेख ‘दि अर्बन रिवोल्युशन’ का अध्ययन करते हुए वे लिखते हैं कि तीन प्रमुख प्राचीनतम सभ्यताओं भारत, मेसापोटामिया, मिस्र में लगभग 6000 से 3000 वर्ष पहले तक मानवीय अनुभव-कौशल के आधार पर प्राकृतिक विज्ञानों यथा रसायन, भौतिकी, जीवविज्ञान, वनस्पति विज्ञान का प्रयोग खूब प्रचलित था. कारीगर लोग चांदी और तांबे के अयस्क को पिघलाकर धातु-शोधन की कला में दक्ष थे. वे वायु की गति का अनुप्रयोग जानते थे. उनके द्वारा बनाए गए जहाज सुदूर सभ्यताओं तक निरंतर यात्रा करते रहते थे. बैलगाड़ी के उपयोग से यातायात सुलभ हुआ था. इससे खाद्यान्न को एक स्थान पर पहुंचाने और उसे सुरक्षित रखना संभव हुआ. सिंधु सभ्यता में 800 वर्गमीटर क्षेत्र में फैले अन्न भंडारगृह का पता चला है. मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की अनूठी भवन-संरचाएं तथा उनके लिए जिस प्रकार की पकी इंर्टों का उपयोग किया गया था, वह न केवल समकालीन सभ्यताओं में बेजोड़ था, बल्कि उसके पराभव के पश्चात एक हजार वर्षों बाद भी, जिसे उन्होंने सभ्यता के ‘अंधकार युग’ की संज्ञा दी है—संभव नहीं पाया था. कमियां उस सभ्यता में भी थीं. चट्टोपाध्याय साफ करते हैं कि प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में इतनी उपलब्धियों के बावजूद, तत्कालीन शासक वर्ग की विज्ञान-संबंधी प्राथमिकताएं प्रायोगिक गणित एवं ज्योतिष तक सीमित थीं. गणित का उपयोग उत्पादों के संवितरण, कराधान, भवन और भवन-सामग्री का निर्माण आदि के लिए किया जाता था, जबकि ज्योतिष की मदद मौसम पर नजर रखने और उसके अनुसार फसल-उत्पादन के लिए ली जाती थी. प्राकृतिक विज्ञान यथा जीवविज्ञान, वनस्पति विज्ञान, भौतिकी, रसायन आदि के अनुप्रयोग तथा उसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी केवल शिल्पकर्मियों की थी.

वैदिक मेधा भी इस अपसंस्करण का शिकार थी. आरंभिक भारत में बीजगणित का जितना उपयोग यज्ञ-वेदियों के निर्माण के लिए होता था, उतना ही उपयोग नौकाएं बनाने के लिए भी किया जाता था. हवा की गति को पहचानते हुए, महासागर के बीच हजारों किलोमीटर की लंबी यात्राएं करने वाली नौकाओं का निर्माण तथा उनके नाविकों द्वारा सफल यात्राएं बिना बीजगणित, सामुद्रिक विज्ञान, वनस्पतिशास्त्र और गतिज भौतिकी के ज्ञान के असंभव थीं. मगर व्यावहारिक ज्ञान के प्रति कृपणता दिखाते हुए ब्राह्मणों ने ज्ञान-विज्ञान और तकनीक की उन अनेक धाराओं में से केवल गणित को सहेजने का कार्य किया. वह भी सीमित अर्थों में, यज्ञ-वेदियों के निर्माण जैसे अनुत्पादक कार्य के लिए. बाकी का ज्ञान कर्मकारों पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी अंतरण के लिए छोड़ दिया गया. संस्कृत साहित्य में बुनकर, तंतुकार, कुंभकार, नाविक, हलवाह, रथवाह, धातुकर्मी जैसे पेशेवरों का उल्लेख मिलता है. उनका ज्ञान मुख्यतः अनुभव आधारित था. लंबे विश्लेषण के बाद चट्टोपाध्याय जोर देकर कहते हैं कि उस समय की सामाजिक-आर्थिक नीतियों में कुछ न कुछ ऐसा अवश्य था, जो प्राकृतिक विज्ञानों की उपेक्षा कारण बना था. इसके निहितार्थ को समझना कठिन नहीं है.

आर्य इस देश में प्रवासी थे. संभव है, भारत आने के बाद अनेक वर्षों तक खुद को दूसरे देश का मानते रहे हों. प्रवासी को अपनी मूल-संस्कृति से बेहद लगाव होता है. यह लगाव तब और बढ़ जाता है जब उन्हें ऐसे लोगों के बीच रहना पड़े जो उनसे कहीं विकसित सभ्यता के स्वामी हों. इसे उस समूह की हीनता-ग्रंथि भी कह सकते हैं. परंतु यह किसी भी व्यक्ति अथवा समूह के बारे में सच हो सकता है. भारत में यायावर कबीलों के रूप में आए आर्यों के साथ भी कदाचित ऐसा ही था. उनकी अर्थव्यवस्था का मुख्य स्रोत पशुपालन था. खेती करना उन्होंने द्रविड़ों से सीखा. बावजूद इसके उत्पादकता के अपने परंपरागत संसाधनों के प्रति उनका आकर्षण बना रहा. वैदिक ऋषियों की जीवनचर्या आश्रम-केंद्रित थी. सभी प्रमुख वनवासी ऋषियों के अपने-अपने आश्रम थे. उनकी आय का प्रमुख स्रोत पशु-संपदा थी. उसके लिए परस्पर झगड़े भी होते थे. मात्र एक गाय की खातिर वशिष्ट और विश्वामित्र के बीच हुआ लंबा संघर्ष तो जग-जाहिर है. स्वर्ग के रूप में ऐसी समानांतर परिकल्पना भी मिलती है, जहां दुधारू गाय, भरपूर संख्या में उपलब्ध हों, उसे गोलोक कहा गया है. मान्यता थी कि अच्छी दुधारू गाय समस्त कामनाओं की पूर्ति कर सकती है—‘कामधेनु’ का प्रतीक इसी सोच और पशु-केंद्रित अर्थव्यवस्था के महत्त्व को दर्शाता है. द्रविड़ों के संपर्क में आने के बाद आर्यों ने खेती करना सीखा. फिर भी पशु-पालन के प्रति आकर्षण एवं कृषि-कर्म के प्रति दुराव बना रहा. वर्ण-व्यवस्था कृषि-कर्म में लिप्त लोगों को शूद्र का दर्जा देकर तीसरे पायदान पर ढकेल देती है. उनकी अपेक्षा द्रविड़ क्रमवार विकास करते हुए कृषि-केंद्रित अर्थव्यवस्था को अपना चुके थे. वे उन लोगों के वंशज थे, जो सिंधु सभ्यता के पराभव के उपरांत यहां-वहां बिखर चुके थे. वे कृषि-कर्म में दक्ष थे. पुरातत्व से जुड़ी खोजें सिद्ध करती हैं कि सिंधु सभ्यता नागरीकरण के उन शिखरों तक पहुंच चुकी थी, जहां पहुंचने के लिए वैदिक जनों को आगे के एक हजार वर्ष खपाने पड़े. सिंधु सभ्यता की समृद्धि का प्रमुख संबल वहां के शिल्पकर्मी थे. अपने अनूठे शिल्पकर्म के बल पर वे, वैदिक सभ्यता के उभार के दौर में भी, अपनी आर्थिक-सामाजिक स्वतंत्रता को बचाए रखने में सफल हुए थे.

सिंधु सभ्यता के उत्खनन से चीनी के बर्तन प्राप्त हुए हैं. उनका उपयोग धातु-शोधन के कार्य हेतु किया जाता था. आज धातु-अयस्क को पिघलाने का काम बड़े-बड़े पूंजीपतियों के अधिकार में जा चुका है. खनिज-संपदा पर कब्जा करने के लिए पूंजीपतियों के बीच होड़ मची रहती है. उसके लिए आदिवासियों को निर्लज्जतापूर्ण ढंग से विस्थापित किया जा रहा है. जिस समय तक ये कारखाने नहीं लगे थे, उन दिनों धातु-शोधन करना मुख्यतः आदिवासियों तथा उन लोगों का कार्य था, जिन्हें बाद में निचली जाति का मान लिया गया. उनके द्वारा शोधित धातुओं(तांबा) से हल की फाल भी बनाई जाती थी, औजार भी. किंतु उनके हुनर और प्राकृतिक विज्ञानों के क्षेत्र में उनकी अनुभव-सिद्ध जानकारी का—वैदिक जनों की दृष्टि में कोई महत्त्व नहीं था. न ही उस परिवेश से निकलकर आए आधुनिक ब्राह्मणवादी बुद्धिजीवियों का ध्यान उस ओर गया. इसका दुष्परिणाम भारतीय समाज में ज्ञान-विज्ञान की निरंतर उपेक्षा के रूप में सामने आया. विशेषकर नए ज्ञान और शोध को लेकर. धर्म का स्वभाव होता है, वर्तमान और भविष्य की दुहाई देते हुए, अतीत की ओर बार-बार झांकना. उसपर हम भारतीय धर्म को कुछ ज्यादा ही अहमियत देते आए हैं, इसलिए हर नई समस्या का समाधान हमें अतीत की खोह में ले जाता है. समस्या सुलझने के बजाए और जटिल हो जाती है. इसका नुकसान बहुजनों को उठाना पड़ता है. अपनी विशिष्ट स्थिति का लाभ उठाकर अभिजन समूह हालात को अपने स्वार्थ के अनुरूप मोड़ने में कामयाब हो जाते हैं.

भारतीय संस्कृति में शूद्रों की उपस्थिति को लेकर जितने भी शोध सामने आए हैं, उनमें से अधिकांश वेदाध्ययन के अधिकार को शूद्रत्व की कसौटी मानते हैं. एक वर्ग कहता है कि शूद्रों को वेदाध्ययन और यज्ञादि कर्मकांडों में हिस्सेदारी का अधिकार था. दूसरा इससे इन्कार करता है. अपने-अपने मत के समर्थन में दोनों अपने तर्क लगभग एक जैसे ग्रंथों से जुटाते हैं. उन ग्रंथों से जो ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण से उसका महिमामंडन करते हुए रचे गए हैं. जिनका येन-केन-प्रकारेण उद्देश्य जाति-और वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखना है, ताकि कुछ लोगों के विशेषाधिकार बने रहें. वेदाध्ययन और कर्मकांडों को लेकर स्वयं शूद्रों की दृष्टि क्या थी? क्या उन्हें वेदाध्ययन और कर्मकांडों से वंचित किए जाने बहुत क्षोभ था? क्या इनसे वंचित किए जाने का उनकी उत्पादकता पर कोई प्रभाव पड़ा था? अथवा वे किसी स्वतंत्र धर्म-दर्शन के अनुयायी थे तथा वैदिक कर्मकांडों को निरर्थक मानकर स्वयं ही उनसे सुरक्षित दूरी बनाए हुए थे? इस प्रकार के प्रश्नों को लेकर उनमें कोई बेचैनी नजर नहीं आती. कदाचित उनके लिए यह समस्या ही नहीं थी. उनमें से अधिकांश भारत के अतीत में सिवाय वैदिक सभ्यता और संस्कृति के कुछ ओर दिखाई ही नहीं देता. जो जानते-समझते हैं, वे इस सत्य पर पर्दा डाले रहते हैं. उन्हें डर लगा रहता है कि खुलते ही विशेषाधिकार छीने जा सकते हैं. जिन ग्रंथों के आधार वे इस निष्कर्ष तक पहुंचे हैं, उन्हीं के स्वतंत्र विवेचन द्वारा हम बड़ी आसानी से समझ सकते हैं कि समाज का बड़ा वर्ग, वैदिक कर्मकांडों की निरर्थकता को पहचानकर, स्वयं उनसे दूरी बनाए हुए था. उसमें वही लोग थे, जो अपने श्रम-कौशल के आधार पर जीविकोपार्जन करते थे. धर्म उनके लिए जीवनदायिनी प्रकृति के प्रति निजी आस्था और विश्वास  का मसला था. उस तरह दिखावे का नहीं जैसा वैदिक धर्म के अनुयायी कर रहे थे.

संस्कृत वाङ्मय के आधार पर अनार्यों की स्थिति का वर्णन करते हुए एक बात अकसर भुला दी जाती है, वह है उनकी आर्थिक स्वतंत्रता. समय के साथ हालांकि उसमें उतार-चढ़ाव आते रहते थे. बावजूद इसके अपने श्रम-कौशल के दम पर उनका बड़ा हिस्सा अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने में सफल हुआ था. एक तरह से प्राकृतिक विज्ञानों के अनुप्रयोग की जिम्मेदारी उन्हीं की थी. हालांकि ज्ञान-विज्ञान का अंतरण मुख्यतः अनुभव आधारित था. शिल्पकार वर्ग अपने पुत्र या उत्तराधिकारी को शिल्पकर्म से जुड़ी जानकारी देकर उऋण हो लेता था.़ अनुभवों की वंशानुगत अंतरण पद्धति में ज्ञान का लंबे समय तक संरक्षण और उसमें क्रमागत विकास असंभव था. ऊपर से निचले वर्गां में शिक्षा का अभाव, जिसने उन्हें अपने ही ज्ञान के प्रति उदासीन बना दिया था. फिर भी अपने संगठन-सामर्थ्य एवं बाहरी स्पर्धा के बल पर, शिल्पकार समूह अपनी आर्थिक स्वतंत्रता को लंबे समय तक सुरक्षित रखने में सफल रहे थे. उस समय तक उत्पादन आवश्यकता केंद्रित था. मुनाफे की अवधारणा जन्मी नहीं थी. उत्पादक और उपभोक्ता के बीच सीधा संबंध था. उनके उत्पादों की स्थानीय और सुदूर बाजारों में बराबर मांग थी—इस कारण उनकी उपेक्षा असंभव थी. अनुकूल परिस्थितियां के चलते शिल्पकार वर्ग ने ईसा पूर्व चौथी-पांचवी शताब्दी तक अपनी समाजार्थिक स्वतंत्रता बनाए रखी. किंतु ‘मनुस्मृति’ तथा ‘अर्थशास्त्र’ की रचना के बाद समाज के चार्तुवर्ण्य विभाजन को राज्यों का समर्थन मिलने लगा था. चाणक्य शिल्पकार समूहों की स्वायत्तता को राज्य के लिए हानिकारक मानता था. ‘अर्थशास्त्र’ की रचना के बाद सहयोगाधारित व्यापारिक संघों पर तरह-तरह के प्रतिबंध थोपे जाने लगे. उसके चलते उत्पादक एवं उपभोक्ता के बीच एक नए व्यापारी वर्ग का उदय हुआ, जिसका प्रमुख कार्य उत्पादों को उसके उपभोक्ता-वर्ग तक पहुंचाना और बदले में अच्छा-खासा मुनाफा अपने लिए सुरक्षित रख लेना था. उससे मुनाफे की अवधारणा विकसित हुई. राज्य के संरक्षण में पनपे व्यापारी वर्ग ने कर्मकार वर्गों से उनके उत्पाद के मूल्यांकन का अधिकार छीन लिया. कालांतर में वह उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक दुर्दशा का कारण बना.

चाणक्य केंद्रीय सत्ता का समर्थक था. उसकी प्रमुख कृति ‘अर्थशास्त्र’ में किसी नए अर्थशास्त्रीय सिद्धांत की विवेचना नहीं है. वह विशुद्ध रूप से राजनीति का ग्रंथ है. पुस्तक के आरंभ के कई अध्याय राजा की सुरक्षा से संबंधित हैं. इसके लिए वह तरह-तरह के कूटनीतिक उपाय बताता है. राजनीति षड्यंत्रों के समय रहते पर्दाफाश तथा उनसे राज्य और राजा दोनों की सुरक्षा के लिए वह पूर्ववर्ती आचार्यों नारद, बृहश्पति, शुक्राचार्य आदि के ग्रंथों से उद्धरण प्रस्तुत करता है. इस कारण अर्थशास्त्र को ‘आन्वीक्षकी’ भी कहा गया है. सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य वंश का संस्थापक तथा अपने समय का सर्वाधिक शक्तिशाली सम्राट था. उसके पास पांच लाख से अधिक का सैन्यबल था. फिर चाणक्य को डर किस बात का था? क्यों राजा की सुरक्षा की चिंता करते हुए उसे अपनी पुस्तक के कई अध्याय ‘आन्वीक्षकी’ के नाम करने पड़े. सवाल यह भी है कि अर्थनीति विषयक साधारण जानकारी के बावजूद उस पुस्तक को ‘अर्थशास्त्र’ जैसा शीर्षक क्यों दिया गया? क्या महज इसलिए कि अरस्तु की ‘पॉलिटिक्स’ नामक पुस्तक उससे पहले आ चुकी थी; और वह भारत विजय का सपना लेकर निकले सिकंदर का गुरु था? अगर नहीं तो राजनीति-शास्त्र की पुस्तक के अवांतर नामकरण के लिए चाणक्य की जो आलोचना अपेक्षित थी, उससे आगे के विद्वान क्यों बचते रहे? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर भारतीय संस्कृति और इतिहास में नदारद हैं. लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों के निष्पक्ष विवेचन द्वारा उनके उत्तर खोजे जा सकते हैं.

सिंकदर का आक्रमण देश पर पहला सुगठित हमला था, जिसके पीछे आक्रमणकारी के साम्राज्यवादी मंसूबे एकदम साफ थे. चंद्रगुप्त के रण-कौशल से वह हमला नाकाम हो चुका था. उसके बहाने सत्ताधारी समूह जनता को यह समझाने में कामयाब रहे थे कि बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा के लिए बड़े राज्यों का गठन अपरिहार्य है. लेकिन बड़े राज्यों की सफलता केंद्रोन्मुखी अर्थव्यवस्था के बिना संभव न थी. चंद्रगुप्त की सेना किसी भी तत्कालीन सम्राट से बड़ी थी. इतनी बड़ी सेना और राज्य के प्रबंधन हेतु भारी-भरकम मशीनरी का इंतजाम तभी संभव था, जब उत्पादन और वितरण के स्रोतों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में राज्य के सीधे नियंत्रण, अथवा उसके भरोसेमंद लोगों के अधीन लाया जाए. चाणक्य ने यही किया था. डॉ. रमेश मजूमदार ने अपनी पुस्तक ‘कॉआपरेटिव्स इन एन्शीएंट इंडिया’ में लगभग तीस प्रकार के सहयोगाधारित उत्पादक संगठनों का उल्लेख किया है. वे संगठन पूर्णतः स्वायत्त थे. यहां तक कि राजा को भी उनकी कार्यशैली में दखल देने का अधिकार न था. संगठन के मुखिया को राज-दरबार में सम्मानजनक स्थान प्राप्त होता था. आवश्यकता पड़ने पर राजा भी उनसे मदद लेता था. ऋग्वेद में भी ‘पणि’ का उल्लेख हुआ है, जो सहयोगाधारित व्यापारिक संगठनों की प्राचीनतम उपस्थिति को दर्शाता है. पणि पशुओं के व्यापारी थे. सहयोगाधारित व्यापार की यह परंपरा सिंधु सभ्यता की देन थी. उसके व्यापारिक काफिले बेबीलोन, मिस्र आदि देशों की निर्बाध यात्रा करते रहते थे. मामूली संसाधनों के भरोसे लंबी व्यापारिक यात्राएं करना बिना आपसी सहयोग के संभव ही नहीं था. सिंधु सभ्यता से लेकर मेसापोटामिया, मिस्र, ईरान आदि में मिली लगभग एक समान मुहरों से इन सभ्यताओं की बीच आपसी लेन-देन की बात पुष्ट होती है.

चाणक्य ने गौ-अध्यक्ष, नाव-अध्यक्ष, रथाध्यक्ष, सीताध्यक्ष जैसे पदों का विधान किया. उससे पहले गोपालक, नाविक, रथवाह, बुनकर, सार्थवाह, तैलिक आदि के अपने-अपने स्वतंत्र संगठन थे. चाणक्य ने नए पदों के सृजन द्वारा उनकी स्वायत्तता को मर्यादित कर, उन्हें  प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में राज्य के अधीन कर लिया गया था. इस तरह सोची-समझी नीति के तहत व्यापारी वर्ग को बढ़ावा दिया गया. ब्राह्मण धर्मसत्ता को संभाले था, जबकि क्षत्रिय का राजसत्ता पर कब्जा था. राज्य के समर्थन और संरक्षण में पनपे तीसरे व्यापारी वर्ग ने जो शेष दो वर्णों, ब्राह्मण एवं क्षत्रिय की भांति अनुत्पादक वर्ग था—उत्पादकता के स्रोतों पर अधिकार कर, अर्थसत्ता को भी अपने अधीन कर लिया गया. राजनीतिशास्त्र की कृति का ‘अर्थशास्त्र’ नामकरण वस्तुतः समाज के उत्पादक वर्गों की स्वायत्तता को, राजनीतिक तंत्र के अधीन लाने की कूटनीतिक चाल थी. उससे स्वतंत्र पेशे जाति का रूप लेने लगे. शिल्पकारों से अपनी मर्जी के उत्पादन तथा उत्पाद का मूल्यांकन का अधिकार छीन लिया गया. उत्पीड़न के शिकार लोग कभी भी विद्रोह कर, राज्य और राजा दोनों के लिए खतरा बन सकते हैं, चाणक्य को इसका अंदेशा कदाचित ज्यादा ही था. इसलिए वह एक ओर आन्वीक्षकी के तरह-तरह उपाय बताता है, कराधान प्रणाली को मजबूत करने के सुझाव देता है, साथ ही राजा की सुरक्षा और अनुशासन के नाम पर कठोर दंडविधान की अनुशंसा भी करता है. चाणक्य के अर्थशास्त्र में साधारण नागरिक की महत्ता राज्य के प्रति उसकी उपयोगिता से आंकी जाती थी. जो राज्य का नहीं है, वह कहीं का नहीं है.

अरस्तु चाणक्य का समकालीन था. उससे कुछ बड़ा. चाणक्य ने चंद्रगुप्त को शिक्षित किया था तो अरस्तु सिकंदर का गुरु था. दोनों के बीच यह मामूली समानता है. लेकिन दोनों के राजनीति विषयक चिंतन में जमीन-आसमान का अंतर है. चाणक्य के नजरों में राजा सर्वेसर्वा है, जबकि अरस्तु की ‘पॉलिटिक्स’ के केंद्र में मनुष्य है. नैतिकता को राज्य के गठन की आधारशिला मानने वाले अरस्तु का विचार था—‘श्रेष्ठ प्रजा ही श्रेष्ठ शासन को जन्म दे सकती है.’ ‘अर्थशास्त्र’ का मूल संदेश सर्वसत्तावादी है. चाणक्य को राजा के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता. उसकी निगाह में प्रजा और बाकी दरबारीगण केवल इसलिए आवश्यक हैं, क्योंकि वे राजा के होने को प्रासंगिक बनाते हैं. दूसरी ओर अरस्तु का दर्शन ‘न्याय’ का दर्शन है. उसके अनुसार प्रजा-कल्याण हेतु समर्पित भाव से काम करना, राजा का कर्तव्य है. वही राज्य के गठन का औचित्य भी है. ‘अर्थशास्त्र’ में प्रजा कल्याण राजा का कर्तव्य न होकर, ‘कृपाभाव’ है. बहरहाल, भारत में देशज कृति ‘अर्थशास्त्र’ को सराहा गया. वैसे भी दुनिया में हो रही ज्ञान-संबंधी हलचलों की ओर से आंखें मूंदे रहना ब्राह्मणों का स्वभाव रहा है. उनकी आत्ममुग्धता भी कमाल की थी. सिवाय खुद के कुछ देख ही नहीं पाती थी. ज्ञान के क्षेत्र में जो सर्वात्तम है, वह भारतीय है. और भारत में जो श्रेष्ठतम विचार है वह किसी न किसी ब्राह्मण के दिमाग की उपज है—इस भ्रांत धारणा ने उन्हें विदेशी ज्ञान-विज्ञान के प्रति सदैव उदासीन बनाए रखा. दुनिया में ऐसे अनेक यायावर जिज्ञासु रहे हैं, जिन्होंने अपना जीवन और श्रम दूसरे देशों और सभ्यताओं के बीच जाकर ज्ञान को सहेजने में लगाया है. मेगस्थनीज, ह्वेनसांग, फाह्यान, अल-बरूनी, इब्नबतूता, अल-मसूदी, अल-बरूनी जैसे सैकड़ों विद्वान थे, जो ज्ञान-विज्ञान की खोज के लिए हजारों मील की यात्रा करके भारत पहुंचे थे. लेकिन भारत का बुद्धिजीवी वर्ग इतना आत्ममुग्ध रहा कि उसने बाहरी देशों में चल रही ज्ञान की हलचलों की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया. ब्राह्मणों की मेधा स्मृतियों, पुराणों और आरण्यकों की गुलाम रही. जबकि उनका श्रम वर्ण-व्यवस्था को चिरस्थायी बनाने में लगा रहा. परिणामस्वरूप देश में धर्म और जाति का ऐसा गठजोड़ बना कि सुधारवादी आंदोलनों की ऊर्जा का बड़ा हिस्सा उनसे जूझने में खपता रहा. चूंकि उन आंदोलनों का नेतृत्व उच्च जाति के लोगों के पास था, जिनके अपने स्वार्थ जाति को सुरक्षित रखने में थे, इसलिए परिवर्तनकारी आंदोलनों के प्रति उनमें से अधिकांश का रवैया ढुलमुल ही रहा. प्राचीन संस्कृत वाङ्मय में शायद ही कोई उदाहरण हो जिसमें किसी पिता ने वर्णोचित गुणों के अभाव में अपनी संतान के वर्ण के अवमूल्यन की शिकायत की हो. जबकि जातिवाद को प्रश्रय देने, अयोग्य पुत्र को उत्तराधिकार के रूप में विरासत सौंपने के यहां अनगिनत उदाहरण हैं.

यह ठीक है कि अपने जन्म के साथ ही जाति-प्रथा को भारी आलोचना का सामना करना पड़ा था. कई बार ऐसे अवसर भी आए जब लगा कि इस व्यवस्था के दिन लद चुके हैं. समाज सुधार के क्षेत्र में समय-समय चलाए गए आंदोलनों से उसे कुछ समय के लिए धक्का अवश्य लगा, परंतु धर्म के समर्थन तथा लंबे जाति-आधारित स्तरीकरण के कारण, जो हर जाति को किसी न किसी जाति से ऊपर होने का भरोसा देता है—ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसका अस्तित्व सचमुच खतरे में पड़ा हो. सामंती लक्षणों से युक्त जाति हमेशा ही भारतीय समाज का कलंक बनी रही. जाति और धर्म की जकड़न में आत्मविश्वास गंवा चुके भारतीय समाज ने विकास की ऐसी उल्टी चाल चली कि समकालीन सभ्यताओं में सर्वाधिक विकसित सिंधु सभ्यता का जनक और ज्ञान, विज्ञान, इंजीनियरिंग, गणित, ज्योतिष, स्थापत्य आदि क्षेत्रों में बाकी देशों के मुकाबले अग्रणी स्थान रखने वाला भारत लगातार पिछड़ने लगा. शताब्दियों से जाति और धर्म के सहारे विशेष सुख-सुविधाओं से लाभान्वित रहा वर्ग, आज भी जाति को भारतीय संस्कृति की उत्कृष्ट देन मानता है; और तमाम आलोचनाओं-विरोधों के बावजूद  उसे किसी न किसी रूप में सुरक्षित रखना चाहता है. उनमें सबसे बड़ी संख्या ब्राह्मणों की ही है. आखिर जाति का उत्स क्या है?

प्रायः यह प्रश्न उठाया जाता है कि जातीय शोषण के विरुद्ध निरंतर संघर्ष के बावजूद भारतीय समाज उसकी जकड़न से बाहर आने में क्यों असमर्थ रहा. संख्या में कई गुना होने के बावजूद बहुजन समाज अल्प-संख्यक अभिजनों की समाजार्थिक दासता में बने रहने के लिए विवश क्यों हुआ? इस धारणा को चिरस्थायी बनाए रखने के लिए जाति-व्यवस्था के विरोधी भी कम जिम्मेदार नहीं हैं. अभी तक जातीयता के उपकार एवं अपकार के अध्ययन हेतु आदि स्रोत के रूप में ऋग्वेद को लेने की मान्यता रही है. ऋग्वेद जो ब्राह्मण मनीषा का आदि ग्रंथ है, उसे भारतीय प्रायद्वीप के बौद्धिक उठान का आदि ग्रंथ भी मान लिया जाता है. ऐसा करके हम आर्यों के आगमन से पूर्व के भारत के इतिहास को पूरी तरह उपेक्षित कर जाते हैं. जबकि मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा, लोथल आदि स्थानों के उत्खन्न के पश्चात हम एक समृद्ध अनार्य सभ्यता से परिचित हो चुके हैं. उसपर प्रामाणिक लेखन और ऐसे साक्ष्य मौजूद हैं, जिनसे हम समानांतर सभ्यता का चिह्नन कर सकते हैं. ऋग्वेद को भारतीय मनीषा का आदि ग्रंथ मानने का दूसरा बड़ा नुकसान यह होता है कि वर्णाश्रम व्यवस्था का अध्ययन शूद्रों को यज्ञादि का अधिकार होने या न होने में सिमट जाता है. इस तरह हम आलोचना की ब्राह्मणवादी दृष्टि से बाहर नहीं निकल पाते. उदाहरण के लिए ‘शूद्र’ शब्द की व्याख्या को ले सकते हैं. अपने लेखों में विधुशेखर भट्टाचार्य इस शब्द को ‘क्षुद्र’ से व्युत्पत्तित बताते हैं. उनकी पूर्वाग्रहों में रची-बसी दृष्टि शूद्रों की सामाजिक अधिकारिता को वैदिक कर्मकांडों में हिस्सेदारी तक सीमित कर देती है. डॉ. रामशरण शर्मा ने संस्कृत गं्रथों में शूद्र की स्थिति को लेकर गहन अध्ययन किया है. उन्हें वामपंथी सोच का प्रगतिशील लेखक माना जाता है. परंतु शूद्र को लेकर वे भी जातीय पूर्वाग्रहों से बाहर नहीं निकल पाते. ‘शूद्र इन एन्शीएंट इंडिया’ में वे इसी सोच को विस्तार देते हैं.

ब्राह्मणवाद के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए अधिकांश विद्वान बौद्ध धर्म को प्रस्थान बिंदू मानते हैं. यह धारणा कदाचित डॉ. आंबेडकर द्वारा हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाने से बनी है. बौद्ध धर्म को ब्राह्मणवाद के विरोध का प्रस्थान बिंदू मानने वाले विद्वान प्रायः यह भूल जाते हैं कि बुद्ध का विरोध वर्ण-व्यवस्था से नहीं था. न ही वे जाति को अनावश्यक मानते थे. जाति और वर्ण-व्यवस्था के विरोध में उन्होंने कोई आंदोलन भी नहीं किया था. वे सिर्फ जाति-आधारित भेदभाव से मुक्ति चाहते थे. बुद्ध के पांच प्रमुख शिष्यों में से एक उपालि नाई जाति से था. कुछ भिक्षु निचली जाति इस कारण उनका उपहास भी उड़ाते थे. बुद्ध तक जब यह बात पहुंची तो उन्होंने उपालि की जाति पर कुछ नहीं कहा. न ही जाति को अनावश्यक माना. केवल जाति के आधार पर किसी को छोटा-बड़ा न मानने, भेदभाव न करने का उपदेश दिया. कुछ स्थानों पर तो वे वर्ण-व्यवस्था के पक्ष में खड़े होते दिखाई पड़ते हैं.

ईसा से पांच-छह से वर्ष पहले का समय, मनुष्यता के इतिहास का वह कालखंड है, जिसे मानवीय बुद्धि के विस्फोट के रूप में देखा जाता है. उस दौर में भारत में बुद्ध, महावीर स्वामी, चीन में कन्फ्यूशियस, बेबीलोन में सायरस, पर्शिया में जरथ्रुस्त तथा यूनान में सुकरात जैसे दार्शनिक पैदा हुए. उन सबने जीवन में नैतिकता को महत्त्व दिया. जबकि भारत की सभ्यता का विकास ब्राह्मणवाद की अधीनता तथा उसके वर्चस्व तले हुआ था. ब्राह्मण को नैतिकता, सामाजिक सौहार्द, बराबरी तथा न्याय-परंपरा में कभी विश्वास नहीं रहा. आरंभ से ही वह आधुनिकता विरोधी और धर्मसत्ता के प्रति दुराग्रहशील रहा है. आलोचना से बचने के लिए ब्राह्मणों ने असमानता को दैवीय घोषित किया. ऐसी स्थितियां रचीं कि जो दैवीय है, उसे न्यायसंगत भी मान लिया जाए. यह काम अकेले धर्म के भरोसे संभव नहीं था. इसलिए राजसत्ता को अपने पक्ष में लिया गया. भारत के सांस्कृतिक इतिहास में धर्म की विभिन्न धाराओं के बीच संघर्ष के सैकड़ों उदाहरण हैं. राजनीति के क्षेत्र में भी लोगों की महत्त्वाकांक्षाएं एक-दूसरे से टकराती रही हैं. परंतु धर्म और राजनीति का संघर्ष, विशेषकर राजनीति द्वारा धर्म से आजादी के संघर्ष का यहां कोई उदाहरण नहीं है. दधिचि का महिमामंडन उनकी दानशीलता के लिए किया जाता है. कहा जाता है कि उन्होंने धर्म के लिए जीवन की परवाह नहीं की और देवासुर संग्राम में देवताओं की जीत के लिए, जीते-जी अपनी हड्डियां तक दान कर दीं. लेकिन उस कथित त्रिकाल-दृष्टा महर्षि ने भी प्राणोत्सर्ग से पहले देवासुर संग्राम के औचित्य पर कोई सवाल नहीं किया था. न यह पूछा कि उस संग्राम में न्याय किस ओर है. जाहिर है, दधिचि का दान एक बूढ़े-मरणासन्न ब्राह्मण द्वारा ब्राह्मणवाद को बचाए रखने के लिए किया गया बलिदान था. धर्म उनके लिए राजनीति थी. ऐसा टोटम जिसपर बिना बुद्धि-विवेक के विश्वास कर लिया जाता है. भावनाओं में बहकर बहुजन भी वज्र के लिए देह गलाने वाले दधिचि के निर्णय को न्याय-अन्याय की कसौटी पर कस नहीं पाते. दधिचि के लिए देवताओं का पक्ष ही न्याय का पक्ष है. और जो देवताओं का पक्ष है, असलियत में वह ब्राह्मण का ही पक्ष है. पुराणों और उपनिषदों में भरे ऐसे आख्यान, वर्ण-व्यवस्था के लिए खाद-पानी का काम करते हैं.

दूसरी ओर पश्चिम में नैतिकता और मानवादर्शों के लिए आत्मबलिदान के अनेक उदाहरण हैं. प्लेटो का संबंध एथेंस के राज-परिवार से था. इस आधार पर वह स्वयं को राज्य का  उत्तराधिकारी भी मानता था. बावजूद उसने अपने गुरु सुकरात का अनुसरण करते हुए उसने सत्ता के आगे समर्पण करने के बजाए अपने विवेक और नैतिकता को हमेशा आगे रखा. उसके जीवन में एक या दो ऐसे अवसर आए जब उसे राजसत्ता के कोप से बचने के लिए भागना पड़ा. अरस्तु ग्रीक सेनानी सिकंदर का गुरु था. सिकंदर उसका सम्मान करता था. अरस्तु द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय तथा प्रयोगशालाओं के लिए सिकंदर की ओर से आवश्यक मदद प्राप्त होती थी. इसके बावजूद अरस्तु ने शक्तिशाली राज्य के बजाए नीति-केंद्रित राज्य का समर्थन किया था. अपनी स्वतंत्र लेखनी के कारण एक बार वह सिकंदर को भी जब वह युद्ध अभियान पर निकला हुआ था—नाराज कर बैठा था. जिससे सिकंदर ने उसे मृत्युदंड देने की ठान ली थी. यदि भारत से लौटते समय सिंकदर की असाममियक मृत्यु नहीं होती तो अरस्तु को दंडित किया जाना तय था.

यहां एक और सवाल खड़ा होता है. वर्ण-व्यवस्था के दबाव के चलते यदि शूद्रों को स्वतंत्र रूप से सोचने, अपनी कला को निखारने का यदि अधिकार ही नहीं था, तो उन्हें सभ्यता का वास्तविक निर्माता कैसे कहा जा सकता है. यदि उनका दिलो-दिमाग ब्राह्मणों तथा दूसरी शीर्ष जातियों के पूरी तरह अधीन था तो वे शिल्पकर्म के अद्भुत चितेरे, अनूठी स्थापत्य कला के धनी, कुशल आविष्कारक भला कैसे कहा जा सकता है? यह आशंका उन ग्रंथों को पढ़ते हुए विश्वास में बदलने लगती है, जिन्हें भारतीय मेधा के चमत्कार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. जिन्हें विद्वान प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति की पड़ताल के लिए उदाहरण के रूप में पेश करते आए हैं. उनमें सर्वपल्ली राधाकृष्णन, राधाकुमुद मुखर्जी, डॉ. रामशरण शर्मा जैसे विद्वान भी शमिल हैं. उनके अध्ययन की एकमात्र विशेषता, जो वस्तुतः उनकी बौद्धिक दुर्बलता है, वह यह है कि वे सभी स्वनामधन्य विद्वान भारतीय सभ्यताकरण की शुरुआत वेदों से करते हैं. ऋग्वेद उनके लिए भारतीयता की पहचान का आदि-ग्रंथ है. वैदिक संस्कृति के व्यामोह में फंसकर वे उन तथ्यों की एकदम उपेक्षा कर जाते हैं, जो हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, लोथल जैसे प्राचीनतम स्थलों के उत्खन्न से प्राप्त हुए हैं.

ऊपर के विश्लेषण से हम एक और सामान्य निष्कर्ष निकाल सकते हैं. यह कि संस्कृति की पहचान प्रायः उन लोगों से होती है, जो किसी न किसी रूप में उसका मूल्य वसूलने में लगे रहते हैं. न कि उन लोगों से जो उसे बनाने से लेकर सहेज कर रखने में भारी भूमिका निभाते हैं. शिखर पर विराजमान लोग सांस्कृतिक उपादानों का संरक्षण इस प्रकार करते हैं कि संस्कृति निर्माण में बाकी लोगों की भूमिका गौण मान ली जाती है. भारत की प्राचीन संस्कृति जिसे वैदिक संस्कृति भी कहा जाता है, का नाम आते ही बड़े-बड़े आश्रमों में रहने वाले ऋषिकुलों, मंत्रोच्चार करते साधुओं यज्ञ-वेदि के समक्ष गूंजती ऋचाओं का ध्यान आ जाता है. उस समय का बाकी समाज कैसा था? उसकी रोजमर्रा की गतिविधियों, जीवनशैली, कला-कौशल और समाज की बेहतरी हेतु बहाए गए स्वेद-बिंदुओं की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता. हम उन राजाओं के बारे में जानते हैं, जिनके शासनकाल में सोमनाथ और खुजराहो जैसे मंदिर बने. ताजमहल, लालकिला, कुतुबमीनार जैसी इमारतें बनाने वाले शासकों के नाम भी इतिहास में दर्ज हैं. यह सब कहीं न कहीं हमारी संस्कृति का हिस्सा भी हैं. लेकिन सोमनाथ और खुजराहो के मंदिरों के असल रचनाकार कौन थे? लालकिले के लिए पत्थर तराशने  वाले, ताजमहल में प्राण-प्रतिष्ठा करने वालां के नाम तक नहीं जानते. शताब्दियों की बौद्धिक गुलामी ने हमारी मानसिक सरंचना ऐसी कर दी है कि हमारा मस्तिष्क, अपने ही इतिहास को उन लोगों की निगाह से देखने लगा है, जो हमारी दासता का कारण रहे हैं. ऋग्वेद में दर्जनों मंत्रों में इंद्र द्वारा असुरों के पुरों का ध्वंस करने का उल्लेख है. उसे पुरंदर की उपाधि भी असुर-नगरों को नष्ट करने के कारण प्राप्त होती है. लेकिन उन दुर्गों का वास्तविक निर्माता, वहां के निवासियों के लिए हथियार और आवश्यक सुख-साधन जुटाने वाले शिल्पकार वर्ग के बारे में यह ग्रंथ मौन रह जाता है.

बहुजन संस्कृति इन्हीं प्रच्छन्न दस्तावेजों की खोज का एक सिलसिला है.

© ओमप्रकाश कश्यप

 

संस्कृति की लोकयात्रा : बरास्ता महिषासुर आंदोलन

विशेष रुप से प्रदर्शित

संस्कृति’ शब्द ‘कृति’ के आगे ‘सम्’ उपसर्ग लगाने से बना है. ‘संस्कृति’ का अभिप्राय है, जिसे बनाने और आगे बढ़ाने में समाज के सभी वर्गों का योगदान बराबर हो. जिसमें सभी की समान सहभागिता हो. उसके लिए आवश्यक है कि समाज में सभी बराबर हों तथा प्रत्येक को अपना पक्ष प्रस्तुत करने की पूर्ण स्वतंत्रता हो. व्यक्ति की चारित्रिक विविधताओं का सम्मान करते हुए संस्कृति सदस्य इकाइयों के मन, विचार, रीतिरिवाज के सामंजस्यीकरण का काम करती है, ताकि आगंतुक पीढ़ियां समाज के आदर्श, रीतिरिवाज तथा ज्ञानानुभवों का लाभ उठा सकें. समाजशास्त्र की दृष्टि से ‘अनेकता में एकता’ की व्याप्ति समाज की उदारता का परिचायक होती है. वह समाजीकरण के उच्चतम स्तर की संकेतक है. उदार संस्कृति नैतिकता से सदैव सामंजस्य बनाए रखती है. दोनों के लक्ष्य में बहुत अधिक अंतर नहीं होता. नैतिकता जिन कसौटियों का निर्माण करती है, संस्कृति विभिन्न प्रतीकों, परंपराओं एवं संस्कारों के माध्यम से समाज में उन्हें लोगों के आचरण का हिस्सा बनाने के लिए प्रयत्नरत रहती है. समानता और स्वतंत्रता ऐसी ही कसौटियां हैं, जो न केवल समाजीकरण का आधार, अपितु उसकी सभ्यता का मापदंड भी हैं. मनुष्य उनसे प्यार करता है, यथासंभव उन्हें सुरक्षित रखना चाहता है. उन पर कोई आंच न आए, उसके लिए वह अपनी स्वतंत्रता के थोड़ेसे हिस्से का बलिदान कर समाज के अनुशासन में बंधने को स्वीकार होता है. इस उम्मीद के साथ कि समाज उसके साथ समानतापूर्ण व्यवहार करेगा. जिस सुख को वह अकेले प्राप्त करने में असमर्थ है, समाज में रहते हुए वह सुख आसानी से और लगातार प्राप्त होता रहेगा. समाज तथा उसे नियंत्रित करने वाले विधान, चाहे वह नैतिक हो या कानूनी—की चुनौती होती है कि वह मनुष्य की इन अपेक्षाओं पर खरा उतरकर उसके मानवीकरण के लिए उत्प्रेरक का काम करे.

अनेकता में एकता’ का दावा करने वाली भारतीय संस्कृति को इस कसौटी पर परखें तो बहुत उम्मीद नहीं बंधती. ऊपर से एक नजर आने या एक बताई जानी वाली इस संस्कृति के कई चेहरे, अनेक रंग तथा अनगिनत रूपविधान हैं. उनके बीच प्रतिद्विंद्वता बनी ही रहती है. कुछ ऐसे बिंदू भी हैं, जहां उसके दो मुख्य रूपाकारों को साथसाथ रखना, उनके अंतर्विरोधों पर पर्दा डालना न केवल कठिन, बल्कि असंभवसा हो जाता है. उस समय लगने लगता है कि सांस्कृतिक एकता का भारतीय रूपक मात्र एक छद्म, एक दिखावा है. सामाजिक असमानता, ऊंचनीच एवं भेदभाव को मान्यता देते हुए भारतीय संस्कृति समाज के मुट्ठीभर लोगों के हाथों में इतने अधिकार सौंप देती है, जिनसे वे बाकी जनसमूहों पर अपनी मर्जी लाद सकें. वे सदैव इस प्रयास में रहते हैं कि दमित वर्गों की सांस्कृतिक एकता का जो सूत्र उन वर्गों को सुदूर अतीत में जाकर जोड़ता तथा उनके बीच आत्मगौरव का संचार करता है, वह पूर्णतः छिन्नभिन्न हो जाए तथा अलगअलग टुकड़ों में बंटे या बांट दिए गए सामान्यजन, वर्चस्वकारी संस्कृति की अधीनता को चिरकाल तक स्वीकारने को विवश बने रहें. ‘अनेकता में एकता’ का नारा उनकी इसी प्रवृत्ति का परिचायक है. जाति और धर्म भारतीय संस्कृति के ऐसे ही औजार हैं. उनके दबाव में बहुसंख्यक लोग शोषण और असमानता को अपनी नियति मानने लगते हैं. ऐसे में ‘अनेकता में एकता की खोज’ का नारा उदात्त कल्पना से अधिक महत्त्व नहीं रखता. प्राकृतिक न्याय की भावना के विपरीत भारतीय संस्कृति कुछ लोगों को जन्म से विशेषाधिकार घोषित कर बाकी को उनका सेवादार बनाने का समर्थन करती है. मनुष्य की रुचि, स्वभाव, व्यक्तिगत योग्यता उसके लिए कोई महत्त्व नहीं रखती. अभिजन हितों के संरक्षण की सतत चाहत के दौरान स्वतंत्रता एवं समानता जैसे समाजीकरण के मूलभूत सिद्धांत बहुत पीछे छूट जाते हैं. चूंकि ब्राह्मण को धर्म और संस्कृति में शीर्ष स्थान पर रखा गया है, और नीतियां उसी की इच्छा और स्वार्थ के स्तर से तय होती हैं, इस कारण सांस्कृतिक वर्चस्ववाद को उसके आलोचकों द्वारा ‘ब्राह्मणवाद’ की संज्ञा दी गई है, जो उचित ही है.

सवाल है कि सबकुछ जानतेबूझते हुए भी बहुसंख्यक वर्ग सांस्कृतिकसामाजिक अधीनता को स्वीकार क्यों करता है? क्यों वह वर्ग स्वयं को उस समाज का हिस्सा माने रहता है जो स्वतंत्रता एवं समानता जैसी समाजीकरण की मूलभूत शर्तों पर ही खरा नहीं उतरता. सुदूर अतीत में क्यों उसने मुट्ठीभर वर्चस्वकारियों को बौद्धिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर श्रेष्ठ मानकर अपने जीवन, यहां तक कि खानपान और रहनसहन जैसे रोजमर्रा के कार्यकलापों को भी उनके हवाले कर दिया था? क्या वह वर्ग बौद्धिक स्तर पर सचमुच इतना पिछड़ा हुआ था कि रोजमर्रा के सामान्य प्रश्नों का समाधान भी अपने बूते न खोज सके? असलियत ठीक इसके उलट है. दमित वर्गों में कमी न तो योग्यता की थी, न ही कार्यकौशल की. ये गुण तो उनमें भरपूर थे. समाज की समृद्धि तथा शिखर का वैभवविलास इन्हीं वर्गों के हुनरमंदों और मेहनतकशों के श्रमकौशल की देन था. कमी अपने बुद्धिचातुर्य और सृजनसामर्थ्य का उपयोग अपने और अपने जैसे दूसरे लोगों के लिए करने के बजाय, अपना निर्णयसामर्थ्य दूसरों के हक में बलिदान कर देने की थी. मेहनत को अपना धर्म और विपन्नता को नियति मान लेना उन्हें इतना महंगा पड़ा कि गुलामी का दौर पीढ़ीदरपीढ़ी चलता रहा.

यह सब उन्होंने अपनी मर्जी से नहीं किया था. बल्कि सब कुछ ब्राह्मणवादियों की सोचीसमझी कार्ययोजना का हिस्सा था. जब तक अर्थव्यवस्था पशुबल तथा जंगलों पर निर्भर थी, तब तक ब्राह्मणवाद को पनपने का अवसर नहीं मिल पाया था. अस्थिर जीवन में न तो स्थायी देवताओं के लिए गुंजाइश थी, न ही ईश्वर की. पशु, पक्षी, पेड़, पौधे आदि में से जिससे भी सामूहिक मन मिल जाए, उसी को कबीला अपना ‘टोटम’ मान लेता था. सो जब तक यायावरी जीवन रहा, तब तक ‘टोटमवाद’ भी समाज में जगह बनाए रहा. कालांतर में समाज ने जैसे ही कृषिआधारित अर्थव्यवस्था की ओर कदम रखा, कार्यविभाजन के नाम पर ब्राह्मण को समस्त संसाधनों का स्वामी तथा क्षत्रिय को उनका संरक्षक घोषित कर दिया गया. कहा यह गया कि कार्यविभाजन पूरी तरह से योग्यता पर आधारित होगा. कुछ समय के लिए विभिन्न वर्गों के बीच आवागमन चला. ब्राह्मण की संतान ने क्षत्रिय और वैश्य का धंधा अपनाया तो उसका उल्टा भी देखने को मिला. मगर कोई भी आसानी से प्राप्त सुविधाओं को छोड़ने को तैयार न था. धीरेधीरे वर्णाश्रम व्यवस्था रूढ़ होकर जाति में ढलने लगी. इसी के साथ समाज के कुल संसाधनों पर मुट्ठीभर लोगों का अधिपत्य होने लगा. आजीविका के लिए दूसरे वर्गों पर निर्भरता ही बहुसंख्यक वर्ग की लंबी दासता तथा उत्पीड़न का कारण बनी. वर्चस्व को स्थायी बनाने के लिए अभिजात शीर्षस्थों ने हर वह काम किया, जिसे वे कर सकते थे. उत्पादकता पर समाज के बाकी वर्गों का दावा न रहे, इसके लिए नियति को बीच में लाया गया. इस कार्य में धर्म उनका मददगार बना. उसकी सहायता से लोगों के दिमाग में यह भर दिया गया कि उनकी दुर्दशा उनके पूर्वजन्म के कर्मों की देन है. यदि वे समाज द्वारा तय मर्यादा का पालन नहीं करते हैं तो कर्मफल के रूप में त्रासदी का सिलसिला आगे भी चलता रहेगा.

आरंभ में सामाजिक विभाजन त्रिस्तरीय था. ब्राह्मण और क्षत्रिय के अलावा बाकी सब शूद्र थे. ढाई हजार वर्ष पहले बौद्ध धर्म के उद्भव के पश्चात, समाज में नए शिल्पकार वर्ग का उदय हुआ जो व्यापार के माध्यम से धनार्जन में निपुण था. धीरेधीरे अनुकूल अवसर मिलते ही वह वर्ग इतना सशक्त हो गया कि ऊपर के दोनों वर्गों द्वारा उनकी उपेक्षा करना संभव न रहा. तब त्रिस्तरीय वर्णाश्रम व्यवस्था के स्थान पर चातुर्वर्ण्य समाज को मान्यता देनी पड़ी. लोग असलियत को समझे बिना केवल परंपरापोषी तथा अनुगामी बने रहें, इसके लिए मनु के विधान में शिक्षा एवं संसाधनों पर कुछ वर्गों का विशेषाधिकार घोषित किया गया. ब्राह्मण व्यवस्था के शिखर पर था और समाजहित में सोचने तथा नियम बनाने का अधिकार केवल उसके पास था. उचित यही था कि वह समाज के विश्वास और सौंपे गए कर्तव्यों पर खरा उतरता. लेकिन संस्कृति के हर प्रतीक, रूपक, घटना और चरित्र की व्याख्या उसने केवल अपने स्वार्थ को केंद्र में रखकर की. बाकी दो वर्गों की मदद से उसने खुद को इतना शक्तिशाली बना लिया कि चौथा वर्ग जो संख्या में बाकी तीन वर्गों की कुल संख्या का कई गुना था, वह शक्ति एवं संसाधनों के मामले में निरंतर कमजोर पड़ता गया. धीरेधीरे लोग हालात से समझौता करने लगे. आज स्थिति यह है कि भारतीय संस्कृति में शोषित एवं शोषक दोनों के चेहरे एकदम साफ नजर आते हैं. पाखंडी पंडितों द्वारा दिया गया परलोक का प्रलोभन यथास्थितिवादियों के लिए इतना फला है कि लोग कल के मिथ्या सुख के बदले अपने आज का सुखचैन और कमाई खुशीखुशी अर्पण कर देते हैं.

अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए ब्राह्मणवाद धर्म और संस्कृति को औजार बनाता है. उनके माध्यम से वह लोगों के दिलोदिमाग पर कब्जा जमाता है, फिर निरंतर उनका भावनात्मक और शारीरिक शोषण करता है. फासीवाद लोगों के दिलोदिमाग में भय का संचार करता है. इतना भयभीत कर देता है कि जनसाधारण अपने विवेक से काम लेना छोड़, केवल आदेश को ही कर्तव्य समझने लगता है. ताकत का भय दिखाकर वह लोगों को उसकी मनमानियां सहने के लिए मजबूर कर देता है. फासीवाद की उम्र अपेक्षाकृत कम होती है. वह व्यक्ति के दिलोदिमाग पर कब्जा तो करता है, लेकिन ऐसा कोई माध्यम उसके पास नहीं होता, जो देर तक प्रभावशाली हो. सत्ता बदलते ही उसका स्वरूप बदल जाता है. नहीं तो जनता स्वयं खड़ी होकर राजनीति के उस खरपतवार को समाप्त कर देती है. संस्कृति व्यक्ति को समाज का प्रदाय होती है और राजनीति उसका अपना वरण. सामाजिक इकाई के रूप में मनुष्य शेष सामाजिक इकाइयों के सहयोगसमर्थन से अपने लिए राजनीतिक दर्शन का चयन कर सकता है, अथवा वर्तमान स्वरूप में आवश्यक बदलाव प्रस्तावित कर सकता है, जिन्हें वह अपने लिए तात्कालिक रूप से आवश्यक मानता है. संस्कृति में त्वरित परिवर्तन संभव नहीं होते.

निर्ब्राह्मणीकरण : क्यों और कैसे

संस्कृति के निर्ब्राह्मणीकरण जरूरत पर चर्चा करने से पहले आवश्यक है कि ब्राह्मणीकरण की प्रक्रिया को समझ लिया जाए. इसे तुलसी से बेहतर शायद हमें कोई नहीं समझा सकता. उनकी प्रमुख कृति ‘रामचरितमानस’ को साहित्य के रूप में पढ़नेपढ़ाने की परिपाटी रही है. विद्यालयों, महाविद्यालयों से लेकर शोध के उच्चतम स्तर तक उसे साहित्य के गौरव से नवाजा जाता है. लोकजीवन में भी ‘मानस’ की चौपाइयां रूढ़ि, परंपरा और भाग्यवाद से डरेसहमे लोगों के मार्गदर्शन के काम आती हैं. सवाल है कि क्या यह पुस्तक साहित्यकर्म को साधती हैं? क्या इसे ऐसी ही मंशा के साथ रचा गया था? क्या यह मनुष्य के मौलिक सोच को विस्तार देने, उसे प्रश्नाकुल बनाने का काम करती है? यदि धार्मिक आग्रहों से परे हटकर सोचा जाए तो क्या इस पुस्तक को साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है? हमारा आक्षेप तुलसी के काव्यसामर्थ्य पर नहीं है. उनमें भरपूर कवित्व रहा होगा. लेकिन वे कविधर्म को भी समझते थे, यह बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती. यहां हम केवल उनकी काव्यरचना के मर्म तथा उद्देश्य पर विचार करने जा रहे हैं.

संस्कृत में साहित्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है—‘सहितस्य भावः साहित्यम्.’ अर्थात जो सभी को साथ लेकर चले, जिसमें सभी के हितसाधन का भाव हो—वही ‘साहित्य’ है. साहित्य का विचारक्षेत्र न केवल संपूर्ण प्राणिजगत, अपितु जड़, चेतन और वह सबकुछ है, जिससे प्राणिमात्र का हित प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी रूप में जुड़ा है. लेकिन तुलसी जब कहते हैं—‘पूजिये विप्र ज्ञानगुन हीना. पूजिये न शूद्र ज्ञान परवीना.’(ज्ञानगुण विहीन ब्राह्मण भी पूजनीय है. ज्ञान और गुण की खान होने के बावजूद शूद्र की पूजा नहीं की जानी चाहिए); अथवा जब वह लिखते हैं—‘शापत ताड़त परुष कहंता. विप्र पूजि अस गावहिं संता.’(संतजन कहते हैं कि शाप देने वाला, प्रताड़ित करने वाला, अपशब्द कहने वाला ब्राह्मण भी पूजा के योग्य है)—उस समय वे स्वयं को लोककवि के बजाय ‘द्विजजनों का चारण’ सिद्ध कर रहे होते हैं. संवेदना साहित्य की पूंजी होती है. सर्वहित की भावना उसे निष्पक्ष बने रहने को प्रेरित करती है. तुलसी का यह लिखना—‘अधम जाति में विद्या पाए. भयहु यथा अहि दूध पिलाए.’(अधम जाति में जन्मे व्यक्ति को शिक्षा देना विषधर को दूध पिलाने जैसा अपकर्म है)—भी घोर आपत्तिजनक है. साहित्यकार का कर्तव्य ऐतिहासिक तथ्यों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर देना नहीं है. वस्तुनिष्ठ विवेचन इतिहासकार के लिए जरूरी हो सकता है. साहित्यकार का काम प्रत्येक घटना और चरित्र पर मानवतावादी दृष्टि से विचार करना तथा उन्हें इस तरह प्रस्तुत करना है, ताकि वे मनुष्यता का अधिकतम हित साध सकें. ‘रसेन सहितं साहित्यम्’—यानी साहित्य वह है जिसमें रागात्मकता और सर्वहित का भाव हो.’ साहित्यत्व की कसौटी पर न केवल ‘रामचरितमानस’ बल्कि तुलसी का बाकी साहित्य भी कहीं नहीं टिकता. शंबूक की हत्या का प्रसंग हो या स्त्री और शूद्रों को लेकर तुलसी की दृष्टि, इन सबसे वे ब्राह्मणवाद के सबसे मुखर कवि नजर आते हैं. ऐसी विभेदकारी व्यवस्थाओं के बावजूद ‘रामचरितमानस’ को पंचम वेद के रूप में समाज में प्रचलित करना ही साहित्य और संस्कृति दोनों का ब्राह्मणीकरण है.

जो काम तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ में किया, वही सूर तथा कृष्ण भक्ति परंपरा के अन्य कवियों ने कृष्ण को ब्राह्मणवादी परंपरा में ढालकर किया. ऋग्वेद के आठवें मंडल में इंद्रकृष्णासुर संग्राम का वर्णन है. ऋग्वैदिक कृष्ण यदु कबीले का मुखिया है. वह द्रुतगामी(तीव्रता से प्रयाण करने वाला), दस सहस्र सेनाओं का नायक, चतुर योद्धा, कुशल रणनीतिकार भी है जो अंशुमति (यमुना) नदी के तट पर दीप्तिमान होकर निर्भीक विचरण करता है(ऋग्वेद-8/96/13-15). ऋग्वेद में देवताओं के लिए ‘देव’ तथा ‘असुर’ दोनों प्रकार के संबोधन मिलते हैं. वहां असुर का अर्थ देवता और अनिष्ठ दूर करने वाला भी है. कुछ स्थानों पर ‘वरुण’ को भी ‘असुर’ कहा गया है. मित्र अर्थात सूर्य के लिए ‘सुर’ और ‘असुर’ दोनों प्रकार के संबोधन ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं. इससे अनुमान लगाया जाता है कि आरंभिक ऋग्वैदिक काल में देवताओं के लिए ‘सुर’ संबोधन उतना रूढ़ नहीं हुआ था, जितना आगे चलकर देखने को मिला. ‘कृष्ण’ के प्रति ‘कृष्णासुर’ संबोधन को भी इसी रूप में लेना चाहिए. ऋग्वैदिक कृष्ण आर्यअनार्य संघर्ष में भील तथा दूसरी जनजातियों के साथ मिलकर इंद्र को टक्कर देता है. ऋग्वेद में ही दस गणराज्यों तथा सुदास के बीच घमासान युद्ध का भी उल्लेख है. उसमें सुदास देवताओं की मदद से विजयी होता है. सुदास आर्य सम्राट था. जबकि प्रतिपक्ष में आर्यअनार्य दोनों सम्मिलित थे. इससे संकेत मिलता है कि वर्चस्व की लड़ाई आर्य राजाओं के बीच भी थी. कृष्णासुरइंद्र संग्राम में भी आर्यों की विजय होती है. ये तथ्य ऋग्वैदिक कृष्ण को अनार्य नायक सिद्ध करते हैं.

कृष्ण का दैवीकरण उसके लगभग एक सहस्राब्दी बाद ही संभव हो सका. आर्यों से युद्ध में पराजित यदु, पुरू, यक्ष, अज आदि प्राचीन कबीले उत्तरपश्चिम की ओर प्रयाण कर जाते हैं. 1000-1500 ईसा पूर्व में गंगायमुना के दोआब में पुनः विकसित संस्कृति उभरती है. यदु कबीले के वंशजों ने मथुरा और उसके आसपास बड़े राज्यों की स्थापना की थी. उन्हें अब भी अपने महानायक कृष्ण में आस्था थी. ईसा पूर्व चौथी शताब्दी से ही भारत पर विदेशी आक्रमण होने लगे थे. तब ब्राह्मणवादी सत्ताओं को बड़े राज्य बनाने की सुध आई. यह कार्य यदुओं को, जो उस समय तक संगठित ताकत का रूप ले चुके थे, साथ लिए बिना संभव न था. सांस्कृतिक दूरियों को मिटाने के लिए यदुओं के आर्यकरण की शुरुआत हुई. उस समय तक वैदिक देवता इंद्र अपनी व्यभिचारी प्रवृत्ति के कारण काफी बदनाम हो चुका था, और उसके साथ यदुओं की अनेक कड़वी स्मृतियां जुड़ी थीं, इसलिए वह सम्मिलन इंद्र के प्रधान देवता पद पर रहते हुए असंभव था. अतः पुराने देवताओं विशेषकर इंद्र का मोह छोड़ते हुए आर्यों ने त्रिवेद(चौथे वर्ग की भांति चौथा वेद भी बहुत बाद में, ईस्वी संवत आरंभ होने के आसपास रचा गया) और त्रिवर्ण की युति के आधार पर त्रिदेवों ब्रह्मा, विष्णु और शिव जैसे नए देवताओं की कल्पना की. इस कल्पना में भी अनार्य जातियों को ब्राह्मणीकरण की परिसीमा में लाने के बंदोबस्त थे. देवत्रयी में ‘शिव’ शस्त्र संधान में पारंगत किरात, भील, यक्ष, शंबर आदि अनार्य जातियों के सर्वमान्य मुखिया और अजेय महानायक का प्रतिनिधित्व करते थे. उन्हें त्रिदेवों में ‘संहार का देवता’ घोषित किया गया है. ‘संहार का देवता’ ही क्यों? दरअसल देवत्रयी में शिव भारत की जिन आदिम जातियों का प्रतिनिधित्व करते थे, वे युद्धकला में निपुण थीं. शिव को नाराज करना संगठितशक्तिशालीयुद्धकला में पारंगत आदिमजातियों की शत्रुता मोल लेना था, जो विदेशी आक्रामकों का भय झेल रही सत्ताओं के लिए आसान नहीं था. यह तत्कालीन ब्राह्मणों के हृदय में आदिम जातियों के प्रति बैठे भय को भी दर्शाता है.

देवत्रयी में दूसरा स्थान विष्णु को मिला. उन्हें सृष्टि का पालक देवता कहा गया. इस कार्य के लिए वे अवतार भी लेते हैं. अवतारवाद किसी सम्राट द्वारा सीधे अथवा दैवी व्यक्तित्व के नेतृत्व में बड़े राज्य की स्थापना तथा उसमें नई(धार्मिक) व्यवस्था लागू करने का प्रतीक है. ‘कृष्ण’ को देवत्व से नवाजने के लिए उन्हें विष्णु का अवतार घोषित किया गया. ब्रह्मा को सृष्टि का रचियता कहा गया. वह ब्राह्मण का प्रतीक था. चूंकि ब्राह्मण उत्पादकता से जुड़ा कोई कार्य नहीं करते इसलिए त्रिदेवों में सृष्टि रचना के बाद ब्रह्मा की भूमिका भी निष्क्रय रह जाती है. कृष्ण का आर्यकरण उनके चरित्र में आमूल परिवर्तन का वाहक बना. ‘महाभारत’ में कृष्ण का जो रूप मिलता है, वह लगभग एक ईस्वी पूर्व की ब्राह्मणवादी कल्पना है. चाणक्य बड़े राज्यों का समर्थक था. ‘अर्थशास्त्र’ में उसने गणराज्यों की आलोचना की. लिखा है कि गणराज्यों में युवा जुए के व्यसनी हो जाते हैं. कृष्ण की प्राचीन स्मृतियां गणराज्यों के मुखियापद से जोड़ती हैं. जबकि महाभारत में उसे चाणक्य की भांति ‘वृहद राष्ट्र्र’ का प्रबल समर्थक दर्शाया गया है. नए अवतार में कृष्ण से वह सब कराया जाता है, जिसके विरोध में उसने इंद्र से संघर्ष किया था. ‘महाभारत’ के युद्ध में भील योद्धा एकलव्य तथा असुर महायोद्धा बर्बरीक दोनों ही कौरवों के पक्ष में युद्ध करने को उद्धत थे. अवतरित कृष्ण एकलव्य की छलपूर्वक हत्या करता है, साथ ही अनार्य महायोद्धा बर्बरीक को भी आत्महत्या के लिए उकसाता है. कृष्ण का यह रूपांतरण यदुओं तथा अनार्य जातियों के बीच द्वेषभाव बढ़ाने के लिए आवश्यक था. आशय है कि यदुओं को कृष्ण के ब्राह्मणीकरण की कीमत चुकाने के लिए उन्हीं देवताओं की शरणागत होना पड़ा था, जिनके सेनापति इंद्र ने उनके पूर्वज कृष्णासुर की हत्या की थी; और जिसके कारण उन्हें अपने मूल स्थान को छोड़ उत्तरपश्चिम में प्रवजन करना पड़ा था.

कृष्ण का उदाहरण हमने ऊपर दिया. देखा कि ब्राह्मणीकरण की प्रक्रिया केवल घटनाओं के वर्गीय प्रस्तुतीकरण तक सीमित नहीं रहती. उसमें चरित्रों के साथ भी जमकर घालमेल किया जाता है. हर अच्छी बात का उत्स देवताओं को बताने की धुन में सत्य के साथ मनमाना व्यवहार किया जाता है. प्रायः दावा किया जाता है कि देवता सात्विक होते हैं. कि मनसावाचाकर्मणा सात्विकता के विभिन्न रूप देवताओं की प्रेरणा से ही बने हैं. कि शुभत्व का एकमात्र स्रोत देवगण हैं. सात्विकता देवताओं में है, इसी कारण वह संसार में भी है. ये बातें ऋग्वेद में वर्णित देवताओं के चरित्र तथा उत्तरवर्ती गं्रथों में देवसभा एवं अमरपुरी के वैभवपूर्ण उल्लेखों से मेल नहीं खाती. बावजूद इसके उदार एवं करुणामय मनुष्य को ‘देवता’ संबोधित करने की प्रथा प्राचीनकाल से चलती आई है. जबकि परंपरा में जो धत्तकर्म दैत्य के बताए जाते हैं, असलियत में वही कार्य ब्राह्मणवादियों के देवता भी करते हैं. उनके देवता कदमकदम पर छल करते हैं, दूसरों की स्त्रियों को बलत्कृत करते हैं. भेंटपूजा पाकर प्रसन्न होते हैं. यदि मनमाफिक चढ़ावा न मिले तो कुपित हो जाते हैं. तुलना करें तो उनके देवता और नकचढ़े सामंत में कोई अंतर ही नहीं है. क्या यह महज संयोग है कि बृहश्पति जो देवताओं के गुरु हैं, वही लोकायत दर्शन के प्रणेता भी हैं? देवसभाओं में अप्सराओं का नृत्यगायन, देवताओं की मौजमस्ती तथा सोमपान, चार्वाकों की ‘खाओपीओ मौज करो’ की विचारधारा को ही प्रतिबिंबित करता है. यानी ‘देवगुरु’ का दर्शन देवताओं की दिनचर्या से ही प्रेरित है. यह भी हो सकता है कि स्वयं देवता अपने गुरु के दर्शन के अनुगामी बने हों.

दूसरी ओर असुर गुरु शुक्राचार्य हैं, जिन्हें इतिहास, दंडनीति, नीतिशास्त्र का आदि व्याख्याकार बताया गया है. देवविधान में दंड की मात्रा पूर्णतः दंडाधिकारी की मनमानी पर निर्भर करती है. जबकि दंडविधान में अपराध की समीक्षा की संभावना भी निहित रहती है. जाहिर है सभ्यता के इन क्षेत्रों में भी असुर आर्यजनों से काफी आगे थे. लंका पहुंचे हनुमान को वहां एक भी दास दिखाई नहीं पड़ता. जबकि अयोध्या, मिथिला आदि में दासदासियों की भरमार है. अनार्यों की समृद्ध सभ्यता के बारे में ऋग्वेद में पर्याप्त वर्णन हैं. वे अपनी बढ़ीचढ़ी सभ्यता के साथ दुर्गों में रहते थे. उनके दुर्ग लोहे(2/58/8) के, पत्थर(4/30/20) के, लंबेचौड़े गौओं से भरे हुए(8/6/23) थे. सौ खंबों वाले(शतभुजी 1/16/8, (7/15/14) दुर्ग का उल्लेख भी ऋग्वेद में है. ‘महाभारत’ की ख्याति प्राचीन भारतीय राजनीतिक दर्शन पर गंभीर विमर्श के कारण भी है. हस्तिनापुर का राज्य संभालने से पहले युधिष्ठिर भीष्म के पास राजनीति का ज्ञान लेने जाता है. शुक्राचार्य के ज्ञान की महिमा इससे भी जानी जा सकती है कि युधिष्ठिर को राजनीति का पाठ पढ़ाने वाले भीष्म शुक्राचार्य के ही शिष्य हैं. उनके शिष्यों में दूसरा नाम पृथु का भी आता है, जिसे प्रथम निर्वाचित सम्राट वेन का पुत्र तथा पृथ्वी का प्रथम मनोनीत सम्राट कहा गया है. दूसरे किस्सेकहानियों की भांति शुक्राचार्य से जुड़ी कहानियां भी मिथ हो सकती हैं. कदाचित उनमें से अनेक हैं भी. फिर भी उनकी अपनी महत्ता है. क्योंकि भारत जैसे समाजों में जहां तर्कबोध, विज्ञानबोध की कमी हो, जनजीवन मिथों से ही प्रेरणा लेता है. बहरहाल आचार्य बृहश्पति तथा शुक्र के क्रमशः चार्वाक पंथ और दंडनीति का व्याख्याकार होने से क्या यह नहीं लगता कि ब्राह्मणवादी लेखकों ने अपने ग्रंथों में सुरों और असुरों की चारित्रिक विशेषताओं को पूरी तरह उल्टापल्टा है. कई बार तो ठीक 180 डिग्री का मोड़ देकर पेश किया है.

ऐसी उपलब्धियों के बावजूद असुरों को कामी, लोभी, लालची, व्यसनी और झगड़ालू दर्शाने वाले विवरण धर्मग्रंथों में भरे पड़े हैं. दुर्व्यसन के लिए ‘आसुरी वृत्ति’ लोकप्रचलित मुहावरा है. ‘सात्विक’ देवता चाहे जो दुराचरण करें, उनका देवत्व नष्ट नहीं होता. प्रायः उसे ‘लोककल्याण के निमित्त’, ‘धर्मसंस्थापनार्थायः’ मान लिया जाता है. असुर सम्राट जलंधर की भार्या वृंदा के साथ दुराचरण करने के बावजूद विष्णु का देवत्रयी में सम्मानजनक स्थान बना रहता है. ना ही ऋषिपत्नी अहिल्या के साथ बलात्कार करने पर इंद्र का देवत्व संकट में पड़ता है. उल्टे अहिल्या को ही शिलाखंड जैसा जीवन जीना पड़ता है. भाषा का खेल भी खूब खेला जाता है. देवता नशा करें तो ‘सोमपान’ और असुर करें तो मदिरापान. सोमपान से देवताओं की सात्विकता पर संकट नहीं आता, परंतु मदिरापान से असुर बदचलन और तिरस्कारयोग्य मान लिए जाते हैं. कारण समझने के लिए ज्यादा माथापच्ची की आवश्यकता नहीं है. समस्त धर्मग्रंथ ब्राह्मणों द्वारा रचे गए हैं. उनके अपने हित विभेदकारी व्यवस्था से जुड़े थे. इसलिए उनके द्वारा गढ़ी गई संस्कृति में समानता एवं सर्वसम्मति के अवसर बहुत कम हैं. जिधर देखो उधर उसका सर्वसत्तावादी रूप नजर आता है. यह सर्वसत्तावाद कदाचित अनार्य संस्कृति के अग्रपुरुषों को भी ललचाने लगा था. इसलिए जब आर्यों का आक्रमण हुआ तो अनेक अनार्य योद्धा भी उनके साथ मिल गए. सुदास और दस राजाओं का युद्ध आर्यों के बीच वर्चस्व की लड़ाई थी. उसमें सुदास का नेतृत्व वशिष्ट तथा दसराज्ञों का नेतृत्व विश्वामित्र द्वारा किया गया था. मगर दस राजाओं में अज, शिब्रु, शिम्यु, यदु, यक्षु आदि अनार्य कबीले भी सम्मिलित थे. इस तरह भारत को आर्यवर्त्त बनाने में अनार्य योद्धाओं का भी भरपूर योगदान था. हिरण्यकश्यपु पुत्र प्रहलाद भी इन्हीं में आता है. उसने विष्णु को अपना ईष्ट मानकर अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह में ब्राह्मणवादियों का साथ दिया था. विभीषण, हनुमान, जटायु जैसे पात्र महाकाव्यीन लेखकों की कल्पना की उपज रहे होंगे. संभव है उनसे मिलतेजुलते पात्र समाज में सचमुच रहे हों, जिन्होंने आर्यसंस्कृति से प्रभावित होकर उनके साथ मिलना स्वीकार किया हो. आर्यों की श्रेष्ठता को दर्शाने के लिए ऐसे मिथकीय पात्रों की कल्पना आवश्यक थी. जिसमें उन्हें भरपूर सफलता भी मिली थी. ब्राह्मणीकरण की यह प्रक्रिया बहुत धीमे, युगों तक चली थी. इसके लिए आर्यों को अनगिनत युद्ध लड़ने पड़े और समझौते भी करने पड़े.

स्वाभाविकसा प्रश्न है कि असुर सभ्यता यदि इतनी ही विकसित थी, तो उसका पतन कैसे हुआ? इसका एक कारण यह जान पड़ता है कि आर्यों के आगमन के पूर्व विभिन्न कबीलों के बीच गणतांत्रिक व्यवस्था थी. भूक्षेत्र समृद्ध था. इसलिए सभी अपनेअपने प्रांत में सुखपूर्वक रहते थे. खेती में वे पारंगत थे. हड़प्पा सभ्यता में मिले भंडारगृहों से संभावना जगती है कि किलों का उपयोग सामरिक उद्देश्यों के बजाय, बचे हुए अनाज के भंडारण हेतु किया जाता था. खुद को सुरक्षित मान वे प्रायः निश्चिंत रहा करते थे. इसलिए जब आर्यों की ओर से आक्रमण हुआ तो वे एकाएक स्वयं को संभाल न सके. कालांतर में आर्यों के संपर्क में आकर उनमें भी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाएं पनपने लगी थीं. इसलिए आक्रामकों का एकजुट सामना करने के बजाए वे बंटकर अपने ही लोगों के विरुद्ध मोर्चा संभालने लगे. दुष्परिणाम यह हुआ कि उन्हें समृद्ध सिंधु प्रदेश छोड़, उत्तरपश्चिम और दक्षिण की ओर पलायन करना पड़ा. परास्त होकर या आर्यों के आक्रमण के भय से अनेक अनार्य जातियों ने समझौता कर लिया. धीरेधीरे वे ब्राह्मणीकरण के दायरे में सिमटने लगे. बावजूद इसके इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ जब सभी ने ब्राह्मणीकरण के आगे हथियार डाल दिए हों. न ही कभी ऐसा हुआ जब किसी युद्ध में सारे आर्य या अनार्य किसी एक पक्ष में रहे हों. रावण, महिषासुर, हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यपु, बालि, बलि जैसे कुछ स्वाभिमानी अनार्य सम्राटों की लंबी कतार है, जो अपने मानसम्मान की खातिर आर्यों से आजीवन संघर्ष करते रहे. यदि उस संघर्ष का निष्पक्ष भाव से दस्तावेजीकरण किया गया होता तो भारतीय संस्कृति का स्वरूप कदाचित उतना विभेदकारी नहीं होता, जितना कि आज है.

अनार्य संस्कृति के पराभव का मूल कारण उसके राजाओं की सैन्य दुर्बलता न होकर, अपनी संस्कृति और इतिहास के दस्तावेजीकरण की ओर से उदासीन हो जाना था. जबकि आर्यगण जिन दिनों तक लेखनकला का विकास नहीं हुआ था, उन दिनों भी स्मृतिभरोसे इस कर्तव्य को निभाते रहे. लेखनकला का विस्तार होने के पश्चात उन्होंने प्रत्येक ऐतिहासिक प्रसंग का वर्णन अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर किया. यहां तक कि असुरों की उपलब्धियों और खोजों को भी अपने नाम करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी. उन्होंने संस्कृति को मूल माना और पीढ़ीदरपीढ़ी अनेकानेक प्रतिभाशाली लेखक अपने नाम से स्वतंत्र ग्रंथ रचने का मोह छोड़, बिना किसी यशलाभ की अपेक्षा के, पहले से उपलब्ध धर्मशास्त्रों में ही जोड़घटाव करते रहे. अनेक लोगों द्वारा, अलगअलग समय में लिखे जाने के कारण धर्मशास्त्रों में भारी दोहराव है. अंतर्विरोध और असंगतियां भी हैं. परंतु वे इन्हें कमजोरी नहीं मानते. तर्कशीलता के अभाव को ढांपने के लिए उन्होंने आस्था और विश्वास पर जोर दिया. धर्मशास्त्रों पर किसी भी प्रकार के अविश्वास को पाप मानते हुए वे शब्द के स्वयंप्रमाण होने की घोषणा करते रहे. इससे नए ज्ञान के अवसर कम हुए. मनुष्य की स्वाभाविक प्रश्नाकुलता पर भी विराम लगा. लेकिन ब्राह्मणवाद या जिस सर्वसत्तावादी ध्येय के निमित्त उन शास्त्रों की रचना हुई थी, उसमें उन्हें भरपूर कामयाबी मिली.

ब्राह्मणवाद : वर्चस्व की सनातनी परंपरा

संस्कृति मनुष्य की सामाजिक संरचना का आधार होती है. समाज में मनुष्य की पहचान संस्कृति के अलावा शिक्षा, उत्पादन के साधनों आदि से भी होती है. बावजूद इसके समाज का बड़ा हिस्सा अपनी सांस्कृतिक पहचान को ही वास्तविक पहचान माने रहता है. इसलिए वह सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए एकाएक तैयार नहीं होता. यहां तक कि सांस्कृतिक अंतर्विरोधों, असमानताओं के आगे, उन्हें स्वाभाविक मान समर्पण किए रहता है. परिवर्तन संस्कृति में भी होते हैं. लेकिन वे कभी भी उस सीमा तक नहीं जा पाते कि समाज का तानाबाना ही छिन्नभिन्न हो जाए. चूंकि सांस्कृतिक प्रतीकों यहां तक कि विरोधाभासों, अंतर्विरोधों के प्रति भी मनुष्य का समर्पण स्वैच्छिक होता है, इसलिए सांस्कृतिक दासता राजनीतिक दासता की अपेक्षा कहीं अधिक टिकाऊ एवं प्रभावशाली होती है. लंबे समय तक केवल संस्कृतियां राज करती हैं. अतः दीर्घ काल तक राज करने की इच्छा रखनेवाला राजनीतिक हमलावर सबसे पहले विजित संस्कृति की उन विशेषताओं पर हमला बोलता है, जो उसे स्वतंत्र संस्कृति की मान्यता दे सकती हैं. यह कार्य आरंभ में बल प्रयोग द्वारा, बाद में सहमति तथा तरहतरह की कूटनीतिक चालों द्वारा किया जाता है. संस्कृति और मनुष्य का संबंध इतना गहरा होता है कि मनुष्य संस्कृति के अंतर्विरोधों को भी अपने व्यक्तित्व का हिस्सा मानकर आत्मसात कर लेता है. भारतीय संस्कृति का ब्राह्मणवाद के ढांचे में ढल जाना इसी प्रवृत्ति को दर्शाता है.

हिंदुत्व ब्राह्मणवाद का रुपहला पर्याय है. शानदार खिड़की जिसके पीछे वह अपने कुटिल चेहरे को छिपाए रखता है. इस हिंदुत्व को न्यायालय ने जीवनपद्धति भी माना है. दोष न्यायालय का नहीं है. लोकतंत्र में लोगों की इच्छा का महत्त्व होता है. यदि समाज का बहुसंख्यक वर्ग ब्राह्मणवाद की विभेदकारी व्यवस्थाओं के प्रति आंख मूंदकर, चाहेअनचाहे उसके रंग में रंगा हुआ है, तो न्यायालय इसमें क्या कर सकता है! उसका काम तो सिरों की गिनती करने से चल जाता है. अदालत के लिए वही सत्य होता है, जिसके पक्ष पर्याप्त साक्ष्य हों. गवाह बेमन से गवाही दे, या जानबूझकर गलतबयानी करे, चाहे सवाल को ढंग से समझे बिना सिर्फ हांहू करता जाए तो न्यायालय क्या करे! आदमी आलू भी खरीदने जाता है तो मंडी में चार जगह देखता है. मोलभाव और जांचपरख करता है. चाहे एक वक्त की खरीदारी हो या एक सप्ताह की—एकएक आलू को छांटकर खरीदता है. लेकिन धर्म जो उसके अपने और आने वाली पीढ़ियों के जीवन को प्रभावित करता है, उसके बारे में कभी कोई सवालजवाब नहीं करता. सवाल करना भी पाप समझता है. बात आ पड़े तो बिना सवालजवाब किए ही मरनेमारने पर उतारू हो जाता है, क्यों? कदमकदम पर एकदूसरे की आलोचना करने वाले, सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करने वाले धर्मों में एक मुद्दे पर कमाल की सहमति होती है. मुद्दा है जन्म के साथ ही मनुष्य का धर्म तय कर दिया जाना. हर धर्म अपने समर्थकों के सिर गिनता है. सिर में मस्तिष्क भी हो, और मस्तिष्क अपना काम भी करे, इस ओर वह कभी ध्यान नहीं देता. जानता है कि इस ओर ध्यान देना शुरू किया तो चार दिन में सारी दुकानदारी बैठ जाएगी. इसलिए पुरानी शराब की भांति हर धर्म नशे के सामर्थ्य और उसके बहाने अपने कारोबार को बढ़ाता चला जाता है.

बहरहाल, बात हिंदुत्व और उसे जीवनपद्धति बताए जाने की हो रही थी. हिंदुत्व यदि जीवनपद्धति है तो मनुष्य को जो आजादी अपनी जीवनपद्धति को चुनने की होनी चाहिए, वैसी आजादी क्या यह धर्म देता है? कथित सनातनी हो या गैरसनातनी, हिंदू परिवारों की सामान्य जीवनचर्या मिलीजुली होती है. हर परिवार में कोई आला या कोना ‘मंदिर’ के नाम पर आरक्षित होता है. प्रत्येक घर में मूर्तियों को नहलाया जाता है. सुबहशाम की आरती, पूजाबंदन बिना नागा चलता है. जब तक पत्थर की मूर्ति से छुआ न लें, घर के सदस्य विशेषकर स्त्रियां अन्नजल तक ग्रहण नहीं करतीं. मंदिर में कागज, पत्थर, कांच, मिट्टी, लकड़ी या प्लास्टिक के आड़ेतिरछे, भांतिभांति के देवता आसन जमाए रखते हैं. हर घर में साल में एकदो बार ‘सत्यनारायण कथा’ कही जाती है. पंडित सारे कर्मकांड रचता है. परंतु कभी नहीं बताता कि बाबा ‘सत्यनारायण’ कौन हैं? उनका खानदान क्या है? किस हिंदू धर्मशास्त्र में उनका उल्लेख है? फिर भी डरीसहमी कुलललनाएं इस कथा के श्रवण से खुद को धन्य मानती रहती हैं. अब यह मत कहिए कि संकट के समय जरूरतमंद की मदद करना, सादा जीवन जीना, जीवमात्र पर दया करना, चोरीचकारी से परहेज रखना, सत्य वाचन, मातापिता का सम्मान करना और बुराइयों से दूर रहना हिंदुत्व हमें सिखाता है. ये सब बातें तो नैतिकता के हिस्से आती हैं. वही समाजीकरण का मुख्य आधार भी हैं. समाज के बीच जगह बनाने के लिए प्रत्येक धर्म चाहे वह मूर्तिपूजकों का हो या मूर्तिभंजकों का, इन सदाचारों को अपनाता है. इन्हें अपनाए बिना उसकी गति नहीं है. इसलिए अभिव्यक्ति का तरीका चाहे जो हो, हर धर्म में यही सदाचार सिखाए जाते हैं. इसे धर्म की धूर्त्तता कहें या बेईमानी, वह नैतिकता से उधार लिए इन सदाचारों को अपना बनाकर पेश करता है. इस तरह पेश करता है मानो धर्म है तो सदाचार हैं. असल में होता इसका उलटा है. मनुष्य धर्म को इसीलिए अपनाता है ताकि उसकी आने वाली पीड़ियां धर्म के साथ जुड़े शील और सदाचारों को अपनाएं. परंतु वह भूल जाता है कि शील और सदाचरण धर्म के बाहरी आवरण हैं. महज दिखावा, लोगों को प्रलोभन देने वाले. धर्म कोई भी हो. उसका मूल स्वरूप सामंतवादी होता है. समाजीकरण की अनिवार्यता धर्म नहीं, शील और सदाचरण हैं. यदि कहीं समाज है तो वहां धर्म भले ही न हो, समाजीकरण की प्रमुख शर्त के रूप में शील और सदाचरण रहेंगे ही. बिना धर्म के समाज गढ़ा जा सकता है, लेकिन बिना शील और सदाचार के उसका एक क्षण भी अस्तित्व में रहना मुश्किल है. आम हिंदू के लिए ‘हिंदुत्व’ नामक कथित ‘जीवनपद्धति’ का आशय मूर्तियों पर जल चढ़ाने, किसी न किसी देवता पर भरोसा करने, गाय को रोटी देने, व्रतउपवास रखने, पर्वत्योहार पर विधिसम्मत पूजनअर्चन करने जैसे कर्मकांडों तक सीमित है. ये सब ऐसे आयोजन हैं जिनमें ब्राह्मणों की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका बनी रहती है. दूसरे शब्दों में जिसे हिंदुत्व कहा जाता है, वह ब्राह्मणवाद का ही लौकिक विस्तार है. इसलिए हिंदुत्व का बने रहना, प्रकारांतर में ब्राह्मणवादी व्यवस्था का अस्तित्व में रहना है.

ब्राह्मणवाद’ को जीवित रखने के लिए उन्होंने अनेक षड्यंत्र रचे हैं. उनमें जनता द्वारा प्रथम निर्वाचित सम्राट वेन तथा महिषासुर की छलहत्या, एकलव्य का अंगूठा काट लेना, शंबूक की हत्या के बहाने उसके उत्तराधिकारियों को ज्ञान से वंचित कर देना जैसे उनके अनगिनत धत्तकर्म सम्मिलित हैं. चूंकि आरक्षण ने दलित एवं समाजार्थिक आधार पर पिछड़े वर्गों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर दिया है, इसलिए वे उनके सबसे बड़े आलोचक हैं. जातिवाद को पीढ़ीदरपीढ़ी पोषते, उसके आधार पर अपने विशेषाधिकार गिनाते आए लोग आज उन वर्गों पर जातिवादी होने का आरोप लगा रहे हैं, जो शताब्दियों से जातीय उत्पीड़न का शिकार होकर इससे मुक्ति की कामना करते आए हैं. हिंदुत्व का उनका एजेंडा केवल धर्म तक सीमित नहीं है. इसे केवल धर्म से जोड़कर रखना परिवर्तनकामी शक्तियों की भारी भूल रही है. उनका असली एजेंडा संसाधनों पर मुट्ठीभर लोगों की इजारेदारी को मजबूत करना तथा उसे किसी भी चुनौती से बचाए रखना है. इसके लिए तरहतरह के टोटम, जादूटोने, पूजापाखंड समाज में लागू किए जाते हैं. जाति के आधार पर तीनचौथाई जनसंख्या को शूद्र या दलित बताकर जमीन तथा उत्पादन के अन्य संसाधनों से वंचित कर देने का अर्थ है—पंद्रहबीस प्रतिशत लोगों द्वारा समाज के कुल संसाधनों पर कब्जा. धर्म आधारित वर्चस्वकारी संस्कृति तथा जातिभेद के प्रति निरक्षर जनता का निःशर्त समर्पण उन्हें दीर्घजीवी बनाता है.

वर्चस्वकारी संस्कृति का जिक्र हुआ तो बता दें कि वह समाज को दो तरह से अपनी जकड़ में लेती है. पहले बलप्रयोग द्वारा, जिसमें शक्ति का उपयोग कर समाज के अधिकतम संसाधनों पर अधिकार कर लिया जाता है. दूसरे अपनी बौद्धिक प्रखरता के बल पर. उसके द्वारा पोषित बुद्धिजीवी प्रत्येक परिस्थिति को अपने स्वार्थ के अनुकूल ढालने में प्रवीण होते हैं. अपने बुद्धिचातुर्य के बल पर वे शेष जनसमाज को विश्वास दिला देते हैं कि केवल वही उनके सबसे बड़े शुभेच्छु हैं और जो व्यवस्था उन्होंने चुनी है वह दुनिया की श्रेष्ठतम सामाजिकराजनीतिक व्यवस्था है. ऐसा नहीं है कि जनसाधारण में बुद्धिविवेक की कमी होती है. ग्राम्शी की माने तो प्रत्येक व्यक्ति दार्शनिक होता है. लेकिन प्रत्येक व्यक्ति परिस्थितियों को अपने पक्ष में परिभाषित करने में दक्ष नहीं होता. इस कारण वर्चस्वकारी संस्कृति के समर्थक बुद्धिजीवियों पर विश्वास करना, जनसाधारण की मजबूरी बन जाता है. कभी हताशा तो कभी अज्ञान के चलते वह अपने शोषकों को ही अपना सर्वाधिक हितैषी और मुक्तिदाता मानने लगता है. ऐसे में परिवर्तन उसी दिशा में होता है, जिसका वास्तविक लाभ पूंजीपति और दूसरे एकाधिकारवादी संस्थान उठा सकें. स्थितियों में आमूल परिवर्तन तभी संभव है, जब गैर अभिजन समाज के अपने बुद्धिजीवी हों, जो उसकी समस्याओं और हितों की उसके पक्ष में सहीसही पड़ताल कर, प्रतिबद्धता के साथ उसका मार्गदर्शन कर सकें.

वर्चस्ववादी ब्राह्मण संस्कृति के पुनरीक्षण की शुरुआत हालांकि मध्यकाल में कबीर, रैदास, नानक जैसे संतकवियों द्वारा हो चुकी थी. लेकिन उनकी चिंता के केंद्र में केवल धार्मिक आडंबरवाद, छुआछूत तथा अन्यान्य सामाजिक रूढ़ियां थीं. आर्थिक असमानता जो बाकी सभी बुराइयों की जड़ है, को वे कदाचित मनुष्य की नियति मान बैठे थे. कबीर जैसे विद्रोही कवि ने भी संतोष को परमधन कहकर रूखीसूखी खाने, दूसरे की चुपड़ी रोटी देखकर जी न ललचाने की सलाह दी थी. वह गरीबी का महिमामंडन, दैन्य को आभूषण मान लेने जैसी चूक थी. रैदास ने जरूर ‘बेगमपुर’ के बहाने समानता पर आधारित समाज की परिकल्पना की थी. वह क्रांतिकारी सपना था, अपने समय से बहुत आगे का सपना, मगर उसके लिए उनका समाज ही तैयार नहीं था. जिन लोगों के लिए वह सपना देखा था वह इतना हताश हो चुका था कि शीर्षस्थ वर्गों की कृपा में ही अपनी मुक्ति समझता था. उस समय तक पश्चिम में भी यही हालात थे. वहां रैदास से दो शताब्दी बाद थामस मूर ने ‘बेगमपुर’ से मेल खाती ‘यूटोपियाई’ परिकल्पना की थी, जिसपर उसे स्वयं ही विश्वास नहीं था. इसलिए अपनी कृति ‘यूटोपिया’ में उसने समानताआधारित समाज की परिकल्पना पर ही कटाक्ष किया था. आगे चलकर, यूरोपीय पुनर्जागरण के दौर में यही शब्द आमूल परिवर्तन का सपना देख रहे लेखकों, बुद्धिजीवियों, आंदोलनकारियों और जनसाधारण का लक्ष्य और प्रेरणास्रोत बन गया. जबकि सामाजिक अशिक्षा और आत्मविश्वास की कमी के कारण रैदास के ‘बेगमपुर’ की परिकल्पना सूनी आंखों के सपने से आगे न बढ़ सकी थी. कुछ दिनों बाद उन लोगों ने ही उसे भुला दिया, जिन्हें उसकी सर्वाधिक आवश्यकता थी.

शताब्दियों बाद उस परिकल्पना को आगे बढ़ाने का काम फुले और डॉ. अंबेडकर ने किया. ग्राम्शी ने बुद्धिजीवी की जो परिभाषा उद्धृत की है, उस पर ये दोनों महामानव एकदम खरे उतरते हैं. उनकी प्रेरणा तथा लोकतांत्रिक अवसरों का लाभ उठाते हुए दलित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग उभरा, जिसने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध आवाज बुलंद की. इसी के साथसाथ पिछड़े वर्गों में भी राजनीतिक चेतना का संचार हुए. आबादी के हिसाब से पिछड़े पचास प्रतिशत से अधिक थे. कदाचित उनके नेताओं को लगता था कि उन्हें किसी बौद्धिक नेतृत्व की आवश्यकता नहीं है. उनमें कुछ उन दबंग जातियों में से भी थे, जो सामंती दौर में विप्र जातियों के ‘लठैत’ का काम करते आए थे. अपने ‘लट्ठपन’ पर उन्हें खूब भरोसा था. कदाचित यह गुमान भी था कि ‘बेलेट’ ने बात बिगाड़ी तो ‘लाठी’ से संभाल लेंगे. 1937 के चुनावों में कांग्रेस से मात त्रिवेणी संघ के पिछड़ी जाति के नेताओं ने यही तो कहा था—‘वोट से हार गए तो क्या हुआ. हमारी लाठी तो हमारे हाथ में है.’ इन्हीं कमजोरियों के कारण दलित और पिछड़े नेताबुद्धिजीवी वास्तविक सहयोगियों की पहचान करने में चूकते रहे. इसी का लाभ उठाकर वर्चस्वकारी संस्कृति के पैरोकार, दलितों और पिछड़ों को उनकी जाति की याद दिलाकर अलगअलग समूहों में बांटते रहे. पर्याप्त संख्याबल का अभाव दलितों के स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति बनने की बाधा था. नतीजा यह हुआ कि वर्चस्वकारी संस्कृति के विरुद्ध शोषितउत्पीड़ित वर्गों का कोई सशक्त मोर्चा न बन सका.

आज स्थिति बदली हुई है. शिक्षा और लोकतांत्रिक अवसरों का लाभ उठाकर दलितों और पिछड़ों में नया बुद्धिजीवी वर्ग उभरा है, जो न केवल अपने शोषकों की सहीसही पहचान कर रहा है, बल्कि अपने बुद्धिविवेक के बल पर उन्हें उन्हीं के मैदान में चुनौती देने में सक्षम है. वह जानता है कि जाति, धर्म, संस्कृति, राष्ट्रवाद आदि वर्चस्वकारी संस्कृति के वे हथियार हैं जिनका उपयोग अभिजन संस्कृति के पैरोकार अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए करते आए हैं. वह यह भी समझ चुका है कि कोरा राजनीतिक परिवर्तन केवल सत्तापरिवर्तन को संभव बना सकता है. आमूल परिवर्तन के लिए संस्कृति के क्षेत्र में भी बदलाव आवश्यक है. जानता है कि दलित और पिछड़ों के सपने, दोनों की समस्याएं यहां तक कि चुनौतियां भी एक जैसी हैं. उनके समाधान के लिए संगठित विरोध अपरिहार्य है. इस बात को शिखरस्थ वर्ग भी भलीभांति जानता है कि दलित और पिछड़े वर्गों की सामाजिकसांस्कृतिक और राजनीतिक एकता उसे सत्ता से हमेशाहमेशा के लिए बेदखल कर सकती है. उच्चशिक्षण संस्थानों से निकले ओबीसी, आदिवासी एवं दलित युवाओं का यही युगबोध वर्चस्वकारी संस्कृति के पैरोकारों को चिंता में डाले हुए है.

निर्ब्राह्मणीकरण : समानता आधारित समाज का सपना—बरास्ता महिषासुर आंदोलन

समानता और स्वतंत्रता के लिए वर्चस्वकारी संस्कृति से मुक्ति आवश्यक है. भारतीय समाज सामाजिकसांस्कृतिक स्तर पर बंटा हुआ है. अद्विज आज भी असमानता का दंश झेल रहे हैं. कारण किसी से छिपे नहीं है. ब्राह्मणवादी व्यवस्था मनुष्य को जन्म के साथ ही जाति और धर्म के खानों में बांट देती है. स्वतंत्र भारत में संवैधानिक प्रावधानों द्वारा इस अंतर को मेटने की कोशिश तो हुई, मगर सामाजिकसांस्कृतिक जकड़बंदी इतनी मजबूत है कि आजादी के 69 वर्ष बाद भी लोग उससे उबर नहीं पाए हैं. लोकतांत्रिक परिवेश ने उत्पीड़न का शिकार रहे लोगों को इतना अवसर जरूर दिया है कि वे इतिहास को अपने ढंग से समझने के साथसाथ उन कारणों की भी समीक्षा कर सकें, जो उनके दमन और दासता के मूल में हैं. इस छटपटाहट से भारतीय संस्कृति के मुख्य प्रतीकों, घटनाओं, चरित्रों यहां तक कि मिथकों के विवेचन की शुरुआत हुई. धीरेधीरे ही सही मगर संस्कृति के विखंडनात्मक विवेचन की प्रक्रिया आगे बढ़ी है. उसके सूत्रधार दमितशोषित वर्गों में जन्मे वे बुद्धिजीवी हैं, जिन्हें जाति या किसी और कारण से बौद्धिक विमर्श से बाहर रखा गया था. अवसर मिलते ही वे न केवल सवाल उठाने लगे थे. बल्कि उसके जवाब भी अपने बौद्धिक सामर्थ्य के आधार पर स्वयं खोजने को उद्धत थे. उन लोगों के लिए जो अभी तक समाज के बड़े हिस्से को अपनी कूटनीतिक चालों के आधार पर नचाते आए थे, यह बहुत बड़ी चुनौती थी. ‘महिषासुर दिवस’ का आयोजन उसी क्रम में हालिया आंदोलन की एक कड़ी है. वह हमारे समय की महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक परिघटना है. शताब्दियों से जो वर्ग दूसरों की निगाह से खुद को देखता आया थाकृ‘महिषासुर दिवस’ के बहाने वह खुद को अपनी दृष्टि से देखनेसमझने की कोशिश में लगा है. यह देर से हुई अच्छी और क्रांतिकारी शुरुआत है.

जो लोग ‘महिषासुर मर्दिनी’ कहकर देवी का गुणगान करते आए थे, बदले परिवेश में वे महिषासुर को मिथ बताने लगे हैं. जल्दबाजी में वे भूल जाते हैं कि महिषासुर को यदि मिथ मान लिया गया तो देवी दुर्गा भी मिथ ही सिद्ध होगी. साथसाथ उन देवीदेवताओं को भी मिथ मानना पड़ेगा, जिनके कंधों पर कथित देवसंस्कृति की इमारत खड़ी है. ऐसे में यदि कोई राम और दुर्गा के बहाने अपनी संस्कृति थोप सकता है, उनके माध्यम से वर्चस्वकारी सत्ता के शिखर पर टिका रह सकता है, तो उसकी मुक्ति के प्रतीक के रूप में शंबूक और महिषासुर को भी नायक बनाया जाता है. इतिहास की कमजोरी है कि वह बहुत भरोसे की चीज नहीं होता. वह हमेशा विजेता संस्कृति की इच्छाओं और कामनाओं के अनुसार ढाला जाता है. विवेकवान समाज ऐसे इतिहास की परवाह नहीं करता. जानता है कि सुविधानुसार नायक चुनने की जो आजादी अन्य वर्गों को है, उतनी आजादी उसे भी है. ऐतिहासिक भूलों से सीख लेते हुए वह अपने नायक स्वयं चुनता है. ‘महिषासुर’ ऐतिहासिक चरित्र है—इसके समर्थन में उतने ही तर्क जुटाए जा सकते हैं, जितने उनके पास ‘राम’ या ‘रावण’ को इतिहासपुरुष सिद्ध करने के हैं. पूरा मामला तार्किकता से जुड़ा है. इसमें प्रायः वे असफल होते हैं. उस समय वे आस्था का मामला बताकर लोगों के विवेक और इतिहासबोध को ही प्रभावित करने लगते हैं.

धर्मग्रंथों के जरिये एक बात जो प्रामाणिक रूप से सामने आती है, वह है संस्कृतियों का द्वंद्व. जिसमें महिषासुर की उपस्थिति जनसंस्कृति के प्रभावशाली मुखिया के रूप में है. वह श्रमसंस्कृति में भरोसा रखने वाली, पशुचारण अर्थव्यवस्था से नागर सभ्यता की ओर बढ़ती, तेजी से विकासमान भारत की प्राचीनतम सभ्यता का महानायक था. वह उस संस्कृति का प्रतिकार करता था जो अनेकानेक असमानताओं, आडंबरों और भेदभाव से भरी थी. दूसरों के श्रम पर अधिकार जताने वाली बेईमान संस्कृति. उसके सर्वेसर्वा रहे देवता सागरमंथन में बरा बरी का हिस्सा देने के वायदे के साथ असुरों से सहयोग मांगते हैं. कार्य पूरा होने पर बेईमानी करते हुए ‘अमृत’ तथा बहुमूल्य रत्न खुद हड़प लेते हैं. इस आंदोलन का वे लोग विरोध कर रहे हैं जिनके मन में 1000—1500 वर्ष पुराना भारत बसता है, जब ऊंची जातियां अपने से निचली जातियों के साथ मनमाना व्यवहार करने को स्वतंत्र थीं. संस्कृति की पुनरीक्षा तथा उसके आधार पर न्याय की मांग को कुछ लोग देशद्रोह भी कह रहे हैं. उनके सोच पर तरस आता है. वे या तो देश और देशद्रोह की परिभाषा से अनभिज्ञ हैं, अथवा लोगों को अपने शब्दजाल में उलझाए रखना चाहते हैं. जैसा वे हजारों वर्षों से करते आए हैं.

देश कोई भूखंड नहीं होता. वह अपने नागरिकों के सपनों और स्वातंत्रयचेतना में बसता है. लाखोंकरोड़ों लोग जहां एकजुट हो जाएं, वहीं अपना देश बना लेते हैं. जिन लोगों में स्वातंत्रय चेतना नहीं होती, उनका कोई देश भी नहीं होता. ऐसे लोग देश में रहकर भी उपनिवेश की जिंदगी जीते हैं. भारत अर्से से ब्राह्मणवाद का उपनिवेश रहा है. आगे भी रहे, यह न तो आवश्यक है, न ही स्वीकार्य. यहां वही संस्कृति चलेगी जो इस देश के सवा सौ करोड़ लोगों की साझा संस्कृति होगी. जो सामाजिकसांस्कृतिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता तथा संसाधनों में सभी की निष्पक्ष और समान सहभागिता सुनिश्चित करती हो. वैसे भी मनुष्य की स्वतंत्रता किसी व्यक्ति, समाज या संस्कृति का देय नहीं होती. यह मनुष्य होने की पहली और अनिवार्य शर्त है. यह प्रकृति का ऐसा अनमोल उपहार है जो मनुष्य को उसके जन्म से ही, वह चाहे जिस जाति, धर्म, वर्ग, देश या समाज में जन्मा हो—जीवन की पहली सांस के साथ स्वतः प्राप्त हो जाता है. जिस देश की संस्कृति अपने तीनचौथाई नागरिकों को समाजार्थिक एवं बौद्धिक रूप से गुलाम बनाती हो, वह ‘राष्ट्र’ तो क्या भूखंड कहलाने लायक भी नहीं होता. इसे देशद्रोह कहने वाले असल में वे लोग हैं जिनका देश कुर्सियों में बसा होता है. जो जनता से प्राप्त शक्तियों का उपयोग उसे छलने और मूर्ख बनाने के लिए करते हैं. इसके लिए वे कभी राष्ट्रवाद, कभी धर्म तो कभी जाति को माध्यम बनाते हैं. यह सरकार और उसके आसपास घूमने वाले मुट्ठीभर समूहों को ही राष्ट्र घोषित करने की साजिश है, जिसके सर्वोत्तम रूप को भी टॉमस पेन ने आवश्यक बुराई माना है.

महिषासुर आंदोलन’ का विरोध कर रहे लोग या तो इस देश के प्राचीन इतिहास से अनभिज्ञ हैं, अथवा जानबूझकर अनभिज्ञ बने रहना चाहते हैं. उनके मानस में पुष्यमित्र शुंग के बाद का भारत बसता है. भौतिक और अधिभौतिक दोनों ही दृष्टियों से वह देश के पराभव का दौर था. विदेशी व्यापार सिमटने लगा था. उपनिषदों की जगह पुराण लिखे जा रहे थे. वैदिक धर्म छोटेछोटे संपद्रायों में सिमट चुका था. महाकाव्यों को उनका वर्तमान स्वरूप उन्हीं दिनों प्राप्त हुआ, जिसने चातुर्वर्ण्य समाज की अवधारणा को मजबूती से स्थापित किया था. वे प्राचीन भारत की संपन्नता का बखान करते हुए नहीं थकते. बारबार याद दिलाते हैं कि भारत कभी ‘सोने की चिड़िया’ कहलाता था. इतिहास बताता है कि भारत का सबसे समृद्धिशाली दौर ईसा के चारपांच सौ वर्ष पहले से लेकर इतनी ही अवधि बाद तक का रहा है. उस दौर के बड़े सम्राट या तो बौद्ध थे, अथवा जैन. दूसरे शब्दों में ब्राह्मणवाद के सबसे बुरे दिन देश की अर्थव्यवस्था के लिए सबसे अच्छे दिन थे. डॉ. रमेश मजूमदार के अनुसार उस दौर में आजीवक, जैन एवं बौद्ध दर्शनों के प्रभामंडल में जातीय स्तरीकरण घटा था. सामाजिक भेदभाव तथा यज्ञबलियों में कमी आई थी. उसके फलस्वरूप परस्पर सहयोगाधारित व्यापारिक संगठन तेजी से पनपे. बौद्ध दर्शन ने भारतीय मेधा को विश्वस्तर पर स्थापित किया था. हर कोई भारतीय व्यापारियों के साथ व्यापार करने को उद्यत था. फलस्वरूप व्यापार बढ़ा तथा देश आर्थिक समृद्धि के शिखर की ओर बढ़ता चला गया.

ब्राह्मणवाद तभी तक जीवित है, जब तक लोग धर्म, जाति, और आडंबरों के मोहजाल में फंसे हैं. इसलिए वह किसी भी प्रकार के प्रबोधन से घबराता है. ‘महिषासुर शहादत दिवस’ का आयोजन भारतीय संस्कृति के इतिहास में न तो कोई नया पन्ना जोड़ता है, न ही कुछ गायब करता है. असल में वह ब्राह्मणवाद द्वारा थोपी गई स्थापनाओं से बाहर आने की छटपटाहट है. यह मनुष्य के विवेकीकरण को समर्पित, धर्म और संस्कृति की सनातनी व्याख्याओं के विरुद्ध विखंडनवादी चेतना है. जो अप्रासंगिक हो चुके विचार, धारणा, प्रतीक आदि को किनारे कर आगे निकल जाना चाहती है. इसमें पर्याप्त ऊर्जा और वैचारिक तेज है. जिसका डर सत्ताधारी अभिजन चेहरों पर पढ़ा जा सकता है. वे जानते हैं कि बहुजन दृष्टि से मिथकों की पुनर्व्याख्या का सिलसिला एक बार आरंभ हुआ तो आगे रुकेगा नहीं. ऐसा नहीं है कि ब्राह्मणवाद को इतिहास में इससे पहले कोई चुनौती नहीं मिली थी. उसे कई बार चुनौतियों से गुजरना पड़ा है. लेकिन तब से आज तक धरती न जाने कितनी परिक्रमाएं कर चुकी है. ज्ञान पर तो किसी का कब्जा न तब संभव था, न आज. लेकिन तब ब्राह्मणेत्तर वर्गों की प्रतिभाओं को उपेक्षित किया जाता था. आज यह संभव नहीं है. लोकतांत्रिक परिवेश में उनके विरोध को दबाया जाना आसान नहीं है. आज पूरा विश्व एक परिवार सदृश है. उपेक्षित प्रतिभाएं देशविदेश में कहीं भी यशसम्मान अर्जित कर सकती हैं. ऊपर से राष्ट्रीयअंतरराष्ट्रीय स्तर के मानवाधिकारवादी संगठन. ब्राह्मणवादी संगठनों को यही डर खाए जा रहा है. वे भलीभांति समझते हैं कि बहुत जल्दी दूसरे व्यक्तित्व, घटनाएं और मिथ भी पुनर्व्याख्या के दायरे में आएंगे. इससे ब्राह्मणीय सर्वोच्चता का वह मिथ भी भरभरा कर गिर पड़ेगा, जिसे बनाने में उन्हें सहस्राब्दियां लगी हैं.

महिषासुर दिवस का आयोजन मात्र पांच वर्ष पुरानी घटना है. मगर सांस्कृतिक वर्चस्व से मुक्ति के लिए उत्पीड़ित वर्ग के संघर्ष का सिलसिला नया नहीं है. एकदम हाल की बात करें तो साठ के दशक में बिहार से आरंभ हुए ‘अर्जक संघ’ को ले सकते हैं. जिसने मेहनतकश लोगों ने जीवन में किसी भी धर्म की भूमिका को मानने से इन्कार कर दिया था. मध्यकालीन भारत में रैदास, कबीर, नानक का नाम हमने ऊपर उद्धृत किया है. हालिया इतिहास में डॉ. अंबेडकर तथा फुले दंपति का नाम हमने ऊपर लिया. फुले ने ब्राह्मणवाद का विरोध करते हुए जनसंस्कृति के उभार पर जोर दिया था. यदि बौद्धकालीन भारत तक जाएं तो आजीवक संप्रदाय, जिसे आज बहुजन संस्कृति कहा जा रहा है, भी श्रमसंस्कृति के उन्नयन को समर्पित था. धर्मिक आडंबरवाद से मुक्ति और आर्थिक स्वावलंबन उसका केंद्र था. आजीवक श्रमजीवियों के अपने संगठन थे. उनके माध्यम से वे देशविदेश के व्यापारियों के साथ कारोबार करते थे. जातक कथाओं के हवाले से डॉ. रमेश मजूमदार ने बौद्धकालीन भारत में 31 प्रकार के सहयोगाधारित संगठनों का उल्लेख किया है. उनमें लुहार, बढ़ई, चर्मकार, पत्थरतराश, सुनार, तेली, बुनकर, रंगरेज, किसान, मत्स्य पालन करने वाले, आटा पीसने वाले, नाई, धोबी, माली, कुम्हार यहां तक कि चोरों के संगठन का भी जिक्र है. वे अपने आप में स्वायत्त थे. अपने फैसलों के लिए पूरी तरह स्वतंत्र. उनके अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार राज्य को भी नहीं था. सम्राट विशेष अवसरों पर उनसे परामर्श करना आवश्यक समझता था. खास बात यह है कि उन समूहों में श्रमकौशल और सहभागिता को महत्त्व दिया जाता था. केवल बुद्धि के नाम पर, जैसा ब्राह्मणवादी व्यवस्था में था, विशेषाधिकार का कोई प्रावधान उनमें नहीं था.

कूटवणिज जातक’ में बनारस के दो व्यापारियों की कहानी दी है. उनमें एक ‘बुद्धिमान’ था ‘दूसरा अतिबुद्धिमान’. एक बार दोनों ने मिलजुलकर व्यापार करने का निर्णय लिया. उन्होंने बराबरबराबर निवेश कर पांच सौ छकड़े माल खरीदा. दोनों व्यापार के लिए साथ निकले और सारा माल बेचकर वापस लौट आए. उसके बाद दोनों मुनाफे के बंटवारे के लिए जमा हुए. ‘बुद्धिमान’ व्यक्ति ने पहल करते हुए लाभ को दो समान हिस्सों में बांट दिया. यह देख ‘अतिबुद्धिमान’ बोला—

मैं तुमसे दुगुना हिस्सा लूंगा.’ उसकी बात सुनकर बुद्धिमान चौंका. उसने पूछा—

दो गुना क्यों?’

इसलिए कि मैं अतिबुद्धिमान हूं.’

हमने व्यापार में बराबर धन लगाया है. मेहनत भी बराबरबराबर की है.’ ‘बुद्धिमान’ बोला.

तो क्या! सभी जानते हैं कि मैं तुमसे कहीं ज्यादा बुद्धिमान हूं. इसलिए मुझे लाभ में दुगुना हिस्सा मिलना चाहिए.’ कहते हुए दोनों व्यापारी आपस में झगड़ने लगे. न्याय के लिए अंततः वे बुद्ध की शरण में पहुंचे. बुद्ध ने दोनों का पक्ष सुना और अंत में लाभ को बराबरबराबर बांटने की सलाह दी. बाइबिल में भी एक कहानी है, जिसमें एक किसान खेतों में काम करने आए मजदूरों को बराबर मजदूरी देने की बात करता है. कहानी आमदनी को समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने का समर्थन करती है. लाभ के दुगने हिस्से पर अधिकार जताने वाले ‘अतिबुद्धिमान’ को बुद्ध ने ‘बेईमान व्यापारी’ कहा है.

वर्चस्वकारी व्यवस्था ऐसी बेईमानी कदमकदम पर करती है. वह श्रम के सापेक्ष बुद्धि को वरीयता देती है. उस व्यवस्था में ब्राह्मण का शारीरिक श्रम से कोई संबंध नहीं होता. वह दूसरों के श्रम पर परजीवी की भांति जीवनयापन करता है. कमोबेश यही हालत बाकी दो वर्गों की भी है. वर्णव्यवस्था में निचले पायदान पर मौजूद शूद्र को अधिकाधिक श्रम करना पड़ता है. लेकिन बात जब लाभ के बंटवारे की आती है तो उसे मामूली मजदूरी देकर टरका दिया जाता है. आय का बड़ा हिस्सा शीर्षस्थ वर्ग हड़प लेते हैं. कहानी के माध्यम से बुद्ध ने इस व्यवस्था को नकारा है. इससे उस बौद्धकालीन समाज में अपने श्रमकौशल के आधार पर जीवन जीने वालों की महत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है. यह आदर्शोन्मुखी व्यवस्था थी, जिसे समय रहते रेखांकित करने की आवश्यकता थी. लेकिन इतिहास लेखन का काम ब्राह्मणों या ब्राह्मणवादी मानसिकता के लेखकों के अधीन रहने के कारण वह सदैव पूर्वाग्रहग्रस्त रहा है. उन्होंने इस देश की प्राचीनतम संस्कृति जिसे समानांतर संस्कृति, जनसंस्कृति या सर्बाल्टन संस्कृति कहा जाता है—के दस्तावेजीकरण के प्रति पूर्ण उपेक्षा बरती. उसके मानवतावादी मूल्यों को नकारा, जिसका खामियाजा विराट बहुजन समाज आज तक भुगत रहा है.

जबकि नैतिक मूल्यों को यदि निकाल दिया जाए तो धर्म में मिथकीय किस्सागोई और कोरे कर्मकांडों के अलावा कुछ नहीं बचता. चूंकि बाजारवादी अर्थतंत्र में नैतिक मूल्य धराशायी हो चुके हैं, और किस्सागोई का काम संचार माध्यम संभालने लगे हैं, ऐसे में धर्म के हिस्से कर्मकांडों के रहस्यमय पिटारे के अलावा कुछ नहीं बचता. स्वयंभू भगवानों के जरिये यदि कहीं कुछ धार्मिक मिथ बारबार कहेसुने जाते हैं तो उसके पीछे भी बाजार का ही योगदान है, जिसके चलते धर्म सस्ते मगर सबसे कमाऊ धंधे में बदल चुका है. ऐसे धर्म तथा धर्म को ही सबकुछ मानने वाली संस्कृति का प्रतिकार आवश्यक है. अतः लोगों को बारबार याद दिलाया जाना चाहिए कि जीवन और समाज धर्म से नहीं, मानवीय मूल्यों से चलते हैं, चलने चाहिए. समाज बदलते हैं, धर्म बदलता है मगर जीवन के शाश्वत मूल्य वही रहते हैं. इसलिए मिथकों की पुनर्व्याख्या की कसौटी समानता, स्वतंत्रता, सौहार्द्र, प्रेम, संवेदना, सामंजस्यभाव आदि को बनाया जाना चाहिए.

महिषासुर जैसे प्रतीकों की बहुजन व्याख्याएं हिंदुत्व की नींव पर प्रहार करती हैं. उस पतित संस्कृति का विरोध करती हैं जो बलात्कारी को ‘देवराज’ का दर्जा देती है. दलितबहुजन की नई बौद्धिक खेप का आदर्श राम नहीं है जो अपनी निर्दोष भार्या की शीलपरीक्षा लेता है, शंबूक को दंडित करता है. ‘महिषासुर शहादत दिवस’ जैसे आयोजन प्रकारांतर में एक सलाह भी है कि बहुजन, ब्राह्मणवादी नायकों को अपना नायक मान लेने की भूल न करें. यह चूक उन्होंने शताब्दियों पहले उनके पूर्वजों की ओर से हुई थी. जिसका दंड वे आज तक भुगत रहे हैं. इस काम में बड़ी सावधानी की जरूरत है. ‘महिषासुर’ एक सम्राट है. उस दौर का है जब यह दुनिया लोकतंत्र के बारे में जानती न थी. केवल तेजी से कुलीनतंत्र की ओर बढ़ता कबीलाई गणतंत्र था. आज जमाना लोकतंत्र का है. ‘महिषासुर’ जैसे प्रतीकों के माध्यम से वर्चस्वकारी संस्कृति पर हमला तो बोला जा सकता है. ऐसे हमलों से बचाव के लिए वह हमारी ढाल भी बन सकता है—लेकिन केवल उसके सहारे वर्चस्वकारी संस्कृति का रचनात्मक विकल्प दे पाना संभव नहीं है. अतएव आवश्यकता अनुकूल मिथकों के चयन के साथसाथ उन्हें लोकतांत्रिक परिवेश के अनुकूल ढालने की भी है. ताकि वे मिथक जो अभी तक वर्चस्वकारी संस्कृति के सुरक्षाकवच बने थे, प्रकारांतर में लोकतंत्र और सहजीवन का समर्थन करते नजर आएं.

संस्कृति की इमारत अनगिनत मिथों के सहारे खड़ी होती है. लेकिन मिथ की सीमा है कि वह अकेला किसी काम का नहीं होता है. वह समाज और सांस्कृतिक परंपरा के साथ जुड़कर कारगर होता है. किसी मिथ को कारगर और लोकप्रभावी बनाने के लिए अनगिनत मिथों की आवश्यकता पड़ती है. उनका समर्थन या विरोध करते हुए ही मिथ समाज में अपनी पहचान बनाए रखता है. मिथ प्रायः दीर्घजीवी होते हैं. मगर कोई भी मिथ जीवन में हर समय मार्गदर्शक नहीं रह सकता. अमावस्या की रात में दिये या एक स्फुर्लिंग की भांति वह केवल अवसरविशेष पर हमें राह दिखा सकता है. अनेक मिथों के साथ मिलकर वह मनुष्य की संपूर्ण सामाजिकसांस्कृतिक यात्रा का सहभागी बन जाता है. मिथों के उपयोग के लिए बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है. किसी मिथ का उपयोग करने के लिए उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की जानकारी होना आवश्यक है. इसके अभाव में वह दोधारी तलवार की तरह काम करने लगता है. सही समय पर सटीक उपयोग न हो तो उसके मायने एकदम बदल जाते हैं. पिछले कुछ महीनों में ‘महिषासुर’ की पुनर्व्याख्या ने दलित, पिछड़ों एवं आदिवासियों को एकदूसरे के निकट लाने का काम किया है. लेकिन सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से लड़ाई में कोई एक मिथ कारगर नहीं हो सकता. उसके लिए अनेक मिथ तथा विखंडनवादी दृष्टिकोण चाहिए. लेकिन नए मिथ गढ़ना आसान नहीं होता. हां, पहले से ही प्रचलित मिथों को युगानुकूल संदर्भों के साथ पुनपर्रिभाषित अवश्य किया जाता है. अतः जो मिथ की ताकत को जानते हैं, जिन्हें अपने विवेक पर भरोसा है, और जो सचमुच बहुजन संस्कृति के विस्तार का सपना देखते हैं, उन्हें चाहिए कि वे महिषासुर जैसे दूसरे मिथकों को भी विमर्श के दायरे में लाएं. मिथकों को युगानुकूल संदर्भों में नए सिरे से परिभाषित करना. यह जितना कठिन कार्य है, उतनी ही अधिक उसकी आज हमें आवश्यकता है. जाहिर है यह एक चुनौती है. जिससे निपटने के लिए बहुजन समाज को लक्ष्यसमर्पित बुद्धिजीवियों की पूरी खेप तैयार करनी होगी.

ब्राह्मणवाद को सामान्यतः धर्म और संस्कृति से जोड़ा जाता है. यह उसकी सीमित व्याख्या है. असल में वह ‘सर्वसत्तावादी’ और ‘सर्वाधिकारवादी’ किले का पर्याय है, जहां से समस्त संसाधनों और विचारकेंद्रों को नियंत्रित किया जाता है. क्षत्रिय इस किले की रक्षा करते रहे हैं तो वैश्य उसके खजाने को समृद्ध करने का काम करते आए हैं. बदले में ब्राह्मणवाद कुछ सुविधाएं, मानसम्मान और संसाधनों के उपयोग का अवसर देकर उन्हें कृतार्थ करता आया है. इसे ब्राह्मणवादी वर्चस्व ही कहा जाएगा कि मामूली सुविधा, संसाधनों में सीमित हिस्सेदारी के बावजूद वे वर्ग लंबे समय से स्वयं को उस व्यवस्था का हिस्सा मानते आए हैं, जो उन्हें दूसरे या तीसरे दर्जे का नागरिक सिद्ध करती है. परिवर्तनकामी शक्तियों के लिए जितना आवश्यक ब्राह्मणवाद की कमजोरियों को समझना है, उतना ही आवश्यक समानांतर संस्कृति खड़ी करना भी है. ब्राह्मणवादी तंत्र में आमनेसामने की चुनौती नहीं होती, उसका एक कोना अपने घरपरिवार में भी मौजूद होता है. व्यवस्था से अनुकूलित लोग परिवर्तन की हर संभावना को निष्फल करने की कोशिश करते हैं. कुछ समय पहले तक धर्म और जाति उसके सुरक्षा कवच थे. बदली परिस्थितियों में उसने राष्ट्रवाद को अपनी बाड़ बनाया हुआ है. ‘महिषासुर’ जैसे मिथों की नवव्याख्या ने ब्राह्मणवाद के मर्मस्थल पर चोट की है. यह ज्ञान और तर्क की लड़ाई है. इतिहास में शताब्दियों बाद ऐसा हुआ है जब दलित और पिछड़े वर्ग के बुद्धिजीवी ब्राह्मणवाद को उसी के क्षेत्र में चुनौती दे रहे हैं. लेकिन यह शुरुआतभर है. संघर्ष यात्रा बहुत लंबी चलने वाली है. इसमें जो धैर्यवान होगा, सजग होगा और विवेक से काम लेगा, प्रलोभन जिसे डिगाएंगे नहीं, वही और केवल वही लंबे समय तक टिका रहेगा. अंतिम जीत उसी के हाथ रहेगी. जनसंस्कृतिकरण की यात्रा दुर्गम भले हो, असंभव नहीं है.

© ओमप्रकाश कश्यप

महिषासुर मूवमेंट : ‘डिब्रह्मनाइजिंग अ कल्चर’

विशेष रुप से प्रदर्शित

परि​चर्चा

(कुछ महीने पहले एक पत्रिका की ओर से परि​चर्चा की गई थी. उसमें उठाए गए मुद्दों पर कुछ बातें)

 

  • फरवरी, 2016 में संसद के बजट सत्र में भारतीय जनता पार्टी की राजनेता व केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्‍मृति ईरानी ने महिषासुर शहादत दिवस पर सवाल उठाकर इसे देशद्रोह से जोड़ दिया था. क्‍या ऐसा किया जाना उचित है? आपकी क्‍या राय है?

‘महिषासुर दिवस’ हमारे समय की महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक परिघटना है. शताब्दियों से जो वर्ग दूसरों की निगाह से खुद को देखता आया था, अर्से तक जो आरोपित विचारधारा पर ही अपना ईमान कायम रखे था—‘महिषासुर दिवस’ के बहाने वह खुद को अपनी दृष्टि से देखने-समझने की कोशिश में लगा है. यह देर से हुई अच्छी शुरुआत है. महिषासुर की ऐतिहासिकता पर बहस करना बेकार है. मिथ को इतिहास-सिद्ध करने की दावेदारी कोई कर भी नहीं सकता. राम और रावण भी मिथकीय पात्र हैं. संभव है सभ्यता के किसी दौर में उनसे मिलते-जुलते व्यक्ति सचमुच इस धरती पर रहे हों, लेकिन वे वैसे ही रहे होंगे जैसे महाकाव्यों तथा अन्य ग्रंथों में दर्शाए गए हैं—यह सप्रमाण नहीं कहा जा सकता. मूल कृति ‘पुलत्स्य वध’ से लेकर ‘रामायण’ और फिर ‘रामचरितमानस’ तक उसमें अनगिनत बदलाव हुए हैं. हर प्रस्तोता ने उसमें कुछ न कुछ जोड़ा-घटाया है. इसलिए उसके अनेकानेक पाठ तथा अनगिनत अंतर्विरोध हैं, जिन्हें वे आस्था और विश्वास की झीनी चादर से ढांपते आए हैं. यदि मान लें कि राम नामक राजा कभी इस धरती पर था, तो भी हम उसे अपना नायक क्यों मानें, जिसने शंबूक का वध केवल इसलिए किया था कि वह किसी खास पुस्तक को पढ़कर ज्ञान में हिस्सेदारी करना चाहता था. असमानता और भेदभाव को बढ़ावा देने वाला ‘रामराज’ हमारा सपना भला कैसे बन सकता है! विवेकवान समाज अपने नायक स्वयं चुनता है. यदि उन्हें अपनी सुविधानुसार नायक चुनने की आजादी है तो वही आजादी बाकी समाज को भी है. ‘महिषासुर’ मिथ होकर भी हमारे लिए सम्मानेय है, क्योंकि वह उस संस्कृति का प्रतिकार करता था जो अनेकानेक असमानताओं, आडंबरों और भेदभाव से भरी थी. दूसरों के श्रम पर अधिकार जताने वाली बेईमान संस्कृति. उसके सर्वेसर्वा रहे देवता सागर-मंथन में बराबरी का हिस्सा देने के वायदे के साथ असुरों से सहयोग मांगते हैं, परंतु बेईमानी करते हुए ‘अमृत’ तथा बहुमूल्य रत्न खुद हड़प लेते हैं. ‘महिषासुर’ श्रम-संस्कृति में भरोसा रखने वाली, पशु-चारण अर्थव्यवस्था से नागर सभ्यता की ओर बढ़ती, तेजी से विकासमान भारत की प्राचीनतम सभ्यता का प्रतीक नायक है.

सरकार और सरकार में बैठे जो लोग इसे देशद्रोह बता रहे हैं. उनके सोच पर तरस आता है. वे या तो देश और देशद्रोह की परिभाषा से अनभिज्ञ हैं, अथवा हमें शब्दों के जाल में फंसाए रखना रखना चाहते हैं. जैसा वे हजारों वर्षों से करते आए हैं. देश कोई भूखंड नहीं होता. वह अपने नागरिकों के सपनों और स्वातंत्र्य-चेतना में बसता है. लाखों-करोड़ों लोग जहां एकजुट हो जाएं, वहीं अपना देश बना लेते हैं. जिन लोगों में स्वातंत्रय चेतना नहीं होती, उनका कोई देश भी नहीं होता. ऐसे लोग देश में रहकर भी उपनिवेश की जिंदगी जीते हैं. भारत अर्से से ब्राह्मणवाद का उपनिवेश रहा है. आगे भी रहे, यह न तो आवश्यक है, न ही हमें स्वीकार्य. यहां वही संस्कृति चलेगी जो इस देश के 1.3 अरब लोगों की साझा संस्कृति होगी. जो सामाजिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता तथा संसाधनों में सभी की निष्पक्ष और समान सहभागिता सुनिश्चित करती हो. वैसे भी मनुष्य की स्वतंत्रता किसी व्यक्ति समाज या संस्कृति का देय नहीं होती. यह मनुष्य होने की पहली और अनिवार्य शर्त है. यह प्रकृति का ऐसा अनमोल उपहार है जो मनुष्य को उसके जन्म से ही, वह चाहे जिस जाति, धर्म, वर्ग, देश या समाज में जन्मा हो—जीवन की पहली सांस के साथ स्वतः प्राप्त हो जाता है. जिस देश की संस्कृति अपने तीन-चौथाई नागरिकों को समाजार्थिक एवं बौद्धिक रूप से गुलाम बनाती हो, वह ‘राष्ट्र’ तो क्या भूखंड कहलाने लायक भी नहीं होता. इसे देशद्रोह कहने वाले असल में वे लोग हैं जिनका देश कुर्सियों में बसा होता है. जो जनता से प्राप्त शक्तियों का उपयोग उसे छलने और मूर्ख बनाने के लिए करते हैं. इसके लिए वे कभी राष्ट्रवाद, कभी धर्म तो कभी जाति को माध्यम बनाते हैं. यह सरकार को ही राष्ट्र घोषित करने की साजिश है, जिसके सर्वोत्तम रूप को भी टॉमस पेन ने आवश्यक बुराई माना है.

  • भाजपा द्वारा संसद में इस बात को उठाये जाने के पहले से ही आरएसएस के अन्‍य अनुषांगिक संगठन जैसे विश्‍व हिंदू परिषद व अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद इसका विरोध करते रहे हैं। क्‍या आपको लगता है कि महिषासुर शहादत स्‍मृति दिवस जैसे सांस्‍कृतिक आंदोलन का विरोध ब्राह्मणवादी वर्चस्‍व को मजबूत करने के लिए किया जा रहा है?

भाजपा, आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद ऐसे संगठन हैं जिन्हें धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. वे केवल राजनीति करते हैं, जिसमें लोकतंत्र के लिए कोई जगह नहीं है. उनके मन में 1000—1500 वर्ष पुराना भारत बसता है, जब ऊंची जातियां अपने से निचली जातियों के साथ मनमाना व्यवहार करने को स्वतंत्र थीं. वे प्राचीन भारत की संपन्नता का बखान करते हुए नहीं थकते. बार-बार याद दिलाते हैं कि भारत कभी ‘सोने की चिड़िया’ कहलाता था. इतिहास बताता है कि भारत का सबसे समृद्धिशाली दौर ईसा के चार-पांच सौ वर्ष पहले से लेकर इतनी ही अवधि बाद तक का रहा है. उस दौर के बड़े सम्राट या तो बौद्ध थे, अथवा जैन. कह सकते हैं कि ब्राह्मणवाद के सबसे बुरे दिन देश की अर्थव्यवस्था के लिए सबसे अच्छे दिन थे. डॉ. रमेश मजूमदार के अनुसार उस दौर में आजीवक, जैन एवं बौद्ध दर्शनों के प्रभामंडल में जातीय स्तरीकरण घटा था. सामाजिक भेदभाव तथा यज्ञ-बलियों में कमी आई थी. उसके फलस्वरूप परस्पर सहयोगाधारित व्यापारिक संगठन तेजी से पनपे. बौद्ध दर्शन ने भारतीय मेधा को विश्व-स्तर पर स्थापित किया था, इसलिए हर कोई भारतीय व्यापारियों के साथ व्यापार करने को उत्सुक था. उसके फलस्वरूप व्यापार बढ़ा और देश आर्थिक समृद्धि के शिखर की ओर बढ़ता गया.

हिंदू राज्य के रूप में भाजपा तथा उसके सहयोगी दलों की निगाह में पुष्यमित्र शुंग के बाद का भारत बसता है, जो भौतिक और अधिभौतिक दोनों ही दृष्टियों से देश के पराभव का दौर था. विदेशी व्यापार सिमटने लगा था. उपनिषदों की जगह पुराण लिखे जा रहे थे. वैदिक धर्म छोटे-छोटे संपद्रायों में सिमट चुका था. महाकाव्यों को उनका वर्तमान स्वरूप इन्हीं दिनों प्राप्त हुआ, जिसने चातुर्वण्र्य समाज की अवधारणा को मजबूती से स्थापित किया था. इसके लिए तत्कालीन लेखकों ने वैदिक चरित्रों को मनमाने ढंग से प्रस्तुत किया. ऋग्वेद में कृष्ण यदु कबीले का वीर और बुद्धिमान नेता है, वह आर्य-संस्कृति का विरोधी है तथा आर्यों के विरुद्ध संग्राम में अपने कबीले का नेतृत्व कर युद्ध में इंद्र को परास्त करता है. ‘महाभारत’ के परिवर्धित संस्करण में उसे ब्राह्मणी व्यवस्था के समर्थक के रूप में पेश किया गया. इसके ऐवज में यदुओं को वर्ण-क्रम में ‘क्षत्रिय’ का दर्जा प्राप्त हुआ. इस दौर में दर्शन की मुक्त-धारा, धर्म की ताल-तलैयों में सिमटने लगी थी. बहुदेववाद जो वैदिक साहित्य की विशेषता था, जिसे बुद्ध के समकालीन आचार्यों ने उपनिषदों में एकेश्वरवाद में समेटने की कोशिश की थी—वह पुनः छोटे-छोटे संप्रदायों यथा शैव, कापालिक, तांत्रिक, वैष्णव, नाथपंथी, शाक्त आदि में बंट चुका था. उनके बीच बहुत गहरे मतभेद थे. भाजपा तथा उसके आनुषंगिक संगठन ब्राह्मण धर्म में उभरे उन मतभेदों को याद नहीं करते. वे जानते हैं कि लोकतंत्र के दौर में पुराना समय लौटकर नहीं आने वाला. इसलिए वे धर्म के नाम पर केवल राजनीति करते हैं. उनकी राजनीति भी पूरी तरह प्रतिक्रियावादी, मुस्लिम-विरोध से अनुप्रेत है. उनके लिए राष्ट्रवाद और फासीवाद में बहुत अधिक अंतर नहीं है. जबकि लोकतंत्र को सम्मानजनक स्थान न तो फासीवाद दे पाता है, न ही वह कट्टर राष्ट्रवाद के बीच सुरक्षित रह पाता है.

ब्राह्मणवादी अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए धर्म और संस्कृति को औजार बनाता है. उनके माध्यम से वह लोगों के दिलो-दिमाग पर कब्जा जमाता है, फिर निरंतर उनका भावनात्मक और शारीरिक शोषण करता है. फासीवाद लोगों के दिलो-दिमाग में भय का संचार करता है. इतना भयभीत कर देता है कि जनसाधारण अपने विवेक से काम लेना छोड़ केवल आदेश को ही कर्तव्य समझने लगता है. ताकत का भय दिखाकर वह लोगों को उसकी मनमानियां सहने के लिए मजबूर कर देता है. लेकिन फासीवाद की उम्र कम होती है. वह व्यक्ति के दिलो-दिमाग पर कब्जा तो करता है, लेकिन ऐसा कोई माध्यम उसके पास नहीं होता, जो देर तक प्रभावशाली हो. सत्ता बदलते ही उसका स्वरूप बदल जाता है. नहीं तो जनता स्वयं खड़ी होकर राजनीति के उस खर-पतवार को समाप्त कर देती है.

ब्राह्मणवाद तभी तक जीवित है, जब तक लोग धर्म, जाति, और आडंबरों के मोहजाल में फंसे हैं. इसलिए वह किसी भी प्रकार के प्रबोधन से घबराता है. ‘महिषासुर शहादत दिवस’ का आयोजन भारतीय संस्कृति के इतिहास में न तो कोई नया पन्ना जोड़ता है, न ही कुछ गायब करता है. असल में वह ब्राह्मणवाद द्वारा थोपी गई स्थापनाओं से बाहर आने की छटपटाहट है. और यही डर इस सभ्यता के धार्मिक अभिजन ब्राह्मण को सता रहा है. वे जानते हैं कि बहुजन हितों के अनुसार मिथकों की पुनर्व्याख्या का सिलसिला एक बार आरंभ हुआ तो आगे रुकेगा नहीं. ऐसा नहीं है कि ब्राह्मणवाद को इतिहास में इससे पहले कोई चुनौती नहीं मिली थी. उसे कई बार चुनौतियों से गुजरना पड़ा है. लेकिन तब से आज तक धरती न जाने कितनी  परिक्रमाएं कर चुकी है. ज्ञान पर तो किसी का कब्जा न तब संभव था, न आज. लेकिन तब ब्राह्मणेत्तर वर्गों की प्रतिभाओं को उपेक्षित किया जाता था. आज यह संभव नहीं है. लोकतांत्रिक परिवेश में उनके विरोध को दबाया जाना आसान नहीं है. भाजपा, विश्व हिंदू परिषद जैसे ब्राह्मणवादी संगठनों को यही डर खाए जा रहा है. यह सच भी है कि सिलसिला केवल ‘महिषासुर’ के मिथ की पुनर्व्याख्या पर रुकने वाला नहीं है. रुकना भी नहीं चाहिए. उम्मीद है बहुत जल्दी दूसरे मिथ भी पुनर्व्याख्या के दायरे में आएंगे. इससे ब्राह्मणीय सर्वोच्चता का वह मिथ भी भरभरा कर गिर पड़ेगा, जिसे बनाने में उन्हें सहस्राब्दियाँ लगी हैं.

  • पिछले कुछ सालों में वर्चस्‍ववादी संस्‍कृति के बरक्‍स समतामूलक बहुजन पंरपरा बहुजन संस्‍कृति की बात उच्‍च शिक्षण संस्थानों में पहुंचे ओबीसी, आदिवासी और दलित विद्यार्थी करने लगे हैं. क्‍या आप मानते हैं कि इस तरह के आंदोलनों से समाज में जागृति आएगी? इस तरह के आंदोलनों का क्‍या लाभ आप देखते हैं?  

वर्चस्वकारी संस्कृति दो तरह से समाज को अपनी जकड़ में लेती है. पहले बल-प्रयोग द्वारा, जिसमें शक्ति का उपयोग कर समाज के अधिकतम संसाधनों पर अधिकार कर लिया जाता है. दूसरे अपनी बौद्धिक प्रखरता के बल पर. वर्चस्वकारी संस्कृति बुद्धिजीवियों से लैस होती है. उसके पोषित बुद्धिजीवी प्रत्येक परिस्थिति को अपने स्वार्थ के अनुकूल परिभाषित करने में प्रवीण होते हैं. अपने बुद्धि-चातुर्य के बल पर वे शेष जनसमाज को यह विश्वास दिला देते हैं कि केवल वही उनके सबसे बड़े शुभेच्छु हैं और जो व्यवस्था उन्होंने चुनी है वह दुनिया की श्रेष्ठतम सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था है. ऐसा नहीं है कि जनसाधारण में बुद्धि-विवेक की कमी होती है. ग्राम्शी की माने तो प्रत्येक व्यक्ति दार्शनिक होता है. लेकिन प्रत्येक व्यक्ति परिस्थितियों को अपने पक्ष में परिभाषित करने में दक्ष नहीं होता. इस कारण वर्चस्वकारी संस्कृति के समर्थक बुद्धिजीवियों पर विश्वास करना, जनसाधारण की विवशता बन जाता है. वह अपने शोषकों को ही अपना सर्वाधिक हितैषी और शुभेच्छु मानने लगता है. ऐसे में यदि परिवर्तन होता भी है तो केवल सतही, दिखावे के लिए, जिसका लाभ पूंजीपति और दूसरे एकाधिकारवादी संस्थानों को जाता है. जनाक्रोश को शांत करने के लिए वर्चस्वकारी संस्कृति प्रायः अपने आवरण में ऐर-फेर कर परिवर्तन का नाटक करती है. स्थितियों में आमूल परिवर्तन तभी संभव है, जब गैर अभिजन समाज के अपने बुद्धिजीवी हों, जो उसकी समस्याओं और हितों की उसके पक्ष में सही-सही पड़ताल कर, प्रतिबद्धता के साथ उसका नेतृत्व कर सकें.

वर्चस्ववादी ब्राह्मण संस्कृति के विरोध शुरुआत हालांकि मध्यकाल में कबीर, रैदास जैसे संत-कवियों द्वारा हो चुकी थी. लेकिन उनकी चिंता के केंद्र में केवल धार्मिक आडंबरवाद, छुआछूत तथा अन्यान्य सामाजिक रूढ़ियां थीं. आर्थिक असमानता जो बाकी सभी बुराइयों की जड़ है, को वे कदाचित मनुष्य की नियति मान बैठे थे. कबीर जैसे विद्रोही कवि ने भी संतोष को परम-धन कहकर रूखी-सूखी खाने, दूसरे की चुपड़ी रोटी देखकर जी न ललचाने की सलाह दी थी. रैदास ने जरूर ‘बेगमपुर’ के बहाने समानता पर आधारित समाज की परिकल्पना की थी. वह क्रांतिकारी सपना था, अपने समय से बहुत आगे का सपना—जिसके लिए उनका समाज ही तैयार नहीं था. जिन लोगों के लिए वह सपना था वह इतना शोषित, उत्पीड़ित था कि शीर्षस्थ वर्गों की कृपा में ही अपनी मुक्ति समझता था. उस समय तक पश्चिम में भी यही हालात थे. वहां रैदास से दो शताब्दी बाद थामस मूर ने ‘बेगमपुर’ से मेल खाती ‘यूटोपियाई’ परिकल्पना की थी, जिसपर उसे स्वयं ही विश्वास नहीं था. इसलिए अपनी कृति ‘यूटोपिया’ में उसने समानता-आधारित समाज की परिकल्पना पर ही कटाक्ष किया गया था. आगे चलकर, यूरोपीय पुनर्जागरण के दौर में यही शब्द आमूल परिवर्तन का सपना देख रहे लेखकों, बुद्धिजीवियों, आंदोलनकारियों और जनसाधारण का लक्ष्य और प्रेरणास्रोत बन गया.

सामाजिक अशिक्षा और आत्मविश्वास की कमी के कारण रैदास के ‘बेगमपुर’ की परिकल्पना सूनी आंखों के सपने से आगे न बढ़ सकी थी. शताब्दियों बाद उस परिकल्पना को आगे बढ़ाने का काम फुले और डॉ. अंबेडकर ने किया. ग्राम्शी ने बुद्धिजीवी की जो परिभाषा उद्धृत की है, उस पर ये दोनों महामानव एकदम खरे उतरते हैं. उनकी प्रेरणा तथा लोकतांत्रिक अवसरों का लाभ उठाते हुए दलित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग उभरा, जिसने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध आवाज बुलंद की. इसी के साथ-साथ पिछड़े वर्गों में भी राजनीतिक चेतना का संचार हुए. आबादी के हिसाब से पिछड़े पचास प्रतिशत से अधिक थे. कदाचित उनके नेताओं को लगता था कि उन्हें किसी बौद्धिक नेतृत्व की आवश्यकता नहीं है. अपनी-अपनी कमजोरियों के कारण दलित और पिछड़े नेता-बुद्धिजीवी वास्तविक सहयोगियों की पहचान करने में चूकते रहे. इसी का लाभ उठाकर वर्चस्वकारी संस्कृति के पैरोकार, दलितों और पिछड़ों को उनकी जाति की याद दिलाकर अलग-अलग समूहों में बांटते रहे. पर्याप्त संख्याबल का अभाव दलितों के स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति बनने की बाधा था. नतीजा यह हुआ कि वर्चस्वकारी संस्कृति के विरुद्ध शोषित-उत्पीड़ित वर्गों का कोई सशक्त मोर्चा न बन सका.

आज स्थिति बदली हुई है. शिक्षा और लोकतांत्रिक अवसरों का लाभ उठाकर दलितों और पिछड़ों में नया बुद्धिजीवी वर्ग उभरा है, जो न केवल अपने शोषकों की सही-सही पहचान कर रहा है, बल्कि अपने बुद्धि-विवेक के बल पर उन्हें उन्हीं के मैदान में चुनौती देने में सक्षम है. वह जानता है कि जाति, धर्म, संस्कृति, राष्ट्रवाद आदि वर्चस्वकारी संस्कृति के वे हथियार हैं जिनका उपयोग अभिजन संस्कृति के पैरोकार अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए करते आए हैं. वह यह भी समझ चुका है कि कोरा राजनीतिक परिवर्तन केवल सत्ता-परिवर्तन को संभव बना सकता है. आमूल परिवर्तन के लिए संस्कृति के क्षेत्र में भी बदलाव आवश्यक है. वह यह भी जानता है कि दलित और पिछड़ों के सपने, दोनों की समस्याएं यहां तक कि चुनौतियां भी एक जैसी हैं. उनके समाधान के लिए संगठित विरोध अपरिहार्य है. इस बात को शिखरस्थ वर्ग भी भली-भांति जानता है कि दलित और पिछड़े वर्गों की सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता उसे सत्ता से हमेशा-हमेशा के लिए बेदखल कर सकती है. उच्च-शिक्षण संस्थानों से निकले ओबीसी, आदिवासी एवं दलित युवाओं का यही युगबोध वर्चस्वकारी संस्कृति के पैरोकारों को चिंता में डाले हुए है.

  • क्‍या इतिहास में हुए ऐसे किसी और आंदोलन के बारे आप कुछ बताना चाहेंगे, जिसमें बहुजनों के संस्‍कृति पक्ष पर बल दिया गया हो, और उसके सकारात्‍मक परिणाम सामने आएं हों?

कई आंदोलनों के नाम लिए जा सकते हैं. एकदम हाल की बात करें तो साठ के दशक में बिहार से आरंभ हुए ‘अर्जक संघ’ को ले सकते हैं. जिसने मेहनतकश लोगों ने जीवन में किसी भी धर्म की भूमिका को मानने से इन्कार कर दिया था. मध्यकालीन भारत में रैदास, कबीर, फुले आदि ने ब्राह्मणवाद का विरोध करते हुए जनसंस्कृति के उभार पर जोर दिया था. यदि बौद्धकालीन भारत तक जाएं तो आजीवक संप्रदाय भी श्रम-संस्कृति के उन्नयन को समर्पित था, जिसे आज बहुजन संस्कृति कहा जा रहा है. उसके केंद्र में धर्म के नाम पर आडंबरवाद से मुक्ति और आर्थिक स्वावलंबन था. आजीवक श्रमजीवियों के अपने संगठन थे. उनके माध्यम से वे देश-विदेश के व्यापारियों के साथ कारोबार करते थे. जातक कथाओं के हवाले से डॉ. रमेश मजूमदार ने बौद्धकालीन भारत में 31 प्रकार के सहयोगाधारित संगठनों का उल्लेख किया है. उनमें लुहार, बढ़ई, चर्मकार, पत्थर-तराश, सुनार, तेली, बुनकर, रंगरेज, किसान, मत्स्य पालन करने वाले, आटा पीसने वाले, नाई, धोबी, माली, कुम्हार यहां तक कि चोरों के संगठन का भी जिक्र है. वे अपने आप में स्वायत्त थे. अपने फैसलों के लिए पूरी तरह स्वतंत्र. उनके अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार राज्य को भी नहीं था. सम्राट विशेष अवसरों पर उनसे परामर्श करना आवश्यक समझता था. खास बात यह है कि उन समूहों में श्रम-कौशल और सहभागिता को महत्त्व दिया जाता था. केवल बुद्धि के नाम पर, जैसा ब्राह्मणवादी व्यवस्था में था, विशेषाधिकार का कोई प्रावधान उनमें नहीं था. ‘कूटवणिज जातक’ में बनारस के दो व्यापारियों की कहानी दी है. उनमें एक ‘बुद्धिमान’ था ‘दूसरा अतिबुद्धिमान’. एक बार दोनों ने मिल-जुलकर व्यापार करने का निर्णय लिया. उन्होंने बराबर-बराबर निवेश कर पांच सौ छकड़े माल खरीदा. दोनों व्यापार के लिए साथ निकले और सारा माल बेचकर वापस लौट आए. उसके बाद दोनों मुनाफे के बंटवारे के लिए जमा हुए. ‘बुद्धिमान’ व्यक्ति ने पहल करते हुए लाभ को दो समान हिस्सों में बांट दिया. यह देख ‘अतिबुद्धिमान’ बोला—

‘मैं तुमसे दुगुना हिस्सा लूंगा.’ उसकी बात सुनकर बुद्धिमान चौंका. उसने पूछा—

‘दो गुना क्यों?’

‘इसलिए कि मैं अतिबुद्धिमान हूं.’

‘हमने व्यापार में बराबर धन लगाया है. मेहनत भी बराबर-बराबर की है.’ ‘बुद्धिमान’ बोला.

‘तो क्या! सभी जानते हैं कि मैं तुमसे अधिक बुद्धिमान हूं. इसलिए मुझे लाभ में दुगुना हिस्सा मिलना चाहिए.’ कहते हुए दोनों व्यापारी आपस में झगड़ने लगे. न्याय के लिए अंततः वे बुद्ध की शरण में पहुंचे. बुद्ध दोनों को बराबर-बराबर हिस्सा देने का फैसला करते हैं. लाभ के दुगने हिस्से पर अधिकार जताने वाले ‘अतिबुद्धिमान’ को उन्होंने ‘बेईमान व्यापारी’ कहा है. वर्चस्वकारी व्यवस्था ऐसी बेईमानी कदम-कदम पर करती है. वह श्रम के सापेक्ष बुद्धि को वरीयता देती है. ब्राह्मण जो शिखर पर रहता है, उसका शारीरिक श्रम से कोई संबंध नहीं होता. वह दूसरों के श्रम पर परजीवी की भांति जीवन-यापन करता है. कमोबेश यही हालत बाकी दो वर्गों की भी है. वर्ण-व्यवस्था में निचले पायदान पर मौजूद शूद्र को अधिकाधिक श्रम करना पड़ता है. फिर भी उसे समग्र आय का मामूली हिस्सा प्राप्त होता है. बड़ा हिस्सा शीर्षस्थ वर्ग हड़प लेते हैं. कहानी के माध्यम से बुद्ध ने इस व्यवस्था का प्रतिकार किया है. इससे उस बौद्धकालीन समाज में अपने श्रम-कौशल के आधार पर जीवन जीने वालों की महत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है. यह आदर्श व्यवस्था थी, जिसे समय रहते रेखांकित करने की आवश्यकता थी. लेकिन इतिहास लेखन का काम ब्राह्मणों या ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त लेखकों के अधीन रहने के कारण वह सदैव पूर्वाग्रह-ग्रस्त रहा है. उन्होंने उस संस्कृति के दस्तावेजीकरण में पूरी तरह उपेक्षा बरती जिसे समानांतर संस्कृति, जनसंस्कृति या सर्बाल्टन संस्कृति कहा जाता है. उसका खामियाजा विराट बहुजन समाज आज तक भुगत रहा है.

  • महिषासुर आंदोलन के बारे में आपके निजी विचार क्‍या हैं? पिछले दिनों विभिन्‍न समाचारपत्रों, टीवी चैनलों पर इसकी चर्चा रही. इनसे प्राप्‍त सूचनाओं के आधार पर आपका इस आंदोलन के प्रति क्‍या विचार बना? या फिर, इस संबंध में आप किसी अनछुए पहलू पर प्रकाश डालना चाहेंगे?

मन से इस आंदोलन से जुड़े सभी मित्रों को बधाई देते हुए मैं थोड़ा मतांतर रखता हूं. ‘राम’, ‘कृष्ण’, ‘दुर्गा’ आदि की भांति ‘महिषासुर’ भी एक मिथ है और मिथ की सीमा है कि वह अकेला किसी काम का नहीं होता है. वह समाज और सांस्कृतिक परंपरा के साथ जुड़कर कारगर होता है. इसके लिए उसको अनगिनत मिथों की आवश्यकता पड़ती है, जिनका समर्थन या विरोध करते हुए वह समाज में अपनी पहचान बनाए रखता है. मिथ प्रायः दीर्घजीवी होते हैं. मगर कोई भी मिथ जीवन में हर समय मार्गदर्शक नहीं रह सकता. अमावस्या की रात में दिये या एक स्फुर्लिंग की भांति वह केवल अवसर-विशेष पर हमें राह दिखा सकता है. किंतु अनेक मिथों के साथ मिलकर वह मनुष्य की संपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा का सहभागी बन जाता है. मिथों के उपयोग के लिए बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है. किसी मिथ का उपयोग करने के लिए उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की जानकारी होना आवश्यक है. इसके अभाव में वह दोधारी तलवार की तरह काम करने लगता है. सही समय पर सटीक उपयोग न हो तो उसके मायने एकदम बदल जाते हैं. पिछले कुछ महीनों में ‘महिषासुर’ की पुनर्व्याख्या ने दलित, पिछड़ों एवं आदिवासियों को एक-दूसरे के निकट लाने का काम किया है. लेकिन सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से लड़ाई में कोई एक मिथ कारगर नहीं हो सकता. उसके लिए अनेक मिथ चाहिए. लेकिन नए मिथ गढ़ना आसान नहीं होता. हां, पहले से ही प्रचलित मिथों को युगानुकूल संदर्भों के साथ पुनपर्रिभाषित अवश्य किया जाता है. अतः जो मिथ की ताकत को जानते हैं, जिन्हें अपने विवेक पर भरोसा है, और जो सचमुच बहुजन संस्कृति के विस्तार का सपना देखते हैं, उन्हें चाहिए कि वे महिषासुर जैसे दूसरे मिथकों की भी खोज करें. नए मिथकों की खोज करना जितना आसान है, उतना ही कठिन है, उन मिथकों को युगानुकूल संदर्भों में नए सिरे से परिभाषित करना. सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से मुक्ति के लिए बहुजन को अपने लक्ष्य को समर्पित बुद्धिजीवियों की पूरी खेप तैयार करनी होगी.

महिषासुर मिथ की दूसरी कमजोरी यह है कि वह एक सम्राट है. उस दौर का है जब यह दुनिया लोकतंत्र के बारे में जानती न थी. जबकि आज जमाना लोकतंत्र का है. ‘महिषासुर’ के प्रतीक के सहारे वर्चस्वकारी संस्कृति पर हमला तो बोला जा सकता है. या ऐसे ही हमलों के बीच वह हमारे लिए कारगर हथियार बन सकता है. लेकिन केवल उसके सहारे वर्चस्वकारी संस्कृति को रचनात्मक विकल्प संभव नहीं है. अतएव आवश्यकता अनुकूल मिथकों के चयन के साथ-साथ उन्हें लोकतांत्रिक परिवेश के अनुकूल ढालने की है. ताकि वे मिथक जो अभी तक वर्चस्वकारी संस्कृति के सुरक्षा-कवच बने थे, प्रकारांतर में लोकतंत्र और सहजीवन का समर्थन करते नजर आएं.

  • क्या आप मानते हैं कि संघ परिवार का महिषासुर शहादत दिवस का कटु हिंसक विरोध और आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने की उनकी मांग से दलित-बहुजनों को यह अहसास हो सकेगा कि हिंदुत्व एजेंडा ब्राह्मणवाद से अधिक कुछ नहीं है? क्या आप उनके असली चेहरे और एजेंडे का पर्दाफाश करने में सहयोग करना चाहेंगें?

हिंदुत्व को न्यायालय ने जीवन-पद्धति माना है. परंतु विचार करके देखिए, क्या यह केवल जीवन-पद्धति ही है. मनुष्य को जो आजादी जीवन-पद्धति को चुनने की होनी चाहिए, वैसी आजादी क्या यह धर्म देता है? कथित सनातनी हो या गैर-सनातनी, एक हिंदू परिवार की सामान्य जीवन-चर्या मिली-जुली होती है. हर परिवार में कोई आला या कोना ‘मंदिर’ के नाम पर आरक्षित होता है. हर घर में मूर्तियों को नहलाया जाता है. सुबह-शाम की आरती, पूजा-बंदन बिना नागा चलता है. जब तक पत्थर की मूर्ति से छुआ न लें, स्त्रियां अन्न-जल ग्रहण नहीं करतीं. मंदिर में कागज, पत्थर, कांच, मिट्टी, लकड़ी या प्लास्टिक के आड़े-तिरछे, भांति-भांति के देवता आसन जमाए रखते हैं. हर घर में साल में एक-दो बार ‘सत्यनारायण कथा’ कही जाती है. पंडित सारे कर्मकांड रचता है. परंतु कभी नहीं बताता कि ‘सत्यनाराण की कथा’ क्या है? किस हिंदू धर्म-शास्त्र में उनका उल्लेख है? फिर भी डरी-सहमी कुल-ललनाएं इस कथा के श्रवण से खुद को धन्य मानती रहती हैं. अब यह मत कहिए कि संकट के समय जरूरतमंद की मदद करना, सादा जीवन जीना, जीवमात्र पर दया करना, चोरी-चकारी से परहेज रखना, सत्य वाचन, माता-पिता का सम्मान करना और बुराइयों से दूर रहना हिंदुत्व हमें सिखाता है. ये सब बातें तो नैतिकता के हिस्से आती हैं और समाजीकरण का मुख्य आधार हैं. समाज के बीच जगह बनाने के लिए प्रत्येक धर्म चाहे वह मूर्ति-पूजकों का हो या मूर्ति-भंजकों का, इन सदाचारों को अपनाता है. इन्हें अपनाए बिना उसकी गति नहीं है. इसलिए अभिव्यक्ति का तरीका चाहे जो हो, हर धर्म में यही सदाचार सिखाए जाते हैं. इसे धर्म की धूत्र्तता कहें या बेईमानी, वह नैतिकता से उधार लिए इन सदाचारों को अपना बनाकर पेश करता है. इस तरह पेश करता है मानो धर्म है तो वे सदाचार हैं. असल में होता इसका उलटा है. मनुष्य धर्म को इसीलिए अपनाता है ताकि उसकी आने वाली पीढ़ियां धर्म के साथ जुड़े शील और सदाचारों को अपनाएं. समाजीकरण की अनिवार्यता धर्म नहीं, शील और सदाचरण हैं. यदि कहीं समाज है तो वहां धर्म भले ही न हो, समाजीकरण की प्रमुख शर्त के रूप में शील और सदाचरण रहेंगे ही. बिना धर्म के समाज गढ़ा जा सकता है, लेकिन बिना शील और सदाचार के उसका एक क्षण भी अस्तित्व में रहना मुश्किल है. आम हिंदू के लिए ‘हिंदुत्व’ या ‘जीवनपद्धति’ का आशय मूर्तियों पर जल चढ़ाने, किसी न किसी देवता पर भरोसा करने, गाय को रोटी देने, व्रत-उपवास रखने, पर्व-त्योहार पर विधि-सम्मत पूजन-अर्चन करने जैसे कर्मकांडों तक सीमित है. ये सब ऐसे आयोजन हैं जिनमें ब्राह्मणों की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका बनी रहती है. दूसरे शब्दों में जिसे हिंदुत्व कहा जाता है, वह ब्राह्मणवाद का ही लौकिक विस्तार है. इसलिए हिंदुत्व का बने रहना, प्रकारांतर में ब्राह्मणवादी व्यवस्था का अस्तित्व में रहना है.

‘हिंदुत्व’ को बनाए रखने के लिए उन्होंने अनेक षड्यंत्र रचे हैं. उनमें जनता द्वारा प्रथम निर्वाचित सम्राट वेन तथा महिषासुर की छल-हत्या, एकलव्य का अंगूठा काट लेना, शंबूक की हत्या के बहाने उसके उत्तराधिकारियों को ज्ञान से वंचित कर देना जैसे उनके अनेकानेक धत्त्कर्म सम्मिलित हैं. चूंकि आरक्षण ने दलित एवं समाजार्थिक आधार पर पिछड़े वर्गों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर दिया है, इसलिए वे उनके सबसे बड़े आलोचक हैं. जातिवाद को पीढ़ी-दर-पीढ़ी पोषते, उसके आधार पर अपने विशेषाधिकार गिनाते आए लोग आज उन वर्गों पर जातिवादी होने का आरोप लगा रहे हैं, जो शताब्दियों से जातीय उत्पीड़न के शिकार होते आए हैं. हिंदुत्व का उनका एजेंडा केवल धर्म तक सीमित नहीं है. इसे केवल धर्म से जोड़कर रखना परिवर्तनकामी शक्तियों की भारी भूल रही है. हिंदुत्व का एजेंडा कहीं न कहीं संसाधनों पर मुट्ठी-भर लोगों की इजारेदारी को भी मजबूत करता है. जाति के आधार पर तीन-चौथाई जनसंख्या को शूद्र या दलित बताकर जमीन तथा उत्पादन के अन्य साधनों से वंचित कर देने का अर्थ है—पंद्रह-बीस प्रतिशत लोगों द्वारा समाज के कुल संसाधनों पर कब्जा. अभी तक ऐसा ही होता आया है.

महिषासुर जैसे प्रतीकों की बहुजन व्याख्याएं हिंदुत्व की नींव पर प्रहार करती हैं. उस पतित संस्कृति का विरोध करती हैं जो बलात्कारी को ‘देवराज’ का दर्जा देती है. दलित-बहुजन की नई बौद्धिक खेप का आदर्श राम नहीं है जो अपनी निर्दोष भार्या की शील-परीक्षा लेता है, शंबूक को दंडित करता है. ‘महिषासुर शहादत दिवस’ जैसे आयोजन प्रकारांतर में एक सलाह भी है कि बहुजन, ब्राह्मणवादी नायकों को अपना नायक मान लेने की भूल न करें. यह चूक उन्होंने शताब्दियों पहले उनके पूर्वजों की ओर से हुई थी. जिसका दंड वे आज तक भुगत रहे हैं. आरक्षण दमित वर्गों को शिक्षा और स्वतंत्र सोच का अवसर प्रदान करता है. इसलिए वह उनके लिए असह् हैं. चाहे जिस आधार पर हो, हिंदुत्व को न्यायालय की स्वीकृति मिल चुकी है, इसलिए वर्चस्वकारी शक्तियां उनके बहाने दलित-बहुजन को फुसलाए रखने का सदियों पुराना खेल खेल रही हैं.

 

  • निस्संदेह आज जो बहुजन सवाल उठा रहा है, सांस्कृतिक प्रतीकों की पुनर्व्याख्या की जा रही है, उसका सीधा-सा आशय है कि समाज के निचले वर्गों में शिक्षास्तर में वृद्धि हुई है. उससे लोगों का आत्मविश्वास बढ़ा है. इसके पीछे आरक्षण का योगदान भी है. इसलिए वे चाहते हैं कि आरक्षण खत्म हो ताकि उन्हें चुनौती देने वाला कोई न हो और जैसे वे पिछले हजारों वर्ष से याद करते आए हैं, आगे भी इसी प्रकार चलता रहे.

ब्राह्मणवाद सांस्कृतिक ‘दैत्य’ है. यहां ‘दैत्य’ का अभिप्राय उसके परंपरागत अर्थ में ही लेना चाहिए. परंपरा में जो धत्तकर्म दैत्य के बताए जाते हैं, असलियत में वही कार्य ब्राह्मणवादियों के देवता भी करते हैं. उनके देवता कदम-कदम पर छल करते हैं, दूसरों की स्त्रियों को बलत्कृत करते हैं. भेंट-पूजा पाकर प्रसन्न होते हैं. यदि मन-माफिक चढ़ावा न मिले तो कुपित हो जाते हैं. तुलना करें तो उनके देवता और नकचढ़े सामंत में कोई अंतर ही नहीं है. यह अनायास नहीं है कि बृहश्पति जो देवताओं के गुरु हैं, वही चार्वाक दर्शन के प्रणेता भी हैं. देव-सभाओं में अप्सराओं का नृत्य-गायन, देवताओं की मौज-मस्ती तथा सोम-पान, चार्वाकों की ‘खाओ-पीओ मौज करो’ की विचारधारा को ही प्रतिबिंबित करता है. यानी ‘देवगुरु’ का दर्शन देवताओं की दिनचर्या से ही प्रेरित है. या फिर यह हो सकता है कि देवता अपने गुरु के दर्शन के अनुगामी हों. दूसरी ओर असुर गुरु शुक्राचार्य हैं, जिन्हें इतिहास, दंडनीति, नीति-शास्त्र का आदि व्याख्याकार बताया गया है. ‘महाभारत’ की चर्चा प्राचीन भारतीय राजनीतिक दर्शन के लिए होती है. हस्तिनापुर का राज्य संभालने से पहले युधिष्ठिर भीष्म के पास राजनीति का ज्ञान लेने जाता है. शुक्राचार्य के ज्ञान की महिमा इससे भी जानी जा सकती है कि युधिष्ठिर को राजनीति का पाठ पढ़ाने वाले भीष्म शुक्राचार्य के ही शिष्य हैं. उनके शिष्यों में दूसरा नाम पृथु का भी आता है, जिसे प्रथम निर्वाचित सम्राट वेन का पुत्र तथा पृथ्वी का प्रथम मनोनीत सम्राट कहा गया है. दूसरे किस्से कहानियों की भांति शुक्राचार्य से जुड़ी कहानियां भी मिथ हो सकती हैं. कदाचित वे मिथ हैं भी. फिर भी उनकी अपनी महत्ता है. क्योंकि भारत जैसे समाजों में जहां तर्कबोध, विज्ञानबोध की कमी हो, जनजीवन मिथों से ही प्रेरणा लेता है. बहरहाल आचार्य बृहश्पति तथा शुक्राचार्य के क्रमशः चार्वाक पंथ और दंडनीति का व्याख्याकार होने से क्या यह नहीं लगता कि ब्राह्मणवादी लेखकों ने अपने ग्रंथों में सुरों और असुरों की चारित्रिक विशेषताओं को पूरी तरह उल्टा-पल्टा है. कई बार तो ठीक 180 डिग्री का मोड़ देकर पेश किया है.

ब्राह्मणवाद को सामान्यतः धर्म और संस्कृति से जोड़ा जाता है. यह उसकी सीमित व्याख्या है. असल में वह ‘सर्वसत्तावादी’ और ‘सर्वाधिकारवादी’ किले का पर्याय है, जहां से समस्त संसाधनों और विचारकेंद्रों को नियंत्रित किया जाता है. क्षत्रिय इस किले की रक्षा करते रहे हैं तो वैश्य उसके खजाने को समृद्ध करने का काम करते आए हैं. बदले में ब्राह्मणवाद कुछ सुविधाएं, मान-सम्मान और संसाधनों के उपयोग का अवसर देकर उन्हें कृतार्थ करता आया है. इसे ब्राह्मणवादी वर्चस्व ही कहा जाएगा कि मामूली सुविधा, संसाधनों में सीमित हिस्सेदारी के बावजूद वे वर्ग लंबे समय से स्वयं को उस व्यवस्था का हिस्सा मानते आए हैं. इसलिए एक सीमा से अधिक विरोध के लिए वे कभी आगे नहीं आए. स्वतंत्र भारत के संविधान में मिले अधिकारों के फलस्वरूप पहली बार दलितों और पिछड़ों को अवसर मिला कि वे ब्राह्मणवाद के किले में सैंध लगा सकें. आरक्षण ने इस प्रक्रिया को संभव बनाया, इसलिए वे वर्ग आरक्षण को अपने लिए खतरे के रूप में देखते हैं. पिछले कुछ वर्षों में हालात और भी बदले हैं. शिक्षा के क्षेत्र में मिले आरक्षण ने दलितों और पिछड़ों को अवसर दिया कि वे ब्राह्मणवाद की चतुराइयों को समझ सकें तथा जिन प्रतीकों एवं मिथों के माध्यम से वह अपने सर्वसत्तावादी स्वरूप को बनाए हुए है, उनकी अपने हितों के अनुरूप व्याख्या कर सकें. ‘महिषासुर शहादत दिवस’ जैसे आयोजन दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों में उभरी इसी सांस्कृतिक चेतना का हिस्सा हैं. इसलिए ब्राह्मणवाद के पैरोकारों की ओर से उनका विरोध स्वाभाविक है. अब वे चाहते हैं कि ‘कल्याण राज्य’ की अपेक्षाओं के चलते स्वाधीन भारत के संविधान में दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को जो अधिकार दिए हैं, वे समाप्त हों, ताकि पुरानी व्यवस्था लौट सके. पूंजीवाद और राजनीतिक सत्ता आज भी उसके मददगार हैं.

परिवर्तनकामी शक्तियों के लिए जितना आवश्यक ब्राह्मणवाद की कमजोरियों को समझना है, उतना ही आवश्यक समानांतर संस्कृति खड़ी करना भी है. ब्राह्मणवादी तंत्र में आमने-सामने की चुनौती नहीं होती, उसका एक कोना अपने घर-परिवार में भी मौजूद होता है. व्यवस्था से अनुकूलित लोग परिवर्तन की हर संभावना को निष्फल करने की कोशिश करते हैं. कुछ समय पहले तक धर्म और जाति उसके सुरक्षा कवच थे. बदली परिस्थितियों में उसने राष्ट्रवाद को अपनी आड़ बनाया हुआ है. ‘महिषासुर’ जैसे मिथों की नवव्याख्या ने ब्राह्मणवाद के मर्मस्थल पर चोट की है. यह ज्ञान और तर्क की लड़ाई है. इतिहास में शताब्दियों बाद ऐसा हुआ है जब दलित और पिछड़े वर्ग के बुद्धिजीवी ब्राह्मणवाद को उसी के क्षेत्र में चुनौती दे रहे हैं. इससे ब्राह्मण बुद्धिजीवी खुद को असहज पा रहे हैं. आरक्षण का विरोध इसी विषम मनःस्थिति की उपज है. चलते-चलते एक बात मैं अवश्य जोड़ना चाहूंगा. आरक्षण एक व्यवस्था है. यह सामाजिक न्याय के दायरे में भी आता है. लेकिन यह प्राकृतिक न्याय का पर्याय नहीं है. इसलिए संविधान-सम्मत होने के बावजूद इसे हमेशा-हमेशा के लिए लागू नहीं रखा सकता. इसलिए बहुजन अस्मिता की चिंता करने वाले बुद्धिजीवियों, लेखकों और कलाकारों को अभी से खुद को तैयार रखना होगा. उसका एकमात्र उपाय है, वर्चस्वकारी संस्कृति के मुकाबले सामाजिक न्याय, तर्क, विवेक और आधुनिक जीवनमूल्यों से संपन्न जनसंस्कृति को खड़ा करना. विवेकवान बनना और समानधर्मा लोगों के विवेकीकरण में सहायता करना. जनसंस्कृतिकरण की यात्रा दुर्गम भले हो, असंभव नहीं है.

 ओमप्रकाश कश्यप

 

शरद यादव और वैकल्पिक राजनीति की चुनौतियां

विशेष रुप से प्रदर्शित

सांझी संस्कृति’ अथवा ‘सांझी विरासत’ असल में मिथ है. उसका वास्तविक प्रतीति यदि समाज में ही नहीं है, तब वह राजनीतिक दलों की एकता का आधार भला कैसे बन सकती है? क्या भारत जैसे विविधताओं वाले बड़े समाज को ‘सांझी संस्कृति’ के कोरे मिथ के सहारे एक किया जा सकता है? क्या केवल मिथ के भरोसे परिवर्तन की निर्णायक लड़ाई संभव है? इन सबसे महत्त्वपूर्ण एक प्रश्न यह है कि जो दल या नेता सांझी संस्कृति को बचाने के नाम पर एकजुट होना चाहते हैं, क्या उनका अपना जीवन या राजनीति सांझी संस्कृति की भावना पर खरी उतरती है?

रद यादव सांझी विरासत बचाने के लिए प्रयत्नरत हैं. वे जगहजगह सभाएं कर रहे हैं. वरिष्ठ नेता होने के साथसाथ उनकी प्रतिबद्धताएं भी स्पष्ट हैं. संसद में बोलते समय वे अपने सरोकारों के साथ ईमानदार नजर आते थे. पिछले महीने उन्होंने पटना में एक सम्मेलन में हिस्सा लिया था. 27 अगस्त 2017 को लालू यादव द्वारा बुलाई गई रैली में वे उनके साथ, गले मिलते नजर आए. घनी बारिष तथा राज्य के 18 से अधिक जिले बाढ़ग्रस्त होने के बावजूद जितने लोग उत्साह और उम्मीद के साथ गांधी मैदान पहुंचे, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जनता भय और सांपद्रायिकता की राजनीति से तंग आ चुकी है. सार्थक विकल्प की तलाश करीबकरीब सभी को है. शरद यादव की अब तक की प्रतिबद्धताएं उनसे थोड़ी उम्मीद जगाती हैं. परंतु रास्ता क्या इतना ही आसान है? जिस तरह की राजनीति का आजकल चलन है, बाजार ने जिस तरह लोगों के दिलोदिमाग को कब्जाया हुआ है, ऐसे में क्या मूल्यों और प्रतिबद्धता की सफल राजनीति संभव है? जो लोग शरद यादव को सुनने, उनके सम्मेलनों में उमड़ रहे हैं, क्या वे चुनाव के दिन भी उनके साथ खड़े होकर ‘सांझी विरासत’ बचाने के लिए सहभागी बनेंगे? और भारत में जहां व्यक्ति की पहचान उसके धर्म और जाति से की जाती है, वहां लोग क्या ‘सांझी विरासत’ को समझते हैं. यदि यह केवल आकादमिक अवधारणा है तो उसे लोकअवधारणा बनाने के लिए शरद यादव और उनके सहयोगियों की क्या कोई योजना है? ये प्रश्न प्रासंगिक हैं. इन्हीं में शरद यादव तथा परिवर्तन की राजनीति का सपना देखने वाले किसी भी नेता की मुश्किलें और चुनौतियां भी छिपी हैं.

आजादी के आसपास मूल्यविहीन राजनीति की कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था. देश पूंजीवाद के चंगुल से बाहर था. स्कूलों में गर्व से पढ़ाया जाता था कि भारत कृषिप्रधान देश है. पूंजीपति राजनीति के पिछलग्गू थे. मनमाफिक नीति बनवाने के लिए उन्हें नेताओं और अधिकारियों के चक्कर काटने पड़ते थे. उत्पादन में प्रत्यक्ष श्रम की उपयोगिता थी, इसलिए श्रमिकों के साथ बेहतर संबंध रखना उद्योगपतियों की मजबूरी थी. इसके बावजूद बड़े से बड़े नेता में यह साहस नहीं था कि पूंजीपति के साथ गले मिलते हुए फोटो खिंचवा सके. अस्सी के बाद हालात बदले. राजनीतिक मूल्यों का त्वरित क्षरण होने लगा. स्वाधीनता संग्राम ने कुछ नेताओ को महानायकत्व प्रदान किया था. उसके दबाव में तत्कालीन नेता अपनी छवि, जिसे गढ़ने में उनके परिश्रम एवं त्याग के अतिरिक्त परिस्थितियों का भी योगदान था—से बाहर आने का साहस कम ही जुटा पाते थे. बाद में आई पीढ़ी पर ऐसा कोई दबाव न था. इसलिए जनता, जो पुराने नेताओं के साथ खुशीखुशी और उत्साहपूर्वक जुड़ी थी, को अपनी ओर आकर्पित करने तथा उसका विश्वास जीतने के लिए उन्हें अतिरिक्त प्रयत्न करने पड़ते थे. उत्पादन प्रौद्योगिकी में भी बदलाव आया था. जटिल प्रौद्योगिकी विशेषज्ञता की मांग करती थी. तीव्र मशीनीकरण से मालिक और मजदूर का सीधा संपर्क टूटने लगा था. पूंजीपति का लालच उत्तरोत्तर बढ़ रहा था. संचारक्रांति की मदद लेकर पूंजीपतियों ने लोकसंचार के जितने भी साधन थे, धीरेधीरे सब कब्जा लिए. उनके माध्यम से वह जनता के दिलोदिमाग को अपने स्वार्थ के अनुरूप ढालने में लगा था. पहले मतदाता के मानसनिर्माण का काम नेता करता था. इसके लिए उसे जनता के बीच जाना ही पड़ता था. पूंजीपतियों ने मीडिया का उपयोग पहले लोगों के उपभोक्ताकरण के लिए किया. समाज में उपभोग की संस्कृति विकसित हुई. परिणामस्वरूप व्यक्ति और विचारधारा के बीच जो अंतरंग संबंध था, जो व्यक्ति के आत्मविश्वास को बढ़ाकर, उसके प्रति समाज के विश्वास को सुदृढ़ करता था, जिसके बल पर आंबेडकर, गांधी, नेहरू, लोहिया, पटेल जैसे नेताओं को जनता का प्यार, दुलार और समर्थन प्राप्त होता आया था—वह कमजोर पड़ने लगा था. हालांकि इस दौर में भी जयप्रकाश नारायण, विश्वनाथ प्रताप सिंह, कर्पूरी ठाकुर जैसे प्रभावशाली नेता आए. परंतु उनका प्रभामंडल ऐसा न था कि राजनीति पर पूंजी की निरंतर सुदृढ़ होती पकड़ को कमजोर कर सकें. इसका कारण भी था. उस समय के बड़े उद्योगपति जो दूर की नजर रखते थे, जिन्हें अंदाज था कि भारत में अंग्रेजी राज के दिन गिनेचुने हैं, स्वाधीनता आंदोलन के दौरान बड़ेबड़े नेताओं, जिनमें गांधी भी थे—से करीबी रिश्ता बनाने में कामयाब रहे थे. उनके लिए यह भी एक प्रकार का निवेश था. आजाद भारत में उन्हें संबंधों का लाभ उठाना आरंभ कर दिया. आजादी के तुरंत बाद पूंजीपतियों के बीच संसाधनों पर कब्जा करने की होड़ शुरू हो चुकी थी. नेतागण कहीं उनके साझीदार बने, कहीं सहयोगी और कहीं हितसंरक्षक. एकदूसरे के साथ स्पर्धा करते हुए पूंजीपतियों ने बड़ेबड़े सरकारी कांट्रेक्ट हासिल किए. कलकारखानां के नाम पर ओनेपोने भाव जमीन खरीदी. प्राकृतिक संसाधनों को जैसे भी संभव हुआ, कब्जाया. नएनए आजाद हुए देश में जनता भी ढेर सारी उम्मीदें पाले थी. उसके लिए कुछ कार्यक्रम पंचवर्षीय योजनाओं के नाम पर चलाए गए. लेकिन भ्रष्टाचार और लचर नौकरशाही के कारण वे अपेक्षित परिणाम न दे सके. ठोस अर्थनीति, राजनीतिक दिशाहीनता और बढ़ते भ्रष्टाचार के दबाव में अधिकांश नेता मानने लगे कि बिना पूंजीपतियों के सहयोग के विकास को अपेक्षित गति दे पाना असंभव है. कुल मिलाकर पूंजीवाद के प्रति समर्पण का वातावरण देश स्वतंत्र होने के साथ ही बनने लगा था. निश्चय ही उसके पीछे पूंजीपतियों की सोचीसमझी रणनीति थी. दूसरे विश्वयुद्ध में औपनिवेशिक सरकार का साथ देने वाले, युद्ध के जरिये खूब मुनाफा कमाने वाले भारतीय उद्योगपति युद्धोपरांत ब्रिटेन की खस्ता आर्थिक स्थिति देख ‘राष्ट्रवाद’ का चोला ओढने लगे थे.

अगले चरण में मीडियाक्रांति का लाभ उठाकर, पूंजीपतियों ने मतदाताओं के मानसनिर्माण का काम भी अपने अधीन कर लिया. पूंजीवाद का ‘अप्रत्यक्ष हाथ’ देश की राजनीति, अर्थनीति और सामाजिकसांस्कृतिक गतिविधियों को नियंत्रित करने लगा. युद्ध, आतंकवाद, भय, जातिवाद, तंत्रमंत्र, सांप्रदायिकता, धर्म तथा उसके आडंबरों जिनसे वह लोकमानस को प्रभावित करता था—सब उसके द्वारा नियंत्रित होने लगे. पूंजीवाद की अतिसक्रियता के बीच, जनमानस पर नेताओं की पकड़ ढीली पड़ने लगी. मानसनिर्माण का सारा काम मीडिया और ‘अप्रत्यक्ष हाथ’ ने संभाल लिया. विवश होकर नेता को भी पूंजीपति का शरणागत होना पड़ा. विचार की राजनीति, जिसके भरोसे आजादी की लंबी जंग लड़ी गई थी, दम तोड़ने लगी. पश्चिम की नकल पर पूंजीवाद का जादू ऐसा चला कि चाहेअनचाहे नेता भी उसका सहारा लेने लगे. सड़क, बिजली, पानी जैसे नगरपालिका स्तर के मुद्दों को आधार बनाकर प्रधानमंत्री कद के नेता चुनाव लड़ने लगे. क्या दक्षिणपंथ और क्या वामपंथ सब लोकप्रियता और तात्कालिक लाभ की राजनीति का शिकार होते गए. मीडिया की मदद से देशभक्ति का मनोभाव क्रिकेटर, गायक, अभिनेता जैसे नकली नायकों के हवाले कर दिया कर गया. आजादी से पहले भी ‘महामना’, ‘महात्मा’, ‘लोकमान्य’, ‘नेताजी’ जैसी उपाधियां बांटी जाती थीं. उन दिनों वे जनसंघर्ष में तपकर निकले नेताओं को अलंकृत करती थीं. इससे जनता में उनके प्रति विश्वसनीयता भी थी. बाजार को विज्ञापन के लिए नकली नायकों की आवश्यकता थी. इसलिए उसके इशारे पर फिल्मी अभिनेताओं, क्रिकेटरों तथा सस्ता मनोरंजन करने वाले कलाकारों को ‘सदी के महानायक’, ‘क्रिकेट का भगवान’ जैसे अलंकरण दिए जाने लगे. तात्कालिक लोकप्रियता की दिशाविहीन राजनीति का लाभ उठाकर साधुसंतों भी सत्ता की राजनीति की ओर आकर्षित हुए. उन्हें धर्म के नाम पर वाग्जाल तथा शब्दाडंबर खड़ा करने का खासा अभ्यास था, इसलिए बड़ी आसानी से वे राजनीति में स्थान बनाते चले गए. परिणामस्वरूप दूसरे और तीसरे स्तर के अभिनेता, क्रिकेटर, धंधेबाज धर्माचार्य आदि चाटुकार संसद और विधायिकाओं की शोभा बढ़ाने लगे. समाज उस रास्ते चल पड़ा जहां विघटन ही विघटन, बिखराव ही बिखराव था. उसका सबसे विकृत रूप आज हमारे सामने है.

पूंजीवाद के पीछे केवल लाभ की विचारधारा काम करती है. यही उसकी ताकत और सही मायने में उसकी कमजोरी भी है. लाभ की विचारधारा के प्रभाव में वह केवल अपना हित देखता है. उपभोक्तासंस्कृति जो और कुछ नहीं, पूंजीवाद की महत्त्वाकांक्षाओं और स्वार्थलिप्सा की उपज होती है—उसे आगे बढ़ाने में सहायक होती है. उसके दबाव में जनसंस्कृति सुविधासंस्कृति का रूप लेने लगती है. परिणामस्वरूप सब केवल अपने सुखसुविधा की चिंता करने लगते हैं. विचारधारा के अभाव में समाज लक्ष्यविहीन हो जाता है. ऐसे समाज को मर्जीमुताबिक हांकना आसान होता है. मीडिया आज यही कर रहा है. प्राचीन वाङ्मय की पड़ताल से यह भलीभांति जाना जा सकता है कि ज्ञान तथा उसकी परंपरा पर कभी किसी का विषेषाधिकार नहीं रहा. एक साधारण किसान और मजदूर भी समाज के हित में मौलिक चिंतन कर सकता है. बावजूद इसके सामाजिक ऊंचनीच को नैसर्गिक सिद्ध करने, कुछ खास वर्गों को दूसरों से सक्षम दर्षाने के लिए ज्ञान को विषिष्ट कर्म घोषित करने की परंपरा भारत में हजारों वर्षों से रही है. आधुनिक भारतीय मीडिया का संस्कार ऐसे ही लोगों ने गढ़ा है. इसलिए वह भी ज्ञान को कुछ लोगों के विषेषाधिकार के रूप में पेष करता आया है. हम किसी विचार से सहमत हों या असहमत, प्रत्येक अवस्था में वह हमारा और समाज का मार्गदर्शन करता है. यदि हम किसी विचार से असहमत हैं तो वह हमें बताता है कि विचारगत स्थितियां हमें क्यों पसंद नहीं हैं. इसी तरह विचारविशेष से सहमति उस विचार से संबंध रखने वाली स्थितियों के प्रति हमारी पसंद तथा उसके स्तर को दर्शाती है. वह लोगों को धैर्यवान बनाकर, उनकी उम्मीद बनाए रखने में मददगार बनता है. इसे दरकिनार करते हुए गत शताब्दी के उत्तरार्ध में ‘विचारधारा के अंत’ का नारा खूब उछाला गया था. स्वाधीनता आंदोलन के दौरान और उसके बाद के दोतीन दशकों में समाजवादी विचारधारा का प्रभाव नेताओं और समाज के बुद्धिजीवी तबके पर था. कोई सोच भी नहीं सकता था कि आजादी के कुछ ही दशक बाद के नेता और सरकारें, जनसाधारण के प्रति अपने संकल्प को भुलाकर दक्षिणपंथी ताकतों के हाथ का खिलौना बन जाएंगी. लेकिन हुआ वही जो अनपेक्षित था. धर्म, पूंजी और राजनीति के गठजोड़ के परिणामस्वरूप देश में दक्षिणपंथ उत्तरोत्तर मजबूत होता चला गया.

ऐसा नहीं है कि इसका विरोध नहीं हुआ. परिवर्तनकामी शक्तियों की ओर से उन्हें चुनौती भी खूब मिली. आजादी आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के बाद दलित और पिछड़ी जातियों में राजनीतिक चेतना का विकास हुआ था. लोकतांत्रिक परिवेश में वे अपने लिए समानता और स्वतंत्रता की मांग करने लगी थीं. बहुमत में होने के कारण उनकी उपेक्षा करना ठेठ दक्षिणपंथी ताकतों के लिए भी आसान न था. इसलिए जातिवाद को बचाए रखने के लिए उन्होंने धर्म का सहारा लिया. सांप्रदायिकता को उभारा. उनकी कोशिश जाति और धर्म के सहारे बहुसंख्यक वर्ग को छोटेछोटे समूहों में बांटने की रही. कभी प्रलोभन तो कहीं फूट डालकर वे जनचेतना को अवरुद्ध करने में लगी रहीं, ताकि संगठित शक्ति का रूप लेकर वह उनके लिए कभी चुनौती न बन सकें. पूंजीवाद के उभार के साथ सार्वजनिक स्थलों पर जातीय भेदभाव में तो कमी आई, किंतु उत्तरोत्तर सिकुड़ती सामाजिकता के कारण, परिवार और समूह के भीतर लोग घोर जातिवादी होते चले गए. इस विकृति के बावजूद वंचित समूहों में उभरती लोकतांत्रिक चेतना ने दक्षिणपंथ को जबरदस्त टक्कर दी; और आज तक दे रहे हैं. इन दिनों देश में पूंजीवाद चरम पर है. चूंकि इस देश की पूंजी और संसाधनों का बड़ा हिस्सा दक्षिणपंथी समूहों के अधिकार में है, इसलिए गैरदक्षिणपंथी धाराओं के दमन और उपेक्षा की नीति आज भी जारी है.

दक्षिणपंथ का उभार शेष दुनिया में भी बड़ी तेजी से हुआ, किंतु भारतीय दक्षिणपंथ कई मायनों में उससे भिन्न था. वहां सामाजिक स्तरीकरण का एकमात्र आधार या तो नस्ल थी अथवा पूंजी. नस्ल के प्रभाव को अमेरिकी क्रांति काफी हद तक बेअसर कर चुकी थी. फ्रांसिसी क्रांति के बाद तो व्यक्तिस्वातंत्र्य और मानवाधिकार की हवाएं पूरी दुनिया में बहने लगीं. भारत भी उनसे अछूता नहीं था. हालांकि यहां हालात पश्चिम से भिन्न थे. आर्थिक असमानता के अतिरिक्त यहां जाति और धर्म के आधार पर भी सामाजिक ऊंचनीच और विषमताएं थीं. इसलिए दक्षिणपंथ की विकृतियों को सहेजे रखना यहां बहुत आसान था. इसलिए जिस लोकतंत्र से उम्मीद की जाती थी कि वह दक्षिणपंथी ताकतों को किनारे होने के लिए विवश कर देगा, अंततः वही उनका पालनहार बन गया. कुछ ऐसी ही उम्मीद तकनीक और प्रौद्योगिकी से भी थे. पश्चिम में ‘विज्ञान के पितामह’ कहे जाने कहे जाने वाले फ्रांसिस बेकन ने मशीनीकरण का स्वागत करते हुए कहा था कि मशीनें मनुष्य को जानलेवा उनकी मुक्ति में सहायक बनेंगीं. किंतु एक शताब्दी से भी कम समय में अनियोजित मशीनीकरण की विकृतियां सामने आने लगी थीं. दोष मशीनों और मशीनीकरण का नहीं था. दोष विपुल उत्पादन में सहायक प्रौद्योगिकी के कुछ हाथों तक सीमित होकर रह जाना था.

हाल के दशकों में भारतीय पूंजीवाद अपने उग्रतम रूप में सामने आया है. किंतु वैश्विक स्तर पर यह नया नहीं हैं. अठारवीं शताब्दी से पहले तक लौकिक संस्कार और धार्मिक विश्वास वहां भी मनुष्य का स्वैच्छिक वरण नहीं थे. सामाजिकता की अनिवार्य शर्त के रूप में वे जन्म के साथ जनसाधारण पर थोप दिए जाते थे. अपनी सामाजिक हैसियत को सुरक्षित रखने के लिए चालाक अभिजन शक्तियां सामाजिक प्रतीकों, मिथों में मनमाना हस्तक्षेप करती थीं. इस तरह संस्कृति की आड़ में अल्पसंख्यक समूहों की बहुसंख्यक पर इजारेदारी पीढ़ीदरपीढ़ी चलती रहती थी. जनसाधारण यह माने रहता था कि अभिजन शक्तियां अपने जन्मजात गुणों के कारण उससे श्रेष्ठ हैं. इसलिए शिखर पर बने रहने का उनका दावा भी स्वाभाविक है. चूंकि पश्चिमी समाज में जातीय विभाजन जैसी कोई परिकल्पना नहीं थी, इसलिए सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के विरुद्ध जंग जीतना वहां अपेक्षाकृत आसान था. इसके प्रयास वहां पंद्रहवीं शताब्दी के आरंभ से ही होने लगे थे. मैकियावेली ने राजतंत्र की अपेक्षा नागरिक समूहों द्वारा गठित सरकार को श्रेष्ठ माना था. उसका प्रभाव आने वाली शताब्दियों में पड़ा. इससे राज्य की अवधारणा पुष्ट हुई. उससे पहले राजतंत्र में केवल केंद्र हुआ करता था. किसी भी राजा द्वारा शासित क्षेत्रों की उसके नाम के साथ गिनती की जाती थी. नागरिक की पहचान, जो पहले सामान्यतः राजाविशेष की प्रजा के रूप में होती थी, राज्य की अवधारणा विकसित होने के बाद, स्वतंत्र रूप से स्पष्ट होने लगी. अठारहवीं शताब्दी तक वहां मानवमात्र की समानता और स्वतंत्रता का समर्थन करने वाली अनेक विचारधाराएं अस्तित्व में आ चुकी थीं. उनके बीच अनेक मतांतर थे. कुछ मुद्दों को लेकर आपसी टकराव भी था. लेकिन मानवमात्र की आजादी और सुख में सबकी सहभागिता को लेकर वे प्रायः एकमत थीं.

सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के विरुद्ध बौद्धिक चेतना का प्रादुर्भाव इटली में हुआ था. भारत की इटलीवासी भी अपनी प्राचीन संस्कृति को श्रेष्ठतादंभ का शिकार थे. उसमें भी समाज के बहुत छोटे हिस्से को अतिरिक्त अधिकार प्राप्त थे. विल्फ्रेड परेतो, गेइतानो मोस्का, अंतोनियों ग्राम्शी आदि ने संस्कृतिक विभाजन की पड़ताल की. परेतो पेशे से इंजीनियर था. अपने अध्ययन से उसने यह निष्कर्ष निकाला कि इटली की कुल अस्सी प्रतिशत संपदा पर वहां के 20 प्रतिशत अभिजन समूहों का अधिकार है. अगले चरण में उसने अपने अध्ययन का दूसरे यूरोपीय देशों तक विस्तार किया. वह यह देखकर हैरान रह गया कि दूसरे देशों भी समाज का बहुत छोटा हिस्सा बाकी समूहों पर अपनी सांस्कृतिकसामाजिक और आर्थिक श्रेष्ठता का दम भरते हुए, शासन करता है. मोस्का का अध्ययन अभिजन समूहों की पहचान तथा उनकी प्रवृत्तियों को लेकर था. उसका कहना था कि शासकवर्ग अपनी बौद्धिक चतुराइयों के बल पर दूसरों पर शासन गांठने में कामयाब होता है. मार्क्स ने पूंजीवाद की चुनौतियों से निपटने के लिए श्रमिकों का संगठित विरोध के लिए आवाह्न किया था. श्रमिक समूहों को उसका सुझाव था कि उन्हें आगे बढ़कर सत्ता और संसाधनों पर अपना अधिकार सुनिश्चित कर लेना चाहिए. ग्राम्शी मार्क्सवाद के नाम पर हुई क्रांतियों की असफलता से परिचित था. अपने चिंतन से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि सफल सर्वहारा राज्य की परिकल्पना तभी संभव है, जब सर्वहारा समूहों में राज्य करने की पर्याप्त योग्यता हो. वे अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक हों. गैरअभिजन समूहों के अपने बुद्धिजीवी हों जो अभिजन वर्ग की बौद्धिक चतुराइयों को समझकर समय रहते उसका समाधान खोजकर, गैरअभिजन समूहों की स्वतंत्रता बनाए रख सकें. इसे राजनीतिक पराधीनता कहें या नए ज्ञान के प्रति उदासीनता का स्वभाव, भारतीय बुद्धिजीवी विश्वस्तर पर हो रही बौद्धिक क्रांतियों से अनजान बने रहे. यह स्वाभाविक भी था. भारतीय समाज जातियों में बंटा था और जाति के आधार पर जिस वर्ग का बौद्धिक कार्यों में दखल था, और जो उसका स्वयंनिर्धारित कर्तव्य था, उसके हित समाज में बौद्धिक जड़ता बनाए रखने से जुड़े थे. उसके लिए उसकी कल्पना में गढ़ा गया ‘सतयुग’ ही सबकुछ था, जिसमें वह निरंकुशता की परिसीमा तक अधिकारसंपन्न था. राज्य उसकी जिदों और महत्त्वाकांक्षाओं के आगे बौना दिखाई पड़ता था. उनीसवीं शताब्दी के आरंभ में, अंग्रेजी शिक्षा के साथ, देश के बौद्धिक वातावरण में हलचल दिखाई पड़ी. आरंभ में अंग्रेजी पढ़ना सरकार के करीब पहुंचने का जरिया था. धीरेधीरे अंग्रेजी के ज्ञानविज्ञान ने दूसरे क्षेत्रों में भी दखल देना शुरू किर दिया. नई व्यवस्था में शिक्षा के दरवाजे सभी के लिए खुल चुके थे. इससे गैरब्राह्मणों का भी बौद्धिक क्षेत्र में दखल बढ़ा. उसके फलस्वरूप आधुनिक प्रगतिगामी विचारधाराएं भारत में प्रवेश करने लगीं.

आधुनिक विद्वानों में जॉन देरिदा, मिशेल फूको जैसे विचारकों के नाम शामिल हैं. वे मानवीय सरोकारों से प्रतिबद्ध थे. दोनों ने उत्तरआधुनिकता को अपने अध्ययन का विषय बनाया. उत्तरआधुनिकता उपभोक्तावादी संस्कृति की देन, व्यक्तिवाद और पूंजीवाद का बेमेल संस्करण है. उसमें ज्ञान को भी आकादमिक उत्पाद मान लिया जाता है. पूंजी के वर्चस्व के आगे विचारधाराएं मौन और असहाय नजर आती हैं. बाजारकेंद्रित अर्थव्यवस्था में व्यक्तिस्वातंत्र्य और समानता का बोध, उपभोग की स्वतंत्रता तक सीमित हो जाते हैं. आधुनिक सभ्यता की इस विसंगति की सहीसही पहचान फूको ने की थी. उसका विचार था कि पूंजीपति वर्ग को इन दिनों केवल आर्थिक सत्ता से संतोष नहीं है. वह अपनी सामाजिक सत्ता भी बनाए रखना चाहता है. इसके लिए वह हिंसा के उपकरणों सेना, पुलिस आदि का भी मनमाना उपयोग करने में दक्ष होता है. समाज को नियंत्रित करने के लिए वह अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर कुछ कसौटियां बना लेता है. जो भी व्यक्ति उन कसौटियों पर खरा नहीं उतरता, वह उसे अक्षम मानकर डराता है. इस तरह लोगों को अक्षमता का भय दिखाकर उनपर नियंत्रण बनाए रखता है. डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भयभीत करता है. परिणामस्वरूप लोग एकदूसरे पर संदेह करने लगते हैं. समाज में उत्तरोत्तर बढ़ती विश्वासहीनता के बीच पूंजीपति का काम आसान हो जाता है. मानवीय संबंधों में आई दरार को पाटने के लिए वह कृत्रिम संबंधों का निर्माण करता है. मनुष्य को वास्तविकता से काटकर आभासी दुनिया में ले जाता है. लोगों को लगता है कि तकनीक के आधार पर निर्मित दुनिया में वह अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र और सुरक्षित है. केवल नई दुनिया उसकी बौद्धिक एवं भावनात्मक उपलब्धियों की सहीसही पहचान करती है. इस भ्रम में वह आभासी दुनिया को असली दुनिया से अधिक वास्तविक और भरोसेमंद मानने लगता है. जबकि आभासी दुनिया में व्यक्ति या व्यक्तिसमूहों की स्वतंत्रता उपभोक्ताबाजार तक सीमित होती है. लोकतंत्र और मानवाधिकार उपभोक्ताअधिकारों की जकड़बंदी से बाहर नहीं निकल पाते.

देरिदा ने गिनती पिछली शताब्दी के सर्वाधिक प्रतिभाशाली और मौलिक चिंतक के रूप में की जाती है. वे ‘विखंडनवाद’ के सिद्धांतकार हैं. देरिदा के विचारों को ग्राम्शी के सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के सिद्धांत के समानांतर रखकर आसानी से समझा जाता है. यथास्थिति बनाए रखने के लिए अल्पसंख्यक अभिजन केवल समाज के संसाधनों का स्वार्थ हेतु उपयोग नहीं करता. अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के विस्तार एवं भविष्य की चुनौतियों को कम करने के लिए वह बहुसंख्यक वर्ग के दिलोदिमाग पर भी अधिकार जमाए रखता है. अपने स्वार्थ को वह बहुजन समूह के हित के रूप में पेश करता है. इस चालाकी से बेखबर अपने बौद्धिक नेतृत्व हेतु अभिजन समूहों पर निर्भर बहुजन, अल्पसंख्यक अभिजनों द्वारा विनिर्मित तंत्र और सामाजिकसांस्कृतिक विश्लेषण को ही असल माने रहते हैं. प्रकारांतर में वे अभिजन समूह की स्वार्थपूर्ति में ही अपना कल्याण समझने लगते हैं. यह उसी तरह है जैसे कारखाने के मुनाफे और विस्तार को किसी मजदूर या कारीगर द्वारा अपनी तरक्की मान लेना. अल्पसंख्यक अभिजन द्वारा थोपी गई भ्रांतियां बहुसंख्यक वर्ग को ऐसा सोचने को बाध्य करती हैं. इसलिए ग्राम्शी ने अभिजन वर्चस्व से बौद्धिकशारीरिक मुक्ति के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मुक्ति को आवश्यक माना. यह मुक्ति एकदम आसान नहीं है. इसलिए कि वैचारिकता के आकलन के जितने भी ज्ञात मापदंड हैं, सब पर अभिजन वर्ग की स्वार्थदृष्टि का प्रभाव है. उदाहरण के लिए लेखकों और कलाकारों के बड़े वर्ग में प्रचलित ‘कला कला के लिए’—जैसी अवधारणा. या फिर यह विचार कि ‘साहित्य का प्रथम उद्देश्य मनोरंजन है.’ ये मान्यताएं समाज के शीर्षस्थ अभिजनों द्वारा जो समस्त कलाओं को उपयोग अपने सुखसुविधा के लिए करना चाहते हैं—द्वारा थोपी गई हैं. प्राचीन आलोचनाशास्त्र इन्हीं कसौटियों के आसपास घूमता है. वर्णव्यवस्था और सामंती वृत्तियों के घोर समर्थक तुलसी उसकी दृष्टि में हिंदी के श्रेष्ठतम कवि हैं. आलोचना के ऐसे मापदंडों से साहित्य की लोकोपकारी समालोचना असंभव है. इस लिए देरिदा साहित्य के नए पाठ हेतु नवीन आलोचनादृष्टि को अपरिहार्य मानता है.

देरिदा का विचार था कि इतिहास, संस्कृति और ज्ञान के उपलब्ध स्रोतों में अत्यधिक दोहराव है. जैसे मशीन अपनी पूर्ववर्ती अवस्था में निरंतर लौटती रहती है, इसी प्रकार इतिहास भी बारबार अपनी उन्हीं प्रतिज्ञाओं को दोहराता है, जिनसे येनकेनप्रकारेण अभिजन हितों की पुष्टि होती हो. जिससे ऐतिहासिक निष्कर्षों पर जड़ता हावी होने लगती है. इतिहास के प्रभामंडल से बाहर आने के लिए आवश्यक है कि सभ्यता और संस्कृति के रूप में उपलब्ध ज्ञानसामग्री तथा आलोचना के उपकरणों को संदेह के दायरे में लाया जाए. उन्हें अपर्याप्त तथा ‘ना कुछ’ मानकर किनारे करते हुए नवोन्वेषण हेतु कमर कस ली जाए. चुनौती यहीं समाप्त नहीं होती. वृहद सामाजिक हितों के अनुरूप नई व्याख्याएं पेश करने कैसे संभव हो? कैसे मनुष्य को उसकी प्रतिगामी सोच से बाहर लाया जाए? इसके लिए देरिदा ने ‘विखंडनवाद’ का विचार दिया. उनका आशय था किसी भी कृति, शब्द या विचार के ज्ञात अर्थों तथा प्रज्ञप्तियों पर अविश्वास करते हुए, स्थापित अर्थो को पूरी तरह किनारे कर, उसके नवीनतम पाठों की ओर बढ़ना. बौद्धिक वर्चस्व से मुक्ति के लिए इस तरह का विखंडन अपरिहार्य है.

लोकहित का दावा करने वाली प्राचीन विचारधाराओं का संज्ञान न लेते हुए, यदि केवल विगत दोतीन शताब्दियों के बौद्धिक आंदोलनों पर ही विचार किया जाए तो इस अवधि में मानवकल्याण का दावा करने वाले अनेक दर्शन सामने आए हैं. उनपर किसी को भी गर्व हो सकता है. उनके प्रवर्त्तकों की ईमानदारी पर भी संदेह नहीं किया जा सकता. मगर समाज में उत्तरोत्तर बढ़ती विचारहीनता, अविश्वास, हताशा, भय और तनाव की स्थिति दर्शाती है कि समग्र लोकहित का दावा करने वाली उन विचारधाराओं में कोई न कोई कमी अवश्य रही है. कुछ है, जिससे समाज उससे अपेक्षित रूप में लाभान्वित न हो सका. या तो वे विचारधाराएं कमजोर थीं. अथवा समाज को उनके अनुरूप ढालने में कोताही बरती गई. सच यह भी है कि सामाजिक जटिलताओं की व्याख्या के लिए कोई भी एकल विचार, वह चाहे जितना परिपक्व दिखाई पड़े, अपर्याप्त होता है. एक सीमा के बाद प्रत्येक विचारधारा कमजोर दिखने लगती है. उचित यह है कि विचारों के कार्यान्वन, समाज निर्माण में लगी शक्तियां अपनी संक्रियता को निरंतर बना यह भी संभव है कि विचारधाराओं में कोई कमी न हो, उनके प्रवर्त्तकों की सदाशता भी संदेह से परे हो, लेकिन वृहद जनसमाज में उन विचारधाराओं को लेकर अविश्वास का भाव रहा हो? विचारबहुलता के दौर में समाज का विचारहीनता की ओर बढ़ना दर्शाता है कि विचार चाहे जिस वर्ग की देन रहे हों, प्रत्येक युग में समाज को उनसे परचाने तथा उनके कार्यान्वन हेतु सक्षम योजनाएं बनाने के प्रमुख सूत्रधार शीर्षस्थ अभिजन ही रहे हैं. भारत में मार्क्सवाद और वामपंथ की असफलता का बड़ा कारण भी यही है. चूंकि बहुजन तथा अभिजन वर्ग के हितों में सदैव टकराव रहा है, इसलिए विचारधाराओं के कार्यान्वन के लिए आधीअधूरी योजनाएं बनाने, तथा जनता में उन कार्यक्रमों के प्रति उदासीनता के कारण समाज उनसे अपेक्षित लाभ उठाने में अक्षम रहा है. बहुजन वर्ग भी ऐसी विचारधाराओं को संदेह की दृष्टि से देखता है. वह उन्हें थोपी हुई विचारधारा मानता है. यही कारण है कि उद्देश्यों की पवित्रता के बावजूद ऐसे विचार समाज का प्रबोधीकरण करने में नाकाम होते आए हैं.

असफलता का बड़ा कारण जीवन में पूंजी का अवांछित हस्तक्षेप है. ठोस विचारधारा के अभाव में सामूहिक हितों की पड़ताल कठिन हो जाती है. छोटेछोटे सामाजिक समूहों को ललचाने के लिए राजनीतिक दल ऐसे मुद्दे लाते हैं, जो विशेष प्रलोभनकारी और किसी न किसी प्रकार उपभोग से जुड़े होते हैं. पूंजीवादी मीडिया इस काम में उनकी मदद करता है. चूंकि उपभोक्ता के मानसनिर्माण का कार्य मुख्यतः मीडिया के अधीन होता है, जिसपर पूंजीपतियों का अधिकार है. चर्चा में बने रहने के लिए राजनीतिक दल मीडिया की शरण में जाते हैं किसी न किसी रूप में पूंजीपति संस्थानों के लिए कठपुतली की तरह काम करते हैं. उससे शासन पूंजीवाद के हितसंरक्षण में जुड़ जाता है. विचारधारा से अलगाव उनके भीतर अपने ही राजनीतिक कार्यक्रमों के प्रति अविश्वासहीनता को जन्म देता है. प्रकारांतर में वे पूंजीवादी संगठनों के हाथ की कठपुतली की तरह काम करने लगते हैं. पक्षविपक्ष दोनों की राजनीतिक गतिविधियां पूंजीपतियों के हितसंरक्षण में लगी होती हैं. पूंजीवाद का अप्रत्यक्ष हाथ उन्हें अपने स्वार्थ के हिसाब से अनुकूलित करता रहता है. दुष्परिणाम यह होता है कि सरकार और संगठन जनता से कटकर पूंजीपतियों के हितसाधन में लगे रहते हैं. चूंकि पूंजीपति वर्ग ये सारे काम पर्दे के पीछे रहकर, बड़ी चतुराई के साथ करता है, इसलिए शासन की असफलताओं, जनता की कसौटियों पर खरा न उतरने का दोष सरकार और उसके नेताओं पर आता है. हकीकत से अनजान जनता चुनावों के जरिये बारबार सरकार बदलती है. लेकिन हालात वही के वही रहते हैं. इसलिए कि लोग जो उम्मीद अपनी सरकार से पालते हैं, वह कदाचित उसके बस से बाहर होता है.

इसका आषय यह नहीं है कि जितने नेता हैं, सभी पाकसाफ और दूध के धुले हैं. उद्देष्य केवल यह बताना है कि लोकतांत्रिक दायित्वों को निभाने के लिए यदि कोई उत्साही नेता आगे बढ़ना चाहे तो उसके लिए नई चुनौतियों से गुजरना बेहद कठिन होता है. इसलिए पढ़ेलिखे विचारवान नेता भी मूल्यकेंद्रित राजनीति से कतराने लगते हैं. योगेंद्र यादव इसका सटीक उदाहरण हैं. वे विचार की दुनिया से राजनीति में आए हैं. समाजविज्ञान के ज्ञाता हैं. राजनीति में लोकभागीदारी सुनिश्चित करना चाहते हैं. यही लक्ष्य गणतांत्रिक समाजवाद का भी है, जो एक आधुनिक और लोकप्रिय विचारधारा है. योगेंद्र जी की निष्ठा और कार्यशैली पर संदेह नहीं किया जा सकता. गणतांत्रिक लोकतंत्र की सफलता तभी संभव है जब नागरिक उससे भलीभांति परिचित हों. देशभर में घूमघूमकर अपनी सभाओं के माध्यम से वे भी लोकजागरण के काम में जुटे हैं. जाति, धर्म और सामंतवाद के साये में रही जनता के लोकतांत्रिक प्रबोधीकरण के लिए ऐसे कार्यक्रमों की आवश्यकता आजादी के बाद से ही थी. मगर कभी कोई गंभीर कोशिश इस दिशा में नहीं की गई. यहां ‘रोशडेल पायनियर्स’ का उल्लेख प्रासंगिक होगा. उसे विश्व की पहली सफल सहकारी संस्था होने का गौरव प्राप्त है. यह समझते हुए कि कामयाब सहकारिता के लिए सदस्यों को उसकी सैद्धांतिकी के बारे में समझाना आवश्यक है, संस्था की ओर से सीमित संसाधनों के बावजूद उसकी नियमित व्यवस्था की गई थी. ‘रोशडेल पार्यनियर्स’ की सफलता दूसरों के लिए मार्गदर्शक बनी. फलस्वरूप सहकारिता आंदोलन दुनियाभर में फैला. बहरहाल बात योगेंद्र यादव की हो रही है. उनसे जब भी वैचारिक प्रतिबद्धता के बारे में चर्चा हुई, वे सीधे व्यवहार पर उतर आते हैं. यह कुछ ऐसा ही है जैसे तेज आंधीतूफान के बीच बिना छत के घर के नीचे षरण लेने की सलाह देना. दुनिया को नए चिचारों की नहीं, उसे बदलने वालों की जरूरत है—यह कार्ल मार्क्स ने भी कहा था. वह आज की तरह विचारशून्यता का समय नहीं, बौद्धिक क्रांति का दौर था. समाज में नए राजनीतिक दर्षनों के बीच बहस छिड़ी थी. विभिन्न विचारधाराओं के बीच सीधी प्रतिद्विंद्वता थी. स्वयं मार्क्स भी अपने ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ के साथ चर्चा में थे. दिनोंदिन पांव पसारते पूंजीवाद पर अंकुश लगाने के लिए सीधा टकराव आवश्यक था. इसलिए उन दिनों पूंजीवाद और शेष विचारधाराएं आमनेसामने थीं. उनकी पहचान करना सरल था. आज वैसा नहीं है. समय के साथ पूंजीवाद ने खुद को बदला है. राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में उसकी गहरी घुसपैठ है. वामपंथी नेता भी इससे अछूते नहीं हैं. वामपंथ की मूलभूत प्रतिबद्धताओं को वे व्यावहारिकता का तकाजा कहकर किनारे करते आए हैं. इसलिए समाज में पूंजीवाद के प्रति सामान्य सहमति दिखाई पड़ती है.

2012 में अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में चले जनांदोलन ने समाज में परिवर्तन के प्रति उत्सुकता चलाई थी. चूंकि उसके पीछे कोई ठोस विचारधारा नहीं थी, इसलिए कुछ ही महीनों में वह आंदोलन बिखरसा गया. उसके नेता लोकप्रिय राजनीति का हिस्सा बनते चले गए. इस बीच कई जनांदोलन पनपे. पूंजीवादी मीडिया की नीति उन्हें उपेक्षित करने की रही. जनांदोलनों की उपेक्षा अथवा उनके नेताओं की चरित्रहत्या द्वारा वह लोकसशक्तिकरण के कार्यों में बाधक रहा है. पूंजीवादी चालों को समझने वालों के लिए यह अनपेक्षित नहीं है. उसके अभाव में संसदीय बहसें सड़कें, बिजली, पानी और आरक्षण जैसे मामूली मुद्दों के आसपास घूमती रहती हैं. कहने की आवश्यकता नहीं कि कारपोरेट सेक्टर भी यही चाहता है. इससे उपभोक्ताकरण में मदद मिलती है. लोग अमर्यादित उपभोग और उपयोग का अंतर भूलने लगते हैं. समस्या इतनी भयावह है कि गंभीर और स्वचेता किस्म के लोग भी उम्मीद छोड़ने लगे हैं. जबतब ‘विचारधारा के अंत’ की बात भी सुनाई पड़ जाती है. ऐसे दौर में जब क्रिकेट और फिल्में देशभक्ति का पर्याय बन चुकी हों, मोबाइल उत्तरोत्तर ‘स्मार्ट’ मगर आदमी का दिलोदिमाग कुंद होता जा रहा हो, लोग आभासी और वास्तविक दुनिया का भेद भूल चुके हों, क्या प्रतिबद्धता की सफल राजनीति संभव है? सवाल यह भी है कि षरद यादव, लालू यादव, अखिलेश यादव सहित 17 दलों के प्रमुख नेता अथवा उनके प्रतिनिधि जो उस रैली में उपस्थित थे, क्या सार्थक विकल्प देने के लिए कृतसंकल्प हैं?

उस रैली में बसपा की ओर से सतीष चंद्र मिश्र मौजूद थे. सामाजिक न्याय को लेकर उनकी क्या प्रतिबद्धता है, यह स्पष्ट नहीं है. बसपा के साथ वे केवल राजनीतिक स्वार्थ के लिए जुड़े हैं. फिर सुश्री मायावती द्वारा रैली में बतौर बसपा प्रतिनिधि सतीश मिश्रा को ही क्यों चुना? ठीक है, बात जब ‘सांझी विरासत’ की हो तो उसमें ब्राह्मणों को भी सम्मानजनक हिस्सा मिलना चाहिए. पर बात केवल इतनी नहीं है. उन्हीं दिनों ‘सोषल मीडिया’ पर एक तस्वीर वायरल हुई थी. तस्वीर क्या बसपा की ओर से या उसके नाम पर बनाया गया पोस्टर था. उसमें बसपा प्रमुख की आदमकद तस्वीर थी. बाकी दलों के नेताओं के, जिन्हें गठबंधन के सदस्य के रूप में देखा जा रहा है, के केवल मुखौटे थे. पोस्टर को किसने बनाया? किसने और क्यों सोषल मीडिया पर वायरल किया? संभव है वह किसी विरोधी नेता की साजिश अथवा जानबूझकर की गई सांकेतिक कार्रवाही रही हो. बताया यह भी गया कि वह बसपा का अधिकारिक पोस्टर नहीं था. लेकिन वह जिस तरह बनाया गया था, बसपा की ओर से उसका खंडन न होना, गठबंधन बनाने में जुटे नेताओं की मनोदषा को दर्षाता है.

उत्तर प्रदेश विधान सभा के पिछले चुनावों के बाद प्रत्येक दल भलीभांति समझ चुका है कि वर्तमान परिस्थितियों में भाजपा का सामना उनमें से किसी एक दल द्वारा संभव नहीं है. सब जानते हैं कि 70 प्रतिषत मत विपक्षी दलों के बीच थोड़ेथोड़े बंट जाते हैं और बाकी बचे वैध मतों में से 28-29 प्रतिषत मत पाकर भाजपा पूरी ठसक के साथ सरकार बना ले जाती है. भाजपा को हराने के लिए विरोधी मतों को एकजुट करना न केवल उनके लिए बल्कि देष की एकता, अखंडता, सामाजिक सद्भाव और देश की सुखसमृद्धि के लिए अत्यावश्यक है. बावजूद इसके प्रत्येक दल संभावित गठबंधन में अपने लिए अधिकाधिक सीटें सुनिष्चित कर लेना चाहता है. वर्तमान भारतीय राजनीति, विषेषकर विपक्ष की सबसे बड़ी त्रासदी उसका विचारषूण्य हो जाना है. बिना किसी ठोस नीति और वैचारिक संकल्प के वे ऐसा गठबंधन बनाना चाहते हैं जो भाजपा को जो इस समय अपनी विचारधारा को लेकर सर्वाधिक उग्र और आत्मविश्वास से भरपूर है—चुनौती देना चाहते हैं. भाजपा जैसे शुद्ध सांप्रदायिक और घोर जातिवादी दल को हराने के लिए गठबंधन अपरिहार्य है. किंतु दूरदृष्टि और ठोस नीति के अभाव में कोई भी संभावित गठबंधन विषुद्ध अवसरवादी समझौता होगा.

चलतेचलते कुछ चर्चा ‘सांझी विरासत’ पर भी. शरद यादव जाति के बजाय जमात की बात करते हैं. धर्म और छोटेछोटे जाति समूहों के रूप में बुरी तरह विभाजित समाज में इन शब्दों के गहरे निहितार्थ हैं. सवाल है कि ‘सांझी संस्कृति’ अथवा ‘सांझी विरासत’ जैसी कोई चीज क्या सचमुच भारतीय समाज में रही है? भारत के संदर्भ में कहीं वह सामाजिक यथास्थितिवाद का पर्याय तो नहीं? देश में सांस्कृतिक एकता की बात करने वाले विद्वान प्रायः ‘विविधता में एकता’ की बात कहकर भारतीय संस्कृति का महिमामंडन करते हैं. प्रथम दृष्टया वे गलत भी नहीं हैं. इस देश में उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक ऐसी अनेक समानताएं हैं, जिनसे विविधता में एकता का आभास होता है. उदाहरण के लिए होली, दीवाली, रक्षाबंधन, दशहरा जैसे त्योहार, पूरे देश में एक साथ और लगभग एक तरह से मनाए जाते हैं. स्थानीय रीतिरिवाज और आदिवासी समाजों को छोड़कर पूरे देश में विवाह संस्कार भी एक समान होता है. लोग समान रूप से आस्थावान हैं. जातिव्यवस्था को लेकर सभी के लगभग एक जैसे विचार हैं. स्थानीय देवीदेवताओं के अलावा राम, कृष्ण जैसे सामंती संस्कारों वाले देवता भी हैं, जिनकी पूजा किसी न किसी रूप में पूरे देश में की जाती है. प्रायः सभी प्रांतों में अर्थव्यवस्था का मुख्य स्रोत खेती है. ‘सांझी संस्कृति’ अथवा ‘सांझी विरासत’ का दावा करने के लिए क्या इतना पर्याप्त है?

यदि संस्कृति पीढ़ीदरपीढ़ी आगे बढ़ने वाला सामान्य लोकाचार है तो ‘सांझी संस्कृति’ उसे कहा जा सकता है, जिसे बनाने में सभी का बराबर का योगदान हो. जिसमें अवसरों की समानता हो. भारतीय संस्कृति इस दृष्टि से बहुत विपन्न है. प्रकटतः उसमें ऐसा कुछ नहीं है जो सामूहिकता, सहभागिता और मानवमात्र की स्वतंत्रता की प्रतीति कराता हो. भारतीय समाज जाति और धर्म के नाम पर अनेक छोटेछोटे समूहों में बंटा है. देशभर में तीस हजार से ऊपर जातियां, उपजातियां, गोत्र, उपगोत्र आदि हैं. उनके बीच ऊंचनीच की चौड़ी खाई है. वैवाहिक संबंध, खानपान और रहनसहन को लेकर भांतिभांति के प्रतिबंध हैं, जिन्हें वह अतीत की धरोहर के रूप में सौंपता है. धर्म पर संप्रदायवाद हावी है. प्रत्येक मतावलंबी अपने पंथ को दूसरों से श्रेष्ठ मानता है. जबकि तत्संबंधी उसका ज्ञान रूढ़ियों, आडंबरों और जड़विश्वासों का घालमेल होता है. कुल मिलाकर जिसे हम सांझा संस्कृति कहते हैं, उसमें कहीं न कहीं अपनेअपने विश्वासों, रीतिरिवाजों, धार्मिकसामाजिक आडंबरों यहां तक कि रूढ़ियों और पाखंडों के साथ जीने की बाध्यता बनी रहती है. यदि कोई उससे अलग चलना चाहे, तो संस्कृति उसे इजाजत नहीं देती. उल्टे तरहतरह की बाधाएं उत्पन्न कर, जीवन को दुष्कर बना देती है.

सांझी संस्कृति’ अथवा ‘सांझी विरासत’ असल में मिथ है. उसका वास्तविक प्रतीति यदि समाज में ही नहीं है, तब वह राजनीतिक दलों की एकता का आधार भला कैसे बन सकती है? क्या भारत जैसे विविधताओं वाले बड़े समाज को ‘सांझी संस्कृति’ के कोरे मिथ के सहारे एक किया जा सकता है? क्या केवल मिथ के भरोसे परिवर्तन की निर्णायक लड़ाई संभव है? इन सबसे महत्त्वपूर्ण एक प्रश्न यह है कि जो दल या नेता सांझी संस्कृति को बचाने के नाम पर एकजुट होना चाहते हैं, क्या उनका अपना जीवन या राजनीति सांझी संस्कृति की भावना पर खरी उतरती है? कुछ दशक पहले तक राजनीति पर सवर्णों का अधिकार था. कोई चुनौती उनके आगे नहीं थी. राजनीति में पिछड़ों और दलितों की संख्या नगण्य थी. आजादी के बाद दलितों और पिछड़ों के भीतर आत्मसम्मान की भावना जाग्रत हुई. लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, मायावती, नितीश कुमार जैसे नेता अस्मितावादी आंदोलनों की ही देन हैं. जातिआधारित भेदभाव और उत्पीड़न को उन्होंने या उनके पूर्वजों ने स्वयं झेला है. बावजूद इसके उनकी लड़ाई जाति के विरोध में न होकर, कहीं न कहीं अपने जातीय हितों की अधिकतम सुरक्षा तक सीमित रही है. पाब्लो फ्रेरा का मानना था कि उत्पीड़न के कारणों का सही बोध न होने के कारण उत्पीड़ित जनों की लड़ाई आमूल परिवर्तन के लिए न होकर तात्कालिक लाभों तक सिमट जाती है. परिवर्तन के आरंभिक दौर में उत्पीड़ित उत्पीड़क की नकल करता हुआ, उसके जैसा बनना चाहता है. स्वातंत्र्योत्तर भारत में दलितोंपिछड़ों की राजनीति के साथ यही हुआ है. लोकतांत्रिक अवसरों का लाभ उठाकर जो दलितपिछड़े नेता सत्ताकेंद्रों तक पहुंचे, उन्होंने आमूल परिवर्तन के लिए संघर्ष जारी रखने के बजाय क्षुद्र हितों से समझौता करना उचित समझा. इसलिए उनकी उपलब्धियां प्रदेशविशेष तक सीमित रहीं. जाहिर है जिस सांझी संस्कृति की बात शरद यादव कर रहे हैं, उसपर महागठबंधन के संभावित घटक दलों का न तो विश्वास है, न वह पूरी तरह से उनकी जीवनशैली का हिस्सा ही रहा है.

जातिवाद भाजपा और कांग्रेस के चरित्र का भी हिस्सा है. जातिवादी होने के साथसाथ वे यथास्थितिवादी भी हैं. एकदूसरे का विरोधी दल होने का दावा करने वाले ये दल असल में अभिजन संस्कृति के प्रमुख संरक्षक, पालक और प्रवर्त्तक रहे हैं. भाजपा अधिक उग्र है. वह जातिवाद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के साये में सुरक्षित रखना चाहती है. उसके लिए समयसमय पर अनेक चालें चलती रहती है. कांग्रेस चुपचाप काम करने में विश्वास रखती है. दोनों पर समाज के अभिजन तबकों का कब्जा है. दलितों और शूद्रों की उपस्थिति केवल मतदाताओं को लुभाने अथवा संवैधानिक औपचारिकताओं को पूरा करने तक सीमित है. व्यवस्था में आमूल परिवर्तन न तो भाजपा का अभीष्ट है, न कांग्रेस का. दोनों उन्हीं जातियों की हितसंरक्षक रही हैं, जो आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक स्तर पर हमेशा से शक्तिशाली रही हैं. इस आधार पर उनके पास सचमुच ‘सांझी विरासत’ है. ऐसी विरासत जिसमें वे मिलबांटकर सुखसाधनों का भोग करती आई हैं. अपनी सामाजिकसांस्कृतिक श्रेष्ठता का दावा करते हुए वे बाकी जनसमूहों पर शताब्दियों से शासन करती आई हैं. उसे पूंजीपतियों और सरमायेदारों का समाजवाद कह सकते हैं. ठीक सतयुग की तरह जिसमें समस्त सुखसंसाधन देवताओं की थाती मान लिए गए थे. जो देवता नहीं थे, वे या तो असुर थे या दास, जिन्हें धरती के बोझ की भांति देखा जाता था. सवर्ण जानते हैं कि यदि वे बिखरे तो लोकतंत्र का लाभ उठाकर संख्याबल में चार गुना बहुजन उन्हें सत्ता से हमेशाहमेशा के लिए बेदखल कर सकते हैं. यही स्वार्थपरता उन्हें एक रखती है. इसलिए वे बहुजन समूह में फूट डालकर, समयसमय पर जातिसमूहों को फुसलाकर अपनी राजनीतिक हैसियत को बचाने का षड्यंत्र रचते रहते हैं. धर्मकेद्रित संस्कृति उनका वर्चस्व कायम रखने में मददगार होती हैं. संगठित अल्पसंख्यक अभिजन असंगठित बहुजन समूहों पर शताब्दियों से राज करती आए हैं; और आज भी कर रहे हैं. इस बात को भाजपा के नेता भलीभांति जानते हैं.

यह कहना तो अनुचित होगा कि शरद यादव जैसा अनुभवी और मंजा हुआ राजनीतिज्ञ इन तथ्यों से अनजान हो. लेकिन शीर्ष जातियों के सांस्कृतिक वर्चस्व से जूझने और अभिजन संस्कृति के मुकाबले जनसंस्कृति को खड़ा करने के लिए जो सोच, साहस, राजनीतिक दूरदृष्टि और संकल्पसामर्थ्य चाहिए, वह उनके पास नहीं है. इसलिए कि वे स्वयं भी जातिवादी राजनीति का उपज हैं. दूसरा बड़ा कारण है—‘थिंक टेंक’ का अभाव. भाजपा आज यदि सफल है तो उसके पीछे ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का मजबूत वैचारिक स्रोत है, जो अपने ठेठ जातिवादी सोच को धर्म और राष्ट्रीयता के पर्दे में छिपाए रखता है. लेकिन संघ तो पहले भी था. अटलविहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे नेता संघ के प्रति उतने ही आस्थावान और समर्पित थे, जितने आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. लेकिन उस समय तक समाजवादी पार्टी पर राममनोहर लोहिया और बसपा पर ज्योतिराव फुले, डॉ. आंबेडकर, पेरियार और कांशीराम के आंदोलन का असर था. उनका विरोध कांग्रेस का था जो जातिवादी राजनीति करते हुए भी अपने सोच को बहुजन हितकारी दिखाती थी. गांधी की वैचारिकी से बंधी होने का दावा करने वाली कांग्रेस दलितों और पिछड़ों के सीधे विरोध में जा ही नहीं सकती थी. सत्ता की राजनीति करतेकरते ये दल अपनी वैचारिकी से दूर हटते गए. संघ उस समय तक नेपथ्य में रहकर कार्य करने को विवश था. कांग्रेस के कमजोर पड़ते ही संघ खुलकर सामने आ गया. बड़ी चतुराई से वह दलितों और पिछड़ों के बीच दरार बनाने में कामयाब रहा. सोचीसमझी रणनीति के तहत संघ ने भाजपा की राजनीति में हस्तक्षेप करना आरंभ किया. चुनावों को सांप्रदायिकता का रंग देने के लिए पिछले चुनावों में उसने मुस्लिम उम्मीदवारों से किनारा किया. पिछड़ी जातियों में सैंध डालने के लिए मोदी जैसे घोर संघी मानसिकता के नेता को पिछड़ी जाति का बताकर भाजपा का मुखौटा बनाया. उत्तर प्रदेश के चुनावों में भाजपा की जीत के बाद वह खुलकर मैदान में आ गया. समाज का सांप्रदायिक और जातीय विभाजन करने में इतना सफल हुआ कि प्रदेश की राजनीति में आगे मुखौटा लगाने की आवश्यकता ही नहीं समझी; और केशव प्रसाद मौर्य को किनारे कर, योगी आदित्यनाथ को सूबे की सत्ता का कर्णधार बना दिया गया. आरएसएस जैसे ‘थिंक टेंक’ के बल पर भाजपा का संघर्ष आरंभ से ही उर्ध्वगामी बना रहा. जाति केंद्रित राजनीति तक सीमित मुलायम सिंह यादव, मायावती, लालू यादव आदि ने कभी भी ‘थिंक टेंक’ की आवश्यकता को नहीं समझा. इसलिए उनकी सत्ता उनके अपने प्रदेशों में कैद रहने के साथसाथ बिखराव का शिकार होती रही.

ऐसे में शरद यादव से क्या उम्मीद रखी जाए? उल्लेखनीय है कि राजनीतिक वर्चस्व की अपेक्षा सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के विरुद्ध लड़ाई हमेशा कठिन होती है. उसमें प्रतिद्विंद्वी के अलावा अपने लोग भी प्रतिपक्ष की भूमिका में रहते हैं. शताब्दियों से बौद्धिक दमन के शिकार रहे लोग धीरेधीरे उस व्यवस्था से अनुकूलित होकर, शोषणकारी व्यवस्था को साथ देने में ही अपना त्राण समझने लगते हैं. जिससे उनकी प्रतिरोधक क्षमता, इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास कमजोर पड़ जाते हैं. आर्थिक वंचना का शिकार, धनवान को देखकर सोच सकता है कि उसके पास अतिरिक्त धन क्यों है? मेरे पास क्यों नहीं है? इसी तरह राजनीतिक अधिपत्य के बीच जीता आया व्यक्ति राजीतिक रूप से शक्तिशाली व्यक्ति को देखकर सोच सकता है कि जो अधिकार उसके पास हैं, उतने ही अधिकार मेरे पास क्यों नहीं हैं? किंतु वर्चस्वकारी संस्कृति के जाल में फंसा नागरिक स्वेच्छा से उसमें फंसा रहता है. यह जानते हुए भी कि संस्कृति के नियम उसके बनाए नहीं हैं और उनका झुकाव पूरी तरह से शक्तिशाली वर्गों की ओर है; लोग उससे समझौता किए रहते हैं. शक्तिशाली वर्गों द्वारा गढ़ी गई संस्कृति, उत्पीड़ित वर्गों के विरुद्ध हथियार का काम करती है. उसके आगे समाज का बहुसंख्यक वर्ग बेबस बना रहता है. संस्कृति का नशा हमेशा उसपर सवार रहता है. वह भूल जाता है कि संस्कृति के नियम उसपर थोपे हुए हैं और बहुसंख्यक वर्गों को बौद्धिक दास बनाए रखने के लिए अभिजन समाज सदियों से उनका प्रयोग करता आया है. उसमें जनसाधारण की भूमिका केवल अनुगमन तक सीमित कर दी जाती है. परिणामस्वप व्यक्ति जिस हाल में है, उसी को श्रेष्ठतर माने रहता है. लोकप्रिय राजनीति आंदोलन नहीं, उसका केवल मिथ पैदा करती है. उसके बुद्धिजीवी उन प्रतीकों की सत्तोन्मुखी व्याख्या करने में जुटे रहते हैं. कतार में लगा उपासक कभी नहीं सोचता कि उसकी थाली खाली और दूसरे की जरूरत से ज्यादा भरी क्यों है. वह केवल अपनी श्रद्धा को सबकुछ माने रहता है. अभावों को सहना और उनके बीच जीना उसकी आदत बनने लगता है. वह मान लेता है कि समाज जो ऊंचनीच, अनाचारअत्याचार हैं उनके कारण समाज के बीच न होकर उससे बाहर हैं, इसलिए नियंत्रण से परे हैं.

इसका आशय यह नहीं कि शरद यादव जिस ‘सांझी संस्कृति’ को आधार बनाकर आंदोलनरत हैं, उसकी उपेक्षा की जानी चाहिए. संघ और भाजपा जिस विघटनकारी सोच को लेकर काम कर रहे हैं, उसे देखते हुए सांझी संस्कृति और सहअस्तित्व की बात करना भी जीवनमूल्यों को बचाए रखने जैसा है. लेकिन परिवर्तनोन्मुखी राजनीति का संकल्प उठाने वाले किसी भी नेता को समझ लेना चाहिए कि उनका सामना केवल राजनीतिक शक्तियों से नहीं है. न ही केवल सत्ता परिवर्तन द्वारा सामाजिक व्यवस्था में आमूल परिवर्तन संभव है. इसलिए उन्हें राजनीतिकसामाजिक सघर्ष के साथसाथ जनता को धर्मसत्ता और अर्थसत्ता से टकराव के लिए भी तैयार करना चाहिए. आर्थिक असमानता से जूझ रहे समाजों में यह संघर्ष और भी कठिन हो जाता है. क्योंकि शक्तिशाली आर्थिक शक्तियां समाज के विपन्न वर्गों को आश्रित बनाए रखने के लिए सारे निर्णयाधिकार अपने पास रखती हैं. जनसाधारण जो समाज की मुख्य कार्यकारी शक्ति है, अपनी ताकत से अनजान किंतु अपनी जरूरतों के लिए आर्थिक शक्तियों पर निर्भर रहता है. उसे सदैव यह डर सताता रहता है कि आर्थिक शक्तियों की नाराजगी उसकी आजीविका के मामूली साधनों के लिए भी संकट का कारण बन सकती है. अतएव आमजन के आत्मविश्वास को बनाए रखना और उन्हें परिवर्तन की बड़ी लड़ाई के लिए तैयार करना, प्रत्येक राजनीतिकसामाजिक आंदोलन का उद्देश्य होना चाहिए. ‘सांझी संस्कृति’ का नारा यदि बहुसंख्यक वर्गों के आत्मविश्वास को बचाए रखने में सहायक होता है, तब भी वह आज की राजनीति में बड़ी उपलब्धि माना जाएगा.

©ओमप्रकाश कश्यप

स्वतंत्र देश में स्वाधीन मनस्

विशेष रुप से प्रदर्शित

  • सच्ची स्वाधीनता का अभिप्राय है, दूसरों की समान स्वाधीनता का सम्मान करते हुए कार्य करने की संपूर्ण आजादी. मेरा मतलब कानून सम्मत अधिकारों से नहीं है. क्योंकि कभीकभी कानून भी तानाशाह की मनमर्जी का शिकार हो जाता है. उस समय वह दूसरों की स्वाधीनता का हनन करने लगता है.—थॉमस जेफरसन.

  • क्या स्वतंत्रता सिवाय इसके कि जैसा जीवन हम अपने लिए चाहते हैं, वैसा ही जीवन जीने की क्षमता के अलावा कुछ और है? कुछ भी नहीं.1एपिक्टीटस, दि डिस्कोर्स.

शुरुआत एक पहेली से करते हैं. देश स्वतंत्र है. लोग स्वतंत्र हैं. पर क्या वे स्वाधीन भी हैं? सामान्यतः हम ‘स्वतंत्रता’ और ‘स्वाधीनता’ दोनों को एक माने रहते हैं. मान लेते हैं कि इनके बीच महज शब्दों का ऐरफेर है. दोनों में से किसी भी शब्द का प्रयोग करो, मंतव्य वही रहता है. अर्थात यदि हम स्वतंत्र हैं, तो स्वाधीन भी हैं. या स्वाधीन हैं, इसलिए स्वतंत्र भी है. ‘स्वतंत्रता’ एवं ‘स्वाधीनता’ के अर्थों में घालमेल का एक कारण यह भी है कि स्वतंत्र भारत में हमने लोकतंत्र को तो अपनाया, मगर शताब्दियों तक सामंती संस्कारों में पलेढले समाज के लोकतांत्रिकरण हेतु अपेक्षित प्रयासों की ओर से मुंह मोड़े रहे. स्वतंत्रता आंदोलन के हमारे कई महानायक तो, जो कदाचित सबसे भरोसेमंद दिखाई पड़ते थे—समानता और स्वाधीनता के अधिकार तथा लोकतंत्र की आलोचना ही करते रहे. गांधी के सर्वाधिक प्रिय शिष्य विनोबा को समान मताधिकार का विचार ही विचित्र लगता था. उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि नेहरू और उनके खानसामा दोनों का वोट एक हो. ‘गणतंत्र’ को एक स्थान पर उन्होंने ‘अवगुणतंत्र’ कहा है(गणतंत्र नहीं गुणतंत्र, लोकनीति). कथित इसलिए कि उनमें से कई गांधी के कहने पर ‘हरिजनोद्धार’ के कार्यक्रमों में हिस्सा ले चुके थे, परंतु जिस मनुस्मृति को दलित अपने गले की फांस मानते आए थे—ऋषि के राज के बहाने वे उसी का महिमामंडन करते थे(ऋषि अनुशासन, विनोबा, लोकनीति). लोकतंत्र के प्रति चलताऊ निष्ठा का नुकसान यह हुआ कि हम राज्य और नागरिक के अंतःसंबंधों को पहचानने तथा उनकी मजबूती के लिए उपयुक्त तंत्र खड़ा करने में असफल रहे. हमने लोकतंत्र को आधेअधूरे बोध के साथ, केवल इतने बोध के साथ अपनाया कि उसके माध्यम से हमारा संविधान हमें सरकार चुनने का अधिकार देता है. संविधान हमें अपनी स्वाधीनता को परिपक्व बनाने, उसके दायरे को विस्तृत करते जॉने तथा स्वतंत्रता का सहीसार्थक उपयोग करने के जो अवसर हमें देता है, उस ओर से हम प्रायः अनभिज्ञ बने रहे. भूल गए कि अच्छी नागरिक सरकार अपनी स्वतंत्रता की व्याप्ति नागरिकों में देखती है. चूंकि हम स्वयं अपनी स्वाधीनता की ओर से उदासीन रहे, इसलिए सरकार और अन्य संस्थाएं कब अपनी स्वतंत्रता का दायरा लांघकर हमारी स्वाधीनता और अधिकारों को अवरुद्ध करने लगीं, हम समझ ही नहीं पाए. इस बीच शासनप्रशासन की निरंकुशता ने जबजब हमें आहत किया, उसे लोकतंत्र की स्वाभाविक दुर्बलता मानकर हम प्रायः मौन साधे रहे.

स्वतंत्रता’ के अंग्रेजी पर्याय Freedom से किसी भी प्रकार के दासत्व से संपूर्ण मुक्ति का भाव जुड़ा है. तदनुसार स्वतंत्र वह है जो बाहरी बंधनों से सर्वथा मुक्त हो. जिसके सोच पर, कर्म पर किसी भी प्रकार का बाहरी प्रतिबंध न हो. स्वतंत्रता मनुष्य को उसके मनुष्यत्व का एहसास कराती है, इसलिए लोग उससे प्यार करते हैं. आरनेल्डो पेटरसन के अनुसार—स्वतंत्रता ऐसा मूल्य है, जिसके लिए लोग खुशीखुशी जान देने को तैयार रहते हैं….यह नेताओं का चहेता नारा, मुक्त अर्थतंत्र का धर्मनिरपेक्ष अवतार तथा हमारी समस्त सांस्कृतिक गतिविधियों का आधार है.” किसी देश के संदर्भ में स्वतंत्रता बाहरी प्रतिबंधों से पूरी तरह मुक्ति तथा संपूर्ण निर्णयाधिकार की क्षमता एवं उसकी स्वयंप्रभुता को दर्शाती है. स्वतंत्रता का इतिहास राज्य की उत्पत्ति से जुड़ा है. उसकी मांग लगभग 2600 वर्ष पहले तब शुरू हुई जब यह महसूस किया गया कि विवेकशील प्राणी होने के नाते मनुष्य अपने बारे में निर्णय करने में स्वयं सक्षम है. इस योग्यता का सम्मान करना राज्य के हित में है. इस सोच में कल्याण राज्य की अवधारणा के बीज छिपे थे, हालांकि उसे भलीभांति विकसित होने में अनेक शताब्दियां गुजर गईं. इस बीच सर्वसत्तावादी निरंतर दावा करते रहे कि सभ्यता के लंबे दौर से गुजरने के बावजूद मानव स्वभाव में जंगली जीवन की प्रवृत्तियां शेष हैं. उसके समुचित मार्गदर्शन तथा समाज में शांति एवं अनुशासन बनाए रखने के लिए शक्तिशाली राज्य की उपस्थिति अपरिहार्य है. दूसरी ओर उदारचेता विद्वान लगातार मानवमात्र की स्वाधीनता पर जोर देते रहे. इससे कल्याणकारी राज्य के विचार ने जोर पकड़ा. यह विचार भी आगे बढ़ा कि स्वाधीन व्यक्ति न केवल अपना विकास बेहतर कर सकता है, बल्कि समाज को भी अपना श्रेष्ठतम प्रदान करने में सक्षम होता है. कुछ विद्वानों के अनुसार Freedom शब्द की उत्पत्ति दासों के मुक्ति संघर्ष से जुड़ी है. लगभग ढाई हजार वर्ष पहले एथेंस में सम्राट सोलोन ने नागरिकों को अधिकार दिए जाने के लिए अपेक्षाकृत उदार नियम बनाए थे. बाद की शताब्दियों में एथेंस की प्रगति में सोलोन द्वारा लागू संविधान की बड़ी भूमिका थी. तदनंतर स्वतंत्रता की अवधारणा में अनेक बदलाव हुए हैं. नई मान्यताओं के अनुसार बिना नागरिकों की स्वाधीनता के राज्य की स्वतंत्रता अपर्याप्त मानी जाती है. इसलिए मानवाधिकार, समानता, सामाजिक न्याय आदि के माध्यम से स्वतंत्रता का लाभ जनजन तक पहुंचाने के लिए जनसमर्थन और सहभागिता पर जोर दिया जाने लगा है.

स्वतंत्रता और स्वाधीनता परस्पर पूरक हैं. स्वतंत्रता तभी पूर्ण मानी जाती है, जब शिखर पर बैठे लोग उसके अच्छेखासे हिस्से को, बगैर किसी पक्षपात के नागरिकों तक अंतरित करने लगते हैं. लोकतंत्र में निर्णयाधिकार जनता के पास होते हैं. तथापि नागरिक उसका वास्तविक लाभ तभी उठा सकते हैं, जब वे अपनी स्वाधीनता का सदुपयोग करने में सक्षम हों. दूसरों के हितों पर आंच आए बिना अपने हितों के अनुरूप उपयुक्त निर्णय लेने का नागरिक अधिकार स्वाधीनता की कोटि में आता है. इसके अंग्रेजी पर्याय के रूप में Liberty का प्रयोग किया जाता है. स्वतंत्रता राज्य से संबंधित, उसपर किसी भी प्रकार के बाहरी नियंत्रण से मुक्ति का नाम है. जबकि स्वाधीनता समाज और शासन की ओर से प्रदान की जाती है, जिसमें सत्ता की आलोचना का अधिकार भी सम्मिलित है. इतिहासकार, राजनीति विज्ञानी जॉन अक्टन के लिए वह सत्ता के वाजिब विरोध का माध्यम है. स्वाधीनता की कदाचित सबसे अच्छी परिभाषा जे. आर. ल्यूकस ने अपने ग्रंथ ‘दि प्रिंसिपल आफ दि पॉलिटिक्स’ में दी है, उसके अनुसार—‘‘स्वाधीनता का तात्विक अर्थ यह है कि विवेकशील कर्ता को जो भी सर्वोत्तम प्रतीत हो, वह वही कुछ करने में समर्थ हो तथा उसके कार्यकलाप बाहर से प्रतिबंधित न हों.’’ राष्ट्र विशेष के संबंध में स्वतंत्रता से भी यही उद्दिष्ट है. कुल मिलाकर ‘स्वतंत्रता’ विशेषत: राष्ट्र का मसला है. वही स्वतंत्रता जब आंतरिक स्तर पर विस्तरित होकर नागरिकों के सोच और व्यवहार का हिस्सा बन जाती है, तो स्वाधीनता कहलाने लगती है. इस तरह स्वाधीनता नागरिकों का अधिकार, विवेक सम्मत आचरण की संपूर्ण आजादी है. वह राज्य की उदारता एवं न्याय भावना की संकेतक है. स्वतंत्रता एवं स्वाधीनता परस्पर पूरक, सहायक और अन्योन्याश्रित पद हैं. दोनों में इतना सूक्ष्म अंतर है कि समझने में प्रायः गड़बड़ हो ही जाती है.

यह मान लेना कि स्वतंत्रता केवल राष्ट्र का विषय है, सामान्य नागरिक का उससे कोई सरोकार नहीं है, अनुचित होगा. कोई भी राष्ट्र अपने नागरिकों के सपनों तथा उनकी कर्तव्यनिष्ठा से बनता है. अरस्तु के शब्दों में कहें तो अच्छी जनता ही अच्छे शासन की जनक होती है. ऐसी जनता को बाहरी नियंत्रण में लंबे समय तक नहीं रखा जा सकता. अपने अधिकारों के प्रति चैतन्य, सतत जागरूक जनता अपने लिए स्वतंत्रता का रास्ता खोज ही लेती है. स्वाधीनता, स्वतंत्रता की अगली सीढ़ी है. उसे तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब राज्य स्वतंत्र तथा अपने नागरिकों के प्रति उदार हो. शिखर पर आसीन लोग मानते हों कि शासन चलाने का अधिकार उन्हें जनता की ओर से प्राप्त है. वास्तविक स्वाधीनता मनुष्य को, दूसरे के स्वाधीनता क्षेत्र में अतिक्रमण को छोड़ वह सब करने की आजादी देती है, जिसे वह अपने लिए आवश्यक मानता है. भले ही उससे समाज, सत्ता, विचारधारा या स्थापित रीतिरिवाजों को चुनौती मिलती हो. स्वाधीनता की सीमा शासन की प्रवृत्ति से भी तय होती है. यह कतई आवश्यक नहीं है कि दो स्वतंत्र राज्यों की जनता को समान स्वाधीनता भी उपलब्ध हो. यह भी हो सकता है कि राज्य स्वतंत्र हो, परंतु लोग पूरी तरह स्वाधीन न हों. उदाहरण के लिए हिटलर के समय जर्मनी एक स्वतंत्र और शक्तिशाली देश था. मगर वहां की जनता नागरिक अधिकारों से वंचित थी. यहां तक कि मनुष्य के मौलिक अधिकारों पर भी डाका पड़ चुका था. चीन का उदाहरण भी हम ले सकते हैं. वह स्वतंत्र देश है. लेकिन वहां के नागरिकों को उतने निर्णयाधिकार उपलब्ध नहीं हैं, जितने भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में प्राप्त होते हैं. इस उदहारण को आगे और भी बढ़ाया जा सकता है.

निरंकुश शासक ताकत के बल पर शासन करता है. अपनी सर्वोच्चता के प्रदर्शन के लिए वह नागरिकों के सामान्य अधिकारों का भी हरण कर लेता है. ऐसे में स्वाधीनता का आकार सिकुड़ जाता है. नागरिक अधिकार की दृष्टि से ऐसी स्वतंत्रता जिसमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हो, नकारात्मक स्वतंत्रता कही जाएगी. उसमें अधिकांश अधिकार केंद्रीय शक्तियों में सिमट जाते हैं. परिणामस्वरूप नागरिकों के मूलभूत अधिकारों पर भी कटौती के बादल मंडराने लगते है. सकारात्मक या वास्तविक स्वतंत्रता वहां संभव है, जहां जनता के विवेकाधिकार बाधित न हों. लोग अपने हितों के अनुसार निर्णय लेने को स्वतंत्र हों. वहां शासन की बागडोर जनता के हाथों में होती है. अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से वह ऐसी सरकार का गठन करती है, जो न्यूनतम शासन करे. इस तरह स्वस्थ नागरिक समाजों में सरकार और नागरिक अपनीअपनी मर्यादा से आबद्ध रहकर स्वाधीनता का आनंद लेते हैं. सरकार की स्वतंत्रता वहां तक मर्यादित होती है जहां तक वह नागरिकजीवन में अनावश्यक दखलंदाजी प्रतीत न हो. वहीं नागरिक के लिए स्वाधीनता की मर्यादा, दूसरों की स्वाधीनता को अक्षुण्ण रखने तक सीमित रहती है. नागरिकगण केवल दूसरे नागरिकों की स्वाधीनता का सम्मान करके अपनी स्वाधीनता की रक्षा कर सकते हैं. दूसरे की स्वाधीनता में हस्तक्षेप करने वाला व्यक्ति अपनी स्वाधीनता के अधिकार को खो बैठता है. उस अवस्था में शांतिव्यवस्था बनाए रखने के लिए शासन को उसकी स्वाधीनता की परिसीमा में हस्तक्षेप का अधिकार मिल जाता है. कह सकते हैं कि स्वतंत्रता और स्वाधीनता परस्पर पूरक और सहायक हैं. नागरिकों की स्वाधीनता का स्तर बढ़ाने के लिए चुनी हुई सरकारें जहां न्यूनतम शासन करती हैं. वहीं एकदूसरे की स्वाधीनता का सम्मान करते हुए नागरिक सरकार और शासन को यह भरोसा दिलाते रहते हैं कि वे अपने कर्तव्य के प्रति सचेत हैं. फलस्वरूप राज्य की स्वतंत्रता नागरिकों की स्वाधीनता से अनुप्रेत होने लगती है; या यूं कहें कि स्वतंत्रता और स्वाधीनता का अंतर लुप्त होने लगता है.

स्वाधीनता और मानवाधिकार परस्पर पूरक हैं. उन्हें बिना किसी भेदभाव के नागरिकों को उपलब्ध कराने का संकल्प राज्य की उदारता को दर्शाता है. कल्याण राज्य में हर अवधारणा के केंद्र में नागरिक होता है. इसलिए वहां स्वाधीनता भी नागरिक दृष्टि से परखी जानी चाहिए, जैसे—लोग यदि स्वाधीन हैं तो कितने? परिपक्व लोकतंत्र के लिए जितनी स्वाधीनता चाहिए, क्या उतनी स्वाधीनता नागरिकों को प्राप्त है? स्वाधीनता को समझना, उसे पाने जितना ही महत्त्वपूर्ण होता है. स्वाधीनता को समझा कैसे जाए? इसपर बड़ी अच्छी बात एपिक्टीटस(55 ईस्वी—135ईस्वी) ने कही है. वह एक दास था. उसका धनवान मालिक एप्फ्रिोडिटो भी किसी जमाने में दास हुआ करता था. बाद में उसने अपने दासत्व से मुक्ति प्राप्त की और बादशाह नीरो का मंत्री बन गया. एपिक्टीटस की पढ़ने की बड़ी ललक थी. वह सुकरात और प्लेटो का प्रशंसक था; और खुद भी दार्शनिक बनना चाहता था. एपिक्टीटस की ललक देखकर उसके स्वामी ने उसे मुक्त कर दिया. बाद में उसने दास बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल की स्थापना की. एपिक्टीटस का मानना था कि दासत्व का कारण संसाधन छीन लेना नहीं है, बल्कि लोगों को ज्ञान के अवसरों से वंचित कर देना है. उसका विश्वास था कि केवल शिक्षा ही व्यक्ति को भय, भ्रांति और उद्धिग्नता से मुक्ति दिला सकती है. अपने शिष्यों को संबोधित करते हुए उसने कहा था—

हमें उन अनेक लोगों की बात पर भरोसा नहीं करना चाहिए जो कहते हैं कि केवल मुक्त लोगों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है. बजाय इसके हमें यह मानना चाहिए कि केवल शिक्षा ही हमें मुक्ति दिला सकती है.’2

स्वतंत्रता की भांति स्वाधीनता भी निःशर्त नहीं होती. प्रकटतः वह बंधनमुक्ति का पक्ष लेती है, परंतु व्यक्ति को कुछ भी करने की आजादी नहीं देती. स्वाधीनता का संपूर्ण आनंद बिना नैतिक बने असंभव है. जो नैतिक है, आत्मानुशासित है, समाज और राज्य के विधान के प्रति जिसकी निष्ठा विवेकसम्मत है, जो दूसरे के मूलभूत अधिकारों का सम्मान करता है, वही व्यक्ति स्वाधीनता का सच्चा लाभ उठा सकता है. सरकार नागरिकों की संरक्षक होती है. अतः जब तक वह अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार है, उसकी स्वतंत्रता और अधिकारिता का सम्मान करना नागरिकों का कर्तव्य है. कहा यूं भी जा सकता है कि अच्छी सरकार और नागरिक स्वाधीनता को एकदूसरे से अलग नहीं किया जा सकता. क्योंकि जो लक्ष्य अच्छी सरकार का होता है, वही लक्ष्य स्वाधीनता का भी होता है. जैसे अच्छी सरकार स्वयं एक उपलब्धि है, वैसे ही स्वाधीनता अपने आप में परम लक्ष्य है. वह समाजीकरण की उच्चतम अवस्था है, जिसमें व्यक्ति के निजत्व को भी उतना ही सम्मान प्राप्त होता है, जितना समाज को. वह नागरिकों को उनकी पसंदों के साथ बने रहने का अधिकार ही नहीं देती. बल्कि वे सभी अवसर प्रदान करती है, जिनसे वे उस सभी कार्यों को कर सकें जिन्हें अपने लिए आवश्यक मानते हैं. वह मनुष्य को अपने, समाज और देश; फिर दुनिया के हित में अपना अधिकतम योगदान देने के लिए आवश्यक अवसर उपलब्ध कराती है. स्वाधीनता को दैविक कहकर किसी भी हालत में टाला नहीं जा सकता. ना ही उसमें कटौती की जा सकती है. वह मनुष्य का जीवनसिद्ध अधिकार है. इसलिए वह नैतिक लक्ष्य न होकर समाजीकरण की उच्चतम अवस्था है.

रूसो ने कहा था कि सभी मनुष्य आजाद जन्मते हैं. बेड़ियां समाज उन्हें पहनाता है. स्वाधीनता इस विकृति का निस्तार है. वह मनुष्य को निर्बंधता का एहसास कराती है. पराधीनता मानव समाज के लिए कलंक है. वह महज राजनीतिकसामाजिक अवस्था है, जो व्यक्ति और समाज के बीच किसी न किसी प्रकार की सत्ता को ले आती है. स्वाधीनता प्राकृतिक जीवन के निकट होती है. इसलिए वह मनुष्य को अधिकतम आज़ादी का एहसास करने में सक्षम होती है. वह मनुष्यों को परस्पर निकट लाकर, मनुष्यता में विश्वास करना सिखाती है. बताती है कि सभी मनुष्य श्रेष्ठ हैं. अपने सर्वोत्तम की अभिव्यक्ति, उसको अपने तथा शेष समाज के लाभ के लिए प्रयुक्त करने का अधिकार प्रत्येक को है. अधिकांश लोग अपनी ऊर्जा दूसरों को अनुशासित करने में खपाते रहते हैं. जबकि वह दुष्कर कार्य है. स्वाधीन समाज में सच्चा नागरिक धर्म स्वयं को अनुशासित रखना है. खुद पर अनुशासन दूसरों को अनुशासित करने से आसान होता है. शासन का कार्य नागरिकों को अनुशासित करना नहीं, ऐसे वातावरण का निर्माण करना है, जिसमें नागरिकगण आत्मानुशासन हेतु स्वत: अनुप्रेत हों. उसके लिए सार्वजनिक जीवन में राज्य की न्यूनतम भूमिका अपरिहार्य है. किसी ने कहा है कि कोई भी प्रजाति, समूह या मनुष्य अनुशासन की दृष्टि से अयोग्य नहीं होता. जबकि शासन करने के लिए सभी अनफिट होते हैं. अक्टन के शब्दों में—

‘‘बीजगणित की कोई भी प्रमेय इससे ज्यादा स्वयंसिद्ध नहीं है कि जिन लोगों के हाथों में जितनी ताकत होती है, वे उतने ही अधिक अपराध करते हैं.’’ उसके अनुसार—‘‘शक्ति का अतिरेक आदमी को पत्थर दिल बनाता है, विवेक का हरण करता है और विचारधारा को कलुषित करता है.’’3

स्वाधीनता का इतिहास स्वंतंत्रता के इतिहास से बहुत पुराना है. स्वतंत्रता का इतिहास सामान्यतः राज्यों की स्थापना के बाद आरंभ होता है. जब राज्य नहीं था, तब भी मनुष्य स्वाधीन था. लेकिन तब उसके चर्या में स्थायित्व नहीं था. यायावर जीवन में हर दिन नई चुनौती से जूझना पड़ता था. जिसके लिए वह हर रोज नई योजना बनाता था. दूसरी ओर स्वाधीनता का इतिहास मनुष्य की विकास की चाहत से जुड़ा है. अपनी पुस्तक ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ लिबर्टी’ में डेविड शेमिड्ज और जेसन ब्रेनन स्वाधीनता के इतिहास को 40000 वर्ष पहले तक ले जाते हैं. उस समय मनुष्य को हिम युग से बाहर आए कुछ ही समय हुआ था. जीवन संघर्षभरा था. उसे न केवल विषम प्राकृतिक हालातों से चुनौती थी, बल्कि अपने भीतर पैठे भय और दूसरे मानवसमूहों से भी जूझना पड़ता था. उसके पीछे कहीं न कहीं स्वयं को स्वाधीन बनाने की चाहत थी. लेखकद्वय के अनुसार स्वाधीनता प्रत्येक युग में द्वंद्वात्मकता का शिकार रही है. जनतांत्रिक समझ के अभाव में लोगों के लिए उसके मायने भी अलगअलग रहे हैं. ताकतवर ज्यादा आजादी इसलिए चाहता है, ताकि वह और ताकत जुटा सके. इसके लिए वह अपनी शक्ति और संसाधनों का दुरुपयोग करता है. गरीब सोचता है कि आजाद होने पर वह अपने श्रम का उपयोग अपने लिए कर, दरिद्रता से मुक्ति पा सकेगा. मगर उसकी सीमाएं हैं. न्यूनतम स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए उसके पास सिवाय देह के कुछ नहीं होता. उसका उपयोग वह जीविकोपार्जन से इतर कर ही नहीं पाता. अपनी स्वाधीनता के लिए उसे शक्तिशाली वर्गों तथा सरकार पर आश्रित रहना पड़ता है. सरकार का दायित्व है कि न्याय भावना का पालन करे हुए नागरिक स्वाधीनता के उच्चतम स्तर को बनाए रखे. सामाजिक शांति और समरसता के लिए यह आवश्यक है. मनुष्य सामाजिक प्राणी है. मगर समाज के साथ वह आत्मनिर्भर होकर रहना चाहता है. दूसरों पर बोझ बनकर नहीं. प्रत्येक युग में कभी समूह की मदद से तो कभी अकेले ही, आत्मनिर्भर बनने की चाहत मनुष्य के लिए देरसवेर मुक्तिप्रदाता बनी है. आत्मनिर्भरता का आशय यह नहीं है कि मनुष्य अपनी जरूरत की हर वस्तु का उत्पादन स्वयं करे. जरूरतों का आदानप्रदान भी आत्मनिर्भरता के स्तर को दर्शाता है. प्रस्तरकालीन मानव प्रजातियां अपनी पूर्वज प्रजातियों के मुकाबले इसलिए जीवित रह सकीं, क्योंकि उन्होंने दूसरे मानवसमूहों से तालमेल तथा वस्तुओं के आदानप्रदान की योग्यता प्राप्त कर ली थी. एकदूसरे की जरूरतों का सम्मान करते हुए उन्होंने प्रकृति के अनेक झंझावात पार किए थे. इससे जीवन में स्वाधीनता की उपयोगिता को समझा जा सकता है.

स्वतंत्रता आमतौर पर राजनीतिक और विधिमान्य होती है. वह जब नागरिकों के व्यवहार में रचबस जाती है और राष्ट्र मान लेता है कि उसके नागरिक स्वतंत्रता को आत्मसात् कर चुके हैं, तो वह अपने विशेषाधिकारों में धीरेधीरे कटौती करने लगता है. नागरिक उसका उपयोग दूसरों की स्वाधीनता का सम्मान करते हुए करते हैं. इस तरह स्वाधीनता केवल स्वतंत्र राष्ट्र में संभव होती है. उस समय संभव होती है जब राज्य नागरिकों के जीवन में अपनी भूमिका को सीमित कर लेता है. जब यही भाव नागरिकों के मन में समा जाता है तो वे दूसरों के निणर्याधिकार का सम्मान करते हुए खुद को सामाजिक की मर्यादा में बांध लेते हैं. इससे समाज को अनुशासित करने में लगने वाली ऊर्जा बचने लगती है. यानी स्वाधीनता का अभिप्राय दूसरों की इच्छा और अधिकारों का मान रखते हुए अपने विकास का मार्ग सुनिश्चित करने में है. जबकि स्वतंत्रता का अभिप्राय राज्य द्वारा बिना किसी प्रतिबंध के निर्णय लेने के अधिकार से है.

स्वाधीनता और स्वतंत्रता के अलावा एक प्यारासा शब्द और भी है—स्वच्छंदता! मुक्त नीलांचल में पक्षियों को उड़ान भरते या जंगल में हिरनों को कुलांचे मारते देख कई बार हम उनसे इर्ष्या करने लगते हैं. काश! हम भी वैसी ही स्वछंद उड़ान भर पाते. न आज की चिंता न आने वाले कल का भय—जंगल के मुक्त प्राणियों जैसा निर्बंध जीवन, काश! हमारा भी होता. यथार्थ में यह संभव नहीं है. पूर्ण स्वच्छंदता केवल कल्पना की वस्तु है. समाज का गठन ही कुछ मर्यादाओं के साथ होता है. जबकि स्वच्छंदता मर्यादाविहीन होती है. इसलिए जहां सभ्यता है, वहां स्वच्छंदता ज्यादा देर नहीं टिक सकती. दूसरे स्वच्छंदता प्रायः अल्पजीवी होती है. उसका जीवन लंबा नहीं होता. क्योंकि प्रत्येक की स्वच्छंदता, प्रकारांतर में प्रत्येक की निरंकुशता को न्योंता देती है. हरिण को लगता है कि उसे जंगल में मुक्त कुलांच भरने की स्वच्छंदता है, तो भेड़िया कहेगा कि मेरी स्वच्छंदता किसी का भी भक्षण कर, अपनी भूख मिटाने की है. यदि चिड़िया आसमान में मुक्त उड़ान को अपनी स्वच्छंदता मानती है, तो बाज अपनी स्वच्छंदता के नाम पर कहीं भी, किसी भी निरीह पक्षी पर झपट्टा मारने को अपनी स्वच्छंदता मानेगा. दोनों अपनेअपने सामर्थ्य और इच्छाशक्ति से अनुशासित हैं. इसके अलावा कोई नियम उनके बीच काम नहीं करता. जैसे ही सामर्थ्य की टकराहट होती है, भेड़िया के सामने मेमना और बाज के आगे चिड़िया को पस्त होना ही पड़ता है. इस अत्याचार के लिए न तो भेड़िया को दोषी माना जा सकता है, न ही बाज को. स्वच्छंद वातावरण में नियम जरूरतों और महत्त्वाकांक्षाओं से बनते हैं. सामर्थ्य के दुरुपयोग को रोकने का वहां कोई नियम नहीं होता. ऐसी स्वच्छंदता सभ्य समाज के लिए वरेण्य नहीं है. स्वाधीनता जहां बहुमान्य नियमों से अनुशासित होती है, वहीं स्वच्छंदता में सभी अपनेअपने नियम के अनुसार जीते हैं. स्वच्छंद समाज में यदि कोई नियम होता है तो यही कि वहां कोई नियम नहीं होता. सभ्य समाज नागरिकों की सहमति से स्वच्छंदता के अतिरिक्त हिस्से पर कैंची चलाकर उसे स्वाधीनता तक सीमित कर देता है. तय कर देता है कि उनमें से हरेक की स्वाधीनता, दूसरे की स्वाधीनता की हद पर समाप्त होगी.

स्वाधीनता चूंकि नागरिक का विषय है, अतएव उसका आनंद उठाने के लिए नागरिकों को स्वयं पहल करनी पड़ती है. राज्य खुद को अधिकतम उदार उनकी मदद कर सकता है. ऐसे वातावरण का निर्माण कर सकता है, जिसमें लोग अपनी स्वाधीनता का अधिकतम लाभ उठा सकें. स्वाधीनता की एक कसौटी विकास में सभी की समान सहभागिता है. लेकिन विकास को पूरी तरह समझना आसान नहीं. वह जटिल प्रक्रिया है, जिसकी व्याप्ति अनेकायामी होती है. नागरिक विशेष के संबंध में वह भ्रामक अवधारणा है. शरीर में कूबड़ भी निकल आए और वह लगातार बढ़ता जाए तब उसका भी विकास होता है, ऐसा हमारे डाक्टर और समाजविज्ञानी दोनों मानते हैं. लेकिन जब हम किसी देश के संदर्भ में इस शब्द को लेते हैं तो उसका अर्थ सामान्यतः प्रगति के पर्याय के रूप में होता है. प्रगति सामान्यत: एकदैशिक होती है. विकास की चर्चा करते समय उसके साथ जुड़े नकारात्मक एवं अनैच्छिक पहलुओं को कुछ देर के लिए नजरंदाज कर दिया जाता है. किसी स्वतंत्र देश के लिए विकास उसकी स्वतंत्रता का विस्तार होता है. इसलिए उसे आंकने का पैमाना यह होना चाहिए कि विकास ने लोगों की स्वाधीनता की अनुभूति का गाढ़ा करने में कितनी तरक्की है. या उस देश के नागरिकों के बीच न्याय के समविभाजन में वह कितना सफल सिद्ध हुआ है. समाज में नागरिकों की रुचियों, जरूरतों और कार्यक्षमताओं में अंतर होता है. इसलिए सभी नागरिक विकास योजनाओं का समान लाभ नहीं उठा सकते. हालांकि उचित यही है कि वह सभी के लिए सामान रूप से लाभदायक हो. व्यवहार में यह संभव नहीं है. अच्छी से अच्छी योजना कुछ लोंगों के लिए हानिप्रद हो सकती है. उन हालात में सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह ऐसे लोगों के नुकसान की भरपाई के लिए वैकल्पिक कार्यक्रम बनाए, ताकि कल्याण के विभाजन में समानता बनी रहे. नागरिकों द्वारा अपनी और दूसरों की स्वाधीनता का सम्मान करने के लिए ऐसे विश्वास का होना आवश्यक है.

स्वाधीनता का रास्ता हमेशा सरल नहीं होता. बावजूद इसके कि कल्याण राज्य की अवधारणा मानवमात्र के लिए अधिकतम स्वाधीनता के विचार पर टिकी है, सभ्यताकरण की कोशिश में मानवीय स्वाधीनता पर निरंतर हमले होते रहे हैं. मनुष्य ने खेती करना सीखा. एक जगह टिककर खेती करतेकरते एक समय ऐसा आया जब समाज के संसाधन मुट्ठीभर आदमियों के हाथों में सिमट गए और बाकी लोक उनकी इच्छा के अनुसार कार्य करने को विवश हो गए. धीरेधीरे भूमि और अन्य संसाधनों पर कब्जा जमाकर एक वर्ग दूसरे वर्ग का मालिक बन बैठा. खुद को सर्वेसर्वा बताकर वह लोगों से मन चाहा काम लेने लगा. जनसाधारण का जीवन संघर्ष और त्रासदियों से भरा था. सो सबसे पहले धर्माचार्य मदद के लिए आगे आया. संघर्ष से थकेहारे लोगों का आवाह्न करते हुए उसने कहा—‘तुम मुझे दान दो. मैं तुम्हें संघर्ष से सदा के लिए मुक्ति दिलाऊंगा.’ लोग दान देने लगे. हालात ज्यों की त्यों रहे. परेशान लोग धर्माचार्य से मुक्ति के बारे में पूछते तो उसका एक ही जवाब होता—‘मसीहा का इंतजार करो. अपनी संतान को संकट में देखकर वह मदद के जरूर आगे आएगा.’ लोगों ने इंतजार किया. कुछ दिनों बाद लोगों की निराशा बढ़ने लगी. तब तलवार लिए एक व्यक्ति आगे आया, बोला—‘मैं तुम्हारा राजा हूं. तुम मुझे कर दो. मैं तुम्हें दुश्मनों से बचाऊंगा.’ लोगों ने उसे कर देना शुरू कर दिया. थोड़े दिन बाद सैनिक ने पुरोहित से दोस्ती कर ली. प्रजा वैसी की वैसी ही रही. फिर एक दिन एक और व्यक्ति आया, ‘मैं व्यापारी हूं. तुम मेरे लिए काम करो. मैं तुम्हें सारे कष्टों से मुक्ति दिलाऊंगा.’ हताश लोगों ने दिल और दिमाग दोनों व्यापारी के यहां गिरवी रख दिए. बाद में पुरोहित, राजा और व्यापारी एक साथ मिल गए. पुरोहित राजा और व्यापारी के भले के लिए पूजा करने लगा. राजा व्यापारी के धन की देखभाली में जुट गया. और व्यापारी उसका व्यापार दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा था. राजा उसके धन की रखवाली करता, पुरोहित उसके लिए हवा बनाने का काम करता. जनता उन तीनों की गुलाम बनकर रह गई.

कहानी से पता चलता है कि दिमाग की गुलामी देह की गुलामी से चार कदम आगे चलकर आती है. मनुष्य पहले मानसिक रूप में दास बनता है, बाद में दैहिक रूप में. ऊपर के उदाहरण में मनुष्य के समक्ष एक के बाद एक स्थितियां जन्म लेती हैं. हर बार उसके विवेक पर कोई और कब्ज़ा करता चला जाता है. सभ्यता का इतिहास साक्षी है कि लोगों ने पहले अपनी निर्णयप्रक्रिया दूसरों को समर्पित की. दूसरों के फैसलों पर पूरी तरह आश्रित होने के बाद शरीर को उससे आजाद रख पाना असंभव था. परिणाम यह हुआ कि समाज स्वामी और दास में बदल गया. एक व्यक्ति अनेक व्यक्तियों के दिलोदिमाग पर कब्जा, लोगों को अपना दास बना, उनसे काम लेने लगा. फिर उसी को व्यवस्था मान लिया गया. मुट्ठी भर लोगों द्वारा बहुसंख्यक की चेतना पर सवार हो जाने की नीति थी. आगे चलकर दास वर्ग में चेतना का प्रवाह हुआ. वह समझने लगा कि कोई मसीहा उसकी मदद को नहीं आने वाला. न कोई व्यापारी उसका कल्याण करेगा. उसे अपनी सुरक्षा, अपना कल्याण, अपनी मदद स्वयं करनी होगी. तदनंतर वह वर्ग अपनी मुक्ति के लिए एकजुट होने लगा. सतत संघर्ष से उसे सफलता भी मिली. स्वतंत्रता की मूल अवधारणा यही है. स्वतंत्रता का मूलभूत अर्थ इसी चेतना के सुफल है. उसका आशय राज्य की स्वायत्तता से है. ऐसा राज्य जो अपनी इच्छाओं के आधार पर संचालित हो. लेकिन ऐसी स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है जो केवल राज्य के स्तर पर सीमित हो. जब तक नागरिक जीवन में स्वतंत्रता की संपूर्ण व्याप्ति नहीं है, तब तक उसकी कोई उपयोगिता नहीं है.

स्वतंत्रता लोकचेतना का विस्तार है. कह सकते हैं कि स्वतंत्रता एवं स्वाधीनता दोनों सापेक्षिक अवस्थाएं हैं. संदर्भ बदलते ही उनके अर्थ भी बदल जाते हैं. हिटलर का जर्मनी तथा मुसोलिनी का इटली दोनों स्वतंत्र देश थे. उनकी किसी बाहरी शक्ति का दबाव नहीं था. परंतु उन देशों की प्रजा स्वाधीन नहीं थी. आशय है कि नागरिकों की स्वाधीनता राज्य की मर्जी पर टिकी होती है. राज्य यदि अपने नागरिकों के प्रति संवेदनशील है. उनकी भावनाओं का सम्मान करता है, तो वह उनके सतत प्रबोधीकरण पर भी जोर देता है. लेकिन राज्य यदि कट्टर हो तो नागरिकों के सामान्य अधिकार भी संकट में पड़ जाते हैं. केवल राज्य व्यक्ति की स्वाधीनता को बाधित नहीं करता. अपनीअपनी तरह से बाज़ार और धर्म भी इस काम को करते हैं. चूँकि वैधानिक अधिकार राज्य के पास होते हैं. धर्म और बाज़ार को नागरिकों की स्वाधीनता में सीधे हस्तक्षेप का अधिकार नहीं होता, इसलिए वे चतुराई से काम लेते हैं. वे तरहतरह के प्रलोभनों द्वारा लोगों का ध्यान इस तरह से भटकाने में लगे रहते हैं. जिससे वे स्वाधीनता के भ्रम और वास्तविकता स्वाधीनता में अंतर नहीं कर पाते. जैसे कुछ लोग फैशन को ही आधुनिकता माने रहते हैं, वैसे ही वे नकली स्वाधीनता को वास्तविक मान कर भ्रम में जीते चले जाते हैं. जिन लोगों का विवेक दूसरों के पास गिरबी हो उनके लिए स्वाधीन होना, न होना बेमानी हो जाता है.

स्वधीनता नागरिक का विवेकाधिकार है. कानून जनता के भले के लिए बनाए जाते हैं. उसके लिए जरूरी है कि सबका भला हो. उनसे यदि एक भी व्यक्ति को नुकसान पहुंचता है, तो वह अधूरा माना जाएगा. अत: अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख को ध्यान में रखकर कानून बनाने के साथसाथ आवश्यक है कि जो नागरिक अधिकतम की सीमा में नहीं आ पाए हैं, उनकी भी उपेक्षा न हो. इसके अभाव में स्वतंत्रता और स्वाधीनता दोनों ही का दुरुपयोग माना जाएगा. स्वाधीनता के विस्तार के लिए ऐसे अनेक काम हैं जिन्हें सरकार कर सकती है. करना चाहिए. इसी के लिए जनता उसे जिम्मेदारी सौंपती है. मगर यह कार्य जनता और नागरिकों के मध्य संवाद द्वारा होना चाहिए. यदि सरकार यह दावा करती है कि वह जनता की शिक्षक है, इस कारण लोगों की राय को बदलने का उसे अधिकार है तो समझ लीजिए कि उसकी निष्ठा लोकतंत्र में न होकर, निरंकुश शासन में है. इसलिए लोकतंत्र का पहरुआ बनने के लिए सरकार को जनता का शिक्षक बनने का भ्रम छोड़ देना चाहिए.

लोकतंत्र पर यह आरोप लगाया जाता है कि वह अनेक लोगों की निरंकुशता है. यह आरोप प्राय: वही लोग लगाते हैं जो लोकतंत्र पर भरोसा नहीं करते या उसको ढंग से समझ ही नहीं पाते. ऐसे लोगों से आप कोई उदाहरण पेश करने को कहिए. फिर ध्यानपूर्वक उस उदाहरण का विश्लेषण करने की कोशिश कीजिए. कुछ ही देर में सच सामने आ जाएगा. जिसे वे लोग बहुसंख्यक की तानाशाही कहते हैं, असल में वहां बहुसंख्यक के नाम पर कुछ लोगों की मनमानी वाली सरकार होगी. निर्वाचन प्रक्रिया में उलटफेर कर धोखा देकर आए लोग. जो लोग लोकतंत्र को समझते हैं; और वह जनता जो लोकतंत्र का महत्त्व जानती है, वह न तो तानाशाह हो सकती है, न ही तानाशाही को पाल सकती है. इसलिए कि अल्पसंख्यक समूह द्वारा बहुसंख्यक समूह का दमन लज्जाजनक है. लेकिन बहुसंख्यक द्वारा अल्पसंख्यक का दमन घृणित कार्य है.

स्वतंत्रता और स्वाधीनता के सूक्ष्म अंतर को यदि स्वीकार लिया जाए तो 1857 के जनविद्रोह को क्या कहना उचित रहेगा—‘स्वाधीनता संग्राम’ या ‘स्वतंत्रता संग्राम’? फैसला एकदम साफ है. जिन आंदोलनों में जनता की प्रत्यक्ष या परोक्ष भागीदारी हो, वहां स्वतंत्रता और स्वाधीनता को एकदूसरे से अलग नहीं किया जा सकता. अधिकतम स्वाधीनता के लिए अपना शासनतंत्र जिसपर जनता का नियंत्रण हो, होना आवश्यक है. 1857 की क्रांति के मूल में मुख्यतः सैनिक विद्रोह की भूमिका को रेखांकित किया जाता है, जिसे क्रांति में ढालने की जमीन किसानों, मजदूरों और शिल्पकार वर्ग के असंतोष ने तैयार की थी. उसकी तात्कालिक परिणति के पीछे सैनिकों की धार्मिक भावनाओं का प्रस्फुटन था. कारतूसों में गाय और चर्बी प्रयुक्त किए जाने की अपवाह से भारतीय सैनिक नाराज थे. मेरठ की बैरक से निकलकर जैसे ही विद्रोह की सूचना देश के बाकी हिस्सों तक पहुंची, उसमें आम नागरिकों की सहभागिता भी बढ़ती गई. लोग अंग्रेजों को खदेड़ कर अपनों का शासन चाहते थे. बाद में अंग्रेजों के हाथों सत्ता गंवा चुके चंद राजा और नबाव भी उनके साथ मिल गए. उनका असली मकसद अपनी खोई सत्ता हासिल करना था. दूसरी ओर आम जनता अपना मानसम्मान वापस पाने तथा स्वाधीनता की चाहत के साथ, स्वतंत्रता सेनानियों की मदद के लिए उतरी थी.

लंबे संघर्ष के उपरांत देश को 15 अगस्त 1947 को बाहरी शासन से मुक्ति मिली. तय किया गया कि देश में जनता का अपना शासन होगा. एक तरह से जनता के संघर्ष का समापन सुखद एवं फलदायी था. तब से आज तक, लगभग सात दशक लंबी विकास यात्रा पर गर्व करने के लिए पर्याप्त कारण हमारे पास हैं. स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार से भारतीय मनुष्य की औसत आयु आजादी के समय के औसत 32 वर्ष से बढ़कर 66 वर्ष हो चुकी है. अनाज, दुग्ध, सीमेंट, लोहा आदि के उत्पादन में यह देश आत्मनिर्भर है. देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा युवा है. इन सब उपलब्धियों पर हम अपनी पीठ थपथपा सकते हैं. मगर केवल भौतिक उपलब्धियां स्वतंत्रता की जरूरत का मापदंड नहीं होतीं. मानवमन का स्वाभाविक उल्लास भी उसकी पहचान होता है. समानताधारित समाजों में वह नागरिकों के व्यक्तित्व का हिस्सा होता है. स्वतंत्रता की वीं वर्षगांठ पर विचारणीय यह है कि स्वाधीनता के जो लक्षण हमने ऊपर गिनाए हैं, क्या उनका लाभ सभी नागरिकों को समान रूप से पहुंचा है? क्या लोग स्वाधीनता और स्वतंत्रता के अंतर तथा उसके मूल्य को समझते हैं? समानता, समरसता, न्याय और समानाधिकार का जो सपना संविधान निर्माताओं ने देखा था, क्या वह पूरा हुआ है? यदि नहीं तो उसके कारण क्या है?

15 अगस्त का दिन यह याद रखने का भी है कि सत्ता का चरित्र मूलतः एक जैसा होता है. स्वयंभू बनने की चाहत प्रत्येक सत्तासीन के भीतर छिपी होती है. उसपर केवल जागरूक जनता नियंत्रण रख सकती है. जाति, धर्म, सांप्रदायिकता आदि के अनेकानेक खानों में बंटी जनता क्या इस स्थिति में है कि स्वाधीनता पर आसन्न खतरों को समझ सके? इन दिनों आतंकवाद को देश की शांति, एकता और अखंडता के बड़े खतरे के रूप में पेश किया जाता है. कदाचित वह है भी. लेकिन इस खतरे का शोर मचाकर आर्थिक वैषम्य और जातीय भेदभाव की उत्तरोत्तर चौड़ी होती खाई की ओर से हमारा ध्यान हटा दिया जाता है. चूंकि सरकार ने शासन के स्तर पर जातिआधारित भेदभाव को हटाने के लिए कुछ नहीं किया, इसलिए जातीय दंश का शिकार रही जातियां मजबूरी में जाति को अपना तारणहार समझने लगती हैं. गत दो दशकों से मतदाताओं का जितना जातिआधारित ध्रुवीकरण हुआ, उतना पहले कभी नहीं हुआ. क्या जनता इस प्रपंच को समझती है? कोई भी देश अपने नागरिकों से बनता है. यदि नागरिक अपनी स्वाधीनता पर मंडराते संकट की ओर से बेखबर हों तो समझ लेना चाहिए कि उतना ही बड़ा खतरा देश की स्वतंत्रता और अखंडता पर भी मंडरा रहा है. 2021 में भारत आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाएगा. तब तक इन समस्याओं का समाधान न सही, असली कारण भी हम पहचान पाए तो बड़ी उपलब्धि होगी.

© ओमप्रकाश कश्यप

शब्दानुक्रमणिका

1. in these matters we must not believe the many, who say that free persons only ought to be educated, but we should rather believe the philosophers, who say that the educated only are free. – Epictetus, The Discourses.

2. (Freedom) is the one value that many people seem prepared to die for….It is the catchword of every politician, the secular gospel of our economic, ‘free enterprise’ system, and the foundation of all our cultural activities.”-Orlando Patterson, Freedom : Freedom in the Making of Western Culture.

3. Those who have more power are liable to sin more; no theorem in geometry is more certain than this….the possession of unlimited power…corrodes the conscience, hardens the heart, and confounds the understanding…

 

बहुजन साहित्य की रूपरेखा

विशेष रुप से प्रदर्शित

एफपीबुक ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ के बहाने

वेब संस्करण की घोषणा हो चुकी थी. वह समयानुसार काम भी करने लगा था. बावजूद इसके ‘फारवर्ड प्रेस’ द्वारा जून—2016 के बाद ‘प्रिंट संस्करण’ के बंद होने की घोषणा मन में आशंका पैदा करने वाली थी. ऐसे में ‘एफपी बुक्स’ की पहली खेप का आगमन बड़ा ही आह्लादकारी है. अपनी प्रतिबद्धता और वायदे पर खरा उतरने के लिए फारवर्ड प्रेस(अब एफपी बुक्स) के संपादक-द्वय आयवन कोस्का और प्रमोद रंजन चिर प्रशंसा के पात्र हैं. पत्रिका अपनी रीति-नीति में आरंभ से ही स्पष्ट रही है. हिंदी में बहुजन साहित्य की अवधारणा को बीच-बहस उतारने तथा तत्संबंधी प्रश्नों को लेकर उत्तेजक एवं महत्त्वपूर्ण बहसों की शुरुआत का श्रेय इसी पत्रिका को जाता है. तीन पुस्तकों की शृंखला में एक का शीर्षक ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ है. पुस्तक-सामग्री का अधिकांश हिस्सा इसी पत्रिका के विभिन्न अंकों में प्रकाशित हो चुका है. बावजूद इसके विषयगत आलेखों को एक स्थान पर ले आना समीचीन था. यह कार्य समय रहते हुआ, इसके लिए भी संपादक द्वय प्रशंसा के पात्र हैं. पुस्तकाकार रचना पत्रिकायी कलेवर से कहीं अधिक प्रभावी, आकर्षक तथा दूरगामी महत्त्व रखती है. यदि ‘एफपी बुक्स’ की शृंखला पांच वर्ष भी सफलतापूर्वक चली; और प्रकाशकगण इन पुस्तकाकार संस्करणों की, पत्रिका-संस्करण की अपेक्षा आधी प्रतियां भी बेचने में सफल रहे तो यह न केवल बहुजन साहित्य की सैद्धांतिकी विकसित करने में मददगार होगी, बल्कि तब तक ब्राह्मणवाद को चुनौती देने में सक्षम समानांतर जनसंस्कृति के पक्ष में पुख्ता सोच तैयार हो चुकी होगी.

पुस्तक में लेखों को तीन खंडों में संयोजित किया गया है—ओबीसी साहित्य विमर्श, आदिवासी साहित्य विमर्श तथा बहुजन साहित्य विमर्श. उनके माध्यम से हम ‘ओबीसी साहित्य विमर्श’ से ‘बहुजन साहित्य विमर्श’ तक की यात्रा को भी समझ सकते हैं. हालांकि वह अभी अपने आरंभिक पड़ाव पर ही है. पुस्तक की सामग्री विचारोत्तेजक है. विशेषकर कंवल भारती, प्रेम शंकर मणि के लेख, जो सोचने को विवश करते हैं. यहां दो आलेखों का संदर्भ प्रासंगिक है. पहला सुप्रिसिद्ध भाषाविद् डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह का आलेख. ‘ओबीसी’ साहित्यकारों के बारे में उनका अध्ययन विशद् है. वे इस धारा के प्रथम प्रस्तावक माने जाते हैं. ब्राह्मणवादियों के लिए जाति का मुद्दा ईश्वर और धर्म से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण रहा है. इसलिए ईश्वर और धर्म के नाम पर अलग-अलग मत रखने वाले ब्राह्मणवादियों में जाति के नाम पर अटूट एकता दिखती है. पिछले ढाई-तीन हजार वर्षों में धर्म ने तरह-तरह के बदलाव देखे हैं. इस कारण इसे जीवन-शैली भी माना जाता है. लेकिन इस बीच जाति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. लोगों की अशिक्षा का लाभ उठा, संस्कृति की मनमानी व्याख्या करते आए ब्राह्मण पहले भी शिखर पर थे, आज भी शिखर पर हैं. इस मनुवादी षड्यंत्र को डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह गंभीरता से सामने लाते हैं. अपने लेख के माध्यम से वे बहुजन साहित्य की आवश्यकता को भी रेखांकित करते हैं.  दूसरा आलेख वरिष्ठ लेखक-समालोचक  डॉ. चौथीराम यादव का है, जिसमें वे पिछड़े वर्ग के लेखकों के अवदान की याद दिलाते हैं. दोनों विद्वान दलित साहित्य के विकास में पिछड़ी जातियों के साहित्यकारों की भूमिका को चिह्नित करते हैं. यह चिह्नन तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य के समानांतर अपनी पहचान बना चुके दलित साहित्यकारों को यथारूप स्वीकार नहीं है. स्वीकार हो भी क्यों! जिस समय जातीय असमानता का सर्वाधिक शिकार रहे दलित-लेखक साहित्य की समानांतर धारा को स्थापित करने के लिए सतत संघर्ष कर रहे थे, पिछड़े वर्ग के लेखक विचित्र-से ऊहापोह में थे. द्विज लेखक उन्हें ईमानदारी से स्वीकारने को तैयार नहीं थे; और दलितों के साथ जाना उन्हें स्वयं अस्वीकार था. अपनी प्रतिभा, लगन और निरंतर संघर्ष द्वारा दलित लेखकों ने तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य के समानांतर परिवर्तनकामी साहित्य को खड़ा करने में सफलता प्राप्त की है. अपनी उपलब्धि पर गर्व करने का अधिकार उन्हें है. इसीलिए कबीर, फुले, पेरियार आदि जो दलित साहित्य में पहले से ही सम्मानित स्थान रखते हैं, को ‘ओबीसी’ के नाम पर झटक लेना उन्हें स्वीकार नहीं है. कमोबेश यही मानसिकता आदिवासी पृष्ठभूमि के साहित्यकारों की भी है. बात सही है. दलित साहित्य दमन के विरुद्ध चेतना का साहित्य है. इसमें उन वर्गों की चेतना अभिव्यक्त होती है, जिन्हें इतिहास के दौर में सर्वाधिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी है. पुस्तक के कुछ लेखों में बहुजन साहित्य को लेकर स्वागत का भाव है, तो कुछ को पढ़कर लगता है कि दलित साहित्यकार बहुजन साहित्य की धारा में पूरी तरह समाहित होने के बजाए उसमें बड़े भाई की भूमिका को बनाए रखना चाहते हैं. साहित्य में बहुजन विमर्श की नवागंतुक धारा जो अभी केवल प्रस्तावना तक सीमित है, जिसकी रूपरेखा तक अस्पष्ट है—को लेकर स्थापित साहित्यकारों का दुराव अस्वाभाविक नहीं है.

अच्छी बात यह है कि ‘ओबीसी साहित्य’ को लेकर दलित और आदिवासी साहित्यकारों के जितने भी किंतु-परंतु हैं, ‘बहुजन साहित्य’ के अपेक्षाकृत बड़े कैनवास में उनका समाधान दिखने लगता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि जैसे-जैसे बहुजन साहित्य की रूपरेखा स्पष्ट होगी, एक-दूसरे के प्रति समझ में इजाफा होगा—अंतर्विरोधों का समाहार स्वतः होता जाएगा. हालांकि बहुजन साहित्यकारों के कुछ घटकों के समक्ष पहचान का जो संकट अभी है, वह आगे भी बना रह सकता है. दरअसल बहुजन साहित्यकारों में जिन घटकों के सम्मिलन की परिकल्पना हम करते हैं, उनमें दलित, स्त्री-अस्मितावादी, आदिवासी साहित्य-धारा काफी परिपक्व हो चुकी है. जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग के साहित्य को लेकर इन्हीं जातियों के साहित्यकार किंतु-परंतु में उलझे हुए हैं. बहुजन साहित्य के एक अन्य घटक आदिमजाति साहित्य के समक्ष भी यही दुविधा बनी हुई है.

यह सच है कि दलित साहित्यकार जिन्हें अपना मूल प्रेरणास्रोत मानते हैं, उनमें से कई पिछड़ी जातियों से आए हैं. यह भी सच है कि दलितों पर अतीत में जो अत्याचार हुए, उनमें चाहे-अनचाहे पिछड़ी जातियों का भी हाथ रहा है. मगर अतीत की अप्रिय घटनाओं के आधार पर मन में गांठ पाल लेने से अच्छा है, भविष्य पर ध्यान दिया जाए. जातिवाद की पृष्ठभूमि की समझ इस संकल्प को आसान बना सकती है. ‘मनुस्मृति’ को मुख्यतः धर्म-ग्रंथ माना जाता है. इस ग्रंथ को लेकर यह अधूरी समझ है. वह केवल सामाजिक ऊंच-नीच को बढ़ावा देने वाली कृति ग्रंथ नहीं है, असल में वह समस्त संसाधनों पर मुट्ठी-भर लोगों के एकाधिकार की जन्मदाता है. वह ब्राह्मणों को पृथ्वी के समस्त संसाधनों का स्वामी घोषित करती है(सर्वं स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किझ्ज्जिगतीगतम्—मनु. 1/100). उस दौर में जब अर्थव्यवस्था खेती और पशु-संपदा पर आधारित थी. एक ओर संसार को माया कहना, उसे प्रपंचमय बताना, उससे दूर भागने का उपदेश देना और दूसरी तरफ समस्त संसाधन ब्राह्मणों के नाम घोषित करना—उस व्यवस्था के विरोधाभासों को दर्शाता है. जिसके कारण समाज सहस्राब्दियों तक कमजोर और देश बरसों-बरस गुलाम बना रहा. यह काम सोची-समझी नीति के तहत हुआ. इस तरह किया गया कि ब्राह्मण संपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श तथा जीवन की समस्त गतिविधियों का केंद्र बना रहे. आखिर ऐसा क्यों हुआ? मनुस्मृति की आलोचना आर्थिक वैषम्य को बढ़ावा देने वाले ग्रंथ के रूप में क्यों नहीं की गई? दरअसल ‘मनुस्मृति’ आलोचना की शुरूआत उन वर्गो की ओर से हुई जो कम से कम में गुजारा करने, संतोष को परम धन मानते आए थे. जिनके लिए सामाजिक समानता आर्थिक समानता से अधिक मूल्यवान थी. उन्हें लगता था कि सामाजिक समानता का लक्ष्य प्राप्त होने के उपरांत आर्थिक समानता का मार्ग स्वत: प्रशस्त: हो जाएगा.

बहरहाल, मनु का नाम लेकर किसी अनाम-धूर्त्त ब्राह्मण द्वारा लिखी गई उस पुस्तक के माध्यम से  न्याय भावना का गला घोंटते हुए समस्त संसाधनों को ब्राह्मणों के नाम कर दिया गया. उस स्थिति में बाकी वर्गों को उनका आश्रित होना ही था. ‘मनुवादी व्यवस्था’ क्षत्रियों को दूसरे स्थान पर रख उन्हें संसाधनों की रखवाली का काम सौंपती है. क्षत्रियों का काम शक्ति-प्रबंधन से जुड़ा है. जिसके पास शक्ति है उसे निर्णय लेने का सलीका न हो तो भी समाज उसकी बातों को आदेश की तरह लेता है. क्षत्रियों ने भी अपने हित को देखते हुए मनुस्मृति के विधान कि ब्राह्मण समस्त संपदा का स्वामी और वे संरक्षक हैं, का अतिक्रमण करना आरंभ कर दिया था. यह विरोध आमने-सामने का नहीं था. मनुस्मृति से कमोबेश दोनों के स्वार्थ जुड़े थे. इसलिए प्रकट में दोनों ही उसका गुणगान करते थे. किंतु आंतरिक स्तर पर संघर्ष हमेशा बना रहता था. कुछ ऐसी घटनाएं भी रहीं जो उस संघर्ष को एकदम धरातल पर ले आती हैं. परशुराम-सहस्रार्जुन युद्ध, विश्वामित्र-वशिष्ठ जैसे संघर्षों की लंबी गाथा है. महाभारत से लेकर देवासुर संग्रामों तक, जिन्हें ब्राह्मण धर्मयुद्ध कहकर प्रचारित करते रहे हैं, वास्तव में संपत्ति और संसाधनों के बंटवारे की खातिर हुए युद्ध थे. महाभारत के कौरव-पांडव परस्पर चचेरे भाई थे, जबकि देवता, दानव, दैत्य आदि तो एक ही पिता की संतान थे. उनकी माएं जरूर अलग-अलग थीं. इतिहास लेखन से बचने वाले ब्राह्मणों ने, निहित स्वार्थ के लिए संपत्ति के बंटवारे की खातिर हुए संघर्षों का जानबूझकर मिथकीकरण किया है. परिणामस्वरूप इतिहास का सच समय की गहरी पर्तों में विलीन होता चला गया. यहां समुद्र मंथन की प्रतीक कथा का भी संज्ञान ले सकते हैं. उसमें असुरों को वासुकि नाग के फन की ओर खड़ा किया जाता है. देवता पूंछ संभालते हैं. नाग का फन न केवल भारी होता है. बल्कि सारा विष उसी ओर रहता है. इस तरह असुरों को आरंभ से ही कठिन चुनौती के लिए तैयार किया जाता रहा है. वे गाय की पूंछ पकड़कर वैतरणी पार करते आए हैं. समय के साथ आवश्यकताएं बढ़ीं तो हर नई जरूरत के नाम पर एक नई जाति समाज से जुड़ती चली गई. उन जातियों का न तो अपने श्रम पर अधिकार था, न ही श्रमोत्पाद पर. नतीजा यह हुआ कि अपने श्रम-कौशल पर पूरे समाज का भरण-पोषण करने वाले बहुजन, अल्पसंख्यक अभिजनों के बंधुआ बनकर रह गए. दासत्वबोध उनके स्वभाव का अभिन्न हिस्सा बन गया. गिरबी दिमाग या तो नियति को कोसता; अथवा ‘स्वामी-सर्वेसर्वा’(बॉस इज आलवेज राइट) की भावना के साथ गर्दन झुकाए काम करता रहता था. मार्क्स ने यही बातें द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के माध्यम से कही हैं. इसलिए ब्राह्मणवादियों को वामपंथ और मार्क्स फूटी आंख नहीं सुहाते.

आगे चलकर कर्मकांडों में वृद्धि हुई. यायावर ऋषियों के स्थान पर परंपराबद्ध पुरोहित वर्ग छाने लगा. जब तक कर्मकांड आश्रम-केंद्रित रहे, वर्ण-व्यवस्था में कम ही सही, अंतरण की संभावना बनी रही. सत्यकाम जाबाल, मतंग, कर्दम, महीदास, रैक्व, विश्वामित्र आदि ने अपनी प्रतिभा के आधार पर उच्च वर्गों में अंतरण किया. यहां गिनाए गए नामों में पहले पांच ऋषि शूद्र वर्ग से आए थे. ब्राह्मण-ग्रंथों में उनके नाम इसलिए बचे रहे क्योंकि वे मानसिक रूप से ब्राह्मणवादी व्यवस्था को अपनाकर उसके प्रवक्ता बन चुके थे. अजित केशकंबलि, कौत्स, पूर्ण कस्सप, मक्खलि गोसाल भी शूद्र और अपने समय के प्रखरतम दार्शनिक थे. वे ब्राह्मणों के बौद्धिक वर्चस्व को चुनौती देते थे. वेदों को ‘धूर्त्त-भांड और निशाचरों’ की कृति बताकर उनका मखौल उड़ाते थे. इसलिए उनके नाम ब्राह्मण-ग्रंथों से पूरी तरह गायब हैं. सिवाय कौत्स के. कौत्स को वे नहीं मिटा पाए. क्योंकि स्वयं यास्क ने ‘निरुक्त’ के पंद्रहवें अध्याय में उसका उल्लेख किया है. पाणिनी शिष्य, अपने समय का महान वैयाकरणाचार्य कौत्स वैदिक ऋचाओं को ‘निरर्थक’ मानता था, ‘यदि तर्कपूर्ण ढंग से विश्लेषण किया जाए, तो वैदिक ऋचाएं अर्थविहीन काव्य हैं’(निरुक्त पंद्रहवां अध्याय). कालांतर में यज्ञादि कर्मकांड आश्रमों से निकलकर गृहस्थों की जीवनचर्या का हिस्सा बनने लगे तब स्वार्थी और कूपमंडूक पुरोहित वर्ग ने जन्म लिया. उससे पहले यज्ञादि कर्मकांड मुख्यतः ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों तक सीमित थे. पुरोहित वर्ग द्वारा उनका विस्तार समाज के दूसरे वर्गों तक होने लगा. अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए उसने निकृष्ट समझे जाने वाले कार्यों में लगी जातियों को अस्पृश्य घोषित कर दिया. खुद को ऊंचा दिखाने के लिए ब्राह्मण पुरोहितों ने अस्पृश्यों से दूरी बनानी शुरू कर दी. अस्पृश्य होने के कारण ब्राह्मण उनके घरों में प्रवेश नहीं कर सकता था. परिणामस्वरूप अस्पृश्य कही जाने वाली जातियों से काम कराने की जिम्मेदारी निम्न और मंझोली जातियों पर आ गई. वे स्वयं ब्राह्मणवाद की शिकार थीं. परंतु परिवर्तनकारी चेतना के अभाव में वे अपने शोषकों को ही अपना पालक और मुक्तिदाता मान बैठी थीं. धीरे-धीरे यही उनका संस्कार बनता गया. जब यह व्यवस्था जम गई और ब्राह्मणों का काम आसानी से होने लगा, तब उन्होंने खुद को अस्पृश्यों की छाया से भी दूर रखना शुरू कर दिया. लेकिन यह लोक चलन, यानी महज दिखावे के लिए था. पर्दे के पीछे जारकर्म चलता ही रहता था. आगे चलकर इसी ने सैकड़ों मिश्रित वर्णों और जातियों को जन्म दिया. जातीय उत्पीड़न का निरंतर शिकार रहे अछूतों ने भी कालांतर में अस्पृश्यता को अपनी नियति मान लिया. समय-समय पर जन्मे महापुरुषों ने उनकी चेतना को जगाने की कोशिश भी. परंतु आमूल परिवर्तनकारी दौर सभ्यता के इतिहास में कभी नहीं आ सका.

व्यवस्था के प्रति नासमझी उसकी मनमानियों को बढ़ावा देकर उन्हें चिर-जीवी बनाती है. निरंकुशता लंबी चले तो लोग हालात से समझौता कर उनके आगे समर्पण कर देते हैं. मुक्ति की चाहत जगे भी तो व्यवस्था से अनुकूलित मानस पहले उन्हीं हथियारों को आजमाता है, जो उसकी दुर्दशा का कारण रहे हैं. पाब्लो फ्रेरा के अनुसार उत्पीड़न के कारणों की अपर्याप्त समझ की वजह से, ‘उत्पीड़ित अपनी मुक्ति उत्पीड़क की भूमिका में आने देखता है’(उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र). जाहिर है, दुर्दशा के कारणों के प्रति आधी-अधूरी समझ परिवर्तनकामी आंदोलनों को उनके लक्ष्यों से दूर रखती है. लोग अपनी दुरावस्था के कारणों को समझ न सकें, इसमें धर्म की बड़ी भूमिका होती है. जैसे विकट विपन्नता के लिए आर्थिक असमानता और संसाधनों पर कुछ लोगों के एकाधिकार के बजाय पूर्व जन्म के कर्मों को दोषी ठहराना, स्वर्ग-नर्क की अभिकल्पना, पूजा-पाखंड को संस्कार और माला फेरने, नाम रटने को ज्ञान-साधना की संज्ञा देना आदि. ये सब ब्राह्मणों के वर्चस्ववादी षड्यंत्र का हथियार बने हैं. दुरावस्था के कारणों की आधी-अधूरी समझ ने कई जनांदोलनों को भटकाया है. उदाहरण के लिए वर्ण-व्यवस्था से त्रस्त लोगों ने मुक्ति की चाहत में मनु को गालियां दीं, मनुस्मृति को जलाया, असमानता थोपने के लिए हिंदू धर्म को कोसा, परंतु उन लोगों से दूरी बनाए रहे, जो भिन्न जातीय स्तर पर होने के बावजूद उसके उतने ही शिकार थे, जितने वे. न ही संसाधनों पर एकाधिकार के तथाकथित धर्म-विधान को उन्होंने सीधी चुनौती दी. जबकि क्षत्रियों ने, जैसा कि हमने पहले भी संकेत किया है, इस व्यवस्था को वहीं तक स्वीकारा जहां तक उनके वर्गीय हित सधते हों. कभी बातचीत तो कभी संघर्ष के माध्यम से वे ब्राह्मणों के एकाधिकार को निरंतर चुनौती देते रहे. अपने बौद्धिक चातुर्य के भरोसे शूद्रों का ही एक वर्ग संसाधनों में हिस्सेदारी कर, तथाकथित सवर्ण समूहों का हिस्सा बन गया. जाति-व्यवस्था के रहस्य को समझने के लिए उसकी चर्चा यहां प्रासंगिक है.

समय के साथ समाज की जरूरतें बढ़ती गईं. लगातार चुनौतियों से गुजरते हुए उनके शिल्प में सुधार हुआ. अपने उत्पाद को अधिक दाम पर बेचने की समझ भी पैदा हुई. आजीवक कर्मकांडों का निषेध करते थे. बुद्ध ने भी उसी नीति को आगे बढ़ाया था. उसके फलस्वरूप जाति-संबंधी बंधन शिथिल पड़ने लगे. यज्ञ-बलियों में कमी से पशुधन की बचत हुई तो समृद्धि रफ्तार पकड़ने लगी. आजीवकों और बुद्ध के प्रभाव से जाति-प्रथा कमजोर पड़ रही थी. सामाजिक आचार-विचार और शुचिता संबंधी नियम भी ढीले पड़े थे. फलस्वरूप विभिन्न जाति-समुदायों के लोग एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करने लगे. शिल्पकारों ने भी संगठन की ताकत को समझा और सामूहिक पद्धति को अपनाया. अपने श्रम-कौशल द्वारा आजीविका चलाने के कारण वे आजीवक कहलाते थे. वही उनका धर्म था. मक्खलि गोसाल, पूर्ण कस्सप, अजित केशकंबलि उनके मार्गदर्शक और आचार्य थे. बौद्ध धर्म के उदय के बाद आजीवकों का एक हिस्सा उसकी ओर आकर्षित हुआ था, लेकिन संगठन और व्यापार के प्रति उनकी निष्ठा ज्यों की त्यों बनी रही. अपने श्रम-कौशल के बल पर शिल्पकार समूहों ने सफलता की ऐसी कहानी लिखी कि कुछ ही अर्से में उसका व्यापार दूर-दराज के देशों तक फैल गया. उनकी प्रगति को ग्रहण चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में लगा.

ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि अपनी शिल्पकला और व्यापार-कौशल से समस्त विश्व को चकित कर देने वाले उन शिल्पकार संगठनों ने राज्य की सत्ता को कभी चुनौती दी हो. अथवा अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के कारण राज्य के लिए खतरा बने हों. बावजूद इसके चाणक्य को शिल्पकार संगठनों से आपत्ति थी. वह मजबूत केंद्र का समर्थक था. नहीं चाहता था कि राज्य के समानांतर यहां तक कि उसके आसपास भी दूसरी कोई सत्ता हो. राजभवनों में पलने वाले षड्यंत्रों के बारे में उसे पूरी जानकारी थी. लेकिन राज्य की अर्थव्यवस्था में शिल्पकार संगठनों का योगदान इतना अधिक था कि उनके विरुद्ध सीधी कार्रवाही का साहस चाणक्य में भी नहीं था. उसने शिल्पकार समूहों की निगरानी करना शुरू कर दिया था. नतीजा यह हुआ कि आजीवक समुदाय जिसकी संख्या कभी बुद्ध के शिष्यों से भी अधिक थी; तथा जिसके स्थापक मक्खलि गोशाल तथा पूर्ण कस्सप को महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध से पहले ही बुद्धत्व प्राप्त हो चुका था—धीरे-धीरे बिखरने लगा. इससे उस वर्ग को लाभ पहुंचा जिसका उत्पादन में सीधा योगदान न था, जो केवल लाभार्जन की कामना के साथ व्यापार करता था. अवसर अनुकूल देख उसने भेंट-पूजा, दानादि देकर पुरोहितों और अधिकारियों को खुश करना शुरू कर दिया. फलस्वरूप वे राज्य के कृपापात्र कहलाने लगे. बुद्ध के समय व्यापारिक संगठनों में काम मिल-जुलकर किया जाता था. धीरे-धीरे वैश्य ‘श्रेष्ठि’ संगठन का पर्याय बनने लगे. विशेष अवसरों पर उन्हें राज्य की ओर से आमंत्रित किया जाने लगा. भेंट-सौगात के बदले राज्य की ओर से निर्बाध व्यापार की सुविधा मिलने लगी. परिणाम अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में  दलाल-तंत्र के रूप में सामने आया. जिससे व्यापार के नाम पर उन वस्तुओं के मूल्य-निर्धारण का अधिकार मिल गया, जिसके निर्माण में किसी दूसरे के श्रम-कौशल का योगदान था. धर्म के क्षेत्र में यह काम बहुत पहले शुरू हो चुका था. वहां ‘भक्त’ और ‘भगवान’ के बीच ‘मध्यस्थ’ की भूमिका पुरोहित निभाता था. श्रेष्ठि वर्ग को बढ़ावा मिलने से शिल्पकार समूह अर्थव्यवस्था के केंद्र से हटने लगे. उत्पादों की बिक्री के लिए श्रेष्ठि-वर्ग पर उनकी निर्भरता बढ़ती चली गई. यह काम मनुस्मृति लिखे जाने के आसपास या उससे कुछ ही समय पहले हुआ. दूसरे शब्दों में जब तक देश की राजनीतिक शक्ति विकेंद्रित थी, अर्थसत्ता भी विकेंद्रित रही. सत्ता के उस केंद्रीकरण के दौर में ही महाभारत को उसका वर्तमान रूप मिला. गीता की रचना हुई. चातुर्वर्ण्य व्यवस्था  को समर्थन देते हुए ब्राह्मणों ने पुरुष सूक्त की रचना की. स्मृति-ग्रंथ, गीता, पुराणादि वर्ण व्यवस्था समर्थित ग्रंथों की रचना इसी दौर में संपन्न हुई. याद दिला दें कि वर्ण-विभाजन का विचार आर्य अपने पैत्रिक देश पर्शिया से साथ लाए थे. वहां समाज को चार वर्णों(Pishtras) में बांटा गया था. उनके नाम थेᅳ‘अथर्वा’ या पुजारी(Athravas or Priest), रथेस्थस्स या योद्धा(Rathaesthas or Warrior) वास्त्रय श्युआंत्स(Vastrya Fshuyants) अथवा उपार्जक तथा हाउटिस(Huitis or Manual Workers) यानी मेहनतकश मजदूर. भारत में आकर ये क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बन कहलाने लगे.

शिल्पकार संगठन स्वयं को राजनीतिक गतिविधियों से दूर रखते थे. बावजूद इसके राज्य के समानांतर हैसियत वाले शिल्पकार वर्गों के आर्थिक संगठनों का भय ब्राह्मणों के दिमाग में इतना था कि उन्होंने ‘मनुस्मृति’ के सहारे शूद्र शिल्पकर्मियों से उनके सारे संसाधन, उनके आर्थिक अधिकार छीन लिए. शूद्रों के लिए निर्धारित किया गया कि उनका काम केवल सेवा करना है. अपने लिए कुछ अपेक्षा करना नहीं. वे अपने अवदान के बदले कोई अपेक्षा न रखें. इसके लिए गीता के माध्यम से निष्काम कर्म की अवधारणा को प्रचारित किया.  उन्हें बताया गया कि केवल कर्म पर उनका अधिकार है. फल पर नहीं. शूद्रों से यहां तक कहा गया कि यदि उनमें धन-संचय का सामर्थ्य है, तो भी वैसी धृष्टता न करें. इसके बावजूद यदि कोई शूद्र धनार्जन में सफल हो जाए तो ब्राह्मण को अधिकार दिया गया कि वह शूद्र द्वारा अर्जित धन को उसके मालिक (जमींदार/सामंत/सम्राट आदि) की मदद से छीन ले. चैतरफा दबाव का नतीजा यह हुआ कि शूद्रों की सेवाएं मुफ्त हो गईं. बेगार लेने के लिए शूद्र को जीवित रखना था, इसलिए विशेष अवसरों यानी शादी-विवाह, पर्व-उत्सवों तथा नई फसल के अवसर पर उनको भेंट-सौगात दी जाने लगी, जिसका स्वरूप भीखनुमा होता था. शूद्र इस छलनीति को समझ न पाए इसके लिए उसके पढ़ने-लिखने पर पाबंदी लगा दी गई. लेकिन यह पाबंदी केवल वैदिक साहित्य को तर्कसम्मत ढंग से पढ़ने, अपने विवेक के अनुसार उसका अर्थ निकालने की थी. ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण से अध्ययन-अध्यापन करने पर नहीं. महीदास, सत्यकाम जाबाल शूद्र होकर भी वेदपाठी कहलाए गए, क्योंकि वे ब्राह्मणवाद के श्रेष्ठत्व को स्वीकार कर, उसके आगे समर्पित हो चुके थे.

इस विस्तृत वर्णन का एक ही उद्देश्य है, बहुजन वर्ग की आंतरिक एकता के सूत्रों की खोज करना. ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ से बहुजन साहित्य की सैद्धांतिकी का आधार स्पष्ट नहीं होता. यह कार्य भविष्य पर छोड़ दिया गया है. यदि यह मान लिया जाए कि बहुजन समूह मेहनतकश जातियों और शिल्पकार समूहों का बेहद सक्रिय और कर्मशील समूह रहा है तो उससे न केवल बहुजन साहित्य की अवधारणा स्पष्ट करने में मदद मिल सकती है, बल्कि उसके सहारे हम इतिहास के कई बिखरे सूत्रों को भी सहेज सकते हैं. इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि वर्ण-व्यवस्था द्वारा संसाधनों से वंचित कर दिए जाने के बावजूद शिल्पकार समूह पूरी तरह हताश नहीं हुए थे. बल्कि अपने श्रम, शिल्प-कौशल तथा संगठन सामर्थ्य के दम उन्होंने खुद को इतना सुदृढ़ और व्यापक बना लिया था कि राज्य के लिए उनकी उपेक्षा कर पाना पूर्णतः असंभव था. समानकर्मा शिल्पकारों द्वारा संगठन बनाना उन दिनों सामान्य प्रक्रिया थी. लोग अलग-अलग काम करने के बजाए संगठित व्यापार ज्यादा पसंद करते थे. काष्ठकार, धातुकर्मी, स्वर्णकार, चर्मकार, पत्थर-तराश, हाथी-दांत के आभूषण-निर्माता, जलयंत्र निर्माता, बांसकर्मी, कास्सकार(पीतलकर्मी), बुनकर, कुंभकार, स्वर्णकार, तैलिक, रंगरेज, टोकरी बनाने वाले, अनाज व्यापारी, मत्स्यपालक, किसान, छापाकार, मालाकार, कसाई, नाई, पशुपालक, व्यापारी और व्यापारिक काफिले, दुरुह मार्गों पर व्यापारिक काफिलों की रक्षा करने वाले सैनिक, चोर-लुटेरे, महाजन—बुद्धकालीन भारत में 27 प्रकार के सहयोगी संगठनों का उल्लेख जातक कथाओं के जरिये प्राप्त होता है. इसका उल्लेख डॉ. रमेश मजूमदार ने ‘कोआॅपरेटिव्स लाइफ इन एन्शियंट इंडिया’ में विस्तार से किया है. उन दिनों वे आजीवक कहलाते थे. ब्राह्मण धर्म में उनकी कोई आस्था न थी. बाद के दिनों में उन्हें शूद्र घोषित कर दिया गया. चाणक्य ने तो क्षत्रियों के संघ का भी उल्लेख किया है. ये संगठन अपने आप में पूर्णतः स्वायत्त थे. उनके आंतरिक मामलों में दखल देने का अधिकार राज्य को भी नहीं था. चूंकि वे राज्य की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार थे, इसलिए राजा भी उनके साथ सहयोगात्मक रवैया अपनाते थे. वे अपनी आजीविका को ही अपना धर्म, अपना ईश्वर मानने वाले थे. जिस दौर के भारत को ‘सोने की चिड़िया’ के रूप में याद किया जाता है, वह इन संगठनों का सबसे सक्रिय कार्यकाल था. इससे हम राज्य की अर्थव्यवस्था में उनके महती योगदान का अनुमान लगा सकते हैं.

उपर्युक्त वर्णन से कुछ बातें साफ हो जाती हैं. पहली संगठन, एकता की ताकत. दूसरी समान-धर्मा संगठनों के साथ एकता की जरूरत, तीसरी धार्मिक मिथ्याडंबरों के बजाय तर्कसम्मत ढंग से निर्णय लेने की कला और चौथी चुनौतियों से भागने के बजाय परिस्थितियों के साथ संघर्ष करते हुए रास्ता निकालने की कोशिश करना. जाति-आधारित विषमता आज की समस्या नहीं है. सहस्राब्दियों से वह अस्तित्व में है. उसके विरोध में समय-समय पर आंदोलन छेड़े गए हैं. परंतु समस्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई है. इसका पहला कारण तो यही है कि ज्योतिबा फुले से पहले जाति-विरोधी आंदोलनों की बागडोर मुख्यतः सवर्णों के हाथों में रही है. हालांकि मध्यकाल में कबीर, रैदास जैसे संत कवि शूद्र या अतिशूद्र जातियों से आए थे. जाति के विरोध में संत कवियों ने लगातार लिखा भी. परंतु वे संतोष को परमधन मानने वाले, दैन्य का महिमामंडन करने वाले संत थे. हालांकि रैदास ने ‘बेगमपुरा’ तथा कबीर ने ‘अमरपुरी’ के रूप में समानता पर आधारित समाज की कल्पना की थी. तो भी आर्थिक असमानता और संसाधनों पर द्विज वर्गों के एकाधिकार को लेकर उन्हें बहुत ज्यादा शिकायत न थी. उसे लेकर उनका दृष्टिकोण नियतिवादी था. बावजूद इसके संतकवियों का अपने समाज पर प्रभाव था. अपनी सीमाओं के भीतर उन्होंने ब्राह्मणवाद पर जोरदार प्रहार किया था. संतकवियों की समाज में बढ़ती प्रतिष्ठा को देख द्विज वर्गों के कवि भी उनकी ओर आकर्पित हुए. वे अपने साथ वर्गीय संस्कार भी लाए थे. उन्होंने संत-कवियों की मौलिक अध्यात्म चेतना का धार्मिकीकरण किया. परिणामस्वरूप संतकाव्य की क्रांतिधर्मिता भक्तिकाव्य में सिमटने लगी. तुलसी के आते-आते तो सबकुछ परंपरावादी हो गया. जाति और वर्ण पुनः प्रधान हो गए. उन्नीसवीं शताब्दी तक राजनीति पर धर्म का प्रभाव बना रहा. चूंकि धर्म की नींव जाति-व्यवस्था पर टिकी थी, इसलिए जाति के बहिष्कार को लेकर कोई बड़ा आंदोलन उनीसवीं शती से पहले के इतिहास से नदारद है.

जाति और हिंदू धर्म के गठजोड़ को इससे भी समझा जा सकता है कि बौद्ध धर्म से लेकर संत कवियों, सुधारवादी आंदोलनों, ज्योतिराव फुले और डॉ. अंबेडकर सहित जिसने भी जाति के पर कतरने की कोशिश की—प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में उसने धर्म पर भी प्रहार किया. यह आवश्यक था. क्योंकि हिंदू धर्म और जाति-व्यवसथा में नाभि-नाल का संबंध है. दोनों एक-दूसरे को बल प्रदान करते हैं. जाति पर सवाल उठाया जाता है तो धर्म आड़े आ जाता है और धर्म पर सवाल उठाते ही जाति बीच में अड़ जाती है. बुद्ध ने जाति का बहिष्कार किया था, लेकिन उनके बाद बौद्ध धर्म की बागडोर उन लोगों के हाथ में आ गई जो जन्मना सवर्ण थे. उन्हें बुद्ध के धर्म से कोई परेशानी न थी. परेशानी  उनके जाति-विरोध से थी. सो उन्होंने धर्म को सहारा लिया. अपना जीवन और समय उन्हें दिया. परंतु जाति के सवाल पर वे सब ठेठ परंपरावादी निकले. अवसर मिलते ही उन्होंने बौद्ध दर्शन के क्रांतिकारी विचारों को धीरे-धीरे जाति-धर्म की ब्राह्मणवादी व्यवस्था से जोड़ने का काम शुरू कर दिया. बुद्ध को अवतार घोषित कहना, यह कहना कि ‘बुद्ध या तो ब्राह्मण के घर जन्म लेते हैं, अथवा क्षत्रिय के’, ब्राह्मणवादियों की तर्कसम्मत निष्कर्षों से पलायन की मानसिकता को दर्शाता है. बौद्ध लेखकों ने प्रथम  शास्ता के निर्वाण प्राप्ति के तुरंत बाद अपनी जातिवादी मानसिकता को थोपना आरंभ कर दिया था. इसके लिए उन्होंने बुद्ध को भी नहीं बख्शा, जो आजीवन संघ और समानता का उपदेश देते रहते थे. असल में वह बुद्ध के जीवन-दर्शन की पश्चगामी व्याख्या थी. उन संगठनों की एक कमी खुद को केवल और केवल व्यवसाय तक सीमित रहना था. ज्ञान की शक्ति से अनभिज्ञ रहना तथा ज्ञानार्जन को ब्राह्मणों का विशेषाधिकार मानकर उसकी ओर से उदासीन बन जाना भी, उनकी कमजोरी थी. महात्मा ज्योतिबा फुले और डॉ. अंबेडकर सफल रहे तो इसलिए कि उन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बौद्धिक क्षेत्र में चुनौती दी थी. दोनों ने जीवन के आर्थिक पक्ष पर जोर दिया. उसके फलस्वरूप सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्तर पर समानता की मांग होने लगी.

बहुजन साहित्य की अवधारणा विकसित करने में समाज के पुराने अनुभव बहुत काम के सिद्ध हो सकते हैं. क्योंकि जो जो बंधु बहुजन साहित्य को तथाकथित मुख्य धारा के साहित्य के समानांतर देखना चाहते हैं, उनसे सबसे पहले यही सवाल होगा इसकी मूल अवधारणा या सैद्धांतिकी को लेकर उनका अपना सोच क्या है. उसमें जाति की क्या भूमिका होगी? क्या जाति का सहारा लेकर शुरू हुआ आंदोलन उसके बिना चार कदम भी चल पाएगा? यदि ऐसा नहीं हो सकता तो बाकी साहित्य और बहुजन साहित्य में क्या अंतर होगा? इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि जाति भारतीय समाज की एक कटु सचाई है. मजबूरी में ही सही, बहुजन साहित्यकारों को इस आंदोलन से जोड़ने का तुरंतिया आधार जाति ही है. बावजूद इसके वैकल्पिक साहित्य और संस्कृति की आधारशिला रखने के लिए जाति जैसी विष-बेलि पर भरोसा नहीं किया जा सकता. उससे व्यक्ति की बड़ी और स्थायी पहचान नहीं बनती. मार्क्स के दर्शन में जब ‘सर्वहारा’ का नाम लेते हैं तो बेमेलकारी औद्योगिक अर्थव्यवस्था में उपेक्षित, तिरष्कृत, चारों तरफ से छले गए, शोषित व्यक्ति की तस्वीर हमारे मनस् में उभरने लगती है. जाति की मार उससे कहीं ज्यादा घातक है. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था भी सर्वहारा को यह अधिकार देती है कि वह पूंजी के दम पर अपनी स्थिति बदलकर पूंजीवादी तबके में शामिल हो सके. जाति न केवल व्यक्ति, बल्कि उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी इस अधिकार से वंचित रखती है. इसलिए जाति की बैशाखी के सहारे बड़ा और परिवर्तनकारी आंदोलन नहीं चलाया जा सकता. इस मामले में ‘बहुजन’ सार्थक शब्द है. इससे लोकतंत्र की ध्वनि निकलती है. इसलिए बहुजन साहित्य के नाम पर ऐसा साहित्य स्वीकार्य हो सकता है, जो लोगों में लोकतांत्रिक आदर्शों के प्रति चेतना जगाए.

वैसे भी साहित्यपन की कसौटी रचना में अंतर्निहित सर्वहित का भाव है. यह मनुष्य की सीमा है कि सिक्के के दूसरे पक्ष को देखने के लिए पहले को आंखों से ओझल करना ही पड़ता है. ऐसे में उदारमना लेखक केवल इतना कर सकता है कि लिखते समय अपने सोच का दायरा यथासंभव व्यापक रख सके. इस दृष्टि से देखें तो हिंदी का अधिकांश साहित्य ब्राह्मणवादियों द्वारा ब्राह्मणवाद के समर्थन में लिखा गया साहित्य है. वह एक प्रकार का स्तुति-लेखन है, जो येन-केन-प्रकारेण द्विज-हितों का पोषण करता है. संख्याबल के आधार पर ब्राह्मणवाद से लाभान्वित लोगों की संख्या कुल जनसंख्या के पांचवे हिस्से भी कम हैं. जाहिर है, जिसे साहित्य की मुख्यधारा कहा जाता है, वह अल्पसंख्यकों सत्तानशीनों द्वारा अल्पसंख्यक अभिजनों की स्वार्थ-सिद्धि के निमित्त किया गया लेखन है. सामाजिक स्तरीकरण को शास्त्रीय स्वरूप प्रदान करने में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है. तुलसी, सूर, वाल्मीकि, कालीदास आदि इस धारा के प्रतिनिधि रचनाकार कहे जा सकते हैं. कहने को उनके साहित्य में स्त्री, अल्पसंख्यक, दलित, गरीब-अमीर सब आते हैं. परंतु उनका उपयोग द्विज चरित्रों के महिमा-मंडन के लिए किया जाता है, ताकि सामाजिक भेदभाव वाली व्यवस्था के प्रति लोगों का मूक समर्थन बना रहे. इस प्रकार वे आसमानताकारी व्यवस्था को खाद-पानी देने का काम करते हैं, ताकि वह निर्बंध फल-फूल सके. ब्राह्मणवादी कह सकते हैं कि जब उनके साहित्य में स्त्री, अल्पसंख्यक, दलित, गरीब-अमीर सब हैं, तब साहित्य की नई धारा की जरूरत और उसका औचित्य क्या है? वे यह भी कह सकते हैं भारत में उसके समानांतर क्या उसके दूर-दूर तक कोई ऐसी साहित्य धारा नजर नहीं आती जो उसको चुनौती देने में सक्षम हो, तो उससे मुख्यधारा का साहित्य मानने में गुरेज क्यों हो? उन्हें समझाने के लिए, बशर्ते वे समझना चाहें तो कहा जा सकता है कि किसी रचना के साहित्य होने की पहली शर्त यह है कि वह हाशिया नहीं छोड़ती. यदि कुछ हाशिये पर  है तो उसे प्राथमिकता के साथ केंद्र में लाकर विमर्श में सम्मिलित करने की कोशिश करती है. यदि वे अपने साहित्य को मुख्यधारा का साहित्य मानते हैं तो इसका यह अर्थ भी है कि साहित्य में उनके चाहे-अनचाहे ऐसी धाराएं भी मौजूद हैं, जो उपेक्षित या हाशिये की हैं. और ऐसा होने से उन्हें कोई शिकायत भी नहीं है. यदि कभी बराबर में लाने की कोशिश हुई भी तो उपकार भाव से. मानो वही उनके तारणहार हों. यह सोच ही ब्राह्मणवादी ग्रंथों को साहित्य के गौरव से बेदखल करने के लिए पर्याप्त है. बीती दो सहस्राब्दियों के बीच. ब्राह्मणवादी साहित्य द्वारा विरोधी विचारधाराओं से समन्वय या संवाद की संभावना तो दूर, उसकी कोशिश तो उन्हें नकारने और मिटाने की रही है.

दलित, पिछड़े, आदिवासी, आदिम जनजातियां आदि जिन जाति-समूहों को केंद्र में रखकर बहुजन साहित्य की अभिकल्पना की गई है, वे सभी किसी न किसी श्रम-प्रधान जीविका से जुड़े हैं. उनकी पहचान उनके श्रम-कौशल से होती आई है. मगर जाति-वर्ण संबंधी असमानता और संसाधनों के अभाव में उन्हें उत्पीड़न एवं अनेकानेक वंचनाओं के शिकार होना पड़ा है. बहुजन साहित्य यदि जातियों की सीमा में खुद को कैद रखता है तो उसके स्वयं भी छोटे-छोटे गुटों में बंट जाने की संभावना निरंतर बनी रहेगी. इसलिए वह स्वाभाविक रूप से श्रम-संस्कृति का सम्मान करेगा. फलस्वरूप विभिन्न जातियों के बीच स्तरीकरण में कमी आएगी. उसकी यात्रा सर्वजनोन्मुखी साहित्य में ढलने की होगी. कुल मिलाकर बहुजन साहित्य का वास्तविक ध्येय जाति उच्छेद ही होगा. इस तरह बहुजन साहित्य का संघर्ष सभी प्रकार की असमानता, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक से होना चाहिए. तथाकथित सवर्ण जो भारतीय समाज के अभिजन चरित्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, बहुजन साहित्य में दखल देते हैं तो उनका स्वागत किया जाएगा. बशर्ते वे समानता और श्रम-संस्कृति के विचार का समर्थन करते हों. श्रम-संस्कृति को महत्त्व देने का आशय ज्ञान की मौलिक धाराओं से कट जाना नहीं है. बहुजन साहित्य ज्ञान के लोकतंत्र में विश्वास रखते हुए उसकी विभिन्न धाराओं का खुले मन से स्वागत करेगा. परंतु ज्ञान और श्रम को लेकर जिस प्रकार की दूरी ब्राह्मणवादी परंपरा रही है, बहुजन साहित्य में उसके लिए कोई स्थान न होगा, न होना चाहिए.

परिशिष्ट

‘दलित साहित्य’ हो या ‘ओबीसी साहित्य’ अथवा उसका नया नामरूप ‘बहुजन साहित्य’ हो, ये सब समाज और संस्कृति के बजाय चाहे-अनचाहे राजनीति से ज्यादा अनुप्रेत हैं. इसके दो कारण हैं. पहला यह कि भागम-भाग के इस दौर में हर कोई त्वरित परिवर्तन की चाहत रखता है. यह काम उसको राजनीति के माध्यम से आसान लगता है. लेकिन राजनीति की विशेषता है कि उसका कोई न कोई सत्ताकेंद्र होता है. जो भी उसके नजदीक या प्रभाव में आता है, दूरस्थ वर्गों को वह खुद से हीन समझने लगता है. यदि उसपर समाज और संस्कृति का अनुशासन न हो तो वह बहुत जल्दी शक्तिशाली समूहों के वर्चस्व में ढल जाता है. दलित और पिछड़े दोनों ही वर्ग इसके शिकार रहे हैं. 1930 में बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश की तीन प्रमुख पिछड़ी जातियों ने मिलकर ‘त्रिवेणी संघ’ की स्थापना की थी. उसके सदस्यगण बरास्ते राजनीति द्विज वर्गों के बराबर में आना चाहते थे. उन्हें आरंभिक सफलता भी मिली. परंतु पर्याप्त सामाजिक चेतना के अभाव में वह प्रयोग, महत्त्वपूर्ण होने के बावजूद अंततः असफल सिद्ध हुआ. कारण लोगों के दिमाग में मौजूद जाति की विषबेलि. इसके बावजूद परिवर्तनकामी समाजों में राजनीति का अलग महत्त्च होता है. प्राचीनकाल से लेकर आज तक समाज, संस्कृति और राजनीति सभी पर द्विज वर्गों का अधिपत्य रहा है. दलित और बहुजन दोनों ने ही समाज में जो हैसियत प्राप्त की है, या जिसका वे सपना देखते हैं, उसके लिए उन्हें समाज और संस्कृति दोनों से संघर्ष करना पड़ा है. दोनों ही दलित और पिछड़ों के शोषण का माध्यम बनते आए हैं. उनके दैन्य का कारण भी समाज और संस्कृति के निर्माण में उनकी भूमिका की निरंतर उपेक्षा, उसे कमतर आंका जाना है. इस मामले में स्वतंत्र भारत की राजनीति उनके लिए अधिक मददगार रही है. इसलिए साहित्य में राजनीति को महत्त्व देना या राजनीति के माध्यम से अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक हैसियत ऊपर उठाना अभी तक के उनके संघर्ष की मूल प्रेरणा रहा है.

दलित साहित्य भी इसी त्रासदी से गुजर रहा है. समाज और संस्कृति को राजनीति की अपेक्षा कम महत्त्व देने के कारण दलितों में भी शासक वर्ग का उदय होने लगा है. ‘बीसवीं शती अंबेडकर की होगी’ जैसे नारे इसी मानसिकता की देन है. नारेबाज प्रायः ऐसे राज्य का सपना देखते हैं, जिसमें वर्तमान मनुवादी शक्तियांे का पराभव हो चुका होगा. लेकिन मनुवादी शक्तियों का पराभव ‘मनुवाद’ या ‘ब्राह्मणवाद’ का पराभव नहीं नहीं है. ‘मनुवाद’ विचार से अधिक आज एक मानसिकता है. मनुवादी शक्तियों का पराभव हो परंतु मनुवाद नए चेहरे-मोहरों के रूप में बना रहे यह न तो अंबेडकर का सपना था, न ही आज के लिए सुधी समाजचेता का सपना हो सकता है. मनुवाद का पराभव बिना जाति के पराभव के असंभव है. फुले और अंबेडकर दोनों यह जानते थे. इसलिए अपनी-अपनी तरह से दोनों ने ही जाति का विरोध किया था. डॉ. अंबेडकर की पुस्तक ‘जाति का उच्छेद’ इस सवाल को बार-बार उठाती है. दलित साहित्य ने लोगों को इतना आत्मविश्वास तो दिया है कि जो दलित दो-तीन दशक पहले तक जाति को छिपाने में ही अपनी भलाई समझता थे, अब अपने नाम के साथ खुलकर ‘बाल्मीकि’, ‘जाटव’ आदि जाति-सूचक शब्द लगाने लगे हैं. ‘जाति के उच्छेद’ की दिशा में ऐसा आत्मविश्वास आवश्यक है. यहां मुझे पाब्लो फ्रेरा याद आते हैं. उन्होंने कहा था कि उत्पीड़ित वर्ग अपनी सफलता अनुत्पीड़क वर्ग की अवस्था में आने में देखता है. इसलिए जो शिखर पर है, उसपर ढेर सारे लोगों की निगाहें होती हैं. इसलिए शिखर पर अस्थिरता का मामला बना रहता है. जो लोग शिखर पर पहुंचने का हौसला नहीं रखते, वे शिखर के आसपास मंडराते रहते हैं. प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा है. इसके लिए आवश्यक है कि साहित्य और राजनीति के बीच न्यूनतम दूरी हो. बहुजन साहित्य राजनीति से प्रेरणाएं, राजनीति की प्रेरणा बनने की कोशिश करेगा, परंतु सीधे राजनीतिक हस्तक्षेप या सहयोग से खुद को दूर रखेगा.

साहित्य की एक शर्त मानवीय अस्मिताओं के बीच समानता और समरसता का वातावरण उत्पन्न करना है. इसके लिए उसकी दृष्टि हमेशा उपेक्षित एवं निचले वर्गों की ओर होती है. ब्राह्मणवादी साहित्य प्रायः सत्ताकेंद्रित रहा है. यह बात अलग है कि उसके द्वारा मनोनीत सत्ताकेंद्र कभी राजनीति तो कभी धर्म की ओर झुकते रहे हैं. इसलिए ब्राह्मणवादी रचनाकारों के लेखन को मुख्यधारा का साहित्य नहीं कहा जा सकता. बजाय इसके उसे इस देश के अभिजन समूहों का वर्चस्वकारी साहित्य कहना उपयुक्त होगा. यह मान लेना चाहिए कि अस्मितावादी आंदोलन चाहे वे दलित आंदोलन हों या पिछड़े वर्गों का संघर्ष या कोई और, कोई भी जाति के दुर्ग को भेदने में असफल रहा है. याद करें भारत में जितनी जातियां हैं उससे कहीं अधिक उपजातियां भी हैं. सवर्ण में जहां गोत्रों की व्यवस्था है, वहीं तरह-तरह के भेद भी हैं. कुछ समय पहले तक ब्राह्मणों में ही दर्जनों उपजातियां थीं. उनके बीच इतना अंतर था कि तथाकथित उच्च श्रेणी का ब्राह्मण निचली श्रेणी के ब्राह्मणों के साथ रोटी-बेटी का संबंध तो दूर, बराबर में बैठकर भोजन करना पसंद नहीं करता था. इसलिए यह कहना कि जातिवाद देश में आज भी उतना ही है जितना पहले था, बड़ी भूल है. इसका श्रेय देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था और निचले वर्गों द्वारा शिक्षा प्राप्त कर, द्विजों के लिए चुनौती देने की अवस्था में आना रहा है.

ओमप्रकाश कश्यप

 

महाज्ञानी पूर्ण कस्सप

विशेष रुप से प्रदर्शित

भारत के अनीश्वरवादी चिंतकएक

(पहला भाग)

बौद्ध ग्रंथ ‘दीघ निकाय’ में भी पूर्ण कस्सप को अहेतुवादी बताया गया है. यानी ऐसा व्यक्ति जो किसी कार्यकारण संबंध को नहीं मानता. तदनुसार ‘सृष्टि’ केवल स्वयं की सृष्टि है. उसके पीछे न तो कोई नियंता है, न किसी की सुनियोजित योजना. यानी वह न तो किसी का कार्य है, न ही कारण. यदि उसमें कुछ तारतम्य है, उसकी कुछ अर्थवत्ता है, तो वह स्वयं सृष्टि की कलाकारी है. जब कोई इतर कारण नहीं, कोई इतर उद्देश्य और योजना भी नहीं, तब अच्छा या बुरा, जो है वह स्वयं सृष्टि का कार्य है. उसके लिए स्वयं सृष्टि जिम्मेदार है. मनुष्य भी सृष्टि का उपहार है. अतएव सृष्टि की भांति वह भी अपने कर्म में स्वतंत्र है. वह न तो किसी दैवी सत्ता के अधीन है, न ही उससे अनुप्रेत. वह सीधीसादी अनीश्वरवादी विचारधारा थी, जो उस समय के प्रचलित ब्राह्मणवादी दर्शनों तथा तद्विषयक कर्मकांडों का पूरी तरह निषेध करती थी. चूंकि वह सृष्टिनिर्माण के पीछे किसी भी दैवी सत्ता का हाथ होने से इन्कार करती तथा पदार्थ को ही सबकुछ मानती थी, इसलिए उसे भौतिकवादी विचारधारा भी कहा जाता है. एकमात्र पूर्ण कस्सप उसके प्रवर्त्तक नहीं थे. भौतिकवादी विचारधारा इस देश की समृद्ध और विकासमान चितंन शैली रही है. एक समय था जब उसे पर्याप्त लोकसमर्थन प्राप्त था. बुद्ध पूर्व भारत में तो वह समानांतर चिंतन शैली थी, जिसने अपने समय की सभी प्रमुख विचारधाराओं को चुनौती दी. फलस्वरूप उसका प्रभाव आने वाले 1500 वर्षों तक बना रहा.

बावजूद इसके पूर्ण कस्सप को अहेतुवादी तक सीमित कर देना, मेरी राय में संकुचित दृष्टिकोण है. किसी चीज को समग्रता में जानने की कोशिश करने के बजाए टुकड़ेटुकड़े में जानना; या ज्ञानार्जन की अपनी सीमाओं को वस्तु की सीमा घोषित कर देने जैसा. ‘अहेतुवाद’ कार्यकारण संबंध को नकारता है. मानता है कि जीवन या वस्तु अपने आप में स्वतः प्रमाण है. हर कार्य का कोई कारण होता है, इस संबंध को वह स्वीकार नहीं करता. दूसरी ओर हेतुवादी मानता है कि हर चीज का कोई न कोई ‘हेतु’ होता है. आग है तो धुंआ होगा ही. या धुंआ है तो आग होगी ही. क्योंकि आग और धुंआ दोनों एकदूसरे के हेतु हैं. लेकिन ध्यान से देखा जाए तो यह जीवन या किसी और वस्तु के प्रति दृष्टि और सोच की सीमा को दर्शाते हैं. दृष्टि की सीमा होती है कि वह एक समय में किसी वस्तु के एक ही पक्ष को देख पाती है. हमारे सामने सिक्के का या तो ‘हेड’ होता है अथवा ‘टेल’. इसी तरह मेज, कुर्सी, पंखा, कूलर, गिलास, केतली यानी कोई भी वस्तु कभी भी पूरी की पूरी हमारे सामने नहीं होती. दूसरे पक्ष को देखते समय पहला पक्ष पीछे चला जाता है. वस्तु को पहचानने का बाकी काम मस्तिष्क को करना पड़ता है. दृष्टि की सीमा को वस्तु की सीमा नहीं माना जा सकता. बीज वृक्ष का कारण नहीं, विकास प्रक्रिया का आरंभिक पड़ाव है. इस आधार पर पूर्ण कस्सप को मैं आदि विकासवादी कहना पसंद करूंगा.

पूर्ण कस्सप ही क्यों, जो भी अनीश्वरवाद में विश्वास रखता है, मेरी राय में वह मूलतः विकासवादी है. इसका समर्थन वही कर सकता है, जिसे इस वस्तुजगत की वास्तविकता में भरोसा हो. जिसे सपने और संकल्प की दूरी को कम करने का हुनर आता हो. अधिकांश अनीश्वरवादी दार्शनिक समाज के उस वर्ग से आए थे, जिसे अपने श्रम पर भरोसा था. जो प्रकृति के साथ संतुलन बनाते हुए जीने का अभ्यासी था. खुद को कर्मकांडों में उलझाने की जिसे फुर्सत न थी. ब्राह्मण उसे धर्मशिक्षा के लिए अयोग्य मानता था. तो अपने श्रमकौशल पर गर्वाया, स्वाभिमान से भरपूर वह वर्ग भी यज्ञादि कर्मकांडों को आडंबर कहकर नकार देता था. उस समय के प्रमुख अनिश्वरवादी विचारकों में पूर्ण कस्सप के अलावा मक्खलि गोसाल, अजित केशकंबलि, पुकुद कात्यायन, संजय वेल्ठिपुत्त आदि सम्मिलित थे. सृष्टि के पीछे किसी भी प्रकार की परामानवीय सत्ता के अस्तित्व से इन्कार करने के कारण वे ब्राह्मणवादी पुरोहितों के अलावा जैन और बौद्ध परंपरा के विचारकों के भी निशाने पर थे. इसे भारतीय भौतिकवादी चिंतन की विडंबना ही कहा जा सकता है कि अपने समय की महत्त्वपूर्ण विचारधारा होने के बावजूद उस परंपरा का कोई स्वतंत्र ग्रंथ उपलब्ध नहीं है. उनके बारे में जानने के लिए हमें जैन और बौद्ध ग्रंथों पर ही निर्भर रहना पड़ता है.

बौद्ध ग्रंथों में पूर्ण कस्सप को संघ आचार्य, तीर्थंकर, अनुभवी विचारक, नए मत का संस्थापक आदि कहा गया है. ‘सामञ्ञफल सुत्त’ में अजातशत्रु और बुद्ध के बीच संवाद का उल्लेख है. संवाद जिस रूप में है, वह वास्तव में उसी रूप में हुआ होगा, यह दावा नहीं किया जा सकता. क्योंकि बौद्ध ग्रंथों में लगभग एक जैसे वार्तालाप को अलगअलग समय में भिन्नभिन्न व्यक्तियों के साथ हुआ बताया गया है. संवाद का ध्येय प्रचलित भौतिकवादी विचारधाराओं तथा बौद्ध दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन नहीं है. न ही उसे किसी चर्चा को तर्कसम्मत ढंग से आगे बढ़ाने की नीयत से शुरू किया गया है. हर प्रसंग में एकतरफा निर्णय लेते हुए भौतिकवादी विचारधारा के सापेक्ष बौद्ध दर्शन को श्रेष्ठतर ठहरा दिया जाता है. इस तरह की चर्चा अलगअलग कालखंड में लिखे गए धर्मग्रंथों में प्राप्त होती है. उनमें जैन और बौद्ध दोनों ही धर्मों के ग्रंथ सम्मिलित हैं. उनमें चर्चा का स्वरूप तो बदलता है, परंतु अनीश्वरवादी दार्शनिक वही रहते हैं. इससे दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं. पहला उनकी ऐतिहासिकता को लेकर. यह कि भारत में भौतिकवादी चिंतन की समृद्ध परंपरा थी. और दूसरा निष्कर्ष यह कि लोगों पर उसका गहरा प्रभाव था. अच्छीखासी संख्या उनके समर्थकों की थी. इससे यह भी सिद्ध होता है कि बौद्ध एवं जैन दर्शन को अनिश्वरवादी विचारधारा की चुनौती लंबे समय तक झेलनी पड़ी थी. जिन अनीश्वरवादी दार्शनिकों का नामोल्लेख ऊपर किया है, सभी बुद्ध के समकालीन थे. मक्खलि गोसाल और पूर्ण कस्सप तो बुद्ध के बुद्धत्व प्राप्त करने से पहले ही पर्याप्त प्रतिष्ठा अर्जित कर चुके थे. जैन परंपरा में उसे ‘जिन्’ ऐसा महापुरुष जो अपनी इंद्रियों पर अनुशासन करता हो—बताया गया है. पूर्ण कस्सप के साथ जुड़ा ‘पूर्ण’ ज्ञान की संपूर्णता का संकेतक है. ‘दीघनिकाय’ के ‘सामञ्ञफल सुत्त’ के अनुसार मगध सम्राट अजातशत्रु पूर्ण कस्सप के विचारों तथा उनसे अपनी असंतुष्टि का जिक्र गौतम बुद्ध के समक्ष करता है. बदले स्थान तथा पात्रों के साथ अनिश्वरवादी धारा के विचारकों को लेकर इसी तरह की चर्चा ‘संयुत्तनिकाय’ में भी हैं. अंतर केवल इतना है कि ‘दीघ निकाय’ में संवाद अजातशत्रु और गौतम बुद्ध के बीच दिखाया गया है तो ‘संयुत्तनिकाय’ में गौतम बुद्ध और कोसलाधिपति पसेनदि के बीच चर्चा है. स्थान भी बदला हुआ है. तथापि मंतव्य वही है, जो ‘सामञ्ञफल सुत्त’ का है. इसी प्रकार का संवाद बुद्ध के निर्वाण प्राप्ति के करीब पांच सौ वर्ष बाद रचे गए बौद्ध ग्रंथ ‘मिलिंद प्रश्न’ में उद्धृत हुआ है. वहां चर्चा बौद्ध आचार्य नागसेन तथा सम्राट मिलिंद के बीच है. पांच शताब्दी बाद भी पूर्ण कस्सप आदि भौतिकवादी दार्शनिकों का नामोल्लेख दर्शाता है अनिश्वरवादी विचारधारा उस समय भी चुनौती की अवस्था में थी.

सामञ्ञफल सुत्त’(दीघनिकाय) में पूरा प्रसंग सिलसिलेवार दिया है. एक बार अजातशत्रु अपने दरबार में विराजमान थे. रात्रि का समय, पूर्णिमा की चांदनी दिगदिगंत तक फैली हुई थी. अचानक अजातशत्रु के मन में आया कि खाली समय का सदुपयोग तत्वचर्चा हेतु किया जाए. कुछ अंतरग दरबारी उस समय भी उनके साथ थे. वह वैचारिक क्रांति का युग था. जीवन और सृष्टि के रहस्यों को जानने के लिए पूरी दुनिया में उत्साह था. लोग अपनीअपनी तरह से सत्य तक पहुंचना चाहते थे. समाज में श्रमणों और यायावर मुनियों की प्रतिष्ठा थी. बड़े से बड़ा सम्राट उनकी अवज्ञा करने से घबराता था. तो अंतिम सत्य तक पहुंचने के नाम पर वैदिक परंपरा में मोक्ष की अवधारणा थी. मगर मोक्ष तभी संभव था, जब जीवन से मुक्ति हो. कुछ अपवाद छोड़ दिए जाएं तो जीवन चाहे जैसा भी हो, सभी को प्रिय होता है. बुद्ध द्वारा निर्वाण की संकल्पना जीवन की इच्छा और मुक्ति के बीच संतुलन की भावना को दर्शाती थी. वह मध्यम मार्ग था. जीवन(देह) को ही सबकुछ मानने वालों(अनीश्वरवादी) तथा जीवन को कुछ भी नहीं मानते हुए मोक्ष को महत्त्व देने वाले परंपरावादी पुरोहितों के बीच का रास्ता. बुद्ध पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे. उनका मानना था कि जिस प्रकार भुना हुआ बीज अंकुरित नहीं होता, ऐसे ही सम्यक आचरण द्वारा मनुष्य इसी जन्म में दुख से हमेशा के लिए निवृत्ति प्राप्त कर सकता है. निर्वाण यानी विरक्ति का आनंद. संसार में रहते हुए उसके दुखक्लेश से सदासर्वदा के लिए निवृत्ति. ’सामञ्ञफल सुत्त’ में अजातशत्रु की जिज्ञासा निर्वाण को समझने की शुरुआती कड़ी है. अजातशत्रु की जिज्ञासा बहुत सरल है. वह जानना चाहता है कि जैसे शिल्पकार को कर्म का अवदान इसी जीवन में प्राप्त हो जाता है, क्या उसी प्रकार श्रामण्य जीवन का फल भी इसी जीवन में प्राप्त किया जा सकता है? जिज्ञासा के समाधान के लिए वह कई प्रतिष्ठित विचारकों से चर्चा कर चुका था, मगर उसे संतुष्टि न थी.

दरबारियों के बीच अजातशत्रु के यह पूछने पर कि तत्व चर्चा के लिए किसके पास चला जाए एक अमात्य ने छूटते ही कहा—‘‘महाराज पूर्ण कस्सप के पास चलिए. वह गणस्वामी, गणाध्यक्ष, यशस्वी, तीर्थंकर(मतसंस्थापक), प्रज्ञाशील, अनेकानेक शिष्यों वाला, वयोवृद्ध, चिरसाधक, सुगत और परम ज्ञानी है. उसके साथ अध्यात्मचर्चा से आपको अवश्य ही संतुष्टि मिलेगी.’’ अजातशत्रु उस सलाह को नजरंदाज कर देता है. उसके बाद बाकी अमात्य एकएक कर मक्खलि गोसाल, अजित केशकंबलि, पुकुद कात्यायन, संजय वेल्ठिपुत्त और निगंठ नाथपुत्त का नाम लेते हैं. निगंठ नाथपुत्त महावीर के लिए आया है. जो आगे चलकर जैन दर्शन के प्रवर्त्तक बने और 24वें तीर्थंकर कहलाए. जैसा हमने शुरू में ही कहा, यहां ‘दीघनिकाय’ के लेखक का ध्येय पूर्ण कस्सप के तत्वदर्शन के बारे में बताना नहीं है. उसका वास्तविक ध्येय तत्कालीन लोकप्रिय धर्मदर्शनों के बीच बुद्ध के दर्शन को प्रतिष्ठित करना है.

राजमंत्रियों की सलाह की उपेक्षा के पश्चात जीवक का नंबर आता है. उस समय गौतम बुद्ध राजवैद्य जीवक के जेतवन में अपने 1250 शिष्यों के साथ ठहरे हुए थे. जीवक अजातशत्रु को बुद्ध से मिलने की सलाह देता है. बुद्ध की प्रशस्ति करते हुए वह कहता है—‘‘वे सम्यक संबुद्ध, सुगत, लोकसिद्ध, सभी विद्याओं और सदाचरण से समृद्ध, अनुपम शास्ता, परमपज्ञ महात्मा हैं और इस समय मेरे ही आम्रकुंज में अपने शिष्यों के साथ विहार कर रहे हैं. उनकी कीर्ति और यशगाथा दिगदिगंत व्याप्त है. ऐसे परमप्रज्ञ महात्मा बुद्ध से तत्व चर्चा के उपरांत आपको अवश्य ही शंाति मिलेगी. आप उसी ओर प्रस्थान कीजिए.’’ जीवक की बात मानकर अजातशत्रु अपने हाथी पर सवार होकर दलबल के साथ बुद्ध से मिलने के लिए चल देता है. उसके साथ पांच सौ हथनियों पर सवार उसकी इतनी ही रानियां तथा पांच सौ सैनिकों का काफिला है.

यहां बौद्ध विद्वानों के लेखकीय कौशल की प्रशंसा करनी होगी. प्रसंग और प्रतीकों में अद्भुत तालमेल को बनाए रखते हैं. इतना कि दृश्यअदृश्य हर घटना से उनके लक्ष्य की पुष्टि होती है. श्रामण्य जीवन की सर्वोच्चता दर्शाने के लिए न केवल बुद्ध से आमनेसामने के संवाद की मदद ली जाती है, बल्कि परिस्थितियां भी ऐसी रची जाती हैं, जिनसे श्रामण्य जीवन के आगे राजसी वैभव महत्त्वहीन सिद्ध हो. ‘सामञ्ञफल सुत्त’ के अनुसार बुद्ध के पास जाते समय अजातशत्रु के साथ पांच सौ हथनियों पर सवार उसकी 500 पत्नियां के अलावा इतने ही सैंनिक साथ होते हैं. तत्वज्ञान के जिज्ञासु को इतने दलबल के साथ जाने का औचित्य? इससे दो चीजों की ओर संकेत किया गया है. पहला अजातशत्रु के मन में पैठा भय. उसने मगध की सत्ता अपने पिता से छीनी थी. मन में कहीं न कहीं यह आशंका भी छिपी होगी कि उसकी भांति कहीं उसका बेटा भी उसे पदच्युत करके सत्ता पर कब्जा न कर ले! कदाचित वह अपने बेटे की आंखों में मगध सत्ता के प्रति आकर्षण को पढ़ चुका था. इसलिए बेटे को सांसारिक रागविराग से मुक्त देखना चाहता था. जेतवन में अजातशत्रु जब, ‘निर्मल जलाशय के समान शांत, उदार, 1250 भिक्षुओं के बीच देदीप्यमान परम शास्ता को देखता है तो उसे तत्क्षण अपना बेटा याद आता है. यह भूलकर कि वह बुद्ध के पास अपनी जिज्ञासा के साथ आया है, वह अपने बजाए बेटे के लिए शांति की कामना करने लगता है—‘वाह! क्या बात है. क्या इसी प्रकार की शांति मेरे पुत्र उदयभद्र को भी प्राप्त हो सकती है?’ आगे उसे कामना करता हुए दिखाया गया है, ‘मेरा पुत्र उदयभद्र भी इसी शांति को प्राप्त करे.’ यह राजपरिवारों में पलने वाले भय और षड्यंत्रों से जन्मी कल्पना थी, जिनसे उसका सामना जन्म से ही होने लगा था. कहते हैं कि जब वह गर्भ में था, तब उसकी मां के मन में मानवमांस खाने की विचित्रसी इच्छा ने जन्म लिया था. इस बारे में जब ज्योतिषियों से विचार किया गया तो उन्होंने बताया कि जातक अपने पिता के लिए अशुभ होगा. ऐसे प्रसंग सच न भी हों तो भी रूढ़िवादी मान्यताओं के चलते जोड़ दिए जाते हैं. क्योंकि आगे चलकर अजातशत्रु ने पिता से मगध का राज्य हड़प लिया था. अब उसे भय था कि उसका बेटा भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार कर सकता है, जैसा उसने अपने पिता के बिंबसार के साथ किया था. पुत्र उदयभद्र को बुद्ध की शरण में भेजने की अप्रत्यक्ष कामना उसी भय की ओर इशारा करती है.

इतिहास में अजातशत्रु की चर्चा वैभवशाली सम्राट के रूप में होती है. अपने पराक्रम द्वारा उसने काशी, कोशल, वैशाली तथा उसके आसपास बसे 36 गणराज्यों पर विजय प्राप्त की थी. इतने वैभवशाली सम्राट का 500 पत्नियों और सैनिकों के साथ बुद्ध से मिलने के इतर उद्देश्य भी हैं. अध्याय का शीर्षक ‘सामञ्ञफल सुत्त’(श्रमण जीवन का फल) है. जब वह बुद्ध से मिलने पहुंचता है तो उनके साथ 1250 शिष्यों की मंडली है. अजातशत्रु अशांत और संशयशील है. अनेक आशंकाएं और भय उसे घेरे हुए हैं. दूसरी ओर बुद्ध तथा उनके शिष्य ‘निर्मल जलाशय के समान शांत’ हैं. अपनी प्रतीकात्मकता में यह घटना धर्मसत्ता के आगे राजसी धनवैभव को गौण ठहराती है. इस अनुपात को ‘मिलिंद प्रश्न’ में भी कायम रखा गया है. समय के साथ बौद्ध जीवन की बढ़ी लोकप्रियता को अनुरूप ‘मिलिंद प्रश्न’ में भिक्षुओं की संख्या में उसी अनुपात में वृद्धि दर्शायी गई है. ‘दीघनिकाय’ और ‘मिलिंद प्रश्न’ में पांच शताब्दियों का अंतराल है. यह अंतराल मिलिंद और नागसेन के स्तर पर भी दिखता है. मिलिंद के साथ पांच सौ यवन सैनिकों के अतिरिक्त आवश्यक सैन्य बल है. जबकि नागसेन के साथ उसके 80000 शिष्य. परोक्ष रूप में यह भी राजसी जीवन के बरक्स श्रामण्य जीवन को श्रेष्ठता को दर्शाने का लेखकीय कौशल है. ऐसी प्रतीकात्मकता का ध्यान दूसरे प्रसंगों में भी रखा गया है.

पूर्ण कस्सप के तत्व दर्शन की झलक अजातशत्रु और बुद्ध की चर्चा के दौरान प्राप्त होती है. बुद्ध को अभिवादन करने के उपरांत अजातशत्रु परमशास्ता के समक्ष अपनी जिज्ञासा प्रकट करता है—वह जानना चाहता है कि जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के शिल्पकर्मों, उद्यमों यथा लौहकर्म, काष्ठकला, अश्वारोहण, रंजक, बावर्ची, हज्जाम, मालाकार, योद्धा आदि को उनके कर्म का फल इसी जन्म में प्राप्त हो जाता है, क्या श्रमण जीवन के फल को भी इसी जीवन में प्राप्त किया जा सकता है? उत्तर देने से पूर्व बुद्ध इस बारे में बाकी आचार्यों के मत को जान लेना चाहते हैं—‘‘यदि आपको आपत्ति न हो तो बाकी श्रमणों ने जो उत्तर दिया, वह बताइए?’’

अजातशत्रु सबसे पहले पूर्ण कस्सप के बारे में बताता है—‘‘भंते! एक बार मैं पूर्ण कस्सप के पास गया. उनके पास जाकर मैंने अपना यही प्रश्न दोहराया कि जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के शिल्पकर्मों, उद्यमों आदि का फल इसी जन्म में प्राप्त हो जाता है. उसी प्रकार क्या श्रामण्यजीवन का सुफल भी इसी जन्म में संभव है?’’ अजातशत्रु आगे बताता है—‘‘मेरे प्रश्न के उत्तर में पूर्ण कस्सप ने कहा—‘महाराज कार्य करतेकराते. छेदन करतेकराते, पकातेपकवाते, सैंध करतेकराते, गांव लूटते, चोरी करते, बटमारी करते, झूठ बोलते, परस्त्रीगमन करते, किसी की देह को तेज छुरे के प्रहार से टुकड़ाटुकड़ा करते, करवाते जैसे कर्मों से कभी भी पाप का आगमन नहीं होता. दूसरों पर घात करतेकराते, चोरी से दूसरों की फसल काटतेकटवाते गंगा के दक्षिण जाने पर भी पाप का आगमन नहीं होता. न ही दान देतेदिलाते, यज्ञ करतेकराते, गंगा के उत्तरवत्ती तट पर जाने से पुण्य की प्राप्ति होती है. दान, धर्म, सत्कर्म, परोपकार आदि में भी न तो पुण्य है, न ही पुण्य का आगम.’’ अंत में अजातशत्रु पूर्ण कस्सप के बारे में अपना निर्णय सुनाता है—‘‘इस तरह पूर्ण कस्सप ने मेरे प्रश्न का उत्तर घुमाफिराकर दिया. जैसे पूछा कटहल के बारे में जाए और कोई आम की विशेषताएं बताने लगे. कोई जामुन के बारे में सवाल करे और बताने वाला केले के गुणों का बखान करने लगे, ऐसा ही व्यवहार पूर्ण कस्सप ने किया. इसलिए बिना सहमति या असहमति दर्शाए, उन्हें प्रणाम कर मैं वहां से चुपचाप लौट आया.’’

आगे अजातशत्रु बारीबारी से अजित केशकंबलि, मक्खलि गोशाल, संजय वेल्ठिपुत्त, निगंठ नाथपुत्त तथा पुकुद कात्यायन से अपनी धम्म चर्चा के बारे में बताता है. प्रत्येक प्रसंग के बाद मिलेजुले शब्दों में वह अपनी निराशा को व्यक्त करता है. उस समय तक पाठक लेखक की मंशा को समझने लगता है. वह जान लेता है कि लेखक का उद्देश्य बौद्ध मत और भौतिकवादी विचारधाराओं के बीच संवाद करना नहीं है. वास्तविक उद्देश्य अजातशत्रु को बौद्ध धर्म से प्रभावित होते दर्शाना है. यथा राजा, तथा प्रजा—अजातशत्रु जैसा सम्राट बौद्ध धर्म को अपनाएगा, तो बाकी प्रजा भी उसकी ओर आकर्षित होगी. अपने धर्म और विचारधारा को जनजन तक पहुंचाने की कामना न जो अनुचित है, न ही असंभव. बल्कि आवश्यक भी है. इसी से विचारधाराओं के बीच संवाद की प्रक्रिया आगे बढ़ती है और नए रास्ते निकलते हैं. जो बातचीत हम कर रहे हैं, उसका रास्ता भी इसी तरह निकला है. इसके लिए हम बौद्ध और जैन विद्वानों के ऋणी हैं, क्योंकि इस बहाने हम उन अनीश्वरवादी दार्शनिकों के बारे में जान पाते हैं जिन्होंने उस दौर में ब्राह्मणवादी विचारधाराओं को चुनौती दी थी, जब वह कदाचित सबसे संगठित अवस्था में था. हालांकि उसके साथसाथ कुछ स्वाभाविक प्रश्न भी खड़े हो जाते हैं. बुद्ध ने वैदिक धर्म की परंपरा का भी विरोध किया था. वे कर्मकांड और आडंबरवाद को नकारते हैं. बलि प्रथा की उन्होंने कठोर शब्दों में निंदा की थी. ध्यातव्य है कि यज्ञों के दौरान बलिप्रथा का जोर इतना था कि एक साथ सैकड़ों पशुओं की बलि चढ़ा दी जाती थी. उस समय की अर्थव्यवस्था का आधार या तो खेती थी, या पशुधन. यज्ञबलि द्वारा पशुधन की हानि किसान तथा व्यापारी सभी को उठानी पड़ती थी. बुद्ध द्वारा बलि प्रथा के बहिष्कार द्वारा उनका प्रचार उन वर्गों में भी तेजी से हुआ, जिनकी अर्थव्यवस्था खेती या पशुधन से जुड़ी थी. यज्ञ आदि कर्मकांडों का बहिष्कार करने वालों में भी वही जातियां आगे थीं. अजित केशकंबलि का तो जन्म ही गोपालक परिवार में हुआ था. मक्खलि गोशाल का जन्म गोशाला में हुआ था. भौतिकवादी चिंतन के इतिहास में इन सबका प्रतीकात्मक महत्त्व है. ध्यान रखने वाली बात यह भी है कि कर्मकांड, आडंबरवाद और बलिप्रथा की आलोचना करते समय बुद्ध(बौद्ध ग्रंथों के अनुसार, जो उनके निर्वाण प्राप्ति के शताब्दियों बाद उनके अनुयायियों द्वारा रचे गए. जिनमें बुद्ध के ब्राह्मणीकरण का प्रयास साफ नजर आता है) एक भी ब्राह्मणवादी विचारकलेखक का नाम नहीं लेते. जबकि भौतिकवादी चिंतकों की आलोचना उनके नाम के साथ अनेक बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में है. उस समय वे पूरी तरह व्यैक्तिक हो जाते हैं. आखिर क्यों? कारण कुछ भी हो सकता है. बल्कि एक नहीं कईकई कारण हो सकते हैं. यहां कुछ संभावनाओं पर हम विचार करेंगे—

ब्राह्मणवादी परंपरा के विचारकों का नाम न लेने के पीछे पहला कारण हो सकता कि बुद्ध के समय तक वह कोरे कर्मकांडों और आडंबरों में सिमट चुकी थी. कोई मौलिक दार्शनिक था ही नहीं. जो थे, वे सामाजिक हलचल से दूर, एकांत ज्ञानसाधना में लीन रहते थे. बाकी मुख्यतः पुरोहित वर्ग से आते थे, जिसका काम परंपरा की लकीर पीटना था. ध्यान से देखा जाए तो वैदिक मेधा का ढलान ऋग्वेद के बाद से ही आरंभ चुका था. ब्राह्मण आचार्यों को अपनी उस कृति पर गर्व था. इतना गर्व कि उसे सहेजने की चिंता उन्हें सताए रहती थी. चूंकि लेखन कला का पूरी तरह विकास नहीं हुआ था, इसलिए ज्ञान को सहेजने तथा उसे अगली पीढ़ियों तक अंतरित तरने का कार्य पूर्णतः स्मृतिकेंद्रित था. सामवेद की रचना ऋग्वेद की ऋचाओं को कंठस्थ करने तथा सस्वर गायन के उद्देश्य से की गई. ऋषिगण शिष्यों को ऋचाएं कंठस्थ कराते समय अग्नि के आसपास बैठते थे. मौसम की मार, भोजन की जरूरत तथा वन्य पशुओं से रक्षा करने में अग्नि उनकी मददगार थी. अलाव जलाकर बैठने के चलन से ही यज्ञ का विकास हुआ. प्रकारांतर में उसी से यजुर्वेद का. बुद्ध के समय कर्मकांडी धारा प्रबल थी. कदाचित उसे तत्कालीन वैदिक धर्मदर्शन की मुख्यधारा भी मान सकते हैं. दूसरे शब्दों में उन दिनों ब्राह्मणवादी परंपरा में सिवाय कर्मकांडों के ऐसा कुछ था ही नहीं, जिसकी सीधी आलोचना आवश्यक मानी जाती.

दूसरा कारण हो सकता है कि ब्राह्मणवादी परंपरा केवल पुरोहित वर्ग और उनके आश्रयदाता राजघरानों तक सीमित थी. समाज का बहुसंख्यक हिस्सा कमेरी जातियों से संबंधित था, जिन्हें ब्राह्मणवादी वैदिक ज्ञान के लिए अपात्र मानते थे. बुद्धकालीन भारत में जैसे ही व्यापार के अवसर बढ़े, कमेरी जातियां संगठित होने लगीं. उनमें बहुत अच्छे शिल्पकार और मेहनतकश लोग सम्मिलित थे. अपने श्रमकौशल के बल पर उन्होंने समाजार्थिक रूप से खुद को इतना सशक्त कर लिया था कि बाहरी मदद की उन्हें आवश्यकता ही न रही. ज्ञान पर एकाधिकार की कोशिश का कदाचित सबसे सार्थक और सटीक प्रतिकार यही हो सकता था. और यही उन्होंने किया भी था—‘यदि आपके ज्ञान, आपके कर्मकांडों में हमारी ससम्मान हिस्सेदारी संभव नहीं, तो हमें भी उनकी आवश्यकता नहीं है. प्रकृति ने हमें जीवन दिया है, इसलिए वही हमारे लिए सबकुछ है. स्वतंत्र मस्तिष्क दिया है, सो हम उस लकीर को भी नहीं पीटना चाहते, जिसे आप धर्म और परंपरा मानते हैं.’ सातआठ सौ वर्ष पहले कुछ ऐसा ही जवाब संतकवियों ने पुरोहितों और पंडितों को संतकाव्य के रूप में दिया था—‘यदि आपका देवता हमारे स्पर्शमात्र से अपवित्र हो जाता है. तो वह रहे मंदिर में, मूर्त्तियों का कैदी बनकर. सम्मान गंवाकर हम उससे मिलने नहीं आएंगे. हमारा साईं हमारे भीतर है. हम उससे कभी भी संवाद कर सकते हैं. दरअसल एकदूसरे के साथ सहकार और समर्थन ने आजीवकों को आत्मनिर्भर और सशक्त बनाया था. भौतिकवादी दर्शनों का उभार इसी आत्मनिर्भरता की देन था. एक समय ऐसा भी था जब आजीवक मक्खलि गोशाल के समर्थकों की संख्या बुद्ध के अनुयायियों से अधिक थी. आजीवक संप्रदायी अपने संख्याबल आधार पर आगे भी बौद्ध एवं ब्राह्मणवादी चिंतकों के लिए चुनौती बने रहे. प्रमाण के लिए हम ह्वेनसांग का बनारस संबंधी विवरण देख सकते हैं. अपनी भारतयात्रा को याद को करते हुए वह लिखता है कि सातवीं शताब्दी के आसपास बनारस में 30 संघाराम थे. उनमें 3000 भिक्षु रहते थे. 100 महादेव मंदिर, उनमें 10000 पुजारियों का वास था. इतने सारे भिक्षुओं और साधुओं की नगरी होने के बावजूद बनारसवासी, मुख्यतः धनी व्यापारी वर्ग धर्म की गिरफ्त से बाहर था. ह्वेनसांग के अनुसार उनमें से कुछ बौद्ध मतावलंबी थे, जबकि अधिकांश अनीश्वरवादी. इससे यह संकेत भी मिलता है कि ब्राह्मणवर्ग का प्रभाव केवल समाज के संपन्न वर्गों तक, जो उनके कर्मकांड का बोझ उठा सकते थे—सीमित था. बाकी हिस्सा आजीवकों तथा नास्तिकों का था. उन्हीं का एक हिस्सा जैन और बौद्ध दर्शनों की ओर आकर्पित हो रहा था. बुद्ध के लिए संख्याबल महत्त्वपूर्ण था. अतएव भिक्षु संघों में अधिक से अधिक व्यक्तियों को सम्मिलित करने के लिए उन्होंने उन वर्गों पर विशेषरूप से जोर दिया, जिन्हें ब्राह्मणवादी चिंतन परंपरा में कोई स्थान प्राप्त न था.

तीसरा कारण भी महत्त्वपूर्ण है. ब्राह्मणवादी साहित्य सामूहिक प्रयासों की देन है. वहां व्यक्तिगत श्रेय के बजाए सामाजिक उद्देश्य के लिए काम करने पर जोर दिया जाता रहा है. उसकी पहचान उसकी समग्रता में है. अनगिनत ब्राह्मण आचार्य, मुनिगण बिना व्यक्तिगत नाम या यश की कामना के, सहस्राब्दियों तक केवल परंपरापोषण का काम करते रहे. ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ आरंभ में, क्रमशः ‘पुलत्स्य वध’ तथा ‘जय’ शीर्षक के अंतर्गत छोटीछोटी कृतियां थीं. उन्हें वर्तमान रूप में लाने में शताब्दियों का समय लगा है. अनेक मनीषियों का योगदान उन्हें मिला है. आज सिवाय ‘वाल्मीकि’ और ‘व्यास’ के किसी और का नाम उनके रचनाकार के रूप में नहीं जानते. नतीजा यह हुआ कि जो वाल्मीकि दो हजार वर्ष पहले ‘रामायण’ के लेखक के रूप में जाने जाते हैं, वही डेढ़ हजार वर्ष पहले लिखे गए महाग्रंथ ‘योगवशिष्ट’ के भी घोषित रचनाकार हैं. यही हाल उपनिषदों, पुराणों तथा अन्य ब्राह्मण ग्रंथों का है. व्यास को महाभारत, अठारह पुराण, श्रीमद्भागवत आदि का लेखक बताया जाता है. जबकि इन ग्रंथों की रचना शताब्दियों के अंतराल में हुई है. समय के साथसाथ उनमें संशोधनपरिवर्धन होते रहे हैं. यानी मौलिकता की कमी के चलते भी ब्राह्मणवादी विद्वानों का व्यक्तिगत संदर्भ अनावश्यक माना गया.

अनीश्वरवादी दार्शनिकों की भांति वैदिक परंपरा के लेखकोंआचार्यों की आलोचना उनके नामोल्लेख के साथ न करने के पीछे चौथा कारण यह हो सकता है कि ब्राह्मणवादी परंपरा के आचार्यों और पुरोहितों का तत्कालीन राजनीति और श्रेष्ठिवर्ग पर गहरा प्रभाव था. बुद्ध राजसत्ता और अर्थसत्ता के महत्त्व को भलीभांति समझते थे. जानते थे कि नए धर्म की सफलता समाज के शीर्षस्थ वर्गों के समर्थन के बिना असंभव है. इसलिए सीधे प्रहार से बचते हुए बुद्ध ने दूरंदेशी और कूटनीति से काम लिया. इसमें उन्हें सफलता भी मिली. यह ठीक है कि बौद्ध मठ समाज के सभी वर्गों के लिए खुले थे. किसी भी वर्ग का व्यक्ति उनमें प्रवेश पा सकता था. परंतु इसके आधार पर यह दावा करना कि बुद्ध वर्णव्यवस्था के भी विरोधी थे, अनुचित होगा. लेकिन यह बात विश्वास के साथ कही जा सकती है कि जाति और वर्ण को लेकर वे उतने कट्टर न थे, जितने ब्राह्मणवादी विचारक. अपने मत के प्रचारप्रसार के लिए बुद्ध ने समाज के सभी वर्गों का आवाह्न किया था. ब्राह्मणवादी परंपरा के आचार्यों और पुरोहितों का तत्कालीन राजनीति और श्रेष्ठिवर्ग पर गहरा प्रभाव था. वे राजदरबारियों में ऊंची हैसियत रखते थे. यह सोचते हुए कि ब्राह्मण परंपरा के आचार्यों पर सीधा प्रहार उनके आश्रयदाता सम्राटों को नाराज कर सकता है—उन्होंने परोक्ष आलोचना का मार्ग चुना और केवल कर्मकांड तथा यज्ञबलियों की आलोचना की. चूंकि ब्राह्मण पुरोहितों के यज्ञ खर्चीले होते थे और उनका भार राजाओं और सेठों को उठाना पड़ता था, इसलिए समाज के संपन्न वर्गों ने भी बुद्ध के विचारों का जी खोल कर समर्थन किया. यज्ञ बलियों से पशुहत्या में कमी आने लगी. उसका सीधा लाभ श्रेष्ठिवर्ग को पहुंचा. उसी की मदद से आगे चलकर देश की आर्थिक समृद्धि की नई कथा लिखी गई. राजाओं और श्रेष्ठिवर्ग से तालमेल के साथसाथ बुद्ध ने अद्विज वर्गों में भी अपने मत के प्रचारप्रसार पर जोर दिया, जिन्हें शूद्र कहकर किसी प्रकार के धार्मिक कार्यव्यवहार से अलग रखा गया था.

बुद्ध के आरंभिक शिष्यों में लगभग अस्सी प्रतिशत या तो ब्राह्मण थे, अथवा क्षत्रिय. चूंकि बौद्ध ग्रंथों की रचना बुद्ध के निर्वाण प्राप्ति के बाद संपन्न हुई थी. तो पांचवा और महत्त्वपूर्ण कारक यह भी संभव है कि बौद्ध लेखक वर्षों तक बुद्ध के सान्निध्य में रहने के बावजूद, अपने ब्राह्मणवादी संस्कारों को भुला नहीं पाए थे. इसलिए बुद्ध के निर्वाण प्राप्ति के पश्चात जैसे ही उन्हें अवसर मिला, उन्होंने बौद्ध परंपरा का ब्राह्मणीकरण करना आरंभ कर दिया. शुरुआत बुद्ध से ही की. अपने कुल को लेकर बुद्ध को अवश्य ही गर्व रहा होगा. लेकिन उनके जन्म को लेकर बाद में उनके शिष्यों ने जो लिखा, इस बारे में शायद ही उन्होंने कभी कुछ कहा होगा. ‘जातक निदान कथा’ में वर्णन आया है—

‘‘महापुरुष ने जन्म लेने के समय को विचारा….’’ फिर किस द्वीप में जन्म लिया जाए, यह सोचकर मध्य प्रदेश में जन्म लेने का निर्णय किया, ‘‘इसी प्रदेश में बुद्ध, प्रत्येक बुद्ध, श्रावक, अग्रश्रावक, महाश्रावक, चक्रवर्ती सम्राट तथा दूसरे महाप्रतापी ऐश्वर्यशाली क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य पैदा होते हैं….इसी में कपिलवस्तु नामक नगर है, जहां मुझे जन्म लेना है. फिर कुल का विचार करते हुए सोचा, ‘बुद्ध वैश्य या शूद्र कुल में उत्पन्न नहीं होते. लोकमान्य क्षत्रिय या ब्राह्मण इन्हीं दो कुलों में उत्पन्न होते हैं. आजकल क्षत्रिय ही लोकमान्य है. इसीलिए इसमें जन्म लूंगा….राजा शुद्धोधन मेरा पिता होगा.’’(बुद्धचरिय, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ-1).

ऐसे वर्णन बौद्ध साहित्य में भरे पड़े हैं. ब्राह्मणवाद की छाया कहींकहीं तो इतनी गाढी है कि आप बिना संदर्भ के जान ही नहीं पाएंगे कि आप बौद्ध साहित्य पढ़ रहे हैं कि ब्राह्मण साहित्य—

‘‘इस तरह बौद्धि सत्व ने उत्तरापाद नक्षत्र में गर्भ में प्रवेश किया. दूसरे दिन….राजा ने गोबर लिपी, धान की खीलों आदि से मंगलाचार की हुई भूमि में….घी, मधु, शक्कर से बनी खीर से भरीं, सोने और चांदी की थालियों से ढंकी थालियां परोसीं (तथा) नए वस्त्र, कपिला गौ आदि से उन्हें संतर्पित किया.’’(बुद्धचरिय, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ-2)

बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में उपालि को छोड़कर बाकी सब ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्गों से आए थे. उनके सोच पर ब्राह्मणवाद की छाया विद्यमान थी, वे ब्राह्मणवाद के आलोचक रहे होंगे, विरोधी नहीं.

छठा और महत्त्वपूर्ण कारक अनीश्वरवादियों की जाति थी. उनमें से कई समाज के उन वर्गों से आए थे, जो अपने श्रम के आधार पर जीविकोपार्जन करते थे. ब्राह्मणी व्यवस्था उन्हें शूद्र मानती थी. और शूद्र का कार्य अपने से श्रेष्ठ वर्गों की सेवा करना है, ज्ञान बघारना नहीं. ऐसी उन दिनों मान्यता थी. ऐसा नहीं है कि शूद्र वर्गों में मेधावी लोगों की कमी रही है. ब्राह्मणी व्यवस्था के अनेक ग्रंथों की रचना में शूद्र वर्ग के आचार्यों का योगदान रहा है. वेदों के संकलन कर्ता व्यास, प्रख्यात दार्शनिकों रैक्व, महीदास, सत्यकाम जाबाल उस समय की व्यवस्था के अनुसार शूद्र ही थे. रघुकुल के गुरु कहे जाने वाले वशिष्ट का जन्म दासी के गर्भ से हुआ था. एक और कारण यह भी संभव है कि भौतिकवादी विचारकों की पैठ अपने शिष्यों में इतनी गहरी थी कि उन वर्गों में अपनी पैठ बनाने के लिए उनपर सीधा प्रहार आवश्यक था. चूंकि अनिश्वरवादी विचारकांे को किसी भी प्रकार की सत्ता का समर्थन प्राप्त ही नहीं था. इसलिए सत्ता की गोदी में पलने वाले बौद्ध और जैन आचार्यों के लिए उनकी खुली आलोचना करना आसान बात थी.

पूर्ण कस्सप के जीवन और दर्शन पर चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले यह जान लेना भी आवश्यक है कि बुद्ध के समय तक धम्मप्रचार आमनेसामने के संवाद द्वारा किया जाता था. बुद्ध या महावीर ने अपने विचारों को लेकर स्वयं कोई ग्रंथ नहीं लिखा. बुद्ध के निर्वाण प्राप्ति के बाद अजातशत्रु के नेतृत्व में राजगीर में एक धर्मसंसद हुई थी जिसमें बुद्ध के प्रमुख शिष्यों से पांच सौ महाश्रमणों ने हिस्सा लिया था. सभी की अध्यक्षता महाकाश्यप ने की थी. उस समय तक बौद्ध दर्शन काफी प्रतिष्ठा अर्जित कर चुका था. बौद्ध के शिष्यों पर बड़ी जिम्मेदारी बुद्ध के विचारों तथा उपदेशों को बचाए रखने की थी. उनकी अपनी पदप्रतिष्ठा और भविष्य भी उससे जुड़ चुका था. इसलिए उस धर्मसंसद में बुद्ध के कृतित्व को सहेजने पर सभी की सहमति थी. उस दायित्व को बुद्ध के शिष्यों ने अच्छी तरह संभाला. लेकिन उनके शिष्यों में बड़ी संख्या द्विज वगों से आए बौद्धों की थी. जो अपने साथ वर्गीय संस्कार भी जाए थे. इसलिए बौद्ध ग्रंथों की अन्वीक्षा करने पर वे सब बातें बौद्ध ग्रंथों में, आई हैं, जिनका बुद्ध ने अपने जीवन में विरोध किया था. उदाहरण के लिए बुद्ध ने भिक्षुओं को जादू और चमत्कार दिखाने से दूर रहने को कहा था. ‘दीघनिकाय’ में ही इसके बारे में पर्याप्त चर्चा है. परंतु पूर्ण कस्सप के जीवन के बारे में चर्चा करते समय ही हम देखेंगे कि बाद के ग्रंथों में बौद्ध भिक्षु न केवल जादू और चमत्कार दिखाने लगे थे, बल्कि बुद्ध को भी चमत्कारी दिखाने से उन्हें परहेज न था.

क्रमशः….

© ओमप्रकाश कश्यप

भारतीय संस्कृति का बहुजन पक्ष

विशेष रुप से प्रदर्शित

संस्कृति’ शब्द ‘कृति’ के आगे ‘सम्’ उपसर्ग लगाने से बना है. ‘संस्कृति’ का अभिप्राय है, जिसे बनाने और आगे बढ़ाने में समाज के सभी वर्गों का योगदान बराबर हो. जिसमें सभी की समान सहभागिता हो. उसके लिए आवश्यक है कि समाज में सभी बराबर हों तथा प्रत्येक को अपना पक्ष प्रस्तुत करने की पूर्ण स्वतंत्रता हो. व्यक्ति की चारित्रिक विविधताओं का सम्मान करते हुए संस्कृति सदस्य इकाइयों के मन, विचार, रीतिरिवाज के सामंजस्यीकरण का काम करती है, ताकि आगंतुक पीढ़ियां समाज के आदर्श, रीतिरिवाज तथा ज्ञानानुभवों का लाभ उठा सकें. समाजशास्त्र की दृष्टि से ‘अनेकता में एकता’ की व्याप्ति समाज की उदारता का परिचायक होती है. वह समाजीकरण के उच्चतम स्तर की संकेतक है. उदार संस्कृति नैतिकता से सदैव सामंजस्य बनाए रखती है. दोनों के लक्ष्य में बहुत अधिक अंतर नहीं होता. नैतिकता जिन कसौटियों का निर्माण करती है, संस्कृति विभिन्न प्रतीकों, परंपराओं एवं संस्कारों के माध्यम से समाज में उन्हें लोगों के आचरण का हिस्सा बनाने के लिए प्रयत्नरत रहती है. समानता और स्वतंत्रता ऐसी ही कसौटियां हैं, जो न केवल समाजीकरण का आधार, अपितु उसकी सभ्यता का मापदंड भी हैं. मनुष्य उनसे प्यार करता है, यथासंभव उन्हें सुरक्षित रखना चाहता है. उन पर कोई आंच न आए, उसके लिए वह अपनी स्वतंत्रता के थोड़ेसे हिस्से का बलिदान कर समाज के अनुशासन में बंधने को स्वीकार होता है. इस उम्मीद के साथ कि समाज उसके साथ समानतापूर्ण व्यवहार करेगा. जिस सुख को वह अकेले प्राप्त करने में असमर्थ है, समाज में रहते हुए वह सुख आसानी से और लगातार प्राप्त होता रहेगा. समाज तथा उसे नियंत्रित करने वाले विधान, चाहे वह नैतिक हो या कानूनी—की चुनौती होती है कि वह मनुष्य की इन अपेक्षाओं पर खरा उतरकर उसके मानवीकरण के लिए उत्प्रेरक का काम करे.

अनेकता में एकता’ का दावा करने वाली भारतीय संस्कृति को इस कसौटी पर परखें तो बहुत उम्मीद नहीं बंधती. ऊपर से एक नजर आने या एक बताई जानी वाली इस संस्कृति के कई चेहरे, अनेक रंग तथा अनगिनत रूपविधान हैं. उनके बीच प्रतिद्विंद्वता बनी ही रहती है. कुछ ऐसे बिंदू भी हैं, जहां उसके दो मुख्य रूपाकारों को साथसाथ रखना, उनके अंतर्विरोधों पर पर्दा डालना न केवल कठिन, बल्कि असंभवसा हो जाता है. उस समय लगने लगता है कि सांस्कृतिक एकता का भारतीय रूपक मात्र एक छद्म, एक दिखावा है. सामाजिक असमानता, ऊंचनीच एवं भेदभाव को मान्यता देते हुए भारतीय संस्कृति समाज के मुट्ठीभर लोगों के हाथों में इतने अधिकार सौंप देती है, जिनसे वे बाकी जनसमूहों पर अपनी मर्जी लाद सकें. वे सदैव इस प्रयास में रहते हैं कि दमित वर्गों की सांस्कृतिक एकता का जो सूत्र उन वर्गों को सुदूर अतीत में जाकर जोड़ता तथा उनके बीच आत्मगौरव का संचार करता है, वह पूर्णतः छिन्नभिन्न हो जाए तथा अलगअलग टुकड़ों में बंटे या बांट दिए गए सामान्यजन, वर्चस्वकारी संस्कृति की अधीनता को चिरकाल तक स्वीकारने को विवश बने रहें. ‘अनेकता में एकता’ का नारा उनकी इसी प्रवृत्ति का परिचायक है. जाति और धर्म भारतीय संस्कृति के ऐसे ही औजार हैं. उनके दबाव में बहुसंख्यक लोग शोषण और असमानता को अपनी नियति मानने लगते हैं. ऐसे में ‘अनेकता में एकता की खोज’ का नारा उदात्त कल्पना से अधिक महत्त्व नहीं रखता. प्राकृतिक न्याय की भावना के विपरीत भारतीय संस्कृति कुछ लोगों को जन्म से विशेषाधिकार घोषित कर बाकी को उनका सेवादार बनाने का समर्थन करती है. मनुष्य की रुचि, स्वभाव, व्यक्तिगत योग्यता उसके लिए कोई महत्त्व नहीं रखती. अभिजन हितों के संरक्षण की सतत चाहत के दौरान स्वतंत्रता एवं समानता जैसे समाजीकरण के मूलभूत सिद्धांत बहुत पीछे छूट जाते हैं. चूंकि ब्राह्मण को धर्म और संस्कृति में शीर्ष स्थान पर रखा गया है, और नीतियां उसी की इच्छा और स्वार्थ के स्तर से तय होती हैं, इस कारण सांस्कृतिक वर्चस्ववाद को उसके आलोचकों द्वारा ‘ब्राह्मणवाद’ की संज्ञा दी गई है, जो उचित ही है.

सवाल है कि सबकुछ जानतेबूझते हुए भी बहुसंख्यक वर्ग सांस्कृतिकसामाजिक अधीनता को स्वीकार क्यों करता है? क्यों वह वर्ग स्वयं को उस समाज का हिस्सा माने रहता है जो स्वतंत्रता एवं समानता जैसी समाजीकरण की मूलभूत शर्तों पर ही खरा नहीं उतरता. सुदूर अतीत में क्यों उसने मुट्ठीभर वर्चस्वकारियों को बौद्धिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर श्रेष्ठ मानकर अपने जीवन, यहां तक कि खानपान और रहनसहन जैसे रोजमर्रा के कार्यकलापों को भी उनके हवाले कर दिया था? क्या वह वर्ग बौद्धिक स्तर पर सचमुच इतना पिछड़ा हुआ था कि रोजमर्रा के सामान्य प्रश्नों का समाधान भी अपने बूते न खोज सके? असलियत ठीक इसके उलट है. दमित वर्गों में कमी न तो योग्यता की थी, न ही कार्यकौशल की. ये गुण तो उनमें भरपूर थे. समाज की समृद्धि तथा शिखर का वैभवविलास इन्हीं वर्गों के हुनरमंदों और मेहनतकशों के श्रमकौशल की देन था. कमी अपने बुद्धिचातुर्य और सृजनसामर्थ्य का उपयोग अपने और अपने जैसे दूसरे लोगों के लिए करने के बजाय, अपना निर्णयसामर्थ्य दूसरों के हक में बलिदान कर देने की थी. मेहनत को अपना धर्म और विपन्नता को नियति मान लेना उन्हें इतना महंगा पड़ा कि गुलामी का दौर पीढ़ीदरपीढ़ी चलता रहा.

यह सब उन्होंने अपनी मर्जी से नहीं किया था. बल्कि सब कुछ ब्राह्मणवादियों की सोचीसमझी कार्ययोजना का हिस्सा था. जब तक अर्थव्यवस्था पशुबल तथा जंगलों पर निर्भर थी, तब तक ब्राह्मणवाद को पनपने का अवसर नहीं मिल पाया था. अस्थिर जीवन में न तो स्थायी देवताओं के लिए गुंजाइश थी, न ही ईश्वर की. पशु, पक्षी, पेड़, पौधे आदि में से जिससे भी सामूहिक मन मिल जाए, उसी को कबीला अपना ‘टोटम’ मान लेता था. सो जब तक यायावरी जीवन रहा, तब तक ‘टोटमवाद’ भी समाज में जगह बनाए रहा. कालांतर में समाज ने जैसे ही कृषिआधारित अर्थव्यवस्था की ओर कदम रखा, कार्यविभाजन के नाम पर ब्राह्मण को समस्त संसाधनों का स्वामी तथा क्षत्रिय को उनका संरक्षक घोषित कर दिया गया. कहा यह गया कि कार्यविभाजन पूरी तरह से योग्यता पर आधारित होगा. कुछ समय के लिए विभिन्न वर्गों के बीच आवागमन चला. ब्राह्मण की संतान ने क्षत्रिय और वैश्य का धंधा अपनाया तो उसका उल्टा भी देखने को मिला. मगर कोई भी आसानी से प्राप्त सुविधाओं को छोड़ने को तैयार न था. धीरेधीरे वर्णाश्रम व्यवस्था रूढ़ होकर जाति में ढलने लगी. इसी के साथ समाज के कुल संसाधनों पर मुट्ठीभर लोगों का अधिपत्य होने लगा. आजीविका के लिए दूसरे वर्गों पर निर्भरता ही बहुसंख्यक वर्ग की लंबी दासता तथा उत्पीड़न का कारण बनी. वर्चस्व को स्थायी बनाने के लिए अभिजात शीर्षस्थों ने हर वह काम किया, जिसे वे कर सकते थे. उत्पादकता पर समाज के बाकी वर्गों का दावा न रहे, इसके लिए नियति को बीच में लाया गया. इस कार्य में धर्म उनका मददगार बना. उसकी सहायता से लोगों के दिमाग में यह भर दिया गया कि उनकी दुर्दशा उनके पूर्वजन्म के कर्मों की देन है. यदि वे समाज द्वारा तय मर्यादा का पालन नहीं करते हैं तो कर्मफल के रूप में त्रासदी का सिलसिला आगे भी चलता रहेगा.

आरंभ में सामाजिक विभाजन त्रिस्तरीय था. ब्राह्मण और क्षत्रिय के अलावा बाकी सब शूद्र थे. ढाई हजार वर्ष पहले बौद्ध धर्म के उद्भव के पश्चात, समाज में नए शिल्पकार वर्ग का उदय हुआ जो व्यापार के माध्यम से धनार्जन में निपुण था. धीरेधीरे अनुकूल अवसर मिलते ही वह वर्ग इतना सशक्त हो गया कि ऊपर के दोनों वर्गों द्वारा उनकी उपेक्षा करना संभव न रहा. तब त्रिस्तरीय वर्णाश्रम व्यवस्था के स्थान पर चातुर्वर्ण्य समाज को मान्यता देनी पड़ी. लोग असलियत को समझे बिना केवल परंपरापोषी तथा अनुगामी बने रहें, इसके लिए मनु के विधान में शिक्षा एवं संसाधनों पर कुछ वर्गों का विशेषाधिकार घोषित किया गया. ब्राह्मण व्यवस्था के शिखर पर था और समाजहित में सोचने तथा नियम बनाने का अधिकार केवल उसके पास था. उचित यही था कि वह समाज के विश्वास और सौंपे गए कर्तव्यों पर खरा उतरता. लेकिन संस्कृति के हर प्रतीक, रूपक, घटना और चरित्र की व्याख्या उसने केवल अपने स्वार्थ को केंद्र में रखकर की. बाकी दो वर्गों की मदद से उसने खुद को इतना शक्तिशाली बना लिया कि चौथा वर्ग जो संख्या में बाकी तीन वर्गों की कुल संख्या का कई गुना था, वह शक्ति एवं संसाधनों के मामले में निरंतर कमजोर पड़ता गया. धीरेधीरे लोग हालात से समझौता करने लगे. आज स्थिति यह है कि भारतीय संस्कृति में शोषित एवं शोषक दोनों के चेहरे एकदम साफ नजर आते हैं. पाखंडी पंडितों द्वारा दिया गया परलोक का प्रलोभन यथास्थितिवादियों के लिए इतना फला है कि लोग कल के मिथ्या सुख के बदले अपने आज का सुखचैन और कमाई खुशीखुशी अर्पण कर देते हैं.

अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए ब्राह्मणवाद धर्म और संस्कृति को औजार बनाता है. उनके माध्यम से वह लोगों के दिलोदिमाग पर कब्जा जमाता है, फिर निरंतर उनका भावनात्मक और शारीरिक शोषण करता है. फासीवाद लोगों के दिलोदिमाग में भय का संचार करता है. इतना भयभीत कर देता है कि जनसाधारण अपने विवेक से काम लेना छोड़, केवल आदेश को ही कर्तव्य समझने लगता है. ताकत का भय दिखाकर वह लोगों को उसकी मनमानियां सहने के लिए मजबूर कर देता है. फासीवाद की उम्र अपेक्षाकृत कम होती है. वह व्यक्ति के दिलोदिमाग पर कब्जा तो करता है, लेकिन ऐसा कोई माध्यम उसके पास नहीं होता, जो देर तक प्रभावशाली हो. सत्ता बदलते ही उसका स्वरूप बदल जाता है. नहीं तो जनता स्वयं खड़ी होकर राजनीति के उस खरपतवार को समाप्त कर देती है. संस्कृति व्यक्ति को समाज का प्रदाय होती है और राजनीति उसका अपना वरण. सामाजिक इकाई के रूप में मनुष्य शेष सामाजिक इकाइयों के सहयोगसमर्थन से अपने लिए राजनीतिक दर्शन का चयन कर सकता है, अथवा वर्तमान स्वरूप में आवश्यक बदलाव प्रस्तावित कर सकता है, जिन्हें वह अपने लिए तात्कालिक रूप से आवश्यक मानता है.

निर्ब्राह्मणीकरण : क्यों और कैसे

संस्कृति के निर्ब्राह्मणीकरण जरूरत पर चर्चा करने से पहले आवश्यक है कि ब्राह्मणीकरण की प्रक्रिया को समझ लिया जाए. इसे तुलसी से बेहतर शायद हमें कोई नहीं समझा सकता. उनकी प्रमुख कृति ‘रामचरितमानस’ को साहित्य के रूप में पढ़नेपढ़ाने की परिपाटी रही है. विद्यालयों, महाविद्यालयों से लेकर शोध के उच्चतम स्तर तक उसे साहित्य के गौरव से नवाजा जाता है. लोकजीवन में भी ‘मानस’ की चौपाइयां रूढ़ि, परंपरा और भाग्यवाद से डरेसहमे लोगों के मार्गदर्शन के काम आती हैं. सवाल है कि क्या यह पुस्तक साहित्यकर्म को साधती हैं? क्या इसे ऐसी ही मंशा के साथ रचा गया था? क्या यह मनुष्य के मौलिक सोच को विस्तार देने, उसे प्रश्नाकुल बनाने का काम करती है? यदि धार्मिक आग्रहों से परे हटकर सोचा जाए तो क्या इस पुस्तक को साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है? हमारा आक्षेप तुलसी के काव्यसामर्थ्य पर नहीं है. उनमें भरपूर कवित्व रहा होगा. लेकिन वे कविधर्म को भी समझते थे, यह बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती. यहां हम केवल उनकी काव्यरचना के मर्म तथा उद्देश्य पर विचार करने जा रहे हैं.

संस्कृत में साहित्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है—‘सहितस्य भावः साहित्यम्.’ अर्थात जो सभी को साथ लेकर चले, जिसमें सभी के हितसाधन का भाव हो—वही ‘साहित्य’ है. साहित्य का विचारक्षेत्र न केवल संपूर्ण प्राणिजगत, अपितु जड़, चेतन और वह सबकुछ है, जिससे प्राणिमात्र का हित प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी रूप में जुड़ा है. लेकिन तुलसी जब कहते हैं—‘पूजिये विप्र ज्ञानगुन हीना. पूजिये न शूद्र ज्ञान परवीना.’(ज्ञानगुण विहीन ब्राह्मण भी पूजनीय है. ज्ञान और गुण की खान होने के बावजूद शूद्र की पूजा नहीं की जानी चाहिए); अथवा जब वह लिखते हैं—‘शापत ताड़त परुष कहंता. विप्र पूजि अस गावहिं संता.’(संतजन कहते हैं कि शाप देने वाला, प्रताड़ित करने वाला, अपशब्द कहने वाला ब्राह्मण भी पूजा के योग्य है)—उस समय वे स्वयं को लोककवि के बजाय ‘द्विजजनों का चारण’ सिद्ध कर रहे होते हैं. संवेदना साहित्य की पूंजी होती है. सर्वहित की भावना उसे निष्पक्ष बने रहने को प्रेरित करती है. तुलसी का यह लिखना—‘अधम जाति में विद्या पाए. भयहु यथा अहि दूध पिलाए.’(अधम जाति में जन्मे व्यक्ति को शिक्षा देना विषधर को दूध पिलाने जैसा अपकर्म है)—भी घोर आपत्तिजनक है. साहित्यकार का कर्तव्य ऐतिहासिक तथ्यों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर देना नहीं है. वस्तुनिष्ठ विवेचन इतिहासकार के लिए जरूरी हो सकता है. साहित्यकार का काम प्रत्येक घटना और चरित्र पर मानवतावादी दृष्टि से विचार करना तथा उन्हें इस तरह प्रस्तुत करना है, ताकि वे मनुष्यता का अधिकतम हित साध सकें. ‘रसेन सहितं साहित्यम्’—यानी साहित्य वह है जिसमें रागात्मकता और सर्वहित का भाव हो.’ साहित्यत्व की कसौटी पर न केवल ‘रामचरितमानस’ बल्कि तुलसी का बाकी साहित्य भी कहीं नहीं टिकता. शंबूक की हत्या का प्रसंग हो या स्त्री और शूद्रों को लेकर तुलसी की दृष्टि, इन सबसे वे ब्राह्मणवाद के सबसे मुखर कवि नजर आते हैं. ऐसी विभेदकारी व्यवस्थाओं के बावजूद ‘रामचरितमानस’ को पंचम वेद के रूप में समाज में प्रचलित करना ही साहित्य और संस्कृति दोनों का ब्राह्मणीकरण है.

जो काम तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ में किया, वही सूर तथा कृष्ण भक्ति परंपरा के अन्य कवियों ने कृष्ण को ब्राह्मणवादी परंपरा में ढालकर किया. ऋग्वेद के आठवें मंडल में इंद्रकृष्णासुर संग्राम का वर्णन है. ऋग्वैदिक कृष्ण यदु कबीले का मुखिया है. वह द्रुतगामी(तीव्रता से प्रयाण करने वाला), दस सहस्र सेनाओं का नायक, चतुर योद्धा, कुशल रणनीतिकार भी है जो अंशुमति (यमुना) नदी के तट पर दीप्तिमान होकर निर्भीक विचरण करता है(ऋग्वेद-8/96/13-15). ऋग्वेद में देवताओं के लिए ‘देव’ तथा ‘असुर’ दोनों प्रकार के संबोधन मिलते हैं. वहां असुर का अर्थ देवता और अनिष्ठ दूर करने वाला भी है. कुछ स्थानों पर ‘वरुण’ को भी ‘असुर’ कहा गया है. मित्र अर्थात सूर्य के लिए ‘सुर’ और ‘असुर’ दोनों प्रकार के संबोधन ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं. इससे अनुमान लगाया जाता है कि आरंभिक ऋग्वैदिक काल में देवताओं के लिए ‘सुर’ संबोधन उतना रूढ़ नहीं हुआ था, जितना आगे चलकर देखने को मिला. ‘कृष्ण’ के प्रति ‘कृष्णासुर’ संबोधन को भी इसी रूप में लेना चाहिए. ऋग्वैदिक कृष्ण आर्यअनार्य संघर्ष में भील तथा दूसरी जनजातियों के साथ मिलकर इंद्र को टक्कर देता है. ऋग्वेद में ही दस गणराज्यों तथा सुदास के बीच घमासान युद्ध का भी उल्लेख है. उसमें सुदास देवताओं की मदद से विजयी होता है. सुदास आर्य सम्राट था. जबकि प्रतिपक्ष में आर्यअनार्य दोनों सम्मिलित थे. इससे संकेत मिलता है कि वर्चस्व की लड़ाई आर्य राजाओं के बीच भी थी. कृष्णासुरइंद्र संग्राम में भी आर्यों की विजय होती है. ये तथ्य ऋग्वैदिक कृष्ण को अनार्य नायक सिद्ध करते हैं.

कृष्ण का दैवीकरण उसके लगभग एक सहस्राब्दी बाद ही संभव हो सका. आर्यों से युद्ध में पराजित यदु, पुरू, यक्ष, अज आदि प्राचीन कबीले उत्तरपश्चिम की ओर प्रयाण कर जाते हैं. 1000-1500 ईसा पूर्व में गंगायमुना के दोआब में पुनः विकसित संस्कृति उभरती है. यदु कबीले के वंशजों ने मथुरा और उसके आसपास बड़े राज्यों की स्थापना की थी. उन्हें अब भी अपने महानायक कृष्ण में आस्था थी. ईसा पूर्व चौथी शताब्दी से ही भारत पर विदेशी आक्रमण होने लगे थे. तब ब्राह्मणवादी सत्ताओं को बड़े राज्य बनाने की सुध आई. यह कार्य यदुओं को, जो उस समय तक संगठित ताकत का रूप ले चुके थे, साथ लिए बिना संभव न था. सांस्कृतिक दूरियों को मिटाने के लिए यदुओं के आर्यकरण की शुरुआत हुई. उस समय तक वैदिक देवता इंद्र अपनी व्यभिचारी प्रवृत्ति के कारण काफी बदनाम हो चुका था, और उसके साथ यदुओं की अनेक कड़वी स्मृतियां जुड़ी थीं, इसलिए वह सम्मिलन इंद्र के प्रधान देवता पद पर रहते हुए असंभव था. अतः पुराने देवताओं विशेषकर इंद्र का मोह छोड़ते हुए आर्यों ने त्रिवेद(चौथे वर्ग की भांति चौथा वेद भी बहुत बाद में, ईस्वी संवत आरंभ होने के आसपास रचा गया) और त्रिवर्ण की युति के आधार पर त्रिदेवों ब्रह्मा, विष्णु और शिव जैसे नए देवताओं की कल्पना की. इस कल्पना में भी अनार्य जातियों को ब्राह्मणीकरण की परिसीमा में लाने के बंदोबस्त थे. देवत्रयी में ‘शिव’ शस्त्र संधान में पारंगत किरात, भील, यक्ष, शंबर आदि अनार्य जातियों के सर्वमान्य मुखिया और अजेय महानायक का प्रतिनिधित्व करते थे. उन्हें त्रिदेवों में ‘संहार का देवता’ घोषित किया गया है. ‘संहार का देवता’ ही क्यों? दरअसल देवत्रयी में शिव भारत की जिन आदिम जातियों का प्रतिनिधित्व करते थे, वे युद्धकला में निपुण थीं. शिव को नाराज करना संगठितशक्तिशालीयुद्धकला में पारंगत आदिमजातियों की शत्रुता मोल लेना था, जो विदेशी आक्रामकों का भय झेल रही सत्ताओं के लिए आसान नहीं था. यह तत्कालीन ब्राह्मणों के हृदय में आदिम जातियों के प्रति बैठे भय को भी दर्शाता है.

देवत्रयी में दूसरा स्थान विष्णु को मिला. उन्हें सृष्टि का पालक देवता कहा गया. इस कार्य के लिए वे अवतार भी लेते हैं. अवतारवाद किसी सम्राट द्वारा सीधे अथवा दैवी व्यक्तित्व के नेतृत्व में बड़े राज्य की स्थापना तथा उसमें नई(धार्मिक) व्यवस्था लागू करने का प्रतीक है. ‘कृष्ण’ को देवत्व से नवाजने के लिए उन्हें विष्णु का अवतार घोषित किया गया. ब्रह्मा को सृष्टि का रचियता कहा गया. वह ब्राह्मण का प्रतीक था. चूंकि ब्राह्मण उत्पादकता से जुड़ा कोई कार्य नहीं करते इसलिए त्रिदेवों में सृष्टि रचना के बाद ब्रह्मा की भूमिका भी निष्क्रय रह जाती है. कृष्ण का आर्यकरण उनके चरित्र में आमूल परिवर्तन का वाहक बना. ‘महाभारत’ में कृष्ण का जो रूप मिलता है, वह लगभग एक ईस्वी पूर्व की ब्राह्मणवादी कल्पना है. चाणक्य बड़े राज्यों का समर्थक था. ‘अर्थशास्त्र’ में उसने गणराज्यों की आलोचना की. लिखा है कि गणराज्यों में युवा जुए के व्यसनी हो जाते हैं. कृष्ण की प्राचीन स्मृतियां गणराज्यों के मुखियापद से जोड़ती हैं. जबकि महाभारत में उसे चाणक्य की भांति ‘वृहद राष्ट्र्र’ का प्रबल समर्थक दर्शाया गया है. नए अवतार में कृष्ण से वह सब कराया जाता है, जिसके विरोध में उसने इंद्र से संघर्ष किया था. ‘महाभारत’ के युद्ध में भील योद्धा एकलव्य तथा असुर महायोद्धा बर्बरीक दोनों ही कौरवों के पक्ष में युद्ध करने को उद्धत थे. अवतरित कृष्ण एकलव्य की छलपूर्वक हत्या करता है, साथ ही अनार्य महायोद्धा बर्बरीक को भी आत्महत्या के लिए उकसाता है. कृष्ण का यह रूपांतरण यदुओं तथा अनार्य जातियों के बीच द्वेषभाव बढ़ाने के लिए आवश्यक था. आशय है कि यदुओं को कृष्ण के ब्राह्मणीकरण की कीमत चुकाने के लिए उन्हीं देवताओं की शरणागत होना पड़ा था, जिनके सेनापति इंद्र ने उनके पूर्वज कृष्णासुर की हत्या की थी; और जिसके कारण उन्हें अपने मूल स्थान को छोड़ उत्तरपश्चिम में प्रवजन करना पड़ा था.

कृष्ण का उदाहरण हमने ऊपर दिया. देखा कि ब्राह्मणीकरण की प्रक्रिया केवल घटनाओं के वर्गीय प्रस्तुतीकरण तक सीमित नहीं रहती. उसमें चरित्रों के साथ भी जमकर घालमेल किया जाता है. हर अच्छी बात का उत्स देवताओं को बताने की धुन में सत्य के साथ मनमाना व्यवहार किया जाता है. प्रायः दावा किया जाता है कि देवता सात्विक होते हैं. कि मनसावाचाकर्मणा सात्विकता के विभिन्न रूप देवताओं की प्रेरणा से ही बने हैं. कि शुभत्व का एकमात्र स्रोत देवगण हैं. सात्विकता देवताओं में है, इसी कारण वह संसार में भी है. ये बातें ऋग्वेद में वर्णित देवताओं के चरित्र तथा उत्तरवर्ती गं्रथों में देवसभा एवं अमरपुरी के वैभवपूर्ण उल्लेखों से मेल नहीं खाती. बावजूद इसके उदार एवं करुणामय मनुष्य को ‘देवता’ संबोधित करने की प्रथा प्राचीनकाल से चलती आई है. जबकि परंपरा में जो धत्तकर्म दैत्य के बताए जाते हैं, असलियत में वही कार्य ब्राह्मणवादियों के देवता भी करते हैं. उनके देवता कदमकदम पर छल करते हैं, दूसरों की स्त्रियों को बलत्कृत करते हैं. भेंटपूजा पाकर प्रसन्न होते हैं. यदि मनमाफिक चढ़ावा न मिले तो कुपित हो जाते हैं. तुलना करें तो उनके देवता और नकचढ़े सामंत में कोई अंतर ही नहीं है. क्या यह महज संयोग है कि बृहश्पति जो देवताओं के गुरु हैं, वही लोकायत दर्शन के प्रणेता भी हैं? देवसभाओं में अप्सराओं का नृत्यगायन, देवताओं की मौजमस्ती तथा सोमपान, चार्वाकों की ‘खाओपीओ मौज करो’ की विचारधारा को ही प्रतिबिंबित करता है. यानी ‘देवगुरु’ का दर्शन देवताओं की दिनचर्या से ही प्रेरित है. यह भी हो सकता है कि स्वयं देवता अपने गुरु के दर्शन के अनुगामी बने हों.

दूसरी ओर असुर गुरु शुक्राचार्य हैं, जिन्हें इतिहास, दंडनीति, नीतिशास्त्र का आदि व्याख्याकार बताया गया है. देवविधान में दंड की मात्रा पूर्णतः दंडाधिकारी की मनमानी पर निर्भर करती है. जबकि दंडविधान में अपराध की समीक्षा की संभावना भी निहित रहती है. जाहिर है सभ्यता के इन क्षेत्रों में भी असुर आर्यजनों से काफी आगे थे. लंका पहुंचे हनुमान को वहां एक भी दास दिखाई नहीं पड़ता. जबकि अयोध्या, मिथिला आदि में दासदासियों की भरमार है. अनार्यों की समृद्ध सभ्यता के बारे में ऋग्वेद में पर्याप्त वर्णन हैं. वे अपनी बढ़ीचढ़ी सभ्यता के साथ दुर्गों में रहते थे. उनके दुर्ग लोहे(2/58/8) के, पत्थर(4/30/20) के, लंबेचौड़े गौओं से भरे हुए(8/6/23) थे. सौ खंबों वाले(शतभुजी 1/16/8, (7/15/14) दुर्ग का उल्लेख भी ऋग्वेद में है. ‘महाभारत’ की ख्याति प्राचीन भारतीय राजनीतिक दर्शन पर गंभीर विमर्श के कारण भी है. हस्तिनापुर का राज्य संभालने से पहले युधिष्ठिर भीष्म के पास राजनीति का ज्ञान लेने जाता है. शुक्राचार्य के ज्ञान की महिमा इससे भी जानी जा सकती है कि युधिष्ठिर को राजनीति का पाठ पढ़ाने वाले भीष्म शुक्राचार्य के ही शिष्य हैं. उनके शिष्यों में दूसरा नाम पृथु का भी आता है, जिसे प्रथम निर्वाचित सम्राट वेन का पुत्र तथा पृथ्वी का प्रथम मनोनीत सम्राट कहा गया है. दूसरे किस्सेकहानियों की भांति शुक्राचार्य से जुड़ी कहानियां भी मिथ हो सकती हैं. कदाचित उनमें से अनेक हैं भी. फिर भी उनकी अपनी महत्ता है. क्योंकि भारत जैसे समाजों में जहां तर्कबोध, विज्ञानबोध की कमी हो, जनजीवन मिथों से ही प्रेरणा लेता है. बहरहाल आचार्य बृहश्पति तथा शुक्र के क्रमशः चार्वाक पंथ और दंडनीति का व्याख्याकार होने से क्या यह नहीं लगता कि ब्राह्मणवादी लेखकों ने अपने ग्रंथों में सुरों और असुरों की चारित्रिक विशेषताओं को पूरी तरह उल्टापल्टा है. कई बार तो ठीक 180 डिग्री का मोड़ देकर पेश किया है.

ऐसी उपलब्धियों के बावजूद असुरों को कामी, लोभी, लालची, व्यसनी और झगड़ालू दर्शाने वाले विवरण धर्मग्रंथों में भरे पड़े हैं. दुर्व्यसन के लिए ‘आसुरी वृत्ति’ लोकप्रचलित मुहावरा है. ‘सात्विक’ देवता चाहे जो दुराचरण करें, उनका देवत्व नष्ट नहीं होता. प्रायः उसे ‘लोककल्याण के निमित्त’, ‘धर्मसंस्थापनार्थायः’ मान लिया जाता है. असुर सम्राट जलंधर की भार्या वृंदा के साथ दुराचरण करने के बावजूद विष्णु का देवत्रयी में सम्मानजनक स्थान बना रहता है. ना ही ऋषिपत्नी अहिल्या के साथ बलात्कार करने पर इंद्र का देवत्व संकट में पड़ता है. उल्टे अहिल्या को ही शिलाखंड जैसा जीवन जीना पड़ता है. भाषा का खेल भी खूब खेला जाता है. देवता नशा करें तो ‘सोमपान’ और असुर करें तो मदिरापान. सोमपान से देवताओं की सात्विकता पर संकट नहीं आता, परंतु मदिरापान से असुर बदचलन और तिरस्कारयोग्य मान लिए जाते हैं. कारण समझने के लिए ज्यादा माथापच्ची की आवश्यकता नहीं है. समस्त धर्मग्रंथ ब्राह्मणों द्वारा रचे गए हैं. उनके अपने हित विभेदकारी व्यवस्था से जुड़े थे. इसलिए उनके द्वारा गढ़ी गई संस्कृति में समानता एवं सर्वसम्मति के अवसर बहुत कम हैं. जिधर देखो उधर उसका सर्वसत्तावादी रूप नजर आता है. यह सर्वसत्तावाद कदाचित अनार्य संस्कृति के अग्रपुरुषों को भी ललचाने लगा था. इसलिए जब आर्यों का आक्रमण हुआ तो अनेक अनार्य योद्धा भी उनके साथ मिल गए. सुदास और दस राजाओं का युद्ध आर्यों के बीच वर्चस्व की लड़ाई थी. उसमें सुदास का नेतृत्व वशिष्ट तथा दसराज्ञों का नेतृत्व विश्वामित्र द्वारा किया गया था. मगर दस राजाओं में अज, शिब्रु, शिम्यु, यदु, यक्षु आदि अनार्य कबीले भी सम्मिलित थे. इस तरह भारत को आर्यवर्त्त बनाने में अनार्य योद्धाओं का भी भरपूर योगदान था. हिरण्यकश्यपु पुत्र प्रहलाद भी इन्हीं में आता है. उसने विष्णु को अपना ईष्ट मानकर अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह में ब्राह्मणवादियों का साथ दिया था. विभीषण, हनुमान, जटायु जैसे पात्र महाकाव्यीन लेखकों की कल्पना की उपज रहे होंगे. संभव है उनसे मिलतेजुलते पात्र समाज में सचमुच रहे हों, जिन्होंने आर्यसंस्कृति से प्रभावित होकर उनके साथ मिलना स्वीकार किया हो. आर्यों की श्रेष्ठता को दर्शाने के लिए ऐसे मिथकीय पात्रों की कल्पना आवश्यक थी. जिसमें उन्हें भरपूर सफलता भी मिली थी. ब्राह्मणीकरण की यह प्रक्रिया बहुत धीमे, युगों तक चली थी. इसके लिए आर्यों को अनगिनत युद्ध लड़ने पड़े और समझौते भी करने पड़े.

स्वाभाविकसा प्रश्न है कि असुर सभ्यता यदि इतनी ही विकसित थी, तो उसका पतन कैसे हुआ? इसका एक कारण यह जान पड़ता है कि आर्यों के आगमन के पूर्व विभिन्न कबीलों के बीच गणतांत्रिक व्यवस्था थी. भूक्षेत्र समृद्ध था. इसलिए सभी अपनेअपने प्रांत में सुखपूर्वक रहते थे. खेती में वे पारंगत थे. हड़प्पा सभ्यता में मिले भंडारगृहों से संभावना जगती है कि किलों का उपयोग सामरिक उद्देश्यों के बजाय, बचे हुए अनाज के भंडारण हेतु किया जाता था. खुद को सुरक्षित मान वे प्रायः निश्चिंत रहा करते थे. इसलिए जब आर्यों की ओर से आक्रमण हुआ तो वे एकाएक स्वयं को संभाल न सके. कालांतर में आर्यों के संपर्क में आकर उनमें भी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाएं पनपने लगी थीं. इसलिए आक्रामकों का एकजुट सामना करने के बजाए वे बंटकर अपने ही लोगों के विरुद्ध मोर्चा संभालने लगे. दुष्परिणाम यह हुआ कि उन्हें समृद्ध सिंधु प्रदेश छोड़, उत्तरपश्चिम और दक्षिण की ओर पलायन करना पड़ा. परास्त होकर या आर्यों के आक्रमण के भय से अनेक अनार्य जातियों ने समझौता कर लिया. धीरेधीरे वे ब्राह्मणीकरण के दायरे में सिमटने लगे. बावजूद इसके इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ जब सभी ने ब्राह्मणीकरण के आगे हथियार डाल दिए हों. न ही कभी ऐसा हुआ जब किसी युद्ध में सारे आर्य या अनार्य किसी एक पक्ष में रहे हों. रावण, महिषासुर, हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यपु, बालि, बलि जैसे कुछ स्वाभिमानी अनार्य सम्राटों की लंबी कतार है, जो अपने मानसम्मान की खातिर आर्यों से आजीवन संघर्ष करते रहे. यदि उस संघर्ष का निष्पक्ष भाव से दस्तावेजीकरण किया गया होता तो भारतीय संस्कृति का स्वरूप कदाचित उतना विभेदकारी नहीं होता, जितना कि आज है.

अनार्य संस्कृति के पराभव का मूल कारण उसके राजाओं की सैन्य दुर्बलता न होकर, अपनी संस्कृति और इतिहास के दस्तावेजीकरण की ओर से उदासीन हो जाना था. जबकि आर्यगण जिन दिनों तक लेखनकला का विकास नहीं हुआ था, उन दिनों भी स्मृतिभरोसे इस कर्तव्य को निभाते रहे. लेखनकला का विस्तार होने के पश्चात उन्होंने प्रत्येक ऐतिहासिक प्रसंग का वर्णन अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर किया. यहां तक कि असुरों की उपलब्धियों और खोजों को भी अपने नाम करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी. उन्होंने संस्कृति को मूल माना और पीढ़ीदरपीढ़ी अनेकानेक प्रतिभाशाली लेखक अपने नाम से स्वतंत्र ग्रंथ रचने का मोह छोड़, बिना किसी यशलाभ की अपेक्षा के, पहले से उपलब्ध धर्मशास्त्रों में ही जोड़घटाव करते रहे. अनेक लोगों द्वारा, अलगअलग समय में लिखे जाने के कारण धर्मशास्त्रों में भारी दोहराव है. अंतर्विरोध और असंगतियां भी हैं. परंतु वे इन्हें कमजोरी नहीं मानते. तर्कशीलता के अभाव को ढांपने के लिए उन्होंने आस्था और विश्वास पर जोर दिया. धर्मशास्त्रों पर किसी भी प्रकार के अविश्वास को पाप मानते हुए वे शब्द के स्वयंप्रमाण होने की घोषणा करते रहे. इससे नए ज्ञान के अवसर कम हुए. मनुष्य की स्वाभाविक प्रश्नाकुलता पर भी विराम लगा. लेकिन ब्राह्मणवाद या जिस सर्वसत्तावादी ध्येय के निमित्त उन शास्त्रों की रचना हुई थी, उसमें उन्हें भरपूर कामयाबी मिली.

ब्राह्मणवाद : वर्चस्व की सनातनी परंपरा

संस्कृति मनुष्य की सामाजिक संरचना का आधार होती है. समाज में मनुष्य की पहचान संस्कृति के अलावा शिक्षा, उत्पादन के साधनों आदि से भी होती है. बावजूद इसके समाज का बड़ा हिस्सा अपनी सांस्कृतिक पहचान को ही वास्तविक पहचान माने रहता है. इसलिए वह सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए एकाएक तैयार नहीं होता. यहां तक कि सांस्कृतिक अंतर्विरोधों, असमानताओं के आगे, उन्हें स्वाभाविक मान समर्पण किए रहता है. परिवर्तन संस्कृति में भी होते हैं. लेकिन वे कभी भी उस सीमा तक नहीं जा पाते कि समाज का तानाबाना ही छिन्नभिन्न हो जाए. चूंकि सांस्कृतिक प्रतीकों यहां तक कि विरोधाभासों, अंतर्विरोधों के प्रति भी मनुष्य का समर्पण स्वैच्छिक होता है, इसलिए सांस्कृतिक दासता राजनीतिक दासता की अपेक्षा कहीं अधिक टिकाऊ एवं प्रभावशाली होती है. लंबे समय तक केवल संस्कृतियां राज करती हैं. अतः दीर्घ काल तक राज करने की इच्छा रखनेवाला राजनीतिक हमलावर सबसे पहले विजित संस्कृति की उन विशेषताओं पर हमला बोलता है, जो उसे स्वतंत्र संस्कृति की मान्यता दे सकती हैं. यह कार्य आरंभ में बल प्रयोग द्वारा, बाद में सहमति तथा तरहतरह की कूटनीतिक चालों द्वारा किया जाता है. संस्कृति और मनुष्य का संबंध इतना गहरा होता है कि मनुष्य संस्कृति के अंतर्विरोधों को भी अपने व्यक्तित्व का हिस्सा मानकर आत्मसात कर लेता है. भारतीय संस्कृति का ब्राह्मणवाद के ढांचे में ढल जाना इसी प्रवृत्ति को दर्शाता है.

हिंदुत्व ब्राह्मणवाद का रुपहला पर्याय है. शानदार खिड़की जिसके पीछे वह अपने कुटिल चेहरे को छिपाए रखता है. इस हिंदुत्व को न्यायालय ने जीवनपद्धति भी माना है. दोष न्यायालय का नहीं है. लोकतंत्र में लोगों की इच्छा का महत्त्व होता है. यदि समाज का बहुसंख्यक वर्ग ब्राह्मणवाद की विभेदकारी व्यवस्थाओं के प्रति आंख मूंदकर, चाहेअनचाहे उसके रंग में रंगा हुआ है, तो न्यायालय इसमें क्या कर सकता है! उसका काम तो सिरों की गिनती करने से चल जाता है. अदालत के लिए वही सत्य होता है, जिसके पक्ष पर्याप्त साक्ष्य हों. गवाह बेमन से गवाही दे, या जानबूझकर गलतबयानी करे, चाहे सवाल को ढंग से समझे बिना सिर्फ हांहू करता जाए तो न्यायालय क्या करे! आदमी आलू भी खरीदने जाता है तो मंडी में चार जगह देखता है. मोलभाव और जांचपरख करता है. चाहे एक वक्त की खरीदारी हो या एक सप्ताह की—एकएक आलू को छांटकर खरीदता है. लेकिन धर्म जो उसके अपने और आने वाली पीढ़ियों के जीवन को प्रभावित करता है, उसके बारे में कभी कोई सवालजवाब नहीं करता. सवाल करना भी पाप समझता है. बात आ पड़े तो बिना सवालजवाब किए ही मरनेमारने पर उतारू हो जाता है, क्यों? कदमकदम पर एकदूसरे की आलोचना करने वाले, सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करने वाले धर्मों में एक मुद्दे पर कमाल की सहमति होती है. मुद्दा है जन्म के साथ ही मनुष्य का धर्म तय कर दिया जाना. हर धर्म अपने समर्थकों के सिर गिनता है. सिर में मस्तिष्क भी हो, और मस्तिष्क अपना काम भी करे, इस ओर वह कभी ध्यान नहीं देता. जानता है कि इस ओर ध्यान देना शुरू किया तो चार दिन में सारी दुकानदारी बैठ जाएगी. इसलिए पुरानी शराब की भांति हर धर्म नशे के सामर्थ्य और उसके बहाने अपने कारोबार को बढ़ाता चला जाता है.

बहरहाल, बात हिंदुत्व और उसे जीवनपद्धति बताए जाने की हो रही थी. हिंदुत्व यदि जीवनपद्धति है तो मनुष्य को जो आजादी अपनी जीवनपद्धति को चुनने की होनी चाहिए, वैसी आजादी क्या यह धर्म देता है? कथित सनातनी हो या गैरसनातनी, हिंदू परिवारों की सामान्य जीवनचर्या मिलीजुली होती है. हर परिवार में कोई आला या कोना ‘मंदिर’ के नाम पर आरक्षित होता है. प्रत्येक घर में मूर्तियों को नहलाया जाता है. सुबहशाम की आरती, पूजाबंदन बिना नागा चलता है. जब तक पत्थर की मूर्ति से छुआ न लें, घर के सदस्य विशेषकर स्त्रियां अन्नजल तक ग्रहण नहीं करतीं. मंदिर में कागज, पत्थर, कांच, मिट्टी, लकड़ी या प्लास्टिक के आड़ेतिरछे, भांतिभांति के देवता आसन जमाए रखते हैं. हर घर में साल में एकदो बार ‘सत्यनारायण कथा’ कही जाती है. पंडित सारे कर्मकांड रचता है. परंतु कभी नहीं बताता कि बाबा ‘सत्यनारायण’ कौन हैं? उनका खानदान क्या है? किस हिंदू धर्मशास्त्र में उनका उल्लेख है? फिर भी डरीसहमी कुलललनाएं इस कथा के श्रवण से खुद को धन्य मानती रहती हैं. अब यह मत कहिए कि संकट के समय जरूरतमंद की मदद करना, सादा जीवन जीना, जीवमात्र पर दया करना, चोरीचकारी से परहेज रखना, सत्य वाचन, मातापिता का सम्मान करना और बुराइयों से दूर रहना हिंदुत्व हमें सिखाता है. ये सब बातें तो नैतिकता के हिस्से आती हैं. वही समाजीकरण का मुख्य आधार भी हैं. समाज के बीच जगह बनाने के लिए प्रत्येक धर्म चाहे वह मूर्तिपूजकों का हो या मूर्तिभंजकों का, इन सदाचारों को अपनाता है. इन्हें अपनाए बिना उसकी गति नहीं है. इसलिए अभिव्यक्ति का तरीका चाहे जो हो, हर धर्म में यही सदाचार सिखाए जाते हैं. इसे धर्म की धूर्त्तता कहें या बेईमानी, वह नैतिकता से उधार लिए इन सदाचारों को अपना बनाकर पेश करता है. इस तरह पेश करता है मानो धर्म है तो सदाचार हैं. असल में होता इसका उलटा है. मनुष्य धर्म को इसीलिए अपनाता है ताकि उसकी आने वाली पीड़ियां धर्म के साथ जुड़े शील और सदाचारों को अपनाएं. परंतु वह भूल जाता है कि शील और सदाचरण धर्म के बाहरी आवरण हैं. महज दिखावा, लोगों को प्रलोभन देने वाले. धर्म कोई भी हो. उसका मूल स्वरूप सामंतवादी होता है. समाजीकरण की अनिवार्यता धर्म नहीं, शील और सदाचरण हैं. यदि कहीं समाज है तो वहां धर्म भले ही न हो, समाजीकरण की प्रमुख शर्त के रूप में शील और सदाचरण रहेंगे ही. बिना धर्म के समाज गढ़ा जा सकता है, लेकिन बिना शील और सदाचार के उसका एक क्षण भी अस्तित्व में रहना मुश्किल है. आम हिंदू के लिए ‘हिंदुत्व’ नामक कथित ‘जीवनपद्धति’ का आशय मूर्तियों पर जल चढ़ाने, किसी न किसी देवता पर भरोसा करने, गाय को रोटी देने, व्रतउपवास रखने, पर्वत्योहार पर विधिसम्मत पूजनअर्चन करने जैसे कर्मकांडों तक सीमित है. ये सब ऐसे आयोजन हैं जिनमें ब्राह्मणों की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका बनी रहती है. दूसरे शब्दों में जिसे हिंदुत्व कहा जाता है, वह ब्राह्मणवाद का ही लौकिक विस्तार है. इसलिए हिंदुत्व का बने रहना, प्रकारांतर में ब्राह्मणवादी व्यवस्था का अस्तित्व में रहना है.

ब्राह्मणवाद’ को जीवित रखने के लिए उन्होंने अनेक षड्यंत्र रचे हैं. उनमें जनता द्वारा प्रथम निर्वाचित सम्राट वेन तथा महिषासुर की छलहत्या, एकलव्य का अंगूठा काट लेना, शंबूक की हत्या के बहाने उसके उत्तराधिकारियों को ज्ञान से वंचित कर देना जैसे उनके अनगिनत धत्तकर्म सम्मिलित हैं. चूंकि आरक्षण ने दलित एवं समाजार्थिक आधार पर पिछड़े वर्गों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर दिया है, इसलिए वे उनके सबसे बड़े आलोचक हैं. जातिवाद को पीढ़ीदरपीढ़ी पोषते, उसके आधार पर अपने विशेषाधिकार गिनाते आए लोग आज उन वर्गों पर जातिवादी होने का आरोप लगा रहे हैं, जो शताब्दियों से जातीय उत्पीड़न का शिकार होकर इससे मुक्ति की कामना करते आए हैं. हिंदुत्व का उनका एजेंडा केवल धर्म तक सीमित नहीं है. इसे केवल धर्म से जोड़कर रखना परिवर्तनकामी शक्तियों की भारी भूल रही है. उनका असली एजेंडा संसाधनों पर मुट्ठीभर लोगों की इजारेदारी को मजबूत करना तथा उसे किसी भी चुनौती से बचाए रखना है. इसके लिए तरहतरह के टोटम, जादूटोने, पूजापाखंड समाज में लागू किए जाते हैं. जाति के आधार पर तीनचौथाई जनसंख्या को शूद्र या दलित बताकर जमीन तथा उत्पादन के अन्य संसाधनों से वंचित कर देने का अर्थ हैपंद्रहबीस प्रतिशत लोगों द्वारा समाज के कुल संसाधनों पर कब्जा. धर्म आधारित वर्चस्वकारी संस्कृति तथा जातिभेद के प्रति निरक्षर जनता का निःशर्त समर्पण उन्हें दीर्घजीवी बनाता है.

वर्चस्वकारी संस्कृति का जिक्र हुआ तो बता दें कि वह समाज को दो तरह से अपनी जकड़ में लेती है. पहले बलप्रयोग द्वारा, जिसमें शक्ति का उपयोग कर समाज के अधिकतम संसाधनों पर अधिकार कर लिया जाता है. दूसरे अपनी बौद्धिक प्रखरता के बल पर. उसके द्वारा पोषित बुद्धिजीवी प्रत्येक परिस्थिति को अपने स्वार्थ के अनुकूल ढालने में प्रवीण होते हैं. अपने बुद्धिचातुर्य के बल पर वे शेष जनसमाज को विश्वास दिला देते हैं कि केवल वही उनके सबसे बड़े शुभेच्छु हैं और जो व्यवस्था उन्होंने चुनी है वह दुनिया की श्रेष्ठतम सामाजिकराजनीतिक व्यवस्था है. ऐसा नहीं है कि जनसाधारण में बुद्धिविवेक की कमी होती है. ग्राम्शी की माने तो प्रत्येक व्यक्ति दार्शनिक होता है. लेकिन प्रत्येक व्यक्ति परिस्थितियों को अपने पक्ष में परिभाषित करने में दक्ष नहीं होता. इस कारण वर्चस्वकारी संस्कृति के समर्थक बुद्धिजीवियों पर विश्वास करना, जनसाधारण की मजबूरी बन जाता है. कभी हताशा तो कभी अज्ञान के चलते वह अपने शोषकों को ही अपना सर्वाधिक हितैषी और मुक्तिदाता मानने लगता है. ऐसे में परिवर्तन उसी दिशा में होता है, जिसका वास्तविक लाभ पूंजीपति और दूसरे एकाधिकारवादी संस्थान उठा सकें. स्थितियों में आमूल परिवर्तन तभी संभव है, जब गैर अभिजन समाज के अपने बुद्धिजीवी हों, जो उसकी समस्याओं और हितों की उसके पक्ष में सहीसही पड़ताल कर, प्रतिबद्धता के साथ उसका मार्गदर्शन कर सकें.

वर्चस्ववादी ब्राह्मण संस्कृति के पुनरीक्षण की शुरुआत हालांकि मध्यकाल में कबीर, रैदास, नानक जैसे संतकवियों द्वारा हो चुकी थी. लेकिन उनकी चिंता के केंद्र में केवल धार्मिक आडंबरवाद, छुआछूत तथा अन्यान्य सामाजिक रूढ़ियां थीं. आर्थिक असमानता जो बाकी सभी बुराइयों की जड़ है, को वे कदाचित मनुष्य की नियति मान बैठे थे. कबीर जैसे विद्रोही कवि ने भी संतोष को परमधन कहकर रूखीसूखी खाने, दूसरे की चुपड़ी रोटी देखकर जी न ललचाने की सलाह दी थी. वह गरीबी का महिमामंडन, दैन्य को आभूषण मान लेने जैसी चूक थी. रैदास ने जरूर ‘बेगमपुर’ के बहाने समानता पर आधारित समाज की परिकल्पना की थी. वह क्रांतिकारी सपना था, अपने समय से बहुत आगे का सपनाकृमगर उसके लिए उनका समाज ही तैयार नहीं था. जिन लोगों के लिए वह सपना देखा था वह इतना हताश हो चुका था कि शीर्षस्थ वर्गों की कृपा में ही अपनी मुक्ति समझता था. उस समय तक पश्चिम में भी यही हालात थे. वहां रैदास से दो शताब्दी बाद थामस मूर ने ‘बेगमपुर’ से मेल खाती ‘यूटोपियाई’ परिकल्पना की थी, जिसपर उसे स्वयं ही विश्वास नहीं था. इसलिए अपनी कृति ‘यूटोपिया’ में उसने समानताआधारित समाज की परिकल्पना पर ही कटाक्ष किया था. आगे चलकर, यूरोपीय पुनर्जागरण के दौर में यही शब्द आमूल परिवर्तन का सपना देख रहे लेखकों, बुद्धिजीवियों, आंदोलनकारियों और जनसाधारण का लक्ष्य और प्रेरणास्रोत बन गया. जबकि सामाजिक अशिक्षा और आत्मविश्वास की कमी के कारण रैदास के ‘बेगमपुर’ की परिकल्पना सूनी आंखों के सपने से आगे न बढ़ सकी थी. कुछ दिनों बाद उन लोगों ने ही उसे भुला दिया, जिन्हें उसकी सर्वाधिक आवश्यकता थी.

शताब्दियों बाद उस परिकल्पना को आगे बढ़ाने का काम फुले और डॉ. अंबेडकर ने किया. ग्राम्शी ने बुद्धिजीवी की जो परिभाषा उद्धृत की है, उस पर ये दोनों महामानव एकदम खरे उतरते हैं. उनकी प्रेरणा तथा लोकतांत्रिक अवसरों का लाभ उठाते हुए दलित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग उभरा, जिसने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध आवाज बुलंद की. इसी के साथसाथ पिछड़े वर्गों में भी राजनीतिक चेतना का संचार हुए. आबादी के हिसाब से पिछड़े पचास प्रतिशत से अधिक थे. कदाचित उनके नेताओं को लगता था कि उन्हें किसी बौद्धिक नेतृत्व की आवश्यकता नहीं है. उनमें कुछ उन दबंग जातियों में से भी थे, जो सामंती दौर में विप्र जातियों के ‘लठैत’ का काम करते आए थे. अपने ‘लट्ठपन’ पर उन्हें खूब भरोसा था. कदाचित यह गुमान भी था कि ‘बेलेट’ ने बात बिगाड़ी तो ‘लाठी’ से संभाल लेंगे. 1937 के चुनावों में कांग्रेस से मात त्रिवेणी संघ के पिछड़ी जाति के नेताओं ने यही तो कहा था—‘वोट से हार गए तो क्या हुआ. हमारी लाठी तो हमारे हाथ में है.’ इन्हीं कमजोरियों के कारण दलित और पिछड़े नेताबुद्धिजीवी वास्तविक सहयोगियों की पहचान करने में चूकते रहे. इसी का लाभ उठाकर वर्चस्वकारी संस्कृति के पैरोकार, दलितों और पिछड़ों को उनकी जाति की याद दिलाकर अलगअलग समूहों में बांटते रहे. पर्याप्त संख्याबल का अभाव दलितों के स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति बनने की बाधा था. नतीजा यह हुआ कि वर्चस्वकारी संस्कृति के विरुद्ध शोषितउत्पीड़ित वर्गों का कोई सशक्त मोर्चा न बन सका.

आज स्थिति बदली हुई है. शिक्षा और लोकतांत्रिक अवसरों का लाभ उठाकर दलितों और पिछड़ों में नया बुद्धिजीवी वर्ग उभरा है, जो न केवल अपने शोषकों की सहीसही पहचान कर रहा है, बल्कि अपने बुद्धिविवेक के बल पर उन्हें उन्हीं के मैदान में चुनौती देने में सक्षम है. वह जानता है कि जाति, धर्म, संस्कृति, राष्ट्रवाद आदि वर्चस्वकारी संस्कृति के वे हथियार हैं जिनका उपयोग अभिजन संस्कृति के पैरोकार अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए करते आए हैं. वह यह भी समझ चुका है कि कोरा राजनीतिक परिवर्तन केवल सत्तापरिवर्तन को संभव बना सकता है. आमूल परिवर्तन के लिए संस्कृति के क्षेत्र में भी बदलाव आवश्यक है. जानता है कि दलित और पिछड़ों के सपने, दोनों की समस्याएं यहां तक कि चुनौतियां भी एक जैसी हैं. उनके समाधान के लिए संगठित विरोध अपरिहार्य है. इस बात को शिखरस्थ वर्ग भी भलीभांति जानता है कि दलित और पिछड़े वर्गों की सामाजिकसांस्कृतिक और राजनीतिक एकता उसे सत्ता से हमेशाहमेशा के लिए बेदखल कर सकती है. उच्चशिक्षण संस्थानों से निकले ओबीसी, आदिवासी एवं दलित युवाओं का यही युगबोध वर्चस्वकारी संस्कृति के पैरोकारों को चिंता में डाले हुए है.

निर्ब्राह्मणीकरण : समानता आधारित समाज का सपना—बरास्ता महिषासुर आंदोलन

समानता और स्वतंत्रता के लिए वर्चस्वकारी संस्कृति से मुक्ति आवश्यक है. भारतीय समाज सामाजिकसांस्कृतिक स्तर पर बंटा हुआ है. अद्विज आज भी असमानता का दंश झेल रहे हैं. कारण किसी से छिपे नहीं है. ब्राह्मणवादी व्यवस्था मनुष्य को जन्म के साथ ही जाति और धर्म के खानों में बांट देती है. स्वतंत्र भारत में संवैधानिक प्रावधानों द्वारा इस अंतर को मेटने की कोशिश तो हुई, मगर सामाजिकसांस्कृतिक जकड़बंदी इतनी मजबूत है कि आजादी के 69 वर्ष बाद भी लोग उससे उबर नहीं पाए हैं. लोकतांत्रिक परिवेश ने उत्पीड़न का शिकार रहे लोगों को इतना अवसर जरूर दिया है कि वे इतिहास को अपने ढंग से समझने के साथसाथ उन कारणों की भी समीक्षा कर सकें, जो उनके दमन और दासता के मूल में हैं. इस छटपटाहट से भारतीय संस्कृति के मुख्य प्रतीकों, घटनाओं, चरित्रों यहां तक कि मिथकों के विवेचन की शुरुआत हुई. धीरेधीरे ही सही मगर संस्कृति के विखंडनात्मक विवेचन की प्रक्रिया आगे बढ़ी है. उसके सूत्रधार दमितशोषित वर्गों में जन्मे वे बुद्धिजीवी हैं, जिन्हें जाति या किसी और कारण से बौद्धिक विमर्श से बाहर रखा गया था. अवसर मिलते ही वे न केवल सवाल उठाने लगे थे. बल्कि उसके जवाब भी अपने बौद्धिक सामर्थ्य के आधार पर स्वयं खोजने को उद्धत थे. उन लोगों के लिए जो अभी तक समाज के बड़े हिस्से को अपनी कूटनीतिक चालों के आधार पर नचाते आए थे, यह बहुत बड़ी चुनौती थी. ‘महिषासुर दिवस’ का आयोजन उसी क्रम में हालिया आंदोलन की एक कड़ी है. वह हमारे समय की महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक परिघटना है. शताब्दियों से जो वर्ग दूसरों की निगाह से खुद को देखता आया थाकृ‘महिषासुर दिवस’ के बहाने वह खुद को अपनी दृष्टि से देखनेसमझने की कोशिश में लगा है. यह देर से हुई अच्छी और क्रांतिकारी शुरुआत है.

जो लोग ‘महिषासुर मर्दिनी’ कहकर देवी का गुणगान करते आए थे, बदले परिवेश में वे महिषासुर को मिथ बताने लगे हैं. जल्दबाजी में वे भूल जाते हैं कि महिषासुर को यदि मिथ मान लिया गया तो देवी दुर्गा भी मिथ ही सिद्ध होगी. साथसाथ उन देवीदेवताओं को भी मिथ मानना पड़ेगा, जिनके कंधों पर कथित देवसंस्कृति की इमारत खड़ी है. ऐसे में यदि कोई राम और दुर्गा के बहाने अपनी संस्कृति थोप सकता है, उनके माध्यम से वर्चस्वकारी सत्ता के शिखर पर टिका रह सकता है, तो उसकी मुक्ति के प्रतीक के रूप में शंबूक और महिषासुर को भी नायक बनाया जाता है. इतिहास की कमजोरी है कि वह बहुत भरोसे की चीज नहीं होता. वह हमेशा विजेता संस्कृति की इच्छाओं और कामनाओं के अनुसार ढाला जाता है. विवेकवान समाज ऐसे इतिहास की परवाह नहीं करता. जानता है कि सुविधानुसार नायक चुनने की जो आजादी अन्य वर्गों को है, उतनी आजादी उसे भी है. ऐतिहासिक भूलों से सीख लेते हुए वह अपने नायक स्वयं चुनता है. ‘महिषासुर’ ऐतिहासिक चरित्र है—इसके समर्थन में उतने ही तर्क जुटाए जा सकते हैं, जितने उनके पास ‘राम’ या ‘रावण’ को इतिहासपुरुष सिद्ध करने के हैं. पूरा मामला तार्किकता से जुड़ा है. इसमें प्रायः वे असफल होते हैं. उस समय वे आस्था का मामला बताकर लोगों के विवेक और इतिहासबोध को ही प्रभावित करने लगते हैं.

धर्मग्रंथों के जरिये एक बात जो प्रामाणिक रूप से सामने आती है, वह है संस्कृतियों का द्वंद्व. जिसमें महिषासुर की उपस्थिति जनसंस्कृति के प्रभावशाली मुखिया के रूप में है. वह श्रमसंस्कृति में भरोसा रखने वाली, पशुचारण अर्थव्यवस्था से नागर सभ्यता की ओर बढ़ती, तेजी से विकासमान भारत की प्राचीनतम सभ्यता का महानायक था. वह उस संस्कृति का प्रतिकार करता था जो अनेकानेक असमानताओं, आडंबरों और भेदभाव से भरी थी. दूसरों के श्रम पर अधिकार जताने वाली बेईमान संस्कृति. उसके सर्वेसर्वा रहे देवता सागरमंथन में बरा बरी का हिस्सा देने के वायदे के साथ असुरों से सहयोग मांगते हैं. कार्य पूरा होने पर बेईमानी करते हुए ‘अमृत’ तथा बहुमूल्य रत्न खुद हड़प लेते हैं. इस आंदोलन का वे लोग विरोध कर रहे हैं जिनके मन में 1000—1500 वर्ष पुराना भारत बसता है, जब ऊंची जातियां अपने से निचली जातियों के साथ मनमाना व्यवहार करने को स्वतंत्र थीं. संस्कृति की पुनरीक्षा तथा उसके आधार पर न्याय की मांग को कुछ लोग देशद्रोह भी कह रहे हैं. उनके सोच पर तरस आता है. वे या तो देश और देशद्रोह की परिभाषा से अनभिज्ञ हैं, अथवा लोगों को अपने शब्दजाल में उलझाए रखना चाहते हैं. जैसा वे हजारों वर्षों से करते आए हैं.

देश कोई भूखंड नहीं होता. वह अपने नागरिकों के सपनों और स्वातंत्रयचेतना में बसता है. लाखोंकरोड़ों लोग जहां एकजुट हो जाएं, वहीं अपना देश बना लेते हैं. जिन लोगों में स्वातंत्रय चेतना नहीं होती, उनका कोई देश भी नहीं होता. ऐसे लोग देश में रहकर भी उपनिवेश की जिंदगी जीते हैं. भारत अर्से से ब्राह्मणवाद का उपनिवेश रहा है. आगे भी रहे, यह न तो आवश्यक है, न ही स्वीकार्य. यहां वही संस्कृति चलेगी जो इस देश के सवा सौ करोड़ लोगों की साझा संस्कृति होगी. जो सामाजिकसांस्कृतिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता तथा संसाधनों में सभी की निष्पक्ष और समान सहभागिता सुनिश्चित करती हो. वैसे भी मनुष्य की स्वतंत्रता किसी व्यक्ति, समाज या संस्कृति का देय नहीं होती. यह मनुष्य होने की पहली और अनिवार्य शर्त है. यह प्रकृति का ऐसा अनमोल उपहार है जो मनुष्य को उसके जन्म से ही, वह चाहे जिस जाति, धर्म, वर्ग, देश या समाज में जन्मा होजीवन की पहली सांस के साथ स्वतः प्राप्त हो जाता है. जिस देश की संस्कृति अपने तीनचौथाई नागरिकों को समाजार्थिक एवं बौद्धिक रूप से गुलाम बनाती हो, वह ‘राष्ट्र’ तो क्या भूखंड कहलाने लायक भी नहीं होता. इसे देशद्रोह कहने वाले असल में वे लोग हैं जिनका देश कुर्सियों में बसा होता है. जो जनता से प्राप्त शक्तियों का उपयोग उसे छलने और मूर्ख बनाने के लिए करते हैं. इसके लिए वे कभी राष्ट्रवाद, कभी धर्म तो कभी जाति को माध्यम बनाते हैं. यह सरकार और उसके आसपास घूमने वाले मुट्ठीभर समूहों को ही राष्ट्र घोषित करने की साजिश है, जिसके सर्वोत्तम रूप को भी टॉमस पेन ने आवश्यक बुराई माना है.

महिषासुर आंदोलन’ का विरोध कर रहे लोग या तो इस देश के प्राचीन इतिहास से अनभिज्ञ हैं, अथवा जानबूझकर अनभिज्ञ बने रहना चाहते हैं. उनके मानस में पुष्यमित्र शुंग के बाद का भारत बसता है. भौतिक और अधिभौतिक दोनों ही दृष्टियों से वह देश के पराभव का दौर था. विदेशी व्यापार सिमटने लगा था. उपनिषदों की जगह पुराण लिखे जा रहे थे. वैदिक धर्म छोटेछोटे संपद्रायों में सिमट चुका था. महाकाव्यों को उनका वर्तमान स्वरूप उन्हीं दिनों प्राप्त हुआ, जिसने चातुर्वर्ण्य समाज की अवधारणा को मजबूती से स्थापित किया था. वे प्राचीन भारत की संपन्नता का बखान करते हुए नहीं थकते. बारबार याद दिलाते हैं कि भारत कभी ‘सोने की चिड़िया’ कहलाता था. इतिहास बताता है कि भारत का सबसे समृद्धिशाली दौर ईसा के चारपांच सौ वर्ष पहले से लेकर इतनी ही अवधि बाद तक का रहा है. उस दौर के बड़े सम्राट या तो बौद्ध थे, अथवा जैन. दूसरे शब्दों में ब्राह्मणवाद के सबसे बुरे दिन देश की अर्थव्यवस्था के लिए सबसे अच्छे दिन थे. डॉ. रमेश मजूमदार के अनुसार उस दौर में आजीवक, जैन एवं बौद्ध दर्शनों के प्रभामंडल में जातीय स्तरीकरण घटा था. सामाजिक भेदभाव तथा यज्ञबलियों में कमी आई थी. उसके फलस्वरूप परस्पर सहयोगाधारित व्यापारिक संगठन तेजी से पनपे. बौद्ध दर्शन ने भारतीय मेधा को विश्वस्तर पर स्थापित किया था. हर कोई भारतीय व्यापारियों के साथ व्यापार करने को उद्यत था. फलस्वरूप व्यापार बढ़ा तथा देश आर्थिक समृद्धि के शिखर की ओर बढ़ता चला गया.

ब्राह्मणवाद तभी तक जीवित है, जब तक लोग धर्म, जाति, और आडंबरों के मोहजाल में फंसे हैं. इसलिए वह किसी भी प्रकार के प्रबोधन से घबराता है. ‘महिषासुर शहादत दिवस’ का आयोजन भारतीय संस्कृति के इतिहास में न तो कोई नया पन्ना जोड़ता है, न ही कुछ गायब करता है. असल में वह ब्राह्मणवाद द्वारा थोपी गई स्थापनाओं से बाहर आने की छटपटाहट है. यह मनुष्य के विवेकीकरण को समर्पित, धर्म और संस्कृति की सनातनी व्याख्याओं के विरुद्ध विखंडनवादी चेतना है. जो अप्रासंगिक हो चुके विचार, धारणा, प्रतीक आदि को किनारे कर आगे निकल जाना चाहती है. इसमें पर्याप्त ऊर्जा और वैचारिक तेज है. जिसका डर सत्ताधारी अभिजन चेहरों पर पढ़ा जा सकता है. वे जानते हैं कि बहुजन दृष्टि से मिथकों की पुनर्व्याख्या का सिलसिला एक बार आरंभ हुआ तो आगे रुकेगा नहीं. ऐसा नहीं है कि ब्राह्मणवाद को इतिहास में इससे पहले कोई चुनौती नहीं मिली थी. उसे कई बार चुनौतियों से गुजरना पड़ा है. लेकिन तब से आज तक धरती न जाने कितनी परिक्रमाएं कर चुकी है. ज्ञान पर तो किसी का कब्जा न तब संभव था, न आज. लेकिन तब ब्राह्मणेत्तर वर्गों की प्रतिभाओं को उपेक्षित किया जाता था. आज यह संभव नहीं है. लोकतांत्रिक परिवेश में उनके विरोध को दबाया जाना आसान नहीं है. आज पूरा विश्व एक परिवार सदृश है. उपेक्षित प्रतिभाएं देशविदेश में कहीं भी यशसम्मान अर्जित कर सकती हैं. ऊपर से राष्ट्रीयअंतरराष्ट्रीय स्तर के मानवाधिकारवादी संगठन. ब्राह्मणवादी संगठनों को यही डर खाए जा रहा है. वे भलीभांति समझते हैं कि बहुत जल्दी दूसरे व्यक्तित्व, घटनाएं और मिथ भी पुनर्व्याख्या के दायरे में आएंगे. इससे ब्राह्मणीय सर्वोच्चता का वह मिथ भी भरभरा कर गिर पड़ेगा, जिसे बनाने में उन्हें सहस्राब्दियां लगी हैं.

महिषासुर दिवस का आयोजन मात्र पांच वर्ष पुरानी घटना है. मगर सांस्कृतिक वर्चस्व से मुक्ति के लिए उत्पीड़ित वर्ग के संघर्ष का सिलसिला नया नहीं है. एकदम हाल की बात करें तो साठ के दशक में बिहार से आरंभ हुए ‘अर्जक संघ’ को ले सकते हैं. जिसने मेहनतकश लोगों ने जीवन में किसी भी धर्म की भूमिका को मानने से इन्कार कर दिया था. मध्यकालीन भारत में रैदास, कबीर, नानक का नाम हमने ऊपर उद्धृत किया है. हालिया इतिहास में डॉ. अंबेडकर तथा फुले दंपति का नाम हमने ऊपर लिया. फुले ने ब्राह्मणवाद का विरोध करते हुए जनसंस्कृति के उभार पर जोर दिया था. यदि बौद्धकालीन भारत तक जाएं तो आजीवक संप्रदाय, जिसे आज बहुजन संस्कृति कहा जा रहा है, भी श्रमसंस्कृति के उन्नयन को समर्पित था. धर्मिक आडंबरवाद से मुक्ति और आर्थिक स्वावलंबन उसका केंद्र था. आजीवक श्रमजीवियों के अपने संगठन थे. उनके माध्यम से वे देशविदेश के व्यापारियों के साथ कारोबार करते थे. जातक कथाओं के हवाले से डॉ. रमेश मजूमदार ने बौद्धकालीन भारत में 31 प्रकार के सहयोगाधारित संगठनों का उल्लेख किया है. उनमें लुहार, बढ़ई, चर्मकार, पत्थरतराश, सुनार, तेली, बुनकर, रंगरेज, किसान, मत्स्य पालन करने वाले, आटा पीसने वाले, नाई, धोबी, माली, कुम्हार यहां तक कि चोरों के संगठन का भी जिक्र है. वे अपने आप में स्वायत्त थे. अपने फैसलों के लिए पूरी तरह स्वतंत्र. उनके अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार राज्य को भी नहीं था. सम्राट विशेष अवसरों पर उनसे परामर्श करना आवश्यक समझता था. खास बात यह है कि उन समूहों में श्रमकौशल और सहभागिता को महत्त्व दिया जाता था. केवल बुद्धि के नाम पर, जैसा ब्राह्मणवादी व्यवस्था में था, विशेषाधिकार का कोई प्रावधान उनमें नहीं था.

कूटवणिज जातक’ में बनारस के दो व्यापारियों की कहानी दी है. उनमें एक ‘बुद्धिमान’ था ‘दूसरा अतिबुद्धिमान’. एक बार दोनों ने मिलजुलकर व्यापार करने का निर्णय लिया. उन्होंने बराबरबराबर निवेश कर पांच सौ छकड़े माल खरीदा. दोनों व्यापार के लिए साथ निकले और सारा माल बेचकर वापस लौट आए. उसके बाद दोनों मुनाफे के बंटवारे के लिए जमा हुए. ‘बुद्धिमान’ व्यक्ति ने पहल करते हुए लाभ को दो समान हिस्सों में बांट दिया. यह देख ‘अतिबुद्धिमान’ बोला

मैं तुमसे दुगुना हिस्सा लूंगा.’ उसकी बात सुनकर बुद्धिमान चौंका. उसने पूछा

दो गुना क्यों?’

इसलिए कि मैं अतिबुद्धिमान हूं.’

हमने व्यापार में बराबर धन लगाया है. मेहनत भी बराबरबराबर की है.’ ‘बुद्धिमान’ बोला.

तो क्या! सभी जानते हैं कि मैं तुमसे कहीं ज्यादा बुद्धिमान हूं. इसलिए मुझे लाभ में दुगुना हिस्सा मिलना चाहिए.’ कहते हुए दोनों व्यापारी आपस में झगड़ने लगे. न्याय के लिए अंततः वे बुद्ध की शरण में पहुंचे. बुद्ध ने दोनों का पक्ष सुना और अंत में लाभ को बराबरबराबर बांटने की सलाह दी. बाइबिल में भी एक कहानी है, जिसमें एक किसान खेतों में काम करने आए मजदूरों को बराबर मजदूरी देने की बात करता है. कहानी आमदनी को समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने का समर्थन करती है. लाभ के दुगने हिस्से पर अधिकार जताने वाले ‘अतिबुद्धिमान’ को बुद्ध ने ‘बेईमान व्यापारी’ कहा है.

वर्चस्वकारी व्यवस्था ऐसी बेईमानी कदमकदम पर करती है. वह श्रम के सापेक्ष बुद्धि को वरीयता देती है. उस व्यवस्था में ब्राह्मण का शारीरिक श्रम से कोई संबंध नहीं होता. वह दूसरों के श्रम पर परजीवी की भांति जीवनयापन करता है. कमोबेश यही हालत बाकी दो वर्गों की भी है. वर्णव्यवस्था में निचले पायदान पर मौजूद शूद्र को अधिकाधिक श्रम करना पड़ता है. लेकिन बात जब लाभ के बंटवारे की आती है तो उसे मामूली मजदूरी देकर टरका दिया जाता है. आय का बड़ा हिस्सा शीर्षस्थ वर्ग हड़प लेते हैं. कहानी के माध्यम से बुद्ध ने इस व्यवस्था को नकारा है. इससे उस बौद्धकालीन समाज में अपने श्रमकौशल के आधार पर जीवन जीने वालों की महत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है. यह आदर्शोन्मुखी व्यवस्था थी, जिसे समय रहते रेखांकित करने की आवश्यकता थी. लेकिन इतिहास लेखन का काम ब्राह्मणों या ब्राह्मणवादी मानसिकता के लेखकों के अधीन रहने के कारण वह सदैव पूर्वाग्रहग्रस्त रहा है. उन्होंने इस देश की प्राचीनतम संस्कृति जिसे समानांतर संस्कृति, जनसंस्कृति या सर्बाल्टन संस्कृति कहा जाता है—के दस्तावेजीकरण के प्रति पूर्ण उपेक्षा बरती. उसके मानवतावादी मूल्यों को नकारा, जिसका खामियाजा विराट बहुजन समाज आज तक भुगत रहा है.

जबकि नैतिक मूल्यों को यदि निकाल दिया जाए तो धर्म में मिथकीय किस्सागोई और कोरे कर्मकांडों के अलावा कुछ नहीं बचता. चूंकि बाजारवादी अर्थतंत्र में नैतिक मूल्य धराशायी हो चुके हैं, और किस्सागोई का काम संचार माध्यम संभालने लगे हैं, ऐसे में धर्म के हिस्से कर्मकांडों के रहस्यमय पिटारे के अलावा कुछ नहीं बचता. स्वयंभू भगवानों के जरिये यदि कहीं कुछ धार्मिक मिथ बारबार कहेसुने जाते हैं तो उसके पीछे भी बाजार का ही योगदान है, जिसके चलते धर्म सस्ते मगर सबसे कमाऊ धंधे में बदल चुका है. ऐसे धर्म तथा धर्म को ही सबकुछ मानने वाली संस्कृति का प्रतिकार आवश्यक है. अतः लोगों को बारबार याद दिलाया जाना चाहिए कि जीवन और समाज धर्म से नहीं, मानवीय मूल्यों से चलते हैं, चलने चाहिए. समाज बदलते हैं, धर्म बदलता है मगर जीवन के शाश्वत मूल्य वही रहते हैं. इसलिए मिथकों की पुनर्व्याख्या की कसौटी समानता, स्वतंत्रता, सौहार्द्र, प्रेम, संवेदना, सामंजस्यभाव आदि को बनाया जाना चाहिए.

महिषासुर जैसे प्रतीकों की बहुजन व्याख्याएं हिंदुत्व की नींव पर प्रहार करती हैं. उस पतित संस्कृति का विरोध करती हैं जो बलात्कारी को ‘देवराज’ का दर्जा देती है. दलितबहुजन की नई बौद्धिक खेप का आदर्श राम नहीं है जो अपनी निर्दोष भार्या की शीलपरीक्षा लेता है, शंबूक को दंडित करता है. ‘महिषासुर शहादत दिवस’ जैसे आयोजन प्रकारांतर में एक सलाह भी है कि बहुजन, ब्राह्मणवादी नायकों को अपना नायक मान लेने की भूल न करें. यह चूक उन्होंने शताब्दियों पहले उनके पूर्वजों की ओर से हुई थी. जिसका दंड वे आज तक भुगत रहे हैं. इस काम में बड़ी सावधानी की जरूरत है. ‘महिषासुर’ एक सम्राट है. उस दौर का है जब यह दुनिया लोकतंत्र के बारे में जानती न थी. केवल तेजी से कुलीनतंत्र की ओर बढ़ता कबीलाई गणतंत्र था. आज जमाना लोकतंत्र का है. ‘महिषासुर’ जैसे प्रतीकों के माध्यम से वर्चस्वकारी संस्कृति पर हमला तो बोला जा सकता है. ऐसे हमलों से बचाव के लिए वह हमारी ढाल भी बन सकता है—लेकिन केवल उसके सहारे वर्चस्वकारी संस्कृति का रचनात्मक विकल्प दे पाना संभव नहीं है. अतएव आवश्यकता अनुकूल मिथकों के चयन के साथसाथ उन्हें लोकतांत्रिक परिवेश के अनुकूल ढालने की भी है. ताकि वे मिथक जो अभी तक वर्चस्वकारी संस्कृति के सुरक्षाकवच बने थे, प्रकारांतर में लोकतंत्र और सहजीवन का समर्थन करते नजर आएं.

संस्कृति की इमारत अनगिनत मिथों के सहारे खड़ी होती है. लेकिन मिथ की सीमा है कि वह अकेला किसी काम का नहीं होता है. वह समाज और सांस्कृतिक परंपरा के साथ जुड़कर कारगर होता है. किसी मिथ को कारगर और लोकप्रभावी बनाने के लिए अनगिनत मिथों की आवश्यकता पड़ती है. उनका समर्थन या विरोध करते हुए ही मिथ समाज में अपनी पहचान बनाए रखता है. मिथ प्रायः दीर्घजीवी होते हैं. मगर कोई भी मिथ जीवन में हर समय मार्गदर्शक नहीं रह सकता. अमावस्या की रात में दिये या एक स्फुर्लिंग की भांति वह केवल अवसरविशेष पर हमें राह दिखा सकता है. अनेक मिथों के साथ मिलकर वह मनुष्य की संपूर्ण सामाजिकसांस्कृतिक यात्रा का सहभागी बन जाता है. मिथों के उपयोग के लिए बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है. किसी मिथ का उपयोग करने के लिए उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की जानकारी होना आवश्यक है. इसके अभाव में वह दोधारी तलवार की तरह काम करने लगता है. सही समय पर सटीक उपयोग न हो तो उसके मायने एकदम बदल जाते हैं. पिछले कुछ महीनों में ‘महिषासुर’ की पुनर्व्याख्या ने दलित, पिछड़ों एवं आदिवासियों को एकदूसरे के निकट लाने का काम किया है. लेकिन सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से लड़ाई में कोई एक मिथ कारगर नहीं हो सकता. उसके लिए अनेक मिथ तथा विखंडनवादी दृष्टिकोण चाहिए. लेकिन नए मिथ गढ़ना आसान नहीं होता. हां, पहले से ही प्रचलित मिथों को युगानुकूल संदर्भों के साथ पुनपर्रिभाषित अवश्य किया जाता है. अतः जो मिथ की ताकत को जानते हैं, जिन्हें अपने विवेक पर भरोसा है, और जो सचमुच बहुजन संस्कृति के विस्तार का सपना देखते हैं, उन्हें चाहिए कि वे महिषासुर जैसे दूसरे मिथकों को भी विमर्श के दायरे में लाएं. मिथकों को युगानुकूल संदर्भों में नए सिरे से परिभाषित करना. यह जितना कठिन कार्य है, उतनी ही अधिक उसकी आज हमें आवश्यकता है. जाहिर है यह एक चुनौती है. जिससे निपटने के लिए बहुजन समाज को लक्ष्यसमर्पित बुद्धिजीवियों की पूरी खेप तैयार करनी होगी.

ब्राह्मणवाद को सामान्यतः धर्म और संस्कृति से जोड़ा जाता है. यह उसकी सीमित व्याख्या है. असल में वह ‘सर्वसत्तावादी’ और ‘सर्वाधिकारवादी’ किले का पर्याय है, जहां से समस्त संसाधनों और विचारकेंद्रों को नियंत्रित किया जाता है. क्षत्रिय इस किले की रक्षा करते रहे हैं तो वैश्य उसके खजाने को समृद्ध करने का काम करते आए हैं. बदले में ब्राह्मणवाद कुछ सुविधाएं, मानसम्मान और संसाधनों के उपयोग का अवसर देकर उन्हें कृतार्थ करता आया है. इसे ब्राह्मणवादी वर्चस्व ही कहा जाएगा कि मामूली सुविधा, संसाधनों में सीमित हिस्सेदारी के बावजूद वे वर्ग लंबे समय से स्वयं को उस व्यवस्था का हिस्सा मानते आए हैं, जो उन्हें दूसरे या तीसरे दर्जे का नागरिक सिद्ध करती है. परिवर्तनकामी शक्तियों के लिए जितना आवश्यक ब्राह्मणवाद की कमजोरियों को समझना है, उतना ही आवश्यक समानांतर संस्कृति खड़ी करना भी है. ब्राह्मणवादी तंत्र में आमनेसामने की चुनौती नहीं होती, उसका एक कोना अपने घरपरिवार में भी मौजूद होता है. व्यवस्था से अनुकूलित लोग परिवर्तन की हर संभावना को निष्फल करने की कोशिश करते हैं. कुछ समय पहले तक धर्म और जाति उसके सुरक्षा कवच थे. बदली परिस्थितियों में उसने राष्ट्रवाद को अपनी बाड़ बनाया हुआ है. ‘महिषासुर’ जैसे मिथों की नवव्याख्या ने ब्राह्मणवाद के मर्मस्थल पर चोट की है. यह ज्ञान और तर्क की लड़ाई है. इतिहास में शताब्दियों बाद ऐसा हुआ है जब दलित और पिछड़े वर्ग के बुद्धिजीवी ब्राह्मणवाद को उसी के क्षेत्र में चुनौती दे रहे हैं. लेकिन यह शुरुआतभर है. संघर्ष यात्रा बहुत लंबी चलने वाली है. इसमें जो धैर्यवान होगा, सजग होगा और विवेक से काम लेगा, प्रलोभन जिसे डिगाएंगे नहीं, वही और केवल वही लंबे समय तक टिका रहेगा. अंतिम जीत उसी के हाथ रहेगी. जनसंस्कृतिकरण की यात्रा दुर्गम भले हो, असंभव नहीं है.

© ओमप्रकाश कश्यप

शब्द और सनसनी

विशेष रुप से प्रदर्शित

विचारहीन राजनीति का दौर तो दशकों से था. हाल में उसका और भी अवमूल्यन हुआ है. इधर की राजनीति मानो कुछ शब्दों तक सीमित होकर रह गई है. शब्द नए नहीं हैं. सैकड़ोंहजारों वर्षों से वे हमारे सोच और विमर्श का हिस्सा रहे हैं. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि शब्द ही विचार के रूप में अभिव्यक्त होने लगें; और गिनेचुने शब्द हमारे विमर्श तथा संपूर्ण सामाजिकराजनीतिक चेतना को अल्पकाल के लिए ही सही, पूरी तरह से हड़प लें. मगर पिछले कुछ महीनों से देखने में आया है कि चंद शब्द जानीअनजानी किसी भी दिशा से शरारताना उछाल दिए जाते हैं. पूंजीवादी हितों को समर्पित मीडिया उन्हें तत्काल लपक लेता है. फिर प्रायोजित विमर्श के माध्यम से पूरी बौद्धिक चेतना उन शब्दों की व्याख्या, पुनर्व्याख्या में जुट जाती हैविचारहीनता के माहौल में उपद्रवी संगठनों की जुबान पर चढ़े शब्द तेजाब का काम करने लगते हैं. प्रतिक्रियावाद पहले भी था, लेकिन उसकी मंशा प्रतिपक्षी को शहमात के खेल में उलझा देने की होती थी. वह इतना पश्चगामी भी नहीं था, जितना कि आज. जैसे, ‘पाकिस्तान’ हमारे लिए केवल पड़ोसी देश कभी नहीं रहा. अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए सरकार और राजनीतिज्ञ उसका नाम प्रायः उछालते आए हैं. आज भी वही सिलसिला जारी है. इस पड़ोसी देश के प्रति हमारे पूर्वाग्रह एवं प्रतीतियां इतनी गहरी हैं कि आज भी, प्रायः आतंकवाद के पर्याय के रूप में तो कई बार बेमतलब की बातों में भीवह हमारे दिलोदिमाग पर सवार हो जाता है. फिर भी कुल मिलाकर एक स्वतंत्र देश के नाते पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीयता से जुड़ा मसला है. इसलिए वह समाज को तात्कालिक रूप से उत्तेजित भले ही करे, ध्रुवीकरण में सफल नहीं हो पाता.

इन दिनों ‘असहिष्णुता’, ‘बीफ’, राष्ट्रद्रोह’ आदि कुछ ऐसे शब्द हैं जो हमारी सामाजिक और राष्ट्रीय चेतनाओं को खंडखंड करने पर तुले हैं. जिन्हें लेकर अर्थहीन बहस चारों ओर जारी है. दोष इन शब्दों का नहीं है. प्रत्येक शब्द अनेकार्थी होता है. वाक्य में, अन्य शब्दों के साथ मिलकर वह विशिष्ट संदर्भों को अभिव्यक्त करने लगता है. इसलिए व्याकरण में शब्दार्थ के साथ शब्दशक्ति का महत्त्व भी बताया गया है. संदर्भ के अनुसार शब्द के विशिष्ट अर्थ को रचना में उभारकर, उसकी मदद से अपने मंतव्य को स्पष्ट कर देना ही लेखकीय सफलता है. आशय है कि विमर्श के दौरान शब्द अपनी अर्थवत्ता या अर्थवत्ताओं को आमतौर पर बड़े अर्थ यानी सर्जनात्मकता के निमित्त बलिदान कर देता है. रचना में ढलने के लिए शब्द की ओर से यह कुर्बानी जरूरी है. जैसे अनेक बूंदें एकसाथ मिलकर महासागर को जन्म देती हैं, शब्द भी दूसरे शब्दों से तालमेल कर, बड़े सृजन में ढलने का सामथ्र्य रखता है. लेकिन कुछ महीनों से शब्दों को, बड़ी अर्थवत्ता से जोड़ने के बजाए लोग उनके सीमित और स्थानिक अर्थों पर बहस करने में अपनी ऊर्जा खपाने लगे हैं

ऐसा नहीं है कि शब्दसंस्कार को पहचानने तथा उसका अनुकूल संदर्भों में प्रयोग करने की हमारी क्षमता कम हुई है. बल्कि इसलिए कि जनसंवाद कायम करने के लिए जो व्यक्ति और संस्थाएं जिम्मेदार हैं, वे उन लोगों के इशारों पर काम करने लगी हैं, जिनके निजी स्वार्थ मानवीय हितों पर भारी पड़ते हैं. यह न केवल हमारे समाजीकरण के लिए घातक है, बल्कि मानवीकरण की कोशिशों को भी झटका देने वाला है. चंद शब्दों को उछालकर सरगर्मी पैदा करने वाली कुछ शक्तियों को तो हम भलीभांति जानते हैं. उनके अपकर्म के लिए जबतब उन्हें धिक्कारते भी रहते हैं. तथापि कुछ शक्तियां ऐसी भी हैं जिन्हें हम जानते तो हैं, पर्दे के पीछे सारे अपकर्म वही करती हैं, फिर भी हमारी संवेदना, सारा समर्थन उनके पक्ष में बना रहता है. विकल्प के अभाव में ‘सोशल मीडिया’ को जो कहीं से भी ‘सोशल’ न होकर विशुद्ध पूंजीवादी तंत्र है, मुक्तिकामी लेखकों, संगठनों ने अभिव्यक्ति का अपरिहार्य माध्यम मान लिया है. वे उसे जनतांत्रिक मीडिया के रूप में पेश करते हुए सत्ता प्रतिष्ठानों से टकरा रहे हंै. टेलीविजन, अखबार आदि पर सरकार और अन्य वर्चस्वकारी शक्तियों का नियंत्रण होने के कारण वे उस मीडिया को अपनाने के लिए विवश हैं, जिसकी बागडोर बाजारवादी शक्तियों के हाथ में है. निहित स्वार्थ के लिए जो कभी भी, किसी भी दिशा में जा सकता है.

अर्थशास्त्र के क्षेत्र में ‘इन्विजीविल हेंड’(अदृश्य हाथ) की प्रसिद्ध अवधारणा है. उसकी परिकल्पना एडम स्मिथ ने बाजार के संतुलनकारी रूप की व्याख्या के लिए की है. स्मिथ के अनुसार बाजार स्वयंसिद्ध होता है. प्रत्येक चुनौती से निपटने में सक्षम. प्रतिकूल हालात में तत्काल समायोजन कर वह अपने अस्तित्व को बनाए रखता है. थोड़े भिन्न रूप में ऐसा ही अदृश्य वरद्हस्त ‘फेसबुक’ और ‘ट्विटर’ जैसे कथित ‘सोशल मीडिया’ को भी प्राप्त है. वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को वहीं तक सह सकते हैं, जहां तक वह उनके आकाओं के लिए लाभकारी हों. ये सब उनके लिए सरकार पर दबाव बनाए रखने के माध्यम हैं. ताकि हांफती हुई सरकारों से हड़बड़ी में मनमाने फैसले कराए जा सकें. आकालोग नहीं चाहते कि राजनीति के पीछे कोई विचार हो. सरकारों को एक सीमा से अधिक मजबूत न होने देना भी उनकी चाल होती है. जानते हैं कि वामपंथी हो या दक्षिणपंथी, राजनीति विचारकेंद्रित होगी तब वह न्यूनतम मूल्यों से भी समृद्ध होगी. मूल्यकेंद्रित होगी तो उसे वास्तविक लोकसमर्थन हासिल होगा. वास्तविक लोकसमर्थन हासिल होने पर सरकारें आत्मविश्वास से लबरेज रहेंगी. फिर उनसे मनमाने फैसले कराना मुश्किल होगा. ‘सोशल मीडिया’ उनके लिए लोगों के दिलोदिमाग पर नियंत्रण बनाए रखने का हथियार है. जैसे ही लोग इन माध्यमों का ऐसा उपयोग करने लगेंगे, जिनसे पूंजीपतियों का वास्तविक अहित होने की संभावना हो, अदृश्य हाथ फौरन काम करना शुरू कर देता है. आकालोग खुद सामने नहीं आते. वे सरकार, विपक्ष, धर्म और संस्कृति सभी के सक्षम कंधों का इस्तेमाल करते हैं. इसलिए जो लोग इन माध्यमों से वास्तविक बदलाव की उम्मीद पाले हैं, सोचते हैं कि ये माध्यम बदलाव के अंतिम क्षण तक मददगार सिद्ध होंगे, वे या तो अंधविश्वासी हैं या हद से अधिक भोले. वास्तविक बदलाव के लिए इन माध्यमों के पीछे जो ‘अदृश्य हाथ’ है, उसे पहचानने की जरूरत है.

कुछ महीने पहले ‘असहिष्णुता’ नामक शब्द उत्तेजक मीडियाविमर्श का हिस्सा था. देश में बढ़ती सांप्रदायिकता को लेकर जागरूक साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों, कलाकारों आदि ने जागरूक पहल की थी. सरकार को सांप्रदायीकरण के लिए जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने अपने सरकारी पुरस्कार/सम्मान लौटा दिए थे. यह न तो अलोकतांत्रिक था, न ही सरकार की अवज्ञा. बल्कि जो किया गया वह समय की मांग थी. उस समय उचित होता कि सरकार उनकी चिंताओं पर ध्यान देती. उनके बहाने समाज में बढ़ती असहिष्णुता, जातिभेद, उत्पीड़न तथा सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली स्थितियों पर खुलकर चर्चा होती. किंतु मीडिया की मनमानियों और पर्दे के पीछे चलने वाले षड्यंत्रों के चलते ‘असहिष्णुता’ पर चर्चा के नाम पर पूरी बहस, देश के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों में जुटी रही. कुछ लोगों ने यह कहकर कि जिन्हें इस देश में असहिष्णुता नजर आती है वे पाकिस्तान चले जाएंपाकिस्तान संबंधी हमारी रूढ़ अवधारणाओं का बेजा इस्तेमाल किया. ‘बीफ’ का मुद्दा भी ऐसा ही था. मांसखाना कुछ लोगों की दृष्टि में भले अनैतिक हो, लेकिन वह न केवल बड़े हिस्से की इच्छाओं और जरूरतों को पूरा करता है, बल्कि भारत की पुरातन संस्कृति में भी जगह बनाए है. इसके बावजूद यह नाकुछसा शब्द कई दिनों तक सनसनी फैलाने का काम करता रहा. धर्म और संप्रदाय की राजनीति करने वालों ने उसका स्वार्थ हित भरसक उपयोग किया.

इधर एक नया शब्द हवा में है. वह हैᅳ‘राष्ट्रद्रोह’. सब समझते हैं कि यह शब्द ‘सामाजिक न्याय’ जैसे बड़े मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए सोचीसमझी रणनीति के तहत उछाला गया है. हैदराबाद विश्वविद्यालय में प्रबंधन की मनमानियों से त्रस्त दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने विश्वविद्यालय की दमितशोषित वर्गों के प्रति भेदभावपूर्ण नीतियों को अचानक विमर्श में ला दिया था. उसको केंद्र में रखकर ‘सामाजिक न्याय’ की मांग कर रहे विद्यार्थी संगठनों, बुद्धिजीवियों, लेखकों और पत्रकारों ने आगे बढ़कर विश्वविद्यालय प्रबंधन की कारगुजारियों की ओर ध्यान आकर्षित कराना चाहा था. सरकार चाहे किसी भी दल अथवा विचारधारा की क्यों न हो, उसका संवैधानिक कर्तव्य है कि वह रंग, जाति, वर्ण, क्षेत्रीयता आदि के नाम पर होने वाले पक्षपात, अन्याय, उत्पीड़न को रोके. ऐसी स्थिति हरगिज उत्पन्न न होने दे जिससे कुछ नागरिकों को लगे कि किसी खास धर्म, जाति अथवा वर्ण में जन्म लेने के कारण उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है. लेकिन सरकार ने लापरवाही बरती. वह उस समय उत्पीड़नकर्ताओं के समर्थन में खड़ी नजर आई, जब हैदराबाद विश्वविद्यालय की घटना से लोगों का ध्यान हटाने के लिए जेएनयू को केंद्र बनाकर कुछ विद्यार्थियों को निशाना बनाया गया. ‘राष्ट्रद्रोह’ शब्द का प्रयोग पुलिस और कानून ने तो गिनीचुनी बार किया, परंतु सनसनीप्रेमी मीडिया ने उसे इतनी बार उच्चारा कि दक्षिणपंथी ताकतों का दबाव झेल रही सरकार प्रतिगामी शक्तियों के समर्थन में दिखने लगी. नतीजा पुलिस ने विश्वविद्यालय की स्वायत्तता के क्षेत्र में दखल दिया तो सरकार उसे कानून का मसला बताकर चुप्पी साधे रही. इस अलोकतांत्रिक कार्रवाही के मौन समर्थन के लिए उसे देशविदेश में आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. यहां तक कि नाम चॉम्सकी जैसे विद्वान जेएनयू के विद्यार्थियों के समर्थन में खड़े नजर आए

शब्दों के रूढ़ अर्थ को लेकर वादविवाद वैचारिकी के संकट की ओर इशारा करता है. देश में इन दिनों देश में यही हो रहा है. ‘असहिष्णुता’, ‘राष्ट्रद्रोह’, ‘भारतमाता’ जैसे शब्दों को उछालकर उनके जरिये समाज में उत्तेजना पैदा करना, वस्तुतः एक ही राजनीतिक संस्कृति की उपज है. इसके कर्ताधर्ता वे समूह हैं जो इस देश को कल्याण राज्य की अवधारणा से हटाकर ‘शक्तिशाली समूहों द्वारा शासित’ राज्य में बदल देना चाहते हैं. जैसा कभी जर्मनी में हिटलर ने किया था. उनके नियंत्रण में संचार माध्यमों का उपयोग एकतरफा संवाद के लिए किया जाता है. उनके जरिये ‘मन की बात’ कही जाती है, सुनी नहीं जाती. क्योंकि जिन लोगों पर शब्दों को बड़े विमर्श में ढालने की जिम्मेदारी रहती है, वे पूर्वाग्रहों से काम लेते हैं. ऐसा नहीं है कि वे दूसरों की व्याख्या को मन से अस्वीकार करते हैं. बल्कि इसलिए कि उनके स्वार्थ शब्दों की रूढ़ व्याख्याओं से जुड़ जाते हैं. हर बहस में वे उन्हीं बुद्धिजीवियों को उतारते हैं, जो उनकी विचारधारा के अनुकूल हो. बहस को सोचीसमझी दिशा में आगे बढ़ाया जाता है. फिर उसका ऐसी जगह समापन कर दिया जाता था कि दर्शकश्रोता किसी ठोस निर्णय पर न पहुंच सके. वही नौ दिन चले अढाई कोस वाली स्थिति. यह तब है जब इतिहास के किसी भी कालखंड से अधिक प्रखर और विविध विषयों के जानकार विशेषज्ञ और बुद्धिजीवी हमारे पास हैं. देश युवाशक्ति का गढ़ कहा जाता है. लेकिन राजनीति और पूंजीपतियों के हितों को अपना हित मान बैठे बुद्धिजीवी वही कहते हैं, जिसमें उनके स्वार्थ सधते हों. ऐसे में जिसे बहुमत का निर्णय कहा जाता है, अंततः वह अभिजन शक्तियों द्वारा संसाधनों को ओनेपौने हड़प लेने की नीति का हिस्सा बन जाता है.

इधर ‘राष्ट्रद्रोह’ और ‘भारत माता’ जैसे शब्द बौद्धिक गरमाहट का हिस्सा बने हैं. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इन शब्दों को सामाजिक न्याय की कामना में तेजी से उभर रहे अस्मितावादी आंदोलनों को दबाने के लिए उछाला गया है. देश को राजनीतिक स्वतंत्रता 1947 में मिली थी, मगर जनसंख्या का दोतिहाई हिस्सा वास्तविक आजादी के लिए 68 वर्ष बाद भी संघर्षरत है. अधिकांश के लिए तो वह आज भी सपने की तरह है. शताब्दियों से जातीय शोषण का शिकार रहे वर्ग इधर कुछ वर्षों से शोषण के कारणों को समझने लगे हैं. इसलिए वे उन प्रतीकों की नए सिरे से व्याख्या कर रहे हैं, जिनके आधार पर उन्हें सहस्राब्दियों से दबाया गया है. संवैधानिक स्थितियां उनके अनुकूल हैं. फलस्वरूप तेजी से बढ़ती जनचेतना, वर्चस्वकारी समूहों से हजम नहीं होती. देश की सरकार ऐसे संगठन के इशारे पर चल रही है, जो संस्कृति और धर्म के नाम पर समाज के बहुसंख्यक वर्ग को न्याय एवं अधिकारों से वंचित रखता है. जानता है कि अल्पमत में होने के कारण वह लोकतांत्रिक मोर्चे पर फतह नहीं पा सकता, इसलिए लोगों को मानसिक रूप से गुलाम बनाने के लिए धर्म, संस्कृति और बाजार की तरहतरह से मदद लेता है. ‘राष्ट्रवाद’ और ‘भारत माता की जय’ जैसे नारे जनसमुदाय की भावनाओं को भड़काकर शोषणकारी नीतियों की ओर से ध्यान हटाने की उसकी सोचीसमझी नीति का हिस्सा हैं.

चर्चा राष्ट्रद्रोह की चली है तो कुछ बातें ‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्रवाद’ को लेकर भी कर ली जाएं. पिछले कुछ दिनों से ‘भारत माता की जय’ का मुद्दा भी बौद्धिक गरमाहट का हिस्सा बना है. जो इस देश में रहता है, वह इस देश का नागरिक है. इसलिए यह मान लेना चाहिए कि उसे इस धरती से उतना ही प्यार है, जितना किसी और को है. अपनी मातृभूमि के प्रति स्नेह और सम्मान को कोई किन शब्दों में व्यक्त करता है, यह उसका निजी विश्वास या मसला है. उसका कोई एक स्वरूप संभव भी नहीं है. सरहद पर लड़ रहे सैनिक ‘भारत माता की जय’ बोलकर धावा बोलते हैं या ‘अल्लाह हो अकबर’ कहकर दुश्मन के छक्के छुड़ाते हैं, यह बात उतनी मायने नहीं रखती, जितना उन सैनिकों का जोशोजुनून और अपनी मातृभूमि के लिए मरमिटने की कामना. किसी भी राष्ट्र के लिए उसकी सीमाओं का महत्त्व होता है. लेकिन राष्ट्र की पहचान में उसकी भौगोलिकता अधिक मायने नहीं रखती. राष्ट्र की पहचान उसकी सांस्कृतिक जीवंतता, नए जीवनमूल्यों को अपनाने की क्षमता, नागरिकों के सामंजस्य भाव और श्रमसंस्कृति के स्तर से होती है. प्रत्येक राष्ट्र अपने नागरिकों की निर्मिति होता है. किसी देश की नागरिक संस्कृति ही दूसरे देशों में उसकी पहचान बनकर उभरती है. जब हम किसी जापानी के बारे में बात करते हैं तो इस बात पर कतई ध्यान नहीं देते कि उसका धर्म क्या है, वह बौद्ध है या शिंतो धर्म में विश्वास करने वाला. उसकी कल्पना के साथ ही अपने कर्म के प्रति सचेत, कर्मठ, अनुशासित तथा अपने देश को बेहद प्यार करनेवाले नागरिक का प्रत्यय मस्तिष्क में उभर आता है. यही स्थिति यूरोप के अधिकांश देशों के बारे में भी सच है. इसके विपरीत भारतीय नागरिक की विदेशों में छवि धर्म, जाति, विभिन्न प्रकार के कर्मकांडों में जकड़े रूढ़िग्रस्त व्यक्ति की बनी है. हमारे यहां नागरिकताबोध की कमी है, इसलिए भारत को लेकर हमारी राष्ट्रीय पहचान भी नागरिक होने के नाते कुछ खास नहीं है. जो कुछ कमाई बुद्ध, महावीर, नानकदेव जैसे महामानव हमारे लिए छोड़ गए हैं, उसी को हम आज तक भुनाए जा रहे हैं.

नागरिकताबोध का विकास सरकार और नागरिक दोनों का कर्तव्य है. लोकतांत्रिक सरकारों का यह भी कर्तव्य है कि वे समाज के लोकतांत्रिकरण हेतु सभी आवश्यक कदम उठाएं. नागरिकअस्मिता की रक्षा करें. मानवीकरण के अनुकूल स्थितियां पैदा करें. बिना नागरिक अस्मिता का सम्मान किए राष्ट्रवाद लाना, घोड़े को सिर से पांव तक बनी लोहे की जीन में कस लेने जैसा है. कोरा राष्ट्रवाद केवल उन्मादक मनःस्थिति है. वह सामाजिक असमानता और वर्चस्वकारी सोच का प्रदर्शन करता है. ‘भारतमाता की जय’ बोलने से शायद ही किसी को शिकायत हो. लेकिन इसे सभी के लिए अनिवार्य बनाने की मांग करने वाली शक्तियां वे हैं जिनकी लोकतंत्र के प्रति आस्था सदैव संद्धिग्ध रही है. इसलिए जब भी वे ऐसी कोई बात करती हैं, बाकी समूह जिन्हें उनकी नीयत पर संदेह है, उसे अपने अधिकारों पर संकट के रूप में देखने लगते हैं.

ओमप्रकाश कश्यप

नास्तिक दर्शन : पुरोहितवाद विरुद्ध सार्थक मोर्चा (दो)

विशेष रुप से प्रदर्शित

यदि ईश्वर सचमुच कही है, तो उसे मिटा देने में ही भलाई है.—मिखाइल बेकुनिन.

पाठकों के लिए यह जिज्ञासा का विषय हो सकता है कि ‘सामन्नल सुत्त’ का अंतिम संदेश क्या है? अजातशत्रु पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है? छह समकालीन दार्शनिकों से असंतुष्ट होकर बुद्ध तक पहुंचा अजातशत्रु क्या उनसे संतुष्ट हो पाता है? धर्म के मनोविज्ञान को समझने के लिए भी अजातशत्रु के निर्णय को जानना आवश्यक है. शांति की खोज में आए अजातशत्रु को बुद्ध शील(आरंभिक शील, मध्यम शील, महाशील), संयम, स्मृति संप्रजन्य, संतोष, समाधि, प्रज्ञा, करुणा आदि का उपदेश देते हैं. उनके उपदेश में दर्शन का गांभीर्य और नैतिकता का परमोत्कर्ष दोनों हैं. उपदेश के समापन पर वे कहते हैं—‘महाराज! इस श्रामण्यफल से बढ़कर दूसरा कोई श्रामण्यफल नहीं है.’ अजातशत्रु की प्रतिक्रिया अनुकूल है. वह बुद्ध के दर्शन से प्रभावित नजर आता है—

अद्भुत भंते! अद्भुत!! जैसे कोई उल्टे को सीधा कर दे, भटके हुए को उचित मार्ग दिखा दे, छिपे हुए को उजागर कर दे, अंधियारे में भटकते हुओं को प्रकाश में ले आए, ऐसे ही भंते! भगवान ने अनेक प्रकार से धर्म को प्रकाशित किया है. भंते! मैं भगवान की शरण में जाता हूं. धर्म और संघ की शरणागत होता हूं. आज से जीवनपर्यंत आप मुझे अपनी शरण में आया उपासक स्वीकार करने की अनुकंपा करें.’ उसके बाद वह अपने मन के उद्वेग को प्रकट करता है. उस वेदना को सामने रखता है जो उसे भटकाए रखती है. अजातशत्रु का ग्लानिबोध पुराना है. उससे मुक्ति की छटपटाहट उसे बुद्ध की शरण में ले आती है—‘भंते! मैंने जघन्य अपराध किया है. अपनी मूर्खता और पाप के वशीभूत होकर मैंने अपने पिता की हत्या की है. मुझे क्षमा करें. आशीर्वाद दें कि भविष्य में मेरे कदम कभी डगमगाएं नहीं.’

बुद्ध उसे क्षमादान देते हैं—‘अपनी मूढ़ता, अज्ञानता और कुविचारों के बशीभूत होकर तुमने अपने महान पिता की हत्या कर बहुत भारी अपराध किया है. किंतु तुम अपने पाप को स्वीकार करके भविष्य में संभलकर रहने की प्रतिज्ञा करते हो. इस कारण तुम क्षमा के पात्र हो. मनुष्य अपने अपराध को स्वीकार कर, भविष्य में वैसा न करने की प्रतिज्ञा कर ले, इसी में उसकी बुद्धिमानी है.’ बुद्ध का कथन परोक्ष रूप में अजातशत्रु को संघ में सम्मिलित होने का आमंत्रण है. किंतु अजातशत्रु अभी तक ‘सहेजे रखने’ और ‘मुक्त होने’ के द्वंद्व में उलझा है. उसका बुद्ध तक पहुंचना असल में प्रायश्चितबोध से उपजी अंतर्वेदना की परिणति है. वह केवल अपने पिता की ही हत्या नहीं करता, बुद्ध के फुफेरे भाई देवदत्त के उकसावे में आकर स्वयं बुद्ध के लिए भी परेशानी खड़ी करता है. बुद्ध उसके सभी अपराधों को क्षमा करते जाते हैं. अजातशत्रु की प्रतिक्रिया तत्कालीन भावोद्रेक से युक्त है. लेकिन उसे अपने राजन्य तथा राजनीतिकसामाजिक पदप्रतिष्ठा का भी बोध है, जिसे वह एकाएक छोड़ना नहीं चाहता. बहरहाल, ग्लानिबोध और लोकानुराग के बीच जीत अंततः लोकानुराग की होती है. अजातशत्रु के भीतर पैठे ‘सम्राट’ की होती है. वह शास्ता से वापस लौटने की अनुमति चाहता है—‘भंते! अब मैं चलता हूं. अनेक अत्यावश्यक कार्य निपटाने हैं.’ उसके बाद शास्ता की प्रदक्षिणा कर वहां से प्रस्थान कर जाता है. अजातशत्रु के लौटने के पश्चात बुद्ध भिक्षुओं को संबोधित करते हैं—

इस राजा का संस्कार अच्छा नहीं रहा. यह अभागा है. यदि यह अपने धर्मशील पिता की हत्या न करता तो आज इसी स्थान पर बैठेबैठे निर्मल, निश्चल, निष्कलुष ज्ञान को प्राप्त कर लेता.’ क्या यह बुद्धमार्ग की असफलता थी; या अथवा शिष्यों को समझाने के बहाने वे स्वयं को दिलासा दे रहे थे? यदि अजातशत्रु सबकुछ छोड़कर संघ में रहने का निर्णय ले लेता, क्या तब भी बुद्ध की यही प्रतिक्रिया होती? क्या श्रामण्य जीवन सभी प्रकार के पापों के समाधान, प्रायश्चित की सर्वोत्तम जीवनशैली है. बुद्ध के शिष्यों में अंगुलिमाल का उदाहरण भी है. अनेक लोगों को लूटकर हत्या कर देने वाला अंगुलिमाल बुद्ध की शरण में जाने के बाद भिक्षु संघ का होकर रह जाता है. बुद्ध उसे अभागा नहीं कहते. क्या अपने पिता के हत्यारे तथा निर्दोष लोगों की हत्या करनेवाले डाकू के पाप में कोई अंतर है? ‘सामाफल सुत्त’ इन प्रश्नों पर विचार किए बिना ही संपन्न मान लिया जाता है.

इसी प्रसंग की चर्चा ‘संयुत्त निकाय’(3.1.1) तथा थोड़े बदले स्वरूप में ‘मिलिंद प्रश्न’ में भी है. अंतर केवल इतना है कि ‘संयुत्त निकाय’ में अजातशत्रु का स्थान कोसल सम्राट प्रसेनदि ले लेता है. स्थान राजग्रह स्थित जीवक की आम्रवाटिका के बजाय सावित्थी नदी से सटे जेतवन में अनाथपिंडक का उपवन हो जाता है. ‘संयुत्त निकाय’ के अनुसार बुद्ध उन दिनों अनाथपिंडक के आश्रम में विहार कर रहे थे. कोशल सम्राट प्रसेनदि ने सुना तो तत्वज्ञान की इच्छा के साथ उनसे मिलने पहुंचा. बुद्ध को अभिवादन कर, कुशलक्षेम जानने के पश्चात उसने आसन ग्रहण किया. तदनंतर मन की जिज्ञासा को बुद्ध के समक्ष रखते हुए कहा—‘हे गौतम! आप तो खुद को सर्वोत्तम, सम्यक संबुद्ध, परमज्ञानी तथा श्रेष्ठतम मानते हैं. इस तरह का दावा भी करते हैं.’ बुद्ध हमेशा की भांति आत्मविश्वास से भरपूर हैं. देखा जाए तो बुद्ध का अटूट आत्मविश्वास ही है जो उन्हें अपने समकालीन दार्शनिकों में विशिष्ट बनाता है. उस समय ब्राह्मणवादी परंपरा के विचारक जहां आत्मा और परमात्मा की व्याख्याओं में उलझे हुए थे. दार्शनिक विचारों को लेकर उनकी मान्यताएं इतनी डांवाडोल थीं कि उनकी विपुल शास्त्रसंपदा के बीच से किसी स्पष्ट विचारधारा को खोजना आज भी असंभवप्रायः है. वहां सैद्धांतिक रूप से एकेश्वरवाद का पक्ष लेने वाले भी व्यावहारिक रूप में बहुदेववाद का समर्थन करते हुए नजर आते हैं. किसी न किसी रूप में सभी परंपरापोषी. उन दिनों भी ब्राह्मणवादी दार्शनिकों के बीच सृष्टि के अस्तित्व को नकारना मानो फैशन का रूप ले चुका था, आत्मविश्वास की कमी के चलते सृष्टि को माया था अथवा मिट्टी समान नश्वर बताया जा रहा था. सिर्फ इसलिए कि पुरोहितों की दुकानदारी चलती रहे. महावीर ‘स्याद्वाद’ के सिद्धांत को बढ़ाते हुए अनेकांतवाद का समर्थन करने लगते थे. एकमात्र बुद्ध ऐसे थे जो अपने स्थिरमति होने के साथ, अपनी विचारधारा और संघ को लेकर गौरवान्वित भी थे. प्रसेनदि को उत्तर देते हुए बुद्ध कहते हैं—

सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ, सम्यक संबुद्ध, परमज्ञानी अर्थात जो भलीभांति जान चुका है, ऐसा जिसके बारे में ठीकठीक कहा जा सकता है, उसका आशय मुझसे ही समझना चाहिए.’

प्रसेनदि इससे आश्वस्त नहीं है. यह यूं कहो कि विश्वास करने से पहले भलीभांति परीक्षा कर लेना चाहता है. अगले चरण में अजातशत्रु की भांति वह भी नास्तिक दार्शनिकों का नाम लेता है. लेकिन अजातशत्रु जहां नास्तिक विचारकों की ओर से निराश है, वहीं एक प्रसंग में प्रसेनदि उनसे प्रभावित नजर आता है—‘पूर्ण कस्सप, मक्खलिपुत्र गोशालक, निग्र्रंथ नागपुत्त, संजय वेलत्थिपुत्त, अजित केशकंबलि तथा पुकुद कात्यायन—ये सब गणाचार्य, संघाधिपति, स्वयंसंबुद्ध, यशस्वी तीर्थंकर, परमज्ञानी आदि कहे जाते हैं. सभी आपसे उम्र में छोटे हैं, पूर्ण कस्सप तथा गोसाल तो आपसे पहले ही जिनत्व को प्राप्त कर चुके हैं. लेकिन यह पूछने पर कि क्या आप स्वयंसंबुद्ध हैं, उनमें से कोई भी स्वयं को परमज्ञानी, सम्यक संबुद्ध, सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम होने का दावा नहीं करता. ऐसे में आप स्वयं के सर्वश्रेष्ठ, सर्वज्ञानी, सर्वोत्तम, सम्यक संबुद्ध तथा परमतत्व का ज्ञाता होने का दावा कैसे कर सकते हैं?’

प्रसेनदि का कथन तर्कसम्मत है. मगर बुद्ध सीधे उत्तर देने के बजाय उदाहरण थमाने लगते हैं—‘महाराज! तीन चीजें हैं जिन्हें कभी हल्का करके नहीं लेना चाहिए. वे तीन हैं—क्षत्रीय, सर्प, अग्नि एवं भिक्षु. क्षत्रीय का काम युद्ध करना है. आप उसका अवमूल्यन करेंगे तो वह अपमानित होगा. उस अवस्था में उसके मन में गांठ भी पड़ सकती है. वह जीवन में कभी भी आपसे बदला ले सकता है. यही सर्प के साथ है. सर्प के छोटा या बड़ा होने से उसके विष का अनुमान नहीं लगाया जा सकता. अग्नि का भी यही स्वभाव है. स्फुर्लिंग मामूली ही क्यों न हों, उसकी कभी उपेक्षा या निरादर नहीं करना चाहिए. मामूली स्फुर्लिंग भी पलक झपकते पूरी बस्ती को खाक में मिला सकता है. चैथे यानी सदाचारी भिक्षु का तो कतई निरादर नहीं करना चाहिए. भिक्षु निष्पृह, पशुधन विहीन होता है. इसलिए विद्वान पुरुष कभी भिक्षु का निरादर नहीं कहते.’ संवाद के समापन पर प्रसेनदि वही कहता है, जो ‘दीघनिकाय’ में अजातशत्रु ने कहा था. और प्रकारांतर में वही जो बौद्ध लेखक उनसे कहलवाना चाहता है—‘आश्चर्य भंते आश्चर्य. जैसे कोई उल्टे को सीधा कर दे, भटकते हुए को प्रकाश में ले आए, वैसे ही आपने मेरा मार्गदर्शन किया है. कृपया, मुझे अपना उपासक स्वीकार करें.’(संयुत्त निकाय, कोसल सुत्त).

अपने मत के प्रचारप्रसार के लिए बौद्ध दर्शन को न केवल ब्राह्मणवादी परंपरा से जूझना पड़ रहा था, बल्कि उन नास्तिक दार्शनिकों से भी उसका विरोध था, जो जीवन के कारोबार में किसी भी दैवी शक्ति के हस्तक्षेप को नकारते थे. जिनका विश्वास था कि मनुष्य प्रकृति का सहजस्वाभाविक अंग है. प्राणिमात्र का जीवन भौतिकी के उन्हीं नियमों से अनुशासित होता है, जिनसे प्रकृति. इसलिए वे जीवन और प्रकृति के सामन्जस्य को ही मनुष्यता की श्रेष्ठतम उपलब्धि मानते थे. प्रकृति और जीवन से उनका सहज जुड़ाव था. देखा जाए तो वह जीवन के प्रति पूरी तरह वैज्ञानिक दृष्टिकोण था. वे सत्तावादी प्रलोभनों, छलप्रपंच, लालच आदि से दूर, यायावर चिंतनपरंपरा से निकले विद्वान थे. दूसरी ओर ब्राह्मण दर्शनों का पोषणपल्लवन राज्य के संरक्षणसमर्थन के साथ हुआ था. धर्म और राजसत्ता के उस गठजोड़ ने केंद्रोन्मुखी संस्कृति और सभ्यता को जन्म दिया था. एकदूसरे के प्रकटतः विरोधी और आलोचक दिखने के बावजूद उसके विभिन्न घटक पारस्परिक हितों को लेकर संगठित थे. उनकी रक्षा एवं विस्तार के लिए वे सम्मिलित शक्तियों का उपयोग करते थे. इस कारण जनसाधारण के लिए सत्तासमर्थित पुरोहितसंस्कृति, कर्मकांड एवं बलि प्रथा का विरोध न केवल अनेक प्रकार के खतरों से भरा, बल्कि असंभवजैसा था. इस शक्तिशाली गठजोड़ के बावजूद देश में भौतिकवादी दर्शन शताब्दियों तक समाज में अस्तित्व बनाए रहा तो इसलिए कि अपने श्रमकौशल के आधार पर जीवन जीने वाले श्रमजीवी तथा शिल्पकार वर्ग आर्थिक स्वावलंबन हेतु परस्पर संगठित थे. ईसापूर्व पांचवीछठी शताब्दी तक उन्होंने सामान्य हितों के लिए खुद को इतना एकजुट कर लिया था कि विशेष परिस्थिति को छोड़कर संगठन की गतिविधियों में राज्य का हस्तक्षेप भी संभव न था. आजीवक दार्शनिक उन्हीं की मेधा की उड़ान का प्रतिनिधित्व करते थे. किंतु अपने इतिहास, शिक्षा, संस्कृति तथा ज्ञान के दस्तावेजीकरण के मामले में पिछड़ा होने के कारण वे लोग मेहनती, प्रतिभाशाली एवं कलासंपन्न होने के बावजूद, लंबे समय तक अपनी उपलब्धियों को सुरक्षित रखने में असमर्थ रहे. इस कमी के कारण उनके ज्ञान और अनुभवों को न केवल बिसरा दिया गया, बल्कि मनमानी व्याख्याओं द्वारा उन्हें विकृत भी किया गया.

ब्राह्मणदर्शनों की भांति बौद्ध दर्शन भी राज्य की शक्ति और संसाधनों का उपयोग करता था, इसलिए बौद्ध लेखक ब्राह्मणवादी परंपरा के लेखकों के साथ वैसा व्यवहार नहीं करते, जैसा भौतिकवादी परंपरा के महान विचारकों के साथ करते हैं. इसे उनकी व्यावहारिक समझ कह सकते हैं और चाहें तो आंतरिक समझौता भी. उन्होंने वैदिक कर्मकांडों और पुरोहितवाद पर तो प्रहार किया, किंतु वर्णाश्रम व्यवस्था को, उस व्यवस्था पर जो ब्राह्मणों को शिखर का दर्जा देती थी, कभी चुनौती नहीं दी. तो भी भारतीय संस्कृति में बौद्ध धर्म के योगदान को नकारा नहीं जा सकता. बुद्ध ने धर्मदर्शन के क्षेत्र में कर्मकांड की भूमिका को कम करते हुए उसकी जगह नैतिक मूल्यों को महत्त्व दिया. सामूहिक जीवन में विश्वास जगाया तथा बलि प्रथा का निषेध किया. संभव है ये प्रेरणाएं उन्हें नास्तिक दर्शनों से मिली हों. क्योंकि जो दर्शन जीवन में पराभौतिक शक्तियों की भूमिका को नकारते हों, मनुष्य को केंद्र में रखकर गढ़े गए हों, उनकी प्रतिष्ठा जीवन में मानवीय मूल्यों को उच्च स्थान दिए बिना संभव न थी. तो भी निश्चित प्रमाणों के अभाव में इस बारे में दावे के साथ कुछ भी कहना असंभव है.

महावीर स्वामी और बुद्ध दोनों ही क्षत्रिय कुलों से आए थे. सो उनकी अन्य उपलब्धि यह भी रही कि ज्ञानसाधना का क्षेत्र जो पहले केवल ब्राह्मणों के लिए आरक्षित था, क्षत्रियों को भी स्थान मिलने लगा. पहले यदि जन्मना ब्राह्मण हों तो अच्छा, न हो तो उस परंपरा में व्यक्तिविशेष के विशिष्ट योगदान हेतु उसे किसी न किसी बहाने ब्राह्मणत्व से जोड़ दिया जाता था. मिथ गढ़ने की कला में प्रवीण वह वर्ग ऐसी हर घटना के लिए कोई नया किस्सा या मिथ गढ़ ही लेता था, जिसपर बाकी जनसमुदाय को देरसवेर विश्वास करना ही पड़ता था. इसके अनेक उदाहरण है, किंतु हम जो कहने जा रहे हैं, उसके लिए विश्वामित्र का उदाहरण अधिक प्रासंगिक है. विश्वामित्र का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था, लेकिन तत्संबंधी मिथों के अनुसार अपने स्वाध्याय के बल उन्होंने शस्त्र के साथसाथ शास्त्रों में भी प्रवीणता हासिल कर ली थी. इसलिए वे चाहते थे कि लोग उन्हें ब्राह्मण के रूप में मान्यता प्रदान करें. जबकि वशिष्ट उन्हें ब्रह्मर्षि घोषित करने को तैयार नही थे. विश्वामित्र के राजर्षि से ब्रह्मर्षि बनने का लंबा संघर्ष है, जिससे स्पष्ट होता है कि पर्याप्त बौद्धिक तेजस्विता के बावजूद एक क्षत्रिय के तत्वज्ञान को ब्राह्मणों के बीच अपेक्षित मान्यता प्राप्त नहीं थी. ‘जातक कथा’ के अनुसार बुद्ध के समय तक यह मान लिया गया था कि बोधिसत्व ‘वैश्य या शूद्र कुल में उत्पन्न नहीं होते. लोकमान्य क्षत्रिय या ब्राह्मण इन्हीं दो कुलों में उत्पन्न होते हैं.’ यही देखते हुए महापुरुष(गौतम बुद्ध) निर्णय लेते हैं—‘आजकल क्षत्रिय कुल ही लोकमान्य है, इसीलिए इसी में जन्म लूंगा’(बुद्धचर्या, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ-1). यह एक बड़ा बदलाव था. हो सकता है, तत्कालीन ब्राह्मणों को बौद्ध लेखकों की यह स्थापना अस्वीकार्य रही हो. किंतु बुद्ध की व्यापक लोकप्रियता के चलते इस बदलाव को स्वीकारना उनकी बाध्यता थी. राजसत्ताओं से समानरूप से लाभान्वित होने के कारण बौद्ध लेखक ब्राह्मणवादी परंपरा के आचार्यों पर वैसा चारित्रिक हमला नहीं करते, जैसा वे नास्तिक परंपरा के दार्शनिकों पर करते हैं. ठीक ऐसे ही जैसे दो बड़े पूंजीपति बाजार पर पकड़ बनाए रखने के लिए उत्पाद की ऊपरी विशेषताओं को गिनाते हुए विज्ञापनजगत में घमासान मचाए रखते हैं. उत्पाद की वास्तविक गुणवत्ता, मूल्य निर्धारण एवं उत्पादन की प्रक्रिया, उत्पादक तथा उसके मुनाफे पर कोई चर्चा नहीं की जाती. इसके विपरीत नास्तिक दार्शनिकों का बौद्ध ग्रंथों में न केवल मनमाना उल्लेखउपयोग किया गया है, बल्कि जबतब उनका उपहास भी किया गया है. यह तब है जबकि बौद्ध दार्शनिकों ने ब्राह्मणवादी धारा के सार्थक विरोध हेतु आवश्यक बौद्धिक सामग्री, तर्क आदि कदाचित नास्तिक परंपरा से ही ग्रहण किए थे. बावजूद इसके उन्होंने नास्तिक विचारकों के ससम्मान उल्लेख में कोताही बरती थी—

संयुत्त निकाय’ दलमें कोसलाधिपति प्रसेनदि द्वारा छह नास्तिक विचारकों से संपर्क करने का उल्लेख किया गया है. उसका विवरण उपहास की भाषा में है. प्रसंग इस प्रकार है—‘छह भौतिकवादी विचारकों से प्रभावित, उनकी शिष्यमंडली के सदस्य यहां से वहां विचरण करते हुए, एक बार श्रावस्ती पहुंचे. वहां उन्होंने नगरवासियों के बीच यह प्रचार करना आरंभ कर दिया कि उनके गुरु पूर्ण कस्सप, अजित केशकंबलि संपूर्ण, सम्यक संबुद्ध एवं सर्वज्ञ हैं.’ राजा के अनुचरों ने यह बात राजा प्रसेनदि तक पहुंचा दी. कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करने से पहले राजा ने उनकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया. उसने सैनिकों को आदेश दिया—‘उन्हें दरबार में आमंत्रित किया जाए.’ सम्राट प्रसेनदि के आमंत्रण पर छह नास्तिक दार्शनिक उसके दरबार में पहुंचे. राजा ने उनका स्वागत करते हुए कहा—‘आसन ग्रहण कीजिए.’

यह सोचते हुए कि ऊंचे आसन पर बैठने से उनके भीतर भी राजमद आ सकता है, वे बहुमूल्य आसन का मोह त्याग धरती पर ही बैठ गए. यह देख राजा को अजीब लगा. वह तत्काल इस निर्णय पर पहुंचा कि जो श्रमण मेरे समक्ष आसन ग्रहण करने से ही घबरा रहे हैं, ‘उनके भीतर धर्म का तेज नहीं है.’ इसके साथ ही राजा उखड़ गया. बिना किसी सम्मानभाव के उसने रूक्ष स्वर में पूछा, ‘क्या तुम बुद्ध हो? राजा का व्यवहार देखकर वे सोच में पड़ गए. सोचने लगे—‘यदि हम कहें कि बुद्ध हैं’ तो राजा अवश्य ही हमसे हमारे ‘बुद्धत्व’ को लेकर प्रश्न करेगा. सही उत्तर न मिलने पर वह हमारी जिव्हा भी कटवा सकता है.’ इसी भय के कारण उन्होंने कहा, ‘हम बुद्ध नहीं है.’ यह सुनते ही राजा ने उन्हें दरबार से निकलवा दिया.’

दूसरा उदाहरण ‘संयुत्त निकाय’ के चैथे अध्याय से लिया जा सकता है. उसमें श्रमण वच्चागोत्त का प्रसंग आया है. वच्चागोत्त ‘निर्वाण’ को समझना चाहता है. उसे लेकर वच्चागोत्त की कुछ जिज्ञासाएं हैं, कुछ प्रश्न. वह जानना चाहता है कि क्या यह ‘संसार चिरंतन है….’ ‘मृत्यु के बाद क्या होता है?’ ‘क्या पुनर्जन्म है.’ ‘क्या तथागतों को भी पुनर्जन्म की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है?’ अपनी जिज्ञासा को लेकर वह अनेक लोगों से मिलता है. उनमें बुद्ध के शिष्य भी सम्मिलित हैं. सबसे पहले वह बुद्ध के पास जाता है. उसके बाद उनके शिष्य मोग्गलायन तथा अन्य मताब्लंबियों से. बुद्ध उसका प्रश्न सुनकर मौन पड़ जाते हैं. संयुत्त निकाय(4/44) में दिया है. उसके अनुसार वच्चागोत्त मोग्गलायन से कहता है—‘मैंने यही प्रश्न दूसरी मताब्लंबियों से किया तो वे अपने विचारों को लेकर पूरी तरह अनिश्चित थे. उनका मानना था कि ‘संसार चिरंतन हो सकता है’ और ‘संसार चिरंतन नहीं भी हो सकता.’ आगे एक शास्त्रार्थ का उल्लेख है. जिसमें बुद्ध के अलावा पूर्ण कस्सप, मक्खलिपुत्र गोशालक, पुकुद कात्यायन, संजय वेल्लठिपुत्त, अजित केशकंबलि, निंगठ नागपुत्त भी सम्मिलित होते हैं. वच्चागोत्त उनसे भी वही प्रश्न करता है—‘संसार चिरंतन है. क्या तथागत मृत्यु बाद भी होते हैं? या तथागत मत्यु के बाद नहीं होते हैं? इस बारे में पूर्ण कस्सप का कहना था—‘संसार चिरंतन है. तथागत न तो हैं, न ही मृत्यु के बाद होते हैं.’ समापन से पहले मामला बुद्ध के पास जाता है. बुद्ध उसे आत्मज्ञान देते हैं. वे निर्वाण की महत्ता तथा उसकी अवधारणा को स्पष्ट करते हैं.

नास्तिक परंपरा के विचारकों का उल्लेख बुद्ध से लगभग पांच सौ वर्ष बाद के ग्रंथ ‘मिलिंद प्रश्न’ में भी आता है. ‘दीघ निकाय’ में अजातशत्रु और बुद्ध के बीच संवाद दिखाया गया है. ‘मिलिंद प्रश्न’ में संवाद सम्राट मिलिंद और बौद्ध विद्वान नागसेन के बीच है तथा स्थान ‘सागल’(स्यालकोट, पाकिस्तान) हो जाता है. अजातशत्रु गौतम बुद्ध से मिलने के लिए अपनी पांच सौ पत्नियों तथा सैनिकों के साथ जीवक की आम्रवाटिका में जाता है, जहां गौतम बुद्ध 1250 भिक्षुओं की मंडली के साथ मौजूद हैं. ‘मिलिंद प्रश्न’ में सम्राट मिलिंद द्वारा 500 यवन सैनिकों के साथ नागसेन से भंेट करने का उल्लेख किया गया है, जिसके साथ अस्सी हजार भिक्षुओं का जत्था है. यह संख्या अतिश्योक्तिपूर्ण हो सकती है. संभव है, लेखक का मंतव्य नगर के कुल बौद्ध अनुयायियों से हो. इससे बौद्ध धर्म के प्रसार का भी अनुमान लगाया जा सकता है. बहरहाल, अजातशत्रु के साथ गई 500 रानियों और सैनिकों, तथा मिलिंद के साथ गए 500 यवनों पर बुद्ध के दर्शन का क्या प्रभाव पड़ा, इसका कोई उल्लेख संबंधित ग्रंथ में नहीं है. कदाचित उल्लेख की आवश्यकता ही नहीं समझी गई. शायद इसलिए कि लेखक का मंतव्य भौतिकवादी दर्शनों के सापेक्ष अपने दर्शन की श्रेष्ठता को सिद्ध करना था. सोचता था कि यदि अजातशत्रु बौद्ध दर्शन के प्रभाव में आ जाता है तो प्रजा स्वतः उसकी ओर चली आएगी—‘यतो राजा, ततो प्रजा.’ उपर्युक्त उद्धरणों में से एक में श्रमण परंपरा से निकले नास्तिक विचारक हैं, जो राजदरबार में राजमद के भय से उच्च आसन पर बैठने के बजाय सीधे जमीन को आसन बना लेते हैं. दूसरी और बौद्ध विचारक हैं, जो सम्राटों और श्रेष्ठि जन द्वारा विशेष रूप से बनाए गए विहारों में ठहरते रहते थे और उस अवसर का प्रयोग अपने धर्म को संगठित करने में करते थे. उल्लेखनीय है कि ब्राह्मण धर्म स्वतः सत्ता केंद्रित रहा तथा राज्याश्रय में फलाफूला है. ‘संयुत्त निकाय’ के अनुसार महाराज प्रसेनदि या ‘मिलिंद प्रश्न’ के अनुसार सम्राट मिलिंद का भिक्षु नागसेन से मिलना तथा दोनों अवसरों पर, यानी बुद्ध और नागसेन के पास भिक्षुओं की अपेक्षाकृत बड़ी संख्या दिखाया जाना, दर्शाता है कि बौद्ध लेखकों के लिए संख्याबल भी महत्त्वपूर्ण था; और इसके द्वारा वे राजसत्ता के समानांतर धर्मसत्ता की पैठ को दर्शाते थे.

दीघ निकाय’, ‘संयुत्त निकाय’ तथा ‘मिलिंद प्रश्न’ में एक ही घटना को तीन अलगअलग रूपों में देखकर उनकी प्रामाणिकता पर संदेह हो सकता है. जबकि तीनों घटनाओं की विषयवस्तु एक है. उनमें केवल पात्र और स्थान रहते हैं. इससे यह संभावना भी बलवती होती है कि अजातशत्रु तथा प्रसेनदि की बुद्ध से तथा ‘मिलिंद प्रश्न’ के अनुसार सम्राट मिलिंद की नागसेन से भेंट बौद्ध लेखकों की कल्पना की उपज थी. चूंकि प्रत्येक विवरण में नास्तिक विचारकों के नाम अपरिवर्तित रहते हैं, और वही नाम जैन साहित्य में भी उसी रूप में मौजूद हैं. इससे उनकी ऐतिहासिकता संदेह से परे है. वह दर्शाती है कि बौद्ध लेखकों द्वारा इन प्रसंगों की कल्पना भौतिकवादी विचारधारा के बरक्स अपने दर्शन की श्रेष्ठता दर्शाने के लिए की गई थी. ध्यान देनेवाली बात है कि ‘दीघ निकाय’ एवं ‘संयुत्त निकाय’ दोनों ही ग्रंथों में संबंधित प्रसंग की शुरूआत ‘ऐसा मैंने सुना….’ से की गई है. यानी लेखकगण संबंधित घटना के न तो स्वयं साक्षी हैं, न ही उसका उल्लेख बुद्ध के हवाले से कर रहे हैं. इसे हम उनके लेखकों की लेखकीय ईमानदारी भी कह सकते हैं कि वे उन प्रसंगों को प्रामाणिक घटनाओं के रूप में प्रस्तुत करने के बजाए ‘कथन’ या ‘उपकथन’ के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं. श्रुति आधारित घटनाओं में पात्रों का बदल जाना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता. ‘मिलिंद प्रश्न’ में उसी प्रसंग को पांच शताब्दियों के बाद तत्कालीन सम्राट के नाम के साथ पेश करने एक संभावना यह भी हो सकती है कि आजीवक विचारधारा बुद्ध के पांच सौ साल बाद भी, न केवल लोकप्रचलित थी बल्कि उस समय की अन्य दर्शनपरंपराओं को चुनौती देने की स्थिति में थी. कदाचित यही स्थिति आगे भी बनी रही. यही नहीं दसवीं शताब्दी के तमिल काव्य ‘नीलकेशी’ में भी पूर्ण कस्सप, मक्खलिपुत्र गोशालक का नामोल्लेख है. उसमें नीलकेशी को अर्धदेवी या मायावी के रूप में दर्शाया गया है, जो कालांतर में जैन धर्म स्वीकार लेती है. ज्ञान और आत्मशांति की खोज में नास्तिक विचारकों से भी मिलती है.

अजातशत्रु एवं प्रसेनदि और सम्राट मिलिंद द्वारा बौद्ध धर्म स्वीकार लेने का उल्लेख संबंधित ग्रंथों में है. एक ही प्रसंग को अलगअलग ग्रंथों में अलगअलग नाम के साथ प्रस्तुत करने से पता चलता है कि अपने समय के किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति को बीच में लाकर अपने मंतव्य के अनुरूप नए प्रसंग गढ़ लेना बौद्ध विद्वानों की शैली रही है. वैसे भी श्रमण जीवन की श्रेष्ठता का ‘मिथ’ तभी स्थापित हो सकता था, जब समाज का प्रभुसत्तासंपन्न वर्ग, जिसके पास आमोदप्रमोद, वैभवविलास के संसाधनों का प्राचुर्य हो, सांसारिक सुखों को निस्सार मानते हुए—उनके आगे नतमस्तक हो. उस समय की परंपरा के अनुसार अपने दार्शनिक विचारों को आमजन तक पहुंचाने के लिए तत्कालीन बौद्ध विद्वान भी किस्सेकहानियों का सहारा ले रहे थे. आवश्यकता के अनुसार वे नए किस्सेकहानियां गढ़ भी रहे थे. नास्तिक विचारक कदाचित तर्क को ज्यादा महत्त्व देते थे, इसलिए वे अपने विचारों को दीर्घकालिक संस्कृति में ढालने में असमर्थ रहे. बावजूद इसके उनका असर लंबे समय तक समाज पर बना रहा. ‘श्रामण्य जीवनशैली’ पर जोर देने के बावजूद बौद्ध और जैन श्रमणों को अपने समय के सम्राटों के दरबार में जाने, तत्कालीन श्रेष्ठि वर्ग का आतिथ्य स्वीकार करने में हिचक नहीं थी. इसे उनका वर्गीय संस्कार भी कह सकते हैं. दोनों ही राजकुलों में जन्मे थे. ऐसे परिवेश में पलेबढ़े थे, जिसमें बड़े साम्राज्य का सपना आरंभ से ही मानस में रोप दिया जाता है. ‘धम्मविजय’ का सपना तथा अपने साथ सैकड़ों, हजारों भिक्षुओं को लेकर निकलना, उन्हीं महत्त्वाकांक्षाओं की सात्विक परिणति था. श्रमण जीवन की महत्ता समझाने के लिए वे जहां अपने समय के प्रमुख सम्राटों को बीच में ले आते हंै, वहीं अहिंसा के दर्शन को ऊंचा दिखाने के लिए अंगुलिमाल की सहायता ली जाती है. विचारों के प्रचारप्रसार के लिए कहानियों तथा अन्य लोककलाओं का उपयोग न तो अस्वाभाविक था, न ही नया. पुरोहितवर्ग स्वयं कहानियां गढ़ने में माहिर था. इसका उन्हें लाभ भी मिला. जबकि केवल तर्क के आधार पर अपने दर्शन को दुनिया के सामने लाने वाले और तत्कालीन सत्ताशिखरों से किसी भी प्रकार कर समझौता न करने वाले लोकायत और आजीवक धर्मानुयायी बड़ी आसानी से भुलाए जाते रहे. जबकि किस्सेकहानियां गढ़ने में माहिर बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्मानुयायियों ने कालांतर में उन्हें बदनाम करने के लिए भी किस्सेकहानियों का सहारा लेना आरंभ कर दिया. जो वास्तव में मानवमात्र की मुक्ति चाहते थे, मानवीय विवेक को महत्त्व देते थे, बौद्ध, जैन और ब्राह्मण लेखको के जरिये वे मनुष्यता के दुश्मन, राक्षस, दैत्य आदि कहे जाने लगे.

दीघ निकाय’ में यह पूरी तरह तय नहीं हो पाता कि अजातशत्रु ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था या नहीं? जैन और बौद्ध दोनों धर्म उसपर अपना अनुयायी होने की दावेदारी करते हैं. बुद्ध के निर्वाण प्राप्ति के एक वर्ष बाद आयोजित होने वाली पहली बौद्ध परिषद का आयोजन भी अजातशत्रु की पहल पर किया गया था. इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अजातशत्रु ने बौद्ध धर्म अपना लिया था. मगर अजातशत्रु के जीवन से जुड़ी घटनाएं बताती हैं कि उसने बौद्ध धर्म को उसने अपनाया भी होगा तो केवल नाममात्र के लिए. यहां इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना पर विचार करना आवश्यक है. उससे ‘धर्मसत्ता’ एवं ‘राजसत्ता’ के गठबंधन तथा एकदूसरे के हितों के लिए काम करने की नीयत को समझा जा सकता है. भारतीय इतिहास में वैशाली की चर्चा उसकी अकूत समृद्धि, वैभव के साथसाथ गणतंत्र के लिए भी होती है. जब हम गणतंत्र के इतिहास की खोज करते हैं तो नजर सीधे बौद्ध कालीन भारत में वैशाली पर जाती है. जहां नागरिक तंत्र पर्याप्त रूप में मौजूद था. लोग अपने निर्णय मिलजुलकर लेते थे. अपना शासक स्वयं सुनते थे. हालांकि आधुनिक लोकतंत्र के सापेक्ष उनका गणतंत्र बहुत पिछड़ा हुआ था. उनमें निर्णय प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अधिकार समाज के सीमित लोगों को प्राप्त था. स्त्री और गरीब मताधिकार से वंचित थे. एक तरह से वह कुलीनतंत्र ही था, बावजूद इसके समकालीन निरंकुश राज्यों की तुलना में वैशाली को बेहतर राज्य माना जा सकता है.

अपनी अकूत संपत्ति और वैभव के कारण वैशाली अजातशत्रु की आंख की किरकिरी बनी थी. उसकी निगाह वैशाली की पर टिकी थीं. महावीर स्वामी का जन्म वैशाली में ही हुआ था, इसलिए वहां की प्रजा(उसे नागरिक या जनता कहने में मुझे संकोच है) पर जैनमत का प्रभाव था. इस कारण वैशाली गणतंत्र अजातशत्रु के साथसाथ बुद्ध के लिए भी चुनौती बना हुआ था. बुद्ध उसे अपनी ‘धम्म’ के प्रभावक्षेत्र में लाना चाहते थे. इस कोशिश में बुद्ध वैशाली में कई सभाएं कर चुके थे. लेकिन वैशाली के प्रजाजन उनके प्रभाव से बाहर थे. बुद्ध के लिए ‘मगध’ एवं ‘कोसल’ जैसे राज्यों में जहां राजा निरंकुश होता था, ‘धम्म’ का प्रचारप्रसार करना आसान था. वहां सम्राट को अपने प्रभाव में लाकर उसकी प्रजा के सोच को प्रभावित किया जा सकता था. राज्य का मुख्य अधिपति समर्थन में हो तो उसके संसाधनों के उपयोग का रास्ता भी साफ हो जाता है. जैसे मगध में हुआ. मगर वैशाली के मामले में ऐसा न था. उसमें प्रत्येक नागरिक अपने आपको राजा समझता था. और अपनी वैचारिक चेतना को लेकर स्वतंत्र था. बौद्ध ग्रंथों के अनुसार उस समय वैशाली में 7707 प्रासाद, 7707 कुटागार, 7707 उद्यान, 7707 पुष्करणियां तथा इतने ही राजा थे. यानी जितने प्रासाद थे, उतने ही राजा थे. मान सकते हैं कि जो अपेक्षाकृत बड़े भवनों में रहते थे, जिनका एक सीमा से ऊपर आर्थिक हैसियत थी, केवल उन्हीं को ‘राजा’ बनने का अधिकार था. दूसरे राजा की पदवी के लिए जन्मना क्षत्रिय होना आवश्यक था. इससे यह भी संकेत मिलता है कि 7707 प्रासादों में रहनेवाले 7707 क्षत्रिय परिवार के मुखियाओं को ही ‘राजा’ होने का गौरव प्राप्त था. उनकी नियमित सभा होती थी. जिसमें प्रत्येक ‘राजा’ को अपना मत प्रस्तुत करने का अधिकार था. जहां बौद्धिक स्वातंत्रय हो, वहां किसी एक व्यक्ति, कथित रूप से वह कितना ही पहुंचा हुआ क्यों न हो, को प्रभावित करने से काम बनने वाला नहीं था. जो भी हो बुद्ध द्वारा वैशाली में बौद्ध धर्म के प्रसार के कई प्रयास विफल सिद्ध हुए थे. दूसरी ओर अजातशत्रु भी वैशाली को अपराजेय मानता था. बुद्ध उन दिनों राजग्रह में गृधकूट पर्वत पर विहार कर रहे थे. वैशाली पर ‘धम्म’ की पकड़ न बन पाने के कारण वे खिन्न थे. उधर मगध सम्राट अजातशत्रु भी वैशाली को अपने अधीन करने के लिए ललचा रहा था.

वैशाली उन दिनों वज्जि संघों की महानगरी थी. वज्जि संघ तथा अजातशत्रु दोनों के राज्य की सीमाएं गंगा से मिलती थीं. उन दिनों नदियां दूरदराज के व्यापार का प्रमुख माध्यम थीं. मगध एवं वैशाली के वैभव से आकर्षित हो दूरदूर से व्यापारिक काफिले वहां आया करते थे. नदीतट से जुड़े आधा योजन(लगभग 7.5 किलोमीटर लगभग) तक मगध का अधिकार था और इतने ही क्षेत्र पर वैशाली का. दूरदराज से आए व्यापारियों से माल खरीदने के लिए वैशाली तथा मगध मंे होड़ लगी रहती थी. लेकिन बाजी वज्जि संघ के हाथ लगती थी. इस बात से आहत एक दिन उसने वज्जि संघ को तबाह करने का प्रण किया. लेकिन वह जानता था कि वज्जियों को तबाह कर पाना आसान नहीं है. वज्जि संघ को अपने अधिकार में किस तरह लिया जाए, इस बारे में चर्चा के लिए अजातशत्रु ने अपने महामात्य ‘वस्सकार’ को बुद्ध के पास भेजा. बुद्ध उन दिनों राजग्रह में गिद्धकूट पर्वत पर विहार कर रहे थे. वे जीवन की अंतिम बेला में थे. वैशाली को अपने प्रभावक्षेत्र में न ला पाने का उन्हें किंचित अफसोस भी था. वस्सकार ने सम्राट का यथायोग्य अभिवादन कर सम्राट अजातशत्रु का सारा संदेश कह सुनाया. तब बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद से चर्चा के माध्यम से अजातशत्रु को संकेत दिया कि जब तक वैशाली के नागरिक मिलजुलकर फैसले करते हैं, स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों का सम्मान करते हैं, अपने विवादों का निपटारा शांतिपूर्वक कर लेते हैं उस समय तक वे अजेय बने रहेंगे. यह एक संकेत था. जिसे सुनकर चतुर ‘वस्सकार’ की आंखों में चमक आ गई. वापस लौटने के बाद वह अजातशत्रु से मिला. उसके बाद दोनों ने एक गुप्त योजना पर काम करने लगे. योजना के अनुसार सम्राट के निर्णय में अनुचित हस्तक्षेप का आरोप लगाकर वस्सकार को राज्य से निकाल दिया गया. नाराज वस्सकार सीधे वैशाली पहुंचा. अजातशत्रु से अपने मतभेदों को बढ़ाचढ़ाकर पेश करके उसने वैशाली के नगरवासियों की सहानुभूति अर्जित कर ली. उसके बाद कूटनीतिक चालें चलते हुए उसने वैशाली के नागरिकों में फूट पैदा कर दी. गणराज्य का तानाबाना छिन्नभिन्न होने लगा. वैशाली को कमजोर होते देख अजातशत्रु ने एकाएक उसपर हमला कर दिया. वैशाली में रहते हुए वह वहां के नागरिकों में फूट पैदा कर देता है. उसके बाद अजातशत्रु हमला करता है तो विजय उसी के हाथ लगती है. अजातशत्रु न केवल वैशाली के गणतंत्र को छिन्नभिन्न कर देता है, बल्कि उस समय के 36 अन्य गणतांत्रिक राज्यों को तबाह कर वहां अपना शासन स्थापित कर लेता है. बुद्ध इसके लिए उसका विरोध नहीं करते.

चूंकि बुद्ध के विचारों का संग्रहण उनके निर्वाण प्राप्ति के बाद किया गया था, इसलिए उनके शिष्यों के पास इस तरह के प्रयोगों की भरपूर स्वतंत्रता थी. अपने मत के प्रचारप्रसार के लिए उन्होंने जो भी, जैसा भी आवश्यक समझा, उसका भरपूर उपयोग किया. यहां तक कि ईश्वर और अवतारवाद से भी गुरेज नहीं किया. नागसेन को बुद्ध का अवतार सिद्ध करने के लिए स्वयं बुद्ध के मुंह से कहलवाया गया कि 500 वर्ष बाद वे नागसेन के रूप में जन्म लेंगे. ‘मिलिंद प्रश्न’ जो स्पष्टतः बुद्ध से 500 वर्ष बाद की रचना है—जिससे बौद्ध धर्म की ब्राह्मण धर्म के बीच घटती दूरी का पता चलता है. उस समय तक बुद्ध को ‘भगवान’ मान लिया गया था. अवतारवाद, जादूटोना जैसे विकार, जिनका बुद्ध ने अपने उपदेशों में विरोध किया था, समय के साथ बौद्ध दर्शन में भी आने लगे थे. यह कदाचित जनसाधारण के बीच अपनी लोकप्रियता बनाए रखने की लालसा का भी परिणाम था. दरअसल ईसा से पहलीदूसरी शताब्दी के आसपास बौद्ध धर्म दो प्रकार की समानांतर चुनौतियों के बीच से गुजर रहा था. पहली चुनौती उसे ब्राह्मण धर्म की ओर से मिल रही थी. पुरोहितवादी शक्तियां जो बौद्ध धर्म के प्रभाव में कुछ शताब्दियों के लिए आभाहीन हो गई थीं, वे स्वयं को नए सिरे से संगठित करने लगी थीं. तीसरी संभवत आजीवक विचारधारा थी, जो उस समय तक हालांकि क्षीण पड़ चुकी थी, किंतु निरंतर आभाहीन होते बौद्ध विद्वानों को उसका भय सताता रहता था. यह भी हो सकता है कि आजीवकों और ब्राह्मण धर्माबलंबियों की ओर से बढ़ती चुनौती के बीच अपनी श्रेष्ठता के प्रदर्शन के लिए बौद्ध विद्वान नास्तिक विचारकों पर अपनी जीत को बदले समय और चुनौतियों के बीच पात्र बदलबदलकर दोहराते रहते हों. उल्लेखनीय है कि भौतिकवादी विचारकों के प्रभाव से केवल बौद्ध दार्शनिक चिंतित नहीं थे, जैन दर्शन के लिए भी वह चुनौती बना था.

यह ऐतिहासिक सचाई है कि ब्राह्मण धर्म की ओर से निरंतर मिलती चुनौतियों तथा बौद्ध दर्शन के विस्तार के बीच में भौतिकवादी दर्शन धीरेधीरे सिमटने लगे थे. उसके विचारक सामाजिकसांस्कृतिक मूल्यों की तर्क और ज्ञान पर समीक्षा करते थे और कमजोर होने पर जमकर उनकी खिल्ली उड़ाते थे. जबकि आस्था और विश्वास पर आधारित धर्म होने के कारण ब्राह्मण धर्म तर्क से दूर था. बौद्ध धर्म ने भौतिकवादी दर्शनों से उनकी तर्कपद्धति सीखी थी. चूंकि जनसाधारण के आगे जीवन की चुनौतियां बढ़ती जा रही थीं. समाज के गठन का उद्देश्य कि सभी को समान अधिकार मिलेगा, शासक सभी के प्रति न्यायपूर्ण आचरण करेगा—धूमिल पड़ने लगा था. जिस ‘राजा’ नामक संस्था को संसाधनों की सुरक्षा और न्यायपूर्ण विभाजन के अधिकार के साथ गठित किया गया था, वह सभी संसाधनों और निर्णय प्रक्रिया पर एकाधिकार कर स्वयं को सर्वेसर्वा घोषित कर चुकी थी. ऐसे में लोगों का विश्वास तथाकथित ईश्वरीय न्याय के प्रति बढ़ना स्वाभाविक ही था. उसके लिए तर्क में उलझने के बजाय आस्था और विश्वास के सहारे जीवन बिताना कहीं आसान था. वैसे भी सत्ता के संसाधनों के साथ ज्ञान का भी केंद्रीकरण हुआ था. यह मान लिया गया था कि जो शिखर पद पर या उसका कृपापात्र होकर उसके आसपास भी है, वह शिखर से दूर लोगों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान एवं योग्य है. इस धारणा के चलते समाज अपनी ही प्रखर मेधाओं के लाभ से वंचित रहने लगा था. राजाओं को, वे चाहे जितने शक्तिशाली हों, शांति एवं जनसमर्थन की आवश्यकता पड़ती थी. जिनमें पुरोहितवर्ग भी सम्मिलित था. इसलिए वह लोगों के विश्वास(चाहे वह अंधविश्वास) ही क्यों न हो, बाधक बनने के बजाए उसमें सहायक की भूमिका निभाता था. यही कारण है कि प्राचीन भारतीय इतिहास में सम्राटों द्वारा स्कूल एवं पाठशालाएं खुलवाने के उदाहरण नगण्य हैं. जबकि अपने नाम और यश के अनुरूप छोटे से छोटा राजा भी मंदिर और धर्मशालाएं बनवाने का कार्य प्राथमिकता के आधार पर कराता था. अध्ययनअध्यापन का कार्य ब्राह्मणों के सुपुर्द था. राज्य उनकी पाठशालाओं और आश्रमों को दानादि देकर प्रसन्न रखता था. अतः उन पाठशालाओं में वही पढ़ाया जाता था जिनसे सम्राट और शिक्षक ब्राह्मण का हित सधता हो. इसका दुष्परिणाम सत्ता का केंद्रीकरण तथा समाज में भारी असमानताओं के रूप में सामने आया. उपेक्षित वर्गों में असंतोष न पनपे, उसके लिए धर्म की शरण ली. जाति और धर्म के चंगुल में फंसा समाज समाजार्थिक असमानताओं को अपनी नियति मानकर जीने लगा. कुल मिलाकर धर्मदर्शन का पिछले दो हजार वर्षों का इतिहास, समाज के अनेकानेक टुकड़ों में बंटने और निरंतर प्रतिक्रियावादी होते जाने का सिलसिला भी है. इस बीच समयसमय पर बदलाव की कोशिशें भी हुईं. कई महामानव उभरे. लेकिन किसी न किसी रूप में उन सभी के प्रयास धर्मकेंद्रित रहे. धर्म के सामंती संस्कारों के दबाव में समानताआधारित स्वावलंबी समाज का गठन, कुछ भले लोगों के स्वप्न से आगे न बढ़ सका.

© ओमप्रकाश कश्यप

भारतीय भौतिकवादी चिंतन : पुरोहितवाद के विरुद्ध पहला मोर्चा

विशेष रुप से प्रदर्शित

नास्ति दत्तम् नास्ति हूतम् नास्ति परलोकम् इति।। मेधातिथि , लोकायत, 30

(प्रसाद चढ़ाना, यज्ञों में आहुतियां देना व्यर्थ है. परलोक जैसा कुछ भी नहीं है.)

.)

वैदिक संस्कृति के कर्मकांड, बलिप्रथा, पुरोहितवाद का उल्लेख जबजब होता है, उसके प्रतिरोधी स्वरों की खोज हमें सीधे बौद्ध दर्शन तक ले जाती है. हम वैदिक समाज की कुरीतियों का प्रतिकार बुद्ध के दर्शन में खोजने लगते हैं. भारतीय संस्कृति के इतिहास में बौद्ध दर्शन का उदय निश्चय ही युगांतरकारी घटना थी. जैन दर्शन की भांति उसका निकास भी श्रमण परंपरा से हुआ था. दोनों स्वतंत्रसमृद्ध दार्शनिक परंपरा से अनुप्रेत थे. ईश्वर, आत्मा, परमात्मा जैसी ध्यान भटकाने वाली अवधारणाएं दोनों को अस्वीकार थीं. बावजूद इसके ध्यान सीधे बौद्ध दर्शन की ओर जाता है तो इसलिए कि उसकी सफलता के अनुपात में उसके समकालीन दर्शनों को मिली सफलता नगण्य थी. स्वयं बुद्ध अपनी सफलता के प्रति आश्वस्त थे. कुछ अवसरों पर तो आत्ममुग्धता की हद तक. भिक्षुसंघ के प्रति उनका आत्मविश्वास देखते ही बनता था. महावीर के निधन के उपरांत उनके अनुयायियों के आपसी लड़ाईझगड़े का समाचार जब चुंड द्वारा उन्हें दिया गया तो उनका कहना था, ‘चुंड अब संसार में कितने उपदेशक हैं जिन्हें इतनी प्रतिष्ठा और मानसम्मान प्राप्त हुआ है, जितना मुझे? मुझे तो ऐसा कोई उपदेशक दिखाई नहीं पड़ता. हे चुंड! आज संसार में अनेक धार्मिक संघ हैं. लेकिन मुझे तो ऐसा कोई संघ दिखाई नहीं पड़ता जिसके भिक्षु संघ ने बौद्ध संघ के समान सफलता और लोकसिद्धि अर्जित की हो.’ यदि कोई व्यक्ति किसी धर्म को हर प्रकार से सफल, पूर्ण, त्रुटिहीन, सुगठित एवं सुस्थापित बताना चाहेगा, तो वह इसी संघ का उदाहरण देगा.’ अपनी विचारधारा, धर्म और संप्रदाय के प्रति इतना सघन विश्वास, अनपेक्षित नहीं है. बौद्ध संघ को मिली प्रतिष्ठा और लोकव्याप्ति की दृष्टि से बुद्ध को ऐसा सोचने का अधिकार भी था. यह बात अलग हैं कि बुद्ध के निर्वाण प्राप्ति के महज ढाई सौ वर्ष के भीतर बौद्ध धर्म भी 18 संप्रदायों में बंट चुका था. उसके विभिन्न धड़ों के बीच गहरे मतभेद थे.

बुद्ध को मध्यमार्गी कहा जाता है. माना जाता है कि यह बोध उन्होंने लोकपरंपरा से ग्रहण किया था. इस बारे में एक रोचक कहानी है. बोधप्राप्ति के लिए घर से निकलते समय दूसरे तापसों की भांति बुद्ध भी शरीर को मुक्तिमार्ग की सबसे बड़ी बाधा मानते थे. उन्होंने अराड़ मुनि को अपना गुरु माना और भद्रजित आदि के साथ छह वर्षों तक कठिन साधना करते रहे. उस दौरान उन्होंने भोजन, पानी, स्नानदान, फूलफल आदि सब त्याग दिया. लेकिन उस कठिन साधना का कोई अनुकूल परिणाम नहीं निकला. नतीजा यह हुआ कि देह सूखकर कांटा बन गई. एक दिन जब वे साधनारत थे तो गीत गाती स्त्रियों का दल उधर से गुजरा. गीत के बोल थेᅳ‘वीणा के तारों को साधे रहो/उन्हें न तो ढीला छोड़ो/न ज्यादा कसो/तार ढीले रहे तो स्वर नहीं निकलेंगे/अत्यधिक कसने पर वे टूट भी सकते हैं.’ गीत सुनते ही बुद्ध की आंखें खुल गईं. तपस्या छोड़कर वे उठ खड़े हुए. उन्हें लगा कि आत्मापरमात्मा के प्रश्न अंतहीन हैं. मनुष्य सहस्राब्दियों से उनपर तर्क करता आया है. आगे भी अनंतकाल तक करता रहेगा. उनके जरिए किसी सर्वसम्मत समाधान पर पहुंच पाना असंभव है. ऐसे प्रश्नों को छोड़ देने की अनुशंसा के साथसाथ बुद्ध ने आचरण की शुद्धता पर जोर दिया. कहा कि सच्चे संकल्प द्वारा मन के विकार मिट सकते हैं. अपने विचारों को लेकर संघ की स्थापना की. बुद्ध वैदिक संस्कृति के केंद्रीय विषयों, आत्मा और परमात्मा को नकारते नहीं हैं. केवल अंतहीन प्रश्न मानकर उन्हें किनारे कर देने को कहते हैं. सामान्य नैतिकता जिसे ब्राह्मण दर्शनों में पूरी तरह किताबी बना दिया गया था, जिसका निर्धारण शिखरस्थ वर्गों की मर्जी से, उनके स्वार्थानुसार किया जाता था उसे उन्होंने गणतांत्रिक स्वरूप देने की कोशिश की थी. खासकर भिक्षु संघों में ऐसी व्यवस्था की जिससे समाज में फैले जातिभेद की उनपर छाया तक न पड़े. वुद्ध विहारों को समाज के सभी वर्गों के लिए खोलते हुए उन्होंने समानता के विचार को महत्त्वपूर्ण माना. उस समय तक वर्ण जाति में ढलकर रूढ़ हो चुके थे. कुल मिलाकर बौद्ध दर्शन की महत्ता जीवन और दर्शन के केंद्र में मनुष्य को वापस ले आने में है. जिसे ब्राह्मणवादियों ने मायावाद के भ्रम में उपेक्षित कर रहा था. इससे वे लोग भी बौद्ध संघों से जुड़ने लगे जिन्हें वर्णव्यवस्था के चलते समानता, स्वतंत्रता एवं जीवन के मूलभूत अधिकारों से वंचित किया गया था. समय के हिसाब से वह क्रांतिकारी घटना थी. उसके थोड़ेसे अंतराल के पश्चात यही कार्य सुकरात ने यूनान में किया था.

बावजूद इसके पुरोहित संस्कृति का असल विरोध बौद्ध दर्शन में नहीं था. सवाल है बुद्ध को मध्यममार्गी माने तो पुरोहित संस्कृति का वास्तविक प्रतिपक्ष कौनसा दर्शन था? क्या अहिंसा पर असंभाव्य की सीमा तक जोर देने वाले जैन दर्शन को इसका श्रेय दिया जाए? बुद्ध की भांति महावीर भी भारत की प्राचीन श्रमण परंपरा की देन थे. वैदिकी हिंसा और कर्मकांडों के आलोचक. उन्होंने भी वेदों को अप्रामाण्य मानकर ईश्वरत्व को नकारा था. बावजूद इसके जैन दर्शन, वैदिक दर्शन का वास्तविक प्रतिपक्ष नहीं था. बौद्ध दर्शन की भांति वह भी मध्यमार्गी था. अहिंसा को लेकर वह अव्यावहारिक की सीमा तक चला जाता है. जबकि ‘स्याद्वाद’ की उसकी अवधारणा विरोधी विचारों के लिए भी पर्याप्त स्पेस रखती है. ब्राह्मणवादी दर्शन का असल विरोध भौतिकवादी विचारधारा में था, जिसके बुद्ध के जीवनकाल में कम से कम पांच प्रखर विचारक थे. मक्खलि गोसाल, अजित केशकंबलि, संजय वेलट्ठपुत्त, पूर्ण कस्सप और पुकुद कात्यायन. इस बात के पर्याप्त प्रमाण है कि बुद्ध को बोध प्राप्ति, या उनके प्रसिद्ध होने से बहुत पहले ही वे पांचों काफी प्रतिष्ठा और जनसमर्थन बटोर चुके थे. उनकी विद्वता की धाक उनके विरोधियों पर भी थी. इनके अलावा छठा नाम निगंठ नाथपुत्त का है. आगे चलकर वह जैन दर्शन के प्रवर्त्तक महावीर स्वामी के रूप में ख्यात हुए. विडंबना है कि निगंठ नाथपुत्त को छोड़कर किसी भी विद्वान का उसके जीवन और विचारों को लेकर कोई स्वतंत्र, मौलिक ग्रंथ उपलब्ध नहीं है. उनके जीवन और विचारों का संक्षिप्त परिचय हमें बौद्ध एवं जैन ग्रंथों से प्राप्त होता है. वह पूर्वाग्रहों से भरा पड़ा है. प्राप्त वर्णन में पर्याप्त भिन्नता है, किंतु इस बात से दोनों एकमत हैं कि वे भौतिकवादी दार्शनिक ब्राह्मण दर्शन के प्रबल विरोधी थे.

भौतिकवादी विचारकों को लेकर ‘दीघनिकाय’ के ‘समन्न्फल्सुत्र सुत्त’ में गौतम बुद्ध एवं अजातशत्रु के बीच लंबी चर्चा है, जिसमें उन्हें ‘संघ स्वामी’, ‘गणाध्यक्ष’, ‘बहुपूज्य’, ‘गणाचार्य’, ‘परमप्रज्ञ’, ‘अनुभवी विद्वान’, ‘साधु’, ‘मतसंस्थापक’, ‘तत्ववेत्ता’, ‘असंख्य समर्थकों वाला’ जैसे लगभग एक समान विशेषणों से संबोधित किया गया है. उसके लिए भूमिका कहानी के रूप में रची गई हैपूर्णमासी का दिन था. बुद्ध राजगृह में वैद्य जीवक के आम्रक्षुओं के साथ विश्राम कर रहे थे. उधर मगध का बलशाली सम्राट अजातशत्रु अपने मंत्रियों और दरबारियों के साथ उत्तम आसन पर विराजमान था. चारों ओर चांदनी छितराई हुई थी, ‘‘अहो, कैसी रमणीय चांदनी रात है! कैसी सुंदर चांदनी रात है!! कैसी दर्शनीय चांदनी रात है!!! कैसी प्रासादिक चांदनी रात है!!! कैसी लक्षणीय चांदनी रात है!!!’’(दीघ निकाय, अनुवादराहुल सांकृत्यायन एवं जगदीश काश्यप) संपूर्ण वातावरण उल्लासमय होने के बावजूद राजा अप्रसन्न है. उसका मन अवसाद से भरा है. वातावरण की रमणीयता, दरबारी वैभवविलास, सुख एवं सुरक्षा की भरपूर अनुभूति भी उसे संतुष्ट नहीं कर पाती. वह किसी विलक्षण मेधावी ‘श्रमण या ब्राह्मण के तत्वज्ञान द्वारा चित्त को प्रसन्न’ करना चाहता है. धर्म कबीलाई युग यानी उस समय की उपज है जब पराजित का जीवन, चाहे वह राजनीतिक हो या वैचारिक, विजेता के अधिकार में होता था. प्रत्येक धर्म की आधारशिला सांसारिक सुखोपभोग को हेय और निस्सार दिखाने पर टिकी होती है. इस कसौटी पर बौद्ध धर्म भी बाकी धर्मों से अलग नहीं रहा. ‘समन्न्फाफलसुत्त’ का ध्येय ‘श्रमण जीवन के फल’ को दर्शाते हुए सम्राट अजातशत्रु को धर्ममार्ग की ओर प्रवृत्त करना है. अंतर केवल इतना है कि ब्राह्मणवादी धर्मों में मोक्ष की अवधारणा मृत्यु पश्चात मुक्ति के लिए रची गई है. बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण इसी जन्म में संभव है. आगे छह भौतिकवादी दार्शनिकों के मत का संक्षिप्त उल्लेख है, जिसे भौतिकवाद के सापेक्ष बुद्धमार्ग की श्रेष्ठता स्थापित करने की कोशिश के रूप में भी देखा जा सकता है. संवाद की शुरुआत में विकल अजातशत्रु दरबारियों से प्रश्न करता हैᅳ‘क्या आप हमें ऐसे विद्वान का नाम बता सकते हैं जिसके पास बैठकर कुछ तत्व चर्चा की जा सके?’

उत्तर देते हुए एक राजदरबारी पूर्ण कस्सप का नाम लेता है, ‘महाराज! पूर्ण कस्सप, संघस्वामी, गणाध्यक्ष, गणप्रमुख, बहुसम्मानित, वयोवृद्ध, ज्ञानी, यशस्वी, मतसंस्थापक और बहुप्रज्ञ हैं. आप उन्हीं से ज्ञानचर्चा करें.’ अजातशत्रु के शांत रहने पर दूसरे दरबारी बारीबारी से मक्खलि गोसाल, पुकुद कात्यायन, अजित केशकंबलि, निगंठ नाथपुत्त तथा संजय वेलट्ठिपुत्त का नाम लेते हैं. अजातशत्रु उनसे प्रभावित होने के बजाय जीवक से पूछता है, ‘सौम्य जीवक तुम चुपचाप क्यों बैठे हो?’ उत्तर में जीवक अपने आम्रकुंज में ठहरे हुए गौतम बुद्ध के बारे में बताता है, ‘वह भगवान अर्हंत्, सम्यक संबुद्ध, विद्या एवं सदाचरण से युक्त, सुगत, सदोपदेशक, प्रबुद्ध और प्रज्ञावान हैं. उनके साथ धर्मचर्चा करके आपको शांति अवश्य प्राप्त होगी. सम्राट कोई प्रश्न या शंका जाहिर करने के बजाय आम्रकुंज तक चलने का आदेश देता है. तैयारी होते ही वह अपनी पांच सौ पत्नियों को हथिनियों पर बिठा, स्वयं राजसी हाथी पर सवार होकर, पूरे ठाठबाट के साथ बुद्ध से भेंट करने हेतु प्रस्थान कर देता है.

आम्रकुंज में संपूर्ण शांति देख अजातशत्रु के मन में संदेह उमड़ आता है. संदेह जिनसे मिलने जा रहा है उनके बुद्धत्व को लेकर नहीं है. उसका आधार वह सामान्य भय है जो हर व्यक्ति के मन में छिपा होता है. डर से मुक्ति के साधनों की खोज ही व्यक्ति को धर्म की ओर प्रवृत्त करती है. अजातशत्रु सम्राट है, इसलिए उसे राजनीतिक दुश्मनों का भी भय है, ‘सौम्य जीवक! कहीं तुम मुझसे छल तो नहीं कर रहे हो? कहीं इसके पीछे मेरे शत्रुओं की कोई चाल तो नहीं है? तुमने बताया कि शास्ता के साथ 1250 भिक्षु भी हैं. पर यहां तो गहन सन्नाटा है! जरासी हलचल तक नहीं है! कहीं मुझे धोखा तो नहीं दिया जा रहा?’ जीवक के आश्वासन देने पर सम्राट आम्रकुंज में प्रवेश करता है. फिर हाथी से उतरकर पैदल ही उस स्थान तक पहुंचता है, जहां बुद्ध अपने शिष्यों के साथ निर्मलशांत जलाशय के समान भिक्षुसंघ के बीच दिव्य कमल की भांति विराजमान हैं. पूरा वातावरण अजातशत्रु का मन मोह लेता है. वह सोचता हैᅳ‘यह भिक्षुसंघ जिस पवित्र शांति से युक्त है, क्या ऐसी ही शांति मेरे पुत्र उभयभद्र को भी प्राप्त हो सकती है?’ वह शास्ता को नमन करता है.

कुशलक्षेम जानने के पश्चात शास्ता गौतमबुद्ध उससे संबोधित होते हैं. अवसर मिलते ही अजातशत्रु प्रश्न करता है. उसकी जिज्ञासा एकदम स्पष्ट हैᅳ‘भंते जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के शिल्प यथा हस्तिआरोहण, अश्वारोहण, धनुर्विद्या, रथिक तथा शिल्पकार जैसे कि युद्धध्वज धारक, उग्र योद्धा, महानाग(हाथी से युद्ध करने वाले), दास, कल्पक(नाई), नहापक(नहलाने वाले), काष्ठकार, चर्मकार, रजक, मालाकार, पेशकार, लौहकर्मी आदि अपनेअपने कर्तव्य द्वारा स्वयं को तृप्त करते हैं, उनका फल प्राप्त करते हैं, अपने सगेसंबंधियों, मित्रों, अमात्यों को भी लाभ पहुंचाते हैं, क्या वैसा ही फल इसी जन्म में श्रामण्य जीवन द्वारा भी संभव है?’ प्रश्न सुनकर बुद्ध के चेहरे का तेज बढ़ जाता है. सीधे उत्तर देने के बजाय वे राजा से प्रतिप्रश्न करते हैंᅳ‘क्या यही प्रश्न तुमने दूसरे श्रमणों के सम्मुख भी रखा है?’ अजातशत्रु के ‘हां’ कहने पर वे उनके उत्तर बताने को कहते हैं. आगे एकएक कर सभी छह प्रमुख मतावलंबियों के दर्शन पर चर्चा होती है. चर्चा का एकमात्र ध्येय समकालीन दर्शनों के सापेक्ष बुद्ध के दर्शन की श्रेष्ठता को स्थापित करना है.

सर्वप्रथम पूर्ण कस्सप के विचारों का जिक्र होता है. अजातशत्रु बताता है कि जब उसने पूर्ण कस्सप से यही प्रश्न किया तो उसका कहना थाᅳ‘कार्य करतेकराते हुए, छेदन करतेकराते, शोक करतेकराते, चलतेचलाते, परेशान करतेकराते, गांव लूटते, चोरीसैंधमारी करतेकराते, हत्या करतेकराते, गंगा के उत्तर या दक्षिण जाते, दान देतेदिलाते रहने से कभी कोई पाप नहीं होता. यहां तक कि यदि कोई व्यक्ति छुरे से किसी दूसरे व्यक्ति की गर्दन भी तराश दे, तब भी उससे कोई पाप नहीं होता. दान देने, दान लेने या सत्य बोलने से न पुण्य का आगम होता न ही पाप का….’ पूर्ण कस्सप के अनुसार जीवजगत की संपूर्ण हलचल सहित ब्रह्मांड की अनेकानेक क्रियाअभिक्रियाएं भौतिक घटनाएं मात्र हैं. उनसे मानव जीवन भौतिक स्तर पर भले प्रभावित हो, मगर उनका कोई नैतिक या दैवीय आधार नहीं होता. प्राकृतिक घटनाओं का कोई परोक्ष संदेश भी नहीं है. जो है, जैसा है वह स्वतः गतिमान है. पूर्ण कस्सप का संदेश संपूर्ण ‘अक्रियावाद’ में सिमटा हुआ है. उसके अनुसार मनुष्य स्वयं भौतिक परिवेश का हिस्साभर है और उसी के नियमों से पूरी तरह अनुशासित होता है. घटनाएं उसके नियंत्रण से बाहर होती हैं. इसलिए जो होता है उसका मनुष्य के नैतिक या पराभौतिक जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. पूर्ण कस्सप के विचारों से असंतुष्ट अजातशत्रु कहता है, ‘भंते जैसे कोई पूछे आम, जवाब मिले कटहल, और पूछे कटहल, जवाब मिले आम. ऐसे ही मैंने जो पूछा था, उसके स्थान पर पूर्ण कस्सप ने ‘अक्रियावाद’ का बखान किया. उनके कथन की मैंने न तो प्रशंसा की, न ही निंदा. मैंने न तो उनका अभिनंदन किया, न ही तिरस्कार. केवल शांतभाव से वहां से उठकर चला आया.’

पूर्ण कस्सप के पश्चात अगला नंबर मक्खलि गोसाल का आता है. अजातशत्रु पुनः अपने प्रश्न को उठाता है, ‘भंते अगले दिन मैं मक्खलि गोसाल के यहां गया. वहां कुशलक्षेम पूछने के पश्चात पूछा, ‘महाराज, जिस प्रकार दूसरे शिल्पों का लाभ व्यक्ति अपने इसी जन्म में प्राप्त करता है, क्या श्रामण्य जीवन का लाभ भी मनुष्य इसी जन्म में प्राप्त कर सकता है?’ मक्खलि गोसाल की ओर से जो उत्तर मिलता है, उसमें उनके जीवनदर्शन की झलक मिलती हैᅳ‘घटनाएं स्वतः घटती हैं. उनका न तो कोई कारण होता है, न ही कोई पूर्वनिर्धारित विधान. उनके क्लेश और शुद्धि का कोई हेतु नहीं है. प्रत्यय भी नहीं है. बिना हेतु और प्रत्यय के सत्व क्लेश और शुद्धि प्राप्त करते हैं. न तो कोई बल है, न ही वीर्य, न ही पराक्रम. सभी भूत जगत, प्राणिमात्र आदि परवश और नियति के अधीन हैं. निर्बल, निर्वीर्य भाग्य और संयोग के फेर से सब छह जातियों में उत्पन्न हो सुखदुख का भोग करते हैं…..संसार में सुख और दुख बराबर हैं. घटनाबढ़ना, उठनागिरना, उत्कर्षअपकर्ष जैसा कुछ नहीं होता. जैसे गेंद फेंकने पर उछलकर गिरती है और फिर शांत हो जाती है. वैसे ही ज्ञानी और मूर्ख सांसारिक कर्मों से गुजरते हुए अपने दुख का अंत करते रहते हैं.’ इस तरह ‘दीघनिकाय’ में मक्खलि गोसाल थोड़े ऐरफेर के साथ पूर्ण कस्सप के विचारों को ही दोहराता है. अजातशत्रु की प्रतिक्रिया पहले जैसी होती है. ‘भंते! जैसे किसी से आम के बारे में पूछा जाए और वह कटहल के बारे में बताने लगे और कटहल के बारे में पूछने पर आम का गुणगान करने लगे, ऐसे ही मैंने जो प्रश्न किया था, उसके उत्तर में मक्खलि गोसाल ने ‘दैववाद’ का बखान किया. मैं असंतुष्ट था. फिर भी बिना कोई प्रतिवाद किए वहां से चला आया.

अगले चरण में अजित केशकंबलि के विचारांे की झलक है. अजातशत्रु कहता है, ‘हे राजन! अजित केशकंबलि के समक्ष पहुँचकर मैंने वही प्रश्न किया जो मक्खलि गोसाल एवं पूर्ण कस्सप के समक्ष किया था. उत्तर में उसने बतायाᅳ‘महाराज! न दान है न यज्ञ है, न होम है न ही पापपुण्य. न लोक है, न ही परलोक है, न माता हैं न ही पिता. न तो अयोनिज सत्व हैं, न ही ज्ञानी पुरुष जो इस लोक को जानकर इसकी व्याख्या करेंगे. मानवमात्र चार तत्वों के योग से बना है. जब कोई मरता है तो पृथ्वी महापृथ्वी में, विलीन हो जाती है, जल, तेज, वायु आदि आकाश में विलीन हो जाते हैं. मृत देह को लोग खाट पर डालकर ले जाते हैं. उसकी निंदा या प्रशंसा की होती है. थोड़ी देर बार सबकुछ भस्म हो जाता है. हड्डियां उजली हो श्वेत कपोतों की भांति छितरा जाती हैं. न आत्मा है न ही परमात्मा. केवल मूर्ख लोग दान देते हैं, जिसका कोई फल नही होता. पंडित हो या मूर्ख, मरने के बाद सबकुछ नष्ट हो जाता है. कुछ भी शेष नहीं बचता.’ महाबोधि को संबोधित होकर अजातशत्रु फिर उसी प्रतिक्रिया पर लौट आता है, ‘भंते! जैसे कोई कटहल पूछने पर आम के बारे में बतावे और आम पूछने पर कटहल का वर्णन करने लगे, वैसा ही मुझे लगा. फिर भी बगैर कोई प्रतिवाद किए, शांतमन वहां से चला आया. अगले दिन मैं पुकुद कात्यायन के सान्निध्य में पहुंचा. उनसे भी वही प्रश्न किया.

पुकुद कात्यायन का मानना है कि संपूर्ण सृष्टि, ‘कुल सात पदार्थों से बनी है. उन्हें न तो बदला जाता है, न ही विकारग्रस्त किया जा सकता है. सातों पदार्थ एकदूसरे से स्वतंत्र और निरपेक्ष हैं. वे न तो एकदूसरे को हानि पहुंचाते हैं, न ही किसी और तरह से प्रभावित करते हैं. वे सात पदार्थ हैंपृथ्वी, अग्नि, वायु, आकाश, सुख, दुख एवं जीवन. मनुष्य को इन सातों को लेकर हर्षशोक से बचना चाहिए. सातों मूल पदार्थ हैं. वे अचल, अखंड, निरपेक्ष और अपरिवर्तनीय हैं. इस तरह वे पूरी तरह अजर, अमर, अविनाशी और अपरिवर्तनीय हैं. यदि कोई तेज धार के हथियार से किसी की गर्दन तराश देता है तब भी वह कोई अपराध नहीं करता. केवल अपने हथियार से शरीर के दो हिस्सों के बीच कुछ अंतराल बना देता है.’ पुकुद के विचारों के उल्लेख के पश्चात अजातशत्रु तथागत से कहता हैᅳ‘हे भंते! मैंने तो केवल श्रामण्य जीवन के फल के बारे में पूछा था. उत्तर में पकुद ने इधरउधर की बातें कीं. उसके अनुसार सृष्टि के बीच कोई अंतर्संबद्धता नहीं है. सबकुछ निरपेक्ष और स्वतंत्र है. ऐसा भला कैसे हो सकता है!’

इसके पश्चात वह निगंठ नाथपुत्त के विचारों पर टिप्पणी करता हैᅳ‘भंते! जब मैंने वही प्रश्न निगंठ नाथपुत्त से किया तो उसने चर्तुआयामी संवर(अवरोध) का उपदेश दिया. उसका कहना था, ‘निगंठ(निर्गंथ: जिसमें कोई गांठ न हो) चार प्रकार के संवरों से घिरा होता है. वे चार प्रकार के संवर क्या हैं? तो सुनिए, पहला वह जल की भांति व्यवहार करता है. दूसरे वह सभी प्रकार के पापों का वारण करता है. तीसरा, पापों का वारण करने के बावजूद वह निष्पाप होता है. चौथा, वह सभी पापों का वारण करने में लगा रहता है. चार संवरों से संवृत होने के कारण ही वह निर्गंठ, निष्पाप, अनिच्छुक, संयमी और स्थितात्मा कहलाता है.’

संजय वेलट्ठिपुत्त का उत्तर अनेक संशयों से भरा था. ‘महाराज यदि आप पूछें कि क्या इस लोक अलावा भी कहीं जीवन(मृत्यु पश्चात) है? यदि मैं यह सोचता भी हूं कि मृत्युपश्चात भी जीवन है. तो मैं आपको क्यों बताऊं! यदि मैं सोचता हूं कि परलोक है तो मैं आपको क्यों बताऊं कि परलोक है. इसलिए मैं ऐसा नहीं कहता. मैं वैसा भी नहीं कहता. मैं किसी और तरह से भी नहीं कहता. मैं ऐसा भी नहीं कहता कि यह नहीं है. मैं नहीं कहता कि नहीं, नहीं है. मैं नहीं कहता कि परलोक है. मैं नहीं कहता कि परलोक नहीं है. मैं नहीं कहता कि तथागत मरने के बाद भी होते हैं. मैं नहीं कहता कि तथागत मरणोपरांत नहीं होते हैं. कोई मुझसे पूछे कि क्या तथागत मरने के बाद होते हैं? तो मैं वैसा भी नहीं कहता.’ यानी संदेह ही संदेह. कुछ भी निश्चित नहीं. जिस संसार में हम रहते हैं, वहां जीवन को सुखी एवं सुरक्षित बनाने के लिए कुछ विश्वास भी करना पड़ता है. किंतु संजय वेलट्ठिपुत्त के विचार तो पूरी तरह संदेह में लिपटे थे.

इन विचारों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया जाए तो कोई खास अंतर दिखाई नहीं पड़ता. लगता है कि सभी दार्शनिक एक ही बात को घुमाफिराकर कह रहे हैं. जहां कुछ अंतर है, वहां भी स्पष्टता का अभाव है. जिस कारण उनकी ओर से किसी परीपक्व दार्शनिक विचारधारा की तस्वीर नहीं बन पाती. दूसरा अंतर प्रवृत्ति को लेकर भी है. अजातशत्रु का प्रश्न श्रमण जीवन की उपयोगिता को लेकर है. वह जानना चाहता है कि जो लोग सश्रम आजीविका कमाकर लोकजीवन में अपना योगदान देते हैं, तथा वे लोग जो सांसारिक जीवन को त्यागकर निष्पृह, निर्लिप्त, असांसारिक और यायावर जीवन अपनाते हैंदोनों के फल में क्या अंतर है? लोकजीवन में सीधे सहयोग करने वालों का योगदान स्पष्ट दिखता है. जबकि श्रमण जीवन को अपनाने वाले लोगों का योगदानभले ही उनके अपने निमित्त हो अथवा कुल समाज के, नजर नहीं आता. अजातशत्रु की यह जिज्ञासा ही उसे छह दार्शनिकों तक ले जाती है. मगर उत्तर देने के बजाय वे सब अपनेअपने दार्शनिक विचारों का वर्णन करने लगते हैं. उनके उत्तर संवाद की काल्पनिकता की ओर संकेत करते हैं. क्योंकि निगंठ नाथपुत्त को छोड़कर जिन्होंने आगे चलकर जैन मत का प्रवत्र्तन किया, शेष पांचों दार्शनिकों के लिए श्रमण संस्कृति को लेकर खास उत्साह नहीं था. ‘दीघनिकाय’ में उन्हें ‘संघ प्रमुख’, गणाध्यक्ष, ज्ञानी, अनुभवी, यशस्वी, तीर्थंकर(मतसंस्थापक) आदि बताया गया है. यहां संघ प्रमुख से लेखक का आशय अनुयायियों के समुच्चय से है. नास्तिक दार्शनिकों में सृष्टि की उत्पत्ति को लेकर भले ही मतांतर हो, किंतु वे जीवन से भागने के बजाय उसे भोगने में विश्वास रखते थे. इस संबंध में वे सभी एकमत थे. सुख उनके लिए मायावी अथवा हेय वस्तु नहीं था. बल्कि वह तत्व था(और है भी), जो जीवन को उत्सव में ढालने के लिए आवश्यक होता हैᅳ‘दुख के डर से हमें उस सुख से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए, जिसे हमारी बुद्धि अपने लिए अनुकूल समझती है. पशुओं द्वारा चर लिए जाने के भय से लोग धान बोना बंद नहीं कर देते. न ही भिखारियों के भय से भोजन पकाना रोक देते हैं.(माधवाचार्य, सर्वदर्शन संग्रह, 9.3). धर्म और मोक्ष के नाम पर जब समस्त संसाधन ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने बांट लिए हों, तथा अपने श्रमकौशल के आधार पर आजीविका कमाने वाले लोगों को दास का जीवन जीना पड़ता हो, अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए ब्राह्मण वर्ग उन्हें त्याग और मोह पाठ पढ़ाता हो तथा स्वयं यज्ञ और बलियों के नाम पर भोगविलास में लिप्त रहता हो, तब ऐसा सोच क्रांतिकारी ही कहा जाएगा.

आजीवक दार्शनिकों के बारे में गहन शोध करने वाले ए. एल बाशम का तो यहां तक मानना है कि निगंठ नाथपुत्त सहित सभी छह उपदेशक एक ही ‘उपदेश समवाय के अंश थे.’ जैन और बौद्ध लेखकों ने उनके विचारों को घुमाफिराकर प्रस्तुत किया है. पांचवी शताब्दी के बौद्ध विद्वान बुद्धघोष के अनुसार पूर्ण कस्सप दास थे. जिस स्वामी के यहां रहते थे, उसके पास पहले से ही 99 दास थे. कस्सप के शामिल होने के पश्चात संख्या बढ़कर 100 हो गई. इस संख्या को पूर्ण मानते हुए उनका नामकरण किया गया था. जैन परंपरा में बताया गया है कि वे संपूर्ण ज्ञानी होने के कारण ही वे ‘पूर्ण’ कहलाए. ‘कस्सप’ उपनाम को देखते हुए वेणीमाधव बरुआ उन्हें ब्राह्मण गौत्रीय बताते हैं. यह बात हजम नहीं होती. क्योंकि जिस काल में पूर्ण कस्सप का जन्म हुआ, उसमें ब्राह्मण को, वह चाहे जितना विपन्न हो, दास नहीं बनाया जा सकता था. दूसरे कस्सप गोत्रनाम के शूद्रों में भी होते हैं. मक्खलि का जन्म गोशाला में हुआ था. इसी से उनके नाम के साथ ‘गोसाल’ जुड़ा. जैन परंपरा के अनुसार ‘मक्खलि’ ‘मंख’ से बना है. मंख एक पिछड़ी जाति थी. जिसके सदस्य चारण या भाट जैसा जीवन यापन करते हैं. जैन साहित्य के अनुसार मक्खलि हाथ में मूर्ति लेकर भटका करता था. अजित केशकंबलि के बारे में बताया जाता है कि वह शरीर पर हमेशा मोटा कंबल लिपेटे रखता था. पुकुद कात्यायन और संजय वेलट्ठिपुत्त के बारे में अधिक पता नहीं है. बुद्धघोष ने पकुध को सनकी बताया है. उसके अनुसार वह हमेशा गर्म पानी ही ग्रहण करता था. नदीनाले को पार करना पाप समझता था. यदि करना ही पड़े तो बाद में प्रायश्चित करता था. यदि गर्म पानी न मिले तो वह नहाना छोड़ देता था. संजय वेलट्ठिपुत्र को कुछ विद्वान ‘संजय परिब्बाक’ कहते हैं. संजय के साथी जब अपने गुरु का साथ छोड़ देते हैं. इससे निराश होकर वह आत्महत्या कर लेता है. पूर्ण कस्सप भी बुद्ध से जादू के खेल में पराजित आत्महत्या का मार्ग चुनता है. कुछ विद्वानों का मानना है कि लोकायत दर्शन, जिसे वे अपनीअपनी तरह से परिभाषित करते हैं, का ईसा से 250-300 साल पहले तक एक विशिष्ट ग्रंथ था. इन दिनों उसका कोई अस्तित्व नहीं है. संभव है उसे नष्ट कर दिया गया हो. पोंगा पंथी पुरोहितों के लिए यह बहुत सामान्य बात थी.

हो सकता है अजातशत्रु और छह भौतिकवादी विचारकों की भंेट बौद्ध लेखकों की कल्पना की उपज हो. अपने विचारों को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए उन्होंने भौतिकवादी विचारकों का नाम जोड़ दिया हो. लेकिन छह नास्तिक विचारकों का उल्लेख जैन और बौद्ध दर्शनों में अनेक जगह हुआ है. इससे उन विचारकों को कल्पित नहीं कहा जा सकता. बल्कि इससे उनकी समाज में व्यापक स्वीकार्यता का पता चलता है. इसलिए कि अपने मत की संस्थापना के लिए बौद्ध दार्शनिकों को न केवल अपने पूर्ववत्र्ती दार्शनिकों के मत का खंडन अनिवार्य जान पड़ता है, बल्कि खंडन के लिए शक्तिशाली मगध सम्राट अजातशत्रु को बीच में लाना पड़ता है. वस्तुतः ‘दीघनिकाय’ के जिस अध्याय में छह भौतिकवादी नास्तिक दार्शनिकों का उल्लेख है, उसका ध्येय इन विचारकों के दर्शन का वर्णन या व्याख्या करना नहीं है, अपितु ‘श्रामण्य जीवन के फल’ की समीक्षा करते हुए बौद्ध धर्मदर्शन एवं भिक्षु संघ के प्रति सम्मानभाव उत्पन्न करना है. अपने धर्मसंप्रदाय के लिए दूसरे धर्मसंप्रदाय को कमतर आंकना, उनमें जानबूझकर खोट निकालना लोगों की पुरानी प्रवृत्ति रही है. बौद्ध विचारक भी इस प्रवृत्ति से मुक्त न थे. विडंबना है कि प्राचीन भौतिकवादी दर्शनों के अध्ययनमनन के लिए कोई स्वतंत्र ग्रंथ प्राप्त नहीं होता. विवश होकर हमें उन्हीं जैन और बौद्ध स्रोतों की ओर लौटना पड़ता है जिनके लेखक उनके प्रतिद्विंद्वी और आलोचक रहे हैं.

वस्तुतः ढाई हजार वर्ष पहले तक, वर्णव्यवस्था के चलते भारत में ब्राह्मणेत्तर वर्गों में पढ़नेलिखने के प्रति जागरूकता का अभाव था. स्वयं बुद्ध ने अपने विचारों के बारे में कुछ नहीं लिखा. वे आजीवन भिक्षु वेश में घूमघूमकर उपदेश देते रहे. अपने मत के प्रचार के लिए वे अनेक सम्राटों से भी मिले. शिष्यों, यहां तक कि अपने पुत्रपुत्रियों को भी उन्होंने धर्मप्रचार में लगा दिया. बुद्ध के विचारों से प्रभावित होकर अनेक क्षत्रिय सम्राट, विशेषकर वे जो यज्ञों में दी जाने वाली बलियों का विरोध कर रहे थे, संघ के समर्थन में आए. यह उनकी प्रतिष्ठा ही थी कि मगध जैसे बलशाली साम्राज्य का अधिपति अजातशत्रु, उनकी सहमति के अभाव में वज्जिसंघों पर आक्रमण का इरादा टाल देता है. बाद में भी सीधे आक्रमण करने के बजाय कूटनीति से काम लेता है. बुद्ध और उनके शिष्यों के प्रयास के फलस्वरूप भिक्षु संघ बुद्ध के जीवनकाल में ही इतना संगठित हो चुका था कि उनके जीवनकर्म को संकलित करना, उसके अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए आवश्यक था. लेकिन हमारी जिज्ञासा यहीं शांत नहीं होती. कुछ प्रश्न अब भी अनुत्तरित रह जाते हैं. क्योंकि ‘दीघनिकाय’ के अनुसार संघ तो नास्तिक दार्शनिकों के भी थे. ‘संयुत्त निकाय’(1/69) के एक प्रसंग के अनुसार कोशल सम्राट प्रसेनदि मक्खलि गोसाल तथा अन्य नास्तिक विचारकों की तुलना में गौतमबुद्ध को नौसीखिया मानता था. क्यों न हो, उस समय तक आजीवक धर्म के समर्थकों की संख्या बौद्ध के अनुयायियों से अधिक थी. बावजूद इसके अपने प्रवत्र्तक और शास्ता के जीवन संबंधी घटनाओं एवं विचारों को संग्रहीत करने का जो युगांतरकारी कार्य बुद्ध के शिष्यों ने किया, वैसा कार्य पूर्ण कस्सप, मक्खलि गोसाल, अजित केशकंबलि, पकुध आदि के शिष्यों ने क्यों नहीं किया? यह ऐसी पहेली है, जिसका समाधान हमें भारतीय समाज की अंतग्र्रंथियों को सुलझाने में मदद कर सकता है.

दीघनिकाय’ में जिन छह नास्तिक विचारकों का जिक्र हुआ है, उनमें केवल निगंठ नाथपुत्त ऐसे हैं जो आगे चलकर जैन दर्शन के प्रवत्र्तक महावीर स्वामी के रूप में ख्यात हुए. हालांकि उन्हें मिली सफलता बुद्ध की सफलता के आगे नगण्य थी. लेकिन जैन दर्शन को लेकर विपुल वाङ्मय आज उपलब्ध है. उसके माध्यम से महावीर के जीवन के बारे में हमें प्रामाणिक जानकारी प्राप्त है. बाकी के बारे में जैन, बौद्ध और तमिल ग्रंथों में यत्रतत्र उपलब्ध सामग्री के अलावा प्रामाणिक सूचनाओं का अभाव है. जो जानकारी मिलती है, उसमें भी अंतर हैं. उदाहरण के लिए ‘दीघनिकाय’ में पांचों नास्तिक विचारकों को बुद्ध का समकालीन बताया गया है. जबकि ‘महाबोधि जातक’ के अनुसार वे पांचों बुद्ध के पूर्ववर्ती थे. अपने पूर्वजन्मों में बुद्ध ने उन पांचों को अलगअलग परास्त किया था. नास्तिक दार्शनिकों का जिक्र ‘मिलिंद प्रश्न’ में भी हुआ है, जो ‘दीघनिकाय’ से 250-300 वर्ष बाद की रचना है. अंतर मात्र इतना है कि ‘दीघनिकाय’ में संवाद सम्राट अजातशत्रु और गौतम बुद्ध के बीच है, ‘मिलिंद प्रश्न’ में अजातशत्रु की जगह ग्रीक मूल का भारतीय सम्राट मिनांडर ले लेता है. दोनों की शब्दावलि एक समान है. मिनांडर ने भारत में ईसा पूर्व पहलीदूसरी शताब्दी के बीच राज्य किया था. ‘मिलिंद प्रश्न’ को तभी की रचना बताया जाता है. विषयवस्तु के आधार पर वह किसी अधपके लेखक की रचना लगती है. इसलिए उसकी मौलिकता पर संदेह है. मल्लशेखर, दुर्गाप्रसाद चट्टोपाध्याय आदि विद्वानों का मानना है कि मिलिंद प्रश्न का संबंधित प्रकरण ‘दीघनिकाय’ के समन्न्फल सुत्तकी सस्ती नकल है.

इस विवरण के बावजूद हमारा एक प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है. आखिर क्या कारण है कि पांचों नास्तिक दार्शनिकों के जीवन और कर्म के बारे में आवश्यक जानकारी का अभाव है? महाभारतकाल तक वर्णव्यवस्था जाति व्यवस्था के रूप में रूढ़ हो चुकी थी. ब्राह्मण समाज के शीर्ष पर आसीन थे. बिना उनकी सहमति के किसी भी निर्णय को लागू कर पाना असंभव था. निहित स्वार्थ के लिए वे नास्तिक विचारधारा को नापसंद करते थे. चूंकि नास्तिक विचारक न केवल ईश्वर और उसकी सत्ता, बल्कि सभी प्रकार के कर्मकांडों का, जिनके चलते ब्राह्मणों को विशेषाधिकार प्राप्त थे, विरोध करते थे. अतएव ब्राह्मणों द्वारा जो उस समय का पढ़ालिखा वर्ग थाउनकी उपेक्षा स्वाभाविक थी. यही कारण कि नास्तिक विचारकों के साथ ही उनके विचार भी इस तरह विला गए कि उनके कुछ अवधि बाद किसी ने उन्हें आगे बढ़ाने की आवश्यकता नहीं समझी. कुछ विद्वानों का मानना है कि लोकायत दर्शन, जिसे वे अपनीअपनी तरह से परिभाषित करते हैं, का ईसा से 250-300 साल पहले तक एक विशिष्ट ग्रंथ था. इन दिनों उस ग्रंथ का कोई अस्तित्व नहीं है. इसलिए नास्तिक दार्शनिकों के विचारों को लेकर अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती. फिर भी कुछ बातें हैं जो उनकी बौद्धिक पैठ और लोकप्रियता को दर्शाती हैं. जैसे कि गोसाल को महावीर से दो वर्ष पहले ही ‘जिन्’ की पदवी प्राप्त हो चुकी थी. और अपने समय में गोसाल के अनुयायियों की संख्या गौतम बुद्ध के समर्थकों से अधिक थी. जैन और बौद्ध ग्रंथों में उनके विचारों को तोड़मरोड़कर पूर्वाग्रह के साथ पेश किया गया है. कई जगह तो इतने हल्के तरीके से कि मामला सुलझने के बजाय और भी उलझता चला जाता है. इसका कारण भारतीय समाज की जातीय संरचना है, जो गैरद्विजों की बौद्धिक क्षमता को लेकर जानबूझकर संशयग्रस्त रही है.

महावीर स्वामी और बुद्ध दोनों क्षत्रिय कुलोत्पन्न थे. समाज के शीर्ष वर्गों पर उनका प्रभाव था. बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनंद, सारिपुत्र, मोदग्लायन आदि ब्राह्मण वर्ग से आए थे. बुद्ध जानते थे कि प्रजा अपने राजा का अनुसरण करती है. इसलिए वे सम्राटों और समाज के श्रेष्ठि वर्ग को अपने प्रभाव में लेने की सीधी कोशिश करते हैं. इसका लाभ भी उन्हें मिलता है. उनका धर्मदर्शन उनके जीवनकाल में ही काफी प्रतिष्ठा बटोर चुका था. इसलिए बुद्ध के निर्वाण प्राप्ति के तुरंत बाद उनके शिष्यों ने उनके विचारों और जीवनयात्रा को शब्दबद्ध करना आरंभ कर दिया था. बुद्ध ने अपने शिष्यों को धर्मप्रचार करने उन देशों में भी भेजा था, जिनमें जाति और वर्ण व्यवस्था का नामोनिशां न था.

बुद्ध द्वारा स्थापित भिक्षुसंघ दिखावे और कर्मकांड की संस्कृति से मुक्त था. सहजता के साथसाथ वह उस सामूहिकताबोध की भी रक्षा करता था, जो ब्राह्मण धर्म के नेतृत्व में वर्णव्यवस्था के मजबूत होने के साथसाथ छीजता जा रहा था. इसलिए जनसाधारण को जैसे ही बुद्ध मार्ग के रूप में पुरोहितवाद से मुक्ति का रास्ता दिखाई दिया, उसने ब्राह्मणवाद से किनारा करना आरंभ कर दिया. श्रेष्ठिवगण, शिल्पकार, श्रमिक वर्ग यज्ञादि आयोजनों तथा बलिप्रथा से होने वाले नुकसान से बचने के लिए पहले आजीवक धर्म की ओर मुड़े. मजदूर, शिल्पकार, नाई, धोबी, काष्ठकार, किसान, तेली, बुनकर जैसे किसानों, मजदूरों और शिल्पकारों के संगठनों ने खुलकर आजीवकों का साथ दिया. आगे चलकर बुद्ध के नेतृत्व में नए धर्मदर्शन का विकास हुआ तो वे उसकी ओर पलायन करने लगे. जातीय भेदभाव एवं पुरोहितवाद के सताए लोगों ने भी घोर नास्तिकतावाद तथा विशेषाधिकार संपन्न ब्राह्मणवाद के बीच मध्य मार्गी बौद्ध धर्म को अपनाना ही उचित समझा था. उसके फलस्वरूप जैन और बौद्ध दर्शन स्वयं को ब्राह्मण धर्म का विकल्प प्रस्तुत करने में सफल सिद्ध हुए. बावजूद इसके नास्तिक विचारकों की महत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता. क्योंकि बौद्ध और जैन धर्म के उदय से पहले नास्तिक विचारकों ने ही ब्राह्मणवादी दर्शनों के विरोध की जमीन तैयार की थी, जिसपर आगे चलकर उन दोनों दर्शनों ने अपनी सफलता की महागाथा लिखी और मानवतावादी दर्शन कहलाए. नास्तिक विचारकों के जीवन के बारे में अधिक जानकारी मौजूद नहीं है. लेकिन जितना मौजूद है, उससे भी पता चलता है कि नास्तिक विचारकों के लिए अपने आप को संगठित कर चुके ब्राह्मणवाद के किले में सैंध लगाना आसान नहीं था. यह धारा के विरुद्ध चलने जैसा चुनौतीपूर्ण कार्य था, जिसे उन्होंने अपनी अद्वितीय प्रतिभा और लोकसमर्थन के दम पर संपन्न किया था. उन विचारकों के बारे में जानना भारतीय सभ्यता, संस्कृति और दर्शन के सबसे परिवर्तनकारी दौर से संवाद करने जैसा है.

अजातशत्रु का द्वैध

आलेख के इस हिस्से में हम जो लिखने जा रहे हैं वह जिन स्रोतोंं पर आधारित है, उनमें एक ही घटना और पात्र को लेकर भिन्न प्रकार के संदर्भ मौजूद हैं. अतः हमारे इस प्रयास को सचाई की तहों में जाने की कोशिश समझना चाहिए. जिन स्रोतों पर यह आधारित है, उसके लेखकों और प्रस्तोताओं की मंशा, नास्तिक विचारकों तथा उनकी विचारधारा को लेकर ईमानदार विमर्श की थी ही नहीं. अगर वे ईमानदार होते तो उस विचारधारा को लेकर उनकी राय चाहे जो भी हो, सामग्री के आधारतथ्यों में पर्याप्त एकरूपता होती. उस अवस्था में वे उस विचारधारा के समानांतर लंबी लकीर खींच सकते थे. आखिरकार यह कतई आवश्यक नहीं कि अपनी लकीर को लंबा दिखाने के लिए पहले से मौजूद लकीर में कांटछांट की जाए. असली जीत तब है जब पहले से मौजूद लकीर की भलीभांति नापजोख कर, उसके समानांतर लंबी लकीर खींच दी जाए. परंतु, कदाचित विचारों के ढुलमुलपन अथवा आत्मविश्वास की कमी के चलते, उन्हें लगा होगा कि बिना लोकप्रियता की ऊंचाइयों को छू रही विचारधारा की ओर उंगली उठाए, उनकी अपनी विचारधारा की स्वीकार्यता असंभव है. वस्तुतः यह उनका युगसंस्कार था. राजनीति हो या विचार, उस दौर में विरोध को आत्मसात् करने के लिए बहुत सीमित आयाम थे. युद्ध में ‘जीत’ तभी मानी जाती थी जब दुश्मन को या तो कैद कर लिया जाए अथवा उसे मौत के घाट उतार दिया जाए. विरोधों और असहमतियों के साथ जीवन जीने के उस युग में बहुत सीमित अवसर थे. विचार भी राजनीति से अछूता न था. इसलिए नास्तिक दर्शन को लेकर बौद्ध एवं जैन स्रोतोंं से प्राप्त सामग्री में भारी अंतर है. क्योंकि वह उन विद्वानों द्वारा रची गई है, जो न केवल पहले से लोकमानस में जगह बना चुकी नास्तिक विचारधारा के, बल्कि आपस में भी वैचारिक प्रतिद्विंद्वी थे और मान चुके थे कि बगैर समानांतर विचारधाराओं को कठघरे में लाए, उनके विचारों की स्वीकार्यता असंभव है. मुश्किल यह भी कि हमारे पास ऐसा कोई जरिया नहीं है, जिससे हम नास्तिक विचारधारा के प्रमुख चिंतकों के जीवनकर्म के बारे में सहीसही जान सकें. साहित्य और संस्कृति के दस्तावेजीकरण का काम जब दूसरों को, खासकर उन्हें जिनकी उसमें कोई निष्ठा न हो, सौंप दिया जाए तो यही होता है. लिखने वाला अपने हितों और वर्गीय दृष्टिकोण को केंद्र में रखकर ही लिखता है. यानी इतिहास उसका होता है जो उसे लिखनालिखवाना जानता है. जो इतिहास की उपेक्षा करता है, वक्त उसे उपेक्षित छोड़कर आगे बढ़ जाता है. हमारी मुश्किल है कि ढाई हजार वर्ष पहले की उस बौद्धिक क्रांति के अतिमहत्त्वपूर्ण पक्ष की पड़ताल करने के लिए प्रामाणिक स्रोतों का सरासर अभाव है.

तमाम कमियों के बावजूद भारतीय नास्तिक दर्शनों की पहचान के कुछ चिह्न बाकी हैं तो इसका श्रेय भी बौद्ध एवं जैन ग्रंथों को जाता है. ठीक है, अपने दार्शनिक मतों को श्रेष्ठतर जताने के उन्होंने नास्तिक विचारों को तोड़मरोड़कर पेश किया था. लेकिन ब्राह्मणलेखकों की भांति उन्हें राक्षस, दैत्य, दानव, बेडौल, उच्छ्रंखल, विकारी और बुद्धिहीन बताकर उनके बौद्धिक सामथ्र्य को नकारने की कभी कोशिश भी नहीं की. आलोचना की, विचारों को आधाअधूरा पेश किया. तथापि विरोधी विचारधारा को बिसराया नहीं. आज यदि हम उनके नाम से परिचित हैं, पूर्वाग्रहों के साथ ही सही उनके विचारों की झलक प्राप्त कर सकते हैं, तो इसका श्रेय प्राचीन बौद्ध एवं जैन लेखकों को ही जाता है. यह ठीक है कि नास्तिक दार्शनिकों को लेकर अलगअलग ग्रंथों में प्राप्त जानकारी में भारी अंतर है. परंतु हमें याद रखना होगा कि ये ग्रंथ अलगअलग दौर में, विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमि के लेखकों द्वारा रचे गए हैं. इसमें श्रुति परंपरा का भी योगदान रहा है. इसलिए प्रस्तुतीकरण में विविधता का होना स्वाभाविक है. इन परिस्थितियों में लिखे से ज्यादा महत्त्व अनलिखे का होता है. पाठकीय विवेक महत्त्वपूर्ण हो जाता है. अपेक्षा की जाती है कि पढ़ते समय पाठक अपने दिमाग की खिड़कियों, रोशनदानों को पूरी तरह से खुला रखे. जो लिखा गया है उसपर तो ध्यान दे ही, जो नहीं लिखा गया है, वह क्यों नहीं लिखा जा सका, इसपर भी विचार करता चले. चिंतन की लंबी यात्रा बताती है कि जो ‘क्यों’ का उत्तर खोजने में सफल रहता है, देरसबेर ‘क्या’ के बारे में सटीक आकलन तक पहुंच ही जाता है.

अब हम अजातशत्रु की समस्या पर लौटते हैं. उस समस्या पर विचार करते हैं जो उसे पहले नास्तिक विचारकों तथा अंत में गौतम बुद्ध तक ले जाती है. हर जगह वह एक ही बात जानना चाहता हैᅳ‘जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के शिल्प यथा हस्तिआरोहण, अश्वारोहण, धनुर्विद्या, रथिक तथा शिल्पकार जैसे कि युद्धध्वज धारक, उग्र योद्धा, महानाग, दास, कल्पक, नहापक, काष्ठकार, चर्मकार, रजक, मालाकार, पेशकार, लौहकर्मी आदि अपनेअपने कर्तव्य द्वारा स्वयं को तृप्त करते हैं, उनका फल प्राप्त करते हैं, अपने सगेसंबंधियों, मित्रों, अमात्यों को भी लाभ पहुंचाते हैं, क्या वही फल इस जन्म में श्रामण्य जीवन द्वारा संभव है?’ यह प्रश्न अपने आप में महत्त्वपूर्ण है. यह कोई बड़ी आध्यात्मिक समस्या खड़ी नहीं करता. अजातशत्रु श्रामण्य जीवन द्वारा उन्हीं फलों को प्राप्त करना चाहता है, जिन्हें साधारण शिल्पकार, योद्धा, महावत आदि सहज प्राप्त कर लेते हैं. बुद्ध को यदि सामान्य अर्थों में आध्यात्मिक व्यक्तित्व मान लिया जाए तो उनके आगे इस प्रश्न को उठाना विचित्र लग सकता है. लेकिन बुद्ध का अध्यात्मबोध परंपरा से हटकर था. वह लोककल्याण से विलग न था. लोककल्याण से जुड़ा होना, यानी नीतिसंगत होना बुद्ध के लिए इतना जरूरी था कि इसके लिए उन्होंने उन अनेेक आध्यात्मिक समस्याओं से भी किनारा कर लिया था, जो उन दिनों विभिन्न दार्शनिक संप्रदायों के बीच गर्मागरम बहस का माध्यम बनी हुई थीं. तब वे कौनसे दबाव हो सकते थे, जिन्होंने अजातशत्रु जैसे शक्तिशाली सम्राट को इसी जन्म में सुकून के लिए भटकने पर विवश कर दिया था. एक सम्राट होकर क्यों वह साधारण श्रमिकशिल्पकार, कृषक, कर्मकार आदि को मिलने वाली छोटीछोटी खुशियों के लिए आकुल है? यह ऐसी समस्या है जिसके समाधान से न केवल अजातशत्रु की आकुलता के कारण को समझा जा सकता है, बल्कि मक्खलि गोसाल सहित अन्यान्य आजीवकों को मिली व्यापक लोकस्वीकार्यता तथा उनके बरक्स बुद्ध को मिली आपेक्षिक सफलता पर भी रोशनी डाली जा सकती है.

उन दिनों बौद्ध दर्शन के उदय का आरंभिक चरण था. गौतम बुद्ध का हालांकि समकालीन सम्राटों और जनसाधारण पर प्रभाव था, लेकिन ब्राह्मण धर्म भी पूरी तरह मिटा नहीं था. ऋषिगण यज्ञों और दूसरे कर्मकांडों के जरिये लोगों को ‘कल्याण’ का पाठ पढ़ा रहे थे तो मुनिगण उपनिषदों, स्मृतियों, पुराणों तथा अन्यान्य ब्राह्मण ग्रंथों की रचना में व्यस्त थे. साधारण सम्राट के लिए यह संभव न था कि वह ब्राह्मण तथा उसके बताए मार्ग की उपेक्षा कर सके. मंत्री, अमात्य, पुरोहित, वैद्य, चिकित्सक, प्रशिक्षक, अध्यापक, ज्योतिषी जैसे शीर्ष पद केवल ब्राह्मण के लिए आरक्षित थे. क्षत्रिय का काम राजा के लिए युद्ध करना था. उनकी शिक्षादीक्षा युद्धकौशल तक सीमित रहती थी. युद्ध किससे हो? कब हो? पड़ोसी राज्यों को लेकर कैसी नीति अपनाई जाए? यह सब निर्णय लेना सामान्यतः ब्राह्मण पदाधिकारियों का काम था. इनके अलावा तीसरा वर्ग व्यापारियों का था, जिनका राजनीति से कोई संबंध न था. वे व्यापार करते और समयसमय पर सम्राट को कर, भेंट, उपहार आदि देकर राजा को प्रसन्न रखते थे. उनकी निष्ठा सिंहासन के प्रति रहती थी. उसपर बैठे व्यक्ति की ओर उनका ध्यान कम ही जाता था. चौैथा वर्ग दास, भृत्य, किसान, मजदूर, शिल्पकर्मी, छोटे व्यापारियों और साधारण योद्धाओं का था. उनका कार्य विभिन्न प्रकार की सेवाओं द्वारा शीर्षस्थ वर्गों को प्रसन्न रखना था.

अजातशत्रु का मंत्री चतुर ब्राह्मण वस्सकार था. कूटनीति में चाणक्य सरीखा. बुद्ध के मुंह से यह सुनकर कि वज्जि गणतंत्र जब तक संगठित हैं, उनको जीतना असंभव हैवह फूट डलवाकर अजातशत्रु की जीत को संभव बना देता है. बावजूद इसके अजातशत्रु ब्राह्मण पुरोहितों के फेर में नहीं पड़ता. यही उसका युगबोध है. उसके चरित्र की इन विशेषताओं के कारण उसे केंद्र में रखकर न जाने कितने ग्रंथ रचे गए हैं. उसे इसी जन्म में मोक्ष की तलाश है. ऐसा क्यों है? अजातशत्रु के जीवन में झांके तो इस रहस्य की पर्तें खुलती चली जाती हैं. मगध की सत्ता उसने अपने पिता की हत्या करके हथियाई थी. कहा जाता है कि पिता की हत्या के बाद अजातशत्रु को इतनी आत्मग्लानि हुई कि जीवनभर कभी ढंग से सो नहीं पाया था. अनजाना डर भीतर ही भीतर उसे कचोटता रहता था. जीवक के आम्रवन में बुद्ध से मिलने पहुंचा तो बुरी तरह घबराया हुआ था. भारतीय राजनीति के इतिहास में उसे अभिशप्त सम्राट भी माना जाता है. यह अभिशाप जन्म से ही उसके साथ जुड़ा था. उसके जन्म को लेकर जैन और बौद्ध ग्रंथों में अलगअलग कहानियां हैं. एकदूसरे से मिलतीजुलती. अजातशत्रु के पिता का नाम बिंबसार था. मां का नाम कोसल देवी, जिन्हें वैदेही भी कहा गया है. कहते हैं, रानी जब गर्भवती हुई तो उसकी इच्छा मनुष्य का मांस खाने की हुई. यह बहुत ही अनोखी, घिनौनी और पाशविक अनायास प्रकटी इच्छा थी. जिसने भी सुना सहम गया. फौरन ज्योतिषी को बुलवाया गया. कालगणना का दिखावा करने के बाद उसने बताया कि जातक पितृहंता होगा. एक दिन अपने ही जन्मदाता की मृत्यु का कारण बनेगा. घबराई रानी ने गर्भ को गिराने के कई उपाय किए. लेकिन सफलता नहीं मिली. इसी से उसका नामकरण हुआ, अजातशत्रु. अपने जन्मदाता का दुश्मन.

चाहे जितनी बुरी हो, पर मांस खाने की इच्छा मां के मन में कौंधी थी, फिर भी शिकार बना अबोध अजातशत्रु. हम उस व्यक्ति की मनस्थिति और यंत्रणा का अनुमान लगा पाने में असमर्थ हैं, जिसे जन्म के साथ ही कलंकित मान लिया गया हो. और जन्म के साथ ही जिसे मातापिता ने अपशकुनी मानकर कूड़े के ढेर पर फिंकवा दिया हो. मगध में सब कुछ चुपचाप हुआ था. किसी को खबर न होने दी थी. लेकिन अजातशत्रु की नियति तो मगधसम्राट बनना था. शिशु अजातशत्रु जब कूड़े में पड़ा था तो एक कौए ने उसकी कनिष्ठा अंगुली काट ली. पीड़ा से व्यथित शिशु जोरजोर से रोने लगा. पिता के कानों में आवाज पड़ी तो उसके हृदय में वात्सल्य उमड़ आया. राजा ने अबोध शिशु को गोदी में उठा लिया. घायल अंगुली से खून बहते देख सम्राट पिता ने उसे मुंह में डाल लिया और तब तक चूसता रहा, जब तक कि खून बहना बंद नहीं हो गया. उसके बाद अजातशत्रु का लालनपालन राजकुमार की तरह होने लगा. बड़ा होकर वह प्रतापी सम्राट बना. बहुत जल्दी उसने काशी, कोसल जैसे राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया. उसकी नजर वज्जि गणतंत्रों पर थी. किंतु बुद्ध द्वारा मना किए जाने पर उसने तात्कालिक रूप से निर्णय टाल दिया. अजातशत्रु की मैत्री बुद्ध के फुफेरे भाई देवदत्त से थी. निहित स्वार्थ के लिए देवदत्त अजातशत्रु को सम्राट बनते देखना चाहता था. उसने अजातशत्रु को भड़काना आरंभ कर दिया. एक दिन देवदत्त की बातों में आकर उसने अपने पिता को कैद कर लिया और स्वयं मगधसम्राट बन बैठा. कुछ दिनों बाद बिंबसार की कारावास में ही मृत्यु हो गई.

एक महत्त्वाकांक्षी सम्राट जिसके नाम कई राजनीतिक सफलताएं थीं, वह अपने ही अपराधबोध के बीच जीने लगा. ब्राह्मण धर्म कर्मभोग के सिद्धांत पर टिका था. मानता था कि जो किया है उसका फल भोगना ही पड़ेगा. मगर इस जन्म में नहीं, अगले जन्म में. उनके अनुसार स्वर्गभोग या नर्कवास मृत्युपश्चात ही संभव है. अंतरपीड़ा से आकुल अजातशत्रु को संगठित ब्राह्मण धर्म से कोई उम्मीद न थी. उसके पास सबकुछ था. राजशाही ठाठबाट, सेवक, दासदासियां, विलासिता की सामग्री, सुरक्षा के लिए बेहद शक्तिशाली सेना. भोग के लिए पांच सौ से अधिक रानियां. मगर मन की शांति गायब थी. ग्लानिभाव उसे खाए जाता था. नास्तिक विचारक कार्यकारण संबंध पर विश्वास नहीं करते थे. उनके लिए सबकुछ नियतिबद्ध था. वे सबकुछ भुलाकर प्रकृस्थ हो जाने का उपदेश देते थे. यह दर्शन जनसाधारण के लिए कारगर था. उसका जीवन ही प्रकृति से बंधा था. लेकिन चारों ओर सुरक्षा सैनिकों के बीच असुरक्षा के एहसास के शिकार सम्राट को शांति प्रदान करने में वह अधिक कारगर न था. कदाचित ऐसे ही संतापग्रस्त लोगों के लिए बुद्ध निर्वाण के नाम से अपने समय का सबसे बड़ा संभ्रम रच रहे थे. ब्राह्मण दर्शनों में मोक्ष केवल मृत्योपरांत संभव था, बुद्ध उसे इसी जन्म में संभव बताते थे. सो ऐसे लोगों के लिए जिन्हें विलासवैभव के बीच भी मन की शांति नसीब न होती हो, निर्वाण बड़ा आकर्षण था.

कदाचित अजातशत्रु भी समझता था कि ब्राह्मण पुरोहित मोक्ष के नाम पर जो मायाजाल रचते हैं, वह दिखावा है. फिर उसे महावत, घुड़सवार, नाई, धोबी, जैसे पेशेवरों का ध्यान आता है जो अपने श्रम के बल पर जीवित रहते हैं; तथा शांति, सम्मान एवं आत्मनिर्भरता का जीवन जीते हैं. आखिर क्यों? बुद्धकालीन भारत के सामाजिकसांस्कृतिक इतिहास में इस प्रश्न का उत्तर खोजना मुश्किल नहीं है. बुद्ध पूर्व भारत में यज्ञ के नाम पर सैंकड़ों पशु बलि चढ़ा दिए जाते थे. कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक ‘मदर इंडिया’ में कोलकाता के एक ऐसे मंदिर का उल्लेख किया है जहां प्रतिदिन 150200 मासूम जानवरों की बलि चढ़ाई जाती थी. प्राचीनकाल में हालात और भी बुरे थे. तेजी से बढ़ती कृषिनिर्भरता को देखते हुए उपयोगी पशुधन का सुरक्षित रहना बहुत बड़ी उपलब्धि थी. जैन और बौद्ध दर्शन अहिंसा पर केंद्रित थे. उनके बढ़ते प्रभाव से यज्ञों में दी जाने वाली बलियों तथा उनपर होने वाले अकूत खर्च में कमी आई थी. खानपान संबंधी शुचिता में भी ढील पड़ी थी. ब्राह्मणकाल में खानपान संबंधी नियम सख्त थे. उच्च जाति का व्यक्ति निचले वर्गों के व्यक्ति के साथ भोजन नहीं कर सकता था. इससे उनके धर्मखंडित होने का डर था. इससे बाहरी लोगों से उनका संपर्क कम ही हो पाता था. परिणामतः दूरदराज की संस्कृतियों के साथ व्यापार असंभव था. बुद्ध के आगमन के बाद जाति और खानपान भेद में भी कमी आई थी. इसका अनुकूल प्रभाव व्यापार पर पड़ा. लोग मिलजुलकर दूरदराज की संस्कृतियों के साथ व्यापार करने लगे. फलस्वरूप व्यापार में तेजी आई.

उन दिनों किसानों, व्यापारियों, शिल्पकारों जैसे बुनकर, रंगरेज, ब्याज पर उधार देने वालों, तेली, नाविक, किसान, सुनार, बढ़ई, कसाई यहां तक कि ठगों के भी अपने सहकारी संगठन थे. रमेश मजूमदार ने अपनी पुस्तक ‘कोआॅपरेटिव्स इन एन्शिएंट इंडिया’ में विभिन्न जातक कथाओं, उपनिषदों आदि के हवाले से 18 प्रकार के सहयोगी संगठनों का उल्लेख किया है और माना है कि यह संख्या अधिक भी हो सकती है. वे इतने मजबूत थे कि सम्राट भी आवश्यक मामलों में उनसे सलाह लिया करते थे. आवश्यकता पड़ने पर वे राजाओं को भी उधार दिया करते थे. आजीवक और चार्वाक मतावलंबियों द्वारा भौतिक सुखों को महत्ता देना, जहां उनके व्यापारिक हितों के अनुरूप था. जबकि जैन एवं बौद्ध दर्शन का अहिंसा का विचार उनके आर्थिकसामाजिक हितों की रक्षा करता था. इसलिए वे इन धर्मों की ओर तेजी से आकर्षित हुए थे. उसके फलस्वरूप 2500 वर्ष पहले तक देश में श्रमकौशल, शिल्प और संगठन के आधार जीविका कमाने वाले लोगों का एक खुशहाल वर्ग पनप चुका था. इसलिए यह हैरानी की बात नहीं कि अपनी ही आत्मग्लानि में डूबा, असुरक्षा के एहसास का मारा हुआ अजातशत्रु बुद्ध की सभा में पहुंचकर उनके जैसी शांति की कामना बुद्ध के आगे करता है. अंत तक वह न तो पूरी तरह बौद्ध बन पाता है, न ही जैन. हालांकि दोनों धर्मावलंबी अजातशत्रु के अपना समर्थक होने का दावा करते हैं. दोनों के धर्मग्रंथों में उसकी दानशीलता का बखान किया गया है.

भारत में भौतिकवादी दर्शन की परंपरा बहुत पुरानी है. वह अध्यात्मवादी दर्शनों से भी पहले से चली आ रही है. ‘चार्वाक’, ‘लोकायत’ और ‘आजीवक’ इसी परंपरा के दर्शन हैं. इनमें लोकायत दर्शन को आचार्य बृहश्पति से जोड़ा जाता है. उन्हें ‘बृहश्पति सूत्र’ का रचियता भी माना जाता है. मूल ‘बृहश्पति सूत्र’ आज अनुपलब्ध है. उसके नाम से जिस कृति के फुटकर अंश हमें प्राप्त हैं, विद्वानों के अनुसार वह छठी शताब्दी की रचना है. ‘बृहश्पति सूत्र’ में लोकायत दर्शन की प्राचीनता का समर्थन करते हुए लिखा गया हैᅳ‘आरंभ में जब मनुष्य ने अन्न जुटाना आरंभ ही किया था, तब यह संपूर्ण ब्रह्मांड लोकायती था.’(सर्वथा लौकायतिकमेव शास्त्रमर्थसाधनकाले, बृहश्पति सूत्र 2/5). भारत में कृषिकला का विस्तार लगभग 8000-10000 वर्ष पहले ही हो चुका था. इससे देश में भौतिकवादी विचारधारा को कम से कम 8000 वर्ष पुराना कहा जा सकता है. मक्खलि गोसाल ने भी इसका समर्थन किया है. उसने स्वयं को आजीवक परंपरा का 24वां तीर्थंकर माना है. देवताओं में सोमरस को ऊर्जा और स्फूत्र्ति दायक कहा गया है. वह नशीला मगर बहुप्रचलित पेय था. ‘बृहश्पति सूत्र’ उसे ‘सुरा’ कहा गया है. चूंकि विष्णु आदि देवता सोमरस का सेवन करते हैं, इसलिए आचार्य बृहश्पति ने मद्यपान के कारण उन्हें भी ‘लोकायती’ माना है. (विष्णवादायः सुरापानिन इति कापालिकाः। बृहश्पति सूत्र 2/21). सोमदेव सूरि तथा उसके टीकाकार श्रुतसागर सूरि ने बृहश्पति को चार्वाक संप्रदाय का आदि प्रवत्र्तक बताया है. बृहश्पति को अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और लोकव्यवहार का ज्ञाता तथा लोकायत परपंरा का विद्वान भी बताया गया है. यहां ध्यान रखना चाहिए कि ‘बार्हस्पत्य सूत्र’ में जो सूत्र प्राप्त होते हैं, वे अलगअलग समय की रचनाएं हैं.

बृहश्पति को देवताओं का गुरु भी बताया गया है. देवगुरु के पद पर रहते हुए लोकायत परंपरा का लेखन संभव नहीं है. देवराज इंद्र के दरबार में निरंतर नृत्य, संगीत, सुरापान, अप्सराओं के नृत्य आदि के किस्से चलते हैं. हो सकता है है उसी से प्रेरित होकर बाद में किसी लेखक ने ‘बृहश्पति सूत्र’ लिखकर लेखक के रूप में कथित देवगुरु का नाम दे दिया हो. वैसे भी ब्राह्मण लेखकों के यहां लेखक न होकर लेखकीय परंपरा होती है, जिसमें बिना नामोल्लेख किए अपनी ओर से कुछ जोड़ दिया जाता है. व्यास, वाल्मीकि, वशिष्ट, भरद्वाज, शुक्राचार्य, आचार्य बृहश्पति आदि इसी लेखकीय परंपरा के नाम हैं.

भारतीय वाङ्मय में नास्तिक दार्शनिकों की मौजूदगी को लेकर तो इतने प्रमाण मौजूद हैं, कि उनके अस्तित्व और वैचारिकता के इतिहास में उनकी उपस्थिति को लेकरसंदेह नहीं किया जा सकता. वे थे और समाज में भरपूर मानसम्मान, अपनी खूबियों, कमजोरियों के साथ थे. यह भी कि उनका ज्ञान, संप्रेषण का माध्यम उस युग की रवायत से कुछ ज्यादा ही श्रुतिआधारित रहा होगा. उनमें से अधिकांश समाज के उन वर्गों से थे जिनके जीवन की सिद्धि सेवाकर्म में मानी जाती थी. जिनका कर्तव्य उपदेश सुनना और उनका पालन करना था, उपदेश देना नहीं. जिनका पेशा जन्म लेने से पहले ही निर्धारित कर दिया जाता था. जिनके लिए पढ़नालिखना आवश्यक नहीं था. या उतना जरूरी माना जाता था, जिससे वे उच्चस्थ जातियों का सेवाकर्म बिना किसी शिकायत का अवसर दिए पूरा कर सकें. इस कारण उनका ज्ञान शास्त्रसम्मत होने के बजाय अनुभवसिद्ध अधिक होता था. लेकिन अपने स्वार्थ के लिए समाज चाहे जैसी व्यवस्थाएं चुन ले. मनुष्य की जन्मजात प्रतिभा और सपनों पर अंकुश लगा पाना उसके बस में नहीं होता. मौलिकता दिमाग की उर्वरा शक्ति को पहचानती है, उसकी जात नहीं देखती. नास्तिक विचारधारा के प्रवत्र्तक दार्शनिक उन वर्गों से थे, जिनके बारे में माना जाता है कि सोचनेसमझने से उनका कोई संबंध नहीं होता. पांच नास्तिक विचारकों में से संजय वेलट्ठपुत्त और पुकुद कात्यायन के जीवन के बारे में ठोस जानकारी अनुपलब्ध है. बाकी तीन यानी पूर्ण कस्सप, मक्खलि गोसाल और अजित केशकंबलि के बारे में उपलब्ध विवरण के आधार पर पता चलता है कि उनका संबंध समाज के निचले वर्गों से था. पेट खाली हो तो दिमाग परमात्मा के नहीं, रोटी के बारे में सोचता है. उसे अर्जित कैसे किया जाए, इस बारे में सोचता है. इन परिस्थितियों में जनसाधारण केवल अपनी भूख के बारे में सोचते हैं. लेकिन जो अपने पूरे समाज के भूख और संघर्ष को अनुभव करते हैं वे पूरे समाज यहां तक कि आने वाली पीढि़यों के दुख से निजात के बारे में सोचते हैं. इसलिए भौतिकवादी दर्शन रूमानियत के चक्कर नहीं काटता. बल्कि जीवन की ठोस सच्चाइयों के आधार पर खड़ा होता है.

क्रमशः

© ओमप्रकाश कश्यप

चिंतन की बहुजन परंपरा

विशेष रुप से प्रदर्शित

इतिहास केवल शिखर की हलचलों को रेखांकित करता है. जनसमाज के स्तर पर जो हलचलें होती हैं, उनके दस्तावेजीकरण में वह उस समय तक उपेक्षा बरतता है, जब तक उनका प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कोई बड़ा सामाजिकराजनीतिक सरोकार न हो. उसमें भी वह केवल शीर्ष व्यक्तित्वों के नाम रेखांकित करता है. इसके अनगिनत उदाहरण अतीत से आज तक खोजे जा सकते हैं. रामरावण के युद्ध के बारे में हम सुनते आए हैं, कौरवपांडवों का संग्राम अलग से महाकाव्यीन गाथा है. अकबर और राणा प्रताप का इतिहास भी पिछली पांचछह शताब्दियों पुराने इतिहास का हिस्सा है. हम अपनी रुचि और विश्वास के अनुसार इनमें से किसी को बड़ा या छोटा मान सकते हैं. कमज्यादा पसंदनापसंद कर सकते हैं. उस समय हमारी चर्चा और चिंता का मूल केंद्रबिंदू शिखरस्थ व्यक्तित्व ही होंगे. सदियों से हमें यही अभ्यास कराया जाता रहा है. राम और रावण की प्रजा अपनेअपने सम्राट के बारे में क्या सोचती थी? जनसाधारण धर्मराज कहे जाने वाले युधिष्ठिर के राज्य में अधिक सुखी, समृद्ध और सम्मानित जीवन जीता था कि दुर्योधन के राज्य में? अकबर और महाराणा प्रताप की प्रजाओं के हालात में क्या अंतर था? ऐसे प्रश्नों को लेकर इतिहास प्रायः मौन बना रहता है. कारण किसी से छिपा नहीं है. वस्तुतः इतिहास को वे लोग सहेजते हैं, जिनके हित सत्ता से जुड़े होते हैं. सत्ताशिखरों की कृपा बनी रहे, वे इस दृष्टि से तथ्यों के साथ मनमाना वर्ताब करते हुए इतिहासलेखन करते हैं. सत्ता की चरणवंदना में सत्य अपनी अर्थवत्ता खोता रहता है.

प्रकारांतर में इतिहास ‘अर्थशास्त्र’ भले न हो, एक वर्ग के लिए वह ‘अर्थ का शास्त्र’ अवश्य बन जाता है. ये परिस्थितियां सामाजिक विक्षोभों को जन्म देती हैं, जिन्हें विशेषज्ञ लोग ‘संस्कृतियों का द्वंद्व’ की संज्ञा देते हैं. निहित राजनीतिक स्वार्थ की खातिर शीर्षस्थ वर्ग संस्कृतियों के द्वंद्व को बढ़ाचढ़ाकर पेश करते हैं. परिणामस्वरूप सामाजिक अविश्वास की खाई उत्तरोत्तर चैड़ी होती जाती है. ‘सांस्कृतिक द्वंद्व’ तथा ‘राजनीतिक द्वंद्व’ में अंतर होता है. सांस्कृतिक द्वंद्व की प्रक्रिया धीमी और अप्रत्यक्ष होती है. जबकि राजनीतिक द्वंद्व सामान्यतः प्रत्यक्ष होता है. अतएव उसके निष्कर्ष अपेक्षाकृत शीघ्र आने की संभावना रहती है. राजनीतिक द्वंद्व में प्रतिपक्ष को यह अवसर मिलता है कि वह खुद को अपने प्रतिद्विंद्वी की टक्कर का सिद्ध कर सके. रावण नफरत का पात्र होकर भी राम के समान बलशाली है. रावण के प्रति नफरत, राम के प्रति उसके अनुयायियों की आदरभावना के समतुल्य होती है. यही हालत महाभारत के दुर्योधन की है. वह न केवल स्वयं बलशाली है, बल्कि एक से बढ़कर एक योद्धा उसके पक्ष में है. ‘कुरुक्षेत्र’ दुर्योधन के लिए महज राजनीतिक युद्ध है. जबकि उसके प्रतिद्विंद्वी पांडवों का सलाहकार कृष्ण उसे शुरुआत से ही सांस्कृतिक युद्ध बना देता है. कृष्ण का बौद्धिक चातुर्य और कूटनीति उस समय के युद्धनियमों पर भारी पड़ती है.

राजनीति से प्रेरित होने के बावजूद संस्कृतियों के द्वंद्व पर उसके नियम पूरी तरह लागू नहीं होते. वहां पराजित संस्कृति विजेता संस्कृति द्वारा या तो हड़प ली जाती है, अथवा उसका इतना विरूपण कर दिया जाता है कि वह रूढि़ में ढलकर अपनी उपयोगिता खो देती है. राजनीतिक विजेता सामान्यतः दो युद्धों से गुजरता है. पहला युद्धभूमि पर लड़ा जाता है. उस युद्ध में दो प्रतिद्विंद्वी अपनेअपने सैन्यबल के साथ आमनेसामने होते हैं. दूसरा युद्ध समरांगण में दुश्मन को परास्त, उसके भूक्षेत्र पर कब्जा कर लेने के बाद आरंभ होता है. राजनीतिक विजेता जानता है कि जब तक जनसमाज उसकी जीत को स्वीकार न कर ले, तब तक उसकी विजय भी डांवाडोल रहेगी. अपनी जीत को स्थायी बनाने के लिए वह सांस्कृतिक मोर्चे पर भी निरंतर फतह की कामना करता है. दूसरा युद्ध अप्रत्यक्ष, जिस जनसमाज की संस्कृति पर जीत हासिल करनी है, उसके मौन समर्थन के आधार पर लड़ा जाता है. इसलिए उसमें आभासी प्रतिद्विंद्वता के लिए बहुत कम स्पेस होता है. विजेता संस्कृति के चारणवृंद पराजित संस्कृति की स्मृतियों और परंपराओं की ओर से जनता का ध्यान मोड़ने के लिए नित नया बानक रचते रहते हैं. अंततोगत्वा, पराजित संस्कृति इतिहास की पर्तों में लुप्त होकर रह जाती है. चूंकि सांस्कृतिकरण की प्रक्रिया धीमी और व्यापक जनसमुदाय की मौन सहमति के आधार पर चलाई जाती है, अतएव सांस्कृतिक प्रतिरोध के वास्तविक कारकों की खोज अपेक्षाकृत जटिल होती है. चूंकि थोपे गए इतिहास की अधिकांश बातें सामाजिक यथार्थ से परे होती हैं, इसलिए उसे झूठ का पुलिंदा भी कहा जाता है.

सांस्कृतिक द्वंद्वों का चरित्र उत्पादकता के साधनों द्वारा निर्धारित होता है. हजारों वर्ष पहले प्रकृति का खुला अंचल मनुष्य के सामने था. अपार संसाधनों के आगे भोक्ता मनुष्यों की संख्या अत्यंत सीमित थी. अतः उस कालखंड में व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा के लिए भी कोई स्थान न था. कालांतर में कृषि व्यवस्था में सुधार हुआ. मनुष्य एक स्थान पर ठहरकर खेती करने लगा. इसी के साथ उसके मन में लालच भी उमड़ने लगा. उन दिनों खेती सामूहिक थी. उपज पर समूह का साझा अधिकार माना जाता था. धीरेधीरे समाज में अविश्वास स्थायी रूप लेने लगा. उत्पाद के बंटवारे को लेकर झगड़े शुरू हुए तो ‘राजा’ नामक संस्था की अवधारणा विकसित हुई. आरंभ में राजा का काम शिकार के समय कबीले का नेतृत्व करना तथा उत्पाद का सदस्यों के बीच सर्वसम्मत बंटवारा था. उससे समूह की आंतरिक व्यवस्था में सुधार हुआ. लेकिन विपल्वी कबीलों का डर अब भी बना रहता था. अनाज और पशुधन को हड़पने के लिए कबीले एकदूसरे से उलझते ही रहते थे. अतः प्रतिद्विंद्वी समूहों से अपने पशुधन, अनाज और फसलों की सुरक्षा के लिए ‘राजा’ को सैनिक रखने का अधिकार मिल गया. उस समय तक राजनीति परस्पर सहमति पर आधारित थी. सच में तो वह राजनीति थी ही नहीं. लोग सामान्य विवेक के आधार पर मिलजुलकर निर्णय लेते थे. निष्पक्ष और सर्वमान्य होना ‘राजा’ की मूलभूत योग्यता थी. सैनिक रखने का अधिकार मिला तो ‘वीरता’ और ‘नेतृत्व’ जैसे गुण राजा के लिए आवश्यक माने जाने लगे. शक्ति और संसाधन मिले तो उसकी महत्त्वाकांक्षाएं सिर उठाने लगीं. धीरेधीरे उसके आसपास ऐसे लोगों का समूह पनपने लगा, जो अपने स्वार्थ के लिए उसकी हर मनमानी को ‘नियम’ बना देने में माहिर थे. जहां नियम बनाना संभव न हो वहां ‘राजा की इच्छा’ बताकर स्वार्थपूर्ण निर्णय थोप दिए जाते थे. इससे आमजन और राजा के बीच की दूरी बढ़ती गई. चूंकि राजा को बिना किसी तनाव के सभी सुखोभोग उपलब्ध थे, इसलिए वह अपने मुंहलगे दरबारियों को अतिरिक्त लाभ देकर खुश रखने लगा. धीरेधीरे व्यक्तिगत संपत्ति की भावना, जिसका अभी पूरी तरह विकास भी नहीं हुआ था, राजा के एकाधिकार में ढलने लगी. इसका प्रभाव संस्कृति पर भी पड़ा. सभ्यता के आरंभिक दिनों में मनुष्य अपने निर्णय परस्पर सहमति से लेता था. अब वे राजा और उसके मुंह लगे दरबारियों की मनमर्जी से लिए जाने लगे. इसका प्रभाव सामाजिकसांस्कृतिक संबंधों पर पड़ना ही था. सबकुछ शिखरस्थ वर्गों की मर्जी से चलता था, इसलिए जनसाधारण संस्कृति और उत्पादकता के सहसंबंधों की ओर से उदासीन रहने लगा. यही उदासीनता धीरेधीरे उसके स्वभाव का अभिन्न हिस्सा बन गई.

उपर्युक्त चर्चा से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं. पहली यह कि संसाधनों पर एकाधिकार कायम करने का इच्छुक समूह पहले लोगों के दिलोदिमाग पर कब्जा करता है. इसके लिए वह परंपराओं और विचारधाराओं की मनमानी व्याख्या करता है. दूसरे शब्दों में विचारों का इतिहास, अपने समय के राजनीतिकआर्थिक और सामाजिक इतिहास से अलग नहीं होता. दूसरे, संसाधनों पर कब्जा करने के पश्चात अपनी स्थिति को बनाए रखने के लिए वह ऐसी संस्थाएं खड़ी करता है, जिनमें जनसाधारण के लिए प्रवेश के अवसर न्यूनतम हों. यदि लोकतांत्रिक छूट के अंतर्गत यह अधिकार देना भी पड़े तो प्रक्रिया इतनी जटिल बना दी जाती है कि उनमें आम आदमी का हस्तक्षेप न्यूनतम हो जाता है. इस बीच वह निम्नस्थ वर्गों को निरंतर यह विश्वास दिलाता रहता है कि उनकी समाजार्थिक हैसियत सामाजिकसांस्कृतिक एवं वैधानिक मूल्यों द्वारा समर्थित है. और यदि कहीं अभाव या दुरवस्था है तो उसके जिम्मेदार सिर्फ उन परिस्थितियों में जी रहे लोग हैं.

जैसा कि हमने पहले भी कहा, यह स्थिति हमेशा से नहीं थी. जिन दिनों विपुल संसाधन थे, उन दिनों समाज में स्पर्धा के लिए भी कोई जगह न थी. पूरी तरह से वर्गहीन समाज था. फिर ऐसा समय आया जब निर्णय ऊपर से थोपे जाने लगे. विचारों की दुनिया में आपसी संवाद और सहमति के लिए कोई स्थान न रहा. पराजित सम्राट की भांति पराजित विचार को भी झुकने या फिर मिटने के लिए तैयार रहना पड़ता था. महाभारत में यक्ष के प्रश्नों का उत्तर न दे पाने पर युधिष्ठिर के भाइयों को मृत्यु प्राप्त होती है. लोकसाहित्य में ऐसी अनेक कहानियां सुनने को मिल जाएंगी, जिनमें नायक राजकुमारी के चंद प्रश्नों का उत्तर देकर न केवल उससे विवाह, बल्कि उसके पैत्रिक राज्य का उत्तराधिकारी भी मान लिया जाता था. जबकि उत्तर देने में असमर्थ अनेक राजकुमारों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ता था. इतिहास में वैचारिक असहिष्णुता के और भी कई उदाहरण हैं. सातवीं शताब्दी के दार्शनिक, प्रकांड विद्वान मीमांसक कुमारिल भट्ट को मात्र इसलिए आत्महत्या का वरण करना पड़ता है, क्योंकि उन्होंने गुरु की इच्छा के विपरीत, बौद्ध विद्वानों को शास्त्रार्थ में पछाड़ने के लिए उनके दर्शन का अध्ययन किया था. यही नहीं, कुमारिल के प्रतिभाशाली शिष्य मंडन मिश्र को भी शंकराचार्य से शास्त्रार्थ में पराजित होने के पश्चात ‘मरना’ पड़ता है. जीवित बचता है उनका वेदांती अवतार—सुरेश्वराचार्य. कह सकते हैं कि राजनीतिक असहिष्णुता वैचारिक असहिष्णुता को बढ़ावा देती है. इसका उल्टा भी उतना ही सच है. उदार विचार उदार राजनीति की ओर ले जाते हैं. उदार और जवाबदेह लोकतंत्र वर्गहीन समाज के भीतर ही संभव है.

जिन दिनों व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा अविकसित थी, संस्कृति का नेतृत्व श्रमण परंपरा के ऋषिमहर्षियों की जिम्मेदारी थी. उनके बीच अनेक मतांतर और परंपरावैषम्य था. बावजूद इसके उनमें परस्पर सहअस्तित्व का भाव था. वेद, उपनिषद आदि आरण्यक उन्हीं यायावर महापुरुषों की देन हैं, हालांकि उनमें से अनेक के नाम हमारे लिए अपरिचित हैं. कह नहीं सकते कि वर्तमान में ये ग्रंथ जिनके नाम से जाने जाते हैं, सचमुच उन्हीं की रचना थे. या तत्कालीन पुरोहित वर्ग ने किसी ओर की रचनाओं को अपने नाम कर लिया. लोगों ने उसे सहज भाव से अपना भी लिया, क्योंकि सहस्राब्दियों से किसी भी व्यवस्था पर सवाल न उठाने और मूक अनुसरण करते रहने का प्रशिक्षण उन्हें प्राप्त होता है. कृषि के विकास के साथ जीवन में ठहराव आना शुरू हुआ तो श्रमणों का एक वर्ग, जो जंगलों के कष्टमय जीवन को छोड़कर आराम का जीवन जीना चाहता था—मानवबस्तियों में या उनके आसपास आश्रम बनाकर रहने लगा. समाज में ज्ञानपिपासुओं के प्रति आरंभ से ही आकर्षण एवं सम्मान का भाव था. वे उन्हें पुरुखों के यायावर जीवन की याद दिलाते थे. कहीं यह अफसोस तथा उससे पैदा कुंठा भी रही होगी कि पारिवारिक सुखसुविधा और सुरक्षा की चिंता के कारण वे स्वयं यायावर मुनियों जैसा जीवन जीने में असमर्थ हैं. पुरोहित स्वयं को ईश्वर और आमजन के बीच प्रतिनिधि के रूप में पेश करता था. दिखाता था कि वह यायावर मनस्वियों के अधिक करीब है, इन सबके चलते जनसाधारण ने सहज ही पुरोहित वर्ग के श्रेष्ठत्व को स्वीकार कर लिया. उस श्रेष्ठत्व तथा प्राप्त सुखसुविधाओं को अपनी पीढि़यों तक अंतरित कर, स्थायी बनाने की कोशिश कालांतर में कार्यविभाजन की वजह बनी, जिसने आगे चलकर निकृष्ट जातिप्रथा का रूप ले लिया. जिसे विद्वान हिंदू समाज का कलंक मानते हैं.

जाति व्यवस्था की कमजोरी है कि वह सबकुछ नियतिबद्ध मान लेती है. व्यक्ति के जन्म के साथ उसकी पसंद, नापसंद, रुचि, योग्यता, सम्मानपात्रता आदि का एकमुश्त निर्धारण कर लिया जाता है. परिणाम यह होता है कि एक वर्ग को, जिसमें समाज के मुट्ठीभर लोग सम्मिलित होते हैं, विशेषाधिकार संपन्न मान लिया जाता है. जबकि दूसरे वर्ग जो संख्या में पहले वर्ग की अपेक्षा चार गुना अधिक है, की प्रतिभा का उसकी पसंद के क्षेत्रों में सदुयोग तो दूर, उसके प्रदर्शन का अधिकार तक छीन लिया जाता है. इसके उदाहरण कभी भी, कहीं भी खोजे जा सकते हैं. महाभारत में द्रोण जिस समय एकलव्य का अंगूठा मांग रहा होता है, उस समय वह किसी युद्ध अभियान पर नहीं होता, बल्कि अपने गुरु को आकस्मिक रूप से सामने देख, हर्षित मन से तीरंदाजी के क्षेत्र में अपनी साधना के प्रदर्शन पर उतर आता है. द्रोण से एकलव्य की वह खुशी भी सहन नहीं होती. एकलव्य की प्रतिभा, तीरंदाजी का कौशल उसे डरा देता है. एकलव्य को लेकर जो डर द्रोण को है, वही कृष्ण को भी है. महाभारत के युद्ध में अर्जुन और द्रोण दोनों अलगअलग खेमे में होते हैं. लेकिन अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी सिद्ध करने के लिए द्रोण जहां गुरुदक्षिणा में उसका अंगूठा मांग लेता है, वहीं कृष्ण अपनी नारायणी सेना के साथ एकलव्य पर पीछे से प्रहार कर, युद्धभूमि में छलपूर्वक उसकी हत्या कर देता है. जातिआधारित सामाजिक विभाजन में मनुष्य की इच्छा, चयन के अधिकार, विवेक, सहमति आदि का उसके कोई स्थान नहीं होता. इसका सर्वाधिक पतन शिखरस्थ श्रेणियों में दिखाई पड़ता है. वहां मौजूद लोग अपने स्वार्थ और वर्गीय श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए निम्नस्थ वर्गों का शोषण करते रहते हैं.

वर्णाश्रम व्यवस्था के बीज ऋग्वेद के संकलनकाल से ही अंकुराने लगे थे. पुरुष सूक्त इसका प्रमाण है. हालांकि उस समय तक जातीय विभाजन उतना नहीं गहराया था, जितना आज. कालांतर में उसके सहारे ऐसा वर्ग पनपने लगा जिसकी रुचि केवल पदप्रतिष्ठा तक सीमित थी. जिसमें मौलिक सोच का अभाव था. जिसके लिए ज्ञान और आस्था में कोई अंतर न था. या यूं कहो कि अपनी रूढ़ आस्था और जड़ विश्वासों के आधार पर वह खुद के ज्ञानी होने का दावा करता था. इस प्रवृत्ति के चलते विश्व की प्रथम संहिता ऋग्वेद जिसे मानवीय जिज्ञासा एवं कौतूहल का उत्पे्ररक बनना चाहिए था—पोंगापंथी ब्राह्मणों के लिए ‘पवित्र पुस्तक’ में ढलने लगा. उसमें अंतर्निहित ज्ञान और इतिहास तत्व को सभ्यता संस्कृति के विकास की कसौटी बनाने के बजाए, उसके प्रति अंधआस्था को ही मानवीय प्रज्ञा की कसौटी बताया जाने लगा. ध्यातव्य है कि पवित्रता का प्रत्यय संस्कृति के लिए भले ही कुछ काम का हो, साहित्य और ज्ञान की दूसरी विधाओं की मौलिकता के विकास में हमेशा बाधक रहा है. वह बदलाव विरोधी भी होती है. पांेगापंथी पुरोहितों के मन में ऋचाओं के मूल स्वरूप को सुरक्षित रखने की चिंता भी रही होगी. यहां मूल स्वरूप से आशय ऋचाओं के उस ‘संस्करण’ से है, जिन्हें ऋग्वेद के संकलनकर्ता ने अपनाया था. उस समय की परंपरा और स्थानीयता के अनुसार ऋचाओं के भिन्नभिन्न संस्करण भी रहे होंगे. उनके बीच संहिताबद्ध कृति को महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा. फिर स्वाभाविक रूप से उसी को असली बताने की चिंता सताने लगी. उन दिनों उपलब्ध ज्ञानसमिधा का संहिताकरण बहुत श्रमसाध्य का कार्य था. इस कारण ऋचाओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए श्रुति की महत्ता कम नहीं हुई थी. अभ्यास से पता चला कि ऋचाओं को रटने के बजाय गाकर आसानी से याद रखा जा सकता है. गायनवादन के मानकीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप ‘सामवेद’ की रचना हुई. इससे कर्मकांडीकरण को स्थायित्व मिलने लगा. बावजूद इसके समाज में वेदों की प्रतिष्ठा बढ़ रही थी. इसलिए नहीं कि वेदों में कुछ अनमोलअनूठा था. बल्कि इसलिए कि उनके पठनपाठन और गायनवादन से जो वर्ग जुड़ा था, वह सत्ताकेंद्र के करीब और प्रायः उसका संरक्षक भी था.

उस समय तक ज्ञान के संप्रेषण का मुख्य आधार गुरुशिष्य परंपरा थी, जिसमें दोनों आमनेसामने बैठकर शिक्षार्जन करते थे. भोजन, सुरक्षा, शीत आदि से बचने के लिए बीच में अलाव जलाए रखने की पृथा यज्ञसंस्कृति का रूप लेने लगी. कालांतर में अग्नि कुंड को प्रज्जवलित रखना, उसकी वेदी बनाना भी पौरोहित्य के विशिष्ट कार्यों में शुमार होने लगा. कालांतर में उसी को लेकर ‘यजुर्वेद’ की रचना हुई. उस समय तक ‘लिखित’ शब्द की प्रतिष्ठा फैल चुकी थी. जिन ब्राह्मणों को वैदिक ऋचाएं कंठस्थ हों तथा जो उनका सस्वर पाठ कर सकें, वे अतिरिक्त सम्मान के पात्र माने जाते होंगे. उससे वैदिक ऋचाओं को याद कर, उनका पाठ करने के प्रति आकर्षण बढ़ा होगा. वेदी बनाकर ऋचाओं का सस्वर पाठ करना भी वैदिक कर्म मान लिया गया. उस परंपरा का संहिताकरण ‘यजुर्वेद’ के रूप में सामने आया. संकेत साफ हैं, ऋग्वेद के संकलन तक चाहे सब कुछ ठीकठाक रहा हो, ‘सामवेद’ और ‘यजुर्वेद’ की रचना के समय तो हिंदू वाङ्मय पूरी तरह कर्मकांड में ढल चुका था. दोनों ही कृतियां ज्ञान को परंपरा में ढाल देने की सामान्य प्रविधियां थीं इस परंपरा को आगे चलकर उपनिषदों में विस्तार मिला.

आवश्यक नहीं वैदिक काल में भी सभी लोग वेदों को मानते हों. उसी दौर में एक वर्ग ऐसा भी रहा होगा, जिसके लिए ऋग्वेद से आगे की ज्ञानयात्रा मानवीय मेधा का मौलिक उठान न होकर, जो है उसी को सहेजे रखने और उसपर दर्प करने की कोशिशें थीं. वह वर्ग वैदिक ऋषियों के आलोचकों का था. जो वर्षभर में तीन या चार महीने किसी एक स्थान पर ठहरता था और अपना बाकी समय प्रकृति के सान्निध्य में, जीवनसत्य की खोज में यहां से वहां विचरते हुए बिताता था. चूंकि वे लोग एक स्थान पर लंबे समय तक नहीं ठहरते थे, इसलिए लोगों पर उनका प्रभाव अपेक्षाकृत कम था. उसी से धीरेधीरे दो परंपराओं का विकास हुआ. वैदिक ऋषियों की परंपरा और दूसरी श्रमण परंपरा. वैदिक परंपरा की तरह श्रमण परंपरा में भी अनेक मेधावी चिंतक जन्मे. याज्ञवल्क्य के समय में श्रमण परंपरा काफी विस्तृत हो चुकी थी. वैदिक ऋषि सामान्यतः एक ही स्थान या बस्ती में रहने लगे थे. जबकि श्रमणों को स्थान से दूसरे स्थान तक भ्रमण करते रहने के कारण तीर्थंकर कहा जाने लगा था. धीरेधीरे उनमें मतभेद भी पनपने लगे.

यह ठीक है कि ऋग्वेद के माध्यम से वैदिक आचार्यों ने धर्मदर्शन के क्षेत्र में ऊंची छलांग लगाई थी. वह संकलनकर्ता व्यास की मौलिक कृति नहीं थी. व्यास ने तो अपने समय में मौजूद ऋचाओं, कहानियों और परंपराओं का संकलन मात्र किया था. लेकिन बिखरी हुई, श्रुति के आधार पर लंबे समय से चली आ रहीं ऋचाओं को एक सूत्र में बांध देने का काम भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं था. उसकी ऋचाओं के अध्ययन द्वारा आसानी से समझा जा सकता है कि वे अलगअलग मनीषियों द्वारा रची गई हैं. गौतम बुद्ध ने ऋग्वेद के रचियताओं को ‘ऋषि’ तथा ‘पुरोहित’ के रूप में वर्गीकृत किया है. भारत की दार्शनिक उड़ान तथा उसकी विसंगतियों को समझने के लिए इसे समझना बेहद आवश्यक है. गौतम बुद्ध के अनुसार ऋग्वेद के आरंभिक रचियता आरंभिक दस मुनिगण हैं. उनके नाम भी उन्होंने गिनाए हैं—‘आस्तक’, ‘वामक, ‘वामदेव, विश्वामित्र, भरद्वाज, वशिष्ट, कश्यप, भृगु, अंगिरस और जमदग्नि. बुद्ध की राय की तस्दीक मनुस्मृति में भी है. लेकिन वहां ऋषियों के नाम भिन्न हैं और हैं दार्शनिक न होकर पौरोहित्य के कारण जाने जाते हैं. मनुस्मृति के अनुसार वेदों के आदि रचियता—अत्रि, याज्ञवल्क्य, अंगीरस, पुलत्स्य, वशिष्ट आदि हैं. ऋग्वेत्तर विकास की धारा को समझने के लिए इस वर्गीकरण को एक समझना अत्यावश्यक है. उपनिषदों के आदि व्याख्याता दार्शनिक और विचारक की कोटि के थे. जबकि दूसरा वर्ग जिन्हें वेदों में लंबे प्रक्षेपण के लिए जिम्मेदार माना जाना चाहिए, पुरोहित किस्म के थे. देवताओं को दी जाने वाली आहूतियां इसी वर्ग की रचनाएं हैं.

क्रमशः….

© ओमप्रकाश कश्यप

वाल्तेयर : अनूठा और निर्भीक कलमकार

विशेष रुप से प्रदर्शित

[वाल्तेयर कदकाठी में छोटा, देखने में बेहद कमजोर और दुबलापतला था, लेकिन उसमें कमाल की फुर्ती थी. तेज दिमाग और प्रखर मेधा के बल पर उसका व्यक्तित्व पूरी जिंदगी चमचमाता रहा. अपने जीवन में उसने हर बौद्धिक चुनौती का साहसपूर्वक ढंग से सामना किया. यह सही है कि जीवन में उसको कई बार समझौते भी करने पड़े. जो उसके प्रशंसकों को बहुत नागवार गुजरते है. वे चाहते हैं कि वाल्तेयर भी ब्रूनो (Bruno) और सर्वेतिस(Servetus) की भांति, जिन्हें कट्टरपंथियों ने आग में जीवित जला दिया गया था, अपने विचारों पर अटल रहता. लेकिन महान व्यक्तित्वों का आकलन इस प्रकार नहीं किया जाता. अपनेअपने स्थान पर सभी महत्त्वपूर्ण एवं महान हैंवाल्तेयर भावुक और दयालु था. उसके दिल में दूसरों के लिए प्यार समाया हुआ था. तन से वह दूसरों के लिए समर्पित था. इतिहास के उन महानायकों में जिन्होंने पश्चिमी समाज से कट्टरता और निर्दयता को समाप्त करने में प्रमुख भूमिका निभाई, कोई भी वाल्तेयर की बराबरी नहीं कर सकता. — क्लेरेंस डैरो ]

वह बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। तेज और धारदार शब्दों का उपयोग वह इतनी कुशलता से करता कि वाक्य नश्तर का काम करने लगते। वह सबसे अलग, एकदम विशिष्ट, अप्रतिम और विलक्षण प्रतिभाशाली था। किंतु किसी भी प्रकार के विशिष्टताप्रदर्शन से उसको नफरत थी। हमेशा वह आम आदमी की तरह रहा। पूरी जिंदगी उसी के अधिकारॊं के लिए संघर्ष करता रहा। राजनीतिक भ्रष्टाचार, झूठ, धार्मिक पाखंड, आडंबरवाद का वह प्रबल विरोधी था, और अपनी कलम के माध्यम से लगातार उनके विरुद्ध लिखता रहा। इसके लिए उसको कड़े सामाजिक विरोध एवं आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। उसने सहे। जनसरोकारों के प्रति अपने तीव्र समर्पण एवं प्रबल आग्रहशीलता के कारण वह हर प्रतिवाद का सामना करता गया। हालांकि इसके लिए उसको अनेक कष्ट उठाने पड़े। वह अपने समय का सबसे बड़ा प्रगतिशील, जनसरोकारों के प्रति पूर्णतः समर्पित इंसान था। वह फ्रांसिसी पुनर्जागरणकाल का जानामाना लेखक, निबंधकार, आस्थावादी दार्शनिक, कवि और उपन्यासकार था। उसकी लेखनशैली व्यंग्यात्मक और इतनी मारक थी कि केवल इसी के कारण उसे अपने समय का सबसे प्रतिभाशाली साहित्यकार कहा गया। जनसाधारण के कल्याण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता एवं व्यापक सरोकारों के कारण उसको मनुष्यता का कलमकार माना जाता रहा है। बयासी वर्ष के लंबे जीवनकाल में उसने कलम से तलवार का काम लिया, जिससे उसको बेशुमार ख्याति मिली। अपनी मौलिकता, जनप्रतिबद्धता एवं जूझारूपन के कारण वह अपने समय का सबसे ख्यातिलब्ध साहित्यकार और विचारक बना। हजारॊं लेखकॊं, साहित्यकारों कॊ उसने प्रभावित किया। विगत तीन शताब्दियों से वह वुद्धिजीवियों, समाजविज्ञानियों, साहित्यकारों और मानवतावादियों का प्रेरक बना हुआ है।

बड़े जनसरोकारों वाले उस विलक्षण प्रतिभाशाली, महान साहित्यकार का पूरा नाम था—फ्रांकोइस मेरी ऐरोएट(François-Marie Arouet)। मगर पूरी दुनिया में उसे प्रसिद्धि मिली वाल्तेयर के नाम से। प्रसिद्धि भी ऐसीवैसी नहींअपनी रचनाओं और मुखर विचारों के कारण वह अपने जीवनकाल में ही किवदंती बन चुका था।

वाल्तेयर ने साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में लिखा। अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद वह किसी भी प्रकार के दुराग्रहों से काफी दूर था। इसी कारण उसको उन लोगों की भी वौद्धिक स्वीकृति मिली, जो स्वयं को वैचारिक आधार पर उसका विरोधी बताते थे। अपनी मान्यताओं को विमर्श के लिए खुला छोड़कर उसने साहित्य में वैचारिक अभिव्यक्ति के अधिकार को सुरक्षित रखा। विद्वानों के बीच वैचारिक असहमति संभव है। किंतु वाल्तेयर को प्रायः सभी विद्वानों ने बेहद प्रतिभाशाली लेखक, विचारक, दार्शनिक, कवि, नाटककार और निबंधकार माना है। अपने समय के परिवर्तनवादियों में वह सर्वाधिक प्रतिभावान, मुखर और प्रखर बुद्धिजीवी था; जिसने निर्भीकतापूर्वक अपने विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान की। जो उसे सत्य लगा उसके लिए वह निरंतर संघर्ष करता रहा। इसके लिए उसको सरकार और समाज, दोनों के विरोध का सामना करना पड़ा। मगर वह किसी भी दबाव के आगे झुका नहीं।

वाल्तेयर का जन्म 21 नवबर, 1694 को पेरिस में हुआ था। माता का नाम था— मेरी एरोएट डी’ ओमर्द (Marie Marguerite D’Aumard) और पिता थे फ्रांकोइस एरोएट डी’ ओमर्द (François- Arouet D’Aumard)। पिता सामान्य नोटरी का काम करते थे। मामूलीसी जायदाद उनके पास थी; यानी जन्म के समय वाल्तेयर के पास ऐसा कुछ भी नहीं था जो उसको विशिष्ट बनाता या फिर विशिष्ट बनने के लिए प्रेरणा देता। ऊपर से फ्रांस की तात्कालिक राजनीतिकसामाजिक स्थिति। वह इतनी शोचनीय, इतनी बदहाल थी कि लोग मानो नरकवास कर रहे थे। उस समय फ्रांस पर सोलहवें लुई का शासन था। शासकों के विलासी और भोगविलास और अंतहीन लिप्साओं से भरे जीवन के कारण फ्रांस अपनी पुरानी प्रतिष्ठा खो चुका था। चारों ओर भीषण गरीबी का साम्राज्य था और उससे भी अधिक था वैचारिकता का अभाव। मानसिक जड़ता, अज्ञानता से समझौता कर लेना। लॊग मानॊ मानसिक दिवालियेपन का शिकार थे। पढ़ेलिखे लोग भी जादूटोने तथा चमत्कारों पर विश्वास करते, पाखंडों में जीते थे। समाज के सूझबूझ वाले लोग बहुत कम संख्या में थे; जो थे उनपर अशिक्षा के मारे लोग विश्वास ही नहीं करते थे। वे प्रायः उनका मजाक उड़ाते और उनपर हंसते। दूसरी ओर पाखंडियों और आडंबरवादियॊं का नाम पूरे सम्मान के साथ लिया जाता। शासक वर्ग ऐसे लोगों को अपने विश्वास में रखता था। क्योंकि वे ही लोग सत्ता को विलासिता का जीवन जीने के संसाधन उपलब्ध कराते थे। इसके परिणामस्वरूप वे लोग राजसत्ता को अपने इशारे पर नचाते थे।

फ्रांस की तात्कालिक दयनीय अवस्था पर टिप्पणी करते हुए एक जगह लिखा गया है—

सभी मानो किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए हुए थे। डा॓क्टर मरीज की जेब पर नजर रखते तथा मौका मिलते ही उसकी खाल उतारने से तैयार रहते थे। वकील अपने आसामियों को फंसाकर रखते थे। गरीबों से उनकी दोस्ती उन्हें अपना आसामी बनाने तक थी। कानूनी कार्रवाही बेहद जटिल, खर्चीली तथा लंबी थी। केवल पुजारी, डा॓क्टर, वकीलों के मजे थे, उनकी अमीरी निरंतर बढ़ती जा रही थी। गरीबों के लिए न्याय कठिन और खर्चीला था। जबकि अपराधियों को आसानी से कानूनी शरण मिल जाती थी।’

इसी तथ्य को जोसफ लुईस अपने एक आलेख में कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि—‘फ्रांस में जिन दिनों वाल्तेयर का जन्म हुआ, वहां की स्थिति बहुत ही खराब और दयनीय थी। और ऐसा कई पीढ़ियों से चला आ रहा था। मालूम होता था कि वहां पर दयनीय परिस्थितियों के साथ गरीबी, चमत्कारप्रियता लापरवाही, अन्याय, शोषण आदि की बहार आई हुई थी।’

जन्म के साथ ही वाल्तेयर ने दर्शा दिया था कि वह दूसरों से कुछ अलग है। एकदम खास। नवजात वाल्तेयर जन्म के समय बहुत ही दुबलापतला, कमजोर और रक्ताल्पता का शिकार था। उसका वजन इतना कम था कि किसी को भी उसके बचने की आस नहीं थी। यहां तक कि उसकी देखभाल कर रहे डाक्टर और नर्स भी उम्मीद छोड़ चुके थे। पादरियों ने शिशु वाल्तेयर की हालत देखकर उसका तत्काल बप्तसिमा करा देने का निर्देश दिया था, ताकि ईसाई मान्यताओं के अनुरूप उसकी आत्मा की रक्षा संभव हो सके। उपचार चलता रहा और नर्स समेत वाल्तेयर के मातापिता उसको बचाने के प्रयास करते रहे। बालक अपनी कमजोरी से जूझता रहा।

धीरेधीरे वाल्तेयर बड़ा होने लगा। बावजूद इसके रहा वह दुबलापतला कमजोर और पीतवर्ण ही। बचपन की इस कमजोरी ने वाल्तेयर के दिलोदिमाग पर आजीवन अधिकार बनाए रखा। मृत्यु की सन्निकटता की अनुभूति उसको हमेशा डराती रही। जन्म के समय दुर्बल होने का कारण संभवतः यह था कि उस रूप में प्रकृति वाल्तेयर को संभवतः विषम परिस्थितियों में रहने, कष्ट सहने और जूझते रहने का अभ्यास कराना चाहती थी या फिर नियति ने वाल्तेयर को गढ़ते समय दिमाग तो दिया, जिससे वह अपने समय का महानतम मूर्धन्य तो बना, लेकिन देह से वह कभी स्वस्थ नहीं रह सका।

वाल्तेयर की बौद्धिक प्रखरता विद्यार्थी जीवन से ही उसके सामने आने लगी थी। स्कूल में वह सबसे अलगथलग रहता। अपने आप में मग्न, सोच में डूबा हुआ, अधिकांश समय अकेला। किशोर वाल्तेयर की आंखें शूण्य में कुछ खोजती रहतीं। उसकी प्रश्नाकुलता गजब की थी। चलताचलता वह स्वयं से ही प्रश्न करता और खुद ही जवाब खोजने का प्रयत्न करता। दूसरे विद्यार्थी खेलकूद में हिस्सा लेते, एकदूसरे के साथ शरारत, हंसीमजाक छीनाझपटी से दिल बहलाते। किंतु इन बातों में वाल्तेयर की जरा भी रुचि नहीं थी। उस समय वह या तो एकांत में बैठा कुछ सोच रहा होता अथवा अपने अध्यापकों से किसी समस्या के निदान के लिए बातचीत कर रहा होता। उसकी स्मृति बहुत तेज थी। एक बार जो बात उसके मस्तिष्क में समा जाती, वह हमेशा उसका हिस्सा बनी रहती थी। वाल्तेयर की दुबली काया को देखकर उसके अध्यापक चाहते थे कि वह भी खेलकूद में हिस्सा ले, ताकि उसकी सेहत में कुछ सुधार आए। एक बार एक अध्यापक ने वाल्तेयर से कहा भी कि पढ़ने के साथ वह खेलकूद और मनोरंजन पर भी ध्यान दे। उस समय वाल्तेयर ने जो उत्तर दिया वह वाल्तेयर के भीड़ से अलग होने को दर्शाती है। जबकि वाल्तेयर तो भीड़ से बहुतबहुत अलग था। प्रश्न का उत्तर देते हुए उसने कहा था—

इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति को अपने ही तरीके से छलांग लगानी चाहिए।

और सचमुच वाल्तेयर हर मामले मौलिक बना रहना चाहता था। इसमें उसको कामयाबी भी मिली। कुछ ही वर्षों में अपनी प्रतिभा के दम पर वाल्तेयर ने समस्त अध्यापकों को अपने बस में कर लिया था। उसकी प्रश्नाकुलता जो कभी उसकी आलोचना का कारण बनी थी, वही उसकी ख्याति का कारण बनी। वाल्तेयर की विलक्षण मेधा से चमत्कृत एक अध्यापक ने टिप्पणी की थी कि क्या गजब है—

अदभुत, यह लड़का छोटीसी अवस्था में ही बड़ेबड़े सवाल हल कर लेना चाहता है।’

जीवन के प्रारंभिक वर्ष वाल्तेयर ने पेरिस में ही बिताए। पेरिस हालांकि फ्रांस का बड़ा और प्रसिद्ध नगर था, किंतु वहां का आकादमिक जीवन उसकी अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं था। का॓लिज में शिक्षा के नाम पर केवल रूढ़ परंपराओं का पोषण होता था। नया करने या सीखने की गुंजाइश वहां बहुत ही कम थी। इसलिए अपने समय के प्रबलतम जिज्ञासु और जन्मजात प्रतिभा के धनी वाल्तेयर को अपने का॓लिज जीवन से निराशा ही हाथ लगी। फ्रांस के प्रसिद्ध ‘लाओसे ला॓ ग्रांड का॓लिज’ में आठ वर्ष से अधिक अध्ययन करने के बाद भी वाल्तेयर की सहज प्रतिक्रिया थीµ

वहां मुझे सिर्फ दो ही चीजें सीखने को मिलीं। एक लैटिन और दूसरी मूर्खता!’

वाल्तेयर बचपन से ही अत्यंत स्वाभिमानी और हाजिर जवाब था। जिन दिनों की यह घटना है उन दिनों वह रोजगार के लिए संघर्ष से गुजर रहा था। यह वाल्तेयर की निर्विवाद जनपक्षधरता को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त होगी। दिसंबर 1725 की एक शाम को नगर की प्रसिद्ध नाट्यशाला में वाल्तेयर न जाने किस बात पर उत्तेजित होकर जोरजोर से बोलने लगा। यह देख फ्रांसिसी राजनयिक केवेलियर दि’ रोहन कबोट ने टोक दिया। उन दिनों फ्रांस में नाम के पीछे ‘दि’ लगा होना सामाजिक और राजनीतिक प्रतिष्ठा का विषय माना जाता था। इस बात का रोहन महोदय को बहुत गुमान था। इसलिए वे गुस्से में वाल्तेयर के पास पहुंचे और उससे नाराजगी भरा सवाल किया—

श्रीमान्! मोंन्सायर दि वाल्तेयर, आपका पूरा नाम क्या है?’

वाल्तेयर ने भी वैसा ही जलाकटासा जबाव दिया—‘मात्र ऐसा आदमी जो अपने महान नाम के पीछे किसी भी प्रकार की पूंछ लगाने की आवश्यकता स्वीकारने को कभी तैयार नहीं रहा। लेकिन अच्छी तरह जानता है कि जिन नामों के साथ ‘दि’ जुड़ा है, उनको किस प्रकार सम्मानित किया जाता है।’

वाल्तेयर के शब्दों में गहरा कटाक्ष था। मि. कबोट नाराज होकर वहां से चले गए। वाल्तेयर के इस जवाब को फ्रांस के अमीरों ने अपने ऊपर हमला माना। वे उसके विरोध पर उतर आए। पूरे फ्रांस में बाबेला मच गया। इसी मुखरता के कारण वाल्तेयर को देशनिकाले की सजा मिली। निष्कासन का दंड वाल्तेयर के लिए नया नहीं था। वह इससे भी पहले भी कई बार निष्कासन की सजा झेल चुका था। कह सकते हैं कि इस सजा का वह अभ्यस्त हो चुका था। एक बार धर्म और धार्मिक प्रवृत्ति की आलोचना के कारण तथा दूसरी बार युवा राजा के प्रति व्यंग्यात्मक टिप्पणियों की वजह से। वाल्तेयर मनुष्यता को सर्वोपरि मानता था। धर्म में उसकी अनास्था थी। इसीलिए उसने धर्म की पारंपरिक अवधारणा पर अनेक स्थानों पर कटाक्ष किया है। धार्मिक कट्टरपंथियों के लगातार विरोध तथा तज्जनित निष्कासनों के कारण वाल्तेयर को अनेक कष्टों का सामना करता रहा। धर्म के प्रति अनास्था एवं विद्रोही स्वभाव के बावजूद वाल्तेयर की लेखन ऊर्जा बराबर बनी रही। धर्म और ईश्वर के प्रति वाल्तेयर की भावना को इन टिप्पणियों से समझा जा सकता है—

ईश्वर एक ऐसा पहिया है, जिसकी धुरी हर जगह है, परंतु उसका घेरा (विस्तार) नदारद है।’

वाल्तेयर का कहना था कि धर्म का उपयोग प्रायः वही लोग करते हैं, जो किसी न किसी प्रकार के ज्ञानविज्ञान एवं आधुनिकताबोध से कटे रहना चाहते हैं, जिन्हें अपना हित परंपरा के पोषण में ही नजर आता है। इसलिए बदलाव की संभावनामात्र से उन्हें डर लगने लगता है। यथास्थिति की राह में कोई बाधा न आए इसके लिए उन्होंने परमात्मा नामक मिथक की सर्जना की है। उसी के नाम पर वे रातदिन अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं।

एक अन्य स्थान पर ईश्वर पर कटाक्ष करते हुए वाल्तेयर ने लिखा है—

परमात्मा सदैव ताकतवर के समर्थन में खड़ा होता है।

अपनी दो टूक अभिव्यक्तियों के कारण वाल्तेयर ने खूब बदनामी मोल ली। जाहिर है कि इससे उसको लाभ भी पहुंचा। उन उक्तियों के कारण वह कुछ ही वर्षों में धार्मिकसामाजिक स्वतंत्रता का सबसे बड़े समर्थक के रूप में जाना गया। वाल्तेयर की बातों में तार्किकता थी, इसलिए उसके समर्थकों की संख्या भी बड़ी तेजी से बढ़ रही थी। धीरेधीरे उसे अपनी आलोचना सहने का अभ्यास होता चला गया, यहां तक कि उसको मजा भी आने लगा। वालतेयर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करता था। अपने सिद्धांतों में उसकी दृढ़ आस्था थी। इसीलिए एक टिप्पणी में उसने व्यक्त किया है कि—

अपनी पूरी जिंदगी में मैने ईश्वर से एक ही चीज की कामना की है, यह कि वह लोगों को मेरे दुश्मनों पर हंसना सिखाए।’

वाल्तेयर की प्रखर बौद्धिकता की धमक उसके छात्र जीवन से ही सुनाई देने लगी थी, जिसका प्रभाव उसके अध्यापकों पर भी पड़ा। उनमें से कई उसके प्रशंसक थे तो कई आलोचक भी। वाल्तेयर के एक अध्यापक जो उसे नापसंद करते थे, एक दिन उसकी हाजिरजवाबी से चिढ़कर उन्होंने कहा था—

शैतान, तुम एक दिन फ्रांस में अव्वल दर्जे की बहसबाजी का नमूना लेकर आओगे।’

जो हो, वाल्तेयर की प्रतिभा अपना रंग दिखाने में लगी थी, किंतु उसके पिता का सपना तो पुत्र को लेकर कुछ ओर ही था। वे वाल्तेयर को वकील बनाना चाहते थे; जिसकी ओर उसका रुझान ही नहीं था। वह अपने साथियों के साथ या तो नाटकों की रिहर्सल करने में लीन रहता अथवा ऐसे ही किसी और काम में, जो नकद आमदनी की संभावना न्यूनतम होने के कारण उसके पिता की नजरों में व्यर्थ थे। तब तक वाल्तेयर के पिता को उसकी अद्वितीय प्रतिभा का अंदाजा हो चुका था, लेकिन वाल्तेयर अपनी प्रतिभा को यूं बेकार करे, यह उनको स्वीकार न था। एक बार वाल्तेयर के एक मित्र के जरिये उन्होंने कहवाया था कि वह जल्दी से घर वापस लौट आए। आने के साथ ही वह उसके लिए एक अच्छे से सरकारी पद का इंतजाम कर देंगे। इसपर बाल्तेयर ने उसी मित्र के माध्यम से पिता से कहलवाया—

‘‘मेरे पिता से कहना, ‘मैं ऐसा पद नहीं चाहता जो खरीदाबेचा जा सके। मैं अपने लिए ऐसी जगह बनाऊंगा जो अमूल्य होगी।’

उस समय वाल्तेयर ने अनजाने या आवेश में पिता से जो कहलवाया था, वह कालांतर में सच सिद्ध हुआ। साहित्य के प्रति वाल्तेयर का रुझान लगातार गहराता जा रहा था। उसकी नाटकों में उसकी विशेष रुचि थी। स्नात्तक करने के बाद वाल्तेयर को अपने करियर की चिंता हुई। उस जैसे निर्भीक और सच कहने वाले कलमकार को कौन भला नौकरी देता। वैसे भी वाल्तेयर जैसे स्वतंत्र प्रवृत्ति वाले जीव को नौकरी या व्यवसाय निभने वाले नहीं थे। इसलिए उसने करियर के रूप में लेखन को ही महत्ता दी। उससे आय की संभावना कम थी। उतनी तो बिलकुल नहीं, जितनी की कामना वाल्तेयर के मातापिता अपने प्रतिभाशाली पुत्र के लिए करते आ रहे थे। स्वतंत्र लेखन से जीविका चला पाना उस युग में आसान भी नहीं था। अतएव वाल्तेयर द्वारा करियर के रूप में लेखन को प्राथमिकता देने के निर्णय से उसके मातापिता, विशेषकर उसके पिता को निराशा ही हाथ लगी थी। वाल्तेयर की मां पुत्र की इच्छा का सम्मान करने वाली थीं। वे वाल्तेयर को लेखन के लिए निरंतर उत्साहित करती रहीं। वाल्तेयर की अपनी मां के प्रति आजीवन अटूट ऋद्धा रही और पिता के प्रति किंचित नफरत भी। मां के प्रति गहन अनुराग का वर्णन उसकी अनेक पुस्तकों में आया है।

भावुकता वाल्तेयर के व्यक्तित्व का प्रमुख हिस्सा थी। कविता लिखने में उसके संवेदनशील मन को खूब आनंद आता। बाकी बचे समय में वह नाटक देखना पसंद करता। उसकी रचनाओं की सराहना होने लगी थी। लेकिन जब उसने देखा कि लोगों पर सीधी तथा कलात्मक ढंग से कही गई बात का असर कम पड़ता है, तो वह व्यंजनात्मक शैली में लिखने लगा। कविता और नाटक के साथ उसने साहित्य की दूसरी विधाओं पर भी साधिकार लिखना प्रारंभ कर दिया। दूसरी ओर उसके पिता अभी तक इसी प्रयास में थे कि उनका बेटा साहित्य को छोड़ वकालत की दुनिया में जाए। इसलिए उन्होंने वाल्तेयर को समझाबुझाकर दुबारा वकालत पढ़ने के लिए भेज दिया। तब तक व्यंजनामूलक शैली तथा यथार्थपरक रचनाओं के कारण उसकी ख्याति दूरदराज तक फैल चुकी थी। कविता के अलावा उसने निबंध, उपन्यास, गल्प आदि खूब मात्र में लिखे, जिनमें समाज के प्रति उसका मानववादी दृष्टिकोण साफ झलकता है। लेकिन सचाई और सपाटबयानी शासकों को क्यों सहन होती। सो वाल्तेयर को उसका दंड भी सहना पड़ा।

वाल्तेयर को दंडित करने के लिए राजनीति को माध्यम बनाया गया। उसने पंद्रहवें लुई और फिलिप द्वितीय के बारे में एक आलेख लिखा था, जिसमें दोनों की राजनीतिक कार्यशैली पर आलोचनात्मक टिप्पणियां की गई थीं। उसी को विवादास्पद मानकर वाल्तेयर को सजा सुना दी गई। बेसटाइल नामक स्थान पर जेल में रहते हुए उसने पिता द्वारा दिए गए नाम ऐरोएट(François-Marie Arouet) के स्थान पर वाल्तेयर उपनाम को अपनाया। फिर यह सोचते हुए कि शायद नया नाम अपनाने के बाद दुर्भाग्य उसका पीछा छोड़ दे, उसने ‘ओडिपि’ नामक महान नाटक की रचना की। फ्रांस के बुद्धिजीवियों के बीच उस नाटक का खूब स्वागत हुआ। लोग प्रतिभाशाली वाल्तेयर को जेल में रखने के लिए सरकार की आलोचना करने लगे। अपनी आलोचनाओं से विचलित शासकवर्ग ने वाल्तेयर से कहा कि यदि वह समझदारी दिखाए तो उसको रिहा किया जा सकता है। इसपर वाल्तेयर ने कटाक्ष करते हुए कहा,

मुझे बेहद प्रसन्नता होगी, अगर आप मुझे आजाद कर मेरा सम्मान वापस दिलाने का आदेश देते हैं। मैं उम्मीद ही करूंगा कि भविष्य में आपको मुझे दुबारा जेल न भिजवाना पड़े।

इससे सरकार चिढ़ गई। तब तक वाल्तेयर भी खुद को मानसिक रूप से आने वाली परिस्थितियों के लिए तैयार कर चुका था। इसलिए उसकी कलम आगे भी अबाध और निडर बनी रही। सचाई की ताकत, प्रतिबद्धता और जीवनमूल्यों के प्रति ईमानदारीभरा समर्पण, उसकी कलम को निरंतर ऊर्जावान बनाने में कारगर रहा। जेल से छूटने के कुछ ही दिन बाद सफाई का अवसर दिए बिना ही, एक गोपनीय आदेश के माध्यम से वाल्तेयर को फ्रांस से निष्कासित कर दिया गया। इस घटना के बाद वाल्तेयर को फ्रांस की न्याय व्यवस्था की कमजोरियों का पता चला। उसे एहसास हुआ कि फ्रांस की सरकार भी इंग्लैंड की भांति घोर परंपरावादी है। न्याय और व्यवस्था के नाम पर कमजोरों का वहां भी शोषण होता है। वहां भी न्यायाधीशगण सत्ता के दबाव के आगे अपने फैसले बदलते रहे हैं। इसी दौरान उसको राजनीतिक एवं धार्मिक सत्ता के गठजोड़ की जानकारी मिली। इससे उसके मन में समाज के गरीब एवं वंचित वर्ग के प्रति सहानुभूति उमड़ने लगी।

निष्कासन के पश्चात वाल्तेयर इंग्लेंड चला गया। यह उसके जीवन का क्रांतिकारी मोड़ था। इंग्लैंड का खुला बौद्धिक वातावरण उसको खूब पसंद आया। उसे लगा कि वह वहां रहकर अपने विचारों को ईमानदारी से अभिव्यक्त कर सकता है। उत्साह से भरे अगले कुछ महीने उसने अंग्रेजी सीखने में लगाए। प्रतिभाशाली तो वह था ही। मात्र छह महीने में वह धाराप्रवाह अंग्रेजी लिखनेपढ़ने लगा। इससे उसको अंग्रेजी में उपलब्ध पुस्तकों को पढ़ने का अवसर मिल सका। वाल्तेयर वहां अनेक बड़े लेखकों और बुद्धिजीवियों से मिला। शेक्सपियर से तो वह शुरू से ही बेहद प्रभावित था और फ्रांस में रहकर उसके जैसा बनने का सपना देखता था। ब्रिटेन में रहते हुए उसे शेक्सपियर के नाटकों के अध्ययन का अवसर मिला. उसके कुछ नाटकों को उसने फ़्रांसिसी थियेटर के लिए तैयार भी किया. जल्द ही वह शेक्सपियर के प्रमुख आलोचकों में शामिल हो गया. शेक्सपियर के लिए नाटक उसके दर्शकों के लिए कलात्मक मनोरंजन थे. उसके लिए कला केवल कला थी, जबकि वाल्तेयर साहित्य और कला को परिवर्तन हेतु इस्तेमाल करना चाहता था. आगे चलकर उसने स्वयं को शेक्सपियर से बड़ा लेखक दर्शाने की कोशिश भी की।

वाल्तेयर वैज्ञानिक नहीं था, किंतु वैज्ञानिक ज्ञान में उसकी रुचि थी। सर आइजक न्यूटन की प्रकाशसंबंधी खोजों को जानने के बाद वाल्तेयर ने उसकी भूरिभूरि प्रशंसा की। न्यूटन द्वारा किए गए वैज्ञानिक आविष्कारों से परिचय के पश्चात उसकी विज्ञान में रुचि का और भी विस्तार हुआ। यही नहीं इंग्लैंड में रहते हुए वह उस समय के एक और महान वैज्ञानिक, दार्शनिक लाइबिनित्ज के संपर्क में भी आया, जो उन दिनों अपने परमाणु सिद्धांत के कारण चर्चा के शिखर पर थे। लाइबिनित्ज का परमाणु सिद्धांत दार्शनिकता से भरपूर था। वाल्तेयर पर उनके विचारों का प्रभाव भी पड़ा, उसके भीतर वैज्ञानिक सोच का उदय हुआ।

तीन वर्ष के निष्कासन के पश्चात वाल्तेयर पेरिस लौट आया तथा लंदन के अनुभवों के आधार पर ‘फिला॓स्फीकल लेटरर्स आ॓न दि इंग्लिश’ शीर्षक से एक पुस्तक तैयार की। जिसमें फ्रांस तथा इंग्लेंड के सामाजिक परिवेश, मानवाधिकार, लोकतांत्रिक मूल्यों, विशेषकर धार्मिक सहिष्णुता का तुलनात्मक अध्ययन किया गया था। उस पुस्तक के माध्यम से वाल्तेयर ने फ्रांसिसी समाज की आलोचना की थी, जिससे उसके विरोधियों को तत्कालीन शासकों को भड़काने का एक ओर अवसर मिल गया। पुस्तक ने छपते ही बवंडर का काम किया। वहां के धर्माधिकारियों, शासकों को वह बहुत नागवार गुजरी। उसे लेकर जगहजगह विरोध प्रदर्शन किए जाने लगे। अनेक स्थानों पर उस पुस्तक को आग में झोंक दिया गया। मामला यहीं शांत नहीं हुआ। धार्मिक शक्तियों के दबाव ने वाल्तेयर को एक बार पुनः पेरिस छोड़ने को विवश कर दिया गया। वहां से वह ‘दि कायरे’ चला गया।

लगातार भागदौड़ करने से वह उकता गया था। उसका स्वास्थ्य भी गिरने लगा था। अब वह कुछ दिनों तक एक ही स्थान पर जमे रहकर काम करना चाहता था। दि कायरे का वातावरण उसको अपने अनुकूल जान पडा। वहां रहते हुए वाल्तेयर ने शीर्षस्थ बुद्धिजीवियों से संबंध स्थापित किए। इसी क्रम में मारक्वाइज़ के संपर्क में आया। उसके साथ कार्य करते हुए उसने पंद्रह वर्षों के दौरान इकीस हजार से भी दुर्लभ पुस्तक और पांडुलिपियां जमा कीं। उनपर काम करते हुए वाल्तेयर तथा मारक्वाइज़ कई नए प्रयोग किए।

वाल्तेयर ने साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में लिखा। साहित्य एवं विज्ञान के अतिरिक्त वाल्तेयर की इतिहास में भी रुचि थी। उसने फ्रांस के समाज का ऐतिहासिक दृष्टि से भी अध्ययन किया तथा कायरे में रहते हुए एक विशिष्ट पुस्तक की रचना की— जिसका नाम है: दि ऐस्से अपा॓न दि सिविल वार इन फ्रांस। इस पुस्तक में वाल्तेयर ने एक बार फिर धार्मिक रूढ़ियों पर जमकर प्रहार किया। उसने धर्म को चर्च के दायरे से बाहर लाने पर जोर दिया। इन्हीं महीनों के दौरान उसने एक और महत्त्वपूर्ण निबंधात्मक पुस्तक लिखी—किंग चार्ल्स बारह! इस पुस्तक ने वाल्तेयर की प्रसिद्धि को आगे ले जाने में काफी मदद की। इस पुस्तक तक आतेआते वाल्तेयर धर्म का कटु आलोचक बन चुका था। हालांकि उसकी आलोचनात्मक कटुता केवल धर्म के सांस्थानिकीकरण, राजनीतिक अदूरदर्शिता तथा समाज के उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार एवं लूटखसोट को लेकर थी। ईश्वरवादियों का उपहास करते हुए उसने कहा था कि—

ईश्वर एक जोकर या मजाकिया है। जो उन लोगों के लिए तमाशा दिखाता है, जिन्हें हंसने से भी डर लगता है।’

यही नहीं बाईबिल में व्यक्त धार्मिक अवधारणाओं के प्रति अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करते उसने इस पुस्तक में उन्हें तर्क पर कसने का प्रयास भी किया।

1733 . में वाल्तेयर मादाम चैटली के संपर्क में आया, ‘वह (मादाम चैटली) एक सुशिक्षित एवं प्रतिभाशाली महिला थी तथा आनंदमय जीवन को प्राथमिकता देती थी। उसके लिए भरपूर परिश्रम करने से भी उसको परहेज नहीं था। चैटली को अनेक विषयों का ज्ञान था। संभवतः ऐसी कोई पुस्तक नहीं थी जिसको वह पढ़ और समझ न सके। गणित, ज्योतिष और दर्शनशास्त्र का तो उसने गहन अध्ययन किया था। वाल्तेयर तथा मादाम चैटली के स्वभाव में भी काफी अंतर था। वाल्तेयर संवेदनशील, बहुत जल्दी उत्तेजित हो जाने वाला, कोमल दिल वाला इंसान था, जबकि मादाम चैटली एक जटिल तथा अपनी बात पर अड़ी रहने वाली, एक तुनकमिजाज महिला थी। कभीकभी उनके बीच झगड़ा भी हो जाता था। फिर भी दोनों एकदूसरे के प्रति समर्पित थे। वे साथसाथ गणित, ज्योतिष, इतिहास, दर्शन, धर्म का अध्ययन करते थे। संभवतः वे अपने समय के सर्वाधिक प्रतिभाशाली दंपति थे।’

वाल्तेयर तथा उसके दोस्त मारक्वाइज़ की रुचि मेटाफिजिक्स नामक विज्ञान में थी। इसमें जीवन और मृत्यु, ईश्वर की सत्ता के बारे में अनेक सवाल उठाए गए हैं। अपने मित्र मारक्वाइज़ की मौत के बाद वह बर्लिन चला गया। वहां उसके अच्छे दिनों की शुरुआत हुई जब राजा ने उसे बुलाकर अच्छे वेतन पर नौकरी पर रखने का प्रस्ताव किया। वाल्तेयर ने उसका निमंत्रण स्वीकार कर लिया। मगर उसकी परेशानियां सदाबहार थीं। उनका अंत संभव भी नहीं था। बर्लिन में रहते हुए वाल्तेयर को फिर एक मुकदमे का सामना करना पड़ा। उसने एक पुस्तक लिखी थी– Diatribe du docteur Akakia। वाल्तेयर की इस पुस्तक में भी शासकों के ऊपर करारा व्यंग्य किया गया था; जिसपर खूब हंगामा हुआ था। यहां तक कि वाल्तेयर का मित्र फ्रेडरिक ही उस पुस्तक से इतना चिढ़ गया कि उसने उस पुस्तक की सारी प्रतियां खरीदकर उन्हें आग के हवाले कर दिया।

वाल्तेयर वहां से एक बार फिर पेरिस की ओर प्रस्थान कर गया। लेकिन पेरिस में उसके प्रवेश पर लुई पंद्रहवें द्वारा पहले से ही रोक लगाई जा चुकी थी। इसलिए वाल्तेयर को वहां से जिनेवा जाना पड़ा, जहां उसने कुछ जमीन खरीदी हुई थी। जिनेवा में उसको प्रवेश की सशर्त अनुमति ही मिल पाई। बावजूद इसके वह प्रसन्न था। अब वह कुछ दिन एक स्थान पर ठहरकर एकांत में पढ़नालिखना चाहता था। किंतु परेशनियां अब भी उसका पीछा कर रही थीं। जिनेवा में यह आफत एक अलग रूप धरकर आई, जब जिनेवा प्रशासन ने वाल्तेयर के नाटकों के मंचन पर रोक लगा दी। उसके लिए यह सचमुच का आघात था, तो भी उसकी सृजनात्मकता अपना कार्य करती रही।

भारी तनाव और संकट से भरे समय में 1759 में वाल्तेयर ने अपने विश्वचर्चित उपन्यास ‘कांदीद’ की रचना की। इस उपन्यास में लाइबिन्त्जि के दार्शनिक सिद्धांत पर कटाक्ष किया गया है। उपन्यास ने उसको विश्वव्यापी ख्याति प्रदान की। इस पुस्तक का दुनिया की प्रायः सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। मगर इससे भी अधिक यह एक व्यंग्य रचना है। जिसमें धर्मरहित समाज की कल्पना की गई है। न्यूटन से प्रभावित होकर भी वाल्तेयर ने एक पुस्तक की रचना कि, जिसमें उसको भरपूर सराहना मिली। आइरनी’ वाल्तेयर की सुप्रसिद्ध नाट्य कृति है।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी वाल्तेयर ने साहित्य की प्रायः हर विधा पर काम किया और अपनी प्रतिभा की छाप छोड़ी। उसकी रचनाओं में निबंध, उपन्यास, नाटक, बीस हजार से अधिक पत्र, वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आलेख आदि शामिल हैं। वाल्तेयर को लेकर जा॓न इवरसन की टिप्पणी उसके व्यक्तित्व को समझने में हमारी और भी मदद कर सकती है—

वाल्तेयर, जो सतरहवीं और अठारहवीं शताब्दी के बीच उभरा और शताब्दियों तक पूरी दुनिया पर छाया रहा, न तो कोई अजूबा इंसान था, न ही महान योद्धा। इनके स्थान पर वह एक अग्रणी चिंतक और प्रतिभाशाली रचनाकार था, जिसने अपने समय और साहित्य को सर्वाधिक प्रभावित किया। और जो पूरी दुनिया को लेकर अपने समय और समाज के साथ सतत संवाद करता रहा।’

वाल्तेयर की मृत्यु लंबी बीमारी के कारण मई 1778 को उसकी मृत्यु हुई। उस समय भी उसका मस्तिष्क पूरी तरह सक्रिय था। उसकी शवयात्रा बड़ी धूमधाम से निकाली गई। मृत्यु के आभास पर वाल्तेयर ने लिखा कि—

मैं ईश्वर की प्रार्थना करते हुए मृत्यु का वरण कर रहा हूं। मेरे मन में किसी के भी प्रति लेशमात्र घृणाभाव नहीं है। मुझे सिर्फ अंधविश्वासों से नफरत है।’

अठारहवीं शताब्दी का मानवता का सबसे महान समर्थक वह जब मरा तो फ्रांस और यूरोप के लाखों लोगों की आंखें नम थीं। हजारों ने यह महसूस किया कि वाल्तेयर के रूप में उन्होंने अपना सबसे बड़ा हितैषी, विद्वान और महान साहित्यकार खो दिया है। वाल्तेयर का संघर्ष अकारथ नहीं गया। उसकी मृत्यु के बाद उसके समर्थकों का एक बड़ा वर्ग दुनियाभर में पैदा हुआ, जिसने आम आदमी के हितों के संघर्ष को आगे बढ़ाने का काम किया।

विचारधारा

वाल्तेयर के समय फ्रांस में धर्म और राजसत्ता का स्वार्थप्रेरित तालमेल अपने चरम पर था। लोगों का अपने ऊपर से विश्वास टूट चुका था। अपने हालात से वे परेशान तो निश्चय ही थे, मगर बदलाव के लिए किसी बाहरी शक्ति से चामत्कारिक सहायता की उम्मीद लगाए रहते थे। प्रशासनिक स्तर पर चाटुकारिता को नैतिकता मान लिया गया था। सारे सामाजिक निर्णय धर्मसत्ता के दबाव में लिए जाते थे। आम जनजीवन जहां अभावों से भरा पड़ा था, वहीं पुजारी और सामंतवर्ग विलासिता भरा जीवन जीते थे। नागरिकों को त्याग, तपश्चर्य, अस्तेय एवं अपरिग्रह की सीख देनेवाले मठाधीशों का जीवन अपने ही विचारों की खिल्ली उड़ाता था। वे वाचाल अपने ही स्वार्थ में डूबे मूढ़ और घोर परंपरावादी लोग थे, जो अपने सुख के लिए सामाजिक यथास्थिति को बनाए रखना चाहते थे। फ्रांस की आर्थिक स्थिति जर्जर थी। भ्रष्टाचार और राजनीतिक अवसरवाद वहां अपने चरम पर था। इसके कारण देश दिवालियेपन के कगार पर था। समाज में अन्याय और अनाचार अपनी सीमाएं पार करता जा रहा था। सच कहना और न्यायपूर्ण ढंग से आचरण करना अपने सिर पर आफत को निमंत्रण देना था।

अपनी इंग्लैंड यात्रा के दौरान वाल्तेयर वहां के समाज का वैचारिक खुलापन देखकर बहुत प्रभावित हुआ था। उसने अनुभव किया था कि सबके विकास के लिए वैचारिक स्वतंत्रता अनिवार्य है। चूंकि वैचारिक स्वतंत्रता के आड़े सबसे पहले धर्म ही आता था, क्योंकि धर्म की सत्ता परंपराओं पर टिकी हुई थी और पादरीवर्ग जिसपर धर्म की रक्षा तथा उसके प्रचारप्रसार का दायित्व था, उन परंपराओं में किसी भी प्रकार का संशोधन करने को तैयार नहीं था। अतः इंग्लैंड से लौटने के बाद वाल्तेयर ने स्वयं को वैचारिक लेखन के लिए समर्पित कर दिया। हालांकि इसके लिए उसने साहित्य की प्रचलित विधाओं का सहारा भी लिया, किंतु उसका लक्ष्य एकदम साफ और अपने उद्देश्य के प्रति समर्पित था। उसने सामाजिक मूल्यों की स्थापना को अपने चिंतन के केंद्र में रखा और बिना किसी भय के अपनी अभिव्यक्ति को विस्तार दिया।

अपनी रचनाओं के माध्यम से वाल्तेयर ने ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती दी। धर्म के सत्तावाद पर भी उसने कसकर निशाना साधा। इसके लिए उसे समाज की यथास्थिति की समर्थक, प्रतिगामी शक्तियों के भारी विरोध का सामना भी करना पड़ा। वह जेल गया, निष्कासन के दंड को भोगा। मगर उसने हार नहीं मानी और आजीवन अपने विचारों पर डटा रहा। उसने कलम की ताकत का भरपूर उपयोग किया। सतत और उद्देश्यपूर्ण लेखन के द्वारा वह अपने लक्ष्य तक पहुंचने में सफल भी हुआ।

वाल्तेयर ने विपुल साहित्य की रचना की। किंतु उसकी महानता का यही एक कारण नहीं है। उसकी महानता इसमें है कि उसने जनसाधारण को अपने चिंतन के केंद्र में रखा। जनकल्याण के लिए जैसा उसको उपयुक्त लगा उसी तरह उसको अभिव्यक्ति दी। पूरी ईमानदारी और कलात्मकता के साथ। वह स्वतंत्रता को विकास की प्रारंभिक शर्त मानता था। अपने सिद्धांतों की अभिव्यक्ति के लिए वह कभी झुका नहीं। वह इस तथ्य से आहत था कि दुनिया का प्रत्येक धर्म स्वयं को नैतिक मानते हुए स्वतंत्रता का समर्थन तो करता है, किंतु व्यवहार में उसका आचरण एकदम तानाशाही भरा होता है।

वाल्तेयर मनुष्य की सर्वांगीण स्वतंत्रता का समर्थक था। आजादी को उसने विकासमान जीवन की अनिवार्यता के रूप में स्वीकार किया है। उसके लिए वह हर संघर्ष को जायज मानता था और गुलामी से मुक्ति के लिए वह किसी भी प्रकार के प्रयास का समर्थन करने को तैयार था। उसका अपना लेखन राजनीतिक भ्रष्टाचार और वर्चस्ववाद के विरुद्ध एक सार्थक अभियान है। आततायी सत्ता के विरोध द्वारा राजनीति की पवित्रता बनाए रखने के लिए वह आमजन को विद्रोह का अधिकार भी देने को तैयार था, जिसे राजनीतिक गुलामी के जोर पर वर्षों से दबाकर रखा गया है। उसने आवाह्न किया था कि—

यदि मनुष्य आजाद जन्मा है, तो उचित सही है कि वह सदैव आजाद रहेऔर यदि कहीं निष्ठुरता अथवा तानाशाही है तो उसेे उखाड़ फेंकने का अधिकार भी उसको होना चाहिए।’

वाल्तेयर ने यह भी अनुभव किया था कि स्वार्थी धर्मसत्ता एवं राजसत्ता के बीच धर्मसत्ता कहीं अधिक व्यापक एवं असरकारी है। शायद इसलिए कि धर्म जीवन के साथ अधिक गहराई एवं व्यापक संदर्भों में जुड़ा होता है। मनुष्य को जन्म के साथ ही धर्म की अपरिहार्यता की शिक्षा दी जाती है, और चाहेअनचाहे उसके नियमों का पालन करने का निर्देश भी दिया जाता है। राजसत्ता का विरोध संभव और सभ्य समाजों में मान्य भी रहा है। मगर धर्मसत्ता मनुष्य से उसका विरोध करने का अधिकार ही छीन लेती है। वह केवल अंधअनुसरण की अपेक्षा रखती है। ऐसा न कर पाने पर वह सामाजिक रूप से दंड का प्रावधान रखती है। धर्म का यही तानाशाही भरा रवैया उसको यथास्थितिवादी बनाए रखकर, विकास के अवरोधक के रूप में खड़ा कर देता है। धर्म की इसी कमजोरी के कारण वाल्तेयर ने उसको अपनी आलोचना का विषय बनाया और उसके नाम पर होने वाले अन्याय, अनाचार एवं अन्य दुरभिसंधियों का विरोध करते हुए, तर्कपूर्ण ढंग से जीवन में धर्म की आवश्यकता का निषेध किया है।

डा॓क्टरीन आ॓फ फला॓सफी’ में उसके विचार खुलकर सामने आए हैं। इस पुस्तक में वाल्तेयर ने फ्रांस की तत्कालीन राजनीतिकधार्मिक अराजकता और सर्वसत्तावाद की आलोचना करते हुए समाज में मनुष्य की आजादी का पक्ष लिया है। अपनी पैनी व्यंग्यात्मक शैली मे उसने धर्मसत्ता और उसपर नियंत्रण रखने वाले लोगों की विकट आलोचना की है। इसके लिए उसने बाईबिल को भी नहीं छोड़ा था। वह स्वयं को नास्तिक मानता था। ईश्वरीय सत्ता के बारे में उसका मानना था कि ईश्वर की कल्पना, स्वार्थी और परजीवी किस्म के लोगों ने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए की है। धर्म उनके पापकर्म के लिए आड़ का काम करता है और उनके द्वारा गढ़ा गया ईश्वर उनके अनाचारों को पोषणसंरक्षण प्रदान करता है।

जनसाधारण की ईश्वरसंबंधी अवधारणा का उपहास करते हुए उसने लिखा है कि—

ईश्वर एक ऐसे वृत के समान है, जिसका केंद्र अनंत है और विस्तार शून्य।

वाल्तेयर आजीवन लेखन के प्रति समर्पित रहा था। उसने अनेक पुस्तकें, विपुल मात्र में लेख आदि लिखे। लेकिन यह सब ना होकर केवल कांदीद ही उसकी एकमात्र पुस्तक होती तो भी वाल्तेयर की महानता एवं प्रतिष्ठा इतनी ही होती। जीवन के अंतिम दिनों में लिखा गया वाल्तेयर का यह उपन्यास तत्कालीन समाज के बौद्धिक दिवालियेपन पर गहरा कटाक्ष करता है। इसमें राजनीति की स्वार्थपरता और अदूरदर्शिता को व्यंजनात्मक शैली में बहुत ही खूबसूरती एवं कलात्मकता के साथ अभिव्यक्ति प्रदान की गई है। यही नहीं धर्मसत्ता पर विराजमान पंडेपादरियों पर भी वाल्तेयर ने खूब कटाक्ष किया है।

हालांकि धर्म पर लगातार प्रहार के कारण वाल्तेयर ने अपने अनेक दुश्मन भी बना लिए थे। धार्मिक और सामाजिक मामलों को लेकर वह जो सोचता, वही लिखता था। जो उसको अच्छा लगता था उसका वह सम्मान करता था। उसने साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में काम करते हुए दुनियाभर में प्रसिद्धि बटोरी और अपने असंख्य समर्थक पैदा किए। वाल्तेयर के विचारों से प्रगतिशील आंदोलन को और अधिक गति मिली। उसने भले ही बड़ेबड़े वैचारिक ग्रंथ न लिखे हों, मगर उसके विचार एवं मौलिक अवधारणाएं, उसकी रचनाओं में इतने प्रभावी ढंग से पिरोयी होती थीं कि वे जनमानस पर सीधे असर करती थीं। वाल्तेयर के नाटकों और लेखों ने तत्कालीन फ्रांस में जनचेतना लाने का कार्य किया। वह उन विद्वानों में से था, जिसने अठारवीं शताब्दी को सर्वाधिक प्रभावित किया। वाल्तेयर का मानना था कि जब—

सरकार जब गलत रास्ते पर हो तो और सुधरने की कोई संभावना ही शेष न हो, तो सभ्य बने रहना बहुत खतरनाक सिद्ध होता है।’

जिनेवा प्रवास के दौरान वाल्तेयर ने एक बड़े आश्रम (Ferney) की स्थापना की थी, जो जिनेवा से मात्र पांच किलोमीटर की दूरी पर था। उन दिनों जिनेवा एक स्वतंत्र राज्य था। उस आश्रम में किसी भी धर्म या विश्वास को मानने वाला, अमीरगरीब कोई भी आजा सकता था। जब तक मन हो वहां ठहर सकता था। इसलिए उस आश्रम में मेहमानों का आगमन होता ही रहता था। आश्रम में भोजनादि की सेवाएं निःशुल्क प्रदान की जाती थीं। करीब साठ सेवक उनके भोजन के लिए तैनात रहते थे। आश्रम का जीवन अनुशासित था। समय का वहां विशेष ध्यान रखा जाता था। प्रत्येक रविवार को वाल्तेयर आश्रम के लोगों को संबोधित करता था, उस समय वह अपनी गोद में एक बच्चे को रखता था, जिसे उसने गोद लिया हुआ था। इस प्रकार वाल्तेयर समाज के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करता था। आगे चलकर आश्रम में एक चर्च की स्थापना भी की गई। जिसमें सहजीवन को प्राथमिकता दी जाती थी।

वाल्तेयर के आश्रम की तुलना हम ओवेन द्वारा स्थापित आश्रमों से कर सकते हैं। ओवेन के समय तक आतेआते समाजवादी चेतना परिपक्व होने लगी थी। इसीलिए उसके द्वारा स्थापित आश्रमों में सहजीवन का अधिक परिष्कृत एवं सफल रूप देखने को मिलता है। बावजूद इसके वाल्तेयर ने जिस नैतिकता आधारित जीवन पद्धति का आरंभ अपने आश्रम के माध्यम से किया, तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।

वाल्तेयर को प्रकृति से कोई मोह नहीं था। उसका बस एक ही काम था। लिखना, लिखना और लिखना, मनुष्यता की स्थापना के लिए लगातार लिखना। इसलिए अपने जीवनकाल में उसने विपुल साहित्य की रचना की है। मन से उदार प्रवृत्ति का था। यहां तक कि खुद को नुकसान पहुंचाने वालों के प्रति भी वह नर्म और मेहरबान था। क्लेरेंस डेरो ने अपने आलेख में आश्रम की एक घटना का उल्लेख किया है, जो वाल्तेयर की उदारता को दर्शाती है। घटना कुछ इस प्रकार है—

एक बार आश्रम के दो नौकरों को चोरी के इल्जाम में पकड़ लिया गया। पुलिस की सख्त पूछताछ के दौरान उन्होंने अपना अपराध भी स्वीकार कर लिया। वाल्तेयर को यह सूचना मिली तो वह उद्धिग्न हो गया। उसने फौरन आश्रम के प्रबंधक बुलाया और कहा कि वह नौकरों से कहे कि वे किसी भी प्रकार भाग जाएं। यही नहीं उसने उन दोनों को भागकर किसी सुरक्षित स्थान तक पहुंचने के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था भी की। इसके लिए वाल्तेयर का कहना था कि—

यदि गिरफ्तार करने के पश्चात पुलिस उनपर मुकदमा चलाती है तो उसमें इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह उन्हें सजा से बचा सके।’

लेखन के आरंभिक वर्षों में वाल्तेयर शेक्सपियर से काफी प्रभावित था। 1720 में ब्रिटेन में निर्वासित जीवन जीते हुए उसने शेक्सपियर के नाटकों में रुचि लेना आरंभ किया था। उसके नाटकों की कलात्मकता, उत्कृष्ट शैली से वह प्रभावित हुए बिना न रह सका। यह प्रभाव 1728 में फ्रांस लौटने के बाद भी बना रहा। आरंभ में वह न केवल शेक्सपियर की शैली को अपनाना चाहता था, बल्कि उसके कुछ चर्चित नाटकों का फ्रांसिसी थियेटर के लिए पुनर्लेखन भी किया था। धीरेधीरे शेक्सपियर के प्रति उसके मन में मतभेद उभरने लगे। उन दिनों ब्रिटेन में शेक्सपियर की प्रतिष्ठा बढ़ रही थी। वाल्तेयर की आलोचना ने उसकी ख्याति को नुकसान भी पहुंचाया। शेक्सपियर के नाटक इंग्लेंड के अभिजात वर्ग के मनोरंजन के लिए थे। जबकि वाल्तेयर का विश्वास मानवमात्र की स्वतंत्रता में था। शेक्सपियर को नाटक लिखने में अद्वितीय ख्याति मिली। एक कांदीद नामक उपन्यास को छोड़कर वाल्तेयर की कोई भी अन्य पुस्तक लोकप्रियता के मामले में शेक्सपियर की पुस्तकों की बराबरी नहीं कर सकी। किंतु मनुष्यता, स्वाधीनता एवं जीवन में नैतिकता के समर्थक के रूप में वाल्तेयर की प्रतिष्ठा शेक्सपियर से कहीं आगे है। शेक्सपियर का लेखन जनरुचि विशेषकर औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप तेजी से उभरते जा रहे मध्यवर्ग के मनोरंजन की शर्तों को पूरा करता था। इसी वर्ग ने शेक्यपियर को विश्व के साहित्यकारों में अमर बनाने का काम किया। उसके सापेक्ष वाल्तेयर कर लेखन मनुष्यमात्र के सरोकारों को लेकर प्रतिबद्ध लेखन था। शेक्सपियर के लिए कला प्रमुख थी, जबकि वाल्तेयर के लिए जीवनमूल्य। इतिहास में वाल्तेयर की भूमिका एक शाश्वत जिद्दी किस्म के इंसान की है। उसने सत्ता, चाहे वह धर्म की हो अथवा राज्य की, सभी के विरुद्ध अपनी कलम का इस्तेमाल किया।

वाल्तेयर के एक बेहद चर्चित नाटक के गीत का आशय है—

उठोउठो! और अपनी शृंखलाएं तोड़ डालो!’

वाल्तेयर की महानता इसमें भी है कि उसने जीवनभर जो भी लिखा, उसको पहले अपने तर्क की कसौटी पर कसा, फिर उपयुक्त पाए जाने पर उसको जनता तक पहुंचाने का ईमानदार प्रयास भी किया। इसके लिए उसने कविता और नाटक जैसी लोकरुचि की विधाओं को अपनाया। अपने विचारों को जनजन तक पहुंचाने के लिए उसने परचों का सहारा लिया। उसने जनहित से संबंधित मुद्दों पर अनगिनत परचे छपवाकर जनता में प्रचारित किए। अपने विचारों को स्पष्ट करने के लिए वाल्तेयर ने सहजसरल भाषा का सहारा लिया, जिससे उसको बेशुमार ख्याति मिली। राजनीति और धर्मसत्ता के प्रबल अंतर्विरोधों को स्पष्ट करने के लिए उसने व्यंजना का सहारा लिया, जिससे उसकी लोकप्रियता उत्तरोत्तर बढ़ती चली गई। वाल्तेयर के सरोकार पूरी तरह मानवीय थे। उसके लंबे जीवन में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है, जब उसने अपने सिद्धांतों के प्रति समझौतावादी रुख अपनाया हो या अपनी आलोचना से घबराकर वह किसी भी प्रकार के समर्पण को तैयार हो गया हो। वह एक उदार, प्रतिभाशाली, सरल और विवेकवान इंसान था।

वाल्तेयर की सबसे बड़ी विशेषता थी उसकी सचाई, सच कहने का स्वाभाव। हालांकि अपनी स्पष्टोक्तियों के कारण उसको अनेक बार परेशानियों का सामना करना पड़ा था। एक बार एक परिहास के दौरान वाल्तेयर के सचिव ने उससे पूछा था—

सर क्या होता यदि आपका जन्म स्पेन में हुआ होता?’

इसपर वाल्तेयर ने जवाब दिया—

तब मैं प्रतिदिन प्रतिदिन चर्च जाया करता। एक दिन वहां पादरी के चोगे को चूमता और उसके सारे शिक्षण संस्थानों को आग के हवाले कर देता।’

मानवीय आत्मसम्मान के लिए संघर्ष करने वालों में वाल्तेयर का नाम सर्वोपरि है। उसके योगदान को लेकर क्लेरेंस डेरो ने एक बड़ी भावपूर्ण टिप्पणी की है—

पश्चिमी जगत से हिंसा और कटुता को दूर कर उसको उदार एवं मानवीय बनाने वाले महानायकों में दूसरा कोई महानायक नहीं है, जिसका नाम और काम वाल्तेयर की बराबरी कर सकें।’

वाल्तेयर की मेधा निःसंदेह अनुपम थी। मनुष्यता के इतिहास में उसका योगदान महानतम और अविस्मरणीय की श्रेणी में आता है। रूसो भी वाल्तेयर का समकालीन था। दोनों में परस्पर संपर्क था। दोनों ही अपनी किस्म के विशिष्ट विद्वान, मानवीयता के समर्थक और आलोचक थे। रूसो की सर्वाधिक चर्चित पुस्तक ‘दि सोशल कांट्रेक्ट’ की वाल्तेयर ने जमकर आलोचना की थी। वाल्तेयर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर क्लेरेंस डेरो ने बहुत सटीक टिप्पणी की है—

वाल्तेयर कदकाठी में छोटा, देखने में बेहद कमजोर और दुबलापतला था, लेकिन उसमें कमाल की फुर्ती थी. तेज दिमाग और प्रखर मेधा के बल पर उसका व्यक्तित्व पूरी जिंदगी चमचमाता रहा. अपने जीवन में उसने हर बौद्धिक चुनौती का साहसपूर्वक ढंग से सामना किया. यह सही है कि जीवन में उसको कई बार समझौते भी करने पड़े. जो उसके प्रशंसकों को बहुत नागवार गुजरते है. वे चाहते हैं कि वाल्तेयर भी ब्रूनो (Bruno) और सर्वेतिस(Servetus) की भांति, जिन्हें कट्टरपंथियों ने आग में जीवित जला दिया गया था, अपने विचारों पर अटल रहता. लेकिन महान व्यक्तित्वों का आकलन इस प्रकार नहीं किया जाता. अपनेअपने स्थान पर सभी महत्त्वपूर्ण एवं महान हैंवाल्तेयर भावुक और दयालु था. उसके दिल में दूसरों के लिए प्यार समाया हुआ था. तन से वह दूसरों के लिए समर्पित था. इतिहास के उन महानायकों में जिन्होंने पश्चिमी समाज से कट्टरता और निर्दयता को समाप्त करने में प्रमुख भूमिका निभाई, कोई भी वाल्तेयर की बराबरी नहीं कर सकता.

ओमप्रकाश कश्यप.

गांधी-पेरियार संवाद

पेरियार और गांधी के बीच यह संवाद बंगलौर में हुआ था, जो उन दिनों मैसूर का हिस्सा था. वर्ष था 1927. इस संवाद में पेरियार जहाँ प्रखर हैं, गांधी सुरक्षात्मक मुद्रा में दिखाई पड़ते है. मामला तर्क का हो तो धर्म के दांव-पेंच काम नहीं आते. इसलिए जो धार्मिक जन हमेश आस्था का पल्लू थामकर चलते हैं.   

ई. वी. रामासामी:हिंदू धर्म को मिट जाना चाहिए।
गांधी:क्यों?
ई. वी. रामासामी:हिंदू धर्म नाम का कोई धर्म ही नहीं है
गांधी:वह है?
ई. वी. रामासामी:यह ब्राह्मणों द्वारा फैलाई गई भ्रांति है।
गांधी:सभी धर्म ऐसे ही हैं।
ई. वी. रामासामी:नहीं! दूसरे धर्मों का इतिहास है, आदर्श हैं और कुछ सिद्धांत हैं, जिन्हें लोग स्वीकार करते हैं।
गांधी:क्या हिंदू धर्म में ऐसा कुछ नहीं है?
ई. वी. रामासामी:वहां कहने लायक क्या है? सिवाय जातीय भेदभाव और ऊंच-नीच जैसे ब्राह्मण, शूद्र और पंचम(अछूत) के। उसकी कोई आचार संहिता नहीं है। न ही उसका कोई साक्ष्य है। इस जन्माधारित विभाजन में भी ब्राह्मणों को ऊंचा माना जाता है। जबकि शूद्र और पंचम को नीची जाति का कहा जाता है।
गांधी:कम से कम इसमें ये सिद्धांत तो हैं।
ई. वी. रामासामी:बिलकुल हैं, मगर क्या उपयोग है इनका? इनके अनुसार ब्राह्मण ऊंची जाति में जन्मे हैं; तथा मेरा और आपका संबंध निचली जाति से है।
गांधी:आप गलत कहते हैं। वर्णाश्रम धर्म में ऊंची जाति और नीची जाति जैसा कोई विभाजन नहीं है।
ई. वी. रामासामी:आप ऐसा कह तो सकते हैं, मगर रोजमर्रा के जीवन में ऐसा कहीं देखने में नहीं आता।
गांधी:नहीं, समानता है और उसे व्यावहारिक रूप से देखा जा सकता है।
ई. वी. रामासामी:जब तक हिंदू धर्म है, तब तक कोई इसे हासिल नहीं कर सकता।
गांधी:हिंदू धर्म का पालन करते हुए व्यक्ति इसे हासिल कर सकता है।
ई. वी. रामासामी:यदि ऐसा है तो ब्राह्मण-शूद्र के बीच अंतर दर्शाने वाले धार्मिक साक्ष्यों के बारे में क्या कहेंगे?
गांधी:आप केवल इस बारे में तर्क दें हिंदू धर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए कोई साक्ष्य नहीं है।
ई. वी. रामासामी:मैं कह चुका हूं कि ऐसा कोई धर्म है ही नहीं। इसलिए उसको सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण भी नहीं है। यदि धर्म के अस्तित्व को स्वीकार लिया जाए, तो प्रकारांतर में उसका अस्तित्व भी स्वत: प्रमाणित हो जाता है।
गांधी:हम धर्म को स्वीकार कर, उसके समर्थन में साक्ष्य जुटा सकते हैं।
ई. वी. रामासामी:यह असंभव है। यदि धर्म की उपस्थिति को स्वीकार लिया गया तो उससे जुड़ी चीजों में कुछ भी बदलना या सुधार करना असंभव होगा।
गांधी:जहां तक दूसरे धर्मों का संबंध है, आप जो कह रहे हैं, वह सही है। किंतु हिंदू धर्म के बारे में यह सच नहीं है। इसे स्वीकारने के बाद आप कुछ भी कर सकते हैं; और इसके नाम पर कर सकते हैं। उस पर कोई भी आपत्ति नहीं करेगा।
ई. वी. रामासामी:आप यह कैसे कह सकते हैं? कौन इससे सहमत होगा? क्या आप इस काम में अग्रणी भूमिका निभा सकते हैं?
गांधी:आपने जो भी कहा वह सच है। मैं मानता हूं कि इस तरह से हिंदू धर्म नामक कोई धर्म नहीं है। मैं इससे भी सहमत हूं कि इसकी कोई निश्चित आचार-संहिता नहीं है। इसीलिए मैं कहता हूं कि अपने ऊपर हिंदू का ठप्पा लगाकर हम, जो भी आदर्श हमें पसंद हैं, वही आदर्श हम इसके लिए निर्धारित कर सकते हैं। मैं तो कहूंगा कि केवल हिंदू धर्म ही लोगों को सही दिशा में ले जा सकता है। चूंकि दूसरे धर्मों का इतिहास, सिद्धांत और साक्ष्य मौजूद हैं, इसलिए यदि कोई उनमें बदलाव करता है तो वे समाप्त हो जाएंगे। ईसाइयों को वही करना चाहिए जो जीसस और बाईबिल ने कहा है। इसी तरह मुस्लिम वैसा ही जीवन जीते हैं, जैसा पैगंबर मोहम्मद साहब और कुरान ने उन्हें जीने को कहा है। उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन करना, इन धर्म ग्रंथों में दिए गए धर्मादेशों के विरुद्ध है। जो इनके धर्मादेशों को मानने से इन्कार करते हैं, वे इनसे बाहर आ सकते हैं। मगर भीतर रहकर सवाल उठाने की अनुमति उन्हें नहीं होती। दूसरे धर्मों का यही असली चरित्र है। उनसे अलग, हिंदू धर्म में कोई भी आगे आकर, बिना किसी बाधा-आक्षेप के कुछ भी उपदेश दे सकता है। इस धर्म ने कई महान व्यक्तित्व हमें दिए हैं, उन्होंने बहुत-सी अच्छी बाते कही हैं। इसलिए हिंदू धर्म में रहते हुए हम इसे सुधार सकते हैं तथा मनुष्यता के हित में अनेक अच्छे कार्य कर सकते हैं।
ई. वी. रामासामी:माफ करना, यह संभव नहीं है।
गांधी:क्यों?
ई. वी. रामासामी:हिंदू धर्म का आत्मकेंद्रित समूह आपको ऐसा करने की अनुमति नहीं देगा।
गांधी:आप ऐसा क्यों कहते हैं? क्या हिंदू इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि इस धर्म में अस्पृष्यता जैसी कोई चीज नहीं है?
ई. वी. रामासामी:नीति वचनों को स्वीकार करने तथा उनपर अमल करने में बड़ा अंतर होता है। इसलिए इसे व्यवहार में उतारना बड़ा ही कठिन है।
गांधी:मैंने यह किया है। क्या आप नहीं मानते कि पिछले चार-पांच वर्षों में सुस्पष्ट बदलाव देखने में आए हैं?
ई. वी. रामासामी:मैं समझता हूं, लेकिन वास्तव में कोई बदलाव नहीं हुआ है। यह केवल आपकी लोकप्रियता के कारण है। इस कारण भी है कि उन्हें आपकी जरूरत है। इसलिए स्वहित से परे जाकर वे आपकी आज्ञाओं का पालन करने का दिखावा करते हैं। बदले में आप उनपर विश्वास करते हैं।
गांधी:(हंसकर) वे कौन हैं?
ई. वी. रामासामी:सभी ब्राह्मण।
गांधी:क्या ऐसा है?
ई. वी. रामासामी:बिलकुल! उसी मंतव्य के साथ, सभी ब्राह्मण जो आपके साथ हैं।
गांधी:ऐसा है, क्या आप किसी भी ब्राह्मण पर भरोसा नहीं करते?
ई. वी. रामासामी:वे मुझे लुभाने में नाकाम रहे हैं।
गांधी:क्या आप राजगोपालाचारी पर भी विश्वास नहीं करते?
ई. वी. रामासामी:वे भले हैं, ईमानदार हैं; और उन्होंने बलिदान भी दिए हैं। किंतु ये नेक काम उन्हें अपने समुदाय की भली-भांति सेवा करने में मदद करते हैं। इसमें वे नि:स्वार्थ भी हैं। लेकिन उनके हितों के लिए मैं अपने समुदाय के हितों को गिरबी नहीं रख सकता।
गांधी:मुझे यह सुनकर हैरान हूं। यदि कसौटी है, तो आपकी राय में दुनिया-भर में ईमानदार ब्राह्मण को खोज पाना बड़ा मुश्किल है।
ई. वी. रामासामी:हो सकता है या नहीं भी हो सकता। मैंने ऐसा कोई ब्राह्मण नहीं देखा।
गांधी:ऐसा मत कहिए….मैं ऐसे ब्राह्मण से मिल चुका हैं। आज भी मैं उन्हें श्रेष्ठ ब्राह्मण मानता हूं, वे हैं—गोपाल कृष्ण गोखले।
ई. वी. रामासामी:आप जैसा महात्मा भी पूरी दुनिया में केवल एक नेक ब्राह्मण को खोज पाया है। फिर मेरे जैसे साधारण पापी के लिए, किसी अच्छे ब्राह्मण की खोज करना भला कैसे संभव है?
गांधी:(हंसते हुए) संसार हमेशा ही बुद्धि के नियंत्रण में रहा है। ब्राह्मण पढ़े-लिखे हैं। वे हमेशा ही दूसरों पर शासन करते रहेंगे। इसलिए उनकी आलोचना करने से किसी का किसी लाभकारी उद्देश्य की सिद्धि असंभव है। दूसरे लोगों को भी उनके स्तर तक पहुंचना पड़ेगा।
ई. वी. रामासामी:दूसरे धर्मों में हमें ऐसे लोग दिखाई नहीं पड़ते। केवल यहीं पर, हिंदू धर्म में ही, ब्राह्मण बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। बाकी 90 प्रतिशत लोग या जो अशिक्षित रह जाते हैं अथवा अज्ञानी। इसलिए, यदि किसी समाज में उसका केवल एक समूह बुद्धिमान, पढ़े-लिखे और साहित्यकार वर्ग में गिना जाता है, तो क्या यह उस समाज के बाकी वर्गों के लिए हानिकारक नहीं है! इसी कारण है मैं हमेशा जोर देता आया हूं कि धर्म जो इस विसंगति का मुख्य कारण है—को समाप्त हो जाना चाहिए।
गांधी:आप किस ओर हैं? क्या मैं मान सकता हूं कि आप हिंदू धर्म के उच्छेद के साथ-साथ समाज से ब्राह्मणों को खत्म करने के भी पक्ष में है?
ई. वी. रामासामी:यदि यह बनावटी हिंदू धर्म समाप्त हो जाता है, तो कोई भी ब्राह्मण नहीं रहेगा। हम मेहनतकश(शूद्र) वर्ण से हैं। सब कुछ ब्राह्मणों के हाथों में है।
गांधी:यह सही नहीं है। क्या अब वे मेरी नहीं सुनेंगे? हिंदू धर्म के झंडे तले एकजुट होकर हम अब भी इसके नकारात्मक पक्षों को दूर करना चाहेंगे।
ई. वी. रामासामी:मेरी विनम्र राय है कि आप इस लक्ष्य को कभी प्राप्त नहीं कर सकते। यदि आप ऐसा कर पाए तो भविष्य में आप जैसा ही कोई महान व्यक्तित्व सामने आकर आपकी सारी मेहनत पर पानी फेर देगा।
गांधी:यह कैसे संभव होगा?
ई. वी. रामासामी:आपने पहले कहा है कि हिंदू धर्म के नाम पर कोई भी व्यक्ति जनता की विचारधारा को व्यक्ति-विशेष की विचारधारा का अनुगामी बना सकता है। इसी का अनुसरण करते हुए भविष्य में कोई भी बड़ा व्यक्तित्व हिंदू धर्म के नाम पर कुछ भी कर सकता है।
गांधी:भविष्य में किसी भी व्यक्ति द्वारा परिवर्तन की कोशिश करना व्यावहारिक नहीं है।
ई. वी. रामासामी:यह कहने के लिए मुझे क्षमा करें। हिंदू धर्म की मदद से स्थायी और बड़ा कर पाना आपके लिए संभव नहीं है। ब्राह्मण आपको ऐसा करने की अनुमति नहीं देंगे। यदि आपने उनके हितों के विरुद्ध कुछ भी किया तो वे आपके खिलाफ युद्ध छेड़ देंगे। आज तक किसी भी महापुरुष ने बदलाव की कोशिश नहीं की है। यदि किसी ने ऐसा करने की कोशिश की तो ब्राह्मण कभी उसे वैसा करने का अवसर नहीं देंगे।
गांधी:आपके भीतर ब्राह्मणों के प्रति नफरत भरी हुई है। वही आपकी चिंतनधारा को सर्वाधिक प्रभावित करती है। मैं सोचता हूं कि अपनी बातचीत के दौरान अभी तक हम किसी नतीजे पर नहीं पहुंचे हैं। यद्यपि हम भविष्य में दूसरी या तीसरी बार मिलेंगे और अपने पक्ष के बारे में फैसला करेंगे।

बी. एस चंद्रबाबू नायडू की पुस्तक ‘सोशल प्रोटेस्ट इन तमिलनाडु'(1993), एमराल्ड पब्लिशर्स से अनूदित. फोटो मॉडर्न रेशनलिष्ट