बालक और समाज

कोई भी समाज चाहे जितना उदार हो, वह हमेशा चाहता है कि भविष्य के नागरिक के रूप में बालक स्थापित मान्यताओं को समझे, उनका पालन करे. उसकी आचारसंहिता, रीतिरिवाजों को अपनाए तथा तयशुदा मर्यादाओं में रहकर व्यवहार करे. यह न तो अनुचित है न ही अस्वाभाविक. आखिर समाज किसी एक व्यक्ति या एक दिन की रचना तो नहीं! उसको बनने में सैकड़ों वर्ष लग जाते हैं. हजारों लोग उसकी विकासमान अवस्था को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार होते हैं. जबकि लाखोंकरोड़ों व्यक्ति उसकी आचारसंहिता जिसे प्रायः पंरपरा अथवा रीतिरिवाज कहा जाता है, से जुड़े हो सकते हैं. यह डर भी अन्यथा नहीं है कि समाज यदि अपने प्रत्येक नागरिक को तयशुदा नियमों, मर्यादाओं के पालन से छूट देने लगे तो उसका मूलभूत ढांचा ही चरमरा जाएगा. सभ्यता और संस्कृति के तब कोई मायने ही नहीं रहेंगे. बालक को यह छूट न दिए जाने के संबंध में एक तर्क यह भी हो सकता है कि उसे समाज के बारे में बहुतकुछ सीखनासमझना होता है. किसी परंपरा या रीतिरिवाज की अंतर्निहित विशेषताओं, उसकी खूबियोंखामियों को समझने के बाद ही उसकी आलोचनासमीक्षा करना न्यायसंगत माना जाता है. तदनुसार बालक से अपेक्षा होती है कि स्वयं को योग्य शिष्य दर्शाते हुए उससे जितना बन पड़े, गुरुसमाज से ग्रहण करे. समाज का दिया लौटाने को तो उम्र पड़ी है.

 

सुनने में यह बहुत तर्कसंगत और आदर्श प्रतीत होता है. समस्या यह है कि जिसे हम सीखना कहते हैं, वह स्थापित मान्यताओं, रीतिरिवाजों, विभिन्न ज्ञानशैलियों का बोध तथा उसके प्रति अनुकूलन है. औपचारिक शिक्षा का अधिकांश विद्यार्थी को समाज अथवा समाजों की सभ्यता, सांस्कृतिक विशेषताओं, उपलब्धियों से परचाने पर खर्च होता है, उसमें बालक के मौलिक विकास की बहुत कम संभावना होती है. प्रकट में हर समाज मौलिक ज्ञान को बढ़ावा देने की बात करता है. इसके निमित्त भारीभरकम तामझाम भी रचता है, मगर तब उसका आयोजन एकपक्षीय होता है. उसकी खास सुविधाएं अभिजनवर्ग से आगे बढ़ ही नहीं पातीं. निर्णायक पदों पर विराजित अभिजन समाज के बहुसंख्यक वर्ग को बहुत आसानी से छोटेछोटे गुटों में बांट देते हैं. इतने छोटे कि संख्याबल में कहीं अधिक होने के बाबजूद जनसाधारण स्वयं को शक्तिविहीन मान लेता है. यही विश्वास उसको समझौतावादी बनाए रखता है. निर्णायक पदों पर विराजमान अभिजन वर्ग समाज की कुल पूंजी एवं संसाधनों का उपयोग अपने वर्गीय हितों की पूर्ति हेतु करता है. बालक के संबंध में अभिजन मानसिकता, उसको भविष्य का अभिजन बनाने के प्रलोभन के बहाने, फिलहाल निर्णय प्रक्रिया से किनारे कर देने की होती है. पूंजी आधारित समाजों में जहां हर नई खोज पूंजीपति की तिजोरी को भरने के काम आती है, समाज, सभ्यता और संस्कृति के कमजोर पक्षों पर चर्चा या तो की नहीं जाती अथवा उसके मायने इस प्रकार बदल दिए जाते हैं कि अपनी सत्ता और पहुंच के अनुचित इस्तेमाल से अभिजन वर्ग द्वारा अर्जित वैभवसंपदा, मानसम्मान आदि उसका अधिकार मान लिए जाते हैं. अभिजन वर्ग की चालाकी से अनजान जनसमाज दुरवस्था को अपनी नियति मानने लगता है. यह आवश्यक नहीं कि जिस चालाकी को बड़े समझ न पाएं उसको बालक एकाएक समझ ले, लेकिन यदि अपनी प्रखर बुद्धिचेतना से सब कुछ देखता, महसूस करता हुआ कोई बालक उस अवस्था में यदि कोई प्रतिक्रिया दर्ज कराना चाहे तो उसे युवा होने; कम से कम उस उम्र तक इंतजार करना पड़ता है, जब उसके निर्णय को कानून के दायरे में परखा जा सके. तब तक वह परिवार तथा अन्यान्य जिम्मेदारियों में इतना गहरा फंस चुका होता है कि समझौते और समर्पण से अलावा कुछ सोच ही नहीं पाता.

 

ज्ञान की खोज एवं संवितरण के लिए स्वयं को समर्पित मानने वाले आकादमिक सदनों का ढांचा भी इससे अलग नहीं है. परीक्षा में पूछे गए प्रश्न के उत्तर में छात्र यदि अपनी मर्जी से कुछ लिख आए तो उसे पास होने की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए. बालक को ज्ञानार्जन के लिए उत्सुक करने के बजाय वह उसके सोच एवं आचरण की दिशा निर्धारित करने पर जोर देता है. शिक्षा का काम हैबालक की चिंतनशक्ति को ऊर्जस्वित करना, न कि उसको विशिष्ट दायरों तक सीमित करना. इसके बावजूद बालक की रुचि के क्षेत्रों की पहचानकर अपनी उदारता का दम भरनेवाले समाज भी शिक्षा और संस्कार के माध्यम से तयशुदा व्यवस्था से अनुकूलन की सीख ही दे पाते हैं. बालक के आलोचनात्मक विवेक को उभारने की कोशिश की ही नहीं जाती. अपनी ओर से वह कुछ मौलिक करना चाहे तो डांटकर चुप करा दिया जाता है. हंसकर टाल देना समझदारी कही जाती है. यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य बाल्यावस्था से लेकर किशोरावस्था तक सर्वाधिक सचेतन, संवेदनशील, जिज्ञासु एवं मौलिक होता है. अपने आसपास के परिवेश को समझने की उसकी जिज्ञासा इस अवस्था में चरम पर होती है. उसका जितना उपयोग ज्ञानार्जन और ज्ञान की विभिन्न पद्धतियों को सिखाने, संवारने, बालमन की कमजोरियों को सामने लाने में किया जा सके, उतना ही लोकहित में है. अब इसे हम अतीत के प्रति अपना अतिरेकी सम्मोहन कहें अथवा नएपन को अपनाने का डर, जो परंपरा के माध्यम से प्राप्त सुविधाओं, उन सुविधाओं के छिन जाने के भय से जन्मते हैं, जो हमारी अपनी योग्यता, कौशल के बजाय विरासत में प्राप्त हुई हैं—हम बालक को स्थापित परंपराओं एवं संस्कृति के मानकों से जोड़े रखने में ही अपनी भलाई समझते हैं. मामूली विचलन पर हमारी धड़कनें बढ़ जाती हैं. यह भूल जाते हैं कि जीवन केवल सामाजिक, सांस्कृतिक मानकों द्वारा अनुशासित नहीं होता. वह समाज की भौतिक संपदा, उत्पादन तथा उपभोग से भी नियंत्रित होता है. बालक घर से बाहर जाता है तो परंपरा एवं संस्कृति उसके मनस् पर सवार होते हैं, जबकि भौतिक सुविधाएं तथा अन्य प्रलोभन आंखों के सामने. उनका आकर्षण इतना जबरदस्त होता है कि व्यक्ति अपने मनोभावों की उपेक्षा करके भी उनमें डूब जाना चाहता है. सामाजिकसांस्कृतिक संरक्षण और विकास के नाम पर दी गई शिक्षा वहां बहुत कारगर नहीं होती. स्वयं को सफलता की दौड़ में बनाए रखने के लिए बालक चीजों को पूरी तरह समझने के बजाय केवल उसका नाटक करने लगता है. आरंभिक सफलता बौद्धिकता के इस छदम् को उत्तरोत्तर विस्तार देती है. बाजार के प्रलोभन व्यक्ति और समूह दोनों पर लगभग एक जैसा प्रभाव डालते हैं. विभिन्न प्रकार के दबावों के बीच केवल सूचना समृद्ध होने को ज्ञानवान होना मान लिया जाता है. बालक के मौलिक सोच, समाज के संपर्क में आने पर जन्मी मौलिक उद्भावनाओं की अक्सर अनदेखी कर दी जाती है. इस तरह समाज के लगभग एकचौथाई सदस्य निर्णय प्रक्रिया से कट जाते हैं.

 

जिस प्रकार मातापिता संतान में अपना भविष्य देखते हैं, समाज भी नागरिकों में अपना भविष्य सुरक्षित रखने का सपना देखता है. लोकतांत्रिक समाजों में बालक को जन्म के साथ नागरिकता संबंधी अधिकार प्राप्त हो जाते हैं. इनमें अभिव्यक्ति का अधिकार भी सम्मिलित है. यहां एक अतिस्वाभाविक प्रश्न छोड़ा जा सकता है कि लोकतांत्रिक समाजों में जो अधिकार बड़ों को प्राप्त होते हैं, क्या उतने ही अधिकार बच्चों को भी प्राप्त होते हैं? इसका तात्कालिक उत्तर नकारात्मक होगा. खुलेपन का दावा करने वाले समाजों में भी बालक के कार्यकारी अधिकार बहुत सीमित होते हैं. उसकी वास्तविक अधिकारिता 18 वर्ष का होने तक प्रतीकात्मक ही रहती है. इसके पीछे तर्क प्रायः एक जैसे होते हैं. उस समय हम यह बिसार देते हैं कि हमने जानेअनजाने मौलिक ज्ञान की आमद के लिए सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण दरवाजे बंद कर दिए हैं. यह ठीक है कि बालक बौद्धिक विकास की आरंभिक अवस्था में होता है. वह दुनियादारी के मामलों में, विशेषकर उन मामलों में जिन्हें उसका समाज मान्यता देता है, उतनी जानकारी नहीं रखता जितनी सामान्यतः बड़े रखते हैं, परंतु यह भी सच है कि उम्र की आरंभिक अवस्था में वह सर्वाधिक मौलिक और नैतिक होता है. उचित यही है कि उसकी मौलिकता का लाभ उठाया जाए. अपने परिवेश के बारे में बालक जो सोचता, महसूस करना है, उसको अभिव्यक्त करने के लिए उत्साहित किया जाए. इसके रास्ते क्या हों, उनका निर्धारण समाज अपनी परिस्थितियों के अनुसार कर सकता है. यह संभव है कि उन अनेक मामलों में जिन्हें दुनियादारी कहा जाता है, बालक की जानकारी अत्यल्प हो, कुछ न हो तो भी यह प्रक्रिया बालक को अपने समाज और राष्ट्र के बारे में सोचने, उसको जोड़े रखने में मददगार सिद्ध होगी. उसके आत्मविश्वास और नागरिकबोध, जिसका इन दिनों बड़ों में भी अभाव है, आशानुकूल वृद्धि होगी. तदनंतर छिटपुट टिप्पणियों के रूप में भी उसकी ओर से ज्ञान की जो आमद होगी, वह अनूठी होगी. मगर बालक को तब तक उपेक्षित रखा जाता है, जब तक उसकी ज्ञानपिपासा दुनियादारी के रंग में रंगकर मंद नहीं पड़ जाती.

 

बालक का जीवन अनुशासित हो इसके लिए जिम्मेदार परिवार एवं समाज मानवव्यवहार को संस्कृति एवं परंपराओं के अनुरूप बनाए रखने पर जोर देते हैं. ताकि इन संस्थाओं का स्थापित ढांचा क्षतिहीन बना रहे. उसमें किसी प्रकार का विकार उत्पन्न न हो. लेकिन जिन मूल्यों को आधार बनाकर बालक से संस्कृति एवं परंपराओं से जुड़े रहने का आग्रह किया जाता है, उनका किताबी आकर्षण यथार्थ के आगे बगलें झांकता नजर आता है. स्कूल में जब बालक को पता चलता है कि उसकी शिक्षा के लिए मातापिता को मोटी रकम का भुगतान करना पड़ा है….जिन बच्चों के मातापिता भुगतान करने में असमर्थ थे, वे बच्चे पाठशाला नहीं आ पाए हैं, अथवा जब वह घर आए कथावाचक को कर्मकांड के बीचबीच में दान के लिए आग्रह करते, दक्षिणा के वजन से पूजा का स्वरूप तय होते देखता है. फिर जब वह देखता है कि उसका एक निबुर्द्धि पड़ोसी केवल अपनी शानदार कोठी, बड़ी गाड़ी के कारण समाज में प्रतिष्ठित है. पुनः जब वह पाता है कि कोरा ज्ञानार्जन उसकी शिक्षा का अभीष्ठ नहीं है. मातापिता उसको डाॅक्टर, इंजीनियर या बड़ा अधिकारी बनाना चाहते हैं, जिसके लिए पढ़ाई जरूरी है; यानी ज्ञान का उसका आयोजन ज्ञान के लिए न होकर दूसरों से स्पर्धा में आगे बने रहने के लिए है. और जब वह पाता है कि किताबों में पढ़ी नैतिकता भरी बातें व्यवहार में कोई मायने नहीं रखतीं, तब पुस्तकों से उसका जी उचटने लगता है. जिज्ञासावृत्ति कमजोर पड़ जाती है. परीक्षा में किसी भी तरह अधिक से अधिक अंक लाना उसका लक्ष्य बन जाता है. प्रकारांतर में स्कूल स्पर्धा का मैदान बन जाता है, पढ़ाई महज औपचारिकता. ज्ञान और ज्ञानार्जन के अतिरिक्त बालक ऐसे वैकल्पिक और आसान मार्गों की खोज में जुट जाता है, जो उसको स्पर्धा में बनाए रख सकें. चूंकि वह स्वयं को अपने ही जैसे युवाओं से घिरा हुआ पाता है, जो स्वयं स्पर्धा में आगे निकलने को आतुर हैं. स्पर्धा धीरेधीरे प्रतिद्विंद्वता में ढलने लगती है. सामाजिकसांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं के प्रति उसका विश्वास कमजोर पड़ने लगता है. व्यक्ति सहयोगपूर्ण परिवेश में पूरा जीवन बिता सकता है, स्पर्धा के बीच वह अधिक लंबा नहीं चल पाता. आधाअधूरा ज्ञान मन में आत्महीनता की स्थिति को जन्म देता है. धीरेधीरे वह परिवार, पड़ोसी और मित्रसंबंधियों के प्रति संदेह करने लगता है. उनसे निपटने के लिए विकल्पों की तलाश करता है. परिणामस्वरूप ज्ञान की मौलिक साधना से उसका विश्वास उठ जाता है. शिक्षा के मायने केवल डिग्री प्राप्त करने तक सीमित रह जाते हैं. उस अवस्था में धनार्जन की ललक सामाजिकसांस्कृतिक उपादानों पर भारी पड़ने लगती है. बालक उसी को अपना लक्ष्य मान लेता है.

 

किशोरावस्था के दौरान बालक में स्पर्धा की भावना जन्म ले लेती है. उसकी शुरुआत परिवार से होती है. पुत्र परिवार में स्वयं को पिता का उत्तराधिकारी मानने लगता है. वह चाहता है कि बड़े उसके निर्णय का सम्मान करें. लेकिन यदि उसको लगे कि बड़ों की निगाह में उसके निर्णय का कोई मूल्य नहीं है. तब उसे ठेस पहुंचती है. उस समय उसके सामने केवल दो रास्ते होते हैं. या तो वह बड़ों के निर्णय का सम्मान करते हुए अपने सोच और इच्छाओं को सीमित रखे तथा वयस्क होने तक बड़ों के मामलों में राय देने में संयम बरते. दूसरा यह कि किसी की भी परवाह न कर वह मनमानी करे. वही करे, जिसे उचित मानता है. अधिकांश मामलों में पहली स्थिति से समझौता कर लिया जाता है. लेकिन यदि वह अपने लिए दूसरा रास्ता अपनाता है तब समाज में विक्षोभ पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है. सर्वकुशल जैसे हालात पहली स्थिति में भी नहीं होते. इसलिए कि सर्वाधिक सक्रिय और जागरूक मानसिक अवस्था में दूसरों के निर्णय पर अवलंबित बालक धीरेधीरे अपना निर्णय सामर्थ्य खोने लगता है. सामाजिकसांस्कृतिक एकता और समरस विकास के लिए हितकर तो यही है कि बालक समाज, संस्कृति एवं परंपरा के आधार पर बने संबंधों को प्राथमिक एवं उत्पादन, उपभोग, विपणन आदि के आधार पर निर्मित संबंधों को द्वितीयक माने. मगर मौलिक सोच, आत्मविश्वास की कमी के कारण ऐसा अक्सर नहीं हो पाता. इससे प्राथमिकताओं की अदलाबदली होने लगती है तथा व्यक्ति वैयक्तिता को बढ़ावा देने वाले प्रलोलनों का शिकार हो जाता है.

 

अकादमिक शिक्षा प्राचीन एवं आधुनिक सभ्यता के अंतर को केवल समाज की भौतिक प्रगति तक सीमित कर देती है. बालक को यह तो बताया जाता है कि मानवसभ्यता के दसबारह हजार वर्षों में मनुष्य की भौतिक उपलब्धियां क्या हैं, इस बीच विकास की कितनी लंबी यात्रा उसने तय की है. पर दो लाख वर्ष पहले से लेकर बारह हजार वर्ष पहले तक; यानी जब सभ्यता की नईनई शुरुआत हुई थी, उत्तरजीविता के लिए मनुष्य के आदि वंशजों को प्रकृति के साथ कितने संघर्ष करने पड़े होंगे? यह जानकारी उसको या तो दी नहीं जाती या उसे एकदो वाक्यों में समेट दिया जाता है. भविष्य को लेकर भी हमारे समस्त आकलन तकनीक और प्रौद्योगिकीय विकास पर केंद्रित होते हैं. तदनुसार हम पचाससौ वर्ष बाद जिन नए उपकरणों के आविष्कार की संभावना है, का अनुमान तो आसानी से लगा लेते हैं. लेकिन इतनी अवधि में समाज, संस्कृति और परंपराओं में क्या बदलाव हो सकते हैं, या होने चाहिए इसे लेकर गंभीर विमर्श न केवल बालक बल्कि बड़ों के स्तर पर भी नदारद होता है. हम यह माने रहते हैं कि संस्कृति जड़ अवधारणा है. उसका जो स्वरूप आज है वही आगे पचाससौ वर्ष बाद भी बना रहेगा. संस्कृति और परंपराओं के वे प्रतीक जो समाज की एकजुटता के लिए जिम्मेदार कहे जा सकते हैं, जिनके आधार पर समाज संगठित होता आया है, क्या वे आगे भी इसी तरह बने रहेंगे? यदि नहीं तो उनका वैकल्पिक रूप क्या हो सकता है, इसपर हम चुप्पी साधे रखते हैं.

 

जवाब में कहा जा सकता है कि ये शिक्षा के ऐसे क्षेत्र हैं, जहां मनुष्य आज भी बहुत कम जान पाया है. उसका जितना भी ज्ञान है, वह अनुमानाधारित है. उसको प्रमाणिक सिद्ध करने के लिए उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्य बहुत कम या अपर्याप्त हैं. यह सच भी है. तब शिक्षा का एक दायित्व यह भी है कि बालक को उन क्षेत्रों की जानकारी भी दी जाए जहां, मनुष्यता की ज्ञानोपलब्धियां अत्यल्प अथवा नगण्य हैं. सुकरात का अपने बारे में यह कहना, ‘मुझे अपने अज्ञान का ज्ञान है’ इस संबंध में प्रेरक हो सकता है. दूसरे शिक्षा का काम केवल यह नहीं होता कि वह अपनी खोजों, उपलब्धियों और प्रगति से बालक को परचाए, उसका यह कर्तव्य भी होना चाहिए कि वह ज्ञान के अंधकूपों की ओर इशारा करते हुए बालक को उसकी निष्पत्ति के लिए प्रवृत्त करे. उसकी प्रश्नाकुलता को विस्तार दे. बालक अपने और समाज के अज्ञान के बारे में भी जाने, यह व्यवस्था भी किसी न किसी रूप में होनी चाहिए. इसका अभाव संस्कृति और भौतिक प्रगति के बीच लंबी संवादहीनता के रूप में सामने आता है.

 

भौतिक सुखसुविधाओं के साथ असुरक्षा एवं अस्थायित्व की भावना गहरे तक जुड़ी होती है, इसलिए सुरक्षा और स्थायित्व की चाहत में व्यक्ति समाज और संस्कृति से जुड़ा रहना चाहता है. जो स्वयं परिवर्तन की परंपरा से कटे हुए होते हैं. ज्ञान की मौलिक साधना से कटे समाज आत्मविश्वास की कमी के शिकार होते हैं. वे पूंजीवादी हमलों को झेल पाने में असमर्थ होते हैं. इसलिए वे या तो उसके आकर्षण में बहने लगते हैं अथवा उसको अपने लिए हानिकारक मानकर उससे किनारा कर लेते हैं. कई बार ऊहापोह और असमंजस की स्थिति बन जाती है. ऐसे हालात में समाज में यदि बदलाव आता भी है तो मात्र नवीन प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग को लेकर. वे इसी से संतुष्ट होकर बाजार के हाथों का खिलौना बने रहते हैं.

 

इस समस्या का समाधान क्या हो? संस्कृति की गतिशीलता को बनाकर कैसे रखा जाए? बालक की कोमलता, निश्छलता, नैतिकता और सहृदयता का लोकहित में लाभ कैसे उठाया जाए? क्या कोई ऐसा रास्ता भी संभव है जिसपर चलकर संस्कृति और सभ्यता की गतिशीलता के अंतर को पाटा जा सकता है? ऐसा कैसे संभव हो कि संस्कृति सभ्यता की अनुगामी न होकर सहगामी बन जाए! परिवर्तनप्रवाह अकल्पित और आकस्मिक न होकर आकल्पित हो! इसके लिए आवश्यक है कि बालक अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त रहे. उसके मन में डर और अकेलेपन जैसे मनोभाव पनपने न पाएं. शिक्षा व्यक्तित्व निर्माण और बौद्धिक उठान दोनों को एकसमान, एक साथ महत्त्व दे. ज्ञानार्जन आस्थावादी दुराग्रहों से पूरी तरह मुक्त हो. बालक की परवरिश विश्व नागरिक की तरह हो. ‘ज्ञान सत्य है और सत्य आत्मा की आवश्यकता’— आइंस्टाइन के ये शब्द उसके मनमस्तिष्क में उतर जाने चाहिए. लेकिन ज्ञानवान होने का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति विशिष्टताबोध का शिकार होकर रह जाए. खुद को बाकी लोगों से ऊपर समझने लगे और केवल अपनी सुखसुविधाओं को जीवन की सिद्धि मान बैठे. उसको जानना चाहिए कि अकेले व्यक्ति का न तो कोई वर्तमान है, न भविष्य. अहंकार हो या प्रेम, सौहार्द हो अथवा ईर्ष्या, मनुष्य को अपने मनोभावों के प्रदर्शन के लिए दूसरों की जरूरत पड़ती ही है.

 

मनुष्य ने अभी तक जो अर्जित किया है, वह उन महापुरुषों की देन है जो लोकहित को व्यक्तिसुख से बड़ा मानते थे. मानवजीवन की सुखमय बनाने के लिए जिन्होंने अपने सुख, सम्मान की कभी परवाह न की, बल्कि अक्सर उसकी उपेक्षा ही करते रहे. अतः जरूरी है कि ज्ञान का आयोजन, प्रदर्शन सर्वकल्याण के लिए हो. बगैर समानताबोध के यह संभव नहीं. इसलिए बालक को समझाया जाना चाहिए कि, ‘सब आंखें मनुष्य के विचारों तक पहुंचने के द्वार हैं….न तो मनुष्य जाति का अधिकांश भाग अपनी पीठ पर काठियां कसबा कर उत्पन्न हुआ है; और न कुछ थोड़े से विशेषाधिकार प्राप्त लोग ईश्वर की दया से बूट पहने और एड़ लगाए ही उत्पन्न हुए हैं कि वे उन लोगों पर तुरंत सवारी गांठ सकें.’ (थामस जैफर्सन). सत्ता का चरित्र सदैव अल्पसंख्यकवादी होता है. उसपर विराजमान लोग सदैव इस प्रयत्न में रहते हैं कि शिखर पर कम से कम लोगों की भागीदारी रहे. सत्ता के चरित्र को बालक उससे अनुकूलन करके नहीं सीख सकता. यह तभी संभव है, जब उसमें पर्याप्त आलोचनाविवेक हो.

 

बालक के संपूर्ण विकास के लिए आवश्यक है कि समाज उसके मौलिक विकास को बढ़ावा दे. उसमें समाज को समझने और बरतने की योग्यता स्वतः विकसित होने दे. ताकि वह अवसर पड़ने पर वह उनपर उठने सवालों पर तार्किक प्रतिक्रिया दे सके. उसे उसकी सीमाओं और क्षमताओं से साथसाथ परिचित कराए. उनका अधिकतम इस्तेमाल करने की प्रेरणा दे. बालक समाज एवं संस्कृति की उपयोगिता पर उठनेवाले प्रश्नों का उत्तर देने में स्वयं को असमर्थ पाता है या उस समय अपने भीतर ग्लानि, आत्मविश्वास की कमी या कुंठा का अनुभव करता है, तो वह द्वितीयक संबंधों को ही प्राथमिक समझने लगेगा. जैसा कि इन दिनों हो रहा है. इसलिए उसे समझाए कि उसकी तरह समाज भी विकासमान अवस्था में है. सभ्यता, संस्कृति या परंपराओं का कोई भी विधान ऐसा नहीं जिसकी समीक्षा न हो सके. सोच को पूर्वाग्रहमुक्त रखने के लिए उसको समझाया जाए कि धर्म एक कुटिल राजनीति है, जिसमें सत्ता का हासिल करने का सपना अगले जन्म तक टाल दिया जाता है. यह भी कि नैतिकता धर्म की चेरी नहीं है. वह मानवता का लक्ष्य है. धर्म तो उसका लक्षण मात्र है.

 

उपयुक्त अवसर पर बालक को यह भी बताएं कि धरती पर कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो मनुष्य के लिए निषिद्ध हो. मगर उसका यह अधिकार दूसरों के अधिकार की सुरक्षा में ही संभव है. हम यदि कोई वृक्ष लगाते हैं, तभी हमें फल खाने का अधिकार है. दूसरों के श्रम पर जीना, किसी भी तरह परावलंबी होना मानवी गरिमा के प्रतिकूल है. बालक जब खुद को समझ लेगा तो समाज को भी समझ लेगा. तब उसकी प्रतिक्रिया सकारात्मक होगी. तभी वह अपने विवेक का अधिकतम उपयोग कर सकेगा. समाज आज जिस प्रकार भय, कुंठा, नैराश्य, हताशा, नकारात्मक सोच तथा सांस्कृतिक अपसंस्करण से त्रस्त है, उसके निदान का रास्ता भी स्वतः खुलता जाएगा. लेकिन बालक की शिक्षा अकेले उसका विषय नहीं है. वह हम बड़ों से भी जुड़ा है. इसलिए जो हम बालक से चाहते हैं, जिस रूप में उसको ढालना चाहते हैं, भविष्य में जिस तरह के समाज की कल्पना करते हैं, उसके लिए क्या हम स्वयं तैयार हैं? यही वह पहेली है, जिसमें बालक और समाज दोनों का भविष्य छिपा है. जिसके रहस्य को बूझना आज के समाजविज्ञानियों और शिक्षाशास्त्रियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.

 © ओमप्रकाश कश्यप

 

जैन और बौद्धदर्शन में समाजवादी चेतना

हितोपदेश की एक सुभाषित है : अयं निज परोवेति गणना लघुचैतसाम्। उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम् यानी ‘यह अपना है, वह पराया हैयह सोच क्षुद्र वृत्ति की उपज है. उदारचरितों, सज्जनों के लिए तो पूरा विश्व एक परिवार के समान है, पृथ्वी पर रहने वाले सभी नरनारी उनके परिजन हैं.’जिस दौर की यह उक्ति है वह मानवीय मेधा के प्रस्फुटन का था. जैन और बौद्ध दर्शन का उदय उससे करीब तीन सौ वर्ष पहले हो चुका था. जिन दिनों पंचतंत्रादि ग्रंथों की रचना हुई ये दोनों दर्शन देश की सीमाओं से बाहर निकलकर दुनिया को अपनी कल्याणकारी मेधा से प्रभावित कर रहे थे. उल्लेखीय है कि बौद्ध दर्शन का उद्भव वैदिक धर्म की प्रतिक्रिया में हुआ था. वेदों में बहुदेववाद, कर्मकांड और युद्धों का इतना विशद् वर्णन है कि उनके आगे उनकी दार्शनिक, नैतिक, आध्यात्मिक चिंतनधारा म्लान दिखने लगती है. इसलिए वे तत्वचिंतन के नाम पर कर्मकांड, धर्म के बजाय पाखंड, नीति के स्थान पर ऊंचनीच और आडंबर रचते हुए नजर आते हैं. पुरोहित वर्ग उनके माध्यम से धर्मदर्शन की स्वार्थानुकूल और मनमानी व्याख्याएं थोपने का प्रयास करता है. राजनीति के सहयोग से वह इस धृष्टता में कामयाब भी होता है. धर्म और राजसत्ता परस्पर मिलकर लोगों के शोषण के लिए नएनए विधान गढ़ते हैं. समाजार्थिक शोषण का यह सिलसिला लगभग पांच शताब्दियों तक निरंतर चलता है. ऐसा भी नहीं है कि शेष समाज शोषण को अपनी नियति मान चुका था. बल्कि जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, ब्राह्मणवाद का विरोध उसके आरंभिक दिनों से ही होने लगा था. मगर उसको रचनात्मक दिशा देने का काम किया था, जैन और बौद्ध दर्शन ने. इन दोनों दर्शनों ने वेदों की बुद्धिवाद की उस धारा को नई एवं युगानुकूल दिशा देने का काम किया, जो कर्मकांड और मिथ्याडंबरों के बीच अपनी पहचान लगभग गंवा चुकी थी.

जैन और बौद्ध धर्म के प्रवर्त्तक क्रमशः महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध, ईसा से छह शताब्दी पहले, क्षत्रिय कुल में जन्मे थे. अपनेअपने दर्शन में दोनों ने ही कर्मकांड और आडंबरवाद का जमकर विरोध किया था. दोनों ही यज्ञों में दी जाने वाली पशुबलियों के विरुद्ध थे. दोनों ने शांति और अहिंसा का पक्ष लिया था, और भरपूर ख्याति बटोरी. जैन और बौद्ध, दोनों ही दर्शनों को भारतीय चिंतनधारा में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. इनमें से जैन धर्म अहिंसा को लेकर अत्यधिक संवेदनशील था, जबकि जीवन को लेकर बुद्ध का दृष्टिकोण व्यावहारिक था. अहिंसा के प्रति अत्यधिक आग्रहशीलता के कारण जैन दर्शन प्रचारप्रसार के मामले में बौद्ध दर्शन से पिछड़ता चला गया. व्यावहारिक होने के कारण बौद्ध दर्शन को उन राजाओं आ समर्थन भी मिला जो ब्राह्मणवाद से तंग हो चुके थे; और उपयुक्त विकल्प की तलाश में थे.

गौतम बुद्ध ने कर्मकांड के स्थान पर ज्ञानसाधना पर जोर दिया था. पशुबलि को हेय बताते हुए वे अहिंसा के प्रति आग्रहशील बने रहे. वेदवेदांगों में आत्मापरमात्मा आदि को लेकर इतने अधिक तर्कवितर्क और कुतर्क हो चुके थे कि बुद्ध को लगा कि इस विषय पर और विचार अनावश्यक है. इसलिए उन्होंने आत्मा, परमात्मा, ईश्वर आदि विषयों को तात्कालिक रूप से छोड़ देने का तर्क दिया. उसके स्थान पर उन्होंने मानवजीवन को संपूर्ण बनाने पर जोर दिया. समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए उन्होंने पंचशील का सिद्धांत दिया. जिसमें पहला शील है, अहिंसा. जिसके अनुसार किसी भी जीवित प्राणी को कष्ट पहुंचाना अथवा मारना वर्जित कर दिया गया था. दूसरा शील था, अचौर्य. जिसका अभिप्राय था कि किसी दूसरे की वस्तु को न तो छीनना न उस कारण उससे ईर्ष्या करना. तीन शील सत्य था. मिथ्या संभाषण भी एक प्रकार की हत्या है. सत्य की हत्या. इसलिए उससे बचना, सत्य पर डटे रहना. तीसरे शील के रूप में तृष्णा न करना शामिल था. व्यक्ति के पास जो है, जो अपने संसाधनों द्वारा अर्जित किया गया, उससे संतोष करना. आवश्यकता से अधिक की तृष्णा न करना. इसलिए कि यह पृथ्वी जरूरतें तो सबकी पूरी कर सकती है, मगर तृष्णा एक व्यक्ति की भी भारी पड़ सकती है. पांचवा शील मादक पदार्थों के निषेद्ध को लेकर है. पंचशील को पाने के लिए उन्होंने अष्ठांगिक मार्ग बताया था, जिसमें उन्होंने सम्यक दृष्टि(अंधविश्वास से मुक्ति), सम्यक वचन(स्पष्ट, विनम्र, सुशील वार्तालाप), सम्यक संकल्प(लोककल्याणकारी कर्तव्य में निष्ठा, जो विवेकवान व्यक्ति से अभीष्ट होता है), सम्यक आचरण(प्राणीमात्र के साथ शांतिपूर्ण, मर्यादित, विनम्र व्यवहार), सम्यक जीविका(किसी भी जीवधारी को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुंचाना), सम्यक परिरक्षण(आत्मनियंत्रण और कर्तव्य के प्रति समर्पण का भाव), सम्यक स्मृति(निरंतर सक्रिय एवं जागरूक मस्तिष्क) तथा सम्यक समाधि(जीवन के गंभीर रहस्यों पर सुगंभीर चिंतन) पर जोर दिया था.

बुद्ध की चिंता थी कि किस प्रकार मानवजीवन को सुखी एवं समृद्ध बनाया जाए. सुख से उनका अभिप्राय केवल भौतिक संसाधनों की उपलब्धता से नहीं था. इसके स्थान पर वे न केवल मानवजीवन के लिए सुख की सहज उपलब्धता चाहते थे, बल्कि समाज के बड़े वर्ग के लिए सुख की समान उपलब्धता की कामना करते थे. यह वैदिक ब्राह्मणवाद के समर्थकों से एकदम भिन्न था. जिन्होंने परलोक की काल्पनिक भ्रांति के पक्ष में भौतिक सुखों की उपेक्षा की थी, जबकि उनका अपना जीवन भोग और विलासिता से भरपूर था. यही नहीं वर्णाश्रम व्यवस्था के माध्यम से उन्होंने समाज के बहुसंख्यक वर्गों, जो मेहनती और हुनरमंद होने के साथसाथ समाज के उत्पादन को बनाए रखने के लिए कृतसंकल्प थे, सुख एवं समृद्धि से दूर रखने की शास्त्राीय व्यवस्था की थी. शूद्र कहकर उसको अपमानित करते थे. और इस आधार पर उन्हें अनेक मानवीय सुविधाओं से वंचित रखा गया था.

उल्लेखनीय है कि वेदों के आडंबरवाद का विरोध उन्हीं दिनों शुरू हो चुका था. उस समय के महानतम विद्वान कौत्स तो वैदिक ऋचाओं को शब्दाडंबर मात्र मानते थे. समाज का बड़ा वर्ग वैदिक परंपराओं का खंडन करता था. इस कारण वेद समर्थकों और उनके विरोधियों के बीच घमासान भी होते रहते थे. जिनसे कूटनीति और छल के कारण ब्राह्मणवादियों को विजय प्राप्त हुई थी. दरअसल यह बुद्ध ही थे जिन्होंने दर्शन को वायवी आडंबर से बाहर लाकर आचरण और व्यवहार के धरातल पर लाकर अवस्थित किया था. उन्होंने दर्शन को निरर्थक और अनुपयोगी प्रश्नों के चक्र से बाहर लाकर जीवन से जोड़ा. मानव मन की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के सापेक्ष नैतिकता को केंद्र में लेकर आए. पंडितों और पुरोहितों से अलग भाषा अपनाते हुए उन्होंने जोर देकर कहा कि धर्म और दर्शन, दोनों का उद्देश्य इस विश्व का पुनर्निर्माण करना है, ब्रह्मांड की उत्पत्ति की व्याख्या नहीं. आज प्रयोगों द्वारा सिद्ध हो चुका है कि ब्रह्मांड की व्याख्या वैज्ञानिक नियमों द्वारा ही सटीक ढंग से की जा सकती है. नैतिकता से कटा हुआ धर्म महज आडंबर है. विरोधियों की आलोचना की परवाह न करते हुए उन्होंने आगे कहा कि सृष्टि का केंद्र मनुष्य है, न कि ईश्वर. धर्म के बारे में उनका कहना था कि उसका केंद्रविषय नैतिकता है. वे जीवन में दुःख को अवश्यंभावी मानते थे. साथ ही उनका मानना था कि दुःखों से मुक्ति संभव है. इसके लिए जीवन के प्रति संपूर्ण समर्पण अनिवार्य है.

पुरोहितों और पंडितों के चंगुल से आमजन को बचाने के लिए उन्होंने अष्ठांग मार्ग का प्रवर्त्तन किया. जीवन की पवित्रता के लिए उन्होंने उसको संपूर्णता के साथ अपनाने की सलाह दी. बातबात पर पुरोहितों और धर्माचार्यों की शरण में जाने वाले लोगों को उन्होंने नेक सलाह दी—अप्प दीपो भवः! अपना दीपक स्वयं बनो. उन्होंने जोर देकर कहा कि सुख केवल शीर्षस्थ वर्गों की बपौती नहीं है. गृहस्थ के लिए धनार्जन न तो पाप है, न कोई अभिशाप. जीवन के प्रति मध्यमार्गी दृष्टिकोण अपनाते हुए उन्होंने धर्नाजन को गृहस्थ के लिए अनिवार्य उपक्रम माना. वे पहले धर्माचार्य थे, जिन्होंने गणतंत्र का पक्ष लिया, यह उस युग में एकदम क्रांतिकारी था. परिणाम यह हुआ कि सांसारिक सुखों के प्रति जनसामान्य पापबोध लगातार घटने लगा. शिल्पकर्मियों को शूद्र का दर्जा देकर उन्हें तरहतरह से प्रताड़ित किया जाता था. बौद्ध धर्म में जातिवर्ण के लिए कोई स्थान न था. बल्कि सभी के लिए सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार था. इसलिए जातीय उत्पीड़न का शिकार रही जातियां बड़ी तेजी से बौद्धधर्म में शामिल होने लगीं. देखते ही देखते वह देश की सीमाएं पार कर, विदेशी भूमियों पर अपनी पकड़ बनाता गया.

बुद्ध स्वयं क्षत्रिय थे. उनके समकालीन महावीर स्वामी भी क्षत्रिय ही थे. दोनों ने ही राजनीतिक सुखसुविधाओं को ठुकराकर अध्यात्मचिंतन का मार्ग चुना था. राजघराना छोड़कर उन्होंने चीवर धारण किया था. इसलिए बाकी वर्गों में विशेषकर उन लोगों में जो ब्राह्मणों और उनके कर्मकांडों से दूर रहना चाहते थे, जैन और बौद्धधर्म की खासी पैठ बनती चली गई. मगर सामाजिक स्थितियां बौद्ध धर्म के पक्ष में थीं. इसलिए कि एक तो वह व्यावहारिक था. दूसरे जैन दर्शन में अहिंसा आदि पर इतना जोर दिया गया था कि जनसाधारण का उसके अनुरूप अपने जीवन को ढाल पाना बहुत कठिन था. यज्ञों एवं कर्मकांडों के प्रति जनसामान्य की आस्था घटने से उनकी संख्या में गिरावट आई थी. उनमें खर्च होने वाला धर्म विकास कार्यों में लगने लगा था. पहले प्रतिवर्ष हजारों पशु यज्ञों में बलि कर दिए जाते थे. महात्मा बुद्ध द्वारा अहिंसा पर जोर दिए जाने से पशुबलि की कुप्रथा कमजोर पड़ी थी. उनसे बचा पशुधन कृषि एवं व्यापार में खपने लगा. शुद्धतावादी मानसिकता के चलते ब्राह्मण समुद्र पार की यात्रा को निषिद्ध और धर्मविरुद्ध मानते थे. बौद्ध धर्म में ऐसा कोई बंधन न था. इसलिए अंतरराज्यीय व्यापार में तेजी आई थी. चूंकि अधिकांश राजाओं द्वारा अपनाए जाने से बौद्ध धर्म राजधर्म बन चुका था, इसलिए युद्धों में कमी आई थी, जो राजीनितिक स्थिरता बढ़ने का प्रमाण थी. व्यापारिक यात्राएं सुरक्षित हो चली थीं. जिससे व्यापार में जोरदार उछाल आया था.

ये सभी स्थितियां जनसामान्य के लिए भले ही आह्लादकारी हों, मगर ब्राह्मणधर्म के समर्थकों के लिए अत्यंत अप्रिय और हितों के प्रतिकूल थीं. इसलिए उसका छटपटाना स्वाभाविक ही था. अतएव महात्मा बुद्ध को लेकर वे ओछे व्यवहार पर उतर आए थे. बुद्ध का जन्म शाक्यकुल में हुआ था, जो वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार क्षत्रियों में गिनी जाती थी. ब्राह्मणों ने उन्हें शूद्र कहकर लांछित किया, जिसको बुद्ध इन बातों से अप्रभावित बने रहे. दर्शन को जनसाधारण की भावनाओं का प्रतिनिधि बनाते हुए उन्होंने दुःख की सत्ता को स्वीकार किया. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि दुःख निवृत्ति संभव है. उसका एक निर्धारित मार्ग है. दुःख स्थायी और ताकतवर नहीं है. बल्कि उसको भी परास्त किया जा सकता है.

बुद्ध का दर्शन वर्जनाओं का दर्शन है. सबसे पहले वह वर्णाश्रम व्यवस्था पर प्रहार करते हैं. उस व्यवस्था पर प्रहार करते हैं, जो ब्राह्मणों को विशेषाधिकार संपन्न बनाती है. पुरोहितवाद की जरूरत को नकारते हुए वे कहते हैं‘अप्प दीपो भव!’ अपना दीपक आप बनो. तुम्हें किसी बाहरी प्रकाश की आवश्यकता नहीं हैं. किसी मार्गदर्शक की खोज में भटकने से अच्छा है कि अपने विवेक को अपना पथप्रदर्शक चुनो. समस्याओं से निदान का रास्ता मुश्किलों से हल का रास्ता तुम्हारे पास है. सोचो, सोचो और खोज निकालो. इसके लिए मेरे विचार भी यदि तुम्हारे विवेक के आड़े आते हैं, तो उन्हें छोड़ दो. सिर्फ अपने विवेक की सुनो. करो वही जो तुम्हारी बुद्धि को जंचे. उन्होंने पंचशील का सिद्धांत दुनिया को दिया. उसके द्वारा मर्यादित जीवन जीने की सीख दुनिया को दी. कहा कि सिर्फ उतना संजोकर रखो जिसकी तुम्हें जरूरत है. तृष्णा का नकारहिंसा छोड़, जीवमात्र से प्यार करो. प्रत्येक प्राणी को अपना जीवन जीने का उतना ही अधिकार है, जितना कि तुम्हें है. इसलिए अहिंसक बनो. झूठ भी हिंसा है. इसलिए कि वह सत्य का दमन करती है. झूठ मत बोलो. सिर्फ अपने श्रम पर भरोसा रखो. उसी वस्तु को अपना समझो जिसको तुमने न्यायपूर्ण ढंग से अर्जित किया है. पांचवा शील था, मद्यपान का निषेध. बुद्ध समझते थे वैदिक धर्म के पतन के कारण को. उन कारणों को जिनके कारण वह दलदल में धंसता चला गया. दूसरों को संयम, नियम का उपदेश देने वाले वैदिक ऋषि खुद पर संयम नहीं रख पा रहे थे. अपने आत्मनियंत्रण को खोते हुए उन्होंने खुद ही नियमों को तोड़ा. मांस खाने का मन हुआ तो यज्ञों के जरिये बलि का विधान किया. कहा कि ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’और अपनी जिव्हा के स्वाद के लिए पशुओं की बलि देते चले गए. नशे की इच्छा हुई तो सोम को देवताओं का प्रसाद कह डाला और गले में गटागट मदिरा उंडेलने लगे. ऐसे में धर्म भला कहां टिकता. कैसे टिकता!

बुद्ध पहले महात्मा थे, साहचर्य का पाठ दुनिया को पढ़ाया. उससे पहले आश्रम सहजीवन की पहचान हुआ करते थे. लेकिन वहां गुरु का नाम चलता था. सारे आश्रम गुरु के नाम से जाने जाते थे. वौद्ध विहार किसी एक भिक्षु की संपत्ति नहीं थे. वे सबसे साझे थे. बुद्ध का कहना था कि जो है, सबका है. जितना है, उसको मिलबांटकर उपयोग करो. उनके भिक्षुसंघ की व्यवस्था ही ऐसी थी. प्रारंभ में गौतम बुद्ध का शिष्यत्व धारण करने वाले अधिकांश भिक्षु राजपरिवारों से आए थे. संघ के नियमानुसार प्रत्येक भिक्षु को चीवर धारण करना पड़ता था. जिसका अर्थ है जीर्णशीर्ण परिधान. उस समय आम आदमी के यही वस्त्र थे. वह मेहनत मजदूरी करता और अपने राजा के लिए कमाता था. जमीन या संपत्ति पर उसका अधिकार न था. वह राजा की मानी जाती थी. लगान चुकाने के बाद जो बचता उससे वह सिर्फ आधा तन ही ढक पाता था. बहुत बाद में अपने राजनीतिक गुरु गोविंदवल्लभ पंत के कहने पर गांधी जी जब ‘भारत को जानने’ के लिए यात्रा पर निकले तो उन्होंने भी एक नदी तट पर ऐसे ही अंधनंगे स्त्रीपुरुषों को देखकर अपने वस्त्र उनकी ओर बहा दिए थे. उसके बाद साबरमती का वह फकीर अधनंगे तन की अंग्रेजों से जूझता रहा. वह जनता के दुःखदर्द को पहचानकर उसके करीब आने की, राजा से रंक बनने की कोशिश थी. बिना इसके लोगों के दिल में बनाना आसान न था. बौद्ध संघों के नियम भी ऐसे थे कि जो भी वहां आए, अतीत के वैभव को बिसराकर सच्चे मन से आए.

बुद्ध के कुछ शिष्यों को अच्छा नहीं लगा कि उनका गुरु ऐसे जीर्णशीर्ण वस्त्र धारण करे. यह उनका प्रेरक रहा होगा. मगर यह उस सत्ता की प्रतीति का भी परिणाम था, जो धर्मसत्ता के संगठित होतेहोते आकार ले लेता है. ऐसे शिष्यों ने बुद्ध के लिए नए कपड़े से बुना चीवर लाकर दिया. प्रार्थना की कि उसको पहनें. बुद्ध ने अपने शिष्यों पर निगाह डाली. वे भी जीर्णशीर्ण चीवर में थे. ‘मुझे कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन संघ में तो सभी बराबर हैं. बाकी भिक्षु भी पुराने वस्त्र क्यों धारण करें. उस दिन के बाद से संघ में पुराने कपड़े का बना चीवर पहनने की शर्त हटा दी गई.

ऐसा ही एक और उदाहरण है. गौतम बुद्ध की मां माया तो उन्हें जन्म देने के नवें दिन ही मर चुकी थीं. उन्हें मां का स्नेह देकर पालने वाली थी, गौतमी, जिन्हें वे सदैव मां का सम्मान देते रहे. गौतम बुद्ध ने भिक्षु संघ की स्थापना की तो गौतमी भी उसमें सम्मिलित हो गई. सर्दी का मौसम था. गौतमी ने बुद्ध को एकमात्र चीवर में देखा तो उनका वात्सल्य मचलने लगा. जानती थीं कि राजपाट को ठोकर मार चुका उनका संन्यासी बेटा सर्दी से बचाव के लिए भी अन्य वस्त्र धारण नहीं करेगा. इसलिए उन्होंने रातदिन लगकर बुद्ध के लिए एक गुलुबंद तैयार किया. उसको लेकर वे खुशीखुशी उनके पास पहुंची और उनसे पहनने का आग्रह किया. बुद्ध ने बाकी भिक्षुओं की ओर देखा. वे सभी एकमात्र चीवर में थे. उन्होंने गुलुबंद लेने से इनकार कर दिया. बोले कि यदि यह उपहार है तो सभी भिक्षुओं के लिए होना चाहिए. सिर्फ उन्हीं के लिए क्यों? गौतमी ने बहुत अनुनयविनय की. लेकिन बुद्ध नहीं माने. समाजवाद की, सहजीवन की पहली शर्त है, संसाधनों में बराबर की हिस्सेदारी. इसके लिए उनका राष्ट्रीयकरण. बुद्ध ने भिक्षु संघ की जो व्यवस्था की थी, उसके अनुसार समस्त संपत्ति संघ की मानी जाती थी. संपत्ति और संसाधनों के समान बंटवारे के अतिरिक्त भिक्षु संघ में अधिकारों का भी एकसमान विभाजन था. सभी निर्णय सहमति के आधार पर लिए जाते थे. भिक्षु संघ के बीच महात्मा बुद्ध की हैसियत अधिक से अधिक एक प्रधान सचिव जैसी थी. किसी को भी मनमानी करने अथवा अपना निर्णय थोपने का अधिकार नहीं था. महात्मा बुद्ध वैशाली गणतंत्र के प्रशंसक थे. ऐसी ही व्यवस्था वे भिक्षु संघ में चाहते थे. जीवन के उत्तरार्ध में कम से कम दो अवसर ऐसे आए, जब उनसे उनके उत्तराधिकारी के बारे में पूछा गया था. कहा गया कि जिसको वे उपयुक्त समझते हों उसको संघ की व्यवस्था सौंप सकते हैं. उस समय यदि वे चाहते तो किसी भी व्यक्ति को यह दायित्व सौंपकर उपकृत कर सकते थे. मगर हर बार उन्होंने यही कहा कि धम्म ही संघ का सेनापति है. और आजकल के कथावाचक टाइप स्वयंभू भगवानों को देखें, जो धर्म के नाम पर बने अपने संगठन को भी किसी कारपोरेट कंपनी की भांति चलाते हैं. धर्म के नाम पर जनसाधारण की भावनाओं का दोहन कर मुनाफा बटोरना और पूंजी बटोरना ही उनका ही उनका व्यवसाय है. शंकराचार्य की गद्दी पाने के लिए षड्यंत्र किए जाते हैं, हत्याएं तक होती हैं.

बुद्ध कोरे अध्यात्म पर जोर नहीं देते. बल्कि व्यक्ति की दैनंदिन की समस्याओं पर भी विचार करते हैं. बुद्ध का दुःख की शाश्वतता को स्वीकारना और उसे अपने चिंतन की परिधि में लाना उन्हें व्यावहारिक और जनसाधारण के निकट लाता है. मगर दुःख की बात कहकर, वे डराते नहीं हैं. वे स्पष्ट कहते हैं कि दुःख की सत्ता है, और उसका कारण भी है. कारण का निवारण कर दुःख से मुक्ति संभव है. इसके लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है. खुद को पहचानो. अपने भीतर छिपे प्रकाश को पकड़ो.

यूं तो हिंदू दर्शन भी चार पुरुषार्थों को मान्यता देता है. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष. लेकिन काम और मोक्ष को लेकर भारतीय परंपरा विरोधाभासों का शिकार रही है. एक ओर तो व्यक्ति को अर्थ और काम के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा है, दूसरे उन्हें माया और भ्रांति कहकर पारलौकिक सुख का लालच दिया जाता रहा. बुद्ध मुक्ति की बात नहीं कहते. मुक्ति का अभिप्राय वैदिक आचार्यों को लिए आत्मा का परमात्मा से सम्मिलन रहा है. बुद्ध आत्मा और परमात्मा को अचिंत्य मानते थे. इसलिए उन्होंने निर्वाण का पक्ष लिया. मुक्ति के लिए मृत्यु अनिवार्य है. निर्वाण इसी जीवन में संभव है. बस उसके लिए चित्तवृत्तिनिरोध और आत्मसंयम की आवश्यकता है. भिक्षु के लिए उन्होंने किंचित कठोर नियम बनाए थे. संन्यासी को संचय की आवश्यकता ही क्या. यदि संचय से लगाव था तो संन्यास की आवश्यकता ही क्या थी. अतः भिक्षु को चाहिए कि वह प्रतिदिन पहनने के लिए तीन वस्त्र(त्रीचीवर), एक कटिबांधनी यानी कमर में बांधने वाली पेटी, एक भिक्षापात्र, वाति यानी उस्तरा, सुईधागा तथा पानी साफ करने के लिए एक छननी अथवा छन्ना के अतिरिक्त कुछ और न रखे. भिक्षु के लिए महंगी धातुएं यथा सोना, चांदी पहनना या पास में रखना निषिद्ध था. डर था कि सोने को बेचकर वह विलासिता का प्रतीक बाकी वस्तुएं भी खरीद सकता है.

एक ओर जहां भिक्षु के लिए इतने सख्त नियम थे, वहीं गृहस्थ को उन्होंने उदारतापूर्वक संपत्ति संचय की छूट दी थी. इस संबंध में एक कथा है

अनाथ पिंडक गौतम बुद्ध का प्रिय शिष्य था. एक बार उसने सोचा कि गौतम बुद्ध ने भिक्षुओं की संचय की प्रवृत्ति के निषेध के लिए काफी कठोर नियम बनाए हैं. इसलिए उसके मन में जिज्ञासा जगी कि बुद्ध से व्यक्तिगत संपत्ति के बारे में उनका मत जाना जाए. निर्वाण की लालसा तो जितनी भिक्षु को है, करीबकरीब उतनी ही गृहस्थ को भी होती है. इसलिए अभिवादन करने के बाद उसने गौतम बुद्ध से पूछा—

क्या भगवन, यह बताएंगे कि गृहस्थ के लिए कौनसी बातें स्वागतयोग्य, सुखद एवं स्वीकार्य हैं, परंतु जिन्हें प्राप्त करना दुष्कर है?’

प्रश्न सुनने के उपरांत बुद्ध ने कहा—

इनमें प्रथम विधिपूर्वक धन अर्जित करना है. दूसरी बात यह देखना है कि आपके संबंधी भी विधिपूर्वक धनसंपत्ति अर्जित करें. तीसरी बात है दीर्घकाल तक जीवित रहो और लंबी आयु प्राप्त करो.’

गृहस्थ को इन चार चीजों की प्राप्ति करनी है, जो कि संसार में स्वागतयोग्य, सुखकारक तथा स्वीकार्य हैं. परंतु जिन्हें प्राप्त करना कठिन है. चार अवस्थाएं भी हैं, जो कि इनसे पूर्ववर्ती हैं. वे हैं, श्रद्धा, शुद्ध आचरण, स्वतंत्रता और विवेक. शुद्ध आचरण दूसरे का जीवन लेने अर्थात हत्या करने, चोरी करने, व्यभिचार करने तथा मद्यपान करने से रोकता है.

स्वतंत्रता ऐसे गृहस्थ का गुण होती है, जो धनलोलुपता के दोष से मुक्त, उदार, दानशील, मुक्तहस्त, दान देकर आनंदित होने वाला और इतना शुद्ध हृदय का हो कि उसे उपहारो का वितरण करने के लिए कहा जा सके.

बुद्धिमान कौन है?

जो यह जानता हो कि जिस गृहस्थ के मन में लालच, धन लोलुपता, द्वेष, आलस्य, उनींदापन, निद्रालुता, अन्यमनस्कता तथा संशय है और जो कार्य उसको करना चाहिए, उसकी उपेक्षा करता है, और ऐसा करने वाला प्रसन्नता तथा सम्मान से वंचित रहता है.

लालच, कृपणता, द्वेष, आलस्य तथा अन्यमनस्कता तथा संशय मन के कलंक हैं. जो गृहस्थ मन के इन कलंकों से छुटकारा पा लेता है, चह महान बुद्धि, प्रचुर बुद्धि एवं विवेक, स्पष्ट दृष्टि तथा पूर्ण बुद्धि व विवेक प्राप्त कर लेता है.

अतएव, न्यायपूर्ण ढंग से तथा वैध रूप में धन प्राप्त करना, भारी परिश्रम से कमाना, भुजाओं की शक्ति व बल से धन संचित करना, तथा भौहों का पसीना बहाकर परिश्रम से प्राप्त करना, एक महान वरदान है. ऐसा गृहस्थ स्वयं को प्रसन्न तथा आनंदित रखता है तथा अपने मातापिता, पत्नी तथा बच्चों, मालिकों और श्रमिकों, मित्रों तथा सहयोगियों, साथियों को भी प्रसन्नता तथा प्रफुल्लता से परिपूर्ण रखता है.’

उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि बुद्ध का दर्शन मानव जीवन को संपूर्ण और परिपक्व बनाने के लिए आग्रहशील है. वह सीधेसीधे उस ब्राह्मणवाद के विरोध में जन्मा था, जिसके केंद्र में जनसाधारण था ही नहीं. जो आत्ममोह से ग्रस्त समाज था, एक प्रकार से लड़ाकू कबीला. जो सिर्फ वर्चस्व की भाषा जानता था. बुद्ध गणतंत्र के प्रशंसक थे. इसलिए उनके दर्शनचिंतन में भी गणतंत्र की खूबियां हैं. वे न केवल सामाजिक समानता पर जोर देते हैं, और उसके लिए सामाजिक समाज के जातीय विभाजन को दोषी ठहराते हैं, वहीं आर्थिक अधिकार देकर व्याक्ति को उन सामंती संस्कारों से बचाए रखना चाहते हैं, जो धर्म और राजनीति की कुटिल संधियों की उपज थे. इन सब कारणों से बुद्ध का दर्शन समाजवादी भावनाओं से ओतप्रोत जान पड़ता है. कई मायने में तो वह माक्र्स के वैज्ञानिक समाजवाद तथा व्यक्ति से भी आगे ले जाता है. इसलिए कि भौतिक द्वंद्ववाद का विश्लेषण करता हुआ माक्र्स उत्साह के साथ शुरू तो करता है, मगरउसका चिंतन आर्थिक पहलुओं से आगे नहीं बढ़ पाता. वह आर्थिक समस्याओं को जीवन की मूल समस्याओं के रूप में देखता है. जबकि ऐसा नहीं है. दूसरी ओर बुद्ध का दर्शन राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक समानता यानी समानता के सभी पहलुओं की विस्तार से चर्चा करता है. और आर्थिक मानवीकरण के मुद्दे पर कई जगह से मार्क्स के समाजवाद से आगे निकल जाता है.

जैन दर्शन में समाजवादी तत्त्व

जैन धर्म के चैबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी, बुद्ध के समकालीन, उनसे लगभग तीस वर्ष बड़े थे. दोनों के दर्शन में काफी समानता है. जैसे कि दोनों ही क्षत्रिय परिवार में जन्मे थे. दोनों ने ही अपना दर्शन ब्राह्मणवाद के विरोध में प्रस्तुत किया था. दोनों ही कर्मकांड के बजाय आचरण की पवित्रता के प्रति अधिक आग्रहशील थे. आत्मापरामात्मा और ईश्वर आदि की वैदिक मताब्लंबियों की बंधीबंधाई धारणा पर उन्हें विश्वास नहीं था. वैदिक ग्रंथों में श्रमणों का जगहजगह उल्लेख हुआ है. ये श्रमण कर्मकांड के विरोधी थे. अपनी जिज्ञासा के समाधान हेतु अधिकांश प्रकृति के सान्न्ध्यि में रहकर सृष्टि के रहस्यों की खोज में लगे रहते थे. जैन धर्म में विश्वास करने वाले श्रद्धालुओं का मानना है कि नदी को पाटने का पहला चमत्कार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी किया था. इसके अतिरिक्त लिपिकला, कुंभकारी, चित्रकारी तथा मूर्तिशिल्प का भी आविष्कार उन्होंने ही किया था. ऋषभदेव का नाम यजुर्वेद तथा श्रीमद् भागवत में भी आया है. ईसा से लगभग 900 वर्ष पूर्व जन्मे बाइसवें तीर्थंकर अरिष्ठनेमि भी क्षत्रिय वंशज तथा कृष्ण के चचेरे भाई थे. कृष्ण के प्रयासों के फलस्वरूप ही राजकुमारी राजमती से उनका विवाह तय हुआ था. लेकिन अरिष्ठनेमि ने जब अपने विवाह में हिरन समेत अन्य निरीह प्राणियों को बलि होते देखा तो उनका मन उचट गया, उसके बाद उन्होंने अपना समस्त जीवन बलि की कुप्रथा को समाप्त करने पर झोंक दिया. तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ भी अहिंसा पर जोर देते थे. एक किवदंति के अनुसार उन्होंने एक सर्प की उस समय प्राणरक्षा की थी, जब ब्राह्मण उस वृक्ष को जहां वह रहता था, जला देने का प्रयास कर रहे थे. उनका विवाह एक राजकुमारी के साथ हुआ था. तीस वर्ष तक सुखी गृहस्थ का जीवन जीने के बाद एक दिन उन्हें वैराग्य सूझा और अपनी समस्त संपत्ति दान देकर प्रवज्या ले ली. पार्श्वनाथ अपने शिष्यों के बीच बहुत प्रिय थे. उन्हें जैन साधुओं एवं साध्वियों को संगठित कर उन्हें संगठन का रूप देने का श्रेय दिया जाता है. उनके आदर्श ऊंचे थे. जीवन नैतिकता के उच्च मापदंडों ये युक्त एवं अनुशासित होता था.

जीवन परिचय

जैन धर्म के प्रवर्त्तक चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म ईसा से 599 वर्ष पहले वैशाली के निकट कुंदपुरा नामक स्थान पर हुआ था. बुद्ध की भांति वे भी क्षत्रिय परिवार से संबंधित थे. उस समय पुरोहितों के कर्मकांड अपने शिखर पर थे. यज्ञादि अनुष्ठानों के बीच पोंगापंथी, बुद्धि के नाम पर वितंडा रचना, ज्ञान के स्थान पर पौरोहित्य का प्रशिक्षण देना और तर्क की जगह तंत्रमंत्र साधना ही उस समय अध्यात्म चिंतन मान लिया जाता था. चारों ओर ब्राह्मणवाद का बोलबाला था, जो स्वयं छोटेछोटे गुटों में बंटे थे. उनके बीच ढेर सारे मतांतर थे. उनमें आपस में बहसें चलती रहती थीं. सिर्फ वर्गीय श्रेष्ठता के दावे और स्वार्थ संबंधी मुद्दों को छोड़कर दूसरा शायद की कोई ऐसा पक्ष था, जिसपर वे सभी एकमत होते हों. देश छोटेछोटे राज्यों में बंटा था. राजा अन्यान्य कारणों से परस्पर लड़तेझगड़ते रहते थे. पूरी श्रमण परंपरा, जिनमें कौत्स एवं सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि जैसे विद्वान, चार्वाक दार्शनिक उनके विरोध में थे. प्रजा मन से लोकायतों और श्रमणों के साथ थी, किंतु ब्राह्मणवादी कर्मकांडों से गुजरना उसकी व्यावहारिक मजबूरी थी.

महावीर स्वामी के पिता का नाम सिद्धार्थ और मां त्रिशला थीं. पिता पाश्र्वनाथ के अनुयायी थे. त्रिशला देवी वैशाली के राजा की बहन थी. महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्धमान था. इस नामकरण के पीछे भी एक रहस्य था. बताते हैं कि जब वे गर्भ में थे, उन दिनों राजकोष में तीव्र वृद्धि हुई थी. यही उनके वर्धमान नामकरण का कारण बना. बचपन में उनका लालनपालन राजकीय वैभव के बीच हुआ. वे स्वभाव से उदार, निडर और शक्तिशाली थे. एक बार उत्तेजित हाथी की सूंड पकड़कर उसपर सवारी गांठने और दूसरी घटना में विषैले नाग को पूंछ पकड़कर एक ओर फेंक देने जैसे साहसपूर्ण कार्य दिखाने के बाद सभी उन्हें ‘महावीर’ कहने लगे थे. उनका विवाह राजकुमारी यशोदा के साथ हुआ, जिनसे एक बेटी भी जन्मी. राजसी वैभव के बीच पलनेबढ़ने के बावजूद वहां का वातावरण उन्हें पसंद न था. सारे ठाठबाट, नौकरचाकर, वैभवविलास बनावटी लगने लगे. मातापिता की मृत्यु के बाद महावीर का संसार से मन उचट गया. उन्होंने संन्यास लेने का निर्णय लिया. उस समय उनकी अवस्था मात्र अठाइस वर्ष की थी. मगर अपने बड़े भाई के आग्रह पर उन्होंने दो वर्ष और परिवार के साथ बिताने के लिए सहमत हो गए.

अगले दो वर्ष महावीर ने खुद को सुखसुविधाओं से मुक्त करने का अभ्यास करते हुए बिताए. उन्होंने एकएक कर अपनी सारी वस्तुएं भिखारियों को दान कर दीं. राजकीय वैभवविलास से परे रहकर अपने मन और शरीर को तापसी जीवन के लिए तैयार करने लगे. तीस वर्ष की अवस्था तक वे अपनी समस्त धनसंपत्ति, विलासितापूर्ण साम्रगी, परिवार यहां तक कि पत्नी से भी किनारा कर चुके थे. अपने गांव कुंदपुरा में दो दिनों तक निराहार, निर्जल, मौन रहते हुए उन्होंने अपने सिर के बाल उखाड़ लिए. देह से वस्त्राभरण दूर करने के उपरांत उन्हें अद्भुत शांति की प्रतीति हुई. एकमात्र उत्तरीय को कंधों पर डाल उन्होंने गृहस्थान छोड़ने का संकल्प कर लिया. जिस समय वे प्रस्थान कर रहे थे, ठीक उसी समय एक भिखारी वहां उपस्थित हुआ. यह कहकर कि गत दो वर्षों से वे जो दान करते आ रहे हैं, उससे वह वंचित रहा है, उसने महावीर से दान की अपेक्षा की. इसपर महावीर ने कंधे पर पड़े उत्तरीय में से आधा फाड़कर उस भिखारी को थमाया और वहां से प्रस्थान कर गए.

वास्तविक ज्ञान और आत्मशांति की खोज करते हुए महावीर मोरेगा पहुंचे. वहां एक मठ के अधिपति उनके पिता के मित्र थे. मठाधीश के आग्रह पर महावीर ने वर्षाकाल को वहीं ठहरकर बिताने का निश्चय किया. ठहरने के लिए मठ की ओर से उन्हें एक झोपड़ी भी मिल गई. उससे पिछले वर्ष मोरेगा और आसपास के क्षेत्र में भयानक सूखा पड़ा था. उसकी भीषण मार से समस्त वनस्पतियां झुलस चुकी थीं. जंगली पशुपक्षियों के समक्ष भीषण खाद्यसंकट था. एक दिन आश्रम में अपेक्षाकृत हरियाली देख, भूख से व्याकुल पशुओं का रेला वहां आ धमका. मठ में रह रहे बाकी संन्यासी पशुओं को भगाने के लिए बलप्रयोग करने लगे. मगर महावीर क्षुधापीड़ित पशुओं को देख करुणा से आद्र हो गए. बजाय भगाने के लिए वे स्वयं झोपड़ी से एक ओर हो गए. भूखे पशुओं ने कुछ ही देर में सारा छप्पर साफ कर दिया. उनकी शिकायत मठाधिपति तक पहुंची. इसपर महावीर स्वामी ने आश्रम छोड़ दिया. वर्षाकाल बिताने के लिए निकटवर्ती गांवों की ओर प्रस्थान कर गए. एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकते हुए महावीर स्वामी को विचित्र अनुभव हुए. उन्हें समाज को करीब से देखनेसमझने का अवसर प्राप्त हुआ. ज्ञान की खोज में वे उन ब्राह्मण साधुओं से भी मिले जिनका जीवन के नाम पर खुद को सांसारिक सुखों से दूर रखने के लिए उन्होंने अपने लिए पांच कठोर नियम बनाए. वे नियम थे: किसी अस्नेही, अनुदार व्यक्ति का आथित्य ग्रहण न करना. प्रस्तर प्रतिमा की भांति, एक ही स्थान पर देर तक अडोल खड़े रहना, शांत रहना. बिना बर्तनों के भोजन करना तथा गृहस्थों के साथ विनम्रता से पेश न आना.

पांचवा नियम कुछ विचित्र था, मगर खुद को सांसारिक सुखों से वंचित रखना, किसी भी प्रकार की श्रद्धा के अतिरेक से स्वयं को बचाए रखना ही उसका उद्देश्य था. गर्मियों में तपते मैदान में नंगे पैर एक ही स्थान पर खड़ेखड़े वे पूरी दोपहरी बिता देते थे. सर्दियों में खुले आसमान के नीचे नंगे तन रहकर शीतमार झेल जाते. रास्ता चलते हुए एकएक कदम बहुत सावधानी से रखते, ताकि निरीह जीवों की हत्या न हो. सायं होने पर वे सुनसान खंडहर, शमशान घाट, वन, उपवन अथवा जहां भी एकांत मिलता ठहर जाते. मन सृष्टि के रहस्यों की अन्वीक्षा में लीन रहता. भोजन वे बहुत कम करते. भिक्षा भी सिर्फ उतनी ही लेते, जितने से न्यूनतम भोजन की जरूरत पूरी हो सके. भीख वे मांगते नहीं थे. बस घर के सामने से मूक गुजर जाते. उस समय यदि गृहस्वामी बुलाकर स्वेच्छा से कुछ देना चाहता, तो चुपचाप रख लेते. नहीं तो आगे बढ़ जाते. कई बार तो पूरा गांव पार हो जाता. उस अवस्था में उन्हें निराहार रहना पड़ता था. निराहार रहने का उन्हें अभ्यास था. वे लंबेलंबे उपवास रखते. कभीकभी तो पूरा महीना ही निराहार रहकर बिता देते. भोजन करते समय भी यदि कोई भिखारी, पशुप्राणी भोजन की चाहत में सामने पड़ जाता तो अपना भोजन उसको सौंप, निर्लिप्त भाव से आगे प्रस्थान कर जाते थे.

उन दिनों देश छोटेछोटे राज्यों में बंटा हुआ था. राजाओं के बीच युद्ध और संघर्ष चलते ही रहते थे. शीतयुद्ध की स्थिति बनना तो सामान्य बात थी. महावीर स्वामी को यहां से वहां भटकते देख कुछ लोग उनपर संदेह करते. उन्हें दुश्मन देश का जासूस समझकर पकड़ लिया जाता. कुछ लोग उनपर संदेह भी करते. एक बार बंगाल में चोरेगा नामक स्थान पर राजा के जासूसों ने उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया. एक अन्य अवसर पर रस्सी से बांधकर उनकी पिटाई की गई. वहां से छूटे तो कुइया नामक स्थान पर एक बार फिर जासूसों के चक्कर में फंस गए. उस समय उनके सहयोगी और समर्थक गोसला उनके साथ थे. अंततः राजकर्मियों की गलतफहमी दूर हुई और क्षमायाचना करते हुए उन्हें छोड़ दिया गया. उस घटना के बाद लोग महावीर स्वामी को जानने लगे थे. अपने सहयोगी गोसला के साथ वे पांच वर्ष तक सत्य की खोज में यहां से वहां भटकते रहे. छठे वर्ष में गोसला उनसे अलग हुए. मगर यह अभिन्नता मात्र छह महीने ही रह पाई. अवधि बीतते ही गोसला वापस लौट आए. तत्पश्चात वे चार वर्ष और महावीर स्वामी के साथ रहे. बाद में उन्होंने स्वयं को आजीवक संप्रदाय का प्रवत्र्तक घोषित कर दिया.

महावीर वैशाली लौट गए. उस समय वहां का अधिपति शंख था. जंगल में यहां से वहां भटकते हुए उनक वस्त्र जर्जर हो चुके थे. मगर उन्हें अपनी देह तक सुध न थी. जिस समय वे वैशाली से गुजर रहे थे, कुछ शैतान बच्चों ने उन्हें घेर लिया. वे उन्हें परेशान करने लगे. शंख के प्रयास से ही महावीर स्वामी मुक्त हो सके. बोध की तलाश में यहां से वहां भटकते हुए उन्हें बारह वर्ष बीत गए. अंततः उन्हें सफलता मिली. आत्मबोध हुआ. इस बीच घोर साधना में उनका शरीर सूखकर कांटा हो चुका था. देह के वस्त्र तारतार होकर लटक चुके थे. मगर आत्मलीन महावीर को उसकी सुध ही नहीं थी. आत्मबोध के आनंद में वे एक ही स्थान पर बिना हिलेडुले छह महीने तक लगातार बैठे रहे. मगर उनकी वह साधना सफल न हो सकी. उनकी पत्नी उन्हें खोजती हुई वहां आ पहुंचीं. इसे अपनी साधना में विघ्न मानकर वे प्रायश्चित में डूब गए.

धीरेधीरे एक वर्ष और बीत गया. महावीर ने उपवास साधा हुआ था. निर्जल रहते हुए ढाई दिन बीत चुका था. वे मौन साधनारत थे कि अचानक उन्हें निर्वाण की अनुभूति हुई. महावीर स्वामी ने उस अवस्था को कैवल्य कहा है, विदेह हो जाने की उच्चतम स्थिति जब शरीर में रहते हुए भी शरीर का बोध, उसकी सीमाएं समाप्त हो जाता है. व्यक्ति परमज्ञान की अवस्था में होता है. निर्वाण प्राप्ति के उपरांत महावीर स्वामी ने पहला उपदेश दिया. उनके आत्मबोध की प्रथम अनुभूति का विवरण मज्झिम निकाय में है—‘मुझे सबकुछ समझ आ रहा है, मैं सबकुछ पूरी तरह साफसाफ देख रहा हूं. मुझे पवित्र आत्मज्ञान की प्रतीति हो चुकी है. अब चाहे मैं चलता रहूं अथवा एक ही स्थान पर स्थिर होकर खड़ा रहूं. चाहे सो जाऊं अथवा जागता रहूं, परमज्ञान और उसकी अंतरानुभूति प्रतिपल मेरे साथ है…’

उच्चतम ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत उन्होंने लिजुवेलिया नदी के तट पर धार्मिक सभा को संबोधित किया. यह उनका पहला जनसंबोधन था. मगर पहला प्रभाव बहुत कम रहा. वहां से वे महसाणा के लिए प्रस्थान कर गए. रास्ते में उनकी ब्राह्मणों के एक दल से भेंट हुई जो आत्मबलिदान करने जा रहे थे. उनकी संख्या ग्यारह थी. उन्होंने संस्कृत में बोलने की परंपरा को तोड़ा था, यही उनका अपराध था, जिसके प्रायश्चित के लिए उन्हें आत्मबलिदान करना था. भाषा तो संवादवहन का माध्यम होती है. इसके बावजूद भाषाविशेष के प्रति इतना दुराग्रह. महावीर को यह बहुत विचित्र जान पड़ा. उन्होंने उन्हें अर्धमागधी भाषा में उपदेश दिया, जिससे प्रभावित होकर सभी उनके शिष्य बन गए. यह उनकी ब्राह्मणवाद पर पहली विजय थी. जैन दर्शन के प्रथम ग्रंथ अर्धमागधी भाषा में ही लिखे गए हैं.

इस घटना के बाद महावीर स्वामी का यश चतुर्दिक फैलने लगा. लोग उन्हें सिद्ध पुरुष मानने लगे. इंद्रभूति गौतम नाम के एक ब्राह्मण के कानों में जब उनकी ख्याति पहुंची तो वह ईष्र्या से भर उठा और उनसे मिलने के लिए चल दिया. उस समय महावीर स्वामी एक बाग में ठहरे हुए थे. जैसे ही इंद्रभूति बाग तक पहुंचा, महावीर स्वामी ने अपनी अंतर्दृष्टि से उसको पहचान लिया. उन्होंने उसका स्वागत करते हुए कहा—

आइए गौतम! मैं जानता हूं कि इस समय आपके मस्तिष्क में आत्मा की सत्ता को लेकर संदेह है. हम उसपर चर्चा कर सकते हैं.’

उसके पश्चात स्वामी महावीर ने उन्हें उपदेश दिया. भारतीय दर्शन में आत्मा की उपस्थिति को लेकर जो विशद चिंतन किया गया है, उसका संदर्भ लेते हुए उन्होंने आत्मतत्व की विवेचना की. इंद्रभूति उनका प्रवचन सुनकर अभिभूत हो गया. उसी दिन उसने महावीर स्वामी का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया. यह सूचना जैसे ही इंद्रभूति के बड़े भाई अग्निभूति तक पहुंची, वह उद्धिग्न हो उठा. अग्निभूति शास्त्रज्ञ पंडित था. अपने तत्वचिंतन पर उसे बड़ा गुमान था. भाई द्वारा महावीर स्वामी का शिष्यत्व ग्रहण करना उसको सहन न हुआ. सूचना मिलते ही वह उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए चल पड़ा. उसने कर्म की वास्तविकता और आत्मा से उसके संबंध को लेकर महावीर स्वामी के समक्ष कई प्रश्न किए, जिनका उन्होंने तथ्यपरक उत्तर दिया. अग्निभूति उनका ज्ञान देख प्रभावित हुआ और अपने छोटे भाई की भांति वह भी उनका शिष्य बन गया. तत्पश्चात एक के बाद एक नौ विद्वान महावीर स्वामी से शास्त्रार्थ पहुंचे और परास्त होकर उनके शिष्य बन गए. उनके शिष्यों की संख्या बढ़कर ग्यारह हो गई. जैन पंरपरा के अनुसार ग्यारह शिष्य अपने साथ अपने अनुयायियों को भी लाए थे, जिनको मिलाकर महावीर के शिष्यों की कुल संख्या 4400 तक पहुंच गई.

कुछ दिनों के बाद अपने शिष्यों के साथ महावीर स्वामी वहां से प्रथान कर गए. रास्ते में न कोई प्रवचन न सभा. उनकी मौन यात्रा 66 दिन तक चलती रही. लगातार चलते हुए वे राजगृह पहुंचे, जो उस समय के शक्तिशाली राज्य मगध की राजधानी था. उस समय बिंबसार वहां का सम्राट था. महावीर स्वामी द्वारा प्रवत्तित नए धर्म को लेकर सम्राट बिंबसार ने उनसे अनेक प्रश्न किए. जिनका उन्होंने संतोषजनक उत्तर दिया. इंद्रभूति ने महावीर स्वामी का शिष्यत्व अवश्य ग्रहण किया था. मगर अपनी विद्वता पर उसको अब भी बड़ा घमंड था. मगध प्रवास के दौरान ही एक वृद्ध व्यक्ति अपनी शंकाएं लेकर महावीर स्वामी के सामने पहुंचा. उसने संस्कृत में एक श्लोक पढ़कर उसकी विवेचना का अनुरोध किया. महावीर उस समय मौन अवस्था में थे. तब आगंतुक ने अपनी जिज्ञासा इंद्रभूति के समक्ष प्रकट की. मगर इंद्रभूति अपने उत्तर से वृद्ध को संतुष्ट न कर सका. वहां उपस्थित अन्य विद्वानों को भी उसकी व्याख्या आधीअधूरी जान पड़ी. उस समय तक महावीर स्वामी का मौनव्रत पूरा हो चुका था. उन्होंने वृद्ध का प्रश्न सुनकर उसकी शास्त्रसम्मत व्याख्या की. उससे वृद्ध संतुष्ट हो गया. यह देख इंद्रभूति का रहासहा दंभ भी जाता रहा.

जैन दर्शन को आरंभिक पहचान मिलने के साथ उसके अनुयायियों को संगठित करना भी अत्यावश्यक था. उन्होंने कुल शिष्यों को भिक्षु, साध्वी, गृहस्वामी और गृहस्वामिनी नामक चार वर्गों में विभाजित किया. धर्म में अनुशासन एवं नैतिकता के स्तर को बनाए रखने के लिए पांच व्रत साधने होते थे. ये हैं: अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह तथा पवित्रता. इनमें से प्रथम चार पाश्र्वनाथ के विचारों से अनुप्रेरित थे. राजगृह में वर्षाकाल व्यतीत करने के उपरांत महावीर ने वैशाली के लिए प्रस्थान कर दिया. वहां उन्होंने अपनी पुत्री और दामाद जामाली को धर्माेपदेश दिया. इसी दौरान उन्हें पूर्वाभास हुआ कि सम्राट रुद्रायण उनसे मिलना चाहते हैं, वे सिंधुसौवीर स्थित उनकी राजधानी पहुंचे. रुद्रायण महावीर के विचारों से प्रभावित होकर जैनश्रमण बन गया. सिंधुसौवीर से वापसी का रास्ता बहुत कठिनाइयोंभरा था. रास्ते में लंबा रेगिस्तान पड़ता था. भिक्षुदल के साथ उस रास्ते से गुजरते हुए महावीर को भोजन एवं पानी की समस्या का सामना करना पड़ा. किंतु कठिन साधना की अभ्यस्त हो चुकी देह ऐसी भीषण चुनौतियों से भी निकलना जानती थी. वहां से वे अपनी छोटीसी शिष्य मंडली के साथ वाराणसी पहुंचे, जिसे वैदिक परंपरा में पवित्र नगरी माना जाता था. वाराणसी में उन्होंने एक अरबपति सेठ को अपना शिष्य बनाया और फिर राजगृह के लिए प्रस्थान कर गए, जहां उन्होंने दो वर्षाकाल बिताए. इस अवधि में उन्होंने युवराज और उनके 25 भाईबहनों को जैन धर्म की दीक्षा दी. महावीर स्वामी का यशकीर्ति लगातार बढ़ती ही जा रही थी. उनसे प्रभावित होकर अनेक लोग मिलने आते और श्रमण परंपरा में सम्मिलित होते जाते थे. इस बीच वैदिक ब्राह्मणों से भी शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें उन्होंने अपनी विद्वता से सभी को प्रभावित किया. जैन मत ब्राह्मणपंथ के लिए लगातार चुनौती बनता जा रहा था.

मगध प्रवास के दौरान ही उन्हें कोशांबी सम्राट का निमंत्रण मिला. वहां पहुंचकर उन्होंने सम्राट प्रद्योत तथा अनेक साम्राज्ञियों को जैनमत की दीक्षा दी. उस वर्ष का वर्षाकाल उन्होंने वैशाली में व्यतीत किया. चातुर्मास पूरे होते ही वे मगध वापस लौट गए. राजगृह में उन्होंने फिर सैकड़ों श्रद्धालुओं को श्रमणपरंपरा में सम्मिलित किया. इस बीच अजातशत्रु ने मगध पर आक्रमण कर उसपर अधिपत्य जमा लिया. राजनीतिक उथलपुथल से स्वयं के दूर रखते हुए उन्होंने राजगृह छोड़ दिया. वहां से वे चंपा पहुंचे, वहां उन्होंने राजकुमार सहित अनेक नगरवासियों को जैन धर्म में सम्मिलित किया. मगधसम्राट अजातशत्रु महावीर स्वामी का सम्मान करता था. किंतु यह आस्था उसकी साम्राज्यवादी भावनाओं पर नियंत्रण करने में अपर्याप्त थी. उसने भारी संख्याबल के साथ वैशाली गणतंत्र पर आक्रमण कर दिया. भीषण युद्ध में सम्राट चेतक की मृत्यु के बाद वैशाली पर मगध के कब्जे में आ गई. युद्ध में हुए भारी नरसंहार ने महावीर स्वामी को आहत कर दिया. उन्होंने स्वयं को एकांत तपश्चर्या में लीन कर दिया. अंततः 72 वर्ष की अवस्था में उन्हें निर्वाण की प्राप्ति हुई. संयोग देखिए कि महावीर स्वामी के मृत्यु के अगले ही दिन उनका पहला शिष्य इंद्रभूति गौतम भी निर्वाण प्राप्त हो गया. मगर उस समय तक लाखों श्रद्धालु जैन धर्म को अपना चुके थे.

 

जैनदर्शन परदुःखकातरता और करुणा पर केंद्रित दर्शन है. इसमें व्यक्तिगत संपत्ति की भावना का निषेध किया गया है. गृहस्थों के लिए तो संपत्तिसंबंधी मान्यताओं में फिर भी किंचित छूट है. किंतु जैन तापसों के लिए तो देह पर वस्त्र धारण करना भी विलासिता की श्रेणी में आता है. यह मान लिया जाता है कि शरीर ढकने के लिए वस्त्र का लालच भी मोक्ष प्राप्ति की अवधि को लंबा खींचने का काम करता है. जैन दर्शन में आवश्यकता से अधिक संचय को पाप माना गया है. समझा गया है कि यह भी एक प्रकार की हिंसा है. जैन दर्शन का संपत्ति संबंधी अवधारणा समाजवादी विचारधारा से मेल खाती है. समाजवाद भी हर व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुरूप देने का आश्वासन देता है. वहां संपत्ति कल्याणकारी राज्य के अधीन सुरक्षित मानी जाती है, जिसका उपयोग नागरिकों की आवश्यकता को ध्यान में रखकर व्यापक लोककल्याण की कामना के निमित्त किया जाता है. जैनमत के संपत्तिसंबंधी सिद्धांत और समाजवाद में महज इतना अंतर है कि समाजवाद राजनीतिकसंवैधानिक व्यवस्था है. जबकि जैन दर्शन नैतिक आचरण है. वह त्याग और सर्वकल्याण की भावना पर टिका है. यह आत्मानुशासन के बिना संभव नहीं. समाजवाद में अनुशासन के लिए राजनीति की मदद ली जाती है. जोकि बाहरी और खर्चीला उपक्रम है. उसकी अपेक्षा अपरिग्रह नैतिकता की जमीन पर खड़ा होता है. जाहिर है कि यह उच्च मानवादर्श है.

जैनमत में लोकतांत्रिक समाजवाद का एक अन्य रूप ‘स्याद्वाद’ के रूप में भी मिलता है. जैन मतावलंबियों की विशेषता यह है कि वे किसी भी कोटि के दुराग्रह का संपूर्ण निषेध करते हैं. अपनी बात दूसरों से बलात् मनवाना या केवल अपने ही मत को अंतिम सत्य मानना हठधर्मी, एक प्रकार की वैचारिक हिंसा है. इसलिए वहां अहिंसा पर इतना जोर दिया गया है. जैनमत के अनुसार किसी भी जीव की हत्या करना तो पाप है ही, विचारों की हिंसा भी वहां सर्वथा वज्र्य है. इसलिए कि विचार भी जीवात्मा की देन, उसकी विशेषता हैं. वैचारिक सहिष्णुता, विरोधों को आत्मसात करने की यह प्रवृत्ति जैन मत में स्याद्वाद के सिद्धांत के उद्भव का कारण बनी. ‘स्याद्वाद’ जैनदर्शन का सर्वाधिक मौलिक एवं वैज्ञानिकता पर आधारित विचार है. इसके अनुसार किसी भी वस्तु अथवा विचार के बारे में जो कहा जाता है, वह अनेक संभावनाओं से युक्त होता है. सत्य कई रूपों में प्रकट होता है.

अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए हाथी और छह अंधों की कहानी का उदाहरण देते हैं. कहानी के छह अंधों को हाथी के सामने खड़ा कर उसकी शरीर रचना के बारे में बताने को कहा जाता है. जिस अंधे ने हाथी के कान का स्पर्श किया था, उसके अनुसार हाथी की देह पंखे के समान है. दूसरा जो हाथी की सूंड का स्पर्श करता है, वह हाथी को मोटी बेल जैसा बताता है. तीसरा अंधा जो हाथी के पैर का स्पर्श करता है, वह उसकी रचना को खंबेनुमा कहकर अपने अनुभव का बखान करता है. वे सभी अपनी जगह सही है. सभी सच्चे हैं. मगर उनका सत्य आंशिक और परिस्थितिजन्य है, जो उनकी सीमा को दर्शाता है. उन छह के अलावा एक दृष्टिसंपन्न व्यक्ति भी है. हाथी की वास्तविक देहरचना के बारे में केवल वही जानता है. ज्ञान की स्थिति केवल प्रज्ञावान को ही संभव है. यही निर्वाण की अवस्था भी है, जब कोई तापस सृष्टि के वास्तविक रहस्य को जान चुका होता है. जैनमत मानता है कि साधारण व्यक्ति की ऐंद्रियानुभूति सीमित होती है. इसलिए उसका बोध भी सीमित होता है. मगर वह गलत नहीं है. अंधों की कहानी में यदि उन सभी के अनुभवों को परस्पर मिला दिया जाए तो हाथी की संपूर्ण रचना सामने आ सकती है. यही लोकतंत्र में होता है, जो समाजवादी व्यवस्था की धुरी है. वहां अनेक नागरिक मिलकर अपने विकास के लिए उपयुक्त व्यवस्था का चयन करते हैं.

जैनदर्शन की सृष्टि संबंधी व्याख्या आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से मेल खाती है. उसके अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति का कारण छोटेछोट पुद्गलों को माना है. ये पुद्गल परस्पर मिलकर अणु बनाते हैं. अणुओं के संयोग से संसार की विभिन्न वस्तुओं, जड़चेतनादि की उत्पत्ति होती है. जड़चेतन में पुद्गलों की उपस्थिति उसे जीवनमय बनाती है. जैन दर्शन का पुद्गल का विचार कणाद मुनि के वैशेषिक दर्शन से मेल खाता है. पुद्गल की तुलना हम परमाणुवाद के साथ के आधुनिक सिद्धांत से भी कर सकते हैं. यह भी विज्ञानप्रमाणित है कि दो परमाणु परस्पर मिलकर एक अणु की रचना करते हैं, जो सृष्टि के समस्त पदार्थों की उत्पत्ति का कारण है. लेकिन पुद्गल परमाणु नहीं है. परमाणु में जीवन है, वैज्ञानिक ऐसा कोई दावा नहीं करते. वे परमाणु की गति का आकलन कर सकते हैं. परमाणु में अंतनिर्हित ऊर्जा की खोज भी की जा चुकी है. वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार परमाणु जड़चेतन से परे लघुत्तम कण है, जो संसार की प्रत्येक वस्तु, जड़ और चेतन दोनों की व्युत्पत्ति का कारण है. इससे भिन्न पुद्गल चेतनामय इकाई, जीवन का लघुत्तम रूप है. तदुनुसार यह समस्त संसार छोटेछोट पुद्गलों से मिलकर बना है. अतएव जैन दर्शन के अनुसार दृश्यमान जगत के कणकण में जीवन है. उनका सम्मान करना जीवन का सम्मान करना है.

जैन शब्द ‘जिन’ धातु से बना है. यानी ऐसा व्यक्ति जिसने इंद्रियों को अधीन कर लिया हो. इंद्रियनिग्रह के लिए अपरिग्रह अस्तेय, अहिंसा, सत्य आदि की कसौटियां बनाई र्गइं. जिनका अर्थ है, जरूरत से अधिक संचय न करना. चोरी न करना. दूसरे के धन की लालसा न रखना. हिंसा का पूर्ण निषेध और सत्याचरण. यही सिद्धांत बौद्ध धर्म के भी थे. आशय यह है कि नैतिक मान्यताओं को लेकर जैन और बौद्ध धर्म एक ही कोटि के माने जा सकते हैं. इसलिए कुछ विद्वानों ने जैनधर्म को बौद्ध धर्म की ही एक शाखा माना है. हालांकि कुछ मायने में दोनों में अंतर भी है. बौद्ध दर्शन व्यावहारिक बोध को महत्त्व देता है. वह जीवन की उपेक्षा करने के बजाय, उसको संयमित ढंग से जीने पर विश्वास रखता है. ऐसा जीवन जो अपने और दूसरों के लिए समानरूप से सुखकारी हो. इसलिए जैनदर्शन का अतिअनुशासन भी वहां वज्र्य है. कामनाओं से भागने से उनसे बच पाना संभव नहीं. वे पीछा करती हैं. उनसे मुक्ति का एक ही उपाय है, कामनाओं के बीच रहकर उनसे मुक्ति. मन को साधना. यह आसान नहीं है. लेकिन अभ्यास से इसको साधा जा सकता है. इसके लिए बुद्ध ने अष्ठांग योग का विचार दुनिया के सामने रखा था. मगर उनका अष्ठांग योग भी व्यावहारिक है. वह मनुष्य की पहुंच में है. जबकि जैन मत का अहिंसा का सिद्धांत और अन्य धार्मिक अनुशासन बहुत कड़े हैं. यही कारण है कि जैन धर्मदर्शन जनसाधारण के बीच अपनी जगह बनाने में असमर्थ रहा था.

बोधि वृक्ष के नीचे साधना करते समय बुद्ध को समझ आया था कि जीवन वीणा के तारों की तरह भांति है. ढीला छोड़ने पर सुर नहीं निकलते. अधिक कसने पर तार टूट भी सकते हैं. इसलिए उन्होंने मध्यम मार्ग को अपनाने का आग्रह किया था. लेकिन अहिंसा जैसे विषय को लेकर जैन मत व्यावहारिकता की सीमा तक प्रतिबद्ध है. वहां अपरिग्रह पर इतना आशय है कि शरीर पर वस्त्र धारण करना भी मोक्ष की राह में बाधक माना गया है. बौद्ध धर्म की अहिंसा के सिद्धांत को उसकी तत्व विवेचना के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है. जैन दर्शन सम्यक व्यवहार, सम्यक बोध, तथा सम्यक आचरण पर जोर देता है.

जैन दर्शन एक भौतिकवादी दर्शन है. वह संसार की सत्ता को नकारता नहीं है. बल्कि उसकी वास्तविकता को स्वीकारते हुए कतिपय वैज्ञानिक आधार पर उसकी व्याख्या करता है. जीवनमूल्यों को वरीयता देते हुए वह मनुष्य को अपनी चिंताओं के केंद्र में रखता है. उसकी आचारसंहिता तीन प्रमुख सिद्धांतों पर टिकी है. जैन दर्शन को यदि श्रेष्ठ विचारों की एक माला स्वीकारा जाए तो इन तीन सिद्धांतों को उसके माणिकमुक्ता समझा जाता है, जिनपर माला की समस्त सुंदरता निर्भर करती है. ये हैं—सम्यक आचरण, सम्यक कर्तव्य एवं सम्यक बोध. सम्यक आचरण से अभिप्राय सृष्टि के प्रत्येक प्राणी के साथ भेदभाव रहित दयालुतापूर्ण व्यवहार से है. हर प्राणी में एक ही जीवात्मा है, इसलिए उसका सम्मान. सभी के साथ एक समान व्यवहार. सम्यक बोध मानव चेतना के विकास के पांच स्तरों को दर्शाता है. वे हैं अध्ययन, साधना, सिद्धि एवं कैवल्य. सम्यक कर्तव्य आत्मानुशासन, निश्छल व्यवहार, सदाशयता को दर्शाता है. यह मानवेंद्रियों को विचलन से बचाकर उन्हें साधना पथ पर अग्रसर करने से संभव है. वह उपदेश से अधिक आत्मनियंत्रण पर जोर देता है. जैनग्रंथ ‘उत्तरध्यान’ में आत्मानुशासन की आवश्यकता पर लिखा गया है—

खुद को जीतो

इसलिए कि आत्मविजय सबसे बड़ी साधना है

यदि तुम स्वयं को जीत लेते हो

तो संसार में रहकर भी बनोगे अनिवर्चनीय आनंद के भागी

उससे भी श्रेष्ठ है

इससे पहले कि दुनिया के प्रलोभन और मायावी शक्तियां

मेरी इंद्रियों को अपने जाल में फंसा लें

मुझे भटकाएं

प्रताड़ित करें

आत्मनुशासन एवं प्रायश्चित द्वारा खुद को जीतकर

आत्मविजयी बनना.

इन सिद्धांतों की तुलना हम बौद्ध धर्म के अष्ठांग योग से कर सकते हैं. महावीर स्वामी का जन्म बुद्ध से पहले हुआ था. मगर दोनों में अधिक अंतर नहीं है. दोनों का कार्यक्षेत्र भी भारत का पूर्वी क्षेत्र है. हम आसानी से कल्पना कर सकते हैं कि जिन दिनों महात्मा बुद्ध ने संन्यास के लिए घर छोड़ा था, उन दिनों देशभर में महावीर स्वामी के विचारों की धूम मची होगी. कर्मकांड और यज्ञ के नाम पर होने वाली जीवहत्या से उकताए हुए लोग जैन धर्म में दीक्षित हो रहे थे. उनमें हर वर्ग के लोग सम्मिलित थे. वैशाली जैसे गणराज्य जिसके महात्मा बुद्ध प्रशंसक थे, के शासक भी भी जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण कर चुके थे. आचार्य वर्षकार जब वैशाली पर आक्रमण से पहले बुद्ध से परामर्श लेने पहुंचते हैं तो बुद्ध वैशाली गणराज्य की मिलजुलकर निर्णय लेने की गणतांत्रिक प्रणाली की प्रशंसा करते हुए वैशाली को अजेय घोषित करते हैं.

सम्यक आचरण मनुष्य के मानवीय स्वरूप को बनाए रखने की कला है. प्रत्येक मनुष्य के भीतर एक ही जीवात्मा है. स्त्रीपुरुष सभी एक समान हैं. इसलिए मनुष्य का पहला धर्म है कि वह सभी के साथ एक जैसा आचरण करे. बिना किसी पक्षपात, वगैर किसी स्वार्थलिप्सा के सबके साथ समानतापूर्ण व्यवहार करते हुए प्राणीमात्र के कल्याण के निमित्त समर्पित हो. दूसरों के साथ वही व्यवहार करो, जैसा उनसे अपने प्रति अपेक्षित है. संसार में रहकर भी उसके प्रलोभन से विरक्ति. देह में रहकर भी विदेहत्व की साधना. मुक्ति का साक्षात अनुभव. वौद्धदर्शन की भांति जैन दर्शन भी वेदों को प्रामाण्य नहीं मानता. उसके स्थान पर वह व्यक्ति की सत्ता को सर्वोच्च ठहराता है. नैतिक आचरण पर जोर देता है.

संसाधनों के न्यायिक बंटवारे और प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार देना ही समाजवादी व्यवस्था का प्रमुख ध्येय है. यह कार्य वह राज्य की नियामक शक्ति की मदद से करती है. राज्य भी व्यक्तियों से परे नहीं है. वह नागरिकों की सहमति और अनुशंसा के आधार पर बनी संस्था है. अंधों की कहानी में जैसे किसी एक अंधे की राय का कोई मूल्य नहीं है, लेकिन जब उन सबके अनुभवों को मिला दिया जाता है, तो उससे वही विंब बनता है, जो एक दृष्टिसंपन्न व्यक्ति की चेतना में बनता है. राज्य भी अपने नागरिकों की संस्तुति के आधार पर बनी संस्था है, जो एक नियामक संस्था सत्ता का रूप ग्रहण कर लेती है. कह सकते हैं कि जैन दर्शन की नैतिक मान्यताएं समाजवाद की मूल आस्था के अनुकूल हैं. हालांकि इसकी कड़ी अनुशासनव्यवस्था, इसको जनसाधारण के लिए असहज बनाती है.

© ओमप्रकाश कश्यप

धर्म एवं निरंकुश पूंजीवाद

धर्म एवं अभिजन संस्कृति– – चार

जीवन की अंतहीन मुश्किलों से बचाव के लिए जनसाधारण के पास केवल तीन रास्ते होते हैं. पहला शराब की दुकान की ओर निकल जाना, दूसरा धर्म की शरण लेना और तीसरा सामाजिक क्रांति के रास्ते राह प्रशस्त करना.1मिखाइल बकुनिन

पंद्रहवीं शताब्दी में यूरोप और एशियाई देशों में जो परिवर्तनकामी आंदोलन खड़े हुए उनमें परिस्थितिगत अंतर भले हो, मगर लक्ष्य सभी का कमोबेश एक था. वह अस्वाभाविक भी नहीं था. इसलिए कि अर्थव्यवस्था के वैकल्पिक साधनों के अभाव में सभी देशों की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित थी. कृषिकर्म के लिए सबको प्रकृति पर आश्रित रहना पड़ता था. हालांकि भौगोलिक परिस्थितियां भिन्न थी और तज्जनित चुनौतियां भी. किंतु उत्पादन के साधनों में समानता के कारण उनके विकास का स्तर लगभग समान था. थोड़ाबहुत अंतर रहा तो उसका कारण भौगोलिक और स्थानीय परिस्थितियां थीं. दुनिया के सभी समाजों में आरंभिक अभिजन या तो भूस्वामी थे, अथवा वे लोग जो किसी न किसी कारणवश धर्म के संरक्षण और प्रसार से जुड़े थे. जिन्होंने जनसाधारण के हृदय में पैठे डर, प्रकृतिआधारित जीवन की अनिश्चितता एवं सत्ता से निकटता का लाभ उठाकर अपनी स्थिति मजबूत की थी. पंद्रहवीं शताब्दी की वैज्ञानिक और तज्जनित औद्योगिक क्रांति ने वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के रास्ते उपलब्ध कराए. फलस्वरूप उन लोगों को जो अपने हस्तकौशल और बुद्धिबल के आधार पर सामंती व्यवस्था में आश्रित जैसा जीवन बिता रहे थे. अपने बुद्धिकौशल का बाजिब मूल्य वसूलने तथा स्वतंत्र होकर आगे बढ़ने का अवसर मिला. औद्योगिक आवश्यकता के चलते मध्य वर्ग की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई. वही प्रकारांतर में परिवर्तनकामी आंदोलनों का प्रमुख सूत्रधार बना. उन आंदोलनों का पहला लक्ष्य था सामंती ताकतों के चंगुल से आमजन की मुक्ति. यद्यपि सामंतवाद के मूल में आर्थिक असमानता थी, तथापि इस लक्ष्य को केवल आर्थिक विकास के बूते प्राप्त करना असंभव था. इसलिए कि लंबे समय तक उत्पीड़नकारी स्थितियों में जीवन जीने वाला जनसाधारण उस व्यवस्था से अनुकूलन कर चुका था. शोषण को वह अपनी नियति मानने लगा था. धर्म, संस्कृति एवं समाज के नाम पर उत्पीड़क शक्तियों ने नियमों, विधानों की एकतरफा व्यवस्था खड़ी की थी. उसमें अधिकारों का जखीरा अभिजन वर्ग के पास था और कर्तव्य की पोटली गैर अभिजन के. समानता की चर्चा रूमानियत भरे किस्सेकहानियों जैसी थी, जो मन को लुभाती हैं, तसल्ली देती हैं, मगर हकीकत से कोसों दूर होती हैं. उनसे मुक्ति का एकमात्र उपाय था, लोगों को आर्थिक एवं सामाजिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना. ऐसा वैचारिक तेज प्रदान करना, जिसके सहारे वे सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की चुनौतियों को झेल सकें. इसी सामान्य ध्येय के साथ उस दौर के परिवर्तनकामी आंदोलनों का कारवां आगे बढ़ा था. उन आंदोलनों के अपने संघर्ष, परिस्थितियां और तनाव थे. कई जगह उनके लक्ष्य गड्मड थे. परिवर्तनकामी आंदोलनों की वास्तविक पहचान उनीसवीं शताब्दी में मार्क्स साथ ही संभव हो सकी. अपनी विलक्षण मेधा से मार्क्स ने पूंजीवादी, सामंतवादी अर्थव्यवस्था का विशद्गंभीर विवेचन किया. फलस्वरूप उसके शोषणकारी चरित्र को समझना आसान होता गया.

प्रौद्योगिकीकरण की शुरुआत तक आर्थिक संबंधों के विकास के लिए व्यक्ति की जरूरतें जिम्मेदार थीं. वे उत्पादक और उपभोक्ता के लाभ एवं सहयोगभावना पर निर्भर रहती थीं. कालांतर में जब धर्म, राजनीति और अर्थसत्ता का गठबंधन बना तो अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए शीर्षस्थ शक्तियां अपनी पसंद के व्यक्तियों को केंद्र में लाने लगीं. प्रतिभा की उपेक्षा का सर्वाधिक नुकसान जिज्ञासातत्व को उठाना पड़ा था. ईसा से पांचछह सौ वर्ष पहले मौलिक प्रतिभा का जो अद्भुत प्रस्फुटन भारत, यूनान और चीन में लगभग एक समान दिखाई पड़ता था, सहस्राब्दी के समापन तक वह शिथिल पड़ा तो शताब्दियों तक अपने पुराने वैभव को प्राप्त न कर सका. उसने करवट ली सोलहवी शताब्दी में. उसके बाद तो फ्रांसिस बेकन, जान लाक, रेने देकार्त्त, वाल्तेयर, रूसो, प्रूधों आदि के मौलिक चिंतन द्वारा समाज में नई ज्ञानशैलियों का आगमन हुआ. धार्मिक सुधार की वास्तविक कोशिश पंद्रहवीं शताब्दी से हुई, जब तर्क एवं लोककल्याण को प्रधानता देते हुए मार्टिन लूथर ने बाईबिल की 95 उत्पत्तियों का चयन कर उन्हें एक पोस्टर के रूप में चर्च के दरवाजे पर टांग दिया. यह एक क्रांतिकारी कदम था, जिसने कट्टरपंथ की चूलें हिलाने का काम किया. धर्मग्रंथों की आलोचना आज भले सामान्यसी बात मानी जाए, मगर उस जमाने में वह युगप्रवर्तनकारी कदम था. उन पदावलियों में लूथर ने धर्म के नाम पर पादरी वर्ग द्वारा जनसाधारण के शोषण की ओर संकेत किया था. यह कहते हुए कि चर्च के अपने आदमी ही धर्म के वास्तविक संदेश को आमजन तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं, उनका ध्यान केवल ओर केवल गरीबों से चंदा, दान आदि के नाम पर धन ऐंठने पर है—उसने यूरोपभर में खलबली मचा दी थी. लूथर का सीधासा प्रश्न था‘चर्च के नाम पर गरीबों से धन उगाहने के बजाय, पोप जिसका धन सम्राट से भी कहीं ज्यादा है, अपने धन से एक विशाल और भव्य चर्च का निर्माण क्यों नहीं करा लेता?2 लूथर के उत्तरवर्ती विचारक जान काल्विन का जोर भी धर्म के नाम पर समाज में व्याप्त कट्टरपंथ और शोषण से जनसामान्य की मुक्ति पर था. उसने यह कहकर कि सृष्टि में कुछ भी ऐसा नहीं है जो मनुष्य के लिए वर्जित हो, ईसाइयों की ‘पवित्र अपराध’ वाली सैद्धांतिकी पर खुला प्रहार किया था. जियोदार्नो ब्रूनो और काल्विन में यद्यपि परस्पर अनबन थी, लेकिन ब्रूनो ने भी धर्म के कट्टरपंथी रवैये की आलोचना की थी. इससे चिढ़कर धार्मिक अतिवादियों ने उसे जिंदा जला दिया गया था. मार्टिन लूथर, काल्विन, जियोदार्नो ब्रूनो के प्रयासों का इतना असर हुआ कि चर्च की व्यवस्था में सुधार की मांग जोर पकड़ने लगी. कुछ ही अवधि में वह प्रगतिशील और परंपरागत चर्च में बंट गया.

भारत में परिस्थितियां भिन्न थीं. शताब्दियों लंबी दासता ने भारतीयों से न केवल उनका आत्मबल छीना था, बल्कि अतीत की उसकी उपलब्धियों की ओर से भी ध्यान हटा दिया था. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो पूरी अठारहवीं तथा उनीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक इस देश की मेधा आमतौर पर वही पढ़गुन रही थी, जो अंग्रेज बुद्धिजीवी उसको पढ़ा रहे थे. देश की इस समाजार्थिक दुर्दशा के लिए केवल बाह्यः शक्तियां जिम्मेदार न थीं. कुछ बड़े कारण थे—समाज का जातीय आधार पर विभाजन तथा धर्म के नाम पर फलताफूलता कर्मकांड जो व्यक्ति के विवेक का हनन कर, उसको अंधानुयायी बनाते थे. उल्लेखनीय है कि समाज के बहुआयामी विकास एवं मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु समाज के विभाजन का सुझाव प्लेटो ने भी दिया था. उसके द्वारा आकल्पित नगरराज्य की विशेषता थी कि उसमंे व्यक्ति की पैत्रिक पहचान खत्म कर दी जाती थी. ‘रिपब्लिक’ में प्लेटो ने बच्चों का पालनपोषण मातापिता से अलग, राज्य के संरक्षण में करने की अनुशंसा की थी. संपत्ति राज्य के अधीन थी. इस कारण जाति, कुल या संपत्ति के आधार पर किसी व्यक्ति का सत्तासीन होना मुश्किल था. उस व्यवस्था में व्यक्ति के गुणों का महत्त्व था. व्यक्ति की योग्यता के आधार पर व्यापक समाजहित में उसे जिम्मेदारियां सौंपी जाती थीं. फलस्वरूप योग्यतम व्यक्ति समाजहित में अपना अधिकतम योगदान दे पाने में सक्षम होगा—ऐसी परिकल्पना प्लेटो की थी. वह व्यवस्था कामयाब न हो सकी तो इसलिए कि तत्कालीन यूनान छोटेछोटे राज्यों में बंटा था. उनके बीच हमेशा युद्ध की स्थिति बनी रहती थी. प्लेटो के नीतिवादी सोच का प्रभाव अरस्तु पर पड़ा. आगे भी वह किसी न किसी रूप में आने वाले विचारकों को प्रभावित करता रहा.

भारत में सामाजिक समानता सैद्धांतिक स्तर पर भी संभव न थी. इसलिए कि जातीय आधार पर समाज को अलगअलग हिस्सों में बांट देने के बीजतत्व वेदों में मौजूद थे, जिन्हें दैवीय माना जाता था. उन्हीं की स्तुति करते हुए चारणनुमा पुरोहितवर्ग ने सत्ता के इर्दगिर्द रहकर अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी. स्वार्थ की एकरूपता के कारण उन्हें राजसत्ता का भी भरपूर समर्थन मिला. इससे पूरा समाज आर्थिक, सामाजिक स्तर पर बंटता चला गया. ऊंचनीच की खाइयों में बंटे समाज में एक वर्ग वह था, जिसके पास अधिकार ही अधिकार थे, कोई चुनौती न थी. दूसरा वर्ग अधिकारशून्य अवस्था में पहले वर्ग के लिए रातदिन खटता रहता था. आज वर्णविभाजन के औचित्य को लेकर उसके अंधभक्त चाहे जितने तर्क दें, मगर राज्य जब उत्तराधिकार में दिए जाते हों, समस्त भूमि ब्राह्मणों की घोषित हो, जीवन विवेक के बजाय रूढ़ियों, जड़ परंपराओं तथा कर्मकांडों द्वारा अनुशासित होता हो, ज्ञानार्जन के अवसरों और संसाधनों पर समाज के मुट्ठीभर लोगों का अधिकार हो, दूसरे वर्ग को उससे बलात् अलग रखा जाता हो—तब समानताआधारित समाज की स्थापना महज दिवास्वप्न थी. वर्गीय शोषण की अवधि इतनी लंबी थी कि उत्पीड़क अपनी दुरवस्था को ही अपनी नियति मानने लगा था. ऐसी स्थिति में परिवर्तन की मांग तो दूर यदि उसकी बात भी चले तो पहला विरोध अपने ही लोगों का झेलना पड़ता था.

पंद्रहवी शताब्दी ने यूरोप और भारत दोनों में परिवर्तन के साथ दस्तक दी थी. मगर यूरोप की वैचारिक क्रांति वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के कंधों पर सवार होकर आई थी. इसीलिए उससे कामयाबी की इबारत लिखी जा सकी. उसी कालखंड के दौरान भारत में हुई सामाजिक क्रांति, जिसे भक्ति आंदोलन जैसे ठूंठ नाम से नवाजा जाता है, का लक्ष्य जाति और धर्म के तले पिस रहे वर्गों में आत्मचेतना का विस्तार करना था. भक्त कवियों का नेतृत्व संत कवियों के हाथों में था. मगर जिस समाज का वे प्रतिनिधित्व करते थे, वह समाजार्थिक रूप से प्रभु वर्ग पर आश्रित था. वह क्रांति अंततः असफल हुई तो इसलिए कि सामाजिक समानता का सपना देखने वाले संतकवियों के पास शोषित वर्ग की आर्थिक आत्मनिर्भरता बढ़ाने के लिए कोई रास्ता ही न था. उनमें से अधिकांश अशिक्षित या अल्पशिक्षित थे. कबीर, दादू आदि आरंभिक संत कवि उस वर्ग से थे जिसे वेदादि ग्रंथों को पढ़ने की मनाही थी. मंदिर की सीढ़ियां वे नहीं चढ़ सकते थे. यदि वे किसी को छू भी लें तो सरेआम अपमानित और दंडित होना पड़ता था. दलित वर्ग के आत्मविश्वास को वापस लाने के लिए उन्होंने लोगों को समझाया कि देवता न तो मंदिर की दीवारों में है, न ही पंडितों द्वारा रचे गए धर्म ग्रंथों में. इसलिए वे अपना परमात्मा यदि देवालय के अंधेरे बंद कोने में खोजने के अभ्यस्त हैं तो यह नादानी उन्हीं को करने दो. ‘पत्थर पूजने से तो घर की चक्की को पूजना बुद्धिमानी है.’ परमात्मा को खोजने के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं है. वह मानवमात्र के हृदय में वास करता है. इस तरह संत कवियों ने मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने और सामाजिक संबंधों में नैतिकता की वापसी पर जोर दिया. उन्होंने धर्म और जाति के नाम पर भेदभाव का भी विरोध किया. संत कवियों की नीयत और सामथ्र्य पर संदेह करने की गुंजाइश नहीं है. मगर यह मानना पड़ेगा कि उनके चिंतन का दायरा उनके अनुभवक्षेत्र तक सीमित था. यह अनुभव क्षेत्र जातिवादी समाज में रहते हुए बना था. जिसके कारण कबीर जैसे क्रांतिधर्मा कवि को भी ब्राह्मणकुल में जन्म न लेने का अफसोस था—‘पूरब जनम हम बांभन होते, ओछे करम तप हीना. रामदेव की पूजा चूका पकरि जुलाहा कीना.’ हालांकि कबीर अपनी इस कुंठा से जल्दी ही बाहर निकल आते हैं. मगर इससे इतना तो प्रमाणित होता है कि संत कवियों की चेतना भी समाज के जातिवादी चरित्र से प्रभावित थी. आमूल परिवर्तन हेतु समाजार्थिक एवं राजनीतिक स्तर पर जिस क्रांतिधर्मी चेतना और बोध की जरूरत पड़ती है, उसका उनके पास अभाव था. उनकी आरंभिक पैठ भी समाज के निचले वर्गों तक सीमित थी, जो आर्थिक रूप से विपन्न और पूरी तरह पराश्रित थे. इसलिए ब्राह्मण समेत तथाकथित ऊंची जातियों ने आरंभ में संत कवियों की न केवल उपेक्षा की, बल्कि उन्हें तरहतरह से अपमानित करने का प्रयास भी किया. इस कारण उनकी सुधारवादी चेतना केवल जाति और धर्म की जकड़न से मुक्ति की मांग से आगे न बढ़ सकी. ऐसा केवल भारत तक सीमित न था. यूरोप में भी आरंभिक परिवर्तनकामी आंदोलन धार्मिक सुधारवाद तक सीमित थे.

वेंदांतियों के मायावाद तथा सूफी परंपरा से प्रभावित संत कवियों ने सांसारिक सुखों के प्रति उपेक्षा का रवैया अपनाया. कबीर जैसे युगदृष्टा कवि ने ‘रूखीसूखी खाकर ठंडा पानी पीने’ में ही भलाई समझी तो रविदास ने इस देह और भोगविलास को झूठा बताकर सादगी और संतोष के साथ जीवनयापन का उपदेश दिया. झूठ रे यहु तन झूठी माया/झूठा रे मंदिर भोगविलासा.’कहकर कबीर की बात को ही पानी दिया. अपनी तरह से संत कवियों ने जीवन में अर्थ की महत्ता को कम करने का भरसक प्रयास किया. मगर सांप को सामने देख आंख मूंदकर रस्सीरस्सी रटने से जैसे सांप रस्सी नहीं बन जाता, वैसे ही संत कवि के जीवन में मोहमाया का तिरस्कार करने से समाज में वैसा होना संभव न था. कम से कम उस समय तक तो नहीं, जब तक समाज में भारी आर्थिक विषमता हो. एक वर्ग दूसरे के श्रम और संसाधनों पर विलासितापूर्ण जीवन जीता हो; और दूसरे वर्ग को पूरे दिन पसीना बहाने के बावजूद भरपेट रोटी के लिए शीर्षस्थ वर्ग पर आश्रित रहना पड़ता हो. उपदेश से आक्रोश का शमन एक बार तो संभव है, जिंदगीभर नहीं. मनुष्य सामान्यतः अपने से ऊपर के वर्ग को ललचायी दृष्टि से देखता है, उस जैसा होना चाहता है, जहां तक संभव हो उसका अनुसरण भी करता है. अतएव संत कवियों की वाणी गरीब मन को तसल्ली तो देती रही, मगर वह समाज के चरित्र में न ढल सकी. जिन वर्गों में संत कवियों की पैठ बनी, उनके आर्थिक रूप से परावलंबी होने के कारण, भक्ति आंदोलन बहुत जल्दी सामंतवादी शक्तियों का शिकार हो गया. निराकार भक्ति के रूप में अध्यात्म चेतना के प्रति झुकाव से आरंभ हुआ वह आंदोलन कुछ ही शताब्दियों में साकार भक्ति में ढलकर उन सब कुरीतियों, परंपराओं, बौद्धिक जड़ताओं का समर्थक और बढ़ानेवाला सिद्ध हुआ, जिनके विरोध में वह खड़ा हुआ था. जीवन की मूलभूत समस्याओं के प्रति पलायनवादी दृष्टिकोण के कारण वह समाज के प्रभुवर्ग के आगे निर्णायक चुनौती न बन सका. समाज की नेतृत्वकारी मेधा धर्म को जीवनपद्धति का आधार मानती रही. ‘धर्मो रक्षति रक्षतः’—धर्म की रक्षा में ही सबकी रक्षा है, कहने वाले लोग समाज में अग्रणी बने रहे. चूंकि शताब्दियों से धर्म लोगों की जीवनशैली को अनुशासित करता आया था, इसलिए जीवन में उसके अभाव की वे कल्पना भी नहीं कर पाते थे. नैतिकता को धर्म के अधीन, उसपर आश्रित मानने का चलन था. सच इसके उलट है. नैतिक मूल्य मानवमात्र के लिए कहीं अधिक कल्याणकारी एवं शाश्वत हैं. अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए दुनिया के हर धर्म ने इन्हें अपनाया था.

उल्लेखनीय है कि दुनिया के किसी भी ज्ञात धर्म का आधार चारपांच हजार वर्ष से पुराना नहीं है. दूसरी ओर मानवमन में नैतिकताबोध का विकास उसके विवेकबोध के जन्म से जुड़ी घटना है. अपनी सीमाओं के भीतर धर्म यदाकदा आम जनमानस में नैतिक मूल्यों की स्थापना तथा उन्हें बनाए रखने का माध्यम जरूर बना, मगर अधिकांश मामलों में वह समाज के विभिन्न वर्गों के बीच दूरी और वैमनस्य को ही बढ़ावा देता रहा. संदेह ज्ञान का मूल, जिज्ञासा का आधार है. ‘संदेह से हम जांचपड़ताल की और उन्मुख होते हैं, जांचपड़ताल हमें सत्य तक ले जाती है.’—पीटर अबेलार्ड का हजार वर्ष पुराना कथन आज भी पहले जितना ही प्रासंगिक है. उल्लेखनीय है कि परंपराओं पर संदेह हो सकता है, लेकिन जहां परंपराओं की अंधस्वीकृति है, वहां संदेह के लिए बहुत कम गुंजाइश रह जाती है. परंपरा को अंधस्वीकृति देने वाला समाज ज्ञान की परंपरा से कट जाता है. उस अवस्था में वह अपने बौद्धिक परिष्कार की ओर बहुत कम ध्यान दे पाता है. वह मनुष्य और उसके कल्याण के बीच में ईश्वर को ले आता है. चूंकि ईश्वर का अपना कोई अस्तित्व नहीं है, इसलिए उसके नाम पर पुरोहितों, पेशेवर कथावाचकों और कर्मकांडियों की पूरी जमात बीच का स्थान ले लेती है. धर्म पुरोहित वर्ग के हाथों का सम्मोहनास्त्र है, जिसका उपयोग वह शोषण के वास्तविक कारणों की ओर से ध्यान हटाने के लिए करता है. इससे व्यक्ति और कल्याण के बीच दूरी निरंतर बढ़ती जाती है. सामंतवाद के फलनेफूलने का कारण भी यही है.

भक्ति आंदोलन की निराकारवादी धारा किसी न किसी रूप में वर्चस्ववाद का निषेध करती थी. इसलिए आरंभिक संत कवि ईश्वर के प्रति बेपरवाह से थे. उनका सारा जोर आचरण की पवित्रता पर था. कबीर, रविदास, दादूदयाल, नानक जैसे संतकवियों की ओजपूर्ण वाणी के फलस्वरूप समाज में जातिबंधन शिथिल पड़े. मगर भक्ति आंदोलन की लोकप्रियता का लाभ उठाकर संत कवियों के उत्तराधिकारी के रूप में जो नए कवि उसमें दाखिल हुए उनमें अधिकांश सवर्ण जातियों से थे, पारंपरिक धर्म और शिक्षा प्रणाली से निकले हुए. वे एक ओर तो भक्ति आंदोलन की रसात्मकता से प्रभावित थे, दूसरे उनपर भारतीय वर्णव्यवस्था, परंपरा तथा धार्मिक कर्मकांडों का भी प्रभाव था. उनकी साधना व्यक्ति केंद्रित थी. भक्ति आंदोलन के मुख्य प्रवत्र्तक कवियों सूर और तुलसी ने तो ज्ञानमार्गी परंपरा की जमकर खिल्ली उड़ाई थी. जिससे प्रकारांतर में कर्मकांडों तथा वर्णव्यवस्था को नया जीवन प्राप्त हुआ. एक नियतिवादी द्रष्टिकोण जो पुराणों, स्मृति और ब्राह्मणग्रंथों के प्रभावस्वरूप फैला था, वह और भी प्रगाढ़ होता गया.

पंद्रहवीं शताब्दी तक पश्चिमी सभ्यता का हाल भी करीबकरीब ऐसा ही था. यूनानी सभ्यता के दौर से चली आ रही दास प्रथा कृषि मजदूरों, छोटे किसानों के शोषण का माध्यम बनी थी. जो भूसामंत थे, जमींदार थे, येन केनप्रकारेण राजसत्ता पर उन्हीं का दखल था. चूंकि आरंभिक दार्शनिक विचारक आदि भी कुलीन परिवारों से आए थे, इसलिए उनके द्वारा दासप्रथा का समर्थन स्वाभाविक ही था. प्लेटो के अलावा जिसने निकृष्ट कहकर दासप्रथा की आलोचना की थी—उस समय के सभी प्रमुख विचारक उसके समर्थक थे. अपनी विद्वता दर्शाने के लिए यूनानी शासक जानेमाने दार्शनिकों को अपने राज्य में ससम्मान रखते थे. इससे केंद्रीय सत्ता इतनी भड़कीली और भारीभरकम दिखने लगती थी कि उसके काले, अंधियारे कोनों पर किसी की निगाह तक नहीं जाती थी. चालाक सम्राट दार्शनिकों, विद्वानों के सान्निध्य के नाम पर शेष समाज के साथ मनमाना व्यवहार करते थे. इस कमी को प्लेटो ने समझा था. इसलिए उसने कहा था कि सत्ता दार्शनिकों के समूह द्वारा संचालित होनी चाहिए. दार्शनिक समूह से उसका आशय मानवीय उच्च गुणों से संपन्न व्यक्तियों के निर्वाचित मंडल से था. पर वह प्लेटो का आदर्शलोक था, जिसका खाका उसने अपने ग्रंथ ‘रिपब्लिक’ में खींचा था. व्यवहार में किसानों, दासों एवं मजदूरवर्ग का शोषण सामान्य बात थी. उन्हें शोषणकारी व्यवस्था के प्रति भरोसेमंद और समर्पित बनाए रखने का काम धर्मसत्ता का था.

भारत में यह जिम्मेदारी पुरोहित वर्ग की थी. यहां जनसाधारण के पास मौलवियों, धर्मावलंबियांे की शरण लेने के अलावा और कोई रास्ता न था. वे सांसारिक सुखों के प्रति स्वाभाविक मोहासक्ति को उसके कष्टों, अभावों आदि का कारण बताकर वास्तविक समस्या पर परदा डालने का काम करते. दूसरी ओर उन्हीं सुखों की प्रचुरता के नाम पर स्वर्ग का महिमामंडन करने लगते थे. चार्वाक, लोकायतों एवं आजीवकों द्वारा जीवन में भौतिक सुखों को महत्ता देने के लिए उनकी तीखी आलोचना करने वाले वेदांती, स्वर्ग में उनकी अफरात बताकर उसका महिमामंडन करते न अघाते थे. यह सीधा षड्यंत्रकारी सोच था. जिसके चलते स्वादिष्ट भोजन, अच्छे वस्त्राभूषण, रहनसहन, आमोदप्रमोद आदि जो इहलोक में विलासिता और इंद्रिय सुख के नाम पर त्याज्य एवं मुक्ति में बाधक समझे जाते हों, वे कथित स्वर्ग में प्रवेश करते ही श्रेष्ठ और सर्वोत्तम मान लिए जाते थे. स्वर्ग नाम की छलना की अवधि भी सीमित काल के लिए थी. आत्मा वहां उतने ही समय तक वास कर सकती थी, जो उसने अपने सद्कर्मों के जरिये अर्जित की है. इससे अधिकतम पुण्यार्जन के लिए व्यक्ति पूरा जीवन अभाव, संत्रास उत्पीड़न और शोषण के बीच बिता देता था.

उल्लेखनीय है कि स्वर्ग के ये सुख उस आत्मा के लिए भोग्य थे, जो कथित रूप प्रलोभन रहित, अचंचल, निर्व्यसना, निर्लेप आदि है. असल में यह समाज के प्रभुवर्ग द्वारा सामान्यजन को जीवन के मूलभूत सुखों से वंचित कर, उसको अपना आर्थिक, सामाजिक रूप से आश्रित बनाए रखने की चाल रही है. पश्चिम इस षड्यंत्र के प्रति जल्दी जागरूक हुआ. पंद्रहवीं शताब्दी की वैज्ञानिक क्रांति के साथ आए वैचारिक उभार के फलस्वरूप धर्म के सांस्थानीकरण तथा उसके माध्यम से समाज के बहुतायत के शोषण उत्पीड़न के विरोध में वहां जोरदार आवाज उठी. शुरुआत वाल्तेयर ने की जो वोलनी, मैक्स बेबर, प्रूधों, रूसो, फायरबाख, बू्रनो बायर से लेकर कार्ल मार्क्स तक लगातार दमदार होती गई. अठारहवीं शताब्दी में बौद्धिक आंदोलनों को मिली सफलता का एकमात्र कारण भी यही था लोग पूंजी और धर्म के संयोग से बने सामंती शोषण से तंग आ चुके थे. शोषण की जमीन पर टिके अभिजात्यवर्ग की आलोचना होने लगी थी. लोग यह समझने लगे थे कि संगठित जनशक्ति के बल पर प्रभुवर्ग के आतंक और अनाचार से मुक्ति संभव है. इस एहसास ने उन्हें उत्पीड़क वर्ग की आंख में आंख डालकर बात करने का हौसला दिया था. वोलनी की पुस्तक ‘दि रयून’ का एक संवाद देखिए जिसमें जनचेतना के उभार को स्पष्ट किया है—

जनता : सम्राट सिवाय जनता के शुभत्व के कुछ नहीं है. वास्तविक संप्रभुता केवल कानून के राज्य में संभव है.

राजप्रतिनिधि : कानून सिर्फ आपको आज्ञाकारी बना सकता है.

जनता : लोकेच्छा से परे कानून कुछ नहीं है. और हम लोकहित में नया कानून गढ़ेंगे.

राजप्रतिनिधि : तब तुम देशद्रोही कहे जाओगे.

जनता : नागरिक धोखा नहीं देते. केवल तानाशाह देशद्रोही है.

राजप्रतिनिधि : सम्राट हमारी ओर है, वह तुम्हें आत्मसमर्पण को विवश कर देगा.

जनता : सम्राट राष्ट्र से भिन्न नहीं है. हमारा सम्राट आपका साथ हरगिज नहीं देगा. तुम केवल उसके प्रेत से संतोष करो.

कुछ देर बाद इस संवाद में सेनाध्यक्ष भी शामिल हो जाता है. वह कहता है कि जनता डरपोक होती है. वह अपने सिपाहियों को आदेश देता है कि जनता को सबक सिखाएं. इसपर जनता सिपाहियों से कहती है—

सिपहियो, तुम तो हमारा ही खून हो. क्या तुम अपने भाइयों और सगेसंबंधियों पर वार करोगे? यदि जनता ही नहीं रही तो सेना का भरणपोषण कौन करेगा?’ इतना सुनते ही सैनिक हथियार डाल देते हैं—

हम तो जनता में से ही एक हैं, आप हमें हमारे दुश्मन से मिलवाएं.’

यहां लगता है कि जनता जीत गई. लेकिन उत्पीड़क अभिजन के पास एक और हथियार अभी बाकी है. वह है धर्म का. धर्म के नाम पर व्याप्त रूढ़ियों तथा अंधविश्वास का. सेनानायक के परास्त होते ही धर्माधिकारी उपस्थित हो जाता है. वह राजप्रतिनिधि को आवासन कहता है कि जनता अंधविश्वासी है. हम उससे ईश्वर और धर्म के नाम पर निपट लेंगे. धर्माचार्य लोगों को समझाता है—

प्यारे भाइयो, परमात्मा ने हमें आदेश दिया है कि तुमपर शासन करें.’

जनता : जरा अपना परिचयपत्र तो दिखाओ जो तुम्हें परमात्मा ने दिया है.

पुजारी : तुम्हें विश्वास करना चाहिए? सवालजवाब करना धर्मभ्रष्ट होने की निशानी है.

जनता : क्या तुम बिना किसी तर्क के शासन करते हो.

पुजारी : शांति परमात्मा से मिलेगी….धर्म विनम्र और आज्ञाकारी बनाता है.

जनता : शांति न्याय से मिलती है. आज्ञाकारी होने का अर्थ है, अपने कर्तव्य का पालन करना.

पुजारी : इस संसार में दुख ही दुख हैं.

जनता : हमें कुछ उदारहण दो.

पुजारी : क्या तुम बिना सम्राट अथवा परमात्मा के रहोगे?

जनता : हम बिना उत्पीड़क के खुश रहेंगे.

पुजारी : तुम्हें मध्यस्थ और बीच के संवादी की आवश्यकता पड़ेगी.

जनता : परमात्मा और सम्राट के बीच मध्यस्थ! राजदूतो और पुजारियो, तुम्हारी सेवाएं बहुत ही खर्चीली हैं. आप हमें हमारे हाल पर छोड़ दें. आगे अपने मसले हम स्वयं संभाल लेंगे.

इसी के साथ अभिजन अल्पसंख्यक यह मान लेते हैं कि वे परास्त हुए. लोग जाग चुके हैं. उनका जादू अब और नहीं चलने वाला. उनके चिंता प्रकट करने पर जनता की ओर से जवाब मिलता है—‘घबराओ मत, तुम सुरक्षित हो. चूंकि अब हम जाग चुके हैं, इसलिए हम आगे कोई हिंसा नहीं करेंगे. हम सिर्फ अपने अधिकारों का दावा करेंगे. हम आपसे भले ही नाराज हों, लेकिन हम इसको भूल जाना चाहते हैं. हम गुलाम थे. हम चाहें तो शासन भी कर सकते हैं. लेकिन हम अपनी मुक्ति और स्वाधीनता चाहते हैं, जो न्यायपूर्ण है.

वोलनी की यह पुस्तक अठारहवीं शताब्दी के समापन पर उस समय आई जब फ्रांस क्रांति के दौर से गुजर रहा था. फ्रांसिसी क्रांति को उत्प्रेरित करने के लिए इसने चिंगारी का कार्य किया. पूरा यूरोप उससे प्रभावित हुए बिना न रह सका. दरअसल उनीसवीं शताब्दी जो भारत में पुनर्जागरण का दौर है, उस समय तक पश्चिम में राबर्ट ओवेन, पियरे जोसेफ प्रूधों, जाॅन स्टुअर्ट मिल, कार्ल मार्क्स, मिखाइल बकुनिन के विचार बौद्धिक जगत पर अपनी पकड़ बना चुके थे. पूंजीवाद के प्रति समालोचकीय समझ समाज में विकसित हो चुकी थी. धर्म के नाम पर शताब्दियों से सत्ता पर काबिज विशेषाधिकार प्राप्त लोगों पर सवाल किए जाने लगे थे. वाल्तेयर ने ईश्वर को ऐसा घेरा बताया था, जिसका केंद्र हर जगह है, मगर परिधि नदारद है. इससे कुछ और आगे बढ़ते हुए फायरबाख ने ईश्वर को ‘व्यक्तिगत अनुभूति’ तक सीमित कर दिया था—‘ईश्वर प्राणिमात्र की व्यक्तिगत अवधारणा है….वह मानवीय संचेतना एवं अनुभूतियों के दायरे से बाहर है.’ फायरबाख ने धर्म को लेकर व्यक्ति के आचरण को पहेलीनुमा माना था. उसका कहना था कि खुद को धर्म के सांचे में ढालने का प्रयत्न करतेकरते व्यक्ति अपनी ही कल्पनाओं का मूर्तिकरण करने लग जाता है. ‘दि एसेंस आफ क्रिश्चनिटी’ में उसने ईसाई धर्म के नैतिकतावादी द्रष्टिकोण की प्रशंसा भी की थी. फायरबाख का धर्मसंबंधी विश्लेषण उसके शोषणकारी रूप की अकादमिक व्याख्या थी. उसके विचार अकादमिक क्षेत्र और बुद्धिजीवियों के काम के थे.

मार्क्स की चिंतनशैली में ‘एक्टीविस्ट’ जैसी प्रहारात्मकता थी. फायरबाख द्वारा ईश्वर को मानवीय संचेतना की उत्पत्ति कहना उसे रुचा नहीं. प्राचीन दर्शन, इतिहास, राजनीति तथा अर्थशास्त्र के गहन अध्ययन द्वारा वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि अपने व्यापक प्रभाव में धर्म केवल अंतश्चेतना की विषयवस्तु नहीं रह जाता, बल्कि वह समाज के शीर्षस्थ वर्ग के हाथों में शोषण का हथियार बनकर उभरता है, जिसकी प्रहारात्मकता दूसरे किसी भी हथियार से कहीं अधिक घातक तथा दूरगामी होती है. वह ऐसा सम्मोहनास्त्र है, जिसके माध्यम से वह जनसाधारण का ध्यान उसकी दुर्दशा से हटाकर अंधी, बंद सुरंग की ओर मोड़ देता है, जहां आजीवन प्रयास के बावजूद उसे कुछ नहीं मिल पाता. मार्क्स ने धर्म को सीधे ‘अफीम’ की संज्ञा दी थी. अपने चिंतन द्वारा वह समकालीन हीगेलियन दार्शनिकों ब्रूनो बायर, प्रूधों, फायरबाख आदि के विचारों को आकादमिक क्षेत्र से बाहर ले आया था. इसके फलस्वरूप वे आगे चलकर सर्वहारा के विद्रोह का आधार बन सके. उससे पहले तक धर्म की आलोचना करीबकरीब आकादमिक ही थी. छायावादी गीतों की भांति केवल उच्चशिक्षित अभिजात वर्ग उसे समझ सकता था. ऐसी अकादमीय आलोचनाएं समाज में आक्रोश के शमन हेतु सेफ्टी वाल्व जैसा काम करती थी. इसलिए उन्हें जरूरी माना जाता था. मार्क्स ने धर्म की मदद से जनसाधारण के शोषण की जो तस्वीर पेश की वह तर्कों पर आधारित थी, उससे शीर्षस्थ वर्ग का तिलमिला उठना स्वाभाविक ही था. ‘थीसिस आन फायरबाख’ के रूप में लिखे गए अपने संक्षिप्त नोट्स जो किसी बड़ी पुस्तक की रूपरेखा लगते हैं, में एक दार्शनिक की भांति फायरबाख के विचारों की आलोचना करतेकरते उसका एक्टीविस्ट सामने आ जाता है. उसकी शैली में अन्वीक्षण, विश्लेषण, तर्क और प्रहारात्मकता एक साथ मौजूद है—

प्राचीन भौतिकवाद का दृष्टिकोण शिष्ट नागरिक समाज गढ़ना था, जबकि आधुनिक दृष्टिकोण मानवीय समाज अथवा सामाजिक मनुष्यता का लक्ष्य पाना है.3

मार्क्स अपने उद्देश्य को न तो गोलमोल शब्द देता है, न ही उसे छिपाता है. उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता स्फटिकसी चमकती है. ‘थीसिस आॅन फायरबाख’ में फायरबाख के भाववादी तर्कों का आकलन यथार्थ की जमीन पर करते हुए उसने बुद्धिजीवियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं का सीधेसीधे आह्वान किया था—‘अभी तक दार्शनिकों ने संसार की तरहतरह से व्याख्या की है, जरूरत इसको बदलने की है.’4 मार्क्स के तर्क दमदार थे. उसकी बातें दिल को छूती थीं. श्रमिक वर्ग को उस समय ऐसे ही ओजस्वी दर्शन की आवश्यकता थी. इसलिए उसने मार्क्स के विचारों को हाथोंहाथ लिया. ‘दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ, तुम्हारे पास खोने के लिए अपनी जंजीरों के अलावा कुछ नहीं है, जीतने के लिए पूरी दुनिया पड़ी है.’—नई दुनिया का सपना देखने वालों के लिए मार्क्स के ये शब्द बीजमंत्र बन गए. एक कंठ से दूसरे कंठ तक उभरते हुए नारे पूंजीपतियों को चेतावनी देने लगे. एक समय ऐसा भी आया जब विश्व के आधे देश मार्क्स के वर्गहीन समाज की स्थापना के लक्ष्य को समर्पित हो चुके थे. समाज के दबकुचलेसताए हुए लोगों के लिए वह एक उम्मीद था. उसके शब्दों में बेलाग प्रहारात्मकता थी. पूंजीपतियों, धर्मप्रमुखों एवं सामंतों का उनसे तिलमिला उठना स्वाभाविक ही था. मार्क्स के विचार और वर्गहीन समाज की स्थापना का सपना, उसका आदर्श लोगों के निशाने पर आ गया. इस काम में सर्वाधिक मदद की धर्म ने.

उल्लेखनीय है कि मार्क्स धर्म का वैसा विरोधी नहीं था, जैसा उसको उसके विरोधियों ने सिद्ध करने की कोशिश की. उसका मकसद किसी आध्यात्मिक समस्या का समाधान करना भी नहीं था. वह धर्म के पलायनवादी पक्ष को सामने रखकर बुर्जुआ समाज की नीयत को उजागर करना चाहता था. वह उस स्वामी संस्कृति का आलोचक था जो एक व्यक्ति को बिना श्रम किए मालिक होने का अधिकार देती है. दूसरी ओर श्रमिक से उसके श्रम का वास्तविक मूल्य तक हड़प लेती है. जिसमें उत्पादन का आधार व्यक्ति अथवा समाज की जरूरतें नहीं, बल्कि कारखानेदार का मुनाफा होता है. अपने मुनाफे के लिए जहां वह अनापशनाप वस्तुओं की खेप बाजार में उतार देता है, वहीं व्यक्ति की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने वाली कम मुनाफादेय वस्तुओं के उत्पादन से मुंह मोड़ लेता है. धर्म की शोषणकारी भूमिका की ओर संकेत करने वाला मार्क्स अकेला भी न था. उससे पहले भी अनेक विचारकों ने धर्म की प्रतिक्रियावादी भूमिका को आलोचकीय दृष्टि से देखा था. मगर मार्क्स का विश्लेषण उन सबसे हटकर तथ्यपरक, तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक था. अपने पूर्ववर्त्तियों से आगे बढ़कर उसने धनपतियों, भूसामंतों के वर्गीय चरित्र पर सीधा प्रहार किया था. उससे सर्वहारा को एकजुट होने की प्रेरणा मिली. इससे पहले औद्योगिक सहकारिताओं की टक्कर से भी पूंजीवादी ताकतों को संगठित जनशक्ति के सामथ्र्य का एहसास हो चला था. अपनी प्रवृत्ति में गैरस्पर्धात्मक होते हुए भी सहकारिताएं पूंजीवाद के समानांतर अपने विकास में भरोसा रखती थीं. जबकि मार्क्स का साम्यवादी चिंतन वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए सर्वहारा के संगठित प्रतिरोध द्वारा पूंजीवाद को उखाड़ फैंकने का सीधेसीधे आवाह्न करता था. इसलिए पूंजीपतियों द्वारा मार्क्स का विरोध स्वाभाविक ही था. अपनेअपने हितों को दांव पर लगा देख धर्मसत्ता और राजसत्ता ने भी उनकी मदद की. तत्कालीन परिस्थितियों ने भी उन्हें सहारा दिया. उस समय तक एडम स्मिथ द्वारा Laissez-faire के आधार पर अर्थनीति की समीक्षा को करीब डेढ़ सौ वर्ष से अधिक हो चुका था. मगर उसके सही परिणाम आगे आने वाले थे.

                                                                                      जारी…..

© ओमप्रकाश कश्यप

opkaashyap@gmail.com

अनुक्रमणिका

1. There are but three ways for the populace to escape its wretched lot. The first two are by the routes of the wine-shop or the church; the third is by that of the social revolution.- M.A. Bakunin.

2. Why does not the pope, whose wealth is today greater than the wealth of the richest Crassus, build this one basilica of St. Peter with his own money rather than with the money of poor believers?”- Martin Luther’s “95 Theses”

3. The standpoint of the old materialism is civil society; the standpoint of the new is human society or social humanity.KARL MARX THESES ON FEUERBACH, Translated: by Cyril Smith.

4. Philosophers have hitherto only interpreted the world in various ways; the point is to change it.Ibid.