बिल्लियों और बंदर की कहानी : एक पुनर्दृष्टि

एक अत्यंत पुरानी, मगर बहुश्रुत कहानी है जिसमें बिल्लियों को मूर्ख और बंदर को चालाक बताया गया है. बिना उनकी भूख और जरूरतों पर विचार किए. पाठक-श्रोता के रूप में हम भी उसपर विश्वास कर लेते हैं. न लेखक की मंशा पर संदेह करते हैं, न अपनी ओर से कुछ जोड़ते-घटाते हैं. वैसे भी कहानियां आमतौर पर मनोरंजन की चाहत के साथ पढ़ी जाती हैं. कहानी खत्म, बात खत्म. कहानी इस प्रकार हैーदो बिल्लियों को रोटी का टुकड़ा मिला. जो है, जितना है, उसे एक-दूसरे के साथ बांटने, मिल-जुलकर उपयोग करने के बजाए वे परस्पर झगड़ने लगीं. अकस्मात एक बंदर नमूदार हुआ. रोटी के टुकड़े को बराबर-बराबर बांटने के बहाने वह सारी रोटी चट कर गया. बिल्लियां एक-दूसरे का मुंह देखती रह गईं. लेखक बिल्लियों की चारित्रिक दुर्बलता दिखाकर एकता का सकारात्मक संदेश देता है. दो पक्षों की लड़ाई में लाभ कोई तीसरा ही उठाता है. कहानी का यह संदेश जगजाहिर है. पर क्या सिर्फ इतनी-सी बात है?

कहानी के अनुसार दोनों बिल्लियों को इतना विवेक भी नहीं था कि रोटी का स्वयं बंटवारा कर सकें. भूख की तीव्रता में वे अपनी सामान्य नैतिकता खो चुकी थीं. खुद पर, एक-दूसरे पर विष्वास नहीं था! क्या बिल्लियां शुरू से ही ऐसी थीं? या उनकी नीयत रोटी के मामूली टुकड़े को देखकर खराब हुई थी? अच्छा होता लेखक उनके हालात पर भी विचार करता. उनकी भूख और जरूरत को समझने की कोशिश करता. उन परिस्थितियों पर भी चर्चा करता जिन्होंने उन्हें मूर्खतापूर्ण आचरण के लिए विवश किया था. या फिर भिन्न स्थितियों के साथ ऐसी कहानी लिखता जिसमें बिल्लियां कुछ देर झगड़तीं. फिर रोटी के मामूली टुकड़े के लिए लड़ने के बजाय उसे एक ओर रख, उतनी रोटियों की तलाष में नए सिरे से निकल जातीं, जिनसे दोनों का पेट भली-भांति भर सके. आखिर वह उनके लिए एक दिन का काम तो था नहीं. पर्याप्त भोजन जुटाने के बाद वापस लौटतीं. मिल-बैठकर खातीं. भोजन इतना होता कि किसने कितना खाया, उसका हिसाब रखने की जरूरत ही नहीं पड़ती. बच जाता तो बंदर को दे देतीं. वह भी उपकृत हो, भविष्य में किसी को धोखा न देने का संकल्प कर लेता. वैसे साहित्य में बिल्लियों की समझदारी या समझदार बिल्ली की कहानियां भी अवश्य होंगी. लेकिन जब भी बिल्ली और बंदर की कहानी की चर्चा होती है, दिमाग में वही पुरानी कहानी आ जाती है. क्या इसका कारण कहानी की अतीव लोकप्रियता है, अतीतमोह है या कुछ और?

हमारा इरादा बिल्लियों और बंदर की कहानी के आदि लेखक की नीयत पर संदेह करने का नहीं है. रचनाकार का अधिकार है कि अपने मंतव्य को पाठकों तक पहुंचाने के लिए मनचाही विधा और भाषा-शैली का इस्तेमाल करे. वैसी स्वतंत्रता इस कथा-लेखक को भी थी. कहानी की वैश्विक लोकप्रियता से पता चलता है कि लेखक अपने उद्देश्य में सफल भी रहा है. इस कहानी और इस तरह की अनेक कहानियां हैं, जिनका संदेश इतना स्पष्ट और लोकव्यापी है कि मात्र शीर्षक से पूरी कहानी हमारे दिमाग में कौंध जाती है. यहां लेखकीय कौशल स्वतःप्रमाणित है. परंतु बात यहीं तक सीमित नहीं है. ऐसी कहानियां जो अपने संदेष के साथ रूढ हों या रूढ कर दी जाएं, लोग ऐसा मान लें कि उनका कोई और निहितार्थ असंभव है, मिथ में ढल जाती हैं. मिथ अपनी अर्थ-भंगिमाओं से बंधे होते हैं. उनमें ज्यादा फेरबदल संभव नहीं होती. कुछ ऐसा ही दृष्टांत में भी होता है. लेकिन दृष्टांत में कथापक्ष का अधिक महत्त्व होता है. लोग उसी के लिए उसे पढ़ना-सुनना पसंद करते हैं. स्थानीय जरूरत के हिसाब से उसमें थोड़ी-बहुत फेरबदल की भी छूट होती है. दृष्टांत पूरा होने पर पाठक-श्रोता को उसके संदेश की व्याख्या अपने विवेकानुसार करने की छूट होती है. जैसे रावण ऐसा मिथ है, जिसे समाज में बुराई का प्रतीक मान लिया गया है. विभिन्न देशों और संस्कृतियों में रामायण के भिन्न रूप प्रचलित हैं. लेकिन रावण के मूल-भूत चरित्र में कोई बदलाव नहीं मिलेगा. बिल्ली और बंदर की कहानी भी अपने कथानक से ज्यादा संदेश से बंधी है. हम उसके संदेश से इतने अनुकूलित हैं कि किसी दूसरे निहितार्थ, यहां तक कि उसकी संभावना की ओर भी हमारा ध्यान नहीं जाता. ऐसी कथाएं जैसी हैं, जिस रूप में हैं, उसी में पूर्ण मान ली जाती हैं. नतीजा यह होता है कि बिल्लियों की मूर्खता और बंदर की धूर्त्तता हमारे मनोमस्तिष्क पर छाई रहती है. कहानी जिस तरह बयान की गई है, उससे पता चलता है कि कहानीकार खुद नहीं चाहता कि पाठक बिल्लियों के जीवन की किसी और हकीकत से परिचित हो. आखिर क्यों?

कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि बिल्लियां क्षुधा-पीड़ित थीं. इतनी कि सामान्य नैतिकता को खो बैठी थीं. भूख के कारण उनमें इतना सामर्थ्य भी नहीं था कि और रोटी की तलाश में निकल सकें. हताशा में वे परस्पर झगड़ने लगती हैं. कभी-कभी ऐसा हो जाता है. प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ इंसान और इंसानियत की इसी दुर्दशा को बयान करती है. बादल सरकार का बहुचर्चित नाटक हैー‘पगला घोड़ा’, जिसका हाल ही में फिल्मांकन हुआ है, इसी कड़ी में आता है. नाटक में चार आदमी शमशान के आगे बैठकर ताश के पत्ते फेंटते और शराब पीते हैं. भीतर जलती चिता की लपटें उनकी नैतिकता को झकझोरती हैं. रात के अंधेरे में वे चारों अपनी-अपनी कहानी जो एक तरह से उनका अपराधबोध भी है, से गुजरते हैं. उनके साथ-साथ दर्शक भी सामाजिक त्रासदियों से दो-चार होते हैं. संस्कृत की एक कहावत हैー‘भूखा व्यक्ति कौन-सा पाप नहीं करता.’ शास्त्रों में भूख को आपद्धर्म कहा गया है. आपद्धर्म के चलते क्षुधा-पीड़ित विश्वामित्र ने चांडाल के घर से कुत्ते का मांस चुराकर खाया था. यदि विश्वमित्र का ब्राह्मणत्व इससे आहत नहीं होता तो, मामूली झगड़े के लिए बिल्लियों के चरित्र पर हमेशा-हमेशा के लिए दाग क्यों लगे? हमें तो उन बेजुबान प्राणियों से सहानुभूति होनी चाहिए. परंतु कहानीकार हमें इस ओर नहीं ले जाता. एक झटके में वह हमें वहां पहुंचा देता है, जहां बिल्लियों को मूर्ख तथा बंदर को चालाक मानने के अलावा हमारे पास दूसरा रास्ता ही नहीं बचता. ठीक ऐसे ही जैसे वर्ण-व्यवस्था शूद्र को हेय और तिरस्कार योग्य मान लेती है, हम बिल्लियों को मूर्ख ठहरा देते हैं.

कहानी में बंदर का चरित्र उस पुरोहित की याद दिलाता है जो दिन-भर एक के बाद एक, यजमानों के घर जाकर पूजा-पाठ करता है और उनके लिए ईश्वरीय अनुकंपा के नाम पर अपनी दक्षिणा लेकर आगे बढ़ जाता है. कभी किसी याचक को नहीं कहता कि यह रहा देवता को प्रसन्न करने का मंत्र, यह रही समिधा की सूची और ये है कर्मकांड की प्रविधि. आगे जब मन करे, देवता को प्रसन्न करने का कर्मकांड स्वयं कर सकते हो. मंत्र नहीं पढ़ सकते तो टूटी-फूटी भाषा में ही देवता से संवाद करने की कोशिश करना. वह इसका बुरा नहीं मानेगा. लेकिन जैसे पुरोहित यजमान के प्रबोधन पर ध्यान नहीं देता, वैसे ही बंदर बिल्लियों के प्रबोधन की जरूरत नहीं समझता. अपने-अपने स्वार्थ के लिए दोनों दलाल-तंत्र को प्रश्रय देते हैं. पुरोहित ईश्वरीय अनुकंपा के नाम पर दलाली लेता है, बंदर न्याय के नाम पर. धर्म और राज्य का यह गठजोड़ शताब्दियों पुराना है.

अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए राज्य नागरिकों को निरंतर यह विश्वास दिलाए रहता है कि वह न हो तो समाज में सबकुछ अस्त-व्यस्त हो जाए. सरकार के चहेते बुद्धिजीवी उन्हें समझाते हैं कि स्वभाव का जंगलीपन मनुष्य ने प्रकृति से उधार पाया है. यह उन प्रवृत्तियों का अवशेष है जब मनुष्य जंगल में वन्य प्राणियों के बीच रहता था. अस्तित्व पर संकट आ पड़े तो वन्य पशुओं को उतने ही जंगलीपन के साथ जवाब भी देता था. राज्य की बातों में आकर हम ऐसी कहानियों पर बहुत जल्दी विश्वास कर लेते हैं जिनमें गरीब और कमजोर को मामूली बातों पर लड़ते-झगड़ते दिखाया जाता है. वर्ण-व्यवस्था का स्थापित तर्क हैー‘शूद्र जन्मत: असभ्य होता है.’ हालांकि जो सभ्यता शूद्रों को असभ्य और विवेकहीन बताती है, उसी के धर्मग्रंथों में शूद्र-ऋषियों और शिल्पकारों की महिमा का बखान किया गया है. कितने ही धर्मग्रंथ उनकी रचना हैं. लेकिन प्रकट में शूद्रों को विवेकहीन, स्वार्थी, लालची बताया जाता है. कहानियों और मिथकों पर आंख-मूंदकर विश्वास करने के अभ्यस्त लोग उसपर आसानी से विश्वास भी कर लेते हैं. ‘बिल्लियां और बंदर’ जैसी कहानियां इस तरह फैसले करने का अभ्यस्त बनाती हैं. दरअसल, नई स्थितियों के प्रति मानव-मस्तिष्क की सक्रियता आरंभ में तीव्र होती है, किंतु जब कोई घटना, स्थिति, विचार या वस्तु एक-समान अवस्था में, बगैर किसी परिवर्तन के बारंबार गुजरती है, दिमाग उसका नोटिस लेना बंद कर देता है. उस अवस्था में वह अपने निष्कर्ष को अवचेतन के हवाले कर देता है. आगे जब वही स्थिति दुबारा सामने आती है, अवचेतन तत्क्षण अपना पूर्वनिर्धारित निर्णय सुना देता है. इससे पाठक-श्रोता तक रचना का बंधा-बंधाया संदेष तो पहुंचता है, मगर साहित्य होने का मर्म पूरा नहीं होता. क्योंकि साहित्य का काम निर्णय सुनाना नहीं, परिस्थिति के अनुसार सर्वात्तम निर्णय लेने का सामर्थ्य पैदा करना है.

प्लेटो ने न्याय को आदर्श राज्य का श्रेष्ठतम गुण माना है. बाद के विचारकों ने भी अपनी-अपनी तरह से उसका समर्थन किया है. हर राजनीतिज्ञ ‘न्याय’ के आश्वासन के साथ ही सत्ता-केंद्र तक पहुंचता है. परंतु सत्ता में आने के बाद उसकी भूमिका उपर्युक्त कहानी में ‘बंदर’ जैसी हो जाती है. वह समाज के विभिन्न संघर्षरत समूहों को इसलिए एक नहीं होने देता क्योंकि वह भली-भांति जानता है कि जनता की एकता तथा ऊंचे मनोबल से उसके स्वार्थ खटाई में पड़ सकते हैं. ऐसे में आत्मकल्याण के लिए जनता के पास एकमात्र यही उपाय शेष बचता है कि अपने प्रबोधन की जिम्मेदारी वह स्वयं संभाले. जनता समझदारी दिखाए तो राज्य की भूमिका अपने आप सिमट जाए. राज्य की भूमिका बनी रहे, इसलिए येन-केन-प्रकारेण जनता को मूर्ख, कमजोर आपस में लड़ते-झगड़ते दिखाया जाता है. जैसे उपर्युक्त कहानी में बंदर के पास अपना कोई अर्जन नहीं था, शासक वर्ग के पास भी अपना कोई अर्जन नहीं होता. उसका अस्तित्व जनता के परिश्रम पर टिका होता है. इस बात को शासक वर्ग और उससे जुड़े लोग भली-भांति जानते हैं. जबकि जनता परमशक्तिशाली होने के बावजूद, इस हकीकत के से अनजान बनी रहती है. लोग इसी तरह अनजान बने रहें, इसके लिए उनकी एकता और आत्मविश्वास पर लगातार हमला किया जाता है.

किसी कलाकृति या रचना का अर्थ-विशेष के साथ बंध जाना, उसके साहित्यपन को कमजोर करता है. मुहावरे और लोकोक्तियां भी शब्दों-प्रसंगों के अर्थ-रूढ हो जाने के कारण बनते हैं. हम अकसर लोगों को सलाह देते हुए सुनते हैंー ‘भैया पैर उतने पसारो जितनी चादर है.’ सुनने वाला इसका प्रतिवाद नहीं करता. तुरंत मान लेता है कि संतोषी होना अच्छी बात है. क्योंकि उसने जन्म से ही संतोष-धन का महिमा-मंडन होते देखा है. कबीर जैसे पहुंचे हुए कवि भी संतोष की महिमा का बखान करना नहीं भूलते. संतोष को परमधन बताने वाले इस सवाल को गोल कर जाते हैं कि देश में मुट्ठी-भर लोगों की ‘चादर’ उनकी जरूरत से कई गुना बड़ी और हजारों-हजार लोगों की चादर उनकी जरूरत के हिसाब से बेहद छोटी क्यों होती है? दूसरे यदि किसी की चादर उसके पैरों को पूर्णतः तरह ढकने में असमर्थ है तो उसे यह सलाह क्यों नहीं दी जानी चाहिए कि वह धैर्य-पूर्वक, अपने श्रम-कौषल और आत्मविश्वास के साथ चादर के आकार को उस समय तक बढ़ाता रहे जब तक उसमें न केवल वह स्वयंー बल्कि उसके मित्र-हितैषी, घर-परिवार, पड़ोसी सब सरंक्षण प्राप्त कर सकें. असंतोष की आलोचना करते समय प्रायः उसे लालच का पर्याय मान लिया जाता है. जबकि लोककल्याण की वांछा से जुड़ा असंतोष समाज के समग्र विकास हेतु एक प्रेरक-शक्ति बनने का सामर्थ्य रखता है.

संतोष को लेकर भारतीय संस्कृति के अंतर्विरोध कम नहीं हैं. संस्कृति के चार पुरुषार्थों में धनार्जन भी सम्मिलित है. पुरुषार्थ की मर्यादा होती है, सीमा नहीं. धन यदि पुरुषार्थ है तो भारतीय संस्कृति के अनुसार आदमी का कर्तव्य है कि वह अधिक से अधिक धन जुटाए. ऐसे में संतोष-धन का बखान किसके लिए था? जाहिर है, ‘शूद्र’ और ‘दास’ के लिए जिन्हें संपत्ति रखने की मनाही थी. यदि किसी कारण शूद्र के पास संपत्ति जमा हो जाए तो उसको बलात छीन लेने का अधिकार धर्मशास्त्रों में है. एक और बात. संतोष को परमगुण बताने वाले स्वयं भी संतोषी हों, यह आवश्यक नहीं है. ऐसे ही लोग राजाओं की साम्राज्यवादी लिप्साओं का वर्णन करते समय चंदबरदाई बन जाया करते हैं. संतोष को परमधन कहना भले ही ‘परउपदेश कुशल बहुतेरे’ जैसा प्रहसन हो, किंतु इसी का सहारा लेकर यथास्थितिवादी गरीबी और दैन्य का महिमामंडन करने लगते हैं. यथास्थिति का दूसरा रूप भाग्य भी है. ऐसे लोगों के लिए सामाजिक विषमता को पाटने का एकमात्र रास्ता है ー चमत्कार. सुदामा-कृष्ण जैसे अतार्किक मिथ उसे समाज में स्थापित किए रहते हैं. प्रकारांतर में वे दिखाना चाहते हैं कि महत्त्वाकांक्षी होना समृद्ध को शोभा देता है. गरीब का हित इसी में है कि वह गरीबी का महिमा-मंडन करते हुए अपने दिन काटे. सपने यदि आंखों में आएं तो निकाल फेंके. यह बात उसे कोई बताने नहीं आता. फिर भी हर आदमी समझ जाता है.

बात बिल्लियों और बंदर की कहानी से शुरू हुई थी और असंतोष पर आ गई. साहित्य में, जिसका काम अपने पाठक-श्रोता का प्रबोधन करना है ー यह संभावना बनी रहती है. साहित्यिक कृति की सफलता के लिए आवश्यक है कि पाठक उसके निहितार्थ को लेकर स्वतंत्र हो. प्रचलित अर्थों को लेकर संदेह की क्षीण संभावना उनके मन में हमेशा बनी रहे. यह धारणा बनी रहे कि कृति को जैसा समझा या समझाया गया है, उसका अर्थ उससे इतर भी संभव है. इसी से रचना के नए अर्थ खुलते हें. ‘बिल्लियां और बंदर’ जैसी कहानियां अपने निहितार्थ को लेकर इतनी स्पष्ट और संप्रेषणीय होती हैं. यह उनकी सफलता भी है और सीमा भी. क्योंकि अर्थ-विशेष के साथ रूढ़ हो जाने से वे पाठक का वैसा प्रबोधन नहीं कर पातीं, जैसा किसी साहित्यिक कृति से अपेक्षित होता है. समाज ऐसी कहानियों को सांस्कृतिकरण की जरूरत के रूप में सहेजता है. प्रकारांतर में वे समाज में यथास्थिति बनाए रखने में सहायक होती हैं.

ओमप्रकाश कश्यप

मनोरंजन की राजनीति उर्फ मनोरंजन अघायी युवा पीढ़ी

जनता भेड़, टेलीविजन गड़हरिया है जेस सी. स्कॉट

 

वेश-भूषा साधारण, हाथ में स्मार्ट फोन, कानों में स्पीकर की लीड, निगाह मोबाइल स्क्रीन पर, कीपैड पर हरकत करती उंगलियां तथा हाव-भाव में लापरवाही—यह आज की युवा पीढ़ी की तस्वीर है, जो हमें रेल में, बस में, मेट्रो और हाट-बाजार में कहीं भी दिख जाएगी. इनमें स्कूल विद्यार्थी हो सकते हैं, छोटे-मोटे कारखानों, दुकानों और दफ्तरों में काम करने वाले भी. इनकी औसत मासिक आय पांच-सात हजार के बीच होगी. केवल मोबाइल देखकर आप उसका अनुमान नहीं लगा सकते. मोबाइल इनकी मासिक आमदनी से तीन-चार गुना महंगा हो सकता है. बहुत संभव है, उधार खरीदा गया हो और इनकी तनख्वाह का बड़ा हिस्सा उसकी किश्त का भुगतान करने में निकल जाता हो. सचाई जानकर हममें से किसी को भी कोफ्त हो सकती है. उस समय हम या तो देखकर अनदेखा कर देंगे, अथवा युवा पीढ़ी की पतनशीलता कहकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते नजर आएंगे. मान लेंगे कि हमारी किसी बात का कोई असर इनपर पड़ने वाला नहीं है. क्या यह पूरी तरह कृतघ्न पीढ़ी है, जो अपनी वरिष्ठ पीढ़ी के सारे एहसान भुला बैठी है? इनकी दिशाहीन वर्ताब के लिए किसे जिम्मेदार माना जाए? स्वयं इन्हें, अपने आपको या समाज को? एक दौर था जब बालक को देखकर अपने और देश के भविष्य की बात सहसा जुबान पर आ जाती है. आज सब वर्तमान में जीने के अभ्यस्त हैं. किसी तरह दिन ठीक-ठाक बीत जाए, इतनी चिंता करने वाले. भविष्य की सोचने वाला अब नासमझ कहलाता है. क्या यही वह कारण है जिसने इस पीढ़ी को अपने प्रति लापरवाह बनाया है?

यदि इनसे बात करने का साहस हम जुटा पाएं तो बड़ी आसानी से जान जाएंगे कि इन्हें किसी पर विश्वास नहीं है. न हम पर, न इतिहास पर, न इस समाज और संस्कृति पर और ना ही खुद पर. यह स्वप्न-भंग की मानसिकता में जी रही पीढ़ी है, जिसे मोबाइल और इंटरनेट की आभासी दुनिया से प्यार है. यह इकीसवीं शताब्दी के बाद या उसके आसपास जन्मी पीढ़ी है, जो अपनी सारी ‘स्मार्टनेस’ मुट्ठी में दबाए रहती है. इसे लगता है कि जब तक हथेली पर महंगा मोबाइल न हो, तब तक इनके युवा होने का कोई अर्थ नहीं है. वह कई-कई तनावों को एक साथ झेलती है. आज का युवा सोचता है कि ‘स्मार्ट’ के बिना ‘स्मार्टनेस’ गले नहीं लगाएगी. कुछ अपनी खोई ‘स्मार्टनेस’ को वापस बुलाने के लिए ‘स्मार्टधारी’ बन जाते हैं. कुछ का इकलौते ‘स्मार्ट’ से काम नहीं चलता. ऐसे युवा दो गुनी, तीन गुनी ‘स्मार्टनेस’ अपने साथ लिए चलते हैं. युवाओं में कुछ बड़े भी शामिल हैं. वे समय को थामने की कोशिश में ‘स्मार्टधारी’ बने होते हैं. सोचते हें कि फोन उन्हें ‘रेस’ में बनाए रखेगा. हाट-बाजार की हर गली-नुक्कड़ पर ‘स्मार्टनेस’ बिकती है. इतनी सस्ती कि मंडी में आलू महंगा है, डाटा सस्ता. डाउनलोड कीजिए, मस्त रहिए. इतनी व्यापक कि पीएम से लेकर डीएम तक सब ‘फेसबुक’, ‘ट्विटर’ और ‘वाट्सअप’ पर छाए रहते हैं. जो इनसे अनभिज्ञ है, वह पिछड़ा, नासमझ और ‘नान-स्मार्ट’ है.

अभी तक जितने उपभोक्ता उत्पाद बाजार में आए हैं, उनमें ‘स्मार्टफोन’ ऐसा है जिसने बच्चों, बड़ों तथा युवाओं को एक साथ और कदाचित सबसे ज्यादा प्रभावित किया है. यह छोटा-सा उपकरण उनकी तीन आवश्यकताओं को एक साथ पूरा करता है. पहली दूर-भाष की, दूसरी मनोरंजन और तीसरी इंटरनेट के माध्यम से दुनिया के साथ हर पल संपर्क में रहने की हसरत. मनोरंजन स्मार्टफोन खरीदने का बड़ा कारण है. गीत, संगीत पहले भी मनोरंजन का लोकप्रिय माध्यम था, आज भी है. मगर तब के और आज के गीत-संगीत में प्रवृत्ति-मूलक बदलाव आया है. पहले गीत-संगीत का आनंद उसके साथ तल्लीन होकर लिया जा सकता था. जो संगीत श्रोता को मंत्र-मुग्ध कर दे, वह श्रेष्ठ माना जाता था. आजकल प्रदर्शन का जमाना है. इसलिए गीत-संगीत भी वही पसंद किए जाते हैं, जिनपर दैहिकता प्रभावी हो. मुट्ठी में समा जाने वाला मोबाइल उपभोक्ता को मनोरंजन के साम्राज्य का बादशाह बना देता है. वह अपनी मर्जी से कभी भी, कुछ भी, कहीं भी देख-सुन सकता है. ‘स्मार्टफोनधारी’ सदैव मनोरंजन के अतिरेक में रहता है. यह सोचकर मन ही मन मग्न रहता है कि सारी सुविधाएं उसे बहुत सस्ते दाम पर उपलब्ध होती हैं. उसका सोच एकदम गलत भी नहीं है. एक कप चाय से भी कम कीमत में इंटरनेट को दिन-भर दुहा जा सकता है. ‘मुफ्त’ का मनोविज्ञान उपभोक्ता को विषय-सामग्री के अन्य निहितार्थों से अनभिज्ञ बनाए रखने में सहायक होता है. सामान्य उपभोक्ता उस दिशा में ज्यादा सोच ही नहीं पाता. बाजार उसे सोचने का अवसर ही नहीं देता.

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का स्वरूप कुछ ऐसा है कि इसमें जो सस्ता दिखता है, परोक्षतः उसकी कई गुना कीमत उपभोक्ता को चुकानी पड़ती है. इस दृष्टि से उपभोक्ता बाजार और धर्म के बाजार में अधिक अंतर नहीं है. धार्मिक कर्मकांड एकदम सस्ते, लगभग निःशुल्क किए जा सकते हैं. श्रद्धालु को मंदिर जाने की कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती, उल्टे अंतहीन उपलब्धियों का भरोसा दिलाया जाता है. धार्मिक कार्यकलाप पर्याप्त लचीलापन लिए होते हैं. आप उन्हें अपनी श्रद्धा और रुचि के अनुसार कभी भी कर सकते हैं. आप पूछेंगे विषयांतर किसलिए? बाजार पर बात करते-करते धर्म की ओर प्रयाण सिवाय पूर्वाग्रह के क्या है? जबकि दोनों को परस्पर विरोधी माना गया है. असल में आधुनिक पीढ़ी के विभ्रम की व्याख्या, धर्म और पूंजी के गठजोड़ को समझे बिना असंभव है.

धर्म संसार को माया कहता है. बाजार उसकी दृष्टि में महाप्रलोभनकारी, मन और आत्मा को भरमाने वाला है. दूसरी ओर बाजार के लिए माया ही सबकुछ है. बिना प्रलोभन के उसका धंधा नहीं जमता. मुनाफे के रूप में वह माया को जितनी जल्दी और ज्यादा हो सके, समेट लेना चाहता है. जबकि इतिहास साक्षी है कि धर्म कभी भी जनपक्षधर नहीं रहा. उसकी मूल संरचना सत्ताभिमुखी तथा दृष्टिकोण सर्वसत्तावादी होता है. जनमानस में पैठ बनाने के लिए वह नैतिकता से मानवीय गुण उधार लेता है. धर्म के ठेकेदार बड़ी बेशर्मी से लोगों को यह कहकर भरमाने में लगे रहते हैं कि एकमात्र धर्म नैतिकता का आलंबन है. धर्म न रहा तो पूरी सृष्टि रसातल की ओर खिसक जाएगी….वगैरह-वगैरह. धर्म की भांति बाजार भी लोकहित का दावा करता है. बाजार-समर्थक कहते हैं—‘बाजार रहेगा तो उत्पादकों के बीच स्पर्धा होगी. चीजें सस्ती होंगी. लोगों को लाभ होगा.’ हालांकि प्रौद्योगिकीय क्रांति, नीतियों में फेरबदल या अन्य किसी कारण से यदि चीजों के सस्ते होने का समय आता है तो उसका सारा श्रेय और लाभ पूंजीपति खुद हड़प लेता है.

 

असमानता-ग्रस्त समाजों में सत्ता-शिखर पर गिने-चुने लोगों की जगह होती है. लोगों की सामाजिक हैसियत उनकी और सत्ता-शिखर के बीच की दूरी पर निर्भर करती है. निहित स्वार्थ के लिए अर्थसत्ता और राजसत्ता का उपयोग करता आया धर्म कब और किस रूप में सर्वसत्तावादी बन जाता है—लोग समझ ही नहीं पाते. बाजार को कमतर दिखाने के लिए धर्म जिसे माया कहकर धिक्कारता है, अपने आचरण में वह उसी मायावाद का सहारा लेता है. शिखर को अभिजन का अधिकार बताकर वह स्वयं पीछे हट जाता है. धर्म का एक भी संस्कार ऐसा नहीं है, जिसमें ‘माया’ का योगदान न हो; या जिसे ‘माया’ की ताकत से भव्य न बनाया जाता सके. लोगों को भरमाए रखने के लिए वह नए-नए मिथों की मदद लेता है. येन-केन-प्रकारेण उसकी कोशिश होती है कि समाजार्थिक असमानता, समाज के विशिष्ट वर्गों की अकूत संपत्ति तथा संपत्ति-अधिकार को ‘प्रभु-कृपा’ मान लिया जाए. गीता का ‘कर्म-सिद्धांत’ तथा पूंजीवाद का ‘लाभ-सिद्धांत’ इस मायने में एक हैं. ‘कर्म-सिद्धांत’ के अनुसार कोई व्यक्ति यदि चोरी करता है तो उसके लिए उपयुक्त दंड का पात्र है. दूसरी ओर लाभ का सिद्धांत कहता है कि उद्यमी यदि पूंजी लगाकर अतिरिक्त उत्पादन करता है तो उसे उसका लाभ मिलना चाहिए. ‘कर्ता’ की परिस्थितियों पर न तो ‘कर्म-सिद्धांत’ विचार करता है, न ‘लाभ का सिद्धांत’. इस तरह दोनों विशेषाधिकारवादी हैं. संपत्ति कमजोर वर्गों के हाथों में न जाए, उसके लिए ‘मनुस्मृति’ और ‘अर्थशास्त्र’ दोनों की व्यवस्था है. अपने पुरुषार्थ से यदि कोई शूद्र धनार्जन में सफल हो जाए, तो उसकी धन-संपदा को बलात् हड़प लेने की संस्तुति मनु तथा चाणक्य दोनों ने की है. बाजार में जैसे अधिकांश लोग पूंजी के माध्यम से हो रहे षड्यंत्रों की ओर से अनजान होते हैं, उसी प्रकार जनसाधारण भी धर्म के नाम पर चल रहे षड्यंत्रों को समझने में नाकाम रहता है.

धर्म, राजनीति एवं अर्थसत्ता के गठजोड़ की तरह मनोरंजन, अर्थसत्ता और राजसत्ता का स्वार्थपूर्ण संबंध भी आज का नहीं है. सभ्यता के आरंभ से ही मनोरंजन समकालीन राजनीति से प्रभावित होता आया है. प्राचीन धर्म-केंद्रित समाजों में जो तीज-त्योहार मनाए जाते थे, उनकी संरचना जीवन में सामूहिकता की खोज के फलस्वरूप हुई थी. बाद में संस्कृतिकरण के नाम पर धर्म किसी न किसी रूप में उनसे जुड़ता चला गया. चूंकि प्रत्येक पर्व-त्योहार के साथ कोई न कोई मनोरंजक मिथ जुड़ा था; इस कारण उन्हें अगली पीढ़ी को सौंपना आसान था. परंतु उनका उद्देश्य केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं था. अपने साथ जुड़े कर्मकांडों, रीति-रिवाजों, रूढियों और विश्वासों के बल पर वे सामाजिक असमानता को दैवीय घोषित करते आए हैं. मनोरंजन के साधन सीमित थे, अतएव समाज का बड़ा वर्ग जिसे शिक्षा से जानबूझकर अलग रखा गया था, उपलब्ध संसाधनों को ही अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक धरोहर के रूप में सहेजने के लिए प्रयासरत रहता था.

भारतीय संस्कृति में जो काम मिथकीय पात्र नारद द्वारा कराया गया है, बाज़ार के लिए वही कार्य मीडिया करने लगा है. अंतर इतना है कि नारद ब्राह्मणवादी संस्कृति का प्रचारक और हरकारा था. मीडिया धर्म और पूंजी दोनों को एक-साथ साधता है. उसे जब और जिससे लाभ दिखे, उसके साथ हो लेता है. नारद का नाम आया है तो बता दें कि उनकी तथा अन्य ऋषियों की भूमिका प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण कर, उन्हें दर्शन की प्राचीनतम परंपरा, जो मनुष्य की आदिम जिज्ञासा और प्रकृति के साथ गहनतम अनुभवों के बाद विकसित हुई थी—से काट देने के रूप में समझी जा सकती है. इससे उनकी मूल पहचान प्रतीकों और मिथों तक सीमित हो जाती है. समझने के लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त है. यूनानी विचारक थेल्स की भांति ऋग्वैदिक मुनि परमेष्ठिन भी सृष्टि का उद्गम जल से मानते थे. उनके तकिया-कलाम ‘नारायण-नारायण’ का ‘नारायण’ जल का ही पर्यायवाची है. ‘नारायण-नारायण’ अन्वयार्थ है—‘जीवन जल से जन्मा है.’ नारद इस तकिया-कलाम को उसके मूल संदर्भ से काटकर, केवल विष्णु तक सीमित कर देते हैं. इस तरह ‘जीवन जल से जन्मा’ का दार्शनिक प्रत्यय, ‘विष्णु ही सबकुछ’ का रूप ले लेता है. मनुष्य का प्राचीनतम दार्शनिक बोध मिथ में सिमट जाता है. मीडिया की मदद से बाजार ऐसे खेल हर रोज, बार-बार खेलता है. ‘अ-राजक’ मनुष्य के सामूहिक विवेक का पर्याय है. ऐसा राजनीतिक दर्शन जिसमें मानव-समाज इतना विकसित और आत्मानुशासित होता है कि राज्य की, शासन की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. लोग एक-दूसरे से सहयोग करते हुए समानता के सिद्धांत का पालन करते हैं. किंतु इसी से बने शब्द ‘अराजकता’ को इन दिनों अव्यवस्था और अस्त-व्यस्तता के तौर पर पेश किया जाता रहा है. बार-बार प्रचारित किया जाता है कि सामाजिक शांति और सुरक्षा के लिए राज्य की उपस्थिति अनिवार्य है. यह अर्थांतर मनुष्य और मनुष्यता पर संदेह को बढ़ाता है. इस तरह के और भी उदाहरण है जिन्हें मीडिया शक्तिशाली केंद्र की जरूरत के तौर पर प्रचारित करता है. मनोरंजन के लोकप्रिय अन्यान्य प्रकल्प इसमें सहायक बनते हैं.

‘मनोरंजन इस तर्क के साथ समाज में जगह बनाता है कि वह थके मन-मस्तिष्क को विश्रांति प्रदान करता है. उसे मस्तिष्क की खुराक भी कहा जाता है. मनोरंजन के बाद मनुष्य तरोताजा होकर नईं. ऊर्जा के साथ काम में जुट जाता है. किंतु उसके नाम पर कुछ भी, कभी भी और कहीं भी नहीं चल सकता. मनोरंजन की हर विधा का अपना मनोविज्ञान होता है. मस्तिष्क उसी को अधिक सहजता के साथ ग्रहण करता है, जिसे वह अपनी प्रकृति के अनुकूल मानता है. यह भी सच है कि मनोरंजन का कोई एक रूप हमेशा और हर परिस्थति में कामयाब नहीं हो सकता. जैसे एक सीमा के बाद सुस्वादु व्यंजन अरुचिकर लगने लगते हैं, वैसे ही किसी एक मनोरंजन सामग्री का दोहराव मनुष्य को उबाने लगता है. यदि वही मनोरंजन सामग्री लगातार परोसी जाए तो वह मस्तिष्क को जड़त्व की ओर ढकेलने लगती है. मनुष्य विस्मृति का शिकार होने लगता है. उससे मनोरंजन का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है. सामान्य उपभोक्ता इस हकीकत को भले न समझे परंतु पूंजीपति इसे बखूबी जानता है. इसलिए उपभोक्ताओं के बीच पैठ बनाते समय वह उनके मनोविज्ञान और समाजार्थिक परिवेश के अनुरूप कार्यनीति बनाता है. उसकी ‘थोक उत्पादन’ नीति निम्न एवं मध्यम वर्गीय उपभोक्ताओं पर केंद्रित होती है. यह वर्ग संख्या में विपुल होता है. और अपनी मांगों के प्रति पर्याप्त लचीलापन लिए होता है. इसलिए उसकी मांगों को अपनी उत्पादन-नीति के अनुसार ढालना पूंजीपति के लिए काफी आसान होता है. पूंजीपति न केवल उसकी सामान्य जरूरतों को पूरा करता है, बल्कि उनके मन में यह भ्रम भी पैदा करता है कि कुछ मामलों में वे सीधे समाज के उच्चतम वर्गों के साथ स्पर्धा में हैं. इसके साथ-साथ वह अपनी उत्पादन नीति के अनुसार उनकी जरूरतों में वृद्धि भी करता जाता है.

अर्थशास्त्रीय नियमों के अनुसार एक मांग दूसरी कई मांगों को जन्म देती है. बंदूक की बढ़ती मांग उसकी गोलियों की मांग को बढ़ा देती है. बाजार की मांगें प्रायः दो प्रकार की होती हैं. पहली वे जो अपने समानांतर नई मांगों को जन्म देती हैं. परंतु नई मांग सामान्य परिस्थिति में अपने दम पर पहली मांग लिए कोई बाजार नहीं बनातीं. ऐसी मांगों को पूरक मांग भी कहा जा सकता है. उदाहरण के लिए बंदूक की बढ़ती मांग उसकी गोलियों की मांग को बढ़ा देती है. लेकिन सामान्य परिस्थिति में गोलियों की बढ़ती मांग बंदूक की मांग पर कोई असर नहीं डालतीं. दूसरी वे मांगें जो पहली मांगों के साथ-साथ और भी कई प्रकार की मांगों को जन्म देती हैं. जैसे मोबाइल फोन की मांग इंटरनेट की मांग में वृद्धि करती है. पुनः इंटरनेट की मांग मनोरंजन उद्योग तथा उससे जुड़ी उपभोक्ता वस्तुओं की मांग को बढ़ावा देती है. पूंजीपति के लिए दूसरी कोटि की मांगें बहुत काम की होती हैं. इस तरह की मांगों के सहारे उपभोक्ता वस्तुओं का बड़ा बाजार अनायास बनता चला जाता है. उनके बहाने वह बाजार में उपभोक्ता वस्तुओं का ऐसा जखीरा खड़ा कर देता है जिसके प्रलोभन से बचना उपभोक्ता के लिए अत्यंत कठिन हो जाता है.

उपभोक्ताओं का एक वर्ग ऐसा भी होता है, जिसे पूंजीपति प्रलोभन आसानी से नहीं लुभा पाते. यह वर्ग अपेक्षाकृत चालाक होता है. उसकी क्रय क्षमता भी बाकी उपभोक्ताओं से अधिक होती है. ऐसे उपभोक्ताओं को प्रभावित करने के बजाए पूंजीपति वर्ग उनके क्रय सामर्थ्य के अनुरूप नए-नए उत्पाद बाजार में उतारता है; और उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक के तौर पर पेश करता है. कालांतर में जनसाधारण भी उसकी ओर आकर्षित होता है. उस समय तक तकनीक सस्ती होनी लगती है. परिणामस्वरूप उत्पादक वर्ग के पास नए बाजार और अवसर बनते चले जाते हैं. कोई भी नया उत्पाद या तकनीक बाजार में उतारते समय पूंजीपति का एकमात्र उद्देश्य होता है, अपने लिए अधिकतम लाभ की कामना. उत्पाद को ग्राहकों तक पहुंचाने के लिए वह छोटे और मंझोले दुकानदारों, व्यापारियों और सेल्समेनों की मदद लेता है और बदले में अपने लाभांश का एक हिस्सा उनके साथ बांटता है. उपभोक्ता का नजरिया उत्पाद को लेकर एकदम अलग होता है. वह उसे अपने सुख या जरूरत की भरपाई के लिए खरीदता है. चूंकि प्रत्येक व्यक्ति का रुचियां और जरूरतें अलग-अलग होती हैं, इसलिए उनके स्वभाव और जरूरत के अनुसार उत्पाद को खरीदने का उद्देश्य भी बदल जाता है. किसी उत्पाद को लेकर विभिन्न उपभोक्ताओं के अलग-अलग दृष्टिकोण हो सकते हैं. मगर पूंजीपति का एकमात्र उद्देश्य लार्भाजन होता है. पूंजीपति जानता है कि खरीद के लिए उपभोक्ता की रुचि का उत्पाद से मेल खाना आवश्यक है, इसलिए वह उत्पाद के मूल-भूत गुणों में बदलाव किए बिना उसे तरह-तरह के रूपाकार में पेश करता है. इस तरह उसका एक ही उत्पाद या तकनीक विभिन्न रुचियों वाले उपभोक्ताओं की जरूरत बन जाती है. यही आज की स्मार्ट फोन के साथ युवा होती पीढ़ी के साथ हो रहा है. संचार-क्रांति ने फोन को मनोरंजन का माध्यम बना दिया है. इंटरनेट पर सामग्री छोटे-छोटे टुकड़ों में आती है. चूंकि उनके साथ किसी न किसी आभासी मित्र का नाम जुड़ा होता है, इसलिए उस सूचना या मनोरंजन सामग्री के प्रति व्यक्ति अतिरिक्त आकर्षण पैदा हो जाता है. आदमी उससे जुड़ता है, किंतु एक जैसी मनोरंजक सामग्री का निरंतर हमला मस्तिष्क में आलस, चिड़चिड़ापन, निष्क्रियता पैदा कर सकता है. अतिरेकी मनोरंजन मनुष्य को विस्मृति का शिकार भी बना रहा है.

मनोरंजन और सूचनाओं के तीव्र प्रवाह ने बौद्धिक विमर्श को भी बदला है. पहले बुद्धिजीवी की पहचान उसके द्वारा लिखे गए ग्रंथों से की जाती थी. आज जिसका ट्विटर एकाउंट नहीं है, वह बुद्धिजीवी नहीं है. जिसके पास वाट्सअप नहीं है वह फिसड्डी है. सूचना और ज्ञान का अंतर लगभग मिट-सा गया है. विचारक बनने की होड़ लगी है. ट्विटर पर 140 अक्षरों के संदेश में कोई भी नौसीखिया अरस्तु को राजनीतिक दर्शन पढ़ा सकता है, प्लेटो की बखिया उधेड़ सकता है. आप कुछ नहीं कह सकते. सबको बात कह देने की जल्दी होती है. संवाद होता है, परंतु निष्कर्ष कुछ नहीं निकलता. विचार होता है, मगर एक के बाद समानधर्मा विचारों के तारतम्य से बनी विचारधारा नहीं होती. स्फुर्लिंग होते हैं, ज्योति नहीं बन पाती. विमर्श के अभाव में प्रत्येक सहभागी अपने विचार को अंतिम माने रहता है. यही कारण है कि सूचनाओं के तीव्र आदान-प्रदान, इंटरनेट पर भरपूर ज्ञान-सामग्री होने के बावजूद समाज पर वैचारिकता का संकट है. जिससे मुक्ति की कोई राह फिलहाल नजर नहीं आती.

ओमप्रकाश कश्यप