एक अत्यंत पुरानी, मगर बहुश्रुत कहानी है जिसमें बिल्लियों को मूर्ख और बंदर को चालाक बताया गया है. बिना उनकी भूख और जरूरतों पर विचार किए. पाठक-श्रोता के रूप में हम भी उसपर विश्वास कर लेते हैं. न लेखक की मंशा पर संदेह करते हैं, न अपनी ओर से कुछ जोड़ते-घटाते हैं. वैसे भी कहानियां आमतौर पर मनोरंजन की चाहत के साथ पढ़ी जाती हैं. कहानी खत्म, बात खत्म. कहानी इस प्रकार हैーदो बिल्लियों को रोटी का टुकड़ा मिला. जो है, जितना है, उसे एक-दूसरे के साथ बांटने, मिल-जुलकर उपयोग करने के बजाए वे परस्पर झगड़ने लगीं. अकस्मात एक बंदर नमूदार हुआ. रोटी के टुकड़े को बराबर-बराबर बांटने के बहाने वह सारी रोटी चट कर गया. बिल्लियां एक-दूसरे का मुंह देखती रह गईं. लेखक बिल्लियों की चारित्रिक दुर्बलता दिखाकर एकता का सकारात्मक संदेश देता है. दो पक्षों की लड़ाई में लाभ कोई तीसरा ही उठाता है. कहानी का यह संदेश जगजाहिर है. पर क्या सिर्फ इतनी-सी बात है?
कहानी के अनुसार दोनों बिल्लियों को इतना विवेक भी नहीं था कि रोटी का स्वयं बंटवारा कर सकें. भूख की तीव्रता में वे अपनी सामान्य नैतिकता खो चुकी थीं. खुद पर, एक-दूसरे पर विष्वास नहीं था! क्या बिल्लियां शुरू से ही ऐसी थीं? या उनकी नीयत रोटी के मामूली टुकड़े को देखकर खराब हुई थी? अच्छा होता लेखक उनके हालात पर भी विचार करता. उनकी भूख और जरूरत को समझने की कोशिश करता. उन परिस्थितियों पर भी चर्चा करता जिन्होंने उन्हें मूर्खतापूर्ण आचरण के लिए विवश किया था. या फिर भिन्न स्थितियों के साथ ऐसी कहानी लिखता जिसमें बिल्लियां कुछ देर झगड़तीं. फिर रोटी के मामूली टुकड़े के लिए लड़ने के बजाय उसे एक ओर रख, उतनी रोटियों की तलाष में नए सिरे से निकल जातीं, जिनसे दोनों का पेट भली-भांति भर सके. आखिर वह उनके लिए एक दिन का काम तो था नहीं. पर्याप्त भोजन जुटाने के बाद वापस लौटतीं. मिल-बैठकर खातीं. भोजन इतना होता कि किसने कितना खाया, उसका हिसाब रखने की जरूरत ही नहीं पड़ती. बच जाता तो बंदर को दे देतीं. वह भी उपकृत हो, भविष्य में किसी को धोखा न देने का संकल्प कर लेता. वैसे साहित्य में बिल्लियों की समझदारी या समझदार बिल्ली की कहानियां भी अवश्य होंगी. लेकिन जब भी बिल्ली और बंदर की कहानी की चर्चा होती है, दिमाग में वही पुरानी कहानी आ जाती है. क्या इसका कारण कहानी की अतीव लोकप्रियता है, अतीतमोह है या कुछ और?
हमारा इरादा बिल्लियों और बंदर की कहानी के आदि लेखक की नीयत पर संदेह करने का नहीं है. रचनाकार का अधिकार है कि अपने मंतव्य को पाठकों तक पहुंचाने के लिए मनचाही विधा और भाषा-शैली का इस्तेमाल करे. वैसी स्वतंत्रता इस कथा-लेखक को भी थी. कहानी की वैश्विक लोकप्रियता से पता चलता है कि लेखक अपने उद्देश्य में सफल भी रहा है. इस कहानी और इस तरह की अनेक कहानियां हैं, जिनका संदेश इतना स्पष्ट और लोकव्यापी है कि मात्र शीर्षक से पूरी कहानी हमारे दिमाग में कौंध जाती है. यहां लेखकीय कौशल स्वतःप्रमाणित है. परंतु बात यहीं तक सीमित नहीं है. ऐसी कहानियां जो अपने संदेष के साथ रूढ हों या रूढ कर दी जाएं, लोग ऐसा मान लें कि उनका कोई और निहितार्थ असंभव है, मिथ में ढल जाती हैं. मिथ अपनी अर्थ-भंगिमाओं से बंधे होते हैं. उनमें ज्यादा फेरबदल संभव नहीं होती. कुछ ऐसा ही दृष्टांत में भी होता है. लेकिन दृष्टांत में कथापक्ष का अधिक महत्त्व होता है. लोग उसी के लिए उसे पढ़ना-सुनना पसंद करते हैं. स्थानीय जरूरत के हिसाब से उसमें थोड़ी-बहुत फेरबदल की भी छूट होती है. दृष्टांत पूरा होने पर पाठक-श्रोता को उसके संदेश की व्याख्या अपने विवेकानुसार करने की छूट होती है. जैसे रावण ऐसा मिथ है, जिसे समाज में बुराई का प्रतीक मान लिया गया है. विभिन्न देशों और संस्कृतियों में रामायण के भिन्न रूप प्रचलित हैं. लेकिन रावण के मूल-भूत चरित्र में कोई बदलाव नहीं मिलेगा. बिल्ली और बंदर की कहानी भी अपने कथानक से ज्यादा संदेश से बंधी है. हम उसके संदेश से इतने अनुकूलित हैं कि किसी दूसरे निहितार्थ, यहां तक कि उसकी संभावना की ओर भी हमारा ध्यान नहीं जाता. ऐसी कथाएं जैसी हैं, जिस रूप में हैं, उसी में पूर्ण मान ली जाती हैं. नतीजा यह होता है कि बिल्लियों की मूर्खता और बंदर की धूर्त्तता हमारे मनोमस्तिष्क पर छाई रहती है. कहानी जिस तरह बयान की गई है, उससे पता चलता है कि कहानीकार खुद नहीं चाहता कि पाठक बिल्लियों के जीवन की किसी और हकीकत से परिचित हो. आखिर क्यों?
कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि बिल्लियां क्षुधा-पीड़ित थीं. इतनी कि सामान्य नैतिकता को खो बैठी थीं. भूख के कारण उनमें इतना सामर्थ्य भी नहीं था कि और रोटी की तलाश में निकल सकें. हताशा में वे परस्पर झगड़ने लगती हैं. कभी-कभी ऐसा हो जाता है. प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ इंसान और इंसानियत की इसी दुर्दशा को बयान करती है. बादल सरकार का बहुचर्चित नाटक हैー‘पगला घोड़ा’, जिसका हाल ही में फिल्मांकन हुआ है, इसी कड़ी में आता है. नाटक में चार आदमी शमशान के आगे बैठकर ताश के पत्ते फेंटते और शराब पीते हैं. भीतर जलती चिता की लपटें उनकी नैतिकता को झकझोरती हैं. रात के अंधेरे में वे चारों अपनी-अपनी कहानी जो एक तरह से उनका अपराधबोध भी है, से गुजरते हैं. उनके साथ-साथ दर्शक भी सामाजिक त्रासदियों से दो-चार होते हैं. संस्कृत की एक कहावत हैー‘भूखा व्यक्ति कौन-सा पाप नहीं करता.’ शास्त्रों में भूख को आपद्धर्म कहा गया है. आपद्धर्म के चलते क्षुधा-पीड़ित विश्वामित्र ने चांडाल के घर से कुत्ते का मांस चुराकर खाया था. यदि विश्वमित्र का ब्राह्मणत्व इससे आहत नहीं होता तो, मामूली झगड़े के लिए बिल्लियों के चरित्र पर हमेशा-हमेशा के लिए दाग क्यों लगे? हमें तो उन बेजुबान प्राणियों से सहानुभूति होनी चाहिए. परंतु कहानीकार हमें इस ओर नहीं ले जाता. एक झटके में वह हमें वहां पहुंचा देता है, जहां बिल्लियों को मूर्ख तथा बंदर को चालाक मानने के अलावा हमारे पास दूसरा रास्ता ही नहीं बचता. ठीक ऐसे ही जैसे वर्ण-व्यवस्था शूद्र को हेय और तिरस्कार योग्य मान लेती है, हम बिल्लियों को मूर्ख ठहरा देते हैं.
कहानी में बंदर का चरित्र उस पुरोहित की याद दिलाता है जो दिन-भर एक के बाद एक, यजमानों के घर जाकर पूजा-पाठ करता है और उनके लिए ईश्वरीय अनुकंपा के नाम पर अपनी दक्षिणा लेकर आगे बढ़ जाता है. कभी किसी याचक को नहीं कहता कि यह रहा देवता को प्रसन्न करने का मंत्र, यह रही समिधा की सूची और ये है कर्मकांड की प्रविधि. आगे जब मन करे, देवता को प्रसन्न करने का कर्मकांड स्वयं कर सकते हो. मंत्र नहीं पढ़ सकते तो टूटी-फूटी भाषा में ही देवता से संवाद करने की कोशिश करना. वह इसका बुरा नहीं मानेगा. लेकिन जैसे पुरोहित यजमान के प्रबोधन पर ध्यान नहीं देता, वैसे ही बंदर बिल्लियों के प्रबोधन की जरूरत नहीं समझता. अपने-अपने स्वार्थ के लिए दोनों दलाल-तंत्र को प्रश्रय देते हैं. पुरोहित ईश्वरीय अनुकंपा के नाम पर दलाली लेता है, बंदर न्याय के नाम पर. धर्म और राज्य का यह गठजोड़ शताब्दियों पुराना है.
अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए राज्य नागरिकों को निरंतर यह विश्वास दिलाए रहता है कि वह न हो तो समाज में सबकुछ अस्त-व्यस्त हो जाए. सरकार के चहेते बुद्धिजीवी उन्हें समझाते हैं कि स्वभाव का जंगलीपन मनुष्य ने प्रकृति से उधार पाया है. यह उन प्रवृत्तियों का अवशेष है जब मनुष्य जंगल में वन्य प्राणियों के बीच रहता था. अस्तित्व पर संकट आ पड़े तो वन्य पशुओं को उतने ही जंगलीपन के साथ जवाब भी देता था. राज्य की बातों में आकर हम ऐसी कहानियों पर बहुत जल्दी विश्वास कर लेते हैं जिनमें गरीब और कमजोर को मामूली बातों पर लड़ते-झगड़ते दिखाया जाता है. वर्ण-व्यवस्था का स्थापित तर्क हैー‘शूद्र जन्मत: असभ्य होता है.’ हालांकि जो सभ्यता शूद्रों को असभ्य और विवेकहीन बताती है, उसी के धर्मग्रंथों में शूद्र-ऋषियों और शिल्पकारों की महिमा का बखान किया गया है. कितने ही धर्मग्रंथ उनकी रचना हैं. लेकिन प्रकट में शूद्रों को विवेकहीन, स्वार्थी, लालची बताया जाता है. कहानियों और मिथकों पर आंख-मूंदकर विश्वास करने के अभ्यस्त लोग उसपर आसानी से विश्वास भी कर लेते हैं. ‘बिल्लियां और बंदर’ जैसी कहानियां इस तरह फैसले करने का अभ्यस्त बनाती हैं. दरअसल, नई स्थितियों के प्रति मानव-मस्तिष्क की सक्रियता आरंभ में तीव्र होती है, किंतु जब कोई घटना, स्थिति, विचार या वस्तु एक-समान अवस्था में, बगैर किसी परिवर्तन के बारंबार गुजरती है, दिमाग उसका नोटिस लेना बंद कर देता है. उस अवस्था में वह अपने निष्कर्ष को अवचेतन के हवाले कर देता है. आगे जब वही स्थिति दुबारा सामने आती है, अवचेतन तत्क्षण अपना पूर्वनिर्धारित निर्णय सुना देता है. इससे पाठक-श्रोता तक रचना का बंधा-बंधाया संदेष तो पहुंचता है, मगर साहित्य होने का मर्म पूरा नहीं होता. क्योंकि साहित्य का काम निर्णय सुनाना नहीं, परिस्थिति के अनुसार सर्वात्तम निर्णय लेने का सामर्थ्य पैदा करना है.
प्लेटो ने न्याय को आदर्श राज्य का श्रेष्ठतम गुण माना है. बाद के विचारकों ने भी अपनी-अपनी तरह से उसका समर्थन किया है. हर राजनीतिज्ञ ‘न्याय’ के आश्वासन के साथ ही सत्ता-केंद्र तक पहुंचता है. परंतु सत्ता में आने के बाद उसकी भूमिका उपर्युक्त कहानी में ‘बंदर’ जैसी हो जाती है. वह समाज के विभिन्न संघर्षरत समूहों को इसलिए एक नहीं होने देता क्योंकि वह भली-भांति जानता है कि जनता की एकता तथा ऊंचे मनोबल से उसके स्वार्थ खटाई में पड़ सकते हैं. ऐसे में आत्मकल्याण के लिए जनता के पास एकमात्र यही उपाय शेष बचता है कि अपने प्रबोधन की जिम्मेदारी वह स्वयं संभाले. जनता समझदारी दिखाए तो राज्य की भूमिका अपने आप सिमट जाए. राज्य की भूमिका बनी रहे, इसलिए येन-केन-प्रकारेण जनता को मूर्ख, कमजोर आपस में लड़ते-झगड़ते दिखाया जाता है. जैसे उपर्युक्त कहानी में बंदर के पास अपना कोई अर्जन नहीं था, शासक वर्ग के पास भी अपना कोई अर्जन नहीं होता. उसका अस्तित्व जनता के परिश्रम पर टिका होता है. इस बात को शासक वर्ग और उससे जुड़े लोग भली-भांति जानते हैं. जबकि जनता परमशक्तिशाली होने के बावजूद, इस हकीकत के से अनजान बनी रहती है. लोग इसी तरह अनजान बने रहें, इसके लिए उनकी एकता और आत्मविश्वास पर लगातार हमला किया जाता है.
किसी कलाकृति या रचना का अर्थ-विशेष के साथ बंध जाना, उसके साहित्यपन को कमजोर करता है. मुहावरे और लोकोक्तियां भी शब्दों-प्रसंगों के अर्थ-रूढ हो जाने के कारण बनते हैं. हम अकसर लोगों को सलाह देते हुए सुनते हैंー ‘भैया पैर उतने पसारो जितनी चादर है.’ सुनने वाला इसका प्रतिवाद नहीं करता. तुरंत मान लेता है कि संतोषी होना अच्छी बात है. क्योंकि उसने जन्म से ही संतोष-धन का महिमा-मंडन होते देखा है. कबीर जैसे पहुंचे हुए कवि भी संतोष की महिमा का बखान करना नहीं भूलते. संतोष को परमधन बताने वाले इस सवाल को गोल कर जाते हैं कि देश में मुट्ठी-भर लोगों की ‘चादर’ उनकी जरूरत से कई गुना बड़ी और हजारों-हजार लोगों की चादर उनकी जरूरत के हिसाब से बेहद छोटी क्यों होती है? दूसरे यदि किसी की चादर उसके पैरों को पूर्णतः तरह ढकने में असमर्थ है तो उसे यह सलाह क्यों नहीं दी जानी चाहिए कि वह धैर्य-पूर्वक, अपने श्रम-कौषल और आत्मविश्वास के साथ चादर के आकार को उस समय तक बढ़ाता रहे जब तक उसमें न केवल वह स्वयंー बल्कि उसके मित्र-हितैषी, घर-परिवार, पड़ोसी सब सरंक्षण प्राप्त कर सकें. असंतोष की आलोचना करते समय प्रायः उसे लालच का पर्याय मान लिया जाता है. जबकि लोककल्याण की वांछा से जुड़ा असंतोष समाज के समग्र विकास हेतु एक प्रेरक-शक्ति बनने का सामर्थ्य रखता है.
संतोष को लेकर भारतीय संस्कृति के अंतर्विरोध कम नहीं हैं. संस्कृति के चार पुरुषार्थों में धनार्जन भी सम्मिलित है. पुरुषार्थ की मर्यादा होती है, सीमा नहीं. धन यदि पुरुषार्थ है तो भारतीय संस्कृति के अनुसार आदमी का कर्तव्य है कि वह अधिक से अधिक धन जुटाए. ऐसे में संतोष-धन का बखान किसके लिए था? जाहिर है, ‘शूद्र’ और ‘दास’ के लिए जिन्हें संपत्ति रखने की मनाही थी. यदि किसी कारण शूद्र के पास संपत्ति जमा हो जाए तो उसको बलात छीन लेने का अधिकार धर्मशास्त्रों में है. एक और बात. संतोष को परमगुण बताने वाले स्वयं भी संतोषी हों, यह आवश्यक नहीं है. ऐसे ही लोग राजाओं की साम्राज्यवादी लिप्साओं का वर्णन करते समय चंदबरदाई बन जाया करते हैं. संतोष को परमधन कहना भले ही ‘परउपदेश कुशल बहुतेरे’ जैसा प्रहसन हो, किंतु इसी का सहारा लेकर यथास्थितिवादी गरीबी और दैन्य का महिमामंडन करने लगते हैं. यथास्थिति का दूसरा रूप भाग्य भी है. ऐसे लोगों के लिए सामाजिक विषमता को पाटने का एकमात्र रास्ता है ー चमत्कार. सुदामा-कृष्ण जैसे अतार्किक मिथ उसे समाज में स्थापित किए रहते हैं. प्रकारांतर में वे दिखाना चाहते हैं कि महत्त्वाकांक्षी होना समृद्ध को शोभा देता है. गरीब का हित इसी में है कि वह गरीबी का महिमा-मंडन करते हुए अपने दिन काटे. सपने यदि आंखों में आएं तो निकाल फेंके. यह बात उसे कोई बताने नहीं आता. फिर भी हर आदमी समझ जाता है.
बात बिल्लियों और बंदर की कहानी से शुरू हुई थी और असंतोष पर आ गई. साहित्य में, जिसका काम अपने पाठक-श्रोता का प्रबोधन करना है ー यह संभावना बनी रहती है. साहित्यिक कृति की सफलता के लिए आवश्यक है कि पाठक उसके निहितार्थ को लेकर स्वतंत्र हो. प्रचलित अर्थों को लेकर संदेह की क्षीण संभावना उनके मन में हमेशा बनी रहे. यह धारणा बनी रहे कि कृति को जैसा समझा या समझाया गया है, उसका अर्थ उससे इतर भी संभव है. इसी से रचना के नए अर्थ खुलते हें. ‘बिल्लियां और बंदर’ जैसी कहानियां अपने निहितार्थ को लेकर इतनी स्पष्ट और संप्रेषणीय होती हैं. यह उनकी सफलता भी है और सीमा भी. क्योंकि अर्थ-विशेष के साथ रूढ़ हो जाने से वे पाठक का वैसा प्रबोधन नहीं कर पातीं, जैसा किसी साहित्यिक कृति से अपेक्षित होता है. समाज ऐसी कहानियों को सांस्कृतिकरण की जरूरत के रूप में सहेजता है. प्रकारांतर में वे समाज में यथास्थिति बनाए रखने में सहायक होती हैं.