सर्जिकल स्ट्राइक : आतंकवाद उन्मूलन के नाम पर राजनीतिक दाव

युद्ध जो आ रहा है

पहला युद्ध नहीं है!

इससे पहले भी युद्ध हुए थे!

पिछला युद्ध जब ख़त्म हुआ

तब कुछ विजेता बने और कुछ विजित 

विजितों के बीच आम आदमी भूखों मरा

विजेताओं के बीच भी मरा वह भूखा ही!

यह कविता महान जर्मन कवि ब्रेष्ट ने 1936-38 के दौर में लिखी थी. उस समय तक दूसरे अतिविनाशकारी विश्वयुद्ध की भूमिका तैयार हो चुकी थी. जर्मन, इटली, जापान आदि देशों में राष्ट्रवादी भावनाएं उफान पर थीं. युद्ध हुआ. परिणाम भयावह थे. ऐसे, जिनकी किसी ने कभी कल्पना तक न की थी. दोनों महायुद्धों में 9 करोड़ लोगों की मौत हुई थी. उससे कई गुना घायल. महामारी और विस्थापन के शिकार हुए थे सो अलग. युद्ध से जितने घर-संपत्ति, खेत, व्यवसाय नष्ट हुए, जमीनें बंजर हुईं-उनका आकलन असंभव है. यही कारण है कि आरंभ में युद्धोन्माद में डूबे, हुंकार रहे देश, युद्ध समाप्त होते ही शांति राग अलापने लगे थे. भीषण तबाही ने दुनिया को कुछ वर्षों के लिए ही सही, एक-साथ रहना सिखा दिया था.

भारत इन दिनों ऐसे ही दौर से गुजर रहा है. उन दिनों जर्मनी, जापान और इटली में तानाशाही सरकारें थीं. साम्राज्यवादी लालसाएं हुंकार रही थीं. भारत में जनता द्वारा चुनी गई सरकार है. कहा जा सकता है कि हालात अलग-अलग है. पर क्या सचमुच ऐसा ही है! कुछ है जो वर्तमान सरकार को उन युद्धलोलुप निरंकुश तानाशाहों से जोड़ता है. जो लोग इन दिनों सरकार चला रहे हैं, उनका लोकतंत्र में विश्वास ही नहीं है. संविधान उनकी आंखों में चुभता है. वे नहीं चाहते कि चुनावों में जनता स्वतंत्र होकर निर्णय ले पाए. युद्ध का उन्माद पैदा कर वे लोगों के दिलो-दिमाग की ‘कंडीशनिंग’ कर देना चाहते हैं. उनके लिए युद्ध से ज्यादा जरूरी है, युद्धोन्माद. टेलीविजन को उन्होंने इसी काम के लिए लगाया हुआ है. इसी के लिए टेलीविजन और दूसरे मीडिया संस्थानों पर अनाप-शनाप पैसा विज्ञापन तथा दूसरी तरह से लुटाया जाता है. ऐसे वातावरण में युद्ध के विरोध में लिखना या बोलना, खतरे से खाली नहीं है. युद्धोन्माद भड़काने में जुटी शक्तियां आपको कभी भी राष्ट्रद्रोही घोषित कर सकती है.

घटना की शुरुआत 26 फरवरी को भारतीय वायुसेना द्वारा पाकिस्तान के बालाकोट क्षेत्र में चल रहे आतंकी ठिकानों पर हमले से हुई. भारत की ओर से दावा किया गया कि उसके निशाने पर जैशे-ए-मोहम्मद के आतंकी ठिकाने थे. हमले द्वारा वहां चलाए जा रहे आतंकवाद के प्रषिक्षण शिविर को तबाह कर दिया. खबर आई कि भारत के 12 लड़ाकू विमान पाकिस्तान में चालीस किलोमीटर तक भीतर गए; और 19 मिनट में कार्यवाही को समाप्त कर, सुरक्षित वापस लौट आए. सरकार ने हमले का शिकार हुए आतंकवादियों की संख्या नहीं बताई थी. तेज-तर्रार टेलीविजन चैनलों ने बाकी का काम कर लेना मुश्किल नहीं था. बिना किसी प्रमाण के उन्होंने भौंकना शुरू किया कि भारतीय वायुसेना के हमले में जैश-ए-मोहम्मद के 300 से ज्यादा आतंकवादी मारे गए हैं. उनमें मसूद अजहर का बहनोई यूसुफ अजहर भी शामिल है. पाकिस्तान का जवाब आया कि भारत के लड़ाकू विमान मुजफ्फराबाद सेक्टर में तीन से चार किलोमीटर तक घुस आए थे, लेकिन वायुसेना की त्वरित कार्यवाही के चलते उन्हें वापस लौटना पड़ा. पाकिस्तान ने भारतीय हमले में एक नागरिक के अलावा किसी और के हताहत होने या मारे जाने से इन्कार किया था. उधर जैश-ए-मोहम्मद के सूत्रों का कहना है कि यूसुफ अजहर हमले के समय वहां था ही नहीं.

भारतीय विमानों ने जहां हमला किया, उस इलाके को जाबा कहते हैं. जाबा एक बड़ा गांव है. वहां के निवासी मुख्यतः भेड़ पालने का धंधा करते हैं. वहां के ग्रामीणों के माध्यम से जो सूचनाएं मिली हैं, उनके अनुसार इलाके में पहले कभी आतंकी प्रषिक्षण केंद्र हुआ करता था, जिसे बाद में बंद करा दिया गया था. जाबा और मानशेरा पाकिस्तान की सीमा से सटा इलाका है, जो 2005 में भूकंप के कारण भीषण तबाही झेल चुका है. पाकिस्तान की ओर से बताया यह भी गया है कि भारतीय लड़ाकू विमानों ने केवल अंतरराष्ट्रीय सीमा को पार किया था, जो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से बाहर है. उसने भारतीय विमानों द्वारा ‘लाइन ऑफ कंट्रोल’ को पार करने से भी इन्कार किया है. साथ ही वहां किसी प्रकार के आतंकी प्रषिक्षण षिविर होने से इन्कार किया है. यह उनकी कूटनीतिक चाल हो सकती है. पाकिस्तान के सैन्य-प्रवक्ता ने दावा किया कि वह बदला लेगा. कैसे और कब? यह स्वयं पाकिस्तान तय करेगा.

पाकिस्तान इतनी जल्दी फैसला ले लेगा यह उमीद बहुत कम लोगों को थी. लेकिन युद्धोन्मादी दोनों तरफ हैं. इसलिए 27 फरवरी की तड़के पाकिस्तान के एफ-16 लड़ाकू विमानों ने, तीन अलग-अलग दिशाओं से जम्मू कश्मीर की ओर उड़ान भरी और भारतीय सीमा में घुस आए. वहां पहले से ही तैनात मिग-2000 विमानों से उनका सामना हुआ. हमले में पाकिस्तान का एक एफ-16 मार गिराया गया. भारत का एक मिग विमान क्षतिग्रस्त हुआ, जो भारत के अनुसार स्वयं क्षतिग्रस्त हुआ था. कश्मीर के बडगाम क्षेत्र में एक हेलीकॉप्टर भी गिरा, जिसमें वायुसेना के 6 जवान शहीद हो गए. पाकिस्तान का दावा है कि दो भारतीय पायलेट उसके कब्जे में हैं. भारत ने पाकिस्तान से जिनेवा संधि के अनुसार पायलेट को लौटाने के लिए कहा है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने बातचीत का प्रस्ताव सामने रखा है. यह कूटनीतिक युद्ध है, जिसमें अभी तक बाजी पाकिस्तान के हाथ लगी है. भारतीय पायलेट की गिरफ्तारी दिखाकर वह अपनी जीत के दावे कर सकता है. भारत सरकार के पास सिवाय बड़बोले मीडिया के कुछ नहीं है. अमेरिका, चीन, आस्ट्रेलिया, यूरोपीय संघ आदि जो उससे पहले पाकिस्तान को आतंकवाद रोकने के लिए नसीहतें दिया करते थे, अब दोनों देशों से युद्ध बंद करने की अपील कर चुके हैं. जाहिर है हालिया हमलों को लेकर भारत और पाकिस्तान के अपने-अपने दावे हैं. ऐसा अकसर होता है. खासकर उन युद्धों में जो चंद लोगों की मर्जी से, उन्हीं की स्वार्थपूर्ति के लिए लड़े जाते हैं.

युद्ध और राजनीति का बहुत पुराना संबंध है. सामान्यतः इसके दो रूप सामने आते हैं. पहला युद्ध के माध्यम से तय होने वाली राजनीति. वह राजनीति जिसके लिए युद्ध आवश्यक मान लिया जाता है. दूसरा युद्ध या उसके नाम पर होने वाली राजनीति. 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति-संग्राम में भारत सीधे-सीधे बांग्लादेश की मुक्ति सेना की मदद कर रहा था. युद्ध हुआ तो उसमें भी भारत की भूमिका थी. उस समय भविष्य की राजनीति को तय करने के लिए युद्ध अपरिहार्य मान लिया गया था. उस युद्ध के अनुकूल परिणाम निकले. एक स्वतंत्र देश का उदय विश्व मानचित्र पर हुआ. पाकिस्तान की ताकत आधी रह गई. अमेरिका द्वारा इराक पर हमला भी इसी तरह का था. उसमें भी अमेरिका सद्दाम को हटाकर अपना कोई पिटठु वहां बिठाना चाहता था. सद्दाम के पराभव के बाद अमेरिका उसमें कामयाब हुआ. वह युद्ध भी पहली श्रेणी में आता है.

पाकिस्तान में छिपे आतंकवादियों के विरुद्ध पहली सर्जिकल स्ट्राइक  29 सितंबर 2016 को हुई थी. दूसरी हाल में 26 फरवरी 2019 को. दोनों बार जनता के बीच सरकार से ज्यादा मोर्चा मीडिया ने संभाला. इन अवसरों का उपयोग उसने देश में युद्धोन्माद भड़काकर अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए किया है. गौरतलब है कि भारत द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक हालांकि घोषित युद्ध नहीं हैं. लेकिन उनके माध्यम से मीडिया ने पाकिस्तान के विरुद्ध राजनीति का ऐसा उन्माद खड़ा किया गया है कि आतंकवाद और उसके पैदा करने वाले कारकों पर विचार बहुत पीछे छूट गया है. केवल युद्धोन्माद शेष है. सरकार सर्जिकल स्ट्राइक के माध्यम से देश का सांप्रदायिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण करना चाहती है. भाजपा नेताओं के भी ऐसे ही बयान आए हैं. वे इन घटनाओं को मोदी और भाजपा के प्रचार के नजरिये से देख रहे हैं. कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीएस येदुरप्पा कह चुके हैं कि सर्जिकल स्ट्राइक  ने प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में लहर पैदा कर दी है. इससे उन्हें प्रदेश की 28 लोकसभा सीटों में से 22 सीटें जीतने में मदद मिलेगी. यह दिखाता है कि आगामी चुनावों में उतरने के लिए भाजपा को ऐसा ही सनसनीखेज मुद्दा चाहिए.

पिछले आम चुनावों में मोदी को ‘विकास पुरुष’ की तरह पेश किया गया था. विकास का नारा ‘टांय-टांय फिस्स’ हो चुका है. काठ की हांडी की जगह इस नारे का इस्तेमाल भी दुबारा संभव नहीं है. बीते पांच वर्षों में देश का विकास तो हुआ है. परंतु उसका लाभ सरकार के चहीते गिने-चुने उद्यमियों को पहुंचा है. आम आदमी की क्या स्थिति है, इसे बेरोजगारों की बढ़ती संख्या और बंद होते छोटे व्यवसायों से देखा जा सकता है. भाजपा जानती है कि ‘विकास पुरुष’ का मुद्दा इस बार चलने वाला नहीं है. मतदाताओं को भरमाने के लिए भाजपा को अपने नायक की नई छवि गढ़ना चाहती है. आगामी चुनावों में संभव है, मोदी जी को ‘लौहपुरुष’ जैसे किसी नए तमगे के साथ चुनावों में उतारा जाए. सो संभावना इस बात की है कि चुनावों तक सीमा पर तनाव की स्थिति कायम रहेगा. यदि विपक्ष इसपर कुछ बोलना चाहे तो उसे देशद्रोही बताकर जनता में सहानुभूति की कोशिश की जाए.

भाजपा और स्वयं मोदी जी को लगता है कि इससे आने वाले आम चुनावों में उनकी जीत सुनिश्चित हो जाएगी. इसलिए स्वयं प्रधानमंत्री भी चुनाव प्रचार में लगे हैं. यह युद्ध के नाम पर होने वाली राजनीति की दूसरी स्थिति है, जिसमें युद्ध हो या न हो, उसके नाम पर राजनीति जमकर की जाती है. यहां तक युद्ध की आशंकाओं के बीच भी राजनीति की संभावनाएं तलाशी हैं. प्रधानमंत्री के 26, 27 और 28 के कार्यक्रमों को ही देख लिया जाए तो बात समझ में आ जाती है. 26 फरवरी को उन्होंने राष्ट्रपति भवन में ‘गांधी शांति पुरस्कार’ वितरण समारोह में हिस्सा लिया. उसके बाद वे ‘इस्कान’ मंदिर जाकर तीन मीटर लंबी और 800 किलो की भव्य गीता का विमोचन किया. दोनों ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में युद्ध से जुड़े हैं. शांति युद्ध का प्रतिकार है तो गीता युद्ध को 18 अक्षौहिणी सेनाओं को होम कर देने वाले भीषण युद्ध को धर्मयुद्ध की तरह पेश कर, उसे ब्राह्मणीकरण के महाभियान का हिस्सा बना देती है. इस्कान मंदिर जाते हुए प्रधानमंत्री द्वारा दिल्ली मेट्रो में सफर, सारे मामले को देखकर लगता है कि सर्जिकल आपरेशन और उसके आसपास जुड़ी हुई घटनाएं, मोदी जी की छवि-निर्माण का हिस्सा थीं. पुनः 28 फरवरी को ‘मेरा बूथ सबसे मजबूत’ कार्यक्रम में पार्टी कार्यकताओं को अपने सीधे संबोधन में प्रधानमंत्री ने कहा है कि विपक्ष पाकिस्तान और आतंकवाद के मुद्दे पर राजनीति न करे. कदाचित वे कहना चाहते हैं कि पाकिस्तान, आतंकवाद और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों पर कहना-बोलना केवल उनकी पार्टी का कॉपीराइट है. इसका लाभ चुनावों में कितना मिलता है, यह सोचने की बात है. क्योंकि इसका असर शहरों से बाहर कम ही नजर रहता है. जहां भाजपा पहले से ही मजबूत दिखाई पड़ती है. हालांकि सांप्रदायिक विभाजन जैसे कुछ मुद्दे ऐसे हैं जो ग्रामीण हलकों में भी प्रभावशाली सिद्ध हो सकते हैं.

राजनीति किसी भी रूप में हो, उसके कुछ न कुछ निहितार्थ अवश्य होते हैं. ऐसे में जब सर्जिकल स्ट्राइक  एक और दो दोनों को लेकर पाकिस्तान और भारत की ओर से अलग-अलग दावे हो रहे तो सवाल उठता है, कि उसका उद्देश्य क्या है? अगर यह कार्यवाही युद्ध में बदलती है तो उसके भारत और पाकिस्तान के लिए क्या परिणाम हो सकते हैं, इस लेख में हम इसी पर विचार करने की कोशिश करेंगे. चूंकि इसकी पहल भारत द्वारा चुनावों से ठीक पहले की गई है तो यह भी देखना होगा कि इसके बहाने सरकार और भाजपा की असल मंशा क्या है? विशेषरूप से बदलते सामाजिक परिदृश्य में देश में जब दलित और पिछड़े भाजपा के हाथों छले जाने का अनुभव कर रहे हों.

यह दावा किया जा रहा है कि भारत एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है. बात सच हो सकती है. लेकिन इसका दूसरा पक्ष बेहद भयावह है. पिछले कुछ ही वर्षों में देश में गरीबी और अमीरी का अनुपात तेजी से बढ़ा है. पहले 2008 की भीषण आर्थिक मंदी और बाद में नोटबंदी के बाद तबाह हुए उद्योग अभी सांस नहीं ले पा रहे हैं. दूसरी ओर यह भी सच है कि इस अवधि में देश के बड़े उद्योगपतियों की पूंजी में तेजी से इजाफा हुआ है. विदेशी पूंजी को आमंत्रित करने के नाम पर रक्षा क्षेत्र में शत-प्रतिशत एफटीआई की अनुमति सरकार दे चुकी हो. भाजपा के आने के बाद दलितों और अल्पसंख्यकों पर हमलों की संख्या में वृद्धि हुई है. भाजपा के सवर्ण आरक्षण को जिस तत्परता से लागू किया है, उतनी तत्परता वह दलितों और पिछड़ों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए नहीं उठा पा रही है. जाहिर था, आने वाले चुनावों में विपक्ष इन्हीं मुद्दों को प्रमुखता से उठाता. किसानों की आत्महत्या का मुद्दा भी बड़ा था. इस मुद्दे को भी केंद्र सरकार  किसानों के खाते में 500 रुपये महीने की मामूली राशि पहुंचाकर हल्का करने की कोशिश कर चुकी है.

भाजपा सरकार की चालाकियां विपक्ष से छिपी नहीं है. भाजपा के लिए नीति-निर्माण और दिशा-निर्देश का काम संघ करता है, जिसकी जड़ें पिछले पांच वर्षों में और भी गहरी हुई हैं. संघ लघु-अवधि और दीर्घावधि दोनों लक्ष्यों पर साथ-साथ काम करता है. उनकी दीर्घावधि योजना भारत को हिंदू राष्ट्र में ढालने की है, जिसके लिए वह सुनियोजित तरीके से काम करता आ रहा है. संगठन विपक्ष के पास भी हैं. लेकिन उनके पास संघ की लघु-अवधि योजनाओं के विरोध में आवाज उठाने और समयानुसार करने की क्षमता तो है, लेकिन ऐसा कोई दीर्घायामी कार्यक्रम या वैकल्पिक विचार नहीं है, जो उसकी बहुजन-विरोधी और समाज को बांटने वाली नीतियों का पर्दाफाश करते हुए समानांतर जनांदोलन को खड़ा कर सके. इसकी बहुत कुछ जिम्मेदारी बहुजन बुद्धिजीवियों की है.

मुश्किल यह है कि अभी तक बहुजन एकता केवल जातीय शोषण से जुड़े मुद्दों पर केंद्रित है. इसकी अपनी सीमाएं हैं. भारत में जातिवाद का कोढ़ ढाई-तीन हजार वर्ष पुराना है. यह सामाजिक के साथ-साथ आर्थिक शोषण का मसला भी है. इसलिए बहुजन बुद्धिजीवियों को संघ की कुटिल नीतियों का सही-सही जवाब देना है तो उसको अपनी एकता के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक के साथ-साथ आर्थिक असमानता तथा उसके आधार पर होने वाले शोषण को भी अपने कार्यक्रम का हिस्सा बनाना पड़ेगा. पूंजीवाद की चकाचौंध के बीच समाजवाद को यद्दपि पुराना और अप्रासंगिक विचार मान लिया गया है, लेकिन एक रुपहले सपने की तरह वह आज भी करोड़ों लोगों की आंखों में बसता है. संघ के उग्र पूंजीवाद, सांप्रदायिकता, राष्ट्रवाद के नाम पर फासिज्म थोपने की साजिश से बचाव का एक रास्ता ऐसे ही किसी समानता-आधारित, समरस समाज के सपने को संकल्प में बदले की चाहत ओर इच्छा शक्ति से दिया जा सकता है. इसके लिए बहुजन समाज को न केवल बाहर बल्कि भीतर से भी बदलना होगा.

फिलहाल, आतंकवादी ठिकानों के बहाने पूरे विपक्ष को एक साथ साधने के लिए मोदीजी अपनी चाल तो चल ही चुके हैं. यह मोदी और भाजपा का ऐसा राजनीतिक दाव है जो आगे चलकर आत्मघाती भी हो सकता है.

ओमप्रकाश कश्यप

गठबंधन की मर्यादा, मर्यादाओं का गठबंधन

आलेख

इस बात की उम्मीद बहुत कम लोगों को रही होगी कि विपक्ष भाजपा के विरुद्ध सफल गठबंधन बनाने में कामयाब हो पाएगा। जो थोड़ी-बहुत उम्मीद बनी थी, उसके लिए भी विपक्ष जिम्मेदार था। प्रायः सभी विपक्षी नेता भाजपा को मिलकर हराने का दावा कर रहे थे। एकजुट विपक्ष के लिए यह लक्ष्य बहुत कठिन भी नहीं है। सब जानते हैं कि पिछले चुनावों में भाजपा ने कुल मतदान का लगभग तीस प्रतिशत पाकर धमाकेदार जीत हासिल की थी। उन मतदाताओं का बड़ा प्रतिशत ऐसा है जो भाजपा का कटृटर समर्थक है। इस वर्ग को भाजपा के हिंदू-मुसलमान, मंदिर-मस्जिद, गाय-गोबर, पाकिस्तान-हिंदुस्तान जैसे खेलों से रोमांच हो आता है। चुनाव के दौरान यही वर्ग आंख मूंद कर भाजपा के खेमे की ओर खिंचा चला आता है। इस वर्ग का समर्थन पाने के लिए भाजपा सांप्रदायिकता की फसल उगाती है, प्राचीन भारतीय संस्कृति का गौरव-गान सुनाती है, समय-असमय पाकिस्तान को गालियां देती है। इसमें जो एकदम नई चीज जोड़ी है, वह है सवर्ण गरीबों के नाम पर दस प्रतिशत आरक्षण। आरक्षण की  पुरानी रोस्टर प्रणाली में घालमेल कर, नया रोस्टर लागू करने को भी इसी से जोड़ा जा सकता है। भाजपा को उम्मीद है कि नोटबंदी, बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में असफलता, भीषण व्यापारिक मंदी से जो मतदाता छिटक गए हैं—नए रोस्टर और सवर्ण आरक्षण से उसकी भरपाई आसानी से हो जाएगी। वैसे भी जब हार-जीत एक-दो प्रतिशत मतों के ऐर-फेर पर आ टिके तो छोटे-छोटे प्रलोभन, यहां तक कि जुमले भी कारगर दिखने लगते हैं। भाजपा इस मामले में उस्ताद पार्टी है। 2014 में गुजरात-मॉडल का मिथ खड़ा करना तथा उसके नाम पर उत्तर से दक्षिण तक मतदाताओं के ध्रुवीकरण में सफलता प्राप्त कर लेना, उसके प्रचारतंत्र और चुनावी कौशल का नतीजा था—जो आज भी किसी विपक्षी दल में नजर नहीं आ रहा है। सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण के नाम पर भाजपा ने जो पासा फेंका है, उसकी काट विपक्षी दल अभी तक नहीं सोच पाए हैं। इसे लेकर दलितों और पिछड़ों में जो आक्रोश है, वह उन्हें नजर नहीं आ रहा है। यहां तक कि दलितों और पिछड़ों की राजनीति करने वाले विपक्षी दल समाजवादी पार्टी और बसपा भी उसका तोड़ नहीं ढूंढ पाए हैं। विरोध करने पर उन्हें अपने सवर्ण मतदाताओं के खिसक जाने का खतरा है, जो पिछले चुनावों में ही उनसे दूर छिटक  चुका है, उसके वापस लौटने संभावना कम से कम 2019 तक तो नहीं है।

भाजपा के प्रतिबद्ध मतदाताओं का बड़ा हिस्सा अगड़ी जातियों, बनिया, ब्राह्मण और क्षत्रिय का है। बाकी उन पिछड़ों का जो भाजपा के हिंदुस्तान-पाकिस्तान और हिंदू-मुस्लिम खेल में फंसकर दुनिया-बाहर की सोच ही नहीं पाते। यदि प्रतिबद्ध या अंधसमर्थक मतदाताओं की संख्या के अनुपात से देखा जाए तो भाजपा इन दिनों देश का सफलतम दल है। उसके पास, विशेष रूप से उत्तर और मध्य भारत में जिसे हिंदी पट्टी भी कहा जाता है—कुल मतदाताओं का करीब 24-26 प्रतिशत ऐसा है, जो ठोकर खाकर, नुकसान सहकर भी उसके खेमे में बना रहता है। उसमें दो-चार प्रतिशत मतदाता कहीं से छिटककर, नाराज होकर अथवा किसी और कारण से आकर मिल जाएं तो उसके लिए जीत आसान हो जाती है। 2014 में ऐसा ही हुआ था। उन दिनों गुजरात-मॉडल के नाम पर विकास का ऐसा मिथ खड़ा किया गया था, जिसकी काट न तो भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी कांग्रेस के पास थी, न ही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के पास—जिनकी राजनीति जातीय समीकरणों और परंपरागत टोने-टोटकों पर निर्भर थी। विपक्षी दलों की असावधानी या आत्मव्यामोह के कारण ही उनसे नाराज दलित-पिछड़े मतदाताओं का एक हिस्सा भाजपा की झोली में जा गिरा था। बाकी मतदाता कांग्रेस तथा क्षेत्रीय पार्टियों के बीच बंट गए। परिणाम यह हुआ कि कुल पड़े मतों के एक-तिहाई से भी कम वोट पाकर भाजपा बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता पर सवार हो गई। यही नहीं, अप्रत्याशित सफलता से उत्साहित होकर वह कांग्रेस-मुक्त भारत का सपना भी देखने लगी थी। इस भ्रम को बनाने में सहचर पूंजीवाद(क्रोनी कैपीटलिज्म) के बल पर पल रहे मीडिया का बड़ा योगदान था। पांच राज्यों में हुए मतदान के बाद से भाजपा आसमान से जमीन पर आ गिरी है। उसके कांग्रेस-मुक्त भारत के अभियान को झटका लगा है। फिलहाल उसकी चिंता 2019 के लोकसभा चुनाव हैं।

पिछले चुनावों में भाजपा की जीत में बड़ी भूमिका उत्तर प्रदेश और बिहार की थी। इन दोनों राज्यों से उसे 102 लोकसभा सीटें प्राप्त हुई थीं। उत्तर प्रदेश में मत-प्रतिशत के हिसाब से देखा जाए तो मुस्लिम, यादव और कुछ पिछड़ी जातियों को मिलाकर समाजवादी पार्टी दूसरे स्थान पर थी। उन चुनावों में सपा को करीब 22 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। 2009 के चुनावों के मुकाबले उन चुनावों में समाजवादी पार्टी को मात्र 1 प्रतिशत वोटों का नुकसान हुआ था, मगर इस एक प्रतिशत वोटों का खामियाजा उसे 18 लोकसभा सीटों से चुकाना पड़ा था। बसपा को 2009 के मुकाबले 7.8 प्रतिशत मतों का घाटा हुआ था। यह नुकसान इतना बड़ा था कि 19.6 प्रतिशत वोट हासिल करने के बावजूद, उससे पहले 20 सांसदों वाली पार्टी शून्य पर आ गिरी थी। चौथे स्थान पर रही कांग्रेस को उन चुनावों में मात्र 7.5 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे, नुकसान करीब 11 प्रतिशत मतों का हुआ था। परिणामस्वरूप 2009 के चुनावों में 21 लोकसभा सीटों वाली पार्टी को केवल दो सीटों से संतोष करना पड़ा था।

बिहार की बात करें तो भाजपा ने पिछले चुनावों में उससे पहले के चुनावों के मुकाबले 15.47 प्रतिशत अधिक मत प्राप्त कर, 22 लोकसभा सीटें प्राप्त की थीं। इससे उसे 2009 के मुकाबले 10 सीटों का फायदा हुआ था। इस जीत में उसका साथ रामविलास पासवान की ‘लोक जनशक्ति पार्टी’ तथा उपेंद्र कुशवाहा की ‘राष्ट्रीय लोक समता पार्टी’ का साथ और सहयोग मिला था। भाजपा के साथ आने का लाभ इन दलों को भी मिला था। भाजपा के सहयोग से चुनावों में मात्र 6.4 प्रतिशत वोट पाने वाले ‘लोक जनशक्ति पार्टी’ को छह सीटें; तथा उपेंद्र कुशवाहा के दल को मात्र 3 प्रतिशत वोट और 3 लोकसभा सीटें प्राप्त हुई थीं। चुनावों में 8.4 प्रतिशत मत प्राप्त करने वाली कांग्रेस को मात्र 2 प्रतिशत मतों का नुकसान हुआ था। इसके ऐवज में उसे अपनी दोनों लोकसभा सीटें गंवानी पड़ी थीं। सबसे बड़ी त्रासदी लालू यादव के दल के साथ थी। उन चुनावों में राजद को कुल 20.1 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे, जो उससे पिछले चुनावों के मुकाबले 0.8 प्रतिशत अधिक थे। बावजूद इसके उसे चार लोकसभा सीटों का नुकसान हुआ था। बहुजन समाज पार्टी की तरह उनका दल भी लोकसभा में शून्य सांसदों वाला दल बन चुका था।

पिछले कुछ वर्षों से मतों का ध्रुवीकरण हुआ है। प्रत्येक राजनीतिक दल के पास उसके समर्थक मतदाताओं का एक हिस्सा है, जिसे उसका आधार वोट भी कह सकते हैं। वह आसानी से इधर-उधर नहीं होता। अपने इसी प्रतिबद्ध मतदाता समूह के भरोसे राजनीतिक दल चुनावों में मोलभाव करने में सफल होते हैं। बचा हुआ यानी चलायमान वोटर ही वह हिस्सा है, जिसको लुभाने के लिए सरकार और राजनीतिक दल घोषणापत्रों के जरिये तरह-तरह के प्रलोभन देते हैं। सरकारें चुनावों से ठीक पहले नई योजनाओं का ऐलान करती हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार की बात करें तो पिछले चुनावों में चलायमान वोटर के रूप में, असंतुष्ट पिछड़े और अतिपिछड़े मतदाताओं का एक हिस्सा भाजपा के था। इसके अलावा लगभग पूरा सवर्ण मतदाता उसके साथ था। लेकिन नोटबंदी और जीएसटी के बाद व्यापारिक मंदी, सामाजिक अस्थिरता और बढ़ती बेरोजगारी से उसका पार्टी से मोह-भंग हुआ है। 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण द्वारा पार्टी ने इस वर्ग को दुबारा लुभाने की कोशिश की है। वही भाजपा की उम्मीद है। इस बीच राजनीति में राहुल गांधी का बढ़ता प्रभाव, प्रियंका गांधी का कांग्रेस में औपचारिक रूप से शामिल होना सवर्ण मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करेगा, इससे उनके एक हिस्से की कांग्रेस की ओर वापसी तय है। भाजपा द्वारा उठाए गए कदमों से पिछड़ों और दलितों में भी उसके प्रति असंतोष पनपा है। इससे लगता है कि सपा-बसपा अपने पारंपरिक वोट बैंक को अपने साथ रखने में कामयाब होंगे। कुल मिलाकर आगामी चुनावों में भाजपा का मत-प्रतिशत गिरना तय है। सवाल है कि क्या इतने से विपक्ष आगामी चुनावों में अपनी वापसी तय कर सकता है?

2014 के चुनावों में बड़ी दिखने वाली हार-जीत के पीछे मात्र दो-तीन प्रतिशत मतों के अंतरण से समाजवादी पार्टी और बसपा को जो धक्का लगा था, वह इन दोनों दलों के लिए अस्तित्व का सवाल बन चुका है। इस कारण अपने वर्षों पुराने मतभेद भुलाकर सपा-बसपा को एक मंच पर आना पड़ा है। उम्मीद थी कि कांग्रेस भी इस गठबंधन का हिस्सा बनेगी, परंतु कांग्रेसी जनों के अतिउत्साह और सपा-बसपा के नेताओं की अतिमहत्त्वाकांक्षा के कारण, गठबंधन या महागठबंधन की बात अब खटाई में पड़ती दिख रही है। कांग्रेस की ओर से गठबंधन को लेकर तरह-तरह के बयान आ रहे हैं। जनवरी में कांग्रेस महासचिव और उत्तर प्रदेश के प्रभारी गुलाम नबी आजाद ने एक बयान देकर संभावना व्यक्त की थी कि कांग्रेस प्रदेश की सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी। हालांकि उन्होंने यह भी कहा था कि वे गठबंधन में शामिल होना चाहते हैं। अपने कार्यकर्ताओं पर बात डालते हुए उन्होंने कहा था कि कांग्रेस के समर्थक प्रदेश में 25 सीटें चाहते हैं। 21 सीटें भी मिल जाएं तो पार्टी उन्हें मनाकर गठबंधन के साथ चलने को तैयार है। बात समझौते की दिशा में आगे बढ़ सकती थी, मगर जनवरी में की गई  साझा प्रेस कान्फ्रेंस में सपा और बसपा के संयुक्त ऐलान, जिसमें उन्होंने 38-38 सीटें अपने लिए रखने और तीन आरएलडी को देने की घोषणा की थी, ने कांग्रेस से समझौते की दिशा पर संशय खड़ा कर दिया है। सपा-बसपा के इस ऐलान के पीछे चाहे जो कारण हों, उनका बयान बिना जमीनी हकीकत को समझे, हड़बड़ी में दिया गया बयान ही माना जाएगा। अच्छी बात यह है कि अपने हालिया साक्षात्कार में राहुल गांधी ने गठबंधन की संभावनाएं बनाए रखी हैं। इधर 2014 में एनडीए के घटक रहे, उत्तर प्रदेश में ओमप्रकाश राजभर और बिहार में उपेंद्र कुशवाहा भी नाराज दिख रहे हैं। बिहार में उपेंद्र कुशवाहा का राजद के साथ जाना लगभग तय है। उत्तर प्रदेश में ओमप्रकाश राजभर भी गठबंधन में शामिल हो सकते हैं। यह हुआ तो प्रदेश में भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। क्या इसके लिए सपा-बसपा अपने पुरानी घोषणा में संशोधन करने को तैयार होंगे?

अब बात कांग्रेस की करते हैं, जिसकी स्थिति उत्तर प्रदेश और बिहार में लगभग एक जैसी है। 2014 में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में 7.5 प्रतिशत और बिहार में 8.4 प्रतिशत वोट मिले थे। बावजूद इसके कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय कदाचित इसलिए लिया है कि उसे लगता है कि राहुल गांधी के नए अवतार तथा प्रियंका गांधी के महासचिव बन जाने से वह न केवल अपने खोये हुए मत-प्रतिशत को वापस प्राप्त करने में कामयाब हो जाएगी, बल्कि कुछ अतिरिक्त वोट भी उसे प्राप्त हो जाएंगे। फलस्वरूप वह उससे अधिक सीट पाने में कामयाब होगी, जितनी गठबंधन में मिलने की संभावना थी। हालांकि उत्तर प्रदेश की जो वर्तमान स्थिति है, उससे यह संभव नहीं दिख रहा है। बिहार में यदि अचानक कोई अनहोनी न हुई तो कांग्रेस और राजद का गठबंधन में शामिल होना तय है। जीतनराम मांझी गठबंधन में बने रहने का ऐलान कर चुके हैं। लालू यादव लंबे समय ये जेल में हैं। बीमार हैं। इस कारण आम मतदाता की सहानुभूति उनके साथ है। ऊपर से नितीश के शासनकाल में प्रदेश में जो अराजकता बढ़ी है, उससे भी जनता नाराज है। पिछले चुनावों में नितीश कुमार के साथ रहे शरद यादव अब उनसे अलग हो चुके हैं। उपेंद्र कुशवाहा पर जिस तरह पिछले दिनों लाठियां पड़ी हैं, उससे लगता है कि वे भी एनडीए का साथ छोड़कर राजद के साथ जाने वाले हैं। वहां तेजस्वी यादव एक मंजे हुए नेता की तरह राजनीति कर रहे हैं। उन्हें लालू यादव का सही उत्तराधिकारी कहा जाने लगा है। इसका लाभ गठबंधन को मिलना तय है। सवाल है कि जिस गठबंधन की संभावना बिहार में लगभग पक्की है, वह उत्तर प्रदेश में क्यों नाकाम होता दिख रहा है। क्या इसके लिए केवल सपा और बसपा को दोष दिया जाना चाहिए?

कांग्रेस को लगता है कि सपा, बसपा और राजद का जो मतदाता वर्ग है, किसी जमाने में वह उसका प्रतिबद्ध मतदाता हुआ करता था। उसे यह भी लगता है कि राहुल और प्रियंका अपने परंपरागत वोट बैंक को वापस लाने में कामयाब होंगे। लेकिन जहां तक आम मतदाता का सवाल है, वह आसानी से समझ चुका है कि कांग्रेस और भाजपा के माइंड सेट में कोई खास अंतर नहीं है। माइंडसेट को बदलना आसान नहीं था। कांग्रेस ने खुद को कभी बदलने की कोशिश भी नहीं की। जब लगा कि मीडिया कांग्रेस का हिंदू विरोधी चरित्र गढ़ रहा है, बजाय अपने परंपरागत वोटर को साधने के, राहुल गांधी मंदिर और मानसरोवरों की यात्रा पर निकल पड़े। आज भाजपा खुले आम अपने आपको सवर्णों की हित-रक्षक मानती है। अंतर केवल इतना है कि भाजपा जो काम डंके की चोट पर कहती-करती थी, कांग्रेस यही काम तुष्टीकरण की नीति के अंतर्गत, समाज-कल्याण के नारे के साथ किया करती थी। 1991 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद उत्तरी भारत में दलित और पिछड़ी जातियां मंडल-समर्थक दलों के पीछे एकजुट होने लगी थीं। कांग्रेस उस समय भी अपनी तुष्टिकरण की नीति से बाहर न आ सकी। संविधान 1950 में लागू हुआ था। उसमें सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों के लिए नौकरी में आरक्षण का प्रावधान था। कांग्रेस न केवल मंडल आयोग की अनुशंसाओं को लागू करने से बचती रही, अपितु 1991 के बाद भी उसने नौकरियों में पिछड़ी जातियों के अनुपात को संतुलित करने के लिए कुछ नहीं किया। नतीजा पिछड़ी जातियों के कांग्रेस से मोहभंग के रूप में सामने आया। फिर जैसे ही पिछड़ी जातियों को विकल्प दिखाई दिया, वे कांग्रेस से छिटककर क्षेत्रीय दलों के खाते में चली गईं। उत्तर प्रदेश, बिहार और कर्नाटक जैसे राज्यों में जहां इन जाति-वर्गों का बहुमत है, वहां कांग्रेस का मत-प्रतिशत 10  प्रतिशत से भी कम तक सिमट गया।

2014 में इन जातियों ने पिछड़ों और अतिपिछड़ों ने भाजपा का साथ दिया था तो इसलिए कि मीडिया के बूते भाजपा ने ‘गुजरात मॉडल’ का जो मिथ खड़ा किया था, उसका प्रलोभन बड़ा था। इन जातियों को लगा था कि सरकारी नौकरियों के निरंतर सिकुड़ते आधार की भरपाई प्राइवेट सेक्टर से हो जाएगी। लेकिन ऐसा होना तो दूर भाजपा के आने से जमे-जमाए उद्योग जगत की भी कमर टूट गई। शहरों और कस्बों में जो लोग दूर देहात से आकर छोटा-मोटा धंधा करते थे, चीनी उत्पादों की बेलगाम आमद ने उन्हें धंधा बंद कर, अपने ठिकानों की ओर लौटने को मजबूर कर दिया। छोटे उद्यमियों और उनके साथ काम करने वाले मजदूरों की संख्या करोड़ों में है। निश्चय ही आने वाले चुनावों में वे अपने वोट का प्रयोग भाजपा को सबक सिखाने के लिए करेंगे। लेकिन किसके पक्ष में? यदि विपक्ष इसी तरह से बंटा रहा तो इसकी भी संभावना है कि भाजपा विरोधी उनका वोट विपक्षी दलों में बंटकर निष्प्रभावी हो जाए

कांग्रेस यदि स्वयं को बड़ा दल मानती है, और वह है भी, क्योंकि आजादी के आन्दोलन से उसका नाम जुड़ा है। आज़ादी के बाद लंबे समय तक उसी की सरकार रही है। यदि आजादी के बाद भी लोगों के लिए न्यूनतम मजदूरी और रोजी-रोटी जैसे सवाल की सबकुछ हैं तो इसकी जिम्मेदारी कांग्रेस के ऊपर भी जाती है। कदाचित बाकी दलों से अधिक जाती है। इसलिए उससे अधिक समझदारी और जिम्मेदार आचरण की उम्मीद की जा सकती है। यदि कांग्रेस उत्तर प्रदेश और बिहार में, थोड़ा पीछे हटकर समझौता करके गठबंधन को स्वीकारती है, तो इसका लाभ बाकी प्रदेशों में मिलना तय है। दलित मतदाताओं के बीच मायावती का प्रभाव केवल उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है, अपितु राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र जैसे कई प्रदेश हैं, जहां का दलित मतदाता मायावती को अपना नेता मानता है। यही बात समाजवादी पार्टी के साथ है। बाकी प्रदेशों में यादव वोट बैंक भले ही बड़ा न हो, लेकिन मुस्लिम आज भी समाजवादी पार्टी को अपने लिए सबसे भरोसेमंद मानता है। इसलिए समाजवादी का साथ कांग्रेस की मुस्लिम मतदाताओं के बीच विश्वसनीयता को बढ़ाने में सहायक होगा। या कम से कम उसके बंटने की संभावना कम हो जाएगी।

कुल मिलाकर गठबंधन में राजद, सपा, बसपा और कांग्रेस का साथ आना न केवल 2019 की जीत को आसान बनाने के लिए आवश्यक है, अपितु देश में बढ़ रही सांप्रदायिकता को रोकने के लिए भी जरूरी है। गठबंधन की संभावना को ये पार्टियां गंभीरता से भले ही न लें, लेकिन भाजपा उसे पूरी गंभीरता से ले रही है। उसकी निगाह में गठबंधन बन चुका है। इसलिए प्रस्तावित गठबंधन के जितने भी बड़े नेता हैं, सब सीबीआई के रडार पर हैं. सपा, बसपा, कांग्रेस, त्रणमूल कांग्रेस के पुराने खाते खंगाले जा रहे हैं। देश में भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा है। लेकिन यदि किसी दल को भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई केवल चुनाव के दिनों में याद आती हो तो समझ लेना चाहिए कि वह स्वयं भ्रष्टाचार में लिप्त है। भ्रष्टाचार केवल आर्थिक नहीं होता, सामाजिक,  सांस्कृतिक और राजनीतिक भी होता है। इस दृष्टि से भाजपा ने स्वयं को एक नहीं अनेक बार भ्रष्ट पार्टी सिद्ध किया है। आवश्यकता इसे समझने और मतदाता को समझाने की है। यह काम जितना संगठित तरीके से होगा, उतना ही फलदायक सिद्ध होगा।

ओमप्रकाश कश्यप


मदर इंडिया : ईमानदार गटर इंस्टपेक्टर की साहसिक रिपोर्ट

विशेष रुप से प्रदर्शित

समीक्षा

यह पुस्तक चतुराईपूर्वक और जोरदार ढंग से लिखी गई है. सावधानी पूर्वक चुने गए उद्धरण एक सत्य से भरपूर पुस्तक के प्रति मिथ्याभास कराते हैं. इसे पढ़ते हुए जो प्रभाव मेरे मस्तिष्क पर पड़ता है, वह यह है कि यह पुस्तक एक नाला इंस्पेक्टर की रिपोर्ट है, जिसे उसने हमारे पास इसलिए भेजा गया है, ताकि देश के जितने गंदे नाले हैं, उन्हें खोलकर उनका निरीक्षण कर सकें, अथवा उन खुले नालों से रिसती गंदगी का प्रामाणिक चित्रण कर सकें. यदि मिस मेयो यह स्वीकार करती हैं कि वे इस देश के गंदे नालों को खोलने और उनका निरीक्षण करने के सच्चे इरादे से भारत आई है, तो इस पुस्तक से कोई शिकायत नहीं होगी. लेकिन उसने इसे घिनौना बताकर गलत निष्कर्ष पेश करते हुए किंचित जोश में कहा है—’गंदे नाले ही भारत हैं.’ —मोहनदास करमचंद गांधी मेयो की पुस्तक ‘मदर इंडिया’ पर.


बहुत कम पुस्तकें ऐसी होती हैं, जिन्हें आलोचना और सराहना भारी तादाद में, मगर समानरूप से प्राप्त होती हैं. कैथरीन मेयो की ‘मदर इंडिया’ ऐसी ही पुस्तक है. हाल ही में सुप्रतिष्ठित दलित लेखक-विचारक कंवल भारती ने उसका हिंदी अनुवाद किया है, जिसे ‘फारवर्ड प्रेस’ ने प्रकाशित किया है. पुस्तक का समग्र और संतुलित हिंदी अनुवाद आते-आते लगभग 90 वर्ष बीत चुके हैं. हालांकि इससे पहले भी पुस्तक में हिंदी अनूदित हो चुकी थी. लेकिन अनुवादकीय संतुलन, भाषायी धैर्य तथा निष्पक्षता के अभाव में पिछले अनुवाद को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता. दरअसल, पुस्तक के कथ्य की गहराइयों में पैठने के लिए जो संवेदनशीलता चाहिए, उसका तत्कालीन लेखकों-बुद्धिजीवियों में अभाव था. उसे देखते हुए तब इसका संतुलित अनुवाद आ ही नहीं सकता था. इस तरह कंवल भारती ने बड़े अभाव की पूर्ति की है. मूल पुस्तक ‘ब्लू रिबन बुक्स, न्यूयार्क’ से प्रकाशित हुई थी. छपने के साथ ही उसे विवादों ने घेर लिया था. अधिकांश आलोचकों का कहना था कि पुस्तक की रचना भारत को बदनाम करने के लिए की गई है. अपनी भारत यात्रा के बारे में मेयो का दावा था कि यह एकदम स्वतंत्र, एक ऐसे व्यक्ति का यात्रा-विवरण है, जो इस देश को करीब से देखना-समझना चाहता है. आलोचकों का दावा है कि मेयो के औपनिवेशिक सरकार के केंद्रीय खुफिया विभाग से सीधे संबंध थे. दोनों के बीच पत्र-व्यवहार भी था. उसने ही मेयो से भारतीय परंपराओं और सामाजिक स्थिति पर पुस्तक तैयार करने का आग्रह किया था, ताकि गांधी, जो उन दिनों देश की स्वाधीनता के लिए भारतीयों को एकजुट करने में लगे थे—को जवाब दिया जा सके.

बहरहाल, समर्थन और विरोध, जिसमें विरोध की मात्रा कहीं अधिक थी—के बीच पुस्तक की ख्याति-कुख्याति इतनी बढ़ी कि इसकी प्रतिक्रिया में न केवल अंग्रेजी और हिंदी, अपितु तमिल, बांग्ला, उर्दू आदि में अनेक पुस्तकें लिखी गईं. मूल कृति के विरोध और समर्थन में लिखी गईं महत्त्वपूर्ण पुस्तकों और पर्चों की संख्या पचास से भी अधिक थी। आलोचना में लिखी गई प्रमुख पुस्तकों में दलीप सिंह सौंद की ‘माय मदर इंडिया’, धनगोपाल मुखर्जी की ‘ए सन ऑफ मदर इंडिया आन्सवर’, के. नटराजन की ‘ए रिजॉइंडर टू मिस मेयो मदर इंडिया’ तथा श्रीमती चंद्रवती लखनपाल की ‘मदर इंडिया का जवाब’ शामिल हैं. महाकाव्यीन शैली में बनाई गई महबूब खान की बहुचर्चित फिल्म ‘मदर इंडिया’ भी कैथरीन मेयो की पुस्तक का जवाब देने के लिए बनी थी. पुस्तक को लेकर भारत में हो रही जबरदस्त प्रतिक्रियाओं के जवाब में हेरी एच. फील्ड ने मेयो का बचाव करने हुए ‘आफ्टर मदर इंडिया’(1929) की रचना की थी. देश-विदेश में पुस्तक की प्रतियों के साथ मेयो के पुतले का दहन किया गया था. पुस्तक के प्रति भारतीयों की तीव्र नाराजगी को देखते हुए 1936 में, तत्कालीन सरकार ने उसे भारत में लाने पर पाबंदी लगा दी थी. मगर तब तक पुस्तक की लाखों प्रतियां यूरोप और अमेरिका में बिक चुकी थीं. मुफ्त में बंटवाई गई प्रतियों की संख्या इससे अलग थी. अकेले अमेरिका में ही ऐसी पचास हजार से अधिक प्रतियां बंटवाई जा चुकी थीं. अधिकांश आलोचकों का विचार था कि मेयो ने भारतीय समाज की छिछली और पक्षपातपूर्ण आलोचना कर अपनी औपनिवेशवादी दृष्टि का परिचय दिया है. कुछ लोगों ने मेयो पर साम्राज्यवादी तथा रंगभेदी होने का आरोप भी लगाया था. पुस्तक में ऐसे कई वर्णन हैं, जहां यह आरोप सही प्रतीत होता है. पुस्तक को मिली अप्रत्याशित चर्चा के पीछे क्या यही कारण था? यदि नहीं तो इस पुस्तक में आखिर ऐसा क्या था, जिससे भारतीय नेता और बुद्धिजीवी एकसाथ तिलमिला उठे थे. इसे समझना कठिन नहीं है. मेयो पुस्तक की शुरुआत जिस अध्याय से करती हैं, उसका शीर्षक है—मांडले की बस. बस में उसका सहयात्री है—हलदार. एक ब्राह्मण पुजारी. पहले अध्याय से ही लेखिका पाठक को बांध लेती है. लेखन की बेबाक शैली, आंखों देखे को न्यूनतम शब्दों तथा आसान भाषा में पाठक के सामने उतार देने की खूबी—इस पुस्तक को पठनीयता प्रदान करती है. अनुवाद में इसे ज्यों का त्यों सहेजा गया है. इसके लिए अनुवादक की सराहना करनी होगी.

‘मदर इंडिया’ मुख्यतः चार हिस्सों में बंटी है. पहले हिस्से में मेयो सामाजिक रूढ़ियों और अंधविश्वासों का वर्णन करती हैं. उनका विवरण इतना जीवंत है कि कई स्थान पर वह जुगुप्सा उत्पन्न करता है. भारत के गरीब, अशिक्षित जनों की दुर्दशा तथा उनका रूढ़ि-प्रेम देख पाठक सिहर उठता है. पुस्तक के आलोचकों में उस समय के बड़े नेताओं के अलावा स्वयं गांधी भी सम्मिलित थे. हालांकि मेयो ने उनका उल्लेख करते समय अपेक्षित तटस्थता बरती है. मगर गांधी ने पुस्तक को बिना पूरा पढ़े ही उसे ‘नाली इंस्पेक्टर की रिपोर्ट’ कहकर नकार दिया था. पुस्तक के पहले अध्याय से ही पता चल जाता है कि लेखिका अपने यथार्थवादी वर्णन को कहां तक ले जा सकती है; और गांधी की नकारात्मक टिप्पणी का रहस्य क्या है! पुस्तक जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, लगने लगता है कि गांधी ने अनजाने में ही सही, पुस्तक को लेकर एकदम सही बात कह दी थी. ‘ड्रेन’ कहकर उन्होंने भारतीय समाज के जिन अंधकूपों की ओर संकेत किया था, वे काल्पनिक या मेयो के दिमाग की उपज न होकर(आज भी), इसी जीते-जागते भारतीय समाज का हिस्सा हैं. परंपरा और संस्कृति के नाम पर लोग उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी सहेजते आ रहे हैं. प्रकारांतर में गांधी की आलोचनात्मक टिप्पणी भी ‘मदर इंडिया’ का परोक्ष समर्थन करने लगती है.

शुरुआत कलकत्ता से होती है. मेयो आरंभ में ही भारतीय समाज के वर्गीय विभाजन की ओर इशारा कर देती हैं. वह जातीय ही नहीं आर्थिक भी है. या यूं कहें कि घोर जातीय है, इस कारण वह आर्थिक भी है. कलकत्ता के उजले, विकासमान और दिपदिपाते चेहरे का वर्णन वह इस प्रकार करती हैं—‘कलकत्ता भव्य और बनावटी शहर है, जहां सभी धर्मों और रंगों के बनावटी लोग गवर्नमेंट हाउस की गार्डन पार्टियों में जाते हैं. अंग्रेज लाट साहबों सलाम ठोकते हैं. बढ़िया अंग्रेजी बोलते हैं. चाय पीते हैं, आइसक्रीम खाते हैं और सेना का बैंड सुनते हैं.’ उनका कलकत्ता विश्व और भारत के व्यापार का विशाल मुक्त द्वार है. उसमें सबकुछ है—‘आधुनिक इमारतें, राष्ट्रीय स्मारक, पार्क, बगीचे, अस्पताल, संग्रहालय, विश्वविद्यालय, न्यायालय, होटल, कार्यालय, दुकानें, और वह सब कुछ, जो एक समृद्ध अमेरिकी शहर में होता है.’ कलकत्ता का दूसरा चेहरा भारतीय समाज और बाकी शहरों की तरह ही उलझा और मटमैला है. दूसरे भारतीय नगरों की तरह उसमें भी मंदिर, मस्जिद, बाजार, करीने से काटे-छांटे गए मैदान और गलियां हैं. ‘चौराहों, गलियों तथा बाजारों में किताबों की छोटी-छोटी दुकानें हैं, जहां सुस्त चाल वाले, कमजोर नजर वाले और बीमार कद-काठी वाले नौजवान भारतीय छात्रों के झुंड अपनी देशी पौशाकों में रूसी साहित्य के ढेर पर ऐसे टूटे पड़ते हैं, जैसे मक्खियां भिनभिना रही हों(पृष्ठ 19).’ मेयो ने ‘बनावटी’ लोगों की पोशाक का सीधे उल्लेख नहीं किया है. पाठक खुद-ब-खुद समझ जाता है कि वे गवर्नमेंट हाउस की पार्टियों में जाने वाले वही लोग रहे होंगे, जो सत्ता के इर्द-गिर्द रहकर सदैव स्वार्थ-सिद्धि करते आए हैं. कोलकाता भारत के प्रथम औद्योगिक शहर के रूप में पनपा था. उसमें अनियोजित विकास से जुड़ी वे सभी कमजोरियां थीं, जिनसे अनुप्रेत होकर मार्क्स ने ‘पूंजी’ जैसा महाग्रंथ रचा था. 

पुस्तक में विधवा विवाह, बालविवाह, धर्म के नाम पर पाखंड, रूढ़िप्रेम, तंत्र-मंत्र, बलिप्रथा आदि के माध्यम से भारतीय महिलाओं और दलितों की दयनीय अवस्था के दिल-दहलाते वाले दृश्य हैं. इतने प्रामाणिक कि मेयो की आलोचना करते हुए चंद्रवती लखनपाल ने जहां उखड़ी हुई भाषा में कई जगह कुतर्क किए हैं, भारतीय स्त्रियों की दुर्दशा को पश्चिमी देशों में स्त्री की दुर्दशा के साथ तुलना कर, हालात का सामान्यीकरण करने की कोशिश की गई है—वहीं कई स्थानों पर मेयो को लगातार कोसने के बावजूद, वह उससे सहमत दिखाई पड़ती हैं. उदाहरण के लिए हिंदू समाज में विधवाओं की दुर्दशा का वर्णन करते हुए वे मेयो को कोई जवाब नहीं दे पाती. केवल उसके तथ्य को ज्यों का त्यों पेश कर देती हैं—‘‘भारत में विधवाओं की दुर्दशा अवश्य की जाती है; और उसके प्रायश्चित में उसे ‘मदर इंडिया’ जैसे थप्पड़ भी खाने पड़ते हैं. स्त्रियों के प्रति हिंदुओं की हृदयहीनता का मर्मभेदी वर्णन करते हुए मिस मेयो लिखती है—‘जब सती प्रथा को हटाए जाने का ब्रिटिश-सरकार प्रयत्न कर रही थी, उस समय इस घृणित प्रथा को वैसे का वैसा बनाए रखने के लिए इन लोगों ने प्रिवी काउंसिल के दरवाजों तक को खटखटाया था. इस समय भी बालविवाह तथा दहेज आदि कुप्रथाओं के दैत्यों पर कई लड़कियां जीती-जाग्रत साड़ी में आग लगाकर बलि चढ़ गई हैं. परंतु अब भी इस हत-भाग्य देश में, ऐसे लोग मौजूद हैं, जो इन दृष्टांतों से सबक सीखने के स्थान पर बालिका के मृदुल अंगों से उठती लपटों को देखकर उनमें सतीत्व की ज्योति झलकती देखते और हर्ष के आंसू बहाते हैं! 1925 में भारतवर्ष में 2,68,34,838—अढ़ाई करोड़ से ज्यादा विधवाएं मौजूद थीं.’’(मदर इंडिया का जवाब, पृष्ठ 47, दूसरा संस्करण, संवत 1885).

एक अन्य स्थान पर वह मेयो से सहमत होते हुए लिखती हैं—‘मेयो स्वयं एक स्त्री है. इसलिए स्वाभाविक तौर पर उसका ध्यान स्त्रियों की ओर अधिक खिंचा है. हमने स्त्रियों की दुर्गति भी कम नहीं कर रक्खी. ‘स्त्रीशूद्रैनाधीयाताम’ का जयघोष करने वालों को वह याद दिलाती है कि 1911 में 1000 में से 10 स्त्रियां अक्षर पढ़ना जानती थीं, 1921 में 1000 में से 18 को अक्षरबोध था और 1925 में 1000 में यह संख्या 20 हो गई….हम लोगों में स्त्रियों को शिक्षा देने की प्रवृत्ति ही नहीं है.’(पृष्ठ 54).

ऐसा नहीं है कि भारतीय स्त्री की दुर्दशा के जो बिंब मिस मेयो ने पुस्तक में उकेरे हैं, उनकी ओर से भारतीय नेता और बुद्धिजीवी एकदम अनजान हों. भारतीय समाज की उन भयावह विकृतियों पर विधायिकाओं में लंबी बहसें होती थीं. नेताओं की समय-समय पर टिप्पणियां, अखबारों में आलेख भी आते थे. लेकिन उस समय के अधिकांश बड़े नेता, बुद्धिजीवी भारतीय सभ्यता की कथित महानता के नाम पर, उन्हें किसी न किसी रूप में सहेजे रखना चाहते थे. उनपर सरसरी टिप्पणियां पुस्तक में जगह-जगह मौजूद हैं. ध्यातव्य है कि भारत में व्याप्त जातिप्रथा, स्त्रियों की दुर्दशा, धर्म के नाम पर पोंगापंथी, बलिप्रथा के नाम पर निरीह पशुओं पर क्रूर अत्याचार, अशिक्षा और गरीबी के ऊपर उससे पहले भी कई पुस्तकें आ चुकी थीं. विधानसभाओं और परिषदों में होने वाली बहसों और उनकी सालाना रिपोर्ट भी दुनिया के सामने थीं. मेयो ने अपने तथ्य और आंकड़े उन्हीं जुटाए थे. कार्ल मार्क्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश रूल इन इंडिया’(1853) कैथरीन मेयो की पुस्तक के लगभग 72 वर्ष पहले प्रकाशित हो चुकी थी. उसमें अंग्रेजों द्वारा भारत की लूट के साथ-साथ भारतीय समाज की दुरावस्था तथा दास मनोवृत्ति की आलोचना की गई थी. मेयो ने अपनी पुस्तक में दिया था कि किस प्रकार भारत में रह रहे कुल 67432(सैन्यबल 60000, सिविल सेवा 3432 तथा पुलिस 4000, पृष्ठ 33) अंग्रेज, लगभग 25 करोड़ भारतीयों पर हुकूमत जमाए हुए हैं. मार्क्स ने अपने भारत विषयक लेखों में इस तथ्य को भिन्न-भिन्न तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया है. ‘आधुनिक भारत का इतिहास’ में डॉ. विपिन चंद्र ने लिखा है कि 1857 में भारतीय सेनाओं में कुल मिलाकर 3,11,400 सैनिक और अधिकारी थे. उनमें से भारतीयों की संख्या 2,65,900 थी. यूरोपीय सैनिकों की कुल संख्या 45,500 यानी उनके कुल सैन्यबल का मात्र 15 प्रतिशत थी. बाकी क्षेत्रों में उससे कहीं कम अंग्रेज थे. भारत की कुल जनसंख्या के सापेक्ष यहां आधा प्रतिशत से भी कम अंग्रेज थे, लेकिन वे 25 करोड़ से अधिक भारतीयों पर राज करते थे. यह केवल ऐसे समाज में संभव था, जहां लोगों के हितों में एका न हो. लोग अपने स्वार्थ के आधार पर बंटे हों. भारतीय समाज में तो जाति-प्रथा के नाम का कलंक हजारों वर्षों से छाया हुआ था. भारत में तथाकथित सवर्णों के संभ्रांत हिस्से ने बहुसंख्यक दलितों और पिछड़ों को अलग किया हुआ था. बंटे हुए समाज में मुट्ठी-भर चालाक आत्ममुग्धता के साथ जीवनयापन करते थे. सारे संसाधन, वैभव और भोग-विलास उनके कब्जे में थे. बाकी जनसमाज की उन्हें चिंता न थी. न उन्हें जीवन के सामान्य अधिकार और सुख प्राप्त थे. स्त्रियों की दुर्दशा पर मेयो को आंसू बहा-बहाकर कोसने वाली चंद्रवती लखनपाल मेयो द्वारा दलितों की दुर्दशा पर कोई टिप्पणी नहीं करतीं. गोया वे उसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेती हैं. या फिर बाकी सवर्ण लेखकों की भांति दलितों की समस्या, उनका दैन्य और दुर्दशा उनके लिए कोई समस्या थी ही नहीं. लेकिन मेयो ने भारतीय समाज की इस कुरूपता का यथा-तथ्य वर्णन किया है. ‘मद्रास आदि द्रविड़ सभा’ जो मद्रास प्रेसीडेंसी में 60 लाख जनजातियों का प्रतिनिधित्व करती थी, को उद्धृत करते हुए उन्होंने लिखा है—‘हिंदुओं की जाति-व्यवस्था हमें अछूतों के रूप में कलंकित करती है. फिर भी सवर्ण हिंदू हमारी सहायता के बिना नहीं रह सकते. हम जो श्रम करते हैं, वे उसी का फल खाते हैं. पर, वे बदले में हमें सिर्फ जूठन देते हैं.’ (पृष्ठ-151)

आज भाजपा और संघ दलितों को हिंदू धर्म का हिस्सा बताते हैं. जातीय उत्पीड़न का शिकार होकर दूसरे धर्मों की ओर पलायन कर चुके दलितों की घर-वापसी की बात करते हैं, तो इसलिए कि उनके सामने मुस्लिमों के आगे अल्पसंख्यक हो जाने का खतरा उनके सिर पर खड़ा है. जबकि सौ वर्ष पहले तक दलितों के बड़े हिस्से को अछूत बताकर उन्हें हिंदू धर्म से बाहर रखा गया था. सवर्ण उन्हें हिंदू मानने को तैयार ही नहीं थे. मेयो के शब्दों में, भारत की 24.70 करोड़ जनता में से लगभग 25 प्रतिशत अर्थात छह करोड़ लोग अनंतकाल से अशिक्षित बनाकर रखे गए हैं. और साथ ही उन्हें उनके ही भारतीय भाइयों ने मनुष्य से भी गिरा हुआ बनाकर रखा गया है. अवश्य ही यदि भारत में कोई रहस्य है, तो वह इस बात में है कि भारतीय कोई मनुष्य या कोई समाज या कोई राष्ट्र किसी भी परिस्थिति में, कहीं भी भारतीयों को यह याद दिलाए कि भारत में छह करोड़ देशवासी ऐसे हैं जिन्हें तुमने मनुष्य होने के सामान्य अधिकार देने से भी मना कर दिया है. तो वे पलटकर उस मनुष्य, समाज या राष्ट्र पर जातीय पक्षपात का दोष लगा देते हैं.’(पृष्ठ 135).

पुस्तक में स्त्रियों और दलितों की दुर्दशा के दिल दहलाने वाले विवरण जगह-जगह पर हैं—‘उनके(दलितों) के बच्चे स्कूलों में पढ़ नहीं सकते. वे सार्वजनिक कुओं से पानी नहीं ले सकते. और यदि वे ऐसी जगह रहते हैं, जहां पानी उपलब्ध नहीं है तो उन्हें दूर से लाना पड़ता है….वे किसी अदालत में प्रवेश नहीं कर सकते. बीमार पड़ने पर अस्पताल नहीं जा सकते. और किसी सराय में नहीं ठहर सकते. कुछ प्रांतों में वे सार्वजनिक सड़कों पर भी नहीं जा सकते. और मजदूर या किसान के रूप में भी हमेशा उन्हीं को नुकसान उठाना पड़ता है. क्योंकि, वे न तो दुकानों पर जा सकते हैं और न ही उन सड़कों से गुजर सकते हैं, जहां दुकानें होती हैं. इसलिए उन्हें अपना सौदा बेचने या खरीदने के लिए दलालों पर निर्भर होना पड़ता है. इनमें कुछ इतने पतित हैं, उनसे कोई काम नहीं लिया जाता है. वे कुछ बेच नहीं सकते. यहां तक कि मजदूरी भी नहीं कर सकते. वे केवल भीख मांग सकते हैं. और भीख मांगने के लिए भी वे सड़क पर चलने का साहस नहीं कर सकते. उन्हें सड़क से दूर ऐसी जगह—जहां से कोई देख न सके—पर खड़े होकर गुजरने वाले लोगों से चिल्लाकर भीख मांगनी पड़ती है. यह भीख भी उन्हें सड़क से थोड़ा हटकर जमीन पर फेंक दी जाती है. यह भीख भी वे तब तक नहीं उठा सकते जब तब कि भीख फेंकने वाला दृष्टि से ओझल नहीं हो जाता.’ (पृष्ठ-137).

पुस्तक की एक खास बात, जिसकी ओर बहुत कम ध्यान दिया गया है—वह है, पुस्तक के आरंभ में दिया गया अछूत स्त्री का चित्र. एक तो स्त्री ऊपर से दलित. चित्र को कैथरीन की मित्र, सहयोगी, मददगार और भारत यात्रा में उसकी सहयात्री मोयका निवेल ने खींचा था. उन दिनों भारत विषयक किसी पुस्तक का आरंभ दलित स्त्री के चित्र से करना बड़ी बात थी. वह भी स्त्री द्वारा. मानो एक पढ़ी-लिखी संभ्रांत महिला दलित स्त्री को अंधियारे से उजाले में ला रही थी. वह अपनी तरह का अलग स्त्री-विमर्श था. बिना किसी नारेबाजी के मेयो दलित स्त्री के बहाने पूरी स्त्री जाति की पीड़ा, उसके संत्रास, घुटन और छटपटाहट को दुनिया के सामने ले आती है. उस समय के बुद्धिजीवियों को तिलमिलाने के लिए यह भी पर्याप्त था. उससे पहले भारत में पुस्तकों पर या तो लेखक का चित्र होता था; अथवा आशीर्वाद कामना के साथ किसी देवता या साधु-संत के दर्शन. दलित महिला के चित्र को पुस्तक में जगह देकर कैथरीन ने उस परंपरा को उलट दिया था. आगे के अध्यायों में जब वह भारतीय स्त्री की दुर्दशा का बयान करती है, तो उसका वर्णन केवल चित्र में दिखाई गई अछूत स्त्री तक सीमित नहीं रह जाता, अपितु उसमें पूरी स्त्री-जाति की उपेक्षा, अवहेलना और तिरष्कार प्रतिबिंबित होने लगते हैं.

गौरतलब है कि धर्म तथा तत्संबंधी तरह-तरह के कर्मकांड, जाति के नाम पर समाज का अमानवीय विभाजन जिसके दिल दहलाने वाले विवरण मेयो ने अपनी पुस्तक में किए हैं, के बारे में उपयोगितावादी दार्शनिक जेम्स मिल ने भी ‘हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ में तीखी टिप्पणियां की थीं. बावजूद इसके किसी भी पुस्तक का इतना प्रचार नहीं हुआ था, जितना ‘मदर इंडिया’ को लेकर हुआ. दरअसल पूर्ववर्ती विद्वान, ब्रिटिश सरकार की नीति के तहत आलोचना से बचते थे. अंग्रेजों की नीति थी कि केवल तथ्य रखे जाएं, उन्हें लेकर लेखकीय टिप्पणी अथवा आलोचना से बचा जाए. अंधिकांश पुस्तकें इसी आकादमिक निस्पृहता के साथ लिखी गई थीं. मेयो की पुस्तक में ऐसा नहीं था. पुस्तक एक तरह का यात्रा विवरण है. मेयो जो देख रही हैं, उसी को वर्णित कर रही हैं. लेखिका का साक्षी भाव ही ‘मदर इंडिया’ को महत्त्वपूर्ण बना देता है. पुस्तक में दिए गए तथ्यों की काट मेयो के आलोचकों के पास नहीं थी. वे केवल लेखकीय दृष्टि को पक्षपातपूर्ण बताकर उसके महत्त्व को हल्का करने की कोशिश कर सकते थे. यही उन्होंने किया भी. कुछ हद तक यह अवसर स्वयं मेयो ने भी दिया है. मेयो की औपनिवेशिक दृष्टि जॉन स्टुअर्ट मिल की औपनिवेशिक दृष्टि से मेल खाती है. हालांकि दोनों के बीच लगभग सौ वर्ष का अंतराल है. परंतु संकुचित औपनिवेशिक दृष्टि के बावजूद मेयो ने जो लिखा, वह सत्य से एकदम परे नहीं था. यदि मेयो इस देश पर ब्रिटिश राज को जरूरी मानती थीं तो सवर्णों के अत्याचारों के उत्पीड़न का शिकार रहा दलितों का बड़ा हिस्सा, भी वही चाहता था. अंग्रेजों के आने के बाद ही उन्हें शिक्षा और सामाजिक सम्मान के कुछ अवसर उपलब्ध हुए थे. शताब्दियों से जातीय उत्पीड़न का शिकार रहे दलित सोचते थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद उनसे ये अवसर छिन भी सकते हैं. ‘मद्रास आदि द्रविड़ सभा’ ने तत्कालीन वायसराय को लिखे गए पत्र में लिखा था—‘यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि हम लोग स्वराज के प्रबल विरोधी हैं. हम अपने रक्त की अंतिम बूंद तक अंग्रेजों द्वारा भारत की सत्ता हिंदुओं के हाथों में सौंपे जाने के प्रयास के खिलाफ लडेंगे. क्योंकि, जिन हिंदुओं ने अतीत में हम पर जुल्म किए हैं और आज भी कर रहे हैं, वे सत्ता प्राप्त करने के बाद भी हम पर जुल्म करेंगे. अंग्रेजों के कानून ही हमारे रक्षक हैं. आज भी हिंदू हमारे हितों की उपेक्षा करते हैं, बल्कि हमारे अस्तित्व तक से इन्कार करते हैं. यदि, इनके हाथों में प्रशासन का नियंत्रण आ जाएगा, तो वे हमारे हितों का संवर्धन कैसे कर सकते हैं.’(पृष्ठ 151)

मेयो ने ‘ड्रेन थ्योरी’ पर भी सवाल उठाकर, आंकड़ों के आधार पर उसे गलत सिद्ध करने की कोशिश की थी. उन दिनों भारत में दादा भाई नौरोजी की पुस्तक ‘पावर्टी इन ब्रिटिश इंडिया’ की चर्चा थी. उसमें वर्णित ‘ड्रेन थ्योरी’ के अनुसार ब्रिटिश भारत के कच्चे माल को सस्ते दामों पर अपने देश ले जाकर और बदले में ऊंचे दामों पर अपने उत्पाद भारत लाकर यहां का आर्थिक दोहन कर रहे हैं. मेयो ने तथ्यों के साथ बताया था कि भारत का निर्यात बिट्रिश से अधिक जापान को है. भारत के कपास उत्पादन के खरीदारों की सूची में अंग्रेजी बाजार छठे स्थान पर है. लंकाशायर के करघों के लिए सूत की आपूर्ति अमेरिका और सूडान से की जाती है. ब्रिटेन में भारतीय कपास का उपयोग मुख्य रूप से लैंप की बत्ती बनाने, पोंछा और निम्न श्रेणी के कपड़े बनाने में होता है. अच्छा होता कि मेयो के आलोचक इंग्लेंड और भारत के तत्कालीन आर्थिक संबंधों पर भी विचार करते. लेकिन अर्से तक दादा भाई नौरोजी की पुस्तक ‘पावर्टी इन ब्रिटिश इंडिया’ को ही अंतिम और प्रामाणिक मानते रहना बताता है कि उनके पास मेयो के इन तर्कों का कोई उत्तर नहीं था. मार्के की बात यह भी कि यदि आज निर्यात को आयात से बेहतर माना जाता है तो उन दिनों के निर्यात पर सवाल कैसे उठाए जा सकते हैं? आखिर उन दिनों के भारत के निर्यात बाजार पर अंग्रेजी व्यापारियों के साथ-साथ भारतीय उद्योगपतियों की भी बराबर की साझेदारी थी.

पुस्तक में मेयो ने स्त्रियों और दलितों के अलावा ‘ब्राह्मण’, ‘भारत के राजे-महाराजे’, ‘पवित्र गाय’, अशिक्षा की भयावह स्थिति सहित, स्वास्थ्य सेवा के नाम पर पनप रहे नीम-हकीमों पर विस्तृत और तथ्यपरक टिप्पणियां की हैं. जिससे यह पुस्तक उस समय के भारतीय समाज का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज बन जाती है. उचित तो यही होता कि पुस्तक की तीखी आलोचना करने, उससे तिलमिलाने के बजाए उसे आत्मावलोकन का जरिया बनाया जाता. भारतीय सभ्यता और परंपरा के नाम पर जो सहस्रों अंधकूप बने हैं, उन्हें पाटने की कोशिश की जाती, तब शायद हम मिस मेयो की पुस्तक का सही प्रत्युत्तर दे पाते. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. नए अनुवाद के साथ भी यदि यह संभावना बनती है, तब लगेगा कि आधुनिक भारतीय समाज न केवल अपनी कमजोरियों पर खरी-खरी सुनने का साहस रखता है, अपितु उसमें आत्मावलोकन और आत्मपरिष्करण का साहस भी है.

अंत में केवल यह बात कि इस पुस्तक पर कोई टिप्पणी या समीक्षा उसके सत्व को बाहर नहीं ला सकती. उसके लिए अच्छा यही होगा कि पाठक पुस्तक को स्वयं पढ़ें, समझें और तब सही-गलत जो भी लगे, उसके अनुसार जवाब दें या आत्मसुधार की ओर अग्रसर हों. कंवल भारती ने कैथरीन मेयो की बहुचर्चित पुस्तक ‘मदर इंडिया’ को हिंदी में लाकर, वर्षों पहले छूट गई बहस की नए सिरे से शुरुआत करने का काम किया है. इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं.

ओमप्रकाश कश्यप