न्याय, न्याय की परंपरा और समाज : दो

सोशल कांट्रेक्ट (सामाजिक संविदा) की अवधारणा

न्याय के संदर्भ में हॉब्स के विचारों को हम प्राचीन धर्माधारित विधानों तथा आधुनिक गणतांत्रिक राजनीतिक दर्शन के संधिस्थल के रूप में भी देख सकते हैं. हॉब्स ने परिवर्ती विचारकों की पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया. ‘सामाजिक संविदा’(सोशल कांट्रेक्ट) का उसका विचार जान लॉक, रूसो, डेविड ह्यूम, इमानुएल कांट, जैरमी बैंथम आदि के राजनीतिक दर्शन की पृष्ठभूमि बना. अपने युगांतरकारी लेखन द्वारा उसने परंपरा एवं आधुनिकता के बीच तालमेल स्थापित करने की कोशिश की. फलस्वरूप न्यायव्यवस्था जो पहले नियतिवादी थी, उसे मानवीय स्वतंत्रता, समानता एवं अधिकारिता के संदर्भ में देखापरखा जाने लगा. वह बड़ा परिवर्तन था, जिससे आधुनिक गणतांत्रिक राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ. ध्यातव्य है कि ‘सामाजिक संविदा’ यानी सामाजिक करारनामे का विचार हॉब्स की मौलिक स्थापना नहीं थी. इसके बीजतत्व भारतीय चिंतन परंपरा सहित प्लेटो और अरस्तु के दर्शन में पहले से ही मौजूद थे. सभी ने नागरिक, समाज और राज्य के मध्य सामंजस्य बनाए रखने पर जोर दिया था. यहां तक कि राजा की नियुक्ति भी निःशर्त न थी. उसके पीछे सामाजिक सोद्देश्यता और करार की भावना आरंभ से ही जुड़ी थी. आरंभिक समाजों में राजा मनोनीत किया जाता था. उसका प्रथम कर्तव्य होता था, प्रजा हित को अपना हित समझकर कार्य करना. अथर्ववेद में कहा गया है—

प्रजा के सुख में ही राजा का सुख निहित है। प्रजा के कल्याण में ही राजा का कल्याण संभव है।’1

बीच में शताब्दियों लंबा दौर ऐसा भी आया जब ‘राजा’ नामक सत्ता को पूर्णतः दैवीय मान लिया गया. व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा विकसित हुई तो भौतिक संपदा की भांति राज्य को भी उत्तराधिकार में सौंपा जाने लगा. अयोग्य प्रतिनिधियों के कंधों पर शासनभार आने से राजनीति का स्तर गिरा. अनुबंध के आधार पर राजन्य की स्थापना के संबंध में प्राप्त प्राचीन उल्लेखों के अध्ययन से पता चलता है कि सभ्यता के आरंभिक दिनों में ‘राजा’ कोई विशेषाधिकार संपन्न संस्था नहीं थी. उसकी स्वीकार्यता लोगों की सहमति पर निर्भर थी. उसे वही अधिकार प्राप्त थे, जो कार्यों के निष्पादन के लिए आवश्यक माने जाते थे. उस विधान में समूह या समाज अपने निर्वाचित प्रतिनिधि से अधिक शक्तिशाली होता था. यह व्यवस्था हजारों साल तक कायम रही. इसमें बदलाव धर्म के आने के बाद उस समय सामने आया, जब राज्याश्रय में पलने वाले पुरोहितों और पंडितों ने निहित स्वार्थ के लिए राजा को पृथ्वी का स्वामी और सर्वेसर्वा घोषित करना आरंभ किया. धीरेधीरे धर्म, राजनीति और अर्थसत्ता का ऐसा गठजोड़ बनता गया, जो न केवल बुद्धि बल्कि संसाधनों के मामले में भी आगे था. उसने जनसाधारण को एकदम किनारे कर दिया. इसमें सबसे बड़ी भूमिका धर्म की रही.

राजा की नियुक्ति के संबंध में प्राचीनतम उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण(1/14) में मिलता है. उसके अनुसार देवताओं और राक्षसों का युद्ध चल रहा था. देवता पराजय की कगार पर थे. उस समय देवताओं ने विचार किया कि एक राजा होना चाहिए, जो उनकी सेना का नेतृत्व कर सके. तब ‘इंद्र’ को देवसम्राट मनोनीत किया गया. इस कहानी के अनुसार राजा नामक संस्था की उत्पत्ति सैन्य उद्देश्य से हुई. इससे मिलतीजुलती कहानी आगे चलकर ‘तैत्तीरीय उपनिषद’ में मिलती है. तदनुसार देवासुर संग्राम में पराजय सम्मुख देख देवताओं ने मदद के लिए प्रजापति से प्रार्थना की. तब उन्होंने प्रसन्न होकर अपने पुत्र इंद्र को देवताओं की मदद के लिए भेजा. प्रजापति के अनुसार, ‘इंद्र अपेक्षित कार्य के निष्पादन हेतु सर्वाधिक सक्षम, शक्तिशाली, स्वस्थ, सर्वोत्तम तथा सभी तरह से पूर्ण था.’ ‘शुक्रनीतिसारदोनों की अपेक्षा काफी बाद की रचना है. उसमें लिखा है कि ‘जब सभी भयाकुल होकर इधरउधर दौड़ने लगे, जब विश्व में कोई किसी का स्वामी नहीं था, तब विधाता की ओर से नृप की नियुक्ति की गई.’(शुक्रनीतिसार,1/71). इस तरह राजा धरती पर विधाता का प्रतिनिधि बना. कालांतर में उसके फैसलों को देवाज्ञा माना जाने लगा. तीसरी कहानी का कथानक कुछ अलग अवश्य लगता हो, मगर संकेत उसका भी यही है कि राजा समाज की राजनीतिक और सामरिक आवश्यकता है. इसलिए शारीरिक और मानसिक सर्वश्रेष्ठता को उसके चयन का आधार बनाया गया. बिहार के गया, सोनपुर आदि क्षेत्रों के उत्खनन से ज्ञात होता है कि भारत में कृषिकर्म की शुरुआत लगभग दस हजार वर्ष पहले हो चुकी थी. हड़प्पा सभ्यता के अवशेष बताते हैं कि उस क्षेत्र में ईसा से 1500-3000 वर्ष पहले तक समृद्ध नागरी संस्कृति विकसित हो चुकी थी, जिनके व्यापारिक रिश्ते दूरदराज की सभ्यताओं से थे. समूह की एकता और नेतृत्व हेतु सम्राट की नियुक्ति की शुरुआत का वही दौर रहा होगा. उसके सापेक्ष ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ आदि ऊपरोल्लिखित कृतियां बहुत बाद की रचना हैं. जाहिर है इनकी रचना उस समय हुई जब देश में राज्य बड़ी और केंद्रीय सत्ता के रूप में ढल चुका था. वर्णव्यवस्था रूढ़ होकर जाति में ढलने लगी थी. आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए तत्कालीन बुद्धिजीवी वर्ग उनके सत्ताधिकार को वैध ठहराने में लगा था. राजा की नियुक्ति को देवताओं का निर्णय घोषित करना, इसी दिशा का संकेतक है. वे अपने समय की साहित्यिक रचनाएं रही होंगी, जिनके रचनाकर अपने अतीत से प्रेरणा लेकर उन्हें गढ़ रहे थे. आगे चलकर जब मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासाएं धर्म और तज्जनित कर्मकांडों के रूप में रूढ़ होने लगीं, तब उन्हें धर्मशास्त्र का दर्जा दे दिया गया.

विशुद्ध लौकिक उद्देश्य के लिए जनता द्वारा राजा के चयन का उल्लेख ऋग्वेद के अलावा पुराणों में भी मौजूद है. जनसहमति के आधार पर निर्वाचित पहले सम्राट की कहानी हमें उस कालखंड तक ले जाती है जब पशुआधारित अर्थव्यवस्था, कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में ढलने को उत्सुक थी. खेती के प्रति रुझान में तेजी आ रही थी. हालांकि व्यक्तिगत भूसंपत्ति की अवधारणा तब तक नहीं पनपी थी. सम्मिलित खेती में कृषि उत्पाद पर सामूहिक अधिकार माना जाता था. धीरेधीरे यह समस्या सामने आने लगी कि अनाज का समूह के बीच बंटवारा कैसे किया जाए? उसका आधार क्या हो? क्योंकि कुछ लोग जहां आवश्यकता से अधिक अनाज एकत्र कर लेते थे, वहीं कुछ ऐसे भी होते थे जिन्हें अपनी आवश्यकता के अनुसार अन्न मिल ही नहीं पाता था. उनके बीच अनाज को लेकर परस्पर छीनाझपटी होती थी. बंटवारे के दौरान विवाद उत्पन्न होना बहुत सामान्य बात थी. समस्या के समाधान हेतु ऐसे व्यक्ति के चयन का निश्चय किया गया, जो बुद्धिमान होने के साथसाथ निष्पक्ष और निर्विवाद भी हो. जो कुशलतापूर्वक सदस्यों के बीच अनाज का बंटवारा कर सके. बदले में उस व्यक्ति को कृषि उत्पाद का एक हिस्सा देने का प्रावधान किया गया, जो बहुत कारगर सिद्ध हुआ. लेकिन गणप्रमुख या विश के मुखिया की सफलता तभी तक संभव थी, जब लोगों के पास उनकी जरूरत लायक अनाज मौजूद हों. किसी कारण यदि भरपूर अनाज उत्पन्न न हो, तब लोगों के मन में क्षोभ उभरना स्वाभाविक था. कुछ ऐसा ही सम्राट वेन के प्रकरण में हुआ था. वेन की कथा2 विष्णु पुराण, भागवत पुराण तथा पदम पुराण में आती है, हालांकि उनमें प्रक्षेपण एवं रूपांतरण की बहुत अधिक संभावना है. वेन के बारे में अलगअलग जगह मौजूद कहानियों में अंतर है. तथापि सभी जगह उसे जनता द्वारा पहला निर्वाचित राजा माना गया है. सम्राट मनोनीत होने के पश्चात वेन ने कृषि को बढ़ावा देने के लिए यथोचित उपाय किए. लेकिन परिस्थितियों ने ऐसी करवट ली कि जिन लोगों ने उसको अपना राजा घोषित किया था, उन्हीं के हाथों उसका अंत भी हुआ.

पुराणों में पृथु का मुक्त गुणगान है. पृथु वें का पुत्र था. पिता की हत्या के बाद वह समझ चुका था कि ऋषिगणों को नाराज करके राजकर्म करना आसान नहीं है. अतः राज्याभिषेक के समय ही उसने ऋषिगणों को आश्वस्त करते हुए कहा—‘मैं स्वधर्म, आश्रमधर्म एवं वर्णाश्रम धर्म की स्थापना करूंगा तथा राजदंड द्वारा उन्हें कार्यान्वित करूंगा.’3 वह जनतंत्र की पहली पराजय और पुरोहितवाद की पहली बड़ी जीत थी. पृथु ने ब्राह्मणों को सभी राज्यादेशों से ऊपर रखने की घोषणा की थी. कुल मिलाकर उसने वही किया था, जो ऋषिगण चाहते थे. माना जाता है कि पृथ्वी का नामकरण उसी के नाम पर पड़ा. इन प्रसंगों से यह संकेत भी मिलता है कि प्राचीनकाल में राजा का चयन केवल दैवी प्रेरणा या नियुक्ति तक सीमित नहीं था.

राज्य की उत्पत्ति को लेकर अनुबंध का सिद्धांत बौद्ध ग्रंथों में भी मौजूद है. ‘दीर्घनिकाय’, ‘महावस्तु’ आदि बौद्ध ग्रंथ राजा की नियुक्ति से संबंधित अनुबंध के सिद्धांत की पुष्टि करते हैं. ‘दीर्घनिकाय’ में राजा की नियुक्ति को लेकर एक निर्देश प्राप्त होता है. उसमें मनोनीत राजा अपनी प्रजा के साथ करार करता है कि वह केवल ‘वहीं पर क्रोध करेगा, जहां उसे करना चाहिए. उसी की भर्त्सना करेगा, जो भर्त्सनायोग्य है. उसी को देश निकाला देगा, जिसे देश निकाला मिलना चाहिए.’4 बौद्ध समर्थित राजदर्शन लोककल्याण के आदर्श के इर्दगिर्द घूमता है. ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में राजा के चरित्र में ओज और साहस जैसे गुणों को महत्त्वपूर्ण बताया गया है. वहीं ‘दीर्घनिकाय’ में राजा की लोकप्रियता, सौंदर्यबोध, बुद्धिमत्ता आदि को उसका प्रमुख गुण माना गया है. राजा पर प्रजा के खेतों, धनधान्य और पशुओं की सुरक्षा का दायित्व होता था. बदले में प्रजा उसे अपनी आय का एक हिस्सा देने का वचन देती थी. ‘महावस्तु’, दीर्घनिकाय से लगभग तीन शताब्दी बाद की रचना है. लौकिक संस्कृत में लिखा गया यह ग्रंथ अपने भीतर बौद्ध दर्शन की अनेक आदर्श स्थापनाओं को समेटे है. ‘दीर्घनिकाय’ की भांति ‘महावस्तु’ भी राजा की नियुक्ति को लेकर ‘आपसी सहमति’ के लौकिक सिद्धांत की पुष्टि करता है—

सृष्टि के आरंभ में सभी प्राणी एक दिव्य स्थल पर निवास करते थे. वे सुगंधित का आनंद लेते. सुरम्य धरा पर मग्नमन नृत्य करते. उस समय उन्हें न तो भोजन की आवश्यकता थी, न वस्त्रों की, न निजी संपत्ति थी, न सरकार, न ही किसी प्रकार का कानून. और तब सृष्टि का पतन आरंभ हुआ. मनुष्य उस पुनीत लोक से पतित होकर पृथ्वी पर आ गिरा. मनुष्य का पतन आरंभ हो चुका था. अब उसे भोजन और आवास की आवश्यकता महसूस हुई. मनुष्य अपनी आरंभिक पवित्रता को खो चुका था. वर्णव्यवस्था का आरंभ हुआ और लोगों ने एक दूसरे के साथ अनुबंध के आधार पर रहना आरंभ किया. परिवार और निजी संपत्ति उस अनुबंध का हिस्सा बने. इसी के साथ चोरी, हत्या, लूटमार, परस्त्रीगमन जैसे अपराध होने लगे. समस्या से मुक्ति पाने के लिए सब मनुष्य एक बार एकत्र हुए, उन्होंने मिलजुलकर एक राजा चुना, जो उनकी फसल का वाजिब हिस्सा उन्हें बांट सके. उस चयन को उन्होंने ‘अनेक द्वारा एक का चयन’ यानी ‘महासम्मत’ की संज्ञा दी. उस व्यक्ति से अनेक लोगों को खुशी प्राप्त हुई थी, इसलिए उन्होंने उसे ‘राजा’ कहना आरंभ कर दिया. उसी से ‘राजनीति’ का विकास हुआ.’5

उपर्युक्त उद्धरणों से वैदिक परंपरा और बौद्ध परंपरा के बीच राजा की नियुक्ति संबंधी अंतर को समझा जा सकता है. वैदिक परंपरा में राजा निर्वाचित न होकर, कभी धर्म तो कभी देवताओं के नाम पर ऊपर से थोपा जाता है. राजपद की आवश्यकता विशुद्ध राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पड़ती है. वह आर्यों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं का संकेतक है. बौद्ध परंपरा में राजा की नियुक्ति का उद्देश्य उन लौकिक कर्तव्यों की पूर्ति करना है, जो समाज में सुख, समृद्धि और शांति की स्थापना के लिए आवश्यक माने जाते हैं. दोनों ही मान्यताओं में इतना स्पष्ट है कि राजा के रूप में मनोनीत व्यक्ति सत्यनिष्ठा, विश्वसनीयता और नेतृत्व के विशिष्ट गुणों से संपन्न होता था. उसका मुख्य कर्तव्य लोककल्याण के निमित्त उन कर्तव्यों का निष्पादन करना था, जो उसकी प्रजा के हितों के लिए आवश्यक हों. यह बात अलग है कि खुद को ईश्वरीय प्रतिनिधि घोषित करने वाला व्यक्ति अवसर आने पर स्वयं को प्रजा से बहुत ऊपर, यहां तक कि ईश्वरतुल्य समझने लगता था. इससे राजनीति में विकार आना स्वाभाविक था.

सुकरात, प्लेटो, अरस्तु आदि विचारकों ने राजसत्ता एवं समाज के कर्तव्यों एवं दायित्वों में तालमेल बनाए रखने के लिए न्यूनतम अनुबंध का समर्थन किया था. प्लेटो ने तो दार्शनिक सम्राट की परिकल्पना पेश की थी. उसका विचार था कि केवल दार्शनिक ही सत्ता के अहंकार, विलासिता तथा अन्य विकारों से स्वयं को बचा सकता है. अपने ग्रंथ ‘रिपब्लिक’ और लॉज में राज्य एवं समाज के कर्तव्यों की विस्तृत व्याख्या करते हुए उसने आदर्श राज्य की रूपरेखा प्रस्तुत की थी. अरस्तु राज्य के उच्च नैतिक स्तर को बनाए रखने का समर्थक था. उनके कुछ शताब्दी पश्चात पश्चिम की वैचारिक चेतना अपना तेज खोने लगी थी. मध्यकाल तक वहां भी धर्मसत्ता और राजसत्ता का ऐसा गठजोड़ बन चुका था, जिसमें जनसाधारण की नियति केवल आदेशानुपालन करना तथा परंपराओं का बोझ ढोनाभर रह गया. इंग्लेंड में जेम्स प्रथम ने राजा को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि और सर्वेसर्वा माना. उसका मानना था कि राज्य और समाज दोनों के लिए राजा का होना अपरिहार्य है. बगैर राजा के न तो राज्य चल सकता है न ही समाज—‘राजा के बिना नागरिक समाज की कोई गति नहीं है. बिना नेतृत्व के समाज बुद्धिहीन भीड़ बनकर रह जाता है.’ राजा को अतिमानवीय सत्ता मानते हुए जेम्स प्रथम ने उसके अधिकारों और कर्तव्यों को राज्य की समीक्षा से ऊपर माना था. 1616 ईस्वी में न्यायाधीशों की बैठक को संबोधित करते समय उसने कहा था—‘राजा की शक्ति से संबंधित बातों पर चर्चा करना विधिसंगत नहीं है. ऐसा करना राजा की दुर्बलता को दर्शाना तथा उसके प्रति अपने सम्मान भाव को नष्ट करने जैसा होगा. राजा ईश्वर के सिंहासन पर बैठता है.’

जाहिर है समाज में राजा का स्थान ऊंचा रखा गया है. उसकी इच्छा की अवहेलना या अपमान अपराध की श्रेणी में आता था और उसके लिए दंड का प्रावधान था. राजा को ईश्वरीय प्रतिनिधि घोषित करने का ध्येय समाज में उसके निर्णयों के प्रति सम्मानभाव पैदा करने तक सीमित न था. किसी एक या कुछ लोगों को सामान्य से बहुत ऊंचा उठा देने की परिणति दूसरों को, खासकर उन्हें जो सत्ताकेंद्र से दूर हैं, स्वतः ही नीचे ले आती है. यह अंतर सत्ताकेंद्र में दूरी के अनुपात में बढ़ता ही जाता है. उत्तराधिकार प्रणाली का लाभ उठाते हुए शिखर पर यदि ऐसा व्यक्ति आ बैठे जो औसत से बहुत कम प्रतिभाशाली और स्वार्थी हो तो इस प्रणाली के बहुत भयावह परिणाम निकलते हैं. इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब केंद्रीय नेतृत्व की अकुशलता और अदूरदर्शिता का नुकसान जनसाधारण को उठाना पड़ा है. कुल मिलाकर वह निषेधात्मक व्यवस्था थी. उसका मानना था कि बगैर दंड के शांति और सुव्यवस्था असंभव है. दूसरे शब्दों में प्राचीन विधिसंहिता का गठन, समाज के बड़े वर्ग के प्रति अविश्वास की भावना के साथ हुआ था. उसकी कमजोरी थी कि वह समाज को शासक एवं शासित में बांट देती थी, जबकि न्याय की आधुनिक अवधारणा में मानवीय स्वतंत्रता, समानता और सुरक्षा अनिवार्य शर्तें हैं.

राजतंत्र, भले ही उसके शिखर पर मौजूद व्यक्ति चाहे जितना उदार एवं मानवमूल्यों को समर्पित क्यों न हो, कुल मिलाकर व्यक्तिवादी संस्था है. वह एक व्यक्ति को सर्वेसर्वा मानकर काम करती है. वहां शक्तियां किसी एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के हाथों में सीमित रहती हैं, जिसमें बाकी लोग निर्णय प्रक्रिया से कट जाते हैं. ऐसे में यदि राजपद पर कोई कुटिल और स्वार्थी व्यक्ति मौजूद हो तो जनसाधारण एकदम अलगथलग पड़ जाता है. राजतंत्र में समानता और सभी की स्वतंत्रता जैसी बातों को हवाई माना जाता है. उसके अनुसार मनुष्य जन्म से असमान होते हैं. उनमें से कुछ श्रेष्ठ और सर्वगुण संपन्न होते हैं, जबकि कुछ निष्कृष्ट और अल्प बुद्धि संपन्न. जो निष्कृष्ट अथवा अल्प बुद्धिमान हैं, उन्हें मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है. इसके लिए ईश्वर कुछ व्यक्तियों को शासन का अधिकार देकर पृथ्वी पर भेजता है. समाज की एकता एवं अखंडता के लिए बाकी लोगों द्वारा उसके आदेश का पालन करना, ईश्वरीय आज्ञा होती है. राजा ईश्वर के नाम पर राज्य करता है. इस कार्य में धर्म उसके मार्गदर्शन की जिम्मेदारी निभाता है. धार्मिक शक्तियां एक ओर तो राजा के अतिरिक्त अधिकारसंपन्न होने का समर्थन करती हैं. दूसरी ओर यह दावा भी किया जाता है कि ईश्वर की निगाह में सभी बराबर हैं. उस समय वे प्रकृति और ईश्वर में भेद नहीं कर पातीं. जबकि प्रकृति की विशेषता है कि वह भेद नहीं करती. सभी के साथ समानतापूर्ण एवं पारदर्शी व्यवहार करती है. इसके बावजूद वे अवसर मिलते ही न्याय प्रदाता शक्ति के रूप में ईश्वर को बीच में ले आते हैं. उस समय प्रकृति को ईश्वर में समाहित मान लिया जाता है, जो न तो दृश्यमान है, न ही प्रामाणिक. परिणामस्वरूप मूर्त्त सत्य अमूर्त्तन में ढल जाता है. जनसाधारण को भरमाने के लिए सहज प्राकृतिक घटनाओं की मनमानी और स्वार्थपूर्ण व्याख्याएं चलती रहती हैं. जनसाधारण उनके वितंडा में उलझकर रह जाता है. इससे धर्माधारित विधानों की कमजोरी को समझा जा सकता है. विभिन्न किस्म की आस्थाओं और वितंडाओं में उलझा व्यक्ति यह समझ ही नहीं पाता कि ईश्वर की निगाह में यदि सब बराबर हैं तो समाज में भीषण असमानता क्यों है? किसी व्यक्ति के पास दूसरे को दंडित करने का अधिकार कहां से आता है? और शिखर पर विराजमान, खुद को स्वयंभू, सर्वशक्तिमान, सर्वोपरि और निरंकुश समझने वाला ईश्वर समानता का समर्थन भला कैसे कर सकता है. लोगों को उलझाने के लिए प्रायः वे कहते हैं कि सबकुछ नियतिबद्ध होता है. आदमी के बस के बाहर. कठपुतली की भांति मनुष्य की नियति उसको बस सहते जाना है.

यदि यह मान लिया जाए कि समाज को व्यवस्थित रखने के लिए राजा का होना आवश्यक है, ईश्वर स्वयं उसका विधान रचता है, तो राजा के औचित्य पर सवाल नहीं उठाए जा सकते. बावजूद इसके यहां एक प्रश्न अनायास सामने आता है कि यदि सभी कुछ पूर्वनिर्धारित और नियतिबद्ध है तो दोषी को, उसका अपराध चाहे जो भी हो, दंडित करने का औचित्य नहीं रह जाता. इस विचार के साथ ही न्यायआधारित समाज की संकल्पना भी सवालों के घेरे में आ जाती है. चूंकि धार्मिक स्थापनाएं आस्था और विश्वास पर चलती हैं, इसलिए वहां तर्क की कोई गुंजाइश नहीं रहती. बल्कि कई बार तो संदेह करना भी कुफ्र मान लिया जाता है. उसकी खूबी भी यही है कि अपनी सहजता और किस्सेकहानियों की मदद द्वारा वह बहुत आसानी से लोकसंस्कृति का हिस्सा बन जाती है. मनुष्य उन्हें इतनी गहराई से आत्मसात् करता है कि उनपर किसी भी प्रकार के संदेह, शंका आदि का विचार उसके दिमाग में नहीं आता. लोक की जुबान पर चढ़ी ये कहानियां शिखर पर मौजूद लोगों तथा बेमेलकारी विचारों का गुणगान करती हैं. जनसाधारण अपने रोजमर्रा के कार्यों के संपादन हेतु इन्हीं से प्रेरणाएं लेता हैं. सामान्य परिस्थितियों में इससे कोई अंतर नहीं पड़ता. लेकिन यदि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की चुनौती का मसला हो या ऐसा ही कोई दूसरा मसला, जिसमें नागरिकअस्मिता दाव पर लगी हो, तथा उसके समाधान के लिए तर्क और विश्वसनीयता जरूरी आन पड़े—वहां यह व्यवस्था असफल होती जाती है.

यह कहना तो ज्यादती होगी कि समाज में धर्म की भूमिका हमेशा नकारात्मक रही है. संगठित धर्म भले ही दोढाई हजार वर्ष पुराने हों, मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासाएं उसी समय से उसके साथ जुड़ी हैं, जब उसने सोचनासमझना आरंभ किया था. आध्यात्मिक जिज्ञासाओं को स्थायी रूप देने की कोशिश के फलस्वरूप ही धर्म का विकास हुआ था. बाद में आध्यामिक शक्तियों के प्रति मनुष्य के सम्मानभाव एवं डर को देखते हुए उनका उपयोग समाज को अनुशासित करने के लिए किया जाने लगा. उससे एक वर्ग ऐसा पनपा, जिसने ईश्वर को जाननेसमझने से अधिक उसके महिमामंडन पर जोर दिया. उससे समाजीकरण के साथसाथ विकसित होते नैतिक मूल्यों की व्याख्या भी धर्म और राजसत्ता के स्वार्थानुरूप की जाने लगी. सामंती संस्कार और जीवन की बढ़ती चुनौतियों के बीच लोगों को यह सहज भी लगा. कालांतर में नैतिक मूल्य और आध्यात्मिक विश्वास एकदूसरे में इतने गड्डमड्ड हो गए कि धर्म और नैतिकता को परस्पर पर्याय मान लिया गया. वह संस्कृति और विकास दोनों की दृष्टि से प्रतिगामी चलन था. अध्यात्म एवं संस्कृति दोनों सतत नवोन्मेषी और पुरोगामी रहें, तभी उनकी सार्थकता है. आस्था और विश्वास में ढल जाने से उनकी स्वाभाविक वृद्धि रुक जाती है. यही हाल नैतिकता का भी है. मनुष्य नैतिक मूल्यों से प्रेरित होता है. उनसे अपनी सभ्यता और संस्कृति का अलंकरण करता है. लेकिन नैतिक मूल्य, कुछ प्राकृतिक मूल्यों को छोड़कर सतत परिवर्तनशील रहते हैं. इसी में उनकी गरिमा है. धर्म का हिस्सा बन जाने के बाद मनुष्य के विवेकीकरण की प्रक्रिया अवरुद्ध होने लगती है. परिणामस्वरूप समाजीकरण की प्रक्रिया में भी अवमंदन का दौर शुरू हो जाता है. धर्म की इस दुर्बलता को सहस्राब्दियों पहले समझ लिया गया था. भारत में मक्खलि घोषाल, अजित केशकंबलि, कौत्स ने धर्म को गुरुडम और पाखंड में ढालने के और पुरोहितवर्ग की जमकर आलोचना की थी. वहीं बुद्ध ने धर्म के नाम पर चलने वाले कर्मकांडों एवं आडंबरों का तर्कसम्मत प्रतिकार किया. लेकिन वास्तविक सफलता 15वीं शताब्दी के बाद, उस समय मिलनी शुरू हुई जब प्रौद्योगिकीकरण ने वैकल्पिक अर्थव्यवस्था की राह प्रशस्त की. उससे जनसाधारण के लिए सामंतवाद के चंगुल से बाहर निकलने का मार्ग प्रशस्त हुआ. मशीनीकरण से नए मध्यवर्ग का विकास हुआ. कालांतर में उसने अपने बुद्धिजीवी पैदा किए, जिन्होंने असमानताकारी व्यवस्थाओं के विरोध में बौद्धिक एवं राजनीतिक आंदोलनों का सूत्रपात किया.

हॉब्स, लॉक, रूसो आदि प्राचीन विचारकों का योगदान यह भी है कि उन्होंने न्याय और सुशासन जैसी व्यवस्थाओं को धर्म और सामंतवाद के चंगुल से निकालकर तर्कसम्मत बनाने का काम किया. उसके फलस्वरूप लोगों ने प्रश्न करना सीखा. हॉब्स यद्यपि राजतंत्र का समर्थक था. लेकिन वह उसमें सुधार चाहता था. उसने राजा के दैवी अधिकारों का निषेध किया है. इस तरह वह जेम्स प्रथम, राबर्ट फिल्मर आदि की उस विचारधारा को खारिज करता है, जो उस समय प्रचलित थी. जेम्स प्रथम की भांति फिल्मर का भी विश्वास था कि राजा की सत्ता तथा उसकी शक्तियां ईश्वरप्रदत्त होती हैं. कि राजा का आदेश और उसकी इच्छा अपने आप में स्वतः प्रमाण है. फिल्मर राजनीति को धर्म में समाहित कर देता है. समकालीन उदारवादियों की भांति हॉब्स यह मानने को तैयार नहीं था कि राज्य की शक्तियां सम्राट और सांसदों के बीच विकेंद्रीकृत होनी चाहिए. इसके समानांतर हॉब्स जो वैचारिकी प्रस्तुत करता है, वह अपने समय का कदाचित सबसे क्रांतिकारी सोच था. वह जोर देकर कहता है कि राज्य की शक्तियां तथा उसके संकल्प उसकी सदस्य इकाइयों की निजी इच्छाओं और आकांक्षाओं पर निर्भर करते हैं. समाज में किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरों पर शासन करे. उसकी इच्छाओं का दमन कर अपनी इच्छाएं थोपे. हॉब्स नागरिकों को अधिकार देता है कि अपने सुख, स्वतंत्रता और समानता की रक्षा के लिए वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं. इस तरह नागरिकों की स्वतंत्रता एवं सुरक्षा उसकी प्राथमिकता है, लेकिन स्वतंत्रता का आशय कुछ भी करने की स्वच्छंदता नहीं है. आधुनिक विचारकों की भांति हॉब्स का भी मानना था व्यक्ति की आजादी अन्य नागरिकों के सुख और सुविधा पर निर्भर करती है. समाज में किसी को भी यह अधिकार नहीं दिया जा सकता कि अपने सुख के लिए वह दूसरों के हितों की बलि चढ़ाए अथवा उन्हें किसी भी प्रकार से कष्ट दे. इस परिस्थिति में हॉब्स राज्य के समर्थन में खड़ा नजर आता है. समाज में अनुशासन बनाए रखने के लिए वह राज्य को असीमित अधिकार दे देता है. इस तरह हम उसके विचारों में परंपरा और आधुनिकता के बीच झूलता हुआ पाते हैं. असल में वह विचारों के इतिहास का वह क्रांतिकारी दौर है, जब पुराने विचार अप्रासंगिक लगने लगते हैं, जबकि नए विचार केंद्र में आने के संघर्षरत होते हैं. वैचारिक संवेदनशीलता का परिचय देता हुआ हॉब्स दोनों के बीच संतुलन बिठाने की सफल कोशिश करता है, और अपने उत्तरवर्त्ती विचारकों के लिए मार्गदर्शक का कार्य करता है.

हॉब्स के पश्चात न्याय और सामाजिक समानता के ध्येय को लेकर जिन विचारकों का उल्लेखनीय योगदान है, उनमें जान लॉक, रूसो, डेविड ह्यूम, इमानुएल कांट, बैंथम, जान रॉल्स आदि का नाम लिया जा सकता है. इनमें से लॉक एवं रूसो ने न्याय को लेकर स्वतंत्र रूप से विचार नहीं किया, उनका मुख्य योगदान राजनीतिक दर्शन के क्षेत्र में है. लेकिन जिस आग्रह और तर्कसम्मत ढंग से वे स्वतंत्रता और समानतासंबंधी मुद्दों को उठाते हैं, और विशेषकर मानवस्वातंत्र्य के लिए जमीन तैयार करते हैं, आगे चलकर उन्हीं से सामाजिक न्याय की नई संकल्पनाएं जन्म लेती हैं. मसलन आदर्श राज्य को कैसा होना चाहिए? आदर्श राज्य में नागरिकों के क्या कर्तव्य हैं? समानता, सुरक्षा और स्वतंत्रता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राजनीति का स्वरूप कैसा हो? इन सब विषयों पर उन्होंने विस्तार से लिखा है. कहने की आवश्यकता नहीं कि आधुनिक राजनीति पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा है. कालांतर में उन्हीं की प्रेरणा से आधुनिक विधिसंहिता के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ. इस आधार पर लॉक एवं रूसो को युग प्रवर्त्तक दार्शनिकों की श्रेणी में कहा जा सकता है. जान लॉक(1632—1704) अनुभववादी दार्शनिक था. मानता था कि मनुष्य अपने अनुभवों से सीखता है तथा अपने विवेक द्वारा ज्ञान को आगे बढ़ाता है. प्राकृतिक रूप से सभी मनुष्य समान हैं. जन्म के आधार पर न तो किसी को शासक घोषित किया जा सकता है, न ही यह मान लेना चाहिए कि कोई व्यक्ति केवल शासित होने के लिए जन्मा है. प्रकृति सभी प्राणियों के साथ समभाव का प्रदर्शन करती है. स्वतंत्रता स्वयं प्राकृतिक देन है. आदर्श राज्य वही है जो मनुष्य की अधिकतम स्वतंत्रता का संरक्षण करने में सक्षम हो. जिसमें नागरिक अपनी अधिकतम सुख और सुरक्षा का अनुभव कर सकें. इसके लिए व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की पूरीपूरी स्वतंत्रता आवश्यक है. इसका आशय यह नहीं है कि प्राकृतिक विधान सभी को सभी कुछ करने की आजादी देता है. न ही किसी नागरिक को यह अधिकार होता है कि अपने सुख के लिए ऐसे कार्य करे, जिससे दूसरों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप होता हो. आदर्श राज्य का अभिप्राय ऐसे भूराजनीतिक क्षेत्र से है जहां व्यक्ति को वह सब कुछ करने की स्वतंत्रता हो, जिसमें वह दूसरे के सुख एवं स्वतंत्रता को बाधित किए बिना अपने सुख और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अधिकतम स्तर तक कर सके. लॉक मानता था कि मनुष्य मूलतः स्वार्थी होता है. इसलिए उसने किसी कदम की सीधी व्याख्या संभव नहीं है. प्रकृति हालांकि सभी प्राणियों के साथ समानता का भाव रखती है, लेकिन उन लोगों के सुधार हेतु जो स्वार्थवश प्राकृतिक नियमों की अवहेलना करते हैं, कोई तर्कसम्मत व्यवस्था उसके पास नहीं होती. प्राकृतिक न्याय अकेले व्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करता है. किंतु समाज में रहते हुए अधिकतम स्वतंत्रता के भोग की उसमें कोई व्यवस्था नहीं होती. यही कारण है कि प्राचीन न्यायसंहिताओं में जो प्राकृतिक न्याय के अपेक्षाकृत करीब थीं, मृत्युदंड और अंगभंग जैसी सजाओं को सामान्य समझा जाता था.

लॉक के अनुसार प्राकृतिक न्याय ईश्वरीय भाव से प्रेरित होता है. इसलिए उसमें प्राणिमात्र के प्रति समानता और स्वतंत्रता का भाव होता है. यदि किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता अथवा अस्मिता पर संकट आ पड़े तो ईश्वरीय न्यायव्यवस्था चरमराने लगती है. उस अवस्था में पुरोहितवर्ग या तो नियतिवादी समाधान सुझाने लगता है अथवा किसी चमत्कार की उम्मीद में वास्तविकता से कट जाता है. दोनों अवस्थाओं में पीडि़त व्यक्ति को न्याय नहीं मिल पाता. समाधान की धर्मसम्मत व्यवस्था, चुनौतियों का सामना करने के बजाय उनसे पलायन की प्रेरणा देती है. समस्या के विधिसम्मत समाधान हेतु लॉक हॉब्स की ‘सोशल कांट्रेक्ट’ की अवधारणा को आगे कर देता है. अपनी महत्त्वपूर्ण कृति ‘सेकिंड ट्रटीज आफ दि गवर्नमेंट’ में वह लिखता है कि जीवन, संपत्ति एवं स्वतंत्रता की सुरक्षा हेतु नागरिकों को परस्पर एकजुट होकर सामान्य हितों के लिए ‘सामाजिक संविदा’ के अनुरूप कार्य करना चाहिए. वह कामना करता है कि नागरिकगण बजाय व्यक्तिगत लाभ के संपूर्ण समाज के लाभों के लिए एकजुट होंगे. उस समय उनके समक्ष दो उद्देश्य हो सकते हैं. पहला उस समाज की रूपरेखा बनाना या सपना देखना, जैसे समाज की कामना वे अपने लिए करते हैं. दूसरी उस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु अनिवार्य संकल्पबद्धता. प्राकृतिक एवं धर्मकेंद्रित समाजों में यह काम दैवी शक्ति के भरोसे होता है. इसलिए वहां नागरिकों में आत्मविश्वास की कमी सहज ही देखने को मिलती है. आकस्मिक चुनौती के समय वे प्रायः बिखर जाते हैं और उद्धार के लिए चमत्कारों की उम्मीद में जीने लगते हैं, जो विकास को नकारात्मक दर से प्रभावित करती है. चूंकि इतिहास चक्र में वापस लौटना संभव नहीं होता, इसलिए समाज में दो प्रकार की शक्तियां प्रभावी होती हैं. लोगों की परिवर्तन की वांछा जो चमत्कारों और जनसंकल्प के बीच कहीं झूलती रहती है. दूसरा अतीत के प्रति अतिरेकी लगाव जो धर्म और परंपरा के जरिये मानवस्वभाव का जटिल हिस्सा बन जाता है. अंतर्द्वंद्वों में फंसा समाज इन्हीं के बीच कहीं झूलता रहता है.

प्राकृतिक अथवा धर्मकेंद्रित समाजों के राजनीतिकरण का आरंभ सामान्य हितों की पहचान तथा उनके लिए एकजुटता बरतने से होता है. उसके अगले चरण में नागरिकों को अपने मूलभूत अधिकारों की सुरक्षा एवं संरक्षा के लिए कुछ हितों का बलिदान देना पड़ सकता है. जिसमें उनकी स्वतंत्रता के एक हिस्से में कटौती भी संभव है. किंतु समाजीकरण के वृहद उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए यह अनिवार्य अवस्था है. समाजीकरण की यह प्रक्रिया सामान्य सहमति के आधार पर गठित सरकार के तत्वावधान में होनी चाहिए. उसमें नागरिकों की सविवेक भागीदारी भी अपेक्षित है. थामस हॉब्स ‘सामाजिक संविदा’ का प्रमुख सिद्धांतकार है. उसका समर्थन करने के साथसाथ लॉक उसके परिष्करण की संभावनाओं का भी विवेचन करता है. उसे आगे बढ़ाते हुए रूसो व्यक्ति, समाज एवं राज्य के संबंधों को लेकर आदर्शोन्मुखी व्यवस्था की कामना के साथ सही मायने में ‘सोशल कांट्रेक्ट’ की रचना करता है. उसे विश्वास था कि नागरिकगण अपनी स्वतंत्रता, समानता और जीवन के लिए एकजुट होकर संघर्ष करेंगे. रूसो का जीवनकाल यूरोपीय इतिहास का ऐसा दौर है, जब वह अपनी बौद्धिक चेतना के एकदम शिखर पर था. लॉक की भांति वह भी व्यक्तिमात्र की स्वतंत्रता, समानता और संपत्ति अधिकारों का तीव्र समर्थक था. आस्था, विश्वास और परंपरा के स्थान पर वह मानवीय विवेक को महत्त्व देता है. ऐसे समाज की रूपरेखा पेश करता है, जो आपसी सहयोग और सामान्य विवेक द्वारा अनुशासित होता है. व्यक्तिमात्र की स्वतंत्रता और समानता का समर्थक होने के कारण लॉक और रूसो का न्याय की आधुनिक अवधारणा को विकसित करने में बड़ा योगदान है. जबकि रूसो की कृति ‘सोशल कांट्रेक्ट’ की गिनती कार्ल मार्क्स की ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के साथ विश्व की उन तीनचार अतिमहत्त्वपूर्ण पुस्तकों में की जाती है, जिनकी आधुनिक विश्व को गढ़ने में विलक्षण भूमिका रही है.

मानवीय स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक रूसो की प्रसिद्ध उक्ति है—‘मनुष्य आजाद जन्मता है, किंतु वह हर जगह बेडि़यों में है.’ ये बेडि़यां कहां से आती हैं? कैसे प्रभावी हो जाती है और कैसे अल्पसंख्यक अभिजन, बहुसंख्यक जनसामान्य को छोटेछोटे हिस्सों में बांटकर उन्हें अपना दास और आश्रित बना लेता है? यदि रूसो की माने तो बंधन मनुष्य के चारों ओर से प्रभावी रहते हैं. हर कोई मनुष्य की नैसर्गिक स्वतंत्रता पर डाका डालने को तत्पर रहता है. जबकि प्राकृतिक राज्य में मनुष्य अपनी स्वाधीनता के अधिकतम हिस्से भोग कर रहा होता है. कानून और समाज की मर्यादाएं वहां आड़े नहीं आतीं. प्रौद्योगिकी द्वारा नियंत्रित समाज में प्राकृतिक राज्य की वापसी सुदूर इतिहास का हिस्सा बन चुकी है. मनुष्य तकनीक पर इतना आश्रित है कि उनसे मुक्त जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता. चूंकि आधुनिक प्रौद्योगिकी महंगी है. उसपर निरंतर ऐसे लोगों का अधिकार बना रहता है, जिनके वर्गीय स्वार्थ मानवकल्याण की भावनाओं पर सदैव भारी पड़ते हैं. प्रौद्योगिकी के बल पर वे अकूत मुनाफा बटोरते हैं. फिर उसका एक हिस्सा शोध और प्रौद्योगिकीय प्रौन्नति हेतु करते हैं. उससे आर्थिक और सामाजिक अंतर बढ़ता ही जाता है. संक्षेप में आधुनिक समाज की समस्याएं आधुनिक जीवनशैली की देन हैं, जिसके प्रति मनुष्य का बेहद लगाव है. हमारी कमजोरी है कि विचारधाराओं के मामले में प्रायः रूढ़ दृष्टिकोण अपनाते हैं. यह जान ते हुए भी कि आधुनिक समाज की समस्याओं के समाधान हेतु आधुनिक विचार आवश्यक है, हम समाधान के लिए प्राचीन धर्मग्रंथों और परंपराओं में झांकते रहते हैं. प्राकृतिक राज्य की महत्ता अपनी जगह स्वयंसिद्ध है, लेकिन यदि कोई आधुनिकता द्वारा उत्पन्न समस्याओं का समाधान प्राकृतिक राज्य में चाहे तो सिवाय पलायन के उसके कुछ और हाथ नहीं लगने वाला. दूसरी ओर यह भी सच है कि शिक्षा और संसाधनों ने मनुष्य को पहले की अपेक्षा अधिक जागरूक बनाया है. इसलिए परंपरागत राज्य की नीतियां, जिसमें निर्णय ऊपर से थोप दिए जाते थे, उसे रास नहीं आतीं.

थोरो, एडबर्ड कारपेंटर, गांधी, रसेल आदि का विचार था कि आधुनिक समाज की अनेक समस्याएं अतिरेकी मशीनीकरण की देन है. सुविधाओं की चाहत तथा उसके लिए अंधाधुंध मशीनीकरण ने अनियोजित विकास को जन्म दिया है. रूसो ने इसकी कल्पना करीब ढाई सौ वर्ष पहले ही कर ली थी. उसका विचार था कि प्राकृतिक राज्य में मनुष्य इच्छाओं के संबंध में मुक्त होता था. जरूरत की वस्तुओं पर किसी का एकाधिकार नहीं था. आवश्यक श्रम के उपरांत मनुष्य उन्हें जुटा ही लेता था. इस कारण उन दिनों गलाकाट स्पर्धा भी नहीं थी. आधुनिक मनुष्य की इच्छाएं उसकी आवश्यकता के आधार पर जन्मने के बजाए बाजारवादी प्रलोभनों, दूसरों से पिछड़ जाने के भय तथा भौतिक लालसाओं द्वारा पैदा होती हैं. वे समाज में अनावश्यक स्पर्धा को जन्म देती हैं. रूसो के अनुसार आधुनिक समाज की समस्याएं मुक्ति की न होकर स्वतंत्रता के हृास के कारण जन्मी है. ऐसे में मनुष्य परस्पर सहयोग तथा एकदूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए अधिकतम स्वतंत्रता का भोग कर सकता है. प्राकृतिक राज्य की प्रशंसा करने के बावजूद वह उसकी ओर लौटने पक्ष में न था. उसका मानना था कि उसमें सबकुछ अव्यवस्थित रहता है. उसे हम ऐसा भूक्षेत्र मान सकते हैं जिसमें प्रत्येक नागरिक अपनी शक्ति के सर्वोच्च शिखर पर हो सकता है. लेकिन संगठन के अभाव में व्यक्ति की शक्तियां, एकदूसरे के साथ क्षुद्र स्पर्धा में अकसर व्यर्थ चली जाती हैं. कई बार तो व्यक्ति अपनी शक्तियों और कार्यक्षमता का अनुमान तक नहीं लगा पाता. आकस्मिक संकट के समय ऐसे समाज में व्यक्ति एकदम अकेला पड़ जाता है. मानवीय स्वतंत्रता और विकास की दृष्टि से भी प्राकृतिक राज्य सर्वथा निरापद नहीं है. उसकी अपनी कमजोरियां हैं. रूसो के अनुसार प्राकृतिक राज्य में मनुष्य का नैतिक स्तर अपने चरम पर हो सकता है. लेकिन समाज का कोई स्पष्ट चरित्र नहीं बन पाता. इससे व्यक्ति और समूह के स्तर पर असंतोष पलता रहता है. परिणामस्वरूप व्यक्ति की उच्च नैतिकता भी निष्प्रभावी होकर रह जाती है. परंपरा और आधुनिकता के बेमेल गठबंधन से पैदा द्वंद्व उसे ‘सोशल कांट्रेक्ट’ की प्रेरणा बनता है.

रूसो के जीवनकाल तक मशीनी क्रांति आरंभ हो चुकी थी. मध्यवर्ग का उभार तेजी पर था. उसके फलस्वरूप सामाजिक उथलपुथल जारी थी. इसी के साथ जारी था, नए सामाजिक संबंधों के गठन का सिलसिला. प्रमुख चुनौती मशीनों के आगमन से उत्पन्न मानवीय अवमूल्यन की चुनौतियों से निपटने की थी. रूसो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को बडे़ पूंजीपतियों के हाथों में देखकर भविष्य का अंदाजा लगा चुका था. उसका विचार था कि मनुष्य की सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याएं आधुनिक विकासमान समाजों की देन हैं. वह ‘सोशल कांट्रेक्ट’ का आरंभ ही इन शब्दों से करता है—‘मनुष्य मुक्त जन्म लेता है, लेकिन हर जगह वह बेड़ियों में हैं.’ ये बेड़ियां कभी सामाजिक शुचिता के नाम पर थोपी जाती हैं, कभी कानून, तो कभी मनुष्यता की भलाई के नाम पर. लेकिन हर बार ये मनुष्य की स्वतंत्रता का एक हिस्सा हड़प लेती हैं. मानवीय स्वतंत्रता की सलामती के लिए आवश्यक है कि उन श्रंखलाओं को तोड़ा जाए. पुस्तक में वह उन सभी विसंगतियों की विवेचना करता है जो मानवीय स्वतंत्रता को बाधित कर सकती हैं. उसके अनुसार राजनीति का मुख्य उद्देश्य मनुष्य की स्वतंत्रता, जो समाजार्थिक असमानता, विद्वैष भाव आदि से संकटग्रस्त है, को वापस दिलाना है. यह कार्य किसी सरकार या सत्ता के भरोसे संभव नहीं है. क्योंकि वे वर्चस्व की भावना को कभी त्यागने वाली नहीं है. उसके लिए पीड़ित पक्षों को स्वयं आगे आना होगा. अधिकतम स्वतंत्रता का लक्ष्य एकदूसरे की स्वतंत्रता और सम्मान की रक्षा के साथ ही प्राप्त किया जा सकता है. हॉब्स और लॉक की भांति रूसो भी इच्छाओं के सामान्यीकरण पर बल देता है. उसके अनुसार सामान्यीकृत इच्छा का आशय समाज की ऐसी सम्मिलित इच्छा से है जिसे वह विकास के अन्यान्य अवसरों, तकनीकों के बीच से अधिकतम लाभकामना के साथ चुनता है. रूसो उस समय पूर्ववर्ती प्रकृतिवादी विचारकों के समर्थन में उतर आता है, जिनका विचार था कि प्राकृतिक रूप से सभी बराबर हैं. प्रकृति की ओर से सभी मुक्त भी हैं. जिस तरह प्रकृति में सामंजस्य की अनूठी भावना और तालमेल है, वह चाहती हैं प्राणिमात्र में भी इसी प्रकार के सहयोग और सामंजस्य की भावना हो. सृष्टि का एकमात्र विवेकवान प्राणी होने के नाते मनुष्य का दायित्व अन्य प्राणियों से कहीं अधिक है. इसलिए उसे चाहिए कि वह ऐसे कार्य करे, जिससे प्राणिमात्र की स्वतंत्रता और समानअधिकारिता की रक्षा हो सके. ध्यान रखे कि प्रकृति सभी को एकदूसरे के साथ सहयोग करने की अनुमति तो देती है, मगर एकल अधिकार किसी का भी पसंद नहीं करती. तदनुसार पृथ्वी के जितने भी उपहार हैं, वे सबके लिए हैं. मगर वह स्वयं भी किसी एक की न होकर सबकी है. चाहती है कि लोग उसके उपहारों का मिलजुलकर भोग करें. किसी भी प्रकार का दुराव या स्पर्धा उनमें न हो.

रूसो का विश्वास था कि व्यवस्थित समाज की रचना केवल आपसी सहमति के आधार पर संभव है. समाज की वास्तविक स्थापना ही तब होती है जब अलगअलग नागरिक मिलकर प्रबुद्ध जनता में ढल जाते हैं. यहां ‘प्रजा’ और ‘जनता’ के सूक्ष्म भेद पर कुछ चर्चा प्रासंगिक होगी. दोनों में वही अंतर है जो बाड़े में बंद भेड़ों तथा जंगल में मुक्त विचरने वाले प्राणियों के बीच होता है. प्रजा अपने अधिकतम अधिकार राजा को सौंपकर उसकी इच्छा की अनुगामी हो जाती हैं. यहां तक कि उसके जीवन पर भी उसका अधिकार नहीं रहता. उसमें राजा और राजकुल के सदस्यों का जीवन साधारण प्रजाजन के जीवन से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है. इसलिए राजा अथवा राजकुल के किसी सदस्य को बचाने के लिए एक या अनेक प्रजाजनों की बलि पर भी वहां कोई सवाल खड़े नहीं करता. प्रायः ‘स्वामीभक्ति’ या ‘राजभक्ति’ कहकर उसका महिमामंडन किया जाता है. प्रजा के उलट जनता अधिकतम अधिकार अपने पास रखती है. जागरूक जनता को दास नहीं बनाया जा सकता. यदि कहीं ऐसा प्रतीत होता तो समझ लेना चाहिए कि वहां की जनता बनावटी किस्सों को सुनतेसुनते अपने आत्मबल को बिसरा चुकी है. प्रबुद्ध जनता अपने सामान्य हितों लिए संगठित होती है. उसके लिए वह अपने शासक स्वयं चुनती है. बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करते हुए चुने हुए अपने प्रतिनिधि को उतने ही अधिकार सौंपती है, जितने शासकीय कर्तव्यों के निष्पादन हेतु आवश्यक हों. वह अपने शासकों पर नजर भी रखती है. यदि उसे लगे कि निर्वाचित प्रतिनिधि कर्तव्यच्युत हैं तो वह उन्हें वापस बुलाने में भी देर नहीं करती. शीर्षस्थ स्वार्थी शक्तियों की कोशिश होती है कि जनता अपना आत्मगौरव बिसराकर प्रजा में ढल जाए. जनताकरण विवेकीकृत जनसमूह की खुद के उत्थान हेतु स्वयंस्फूर्त्त प्रक्रिया है. आर्थिक आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के बाद, प्रजा जनताकरण का सपना देखना आरंभ करती है और फिर धीरेधीरे उस दिशा की ओर अग्रसर होती है. लक्ष्य तक पहुंचने के लिए उसे अनेक जनांदोलनों से गुजरना पड़ता है. उसकी यह गति उसकी आर्थिकसामाजिक स्वतंत्रता के स्तर से तय होती है. कह सकते हैं कि जनता नागरिकों का समूह होने के साथसाथ उसकी उपलब्धि भी है. वह सामूहिकता में विश्वास रखती है. अपने निर्णय स्वयं लेती है. उसके सदस्य नागरिक बहुमत के निर्णयों का सामान्यीकरण करने में माहिर होते हैं. चालाक राजनीतिज्ञ जनता की जागरूकता, विशेषकर ‘बहुमत के निर्णयों का सामान्यीकरण करते रहने की कला’ से घबराते हैं. इसलिए समाज में असमानता के प्रतीकों को इस चतुराई से रोपते हैं कि जनता की एकता प्रभावित हो. वह अलगअलग समूहों में बंट जाए. जिससे उसकी शक्ति एवं ऊर्जा निर्दिष्ट लक्ष्यों को प्राप्त करने की कोशिश के बजाए एकदूसरे पर संदेह करने लगे. धीरेधीरे लोग उस षड्यंत्र का शिकार होने लगते हैं.

आशय है कि जनता विवेकवान न हो, या उसका नेतृत्व अकुशल और बेईमान हो तो वह दिग्भ्रमित होकर बड़ी आसानी से भीड़ में ढल जाती है. लोकतंत्र में शासन जनप्रतिनिधियों के माध्यम से चलता है. भीड़ की मानसिकता से प्रभावित जनता अपने प्रतिनिधियों के निर्वाचन तथा उन्हें अनुशासित रखने में चूक जाती है. उस समय जनता की समस्त सर्जनात्मक शक्तियां छोटेछोटे समूहों की विशेषताओं में ढलकर, एकदूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश में दम तोड़ने लगती हैं. इससे सामाजिक असंतोष पनपता है और शासन को शांति और सुरक्षा के नाम पर बल प्रयोग करने का बहाना मिल जाता है. स्थिति का लाभ उठाकर स्वार्थी शीर्षस्थ वर्ग जनता द्वारा दी गई शक्तियों का उपयोग स्वयं जनता के ऊपर करने लगते हैं. छोटेछोटे समूहों में विभाजित, भीड़ की मानसिकता से ग्रस्त मनोबलविहीन जनता अपने प्रतिनिधियों पर आश्रित होकर रह जाती है. परिणामस्वरूप लोकतंत्र कुछ लोगों की मर्जी से संचालित होने लगता है. सामाजिक विकास प्रतिगामी रूप ले लेता है और मनुष्य स्वतंत्रता और समानता के अपने वास्तविक लक्ष्य से भटक जाता है. सवाल है कि जनता यदि जागरूक है तो विभाजनकारी शक्तियों का शिकार कैसे हो जाती है? यदि उसे इतनी जल्दी बरगलाया जा सकता है तो प्रजाऔर जनतामें कुछ अंतर ही नहीं रह जाता. यह कठिन पहेली है. दरअसल उन समाजों में जहां भारी असमानता हो, जनसाधारण को संसाधनों की भारी कमी से गुजरना पड़ता हो, वहां रोजमर्रा की वस्तुओं का अभाव अनावश्यक स्पर्धा को जन्म देता है. जिससे उनका ध्यान दूरगामी हितों के बजाए रोजमर्रा की समस्याओं पर केंद्रित होकर रह जाता है. इससे उसके विवेकीकरण की प्रक्रिया अवरुद्ध हो सकती है. ऐसी समस्याओं से उबरने के लिए जनता को कुशल नेतृत्व और मजबूत संगठन की आवश्यकता पड़ती है.

रूसो न्याय को लेकर सीधे विचार नहीं करता, किंतु सामाजिक असमानता और अन्याय को जन्म देने वाली स्थितियों की गहन विवेचना करता है. वह लिखता है कि स्वतंत्र समाज में व्यक्तिमात्र की इच्छाओं का सम्मान होता है. अन्योन्याश्रितता की भावना से संगठित समाज में, व्यक्तिगत इच्छाएं सदस्य इकाइयों को व्यक्तिमात्र के हितों की रक्षा हेतु प्रेरित करती हैं. ध्यातव्य है कि रूसो जब व्यक्तिगत हित की बात करता है तो उसकी निगाह में कोई व्यक्ति अथवा समूहविशेष नहीं होता. मानवमात्र के सम्मान, समानता और न्याय की रक्षा हेतु वह पूरे समाज को विराट मानव के रूप में कल्पित करता है. जो भलीभांति जानता है कि उसकी सफलता उसके सभी अंगों के परस्पर तालमेल और मिलजुलकर कार्य करने की योग्यता पर निर्भर है. इसलिए वह अपने प्रत्येक अंग का बराबर ध्यान रखता है. सभी को सम्मान की दृष्टि से देखता है. महसूस करता है कि यदि एक की स्वतंत्रता भी बाधित होती है तो पूरी देह की स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है.

रूसो की दृष्टि में व्यक्तिस्वातंत्र्य का मसला सर्वोपरि था. वह किसी भी स्थिति में मानवमात्र की स्वतंत्रता को खतरे में नहीं डालना चाहता. न ही उसमें किसी भी कारण किसी तरह की कटौती की कामना करता है. उसके अनुसार समाज के नियंताओं, जिन्हें जनता की ओर से निर्णय लेने का दायित्व सौंपा गया है, को चाहिए कि वे व्यक्तिमात्र की इच्छा की अवमानना करने के बजाय, इच्छाओं के सामान्यीकरण पर जोर दें. इस कार्य में कुछ समय लग सकता है. किंतु एक बार आदत विकसित हो जाने के पश्चात सामान्य इच्छाएं सामान्य हितों का मार्ग प्रशस्त करने लगती हैं. इनमें से कौनसा रास्ता हितकारी है पहली स्थिति समाज में व्यक्तिवाद को बढ़ावा देने वाली लग सकती है. इसलिए कोई भला व्यक्ति दूसरी स्थिति, यानी ‘सामान्य इच्छाओं को सामान्य हितों का मार्ग प्रशस्त’ करते हुए देखना चाहेगा. यहां रूसो का विचार अलग है. या यूं कहें कि वह इस लक्ष्य पर सीधे और एकाएक नहीं पहुंचता. यही ‘सामाजिक संविदा’ का प्राणतत्व भी है. रूसो के अनुसार सुव्यवस्थित समाज में कर्तव्य अन्योन्याश्रित होते हैं. अपनी कला और योग्यता के अनुसार मनुष्य जो उत्पादित करता है, वह केवल उसके लिए नहीं होता. उत्पादन के समय उसके दिलोदिमाग में हमेशा यह बोध समाया होता है कि उसके उत्पाद दूसरों के काम आएंगे और उनके ऐवज में वह उन सुविधाओं को प्राप्त कर सकेगा, जिन्हें अकेले अर्जित कर पाना उसके लिए असंभव है. पूंजीवादी समाज में यह इच्छा होड़ में बदल जाती है. उसमें व्यक्ति अपने श्रमकौशल एवं बौद्धिक ज्ञान का लाभ तो उठाना चाहता है, किंतु दूसरे व्यक्तियों के श्रमकौशल का लाभ उन्हें देने में कंजूसी करता है. इस तरह उस तंत्र में हर कोई केवल अपने लिए काम करने लगता है. उससे अपने काम के प्रति उसका अनुराग तथा उसके पीछे निहित सामाजिक लाभ की वांछा पीछे छूट जाती है. परिणामस्वरूप सामाजिक संबंध बजाए नैतिकता और मानवीय मूल्यों के, बाजार तथा उत्पादों के आधार पर बनने लगते हैं. मानवीय स्वतंत्रता की रक्षा के लिए यह बेहद खतरनाक स्थिति है क्योंकि उस अवस्था में मनुष्य की पहचान उत्पादों में सिमटकर रह जाती है. उन्हीं के आधार पर अपने संबंधों का निर्धारण करने लगता है. इससे सामान्य राय बनाने में मुश्किलें आती हैं.

रूसो के अनुसार समाज और व्यक्ति दोनों की स्वयंप्रभुता इसमें है कि पूरा समाज व्यक्तिमात्र के हितों की संपूर्ति को समर्पित हो, वहीं व्यक्तिमात्र का कर्तव्य है कि वह संपूर्ण समाज के कल्याण के निमित्त कार्य करे. यदि पूरा समाज व्यक्तिमात्र के हितों की पूर्ति के लिए समर्पित है तो क्या प्रत्येक आदमी को केवल अपने स्वार्थ की दिशा में काम करने की अनुमति दी जा सकती है? रूसो इसका जोरदार खंडन करता है. उसके अनुसार यह ‘सामाजिक संविदा’ की अवधारणा के विरुद्ध होगा. व्यक्तिमात्र का कर्तव्य है कि वह सामान्य हितों को ही अपना कर्तव्य माने. केवल हितों की अन्योन्याश्रितता ‘सामाजिक संविदा’ को स्थायित्व प्रदान कर सकती है. अतएव ‘सामाजिक अनुबंध’ का सबसे पहली शर्त एक ऐसे प्रस्ताव पर सहमति है जिसमें लोग व्यक्तिगत रूप से सम्मिलित होकर जागरूक ‘जनता’ के रूप में ढलने लगते हैं. उनमें से हर कोई दो बातें भलीभांति जानता है. पहली यह कि व्यक्तिगत स्तर पर उन सभी की जरूरतें तथा रुचियां भिन्न हैं. दूसरी बात उसे यह भी भरोसा होता है कि भिन्न रुचियों, जरूरतों और कार्यक्षमताओं के बावजूद समाज में सामान्य ‘रुचि’ एवं ‘आवश्यकता’ का निर्धारण किया जा सकता है. इस कार्य को वे सब मिलकर, एकदूसरे के अधिकारों का समर्थन और संवर्धन करते हुए आसानी से कर सकते हैं.

सामान्य सहमति के आधार पर अर्जित सुविधाएं व्यक्ति को स्वार्थपूर्ण ढंग से जुटाई गई सुविधाओं की अपेक्षा अधिक सुखसंतोष प्रदान कर सकती हैं. ये प्रेरणाएं उन्हें ‘सामाजिक अनुबंध’ को अपनाने के लिए उमगाती हैं. ‘सामाजिक अनुबंध’ के तहत एकजुट होते समय वे सामान्य रुचि और हितों का चयन करते हैं. उसमें संभव है कि कुछ लोगों को अपने हितों की उपेक्षा होती दिखाई पड़े. लेकिन यह बात उनसे छिपी नहीं रहती. वे जानते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ है कि जो व्यवस्था निर्मित की गई है, वह उनसे कहीं अधिक लोगों को लिए हितकारी है. साथ में उन्हें यह भरोसा भी होता है कि समूह के लोग उनसे अलग नहीं हैं. वे अवश्य उनके हितों का ख्याल रखेंगे. यानी संख्या में कम होकर भी वे उपेक्षित नहीं है. सामान्य इच्छा का हिस्सा न होने पर भी समाज उनकी जरूरतों और चाहतों के प्रति संवेदनशील है—यह विश्वास ही इस व्यवस्था की जान है. इस दायित्व के सफल निष्पादन की जिम्मेदारी ऐसी संस्थाओं की होती है, जिसपर समूह के सभी या अधिकतम सदस्यों का विश्वास हो. प्रत्येक जनसमूह या जनसमुदाय अपने आप में स्वयंभू निकाय होता है. उसकी खूबी है कि उसे अपनी शक्तियां किसी सरकार या सत्ता प्रतिष्ठानों की ओर से प्राप्त नहीं होतीं. बल्कि नागरिकों की ओर से प्राप्त होती हैं. सरकार तथा सत्ता प्रतिष्ठान, यह मानते हुए कि उसे अपनी शक्तियां नागरिकों की ओर से प्राप्त हैं, केवल उन्हें मान्यता प्रदान करते हैं. इसे संस्थान तथा सामाजिक अनुबंध’ की कसौटी कैसे माना जाए? कैसे तय किया जाए कि वह व्यवस्था सफल सिद्ध हुई है? इस प्रश्न का उत्तर देते समय रूसो जरा भी नहीं हिचकता. वह अपने आप में पूरी तरह स्पष्ट है. उसके अनुसार यदि ये प्रबंध सामाजिक विकास की विकृतियों का समाधान खोजने में कामयाब हैं, यदि उसमें ताकत की नहीं, लोगों की सामूहिक इच्छा की चलती है, और समूह किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह के बजाए संपूर्ण समाज के विकास हेतु अपने विवेक एवं ऊर्जा का उपयोग करता है—तो मानना चाहिए कि ‘सामाजिक अनुबंध’ की व्यवस्था सफल हुई है. सहमति के आधार पर क्रियाशील समाजों में शक्ति के प्रयोग को मान्यता नहीं दी जा सकती. यदि फिर भी उनमें महत्त्वपूर्ण फैसले शक्ति के आधार पर लिए जाते हैं, तो मान लेना चाहिए कि उसमें कुछ व्यवस्थागत खोट है. जिसका समाधान समाज के सभी लोगों को गणतांत्रिक भावना के अनुसार खोजना आवश्यक है.

रूसो जब यह कहता है कि ‘मनुष्य आजाद जन्मा है, लेकिन हर जगह जंजीरों में जकड़ा है.’6 तब वह सीधेसीधे प्राकृतिक समाज से आधुनिक समाज तक हुए बदलाव की ओर संकेत कर रहा होता है. अपने सवालों के माध्यम से वह आधुनिक प्रौद्योगिकी युक्त संस्कृति को अनेक सवालों के घेरे में ले आता है. वह बताता है कि प्रकृति आधारित समाज के आधुनिक समाज में बनने तक मनुष्य को अपनी स्वतंत्रता और समानता के बड़े हिस्से का बलिदान करना पड़ा है. मानवीय गरिमा की पुनर्वापसी आधुनिकता की सबसे बड़ी चुनौती है. वह तभी संभव है जब लोगों में एकदूसरे पर पूरी तरह विश्वास हो. वे सामान्य जरूरतों के आधार पर एकदूसरे से जुड़े हों. साथ ही अपनी और दूसरों की स्वतंत्रता की रक्षा हेतु समर्पित हों. रूसो प्राकृतिक राज्य की प्रशंसा करता है, किंतु पूरी तरह प्राकृतिक राज्य की ओर जाने से इन्कार कर देता है. उसके अनुसार यह न तो वांछित है न ही उपयोगी है. चूंकि प्राकृतिक राज्य का सबसे बड़ा गुण सामूहिकता था. रूसो उसे आधुनिक राज्यों के लिए भी आवश्यक मानता है. उसके अनुसार मनुष्य को चाहिए कि आधुनिक समाज में रहते हुए प्राकृतिक राज्य की विशेषताओं को प्राप्त करने का लक्ष्य रखे. तदनुसार मनुष्य की अधिकतम स्वतंत्रता को लौटाना आधुनिक राजनीति का प्रमुख हिस्सा तथा जीवन का मुख्य उद्देश्य भी होना चाहिए.

सोशल कांट्रेक्ट’ की सैद्धांतिकी ने जिन विद्वानों को प्रभावित किया, उनमें जान रॉल्स प्रमुख हैं. रॉल्स ने समाज को आत्मनिर्भर बनाने, उसमें न्याय की व्याप्ति के लिए रूसो के विचारों का समर्थन किया है. लेकिन ऐसे समाजों में जहां सामाजिकआर्थिक और राजनीतिक स्तर पर भारी असमानताएं हों, न्याय की स्थापना हेतु वह कल्याणकारी शासन की भूमिका को महत्त्वपूर्ण मानता है. लेकिन बिना अनुशासन के अच्छे से अच्छा शासक भी निरंकुश हो जाता है. आधुनिक गणतांत्रिक समाजों में बेहतर शासन चुनने की जिम्मेदारी जनता पर होती है. बेहतर शासन की संभावनाएं कम न हों, उसके लिए जनता के सतत प्रबोधीकरण की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है. कुल मिलाकर समाजीकरण की पहली चुनौती है कि मनुष्य को उसकी अधिकतम स्वतंत्रता किस तरह लौटाई जाए. कैसे लोगों को तैयार किया जाए कि वे अधिकतम लोगों की इच्छाओं के साथ अपनी इच्छा का मेल कर सकें और बहुसंख्यक लोग बराबर यह ध्यान रखें कि समूह का कोई सदस्य अपने आपको उपेक्षित न समझे. रूसो के राजनीतिक दर्शन में राज्य अधिकतम लोगों की हितरक्षण को समर्पित संस्था से अधिक कुछ नहीं है. अपने पूर्ववर्ती विचारकों हॉब्स, जान लॉक की भांति वह मानता है कि प्राकृतिक रूप में सभी मनुष्य समान हैं. प्रकृति किसी को भी किसी पर शासन करने का अधिकार नहीं देती. अतएव शासन यदि आधुनिक राज्यों की अनिवार्यता है तो वही संस्था शासन करने योग्य है जो लोगों की सहमति से बंधी हो. लोग ऐसी संस्था का गठन कर सकें, इसके लिए उनका पूरी तरह मुक्त होना आवश्यक है. रूसो इसके लिए प्रत्यक्ष गणतांत्रिक व्यवस्था का समर्थन करता है, जिसमें नागरिकों की सीधी और सक्रिय भागीदारी हो. ऐसे समाज में लोगों को न्याय के लिए राज्य को ओर ताकना नहीं पड़ता. न्याय नागरिक पहल पर स्वतः हासिल होता रहता है. यही ‘सोशल कांट्रेक्ट’ का अभीष्ट है.

© ओमप्रकाश कश्यप

  1. प्रजा सुखे सुख राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्!— अथर्ववेद।

  2. राजा निर्वाचित होते ही वेन ने खेती में सुधार को अपना लक्ष्य बना लिया. वह ‘विश’ के निवासियों को खेती के लिए प्रेरित करने लगा. पशु पहले भी मनुष्य के साथी थे. खेती के विकास के साथ समाज में उनकी उपयोगिता बढ़ती ही जा रही थी. वेन ने देखा कि यज्ञ में होने वाली बलि से हजारों निर्दोष पशु अकारण मारे जाते हैं. उन्हें बचाकर ‘विश’ को और भी समृद्ध बनाया जा सकता है. यही सोचकर उसने ऋषिगणों से यज्ञों के नाम पर होने वाली पशुबलि पर रोक लगाने को कहा. परिणामस्वरूप ऋषिगण वेन से नाराज रहने लगे. वेन को अपने ऊपर विश्वास था. इसलिए उसने पशुबलि का विरोध करना जारी रखा. वेन का यही आग्रह आगे चलकर उसपर भारी सिद्ध हुआ.

    ऋषियों के आश्रम नदी तट पर बने थे. इस कारण नदी से सटी जमीन पर भी उनका कब्जा था. वेन के प्रयत्नों से ‘विश’ तेजी से विकास की ओर अग्रसर था. अचानक प्राकृतिक आपदा ने उसके सारे सपनों पर पानी फेर दिया. एक के बाद एक कई मौसम बीते, बारिश न हुई. सूखे से नदी तट से दूर की भूमि पपड़ाने लगी. आसमान सूना पड़ने लगा. फसलें झुलस गईं. जिन जनों के अधिकार में वह भूमि थी, उनपर भूख का संकट मंडराने लगा. नदी तट से लगे ऋषिगणों के खेत अब भी लहलहा रहे थे. अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए वेन ने पुरोहितों को बैठक के लिए आमंत्रित किया. उनसे प्राकृतिक आपदा में साथ देने का अनुरोध किया. कहा कि जरूरतमंदों की मदद के लिए आगे आएं. जो है, जितना है, उसे मिलबांटकर संकटग्रस्त लोगों की मदद करें. ऋषिगणों ने मना करने पर वेन ने अपने अधिकार का प्रयोग करना चाहा. नाराज ऋषिगणों ने जनता को वेन के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया. भूख से पीडि़त जन अपना संयम खोते जा रहे थे. नीरक्षीर का विवेक समाप्त हो चुका था. लगातार बढ़ता जनाक्रोश वेन की हत्या के बाद ही शांत हुआ. जनता ने अपने ही चुने राजा की बलि ले ली. ऋषिगणों का काम हो चुका था. सत्ता से निर्लिप्तता दर्शाते हुए उन्होंने वेन के पुत्र पृथु को ‘विश’ का राजा घोषित कर दिया.

  3. विष्णु पुराण, स्कंध प्रथम, अध्याय 13, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, रामशरण शर्मा, पृष्ठ 67 से उद्धृत.

  4. दीर्घनिकाय 3, पृष्ठ 93.

  5. In the early days of cosmic cycle mankind live on an immaterial plane, dancing on air in the sort of fairyland, where there was no need of food or clothing, and no private property, family, Government or laws. Then gradually process of cosmic decay began its work and mankind become earthbound, and felt the need of food and shelter. All men lost their primeval glory, distinctions of class(verna) arose, and they entered in agreement with on another, accepting the institutions of private property and the family. With this theft, murder, adultery, and other crime began, and so the people met and decided to appoint one man among them to maintain in return for a share of produce of their fields and herds. He was called ‘the great choosen one’ (Mahasammta), and he received the title of ‘raja’ because the pleased the people.-THE WONDER THAT WAS INDIA, A. L. Basham, page-82.

  6. Man was born free, and he is everywhere in chains” -Rousseau in Social Contract

पुरस्कार वापसी विवाद : एक और गुगली

आलेख

 

तुम्हारा अध्ययन व्यर्थ होगा और विज्ञान बांझ, अगर यूं ही पढ़ते रहे….बिना समर्पित किए अपना ज्ञान, समूची मानवता कोब्रेख्त.

कुछ लेखक चर्चा में रहते हैं, लेकिन विवादों में नहीं पड़ते. नपातुला बोलते हैं. नजर सीधे लक्ष्य पर टिकाए रखते हैं. जिस समय बाकी लोग चर्चा और विवादों में ऊर्जा खपा रहे होते हैं, वे शांत मन से अपनी गोटियां सेट करने में लगे होते हैं. डॉ. रामदरश मिश्र विवादों से परे रहने वाले लेखक हैं. ऐसा कुछ साहित्यकार बंधु मानते हैं. कदाचित डॉ. मिश्र को भी इसका इलम है. वे गोटियां सेकने वाले लेखक भी हैं—ऐसा मैं भी नहीं मानता. मगर काव्यकृति ‘आग के आंसू’ के लिए ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ मिलने के अवसर पर ‘जनसत्ता’(19 दिसंबर, 2015) को दिए गए साक्षात्कार में जो बातें उन्होंने कही हैं, वे अनावश्यक हैं. कम से कम मैं तो उन्हें समीचीन नहीं मानता. न ही वे किसी परिपक्व लेखक की अभिव्यक्ति प्रतीत होती हैं. अखबार में प्रकाशित साक्षात्कारआधारित रिपोर्ट में उन्होंने साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों को आड़े हाथ लिया है. हो सकता है पत्रकार ने जानबूझकर ये बातें उनसे उगलवाई हों. या रिपोर्ट लिखते समय बाकी बातों को एकदम छोड़ दिया गया हो. आम पाठक और साहित्य प्रेमी की रुचि तो पुरस्कृत कृति की कविताओं में झलकती, जिनके बारे में एक भी शब्द उस रिपोर्ट में नहीं है. पूरा साक्षात्कार पुरस्कार वापसी के मसले पर केंद्रित है. रिपोर्ट को मुख्य पृष्ठ के शीर्ष पर जिस प्रमुखता के साथ छापा गया है, उससे यह संभावना भी बलवती होती है कि अखबार ठंडे पड़ चुके विवाद में फिर जान फूंकने की कोशिश कर रहा है. यूं भी इन दिनों ‘जनसत्ता’ में सब उल्टापुल्टा हो रहा है. यह अखबार अपने जनवादी अतीत से जल्दी से जल्दी पीछा छुड़ाने पर उतारू है. अगर ऐसा न होता तो बात ‘आग की हंसी’ की कविताओं पर की जाती. कवि की उन अनुभूतियों पर की जाती जिनसे वे कविताएं उपजी हैं. तब वह अवसर के अनुकूल कही जाती. इससे पहले ‘जनसत्ता’ न तो सनसनी की चाहत रखने वाला अखबार रहा है, ना ही उसने इस तरह की इच्छा रखने वाले मीडिया का साथ दिया है. मुझे याद है अयोध्या में मस्जिद का ढांचा गिराए जाने के अवसर पर हिंदी समाचारपत्रों के सांप्रदायिक चरित्र पर तथा कुछ साल पहले ‘पेड न्यूज’ के मसले पर इस अखबार ने एक आंदोलनसा निर्मित किया था. वह आज भी अपने मूल्यों से प्रतिबद्ध पत्रकारिता का बेहतरीन उदाहरण है.

यह स्वाभाविक है कि जब दूसरे लेखक अकादेमी का पुरस्कार लौटा रहे हों, पुरस्कार ग्रहण करने का इच्छुक लेखक उनके समर्थन में टिप्पणी कर, उसका औचित्य सिद्ध करे. लेकिन इस अवसर पर दिए गए साक्षात्कार में जो भाषा डॉ. मिश्र ने इस्तेमाल की है, वह आपत्तिजनक है. विशेषकर तब जब विवाद पर धूल जमने लगी है. यह संभव है अकादेमी या ‘पुरस्कार वापसी’ का विरोध कर रहे लेखकों की ओर से ‘डेमेज कंट्रोल’ की कोशिश हो. या फिर पुरस्कार के बदले डॉ. मिश्र की ओर से अकादेमी के लिए आभारज्ञापन—जो भी हो, सामान्य नैतिकता इसका समर्थन नहीं करती. डॉ. मिश्र को यदि लग रहा था कि पुरस्कार वापसी अकादेमी के अध्यक्ष को बदनाम करने का षड्यंत्र है, तो यह उन्हें पहले कहना चाहिए था. दूसरे लोग जब यही बात दोहरा रहे थे, तब उनका समर्थन करना था. क्यों वे आग के ठंडी होने का इंतजार करते रहे. अब जब मामला करीबकरीब शांत पड़ चुका है तो वे एक झटके में न केवल पुरस्कार वापसी के लिए जुटे लेखकों से, बल्कि ‘मार्क्सवादियों’ से भी निपट लेना चाहते हैं.

यदि वे कहते हैं कि ‘पुरस्कार वापसी विरोध जताने का सही तरीका नहीं’, तो यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार है. उन्हें समाज में बढ़ती असहिष्णुता नहीं दिखती तो यह भी उनकी अपनी नजर है. आखिर हम सभी चीजों को अपनेअपने नजरिये से ही तो देखते हैं. लेकिन यह बात उस दौर में कही गई होती जब मुद्दा गरमाया हुआ था, तब ज्यादा प्रासंगिक होती. अब उनका यह कथन, ‘पुरस्कार वापसी कर यह मान लेना कि लड़ाई लड़ ली, महज एक भ्रम है’—अपने आप में ही अंतर्विरोधी है. जब देश में असहिष्णुता जैसी कोई समस्या ही नहीं है तो लड़ाई लड़ना पागलपन ही कहा जाएगा. वे कहते हैं—‘वे लोग भ्रमित हैं, जो पुरस्कार वापस कर मान रहे हैं कि उन्होंने असहिष्णुता के खिलाफ (लड़ाई)लड़ ली. विरोध और लड़ाई लड़ने के इससे कहीं बेहतर मार्ग हैं. जिनकी उपेक्षा की गई.’ इस टिप्पणी से कहीं नहीं लगता कि उन्हें विरोध प्रदर्शन से शिकायत है. वे केवल विरोध के माध्यम से असहमत हैं. यानी लेखकों को पुरस्कार वापसी से अलग कोई और मार्ग चुनना चाहिए था. यह आवेश में कही गई बात नहीं है. कोई संदेह न रहे, इसलिए वे दुबारा स्पष्ट कर देते हैं—‘मैं इनको बताना चाहता हूं कि पुरस्कार वापस करके अपनी पीठ खुद थपथपाकर खुद को हीरो समझने वाले असल लड़ाई से पीछे हट रहे हैं. उन्हें चाहिए था कि लड़ाई के और कारगर माध्यम चुनते.’ ये बातें न तो नई हैं, न अनसुनी. जिन दिनों विवाद शिखर पर था, पुरस्कार वापसी का विरोधी हर प्रतिक्रियावादी लेखक यही तर्क देता था. ‘फेसबुक’ पर ये शब्द हजारों बार दोहराए जा चुके हैं. लेकिन उन वाक्बहादुरों में से कोई भी वैकल्पिक माध्यम या बेहतर मार्ग का उल्लेख तक नहीं करता. यदि उन्हें पुरस्कार वापसी के अलावा दूसरे विकल्प दिए जाते तो वे बुरी तरह विभाजित मिलते. डॉ. मिश्र उस समय चुप्पी साधे रहे. यदि विरोध आवश्यक, मगर माध्यम अनुचित था, तो उन्हें अपनी ‘कलम’ के साथ, उचित माध्यम से स्वयं आगे आना चाहिए था. या दूसरों को वैसी सलाह देनी थी. फिर क्यों पहल करने से बचे रहे? दूसरों को विरोध के उचित माध्यमों के बारे में बताया क्यों नहीं? साहित्यकार केवल लगातार लिखने से नहीं बड़ा नहीं होता. जनसरोकारों से जुड़ाव उन्हें बड़ा बनाता है. सरोकार ही हैं जो ‘प्रेमचंद’ और ‘गुलशन नंदा’ में अंतर करने की प्रेरणा जगाते हैं. क्या वे अकादेमी पुरस्कार घोषित होने से पहले मुंह खोलने से बचना चाहते थे? सोचते थे कि यदि इस समय पुरस्कार वापसी का विरोध किया और पुरस्कार बाद में घोषित हुआ तो वह अकादेमी की ओर से ‘आभार ज्ञापन’ जैसा ही कुछ समझा जाएगा? अब यदि वे यह कहते हैं कि पुरस्कार के बारे में पहले कहां पता था? सारी प्रक्रिया गोपनीय रहती है तो उन्हें बहुत भोला माना जाएगा. मनोहर श्याम जोशी को अकादमी सम्मान देना था, देना ही था सो तब दिया गया था, जब वे चलाचली की कगार पर थे. जल्दबाजी में ऐसी पुस्तक पर थमा दिया गया, जो उनके दूसरे उपन्यासों के मुकाबले दूसरे या तीसरे स्तर की है. अकादमी पुरस्कार के लिए ‘आधा गांव’ के बरक्स ‘रागदरबारी’ को वरीयता दिए जाने की घटना पर तो पहले ही काफी लिखा जा चुका है. लेकिन इन घटनाओं के बावजूद किसी लेखक की क्षमताओं पर संदेह करना, उसे कमजोर लेखक बताना अनुचित ही माना जाएगा. इसलिए कि वे सब एक पूर्वनिर्धारित प्रक्रिया के तहत दिए गए हैं. पुरस्कारों की घोषणा के तत्काल बाद डॉ. मिश्र द्वारा अकादेमी के समर्थन में तर्क देना, अकादेमी तथा उसके अध्यक्ष के प्रति ‘आभार प्रदर्शन’ जैसा ही कुछ माना जाएगा. यह अकादेमी के अध्यक्ष के दामन पर लगे दागों को साफ करने जैसा भी है, जिनके बारे में विज्ञप्ति निकालकर वह अपनी चूक को स्वयं सार्वजनिक कर चुकी है.

रिपोर्ट में उन्हें ‘हमेशा किसी वाद या खेमे से दूर रहने वाले’ कहा गया है. मगर साक्षात्कार में जो बातें आती हैं, वे उन्हें विवादों से बचने वाला सावधान लेखक भले ही ठहराती हों, ‘वाद’ से दूर रहने वाला लेखक सिद्ध नहीं करतीं. वे कहते हैं—‘दरअसल अर्से से अकादेमी पर एक गिरोह का कब्जा था. लेकिन सत्ता परिवर्तन के साथ ही वह गिरोह छटपटाने लगा. अकादेमी जो महज कुछ लोगों का अड्डा थी वहां सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व मिलने लगा.’ ऐसी टिप्पणी कोई ‘फेसबुकिया’ करे तो बात समझ में आती है. क्योंकि बहुत गंभीर और तथ्यात्मक होने के लिए वहां कम गुंजाइश होती है. यह टिप्पणी पढ़कर यदि आप डॉ. मिश्र को ‘वाद’ और ‘विवाद’ से दूर रहने वाला लेखक मान लें तो आपकी समझ पर बलिहारी. उस विचारधारा से जिससे किसी कारणवश आप असहमत हैं, उसके समर्थक रचनाधर्मियों को ‘गिरोह’ कहना क्या विनम्र टिप्पणी माना जाएगा! यदि मिश्र जी यह मान रहे हैं कि अकादेमी कुछ खास विचारधारा के ‘गिरोह’ का अड्डा बन चुकी है, तो एक जागरूक लेखक की भांति आंदोलन, नहीं तो कलम से ही प्रतिकार करते. तब आगे आते जब उसकी जरूरत थी. केंद्र में अधिकांश समय कांग्रेस की सरकार रही है. स्वाभाविक रूप से अकादेमी द्वारा अधिकांश पुरस्कार उन्हीं लेखक मंडलों की मदद से घोषित किए गए, जो कांग्रेस के कार्यकाल में गठित किए गए थे. अकादेमी और पूर्व लेखकमंडलों पर डॉ. मिश्र ने इससे पहले कोई टिप्पणी की हो—मुझे याद नहीं आता. यानी डॉ. मिश्र ने तब विरोध नहीं किया, जब वह ‘गिरोह’ अकादेमी पर काबिज था. यदि तब नहीं किया तो अब ऐसा क्यों? ‘का वर्षा जब कृषि सुखानी….क्या वे केंद्र में सत्तापरिवर्तन का इंतजार कर रहे थे. जहां तक मुझे याद है उन्हें हिंदी अकादमी, दिल्ली का सबसे बड़ा ‘शलाका सम्मान’ तब मिला था, जब शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री थीं और कांग्रेस केंद्र में. यदि उनकी कांग्रेस या उसके द्वारा गठित लेखक मंडलों से ऐसी ही वैचारिक असहमति थी, तो ‘शलाका सम्मान’ स्वीकार ही क्यों किया था?

उनका कहना है—‘मार्क्सवादी विचारधारा के लेखकों की रचनाओं में मार्क्सवादी चेतना की झलक मिलती है. जबकि दक्षिणपंथियों का रचनाकर्म रूढि़वादिता की ओर इंगित करता दिखाई देता है.’ काश! उनकी बात सच होती. यहां उनकी सारी बौद्धिक तटस्थता धरी की धरी रह जाती है. उनसे पूछा जाना चाहिए कि देश में मार्क्सवाद को आए तो सौसवा सौ वर्ष हुए हैं. उससे पहले तो यहां केवल दक्षिणपंथ राज करता था. जिसके चलते एक जाति या वर्ग के लोग ही पढ़ पाते थे. पिछले चारपांच हजार वर्ष का साथ वाङ्मय उनका और उनके समर्थकों का कियाधरा है. फिर इस देश में रूढि़वाद शताब्दियों तक कुंडली मारे क्यों बैठा रहा! यह जानते हुए भी कि वैचारिक रूढि़वाद, सामाजिक रूढि़वाद से कहीं अधिक खतरनाक होता है. तत्कालीन बुद्धिजीवियों ने उससे उबरने और दूसरों को उबारने का काम क्यों नहीं किया? हाल ही में आई फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ के बहाने एक पेशवा किलेदार की कथित वीरता पर खूब चर्चा हो रही है. लेकिन उन पेशवाओं के राज में जनसाधारण, विशेषकर दलितों की जो दुर्दशा थी, उसपर किस ‘पंडित’ ने अपनी कलम चलाई थी. यदि पेशवा किलेदार अपनी प्रजा से प्यार करते, सबके साथ बराबरी का वर्ताब करते, दलितों को सामाजिक उत्पीड़न से बाहर लाने का प्रयास करते, क्या तब भी यह देश गुलाम होता? ये बातें बहसतलब हैं और बड़े शोध की मांग करती हैं. डॉ. मिश्र से अपेक्षा थी कि इन विषयों के बारे हम सबकी अज्ञानता की धूल को हटाते. भारतीय समाज और संस्कृति की विसंगतियों और विरोधाभासों पर यदि कोई विदेशी लेखक कुछ लिख दे जो उसे ये ‘पंडितजन’ खलनायक मान लेते हैं. जेम्स मिल जैसे विचारक के लेखन को भी ‘रिपोर्ट आधारित लेखन’ कहकर खारिज करने की कोशिश की जाती है. क्यों? आखिर मिल की पुस्तक ‘ब्रिटिश कालीन भारत का इतिहास’ और कैथरीन मेयो की ‘मदर इंडिया’ में कुछ तो सचाई है.

जेम्स मिल और कैथरीन मेयो तो विदेशी लेखक थे. मान लेते हैं कि उन्हें भारत और भारतीयता की पुख्ता जानकारी नहीं थी. या उन्होंने जो लिखा वह पूर्वाग्रहों से भरा पड़ा है. डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी तो अपनी हिंदी के ही थे. उनकी विद्वता पर तो किसी को संदेह नहीं है. क्या उनका लिखा भी डॉ. मिश्र की नजर से नहीं गुजरा? अपने एक लेख में वे लिखते हैं—‘दसवीं शताब्दी के बाद, बल्कि आठवीं शताब्दी के बाद ही, हमारे देश में टीका युग चलने लगा. यानी कोई मौलिक चिंतन, नए सिरे से सोचना संभव नहीं, बल्कि पुराने ग्रंथों में जो कुछ कहा गया है, उसका हम भाष्य कर सकते हैं, टीका कर सकते हैं, टीका की टीका, उसकी भी टीका, सातसात पुश्तों तक टीकाएं चलती रहीं. टीकाओं का युग आ गया. ज्ञान की धारा अवरुद्ध हो गई. यह टीका वाली प्रवृत्ति, गुरु नानक का जिस समय आविर्भाव हुआ था, उस समय अपनी चरम अवस्था में पर आई हुई थी. नतीजा यह हुआ कि हिंदू शास्त्रों के विपुल भंडार में से केवल तीन ग्रंथ चुन लिए गए. इनको प्रस्थानत्रयी कहते हैं. तीन ग्रंथ या ग्रंथ समूह. इनमें से एक है उपनिषद अथवा दस या ग्यारह उपनिषद, जिनपर आदि शंकराचार्य ने अपना भाष्य लिखा थाय अद्वैत मत के प्रतिपादन के लिए. दूसरी श्रीमद् भगवद्गीता, और तीसरा वेदांत सूत्र, बादरायाण का लिखा हुआ वेदांत सूत्र.’ (डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, गुरुनानक: व्यक्तित्व और संदेश, ‘भारतीय जनजीवन: चिंतन के दर्पण में’, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, पृष्ठ 11-12, अक्टूबर 1993). इस लेख में डॉ. द्विवेदी आदि शंकराचार्य पर भी टिप्पणी कर रहे हैं, जिन्हें भारतीयता की खोज और पुनस्र्थापना का पर्याय माना जाता है. यदि विचार करके देखें तो उन्होंने केवल भाष्यों की रचना की है. इसलिए उनका लेखन भी मौलिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता. बावजूद इसके पिछले हजारबारह सौ वर्षों में पंडितजन उन्हीं को सबकुछ माने रहे हैं. शायद इसलिए कि ऐसा करना उन्हें विश्वगुरु होने की अनुभूति देता है. हालांकि बाहर भारत की प्रतिष्ठा गौतम बुद्ध की जन्मस्थली होने के कारण है. डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जब तक रहे, तब तक गनीमत थी. भारतीयता की खोज के लिए कम से कम उपनिषद और वेदांत की चर्चा तो हो जाती थी. सत्ता परिवर्तन के बाद तो सारा बौद्धिक ज्ञान गाय, गोबर और रामचरितमानस तक सिमट चुका है. जो लोग कभी समुद्र पार जाने को पाप बताया करते थे, वे वेदों में वायुयान की तलाश कर रहे हैं. बौद्धिक विमर्श अशोक स्तंभ को ‘भीम की गदा’ मानने जैसी त्रासदी से गुजरता आया है.

अपने कथन में डॉ. मिश्र पूरे वामपंथ को ‘मार्क्सवाद में सिमेट देते हैं. जबकि ‘मार्क्सवाद’ जैसे संबोधन पर स्वयं मार्क्स को ही आपत्ति थी. क्या इतने अनुभवसिद्ध लेखक को यह बताने की आवश्यकता है कि वामपंथ कोरा ‘मार्क्सवाद’ नहीं है? वह मार्क्स से पहले भी था, मार्क्स के समय में भी और उसके बाद भी. उपनिषद काल में वह ‘बौद्ध’ और ‘आजीवक’ दर्शन के रूप में मौजूद था. ‘चार्वाक’ और ‘लोकायत’ मतावलंबी भी भौतिकवाद के बहाने ‘वामपंथ’ पर विचार कर रहे थे. मध्यकाल में संत कवियों का कहा भी वामपंथ की श्रेणी में ही आता है. गांधी ने अंत्योदय का नारा दिया और हमेशा हाशिये पर मौजूद लोगों की राजनीति की. इस दृष्टि से वे हमारे समय सबसे मुखर वामपंथी हैं. ‘मार्क्सवाद’, यदि वैसा कुछ है तो वह वामपंथ रूपी बूढ़े बरगद की वह मजबूत शाखा है, जो स्वयं अपनी जमीन पाकर विशाल बरगद का रूप ले चुकी है. क्या यह माना जाए कि डॉ. मिश्र जैसा सुविज्ञ, वयोवृद्ध साहित्यकार वामपंथ के इन अपररूपों से अनजान हैं? क्या उन्हें बताने की आवश्यकता है कि ‘साहित्य’ परंपरा का पिष्ठपे्रष्ण न होकर, उसका नवसंस्कार होता है? भर्तृहरि बहुत पहले साहित्य को परिभाषित कर गए हैं—‘रसेन सहितं साहित्य.’ यानी ‘जिसमें रागात्मकता के साथसाथ है, जिसमें सभी(या अधिकतम) की हितसिद्धि की कामना हो, वह साहित्य है. परंपरागत लेखन अपनी कृतियों में रागात्मकता पर तो पूरा ध्यान देता था. उसके लिए ‘वेद’ भी गढ़े जा चुके हैं. किंतु साहित्य की दूसरी कसौटी ‘सर्वहित’ की ओर उसका ध्यान नहीं जाता. ‘कला कला के लिए है’ कहकर वह बादशाहों और उनके मनसबदारों की जीहुजूरी में लगा रहा. जबकि भारत के पंडितजन दुनिया में विस्मृति के सबसे बड़े शिकार लोगों में से हैं. उन्हें बस ‘शास्त्र’ शब्द तो याद रहा. शास्त्र क्या हैं, उनका मूल स्वरूप क्या है? वर्तमान में उनकी प्रासंगिकता क्या है या कैसे उनका युगारूप नवोन्मेषण किया जाए, यह उन्हें नहीं रहा. उसके बारे में दुनिया को बताने के लिए यूरोपीय लोगों को यहां आना पड़ा. एक बात और—भारत में सभी लेखक मार्क्सवादी नहीं हैं. लेकिन अधिकांश लेखक वामपंथी हैं, क्योंकि साहित्यत्व का जो संस्कार या उसकी अपेक्षाएं होती हैं वह संवेदनशील रचनाकार को स्वतः वामपंथ की ओर ले जाती हैं. जिसके सरोकार मानवीय हैं, जो अपने साहित्य में सभी के हित की कामना करता है, जिसके चिंताएं समाज के विपन्न और कमजोर वर्गों से जुड़ी हैं, जो मानवमात्र के लिए अधिकतम स्वतंत्रता की कामना करता है; और समानता आधारित समाज का सपना जिसकी आंखों में है, वह वामपंथी ही है. इसके अलावा सब चारणपंथी हैं.

डॉ. मिश्र मानते हैं कि लेखक को जो भी कहना है कलम से कहना चाहिए. राजनीति उस विचारधारा का ‘एक्शन’ है. काश! लिखा हुआ शब्द उतना ही कारगर सिद्ध हो, जितना कोई लेखक अपनी रचना से उम्मीद रखता है. लेकिन हालात थोड़े अलग हैं. हम सब लोग जो शब्दों से किसी न किसी प्रकार का नाता रखते हैं, जिन्हें शब्दशक्ति पर भरोसा है—प्रायः शब्दों की निरर्थकता का रोना रोते रहते हैं. ऐसे कई लेखक हैं जो आजीवन शब्दों से बदलाव की अलख जगाते रहे. जब उन्हें लगा कि उनके शब्द वृथा जा रहे हैं तो अवसाद का शिकार हो गए. बहुतों ने तो लेखन से किनारा ही कर लिया, क्यों? शायद इसलिए कि हम कथनी और करनी के अंतर का शिकार होते हैं. हमारे लेखन की बड़ीबड़ी बातें सिर्फ दूसरों के लिए होती हैं. हमें जानना चाहिए कि ‘सामाजिक परिवर्तन की एक राह राजनीति से भी जाती है.’ कोई व्यक्ति अपने विचारों के समर्थन में लेखन करे, और राजनीति से एकदम कटा रहे, क्या यह स्वाभाविक माना जाएगा! ‘कथनी और करनी’ के अंतर के लिए क्या हम उसे दोषी नहीं मानेंगे! उस समय ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की उक्ति क्या हमपर चरितार्थ नहीं होगी?

ठीक है, लेखक की अपनी सीमाएं होती हैं. अपने कृतियों में जिस तरह के समाज की वह कामना करता है, और उसके लिए जिस प्रकार की जनशक्ति उसे चाहिए, उसकी भरपाई वह अकेले नहीं करता. लेकिन इसका यह आशय नहीं कि जो उसकी सीमाओं में है, उससे भी मुंह मोड़कर बैठा रहे; या उसके सदाशयतापूर्ण प्रतिरोध को भी ‘राजनीति’ कहकर खारिज करने की कोशिश की जाए. अपने विचारों के साथ यदि लेखक ही प्रतिबद्ध न होगा तो उसकी अपेक्षा पाठकों से कैसे अपेक्षा कर सकता है! जबकि विचार और कर्म की युति सदैव कारगर सिद्ध हुई है. महाभारत में कृष्ण केवल गीतोपदेश नहीं देते. जब, जहां, जितनी जरूरत पड़ती है, उतनी राजनीति भी करते हैं. ज्यादा दूर न जाना चाहें तो गांधी का उदाहरण हमारे सामने है. वे खुद को साहित्यकार नहीं मानते थे. हम भी नहीं मानते. लेकिन उनका विपुल लेखन साहित्यिक सरोकारों से परे न था. अपने शब्दों के भरोसे जो कामयाबी गांधी को मिली, उतनी कामयाबी उनके समकालीन नेताओं में से शायद ही कोई पा सका. क्यों? इसलिए कि वे जो कहते थे, वे करते थे. उनके विचार ‘एक्शन’ से परे न थे. विनोबा का पूरा जीवन गांधी की छाया और गांधीवाद की व्याख्या में गुजरा. मगर देश के सामने उनका विराट उनका व्यक्तित्व तब उभरकर सामने आया जब वे भूदान के बहाने ‘एक्शन’ में आए. और पूरी दुनिया में जाने गए. फिर यदि अपने विचारों पर ‘एक्शन’ करना राजनीति है तो उसमें बुरा क्या है? क्या राजनीति बुरी चीज है? ठीक है, आज राजनीति बहुत बदनाम है. पर कोई सहृदय लेखक राजनीति के अच्छेपन की आस में कोई कदम उठाना चाहे तो उसके कदम को ‘राजनीति’ कहकर खारिज करने का हमें भला क्या अधिकार है.

ठीक है, आधुनिक राजनीति में अनेक कमियां हैं. अधिकांश को यह दलदल नजर आती है. अच्छे लोग इसमें आने से बचते हैं. इसके बावजूद राजनीति धर्म से लाख दर्जा उत्तम और लोकोपकारी है. आज यदि समाज के वंचितदमित करोड़ों लोग बदलाव का सपना देख रहे हैं, उसके लिए एकजुट हो रहे हैं तो वह केवल राजनीति के कारण संभव हो पाया. आप कहेंगे कि राजनीति तो पहले भी थी. इसका उदाहरण देते हुए बड़ी आसानी से आप रामायण और महाभारत की याद दिलाने लगेंगे. लेकिन सब जानते हैं कि रामायण और महाभारत में राजनीति धर्म की चेरी थी. धर्म की कमजोरी है कि वह समाज को बड़ी आसानी से भीड़ में बदल देता है. उस समय मनुष्य को सिवाय अपने स्वार्थ, क्षुद्र स्वार्थों के कुछ याद नहीं रहता. जबकि कथनीकरनी का कोई भेद न होना ही राजनीति का आदर्श है. बहरहाल, डॉ. मिश्र की इस बात में दम है कि इस देश में असहिष्णुता की आंधी नहीं चल रही. खासकर सांप्रदायिक असहिष्णुता की. उनका कहना कि ‘पहले भी देश में धार्मिक त्योहारों के समय तनाव हो जाता था.’ बिलकुल सही बात है. इसके लिए हमें भारतीय मीडिया की आलोचना करनी चाहिए जो सामान्य घटनाओं को भी बढ़ाचढ़ाकर पेश करता है. मगर बात यहीं तक सीमित नहीं है. हम जानते हैं कि सांप्रदायिकता धर्म का विकार है. अपने अनुयायियों की संख्या के बल पर जब कोई संगठित धर्म खुद को शक्तिशाली समझने लगता है तो समाज में सांप्रदायिकता पनपने लगती है. चूंकि धर्म कहीं न कहीं शक्ति से जुड़ा है. किसी धर्मानुयायी में शक्ति भले न हो, मगर हर धर्मानुयायी अपने आराध्य को दूसरे धर्मानुयायियों के आराध्यों से अधिक शक्तिशाली मानता है. इसलिए जो लोग धार्मिक होते हैं, वे कम या ज्यादा सांप्रदायिक भी होते हैं. यह बात भी अपनी जगह ठीक है कि इससे पहले भी धार्मिक पर्वों और उत्सवों में सांप्रदायिक तनाव पैदा हो जाता था. मगर उस समय केंद्र या राज्य का कोई जनप्रतिनिधि यह कहने नहीं आता था कि यदि फलां धर्म वालों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए. न ही कोई ‘आर्यपुत्र’ धर्म के आधार पर नसबंदी को जायज ठहराता था. न ही लाखों लोग केवल इस कारण किसी अभिनेता के चेहरे पर कालिख पोतने पर उतारू हो जाते थे, क्योंकि उसने वह कहा जो हम सुनने को तैयार नहीं हैं.

डॉ. मिश्र को पुरस्कार वापसी की घटना पर क्षोभ है. अब जब मुंह खोला है तो कहीअनकही सब कह जाते हैं. परोक्ष रूप में वे उन अनेक फेसबुकियाओं का समर्थन कर रहे हैं, जो लिखते थे कि जिन्होंने पुरस्कार लौटाया, वे उसके अधिकारी ही नहीं थे. बस दौड़भाग करके किसी तरह से पुरस्कार हथिया लिया था. रिपोर्ट में उनके नाम से छपा है—‘दौड़भाग के सदके हो सकता है कि अतीत में काफी कमजोर लोगों को भी यह पुरस्कार मिल गया हो.’ आशय स्पष्ट है. अतीत में भले ही कुछ कमजोर लेखकों को अकादेमी सम्मान मिला हो, अब उनके रूप में एक ‘मजबूत’ लेखक सामने है. मिश्र जी वयोवृद्ध हैं. वरिष्ठतम भी हैं. उनका लेखकीय सामर्थ्य संदेह से परे है. इसलिए उनके प्रति स्वाभाविक सम्मान के साथ और यह मानते हुए कि लेखकों में कोई छोटाबड़ा नहीं होता, प्रत्येक लेखक अपने आप में विशिष्ट होता है—मैं यह कहना चाहूंगा कि अकादेमी पुरस्कार लौटाने वाले हिंदी लेखकों उदयप्रकाश, कृष्णा सोबती, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी में से कौन है जिसकी लेखन क्षमताओं पर संदेह किया जा सकता है! ये सब उतने पायेदार लेखक तो हैं ही जितने स्वयं मिश्र जी हैं. कुल 35 लेखकों ने अकादेमी पुरस्कार लौटाए हैं. उनमें दूसरी भाषाओं के लेखक भी हैं. जिनके बारे में टिप्पणी करने से मैं बचना चाहूंगा. लेकिन अपनी भाषा में कुछ तो ऐसा सार्थक किया होगा, जिसका नोटिस लेना अकादेमी ने आवश्यक समझा था.

यह बात पहले भी उठी थी कि पुरस्कार वापस कर रहे साहित्यकार, अकादेमी के वर्तमान अध्यक्ष की कुर्सी अस्थिर करना चाहते हैं. डॉ. मिश्र भी उसे आगे बढ़ाते हैं—‘जिन लोगों ने अकादेमी पर एकाधिकार बनाया था, वही एकजुट हो गए और तिवारी जी पर हमला बोल दिया….इस गिरोह को लग रहा होगा कि नए अध्यक्ष के आने से उनके हित आहत हुए हैं.’ तो क्या तिवारी जी इतने कमजोर हैं, कि अपना पक्ष भी नहीं रख सकते. क्यों उन्हें कुर्सी का मोह सताता रहता है. क्या तिवारी सचमुच इतने कमजोर है? ऐसा तो तभी हो सकता है जब अध्यक्ष पद उन्हें खैरात में मिला हो. या फिर जोड़जुगाड़ से प्राप्त किया हो. लेकिन यदि वह उनकी अपनी उपलब्धि है. यदि उन्हें ऐसा लगता है कि सरकार या किसी और संस्था ने अकादमी अध्यक्ष का पद उन्हें खैरात में नहीं दिया है, खुलकर सामने आना चाहिए. यह विडंबना ही है कि जब देखभर के लेखक किसी मुद्दे को लेकर उद्वेलित हो रहे थे तब अकादेमी अध्यक्ष को अपनी कुर्सी की चिंता सता रही थी. और एक लेखक को जब अपनी पुरस्कृत कृति के बारे में चर्चा करनी चाहिए, वह दबी राख को कुरेदने में लगा हुआ है. होचीमिन्ह की एक कविता याद आती है—

प्राचीन कवि सौंदर्य के गीत गाना पसंद करते थे

वर्फ और फूलों के, चंद्रमा और हवा के, कुहरे के

पहाड़ों के और नदियों के

आज की मांग है कि हम लोहे और इस्पात को

कविता के असबाब में शमिल करें

और कवि यह समझदारी भी हासिल करे कि एक

जवाबी कार्रवाही की अगुआई कैसे की जाए

(प्रसंगवश: वामपंथ हालांकि मार्क्सवाद, साम्यवाद या समाजवाद का पर्याय नहीं है. पहली बार इस शब्द को कौन चलन में लाया यह भी मैं नहीं जानता. बावजूद इसके मैं उस व्यक्ति के मौलिक सोच के आगे नतशिर हूं, जिसने सत्ताअभिमुखी और सत्तावंचित लोगों के लिए ‘दक्षिणपंथ’ और ‘वामपंथ’ की शब्दयुति की खोज की. मनुष्य का दाहिना हाथ अधिक सक्रिय होता है. माना जाता है कि सारी पहल वही करता है. वह वामहस्त की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होता है, ऐसा भी लोग मानते हैं. वास्तव में ऐसा भले न हो, फिर भी पूजाविधानों, कर्मकांडों और महत्त्वपूर्ण कार्यों में वरीयता दाहिने हाथ को ही मिलती है. बाएं हाथ से भोजन करना ठीक नहीं माना जाता. यदि कोई अबोध बालक ऐसा करने लगे तो हम फौरन टोक देते हैं. कह सकते हैं कि कहीं न कहीं हम सब शक्ति के पुजारी हैं. हमें ऐसा करने की ही शिक्षा दी जाती है. तदनुसार वामपक्षी वे लोग हुए जो शक्तिवंचित हैं; या बराबर योगदान होने के बावजूद उन्हें शक्तिवंचित मान लिया जाता है. स्त्री को पुरुष से कमजोर माना जाता है, इसलिए उसे पुरुष के वामांग बिठाया जाता है. अब स्त्री चाहे जितने दावे करे कि वह पुरुष से किसी मायने में कम नहीं है, धर्म और संस्कृति में उसकी नियति केवल वामांगी बनना है. इस आधार पर वामपंथी वे लोग हुए जो समाज के दबेकुचले लोगों का पक्ष लेते हैं और समानता की बात करते हैं. साहित्य दमित वर्गों से सहानुभूति रखता है. वंचित वर्गों का पक्ष लेता है, उनके लिए समानता का नारा बुलंद करता है. इसलिए वामपंथी होना उसकी नियति है. ऐसा होते हुए भी कुछ लोग ‘वामपंथ’ को एक गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं, क्या ऐसे लोगों को साहित्यकार माना जा सकता है. कम से कम मैं तो नहीं मानता.)

 ओमप्रकाश कश्यप

संस्कृति और न्याय

आखरमाला

सृष्टि के आरंभ में सभी प्राणी एक पुनीत स्थल पर निवास करते थे. वे सुगंधित हवाओं का आनंद लेते. सुरम्य धरा पर मग्नमन नृत्य करते थे. तब उन्हें न तो भोजन की आवश्यकता थी, न वस्त्रों की, न निजी संपत्ति थी, न सरकार, न ही किसी प्रकार का कानून. धीरेधीरे सृष्टि के पतन का आरंभ हुआ. मनुष्य सुरम्य लोक से पतित होकर पृथ्वी पर आ गिरा. अब उसे भोजन और आवास की आवश्यकता महसूस होने लगी. मनुष्य की आरंभिक पवित्राता और कीर्ति धुल चुकी थी. वर्णव्यवस्था का आरंभ हुआ और लोगों ने एक दूसरे के साथ अनुबंध के आधार पर रहना आरंभ किया. परिवार और निजी संपत्ति उस अनुबंध का हिस्सा बने. इसी के साथ चोरी, हत्या, लूटमार, परस्त्राीगमन जैसे अपराध होने लगे.

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आदर्श राज्य की कसौटी और मृत्युदंड

  • हालात चाहे जो भी हों, मृत्युदंड की बढ़ती संख्या सरकार की सुस्ती और कमजोरी को दर्शाती है. दुनिया में ऐसा कोई मनुष्य नहीं है, जिसमें कुछ अच्छाई न हो. इसलिए जब तक किसी अपराधी को ऐसे स्थान पर रखना संभव है जहां वह समाज को कोई नुकसान न पहुंचा सके, तब तक मृत्युदंड सुनाने से बचना चाहिए.—रूसो.

  • अनेक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें मनुष्यता के हित में जीवित रहना चाहिए था. अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जो जीवित होकर भी मृत्यु की कामना करते हैं. क्या तुम उन्हें उनका वांछित दे सकते हो? यदि नहीं तो न्याय के नाम पर मौत बांटने की जल्दबाजी मत दिखाओ.—जे. आर. आर. टोलीकन.

  • ईश्वर की निगाह में हत्या केवल हत्या है. न्यायिक हत्या जैसी कोई अवधारणा नहीं है. यह केवल कानून की निगाह में न्यायसंगत है.—डेविड जे. मार्टिंज.

  • राज्य परमात्मा नहीं है. उसे ऐसी चीज को लेने का कोई अधिकार नहीं है, जिसे आवश्यकता पड़ने पर लौटा न सके.—अंतोन चेखव.

  • मृत्युदंड खूब सोचीसमझी हत्या है.—अल्बर्ट केमस.

  • किसी के भी साथ, बुराई के बदले में बुरा मत करो.—बाइबिल

धम्मपद(10/1) की व्यवस्था है—सब्बे तसंति दंडस्स सब्बे भायंति मच्चुनो….सब्बे तसंति दंडस्स सब्बेसं जीवितं पियं. अत्तानं उपमं कृत्वा न हनेय्य, न घातये.’—‘सभी दंड से डरते हैं, सभी को मृत्यु से भय लगता है. जीवन सभी को प्रिय है—अत प्रत्येक को अपने समान समझकर किसी की हत्या न करें, न किसी को दूसरे की हत्या के लिए उकसाएं.’ यह सामान्य मनोविज्ञान पर केंद्रित सत्य है. जितना यह सत्य है, उतना ही व्यावहारिक भी है. प्रत्येक समाज अपेक्षा करता है कि उसकी सदस्य इकाइयां मिलजुल कर रहें. आवश्यकता पड़ने पर एकदूसरे की मदद करें. एकदूसरे के अधिकार का सम्मान करें. लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता. लोग अज्ञानतावश, अपने स्वार्थ की खातिर, दूसरों के उकसावे में अथवा उत्तेजनावश—राज्य अथवा समाज के कानूनों का उल्लंघन कर बैठते हैं. अपराध राज्य, समाज या व्यक्ति के विरुद्ध किया जाता है. रूप चाहे जो हो, प्रत्येक अपराध दूसरों के जीवन में अवांछित हस्तक्षेप होता है. दंड उसका सामान्य प्रतिदेय है. इसलिए वह राज्य को, जो नागरिक जीवन में शांतिसुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है—बलप्रयोग का अवसर देता है. जनता द्वारा सौंपे गए अधिकारों के आधार पर राज्य अपराध की समीक्षा कर, कानून के प्रावधानों के अनुसार उपयुक्त दंड का निर्धारण करता है. राज्य या समाज के विरुद्ध अपराध के मामले में समाज और राज्य दोनों को यह अधिकार होता है कि वे अपराध की कोटि के अनुसार दंड तय कर सकें. आधुनिक राज्यों में एक सीमा से ऊपर समाज के अधिकारों को प्रतिबंधित कर दिया जाता है. मगर ‘व्यक्ति के विरुद्ध अपराध’ के मामले में पीडि़त को स्वयं न्याय करने का अधिकार नहीं होता. यहां तक कि अपराधी भी प्रायश्चितस्वरूप अपने लिए दंड खुद निर्धारित करना चाहे, तो भी विधिसंहिता उसे अमान्य करार देती है. न्याय के लिए उसे न्यायालय की शरण में जाना ही पड़ता है. दंडनिर्धारण में राज्य की भूमिका सर्वोपरि और समाज के निष्पक्ष अभिकर्ता की होती है. केवल अपराधी को दंड देना उसका मकसद नहीं होता. दंड प्रणाली का अंतिम ध्येय होता है—समाज को अपराधमुक्त कर, सुखशांतिमय बनाना. अपराध समाज की नकारात्मक प्रवृति है. उनके पीछे व्यक्ति या व्यक्तिसमूहों का हाथ हो सकता है, मगर उनकी आपराधिक मनोवृत्ति के निर्माण में कुछ न कुछ भूमिका उसके परिवेश की भी होती है. अतएव श्रेष्ठ राज्य दंड निर्धारण की प्रक्रिया के दौरान शक्ति प्रदर्शन में ऊर्जा खपाने से बचता है, बचना चाहिए. इस ध्येय में कितना सफल हो जाता है, यह प्रत्येक प्रकरण में विचारणीय रह जाता है.

अपराधी को दंडित करने के पीछे राज्य की दुहरी मंशा होती है. पहली, अपराधी समझ ले कि वह अपने किए के परिणाम से मुक्त नहीं है. दूसरी यह कि बाकी लोगों को उससे सबक मिले. वे लोभलालच, उत्तेजना, अज्ञानता अथवा दूसरों के बहकावे में आकर कानून भंग करने की कोशिश कभी न करें. इनमें पहले को प्रतिकारात्मक न्याय और दूसरे को निवारणरात्मक न्याय कहा जाता है. प्रतिकारात्मक न्याय एक तरह से अपराधी को राज्य और समाज की ओर से प्रत्युत्तर होता है. ‘शठे शाठयं समाचरेत’ की शैली में क्रिया की प्रतिक्रिया. उसमें दंड निर्धारण की प्रक्रिया कार्यकारण सिद्धांत पर टिकी होती है. जनसाधारण की भाषा में इसे ‘जैसा बोओगे—वैसा काटोगे’, ‘जैसी करनी—वैसी भरनी’ आदि भी कहा जाता है. प्रतिकारात्मक न्याय की सैद्धांतिकी कहती है—जिसने अपराध किया है, वह दंड का अधिकारी है. आदमी जैसा बोता है, वैसा ही काटता है. अतः अपराधी को उसके अपराध का दंड मिलना ही चाहिए. किंतु केवल उतना दंड मिलना चाहिए, जितना उसने अपराध किया है. भिन्न अपराधियों को समान अपराध के लिए समान दंड मिलना चाहिए. साथ ही केवल और केवल अपराधी को दंड मिलना चाहिए. ऐसा न होने पर लोगों का न्यायव्यवस्था से विश्वास उठने लगता है. उससे अपराधी के समाज की मुख्यधारा में लौटने के अवसर कम हो जाते हैं.

कल्याण राज्य में राज्य और नागरिक परस्पर संविदा के आधार पर बंधे होते हैं. उसके अनुसार राज्य लोगों के जानमाल की रक्षा का दायित्व उठाता है. तो नागरिकों से भी यह अपेक्षा करता है कि वे इस कर्तव्य में उसके साथ पूरी तरह सहयोग करें. जैसे राज्य अपने नागरिकों से अलग नहीं होता, वैसे ही बिना राज्य के नागरिकों की सामाजिक सुरक्षा भी संकट में पड़ जाती है. इसलिए राज्य के कर्तव्यों के साथ सहयोग करते हुए उसके साथ एकजुटता दिखाना, प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है. यह भी कि नागरिक कर्तव्यों से इतर नागरिकअधिकार शून्य होते हैं. अतः जब कोई व्यक्ति नागरिक कर्तव्यों का उल्लंघन करता है, तो उसके नागरिक अधिकार भी उसी अनुपात में सीमित होने लगते हैं. रूसो के अनुसार जब कोई व्यक्ति चोरी या राहजनी जैसा अपराध करता है तो वह अपने संपत्ति अधिकार स्वतः गंवा देता है. इसी तरह दूसरे की हत्या करने वाला अपराधी अपनी प्राणरक्षा का अधिकार खो देता है. निजता मनुष्य का संवैधानिक अधिकार है. कानून के उल्लंघन के साथ अपराधी से यह अधिकार भी छिन जाता है. इससे राज्य को उसके जीवन में हस्तक्षेप करने का अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाता है. आपराधिक मानसिकता वाले व्यक्ति से दूसरों को बचाने तथा समाज में शुचिता की स्थापना के लिए दंड आवश्यक हो जाता है. प्रकारांतर में निवारणात्मक न्याय भी ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ होता है. उसमें भी ‘आंख के बदले आंख’, ‘जैसे को तैसा’ वाली शैली में न्याय किया जाता है. मगर महत्त्व अपराधी को ताड़ने से ज्यादा दंड के लाक्षणिक परिणाम का होता है. उन स्थितियों के निवारण का होता है, जो अपराध की संभावनाओं को जन्म देती हैं. अपराध के कारण का निवारण ही न्याय है. उसमें राज्य यह मानकर चलता है कि सुधार के लिए दंड आवश्यक है. कानून के भय से अपराधी मनोवृत्ति वाले लोग अपकर्मों से दूर रहेंगे. फलस्वरूप समाज में शांतिव्यवस्था कायम होगी. उसके अनुसार हत्यारे को दिया गया मृत्युदंड निर्दोष लोगों की प्राणरक्षा करता है.

केविन कूपर कैलीफोर्निया का रहने वाला था. एक अपराध में उसे मृत्युदंड की सजा दी गई. दिन निर्धारित किया गया—10 फरवरी 2004. जेल में मृत्युदंड संबंधी सारी तैयारियां हो चुकी थीं. कूपर मान चुका था कि यह उसके जीवन का अंतिम दिन है और कुछ ही घंटों में उसका प्राणांत कर दिया जाएगा. लेकिन वधस्थल पर मृत्युदंड की कार्यवाही के दौरान, तय समय से बामुश्किल चार घंटे पहले कूपर को अचानक सूचना मिली कि उसकी सजा माफ कर दी गई है. एक साक्षात्कार के दौरान कूपर ने अपनी आपबीती इस प्रकार बयान की है—

‘‘उन्होंने सबसे पहला काम यह किया कि मेरी शरीर को दूसरे पिंजड़े में ढकेल दिया. इस प्रकार कि वे मुझपर निरंतर नजर रख सकें. पिंजड़ा बेहद गंदा और घिनौना था. जब से बना था, शायद ही किसी ने उसकी सफाई की थी. वर्षों पुरानी धूल और गंदगी उसमें जमा थी. मैंने उसमें कई दिन उसको रगड़तेखुरचते हुए बिताए. जेल के कर्मचारी मुझे हर घंटे देखने के लिए आते. कदाचित उन्हें भय था कि मैं फांसी से पहले ही मरकर उन्हें धोखा न दे दूं. यह क्रम पूरे दो सप्ताह चला. इस बीच मेरा हालचाल लेने डॉक्टर, मनोवैज्ञानिक, नर्स तथा जेल के अधिकारीगण लगातार आते रहे. वे मेरे कपड़ों की माप जानना चाहते थे….एक बार अचानक आधी रात को वे आए और फोटो खींचने के लिए ले गए….उसके बाद मुझे अस्पताल ले जाया गया, ताकि मृत्युदंड स्क्वाड मेरा साइज माप सके….मेरे सामने ही डॉक्टर मेरे मृत्युदंड पर चर्चा करते रहे…..उन्होंने पूछा कि मेरी नसें कहां हैं? उनका चित्र भी खींचा गया, मुझे बताए बिना ही. ऐसी ही कार्रवाही में कई सप्ताह गुजर गए.

मृत्युदंड का दिन जैसेजैसे करीब आ रहा था, इस तरह की गतिविधियां बढ़ती ही जा रही थीं. फिर मुझे वधस्थल के ऊपर स्थित कक्ष में ले जाया या. एक व्यक्ति घड़ीघड़ी मेरा मुआयना कर मेरी एकएक गतिविधि को नोट कर रहा था. उन्होंने मेरे हाथों में हथकड़ी डालकर साइड में कसकर बांध दिया. इस बीच पहरेदार लगातार मुझपर नजर रख रहे थे….मृत्युदंड के एक दिन पहले मेरा अंतिम रूप से चैकअप किया गया. 14 हथियारबंद सैनिक मुझे बधस्थल के बराबर वाले पिंजड़े में ले गए. वहां उन्होंने मेरी हथकडि़यां खोल दीं. नंगा करके मेरी तलाशी ली गई—‘हमने जो किया, क्या उससे तुम्हें कोई परेशानी हुई?’ तलाशी के दौरान उन्होंने बेहूदा सवाल किया था.

मैं नीलामी पटल पर बैठे दास की भांति अनुभव कर रहा था. उन्होंने मुझे जगहजगह से कोंचा, जानवर की तरह उंगलियां गाढ़गाढ़कर देह को जांचापरखा. मुझे गर्दन तानकर खड़ा होने को कहा गया, फिर झुकाकर देखा गया, मेरे अंडकोश को उठाया, परखा….मेरे पीछे मृत्युदंड के लिए आवश्यक सारा सामान खुला पड़ा था….सब कुछ बेहद अमानवीय और भद्दा था. मृत्युदंड में चार घंटे से कम ही बचे थे कि फोन की घंटी बजी. उच्चतम न्यायालय ने मेरी फांसी का तख्ता हटाने का निर्णय लिया था. मेरी देह में सांस वापस लौटने लगी. उस घटना के बाद मैं भयानक मानसिक यंत्रणा से गुजर रहा था. मुझे अकेला छोड़ दिया गया. कोई मदद नहीं, डॉक्टर नहीं, नर्स नहीं. जितने समय में मृत्युदंड की कार्रवाही के दौरान यंत्रणा से गुजरा, मेरी नजर हमेशा घड़ी पर टिकी रहती थी. कैसे उस यंत्रणा से बाहर आऊंकुछ घंटे नहीं, दिन नहीं….बल्कि महीनों तक.’— इस यातना पर कूपर की टिप्पणी थी, ‘मृत्युदंड देने से पहले ही वे हमारी मानसिक हत्या कर देते हैं.’

अपराध की सजा भुगतने के साथ ही व्यक्ति के नागरिक अधिकार उसे वापस मिल जाते हैं. मान लिया जाता है कि व्यक्ति अपराधकर्म के भार से मुक्त हो चुका है. उसे समाज में बाकी नागरिकों की तरह सम्मानपूर्ण जीने का अधिकार है. अतः उसे यह अवसर मिलना भी चाहिए. लेकिन समाज आमतौर पर भावनाओं के आधार पर फैसले लेता है और अपनी स्मृतियों को ताजा रखता है. इसलिए कानून से बरी हुए लोगों को वह आसानी से बरी नहीं करता. समाज के व्यवहार से आहत नागरिक अपराध की दुनिया में वापस लौट सकते हैं. इस समस्या के निदान हेतु न्याय की तीसरी सैद्धांतिकी सामने आती है. उसमें अपराधी को दंड देने के अलावा उसके पुनर्वास का भी ध्यान रखा जाता है. इसके लिए काराग्रहों में अपराधियों के विशेष शिक्षणप्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है. कल्याण राज्य में इसे न्याय प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है. किंतु हत्या, बलात्कार और राजद्रोह जैसे गंभीर मामलों में राज्य यह मान लेता है कि अपराधी जघन्यता की समस्त सीमाओं को पार कर चुका है. उसके व्यक्तित्व में सुधार की सभी संभावनाएं समाप्त हो चुकी हैं. उस अवस्था में राज्य अपराधी को मृत्युदंड जैसा क्रूरतम दंड देता है. इस तरह मृत्युदंड राज्य के क्षोभ, गुस्से और हताशा की स्थिति को दर्शाता है.

सवाल है कि जीवंत राज्य को जो पारदर्शी होने का दावा करता है, कल्याणराज्य होने का दम भरता है, उसे गुस्सा, हताशा और क्षोभ जैसे नकारात्मक लक्षण क्या शोभा देते हैं? क्या मृत्यु का भय, फांसी का भय, मनुष्य को अपराध से सचमुच दूर रख पाता है? समाज में ‘शुभता’ की स्थापना के लिए राज्य की ‘कांटे से कांटा निकालने की युक्ति’ क्या सचमुच कारगर सिद्ध होती है? आंकड़ों पर गौर किया जाए तो इसके परिणाम न केवल नकारात्मक हैं, बल्कि एकदम विपरीत दिशा की ओर ले जाते हैं. उनसे पता चलता है कि क्रूरता, चाहे व्यक्ति की हो अथवा राज्य की, वह राज्य और समाज दोनों को क्रूरतम स्थितियों की ओर ले जाती है. प्रतिहिंसा हिंसा को वैध ठहराती है. राज्य की क्रूरता उसकी असंवेदनशीलता को दर्शाती है. प्रकारांतर में वह समाज में भी असंवेदनशीलता पैदा करने लगती है. जबकि राज्य की उदारता समाज को निर्मैल्य कर शुभता का संचार करती है. उदाहरण के लिए भारत में बलात्कार के अपराधी धनंजय चटर्जी को 14 अगस्त 2004 को फांसी दी गई थी. उसके बाद 2011 तक किसी भी अपराधी को फांसी नहीं दी गई. ‘राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो’ की रिपोर्ट के हवाले से ‘एशियन सेंटर फाॅर ह्यूमेन राइट्स’ ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि 2001 में देश में कुल 36,202 हत्याओं के मामले दर्ज किए गए थे. जबकि 2011 में यह आंकड़ा गिरकर 34,305 तक सिमट गया. जबकि इस अवधि में देश की कुल जनसंख्या 1.028 अरब से बढ़कर 1.21 अरब तक पहुंच गई. दूसरे शब्दों में फांसीमुक्त अवधि के दौरान हत्या के मामलों में, 18 प्रतिशत जनसंख्या वृद्धि के बावजूद, पांच प्रतिशत से अधिक की कमी दर्ज की गई.

स्पष्ट है कि राज्य की क्रूरता, सामाजिक क्रूरता और असहिष्णुता को कम करने के बजाय और बढ़ाती है. लोग यदि यह महसूस करें कि राज्य कठोर संस्था है; तो वे यह भी मानने लगते हैं कि विशेष परिस्थितियों में कठोरता एवं अनुदारता भी अच्छे गुण हैं. यदि गुस्से या आक्रोश की स्थिति बन जाए तो में वे ‘जैसे को तैसा’, ‘खून का बदला खून’ की तर्ज पर खुद न्याय करने लग जाते हैं. भूल जाते कि राज्य की कठोरता विशिष्ट परिस्थितियों के लिए है. मामला चाहे जितना गंभीर हो किसी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं कि वह स्वयं न्याय करने लग जाए. इसलिए यदि कोई कहता है कि ‘बुरे’ को हटाने का एकमात्र उपाय उसकी मृत्यु है और सजा के रूप में मृत्युदंड बना रहना चाहिए तो यही बात हत्यारे के लिए भी लागू होती है, क्योंकि हत्या के समय वह सिर्फ अपने प्रतिपक्षी की बुराई के बारे में सोच रहा होता है. उस अवस्था में हत्या उसे एकमात्र विकल्प दिखाई पड़ती है.

कुछ विद्वान मृत्युदंड को बर्बर न्याय का प्रतीक मानते हैं. वह है भी. न केवल बर्बर बल्कि निरर्थक भी. ‘बी’ की हत्या के दंडस्वरूप राज्य द्वारा ‘ए’ को मृत्युदंड देने से ‘बी’ को जीवन वापस नहीं मिल जाता. बल्कि समाज को दुहरीतिहरी हत्या को झेलना पड़ता है. पहली वह जिसे ‘ए’ व्यक्तिगत स्तर पर, जानबूझकर या किसी के उकसावे अनायास करता है. दूसरी ‘बी’ की हत्या जिसे राज्य बहुत ठंडे दिमाग से, सोचीसमझी गई नीति के तहत सांस्थानिक रूप से करता है. राज्य की हत्या न्यायसम्मत होती है, इस कारण वह हत्या के अपराध से बरी होता है—‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति.’ की तर्ज पर उसे समाज की ओर से इसकी अनुमति होती है. लेकिन मृत्युदंड यदि राज्य के कोप की चरमपरिणति है तो वह हत्यारे के कोप की चरमपरिणति भी हो सकता है. इस आधार पर राज्य उसे रोकने का नैतिक आधार खो देता है. नीति का तकाजा है कि राज्य को व्यक्ति की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान, उदार, सहिष्णु और संवदेनशील होना चाहिए. गुस्से पर नियंत्रण रखना अपने आप में सद्गुण है—अतः राज्य के कोप का परिणाम, विशेषकर अपने नागरिकों के संदर्भ में, उसकी चरम परिणति यानी मृत्युदंड से सदैव नीचे रहना चाहिए. तभी वह नैतिक रूप से अपने नागरिकों को उदारता का संदेश दे सकता है.

पुराने जमाने में राजामहाराजा राज्य की सुरक्षा के लिए सीमा पर जाकर खुद दुश्मन से लोहा लेते थे. इसलिए राज्य को उनकी अर्जित संपदा मान लिया जाता था. इस अधिकारिता के दबाव में प्रजा राजा के तानाशाही पूर्ण आचरण को भी सह लेती थी. अब वह बात नहीं है. आधुनिक राज्य जनता की अपनी अधिरचना है. नागरिक अपने खूनपसीने की कमाई से राज्य का खर्च वहन करते हैं. उसकी सुरक्षा के लिए दुश्मनदेशों से लोहा लेते हैं. इसलिए राज्य से अपनी अपेक्षाओं को वे न्यायसंगत मानते हैं. अपेक्षाओं की उपेक्षा का एहसास उनके मन में राज्य के प्रति आक्रोश को जन्म देता है. आक्रोश के एक सीमा से पार जाते ही असंतुष्ट समूह विद्रोह पर उतर आते हैं. ऐसे अवसरों पर राज्य की असंवेदनशीलता नागरिकों को असहिष्णु बनाती है. इसके प्रमाण दुनियाभर के सभी देशों में हैं. अमेरिका में फांसी की सजा को नरहत्या और आतंकवाद के मामलों तक सीमित कर दिया गया है. एफबीआई की क्राइम रिपोर्ट के अनुसार 2010 में अमेरिकन संघ के जिन राज्यों में मृत्युदंड को निषिद्ध कर दिया गया था, वहां एक लाख नागरिकों के पीछे 4.1 हत्याएं दर्ज की गई थीं. जबकि उन राज्यों में जहां मृत्युदंड प्रभाव में था, प्रति एक लाख नागरिकों के पीछे 5 हत्याएं होती थीं. रिपोर्ट बताती है कि 1990 से 2010 के दौरान अमेरिका के मृत्युदंड समर्थक और मृत्युदंड को निषिद्ध घोषित कर चुके राज्यों के बीच हत्या के मामलों में अंतर 4 प्रतिशत से बढ़कर 25 प्रतिशत तक हो गया था. स्पष्ट है कि मृत्युदंड के मामलों में निवारणात्मक न्याय की सैद्धांतिकी भी नाकाम सिद्ध हुई है. इस तथ्य को स्वीकार चुके देश मृत्युदंड से धीरेधीरे पलायन कर रहे हैं. एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार 2014 में 98 देश ऐसे थे जिनमें मृत्युदंड की सजा को पूरी तरह समाप्त कर दिया है. जबकि कुल 140 देश ऐसे हैं जहां मृत्युदंड या तो पूरी तरह बाहर है, अथवा उसपर व्यावहारिक रूप से अमल नहीं किया जा रहा है. हालांकि इस बीच मृत्युदंड के मामलों में तेजी आई है. इसी रिपोर्ट के अनुसार 2014 में दुनियाभर में लगभग 607 अपराधियों को मृत्युदंड दिया गया, जो 2013 के मुकाबले 22 प्रतिशत कम है. दूसरी ओर 2014 में 2466 अपराधियों को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई, जो 2013 के सापेक्ष 28 प्रतिशत अधिक है.

साफ है कि एक ओर जहां संख्यात्मक आधार पर मृत्युदंड बढ़ रहे हैं, वहीं सजा पर अमल के मामलों में तेजी से कमी आ रही है. यह न्यायालयों के असमंजस को दर्शाता है. समाज में बढ़ रहा आक्रोश, आंतरिक तनाव, जनाकांक्षाओं का दबाव आदि सरकार के सामने शांति और व्यवस्था बनाए रखने की चुनौती पेश करते हैं. अपने ही अंतर्विरोधी में घिरी सरकारें जब टालमटोल करती हैं तो बात घूमफिरकर अदालतों पर आ जाती है. हर अपराध के बाद लोगों की उम्मीदें न्यायालय पर केंद्रित होकर रह जाती हैं. मृत्युदंड के विरोध में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ता दबाव भी फांसी की सजा पर अमल को टालने का कारण है. धनंजय चटर्जी के बाद, राज्य के विरुद्ध आतंकवाद के मामलों को छोड़कर बाकी अपराधों में फांसी की सजा को अघोषित रूप से टाला जाता रहा है. परिणामस्वरूप भारत समेत पूरी दुनिया में मृत्युदंड प्राप्त अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है. ‘राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो’ की रिपोर्ट के अनुसार 2001-2011 के दशक में भारत में कुल 1455 व्यक्तियों को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई, जबकि इसी अवधि में 4321 अपराधियों के मृत्युदंड को आजीवन कारावास की सजा में बदल दिया गया. बहरहाल, उदार राज्य की दावेदारी के बावजूद भारतीय अदालतें प्रतिवर्ष 132.27 व्यक्ति यानी हर तीसरे दिन एक व्यक्ति को मृत्युदंड की सजा सुनाती रही हैं, जो कि एक विचारणीय प्रश्न है.

दुनियाभर में बढ़ती अशांति और हलचल के बावजूद मृत्युदंड के मामलों में गिरावट की सीधी वजह यही है कि सरकारें मान चुकी हैं कि अपराधियों को मृत्युदंड देने भर से समाज में शांति और स्थिरता की स्थापना असंभव है. कदाचित वे जान गए है कि समाज में हत्या और बलात्कार के मामलों का कारण समाज का चारित्रिक पतन नहीं है. अपराध इसलिए बढ़ रहे हैं कि क्योंकि सामाजिक स्तर पर समस्याएं भी बढ़ रही हैं तथा राज्य अपने कर्तव्य की पूर्ति में नाकाम सिद्ध हुए हैं. लोग यह जान जानने लगे हैं कि राज्य उनका अभिभावक नहीं है. बल्कि उनकी बनाई गई संस्था है, इसलिए वे अपने अधिकारों की मांग के लिए, न्याय के लिए—खुलकर सामने आते हैं. बाकी लोगों के समानांतर उनकी मांग गलत हो सकती है. रास्ता भी गलत हो सकता है. मगर परिस्थितियां चाहे वह राज्य की हताशा या असफलता से जन्मी हों अथवा धार्मिक, राजनीतिक स्वार्थी तत्वों की साजिश से, वे वास्तविक होती हैं. राज्य को उनके समाधान के तत्काल गंभीर प्रयास करने चाहिए. ऐसे मामलों में मृत्युदंड जैसी सजाएं कई बार आग में घी डालने का काम करती हैं. राज्य जिसे कानून कहता है, विरोधी उसे राज्य की ‘तानाशाही’ कहकर प्रचारित करते हैं. फांसी उनकी निगाह में धर्मयज्ञ की आहूति बन जाती है.

आंख के बदले आंख’ का दंडविधान बहुत पुराना है. मृत्युदंड की ऐतिहासिकता को दर्शाता हुआ सबसे पहला उल्लेख मिस्र में ईसा से 1600 वर्ष पहले का है. उस दौर में मनुष्य जंगलों में पशुओं के साथ रहता था; और जंगली न्याय की प्रवृत्ति को त्यागने की कशमकश में था. उस न्याय के अनुसार निर्बल को सबल के आगे झुकना ही पड़ता था. सहअस्तित्व और असहमतियों के साथ जीने की कला का तब तक विकास ही नहीं हुआ था. वहां विरोध से निपटने का एकमात्र रास्ता था—युद्ध. उसमें भी बात जान लेनेदेने तक चली जाती थी. दुनिया की जो आरंभिक दंड संहिताएं बनीं—उरुकजीन, उरनाम्मु, लिपितइस्तर, हम्मुरबी से लेकर सम्राट ड्रेसो के संविधान तक, सभी में मृत्यु दंड को सजा के रूप में सम्मिलित किया गया था. शुद्धतावादी ड्रेसो के संविधान में मानवीय चूकों के लिए कोई स्थान नहीं था. गलती चाहे जानबूझकर की जाए अथवा अनजाने, अपराध छोटा हो या बड़ा, मामूली चोरी हो या बदचलनी, उसमें सबके लिए मृत्युदंड का प्रावधान था. ड्रसो के अतिवाद का दुष्परिणाम यह हुआ कि निर्दोषों को भी सजा मिलने लगी. राज्य की ऐसी मनमानी लोगों को खलनी ही थी. धीरेधीरे जनता में विद्रोह पनपने लगा. आगे चलकर सोलोन ने ड्रेसो की भूल का समाधान किया. सोलोन के बाद यूनान में सुकरात, प्लेटो और अरस्तु जैसे महान विचारक जन्मे, मगर एक ने भी मृत्युदंड की सजा का विरोध नहीं किया. कांट, जा॓न स्टुअर्ट मिल, हा॓ब्स, बैंथम जैसे मानवतावादी विचारक भी ‘क्रूरतम अपराध के लिए क्रूरतम दंड’ के समर्थक रहे हैं. यह भी सच है कि इतिहास में मृत्युदंड के विरुद्ध पहली आवाज भी पश्चिम में एथेंस से उठी थी. वहां 427 ईस्वीपूर्व में थूसाइडिड ने मिटलेलियन विद्रोह के दौरान एक कानूनी दस्तावेज तैयार किया था. उस दस्तावेज में मृत्युदंड के औचित्य पर सवाल उठाए गए थे. उस प्रस्ताव को सभी ने सराहा. फलस्वरूप स्पार्टा के युद्धबंदियों के मृत्युदंड को टाल दिया गया था.

भारत में भी मृत्युदंड को धार्मिक ग्रंथों की मान्यता मिलती रही. धर्मशास्त्रें में चोरी, राहजनी, हत्या आदि के लिए मृत्युदंड की व्यवस्था थी. चाणक्य ने भी मृत्युदंड का समर्थन किया है. ‘प्राण के बदले प्राण’ की दंडनीति तो पुरानी है ही. देखा जाए तो वह दौर ही ऐसा था. सहअस्तित्व की संभावनाएं ही नहीं थीं. सत्ताएं झूठ के सहारे पलतीं. सम्राट स्वयं को या तो देवानाम् प्रिय बताते थे, या देवताओं के उत्तराधिकारी. बुद्धिजीवी इस झूठ को सच बनाते थे. वे खुद भी इस झूठ में रहते थे कि एकमात्र उन्हीं का विचार सर्वोत्तम है. ऐसे में विरोध का एकमात्र प्रतिदेय था—मृत्युदंड. यह कैसे और किस रूप में दिया जाए यह जरूर चयन का मसला था. शंकराचार्य से पराजित मीमांसक मंडन मिश्र को ‘मरना’ ही पड़ता है. बाद में उनका अवतार ‘सुरेश्वराचार्य’ वेदांती बनकर जीवित रहता है. मंडन मिश्र के गुरु कुमारिल भट्ट को इसलिए आत्महत्या करनी पड़ती है क्योंकि उन्होंने दुस्साहसी बनकर अपनी जिज्ञासा को शांत करना चाहा था. नीयत वही थी, जैसा उस समय की परंपरा थी—दूसरे को पराजित कर अपने संप्रदाय में सम्मिलित करने की. उन्होंने बौद्धों को उन्हीं के हथियार से पराजित करने की मंशा से बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया था. गलती यह की कि इसके लिए गुरु की पूर्वाज्ञा लेना भूल गए थे. इसलिए परंपरानुसार प्राणत्याग को स्वीकारना पड़ा. राजा जिसे चाहे उसे मृत्युदंड दे सकता था. इस तरह राजा के हर अपराध पर अपराध पर पर्दा डालने, मृत्यु को ‘प्रसाद’ बनाने का खेल भी उस युग में आरंभ हुआ. इसके लिए ‘मुक्ति’ का मिथक रचा गया. इस घालमेल से सबकुछ बदल गया. ‘हत्या’ को ‘प्रसाद’ कहा जाने लगा. अपराध ‘धर्मकार्य’ के रूप में पूजित होने लगा….वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति!

बहरहाल, धर्मशास्त्रों में परस्त्रीगमन, राहजनी, राजद्रोह आदि के लिए भी मृत्युदंड की सजा का प्रावधान है. हालांकि दंड निर्धारण से पहले अपराधी का वर्ग अवश्य देखा जाता था. राजा दंडाधिकारी भी होता था, ब्राह्मण उसका प्रमुख मार्गदर्शक. राजा को पृथ्वी पर ईश्वरीय प्रतिनिधि माना जाता था. इसलिए उसका निर्णय अंतिम और सर्वस्वीकार्य होता था; और कई बार तो उसे देवताओं का फैसला बताकर पेश किया जाता था. महाभारत में एक ओर जहां ‘न हि मानुषात श्रेष्ठतरं हि किंचितः’(मनुष्य के लिए मनुष्य को श्रेष्ठतम है) कहकर मनुष्यत्व का सम्मान किया गया, दूसरी ओर मृत्युदंड को धर्मकार्य की संज्ञा दी गई. महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध जैसे अहिंसा समर्थक विचारक भी मृत्युदंड के मामले में मौन बने रहे. बुद्ध ने अंगुलिमाल जैसे डाकू को संघ में शामिल कर, यह संकेत अवश्य दिया कि क्षमा सबसे कारगर हथियार है और समाज से बुराई को मिटाने का उपाय ‘बुरे’ को मिटा देना नहीं है, बल्कि उस मानसिकता को बदलना है जो बुरे कर्म की ओर प्रवृत्त करती है. मानसिकता बदल जाए तो डाकू रत्नाकर के आदि कवि वाल्मीकि बनते देर नहीं लगती.

अभी तक हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मृत्युदंड अमानवीय है. क्रूरता से क्रूरता को नहीं मिटाया जा सकता. लेकिन आधुनिक राज्य तो लोगों की सहमति से चलता है. समाज से अलग राज्य की कोई सत्ता नहीं है. राज्य को उसकी शक्तियां समाज की ओर से प्राप्त होती हैं. इसलिए कोई राज्य यदि मृत्युदंड को सजा के रूप में अपनाए हुए है तो यह तय है कि उस सजा को अमल में लाने के लिए आवश्यक शक्तियां और समर्थन उसे समाज की ओर से प्राप्त हैं. कोई समाज यदि शांति और अनुशासन के लिए मृत्युदंड को आवश्यक मानता है तो इसमें राज्य का क्या दोष! शरीर का कोई अंग यदि गल जाए तो हम, अनमने भाव से ही सही, उस अंग को आवश्यकतानुसार काटने तक की अनुमति दे देते हैं. बाकी शरीर को गलने से बचाने के लिए वैसा जरूरी होता है. एक अपराधी को फांसी यदि अनेक निरपराधों की जीवनरक्षा करती है तो उसे जनहित में स्वीकारना ही चाहिए. मृत्युदंड के समर्थक यह भी कहते हैं कि आतंकवादियों और बलात्कारियों को जेल में रखकर उन्हें खिलानापिलाना, उनकी सुरक्षा पर बेशुमार जननिधियां खर्च करना अनुचित है. हत्या करने के साथ ही हत्यारा अपने प्राणों पर अधिकार खो देता है. इसलिए ऐसे दुर्दांत अपराधी को तुरंत फांसी दे देनी चाहिए. फांसी के समर्थन में इस प्रकार के तर्क अकसर सुने जाते हैं. यदि धर्म बीच में आ जाए तो लोगों की घृणा और उत्तेजना आसमान छूने लगती हैं.

यह ठीक है कि राज्य समाज की अधिरचना है. लेकिन श्रेष्ठ राज्य माध्यम भी है, जो समाज की शुभता को अपने नागरिकों तथा बाकी राज्यों और समाजों के सामने लाता है. समाज की रचना होने के बावजूद राज्य उसकी इच्छाओं को ज्यों का त्यों नहीं स्वीकारता. वह उन्हें परंपरा, संस्कृति, कानून, नैतिकता, न्याय आदि के मापदंडों पर तौलता है. तदनंतर सिर्फ उन्हीं इच्छाओं को व्यवहार में लाता है, जो समाज के अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम कल्याणकारी सिद्ध हो सकें. दूसरे शब्दों में समाज की रचना होकर भी राज्य उसके तात्कालिक मार्गदर्शक का काम करता है. कल्याण योजनाओं को इस रूप में लागू करता है कि वे सभी की सामान्य पहुंच में हों. उनसे सभी का लाभ हो. अपने नागरिकों के बीच न्याय और कल्याण का समवितरण करते रहना राज्य का कर्तव्य है, उपकार नहीं. यह समाज द्वारा व्यक्त किए गए विश्वास का राज्य की ओर से कृतज्ञता ज्ञापन होता है. इसलिए यदि समाज इन कर्तव्यों की पूर्ति में असफल रहता है, यदि उसमें ढेर सारी विसंगतियां हैं, ऊंचनीच के अनगित टापू, भेदभाव, अंतर्विरोध, अविश्वास तथा उनसे जन्मा असंतोष है….सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्तर पर भारी असमानताएं हैं, जिनके चलते संपन्न और दबंग लोग न्यायप्रणाली की कमजोरियों को पहचानकर बरी छूट जाते हैं. यदि फांसी के सजायाफ्ता मुजरिमों में 93.5 प्रतिशत पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक, एकचौथाई निरक्षर और तीनचौथाई आर्थिक रूप से विपन्न हैं. उनमें से एकचौथाई यदि कहते हैं कि उन्हें अपना पक्ष रखने का पर्याप्त अवसर नहीं दिया गया, यहां तक कि उनके वकील को भी उनसे दूर रखा गया, यदि राज्य ऐसे आरोपों को सुनकर भी अनसुना किए रहता है तो यह न केवल उसकी असंवेदनशीलता का परिचायक है, बल्कि मनुष्यता की नजर में गंभीर अपराध भी है.

भारत जैसे देशों में जहां भारी असमानता है, समाज का एकतिहाई हिस्सा अनपढ़ है, और दोतिहाई हिस्सा सामान्यरूप से पढ़ालिखा, वहां मृत्युदंड को बनाए रखने का कोई कोई औचित्य समझ से परे है. वैसे भी हमारे धर्मग्रंथ बताते हैं कि सभी में एक आत्मा है. सभी एक परमात्मा का अंश हैं. महाभारत कहता है—‘न ही मानुषात श्रेष्ठतरं हि किंचितः’ मनुष्य के लिए मनुष्य से उपयोगी कुछ भी नहीं है. तो मृत्युदंड की सजा एक नैतिकता का सवाल भी है. यदि हम कोई राज्य यह कहता कि नागरिक जीवन में शुभता हो, सत्यनिष्ठा हो, लोग नैतिकता के उच्चतम मानदंडों के अनुसार जीवन जिएं तो उसे स्वयं भी नैतिकता के शिखरमापदंड अपनाने होंगे. बचपन में एक कहानी हम सबने पढ़ी थी. आज भी वह नैतिकता की मिसाल के रूप में दोहराई जाती है.

एक किसान अपने बेटे के हरदम गुड़ खाते रहने की आदत से बहुत दुखी था. आदत छुड़ाने के लिए किसान अपने बेटे को साधु के पास ले गया. साधु ने उसको 15 दिन बाद आने की सलाह दी. निश्चित अवधि के बाद किसान फिर साधु के दरबार में हाजिर हो गया. साधु ने किसान के बेटे को अपने पास बिठाकर समझाया—‘बेटा, जरूरत से ज्यादा गुड़ खाना नुकसानदेह है. उससे अनेक बीमारियां फैलती हैं.’ साधु की बातों में जाने क्या था कि उस दिन के बाद से किसान के बेटे ने गुड़ खाना छोड़ दिया. किसान खुश था. फिर भी एक बात उसको रहरह कर कोंच रही थी. एक दिन वह फिर साधु के दरबार में पहुंचा. साधु के पूछने पर उसने बेटे के बारे सहीसही बता दिया—

महाराज, आपकी कृपा से बेटे ने गुड़ खाना छोड़ दिया है. मैं बहुत खुश हूं. लेकिन मेरे दो सवाल हैं?’

पूछो?’

आपने मेरे बेटे से जो कहा, वह कोई नई बात नहीं थी. मैं बेटे को हमेशा यही समझाता था? लेकिन वह मेरी बात कभी नहीं मानता था. लेकिन आपकी बात उसने तुरंत मान ली.’

और दूसरा प्रश्न?’

मेरा दूसरा सवाल है कि जो बात आपने कही, उसको जब में पहली बार बेटे को लेकर आपसे मिला था, तभी कह सकते थे. पंद्रह दिन बाद दुबारा बुलाने की क्या जरूरत थी?’ तब गुरु ने समझाया—‘हमें दूसरों के साथ वही व्यवहार करना चाहिए, जैसा हम दूसरों से अपने प्रति चाहते हैं. व्यवहार में ईमानदारी बड़ी बात है. ईमानदारी न हो तो अच्छी से अच्छी बात भी प्रभावहीन बनकर रह जाती है. जब तुम पहली बार आए थे, मैं खुद बहुत ज्यादा गुड़ खाता था. तुम्हारे बेटे को समझाने का नैतिक अधिकार मुझे नहीं था. पंद्रह दिन गुड़ से दूर रहकर मैंने अनुभव किया कि गुड़ को छोड़ा जा सकता है. तभी मैंने तुम्हारे बेटे से गुड़ छोड़ने का आग्रह कर पाया.’

व्यवहार की ईमानदारी’ किसान को उस दिन सबक मिला. आचरण की शुद्धता जितनी नागरिकों के आवश्यक है, उतनी सरकार के लिए भी जरूरी है. आदर्श समाज में मृत्युदंड के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए. राज्य को ध्यान रखना चाहिए कि मनुष्य उसकी अर्जित संपत्ति नहीं है. कि उसका जैसा चाहे वैसा उपयोग कर ले. बकौल थामस पेन ‘मनुष्य समाज में इसलिए शामिल नहीं हुआ है कि उसकी स्थिति पहले की अपेक्षा और बुरी हो जाए; और न इसलिए कि उसके अधिकारों में पहले की अपेक्षा कटौती कर दी जाए. मनुष्य समाज में इसलिए सम्मिलित होता है कि सबके साथ रहते हुए उसके मौलिक अधिकारों को अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षा और सम्मान प्राप्त हो सके.’ वैसे भी कट्टरपंथ से कट्टरपंथ को मिटाया नहीं जा सकता. दूसरे यह कि व्यक्ति की कट्टरता से समाज की कट्टरता बहुत खतरनाक होती है. कट्टरपंथी व्यक्ति को सुधारा जा सकता है. न सुधरने पर समाज से अलग भी किया जा सकता है. लेकिन समाज कट्टरपंथी हो जाए तो सुधार की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं. उसका नुकसान उन नागरिकों को उठाना पड़ता है जो उदार हैं. कट्टरता जिनकी मूल प्रवृत्ति नहीं है. उल्लेखनीय है कि समाज का कट्टरपंथी हो जाने का आशय यह नहीं है कि उसके प्रत्येक नागरिक कट्टर हो जाते हैं. बस वे अपने विवेक से काम लेना छोड़ देते हैं. तब वे भेड़ की तरह हांके जाते हैं, शासकीय महत्त्वाकांक्षाओं के लिए गिनीपिग की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं. इसलिए हम मृत्युदंड का विरोध करते हैं, क्योंकि व्यक्ति की क्रूरता की अपेक्षा राज्य की क्रूरता के दुष्परिणाम कहीं अधिक घातक और दूरगामी होते हैं.

समाज में न्याय की सर्वत्र उपलब्धता का स्तर ही राज्य के श्रेष्ठत्व की कसौटी है. जिस समाज में समानता और स्वतंत्रता न हों, वहां न्याय की संभावनाएं भी दम तोड़ लेती हैं. ऐसे राज्य में न्याय केवल एक दिखावा माना जाएगा. मृत्युदंड निर्धारित करने का अधिकार तो उसे हरगिज नहीं है. इसके बावजूद यदि वह ऐसा करता है तो वह शिखर पर बैठे लोगों की मनमानी, कानून के नाम पर सोचसमझकर की गई संस्थानिक हत्या कही जाएगी. यदि राज्य की कमजोरियों को समझने के बावजूद उसके नागरिक मृत्युदंड का समर्थन करते हैं, किसी व्यक्ति को अपराधी को मृत्युदंड मिलने पर उनके दिलों में दुख और शोक की लहर नहीं उठती तो मान लेना चाहिए कि उस समाज के सभ्य होने में अभी देर है. फिर भी जो कहते हैं कि न्याय न्याय है, और खून का बदला खून से लिया जाना चाहिए तो उन्हें यह भी बताना चाहिए कि प्रतिवर्ष जो सैकड़ों किसान आत्महत्या कर लेते हैं, लाखों बच्चे कुपोषण का शिकार होकर मर जाते हैं—उनके लिए किसे सूली पर चढ़ाया जाए?

© ओमप्रकाश कश्यप

 

 

यदि वह ऐसा करता है तो वह शिखर पर बैठे लोगों की मनमानी, कानून के नाम पर सोचसमझकर की गई संस्थानिक हत्या कही जाएगी. यदि राज्य की कमजोरियों को समझने के बावजूद उसके नागरिक मृत्युदंड का समर्थन करते हैं, किसी व्यक्ति को अपराधी को मृत्युदंड मिलने पर उनके दिलों में दुख और शोक की लहर नहीं उठती तो मान लेना चाहिए कि उस समाज के सभ्य होने में अभी देर है. फिर भी जो कहते हैं कि न्याय न्याय है, और खून का बदला खून से लिया जाना चाहिए तो उन्हें यह भी बताना चाहिए कि प्रतिवर्ष जो सैकड़ों किसान आत्महत्या कर लेते हैं, लाखों बच्चे कुपोषण का शिकार होकर मर जाते हैं—उनके लिए किसे सूली पर चढ़ाया जाए?

संस्कृति और न्याय

सृष्टि के आरंभ में सभी प्राणी एक पुनीत स्थल पर निवास करते थे. वे सुगंधित हवाओं का आनंद लेते. सुरम्य धरा पर मग्नमन नृत्य करते थे. तब उन्हें न तो भोजन की आवश्यकता थी, न वस्त्रों की, न निजी संपत्ति थी, न सरकार, न ही किसी प्रकार का कानून. धीरेधीरे सृष्टि के पतन का आरंभ हुआ. मनुष्य सुरम्य लोक से पतित होकर पृथ्वी पर आ गिरा. अब उसे भोजन और आवास की आवश्यकता महसूस होने लगी. मनुष्य की आरंभिक पवित्राता और कीर्ति धुल चुकी थी. वर्णव्यवस्था का आरंभ हुआ और लोगों ने एक दूसरे के साथ अनुबंध के आधार पर रहना आरंभ किया. परिवार और निजी संपत्ति उस अनुबंध का हिस्सा बने. इसी के साथ चोरी, हत्या, लूटमार, परस्त्राीगमन जैसे अपराध होने लगे. समस्या से मुक्ति पाने के लिए सब मनुष्य एक बार एकत्रा हुए, उन्होंने मिलजुलकर एक राजा चुना, जो उनकी फसल का वाजिब हिस्सा उन्हें बांट सके. अपने उस चयन को उन्होंने ‘अनेक द्वारा एक का चयन’ (महासामत्त) कहा. उस व्यक्ति से अनेक लोगों को खुशी प्राप्त हुई थी, इसलिए उन्होंने उसे ‘राजा’ कहना आरंभ कर दिया. उसी से ‘राजनीति’ का विकास हुआ.’- THE WONDER THAT WAS INDIA, A. L. Basham, page-82.

किसी भी समाज की पहचान उसकी संस्कृति से होती है. उसका काम समाज में एकता की अनुभूति जगाना तथा मानवीकरण को गति प्रदान करना है. इसके लिए आवश्यक है कि वह सामाजिक संबंधों, लोगों के सामान्य व्यवहारों, लोकजीवन के आदर्शों, सार्वकालिक जीवनमूल्यों और भविष्य के सपनों से अनुप्रेत हो. उसके मूल में न्याय की भावना हो. साथ ही समानता और बराबरी की गंध उसके हर प्रतीक में रचीबसी हो. इस आधार पर भारतीय संस्कृति को दो हिस्सों में वर्गीकृत किया जा सकता है. पहली जनसंस्कृति. जो समाज में आपसी संबंधों, जरूरतों और सपनों के आधार पर स्वयं विकसित होती है. दूसरी धर्मानुप्रेत अभिजन संस्कृति जो अनेक प्रकार के डरों, प्रतीकों और कर्मकांडों के जरिये जीवन में प्रवेश करती है. पहली संस्कृति स्वयंस्फूर्त्त होती है. बदलते समय और आवश्यकताओं के अनुसार वह स्वयं परिवर्तित होती रहती है. वह सहयोग और सहकार की संस्कृति है. दूसरी संस्कृति में परिवर्तन ऊपर से थोपे जाते हैं. उसके बदलाव की गति धीमी होती है. धर्मानुप्रेत समाजों में प्रायः दूसरी संस्कृति को ही वास्तविक एवं महत्त्वपूर्ण माना जाता है. जबकि पहली संस्कृति जो साथ में श्रमसंस्कृति भी है, की सतत उपेक्षा होती रहती है. चूंकि अधिकांश विमर्श पर उन लोगों का कब्जा होता है जो अभिजन संस्कृति से लाभान्वित होते हैं, इसीलिए येनकेनप्रकारेण उसी को विमर्श में बनाए रखते हैं. परिणामस्वरूप जनसंस्कृति केवल शब्दों एवं सपनों तक सिमटकर रह जाती है. वह अभिजात हितों की पैरोकार बनकर सामाजिक असमानता की मुख्य कारक एवं परिणाम के रूप में सामने आती है. चूंकि इस संस्कृति के मुख्य वास्तुकार ब्राह्मण रहे हैं, इस कारण आमचलन में इसे ब्राह्मण संस्कृति भी कहा जाता है. बहुप्रचलित होने के कारण इसी को भारतीय संस्कृति का पर्याय भी मान लिया जाता है.

सामान्य अर्थों में धर्म और संस्कृति को एक मान लिया जाता है. यह उचित नहीं है. आस्था और विश्वास को अपनी पीठ पर ढोने वाला परंपरानुगामी धर्म, विराट संस्कृति का हिस्सा तो हो सकता है, उसका पूरक अथवा पर्याय नहीं. बावजूद इसके अधिकांश लोग धर्म और संस्कृति में अंतर नहीं कर पाते. इस कारण सांस्कृतिक प्रतीकों की व्याख्या के लिए वे बारबार धर्म की शरण में चले जाते हैं. अपनी चतुर किस्सागोइयों के बल पर धर्म उन्हें लुभाता है. वह व्यक्ति के चारों ओर ऐसा जादुई आभामंडल खड़ा कर देता है, जिसके आकर्षण से बाहर निकल पाना आसान नहीं होता. उसके प्रभामंडल में हर किसी को विजेता होने का भ्रम बना रहता है. इस दौरान धर्म के विकार संस्कृति को भी दूषित करने लगते हैं. पुरोहित वर्ग जो धर्म और धार्मिक प्रतीकों का उपयोग धंधागिरी के लिए करता है, जानेअनजाने संस्कृति और धर्म को परस्पर गड्मड किए रहता है. इससे सामाजिक स्तरीकरण मजबूत होता है, सांस्कृतिक विकास में जड़ता आने लगती है. भारतीय संस्कृति इसी ठहराव का शिकार है. जिस तेजी से उसका इन दिनों राजनीतिकरण हुआ है, सांस्कृतिक विकास पश्चगामी रूप ले चुका है. भारतीय संस्कृति के अभिजन चरित्र को दर्शाने वाले कई उदाहरण हैं. एक उदाहरण हमारे दैनिक जीवन से जुड़ा है. सामान्य शिष्टाचार के नाते दो व्यक्ति जब मिलते हैं तो उनके बीच नमस्ते, प्रणाम, नमस्कार जैसे संबोधनों का आदानप्रदान होता है. अपने से बड़ों के चरणस्पर्श करने की भी परंपरा है. कोई व्यक्ति जब नमन करता था तो बड़े व्यक्ति के प्रति श्रद्धा भाव उसके व्यवहार से झलकता है. यह सीधेसीधे दो व्यक्तियों के बीच सम्मान और स्नेह का लेनदेन होता है. पहला प्रणामकर्ता, दूसरा वह जिसके सम्मान में प्रणतिनिवेदन किया गया है. तीसरी शक्ति का नाम या हस्तक्षेप बीच में नहीं होता. सहज मानवीय व्यवहार के बीच उसकी कदाचित आवश्यकता भी नहीं है. लेकिन कुछ शताब्दी पहले से संस्कृति के क्षेत्र में धार्मिक हस्तक्षेप के चलते ‘रामराम’, ‘राधेराधे’ जैसे संबोधनों को भी प्रणति निवेदन का पर्याय मान लिया गया. देवताओं के नाम को प्रणति निवेदन का हिस्सा बनाए जाने के उदाहरण शास्त्रों में भले न मिलते हों, किंतु लोकपरंपरा में खूब प्रचलित हैं.

प्रणति निवेदन के बीच देवता का प्रवेश केवल धर्म के प्रति अनुराग का मामला नहीं है. यह सामाजिक संबंधों को जो वास्तविक हैं तथा यथार्थ के धरातल पर विकसित होते हैं, अमूर्त्त और वायवी बना देने का षड्यंत्र है. मानवीय संबंधों को औपचारिक बनाने, उनके बीच संदेह पैदा करने में इनका परोक्ष योगदान है. अधिकांश धर्म इस संसार को ‘माया’ या ‘भ्रम’ बताते हैं. वे मानते हैं कि सांसारिक संबंध मनुष्य को भरमाकर मुक्ति की राह को कठिन बनाते हैं. वे यह भी बताते हैं कि संसार के सभी संबंध कोरा भ्रम या दिखावा हैं. एकमात्र ब्रह्म सत्य है, और कुछ नहीं(एकम अद्वितिया ब्रह्म‘) अथवा ब्रह्म सत्य, जगन्नमिथ्याजैसे कथन इसी को दर्शाते हैं. इस आधार पर मोक्ष के अभिलाषी मनुष्य को सांसारिक सुखों, संबंधों के प्रति गहनानुराग से बचने की सलाह दी जाती है. धर्माचार्य समझाते हैं कि मोक्ष की यात्रा में प्रत्येक मनुष्य अकेला होता है, केवल कर्म उसका साथ निभाते हैं. प्रणति निवेदन के साथ देवता का नाम लेने से व्यक्ति मान लेता है कि देवता उससे प्रसन्न होंगे. होते हैं या नहीं यह उसे अंत तक पता नहीं चल पाता. मगर इससे दो व्यक्तियों के स्नेह और सम्मान के आदानप्रदान के बीच अनायास एक व्यवधान आ जाता है. व्यक्ति विशेष के प्रति सम्मानस्नेह प्रदर्शित करने का सिलसिला देवताओं को प्रसन्न करने का आयोजन मान लिया जाता है. इस तरह प्रणति निवेदन का उद्देश्य जो पूरी तरह सामाजिक है, वह प्रतीकों और वायवी संबोधनों तक सीमित हो, केवल कर्मकांड में सिमट जाता है. इसका लाभ चरमपंथी आसानी से उठा लेते हैं. कुछ दशाब्दी पहले उग्र हिंदुत्व को बढ़ावा मिला तो ‘रामराम’ और ‘राधे कृष्ण’ की जगह ‘जयश्रीराम’ जैसे शब्दवाणों ने ले ली. प्रणाम जो विनय समर्पण एवं सम्मान को दर्शाता था, उसके नए प्रारूपों से बल की भावना साफ झलकने लगी. सामान्य व्यवहार में धर्म की घुसपैठ हुई तो धर्म खुद को और भी ताकतवर समझने लगा. यही नहीं परंपरानुसार छोटों द्वारा बड़ों का चरणस्पर्श आदर्श प्रणति निवेदन माना जाता है. इसकी प्रेरणा की खोज भारतीय समाज में व्याप्त वर्णव्यवस्था तक ले जाती है. उसमें शूद्रों को प्रजापति ब्रह्मा के पैर से उत्पन्न बताया गया है. ‘लोक परंपरा’ में भी ‘पायलागन’ संबोधन वर्णव्यवस्था के शिखर पुरुष ब्राह्मणों के लिए आरक्षित रहा है. बाद में वह इतर वर्गों के लिए भी प्रचलित होता गया. संभव है इससे धर्म मजबूत हुआ हो, उसका संगठन क्षेत्र भी बढ़ा हो, किंतु संस्कृति लगाातार आहत होती रही है.

भारतीय संस्कृति को अधिकांश विद्वान ‘विविधता की संस्कृति’ मानते हैं. वे ‘सनातन संस्कृति’ कहकर इसे महिमा मंडित करते हैं. जबकि इनमें से एक भी धारणा मूल्यबोधक नहीं हैं. सांस्कृतिक वैविध्य तभी तक सार्थक है जब वह मानवीय चेतना का स्वयंस्फूर्त्त विस्तार हो. साथ ही लोकतांत्रिक सोच को बढ़ावा देता हो. इसी प्रकार ‘विविधता में एकता’ की भावना भी तब उपयोगी हो सकती है, जब सदस्य इकाइयों के बीच स्वयंस्फूर्त्त एैक्यभाव हो. लोग अपने कर्म से, विचारों से स्वतंत्र होकर भी एकदूसरे के साथ अपनापन महसूस करते हों. भारतीय संस्कृति पर यह बात खरी उतरती है, ऐसा दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. हमारे समाज में जाति और संप्रदाय के अनगिनत खाने हैं, अलगअलग पहचान के लिए जूझते हुए लोग हैं, भारी समाजार्थिक विषमताएं हैं. परिणामस्वरूप एक पक्ष, बाकी के लिए परिस्थिति चाहे जैसी हो, सदैव शिखर पर बना रहता है. जबकि दूसरा उसके दमन से बचने के लिए चुप्पी साधे रहता है. ऐसे समाज में सांस्कृतिक विविधता में एकता की दावेदारी, खुद को भरमाए रखने के लिए जानबूझकर की गई कवायद से अधिक नहीं लगती.

प्राचीनता भी किसी व्यक्ति, वस्तु या विचार का स्वतंत्र गुण न होकर कालसापेक्ष स्थिति है, जो उसकी ऐतिहासिकता की ओर संकेत करती है. वह अपने आप में किसी भी प्रकार की श्रेष्ठता का मापदंड नहीं है. संस्कृति का असल बड़प्पन इसमें है कि अपने अनुयायियों के बीच न्याय एवं समानता के वितरण को लेकर वह कितनी उदार है! कितने प्रयास उसने अपने अंतर्विरोधों के समाहार हेतु किए हैं. सदस्य इकाइयों की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रखने हेतु वह कितनी संकल्पबद्ध है. इस कसौटी पर भारतीय संस्कृति उतनी सफल सिद्ध नहीं होती, जितनी बताई जाती है. यहां वर्ण और जाति के अनगिनत खाने और ऊंचीनीची दीवारें हैं. उनमें विविधता किसी व्यक्ति का स्वतंत्र चयन न होकर, उनपर थोप दी जाती है. कैद की तरह, जिससे बाहर आने के लिए व्यक्ति निरंतर छटपटाता रहता है. चूंकि यह असंभवसा कार्य है, अतएव अधिकांश लोग इसी को अपनी नियति मानकर समझौतावादी बन जाते हैं. स्वतंत्रता और समानता के मानवीय लक्ष्यों को लेकर यहां वर्ण, जाति, संप्रदाय, धर्म आदि के नाम पर तरहतरह के मतभेद, बहुसंख्यक वर्ग के लिए बाध्यकारी बन जाते हैं. उस अवस्था में ‘विविधता में एकता’ के सभी दावे आडंबर में सिमट जाते हैं.

सच तो यह है कि स्मृतिग्रंथों, पुराणों, महाकाव्यों आदि के माध्यम से जो संस्कृति हमारे जीवन में दाखिल होती है; उसका चरित्र पूरी तरह अभिजनोन्मुखी होता है. वह सर्वहारा बहुसंख्यक के श्रम पर पलती है, साथ ही श्रम का तिरस्कार भी करती है. वहां देवता वे हैं जो चमत्कार प्रिय हैं. हथेली पर सरसों उगाते हैं. श्रम से जिनका दूर तक नाता नहीं होता. वे भक्तों के द्वारा चढ़ाए गए भोग के बल पर पलते तथा दाता कहे जाते हैं. इसमें मौलिकता के अवसर न्यूनतम होते हैं. जबकि कापालिकों, तांत्रिकों, पंडेपुजारियों तथा धर्म का धंधा करने वाले पुरोहित लाखोंकरोड़ों में खेलते हैं. कुल मिलाकर यह संस्कृति सामाजिक न्याय की अवरोधक तथा सामूहिक विवेक का क्षरण करने वाली है. सामान्य नैतिकता एवं लोकादर्शों को अमल में लाने के बजाय वह धर्म के हाथों में खेलती है; और बड़ी आसानी से खुद को उसकी सामंती वृत्तियों के अनुसार ढाल लेती है. वह लोगों से अपेक्षा रखती है कि वे क्या करें, क्या खाएं, क्या पियें, क्या पढ़ेलिखें, और किन लोगों से कैसे संबंध बनाएं? न तो उसे मानवीय विवेक की परवाह रहती है, न उसकी रुचियों की. इस तरह वह जीवन में अनावश्यक दखल देकर, समानता और स्वतंत्रता की भावना का हनन करती है. कभी धर्म, कभी समाज और कभी परंपरावैविध्य के बहाने, असमानता को मानवीय नियति घोषित करना उसकी मूल प्रवृत्ति रही है. वह असल में शासक संस्कृति है.

जाति व्यवस्था के रंग में रंगी वह संस्कृति व्यक्ति के जन्म के साथ ही घोषित कर देती कि उसका जन्म शासन करने के वास्ते हुआ है या शासित होने के लिए. जो लोग शासक वर्ग में जन्म लेते हैं, अभिजनोन्मुखी संस्कृति का रेशारेशा उनकी मदद में जुटा होता है. शासितों की कोटि में जन्मे व्यक्ति, यदि दुर्दशा से उबरना चाहें या इस तरह का सपना भी देखें तो वह लगातार अवरोध उत्पन्न कर, परिवर्तन की चाहत को ही मिटाने पर तुल जाती है. लोगों के सवाल करने की आदत को छुड़ाकर वह उनके निर्मानवीकरण को गति देती है. उससे सामूहिकता बोध, जो संस्कृतिकरण का प्रमुख उद्देश्य है, का हृास होता है. सांप्रदायिकता पनपती है. परिणामस्वरूप विपुल जनशक्ति छोटेछोटे टुकड़ों में बंटकर निष्प्रभावी हो जाती है. इसे नेतृत्व का अभाव कहें या पराश्रितता की भावनाबहुसंख्यक जनसमाज सांस्कृतिक विषमता के प्रतीकों को संस्कृति के अंग के रूप में अपनाए रखता है. यह समर्पण एक अवधि के उपरांत अनुकूलन का रूप ले लेता है. व्यवस्था से अनुकूलित व्यक्ति वास्तविक हित को भुलाकर उन प्रतीकों को अपने अस्तित्व का पर्याय समझने लगता है, जो उसकी दासता का कारण रहे हैं. उदाहरण के लिए अधिकांश हिंदू विवाहिताएं ‘सुहाग की निशानी’ के रूप में अपनी मांग में सिंदूर डालती हैं. भरी हुई मांग दर्शाती है कि स्त्री विवाहिता है. यह पुरुष सत्तात्मकता एवं योनि शुचिता से जुड़ा प्रतीक है. यह उन दिनों की याद दिलाता है जब कन्याएं रजस्वला होने के साथ ही दान में सौंप दी जाती थीं या यूं कहो कि धर्म के नाम पर दान में हड़प ली जाती थीं. अधिकांश स्त्रियां पढ़लिखकर भी इस तथ्य को नहीं समझतीं. जो समझती हैं, वे ‘वाचाल’ कहकर उपेक्षितअपमानित की जाती हैं. परिणामतः स्त्री की अस्मिता तथा उनके समूचे कार्यव्यवहार पर स्वाभाविक दासता पसरी रहती है.

हम भारतीयों, विशेषकर जो लोग स्वयं को हिंदू मानते हैं, का जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक तरहतरह के कर्मकांडों से बंधा होता है. कर्मकांड अनेक प्रकार के हो सकते हैं. एक समाज से दूसरे समाज, यहां तक कि एक जाति समूह से दूसरे जातिसमूह के बीच उनका रूप बदलता रहता है. सभी कर्मकांडों का उद्देश्य होता है, किसी बड़ी शक्ति को प्रसन्न करना. उनमें एक पक्ष दाता(जाहिर है काल्पनिक) तो दूसरा यजमान की भूमिका में होता है. यजमान अपने सर्वश्रेष्ठ को समर्पित करने की भावना के साथ दाता के आगे नतशिर होता है. उसी समय खुद को दाता का नुमाइंदा घोषित करते हुए पुरोहित बीच में आ टपकता है. यजमान द्वारा दाता के नाम अर्पित की गई सामग्री को समेट लेने के अलावा वह दक्षिणा की दावेदारी भी करता है. चूंकि कर्मकांडों को लोक की सामान्य स्वीकृति प्राप्त होती है, इसलिए उनसे पैदा स्तरीकरण समाज में अपनी पैठ बना लेता है. तदनुसार जो दाता या उसके स्वयंघोषित प्रतिनिधि की इच्छा है, उसे उसी रूप में बगैर किसी नानुकर के, स्वीकार कर लेना यजमान की विवशता होती है. इसका लाभ शिखर पर बैठे लोग उठाते हैं. राज्य की कुल उत्पादकता में उनका योगदान भले ही नगण्य हो, मगर लाभ के नब्बे प्रतिशत को किसी न किसी बहाने वे हड़प ही लेते हैं. फिर उसे अपनी ताकत बनाकर दाता की भूमिका निभाए जाते हैं. यह अनाज के बदले रेत की या शायद उससे भी बदतर सौदेबाजी है. इसमें यजमान पुरोहित को दक्षिणा देता है. कर्मकांडों के तामझाम पर भी अपनी आय का एक हिस्सा खर्च करता है. किंतु पुरोहित की ओर से सिवाय वायवी आश्वासनों के कुछ और प्राप्त नहीं होता. इस बात को यजमान के साथसाथ पुरोहित भी भलीभांति जानता है. लेकिन धर्म तथा उसकी रूढि़यों से गहरे जुड़ाव तथा उसकी कमजोरियों को न समझने की प्रवृत्ति मनुष्य से तर्कसम्मत ढंग से सोचने का अवसर छीन लेती है. इस तरह पूरी संस्कृति दिखावे और कर्मकांडों में ढल जाती है.

कर्मकांडों की व्याख्या जिन ग्रंथों में है, वे सब ब्राह्मणों द्वारा रचे गए हैं. उनकी समीक्षा, आलोचना अथवा किसी तरह के संशोधनविस्तार का अधिकार ब्राह्मणेत्तर वर्गों को नहीं है. उनसे केवल इतनी अपेक्षा होती है कि ब्राह्मणों द्वारा बनाए गए लिखितअलिखित विधान का बिना किसी नानुकुर के अनुसरण करें. उसपर किसी प्रकार का संदेह, आलोचना, समीक्षा पाप की कोटि में आता है. उसके लिए तरहतरह के दंडविधान पहले भी थे, आज भी हैं. समाजार्थिक असमानता का पोषण करने वाली संस्कृति के प्रति विरोध के स्वर आरंभ से ही उठते रहे हैं. जाहिर है, आक्रोश जनसंस्कृति के उन अनुयायियों की ओर से उभरता है जो विषमता और सांस्कृतिक अन्याय का शिकार होते आए हैं. यदि विकृतियों का समाधान कर लिया जाए तो अपेक्षाकृत उदार एवं समावेशी जनसंस्कृति हमारे सामने होगी, जिसमें वर्चस्व की भाषा नहीं चलती. सहकार और सहयोग पर टिकी उस संस्कृति के संवाहक निचले पायदान पर स्थित वे लोग हैं, जिन्हें शिखरस्थ वर्ग उपेक्षित और तिरष्कृत करते आए हैं. उनकी खूबी है कि वे सुखदुख को साझा करके जीते हैं. कबीर की तरह संतोष को धन समझते हैं. बहुत कम में जीवन बिता सकते हैं. अभावों को भी हंसतेगाते झेल जाना उनकी प्रवृत्ति रही है. भूख का उत्सव मनाकर जीने वाले ऐसे लोग देश में हर जगह हैं. वे इस देश के लाखोंकरोड़ों मेहनतकश लोग हैं, जो केवल अपने बाजुओं पर भरोसा रखते हैं. यही वे लोग हैं जो किसी भी संस्कृति के महात्म्य का कारण बन सकते हैं, इन्हीं को भुलावे में रखने के लिए विविधता में एकता के गीत गाए जाते हैं. उनके सपने इस देश और इस जन्म के नहीं होते. इस कारण वे शिखर पर विराजमान लोगों के लिए कभी खतरा नहीं बनते. इनमें से अधिकांश कदाचित ऐसे होंगे जो संस्कृति का अर्थ भी न जानते हों. इस उदासीनता का लाभ उठाकर दूसरे लोग उन्हें अपनी ही संस्कृति का अनुपालक घोषित करते आए हैं. जबकि अपने श्रमकौशल पर जीवन जीने वाले स्वाभिमानी मजदूरों, शिल्पकारों तथा दूसरों के श्रमकौशल पर मजे उड़ाने वाले परजीवी लोगों की संस्कृति एक हो ही नहीं सकती. यदि कहीं एकता दिखती है, तो वह पूरी तरह आभासी है. इस देश की असल संस्कृति को समझने के लिए उसपर पड़ी अभिजन संस्कृति की धूल को उठाना अत्यावश्यक है.

संस्कृति चाहे वह कितनी ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो, खुद लक्ष्य नहीं होती. वह केवल लक्ष्य की ओर संकेत करती है तथा उसके लिए उपयुक्त मार्ग चुनने में मदद करती है. उसका काम मानवीय वृत्तियों को सुसंस्कृत करना है, किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की स्वतंत्रता को बाधित करने के बजाय वह मनुष्य की नैसर्गिक स्वतंत्रता को लौटाने के लिए प्रतिबद्ध होती है. विडंबना है कि भारतीय संस्कृति, जिसे कई बार उदार भी मान लिया जाता है, की अधिकांश ऊर्जा मनुष्य की रोजमर्रा की गतिविधियों को नियंत्रित करने में खपती आई है. कारण यह उन शक्तियों द्वारा अनुशासित होती है, जिनका काम दूसरों के मूलभूत अधिकारों का हनन करना है. शिखरस्थ ब्राह्मण उनके विधान का निर्माता, व्याख्याता, पालकअनुपालक सब होता है. विशेष मामलों में, या यूं कहिए कि अपवादस्वरूप संस्कृति के विशिष्ट प्रवर्तकों, जन्मना ब्राह्मण न भी हों तो उन्हें कर्मणा ब्राह्मण मान लिया जाता है. व्यास, वाल्मीकि, महीदास आदि शास्त्रीय परंपरा के ब्राह्मण नहीं हैं. फिर भी उन्हें ब्राह्मण माना गया है. क्योंकि वे उस संस्कृति के सिद्ध संहिताकार हैं, जो वर्णव्यवस्था को आदर्श तथा ब्राह्मणों को समाज का सर्वेसर्वा मानकर उन्हें अंतहीन अधिकार सौंप देती है. कुछ लोग इसे भी संस्कृति की उदारता या उसका लचीलापन मानते हैं. जबकि स्थिति एकदम विपरीत है. असल में यह दूसरे वर्गों के बुद्धिजीवी, उनकी उपलब्धियों का श्रेय हड़प लेने की स्वार्थपूर्ण व्यवस्था है. जिससे निम्नस्थ वर्गों की उच्च स्तरीय मेधा, उच्चस्थ वर्गों की स्वार्थसिद्धि में लगी रहती है. परिणामस्वरूप वे वर्ग स्वाभाविक कुंठा और हताशा से उबर ही नहीं पाते हैं.

इस प्रवृत्ति के प्रमाण ऋग्वेद से लेकर आधुनिक साहित्य तक उपलब्ध हैं. गुरु उद्दालक के पास सत्यकाम जाबाल जब यह कहता है कि वह घरों में काम करने वाली दासी के गर्भ से जन्मा है और पिता का नाम पता नहीं है, तो महर्षि उससे यह कहकर कि ‘तूने सत्य कहा, ऐसा सत्यभाषी ब्राह्मण पुत्र ही हो सकता है.’दीक्षा देने के लिए तैयार हो जाते हैं. भारतीय संस्कृति के अध्येता इस उद्धरण को उसके उदात्त लक्षण के रूप में प्रस्तुत करते आए हैं. यदि आरोपित सांस्कृतिक महानता के प्रभाव से परे होकर विचार किया जाए तो यह बौद्धिक धूत्र्तता है. इसके माध्यम से न केवल ब्राह्मणेत्तर वर्गों से उनके बुद्धिजीवी हड़प लिए जाते हैं, बल्कि एक ही झटके में उन्हें ‘मिथ्याभाषी’ घोषित कर दिया जाता है. महीदास की कहानी भी मिलतीजुलती है. सत्यकाम जाबालि की भांति वह भी दासी पुत्र था. जन्म से शूद्र किंतु मनबुद्धि से ब्राह्मण संस्कृति का प्रतिभाशाली संहिताकार. ऋग्वेद शाखा के ‘ऐतरेय ब्राह्मण’, ‘ऐतरेय उपनिषद’ और ‘ऐतरेय आरण्यक’ का रचियता. इस संस्कृति ने महीदास को भी शूद्रों से झटक लिया. अपवाद स्वरूप ही सही, ब्राह्मणेत्तर वर्ग के अतिप्रतिभाशाली बुद्धिजीवियों को अनुलोम परंपरा के अनुसार ब्राह्मण मान लिए जाने की नीति, प्रतिभाहीन ब्राह्मण पुत्रों के लिए शिखर का स्थान सुरक्षित रखती है. तथा थोपी गई असमानता को वैध बनाती है. इससे यह दुखदायी निष्कर्ष भी निकलता है कि भारतीय संस्कृति तथा उसके नामित देवता, कर्मकांड, धर्मग्रंथ आदि केवल ब्राह्मणों का सृजन नहीं हैं. उसमें ब्राह्मणेत्तर वर्गों का भी योगदान रहा है. हालांकि लाभ सर्वाधिक ब्राह्मणों ने उठाया है. क्योंकि ब्राह्मणेत्तर वर्गों से शिखरस्थ वर्ग में पहुंचे बुद्धिजीवी अंततः असमानताकारी संस्कृति का ही महिमामंडन करते हैं. इससे सामाजिकसांस्कृतिक वैषम्य को स्थायी एवं स्वाभाविक मान लिया जाता है.

वैषम्यकारी ब्राह्मण संस्कृति किसी एक व्यक्ति या व्यक्तिसमूह का उत्पाद नहीं है. इसे बनाने में ब्राह्मण पुरोहितों की सैकड़ों पीढि़यां खपी हैं. इस कठिन लक्ष्य तक पहुंचने के लिए ब्राह्मण बुद्धिजीवियों ने कम श्रम नहीं किया. कम से कम इस बात के लिए वे प्रशंसा के पात्र हैं कि अपनी सामाजिक श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए उन्होंने निजता के स्थान पर सामूहिकता को वरीयता दी. रचना का श्रेय स्वयं लेने के बजाय वर्गीय श्रेय हेतु आजन्म समर्पित रहे. अपनी विचारों को स्वतंत्र कृति के रूप में प्रस्तुत करने के बजाय, पीढ़ीदरपीढ़ी परंपरा से प्राप्त ग्रंथों में ही संशोधनसंवर्धन करते रहे. वेद, उपनिषद, पुराण, महाकाव्य, स्मृतियां किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं हैं. इन्हें लिखने के लिए ब्राह्मण बुद्धिजीवियों ने शताब्दियों तक बिना नाम या व्यक्तिगत श्रेय की आकांक्षा के श्रम किया है. शायद वे समझ चुके थे कि प्रतिभा के बल पर वे स्वयं सम्मान का पात्र माने जा सकते हैं. लेकिन यदि ब्राह्मणत्व को स्थापित कर वर्गीय श्रेष्ठता बनाए रखना है, और कुछ लोगों के श्रेय को उत्तराधिकार के रूप में पीढ़ीदरपीढ़ी अंतरित करना है, तो व्यक्तिगत श्रेय के आगे वर्गीय श्रेय को वरीयता देना आवश्यक है. व्यास, वशिष्ट, याज्ञवल्क्य, भरद्वाज, वाल्मीकि, ब्रहश्पति, शुक्राचार्य आदि किसी एक ऋषि अथवा आचार्य के नाम नहीं हैं, बल्कि उनके पीछे पूरी परंपरा निहित है. या शायद केवल परंम्परा है, और कुछ नहीं. कुछ उपनिषदों, पुराणों, स्मृतिग्रंथों के साथ उनके कथित रचनाकार का नाम जुड़ा है, लेकिन वे किसी एक मनीषी की रचना हैं—यह बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती. रचने के बाद भी उनमें निरंतर प्रक्षेपण हुआ है. रामायण और महाभारत को ही ले. रामायण की आदि रचना वाल्मीकि ने ‘पुलत्स्य वध’ शीर्षक से की थी. उस समय वह सामान्य साहित्यिक रचना रही होगी. लेकिन ‘पुलत्स्य वध’ से ‘रामायण’ और आगे चलकर ‘रामचरित मानस’ में ढलने तक मूल रचना में निरंतर प्रक्षेपण हुआ है. इसी तरह मूल महाभारत भी ‘जय’ शीर्षक के अंतर्गत रची गई थी. मूल रचना अप्राप्य है. वह व्यास के अलावा किसी अन्य कवि की भी हो सकती है. महाभारत को उसका वर्तमान स्वरूप करीब 2200 वर्ष पहले, उस समय प्राप्त होता है, जब साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं का उदय हो चुका था. गणराज्यों को अपने में समाहित कर, वृहत्तर भारत की कल्पना को आकार दिया जा रहा था. सशक्त एकराष्ट्र की चाणक्य और कृष्ण की अवधारणाओं में विशेष अंतर नहीं है. ज्ञान को परंपरा में ढाल देने का लाभ जो हुआ सो हुआ, नुकसान कम नहीं हुआ. वर्णव्यवस्था के चलते पोंगा पंडितों को भी बौद्धिक नेतृत्व मिलता रहा. पीढ़ीदरपीढ़ी एक ही धारा के लेखन से मौलिकता का हृास हुआ तथा तंत्रमंत्र, पूजापाखंड में वृद्धि. चूंकि धर्म ग्रंथों में प्रक्षेपण अलगअलग समय में हुआ था, इसलिए उनमें परस्पर विरोधी बातें भी शामिल होती गईं. जिस महाभारत(शांतिपर्व) कहा गया,‘वर्णविभाजन जैसी कोई चीज असलियत में नहीं है. यह पूरी सृष्टि ब्रह्म है, क्योंकि इसे ब्रह्मा ने बनाया है.’ उसी में द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा मांग लेने के धत्तकर्म को भी ‘धर्म’ की संज्ञा दी गई.

संस्कृतिकरण के लंबे अंतराल में व्यवस्था से अनुकूलित गरीबविपन्न लोग लगातार यह आस बांधे रहे कि जो पंडित लोग चौंसठ लाख योनियों का हिसाब रखते हैं, आदमी के ‘भाग्य’ का अगलापिछला सब बांच लेने का दावा करते हैं, वे उनका भी ‘हिसाब’ रखेंगे! यदि उनका परमात्मा छोटेबड़े, गरीबअमीर, ब्राह्मण और शूद्र में भेद नहीं रखता तो वे भी नहीं रखेंगे. इस भरोसे के साथ वे अपने अधिकारों की ओर से, इतिहास की ओर से मुंह फेरे रहे. समय के दस्तावेजीकरण के प्रति निचले वर्गों की उदासीनता का लाभ ऊपर वालों ने खूब उठाया. उन्होंने कर्मफल का सिद्धांत पेश किया. उसके जरिये शोषित वर्गों को समझाया जाने लगा कि उनकी दुर्दशा के लिए कोई दूसरा नहीं, वे स्वयं जिम्मेदार हैं. दुर्दशा का कारण उनके पूर्वजन्मों के कर्म हैं. इससे पीढ़ी दर पीढ़ी वे जातीय उत्पीड़न का शिकार होने लगे. संस्कृति के आवरण में उन्होंने पहले अवसर छीने, फिर मानसम्मान. अपने श्रमकौशल के बल पर स्वाभिमान युक्त जीवन जीने की चाहत रखने वाले मेहनतकश लोगों को बर्बर, असभ्य, गंवार, गलीच घोषित करके खुद इतिहास में तोड़मरोड़ करते रहे. उनके द्वारा रचे गए इतिहास में ‘भेड़ों’ और ‘मेमनों’ को जंगल में अव्यवस्था का दोषी बताकर दंडित किया जाता रहा. दूसरी ओर शेर और भेडि़यों के लिए प्रत्येक अपराध से बरी रहने की व्यवस्था की गई. पंडित, देवता, करुणानिधान, अन्नदाता, रक्षक, सेठ, साहूकार जैसे सुशोभन विशेषण उन्होंने अपने लिए सुरक्षित कर लिए. पिछले दो हजार साल का सांस्कृतिक खेल उनकी चालों और समझौतापरस्ती से बना है. ऐसी संस्कृति में सामाजिक न्याय की उम्मीद करना, मरुस्थल में भरेपूरे जलाशय की उम्मीद करने जैसा है.

वैसे भी सामाजिक न्याय भारतीय अवधारणा नहीं है. जाति और वर्ग को मानवनियति बताने वाली ब्राह्मण संस्कृति इसकी संभावनाओं को अपने उदय के साथ ही खत्म कर चुकी थी. यहां तक कि समाजार्थिक समानता और स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज उठाने वाले गौतम बुद्ध, संत परंपरा के महान कवि रैदास, कबीर, ज्ञानेश्वर आदि की वाणी को भी अनसुना कर दिया गया था. अगर ऐसा होता तो सामाजिक न्याय की अवधारणा को विकसित होने के लिए 1840 तक की प्रतीक्षा न करनी पड़ती. इटली निवासी अध्यात्मशास्त्री लुईज डी’अंजेग्लो, जिसने इस शब्द का पहली बार प्रयोग किया था, मध्यकाल के चर्चित विचारक थामस एक्वीनस से प्रभावित था. वह मशीनीकरण द्वारा पैदा की गई समस्याओं का निदान धर्म के माध्यम से चाहता था. उसे लगता था कि ईसाई धर्म का करुणा और प्राणिमात्र के प्रति दया का सिद्धांत अनियोजित मशीनीकरण द्वारा उत्पन्न समस्याओं से मुक्ति दिला सकता है. भारत में हालात अलग थे. मशीनीकरण की शुरुआत यहां देर से हुई. सामंतवादी उत्पीड़न का शिकार रहे जिन वर्गों को ‘सामाजिक न्याय’ की जरूरत थी, वे औद्योगिकीकरण को एक उम्मीद के रूप में देख रहे थे. उसकी असल लड़ाई धार्मिक वर्चस्ववाद, घोर विपन्नता और जड़ हो चुकी वर्णव्यवस्था से थी. जिनके द्वारा उत्पन्न समस्याएं औद्योगिकीकरण की समस्याओं की अपेक्षा कहीं अधिक विकराल थी. माना यह गया था कि सामाजिक न्याय के लक्ष्य की प्राप्ति के बगैर वैकल्पिक संस्कृति का गढ़न असंभव है. किंतु रैदास, कबीर आदि प्रमुख संत कवि जिन वर्गों से आए थे, ब्राह्मणपरंपरा उनको बुद्धिजीवी मानना तो दूर, सामान्य मानवीय अधिकार देने से भी बचती थी. इसलिए संतकवियों की बातों को दबा दिया गया. उसके बाद तो दमन और उत्पीड़न की लंबी परंपरा है, जिसमें जातिवाद उत्तरोत्तर मजबूत होगा गया.

ब्राह्मण संस्कृति ईश्वरीय न्याय में विश्वास करती है. न्याय का स्वरूप क्या हो? वंचित तबकों की उन्नति में वह किस भांति सहायक हो सकता है—यह नहीं बताती. ईश्वरीय न्याय की अवधारणा की कमजोरियां किसी से भी छिपी नहीं हैं. वह व्यक्ति के सपनों और आवश्यकताओं पर केंद्रित न होकर अनुकंपा पर टिका होता है. व्यक्ति के मानसम्मान को सुरक्षित रखने की उसमें कोई व्यवस्था नहीं होती. सारा कारोबार डर के भरोसे चलता है. एक ही बात व्यक्ति के दिलोदिमाग में तरहतरह से बिठाई जाती है कि ईश्वर खुश तो उसकी अनुकंपा की कमी नहीं रहती. ईश्वर के नाम पर चढ़ावा मत चढ़ाओ, उसका नाम मत लो, उसके आगे मानसम्मान और स्वाभिमान की बातें करो तो वह नाराज होकर कुटिल सामंत से भी क्रूर भांति व्यवहार करने लगता है. सुनवाई का अवसर तक नहीं देता. यानी सवाल ईश्वर की नाक का है. और उसे अपनी नाक बेहद प्यारी है. वह नहीं चाहता कि किसी और की नाक उसकी नाक से ऊंची हो. ईश्वर का डर भक्त के डर से कहीं ज्यादा बड़ा है. लेकिन ईश्वर डरता क्यों है? और उसका डर कहां से आता है? इस प्रश्न के उत्तर में जनसमाज की अनेक समस्याओं का हल भी छिपा है. असल में यह वर्चस्ववादी शक्तियों का अपना भय है. जब कोई व्यक्ति बल या कूटनीति के सहारे दूसरों को दबाना चाहता है तो वह जानता है कि वह प्रकृतिविरुद्ध आचरण है. डरे हुए लोग कभी भी विद्रोह कर सकते हैं. उस समय डर का वह हिस्सा जिसे पर दूसरों पर आजमाना चाहता है, उसके अपने मनोमस्तिष्क पर भी छा जाता है. ऐसे में उनके द्वारा कल्पित ईश्वर भी उसके डर से मुक्त नहीं हो पाता. कह सकते हैं कि ईश्वर की परिकल्पना असल में वर्चस्ववादी परिकल्पना है. शिखर पर बैठे लोग अपनी कामनाओं के हिसाब से ईश्वर को गढ़ते हैं. उस समय उनके मन में समाये डर का एक हिस्सा उनके मनोमस्तिष्क पर छाया रहता है. यह बात शासक गण भी जानते हैं. बावजूद इसके संस्कृतिपुरुष उसे भक्तवत्सल, कृपानिधान, करुणागार जैसे सुशोभन संबोधनों से अलंकृत रखते हैं. दूसरी ओर दुनिया को ‘मायाजाल’ बताया जाता है. मानवीय संबंधों को ‘भ्रम’, ‘छलावा’, मोहममता आदि कहकर अवमूल्यित किया जाता है. लोगों को ऐसी स्पर्धा में जोत दिया जाता है, जो न केवल अंतहीन बल्कि अर्थहीन भी होती है. ऐसे स्वाभिमान रहित समाज में न्याय एवं कल्याण का लक्ष्य व्यक्तिगत मोक्ष की कामना तक सिमट जाता है.

सामाजिक न्याय’ के पैरोकारों का प्रथम लक्ष्य उस संस्कृति का पुनरुद्धार करना है, जिसमें संगठित धर्म का हस्तक्षेप न्यूनतम हो. जिसमें लोग एकदूसरे से सहयोग और सद्भाव के आधार पर जुड़े हों तथा एकदूसरे के हित के लिए काम करने में सुख का अनुभव करते हों. परस्पर सहयोग एवं सहभागिता पर आधारित संस्कृति की कल्पना भारत के लिए नई नहीं है. बाद के ग्रंथों में उसका बारबार विरूपण किया गया है. इस बात के भी पर्याप्त प्रमाण है कि वैदिक काल से लेकर गौतम बुद्ध तक और उसके बाद भी यज्ञ, कर्मकांड और वर्गभेद को बढ़ावा देने वाली ब्राह्मणसंस्कृति का विरोध लगातार होता रहा. किंतु उस धारा का प्रतिनिधि साहित्य आज अप्राप्य है. उनका छिटपुट उल्लेख ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में ही प्राप्त होता है. उसे भी ब्राह्मणवादी नजरिये से प्रस्तुत किया गया है. संकेत साफ हैं कि विजेता ब्राह्मण संस्कृति ने, पराजित संस्कृति के प्रमाणों एवं प्रतीकों को मिटाने का काम पूर्णतः योजनाबद्ध ढंग से किया. बौद्धिक गतिविधियों पर ब्राह्मण का एकाधिकार होने के बाद ब्राह्मण संस्कृति को ही भारतीय संस्कृति के रूप में पेश किया जाने लगा. अब तो कदाचित यह सवाल तक नहीं उठता कि क्या इस देश में कभी कोई वैकल्पिक संस्कृति भी थी?

भारत के संदर्भ में सामाजिक न्याय की लड़ाई गरीबी के साथसाथ जाति एवं वर्गभेद द्वारा पैदा की गई विषमताओं के विरुद्ध जंग भी है. उत्पीड़न का शिकार रहे वर्गों को लगता है कि लोकतांत्रिक माहौल का लाभ उठाकर वे अपने संघर्ष को आगे बढ़ा सकते हैं. इसलिए वे जाति को संगठनकारी ‘टूल’ की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन जातिआधारित संगठनों की अपनी परेशानी हैं. इस देश में हजारों जातियां हैं. अपने दम पर कोई भी जाति परिवर्तनकारी ताकत बनने में अक्षम है. इस लिए समान श्रेणी की जातियां को वर्ग के रूप में संगठित करने की कोशिशें चल रही हैं. परंतु दृष्टिकोण पूरी तरह अलग है. पहले जातियों को शीर्षस्थ शक्तियों के स्वार्थ के अनुसार बांटा जाता था. लोग उसमें कुढ़ते रहते थे. आज दमित वर्ग मान चुके हैं की बिना राजनीतिकआर्थिक ताकत हासिल किए सामाजिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव है. और यह कार्य किसी की दया या चमत्कार भरोसे संभव नहीं है. उन्हें खुद इसके लिए प्रयास करने होंगे. इसलिए निम्न और मंझौले वर्ण की जातियां अपनेअपने हितों के लिए संगठित हो रही हैं. इस परिवर्तन की विडंबना है जो लोग जाति प्रथा के सताए हुए थे, उससे नफरत करते थे, उसे भारतीय समाजव्यवस्था का कलंक मानते थे, अब वे उसी का सहारा लेकर एक ताकत में ढलने की कोशिश में जुटे हैं. यह जहर को जहर से मारने, कांटे से कांटा निकालने की तरतीब है. इस तरह के खेल अभी तक अल्पसंख्यक अभिजन वर्ग के लोग ही खेलते आए थे. बल्कि यह उनका पसंदीदा खेल था. अब बाकी लोग भी उन्हीं गोटियों के साथ मैदान में हैं, जिनके सहारे अभी तक उन्हें छला गया है. लोग यह भी समझने लगे हैं कि सामाजिक न्याय के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए समानांतर लड़ाई संस्कृति के मोर्चे पर भी लड़नी होगी. इसके लिए उस जनसंस्कृति को उभारना होगा, जो ब्राह्मण संस्कृति के उभार के बाद निरंतर हुई उपेक्षा के कारण बेअसर हो चुकी है.

ऐसे अनेक महापुरुष हैं, जो वैकल्पिक संस्कृति के संवाहक रहे हैं. महिषासुर, बालि, शिव पौराणिक सम्राट वेन के अलावा गणेश जैसे अनेक नाम हैं. वे मिथक भी हो सकते हैं और यथार्थ भी. यदि इन्हें मिथक माना जाए तो ब्राह्मण संस्कृति के अन्य संवाहकों को भी मिथक मानना पड़ेगा, क्योंकि उनका पूरा का पूरा इतिहास इनके कंधों पर खड़ा है. शिव भारत की आदिम जातियों के मुखिया थे. उनके सहयोगी के रूप में भूत, पिशाच, प्रेत आदि को हम भारत के आदिम कबीलों की याद दिलाते हैं. आर्यों ने शिव को तो अपनाया. मजबूरी में उन्हें आराध्य भी माना, किंतु उनके सहयोगी कबीलों की पूरी तरह उपेक्षा की. उन्हें असभ्य मानते हुए भूत, प्रेत, कापालिक आदि कहा गया. बख्शा शिव को भी नहीं गया. उन्हें आक, धतूरा खाने वाला, भभूत लगाकर रमने वाले अवधूत की तरह दर्शाया गया. इससे सृष्टि को चलाने की जिम्मेदारी ‘ब्राह्मण ब्रह्मा’ तथा ‘क्षत्रिय विष्णु’ पर आ गई. और एक बार वे सत्ताकेंद्र बने तो आगे चलकर सत्ता उन्हें रास आने लगी. परिणामस्वरूप सत्ता में बने रहने का उपक्रम खोजने लगे. इसके लिए जो भी लंदफंद उन्हें जरूरी वह किया भी. गणेश का मिथक भी प्राचीन भारतीय गणतंत्रों के मुखिया की याद दिलाता है. गणतांत्रिक व्यवस्थाओं में मुखिया का निर्णय सर्वोपरि होता है. उसे प्रथम पूज्य माना जाता है. ईसा की पहलीदूसरी शती के आसपास बड़े राज्यों का चलन बढ़ा तो सभा का नेतृत्व करने वाले गणप्रमुख के चरित्र का विरूपण किया गया. बैठेबैठे सूंड लटक आना, खातेखाते उदर बढ़ जाना जैसे प्रहसन गणप्रमुख को बदनाम करने के लिए रचे जाने लगे. ब्राह्मण संस्कृति के चंगुल से बहार निकलने के लिए जनसंस्कृति के इन प्रतीकों की पुनर्व्याख्या करना हम सब का युग धर्म है.

अब हम इस लेख के अंतिम चरण पर आते हैं. सामाजिक न्याय के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक है, प्राचीन संस्कृति के उन प्रतीकों की पहचान की जाए जो कभी ब्राह्मण संस्कृति के विरोध में या उसके समानांतर खड़े थे. क्या यह धर्म के भीतर एक और धर्म की खोज सिद्ध नहीं होगी? ऐसी आशंका उठ सकती है. ध्यान यह रखना होगा कि समानांतर संस्कृति के इन प्रतीकों, नायकों, मिथकों का योगदान दमितशोषित वर्गों के आत्मविश्वास को लौटाने तक सीमित हो. यह एहसास दिलाने के लिए हो कि हम हमेशा से ही ‘ऐसे’ नहीं थे. हम न केवल ‘वैसे’, बल्कि कई मायनों में उनसे भी बहुतबहुत आगे थे. उनकी संस्कृति का महल हमारे ही महानायकों के कंधों पर खड़ा है. जिस दिन हम अपने महानायक उनसे वापस ले लेंगे, असमानताकारी ब्राह्मण संस्कृति का भवन भरभराकर गिर पड़ेगा. जिस दिन वैकल्पिक संस्कृति को उसकी पहचान वापस दिला पाएंगे, सामाजिक न्याय की गाड़ी अपने आप आगे बढ़ने लगेगी.

© ओमप्रकाश कश्यप