सोशल कांट्रेक्ट (सामाजिक संविदा) की अवधारणा
न्याय के संदर्भ में हॉब्स के विचारों को हम प्राचीन धर्माधारित विधानों तथा आधुनिक गणतांत्रिक राजनीतिक दर्शन के संधि–स्थल के रूप में भी देख सकते हैं. हॉब्स ने परिवर्ती विचारकों की पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया. ‘सामाजिक संविदा’(सोशल कांट्रेक्ट) का उसका विचार जान लॉक, रूसो, डेविड ह्यूम, इमानुएल कांट, जैरमी बैंथम आदि के राजनीतिक दर्शन की पृष्ठभूमि बना. अपने युगांतरकारी लेखन द्वारा उसने परंपरा एवं आधुनिकता के बीच तालमेल स्थापित करने की कोशिश की. फलस्वरूप न्याय–व्यवस्था जो पहले नियतिवादी थी, उसे मानवीय स्वतंत्रता, समानता एवं अधिकारिता के संदर्भ में देखा–परखा जाने लगा. वह बड़ा परिवर्तन था, जिससे आधुनिक गणतांत्रिक राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ. ध्यातव्य है कि ‘सामाजिक संविदा’ यानी सामाजिक करारनामे का विचार हॉब्स की मौलिक स्थापना नहीं थी. इसके बीजतत्व भारतीय चिंतन परंपरा सहित प्लेटो और अरस्तु के दर्शन में पहले से ही मौजूद थे. सभी ने नागरिक, समाज और राज्य के मध्य सामंजस्य बनाए रखने पर जोर दिया था. यहां तक कि राजा की नियुक्ति भी निःशर्त न थी. उसके पीछे सामाजिक सोद्देश्यता और करार की भावना आरंभ से ही जुड़ी थी. आरंभिक समाजों में राजा मनोनीत किया जाता था. उसका प्रथम कर्तव्य होता था, प्रजा हित को अपना हित समझकर कार्य करना. अथर्ववेद में कहा गया है—
‘प्रजा के सुख में ही राजा का सुख निहित है। प्रजा के कल्याण में ही राजा का कल्याण संभव है।’1
बीच में शताब्दियों लंबा दौर ऐसा भी आया जब ‘राजा’ नामक सत्ता को पूर्णतः दैवीय मान लिया गया. व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा विकसित हुई तो भौतिक संपदा की भांति राज्य को भी उत्तराधिकार में सौंपा जाने लगा. अयोग्य प्रतिनिधियों के कंधों पर शासन–भार आने से राजनीति का स्तर गिरा. अनुबंध के आधार पर राजन्य की स्थापना के संबंध में प्राप्त प्राचीन उल्लेखों के अध्ययन से पता चलता है कि सभ्यता के आरंभिक दिनों में ‘राजा’ कोई विशेषाधिकार संपन्न संस्था नहीं थी. उसकी स्वीकार्यता लोगों की सहमति पर निर्भर थी. उसे वही अधिकार प्राप्त थे, जो कार्यों के निष्पादन के लिए आवश्यक माने जाते थे. उस विधान में समूह या समाज अपने निर्वाचित प्रतिनिधि से अधिक शक्तिशाली होता था. यह व्यवस्था हजारों साल तक कायम रही. इसमें बदलाव धर्म के आने के बाद उस समय सामने आया, जब राज्याश्रय में पलने वाले पुरोहितों और पंडितों ने निहित स्वार्थ के लिए राजा को पृथ्वी का स्वामी और सर्वेसर्वा घोषित करना आरंभ किया. धीरे–धीरे धर्म, राजनीति और अर्थसत्ता का ऐसा गठजोड़ बनता गया, जो न केवल बुद्धि बल्कि संसाधनों के मामले में भी आगे था. उसने जनसाधारण को एकदम किनारे कर दिया. इसमें सबसे बड़ी भूमिका धर्म की रही.
राजा की नियुक्ति के संबंध में प्राचीनतम उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण(1/14) में मिलता है. उसके अनुसार देवताओं और राक्षसों का युद्ध चल रहा था. देवता पराजय की कगार पर थे. उस समय देवताओं ने विचार किया कि एक राजा होना चाहिए, जो उनकी सेना का नेतृत्व कर सके. तब ‘इंद्र’ को देव–सम्राट मनोनीत किया गया. इस कहानी के अनुसार राजा नामक संस्था की उत्पत्ति सैन्य उद्देश्य से हुई. इससे मिलती–जुलती कहानी आगे चलकर ‘तैत्तीरीय उपनिषद’ में मिलती है. तदनुसार देवासुर संग्राम में पराजय सम्मुख देख देवताओं ने मदद के लिए प्रजापति से प्रार्थना की. तब उन्होंने प्रसन्न होकर अपने पुत्र इंद्र को देवताओं की मदद के लिए भेजा. प्रजापति के अनुसार, ‘इंद्र अपेक्षित कार्य के निष्पादन हेतु सर्वाधिक सक्षम, शक्तिशाली, स्वस्थ, सर्वोत्तम तथा सभी तरह से पूर्ण था.’ ‘शुक्रनीतिसार‘ दोनों की अपेक्षा काफी बाद की रचना है. उसमें लिखा है कि ‘जब सभी भयाकुल होकर इधर–उधर दौड़ने लगे, जब विश्व में कोई किसी का स्वामी नहीं था, तब विधाता की ओर से नृप की नियुक्ति की गई.’(शुक्रनीतिसार,1/71). इस तरह राजा धरती पर विधाता का प्रतिनिधि बना. कालांतर में उसके फैसलों को देवाज्ञा माना जाने लगा. तीसरी कहानी का कथानक कुछ अलग अवश्य लगता हो, मगर संकेत उसका भी यही है कि राजा समाज की राजनीतिक और सामरिक आवश्यकता है. इसलिए शारीरिक और मानसिक सर्वश्रेष्ठता को उसके चयन का आधार बनाया गया. बिहार के गया, सोनपुर आदि क्षेत्रों के उत्खनन से ज्ञात होता है कि भारत में कृषिकर्म की शुरुआत लगभग दस हजार वर्ष पहले हो चुकी थी. हड़प्पा सभ्यता के अवशेष बताते हैं कि उस क्षेत्र में ईसा से 1500-3000 वर्ष पहले तक समृद्ध नागरी संस्कृति विकसित हो चुकी थी, जिनके व्यापारिक रिश्ते दूर–दराज की सभ्यताओं से थे. समूह की एकता और नेतृत्व हेतु सम्राट की नियुक्ति की शुरुआत का वही दौर रहा होगा. उसके सापेक्ष ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ आदि ऊपरोल्लिखित कृतियां बहुत बाद की रचना हैं. जाहिर है इनकी रचना उस समय हुई जब देश में राज्य बड़ी और केंद्रीय सत्ता के रूप में ढल चुका था. वर्ण–व्यवस्था रूढ़ होकर जाति में ढलने लगी थी. आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए तत्कालीन बुद्धिजीवी वर्ग उनके सत्ताधिकार को वैध ठहराने में लगा था. राजा की नियुक्ति को देवताओं का निर्णय घोषित करना, इसी दिशा का संकेतक है. वे अपने समय की साहित्यिक रचनाएं रही होंगी, जिनके रचनाकर अपने अतीत से प्रेरणा लेकर उन्हें गढ़ रहे थे. आगे चलकर जब मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासाएं धर्म और तज्जनित कर्मकांडों के रूप में रूढ़ होने लगीं, तब उन्हें धर्मशास्त्र का दर्जा दे दिया गया.
विशुद्ध लौकिक उद्देश्य के लिए जनता द्वारा राजा के चयन का उल्लेख ऋग्वेद के अलावा पुराणों में भी मौजूद है. जनसहमति के आधार पर निर्वाचित पहले सम्राट की कहानी हमें उस कालखंड तक ले जाती है जब पशु–आधारित अर्थव्यवस्था, कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में ढलने को उत्सुक थी. खेती के प्रति रुझान में तेजी आ रही थी. हालांकि व्यक्तिगत भू–संपत्ति की अवधारणा तब तक नहीं पनपी थी. सम्मिलित खेती में कृषि उत्पाद पर सामूहिक अधिकार माना जाता था. धीरे–धीरे यह समस्या सामने आने लगी कि अनाज का समूह के बीच बंटवारा कैसे किया जाए? उसका आधार क्या हो? क्योंकि कुछ लोग जहां आवश्यकता से अधिक अनाज एकत्र कर लेते थे, वहीं कुछ ऐसे भी होते थे जिन्हें अपनी आवश्यकता के अनुसार अन्न मिल ही नहीं पाता था. उनके बीच अनाज को लेकर परस्पर छीना–झपटी होती थी. बंटवारे के दौरान विवाद उत्पन्न होना बहुत सामान्य बात थी. समस्या के समाधान हेतु ऐसे व्यक्ति के चयन का निश्चय किया गया, जो बुद्धिमान होने के साथ–साथ निष्पक्ष और निर्विवाद भी हो. जो कुशलतापूर्वक सदस्यों के बीच अनाज का बंटवारा कर सके. बदले में उस व्यक्ति को कृषि उत्पाद का एक हिस्सा देने का प्रावधान किया गया, जो बहुत कारगर सिद्ध हुआ. लेकिन गण–प्रमुख या विश के मुखिया की सफलता तभी तक संभव थी, जब लोगों के पास उनकी जरूरत लायक अनाज मौजूद हों. किसी कारण यदि भरपूर अनाज उत्पन्न न हो, तब लोगों के मन में क्षोभ उभरना स्वाभाविक था. कुछ ऐसा ही सम्राट वेन के प्रकरण में हुआ था. वेन की कथा2 विष्णु पुराण, भागवत पुराण तथा पदम पुराण में आती है, हालांकि उनमें प्रक्षेपण एवं रूपांतरण की बहुत अधिक संभावना है. वेन के बारे में अलग–अलग जगह मौजूद कहानियों में अंतर है. तथापि सभी जगह उसे जनता द्वारा पहला निर्वाचित राजा माना गया है. सम्राट मनोनीत होने के पश्चात वेन ने कृषि को बढ़ावा देने के लिए यथोचित उपाय किए. लेकिन परिस्थितियों ने ऐसी करवट ली कि जिन लोगों ने उसको अपना राजा घोषित किया था, उन्हीं के हाथों उसका अंत भी हुआ.
पुराणों में पृथु का मुक्त गुणगान है. पृथु वें का पुत्र था. पिता की हत्या के बाद वह समझ चुका था कि ऋषिगणों को नाराज करके राजकर्म करना आसान नहीं है. अतः राज्याभिषेक के समय ही उसने ऋषिगणों को आश्वस्त करते हुए कहा—‘मैं स्वधर्म, आश्रमधर्म एवं वर्णाश्रम धर्म की स्थापना करूंगा तथा राजदंड द्वारा उन्हें कार्यान्वित करूंगा.’3 वह जनतंत्र की पहली पराजय और पुरोहितवाद की पहली बड़ी जीत थी. पृथु ने ब्राह्मणों को सभी राज्यादेशों से ऊपर रखने की घोषणा की थी. कुल मिलाकर उसने वही किया था, जो ऋषिगण चाहते थे. माना जाता है कि पृथ्वी का नामकरण उसी के नाम पर पड़ा. इन प्रसंगों से यह संकेत भी मिलता है कि प्राचीनकाल में राजा का चयन केवल दैवी प्रेरणा या नियुक्ति तक सीमित नहीं था.
राज्य की उत्पत्ति को लेकर अनुबंध का सिद्धांत बौद्ध ग्रंथों में भी मौजूद है. ‘दीर्घनिकाय’, ‘महावस्तु’ आदि बौद्ध ग्रंथ राजा की नियुक्ति से संबंधित अनुबंध के सिद्धांत की पुष्टि करते हैं. ‘दीर्घनिकाय’ में राजा की नियुक्ति को लेकर एक निर्देश प्राप्त होता है. उसमें मनोनीत राजा अपनी प्रजा के साथ करार करता है कि वह केवल ‘वहीं पर क्रोध करेगा, जहां उसे करना चाहिए. उसी की भर्त्सना करेगा, जो भर्त्सना–योग्य है. उसी को देश निकाला देगा, जिसे देश निकाला मिलना चाहिए.’4 बौद्ध समर्थित राजदर्शन लोक–कल्याण के आदर्श के इर्द–गिर्द घूमता है. ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में राजा के चरित्र में ओज और साहस जैसे गुणों को महत्त्वपूर्ण बताया गया है. वहीं ‘दीर्घनिकाय’ में राजा की लोकप्रियता, सौंदर्यबोध, बुद्धिमत्ता आदि को उसका प्रमुख गुण माना गया है. राजा पर प्रजा के खेतों, धन–धान्य और पशुओं की सुरक्षा का दायित्व होता था. बदले में प्रजा उसे अपनी आय का एक हिस्सा देने का वचन देती थी. ‘महावस्तु’, दीर्घनिकाय से लगभग तीन शताब्दी बाद की रचना है. लौकिक संस्कृत में लिखा गया यह ग्रंथ अपने भीतर बौद्ध दर्शन की अनेक आदर्श स्थापनाओं को समेटे है. ‘दीर्घनिकाय’ की भांति ‘महावस्तु’ भी राजा की नियुक्ति को लेकर ‘आपसी सहमति’ के लौकिक सिद्धांत की पुष्टि करता है—
‘सृष्टि के आरंभ में सभी प्राणी एक दिव्य स्थल पर निवास करते थे. वे सुगंधित का आनंद लेते. सुरम्य धरा पर मग्न–मन नृत्य करते. उस समय उन्हें न तो भोजन की आवश्यकता थी, न वस्त्रों की, न निजी संपत्ति थी, न सरकार, न ही किसी प्रकार का कानून. और तब सृष्टि का पतन आरंभ हुआ. मनुष्य उस पुनीत लोक से पतित होकर पृथ्वी पर आ गिरा. मनुष्य का पतन आरंभ हो चुका था. अब उसे भोजन और आवास की आवश्यकता महसूस हुई. मनुष्य अपनी आरंभिक पवित्रता को खो चुका था. वर्ण–व्यवस्था का आरंभ हुआ और लोगों ने एक दूसरे के साथ अनुबंध के आधार पर रहना आरंभ किया. परिवार और निजी संपत्ति उस अनुबंध का हिस्सा बने. इसी के साथ चोरी, हत्या, लूटमार, पर–स्त्रीगमन जैसे अपराध होने लगे. समस्या से मुक्ति पाने के लिए सब मनुष्य एक बार एकत्र हुए, उन्होंने मिल–जुलकर एक राजा चुना, जो उनकी फसल का वाजिब हिस्सा उन्हें बांट सके. उस चयन को उन्होंने ‘अनेक द्वारा एक का चयन’ यानी ‘महासम्मत’ की संज्ञा दी. उस व्यक्ति से अनेक लोगों को खुशी प्राप्त हुई थी, इसलिए उन्होंने उसे ‘राजा’ कहना आरंभ कर दिया. उसी से ‘राजनीति’ का विकास हुआ.’5
उपर्युक्त उद्धरणों से वैदिक परंपरा और बौद्ध परंपरा के बीच राजा की नियुक्ति संबंधी अंतर को समझा जा सकता है. वैदिक परंपरा में राजा निर्वाचित न होकर, कभी धर्म तो कभी देवताओं के नाम पर ऊपर से थोपा जाता है. राजपद की आवश्यकता विशुद्ध राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पड़ती है. वह आर्यों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं का संकेतक है. बौद्ध परंपरा में राजा की नियुक्ति का उद्देश्य उन लौकिक कर्तव्यों की पूर्ति करना है, जो समाज में सुख, समृद्धि और शांति की स्थापना के लिए आवश्यक माने जाते हैं. दोनों ही मान्यताओं में इतना स्पष्ट है कि राजा के रूप में मनोनीत व्यक्ति सत्यनिष्ठा, विश्वसनीयता और नेतृत्व के विशिष्ट गुणों से संपन्न होता था. उसका मुख्य कर्तव्य लोककल्याण के निमित्त उन कर्तव्यों का निष्पादन करना था, जो उसकी प्रजा के हितों के लिए आवश्यक हों. यह बात अलग है कि खुद को ईश्वरीय प्रतिनिधि घोषित करने वाला व्यक्ति अवसर आने पर स्वयं को प्रजा से बहुत ऊपर, यहां तक कि ईश्वर–तुल्य समझने लगता था. इससे राजनीति में विकार आना स्वाभाविक था.
सुकरात, प्लेटो, अरस्तु आदि विचारकों ने राजसत्ता एवं समाज के कर्तव्यों एवं दायित्वों में तालमेल बनाए रखने के लिए न्यूनतम अनुबंध का समर्थन किया था. प्लेटो ने तो दार्शनिक सम्राट की परिकल्पना पेश की थी. उसका विचार था कि केवल दार्शनिक ही सत्ता के अहंकार, विलासिता तथा अन्य विकारों से स्वयं को बचा सकता है. अपने ग्रंथ ‘रिपब्लिक’ और ‘लॉज‘ में राज्य एवं समाज के कर्तव्यों की विस्तृत व्याख्या करते हुए उसने आदर्श राज्य की रूपरेखा प्रस्तुत की थी. अरस्तु राज्य के उच्च नैतिक स्तर को बनाए रखने का समर्थक था. उनके कुछ शताब्दी पश्चात पश्चिम की वैचारिक चेतना अपना तेज खोने लगी थी. मध्यकाल तक वहां भी धर्मसत्ता और राजसत्ता का ऐसा गठजोड़ बन चुका था, जिसमें जनसाधारण की नियति केवल आदेशानुपालन करना तथा परंपराओं का बोझ ढोना–भर रह गया. इंग्लेंड में जेम्स प्रथम ने राजा को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि और सर्वेसर्वा माना. उसका मानना था कि राज्य और समाज दोनों के लिए राजा का होना अपरिहार्य है. बगैर राजा के न तो राज्य चल सकता है न ही समाज—‘राजा के बिना नागरिक समाज की कोई गति नहीं है. बिना नेतृत्व के समाज बुद्धिहीन भीड़ बनकर रह जाता है.’ राजा को अतिमानवीय सत्ता मानते हुए जेम्स प्रथम ने उसके अधिकारों और कर्तव्यों को राज्य की समीक्षा से ऊपर माना था. 1616 ईस्वी में न्यायाधीशों की बैठक को संबोधित करते समय उसने कहा था—‘राजा की शक्ति से संबंधित बातों पर चर्चा करना विधिसंगत नहीं है. ऐसा करना राजा की दुर्बलता को दर्शाना तथा उसके प्रति अपने सम्मान भाव को नष्ट करने जैसा होगा. राजा ईश्वर के सिंहासन पर बैठता है.’
जाहिर है समाज में राजा का स्थान ऊंचा रखा गया है. उसकी इच्छा की अवहेलना या अपमान अपराध की श्रेणी में आता था और उसके लिए दंड का प्रावधान था. राजा को ईश्वरीय प्रतिनिधि घोषित करने का ध्येय समाज में उसके निर्णयों के प्रति सम्मान–भाव पैदा करने तक सीमित न था. किसी एक या कुछ लोगों को सामान्य से बहुत ऊंचा उठा देने की परिणति दूसरों को, खासकर उन्हें जो सत्ता–केंद्र से दूर हैं, स्वतः ही नीचे ले आती है. यह अंतर सत्ता–केंद्र में दूरी के अनुपात में बढ़ता ही जाता है. उत्तराधिकार प्रणाली का लाभ उठाते हुए शिखर पर यदि ऐसा व्यक्ति आ बैठे जो औसत से बहुत कम प्रतिभाशाली और स्वार्थी हो तो इस प्रणाली के बहुत भयावह परिणाम निकलते हैं. इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब केंद्रीय नेतृत्व की अकुशलता और अदूरदर्शिता का नुकसान जनसाधारण को उठाना पड़ा है. कुल मिलाकर वह निषेधात्मक व्यवस्था थी. उसका मानना था कि बगैर दंड के शांति और सुव्यवस्था असंभव है. दूसरे शब्दों में प्राचीन विधि–संहिता का गठन, समाज के बड़े वर्ग के प्रति अविश्वास की भावना के साथ हुआ था. उसकी कमजोरी थी कि वह समाज को शासक एवं शासित में बांट देती थी, जबकि न्याय की आधुनिक अवधारणा में मानवीय स्वतंत्रता, समानता और सुरक्षा अनिवार्य शर्तें हैं.
राजतंत्र, भले ही उसके शिखर पर मौजूद व्यक्ति चाहे जितना उदार एवं मानव–मूल्यों को समर्पित क्यों न हो, कुल मिलाकर व्यक्तिवादी संस्था है. वह एक व्यक्ति को सर्वेसर्वा मानकर काम करती है. वहां शक्तियां किसी एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के हाथों में सीमित रहती हैं, जिसमें बाकी लोग निर्णय प्रक्रिया से कट जाते हैं. ऐसे में यदि राजपद पर कोई कुटिल और स्वार्थी व्यक्ति मौजूद हो तो जनसाधारण एकदम अलग–थलग पड़ जाता है. राजतंत्र में समानता और सभी की स्वतंत्रता जैसी बातों को हवाई माना जाता है. उसके अनुसार मनुष्य जन्म से असमान होते हैं. उनमें से कुछ श्रेष्ठ और सर्वगुण संपन्न होते हैं, जबकि कुछ निष्कृष्ट और अल्प बुद्धि संपन्न. जो निष्कृष्ट अथवा अल्प बुद्धिमान हैं, उन्हें मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है. इसके लिए ईश्वर कुछ व्यक्तियों को शासन का अधिकार देकर पृथ्वी पर भेजता है. समाज की एकता एवं अखंडता के लिए बाकी लोगों द्वारा उसके आदेश का पालन करना, ईश्वरीय आज्ञा होती है. राजा ईश्वर के नाम पर राज्य करता है. इस कार्य में धर्म उसके मार्गदर्शन की जिम्मेदारी निभाता है. धार्मिक शक्तियां एक ओर तो राजा के अतिरिक्त अधिकार–संपन्न होने का समर्थन करती हैं. दूसरी ओर यह दावा भी किया जाता है कि ईश्वर की निगाह में सभी बराबर हैं. उस समय वे प्रकृति और ईश्वर में भेद नहीं कर पातीं. जबकि प्रकृति की विशेषता है कि वह भेद नहीं करती. सभी के साथ समानतापूर्ण एवं पारदर्शी व्यवहार करती है. इसके बावजूद वे अवसर मिलते ही न्याय प्रदाता शक्ति के रूप में ईश्वर को बीच में ले आते हैं. उस समय प्रकृति को ईश्वर में समाहित मान लिया जाता है, जो न तो दृश्यमान है, न ही प्रामाणिक. परिणामस्वरूप मूर्त्त सत्य अमूर्त्तन में ढल जाता है. जनसाधारण को भरमाने के लिए सहज प्राकृतिक घटनाओं की मनमानी और स्वार्थपूर्ण व्याख्याएं चलती रहती हैं. जनसाधारण उनके वितंडा में उलझकर रह जाता है. इससे धर्माधारित विधानों की कमजोरी को समझा जा सकता है. विभिन्न किस्म की आस्थाओं और वितंडाओं में उलझा व्यक्ति यह समझ ही नहीं पाता कि ईश्वर की निगाह में यदि सब बराबर हैं तो समाज में भीषण असमानता क्यों है? किसी व्यक्ति के पास दूसरे को दंडित करने का अधिकार कहां से आता है? और शिखर पर विराजमान, खुद को स्वयंभू, सर्वशक्तिमान, सर्वोपरि और निरंकुश समझने वाला ईश्वर समानता का समर्थन भला कैसे कर सकता है. लोगों को उलझाने के लिए प्रायः वे कहते हैं कि सबकुछ नियतिबद्ध होता है. आदमी के बस के बाहर. कठपुतली की भांति मनुष्य की नियति उसको बस सहते जाना है.
यदि यह मान लिया जाए कि समाज को व्यवस्थित रखने के लिए राजा का होना आवश्यक है, ईश्वर स्वयं उसका विधान रचता है, तो राजा के औचित्य पर सवाल नहीं उठाए जा सकते. बावजूद इसके यहां एक प्रश्न अनायास सामने आता है कि यदि सभी कुछ पूर्वनिर्धारित और नियति–बद्ध है तो दोषी को, उसका अपराध चाहे जो भी हो, दंडित करने का औचित्य नहीं रह जाता. इस विचार के साथ ही न्याय–आधारित समाज की संकल्पना भी सवालों के घेरे में आ जाती है. चूंकि धार्मिक स्थापनाएं आस्था और विश्वास पर चलती हैं, इसलिए वहां तर्क की कोई गुंजाइश नहीं रहती. बल्कि कई बार तो संदेह करना भी कुफ्र मान लिया जाता है. उसकी खूबी भी यही है कि अपनी सहजता और किस्से–कहानियों की मदद द्वारा वह बहुत आसानी से लोक–संस्कृति का हिस्सा बन जाती है. मनुष्य उन्हें इतनी गहराई से आत्मसात् करता है कि उनपर किसी भी प्रकार के संदेह, शंका आदि का विचार उसके दिमाग में नहीं आता. लोक की जुबान पर चढ़ी ये कहानियां शिखर पर मौजूद लोगों तथा बेमेलकारी विचारों का गुणगान करती हैं. जनसाधारण अपने रोजमर्रा के कार्यों के संपादन हेतु इन्हीं से प्रेरणाएं लेता हैं. सामान्य परिस्थितियों में इससे कोई अंतर नहीं पड़ता. लेकिन यदि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की चुनौती का मसला हो या ऐसा ही कोई दूसरा मसला, जिसमें नागरिक–अस्मिता दाव पर लगी हो, तथा उसके समाधान के लिए तर्क और विश्वसनीयता जरूरी आन पड़े—वहां यह व्यवस्था असफल होती जाती है.
यह कहना तो ज्यादती होगी कि समाज में धर्म की भूमिका हमेशा नकारात्मक रही है. संगठित धर्म भले ही दो–ढाई हजार वर्ष पुराने हों, मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासाएं उसी समय से उसके साथ जुड़ी हैं, जब उसने सोचना–समझना आरंभ किया था. आध्यात्मिक जिज्ञासाओं को स्थायी रूप देने की कोशिश के फलस्वरूप ही धर्म का विकास हुआ था. बाद में आध्यामिक शक्तियों के प्रति मनुष्य के सम्मान–भाव एवं डर को देखते हुए उनका उपयोग समाज को अनुशासित करने के लिए किया जाने लगा. उससे एक वर्ग ऐसा पनपा, जिसने ईश्वर को जानने–समझने से अधिक उसके महिमामंडन पर जोर दिया. उससे समाजीकरण के साथ–साथ विकसित होते नैतिक मूल्यों की व्याख्या भी धर्म और राजसत्ता के स्वार्थानुरूप की जाने लगी. सामंती संस्कार और जीवन की बढ़ती चुनौतियों के बीच लोगों को यह सहज भी लगा. कालांतर में नैतिक मूल्य और आध्यात्मिक विश्वास एक–दूसरे में इतने गड्ड–मड्ड हो गए कि धर्म और नैतिकता को परस्पर पर्याय मान लिया गया. वह संस्कृति और विकास दोनों की दृष्टि से प्रतिगामी चलन था. अध्यात्म एवं संस्कृति दोनों सतत नवोन्मेषी और पुरोगामी रहें, तभी उनकी सार्थकता है. आस्था और विश्वास में ढल जाने से उनकी स्वाभाविक वृद्धि रुक जाती है. यही हाल नैतिकता का भी है. मनुष्य नैतिक मूल्यों से प्रेरित होता है. उनसे अपनी सभ्यता और संस्कृति का अलंकरण करता है. लेकिन नैतिक मूल्य, कुछ प्राकृतिक मूल्यों को छोड़कर सतत परिवर्तनशील रहते हैं. इसी में उनकी गरिमा है. धर्म का हिस्सा बन जाने के बाद मनुष्य के विवेकीकरण की प्रक्रिया अवरुद्ध होने लगती है. परिणामस्वरूप समाजीकरण की प्रक्रिया में भी अवमंदन का दौर शुरू हो जाता है. धर्म की इस दुर्बलता को सहस्राब्दियों पहले समझ लिया गया था. भारत में मक्खलि घोषाल, अजित केशकंबलि, कौत्स ने धर्म को गुरुडम और पाखंड में ढालने के और पुरोहितवर्ग की जमकर आलोचना की थी. वहीं बुद्ध ने धर्म के नाम पर चलने वाले कर्मकांडों एवं आडंबरों का तर्कसम्मत प्रतिकार किया. लेकिन वास्तविक सफलता 15वीं शताब्दी के बाद, उस समय मिलनी शुरू हुई जब प्रौद्योगिकीकरण ने वैकल्पिक अर्थव्यवस्था की राह प्रशस्त की. उससे जनसाधारण के लिए सामंतवाद के चंगुल से बाहर निकलने का मार्ग प्रशस्त हुआ. मशीनीकरण से नए मध्यवर्ग का विकास हुआ. कालांतर में उसने अपने बुद्धिजीवी पैदा किए, जिन्होंने असमानताकारी व्यवस्थाओं के विरोध में बौद्धिक एवं राजनीतिक आंदोलनों का सूत्रपात किया.
हॉब्स, लॉक, रूसो आदि प्राचीन विचारकों का योगदान यह भी है कि उन्होंने न्याय और सुशासन जैसी व्यवस्थाओं को धर्म और सामंतवाद के चंगुल से निकालकर तर्कसम्मत बनाने का काम किया. उसके फलस्वरूप लोगों ने प्रश्न करना सीखा. हॉब्स यद्यपि राजतंत्र का समर्थक था. लेकिन वह उसमें सुधार चाहता था. उसने राजा के दैवी अधिकारों का निषेध किया है. इस तरह वह जेम्स प्रथम, राबर्ट फिल्मर आदि की उस विचारधारा को खारिज करता है, जो उस समय प्रचलित थी. जेम्स प्रथम की भांति फिल्मर का भी विश्वास था कि राजा की सत्ता तथा उसकी शक्तियां ईश्वर–प्रदत्त होती हैं. कि राजा का आदेश और उसकी इच्छा अपने आप में स्वतः प्रमाण है. फिल्मर राजनीति को धर्म में समाहित कर देता है. समकालीन उदारवादियों की भांति हॉब्स यह मानने को तैयार नहीं था कि राज्य की शक्तियां सम्राट और सांसदों के बीच विकेंद्रीकृत होनी चाहिए. इसके समानांतर हॉब्स जो वैचारिकी प्रस्तुत करता है, वह अपने समय का कदाचित सबसे क्रांतिकारी सोच था. वह जोर देकर कहता है कि राज्य की शक्तियां तथा उसके संकल्प उसकी सदस्य इकाइयों की निजी इच्छाओं और आकांक्षाओं पर निर्भर करते हैं. समाज में किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरों पर शासन करे. उसकी इच्छाओं का दमन कर अपनी इच्छाएं थोपे. हॉब्स नागरिकों को अधिकार देता है कि अपने सुख, स्वतंत्रता और समानता की रक्षा के लिए वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं. इस तरह नागरिकों की स्वतंत्रता एवं सुरक्षा उसकी प्राथमिकता है, लेकिन स्वतंत्रता का आशय कुछ भी करने की स्वच्छंदता नहीं है. आधुनिक विचारकों की भांति हॉब्स का भी मानना था व्यक्ति की आजादी अन्य नागरिकों के सुख और सुविधा पर निर्भर करती है. समाज में किसी को भी यह अधिकार नहीं दिया जा सकता कि अपने सुख के लिए वह दूसरों के हितों की बलि चढ़ाए अथवा उन्हें किसी भी प्रकार से कष्ट दे. इस परिस्थिति में हॉब्स राज्य के समर्थन में खड़ा नजर आता है. समाज में अनुशासन बनाए रखने के लिए वह राज्य को असीमित अधिकार दे देता है. इस तरह हम उसके विचारों में परंपरा और आधुनिकता के बीच झूलता हुआ पाते हैं. असल में वह विचारों के इतिहास का वह क्रांतिकारी दौर है, जब पुराने विचार अप्रासंगिक लगने लगते हैं, जबकि नए विचार केंद्र में आने के संघर्षरत होते हैं. वैचारिक संवेदनशीलता का परिचय देता हुआ हॉब्स दोनों के बीच संतुलन बिठाने की सफल कोशिश करता है, और अपने उत्तरवर्त्ती विचारकों के लिए मार्गदर्शक का कार्य करता है.
हॉब्स के पश्चात न्याय और सामाजिक समानता के ध्येय को लेकर जिन विचारकों का उल्लेखनीय योगदान है, उनमें जान लॉक, रूसो, डेविड ह्यूम, इमानुएल कांट, बैंथम, जान रॉल्स आदि का नाम लिया जा सकता है. इनमें से लॉक एवं रूसो ने न्याय को लेकर स्वतंत्र रूप से विचार नहीं किया, उनका मुख्य योगदान राजनीतिक दर्शन के क्षेत्र में है. लेकिन जिस आग्रह और तर्कसम्मत ढंग से वे स्वतंत्रता और समानता–संबंधी मुद्दों को उठाते हैं, और विशेषकर मानव–स्वातंत्र्य के लिए जमीन तैयार करते हैं, आगे चलकर उन्हीं से सामाजिक न्याय की नई संकल्पनाएं जन्म लेती हैं. मसलन आदर्श राज्य को कैसा होना चाहिए? आदर्श राज्य में नागरिकों के क्या कर्तव्य हैं? समानता, सुरक्षा और स्वतंत्रता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राजनीति का स्वरूप कैसा हो? इन सब विषयों पर उन्होंने विस्तार से लिखा है. कहने की आवश्यकता नहीं कि आधुनिक राजनीति पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा है. कालांतर में उन्हीं की प्रेरणा से आधुनिक विधि–संहिता के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ. इस आधार पर लॉक एवं रूसो को युग प्रवर्त्तक दार्शनिकों की श्रेणी में कहा जा सकता है. जान लॉक(1632—1704) अनुभववादी दार्शनिक था. मानता था कि मनुष्य अपने अनुभवों से सीखता है तथा अपने विवेक द्वारा ज्ञान को आगे बढ़ाता है. प्राकृतिक रूप से सभी मनुष्य समान हैं. जन्म के आधार पर न तो किसी को शासक घोषित किया जा सकता है, न ही यह मान लेना चाहिए कि कोई व्यक्ति केवल शासित होने के लिए जन्मा है. प्रकृति सभी प्राणियों के साथ समभाव का प्रदर्शन करती है. स्वतंत्रता स्वयं प्राकृतिक देन है. आदर्श राज्य वही है जो मनुष्य की अधिकतम स्वतंत्रता का संरक्षण करने में सक्षम हो. जिसमें नागरिक अपनी अधिकतम सुख और सुरक्षा का अनुभव कर सकें. इसके लिए व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की पूरी–पूरी स्वतंत्रता आवश्यक है. इसका आशय यह नहीं है कि प्राकृतिक विधान सभी को सभी कुछ करने की आजादी देता है. न ही किसी नागरिक को यह अधिकार होता है कि अपने सुख के लिए ऐसे कार्य करे, जिससे दूसरों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप होता हो. आदर्श राज्य का अभिप्राय ऐसे भू–राजनीतिक क्षेत्र से है जहां व्यक्ति को वह सब कुछ करने की स्वतंत्रता हो, जिसमें वह दूसरे के सुख एवं स्वतंत्रता को बाधित किए बिना अपने सुख और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अधिकतम स्तर तक कर सके. लॉक मानता था कि मनुष्य मूलतः स्वार्थी होता है. इसलिए उसने किसी कदम की सीधी व्याख्या संभव नहीं है. प्रकृति हालांकि सभी प्राणियों के साथ समानता का भाव रखती है, लेकिन उन लोगों के सुधार हेतु जो स्वार्थवश प्राकृतिक नियमों की अवहेलना करते हैं, कोई तर्कसम्मत व्यवस्था उसके पास नहीं होती. प्राकृतिक न्याय अकेले व्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करता है. किंतु समाज में रहते हुए अधिकतम स्वतंत्रता के भोग की उसमें कोई व्यवस्था नहीं होती. यही कारण है कि प्राचीन न्याय–संहिताओं में जो प्राकृतिक न्याय के अपेक्षाकृत करीब थीं, मृत्युदंड और अंग–भंग जैसी सजाओं को सामान्य समझा जाता था.
लॉक के अनुसार प्राकृतिक न्याय ईश्वरीय भाव से प्रेरित होता है. इसलिए उसमें प्राणिमात्र के प्रति समानता और स्वतंत्रता का भाव होता है. यदि किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता अथवा अस्मिता पर संकट आ पड़े तो ईश्वरीय न्याय–व्यवस्था चरमराने लगती है. उस अवस्था में पुरोहितवर्ग या तो नियतिवादी समाधान सुझाने लगता है अथवा किसी चमत्कार की उम्मीद में वास्तविकता से कट जाता है. दोनों अवस्थाओं में पीडि़त व्यक्ति को न्याय नहीं मिल पाता. समाधान की धर्मसम्मत व्यवस्था, चुनौतियों का सामना करने के बजाय उनसे पलायन की प्रेरणा देती है. समस्या के विधिसम्मत समाधान हेतु लॉक हॉब्स की ‘सोशल कांट्रेक्ट’ की अवधारणा को आगे कर देता है. अपनी महत्त्वपूर्ण कृति ‘सेकिंड ट्रटीज आफ दि गवर्नमेंट’ में वह लिखता है कि जीवन, संपत्ति एवं स्वतंत्रता की सुरक्षा हेतु नागरिकों को परस्पर एकजुट होकर सामान्य हितों के लिए ‘सामाजिक संविदा’ के अनुरूप कार्य करना चाहिए. वह कामना करता है कि नागरिकगण बजाय व्यक्तिगत लाभ के संपूर्ण समाज के लाभों के लिए एकजुट होंगे. उस समय उनके समक्ष दो उद्देश्य हो सकते हैं. पहला उस समाज की रूपरेखा बनाना या सपना देखना, जैसे समाज की कामना वे अपने लिए करते हैं. दूसरी उस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु अनिवार्य संकल्पबद्धता. प्राकृतिक एवं धर्मकेंद्रित समाजों में यह काम दैवी शक्ति के भरोसे होता है. इसलिए वहां नागरिकों में आत्मविश्वास की कमी सहज ही देखने को मिलती है. आकस्मिक चुनौती के समय वे प्रायः बिखर जाते हैं और उद्धार के लिए चमत्कारों की उम्मीद में जीने लगते हैं, जो विकास को नकारात्मक दर से प्रभावित करती है. चूंकि इतिहास चक्र में वापस लौटना संभव नहीं होता, इसलिए समाज में दो प्रकार की शक्तियां प्रभावी होती हैं. लोगों की परिवर्तन की वांछा जो चमत्कारों और जनसंकल्प के बीच कहीं झूलती रहती है. दूसरा अतीत के प्रति अतिरेकी लगाव जो धर्म और परंपरा के जरिये मानव–स्वभाव का जटिल हिस्सा बन जाता है. अंतर्द्वंद्वों में फंसा समाज इन्हीं के बीच कहीं झूलता रहता है.
प्राकृतिक अथवा धर्म–केंद्रित समाजों के राजनीतिकरण का आरंभ सामान्य हितों की पहचान तथा उनके लिए एकजुटता बरतने से होता है. उसके अगले चरण में नागरिकों को अपने मूल–भूत अधिकारों की सुरक्षा एवं संरक्षा के लिए कुछ हितों का बलिदान देना पड़ सकता है. जिसमें उनकी स्वतंत्रता के एक हिस्से में कटौती भी संभव है. किंतु समाजीकरण के वृहद उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए यह अनिवार्य अवस्था है. समाजीकरण की यह प्रक्रिया सामान्य सहमति के आधार पर गठित सरकार के तत्वावधान में होनी चाहिए. उसमें नागरिकों की सविवेक भागीदारी भी अपेक्षित है. थामस हॉब्स ‘सामाजिक संविदा’ का प्रमुख सिद्धांतकार है. उसका समर्थन करने के साथ–साथ लॉक उसके परिष्करण की संभावनाओं का भी विवेचन करता है. उसे आगे बढ़ाते हुए रूसो व्यक्ति, समाज एवं राज्य के संबंधों को लेकर आदर्शोन्मुखी व्यवस्था की कामना के साथ सही मायने में ‘सोशल कांट्रेक्ट’ की रचना करता है. उसे विश्वास था कि नागरिकगण अपनी स्वतंत्रता, समानता और जीवन के लिए एकजुट होकर संघर्ष करेंगे. रूसो का जीवनकाल यूरोपीय इतिहास का ऐसा दौर है, जब वह अपनी बौद्धिक चेतना के एकदम शिखर पर था. लॉक की भांति वह भी व्यक्तिमात्र की स्वतंत्रता, समानता और संपत्ति अधिकारों का तीव्र समर्थक था. आस्था, विश्वास और परंपरा के स्थान पर वह मानवीय विवेक को महत्त्व देता है. ऐसे समाज की रूपरेखा पेश करता है, जो आपसी सहयोग और सामान्य विवेक द्वारा अनुशासित होता है. व्यक्ति–मात्र की स्वतंत्रता और समानता का समर्थक होने के कारण लॉक और रूसो का न्याय की आधुनिक अवधारणा को विकसित करने में बड़ा योगदान है. जबकि रूसो की कृति ‘सोशल कांट्रेक्ट’ की गिनती कार्ल मार्क्स की ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के साथ विश्व की उन तीन–चार अतिमहत्त्वपूर्ण पुस्तकों में की जाती है, जिनकी आधुनिक विश्व को गढ़ने में विलक्षण भूमिका रही है.
मानवीय स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक रूसो की प्रसिद्ध उक्ति है—‘मनुष्य आजाद जन्मता है, किंतु वह हर जगह बेडि़यों में है.’ ये बेडि़यां कहां से आती हैं? कैसे प्रभावी हो जाती है और कैसे अल्पसंख्यक अभिजन, बहुसंख्यक जनसामान्य को छोटे–छोटे हिस्सों में बांटकर उन्हें अपना दास और आश्रित बना लेता है? यदि रूसो की माने तो बंधन मनुष्य के चारों ओर से प्रभावी रहते हैं. हर कोई मनुष्य की नैसर्गिक स्वतंत्रता पर डाका डालने को तत्पर रहता है. जबकि प्राकृतिक राज्य में मनुष्य अपनी स्वाधीनता के अधिकतम हिस्से भोग कर रहा होता है. कानून और समाज की मर्यादाएं वहां आड़े नहीं आतीं. प्रौद्योगिकी द्वारा नियंत्रित समाज में प्राकृतिक राज्य की वापसी सुदूर इतिहास का हिस्सा बन चुकी है. मनुष्य तकनीक पर इतना आश्रित है कि उनसे मुक्त जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता. चूंकि आधुनिक प्रौद्योगिकी महंगी है. उसपर निरंतर ऐसे लोगों का अधिकार बना रहता है, जिनके वर्गीय स्वार्थ मानव–कल्याण की भावनाओं पर सदैव भारी पड़ते हैं. प्रौद्योगिकी के बल पर वे अकूत मुनाफा बटोरते हैं. फिर उसका एक हिस्सा शोध और प्रौद्योगिकीय प्रौन्नति हेतु करते हैं. उससे आर्थिक और सामाजिक अंतर बढ़ता ही जाता है. संक्षेप में आधुनिक समाज की समस्याएं आधुनिक जीवन–शैली की देन हैं, जिसके प्रति मनुष्य का बेहद लगाव है. हमारी कमजोरी है कि विचारधाराओं के मामले में प्रायः रूढ़ दृष्टिकोण अपनाते हैं. यह जान ते हुए भी कि आधुनिक समाज की समस्याओं के समाधान हेतु आधुनिक विचार आवश्यक है, हम समाधान के लिए प्राचीन धर्म–ग्रंथों और परंपराओं में झांकते रहते हैं. प्राकृतिक राज्य की महत्ता अपनी जगह स्वयं–सिद्ध है, लेकिन यदि कोई आधुनिकता द्वारा उत्पन्न समस्याओं का समाधान प्राकृतिक राज्य में चाहे तो सिवाय पलायन के उसके कुछ और हाथ नहीं लगने वाला. दूसरी ओर यह भी सच है कि शिक्षा और संसाधनों ने मनुष्य को पहले की अपेक्षा अधिक जागरूक बनाया है. इसलिए परंपरागत राज्य की नीतियां, जिसमें निर्णय ऊपर से थोप दिए जाते थे, उसे रास नहीं आतीं.
थोरो, एडबर्ड कारपेंटर, गांधी, रसेल आदि का विचार था कि आधुनिक समाज की अनेक समस्याएं अतिरेकी मशीनीकरण की देन है. सुविधाओं की चाहत तथा उसके लिए अंधाधुंध मशीनीकरण ने अनियोजित विकास को जन्म दिया है. रूसो ने इसकी कल्पना करीब ढाई सौ वर्ष पहले ही कर ली थी. उसका विचार था कि प्राकृतिक राज्य में मनुष्य इच्छाओं के संबंध में मुक्त होता था. जरूरत की वस्तुओं पर किसी का एकाधिकार नहीं था. आवश्यक श्रम के उपरांत मनुष्य उन्हें जुटा ही लेता था. इस कारण उन दिनों गलाकाट स्पर्धा भी नहीं थी. आधुनिक मनुष्य की इच्छाएं उसकी आवश्यकता के आधार पर जन्मने के बजाए बाजारवादी प्रलोभनों, दूसरों से पिछड़ जाने के भय तथा भौतिक लालसाओं द्वारा पैदा होती हैं. वे समाज में अनावश्यक स्पर्धा को जन्म देती हैं. रूसो के अनुसार आधुनिक समाज की समस्याएं मुक्ति की न होकर स्वतंत्रता के हृास के कारण जन्मी है. ऐसे में मनुष्य परस्पर सहयोग तथा एक–दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए अधिकतम स्वतंत्रता का भोग कर सकता है. प्राकृतिक राज्य की प्रशंसा करने के बावजूद वह उसकी ओर लौटने पक्ष में न था. उसका मानना था कि उसमें सब–कुछ अव्यवस्थित रहता है. उसे हम ऐसा भू–क्षेत्र मान सकते हैं जिसमें प्रत्येक नागरिक अपनी शक्ति के सर्वोच्च शिखर पर हो सकता है. लेकिन संगठन के अभाव में व्यक्ति की शक्तियां, एक–दूसरे के साथ क्षुद्र स्पर्धा में अकसर व्यर्थ चली जाती हैं. कई बार तो व्यक्ति अपनी शक्तियों और कार्य–क्षमता का अनुमान तक नहीं लगा पाता. आकस्मिक संकट के समय ऐसे समाज में व्यक्ति एकदम अकेला पड़ जाता है. मानवीय स्वतंत्रता और विकास की दृष्टि से भी प्राकृतिक राज्य सर्वथा निरापद नहीं है. उसकी अपनी कमजोरियां हैं. रूसो के अनुसार प्राकृतिक राज्य में मनुष्य का नैतिक स्तर अपने चरम पर हो सकता है. लेकिन समाज का कोई स्पष्ट चरित्र नहीं बन पाता. इससे व्यक्ति और समूह के स्तर पर असंतोष पलता रहता है. परिणामस्वरूप व्यक्ति की उच्च नैतिकता भी निष्प्रभावी होकर रह जाती है. परंपरा और आधुनिकता के बेमेल गठबंधन से पैदा द्वंद्व उसे ‘सोशल कांट्रेक्ट’ की प्रेरणा बनता है.
रूसो के जीवनकाल तक मशीनी क्रांति आरंभ हो चुकी थी. मध्यवर्ग का उभार तेजी पर था. उसके फलस्वरूप सामाजिक उथल–पुथल जारी थी. इसी के साथ जारी था, नए सामाजिक संबंधों के गठन का सिलसिला. प्रमुख चुनौती मशीनों के आगमन से उत्पन्न मानवीय अवमूल्यन की चुनौतियों से निपटने की थी. रूसो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को बडे़ पूंजीपतियों के हाथों में देखकर भविष्य का अंदाजा लगा चुका था. उसका विचार था कि मनुष्य की सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याएं आधुनिक विकासमान समाजों की देन हैं. वह ‘सोशल कांट्रेक्ट’ का आरंभ ही इन शब्दों से करता है—‘मनुष्य मुक्त जन्म लेता है, लेकिन हर जगह वह बेड़ियों में हैं.’ ये बेड़ियां कभी सामाजिक शुचिता के नाम पर थोपी जाती हैं, कभी कानून, तो कभी मनुष्यता की भलाई के नाम पर. लेकिन हर बार ये मनुष्य की स्वतंत्रता का एक हिस्सा हड़प लेती हैं. मानवीय स्वतंत्रता की सलामती के लिए आवश्यक है कि उन श्रंखलाओं को तोड़ा जाए. पुस्तक में वह उन सभी विसंगतियों की विवेचना करता है जो मानवीय स्वतंत्रता को बाधित कर सकती हैं. उसके अनुसार राजनीति का मुख्य उद्देश्य मनुष्य की स्वतंत्रता, जो समाजार्थिक असमानता, विद्वैष भाव आदि से संकटग्रस्त है, को वापस दिलाना है. यह कार्य किसी सरकार या सत्ता के भरोसे संभव नहीं है. क्योंकि वे वर्चस्व की भावना को कभी त्यागने वाली नहीं है. उसके लिए पीड़ित पक्षों को स्वयं आगे आना होगा. अधिकतम स्वतंत्रता का लक्ष्य एक–दूसरे की स्वतंत्रता और सम्मान की रक्षा के साथ ही प्राप्त किया जा सकता है. हॉब्स और लॉक की भांति रूसो भी इच्छाओं के सामान्यीकरण पर बल देता है. उसके अनुसार सामान्यीकृत इच्छा का आशय समाज की ऐसी सम्मिलित इच्छा से है जिसे वह विकास के अन्यान्य अवसरों, तकनीकों के बीच से अधिकतम लाभ–कामना के साथ चुनता है. रूसो उस समय पूर्ववर्ती प्रकृतिवादी विचारकों के समर्थन में उतर आता है, जिनका विचार था कि प्राकृतिक रूप से सभी बराबर हैं. प्रकृति की ओर से सभी मुक्त भी हैं. जिस तरह प्रकृति में सामंजस्य की अनूठी भावना और तालमेल है, वह चाहती हैं प्राणिमात्र में भी इसी प्रकार के सहयोग और सामंजस्य की भावना हो. सृष्टि का एकमात्र विवेकवान प्राणी होने के नाते मनुष्य का दायित्व अन्य प्राणियों से कहीं अधिक है. इसलिए उसे चाहिए कि वह ऐसे कार्य करे, जिससे प्राणिमात्र की स्वतंत्रता और समान–अधिकारिता की रक्षा हो सके. ध्यान रखे कि प्रकृति सभी को एक–दूसरे के साथ सहयोग करने की अनुमति तो देती है, मगर एकल अधिकार किसी का भी पसंद नहीं करती. तदनुसार पृथ्वी के जितने भी उपहार हैं, वे सबके लिए हैं. मगर वह स्वयं भी किसी एक की न होकर सबकी है. चाहती है कि लोग उसके उपहारों का मिल–जुलकर भोग करें. किसी भी प्रकार का दुराव या स्पर्धा उनमें न हो.
रूसो का विश्वास था कि व्यवस्थित समाज की रचना केवल आपसी सहमति के आधार पर संभव है. समाज की वास्तविक स्थापना ही तब होती है जब अलग–अलग नागरिक मिलकर प्रबुद्ध जनता में ढल जाते हैं. यहां ‘प्रजा’ और ‘जनता’ के सूक्ष्म भेद पर कुछ चर्चा प्रासंगिक होगी. दोनों में वही अंतर है जो बाड़े में बंद भेड़ों तथा जंगल में मुक्त विचरने वाले प्राणियों के बीच होता है. प्रजा अपने अधिकतम अधिकार राजा को सौंपकर उसकी इच्छा की अनुगामी हो जाती हैं. यहां तक कि उसके जीवन पर भी उसका अधिकार नहीं रहता. उसमें राजा और राजकुल के सदस्यों का जीवन साधारण प्रजाजन के जीवन से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है. इसलिए राजा अथवा राजकुल के किसी सदस्य को बचाने के लिए एक या अनेक प्रजाजनों की बलि पर भी वहां कोई सवाल खड़े नहीं करता. प्रायः ‘स्वामीभक्ति’ या ‘राजभक्ति’ कहकर उसका महिमा–मंडन किया जाता है. प्रजा के उलट जनता अधिकतम अधिकार अपने पास रखती है. जागरूक जनता को दास नहीं बनाया जा सकता. यदि कहीं ऐसा प्रतीत होता तो समझ लेना चाहिए कि वहां की जनता बनावटी किस्सों को सुनते–सुनते अपने आत्मबल को बिसरा चुकी है. प्रबुद्ध जनता अपने सामान्य हितों लिए संगठित होती है. उसके लिए वह अपने शासक स्वयं चुनती है. बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करते हुए चुने हुए अपने प्रतिनिधि को उतने ही अधिकार सौंपती है, जितने शासकीय कर्तव्यों के निष्पादन हेतु आवश्यक हों. वह अपने शासकों पर नजर भी रखती है. यदि उसे लगे कि निर्वाचित प्रतिनिधि कर्तव्य–च्युत हैं तो वह उन्हें वापस बुलाने में भी देर नहीं करती. शीर्षस्थ स्वार्थी शक्तियों की कोशिश होती है कि जनता अपना आत्मगौरव बिसराकर प्रजा में ढल जाए. जनताकरण विवेकीकृत जनसमूह की खुद के उत्थान हेतु स्वयं–स्फूर्त्त प्रक्रिया है. आर्थिक आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के बाद, प्रजा जनताकरण का सपना देखना आरंभ करती है और फिर धीरे–धीरे उस दिशा की ओर अग्रसर होती है. लक्ष्य तक पहुंचने के लिए उसे अनेक जनांदोलनों से गुजरना पड़ता है. उसकी यह गति उसकी आर्थिक–सामाजिक स्वतंत्रता के स्तर से तय होती है. कह सकते हैं कि जनता नागरिकों का समूह होने के साथ–साथ उसकी उपलब्धि भी है. वह सामूहिकता में विश्वास रखती है. अपने निर्णय स्वयं लेती है. उसके सदस्य नागरिक बहुमत के निर्णयों का सामान्यीकरण करने में माहिर होते हैं. चालाक राजनीतिज्ञ जनता की जागरूकता, विशेषकर ‘बहुमत के निर्णयों का सामान्यीकरण करते रहने की कला’ से घबराते हैं. इसलिए समाज में असमानता के प्रतीकों को इस चतुराई से रोपते हैं कि जनता की एकता प्रभावित हो. वह अलग–अलग समूहों में बंट जाए. जिससे उसकी शक्ति एवं ऊर्जा निर्दिष्ट लक्ष्यों को प्राप्त करने की कोशिश के बजाए एक–दूसरे पर संदेह करने लगे. धीरे–धीरे लोग उस षड्यंत्र का शिकार होने लगते हैं.
आशय है कि जनता विवेकवान न हो, या उसका नेतृत्व अकुशल और बेईमान हो तो वह दिग्भ्रमित होकर बड़ी आसानी से भीड़ में ढल जाती है. लोकतंत्र में शासन जनप्रतिनिधियों के माध्यम से चलता है. भीड़ की मानसिकता से प्रभावित जनता अपने प्रतिनिधियों के निर्वाचन तथा उन्हें अनुशासित रखने में चूक जाती है. उस समय जनता की समस्त सर्जनात्मक शक्तियां छोटे–छोटे समूहों की विशेषताओं में ढलकर, एक–दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश में दम तोड़ने लगती हैं. इससे सामाजिक असंतोष पनपता है और शासन को शांति और सुरक्षा के नाम पर बल प्रयोग करने का बहाना मिल जाता है. स्थिति का लाभ उठाकर स्वार्थी शीर्षस्थ वर्ग जनता द्वारा दी गई शक्तियों का उपयोग स्वयं जनता के ऊपर करने लगते हैं. छोटे–छोटे समूहों में विभाजित, भीड़ की मानसिकता से ग्रस्त मनोबल–विहीन जनता अपने प्रतिनिधियों पर आश्रित होकर रह जाती है. परिणामस्वरूप लोकतंत्र कुछ लोगों की मर्जी से संचालित होने लगता है. सामाजिक विकास प्रतिगामी रूप ले लेता है और मनुष्य स्वतंत्रता और समानता के अपने वास्तविक लक्ष्य से भटक जाता है. सवाल है कि जनता यदि जागरूक है तो विभाजनकारी शक्तियों का शिकार कैसे हो जाती है? यदि उसे इतनी जल्दी बरगलाया जा सकता है तो ‘प्रजा‘ और ‘जनता‘ में कुछ अंतर ही नहीं रह जाता. यह कठिन पहेली है. दरअसल उन समाजों में जहां भारी असमानता हो, जनसाधारण को संसाधनों की भारी कमी से गुजरना पड़ता हो, वहां रोजमर्रा की वस्तुओं का अभाव अनावश्यक स्पर्धा को जन्म देता है. जिससे उनका ध्यान दूरगामी हितों के बजाए रोजमर्रा की समस्याओं पर केंद्रित होकर रह जाता है. इससे उसके विवेकीकरण की प्रक्रिया अवरुद्ध हो सकती है. ऐसी समस्याओं से उबरने के लिए जनता को कुशल नेतृत्व और मजबूत संगठन की आवश्यकता पड़ती है.
रूसो न्याय को लेकर सीधे विचार नहीं करता, किंतु सामाजिक असमानता और अन्याय को जन्म देने वाली स्थितियों की गहन विवेचना करता है. वह लिखता है कि स्वतंत्र समाज में व्यक्तिमात्र की इच्छाओं का सम्मान होता है. अन्योन्याश्रितता की भावना से संगठित समाज में, व्यक्तिगत इच्छाएं सदस्य इकाइयों को व्यक्तिमात्र के हितों की रक्षा हेतु प्रेरित करती हैं. ध्यातव्य है कि रूसो जब व्यक्तिगत हित की बात करता है तो उसकी निगाह में कोई व्यक्ति अथवा समूह–विशेष नहीं होता. मानवमात्र के सम्मान, समानता और न्याय की रक्षा हेतु वह पूरे समाज को विराट मानव के रूप में कल्पित करता है. जो भली–भांति जानता है कि उसकी सफलता उसके सभी अंगों के परस्पर तालमेल और मिल–जुलकर कार्य करने की योग्यता पर निर्भर है. इसलिए वह अपने प्रत्येक अंग का बराबर ध्यान रखता है. सभी को सम्मान की दृष्टि से देखता है. महसूस करता है कि यदि एक की स्वतंत्रता भी बाधित होती है तो पूरी देह की स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है.
रूसो की दृष्टि में व्यक्ति–स्वातंत्र्य का मसला सर्वोपरि था. वह किसी भी स्थिति में मानव–मात्र की स्वतंत्रता को खतरे में नहीं डालना चाहता. न ही उसमें किसी भी कारण किसी तरह की कटौती की कामना करता है. उसके अनुसार समाज के नियंताओं, जिन्हें जनता की ओर से निर्णय लेने का दायित्व सौंपा गया है, को चाहिए कि वे व्यक्तिमात्र की इच्छा की अवमानना करने के बजाय, इच्छाओं के सामान्यीकरण पर जोर दें. इस कार्य में कुछ समय लग सकता है. किंतु एक बार आदत विकसित हो जाने के पश्चात सामान्य इच्छाएं सामान्य हितों का मार्ग प्रशस्त करने लगती हैं. इनमें से कौन–सा रास्ता हितकारी है पहली स्थिति समाज में व्यक्तिवाद को बढ़ावा देने वाली लग सकती है. इसलिए कोई भला व्यक्ति दूसरी स्थिति, यानी ‘सामान्य इच्छाओं को सामान्य हितों का मार्ग प्रशस्त’ करते हुए देखना चाहेगा. यहां रूसो का विचार अलग है. या यूं कहें कि वह इस लक्ष्य पर सीधे और एकाएक नहीं पहुंचता. यही ‘सामाजिक संविदा’ का प्राणतत्व भी है. रूसो के अनुसार सुव्यवस्थित समाज में कर्तव्य अन्योन्याश्रित होते हैं. अपनी कला और योग्यता के अनुसार मनुष्य जो उत्पादित करता है, वह केवल उसके लिए नहीं होता. उत्पादन के समय उसके दिलो–दिमाग में हमेशा यह बोध समाया होता है कि उसके उत्पाद दूसरों के काम आएंगे और उनके ऐवज में वह उन सुविधाओं को प्राप्त कर सकेगा, जिन्हें अकेले अर्जित कर पाना उसके लिए असंभव है. पूंजीवादी समाज में यह इच्छा होड़ में बदल जाती है. उसमें व्यक्ति अपने श्रम–कौशल एवं बौद्धिक ज्ञान का लाभ तो उठाना चाहता है, किंतु दूसरे व्यक्तियों के श्रम–कौशल का लाभ उन्हें देने में कंजूसी करता है. इस तरह उस तंत्र में हर कोई केवल अपने लिए काम करने लगता है. उससे अपने काम के प्रति उसका अनुराग तथा उसके पीछे निहित सामाजिक लाभ की वांछा पीछे छूट जाती है. परिणामस्वरूप सामाजिक संबंध बजाए नैतिकता और मानवीय मूल्यों के, बाजार तथा उत्पादों के आधार पर बनने लगते हैं. मानवीय स्वतंत्रता की रक्षा के लिए यह बेहद खतरनाक स्थिति है क्योंकि उस अवस्था में मनुष्य की पहचान उत्पादों में सिमटकर रह जाती है. उन्हीं के आधार पर अपने संबंधों का निर्धारण करने लगता है. इससे सामान्य राय बनाने में मुश्किलें आती हैं.
रूसो के अनुसार समाज और व्यक्ति दोनों की स्वयं–प्रभुता इसमें है कि पूरा समाज व्यक्तिमात्र के हितों की संपूर्ति को समर्पित हो, वहीं व्यक्तिमात्र का कर्तव्य है कि वह संपूर्ण समाज के कल्याण के निमित्त कार्य करे. यदि पूरा समाज व्यक्तिमात्र के हितों की पूर्ति के लिए समर्पित है तो क्या प्रत्येक आदमी को केवल अपने स्वार्थ की दिशा में काम करने की अनुमति दी जा सकती है? रूसो इसका जोरदार खंडन करता है. उसके अनुसार यह ‘सामाजिक संविदा’ की अवधारणा के विरुद्ध होगा. व्यक्तिमात्र का कर्तव्य है कि वह सामान्य हितों को ही अपना कर्तव्य माने. केवल हितों की अन्योन्याश्रितता ‘सामाजिक संविदा’ को स्थायित्व प्रदान कर सकती है. अतएव ‘सामाजिक अनुबंध’ का सबसे पहली शर्त एक ऐसे प्रस्ताव पर सहमति है जिसमें लोग व्यक्तिगत रूप से सम्मिलित होकर जागरूक ‘जनता’ के रूप में ढलने लगते हैं. उनमें से हर कोई दो बातें भली–भांति जानता है. पहली यह कि व्यक्तिगत स्तर पर उन सभी की जरूरतें तथा रुचियां भिन्न हैं. दूसरी बात उसे यह भी भरोसा होता है कि भिन्न रुचियों, जरूरतों और कार्यक्षमताओं के बावजूद समाज में सामान्य ‘रुचि’ एवं ‘आवश्यकता’ का निर्धारण किया जा सकता है. इस कार्य को वे सब मिलकर, एक–दूसरे के अधिकारों का समर्थन और संवर्धन करते हुए आसानी से कर सकते हैं.
सामान्य सहमति के आधार पर अर्जित सुविधाएं व्यक्ति को स्वार्थपूर्ण ढंग से जुटाई गई सुविधाओं की अपेक्षा अधिक सुख–संतोष प्रदान कर सकती हैं. ये प्रेरणाएं उन्हें ‘सामाजिक अनुबंध’ को अपनाने के लिए उमगाती हैं. ‘सामाजिक अनुबंध’ के तहत एकजुट होते समय वे सामान्य रुचि और हितों का चयन करते हैं. उसमें संभव है कि कुछ लोगों को अपने हितों की उपेक्षा होती दिखाई पड़े. लेकिन यह बात उनसे छिपी नहीं रहती. वे जानते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ है कि जो व्यवस्था निर्मित की गई है, वह उनसे कहीं अधिक लोगों को लिए हितकारी है. साथ में उन्हें यह भरोसा भी होता है कि समूह के लोग उनसे अलग नहीं हैं. वे अवश्य उनके हितों का ख्याल रखेंगे. यानी संख्या में कम होकर भी वे उपेक्षित नहीं है. सामान्य इच्छा का हिस्सा न होने पर भी समाज उनकी जरूरतों और चाहतों के प्रति संवेदनशील है—यह विश्वास ही इस व्यवस्था की जान है. इस दायित्व के सफल निष्पादन की जिम्मेदारी ऐसी संस्थाओं की होती है, जिसपर समूह के सभी या अधिकतम सदस्यों का विश्वास हो. प्रत्येक जनसमूह या जनसमुदाय अपने आप में स्वयंभू निकाय होता है. उसकी खूबी है कि उसे अपनी शक्तियां किसी सरकार या सत्ता प्रतिष्ठानों की ओर से प्राप्त नहीं होतीं. बल्कि नागरिकों की ओर से प्राप्त होती हैं. सरकार तथा सत्ता प्रतिष्ठान, यह मानते हुए कि उसे अपनी शक्तियां नागरिकों की ओर से प्राप्त हैं, केवल उन्हें मान्यता प्रदान करते हैं. इसे संस्थान तथा सामाजिक अनुबंध’ की कसौटी कैसे माना जाए? कैसे तय किया जाए कि वह व्यवस्था सफल सिद्ध हुई है? इस प्रश्न का उत्तर देते समय रूसो जरा भी नहीं हिचकता. वह अपने आप में पूरी तरह स्पष्ट है. उसके अनुसार यदि ये प्रबंध सामाजिक विकास की विकृतियों का समाधान खोजने में कामयाब हैं, यदि उसमें ताकत की नहीं, लोगों की सामूहिक इच्छा की चलती है, और समूह किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह के बजाए संपूर्ण समाज के विकास हेतु अपने विवेक एवं ऊर्जा का उपयोग करता है—तो मानना चाहिए कि ‘सामाजिक अनुबंध’ की व्यवस्था सफल हुई है. सहमति के आधार पर क्रियाशील समाजों में शक्ति के प्रयोग को मान्यता नहीं दी जा सकती. यदि फिर भी उनमें महत्त्वपूर्ण फैसले शक्ति के आधार पर लिए जाते हैं, तो मान लेना चाहिए कि उसमें कुछ व्यवस्थागत खोट है. जिसका समाधान समाज के सभी लोगों को गणतांत्रिक भावना के अनुसार खोजना आवश्यक है.
रूसो जब यह कहता है कि ‘मनुष्य आजाद जन्मा है, लेकिन हर जगह जंजीरों में जकड़ा है.’6 तब वह सीधे–सीधे प्राकृतिक समाज से आधुनिक समाज तक हुए बदलाव की ओर संकेत कर रहा होता है. अपने सवालों के माध्यम से वह आधुनिक प्रौद्योगिकी युक्त संस्कृति को अनेक सवालों के घेरे में ले आता है. वह बताता है कि प्रकृति आधारित समाज के आधुनिक समाज में बनने तक मनुष्य को अपनी स्वतंत्रता और समानता के बड़े हिस्से का बलिदान करना पड़ा है. मानवीय गरिमा की पुनर्वापसी आधुनिकता की सबसे बड़ी चुनौती है. वह तभी संभव है जब लोगों में एक–दूसरे पर पूरी तरह विश्वास हो. वे सामान्य जरूरतों के आधार पर एक–दूसरे से जुड़े हों. साथ ही अपनी और दूसरों की स्वतंत्रता की रक्षा हेतु समर्पित हों. रूसो प्राकृतिक राज्य की प्रशंसा करता है, किंतु पूरी तरह प्राकृतिक राज्य की ओर जाने से इन्कार कर देता है. उसके अनुसार यह न तो वांछित है न ही उपयोगी है. चूंकि प्राकृतिक राज्य का सबसे बड़ा गुण सामूहिकता था. रूसो उसे आधुनिक राज्यों के लिए भी आवश्यक मानता है. उसके अनुसार मनुष्य को चाहिए कि आधुनिक समाज में रहते हुए प्राकृतिक राज्य की विशेषताओं को प्राप्त करने का लक्ष्य रखे. तदनुसार मनुष्य की अधिकतम स्वतंत्रता को लौटाना आधुनिक राजनीति का प्रमुख हिस्सा तथा जीवन का मुख्य उद्देश्य भी होना चाहिए.
‘सोशल कांट्रेक्ट’ की सैद्धांतिकी ने जिन विद्वानों को प्रभावित किया, उनमें जान रॉल्स प्रमुख हैं. रॉल्स ने समाज को आत्मनिर्भर बनाने, उसमें न्याय की व्याप्ति के लिए रूसो के विचारों का समर्थन किया है. लेकिन ऐसे समाजों में जहां सामाजिक–आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर भारी असमानताएं हों, न्याय की स्थापना हेतु वह कल्याणकारी शासन की भूमिका को महत्त्वपूर्ण मानता है. लेकिन बिना अनुशासन के अच्छे से अच्छा शासक भी निरंकुश हो जाता है. आधुनिक गणतांत्रिक समाजों में बेहतर शासन चुनने की जिम्मेदारी जनता पर होती है. बेहतर शासन की संभावनाएं कम न हों, उसके लिए जनता के सतत प्रबोधीकरण की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है. कुल मिलाकर समाजीकरण की पहली चुनौती है कि मनुष्य को उसकी अधिकतम स्वतंत्रता किस तरह लौटाई जाए. कैसे लोगों को तैयार किया जाए कि वे अधिकतम लोगों की इच्छाओं के साथ अपनी इच्छा का मेल कर सकें और बहुसंख्यक लोग बराबर यह ध्यान रखें कि समूह का कोई सदस्य अपने आपको उपेक्षित न समझे. रूसो के राजनीतिक दर्शन में राज्य अधिकतम लोगों की हितरक्षण को समर्पित संस्था से अधिक कुछ नहीं है. अपने पूर्ववर्ती विचारकों हॉब्स, जान लॉक की भांति वह मानता है कि प्राकृतिक रूप में सभी मनुष्य समान हैं. प्रकृति किसी को भी किसी पर शासन करने का अधिकार नहीं देती. अतएव शासन यदि आधुनिक राज्यों की अनिवार्यता है तो वही संस्था शासन करने योग्य है जो लोगों की सहमति से बंधी हो. लोग ऐसी संस्था का गठन कर सकें, इसके लिए उनका पूरी तरह मुक्त होना आवश्यक है. रूसो इसके लिए प्रत्यक्ष गणतांत्रिक व्यवस्था का समर्थन करता है, जिसमें नागरिकों की सीधी और सक्रिय भागीदारी हो. ऐसे समाज में लोगों को न्याय के लिए राज्य को ओर ताकना नहीं पड़ता. न्याय नागरिक पहल पर स्वतः हासिल होता रहता है. यही ‘सोशल कांट्रेक्ट’ का अभीष्ट है.
© ओमप्रकाश कश्यप
-
प्रजा सुखे सुख राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्!— अथर्ववेद।
-
राजा निर्वाचित होते ही वेन ने खेती में सुधार को अपना लक्ष्य बना लिया. वह ‘विश’ के निवासियों को खेती के लिए प्रेरित करने लगा. पशु पहले भी मनुष्य के साथी थे. खेती के विकास के साथ समाज में उनकी उपयोगिता बढ़ती ही जा रही थी. वेन ने देखा कि यज्ञ में होने वाली बलि से हजारों निर्दोष पशु अकारण मारे जाते हैं. उन्हें बचाकर ‘विश’ को और भी समृद्ध बनाया जा सकता है. यही सोचकर उसने ऋषिगणों से यज्ञों के नाम पर होने वाली पशुबलि पर रोक लगाने को कहा. परिणामस्वरूप ऋषिगण वेन से नाराज रहने लगे. वेन को अपने ऊपर विश्वास था. इसलिए उसने पशुबलि का विरोध करना जारी रखा. वेन का यही आग्रह आगे चलकर उसपर भारी सिद्ध हुआ.
ऋषियों के आश्रम नदी तट पर बने थे. इस कारण नदी से सटी जमीन पर भी उनका कब्जा था. वेन के प्रयत्नों से ‘विश’ तेजी से विकास की ओर अग्रसर था. अचानक प्राकृतिक आपदा ने उसके सारे सपनों पर पानी फेर दिया. एक के बाद एक कई मौसम बीते, बारिश न हुई. सूखे से नदी तट से दूर की भूमि पपड़ाने लगी. आसमान सूना पड़ने लगा. फसलें झुलस गईं. जिन जनों के अधिकार में वह भूमि थी, उनपर भूख का संकट मंडराने लगा. नदी तट से लगे ऋषिगणों के खेत अब भी लहलहा रहे थे. अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए वेन ने पुरोहितों को बैठक के लिए आमंत्रित किया. उनसे प्राकृतिक आपदा में साथ देने का अनुरोध किया. कहा कि जरूरतमंदों की मदद के लिए आगे आएं. जो है, जितना है, उसे मिल–बांटकर संकटग्रस्त लोगों की मदद करें. ऋषिगणों ने मना करने पर वेन ने अपने अधिकार का प्रयोग करना चाहा. नाराज ऋषिगणों ने जनता को वेन के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया. भूख से पीडि़त जन अपना संयम खोते जा रहे थे. नीर–क्षीर का विवेक समाप्त हो चुका था. लगातार बढ़ता जनाक्रोश वेन की हत्या के बाद ही शांत हुआ. जनता ने अपने ही चुने राजा की बलि ले ली. ऋषिगणों का काम हो चुका था. सत्ता से निर्लिप्तता दर्शाते हुए उन्होंने वेन के पुत्र पृथु को ‘विश’ का राजा घोषित कर दिया.
-
विष्णु पुराण, स्कंध प्रथम, अध्याय 13, प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं, रामशरण शर्मा, पृष्ठ 67 से उद्धृत.
-
दीर्घनिकाय 3, पृष्ठ 93.
-
In the early days of cosmic cycle mankind live on an immaterial plane, dancing on air in the sort of fairyland, where there was no need of food or clothing, and no private property, family, Government or laws. Then gradually process of cosmic decay began its work and mankind become earthbound, and felt the need of food and shelter. All men lost their primeval glory, distinctions of class(verna) arose, and they entered in agreement with on another, accepting the institutions of private property and the family. With this theft, murder, adultery, and other crime began, and so the people met and decided to appoint one man among them to maintain in return for a share of produce of their fields and herds. He was called ‘the great choosen one’ (Mahasammta), and he received the title of ‘raja’ because the pleased the people.-THE WONDER THAT WAS INDIA, A. L. Basham, page-82.
-
Man was born free, and he is everywhere in chains” -Rousseau in Social Contract