About ओमप्रकाश कश्यप

My self is a Writer of 40 books....

गांधी-पेरियार संवाद

पेरियार और गांधी के बीच यह संवाद बंगलौर में हुआ था, जो उन दिनों मैसूर का हिस्सा था. वर्ष था 1927. इस संवाद में पेरियार जहाँ प्रखर हैं, गांधी सुरक्षात्मक मुद्रा में दिखाई पड़ते है. मामला तर्क का हो तो धर्म के दांव-पेंच काम नहीं आते. इसलिए जो धार्मिक जन हमेश आस्था का पल्लू थामकर चलते हैं.   

ई. वी. रामासामी:हिंदू धर्म को मिट जाना चाहिए।
गांधी:क्यों?
ई. वी. रामासामी:हिंदू धर्म नाम का कोई धर्म ही नहीं है
गांधी:वह है?
ई. वी. रामासामी:यह ब्राह्मणों द्वारा फैलाई गई भ्रांति है।
गांधी:सभी धर्म ऐसे ही हैं।
ई. वी. रामासामी:नहीं! दूसरे धर्मों का इतिहास है, आदर्श हैं और कुछ सिद्धांत हैं, जिन्हें लोग स्वीकार करते हैं।
गांधी:क्या हिंदू धर्म में ऐसा कुछ नहीं है?
ई. वी. रामासामी:वहां कहने लायक क्या है? सिवाय जातीय भेदभाव और ऊंच-नीच जैसे ब्राह्मण, शूद्र और पंचम(अछूत) के। उसकी कोई आचार संहिता नहीं है। न ही उसका कोई साक्ष्य है। इस जन्माधारित विभाजन में भी ब्राह्मणों को ऊंचा माना जाता है। जबकि शूद्र और पंचम को नीची जाति का कहा जाता है।
गांधी:कम से कम इसमें ये सिद्धांत तो हैं।
ई. वी. रामासामी:बिलकुल हैं, मगर क्या उपयोग है इनका? इनके अनुसार ब्राह्मण ऊंची जाति में जन्मे हैं; तथा मेरा और आपका संबंध निचली जाति से है।
गांधी:आप गलत कहते हैं। वर्णाश्रम धर्म में ऊंची जाति और नीची जाति जैसा कोई विभाजन नहीं है।
ई. वी. रामासामी:आप ऐसा कह तो सकते हैं, मगर रोजमर्रा के जीवन में ऐसा कहीं देखने में नहीं आता।
गांधी:नहीं, समानता है और उसे व्यावहारिक रूप से देखा जा सकता है।
ई. वी. रामासामी:जब तक हिंदू धर्म है, तब तक कोई इसे हासिल नहीं कर सकता।
गांधी:हिंदू धर्म का पालन करते हुए व्यक्ति इसे हासिल कर सकता है।
ई. वी. रामासामी:यदि ऐसा है तो ब्राह्मण-शूद्र के बीच अंतर दर्शाने वाले धार्मिक साक्ष्यों के बारे में क्या कहेंगे?
गांधी:आप केवल इस बारे में तर्क दें हिंदू धर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए कोई साक्ष्य नहीं है।
ई. वी. रामासामी:मैं कह चुका हूं कि ऐसा कोई धर्म है ही नहीं। इसलिए उसको सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण भी नहीं है। यदि धर्म के अस्तित्व को स्वीकार लिया जाए, तो प्रकारांतर में उसका अस्तित्व भी स्वत: प्रमाणित हो जाता है।
गांधी:हम धर्म को स्वीकार कर, उसके समर्थन में साक्ष्य जुटा सकते हैं।
ई. वी. रामासामी:यह असंभव है। यदि धर्म की उपस्थिति को स्वीकार लिया गया तो उससे जुड़ी चीजों में कुछ भी बदलना या सुधार करना असंभव होगा।
गांधी:जहां तक दूसरे धर्मों का संबंध है, आप जो कह रहे हैं, वह सही है। किंतु हिंदू धर्म के बारे में यह सच नहीं है। इसे स्वीकारने के बाद आप कुछ भी कर सकते हैं; और इसके नाम पर कर सकते हैं। उस पर कोई भी आपत्ति नहीं करेगा।
ई. वी. रामासामी:आप यह कैसे कह सकते हैं? कौन इससे सहमत होगा? क्या आप इस काम में अग्रणी भूमिका निभा सकते हैं?
गांधी:आपने जो भी कहा वह सच है। मैं मानता हूं कि इस तरह से हिंदू धर्म नामक कोई धर्म नहीं है। मैं इससे भी सहमत हूं कि इसकी कोई निश्चित आचार-संहिता नहीं है। इसीलिए मैं कहता हूं कि अपने ऊपर हिंदू का ठप्पा लगाकर हम, जो भी आदर्श हमें पसंद हैं, वही आदर्श हम इसके लिए निर्धारित कर सकते हैं। मैं तो कहूंगा कि केवल हिंदू धर्म ही लोगों को सही दिशा में ले जा सकता है। चूंकि दूसरे धर्मों का इतिहास, सिद्धांत और साक्ष्य मौजूद हैं, इसलिए यदि कोई उनमें बदलाव करता है तो वे समाप्त हो जाएंगे। ईसाइयों को वही करना चाहिए जो जीसस और बाईबिल ने कहा है। इसी तरह मुस्लिम वैसा ही जीवन जीते हैं, जैसा पैगंबर मोहम्मद साहब और कुरान ने उन्हें जीने को कहा है। उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन करना, इन धर्म ग्रंथों में दिए गए धर्मादेशों के विरुद्ध है। जो इनके धर्मादेशों को मानने से इन्कार करते हैं, वे इनसे बाहर आ सकते हैं। मगर भीतर रहकर सवाल उठाने की अनुमति उन्हें नहीं होती। दूसरे धर्मों का यही असली चरित्र है। उनसे अलग, हिंदू धर्म में कोई भी आगे आकर, बिना किसी बाधा-आक्षेप के कुछ भी उपदेश दे सकता है। इस धर्म ने कई महान व्यक्तित्व हमें दिए हैं, उन्होंने बहुत-सी अच्छी बाते कही हैं। इसलिए हिंदू धर्म में रहते हुए हम इसे सुधार सकते हैं तथा मनुष्यता के हित में अनेक अच्छे कार्य कर सकते हैं।
ई. वी. रामासामी:माफ करना, यह संभव नहीं है।
गांधी:क्यों?
ई. वी. रामासामी:हिंदू धर्म का आत्मकेंद्रित समूह आपको ऐसा करने की अनुमति नहीं देगा।
गांधी:आप ऐसा क्यों कहते हैं? क्या हिंदू इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि इस धर्म में अस्पृष्यता जैसी कोई चीज नहीं है?
ई. वी. रामासामी:नीति वचनों को स्वीकार करने तथा उनपर अमल करने में बड़ा अंतर होता है। इसलिए इसे व्यवहार में उतारना बड़ा ही कठिन है।
गांधी:मैंने यह किया है। क्या आप नहीं मानते कि पिछले चार-पांच वर्षों में सुस्पष्ट बदलाव देखने में आए हैं?
ई. वी. रामासामी:मैं समझता हूं, लेकिन वास्तव में कोई बदलाव नहीं हुआ है। यह केवल आपकी लोकप्रियता के कारण है। इस कारण भी है कि उन्हें आपकी जरूरत है। इसलिए स्वहित से परे जाकर वे आपकी आज्ञाओं का पालन करने का दिखावा करते हैं। बदले में आप उनपर विश्वास करते हैं।
गांधी:(हंसकर) वे कौन हैं?
ई. वी. रामासामी:सभी ब्राह्मण।
गांधी:क्या ऐसा है?
ई. वी. रामासामी:बिलकुल! उसी मंतव्य के साथ, सभी ब्राह्मण जो आपके साथ हैं।
गांधी:ऐसा है, क्या आप किसी भी ब्राह्मण पर भरोसा नहीं करते?
ई. वी. रामासामी:वे मुझे लुभाने में नाकाम रहे हैं।
गांधी:क्या आप राजगोपालाचारी पर भी विश्वास नहीं करते?
ई. वी. रामासामी:वे भले हैं, ईमानदार हैं; और उन्होंने बलिदान भी दिए हैं। किंतु ये नेक काम उन्हें अपने समुदाय की भली-भांति सेवा करने में मदद करते हैं। इसमें वे नि:स्वार्थ भी हैं। लेकिन उनके हितों के लिए मैं अपने समुदाय के हितों को गिरबी नहीं रख सकता।
गांधी:मुझे यह सुनकर हैरान हूं। यदि कसौटी है, तो आपकी राय में दुनिया-भर में ईमानदार ब्राह्मण को खोज पाना बड़ा मुश्किल है।
ई. वी. रामासामी:हो सकता है या नहीं भी हो सकता। मैंने ऐसा कोई ब्राह्मण नहीं देखा।
गांधी:ऐसा मत कहिए….मैं ऐसे ब्राह्मण से मिल चुका हैं। आज भी मैं उन्हें श्रेष्ठ ब्राह्मण मानता हूं, वे हैं—गोपाल कृष्ण गोखले।
ई. वी. रामासामी:आप जैसा महात्मा भी पूरी दुनिया में केवल एक नेक ब्राह्मण को खोज पाया है। फिर मेरे जैसे साधारण पापी के लिए, किसी अच्छे ब्राह्मण की खोज करना भला कैसे संभव है?
गांधी:(हंसते हुए) संसार हमेशा ही बुद्धि के नियंत्रण में रहा है। ब्राह्मण पढ़े-लिखे हैं। वे हमेशा ही दूसरों पर शासन करते रहेंगे। इसलिए उनकी आलोचना करने से किसी का किसी लाभकारी उद्देश्य की सिद्धि असंभव है। दूसरे लोगों को भी उनके स्तर तक पहुंचना पड़ेगा।
ई. वी. रामासामी:दूसरे धर्मों में हमें ऐसे लोग दिखाई नहीं पड़ते। केवल यहीं पर, हिंदू धर्म में ही, ब्राह्मण बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। बाकी 90 प्रतिशत लोग या जो अशिक्षित रह जाते हैं अथवा अज्ञानी। इसलिए, यदि किसी समाज में उसका केवल एक समूह बुद्धिमान, पढ़े-लिखे और साहित्यकार वर्ग में गिना जाता है, तो क्या यह उस समाज के बाकी वर्गों के लिए हानिकारक नहीं है! इसी कारण है मैं हमेशा जोर देता आया हूं कि धर्म जो इस विसंगति का मुख्य कारण है—को समाप्त हो जाना चाहिए।
गांधी:आप किस ओर हैं? क्या मैं मान सकता हूं कि आप हिंदू धर्म के उच्छेद के साथ-साथ समाज से ब्राह्मणों को खत्म करने के भी पक्ष में है?
ई. वी. रामासामी:यदि यह बनावटी हिंदू धर्म समाप्त हो जाता है, तो कोई भी ब्राह्मण नहीं रहेगा। हम मेहनतकश(शूद्र) वर्ण से हैं। सब कुछ ब्राह्मणों के हाथों में है।
गांधी:यह सही नहीं है। क्या अब वे मेरी नहीं सुनेंगे? हिंदू धर्म के झंडे तले एकजुट होकर हम अब भी इसके नकारात्मक पक्षों को दूर करना चाहेंगे।
ई. वी. रामासामी:मेरी विनम्र राय है कि आप इस लक्ष्य को कभी प्राप्त नहीं कर सकते। यदि आप ऐसा कर पाए तो भविष्य में आप जैसा ही कोई महान व्यक्तित्व सामने आकर आपकी सारी मेहनत पर पानी फेर देगा।
गांधी:यह कैसे संभव होगा?
ई. वी. रामासामी:आपने पहले कहा है कि हिंदू धर्म के नाम पर कोई भी व्यक्ति जनता की विचारधारा को व्यक्ति-विशेष की विचारधारा का अनुगामी बना सकता है। इसी का अनुसरण करते हुए भविष्य में कोई भी बड़ा व्यक्तित्व हिंदू धर्म के नाम पर कुछ भी कर सकता है।
गांधी:भविष्य में किसी भी व्यक्ति द्वारा परिवर्तन की कोशिश करना व्यावहारिक नहीं है।
ई. वी. रामासामी:यह कहने के लिए मुझे क्षमा करें। हिंदू धर्म की मदद से स्थायी और बड़ा कर पाना आपके लिए संभव नहीं है। ब्राह्मण आपको ऐसा करने की अनुमति नहीं देंगे। यदि आपने उनके हितों के विरुद्ध कुछ भी किया तो वे आपके खिलाफ युद्ध छेड़ देंगे। आज तक किसी भी महापुरुष ने बदलाव की कोशिश नहीं की है। यदि किसी ने ऐसा करने की कोशिश की तो ब्राह्मण कभी उसे वैसा करने का अवसर नहीं देंगे।
गांधी:आपके भीतर ब्राह्मणों के प्रति नफरत भरी हुई है। वही आपकी चिंतनधारा को सर्वाधिक प्रभावित करती है। मैं सोचता हूं कि अपनी बातचीत के दौरान अभी तक हम किसी नतीजे पर नहीं पहुंचे हैं। यद्यपि हम भविष्य में दूसरी या तीसरी बार मिलेंगे और अपने पक्ष के बारे में फैसला करेंगे।

बी. एस चंद्रबाबू नायडू की पुस्तक ‘सोशल प्रोटेस्ट इन तमिलनाडु'(1993), एमराल्ड पब्लिशर्स से अनूदित. फोटो मॉडर्न रेशनलिष्ट

वज्रसूची

विशेष रुप से प्रदर्शित

उपनिषद((सामवेद)

हिंदी अनुवादक : ओमप्रकाश कश्यप

[‘वज्रसूचि’ बौद्ध विद्वान अश्वघोष(50 ईस्वी पूर्व—50 ईस्वी) द्वारा विरचित लघु उपनिषद है. इसमें हिंदुओं की वर्ण-व्यवस्था पर प्रहार किया गया है. अश्वघोष की वर्ण-व्यवस्था के औचित्य के खंडन के लिए अश्वघोष ब्राह्मण ग्रंथों से ही उदाहरण देते हैं. उनके तर्क तीखे, कहीं-कहीं व्यंजना लिए हुए हैं. इस उपनिषद का पहला अंग्रेजी अनुवाद रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के लिए बी.एच. हॉडग्सन द्वारा 1829 में किया था, जो लंदन से 1835 में प्रकाशित किया गया था. उससे पहले रॉयल सोसाइटी के सचिव के नाम 11 जुलाई 1929 को लिखे गए पत्र में हॉडग्सन ने लिखा था कि ‘वज्रसूची’ के अनुवाद में मदद करने के लिए उन्होंने ‘बनारस के एक पंडित’ को रखा था, लेकिन वह बीच में ही काम को अधूरा छोड़कर चला गया था. जैसे-तैसे उन्होंने अनुवाद कार्य को पूरा किया.

उपनिषद् के हिंदी अनुवाद हेतु सुजीत कुमार मुखोपाध्याय के अंग्रेजी अनुवाद की मदद ली गई है, जो विश्वभारती, शांतिनिकेतन द्वारा प्रकाशित 1849 में प्रकाशित हुआ था. अपने तीखे और विद्वतापूर्ण तर्कों के माध्यम से अश्वघोष जिस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, वह कालातीत और चिर-प्रासंगिक है—

‘हे राजन्। मनुष्य की जाति नहीं देखी जाती। उसके गुण ही उसके श्रेष्ठत्व की पहचान हैं। सिर्फ वही महत्वपूर्ण हैं। ऐसा व्यक्ति जो परोपकारी जीवन जीता है, जो सदैव धैर्य-धृत्ति और क्षमा का अनुसरण करता है, ईश्वर की दृष्टि में वही श्रेष्ठ जन है।’]

पुस्तक की खूबी है कि तर्क पूर्ण विवेचना से अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने के बावजूद अश्वघोष अपनी ओर से कोई फैसला थोपते नहीं हैं, अपितु आगे का काम पाठकों के विवेक पर छोड़ देते हैं. यह गुण इसे दूसरे उपनिषदों से अलग करता है.

वज्रसूची का अर्थ है—हीरे की सुई. तो अब आप हीरे की सुई को पढ़िए, परखिए और काम लीजिए.

 

वज्रसूची

ओम नमो मञ्जुनाथाय।

मैं अश्वघोष सर्वप्रथम अपने गुरु मंजुनाथ को नमन करता हूं

जगद्गुरुं मञ्जुघोषं नत्वा वाक्कायचेतसा

अश्वघोषो वज्रसूचीं सूत्रयामी यथामतम्।1।

अपनी अंतरात्मा और पूरी शक्ति के साथ जगद्गुरु मंजुनाथ का नमन और स्मरण करने के पश्चात मैं शास्त्र के अनुसार वज्रसूची नामक इस ग्रंथ को लिखना आरंभ करता हूं।1।

वेदाः प्रमाणं स्मृतयः प्रमाणं धर्मार्थयुक्तं वचनं प्रमाणम्।

यस्य प्रमाणं न भवेत्प्रमाणं कस्तस्य कुर्याद्वचनं प्रमाणम्।2।

आपके वेद प्रमाण हैं, स्मृतियां प्रमाण हैं। धर्म-सम्मत आधार पर कहे गए वचन भी प्रमाण हैं। जो प्रमाण को प्रमाण के रूप में स्वीकारने से इन्कार करेगा, उसके कथन को प्रमाण के रूप  में भला कौन स्वीकार करेगा।

  1. इह भवता यदिष्टं सर्ववर्ण प्रधानं ब्राह्मणवर्णइति, वयमत्र ब्रूम: कोऽयं ब्राह्मणो नाम। किं जीवः किं जातिः किं शरीरं किं ज्ञानं, किमाचारः किं कर्म किं वेद इति।

आपके शास्त्रों के अनुसार सृष्टि में ब्राह्मण ही सर्वश्रेष्ठ हैं। यदि ऐसा है तो यह बताइए कि ब्राह्मण कौन हैं? किसे ब्राह्मण कहा जाए? क्या आत्मा को? अथवा शरीर को? मनुष्य ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से ब्राह्मण होता है अथवा ज्ञान से? क्या व्यक्ति का आचार उसे ब्राह्मण बनाता है, अथवा उसका ज्ञान? किसी व्यक्ति के कर्म उसे ब्राह्मण बनाते हैं, अथवा वेद-शास्त्रों में प्रवीणता प्राप्त कर लेने के पश्चात वह ब्राह्मण बन पाता है?

  1. तत्र जीवस्तावद् ब्राह्मणो न भवति। कस्माद्। वेदस्य प्रामाण्याद्। उक्तं हि वेदेः।

यदि आप कहते हैं कि जीव ही ब्राह्मण है तो यह सच नहीं है। क्योंकि वेद जीव(आत्मा) को ब्राह्मण नहीं मानते।

  1. ओं सूर्यः पशुरासीत्, सोमः पशुरासीद्, इंद्र पशुरासीत्।

पश्वो देवाः। आद्यन्ते देवपशवः। श्वपाका अति देवा भवन्ति।।

  • ओं, वेदों के अनुसार पहले सूर्य पशु था, चंद्रमा पशु था और इंद्र भी पशु ही था। कुछ देवता पहले पशु थे, बाद में(जन्मांतर के पश्चात) वे देवता कहलाए। यहां तक कि कुत्ते का मांस खाने वाला भी बाद में देवता(ब्राह्मण) बन गया था।
  1. अतो वेदप्रामाण्यान्मन्यामहे जीवस्वाद् ब्राह्मणो न भवति।

भारत-प्रामाण्यादपि। उक्तं हि भारतेः।

  • वेदों के आधार पर प्रमाणित होता है कि जीव(आत्मा) ब्राह्मण नहीं है। इसे महाभारत भी पुनःप्रमाणित करता है।
  •  

सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालञ्जरे गिरौ।

चक्रवाकाः शरद्वीपे हंसाः सरसि मानसे।3।

तेऽपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा  वेदपारगाः।4।

उसके अनुसार एक बार कलिंजर पहाड़ी के सात शिकारी, दस हरिण, मानस-सरोवर झील की एक बत्तख और शरद् द्वीप का चावक पक्षी—इन सभी का जन्म कुरुक्षेत्र में ब्राह्मण के रूप में हुआ था, आगे चलकर ये सभी वेद-पारंगत हुए।3-4।

  • अतो भारतप्रामाण्याद् व्याधमृगहंसचक्रवाकदर्शन सम्भवान्मन्यामहे जीवस्तादु ब्राह्मणो न भवति। मानवधर्मप्रामाण्यादपि। उक्तं हि मानवे धर्मेः।

अधीत्य चतुरो वेदान्सांगोपांगेन तत्त्वतः

शूद्रात्प्रतिग्रहग्राही ब्राह्मणो जायते खरः।5।

खरो द्वादशजन्मानि षष्टिजन्मानि सूकरः

श्वानः सप्ततिजन्मानि—इत्यमेवं मनुरब्रवीत्।6।

5. अतएव महाभारत के अनुसार, हम मानते हैं कि एक भेड़िया, एक हरिण, एक हंस, एक चक्रवाक पक्षी को भी ब्राह्मण के रूप में देखना(पुनर्जन्म लेना) संभव है। इसलिए जन्म लेने मात्र से ही कोई ब्राह्मण नहीं बनता है। यह मनुस्मृति से भी प्रमाणित है। उसमें कहा गया है—

“ब्राह्मण, वेद-वेदांगों के सांगोपांग अध्ययन द्वारा जो ग्रहण करता है, शूद्र से भिक्षा अथवा दान लेने पर वह नष्ट हो जाता है । मरणोपरांत वह गधे के रूप में जन्म लेता है।5 ।

बारह जन्मों तक गधे की योनि में जन्म लेने के बाद वह साठ जन्मों तक सूअर के रूप में जन्मता है. तदनंतर उसे लगातार सत्तर बार कुत्ते की योनि में जन्म लेना पड़ता है।6।   

  • अतो मानवधर्म प्रामाण्याज्जीवस्तावद् ब्राह्मणो न भवति।

6. अतएव मानवशास्त्र, श्रुति एवं स्मृति के आधार पर यह आत्मा ब्राह्मण नहीं हैं।

  • जातिरपि ब्राह्मणें न भवति। कस्मात्। स्मृति प्रामाण्याद्। उक्तहिं स्मृतौः

7. सिर्फ जन्म मात्र ही कोई मनुष्य ब्राह्मण नहीं हो जाता। क्यों? स्मृति में यही कहा गया है। स्मृति-ग्रंथों में लिखा है—

हस्तिन्यामचलो जात उलूक्यां केशपिंगलः

अगस्त्योऽगस्तिपुष्पाच्च कौशिकः कुशसम्भवः।7।

कपिलः कपिलाजातः शर गुल्माच्च गौतमः

द्रोणाचार्यस्तु कलशात्तित्तिरिस्तित्तिरीसुतः।8।

रेणुकाऽजनयद्राममृष्यशृंगमुनिं मृगी

कैवर्तिन्यजनयद् व्यासं कुशिकं चैव शूद्रिका।9।

विश्वामित्रं च चण्डाली वशिष्ठं चैव उर्वशी

न तेषां ब्राह्मणी माता लोकाचाराच्च ब्राह्मणाः।10।

अचल मुनि का जन्म हथिनी के गर्भ से, केशपिंगल ऋषि का उल्लू से, आगस्त्य मुनि का अगस्ति पुष्प से, कौशिक का जन्म कुश(घास) से हुआ था। पुनश्चः कपिल मुनि का जन्म कपिता(अग्नि, बंदर) से, और गौतम का चीटिंयों से, द्रोणाचार्य का कलश से, तैत्तिरीय मुनि का तीतरी के गर्भ से, परशुराम का रेणु(धूल) से, श्रृंगी ऋषि का हरिणी के गर्भ से, व्यासमुनि का जन्म एक मल्लाह स्त्री से, कौशिक मुनि का जन्म एक शूद्र स्त्री से, विश्वामित्र का जन्म चांडाल स्त्री के गर्भ से तथा वशिष्ट मुनि का जन्म उर्वशी नामक अप्सरा के गर्भ से हुआ था। इनमें से किसी की भी मां ब्राह्मणी नहीं थी। बावजूद इसके ये सभी शुद्ध ब्राह्मण के रूप में विख्यात हुए। इन्हें सिर्फ लोकाचार में ब्राह्मण का दर्जा दिया गया है, ग्रंथों के आधार इनके ब्राह्मणत्व की पुष्टि संभव नहीं है।7-10।

  • अतः स्मृतिप्रामाण्या न्मन्यामहे जातिस्तावद् ब्राह्मणो न भवति।

8. इस तरह स्मृति ग्रंथों द्वारा प्रमाणित होता है कि जन्म के आधार पर कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होता।

IX.  अथ मन्यसे माता वाऽब्राह्मणी भवेत्। तेषां पिता ब्राह्मण स्ततो ब्राह्मणो भवतीति। यद्येवं दासीपुत्रा अपि ब्राह्मणजनिता ब्राह्मणा भवेयुः। न चैतद्भवतामिष्ठम्।

9. अब यदि आप यह कहते हैं कि माता भले अब्राह्मणी हो, पिता यदि ब्राह्मण है तो संतान ब्राह्मण ही मानी जाएगी। यदि इसे मान लिया जाए तो ब्राह्मण द्वारा दासियों द्वारा उत्पन्न संतान को भी ब्राह्मण का ही दर्जा मिलना चाहिए। लेकिन आप इसे स्वीकार नहीं करेंगे।

  • किं च। यदि ब्राह्मणपुत्रो ब्राह्मणस्तर्हि ब्राह्मणाभावः प्राप्नोति। इदानीन्तानेषु ब्राह्मणेषु पितरि सन्देहाद्। गोत्रब्राह्मणमारभ्य ब्राह्मणीनां शूद्राभिगमनदर्शनाद्। अतो जातिर्ब्राह्मणो न भवति। मानवधर्मप्रामाण्यादपि। उक्तं हि मानवे धर्मेः।

10. क्या आप यह कहें कि ब्राह्मण की औरस संतान ही ब्राह्मण होती है। यदि आप उसी को शुद्ध और सच्चा ब्राह्मण मानते हैं तो मुझे उससे भी आपत्ति है। क्योंकि आज के युग के ब्राह्मण, ब्राह्मणों से ही उत्पन्न हैं, यह बात ही संदेहास्पद है। माना जाता है कि आरंभ से ही, यहां तक कि जब से ब्राह्मणत्व की संकल्पना जन्मी, ब्राह्मण गोत्र की स्त्रियों का संबंध शूद्रों से था; और आज भी है। यदि वास्तविक पिता ही शूद्र है तो उनकी संतान ब्राह्मण हो ही नहीं सकती। इसका मां के ब्राह्मण होने से कोई संबंध नहीं है। इसके आधार पर मैं कहना चाहता हूं कि ब्राह्मणत्व को सिर्फ जन्म के आधार पर सिद्ध नहीं किया जा सकता। मनुस्मृति से भी यही प्रमाणित होता है। उसमें कहा गया है—

सद्यः पतति मांसेन लाक्षया लवणेन च

त्याहाच्छूद्रश्च भवति ब्राह्मणः क्षीरविक्रयी।11।

आकाशगामिनो विप्राः पतन्ति मांसभक्षणात्

विप्राणां पतनं दृष्टा ततो मांसानि वर्जयेत्।12।

मनुस्मृति इस बात का प्रमाण है कि जो ब्राह्मण मांस भक्षण करता है, वह अपना ब्राह्मणत्व गंवा देता है। यही नहीं सोम, नमक या दूध का व्यापार करने वाला ब्राह्मण भी तीन दिनों के भीतर शूद्र हो जाता है। जो ब्राह्मण चमत्कारी शक्ति से आकाश-गमन करते हैं, यदि वे मांस भक्षण करें तो जमीन पर आ गिर पड़ते हैं। ऐसे पराभव की संभावना को टालने के लिए ब्राह्मणों के लिए मांस सेवन को वर्जित किया गया है।11-12।

XI. अतो मानवधर्मप्रामाण्याज्जातिस्तावद् ब्राह्मणो न भवति। यदि हि जातिर्ब्राह्मणः स्यात् तदा पतने शूद्रभावो नोपद्यते। किं खलु द्रुष्टोऽप्यश्वः सूकरो भवेत्। तस्माज्जातिरपि ब्राह्मणो न भवति।

11. स्पष्ट है कि मनु धर्म के प्रमाणनुसार ब्राह्मणत्व वह नहीं है जो  जन्म से प्राप्त होता है। यदि किसी को जन्म से ब्राह्मण दर्जा प्राप्त है तो कर्म के आधार पर उसे शूद्र माना ही नहीं जा सकता। क्या कभी किसी घोड़े को किसी दोष के कारण सूअर बनते देखा है! इससे स्पष्ट है कि जन्म से कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होता।

XII.  शरीरमपि ब्राह्मणो न भवति। कस्माद्। यदि शरीरं ब्राह्मणः स्यात् तर्हि पावकोऽपि ब्रह्महा स्याद्। ब्रह्महत्या च बंधूनां शरीरं दहनाद्भवेद्। ब्राह्मणशरीरनिस्यन्दजातश्च क्षत्रियवैश्यशूद्रा अपि ब्राह्मणा स्युः। न चैतदद्ष्टं। ब्राह्मणशरीविनाशाच्च यजनयाजनाध्ययनाध्यापनदान -प्रतिग्रहादीनां ब्राह्मण-शरीरजनितानां फलस्य विनाशः स्यात्। न चैतदिष्टम्। अतो मन्यामहे शरीरमपि ब्राह्मणो न भवति।

12. क्या आप कहते हैं कि यह शरीर ब्राह्मण है? तब भी आप गलत हैं। इसलिए कि यदि यह शरीर ही ब्राह्मण है तो मृत्योपरांत ब्राह्मण के शरीर को अग्नि के सुपुर्द करने वालों को ब्रह्म-हत्या का पापी समझा जाना चाहिए। यह दोष मृतक ब्राह्मण के सभी मित्रों-संबंधियों को जो अंतिम संस्कार के समय उपस्थित थे, लगना चाहिए।

फिर यदि शरीर ही ब्राह्मण है तो क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जो ब्राह्मण के शरीर से अथवा जो ब्राह्मण द्वारा क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि स्त्रियों के साथ संसर्ग द्वारा उत्पन्न हैं, उन्हें भी ब्राह्मण का दर्जा प्राप्त होना चाहिए। किंतु ऐसा नहीं होता।

पुनश्चः यदि शरीर ही ब्राह्मण है तो यज्ञादि कर्मकांडों में भाग लेना या दूसरों को उसके लिए प्रेरित करना, अध्ययन-अध्यापन, दान देना, दान लेना आदि ये सभी कृत्य शरीर द्वारा ही निष्पादित किए जाते हैं. जो उनको जो लोग मानते हैं, उनसे पूछना चाहिए कि क्या ब्राह्मण के शरीर के नष्ट हो जाने से इन सब कृत्यों के गुण-धर्म भी नष्ट हो जाते हैं? निश्चित रूप से ऐसा नहीं होता। सो स्पष्ट है कि यह शरीर ब्राह्मण नहीं है।

XIII.    ज्ञानमपि ब्राह्मणो न भवति। कुतः। ज्ञानबाहुल्याद्। ये ये ज्ञानवन्तः शूद्रास्ते सर्व एव ब्राह्मणाः स्युः। दृश्यन्ते च क्वचित शूद्रा अपि वेदव्याकरणमीमांसासांख्य-वैशेषिकलग्ना जीवकादिसर्वशास्त्रार्थ विदः। न चे ते ब्राह्मणाः स्युः। अतो मन्यामहे ज्ञानमपि ब्राह्मणो न भवति।

13. तो क्या आप मानते हैं कि ज्ञान व्यक्ति को ब्राह्मण बनाता है? यह भी गलत है। क्यों? इसलिए कि यदि यह सच होता तो अनेक शूद्र जिन्होंने अपने ज्ञान के बल पर बहुत-सा ज्ञान अर्जित किया है, जिन्हें प्रकांड पांडित्य हासिल है, उन्हें भी ब्राह्मण बन जाना चाहिए था। ऐसे अनेक शूद्रों को देखा गया है जो सभी वेद-वेदांगों, विद्याओं, धर्मशास्त्रों तथा उनकी शाखा-प्रशाखाओं, व्याकरण-मीमांसा-सांख्य-वैशेषिक-जैन धर्म, आजीवक दर्शन सहित ज्योतिष, तत्वज्ञान आदि समस्त विद्याओं में निष्णात हैं। लेकिन उनमें से कितनों को ब्राह्मणत्व हासिल हो पाया है?

इससे स्पष्ट है कि ज्ञान, अध्ययन-अध्यापन आदि भी ब्राह्मणत्व का लक्षण नहीं है। सिर्फ ज्ञानी होने से किसी को ब्राह्मणत्व से युक्त नहीं माना जा सकता।

XIV. आचारोऽपि ब्राह्मणो न भवति। कुतः यद्याचारो  ब्राह्मणः स्यात् तदा ये य आचारवन्तः शूद्रास्ते सर्वे ब्राह्मणाः स्युः। दृश्यन्ते च नटभटकैवर्तभण्डप्रभृतयः प्रचण्डतरविविधारवन्तो, न चे ते ब्राह्मणा भवन्ति। तस्मादाचारोऽपि ब्राह्मणो न भवति।

14.  आचार से भी मनुष्य को ब्राह्मण का दर्जा हासिल नहीं होता। यदि ऐसा होता तो जितने भी आचारवान शूद्र हैं, वे सब के सब कभी के ब्राह्मण बन गए होते। यह देखा भी जाता है कि अनेक नट, भाट, भांड, कैवर्त और अन्य लोग तरह-तरह के सदाचरण का बहुत गंभीरता से पालन करते हैं। उनका आचरण निर्मैल्य होता है। फिर भी वे ब्राह्मण नहीं बन जाते।

तदनुसार यह सिद्ध है कि आचार के आधार पर भी किसी मनुष्य को ब्राह्मण घोषित नहीं किया जा सकता।

XV. कर्मापि ब्राह्मणो न भवति। कुतः। दृश्यन्ते हि क्षत्रियवैश्य शूद्रा यजन-याजनाध्ययनाध्यापनदानप्रतिग्रह प्रसंग विविधानि कर्माणि कुर्वन्तो न च ते ब्राह्मणा भवतां सम्मताः। तस्मात्कर्मापि कर्माणि ब्राह्मणो न भवति।

15. व्यक्ति अपने कर्मों से भी ब्राह्मण नहीं बनता। न ही व्यक्ति की जीवनवृति उसे ब्राह्मण बनाती है। कैसे? अकसर देखा गया है कि क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि भी अध्ययन-अध्यापन, यज्ञादि कर्मकांड, दान-प्रतिग्रह, जिन्हें ब्राह्मणत्व का लक्षण माना गया है—करते पाए जाते हैं। उन सब कर्मों को करने के बाद भी कोई व्यक्ति ब्राह्मण न नहीं बन पाता है।

इससे सिद्ध है कि व्यक्ति की वृति उसे ब्राह्मण नहीं बनाती।

XVI.  वेदेनापि ब्राह्मणो न भवति। कस्माद्। रावणो नाम राक्षसोऽभूत्। तेनाधीताश्चत्वारो वेदाः। ऋग्वेदो, यजुर्वेद, सामवेदोऽथर्ववेदश्चेति। राक्षसानामपि गृहे-गृहे वेद-व्यवहारः प्रवर्तत एव। न चे ते ब्राह्मणः स्युः। अतो मान्यामहे वेदेनापि ब्राह्मणो न भवतीति।

16. तो क्या वेदाध्ययन के माध्य्यम  व्यक्ति ब्राह्मण बन पाता है? नहीं। वेदाध्ययन से भी व्यक्ति ब्राह्मण नहीं बन पाता। ऐसा क्यों होता है? रावण नामक राक्षस चारों वेदों यथा ऋक्, यजु, साम और अथर्ववेद का ज्ञाता था। राक्षसों के यहां हर घर में वेदानुरूप आचरण किया जाता था। तथापि वे ब्राह्मण नहीं होते थे।

स्पष्ट है कि वेदों में प्रवीणता ही किसी व्यक्ति के ब्राह्मण होने का प्रमाण नहीं है।

XVII.   कथं तर्हि ब्राह्मणत्वं भवति। उच्यते:

ब्राह्मणत्व न शास्त्रेण न संस्काररैर्न जातिभि:

न कुलेन, न वेदेन न कर्मणा भवेत्तत:।13।

17. तब ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर पाना कैसे संभव है? खासकर तब जब यह कहा गया कि न तो शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन से, न आचारों के पालन से, न ही ब्राह्मणों के लिए निर्धारित आजीविका को अपनाकर ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया जा सकता है।

फिर ब्राह्मणत्व का आधार क्या है। कोई व्यक्ति कैसे ब्राह्मण बन सकता है?

XVIII. कुन्देन्दुधवलं हि ब्राह्मणत्वं नाम सर्वपापस्यापा करणमिति।

18. सभी प्रकार के प्रापों, दुष्कर्मों से विरत हो जाना ही ब्राह्मणत्व का लक्षण है, यह श्वेतकुंद पुष्प और धवल चंद्रमा जैसा निर्मेल्य हो जाना है।

XIX. उक्तं हि। ब्रततपोनियमोपवास दानदमशमसंयमो पचाराच्च। तथा चोक्तं वेदेः।

19. यह भी कहा गया है कि आचरण और शील के परिपालन द्वारा, तप, व्रत, दानादि कर्मो तथा आंतरिक और ब्राह्यः पर नियंत्रण हो जाने से ब्राह्मणत्व की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है।

निर्ममो निरहंकारो निःसंगो निष्परिग्रहः

रागद्वेष विनिर्मुक्तस्तं देवा ब्राह्मण विदुः।14।

वह जो मोह-ममत्व से परे है, जिसने अहंकार को जीत लिया और जो निरासक्त तथा असंग्रही है। साथ ही जो व्यक्ति राग-द्वेष से रहित है, तथा विलासिता और घृणा से मुक्ति पा चुका है—देवताओं ने ऐसे व्यक्ति को ही ब्राह्मण का दर्जा दिया है।

सर्वशास्त्रेऽप्युक्तम् :

सत्य ब्रह्म तपो ब्रह्म ब्रह्म चेन्द्रियःनिग्रहः

सर्वभूते दया ब्रह्म एतद् ब्राह्मणलक्षणम्।15।

सत्यं नास्ति तपो नास्ति नास्ति चेन्द्रियनिग्रहः

सर्वभूते दया नास्ति एतच्चाण्डाललक्षणम्।16।

देवमानुष नारीणां तिर्यग्योनिगतेष्वपि

मैथुन नाधिगच्छन्ति ते विप्रास्ते च ब्राह्मणाः।इति।।17।

शुक्रेणाप्युक्तं

न जातिदृश्यते तावद् गुणाः कल्याणकारकाः

चाण्डालोऽपि हि तत्रस्थतं देवा ब्राह्मणं विदुः।18।

वेद-वेदांगों और शास्त्रों का कथन है कि

सत्य ही ब्राह्मणत्व है, तप ब्राह्मणत्व है, इंद्रियों पर नियंत्रण कर लेना भी ब्राह्मणत्व का लक्षण है। प्राणिमात्र के प्रति करुणा का भाव ब्राह्मणत्व है। ये सब ब्राह्मणत्व के लक्षण हैं।15।

दूसरी ओर,

मिथ्याभाषी और तपरहित हो जाना, इंद्रियों पर अधिकार न होना, प्राणिमात्र के प्रतिकरुणा का अभाव होना—ये सब चांडाल के लक्षण हैं।16।

देव, मनुष्य, स्त्रियों, पशु आदि में जो भी मनुष्य मैथुन कर्म से विरक्त  और शीलवान हैं, उन्हीं को ब्राह्मण बताया गया है।17।

शुक्राचार्य ने कहा था—

ईश्वर जाति नहीं देखता, किस कुल में जन्म लिया है यह भी नहीं देखता। बजाय इसके सुंदर, कल्याणोन्मुखी आचरण ही मनुष्यों के गुणों का आधार है। ये गुण यदि किसी चांडाल में भी मौजूद हैं तो देवता उसे भी ब्राह्मण ही मानते हैं।18।

XX. तस्मान्न जातिर्न जीवो न शरीरं न ज्ञानं नाचारो न कर्म न वेदो ब्राह्मण इति।

20. इससे निष्कर्ष निकलता है कि जन्म, आत्मा, शरीर,  ज्ञान, आचरण, कर्म और वेद-वेदांग मनुष्य को ब्राह्मण नहीं बनाते। इनमें से एक भी मनुष्य को ब्राह्मणत्व का दर्जा देने में सक्षम नहीं है।

XXI. अन्यच्च भवतोक्तम्। इह शूद्राणां प्रवज्या न विधीयते। ब्राह्मणशुश्रूषैव तेषां धर्मों विधीयते। चतुर्षु वर्णेष्वन्ते वचनात्तेनीचा इति।

21. अन्यत्र ऐसा भी कहा गया कि शूद्र मुक्ति के अधिकारी नहीं हैं। उन्हें प्रवज्या नहीं दी जा सकती। ब्राह्मणों की सेवा करना ही शूद्रों का एकल कर्तव्य बताया गया है। चारों वर्णों में जिस प्रकार शूद्र का नाम सबसे नीचे आया है, समाज में भी वे सबसे निचले स्तर पर आते हैं।

XXII. यद्येवमिन्द्रोऽपि नीचः स्यात्। ‘श्वयुवमघोनामतद्धिते’ इति सूत्रवचनात्। श्वा इति कुक्कुरः। युवा इति पुरुषः। मघवा इति सुरेंन्द्रः। तयोःश्वपुरुषयोरिन्द्र एव नीचः स्यात्। न चैतद् दृष्टं। किं हि वचनमात्रेण दोषो भवति। तथा च। उमामहेश्वरौ दन्तौष्ठमित्यपि लोके प्रयुज्जते। न च दन्ताः प्रागुत्पन्नाः उमा वा। केवलं वर्षसमासमात्रं क्रियते। ब्रह्मक्षत्र विट्शूद्रा इति। तस्माद्या भवदीय प्रतिज्ञा ब्राह्मणशूद्रश्रुषैव तेषां धर्मो, (सा) न भवति।

22. उक्त आधार पर यदि शूद्र सबसे नीचे हैं तो देवराज इंद्र भी नीच हैं। पाणिनी नें ‘श्वयुवमघोनामतद्धिते’ सूत्र का उल्लेख किया है, जिसमें श्वान का अर्थ है कुत्ता, युवा यानी पुरुष और मघवा या मेघ का अभिप्रायः इंद्र से है। यदि उक्त कसौटी को मान लिया जाए तो श्वान यानी कुत्ता जो इस सूत्र में सबसे पहले स्थान पर आया है, उसे इंद्र और पुरुष दोनों से श्रेष्ठतर होना चाहिए। अंत में स्थित होने के कारण इंद्र को सबसे नीच। लेकिन ऐसा तो नजर नहीं आता। क्या किसी को इसलिए नीच या कमतर  मान लेना उचित होगा कि उसका उल्लेख श्रेणीक्रम में सबसे बाद में आया है। प्रत्येक भाषा में संयुक्त और मिश्रित शब्द आते हैं। दंतोष्ट समास में दांत होठों से श्रेष्ठतर हैं। ‘उमा-महेश’ जैसे सामासिक शब्द का यह अभिप्रायः होगा कि पार्वती शिव से श्रेष्ठ है? ‘ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र’ तो शब्दक्रम मात्र है। इसके आधार पर किसी शूद्र को चाहे वह कितना ही सज्जन क्यों न हो, ब्राह्मण की तुलना में नीच और दुर्जन मान लेना क्या मूर्खता की हद नहीं है।

इसलिए यह दावा कि ‘ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र’ में शूद्र सबसे अंत में आया है, इसलिए उसका कर्तव्य ब्राह्मणों की सेवा करना हैं—उचित नहीं है।

XXIII. किं चानिश्तिऽयं ब्राह्मणप्रसंग। उक्तं हि मानवे धर्मः।

वृषलीफेनपीतस्य निःश्वासोपहतस्य च

तत्रैव च प्रसूतस्य निष्कृतिर्नोपलभ्यते।19।

शूद्रीहस्तेन यो भुंक्ते मासमेकं निरन्तरम्

जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वानश्च जायते।20।

शूद्रीपरिवृतो विप्रः शूद्री च गृहमेधिनी

वर्जितः पितृदेवेन रीरवं सोऽधिगच्छति।21।

23. गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो मनु के धर्मशास्त्र की कसौटी पर ब्राह्मणत्व टिकता ही नहीं है।

मनुस्मृति में लिखा है कि ब्राह्मण जो शूद्र स्त्री के साथ शयन करता है, उसे चूमता-आलिंगन करता है, उससे संतान उत्पन्न करता है—वह पतित हो जाता है। जिसका प्रायश्चित संभव ही नहीं है।19। और

वह जो शूद्र स्त्री के हाथों से बनाया गया भोजन  लगातार एक महीने तक खाता है, वह जीते-जी शूद्र हो जाता है। मृत्योपरांत उसे कुत्ते की योनि में जन्म मिलता है।20।

यही नहीं, कोई ब्राह्मण जो शूद्राओं से घिरा रहता है, जो शूद्र स्त्रियों का सान्निध्य ग्रहण करता है, शूद्रा के साथ विवाह करके उसे पत्नी या उपपत्नी(रखैल) के रूप में स्वीकार कर लेता है—वह पितरों और देवों की सेवा-भोग का अधिकार खो देता है। पितर और देवता उसके भोग को अस्वीकार कर देते हैं। ऐसा ब्राह्मण मृत्यु के बाद रौरव नर्क में जाकर कष्ट भोगता है।21।

XXIV.  अतोऽस्य वचनस्य प्रामाण्यादनियतोऽयं ब्राह्मण प्रसंगः।

24. मनुस्मृति से दिए गए इन सब प्रमाणों द्वारा स्पष्ट है कि किसी भी व्यक्ति या समूह को ब्राह्मणत्व से मंडित कर देना अथवा उन्हें ब्राह्मण का दर्जा दे देना उचित नहीं हैं।

XXV.   कि चान्यत्। शूद्रोऽपि ब्राह्मणों भवति। को हेतुः। इह हि मानवे धर्मेऽभिहितं:।

25. एक बात और भी। मनुस्मृति में कहा गया है कि धर्माचरण करते हुए कई शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो चुके हैं।

अरणी गर्भसम्भूतः कठो नाम महामुनिः

तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम्।22।

कैवर्तीगर्भसम्भूतो व्यासो नाम महामुनिः

तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम।23।

उर्वशीगर्भ सम्भूतो वसिष्ठोऽपि महामुनिः

तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम।24।

हरिणीगर्भ सम्भूत ऋष्यश्रृंगी महामुनिः

तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम।25।

चाण्डाली गर्भसम्भूतो विश्वामित्रो महामुनिः

तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम।26।

ताण्डूली गर्भसम्भूतो नारदो हि महामुनिः

तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम।27।

उदाहरण के लिए दो लकड़ियों की रगड़ से उत्पन्न काष्ठाग्नि से जन्मे कठ, अपने तप से ब्राह्मण बने और महान ऋषि कहलाए—इसलिए जन्म ब्राह्मणत्व का कारण नहीं है। मछुआरे की बेटी के गर्भ से पैदा हुए व्यास भी अपने तप और स्वाध्याय के बल पर मुनि कहलाए। इसलिए जन्म ब्राह्मणत्व का कारण नहीं है। उर्वशी नामक अप्सरा के गर्भ से जन्मे वशिष्ठ अपने तप के बल पर ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। अतएव जन्म ब्राह्मणत्व का आधार नहीं है। हरिणी के गर्भ से जन्मे ऋंगी ऋषि अपने तप के बल पर ही महान ऋषि बने, वहां भी जाति बाधक नहीं हुई। इसलिए जन्म ब्राह्मणत्व का कारण नहीं। चांडाल स्त्री के गर्भ से उत्पन्न विश्वामित्र एक महान ऋषि की गरिमा को प्राप्त हुए। केवल अपने तप के बल पर। इसलिए जन्म ब्राह्मणत्व का आधार नहीं। चावल की मदिरा बेचने वाली स्त्री के गर्भ से उत्पन्न नारद अपने तप के बल पर ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। महान ऋषि कहलाए। इससे भी सिद्ध है कि जन्म ब्राह्मणत्व का आधार नहीं होता।22-27।

जितात्मा निष्प्रतिद्वन्द्वः पञ्च जित्वा यतेन्द्रियः।

तपसा ब्राह्मणो  जातो ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः।28।

न च ते ब्राह्मणीपुत्रास्ते च लोकस्य ब्राह्मणाः

शीलशौचमयं ब्रह्म तस्मात्कुलम कारणम्।29।

शीलं प्रधानं न कुलं प्रधानं कुलेन किं शीलविवर्जितेन

बहवो नरा नीचकुल प्रसूताः स्वर्ग गताः शीलमुपेत्य धीराः।30।

क्या अब भी नहीं समझ पाए कि जन्म ब्राह्मणत्व का आधार नहीं है? लोकप्रसिद्ध है कि जिसने भी खुद को जीत लिया वह यति और जितेंद्रिय कहलाया। जिसने तपस्या की वह तापस की गरिमा को प्राप्त हुआ। ब्राह्मण की औरस संतान होने से कोई ब्राह्मण नहीं बनता। जिसने ब्रह्मचर्य का पालन किया, वह ब्राह्मण बना। इससे साफ है कि जिसका जीवन शुद्ध और पवित्र है, जो सहनशील और सदा खुश दिखने वाला है वही सच्चा  ब्राह्मण है। इसके लिए जाति-कुल का कोई भी संबंध नहीं है। सिर्फ मनुष्य का सदाचरण और नैतिकता ही देखी जाती है। जो मनुष्य नैतिक स्तर पर पतित है, जाति या वंश का गौरव उसे क्या दे सकता है! दूसरी ओर शील-सदाचार से युक्त नीतिवान मनुष्य नीच कुल से उत्पन्न होने के बावजूद ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर स्वर्ग पहुंचे हैं। साफ है कि व्यक्ति का जन्म उसके ब्राह्मण होने का प्रमाण नहीं है।

XXVI. के पुनस्ते कठव्यासवसिष्ठ ऋष्यश्रृंगविश्वामित्र प्रभृतयो ब्रह्मर्षयो नीचकुल प्रसूतास्ते च लोकस्य  ब्राह्मणाः। तस्मादस्य वचनस्य प्रामाण्याद् प्यनियतोऽयं  ब्राह्मणप्रसंग इति, शूद्रकुलोऽपि  ब्राह्मणो भवति।

26. कठ, व्यास, वशिष्ठ, विश्वामित्र और ऋंगी  जैसे ऋषि यद्यपि शूद्रकुल में जन्मे थे। तथापि विश्व में उनकी ख्याति ब्राह्मण के रूप में ही है।  इन प्रमाणों के आधार पर सिर्फ ब्राह्मणकुलोत्पन्न व्यक्ति को ब्राह्मण मान लेना प्रमाणित नहीं है। शूद्र कुल या शूद्र माता-पिता की संतान होकर भी मनुष्य ब्राह्मणत्व को प्राप्त करता आया है।

XXVII. किं चाप्यन्द् भवदीय मतंः

मुखतो ब्राह्मणो जातो ब्राहुभ्यां क्षत्रियस्तस्था

ऊरुभ्यां वैश्यः संजातः पदुभ्यां शूद्रक एव च।31।

  • अतएव आपका यह मत कि ब्राह्मण का जन्म परमपुरुष ब्रह्मा के मुंह से हुआ, क्षत्रिय का भुजाओं, वैश्य का उदर से और शूद्र का पैरों से हुआ है—कहीं प्रमाणित नहीं होता।31।

XXVIII. अत्रोच्यते। ब्राह्मणा बहवो, न ज्ञायन्ते कुतो मुखतो जाता ब्राह्मणा इति। इह हि कैवर्तरजकचण्डालकुलेष्वपि ब्राह्मणाः सन्ति। तेषामपि चूडाकरणमुंञ्जदण्डकाष्ठादिभि संस्काराः क्रियन्ते। तेषामपि ब्राह्मणासंज्ञा क्रियते। तस्माद् ब्राह्मणघत्क्षत्रिया दयोऽपि। इति पश्याम एकवर्णो, नास्ति चातुर्वर्ण्यमिति।

28. हम देखते हैं कि ब्राह्मणों में अनेक भेद हैं। उनमें जो ब्राह्मण ब्रह्मा से मुख से जन्मे हैं, वे कहां है—यह पता ही नहीं चलता। यहां तक कि केवट, रजक, चंडाल कुलोत्पन्न ब्राह्मण भी यहां हैं। ब्राह्मणोचित पुण्यानुष्ठान यथा मूंज से आहूति देना, यज्ञोपवीत धारण कराना, इनके लिए भी संपन्न किए जाते हैं। उन सभी को ब्राह्मण का दर्जा प्राप्त है। यह क्षत्रिय तथा वैश्य के बारे में भी उतना ही सत्य है।

इससे प्रमाणित होता है कि मनुष्यों के चार वर्ण(जातियां) न होकर सिर्फ एक ही जाति है।

XXIX. अपि च। एकपुरुषोत्पन्नानां कथं चातुर्वर्ण्यम्। इह कश्चिद्देवदत्त एकस्यां स्त्रियां चतुरः पुत्राञ्जनयति। न च र्तेषां वणभेदोऽस्ति। अयं ब्राह्मणोऽयं क्षत्रियोऽयं, वैश्योऽयं शूद्र इति। कस्मात एकपितृकत्वाद्। एवं ब्राह्मणदीनां कथं चातुर्वर्ण्यम्।

29. पुनश्च! एक ही व्यक्ति(यथा ब्राह्मण) द्वारा उत्पन्न संतान की चार जातियां भला कैसे संभव हैं। एक व्यक्ति, मान लीजिए उसका नाम देवदत्त है की एक पत्नी से जन्मे चार पुत्र हैं। उन पुत्रों की अलग-अलग जातियां नहीं हो सकतीं। ऐसा नहीं है कि उन चारों में से आप एक को ब्राह्मण, दूसरे को क्षत्रिय, तीसरे को वैश्य और चौथे को शूद्र मान लें। क्यों? एक ही पिता की संतान होने के कारण क्या ऐसा विभाजन तर्कसंगत है। फिर एक ही कथित परमपुरुष(ब्राह्मण) से जन्मी संतानों की शारीरिक बनावट हाथ, पैर, नाक, कान आदि में कोई भेद न होने के कारण हम उनमें एक जैसी समानता पाते हैं। फिर उनमें ब्राह्मण, शूद्रादि वर्णभेद कैसे  संभव है।

XXX. इह हि गोहस्त्यश्वमृगसिंहव्याघ्रादीनां पदविशेषो दृष्टः। गोपदमिदं हस्तिपदमिदम्श्वपदमिदं सिंहपदमिदं व्याघ्रपदमिदमिति। न च ब्राह्मणादीनां ब्राह्मणपदमिदं क्षत्रियपदमिदं वैश्यपदमिदं शूद्रपदमिदमिति। अतः पदविशेषाभावादिपि पश्याम एक वर्गो, नास्ति चातुर्वर्ण्यमिति।

30. संसार में गाय, हाथी, मृग, घोड़े, सिंह, व्याघ्र आदि पशुओं के हाथ-पैर भिन्न-भिन्न होते हैं। इससे उनकी अलग जाति की पहचान सुनिश्चित हो जाती है। यथा गाय की बनावट अलग है, हाथी की अलग है, अश्व की इस प्रकार की है, हरिण की अमुक प्रकार की है, यह सिंह की हैं और वह अमुक पशु की प्रजाति की। इस भेद के आधार पर ही उनकी भिन्न पहचान संभव है। लेकिन ब्राह्मणादि चार वर्णों के बारे में यह बात सच नहीं है। वहां व्यक्ति के शरीर की बनावट से उसकी जाति का अनुमान लगा पाना असंभव है। न ही शरीर शारीरिक अंगों की बनावट के आधार पर मनुष्य को ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्रादि में बांटा जा सकता है।

इस तरह शरीर की बनावट के आधार पर, मानव शरीर के अवयवों नाक, कान, आंख आदि में अंतर न होने के कारण, हम मनुष्य में केवल एक ही जाति को पाते हैं, चार नहीं।

XXXI. इह गोमहिषाश्वकुञ्जरखरवानरछागैडकादीनां भगलिंगवर्णसंस्थानमलमूत्रगंधध्वनि विशेषो दृष्टः। न तु ब्राह्मणक्षत्रिया दीनाम् अतोऽप्यविशेषादेक एव वर्ण इति।

31. हम दुनिया में मौजूद गाय, भैंस, घोड़े, हाथी, गधा, बंदर, बकरी, भेड़ आदि की शारीरिक संरचना में भेद पाते हैं। शारीरिक अंगों के आधार पर उनकी प्रजाति सहित, नर और मादा की पहचान भी की जा सकती है। मल-मूत्र, आवाज का वैभिन्न्य को भी परखा जा सकता है। क्षत्रिय, ब्राह्मण, शूद्रादि के मामले में ऐसा भेद कहीं नहीं दिखा।  पशु-पक्षियों से अलग मनुष्य को एक ही चीज अलग करती है, वह है उसकी शारीरिक रचना, जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के आधार पर कोई अंतर नहीं दिखता। तदनुसार मनुष्य की केवल एक ही जाति है।

XXXII. अपि च। यथा हंसपारावतशुककोकिलशिखण्डि प्रभृतीनां रूपवर्णलोमतुण्डविशेषो दृष्ट, न तथा ब्राह्मणादीनाम्। अतोप्यविशेषादेक एव वर्ण इति।

32.  और जैसे कि हम हंस, मोर, तोता, कोकिल, कबूतर आदि की शारीरिक संरचना, उनकी चौंच, पंखों आदि में भेद पाते हैं, इस तरह का कोई भी भेद ब्राह्मणादि चारों वर्णों के मनुष्यों में खोज पाना असंभव है। इस तरह का कोई भेद न होने के कारण भी मनुष्य की सिर्फ एक ही जाति है, वह है मनुष्य।

XXXIII. यथा वटबकुलपलाशाशोकतमालनागकेशर शिरीषचम्पकप्रभृतीदनां वृक्षाणां विशेषो दृश्यते, यदुत दण्डततश्च, पत्रततश्च, पुष्पततश्च, फलततश्च त्वगस्थिबीजरसगन्धतश्च, न तथा ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्राणामंग, प्रत्यंगविशेषो न च त्वङ्प्रत्यङ्गविशेषो च त्वङमांसशोणितास्थिशुक्रमलवर्णसंस्थानविशेषणं नापि प्रसवविशेषो दृश्यते। ततोऽप्यविशेषादेक एव वर्णो भवति।

33. विभिन्न वृक्षों यथा वट, बकुल, पलाश, अशोक, तमाल, नागकेशर, शिरिस, चंपकादि वृक्ष, लता आदि के पत्तों, फलों, छिलकों, बीज, रस, गंध आदि में भेद होता है, वे सभी अलग-अलग प्रकार के हाते हैं—इस आधार पर उन सबको अलग-अलग प्रजाति का कहा जाना स्वाभाविक है। पर शूद्र, क्षत्रिय, वैश्यादि वर्णों के मनुष्यों में इस प्रकार का कोई भेद नहीं होता। फिर उन्हें अलग-अलग कहा जाना कैसे संभव है? ये चारों वर्णों के लोग अपनी आंतरिक और बाहरी शरीर रचना में एक ही प्रजाति के हैं। हड्डी, मांस, रक्त, शारीरिक अंग-उपांग, इंद्रियों तथा उनके उपयोग आदि लक्षणों के आधार पर उनमें कोई अंतर नहीं है। इसलिए उन्हें चार वर्णों में कैसे बांटा जा सकता है?

XXXIV. अपि भो ब्राह्मण सुखदुःखएवजीवितबुद्धि व्यापार-व्यवहारमरणोत्पत्ति भयमैथुनोषचार समत्तया नास्त्येव विशेषो ब्राह्मणादीनाम्।

34. पुनश्चः मुझे बताओ कि क्या ब्राह्मण की सुख-दुख, हर्ष-शोक आदि अनुभव करने की क्षमता क्षत्रिय-वैश्य शूद्रादि से भिन्न होती है। क्या ब्राह्मण भी बाकी लोगों के समान जीवन नहीं जीते। क्या दूसरों की तरह वे भी मृत्यु को प्राप्त नहीं होते? क्या वे बुद्धि कर्म, अथवा उनके परिणामों से मुक्त होते हैं, जन्म के समय, भय, मैथुन, आशा से क्या वे भी ऐसे ही प्रभावित नहीं होते जैसे बाकी वर्णों के लोग। यदि इन सब मामलों में ब्राह्मण तथा शेष वर्णों में कोई अंतर नहीं है, तो मानना पड़ेगा कि वे सभी एक हैं।

XXXV.  इदं चावगभ्यतां। यथैकवृक्षोत्पन्नानां फलानां नास्ति वर्णभेद उदुम्बरपणसफलवद्। उदुम्बरस्य हि पणसस्य च फलानि कानिचित् शाखातो भवन्ति, कानिचिद् दण्डतः, कानिचित्स्कन्धतः, कानिचिन्मूलतः। न च तेषां भेदोऽस्तीदं ब्राह्मणाफलमिदं क्षत्रियफलमिदं वैश्यफलमिदं शूद्रफलमिति। एकवृक्षोत्पन्नत्वाद्। एवं नराणामपि नास्ति भेदः। एकपुरुषोत्पन्नत्वाद्।

35. जिस प्रकार गूलर और कटहल के वृक्षों की टहनी, तना, जोड़, जड़ आदि में फल लगते हैं।  वे फल चाहे टहनी पर लगें, तने पर लगें, या फिर जड़ और जोड़ पर लगें—अपने रंग, आकृति, स्पर्श  आदि की दृष्टि से सब एक समान होते हैं। उन फलों को एक वृक्ष का उत्पाद माना जाता है। उन्हें अलग-अलग जातियों की पहचान नहीं दी जाती। गूलर के वृक्ष के सभी हिस्सों पर फल लगता है। तो क्या जो फल टहनी पर लगा है उसे ब्राह्मण, तने पर लगने वाले को क्षत्रिय या वैश्य और सबसे नीचे लगने वाले फल को शूद्र गूलर कहना चाहिए। जैसे एक वृक्ष पर लगे सभी फल समान होते हैं, वैसे ही सभी मनुष्य भी समान होते हैं। एक पिता के पुत्रों की भांति उनमें कोई अंतर नहीं होता। अतएव  ब्राह्मण-शूद्रादि का भेद करना वृथा है।

XXXVI. अन्यच्च दूषणं भवति। यदि मुखतो जातो भवति ब्राह्मणो ब्राह्मण्याः कुत उत्पत्तिः? मुखादेवेति चेद्, हन्त तर्हि भवतां भगिनीप्रसंगस्यात्। तथा गम्यागम्यं त सम्भाव्यते। तच्च लोकेऽत्यन्तविरुद्धम् तस्मादनियतं  ब्राह्मण्यम्।

36. आपके इस कथन में एक और दोष है। यदि  ब्राह्मण की उत्पत्ति परमपुरुष के मुख से हुई थी तो  ब्राह्मणी की कहां से हुई? निस्संदेह वह भी मुख से ही होगी। अरे! यदि यही सत्य है तो दोनों भाई-बहन हुए।। ऐसे में क्या आप उनके बीच देह संबंध की वैधता-अवैधता पर विचार नहीं करेंगे! उनका संबंध लोकाचार के सर्वथा विरुद्ध माना जाएगा। अतएव किसी भी व्यक्ति का ब्राह्मणत्व अनिश्चित और असंभावित है।

XXXVII. क्रिया-विशेषेण खलु चतुर्वर्णव्यवस्था क्रियते। तथा च युधिष्ठिराध्येषितेन वैशम्पायनेनाभिहितं क्रियाविशेषतश्चातुर्वर्ण्यमितिः।

37. वर्ण-व्यवस्था का विधान कर्म के अनुसार किया गया है। युधिष्ठिर ने जब वैशम्पायन से पूछा तो उन्होंने भी यही उत्तर दिया था—‘‘वर्ण-व्यवस्था की रचना समाज में श्रम के बंटवारे की खातिर की गई थी.’’

पाण्डोस्तु विश्रतुः पुत्र: स व नाम्ना युधिष्ठिरः

वैशम्पायनमागम्य प्राञ्जलिः परिपृच्छति।32।

के च ते ब्राह्मणाः प्रोक्ताः किं वा ब्राह्मणलक्षणम्

एतदिच्छामि भी ज्ञातुं तद्भवान व्याकरोतु मे।33।

लोकप्रसिद्ध पांडुपुत्र युधिष्ठिर वैशम्पायन के पास पहुंचे। हाथ जोड़कर उनकी प्रणति की। तदनंतर बोले।32।

ब्राह्मण किसे कहते हैं? किन लक्षणों से कोई व्यक्ति  ब्राह्मण बनता है। यह मैं जानना चाहता हूं। कृपया मेरी जिज्ञासा को शांत करें।।33।

वैशम्पायन उवाच :

क्षान्त्यादिभिर्गुणैर्युक्तस्त्यक्त दण्डो निरामिषः

न हन्ति सर्वभूतानि प्रथमं ब्रह्मलक्षणम्।34।

यदा  सर्वं परद्रव्यं पथि वा यदि वा गृहे

अदत्तं नैव गृह्णाति द्वितीयं ब्रह्मलक्षणम्।35।

त्यक्तवा क्रूरस्वभावं तु निर्ममो निष्परिग्रहः

मुक्तश्चरति यो नित्य तृतीयं ब्रह्मलक्षणम्।36।

देवमानुष नारीणां तिर्यग्योनिगतेष्वपि

मैंथुनं हि सदा त्यक्तं चतुर्थ ब्रह्मलक्षणम्।37।

सत्यं शौचं दया शौचं शौचमिन्द्रियनिग्रहः

सर्वभूत दया शौचं तपः शौचञ्च पञ्चमम्।38।

पञ्चचलक्षणमसम्पन्नः ईदृशो यो भवेद् द्विजः

तमहं ब्राह्मणं ब्रूयां शेषाः शूद्रा युधिष्ठिर।39।

न कुलेन न जात्या वा क्रियाभिर्ब्राह्मणो भवेत्

चाण्डालोऽपि हि वृत्तस्थो ब्राह्मणः स युधिष्ठिर।40।

युधिष्ठिर का प्रश्न सुनने के पश्चात वैशम्पायन बोले—

हे युधिष्ठिर! ऐसा मनुष्य जो क्षमा-शांति से युक्त शीलवान और गुणवान है, जिसने शस्त्र का परित्याग कर दिया है, जो मांस भक्षण छोड़ चुका है। जो किसी की भी हत्या नहीं करता—यह ब्राह्मणत्व का पहला लक्षण है।34।

चाहे वह घर में हो या मार्ग में पड़ी हो, जो दूसरे की वस्तु किसी भी अवस्था में बिना दिए ग्रहण नहीं करता, यह ब्राह्मण होने का दूसरा लक्षण है।35।

वह जो निस्स्वार्थ है, किसी भी प्रकार की क्रूरता से सर्वथा मुक्त और दयावान है, जो निष्परिग्रही होकर सभी प्रकार के प्रलोभनों से मुक्त होकर विचरण करता है, उसे ब्राह्मणत्व के तीसरे लक्षण से युक्त मानना चाहिए। 36।

वह जो देव-मनुष्य-नारी किसी भी योनि में होते हुए, मैथुन की इच्छा से सर्वथा मुक्त हो चुका है, यह  ब्राह्मण होने का चौथा लक्षण है।37।

ऐसा मनुष्य जो सत्य को पवित्र मानता है, करुणा को पवित्र मानता है, जिसके लिए इंद्रिय संयम पवित्रता है, जिसके लिए प्राणिमात्र के प्रति करुणाभाव होना ही पवित्रता है, वह  ब्राह्मणत्व के पांचवे लक्षण से युक्त है।38।

हे युधिष्ठिर जिस व्यक्ति में भी ये पांचों लक्षण हैं, मैं बस उसी को  ब्राह्मण मानता हूं। मेरी दृष्टि में अन्य सभी शूद्र हैं।39।

जन्म से, कुल से, यज्ञादि कर्मकांडों के निष्पादन से कोई व्यक्ति ब्राह्मण नहीं बनता। यदि किसी चांडाल में भी उपर्युक्त पांचों विशेषताएं/लक्षण हैं, हे युधिष्ठिर उसे ब्राह्मण ही समझना चाहिए।40।

किं च भूयो वैशम्पायनेनोक्तम

एकवर्णमिदं पूर्वं विश्वमासीद् युधिष्ठिर

कर्म-क्रियाविशेषेण चातुर्वर्ण्यं प्रतिष्ठितम्।41।

सर्वे वै योनिजा मर्त्याः सर्वे मूत्रपुरीषिणः

एकेन्द्रियेन्द्रियार्थाश्च तस्माच्छीलगुणैर्द्विजाः।42।

शूद्रोपि शीलसम्पन्नो गुणवान ब्राह्मणो भवेत्

ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः शूद्रात्प्रत्यवरो भवेत।43।

फिर वैशम्पायन ने इसकी व्याख्या करते हुए बताया—

‘हे युधिष्ठिर। प्राचीनकाल में समस्त संसार में मात्र एक ही वर्ण था। चार वर्णों की उत्पत्ति कर्मों और व्यवसायों की भिन्नता के कारण हुई है।41।

प्राणिमात्र की उत्पत्ति एक ही स्रोत से हुई है। सभी गर्भाशय से जन्मे हैं। सभी में मल-मूत्र जैसी गंदगियां हैं, सभी में समान इंद्रियां हैं उनका इंद्रिय-बोध भी एक जैसा होता है। ऐसे में कोई मनुष्य केवल श्रेष्ठ आचरण करके ही ब्राह्मणत्व प्राप्त कर सकता है।42।

यहां तक कि कोई शूद्र भी शील एवं सदाचार का अनुसरण करके  ब्राह्मण बन सकता है। यदि कोई  ब्राह्मण गुण-शील से हीन, स्वार्थी और परिग्रही है, जो क्रोधी, कामी और लालची है, वह शूद्र से भी गिरा हुआ है।43।

इदं च वैशम्पायन वाक्यम्

पञ्चेन्द्रियावर्णवं घोरं यदि शूद्रोऽपि तीर्णवान्

तस्मैं दानं प्रदातव्यमप्रमेयं युधिष्ठिर।44।

न जातिर्दृश्यते राजन गुणाः कल्याणकारकाः

जीवतं यस्यधर्मार्थे परार्थे यस्यजीवितम्

अहोरात्रं चरेत्क्षान्ति तं देवा ब्राह्मणं विदुः।45।

परित्यज्य गृहावासं ये स्थिता मोक्षकाङ् क्षिण:

कामेष्वसक्ताः कौन्तेय ब्राह्मणास्ते युधिष्ठिर।46।

अहिंसा निर्ममत्वं चा मतकृतस्य वर्जनम्

रागद्वेषनिवृत्तिश्च एतद् ब्राह्मणलक्षणम्।47।

क्षमा दया दमो दानं सत्यं शौचं स्मृतिर्घृणा

विद्याविज्ञानमास्तिक्यमेतद् ब्राह्मणलक्षणम्।48।

गायत्रीमात्र सारोऽपि वरं विप्रः सुयन्त्रितः

नायन्त्रितश्चतुर्वेदी सर्वाशी सर्वविक्रयी।49।

एकरात्रौषितस्यापि या गतिर्ब्रह्मचारिणः

न तत्क्रतुसहस्त्रेण प्राप्नुवन्ति युधिष्ठिरः।50।

पारगं सर्ववेदानां सर्वतीर्थाभिषेचनम्

मुक्तश्चरित यो धर्मं तमेव ब्राह्मणं विदुः।51।

यदा न कुरुते पापं सर्वभूतेषु दारुणम्

कायेन मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा।52।

अस्माभिरुक्तं यदिदं द्विजानां मोहं निहन्तुं हतबुद्धिकानाम्

गृह्रन्तु सन्तो यदिदं युक्तमेतन्मुञ्चन्त्वथायु क्तमिदं यदि स्यात्।53।

कृतिरियं सिद्धाचार्याश्वघोषणपादानामिति।शुभम्।

इससे आगे वैशम्पायन ने कहा है कि—

है युधिष्ठिर! यदि कोई शूद्र भी पांचों इंद्रियों के भीषण समुद्र को पार कर चुका है, अर्थात अपनी सभी इंद्रियों पर विजय हासिल कर चुका है तो उसे भी निस्सीम दानादि देकर सम्मानित करना चाहिए।44।

हे राजन्। मनुष्य की जाति नहीं देखी जाती। उसके गुण ही उसके श्रेष्ठत्व की पहचान हैं। सिर्फ वही महत्वपूर्ण हैं। ऐसा व्यक्ति जो परोपकारी जीवन जीता है, जो सदैव धैर्य-धृत्ति और क्षमा का अनुसरण करता है, ईश्वर की दृष्टि में वही श्रेष्ठ जन है।45।

हे कौन्तेय! जो सांसारिक आसक्ति से परे हो चुके हैं, जो सभी प्रकार के प्रलोभनों और तृष्णाओं से मुक्त होकर निर्वाण प्राप्ति की दिशा में अग्रसर हैं, वही ब्राह्मण कहलाने के अधिकारी हैं।46

पुनश्चः अहिंसा, स्वार्थरहित होना, शास्त्र-विरुद्ध कर्मों से सर्वथा विरत हो जाना, लालच, लोभ और घृणा से ऊपर उठ जाना ही ब्राह्मण की विशेषताएं हैं।47

सहिष्णुता, क्षमा, करुणा, इंद्रियनिग्रह, दान, सत्य, शुद्धता, पवित्रता को धारण करना, शास्त्र विरुद्ध आचरण न करना, ज्ञानवान होना—ये ब्राह्मण के लक्षण हैं।48।

यदि कोई व्यक्ति सिर्फ गायत्री मंत्र को ही आत्मसात् कर शील-संयम से युक्त जीवनयापन करता है, तो वह ब्राह्मण है। चारों वेदों का ज्ञाता होकर भी जो असंयमी, सर्वभक्षी, सर्वग्राही और प्रलोभनों में डूबा हुआ है—वह ब्राह्मण नहीं है।49।

कोई व्यक्ति ब्रह्मचारियों की गम्य अवस्था को इंद्रिय संयम द्वारा एक रात्रि के लिए भी प्राप्त कर लेता है तो उस अवस्था को यज्ञादि कर्म करते हुए, सहस्रों पशुओं की बलि देकर प्राप्त कर पाना भी संभव नहीं है।50।

ऐसा परमशील व्यक्ति जो सभी वेद-वेदांगों में प्रवीण है, जो अपने संभाषण द्वारा लोगों को पवित्र करने का सामर्थ्य रखता है, जो कर्मों से विरक्त न ही होता, लेकिन आसक्ति जिसे छू नहीं पाती, वही ब्राह्मण कहलाने योग्य है।51।

ऐसा परमशीलवान जो मन, वचन, कर्म से कभी भी हिंसा नहीं करता, वह ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर पाता है।52।

हतबुद्धि और भटके हुए ब्राह्मणों के भ्रम को दूर करने के लिए हमने यहां जो भी कहा है, यदि वह मान्य और तर्कसम्मत है—तो सच्चरित व्यक्ति को चाहिए कि उसे स्वीकार करे। अन्यथा जाने दे।

सिद्धाचार्य अश्वघोष द्वारा विरचित। इति शुभम्।

कबीर और तुलसी : कौन ज्यादा प्रासंगिक

विशेष रुप से प्रदर्शित

डॉ. रामचंद्र शुक्ल का पूर्वाग्रह ही है जो उन्होंने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में कबीर और तुलसी को एक ही समूह में रखा है। जबकि कबीर तुलसी, सूर, मीरा और रसखान जैसे व्यक्तिपरक भक्ति-भाव वाले कवि हरगिज नहीं हैं। उनकी अध्यात्म चेतना प्रखर है। वह सदैव नए सत्य की तलाश में रहती है। वे कहीं रहस्यवादी हैं, तो कहीं उच्छेदवादी। लोकहित की खातिर बड़ी से बड़ी सत्ता से टकरा जाने का साहस कबीर को अपने समय का विलक्षण कवि बनाता है। यही उन्हें अंतिम समय में काशी से मगहर प्रस्थान की हिम्मत देता है। शुक्लजी चाहते तो कबीर, तुलसी, पल्टूदास जैसे लोकवादी कवियों की अलग श्रेणी बना सकते थे। किंतु अव्वल तो लोकसत्ता को महत्व देना उनके संस्कार का हिस्सा नहीं है। दूसरे इससे उनके आदर्श कवि तुलसी की महिमा फीकी पड़ सकती थी। साहित्य का गुण मनोरंजन, संवेदनशीलता और सर्वकल्याण की भावना के अनुरूप पाठक के व्यक्तित्व का परिष्कार करना है। इसके अनुसार कबीर तुलसी की अपेक्षा बड़े सरोकारों वाले कवि हैं।  

अच्छी बात है कि अधिकांश विद्वान कबीर को तुलसी जैसा भक्त कवि न मानकर निर्गुण धारा का संत कवि मानते हैं। आखिर दोनों में अंतर क्या है? क्या इसी कसौटी पर दोनों के व्यक्तित्व की पड़ताल संभव है? भक्त हों या संत, दोनों ही अलौकिक शक्ति में भरोसा रखते हैं। दोनों मानते हैं कि सृष्टि का संचालन और नियंत्रण किसी परासत्ता के हाथों में हैं। संत कवि आमतौर पर उस शक्ति को निराकार मानते हैं, जबकि तुलसी सूर जैसे सगुण कवि साकार। अगर ऐसा है तो भी क्या फर्क पड़ता है? तुलसी ने तो उदारतापूर्वक कह भी दिया है, जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तिन तैसी। निर्गुण हो या सगुण, व्यक्ति का मन, जो पसंद को उसे पूजे! अपनाए!! साधना करे!!! पर क्या इतनी-सी ही बात है?

आगे बढ़ने से पहले उचित होगा कि ‘संत’ और ‘भक्त’ शब्दों के बारे में जान लिया जाए। दोनों ही शब्द संस्कृत साहित्य में आए हैं। प्रायः दोनों को समानधर्मा मान लिया जाता है। ‘भक्ति’ और ‘भजन’ दोनों शब्द ‘भज्’ धातु से बने हैं। इसका अर्थ है—‘सेवा करना’, ‘प्रेम के वशीभूत होकर अपने आराध्य के आगे समर्पित हो जाना’। उसके प्रति अटूट आस्था और विश्वास रखना। नारद भक्ति-सूत्र के अनुसार, ‘सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा’—‘भक्ति ईश्वर के प्रति प्रेमानुराग का प्रदर्शन करना’ है। श्रीमद्भागवद में नवधा भक्ति द्वारा उसके विभिन्न रूप या चरणों के बारे में बताया गया है, उसके अनुसार—

श्रवणं, कीर्तन, विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वंदनं, दास्यं, सख्यात्मानिवेदनम्।।

अर्थात श्रवण, कीर्तन, पूजा, नाम-स्मरण, पादसेवन, वंदन, अर्चन, दास्य-सख्य भाव से आत्मनिवेदन—इसी से भक्ति भाव सामने आ जाता है। भक्ति की पराकाष्ठा में भक्त अपने आराध्य को समर्पित हो जाता है। उसकी तलाश पूर्ण हो चुकी होती है। सिर्फ आराध्य को पाना शेष रह जाता है। भक्ति की पराकाष्टा में घर-परिवार, रिश्ते-नाते सब पीछे छूट जाते हैं। आस्था और विश्वास पर जोर दिया जाता है। तर्क अथवा संदेह के लिए उसमें कोई स्थान नहीं होता। इस तरह भक्ति ठेठ व्यक्तिपरक आयोजन है, जिसमें आत्मरति की भावना प्रधान होती है। जैसे-जैसे मनुष्य उसमें आगे बढ़ता है—सांसारिक रिश्ते-नाते, यहां तक कि लोक और लोककल्याण की भावना भी पीछे छूटती जाती है। जहां धर्म और उसके प्रति रूढ़ आस्था है, वहां भक्ति है। केवल हिंदू धर्म इसका अपवाद नहीं है। ईसाई धर्म में यीशु कहते हैं कि सभी को अपने पूरे दिल और दिमाग के साथ ईश्वर से प्यार करना चाहिए। यह सवाल करने पर पर कि हे स्वामी, धर्म में सबसे बड़ा विधान कौन-सा है? यीशु उत्तर देते हैं—‘अपने परमेश्वर यहोवा से, अपने सारे मन, प्राण और बुद्धि से प्रेम करना, यही सबसे बड़ी आज्ञा है।’(मत्ती 22/36/40)।

‘संत’ और ‘संतई’ में लोकोन्मुखता प्रधान होती है। ‘संत’ शब्द का प्रयोग सामान्यतः पवित्रात्मा, बुद्धिमान, परोपकारी, सज्जन और सदाचारी व्यक्ति के लिए किया जाता है। ऐसे व्यक्ति के लिए किया जाता है जो सांसारिक मोह-माया से परे, लोककल्याण में लीन रहता है। जो प्राणिमात्र का भला चाहता है। उसकी सारी साधना, तप परोपकार को ही समर्पित होते हैं। संत आत्ममुक्ति की साध तो रखता है, किंतु शेष दुनिया से संबंध तोड़कर नहीं। न ही उससे निर्लिप्त होकर रहता है। बल्कि संतई का स्तर के बढ़ने के साथ-साथ वह और अधिक उदार, और ज्यादा मानवीय तथा करुणामूलक होता जाता है। ‘संत’ का अंग्रेजी पर्याय, इसी से मिलता-जुलता शब्द Saint है, जिसका अर्थ है—पवित्र कर देना। संत के लिए आचरण पवित्र होता है। एक तरह से आदर्श की पराकाष्ठा पर स्थित माना जाता है, जिससे यह माना जाता कि उसमें वे  गुण और शक्तियां भी समा जाती हैं, जो ईश्वर में अभिकल्पित की जाती हैं। उसके पास आते ही मनुष्य का मन पवित्रताबोध से भर जाता है। पश्चिम में चमत्कार करने की शक्ति को संत का विशेष लक्षण माना गया है, तथापि यह आवश्यक नहीं है। कबीर के अनुसार जो निर्वैर और निष्कामी हो, विषय-वासनाओं से विरक्त रहता हो, वही संत है—‘निबैरी, निहकामता साईं सेती नेह। विशया सूं न्यारा रहे संतन का अंग सह।’

साफ है कि भक्ति में व्यक्तिपरक्ता है। प्रहलाद की भक्ति की प्रशंसा होती है। दृष्टांत के अनुसार रात-दिन की भक्ति के बाद वह अपने आराध्य को प्रसन्न करने में सफल होता है और ‘स्वर्ग में सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त कर लेता है।’ ऐसी भक्ति से दुनिया को क्या मिला, इसकी न तो भक्त को चिंता होती है, न ही उसके आराध्य को है। भक्त आमतौर पर संसार को मोह-माया मानकर उसे अपने लक्ष्य में बाधक मानता है, इसलिए वह इसे सुधारने पर कोई ध्यान नहीं देता। वह अपना सारा ध्यान कथित ‘परमपद’ को प्राप्त करने पर लगाए रहता है, ताकि बाद में उसे दुनिया में आना ही न पड़े। इस अंधी-दौड़ से उसे सचमुच कुछ हासिल होता है या नहीं, इस सवाल को छोड़ देते हैं। दूसरी ओर संत का पूरा ध्यान लोककल्याण पर निहित होता है। इसके लिए उपदेश से ज्यादा वह अपने आचरण से प्रेरणा जगाता है। वह परोपकार, दया, करुणा, समानता, बंधुता का प्रचार करता है, ताकि यह दुनिया बेहतर हो सके। संत कवि की कल्पना में उसके आराध्य, लोक यहां तक कि मुक्ति की कामना भी निहित हो सकती है। लेकिन भक्त-कवि की तरह उसकी यात्रा अकेली नहीं होती। बल्कि शेष समाज को साथ लेकर चलने की होती है।

अब सवाल है कि इनमें साहित्य किसके करीब है? या इनमें से कौन साहित्य को उसकी संपूर्ण मूल्यवत्ता के साथ अभिव्यक्ति दे सकता है? ‘भक्त’ और ‘संत’ के अंतर को समझ लेने के बाद इस प्रश्न का उत्तर दे पाना मुश्किल नहीं रह जाता। चूंकि भक्त कवि के लिए उसका आराध्य ही सब कुछ होता है, इसलिए वह जो लिखेगा उसकी प्रशंसा में ही लिखेगा। उसकी कविता बहुत कुछ चारणगीत की तरह होगी, जिसमें दोहराव और अतिश्योक्तियां स्वाभाविक है। जैसे चारण और भाट अपने आश्रयदाताओं की प्रशस्ति में लिखते-गाते थे, भक्त कवि अपने अलौकिक आराध्य की प्रशस्ति में लेखन करेगा। तुलसी का संपूर्ण साहित्य, रामचरितमानस से लेकर, कवितावली और विनयपत्रिका तक इसके अलावा क्या है? चूंकि इन कृतियों का संबंध धर्म-विशेष से है इसलिए हम इन्हें ज्यादा से ज्यादा  प्रचार-साहित्य कह सकते हैं।

तुलसी और मानस के प्रशंसक उनकी प्रशंसा में अकसर कहते हैं कि तुलसी ने रामचरित मानस में सामाजिक आदर्श को सामने रखा है। कुछ इससे भी आगे बढ़कर राम को आदर्श राजा दर्जा देकर रामराज्य का गुणगान करने लगते हैं। रामायण के आदर्श क्या हैं? पूछो तो तत्काल कह दिया जाता है कि रामायण हमारे सामने लक्ष्मण जैसे आज्ञाकारी भाई, भरत जैसे त्यागी, राम जैसे पुत्र, कौशल्या जैसी मां और सीता जैसी पत्नी का आदर्श सामने रखती है। थोड़ा आगे बढ़ें तो हनुमान जैसे भक्त और विभीषण जैसे मित्र इस सूची को और आगे बढ़ा देते हैं। यहां हम इन पात्रों के चरित्र का स्वतंत्र विश्लेषण न भी करें, तो भी यह मानना ही पड़ेगा कि जिन्हें रामचरितमानस में ‘आदर्श’ के रूप में दर्शाया गया है, असल में वे पारिवारिक या दरबारी आदर्श हैं। समाज में मनुष्य की क्या भूमिका होनी चाहिए? और समाज का अपनी इकाइयों के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए? यहां तक कि एक पड़ोसी का दूसरे पड़ोसी के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए—इस बारे में ‘मानस’ हमें कुछ नहीं बताता। वह ‘रामराज’ को आदर्श कहकर महिमामंडित करता है। मगर प्रजा के अधिकारों, उसकी इच्छा को लेकर उसमें कोई टिप्पणी नहीं है। रामराज्य को कल्याणकारी मान भी लिया जाए, तो भी इतना साफ है कि उसमें कल्याण(यदि वह कहीं है तो) तो ऊपर से थोपा हुआ प्रतीत होता है। प्रजा क्या चाहती है, राजा की इच्छा, महत्वाकांक्षा या जिद के आगे आगे उसका कोई मूल्य नहीं होता। एक शंबूक अपनी मर्जी से पढ़ना चाहता है तो राजा राम की तलवार उसकी गर्दन तराश देती है। तुलसी की वर्गदृष्टि, शूद्रों और स्त्रियों के प्रति उनके हेय विचारों पर तो चर्चा होती ही रहती है।  

समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे आधुनिक मूल्यों की बात तो जाने ही दीजिए। आस्था और भक्ति में इन मूल्यों को गैर-जरूरी और अप्रासंगिक मान लिया जाता है। निःशर्त समर्पण की शर्त के कारण, आत्मसम्मान और स्वाभिमान जैसे उदात्त मानवीय मूल्य भी भक्ति-मार्ग में बाधक मान लिए जाते हैं। कह सकते हैं कि भक्ति की पराकाष्ठा व्यक्ति को नितांत आत्मपरक बना देती है। इतना कि अपनी समूची प्रतिभा के बावजूद ‘भक्त’ अपने दैन्य और दास्यबोध से मुक्त नहीं हो पाता। इसे हम तुलसी की कविता में जगह-जगह रेखांकित कर सकते हैं। उनके जीवन का दैन्य(विडंबना) ही  उनकी कविता में समाया हुआ है। राम के प्रति अनन्य आस्था भी इसे कम नहीं कर पाती—

अगुण-अलायक-आलसी जानि अधम अनेरो

स्वारथ के साथिन्ह तज्यो तिजराको-सो टोटक, औचट उलटि न हेरो।। विनयपत्रिका, 272

(‘मुझे गुणहीन, नालायक, आलसी, नीच अथवा निकम्मा समझकर, स्वार्थी लोगों ने तिजारी के टोटके की तरह त्याग दिया है और भूलकर भी मेरी ओर नहीं देखा’); अथवा

तनु जन्यो कुटिल कीट ज्यों तज्यो मातु-पिताहूं।

काहे को रोष-दोष काहि धौं मेरे ही अभाग मोसां सकुचत छुई सब छाहूं। विनयपत्रिका, 275

(जैसे कुटिल कीड़ा(सांप) अपनी देह से उत्पन्न हुई केंचुली को छोड़ देता है; वैसे ही मेरे मातापिता ने मुझे जन्मते ही त्याग दिया था। मैं किस पर क्रोध करूं, और किसे दोष दूं? मेरे ही अभाग से सब मेरी छाया छूने से भी  सकुचाते हैं।’)

रामचरितमानस को पारिवारिक आदर्श(!) तक सीमित कर देना, कदाचित तुलसी की निजी कुंठा की ही देन था। उनके माता-पिता अत्यंत गरीब थे। भीख मांगकर गुजारा करते थे। ऊपर से, प्रतिकूल(!) नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उन्होंने तुलसी को बचपन में त्याग दिया था। सो उनका बचपन घोर विपन्नता के बीच, ही बीता था—

जायो कुल मंगन बधावो न बजायो सुनि, भयो परिताप पाप जननी-जनक को।

बारे तें ललात बिललात द्वार-द्वार दीन जानत हौं चारि फल चारि ही चनक को।(कवितावली, उत्तर कांड, 73)

(मैंने भिखमंगों के कुल में जन्म लिया। मेरा जन्म सुनकर बधावा नहीं बजाया गया, मेरे मातापिता को अपने पाप पा परिताप हुआ। मैं बचपन से ही भूख से व्याकुल होकर दरिद्रता के कारण अन्न के लिए द्वारद्वार बिललाता फिरता था।)

‘जाति के, सुजाति के, कुजाति के पेटागि-बस,

खाए टूक सबके विदित बात दुनी सो।कवितावली, 72  

(पेट की आग बुझाने के लिए मैंने जाति, सुजाति और कुजाति सबके टुकड़े खाए हैं। यह बात समूचा संसार जानता है।)

तुलसी के इस दैन्य का मुख्य कारण है श्रम से विलगाव। माता-पिता की ओर से मिला परजीविता का संस्कार, जिसे जाति-व्यवस्था में अपने अटूट विश्वास के चलते वे लांघ ही नहीं पाते। कवि होने के कारण बस इतना कर पाते हैं कि जो भौतिक जीवन में जो याचनाभाव लोक के प्रति है, कविता में वह आराध्य के प्रति मुखर होने लगता है। जिसे उन्हीं जैसा परजीवी समाज भक्ति का आदर्श बताने लगता है।

दूसरी ओर कबीर हैं। जन्म उनका भी अज्ञात कुल में हुआ था। माता-पिता हिंदू थे या मुसलमान, कभी इसे लेकर चिंता में नहीं पड़े।  पालन-पोषण एक श्रम-शील आजीवक परिवार में हुआ था। सो अपने ही श्रम के भरोसे जीना, मेहनत करके खाना, उन्हें संस्कार में मिला। एक मेहनतकश किसान, मजदूर या शिल्पकार की तरह कबीर का हृदय भी साफ है। आत्मविश्वास से भरा हुआ। वे करघा चलाते-चलाते कविता रचते थे। उनके चारों ओर अपना समाज था, जिसका वे भला चाहते थे। इसलिए उनकी कविता में न तो किसी प्रकार का दैन्य झलकता है न ही परिताप की भावना। भावना के वशीभूत होकर कभी-कभार खुद को राम की बहुरिया भी कह जाते हैं। लेकिन जब उनका स्वाभिमान हुंकारता है तो उसे भी आड़े हाथ लेने लगते हैं—

हम बहनोई राम मोर सारा, हमहिं बाप हरि पुत्र हमारा

कहै कबीर हरी के बूता, राम रमैतैं कुकरि के पूता—बीजक, 100

कबीर की कविता तुलसी की कविता जैसी  चारणगीत नहीं है। न ही वे भक्ति के नाम पर खुद को और समाज को पंगु बनाने का संदेश देते हैं। कबीर को खुद पर भरोसा है। इसलिए ईश्वर से कुछ अपेक्षा ही नहीं रखते। अपनी संतई में इतने निरपेक्ष हैं कि ईश्वर का नाम भी बिसर जाए तो खुशी मनाने लगाते हैं—भला हुआ हरि बिसरे मोरे सिर से टली बला।

सवाल यह है कि इतना कुछ होते हुए भी भक्ति को आदर्श क्यों मान लिया गया? कारण है—धर्मसत्ता और राजसत्ता का स्वार्थपूर्ण गठजोड़ और जातिप्रथा। स्वार्थ के कारण ये दोनों ही वर्ग नहीं चाहते थे कि निचले वर्ग के लोग सवाल करना सीखें। इसलिए भक्ति को महिमा-मंडित किया। इससे उन्हें तो लाभ हुआ, लेकिन उनके कहने पर भक्ति की राह पर चल पड़ा जनसमुदाय कब पत्थर की मूर्ति को अपना ईश्वर, ब्राह्मण को अपना देवता और नाम-पाठ को ही ज्ञान समझने लगा, यह वह समझ ही नहीं पाया। आस्था और विश्वास को ही सबकुछ मान लेने से वह जान ही नहीं पाया कि भक्ति का जन्म अज्ञानता और ज्ञान के टोटमीकरण की प्रक्रिया के दौरान हुआ है। नाम रटते-रटते भक्त नाम को ही सब-कुछ मानने लगता है, ठीक ऐसे ही जैसे मूर्ति को पूजते-पूजते व्यक्ति पत्थर को ही देवता मान बैठता है। खुद तुलसी इसी मानसिकता के शिकार नजर आते हैं—

राम नाम को कल्पतरु कलि कल्यान निवास

जो सुमिरत भयो भाग ते तुलसी तुलसीदास

कबीर नाम जप को सिवाय प्रदर्शन के कुछ नहीं मानते। ऐसे दिखावा करने वालों को वे आड़े हाथों लेते हैं—

राम कहे जो जगत गति पावै, खांड कहे मुख मीठा

पावक कहे पांव जो डाहै, जल कहे त्रिषा बुझाई

बिनु देखु बिनु अरस-परस बिनु नाम लिए का होई

धन के कहे धनिक जो होवै, निरधन रहै न कोई

कुल मिलाकर भक्ति के आवरण जहां तुलसी नाम रटने तक सीमित हो जाते हैं, वहीं, कबीर की संतई उन्हें ज्ञान के स्वागत को सदैव तत्पर रहती है—‘संतो भई आई ग्यांन की आंधी… ’

यह अनायास नहीं है कि बीती कुछ शताब्दियों में  ‘भगत’ और ‘भगतजी’ जैसे संबोधन दलित और पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। जबकि ब्राह्मण ने अपने लिए ‘पंडिज्जी’ संबोधन को सुरक्षित रखा हुआ है। कबीर इस षड़यंत्र का जगह-जगह पर्दाफाश करते हैं। उनकी कविता का यही गुण उसे युगप्रवर्त्तक और कालातीत बताता है, जबकि राम-राम रटते-रटते तुलसी(और उनके भक्त) कब जड़ हो जाते हैं, इसे वे स्वयं भी नहीं जान पाते।

ओमप्रकाश कश्यप

महुआ डाबर : एक  गुमशुदा गांव, जहां चिराग नहीं जलते

विशेष रुप से प्रदर्शित

आदमी कहीं चला जाए, कितना ही कमा ले, खुशियों की चाहे जितनी बरसात हो, यदि वह अपनी जड़ों से अनजान है तो चैन नहीं मिलता. कसक बनी ही रहती है. जड़ों की खोज का सिलसिला कभी-कभी ऐसी स्थिति में ला खड़ा करता है जो उम्मीद से एकदम परे हो. कभी-कभी तो चमत्कार की तरह महुआ डाबर जैसा पूरा गांव धरती की छाती पर उभरने लगता है.  

आजादी के इतिहास की इस महत्वपूर्ण मगर गुमशुदा कहानी की शुरुआत 1994 में 65 वर्षीय अब्दुल लतीफ अंसारी नामक व्यापारी से होती है. करीब डेढ़ सौ साल पहले उनके पूर्वजों को अपना जमा-जमाया धंधा छोड़कर पलायन करना पड़ा था. अहमदाबाद, पुणे जैसे नगरों-उपनगरों में भटकते हुए वे मुंबई पहुंचे थे. वहां उन्होंने अपना धंधा जमाया. धीरे-धीरे खाते-पीते व्यापारी बन गए. अब्दुल लतीफ को विरासत में जहां पूर्वजों का जमा-जमाया व्यापार मिला, धन-दौलत मिली—साथ में वे कहानियां भी मिलीं, जिन्हें उनके पूर्वज अकथ पीड़ा के साथ सुनाया करते थे. उन्हें सुनते-सुनते महुआ डाबर नाम का वह गांव कैसा था? कहां था? देश की आजादी के पहले संग्राम में उनके पुरखों की हिस्सेदारी की बात कितनी सच है? यह जानने की उनकी उत्कंठा लगातार बढ़ती गई. आखिरकार वे उस गांव की तलाश में जुट गए जो सरकारी रिकार्ड और नक्शों से भी कभी का गायब हो चुका था—

‘मैं अपने पूर्वजों के गांव को खोजने की जिद ठाने हुए था. मुझे पुरखों के इस दावे की हकीकत का पता लगाना था, जिसमें उनका कहना था कि 1857 के सैन्य विद्रोह के बाद, आरंभ हुए अंग्रेजी दमन के कारण उन्हें अपना गांव छोड़ना पड़ा था.’1 

वे आगे कहते हैं, ‘मुझे अपनी शुरुआत शून्य से करनी थी. बस्ती जिले के नक्शे पर उस गांव का कहीं अता-पता न था.’2 आखिरकार 8 फरवरी, 1994 को, पूर्वजों के ठिकाने को खोजने का जुनून उन्हें जिले के बहादुरपुर विकास खंड तक ले गया. आगे वे जिस स्थान पर पहुंचे वहां गैहूं, मटर और अरहर की फसल लहलहा रही थीं. महुआ डाबर के बारे में किसी को कोई पता नहीं था. खोज के दौरान गैहूं की लहलाती फसल के बीच दो जली हुई मस्जिदों के अवशेष दिखाई पड़े. फिर उन्होंने बहादुरपुर से दो किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित उस टीले को भी खोज निकाला, जो जले हुए घरों के मलबे के साथ, अतीत की किसी आबाद बस्ती की ओर संकेत करता था. मगर प्रशासन को खुदाई के लिए तैयार करने के लिए कुछ और सुबूतों की आवश्यकता थी. वे बस्ती जिले के अधिकारियों से मिले. स्थानीय पुस्तकालयों की खाक छानी. थानों में जाकर मौजूद रिकार्ड को खंगाला. उन सुबूतों के साथ वे बस्ती के जिला अधिकारियों से मिले. उनके बार-बार आग्रह और साक्ष्यों को देखकर जिला अधिकारी एक समिति के गठन को तैयार हो गए. खोज का सिलसिला कमजोर न पड़े, इसके लिए अब्दुल लतीफ ने व्यापार को अपने बेटों के हवाले कर, बस्ती को दूसरा ठिकाना बना लिया. धीरे-धीरे बात आगे बढ़ी. साक्ष्य जुटने लगे.

पता चला कि 1865 तक बस्ती जिले का इलाका गोरखपुर जिले में आता था. इसलिए तत्संबंधी सभी दस्तावेज गोरखपुर जिले के कलेक्टर के कार्यालय से प्राप्त होंगे. खोज के दौरान उन्हें कलावरी थाने में एक उल्लेख मिला, जिसमें उस महुआ डाबर के उजाड़ने और दुबारा न बसने देने के निर्देश थे. अंग्रेज अफ़सर सार्जेन्ट बुशर का वह पत्र प्राप्त हुआ जिसमें महुआ डाबर गांव का उल्लेख मनोरमा नदी(घाघरा नदी की उपशाखा) के किनारे किया गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के एक दस्तावेज से पता चला कि फ्रांसिस बुकनेन ने 1800-1801 की यात्रा में महुआ डाबर का उल्लेख करते हुए बताया था कि वह छोटा-सा कस्बा था, जिसमें खपरैल की छत वाले लगभग 200 घर थे. उनमें से कुछ पक्के घर भी थे.3 जिलाधिकारी द्वारा गठित समिति आखिरकार बस्ती जिले का 1813 का नक्शा खोजने में कामयाब हो गई, जिसमें महुआ डाबर को दर्शाया गया था. उसके बाद सब कुछ अनुकूल होता चला गया.

राज्य और केंद्र सरकार की मंजूरी आने के बाद 14 जून 2010 से खुदाई का काम आरंभ हुआ. देखते ही देखते एक जमींदोज गांव इतिहास के पन्नों पर उबरने लगा. अगले पंद्रह दिनों तक दर्जनों मजदूर और पुरातत्वविद खुदाई के काम में जुटे रहे. सफलता करीब आने लगी. कुआं, लाखौरी ईंटों से बनी दीवारें, छज्जे, नालियां, लकड़ी के जले टुकड़े, राख, मिट्टी के बर्तन, ईस्ट इंडिया कंपनी के 1835 के सिक्के, कुछ पुराने सिक्के, मिट्टी के खिलौने और हड्डियां प्राप्त हुई हैं. जो बताती हैं कि कुछ वर्ष पहले वहां एक भरा-पूरा संपन्न गांव रहा होगा.

क्या हुआ था वहां?

कहानी अठारहवीं शताब्दी के साथ शुरू होती है. भारत में पांव जमा लेने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी जमकर मुनाफा कमाना चाहती थी. वस्त्र उद्योग उस समय का सबसे लाभदायक उद्योग था. इसलिए उसका तेजी से मशीनीकरण किया गया था. इस काम में बाधक बने थे गांव-गांव बसे बुनकर, रंगरेज जैसे कारीगर. वे स्थानीय निवासियों से जरूरी कपास या सूत खरीदकर गांव के लोगों वस्त्र-संबंधी जरूरत की पूर्ति करते थे. कंपनी ने कारीगरों का दमन करना आरंभ दिया. मुर्शिदाबाद, ढाका जैसे शहरों में बुनकरों के हाथ काट डाले गए. जिन कारीगरों की वस्त्र-कला की दुनिया-भर में पहचान थी, जिनके हाथों की बुनी मलमल दुनिया-भर में नाम कमाती थी—वे कारीगर आए दिन के अत्याचार और दमन के कारण वे स्थान छोड़ने को मजबूर हो गए. उनीसवीं शताब्दी की शुरुआत के आसपास, पलायन के लिए मजबूर बुनकरों के बीस सदस्यों का ऐसा ही एक कारवां, मुर्शिदाबाद और नादिया जैसे शहरों से चलकर भटकता हुआ अवध की धरती पर पहुंचा. वहां के जमींदार ने उन्हें महुआ डाबर में शरण दी. मेहनती और कारीगर लोग थे. हुनर बोलता था. कुछ ही अर्से में उन्होंने अपने दैन्य को पीछे छोड़ दिया. उनकी कला के बल पर महुआ डाबर कस्बे के रूप में उभरने लगा. उनके बनाए वस्त्र न केवल बस्ती और गोरखपुर के बाजारों में, बल्कि नेपाल तक भी धड़ल्ले से बेचे जाते थे.

महुआ डाबर पहुंचे बुनकरों में कुछ ऐसे भी थे जिनके पूर्वजों के हाथ अंग्रेजों ने काट डाले थे. उनके मन में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश था. इसलिए 1857 में विद्रोह की चिंगारी जब महुआ डाबर पहुंची तो उनका खून भी उबलने लगा. बुनकरों ने छापामार दल का गठन किया, जिसमें पिरई खां और जाकिर अली जैसे बहादुर बुनकर शामिल थे.

सैन्य-विद्रोह की चिंगारी

सैन्य विद्रोह की शुरुआत 10 मई 1857 को मेरठ से हुई थी. जल्दी ही दिल्ली से लेकर कानपुर, लखनऊ, झांसी आदि क्षेत्र उसके प्रभाव में आने लगे. उनकी देखा-देखी फैजाबाद में 22वीं नैटिव इन्फैंट्री ने 8 जून 1957 को विद्रोह का बिगुल फूंक दिया. फैजाबाद पर कब्जा करने के बाद उन्होंने वहां मौजूद अंग्रेज सैन्य अधिकारियों को अपने अधिकार में ले लिया. किंतु एक रात कैद रखने के बाद उन्होंने अंग्रेजों को वहां से चले जाने को कहा. यही नहीं उन्होंने अंग्रेज सिपाहियों की यात्रा का इंतजाम करने के साथ-साथ उन्हें अपने हथियार भी साथ ले जाने की अनुमति दे दी.

अगले दिन यानी 9 जून की सुबह 22 अंग्रेज सैन्य अधिकारी घाघरा नदी के रास्ते दीनापुर(पटना) छावनी जाने के लिए चार नावों पर सवार होकर निकल पड़े. जब वे बेगमगंज के करीब से गुजर रहे थे, तब उनका सामना आजमगढ़ की 17वीं नेटिव इन्फेंट्री के विद्रोही सैनिकों से हुआ. उस लड़ाई में जान बचाकर भाग रहे अंग्रेजों की दो नावें डुबा दी गईं. फैजाबाद के सुपरिटेंडेंट कमीश्नर कर्नल गोल्डने, सार्जेंट मेजर मैथ्यू और ब्राइट उस संघर्ष में मारे गए. जबकि मिल, करी और पारसन ने खुद को बचाने के लिए नदी में छलांग लगा दी. और डूब गए.

बाकी बचे अंग्रेज बचते-बचाते 10 जून को वे कप्तानगंज(बस्ती) पहुंचे. वहां के तहसीलदार ने उनका स्वागत किया. बताया कि बस्ती में विद्रोही सैनिकों ने डेरा डाला हुआ है. इसलिए उनका वहां जाना सुरक्षित नहीं है. उन्होंने सैनिकों को गोरखपुर जाने की सलाह दी. तहसीलदार ने रास्ता दिखाने के लिए एक जमादार के अलावा पांच खच्चर, सुरक्षा के लिए तीन बंदूकची और रास्ते के खर्च के लिए 50 रुपये भी दिए.    

तहसीलदार के कहे अनुसार अंग्रेज अधिकारियों का कारवां आगे बढ़ गया. करीब 13 किलोमीटर की यात्रा के बाद वे महुआ डाबर पहुंचे. वहां साथ चल रहे बंदूकचियों में से एक ने कहा कि वे उस गांव में कुछ देर के लिए आराम कर सकते हैं. इतना कहकर वह सुरक्षित ठिकाने और खाने-पीने की चीजों का प्रबंध करने के लिए आगे बढ़ गया. उसके बाद की घटना का वर्णन प्रत्यक्षदर्शी सार्जेंट बुशर ने अपने बयान में किया था, उसके अनुसार—

‘हम आगे बढ़ गए. कुछ भी संदेहास्पद नहीं था. हमें अपनी सुरक्षा का भरोसा हो चला था. जैसे ही हम गांव के पास पहुंचे, वह बंदूकची हमें फिर दिखाई दिया. वह दो अन्य व्यक्तियों से बात कर रहा था. उसके पास पहुंचते ही हम भय से थर्रा उठे. पूरा गांव हथियारों के साथ तैयार था. बिना कोई टिप्पणी किए हम तीन सिपाहियों के पीछे-पीछे चुपचाप आगे बढ़ते गए. गांव के पार होते ही हमें एक नाला दिखाई पड़ा. नाला बहुत गहरा नहीं था. हम उसमें पार जाने के लिए उतर पड़े. अचानक गांववालों ने बंदूक और तलवार साथ हमपर हमला बोल दिया. यह देख हमने जल्दी से जल्दी नाला पार करने की कोशिश की. लेफ्टीनेंट लिंडसे हमलावरों की पकड़ में आ गए. उन्होंने उन्हें वहीं टुकड़े-टुकड़े कर दिया.

जैसे ही हम नाले के दूसरे सिरे पर पहुंचे, गुस्साए गांव वाले हम पर टूट पड़े. उन्होंने हमला करके हमारे दल के पांच सदस्यों को मौत के घाट उतार दिया. मैं और लेफ्टीनेंट कॉटली वहां से भागने में कामयाब हो गए. लेकिन भीड़ हमारे पीछे थी. लगभग 300 मीटर तक दौड़ने के बाद कॉटली की हिम्मत जवाब दे गई. वे जमीन पर गिर पड़. हमलावरों ने उन्हें भी टुकड़े-टुकड़े कर दिया.’5

सार्जेंट बुशर किसी तरह खुद को बचाने में कामयाब हो गया. उसने एक गांव में शरण ली. जहां से उसे विलियम पेपे, डिप्टी मजिस्ट्रेट ने सुरक्षित बाहर निकाल लिया. अंग्रेजी दस्तावेजों में महुआ डाबर के क्रांतिकारियों के मुखिया के रूप में जाफ़िर अली का नाम दिया गया है, जबकि दैनिक जागरण सहित दूसरे अखबारों के में पिरई खान को महुआ डाबर की गुरिल्ला टुकड़ी का मुखिया बताया गया है. अखबार के अनुसार—

‘10 जून 1857 को अंग्रेजी सेना के लेफ्टिनेंट लिंडसे, लेफ्टिनेंट थामस, लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लेफ्टिनेंट रिची, सार्जेन्ट एडवर्ड, लेफ्टिनेंट काकल व सार्जेंट बुशर फैजाबाद से बिहार के दानापुर(पटना) जा रहे थे. इधर पिरई खां के नेतृत्व में उनके गुरिल्ला क्रांतिकारी साथियों ने अंग्रेजी सेना के कुख्‍यात अफसरों की घेराबंदी करके तब तक मारा, जब तक उनकी मौत नहीं हो गई. अंग्रेजी सेना के छह अफसरों के मौत के बाद सार्जेंट बुशर घायल अवस्था में किसी तरह से अपनी जान बचाकर भाग निकला और अंग्रेजी हुकूमत के उच्च अधिकारियों को सारी घटना की जानकारी दी.’6

महुआ डाबर : नरसंहार का शिकार दूसरा जलियांवाला बाग

महुआ डाबर के निवासियों छह अंग्रेज सैन्य अधिकारियों की हत्या का आरोप था. अनियोजित होने के कारण अंग्रेजों ने शीघ्र ही उस घटनाक्रम पर काबू पर लिया. उसके बाद डिप्टी मजिस्ट्रेट विलियम पेपे के नेतृत्व में ग्रामीणों के दमन की शुरुआत हुई. महुआ डाबर को पूरी तरह से मिटा देने के आदेश उसे गोरखपुर के कार्यकारी कमिश्नर डब्ल्यू. विनयार्डे की ओर से प्राप्त हुए थे. 15 जून 1857 को लिखे गए पत्र में पेपे को ‘मजिस्ट्रेट’ की शक्तियां और अधिकार देते हुए विनयार्ड ने लिखा था कि वह 12वीं अनियमित घुड़सवार सेना की एक टुकड़ी के साथ तुरंत बस्ती के उन क्षेत्रों में जाए जहां विद्रोही सिर उठाए हुए हुए हैं. बस्ती थाने से पुलिसबल, मुशिंफ तथा कुछ मजदूरों को लेकर महुआ डाबर के लिए प्रस्थान करे, जहां पांच अंग्रेजों की बेरहमी से हत्या की गई है. पत्र में गांव को ‘पूरी तरह जलाने और नष्ट कर देने के लिए आवश्यक बारूद ले जाने’ का भी निर्देश था. आगे हर संभव मदद का भरोसा दिलाते हुए लिखा था कि महुआ डाबर पूरी तरह जला देने का भरोसा हो जाने के बाद ही उस गतिविधि को अंजाम दे. पत्र में पूरे गांव की संपत्ति, जिसमें जानवरों और फसल को कुर्क कर लेने की भी सूचना थी. विनयार्ड ने लिखा था कि उसे यह सुनकर खुशी होगी कि महुआ डाबर को पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया गया है, और किसी भी मकान का एक भी पत्थर सही-सलामत नहीं बचा है.7

विलियम पेपे को जैसा आदेश मिला था, उसने वैसा ही किया. यह बात पेपे द्वारा 22 जून 1859 को लॉर्ड केनिंग, गवर्नर जनरल और उच्च अधिकारियों को भेजे गए पत्र द्वारा प्रमाणित होती है. पत्र में उसने लिखा था—

‘3 जुलाई(1957) को मैंने महुआ डाबर नाम के बड़े गांव को पूरी तरह नष्ट कर दिया है, जहां 22वीं देशी पैदल सेना के अधिकारियों की हत्या की गई थी.’ यही नहीं पत्र में पेपे ने 26 जून को इलाके के ही सौसीपुर(संसारपुर) गांव को भी आग लगा देने का उल्लेख था, जहां के किसान विद्रोही सैनिकों को मदद पहुंचा रहे थे.

उस समय महुआ डाबर की आबादी 5000से ऊपर थी. वह भरा-पूरा संपन्न गांव था. आग लगाने से पहले वहां भीषण कत्लेआम मचाया गया था. लोगों की गिरफ्तारियां की गई थीं. विद्रोह में हिस्सा लेने वाले गुलजार खान, निहाल खान, घीसा खान, बदलू खान को 18 फरवरी 1858 को फांसी पर लटका दिया गया. ये सभी महुआ डाबर के पठान थे. इनके अलावा भैंरोंपुर के गुलाम खान, बखीरा के बाबू को भी फांसी की सजा दी गई. जाफिर अली, जिसे महुआ डाबर विद्रोह का प्रमुख सूत्रधार बताया है, उपर्युक्त घटनाक्रम के बाद मक्का चला गया था. यात्रा से लौटते ही उसे भी गिरफ्तार कर लिया, जिसे बाद में फांसी लगा दी गई. गौरतलब है कि 1857 के विद्रोह में देशी सैनिकों का साथ देने वालों में अकेले महुआ डाबर के लोग शामिल नहीं थे. अपितु अमोधा की रानी ताहोरी कुमारी, नागर के राजा उदयप्रताप सिंह, अथ्दमा के राजा शिवगुलाम सिंह, तिल्जा के शेख वली मोहम्मद आदि अनेक सेनानी शामिल थे. शेख गुलाम मोहम्मद को उनके साथियों शेख सुल्तान, शेख तालिब, अब्दुल बहाव और बुझारत के साथ वलीबाग में इसलिए फांसी दे दी गई थी कि उन्होंने बस्ती के तहसीलदार को उस समय मार डाला जब वह स्वाधीनता सेनानियों की संपत्ति को कुर्क करने की धमकी दे रहा था.8 समाचार के अनुसार अंग्रेजों ने तिल्जा गांव का भी वही हश्र किया था, जो महुआ डाबर का किया था.

अब्दुल लतीफ अंसारी को जिन्हें महुआ डाबर के इतिहास के दबे सच को दुनिया के सामने लाने का श्रेय हासिल है, पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम द्वारा सम्मानित किया गया. हाल ही में कर्नल तिलक राज ने महुआ डाबर के बहादुर बुनकरों को याद करते हुए ओज-भरा गीत रचा है—

महुआ डाबर! महुआ डाबर!!                        

इतिहास का है काला दिन!!

शहीदों के त्याग का है अदभुत दिन

आज़ादी संग्राम के हिम्मत के दिन

शहीदों के लहू की इज्ज़त के दिन

इन्क़िलाब! ज़िन्दाबाद! इन्क़िलाब! ज़िन्दाबाद!

—ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भ

  1. दि टेलीग्राफ, 8 दिसंबर, 2008.
  2. वही
  3. ए गजेटियर ऑफ टेरीटरीज अंडर दि गवर्नमेंट ऑफ ईस्ट इंडिया कंपनी, खंड 3, एडवर्ड थॉरंटन, 1854, पृष्ठ 877.
  4. मॉर्निंग क्रोनीकल, लंदन, 30 सितंबर, 1857http://www.pastpresented.ukart.com/mahuadabar/index.htm
  5. वही
  6. दैनिक जागरण, आजादी की समरगाथा में हो गई महुआ डाबर की शहादत, 13 अगस्त 2021.
  7. विनयार्ड का विलियम पेपे को संबोधित पत्र दिनांक 15 जून, 1857, http://www.pastpresented.ukart.com/mahuadabar/mahuadabar-peppe-mutiny.htm
  8. याद करो कुर्बानी, लाइव हिंदुस्तान, दिनांक 26 जनवरी 2018,  https://www.livehindustan.com/uttar-pradesh/gorakhpur/story-the-british-had-wiped-out-the-first-freedom-struggle-the-existence-of-tilja-1767740.htm

बौद्ध-धर्म धर्म न होकर बुद्धि का मार्ग है

विशेष रुप से प्रदर्शित

पेरियार ई.वी. रामासामी

एक तिब्बती पेंटिंग

हम बुद्ध जयंती क्यों मनाते हैं? गौतम बुद्ध का जन्मोत्सव मनाने का आशय कपूर, नारियल, कुमकुम और खाद्य-पदार्थों से बुद्ध के चित्र अथवा मूर्ति की प्रार्थना करना नहीं है. इसका आशय है कि हमने अपने जीवन में बुद्ध के जीवन और उपदेशों से कुछ सीखने तथा उनके बताए मार्ग पर चलने का निश्चय कर लिया है. मुझे नास्तिक कहा जाता है. यदि नास्तिक का आशय वेद, पुराणों एवं धर्मशास्त्रों में को प्रमाण मानने से इन्कार करना है, उनमें आस्था न रखना है तो निस्संदेह मैं नास्तिक ही हूं. मुझे लगता है कि बुद्ध पर बोलने के लिए यह अभीष्ट एवं पर्याप्त योग्यता है.

ऐसा व्यक्ति जो वेदों, धर्मशास्त्रों और पुराणों में विश्वास रखता हो, उसे इस प्रकार के अवसरों पर बोलने के लिए काफी चालाक होना चाहिए. उसे ऐसे लोगों में से एक होना चाहिए जो जनता को मूर्ख बनाने में भली-भांति दक्ष होते हैं. उन्हें पाखंडी और आडंबरप्रिय होना चाहिए. ऐसे व्यक्ति द्वारा बुद्ध को प्राचीन ऋषि, साधु, या महात्मा, जिनका वह वास्तव में सम्मान करता है—के समकक्ष ठहरा देना असामान्य नहीं है.

ऋषि और ही महात्मा

बुद्ध न तो साधु थे, न ऋषि और न ही महात्मा. वे उन लोगों में से थे जिन्होंने पुराने जमाने के हिंदू साधुओं, ऋषियों का वास्तविक विरोध किया था. यही वह कारण है कि उनका जन्मदिवस मनाने के लिए आज हम सब यहां एकत्र हुए हैं. जिस प्रकार बुद्ध ऋषि या महात्मा नहीं हैं, वैसे ही धर्म की स्वीकार्य परिभाषा के अनुसार बौद्ध धर्म भी कोई धर्म नहीं है. बहुत से लोग बौद्ध मार्ग को धर्म की श्रेणी में रखते हैं. वे गलत हैं. धर्म होने के लिए आवश्यक है कि उसके केंद्र में एक ईश्वर हो. दूसरी चीजें जो धर्म होने के लिए अपरिहार्य हैं वे है स्वर्ग, नर्क, मोक्ष, पाप-पुण्य, आत्मा और परमात्मा जैसी अवधारणाएं. बड़ा धर्म बनने के लिए कोई एक ईश्वर भी पर्याप्त नहीं होता. उसके अनेक ईश्वर हो सकते हैं. उन ईश्वरों की पत्नियां, रखैलें, तथा स्वीकार्य मानव-संबंध भी होने चाहिए. भारतीय सिर्फ ऐसे ही धर्म के बारे में जानते और उसे पसंद करते हैं.

 तर्कशीलता : बौद्ध धर्म का महानतम लक्षण

बुद्ध ने आरंभ में बता दिया था कि मनुष्य के लिए खुद को किसी ईश्वर से जोड़ना, उसकी चाहत रखना कतई आवश्यक नहीं है. वे चाहते थे कि मनुष्य सिर्फ मनुष्य की ही चिंता करे. उन्होंने मोक्ष, स्वर्ग, नर्क जैसी ख्याली बातों पर कुछ नहीं कहा. उनका आग्रह मनुष्य के चरित्र, आचरण और सद-व्यवहार के प्रति था. बुद्धिवादी सोच और ज्ञान, उनके अनुसार मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है. वही उसके श्रेष्ठत्व का आधार है. किसी बात पर सिर्फ इसलिए भरोसा नहीं करना चाहिए कि एक ऋषि ने ऐसा कहा था, अथवा किसी महात्मा ने वैसा लिखा है. किसी भी प्रज्ञावान मनुष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है कि वह स्थितियों की अपने विवेक के अनुसार समीक्षा करने के बाद, स्वयं किसी स्वतंत्र निष्कर्ष तक पहुंचे.

इस कसौटी पर आंका जाए तो बौद्ध धर्म वास्तव में कोई धर्म ही नहीं है. इसी कारण हमें बौद्ध जयंती पर आयोजित इस कार्यक्रम में हिस्सा लेते हुए विशेष प्रसन्नता हो रही है. गौतम बुद्ध के बुद्धिवादी दृष्टिकोण की प्रतिक्रियावादियों द्वारा घोर आलोचना हुई थी. वे 2500 वर्ष पहले जन्मे थे. उन दिनों इस देश में धर्म के नाम पर आदिम कर्मकांड प्रचलित थे. उन्होंने साहस और दृढ़ता के साथ उन आदिम धार्मिक कर्मकांडों और रूढ़ियों के विरुद्ध आवाज उठाई. प्रतिक्रियावादियों द्वारा उनका तीव्र विरोध ही बुद्ध की महानता तथा उनके शब्दों की ताकत को दर्शाता है. बुद्ध के बाद उनके बुद्धिवादी दर्शन और संप्रदाय को नष्ट करने के लिए जिन लोगों ने लिखा और बोला, उन्होंने असभ्य हिंदू धर्म की जंजीरों को दुबारा मजबूत करने के लिए मूर्खतापूर्ण आख्यान गढ़े और सुनाए.

रामायण में बुद्ध का संदर्भ

रामायण में बौद्ध धर्म की बुराई की गई है. रामायण का बड़ा हिस्सा बाद में बुद्ध की शिक्षाओं का सामना करने, उन्हें बेअसर करने के लिए लिखा गया. गौतम बुद्ध से पहले की रामायण एक छोटी कहानी मात्र थी. वैष्णव ग्रंथ ‘नलायिरा प्रबंधम’(तमिल में 4000 की संख्या को नलायिरा कहा जाता है. ‘नलायिरा प्रबंधम’ में भी 4000 पद हैं, जिनकी रचना 12 अलवार संतों ने मिलकर, पांचवी से दसवीं शताब्दी के बीच, की थी. ‘नलायिरा प्रबंधम’ का उपलब्ध  संस्करण नौवीं और दसवीं शताब्दी के बीच का है, जो श्री रंगनाथ मुनि द्वारा रचित है) तथा शैव ग्रंथ ‘थीवरम’(शैव ग्रंथ थीवरम सातवीं-आठवीं शताब्दी की रचना है. उसकी रचना भी कई तमिल शैव संतों ने मिलकर की थी. रचनाकारों में तीन प्रमुख संत हैं—संबंदर, अप्पार और सुंदरार) जैसी विशालकाय कृतियाँ बौद्ध धर्म-दर्शन के प्रभाव को कम करने के लिए ही रची गई थीं. उनमें बौद्ध एवं जैन मतावलंबियों को नास्तिक, डाकू, हत्यारा यहां तक कि वैदिक बलि प्रथा का दुश्मन बताया गया. शैव मतावलंबी अपने आराध्य की प्रार्थना कर, उनसे बौद्ध मतावलंबियों की पत्नियों के साथ बलात्कार करने की ताकत मांगते हैं.

नास्तिक का अभिप्राय

बुद्ध व्यक्तिवाचक संज्ञा है. व्यक्ति के संबंध में ही आमतौर पर उसका उपयोग किया जाता है. बुद्ध का अभिप्राय बुद्धि अथवा मेधा से है. कोई भी व्यक्ति जो स्थितियों की विवेचना के लिए अपनी तर्कबुद्धि का उपयोग करता है—वही बुद्ध है. यूं तो सभी मनुष्यों के पास कुछ न कुछ तर्कबुद्धि अवश्य होती है. लेकिन सिर्फ वही लोग जो अपने विवेक का समझदारी से, सकारात्मक संदर्भों में उपयोग करते हैं—‘बुद्ध’ कहे जा सकते हैं. सिद्ध शब्द का भी वही अर्थ है. सिद्ध ऐसे व्यक्ति को माना गया है, जिसका अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण हो.

वैष्णव संप्रदाय के केंद्र में विष्णु है, जिसे अवतार और ईश्वर का दर्जा प्राप्त है. दूसरी ओर बौद्ध धर्म के केंद्र में सिर्फ मानवीय बुद्धि या विवेक है. इन दिनों किसी भी व्यक्ति को जो ईश्वरीय सत्ता में अविश्वास रखता है, नास्तिक घोषित कर दिया जाता है. मगर सचाई यह है कि ऐसा व्यक्ति जो ईश्वर के अस्तित्व को नकारने के साथ-साथ अपने विवेक का तर्कसंगत ढंग से उपयोग करता है, वही नास्तिक कहलाने का अधिकारी है. ब्राह्मणवाद का विरोध करने वालों को भी उनके विरोधी नास्तिक मान लेते हैं.

बौद्ध धर्म के संदेशों के साथ बुरी तरह छेड़छाड़

कुछ समय पहले, इरोड(तमिलनाडु का एक शहर) में बौद्ध सम्मेलन हुआ था. उसमें ‘विश्व बौद्ध सभा’ के मुखिया भंते मल्लाल शेखर ने, अपने बीज भाषण में स्पष्ट रूप से कहा था कि जितने भी लोग वहां एकत्र हुए थे, वे सभी बुद्ध थे. इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में बौद्ध को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है, जो अंधविश्वास का खंडन करते हुए, सिर्फ अपने बुद्धि-विवेक का प्रयोग करता है.

इन दिनों सार्वजनिक जीवन में बुद्धि-विवेक के उपयोग को शायद ही महत्व दिया जाता है. स्कूल और कॉलेजों में विद्यार्थियों को अपनी बुद्धि और तर्कशक्ति का प्रयोग करने की शिक्षा नहीं दी जाती. न ही उन्हें परंपरा, रूढ़ियों और अंधविश्वासों पर सवाल उठाना सिखाया जाता है. यदि थोड़े-बहुत लोग अपने तर्क-सामर्थ्य का स्वतंत्र उपयोग करते भी हैं तो तत्काल उनपर नास्तिक होने का ठप्पा लगा दिया जाता है, जो असल में ऐसी पदवी है जिसका कोई अर्थ ही नहीं है. तर्कवादी यदि नास्तिक होने से इन्कार करे, खुद को बुद्धिवादी कहलवाना पसंद करे तो उसे ऐसा सिद्ध करने के लिए भारी परेशानी उठानी पड़ती है. कारण है कि नास्तिक के शब्द के अर्थ को बुरी तरह बदल दिया गया है.

बुद्ध ने भी अपने समर्थकों से यह कभी नहीं कहा था कि वे जो उपदेश देते हैं, उसपर ज्यों का त्यों विश्वास कर लेना चाहिए. उन्होंने कहा था कि उनके शब्दों को जांचे-परखें और अपने बुद्धि-विवेक के अनुसार ही उन पर फैसला करें. बुद्धिसंगत होने के बाद ही उन्हें स्वीकार करें.

नंगी आंखों से स्वर्ग को देखा

गौतम बुद्ध ने अपने विचार 2500 वर्ष पहले अभिव्यक्त किए थे. वे तात्कालिक समाज की शिक्षा और ज्ञान के अनुरूप थे. मनुष्य के ज्ञान की सीमा है. अपने समय और समाज की परिस्थितियों में उन्होंने जो भी कहा था, वह आज की परिस्थितियों में न तो पूरी तरह सही है, न ही शत-प्रतिशत लागू हो सकता है. बुद्ध के विचारों को शब्दशः ग्रहण करना, मेरी दृष्टि में अलग किस्म की आस्तिकता है. उस समय के लोग नंगी आँखों से आसमान में झांकते थे. प्रकृति और समाज के बारे में बहुत मोटी जानकारी उनके पास थी. आजकल शक्तिशाली दूरदर्शी से आसमान की पड़ताल की जाती है. फलस्वरूप सूरज पर बने काले धब्बों का परीक्षण भी संभव है. हमारे पूर्वज जितना जानते थे, उसी को सबकुछ समझकर विश्वास करना—मनुष्य की रचनात्मक मेधा तथा उसके सृजन-सामर्थ्य को सीमित कर देने जैसा है.

आर्यवाद ने देश को असभ्य बनाया है

बौद्ध धर्म के बारे में हमें यही कहना सही होगा कि समय के साथ मनुष्य के ज्ञान-सामर्थ्य में वृद्धि होती है; अतएव हमें भी अपने विचारों को प्रगति और समसामयिक परिवर्तनों के अनुरूप समायोजित करते रहना चाहिए. पुराने कथनों को ही अंतिम मानकर, उनपर अड़े रहना समाज के प्रति बौद्धिक विश्वासघात और पिछड़ापन है. यह मानवीय मेधा के विकास को अवरुद्ध कर देने जैसा है.

बुद्ध ऐसे समय में उभरकर आए जब आर्यवाद ने इस देश को आदिम, बर्बर, तर्कहीनों और जड़ बुद्धिजीवियों की भूमि बना दिया था. जिन लोगों ने धर्मशास्त्रों और पुराणों की रचना की वे अपनी तरह से बुद्धिमान रहे होंगे. उन्होंने वही लिखा था जो उनकी साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक प्रवृतियों के अनुकूल था. सभी लोगों का कल्याण हो, पूरा समाज फले-फूले—यह उनकी चिंता का विषय कभी नहीं था. उनके द्वारा रचे गए धर्मशास्त्र और पुराण निर्विवाद रूप से इसकी पुष्टि करते हैं.

थिरुवेल्लुवर और उनकी सीमाएं

थिरुवेल्लुवर(श्री वेल्लुवर, प्राचीन तमिल संत कवि) के प्रति मेरे हृदय में गहरा सम्मान है, किंतु उनकी भी सीमाएं थीं. यहां तक कि प्राचीन काल का सबसे महानतम ग्रंथ, अपने समय में उपलब्ध मेधा या उस समय तक मनुष्यता के बौद्धिक विकास से परे नहीं जा पाया है.(पेरियार यहां ‘थिरुक्कुरल’ की चर्चा कर रहे हैं. थिरुक्कुरल तमिल भाषा के  प्राचीनतम ग्रंथों में से एक है. उसकी रचना थिरुवेल्लुवर ने की थी. पेरियार ने कई जगह इस ग्रंथ की प्रशंसा की है. साथ ही उसकी कमजोरियों या असामयिक हो चुकी अनुशंसाओं की ओर इशारा भी किया है. उनका यह भी मानना है कि मूल ‘थिरुक्कुरल’ ऐसी कमजोरियों से मुक्त था. ब्राह्मणों के दक्षिण आगमन के बाद उन्होंने निहित स्वार्थ के अनुसार वहां के प्राचीन ग्रंथों को प्रदूषित किया था). इसलिए प्राचीन ऋषि-मुनियों, बुद्ध या थिरुवेल्लुवर ने जो कहा, वही अंतिम है, या उसी को एकमात्र सत्य या मानवीय मेधा की सीमा मान लेना—पूर्णत: अनुचित है.

बावजूद इसके गौतम बुद्ध और थिरुवेल्लुवर का हम इसलिए सम्मान करते हैं कि ऐसे दौर में जब हिंदू धर्म और समाज पूरी तरह असभ्य था, लोग बर्बर थे—समाज का बहुसंख्यक हिस्सा बाकि बचे मामूली हिस्से के सुखोपभोग, वैभव और विलासिता की खातिर गुलामों की तरह काम करता था—उस दौर में बुद्धिवाद को स्थापित करना, तर्क और ज्ञान के महत्व से लोगों को परचाना—केवल उन्हीं के लिए संभव था. अपने साहस के भरोसे यह उन्होंने कर दिखाया था.

धार्मिक प्रवृति के लोग पुराणों में कही गई मनगढंत और ऊल-जुलूल बातों पर विश्वास करेंगे. उनका गुणगान भी करते रहेंगे, किंतु यदि उन्हें असली इतिहास के बारे में बताया जाए तो प्रतिक्रिया में बस इतना कहेंगे, ‘गोरे अंग्रेजों ने भारत के बारे में जो कहा है, उसपर विश्वास मत करो.’ ये ऐसे लोग हैं जो अपने विवेक और अपनी अंतश्चेतना के विरुद्ध मिथ्या भाषण करते हैं. वे हमेशा ऐसे लोगों से घिरे रहते हैं जो अपनी मुक्त चिंतन शक्ति को गंवा चुके हैं. धर्म और ईश्वर के नाम पर धार्मिक लोगों ने जो भी मन में आए, बकवास करना और डींगे हांकना सीख लिया है. भले ही उनके शब्दों का इतिहास या तत्कालीन सामाजिक यथार्थ से कोई संबंध हो या न हो. उनके लिए यह महत्वहीन है. स्पष्ट है कि धर्म ने खुद को अंधविश्वास तक सीमित कर दिया है. 

पुराण गौतम बुद्ध के बाद की रचना हैं 

जिन दिनों यह कहा जा रहा था कि ब्रिटिश इतिहासकारों ने भारत के बारे में जो लिखा है, उसपर विश्वास नहीं करना चाहिए, उन दिनों उत्तर भारत स्थित भारतीय विद्या भवन नामक संस्था के तत्वावधान में, मूर्खतापूर्ण धार्मिक आख्यानों तथा अलोकतांत्रिक शास्त्रों पर केंद्रित पुस्तकें लगातार छापी जा रही थीं. मि. मुंशी(कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी) उस संस्था के अध्यक्ष; तथा अरबपति बिरला(घनश्यामदास बिरला) और डॉक्टर राधाकृष्णन(सर्वपल्ली) उसके  विशिष्ट सदस्य थे. उन्होंने ‘वैदिक युग’(प्राचीन इतिहास और संस्कृति पर प्रकाशित पुस्तकमाला थी. प्राच्यविद रमेशचंद मजुमदार उसके संपादक थे.)  नामक पुस्तक प्रकाशित की थी. उस पुस्तक की रचना में मिस्टर मुंशी की बड़ी भूमिका थी. उस पुस्तक की प्रस्तावना में भी लिखा गया था, ‘पुराण और महाकाव्य इतिहास नहीं हैं. उनमें समकालीन घटनाओं का वर्णन नहीं है. ‘व्यास’ शब्द का अर्थ कहानी लेखक(किस्सागो) है.’ वही  पुराण लोगों के दिलो-दिमाग में पैठ गए. लोगों की सहज बुद्धि पर कब्जा जमाकर वे उनका मार्गदर्शन करने लगे. यही हमारी परेशानियों का सबसे बड़ा कारण है.

तीन-चौथाई से अधिक पुराणों का लेखनकाल बुद्ध के बाद का बताया गया है. बुद्ध द्वारा प्रचारित तर्कवादी शिक्षा के विरोध में, उसकी ओर से लोगों का ध्यान हटाने तथा उन्हें ब्राह्मणवाद की ओर आकृष्ट करने के लिए—पौराणिक ऋषियों ने अवतारों की मनगढंत कहानियां रचीं. कृष्ण को उनका मुखिया बनाया गया. हिंदू देवी-देवताओं के चमत्कारपूर्ण कारनामे हमेशा ही लोगों के विशिष्ट आकर्षण और उत्तेजन का कारण रहे हैं. कृष्ण महाकाव्य तो पूरी तरह कामुकता और फूहड़पन से भरपूर है. इतना कुछ होने के बाद, उसे दैवीय भी घोषित कर दिया गया. भगवदगीता को तो महाभारत में बहुत बाद में, आगे चलकर जोड़ा गया था.

जाति से मेरा अभिप्राय अलग है

ऐसे अश्लील और कामुक परिवेश में कृष्ण जैसा देवता गढ़ने तथा उसकी प्रशस्ति में भजन गाने, नाटक और नृत्यों के आयोजन का भला क्या औचित्य है! कृष्णलीलाएं तो सिनेमा के पर्दे पर भी आ चुकी हैं. जो भक्त कृष्णलीला स्थल पर हाथ जोड़े या तालियां बजाते, तन्मयता से गाते-झूमते हुए नजर आते हैं, वे उसी भगवान को अपने घर में, अपनी पत्नी के पास जाने की अनुमति देने का साहस नहीं कर पाएंगे. लोगों का अंतःकरण जिस बात को करने से रोकता है, आम व्यवहार में उसका खंडन न करने का आखिर क्या कारण है? भगवान की अश्लीलता, संकीर्णता और व्यभिचार को जश्न की तरह दर्शाने वाले त्योहारों को समाज में जगह क्यों मिलनी चाहिए?

आज कोई भी व्यक्ति जाति प्रथा का समर्थन करने का साहस नहीं जुटा पाता. सी. राजगोपालाचारी कदाचित इसके अपवाद हैं. वे जातिवाद को बनाए रखना चाहते हैं. यदि उनसे सीधे मिलकर, आमने-सामने सवाल किया जाता तो वे कदाचित यही कहते, ‘जाति से मेरा अभिप्राय कुछ अलग है.’ वेदों, धर्मशास्त्रों और पुराणों के समर्थन के अभाव में जाति क्या टिक सकती थी? वेदों, धर्मशास्त्रों और पुराणों के बहिष्कार के बगैर जाति का उच्छेद कभी भी, भला कैसे संभव है? धर्मशास्त्रों का एकमात्र उद्देश्य है गैर-ब्राह्मणों जैसे कि शूद्रों और पारिया जैसे अछूतों का  सदा-सर्वदा तिरस्कार तथा पुरोहित वर्ग को संरक्षण प्रदान करना.

कंधे पर देवता और बुद्ध की स्तुति

बुद्ध जयंती या बुद्ध दिवस को मनाना हमारे लिए जरूरी क्यों है? यदि बुद्ध को अलवार और नयनमार संतों की श्रेणी में रखना है तो उन्हें भुला देना ही बेहतर होगा. बुद्ध जयंती वस्तुत: वैदिक धर्मावलंबियों के लिए शत्रु-दिवस है. ब्राह्मण वर्चस्व वाला मीडिया इस तरह के सम्मेलनों की कार्रवाही के बारे में ईमानदारी से रिपोर्टिंग नहीं करेगा. बजाय इसके उनके अखबारों में एक या अधिक पौराणिक सभाओं की घोषणाओं की भरमार मिलेगी. बाद में उन सभाओं से संबंधित समाचारों से अखबार के पन्ने भर दिए जाएंगे. ऐसे परिवेश में जाति को विनष्ट कर, बुद्धिवाद के वर्चस्व को पुनर्स्थापित कर पाना कितना  कठिन है. उस स्थिति का बयान संभव नहीं, अच्छा है  उसकी कल्पना से तसल्ली कर ली जाए.

दुनिया के भला किस देश में इतने सारे भगवान हैं जितने हमारे देश में हैं? इतने सारे चरित्रहीन ईश्वरों की मौजूदगी का औचित्य ही क्या है? ऐसे भगवानों में आस्था और विश्वास रखते हुए, उन्हें अपने कंधों पर लादकर, बुद्ध को ससम्मान याद करने तथा उनकी स्तुति करने से कोई भला नही होने वाला. इन ईश्वरों का बहिष्कार करने के लोग स्वयं बुद्ध बन जाएंगे. मनुष्य की आकृति में, मनुष्य को दुःख और सुख देने वाला, मानवीय अपराधों और सद्गुणों लिप्त रहने वाला ईश्वर हो ही नहीं सकता. विष्णु, शिव और ब्रह्मा, इन हिंदू त्रिदेवों की कहानियों में अश्लीलता, हिंसा, फूहड़पन, हत्या आदि की भरमार है. 

गंदे पुजारी के चरण पखारना

आश्चर्य की बात यह है कि पुराणों में विश्वास रखने वाले लोग भी यहाँ आने, और बौद्ध जयंती के उत्सव में हिस्सा लेने का साहस जुटा लेते हैं. ये वही लोग हैं  जो मंदिर बनवाने वाले को ही दयावान और परोपकारी मानते हैं. सोचते हैं कि भक्ति सिर्फ पत्थर के स्तंभ से माथा रगड़ने पर व्यक्त की जा सकती है, यही लोग गंदे पुजारियों के पैर धोने को भी भक्तिकर्म मानते हैं. गौतम जैसे विश्व के महान बुद्धिवादी चिंतक के व्यापक प्रभाव को बेअसर करने के लिए ही इन पौराणिकों ने उनके बारे में सत्य को तोड़-मरोड़कर, उसे प्रदूषित करते हुए पेश किया है.

जाति को नष्ट करने की हिम्मत ही नहीं है 

रामायण और महाभारत के बारे पुस्तकें आज भी हजारों की संख्या में लिखी और बेची जाती हैं. इनका क्या उद्देश्य है? क्या इसका सीधा और साफ उद्देश्य जातिवाद, अंधविश्वासों और लोगों की दास मानसिकता को बनाए रखना नहीं है? यदि भारत में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे जीवनमूल्यों से भरपूर वास्तविक लोकतंत्र की जड़ें जमानी हैं तो जातिवाद को जड़ से उखाड़ना पड़ेगा. सरकार ऐसी होनी चाहिए जिसमें यह सब करने का साहस हो. जो जातिवाद जैसी विकृति से समाज को मुक्त कर सके. आज हमारे पास ऐसी सरकार है जो जातिवाद की बुराइयों पर बात तो करती है, लेकिन उसमें इसे उखाड़ फेंकने का साहस नहीं है.

डॉ. राधाकृष्णन ने यह कहने का साहस दिखाया है, ‘हमने राजाओं और जमींदारों को उखाड़ फैंकने का साहस  कर दिखाया है. स्थायी और दूरगामी लाभों के लिए हमें जातिवाद को नष्ट कर देना चाहिए. यह करने के लिए हमारे पास लोहे के दिल वाले इंसान होने चाहिए.’ सरकार के पास ऐसा विचार तो है किंतु जातिवाद पर हमला करने की इच्छा नहीं है. हमारा लक्ष्य ईश्वरविहीन समाज की स्थापना करना नहीं है. हम ऐसा समाज चाहते हैं जिसमें सत्य और विवेक देवताओं के रूप में मौजूद हों.

बुद्ध : क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए  अपरिहार्य  

23 जनवरी  1954 को हमने इरोड में एक बौद्ध सम्मेलन का आयोजन किया था. उसके आयोजन के पीछे हमारा उद्देश्य क्या था? क्या उससे हमारा इरादा खुद को बौद्ध धर्म का अनुयायी घोषित करना था? उसके माध्यम से क्या हम हिंदू धर्म को उजाड़ कर बौद्ध धर्म को लाना चाहते थे? नहीं. फिर बुद्ध के नाम पर सम्मलेन आयोजित करने का क्या कारण था? वह इसलिए कि हम मानते हैं कि हम जो बदलाव लाना चाहते हैं, हिंदुओं की जिन बुराइयों को हम नष्ट करना चाहते हैं—गौतम बुद्ध की शिक्षाएं उसका संपूर्ण समर्थन करती हैं. गौतम बुद्ध का दर्शन, उनके सिद्धांत और उपदेश हमारे स्व:सम्मान एवं बुद्धिवादी आंदोलन के साथ—उसके समर्थन में खड़े हैं. ईश्वर, जाति, गौत्र, धर्मशास्त्र, पुराण और महाकाव्य हमारी पराधीनता का कारण हैं. ऐसी चीजें हैं जिनसे हम मुक्त होना चाहते हैं. जबकि जीवनमूल्यों से भरपूर गौतम बुद्ध की शिक्षाएं और उनका दर्शन हमारे क्रांतिधर्मा लक्ष्यों के लिए बेहद मूल्यवान हैं.

हमारे आदर्शों के प्रतीकपुरुष

कुछ चीजें जिनका हम आज प्रचार-प्रसार करते हैं, वे गौतम बुद्ध की ढाई हजार वर्ष पुरानी शिक्षाओं में पहले से ही शामिल हैं. बौद्ध धर्म हमारे आदर्शों के लिए आधार स्रोत, मानक संस्था की तरह है. जिन दिनों इस रामासामी(पेरियार) द्वारा स्व:सम्मान आंदोलन के आदर्शों का प्रचार आरंभ किया गया था, तब कुछ ऐसे भी लोग थे, जिनका मानना था उसमें कोई बड़ी, अनोखी या महत्वपूर्ण बात नहीं है. वे सोचते थे कि मैं गीता से बड़ा नहीं हो सकता. ऐसे लोगों के लिए कम से कम बौद्ध धर्म का होना बड़ा ही प्रोत्साहनपरक और उत्साहवर्धक है. हमारे आदर्शों को किनारे करना, उन्हें मिटा पाना परंपरावादियों के लिए आसान नहीं होगा. उन्हें यह बताने की जरूरत है कि बुद्धिवाद उतना ही पुराना है जितना कि बौद्ध धर्म; और हम जो आज प्रचार कर रहे हैं—उसमें कुछ भी नया नहीं हैं.

बुद्ध हिंदुओं के लिए भी मान्य और पूजनीय

ऐतिहासिक जरूरतों की खातिर हिंदुओं ने बुद्ध के धर्म-दर्शन को स्वीकार किया था. यहां तक कि उनकी पूजा भी की जाती रही है. हालांकि इतिहास हमें यह भी बताता है कि बौद्ध धर्मालंबियों को सताया जाता था. उनकी हत्या भी कर दी जाती थी. उनके मठों को जला दिया गया था. यहाँ तक कि उनके धर्म-दर्शन को भी हिंदू कट्टरपंथियों ने बहुत पहले ही उखाड़ दिया था. कुछ बौद्ध मतावलंबियों को गहरे समुद्र की तलहटियों में डुबा दिया गया था. इतने सारे षड्यंत्रों और दमन के बावजूद हिंदुओं के लिए कभी संभव नहीं हो पाया कि वे हिंदू मानस में बसी गौतम बुद्ध की यादों को मिटा सकें.

ब्राह्मणों ने उन्हें विष्णु का अवतार घोषित किया

आखिरकार ब्राह्मणों को, गौतम बुद्ध को विष्णु के दसवें अवतार के रूप में मान्यता देनी ही पड़ी. इस तरह सब कुछ को पचा लेने वाले हिंदू धर्म ने शैव और वैष्णव संप्रदाय की भांति, बौद्ध धर्म को भी हिंदू धर्म की उपशाखा मान लिया. संभव है प्राचीनकाल में उन्होंने अच्छा व्यवहार किया हो, संभव है न भी किया हो—लेकिन यह सचाई है कि भारत भूमि से बौद्ध धर्म कभी भी पूरी तरह गायब नहीं हो सका. यहाँ तक कि स्वतंत्र भारत की सरकार को भी मानना पड़ा कि इस देश में बुद्ध को भुला पाना आसान नहीं है. इसलिए शैव और वैष्णव संपद्राय, जो हिंदू धर्म का दायां और बायां हाथ थे, को छोड़ते हुए बुद्ध की शिक्षाओं को बौद्ध धर्म-दर्शन की शिक्षाओं को सरकारी पहचान के रूप में सहेजा गया.

राष्ट्रीय झंडे में धम्मचक्क

बौद्ध धर्म के प्रतीक धम्मचक्क को हमारे राष्ट्रीय झंडे में सम्मानित स्थान प्राप्त हुआ. सारनाथ स्थित अशोक स्तंभ के शिखर पर बनी चार शेरों की मूर्ति को राष्ट्रीय प्रतीक की मान्यता मिली, वही हमारे सैन्य अधिकारियों ने कंधों पर, मंत्रियों की गाड़ियों के बोनेट्स पर, सरकारी वाहनों, आम आदमी के काम आने वाले पोस्टकार्ड जिनका सुदूर गांवों में बहुतायत से प्रयोग होता है—शोभायमान है. आजादी के बाद से ही गौतम बुद्ध के जन्मदिवस को सरकारी अवकाश घोषित किया जा चुका है.

क्या हमारे आंदोलन को कमजोर किया जा सकता है  

इन शब्दों का अभिप्राय क्या है. इसका अभिप्राय है कि आजाद भारत की सरकार ने गौतम बुद्ध और उनकी शिक्षाओं को मान्यता दी है. उन्हें राष्ट्रीय महत्व का माना है. सरकार के लिए यह संभव नहीं था कि किसी हिंदू, शैव या वैष्णव प्रतीक को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में स्वीकार कर सके. इसका आशय यह है कि भारत के राष्ट्रीय हितों की दृष्टि से हिंदू प्रतीक सर्वथा अनुपयुक्त हैं. अपनी जनता के इतिहास में मैं इसे एक क्रांतिकारी पड़ाव के रूप में चिह्नित करता हूं.

इसलिए,  यदि हम यह कहते हैं कि हमारे द्वारा शुरू किया स्व:सम्मान आंदोलन बुद्ध की 2500 वर्षों पुरानी शिक्षाओं पर आधारित, उसी का विस्तार था, तो लोग आसानी से समझ सकते हैं कि हम जो करते हैं—वह सरकार द्वारा अनुमन्य, उसके द्वारा अनुशंसित कार्यक्रम से परे कुछ भी नहीं है. इसलिए ब्राह्मणों, कांग्रेसियों, धर्माधीशों, शंकराचार्यों और मठाधिपतियों के लिए हमारे आंदोलन को, जो असल में सुधारवादी आंदोलन है—रोकना/ सीमित कर पाना असंभव है.

कुरल में ब्राह्मणवादी शिक्षाओं के अनुरूप प्रक्षेपण  

ब्राह्मणों की एक कुटिलनीति बुद्धिवादी चिंतकों को अपना बताकर, उनकी शिक्षाओं को तोड़-मरोड़कर पेश करने की रही है, जिससे वे उन्हें अलोकतांत्रिक और वर्चस्ववादी ब्राह्मणवादी शिक्षाओं के अनुरूप ढल सकें. पहले यह काम उन्होंने बुद्ध के लिए किया, उसके बाद थिरुवेल्लुवर के साथ. स्व:सम्मान आंदोलन द्वारा कुरल को अपना नीति-ग्रंथ मानने से पहले ब्राह्मण, साथ में उनके शूद्र अनुचर भी, कुरल के बारे में बढ़-चढ़कर दावे करते थे. उनका असली उद्देश्य कुरल की शिक्षाओं को, ब्राह्मणवाद के अनकूल ढालने की नीयत से—तोड़ना-मरोड़ना तथा उसके अर्थ का अनर्थ करना था.

ब्राह्मण टीकाकार पेरीमेलाझगर ने अपनी टीका में आर्यों की बहुत-सी शिक्षाओं को शामिल किया है. इस प्रकार वे थिरुवेल्लुवर की शिक्षाओं को पूरी तरह तोड़ने-मरोड़ने, उनमें अंतर्निहित मूल सत्य पर पर्दा डालने में लगभग कामयाब रहे हैं. (पेरीमेलाझगर 13वीं के टीकाकार थे. कुरल पर उनकी टीका के कारण जहाँ अनेक विद्वान उनकी सराहना करते हैं, वहीं अनेक विद्वान उन पर कुरल में प्रक्षेपण का आरोप भी लगाते हैं.) हमारे आंदोलन द्वारा कुरल तथा उसमें निहित सत्य को दुबारा दुनिया के सामने लाने के बाद ही, उसके प्राचीन गौरव और दीप्ति की वापसी संभव हो सकी है. आज पूरी तमिल-भूमि कुरल संगठनों और समूहों से भरी है. स्कूलों और कॉलेजों में कुरल के अध्ययन में लगातार वृद्धि हो रही है. जैसे-जैसे कुरल के अध्ययन को बढ़ावा दिया जा रहा है, वैसे वैसे रामायण एवं महाभारत जैसे जातिवादी और अंधविश्वासों से भरपूर आर्य ग्रंथों का प्रभाव कमजोर पड़ता जा रहा. 

यही कार्य अब हम बौद्ध धर्म के साथ कर रहे हैं. रूढ़िवादी और परंपरापोषी हिंदुओं को हतोत्साहित करने के लिए बौद्ध धर्म के आदर्शों, उसमें अंतर्निहित वास्तविक मूल्यों का प्रचार किया जा रहा है. उनकी ईर्ष्या और क्रोध हमें परेशान नहीं करते.

ऋषिमुनियों के उपदेश वृथा हैं

गौतम बुद्ध ने तर्क और बुद्धिवाद को प्रथम स्थान पर रखा था. उन्होंने प्राचीन ऋषियों अथवा कथित दिव्य मनीषियों के लिखे को बुद्धिसंगत(ज्ञान) मानने से इन्कार कर दिया था. वे चाहते थे लोग अपने विवेक से काम लें और उसकी मदद से खुद सत्य का साक्षात करें. तथाकथित ईश्वर के अस्तित्व अथवा उसकी सत्ता पर कोई टिप्पणी करने से इन्कार के साथ-साथ उन्होंने आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारने से भी मना कर दिया था. दावा किया जाता है कि कथित आत्मा स्वयं तथाकथित परमात्मा के तेज से अस्तित्ववान होती है. इस कारण वह ईश्वर के विचार को ही परोक्ष रूप में स्थापित करती है. चूंकि ईश्वर को प्रत्येक दृष्टि से संपूर्ण एवं विकाररहित बताया गया है, अतएव ईश्वर की अनुभूति को पाप, पुण्य, अवगुण या सद्गुण, अच्छे अथवा बुरे कर्मों से नहीं जोड़ा जा सकता. इस तरह से आत्मा और परमात्मा के बीच अनुचित और अप्रमाणिक तादात्मय के कारण, गौतम बुद्ध की कसौटी पर उन्हें भारी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था.

बुद्ध ने सभी प्रकार की मूर्तिपूजा, मानवरूपी देवताओं की अभ्यर्थना, रूढ़िवाद, परंपरावाद और अंधविश्वास की निंदा करते हुए उनका बहिष्कार करने का उपदेश दिया था. लगभग वे सभी बातें जिन्हें आर्यमत के अनुसार पवित्र एवं दिव्य माना जाता था, उन्हें गौतम बुद्ध की तीखी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था.

विध्वसंक हथियारों वाले देवता

पुरातत्वविद भली-भांति सिद्ध कर चुके हैं कि हिंदुओं के जितने भी प्राचीन मंदिर हैं, वे पहले कभी बौद्ध विहार थे. यहां तक बताया गया है कि श्रीरंगम, कांचीपुरम, पालनी, तिरुपति आदि मंदिर भी मूल रूप से बौद्ध विहार ही थे. ऐसे मंदिर जो कभी गौतम बुद्ध की आभा से पूरी तरह देदीप्यमान थे—जहां प्यार, अनुराग,  समर्पण, सहानुभूति सब कुछ सहज प्राप्य थे, उन मंदिरों को युद्धोन्मादी देवताओं की रम्यस्थली बना दिया. उनके हाथों में जानलेवा हथियार थमा दिए गए. ऐसा कोई हिंदू देवता नहीं है जो जानलेवा, विध्वंसक हथियारों से न खेलता हो. ये दिखाते हैं कि भगवान बनने के लिए उस सत्ता के खाते में कुछ हत्याओं का होना जरूरी है.

शैव और वैष्णव उपदेशों के दौरान बढ़-चढ़ कर दावे करते हैं कि उनका देवता प्यार करने वाला है. यह  सब मनगढ़ंत तानाशाही और पाखंड पूर्ण है. उनके ये लंबे-चौड़े दावे देवताओं की हथियार बंद छबि को देखते ही हवा हो जाते हैं. प्रेम और हिंसा के बीच भला क्या संबंध हो सकता है? सबसे आश्चर्यजनक और दिलचस्प बात यह है कि युद्धोन्मादी देवताओं की भीड़ के बावजूद—दूसरे राष्ट्र के नागरिकों की अपेक्षा हिंदू कुल मिलाकर—तुलनात्मक रूप से सर्वाधिक कायर हैं.

(स्रोत : कलेक्टेड वर्क ऑफ़ पेरियार, संपादक के. वीरामणि, सेल्फ रेस्पेक्ट प्रोपेगेंडा फाउंडेशन चेन्नई. पेरियार ने यह संबोधन 15 मई, 1957 को चेन्नई के एगमोरे स्थित महाबोधि संगठम् परिसर में बुद्ध की 2501वीं जयंती के मौके पर आयोजित समारोह में किया था। (स्रोत : Velivada.com)]

अंग्रेजी से अनुवाद

ओमप्रकाश कश्यप

दक्षिण भारतीय संस्कृति में ब्राह्मणवाद विरोधी चेतना और पेरियार

विशेष रुप से प्रदर्शित

[बताया गया है कि छूआछूत को बनाने वाला ईश्वर है। यदि यह बात  सही है तो हमें सबसे उस ईश्वर को ही नष्ट कर देना चाहिए। यदि ईश्वर इस परंपरा से अनजान है तो उसका और भी जल्दी उच्छेद होना चाहिए। यदि वह इस अन्याय को रोकने या इससे रक्षा करने में असमर्थ है तो इस दुनिया में उसका कोई कोई काम नहीं है—पेरियार, कुदी अरासू 17 फरवरी, 1929] 

चीजें किस प्रकार दिमाग में बैठतीं या बैठा दी जाती हैं—इस बारे में प्रायः हमें पता नहीं चलता। जैसे कि लोककथाओं का एक सबक जिसे जाने-अनजाने उनके आरंभ में ही जोड़ दिया जाता था। शिकार, नौकरी अथवा किसी और काम से ‘परदेस’ जाने वाले कथानायक को घर-परिवार के बुजुर्ग समझाते—‘बेटा पूरब जाना, पश्चिम जाना, उत्तर दिशा तो खुशी-खुशी जाना, मगर दक्षिण में हरगिज न जाना।’ कहानियों के अनुसार दक्षिण में या तो कोई राक्षस रहता था अथवा डायन। कोई ऐसी खूबसूरत राजकुमारी भी हो सकती थी, जिसे प्राप्त करना आग के दरिया को पार करने जैसा हो। कहानियों में जो डर जाते या असफल रहते वे सफर से वापस नहीं लौटते थे। या यूं कहो कि उनकी कहानियां ही नहीं बनती थीं। जो व्यक्ति तमाम हिदायतों और बंदिशों को लांघकर साहस के साथ निषिद्ध लक्ष्य की ओर प्रस्थान कर; वहां से सकुशल लौट आता—वह कथानायक कहलाता था। दक्षिण की यात्रा आपदाओं को चुनौती देने की यात्रा थी। नायक बनने या यूं कहो कि नायक गढ़ने की यात्रा थी।

आखिर कौन-से दबाव थे कि ऐसी कहानियों में प्रायः दक्षिण दिशा को ही निषिद्ध बताया जाता था? कुछ लोग कह सकते हैं कि इसके पीछे लेखक-किस्सागो का उद्देश्य कहानी को रहस्यपूर्ण और रोचक बनाना होता था। मना करने के बावजूद नायक का दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान, उसके साहसी होने का प्रमाण था। लेकिन यदि यही उद्देश्य होता तो किस्सागो—कथानायक के नाम, स्थान की तरह, दिशा में भी मनचाहा परिवर्तन कर सकता था। दक्षिण के अलावा वह पूरब, पश्चिम या उत्तर को भी निषिद्ध बता सकता था। हमेशा एक ही दिशा क्यों? कुछ चतुर-सुजान कहेंगे कि वास्तुशास्त्र के अनुसार दक्षिण में यमराज का अधिष्ठान है। अगर ऐसा है तब भी हमारा मूल प्रश्न कायम रहता है कि यमराज ने अपने लिए; अथवा वास्तुशास्त्रियों ने यमराज के लिए दक्षिण दिशा को ही क्यों चुना था?

इसके लिए हमें मिथ-निर्माण की प्रक्रिया को समझना पड़ेगा। मिथों के निर्माण में पूरे समाज की भूमिका होती है। मगर उसे विशिष्ट चरित्र प्रदान करने, खास अवसरों से जोड़ने और मनमाना इस्तेमाल करने का काम समाज का अभिजन समुदाय करता है। यह भी सच है कि मिथ में आमजन का भरोसा ही उसे अभिजन समुदाय की निगाह में महत्वपूर्ण बनाता है। इसके पीछे उसकी नीयत खुद को दूसरों से अलग और खास दिखाने के लिए होती है। वह चाहता है कि उसके द्वारा छलपूर्वक कब्जाए गए अभिजात्यपन तथा विशेषाधिकारों को, लोग दैवीय अनुकंपा मान लें। मान लें कि समाज में उसकी हैसियत किसी षड्यंत्र अथवा दुरभिसंधि का परिणाम न होकर, विशिष्ट ईश्वरीय अनुकंपा है। दक्षिण को यमराज का अधिष्ठान घोषित करना, इसी सांस्कृतिक कूटनीति का हिस्सा है। इसी से जुड़ा एक सच गांव-बस्तियों में अछूतों और शूद्रों को दक्षिण में बसाया जाना भी है।

सवाल है कि दक्षिण दिशा ही क्यों? आखिर क्यों दक्षिण को राक्षस-राक्षसियों की दिशा बताया गया? क्यों यमराज को टिकने के लिए वही दिशा दी गई थी? क्यों शूद्रों और दलितों को दक्षिण दिशा तक सीमित कर दिया जाता है?

पेरियार के संघर्ष को समझने; या यूं कहो कि भारतीय समाज की जिस मानसिकता के विरुद्ध उन्हें संघर्ष करना पड़ा था; और जो इसकी अनेकानेक व्याधियों की वजह है—की पृष्ठभूमि को समझने के लिए—इन सबको जानना आवश्यक है। इसके लिए कुछ हजार वर्ष पहले के इतिहास में लौटना होगा। यह स्थापित तथ्य है कि करीब 12 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक में फैली सिंधु सभ्यता(3300-1750 ईस्वीपूर्व) अपनी समकालीन सभ्यताओं में सर्वाधिक उन्नत और समृद्ध नागरी सभ्यता थी। जलवायु परिवर्तन के कारण उस फली-फूली सभ्यता का अवसान काल आया तो उसके निवासी सुरक्षित ठिकानों की ओर पलायन करने लगे। 1500 ईस्वी पूर्व आर्य हमलावरों ने भारत में प्रवेश किया तो उसमें और भी तेजी आई। पलायन के दो प्रमुख रास्ते थे। पहला पंजाब के रास्ते मैदानी इलाकों में गंगा-यमुना के तराई क्षेत्र की ओर। इस ओर जो दल गए, उन्होंने तराई क्षेत्र में समृद्ध सभ्यता की नींव रखी जिसे गंगा-यमुनी सभ्यता कहते हैं। दूसरे दल राजस्थान, गुजरात, कोंकण प्रदेश से होते हुए दक्षिण दिशा में गए। और दक्षिण भारत में पहले से रह रहे आदिवासी कबीलों में घुल-मिल गए। कलाभ्र शासकों के सिक्कों पर प्राप्त लिपि संकेतों और सिंधु घाटी से प्राप्त लिपि संकेतों में गहरी समानता, दोनों को आपस में जोड़ती है।

कालांतर में गंगा-यमुना के तराई क्षेत्र की ओर गए सिंधुवासी कबीलों और आर्य कबीलों में समन्वय हुआ। वहां के अनार्य कबीलों ने आर्य संस्कृति के आगे करीब-करीब समर्पण कर दिया। जबकि दक्षिण जाकर बसे कबीलों ने अपनी पारंपरिक संस्कृति और उसके मूल्यों को बनाए रखा। उसके बाद लगभग एक सहस्राब्दी तक दक्षिण भारतीय सभ्यता, जो अपनी प्रकृति में अनार्य सभ्यता थी, और उत्तर-पश्चिमी सभ्यता एक-दूसरे से अनजान बनी रहीं। ईसा से छह-सात सौ वर्ष पहले, आर्यों को उस सभ्यता के बारे में पता तो उनकी पुरानी स्मृतियां ताजा होने लगीं। आर्यों की दृष्टि में वे वही अनार्य कबीले थे, जिन्होंने सिंधु उपत्यका में उनका मार्ग रोकने की कोशिश की थी। जो आर्य संस्कृति की श्रेष्ठता के मिथ को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं थे। इसी कुंठा और ईर्ष्या के चलते उन्होंने अपने गीतों में, अनार्य कबीलों को राक्षस, दैत्य, दानव आदि घोषित करना शुरू कर दिया। बाद में रचे संस्कृत ग्रंथों में भी यही प्रवृत्ति बनी रही।

ईसा-पूर्व चौथी-पांचवी शताब्दी में बौद्ध और जैन श्रमणों ने दक्षिण पहुंचना शुरू किया। व्यावहारिक नैतिकता पर आधारित इन दर्शनों का दक्षिण में खूब स्वागत किया गया। प्राचीन तमिल, बौद्ध एवं जैन दर्शन के समन्वय से वहां संगम साहित्य की नींव रखी गई। करीब दो सौ वर्ष बाद, बौद्ध धर्म-दर्शन के पराभव के दौर में ब्राह्मण भी वहां पहुंचे। अपने साथ वे जातीय भेदभाव से लबरेज अपनी संस्कृति को भी ले गए। वहां उन्होंने राजाओं और प्रभावशाली वर्गों को फुसलाना आरंभ कर दिया। नए-नए मिथकीय आख्यान गढ़कर उनका अवतारीकरण किया जाने लगा। अवतारीकरण की प्रक्रिया उन्हें राजसत्ता का नैसर्गिक उत्तराधिकारी बनाती थी। उसकी आड़ में मनमाने फैसले भी थोपे जा सकते थे। इस कारण लोग धीरे-धीरे उनके प्रभाव में आने लगे। ब्राह्मणों को खुश करने के लिए गांव के गांव दान किए जाने लगे। इससे उन लोगों के आगे आजीविका का संकट पैदा होने लगा, जो उन जमीनों पर खेती करते थे।

ब्राह्मणों का बढ़ता वर्चस्व, कभी मंदिर, यज्ञ तो कभी ब्राह्मणों को बसाने के लिए गांव के गांव दान देने से उपजा आक्रोश, महान कलाभ्र विद्रोह के रूप में सामने आया। कलाभ्र शूद्र-किसान और आदिवासी कबीले थे। तीसरी शताब्दी के आरंभ में उन्होंने पांड्य, चेर, पल्लव आदि ब्राह्मणवाद के रंग में रंग चुके शासकों पर हमला किया और उन्हें परास्त कर, कलाभ्र साम्राज्य की नींव डाली। पूरा तमिल प्रदेश, जिसमें आधुनिक केरल, तमिलनाडु के अलावा कर्नाटक और आंध्र प्रदेश का भी बड़ा हिस्सा शामिल था, कलाभ्र साम्राज्य की परिसीमा में आते थे। मंदिर, धर्मस्थान आदि के बहाने ब्राह्मणों को जो जमीनें दान में दी गई थीं, कलाभ्र शासकों ने उन्हें छीन लिया। राज्य के संरक्षण में होने वाले यज्ञ और बलिप्रथाएं समाप्त हो गईं। बौद्ध धर्म को पुनर्स्थापित किया गया।

कलाभ्र शासकों ने तीसरी शताब्दी से लेकर पांचवी शताब्दी तक दक्षिण पर राज्य किया। उतनी अवधि के बीच ब्राह्मणवाद वहां निस्तेज बना रहा। देखा जाए तो यही वह दौर था जब ब्राह्मण रामायण, महाभारत, गीता तथा पुराणादि ग्रंथों के लेखन-पुनर्लेखन में लगे थे। वेदों सहित सभी संस्कृत ग्रंथों में जमकर प्रक्षेपण किया जा रहा था। उत्तर भारत में राज्य के संरक्षण में ब्राह्मण धर्म खूब फलफूल रहा था। मनुस्मृति के विधान लागू होने के बाद शूद्रों-अतिशूद्रों से पढ़ने-लिखने सहित अन्यान्य का अधिकार छीन लिए गए थे। इससे ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती देने वाला कोई नहीं था। कलाभ्र शासकों के शासनकाल दक्षिण से ब्राह्मण धर्म के उखड़ने की प्रतिक्रिया, रामायण-महाभारत आदि के बहाने दक्षिण पर नकली विजयगीतों के रूप में हुई थी। चूंकि ब्राह्मण धर्म के दक्षिण प्रवेश से बहुत पहले बौद्ध और जैन धर्म वहां अपनी पैठ बना चुके थे, इसलिए रामायण जैसा काव्य जो उत्तर भारतीय संस्कृति की दक्षिण पर विजय दिखाता था, ब्राह्मणवादियों को मानसिक संतुष्टि देता था। रामायण और अन्यान्य पुराणों के माध्यम से, उन परिश्रमी और स्वाभिमानी लोगों को असुर, राक्षस आदि घोषित किया जा रहा था, जो दक्षिण में रहकर खुद को आर्य संस्कृति के प्रभाव से न केवल बचाए हुए थे, अपितु अच्छी-खासी, समृद्ध सभ्यता के निर्माता भी थे।

अनार्यों के प्रति आर्यों की नफरत के रामायण आदि ग्रंथों में कई आयाम हैं। जरा उस प्रसंग को याद कीजिए जब राम लंका जाने के लिए समुद्र से रास्ता मांगते हैं। समुद्र द्वारा अनसुनी करने पर अपना वाण तान लेते हैं। समुद्र हाजिर होकर वाण तूणीर में डालने की प्रार्थना करता है। राम के यह कहने पर कि संधान किया हुआ वाण वापस तूणीर में नहीं जा सकता, समुद्र वाण को उत्तर दिशा में द्रुमकुल्य की ओर छोड़ने का आग्रह करता है—

उत्तरेणावकाशोऽस्ति कश्चित् पुण्यतरो मम।

द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान्।।32।।

उग्रदर्शनं कर्माणो बहवस्तत्र दस्यवः।

आभीर प्रमुखाः पापाः पिवंति सलिलम् मम।।33।।

तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पाप कर्मभिः।

अमोघ क्रियतां रामोऽयं तत्र शरोत्तमः ।।34।।

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मनः।

मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात्।।35।। वाल्मीकि रामायण, युद्धकांड, 22वां सर्ग।

गौर करने की बात यह है कि दक्षिण में रावण का ठिकाना है। हरण के बाद रावण सीता को वहीं लेकर गया है। वहां राक्षसों का वास है, समुद्र उनसे लंका की ओर शर-संधान करने का आग्रह नहीं करता, बल्कि उत्तर दिशा की ओर शर-संधान करने को कहता है, जहां आभीर, किरात, यवन आदि लोग रहते थे। बताता है कि ऐसे ‘पापी’ प्राणियों के स्पर्श से उसका जल अपवित्र हो जाता है। राम जैसे ब्राह्मण के कहने पर शंबूक की गर्दन तराश देते हैं, ठीक ऐसे ही बिना कुछ सोचे-समझे, समुद्र के कहने पर तीर को उसी की बताई दिशा में छोड़ देते हैं। ये अभीर, किरात वही लोग थे, जिन्होंने सिंधु घाटी में आर्यों को जोरदार टक्कर दी थी। ऋग्वेद में इस युद्ध को दासराज्ञ युद्ध; अर्थात दस राजाओं का युद्ध के रूप में दिखाया गया है। रामायण आदि ग्रंथों के माध्यम से, आर्यों-अनार्यों की राजनीतिक राजनीतिक प्रतिद्विंद्वता को, धार्मिक-सांस्कृतिक घृणा में बदल दिया जाता है। उपर्युक्त प्रसंग से यह भी पता चलता है कि छुआछूत की भावना, जिसके शूद्रों और अछूतों को सार्वजनिक तालाबों का जल पीने से रोक दिया जाता था, रामायण काल में ही पनप चुकी थी।

ईसापूर्व पहली-दूसरी शताब्दी में दक्षिण जाने वाले वैदिक संस्कृति के प्रचारक वहां के राजाओं और कुछ शीर्ष वर्गों को तो अपने प्रभाव में लेने में कामयाब रहे थे, लेकिन वहां की आम जनता, विशेष रूप से स्थानीय कबीले ब्राह्मण-संस्कृति के प्रभाव से मुक्त थे। उन्हें अपनी संस्कृति पर गर्व था। दोनों संस्कृतियों के संधि-स्थल, विंध्य के पठारों और जंगलों में, जब वे लोग मिलते तो टकराव की संभावनाएं बन ही जाती थीं। इस कारण दक्षिण को लेकर एक अजाना भय, ईर्ष्या उत्तर भारतीय संस्कृति के संरक्षक ब्राह्मणों के हृदय में समाया हुआ था। उत्तर भारत श्रेष्ठ है, दक्षिण भारत निकृष्ट, यह सोच तथा इससे उपजा डर लोककथाओं में दक्षिण-यात्रा के प्रति निषेधाज्ञा के रूप में सामने आया। चूंकि ब्राह्मणों के लिए असुरों, राक्षसों की तरह शूद्र और पंचम भी बाहरी थे, इसलिए गांव में उनके रहने के लिए दक्षिण दिशा सुनिश्चित की गई।

एक हजार ईस्वी के आसपास उत्तर भारत बाहरी हमलों का शिकार होने लगा। जबकि शंकराचार्य के नेतृत्व में दक्षिण, आठवीं शताब्दी में ही ब्राह्मण धर्म की केंद्र-स्थली बन चुका था। सो उत्तर भारत में भारी राजनीतिक उथल-पुथल के चलते, आने वाली शताब्दियों में दक्षिण, ब्राह्मण धर्म के लिए सुरक्षित ठिकाना बन गया। उस दौर में ब्राह्मणों को विशेषाधिकार दिए गए। वर्णाश्रम धर्म की पुनर्स्थापना की गई। राज्य की मदद से जाति-व्यवस्था को इतना मजबूत किया गया कि शूद्रातिशूद्र जातियां सांस तक न ले सकें। इसकी प्रतिक्रिया संत साहित्य के रूप में हुई। लेकिन कई कारणों से संत ब्राह्मण धर्म को वैसी चुनौती नहीं दे सके, जैसी उनसे अपेक्षित थी। उनके सारे सुधार कार्यक्रम धर्म के दायरे में थे, जो ब्राह्मणवादियों के सबसे सुरक्षित दायरा है।

ब्राह्मण धर्म को चुनौती उनीसवीं शताब्दी में उस समय मिलनी शुरू हुई जब औपनिवेशिक सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों के अंतर्गत शूद्रातिशूद्रों को पढ़ने-लिखने का अवसर मिला। तभी उन्हें अपनी सामाजिक परतंत्रता का अहसास हुआ। पता चला कि वे अंग्रेजों के अलावा ब्राह्मणों के भी गुलाम हैं। धर्म और जाति उन्हें परतंत्र रखने वाले ब्राह्मणी औजार हैं। वे छुआछूत के सुरक्षा-कवच भी हैं। आरंभ में सामाजिक मुक्ति की पहल के रूप में धर्मांतरण का सहारा लिया गया। लेकिन कुछ ही दशकों में यह साफ हो गया कि धर्म अपने आप में एक सत्ता है और किसी भी प्रकार की सत्ता के रहते, न तो मानवीय गरिमा की रक्षा हो सकती है। न मानव-मुक्ति के लक्ष्य को पाया जा सकता है। इस सोच के साथ दक्षिण की राजनीति में उभरे पेरियार ने सीधे ईश्वर की सत्ता को चुनौती दी। कहा कि सामाजिक आजादी प्राप्त करने के लिए द्रविड़ों को सबसे पहले ब्राह्मणों द्वारा गढ़े गए, ईश्वर और धर्म से मुक्त होना होगा। द्रविड़ों की समानता, स्वतंत्रता और आत्मसम्मान के लिए ऐसा करना जरूरी है।

1932 में वे श्रीलंका में बसे तमिलों के आमंत्रण पर वहां गए थे। वहां कोलंबो में दिए गए भाषण में उन्होंने कहा था कि आत्मसम्मान और मनुष्यता की स्थापना के लिए तमिलों को ईश्वर, धर्म और राष्ट्रवाद के मोह से बाहर निकल आना चाहिए(कुदी आरसु, 30 अक्टूबर, 1932)। उनका मानना था कि धर्म और ईश्वर मानव-प्रगति के सबसे बडे़ दुश्मन हैं। गौरतलब है कि ईश्वर और धर्म के औचित्य पर सवाल उठाने वाले, उन्हें मानव-मात्र की गरिमा, आत्मसम्मान, स्वतंत्रता और समानता के लिए हानिकारक मानने वाले पेरियार अकेले नहीं थे। पश्चिम में दो शताब्दी पहले ही ऐसे सवाल उठने लगे थे। धर्म की सत्ता शोषक की सत्ता है। वह शोषण को बढ़ावा देने वाली है, इस तथ्य को वहां बार-बार रेखांकित किया जा रहा था। मिखाइल बकुनिन का कहना था कि बाईबिल का ईश्वर—‘पक्के तौर पर सर्वाधिक ईर्ष्यालु, सबसे बकवास, सबसे ज्यादा क्रूर, सबसे अन्यायी, सबसे निरंकुश, सर्वाधिक खून का प्यासा, सबसे ईर्ष्यालु तथा मानवीय गरिमा एवं स्वतंत्रता के लिए सबसे डरावना और वैरभाव रखने वाला है। जबकि शैतान शाश्वत विद्रोही और पहला स्वतंत्र विचारक था।’(ईश्वर और राज्य, मिखाइल बकुनिन) 

हिंदू धर्म की आलोचना करते समय पेरियार रामायण, गीता और मनुस्मृति को निशाना बनाते हैं। राम, लक्ष्मण, सीता, दशरथ जैसे चरित्र जिन्हें हिंदू धर्म में ‘आदर्श’ के तौर पर पेश किया जाता रहा है, की चारित्रिक दुर्बलताओं को गिनाते हुए वे रावण को आदर्श चरित्र वाला और द्रविड़ों के महानायक के रूप में पेश करते हैं। वे एक-एक कर उन सभी हिंदू मिथों को निशाना बनाते हैं, जिनके माध्यम से ब्राह्मण हिंदू धर्म और उनकी आड़ में अपनी शताब्दियों से अपनी अधिसत्ता को बनाए हुए हैं। पेरियार की धर्म और जाति-संबंधी स्थापनाओं को पढ़ना, हिंदू धर्मशास्त्रों की विखंडनात्मक व्याख्या करने जैसा है। इसलिए वे धर्म की आड़ में राजनीति करने वालों को सबसे ज्यादा अखरते हैं।

2002 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री सुश्री मायावती आंबेडकर पार्क में पेरियार की मूर्ति की स्थापना कराना चाहती थीं। लेकिन भारतीय जनता पार्टी को यह कतई स्वीकार नहीं था। भाजपा के भारी विरोध के कारण उन्हें अपना इरादा बदलना पड़ा था। यही क्यों, 1980 में पेरियार के अपने राज्य तमिलनाडु के कांचीपुरम में पेरियार की मूर्ति की स्थापना की अनुमति देने से तत्कालीन मुख्यमंत्री एमजी रामाचंद्रन ने मना कर दिया था। उन्हें लगता था कि इससे कांची के शंकराचार्य नाराज हो सकते हैं। यह बात अलग है कि सरकार के फैसले के बाद विपक्षी दल द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ने मद्रास उच्च न्यायालय में अपील की और अदालत की अनुमति के बाद, मूर्ति को स्थापित कर दिया गया। 

अच्छी बात यह है कि इन दिनों पेरियार के प्रति उत्तर भारतीयों का दृष्टिकोण बदल रहा है। उनकी स्वीकार्यता लगातार बढ़ती जा रही है। जो आने वाले वर्षों में बढ़ती ही जाएगी. विचारों को पकने, फैलने और और उन्हें क्रांति में ढलने में इतना समय तो लगता ही है.

ओमप्रकाश कश्यप

इंटरनेट लर्निंग : भारतीय परिदृश्य और नई शिक्षा नीति

विशेष रुप से प्रदर्शित

ओमप्रकाश कश्यप

‘दूर-शिक्षण’ यानी ‘ऑनलाइन शिक्षा’ अथवा ‘ई’लर्निंग’ प्रौद्योगिकीय विकास की देन है। एक लोकोपयोगी प्रौद्योगिकी में जितने गुण होने चाहिए, वे लगभग सभी इसमें मौजूद हैं। यह स्कूली शिक्षा से सस्ती हो सकती है। प्रयोगात्मक अवस्था में है, इसलिए हम इसके निरंतर बेहतर होने की उम्मीद कर सकते हैं। तकनीकी सुधार द्वारा इसे अधिकाधिक रचनात्मक, आकर्षक, संप्रेषणीय एवं प्रभावशाली बनाया जा सकता है। आज देश के विभिन्न हिस्सों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम में भारी अंतर है। यहां तक कि एक ही शहर में प्राइवेट तथा सरकारी स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम का स्तर एक जैसा नहीं होता। शिक्षा  स्तर में यह अंतर प्रकारांतर में सामाजिक असमानता को बढ़ावा देता है। इसलिए शिक्षा-नीति-2020 में इस अंतर को पाटने का संकल्प लिया गया है. दूर-शिक्षण पद्धति पाठ्यक्रम के मानकीकरण में सरकार की मददगार सिद्ध हो सकती है। सरकार चाहे तो एनसीईआरटी तथा उसकी अनुषंगी संस्थाओं की मदद से दूर-शिक्षण सामग्री के वाक्-चित्रण(आडियो विजुलाइजेशन) का मानकीकरण भी कर सकती है। ऑनलाइन शिक्षा के सामुदायिकरण द्वारा हम वहां भी आसानी से पहुंच सकते हैं, जहां अभी तक स्कूली शिक्षा नहीं पहुंच पाई है। कुल मिलाकर, तात्कालिक मजबूरी में ही सही, ऑनलाइन शिक्षा को अपनाना घाटे का सौदा नहीं है। देखना यह है कि समाजार्थिक विषमता से भरपूर भारतीय परिदृश्य में वह कितनी और किस प्रकार उपयोगी हो सकती है!

भारत में ‘ऑनलाइन क्लासिस’ की दशा-दिशा पर बातचीत करने से पहले इसके इतिहास पर सरसरी नजर डाल लेना उचित होगा।

ऐतिहासिक विहंगावलोकन

‘ऑनलाइन क्लासिस’, दूर-शिक्षण(डिस्टेंस एजुकेशन) का आधुनिक संस्करण है। दूर-शिक्षण की संकल्पना उनीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जन्मी थी। उद्देश्य था, जो लोग किसी कारणवश स्कूली शिक्षा से वंचित हैं—उनके लिए शिक्षा के वैकल्पिक माध्यम विकसित किए जाएं। 1833 में एक स्वीडिश अखबार में प्रकाशित एक विज्ञापन ने लोगों को चौंकाने का काम किया था। विज्ञापन में डाक के माध्यम से शिक्षा देने की सूचना थी। उस समय तक पत्राचार द्वारा शिक्षा की एकदम अवधारणा नई थी। इसलिए लोगों का ध्यान उसकी ओर कम ही गया। फिर भी विचार की नींव तो पड़ ही चुकी थी। सो उत्साही लोग ‘दूर-शिक्षण’ को कामयाब बनाने में जुट गए। इस बीच इंग्लेंड सरकार की ओर से पूरे देश के लिए एक समान डाक-नीति लागू करने की घोषणा की गई। उसका लाभ उठाते हुए 1840 में सर ईसाक पिटमेन(1813-1897) ने पोस्टकार्ड को पत्राचार की शिक्षा का माध्यम बनाया। प्रति पत्राचार एक पेनी की शुल्क पर वे दूरदराज के क्षेत्रों में रह रहे विद्यार्थियों को आशुलिपि सिखाने लगे। ये वही पिटमेन थे, जिन्हें ‘शार्टहेंड’ का जनक माना जाता है। उनके सम्मान में शार्टहेंड को ‘पिटमेन शार्टहेंड’ का नाम भी दिया गया है। पिटमेन साहब पोस्टकार्ड के माध्यम से अपने विद्यार्थियों को शार्टहेंड के बारे समझाते। लगे हाथ उन्हें ‘एक्सरसाइज’ के बारे में बता देते थे। विद्यार्थी भी पोस्टकार्ड के जरिए उनका हल भेजते और अपनी समस्याएं सामने रखते थे। प्रयोग इतना ज्यादा कामयाब हुआ कि मात्र 3 वर्ष के भीतर पिटमेन के नेतृत्व में ‘फोनोग्राफिक कोरसपोंडेंस सोसाइटी’ का गठन हुआ। उसके तत्वावधान में पत्राचार  कॉलेज की स्थापना हुई, जिसे दुनिया का पहला पत्राचार कॉलेज कह सकते हैं। 

एक कामयाब प्रयोग की देर थी। उसके बाद तो ‘दूर-शिक्षा’ का सिलसिला जोर पकड़ने लगा। 1891 तक अमेरिका में पत्राचार द्वारा डिग्री कोर्स कराने की सुविधा आरंभ हो चुकी थी। ग्रेट ब्रिटेन के बाद अमेरिका, जर्मनी आदि देशों में पत्राचार द्वारा शिक्षा के स्कूल खोले जाने लगे। सबसे बड़ी सफलता मिली, शिकागो विश्वविद्यालय को। वहां प्रतिवर्ष 125 अनुदेशक, 3000 विद्यार्थियों को पत्राचार द्वारा शिक्षा प्रदान करते थे। विश्वविद्यालय में पत्राचार शिक्षा के लिए 350 पाठ्यक्रम निर्धारित थे। कह सकते हैं कि वह शिक्षा-जगत की पहली क्रांति थी। रेडियो का प्रचलन हुआ तो विश्वविद्यालयों ने उसे भी दूर-शिक्षा का माध्यम बना लिया। 1920 के दशक में, अकेले अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने दूर-शिक्षण के लिए 176 रेडियो स्टेशन स्थापित किए थे। फिर आया दूरदर्शन। आने के साथ ही उसने मनोरंजन उद्योग के साथ-साथ शिक्षा क्षेत्र को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया। गौरतलब है कि 1891 में ‘चलचित्र कैमरा’ का आविष्कार करते समय थॉमस अल्वा एडीसन ने कहा था कि चलती-फिरती तस्वीरें शिक्षाजगत में क्रांति का आगाज करेंगी। वे शिक्षा को और अधिक मनोरंजक, आकर्षक एवं रचनात्मक बनाएंगी। एड़ीसन के बाद जन्मे मार्शल मेक्लुहान ने ‘मीडिया ही संदेशवाहक’ कहते हुए उसे ‘मनुष्य के विस्तार’ के रूप देखा। आगे सबकुछ  एडिसन की भविष्यवाणी के अनुरूप हुआ। 1950 के दशक तक दुनिया के कई देश, दूरदर्शन को दूर-शिक्षा के उपयोगी माध्यम के रूप में अपना चुके थे। खासतौर पर दूरस्थ गांवों में शिक्षा देने के लिए दूरदर्शन विशेष मददगार सिद्ध हुआ। अमेरिका के अलास्का में, दूर-शिक्षण प्रविधि द्वारा गांव-गांव शिक्षा पहुंचाने के लिए 1980 में ‘लर्न अलास्का’ परियोजना आरंभ की गई। उसकी ओर से प्रतिदिन छह घंटे का शैक्षिक कार्यक्रम प्रसारित किया जाता था, जिसकी पहुंच कई सौ गांवों तक थी।

भारत में दूर शिक्षा की नींव 1962 में रखी गई। उसी वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा ‘स्कूल ऑफ़ कॉरसपोडेंस कोर्सिस एंड कंटीन्युइंग एजुकेशन’ की शुरुआत की गई। उसका भरपूर स्वागत किया गया। मात्र एक दशक में कई और भी संस्थान दूर-शिक्षण प्रणाली को अपना चुके थे। 1982 में हैदराबाद में डॉ. भीमराव आंबेडकर मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना दूर शिक्षण की दिशा में क्रांतिकारी कदम थी। आज देश में 242 विश्वविद्यालय/संस्थान ऐसे हैं जो सामान्य कक्षाओं के साथ-साथ दूर शिक्षण के माध्यम से भी शिक्षा प्रदान करते हैं। 2009-10 में देश में उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में दूर शिक्षा संस्थानों का योगदान 23.38 प्रतिशत था। उसी वर्ष दूर-शिक्षा संस्थानों में पंजीकरण कराने वाले विद्यार्थियों की संख्या लगभग 40,00,000 थी।

जिसे आज हम ई’लर्निंग(इलेक्ट्रानिक्स लर्निंग) कहते हैं, उसकी शुरुआत 1980 के दशक से ही हो चुकी थी। आज लाखों की संख्या में बेवसाइटें किसी न किसी रूप में शिक्षा प्रदान करने या उसके प्रचार-प्रसार में जुटी हैं। इंटरनेट द्वारा शिक्षण के क्षेत्र में नई क्रांति का आगाज हुआ, ‘वेब-2’(वर्ल्ड वाईड वेब-2) के आविष्कार के बाद। वेब-1 का दौर 1980 से 2004 तक चला था। उसमें प्रयोक्ता की हैसियत महज उपभोक्ता जैसी थी। उस एकल-मार्गी माध्यम का उद्देश्य उपभोक्ता तक सूचनाएं पहुंचाना मात्र था। उपभोक्ता वेबसाइट पर मौजूद सामग्री को केवल देख सकता था। इंटरनेट की पहुंच सीमित थी। गति कम। इंटरनेट सामग्री निर्माता भी कम थे। उपभोक्ता की प्रतिक्रिया जानने के लिए ‘गेस्टबुक’ हुआ करती थी। जिसपर दी गई प्रतिक्रियाएं मुख्य सामग्री से अन्यत्र जमा होती थी। वेब-2 के आविष्कार इस क्षेत्र में क्रांति ने उपभोक्ता को भी ‘सामग्री उत्पादक’ की श्रेणी में ला दिया। उपभोक्ता को यह छूट दी जाने लगी कि वह उपलब्ध सामग्री में विषयगत संशोधन कर सके। फिर ऐसी बेवसाइटें भी बनने लगीं जिनमें सामग्री उत्पादक और उपभोक्ता के बीच कोई अंतर न था। प्रयोक्ता अपनी ओर से नई सामग्री जोड़ने तथा उसके मनचाहे प्रस्तुतीकरण के लिए स्वतंत्र था। आज लाखों बेवसाइट केवल उपभोक्ताओं द्वारा सृजित सामग्री के भरोसे चलती हैं। सामग्री उसकी अपनी या किसी और व्यक्ति/संस्था की हो सकती है। वेबसाइट निर्माताओं का काम केवल ‘सामग्री सर्जकों’ और ‘सामग्री प्रयोक्ताओं’ के बीच पुल बनाना है। उन्हें ‘सूचनाप्रदेश के वासी’ अथवा ‘डिजिटल नेटिव्स’ का नाम दिया। आज जिसे सोशल मीडिया कहते हैं, वह असल में इंटरनेट पर फैला ‘वैश्विक सूचनाप्रदेश’ है, जिसमें आमोखास सभी को दखलंदाजी करने का अधिकार प्राप्त है। ई’लर्निंग सूचना-प्रदेश की विस्मयकारी सफलताओं तथा उसके महाविस्तार का ही हिस्सा है।   

सवाल है कि इन सब खूबियों के बावजूद क्या ऑनलाइन शिक्षा, स्कूली शिक्षा का समानोपयोगी अथवा बेहतर विकल्प बन सकती है? प्रश्न यह भी हो सकता है कि क्या शिक्षा का माध्यम, उसकी गुणवत्ता को प्रभावित करता है। इस संबंध में दो अमेरिकी प्रोफेसरों, रिचर्ड एडवर्ड क्लार्क तथा राबर्ट बी। कोझमा के बीच लंबी बहस चली थी। 1983 में बहस की शुरुआत करते हुए क्लार्क ने कहा था—‘संज्ञानात्मक प्रक्रियाएं एवं रणनीतियां जो सीखने के लिए आवश्यक हैं, उनका उपयोग विद्यार्थी अपने लिए नहीं कर सकते। वे करेंगे भी नहीं।’1 क्लार्क के अनुसार मीडिया सूचनाओं एवं अनुदेशों को विद्यार्थी तक पहुंचाने का महज एक माध्यम है। इससे इतर उसकी और कोई भूमिका नहीं है। जैसे खाने-पीने की चीजों की पौष्टिकता, उन्हें ढोने वाले ट्रक के प्रभाव से बेअसर रहती है, इसी तरह शिक्षा भी मीडिया के प्रभाव से अछूती रहती है। एक तरह से क्लार्क ने मीडिया को महज सूचना-प्रदाता तथा विद्यार्थियों को सूचना-संग्राहक मात्र मान लिया था।

करीब एक दशक बाद, 1994 में कोझ़मा ने क्लार्क की आलोचना करते हुए कहा कि शिक्षा पर मीडिया के असर को समझने के लिए उन दोनों के संबंधों को समझना जरूरी है। कोझ़मा के अनुसार, क्लार्क की धारणा इन दोनों के अंतःसंबंध को सही-सही न समझ पाने के कारण बनी थी। उसका कहना था कि यदि माध्यम को तकनीक; तथा शिक्षा-अनुदेशों को अध्यापन प्रविधि मान लिया जाए तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए बाध्य हूं कि शिक्षण माध्यम से अधिक प्रविधि से प्रभावित होता है।2 कोझ़मा का तर्क एक तरह से क्लार्क के निष्कर्ष की ही पुष्टि करता था। बावजूद इसके कोझ़मा को नकार पाना संभव नहीं है। निरंतर शक्तिशाली होते इंटरनेट-मीडिया, खासकर तब जब उपभोक्ता को वेबसाइटों पर उपलब्ध सामग्री को संपादित करने की छूट प्राप्त हो, उससे निरपेक्ष सूचना-प्रदाता बने रहने की उम्मीद करना ही व्यर्थ है।

तकनीकी का मूल स्वभाव गतिशीलता है। प्रत्येक प्रौद्योगिकी अपने से बेहतर प्रौद्योगिकी की संभावनाएं लिए रहती है। वह न केवल स्वयं गतिशील रहती है, अपितु अपने प्रयोक्ता को भी गतिमान बनने के लिए उकसाती है। इसलिए वह शिक्षण की समग्र प्रक्रिया के साथ-साथ विद्यार्थी क्या सीखता है, कब सीखता है, कैसे सीखता है—को प्रभावित करती है। ई’लर्निंग की प्रक्रिया में विद्यार्थी केवल अपने अनुदेशक या शिक्षण संस्थान से जुड़ा नहीं होता। बल्कि इंटरनेट के जरिए लाखों जालपट्टों, इलेक्ट्रॉनिक सामग्री के प्रयोक्ताओं, सर्जकों, उत्पादकों तथा उनका व्यापार करने वालों से भी जुड़ा होता है। यदि यह मान लिया जाए कि प्रयोक्ता(विद्यार्थी) इंटरनेट पर उपलब्ध पाठेत्तर सामग्री के आकर्षण से खुद को बचाए रखता है, तब भी वहां मौजूद दर्जनों शब्दकोश, अनुवाद सुविधाएं, तरह-तरह के संदर्भ ग्रंथ, विश्वकोश, पूरक पाठ्य-सामग्री, अखबार, शोध पत्रिकाएं आदि से उसका निरपेक्ष रह पाना संभव नहीं है। इसलिए क्लार्क का कथन कि माध्यम का संबंध केवल सूचना के आवागमन तक सीमित रहता है, उचित नहीं है। गौरतलब है कि क्लार्क और कोझ़मा के बीच बहस उन दिनों हुई थी, जब तक वेब-2 का आविष्कार नहीं हो पाया था। अधिकतर वेब-सामग्री एकतरफा सूचना-प्रदाता माध्यमों पर सुरक्षित थी। यदि क्लार्क आधुनिक वेबसाइटों को देखते, ऐसी वेबसाइटों को देख पाते जिनपर वेबसाइट मालिकों की हैसियत महज सूचना प्रबंधक जैसी है—तब उनका निष्कर्ष अवश्य ही कुछ और होता।

     

इंटरनेट लर्निंग : भारतीय परिदृश्य और नई शिक्षा नीति

भारतीय संविधान में 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार माना गया है। भारत में इस आयु-वर्ग में करीब 30 करोड़ विद्यार्थी हैं। 300 विश्वविद्यालय स्तरीय शिक्षण संस्थान हैं, जिनसे जुड़े कॉलेजों की संख्या 12,600 से अधिक है। उनमें 80 लाख विद्यार्थी हैं। देश में स्कूल अध्यापकों की संख्या लगभग 95 लाख है। इनमें से 4,00,000 कॉलेज स्तर की संस्थाओं में अध्यापन करते हैं। बावजूद इसके देश में साक्षरता अनुपात मात्र 56 प्रतिशत है। अनेक ऐसे ठिकाने हैं जहां औपचारिक शिक्षण संस्थाओं का बेहद अभाव है। कुछ, खासकर उच्चशिक्षण संस्थान, अत्यंत महंगे होने के कारण गरीब आदमी की पहुंच से बाहर हैं। इसे देखते हुए ऑनलाइन शिक्षा देश के लिए वरदान सिद्ध हो सकती है।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में शिक्षा को प्रतिस्पर्धी एवं सर्वसुलभ बनाने पर जोर दिया गया है। इसके लिए उसमें ‘ऑनलाइन शिक्षा’ को बढ़ावा देने तथा उसके लिए नवीनतम प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल का भी संकल्प है। कहा गया है कि ऐसे क्षेत्रों में जहां बालक को सीधे शिक्षा देना संभव नहीं है—वहां ऑनलाइन शिक्षा बेहतर विकल्प बन सकती है। इसके लिए मानव संसाधन मंत्रालय के तहत, एक सशक्त ढांचा खड़ा करने की योजना बनाई गई है। ऐसा ढांचा जो स्कूली स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक, ऑनलाइन अध्ययन-अध्यापन हेतु प्रभावशाली डिजीटल सामग्री और कारगर सिस्टम का निर्माण करेगा; तथा सरकार और शिक्षण संस्थानों के लिए मार्गदर्शक का काम करेगा।

नई शिक्षा नीति में शिक्षा-क्षेत्र में सुधार तथा उसके बहुआयामी विस्तार हेतु, नवीनतम प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल पर जोर दिया गया है। एक ‘राष्ट्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी फोरम’ बनाने का संकल्प लिया है। यह फोरम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के विस्तार हेतु डिजीटल सामग्री के निर्माण, मूल्यांकन, योजना, प्रशासन, प्रबंधन आदि क्षेत्रों में नवीनतम प्रौद्योगिकी के प्रयोग के बारे में सलाह देगा। फोरम की सभी सेवाएं, स्कूल स्तर से लेकर उच्च शिक्षण संस्थानों तक, निःशुल्क उपलब्ध होंगी। फोरम क्लासरूम शिक्षा के क्षेत्र में नई तकनीकी के उपयोग के साथ-साथ, ऑनलाइन शिक्षा हेतु ई-सामग्री के निर्माण तथा अध्यापकों के प्रशिक्षण के क्षेत्र में नवीनतम तकनीक के उपयोग की संभावनाओं पर विचार कर, उनके कार्यान्वन हेतु भरोसेमंद मार्गदर्शक तंत्र का काम करेगा।

ऑनलाइन शिक्षा की समस्याएं

एक ओर जहां ऑनलाइन शिक्षा की उपयोगिता स्वयं-सिद्ध है, वहीं दूसरी ओर यह भी सच है कि भारत जैसे बड़े देश के भारी-भरकम और विविधतापूर्ण शिक्षातंत्र का संपूर्ण डिजिटलाइजेशन एकाएक संभव नहीं है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में प्राइमरी तथा प्री-प्राइमरी स्तर पर कुछ ऐसे स्कूल, शृंखलाबद्ध तरीके से खोले गए हैं, जिनमें अध्यापक की भूमिका कक्षा में अनुशासन बनाए रखने; अथवा विद्यार्थी की तात्कालिक जिज्ञासाओं के समाधान तक सीमित होती है। ऐसे स्कूलों में जोर केवल शिक्षण-सामग्री का डिजिटलाइजेशन पर होता है। बच्चे सामान्य तौर पर स्कूल आते हैं। कक्षा लगती हैं, किंतु दीवार पर ब्लैक बोर्ड के स्थान पर सिल्वर स्क्रीन या टेलीविजन सेट होता है। उसके द्वारा पूर्वनिर्धारित पाठ-सामग्री, स्रोत केंद्र से सीधे विद्यार्थियों तक पहुंचाई जाती है। अभी तक ऐसे स्कूल, नर्सरी और प्राईमरी स्तर तक हैं। अलग-अलग स्थान पर कक्षाएं चलाने के लिए बड़े कोचिंग संस्थान भी इस प्रौद्योगिकी का सहारा लेने लगे हैं।

कुछ महीनों से कोविड-19 की महामारी के दौरान शिक्षण को लेकर आ रही मुश्किलों के लिए परंपरागत स्कूलों ने भी ऑनलाइन कक्षाएं चलाना आरंभ किया है। यह मजबूरी में अपनाया गया रास्ता है। क्योंकि ऐसे स्कूलों द्वारा चलाई जा रही ऑनलाइन कक्षाओं में उपलब्ध प्रौद्योगिकी के दसवें हिस्से का भी उपयोग नहीं हो पा रहा है। लगभग सभी अध्यापक परंपरागत शिक्षा के माहौल से आए हैं। उनका समूचा अनुभव और ज्ञान, क्लासरूम शिक्षा तक सीमित है। सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी उनकी जानकारी बहुत सामान्य स्तर की है। ऑनलाइन शिक्षा के लिए जो आवश्यक उपकरण, लैब, डिजिटलीकृत पाठ-सामग्री आदि चाहिए, स्कूलों में उसका भी अभाव है। ऑनलाइन शिक्षा के नाम पर वे केवल भरपाई कर रहे हैं, ताकि स्कूलों के नाम पर चल रही उनकी दुकानें बंद न हों। विद्यार्थियों, खासकर प्राथमिक स्तर के बच्चों की हालत और भी बुरी है। उनमें से अधिकांश बच्चों की जानकारी कंप्यूटर खोलने और बंद करने तक सीमित है। इस हकीकत को उनके अभिभावक भी जानते हैं। लेकिन फिलहाल इसके अलावा उनके सामने कोई विकल्प भी नहीं है। विडंबना यह है कि यह आधी-अधूरी ऑनलाइन शिक्षा भी केवल एक-चौथाई बच्चों के लिए उपलब्ध है। देश में करीब 76 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो अन्यान्य कारणों से ऑनलाइन शिक्षा का लाभ उठाने से वंचित हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत के लगभग 22 फीसदी ग्रामीण घरों में आज भी बिजली की सप्लाई नहीं है। कुछ राज्यों में तो हालत और भी खराब है। ऑनलाइन शिक्षा का सारा दारोमदार इंटरनेट पर टिका है। देश में अभी कुल 31 प्रतिशत, लगभग 40 लोगों के पास इंटरनेट की आधी-अधूरी सुविधा उपलब्ध है। आंकड़े बताते हैं कि अगले कुछ वर्षों में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या दो गुनी हो जाएगी। इसी आधार पर सरकार का इरादा 2025 तक, शिक्षा को ऑनलाइन मोड में लाने का है। संकल्प बुरा नहीं है, मगर चुनौतियां भी कम नहीं हैं।

डिजिटल माध्यम द्वारा पाठ को विद्यार्थी तक पहुंचाने के लिए चाहिए एक कंप्यूटिंग मशीन, निर्बाध इंटरनेट कनेक्शन, जरूरी साफ्टवेयर। इसके अलावा उसे चाहिए एकांत। ऐसी जगह जहां विद्यार्थी बगैर किसी व्यवधान के दूर-शिक्षण का लाभ उठा सके। मुश्किल यह है कि भारत जैसे विविधताओं वाले देश में जहां आमदनी के हिसाब से लोगों के बीच जमीन-आसमान का अंतर है। गांवों और शहरों में बड़ी संख्या उन लोगों की है जिनके पास एक कमरे के घर हैं। जहां एक ही छत के नीचे छह-सात लोग रहते हैं। उनमें से काफी लोगों के लिए ये संसाधन जुटाना मुश्किल काम है। करीब चार महीने के घोषित-अघोषित लॉकडाउन और उस दौरान कीर्तिमान रच चुकी बेरोजगारी के कारण, विद्यार्थियों के माता-पिता की हालत ऐसी नहीं है कि वे बच्चों के लिए कंप्यूटिंग मशीन, इंटरनेट आदि का इंतजाम कर सकें। एक समाचार के अनुसार बच्चे की ऑनलाइन शिक्षा के लिए असम के एक परिवार को गाय बेचना पड़ी.  इस तरह के समाचार पूरे देश से प्राप्त हो रहे हैं।

‘इंडियन एक्सप्रेस’ में 27 जुलाई 2020 को प्रकाशित, हरियाणा की बडेशर तहसील के मोरनी गांव से जुड़े समाचार से ऑनलाइन शिक्षा की जमीनी हकीकत को समझा जा सकता है।3 उसके अनुसार गांव में गिने-चुने लोगों के पास स्मार्ट फोन हैं। जिनके पास हैं, वे ठीक-ठाक इंटरनेट सिग्नल न मिलने से परेशान रहते हैं। ऐसे में जिन विद्यार्थियों के पास स्मार्ट फोन नहीं है, उन्हें उन बच्चों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिनके पास फोन की सुविधा है। यह सुविधा उन्हें स्कूल समय में उपलब्ध नहीं हो पाती। उस समय जिसका फोन है, वह खुद ऑनलाइन क्लास से जुड़ा होता है। इसलिए बच्चे स्कूल समय के बाद उनके पास जाते हैं। ऐसे परिवार भी हैं, जिनके माता-पिता बच्चों को तत्काल मोबाइल फोन खरीदकर देने में असमर्थ हैं। गांव के एक किसान के ये शब्द पूरे भारत के मजदूर-किसानों की त्रासदी बयान करते हैं—‘मैंने कुछ रुपये बचाए थे। मगर लॉकडाउन के कारण सब घर-गृहस्थी की जरूरतों पर खर्च हो गए। अब सोच रहा हूं कि एक महीने में टमाटरों की फसल बिक जाएगी। उसके बाद मैं अपने बच्चों के लिए स्मार्ट फोन खरीद दूंगा।’ उस किसान की दो बेटियां हैं। छोटी पांचवी कक्षा में पढ़ती है, बड़ी सातवीं में। स्मार्टफोन न होने के कारण वे गांव के एक लड़के के घर जाती हैं। किसान के अनुसार—

‘मेरे पास साधारण फोन है, लेकिन यह बच्चों के किसी काम नहीं आ सकता। इसलिए जब तक टमाटरों की फसल उठ नहीं जाती, मैं अपनी बेटियों को उस लड़के के पास भेजने को विवश हूं, जिसके पास स्मार्ट फोन है। हमने कभी नहीं सोचा था कि पढ़ाई केवल टच फोन के सहारे ही संभव हो पाएगी।’

अखबार में स्थानीय पॉलिटेक्निक की छात्रा, देवी नामक लड़की का बयान भी छपा है। देवी के अनुसार, मोबाइल पर अपना काम निपटाने के बाद वह बच्चों को कापी-कलम के साथ अपने घर बुला लेती है—

‘शाम के समय उन सभी को अपने खेतों में काम करना पड़ता है। इसलिए वे दोपहर के बाद आते हैं और अध्यापक द्वारा भेजे गए नोट्स और वीडियो के पाठ को अपनी कापी में उतार लेते हैं।’

गौरतलब है कि पंचकुला जिले में शिवालिक की पहाड़ियों पर बसा मोरनी एक ऐतिहासिक गांव है। वह हरियाणा का टूरिस्ट स्थल भी है। यदि वहां के बच्चों की यह हालत है तो आप पूर्वी उत्तरप्रदेश, बिहार और उड़ीसा के गांवों के बच्चों के हालात का सहज अनुमान लगा सकते हैं।

ऑनलाइन शिक्षा की सफलता में भाषा की समस्या भी है। अभी तक जितने सॉफ्टवेयर बने हैं, वे सभी अंग्रेजी में है। यह ठीक है कि यूनीकोड ने कंप्यूटर पर भाषायी लेखन को आसान बनाया है। मगर उन बच्चों से जिन्होंने आपात-सुविधा के रूप में दूर-शिक्षण को अपनाया है, जो अंग्रेजी के की’बोर्ड को देखकर भी टाइप करना नहीं जानते, यह उम्मीद करना कि वे हिंदी अथवा अपनी मातृभाषा को यूनीकोड में टाइप करना सीखकर, कक्षा में सक्रिय भागीदार बन पाएंगे—एक दुष्कर कल्पना है। न केवल विद्यार्थी, अपितु अधिकांश अध्यापकों के आगे भी यह समस्या है। इस कमी को पेशेवर प्रोग्रामरों द्वारा तैयार ‘पाठ’ के माध्यम से काफी हद तक दूर किया जा सकता है। लेकिन वह खर्चीला उद्यम है, जिसे खानापूर्ति के नाम पर ऑनलाइन कक्षाएं चला रहे स्कूल शायद ही स्वीकार करें।

ऑनलाइन कक्षाओं के लिए जो साफ्टवेयर और पोर्टल, खासतौर पर भारत में इस्तेमाल किए जा रहे हैं, वे स्वयं विकास की प्रारंभिक अवस्था में हैं। ऐसे में लिखित उत्तर की अपेक्षा वाले प्रश्नों का उत्तर दे पाना विद्यार्थी के लिए, खासतौर पर छठी-सातवीं तक के बच्चों के लिए असंभव होगा। इस कमी को नजरंदाज करने के लिए स्कूल वस्तुनिष्ठ प्रश्नमालाओं के विकल्प को आजमा रहे हैं। उनके उत्तर कंप्यूटर या मोबाइल पर महज क्लिक के जरिए दिए जाते हैं। इससे विद्यार्थी की तात्कालिक समस्या का समाधान हो सकता है, परंतु लिखने का अभ्यास, खुद को अभिव्यक्त करने की कला, जो शिक्षा का अनिवार्यता है, वह ढंग से विकसित नहीं हो पाएगी।    

क्या ऑनलाइन शिक्षा स्कूली शिक्षा का विकल्प बन सकती है

क्या ऑनलाइन शिक्षा स्कूली शिक्षा का विकल्प बन सकती है? ऑनलाइन शिक्षा से समय अपना समय घर पर, अपने परिजनों के बीच अपेक्षाकृत आत्मीय माहौल में बिताने का अवसर मिलेगा। आने-जाने की थकान, रास्ते के प्रदूषण से उसका बचाव होगा। बावजूद इसके घर-बैठे ऑनलाइन शिक्षा, विशेषकर वर्तमान परिस्थितियों में, स्कूली शिक्षा का सार्थक विकल्प बन सकेगी—इसमें संदेह है। बालक जब स्कूल जाता था तो घर से निकलने के बाद उसका वास्ता तरह-तरह के लोगों से पड़ता था। अपने साथियों से मिलता-मिलाता था। अध्यापकों और स्कूल के बाकी स्टाफ से संपर्क में आता था। इससे स्कूली शिक्षा के साथ-साथ बालक के समाजीकरण का सिलसिला, जो पुस्तकीय शिक्षा से भी अधिक महत्वपूर्ण है—चलता रहता था। बालक को प्रबुद्ध नागरिक में ढालने के लिए उन अनुभवों की महत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। ऑनलाइन क्लासिस के दौरान बालक का जीवन केवल परिवार के दायरे में सिमटकर रह गया है। एक बात और….सहपाठियों के साथ पढ़ते हुए बालक के मन में अनायास एक स्पर्धा जन्म ले लेती थी। उसमें थोड़ी-बहुत नकारात्मकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। मगर उसका बड़ा हिस्सा सकारात्मक ही होता था। वह बालक को और अधिक परिश्रम करने, आगे बढ़ने की प्रेरणा देती थी। सहपाठियों के बीच रहकर बालक के बीच स्वतः मूल्यांकन की प्रक्रिया सतत चलती रहती थी। दूर-शिक्षण ने इन अवसरों को उनसे छीन लिया है।

बंद कमरे में दूर-शिक्षण के लिए कंप्यूटर स्क्रीन पर नजर गढ़ाए बैठा बालक पाठ सामग्री के रूप में केवल सूचनाएं समेट सकता है। सूचनाओं को ज्ञान में बदलने के लिए जो आपसी संवाद, परिचर्चाएं और अनुभव चाहिए, वे ऑनलाइन शिक्षा द्वारा संभव नहीं हैं। दूसरे शब्दों में ऑनलाइन शिक्षा ने सूचनाओं को ज्ञान में परिवर्तित करने, उसे अनुभवों के रूप में दोहराने का अवसर बच्चों से छीन लिया गया है। यदि महामारी के कारण, आधे-अधूरे संसाधनों पर टिकी वर्तमान दूर-शिक्षण प्रणाली लंबे समय तक अपनायी जाती है तो उससे बालक को शिक्षा के क्षेत्र में जो हानि होगी, उसकी अभी हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं।

इन कमियों के बावजूद मानना पड़ेगा कि भविष्य आनलाइन शिक्षा के साथ है। जैसे-जैसे इंटरनेट और संचार प्रौद्योगिकी का विस्तार होगा, ऑनलाइन शिक्षा के क्षेत्र में आ रही मुश्किलें भी कम होती जाएंगीं। पहले चरण में कक्षाओं का डिजिटलीकरण होगा। वह दिन दूर नहीं जब आने वाले दशकों में ब्लैक बोर्ड बिलकुल गायब हो जाएंगे। उनकी जगह टेलीविजन स्क्रीन सेट ले लेंगे। अध्यापकों का काम स्कूलों में पढ़ाने के बजाए, पाठ्यसामग्री तैयार करने तथा उसे प्रयोगशाला से, इंटरनेट के माध्यम से छात्रों तक पहुंचाना भर रह जाएगा। राष्टीय शिक्षा नीति—2020 में सरकार ने, पाठ-सामग्री के निर्माण हेतु ‘स्वयं’, ‘दीक्षा’, ‘स्वयंप्रभा’ नाम से डिजिटलीकृत प्रयोगशालाएं बनाने पर जोर दिया है। ऑनलाइन परीक्षा के लिए भी ‘परख’ नाम से पोर्टल बनाने का सुझाव है। यदि इस दिशा में प्रभावशाली ढंग से आगे बढ़ा गया तो संभव है आने वाले चंद दशकों में ही औपचारिक कक्षाओं की जगह, वर्चुअल कक्षाएं छा जाएं और बड़े-बड़े स्कूल उसी तरह बेमानी लगने लगें जैसे आज सिनेमाघर दिखते हैं। तब हम ‘अपना देश, अपनी भाषा, सबको समान शिक्षा’ के लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ सकेंगे; और विद्यार्थियों को उनकी पसंद की शिक्षा उंनकी सुविधा अनुकूल समय पर उपलब्ध हो सकेगी।

ओमप्रकाश कश्यप

 संदर्भ : 

  1. Clark, R. E. (1994). Media will never influence learning. Educational, Technology Research and Development,  Page 5.
  2. Kozma, R. B. (1994). Will media influence learning? Reframing the debate. Educational Technology Research & Development,42(2), 7-19. Retrieved February 15, 2006, fromhttp://mmtserver.mmt.duq.edu/mm416-01/gedit704/articles/kozmaArticle.html
  3. इंडियन एक्सप्रेस, 27 जुलाई 2020,https://indianexpress.com/article/cities/chandigarh/haryana-struggling-to-study-at-remote-morni-village-students-travel-miles-to-access-a-smartphone-6524856/  

ईश्वर और धर्म से मुक्ति : पेरियार और धर्म 

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धर्म और राज्य में व्यावहारिक रूप में चाहे जितना अंतर नजर आता हो, उनकी उत्पत्ति का कारण समान है। वह कारण है—व्यक्ति का अहंबोध। यह मान लेना कि वही श्रेष्ठतम है….दूसरों को उसका आदेश मानना ही चाहिए। इन दोनों की अवधारणा उस क्षण जन्मी थी, जिस क्षण किसी व्यक्ति के मन में श्रेष्ठतम होने का एहसास जन्मा था।( यहाँ  धर्म और अध्यात्म को एक-दूसरे से अलग ही रखें तो अच्छा। अध्यात्म का संबंध मनुष्य की आंतरिक और बाह्य: जगत को लेकर उपजी जिज्ञासा और कौतूहल से है। उसमें नवीनता और वैभिन्न्य के लिए भरपूर गुंजाइश होती है। एक ही समूह के अलग-अलग व्यक्ति अपने स्वतंत्र अध्यात्मबोध के साथ जी सकते हैं। उनमें किसी एक का अध्यात्मबोध दूसरे के अध्यात्मबोध की राह में बाधक नहीं बनता। धर्म के साथ ऐसा नहीं है।) धर्म वर्चस्व की भावना एवं स्पर्धा को जन्म देता है। चूंकि राज्य और धर्म की उत्पत्ति का क्षण एक; तथा प्रवृत्ति लगभग समान है, इसलिए उनका इतिहास भी एक-दूसरे से मेल खाता है। अपने-अपने विस्तार के लिए दोनों ने खूब खून-खराबा किया है। चूंकि दोनों के स्वार्थ एक-दूसरे से जुड़े हैं, इसलिए जरूरत पड़ने पर राज्य यह कहकर कि उसने जो किया, धर्म के लिए किया….तथा धर्म यह दावा करते हुए कि उसने जो किया, वही देवेच्छा थी, इसी में सबका कल्याण है—दोनों एक-दूसरे का सुरक्षा-कवच बनते आए हैं। इस कोशिश में दोनों न केवल एक दूसरे की कमजोरियों पर पर्दा डालते हैं, अपितु मनमानी करने का अवसर भी देते हैं।  

समाज और संस्थाओं का स्तरीकरण धर्म की प्रवृत्ति है। वह खुद भी एक बहुस्तरीकृत संस्था है। अपने स्थायित्व के लिए वह पूरी सृष्टि को ‘देवता’ और ‘देवता नहीं हैं’ में बांट देता है। फिर ‘देवता नहीं हैं’ का एक छोटा-सा हिस्सा खुद को उससे अलग कर लेता है। वह स्वयं को ‘देवता’ का विशेषज्ञ और उसका जानकार होने का दावा करने लगता है। अपनी जानकारी के दावे के समर्थन में वह ‘देवता’ को लेकर कुछ चमत्कारयुक्त मिथ गढ़ लेता है। उन मिथों के सहारे ‘देवता’ से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संबंध स्थापित कर, बचे हुए ‘देवता नहीं हैं’ वर्ग के आगे श्रेष्ठतर होने का दावा पेश कर देता है। चूंकि चमत्कार और मिथों से जुड़ी कहानियां सभी को लुभाती हैं, इसलिए आरंभ में केवल मनोरंजन और कौतूहल की वांछा से, ‘देवता नहीं है’ समूह के बाकी लोग उन्हें सहज भाव से अपना लेते हैं। धीरे-धीरे जब वे मिथ और चमत्कार, प्रतीकों, कलाओं, लिखित सामग्री, श्रुति आदि के रूप में अगली पीढ़ी तक, उत्तराधिकार के रूप में पहुँचते हैं, तो आगंतुक पीढ़ी उनके प्रति ठीक वैसी ही निरपेक्ष नहीं रह जाती, जैसी उससे पिछली पीढ़ी थी। नई पीढ़ी उन्हें पिछली पीढ़ी के ‘पवित्र’ अवदान के रूप में सहेजकर रखती है। उसके बाद तो हर नई पीढ़ी के साथ ‘पवित्रताबोध’ का अनुपात बढ़ता ही जाता है। किसी सामान्य घटना, विचार अथवा वस्तु के ‘धर्म’ अथवा ‘टोटम’ बनने के पीछे यही प्रवृत्ति काम करती है। इस बात को शासकवर्ग भी भली-भांति जानता था। वह धर्म की शक्ति का उपयोग अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए करता है। इसलिए यह अन्यथा नहीं है कि भारत में धर्मसत्ता के मजबूत होने का जो समय है, वही समय राजसत्ता के मजबूत होने का भी है। पहली बार गौतम बुद्ध ने दुनिया को संगठित धर्म की ताकत का अहसास कराया था। अशोक ने उसका उपयोग कलिंग युद्ध के बाद बिगड़ चुकी अपनी छवि के सुधार के लिए किया। इससे लोगों को पहली बार धर्म की सांगठनिक क्षमता के बारे पता चला। उसके बाद तो हर राजा अपने मंसूबे साधने के लिए धर्म की मदद लेने लगा। ईसा मसीह और मोहम्मद साहब दोनों को अपने क्रांतिधर्मा विचारों के कारण समाज में विरोध का सामना करना पड़ा था। लेकिन कुछ अरसे बाद जब जनता में उनके विचारों का प्रभाव बढ़ा और लोग उनके प्रति सम्मोहित नजर आने लगी तो राजाओं और राजसत्ता का सपना देखने वाले लोगों ने भी जनता को अपने प्रभाव में लेने के लिए उनके विचारों का इस्तेमाल करना आरंभ कर दिया। धर्म और राजनीति के गठजोड़ ने ही साम्राज्यवाद को संभव बनाया है। यही कारण है कि समानता और स्वतंत्रता को मनुष्य का मौलिक अधिकार मानने वाले, लगभग सभी आधुनिक विचारकों ने धर्म और उसके सहारे पलने वाले सांस्कृतिक वर्चस्व की आलोचना की है।

मिखाइल बकुनिन ने कहा था कि धर्म का खास गुण, ईश्वर के महिमामंडन द्वारा मनुष्यता का अनादर करना है। हिंदू धर्म की स्थिति थोड़ी अलग है। हिंदुओं में ब्राह्मण खुद को ईश्वर और धर्म का व्याख्याकार बताकर खुद को बाकी लोगों से अलग कर लेता है। बकौल ‘मनुस्मृति’ वह पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि बनकर रहता है। इसलिए हिंदू धर्म में मनुष्यता का अनादर मुख्यतः गैर-ब्राह्मणों तक, जो कुल आबादी का 90 प्रतिशत हैं, सीमित होकर रह जाता है। इसलिए धर्म और ईश्वर के प्रति चुनौती को ब्राह्मण, अपने अस्तित्व को चुनौती मान लेते हैं। ‘ईश्वर और राज्य’ में बकुनिन ने लिखा है कि ईश्वर, ‘मानवीय गरिमा तथा उसकी स्वतंत्रता के प्रति निश्चित रूप से सर्वाधिक ईर्ष्यालु, सर्वाधिक अहंकारी, सर्वाधिक क्रूर, सर्वाधिक अन्यायी, सर्वाधिक जालिम, सर्वाधिक निरंकुश और सबसे ज्यादा शत्रुतापूर्ण था।’ उसके बनिस्पत शैतान या राक्षस बकुनिन के शब्दों में—‘शाश्वत विद्रोही, प्रथम मुक्त चिंतक तथा मनुष्यता का मुक्तिदाता है। वह पहला प्राणी है जो मनुष्यता की समस्त बंधनों से मुक्ति का सपना देखता है।’ बकुनिन ने यह मुख्यतः बाईबिल के बारे में लिखा है। लेकिन हर धर्म के ‘ईश्वर’ की यही स्थिति है। हर ‘ईश्वर’ अपने पक्ष को अंतिम और सर्वोपरि मानता है। संवाद का अवसर दिए बिना, वह चाहता है कि लोग केवल उसका आदेश मानें। उल्लंघन करने पर दंड के लिए तैयार रहें। मनमानी करना सत्ता का लक्षण है। इसलिए दुनिया में जितने भी ‘ईश्वर’ हैं, वे सत्ता के समर्थन से ही ‘ईश्वर’ बने हैं। सत्ता ने उन्हें गढ़ा ही इसलिए कि ईश्वर के नाम पर वह अपनी मनमानियों को वैध बना सके। एक बार ‘ईश्वर’ स्थापित हो जाए तो सर्वसत्तावादियों का खेल आसान हो जाता है। अपने स्वार्थ को ईश्वरेच्छा बताकर वे अपनी इच्छाओं को अपने अनुयायियों पर थोपने लगते हैं। अनुयायी उनपर तथा उनके गढ़े हुए ईश्वर पर भरोसा करें, इसलिए उसके नाम पर चमत्कारों भरे आख्यान गढ़ लिए जाते हैं। जनता उन्हें धर्म, परंपरा और संस्कृति के नाम पर सहेजती जाती है। लोक-स्मृति से उन्हें मिटाना असंभव नहीं तो कठिन बहुत होता है। इसके लिए लंबा और सतत बुद्धिवादी संघर्ष अपेक्षित होता है।

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जनता के बीच धर्म का सीधा अर्थ आध्यात्मिक शक्ति पर विश्वास से है। लोगों को यही बताया भी जाता है वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार इसका अर्थ उन आध्यात्मिक एवं सांसारिक गतिविधियों से भी है, जिन्हें कोई व्यक्ति जाति-विशेष से संबद्ध होने के नाते करता है; अथवा वर्ण-विधान के आधार पर उससे ऐसा करने की अपेक्षा की जाती है। धर्म पर टिके इस जाति-विधान में ब्राह्मण का दर्जा सर्वोपरि है। वही धर्म का मुख्य कर्ता-धर्ता है। इस कारण उसके कुछ विशेषाधिकार भी हैं। जाति चूंकि मानवीय विवेक, चयन के नैसर्गिक अधिकार का निषेध करती है, इसलिए जब से बनी है, तभी से उसकी आलोचना होती आई है। लेकिन कुछ लोगों के लिए वह पवित्र विधान है। अत: जब भी उसपर संकट आता है, या बड़ी चुनौती खड़ी होती है, धर्म उसका सुरक्षा-कवच बन जाता है। धर्म ऐसा क्यों करता है? जाति तो उसकी अनिवार्यता नहीं है। हिंदू धर्म को छोड़ और किसी धर्म में समाज के जातीय विभाजन की अवधारणा नहीं है। हिंदू धर्म में इसलिए है क्योंकि इसका मुख्य कर्ता-धर्ता ब्राह्मण जातिक्रम में भी शिखर पर हैं। शीर्षस्थ शक्ति होने के कारण इस व्यवस्था में वह हमेशा लाभ की स्थिति में रहता है। जब भी जाति को चुनौती मिलती है, वह धर्म और संस्कृति के अपसंस्करण का मुद्दा खड़ा कर देता है। उन्हीं की आड़ में वह जाति को बचा ले जाता है। चुनौतियों के बीच यदि कुछ समजौते करने पड़ें तो करता है, लेकिन अपनी सामाजिक प्रस्थिति और विशेषाधिकारों पर कोई आंच नहीं आने देता। 

जाति-व्यवस्था और उसके सर्वाधिक विकृत रूप छूआछूत को चुनौती देने के लिए धर्म को आलोचना की जद में लाना आवश्यक था। ऐसा किसी न किसी रूप में जाति और धर्म की उत्पत्ति के समय से ही होता आया है। बीसवीं शताब्दी में यदि किसी ने जाति, धर्म और धार्मिक आडंबरवाद,  यहाँ  तक कि धर्म की शीर्षतम परिकल्पना ईश्वर को भी खुली चुनौती दी, तथा अपने स्वार्थ के लिए उनका प्रचार-प्रसार करने वाले पुरोहित वर्ग ब्राह्मणवाद के विरोध में खुलकर संघर्ष किया तो वे थे—ई. वी. रामासामी पेरियार। यद्यपि ज्योतिबा फुले और डॉ. आंबेडकर ने भी हिंदू धर्म में व्याप्त रूढि़यों और आडंबरों के लिए ब्राह्मणवाद को जिम्मेदार माना था। फुले तो उसके जन्मदाता ही थे। फुले ने ‘तृत्तीय रतन’, ‘किसान का कोड़ा’ और ‘गुलामगिरी’ जैसी पुस्तकों में ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा जनसाधारण के शोषण के बारे में बताया है।  ‘गुलामगिरी’ हिंदू धर्म और संस्कृति का विखंडनात्मक पाठ है। डॉ. आंबेडकर ने ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’, ‘जाति का उच्छेद’ जैसी पुस्तकें लिखकर हिंदूधर्म की विकृतियों की बारीकी से पड़ताल की थी। पेरियार ने जनसंवाद का रास्ता अपनाया। ब्राह्मणवाद की कटु आलोचना की; और द्रविड़ संस्कृति को उसके समानांतर लाकर, आमने-सामने की लड़ाई बना दिया था। धर्म और जाति के मामले में वे सीधे उच्छेदवादी थे। देखा जाए तो डॉ. आंबेडकर और पेरियार के बीच यही मामूली अंतर भी है। आंबेडकर जाति को लेकर पूरी तरह उच्छेदवादी हैं। जबकि धर्म के प्रति उनका दृष्टिकोण सुधारवादी था। आरंभ में उन्हें उम्मीद थी कि हिंदू धर्म अपने भीतर सुधार करेगा। ‘जाति का उच्छेद’ पुस्तक लिखकर उन्होंने हिंदू समाज के उस नासूर को सामने लाने का काम किया था, जिससे छुटकारा पाए बगैर हिंदू धर्म का स्वस्थ, मानवीय धर्म बन पाना असंभव था। हिंदू धर्म के नेता, धर्माचार्य उस विकृति का उपचार करेंगे, इसकी वे 20 वर्ष तक प्रतीक्षा करते रहे। इस बीच दूसरे धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन भी करते रहे। अंत में हिंदू धर्म और धर्माचार्यों की ओर से जन्मी निराशा ने उन्हें बौद्ध धर्म की ओर प्रवृत्त कर दिया।  

1920 से 1927 तक पेरियार भी जाति-व्यवस्था और छूआछूत के कारण हिंदू धर्म पर हमलावर रहते हैं। वे जातीय असमानता और धर्म दोनों की आलोचना करते हैं, परंतु धर्म-सत्ता पर पूरी तरह हमलावर नहीं होते। बदलाव उनकी विदेश यात्रा के बाद आता है। यूरोप और सोवियत संघ की प्रगति देखकर वे अचंभित होते हैं। समानता, सहयोग और सहअस्तित्व के आधार पर बनीं वहाँ की नई सामाजिक संरचना उन्हें लुभाती है। वहाँ से ठेठ बुद्धिवादी बनकर लौटते हैं। यात्रा से पहले केवल हिंदू धर्म उनके निशाने पर था। इसलिए कि वह जातिवाद और छूआछूत को प्रश्रय देता; और उन्हें दैवीय बताता था। धीरे-धीरे समूची धर्मसत्ता उनकी आलोचना की जद में आ जाती है। एक नए पेरियार का जन्म होता है, जो बुद्धिवाद का समर्थक है। तर्क और ज्ञान-विज्ञान को महत्व देता है। समाजवादी राज्य का सपना देखता है। मिजाज से नास्तिक है। धर्मसत्ता पर बगैर हिचके प्रहार करता है। 

इस दृष्टि से उनकी तुलना मिखाइल बकुनिन से की जा सकती है। मार्क्स का विचार था कि ‘शक्तिशाली वर्ग राज्य की मदद से शासन करता है’। ‘राज्य और ईश्वर’ में बकुनिन ने लिखा है कि ‘राज्य शक्तिशाली वर्ग की मदद से राज करता है।’ राज्य कुछ और नहीं, शक्तिशाली वर्ग की इच्छा की परिणति होता है। वह इस तरह छाया रहता है कि शक्तिशाली वर्ग की इच्छा ही राज्य की इच्छा मान ली जाती है। जनसाधारण राजनीति और पूँजीवाद के गठजोड़ को न समझ पाए, इसके लिए वह धर्म की मदद लेता है। इसलिए मार्क्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा दी थी। बकुनिन धर्म के अभिजन चरित्र को उजागर करता है। कहता है कि राज्य और धर्म का अपवित्र गठबंधन कमजोरों और गरीबों की स्वतंत्रता की सबसे बड़ी बाधा है, अपने स्वार्थ के लिए दोनों उसे विपन्न बनाए रखते हैं। पेरियार मिजाज से अराजकतावादी थे। फिर भी राज्य के प्रति उतने सख्त नहीं थे। कारण यह है कि जिस वर्ग की लड़ाई वे लड़ रहे थे, उसके अधिकारों पर धार्मिक-सांस्कृतिक शक्तियों ने डाका डाला हुआ था। उनके विरुद्ध संघर्ष में राज्य कभी-कभी मददगार की भूमिका निभाने लगता था। उनकी असल लड़ाई ब्राह्मणों तथा उनके धर्म से थी। राज्य के प्रति आलोचक थे तो इसलिए थे कि अपने स्वार्थ के लिए वह पुरोहितवाद को संरक्षण देने लगता है। उनका कहना था कि शूद्रों को ‘वेश्या की संतान’ बनाए रखने के राज्य और ब्राह्मण दोनों मिलकर काम करते हैं। 

अज्ञात का डर समाज में धर्म के लिए जगह बनाता है। इसलिए शूद्रातिशूद्र धर्म की ओर आकर्षित होते हैं। बिना यह जाने कि वे सब व्यवस्थाएं ब्राह्मणों ने अपने वर्गीय हितों को सुरक्षित रखने के लिए बनाई हैं। यह शूद्रातिशूद्रों की अज्ञानता ही है कि उन्होंने अपनी ऊर्जा का बड़ा हिस्सा मंदिरों में प्रवेश के लिए खपाया है। पेरियार के इस विषय में क्या विचार थे, इसे वायक्कम आंदोलन से समझ सकते हैं। नारायण गुरु ने वायक्कम मंदिर में प्रवेश के अधिकार के लिए शूद्रों के आंदोलन का नेतृत्व किया था। उन दिनों शूद्रों को चुनींदा मार्गों पर ही चलने का अधिकार था। वायक्कम मंदिर के आसपास से गुजरती सड़कों पर भी उन्हें चलने का अधिकार नहीं था। वायक्कम सत्याग्रह की शुरुआत के बाद एक समय ऐसा आया जब पेरियार को उसमें सहभागी बनने के लिए आमंत्रित किया गया। उनके लिए मंदिर प्रवेश कोई मुद्दा नहीं था। वे सत्याग्रह में शामिल हुए। जीत भी मिली, परंतु उनकी प्राथमिकता, अस्पृश्यों की सार्वजनिक मार्गों पर चलने की आजादी को लेकर थी। 25-26 दिसंबर, 1958 को पेरियार ने अपने एक भाषण में उस घटना को याद किया था—

”महारानी(त्रावणकोर) निचली जाति के शूद्रों और अछूतों के लिए सभी मार्ग खोल देने को तैयार थीं। लेकिन, उन्होंने अपने डर के बारे में बताया। उन्हें लगता था कि मैं अछूतों के मंदिर प्रवेश के अधिकार की खातिर आंदोलन को उसके बाद भी जारी रख सकता हूं। गाँधी यात्री-भवन में पहुँचे, जहां मैं ठहरा हुआ था। उन्होंने मेरी राय जाननी चाही। मैंने कहा, ‘क्या अछूतों को सार्वजनिक मार्गों पर चलने का अधिकार प्राप्त होना बड़ी उपलब्धि नहीं है! यूं भी, क्या मंदिर प्रवेश कांग्रेस के आदर्शों में से एक नहीं है। जहां तक मेरी बात है, यह मेरे प्रमुख सरोकारों में से एक है। लेकिन, आप महारानी को खबर कर सकते हैं कि फिलहाल मंदिर प्रवेश के अधिकार को लेकर आंदोलन खड़ा करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। मैं आगे क्या करूंगा, इसे तय करने से पहले माहौल शांत होने दीजिए।”18 

पेरियार नास्तिक कैसे बने? क्यों बने? नास्तिक बनने की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली? इसकी खोज करते हुए जी. अलोसियस औपनिवेशिक शासन के दौरान प्रशासनिक बदलावों की शुरुआत तक चले जाते हैं।19 उन्हीं के कारण गैर-ब्राह्मणों को शिक्षा के अवसर मिले। औद्योगिकीकरण से वैकल्पिक रोजगार के अवसर बढ़े। इन दोनों ने जाति-प्रथा को कमजोर करने का काम किया। पहले हिंदुओं के प्रमुख ग्रंथ संस्कृत में थे। उसे पढ़ने-लिखने का अधिकार भी केवल ब्राह्मणों तक सीमित था। इसलिए धर्म की व्याख्या के लिए ब्राह्मणेत्तर जातियां ब्राह्मणों पर निर्भर थीं। जैसा वे कहते वैसा मानना ही पड़ता था। बदले परिवेश में वे सभी ग्रंथ अँग्रेजी और दूसरी यूरोपीय भाषाओं में उपलब्ध होने लगे। धर्म-ग्रंथों को पढ़ने-लिखने से लेकर उनकी आलोचना तक का अधिकार समाज के सभी वर्गों को प्राप्त हो गया। पूर्व-स्थापित मान्यताओं का विश्लेषण कर, उनके नए अर्थ निकाले जाने लगे। इस बीच धार्मिक अंतरण के नए रास्ते खुले। धर्मों के बीच स्पर्धा बढ़ने से उनके काम में लगी शक्तियों को सुरक्षात्मक मुद्रा में आना पड़ा। इससे मनुष्य का आत्मविश्वास बढ़ा और वह मुक्ति के नए आयाम खोजने लगा।

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आधुनिक भारत में नास्तिकता को वापस लाने का श्रेय दक्षिण भारत को जाता है। 1878 में वहाँ ‘मद्रास सेकुलर सोसाइटी’ का गठन हुआ था। उसके सदस्य संख्या में कम, मगर सक्रियता के मामले में बहुत आगे थे। अगले दस वर्षों तक वे धर्मसत्ता और उसके विभिन्न अपररूपों पर लगातार प्रहार करते रहे। ‘असुर’, ‘राक्षस’ आदि जिन्हें हिंदू संस्कृति का खलपात्र माना गया है, की उन्होंने पुनर्व्याख्या की। आर्य-श्रेष्ठता के मिथ को चुनौती दी। धर्म के आलोचना पक्ष को मजबूत करने के लिए ‘दि थिंकर’ नाम का अखबार निकाला, जो नास्तिक विचारों का प्रचार करता था। उसके फलस्वरूप धर्म वैसी पवित्र गाय नहीं रह गया था, जैसा वह पहले था। धार्मिक सुधारों की मांग बढ़ रही थी। पेरियार के समय तक हिंदू धर्म के सुधारवादी और यथास्थितिवादी आमने-सामने आ चुके थे। एक वर्ग आधुनिक विचारों के तत्वावधान में उसका नवोन्मेषण चाहता था। दूसरे को उसकी स्वयं-घोषित महानता पर पूरा विश्वास था। इसलिए वह किसी भी प्रकार के बदलाव का विरोधी था। 

हिंदू धर्म की बढ़ती आलोचना और ब्राह्मणों के यथास्थितिवादी दृष्टिकोण ने असंतुष्टों को करीब एक हजार वर्ष पहले लुप्त हो चुके बौद्ध धर्म की खोज के लिए प्रेरित किया। उसकी शिक्षाओं को अपेक्षाकृत आधुनिक और लोकतांत्रिक मूल्यों के करीब माना गया। प्राचीन ‘संघम साहित्य’ एवं बौद्ध धर्म के अंतःसंबंधों की खोज से स्वतंत्र द्राविड़ अस्मिता की अवधारणा को बल मिला। इस क्षेत्र में पहल करने वाले थे—आयोथि थास। उन्हें दक्षिण भारतीय समाज में नवजागरण का अग्रदूत माना जाता है। दक्षिण भारत में प्रचलित जातिप्रथा तथा उसके प्रति लोगों के दुराग्रह पर टिप्पणी करते हुए, आयोथि थास ने कहा था कि द्रविडि़यन आर्यों की जाति-प्रथा को मानते हैं। इस तरह मानते हैं मानो वह उन्हीं का आविष्कार हो। जाति-प्रथा के चलते कृषि, उद्योग, व्यापार, शिक्षा आदि का विकास नहीं हो सकता। क्योंकि ब्राह्मण का उद्देश्य केवल ज्ञानार्जन होता है। क्षत्रिय शासन करता है और व्यापारियों का काम लेन-देन तक सीमित होता है। केवल शूद्र वर्ग ऐसा है जो खेती और उत्पादन दोनों की जिम्मेदारी संभालता है। लेकिन उसे ज्ञानार्जन का अधिकार नहीं होता। उसके अभाव में वह परंपरागत तरीके से ही काम चलाता है। प्राचीन सभ्यताओं में यह निभ सकता था। क्योंकि उस समय मनुष्य की सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति स्थानीय उत्पादक आसानी से कर सकते थे। परंतु वर्तमान में जब मनुष्य की जरूरतें बढ़ती जा रही हैं, परंपरागत ढंग की प्रणालियों से काम चलना आसान नहीं है। इसलिए शोषणकारी जातिप्रथा का उन्मूलन जितनी जल्दी संभव हो, हो जाना चाहिए।‘ थॉस ने अशिक्षित और गरीब जनता को लूटने वाले राजनेताओं को फटकार लगाई थीा उनका कहना था कि वे लोग जनता का हितैषी बनकर उसे लूटने का काम करते हैं। ब्राह्मण कहते हैं कि शूद्रों को वेदादि ग्रंथ पढ़ने का अधिकार नहीं है। इस तरह की भेदभावपूर्ण नीतियों को बनाने वाला ईश्वर हो ही नहीं सकता। वह कुटिल ब्राह्मण अथवा कोई निरंकुश ताकत हो सकता है. ऐसे ईश्वर के प्रति आस्था का प्रदर्शन करने से अच्छा है कि किसी महापुरुष की अभ्यर्थना कर ली  जाए।

आगे बढ़ने से पहले एक बात और। भारत में धार्मिक-सामाजिक सुधारवाद की शुरुआत का श्रेय बंगाल को देने की परंपरा रही है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि राजाराममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, केशवचंद सेन, देवेंद्रनाथ ठाकुर आदि भारत के आरंभिक सुधारवादियों का संबंध बंगाल से था। उनकी विशेषता, जिसे उनकी कमजोरी भी कहा जा सकता है, थी कि वे हिंदू धर्म की परिसीमा में रहते हुए, धार्मिक-सामाजिक सुधारों को अंजाम देना चाहते थे। धार्मिक-सामाजिक सुधारवाद की समानांतर लहर दक्षिण से भी चली थी, जो अपेक्षाकृत निर्णायक और अधिक परिवर्तनकामी थी। दक्षिण में जन्मे संत अय्यंकालि, आयोथि थास आदि ने वहाँ धार्मिक-सामाजिक सुधारवादी आंदोलनों का नेतृत्व किया था। उनमें और बंगाल के सुधारवादियों में मूल-भूत अंतर यह था कि बंगाल के सुधारवादी हिंदू धर्म के प्रति अधिक आशान्वित थे। मानते थे कि सुधारों के माध्यम से हिंदू धर्म को अधिक मानवीय बनाया जा सकता है। वहीं दक्षिण के सुधारवादी हिंदू धर्म को सुधार का अवसर देना चाहते थे। लेकिन यदि हिंदू धर्म अपेक्षित सुधारों के लिए तैयार नहीं होता है तो उन्हें उसे छोड़ देने से भी गुरेज नहीं था। एक और बड़ा अंतर जिसका संबंध पहले से ही है, वह यह है कि बंगाल और उत्तर भारत के सुधारवादियों का विश्वास था कि यदि हिंदू धर्म में ऊपर के वर्गों में सुधार होता है, तो सुधार की वह प्रक्रिया, प्रकारांतर में निचले वर्गों में भी अंतरित होगी। इसलिए धार्मिक सुधारवाद की पहल उन्होंने समाज के शीर्षस्थ वर्गों के साथ आरंभ की थी। जबकि संत अय्यंकालि, पेरियार जैसे दक्षिण भारतीयों ने अपना कार्यक्रम निचले वर्गों के बीच से शुरू किया था। ठीक ऐसे ही जैसे ज्योतिबा फुले ने महाराष्ट्र में किया था। वे निचले वर्गों को मजबूत करके, ऊपर के वर्गों को चुनौती देना चाहते थे कि धर्म, समाज और देश-हित में उन्हें आवश्यक सुधारों को स्वीकार लेना चाहिए। इसके बीजतत्व दक्षिण भारतीय साहित्य और संस्कृति में पहले से ही मौजूद थे। तमिल में तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व के संघम साहित्य से लेकर, संत तिरुवेलुवर तक साहित्य और संस्कृति की प्राचीनतम परंपरा थी, जो आर्य-संस्कृति की श्रेष्ठता के मिथ को नकारती थी। पेरियार के आत्मसम्मान आंदोलन की पृष्ठभूमि में वही विचारधारा थी। पांचवी शताब्दी का जैन काव्य ‘नीलकेसी’ तथा उसकी प्रतिक्रिया में रचा गया, बौद्ध काव्य ‘कुंडालकेसी’ वहाँ बौद्ध एवं जैन धर्म की न केवल उपस्थिति दर्शाता है। बल्कि जिस तरह ‘नीलकेसी’ की प्रतिक्रिया में बौद्ध आचार्य ‘कुडांलकेसी’ की रचना करते हैं, उससे लगता है कि उस समय भारतीय धर्म-दर्शन की ये दोनों शाखाएं दक्षिण में काफी जीवंत रूप में विद्यमान थीं। उनके बीच बहस होती रहती थी। इनके साथ-साथ मक्खलि गोशाल का ‘आजीवक’ संप्रदाय भी हर्षवर्धन के काल तक अपनी उपस्थिति बनाए हुए था। 

नास्तिकता, पेरियार के बचपन के अनुभवों का उपहार थी। उनके पिता की दुकान पर हिंदू साधु-संत आते थे। अधिकांश का मकसद होता था, दान-दक्षिणा के नाम पर कुछ न कुछ ऐंठ लेना। पेरियार ने इसे करीब से देखा था। ब्राह्मणों का लालच देखकर कभी-कभी वे उनका उपहास भी करने लगते थे। इसके अलावा, किशोरावस्था से ही पेरियार को जिन्होंने प्रभावित किया, उनमें से एक थे मुरुथैया पिल्लई। मरुथैया इरोड के ही रहने वाले थे। वे तमिल के प्रखर विद्वान, ओजस्वी वक्ता, जाति, परंपरावाद, धार्मिक आडंबरों और धर्म के कटु आलोचक थे। ब्राह्मण उनके सामने पड़ने से कतराते थे। पेरियार को आलोचना दृष्टि को समृद्ध करने वालों में दूसरा नाम था—कैवल्य सामियार का। मुरुथैया पिल्लई की भांति कैवल्य सामियार भी तर्कवादी और ब्राह्मणवाद के कट्टर आलोचकों में से थे। इन दोनों के जीवन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। पेरियार के जीवनीकार और आत्मसम्मान आंदोलन के नेता चिदंबरानार के अनुसार, इन दोनों की पेरियार के चरित्र-निर्माण में बड़ी भूमिका थी। 

काशी यात्रा के दौरान उनका परिचय हिंदू धर्म की विकृतियों से हुआ था। 1933 में विदेश यात्रा के बाद तो उनका विश्वास धर्म नामक संस्था से बिलकुल उठ चुका था। मास्को पहुँचने पर उन्होंने ‘एंटी रिलीजियस प्रापेगेंडा ऑफिस में अपना पंजीकरण भी कराया था। उनका मानना था कि वर्गहीन समाज की रचना हेतु धर्म से मुक्ति आवश्यक है। सोवियत संघ की प्रगति, वहाँ की सामाजिक रचना से वे इतने प्रभावित थे कि वहाँ से लौटते ही उन्होंने आत्मसम्मान आंदोलन की वैचारिकी और संगठन में भारी फेरबदल करने का निर्णय किया था। बावजूद इसके सोवियत संघ की तरह सत्ता का सघन केंद्रीकरण, उसकी समस्त कार्यकारी शक्तियों का एक जगह जमा हो जाना—उन्हें स्वीकार न था। भारत के लिए वे उदार साम्यवाद की कल्पना करते थे। उनका मानना था कि ब्राह्मणों की धार्मिक-सामाजिक अधिसत्ता के रहते, भारत में सोवियत मॉडल को लागू कर पाना संभव नहीं है। 7 जून, 1931 के ‘कुदीआरसु’ में उन्होंने लिखा था कि गैर-ब्राह्मणों और अछूतों, गरीब और कामगार लोगों को यदि वे समानता और समाजवाद लाना चाहते हैं, तो सबसे पहले हिंदुत्व को खत्म करना होगा। सोवियत संघ से वे श्रीलंका के रास्ते भारत लौटे थे। वहाँ कोलंबों में दिए गए भाषण में उन्होंने एक बार फिर मनुष्यता, आत्मसम्मान और देश के लिए ईश्वर तथा धर्म का बहिष्कार करने का आग्रह किया था।20

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विदेश यात्रा से लौटने के बाद ‘कुदीआरसु’ में समाजवाद और नास्तिकता विषयक लेखों की संख्या बढ़ी थी। भगतसिंह के लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ का तमिल अनुवाद, ‘नान नाथिकन येन’ शीर्षक से पी. जीवानंदम् ने किया था। पी. जीवानंदम् ‘मद्रास प्रांत नास्तिक संगठन’ के सचिव, विचारों से साम्यवादी और पेरियार के सहयोगी थे। ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ का प्रथम पुस्तिकाकार प्रकाशन पेरियार द्वारा स्थापित ‘पहुथारिवु पब्लिशिंग हाउस लिमिटेड’ ने 1934 में किया था। तमिल शब्द ‘पहुथारिवु’ का अर्थ ‘तर्कशील’ है। पुस्तक में पेरियार द्वारा 29 मार्च 1931 को ‘कुदीआरसु’ में भगतसिंह की शहादत पर लिखित संपादकीय को भी शामिल किया गया था। भूमिका में प्रकाशक की ओर से लिखा गया था कि वे भगतसिंह की राजनीतिक विचारधारा से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। पुस्तिका का मूल उद्देश्य आम जनता, विशेषकर नास्तिकों तथा कांग्रेसजनों को भगतसिंह के ईश्वर-संबंधी विचारों से परचाना है। 46 पृष्ठों की पुस्तिका के पहले 40 पृष्ठों पर मूल लेख छपा था। बाद के 6 पृष्ठों में ‘कुदीआरसु’ के संपादकीय को जगह मिली थी। संपादकीय में पेरियार ने भगतसिंह तथा उनके साथियों के साहस और बलिदान की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उसमें भगतसिंह द्वारा पंजाब के गवर्नर को लिखे गए पत्र के एक अंश को भी उद्धृत किया गया—

‘हमारी लड़ाई निश्चित रूप से उस समय तक चलती रहेगी, जब तक कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में नहीं आ जाती और लोगों के स्तर में जो अंतर है, वह समाप्त नहीं हो जाता। यह युद्ध हमें मार देने से समाप्त नहीं होगा। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप यह संघर्ष हमेशा जारी रहेगा।’

संपादकीय में गाँधी के साथ-साथ लार्ड इरविन की भी आलोचना थी। विचित्र बात यह है कि भगतसिंह द्वारा मूल अँग्रेजी में लिखे गए उस लेख में औपनिवेशिक सरकार को कुछ भी ‘निषिद्ध’ या ‘आपत्तिजनक’ नहीं लगा था। हालाँकि धर्माचायों की आंखों की किरकिरी वह आरंभ से ही था। पेरियार द्वारा तमिल अनुवाद के साथ पंजाब के गवर्नर को लिखे पत्र का संदर्भ जोड़ देने से वह औपनिवेशिक शासकों की दृष्टि में भी ‘अपराध’ बन चुका था। इसलिए पुस्तिका के छपते ही उसका संज्ञान लिया गया। अगस्त 1934 में ‘आपराधिक जांच विभाग’ की स्थानीय शाखा ने उसके बारे में सरकार को लिखा। बिना समय गंवाए सीआईडी ने पुस्तिका की प्रतियां सरकार को भिजवा दीं। मद्रास सरकार के मुख्य सचिव जी.टी.एच. ब्राकेन ने मद्रास सरकार के कार्यालय में कार्यरत तमिल अनुवादक एन. सरवण मुदलियार, से पूरी पुस्तिका का अनुवाद करने को कहा। मुदलियार ने आपत्तिजनक अंशों को हाईलाइट करते हुए, 16 अक्टूबर 1934 को अनुवाद की प्रति ब्राकेन को भेज दी गई। ब्राकेन ने 22 अक्टूबर, 1934 को भारतीय प्रेस(आपातकालीन शक्तियां) अधिनियम—1931 के अनुच्छेद 19(1) के अंतर्गत पुस्तिका और उससे जुड़ी सामग्री को जब्त करने के आदेश जारी कर दिए। आदेश में पुस्तिका की सामग्री को अधिनियम की धारा 4(1) के अंतर्गत आपत्तिजनक माना गया था। नोटिफिकेशन जारी होते ही, पुस्तिका की प्रतियां जब्त कर ली गईं। तब तक भगतसिंह के विचारों की चिंगारी वडवानल बन चुकी थी। पुस्तिका से प्रेरणा लेकर तरह-तरह के पंपलेट, पुस्तिकाएं, चित्र, कार्टून वगैरह भारी मात्रा में प्रकाशित हो चुके थे। न केवल तमिल, अपितु क्षेत्रीय भाषाओं मलयालम, तेलुगू, कन्नड़ आदि में भी भगतसिंह और उनके साथियों के समर्थन में विपुल सामग्री का प्रकाशन हुआ था। नतीजा यह हुआ कि सरकार द्वारा पुस्तक तथा संबंधित सामग्री, की जब्ती की कार्रवाही, 1938 तक चलती रही। कह सकते हैं कि दक्षिण तक भगत सिंह के विचारों को ले जाने तथा उन्हें लोकप्रिय बनाने में पेरियार की बड़ी भूमिका थी। यह कहना भी अन्यथा न होगा कि जिस परिवेश और परिस्थिति में पेरियार ने वह काम किया, वैसा करने का साहस भी उन दिनों किसी में नहीं था। 

भगतसिंह की पुस्तक के अलावा बर्ट्रेंड रसेल की ‘व्हाई आम एम नाट ए क्रिश्चन’, लेनिन की जीवनी, राबर्ट इंगरसोल की समाजवाद विषयक पुस्तकों के तमिल अनुवाद भी पेरियार के प्रकाशन द्वारा छापे गए थे। उनका मानना था कि ईश्वर, धर्म और उनसे जुड़े अनगिनत कर्मकांड प्रगतिशील समाज के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा हैं। लेकिन समाज में सभी के लिए नास्तिक बन पाना आसान नहीं है। खासकर तब जब कुछ अपवादस्वरूप लोगों को छोड़, लगभग सभी धर्मविहीन जीवन को असंभव मानते हों। इसलिए उन लोगों के लिए पेरियार ने, महज रणनीति के तौर, यह सोचकर कि दबाव में आने पर हिंदू धर्म संभवतः अपने पुनरावलोकन के लिए तैयार हो—उन्होंने इस्लाम और बौद्ध धर्म का समर्थन किया था। हालाँकि व्यक्तिगत जीवन में वे पूरी तरह नास्तिक थे। 1969 में उन्होंने कहा था—

‘मैं मनुष्यता का सुधारक हूं। मैं किसी देश, ईश्वर, धर्म, भाषा अथवा राज्य की परवाह नहीं करता। मेरे सरोकार केवल और केवल मानव समाज की उन्नत्ति और विकास तक सीमित हैं।’

तमिल नाडु में कम्युनिस्ट आंदोलन की नींव रखने का श्रेय सिंगरावेलु चेट्टियार, जिन्हें लोग सम्मान के साथ ‘सिंगरावेलु’ कहते थे—को जाता है। उन्होंने ही मद्रास में 1 मई 1923 को ‘लेबर किसान पार्टी ऑफ़ हिंदुस्तान’ की स्थापना की थी। उसी दिन भारत में ‘मई दिवस’ को उत्सव की तरह मनाने की शुरुआत हुई थी। सिंगरावेलु, पेरियार से बीस वर्ष बड़े थे। दोनों के प्रगाढ़ संबंध थे। धर्म और जाति के प्रति दोनों के विचारों में एकरूपता थी। सिंगरावेलु का कहना था, ‘प्रत्येक धर्म समाज के शिखर पर बैठे लोगों का समर्थन करता है। वह ‘सर्वसंपन्न’ एवं ‘सर्वविपन्न’ के भेद को स्थायी भाव देता है, असमानता को नियतिसिद्ध कहकर मनुष्य को जन्म के आधार पर छोटा-बड़ा मान लेता है। सभी भाई हैं, सभी का एक ईश्वर है, यदि हम अपने आसपास की दुनिया को देखें तो ये बातें एकदम मिथ्या और प्रपंच सिद्ध होती हैं, मगर समाज में इन्हीं पर घमासान छिड़ा रहता है।’

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सिंगरावेलु के संपर्क में आने के बाद पेरियार ने अपने साथियों को ‘कामरेड’ कहना आरंभ किया था। बावजूद इसके पेरियार का मार्क्सवाद, खासकर उसकी वर्ग-संघर्ष की वैचारिकी में ज्यादा विश्वास नहीं था। वे सिंगरावेलु के बुद्धिवादी सोच से प्रभावित थे। उनके आग्रह पर ही सिंगरावेलु ने ‘कुदीआरसु’ के लिए कई विज्ञान-केंद्रित लेख लिखे थे। ‘इरोड कार्यक्रम’ का ड्राफ्ट भी सिंगरावेलु ने ही तैयार किया था। उस समय सिंगरावेलु ने आत्मसम्मान आंदोलन के नाम को लेकर एक सवाल उठाया था। उनका कहना था कि इसे ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ कहना उचित होगा; अथवा ‘अवमानना आंदोलन’?21 इस प्रश्न के पीछे सिंगरावेलु के भीतर छिपा वर्ग-संघर्ष का योद्धा बोल रहा था। ‘अवमानना आंदोलन’ का आशय था, सामाजिक असमानता के लिए लिए जिम्मेदार ‘बुर्जुआ’ सोच वाली शक्तियों का तिरस्कार। उन्हें सीधी चुनौती, तथा उनकी सार्वजानिक भर्त्सना। पेरियार को सीधे टकराव से किसी प्रकार का संकोच नहीं था। भविष्य में ऐसे कई अवसर आए जब पेरियार तथा उनके विरोधी आमने-सामने थे; और पेरियार ने ‘न दैन्यम न पलायनम’ की भावना के साथ उनका सामना किया था। बावजूद इसके वे ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ का नाम बदलने को तैयार नहीं थे। सिंगारवेलार ने भले ही मजाक में नाम बदलने का सुझाव दिया हो, परंतु नाम न बदलकर पेरियार ने एक तरह से अच्छा ही किया था। क्योंकि आगे चलकर वे समाज को ‘ब्राह्मण बनाम गैर-ब्राह्मण’ और ‘आर्य बनाम द्रविड़’ में बांटने में सफल रहे थे। 

पेरियार का विश्वास साम्यवाद से ज्यादा समाजवाद में था। इसका एक कारण यह भी है कि नवगठित कम्युनिस्ट पार्टी में भी प्रमुख पदों पर ब्राह्मण छाने लगे थे। वर्ग-संघर्ष उनके लिए महज नारा था। एक तरह से कृत्रिम लड़ाई। जिन यूरोपीय देशों में जहां साम्यवाद को कामयाबी मिली थी, वहाँ मशीनीकरण काफी तरक्की कर चुका था। भारत में मशीनीकरण आरंभिक दौर में था। कहने को तो वर्ग-क्रांति के समय सोवियत संघ भी भारत की तरह औद्योगिक प्रगति में पिछड़ा हुआ था। परंतु वहाँ लेनिन और ट्रोट्स्की ने वर्ग-संघर्ष की वैचारिकी का स्थानीयकरण करते हुए, संयुक्त खेती का विचार रखा था। उसके फलस्वरूप वहाँ वोल्शैविक क्रांति की जमीन तैयार हुई। भारत में अधिकांश कृषि भूमि पर समाज की ऊंची जातियों का कब्जा था, उन्हीं से निकले नेता कम्युनिस्ट पार्टी तथा उसके सहायक संगठनों को कब्जाए हुए थे। सामूहिक खेती के विचार से उनके अपने हितों को नुकसान पहुँच सकता था। इसलिए उनकी राजनीति मजूदर आंदोलनों और हड़तालों से आगे न बढ़ सकी। दूसरे शब्दों में भारतीय कम्युनिस्ट संगठन ऐसे वर्ग के भरोसे वर्ग-संघर्ष का सपना देखते रहे, जो वास्तव में था ही नहीं। शताब्दियों पहले जो काम तुलसी, सूरदास, मीरा जैसे भक्त कवियों ने रैदास, कबीर, दादूदयाल आदि संत कवियों द्वारा शुरू की गई सामाजिक क्रांति को तेजहीन करके किया था, वही धत्त-कर्म भारत के साम्यवादी दलों ने कम्युनिस्ट विचारधारा के साथ किया था। 

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दुनिया भर में प्रचलित धर्मों में पेरियार यदि किसी धर्म के प्रति नर्म नजर आते हैं तो वह है, बौद्ध धर्म। हिंदू धर्म के अलावा उन्होंने यदि किसी धर्म पर लगातार चर्चा की है, तो वह बौद्ध धर्म की। हिंदू धर्म के प्रति उनकी दृष्टि आलोचनात्मक है, वहीं बौद्ध धर्म के प्रति हम उन्हें सहानुभूतिपरक पाते हैं। दोनों के बीच वे बौद्ध धर्म श्रेष्ठतर मानते थे। हिंदू धर्म में बढ़ती धर्मांतरण की घटनाओं के लिए ब्राह्मण ईसाई मिशनरियों को जिम्मेदार मानते थे। पेरियार का विचार था कि हिंदू धर्म ने ही भारत में ईसाई धर्म और इस्लाम की राह आसान की है—

‘जो दुष्टता वे(ब्राह्मण) गैर-ब्राह्मणों के साथ बरतते हैं, वह उस दुष्टता से कम है जो वे मुस्लिमों और ईसाइयों के साथ बरतते हैं। मगर अछूतों के साथ वे जिस निर्दयता के साथ पेश आते हैं, वह किसी भी अन्य अत्याचार से बढ़कर है। अपरोक्ष रूप में हिंदू धर्म ने ही इस्लाम और ईसाई धर्म के फलने-फूलने के लिए रास्ता तैयार किया है। हिंदू धर्म बाकी दोनों धर्मों के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ है। अतएव हिंदू धर्म को नष्ट करना, गैर-ब्राह्मणों और अछूतों की सबसे बड़ी प्राथमिकता है।’22 

गौरतलब है कि दक्षिण भारत में हिंदू धर्म से इस्लाम और ईसाई धर्म की ओर अंतरण की प्रक्रिया बहुत पहले आरंभ हो चुकी थी। उनीसवीं शताब्दी में ईसाई मिशनरियों को भारत में प्रवेश की अनुमति मिलने के बाद उसमें और भी तेजी आई थी। ब्राह्मणों का मानना था कि ईसाई मिशनरियां निचली जातियों को तरह-तरह के प्रलोभन देकर उन्हें धर्मांतरण के लिए उकसाती हैं। मुगलों के शासनकाल में जहां बलपूर्वक कुछ लोग मुस्लिम बनाए गए, वहीं स्वेच्छा से इस्लाम में शामिल होने वालों की संख्या भी काफी थी। पेरियार के लिए धर्मातंरण का मुद्दा आस्था से ज्यादा सामाजिक महत्व का था। उनका मानना था कि हिंदू धर्म की आंतरिक संरचना, उसमें गैर-ब्राह्मणों एवं अछूतों की निम्नतम स्थिति उन्हें धर्मांतरण के लिए विवश करती है—

‘हमारे देश के एक करोड़ ईसाई कौन हैं? हमारे राष्ट्र में 7 करोड़ मुस्लिम कौन हैं? ब्राह्मणों एवं धार्मिक नेताओं के अत्याचारों के कारण वे धर्मांतरण के लिए बाध्य हुए थे। वे हमारे ही भाई हैं। वे यरोशलम या अरब से नहीं आए हैं।

हम 24 करोड़ लोग खुद को सम्मानित कैसे मान सकते हैं? मुस्लिम हमें ‘काफिर’ कहते हैं। ईसाई हमें ‘धार्मिक रूप से भटके हुए लोग’ बताते हैं। अँग्रेज हमें ‘कुली’ कहते हैं। ब्रिटेन हमें ‘असभ्य’ बताता है; और ब्राह्मण हमें ‘शूद्र’ कहते हैं। हम इन संबोधनों से अपमानित महसूस नहीं करते। धर्म के नाम पर चुनींदा सार्वजनिक मार्गों पर चलने से हमें आज भी रोका जाता है। वेदों में केवल चार जातियां हैं, लेकिन अब  यहाँ  4000 से अधिक जातियां हैं। ये जातियां भी अपनी पहचान बनाए रखने के लिए जूझती रहती हैं।’23 

पेरियार ने हिंदू धर्मग्रंथों की खुली आलोचना की थी। इतने तीखे स्वरों में कि विरोधी तिलमिला उठते थे। उनके निष्कर्ष तर्क केंद्रित होते थे। तार्किक विश्लेषण करते समय प्रायः वे निर्मम भी हो जाते थे। ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ की पत्रिकाओं विदुथलाई, कुदीआरसु और रिवोल्ट में हिंदू धर्म की आलोचना से जुड़े सैंकड़ों आलेख प्रकाशित हुए थे। लेखकों में पेरियार के अलावा एस. गुरुसामी और रामानाथन शामिल थे। प्रकाशित लेखों में कुछ की शैली विवेचनात्मक है तो कुछ की व्यंग्य प्रधान। कल्पना कर सकते हैं कि जिन दिनों ‘हिंदू महासभा’ जैसे संगठन हिंदू धर्म के पुनरुद्धार में जुटे थे। जिनका सपना स्वतंत्र भारत को ‘हिंदू राज्य’ के रूप में देखना था, उन्हीं दिनों पेरियार अपने सहयोगियों के साथ हिंदू देवी-देवताओं तथा उनसे जुड़े मिथों की निरंतर पड़ताल में लगे थे। यदि हिंदू कट्टरपंथी, पेरियार की तीखी, तेज-तर्रार भाषा को सहने के लिए विवश थे तो इसलिए कि लगभग पूरा का पूरा गैर-ब्राह्मण समाज पेरियार के समर्थन में था। उनका मानना था कि मनुस्मृति, गीता, रामायण, महाभारत, पुराणादि ग्रंथ ब्राह्मणवाद को थोपने के लिए रचे हैं। उनमें वर्णित आख्यान विशुद्ध काल्पनिक हैं। उन्होंने लोकप्रिय हिंदू देवताओं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रयी के अलावा इंद्र, कार्तिकेय, गणेश, राम और कृष्ण के चरित्र की बिना किसी झिझक या भय के आलोचना की थी। हमें ध्यान रखना चाहिए कि जिस समय गाँधी गीता और रामायण को भारत की राष्ट्रीय एकता का आधारग्रंथ घोषित कर रहे थे, राम को आदर्श पुरुष बताते हुए रामराज्य का सपना पूरे देश को दिखा रहे थे, उन्हीं दिनों पेरियार उनकी अन्वीक्षा में लगे थे। उपलब्ध रामकथाओं का विश्लेषण करते हुए उन्होंने ‘रामायण’ का पुनर्पाठ किया था, जो आगे चलकर ‘सच्ची  रामायण’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ विवाद का कारण बना। रावण को वे द्रविण संस्कृति के आदि संरक्षक के रूप में देखते थे। रामायण के बारे में उनका विचार था—

‘रामायण एक षड्यंत्रकारी कथा है, उसे केवल ब्राह्मणों ने वर्णाश्रम धर्म की रक्षा हेतु रचा था। उसके माध्यम से वे अपनी वैचारिकी को स्थापित करना चाहते हैं, कहते हैं कि विष्णु ने राम के रूप में अवतार लिया था।’

सीता को रावण की कैद से छुड़ाने के बाद राम राजगद्दी पर थे। तभी एक किशोर ब्राह्मण बालक मर गया। उसका पिता राम के पास जाकर बोला—‘तुम और तुम्हारे लोग धर्म के विरुद्ध काम कर रहे हैं, इसलिए आज मेरा बेटा मृत्यु को प्राप्त हुआ। एक ब्राह्मण को सौ वर्ष तक जीना चाहिए। ब्राह्मण पुत्र के अकाल मौत मरने का मतलब है कि उस देश का राजा शास्त्र-विरुद्ध काम कर रहा है।’24 ‘रामायण का अंत कैसे होता है? यह बताते हुए कि शूद्र ऋषि शंबूक की प्रार्थना करने पर ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु हुई थी। राम द्वारा शंबूक की हत्या करते ही ब्राह्मण का मृत पुत्र जीवित हो उठता है। इससे वे लोगों को क्या समझाना चाहते हैं? यह कि शूद्र को ईश्वर की सीधे पूजा नहीं करनी चाहिए। वह केवल ब्राह्मण के माध्यम से पूजा कर सकता है।’25 वर्णाश्रम व्यवस्था में मनुष्य के लिए सौ वर्ष की आयु निर्धारित की गई। लेकिन, वाल्मीकि या तुलसी यह नहीं बताते कि उस समय गैर-ब्राह्मणों की औसत आयु और सामाजिक स्थिति क्या थी। गौरतलब है कि धर्म और जाति के आधार पर समाज का विभाजन प्रकारांतर में आर्थिक विभाजन को भी न्योता देता है। जनसाधारण का उस ओर ध्यान न जाए, इसलिए कर्म-सिद्धांत गढ़ा गया है। धर्म किस प्रकार आर्थिक विषमता को जायज बनाता है। इस बारे में पेरियार का विचार था—

‘इन दिनों भिक्षा मांगने वाला ब्राह्मण भी दिन में दो बार कॉफ़ी पी लेता है, परंतु एक किसान जो कड़ी धूप में दिन-भर श्रम करता है, उसे नमक मिले मांड से काम चलाना पड़ता है। जबकि मंदिर या होटल में काम करने वाला ब्राह्मण अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देकर कलेक्टर, जज, मंत्री, प्रधानमंत्री तक बना सकता है। दूसरी ओर मेहनतकश लोगों को निचले पदों से संतोष करना पड़ता है।’26 

अपने लेखों में पेरियार बार-बार धर्म और जाति की बात उठाते हैं। हर बार मांग करते हैं, कि जाति को आमूल नष्ट होना चाहिए। इसलिए कि जाति की मदद से समाज के बड़े हिस्से को मूलभूत सुख-सुविधाओं तथा जीवन के मामूली अधिकारों से भी वंचित किया गया है। 

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सवाल है कि ब्राह्मणवाद को मजबूत करने में धर्म की भूमिका बड़ी है या जाति की। पेरियार का निष्कर्ष है, जाति की। ब्राह्मण जाति और धर्म दोनों के शिखर पर मौजूद है। अकेले धर्म की मदद से वह समाज के शिखर पर नहीं रह सकता। जाति ब्राह्मण के अधिकारों का संरक्षण करती है। वह न हो तो किसी भी जाति-वर्ग का व्यक्ति धार्मिक कर्मकांडों का संचालन कर सकता है। जैसा विदेशों में है। वहाँ मोची का बेटा चर्च में पादरी या बड़ा धर्म-पुरुष बन सकता है। हिंदू धर्म में ये पद केवल ब्राह्मणों के लिए आरक्षित हैं। इसलिए जाति की सुरक्षा के लिए ब्राह्मण कोई भी धत्तकर्म करने को तैयार रहता है। गौतम बुद्ध, महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद से लेकर गाँधी तक, जिन्होंने भी जाति-संबंधी नियमों को शिथिल करने की कोशिश की थी, सभी को अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े थे। गाँधी की ह्त्या भी एक ब्राह्मण ने की थी। पेरियार के अनुसार गाँधी स्वयं जातिवाद के समर्थक थे—

‘‘महात्माओं में सबसे बड़े महात्मा(गाँधी) कहते हैं, दुनिया सदगुण-संपन्न है। क्या उन्होंने कभी यह मांग की कि जाति का उच्छेद होना चाहिए? उन्होंने बस इतना कहा है कि छूआछूत नहीं रहनी चाहिए। क्या उन्होंने एक शब्द भी इस बारे में कहा है कि जाति का नाश होना चाहिए? उन्होंने बस यही कहा है, ‘मैंने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष किया है। मैं वर्णाश्रम धर्म समर्थित समाज से हूं। मेरा प्रथम उद्देश्य रामराज्य की स्थापना करना है।’ बावजूद इसके गाँधी को छूआछूत उन्मूलन के कार्यक्रमों की कीमत अपने प्राण देकर चुकानी पड़ी थी।(इसका आशय है कि लोग गाँधी जितना उदार बनने या उनसे कुछ सीखने को भी तैयार नहीं हैं)। वर्णाश्रम व्यवस्था कहती है कि शूद्रों को पढ़ने का अधिकार नहीं है। परंतु गाँधी अपने समय के दबावों के चलते यह मानने को विवश थे कि शूद्रों को भी पढ़ने का अधिकार है। आखिर क्या हुआ?—‘उन्हें तीन गोलियों का शिकार बनना पड़ा….उन्हें एक ब्राह्मण द्वारा गोली मारी गई थी। गाँधी ने कहा था कि हिंदू धर्म और इस्लाम एक ही हैं(अल्लाह, ईश्वर सब एक ही परमशक्ति के नाम हैं), इसलिए उनकी हत्या कर दी गई।”27  

साफ है कि ब्राह्मण के लिए धर्म से ज्यादा जाति प्रिय है। यदि कुल जनसंख्या के मात्र 3 प्रतिशत ब्राह्मण अपने स्वार्थ के लिए संगठित होकर, धर्म और जाति का इस्तेमाल करते हैं, तो बाकी लोगों का भी दायित्व बनता है कि स्वयं को अमानवीय जातीय विषमता से बचाने के लिए उसका इस्तेमाल अपने संगठन को मजबूत करने के लिए करें । इसके लिए जरूरी है—

‘द्रविड़ जनता उन मंदिरों में न जाए, केवल ब्राह्मण पुरोहित पूजा कराते हैं। खासतौर पर उन मंदिरों का बहिष्कार करे, जहां यह नियम है कि केवल ब्राह्मण ही पुरोहित बनकर पूजा-पाठ करा सकते हैं। यदि वे ऐसे मंदिरों में जाते भी हैं तो उन्हें चाहिए कि ब्राह्मणों द्वारा संपन्न कराई जाने वाले पूजा-पाठ अथवा दूसरे कर्मकांडों में हिस्सा न लें।’28 

पेरियार बहुत पढ़े-लिखे भले न हों, मगर सत्ता और धर्म के गठजोड़ को भली-भांति समझते थे। जानते थे कि धर्म को चुनौती देने के लिए उन मिथों को संद्धिग्ध बनाना होगा, जिनके माध्यम से कोई धर्म जनमानस में पैठ बनाता है। इसलिए बिना कोई नर्मी दिखाए उन्होंने हिंदू धर्मशात्रों तथा उनके द्वारा स्थापित मिथों की आलोचना की थी। जैसे गाय और हनुमान का मिथ। शंकराचार्य का वेदांत दर्शन ईश्वास्योपनिषद के इस कथन पर विश्वास करता है—’सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शांत उपासीत’—यानी जो दृष्टिगोचर है, वह ब्रह्म है। लेकिन व्यवहार में तो मनुष्यों की भांति पशुओं के बीच भी रंग और प्रजाति के आधार पर भेदभाव किया जाता है। पेरियार इस तरह के अंधविश्वासों पर मुखर थे—

‘प्रत्येक संस्कृति में अंधविश्वास नकारात्मक सोच की तरह पैठा है। वह मानव-मस्तिष्क में वैज्ञानिक सोच और तर्कशीलता को ग्रस लेता है। सांपों के प्रति डर उन्हें पूजनीय बनाता है। यह सरासर अंधविश्वास है कि सांप को पूजने के बाद वह मनुष्य को नुकसान नहीं पहुँचाएगा। विद्वानों के अनुसार आधुनिक भारत में अंधविश्वास इतना शक्तिशाली है कि  यहाँ  बंदरों की पूजा भी हनुमान के रूप में की जाती है। जिसकी छोटी-छोटी मूर्तियां देश-भर में जगह-जगह लगी हैं। उनके अलावा राजमार्गों पर विशालकाय मूर्तियां भी नजर आती हैं। इसकी न तो कोई वैज्ञानिक तुक है, न ही कारण। हमारे देश में 21वीं शताब्दी का सबसे बड़ा अंधविश्वास है, बंदर की पूजा। हनुमान की 60 फुट ऊंची प्रतिमा की पूजा तमिल नाडु में होती है। इस मूर्खता पर कोई सवाल क्यों नहीं उठाता!

उसके अलावा गाय है, जिसे हिंदू पवित्र मानते हैं और जिसे सभी हिंदुओं की मां कहा जाता है….कुल मिलाकर, पवित्रता और अपवित्रता की अवधारणाएं महज धार्मिक टोटम हैं।’29 

गाय को लेकर एक जगह वे लिखते हैं, ‘शंकराचार्य कहते हैं, गौहत्या पाप है। वे सभी जानवरों की प्राण-रक्षा की मांग नहीं करते, केवल गाय की करते हैं।30 

पेरियार का मानना था कि विशेषाधिकार प्राप्त अभिजन ब्राह्मण, भारत में वर्गहीन, समानता पर आधारित समाज की स्थापना की सबसे बड़ी बाधा हैं। उन्होंने गैर-ब्राह्मणों, दलितों और स्त्रियों की अवमानना, उनके लिए निराशाजनक स्थितियों का निर्माण करने, आजादी की राह में मुश्किल खड़ी करने के लिए ब्राह्मणों को जिम्मेदार माना था। स्त्री-समानता पर उनके विचार अपने समकालीन नेताओं की अपेक्षा कहीं ज्यादा आधुनिक थे। वैदिक रीति से विवाह, जिसमें पंडित मंत्रोच्चार करता है, वर-वधु अग्नि की सप्तपदी लेते हैं, के वे घोर विरोधी थे। मानते थे कि स्त्री-पुरुष का विवाह स्वर्ग में बनी जोड़ियां नहीं हैं। वह दांपत्य सुख के लिए किया गया समझौता मात्र है, जिसमें लड़का और लड़की दोनों बराबर के सहभागी होते हैं। मातृत्व स्त्री का चयन होना चाहिए। कर्तव्य नहीं। यदि कोई स्त्री संतान नहीं चाहती, तो उसे संतानोत्पत्ति के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। 

पेरियार ने ब्राह्मणों को विदेशी मूल के आर्यों का उत्तराधिकारी बताते हुए, द्रविड़ अस्मिता का मामला उठाया। मैक्समूलर से लेकर तिलक तक, सभी ने इस विषय पर खूब लिखा है। ‘गुलामगिरी’ और दूसरी कई पुस्तकों में फुले ने ब्राह्मणों को भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास में गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार ठहराया था। सो पेरियार का द्रविड़ अस्मितावादी आंदोलन जनता के दिल की आवाज बन गया। सांस्कृतिक वर्चस्व बनाए रखने में धर्म की भूमिका सर्वोपरि होती है। फुले ने इसे समझा था। उन्होंने धर्म और संस्कृति के आधार पर थोपे गए सांस्कृतिक प्रतीकों, मिथों की तार्किक स्तर पर पड़ताल की थी, जिसका समाज पर सकारात्मक असर पड़ा। उन्होंने धार्मिक और सांस्कृतिक शोषण को द्रविड़ अस्मिता से जोड़ा । समाज में नैतिकता और सदाचरण का पर्याय मान लिए गए धार्मिक प्रतीकों और मिथों की तार्किक व्याख्या की । रामायण की प्रतियों का दहन किया । लोगों से अपील की थी कि धर्म को धंधा बना देने वाले पंडे पुरोहितों के चक्कर में आने के बजाय स्वयं उनकी समीक्षा करें । तर्क-बुद्धि से काम लें ।     

उन दिनों देश में स्वाधीनता आंदोलन तेजी पर था। दक्षिण भी उससे अछूता न था। पेरियार के नेतृत्व में एक और समानांतर आंदोलन उभरने लगा, जिसका उद्देश्य सामाजिक-सांस्कृतिक आजादी प्राप्त करना था। इसी सिलसिले में पेरियार 1926 में बंगलुरू आए गाँधी से मिले। उन्होंने कहा कि वर्ण-व्यवस्था के उन्मूलन के बगैर छूआछूत पर काबू कर पाना मुश्किल है। गाँधी के सामने उन्होंने उस समय की तीन प्रमुख बुराइयों का उल्लेख करते हुए, उन्हें तत्काल मिटाने का आवश्यकता पर जोर दिया। पहला ब्राह्मणों के नियंत्रण वाली कांग्रेस पार्टी, दूसरा हिंदू धर्म और उसकी जाति पृथा तथा तीसरा समाज में ब्राह्मणों का वर्चस्व।

‘वायक्कम सत्याग्रह’ की सफलता के बाद पिछड़ों और अतिपिछड़ों का हौसला बढ़ा था। स्वयं पेरियार कांग्रेस से त्यागपत्र देने के बाद ब्राह्मणवाद विरोधी कार्यक्रमों में उतर चुके थे। ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ दक्षिण भारत में द्रविड़ अस्मिता की पहचान बनकर उभर रहा था। पेरियार छूआछूत विरोधी आंदोलन के प्रमुख नेतृत्वकर्ता थे। 10 फरवरी 1929 को छूआछूत उन्मूलन के मुद्दे पर बुलाई गई सभा में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था—

‘वे कहते हैं कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है। ऊंच-नीच का भेद नहीं मानता। दूसरी ओर वे कहते हैं कि अछूतों पर हो रहे अत्याचारों के लिए एकमात्र ईश्वर जिम्मेदार है। यह कितने शर्म की बात है। यह भी कहा जाता है कि छूआछूत की रचना स्वयं ईश्वर ने की है। यदि यह सही है तो सर्वप्रथम हमें उस ईश्वर का बहिष्कार करना चाहिए। उसके बाद ही किसी और कार्यक्रम पर विचार किया जा सकता है। यदि ईश्वर छुआछूत के बारे में अनजान है तो भी जितना जल्दी हो सके, उसका बहिष्कार कर देना चाहिए। यदि ईश्वर इस अन्याय को मिटाने में असमर्थ है, यदि वह ब्राह्मण पुरोहितों पर नियंत्रण करने में नाकाम रहता है तो उसे दुनिया के किसी भी स्थान पर बसने का अधिकार नहीं है। ऐसे में जितनी जल्दी हो सके, उसे उखाड़ फेंकना ही न्यायसंगत होगा। 

यदि ऐसा कोई आधार है, जो यह बताता है कि ईश्वर या धर्म छूआछूत के लिए जिम्मेदार नहीं हैं, तो उसे भी जलाकर खाक कर देना चाहिए। बजाय यह जाने कि वह क्या है अथवा किसने कहा है?’31 

पेरियार का मानना था कि भारत में ऊंची जातियां समानता की राह की सबसे बड़ी बाधा हैं। वे धर्म का उपयोग अपनी वर्गीय श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए करती हैं। राज्य के अधिकांश निर्णायक पदों पर उन्हीं का वर्चस्व होता है। इसलिए राज्य भी उनके हितों का ज्यादा ख्याल रखता है। धार्मिक जड़ता का एक कारण धर्म का उत्तराधिकार के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपा जाना है। इससे एक तो ब्राह्मण की सर्वोच्चता का विचार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को अंतरित होता रहता है। दूसरे व्यक्ति बगैर धर्म की खूबियों और खामियों की पड़ताल के, उसे अपनाने को विवश होता है। उसे अपने जीवन में धर्म की समीक्षा करने का अवसर कभी मिल ही नहीं पाता। धर्माचार्य या पुरोहित भी नहीं चाहते कि लोग धर्म के चयन में अपने विवेक और तर्क-शक्ति का इस्तेमाल करें। उपलब्ध धर्मों के गुणों-अवगुणों का परस्पर निष्पक्ष और तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद ही किसी एक धर्म को अपनाएं। ऐसे में धर्माचार्य हो अथवा धर्मानुयायी, सभी को धर्म के बाहरी प्रतीकों से अपना काम चलाना पड़ता है। कुल मिलाकर धर्म मनुष्य के विवेकीकरण में कोई मदद नहीं करता। इस कारण मानव-जीवन के लिए उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। अछूतों, गैर-ब्राह्मणों और स्त्रियों का सामाजिक अवमूल्यन करने, उनकी मुक्ति की राह में अनावश्यक अड़चन पैदा करने के लिए पेरियार ने ब्राह्मणों तथा उनके धर्म की आलोचना की थी। पेरियार के अनुसार धर्म विवेकशील मनुष्य की उसके जीवन में कोई मदद नहीं करता। इसलिए वह अनावश्यक है।  फिर भी यदि कोई व्यक्ति खूब सोच-विचार के बाद किसी धर्म का स्वेच्छापूर्वक चयन करे—तब उन्हें कोई आपत्ति न थी। उनके अनुसार केवल भली-भांति सोचने के बाद स्वेच्छापूर्वक ढंग से अपनाया गया धर्म लोगों को मुक्त कर सकता है वही उनकी धार्मिक दासता को समाप्त कर सकता है। धर्म और मानवीय विवेक को परस्पर विरोधी बताते हुए पेरियार का कहना था कि केवल तर्क-सम्मत आधार पर, स्वेच्छापूर्वक अपनाया गया धर्म ही, जाति और धर्म की मदद से दास बनाए गए लोगों का आत्मसम्मान वापस दिला सकता है। 

पेरियार की नजर में ‘शुचिता’

विशेष रुप से प्रदर्शित

ई. वी. रामासामी पेरियार

[पेरियार की गिनती बीसवीं शताब्दी के महान विचारकों और समाज सुधारकों में की जाती है। उनका चिंतन बहुआयामी तथा अपने समय से बहुत आगे था। जहां अन्य समाज सुधारक सती प्रथा, विधवा विवाह, बाल विवाह जैसी कुरीतियों के समाधान में उलझे हुए थे, पेरियार स्त्री समानता, स्वाधीनता तथा उनके नागरिक अधिकारों के पक्ष में जोरदार तरीके से अभियान चला रहे थे। 1934 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘पेन्न यीन अदीमाई आनल’, स्त्री-विमर्श की दृष्टि से भारतीय भाषाओं की पहली मौलिक पुस्तक कही जा सकती है। चाहें तो हम इसे भारत में स्त्री-विमर्श का पहला ‘मेग्नाकार्टा’(अधिकारपत्र) भी कह सकते हैं। इस पुस्तक में पेरियार के, ‘कुदीआरसु’ में 1926 से 1931 के बीच प्रकाशित लेखों में से दस चुने हुए लेखों को शामिल किया गया था। पुस्तक के फ़्रांसिसी अनुवाद का विमोचन जुलाई 2005 में पेरिस में किया गया था। 

पुस्तक का मूल तमिल से अंग्रेजी में अनुवाद सुश्री मीना कंडासामी ने ‘व्हाई वूमेन वर इनस्लेव्ड'(स्त्रियों को गुलाम क्यों बनाया गया?) शीर्षक से किया है। प्रकाशक हैंㅡपेरियार सेल्फ रेस्पेक्ट प्रोपेगेंडा इंस्टीट्यूशन, चैन्नई। यह लेख उसी पुस्तक के 2019 में प्रकाशित तीसरे संस्करण के प्रथम लेख की हिंदी रूपांतर है। भारतीय मनीषा स्त्री की शुचिता पर जोर देती है। हिंदू धर्मशास्त्रों में पतिव्रता स्त्री का बड़ा महिमामंडन किया गया है। पेरियार इसे स्त्री की दासता का सबसे बड़ा कारण मानते हैं। लेख में वे शुचिता की जिस तरह तात्विक विवेचना करते हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है।]

यदि हम तमिल शब्द ‘कार्पू’(शुचिता) के घटक तत्वों के आधार पर इसकी विवेचना करें, तो पाएंगे कि मूल शब्द ‘काल’ से इसकी उत्पत्ति हुई है, जिसका अभिप्राय है—‘सीखने के लिए’। यदि हम इस शब्द को, जैसा कि यह ‘कार्पू येनप पदुवथु सोलथिरंबमई’ कहावत में प्रयुक्त हुआ है—पर नजर डालें तो पाएंगे कि ‘कार्पू’ शब्द का अभिप्राय, ‘किसी के वचन पर खरा उतरना’ है(यही इस कहावत के मायने हैं)। इस तरह इस शब्द में सत्यनिष्ठा, सचाई और समझौते की शर्तों पर ईमानदारी से टिके रहने की भावना समाविष्ट है।

यदि हम ‘कार्पू’ शब्द का उसकी समग्रता में विश्लेषण करें, तो इसे ‘मगालिर नीराई’(स्त्रियों के सद्गुणों) को दर्शाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। यहां हम यह समझने में असमर्थ हैं कि ‘नीराई’(सद्गुण) शब्द को विशेषतः स्त्रियों पर कब से थोप दिया गया। ‘नीराई’ शब्द का पर्याय—अभेद्यता(अविनाशिता), दृढ़ता अथवा शुचिता है। मगर किसी के लिए भी यह सिद्ध करना पूरी तरह सेअसंभव है कि ‘कार्पु’ सिर्फ स्त्रियों के संबंध में प्रासंगिक है। हम केवल उसके अर्थ खोज सकते हैं—‘अविनाशी’, मजबूत और टिकाऊ।

यदि हम ‘अविनाशी’ शब्द का समग्र विवेचन करें तो यहां उसका सही अर्थ है—शुद्ध,  अर्थात ‘अविकारित’ और अकलुषित। अंग्रेजी में भी ‘प्योर’(शुद्ध) शब्द का आशय किसी अविकारित वस्तु या विचार से है। ऐसी वस्तु से है जिसे खराब न किया गया हो। इस तरह अंग्रेजी शब्द ‘चेस्टिटी’(शुचिता) का अर्थ है—‘वर्जिनिटी’(कौमार्य)। यदि हम संदर्भ में समझा जाए तो, यह शब्द स्त्रियों तथा पुरुषों में से किसी एक के पक्ष में परिभाषित नहीं है। अपितु संपूर्ण मानव जाति को लक्षित है। और इसका अर्थ है—‘लिंग विशेष की सीमा से परे, परमशुद्धता की अवस्था।’ कुल मिलाकर ‘शुचिता’ का संबंध सिर्फ स्त्रियों से नहीं है। इसे इस तरह से भी देखा जा सकता है कि जब कोई पुरुष/स्त्री सहवास करता/कर चुका होता है, उन दोनों की अनुवर्ती पवित्रता के बावजूद, वह(चाहे स्त्री हो या पुरुष) अपनी शुचिता को गंवा देता है।

केवल ‘इंडो-आर्यन’ भाषा संस्कृत में ‘शुचिता’ को पतिव्रता(निष्ठावान पत्नीपन) के रूप में परिभाषित किया गया है। मैं समझता हूं कि यहीं, इसी जगह(इसी भाषा में) पराधीनता की अवधारणा को शुचिता शब्द में समाविष्ट कर दिया गया था। ‘पतिव्रता’ शब्द स्पष्ट रूप से स्त्री-पराधीनता की स्थिति को दर्शाता है। न केवल इसलिए कि इसका अभिप्राय ऐसी पत्नी से है जो, ‘अपने पति को भगवान का दर्जा देती है; पति की दासी बनकर रहने को ही जो अपना ‘संकल्प’(व्रत) मान लेती है, और अपने पति के अलावा वह किसी अन्य पुरुष का विचार तक नहीं रखती। इसलिए भी कि ‘पति’ शब्द का आशय ही स्वामी, रहनुमा और सर्वेसर्वा से है।

यद्यपि, तमिल शब्द ‘थलायवी’(नेतृत्व करने वाली महिला) अथवा ‘नायकी’(नायिका) पत्नी के ही बोधक हैं, किंतु इन शब्दों का उपयोग विशिष्ट अवस्था में तब किया जाता है जब कोई स्त्री प्रेम की अवस्था में हो। जैसे कि ‘थलायवी’ शब्द का प्रयोग उसके वास्तविक अर्थों में नहीं किया जाता, ऐसी स्त्री के संदर्भ में नहीं जो विनीत भाव से जीवन में तल्लीन हो। यही नहीं, उसके समकक्ष शब्दों ‘नायकन’(नायक) और ‘नायकी’(नायिका) का प्रयोग भी सिर्फ महाकाव्यों, कहानियों और विशेषरूप से ऐसी जगह मिलता है, जहां स्त्रियों और पुरुषों के मनोरथ पर जोर दिया गया हो। इसी तरह समानधर्मा शब्दों ‘नायकन-नायकी’(नायक-नायिका) तथा ‘थलायवन-थलायवी’ का प्रयोग प्रेम के विभिन्न चरणों तथा इच्छाओं को दर्शाने के लिए जाता है, जबकि शुचिता की अवस्था केवल स्त्रियों से संदर्भित  है, जिनसे कहा जाता है कि वे अपने-अपने पति को अपना स्वामी और भगवान समझें।

इस मामले में, तिरुवेल्लुवर के विचारों को लेकर मैं थोड़ा भ्रमित हूं। मैं महसूस करता हूं कि तिरुक्कुल के छठे अध्याय, ‘वाझकई थुनेईनलम’(जीवनसाथी का महत्त्व), 91वें अध्याय ‘पेन्नवझी चेराल’(स्त्रियों के नेतृत्व में) तथा कुछ अन्य स्वतंत्र दोहों में, स्त्री के संदर्भ में चरम दासता और घटियापन का वर्णन  किया गया है। यहां तक कह दिया गया है कि जो स्त्री देवताओं को पूजने के बजाय अपने पति की पूजा करती है, उसके आदेश पर बादल भी बरसने लगते हैं, स्त्री को हमेशा अपने पति की सेवा करनी चाहिए—इसी तरह के अनेक घटिया विचार उसमें मिलते हैं।

यदि कुछ लोग इससे असहमत हैं, तो मैं उनसे तिरुक्कुरल के छठे और 91वे अध्यायों का पढ़ने का आग्रह करूंगा, खासतौर पर इसके बीस दोहों(दोहे जैसा दो पंक्तियों का छंद) को, उनके मूल स्वरूप में पढ़ें। न कि उनकी टीकाओं के माध्यम से। सामने कोई भी आए, उनके चरम तर्कों की परवाह किए बिना, अंतत: मैं उनसे एक ही तथ्य पर ध्यान देने का आग्रह करूंगा कि, ‘यदि इन पदों की रचना करने वाले तिरुवेल्लुवर पुरुष न होकर कोई स्त्री रहे होते, क्या तभी वे इन्हीं विचारों का चित्रण कर रहे होते? इसी तरह यदि स्त्रियों ने ही, स्त्रियों के बारे में धर्मशास्त्रों सहित दूसरी पुस्तकें भी रची होतीं, अथवा स्त्रियों ने ‘शुचिता’ शब्द को परिभाषित किया होता, तब क्या वे भी ‘शुचिता’ को ‘पतिव्रता’ जैसा ही अर्थ देतीं?

चूंकि ‘शुचिता’ को ‘पतिव्रता’ के रूप में परिभाषित किया गया है और चूंकि धन-संपत्ति, आमदनी और शारीरिक बल की दृष्टि से पुरुष को स्त्री की अपेक्षा अधिक बलशाली बनाया गया है, सो इसने ऐसी परिस्थितियों को जन्म दिया है, जो स्त्री पराधीनता को बनाये रखने के पक्ष में हैं। दूसरी ओर मनुष्य यह सोचकर मूर्ख बना रहता है कि ‘शुचिता’ से संबंधित कोई भी अवधारणा उसके ऊपर लागू नहीं होती। पुनश्चः, पितृसत्तात्मकता ही एकमात्र कारण है जिससे ऐसे शब्द जो दिखाएं कि शुचिता पुरुष के लिए भी उतनी ही अभीष्ट है, हमारी भाषाओं से गायब कर दिए गए है।

यह नहीं कहा जा सकता कि किसी देश, धर्म अथवा समाज ने इस विषय को लेकर ईमानदारी से काम किया है। केवल रूस(सोवियत भूमि) इसका अपवाद है। उदाहरण के लिए, हालांकि ऐसा प्रतीत होता है कि यूरोपियन स्त्रियों को ढेर सारी स्वाधीनता है, बावजूद इसके श्रेष्ठत्व और हेयत्व का बोध वहां ‘पति’ और ‘पत्नी’ के पर्यायवाची के रूप में निर्दिष्ट किए गए शब्दों में साफ नजर आता है। यहां तक कि वहां का कानून भी स्त्री को पुरुष की आज्ञाकारिणी बने रहने को आवश्यक मानता है। 

पुनश्चः कुछ समाजों में परदे की प्रथा लागू है। वहां स्त्रियों की घर की चौखट पार करने की आजादी नहीं होती। यदि जाना ही हो तो उन्हें मुंह को ढंककर जाता निकलना पड़ता है। वहां एक पुरुष अनेक स्त्रियों से विवाह कर सकता है, जबकि स्त्री को एक से अधिक पुरुषों से विवाह करने की अनुमति नहीं होती। और अपने देश में, हमारे यहां तो स्त्री पर अनेकानेक प्रतिबंध हैं। एक बार पुरुष की विवाहिता बन जाने के बाद मृत्युपर्यंत, स्त्री से उसकी स्वाधीनता छिन जाती है। उसका पति अनेक स्त्रियों से विवाह कर, उसके सामने घर में रह सकता है,  और यदि पत्नी अपने पति के घर में हो, तब भी आपसी विश्वासहीनता के कारण वह अपने पति से केवल भोजन की अपेक्षा कर सकती है। पति पर अपनी कामेच्छाओं की संतुष्टि हेतु दबाव डालने का उसे कोई अधिकार नहीं है।

यह कहना मुश्किल है कि केवल कानून और धर्म ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। चूंकि स्त्रियों ने हालात से खुद समझौता कर लिया है, इस कारण स्थिति दुस्संशोध्य/दीर्घस्थायी हो चुकी है। ठीक ऐसे ही जैसे शताब्दियों पुरानी परंपरा के चलते उन लोगों ने जिन्हें नीची जाति का घोषित किया गया था, मान लिया था कि वे सचमुच नीच जाति के हैं। इस कारण उनमें सिर झुकाने, छिपने या दूर हटकर सवर्णों के लिए रास्ता खाली करने की होड़-सी मच जाती है। इसी तरह, स्त्रियां भी सोचती हैं कि वे पुरुष की संपत्ति हैं। इसके मायने हैं कि उन्हें पुरुष के अधीन रहना चाहिए और मनुष्य के गुस्से का पात्र नहीं बनना चाहिए। इस कारण वे अपनी स्वाधीनता की भी चिंता नहीं करतीं।

यदि स्त्रियां वास्तव में अपनी आजादी चाहती हैं, तो शुचिता की अवधारणा को जो लिंग के आधार पर स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग न्याय का प्रावधान करती है—को तत्काल नष्ट कर देना चाहिए। उसके स्थान पर स्त्री-पुरुष दोनों के लिए एकसमान, स्वःशासित शुचिता की अवधारणा विकसित होनी चाहिए। बलात विवाह, जिसमें बिना किसी प्रेम-भाव के, सिर्फ शुचिता की रक्षा के नाम पर, लोगों को एक-दूसरे के साथ दांपत्य जीवन में बांध दिया जाता है—का नाश हो जाना चाहिए।

निर्दयी धर्म और कानून, जो शुचिता/पातिव्रत धर्म के नाम पर स्त्रियों को पति की पशुवत हरकतों को भी सहते जाने का आदेश देते हैं—उन्हें नष्ट हो जाना चाहिए।

यही नहीं, समाज की क्रूर व्यवस्थाएं, जो यह अपेक्षाएं करती हैं कि शुचिता और पवित्रता के नाम पर हृदय में उमड़ते प्रेम और अनुराग को दबाकर, ऐसे व्यक्ति के साथ रहना चाहिए जिसके साथ न प्रेम हो न ही अनुराग—तत्क्षण बंद हो जाना चाहिए।

इसलिए, कोई व्यक्ति समाज में तभी वास्तविक शुचिता, प्राकृतिक शुचिता, एवं संपूर्ण स्वाधीन शुचिता के दर्शन कर सकता है, जब इन क्रूरताओं का अंत हो जाए। ऐसा जोर-जबरदस्ती से कभी नहीं होगा, न ही विभिन्न लिंगों के लिए अलग-अलग कानून बना देने से होगा, न ही यह शक्तिशाली वर्ग द्वारा कमजोरों के लिए कलमबद्ध निर्देशों के दम पर यह संभव है, इससे केवल दासवत और थोपी गई शुचिता ही संभव है।

मैं तो यहां तक कहूंगा कि इसकी तुलना में समाज में दूसरा और कोई घिनौना कृत्य ही  नहीं है।

कुदीआरसु

8 जनवरी, 1928

अनुवाद : ओमप्रकाश कश्यप

बहुजन राजनीति : कामयाबी के लिए जरूरी हैं बड़े सामाजिक आंदोलन

विशेष रुप से प्रदर्शित

देश इस समय दो प्रकार की ताकतों के प्रभाव में हैं। अपने-अपने स्वार्थ के लिए दोनों ही इसके भविष्य से खिलवाड़ कर रही हैं। पहली━हिंदुत्व समर्थक ताकतें, जो धर्म का इस्तेमाल राजनीतिक औजार की तरह करती हैं। उनका असल उद्देश्य जाति तथा उसके आधार पर सवर्णों को प्राप्त विशेषाधिकारों को सुरक्षित रखना है। भाजपा और आरएसएस जैसे संगठन इसके उदाहरण हैं। आज वे राष्ट्रवादी होने का दावा करते हैं, जबकि आजादी से पहले उनका बड़ा हिस्सा अंग्रेजों का पिट्ठू बना था। अंग्रेजी राज बना रहे, उससे प्राप्त सुविधाएं मिलती रहें━इसके लिए उन्होंने अंग्रेजों की हरसंभव मदद की थी। 

दूसरी पूंजीवादी ताकतें, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के समय से ही अंग्रेजों के साथ थीं। विश्वयुद्धों के दौरान उन्होंने खूब चांदी काटी थी। बाद में देशभक्त होने का दावा करते हुए वे भी खुद को ‘राष्ट्रवादी’ कहने लगीं। मौका देख कुछ पूंजीपति अखबार और मीडिया के धंधे में घुस गए। उद्देश्य था सरकार और जनता दोनों पर अपनी पकड़ बनाए रखना। ताकि उसका उपयोग मनमाफिक सरकार चुनने; तथा निर्वाचित सरकार से मनमुताबिक काम लेने के लिए कर सकें। 

हिंदुत्व : जातिवाद का सुरक्षाकवच

जातिवादी ताकतों के लिए धर्म अध्यात्म-चेतना का स्वाभाविक विस्तार न होकर, शुद्ध राजनीति है। वे चाहती हैं कि भारत हिंदूवादी राष्ट्र बने। लेकिन वे हजारों वर्ष पुराने जाति-भेद को मिटाने की बात नहीं करतीं। उन जातियों को मिटाने की बात नहीं करतीं जिन्होंने पूरे समाज को ‘शासक’ और ‘शासित’ में बांट दिया है। यह कौन नहीं जानता कि बहुलांश शासित जातियां ही समाज की वास्तविक उत्पादक शाक्ति हैं। मगर देश और समाज के सुखोपभोग हेतु दिन-रात पसीना बहाने के बावजूद उन्हें अधिकार-विपन्न अवस्था में, अपमानित होकर जीना पड़ता है। इस विसंगति को मिटाने की उनकी पार्टी या सरकार के पास कोई योजना नहीं है। शिखर पर बने रहने की उनकी चाहत कभी मंडल बनाम कमंडल, कभी गुजरात मॉडल, कभी मंदिर-मस्जिद और कभी हिंदू-मुस्लिम के नाम से बाहर आती रहती है। जिस हिंदू राष्ट्र की बात वे करती हैं, उसमें संविधान के लिए कोई जगह नहीं है। उनका ‘आदर्शलोक’ मनुस्मृति के कथित ‘दिव्यादेशों’ को ही महत्व देता है।  

अपने स्वार्थपूर्ण गठजोड़ के बल पर ये शक्तियां आजादी के दौरान विकसित सामाजिक-सांप्रदायिक सौहार्द्र को कमजोर करने में कामयाब रही हैं। बहुजन समाज को उन्होंने इतने छोटे-छोटे गुटों में बांट दिया है कि अल्पसंख्यक अभिजन की संगठित ताकत की तुलना में उसकी प्रभावी शक्ति शून्य नजर आती है। इसके लिए केवल भाजपा या आरएसएस दोषी नहीं हैं। विपक्ष भी बराबर का जिम्मेदार है। वह भूल चुका है कोरी राजनीति से केवल सत्ता परिवर्तन संभव है। सामाजिक परिवर्तन की त्वरा को बनाए रखने के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता आवश्यक है। बीसवीं शताब्दी में भारतीय समाज जिन परिवर्तनों से गुजरा है, उनके पीछे सामाजिक आंदोलनों की बड़ी भूमिका थी। उनके मूल में फुले, पेरियार, डॉ. आंबेडकर, रामस्वरूप वर्मा, बाबू जगदेवप्रसाद, राममनोहर लोहिया जैसे महापुरुषों की प्रेरणाएं थीं। आज उनकी विचारधाराएं भले ही पहले से कहीं परिपक्व अवस्था में मौजूद हों, मगर उनसे कट जाने तथा केवल सत्ता की राजनीति करने के कारण━आज पूरा विपक्ष हताश, निराश और किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आता है।

हुजन हितों की कीमत पर राजनीति की बिसात

ऐसा नहीं है कि राजनीति और पूंजीवाद का गठजोड़ एकदम नया हो। आजादी के बाद से ही दोनों एक-दूसरे का सहारा बनते आए हैं। मगर भाजपा ने धर्म को भी इसमें शामिल कर लिया है। संविधान सम्मत धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर उस भरोसा नहीं है। इस कारण यह पहले से कहीं ज्यादा बेशर्म, कहीं अधिक विकृत रूप में हमारे सामने है। सात साल पहले विकास के नारे के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार, बहुजन हितों की कीमत पर, अपने सांप्रदायिक एवं राजनीतिक हितों को साधने में लगी है। 

यह वही भाजपा है जो एक-डेढ़ दशक पहले तक स्वदेशी का राग अलापती थी। कांग्रेस की यह कहकर आलोचना करती थी कि उदारीकरण के नाम पर उसने विश्वबैंक सहित विदेशी आर्थिक शक्तियों के आगे समर्पण कर दिया है। मगर सत्ता में आने के बाद वह स्वदेशी की बात करना भूलकर, सार्वजनिक उद्यमों को ओने-पौने दाम बेचने पर तुली है। गौरतलब है कि धर्म, पूंजी और राजनीति के ऐसे ही बेशर्म गठजोड़ ने फ्रांसिसी क्रांति को जन्म दिया था। इस देश में समाजवाद तो कभी नहीं रहा। कुछ हिस्सों को छोड़कर वामपंथ को भी अपेक्षित समर्थन नहीं मिल पाया है। किंतु पूंजीवादी ताकतों के आगे सर्वस्व समर्पण कर देने का साहस तो मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार का भी नहीं था━जिसे देश में उदार आर्थिक नीतियां लागू करने का श्रेय दिया जाता है।

विकास के आरंभिक दौर से ही पूंजीवाद व्यक्ति-स्वातंत्र्य का समर्थक रहा है। इसलिए नहीं कि उसे व्यक्ति-मात्र की आजादी से प्यार है। बल्कि इसलिए कि अर्थव्यवस्था के बाजारीकरण के लिए व्यक्ति-स्वातंत्र्य अपरिहार्य है। फिर भारत में पूंजीवाद तथा हिंदुत्व जैसी घोर सांप्रदायिक विचारधारा के गठजोड़ का कारण? गंभीरतापूर्वक विचार करें तो पता चलेगा कि भारत में यह पूंजीवाद की जरूरतों के चलते नहीं, बल्कि फासीवादी ताकतों की स्वार्थपरता के कारण संभव हुआ है।

यह भी कह सकते हैं कि स्वार्थ-सिद्धि की खातिर फासीवादी ताकतों ने पूंजीवाद के समक्ष खुद को समर्पित कर दिया है। रणनीति के रूप में पूंजीवाद ने भी इसे स्वीकार कर लिया है, ताकि वह मजबूर सरकार से मनचाहे फैसले करा सके। धर्म तथा पूंजीवाद के गठजोड़ की सफलता का कारण है कि ये दोनों ही, समाजार्थिक असमानता को नैसर्गिक मानते हैं। समानता, स्वाधीनता और न्याय जैसे मानवतावादी मूल्यों के लिए उनके यहां कोई जगह नहीं है। अपनी स्वार्थपरता पर पर्दा डालने के लिए दोनों ही दान-धर्म, पुण्यादि का बढ़-चढ़कर प्रचार करते हैं। इससे वे जन-असंतोष को कम करने में सफल हो जाते हैं। उनके निरंतर प्रचार-प्रसार से प्रभावित जनसाधारण, सरकार तथा दूसरी शीर्ष शक्तियों को अपना एकमात्र उद्धारक मानकर, समझौतावादी बन जाता है। 

षड्यंत्र को बहुजन भी समझते हैं

ऐसा नहीं है कि बहुजन धर्म, राजनीति और पूंजीवाद के स्वार्थपूर्ण गठजोड़ से सर्वथा अनजान हों। धर्म की आड़ में उत्तरोत्तर फलता-फूलता ब्राह्मणवाद उनकी नजरों से छिपा हो। मुश्किल यह है कि धर्म-राजनीति और पूंजीवाद के संगठित हमलों का सामना करने के लिए जो जमीनी संघर्ष तथा उसे दिशा देने वाले आंदोलन चाहिए━वे इन दिनों पूरी तरह नदारद हैं। ऐसा कोई सामाजिक-राजनीतिक संगठन नहीं है जिसकी पैठ पूरे देश में हो और जो सभी बहुजनों को स्वीकार्य हो। उसके अभाव में आक्रोश की परिणति कथित ‘सोशल मीडिया’ तक सिमटकर रह जाती है, जो किसी भी तरह से ‘सोशल’ नहीं है। वह लोगों को जिस सांगठनिक एकता की प्रतीति कराता है वह पूर्णतः आभासी है। इंटरनेट के माध्यम से मनुष्य विद्युतीय त्वरा के साथ अपने समूहों, मित्रों आदि से तत्क्षण संपर्क कर सकता है, इसलिए वह जमीनी माध्यमों जो आमने-सामने का संपर्क कराते हैं, तथा उनके द्वारा बने संगठनों की आवश्यकता से मुंह मोड़े रहता है।

‘सोशल मीडिया’ के हिसाब से देखा जाए तो पूंजीवाद और भाजपा सहित दूसरे फासीवादी संगठनों के विरुद्ध बहुजनों में आक्रोश उमड़ता हुआ दिखाई देगा। जबकि वास्तविकता इससे अलग है। असल में यह ऐसा माध्यम है जिसे पूंजीवादी तंत्र ने अपने मुनाफे तथा दीर्घकालिक स्वार्थों की सिद्धि हेतु खड़ा किया है। उसका उपयोग जो जितना ज्यादा शक्तिशाली है, वह उतने ही प्रभावशाली ढंग से कर सकता है। 

सोशल मीडिया ठेठ पूंजीवादी आयोजन है  

दरअसल जिसे ‘सोशल मीडिया’ कहा जाता है उसे पूंजीवादी शक्तियों ने जनाक्रोश के समयानुसार शमन हेतु खड़ा किया है। जैसे प्रेसर कुकर, समय-समय पर भाप को निकालकर, दबाव को एक सीमा से अधिक नहीं बढ़ने देता, यही काम ‘सोशल मीडिया’ कर रहा है। वह पूंजीवादी संस्थानों द्वारा अपने मुनाफे और बढ़ती आर्थिक-सामाजिक विषमताओं की ओर से ध्यान हटाने के लिए खड़ा किया गया, ठेठ पूंजीवादी आयोजन है। वह जनाक्रोश को स्वर तो देता है, किंतु एक विचार की दूसरे विचार पर इतनी तीव्र ‘ओवरलेपिंग’ करता है कि दिमाग चकराने लगता है। उसके माध्यम से विचारधाराओं के बोन्साई संस्करण, इतनी तेजी से संज्ञान में आते हैं कि पाठक को उन्हें आत्मसात करने, उनके साथ अपनी स्थिति का तादात्मय बिठाने तथा उन्हें आंदोलन का रूप देने के लिए समय ही नहीं मिल पाता। परिणामस्वरूप वैचारिक स्फुर्लिंग, जुगनुओं की तरह टिमटिमाकर अंधेरे में विलीन होते रहते हैं।

सोशल मीडिया का  उपयोग : सावधानी जरूरी है

यहां सोशल मीडिया की उपयोगिता और आवश्यकता को नकारने का हमारा कोई उद्देश्य नहीं है। खासकर ऐसे समय जब टेलीविजन और अखबार बड़े पूंजीपति घरानों के कमाऊ पूत बनकर रह गए हैं, विरोधी स्वरों को संगठित कर आगे बढ़ाने के लिए ‘सोशल मीडिया’ से जनमाध्यम का काम लिया जा सकता है। उसने आमजन को मुखर होना सिखाया है। यह अनायास नहीं है कि सरकार के चहेते पूंजीपतियों अंबानी और अडानी के विरुद्ध कथित ‘सोशल मीडिया’ पर आवाजें बुलंद हो रही हैं। कभी धीरूभाई अंबानी के आर्थिक साम्राज्य को खड़ा करने में मददगार रही कांग्रेस के नेता राहुल गांधी सार्वजनिक मंचों से सरकार को पूंजीपतियों की अवांछित मदद करने का आरोप लगा चुके हैं। ऐसा पहली बार हुआ है जब आक्रोशित किसानों ने रिलायंस के टावरों को उखाड़ फेंकने की कोशिश की हो, और अंबानी समूह को मदद के लिए सरकार के आगे गुहार लगानी पड़ी हो। यह भी पहली बार हो रहा है कि जनता के कोप से बचने के लिए पंजाब में रिलायंस के स्टोर महीनों से बंद पड़े हैं। इसलिए ऐसे समय में जब टेलीविजन, अखबार तथा संचार के अन्यान्य साधनों को पूंजीवादियों और राजनेताओं ने अपने कब्जे में कर लिया हो, यह कम से कम ऐसा मंच तो है जिसके माध्यम से समाज के एकदम निचले वर्ग के लोगों की भावनाएं सामने आ रही हैं। इसलिए जन-अभिव्यक्ति को स्वर देने वाले किसी भी माध्यम की उपयोगिता से इन्कार नहीं किया जा सकता। किंतु आवश्यक है कि उनका प्रयोग आंदोलन को एकजुट करने के लिए सहायक के तौर पर किया जाए, न कि निर्देशक शक्ति के रूप में। 

जनता के गुस्से को बदलाव का संवाहक बनाना जरूरी

धर्म-पूंजीवाद और राजनीति के विरुद्ध उमड़ा आक्रोश समाज में वास्तविक बदलाव का कारक नहीं बन पा रहा है। आखिर क्यों? यहां 2011 की घटनाओं को याद करने की कोशिश करें। टयुनीशिया से भड़के जनविद्रोह ने देखते ही देखते यमन, बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात, लीबिया, इराक सहित यूरोप के भी कई देशों को अपनी चपेट में ले दिया था। विद्रोह इतना प्रबल था कि कई अरब देशों में निरंकुश सत्ताधीशों को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी। कुछ देशों में तो गृह-युद्ध जैसे हालात बन चुके थे। उसके पीछे सोशल मीडिया का बड़ा योगदान था। इतना कि आम भाषा में उसे ‘फेसबुकिया विद्रोह’ भी कह दिया जाता है। 

सोशल मीडिया के बल पर हुई वे आधी-अधूरी क्रांतियां, कुछेक देशों में तख्तापलट के बावजूद, अपेक्षित व्यवस्था-परिवर्तन करने में नाकाम सिद्ध हुई थीं। कारण वही जो हमने ऊपर गिनाए हैं। इंटरनेट पर विद्युतीय त्वरा से आ रही सूचनाएं, समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित कर, केवल विद्रोह की मनःस्थिति पैदा कर सकती हैं, जमीनी चेतना के अभाव में वास्तविक परिवर्तन की संवाहक नहीं बन सकतीं। उसके लिए क्रांतिकारी विचारधाराओं को केवल जानना ही नहीं, उन्हें लोकमानस में उतारना पड़ता है। जबकि सोशल मीडिया पर एक के बाद एक तेजी से आ रहे विचार, सूचनाओं का रूप लेकर, विचारहीनता के हालात पैदा कर देते हैं। परिणामस्वरूप समाज भीड़ की तरह वर्ताब करने लगता है। 

सोशल मीडिया और पूंजीवाद

2011 की जनक्रांतियां भले ही नाकाम हुई हों, किंतु उनके माध्यम से पूंजीवादी ताकतें विभिन्न राजनीतिक दलों और सरकारों को यह समझाने में कामयाब हुई थीं कि वे जनता को बड़े पैमाने पर भड़काकर न केवल जनविद्रोह के हालात पैदा कर सकते हैं, बल्कि चाहें तो तख्तापलट भी करा सकते हैं। बिना उनकी मदद के सत्ता में बने रहना तो क्या, वहां तक पहुंचना भी संभव नहीं है। अप्रत्यक्ष रूप से वह सत्ता-लोलुप दलों के लिए एक संदेश भी था कि सोशल मीडिया और पूंजीपतियों के समर्थन से वे अपने सपनों को साकार कर सकते हैं। भारत में उन घटनाओं पर बहुत कम लिखा गया। संभवतः लिखने से जानबूझकर बचा गया। लेकिन उनसे सबक लेने वाले संगठन कम नहीं थे। उनमें प्रमुख थे आरएसएस, भाजपा तथा उनके अनुषंगी संगठन, जो आजादी के बाद से ही अपने जातिवादी एजेंडे को थोपने के लिए सत्ता में आने को लालायित थे। ‘आम आदमी पार्टी’ का उदय भी ऐसे ही आंदोलन से हुआ था। 

बदलाव के लिए जमीनी आंदोलन जरूरी

सोशल मीडिया की मदद से बहुजन बुद्धिजीवी अपने विचारों को तेजी से अपने समर्थकों और विरोधियों तक पहुंचा सकते हैं। उसके माध्यम से बहुजन समाज में जागरूकता भी पैदा कर सकते हैं। ब्राह्मणवाद की धूर्तताओं से अपने लोगों को परचाकर उन्हें बड़े आंदोलन के लिए तैयार भी कर सकते हैं। लेकिन क्रांतिधर्मा विचारधाराओं को आमूल परिवर्तन की संवाहक बनाने के लिए, जमीनी आंदोलनों की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। 

दूसरे शब्दों में डॉ. आंबेडकर, पेरियार, डॉ. रामस्वरूप वर्मा, स्वामी अछूतानंद, गाडगे महाराज, ललई सिंह ‘पेरियार’, कांशीराम आदि महापुरुषों की विचारधाराओं से प्रेरणा लेने के साथ-साथ उनके द्वारा शुरू किए गए आंदोलनों को भी━नए समय और संदर्भों के साथ, नए रूप में आगे बढ़ाने की जरूरत आज भी पहले जितनी ही है। मार्क्स के शब्दों में कहें तो विचारधाराएँ अनेक हैं, समस्या उन्हें परिवर्तन का वाहक बनाने की है। इसलिए बहुजन हितैषियों को चाहिए कि वे परिवर्तनकारी विचारधाराओं को समझने के साथ-साथ, उन्हें जनांदोलन में बदलने के लिए भी काम करें।

ओमप्रकाश कश्यप