राजेंद्र यादव : साहित्य-सरोवर का ‘हंस’

‘‘विडंबना यह है कि नितांत अधार्मिक साधन ही धर्म की रक्षा करते हैं, मानवता को बचाए रखने के लिए निरंकुश अमानवीयता का इस्तेमाल करना पड़ता है, नैतिकता की शुचिता बनाए रखने के लिए न जाने कितनी अनैतिकताओं का सहारा लेना पड़ता है. गांधी जी की ‘गरीबी’ कितनी महंगी पड़ती थी—इसे खुद सुशीला नैयर ने बताया है….सही है कि साध्य ही साधनों को ‘जस्टीफाई करता है, मगर साध्य स्वयं इतना ‘महान’ है कि उसके लिए हर तरह का साधन सही है, तो सवाल उठेगा कि साध्य की महानता तय करने वाले कौन हैं? रावण गलत है, राम सही या कौरव अधार्मिक हैं, पांडव धार्मिक—यह तय करनेवाले राम और पांडव ही हैं न, बल्कि उनसे भी ज्यादा उनकी विजय उन्हें सही बनाती है. एक ही धर्म के दो संप्रदाय एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं, क्योंकि दोनों अपने-अपने कॉज के प्रति सच्चे होते हैं….अगर हम साध्य और साधन के सवाल को सिर्फ नैतिक या बौद्धिक स्तर पर ही रखेंगे, तो शायद कहीं नहीं पहुंच पाएंगे. या तो साध्य(कॉज) ही हवाई लगने लगेगा या सारे साधन अनैतिक.’’ —राजेंद्र यादव, खंड-खंड पाखंड, पृष्ठ 21.

खुद को ‘हंस’ का पुराना पाठक मानता हूं. इधर कुछ महीनों से संबंध टूटा हुआ था. इसलिए नहीं कि राजेंद्र यादव(अगस्त 28 1929, आगरा—अक्टूबर 28 2013, मयूरविहार, दिल्ली) के लेखन या उनके द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दों में अविश्वास था. बस इसलिए कि लेखन-पाठन की प्राथमिकताओं में बदलाव था. ‘हंस’ ही क्यों दूसरी साहित्यिक पत्रिकाओं के संपर्क में भी कम ही रहा. इसका कभी, कोई मलाल भी नहीं हुआ. क्योंकि सामाजिक बदलाव के जिन मुद्दों पर ‘हंस’ बात करता था, या जिन विषयों को राजेंद्र यादव अपने संपादकीय में उत्तेजक बहस के रूप में उठाते थे, उनमें भी वे जिनमें मेरी विशेष रुचि थी—उन्हें विस्तार देती दूसरी और महत्त्वपूर्ण सामग्री आसानी से अन्यत्र उपलब्ध थी. पत्रिका के रूप में ‘हंस’ की जो सीमा थी, उसमें राजेंद्र जी की तमाम सदाशयता और प्रतिबद्धता के बावजूद वैचारिक सामग्री कम ही आ पाती थी. कहानी की पत्रिका के रूप में प्रतिष्ठित ‘हंस’ को, उसके बड़े पाठक-लेखक वर्ग से काटकर विशुद्ध वैचारिक पत्रिका में बदल देना संभव भी नहीं था. वैसे भी राजेंद्र यादव का प्रथम अनुराग कहानी से था. साहित्य में उनकी प्रतिष्ठा नई कहानी आंदोलन के प्रवर्त्तक के रूप में भी थी. लेकिन कहानी, विशेषकर नई कहानी के नाम पर पिछले कुछ दशकों में जो लिखा जा रहा था, वह अपन के गले नहीं उतरता था.

स्वयं राजेंद्र यादव यह मानते थे कि हिंदी कहानी, कहानी की मूल विशेषता कहानीपन को बिसराकर अधिक से अधिक वर्णनात्मक होती जा रही है. इस व्यतिक्रम से कहानी ने न केवल अपने बंधे-बंधाए पाठक खोए हैं, बल्कि उसकी कसावट एवं प्रभाव में भी कमी आई है. प्रतिष्ठित कहानी-पत्रिका के संपादक की यह निराशा विचारणीय थी. इसके बावजूद ‘हंस’ अपनी सर्वाधिक चहेती पत्रिका बनी थी, तो केवल अपने लेखों तथा उनसे भी अधिक राजेंद्र जी के संपादकीय के नाते. उसमें वे ज्वलंत मुद्दों को पूरी बेबाकी और लेखकीय निष्ठा के साथ उठाते थे. ‘हंस’ के लेखों में मैं हमेशा एक अलंघ्य ऊंचाई पाता रहा. शायद इसीलिए उसमें न तो कभी छपा, न ही एकाध अवसर को छोड़कर कोई रचना प्रकाशन के लिए भेजी. उसपर ठसक यह कि ‘हंस’ या किसी अन्य पत्रिका में न छपने का कभी मलाल भी नहीं हुआ. कहानी विधा में अरुचि के बावजूद ‘हंस’ को नियमित खरीदता और पढ़ता जरूर  रहा.

विचारों की डोर कहीं न कहीं ‘हंस’ की वैचारिकी से जुड़ती थी, इसलिए कभी निराश नहीं होना पड़ता था. कुछ और चाहे न हो, ‘हंस’ का संपादकीय मन को अनूठी तृप्ति दे जाता था. कुछ वर्ष पहले ‘हंस’ में आत्मस्वीकृतियों का दौर चला था. ईसाई धर्म में आत्मस्वीकृति को धार्मिक मान्यता प्राप्त है. गिरजाघर में पादरी के सामने जाकर व्यक्ति अपने अपकर्मों को स्वीकार कर बोझ मुक्त हो सकता है. आदमी देवता नहीं है. देवता नामक मिथ उसने मनुष्यता के आदर्श के रूप में गढ़े हैं. अपनी सीमाओं के चलते मनुष्य गलती भी करता है. उन गलतियों से कई बार सबक लेता है, कई बार नहीं भी लेता. फिर भी जाने-अनजाने हुई गलती या अपराध की आत्मस्वीकृति मानव-मन से अनावश्यक विकारों को दूर कर उसे तनावमुक्त करती है. ‘आत्मस्वीकृति’ अथवा ‘अपराध-स्वीकृति’ के मूल में यही अवधारणा है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पश्चिम में धर्मों का विकास अध्यात्मपरक होने से ज्यादा तत्वपरक ढंग से हुआ है. भारतीय दर्शनों में जो स्थान ब्रह्म का है, यूनानी दर्शन में वही ‘शुभ’ का है. उसके अनुसार ‘शुभ’ नैतिक उत्थान की सर्वोच्च अवस्था है. अपने जीवन को ‘शुभता’ की ओर निरंतर अग्रसर करना, मानव-मात्र का लक्ष्य है. इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य को अपनी कमजोरियों की जानकारी हो. उन गलतियों का बोध हो जो उसने जाने-अनजाने की हैं. उनके लिए क्षमा-याचना और पुन: न दोहराने का संकल्प ही आत्मस्वीकृतियों को सार्थक बनाता है. आत्मस्वीकृतियों के पीछे निहित यह दर्शन मनुष्य को अपनी दुर्बलताओं को स्वीकारने का साहस जगाकर उनमें बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा जगाता है. हिंदू धर्म में  यह काम ईश्वर भरोसे छोड़ दिया जाता है.

भारतीय प्रज्ञा ने दर्शन की अनेक ऊंचाइयों को छुआ, अपनी उपलब्धियों से विश्व-भर को चमत्कृत भी किया है. इसके बावजूद यदि समग्र रूप से देखें तो उसमें आस्था का अनुपात कुछ ज्यादा ही रहा है. अपनी उपलब्धि पर गुमान करने, आत्मश्लाघा की प्रवृत्ति वैदिक मनीषियों में आरंभ से ही थी. ऋग्वेद की ऋचाओं के अस्तित्व में आने में जो समय लगा सो लगा. बाद के मनीषियों की सारी की सारी मेहनत उन्हें सहेजने तथा उनका कर्मकांडीकरण करने में नजर आती है. मौलिकता और ज्ञान के विस्तार पर बहुत कम ध्यान गया है. वैदिक ऋचाओं का गायन कैसे हो, यह सामवेद में समझाया गया. यजुर्वेद में उसके कर्मकांड पक्ष को विस्तार दिया गया. यज्ञों के प्रकार तथा उनके आयोजन पर विस्तार से लिखा गया. अथर्ववेद सहित बाकी उपनिषदों में भी उसी को आगे बढ़ाया गया है. कई स्थानों पर तो मौलिकता की चिंता किए बगैर ऋग्वेद के मंत्रों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया गया है.

आस्था को रूढ़ि अथवा जीवन की अनिवार्यता के रूप में थोपने का दुष्परिणाम यह हुआ कि मनुष्य को चलने के लिए बंधी-बंधाई लीक मिली. जिसमें आदमी के अपने विवेक, निर्णय-सामर्थ्य, रुचि, स्वभाव आदि का हस्तक्षेप अनपेक्षित था. इसका कुफल यह हुआ कि सामाजिक-सांस्कृतिक मामलों में मनुष्य विवेक के उपयोग से निरंतर कटता गया. धार्मिक आडंबरवाद के चलते गलतियों को सार्वजनिक रूप में स्वीकारने के बजाए उनपर पर्दा डालने की परंपरा बनी रही. जबकि धार्मिक रूप में स्वीकार्य होने के कारण पश्चिम में पश्चाताप और अपराध-स्वीकृति को साहित्यिक मान्यता प्राप्त हुई. रूसो के बाकी लेखन के साथ उसकी आत्मस्वीकृतियां भी पर्याप्त चर्चित रही हैं. भारत में ऐसे विषय उठाने की परंपरा न होने के बावजूद ‘हंस’ ने उसकी शुरुआत की थी. ये राजेंद्र जी ही थे जो नई पहल से घबराते नहीं थे. न आलोचकों की कभी परवाह करते थे. उनमें गजब का लोकतांत्रिक साहस था. अभिव्यक्ति और विचार के लिए बड़े से बड़ा खतरा उठाने को वे हरदम तैयार रहते थे. उनके सत्साहस के फलस्वरूप ‘हंस’ हिंदी-पट्टी की अनेक बौद्धिक-सामाजिक जड़ताओं पर प्रहार करने में कामयाब हुई, विशेषकर दलित और स्त्री-मुक्ति के सवालों को लेकर. इसके लिए राजेंद्र जी को सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत रूप से यथास्थितिवादियों की आलोचनाओं, यहां तक कि व्यक्तिगत हमलों का शिकार भी होना पड़ा. लेकिन वे अपने मोर्चे पर अडिग रहे. उनके समय में नई और उत्तेजक बहसों को जितना वैचारिक स्पेस ‘हंस’ ने दिया, हिंदी की दूसरी पत्रिकाएं शायद वैसा कर सकीं.

‘हंस’ की उस बहुचर्चित श्रंखला में कई नामी-गिरामी लेखक-लेखिकाओं की आत्मस्वीकृतियां छपी थीं. तथाकथित शुद्धतावादियों को उसमें ‘अनर्थ’ ही दिखा था. आत्मस्वीकृति का साहस दिखाने वाले लेखक भी सर्वथा निर्दोष न थे. वे नैतिक और सामाजिक अपराधों को तो थोड़े-बहुत स्पष्टीकरण के साथ स्वीकारने का साहस दिखा रहे थे, किंतु कानूनी और आर्थिक भ्रष्टाचार के प्रति आत्मस्वीकृति का साहस पूरी तरह गायब था. कुल मिलाकर आत्मस्वीकृतियों का वह सिलसिला लेखिकाओं की ‘बोल्डनेस’ तथा लेखकों के विचलन तक सिमटा हुआ था. शायद इसीलिए भी आलोचकों को सवाल उठाने का अवसर मिला था. आत्मस्वीकृतियों का सिलसिला ज्यादा लंबा नहीं चल सका. यूं भी अपने अपकर्म सार्वजनिक करने के लिए शेर का कलेजा चाहिए, जो भारतीय परिवेश में कदाचित असंभव है. बहरहाल, शुद्धतावादियों के बीच राजेंद्र जी की उस पहल की भी वैसी ही आलोचना हुई जैसी ‘हंस’ के दूसरे प्रयासों को लेकर होती थी. नाराजगी के असली कारण दूसरे थे. बहाना देह-संबंधों पर बेबाक लेखन को बनाया गया. आलोचकों में अधिकांश वही थे जो अजंता-एलोरा की गुफाओं में भारतीयता का गौरव खोजते आए हैं, ‘गीत-गोविंद’ की प्रशंसा करते न अघाते थे; और जिनके लिए भारतीय कविता का श्रेष्ठतम हिस्सा ‘रीतिकाल’ से आता है. जिनके लिए वर्ण-भेद समर्थक तुलसी हिंदी के सबसे बड़े कवि हैं.

दरअसल जिस सामाजिक न्याय के प्रति ‘हंस’ समर्पित था, उसका ठोस संवैधानिक आधार था. एक संवैधानिक प्रतिबद्धता की ओर से आंखें मोड़ लेने का एकमात्र हथियार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का हो सकता था. इसलिए जब-जब ‘हंस’ और राजेंद्र यादव पर उंगली उठी, मामला ‘संस्कृति पर खतरा‘ बताया गया. इसके बावजूद उनके नेतृत्व में ‘हंस’ दमित अस्मिताओं के उभार के लिए निरंतर पहल करता रहा. स्त्री और दलित स्वाभिमान की लड़ाई को उसने हिंदी पट्टी पर सबसे बड़ा मंच दिया. इससे यथास्थितिवादी शक्तियां उसके विरुद्ध लामबंध होती गईं. ‘अक्षर प्रकाशन’ और ‘हंस’ के जमाने से जो मित्र उनके साथ लगे थे, वे अपने लिए सुरक्षित कोना देखकर उसमें समाने लगे. हंस कार्यालय को ‘एक ऐसा षड्यंत्र कक्ष कहा गया, जहां हर समय किसी को उठाने-गिराने, पटाने-मिटाने की खुराफातें होती रहती हैं….’ उसे ‘अपराध डैन(मांद)’ की संज्ञा दी गई, ‘जहां काला चश्मा चढ़ाए, पाइप फूंकता एक माफिया-डॉन ठेठ फिल्मी अंदाज में साहित्यिक जालसाजियों का संचालन करता रहता है.’ इसके बावजूद अपनी लेखकीय प्रतिबद्धताओं के साथ राजेंद्र जी डटे रहे. इससे उन्हें नए मित्र और संगी-साथी मिले. फलस्वरूप कारवां बढ़ता गया. राजेंद्र जी के संपादन में ही ‘हंस’ ने कांतिकुमार जैन के संस्मरण सिलसिलेवार छापे थे, जो खूब चर्चित हुए. उनके अलावा समाजविज्ञान पर योगेंद्र यादव जी ने उसमें लिखा. स्त्री, दलित अस्मिता तथा अल्पसंख्यक मुद्दों पर ज्वलंत सामग्री ‘हंस’ में लगातार आती रही, जिसने हिंदी पट्टी में वैचारिक आंदोलनों को गति दी.

कोई भी पत्रिका अपने समय के आंदोलनों, समाजार्थिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों से निरपेक्ष नहीं रह सकती. साहित्यिक पत्रिका पर तो यह नियम और भी गंभीरता से लागू होता है. राजेंद्र यादव के नेतृत्व में ‘हंस’ ने सदैव समसामयिक विषयों को विमर्श का मुद्दा बनाया. प्रेमचंद के जन्मदिन 31 जुलाई 1986 से इस पत्रिका ने राजेंद्र यादव के संपादन में जब दुबारा दस्तक दी तो उसने बहुत जल्दी अपना विशिष्ट पाठक-वर्ग बना लिया. एक साहित्यिक पत्रिका की खूबी पाठक की बौद्धिक क्षुधा को शांत करना-भर नहीं है, बल्कि उसे नई परिस्थितियों और चुनौतियों को समझने तथा और उनका समाधान खोजते रहने की समझ देना भी है. ‘हंस’ ने यही किया, इसलिए वह समाज में बड़े बौद्धिक आयोजनों की गवाह और उत्प्रेरक बन सकी. आलोचकों के कटाक्ष, ‘हंस’ कार्यालय को ‘छज्जु का चौबारा’, ‘राजदरबार’ तथा वहां आनेवालों को ‘राजदरबारी’ कहने के बावजूद यह पत्रिका गत 27 वर्ष की अपनी पुनः-प्रकाशन अवधि में, जनसरोकारों से शायद ही कभी दूर गई हो. प्रेमचंद का नाम लिए बिना ही राजेंद्र जी उनकी परंपरा को निरंतर विस्तार देते रहे. जनसरोकारों के प्रति ‘हंस’ की प्रतिबद्धता का क्या कोई ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी है? यह जानना भी जरूरी है, इसके लिए स्मृति में तत्कालीन दौर की कुछ यादें ताजा करनी होंगी.

भारत का स्वतंत्रता आंदोलन कई मायने में अनूठा था. यह बोध कि देश के जमींदार, साहूकार, व्यापारी और पुरोहित वर्ग के स्वार्थ अंग्रेजों से जुड़े हैं, और वे सरकार के विरोध में जाने वाले नहीं हैं—जनसाधारण के संगठित विद्रोह की प्रेरणा बना था. यह वर्ग सामाजिक-राजनीति मुक्ति की आस लेकर आंबेडकर और गांधी के नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम में उतरा था. उसे अंग्रेजों से उतनी शिकायत न थी, जितनी अपने ही देश के धर्म के ठेकेदारों तथा जाति के अलंबरदारों से जो हजारों वर्षों से उनका शारीरिक-मानसिक शोषण करते आए थे. उन्हें लगता था कि देश की आजादी उनके लिए राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति का संदेश भी लेकर आएगी. लेकिन आजादी मिलते ही जनता को किनारे कर वर्चस्वकारी शक्तियां पुनः सत्ता पर सवार हो गईं. इससे जनाक्रोश बढ़ना स्वाभाविक था. सत्ताओं के खेल में उनके साथ हमेशा छल हुआ है—यह एहसास उन्हें लामबंद कर रहा था. जयप्रकाश नारायण ने ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया तो वे नई स्फूर्ति एवं प्रेरणाओं के साथ पुनः एकजुट होने लगीं. उस आंदोलन फलस्वरूप अस्तित्व में आई ‘जनता पार्टी’ अपने प्रमुख नेताओं के वर्गीय सोच का शिकार थी. असल में इंदिरा विरोध के नाम पर लोकतंत्र विरोधी, सत्ता की भूख से आकुल-व्याकुल, प्रतिक्रियावादी ताकतें एकजुट हुई थीं. उनके लिए राजनीतिक सत्ता वर्षों पुराने सांस्कृतिक वर्चस्व को बनाए रखने का माध्यम थी. इस वर्ग के नेताओं द्वारा सामूहिक हितों पर स्वार्थ को वरीयता देने के कारण संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य पूरा न हो सका. क्रांति-संकल्प के साथ तेजी से उभरी ‘जनता पाटी’ कांतिविहीन होकर बिखर गई. देश को बेहतर राजनीतिक विकल्प देने का जनता पार्टी का प्रयोग असफल हुआ था. 1984 में कांग्रेस का पुनः सत्ता में आना, इंदिरा गांधी की हत्या, राजीव गांधी का प्रधानमंत्री बनना, फिर उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार और नाकारापन के आरोप, तत्कालीन उथल-पुथल से भरपूर भारतीय राजनीति की ये प्रमुख घटनाएं थीं. इससे भारत के राजनीतिक हलकों में थोड़ी-बहुत अस्थिरता पनपी, किंतु सकारात्मक परिणाम यह हुआ कि सहस्राब्दियों से शोषण, उत्पीड़न, तिरष्कार और उपेक्षा का दंश झेलती आई जातियों में आत्मसम्मान और स्वाभिमान की भूख जागने लगी थी. अभी तक दूसरों के आदेश अथवा इशारों पर मतदान करने वाले लोग अपने नफा-नुकसान को देख स्वतंत्र निर्णय लेने लगे. विशेषकर स्त्री और दलित, लोकतांत्रिक माहौल का फायदा उठाने के लिए एकजुट हो रहे थे. उसके फलस्वरूप शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, मायावती, एच. डी. देवगौड़ा, रवि राय, रामविलास पासवान, चौ. चरण सिंह, देवीलाल जैसे हाशिये के अनेक नेता अचानक महत्त्वपूर्ण हो उठे थे. लेकिन बहुमत के आधार पर सत्ता-शिखर पर पहुंचना एक बात है तथा शिखर पर रहकर देश का नेतृत्व करना दूसरी. शताब्दियों से शासित होते इन वर्गों में शासन करने का कोई संस्कार न था. उनकी संस्कृति ही ऐसी थी, जो सत्ता से अनुकूलन करना सिखाती थी. इसलिए लोकतंत्र के सहारे सत्ता-शिखर पहुंचे उत्पीड़ित वर्गों के नेताओं की हैसियत, विशेषकर उत्तर और मध्य भारत के राज्यों में दूसरे दर्जे की थी. यदा-कदा अवसर भी मिलता था तो अनुभव और आत्मविश्वास की कमी से सरकार चला पाने में नाकाम सिद्ध होते थे. लोकतंत्र की सफलता सामान्य सहमति और विरोधों के समाहार पर टिकी होती है, उसके लिए आवश्यक अनुभव उन्हें न था. दक्षिण भारत में सांस्कृतिक वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष अपेक्षाकृत पहले शुरू हो चुका था, इसलिए वहां के हालात में किंचित सुधार था. तत्कालीन परिवर्तनकामी राजनीति की वह स्वाभाविक विडंबना थी.

ऐसे ही चुनौतीपूर्ण समय में ‘हंस’ का पुनर्प्रकाशन आरंभ हुआ. एक प्रबुद्ध साहित्यकार के रूप में राजेंद्रजी सामाजिक-राजनीतिक हलचल को बहुत करीब से देख रहे थे. वे समझ भी रहे थे कि वैकल्पिक राजनीति को मुख्यधारा की राजनीति बनाने के लिए जमीनी तैयारी की जरूरत है. यह कार्य स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक सहित अन्य वंचित जमातों के प्रबोधीकरण तथा उनके आत्मविश्वास को लौटाने के साथ ही संभव है. दरअसल सांस्कृतिक पूर्वाग्रह प्रायः इतने जटिल होते हैं, कि एक बार उनके चंगुल में फंस जाने के बाद व्यक्ति की हालत अनुसरणकर्ता जैसी हो जाती है. इसके विपरीत अभिजात संस्कृति का समस्त तामझाम सत्ता से अनुकूलन पर टिका होता है. वहां शिखर पर बने रहने हेतु आवश्यक समझौता की अंदरूनी छूट होती है. ग्राम्शी ने समानता और स्वतंत्रता हेतु अभिजन वर्गों के सांस्कृतिक वर्चस्व से मुक्ति को जरूरी माना है. इसके लिए उसने अभिजन संस्कृति के समानांतर जनसंस्कृति के उभार पर जोर दिया है. उसके अनुसार दास इसलिए दास होता है, क्योंकि उसकी संस्कृति उसको दास होना सिखाती है. डॉ. आंबेडकर का कहना था कि गुलाम को उसकी गुलामी का एहसास करा दो, वह क्रांति कर देगा. राजनीतिक चेतना सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना की अनुगामी है. इसलिए अंबेडकर और ग्राम्शी दोनों, सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति को राजनीतिक स्वतंत्रता जितनी ही महत्त्वपूर्ण मानते थे. ‘हंस’ द्वारा उठाए गए प्रमुख मुद्दों में स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक आदि प्रमुख थे. राजेंद्र यादव ने पिछड़े वर्ग को छुआ तक नहीं था. न ही कभी पिछड़े साहित्य की मांग को आगे रखा था. राजेंद्र यादव स्वयं पिछड़े वर्ग से आते थे; और उनकी दमदार उपस्थिति को यदि पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व स्वीकार लिया जाए तो यह परिकल्पना आसान हो सकती है कि सदियों से उत्पीड़न का शिकार रहे वर्गों यथा पिछड़ों, स्त्री, अल्पसंख्यक आदि को लेकर ब्राह्मणवाद के विरुद्ध बड़ा मोर्चा बनाने का संकल्प ‘हंस’ की शुरुआत से ही उनके मन में था. जिस तरह से उन्होंने अकेले ही ब्राह्मणवाद के विरुद्ध मोर्चा साधा, उसके आधार पर उन्हें हिंदी का वाल्तेयर कहा जा सकता है.

राजेंद्र यादव राजनेता न थे. उन्हें हम लेखक-विचारक कह सकते हैं, किंतु उनका पहला प्यार रचनात्मक साहित्य से था. प्रेमचंद ने लिखा था—‘साहित्य राजनीति के आगे जलने वाली मशाल है.’ यही सूत्र राजेंद्रजी का मार्गदर्शक, पथप्रदर्शक सिद्ध हुआ. उम्मीदों को बचाए रखने, नए सपनों को गढ़ने की चाहत, अपने बूते आगे बढ़ने का आत्मविश्वा, घोर नैराश्य के विरुद्ध आशाबाद उनके आरंभिक उपन्यास ‘प्रेत बोलते हैं(सारा आकाश)’ की भूमिका में रामधारी सिंह दिनकर की कविता-पंक्ति में संशोधन  के माध्यम से कुछ यों प्रकट हुआ था—‘सेनानी करो प्रयाण अभय भावी इतिहास तुम्हारा है/ये नखत अमा के बुझते हैं, सारा आकाश तुम्हारा है.’ यह अनायास न होकर भविष्य की कार्ययोजना का प्रेरणा बिंदू था. अपने लेखों, संपादकियों के माध्यम से राजेंद्र यादव दमित वर्गों को भविष्य के सपनों से भरपूर इसी प्रयाण-यात्रा के लिए अनुप्रेत करते रहे.

प्रेमचंद को आदर्श मानने वाला, साहित्य को समाज और राजनीति की मशाल बनाने को उद्धत कलम का एक योद्धा यही कर सकता था. कह सकते हैं कि राजेंद्र यादव को कहानीकार आजादी के बाद के युवामन के सपनों और समाज के कड़वी हकीकतों ने बनाया था, किंतु उनके संपादक को गढ़ने में प्रेमचंद के अलावा जयप्रकाश नारायण के संघर्ष तथा उनके ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन का भी योगदान था. ‘हंस’ से पहले उन्होंने ‘अक्षर प्रकाशन’ की शुरुआत अपने कुछ मित्रों के साथ की थी. हिंदी में जहां पुस्तकों का सीधा बाजार न हो, जहां प्रकाशकों को सरकारी खरीद पर निर्भर रहना पड़ता हो, वहां एक लेखक के लिए जिसकी अपनी नैतिक प्रतिबद्धताएं भी होती हैं, प्रकाशन चलाना हंसी खेल न था. प्रकाशन की असफलता और नौकरी न करने की जिद के बीच ‘हंस’ की स्थापना, ऐसे ही संघर्षपूर्ण जिजीविषा की देन थी. आगे जैसा कि सभी जानते हैं, अपनी स्थापना के बाद ‘हंस’ ने जो डगर पकड़ी, उसकी सही-सही परिकल्पना संभवतः राजेंद्रजी को भी नहीं रही होगी. लेखकों-विचारकों के मामले में प्रायः ऐसा होता है. वे किसी नई कृति या विचार को जन्म देकर, उसे अपनी तरह विस्तार देने के लिए आगे बढ़ते हैं. मगर एक स्थिति ऐसी आती है, जब कथानक स्वयं आगे बढ़ने लगता है. लेखक की भूमिका उसकी डोर पकड़कर पीछा करने तक सिमट जाती है. यही बात विचार के भी साथ है. उसका बीज तत्व मानस में उमगता है. उसके बाद विचारक को ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता. दिमाग में पहले से मौजूद प्रत्ययों, अवधारणाओं तथा तर्कशक्ति के ताने-बाने के बीच वह स्वयं विस्तार लेने लगता है. ‘हंस’ के साथ भी यही हुआ था. एक कहानी के रूप में आरंभ हुई पत्रिका ने अपने विशिष्ट सरोकार के साथ जैसे ही जनमानस में अपनी पहचान निर्मित की, उसे वहीं से खाद-पानी मिलने लगा. उसके बाद ‘हंस’ के संपादक मंडल का काम पत्रिका को चेतना-संपन्न पाठकों की इच्छा और जनसरोकारों से जोड़कर आगे बढ़ाते रहने तक सिमट गया.

भारत में जाति व्यवस्था का प्रभाव या कहो कि कुप्रभाव इतना गहरा है कि बड़े से बड़ा लेखक विचारक उसके प्रभाव में आ ही जाता है. बचपन से बड़ा होने तक व्यक्ति जिन जातीय संस्कारों के बीच वह पलता और बड़ा होता है, उनसे एकाएक मुक्त हो पाना असंभव होता है. यदि बचना भी चाहे तो दूसरे लोग उसकी पहचान जाति नाम के पुच्छल्ले से जोड़कर करने लगते हैं. इसलिए आजाद भारत के निर्माण को जाति और संप्रदाय के प्रभावों से दूर रखने हेतु आवश्यक व्यवस्थाएं संविधान निर्माताओं द्वारा की गई थीं. इसके बावजूद कुछ जातियों की सत्ता पर पकड़ इतनी गहरी थी कि वे लोकतंत्र को भी अपने स्वार्थ और सुविधा के अनुसार हांक सकती थीं. लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार द्वारा मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करना एक ऐसा निर्णय था, जिससे जाति-व्यवस्था जो अभी तक बहुसंख्यक वर्गों के शोषण का माध्यम थी—परिवर्तन का उपकरण बनने लगी. जिस जाति के नाम पर दलितों और पिछड़ों का शोषण होता आया था उसी को हथियार बनाकर लोग संगठित होने लगे. दूसरों के लिए, दूसरों के कहने पर मतदान करते आई दमित जातियों के मतदाताओं ने पहली बार अपने जाति/वर्ग के नेताओं को संसद और विधानसभा में पहुंचाना आरंभ कर दिया. संख्या में बहुसंख्यक होने के नाते उन्हें यह अधिकार भी था. जरूरत इस अधिकार चेतना को जन-जन तक पहुंचाने की थी.

बहरहाल, मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद जो देश-भर में उपद्रव हुए, उसके विरोध में जैसी राजनीतिक लाठियां भांजी गईं, उससे ‘हंस’ को परिवर्तनकामी शक्तियों के बीच पैठ बनाने में मदद की. हालांकि इसकी उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी. आरंभ में पत्रिका के साथ ऐसे बहुत से लेखक जुड़े जो राजेंद्रजी के कहानीकार को तो महत्त्व देते थे, किंतु परिवर्तनकामी विचारधारा या साहित्य की पत्रिका को वैचारिक प्रतिबद्धता जोड़ना उन्हें स्वीकार न था—वे धीरे-धीरे उनसे किनारा करने लगे. राजेंद्र यादव को उसकी कोई चिंता न थी. इस मामले में गजब के लोकतांत्रिक थे. दूसरों की असहमतियों का सम्मान करना उन्हें आता था. असहमतियों के बीच अपनी वैचारिक निष्ठा को सुरक्षित रखने हेतु उनमें पर्याप्त आत्मविश्वास भी उनमें था. उनके नेतृत्व में दमित चेतनाओं को स्वर देने की जो डगर ‘हंस’ ने पकड़ी, उसपर साथ देने के लिए नए और समर्पित यायावार पहले से ही प्रतीक्षारत थे.

1991 के बाद देश में आर्थिक उदारीकरण के नाम पर पूंजी और कारपोरेट घरानों का जल-जंगल और जमीन को लूटने का खेल चला. नतीजा यह हुआ कि पूंजीवादी ताकतें समाज और सरकार पर अपनी पकड़ बनाने लगीं. मनुष्य का अवमूल्यन कर उसको महज ‘उपभोक्ता’ मान लिया गया. यह साम्राज्यवाद का नया रूप था, जिसमें राष्ट्रों को तलवार के बजाय आर्थिक नीतियों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से समर्पण के लिए मजबूर किया जाता था. ‘हंस’ ने इस मोर्चे पर भी काम किया. जहां जरूरी लगा, राजेंद्रजी ने कथित उदारीकरण के नाम पर कारपोरेटीकरण का जमकर विरोध किया.

राजेंद्र यादव के ‘हंस’ की विशेषता थी कि उसमें जो छपता था, वह विमर्श की दृष्टि से नया, बेबाक और बेलाग होगा था. उसकी गमक दिलो-दिमाग पर देर तक सवार रहती थी. चाहे वह विषय के चयन को लेकर हो या भाषा को, राजेंद्रजी सभी में मौलिक नजर आते थे. उन्होंने ‘हंस’ में महिला और दलित साहित्यकारों को खुलकर स्थान दिया. इसके लिए उन्हें लंबा विरोध भी झेलना पड़ा. ‘हंस’ को बदनाम करने के लिए लोगों ने उनपर अश्लीलता के आरोप लगाए. उसे सांस्कृतिक अपसंस्करण का वाहक कहा गया. तमाम किस्म के दबावों के बीच राजेंद्रजी अपने मूल्यों पर अडिग बने रहे. दलित-अस्मिता के संघर्ष में उन्होंने सदैव दलित साहित्यकारों, विचारकों का साथ दिया. ओमप्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ को शीर्षक देने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है.

राजेंद्र यादव और ’हंस’ के सरोकारों को केवल स्त्री और दलित तक सीमित कर देना, उनके योगदान को कम करके आंकना होगा. हालांकि ’हंस’ तो इतने भर से भी साहित्यिक पत्रिकाओं में शीर्ष पर बना रह सकता है. ‘हंस’ की प्रतिबद्धता पूरे जनसमाज के प्रति थी. ‘हंस’ ने जिस तरह धर्म के आडंबरवाद पर चोट की, उतनी मुखरता से शायद ही किसी और पत्रिका ने आवाज उठाई हो. राजेंद्र यादव हिंदी में स्त्री-विमर्श के सूत्रधारों में से थे. उन्होंने प्रभा खेतान को सीमोन दा बोउआर की कृति ‘दि सेकिंड सेक्स’ का हिंदी अनुवाद करने के लिए प्रेरित किया, जो हिंदी में ‘स्त्री-उपेक्षिता’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. हिंदी में स्त्री विमर्श को आगे बढ़ाने में जितना योगदान इस अकेली पुस्तक का है, उतना शायद ही किसी और पुस्तक का होगा. निश्चय ही इसका श्रेय राजेंद्र यादव को जाता है. भारत में लड़की को होश संभालते ही समझाया जाता है, तुम्हारा शरीर तुम्हारा नहीं है. उसपर तुम्हारे पति का अधिकार होगा. और जब तक विवाह नहीं हो जाता तब तक तुम पिता के संरक्षण में हो. राजेंद्र का स्त्री विमर्श इसी विसंगति पर केंद्रित था. वे मानते थे कि व्यक्ति होने के नाते अपने शरीर पर सबसे पहला अधिकार स्त्री का होता है. पुरुष समाज को स्त्री के इस अधिकार का सम्मान करना चाहिए.

राजेंद्र यादव के आलोचक भी कम न थे. कुछ तो मृत्यु के कुछ दिन पहले तक भी भड़ास निकालते रहे. उनपर तरह-तरह के लांछन लगाते रहे. यह उनकी मजबूरी है—यह हकीकत को राजेंद्र जी भी जानते थे. इसलिए आलोचकों की बातों की परवाह किए बगैर वे अपने काम में लगे रहते थे. इसी लिए वे राजेंद्र यादव थे. अंत में बस इतना कि राजेंद्र यादव के आलोचक आज चाहे जितना दंभ कर लें, समय की छननी में उनके नाम कहीं दूर बिला जाएंगे, मगर राजेंद्र यादव साहित्य-जगत में दीपस्तंभ की भांति रहेंगे, उनके संपादकीय अपने युग की आवाज की तरह पढ़े जाएंगे.

— ओमप्रकाश कश्यप

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वितरणात्मक न्याय का उपयोगितावादी द्रष्टिकोण

धर्म एवं अभिजन संस्कृति—13

मुक्त बाजार में स्वतंत्र अभिव्यक्ति भी न्याय, मानवाधिकार, पेयजल तथा स्वच्छ हवा की तरह ही उपभोक्ता-सामग्री बन चुकी है. यह उन्हें ही हासिल हो पाती हैं, जो उन्हें खरीद पाते हैं. वे मुक्त अभिव्यक्ति का प्रयोग भी उस तरह का उत्पादन बनाने में करते हैं जो सर्वथा उनके अनुकूल होता है.— अरुंधती राय

जब हम कहते हैं कि ‘श्रेष्ठतम जनता ही श्रेष्ठतम शासन दे सकती है’—तब इसका अर्थ है कि सुशासन के लिए जनता को शासकों पर नहीं, स्वयं पर भरोसा करना होगा. खुद को इस योग्य बनाना होगा कि बगैर किसी बाहरी मदद के अपना नेतृत्व स्वयं कर सके. देश और समाज से जुड़े मसलों में फैसला करते समय उसे दूसरों से न्यूनतम मदद की अपेक्षा हो. जनता स्वयं शासन को सन्नद्ध होगी तो उसके लिए गठित भारी-भरकम तथा खर्चीले संस्थानों की अनिवार्यता ही नहीं रहेगी. किंतु यह काम क्या इतना ही सरल है! विशेषकर तब जब हम जानते हैं कि शासकवर्ग की उत्पत्ति अनायास नहीं हुई है. आठ-दस हजार वर्षों से, जब से मनुष्य ने सभ्यता की सीढ़ियां चढ़ना सीखा, किसी न किसी रूप में समाज में नेतृत्व की मौजूदगी हमेशा से रही है. जिन दिनों मनुष्य शिकार पर जीवनयापन करता था, खुले जंगलों में रहता था, तब वन्य पशुओं का शिकार अथवा उनके हमलों से समूह की रक्षा करने के लिए कुशल नेतृत्व की आवश्यकता पड़ती थी. उस स्पर्धा में जो स्वयं को कुशल सिद्ध करता, खुद जान पर खेलकर समूह की प्राण-रक्षा करता, वह सम्मान का पात्र बनता था. संभवतः तभी से यह धारणा बनी कि ‘कोई हमसे श्रेष्ठ है….और जो श्रेष्ठ है, वह चुनौती का सामना भी बेहतर कर सकता है.’ उसके अनुसार बाकी लोग उसका अनुसरण करने लगे. यह जीवनानुभवों से उपजा सहज बोध था. कालातंर में इसी ने समाजीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में मदद की.

उन दिनों संबंध सरल थे. कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि सामूहिक कल्याण हेतु निःस्वार्थ भाव से नेतृत्व की डगर अपनाने वाले लोग दूसरों को छोटा मानकर उनकी उपेक्षा करने लगेंगे तथा चाहे-अनचाहे नेतृत्व में पीछे रह जाना समाज के बड़े वर्ग का स्वभाव, उनकी आगे आने वाली पीढ़ियों के गले की फांस बन जाएगा. नैसर्गिक कारणों से कुछ मामलों में दूसरों पर आश्रित हो जाने की प्रवृत्ति कालांतर में समाज को शासक एवं शासित में बांट देगी. ऊंच-नीच में बंटे समाज में, अधिसंख्यक निम्नवर्ग की निष्क्रियता तथा अल्पसंख्यक उच्चवर्ग की सक्रियता से होनेवाले विकास की ये स्वाभाविक विसंगतियां हैं. उनमें ताकतवर समूह कमजोर को पीछे ढकेल देता है. परिणामस्वरूप समाज में असमानता पनपती है. निर्णय प्रक्रिया में हिस्सेदारी घटने से अधिकांश लोग दूसरों पर निर्भर होने लगते हैं. उनका खंडित आत्मविश्वास उनके आत्मनिर्भर बनने में बाधा उत्पन्न करता है. उधर शीर्ष पर मौजूद लोग चाहते हैं कि यथास्थिति बनी रहे. उनकी सत्ता पर कोई आंच न आए. उसके लिए वे किस्म-किस्म के षड्यंत्र रचते रहते हैं. चूंकि वे सत्ता के शिखर पर विराजमान होते हैं, अधिकांश संसाधनों पर उनका अधिकार होता है. इसलिए वे जनसाधारण पर, जो अपनी जरूरतों के आधार पर छोटे-छोटे वर्गों में बंटे होते हैं, अपनी स्वार्थपूर्ण हठों को थोपने में कामयाब हो जाते हैं. इससे विपन्नता का शिकार समाज का बड़ा हिस्सा उनपर आश्रित हो जाता है. इन हालात में किसी भी प्रकार का सार्थक हस्तक्षेप उसके सामर्थ्य से परे होता है. परिणामस्वरूप समाज में शीर्षस्थ वर्गों की मनमानी लंबे समय तक चलती रहती है.

इन परिस्थितियों में जनता की वास्तविक मुक्ति का एक ही उपाय है. बौद्धिक नेतृत्व के लिए बाहरी वर्गों पर निर्भरता को समाप्त करना. धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों से अपने बूते निपटना. यह तभी संभव है जब जनता यह जान ले कि कुछ व्यक्तियों के हाथों में नेतृत्व खिसक जाने का अभिप्राय है, अधिकांश का निर्णय-प्रक्रिया से बाहर हो जाना. इससे सामाजिक प्रतिभा का बड़ा हिस्सा उसके विकास में अपना योगदान देने से वंचित रह जाता है. इसका आरंभ भले ही सर्वसम्मिति के आधार पर होता हो, मगर वंचित समूह धीरे-धीरे अभ्यास से कटने लगता है. उस समय बिना यह सोचे-जाने कि योग्यता जन्मजात नहीं होती, वह केवल अर्जित की जा सकती है, विशाल जनसमूह यह मान लेता है कि वह ‘राज करने के लिए नहीं बना है.’ आमजन की यह धारणा नेतृत्वकारी अभिजनों के लिए यथास्थिति बनाए रखने में मदद करती है. स्थिति-परिवर्तन के लिए व्यक्ति की आंतरिक प्रेरणाएं दिशा-निर्देशक सिद्ध होती हैं. लेकिन हालात से अनुकूलन के पश्चात जनसाधारण बदलाव के सपने देखना ही छोड़ देता है. सामान्यतः वह मान लेता है कि ‘राज करने की योग्यता रखने वाले दूसरे वर्ग के लोग हैं ….उसका दायित्व केवल उन लोगों की आज्ञा का पालन करना है.’ शीर्षस्थ अभिजन चाहते हैं, जनसाधारण के ये पूर्वाग्रह बने रहें. उसके लिए वे तरह-तरह के आयोजन रचते हैं. उस समय धर्म और संस्कृति उनके सर्वाधिक भरोसेमंद तथा कारगर हथियार सिद्ध होते हैं. आमूल परिवर्तन के लिए आवश्यक होता है कि विकासोन्मुखी आंतरिक प्रेरणाओं को समाज की कार्यकारी ऊर्जा से जोड़ा जाए, किंतु शीर्षस्थ शक्तियां जिस तरीके से भी संभव हो, यथास्थिति बनाए रखने के लिए प्रयत्नरत रहती हैं. परंपरावादी दबावों के बीच अपने सत्तामोह का औचित्य सिद्ध करने के लिए उनके तर्क बहुत पुराने तथा घिसे-पिटे होते हैं. वे बताते हैं कि नकारात्मक शक्तियों के दमन तथा सकारात्मक को प्रोत्साहित करते हुए, समाज को विकास-पथ पर अग्रसर रखने हेतु शक्तिशाली तंत्र की आवश्यकता पड़ती है. सत्ता की उनकी परिकल्पना कुछ लोगों को अधिकतम अधिकार देकर विभेदकारी व्यवस्थाओं को बनाए रखने की होती है. कभी-कभार लोकतंत्र का नाम लेकर वे अधिकारों की बराबरी की बात अवश्य करते हैं. मगर सामान्यतः उनका आचरण वर्गीय सोच तथा पक्षपात से भरपूर होता है. अपने शीर्षत्व को बचाए रखने के लिए वे सत्ता और संसाधनों का सहारा लेते हैं. इस तरह किसी न किसी बहाने दमन और बलप्रयोग को बढ़ावा देते हैं. उनके नेतृत्व में राज्य आमजन की सामान्य अपेक्षाओं से निरंतर दूर जाता रहता है, परिणामस्वरूप सामाजिक असमानता लगातार बढ़ती जाती है.

यह ठीक है कि समाज में सभी प्रकार के मनुष्य होते हैं. उनमें पुष्ट भी होते हैं और निर्बल भी. सज्जन भी होते हैं, दुर्जन भी. किंतु यह भी उतना ही बड़ा सत्य है कि वे अपनी समस्त अच्छाई-बुराई समाज में रहकर ही ग्रहण करते हैं. जन्म के समय बालक कोरे मस्तिष्क के साथ संसार में आता है. परिवार और समूह के बीच रहते हुए वह सबकुछ जानता-समझता है. उसके और समाज के विकास की धारा एक हो, व्यक्ति एवं समाज के हितों में कोई टकराव न आने पाए, वह सामाजिकता की नींव कहे जानेवाले नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को भली-भांति ग्रहण कर सके—इसके लिए उसकी उपयुक्त शिक्षा और अनुकूल परिवेश की आवश्यकता पड़ती है. यानी कोरी स्लेट पर इबारत लिखना, मासूम बालक को सभ्यता, संस्कृति तथा जीवनमूल्यों से परचाकर जिम्मेदार नागरिक बनाना, उसे इस योग्य बनाना कि बड़ा होने पर वह अपना दायित्व स्वयं वहन करते हुए अपने और समाज के विकास में यथासंभव योगदान दे सके—यह उसके परिवार और समाज का दायित्व होता है. यह भी सच है कि समाज में अधिकतम व्यक्ति शांतिप्रिय तथा अपने काम से काम रखने वाले होते हैं. वे परंपरा और कानून के दायरे से बाहर निकलने से बचते हैं. उसके लिए अपने मान-सम्मान और हितों से छोटे-मोटे समझौते करने पड़ें तो भी पीछे नहीं रहते. फलस्वरूप समाज में सामान्य शांति बनी रहती है. इससे कहा जा सकता है कि समाजीकरण के अधिकांश मामलों में परिवार और समाज सफल होते हैं. बहुत थोड़े मामलों में परिवार या समाज को लगता है कि व्यक्ति-विशेष का आरचण उसके हितों के प्रतिकूल है. परिवार तो जहां तक संभव हो, सुधार और समझौते की संभावना के साथ काम करता है. किंतु समाज, जो दरअसल बड़ा परिवार है तथा किसी भी मामले में उसके दायित्व और अधिकार परिवार से कम नहीं हैं—यह भूलकर कि अपने सदस्यों के व्यक्तित्व निर्माण में उसका भी पर्याप्त योगदान रहा है, एकाएक उसकी ओर से मुंह फेर लेता है. न्याय करते समय वह आत्मावलोकन की भावना से प्रायः दूर ही रहता है. अपराधी पर विचार करते समय कानून भी इस तथ्य पर ध्यान नहीं देता कि उसके व्यक्तित्व निर्माण में समाज का भी योगदान रहा है. दंड देते समय मनुष्य को एकदम अकेला छोड़ दिया जाता है. कानून के नाम पर राज्य का निस्पृह आचरण, प्रकारांतर में व्यक्ति और समाज के संबंधों में दरार डालने का काम करता है. उसपर समयानुसार ध्यान न देने से व्यक्ति और समाज के अंतद्र्वंद्व बढ़ते ही जाते हैं.

कह सकते हैं कि समाज की व्यवस्थाएं सभी के लिए होती हैं. उन्हीं के बीच से अच्छे व्यक्ति जन्म लेते हैं, उन्हीं से वे जिन्हें समाज दायित्वहीन और अपराधी मानकर तिरष्कृत करता है. चूंकि आनुपातिक रूप में कानून और समाज की मर्यादाओं का पालन करने वाले लोग ही अधिक होते हैं, अतएव समाजीकरण की प्रक्रिया को दोषपूर्ण ठहराना या कुछ लोगों के विचलन के लिए पूरे समाज को कठघरे में खड़ा कर देना अनुचित है—इस तर्क का स्वागत किया जा सकता है. इसलिए भी कि व्यक्ति एक स्वतंत्र जैविक इकाई है. वह अपने अनुभवों और शिक्षा को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं करता, बल्कि अपनी रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार उनमें आवश्यक संशोधन करता है. इसी से ज्ञान की विभिन्न धाराएं जन्म लेती हैं. और इसी से संस्कृति की बहुरंगी छटाएं फूटती हैं. इसके बावजूद व्यक्ति की रुचियों और विचारों में नकारात्मक तत्वों का प्रवेश उस समय तक असंभव है, जब तक समाज में सीधे अथवा प्रच्छन्न रूप से उनकी उपस्थिति न हो. समाज में नकारात्मक तत्वों की यदि किसी भी रूप में उपस्थिति है, तब यह मान लेना चाहिए समाजीकरण की प्रक्रिया कहीं न कहीं दोषपूर्ण रही है. व्यक्ति और समाज के संबंधों के नकारात्मक संस्कार अंततः उनके हितों के टकराव का कारण बनते हैं. ये सब समाज के जाने-पहचाने सत्य हैं.

मानवमन में पनपने वाले असंतोष के मूल में सामाजिक असमानता होती हैं. वह मानने लगता है कि समाज अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में नाकाम रहा है. ध्यातव्य है कि समाज का कार्य अपने सदस्यों के लिए न केवल न्याय सुनिश्चित करना है, बल्कि यह ध्यान भी रखना है कि किसी के साथ, किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो. इसके लिए आवश्यक है कि शिखर पर बैठे लोग राज्य के अधिकार तथा कर्तव्यों के बीच संतुलन बनाए रखें. किंतु यह एकतरफा कार्रवाही नहीं है. न ही मात्र प्रशासनिक कार्रवाही द्वारा राज्य के अधिकारों एवं कर्तव्यों के बीच तालमेल संभव है. राज्य जनता का कार्य है. केवल जनता ही उसे नियंत्रित कर सकती है. इसके लिए समाज की चेतना का ऊर्ध्वमुखी रहना अत्यावश्यक है. वह तभी संभव है जब समाज के आदर्श उसकी सदस्य इकाइयों के स्वभाव में रच-बस चुके हों. लोग अपने विचारों को जीने के अभ्यस्त हों. उनका जनसंस्कृति में अटूट भरोसा हो, ताकि वे अपने समाजार्थिक विकास के साथ-साथ, संस्कृतियों के छोटे-छोटे टापुओं को उभारने के बजाय—विराट, बहुआयामी और समावेशी जनसंस्कृति के उत्थान हेतु समर्पित भाव से काम कर सकें.

यह भी ध्यान रखना होगा कि सांस्कृतिक बदलाव, तदनंतर अनुकूल संस्कृतियों का सृजन, समाज के सभी वर्गों की सम्मिलित इच्छाशक्ति के बगैर असंभव है. न्याय के संबंध में कानून और अदालतें यदि राज्य का अधिकार पक्ष दर्शाती हैं, तो समाज के अंतःसंघर्षों को न्यूनतम रखने के लिए न्याय का संवितरण उसके कर्तव्य पक्ष की ओर संकेत करता है. अधिकारपक्ष एवं कर्तव्यपक्ष के बीच संतुलन कायम करने के लिए समाज को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे राज्य अपनी सदस्य इकाइयों की मनोवांछाओं को समझकर उनका समयानुसार समाधान कर सके. साथ ही व्यक्ति का भी दायित्व है कि वह समाज में रहते हुए उसके लिए कोई चुनौती पेश न करे. स्वयं को समाज के लिए अधिकतम उपयोगी सिद्ध करे. समाज को अतिरिक्त बोझ से बचाने के लिए अपनी आवश्यकताओं को लोगों की सामान्य रुचियों के यथासंभव निकट रखे. जहां संसाधनों का टोटा हो, कमी को पाटने के लिए उनकी राशनिंग पर जोर दिया जाता हो, वहां बृहद लोकहित में उनका लाभ समाज के अधिकतम लोगों तक पहुंचाने की अनकूल व्यवस्था हो, ताकि अधिसंख्यक लोग विकास में भागीदारी कर सकें. लोगों को लगे कि राज्य उनकी इच्छाओं का सम्मान करता है और उन्हें अपने विकास के लिए वांछित अवसर बगैर किसी अवरोध और पक्षपात के प्राप्त हैं. न्याय के संवितरण हेतु शासन, प्रशासन की भूमिका को हम दो वर्गों में बांट सकते हैं—

1. समावेशी विकास के लिए उपयुक्त वातावरण बनाना. समाज में शांति और सुरक्षा की भावना पैदा करना.
2. उत्पादकता के कुल लाभों को समाज के सभी सदस्यों तक पहुंचाने की अनुकूल व्यवस्था करना अर्थात वितरणात्मक न्याय.

उपर्युक्त में से पहला कानून व्यवस्था यानी सरकार के अधिकार पक्ष से संबंधित है. अरस्तु ने इसे प्रतिकारात्मक न्याय कहा है. उसके अनुसार सामाजिक आचारसंहिता की विश्वसनीयता के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक अपराधी को उसके अपराध के अनुसार दंडित किया जाए तथा पीड़ित की उसी अनुपात में क्षतिपूर्ति हो, ताकि समाज में शांति और व्यवस्था बनी रहे. इस तरह प्रतिकारात्मक न्याय का लक्ष्य है—कानून का निर्माण तथा निष्पक्ष परिपालन. वितरणात्मक न्याय का संबंध राज्य के कर्तव्य पक्ष से है. अपने नागरिकों के बीच ‘कल्याण’ का समविभाजन आदर्श राज्य का सपना होता है. कल्याण राज्य की विशेषता बताते हुए प्लेटो ने कहा था कि वही राज्य न्यायपूर्ण है, जिसमें सब अपना-अपना कार्य करें. शासक शासन करें, श्रमिक मजदूरी, और व्यापारी व्यापार को संभालें. वितरणात्मक न्याय की इस परिभाषा में असंतुलन का दोष है, क्योंकि कार्य के चयन की स्वतंत्रता को लेकर इसमें कोई उल्लेख नहीं है. दरअसल प्लेटो और सुकरात दोनों शासक वर्ग से थे. प्लेटो तो एथेंस की सत्ता के मुख्य दावेदारों में से एक था. दोनों दास प्रथा को यूनान की प्रगति के लिए आवश्यक मानते थे. इस कारण दासों के अधिकार एवं उनकी न्यायिक समानता की ओर उनका ध्यान ही नहीं था. जबकि अरस्तु न्याय को राजनीतिक दर्शन की मुख्य विषय-वस्तु मानता था. न्याय की अपरिहार्यता और सभी के लिए समान उपलब्धता पर जोर देते हुए उसने कहा था कि राज्य का प्रमुख दायित्व अपने नागरिकों के बीच न्याय को सर्वसुलभ बना देना है. ज्ञान-विज्ञान की समस्त धाराओं, विद्याओं का अंतिम लक्ष्य अपने साथ-साथ दूसरों को भी सुख पहुंचाना तथा लोककल्याण का मार्ग प्रशस्त करना है. वह मानता था कि राजनीति स्वयं में सर्वश्रेष्ठ विद्या है. उसका एकमात्र लक्ष्य मनुष्यमात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना है. अपने इसी विश्वास को सूत्रबद्ध करते हुए उसने ‘पालिटिक्स’ में लिखा है—‘राजनीति का सच्चा सद्गुण है—न्याय! तथा न्याय का अभिप्राय है, सर्वसाधारण का सामान्य हित.’ कहा जा सकता है कि अरस्तु का संपूर्ण वाङमय इसी सूत्र का बहुआयामी विस्तार है.

‘सर्वसाधारण का सामान्य हित’ व्यापक निहितार्थ वाला पद है, किंतु अरस्तु के लिए इससे कोई उलझन न थी. उसके न्यायसिद्धांत का मूल सिद्धांत था—‘जो योग्यतम है, वही सर्वोत्तम का अधिकारी है’. इस मामले में अपने पूर्ववत्र्ती विचारकों से भिन्न था. अरस्तु के लिए योग्यतम का अभिप्राय विपुल धन-संपदा का स्वामी अथवा श्रेष्ठ कुलोद्भव होने तक सीमित नहीं था. अपने लेखन में उसने धन-संपदा को महत्त्व दिया था. दास-प्रथा के समर्थन से ही स्पष्ट हो जाता है कि उसकी निगाह में धन-संपदा तथा सामाजिक पदानुक्रम का विशिष्ट महत्त्व था. उन्हें वह समाज में मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा आदि अर्जित करने का माध्यम मानता था. इसके बावजूद उसने इन्हें दूसरे स्थान पर रखा है. इनकी अपेक्षा मानवीय सद्गुण एवं नैतिक आचरण उसके लिए कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण थे. उसका संपूर्ण लेखन सार्वजनिक जीवन में नैतिकता की प्रतिष्ठा को समर्पित है. ‘पालिटिक्स’ में उसने उदाहरण के साथ समझाने की कोशिश की है कि अच्छी बांसुरियां केवल अच्छे बांसुरीवादक को दी जानी चाहिए. वह लिखता है—‘यदि बहुत से बांसुरीवादक इस कला में समान रूप में निपुण हों तो उनमें केवल उच्चकुल में जन्म लेने के कारण किसी को भी अच्छी या अधिक बांसुरियां नहीं मिलनी चाहिए. क्योंकि अच्छे बांसुरीवादन के लिए उच्च कुल में जन्म लेना अनिवार्य नहीं है. घटिया बांसुरीवादक अच्छी बांसुरी का सदुपयोग कर ही नहीं पाएगा. अतएव सर्वोत्तम वाद्य को सर्वोत्तम कलाविद् के लिए सुरक्षित रखना ही न्यायसंगत है.’ किसी को कोई संदेह न रहे, इसलिए इसे और स्पष्ट करते हुए वह लिखता है—‘यदि कोई व्यक्ति ऐसा हो जो बांसुरी बजानेवालों की कला में दूसरों से अधिक निपुण हो, किंतु कुल और सुंदरता में दूसरों की अपेक्षा कमतर हो तो बावजूद इसके कि उच्चकुल एवं सुंदरता जैसे गुण समाज में सम्मान का कारण माने जाते हैं, बांसुरीवादकों के बीच इन गुणों की तुलना करने पर श्रेष्ठतम(और अधिकतम) बासुरियां बांसुरीवादन कला में सर्वाधिक निपुण वादक को ही दी जानी चाहिए.’

अरस्तु के अनुसार न्याय इसलिए न्याय है क्योंकि वह व्यक्तियों के बीच पक्षपात नहीं करता. दूसरे शब्दों में राज्य तभी न्याय-पथ पर रह सकता है, जब वह पक्षपातरहित होकर अपने सभी नागरिकों के साथ समानतापूर्ण व्यवहार करता है. यही वितरणात्मक न्याय की कसौटी है. उसका अंतिम और एकमात्र लक्ष्य है—संपूर्ण समानतावाद. संपूर्ण समानतावाद में ‘कल्याण’ के वितरण में समानता के सिद्धांत का कड़ाई से पालन किया जाता है. यह मानते हुए कि कुल संपदा राज्य की है, और नागरिकों में सभी बराबर हैं, वह संसाधनों के एकसमान बंटवारे पर जोर देता है. लेकिन संपूर्ण समानतावादी द्रष्टिकोण में विचारकों को अनेक खोट नजर आते हैं. उनके अनुसार जरूरी नहीं कि समानतावाद में जिसे व्यक्ति की जरूरत या सुख मानकर बांटा गया हो, उससे सभी को एक समान संतुष्टि प्राप्त होती हो. मान लीजिए बीस व्यक्तियों में सौ अमरूद समानतावादी द्रष्टिकोण के आधार पर बांटे जाते हैं. तब उनमें से प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में पांच अमरूद आते हैं. ठेठ समानतावादी द्रष्टिकोण के अनुसार इससे सभी को सुख की बराबर अनुभूति होनी चाहिए. किंतु ऐसा नहीं है. यह संभव है कि किसी व्यक्ति को अमरूद बिलकुल पसंद न हो, अथवा दूसरे व्यक्ति का काम केवल दो अमरूदों से चल जाए. तीसरा व्यक्ति ऐसा भी हो सकता है जिसे केले अधिक पसंद हों और पांच अमरूद उसे उतनी संतुष्टि न दे पाएं, जितनी वह केवल दो केलों से पा सकता है. मनुष्य अपने व्यक्तित्व और रुचियों के मामले में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं. उन्नत समाजीकरण का ध्येय चरित्रों की भिन्नता को बचाए रखने में है, उसको मिटा देने में नहीं. दूसरे शब्दों में समाज में ज्ञान की विभिन्न धाराओं के पोषण-प्रेषण के लिए रुचि-वैभिन्न्य की रक्षा भी जरूरी है. उसको मिटाने की कोशिश व्यक्ति की नैसर्गिक स्वतंत्रता को कठघरे में लाना होगा. इस समस्या के समाधान के लिए विशिष्ट सुविधाओं के बजाय सुविधाओं के पैकेज की भी सलाह दी जाती है. इसके अलावा कुछ और भी सुझाव हैं, जिनके आधार वितरणात्मक न्याय को हम निम्नलिखित उपधाराओं में बांट सकते हैं—

1. उपयोगितावाद (Utilitarianism)
2. निष्पक्षतावाद या न्यायवाद (Justice as Fairness)
3. स्वाधीनतावाद (Libertarianism)
4. असादृश्य समानतावाद (Difference Principle)

उपर्युक्त के बारे में स्वतंत्ररूप से विचार करने से पूर्व हम जान लें कि न्याय का वितरणात्मक सिद्धांत अपने आप में बहुलार्थी एवं विविध आयामी विस्तार लिए होता है. उसे किसी एक परिभाषा अथवा कसौटी से जोड़ना संभव नहीं है. वितरणात्मक न्याय की की परिकल्पना समाज में ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ के उपयोगितावादी लक्ष्य को मूत्र्तरूप देने हेतु, सुख-संसाधनों के पक्षपातरहित बंटवारे के लक्ष्य को ध्यान में रखकर की जाती है. तदनुसार उसमें सदस्य इकाइयों की सकल आय, धन, विकास के अवसर, रोजगार, आर्थिक संसाधन, सुख-सुविधा आदि की उपलब्धता के अनुसार परिवर्तन होता रहता है. न्यायपूर्ण, समरस समाज की स्थापना हेतु वितरणात्मक न्याय के योगदान को लेकर अधिकांश विचारक एकमत हैं, हालांकि उसके कार्यान्वन को लेकर उनके किंचित मतभेद हैं. उनकी व्याख्या के आधार पर हम इसकी विशेषताओं का आकलन कर सकते हैं. वितरणात्मक न्याय को विद्वानों ने अपने-अपने तरीके से परिभाषित करने की कोशिश की है. किसी ने मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं की उपलब्धता को इसकी कसौटी माना है, तो किसी ने व्यक्तिमात्र के सुख एवं स्वातंत्रय को इसका लक्ष्य स्वीकार किया है. कुछ विद्वानों का द्रष्टिकोण सुखवाद से प्रेरित रहा है. इनके मिले-जुले अपररूप भी हैं. अर्थशास्त्र का सामान्य नियम, ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’—आवश्यकता को पहले पायदान पर रखता है. आविष्कार का नंबर उसके बाद में आता है. किंतु आवश्यकताओं का आविष्कारों की अपेक्षा तीव्र विस्तार मनुष्य को संसाधनों के मोर्चे पर भारी पड़ता है. ऐसा क्यों होता है? समाज अपनी उन आवश्यकताओं की ओर कैसे अग्रसर होता है, जिनका अभी तक न तो आविष्कार हुआ है, न ही उसके जीवन और समस्याओं से दूर का संबंध है. जैसे मोबाइल, संचार और मनोरंजन के क्षेत्र में हो रहे निरंतर नए शोध, जो मनुष्य की किसी मूलभूत आवश्यकता का हिस्सा नहीं हैं, मगर समाज का बड़ा वर्ग उनकी ओर ललचाई दृष्टि से देखता है. भले ही वह नई प्रौद्योगिकी के प्रयोग से अनजान हो, फिर भी आधुनिकतम प्रौद्योगिकी-युक्त उपकरण को खरीदकर वह स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है. ऐसी घटनाएं मनुष्य के निर्णय-सामर्थ्य पर उत्पादक शक्तियों के प्रभुत्व को दर्शाती हैं, जिनकी दृष्टि में मनुष्य की कीमत उपभोक्ता जितनी होती है. वे निहित स्वार्थ के लिए जैसे भी हो उपभोक्ता के मानस पर छाए रहना चाहते हैं. वितरणात्मक न्याय का लक्ष्य व्यक्ति के विवेक को सम्मुनत करना भी है, ताकि व्यापक लोकहित को ध्यान में रखते हुए वह स्वयं को ऐसे अनावश्यक प्रलोभनों से दूर रख सके.

पूंजीप्रेरित समाजों में उत्पादन पर बड़े उद्योगपतियों और सरमायेदारों का कब्जा होता है. आविष्कारों की दिशा बहुसंख्यक की आवश्यकता को ध्यान में रखकर तय नहीं की जाती. न ही विज्ञान एवं तकनीकी शोध के समय कल्याण के न्यायिक विभाजन पर ध्यान दिया जाता है. यही क्यों अर्थशास्त्र के जितने भी लोकप्रिय सिद्धांत हैं, सभी वितरणात्मक न्याय पर विचार करते समय संद्धिग्ध लगने लगते हैं. इसका कारण है कि अर्थशास्त्र के प्रमुख सिद्धांत लोककल्याण की अपेक्षा राज्य की अर्थव्यवस्था को गतिमान रखने के लिए बनाए जाते हैं. विशेषकर पूंजीवादी समाजों में यह मान लिया जाता है कि ऊपर के स्तर पर संपन्नता रहेगी तो वह प्रकारांतर में, रिसते-रिसते निचले समूहों तक भी पहुंचेगी. इससे निचले वर्गों को विकास के लिए उच्चस्थ वर्गों पर आश्रित रहना पड़ता है. दरअसल समाज में व्याप्त आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर भारी असमानता, समाज में पूंजी का बढ़ता वर्चस्व आदि ऐसे कारण हैं जो मनुष्य की निर्णय प्रक्रिया यहां तक कि उसके क्रय-सामर्थ्य तथा क्रय-प्रयोजन को प्रभावित करते हैं. आर्थिक रूप से शक्तिशाली समूह, जो अपने निजी हितों को शेष समाज के हितों से ऊपर मानते हैं, वे समाज की सर्वोत्तम मेधा को अपनी स्वार्थ-सिद्धि के कार्यों में लगाए रखते हैं. विशिष्ट प्रतिभाओं के शिखरस्थ समूहों की सेवा में जुट जाने से समाज का बौद्धिक संतुलन गड़बड़ाने लगता है. निचले स्तर पर मौलिक प्रतिभाओं की कमी उनमें अनुसरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है. परिणामस्वरूप समाज में असमानता बढ़ने लगती है. स्तरीकरण की प्रतीक तथा असमानता को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं का प्रभाव सरकार पर बढ़ता जाता है. आर्थिक असमानता अनेकानेक सामाजिक अंतर्विरोधों का कारण बनती है. उनपर काबू गांठने के लिए विकास के लाभ को जन-जन तक पहुंचाना, सरकारों के लिए मुश्किल काम रहा है. इसलिए जब-जब शासक अथवा शासन बदले हैं, समाज की आर्थिक-राजनीतिक नीतियों में भी बदलाव आया है. शासन के स्तर पर होने वाले लगभग सभी परिवर्तन चाहे वे टैक्स को लेकर हों अथवा उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि से संबंधित, सभी कहीं न कहीं वितरणात्मक न्याय को प्रभावित करते हैं. चूंकि जनाकांक्षाएं विकास के अनुपात में तेजी से बढ़ती हैं, इसलिए सरकारों के समक्ष सदैव यह चुनौती होती है कि परंपरागत नियमों में कितना और किस प्रकार का संशोधन करें, ताकि समाज में बढ़ रहे विक्षोभों को न्यूनतम रखा जा सके. ऐसे वातावरण में वितरणात्मक न्याय सरकारों का नैतिक मार्गदर्शन करता है. यह कोरा आदर्श नहीं है. बल्कि व्यावहारिक सत्य है और सीधे सरकार के कर्तव्य पक्ष से जुड़ा है. यदि कोई सरकार इसे अपनाने से पीछे रहती है, तो माना जाएगा कि वह अपने ‘होने’ के औचित्य से बहुत पीछे है. यह ऐसी कसौटी है, जिसके आधार पर कल्याण सरकार की सदेच्छाओं को जांचा-परखा जा सकता है.

प्रत्येक समाज के कुछ आदर्श होते हैं, जो परोक्षरूप में उसके नैतिक लक्ष्य की ओर संकेत करते हैं. यह भी सत्य है कि पूर्ण स्वतंत्रता किसी भी समाज के लिए सदैव सपना होती है. लेकिन यह सोचकर कि यथार्थ और नैतिकता की दूरी अवश्यंभावी है; अथवा संपूर्ण स्वतंत्रता महज एक सपना है—कोई समाज न तो नैतिकता की ओर से आंख फेरता है, न ही पूर्ण स्वतंत्रता की कामना करना छोड़ देता है. अपनी स्थिति से निरंतर ऊपर उठते जाना ही न ही मनुष्यता का लक्षण है. वितरणात्मक न्याय की आवश्यकता मनुष्यता के इसी चिर-परिचित स्वप्न को साकार करने के लिए पड़ती है. यह भी सच है कि अभी तक ऐसी प्रणाली की खोज संभव नहीं हो पाई है, जिसके द्वारा जीवन में मानवादर्शों की शत-प्रतिशत स्थापना तथा विसंगतियों का संपूर्ण निदान संभव हो. इसके बावजूद इसकी अपनी महत्ता है. यह शिखरस्थ शक्तियों का नैतिक मार्गदर्शन प्रदान करती हैं. उन्हें राह दिखाती हैं ताकि समाज में व्याप्त असमानताओं को दूर करने के लिए आवश्यक कदम उठाए जा सकें. वितरणात्मक न्याय आधुनिक समाजों की अनिवार्यता है. इसलिए यह कहना कि समाज अथवा व्यक्ति इसको पूरी तरह नजरंदाज कर सकते हैं, सरासर भ्रांति होगी. वर्तमान समाजों में संचारक्रांति के विकास तथा उपभोक्तावादी प्रचारतंत्र ने लोगों को सूचनाओं के करीब ला दिया है. ऐसी अवस्था में कानून और शासन का एकतरफा मा॓डल, जो केवल अधिकार की बात करता हो, कर्तव्य की ओर जिसका कोई ध्यान न हो—चल ही नहीं सकता. आवश्यकता सरकार और जनता के स्तर पर विकास के सकारात्मक द्रष्टिकोण को अपनाने की है. समाज विशेष के लिए वितरणात्मक न्याय की कौन-सी पद्धति श्रेष्ठ और प्रभावकारी होगी, इसके लिए भी सकारात्मक द्रष्टिकोण आवश्यक है. यह हमें नैतिक मूल्यों से बंधे रहने, उनकी ओर निरंतर अग्रसर होने के लिए प्रेरित एवं दिशा-निर्देशित करता है. यह हमें अधिक से अधिक लोगों को अधिक से अधिक सुखी और संतुष्ट करने की नैतिक दृष्टि देता है. इसका अभाव अथवा समाजीकरण के उद्देश्यों के प्रति हताशा प्रायः हमें भटका देती है. कई बार हम विकास की धारा तथा उसके उद्देश्य को लेकर उलझन में पड़ जाते हैं.

उदाहरण के लिए यदि बाकी स्थितियां एक समान हों तो प्रायः यह मान लिया जाता है कि ब्याजदर में वृद्धि के दुहरे परिणाम होते हैं. पहला मुद्रा-स्फीति तथा दूसरा रोजगार के अवसरों में गिरावट. इनमें मुद्रा-स्फीति में गिरावट को सामान्यतः अच्छा माना जाता है, रोजगार के अवसरों में गिरावट को सरकार की अर्थनीतियों की असफलता के रूप में देखने का चलन है. इसलिए सामान्य सलाह यही होगी कि मुद्रा-स्फीति पर नियंत्रण के लिए बैंक को ब्याजदर में कमी करनी चाहिए. यह माना जाता है कि इससे वस्तुएं सस्ती होकर आम आदमी की पहुंच में आ जाएंगी. यानी प्रथम आग्रह उपभोक्ता वस्तुओं के सस्ती होने तथा उन्हें जनसाधारण की पहुंच में बनाए रखने का होता है. पूरक परिणाम यानी रोजगार में गिरावट की ओर अकसर ध्यान ही नहीं दिया जाता. जबकि रोजगार अवसरों में कमी समाज की आय में कमी लाकर उसके क्रय-सामर्थ्य को प्रभावित करती है. चूंकि रोजगार अवसरों में गिरावट के परिणाम देर से सामने आते हैं, इसलिए लोकप्रियता बनाए रखने के लिए अर्थशास्त्री मुद्रा-स्फीति को नियंत्रण में रखने की सलाह देते हैं. यह कुछ ऐसा ही है जैसे यह मान लेना कि समाज में जितने अधिक चिकित्सक होंगे, वह उतना ही स्वस्थ एवं खुशहाल रहेगा. फिर इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए सभी प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को चिकित्सक बनने के लिए बाध्य करना. इससे निस्संदेह चिकित्सा के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं के आने की संभावना बढ़ेगी, किंतु यह कदम बाकी क्षेत्रों में मौलिक प्रतिभाओं के अभाव का कारण बनेगा. अनिच्छापूर्वक चिकित्सा क्षेत्र में ढकेले गए विद्यार्थी अनमने भाव से कार्य करेंगे. अपनी समग्रता में यह निर्णय समाज के लिए नुकसानदेह सिद्ध होगा. आशय है कि जल्दबाजी में, समस्याओं पर समग्र दृष्टि से विचार किए बगैर खोजे गए समाधान दूसरी अन्य समस्याओं को जन्म दे सकते हैं. उदाहरण के लिए सामाजिक संपदा के प्रबंधन करने के लिए अर्थशास्त्र के सिद्धांत एक टूल की तरह होते हैं. अर्थशास्त्री ज्ञान के उपकरणों का उतना ही प्रयोग करता है, जो अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों की कसौटी पर खरे उतरते हों. उसका असली ध्येय पूंजी के आवागमन द्वारा विकास की रफ्तार को बनाए रखना होता है. दूसरी ओर विकास को लेकर दार्शनिक के सोच का दायरा बड़ा होता है. वह भौतिक आवरण के पीछे अंतनिर्हित नैतिक सत्य को भी महत्त्व देता है. इसलिए दार्शनिक विचारों की महत्ता सार्वकालिक होती है. वितरणात्मक न्याय की सफलता के लिए आवश्यक है कि फैसले खूब सोच-समझकर लिए जाएं. वस्तुनिष्ट सत्य के अलावा सामाजिक आदर्शों को भी ध्यान में रखा जाए. लेकिन सभी अर्थशास्त्री दार्शनिक नहीं हो सकते. इसलिए समस्या के दीर्घायामी समाधान हेतु आवश्यक है कि लिए गए निर्णयों में दार्शनिक गहनता हो. वितरणात्मक न्याय को प्रतिष्ठा उसकी दार्शनिकी के कारण मिली है. यह कार्यक्रम न होकर एक वैचारिकी है. इस कारण हर विद्वान ने वितरणात्मक न्याय की संकल्पना अपनी वैचारिक कसौटी के आधार पर की है. आगे हम उसके विविध स्वरूपों पर संक्षेप में चर्चा करेंगे—

उपयोगितावादी द्रष्टिकोण

मनुष्य समाज में अपने सुख एवं सुरक्षा के लिए सम्मिलित होता है. कामना करता है कि ये दोनों उसको निर्बाध प्राप्त होते रहेंगे. इसके लिए वह अपनी नैसर्गिक स्वतंत्रता के एक हिस्से की बलि चढ़ाकर, सामाजिक आचारसंहिता के अनुसार अनुशासित जीवनयापन का भरोसा दिलाता है. समाज में शांति-व्यवस्था बनाए रखने के लिए वह आवश्यक कानून गढ़ता है. राज्य में कानून के गठन तथा उनके अनुपालन का दायित्व हालांकि सरकार का होता है. कानून एवं सामाजिक आचारसंहिता के परिपालन हेतु उपयुक्त वातावरण बनाने के लिए सरकार को आवश्यक अधिकार भी दिए जाते हैं, जिनसे वह ऐसे प्रभावशाली तंत्र का गठन कर सके, जिसपर सभी को विश्वास हो, जो नागरिकों को अपने सामर्थ्य के सदुपयोग तथा विकास के उपयुक्त अवसर प्रदान करने में सक्षम हो. अपेक्षा की जाती है कि जिन्हें सरकार के भीतर मनोनीत किया गया है, वे अपने कर्तव्यों को भली-भांति समझेंगे तथा व्यापक लोकहित में जो दायित्व उन्हें सौंपे गए हैं, उनका उसी भावना के साथ पालन करेंगे. शासन-प्रशासन की सफलता कानून के समुचित पालन तथा विकासोन्मुखी अर्थव्यवस्था के गठन से आंकी जाती है. इसके साथ वह वैचारिकी भी महत्त्वपूर्ण होती है, जिसपर सरकार तथा उसकी सहयोगी संस्थाओं का ढांचा खड़ा होता है. समाजार्थिक असमानता के निराकरण तथा समावेशी विकास हेतु सरकार की प्राथमिकताएं क्या हों, इस प्रश्न का उत्तर स्वाधीनतावादी, सुखवादी, उपयोगितावादी, आदर्शवादी, यथार्थवादी आदि विभिन्न मत-मतांतरों वाले विद्वान अपनी-अपनी तरह से देते हैं. उपयोगितावादी विचारकों के अनुसार समाजीकरण का परम लक्ष्य ‘अधिकतम लोगों की अधिकतम प्रसन्नता’ सुनिश्चित करने में है. मगर मात्र कह देने से तो यह लक्ष्य-सिद्धि संभव नहीं. सुख तो किसी न किसी रूप में पशु-पक्षी भी प्राप्त करते हैं. उनके व्यवहार से कभी उनका दुख या असंतोष प्रकट नहीं होता. हम प्रायः मान लेते हैं कि वे अपनी स्थिति से संतुष्ट हैं.

उपयोगितावाद की मुख्य समस्या यह पता लगाना है कि व्यक्ति के सुख तथा प्रसन्नता के आकलन का आधार क्या हो? हम यह कैसे तय करें कि ‘अमुक’ व्यक्ति पूरी तरह सुखी और संतुष्ट है. वे कौन-सी कसौटियां हैं, जिनसे माना जाए कि समाज ने अपने अधिकतम सदस्यों के लिए अधिकतम सुख का प्रबंध कर लिया है. सुख न तो बिजली है, न टेलीफोन, न द्रव्यमान है, न ही यह कुछ और जिसे आंकड़ों में अभिव्यक्त किया जा सके. दूसरे शब्दों में सुख चाहे जितना सुखकारी हो, उसकी अवधारणा बहुत जटिल है. विशेषकर उसको परिभाषा में बांधना. इससे सुख तथा उसकी कसौटी का निर्धारण बहुत कठिन हो जाता है. तब और भी जब हम देखते हैं कि उसे लेकर प्रत्येक व्यक्ति की चाहत तथा मान्यताएं अलग-अलग हैं. किसी व्यक्ति को सुबह-शाम दाल-रोटी मिल जाए तो वह खुद को सुखी मान लेता है. उसको समाज या सरकार से कोई गिला-शिकवा नहीं रहता. दूसरा व्यक्ति पांच-तारा होटल में भोजन करने के बाद भी चिड़चिड़ा और असंतुष्ट बना रहता है, चार बार पेट-भर खा लेने के बाद भी उसकी क्षुधा शांत नहीं होती. क्या इसे केवल मावन-प्रवृत्ति अथवा स्वभाव का अंतर मानकर उपेक्षित किया जा सकता है! जाहिर है उपयोगितावाद को चुनौती बाहर से नहीं, अपने ही भीतर से प्राप्त होती है. इस समस्या के निदान के लिए उपयोगितावादी विचारकों की राय है कि जो मानवमात्र के लिए ‘शुभ’ है, अथवा जिससे समाज में ‘शुभता’ की वृद्धि हो, वही असली सुख है. फिर भी सवाल रह जाता है कि समाज में ‘शुभ’ की सार्वत्रिक उपस्थिति कैसे संभव हो! कैसे उसको बढ़ावा दिया जाए! इस बारे में लोगों से बात की जाए तो वे पुनः अलग-अलग रास्ते बताएंगे. अर्थात ‘शुभ’ के प्रति अपनी असहमति के बावजूद, यदि उनसे इसकी स्वतंत्र व्याख्या करने को कहा जाए तो वे किसी एक मुद्दे पर शायद ही एकमत हो पाते हैं. शुभ के स्वरूप की व्याख्या केवल जनसाधारण की समस्या नहीं है? कलाकार, बुद्धिजीवी, राजनेता, मंत्री, संतरी, कारपोरेट सेक्टर में काम करने वाले प्रखर अधिकारी, अड़ियल नौकरशाह, दुकानदार, इंजीनियर सब उसे लेकर असमंजस में जान पड़ेंगे. एक भी विश्वास के साथ यह नहीं कह पाएगा कि सुख की उसकी अवधारणा क्या है? मनुष्य का असली सुख किसमें है! कुछ लोग सुख के òोत के रूप में कुछ वस्तुओं या उपकरणों का नाम लेंगे. कुछ का जवाब दार्शनिक अंदाज वाला भी हो सकता है. ऐसे लोग कहेंगे कि जीवन में दुखों का अभाव ही सुख है. लेकिन दुखों का अभाव तो अभौतिक घटना है. दूसरे शब्दों में सुख की परिभाषा तथा उसका आकलन बहुत चुनौती-भरा कार्य है. उपयोगितावाद की ये समस्याएं उसके समर्थकों के लिए भी अजानी नहीं थीं. इसलिए इसे विचारधारा के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत करने से पहले, उन्हें सुख की परिभाषा में आने वाली चुनौतियों का सामना करना पड़ा था, अंततः उन्हें ‘शुभ अमूत्र्तन किंतु सर्वकल्याणकारी है’ के विचार से समझौता करना पड़ा.

उपयोगितावादी विचारकों के अनुसार सुख की अवधारणा चाहे जितनी वैविध्यपूर्ण हो, फिर भी जीवन में सुख और खुशहाली के मापदंड के लिए सुविधाओं के न्यूनतम ‘पैकेज’ की परिकल्पना की जा सकती है. उनमें ऐसी सुविधाओं को शामिल किया जा सकता है, जिनके अभाव में मनुष्य को सामान्य जीवन जीना भी दूभर लगने लगे. भोजन, भवन, वस्त्र जैसी कुछ आवश्यकताएं ऐसी हैं, जिनकी कमी मनुष्य के अस्तित्व पर संकट ला सकती है. उसको शारीरिक और मानसिक स्तर पर रोगी बना सकती है. लेकिन न्याय की अपेक्षा यह भी है कि आवश्यकताओं के आकलन में देश-भर में सामान्य एकरूपता बरती जाए. उदाहरण के लिए भूखा व्यक्ति रोटी-दाल मिलने पर तीव्र सुखानुभूति की घोषणा कर सकता है. किंतु धनवान के मामले में स्थिति इससे अलग होगी. इसलिए गरीब के लिए साधारण भोजन और धनवान के लिए उसके पसंदीदा व्यंजनों का प्रबंध कर देना न्याय नहीं है. भूखा व्यक्ति दाल-रोटी को अपने सुख का आधार मान लेता है, तो केवल इसलिए कि उसका तात्कालिक संघर्ष भूख से है. उससे आगे सोच पाने में वह असमर्थ है. इसलिए जीवन की न्यूनतम आवश्यकता दाल-रोटी पाकर भी उसके चेहरे पर संतुष्टि के भाव देखे जा सकते हैं. भूखे व्यक्ति के लिए दाल-रोटी का इंतजाम कर देने से उसकी जीवन संभाव्यता को बढ़ाया जा सकता है, किंतु यह अंतरिम राहत होगी. व्यक्ति और समाज दोनों की जिम्मेदारी उस समय तक समाप्त नहीं होती, जब तक वह व्यक्ति स्वयं-स्फूत्र्त और आत्मनिर्भरता के साथ विकास की मुख्यधारा में सम्मिलित नहीं हो जाता. यह वितरणात्मक न्याय की पहली स्थिति है. इसमें स्थायित्व उस समय तक असंभव है, जब तक व्यक्ति समाजार्थिक भेद-भाव का शिकार बना हुआ है. लोग शासक और शासित में बंटे हुए हैं. फैसले सर्वसम्मति से लेने के बजाय ऊपर से थोप दिए जाते हैं. इस उपलब्धि पर समाज और सरकार अपनी पीठ ठोंक सकते हैं. मगर उन्हें यहीं संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए. यहां से आगे की उनकी यात्रा समाज में विषमता की खाई को पाटकर एक समरस समाज की स्थापना तक जारी रहनी चाहिए, ऐसा समाज जिसमें जिसमें व्यक्ति को न केवल अवसर समान हों, बल्कि संसाधनों में भी समान हिस्सेदारी हो.

यहां आते-आते उपयोगितावाद की तस्वीर साफ होने लगती है. तय हो जाता है कि समाज में न्याय की आदर्श उपस्थिति तभी संभव है, जब मनुष्य को आवश्यकता की सभी ऐच्छिक वस्तुएं आसानी से उपलब्ध हों. ताकि वह अपने शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा करते हुए खुद को विकास की मुध्यधारा से जोड़ सके. ऐच्छिक वस्तुएं तथा मूलभूत आवश्यकता में अंतर है. ऐच्छिक वस्तुओं में वे सभी संसाधन और अवसर सम्मिलित हैं, जो किसी व्यक्ति को विकास की स्पर्धा में बनाए रखने के लिए जरूरी होते हैं. अभी तक रोटी, कपड़ा और मकान को मनुष्य की मूल आवश्यकताओं की उपलब्धता को सरकार के कर्तव्य में गिना जाता रहा है. सामान्यतः यह उचित भी है. किंतु इससे व्यक्ति का विकास की दौड़ में बने रहना संभव नहीं है. केवल उम्मीद की जा सकती है कि मूल आवश्यकताओं की पूर्ति के आश्वासन के बाद मनुष्य निश्चिंत होकर अपने भविष्य के बारे में सोच सकेगा, किंतु समाज में व्यक्ति के विकास हेतु पर्याप्त अवसर ही न हों तो? अथवा जितने अवसर हैं, उनपर पहले से समृद्ध वर्गों का कब्जा हो तब? अथवा अवसर हों और व्यक्ति को निर्णय लेने की स्वतंत्रता न हो तब? यानी केवल मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति से विकास की संभावना न्यूनतम बनी रहती है. विकास से वंचित व्यक्ति मूल आवश्यकताओं का कोई संकट न होने के बावजूद, स्वयं को असंतुष्ट, असहाय और दुखी महसूस करेगा. इससे समाज में अशांति और अव्यवस्था संबंधी चुनौतियां भी जन्म लेंगी. समस्या के स्थायी समाधान के लिए उपयोगितावादी विचारकों का द्रष्टिकोण है कि मनुष्य को उसकी आवश्यकता की मूलभूत वस्तुएं यथा भोजन, वस्त्र, आवास, दवाएं, सुरक्षा, पारिवारिक सान्निध्य आदि आसानी से प्राप्त होना चाहिए. साथ में उसे यह भरोसा होना चाहिए कि उसके विकास हेतु समाज में समुचित अवसर भी आसानी से उपलब्ध हैं. इनके अलावा समाज की विकासवादी परंपरा से जोड़ने या जोड़े रखने के लिए व्यक्ति में इच्छाशक्ति का होना भी आवश्यक है. इच्छाओं के चयन में अरस्तु से प्रेरणा ली जा सकती है. उसके अनुसार विवेक-संपन्न होने के नाते यह स्वाभाविक है कि इच्छाओं के निर्माण तथा उनके निर्वहन के समय मनुष्य के निर्णय तर्कपद्धति के अनुरूप हों. इच्छा मनुष्य की न्याय-चेतना तथा कर्तव्यों की दिशा का निर्धारण करती है. दूसरे शब्दों में इच्छा भविष्य की पूर्ववत्र्ती, विकासपथ को रोशन करनेवाली मशाल है. मनुष्य जिस जीवन की अपने लिए कामना करता है, जैसा भविष्य वह अपने लिए गढ़ना चाहता है, पहले वैसा सपना, वैसी इच्छा और वैसा ही संकल्प-भाव उसके भीतर पनपना चाहिए. इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य को मनोवांछित कार्यक्षेत्र में प्रवेश की पूरी-पूरी स्वतंत्रता हो. साथ में यह विश्वास भी जरूरी है कि उस दिशा में प्रयास करने पर सरकार और शेष समाज भी उसकी सहायता को उपलब्ध होंगे.

यदि मनुष्य परतंत्र होता, उसकी निर्णय-शक्ति किसी अन्य से प्रभावित होगी तो वह इच्छा, सपनों, संकल्पों और संसाधनों के बावजूद उस दिशा में कुछ भी कर पाने में असमर्थ रहेगा. इसलिए समाज में न्याय की स्थापना के लिए स्वतंत्रता अपरिहार्य है. दूसरे शब्दों में समाज और सरकार न्याय का वातावरण बना सकते हैं, उसको ऊपर से थोप पाना नामुमकिन है. कह सकते हैं कि न्याय की प्रेरणा चाहे जिस दिशा से मिले, उसकी आकांक्षा को उसकी मानवीय चेतना से उद्भूत तथा स्वतंत्र कार्यशैली से समर्थित होना चाहिए. अरस्तु की यह विचारधारा उपयोगितावाद की आधारशिला तथा उसकी सफलता की कसौटी है. हर मनुष्य अपने लिए सुखी तथा खुशहाल जीवन की कामना करता है. इसके लिए अवश्यक है कि समाज में पर्याप्त रोजगार हों. उनके माध्यम से व्यक्तिमात्र के लिए इतनी आय सुनिश्चित हो, ताकि वह अपने लिए न्यूनतम सुविधाओं का इंतजाम कर सके. ऐसे अवसर हों, जिनमें वह अपने अपने भविष्य के सपने सजा सके. इतनी स्वतंत्रता हो कि आगे बढ़कर अपने सपनों को अंजाम तक पहुंचा सके. इस सबके लिए लोकोन्मुखी और जवाबदेह व्यवस्था का होना जरूरी है. ऐसी व्यवस्था जो न केवल संसाधनों के न्यायिक विभाजन के प्रति ईमानदार हो, बल्कि प्रतिव्यक्ति आय, रोजगार अवसर तथा समाज की कुल संपदा में वृद्धि के माध्यम से सदस्य इकाइयों की महत्त्वाकांक्षाओं को मूत्र्तरूप दे सके. सुख की अवधारणा को लेकर जेरमी बैंथम, हेनरी सिडविक, जान स्टुअर्ट मिल आदि उपयोगिता विचारकों में हल्के-फुल्के मतभेद हैं, किंतु वे सभी इसपर सहमत थे कि जीवन में सुख का नैरंतर्य सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता के बिना असंभव है. इसके लिए आवश्यक है कि शासन जवाबदेह हो. मनुष्य को अपना मत-अभिव्यक्त करने की पूरी स्वतंत्रता हो. उसको अपने हित के अनुसार निर्णय लेने, उसके लिए उपलब्ध संसाधनों की वांछित क्षेत्र में निवेश करने की आजादी हो. यह भी जरूरी है कि संविधान निर्माण से लेकर, कानून, शासन-प्रशासन की आचारसंहिता तथा कार्यकारी संस्थाओं के गठन में जनसाधारण के हितों, इच्छा और आकांक्षाओं का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया हो. इसके लिए उपयोगितावादी विचारक तीन प्रकार की संस्थाओं के गठन को जरूरी मानते हैं—

1. सार्वजनिक खर्च पर चलने वाली ऐसी शिक्षण संस्थाएं जो सभी के लिए खुली हों, जिनमें सभी प्रकार की आधुनिक शिक्षा के व्यापक इंतजाम हों.
2. मुक्त स्पर्धात्मक बाजार, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता के अनुसार आगे बढ़ने, अपने श्रम-कौशल का पूरा लाभ उठाने की स्वतंत्रता हो. उल्लेखनीय है कि प्रतिस्पर्धी बाजार के लिए आरंभिक उपयोगितावादी विचारक ‘लेजेज फेयर’ तथा उदार पूंजीवादी तंत्र की प्रशंसा करते थे. मगर पिछले कुछ दशकों में पूंजीवादी ताकतों ने निहित स्वार्थ के लिए जिस तरह से लोगों की निर्णय-प्रक्रिया को प्रभावित करना आरंभ किया है, उपयोगितावादी विचारकों का उससे मोह भंग हुआ है. इन दिनों वे समाजवादी अर्थव्यवस्था का समर्थन करने लगे हैं.
3. नागरिक अधिकारों का संरक्षण; जिससे व्यक्ति अपने विकास को लेकर स्वयं निर्णय लेने में सक्षम हो तथा अर्जित सुख-सुविधाओं का स्वतंत्र भोग कर सके.
4. जबावदेह लोकतंत्र. शिक्षा के प्रति समानतावादी द्रष्टिकोण, सभी वर्गों तक उसकी समान पहुंच, नागरिक अधिकारों के संरक्षण हेतु उत्तरदायी न्याय प्रणाली की सफलता, मुक्त और सकारात्मक स्पर्धायुक्त बाजार की स्थापना केवल लोकतांत्रिक परिवेश में संभव है. दूसरे शब्दों में उपयोगितावादी न्याय और लोकतंत्र एक-दूसरे के पूरक तथा कदाचित समानार्थी भी हैं.

यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो ऊपरोल्लिखित सब किसी आधुनिक समाज की विशेषताएं जान पड़ेंगी. आधुनिक समाज सामान्यतः लोकतंत्र को महत्त्व देते हैं. घोषितरूप से नागरिक अधिकारों के संरक्षण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराते हैं. उसके लिए आमतौर पर संविधान में उपयुक्त व्यवस्था भी करते हैं. वे सिद्धांततः मानते हैं कि शिक्षा सभी के लिए एक समान हो. उसका तमाम खर्च सरकार वहन करे. दूसरे शब्दों में माना जा सकता है कि आधुनिक समाजों के गठन पर उपयोगितावादी विचारधारा का गहरा प्रभाव रहा है. इससे पूरी तरह इन्कार भी नहीं किया जा सकता. किंतु यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो चाहे वह अमेरिका जैसे अतिआधुनिक समाज हों; अथवा भारत जैसे त्वरित परिवर्तन से गुजर रहे परंपरा-पोषी देश—सभी में संवैधानिक व्यवस्थाओं तथा विचारधाराओं का ईमानदार अनुसरण संभव नहीं हो पाता. क्योंकि न्याय की जरूरत समाज के बहुसंख्यक गरीबों, बेरोजगारों तथा दूसरे संघर्षशील वर्गों को पड़ती है, जबकि उसको लागू करने का अधिकार अल्पसंख्यक अभिजनों का होता है, जो संसाधनों और अवसरों पर कुंडली मारे बैठा रहते हैं. वे इतनी आसानी से अपने कब्जे को छोड़ने को तैयार नहीं होते. धर्म, कानून, राजनीति, सामाजिक आचारसंहिता और संस्थाएं, सभी पर उनका अधिकार होता है. भारत जैसे देशों में तो जाति नाम की अतिरिक्त संस्था विकास के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा है. धार्मिक जड़ता, ऊंच-नीच और तरह-तरह के पाखंडों को बनाए रखने में वह प्रमुख भूमिका निभाती है. ऐसी यथास्थितिवादी संस्थाओं के चलते शीर्षस्थ अभिजनों को वास्तविक चुनौती बहुत कम मिल पाती है. परिणामस्वरूप जनसाधारण और न्याय के बीच अंतराल बढ़ता ही जाता है. दरअसल उपयोगितावादी न्याय की संकल्पना एक ऐसी अर्थ-प्रणाली पर निर्भर करती है जो सभी के साथ उदारता से पेश आए. जिसका उपयोग समाज के बहुसंख्यक वर्ग के कल्याण के लिए उसकी इच्छा, आकांक्षाओं के अनुरूप किया गया हो. उसके लिए जब आमूल परिवर्तन की बारी आती है, तो शीर्षस्थ अभिजन समूह एकजुट होकर उसका विरोध करने लगते हैं. अपने प्रभाव का उपयोग कर, प्रायः वे यथास्थिति बनाए रखने में सफल भी होते हैं. उनकी शोषणकारी नीतियों के चलते विकास का लाभ समाज के शीर्षस्थ वर्गों तक सिमटकर रह जाता है. लोकतंत्र और स्वतंत्रता आभासी बनकर रह जाते हैं. लोगों का उस ओर ध्यान न जाए, इसके लिए वे उनके दिलो-दिमाग पर कब्जा जमा लेते हैं. इसमें मीडिया तथा लाकसंपर्क के अन्य सभी माध्यम की मदद ली जाती है. लोकतांत्रिक संस्थाओं में केंद्रीय पदों पर आसीन होकर वे उनका स्र्वार्थानुरूप संचालन करने लगते हैं. परिणामस्वरूप जनसाधारण के लिए न्याय की संभावना क्रमशः क्षीण होती जाती है. इसका परिणाम सामाजिक विषमता की उत्तरोत्तर चैड़ी होती खाई के रूप में सामने आता है.

मुक्त, उदार एवं बाजारवादी अर्थव्यवस्था के समर्थक दावा करते हैं कि स्पर्धात्मक अर्थव्यस्था मानवमात्र के उपयोग को केंद्र में रखकर बनाई गई है. इसमें जो जितना योग्य है, वह समाज के विकास में उतना ही योगदान कर अपने लिए उपयुक्त सुख-सामग्री जुटा सकता है. उद्यमियों के बीच स्पर्धा होने पर उपभोक्ता को चीजें सस्ती मिलने की संभावना बन जाती है. लेकिन वे इस तथ्य को नजरंदाज कर जाते है कि बाजार के अधिकतम हिस्से पर कब्जा जमाने के लिए बाजारवादी शक्तियां मनुष्य का उपभोक्ताकरण करती हैं, तरह-तरह के प्रलोभन, आकर्षण एवं चमक-दमक के माध्यम से वे उपभोक्ताओं के मन-मस्तिष्क पर कब्जा जमाकर उसके निर्णय-सामर्थ्य को अपने बस में कर लेती हैं. निर्णय क्षमता में कमी आने पर व्यक्ति शोषणकारी व्यवस्था से अनुकूलन करने लगता है. स्पर्धा भले ही मानवीय गरिमा को ठेस पहुंचाती हो, भले ही वह पूंजीवाद के हाथ का सबसे ताकतवर औजार हो, भले ही वर्चस्वकारी शक्तियों को सत्ता में बने रहने के तर्क उपलब्ध कराता हो, सच यह भी कि स्पर्धा पूंजीवाद की खोज नहीं है. परंपरागत अर्थव्यवस्थाओं में भी वह मौजूद थी. मगर तब और आजकल पूंजीवाद की सफलता का पर्याय बन चुकी स्पर्धा में अंतर है. पहले वह मुख्यतः उत्पादकों अथवा विक्रेताओं के बीच होती थी. क्रेता का महत्त्व था, किंतु कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो, आमतौर पर वह स्पर्धा से बाहर होता था. आजकल उत्पादक और विक्रेता दोनों की भूमिका परस्पर पूरक और सहायक की है. विक्रेता भी उत्पादन-प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण सदस्य है, इसलिए कह सकते हैं कि प्राचीन स्पर्धा केवल उत्पादनकर्म तक सीमित थी. उपभोक्ता उस समय तक उतना महत्त्वपूर्ण नहीं था. इसलिए उसे स्पर्धा से बाहर रखा जाता था. त्वरित उत्पादन प्रणाली में उपभोक्ता का स्थान भी निर्णायक है. उसके पास चयन के वाजिब अवसर भी हैं. इसलिए आधुनिक विद्वान बाजार को आर्थिक गतिविधियों के ऐसे केंद्र के रूप में देखते हैं, जहां क्रेता और विक्रेता अपने-अपने हितों की स्पर्धा में होते हैं. विक्रेता और उत्पादक तो स्वयं को एक-दूसरे का पूरक और सहयोगी मान ही चुके हैं. उपयोगितावाद बाजार में मुक्त स्पर्धा का समर्थक है, लेकिन वह स्पर्धा बाजार में मौजूद क्रेता और विक्रेता दोनों के लिए लाभकारी होनी चाहिए. वह इसे सकारात्मक स्पर्धा का नाम देता है. सकारात्मक स्पर्धा की कुछ स्थितियां निम्नवत हो सकती हैं—

1. बाजार में क्रेता और विक्रेता पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हों. दोनों में से कोई भी मूल्यों में हस्तक्षेप कर पाने में असमर्थ होगा. फलस्वरूप उत्पादक को वस्तु का पूरा दाम प्राप्त होगा तथा उपभोक्ता को वाजिब मूल्य में अपेक्षित वस्तु इच्छानुसार समय पर उपलब्ध होगी. यह आदर्श अवस्था है. जिसमें स्पर्धा के लिए कुछ खास नहीं है. प्राचीन अर्थव्यवस्थाएं कुछ इसी प्रकार की होती थीं.
2. बाजार उत्पादकों तथा ग्राहकों के लिए पूरी तरह से खुला हो. नया उत्पादक जब चाहे बाजार में अपने उत्पाद की बिक्री की संभावना खोजने के लिए प्रवेश कर सके. साथ ही असफल अथवा ऐसे उत्पादक जो किसी कारणवश बाजार छोड़कर जाना चाहते हैं, उन्हें स्वतंत्रता हो कि अपनी इच्छानुसार बाजार को छोड़कर जा सकें.
3. बाजार की सफलता उत्पादक एवं विक्रेता दोनों के हितों की रक्षा में है. अतः वहां उत्पाद की गुणवत्ता तथा उसके मूल्य में तालमेल होना चाहिए. साथ ही उत्पादक को लगे कि उसे अपने श्रम-कौशल का पूरा मूल्य प्राप्त किया है और उपभोक्ता को विश्वास हो कि उसे चुकाई गई कीमत के बदले में उपयुक्त वस्तु प्राप्त हुई है. कोई भी स्वयं को छला हुआ या आहत महसूस न करे. केवल लाभार्जन को ध्यान में रखकर उत्पाद की गुणवत्ता से किया गया समझौता बाजार को नकारात्मक स्पर्धा की ओर ढकेल देगा. अमर्यादित स्पर्धा दूसरे दुकानदारों को कम समय में अधिकाधिक लाभार्जन के उकसाएगी. उससे केवल मुनाफे के लिए वस्तुओं के निर्माण और विपणन की प्रवृत्ति बढ़ेगी. इससे उत्पादक को मनमानी मूल्यबृद्धि का अधिकार देना होगा. यदि ऐसा नहीं हुआ तो वे अवसर मिलते ही गुणवत्ता से समझौता करने लगेंगे. अथवा आकर्षक पैकिंग, फैशन आदि बहानों से उत्पाद की अतिरिक्त कीमत वसूलने लगेंगे, जिसका उत्पाद की उपयोग से कोई लेना-देना न हो. इससे उपभोक्ता स्वयं को छला हुआ महसूस करेगा. उसे खर्चे गए मूल्य का वाजिब माल नहीं मिल पाएगा. इससे न्याय की अवधारणा ही गड़बड़ा जाएगी. और कालांतर में बाजार अराजक होकर मुनाफाखोरों की मनमानी का अखाड़ा बनकर रह जाएगा.

उपयोगितावादी विचारकों के अनुसार जब बाजार में विशुद्ध स्पर्धा का माहौल हो, क्रेता और विक्रेता के संबंध सौहार्दपूर्ण तथा विश्वास से भरे हों तो बाजार अपने स्वाभाविक विकास की ओर अग्रसर होता है. पूंजी वहां सहज उपलब्ध होती है. श्रमिकों के लिए पर्याप्त रोजगार होते हैं. मालिक-मजदूर संबंधों में आत्मीयता होती है. श्रमिकों अपनी अधिकतम उत्पादकता के साथ काम कर पाते हैं, फलस्वरूप वस्तु-निर्माण में न्यूनतम लागत आती है और उत्पादक उन्हें पर्याप्त लाभांश के साथ बेच पाता है. ऐसे परिवेश में संसाधनों का अधिकतम सदुपयोग संभव होता है. समाज जिन वस्तुओं की अपेक्षा करता है, वे आसानी से उपलब्ध होती हैं. इसके लिए उत्पादक को उपयुक्त लाभ होता है. सभी कामगारों को संतोषजनक रोजगार मिलता है. इस तरह उपयोगितावादी विचारक न्याय को बगैर किसी बाहरी प्रयास के स्थापित करना चाहते हैं. सरकार की भूमिका न्यूनतम हस्तेक्षप द्वारा देश, समाज में अनुकूल वातावरण बनाने की है, जिसमें उत्पादक और उपभोक्ता सौहार्दपूर्ण परिवेश में काम कर सकें.

उपर्युक्त से यह भी संकेत मिलता है कि सुखवादी विचारक वितरणात्मक न्याय को बाजार के भरोसे छोड़ देना चाहते हैं. उनका मानना है कि सरकार यदि अपने हस्तक्षेप को न्यूनतम रखे, बाजार को अपने भरोसे आगे बढ़ने का अवसर दे तो स्थितियां स्वतः सुधरती जाएंगी. उनके अनुसार प्रत्येक मनुष्य सुख की कामना करता है. व्यक्ति दूसरे के सुख के लिए धनराशि का भुगतान कर, अपने लिए सुख खरीद लेना चाहता है. सुख का यह आदान-प्रदान सौहार्दपूर्ण वातावरण ही संभव है. चूंकि एकमात्र सुख प्राप्त करना मनुष्य का ध्येय है, इसलिए जीवन में बाहरी हस्तक्षेप कम होना चाहिए. उल्लेखनीय है कि सुखवाद नई विचारधारा नहीं है. प्लेटो से लेकर अरस्तु तक ने इसपर विचार किया है. आधुनिक सुखवादी विचारकों का प्रेरणास्रोत जा॓न काल्विन है, जिसका मानना था कि दुनिया में मनुष्य को सुख प्रदान करने वाली एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिसका उपयोग उसके लिए निषिद्ध हो. जा॓न काल्विन के बाद बैंथम ने सुखवाद को एक दर्शन के रूप में विस्तार दिया. लेकिन सुखवाद या उपयोगितावाद के साथ मुक्त बाजार का समर्थन करते हुए उसके समर्थक विद्वान बाजार को एक तरह से पूंजीवादी शक्तियों के हवाले कर देना चाहते हैं. लेकिन मुक्त बाजार में बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के सुख का न्यायिक वितरण कैसे संभव होगा, इस बारे में वे कोई ठोस और आश्वस्तिकारक जवाब नहीं दे पाते. उपयोगितावाद पर आधारित न्याय की स्वीकार्यता में यह सबसे बड़ी अड़चन है.

जारी…..

© ओमप्रकाश कश्यप

opkaashyap@gmail.com

परीकथाएं और विज्ञानगल्प

हिंदी बालसाहित्य में परीकथा संभवतः अकेला ऐसा विषय है, जिसे लेकर लंबी-लंबी बहसें चली हैं. बालसाहित्य मर्मज्ञ विद्वानों का एक वर्ग परीकथाओं को उच्च मानवीय गुणों एवं नैतिकता के अजस्र स्रोत के रूप में देखता है. वह संवेदना, सदगुण, सकारात्मक द्रष्टिकोण, तार्किकता और नए जीवनमूल्यों के अनुरूप लिखी गईं परीकथाओं का बालसाहित्य के रूप में समर्थन करता है. आलोचकों की माने तो जादुई घटनाओं, चमत्कारों, अतिकल्पनाशीलता एवं छिछली भावुकता से भरपूर परीकथाएं बालक को उस दिशा में ले जाती हैं, जिसका उसके जीवन से कोई संबंध नहीं होता. निरंतर उनके प्रभाव में रहने से बालमन में अकर्मण्यता पनपती है. इसलिए वास्तविक चुनौती से सामना होते ही उसका आत्मविश्वास डगमगाने लगता है. विषम परिस्थितियों में स्वतंत्र निर्णय लेने के बजाय वह किसी बाहरी शक्ति की मदद अथवा चमत्कार की आस करने लगता है. साहित्य विवेकसम्मत निर्णय लेने में उसकी मदद कर सकता है. इसलिए परीकथा के आलोचकों का विचार है कि बच्चों को चुनौतियों से स्वयं निपटने योग्य बनाने के लिए उन्हें आधुनिक भावबोध से भरपूर बालकहानियां, कविताएं आदि दी जानी चाहिए. तदनुसार परीकथा के विकल्प के रूप में वे ‘विज्ञान कथा’ एवं ‘विज्ञान गल्प’ को अपनाने की सलाह देते हैं. आलोचनाओं के बावजूद परीकथाएं आज भी लिखी जा रही हैं. उनका एक विशिष्ट पाठक वर्ग है. लोकसाहित्य की समृद्ध परंपरा के रूप में वे सहस्राब्दियों से, प्रायः हर समाज एवं संस्कृति में हिस्सा रही हैं. भारत और हिंदी दोनों की बात करें तो अपने वर्तमान रूपाकार में परीकथाएं, उनपर चलने वाली बहसों की तरह ही बाहर से आयातित हैं. इस लेख द्वारा हम विज्ञानपरक बालसाहित्य की अवधारणा के बीच परीकथाओं के अस्तित्व एवं उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित करने का प्रयास करेंगे.

परीकथाएं, विज्ञान एवं कल्पनाशक्ति

घटना 1954 के आसपास की है. बताया जाता है कि एक स्त्री आइंस्टाइन से मिलने पहुंची. नोबल पुरस्कार विजेता, विलक्षण प्रतिभा संपन्न वैज्ञानिक होने के कारण उनका मान-सम्मान पहले भी कम न था. मगर विश्वशांति के लिए किए गए अपने अनथक प्रयासों तथा 1952 में इजरायल के राष्ट्रपति पद का प्रस्ताव विनम्रतापूर्वक ठुकरा देने के बाद तो वे पूरी दुनिया पर छा चुके थे. मिलने पहुंची औरत आइंस्टाइन की प्रशंसक थी. वह चाहती थी कि आइंस्टाइन उसके बेटे को समझाएं. उन पुस्तकों की जानकारी दें, जिन्हें पढ़कर उसका बेटा उन जैसा महान वैज्ञानिक बन सके. उत्तर में आइंस्टाइन का कहना था—‘आप इसे परीकथाएं, अधिक से अधिक परीकथाएं पढ़ने को दीजिए.’ महिला चौंकी. उसको लगा आइंस्टाइन ने कोई मजाक किया है. उसने वैज्ञानिक से गंभीर होने की विनती की. बताया कि वह अपने बेटे से बहुत प्यार करती है तथा उसे जीवन में सफल देखना चाहती है. इसके बावजूद आइंस्टाइन का उत्तर पहले जैसा ही था. उनका कहना था—‘रचनात्मक कल्पनाशक्ति सच्चे वैज्ञानिक के लिए उसका अनिवार्य बौद्धिक उपकरण है.’ परीकथाएं बालक की कल्पनाशक्ति को प्रखर करती हैं. अतएव उन्होंने जोर देकर कहा था, ‘मैंने अपने सोचने-समझने के तरीके की पड़ताल की है. काफी चिंतन-मनन के पश्चात मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि मेरे लिए मेरी अद्भुत कल्पनाशक्ति वस्तुजगत संबंधी किसी भी बोध, यहां तक कि सकारात्मक सोच से भी कहीं अधिक लाभकारी है.’
उन्होंने महिला को पुनः समझाया—

‘यदि तुम्हें अपने बेटे को प्रतिभाशाली बनाना है तो उसको परीकथाएं पढ़ाओ. यदि तुम उसे और ज्यादा प्रतिभाशाली बनाना चाहती हो तो उसे और अधिक परीकथाएं पढ़ने को दो.’

उपर्युक्त प्रसंग का उल्लेख अनेक विद्वानों ने किया है. कितना सच है यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. यदि यह सच है तो आइंस्टाइन ने उस स्त्री से क्या कोई परिहास किया था? शोध एवं कल्पना का क्या कोई अंतःसंबंध है? क्या परीकथाओं को पढ़कर कोई बालक सचमुच वैज्ञानिक बन सकता है? यदि नहीं तो आइंस्टाइन ने ऐसा क्यों किया था? यदि हां, तो यह कैसे संभव है कि परीकथा जैसे निहायत कल्पनाशील किस्सों को पढ़कर कोई बालक वैज्ञानिक बन सके? जो लोग वैज्ञानिक प्रविधियों की जानकारी रखते हैं, जिन्हें विज्ञान और उसके इतिहास की समझ है, वे जानते हैं कि यह असंभव भी नहीं है. ज्ञान-विज्ञान एवं कल्पना का रिश्ता बड़ा करीबी होता है. तीव्र कल्पनाशक्ति संभावनाओं के नए वितान खोलकर वैज्ञानिक बोध को रचनात्मक दिशा देने में मददगार सिद्ध होती है. आइंस्स्टाइन ने खुद स्वीकार किया था कि उनके द्वारा किए गए शोध के पीछे उनकी अद्भुत कल्पनाशक्ति का योगदान था. आपेक्षिकता के सिद्धांत की परिकल्पना भी उनके प्रखर कल्पना-सामर्थ्य के दम पर संभव हो पाई थी. पाठक के रूप में यह जानना हमारे लिए रोमांचक हो सकता है कि पदार्थ एवं ऊर्जा की अंतपर्रिवर्तनीयता को दर्शाने वाला सूत्र तथा सापेक्षिकता का विचार उनके मानस में कल्पना के द्वारा ही उभरा था; अन्यथा यह तो कभी का प्रमाणित हो चुका था कि पृथ्वी समेत ब्रह्मांड के सभी ग्रह-नक्षत्र गतिमान हैं. उनकी गति चक्रीय एवं घूर्णन दो प्रकार की होती है. विराट अंतरिक्ष में किसी पिंड की स्थिति की कल्पना करनी हो तो क्षण-क्षण परिवर्तनशील होने के कारण उसकी स्थिति का सटीक अनुमान संभव ही नहीं है, क्योंकि अनेक गतिमान पिंडों के बीच में किन्हीं दो गतिशील पिंडों की स्थिति को लेकर सटीक गणना उस समय तक असंभव है, जब हम बाकी गतियों को कल्पना में ही सही, शून्य नहीं मान लेते. यही वह समस्या थी, जिसे सुलझाने में आइंस्टाइन ने कामयाबी हासिल की थी.

उस समय के भौतिक विज्ञानी एक जटिल पहेली से जूझ रहे थे. पहेली थी—‘मान लीजिए कोई अंतरिक्ष यात्री प्रकाशवेग जितने असंभव वेग से अंतरिक्ष यात्रा पर है. उसके हाथ में एक दर्पण है. तो क्या उस दर्पण में वह अपना प्रतिबिंब देख पाएगा? कोई और होता तो उस पहेली पर कुछ देर तक माथापच्ची करता. तीर-तुक्का चलाता. फिर हाथ झाड़कर आगे बढ़ जाता. जब से वह पहेली बनी थी, तब से यही होता आया था. साधारण मनुष्यों की भांति यदि आइंस्टाइन भी यही करते तो उन्हें जीनियस कौन कहता! इस पहेली का हल खोजने में आइंस्टाइन ने एक-दो दिन या महीने नहीं, 1895 से 1905 तक, पूरे दस वर्ष लगा दिए. इस बीच जो भी उन्हें मिला उससे पहेली के बारे में चर्चा की. उसका समाधान करना चाहा. मित्रों-गुरुजनों को पत्र लिखकर संवाद किया. मगर नाकामी हाथ लगी. आखिरकार उनकी तीव्र कल्पनाशक्ति उनके काम आई. उससे पहले प्रकाशवेग को भी परिवर्तनशील माना जाता था. मान्यता थी कि प्रेक्षक के अनुसार प्रकाश का वेग भी बदलता रहता है. आइंस्टाइन ने प्रकाश वेग को सृष्टि का उच्चतम वेग माना. साथ ही परिकल्पना की कि वह प्रेक्षक की स्थिति पर निर्भर नहीं करता. प्रेक्षक चाहे स्थिर हो अथवा गतिमान, प्रकाशवेग प्रत्येक स्थिति में अपरिवर्तित रहता है. यह उनकी मौलिक परिकल्पना थी. एक दूर की कौड़ी, जिसे वैज्ञानिक कसौटी पर प्रमाणित करने में स्वयं आइंस्टाइन को पूरे बीस वर्ष लग गए. इस खोज के फलस्वरूप खगोलीय पिंडों की स्थिति की सटीक व्याख्या के लिए क्षण को महत्ता प्राप्त हुई. समय को चैथे आयाम के रूप में स्वीकारा जाने लगा. न केवल आइंस्टाइन बल्कि न्यूटन, आर्कीमिडीज, लियोनार्दो दा विंसी, गैलीलियो, था॓मस अल्वा एडीसन, जेम्स वाट आदि अनेक वैज्ञानिक हुए हैं, जिनकी सफलता के पीछे उनकी विलक्षण कल्पना-शक्ति का योगदान था.

पृथ्वी में कोई शक्ति है यह विचार न्यूटन को कथित रूप से सेब के जमीन पर गिरने की घटना से सूझा था. ‘कथित’ इसलिए क्योंकि फल गिरने से आकर्षण शक्ति की परिकल्पना का उल्लेख न्यूटन से करीब नौ सौ वर्ष पहले लिखित ‘ब्रह्मस्फुटसिद्धांत’ में भी मिलता है. यह मध्यकालीन आचार्य ब्रह्मगुप्त की रचना है. उनसे भी पहले वाराहमिहिर ने लिखा था—‘पृथ्वी उसी को आकृष्ट करती है, जो उसके ऊपर हो. क्योंकि यह सभी दिशाओं में नीचे है और आकाश सभी दिशाओं में ऊपर है.’ ब्रह्मगुप्त इसे और भी स्पष्ट कर देते हैं—

‘चारों तरफ आकाश बराबर रहने पर पृथ्वी ही के ऊपर बहुत पके हुए फल को गिरता हुआ देखकर भूपृष्ठ स्थित प्रत्येक बिंदू में आकर्षण शक्ति है—यह अनुमान किया गया.’

वैज्ञानिक शोध के लिए कल्पना का सहारा प्राचीनकाल से लिया जाता रहा है. शोध क्षेत्र में कामयाबी प्रायः उन्हीं के हाथ लगी, जिनकी कल्पना-शक्ति प्रखर थी. यह न्यूटन की अंतःप्रज्ञा ही थी जिसने उसको चेताया था कि यदि पृथ्वी में आकर्षण बल है तो उसका कुछ न कुछ परिमाण भी होना चाहिए! अपनी विलक्षण मेधा से उसने गुरुत्वाकर्षण बल की संकल्पना को नए सिरे से न केवल स्थापित किया, बल्कि उसकी परिगणना भी की. फलस्वरूप एक नई संकल्पना ने जन्म लिया कि पृथ्वी सहित ब्रह्मांड के सभी ग्रह-नक्षत्र एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं. आकर्षण बल की मात्रा उनके द्रव्यमान तथा बीच की दूरी पर निर्भर करती है. भारी पिंडों का आकर्षण बल उसी अनुपात में अधिक होता है. यह बल दूरी बढ़ने के साथ निरंतर घटता जाता है.

शोध-क्षेत्र में कल्पनाशक्ति का योगदान लक्ष्य की पूर्वपीठिका तैयार करने का है, जिसके बिना किसी यात्रा का शुभारंभ असंभव है. वैज्ञानिक शोध के प्रायः दो रास्ते होते हैं. आगमनात्मक प्रणाली, जिसमें उपस्थित विशिष्ट तथ्यों के आधार पर सामान्य सिद्धांत का अन्वेषण किया जाता है. न्यूटन का जड़त्व का सिद्धांत, एडवर्ड जेनर द्वारा चेचक की वैक्सीन, फ्लेमिंग द्वारा बादलों में बिजली इसी प्रकार के शोध हैं. दूसरी ‘निगमनात्मक प्रणाली’ में पहले सामान्य सिद्धांत की परिकल्पना कर ली जाती है, तदनंतर उसकी पुष्टि हेतु प्रमाण खोजे जाते हैं. पहली यानी ‘आगमनात्मक प्रणाली’ का उपयोग प्रायः वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में किया जाता है. इसका आशय यह नहीं है कि ‘निगमनात्मक प्रणाली’ विज्ञान के लिए सर्वथा वर्जित है. बल्कि ऐसे अनेक मामले हैं, जिनमें प्रमाणों के अभाव में वैज्ञानिक अपने बोध अथवा अनुभव के आधार पर सामान्य परिकल्पना कर लेते हैं. बाद में विभिन्न प्रयोगों, अन्वीक्षण आदि के आधार पर उस परिकल्पना को जांचा-परखा जाता है. इन दिनों चर्चित ‘हिग्स बोसोन’ के लिए यही पद्धति अपनाई जा रही है. वरना सार्वत्रिक बल की परिकल्पना तो आइंस्टाइन ने ही कर ली थी.

कुछ ऐसे शोध भी हैं जिनमें आगमनात्मक और निगमनात्मक दोनों ही प्रणालियों का उपयोग होता है. न्यूटन के गुरुत्त्वाकर्षण और आइंस्टाइन के सापेक्षिकता के सिद्धांत की खोज में आगमनात्मक और निगमनात्मक दोनों प्रणालियों का योगदान दिखाई पड़ता है. एक श्रेणी आकस्मिक रूप से होने वाली खोजों की भी है. उन आविष्कारों की जो किसी दूसरे प्रयोग अथवा घटना के दौरान अकस्मात हाथ लग जाते हैं, जैसे मैग्नेशिया के चरवाहों द्वारा चुंबक की खोज, मैडम क्यूरी द्वारा रेडियम, फीनीशिया के समुद्रतट पर सीरियाई व्यापारियों द्वारा कांच की खोज वगैरह. उनके लिए भी ऐसी सूझबूझ होना जरूरी है जो नएपन को पकड़ सके तथा उसके आधार पर सामान्य परिकल्पना गढ़कर आगे बढ़ सके. बुदापेस्ट विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. के. स्टेलजेर ने शोधकर्ता में अपेक्षित जिन आठ गुणों को जरूरी बताया है, वे हैं—तत्परता(5%), खुला मन(10%), दृष्टि की विशालता(15%), कल्पनाशक्ति(30%), निर्णय दक्षता(15%), विषय का सांकेतिक ज्ञान(10%), अनुभव(10%) तथा दायित्वबोध(5%). इस विश्लेषण को ध्यान से देखें तो नवीन शोध के लिए कल्पना को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है. कुछ ऐसे ही विचार जेरोम सिंगर के रहे हैं. पेशे से मनोविश्लेषक सिंगर का मानना है कि कल्पना स्वस्थ मनस् की ओजपूर्ण कार्रवाही है. उसके अनुसार कल्पना की ऊंची उड़ान यहां तक कि दिवास्वप्न भी हमारे आत्मविश्वास और धैर्य की वृद्धि में सहायक होते हैं. कुल मिलाकर हमारे वे हमारे विवेक एवं चारित्रिक गठन में सकारात्मक योगदान देते हैं. वह आगे लिखते हैं कि अच्छी-तरह सोची-विचारी गई कल्पना व्यक्ति-स्वातंत्र्य, यथार्थबोध, और आत्मविश्वास की वृद्धि में सहायक सिद्ध होती है.

उपर्युक्त विश्लेषण से इतना तो तय हुआ कि कल्पना और सृजनात्मकता के बीच कोई वैर नहीं है. उनमें न तो कोई स्पर्धा है और न कोई वैर. दोनों एक-दूसरे की पूरक, समानांतर और सहायक हैं. अतएव मात्र अतिकल्पनाशीलता का तर्क देकर परीकथाओं की आलोचना को नीतिसंगत नहीं ठहराया जा सकता. परीकथाएं बालक के कल्पना-सामर्थ्य को निखारकर उसे कई वैकल्पिक समाधान दे सकती हैं. वैज्ञानिक शोध को नई दिशाएं देने के लिए यह अत्यावश्यक है. वहीं विज्ञान परीकथा लेखकों को कल्पना के नए क्षेत्र, नए विषय और तार्किक आधार प्रदान कर सकता है. फिर परीकथाओं की आलोचना की वजह? क्या परीकथाओं का अपना कोई ऐसा लक्षण है जो उन्हें विज्ञान-विरोधी सिद्ध करता हो? यहां परीकथा के कथानक और पात्रों को जानबूझकर नजरंदाज किया रहा है. हालांकि साहित्यिक, विशेषकर कथारचना में पात्रों की प्रकृति का अपना महत्त्व होता है. फिर भी मेरा मानना है कि पात्र लेखक की मनोरचना होते हैं, रचना द्वारा उसका ध्येय किसी चरित्र की स्थापना करना नहीं होता, बल्कि उन जीवनमूल्यों की पुन:स्थापना अथवा व्याख्या करना होता है, जिन्हें वह मनुष्य एवं समाज के कल्याण हेतु आवश्यक मानता है. ऐतिहासिक, धार्मिक मामलों में स्थिति थोड़ी भिन्न हो सकती है. क्योंकि वहां जीवनमूल्य पात्रों के नाम से जुड़े होते हैं. उद्देश्य वहां भी किसी लोकोपयोगी सत्य को, तत्संबधी ऐतिहासिक चरित्र के माध्यम से कुछ और प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करना होता है. परीकथा-आलोचकों को सबसे अधिक आपत्ति उनके पात्रों तथा विचित्र घटनाक्रम से होती है. उनके अनुसार परीकथाओं के पात्र इस दुनिया से बाहर की चीज होते हैं, जादू-टोने और चमत्कार जिन्हें लेकर सामान्य परीकथाएं गढ़ी जाती हैं, कल्पना की मनगढ़ंत दुनिया है—आलोचकों के ये तर्क युक्तिसंगत कहे जा सकते हैं. मगर सच भी है कि साहित्य में कथानक अथवा पात्रों की असलियत महत्त्वपूर्ण नहीं होती. वे तो रचना का केवल बाह्यः कलेवर तैयार करते हैं. जिसे साहित्य कहते हैं, उसकी प्रतीति लेखकीय सदेच्छा तथा रचना द्वारा पाठक के मनस् पर डाले गए सकारात्मक प्रभावों तथा उनकी रचनात्मक प्रतिक्रिया द्वारा होती है.

साधारण लेखक यह कामना कर सकता है कि पाठक उसके गढ़े हुए पात्रों और कथानक को याद रखें. सच्चे साहित्यकार की दृष्टि सदैव शुभ पर केंद्रित होती है. वह व्यक्ति और समाज में जीवन-मूल्यों की स्थापना के लिए कलम उठाता है. अर्नेस्ट हेंमिंग्वे के उपन्यास ‘ए मेन आ॓न दि सी’ का उल्लेख करना चाहूंगा. परीकथाओं जैसी पृष्ठभूमि लिए इस लघु उपन्यास में एक नाव है, मछुआरा है, समुद्र है और है विशालकाय मछली. इन पात्रों को लेकर न जाने कितने लेखकों ने कलम उठाई है. खोजने पर हजारों रचनाएं ऐसे परिवेश और कथापात्रों के साथ मिल सकती हैं. लेकिन एक व्यक्ति की जिजीविषा, विषम परिस्थितियों से जूझने, धैर्य बनाए रखने की भावना और कर्तव्यनिष्ठा, जिस शिद्दत के साथ इस छोटे-से उपन्यास में उभरकर आती है, वैसी बाकी किसी रचना में नहीं. यही साहित्यत्व है, यही शुभ. इसी को रचना के माध्यम से पेश करना साहित्यकार का अभीष्ट होता है. यह रचना में पूरी तरह उभर आए तो वह ‘क्लासिक’ की श्रेणी में आ जाती है. अन्यथा उसकी नियति बोरे में भरे आलुओं में से किसी एक आलू जैसी होती है. ‘परी’ नाम को छोड़ दिया जाए तो कोई भी पात्र परीकथाओं के लिए अनिवार्य नहीं है. सक्षम साहित्यकारों ने तो परियों को बीच में लाए बिना भी लाजवाब परीकथाएं लिखी हैं. उन्हें पूरी दुनिया में सराहा गया है. हेंस एंडरसन की ‘स्नोमेन’ ऐसी ही मर्मस्पर्शी परीकथा है.

परीकथाओं की सामान्य विशेषता है कि वे बच्चों को केंद्र में रखकर लिखी जाती हैं. हालांकि साहित्यकार पर यह दबाव होता है कि वह मनोरंजन के साथ-साथ सोद्देश्यता को भी बनाए रखे. यदि कोई रचना साहित्यत्व ही गंवा देगी तो उसके लिखने का नैतिक उद्देश्य ही जाता रहेगा. संदेश और सोद्देश्यता परीकथाओं में भी होती है. लेकिन परीकथा लेखक केवल इन्हीं को ध्यान में रखकर नहीं लिखता. उसका ध्येय होता है कि बालक उसकी कल्पना के साथ-साथ उड़ान भरता हुआ, उस लोक में पहुंच जाए जहां कहानी की पात्र परियों का वास है; अथवा जहां वह अपने कथानक के माध्यम से उन्हें ले जाना चाहता है. इसके लिए सबसे पहले उसको अपने साहित्यकार होने के दर्प को किनारे कर बच्चों के मनोस्तर तक उतरना पड़ता है. बच्चों के साथ रहकर, उनके खेल-कूद, बातचीत, रहन-सहन, कोमल मनोभावों को समझ, उनकी चिंताओं और सपनों से बाबस्ता होने के बाद वह अपनी कल्पना के तार जोड़ता है. उस समय तक बालपाठक भी उसके साथ घुल-मिल जाता है. संक्षेप में परीकथा लेखक की वास्तविक सफलता बालक को अनूठी कल्प-यात्रा का सहयात्री बना लेने तथा बालक द्वारा लेखक को अपना सखा-सहयात्री स्वीकार लेने में है. यहां साहित्यकार का अनुभव काम आता है. सोद्देश्यता बनाए रखने के लिए वह साहित्यत्व को रचना में लाता है, किंतु अतिप्रच्छन्न रूप में. ऐसे कि बालक को आभास तक न हो.

उदाहरण-स्वरूप हम एंडरसन की परीकथाओं का उल्लेख कर सकते हैं. उनकी एक चर्चित कहानी है—‘टीन का सिपाही’. बहुत ही मार्मिक कहानी. ‘टीन का सिपाही’ एक पांव से लंगड़ा और दुबला-पतला था. इस कारण कोई उसको प्यार नहीं करता था. एक दिन गुड़िया उसको भा जाती है. गुड़िया पर बाजीगर की भी नजर है. वह टीन के सिपाही के लिए तरह-तरह की मुश्किलें खड़ी करता है. आखिर टीन का सिपाही जलती हुई अंगीठी में गिर जाता है. पीछे से गुड़िया भी उसमें कूद जाती है. यहां तक कहानी में परी की कोई भूमिका नहीं है. विचित्र कल्पना के रूप में टीन का सिपाही है. गुड़िया है और खलनायक के रूप में निर्दयी बाजीगर है, जो टीन के सिपाही और गुड़िया पर एक के बाद एक अत्याचार करता है. पर टीन के सिपाही को अंगीठी में जलते हुए देख परी अचानक उपस्थित होती है. वह दोनों को अंगीठी से निकालकर उन्हें स्त्री-पुरुष बना देती है. वह दोनों को निश्चिंत करती है कि बाजीगर आगे उन्हें कभी परेशान नहीं कर पाएगा. यह सब कल्पना में ही होता है, किंतु इसी बहाने व्यक्ति को यह विश्वास होता है कि एक न एक दिन उसकी दुरवस्था का निदान संभव है. प्रख्यात परीकथा लेखक, विचारक जी. के. चेटरसन लिखते हैं—

‘परीकथाओं का सच, यथार्थ से आगे का सच होता है. परीकथाओं में महत्त्वपूर्ण यह नहीं हैं कि वे हमें राक्षस की मौजूदगी से परचाती हैं. महत्त्वपूर्ण यह है कि वे हमें भरोसा दिलाती हैं कि राक्षस की पिटाई भी संभव है.’

साहित्य में प्रतीक महत्त्वपूर्ण होते हैं. एंडरसन की कहानी में ‘टीन का सिपाही’ और ‘गुड़िया’ दोनों आम आदमी का प्रतीक हैं. बाजीगर धर्मसत्ता और राजसत्ता के योग से बनी निरंकुश सत्ता का. निरंकुश सत्ताआम जन पर उसी समय तक अत्याचार कर पाती है, जब तक वे अपनी ताकत से अनभिज्ञ हों. ‘परी’ यहां नई ज्ञान-चेतना का प्रतीक है तथा अंगीठी प्रबोधीकरण की प्रक्रिया का. टीन के सिपाही और गुड़िया का जैसे ही विवेकीकरण होता है, उनमें नई ज्ञान-चेतना उमड़ने लगती है. दोनों के चेतनासंपन्न होते ही बाजीगर रूपी निरंकुश सत्ता की चालबाजियों का अंत स्वतः हो जाता है. यह परीकथाओं की खूबी है जो जिनमें पाठक तो पाठक, लेखक तक अपनी कुंठाओं का समाहार कर सकता है. परीकथाएं यह विश्वास दिलाती हैं कि बुरी से बुरी स्थिति का भी सार्थक समाधान संभव है. इसके लिए बालक को लगना चाहिए कि अजूबे पात्रों के माध्यम से जो कहानी कही जा रही है, वह कहीं न कहीं उसकी भी है. एक अच्छा परीकथा लेखक बाल-पाठकों को सिर्फ वह नहीं देता जो उसे पसंद हो. बल्कि वह अपनी रचना को इतनी बहुआयामी बना लेता है कि बालक उसमें से अपनी पसंद को चुन सके. यह कुशलता भाषा-शैली के स्तर पर भी होनी चाहिए, ताकि नाद के माध्यम से एक अतिरिक्त आकर्षण रचना में समा जाए. पढ़ते समय पाठक को सुनने का आनंद भी आए. लेखकीय कौशल अनूठी कल्पना के रूप में भी होना चाहिए, जिसके फलस्वरूप पाठक उसमें इतना डूब जाए कि अपने आसपास का उसे बोध ही न रहे. यदि श्रोता-पाठक रचना के पात्रों के साथ तादात्मय स्थापित कर लेगा तो वह रचना की अनेक कमजोरियों अथवा उन बिदुंओं को जिनमें उसकी अरुचि है, भुला देगा.

परीकथाएं एवं विज्ञान गल्प

साधारण नजर से देखने पर परीकथा एवं विज्ञान गल्प परस्पर भिन्न, दो विपरीत दिशाओं में खड़े टापुओं के समान दिखाई पड़ते हैं. ऐसा ही प्रचारित किया जाता है. यह सचाई का एक पहलू है. ध्यानपूर्वक विचार करने पर पाएंगे कि दोनों में आश्चर्यजनक एकरूपता है. परीकथा एवं विज्ञान गल्प का सृजन सामान्यतः दो घटकों के आधार पर होता है. उनमें एक विशिष्ट है, दूसरा सामान्य. सामान्य इसलिए कि अपने अस्तित्व एवं मौलिकता को बनाए रखने के लिए दोनों उसे अपरिहार्य मानते हैं. उसकी दोनों में समान उपस्थिति है. इसे निम्नलिखित सूत्र द्वारा समझा जा सकता है—

विज्ञानबोध   +   कल्पना   =   विज्ञान गल्प
करुणा अथवा करुणतत्व   + कल्पना   =   परीकथाएं

उपर्युक्त से स्पष्ट है कि कल्पना की उपस्थिति जितनी परीकथा लेखन के लिए आवश्यक है, उतनी जरूरी विज्ञान गल्प के लिए भी है. अब यदि यह माना जाए कि विज्ञान-गल्प एवं परीकथा दोनों परस्पर विपरीत धुर्वी हैं, तब यह भी मानना पड़ेगा कि ‘विज्ञानबोध’ तथा ‘करुणा’ जो इनके विशिष्ट घटक हैं; अथवा जिनसे इन्हें भिन्न पहचान प्राप्त होती है—परस्पर विपरीतधर्मा हैं. या फिर कल्पना के साथ स्वतंत्र संयोग कर ये दोनों जो भिन्न-भिन्न संरचनाएं गढ़ते हैं, वे आपस में विपरीत-धर्मा है. प्रकट में समाज का काम न तो बिना ‘करुणा’ के चलता है, न ‘विज्ञानबोध’ के. सामाजिक संतुलन, विकास की निरंतरता हेतु ये दोनों ही अत्यावश्यक हैं. पिछले चार-पांच सौ वर्षों से विज्ञान जिस तेजी से सामाजिक विकास का मुख्य प्रवर्त्तक बनकर उभरा है, उससे लेखकों एवं बुद्धिजीवियों में उसके प्रति अतिरिक्त आस्था है. तथापि विज्ञान अथवा विज्ञानबोध की तुलना में ‘करुणा’ का प्रत्यय काफी पुराना है. लेखन का पहला स्फुरण ही आदि कवि के मुख से, उनके हृदय में उपजी करुणा के फलस्वरूप हुआ था. करुणा मानव-हृदय को नैतिक प्रेरणाओं से समृद्ध करती है. व्यक्तित्व को आवश्यक लचीलापन प्रदान करती है. विज्ञान करुणामय हो सकता है. उसके कई आविष्कार वैज्ञानिकों की मनुष्यता के प्रति आस्था एवं करुणा द्वारा संभव हो पाए हैं. इसके बावजूद करुणा विज्ञान का विषय नहीं है.

करुणा मूलतः संश्लेषणात्मक होती है. रचना की अंतरात्मा में प्रवेश कर उसे कोमल और हृदयग्राही बनती है. यह करुणा का ही विस्तार है जो हम विज्ञान के किसी आविष्कार को लेकर कामना करते हैं कि वह समाज के अंतिम छोर पर स्थित व्यक्ति के कल्याण में सहायक बनेगा. उसके कष्टों, विपत्तियों, बाधाओं, व्याधियों, अभावों आदि का समाहार कर सुख-सपनों के दरवाजे खोल देगा. अतीत में उसने ऐसा किया भी है. एडवर्ड जेनर, एलेक्जेंडर फ्लेमिंग के मन में करुणा का कोई छिपा अंश ही रहा होगा, जिसके फलस्वरूप अपना सबकुछ दांव पर लगा, यहां तक कि प्राणों का जोखिम उठाकर भी वे क्रमशः ‘वैक्सीन’ और ‘पेनिसिलीन’ का आविष्कार करने में कामयाब हुए थे. करुण-तत्व प्रमुख होने के कारण परीकथाएं पाठक के दिल में उतर जाती हैं. आमतौर पर वही परीकथाएं ज्यादा पढ़ी-सुनी जाती हैं, जिनमें दुख की सघन व्याप्ति तथा उसके व्यापक संदर्भ हों.

विज्ञान की प्रवृत्ति ज्ञान के संश्लेषण के बजाय, विश्लेषण की होती है. सत्य तक पहुंचने के लिए वह तथ्यों के परिवीक्षण और विश्लेषण की नीति को अपनाता है. इसके फलस्वरूप प्राप्त निष्कर्ष अधिक प्रामाणिक एवं भरोसेमंद माने जाते हैं. विज्ञान से हम अपेक्षा करते हैं कि उसकी उपलब्धियां मानवमात्र के लिए कल्याणकारी सिद्ध होंगी. दूसरे शब्दों में हम विज्ञान से अपेक्षा करते हैं कि वह करुण-तत्व को अपनाए, मानवमात्र के हितों को लेकर संवेदनशील रहे, तभी वह स्वयं को वृहद लोककल्याण के प्रति समर्पित कर सकता है. इसलिए ‘करुणा’ और ‘विज्ञानबोध’ जो क्रमशः परीकथाओं एवं विज्ञानगल्प के विशिष्ट घटक हैं, समाज के बहुआयामी विकास की दृष्टि से विपरीतगुणधर्मा न होकर, परस्पर पूरक-सहायक हैं. ऐसे में विज्ञान लेखक का दायित्व है कि वह समाज में यत्र-तत्र मौजूद विपुल ज्ञान-विज्ञान संपदा का रचनात्मक उपयोग करे. इस प्रकार कि वह सहज-सरल रूप में ढलकर अधिसंख्यक वर्ग के लिए लाभकारी सिद्ध हो सके.

परीकथाओं का विशिष्ट तत्व ‘करुणा’ मानवीकरण की उच्चाकांक्षा से अनुप्रेत होता है. अपने विनम्र अंदाज में परीकथाएं सामाजिक समानता का रूपक रचती हैं. वे समाज में व्याप्त अनेकानेक समस्याओं का काव्यात्मक समाधान देती हैं, जिसे परीकथा समर्थक उनका विशिष्ट गुण मानते हैं, विरोधी अवगुण. यह ठीक है कि कोरे रागात्मक समाधान से अपेक्षित परिवर्तन नहीं आता. उससे न तो किसी की भूख मिटती है, न सामाजिक असमानता खत्म हो पाती है, किंतु उससे खुद पर, आने वाले समय और समाज पर भरोसा बना रहता है. दरअसल, अनियोजित शहरीकरण ने समाज के समक्ष जो चुनौतियां पेश की थीं, उनमें बड़ी चुनौती व्यक्ति के केंद्र में ढल जाने की है. भारत की प्राचीन सभ्यता, भाईचारे की परंपरा का दावा करने वाले गांव भी उससे अछूते नहीं हैं. विज्ञान ने हमारी मदद की है. किंतु उसकी अपनी सीमाएं हैं. विज्ञान अकेलेपन द्वारा पैदा हुई मुश्किलों की भरपाई तो कर सकता है, करता आया है. किंतु उसके पास अकेलेपन की कोई दवा नहीं है. इसलिए सुख-सुविधाओं के जमघट के बावजूद मानवीय अवसाद की घटनाएं निरंतर बढ़ रही हैं. जो विद्वान अकेलेपन को आधुनिक सभ्यता की नियति मान बैठे हैं, उनका निराशा की शरण में जाना अवश्यंभावी है. उसका विकल्प वे विज्ञान और तज्जनित फंतासी की निष्प्राण दुनिया में खोजना चाहते हैं. उनसे इतर जो मनुष्य के रागात्मक जीवन तथा आधुनिक भावबोध में संतुलन चाहते हैं, वे परीकथाओं तथा साहित्य की अन्यान्य विधाओं के महत्त्व को समझकर उन्हें सहेजे रखना चाहते हैं. साहित्य अथवा उसकी किसी विधा की सबसे बड़ी चुनौती अपने समय से तालमेल बनाकर रखना है. नए-नए प्रयोगों द्वारा परिकथाओं ने ऐसा किया भी है. उनकी अपेक्षा विज्ञान कथाओं में प्रयोगधर्मिता कम देखने को मिलती है. खासकर विकासशील और अविकसित देशों में, जहां विज्ञानबोध की कमी के चलते विज्ञान साहित्य लोकजीवन का स्वाभाविक हिस्सा नहीं बन पाता. परिणामस्वरूप वह ऊपर से थोपा हुआ, कभी-कभी तो निखालिस टोटम लगने लगता है.

विज्ञान गल्प और परीकथाओं दोनों की खूबी उनका अतिकल्पनाशील होना है. यह विडंबना ही कही जाएगी कि अतिकल्पनाशीलता जो विज्ञान गल्प के लिए दोषरहित दिखाई पड़ती है, परीकथाओं के संदर्भ में वह आलोच्य मान ली जाती है. जो विज्ञान लेखक अरबों प्रकाशवर्ष दूर अंतरिक्ष में कल्पित ग्रह पर अच्छे और बुरे वैज्ञानिकों के बीच संघर्ष से युक्त आधारविहीन फंतासी को विज्ञान-सम्मत घोषित करते नहीं अघाते, वे परीकथाओं की परंपरागत फंतासी से भुन्नाने लगते हैं. विज्ञान लेखकों का तर्क होता है कि उनकी मुक्ताकाशी कल्पना के पीछे कोई न कोई स्वयंसिद्ध वैज्ञानिक आधार होता है. साथ में यह उम्मीद कि आज नहीं तो कल विज्ञान उस लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल रहेगा. परीकथाएं प्रकट में ऐसा कोई आश्वासन नहीं देतीं.

परंपरागत परीकथाओं के साथ यह डर भी जुड़ा हुआ था कि उनके अधिकांश पात्र सामंती स्वभाव के होते थे. परियों में भी राजा और रानियां होती थीं. बौने होते थे, जिनकी हैसियत समाज के छोटे, दूसरों की दया पर जीने वाले, उपेक्षित कार्मिक वर्ग जैसी थी. इस तरह वे प्राचीन अलोकतांत्रिक और विभेदकारी समाज-व्यवस्था से पाठक के अनुकूलन का काम करती थीं. यहां परीकथाआंे की पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक है. जान लेना चाहिए कि परीकथाओं का उद्भव लोकसाहित्य के हिस्से के रूप में हुआ है. इसलिए सामंतवाद, ब्राह्मणवाद सहित भारतीय समाज के तत्कालीन संस्कारों की उसमें उपस्थिति अवश्यंभावी थी. परीकथाओं की इस कमजोरी को यूरोपीय जागरण के दौरान समझ लिया गया था. अतएव अठारहवीं और उनीसवीं शताब्दी में वहां परीकथाओं को नए सिरे से लिखे जाने का चलन शुरू हुआ. हालांकि कुछ पश्चिमी लेखकों ने भारत को परीकथाओं के मूल देश की भांति देखा था. इसके बावजूद यहां आधुनिक युगबोध से संपन्न परीकथाओं के लेखन की रफ्तार काफी मंद रही. शायद इसलिए कि एक तो ‘परी’ की अवधारणा अभारतीय थी, जिससे प्रतिभाशाली लेखकों की उनके प्रति उपेक्षा बनी रही. दूसरे आरंभिक पारसियन और यूरोपीय विद्वानों ने जिन रचनाओं को भारतीय परीकथा के रूप में स्वीकारा था, उनमें से अधिकांश लोकसाहित्य का हिस्सा थीं. भारतीय उन्हें देसी परंपरा के रूप में देखने के अभ्यस्त थे. आगे चलकर पश्चिमी विद्वानों ने पंचतंत्र, वैताल पचीसी, सिंहासन बतीसी, लोकसाहित्य आदि के अलावा कुछ पौराणिक और वैदिक कहानियों को भी भारतीय परीकथाओं के रूप में मान्यता दी, जिन्हें भारतीय लेखकों ने करीब-करीब नकार दिया. शायद इसलिए कि अपनी साहित्यिक परंपरा को विदेशी पहचान के अंतर्गत देखा जाना उन्हें स्वीकार न था. इसके बावजूद समाज में परीकथाओं की लोकप्रियता बनी रही. उन्हें संवेदना, करुणा, मानवता, परोपकार के अजस्र स्रोत के रूप में देखा जाता रहा. यही उनकी लोकप्रियता की असली वजह थी. यही उनकी असली ताकत. शायद इसी को ध्यान में रखकर ‘स्टडी आ॓फ फेयरी टेल्स’ में लौरा एफ. क्रैडी ने लिखा था—

‘परीकथाओं का मूल संदेश है, मायावी दुनिया में सचमुच का जीवन, चाहे वह सामान्य बालक की असामान्य परिवेश में उपस्थिति के रूप में हो या असामान्य बालक की सामान्य परिवेश में. सामान्य और असामान्य का यह सुयोग ही ‘एलिस इन वंडरलेंड’ का मुख्याकर्षण है, जिसमें एक सामान्य बालिका कृत्रिम और मायावी दुनिया में विचरण करती है.’

परीकथाएं अर्से तक लोकजीवन का हिस्सा रही हैं. किंतु साहित्य की मान्यता उन्हें काफी विलंब से मिल सकी. यह जानना भी कम चैंकाऊ नहीं है कि आधुनिक परीकथा तथा विज्ञान-गल्प दोनों का जन्म एक ही ऐतिहासिक मोड़ पर करीब-करीब एक ही समय में हुआ था. विशेषकर आधुनिक परीकथाओं ने तो उस समय में अपनी पहचान बनाई थी, जब पूरा फ्रांस वैचारिक उद्वेलन से गुजर रहा था. जान ला॓क, चार्ल्स फ्यूरियर, इमानुएल कांट, जेरमी बैंथम, रूसो, ग्रीन, मिल आदि विचारकों ने महिला स्वातंत्र्य का समर्थन किया था. फलस्वरूप फ्रांसिसी महिलाओं में पढ़ने-लिखने की तीव्र होड़ पैदा हुई. औद्योगिकीरण से आमदनी बढ़ी तो उन्होंने पुरुषों के साये से हटकर, मनोरंजन के नए साधनों की खोज में घर से बाहर निकलना आरंभ किया. संभ्रांत परिवारों से संबंधित उन स्त्रियों ने महिला मनोरंजन सदनों की स्थापना की थी. वहां वे बारी-बारी से परीकथाएं सुनाती थीं. जिस महिला का कहानी सुनाने का नंबर आता, उसको ‘फी’ कहा जाता. उसी से आगे चलकर ‘फेयरी टेल्स’ शब्द की उत्पत्ति हुई. उस दौर में जब पूरा परिवेश सामंती था, रक्त शुद्धता के नाम पर स्त्रियों को चारदीवारी में कैद रखा जाता था—फ्रांसिसी महिलाओं द्वारा सामूहिक रूप से घर से बाहर निकलकर मनोरंजन सदनों की स्थापना करना क्रांतिकारी कदम था. वह ढलते सामंतवाद का दौर भी था. यूरोपीय दर्शन में सुखवाद एवं उयोगितावाद की धूम मची हुई थी. बैंथम, हीगेल, जेम्स मिल, जा॓न स्टुअर्ट मिल, ग्रीन और कांट जैसे विद्वान अपने सुखवादी दर्शन के साथ नई चेतना के निर्माण में लगे थे. विज्ञान साहित्य का अभीष्ट भी यही था कि वह मनुष्यता के कल्याणकारी अनुप्रयोगों की ओर बुद्धिजीवियों-वैज्ञानिकों का ध्यानाकर्षित करे तथा उनके समर्थन में खड़ा नजर आए. उसका असर साहित्य, समाज सभी पर एक साथ देखने को मिला. वैज्ञानिक खोजों को लेकर कहानी-उपन्यास लिखने का चलन बढ़ा तो परीकथाएं भी लोकसाहित्य से छिटककर स्वतंत्र पहचान बनाने लगीं. हालांकि उन्हें परंपरा से हटकर परिष्कृतरूप में ढालने की कोशिशें करीब-करीब नगण्य रहीं.

परीकथाएं बच्चों एवं बड़ों की कोमल भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं. प्रेम और नीतिवादी संदेश के साथ वे मानवीय संवेदनाओं को उनके उच्चतम स्तर तक ले जाकर उन्हें सामाजिक आदर्श का रूप दे देती हैं. समाज के संतुलित विकास के लिए उसे रागात्मक चेतना भी चाहिए और विज्ञान बोध भी. परीकथाएं मनुष्य की रागात्मक चेतना को समृद्ध करती हैं. अतः समाज को जितनी जरूरत विज्ञान साहित्य की है, परीकथाओं की भी उतनी ही हैं. लेकिन परीकथाओं के साहित्य होने की शर्त है कि वे मौलिक रहकर युगबोध से जुड़ी रहें. इसके बावजूद जो विद्वान परीकथाओं को विज्ञान गल्प से स्थानापन्न करना चाहते हैं, वे कदाचित वही हैं जो विकास और उपभोक्ता संस्कृति को एक-दूसरे का पर्याय मानते हैं. लेखन उनके लिए एक फैशन है. अतिरिक्त उत्साह में उन्होंने विज्ञान-लेखन को भी धर्म मान लिया है. प्रौद्योगिकी प्रदत्त सुविधाओं के जोश में वे भूल गए कि विज्ञान जितनी बड़ी ताकत है, उतनी ही बड़ी जिम्मेदारी भी है. समाज में आर्थिक-सामाजिक समानता बनी रहे, विज्ञान के आधुनिकतम शोधों का लाभ पूरे समाज को मिले, यह पर्याप्त नैतिकताबोध के बगैर असंभव है. साहित्य अनुभूत सत्य तथा प्रयोगशाला में खरे उतरे सत्य को बराबर महत्त्व देता है. विज्ञान तथा उसके अनुप्रयोग को लेकर नैतिक दृष्टि साहित्य में होगी, तभी वह विज्ञान तथा उसके माध्यम से समाज में आएगी. कोरी वैज्ञानिक दृष्टि आइंस्टाइन के सापेक्षिकता के सिद्धांत से केवल परमाणु बम बनवा सकती है. विज्ञान के सदुपयोग के लिए मनुष्य का नैतिक संस्कार अनिवार्य है. इस कार्य को परीकथाएं शताब्दियों से करती आई हैं. दूसरे शब्दों विज्ञान और परीकथा दोनों के संकल्प मानवतावादी हैं, बशर्ते ये युगीन चुनौतियों का सामना करने के लिए, अपनी मौलिकता, उद्देश्यपरकता और मनोरंजन सामर्थ्य को को बनाए रहें.

© ओमप्रकाश कश्यप

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