महिषासुर मूवमेंट : ‘डिब्रह्मनाइजिंग अ कल्चर’

विशेष रुप से प्रदर्शित

परि​चर्चा

(कुछ महीने पहले एक पत्रिका की ओर से परि​चर्चा की गई थी. उसमें उठाए गए मुद्दों पर कुछ बातें)

 

  • फरवरी, 2016 में संसद के बजट सत्र में भारतीय जनता पार्टी की राजनेता व केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्‍मृति ईरानी ने महिषासुर शहादत दिवस पर सवाल उठाकर इसे देशद्रोह से जोड़ दिया था. क्‍या ऐसा किया जाना उचित है? आपकी क्‍या राय है?

‘महिषासुर दिवस’ हमारे समय की महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक परिघटना है. शताब्दियों से जो वर्ग दूसरों की निगाह से खुद को देखता आया था, अर्से तक जो आरोपित विचारधारा पर ही अपना ईमान कायम रखे था—‘महिषासुर दिवस’ के बहाने वह खुद को अपनी दृष्टि से देखने-समझने की कोशिश में लगा है. यह देर से हुई अच्छी शुरुआत है. महिषासुर की ऐतिहासिकता पर बहस करना बेकार है. मिथ को इतिहास-सिद्ध करने की दावेदारी कोई कर भी नहीं सकता. राम और रावण भी मिथकीय पात्र हैं. संभव है सभ्यता के किसी दौर में उनसे मिलते-जुलते व्यक्ति सचमुच इस धरती पर रहे हों, लेकिन वे वैसे ही रहे होंगे जैसे महाकाव्यों तथा अन्य ग्रंथों में दर्शाए गए हैं—यह सप्रमाण नहीं कहा जा सकता. मूल कृति ‘पुलत्स्य वध’ से लेकर ‘रामायण’ और फिर ‘रामचरितमानस’ तक उसमें अनगिनत बदलाव हुए हैं. हर प्रस्तोता ने उसमें कुछ न कुछ जोड़ा-घटाया है. इसलिए उसके अनेकानेक पाठ तथा अनगिनत अंतर्विरोध हैं, जिन्हें वे आस्था और विश्वास की झीनी चादर से ढांपते आए हैं. यदि मान लें कि राम नामक राजा कभी इस धरती पर था, तो भी हम उसे अपना नायक क्यों मानें, जिसने शंबूक का वध केवल इसलिए किया था कि वह किसी खास पुस्तक को पढ़कर ज्ञान में हिस्सेदारी करना चाहता था. असमानता और भेदभाव को बढ़ावा देने वाला ‘रामराज’ हमारा सपना भला कैसे बन सकता है! विवेकवान समाज अपने नायक स्वयं चुनता है. यदि उन्हें अपनी सुविधानुसार नायक चुनने की आजादी है तो वही आजादी बाकी समाज को भी है. ‘महिषासुर’ मिथ होकर भी हमारे लिए सम्मानेय है, क्योंकि वह उस संस्कृति का प्रतिकार करता था जो अनेकानेक असमानताओं, आडंबरों और भेदभाव से भरी थी. दूसरों के श्रम पर अधिकार जताने वाली बेईमान संस्कृति. उसके सर्वेसर्वा रहे देवता सागर-मंथन में बराबरी का हिस्सा देने के वायदे के साथ असुरों से सहयोग मांगते हैं, परंतु बेईमानी करते हुए ‘अमृत’ तथा बहुमूल्य रत्न खुद हड़प लेते हैं. ‘महिषासुर’ श्रम-संस्कृति में भरोसा रखने वाली, पशु-चारण अर्थव्यवस्था से नागर सभ्यता की ओर बढ़ती, तेजी से विकासमान भारत की प्राचीनतम सभ्यता का प्रतीक नायक है.

सरकार और सरकार में बैठे जो लोग इसे देशद्रोह बता रहे हैं. उनके सोच पर तरस आता है. वे या तो देश और देशद्रोह की परिभाषा से अनभिज्ञ हैं, अथवा हमें शब्दों के जाल में फंसाए रखना रखना चाहते हैं. जैसा वे हजारों वर्षों से करते आए हैं. देश कोई भूखंड नहीं होता. वह अपने नागरिकों के सपनों और स्वातंत्र्य-चेतना में बसता है. लाखों-करोड़ों लोग जहां एकजुट हो जाएं, वहीं अपना देश बना लेते हैं. जिन लोगों में स्वातंत्रय चेतना नहीं होती, उनका कोई देश भी नहीं होता. ऐसे लोग देश में रहकर भी उपनिवेश की जिंदगी जीते हैं. भारत अर्से से ब्राह्मणवाद का उपनिवेश रहा है. आगे भी रहे, यह न तो आवश्यक है, न ही हमें स्वीकार्य. यहां वही संस्कृति चलेगी जो इस देश के 1.3 अरब लोगों की साझा संस्कृति होगी. जो सामाजिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता तथा संसाधनों में सभी की निष्पक्ष और समान सहभागिता सुनिश्चित करती हो. वैसे भी मनुष्य की स्वतंत्रता किसी व्यक्ति समाज या संस्कृति का देय नहीं होती. यह मनुष्य होने की पहली और अनिवार्य शर्त है. यह प्रकृति का ऐसा अनमोल उपहार है जो मनुष्य को उसके जन्म से ही, वह चाहे जिस जाति, धर्म, वर्ग, देश या समाज में जन्मा हो—जीवन की पहली सांस के साथ स्वतः प्राप्त हो जाता है. जिस देश की संस्कृति अपने तीन-चौथाई नागरिकों को समाजार्थिक एवं बौद्धिक रूप से गुलाम बनाती हो, वह ‘राष्ट्र’ तो क्या भूखंड कहलाने लायक भी नहीं होता. इसे देशद्रोह कहने वाले असल में वे लोग हैं जिनका देश कुर्सियों में बसा होता है. जो जनता से प्राप्त शक्तियों का उपयोग उसे छलने और मूर्ख बनाने के लिए करते हैं. इसके लिए वे कभी राष्ट्रवाद, कभी धर्म तो कभी जाति को माध्यम बनाते हैं. यह सरकार को ही राष्ट्र घोषित करने की साजिश है, जिसके सर्वोत्तम रूप को भी टॉमस पेन ने आवश्यक बुराई माना है.

  • भाजपा द्वारा संसद में इस बात को उठाये जाने के पहले से ही आरएसएस के अन्‍य अनुषांगिक संगठन जैसे विश्‍व हिंदू परिषद व अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद इसका विरोध करते रहे हैं। क्‍या आपको लगता है कि महिषासुर शहादत स्‍मृति दिवस जैसे सांस्‍कृतिक आंदोलन का विरोध ब्राह्मणवादी वर्चस्‍व को मजबूत करने के लिए किया जा रहा है?

भाजपा, आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद ऐसे संगठन हैं जिन्हें धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. वे केवल राजनीति करते हैं, जिसमें लोकतंत्र के लिए कोई जगह नहीं है. उनके मन में 1000—1500 वर्ष पुराना भारत बसता है, जब ऊंची जातियां अपने से निचली जातियों के साथ मनमाना व्यवहार करने को स्वतंत्र थीं. वे प्राचीन भारत की संपन्नता का बखान करते हुए नहीं थकते. बार-बार याद दिलाते हैं कि भारत कभी ‘सोने की चिड़िया’ कहलाता था. इतिहास बताता है कि भारत का सबसे समृद्धिशाली दौर ईसा के चार-पांच सौ वर्ष पहले से लेकर इतनी ही अवधि बाद तक का रहा है. उस दौर के बड़े सम्राट या तो बौद्ध थे, अथवा जैन. कह सकते हैं कि ब्राह्मणवाद के सबसे बुरे दिन देश की अर्थव्यवस्था के लिए सबसे अच्छे दिन थे. डॉ. रमेश मजूमदार के अनुसार उस दौर में आजीवक, जैन एवं बौद्ध दर्शनों के प्रभामंडल में जातीय स्तरीकरण घटा था. सामाजिक भेदभाव तथा यज्ञ-बलियों में कमी आई थी. उसके फलस्वरूप परस्पर सहयोगाधारित व्यापारिक संगठन तेजी से पनपे. बौद्ध दर्शन ने भारतीय मेधा को विश्व-स्तर पर स्थापित किया था, इसलिए हर कोई भारतीय व्यापारियों के साथ व्यापार करने को उत्सुक था. उसके फलस्वरूप व्यापार बढ़ा और देश आर्थिक समृद्धि के शिखर की ओर बढ़ता गया.

हिंदू राज्य के रूप में भाजपा तथा उसके सहयोगी दलों की निगाह में पुष्यमित्र शुंग के बाद का भारत बसता है, जो भौतिक और अधिभौतिक दोनों ही दृष्टियों से देश के पराभव का दौर था. विदेशी व्यापार सिमटने लगा था. उपनिषदों की जगह पुराण लिखे जा रहे थे. वैदिक धर्म छोटे-छोटे संपद्रायों में सिमट चुका था. महाकाव्यों को उनका वर्तमान स्वरूप इन्हीं दिनों प्राप्त हुआ, जिसने चातुर्वण्र्य समाज की अवधारणा को मजबूती से स्थापित किया था. इसके लिए तत्कालीन लेखकों ने वैदिक चरित्रों को मनमाने ढंग से प्रस्तुत किया. ऋग्वेद में कृष्ण यदु कबीले का वीर और बुद्धिमान नेता है, वह आर्य-संस्कृति का विरोधी है तथा आर्यों के विरुद्ध संग्राम में अपने कबीले का नेतृत्व कर युद्ध में इंद्र को परास्त करता है. ‘महाभारत’ के परिवर्धित संस्करण में उसे ब्राह्मणी व्यवस्था के समर्थक के रूप में पेश किया गया. इसके ऐवज में यदुओं को वर्ण-क्रम में ‘क्षत्रिय’ का दर्जा प्राप्त हुआ. इस दौर में दर्शन की मुक्त-धारा, धर्म की ताल-तलैयों में सिमटने लगी थी. बहुदेववाद जो वैदिक साहित्य की विशेषता था, जिसे बुद्ध के समकालीन आचार्यों ने उपनिषदों में एकेश्वरवाद में समेटने की कोशिश की थी—वह पुनः छोटे-छोटे संप्रदायों यथा शैव, कापालिक, तांत्रिक, वैष्णव, नाथपंथी, शाक्त आदि में बंट चुका था. उनके बीच बहुत गहरे मतभेद थे. भाजपा तथा उसके आनुषंगिक संगठन ब्राह्मण धर्म में उभरे उन मतभेदों को याद नहीं करते. वे जानते हैं कि लोकतंत्र के दौर में पुराना समय लौटकर नहीं आने वाला. इसलिए वे धर्म के नाम पर केवल राजनीति करते हैं. उनकी राजनीति भी पूरी तरह प्रतिक्रियावादी, मुस्लिम-विरोध से अनुप्रेत है. उनके लिए राष्ट्रवाद और फासीवाद में बहुत अधिक अंतर नहीं है. जबकि लोकतंत्र को सम्मानजनक स्थान न तो फासीवाद दे पाता है, न ही वह कट्टर राष्ट्रवाद के बीच सुरक्षित रह पाता है.

ब्राह्मणवादी अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए धर्म और संस्कृति को औजार बनाता है. उनके माध्यम से वह लोगों के दिलो-दिमाग पर कब्जा जमाता है, फिर निरंतर उनका भावनात्मक और शारीरिक शोषण करता है. फासीवाद लोगों के दिलो-दिमाग में भय का संचार करता है. इतना भयभीत कर देता है कि जनसाधारण अपने विवेक से काम लेना छोड़ केवल आदेश को ही कर्तव्य समझने लगता है. ताकत का भय दिखाकर वह लोगों को उसकी मनमानियां सहने के लिए मजबूर कर देता है. लेकिन फासीवाद की उम्र कम होती है. वह व्यक्ति के दिलो-दिमाग पर कब्जा तो करता है, लेकिन ऐसा कोई माध्यम उसके पास नहीं होता, जो देर तक प्रभावशाली हो. सत्ता बदलते ही उसका स्वरूप बदल जाता है. नहीं तो जनता स्वयं खड़ी होकर राजनीति के उस खर-पतवार को समाप्त कर देती है.

ब्राह्मणवाद तभी तक जीवित है, जब तक लोग धर्म, जाति, और आडंबरों के मोहजाल में फंसे हैं. इसलिए वह किसी भी प्रकार के प्रबोधन से घबराता है. ‘महिषासुर शहादत दिवस’ का आयोजन भारतीय संस्कृति के इतिहास में न तो कोई नया पन्ना जोड़ता है, न ही कुछ गायब करता है. असल में वह ब्राह्मणवाद द्वारा थोपी गई स्थापनाओं से बाहर आने की छटपटाहट है. और यही डर इस सभ्यता के धार्मिक अभिजन ब्राह्मण को सता रहा है. वे जानते हैं कि बहुजन हितों के अनुसार मिथकों की पुनर्व्याख्या का सिलसिला एक बार आरंभ हुआ तो आगे रुकेगा नहीं. ऐसा नहीं है कि ब्राह्मणवाद को इतिहास में इससे पहले कोई चुनौती नहीं मिली थी. उसे कई बार चुनौतियों से गुजरना पड़ा है. लेकिन तब से आज तक धरती न जाने कितनी  परिक्रमाएं कर चुकी है. ज्ञान पर तो किसी का कब्जा न तब संभव था, न आज. लेकिन तब ब्राह्मणेत्तर वर्गों की प्रतिभाओं को उपेक्षित किया जाता था. आज यह संभव नहीं है. लोकतांत्रिक परिवेश में उनके विरोध को दबाया जाना आसान नहीं है. भाजपा, विश्व हिंदू परिषद जैसे ब्राह्मणवादी संगठनों को यही डर खाए जा रहा है. यह सच भी है कि सिलसिला केवल ‘महिषासुर’ के मिथ की पुनर्व्याख्या पर रुकने वाला नहीं है. रुकना भी नहीं चाहिए. उम्मीद है बहुत जल्दी दूसरे मिथ भी पुनर्व्याख्या के दायरे में आएंगे. इससे ब्राह्मणीय सर्वोच्चता का वह मिथ भी भरभरा कर गिर पड़ेगा, जिसे बनाने में उन्हें सहस्राब्दियाँ लगी हैं.

  • पिछले कुछ सालों में वर्चस्‍ववादी संस्‍कृति के बरक्‍स समतामूलक बहुजन पंरपरा बहुजन संस्‍कृति की बात उच्‍च शिक्षण संस्थानों में पहुंचे ओबीसी, आदिवासी और दलित विद्यार्थी करने लगे हैं. क्‍या आप मानते हैं कि इस तरह के आंदोलनों से समाज में जागृति आएगी? इस तरह के आंदोलनों का क्‍या लाभ आप देखते हैं?  

वर्चस्वकारी संस्कृति दो तरह से समाज को अपनी जकड़ में लेती है. पहले बल-प्रयोग द्वारा, जिसमें शक्ति का उपयोग कर समाज के अधिकतम संसाधनों पर अधिकार कर लिया जाता है. दूसरे अपनी बौद्धिक प्रखरता के बल पर. वर्चस्वकारी संस्कृति बुद्धिजीवियों से लैस होती है. उसके पोषित बुद्धिजीवी प्रत्येक परिस्थिति को अपने स्वार्थ के अनुकूल परिभाषित करने में प्रवीण होते हैं. अपने बुद्धि-चातुर्य के बल पर वे शेष जनसमाज को यह विश्वास दिला देते हैं कि केवल वही उनके सबसे बड़े शुभेच्छु हैं और जो व्यवस्था उन्होंने चुनी है वह दुनिया की श्रेष्ठतम सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था है. ऐसा नहीं है कि जनसाधारण में बुद्धि-विवेक की कमी होती है. ग्राम्शी की माने तो प्रत्येक व्यक्ति दार्शनिक होता है. लेकिन प्रत्येक व्यक्ति परिस्थितियों को अपने पक्ष में परिभाषित करने में दक्ष नहीं होता. इस कारण वर्चस्वकारी संस्कृति के समर्थक बुद्धिजीवियों पर विश्वास करना, जनसाधारण की विवशता बन जाता है. वह अपने शोषकों को ही अपना सर्वाधिक हितैषी और शुभेच्छु मानने लगता है. ऐसे में यदि परिवर्तन होता भी है तो केवल सतही, दिखावे के लिए, जिसका लाभ पूंजीपति और दूसरे एकाधिकारवादी संस्थानों को जाता है. जनाक्रोश को शांत करने के लिए वर्चस्वकारी संस्कृति प्रायः अपने आवरण में ऐर-फेर कर परिवर्तन का नाटक करती है. स्थितियों में आमूल परिवर्तन तभी संभव है, जब गैर अभिजन समाज के अपने बुद्धिजीवी हों, जो उसकी समस्याओं और हितों की उसके पक्ष में सही-सही पड़ताल कर, प्रतिबद्धता के साथ उसका नेतृत्व कर सकें.

वर्चस्ववादी ब्राह्मण संस्कृति के विरोध शुरुआत हालांकि मध्यकाल में कबीर, रैदास जैसे संत-कवियों द्वारा हो चुकी थी. लेकिन उनकी चिंता के केंद्र में केवल धार्मिक आडंबरवाद, छुआछूत तथा अन्यान्य सामाजिक रूढ़ियां थीं. आर्थिक असमानता जो बाकी सभी बुराइयों की जड़ है, को वे कदाचित मनुष्य की नियति मान बैठे थे. कबीर जैसे विद्रोही कवि ने भी संतोष को परम-धन कहकर रूखी-सूखी खाने, दूसरे की चुपड़ी रोटी देखकर जी न ललचाने की सलाह दी थी. रैदास ने जरूर ‘बेगमपुर’ के बहाने समानता पर आधारित समाज की परिकल्पना की थी. वह क्रांतिकारी सपना था, अपने समय से बहुत आगे का सपना—जिसके लिए उनका समाज ही तैयार नहीं था. जिन लोगों के लिए वह सपना था वह इतना शोषित, उत्पीड़ित था कि शीर्षस्थ वर्गों की कृपा में ही अपनी मुक्ति समझता था. उस समय तक पश्चिम में भी यही हालात थे. वहां रैदास से दो शताब्दी बाद थामस मूर ने ‘बेगमपुर’ से मेल खाती ‘यूटोपियाई’ परिकल्पना की थी, जिसपर उसे स्वयं ही विश्वास नहीं था. इसलिए अपनी कृति ‘यूटोपिया’ में उसने समानता-आधारित समाज की परिकल्पना पर ही कटाक्ष किया गया था. आगे चलकर, यूरोपीय पुनर्जागरण के दौर में यही शब्द आमूल परिवर्तन का सपना देख रहे लेखकों, बुद्धिजीवियों, आंदोलनकारियों और जनसाधारण का लक्ष्य और प्रेरणास्रोत बन गया.

सामाजिक अशिक्षा और आत्मविश्वास की कमी के कारण रैदास के ‘बेगमपुर’ की परिकल्पना सूनी आंखों के सपने से आगे न बढ़ सकी थी. शताब्दियों बाद उस परिकल्पना को आगे बढ़ाने का काम फुले और डॉ. अंबेडकर ने किया. ग्राम्शी ने बुद्धिजीवी की जो परिभाषा उद्धृत की है, उस पर ये दोनों महामानव एकदम खरे उतरते हैं. उनकी प्रेरणा तथा लोकतांत्रिक अवसरों का लाभ उठाते हुए दलित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग उभरा, जिसने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध आवाज बुलंद की. इसी के साथ-साथ पिछड़े वर्गों में भी राजनीतिक चेतना का संचार हुए. आबादी के हिसाब से पिछड़े पचास प्रतिशत से अधिक थे. कदाचित उनके नेताओं को लगता था कि उन्हें किसी बौद्धिक नेतृत्व की आवश्यकता नहीं है. अपनी-अपनी कमजोरियों के कारण दलित और पिछड़े नेता-बुद्धिजीवी वास्तविक सहयोगियों की पहचान करने में चूकते रहे. इसी का लाभ उठाकर वर्चस्वकारी संस्कृति के पैरोकार, दलितों और पिछड़ों को उनकी जाति की याद दिलाकर अलग-अलग समूहों में बांटते रहे. पर्याप्त संख्याबल का अभाव दलितों के स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति बनने की बाधा था. नतीजा यह हुआ कि वर्चस्वकारी संस्कृति के विरुद्ध शोषित-उत्पीड़ित वर्गों का कोई सशक्त मोर्चा न बन सका.

आज स्थिति बदली हुई है. शिक्षा और लोकतांत्रिक अवसरों का लाभ उठाकर दलितों और पिछड़ों में नया बुद्धिजीवी वर्ग उभरा है, जो न केवल अपने शोषकों की सही-सही पहचान कर रहा है, बल्कि अपने बुद्धि-विवेक के बल पर उन्हें उन्हीं के मैदान में चुनौती देने में सक्षम है. वह जानता है कि जाति, धर्म, संस्कृति, राष्ट्रवाद आदि वर्चस्वकारी संस्कृति के वे हथियार हैं जिनका उपयोग अभिजन संस्कृति के पैरोकार अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए करते आए हैं. वह यह भी समझ चुका है कि कोरा राजनीतिक परिवर्तन केवल सत्ता-परिवर्तन को संभव बना सकता है. आमूल परिवर्तन के लिए संस्कृति के क्षेत्र में भी बदलाव आवश्यक है. वह यह भी जानता है कि दलित और पिछड़ों के सपने, दोनों की समस्याएं यहां तक कि चुनौतियां भी एक जैसी हैं. उनके समाधान के लिए संगठित विरोध अपरिहार्य है. इस बात को शिखरस्थ वर्ग भी भली-भांति जानता है कि दलित और पिछड़े वर्गों की सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता उसे सत्ता से हमेशा-हमेशा के लिए बेदखल कर सकती है. उच्च-शिक्षण संस्थानों से निकले ओबीसी, आदिवासी एवं दलित युवाओं का यही युगबोध वर्चस्वकारी संस्कृति के पैरोकारों को चिंता में डाले हुए है.

  • क्‍या इतिहास में हुए ऐसे किसी और आंदोलन के बारे आप कुछ बताना चाहेंगे, जिसमें बहुजनों के संस्‍कृति पक्ष पर बल दिया गया हो, और उसके सकारात्‍मक परिणाम सामने आएं हों?

कई आंदोलनों के नाम लिए जा सकते हैं. एकदम हाल की बात करें तो साठ के दशक में बिहार से आरंभ हुए ‘अर्जक संघ’ को ले सकते हैं. जिसने मेहनतकश लोगों ने जीवन में किसी भी धर्म की भूमिका को मानने से इन्कार कर दिया था. मध्यकालीन भारत में रैदास, कबीर, फुले आदि ने ब्राह्मणवाद का विरोध करते हुए जनसंस्कृति के उभार पर जोर दिया था. यदि बौद्धकालीन भारत तक जाएं तो आजीवक संप्रदाय भी श्रम-संस्कृति के उन्नयन को समर्पित था, जिसे आज बहुजन संस्कृति कहा जा रहा है. उसके केंद्र में धर्म के नाम पर आडंबरवाद से मुक्ति और आर्थिक स्वावलंबन था. आजीवक श्रमजीवियों के अपने संगठन थे. उनके माध्यम से वे देश-विदेश के व्यापारियों के साथ कारोबार करते थे. जातक कथाओं के हवाले से डॉ. रमेश मजूमदार ने बौद्धकालीन भारत में 31 प्रकार के सहयोगाधारित संगठनों का उल्लेख किया है. उनमें लुहार, बढ़ई, चर्मकार, पत्थर-तराश, सुनार, तेली, बुनकर, रंगरेज, किसान, मत्स्य पालन करने वाले, आटा पीसने वाले, नाई, धोबी, माली, कुम्हार यहां तक कि चोरों के संगठन का भी जिक्र है. वे अपने आप में स्वायत्त थे. अपने फैसलों के लिए पूरी तरह स्वतंत्र. उनके अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार राज्य को भी नहीं था. सम्राट विशेष अवसरों पर उनसे परामर्श करना आवश्यक समझता था. खास बात यह है कि उन समूहों में श्रम-कौशल और सहभागिता को महत्त्व दिया जाता था. केवल बुद्धि के नाम पर, जैसा ब्राह्मणवादी व्यवस्था में था, विशेषाधिकार का कोई प्रावधान उनमें नहीं था. ‘कूटवणिज जातक’ में बनारस के दो व्यापारियों की कहानी दी है. उनमें एक ‘बुद्धिमान’ था ‘दूसरा अतिबुद्धिमान’. एक बार दोनों ने मिल-जुलकर व्यापार करने का निर्णय लिया. उन्होंने बराबर-बराबर निवेश कर पांच सौ छकड़े माल खरीदा. दोनों व्यापार के लिए साथ निकले और सारा माल बेचकर वापस लौट आए. उसके बाद दोनों मुनाफे के बंटवारे के लिए जमा हुए. ‘बुद्धिमान’ व्यक्ति ने पहल करते हुए लाभ को दो समान हिस्सों में बांट दिया. यह देख ‘अतिबुद्धिमान’ बोला—

‘मैं तुमसे दुगुना हिस्सा लूंगा.’ उसकी बात सुनकर बुद्धिमान चौंका. उसने पूछा—

‘दो गुना क्यों?’

‘इसलिए कि मैं अतिबुद्धिमान हूं.’

‘हमने व्यापार में बराबर धन लगाया है. मेहनत भी बराबर-बराबर की है.’ ‘बुद्धिमान’ बोला.

‘तो क्या! सभी जानते हैं कि मैं तुमसे अधिक बुद्धिमान हूं. इसलिए मुझे लाभ में दुगुना हिस्सा मिलना चाहिए.’ कहते हुए दोनों व्यापारी आपस में झगड़ने लगे. न्याय के लिए अंततः वे बुद्ध की शरण में पहुंचे. बुद्ध दोनों को बराबर-बराबर हिस्सा देने का फैसला करते हैं. लाभ के दुगने हिस्से पर अधिकार जताने वाले ‘अतिबुद्धिमान’ को उन्होंने ‘बेईमान व्यापारी’ कहा है. वर्चस्वकारी व्यवस्था ऐसी बेईमानी कदम-कदम पर करती है. वह श्रम के सापेक्ष बुद्धि को वरीयता देती है. ब्राह्मण जो शिखर पर रहता है, उसका शारीरिक श्रम से कोई संबंध नहीं होता. वह दूसरों के श्रम पर परजीवी की भांति जीवन-यापन करता है. कमोबेश यही हालत बाकी दो वर्गों की भी है. वर्ण-व्यवस्था में निचले पायदान पर मौजूद शूद्र को अधिकाधिक श्रम करना पड़ता है. फिर भी उसे समग्र आय का मामूली हिस्सा प्राप्त होता है. बड़ा हिस्सा शीर्षस्थ वर्ग हड़प लेते हैं. कहानी के माध्यम से बुद्ध ने इस व्यवस्था का प्रतिकार किया है. इससे उस बौद्धकालीन समाज में अपने श्रम-कौशल के आधार पर जीवन जीने वालों की महत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है. यह आदर्श व्यवस्था थी, जिसे समय रहते रेखांकित करने की आवश्यकता थी. लेकिन इतिहास लेखन का काम ब्राह्मणों या ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त लेखकों के अधीन रहने के कारण वह सदैव पूर्वाग्रह-ग्रस्त रहा है. उन्होंने उस संस्कृति के दस्तावेजीकरण में पूरी तरह उपेक्षा बरती जिसे समानांतर संस्कृति, जनसंस्कृति या सर्बाल्टन संस्कृति कहा जाता है. उसका खामियाजा विराट बहुजन समाज आज तक भुगत रहा है.

  • महिषासुर आंदोलन के बारे में आपके निजी विचार क्‍या हैं? पिछले दिनों विभिन्‍न समाचारपत्रों, टीवी चैनलों पर इसकी चर्चा रही. इनसे प्राप्‍त सूचनाओं के आधार पर आपका इस आंदोलन के प्रति क्‍या विचार बना? या फिर, इस संबंध में आप किसी अनछुए पहलू पर प्रकाश डालना चाहेंगे?

मन से इस आंदोलन से जुड़े सभी मित्रों को बधाई देते हुए मैं थोड़ा मतांतर रखता हूं. ‘राम’, ‘कृष्ण’, ‘दुर्गा’ आदि की भांति ‘महिषासुर’ भी एक मिथ है और मिथ की सीमा है कि वह अकेला किसी काम का नहीं होता है. वह समाज और सांस्कृतिक परंपरा के साथ जुड़कर कारगर होता है. इसके लिए उसको अनगिनत मिथों की आवश्यकता पड़ती है, जिनका समर्थन या विरोध करते हुए वह समाज में अपनी पहचान बनाए रखता है. मिथ प्रायः दीर्घजीवी होते हैं. मगर कोई भी मिथ जीवन में हर समय मार्गदर्शक नहीं रह सकता. अमावस्या की रात में दिये या एक स्फुर्लिंग की भांति वह केवल अवसर-विशेष पर हमें राह दिखा सकता है. किंतु अनेक मिथों के साथ मिलकर वह मनुष्य की संपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा का सहभागी बन जाता है. मिथों के उपयोग के लिए बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है. किसी मिथ का उपयोग करने के लिए उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की जानकारी होना आवश्यक है. इसके अभाव में वह दोधारी तलवार की तरह काम करने लगता है. सही समय पर सटीक उपयोग न हो तो उसके मायने एकदम बदल जाते हैं. पिछले कुछ महीनों में ‘महिषासुर’ की पुनर्व्याख्या ने दलित, पिछड़ों एवं आदिवासियों को एक-दूसरे के निकट लाने का काम किया है. लेकिन सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से लड़ाई में कोई एक मिथ कारगर नहीं हो सकता. उसके लिए अनेक मिथ चाहिए. लेकिन नए मिथ गढ़ना आसान नहीं होता. हां, पहले से ही प्रचलित मिथों को युगानुकूल संदर्भों के साथ पुनपर्रिभाषित अवश्य किया जाता है. अतः जो मिथ की ताकत को जानते हैं, जिन्हें अपने विवेक पर भरोसा है, और जो सचमुच बहुजन संस्कृति के विस्तार का सपना देखते हैं, उन्हें चाहिए कि वे महिषासुर जैसे दूसरे मिथकों की भी खोज करें. नए मिथकों की खोज करना जितना आसान है, उतना ही कठिन है, उन मिथकों को युगानुकूल संदर्भों में नए सिरे से परिभाषित करना. सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से मुक्ति के लिए बहुजन को अपने लक्ष्य को समर्पित बुद्धिजीवियों की पूरी खेप तैयार करनी होगी.

महिषासुर मिथ की दूसरी कमजोरी यह है कि वह एक सम्राट है. उस दौर का है जब यह दुनिया लोकतंत्र के बारे में जानती न थी. जबकि आज जमाना लोकतंत्र का है. ‘महिषासुर’ के प्रतीक के सहारे वर्चस्वकारी संस्कृति पर हमला तो बोला जा सकता है. या ऐसे ही हमलों के बीच वह हमारे लिए कारगर हथियार बन सकता है. लेकिन केवल उसके सहारे वर्चस्वकारी संस्कृति को रचनात्मक विकल्प संभव नहीं है. अतएव आवश्यकता अनुकूल मिथकों के चयन के साथ-साथ उन्हें लोकतांत्रिक परिवेश के अनुकूल ढालने की है. ताकि वे मिथक जो अभी तक वर्चस्वकारी संस्कृति के सुरक्षा-कवच बने थे, प्रकारांतर में लोकतंत्र और सहजीवन का समर्थन करते नजर आएं.

  • क्या आप मानते हैं कि संघ परिवार का महिषासुर शहादत दिवस का कटु हिंसक विरोध और आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने की उनकी मांग से दलित-बहुजनों को यह अहसास हो सकेगा कि हिंदुत्व एजेंडा ब्राह्मणवाद से अधिक कुछ नहीं है? क्या आप उनके असली चेहरे और एजेंडे का पर्दाफाश करने में सहयोग करना चाहेंगें?

हिंदुत्व को न्यायालय ने जीवन-पद्धति माना है. परंतु विचार करके देखिए, क्या यह केवल जीवन-पद्धति ही है. मनुष्य को जो आजादी जीवन-पद्धति को चुनने की होनी चाहिए, वैसी आजादी क्या यह धर्म देता है? कथित सनातनी हो या गैर-सनातनी, एक हिंदू परिवार की सामान्य जीवन-चर्या मिली-जुली होती है. हर परिवार में कोई आला या कोना ‘मंदिर’ के नाम पर आरक्षित होता है. हर घर में मूर्तियों को नहलाया जाता है. सुबह-शाम की आरती, पूजा-बंदन बिना नागा चलता है. जब तक पत्थर की मूर्ति से छुआ न लें, स्त्रियां अन्न-जल ग्रहण नहीं करतीं. मंदिर में कागज, पत्थर, कांच, मिट्टी, लकड़ी या प्लास्टिक के आड़े-तिरछे, भांति-भांति के देवता आसन जमाए रखते हैं. हर घर में साल में एक-दो बार ‘सत्यनारायण कथा’ कही जाती है. पंडित सारे कर्मकांड रचता है. परंतु कभी नहीं बताता कि ‘सत्यनाराण की कथा’ क्या है? किस हिंदू धर्म-शास्त्र में उनका उल्लेख है? फिर भी डरी-सहमी कुल-ललनाएं इस कथा के श्रवण से खुद को धन्य मानती रहती हैं. अब यह मत कहिए कि संकट के समय जरूरतमंद की मदद करना, सादा जीवन जीना, जीवमात्र पर दया करना, चोरी-चकारी से परहेज रखना, सत्य वाचन, माता-पिता का सम्मान करना और बुराइयों से दूर रहना हिंदुत्व हमें सिखाता है. ये सब बातें तो नैतिकता के हिस्से आती हैं और समाजीकरण का मुख्य आधार हैं. समाज के बीच जगह बनाने के लिए प्रत्येक धर्म चाहे वह मूर्ति-पूजकों का हो या मूर्ति-भंजकों का, इन सदाचारों को अपनाता है. इन्हें अपनाए बिना उसकी गति नहीं है. इसलिए अभिव्यक्ति का तरीका चाहे जो हो, हर धर्म में यही सदाचार सिखाए जाते हैं. इसे धर्म की धूत्र्तता कहें या बेईमानी, वह नैतिकता से उधार लिए इन सदाचारों को अपना बनाकर पेश करता है. इस तरह पेश करता है मानो धर्म है तो वे सदाचार हैं. असल में होता इसका उलटा है. मनुष्य धर्म को इसीलिए अपनाता है ताकि उसकी आने वाली पीढ़ियां धर्म के साथ जुड़े शील और सदाचारों को अपनाएं. समाजीकरण की अनिवार्यता धर्म नहीं, शील और सदाचरण हैं. यदि कहीं समाज है तो वहां धर्म भले ही न हो, समाजीकरण की प्रमुख शर्त के रूप में शील और सदाचरण रहेंगे ही. बिना धर्म के समाज गढ़ा जा सकता है, लेकिन बिना शील और सदाचार के उसका एक क्षण भी अस्तित्व में रहना मुश्किल है. आम हिंदू के लिए ‘हिंदुत्व’ या ‘जीवनपद्धति’ का आशय मूर्तियों पर जल चढ़ाने, किसी न किसी देवता पर भरोसा करने, गाय को रोटी देने, व्रत-उपवास रखने, पर्व-त्योहार पर विधि-सम्मत पूजन-अर्चन करने जैसे कर्मकांडों तक सीमित है. ये सब ऐसे आयोजन हैं जिनमें ब्राह्मणों की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका बनी रहती है. दूसरे शब्दों में जिसे हिंदुत्व कहा जाता है, वह ब्राह्मणवाद का ही लौकिक विस्तार है. इसलिए हिंदुत्व का बने रहना, प्रकारांतर में ब्राह्मणवादी व्यवस्था का अस्तित्व में रहना है.

‘हिंदुत्व’ को बनाए रखने के लिए उन्होंने अनेक षड्यंत्र रचे हैं. उनमें जनता द्वारा प्रथम निर्वाचित सम्राट वेन तथा महिषासुर की छल-हत्या, एकलव्य का अंगूठा काट लेना, शंबूक की हत्या के बहाने उसके उत्तराधिकारियों को ज्ञान से वंचित कर देना जैसे उनके अनेकानेक धत्त्कर्म सम्मिलित हैं. चूंकि आरक्षण ने दलित एवं समाजार्थिक आधार पर पिछड़े वर्गों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर दिया है, इसलिए वे उनके सबसे बड़े आलोचक हैं. जातिवाद को पीढ़ी-दर-पीढ़ी पोषते, उसके आधार पर अपने विशेषाधिकार गिनाते आए लोग आज उन वर्गों पर जातिवादी होने का आरोप लगा रहे हैं, जो शताब्दियों से जातीय उत्पीड़न के शिकार होते आए हैं. हिंदुत्व का उनका एजेंडा केवल धर्म तक सीमित नहीं है. इसे केवल धर्म से जोड़कर रखना परिवर्तनकामी शक्तियों की भारी भूल रही है. हिंदुत्व का एजेंडा कहीं न कहीं संसाधनों पर मुट्ठी-भर लोगों की इजारेदारी को भी मजबूत करता है. जाति के आधार पर तीन-चौथाई जनसंख्या को शूद्र या दलित बताकर जमीन तथा उत्पादन के अन्य साधनों से वंचित कर देने का अर्थ है—पंद्रह-बीस प्रतिशत लोगों द्वारा समाज के कुल संसाधनों पर कब्जा. अभी तक ऐसा ही होता आया है.

महिषासुर जैसे प्रतीकों की बहुजन व्याख्याएं हिंदुत्व की नींव पर प्रहार करती हैं. उस पतित संस्कृति का विरोध करती हैं जो बलात्कारी को ‘देवराज’ का दर्जा देती है. दलित-बहुजन की नई बौद्धिक खेप का आदर्श राम नहीं है जो अपनी निर्दोष भार्या की शील-परीक्षा लेता है, शंबूक को दंडित करता है. ‘महिषासुर शहादत दिवस’ जैसे आयोजन प्रकारांतर में एक सलाह भी है कि बहुजन, ब्राह्मणवादी नायकों को अपना नायक मान लेने की भूल न करें. यह चूक उन्होंने शताब्दियों पहले उनके पूर्वजों की ओर से हुई थी. जिसका दंड वे आज तक भुगत रहे हैं. आरक्षण दमित वर्गों को शिक्षा और स्वतंत्र सोच का अवसर प्रदान करता है. इसलिए वह उनके लिए असह् हैं. चाहे जिस आधार पर हो, हिंदुत्व को न्यायालय की स्वीकृति मिल चुकी है, इसलिए वर्चस्वकारी शक्तियां उनके बहाने दलित-बहुजन को फुसलाए रखने का सदियों पुराना खेल खेल रही हैं.

 

  • निस्संदेह आज जो बहुजन सवाल उठा रहा है, सांस्कृतिक प्रतीकों की पुनर्व्याख्या की जा रही है, उसका सीधा-सा आशय है कि समाज के निचले वर्गों में शिक्षास्तर में वृद्धि हुई है. उससे लोगों का आत्मविश्वास बढ़ा है. इसके पीछे आरक्षण का योगदान भी है. इसलिए वे चाहते हैं कि आरक्षण खत्म हो ताकि उन्हें चुनौती देने वाला कोई न हो और जैसे वे पिछले हजारों वर्ष से याद करते आए हैं, आगे भी इसी प्रकार चलता रहे.

ब्राह्मणवाद सांस्कृतिक ‘दैत्य’ है. यहां ‘दैत्य’ का अभिप्राय उसके परंपरागत अर्थ में ही लेना चाहिए. परंपरा में जो धत्तकर्म दैत्य के बताए जाते हैं, असलियत में वही कार्य ब्राह्मणवादियों के देवता भी करते हैं. उनके देवता कदम-कदम पर छल करते हैं, दूसरों की स्त्रियों को बलत्कृत करते हैं. भेंट-पूजा पाकर प्रसन्न होते हैं. यदि मन-माफिक चढ़ावा न मिले तो कुपित हो जाते हैं. तुलना करें तो उनके देवता और नकचढ़े सामंत में कोई अंतर ही नहीं है. यह अनायास नहीं है कि बृहश्पति जो देवताओं के गुरु हैं, वही चार्वाक दर्शन के प्रणेता भी हैं. देव-सभाओं में अप्सराओं का नृत्य-गायन, देवताओं की मौज-मस्ती तथा सोम-पान, चार्वाकों की ‘खाओ-पीओ मौज करो’ की विचारधारा को ही प्रतिबिंबित करता है. यानी ‘देवगुरु’ का दर्शन देवताओं की दिनचर्या से ही प्रेरित है. या फिर यह हो सकता है कि देवता अपने गुरु के दर्शन के अनुगामी हों. दूसरी ओर असुर गुरु शुक्राचार्य हैं, जिन्हें इतिहास, दंडनीति, नीति-शास्त्र का आदि व्याख्याकार बताया गया है. ‘महाभारत’ की चर्चा प्राचीन भारतीय राजनीतिक दर्शन के लिए होती है. हस्तिनापुर का राज्य संभालने से पहले युधिष्ठिर भीष्म के पास राजनीति का ज्ञान लेने जाता है. शुक्राचार्य के ज्ञान की महिमा इससे भी जानी जा सकती है कि युधिष्ठिर को राजनीति का पाठ पढ़ाने वाले भीष्म शुक्राचार्य के ही शिष्य हैं. उनके शिष्यों में दूसरा नाम पृथु का भी आता है, जिसे प्रथम निर्वाचित सम्राट वेन का पुत्र तथा पृथ्वी का प्रथम मनोनीत सम्राट कहा गया है. दूसरे किस्से कहानियों की भांति शुक्राचार्य से जुड़ी कहानियां भी मिथ हो सकती हैं. कदाचित वे मिथ हैं भी. फिर भी उनकी अपनी महत्ता है. क्योंकि भारत जैसे समाजों में जहां तर्कबोध, विज्ञानबोध की कमी हो, जनजीवन मिथों से ही प्रेरणा लेता है. बहरहाल आचार्य बृहश्पति तथा शुक्राचार्य के क्रमशः चार्वाक पंथ और दंडनीति का व्याख्याकार होने से क्या यह नहीं लगता कि ब्राह्मणवादी लेखकों ने अपने ग्रंथों में सुरों और असुरों की चारित्रिक विशेषताओं को पूरी तरह उल्टा-पल्टा है. कई बार तो ठीक 180 डिग्री का मोड़ देकर पेश किया है.

ब्राह्मणवाद को सामान्यतः धर्म और संस्कृति से जोड़ा जाता है. यह उसकी सीमित व्याख्या है. असल में वह ‘सर्वसत्तावादी’ और ‘सर्वाधिकारवादी’ किले का पर्याय है, जहां से समस्त संसाधनों और विचारकेंद्रों को नियंत्रित किया जाता है. क्षत्रिय इस किले की रक्षा करते रहे हैं तो वैश्य उसके खजाने को समृद्ध करने का काम करते आए हैं. बदले में ब्राह्मणवाद कुछ सुविधाएं, मान-सम्मान और संसाधनों के उपयोग का अवसर देकर उन्हें कृतार्थ करता आया है. इसे ब्राह्मणवादी वर्चस्व ही कहा जाएगा कि मामूली सुविधा, संसाधनों में सीमित हिस्सेदारी के बावजूद वे वर्ग लंबे समय से स्वयं को उस व्यवस्था का हिस्सा मानते आए हैं. इसलिए एक सीमा से अधिक विरोध के लिए वे कभी आगे नहीं आए. स्वतंत्र भारत के संविधान में मिले अधिकारों के फलस्वरूप पहली बार दलितों और पिछड़ों को अवसर मिला कि वे ब्राह्मणवाद के किले में सैंध लगा सकें. आरक्षण ने इस प्रक्रिया को संभव बनाया, इसलिए वे वर्ग आरक्षण को अपने लिए खतरे के रूप में देखते हैं. पिछले कुछ वर्षों में हालात और भी बदले हैं. शिक्षा के क्षेत्र में मिले आरक्षण ने दलितों और पिछड़ों को अवसर दिया कि वे ब्राह्मणवाद की चतुराइयों को समझ सकें तथा जिन प्रतीकों एवं मिथों के माध्यम से वह अपने सर्वसत्तावादी स्वरूप को बनाए हुए है, उनकी अपने हितों के अनुरूप व्याख्या कर सकें. ‘महिषासुर शहादत दिवस’ जैसे आयोजन दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों में उभरी इसी सांस्कृतिक चेतना का हिस्सा हैं. इसलिए ब्राह्मणवाद के पैरोकारों की ओर से उनका विरोध स्वाभाविक है. अब वे चाहते हैं कि ‘कल्याण राज्य’ की अपेक्षाओं के चलते स्वाधीन भारत के संविधान में दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को जो अधिकार दिए हैं, वे समाप्त हों, ताकि पुरानी व्यवस्था लौट सके. पूंजीवाद और राजनीतिक सत्ता आज भी उसके मददगार हैं.

परिवर्तनकामी शक्तियों के लिए जितना आवश्यक ब्राह्मणवाद की कमजोरियों को समझना है, उतना ही आवश्यक समानांतर संस्कृति खड़ी करना भी है. ब्राह्मणवादी तंत्र में आमने-सामने की चुनौती नहीं होती, उसका एक कोना अपने घर-परिवार में भी मौजूद होता है. व्यवस्था से अनुकूलित लोग परिवर्तन की हर संभावना को निष्फल करने की कोशिश करते हैं. कुछ समय पहले तक धर्म और जाति उसके सुरक्षा कवच थे. बदली परिस्थितियों में उसने राष्ट्रवाद को अपनी आड़ बनाया हुआ है. ‘महिषासुर’ जैसे मिथों की नवव्याख्या ने ब्राह्मणवाद के मर्मस्थल पर चोट की है. यह ज्ञान और तर्क की लड़ाई है. इतिहास में शताब्दियों बाद ऐसा हुआ है जब दलित और पिछड़े वर्ग के बुद्धिजीवी ब्राह्मणवाद को उसी के क्षेत्र में चुनौती दे रहे हैं. इससे ब्राह्मण बुद्धिजीवी खुद को असहज पा रहे हैं. आरक्षण का विरोध इसी विषम मनःस्थिति की उपज है. चलते-चलते एक बात मैं अवश्य जोड़ना चाहूंगा. आरक्षण एक व्यवस्था है. यह सामाजिक न्याय के दायरे में भी आता है. लेकिन यह प्राकृतिक न्याय का पर्याय नहीं है. इसलिए संविधान-सम्मत होने के बावजूद इसे हमेशा-हमेशा के लिए लागू नहीं रखा सकता. इसलिए बहुजन अस्मिता की चिंता करने वाले बुद्धिजीवियों, लेखकों और कलाकारों को अभी से खुद को तैयार रखना होगा. उसका एकमात्र उपाय है, वर्चस्वकारी संस्कृति के मुकाबले सामाजिक न्याय, तर्क, विवेक और आधुनिक जीवनमूल्यों से संपन्न जनसंस्कृति को खड़ा करना. विवेकवान बनना और समानधर्मा लोगों के विवेकीकरण में सहायता करना. जनसंस्कृतिकरण की यात्रा दुर्गम भले हो, असंभव नहीं है.

 ओमप्रकाश कश्यप

 

असफलताओं का आर्थिक मोर्चा

उत्पादन क्षेत्र में अभूतपूर्व मंदी है. विदेशी मुद्रा-भंडार में कमी आई है. अर्थशास्त्रियों के अनुसार आर्थिक विकास-दर मात्र एक प्रतिशत रह जाने की उम्मीद है. देश की शाख को भी बट्टा लगा है. बड़ी संख्या में लघु और कुटीर उद्यम या तो बंद चुके हैं, अथवा मंदी के शिकार हैं. छोटे उद्यमियों, दस्तकारों तथा उनमें लगे मजदूरों, कामगारों और शिल्पकर्मियों की हालत पतली है. निर्माण-क्षेत्र में नई परियोजनाओं पर काम रुक-सा गया है. जिन उद्यमियों ने बैंक-ऋण तथा ग्राहकों की मदद से परियोजनाएं चालू रखी थीं, उनकी आगे की बिक्री कम है. घटी आमदनी के कारण किश्त समय पर न चुका पाने से ग्राहकों की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं. निरंतर कमजोर पड़ती मांग से बड़े-बड़े उद्योग छंटनी पर मजबूर हैं. छत्तीसगढ़ में ‘अल्ट्राटेक’ सीमेंट बनाने वाली कंपनी के मजदूर प्रदर्शन कर रहे हैं. कंपनी ने कुछ मजदूरों को बाहर का रास्ता दिखाया है तो कुछ की दैनिक मजदूरी में कटौती की है. सबसे चिंताजनक है छोटे और लघु व्यापारियों में फैली हताशा. रोजगार की दृष्टि से इस क्षेत्र की उपयोगिता कारपोरेट सेक्टर से कहीं अधिक है. यहां पसरी हताशा भविष्य में बड़े समाजार्थिक संकट का कारण बन सकती है. सरकार चुनावों की वजह से हालात के प्रबंधन में लगी है, लेकिन उसका पूरा ध्यान असल समस्या से भटकाने का है. जातिवाद, सांप्रदायिकता, राममंदिर जैसे मुद्दे उछाले जा रहें हैं. ताकि किसी भी प्रकार सत्ता में बने रहकर जातिवादी मंसूबों को साधा जा सके.

2014 में सत्ता संभालते समय केंद्र सरकार ने ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’, ‘न्यू इंडिया’ जैसे सपने लोगों को दिखाए थे. आज वे सब हवा में हैं. क्यों? सरकार उससे जुड़े प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पा रही है. यदि कुछ नहीं बदला है तो मीडिया का सरकार के प्रति भक्ति-भाव. वह जैसे पहले सरकार की हवा बनाने में लगा था, आज भी वही हाल है. बात बढ़ती है तो ध्यान हटाने के लिए या तो आतंकवाद को बीच में ले आता है, अथवा पाकिस्तान को. कुछ नया दिखाना हो चीन के साथ डांडा-मेंडी की खबरें छा जाती हैं. एक ओर विकास के नाम पर छल है, दूसरी ओर धर्म, सांप्रदायिकता और निरंतर बढ़ती जातीय हिंसा. एक साथ कई पाटों के बीच पिसती जनता खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही है. उधर कारपोरेट सेक्टर की पो-बारह है. देश के सबसे बड़े 100 उद्योगपतियों की संपत्ति में औसतन 26 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. जबकि मुकेश अंबानी तथा सरकार के करीबी माने जा रहे अडानी की कुल संपत्ति में 67 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है. इस वर्ष एक नया नाम उद्योगपतियों की कतार में बाबा रामदेव के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण का शामिल हुआ है. कारोबार में 176 प्रतिशत वृद्धि-दर के साथ उन्होंने दिखा दिया है कि भारतीय उपभोक्ताओं के मानस पर भगवा रंग अन्य किसी भी रंग से अधिक प्रभावशाली है.

ऐसा क्यों हो रहा है. क्यों प्रधानमंत्री की वायदों और असलियत के बीच की दूरी कम नहीं हो पा रही है. इसे समझने के लिए वर्तमान सरकार की प्राथमिकताओं को समझना आवश्यक है. यह जानना आवश्यक है कि जिस विकास के नारे के साथ सरकार सत्ता में आई थी, क्या उसकी नीतियां उसके अनुरूप हैं? अपने चुनावी भाषणों में मोदी जी ने गुजरात को विकास के मॉडल के रूप में पेश किया था. तथाकथित गुजराती मॉडल की वास्तविकता पर बुद्धिजीवियों ने उन दिनों भी प्रश्न उठाए थे. तब कांग्रेस सहित दूसरे राजनीतिक दल उस मुद्दे पर चुप्पी साधे रहे. गत साढ़े तीन वर्ष के केंद्र सरकार के कार्यकलापों द्वारा समझा जा सकता है कि विकास का तथाकथित गुजराती मॉडल कुछ नहीं, असलियत में पूंजीवाद एवं सांप्रदायिकता का गहरा गठजोड़ था. केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद वह और भी उग्र हुआ है. आमजन को जाति, धर्म और क्षेत्रवाद में उलझाकर देश की संपदा पूंजीपतियों के हवाले की जा रही है. धर्म और पूंजीवाद का यह गठजोड़ इतना शक्तिशाली है कि जो इसके साथ नहीं, वह बेबस और लाचार नजर आता है. धर्म और राजनीति का गठजोड़ वर्तमान सामाजिक उथल-पुथल का वास्तविक कारण है. अस्थिरता के ऐसे माहौल में विदेशी  निवेशक भला क्यों पूंजी लगाना चाहेंगे! इसलिए प्रधानमंत्री की 150 से अधिक देषों की यात्रा और वहां की हंगामाखेज बैठकों, व्यापक प्रचार-प्रसार के बावजूद विदेशी निवेशक भारत में पूंजी निवेश से कतरा रहे हैं. बड़ी स्पर्धा न होने के कारण देशी पूंजीपतियों की पौ-बारह है. वे जानते हैं कि बाहरी पूंजी को तरसती सरकार के आगे मनमानी शर्तें थोपी जा सकती हैं. इससे वे बेलगाम होकर आगे बढ़ रहे हैं. वैश्विक मंदी के दौर में भी रिलायंस-अडानी जैसे बड़े कारपोरेट घरानों की चामत्कारिक वृद्धि-दर सरकार और लोगों के मानस पर उनकी पकड़ को दर्शाती है.

अनायास नहीं है कि भयावह मंदी के इस दौर में अकेला मीडिया ऐसा क्षेत्र है, जिसपर कोई अंतर नहीं पड़ा है. बल्कि वह तेजी से समृद्धि की ओर अग्रसर है. कारपोरेट मुनाफे का बड़ा हिस्सा उसकी ओर जा रहा है. वह अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताओं को बिसराकर, लोकहित के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर मिट्टी डालने का काम बहुत बेशर्मी से कर रहा है. कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो कभी खुद को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ दर्शाते हुए वह अपने लिए विशिष्ट सुविधाओं तथा अधिकारों की मांग करता है. जबकि हाल के दिनों में उसका वास्तविक कार्य नागरिकों के मानस का उपभोक्ताकरण कर, पूंजीवाद के रास्ते को निष्कंटक करना है. समाज में भय, असुरक्षा, लालच और हताशा का वातावरण तैयार करना, धर्म के नाम पर तंत्र-मंत्र, जादू-टोना परोसना और रूढ़ियों का महिमा-मंडन करना—मीडिया की इसी सोची-समझी नीति का हिस्सा है. उसकी कोशिश है कि अपने एकाकीपन को बांटने की जद्दोजहद में लोग आभासी दुनिया में शरण लेने को विवश हो जाएं. राजनीतिक दल मीडिया की ताकत को समझते हैं. इसलिए चुनावों में लोगों तक पहुंचने के लिए वे उसका इस्तेमाल उसी की शर्तों पर करने को विवश होते हैं.

पूंजीवाद के समर्थन में ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ यानी ‘रिसाव का सिद्धांत’ का तर्क अकसर दिया जाता है. अर्थशास्त्रियों के अनुसार समृद्धि का रिसाव ऊपर से नीचे की ओर होता है. तदनुसार पूंजीपति जितना कमाते हैं, उतना टेक्स देते हैं. बेखुदी जैसी हालत में सरकार माने रहती है कि जितना उनका मुनाफा बढेगा, उतना ज्यादा टेक्स आएगा. अनुभव बताते हैं, ऐसा होता नहीं है. पूंजीपति जितना टेक्स के रूप में सरकार को देते हैं, सारा जनता की जेब से जाता है. ऊपर से विभिन्न प्रकार की छूट के रूप में वे सरकार से इतना बटोर लेते हैं कि कराधान के रूप में दी गई राशि छोटी पड़ जाती है. पश्चिम में इस सिद्धांत की हकीकत को बहुत पहले समझ लिया गया था. अर्थशास्त्री जान केनिथ गिल्वर्थ ने ‘घोड़े और गौरैया’ की सैद्धांतिकी कहकर उसका मजाक उड़ाया था—घोड़ों को जितना अधिक दाना मिलेगा वे उतनी ज्यादा लीद देंगे. उसमें से बिना पचे दाने चुगकर ज्यादा गौरैया पेट भर सकेंगी.

यह जानते हुए भी कि कथित ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ प्राय: उलटी चाल चलती है—भारत सरकार आज भी उसपर भरोसा करती है. इसके दुष्परिणाम सामने हैं. पूंजीवाद जितनी तेजी से भारतीय जनसमाज पर अपनी पकड़ बना रहा है, उतनी तेजी से समृद्धि निचले स्तर से ऊपर की ओर गतिमान है. आजादी के बाद के दशकों में कठिन परिश्रम द्वारा जनता ने जो थोड़ी-बहुत समृद्धि अर्जित की थी, धीरे-धीरे उसका साथ छोड़ रही है. बड़ी पूंजी तरह-तरह के प्रलोभन देकर उसे अपनी ओर खींच रही है. सरकार बेबस है. चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री द्वारा जनता के साथ किए गए वायदे एक-एक कर झूठे साबित हो रहे हैं. उनके मन की बात, जनता के मन की बात बन ही नहीं पा रही है. सांप्रदायिकता के बुरी तरह शिकार समाज में ‘धर्मनिरपेक्षता’ तथा ‘साम्यवाद’ जैसे शब्द गाली बन चुके हैं. जिन्हें समाजार्थिक समानता का सिद्धांत नापसंद है, वे वामपंथ का सीधे सामना करने के बजाए, धर्म की आड़ लेकर हमला करते हैं. घोर सांप्रदायिक, जातिवादी लोगों ने एक वर्ग का मानस इस तरह तैयार किया है कि वह मार्क्स, सेकुलर, साम्यवाद, धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों को सुनते ही बलबलाने लगता है. धर्म और पूंजीवाद का जैसा गठजोड़ इन दिनों भारत में है, वैसा दुनिया के अन्य देश में नहीं है. चैनल पूंजीवाद से खाद-पानी लेकर धर्मांधता परोस रहे हैं. जनसरोकार भुला चुका टेलीविजन गाय और गोबर पर बहसें कराता है. विकास के नाम पर ये सब पतनोन्मुखी समाज की भूमिका रच रहे हैं.

सरकार में बैठे लोग भी मान चुके हैं कि उद्योग जगत के हालात षीघ्र सुधरने वाले नहीं हैं. सरकार आय-वृद्धि हेतु नए-नए प्रकल्प आजमा रही है. सारा जोर सेवा क्षेत्र पर है. किसी भी राज्य की प्रगति-दर के आकलन का मापदंड यह भी है कि उसकी आय के स्रोत स्थायी हों. उनमें प्रमुख योगदान कृषि, उत्पादन और विनिर्माण क्षेत्र का हो. सेवा-क्षेत्र की भूमिका अर्थव्यवस्था के सहायक अथवा पूरक क्षेत्र के रूप में होनी चाहिए. भारत में हालात एकदम उलट हैं. यह पूंजीवाद के समक्ष राज्य के समर्पण को दर्शाता है. कहा जा सकता है कि मतलब तो राजस्व वृद्धि से है. वह चाहे सेवा क्षेत्र से हो या उत्पादन से, क्या अंतर पड़ता है? यहां मार्क्स के ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ की याद आती है. मनुष्यता के इतिहास की गहन समीक्षा करने के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि उत्पादकता के साधन सभ्यता और संस्कृति के स्वरूप को निर्धारित करते हैं. कृषि-केंद्रित अर्थव्यवस्था तक भारतीय समाज उत्पादक समाज था. उत्पादन अन्योन्याश्रित था. लोग बजाय लाभ कामना के, एक-दूसरे की जरूरत के अनुरूप उत्पादन करते थे. मशीनीकरण के साथ-साथ उत्पादन का स्वरूप भी बदलता गया. सेवा क्षेत्र में तीव्र वृद्धि दर्शाती है कि हम तेजी से उपभोक्ता-समाज की ओर बढ़ रहे हैं. ऐसा समाज जिसमें परंपरागत संबंध कमजोर पड़ जाते हैं. यह स्थिति पूंजीपतियों के लाभदायक है. वे इसका लाभ भी उठा रहे हैं. उत्पादन के अलावा राजनीति, समाज और संस्कृति के सभी क्षेत्रों पर बाजार का कब्जा है. आज बाजार तय करता है कि लोग अपने त्योहारों को किस प्रकार मनाएं. मानवीय संबंधों का रूप कैसा हो. यहां तक कि हमारे दोस्त और दुश्मन तय करने की जिम्मेदारी भी मीडिया उठा रहा है.

आखिर ऐसा क्यों हुआ? आर्थिक मोर्चे पर सरकार के बुरी तरह विफल होने के कारण क्या हैं? सरकार जिस स्फूर्त्ति के साथ अरविंद पनगढ़िया को नीति आयोग का सर्वेसर्वा बनाकर लाई थी, वे सरकार को अधबीच छोड़कर जाने के लिए क्यों विवश हुए? कथित रूप से गुजरात में कामयाब होने वाला यह मॉडल बाकी देश  में असफल क्यों हो रहा है? सरकार के पास इस संकट से उबरने की क्या कोई योजना है? यदि हां, तो उसका स्वरूप और सफल होने की संभावना क्या है? ये प्रश्न किसी भी संवेदनशील मन को विचलित कर सकते हैं. उनपर अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों द्वारा विचार किया जाना आवश्यक है. लेकिन या तो वे जान-बूझकर उपेक्षा कर रहे हैं, अथवा उनके मुंह बंद कर दिए गए हैं. या फिर आलोचक अर्थशास्त्रियों के विचारों को सेंसर किया जा रहा है.

सबसे पहले ‘गुजरात मॉडल’ पर चर्चा करते हैं. विकास के नाम पर जिस ‘गुजरात मॉडल’ को चुनाव के दौरान आर्थिक विकास के मानक के तौर पर पेश किया गया था, वह मनमोहन सिंह की उदार आर्थिक नीतियों के अतिरेकी, अनियोजित विस्तार के अतिरिक्त कुछ नहीं था. केवल एक चीज उसे शेष भारत से अलग करती थी. वह थी, उग्र हिंदुत्व अथवा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के साथ पूंजी का तालमेल. केंद्र में उन दिनों कांग्रेस की सरकार थी. मनमोहन सिंह थे, जिन्होंने देष को आर्थिक उदारवाद की राह दिखाई थी. उग्र हिंदुत्व के पैरोकार बने मोदी जी केवल गुजरात तक सीमित थे. जो मीडिया आज हिंदू धर्म-दर्शन के नाम पर कचरा परोस रहा है, वह दबे स्वर में उग्र हिंदुत्व की आलोचना में सरकार और बुद्धिजीवियों के साथ था. सांप्रदायिकता विद्वेष इतना नहीं गहराया था, जितना  आज. सरकार समझती थी कि विदेशी निवेशकों को केवल राजनीतिक कूटनीति के तहत आमंत्रित नहीं किया जा सकता. उनका पहला और अंतिम उद्देश्य निवेश के माध्यम से अधिकाधिक लाभार्जन रहता है. यदि उन्हें युद्ध से लाभ दिखता है तो हजारों-लाखों जान की परवाह किए बिना वे युद्ध का समर्थन करेंगे.  अधिकतम मुनाफे की संभावना बनाए रखने के लिए वे जोखिम से तब तक बचना चाहते हैं, जब तक बदले में अतिरिक्त मुनाफे की संभावना न हो.

इन दिनों हालात अलग हैं. केंद्र में हालांकि बहुमत की सरकार है. लेकिन वह लोगों की सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काकर सत्ता में आई है. अपनी सत्ता अक्षुण्ण रखने के लिए वह सामाजिक-सांप्रदायिक विभाजन की खाई को चौड़ा करने में लगी है. संविधान की सौगंध उठाकर संसद और विधायिकाओं में पहुंचे उसके नेता कभी बीफ, कभी गाय, कभी सांप्रदायिकता और कभी जाति के नाम पर लोगों को भड़काने में लगे रहते हैं. उन्होंने जो उथल-पुथल पैदा की है, उससे देश और समाज के बीच अविश्वास बढ़ा है. कुल मिलाकर देश के हालात ऐसे नहीं हैं जो विदेशी निवेशकों को आकर्षित कर सकें. ऊपर से सरकार द्वारा नोटबंदी के नाम पर मुद्रा-बदली का आत्मघाती फैसला. सरकार का दावा कि नोटबंदी से आतंकवाद की कमर टूट जाएगी, भ्रष्टाचार कम होगा और दबा हुआ कालाधन एक झटके में बाहर आ जाएगा—पूर्णतः निष्फल सिद्ध हुआ है. आर्थिक मुद्दों को लेकर दिशाहीनता ऐसी है कि साढ़े तीन वर्ष के कार्यकाल में सरकार अभी तक पिछली सरकार की योजनाओं को ही नाम बदल-बदलकर कार्यान्वित कर रही है. कुछ मुद्दे जैसे वीआई कल्चर पर नियंत्रण हेतु वाहनों से लाल-नीली बत्तियां हटवाना, चुनावों के दौरान घर-जाकर वोट मांगना—उसने ‘आम आदमी पार्टी’ से लिए हैं. जिन दो योजनाओं के साथ सरकार अपना नाम जोड़ सकती है, उनमें पहली नोटबंदी थी, जिसकी विफलता का उल्लेख ऊपर किया गया है. दूसरी योजना जीएसटी है. विपक्ष में रहते हुए भाजपा उसका विरोध किया करती थी. सरकार में आने के बाद उसे इतनी लापरवाही से लागू किया कि अर्थव्यवस्था पर उसका नकारात्मक असर पड़ा है. ऐसे में शरद यादव का हालिया बयान कि आने वाला चुनावों में बिगड़ती अर्थव्यवस्था बड़ा मुद्दा होगी, अनुचित नहीं लगता.

भारतीय गांवों में संचय की प्रवृत्ति बहुत पुरानी है. कभी अपने भविष्य के लिए, कभी अचानक आ पहुंचे पाहुन के नाम पर; और कभी किसी परिजन के शादी-विवाह या किसी और कारज के लिए, लोग संचय को गृहस्थ का पुनीत कर्म मानते आए हैं. यह प्रवृत्ति ग्रामीण संस्कृति से निकलकर शहर में आ बसे लोगों के उपभोक्ताकरण की सबसे बड़ी बाधा है. इसलिए भय, असुरक्षा, अविश्वास, अशांति आदि के बहाने वाक्-बहादुर चैनल रात-दिन लोगों की सामाजिकता पर प्रहार करते रहते हैं. बहाना कभी आंतकवाद बनता है, कभी पाकिस्तान तो कभी सांप्रदायिकता. भारत-चीन तनाव को युद्ध की दुंदभि में बदल देना भी उनकी इसी रणनीति का हिस्सा था. उन दिनों एक भी चैनल ने इस तथ्य पर चर्चा करना जरूरी नहीं समझा कि पचास के दशक में भारत और चीन के हालात करीब-करीब एक समान थे. चीन भारत के बाद आजाद हुआ. बावजूद इसके उसने अपने उद्योग क्षेत्र को जिस कुशलता के साथ संभाला, मानव-संसाधनों का सुनियोजित उपयोग किया, छोटे-छोटे खेतों को मिलाकर ‘कम्यून’ आधारित कृषि को बढ़ावा दिया—भारत में वैसा नहीं हो सका. भारत चीन से विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था का सबक ले सकता था. लेना चाहिए था. किंतु सत्ताकेंद्र पर विराजमान नेताओं की मुश्किल यह थी कि विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था का रास्ता वर्गहीन समाज की स्थापना की ओर जाता है. उसे न पहले की सरकार चाहती थीं, न आज की भाजपा प्रणीत सरकार.

पूरा दोष वर्तमान सरकार का भी नहीं है. आजादी के बाद से ही देश में विदेशी पूंजी पर आधारित विकास की परिकल्पना की गई थी. यहां मौजूद विपुल प्राकृतिक संसाधनों तथा मानव-संपदा का लोक-हित में उपयोग करने को लेकर सरकारों की न तो नीति रही, न वैसा संकल्प. पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से यूँ तो कई विकास कार्यक्रमों का संचालन किया गया. किंतु भ्रष्ट नौकरशाही और प्रशासनिक दिशाहीनता के कारण वे अपेक्षित परिणाम न दे सकीं. वर्तमान सरकार की सारी राजनीति उग्र हिंदुत्व पर टिकी है. जातिवादी अजेंडे के तहत राजनीति करने वाली भाजपा को यह डर हमेशा लगा रहता है कि यदि वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मुद्दे पर कमजोर पड़ी तो उसका सवर्ण मतदाता समूह, जो केवल उग्र हिंदुत्ववादी छवि के कारण उससे जुड़ा है, एक ही झटके में छिटक जाएगा. आर्थिक विकास को लेकर उचित दिशा-दृष्टि के अभाव में भी सरकार को वे सब कष्ट उठाने पड़ रहे हैं. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने उदारीकरण की शुरुआत की थी. वर्तमान सरकार उसे और भी खुले मन से आगे बढ़ा रही है. पूरा देश अंबानी, अडानी और टाटाओं के लिए चरागाह बना है. सभी ने अपने-अपने घोड़े छोड़ दिए हैं. जब तक सरकार है, जहां तक संभव हो कब्जा लेना चाहते हैं. जनसंघ और अटलबिहारी वाजपेयी के जमाने में भाजपा स्वदेशी की समर्थक थी. मोदी जी ने पासा पलट दिया है. ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’ के बहाने वह अंबानी-अडानी को ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ की जगह देना चाहती है. विडंबना यह है कि ‘भाजपा मुक्त’ भारत की राजनीति करने वाले नेताओं के पास भी अर्थव्यवस्था को लेकर कोई सार्थक विकल्प नहीं है.

ओमप्रकाश कश्यप