बचपन बहती गंगा

हर बालक अपने आप में एक्टीविस्ट होता है. पुराने को भंग कर नए की स्थापना को उत्सुक. आप उसे खिलौना दीजिए. कुछ देर खेलेगा, उसके बाहरभीतर झांकनेसमझने की कोशिश करेगा. तोड़ने का मन हुआ तो पल गंवाए बिना वैसा प्रयास भी करेगा. खिलौना महंगा है, पैसा खर्च करके लाया गया हैखूनपसीने की कमाई का है. ऐसा कोई मुहावरा वह नहीं समझता. मातापिता समझते हैं. वे बालक को बरजते हैं. रोकते हैं खिलौना तोड़ने से. बालक अक्सर मान भी जाता है. मान लेता है कि खिलौने के अंतनिर्हित सत्य को जानने के ज्यादा जरूरी है उसके साथ जीना.

जन्म के तुरंत बाद नवशिशु जब स्वयं को विराट प्रकृति के संपर्क में आता है तो अपने परिवेश को जानना चाहता है. शारीरिक रूप से वह भले माता पर निर्भर हो, लेकिन चाहता यही है कि दुनिया को अपनी तरह से जानेसमझे. हर छोटेबड़े कार्य में बड़ों की मदद लेना बालक की नैसर्गिक प्रवृत्ति नहीं. समाज की संरचना उसे विवश करती है. बालक चाहता है कि मातापिता उसकी जिज्ञासापूर्ति में सहायक बनें. अपनी ओर से कुछ थोपें नहीं. लेकिन मातापिता तथा अभिभावकगण जो बालक के आसपास का परिवेश रचते हैं, समाज से अनुकूलित कर चुके लोग होते हैं. उनकी जिज्ञासा की आंच ठंडी पड़ चुकी होती है. अनुभव तपे व्यक्ति के संपर्क में जब प्रखर जिज्ञासायुक्त बालक आता है तो ‘बड़े’ को अपना बड़प्पन खतरे में जान पड़ता है. उस समय जो विवेकवान और ज्ञानार्जन की ललक को बचाए हुए है, जान जाता है कि समाज से अनुकूलन की प्रक्रिया में वह कितना कुछ पीछे छोड़ आया है. इसलिए वह बालक के बहुमुखी विकास के लिए मुक्त परिवेश रचता है. सामान्यजन बालक की बौद्धिक प्रखरता और अतीव जिज्ञासा को समझ नहीं पाते. इसलिए वे बालक पर अपना निर्णय थोपने का प्रयास करते हैं. शारीरिक रूप से बड़ों पर निर्भरता बालक को उनकी बात मानने के लिए विवश करती है. प्रारंभ में उसके मन में विद्रोहभाव पनपता है. लेकिन जब वह देखता है कि उसके मातापिता समेत आसपास के सभी लोग परिस्थितियों के आगे नतमस्तक हैं, तब वह भी समर्पण की मुद्रा में आ जाता है.

कुछ लोग कहेंगे कि समाज में रहना है तो बालक को उसके तौरतरीके भी सिखाने होंगे. इसलिए मातापिता, सगेसंबंधी गलत नहीं करते. वे वही शिक्षा देते हैं जो उसको समाजोपयोगी बनाने में मदद करे. पर क्या वे सचमुच ऐसा कर पाते हैं? क्या वे ऐसी शिक्षा दे पाते हैं जो बालक की रचनात्मकता का सदुपयोग करती हो? जो उसके मस्तिष्क को सीमाबद्ध करने के बजाय मुक्त करे! दिमाग की खिड़कियों को खोलती चली जाए! कल्पना को पंख, सोच को नववितान दे! सवाल यह भी है कि क्या बालक को उसकी स्वतंत्रता के नाम पर मनमानी करने का अधिकार दिया जा सकता है? आखिर मातापिता जिस समाज से अनुकूलन करने की शिक्षा बालक को देते हैं, वह कोई एक दिन या एक व्यक्ति की रचना नहीं. मानवीय सभ्यता, संस्कृति तथा जीवनमूल्य की गरिमा प्राप्त कर चुकी सामाजिक आचारसंहिताएं—मानवीय मेधा एक उसकी जिजीविषा के शताब्दियों लंबे का परिणाम हैं. मनुष्य और पशु में अंतर भी यही है कि मनुष्य अपने ज्ञान को सहेजता हुआ, भावी संततियों को सौंपता चला जाता है. पशु अपने ज्ञान, अनुभवादि को सहेज नहीं पाते, इसलिए शताब्दियों से वे वहीं के वहीं टिके हुए हैं, जबकि मनुष्य ने प्रगति के एक के बाद एक सोपान पार किए हैं. अनुभव संपदा को बचाए रखने के लोभ में प्रत्येक समाज विगत की बांह में बांह डालकर चलता है. भविष्य की ओर एकाएक कुलांच नहीं मारता.

बालक की समझ में यह सत्य देर से आता है. धीरेधीरे वह परिवेश को आत्मसात करने लगता है. अनुकूलन की प्रवृत्ति बढ़ती ही जाती है. लेकिन इस कोशिश में बालक की मौलिकता, उसकी सृजनात्मकता और जिज्ञासावृत्ति निरंतर कमजोर पड़ती जाती हैं. बालक की मौलिकता बनी रहे, वह अपने सृजनसामथ्र्य का अधिकतम लोककल्याण में निवेश करे, लोकहित को पहचाने—इसके लिए उपयुक्त शिक्षा जरूरी है. वह मनुष्य को समाजोपयोगी बनने में मदद करती है. लेकिन हमारे शिक्षातंत्र का ढांचा ऐसा है कि बालक के मौलिक विकास के लिए उसमें बहुत कम ‘स्पेस’ बच पाता है. बालक अपने अनुभव से सीखना, अपने विवेकानुसार उसका संवर्धन करना चाहता है. अरस्तु की माने तो जन्म के समय बालक का मस्तिष्क पूरी तरह खाली होता है. शायद इसलिए उसमें उतावलापन होता है. अनुभवों के जरिये मस्तिष्क को बोध से भर लेने की जल्दी. अनुभव और शिक्षा इसमें मददगार सिद्ध होते हैं. इसलिए अरस्तु का सुझाव था कि बच्चों को अकादमिक और व्यावहारिक शिक्षा साथसाथ दी जानी चाहिए. उसके पूर्ववर्ती विद्वान सुकरात का कहना था कि—

ज्ञान का जन्म अज्ञान की कोख से होता है, सत्य की खोज निरंतर प्रश्नाकुलता द्वारा ही संभव है.’

इसके बावजूद हम हैं कि अपने अनुभव उसपर थोप देना चाहते हैं. ग्यारहवीं शताब्दी में अरबी विद्वान इब्न सीन अरस्तु का पक्ष दोहराते हुए कहा कि जन्म के समय मानवीय बोध खाली स्लेट जैसा होता है. शिक्षा उसको परिष्कृतपरिमार्जित करती है.’ विकासक्रम के बीच मानवीय प्रज्ञा वस्तुगत चेतना से ऊपर उठती हुई सक्रिय चेतना के स्तर को प्राप्त करती है और निरंतर विकासोन्मुखी रहने के बाद ही वह बोध के उच्चतम शिखर को छू पाती है.’ सीन के विचारों को इब्न तुफैल ने अपने दार्शनिक उपन्यास ‘हाये इब्न याक्जां’ में उपयोग किया. तुफैल ने बालक को ऐसे व्यक्ति की संज्ञा दी जिसका मस्तिष्क समाज के ‘लंदफंद’ से पूर्णतः मुक्त है. उपन्यास में दर्शाया गया था कि व्यक्ति केवल अनुभव से सीखता है. इब्न तुफैल के दार्शनिक उपन्यास का लातिनी अनुवाद ‘फिलोसोफस आॅटोडेक्टस’ शीर्षक से किया गया. उस उपन्यास को प्रकाशित किया था एडबर्ड पा॓कोक ने. इस उपन्यास से प्रेरणा लेकर सतरहवीं शताब्दी में जान ला॓क ने मानवीय विवेकीकरण की प्रक्रिया पर लंबा लेख लिखा, जिसमें उसने सिद्ध किया था कि मनुष्य के ज्ञान का मूल उद्गम उसका अनुभव है. इस लेख को भरपूर ख्याति मिली और जान ला॓क का नाम अपने समय के प्रमुख दर्शनशास्त्रियों में लिया जाने लगा. लेकिन ला॓क से लगभग एक शताब्दी पहले ही मस्तिष्क को कोरी स्लेट कहे जाने के विचार की समीक्षा करते हुए शताब्दी के महान चेक शिक्षाशास्त्री जा॓न अमोस काॅमिनियस(1592-1670) ने कहा था—

यह ठीक है कि बच्चे का मस्तिष्क कोरी सलेट होता है, जिसपर हम मनचाही इबारत लिख सकते हैं. लेकिन एक अर्थ में यह उससे भी बढ़कर है. सलेट की सीमा होती है. हम उसपर उसके आकार से अधिक कोई इबारत लिख ही नहीं सकते. जबकि मानवमस्तिष्क अनंत क्षमतावान होता है. उसपर जितना चाहे लिखा जा सकता है, क्योंकि वह निस्सीम है.’

काॅमिनयस का कहना था कि बच्चे स्वभावतः अच्छे होते हैं. इतने कि उन्हें सद्गुणों की खान कहा जा सकता है. तथापि उनके व्यक्तित्व को निखारने के लिए शिक्षा अनिवार्य है. का॓मिनियस ने ये विचार उस समय और समाज में व्यक्त किए थे, जहां एक सर्वमान्य मान्यता थी कि पाप मनुष्य के साथ उसके जन्म से जुड़ा है. पापपंक से उबारने के लिए शिक्षा (धार्मिक) अनिवार्य है. इस मान्यता के चलते तत्कालीन समाज में शिक्षा के नाम पर बलप्रयोग सामान्य बात थी. अपनी पुस्तक ‘डाइडेक्टिा मेग्ना’, जिसका अभिप्राय संपूर्ण शिक्षणकला से है, में का॓मिनियस ने शिक्षापद्धति को लेकर मौलिक विचार प्रस्तुत किए गए थे. उसका कहना था कि न केवल अमीर और ताकतवर वर्ग के बच्चों, बल्कि गांवों, कस्बों, शहरों में रहने वाले अभिजात और सामान्य, गरीब और अमीर, झोपड़ियों और अट्टालिकाओं के सभी लड़केलड़कियों को शिक्षा के लिए अनिवार्यतः स्कूल जाना चाहिए. ये विचार तत्कालीन यूरोपीय समाज में क्रांतिकारी थे. काॅमिनियस की पुस्तक वर्षों तक कई यूरोपीय भाषाओं में बेस्टसेलर बनी रही.

बीसवीं शताब्दी में बालकों के मन को समझा मारिया मानटेसरी ने. पेशे से डा॓क्टर मारिया को जिम्मेदारी सौंपी गई, मानसिक रूप से कमजोर बच्चों की देखभाल की. वह बच्चों के कुदरती हुनर को निखारकर उनकी प्रतिभा को तराशने में विश्वास रखती थी. वह अक्सर कहती—‘शिक्षा वह नहीं जो अध्यापकगण देते हैं; या जो तय पाठ्यक्रम द्वारा उपलब्ध कराई जाती है. शिक्षा तो व्यक्तिमात्र द्वारा किया जाने वाला नैसर्गिक उपक्रम है, जो कक्षा में पढ़ानेभर से पूरा नहीं हो जाता, बल्कि जीवनभर चलता रहता है. शिक्षाचक्र को पूरा करने के लिए परिवेश के संपूर्ण साक्षात्कार अनिवार्य है.’ मारिया का मानना था कि शिक्षण के पुनीत कर्तव्य को समर्पित शिक्षक को अपने विद्यार्थी की वैसे मदद करनी चाहिए, जैसे नौकर अपने स्वामी की करता है. लोग मारिया के प्रयोगों का मखौल उड़ाते. आरोप लगाते कि अर्धविक्षिप्त और मानसिक विकलांगता के शिकार बच्चों की शिक्षा पर वह अपना श्रम और सरकार का धन वृथा लुटा रही है. आलोचनाओं से निस्पृह, धुन की पक्की मारिया अपने प्रयासों में जुटी रही. उसको पहली सफलता उस समय मिली जब मानसिक रूप से विकलांग उसके कई विद्यार्थियों ने राज्य स्तरीय परीक्षा न केवल पास की, बल्कि औसत विद्यार्थियों से अधिक नंबर लाकर उस समय के शिक्षाविज्ञानियों को चकित कर दिया था. कुछ वर्ष पहले आई आमिर खान की चर्चित फिल्म ‘तारे जमीन पर’ के दर्शील सफारी का चरित्र का कांसेप्ट मारिया के छात्रों से लिया गया है.

मारिया ने जो काम इटली में किया भारत में उसको अंजाम देने वाले थे, गिजुभाई. उनके प्रशंसक उन्हें ‘मूंछों वाली मां’ कहते थे. गिजु भाई बापू के भक्त ठहरे. उनके साथ दक्षिण अफ्रीका में वकालत करते. उन्हीं की प्रेरणा से रचनात्मक कार्यों से नेह लगा. बापू भारत लौटने लगे तो जमीजमाई वकालत छोड़ गिजु भाई ने भी स्वदेश की राह ली. भारत आकर बापू तो राजनीति में लग गए. उनका काम बड़ा था. पर गिजुभाई क्या करें? उन्होंने बापू से बात की. बापू ने गिजु भाई को बच्चों को शिक्षित बनाने का काम दिया. एक न एक दिन अंग्रेजों को यह देश छोड़कर जाना ही होगा. उस समय राष्ट्र निर्माण की जरूरत होगी. नई पीढ़ी को नए सोच और चुनौतियों से निपटने योग्य बनाना है. बापू का निर्देश पाकर गिजु भाई अपने काम में जुट गए. बच्चों को पढ़ाना साधारणजन की निगाह में भले मामूली काम हो. लेकिन नई सृष्टि के जरूरी है नई दृष्टि की. सोच रचनात्मक सोच हो तो मामूली चीजों को भी विशिष्ट बनाया जा सकता है. फिर गांधी का कोई शिष्य अरचनात्मक हो ही नही सकता था. गिजुभाई भी परंपरा से होते आए को दोहराते तो भला कौन उनको याद रखता!

बापू की सलाह पर गिजु भाई ने टूटेफूटे सरकारी स्कूल को अपनी प्रयोगशाला बनाया. वे गाकर, नाचकर, झूमझूम कर, किस्साकहानी सुनाकर बच्चों को शिक्षा देने लगे. परिणाम उम्मीद से सवाया निकला. पहले बच्चे स्कूल के नाम से कन्नी काटते, सीखने से भागते थे. अब भागभागकर विद्यालय आने लगे. गिजु भाई ने अपने गीतों और किस्सोंकहानियों के माध्यम से बच्चों को एक साल में उतना सिखा दिया, जितना दूसरे अध्यापक पांचसात वर्षों भी नहीं सिखा पाते थे. उन दिनों मारिया मांटेसरी की यूरोप में धूम मची थी. गिजु भाई ने भारत का पहला बाल मन्दिर मांटेसरी पद्धति से दक्षिणामूर्ति भावनगर में खोला. कामयाबी मिलने लगी. गिजु भाई की उपलब्धियों से आह्लादित बापू ने एक बार कहा था—‘गिजु भाई का बच्चों के लिए काम मेरे काम से भी बड़ा है.’

गिजु भाई कहानियों को बालशिक्षण का महत्त्वपूर्ण औजार मानते थे. कहानी सुनाना आसान काम नहीं. यह भी एक कला है. आनंद बांटते हुए आनंदमग्न होने और आनंद लूटने की कला. गिजुभाई कहते थे कि कहानियों को असरदार बनाना उन्हें सुनाने वाले पर निर्भर करता है….कहानी को—‘आप रसीले ढंग से कहिए. कहानी सुनाने के लहजे से कहिए. कहानी भी ऐसी चुनें, जो बच्चे की उम्र से मेल खाती हो. कहानियां आप बच्चों को रटाना नहीं. बल्कि, पहले आप खुद अनुभव करें कि ये कहानियां जादू की छड़ीसी हैं….यदि आपको बच्चों के साथ प्यार का रिश्ता जोड़ना है तो उसकी नींव कहानी से डालें. यदि आपको बच्चों का प्यार पाना है तो कहानी भी एक जरिया है. लेकिन पंडित बनकर भी कहानी नहीं सुनाना. कील की तरह बोध ठोकने की कोशिश कभी न करना. कभी थोपना भी नहीं. यह तो बहती गंगा है. इसमें पहले आप डुबकी लगाएं, फिर बच्चों को भी नहलाएं.’

ज्ञान की मौलिकता को बचाने की. उसको संवर्धितसंरक्षित करने की कोशिश समयसमय पर अनेक विद्वानों ने की है. इसके बावजूद बच्चे पर अपना बोध थोपने की, उसके साथ मनमानी करने की कोशिश होती रही है. समाज में व्याप्त बौद्धिक जड़ता, हताशा, नाउम्मीदी और विवेकहीनता का एक कारण यह भी है कि हम नएपन से घबराते हैं. उसको मुश्किल मानकर लीक पर घिसटते जाते हैं. और बालक जो नए सपने, नई ऊर्जा, नया जोश और नए संकल्प लेकर इस दुनिया में आता है उसको भी उसी लीक पर ला पटकने की कोशिशों में लगे रहते हैं. जन्म के साथ ही स्थितियों से समझौते की, चुनौतियों से पलायन की आदत उसमें डाल देते हैं. हम स्वयं को आसानी से नहीं बदल सकते. बदलना चाहें तो एकाएक वह संभव भी नहीं है. लेकिन यदि हम समाज को बदलना चाहते हैं, यदि हम अपनी आंखों में कुछ बेहतरीन ख्बाव सजाना चाहते हैं तो हमें केवल इतना करना होगा कि बच्चों के बोध को मुक्त कर दें. उन्हें उनके सोच का विस्तृत वितान दें. इस समाज को बदलते तब देर नहीं लगेगी. समय हमारी मुट्ठी में भले न हो, लेकिन बालक समय को अपनी मुट्ठी में लेकर आता है. यह हम ही जो समय पर उसकी पकड़ को ढीला करने का अवरत प्रयास करते रहते हैं. इस बात से अनजान की हमारी यह आदत आने वाली पीढ़ियों को ज्ञान की नई रोशनी से वंचित कर देती है.

ओमप्रकाश कश्यप

श्रमिकसंघवाद (‘सिंडीकेलिज्म’)

समाजवाद के आधुनिक विकल्प

पूंजीवाद के वर्चस्वकारी रवैये की प्रतिक्रिया में उससे मुक्ति पाने के जनांदोलनों की शुरुआत अठारहवीं शताब्दी में ही हो चुकी थी. यही वह दौर था, जब व्यक्तिस्वातंत्रय और उपयोगितावाद की मांग ने जोर पकड़ा. दोनों विचारधाराओं का ध्येय धर्मसत्ता और सामंतवाद के चंगुल में शताब्दियों से पिसते आ रहे जनसामान्य के लिए मुक्ति की राह प्रशस्त करना था. दोनों समाजवाद की मूल भावना से भी मेल खाती थीं, जो उन दिनों पूंजीवाद के विरुद्ध तेजी से उभरती विचारधारा थी. उपयोगितावाद के समर्थकों का मानना था कि सृष्टि में कुछ भी अनुपयोगी नहीं है. सुख प्राप्त करना व्यक्तिमात्र का अधिकार है. इसे आगे बढ़ाते हुए स्वाधीनतावादी विद्वान व्यक्तिमात्र को अपनी रुचि के अनुसार कार्य चुनने तथा सुख के अवसर जुटाने के अवसर देने के समर्थक थे. उल्लेखनीय है कि विश्व के प्रायः सभी समाजों में बुद्धिजीवियों का एक वर्ग भौतिक सुख के प्रति नकारात्मक सोच रखते हुए, त्याग और दीनताबोध का अतिरिक्तरूप से महिमामंडन करता रहा है. इससे संसार को माया कहकर इससे पलायन का उपदेश देने वाले, मोक्ष की कामना में शरीर को तरहतरह की प्रताड़ना देने वाले तांत्रिकों, धर्माचार्यों को बढ़ावा मिला. इसी विचारधारा के समर्थन से प्रायः सभी समाजों में पुरोहितवर्ग का उदय हुआ जो प्रकटरूप में भौतिक सुखों का तिरष्कार करते थे, किंतु उनका अपना जीवन त्यागतपश्चर्य की स्वनिर्मित आचारसंहिता का उल्लंघन करता था. यहां यह जानना भी प्रासंगिक है कि व्यक्तिस्वातंत्र्य की मांग सामंतवाद के चंगुल में शताब्दियों से पिसते आ रहे लोगों को देखकर जन्मी थी, जिसने बुद्धिजीवियों के बड़े वर्ग को प्रभावित किया. प्रकारांतर में उसको पूंजीवाद का भी भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ. दरअसल पूंजीवाद के विकल्प की खोज के लिए बुद्धिजीवियों का उछाह इतना था कि एक के बाद एक नई विचारधाराएं सामने आ रही थीं. ध्येय सभी का एक थाकिसी भी भांति पूंजीवाद के जिन्न को बोतल में बंद करना. साम्यवाद, समाजवाद, अराजकतावाद, सामूहिकतावाद, राज्यप्रेरित समाजवाद, गणतांत्रिक समाजवाद सहित अनेक विचारधाराएं उस दौर में लगभग साथसाथ जन्मीं. चूंकि सभी विचारधाराओं का ध्येय एक था तथा सभी पर मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव भी था, इसलिए उन सब में कुछ समानताएं भी थी. कुछ विचारधाराओं का अंतर तो इतना मामूली कि बस शब्दों का ऐरफेर जान पड़ता है. ‘श्रमिकसंघवाद’ अथवा ‘सिंडीकेलिज्म’ इसी प्रकार की एक विचारधारा थी, जिसका उदय राज्याश्रित समाजवाद तथा पूंजीवादी शोषण से मुक्ति पाने की कामना के साथ हुआ था. असल में यह एक राजनीतिकआर्थिक दर्शन है, जिसका ध्येय समाज को पूंजीवाद के चंगुल से छुटकारा दिलाना है. प्रकारांतर में यह व्यवस्था राज्य द्वारा पे्ररितअनुशासित समाजवाद का भी विरोध करती है. अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए श्रमिकसंघवाद श्रमिक संघों, मजदूर संगठनों तथा औद्योगिक श्रमिकयूनियनों का उपयोग करता है. इसमें श्रमिक आगे बढ़कर उत्पादनतंत्र को अपने हाथों में ले लेते हैं. उत्पादन केंद्रों का संचालन श्रमिकों द्वारा सामूहिक लाभ की अवधारणा के साथ किया जाता है, जहां औद्योगिक स्पर्धा, एकाधिकार की भावना का नामोनिशां नहीं होता. अराजकतावाद की भांति श्रमिकसंघवाद भी राज्य को मानवीय स्वतंत्रता का अवरोधक मानता है. उसका विश्वास है कि सत्ता का कोई भी रूप वर्चस्वकामना से मुक्त नहीं हो सकता. जहां वर्चस्व की कामना है, वहां आर्थिकसामाजिक असमानताएं हैं. जहां असमानता है, वहां शोषणकारी प्रवृत्तियां हैं. जहां शोषणकारी प्रवृत्तियां हैं, वहां शोषणकारी शक्ति के प्रतीक सत्ताशिखर पर विराजमान लोग, राज्य के संसाधनों का अपने वर्गीय हितों के अनुरूप दोहन करने लगते हैं. कालांतर में राज्य पूंजीवाद का सहायक बनकर, श्रमिकों का विरोधी बन जाता है. इसलिए राज्यसत्ता का विरोध करते हुुए श्रमिकसंघवाद, उसे श्रमिक संगठनों के लोकतांत्रिक संगठनों द्वारा अनुशासित किए जाने का सुझाव देता है.

सिंडीकेलिज्म’ फ्रांसिसी शब्द है, जिसका अर्थ है—‘व्यापारिक संगठनवाद’. यानी वह विचारधारा जो संगठित श्रमशक्ति, जो वास्तविक उत्पादक और उपभोक्ता है, द्वारा राज्य और पूंजीवाद की मनमानियों से ऊपर उठकर समस्त आर्थिकराजनीतिक सत्ताकेंद्रों पर अधिकार जमा लेने का पक्ष लेती है तथा उत्पादन को संगठन के हित में उपयोग करने का समर्थन करती है. बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में इसे अराजकतावादीश्रमिकसंघवाद भी कहा जाने लगा था. ‘श्रमिकसंघवाद’ राज्य और पूंजीवाद दोनों की अधिसत्ता के विरुद्ध है. उसका प्रथम लक्ष्य है, राजनीति के बजाय व्यवसाय के नाम पर व्यक्तियों और संगठनों को एकजुट करना, तदनंतर आमूल परिवर्तन के हेतु सदैव तैयार रहना. इस विचारधारा के अनुसार आर्थिक अल्पतंत्र तथा राज्य प्रेरित अधिनायकवाद से मुक्ति के लिए श्रमसंगठन सर्वाधिक सशक्त माध्यम हैं. बहुसंख्यक श्रमिक वर्ग के हितों की रक्षा केवल उनकी संगठित शक्ति और लोकतांत्रिक निर्णयप्रक्रिया द्वारा संभव है. उत्पादन कार्य श्रमसंगठनों के परस्पर सहयोग और श्रमअंतरण के आधार पर संपन्न किया जाए तो उसके बेहतर परिणाम निकलेंगे.

श्रमसंगठनवाद का जन्म फ्रांस में राजनीति प्रेरित समाजवाद के विरोधस्वरूप हुआ था. अल्प समय में ही विश्वभर के समाजवादी दलों ने स्वयं को इसको जोड़ लिया. ‘सिंडीकेलिज्म’ के माध्यम से सभी का एक ही ध्येय था, श्रमिक संघों को संगठन एवं क्रांति के लिए प्रेरित करना और उनकी सहायता से पूंजीवाद को उखाड़ फेंकना. तदनंतर ऐसी समानताधर्मी व्यवस्था का गठन करना जिसमें श्रमिक को उसके द्वारा किए गए कार्य का पूरा पारिश्रमिक प्राप्त हो सके. श्रम के प्रति सम्मान की भावना हो तथा शारीरिकबौद्धिक श्रम के बीच कहीं भी, किसी भी प्रकार का स्तरीकरण जन्म न ले सके. ‘श्रमिकसंघवाद’ की समानधर्मा विचारधारा समाजवाद गणतंत्र का पक्ष लेती थी, वह राज्य को यह अधिकार देती थी कि वह समस्त संसाधनों पर अधिकार कर, लोगों से उनकी क्षमता के अनुरूप काम लेते हुए, उन्हें उनकी आवश्यकता के अनुसार समिधा उपलब्ध कराए. समाजवाद लोकतंत्र और राज्य दोनों का समर्थक था. श्रमिक संघवाद के समर्थकों को लगता था कि राज्य अपने कर्तव्य का पालन करने में असमर्थ रहा है. गणतांत्रिक प्रक्रिया के सहारे सत्ता में आए कथिक सेवाव्रती नेतागण बहुत शीघ्र अपना कर्तव्य भूल जाते हैं. इसलिए श्रमिकसंघवाद राज्य और संसदीय गणतंत्र दोनों का निषेध करता है. इसके स्थान पर वह समस्त सत्ता श्रमिकसंघों को सौंपे जाने का पक्ष लेता है. समाजवाद, अराजकतावाद और समाजवाद की भांति श्रमिकसंघवाद भी मानता है कि श्रमिक वास्तविक उत्पादक हैं, इसलिए उत्पादन का लाभ उनको मिलना ही चाहिए. श्रमिकसंघवाद का विकास समाजवादी ढांचे की असफलता के फलस्वरूप हुआ था. जर्मनी में वामपंथी आंदोलन उनीसवीं शताब्दी में ही जोर पकड़ चुका था. लेकिन इसी शताब्दी के अंत तक समाजवादी नेताओं के बीच तीखे मतभेद जन्म ले चुके थे. 1912 के चुनावों में वहां सोशिलिस्ट पार्टी को एकतिहाई सीटें मिली थीं. समाजवादी धड़ों की इस सफलता में पुनरुत्थानवादी लेखकविचारक आ॓गस्ट बेबल का बड़ा योगदान था. उसकी मृत्यु के उपरांत समाजवादी दलों में फूट पड़ने लगी थी, जिससे ‘जर्मन सोशिलिस्ट’ पार्टी दो हिस्सों में बंट गई. इससे समाजवादी आंदोलन को तात्कालिक रूप से धक्का पहुंचा.

मार्क्स ने अपने जीवन के अंतिम दिन इंग्लेंड में बिताए थे. वहीं रहकर उसने अपने वृहदग्रंथ ‘पूंजी’ का लेखन भी किया था. इसके बावजूद वह इंग्लेंड में मार्क्सवाद का बहुत कम प्रभाव छोड़ पाया था. पूंजीवाद को जोरदार टक्कर देने के लिए वहां सहकारिता आंदोलन पनपा था, जिसने दुनियाभर के परिवर्तनकामियों नेताओं, विचारकों, लेखकों, साहित्यकारों और कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया था. 1848 में जब मार्क्स कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो द्वारा श्रमिकों को नए सिरे से एकजुट होने और संगठित विरोध के आवाह्न कर रहा था, इंग्लेंड ‘रोशडेल पायनियर्स’ के नेतृत्व में सहकार की सफल, अहिंसक, परस्पर सहयोगकारी, लोकतांत्रिक डगर पर कदम बढ़ा चुका था. यूरोपीय देशों में चल रहे समाजवादी आंदोलनों से फ्रांस भी अछूता नहीं था. रूसो, चाल्र्स फ्यूरियर, प्रूधों जैसे महान विचारकों जिन्होंने पूंजीवाद विरोध की वैश्विक पृष्ठभूमि तैयार करने का काम किया, वहीं जन्मे थे. श्रममुक्ति एवं श्रमस्वालंबन के लिए चलाए जा रहे आंदोलन के फलस्वरूप फ्रांस में जो समाजवादी आंदोलन जन्मा, उसपर प्रूधों का काफी प्रभाव था. उसको वहां पर ‘क्रांतिकारी श्रमिकसंघवाद’ अथवा ‘श्रमिकसंघवाद’ कहा गया, जो कालांतर में केवल श्रमिकसंघवाद के नाम से पहचाना जाने लगा. नए नाम के बावजूद श्रमिकसंघवाद समाजवाद की प्रारंभिक स्थापनाओं के बेहद करीब था. श्रम, सहयोग, एकता, अखंडता और सीधी कार्रवाही और लोकतांत्रिक संगठन उसके प्रमुख उद्देश्य थे, हालांकि इसमें कुछ सैद्धांतिक कमजोरियां भी थीं. वहीं इसके विकास में अवरोधक बनीं.

अराजकतावाद और समाजवाद यह व्यवस्था करते हैं कि एक बार सत्ताकेंद्रों पर अधिकार जमा लेने के बाद समाजवादी विचारधारा के अनुकूल संस्थाओं का गठन किया जाएगा, जो प्रकारांतर में अर्थिक एवं राजनीतिक गतिविधियों को संभाल लेंगी. उनसे भिन्न श्रमिकसंघवाद श्रमिकसंघों को महत्त्वपूर्ण दायित्व सौंपे जाने का पक्ष लेता है. वह नए श्रमसंगठनों का गठन करने तथा कार्यरत श्रमिकसंघों को अधिक अधिकार दिए जाने का समर्थन करता है. अपने इसी सोच के अनुरूप उसने अपनी सैद्धांतिकी विकसित की थी, जिसके आधार पर फ्रांस में श्रमिकसंघवाद की नींव रखी गई. इसके आशय को समझने के लिए फ्रांस के व्यापारिक संघों, संगठनों की गतिविधियों पर विचार करना प्रासंगिक होगा. फ्रांस में श्रमिकसंघवाद का उदय असल में वहां की आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों की देन था. अराजकतावादी बकुनिन के समर्थकों का भी उनमें प्रमुख योगदान था. उन्हीं के प्रभावस्वरूप फ्रांस में ‘प्रथम इंटरनेशनल’ को अप्रत्याशित सफलता प्राप्त हुई थी. 1869 में ही ‘प्रथम इंटरनेशनल’ के फ्रांसिसी सदस्यों की संख्या 2,50,000 को पार कर चुकी थी. जाहिर है कि अपनी संगठित शक्ति के बल पर श्रमिक संगठनों का आत्मविश्वास बहुत बढ़ा हुआ था. इसका पहला सुखद परिणाम 1871 की पेरिस क्रांति के रूप में सामने आया. लेकिन बिना किसी पूर्वयोजना के एकाएक सत्ताशिखर पर काबिज हुए श्रमसंगठन लंबे समय तक अपनी स्थिति को बनाए नहीं रह सके; और ‘पेरिस कम्यून’ का वह प्रथम समाजवादी प्रयोग तीन महीने से भी कम समय में विफल हो गया. बहरहाल फ्रांसिसी श्रमिक आंदोलन की उपलब्धियों से इन्कार नहीं किया जा सकता. यह स्थिति तब थी, जब फ्रांसिसी समाजवादी आंदोलन स्वयं कई विचारधाराओं और गुटों में बंटा था तथा फ्रांस और जर्मनी के बीच युद्ध के कारण उसमें 1870—1877 के बीच बड़ा व्यवधान आ चुका था. 1875 के आसपास फ्रांसिसी समाजवादी आंदोलन के दो प्रमुख धड़े थे. एक धड़ा संसदीय लोकतंत्र के समर्थकों का था और दूसरा ‘साम्यवादीअराजकतावादी’ विचारकों का. दूसरा धड़ा राज्य को अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सबसे बड़ा दुश्मन मानता था. वे संसदीय लोकतंत्र में चारों से उठ रही सुधारवाद की मांगों की यह कहकर उपेक्षा करते आ रहे थे कि सामाजिक क्रांति के माध्यम से राज्य को सदा के लिए खत्म किया जा सकता है. जब राज्य ही नहीं रहेगा तो संसदीय सुधारों का भी कोई अर्थ ही न रह जाएगा. राज्यसत्ता के विरोधी विचारक दूसरों से संख्याबल में भले ही कम हों, परंतु बौद्धिक प्रखरता में वे अपने प्रतिपक्षियों से कहीं आगे थे. उनमें पू्रधों और बकुनिन प्रमुख थे. उनके विचारों के फलस्वरूप फ्रांस में समाजवादी आंदोलन को भारी सफलता तो मिली थी, लेकिन वह अपने ही अंतर्विरोधों का शिकार होकर रह गया. समाजवादियों का वह धड़ा जो यह मान रहा था कि समाजवादी विचारधारा पर आधारित समाज की स्थापना के पश्चात राज्य नेपथ्य में चला जाएगा, वह स्वयं भारी अंतद्र्वंद्वों का शिकार था. परिणाम यह हुआ कि 1882 में समाजवादी आंदोलनों दो धड़ों में विभाजित हो गया. एक का नेता ज्यूस्ड को बनाया गया. मार्क्स के विचारों का समर्थक ज्यूस्ड अवसरवादी राजनीतिज्ञ पा॓ल बूस का अनुयायी था. मार्क्सवाद को वह वहीं तक अपनाना चाहता था, जहां तक वह उसकी स्वार्थसिद्धि में सहायक हो. 1890 तक आतेआते बूस के साथ उसके जैसे स्वार्थी, कट्टरपंथी और अवसरवादी नेता जुड़ते चले गए. दूसरा वर्ग स्वतंत्र समाजवादियों का था, जिनमें जोर्स, विवायनी, मिलरेंड आदि सम्मिलित थे.

दोनों धड़ों के बीच विवाद लगातार बढ़ते ही जा रहे थे. इससे फ्रांसिसी का परेशान होना स्वाभाविक था. अंततः श्रमसंगठनों ने आपसी सहमति से एक युगांतरकारी निर्णय लिया, जिसके द्वारा श्रमिकहितों को राजनीति से दूर रखने का निर्णय लिया गया. इसके अनुकूल परिणाम कुछ ही समयावधि में सामने आने लगे. आगे चलकर इससे श्रमिक संगठनों को नई ताकत और ऊर्जा हासिल हुई. प्रकारांतर में यही घटना श्रमिकसंघवाद के उद्भव का कारण बनी. बदलती वैश्विक परिस्थितियों ने 1905 में फ्रांसिसी समाजवादी पार्टी के दोनों धड़ों को फिर से एक हो जाने के लिए बाध्य कर दिया. इसका परिणाम ‘यूनाइटेड सोशियलिस्ट पार्टी’ के रूप में सामने आया. उस समय कुछ बुद्धिजीवी ऐसे भी थे जिन्होंने किसी पार्टीविशेष से जुड़ने के बजाय स्वतंत्र रहना पसंद किया था. 1914 में चुनावों में ‘यूनाइटेड सोशियलिस्ट पार्टी’ को 102 सीटें मिली. उनके अलावा 30 समाजवादी निर्दलीय जीतकर आए. दोनों की सम्मिलित संख्या 132, कुल 590 सीटों में बहुमत के अनुसार कम थी, तो भी वह समाजवादी खेमे की अप्रत्याशितअभूतपूर्व विजय थी, जिसने फ्रांस में समाजवादी विचारधारा को पांव जमाने में मदद मिली. समाजवादी होना, फ्रांस की राजनीति में प्रवेश करने के लिए अनिवार्य होता चला गया. लेकिन विडंबना यह रही थी कि समाजवादी झंडे के नीचे चुनाव लड़कर संसद में पहुंचे नेतागण अपने आचरण और व्यवहार में समाजवादी विचारधारा के क्रमशः दूर होते जाते थे. राजनेता ही क्यों पत्रकारों का भी यही हाल था. समाजवादी पत्रिका के संपादक मिर्लेंड का चरित्र तो मानो राजनीतिक अवसरवाद का पक्का उदाहरण था. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि श्रमिक वर्ग के हितों की राजनीति करने वाले नेताओं का राजनीति से मन उचटता चला गया और वे संगठन की ओर वापस लौटने लगे. इसके फलस्वरूप श्रमिकसंघवाद को नएनए क्षेत्रों में पांव जमाने का अवसर मिला—श्रमिकसंघवाद की दृढ़ मान्यता थी कि श्रमिक वर्ग ही प्रमुख उत्पादक शक्ति है. यह पूंजीवाद की उस अवधारणा का विरोध करता था, जो उसको मात्र उपभोक्ता मानती आई है. उसके नेताओं का जोर कार्य की परिस्थितियों में सुधार के साथ उद्योगों को पुनर्गठित करने पर था—

वह औद्योगिक कार्रवाही को राजनीतिक कार्रवाही के विकल्प के रूप में स्थापित करना तथा विभिन्न व्यापारसंघों एवं श्रमिक संगठनों को ऐसे उद्देश्यों के निमित्त उपयोग करना चाहता था, जिन्हें पारंपरिक समाजवाद संसदीय लोकतंत्र के माध्यम से पूरा करने का सपना देखता रहा है.’

फ्रांस में ‘सिंडीकेलिज्म’ शब्द असल में ट्रेड यूनियनिज्म के पर्याय के रूप में प्रयोग किया जाता है. आगे चलकर फ्रांसिसी श्रमिक संगठनवादी दो भागों में बंटते चले गए. पहला वर्ग सुधारवादियों का था, जो वर्तमान व्यवस्था को ही श्रमिकोन्मुखी एवं उदार बनाना चाहते थे. दूसरा वर्ग क्रांतिधर्मा ‘ट्रेड यूनियनिस्ट’ का था. उनका मानना था कि राज्य की मनमानी के चलते श्रमिक कल्याण के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर पाना असंभव है. इसके लिए श्रमिक संघों को राजनीतिक संस्थाओं के विकल्प के रूप में इस्तेमाल करना होगा. यह दूसरा वर्ग ही आधुनिक ‘सिंडीकेलिज्म’ से संबद्ध माना जा सकता है. फ्रांसिसी श्रमिकसंघवादियों का मूल संगठन 1895 में स्थापित ‘कन्फेडरेशन जनरल आॅफ लेबर’ था, जिसमें आरंभ में 700 से अधिक मजदूर संघ सम्मिलित थे. उनके सदस्यों की संख्या लाखों में थी. इसके बावजूद इस संगठन के महत्त्व को 1902 में ही स्वीकारा जा सका. आरंभ में उसके सदस्यों की संख्या सीमित ही थी—लगभग पांच लाख. परंतु युद्ध की संकटकालीन परिस्थितियों में उसने अपने हजारों समर्थक पैदा कर लिए थे. वाल्डेक रूसो ने 1884 में श्रमिकसंघों को मान्यता देकर ‘श्रमिकसंघवाद’ को नई पहचान दी. उसके बनाए गए कानून में प्रत्येक श्रमिकसंघ की स्वायत्तता को, चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा, उसकी सदस्य संख्या से निरपेक्ष रहते हुए, महत्त्व दिया गया था. प्रत्येक श्रमिकसंघ में राजनीति से दूर रखने का निर्णय लिया गया था. इस निर्णय के पीछे मान्यता थी कि समाजवादी विचारधारा के बीच राजनीति की घुसपैठ संगठन को तोड़ने का काम करेगी. श्रमिकसंघवादियों की मान्यता थी कि कि वर्गसंघर्ष की लड़ाई औद्योगिक प्रविधियों द्वारा लड़ी जानी चाहिए, न कि राजनीतिक प्रविधियों द्वारा. ये औद्योगिक माध्यम क्या हो सकते हैं, इनके लिए उसने औद्योगिक हड़ताल, धरना, प्रदर्शन, पोस्टर और प्रचार को चुना है. उसके अनुसार तोड़फोड़ की कारर्वाही, मशीनरी को नुकसान पहुंचाना असल में श्रमविरोधी कार्रवाही हैं. इससे औद्योगिक संपदा को तो नुकसान पहुंचता ही है, श्रमिक संघों की ऊर्जा का भी दुरुपयोग होने लगता है, जो श्रमिकों में नकारात्मक भावनाएं जगाता है. श्रमिकसंघवाद की सफलता समस्त श्रमिकों, कामगारों, शिल्पकर्मियों को एक बड़े संगठन में ढाल देने तथा उसका अपने वर्गीय हितों के अनुसार उपयोग करने में निहित है. ऐसा संगठन जो नौकरशाही को जन्म देने वाली प्रत्येक व्यवस्था का विरोध करता है, और इस प्रकार वह जनकल्याण एवं विकास से जुड़ी समस्त गतिविधियों पर अपना नियंत्रण रखता है. नौकरशाही और पूंजी के वर्चस्व का निरंतर विरोध करते हुए वह संगठन पूंजीवाद के निर्मूलीकरण की ओर अग्रसर होता है. मानवीय स्वभाव की भिन्नता के आधार पर श्रमिकसंघवादी विचारककार्यकर्ता यह मानते हैं कि आम श्रमिक क्रांतिकारी नहीं हो सकता. आवश्यकता पड़ने पर उसे हड़ताल के लिए प्रेरित अवश्य किया जा सकता है. जिसके माध्यम से क्रांति के लक्ष्य को अपेक्षाकृत आसानी से प्राप्त किया जा सकता है.

श्रममुक्ति के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए श्रमिकसंघवादियों की योजना क्या है? किस प्रकार वे अराजकतावाद और समाजवाद से भिन्न हैं? अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वे कौनसा मार्ग अपनाते हैं? जैसे कुछ प्रश्नों को जानने की जिज्ञासा यहा स्वतः उत्पन्न हो जाती है. श्रमक्रांति के ये पक्षकार हिंसक क्रांति का समर्थन नहीं करते अपनी लक्ष्यसिद्धि के लिए श्रमिकसंघवादी अभी तक हड़ताल का सहारा लेते आए हैं. कहा जा सकता है कि यही उनका सबसे ताकतवर हड़ताल है. विशेष उद्देश्य के लिए विशिष्ट हड़ताल, जिसको वे पूर्वाभ्यास कहते हैं. यह पूर्वाभ्यास एकजुट होकर संगठन में उत्साह भरने तथा उसके सदस्यों को अपने अधिकारों के प्रति सचेत करने के लिए आवश्यक होता है. संघर्ष में सफलता की स्थिति से भी वे संतुष्ट नहीं होते. श्रमिकसंघवादी मानते हैं कि हड़ताल अथवा पूर्वाभ्यास द्वारा उनका लक्ष्य सिर्फ तात्कालिक मांगें पूरे किए जाने तक सीमित नहीं है. न ही वे मालिकमजदूरों के संबंध में सुधार को अपना लक्ष्य मानते हैं. उनका वास्तविक उद्देश्य पूर्वाभ्यास अथवा हड़ताल के माध्यम से उद्योगों से स्वामित्व की परंपरा को पूरी तरह समाप्त कर, संपूर्ण श्रममुक्ति होता है. उनका लक्ष्य होता है कि हड़ताल द्वारा उत्पादन को पूरी तरह ठप्प कर, पूंजीवाद की रीढ़ तोड़ दी जाए. तदनंतर उद्योगतंत्र पर अपना अधिकार कर, उसका संचालन श्रमकल्याण के मानकों के अनुरूप किया जाए. जहां उत्पादनकर्म लाभ के लिए न होकर सदस्यगणों की आवश्यकता के अनुसार हो. उत्पादनवितरण दौरान किसी भी प्रकार के आर्थिक विषमता घटना को न पनपने दिया जाए, बल्कि जिन क्षेत्रों में पहले से ही आर्थिक असमानता व्याप्त है, वहां उसकी खाई को पाटने के समुचित प्रयत्न किए जाएं.

श्रमिकसंघवाद के व्याख्याकार जार्ज सोरेल(2 नवंबर, 1847—29 अगस्त 1922) उसको ऐसे मिथक के रूप में जनमानस में स्थापित करना चाहता था, जो समाजवाद की स्थापना के लिए अपरिहार्य है. यह मानते हुए कि जनसाधारण की धर्म के प्रति गहरी अभिरुचि होती है, उसने आमहड़ताल को एक ऐसी पौराणिक कथा के रूप में समझने की सलाह दी थी, जिसमें भरपूर आशावाद और मानवकल्याण की संभावना निहित होती है. सोरेल के तर्क को सीधी कार्रवाही में विश्वास रखने वाले श्रमिकसंघवादियों ने पूरी तरह नकार दिया था. उनका कहना था कि यदि आमहड़ताल को मात्र गल्पकथा अथवा मिथक मान लिया तो हड़ताल में जुटे आंदोलनकारियों की संपूर्ण ऊर्जा ही निरर्थक चली जाएगी. लोग उसका व्यर्थ महिमामंडन करेंगे. हो सकता है भावुक प्रवृत्ति के लोग उन मिथकों की अतिश्योक्तिपूर्ण व्याख्या करते उन्हें अपनी स्मृति का स्थायी हिस्सा बनाने का प्रयास करें, लेकिन मिथकीकरण की कृत्रिमता में श्रमसंघवादी आंदोलन अंततः निस्तेजनिष्प्रभ ही होगा. श्रमिकसंघवाद की आलोचना कर रहे कुछ समाजवादी विचारकों का मानना था कि पूंजीवाद के विरुद्ध लड़ाई संसदीय बहुमत प्राप्त करके ही जीती जा सकती है. इसके लिए श्रमिकों में लोकतांत्रिक चेतना का उदय आवश्यक है, ताकि वे राजनीति में अपने प्रतिनिधि उतार सकें अथवा चुनाव मैदान में पहले से मौजूद प्रतिनिधियों में से अपने वर्गीय हितों के समर्थक प्रतिनिधियों का चयन कर सकें. वे हड़ताल द्वारा सरकार पर दबाव बनाए जाने की श्रमिकसंघवादियों की रणनीति का विरोध करते थे. दूसरी ओर अधिकांश श्रमिकसंघवादियों के लिए नेताओं की कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी ही संद्धिग्ध थी. वे ऐसे किसी भी सुधार का विरोध करते थे, जिसमें राज्य और राजनीतिज्ञों की भागीदारी हो. और इस प्रकार वे प्रकारांतर में अराजकतावाद का समर्थन करते थे. हालांकि वे अपने लक्ष्यों में उतने स्पष्ट नहीं थे, जितने कि प्रविधियों में. श्रमिकसंघवाद के समर्थन के लिए भविष्य का स्पष्ट खाका भी उनके पास नहीं था. कहा जा सकता है कि श्रमिकसंघवाद अधूरा दर्शन था, जिसके बारे में श्रमिकसंघवादी विचारक ही अस्पष्ट थे.

श्रमिकसंघवादियों की राय में राज्य पूंजीवादी संस्था है, उसका गठन ही पूंजीवादी शोषण के निमित्त पूंजीवाद की पहल पर, उसकी शर्तों के अनुसार किया जाता है. राज्य की अधिसत्ता के चलते श्रमिकवर्ग आतंक के वातावरण में जीने को विवश होता है. अपनी अधिसत्ता के साथ यदि कोई राज्य श्रमकल्याण का दावा भी करे तो वह निरर्थक और झूठा ही होगा—इस कारण वे राज्यप्रेरित समाजवाद का भी विरोध करते हैं. इसका विकल्प क्या हो? श्रमिकसंघवादी उद्योगों की स्वायत्तता चाहते हैं. उद्योग पर उनका नियंत्रण हो जो स्वयं काम करते हैं—श्रमिकसंघवाद का दर्शन इसी अवधारणा पर टिका हुआ है. लेकिन समाज केवल उत्पादन व्यवस्था पर ही तो निर्भर नहीं. व्यक्ति और समाज के अनगिनत संबंधों की शृंखला तथा उनके बीच जटिल अंतक्र्रियाओं का नियंत्रण भी राज्य को करना पड़ता है. यहां तक कि विभिन्न औद्योगिक संस्थानों के व्यापारिक संबंधों के निर्वहन के लिए भी अलग व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है. नए समाज में इन संबंधों, अंतक्रियाओं का नियंत्रण किस प्रकार संभव होगा? इस बारे में श्रमिकसंघवाद मौन रह जाता है. दुनिया के मजदूर एक हैं, उनकी समस्याएं एक हैं. सभी समस्याएं राज्य और पूंजीवाद की देन हैं. जब न राज्य होगा, न पूंजीवाद तब सेना, न्यायपालिका तथा पुलिसबल की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी. श्रमिकसंघवादी इन सब संस्थाओं को साम्राज्यवाद का प्रतीक मानते हुए उनका विरोध करते हैं. उनके द्वारा पुलिस, न्यायपालिका एवं सैन्यबलों का विरोध इसलिए भी स्वाभाविक था, क्योंकि हड़ताल के दौरान सेना एवं पुलिस राज्य और पूंजीपतियों के हितों की रक्षा का काम करते हैं. चूंकि वे निरंकुशतावादी शासन की उपज होते हैं, अतएव वे तानाशाही को बनाए रखने में मददगार होते हैं. श्रमिकसंघवादी विचारकों के लिए राजनीतिक सीमाएं कोई मायने नहीं रखतीं. उनके अनुसार राज्य द्वारा सेनाओं के ऊपर अंधाधुंध खर्च करना भी औचित्यविहीन है. दूसरी ओर आम हड़ताल तथा प्रकारांतर में विरोधी शक्तियों से सतत संघर्ष, श्रमिक हितों के लिए अनिवार्य हैं. श्रमिकसंघवादी यद्यपि शांतिकामी नहीं हैं, तथापि वे दो विरोधी राज्यों के बीच युद्ध का इस आधार पर विरोध करते हैं, क्योंकि उसके द्वारा श्रमिक को कोई लाभ नहीं पहुंचता. उल्टे युद्ध की स्वाभाविक परिणति के रूप में जन्मीं बेरोजगारी, महंगाई, महामारी जैसी समस्याएं आम जनता के क्लेश का कारण बन जाती हैं. युद्ध के बाद पूंजीवाद और अधिक ताकतवर होकर सामने आता है. इससे समाज में आर्थिक असमानता बढ़ती है. श्रमिकसंघवाद के दर्शन को बीसवीं शताब्दी के महानतम दार्शनिकों में से एक बर्ट्रेंड रसेल ने ‘सिंडीकेलिस्ट रेलवेमैन’ में प्रकाशित एक लेखांश के माध्यम से प्रस्तुत किया है—

श्रमिकसंघवाद, सामूहिकतावाद तथा अराजकतावाद का प्रारंभिक उद्देश्य समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता, तज्जनित ऊंचनीच की भावना तथा अन्यान्य वस्तुओं पर निजी अधिकारिता को पूरी तरह समाप्त करना है. लेकिन जहां सामूहिकतावाद निजी अधिकारिता को सर्वाधिकारिता में, अराजकतावाद उसको ‘प्रत्येक की अनाधिकारिता’ में बदलने का लक्ष्य रखता है, वहीं श्रमिकसंघवाद का लक्ष्य संगठित श्रमशक्ति को पूर्ण स्वामित्व दिए जाने से है. तदनुसार यह विशुद्ध रूप से सामाजिक अर्थसंहिता और समाजवाद द्वारा प्रस्तावित वर्गसंघर्ष की श्रमसंगठनवादी व्याख्या है. अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए यह संसदीय कार्रवाही का पूरी तरह बहिष्कार करता है, जिसपर सामूहिकतावाद(सहकार) का समूचा दर्शन आधारित है तथा अराजकतावाद जिसके अत्यधिक निकट है, हालांकि अराजकतावाद की अपेक्षा इसकी कार्रवाही का क्षेत्र बहुत कुछ सीमित भी है.’

प्रसिद्ध ‘टाइम’ पत्रिका के 25 अगस्त 1911 को प्रकाशित इस आलेख से न केवल श्रमिकसंघवाद को समझता जा सकता है, बल्कि उसका अपनी समानधर्मा विचारधाराओं यथा अराजकतावाद तथा सामूहिकतावाद से अंतर भी इस उद्धरण द्वारा स्पष्ट हो जाता है. यद्धपि यह अंतर इतना सूक्ष्म है, खासकर सामूहिकतावाद और श्रमिकसंघवाद में कि उनके बीच स्पष्ट विभाजनरेखा खींच पाना कठिन है. उल्लेखनीय है कि फ्रांस में जहां पर श्रमिकसंघवाद का दर्शन विकसित हुआ, वहां श्रमिक संगठन बहुत शक्तिशाली थे. निरंकुश राजशाही के आतंक तले पनपे उन संगठनों में संघर्ष की पर्याप्त जिजीविषा थी. वे पूंजीवाद और राज्यसत्ता दोनों का उन्मूलन करना चाहते थे. उनके आंदोलन को ही ‘सिंडीकेलिज्म’ कहा गया. वह समाजवाद नहीं था, सच में तो वह समाजवाद का धुर विरोधी दर्शन था. दोनों का प्रथम मतवैभिन्न्य राज्य की अनिवार्यता को लेकर था. समाजवाद का सपना ऐसा निष्पक्ष राज्य था जो अपने नागरिकों के बीच कल्याण के समान बंटवारे की भूमिका निभाए. जबकि श्रमिकसंघवादी विचारक राज्य के पूर्ण उन्मूलन के पक्ष में थे. पूंजीवाद के उन्मूलन हेतु उनके पास एक ही हथियार था. वह हथियार था, हड़ताल! वे चाहते थे व्यापक जनहड़ताल द्वारा पूंजीपतियों को घुटने टेकने को विवश कर देना. इसमें उन्हें प्रारंभिक सफलताएं भी मिली थीं. विकास के आरंभिक दौर की कई बड़ी हड़तालें श्रमसंघवादियों के आंदोलन के नाम इतिहास में दर्ज हैं. उनमें अक्टूबर 1910 की इंग्लेंड की प्रसिद्ध रेलवे हड़ताल भी सम्मिलित है. वर्षों तक चलने वाली इस हड़ताल ने इंग्लेंड का जनजीवन ठप्प कर दिया था. स्पष्ट है कि श्रमिकसंघवाद ने समयसमय पर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया है और कालांतर में यदि पूंजीवाद ने श्रमिक हितों के प्रति यत्किंचित उदारवादी रवैया अपनाया तो उसके पीछे श्रमिकसंघवादियों के आंदोलन का योगदान था. यहां एक स्वाभाविकसा प्रश्न सामने आता है कि समाजवाद के इन तीनों अपररूपों के पारस्परिक संबंध कैसे हैं? जहां तक अराजकतावाद का प्रश्न है, वह श्रमसंघवादियों से सहानुभूति रखता है, बशर्ते उनके द्वारा बुलाई गई हड़ताल को हिंसक क्रांति का विकल्प न मान लिया जाए. उल्लेखनीय है कि अराजकतावाद भी श्रमिकसंघवादियों की भांति राज्यसत्ता का पूर्ण उन्मूलन चाहता है. मगर उसका रास्ता हिंसक क्रांति से होकर गुजरता है. इससे अलग श्रमिकसंघवादी हड़ताल जैसी सामान्य प्रविधियों से काम निकालना चाहते हैं. इसके बावजूद अराजकतावादियों के लिए श्रमिकसंघवाद अपने तात्कालिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सर्वोचित माध्यम है. रुडोल्फ रा॓कर ने श्रमिकसंघवाद की कार्यपद्धति की ओर संकेत किया है कि श्रमिकों यानी—

वास्तविक उत्पादकों द्वारा समस्त उद्यमों का प्रबंधनदायित्व कुछ इस प्रकार संभाल लेने के पश्चात कि विभिन्न समूह, कारखाने, उद्योगशाखाएं समाज की वृहद आर्थिक संरचना के स्वतंत्र सदस्य की गरिमा को प्राप्त कर आवश्यक वस्तुओं का सुव्यवस्थित उत्पादनवितरण करने लगें….उनमें आर्थिक उत्पीड़न की अनगिनत बेड़ियों में जकड़े श्रमिक को मुक्त कराने का संकल्प निहित होना चाहिए.’

श्रमिकसंघवाद के अराजकतावादीसाम्यवादी नजरिये को समझने के लिए हमें इतिहास की गोद में जाना पड़ेगा. करीब डेढ़ सौ वर्ष पहले यानी 1860 के आसपास समाजवादी आंदोलन अपनी रूपरेखा गढ़ ही रहा था. उस समय ‘अंतरराष्ट्रीय वर्किंग मैन ऐसोशिएसन जिसको ‘प्रथम इंटरनेशनल’ के नाम से भी जाना जाता है, क्रांतिधर्मी श्रमिकों का बड़ा संगठन बनता जा रहा था. उनका आंदोलन जैसेजैसे आगे बढ़ रहा था, समाजवादी मार्क्स तथा अराजकतावादी मिखाइल बकुनिन के समर्थकों के बीच तनाव बढ़ रहा था. उस समय तक एक बुद्धिजीवी के रूप में मार्क्स की धाक थी. उसने बकुनिन तथा उसके समर्थकों को ‘प्रथम इंटरनेशनल’ से बाहर जाने पर विवश कर दिया. इसका श्रमिक आंदोलन पर दूरगामी प्रभाव पड़ा. 1871 में पेरिस में कामगारों ने विद्रोह कर, राजसत्ता को बेदम कर दिया और सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले ली. बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में, श्रमिकसंघवादियों को उल्लेखनीय सफलता मिली. श्रमसंघवादियों के पहले अंतरराष्ट्रीय संगठन का गठन 1922 में बर्लिन में किया गया, जिसमें अर्जेंटीना, चिली, डेनमार्क, बलगारिया, मैकिस्को, जर्मनी, पुर्तगाल, स्पेन, फ्रांस, नीदरलेंड आदि देशों के श्रमिकसंगठनों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था. उन्हें लग रहा था कि राज्यसत्ता के विरोध में उपजा साम्यवाद अंततः सत्ताधारी जैसा ही आचरण कर रहा है. श्रमसंघवादियों के खाते में उससे पहले भी कई उपलब्धियां दर्ज हो चुकी थीं. उनमें सबसे बड़ी उपलब्धि थी, ब्रिटेन की 1910 से 1914 के बीच चली हड़ताल, जिसको इतिहास में ‘महान अशांति’ के नाम से जाना जाता है. इस हड़ताल के महानायक टा॓म मान तथा उसके श्रमिकसंघवादी सहयोगी थे. आमहड़ताल की शुरुआत ब्रिटेन की सोशलिस्ट पार्टी के आवाह्न पर हुई थी. सोशिलिस्ट लेबर पार्टी की सदस्य संख्या कम ही थी, लेकिन उसके नेताओं का श्रमिकों पर गहरा प्रभाव था. इसलिए पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध एक वर्ग आगे आया तो बाद में एक के बाद एक, नए मोर्चे खुलते चले गए. ‘महान अशांति’ के नाम से विख्यात वह हड़ताल ब्रिटेन की सबसे बड़ी हड़ताल थी, जिसमें छोटीबड़ी 872 हड़तालें शामिल थीं. उस हड़ताल को स्कूल, खनन, यातायात, इंजीनियरिंग, कपड़ा उद्योग आदि उत्पादकता के लगभग सभी क्षेत्रों के श्रमिकों का समर्थन प्राप्त था. वह हड़ताल श्रमिकों में यह भावना पैदा करने में सफल रही कि अपने संगठन के बल पर वे पूंजीवाद को घुटने टेकने के लिए विवश कर सकते हैं. श्रमिक संघवाद का उदय उसी आत्मविश्वास की परिणति बना. बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक तक श्रमिकसंघवादी पूरे यूरोप में सक्रिय रहे, लेकिन उसके बाद बदली हुई वैश्विक परिस्थितियों में यह आंदोलन ठंडा पड़ता गया. अपनी उद्देश्यपरकता के बल पर यह आंदोलन दुनियाभर के श्रमिक संगठनों, समाजवादी विचारकों, दार्शनिकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कराने में सफल रहा था. हालांकि अपनी सीमाओं के चलते यह समाज में अपना समुचित स्थान नहीं बना पाया. इसका कारण संभवतः यह था कि श्रमिकसंघवाद आर्थिक उत्पादनकेंद्रों को अतिरिक्तरूप से महत्त्व देता है. यह मान लेता है कि अर्थव्यवस्था के òोतों तथा आर्थिक उत्पादन केंद्रों पर अधिपत्य कर लेने के उपरांत श्रमिकों की सभी समस्याएं समाप्त हो जाएंगी. इस सीमित दृष्टि को आधार बनाकर अनेक बुद्धिजीवियों ने इसकी आलोचना भी की है. रोजा लेक्समबर्ग ने श्रमिकसंघवादियों पर मार्क्सवाद की मूल अवधारणा से दूर जाने का भी आरोप लगाया था. उसके अनुसार—

आधुनिक सर्वहारा वर्ग का संघर्ष किसी पूर्वनिर्धारित सिद्धांत अथवा परिकल्पना के आधार पर जैसा कुछ पुस्तकों अथवा विचारधाराओं के आधार पर तय किया गया है, आगे नहीं बढ़ाएगा. श्रमिकों का आधुनिक संघर्ष इतिहास और सामाजिक प्रगति का सहज हिस्सा है और इतिहास के बीच में, प्रगतिधारा के बीच में, संघर्ष के बीच में हम लगातार यह सीखते रहे हैं कि हमें अपने संघर्ष को किस प्रकार आगे बढ़ाना चाहिए.’

स्वयं श्रमिकसंघवाद में भी, उसके एक शताब्दी के इतिहास में अनेक परिवर्तन हुए हैं. व्यावसायिक संगठनवादी आंदोलन के विकल्प के रूप में जन्मा श्रमिकसंघवाद अपने लक्ष्य को पाने के लिए केवल हड़ताल और श्रमिक आंदोलन को पर्याप्त मानता था. वह श्रमिकों को अपने आर्थिक हितों के लिए संगठित संघर्ष की प्रेरणा देता था. बहुत जल्दी श्रमिक संघवादियों को लगने लगा था कि सिर्फ सैद्धांतिक व्यवस्था कर देने मात्र से समस्या का समाधान संभव नहीं है. पूंजीपति आसानी से उस हड़ताल को तोड़ सकते हैं. अपनी पूंजी के दम पर वे राज्य को श्रमिकविरोधी कदम उठाने के लिए बाध्य कर सकते हैं. अतः लक्ष्यप्राप्ति के लिए कुछ ठोस प्रयास आवश्यक हैं. श्रमिकसंघवादियों का एक समूह मानता था कि उत्पादनतंत्र पर कब्जा करने के लिए बलप्रयोग आवश्यक है. उन्हीं की प्रेरणा से अराजकश्रमिकसंघवाद की अवधारणा का विकास हुआ. अराजकतावादी श्रमिकसंघवाद पद का आशय ऐसे श्रमिक आंदोलन से है, जो येनकेनप्रकारेण, यहां तक कि हिंसा के प्रयोग द्वारा भी, पूंजीवाद को समाप्त करने के लिए कटिबद्ध हो. इसके समर्थकों का मानना है कि लघु शैक्षिक समूहों से लेकर बड़े औद्योगिक क्रांतिधर्मी संगठनों तक, स्वाधीनतावादी जनसमूहों को अपने लक्ष्य के मद्देनजर निरंतर संघर्षरत रह उस समय तक आगे बढ़ते रहना चाहिए, जब तक कि समस्त उत्पादन केंद्रों पर उसका अधिकार न हो जाए. मगर पूंजीवाद के विरुद्ध लंबी लड़ाई बिना जनसमर्थन के लिए असंभव है. उसके लिए संगठन का लोकतांत्रिक होना अनिवार्य है. उसके अभाव में संघर्ष के अपने लक्ष्य से भटकने तथा तानाशाही में ढल जाने का खतरा बना रहता है, यह स्थिति पहले से भी खतरनाक हो सकती है. इससे बचाव हेतु सभी प्रमुख निर्णय कार्यालयीन सभाओं में न लेकर बड़ी सर्वसदस्यीय बैठक के बीच लिए जाने चाहिए. परंपरागत श्रमिक संघवाद यह नहीं बताता था कि उत्पादन केंद्रों पर अधिकार करने का मार्ग कौनसा होगा. लेकिन अराजकतावादी श्रमिकसंघवाद में उत्पादन केंद्रों पर कब्जा करने के लिए हिंसात्मक क्रांति का सहारा लेने की छूट दी जाती है. इसके समर्थक ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ से प्रेरित हैं, जिसके बारे में स्वयं मार्क्स भी आशंकित था. विश्वभर में आजकल अराजकतावादीश्रमिकसंघवाद का ही अधिक प्रचलन है. स्पेन, आट्रेलिया, फ्रांस, इंग्लेंड, डेनमार्क, नीदरलेंड आदि देशों के श्रमिक आज भी भारी संख्या में श्रमिकसंघवादी संगठनों से जुड़े हुए हैं. सभी स्थानों पर उसकी स्थिति पूंजीवाद के सशक्त विपक्ष की है.

©ओमप्रकाश कश्यप

सहकार : एक संस्कार

सहकारिता एक सुपरिचित और सामान्यसा पद है, जिसकी व्याप्ति इस जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में है. सामान्य इस अर्थ में कि इसका अर्थ बूझने के लिए बहुत ज्यादा दिमागी कसरत की जरूरत नहीं पड़ती. न किसी खास किस्म की विशेषज्ञता की अनिवार्यता होती है. साधारण पढ़ालिखा, सामान्य बुद्धिविवेक का आदमी भी सहकारिता और उसके निहितार्थों को जानता और समझता है. इसलिए कि सहकार उसके लिए कोई नई बात नहीं है. समाज में रहना है तो दूसरों के साथ तालमेल बनाकर रहना ही पड़ेगा. अपने कंधे का भारी बोझ यदि बांटना है तो अपने कंधे भी किसी जरूरतमंद की मदद के लिए आगे करने होंगे. अपने जीवन के लिए दूसरों के जीवन के अधिकार का सम्मान करना भी आवश्यक है. तब बात घूमफिरकर सहयोग पर ही आ जाती है. हम कह सकते हैं कि सहयोग ही सहकारिता का आधारसिद्धांत है. इसी के कारण सहकार की व्याप्ति लोकस्तर पर सदैव रही है. सभ्यता के प्रारंभ से लेकर आज तक. आदिम मनुष्य सहयोग को भले ही उन अर्थों में पारिभाषित नहीं कर पाता हो, जिन अर्थों में हम आज इसे जानते हैं, मगर प्राकृतिक आपदाओं तथा जंगली जानवरों से सुरक्षा का भाव उसे अनायास ही दूसरों के निकट ले जाता था, वही संगठन की प्रेरणा बनता था, उसी से सहअस्तित्व की भावना पनपी. मनुष्य को समूह के रूप में, साथसाथ रहने की प्रेरणा मिली. सामाजिक संबंधों का विकास हुआ. सभ्यता जन्मी, संस्कारों का उद्गम हुआ, संस्कृति को नए आयाम मिले.

लोकजीवन में सहकार और सहयोग में प्रायः कोई अंतर नहीं किया जाता. इन्हें अक्सर एकदूसरे का पर्याय मान लिया जाता है. लोकमेधा की यह विशेषता भी है कि वह सामान्यीकरण द्वारा निष्कर्ष तक पहुंचती है. इसलिए उसके निष्कर्ष लंबे समय तक मान्य भी होते हैं. समाज और जीवन में सहयोग की अपरिहार्य मौजूदगी के कारण ही मानव सभ्यताओं और संस्कृतियों का विकास हुआ है. विश्वग्राम की संकल्पना के मूल में भी सहयोग और सहकार का ही योगदान है. यही मानवीकरण का कारक तत्व, मनुष्यता की अनिवार्य विशेषता है.

अपने रोजमर्रा के जीवन में मनुष्य को अनेक स्तर पर, जानेअनजाने अनेक व्यक्तियों के साथ सहकारभावना के साथ पेश आना पड़ता है अथवा दूसरे उनके साथ सहकारभावना से सहयोग करते हैं. इस तरह सहकारिता समान कल्याणकारी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समूहबद्ध और संकल्पनिष्ठ होकर काम करने का नाम है. चूंकि कर्तव्य के प्रति वास्तविक निष्ठा बाह्यारोपित नहीं हो सकती. उसके लिए आंतरिक प्रेरणा और स्वयंस्फूर्ति आवश्यक हैं—अतएव सहकार के लिए स्वैच्छिक समर्पण और समूहबद्धता अनिवार्य शर्त हैं. यही वह कसौटी हैं जिनके आधार पर सहकारभावना की गहराई की समीक्षा संभव है, उसके प्रति समर्पणभाव को परखा जा सकता है और किसी समूह की सफलता एवं दीर्घजीविता का अनुमान लगा पाना मुमकिन होता है. यहां समूहबद्धता का आशय उपलब्ध संसाधनों का संतुलित एवं न्यायिक तालमेल है, जबकि समर्पण से हमारा मंतव्य, समूह की प्रत्येक इकाई द्वारा अपने संपूर्ण संसाधनों तथा मनोयोग के साथ शेष समूह के साथ सहभागिता, दायित्वों के न्यायिक संवितरण के साथसाथ, अपने हितों एवं महत्त्वाकांक्षाओं के सामान्यीकरण से है.

जाहिर है कि सहकार के दौरान व्यक्ति अपने हितों को सामूहिक हितों के साथ जोड़ने लगता है. सबके कल्याण में ही उसको अपने कल्याण की प्रतीति होने लगती है. तभी वह सामान्य हितों की प्राप्ति के लिए अपनी ओर से यथासंभव सहयोग प्रदान करता है. सहकारी समूह में व्यक्ति का अपने समूह के प्रति सहयोग, उसके हितों का सामूहिक हितों के साथ संविलयन पूरी एकात्मकता एवं निहित संभावनाओं के साथ होता है. समूह भी व्यक्तिविशेष के हितों को अपना मानते हुए उसकी पूर्ति हेतु समेकित प्रयास करता है. परिणामतः व्यक्ति समूह का पर्याय बन जाता है—और समूह अपनी संपूर्ण शक्ति एवं विशेषताओं के साथ व्यक्तिमात्र में ढल जाता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के अनुभव, कार्यक्षमता, बुद्धिमत्ता, कौशल एवं उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम योगदान संभव होता है. दूसरे शब्दों में यह व्यक्ति के सफल समाजीकरण और समाज के पूर्ण एकात्मीकरण की अवस्था है.

इस तरह सहकार नामक सामान्यसा पद अपने भीतर विराट अर्थवत्ता एवं दायित्वभावना को समेटे हुए है. दूसरे शब्दों में सहकार या सहकारिता अर्थ से ज्यादा अर्थचेतना एवं संकल्पबोध का नाम है. ऐसी अर्थचेतना जो मानवीकरण की साथसाथ विस्तार ग्रहण करती है; और संकल्पबोध ऐसा जो नैतिकता से उद्भूत एवं अनुप्रेरित हो. यह एक ऐसी साधना है जो मनुष्य को मनुष्य के करीब लाने का काम करती है.

मनुष्य चूंकि एक सामाजिक प्राणी है, विवेकशीलता जिसका गुण है, अतएव सहकार को हम उन्नत सामाजिकता का लक्षण भी कह सकते हैं. सामान्य अर्थों में तो यह है भी. सामान्यतः सहकारिता और सहकारी समूहों का अभिप्राय, सामूहिक कल्याण की भावना के साथ वैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत गठित, स्वैच्छिक समूहों तथा उनके द्वारा किए गए कल्याण कार्यों से है. इसकी वजह है कि सहयोग; जो कि सामाजिक संबंधों का आधार सिद्धांत है—जिसपर कुल सामाजिकता की नींव टिकी है, वह किसी भी समाज की आधारशिला होता है, वही मनुष्यता को गतिमान बनाता है. सहयोग के अभाव में समाज का एक बने रहना तो दूर, उसका निर्माण तक संभव नहीं है. आपसी सहयोग एवं सहकार के आधार पर मनुष्य ने अनेक बार विषम परिस्थितियों पर विजयश्री हासिल की है. सफलता एवं कीर्ति के अनेक मानक स्थापित किए हैं. उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में, भीषण गरीबी एवं आर्थिक विसंगतियों से जूझते ब्रिटिश मजदूरों के एक समूह ने राबर्ट ओवेन से प्रेरणा लेते हुए एक उपभोक्ता संगठन की शुरुआत की थी, उन्हें मिली सफलता ने ही आगे चलकर सहकारिता आंदोलन का मार्ग प्रशस्त किया.

इस प्रकार सहकारिता का अर्थ मान्यताप्राप्त सहकारी समूह द्वारा किसी एक अथवा एक से अधिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु किए गए कर्तव्य से जाना जाता है. सहकारी समूहों के प्रमाणन एवं संस्थानिकीकरण की व्यवस्थाएं सरकारी स्तर पर दुनिया के प्रायः सभी देशों में हैं. भारत में औपचारिक सहकारिता आंदोलन की शुरुआत का श्रेय यद्धपि तत्कालीन अंग्रेज सरकार को ही जाता है, तथापि जनसाधारण के लिए सहकार कोई कर्तव्य अथवा व्यवस्थाविशेष न होकर, उसकी पूरी जीवनपद्धति और सामाजिकता की पहचान होता है, जो उसके पूरे जीवन को प्रभावित एवं संचालित करता है. अपने समुदाय के साथ वह इतना अधिक घुलमिल जाता है कि सहकार उसको अपनी सभ्यता और संस्कारों का बेहद सामान्य और सुपरिचित हिस्सा जान पड़ता है. उसे लगता ही नहीं कि वह अपनी सामान्यचर्या से बाहर का काम कर रहा है. इसीलिए दुनिया के अन्य हिस्सों की तरह भारतीय शहरोंगांवों में भी सहकारिता आंदोलन का प्रभाव देखने को मिलता है. विशेषकर आजादी के बाद, सामूहिक खेती, सहकारी ऋण समिति, आवास समिति, सहकारी बैंक जैसे पदों से भारतीय नागरिक भलीभांति परिचित हो चुके हैं. आवास, ग्रामीण विकास, चीनी एवं दुग्ध उद्योग, शिक्षा, सीमेंट, मछलीपालन जैसे अनेक क्षेत्र हैं, जहां सहकारी क्षेत्र की उपलब्धियां सरकारी और निजी क्षेत्र से भी, कहीं अधिक हैं. यदि प्रति व्यक्ति आनुपातिक निवेश के आधार पर देखा जाए तो संगठित क्षेत्र उसके आगे कहीं नहीं टिकता.

सहकारी समूह के लक्षण

सहकारिता के उद्देश्य, उसकी मूल संकल्पना तथा व्यापकता को देखते हुए सहकारी समूहों के वैधानिकीकरण की आवश्यकता सैद्धांतिक तौर पर अनपेक्षित एवं अर्थहीन जान पड़ती है. इसलिए कि सहयोग एवं सहकार हमारे लोकचरित्र का हिस्सा रहे हैं, जिन्हें सामाजिकता के अनिवार्य लक्षण की तरह व्यवहार में लाया जाता रहा है. लेकिन जब कोई सहकारी समूह उत्पादन अथवा सेवाकर्म से जुड़ता है तथा अपने उत्पाद, सेवाकार्य के माध्यम से बाजार में हिस्सेदारी की अपेक्षा रखता है, तब स्वाभाविक रूप में उसका मुकाबला नियोजित एक संगठित क्षेत्र के कतिपय बड़े और संसाधनसंपन्न उत्पादकों से होता है. अतः बाजार का विश्वास प्राप्त करने और वहां लंबे समय तक टिके रहने के लिए आवश्यक है कि सहकारी समूह भी संगठित एवं नियोजित उत्पादनव्यवस्था को अपनाएं. उसके लिए अधिक पूंजी तथा अन्य संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है. ऐसे में सहकारी समूहों का वैधानिकीकरण तथा उनके उत्पादों का प्रमाणन, सामयिक आवश्यकता बन जाता है. समूह का औपचारिक गठन, उसके उद्देश्यों के निर्धारण तथा उसकी कार्यप्रणाली का मानकीकरण करने के लिए अत्यावश्यक है. हालांकि उसके बाद भी संगठन की सफलता का सारा दारोमदार उसके सदस्यों के सहयोग, कार्यकुशलता, बौद्धिक क्षमता एवं संसाधनों की उपलब्धता पर निर्भर करता है.

मनुष्य मनुष्य की मानसिकता का एक सहज लक्षण है. मनुष्य की सहयोगकारी प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाले कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

1. सीमित क्षमताएं

2. संसाधनों की अपर्याप्तता

3. असुरक्षाबोध

4. महत्त्वाकांक्षाएं

5. नैतिकता के दबाव

6. प्राकृतिक आपदाएं तथा अनिश्चितता.

उपर्युक्त के अतिरिक्त परोपकार की प्रवृति, सतत परिवर्तनशील सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियां, भौगोलिक विशेषताएं आदि उन महत्त्वपूर्ण कारकों में से हैं, जिनसे व्यक्ति अपने हितों का सामान्यीकारण करते हुए, उनका शेष समाज के हितों के साथ तालमेल करने को विवश हो जाता है. यही भावना सहकारिता को जन्म देती है— इसकी महत्ता को रेखांकित करते हुए इसे आगे ले जाने की प्रेरणा बनती है और आगे चलकर उसकी मुख्य मार्गदर्शक भी सिद्ध होती है.

सहकार के प्रेरकतत्व

सभ्यता के प्रारंभ से ही सहकार मनुष्य के मूल स्वभाव का अभिन्न हिस्सा रहा है. हालांकि सहकार को प्रेरित करने वाले कारक, उसकी प्रेरणाएं समयानुरूप परिवर्तित होते रहे हैं. आगे हम सहकार के सहकारिता के प्रेरक तत्वों पर कतिपय विस्तार से चर्चा करेंगे—

1. सीमित क्षमताएं

सुख की कामना करना मनुष्य की एक सहज प्रवृत्ति है. हर प्राणी अपने जीवन को सरल, सुखी और आनंदमय बनाना चाहता है. उसका सारा प्रयास भी इसी दिशा में होता है. अपने सुखोपभोग के लिए अधिकतम साधन जुटाने का सतत प्रयास करते रहना मनुष्यमात्र की प्रवृत्ति होती है. चूंकि प्रत्येक मनुष्य की मानसिक संरचना भिन्न परिस्थितियों में निरंतर विकासमान रहती है, अतएव सुख और उसके उपादानों के प्रति धारणा भी व्यक्तिसापेक्ष होती है, यानी किसी एक वस्तु या स्थिति को कोई आदमी बिलकुल नापसंद कर सकता है, उससे बहुत जल्दी ऊब सकता है, जबकि दूसरा उन वस्तुओं या स्थितियों को लंबे समय तक अपने लिए अनुकूल और सुखदायी मान सकता है.

सुख और उसके उपादानों के प्रति भले ही रुचिवैभिन्न्य हो, मगर सुख की लालसा सभी मनुष्यों में लगभग एकसमान होती है. परंतु प्रत्येक व्यक्ति में इतना सामथ्र्य नहीं होता कि वह अपनी इच्छाआकांक्षाओं के अनुरूप सुख के साधन जुटा सके. ये सीमाएं प्राकृतिक और परिवेशगत, किसी भी प्रकार की हो सकती हैं. इन्हीं अक्षमताओं के कारण व्यक्ति देश एवं समाज पर अवलंबित रहता है. सहकार और सहकारिता की आवश्यकता इसी अभाव की पूर्ति के लिए पड़ती है. दुनिया के किसी भी व्यक्ति की कार्यक्षमता इतनी नहीं है कि वह दूसरों के सहयोग के बिना, अपने लिए सभी सुखसुविधाओं का प्रबंध करके, उनका आनंद उठा सके. आवश्यक संसाधनों और सुविधाओं से वंचन तथा उनके अर्जन की संकुचित सीमाओं का बोध, मनुष्य को समाज के प्रति विनम्र एवं आग्रहशील बनाता है, वही उसको उस दिशा में कार्यशील समूह की शरण में ले जाता है.

सहकारिता या समूह की शरण में जाते ही मनुष्य की सभी आकांक्षाओं की पूर्ति हो पाना आवश्यक नहीं है. सदस्य इकाइयों की महत्त्वाकांक्षाओं एवं उनके लिए संसाधनों की उपलब्धता को देखते हुए, समूह की भी सीमाएं हो सकती हैं. सामूहिकीकरण की इस प्रक्रिया में व्यक्ति और समूह दोनों को ही अपने हितों की आंशिक कुर्बानी देनी पड़ सकती है. अतः समूह से जुड़ने के साथ ही समय और संसाधनों की उपलब्धता के आधार पर, हितों के स्वैच्छिक सामान्यीकरण की प्रक्रिया भी प्रारंभ हो जाती है. वही मनुष्य को सहकार के लिए प्रेरित और निर्देशित करती है, वही उसकी आकांक्षाओं को विस्तार देने का काम करती है और कई बार वही नियंत्रक शक्ति के रूप में लोगों की अवांछित विचलन से सुरक्षा भी करती है.

2. संसाध्नों की अपर्याप्तता

किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संसाधनों की आवश्यकता पड़ती ही है. किंतु यह जरूरी नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास अपेक्षित संसाधनों की उपलब्धता सदैव बनी रहे, यानी उनका पूर्ण अथवा आंशिक अभाव हो सकता है. वैसी अवस्था में उस मनुष्य के पास विकास के लिए केवल दो रास्ते होते हैं— कि या तो संसाधनों के उपलब्ध होने तक वह हाथ पर हाथ रखे बैठा रहे अथवा उन सामथ्र्यवान लोगों के साथ समन्वित प्रयास करे, जिनके पास अपेक्षित संसाधनों का प्राचुर्य है, किंतु अन्य किसी अभाव के कारण वे अपने संसाधनों का पर्याप्त उपयोग नहीं कर पा रहे हैं.

पहली स्थिति मनुष्य के अवसाद एवं नैराश्य को बढ़ाती है, जबकि दूसरी प्रकारांतर में सामाजिकता को प्रगाढ़, दीर्घतर और मजबूत बनाने का काम करती है. पारस्परिक तालमेल तथा हितों के सामान्यीकरण से सामाजिक समन्वय एवं एकरूपता की गति को बढ़ावा मिलता है. संसाधनों का तालमेल तथा हितों का सहमतियुक्त सामान्यीकरण मनुष्यों को परस्पर करीब ले आता है, उनके नागरिकता बोध को विस्तार देता है, जिससे सामाजिक अंतर्विरोध कम होने लगते हैं तथा उनमें खप रही ऊर्जा निर्माण कार्यों में काम आने लगती है, जिससे विकास की प्रक्रिया गतिवान हो उठती है.

कभीकभी यह भी होता है कि किसी एक व्यक्ति के पास संसाधनवर्ग में कुछ चीजों की कमी होती है, जबकि दूसरे के पास उस वर्ग की चीजें बहुलता में होती है. मगर उसके पास भी कुछ अन्य वस्तुओं का अभाव हो सकता है; जो पहले अथवा किसी अन्य सदस्य के पास उसकी तात्कालिक आवश्यकताओं से अधिक हों. किसी अन्य व्यक्ति के पास भी संसाधनवर्ग के कुछ ऐसे उपस्कर अनुपलब्ध हो सकते हैं; जो अन्य सदस्यों के पास अतिरिक्त रूप में मौजूद हों, यानी हरेक के पास कुछ अभाव और कुछ उपलब्धताएं हो सकती हैं. दूसरे शब्दों में संसाधनों की उपलब्धता के बावजूद ऐसी स्थिति हो सकती है कि व्यक्ति या समाज अपेक्षित विकास से दूर हो. कई बार नेतृत्व की कमी, अकेलेपन की अनुभूतियां अथवा अनजाने डर भी व्यक्ति को विकास की प्रक्रिया से दूर रखते हैं. सहकारभावना सामाजिक अंतर्विरोधों, डरों, अकेलेपन की अनुभूतियों से उसकी रक्षा करती है, इसके फलस्वरूप वह दूसरों के साथ मिलकर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु संगठित प्रयास कर सकता है. ऐसी स्थितियां आकस्मिक न होकर प्रायः घटती रहती हैं, अतएव संसाधनों की विरल अनुपलब्धता की स्थिति में भी, उपलब्ध संसाधनों के बेहतर तालमेल, आपसी संयोजन से काम निकाला जा सकता है. इस तरह सहकारभाव व्यक्ति और समाज दोनों की अनिवार्यता बन जाता है.

3. असुरक्षाबोध्

मनुष्य की आवश्यकताएं अनंत होती हैं. विज्ञापन, बाजार तथा विकास के अन्य मानक भी उनके रूप निरंतर बदलते रहते हैं. कुछ जरूरतों के बगैर उसका काम बहुत आसानी से सध जाता है, कुछ को वह अपनी प्राथमिकताओं में सम्मिलित करता है, जबकि बहुतसी जरूरतों के लिए उसको समाज के शेष सदस्यों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिनके लिए वह दूसरों की मदद की कामना करता है. मदद पाने के लिए मदद करता भी है. कुछ आवश्यकताओं का वह इतना अभ्यस्त हो जाता है कि समूह से अलग रहने का विचार ही उसके मन में अनगिनत आशंकाओं को जन्म देने लगता है. यही आशंकाएं तथा परनिर्भरता की भावना, मनुष्य के भीतर इस एहसास को जन्म देती हैं कि उसका अस्तित्व बाकी मनुष्यों के साथ, उनके सान्निध्य में रहकर ही संभव है.

समूह से अलग होते ही उसका अस्तित्व संकट में पड़ सकता है अथवा उसको उन सुविधाओं से वंचित होना पड़ सकता है, जो उसे समूह का सदस्य होने के नाते प्राप्त हुई हैं, जिनके अभाव में वह अपने सुखी, संतुष्ट और सुरक्षित जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकता. जैविक स्तर पर यह स्थिति स्त्रीपुरुषपरिवार और अन्यान्य सामाजिक संबंधों को जन्म देती है. इन्हीं से उसको समूह से जुड़े रहने की प्रेरणा मिलती है. आर्थिक स्तर पर भी सहकारी प्रयास पूरे समूह के स्वावलंबन और उसकी आत्मनिर्भरता को आगे बढ़ाते हैं. परिणामस्वरूप उस समूह से जुडे़ सदस्यों की निजी चिंताएं कम होने लगती हैं.

सहकारी समूह का गठन मनुष्य की इन्हीं आर्थिक, सामाजिक और जैविक आवश्यकताओं की भरपाई के लिए किया जाता है. प्राकृतिक तथा अन्यान्य आपदाएं भी मनुष्य के मन में असुरक्षाबोध में वृद्धि करती हैं, उनके कारण भी वह दूसरों की मदद के लिए मजबूर हो जाता है. उस समय समूह की ओर से अपने प्रत्येक सदस्य को सिद्धांततः यह आश्वस्ति होती है कि संकटकाल या जरूरत के समय कभी भी पूरा समूह उसके साथ है. साथ ही उसकी आकांक्षापूर्ति के लिए सततसदैव प्रयासरत भी. यह आश्वस्ति मनुष्य को उसके भविष्य, रोजमर्रा के तनावों, यहां तक कि उसकी तात्कालिक चिंताओं से मुक्त रखने में भी सहायक होती है, परिणामतः वह तनावरहित रहकर अपने सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्वों का निर्वाह कर सकता है. राज्य के वैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत होने के कारण सहकारी संस्थाओं, समितियों को स्वायत्त दर्जा प्राप्त होता है, अतः उसके कार्यक्रम राज्य समेत सभी संस्थाओं का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं, जिससे उसको अपनी पहचान बनाना आसान हो जाता है.

4. महत्त्वाकांक्षाएं

महत्त्वाकांक्षाएं मनुष्य के मन में पलने वाली वे उच्चतर लालसाएं हैं, जिन्हें वह अपने सुखवैभव और अहं की संतुष्टि के लिए अपने कामनाजगत में बसाए रखता है. वे मनुष्य की तात्कालिक पहुंच से प्रायः दूर होती हैं, तो भी उसे लगता है कि वह उन्हें प्राप्त कर सकता है और एक न एक दिन वैसा होगा भी. ये प्रायः सकारात्मक होती हैं. इसलिए मनुष्य के जीवनलक्ष्यों के निर्धारण में सहायक होने के साथसाथ ये उसके जीवन को दिशा भी प्रदान करती हैं. मनुष्य अपनी उच्चाकांक्षाओं के प्रति संवेदनशील होता है. उसे लगता है कि उनकी उपलब्धता ही उसके ‘होने’ को सार्थक बना सकती हैं. महत्त्वाकांक्षाएं अनंत प्रकार की हो सकती हैं. वे उतनी ऊंची भी हो सकती हैं, जितनी मनुष्य की कल्पना की उड़ान, जिनकी पूर्ति बहुत दुष्कर बल्कि असंभव जैसी प्रतीत हो. वे बहुत क्षुद्रतर भी हो सकती हैं कि केवल दैनिक आवश्यकताओं तक सिमटकर रह जाएं. वे स्पष्ट और उजागर भी हो सकती हैं, इतनी कि समूह का प्रत्येक सदस्य अपने बाकी सदस्यों की महत्त्वाकांक्षाओं से परिचित और अंतरंग हो तथा नितांत गोपनीय भी. परंपरागत भारतीय समाज में संतोष और अपरिग्रह को आधार मानते हुए भौतिक प्रवृत्ति की महत्त्वाकांक्षाओं पर नियंत्रण रखने पर जोर दिया गया है. इसके बावजूद इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के दबाव से मुक्त हो पाना मनुष्य के लिए आसान नहीं होता.

यह जरूरी नहीं है कि सभी मनुष्य अपनी उच्चाकांक्षाओं के प्रति गंभीर हों तथा उन्हें पूरा करने का सामथ्र्य भी रखते हों. परिस्थिति एवं स्वभावगत अंतर होने के कारण यह संभव भी नहीं होता. ऐसी अवस्था में समाज के बाकी सदस्यों के साथ तालमेल बनाने, संसाधन जुटाने, अपनी उच्चाकांक्षाओं का समूह के शेष सदस्यों की महत्त्वाकांक्षाओं के साथ सामान्यीकरण करने और उनकी संपूर्ति के लिए समन्वित प्रयास करने के लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता पड़ती है. समूह, सहकार भावना को अपनाते हुए, उपलब्ध संसाधनों का नियोजन इस प्रकार करता है कि व्यक्ति को अपनेपन की अनुभूति होने के साथसाथ उसकी आकांक्षाओं के सफलीभूत होने की उम्मीद बढ़ जाती है. इससे उसके मन में आत्मविश्वास और सामाजिकता का विकास होता है. जो अंततः समाज को तनावमुक्ति और एकदिशीय गति प्रदान करता है; जिससे समूह अपनी ऊर्जा का प्रयोग अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कर सकता है.

यहां पर यह उल्लेख करना भी प्रसंगानुकूल होगा कि महत्त्वाकांक्षाएं हमारी प्रेरणाओं की उत्प्रेरक और विकास की नींव होती हैं. एक तरह से वे हमारा वर्तमान के प्रति असंतोष और भविष्य की कामनाएं हैं, जो मनुष्य को विकास के लिए प्रेरित करता है. महत्त्वाकांक्षाएं भी मनुष्य को परिवर्तन के लिए संप्रेरित करती हैं. इन्हें जन्म देने वाले कारक भौतिक सुविधाएं, आधुनिकतम खोजें, शिक्षा, आय के बढ़ते स्रोत, संचारतंत्र, नवीनतम प्रौद्योगिकी आदि हैं. महत्त्वाकांक्षाओं के पूरा न होने का डर व्यक्ति के भीतर हताशा एवं अवसाद की वृद्धि करता है. सहकारभावना से वह न केवल अपनी इच्छाओं के बीच संतुलन कायम रखने में सफल रहता है, अपितु शेष समाज के विकास में भी सार्थक भूमिका निभा पाता है. ध्यातव्य है कि अतृप्त आकांक्षाएं और दिशाहीनता से पैदा हुई कुंठा मनुष्य को भटकाव तक ले जाती है. उनपर नियंत्रण न होने पर वह उन रास्तों पर बढ़ जाता है, जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिए अहितकर होते हैं.

सहकार भावना, मनुष्य की महत्त्वाकांक्षाओं का सामान्यीकरण करने के साथसाथ, उन हताशाओं से भी बचाती है जो उनके अभाव में पनपने लगती हैं तथा प्रकारांतर में कुंठा, अवसाद समेत व्यक्तित्व की अनेक कमजोरियों का कारण बनती हैं. सहकार के माध्यम से व्यक्ति की इच्छाओं का विकास संतुलित और समाजोपयोगी तरीके से होता है, वह व्याक्ति की इच्छाओं को नैतिक धरातल प्रदान करता है, जिससे नकारात्मक स्थितियों की संभावना न्यूनतम हो जाती है.

5. नैतिकता के आग्रह

मनुष्य की श्रेष्ठता उसकी विवेकशीलता में सन्निहित रहती है. वही उसको शेष प्राणीजगत से श्रेष्ठतर रखते हुए उसके व्यक्तित्व की विशिष्ट पहचान बनती है. इसके अतिरिक्त प्रेम, श्रद्धा, आस्था, सचाई, सहयोग, समर्पण, परोपकार, परदुःखकातरता, सहानुभूति जैसे कई उदात्त मानवीय गुण हैं, जो मनुष्यता के आधारस्तंभ तो हैं ही, ये मनुष्य को नैतिक ऊंचाई प्रदान करने के साथसाथ समाज के साथ उसका तालमेल बनाए रखने में भी सहायक सिद्ध होते हैं. चूंकि अकेले आदमी की नैतिकता कोई मायने नहीं रखती. मनुष्य की चेतना की परख समूह के बीच ही हो पाती है. दूसरों के साथ काम करने, उनके साथ सहयोग करने की प्रवृत्ति मनुष्य को आत्मतुष्टि प्रदान करती है. इससे उसका आत्मविश्वास बढ़ता है. आत्मसंतोष के लिए व्यक्ति एक ओर जहां दूसरों को कष्ट पहुंचाने से बचने लगता है, वहीं जनकल्याण के कार्यक्रमों में रुचि भी दर्शाता है. उसे अपना होना, दूसरों के होने में नजर आने लगता है, यही प्रवृत्ति शेष समूह के लिए प्रेरणास्रोत भी बन जाती है.

सहकारिता चूंकि आधुनिक विचारधारा है और विचारधारा से भी अधिक यह एक उपक्रम है, जो मनुष्य को न केवल उसके दायित्व का एहसास दिलाने का कार्य करता है; साथ ही उसको समाजप्रदत्त जिम्मेदारियों का निर्वाह करने का अवसर भी प्रदान करता है. यह मनुष्य को उन कार्यों से सक्रिय रूप से जुड़ने का अवसर भी देता है, जिनके साथ सामूहिक हित जुड़े हों. इस कारण कभीकभी नैतिक दबाव भी व्यक्ति को सहकारी प्रयासों की ओर प्रेरित करते हैं. स्थानस्थान पर विभिन्न उद्देश्यों हेतु कार्यरत सहकारी समितियां, जनकल्याण की भावना के साथ गठित संगठन और संस्थाएं तथा उनके द्वारा संचालित हजारों कल्याण कार्यक्रम, मनुष्य की नैतिक प्रेरणाओं का ही परिणाम है.

यह मानना भी भारी भूल होगी कि केवल विकसित और सुशिक्षित समाज ही नैतिक दबावों को महसूसते हुए सहकारी प्रयासों की ओर अग्रसर होते हैं. बल्कि आम और रोजमर्रा की जिंदगी में अत्यंत संघर्षशील लोग भी अपनी विवेकशीलता और सूझबूझ के बल पर सहकारी प्रयासों में कामयाब होते रहे हैं. वह भी बिना किसी लाभकामना के. शिक्षा, स्वास्थ्य, आदिवासी कल्याण, दलितोद्धार, बालअधिकार, श्रमिक कल्याण, ग्रामीण ऋण व्यवस्था, स्त्रीचेतना जैसे क्षेत्रों में हजारों समिति एवं संस्थाएं सहकारकर्म कर रही हैं. कई बार तो उन क्षेत्रों में भी सहकारी आंदोलन की धमक सुनाई पड़ने लगती है, जो आधुनिक शिक्षा और वैचारिक चेतना से दूर हैं, जहां सामान्यजन उसकी अपेक्षा भी नहीं कर सकते.

उपर्युक्त के अतिरिक्त राजनीतिकआर्थिक परिस्थितियां, सामाजिक चेतना, नैतिकता के आग्रह, परोपकार की भावना, करुणा, मैत्रीभाव जैसे बहुत से कारक हैं; जो मनुष्य को सहकारी आंदोलन में हिस्सेदारी की प्रेरणा दे सकते हैं.

6. प्राकृतिक आपदाएं तथा अनिश्चितता

प्राकृतिक आपदाएं एवं अनिश्चितता मनुष्य के जीवन में एक बड़ी चुनौती हैं. ये चेतावनी के रूप में मनुष्य को जहां एक ओर सजग और चैतन्य बने रहने के लिए प्रेरित करती हैं, वहीं मनुष्य के भीतर भय, निराशा, कुंठा और चिंता को बढ़ावा भी देती हैं, जो मनुष्य को अस्थिर और बेचैन बनाते हैं. ये अनिश्चितताएं किसी भी रूप में मनुष्य के सामने उपस्थित हो सकती हैं. इनके कारण प्राकृतिक और गैरप्राकृतिक दोनों ही तरह के हो सकते हैं. प्राकृतिक आपदाओं तथा अन्यान्य कारणों से उत्पन्न अनिश्चितताएं, दुर्योग की संभावना मनुष्य के मन में डर और अविश्वास पैदा करती है, जिसके परिणामस्वरूप वह अपने भविष्य के प्रति शंकालु हो जाता है. ऐसे में वह अपने लिए सहारे की खोज करता है. अगर उचित वातावरण न मिले तो दूसरों के प्रति अविश्वास, डर और अनिश्चितताएं मनुष्य को स्वार्थी भी बना सकती हैं, जिससे उसके मन में भविष्य के लिए अधिकाधिक संचयन तथा दूसरों से दुराव की स्थितियां पैदा हो सकती हैं. इन परिस्थितियों से घिरे मनुष्य को उन लोगों की ओर से मदद मिलने की संभावना सर्वाधिक होती है जो उसी की भांति अपने भविष्य को लेकर शंकालू हैं. वैसी स्थिति में वे सभी परस्पर तालमेल रखते हुए समन्वित प्रयास करते हुए देखे गए हैं. एक जैसी परिस्थितियों का शिकार होने के कारण उनके सामूहिक प्रयास में सफलता की संभावना भी अधिक होती है.

सामूहिक प्रयास और सहकारी समितियों के गठन के पीछे, अन्यान्य कारणों के अतिरिक्त मनुष्य का यह विश्वास भी होता है कि संकट के समय वह अकेला नहीं होगा, बल्कि समूह के बाकी सदस्य भी मददगार के रूप में उसके साथ होंगे. उसके दुःख को बांटने, लक्ष्य तक पहुंचने में उसका साथ देने के लिए. यही विश्वास मनुष्य को काफी संबल देता है और उसे डर, अवसाद, हताशा, कुंठा जैसी भयावह स्थितियों से बचाए रखता है. साझेपन की अनुभूति मनुष्य के आत्मविश्वास को सुरक्षित बनाए रखती है, जिससे उसका मनुष्यता के प्रति विश्वास अक्षुण्ण तथा सोच सकारात्मक बना रहता है. इससे उसके प्रयासों में गंभीरता आ पाती है.

उपर्युक्त के अतिरिक्त तेजी से परिवर्तनशील सामाजिकराजनीतिक परिस्थितियां, आर्थिक परिवेश, लोकचेतना, परोपकार की भावना आदि अनेकानेक कारण हैं, जो व्यक्ति को सहकारी प्रयासों की प्रेरणा देते हैं. उसे एकदूसरे के करीब लाने, परिस्थितियों को समझने के लिए बाध्य करते हैं. निरंतर बदलती वैश्विक परिस्थितियां भी, जिनमें पूंजी का असंयत निवेश, विशेषकर ऐसे क्षेत्रों में जिनका मनुष्य के वास्तविक विकास से कोई संबंध ही न हो, प्रकारांतर में सहकारिता आंदोलन के उत्थान में सहायक हैं. इससे उसे लगता है कि अपने हितों के लिए उसे स्वयं ही प्रयास करने होंगे. ऐसी ही परिस्थितियों के बीच से आधुनिक सहकारिता आंदोलन का विकास हुआ है. विषम परिस्थितयां व्यक्ति को संघर्ष के लिए पे्ररित करने में न केवल सहायक होती हैं, साथ ही उसको सामाजिक रूप से चैतन्य भी बनाती हैं.

सहकारिता मानवीय चेतना को विकास की ओर उन्मुख करने के साथसाथ, उसके लिए उपयुक्त अवसर भी उपलब्ध कराती है. सभ्यता के प्रारंभ से ही मनुष्य में आगे बढ़कर काम करने की प्रवृत्ति रही है. सहकार उस प्रवृत्ति के बिलकुल उलट है, जब मनुष्य निजी स्वार्थों को महत्त्व देते हुए केवल आत्मकल्याण में लीन रहता है. अपनी लालसाओं की पूर्ति के लिए वह विकास का कोई भी सूत्र थामने को उत्सुक होता है, जिसके लिए समाज की मौजूदगी केवल समर्थक परिवेश और वातावरण अथवा स्वार्थसाधन के माध्यम के रूप में होती है. संक्षेप में सहकारिता मनुष्यता के सपने को जीने का पवित्र सिद्धांत तथा आत्मनिर्भरता की स्थिति को साकार करने का आदर्श उपक्रम है, जिसे पूरी दुनिया में अनेक बार आजमाया जा चुका है.

जीवन की जटिलताओं तथा परिस्थितिवश भी यह संभव नहीं है कि प्रत्येक मनुष्य असीमित दायित्वों का भार वहन कर सके. इस कारण तथा संसाधनों की अपर्याप्तता के चलते, मनुष्य पारस्परिक सहयोग की ओर आकृष्ट होता है. फलतः समूह के भीतर आवश्यक सेवाओं और वस्तुओं का आदानप्रदान होने लगता है. इससे समूह के सदस्यों को विकास के अनुकूल वातावरण तथा अपेक्षित साधन सहज ही प्राप्त होने लगते हैं अथवा कम से कम उनकी उपस्थिति की संभावना बढ़ जाती है. उस अवस्था में समूह का प्रत्येक सदस्य शेष समूह की आकांक्षापूर्ति में भी अपना योगदान देता है; जो अंततः संपूर्ण समाज एवं राष्ट्र की विकासधारा को प्रभावित करने में सक्षम होता है और आगे चलकर पीढ़ियों तक प्रेरणा की सामग्री उपलब्ध कराता रहता है.

सहकारिताः एक संस्कार

उपर्युक्त विवेचन से तय है कि समाज में अकेले व्यक्ति का कोई भविष्य नहीं है, न ही उसके विकास का कोई अर्थ है. वस्तुतः विकास हो या सुख, ये सभी सापेक्षिक स्थितियां तथा मनोवृत्तियां हैं; जो समाज के साथ ही अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकती हैं. अतएव सामाजिक नियमों का गठन भले ही मनुष्य की अंतःप्रेरणा तथा दूसरी जरूरतों के कारण हुआ हो, संबंधों के विकास के पीछे जैविक कारण रहे हैं. सामाजिकता तो उन्हें बदलते समय के अनुरूप परिभाषित एवं अनुकूलित करने का कार्य करती रही है.

यहां पर यह उल्लेख करना अत्यावश्यक है कि सहकारिता आकस्मिक उद्वेग अथवा स्वार्थसाधन के लिए किया गया अल्पकालिक तालमेल नहीं है. ना ही यह पारस्परिक सहयोग, अवसरानुकूल तालमेल की क्षणभंगुर व्यवस्था है. अपने आधुनिक संदर्भों में सहकारिता भले ही वर्तमान युग की देन रही हो, मगर सभ्यता की शुरुआत से ही सहयोग और सहकार हमारी संस्कृति और संस्कारों का अभिन्न हिस्सा रहे हैं. यद्यपि कार्य की प्रकृति और आवश्यकता के अनुसार अल्पकालिक सहकारी संगठन बनाए जा सकते हैं और बनाए जाते भी रहे हैं, तथापि अपने बृहद संदर्भों में सहकार एक सुनियोजित एवं सोचीसमझी व्यवस्था है. यह व्यक्ति के भीतर यह एहसास निरंतर जगाए रहती है कि मनुष्यता की दृष्टि से अकेलापन कोई उपलब्धि नहीं है, कि अकेले मनुष्य का न तो वर्तमान है न ही भविष्य; बल्कि सबके होने के साथ ही उसके होने की सार्थकता है. सबके साथ मिलकर सुनियोजित प्रयास से न केवल विकास के इच्छित लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है; बल्कि आसन्न आपदाओं तथा जीवन की दूसरी चुनौतियों पर काबू भी पाया जा सकता है.

यह मनुष्य की उस एकांगी और स्वार्थमयी विचारधारा का भी निषेध करती है, जिसके अनुसार वह अपनी निजता को सर्वोपरि मानते हुए— सामूहिक हितों की उपेक्षा करता है अथवा निजता को सामाजिकता के आगे वरीयता देने लगता है. पारदर्शिता, चाहे वह विचारों की हो अथवा व्यवहार की, सहकारी समूह के स्थायित्व एवं प्रामाणिकता की पहली शर्त है. यह मनुष्य की स्वार्थसाधन की हेय प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने का कार्य करती है. यह उस प्रवृत्ति के एकदम विपरीत है जब व्यक्ति शेष समाज की उपेक्षा करता हुआ, केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति में तल्लीन रहता है तथा उपलब्ध सामूहिक संसाधनों को अपनी लिप्साओं की पूर्ति के माध्यम के रूप में देखता है, सहकार के नाम पर निहित स्वार्थ अथवा लालच के कारण शेष समूह से जुड़ता है तथा उनके लिए क्षुद्रता की किसी भी सीमा तक गिरने को तत्पर रहता है.

यद्धपि स्वार्थसाधन की प्रवृत्ति की सराहना करने वाले लोग भी समाज में हो सकते हैं. यदि वे हैं और ऐसा करते भी हैं, तब समूह के साथसाथ उसके सदस्य विशेष का दायित्व होता है कि वह अपने वास्तविक हितों की पहचान करते हुए, आचरण करे और नैतिकता की भावना को आहत न होने दे. बात जब समाज की आती है, भले ही वह अत्याधुनिक विकसित समाज हो, जिनमें संबंधों की डोर शिथिल पड़ती जाती है तथा सामाजिक न्याय पर व्यावसायिकता हावी होने लगती है. सामाजिक रिश्ते तेजी से व्यावसाय आधारित अनुबंधों में ढलते चले जाते हैं. ऐसे समाजों में भी स्वार्थमय आचरण को सम्मान्य नहीं माना जाता, न ही उसको श्रेयस्कर की गरिमा मिल पाती है. समाज में वही उपक्रम आदर्श एवं प्रशंसनीय माना जाता है, जो सामाजिकता की मर्यादा और विकास के मानवीय लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम होता है. साथ ही जो संपूर्ण समाज के संतुलित विकास के पक्ष में खड़ा होता है.

सहकारिता की भावना, व्यक्ति को उसके विशिष्टताबोध के अनुचित एवं अवांछित दबावों से मुक्त रखती है; जिनके कारण वह दूसरों को आकर्षित करने की कोशिश करता रहता है. सहकार, पारस्परिक सहयोग के साथ संपूर्ण समाज के समन्वित विकास एवं उसकी एकात्मकता को बढ़ाने वाली भावना और तत्संबंधी प्रयासों का नाम है. यह सामाजिक सुरक्षा के साथसाथ उसके प्रत्येक सदस्य के विकास के प्रति आश्वस्ति भी है. यह मनुष्य को उन दुष्चिंताओं, डरों और तनावों से दूर रखता है, जो उसे अकेलेपन या आसन्न संकटों की संभावना के रूप में आक्रांत करते रहते हैं. सहकारी समाज में मनुष्य की निजी इच्छाएं, आकांक्षाएं, अपने समूह और समाज की कतिपय महत्त्वपूर्ण आकांक्षाओं के साथ इतनी घुलमिल जाती हैं कि वह सामूहिक हितसाधन में ही अपने हितों की पूर्णता देखने लगता है. स्वयंस्फूर्त भावना के साथ वह शेष समाज के हितरक्षण के लिए यथासामथ्र्य सहयोग करता है. दूसरी ओर समाज भी अपने दायित्वों के अनुपालन में अपने प्रत्येक सदस्य की आवश्यकताओंइच्छाओं को ध्यान में रखकर, उनकी पूर्ति के लिए यथोचित वातावरण बनाने के साथ, अपेक्षित सहयोग भी प्रदान करता है. इस तरह सहकार द्विपक्षीय सहयोग का सिलसिला है, जिसके एक सिरे पर मनुष्य और उसके संसाधन तथा दूसरे सिरे पर, पूरक के रूप में उसका अपना समाज तथा शेष समूह विद्यमान रहता है.

पारस्परिक सहयोग की भावना मनुष्य में सभ्यता के प्रारंभिक वर्षों से ही विद्यमान रही है. आदिम मनुष्य जिन दिनों अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु संघर्ष कर रहा था, अकेला या समूह के रूप में, और जिन दिनों पारिवारिक संस्था का विकास तक नहीं हो पाया था, जिन दिनों मनुष्य अपने झुंड का केवल एक सदस्य या कि एक प्राणिमात्र था और उसके संबंध केवल दैहिक आवश्यकताओं पर आधारित थे. सामाजिकता के बदले जब वह केवल अपनी प्राकृतिकजैविक आवश्यकताओं की पूर्ति पर ध्यान देता था. संबंध अपरिभाषित थे तथा उनमें स्थायित्व के स्थान पर केवल तात्कालिकता थी— उन दिनों, जी हां, उन दिनों भी सहकारभावना अपने पूरे एहसास और समर्पण भावना के साथ विद्यमान थी और इतनी विस्तीर्ण भी थी कि मनुष्य प्रकृति की प्रत्येक वस्तु को अपना मित्रहितैषी मानता था. निर्जीव ग्रहनक्षत्रों से उसका अपनापन था. दुनिया के सभी धर्मग्रंथ मैत्री की इसी उदात्त भावना और पवित्र स्तुति से भरे पड़े हैं. हालांकि उसका स्वरूप आधुनिक सहकारिता से भिन्न और अनौपचारिक था. आधुनिक सहकारिता सिद्धांत के बीज तत्व पारस्परिक सहयोगसमर्पण की उसी पवित्र भावना में खोजे जा सकते हैं.

ग्रामीण जीवन तो शुरू से ही परस्पर सहयोग एवं सहभागिता के सिद्धांत को अपनाता आया है. न केवल अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, बल्कि सांस्कृतिक स्तर पर भी सहकार वहां संबंधों को स्थायित्व एवं आत्मीयता प्रदान करने का प्रमुख कारण रहा है. पर्वत्योहारों से लेकर फसलों की कटाई, मेलेउत्सव, यहां तक कि गांवों में छप्पर छवाने का काम भी सहयोग भावना से मिलजुलकर किया जाता रहा है. सहकारिता का विधायी और सांगठनिक स्वरूप, पंजीकृत सहकारी संगठनों के माध्यम से निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति, उनीसवीं शताब्दी की देन है. प्राचीन भारतीय वांङ्मय में ‘सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः’, ‘कामयेः दुःखताप्तानाम्, प्राणिनाम् आर्तिनाशनम्’ तथा ‘वसुधैव कुंटुबकम्’ की मंगलकामनाएं, शंकराचार्य का सत्चित्आनंद, सुकरात का ‘शुभ’, प्लेटो का कल्याणकारी समाज का सपना, महावीर स्वामी का ‘कैवल्य’ आदि सभी में सहकारिता के सिद्धांत के बीजतत्व मौजूद रहे हैं. धर्म का लक्षण ही मानवमात्र की कल्याण कामना करते हुए स्वयं को अधिक से अधिक नैतिक बनाना है. ये सभी चूंकि समाज में सहस्राब्दियों से विद्यमान हैं, इसलिए सहकार की उपस्थिति भी सामान्य रूप से सभी जगह है. बावजूद इसके, सहकारिता का जनक, या कि प्रमुख प्रणेता होने का श्रेय राबर्ट ओवेन को ही दिया जाना चाहिए. क्योंकि सामूहिक लक्ष्यों और दायित्वों का निर्धारण करते हुए, जनतांत्रिक भावना पर आधारित समूह का गठन और फिर सर्वकल्याण के लिए संगठित प्रयासों की पहली कोशिश उसी ने की थी. जिसके लिए उसने अपने समस्त संसाधनों को होम दिया था.

इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि सहकारिता की ओर ध्यान या कहें कि इसके विधानिकीकरण की कोशिशें तभी शुरू हुईं, जब शिक्षित वर्ग का ध्यान उसकी ओर गया. दरअसल लोकतंत्र एवं शिक्षा के कारण लोगों में अपने आसपास की स्थितियों और घटनाओं को गहराई से समझने तथा दुरवस्था ने निपटने की कोशिशें लगातार चलती रहीं. उससे पहले इन जिम्मेदारियों को भगवानभरोसे छोड़ा जा सकता है. हालांकि तब भी सहकारिता की वास्तविक शक्ति, अर्धशिक्षित तथा उत्पीड़न के शिकार ऐसे लोग रहे जिनकी महत्त्वाकांक्षाएं बहुत सीमित थीं, जिनके पास संसाधनों का अभाव था, लेकिन स्थितियां एक समान थीं और नैतिकता के आग्रह इतने प्रबल थे कि वे सामाजिक हितों के आगे अपने हितों का निःसंकोच बलिदान भी कर सकते थे. प्रारंभिक सफलता के पश्चात आगे चलकर इसके माध्यम से कतिपय बड़े और दीर्घकालिक उद्देश्यों के लिए काम हो सका. सहकारी समूहों को मान्यता मिलने से उन्हें सरकार द्वारादृऋण मिलना आसान हो गया, उन्हें अपेक्षित सम्मान भी मिलने लगा जिससे सहकारिता की ओर पूरी दुनिया का ध्यान गया. और जगहजगह अपनी स्थितियों के अनुरूप उसको अपनाया भी गया.

सहकार के जिस स्वरूप से आज हम परिचित हैं— वह एक विदेशी अवधारणा है. जिसके बीजतत्व औद्योगिक क्रांति द्वारा पोषित असमान विकास में सन्निहित हैं. वस्तुतः सोलहवीं शताब्दी के बाद से यूरोप में आई औद्योगिक क्रांति ने पूंजीपतियों के हाथों में ऐसी क्षमतावान मशीनें सौंप दी थीं, जिनसे उनकी मानवीय कौशल पर निर्भरता घटी थी. ऐसी मशीनों के लिए प्रारंभिक निवेश की मात्रा उच्च थी, लेकिन उनकी उत्पादनक्षमता भी अद्भुत थी. नई प्रौद्योगिकी के आगमन के बाद पूंजीपतियों को लगने लगा था कि वे केवल पूंजी के दम पर मनचाहा मुनाफा खींच सकते हैंकि नई प्रौद्योगिकी वरदान है, जिसके द्वारा मजदूरों और शिल्पकारों से मुक्ति संभव हैं.

इसी विचारधारा ने उन्हें निरंकुश और स्वार्थी बना दिया था, उनमें अधिकाधिक मुनाफा कमाने की होड़ मची हुई थी. अधिक मुनाफे के लिए वे कारखानों में कार्यरत श्रमिकों ने मनचाहा काम तो लेते ही थे, बाजार में उत्पाद को मनमाने दामों पर बेचते भी थे, रोजमर्रा की वस्तुओं में मिलावट की शिकायत बिलकुल आम थी, जिससे महंगाई आसमान छूने लगी थी तथा आम नागरिक का जीवन बहुत कठिन होता जा रहा था. सरकार पर चूंकि पूंजीवादी शक्तियों का दबाव रहता था. अतः अपने प्रभाव के दम पर वे ऐसे कानून बनवाने में सफल रहते थे जो उनके मुनाफे को तो बढ़ाते हों, किंतु मानवीय श्रम एवं कौशल का विरोध करते हों.

सोलहवीं शताब्दी के वैज्ञानिक आविष्कारों के प्रभाव से अठारहवीं शताब्दी बीततेबीतते यूरोपीय समाज में सामंतशाही और गुलामियत से मुक्ति के लिए छटपटाहट शुरू हो चुकी थी. नवजागरण का नारा हवा में था. देकार्ते के बुद्धिवादी चिंतन से प्रेरणा लेते हुए बेंथम, जेम्स मिल, पू्रधों तथा जान स्टुअर्ट मिल जैसे विचारकों ने व्यक्तिवादी चिंतन को आगे बढ़ाया था. फलतः इतिहास में पहली बार आम आदमी को केंद्रबिंदु बनाकर सोचने की शुरुआत हुई. अर्थशास्त्र के क्षेत्र में भी संत आगस्टीन, रिकार्डो, एडम स्मिथ जैसे उदारवादी अर्थशास्त्री आगे आए थे; जो आर्थिक नीतियों में खुलेपन के समर्थक थे तथा योजनाओं को जनोन्मुखी बनाने के पक्षधर थे. उन्होंने नीतियों की समीक्षा करते हुए एक बौद्धिक वातावरण ही संरचना की जिससे बाजार की परंपरागत नीतियों पर पुनर्वीक्षा की मांग भी की जाने लगी.

नवचेतना की यह लहर वंचित और उपेक्षित वर्ग के बीच भी फैली हुई थी. यह वर्ग सहस्राब्दियों से समाज के साधनसंपन्न वर्ग के शोषण का शिकार होता आया था. सपनों के हवामहल दिखाने वाले शासकों तथा उनके द्वारा बनाई गई व्यवस्था से उसका विश्वास खंडित हो चुका था. उसे लगने लगा था कि ऐच्छिक विकास का रास्ता केवल निजी प्रयासों से ही संभव है. उजला भविष्य उसके अपने ही श्रम की कोख से जन्म लेगा, जिसमें उसके अपने ही समूह की साझेदारी होगी, ऐसा उसको आभास हो चला था.

ऐसे ही संक्रांतिपूर्ण माहौल में सहकारिता की रूपरेखा तय की गई थी, अनायास नहीं, लंबे अनुभव के पश्चात, खूब सोचविचार के बाद. हम पहले भी लिख चुके हैं कि— सहकारिता का उद्भव समाज में मौजूद सहस्राब्दियों पुरानी सहयोग की परंपरा से ही हुआ है. आपसी सहयोग की उसी सनातन परंपरा को सामूहिक विकास और उत्पादकता से जोड़ते हुए सहकारिता की रूपरेखा गढ़ी गई. कह सकते हैं कि आमजन की अस्मिता की रक्षा एवं पूंजीवाद के संकट से बचाव के रूप में सहकारिता का जन्म हुआ था. दूसरे शब्दों में पूंजीवादी खतरों की प्रतिक्रिया में उत्पन्न मध्यमवर्गीय चेतना का परिणाम ही सहकारिता है.

प्रारंभ में सहकारिता आंदोलन केवल उपभोक्ता सामग्री के वितरण तक सीमित था, जिसकी पहंुच केवल श्रमिक बस्तियों तक थी. रोशडेल पायनियर्स समूह के अधिकांश सदस्य गरीब और अल्पशिक्षित बुनकर थे. वे पूंजीवादी दबावों और बढ़ती महंगाई से तंग आ चुके थे. पहले पहल उन्होंने सहकारी उपभोक्ता भंडारों की शुरुआत की, जिसको व्यापक जनसमर्थन प्राप्त हुआ. अनेक उतारचढ़ावों के बाद वह आंदोलन विस्तार ग्रहण करता गया. नएनए लोग उससे जुड़ते चले गए. उत्पादकता से जुड़े दूसरे क्षेत्रों में भी सहकारी संगठन बनाए गए. बाद में राज्य सरकारें भी सहकारी आंदोलन की समर्थक बनकर उससे जुड़ती चली गईं. उन्हें लगा कि सहकारी संस्थाएं सरकार के कल्याण कार्यक्रमों में उसकी मदद कर सकती हैं. सरकारों को अपने दायित्व के निवर्हन के लिए जिस प्रकार के जिम्मेदार संगठनों की आवश्यकता पड़ती है, सहकारी समितियांे वे सभी गुण थे. इसीलिए सहकारिता को सरकारी समर्थन, चाहे वह किसी भी दल अथवा विचारधारा की हो, मिलना आवश्यक था. सहकारिता के विकास में यह भी महत्त्वपूर्ण कारण रहा है.

भारत में इस सहकारिता आंदोलन की शुरुआत कतिपय विलंब से, बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में, तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के प्रयासों के फलस्वरूप हुई. तब से आज तक यह आंदोलन एक शताब्दी से भी लंबा सफर तय कर चुका है. जमीनी स्तर पर सहकारिता की उपलब्धियां सराहनीय रही हैं. आज हालात यह हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था से यदि सहकारी संस्थाओं के योगदान को निकाल दिया जाए तो वह कंकाल में बदल जाएगी. न केवल अर्थव्यवस्था बल्कि समाजव्यवस्था को कायम रखने में भी सहकार की भारी उपयोगिता रही है. भारत के साथसाथ ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, डेनमार्क, नार्वे, चीन, अमेरिका, कनाडा आदि लगभग सभी देशों में सहकारिता आंदोलन की उपलब्धियां सराहना योग्य हैं, जिन्हें भुला पाना अथवा जिनकी उपेक्षा कर पाना नामुमकिन है.

इन दिनों अनियोजित विकास तथा आधुनिकता के दबावों के चलते भारतीय ग्रामव्यवस्था का परंपरागत ढांचा चरमायी बुरी तरह से चरमराया हुआ है. ग्रामीण क्षेत्रों में, पहले जहां अनौपचारिक सहकारी प्रयास अक्सर देखने को मिल जाते थे, सहयोग की जहां सहजस्वाभाविक उपस्थिति थी, संबंधों में जहां आत्मीयता रहती थी, वहां आजकल बाजारवाद अपने पांव जमाने में लगा है. जिस मानवीय उदारता की हमारे गांव मिसाल हुआ करते थे, वह तेजी से गायब होती जा रही है, बल्कि कहना चाहिए कि बाजार के दबावों के आगे दम तोड़ चुकी है, जिससे वहां पर भारी आपाधापी का माहौल है.

कल्याण राज्य का सपना देखने वालों के लिए सहकारिता एक अनिवार्य उपक्रम है. यह लोगों को आत्मविश्वासयुक्त एवं आत्मनिर्भर बनाने के लिए जरूरी है, ताकि सरकार पर उनकी निर्भरता कम से कम हो सके. एक आदर्श राज्य के लिए बहुत जरूरी है कि व्यक्ति, समाज और सरकार के संबंध परस्पर अन्योन्याश्रित हों. उनमें कहीं भी विवशता अथवा परावलंबनता दिखाई न पड़े. तभी समाज एवं सरकार अपनेअपने दायित्व का अनुपालन कर सकते हैं. सहकार भावना केवल सजग और चैतन्य समाज में ही संभव है, जबकि आत्मचेतित समाज के लिए यह अत्यावश्यक होता है कि उसके सदस्यों में सहयोग और समर्पण का भाव तो हो, मगर परावलंबन की भावना हरगिज न हो. इसलिए समेकित विकास के लक्ष्य के लिए सहकारिता एक अनिवार्य उपक्रम बन जाती है जिसका उपयोग पिछले डेढ़ सौ वर्षों से लगातार विभिन्न मंचों पर, नाना प्रतिरूपों में दिखाई पड़ने लगा है.

©ओमप्रकाश कश्यप