लेखकनामा
इस शृंखला में हमने अभी तक मार्टिन लूथर, काल्विन, मूर, वाल्तेयर, रूसो, संत साइमन, एडम स्मिथ आदि विद्वानों, अर्थशास्त्रियों और समाज सुधारकों के विचारों का अवगाहन किया. उनके जीवनसंघर्ष के बारे में जाना. मानवेतिहास पर उनके विचारों द्वारा पड़ने वाले प्रभाव की संक्षिप्त समीक्षा की. इस बहाने उनके युग की मुख्य प्रवृत्तियों के बारे में भी संक्षिप्त जानकारी प्राप्त की. इन महापुरुषों के बारे में जानना इसलिए आवश्यक है कि इन सभी ने अपने समय की प्रचलित धारा के विरुद्ध जाकर कार्य किया. उसके लिए विरोधियों की प्रताड़नाएं भी सहीं. जेल गए, फांसी चढ़े, अपने सुख और संसाधनों का बलिदान किया, किंतु अपने विचारों पर अडिग रहे. सत्य की स्थापना के लिए संघर्ष को निरंतर आगे बढ़ाते रहे. अपने वैचारिक अवदान एवं जीवनसंघर्ष द्वारा उन्होंने समाज को प्रभावित करने में सफलता प्राप्त की. अंततः लोगों ने भी उनके विचारों और भावनाओं को समझा और उनको अपना प्रेरक मानकर वास्तविक सम्मान दिया. वस्तुतः वौद्धिक समाज का निर्माण कोई एक दिन की परिघटना नहीं है. न परिवर्तन एकाएक, एक ही झटके में संभव हो सका था. बल्कि परिवर्तन की यह शंृखला एक एकांतर-क्रम में बहुत धीरे-धीरे हुई. बीच-बीच में व्यतिक्रम भी आते रहे हैं.
दरअसल मनुष्यता के संघर्ष का प्रारंभ मुक्त कबिलाई जीवन से हुआ है. निश्चित रूप से उससे पहले भी आदिम मनुष्य को जीने के लिए संघर्ष करना पड़ा होगा. लेकिन वह अकेले प्राणी का संघर्ष था. कबिलाई जीवन का उद्भव सभ्यता के उदय की आरंभिक घटना थी. समाज की स्थापना से पहले तक मनुष्य का जीवन पशुओं की भांति था. उसकी आवश्यकताएं जैविक थीं, जो वन्य जीवन के दौरान कदम-कदम पर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वाले आदिम मनुष्य द्वारा अपनी सुरक्षा के लिए जरूरी थीं. सभ्यता-परिष्करण के दौरान परिवार, राज्य आदि विभिन्न संस्थाओं का जन्म हुआ. राज्य और समाज को व्यवस्थित करने के लिए कानून बनाए गए. फिर उन कानूनों के पालन के लिए समाज एवं राज्य द्वारा कुछ लोगों को विशिष्ट अधिकार, कर्तव्य आदि सौंपे गए. व्यवस्था बनाए रखने के लिए यह भी आवश्यक था. वह प्रशासन की सरलतम व्यवस्था थी, किंतु सरल से जटिल स्थितियों की ओर बढ़ना एक प्राकृतिक सिद्धांत है.
तो हुआ यह कि शीर्ष पर बैठे लोगों ने, उन लोगों ने जिन्हें व्यवस्था बनाए रखने के लिए अतिरिक्त रूप से अधिकार संपन्न बनाया गया था, अपनी स्थिति का लाभ क्षुद्र स्वाथों के लिए उठाना आरंभ कर दिया. यह कार्य धर्म, समाज एवं राजनीति समेत अनेक स्तरों पर हुआ. सामाजिक स्तर पर वर्ग और जाति बनाकर. उन्हीं के आधार पर समाज का स्तरीकरण किया गया तो राजनीतिक स्तर पर राजा को अतिरिक्त रूप से अधिकार संपन्न बनाया गया. आदिमानव, ने शिकार-अभियान के दौरान अपना नेतृत्व सौंपकर जिसे अपने समूह का अस्थायी नेता-कर्ता आदि स्वीकार किया था, निहित स्वार्थों के लिए वह धीरे-धीरे अपना स्थान पक्का करता चला गया. प्रारंभ में शीर्ष पर बने रहने के पीछे नेतृत्वकर्ता के अपने गुणों का भी योगदान होता था, किंतु कालांतर में व्यक्तिगत गुणों के आधार पर चयन की प्रक्रिया का स्थान विशिष्ट वर्ग को मिली सुविधाओं ने ले लिया. समाज में विशिष्ट सुविधाओं और अधिकारों से संपन्न वर्ग बनने लगे, जिन्होंने धीरे-धीरे स्थितियों को अपने पक्ष में करना प्रारंभ कर दिया. इनमें से कुछ वर्गों के पीठ पर धर्मसत्ता का हाथ था तो कुछ को राजनीति तथा कुछ को अपनी स्थिति का लाभ उठाकर अतिरिक्त रूप से जुटाए गए आर्थिक संसाधनों द्वारा ताकत मिलती रही.
भारतीय समाज के जातीय स्तरीकरण का लाभ उठाते हुए यहां ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि जाति आधारित समूह बने तो धार्मिक विभाजन के आधार पर पंडित, मौलवी, पादरी आदि ने अपने-अपने अनुयायियों को अपने संकेतों पर नाचने को मजबूर कर दिया. इन सभी ने अपने वर्गीय स्वार्थों के लिए सुख-सुविधाओं पर अपना विशेषाधिकार बनाए रखने के लिए सामाजिक नियमों में संशोधन करना प्रारंभ कर दिया. तो भी प्रारंभ में जातीय और सामाजिक स्तरीकरण का स्वरूप काफी लचीला था. जैसे कि वैदिक भारत में जाति केवल वर्गीय विभाजन तक सीमित थी. और ये वर्ग भी खुले हुए थे. कोई व्यक्ति अपनी रुचि, कार्यक्षमता और योग्यता के अनुसार अपने वर्ग में परिवर्तन कर सकता था. धीरे-धीरे यह स्थिति बदलती चली गई. वर्ग जातियों में बदले और जातियां उपजातियों में बंटती चली र्गईं. विशेषाधिकार बनाए रखने के लिए जातीय और धार्मिक आधार पर शोषण की घटनाएं आम होने लगीं. आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग ने पहले जाति को जन्मगत किया, तत्पश्चात उसके अनुसार समाज को विभाजित करना प्रारंभ कर दिया. जिसके परिणामस्वरूप पश्चिमी देशों में निकृष्ट और अमानवीय दासप्रथा का जन्म हुआ तो भारत आदि एशियाई देशों में वही स्थितियां जातिप्रथा के रूप में सामने आने लगीं. धीरे-धीरे समाज का विभाजन दो वर्गों में होता चला गया. उनमें एक वर्ग उत्पीड़कों का था, जिनके पास सत्ता, सुख और संसाधनों की भरमार थी. उनमें वे लोग थे जो अपने धार्मिक और राजनीतिक संपर्कों तथा उच्च आर्थिक हैसियत के आधार पर अपनी स्थिति और उत्पीड़न को नैसर्गिक आधार देने पर तुले था, ताकि उनकी आलोचना का कोई आधार ही न रहे. यह कार्य कभी जातिगत भिन्नताओं के आधार पर तो कभी पूर्वजन्मों के संस्कार, भाग्यलेख आदि के बहाने से किया जा रहा था.
ऐसा नहीं है कि उत्पीड़ित वर्ग हमेशा चुपचाप रहकर उत्पीड़न सहता रहा. अपनी स्थिति से उबरने का उसने कभी प्रयास ही नहीं किया. प्रत्येक देश और समाज में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब उत्पीड़ितों ने सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक अनाचार का संगठित विरोध कर समाज के शीर्षस्थ वर्ग के आगे गंभीर चुनौती पेश की. कई बार तो उसको सफलता भी हाथ लगी. दासप्रथा के विरोध में आदिविद्रोही स्पार्टकस के विरोध को भुला पाना आसान नहीं है. रोम के इस दास-योद्धा (ग्लेडिएटर) ने पहली बार दासों को संगठित करके विशाल रोमन साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष का आवाह्न किया था. उस समय के सर्वाधिक संपन्न और शक्तिशाली रोमन साम्राज्य के विरुद्ध, ईसा के जन्म से लगभग तिहत्तर वर्ष पहले, मात्र चैहत्तर गुलाम साथियों के साथ शुरू किया गया, वह पहला स्वाधीनता युद्ध जब अपने शिखर पर पहुंचा तो एक लाख से ऊपर गुलाम सैनिक स्पार्टकस के साथ युद्धभूमि में अपनी आजादी के लिए लोहा लेने को तैयार खड़े थे. इतिहास का वह संभवतः सबसे पहला मुक्ति संग्राम था, जब उन बहादुर दास सैनिकों ने किसी राजा या सामंत के कहने पर नहीं, बल्कि अपनी आजादी और मान-सम्मान के लिए, स्वेच्छा से हथियार उठाए थे. संभवतः वह पहला अवसर था, जब इतनी बड़ी संख्या में दास ग्लेडियेटरों ने सम्राट और सामंतों के मनोरंजन के लिए शस्त्र न उठाकर, अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए मृत्यु के वरण का संकल्प लिया था.
उस बहादुर दास सेना ने दो बड़े युद्धों में रोम की अजेय समझी जाने वाली सेना को हार का मुंह देखने को विवश कर दिया. अंत में संगठित सेना के जबरदस्त प्रहार और अपने ही साथियों के षड्यंत्र के कारण स्पार्टकस को युद्धभूमि में पराजय मिली. गुलाम बनाए गए लगभग साढ़े बारह हजार सैनिकों के साथ वह युद्धभूमि पर शहीद हुआ. पराजय के पश्चात पकड़े गए छह हजार से ऊपर दासों को जिंदा सूली पर टंगवा दिया. बाकी गुलामों को अपनी ताकत का एहसास कराने के लिए, मदांध रोम साम्राज्य ने रोम से कपुआ तक के लगभग दो सौ किलोमीटर के रास्ते पर गाढ़ी गई छह हजार से अधिक सूलियों पर विद्रोही दास सैनिकों को जीवित ही लटकवा दिया गया. कई दिनों तक उनकी घायल कराहें, मर्मांतक चीत्कार हवा में गूंजते रहे. मनुष्यता के इतिहास की उस सर्वाधिक निर्लज्ज घटना में, एक ओर रोम के भ्रष्ट सम्राट और सामंत अपना विजय उत्सव मना रहे थे, दूसरी ओर चील-कव्वे बहादुर घायल सैनिकों के जीवित शरीरों से मांस नोंच-नोंच कर खा रहे थे. कई शवों से मरने से पहले ही आंखें नोंच ली गई थीं.
दिल हिला देने वाली यह घटना हालांकि स्पार्टकस और उसके साथियों की पराजय के रूप में इतिहास में दर्ज है, किंतु क्या यह सचमुच उनकी पराजय थी. धर्म और राजसत्ता के ऐसे ही अनाचारों ने आगे चलकर उन्हें ईसा मसीह को पैगंबर बनाने में मदद की थी. मनुष्यता की इस कराह की परिणति रोम की तबाही के रूप में हुई. जबकि स्पार्टकस मरकर भी अमर रहा. उसकी बहादुरी और इंसानियत के लिए छेडे़ गए युद्ध के कारण शताब्दियों बाद भी वह अपने जैसे उत्पीड़ितों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहा. आखिर मनुष्यता के समर्थक एवं स्वाधीनता के चहेतों ने अठारहवीं शताब्दी में स्पार्टकस के महत्त्व को पहचाना और उसके प्रति अपनी सच्ची ऋद्धांजलि प्रस्तुत करते हुए उसके संघर्ष को इतिहास में ससम्मान प्रतिष्ठापित किया.
धार्मिक-राजनीतिक वर्चस्व के विरुद्ध लोक-अस्मिता के संघर्ष का आगाज केवल पश्चिमी देशों तक सीमित नहीं है. भारत में तो वर्चस्व से मुक्ति के लिए संघर्ष की शुरुआत रोम के उस युद्ध से पांच शताब्दी पहले ही हो चुकी थी, जब वैदिक संस्कृति के नाम पर फैलाए जा रहे धार्मिक आडंबरवाद, बलिप्रथा, जातीय भेद और कर्मकांडों के विरोध में गौतम बुद्ध ने श्रमण संस्कृति का आवाह्न किया. उन्हीं के साथ-साथ महावीर स्वामी ने भी जैन दर्शन के माध्यम से ब्राह्मणवाद और उसके द्वारा फैलाए जा रहे कर्मकांडों, आडंबरवाद को कारगर चुनौती प्रस्तुत की थी, जिसने शताब्दियों तक ब्राह्मणवाद को अपदस्थ रखा.
इस तरह प्रत्येक समाज और संस्कृति में अपने अंर्तद्वंद्व तथा संघर्ष रहे हैं. साथ ही ऐसे संकटों से उबरने के लिए संघर्ष के अनेक उदाहरण भी इतिहास में मौजूद हैं. मनुष्यता को राजनीतिक उत्पीड़न और धार्मिक आडंबरवाद से मुक्त कराने के संघर्ष तो हर शताब्दी कर काल, परिवेश में होते रहे हैं. लेकिन उसके लिए वास्तविक संघर्ष पंद्रहवीं और सोहलवीं शताब्दी में ही शुरू हो सका. औद्योगिकीकरण एवं वैज्ञानिक खोजों ने उसे तार्किक आधार दिया था. जिससे चर्च समेत दुनिया की सभी धार्मिक संस्थाओं को, जहां धर्म सांगठनिक सत्ता के रूप में अपनी निर्णायक उपस्थिति बनाए हुए था, सुधारवादियों की ओर से चुनौती मिलने लगी. भारत में यह कार्य भक्त कवियों द्वारा तथा यूरोप में मार्टिन लूथर, का॓ल्विन जैसे उदारवादियों द्वारा संभव हो सका.
लोकतंत्र, सहकारिता, सर्वोदय और समाजवाद जैसी आधुनिक और अपेक्षाकृत मानवीय दिखने वाली किसी भी विचारधारा से यदि आज हम प्रभावित हैं, तो इसलिए कि उसके पीछे महापुरुषों की कई पीढ़ियों का दर्शन और संघर्ष छिपा हुआ है. ऐसा नहीं है कि प्रत्येक महापुरुष ने अपने समय में, समाज में व्याप्त सभी कुरीतियों का एक साथ विरोध किया हो. यह सबकुछ देशकाल, परिस्थितियों तथा व्यक्ति-विशेष की अभिरुचियों पर निर्भर रहा है. अरस्तु जैसा विद्वान दास प्रथा के समर्थकों में से था. जबकि सत्य और अहिंसा के सिद्धांत के आधार पर अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व करने वाले महात्मा गांधी जातिप्रथा के समर्थकों में बने रहे. मानवाधिकार, व्यक्ति-स्वातंत्रय तथा स्त्री-पुरुष समानता का अठारहवीं शताब्दी का सबसे बड़ा पैरोकार रूसो अपनी पत्नी और बच्चों की उपेक्षा करता रहा. सचाई यह है कि किसी भी विचार को स्थापित होने से पहले अनेक स्थितियों, परिक्षाओं से गुजरना पड़ता है. मानव सभ्यता का इतिहास दरअसल विभिन्न सामाजिक अंतर्द्वंद्वों और उनके आधार पर विकसित विचार सरणियों का भी इतिहास है. इन विद्वानों के जीवन-संघर्ष तथा उनकी वैचारिक दृढ़ता से इस तथ्य को आसानी से समझा जा सकता है.
इस शृंखला की अगली के कड़ी के रूप में हम पियरे जोसेफ प्रूधों के जीवनचरित की झलक दे रहे हैं. जिससे मार्क्स ने बहुत कुछ ग्रहण किया.— ओमप्रकाश कश्यप
पीयरे जोसेफ प्रूधों (Pierre-Joseph Proudhon), जनवरी 15, 1809 से जनवरी 19, 1865 तक, का नाम उनीसवीं शताब्दी के अग्रणी समाजवादी चिंतकों, अर्थशास्त्रियों के बीच अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है. वह पहला आदमी था जो सही मायने में समाजवादी था, लेकिन जिसने स्वयं को अराजकतावादी ऐलान करते हुए जोर देकर कहा था कि ‘व्यक्तिगत संपत्ति चोरी है.’ अपने विचारों की व्याख्या करते हुए प्रूधों ने एक पुस्तक भी लिखी—What is Property? An Inquiry into the Principle of Right and of Government. इस पुस्तक ने प्रूधों ने प्रचलित मान्यताओं को खंड-खंड तोड़ते हुए एक ऐसे समाज की संकल्पना की थी, जहां पर पूरा समुदाय एक परिवार की तरह रहे. संपत्ति पर लोगों का सामूहिक अधिकार हो, मनुष्य को पूरी आजादी मिले, सरकार या किसी अन्य किसी भी प्रकार की सत्ता का हस्तक्षेप कम से कम रहे. लोगों में अधिकार चेतना हो, ताकि वह अपने हक के लिए संघर्ष कर सकें.
ध्यातव्य है कि कुछ इसी प्रकार का सपना प्रूधों का समकालीन राबर्ट ओवेन भी देख रहा था. यही नहीं ओवेन तो समाजवाद और सहकार को लेकर अपने प्रयोग आरंभ भी कर चुका था, और इस कारण खासी चर्चा में भी था. मगर कुल मिलाकर ओवेन था एक व्यापारी ही. उसके प्रयासों के पीछे कहीं न कहीं उसकी लाभ कमाने की चाहत छिपी थी. अपनी फैक्ट्रियों में कार्य करने वाले कारीगरों, मजदूरों के लिए उसने एक गर्वोक्ति भी की थी कि—
‘लोग मेरी दया पर निर्भर, मेरे गुलाम हैं.
अपने समकालीन दूसरे समाजवादियों की अपेक्षा प्रूधों सवार्धिक मुखर एवं अपने प्रयासों में पूर्णतः ईमानदार था. स्वयं को अराजकतावादी घोषित करके उसने ने एक प्रकार से छद्म समाजवादियों को चुनौती दी थी. देखा जाए तो यह भी एक प्रकार से आलोचना एवं विरोध प्रदर्शन का शालीन तरीका था. उन लोगों से जिनकी कथनी और करनी में कोई तालमेल नहीं था. प्रूधों का अराजकतावाद(Anarchism) इसकी प्रचलित अवधारणा से एकदम भिन्न है. सामान्यतः अराजकतावाद का अभिप्राय कुशासन और अव्यवस्था से लिया जाता है. जबकि प्रूधों के अनुसार अराजकतावाद राजनीति की वह उच्चतम स्थिति है, जहां कानून का हस्तक्षेप कम से कम हो. लोग अपने दायित्वों के निर्वहन के प्रति स्वयं सजग हों.
प्रूधों की चर्चा उसकी एक सुप्रचलित उक्ति ‘संपत्ति चोरी है—संपत्तिशाली व्यक्ति चोर है’ के कारण भी की जाती है. प्रूधों की पुस्तक ‘सपत्ति क्या है?’ की विद्वानों द्वारा भरपूर सराहना की गई, जिसने उसे अल्प समय में ही पूरे यूरोप में चर्चित कर दिया था. मार्क्स ने उससे प्रभावित होकर एक पत्र लिखा था. आगे चलकर वे दोनों परस्पर अच्छे दोस्त बन गए तथा आजीवन एक-दूसरे से प्रेरणा लेते रहे. हालांकि दोनों के बीच पूर्ण वैचारिक सहमति कभी नहीं बन पाई.
प्रूधों का जन्म फ्रांस के बेसांकों(Besançon) नामक स्थान पर 15 जनवरी 1809 को हुआ था. उसके पिता एक साधारण लुहार थे, वे शराब के पीपे बनाने का काम करते थे. निर्धन परिवार में जन्म लेने के कारण बचपन से ही प्रूधों को कठिन परिश्रम करना पड़ा. जीवन-संघर्ष की शुरुआत उसने गाय चराने और घर के काम-काज से की. कुछ समझदार हुआ तो पढ़ने की लालसा उत्पन्न हुई, मगर परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी न थी कि वह पढ़ाई-लिखाई संभव हो सके. मां कैथरीन सिमोनिन दूरदर्शी महिला थीं. उन्हीं की जिद थी कि उनका बेटा कुछ पढ़े. बावजूद इसके वर्षों तक वह पढ़ाई से दूर ही रहा. अंततः सोलह साल की अवस्था में, मां के ही प्रयासों से उसने जैसे-तैसे एक स्थानीय स्कूल में प्रवेश ले लिया. इसके बावजूद राह अभी आसान न थी. पिता के एक संबंध के कारण प्रूधों को फीस माफी की सुविधा मिल गई. प्रूधों खुश था, उसको विश्वास था कि आगे से उसकी पढ़ाई की राह आसान हो जाएगी. लेकिन प्रवेश लेना एक बात है और अध्ययन जारी रख पाना दूसरी बात. गरीब प्रूधों के पास पुस्तकें खरीदने के लिए भी पैसे न थे. स्कूल में पुस्तक साथ न ला पाने के कारण उसको बार-बार सजा मिलती. साथी छात्रों के बीच वह उपहास का पात्र बनता. परंतु जहां चाह, वहां राह…जहां संकल्प वहां विकल्प—जैसी कहावतें सच होती रहीं या कहें कि जीवट का धनी प्रूधों अपने संघर्ष से उन्हें हकीकत में बदलता रहा.
प्रूधों ने स्कूल की फीस भरने के लिए समय निकालकर मेहनत-मजदूरी करनी शुरू कर दी. जैसे-तैसे मेहनत-मजदूरी करके वह फीस का प्रबंध तो कर लेता, लेकिन पुस्तकों के लिए उसको दूसरे छात्रों के आगे हाथ फैलाना पड़ता था. दूसरे छात्रों से पुस्तक मांगकर जैसे-तैसे उसकी नकल तैयार करके वह अपना काम चलाता. मगर कभी-कभी ऐसा होता कि छात्रें को स्वयं भी पुस्तकों की आवश्यकता पड़ती. इसके लिए उसने एक रास्ता निकाल लिया. अब वह ऐसे समय में अपनी पढ़ाई करता, जिस समय दूसरे विद्यार्थी आराम कर रहे होते. जाहिर है कि ऐसा समय रात को ही मिल पाता, जिस समय बाकी विद्यार्थी सो रहे होते. प्रूधों उनके सोने से पहले उनसे पुस्तकें मांग लाता और प्रातःकाल उनके जागने से पहले पुस्तकें लौटा देता.
इतने संघर्ष के बाद भी स्कूल-स्तर से उसकी पढ़ाई आगे न बढ़ सकी. उम्र के उनीसवे वर्ष से ही प्रूधों को नौकरी पर जाना पड़ा. एक छापाखाने में उसे कंपोजिटर की नौकरी मिल गई. इस धंधे ने यूरोप में अनेक अराजकतावादियों को जन्म दिया था, लेकिन खुद को अराजकतावादी(Anarchist) कहने वाला सबसे पहला आदमी प्रूधों ही था. हालांकि उसकी अराजकतावाद(Anarchism) की परिभाषा उसकी प्रचलित परिभाषा से भिन्न है. बहरहाल, उसको कंपोजीटर की नौकरी भी आसानी से नहीं मिली थी. अठारह-उनीस वर्ष के अनुभवहीन किशोर को सिवाय घरेलू नौकर के कोई और सम्मानित काम देने को कोई तैयार न था. इसलिए नौकरी की खोज में प्रूधों को फ्रांस में इस शहर से उस शहर के बीच दौड़ लगानी पड़ी थी, जिससे वह लोगों के संपर्क में आया और उसको अपने समाज को करीब से देखने-समझने का अवसर मिला. उसने पाया कि भौगोलिक भिन्नताओं के बावजूद सभी जगह गरीबी है, उसके कारण भी एक ही जैसे हैं. लोगों की समस्याओं में भी साम्य है. प्रशासन की बदइंतजामी भी सभी जगह एक जैसी है.
तभी एक दुर्घटना ने प्रूधों को आहत कर दिया. उसका एक भाई सेना भर्ती था. 1833 में प्रूधों को एक दुर्घटना में अपने भाई की मृत्यु होने का दुःखद संदेश प्राप्त हुआ, जिसने उसको हिलाकर रख दिया. उस दुर्घटना से जुड़ा एक और समाचार ज्यादा दुःखदायी और आक्रोश पैदा करनेवाला था. प्रूधों को बताया गया कि उसके भाई ने सेना में अपने वरिष्ठ द्वारा सेना के फंड के दुरुपयोग के विरुद्ध आवाज उठाई थी. उसके बाद ही वह दुर्घटना घटी थी. इससे प्रूधों के मन में व्यवस्था के प्रति गुस्सा फूटने लगा. उसे लगा कि तंत्र न केवल स्वार्थी और आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है, बल्कि वह निष्ठुर, क्रूर, आततायी और निर्लज्ज भी है. इस घटना के बाद आमजन के प्रति उसकी सहानुभूति बढ़ती गई और वह व्यवस्था में आमूल परिवर्तन का समर्थक बन गया.
प्रूधों का दिमाग जितनी तेजी से सोच रहा था, उतनी ही समाज को जानने-समझने की उसकी भूख बढ़ती जा रही थी. पढ़ाई बीच ही में छूट जाने के कारण वह पुस्तकों से एकाएक दूर हो चुका था. नौकरी की व्यस्तता के चलते लोगों से संपर्क भी घटा था. उसकी भरपाई के लिए उसको ऐसी पुस्तकों की जरूरत थी जो उसकी मानसिक खुराक के लिए उचित सामग्री का प्रदान कर सकें. पुस्तकें खरीदने लायक उसकी स्थिति अब भी नहीं थी. लेकिन नियति उसपर मेहरबान थी. वह इतिहास में प्रूधों की भूमिका निर्धारित कर चुकी थी. आगे की इबारत प्रिटिंग प्रेस में नौकरी करते हुए ही लिखी जानी थी.
जिस छापेखाने में पूधों को नौकरी मिली थी, वहां पर फ्यूरियरवाद और सामाजिक क्रांति का समर्थन करने वाला साहित्य छपने के लिए आता था. मेधावी प्रूधों कंपोजिग करते हुए ही उसे पढ़ जाता था. पूरी दूनिया में क्रांति के प्रति समर्थन बढ़ता जा रहा था. रूस में जारशाही के प्रति सशस्त्र आंदोलनों की भूमिका गढ़ी जा रही थी. उस प्रेस में लेनिन की पुस्तकें भी प्रकाशन के लिए आती थीं. प्रूधों पर फ्यूरियर और लेनिन के विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा. कुछ ही वर्षों में उसने खुद को लेनिन के साहित्य का विशेषज्ञ सिद्ध कर दिया. इसका लाभ उसे नौकरी के दौरान भी मिला. तरक्की करते हुए वह प्रूफ रीडर और कुछ दिनों बाद ही संपादक के पद तक पहुंच गया. प्रेस में काम करते हुए उसने हिब्रू सीखी, जिसके माध्यम से उसने राजनीति, दर्शन और अध्यात्म पर लिखी सभी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें चाट डालीं. यही नहीं उसने उसी काम पर रहते हुए ग्रीक, लैटिन तथा फ्रेंच भाषाओं पर भी अधिकार प्राप्त कर लिया, जो उसके उन भाषाओं में उपलब्ध साहित्य को पढ़ने में बहुत काम आईं. इसके कुछ ही दिनों बाद उसने हिब्रू, ग्रीक और लैटिन आदि भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया.
यह प्रूधों की जन्मजात प्रतिभा का पहला चमत्कार था. चारों भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर प्रूधों ने उनके सामान्य व्याकरण पर आधारित अपना पहला निबंध लिखा. चूंकि प्रूधों को भाषा-विज्ञान का खास ज्ञान नहीं था, इसलिए उसके निबंध को भाषाविज्ञानियों द्वारा नकार दिया गया. इसके बावजूद वह लेख उसकी प्रारंभिक प्रसिद्धि का कारण बना. उस लेख में उसके अराजकतावादी विचारों की झलक थी. उस लेख को एक प्रतियोगिता में तीसरा स्थान प्राप्त हुआ था. पुरस्कार लेने पहुंचे प्रूधों को आयोजकों की ओर से चेतावनी भी मिली कि वह भविष्य में ऐसे अराजकतावादी विचारों से बाज आए. लेकिन बजाए कम होने के कारण सामाजिक परिवर्तन के प्रति प्रूधों का आग्रह बढ़ता ही गया. प्रूधों ने आर्थिक-सामाजिक असमानता के प्रति आक्रोश के बीज संस्कार के रूप में अपने नाना टोर्नंसी सिमोंइन(Tornesi Simonin) से प्राप्त किए थे, जो स्वयं छोटे किसानों और गरीब मजदूरों का नेता और प्रवक्ता था तथा उनके आपसी झगड़े निपटाने का कार्य करता था.
1832 में प्रूधों को फ्यूरियरवादियों द्वारा प्रकाशित समाचारपत्र का संपादन बनने का निमंत्रण मिला. उसमें कार्य करते हुए प्रूधों का पिछला अनुभव बहुत काम आया. इस बीच उसको अपने समय के जाने-माने विद्वानों से संपर्क करने का अवसर मिला था. उसको थोड़ी-थोड़ी प्रसिद्धि भी मिलने लगी थी. परिणाम यह हुआ कि उसको अपना अध्ययन आगे बढ़ाने के लिए बेसांको विश्वविद्यालय की ओर से छात्रवृति मिल गई. बिना किसी अकादमिक योग्यता के छात्रवृत्ति का मिलना प्रूधों के लिए बड़ी कामयाबी थी, सपने के सच होने जैसी, महान और चामत्कारिक. यह एक तरह से उसकी विलक्षण मेधा का विश्वविद्यालय द्वारा किया गया सम्मान था. इससे प्रूधों के आत्मविश्वास को बल मिला. उसके अगले कुछ वर्ष पेरिस तथा बेसांकों के बीच यात्र करते हुए बीते.
कुछ साल के संघर्ष के पश्चात अपने दो मित्रें के सहयोग से वह अपना छापाखाना लगाने में कामयाब हो गया. उसके माध्यम से प्रूधों ने अपने एवं अपने मित्रें के कृतित्व का प्रकाशन आरंभ कर दिया. उसकी अपनी पहली महत्त्वपूर्ण कृति ‘संपत्ति क्या है’ थी, जिसको सन 1840 में किसी और प्रेस द्वारा छापा गया था. यह पुस्तक उसने बेसांकों विश्वविद्यालय को, जिसने उसको स्का॓लरशिप प्रदान की थी, समर्पित की थी. पुस्तक में प्रूधों के उग्र तेवर थे. उसके बाजार में आते ही बौद्धिक जगत में खलबली व्याप गई. कुछ विद्वानों को प्रूधों के विचारों में नएपन का एहसास हुआ, जबकि कुछ ने पुस्तक को समाजविरोधी मानते हुए उसपर प्रतिबंध लगाने की भी मांग की थी.
पुस्तक में प्रूधों ने बड़ी बेबाकी के साथ अपने विचारों को अभिव्यक्त किया था. उसने सामाजिक असमानता एवं आर्थिक शोषण के लिए समाज के अनुत्पादक वर्ग को जिम्मेदार माना था. इस पुस्तक में:
‘उन व्यक्तियों की जमकर आलोचना की गई थी जो ऐसी संपत्ति का उपयोग करते हैं, जो बिना किसी परिश्रम के, केवल दूसरों के शोषण के आधार पर जुटाई गई हो; अथवा ब्याज या किराये या फिर अनुत्पादक वर्ग को समाज के उत्पादक वर्ग के ऊपर आरोपित करके अर्जित की गई हो. प्रूधों ने हालांकि जीवनयापन के लिए संपत्ति और अन्य आवश्यक संसाधनों पर मनुष्य के अधिकार का पक्ष लिया है, उनके उपयोग को उचित ठहराया है. उसने कम्युनिस्टों की आलोचना भी की थी, जो इस व्यवस्था इस व्यवस्था के विरोधी और इसको नष्ट कर देने पर तुले थे. परंतु उसका मानना था कि संपत्ति पर मनुष्य का अधिकार व्यक्तिगत न होकर सामूहिक होना चाहिए. ताकि उनका लाभ अधिक से अधिक व्यक्तियों को प्राप्त हो सके.’
प्रूधों के विचारों को समझने के लिए ‘कब्जे’ तथा संपत्ति के अंतर को समझना होगा. इस अंतर को उसने पति और प्रेमी के उदाहरण द्वारा समझाने की कोशिश की है. उसके अनुसार प्रेमी महज एक कब्जाधारक है तथा पति संपत्ति का वास्तविक स्वामी. प्रूधों के लिए संपत्ति एक कानूनी अधिकारपत्र है. जबकि संपत्ति पर कब्जा एक वास्तविक स्थिति. प्रूधों के अनुसार एक पूंजीपति संपत्ति का कब्जाधारक मात्र हो सकता है, उसका स्वामी नहीं. क्योंकि वह संपत्ति उसके द्वारा अर्जित नहीं है, बल्कि श्रमिकों-शिल्पकारों के श्रम-कौशल पर कब्जा जमाने के बाद कमाई गई है. प्रूधों के अनुसार दूसरे के श्रम से कमाई अथवा किसी और अनुत्पादक तरीके से हथियाई गई संपत्ति पर अधिकार अनैतिक है.
प्रूधों के संपत्ति-संबंधी विचार अपने समकालीन विद्वानों से अलग, नैतिकता एवं सामाजिक न्याय की भावना से ओतप्रोत थे. जिन दिनों प्रूधों की उपर्युक्त पुस्तक छपकर आई, फ्रांस में वैचारिक क्रांति का माहौल था, परिवर्तनकारी राजनीतिक गतिविधियां अपने चरम पर थीं. प्रूधों उन दिनों पेरिस में था. सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन करते हुए उसने फ्रांस के पहले आंदोलन में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था. उन दिनों उसकी प्रतिष्ठा अपने चरम पर थी, यहां तक कि कार्ल मार्क्स जिसको कि आगे चलकर साम्यवाद का संस्थापक माना गया, की प्रतिष्ठा भी प्रूधों के आगे नगण्य थी. फ्रांस की क्रांति की सफलता के लिए उसने पत्रकारिता के माध्यम से जनचेतना लाने के लिए काफी प्रयास किए. 1848 में उसने राष्ट्रीय असेंबली की सदस्यता के लिए चुनाव में हिस्सा लिया, जिसमें उसकी प्रसिद्धि के कारण सम्मानजनक जीत हासिल हुई.
प्रूधों के समाचारपत्र के प्रमुख ग्राहकों में अधिकांश मजदूर वर्ग से थे, जिनपर उसकी पत्रकारिता का गहरा प्रभाव पड़ा था. उनके लिए उधार और मुद्रा विनिमय को सरल बनाने के लिए प्रूधों ने एक अगले ही वर्ष, 1849 में जनता बैंक(Banque du Peuple) के नाम से एक बैंक की स्थापना की थी, जिसका मजदूरों की ओर से भरपूर स्वागत किया गया. कुछ ही समय में बैंक के ग्राहकों की संख्या तेरह हजार को पार कर गई. लेकिन बैंक को अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल सकी. कारण साफ था कि सरकार और पूंजीपतियों में उस बैंक को लेकर कोई उत्साह नहीं था. दूसरी ओर उसके मजदूर ग्राहकों के पास उतनी पूंजी नहीं थी, जिससे एक बैंक का सफल संचालन किया जा सके. घाटे के कारण बैंक को असमय ही बंद करना पड़ा. प्रूधों को बैंक के द्वारा काफी घाटा उठाना पड़ा था.
बैंक की नाकामी के पीछे एक कारण यह भी था कि प्रूधों द्वारा समाचारपत्र में निरंतर छापी जा रही उग्र टिप्पणियों के कारण सरकार आलोचनाओं के घेरे में आ चुकी थी. औद्योगिकीकरण के कारण तेजी से उभर रहा पूंजीपति वर्ग उससे नाराज था. इसलिए 1849 में उसको गिरफ्तार कर लिया गया. सन 1853 तक वह सरकार की कैद में, पुलिस और प्रशासन के अनाचार के बीच रहा. कारावास में भी अपनी वैचारिक निष्ठा के कारण वह पुलिस और प्रशासन के आतंक का शिकार बनाया जाता रहा. 1853 में जब उसकी रिहाई हुई तो मजदूरों ने उसको हाथोंहाथ लिया. गिरफ्तारी के बावजूद फ्रांस के क्रांतिकारी आंदोलन को उसका समर्थन ज्यों का त्यों बना रहा.
लोगों में समाजवादी विचारों के प्रति जागरूकता लाने के लिए प्रूधों ने चार-चार समाचारपत्र एक साथ निकाले. उनके कारण उसकी लोकप्रियता बढ़ी. 1863 में उसने अपनी पुस्तक का दूसरा भाग पूरा किया. पहले खंड की भांति उसको भी अत्यंत सराहना मिली. विद्वानों ने उसको हाथों-हाथ लिया. उसकी दूसरी पुस्तक का नाम था—Theory of Property . अपनी नई पुस्तक में भी उसने नए, समानताधारित समाज का सपना देखा था. पुस्तक में व्यक्त विचारों के प्रसार से फ्रांस की क्रांति को प्रोत्साहन मिला. व्यक्तिगत संपत्ति अपनी अवधारणा को लेकर प्रूधों ने और भी कई पुस्तकों की रचना की, जिनमें The Philosophy of Poverty प्रमुख है.
1842 में प्रूधों की पुस्तक ‘संपत्ति क्या है’ से प्रभावित होकर कार्ल मार्क्स ने निजी संपत्ति की समाप्ति का सिद्धांत गढ़ा था. वह उन दिनों युवा था और प्रूधों की ख्याति के समक्ष उसकी कोई हैसियत नहीं थी. बावजूद इसके उसने अपने वैचरिक विरोधों को दर्शाते हुए प्रूधों की पुस्तक दि ‘फिलासफी आ॓फ पा॓वर्टी’ की प्रतिक्रिया में एक पुस्तक ‘दि पावर्टी आ॓फ फिला॓सफी’ की रचना की थी. उस पुस्तक में मार्क्स ने प्रूधों के विचारों की आलोचना की थी. इससे समाजवादी आंदोलन को झटका लगा. वह दो हिस्सों में बंट गया. निःसंदेह उसके एक छोर पर मार्क्स और उसके समर्थक थे, तो दूसरे छोर पर प्रूधों द्वारा प्रणीत ‘अराजकतावाद’ को मानने वाले. प्रूधों के साथ अपने वैचारिक मतभेदों के बावजूद मार्क्स ने उसकी विलक्षण प्रतिभा की सराहना की है, अपने निबंध ‘दि होली फैमिली’ में प्रूधों को याद करते हुए उसने लिखा है कि—
‘सर्वहारा के कल्याण के लिए चलाए जा रहे प्रगतिशील आंदोलन के पक्ष में प्रूधों ने न केवल खुलकर लिखा, बल्कि वह स्वयं भी उस समय के अग्रणी सर्वहारा वर्ग से संबंधित था. उसके द्वारा किया गया कार्य फ्रांस के प्रगतिशील आंदोलन के इतिहास का एक वैज्ञानिक दस्तावेज है.’
प्रूधों एक निर्भीक आलोचक था. उसने परंपरावादियों के साथ-साथ अपने समय के समाजवादियों की कमजोरियों के बारे में खुलकर लिखा. वह अपने विचारों पर आजीवन डटा रहा, उनके लिए सक्रिय संघर्ष किया. कारावास भुगता. एकदम गरीब परिवार से उठकर उसने समाज के विद्वत वर्ग में अपने लिए स्थान बनाया तथा अपनी मेधा के द्वारा सभी को चमत्कृत किया. उसका विश्वास था कि केवल राजनीति के द्वारा सामाजिक क्रांति लाना संभव नहीं है. उस अवस्था में सामाजिक क्रांति का उद्देश्य अधूरा ही रहता है. धर्म को लेकर भी उसके विचार आधुनिक और वैज्ञानिकता से भरपूर थे. धर्म की अवधारणा को लेकर भी उसका अपने समकालीन विचारकों से तीखा मतभेद था. उसने लुइस ब्लैंक जैसे समाजवादी चिंतकों की अतिधर्मपारायणता की आलोचना की है. एक अवसर पर ब्लैंक से एक बहस के दौरान प्रूधों ने उसको उकसाते हुए कहा था—
‘मि. ब्लैंक! तुम्हारी इच्छा न तो ईसाइयत की स्थापना है, न ही सुशासन अथवा लोगों का मान-सम्मान कायम करने की. बस तुम्हें एक ईश्वर चाहिए, तुम्हारा एक धर्म है, जिसमें तानाशाही है, सेंसरशिप है…तुम्हारे समाज में ऊंच-नीच का पद, वर्गभेद है. इसलिए मैं तुम्हारे ईश्वर, तुम्हारी सत्ता, तुम्हारे तथाकथित न्याय-आधारित समाज, तुम्हारी स्वयंभूतता एवं तुम्हारे सभी भ्रमों को अस्वीकार करता हूं.’
वैचारिक मतभेदों के बावजूद मार्क्स आदि समाजवादी विचारकों ने प्रूधों से प्रेरणा लेकर अपने साम्यवादी चिंतन को आगे बढ़ाने का काम किया था. 19 जनवरी सन 1865 को जब प्रूधों की मृत्यु हुई, मार्क्स एक मामूली विचारक के रूप में ख्यात था, जबकि प्रूधों के संपत्ति संबंधी विचार पूरी दुनिया पर छाये हुए थे. लगभग तीन दशकों तक उसने फ्रांस के बुद्धिजीवी समाज को प्रभावित किया और अपने बाद इतना मौलिक साहित्य छोड़कर गया, जो आने वाले कई दशकों तक परिवर्तनवादियों के लिए प्रेरक का काम करता रहा. यदि हम वर्तमान समय दुनिया के विभिन्न समाजों में व्याप्त असमानता और असंतोष के कारण और उनके निवारण पर विचार करें तो लगेगा कि प्रूधों के विचारों की प्रासंगिकता आज ज्यों की त्यों बनी हुई है.
वैचारिकी
प्रूधों को हम मौलिक विचारक, स्पष्ट वक्ता, ईमानदार और उत्कृष्ट समाजवादी मान सकते हैं. वह खरा और संवेदनशील इंसान था. एक गरीब परिवार से उठकर वह प्रतिष्ठा के शिखर तक पहुंचा. अपने अध्यवसाय और मौलिक चिंतन से उसने सभी को प्रभावित किया. वह अपने विचारों के प्रति दुराग्रह की सीमा तक जा सकता था. उसकी इसी वैचारिक उग्रता के कारण उसे, अराजकतावादियों की कोटि में रखा गया है. किंतु यह हम पहले ही लिख चुके हैं कि प्रूधों के विचारों में कहीं भी उग्रता अथवा विद्रोह की भावना नहीं है. उसने कभी भी समाज-विरोधी या अमर्यादित वक्तव्य नहीं दिया. हां अपने विचारों पर वह हमेश अडिग रहा. उसने जो भी कहा, इतने स्पष्ट और खरे ढंग से कहा था, जितना कि सामान्यतः हमें सुनने का अभ्यास नहीं है. प्रूधों के कथन में कड़वी हकीकत थी. इसलिए उसके वक्तव्य गुस्सा नहीं आक्रोश को जन्म देते थे. वह स्वतंत्रता को उसकी संपूर्णता में पाना तथा सभी के लिए अपनाना चाहता था.
प्रूधों के चिंतन की मौलिकता के दर्शन उसके संपत्ति संबंधी विचारों में होते हैं. संभवतः वह पहला विचारक था, जिसने पूर्ण समाजवाद का सपना देखा था और उसके लिए उसने प्रचलित विचारधारों, पूर्वाग्रहों को एक किनारे पर कर दिया था. संपत्ति-संबंधी विचारों को लेकर मार्क्स एवं प्रूधों में तीव्र मतभेद थे. मार्क्स ने प्रूधों की पुस्तक की प्रतिक्रिया में एक पुस्तक भी लिखी थी. बावजूद इसके प्रूधों की कई अवधाराणाओं से मार्क्स की सहमति थी. उसकी पुस्तक ‘व्हा॓ट इज प्रापर्टी’ से प्रेरणा लेकर माक्र्स ने भी जोर देकर कहा था कि निजी संपत्ति और उसकी अवधारणा का निषेध होना ही चाहिए. वह सच्चा ‘एक्टीविस्ट’ था. गुडविन के समान प्रूधों का संपत्ति संबंधी चिंतन, सामाजिक न्याय की भावना से प्रेरित है. वह एक ऐसे समाज की कल्पना करता था जहां सभी को विकास के एक जैसे अवसर उपलब्ध हों, जिसमें लिंग, धर्म, संप्रदाय आदि को लेकर कोई भेद न हों. मनुष्य को उसकी योग्यता के अनुसार काम और काम के अनुसार पारिश्रमिक की प्राप्ति हो.
प्रूधों की समाज में प्रतिष्ठा उसके अराजकतावादी विचारों के कारण है. हालांकि इस संबंध में उसकी अवधाराणा अराजकतावाद के प्रति लोगों के प्रचलित सोच के एकदम विपरीत है. अराजकतावाद को लेकर सामान्यतः ऐसी स्थिति की कल्पना की जाती है, जिसमें पूरी तरह अव्यवस्था हो. प्रशासन पर सरकार की पकड़ शून्य हो. अनुशासन और कानून के स्थान पर आतंक और अनाचार पलता हो. सरकार अपना औचित्य खो चुकी हो. कुछ लोग अराजकतावाद को ऐसा सिद्धांत मानते हैं, जो अपनी मर्जी के अनुसार आचरण करने को वैद्यता प्रदान करता है, जबकि कुछ विद्वानों के मतानुसार अराजकतावाद का अभिप्राय कानून की पूर्णतः अनुपस्थिति है. कुछ लोग अराजकतावाद को एक सपने की भांति देखते और समझते हैं, उनके लिए अराजकतावाद एक सपनों का सिद्धांत है, जो व्यक्ति को मुक्त करता है. कुछ के लिए यह शब्द एक दिन को अपनी तरह से सुखपूर्वक बिता लेना है. इन सबसे अलग प्रूधों अराजकतावाद को एक सोचा-समझा वैज्ञानिक सिद्धांत मानता था. अराजकता उसके शब्दों में ‘संपूर्ण आजादी’ अर्थात स्वशासन(Self-Government) का पर्याय है. ‘अराजकता’(Anarchy) शब्द से प्रूधों का अभिप्राय राजनीतिक विकास की चरम अवस्था से था, जो एक संपूर्ण विवेकशील समाज में ही संभव हो सकती है—
‘अराजकता से मेरा आशय राजनीतिक विकास की उच्चतम अवस्था से है. यह सरकार अथवा संविधान द्वारा सुशासन की ऐसी कारगर पद्धति है, जिसमें निजी क्षेत्र एवं लोक की समन्वित चेतना, विज्ञान एवं कानून की प्रगति के आधार पर सतत विकासमान रहती है तथा संपूर्ण स्वाधीनता एवं कानून-व्यवस्था के उच्चतम स्तर को बनाए रखने के लिए पर्याप्त सिद्ध होती है…जिसमें पुलिस, सेना, कराधन, भारी-भरकम नौकरशाही तथा कानून-व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर गढ़ी गई अन्य संस्थाओं की भागीदारी न्यूनतम हो जाती हैं. राजशाही, कुलीनतंत्र तथा केंद्रीयकरण की समर्थक संस्थाओं का लोप हो जाता है; तथा उनका स्थान संघीय जनतांत्रिक प्रशासन एवं सहजीवन पर आधरित संस्थाएं ले लेती हैं.’
प्रूधों ने सरकार को दो वर्गों में विभाजित किया है, इनमें पहला है, सत्ता का शासन तथा दूसरा है—स्वाधीनता का शासन. ध्यातव्य है कि उसने अनार्की यानी स्वशासन तथा लोकतंत्र को एक ही वर्ग में स्थान दिया है. सत्ता का शासन तथा स्वाधीनता का शासन को उसने पुनः नीचे दर्शाए दो वर्गों में विभाजित किया गया है—
क. सत्ता का शासन
1. एक द्वारा सभी पर शासन : राजतंत्र
2. सब के द्वारा सब पर शासन : साम्यवाद
ख. स्वाधीनता का शासन
1. प्रत्येक द्वारा सब की सरकार : लोकतंत्र
2. प्रत्येक द्वारा प्रत्येक की सरकार : अनार्की या स्वशासन