इंग्लेंड में ‘इंडिया हाउस’ ब्रिटिश साम्राज्यवाद को जड़ से उखाड़ने के लिए कृतसंकल्प था. अमेरिका में बसे भारतवासी भी पीछे न थे. भारत में अंग्रेज सरकार द्वारा लगाए गए भारी–भरकम करों ने पंजाब के किसानों का जीवन दूभर किया था. 1857 में कंपनी का साथ देने वाले तथा बाद में अंग्रेज सरकार के लिए कई मोर्चे संभाल चुके पंजाबी सैनिक अब स्वयं को ठगा हुआ अनुभव कर रहे थे. जिस कृषि भूमि पर पंजाबी किसानों को गर्व था, भारी–कराधान और व्यापारियों की दुर्नीति के कारण वह तेजी से उनके हाथों से छिन रही थी. किसानों का कर्ज बढ़ता ही जा रहा था. खेतिहार लोगों की जमीन से बेदखली के लिए सरकार द्वारा 1901 में बनाया गया कानून बेअसर हो चुका था. कर्जमंद किसान अपनी जमीन बेचने को विवश थे. हकीकत–बयानी के लिए यह जानना पर्याप्त होगा कि 1901 से 1909 के बीच, मात्र आठ वर्षों में अकेले पंजाब में 4,13,000 एकड़ जमीन की बिक्री हुई थी, जबकि 2.5 करोड़ एकड़ जमीन किसानों द्वारा कर्ज के एवज में बंधक रखी जा चुकी थी. किसानों की यह दुर्दशा ब्रिटिश सरकार की सोची–समझी रणनीति के तहत थी. गुरु रामसिंह के नेतृत्व में 1871 में कूका विद्रोह के बाद से ही ब्रिटिश सरकार पंजाब की उपेक्षा करती आ रही थी. 1905 में बंगाल विभाजन के उपरांत देश में स्वदेशी वस्तुओं के प्रति जागरूकता बढ़ी तो पंजाब में भी उसका असर पड़ा. उसपर नियंत्रण के लिए पंजाब के गर्वनर ने देशी उद्योग–धंधों को बंद करने के लिए चालें चलनी आरंभ कर दी. इसका वर्णन शहीद भगतसिंह ने 1931 में पंजाब में राजनीतिक जागरण की पृष्ठभूमि पर लिखे गए अपने लेख में किया है. वे लिखते हैं—
‘उन दिनों यहां(पंजाब) स्वदेशी वस्तुएं, विशेषतः खांड तैयार करने का सवाल पैदा हुआ और देखते–देखते एक–दो मिलें भी खुल गईं. यद्यपि सूबे के राजनीतिक जीवन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन सरकार ने इसे नष्ट करने के लिए गन्ने की खेती का लगान तीन गुना कर दिया. पहले एक बीघे का लगान केवल 2.50 रुपये था, अब 7.50 रुपये देने पड़ते थे. इससे किसानों पर एक भारी बोझ आ पड़ा और वह एकदम हतबुद्धि–से रह गए.’1
इसी लेख में भगतसिंह पंजाब के किसानों को उत्पीड़ित करने वाले ‘नए कलोनी एक्ट’ का भी उल्लेख करते हैं. पंजाब सरकार ने लायलपुर आदि जिलों में नहरें खुदवाकर जालंधर, अमृतसर, होशियारपुर के किसानों को वहां आमंत्रित किया. सरकार पर विश्वास कर किसान अपनी–अपनी जमीन–जायदाद छोड़कर नए ठिकानों पर आकर बसने लगे. कई वर्षों तक अपना पसीना बहाकर, रात–दिन की मेहनत के पश्चात उन्होंने उस क्षेत्र को गुलजार कर दिया. तभी सरकार ‘नया कलोनी एक्ट’ ले आई. उसके प्रभाव का खुलासा करते हुए भगतसिंह आगे लिखते हैं—
‘यह एक्ट क्या था, किसानों के अस्तित्व को ही मिटा देने का एक तरीका था. इस एक्ट के अनुसार हर व्यक्ति की जायदाद का वारिस केवल उसका बड़ा लड़का ही हो सकता था. छोटे पुत्रों का उसमें कोई हिस्सा नहीं रखा गया था. बड़े लड़के के मरने पर वह जमीन या जायदाद छोटे लड़कों को नहीं मिल सकती थी, जिससे उसपर सरकार का अधिकार हो जाता था.’2
गौरतलब है कि अमेरिका स्थित प्रवासी भारतीयों में लगभग आधी जनसंख्या पंजाब से आए लोगों की थी. एक तो गुलाम देश का नागरिक होने के कारण होने वाला अपमान, दूसरा औपनिवेशिक सरकार द्वारा किसानों का शोषण–उत्पीड़न—प्रवासी भारतियों को क्षुब्ध करने के लिए ये सूचनाएं पर्याप्त थीं. उस समय तक अमेरिका ब्रिटेन के साथ व्यावसायिक स्पर्धा में था. वह भारत में अपनी जड़ें मजबूत करना चाहता था. सिंगापुर, मलाया, पनाग, शिंघाई के बंदरगाहों पर कनाडा और अमेरिका के व्यापारी अपने देश की समृद्धि का वास्ता देकर भारतीय व्यापारियों को ललचाते थे. भारतीयों के मन में भी अमेरिका के प्रति अतिरिक्त आकर्षण था. 1902 में स्वामी विवेकानंद तथा 1904 में स्वामी रामतीर्थ ने अमेरिका की यात्रा की थी. वापस लौटने पर उन दोनों ने अमेरिका, विशेषकर वहां की उन्नत शिक्षा प्रणाली तथा सरकारी नीतियों की प्रशंसा करते हुए भारतीय युवाओं को उस देश से प्रेरणा लेने के लिए उत्प्रेरित किया था.3 फलस्वरूप अमेरिका जाने वाले भारतीयों की संख्या में वृद्धि हुई. भारत में व्यापारिक संभावनाएं खोज रहे अमेरिका के लिए भी यह हितकर था. भारतीयों को लुभाने के लिए अमेरिकी उद्योगपति ब्रिटिश सरकार की आलोचना करते थे तथा उसको देश में अशिक्षा, गरीबी और आर्थिक असमानता के लिए जिम्मेदार मानते थे. ये घटनाएं प्रवासी भारतीयों के मन में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध आग भड़काने का काम करती थीं. मार्क्स के विचारों पर आधारित फ्रांसिसी क्रांति की सफलता तथा रूस में चल रहे संघर्ष ने उन्हें नया हौसला दिया था, किंतु वैश्विक तनाव और आर्थिक मंदी के बीच हालात बदलने लगे थे. अमेरिका में प्रवासी भारतीयों की बढ़ती संख्या और समृद्धि बहुत–से अमरीकियों को खलने लगी थी.
दरअसल, बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशक में कनाडा में प्रवासी भारतीयों ने अपनी आर्थिक स्थिति काफी मजबूत कर ली थी. इस कामयाबी का कारण उनका अतिरिक्त मेहनती होना भी था. लेकिन 1907-08 की मंदी ने अमेरिकी किसानों को बड़ा झटका दिया था. भारतीय चूंकि अपने खेतों में स्वयं काम करते थे, इसलिए उनपर मंदी का प्रभाव अपेक्षाकृत कम था. इससे अमेरिकी किसान वहां के भारतीय भू–स्वामियों से ईर्ष्या करने लगे. उस समय भी ढाबों, होटलों, बाजार आदि में बहुत–से भारतीय काम करते थे. गुलाम देश का नागरिक होने के कारण ईष्यालु अमेरिकी उन्हें ‘हैलो हिंदी स्लैब’ कहकर चिढ़ाते थे. उसकी प्रतिक्रिया में भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना पैदा हुई और वे एकजुट होने लगे. उनकी एकजुटता केवल अमेरिका में अपने मान–सम्मान और अधिकार तक सीमित न थी. उभरती राष्ट्रीय चेतना के बीच भारत पर राज कर रहे अंग्रेज भी उनके उतने ही दुश्मन थे. प्रवासी भारतीयों में स्वाधीनता की भावना पैदा करने के लिए पर्चे बांटे जाने लगे.
उस समय मार्क्स के विचार पूरी दुनिया में परिवर्तन के प्रतीक माने जा चुके थे. उसका कथन, ‘दुनिया से भागने के बजाय उसको बदलने की जरूरत है.’—देश और देश से बाहर रह रहे हजारों भारतीयों का प्रेरणास्रोत बन चुका था. सरकारी उपेक्षा और भेदभावपूर्ण कृषिनीति के कारण एक ओर तो पंजाब के किसान स्वयं को ठगा हुआ अनुभव कर रहे थे, दूसरी ओर औपनिवेशिक सरकार ने 1905 में बंगाल विभाजन द्वारा पढ़े–लिखे बंगाली वर्ग को भी नाराज कर दिया था. अमेरिका, कनाडा और यूरोप के देशों में बंगालियों की संख्या भी काफी थी. बंगाल का विभाजन उन्हें अपनी अस्मिता पर हमला जान पड़ा था. इन घटनाओं ने भारत से बाहर रह रहे प्रवासियों में राष्ट्रीयता की भावना पैदा करने का काम किया. तारकनाथ दास कोलंबिया विश्वविद्यालय में राजनीति के प्राध्यापक, स्वदेशी भावना से ओतप्रोत प्रतिभाशाली भारतीय थे. जुलाई 1907 में उन्होंने खेमकरनवासी रामनाथ पुरी के साथ मिलकर एक परिपत्र भारतीयों के बीच प्रचारित किया था, उसका शीर्षक था—‘सरकुलरे आजादी.’ परिपत्र में अंग्रेज सरकार द्वारा भारतीयों के शोषण एवं अत्याचार का उल्लेख करते हुए भारतीयों का आवाह्न किया गया था वे अंग्रेजी वस्तुओं का बायकाट करें. पुलिस और सेना की नौकरी से त्यागपत्र दे दें.’ इस परिपत्र को भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया. उसके कुछ ही महीने बाद गुरमुखी में लिखा गया एक और परिपत्र ‘खालसा’ शीर्षक से लंदन में बांटा गया. उसमें भी अंग्रेज सरकार की साम्राज्यवादी नीति की आलोचना की गई थी. इसके बाद तो आजादी समर्थक परिपत्रों के छपने तथा नए संगठन बनने का सिलसिला–सा बन गया. ये सब घटनाएं अंततः ‘गदर पार्टी’ के गठन की पीठिका बनीं. उसके संस्थापकों में महान क्रांतिकारी करतार सिंह सराबा, सोहन सिंह भाकना, लाला हरदयाल, तारकनाथ दास जैसे दिलेर हिंदुस्तानी थे. उनके समर्थक अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, रूस आदि देशों में फैले हुए थे. भारत को स्वाधीन देखने के लिए इनकी रणनीति कांग्रेसी नेताओं से अलग थी. इनपर फ्रांसिसी क्रांति और अराजकतावादी चिंतन का गहरा प्रभाव था. सही मायने में वे पढ़े–लिखे और चुनौतियों से जूझ पड़ने वाले युवा भारतीय थे, जो अपने लक्ष्य को पाने के लिए किसी भी सीमा तक जाने का हौसला रखते थे.
उनकी गतिविधियों में तेजी आई लाला हरदयाल के उनके साथ सम्मिलित होने के बाद. बेहद प्रतिभाशाली लाला हरदयाल विचारों से अराजकतावादी थे. वे अक्सर कहा करते थे कि केवल सत्ता–परिवर्तन पर्याप्त नहीं है. हमें सत्ता की अनिवार्यता को ही समाप्त कर देना है. यदि बहुत जरूरी है तो उसका आकार लघुत्तम होना चाहिए. इतना छोटा कि सरकार अस्तित्वविहीन दिखाई पड़ने लगे. रूसी अराजकतावादी विचारक पीटर क्रोप्टोकिन से प्रभावित होकर डा. हरदयाल ने एक बार कहा था—
‘स्वामी और सेवक के बीच कभी कोई समानता नहीं हो सकती. भले ही वे दोनों मुसलमान हों, सिख हों, अथवा वैष्णव हों….अमीर हमेशा गरीब पर शासन करेगा….आर्थिक समानता के अभाव में भाईचारे की बात करना केवल एक सपना है.’
सितंबर 1912 में स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्याता के पद से इस्तीफा देने के बाद लाला हरदयाल ने स्वयं खुद को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लिए पूरी तरह समर्पित कर दिया था. उससे पहले 1910 में अपनी पेरिस यात्रा के दौरान उन्होंने कार्ल मार्क्स के पौत्र जीन लेंगुइट से मुलाकात की थी. लेंगुइट पेशे से पत्रकार था. अपने दादा की भांति लेंगुइट की भी भारत की राजनीति में रुचि थी. उसने कई लेख भारत में ब्रिटिश सरकार की आलोचना करते हुए लिखे थे. जिस समय वीर सावरकर को फ्रांसिसी पुलिस ने गैरकानूनी ढंग से गिरफ्तार कर ब्रिटिश सरकार को सौंपा तो जीन लेंगुइट के नेतृत्व में वहां के समाजवादी विचारधारा के पत्रकारों ने उस कार्रवाही का तीखा विरोध किया था. इसके अलावा भी वह न केवल भारत, बल्कि सभी ब्रिटिश उपनिवेशों की स्वतंत्रता के लिए आवाज उठाता रहता था. भारतीयों के बीच उसका अखबार अत्यंत लोकप्रिय था. भारतीय क्रांतिकारियों से उसे विशेष सहानुभूति थी. डा. हरदयाल ने लेंगुइट से मिलकर उसकी और उसके दादा मार्क्स के कार्यों तथा भारतीय जनता के प्रति उन दोनों की चिंताओं की सराहना की थी.
मार्च 1914 में करतार सिंह भाकना ने प्रवासी भारतीय बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर ‘हिंदी सभा’ की स्थापना की तो लाला हरदयाल को उसका महासचिव नियुक्त किया गया. पार्टी का मुख्यालय ‘युगांतर आश्रम’ के नाम से प्रसिद्ध था. बंगाल विभाजन से अंग्रेजों से नाराज अनेक बंगाली बुद्धिजीवी उसके सदस्य थे. वहीं पर अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए सशस्त्र संघर्ष को आगे बढ़ाने की योजना पर विचार किया गया. पेरिस क्रांति से प्रभावित क्रांतिकारियों का मानना था कि मुट्ठी–भर अंग्रेजों को भारत के जमींदारों और सामंतों का संरक्षण प्राप्त है. देश पर हालांकि ब्रिटिश सरकार की हुकूमत है, लेकिन जमींदार और सामंत यदि उनका साथ छोड़ दें तो ब्रिटिश सत्ता के लिए भारत में एक दिन भी टिकना मुश्किल हो जाए. यह आकलन गलत भी नहीं था. उस समय भारत में ब्रितानी मूल के अंग्रेजों की संख्या पचास हजार से कुछ ही अधिक थी. अब यदि मुट्ठी–भर अंग्रेज पचीस करोड़ भारतीयों पर शासन करने में सफल थे, तो इसलिए नहीं कि उनमें देवत्व जैसा कोई गुण था. अथवा वह सर्वथा अपराजेय कौम थी? उनका शासन भारतीय जागीरदारों और सत्ता–लोलुपों की मदद के बगैर संभव ही नहीं था. स्वार्थी और विलासी जमींदारों, सामंतों तथा उनके पिछलग्गु सरदारों से निपटने का उनके पास एक ही रास्ता था. जनता को संघर्ष के लिए तैयार किया जाए. उसको उसकी गुलामी का एहसास कराया जाए. फिर जैसे भी संभव हो पुलिस, सेना को साथ लेकर, व्यापक जनविद्रोह के माध्यम से उन्हें कुचल दिया जाए. इसके लिए वे तरह–तरह से प्रयासरत थे.
अक्टूबर 1913 में ‘हिंदी सभा’ की दूसरी बैठक में क्रांतिकारियों की ओर से एक समाचारपत्र निकालने का निर्णय लिया गया. समाचारपत्र का नाम रखा गया—‘दि गदर’. यह 1857 के प्रथम स्वाधीनता आंदोलन की याद दिलाता था. उद्देश्य था भारतीयों के मन में स्वाधीनता के प्रति चेतना जाग्रत करना था. समाचारपत्र के मुखपृष्ठ से ही उसकी क्रांतिधर्मी विचारधारा का संकेत मिलता था. उसपर लिखा होता था—‘अंग्रेजी राज का दुश्मन.’ उस समाचारपत्र में एक विज्ञापन अक्सर छपा करता था—‘चाहिए साहसी और बहादुर सिपाही, भारत में क्रांति के लिए. वेतन—मौत, पुरस्कार—शहीदाना. पेंशन—आजादी, कार्यक्षेत्र—संपूर्ण भारतवर्ष.’4 गदर का पहला अंक 1 नवंबर, 1913 को सेनफ्रांसिस्को से अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में एक साथ प्रकाशित हुआ. इसके संपादक डा. हरदयाल थे, जिनकी विलक्षण प्रतिभा के चर्चे देश–विदेश चारों ओर फैले हुए थे. पहले ही अंक के साथ अखबार के तेवर एकदम साफ थे—
‘आज, विदेशी भूमि पर लेकिन देश की भाषा में, ब्रिटिश राज के विरुद्ध जंग की शुरुआत हुई है….‘हमारा नाम क्या है?’ ‘गदर’….‘हमारा कर्म क्या है?’ ‘गदर.’ यह कहां और कब से शुरू होगा? भारत में, बहुत जल्दी ऐसा समय आएगा जब बंदूकें और खून लोगों के पेन और स्याही की जगह ले लेंगे.’5
अंग्रेजों के प्रति उग्र लाला हरदयाल की भारत के संबंध में नीति समन्वयवादी थी—‘हम न हिंदू हैं न मुस्लिम. हम केवल देशभक्त हैं….हमें न पंडित चाहिए न मुल्ला. हमें केवल भारत के बारे सोचने और करने वाले चाहिए.’ लाला हरदयाल अद्भुत प्रतिभा के धनी थे. उनके प्रयासों से ‘दि गदर’ को अप्रत्याशित लोकप्रियता मिली. अप्रैल 1914 तक वह समाचारपत्र हिंदी और अंग्रेजी के अलावा पश्तो, गुजराती, गुरमुखी और उर्दू में निकलने लगा. इस समाचारपत्र की लोकप्रियता का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि उसके अंक अंग्रेज सरकार से छिपाकर तस्करी के जरिये भारत में लाए जाते थे. इस समाचारपत्र को मिली अप्रत्याशित कामयाबी से प्रभावित होकर ही नए संगठन का नाम ‘गदर पार्टी’ रखा गया था. ‘दि गदर’ से जुड़े नेता अंग्रेजों की आंख की किरकिरी बन चुके थे. सरकार उनके पीछे थी. लेकिन उनके समर्थक दुनिया के अनेक देशों में फैले चुके थे. भारतीय जनता के मन में उनके प्रति सहानुभूति थी.
उस समय पूरी दुनिया में राजनीतिक उथल–पुथल जारी थी. अपनी सामरिक ताकत के दम पर जर्मनी आगे बढ़ता जा रहा था. प्रथम विश्वयुद्ध की आहट सुनाई देने लगी थीं. युद्ध को लेकर गदर पार्टी से जुडे़ नेताओं का मानना था—‘ब्रिटेन का संकट हमारे लिए नया अवसर होगा.’ इसी सिद्धांत को आधार मानकर गदर पार्टी के नेता, विश्वयुद्ध में ब्रिटेन के विरोधी देशों से संपर्क साधने लगे. उन दिनों बंगाली नेता वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय जर्मनी में थे. खुद को ‘अराजकतावादी’ कहने वाले वीरेंद्रनाथ आरंभिक क्रांतिकारियों में से थे. उनके मानवेंद्रनाथ राय, वीर सावरकर आदि से गहरे संबंध थे. अपने साथियों के बीच ‘चट्टो’ के नाम से पहचाने जाने वाले वीरेंद्रनाथ का नाम स्टालिन की उस सूची में था, जिसे उसने मृत्युदंड सुनाया था. एक बहुश्रुत मान्यता यह भी है कि वीरेंद्रनाथ को सोवियत गुप्तचर सेवा के लिए काम करने वाले डोनाल्ड गुलिक ने 1937 में उस समय गोली से उड़ा दिया था, जब वे फ्रांस से बाहर जा रहे थे. उनकी मृत्यु को लेकर विवाद अब भी बना हुआ है. बहरहाल, चट्टोपाध्याय के जर्मन अधिकारियों से उनके अच्छे संबंध थे. उन्हें जर्मन सरकार से काफी उम्मीद थी. दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, इस नीति के तहत जर्मन सरकार के साथ हुए एक अनुबंध के आधार पर चट्टोपध्याय की ओर से गदर पार्टी के नेताओं सहित, दुनिया–भर में फैले क्रांतिकारियों को जर्मनी पहुंचने के लिए आमंत्रित किया गया, ताकि ब्रिटिश शासन से मुक्ति के लिए संगठित प्रतिरोध किया जा सके. क्रांतिकारी चाहते थे कि विद्रोह इतने जोरदार तरीके से हो कि उसकी धमक पूरी दुनिया में सुनाई दे, जिससे निकली चिंगारियां ब्रिटिश सत्ता को भस्म कर दें. लाला हरदयाल जर्मनी पहुंचना चाहते थे. लेकिन तब तक अमेरिकी सरकार पर ब्रिटेन की ओर से उन्हें गिरफ्तार करने का दबाव बढ़ चुका था. अंततः 25 मार्च 1914 को उन्हें अमेरिकी हवाई अड्डे पर कैद कर लिया गया. उनपर आरोप था कि उन्होंने तीन वर्ष पहले रूस की जार सरकार के विरोध में भाषण देकर उसे उखाड़ फेंकने का आवाह्न किया था. हरदयाल हालांकि 10 अप्रैल 1914 को जमानत पर रिहा हो चुके थे, परंतु यह सोचते हुए कि अमेरिका सरकार उन्हें दुबारा हिरासत में लेकर ब्रिटिश सरकार के हवाले कर सकती है, उनके साथियों ने उन्हें तत्काल अमेरिका छोड़ने की सलाह दी. हरदयाल अमेरिका छोड़कर जर्मनी को प्रस्थान कर गए.
उस समय तक गदर पार्टी का आंदोलन आगे बढ़ चुका था. पार्टी भाई संतोख सिंह के नेतृत्व में तेजी से संगठित हो रही थी. जुलाई 1914 में विश्वयुद्ध की घोषणा कर दी गई. गदर पार्टी के नेताओं को इसी अवसर की प्रतीक्षा थी. करतार सिंह सराबा और उनके साथियों ने 5 अगस्त को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करते हुए गदर सेनानियों से भारत पहुंचने को कहा. उनके आवाह्न पर सरकारी आंकड़ों के अनुसार फरवरी 1915 तक देश में 2312 गदर सेनानी प्रवेश कर चुके थे. 1916 के अंत उनकी संख्या 8000 से भी ऊपर पहुंच गई. भारत में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध व्यापक लड़ाई की तिथि तय कर ली गई थी. लेकिन भारतीय क्रांतिकारियों और गदर सैनिकों पर ब्रिटिश सरकार की नजर थी. अंग्रेज समझ रहे थे कि युद्ध की परिस्थितियों का लाभ उठाकर भारतीय क्रांतिकारी जनता को सरकार के विरुद्ध उकसा सकते हैं. 1857 का सबक उसके सामने था. इस कारण वह कोई भी खतरा नहीं उठाना चाहती थी. ‘गदर पार्टी’ से देश के कई बुद्धिजीवी पत्रकार जुड़े थे, जो विदेश में रहकर समाचारपत्र के माध्यम से सरकार की वास्तविकता को पूरी दुनिया के सामने ला रहे थे. पार्टी की साम्यवादी शाखा ने आगे चलकर एक समाचारपत्र ‘किश्ती’ का प्रकाशन आरंभ किया था, उसमें सरकार की साम्राज्यवादी नीति की आलोचना के साथ भारतीयों के शोषण के भी जीवंत समाचार होते थे. फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार का दावा कि उसका भारत में बने रहना वहां की जनता के हित में है, खोखला पड़ता जा रहा था. चैतरफा आलोचनाओं से क्षुब्ध होकर सरकार ने ‘गदर पार्टी’ सहित दूसरे राष्ट्रवादी संगठनों से जुड़े नेताओं को गिरफ्तार करना शुरु कर दिया. कुशल नेतृत्व का अभाव, विभिन्न दलों में तालमेल की कमी, धनाभाव, ब्रिटिश सरकार की सफल गुप्तचर नीति, बाहरी मदद के अभाव तथा जमींदारों, ताल्लुकेदारों एवं विश्वासघातियों द्वारा अंग्रेज सरकार को मदद पहुंचाने के कारण गदर–सैनिकों में से भी अधिकांश पकड़ लिए गए. गदर पार्टी के नेताओं को जापान, जमनी, इटली आदि बाहरी मुल्कों से मदद की उम्मीद थी. वे ऐन वक्त पर धोखा देकर अलग हो चुके थे. विद्रोह की नाकामी का एक कारण यह भी था.
अपने तेजस्वी लेखन से कार्ल मार्क्स ने विश्व–भर के बुद्धिजीवियों को प्रभावित किया था. उसके ओजस्वी विचार छन–छन कर भारत भी पहुंच रहे थे. इससे आर्थिक मामलों के संदर्भ में ब्रिटिश सरकार के दावों को परखने का सिलसिला आरंभ हुआ. इस दिशा में पहल करने वाले थे दादा भाई नौरोजी(1825—1917) और महादेव गोविंद रानाडे(1842—1901). उस समय प्रायः सभी भारतीय नेताओं का मानना था कि अंग्रेज देश का आर्थिक शोषण कर रहे हैं. आयात के अनुपात में निर्यात काफी कम है, जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ रहा है. आयातित मिल के कपड़ों ने भारतीय कारीगरों को सड़क पर ला दिया है. किसान कर्ज से तबाह हो रहे हैं. आंकड़े इसके गवाह थे. 1850 से 1900 के बीच देश में 25 अकाल पड़ चुके थे. उनमें लाखों लोगों की जानें गई थीं. देश की अर्थव्यवस्था की पड़ताल करते हुए दादा भाई नौरोजी ने अंग्रेज सरकार पर आरोप लगाया था कि उसके शासन में भारत की बहुमूल्य संपदा इंग्लेंड को जा रही है. नौरोजी की यह अवधारणा मौलिक न थी. अंग्रेज सरकार के बारे में प्रायः सभी भारतीय नेताओं का यही मानना था. राजा राममोहन राय 1831 में ही इस ओर इशारा कर चुके थे. इसे रोकने के लिए उन्होंने कंपनी सरकार को सलाह दी थी कि अपने बेशुमार खर्चों को काबू में रखने के लिए कंपनी को पुलिस और न्याय सेवाओं में अधिक से अधिक भारतीयों को नौकरी पर रखना चाहिए. साफ है कि ‘ड्रेन थ्योरी’ के रूप में नौरोजी ने देश की अर्थव्यवस्था को लेकर भारतीय नेताओं की सामान्य राय का ही उल्लेख अपने भाषणों में किया था. इसके बावजूद 1901 में उनके भाषण जब ‘पावर्टी एवं अन–ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित हुए तो उन्हें उसके लिए भरपूर सम्मान मिला. उस पुस्तक के माध्यम से ब्रिटिश सरकार की हकीकत दुनिया के सामने पहुंची. इससे औपिनिवेशिक शासन की नीतियों को लेकर एक नई बहस आरंभ हुई और उसके आलोचकों को सरकार की आलोचना का ठोस आधार प्राप्त हुआ.
औपनिवेशिक सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर चिंतन करने वाले दूसरे भारतीय थे, गोविंद महादेव रानाडे. प्रखर भारतीय अर्थशास्त्री के रूप में उनकी ख्याति जगजाहिर थी. चूंकि भारत में आर्थिक चिंतन की परंपरा क्षीण रही है, और इस विषय को लेकर मौलिक चिंतक बहुत कम हुए हैं इसलिए कुछ विद्वान उन्हें चाणक्य के बाद का प्रमुख अर्थशास्त्री मानते हैं. उन्होंने देश की समस्याओं का प्रमुख कारण यहां की गरीबी को माना था. हालांकि उन्होंने सीधे–सीधे यह मानने से इन्कार किया था कि ब्रिटिश सरकार के आने से देश की गरीबी में इजाफा हुआ है. नौरोजी ने देश की गरीबी के लिए जहां ब्रिटिश सरकार की ‘ड्रेन थ्योरी’ को जिम्मेदार माना था, वहीं रानाडे का मानना था कि ब्रिटिश सरकार की अदूरदर्शिता और कृषि पर अत्यधिक निर्भरता के कारण देश में गरीबी बढ़ी है. आयातित माल सस्ता पड़ता है, इसलिए लोग उसको खरीदने के लिए विवश हैं. सरकार को चाहिए था कि मशीनीकरण द्वारा देश के संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने के साथ, वैकल्पिक रोजगार अवसरों को बढ़ावा देने के लिए समुचित प्रयास करती. साथ ही औद्योगिकीकरण से बेरोजगार हुए शिल्पकारों को कारखानों में पचाने का इंतजाम करती. मगर सरकार इस मोर्चे पर असफल रही है. अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए उन्होंने किसानों को महाजनों के चंगुल से बाहर लाने तथा खेती को बढ़ावा देने पर जोर दिया था. रानाडै के चिंतन का दायरा व्यापक था. राष्ट्र का निर्माण अकेले सरकार की जिम्मेदारी नहीं. नागरिकों को भी अपनी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए. आयातित माल का असर शहरों में अधिक था, इसलिए रानाडे ने उन कारोंगरों से जिन्हें मशीनीकरण से नुकसान पहुंचा है, गांव–गांव में फैल जाने की अपील की थी—
‘सभी किस्म के शिल्पकारों, बुनकरों, जुलाहों, तैलिकों, रंगरेजों, कागज बनाने वालों, सिल्क के कारखानों, चीनी मिलों और धातु निर्माण में के काम में जुटे कारीगरों और उन सभी से जो ब्रिटिश मशीनीकरण के परिणामस्वरूप जन्मी स्पर्धा से बेरोजगारी का शिकार हुए हैं, से मेरा आग्रह है कि वे शहर और गांव तत्काल खाली कर दें और दूर–दराज के गांवों में जाकर वहां की जनता में घुलमिल जाएं. उन लोगों की भीड़ में एकमेव हो जाएं, जो अकाल और सत्ता दोनों से जूझते हुए मात खाने को तत्पर हैं.6
प्रकारांतर में रानाडे भी मान चुके थे कि ब्रिटिश सत्ता ने भारतीय जनजीवन की उपेक्षा की है. उसके आगमन से भारतीय कारीगर बेरोजगार हुए हैं. किसानों की हालत लगातार बिगड़ी है. इसके लिए संगठित होकर काम करने की आवश्यकता है. हालात में सुधार के लिए वे सरकार के साथ–साथ भारतीयों से भी डटकर काम करने की अपील करते हैं. उनकी अपील का असर भी साफ दिखाई दिया था. किसानों की हालत में सुधार के लिए सरकार ने 25 मार्च 1904 में ऋण सहकारिताओं के गठन के लिए सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम को स्वीकृति दी थी. इससे किसानों को सस्ता ऋण मिलने की संभावना बढ़ी. लेकिन ऋण सहकारिताओं को आगे बढ़ाने के लिए जिस प्रकार के समर्पण और योजनाबद्ध प्रयास की आवश्यकता थी, उसका सरकार के नीति–निर्माताओं के पास अभाव था. दरअसल विश्वयुद्ध की आहट के बीच औपनिवेशिक सरकार की प्राथमिकताएं एकदम अलग थीं. लंकाशायर की मिलों और कल–कारखानों को चमकाने के लिए भारतीय खनिज संपदा का बड़े पैमाने पर दोहन जारी था. इससे किसानों तथा कामगार वर्ग के बीच असंतोष बढ़ रहा था. जनाक्रोश को सार्थक दिशा देने के लिए मार्क्स के चिंतन से भारतवासियों को सीधे परचाने की जरूरत थी. छिटपुट चर्चाएं हालांकि गोष्ठियों और बैठकों में चलती रहती थीं. मगर मार्क्स के विचारों के प्रति गंभीर समझ का अभाव था. मार्क्स के जीवन संघर्ष और उसके विचारों पर पहली पुस्तक लिखने का श्रेय भी डा. हरदयाल को जाता है. उन्होंने मार्क्स के जीवन–दर्शन पर केंद्रित एक लंबा लेख ‘मार्डन रिव्यू’ के लिए लिखा, शीर्षक था—काल मार्क्स : आधुनिक संत’, जो तुरंत बाद पुस्तकाकार प्रकाशित होकर सामने आ गया. हरदयाल की पुस्तक अंग्रेजी में थी, जिसमें उन्होंने मार्क्स की विलक्षण प्रतिभा की सराहना की थी. मार्क्स द्वारा ‘इंटरनेशनल वर्किंग मेंस एसोशिएसन’ जिसको आगे चलकर ‘प्रथम इंटरनेशनल’ के नाम से प्रसिद्धि मिली, की स्थापना की प्रशंसा करते हुए उन्होंने लिखा था—
‘उसकी सबसे बड़ी महानता दुनिया–भर अनेक देशों के मजदूरवर्ग की एकता और संगठन–शक्ति को जाग्रत करने में निहित थी. मार्क्स की ओज–भरी पुकार, ‘दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ.’—संपूर्ण यूरोप में गूंज उठी….पुस्तक में आगे लंदन टाइम्स को उद्धृत करते हुए उन्होंने लिखा था—‘पुरानी सभ्यताओं के पतन और ईसाईयत की स्थापना के बाद श्रमिकों के जागरण जैसी विलक्षण घटना किसी ने नहीं देखी देखी थी.’7
डा. हरदयाल मार्क्स के वर्ग–संघर्ष के सिद्धांत से असहमत थे. मार्क्स के वैज्ञानिक भौतिकवाद को वे ‘अधूरा सच’ मानते थे. लेकिन श्रमिक–वर्ग के प्रति उत्थान और उसकी अस्मिता की सुरक्षा के लिए मार्क्स की नीयत में उन्हें कोई संदेह न था. पुस्तक के समापन पर मार्क्स की प्रशस्ति में उन्होंने लिखा—
‘मार्क्स पहला आदमी था, जिसने यह फार्मूला दिया कि श्रमिक–वर्गों को अपनी मुक्ति अपनी आप प्राप्त करनी होगी….उसकी यह महानतम अपील सीधे मजदूरों के दिलों को, उनके भीतर छिपी इंसानियत की गहराई तक छूती थी, जिसके बारे में वे स्वयं अनजान थे, ‘दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ. तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है. जीतने के लिए दुनिया पड़ी है.’ उसके बाद वर्षों बीत गए. आदमी आए और गए. लेकिन मैले–कुचेले और लापरवाह श्रमिकों के मन में उनके नेता ही यह भावुक अपील आज भी पूरी निष्ठा के साथ गूंजती है.’8
हरदयाल की इस पुस्तक को देश में खूब प्रसिद्धि मिली. उन्होंने अपनी पुस्तक अंग्रेजी में लिखी थी. किसी भारतीय भाषा में मार्क्स की जीवनी लिखने का श्रेय के. रामकृष्ण पिल्लई को जाता है. उन्होंने अपनी पुस्तक ‘मार्क्स’ मातृभाषा मलयालम में लिखी थी. यह पुस्तक ‘मनुष्यता के उपकारक’ शृंखला के अंतर्गत 1912 में पहली बार प्रकाशित हुई थी. केरल के त्रावणकोर में गरीब परिवार में जन्मे पिल्लई के पिता पुजारी थे. मां मंदिर में झाड़ू–पोंछा का काम करती थी. घर में गरीबी का आलम ऐसा था कि प्राथमिक पढ़ाई के लिए भी उन्हें अपने मामा की मदद लेनी पड़ी. उनकी मदद से हाईस्कूल की परीक्षा पास की. बीए के लिए प्रवेश लिया. प्रगतिशील विचारों के पिल्लई ने अपने खानदान से नीची समझे जाने वाली जाति में विवाह किया था. उन्हें बचपन से ही पत्रकारिता से लगाव था. पढ़ने–लिखने में रुचि आरंभ से ही थी. इससे उनकी ख्याति बढ़ने लगी थी. अभी स्नातक हो नहीं पाए थे कि ‘कलादर्पण’ की संपादकी का निमंत्रण मिला. युवा रामकृष्ण ने उसके लिए तत्काल सहमति दे दी. मामा चाहते थे कि वे अपनी पढ़ाई पर ध्यान दें, ताकि महाराजा के यहां नौकरी पक्की की जा सके. लेकिन पिल्लई पर तो पत्रकारिता का भूत सवार था. यह वह सपना था जिसको वे बचपन से देखते आए थे. इसलिए मामा की सलाह को नजरंदाज कर उन्होंने अखबार का संपादन–भार संभाल लिया. वे उनके जीवन और समाज में बदलाव के दिन थे. भारत में रहते हुए उन्होंने ‘शारदा’ और ‘स्वदेशाभिमानी’ पत्रों की शुरुआत की. शारदा महिलाओं की पत्रिका थी. जबकि स्वदेशाभिमानी प्रगतिशील विचारधारा से ओतप्रोत अखबार.
रामकृष्ण की निडर और मूल्य–आधारित पत्रिका का पहला शिकार त्रावणकोर का दीवान पी. राजगोपालाचार्य बना. अपने समाचारपत्र में पिल्लई ने दीवान के अनैतिक आचरण और भ्रष्टाचार पर केंद्रित कई लेख प्रकाशित किए थे. त्रावणकोर रियायत के सम्राट मूलम थिरूनल आलसी और विलासी राजा था. राज्य की सुरक्षा के लिए वह 8 लाख रुपये सालाना अंग्रेजों को देता था. रियासत के सभी प्रमुख पदों पर ब्राह्मणों का अधिकार था. छोटी जातियों का काम था, ब्राह्मणों तथा अन्य उच्च जातियों की सेवा करना. ब्राह्मणों को भोजन और अन्य सुविधाएं राज्य की ओर से मुफ्त प्राप्त होती थीं. बदले में ब्राह्मणों ने यह घोषित किया हुआ था कि रियासत के महाराज दैवी संतान हैं तथा वे श्रीपद्मनाभ की ओर से शासनकार्य संभाले हुए हैं. उनका आदेश दैवीय आदेश है.
रामकृष्ण पिल्लई ने 1899 में एक नए समाचारपत्र ‘केरल दर्पण’ की शुरुआत की. उसका पहला अंक 14 सिंतबर को प्रकाशित हुआ. पहले ही अंक में उन्होंने घोषणा की थी कि पत्र का उद्देश्य आम जनता की सेवा करना है. यह कोरा राजनीतिक वक्तव्य नहीं था. ‘केरल दर्पण’ के माध्यम से उन्होंने रियासत में चल रहे भ्रष्टाचार से जुड़ी खबरें आम जनता में पहुंचानी आरंभ कर दीं. समाचारों के जरिये उन्होंने बताया कि राज्य में ऊपर से नीचे तक, जिनमें राज्य के दीवान भी शामिल हैं, सभी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं. एक रियासत के ऐसी खबरों से निपटना आसान बात थी. जनता भी ऐसी बातों पर कम ध्यान देती थी. ‘बड़े लोगों की बड़ी बातें’ कहकर ऐसे समाचारों को नजरंदाज कर देना सामान्य बात थी. मगर पिल्लई ने जब धर्म के नाम पर अपने हर जुर्म को वैध ठहराने, जनता का शोषण दिखाने वाले समाचारों को तजरीह देना आरंभ किया तो महाराज और उसके मुंह लगे मंत्री पी. राजगोपालाचार्य का तिलमिला उठना स्वाभाविक था. सम्राट द्वारा स्वयं को श्रीपद्मनाभ का उत्तराधिकारी घोषित करने पर कटाक्ष करते हुए पिल्लई ने लिखा था—
‘सम्राट खुद यह मानते, तथा दूसरों को भी यह मानने पर विवश करते हैं कि वे ईश्वर के प्रतिनिधि या अवतार हैं. उनका यह विचार पूरी तरह हास्यास्पद है. अगर ऐसा है तो क्या ईश्वर ने कुत्तों पर राज करने के लिए किसी खास किस्म के कुत्ते और हाथियों पर शासन चलाने के लिए विशिष्ट किस्म के हाथी की रचना की थी?’9
पिल्लई की इस टिप्पणी को पढ़कर यूनानी दार्शनिक जेनो की याद आना स्वाभाविक है. विचारों से नास्तिक कहे जा सकने वाले जेनो का कहना था कि यदि कुत्ते, बिल्ली को अपना ईश्वर गढ़ने की क्षमता हो और उनसे उनके ईश्वर का चित्र बनाने को कहा जाए तो वे ईश्वर को क्रमशः कुत्ते या बिल्ली के रूप में चित्रित करेंगे. ब्राह्मण अधिकारियों के इस दावे कि त्रावणकोर रियायत श्रीपद्भनाभ को समर्पित राज्य है. इसलिए गैर–हिंदू और शूद्र को राजकार्य में हिस्सेदारी धर्म–विरुद्ध है, पर उन्होंने लिखा—
‘क्या मुस्लिम और ईसाई त्रावणकोर के बाशिंदे नहीं हैं? क्या यह राज्य केवल अनैतिक और गैरजिम्मेदार ब्राह्मणों की जागीर है? जब तक इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जाता, ईसाई, मुस्लिम तथा गैर–ब्राह्मण हिंदुओं का यहां कोई भविष्य नहीं होगा.10
उन्होंने लिखा कि राजा मूलम थिरूनल वर्मा कुछ भी करने को स्वतंत्र नहीं हैं. अपने प्रत्येक निर्णय के लिए वे ब्रिटिश अधिकारियों पर निर्भर हैं. उन्होंने यह भी लिखा कि केवल और केवल जनता की सहमति से गठित राज्य ही आदर्श हो सकता है. पिल्लई द्वारा राजा और उसके अधिकारियों की निरंतर आलोचना से राजा का नाराज होना स्वाभाविक था. परिणाम यह हुआ कि उनका प्रेस सील कर दिया गया. रामकृष्ण पिल्लई को गिरफ्तार कर उन्हें राज्य से निष्कासन की सजा सुनाई गई. इन्हीं रामकृष्ण पिल्लई ने मलयालम में मार्क्स पर पुस्तक लिखी, जो किसी भी भारतीय भाषा में मार्क्स पर लिखी पहली पुस्तक थी. वह पुस्तक घर–घर में पढ़ी जाने लगी. के रामकृष्ण पिल्लई को दक्षिण भारत में मार्क्सवाद का युग प्रवर्त्तक नेता मान लिया गया.
लाला हरदयाल, करतार सिंह सराबा, सोहन सिंह भाखना, रामकृष्ण पिल्लई यहां तक कि भगतसिंह को भी भारत में कोरा क्रांतिकारी माना जाता है. यह धारणा है कि वे केवल हिंसा के माध्यम से सत्ता पर काबिज होना चाहते थे. इसके अलावा उनका कोई सोच, कोई स्वतंत्र दृष्टि आजादी को लेकर थी ही नहीं. दरअसल यह भारतीय क्रांतिकारियों, जिनमें भगत सिंह भी सम्मिलित हैं, के विचारों को न समझने के कारण पैदा हुई दृष्टि नहीं है. बल्कि उनके वास्तविक अवदान को भुला देने, बल्कि उस क्रांति के पीछे निहित विचारधारा को विस्मृत कर देने की साजिश का परिणाम है. गांधी जी भी इसके लिए जिम्मेदार हैं. उन्होंने क्रांतिकारियों से उनकी विचारधारा के स्तर पर जाकर संवाद करने के बजाय, उन्हें ‘हिंसात्मक गतिविधियों में लिप्त’ बताकर संवाद को ही नकार दिया था. वही गांधी बोअर युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष में न केवल स्वयं हिस्सा लेते हैं. बल्कि देश को भी अंग्रेजों का साथ देने को विवश कर देते हैं, और अप्रत्यक्ष रूप से साम्राज्यवादी अंग्रेजों की मदद करते हैं, वे क्रांतिकारियों क्रांति के पीछे निहित विचारधारा को जानने, समझने के बजाय उसे हिंसा में लिप्त बताकर उनसे कोई सीधा संवाद नहीं करते. भगतसिंह की शहादत पर इलाहाबाद के पत्र ‘भविष्य’ में प्रकाशित उनकी टिप्पणी युवाओं से उनके नाम और योगदान को भुला देनी की अपील जैसी थी—‘भगतसिंह और उनके साथी अमर शहीद हो गए हैं. उनकी मृत्यु से आज लाखों व्यक्ति दुखी हैं. मैं इन नवयुवक देशभक्तों की लगन की भूरि–भूरि प्रशंसा करता हूं. परंतु मैं इस देश के नवयुवकों को इस बात की चेतावनी देता हूं कि वे उनके पथ का अवलंबन न करें.’ हिंसा के नाम पर क्रांतिकारियों को बदनाम करने, उन्हें कोरा ‘हथियारबंद’ बताने वाला लेखन आजादी के बाद तो जानबूझकर किया जाता रहा. यह सब मार्क्स के नाम पर, मार्क्सवाद को बदनाम करने की कोशिश करते हुए किया गया, इस तथ्य को नजरंदाज करते हुए कि 1871 में पेरिस क्रांति की असफलता के बाद मार्क्स ने स्वयं को हिंसात्मक परिवर्तन की राह से अलग कर लिया था.
यहां सरदार भगतसिंह को लेकर अक्सर सुनाई जाने वाली एक कहानी को ध्यान में लाना जरूरी है. कहानी के अनुसार बचपन में भगत सिंह अपने पिता से खेत में बंदूक बोने को कहते हैं. ताकि उन बंदूकों से अंगे्रजों को देश के बाहर खदेड़ सकें. यह किसी क्रांतिकारी को निरा लड़ाका बना देने की कोशिश थी. आजाद भारत में ऐसा जानबूझकर किया गया. इसलिए नहीं लोगों के मन में क्रांतिकारियों के प्रति कम सम्मान था. जनमानस पर तो क्रांतिकारियों का ही अधिक प्रभाव था. धर्म के नाम पर, जेहाद के नाम पर आम आदमी को अभी तक लड़–मरना ही सिखाया जाता था. परंतु वे लड़ाइयां भगवान के नाम पर होती थीं, राजा के नाम पर होती थीं. क्रांतिकारी पहली बार उन्हें अपने अधिकार के लिए लड़ना सिखा रहे थे. लोग अपने लिए सोचें, अपने सुख–दुख को ध्यान में रखकर बड़े निर्णय लें, सरकार नहीं चाहती थी कि भारतीय जनता में वर्गीय चेतना पैदा हो. इसलिए आजादी के बाद, बल्कि आजादी से पहले ही क्रांति के मकसद को झुठलाने की, विचार को बाहर निकालकर उसको कंकाल में ढाल देने की कोशिशें बड़े पैमाने पर होती रहीं. इस मामले में जमींदार और उद्योगपति सब एक थे. चूंकि जनसाधारण में क्रांतिकारियों के बलिदान से, उनकी कहानियां सुनते हुए स्वातंत्रय चेतना पैदा हुई थी, इसलिए उनके प्रभाव को झुठला पाना, मिटाना या उसका असर कम कर पाना आसान न था. क्रांतिकारियों की ख्याति से उन्हें कोई डर भी न था, लेकिन वे उस विचारधारा से घबराते थे, जो उसके मूल में थी. खूब सोच–विचार के बाद उन्होंने क्रांति के पीछे निहित विचार को मारने की साजिश रची. देश की जातीय–धार्मिक संरचना से वे इसमें सफल भी हुए. आजाद भारत में क्रांतिकारियों को केवल हिंसात्मक गतिविधियों द्वारा अंग्रेजों से निपटनेवाला कहकर प्रचारित किया गया. जबकि उसके मूल में एक ठोस विचारधारा थी. इसका खुलासा स्वयं भगतसिंह ने ‘माडर्न रिव्यू’ के संपादक रामानंद चट्टोपाध्याय को संबोधित अपने पत्र में किया था. रामानंद चट्टोपाध्याय ने 63 दिनों की भूख हड़ताल के बाद यतींद्रनाथ दास के जेल में शहीद होने पर क्रांतिकारियों के नारे ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ की आलोचना की थी. उसका प्रत्युत्तर में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने संपादक को 22 दिसंबर 1929 को एक पत्र लिखा था. वे लिखते हैं—
‘क्रांति (इन्कलाब) का अर्थ अनिवार्य रूप से सशस्त्र आन्दोलन नहीं होता. बम और पिस्तौल कभी–कभी क्रांति को सफल बनाने के साधन मात्र हो सकते हैं. इसमें भी सन्देह नहीं है कि कुछ आंदोलनों में बम एवं पिस्तौल एक महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध होते हैं, परंतु केवल इसी कारण से बम और पिस्तौल क्रांति के पर्यायवाची नहीं हो जाते. विद्रोह को क्रांति नहीं कहा जा सकता, यद्यपि हो सकता है कि विद्रोह का अंतिम परिणाम क्रांति हो. एक वाक्य में क्रांति शब्द का अर्थ ‘प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकांक्षा’ है.’11
भगतसिंह का राजनीतिक दर्शन हालांकि पूरी तरह परिपक्व नहीं हो पाया था. पर जितना उन्होंने लिखा है, उससे इतना तो स्पष्ट है कि क्रांति से उनका अभिप्राय आमूल परिवर्तन से था. क्रांति का पर्याय कहा जाने वाला परिवर्तन क्या हो सकता है, इस बारे में संकेत वे 20 मार्च 1931 को, अपनी फांसी से मात्र तीन दिन पहले, पंजाब के गर्वनर के नाम अपने पत्र में करते हैं—
‘अंग्रेज जाति और भारतीय जनता के मध्य एक युद्ध चल रहा है….यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है—चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूंजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है. चाहे शुद्ध भारतीय पूंजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नही पड़ता. यदि आपकी सरकार कुछ नेताओं या भारतीय समाज के मुखियों पर प्रभाव जमाने में सफल हो जाए, कुछ सुविधाएं मिल जाएं, अथवा समझौते हो जाएं, इससे भी स्थिति नहीं बदल सकती, तथा जनता पर इसका प्रभाव बहुत कम पड़ता है. हमें इस बात की भी चिंता नही कि युवकों को एक बार फिर धोखा दिया गया है और इस बात का भी भय नहीं है कि हमारे राजनीतिक नेता पथ–भ्रष्ट हो गए हैं और वे समझौते की बातचीत में इन निरपराध, बेघर और निराश्रित बलिदानियों को भूल गए हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से क्रांतिकारी पार्टी का सदस्य समझा जाता है. हमारे राजनीतिक नेता उन्हें अपना शत्रु मानते हैं, क्योंकि उनके विचार में वे हिंसा में विश्वास रखते हैं, हमारी वीरांगनाओं ने अपना सब कुछ बलिदान कर दिया है. उन्होंने अपने पतियों को बलिवेदी पर भेंट किया, भाई भेंट किए, और जो कुछ भी उनके पास था सब न्यौछावर कर दिया. उन्होंने अपने आप को भी न्यौछावर कर दिया, परंतु आपकी सरकार उन्हें विद्रोही समझती है. आपके एजेंट भले ही झूठी कहानियां बनाकर उन्हें बदनाम कर दें और पार्टी की प्रसिद्धि को हानि पहुंचाने का प्रयास करें, परंतु यह युद्ध चलता रहेगा….हो सकता है कि यह लड़ाई भिन्न–भिन्न दशाओं में भिन्न–भिन्न स्वरूप ग्रहण करे. किसी समय यह लड़ाई प्रकट रूप ले ले, कभी गुप्त दशा में चलती रहे, कभी भयानक रूप धारण कर ले, कभी किसान के स्तर पर युद्ध जारी रहे और कभी यह घटना इतनी भयानक हो जाए कि जीवन और मृत्यु की बाजी लग जाए….बहुत सभव है कि यह युद्ध भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले. पर निश्चय ही यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रांति समाप्त नहीं हो जाती और मानवी सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नही हो जाता.’12
स्वाधीनता संग्राम में क्रांतिकारियों की भूमिका को नकारने, उन्हें कोरा खाड़कू सिद्ध करने की कोशिश बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही शुरू हो चुकी थी. उनके योगदान को नकारना, उनकी आलोचना करना केवल साम्राज्यवाद ब्रिटेन की मदद करना नहीं था, बल्कि उस पूंजीवाद को भी तसल्ली देना था, जो गांधी और कांग्रेस को ढाल बनाकर दबे पांव अपनी जगह बना रहा था.
क्रमश:…
© ओमप्रकाश कश्यप
अनुक्रमणिका :
1. भगतसिंह के राजनीतिक दस्तावेज, नेशनल बुक ट्रस्ट, पृष्ठ-4
2. वही, पृष्ठ-5
3. Gurdev Singh, Deol, The Role of The Ghadar Party in the National Movement, Sterling Publishers, Jalandhar, 1969, pp. 39-40.
4. Wanted: Enthusiastic and heroic soldiers for
organizing Ghadr in Hindustan: Renumeration: Death Reward : Martyrdom Pension : Freedom
Field of work : Hindustan.
5. “Today, there begins in foreign lands, but in our country’s language, a war against the British Raj…What is our name? Gadar. What is our work? Gadar. Where will Gadar break out? in India. The time will soon come when rifles and blood will take the place of pen and ink.”Proceedings Home Political (Deposit) October, 1915, No. 43 (N.A.I.) and Gadar, November 1, 1913; quoted in Khushwant Singh, History of the Sikhs, Vol. II, p. 177.
6 Every class of artizans, the spinners, weavers and dyers, the oilsmen, the papermakers, the silk and sugar and metal workers, etc. who are unable to bear against western competition resort to the land, leave the towns and go into the country and are lost in the mass of helpless people who are unable to bear up against scarcity and famine. – A History of Indian Economic Thought by Ajit K.Dasgupta
7. Its greatest value lay in its efforts in promotion the unity and solidarity of the working- class in various countries. Marx’s battle cry, ‘Workingmen of all countries, unite!’ reverberated throughout Europe.’ Hardyal approvingly quotes the London Times Since the time of the establishment of Christianity and the destruction of the ancient world one had seen nothing like this awakening of labor.” Karl Marx : A Modern Rishi, Hardyal.
8. Marx was the first man who lay down the formula that the emancipation of the Working- classes must be achieved by themselves….His great appeal was addressed to the hearts of workingmen, to the latent manhood in them, of which they themselves were not conscious: ‘Workingmen of all countries unite! You have nothing to lose but your chains. You have a world to gain.’ Years have passed away. Men have come and gone; but this passionate cry of the leader who believed in the ignorant and dirty laborer still raises them in the full level of manhood. – Karl Marx : A Modern Rishi, Hardyal.
9. The monarchs believe and force others to believe that they are God’s representatives or incarnations. This is absurd. Did God create a special kind of dog to be the king of dogs,or a special kind of elephant to rule over all elephants?” R. Pillai,
10. Are the Christians and the Muslims not the people of Travancore? Does the state belong only to a handful of immoral irresponsible Brahmins? Unless this question is answered, the Christians, Muslims and non-Brahmins of this kingdom will not have any future.-R. Pillai, as quoted by Sh. Damodaran in Marx comes to India edited by Sh. P. Joshi & Damodaran.
11. भगतसिंह और उसके साथियों के दस्तावेज
12. वही