भारत में समाजवादी चिंतन की पृष्ठभूमि—दो

इंग्लेंड में ‘इंडिया हाउस’ ब्रिटिश साम्राज्यवाद को जड़ से उखाड़ने के लिए कृतसंकल्प था. अमेरिका में बसे भारतवासी भी पीछे न थे. भारत में अंग्रेज सरकार द्वारा लगाए गए भारीभरकम करों ने पंजाब के किसानों का जीवन दूभर किया था. 1857 में कंपनी का साथ देने वाले तथा बाद में अंग्रेज सरकार के लिए कई मोर्चे संभाल चुके पंजाबी सैनिक अब स्वयं को ठगा हुआ अनुभव कर रहे थे. जिस कृषि भूमि पर पंजाबी किसानों को गर्व था, भारीकराधान और व्यापारियों की दुर्नीति के कारण वह तेजी से उनके हाथों से छिन रही थी. किसानों का कर्ज बढ़ता ही जा रहा था. खेतिहार लोगों की जमीन से बेदखली के लिए सरकार द्वारा 1901 में बनाया गया कानून बेअसर हो चुका था. कर्जमंद किसान अपनी जमीन बेचने को विवश थे. हकीकतबयानी के लिए यह जानना पर्याप्त होगा कि 1901 से 1909 के बीच, मात्र आठ वर्षों में अकेले पंजाब में 4,13,000 एकड़ जमीन की बिक्री हुई थी, जबकि 2.5 करोड़ एकड़ जमीन किसानों द्वारा कर्ज के एवज में बंधक रखी जा चुकी थी. किसानों की यह दुर्दशा ब्रिटिश सरकार की सोचीसमझी रणनीति के तहत थी. गुरु रामसिंह के नेतृत्व में 1871 में कूका विद्रोह के बाद से ही ब्रिटिश सरकार पंजाब की उपेक्षा करती आ रही थी. 1905 में बंगाल विभाजन के उपरांत देश में स्वदेशी वस्तुओं के प्रति जागरूकता बढ़ी तो पंजाब में भी उसका असर पड़ा. उसपर नियंत्रण के लिए पंजाब के गर्वनर ने देशी उद्योगधंधों को बंद करने के लिए चालें चलनी आरंभ कर दी. इसका वर्णन शहीद भगतसिंह ने 1931 में पंजाब में राजनीतिक जागरण की पृष्ठभूमि पर लिखे गए अपने लेख में किया है. वे लिखते हैं

उन दिनों यहां(पंजाब) स्वदेशी वस्तुएं, विशेषतः खांड तैयार करने का सवाल पैदा हुआ और देखतेदेखते एकदो मिलें भी खुल गईं. यद्यपि सूबे के राजनीतिक जीवन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन सरकार ने इसे नष्ट करने के लिए गन्ने की खेती का लगान तीन गुना कर दिया. पहले एक बीघे का लगान केवल 2.50 रुपये था, अब 7.50 रुपये देने पड़ते थे. इससे किसानों पर एक भारी बोझ आ पड़ा और वह एकदम हतबुद्धिसे रह गए.’1

इसी लेख में भगतसिंह पंजाब के किसानों को उत्पीड़ित करने वाले ‘नए कलोनी एक्ट’ का भी उल्लेख करते हैं. पंजाब सरकार ने लायलपुर आदि जिलों में नहरें खुदवाकर जालंधर, अमृतसर, होशियारपुर के किसानों को वहां आमंत्रित किया. सरकार पर विश्वास कर किसान अपनीअपनी जमीनजायदाद छोड़कर नए ठिकानों पर आकर बसने लगे. कई वर्षों तक अपना पसीना बहाकर, रातदिन की मेहनत के पश्चात उन्होंने उस क्षेत्र को गुलजार कर दिया. तभी सरकार ‘नया कलोनी एक्ट’ ले आई. उसके प्रभाव का खुलासा करते हुए भगतसिंह आगे लिखते हैं—

यह एक्ट क्या था, किसानों के अस्तित्व को ही मिटा देने का एक तरीका था. इस एक्ट के अनुसार हर व्यक्ति की जायदाद का वारिस केवल उसका बड़ा लड़का ही हो सकता था. छोटे पुत्रों का उसमें कोई हिस्सा नहीं रखा गया था. बड़े लड़के के मरने पर वह जमीन या जायदाद छोटे लड़कों को नहीं मिल सकती थी, जिससे उसपर सरकार का अधिकार हो जाता था.’2

गौरतलब है कि अमेरिका स्थित प्रवासी भारतीयों में लगभग आधी जनसंख्या पंजाब से आए लोगों की थी. एक तो गुलाम देश का नागरिक होने के कारण होने वाला अपमान, दूसरा औपनिवेशिक सरकार द्वारा किसानों का शोषणउत्पीड़न—प्रवासी भारतियों को क्षुब्ध करने के लिए ये सूचनाएं पर्याप्त थीं. उस समय तक अमेरिका ब्रिटेन के साथ व्यावसायिक स्पर्धा में था. वह भारत में अपनी जड़ें मजबूत करना चाहता था. सिंगापुर, मलाया, पनाग, शिंघाई के बंदरगाहों पर कनाडा और अमेरिका के व्यापारी अपने देश की समृद्धि का वास्ता देकर भारतीय व्यापारियों को ललचाते थे. भारतीयों के मन में भी अमेरिका के प्रति अतिरिक्त आकर्षण था. 1902 में स्वामी विवेकानंद तथा 1904 में स्वामी रामतीर्थ ने अमेरिका की यात्रा की थी. वापस लौटने पर उन दोनों ने अमेरिका, विशेषकर वहां की उन्नत शिक्षा प्रणाली तथा सरकारी नीतियों की प्रशंसा करते हुए भारतीय युवाओं को उस देश से प्रेरणा लेने के लिए उत्प्रेरित किया था.3 फलस्वरूप अमेरिका जाने वाले भारतीयों की संख्या में वृद्धि हुई. भारत में व्यापारिक संभावनाएं खोज रहे अमेरिका के लिए भी यह हितकर था. भारतीयों को लुभाने के लिए अमेरिकी उद्योगपति ब्रिटिश सरकार की आलोचना करते थे तथा उसको देश में अशिक्षा, गरीबी और आर्थिक असमानता के लिए जिम्मेदार मानते थे. ये घटनाएं प्रवासी भारतीयों के मन में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध आग भड़काने का काम करती थीं. मार्क्स के विचारों पर आधारित फ्रांसिसी क्रांति की सफलता तथा रूस में चल रहे संघर्ष ने उन्हें नया हौसला दिया था, किंतु वैश्विक तनाव और आर्थिक मंदी के बीच हालात बदलने लगे थे. अमेरिका में प्रवासी भारतीयों की बढ़ती संख्या और समृद्धि बहुतसे अमरीकियों को खलने लगी थी.

दरअसल, बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशक में कनाडा में प्रवासी भारतीयों ने अपनी आर्थिक स्थिति काफी मजबूत कर ली थी. इस कामयाबी का कारण उनका अतिरिक्त मेहनती होना भी था. लेकिन 1907-08 की मंदी ने अमेरिकी किसानों को बड़ा झटका दिया था. भारतीय चूंकि अपने खेतों में स्वयं काम करते थे, इसलिए उनपर मंदी का प्रभाव अपेक्षाकृत कम था. इससे अमेरिकी किसान वहां के भारतीय भूस्वामियों से ईर्ष्या करने लगे. उस समय भी ढाबों, होटलों, बाजार आदि में बहुतसे भारतीय काम करते थे. गुलाम देश का नागरिक होने के कारण ईष्यालु अमेरिकी उन्हें ‘हैलो हिंदी स्लैब’ कहकर चिढ़ाते थे. उसकी प्रतिक्रिया में भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना पैदा हुई और वे एकजुट होने लगे. उनकी एकजुटता केवल अमेरिका में अपने मानसम्मान और अधिकार तक सीमित न थी. उभरती राष्ट्रीय चेतना के बीच भारत पर राज कर रहे अंग्रेज भी उनके उतने ही दुश्मन थे. प्रवासी भारतीयों में स्वाधीनता की भावना पैदा करने के लिए पर्चे बांटे जाने लगे.

उस समय मार्क्स के विचार पूरी दुनिया में परिवर्तन के प्रतीक माने जा चुके थे. उसका कथन, ‘दुनिया से भागने के बजाय उसको बदलने की जरूरत है.’—देश और देश से बाहर रह रहे हजारों भारतीयों का प्रेरणास्रोत बन चुका था. सरकारी उपेक्षा और भेदभावपूर्ण कृषिनीति के कारण एक ओर तो पंजाब के किसान स्वयं को ठगा हुआ अनुभव कर रहे थे, दूसरी ओर औपनिवेशिक सरकार ने 1905 में बंगाल विभाजन द्वारा पढ़ेलिखे बंगाली वर्ग को भी नाराज कर दिया था. अमेरिका, कनाडा और यूरोप के देशों में बंगालियों की संख्या भी काफी थी. बंगाल का विभाजन उन्हें अपनी अस्मिता पर हमला जान पड़ा था. इन घटनाओं ने भारत से बाहर रह रहे प्रवासियों में राष्ट्रीयता की भावना पैदा करने का काम किया. तारकनाथ दास कोलंबिया विश्वविद्यालय में राजनीति के प्राध्यापक, स्वदेशी भावना से ओतप्रोत प्रतिभाशाली भारतीय थे. जुलाई 1907 में उन्होंने खेमकरनवासी रामनाथ पुरी के साथ मिलकर एक परिपत्र भारतीयों के बीच प्रचारित किया था, उसका शीर्षक था—‘सरकुलरे आजादी.’ परिपत्र में अंग्रेज सरकार द्वारा भारतीयों के शोषण एवं अत्याचार का उल्लेख करते हुए भारतीयों का आवाह्न किया गया था वे अंग्रेजी वस्तुओं का बायकाट करें. पुलिस और सेना की नौकरी से त्यागपत्र दे दें.’ इस परिपत्र को भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया. उसके कुछ ही महीने बाद गुरमुखी में लिखा गया एक और परिपत्र ‘खालसा’ शीर्षक से लंदन में बांटा गया. उसमें भी अंग्रेज सरकार की साम्राज्यवादी नीति की आलोचना की गई थी. इसके बाद तो आजादी समर्थक परिपत्रों के छपने तथा नए संगठन बनने का सिलसिलासा बन गया. ये सब घटनाएं अंततः ‘गदर पार्टी’ के गठन की पीठिका बनीं. उसके संस्थापकों में महान क्रांतिकारी करतार सिंह सराबा, सोहन सिंह भाकना, लाला हरदयाल, तारकनाथ दास जैसे दिलेर हिंदुस्तानी थे. उनके समर्थक अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, रूस आदि देशों में फैले हुए थे. भारत को स्वाधीन देखने के लिए इनकी रणनीति कांग्रेसी नेताओं से अलग थी. इनपर फ्रांसिसी क्रांति और अराजकतावादी चिंतन का गहरा प्रभाव था. सही मायने में वे पढ़ेलिखे और चुनौतियों से जूझ पड़ने वाले युवा भारतीय थे, जो अपने लक्ष्य को पाने के लिए किसी भी सीमा तक जाने का हौसला रखते थे.

उनकी गतिविधियों में तेजी आई लाला हरदयाल के उनके साथ सम्मिलित होने के बाद. बेहद प्रतिभाशाली लाला हरदयाल विचारों से अराजकतावादी थे. वे अक्सर कहा करते थे कि केवल सत्तापरिवर्तन पर्याप्त नहीं है. हमें सत्ता की अनिवार्यता को ही समाप्त कर देना है. यदि बहुत जरूरी है तो उसका आकार लघुत्तम होना चाहिए. इतना छोटा कि सरकार अस्तित्वविहीन दिखाई पड़ने लगे. रूसी अराजकतावादी विचारक पीटर क्रोप्टोकिन से प्रभावित होकर डा. हरदयाल ने एक बार कहा था—

स्वामी और सेवक के बीच कभी कोई समानता नहीं हो सकती. भले ही वे दोनों मुसलमान हों, सिख हों, अथवा वैष्णव हों….अमीर हमेशा गरीब पर शासन करेगा….आर्थिक समानता के अभाव में भाईचारे की बात करना केवल एक सपना है.’

सितंबर 1912 में स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्याता के पद से इस्तीफा देने के बाद लाला हरदयाल ने स्वयं खुद को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लिए पूरी तरह समर्पित कर दिया था. उससे पहले 1910 में अपनी पेरिस यात्रा के दौरान उन्होंने कार्ल मार्क्स के पौत्र जीन लेंगुइट से मुलाकात की थी. लेंगुइट पेशे से पत्रकार था. अपने दादा की भांति लेंगुइट की भी भारत की राजनीति में रुचि थी. उसने कई लेख भारत में ब्रिटिश सरकार की आलोचना करते हुए लिखे थे. जिस समय वीर सावरकर को फ्रांसिसी पुलिस ने गैरकानूनी ढंग से गिरफ्तार कर ब्रिटिश सरकार को सौंपा तो जीन लेंगुइट के नेतृत्व में वहां के समाजवादी विचारधारा के पत्रकारों ने उस कार्रवाही का तीखा विरोध किया था. इसके अलावा भी वह न केवल भारत, बल्कि सभी ब्रिटिश उपनिवेशों की स्वतंत्रता के लिए आवाज उठाता रहता था. भारतीयों के बीच उसका अखबार अत्यंत लोकप्रिय था. भारतीय क्रांतिकारियों से उसे विशेष सहानुभूति थी. डा. हरदयाल ने लेंगुइट से मिलकर उसकी और उसके दादा मार्क्स के कार्यों तथा भारतीय जनता के प्रति उन दोनों की चिंताओं की सराहना की थी.

मार्च 1914 में करतार सिंह भाकना ने प्रवासी भारतीय बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर ‘हिंदी सभा’ की स्थापना की तो लाला हरदयाल को उसका महासचिव नियुक्त किया गया. पार्टी का मुख्यालय ‘युगांतर आश्रम’ के नाम से प्रसिद्ध था. बंगाल विभाजन से अंग्रेजों से नाराज अनेक बंगाली बुद्धिजीवी उसके सदस्य थे. वहीं पर अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए सशस्त्र संघर्ष को आगे बढ़ाने की योजना पर विचार किया गया. पेरिस क्रांति से प्रभावित क्रांतिकारियों का मानना था कि मुट्ठीभर अंग्रेजों को भारत के जमींदारों और सामंतों का संरक्षण प्राप्त है. देश पर हालांकि ब्रिटिश सरकार की हुकूमत है, लेकिन जमींदार और सामंत यदि उनका साथ छोड़ दें तो ब्रिटिश सत्ता के लिए भारत में एक दिन भी टिकना मुश्किल हो जाए. यह आकलन गलत भी नहीं था. उस समय भारत में ब्रितानी मूल के अंग्रेजों की संख्या पचास हजार से कुछ ही अधिक थी. अब यदि मुट्ठीभर अंग्रेज पचीस करोड़ भारतीयों पर शासन करने में सफल थे, तो इसलिए नहीं कि उनमें देवत्व जैसा कोई गुण था. अथवा वह सर्वथा अपराजेय कौम थी? उनका शासन भारतीय जागीरदारों और सत्तालोलुपों की मदद के बगैर संभव ही नहीं था. स्वार्थी और विलासी जमींदारों, सामंतों तथा उनके पिछलग्गु सरदारों से निपटने का उनके पास एक ही रास्ता था. जनता को संघर्ष के लिए तैयार किया जाए. उसको उसकी गुलामी का एहसास कराया जाए. फिर जैसे भी संभव हो पुलिस, सेना को साथ लेकर, व्यापक जनविद्रोह के माध्यम से उन्हें कुचल दिया जाए. इसके लिए वे तरहतरह से प्रयासरत थे.

अक्टूबर 1913 में ‘हिंदी सभा’ की दूसरी बैठक में क्रांतिकारियों की ओर से एक समाचारपत्र निकालने का निर्णय लिया गया. समाचारपत्र का नाम रखा गया—‘दि गदर’. यह 1857 के प्रथम स्वाधीनता आंदोलन की याद दिलाता था. उद्देश्य था भारतीयों के मन में स्वाधीनता के प्रति चेतना जाग्रत करना था. समाचारपत्र के मुखपृष्ठ से ही उसकी क्रांतिधर्मी विचारधारा का संकेत मिलता था. उसपर लिखा होता था—‘अंग्रेजी राज का दुश्मन.’ उस समाचारपत्र में एक विज्ञापन अक्सर छपा करता था—‘चाहिए साहसी और बहादुर सिपाही, भारत में क्रांति के लिए. वेतन—मौत, पुरस्कार—शहीदाना. पेंशन—आजादी, कार्यक्षेत्र—संपूर्ण भारतवर्ष.’4 गदर का पहला अंक 1 नवंबर, 1913 को सेनफ्रांसिस्को से अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में एक साथ प्रकाशित हुआ. इसके संपादक डा. हरदयाल थे, जिनकी विलक्षण प्रतिभा के चर्चे देशविदेश चारों ओर फैले हुए थे. पहले ही अंक के साथ अखबार के तेवर एकदम साफ थे—

आज, विदेशी भूमि पर लेकिन देश की भाषा में, ब्रिटिश राज के विरुद्ध जंग की शुरुआत हुई है….‘हमारा नाम क्या है?’ ‘गदर’….‘हमारा कर्म क्या है?’ ‘गदर.’ यह कहां और कब से शुरू होगा? भारत में, बहुत जल्दी ऐसा समय आएगा जब बंदूकें और खून लोगों के पेन और स्याही की जगह ले लेंगे.’5

अंग्रेजों के प्रति उग्र लाला हरदयाल की भारत के संबंध में नीति समन्वयवादी थी—‘हम न हिंदू हैं न मुस्लिम. हम केवल देशभक्त हैं….हमें न पंडित चाहिए न मुल्ला. हमें केवल भारत के बारे सोचने और करने वाले चाहिए.’ लाला हरदयाल अद्भुत प्रतिभा के धनी थे. उनके प्रयासों से ‘दि गदर’ को अप्रत्याशित लोकप्रियता मिली. अप्रैल 1914 तक वह समाचारपत्र हिंदी और अंग्रेजी के अलावा पश्तो, गुजराती, गुरमुखी और उर्दू में निकलने लगा. इस समाचारपत्र की लोकप्रियता का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि उसके अंक अंग्रेज सरकार से छिपाकर तस्करी के जरिये भारत में लाए जाते थे. इस समाचारपत्र को मिली अप्रत्याशित कामयाबी से प्रभावित होकर ही नए संगठन का नाम ‘गदर पार्टी’ रखा गया था. ‘दि गदर’ से जुड़े नेता अंग्रेजों की आंख की किरकिरी बन चुके थे. सरकार उनके पीछे थी. लेकिन उनके समर्थक दुनिया के अनेक देशों में फैले चुके थे. भारतीय जनता के मन में उनके प्रति सहानुभूति थी.

उस समय पूरी दुनिया में राजनीतिक उथलपुथल जारी थी. अपनी सामरिक ताकत के दम पर जर्मनी आगे बढ़ता जा रहा था. प्रथम विश्वयुद्ध की आहट सुनाई देने लगी थीं. युद्ध को लेकर गदर पार्टी से जुडे़ नेताओं का मानना था—‘ब्रिटेन का संकट हमारे लिए नया अवसर होगा.’ इसी सिद्धांत को आधार मानकर गदर पार्टी के नेता, विश्वयुद्ध में ब्रिटेन के विरोधी देशों से संपर्क साधने लगे. उन दिनों बंगाली नेता वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय जर्मनी में थे. खुद को ‘अराजकतावादी’ कहने वाले वीरेंद्रनाथ आरंभिक क्रांतिकारियों में से थे. उनके मानवेंद्रनाथ राय, वीर सावरकर आदि से गहरे संबंध थे. अपने साथियों के बीच ‘चट्टो’ के नाम से पहचाने जाने वाले वीरेंद्रनाथ का नाम स्टालिन की उस सूची में था, जिसे उसने मृत्युदंड सुनाया था. एक बहुश्रुत मान्यता यह भी है कि वीरेंद्रनाथ को सोवियत गुप्तचर सेवा के लिए काम करने वाले डोनाल्ड गुलिक ने 1937 में उस समय गोली से उड़ा दिया था, जब वे फ्रांस से बाहर जा रहे थे. उनकी मृत्यु को लेकर विवाद अब भी बना हुआ है. बहरहाल, चट्टोपाध्याय के जर्मन अधिकारियों से उनके अच्छे संबंध थे. उन्हें जर्मन सरकार से काफी उम्मीद थी. दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, इस नीति के तहत जर्मन सरकार के साथ हुए एक अनुबंध के आधार पर चट्टोपध्याय की ओर से गदर पार्टी के नेताओं सहित, दुनियाभर में फैले क्रांतिकारियों को जर्मनी पहुंचने के लिए आमंत्रित किया गया, ताकि ब्रिटिश शासन से मुक्ति के लिए संगठित प्रतिरोध किया जा सके. क्रांतिकारी चाहते थे कि विद्रोह इतने जोरदार तरीके से हो कि उसकी धमक पूरी दुनिया में सुनाई दे, जिससे निकली चिंगारियां ब्रिटिश सत्ता को भस्म कर दें. लाला हरदयाल जर्मनी पहुंचना चाहते थे. लेकिन तब तक अमेरिकी सरकार पर ब्रिटेन की ओर से उन्हें गिरफ्तार करने का दबाव बढ़ चुका था. अंततः 25 मार्च 1914 को उन्हें अमेरिकी हवाई अड्डे पर कैद कर लिया गया. उनपर आरोप था कि उन्होंने तीन वर्ष पहले रूस की जार सरकार के विरोध में भाषण देकर उसे उखाड़ फेंकने का आवाह्न किया था. हरदयाल हालांकि 10 अप्रैल 1914 को जमानत पर रिहा हो चुके थे, परंतु यह सोचते हुए कि अमेरिका सरकार उन्हें दुबारा हिरासत में लेकर ब्रिटिश सरकार के हवाले कर सकती है, उनके साथियों ने उन्हें तत्काल अमेरिका छोड़ने की सलाह दी. हरदयाल अमेरिका छोड़कर जर्मनी को प्रस्थान कर गए.

उस समय तक गदर पार्टी का आंदोलन आगे बढ़ चुका था. पार्टी भाई संतोख सिंह के नेतृत्व में तेजी से संगठित हो रही थी. जुलाई 1914 में विश्वयुद्ध की घोषणा कर दी गई. गदर पार्टी के नेताओं को इसी अवसर की प्रतीक्षा थी. करतार सिंह सराबा और उनके साथियों ने 5 अगस्त को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करते हुए गदर सेनानियों से भारत पहुंचने को कहा. उनके आवाह्न पर सरकारी आंकड़ों के अनुसार फरवरी 1915 तक देश में 2312 गदर सेनानी प्रवेश कर चुके थे. 1916 के अंत उनकी संख्या 8000 से भी ऊपर पहुंच गई. भारत में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध व्यापक लड़ाई की तिथि तय कर ली गई थी. लेकिन भारतीय क्रांतिकारियों और गदर सैनिकों पर ब्रिटिश सरकार की नजर थी. अंग्रेज समझ रहे थे कि युद्ध की परिस्थितियों का लाभ उठाकर भारतीय क्रांतिकारी जनता को सरकार के विरुद्ध उकसा सकते हैं. 1857 का सबक उसके सामने था. इस कारण वह कोई भी खतरा नहीं उठाना चाहती थी. ‘गदर पार्टी’ से देश के कई बुद्धिजीवी पत्रकार जुड़े थे, जो विदेश में रहकर समाचारपत्र के माध्यम से सरकार की वास्तविकता को पूरी दुनिया के सामने ला रहे थे. पार्टी की साम्यवादी शाखा ने आगे चलकर एक समाचारपत्र ‘किश्ती’ का प्रकाशन आरंभ किया था, उसमें सरकार की साम्राज्यवादी नीति की आलोचना के साथ भारतीयों के शोषण के भी जीवंत समाचार होते थे. फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार का दावा कि उसका भारत में बने रहना वहां की जनता के हित में है, खोखला पड़ता जा रहा था. चैतरफा आलोचनाओं से क्षुब्ध होकर सरकार ने ‘गदर पार्टी’ सहित दूसरे राष्ट्रवादी संगठनों से जुड़े नेताओं को गिरफ्तार करना शुरु कर दिया. कुशल नेतृत्व का अभाव, विभिन्न दलों में तालमेल की कमी, धनाभाव, ब्रिटिश सरकार की सफल गुप्तचर नीति, बाहरी मदद के अभाव तथा जमींदारों, ताल्लुकेदारों एवं विश्वासघातियों द्वारा अंग्रेज सरकार को मदद पहुंचाने के कारण गदरसैनिकों में से भी अधिकांश पकड़ लिए गए. गदर पार्टी के नेताओं को जापान, जमनी, इटली आदि बाहरी मुल्कों से मदद की उम्मीद थी. वे ऐन वक्त पर धोखा देकर अलग हो चुके थे. विद्रोह की नाकामी का एक कारण यह भी था.

अपने तेजस्वी लेखन से कार्ल मार्क्स ने विश्वभर के बुद्धिजीवियों को प्रभावित किया था. उसके ओजस्वी विचार छनछन कर भारत भी पहुंच रहे थे. इससे आर्थिक मामलों के संदर्भ में ब्रिटिश सरकार के दावों को परखने का सिलसिला आरंभ हुआ. इस दिशा में पहल करने वाले थे दादा भाई नौरोजी(1825—1917) और महादेव गोविंद रानाडे(1842—1901). उस समय प्रायः सभी भारतीय नेताओं का मानना था कि अंग्रेज देश का आर्थिक शोषण कर रहे हैं. आयात के अनुपात में निर्यात काफी कम है, जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ रहा है. आयातित मिल के कपड़ों ने भारतीय कारीगरों को सड़क पर ला दिया है. किसान कर्ज से तबाह हो रहे हैं. आंकड़े इसके गवाह थे. 1850 से 1900 के बीच देश में 25 अकाल पड़ चुके थे. उनमें लाखों लोगों की जानें गई थीं. देश की अर्थव्यवस्था की पड़ताल करते हुए दादा भाई नौरोजी ने अंग्रेज सरकार पर आरोप लगाया था कि उसके शासन में भारत की बहुमूल्य संपदा इंग्लेंड को जा रही है. नौरोजी की यह अवधारणा मौलिक न थी. अंग्रेज सरकार के बारे में प्रायः सभी भारतीय नेताओं का यही मानना था. राजा राममोहन राय 1831 में ही इस ओर इशारा कर चुके थे. इसे रोकने के लिए उन्होंने कंपनी सरकार को सलाह दी थी कि अपने बेशुमार खर्चों को काबू में रखने के लिए कंपनी को पुलिस और न्याय सेवाओं में अधिक से अधिक भारतीयों को नौकरी पर रखना चाहिए. साफ है कि ‘ड्रेन थ्योरी’ के रूप में नौरोजी ने देश की अर्थव्यवस्था को लेकर भारतीय नेताओं की सामान्य राय का ही उल्लेख अपने भाषणों में किया था. इसके बावजूद 1901 में उनके भाषण जब ‘पावर्टी एवं अनब्रिटिश रूल इन इंडिया’ के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित हुए तो उन्हें उसके लिए भरपूर सम्मान मिला. उस पुस्तक के माध्यम से ब्रिटिश सरकार की हकीकत दुनिया के सामने पहुंची. इससे औपिनिवेशिक शासन की नीतियों को लेकर एक नई बहस आरंभ हुई और उसके आलोचकों को सरकार की आलोचना का ठोस आधार प्राप्त हुआ.

औपनिवेशिक सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर चिंतन करने वाले दूसरे भारतीय थे, गोविंद महादेव रानाडे. प्रखर भारतीय अर्थशास्त्री के रूप में उनकी ख्याति जगजाहिर थी. चूंकि भारत में आर्थिक चिंतन की परंपरा क्षीण रही है, और इस विषय को लेकर मौलिक चिंतक बहुत कम हुए हैं इसलिए कुछ विद्वान उन्हें चाणक्य के बाद का प्रमुख अर्थशास्त्री मानते हैं. उन्होंने देश की समस्याओं का प्रमुख कारण यहां की गरीबी को माना था. हालांकि उन्होंने सीधेसीधे यह मानने से इन्कार किया था कि ब्रिटिश सरकार के आने से देश की गरीबी में इजाफा हुआ है. नौरोजी ने देश की गरीबी के लिए जहां ब्रिटिश सरकार की ‘ड्रेन थ्योरी’ को जिम्मेदार माना था, वहीं रानाडे का मानना था कि ब्रिटिश सरकार की अदूरदर्शिता और कृषि पर अत्यधिक निर्भरता के कारण देश में गरीबी बढ़ी है. आयातित माल सस्ता पड़ता है, इसलिए लोग उसको खरीदने के लिए विवश हैं. सरकार को चाहिए था कि मशीनीकरण द्वारा देश के संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने के साथ, वैकल्पिक रोजगार अवसरों को बढ़ावा देने के लिए समुचित प्रयास करती. साथ ही औद्योगिकीकरण से बेरोजगार हुए शिल्पकारों को कारखानों में पचाने का इंतजाम करती. मगर सरकार इस मोर्चे पर असफल रही है. अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए उन्होंने किसानों को महाजनों के चंगुल से बाहर लाने तथा खेती को बढ़ावा देने पर जोर दिया था. रानाडै के चिंतन का दायरा व्यापक था. राष्ट्र का निर्माण अकेले सरकार की जिम्मेदारी नहीं. नागरिकों को भी अपनी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए. आयातित माल का असर शहरों में अधिक था, इसलिए रानाडे ने उन कारोंगरों से जिन्हें मशीनीकरण से नुकसान पहुंचा है, गांवगांव में फैल जाने की अपील की थी—

सभी किस्म के शिल्पकारों, बुनकरों, जुलाहों, तैलिकों, रंगरेजों, कागज बनाने वालों, सिल्क के कारखानों, चीनी मिलों और धातु निर्माण में के काम में जुटे कारीगरों और उन सभी से जो ब्रिटिश मशीनीकरण के परिणामस्वरूप जन्मी स्पर्धा से बेरोजगारी का शिकार हुए हैं, से मेरा आग्रह है कि वे शहर और गांव तत्काल खाली कर दें और दूरदराज के गांवों में जाकर वहां की जनता में घुलमिल जाएं. उन लोगों की भीड़ में एकमेव हो जाएं, जो अकाल और सत्ता दोनों से जूझते हुए मात खाने को तत्पर हैं.6

प्रकारांतर में रानाडे भी मान चुके थे कि ब्रिटिश सत्ता ने भारतीय जनजीवन की उपेक्षा की है. उसके आगमन से भारतीय कारीगर बेरोजगार हुए हैं. किसानों की हालत लगातार बिगड़ी है. इसके लिए संगठित होकर काम करने की आवश्यकता है. हालात में सुधार के लिए वे सरकार के साथसाथ भारतीयों से भी डटकर काम करने की अपील करते हैं. उनकी अपील का असर भी साफ दिखाई दिया था. किसानों की हालत में सुधार के लिए सरकार ने 25 मार्च 1904 में ऋण सहकारिताओं के गठन के लिए सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम को स्वीकृति दी थी. इससे किसानों को सस्ता ऋण मिलने की संभावना बढ़ी. लेकिन ऋण सहकारिताओं को आगे बढ़ाने के लिए जिस प्रकार के समर्पण और योजनाबद्ध प्रयास की आवश्यकता थी, उसका सरकार के नीतिनिर्माताओं के पास अभाव था. दरअसल विश्वयुद्ध की आहट के बीच औपनिवेशिक सरकार की प्राथमिकताएं एकदम अलग थीं. लंकाशायर की मिलों और कलकारखानों को चमकाने के लिए भारतीय खनिज संपदा का बड़े पैमाने पर दोहन जारी था. इससे किसानों तथा कामगार वर्ग के बीच असंतोष बढ़ रहा था. जनाक्रोश को सार्थक दिशा देने के लिए मार्क्स के चिंतन से भारतवासियों को सीधे परचाने की जरूरत थी. छिटपुट चर्चाएं हालांकि गोष्ठियों और बैठकों में चलती रहती थीं. मगर मार्क्स के विचारों के प्रति गंभीर समझ का अभाव था. मार्क्स के जीवन संघर्ष और उसके विचारों पर पहली पुस्तक लिखने का श्रेय भी डा. हरदयाल को जाता है. उन्होंने मार्क्स के जीवनदर्शन पर केंद्रित एक लंबा लेख ‘मार्डन रिव्यू’ के लिए लिखा, शीर्षक था—काल मार्क्स : आधुनिक संत’, जो तुरंत बाद पुस्तकाकार प्रकाशित होकर सामने आ गया. हरदयाल की पुस्तक अंग्रेजी में थी, जिसमें उन्होंने मार्क्स की विलक्षण प्रतिभा की सराहना की थी. मार्क्स द्वारा ‘इंटरनेशनल वर्किंग मेंस एसोशिएसन’ जिसको आगे चलकर ‘प्रथम इंटरनेशनल’ के नाम से प्रसिद्धि मिली, की स्थापना की प्रशंसा करते हुए उन्होंने लिखा था—

उसकी सबसे बड़ी महानता दुनियाभर अनेक देशों के मजदूरवर्ग की एकता और संगठनशक्ति को जाग्रत करने में निहित थी. मार्क्स की ओजभरी पुकार, ‘दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ.’—संपूर्ण यूरोप में गूंज उठी….पुस्तक में आगे लंदन टाइम्स को उद्धृत करते हुए उन्होंने लिखा था—‘पुरानी सभ्यताओं के पतन और ईसाईयत की स्थापना के बाद श्रमिकों के जागरण जैसी विलक्षण घटना किसी ने नहीं देखी देखी थी.’7

डा. हरदयाल मार्क्स के वर्गसंघर्ष के सिद्धांत से असहमत थे. मार्क्स के वैज्ञानिक भौतिकवाद को वे ‘अधूरा सच’ मानते थे. लेकिन श्रमिकवर्ग के प्रति उत्थान और उसकी अस्मिता की सुरक्षा के लिए मार्क्स की नीयत में उन्हें कोई संदेह न था. पुस्तक के समापन पर मार्क्स की प्रशस्ति में उन्होंने लिखा—

मार्क्स पहला आदमी था, जिसने यह फार्मूला दिया कि श्रमिकवर्गों को अपनी मुक्ति अपनी आप प्राप्त करनी होगी….उसकी यह महानतम अपील सीधे मजदूरों के दिलों को, उनके भीतर छिपी इंसानियत की गहराई तक छूती थी, जिसके बारे में वे स्वयं अनजान थे, ‘दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ. तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है. जीतने के लिए दुनिया पड़ी है.’ उसके बाद वर्षों बीत गए. आदमी आए और गए. लेकिन मैलेकुचेले और लापरवाह श्रमिकों के मन में उनके नेता ही यह भावुक अपील आज भी पूरी निष्ठा के साथ गूंजती है.’8

हरदयाल की इस पुस्तक को देश में खूब प्रसिद्धि मिली. उन्होंने अपनी पुस्तक अंग्रेजी में लिखी थी. किसी भारतीय भाषा में मार्क्स की जीवनी लिखने का श्रेय के. रामकृष्ण पिल्लई को जाता है. उन्होंने अपनी पुस्तक ‘मार्क्स’ मातृभाषा मलयालम में लिखी थी. यह पुस्तक ‘मनुष्यता के उपकारक’ शृंखला के अंतर्गत 1912 में पहली बार प्रकाशित हुई थी. केरल के त्रावणकोर में गरीब परिवार में जन्मे पिल्लई के पिता पुजारी थे. मां मंदिर में झाड़ूपोंछा का काम करती थी. घर में गरीबी का आलम ऐसा था कि प्राथमिक पढ़ाई के लिए भी उन्हें अपने मामा की मदद लेनी पड़ी. उनकी मदद से हाईस्कूल की परीक्षा पास की. बीए के लिए प्रवेश लिया. प्रगतिशील विचारों के पिल्लई ने अपने खानदान से नीची समझे जाने वाली जाति में विवाह किया था. उन्हें बचपन से ही पत्रकारिता से लगाव था. पढ़नेलिखने में रुचि आरंभ से ही थी. इससे उनकी ख्याति बढ़ने लगी थी. अभी स्नातक हो नहीं पाए थे कि ‘कलादर्पण’ की संपादकी का निमंत्रण मिला. युवा रामकृष्ण ने उसके लिए तत्काल सहमति दे दी. मामा चाहते थे कि वे अपनी पढ़ाई पर ध्यान दें, ताकि महाराजा के यहां नौकरी पक्की की जा सके. लेकिन पिल्लई पर तो पत्रकारिता का भूत सवार था. यह वह सपना था जिसको वे बचपन से देखते आए थे. इसलिए मामा की सलाह को नजरंदाज कर उन्होंने अखबार का संपादनभार संभाल लिया. वे उनके जीवन और समाज में बदलाव के दिन थे. भारत में रहते हुए उन्होंने ‘शारदा’ और ‘स्वदेशाभिमानी’ पत्रों की शुरुआत की. शारदा महिलाओं की पत्रिका थी. जबकि स्वदेशाभिमानी प्रगतिशील विचारधारा से ओतप्रोत अखबार.

रामकृष्ण की निडर और मूल्यआधारित पत्रिका का पहला शिकार त्रावणकोर का दीवान पी. राजगोपालाचार्य बना. अपने समाचारपत्र में पिल्लई ने दीवान के अनैतिक आचरण और भ्रष्टाचार पर केंद्रित कई लेख प्रकाशित किए थे. त्रावणकोर रियायत के सम्राट मूलम थिरूनल आलसी और विलासी राजा था. राज्य की सुरक्षा के लिए वह 8 लाख रुपये सालाना अंग्रेजों को देता था. रियासत के सभी प्रमुख पदों पर ब्राह्मणों का अधिकार था. छोटी जातियों का काम था, ब्राह्मणों तथा अन्य उच्च जातियों की सेवा करना. ब्राह्मणों को भोजन और अन्य सुविधाएं राज्य की ओर से मुफ्त प्राप्त होती थीं. बदले में ब्राह्मणों ने यह घोषित किया हुआ था कि रियासत के महाराज दैवी संतान हैं तथा वे श्रीपद्मनाभ की ओर से शासनकार्य संभाले हुए हैं. उनका आदेश दैवीय आदेश है.

रामकृष्ण पिल्लई ने 1899 में एक नए समाचारपत्र ‘केरल दर्पण’ की शुरुआत की. उसका पहला अंक 14 सिंतबर को प्रकाशित हुआ. पहले ही अंक में उन्होंने घोषणा की थी कि पत्र का उद्देश्य आम जनता की सेवा करना है. यह कोरा राजनीतिक वक्तव्य नहीं था. ‘केरल दर्पण’ के माध्यम से उन्होंने रियासत में चल रहे भ्रष्टाचार से जुड़ी खबरें आम जनता में पहुंचानी आरंभ कर दीं. समाचारों के जरिये उन्होंने बताया कि राज्य में ऊपर से नीचे तक, जिनमें राज्य के दीवान भी शामिल हैं, सभी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं. एक रियासत के ऐसी खबरों से निपटना आसान बात थी. जनता भी ऐसी बातों पर कम ध्यान देती थी. ‘बड़े लोगों की बड़ी बातें’ कहकर ऐसे समाचारों को नजरंदाज कर देना सामान्य बात थी. मगर पिल्लई ने जब धर्म के नाम पर अपने हर जुर्म को वैध ठहराने, जनता का शोषण दिखाने वाले समाचारों को तजरीह देना आरंभ किया तो महाराज और उसके मुंह लगे मंत्री पी. राजगोपालाचार्य का तिलमिला उठना स्वाभाविक था. सम्राट द्वारा स्वयं को श्रीपद्मनाभ का उत्तराधिकारी घोषित करने पर कटाक्ष करते हुए पिल्लई ने लिखा था—

सम्राट खुद यह मानते, तथा दूसरों को भी यह मानने पर विवश करते हैं कि वे ईश्वर के प्रतिनिधि या अवतार हैं. उनका यह विचार पूरी तरह हास्यास्पद है. अगर ऐसा है तो क्या ईश्वर ने कुत्तों पर राज करने के लिए किसी खास किस्म के कुत्ते और हाथियों पर शासन चलाने के लिए विशिष्ट किस्म के हाथी की रचना की थी?’9

पिल्लई की इस टिप्पणी को पढ़कर यूनानी दार्शनिक जेनो की याद आना स्वाभाविक है. विचारों से नास्तिक कहे जा सकने वाले जेनो का कहना था कि यदि कुत्ते, बिल्ली को अपना ईश्वर गढ़ने की क्षमता हो और उनसे उनके ईश्वर का चित्र बनाने को कहा जाए तो वे ईश्वर को क्रमशः कुत्ते या बिल्ली के रूप में चित्रित करेंगे. ब्राह्मण अधिकारियों के इस दावे कि त्रावणकोर रियायत श्रीपद्भनाभ को समर्पित राज्य है. इसलिए गैरहिंदू और शूद्र को राजकार्य में हिस्सेदारी धर्मविरुद्ध है, पर उन्होंने लिखा—

क्या मुस्लिम और ईसाई त्रावणकोर के बाशिंदे नहीं हैं? क्या यह राज्य केवल अनैतिक और गैरजिम्मेदार ब्राह्मणों की जागीर है? जब तक इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जाता, ईसाई, मुस्लिम तथा गैरब्राह्मण हिंदुओं का यहां कोई भविष्य नहीं होगा.10

उन्होंने लिखा कि राजा मूलम थिरूनल वर्मा कुछ भी करने को स्वतंत्र नहीं हैं. अपने प्रत्येक निर्णय के लिए वे ब्रिटिश अधिकारियों पर निर्भर हैं. उन्होंने यह भी लिखा कि केवल और केवल जनता की सहमति से गठित राज्य ही आदर्श हो सकता है. पिल्लई द्वारा राजा और उसके अधिकारियों की निरंतर आलोचना से राजा का नाराज होना स्वाभाविक था. परिणाम यह हुआ कि उनका प्रेस सील कर दिया गया. रामकृष्ण पिल्लई को गिरफ्तार कर उन्हें राज्य से निष्कासन की सजा सुनाई गई. इन्हीं रामकृष्ण पिल्लई ने मलयालम में मार्क्स पर पुस्तक लिखी, जो किसी भी भारतीय भाषा में मार्क्स पर लिखी पहली पुस्तक थी. वह पुस्तक घरघर में पढ़ी जाने लगी. के रामकृष्ण पिल्लई को दक्षिण भारत में मार्क्सवाद का युग प्रवर्त्तक नेता मान लिया गया.

लाला हरदयाल, करतार सिंह सराबा, सोहन सिंह भाखना, रामकृष्ण पिल्लई यहां तक कि भगतसिंह को भी भारत में कोरा क्रांतिकारी माना जाता है. यह धारणा है कि वे केवल हिंसा के माध्यम से सत्ता पर काबिज होना चाहते थे. इसके अलावा उनका कोई सोच, कोई स्वतंत्र दृष्टि आजादी को लेकर थी ही नहीं. दरअसल यह भारतीय क्रांतिकारियों, जिनमें भगत सिंह भी सम्मिलित हैं, के विचारों को न समझने के कारण पैदा हुई दृष्टि नहीं है. बल्कि उनके वास्तविक अवदान को भुला देने, बल्कि उस क्रांति के पीछे निहित विचारधारा को विस्मृत कर देने की साजिश का परिणाम है. गांधी जी भी इसके लिए जिम्मेदार हैं. उन्होंने क्रांतिकारियों से उनकी विचारधारा के स्तर पर जाकर संवाद करने के बजाय, उन्हें ‘हिंसात्मक गतिविधियों में लिप्त’ बताकर संवाद को ही नकार दिया था. वही गांधी बोअर युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष में न केवल स्वयं हिस्सा लेते हैं. बल्कि देश को भी अंग्रेजों का साथ देने को विवश कर देते हैं, और अप्रत्यक्ष रूप से साम्राज्यवादी अंग्रेजों की मदद करते हैं, वे क्रांतिकारियों क्रांति के पीछे निहित विचारधारा को जानने, समझने के बजाय उसे हिंसा में लिप्त बताकर उनसे कोई सीधा संवाद नहीं करते. भगतसिंह की शहादत पर इलाहाबाद के पत्र ‘भविष्य’ में प्रकाशित उनकी टिप्पणी युवाओं से उनके नाम और योगदान को भुला देनी की अपील जैसी थी—‘भगतसिंह और उनके साथी अमर शहीद हो गए हैं. उनकी मृत्यु से आज लाखों व्यक्ति दुखी हैं. मैं इन नवयुवक देशभक्तों की लगन की भूरिभूरि प्रशंसा करता हूं. परंतु मैं इस देश के नवयुवकों को इस बात की चेतावनी देता हूं कि वे उनके पथ का अवलंबन न करें.’ हिंसा के नाम पर क्रांतिकारियों को बदनाम करने, उन्हें कोरा ‘हथियारबंद’ बताने वाला लेखन आजादी के बाद तो जानबूझकर किया जाता रहा. यह सब मार्क्स के नाम पर, मार्क्सवाद को बदनाम करने की कोशिश करते हुए किया गया, इस तथ्य को नजरंदाज करते हुए कि 1871 में पेरिस क्रांति की असफलता के बाद मार्क्स ने स्वयं को हिंसात्मक परिवर्तन की राह से अलग कर लिया था.

यहां सरदार भगतसिंह को लेकर अक्सर सुनाई जाने वाली एक कहानी को ध्यान में लाना जरूरी है. कहानी के अनुसार बचपन में भगत सिंह अपने पिता से खेत में बंदूक बोने को कहते हैं. ताकि उन बंदूकों से अंगे्रजों को देश के बाहर खदेड़ सकें. यह किसी क्रांतिकारी को निरा लड़ाका बना देने की कोशिश थी. आजाद भारत में ऐसा जानबूझकर किया गया. इसलिए नहीं लोगों के मन में क्रांतिकारियों के प्रति कम सम्मान था. जनमानस पर तो क्रांतिकारियों का ही अधिक प्रभाव था. धर्म के नाम पर, जेहाद के नाम पर आम आदमी को अभी तक लड़मरना ही सिखाया जाता था. परंतु वे लड़ाइयां भगवान के नाम पर होती थीं, राजा के नाम पर होती थीं. क्रांतिकारी पहली बार उन्हें अपने अधिकार के लिए लड़ना सिखा रहे थे. लोग अपने लिए सोचें, अपने सुखदुख को ध्यान में रखकर बड़े निर्णय लें, सरकार नहीं चाहती थी कि भारतीय जनता में वर्गीय चेतना पैदा हो. इसलिए आजादी के बाद, बल्कि आजादी से पहले ही क्रांति के मकसद को झुठलाने की, विचार को बाहर निकालकर उसको कंकाल में ढाल देने की कोशिशें बड़े पैमाने पर होती रहीं. इस मामले में जमींदार और उद्योगपति सब एक थे. चूंकि जनसाधारण में क्रांतिकारियों के बलिदान से, उनकी कहानियां सुनते हुए स्वातंत्रय चेतना पैदा हुई थी, इसलिए उनके प्रभाव को झुठला पाना, मिटाना या उसका असर कम कर पाना आसान न था. क्रांतिकारियों की ख्याति से उन्हें कोई डर भी न था, लेकिन वे उस विचारधारा से घबराते थे, जो उसके मूल में थी. खूब सोचविचार के बाद उन्होंने क्रांति के पीछे निहित विचार को मारने की साजिश रची. देश की जातीयधार्मिक संरचना से वे इसमें सफल भी हुए. आजाद भारत में क्रांतिकारियों को केवल हिंसात्मक गतिविधियों द्वारा अंग्रेजों से निपटनेवाला कहकर प्रचारित किया गया. जबकि उसके मूल में एक ठोस विचारधारा थी. इसका खुलासा स्वयं भगतसिंह ने ‘माडर्न रिव्यू’ के संपादक रामानंद चट्टोपाध्याय को संबोधित अपने पत्र में किया था. रामानंद चट्टोपाध्याय ने 63 दिनों की भूख हड़ताल के बाद यतींद्रनाथ दास के जेल में शहीद होने पर क्रांतिकारियों के नारे ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ की आलोचना की थी. उसका प्रत्युत्तर में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने संपादक को 22 दिसंबर 1929 को एक पत्र लिखा था. वे लिखते हैं—

क्रांति (इन्कलाब) का अर्थ अनिवार्य रूप से सशस्त्र आन्दोलन नहीं होता. बम और पिस्तौल कभीकभी क्रांति को सफल बनाने के साधन मात्र हो सकते हैं. इसमें भी सन्देह नहीं है कि कुछ आंदोलनों में बम एवं पिस्तौल एक महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध होते हैं, परंतु केवल इसी कारण से बम और पिस्तौल क्रांति के पर्यायवाची नहीं हो जाते. विद्रोह को क्रांति नहीं कहा जा सकता, यद्यपि हो सकता है कि विद्रोह का अंतिम परिणाम क्रांति हो. एक वाक्य में क्रांति शब्द का अर्थ ‘प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकांक्षा’ है.’11

भगतसिंह का राजनीतिक दर्शन हालांकि पूरी तरह परिपक्व नहीं हो पाया था. पर जितना उन्होंने लिखा है, उससे इतना तो स्पष्ट है कि क्रांति से उनका अभिप्राय आमूल परिवर्तन से था. क्रांति का पर्याय कहा जाने वाला परिवर्तन क्या हो सकता है, इस बारे में संकेत वे 20 मार्च 1931 को, अपनी फांसी से मात्र तीन दिन पहले, पंजाब के गर्वनर के नाम अपने पत्र में करते हैं—

अंग्रेज जाति और भारतीय जनता के मध्य एक युद्ध चल रहा है….यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है—चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूंजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है. चाहे शुद्ध भारतीय पूंजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नही पड़ता. यदि आपकी सरकार कुछ नेताओं या भारतीय समाज के मुखियों पर प्रभाव जमाने में सफल हो जाए, कुछ सुविधाएं मिल जाएं, अथवा समझौते हो जाएं, इससे भी स्थिति नहीं बदल सकती, तथा जनता पर इसका प्रभाव बहुत कम पड़ता है. हमें इस बात की भी चिंता नही कि युवकों को एक बार फिर धोखा दिया गया है और इस बात का भी भय नहीं है कि हमारे राजनीतिक नेता पथभ्रष्ट हो गए हैं और वे समझौते की बातचीत में इन निरपराध, बेघर और निराश्रित बलिदानियों को भूल गए हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से क्रांतिकारी पार्टी का सदस्य समझा जाता है. हमारे राजनीतिक नेता उन्हें अपना शत्रु मानते हैं, क्योंकि उनके विचार में वे हिंसा में विश्वास रखते हैं, हमारी वीरांगनाओं ने अपना सब कुछ बलिदान कर दिया है. उन्होंने अपने पतियों को बलिवेदी पर भेंट किया, भाई भेंट किए, और जो कुछ भी उनके पास था सब न्यौछावर कर दिया. उन्होंने अपने आप को भी न्यौछावर कर दिया, परंतु आपकी सरकार उन्हें विद्रोही समझती है. आपके एजेंट भले ही झूठी कहानियां बनाकर उन्हें बदनाम कर दें और पार्टी की प्रसिद्धि को हानि पहुंचाने का प्रयास करें, परंतु यह युद्ध चलता रहेगा….हो सकता है कि यह लड़ाई भिन्नभिन्न दशाओं में भिन्नभिन्न स्वरूप ग्रहण करे. किसी समय यह लड़ाई प्रकट रूप ले ले, कभी गुप्त दशा में चलती रहे, कभी भयानक रूप धारण कर ले, कभी किसान के स्तर पर युद्ध जारी रहे और कभी यह घटना इतनी भयानक हो जाए कि जीवन और मृत्यु की बाजी लग जाए….बहुत सभव है कि यह युद्ध भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले. पर निश्चय ही यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रांति समाप्त नहीं हो जाती और मानवी सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नही हो जाता.’12

स्वाधीनता संग्राम में क्रांतिकारियों की भूमिका को नकारने, उन्हें कोरा खाड़कू सिद्ध करने की कोशिश बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही शुरू हो चुकी थी. उनके योगदान को नकारना, उनकी आलोचना करना केवल साम्राज्यवाद ब्रिटेन की मदद करना नहीं था, बल्कि उस पूंजीवाद को भी तसल्ली देना था, जो गांधी और कांग्रेस को ढाल बनाकर दबे पांव अपनी जगह बना रहा था.

क्रमश:…

© ओमप्रकाश कश्यप

अनुक्रमणिका :

1. भगतसिंह के राजनीतिक दस्तावेज, नेशनल बुक ट्रस्ट, पृष्ठ-4

2. वही, पृष्ठ-5

3. Gurdev Singh, Deol, The Role of The Ghadar Party in the National Movement, Sterling Publishers, Jalandhar, 1969, pp. 39-40.

4. Wanted: Enthusiastic and heroic soldiers for

	organizing Ghadr in Hindustan:
	Renumeration: Death
	Reward  : Martyrdom
	Pension : Freedom

Field of work : Hindustan.

5. “Today, there begins in foreign lands, but in our country’s language, a war against the British Raj…What is our name? Gadar. What is our work? Gadar. Where will Gadar break out? in India. The time will soon come when rifles and blood will take the place of pen and ink.”Proceedings Home Political (Deposit) October, 1915, No. 43 (N.A.I.) and Gadar, November 1, 1913; quoted in Khushwant Singh, History of the Sikhs, Vol. II, p. 177.

6 Every class of artizans, the spinners, weavers and dyers, the oilsmen, the papermakers, the silk and sugar and metal workers, etc. who are unable to bear against western competition resort to the land, leave the towns and go into the country and are lost in the mass of helpless people who are unable to bear up against scarcity and famine. – A History of Indian Economic Thought by Ajit K.Dasgupta

7. Its greatest value lay in its efforts in promotion the unity and solidarity of the working- class in various countries. Marx’s battle cry, ‘Workingmen of all countries, unite!’ reverberated throughout Europe.’ Hardyal approvingly quotes the London Times Since the time of the establishment of Christianity and the destruction of the ancient world one had seen nothing like this awakening of labor.” Karl Marx : A Modern Rishi, Hardyal.

8. Marx was the first man who lay down the formula that the emancipation of the Working- classes must be achieved by themselves….His great appeal was addressed to the hearts of workingmen, to the latent manhood in them, of which they themselves were not conscious: ‘Workingmen of all countries unite! You have nothing to lose but your chains. You have a world to gain.’ Years have passed away. Men have come and gone; but this passionate cry of the leader who believed in the ignorant and dirty laborer still raises them in the full level of manhood. – Karl Marx : A Modern Rishi, Hardyal.

9. The monarchs believe and force others to believe that they are God’s representatives or incarnations. This is absurd. Did God create a special kind of dog to be the king of dogs,or a special kind of elephant to rule over all elephants?” R. Pillai,

10. Are the Christians and the Muslims not the people of Travancore? Does the state belong only to a handful of immoral irresponsible Brahmins? Unless this question is answered, the Christians, Muslims and non-Brahmins of this kingdom will not have any future.-R. Pillai, as quoted by Sh. Damodaran in Marx comes to India edited by Sh. P. Joshi & Damodaran.

11. भगतसिंह और उसके साथियों के दस्तावेज

12. वही

भारत में समाजवादी चेतना : एक पृष्ठभूमि

समाज बड़ा परिवार है. अनेक परिवारों से मिलकर बनी अमूर्त्तन व्यवस्था. व्यक्ति उसकी मूर्त्त एवं जीवंत इकाई है. दोनों परस्पर निर्भर, एकदूसरे के लिए अपरिहार्य हैं. अकेला रहना, समाज से पूरी तरह कट जाना किसी के लिए संभव नहीं है. दूसरों के साथ तालमेल बनाकर रहना उसकी विवशता है. इसलिए मनुष्य समाज की शरण में आता है. इस तरह समाज व्यक्ति का स्वैच्छिक वरण है. न केवल इसलिए कि व्यक्तिमात्र की शारीरिक एवं बौद्धिक सीमाएं हैं, जो उसको दूसरे व्यक्तियों, प्रकृति तथा जड़जंगम पर निर्भर बनाती हैं. बल्कि इसलिए भी कि एक संवेदनशील बौद्धिक इकाई के रूप में हर मनुष्य बहुतसे हुनर और कलाएं अपने भीतर छिपाए रखता है. समाज में रहकर उसे अपने उस हुनर को तराशने तथा कलाओं का प्रदर्शन करने का अवसर मिल जाता है. इस तरह समाज मानव व्यक्तित्व को संपूर्णता की ओर ले जाने तथा उसके अस्मिताबोध को सुरक्षितसंवर्धित करने का माध्यम बन जाता है. व्यक्तिमात्र की इच्छा होती है कि बड़े परिवार के रूप में समाज उसकी भावनाओं का सम्मान करे. उसका व्यक्तित्वलोप न होने दे. थामस पेन के अनुसार व्यक्ति समाज का सदस्य इसलिए नहीं बनता कि वहां रहकर उसकी अपनी स्वतंत्रता बाधित हो; या उसे अपने हितों में कटौती झेलनी पड़े. उसकी कामना होती है कि समाज के साथ मिलकर वह उन सुखसुविधाओं को भी प्राप्त कर सके, जिन्हें उसके द्वारा अकेले प्राप्त कर पाना कठिन है. प्लेटो ने भी कुछ ऐसा ही कहा था. साफ है कि पूर्णता की तलाश व्यक्ति को समाज का सदस्य बनने को प्रेरित करती है.

दूसरी ओर समाज चाहता है कि उसका प्रत्येक सदस्य उसके विकास के लिए वह सबकुछ करे, जो वह कर सकता है. उतना करे, जितना उसका सामथ्र्य है. इसके साथ ही वह स्थापित मर्यादाओं का पालन करे तथा दूसरों को भी ऐसा करने की प्रेरणा दे. समाज नहीं चाहता कि उसका कोई भी सदस्य स्थापित व्यवस्था को उस सीमा तक भंग करे कि वह दूसरों के लिए परेशानी का कारण बन जाए, जिससे अशांति पैदा हो और सामाजिक ऊर्जा का बड़ा हिस्सा केवल शांतिव्यवस्था के नाम पर खपाना पड़े. वह चाहता है कि सदस्य इकाइयां जीवन की तयशुदा मर्यादाओं का पालन करें. सामाजिक आचारसंहिता को भंग न होने दें, जो लोकसाहित्य, सांस्कृतिकसामाजिक रीतिरिवाजों, संबंधों, कला संस्कारों आदि के रूप में प्रकट होती है. यह भिन्नभिन्न माध्यमों से एक ही बात को बारबार सामने लाती है कि लोग अपने और दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित हों. किसी के प्रति कोई दुराव, वैमनस्य आदि न पालें. यदि सब एक ही प्रकृति से जन्मे हैं, तो उनमें छोटबढ़ाई क्या! संतमहापुरुष अपने जीवनकर्म से यही संदेश देते आए हैं‘एक नूर से सब जग उपज्या कौन भले को मंदे.’ गुरु नानक की यह वाणी कम शब्दों में ही जीवनसत्य से साक्षात करा देती है. संकेत यही कि जन्म से सब एक हैं. एक ही प्रकृति की संतान. इसलिए आवश्यक है कि सब एकदूसरे का सम्मान करें. परस्पर पूरक बनकर रहें. पर आदमी की तरह उसकी बनाई व्यवस्थाओं की भी उम्र निर्धारित होती है. इसलिए व्यवस्थाओं की समीक्षा, आलोचना, उनमें परिवर्धन, संशोधन आदि की संभावना भी हमेशा बनी रहती है.

समाज को अवांक्षित विक्षोभ, आपसी अविश्वास, असमानता, द्वंद्व, अशांति आदि से बचाने के लिए एक कल्याणकारी व्यवस्था की अभिकल्पना हमारे पूर्वजों, उन मनुष्यों ने जिनकी विद्वता स्थापित थी, जिनके दिलों में दूसरों के प्रति चिंताएं थीं, जो बुद्धिमान, उदार, सहिष्णु, न्यायप्रिय, संवेदनशील और सबका भला सोचने वाले थे—ने आपस में मिलबैठकर सबके हित के लिए की थी. ताकि संसाधनों के सदुपयोग तथा उनके द्वारा अर्जनउपार्जन और संवितरण को लेकर किसी प्रकार का झगड़ाटंटा न रहे. लोग दूसरों की जरूरतों का भी उतना ही ख्याल रखें, जितना वे अपनी जरूरतों का रखते हैं. इसके लिए जो आरंभिक व्यवस्था हुई, वह थी—परस्पर सहयोग और सहकार की. पूरा गांव एक परिवार होता था. लोग मिलकर खेती करते. जितना अनाज होता उसमें से अपनी जरूरत के लिए रखकर शेष को सामूहिक भंडार के हवाले कर देते. गांव का सम्मानित व्यक्ति उसकी देखरेख करता. आवश्यकता पड़ने पर उसमें से जरूरतमंदों को अनाज लौटा दिया जाता. उत्सवधर्मी समाज था. फुर्सत के समय लोग नाचगाना, मौजमस्ती सब करते. जो प्रकृति मुक्तमन से सबकुछ जीवन देती है, सारी सुविधाएं जुटाती है, अवसर मिलने पर उसका आभार व्यक्त करना भी न चूकते थे—कामये दुःखताप्तनाम् प्राणिनाम् आर्तिनाशनं’—‘कामना है कि सभी मिलजुल कर रहें. प्राणीमात्र के दुखों का नाश हो. कहीं कोई क्लेश, व्याधि, संकट, द्वेष आदि न हो.’ उनका अभीष्ट था—आवश्यकतानुसार दूसरों को सहयोग देना. उपलब्ध सामग्री में सबके साथ मिलजुल कर, सुखदुख को मिलजुलकर बांटते हुए, जीवनयापन करना.

धरती सबकी है. इसलिए सब सुखी हों. सभी निर्भयनिडर होकर विचरण करें—‘सर्वे सुखिनः भवंतु, सर्वे संतु निरामयाः’ यह बहुत पुरानी सद्कामना है. उन दिनों की है, जब मनुष्य ने सभ्य होना सीखा ही था. यह बात लंबे अनुभव से उसकी समझ में आई थी कि विकास के लिए सहअस्तित्व की भावना को समझना, उसका सम्मान करना अत्यावश्यक है. फलस्वरूप जीवन में स्थिरता आई, विकास का माहौल बना. विकास की निरंतरता और सामाजिक समरसता के लिए नीति ग्रंथों में सभी को साथ लेकर चलना, सभी के कल्याण की कामना करना, मनुष्यमात्र का पुनीत कर्तव्य बताया गया. व्यास मुनि ने लोकसंग्रह को अनासक्त कर्म बताया. लोकसंग्रह यानी लोकहित में संपदाओं का अर्जनउपार्जन. ‘निष्काम कर्मयोगी के समस्त फल सर्वकल्याण के निमित्त होते हैं.’ उनको व्यक्ति के अधिकार में न रखकर सर्वकल्याण के लिए समाज के अधिकार में रखना. कहा कि सर्वकल्याण के लिए लोकसंग्रह अपरिहार्य है. जिसे आज समाजवाद कहते हैं, वह लोकसंग्रह की इसी भावना का विस्तार है.

समाजवाद को सीधेसरल शब्दों में परिभाषित करने को कहा जाए तो उसका अर्थ होगा, ऐसी व्यवस्था जिसमें समाज के संसाधनों पर जनजन का साझा हो. सभी लोग अपनी क्षमतानुसार काम करें. अर्जित संपत्ति का मिलबांटकर, अपने और सर्वहित में उपयोग करें. उसका प्रबंधन समाज द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित व्यवस्था, सरकार द्वारा किया जाता हो. सरकार प्रत्येक से उसकी क्षमता के अनुसार काम लेकर, हर एक को उसकी आवश्यकता के अनुरूप लौटाए. यह बिना समर्पण और त्याग के असंभव है. इसलिए ईश्वास्योपनिषद में कहा गया—‘त्येन त्यक्तेन भुंजीथा.’ यानी ‘जिसने त्यागा है, उसी ने भोग किया है.’ व्यक्ति त्याग करेगा तभी तो दूसरे के अभावों की पूर्ति के संसाधन जमा होंगे. यह कोई पहेली नहीं, सीधीसी व्यवस्था थी. त्याग और भोग के बीच संतुलन बनाए रखने की. सहकार और सहयोग की जरूरत को स्थापित करने वाली. ऐसी व्यवस्था जिसमें—‘एक सबके लिए और सब एक के लिए काम करें.’ जिसमें आर्थिकसामाजिकराजनीतिक यानी हर स्तर पर समानता हो. गौर से देखें तो त्याग और भोग व्यक्ति और समाज का पर्याय दिखने लगते हैं. हर व्यक्ति यथासंभव त्याग करे ताकि सब मिलकर यथासंभव भोग कर सकें. संदेश साफ है. लोगों के बीच जाति, धर्म, क्षेत्र, जन्म, कुल, गोत्र, व्यवसाय, भाषा आदि के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव न हो. न किसी की उपेक्षा हो, न किसी को विशेषाधिकार प्राप्त हों.

दूसरे शब्दों में ‘समाजवाद’ वह कल्याणकारी व्यवस्था है, जिसमें नागरिकों के बीच निजता का लोप होकर, कल्याण का समविभाजन होने लगता है. ‘सर्वभूतहितेरत’ की कामना आज की नहीं है. जब से समाज का गठन हुआ है, मनुष्य ने संगठित होना सीखा है, तभी से किसी न किसी रूप में चली आ रही है. हालांकि इसमें विक्षोभ भी हुए हैं. दूसरे का हिस्से पर अधिकार जमा लेने वाले, लोगों के श्रम, उनके खूनपसीने की कमाई पर जीवनयापन करने वाले और दूसरों का हक मारकर विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले लोग भी समाज में रहे हैं. उन्होंने समाज को अपनी मर्जी के अनुसार हांकने की कोशिश भी है. कुछ को अस्थायी सफलता भी मिली है. परंतु उस दुरवस्था के प्रति विरुद्ध जनाक्रोश भी देरसवेर पनपा है. महामानवों ने अवतरित होकर लोगों को अपनेअपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया है. अन्याय के प्रति चेताया है. उनके आवाह्न पर उमड़ी जनशक्ति ने उत्पीड़क शक्तियों को चुनौती देकर उन्हें समानता पर आधारित व्यवस्था लागू करने के लिए बाध्य भी किया है, जिससे समाज को घूमफिरकर समानता और सर्वकल्याण के समावेशी रूप की ओर लौटना पड़ा है.

समाजवाद कहता है कि लोग अपनेअपने दायित्वों को समझें. उनका पालन करें. उनके बीच जाति, लिंग, वर्ण, भाषा, क्षेत्र, जन्म आदि के आधार पर किसी भी प्रकार का द्वैत अथवा विभाजन न हो. ऊपर से नीचे तक सभी कुछ एक समान हो. समाज की संपदा में उसके सभी वर्गों, इकाइयों का साझा हो. वह समाज के सभी वर्गों, इकाइयों के साथ इस तरह घुलीमिली हो जैसे शर्करा पानी में घुलमिल जाती है. फिर उसको कहीं से भी चखकर देखो, उसमें एक समान मिठास मिलती है. समाजवाद की परिकल्पना का आधार यह सिद्धांत है कि पूरी सृष्टि एक परिवार है. हम सब धरती के गर्भ से उपजे उसकी संतान हैं. साहित्य के स्तर पर यही कामना भारतीय वाङमय और दुनिया के हर धर्मदर्शन में है. ‘वसुधैव कुटुंबम्’—पूरी वसुंधरा ही एक परिवार है. जैसे परिवार में सबका एकदूसरे के प्रति समर्पण और अनुराग होता है. सब एकदूसरे के सुख में सुखी और दुःख हो तो सब दुःखी हो जाते हैं, वही समाज के सदस्यों के बीच होना चाहिए. किंतु अनुराग और समर्पण के तालमेल की भी सीमा है. यह उसी अवस्था में संभव हैं, जब प्रत्येक व्यक्ति को यह विश्वास हो उसका पड़ोसी उसके साथ है. समाज में उसका महत्त्व है. समाज की इकाई के रूप में बाकी समाजों में उसकी इज्जत और मानसम्मान है. समाज उसकी भावनाओं को समझता है, उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम है. जितना वह समाज के विकास में योगदान देता है, उतना ही उसको सुफल भी मिलता है. किसी भी संकट, आपदा के समय समाज उसके साथ, उसकी सहायता के लिए तत्पर होगा.

जब तक व्यक्ति के मन में यह विश्वास नहीं होगा, तब तक डर उसके मन में बना ही रहेगा. वह समाज से अधिक, दूसरों से अधिक केवल अपने बारे में सोचेगा. उन लोगों के बारे में सोचेगा जिनसे वह सीधेसीधे जुड़ा है. जो आड़े वक्त में उसके काम आ सकते हैं. हालांकि उत्पादक संबंधों के आधार पर भी समाज का गठन हो सकता है. लेकिन आपसी अविश्वास और असुरक्षाबोध यदि बना रहा तो वह समाज छोटेछोटे समूहों का समुचच्य होगा, जो अपनेअपने स्वार्थ के अनुसार उसका दोहन करने का प्रयास करेंगे. ऐसा होते ही समाज के गठन का उद्देश्य जाता रहेगा. वह अपने लक्ष्य से भटकता हुआ नजर आएगा. असुरक्षा की भावना छूत के रोग से बढ़कर होती है. छूत की बीमारी तो दूसरे रोगी के संपर्क में आने पर लगती है, लेकिन डर किसी को देखे बिना, उसके बारे में ख्याल आते ही पैदा हो सकता है. आज जो उसके साथ हुआ है, कल वह मेरे साथ भी हो सकता है….आज यदि उसके साथ कोई नहीं है तो संभव है कल मेरे साथ भी कोई न हो. यह भावना छूत के रोग के समान एक के बाद एक लोगों के दिमाग में यही धारणा घर करती जाएगी. इससे संबंधों में दरार पड़ने लगेगी. स्वार्थ का अंदरूनी खेल आरंभ हो जाएगा. डरा हुआ आदमी दूसरों को डराता है. इसलिए व्यक्ति के असुरक्षाबोध का निदान समय रहते हो जाना चाहिए. इसके लिए जरूरी है कि समाज अपनी प्रत्येक इकाई के प्रति संवेदनशील हो. हरेक का ख्याल रखने वाला हो. परिवार में जैसे बच्चे से बड़े तक सभी का परस्पर समर्पण होता है. यही समाज में भी होना चाहिए. इसका अभाव है तो समाज का गुंबद ढहते देर नहीं लगेगी. यह तभी संभव है जब उनमें आपसी विश्वास हो. यह धारणा बलवती हो कि समाज की उपलब्धियों में उसकी भी समान हिस्सेदारी है. समाज विकसित होगा तो उसका विकास भी सुनिश्चित है.

समाजवाद की भावना भले लोगों के मन में आदिकाल से रहती आई हो. इसके लिए उद्धरण वेदों से लिए जा सकते हैं, उपनिषदों और महाकाव्यों से लिए जा सकते हैं. लोकसंस्कृति और लोकसाहित्य में भी इसके ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे. लेकिन एक समाजार्थिक प्रणाली के रूप में समाजवाद आधुनिक अवधारणा है. बामुश्किल दो शताब्दी पुरानी. साफ कर दें कि समाजवाद राजनीतिक प्रणाली नहीं है. किसी एक राजनीतिक प्रणाली पर यह निर्भर भी नहीं है. यह समाजवाद की खूबी भी है और कमजोरी भी. खूबी इसलिए कि कोई भी राजनीतिक प्रणाली जो अरस्तु के शब्दों में ‘शुभ की स्थापना’ को अपना लक्ष्य मान चुकी है, समाजवादी सपने को आसानी से साकार कर सकती है. और कमजोरी यह कि हिटलर जैसे तानाशाह भी खुद को समाजवादी बताकर सत्तासीन होते आए हैं. अपनी इन्हीं खूबियोंखामियों के कारण ‘समाजवाद’ शुरू से ही विवादास्पद पद रहा है. इसकी परिभाषा पर वुद्धिजीवियों के बीच अकसर मतांतर रहे हैं. सबसे पहली परिभाषा अलेक्सेंडर विनेट की ओर से आई थी—‘समाजवाद पूंजीवाद का विलोम है.’ उसने बस इतना ही कहा. विनेट ने सच बयान किया था. पर उसकी परिभाषा अस्पष्ट थी. उससे समाजवाद की विशेषताओं का पता ही नहीं चलता था. न यह पता चलता था कि पूंजीवाद और समाजवाद में मानवमात्र के लिए कौन अधिक कल्याणकारी है. इस कमी को राबर्ट ओवेन की परिभाषा दूर करती है—‘समाजवाद नैतिकता की विषयवस्तु है.’ ओवेन की परिभाषा विनेट की परिभाषा के नकारात्मक पक्ष को तो साफ करती थी, परंतु उसके बारे में स्पष्ट कुछ भी नहीं बताती. नैतिकता की वस्तु अकेले समाजवाद नहीं. सत्य, करुणा, मैत्री, सद्भाव, समानता आदि भी नैतिकता की विषयवस्तु हैं. गांधीजी अहिंसा को नैतिकता की विषयवस्तु मानते थे. इनसे अलग समाजवाद क्या है? इसी को ध्यान में रखकर समाजवाद की परिभाषाएं गढ़ी जाती रहीं.

समाजवाद’ शब्द द्वारा मस्तिष्क में जो छवि सामान्यतः बनती है, उसके अनुसार—‘समाजवाद संपत्ति और संसाधनों के न्यायिक वितरण की ऐसी व्यवस्था है, जो कल्याण सरकार के अधीन संपन्न होती है.’ कुछ के लिए यह लोकतंत्र, आर्थिकसामाजिक समानता और व्यक्तिस्वातंत्रय से जुड़ा राजनीतिक अधिकारिता का मामला है. जिसके निर्माण मंे हर कोई अपनी सहभागिता अनुभव करे. यह सच भी है. कल्याण सरकार किसी एक व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षाओं का स्वरूप नहीं हो सकती. यदि कोई तानाशाह लोगों की स्वतंत्रता का हनन कर समाजवादी होने का दावा करता है तो यह सरासर छल है. बहुत बड़ा छल. समाज या समूह की तानाशाही को भी समाजवाद नहीं कहा जा सकता. उस अवस्था में आर्थिकसामाजिक समानता कुछ लोगों तक सिमट जाएगी और समाज के हर वर्ग, हर व्यक्ति को मुख्यधारा में लाने का सपना अधूरा रह जाएगा. अभिव्यक्ति की आजादी मुट्ठीभर लोगों तक सीमित होगी. असल में लोकतंत्र और समाजवाद परस्पर इतने अवगुंठित, ऐसे अंतर्संबंधित हैं कि दोनों को अलगअलग करके देखा ही नहीं जा सकता. इसलिए ‘गणतांत्रिक समाजवाद’ को आदर्शतम व्यवस्था कहा गया है. इस शब्दयुग्म से कुछ विद्वान तो इतने सम्मोहित हैं कि वे इसे लेकर ‘मानवीय मेधा की उच्चतम उड़ान’, ‘विचारधारा का अंत’ जैसे जुमले उछालने लगे हैं. इसके बावजूद समाजवाद ऐसा विचार है जिसके बारे में उनीसवीं और बीसवीं शताब्दी में न जाने कितनी बहसें हुई हैं. और न जाने कितने ग्रंथ इसकी प्रशंसा और आलोचना में लिखे जा चुके हैं. फ्रांसिसी दार्शनिक अलेक्स दि ताॅकविले ने गणतंत्र और समाजवाद की अंतःसंबद्धता के बारे में बड़ी अच्छी बात कही है—

गणतंत्र तथा समाजवाद में कुछ भी मिलाजुला नहीं है, सिवाय एक शब्द के और वह शब्द है—समानता. हालांकि दोनों का अंतर भी सुस्पष्ट है. गणतंत्र स्वाधीनता में समानता की चाहत रखता है. जबकि समाजवाद मालिक और मजदूर दोनों के संबंधों में समानता चाहता है.’

वर्तमान में समाजवाद की परिभाषा को लेकर जितने भ्रम और विवाद हैं, उतने शायद ही किसी और शब्द को लेकर रहे हों. समाजवाद चूंकि समाज की कुल संपत्ति के प्रबंधन और नियोजन का अधिकार देता है, इसलिए हिटलर, मुसोलिनी, रूजवेल्ट, माओ’त्से तुंग और स्टालिन जैसे तानाशाही प्रवृत्ति वाले शासक भी अपनी सत्ता को वैध ठहराने के लिए स्वयं समाजवादी होने का दावा करते रहे हैं. वही क्यों कुछ विद्वान तो नीत्शे को भी समाजवादी मानते हैं, जिसका कहना था कि सच व्यक्तिसापेक्ष होता है. व्यक्ति के अनुसार के प्रति दृष्टिकोण उसका स्वरूप भी बदलता जाता है. इसलिए प्रत्येक व्याख्या को व्यक्तिविशेष के संदर्भ में देखना चाहिए. स्वामी विवेकाननंद भी पीछे नहीं थे. उन्होंने भी समाजवाद को अपने ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है. दीनदयाल उपाध्याय अपने लेख में स्पष्ट करते हैं—

‘‘हमें यह जानकर आश्चर्य होगा कि स्वामी विवेकानंद जी भी अपने आपको समाजवादी कहते थे और अपनी मान्यताओं की पुष्टि में बहुत कुछ इसी प्रकार के तर्क भी देते थे. एक भाषण में उन्होंने कहा भी था कि ‘मैं भी समाजवादी हूं.’ इसलिए नहीं कि समाजवाद कोई पूर्ण दर्शन है, अपितु इसलिए कि मैं समझता हूं कि भूखे रहने की अपेक्षा एक कौर मात्र प्राप्त करना भी अच्छा है.’’

ऊपर की पंक्तियों में बात ‘समाजवाद’ शब्द से आगे बढ़ ही नहीं पाती. न उसके ध्येय का पता चल पाता है.दरअसल यह इस शब्द का आकर्षण ही है कि हर कोई किसी न किसी रूप में इससे जुड़ना चाहता है. समाजवाद की संभवतः ऐसी ही मनमानी और अतिरेकपूर्ण व्याख्याओं से व्यथित होकर जीड ने कहा था कि यह उस जूते की भांति है जिसे इतने अधिक लोगों ने पहना है कि उसका असली आकार ही बिगड़ चुका है. गत दो शताब्दियों का यह कतिपय सबसे लुभावना और भरोसेमंद शब्द रहा है. इसको केंद्र में रखकर न जाने कितने आंदोलनों का शुभारंभ इन दो शताब्दियों में हुआ. न जाने कितने विचारक, दार्शनिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपना जीवन समाजवादी सपने को साकार करने में खपा दिया.

भारत में समाजवादी चेतना ने रूस के रास्ते से दस्तक दी थी. बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में, एक प्रमुख समाजवादी ताकत के रूप में उभरते हुए सोवियत संघ का सपना था, विश्वभर में समाजवादी विचारधारा का परचम लहराना. यह कोई साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा नहीं थी, जो दूसरे देशों की संपत्ति और संसाधनों पर अधिकार जमाकर वहां के लोगों से गुलामी करवाना चाहती है. उन दिनों ब्रिटेन जिसका सबसे अच्छा उदाहरण था. यह तो मनुष्यता की कसौटी पर खरा उतरने के लिए मानवमात्र को एक परिवार के दायरे में लाने की उदार सदाकांक्षा थी. समाजवादी चिंतकों की राय रही है कि उसकी वास्तविक सफलता तब संभव है जब सारी दुनिया अभिन्न समाजवादी परिवार हो. पूंजी का कहीं भी हस्तक्षेप न रहे. सभी लोग अपनी क्षमता के अनुरूप काम करें. उससे उन्हें आवश्यकतानुसार प्राप्ति हो. व्यक्ति की आर्थिक हैसियत में एकरूपता हो. किसी कारणवश यदि आर्थिक समानता का लक्ष्य अधूरा है तो समाज में धन के आधार पर किसी को भी विशेषाधिकार नहीं मिलने चाहिए. समाज सबका है. अतएव जो संसाधन हैं, उनपर समाज तथा उसके बहाने सभी का समानाधिकार रहे. उत्पादन का मिलजुलकर भोग हो. समाजवाद की सफलता तभी संभव है जब निर्णय प्रक्रिया में सभी की समान भागीदारी हो. जब व्यक्ति को लगेगा कि निर्णय प्रक्रिया में उसका योगदान है. जो निर्णय लिया गया है, उसमें उसकी भी वैसी ही भागीदारी है, जैसी दूसरों की तो वह उसका सम्मान करेगा. समाजवादी हवाएं उस नई दुनिया का कुछ ऐसा ही बखान करती थीं. परिवर्तन का सपना देखने वाले कल्पनाशील, संकल्परथी युवाओं के लिए समाजवाद सबसे सुहावना और नयानवेला स्वप्न था. उस सपने की हकीकत जानने, समझने और यदि संभव हो तो उसको अपने ही देश में साकार करने के लिए देशविदेश में अनेक क्रांतिकारी लगे हुए थे. रूस चूंकि उन दिनों समाजवाद की सबसे बड़ी प्रयोगशाला था, इसलिए वहां साम्यवाद की सैद्धांतिकी को समझने और सहयोग की संभावनाएं तलाशने के लिए अब्दुल सत्तार खान तथा अब्दुल जब्बार खान नाम दो व्यक्ति रूस भी गए थे. उन दिनों रूस और भारत की परिस्थितियां लगभग एकसमान थीं. भारत की भांति रूस भी औद्योगिकीकरण के मामले में पिछड़ा हुआ था. उसकी अर्थव्यवस्था का प्रमुख òोत खेतीबाड़ी ही था. जमीन के आधार पर आर्थिकसामाजिक विभाजन वहां भी चिंताजनक हालात को पार कर चुका था. लेनिन ने माक्र्सवाद का गहन अध्ययन किया. माक्र्स की मेधा से वह चमत्कृत था. इसके बावजूद उसने माक्र्स से उतना ही लिया, जितना जरूरी लगा. जिन बिंदुओं पर माक्र्स चुप था, उसकी उसने अपनी परिस्थितियों के अनुसार व्याख्या की. जैसे माक्र्स की कल्पना थी कि वर्ग संघर्ष की सफलता उन्हीं समाजों में संभव है, जहां औद्योगिक क्रांति सफल हो चुकी है. रूस औद्योगिक विकास के रास्ते में पिछड़ा हुआ था. इस कमी को दूर करने के लिए लेनिन ने किसानों और मजदूरों को एक साथ तैयार किया. इससे बाल्शेविक क्रांति का जन्म हुआ.

भारत में भी अंग्रेजी दमन के कारण जनाक्रोश व्याप्त था. उससे मुक्ति के लिए देशविदेश में संघर्ष जारी था. स्वाधीनता की चाहत में भारतीय क्रांतिकारी ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका, जर्मनी, जापान आदि देशों में फैलकर वहां से अपनेअपने स्तर पर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध छेेड़े हुए थे. 1871 में फ्रांसिसी मजदूरों ने बगावत कर ‘पेरिस कम्यून’ की स्थापना की तो उसका असर उन भारतीयों पर भी पड़ा जो सशस्त्र क्रांति के माध्यम से सरकार के तख्ता पलट का सपना देख रहे थे. पेरिस क्रांति की सफलता से उत्साहित कनाडा के प्रवासी भारतीयों के एक प्रतिनिधि मंडल ने माक्र्स से मिलने का प्रयास भी किया था. उनको विश्वास था कि पेरिस के मजदूर संगठनों की भांति यदि भारतीय भी सरकार के विरुद्ध संगठित होकर हथियार उठा लें तो अंग्रेज इस देश से पीछा छुड़ाकर भागते हुए नजर आएंगे. प्रतिनिधि मंडल के नेता ‘प्रथम इंटरनेशनल’ के अनुसरण में दुनियाभर में फैले भारतीय मजदूरों का वैसा ही संगठन चाहते थे. माक्र्स उन दिनों स्वयं परेशानी के दौर से गुजर था. इसलिए भारतीय प्रतिनिधि मंडल द्वारा वांछित मुलाकात तो संभव न हो सकी. परंतु उसके विचारों ने दुनियाभर में फैले भारतीयों को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया था. दक्षिणी अफ्रीका में, जिसे आगे चलकर महात्मा गांधी ने अपनी प्रयोगशाला बनाया, भारतीय मजदूरों ने माक्र्सवादी प्रेरणाओं से संगठित होकर हड़ताल भी की थी. माक्र्स की भारत में रुचि थी. भारतीय परिस्थितियों को लेकर उसने कई लेख लिखे थे, जिनमें यहां की जनता के शोषण और अमानवीय उत्पीड़न का विश्लेषण करते हुए उसने ब्रिटिश सरकार को जिम्मेदार ठहराया था. ब्रिटिश सत्ता की शोषणकारी नीति को सामने लाने में सबसे ठोस योगदान था दादा भाई नौरोजी का. अपनी पुस्तक ‘पाॅवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में उन्होंने अंग्रेजों के उस दावे को तारतार कर दिया था, जिसके अनुसार वे दावा करते थे कि अंग्रेजों के आने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार आया है. दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक में सिद्ध किया था कि अंग्रेज भारतीय संसाधनों का दोहन कर, ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को चमका रहे हैं. ‘ईस्ट इंडिया एसोशिएसन आॅफ लंदन’ की मुंबई शाखा के समक्ष दिए गए भाषणों में उन्होंने ब्रिटिश शासन से पहले के भारत की समृद्धि के आंकड़े पेश कर, पूरी दुनिया के सामने यह तथ्य पेश किया था कि अंग्रेजी शासन के दौरान भारत में गरीबी अनुपात लगातार बढ़ा है.

उधर रूसी क्रांति के नेताओं की भी भारतीय राजनीति की हलचलों पर नजर थी. वहां बोल्शेविक क्रांति हो चुकी थी. उसकी सफलता का एकमात्र रास्ता यही था कि विश्वभर में साम्यवाद के प्रति सकारात्मक माहौल हो. वह जितना दूर तक फैल सकता है, फैल जाए. बोल्शेविक क्रांति की सुदीर्घ सफलता के लिए लेनिन और उसके साथी चाहते थे कि भारत उसका अगला केंद्र बने. हालांकि सोवियत संघ की मदद से ‘चाइनीज सोवियत रिपब्लिक’ की स्थापना 1931 में हो चुकी थी. माओ जिदांग उसका सर्वेसर्वा नेता था. चीनी में साम्यवादी क्रांति की बागडोर संभाल रहा माओ जिदांग लेनिन की तरह की दूरदर्शी, आत्मविश्वास से लैस तथा अतिमहत्त्वाकांक्षी नेता था. वह चीन को सोवियत संघ के किसी भी प्रभाव से मुक्त रहना चाहता था. इसलिए उसने सोवियत संघ की और मदद लेने से इन्कार कर दिया था. इन हालात में सोवियत संघ के लिए भारत एकमात्र ठिकाना था, जहां वह सोवियत क्रांति की सफलता के अगले चरण को दोहराया जा सकता था. इसके लिए न केवल लेनिन बल्कि उसके सहयोगी लियान ट्राट्स्की की भी भारत पर नजर थी. ट्राट्स्की ने भारत को लेकर अनेक लेख लिखे थे, जिनमें से एक में उसने किसानों का विद्रोह के लिए संगठित होने का आवाह्न किया था. भारत में समाजवादी क्रांति की हलचलों को लेकर लगभग उन्हीं दिनों, सोवियत क्रांति के एक सक्रिय कार्यकर्ता प्लातेन मिखाइलोविच कर्झेन्सेव ने लिखा था कि ब्रिटेन के सभी उपनिवेशों में भारत उसके लिए सर्वाधिक कमाऊ ठिकाना है. वहां बोल्शेविक क्रांति का विस्तार कालांतर में ब्रिटेन के अन्य उपनिवेशों यथा मेसापोटामिलया, मिस्र, अफ्रीका, सीरिया, तिब्बत, चीन, पर्शिया आदि में क्रांति के अवसरों को बढ़ावा देगा. उसका मानना था कि ब्रिटेन ने भारत को ‘बर्बर और कपटपूर्ण’ तरीके से कब्जाया हुआ है. अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भारतीय के आक्रोश को देशते हुए कर्झेन्सेव भारत में समाजवादी क्रांति की संभावना से उत्साहित था. उसका विश्वास था—‘आने वाले दिनों में भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों में और भी तेजी आएगी. फलस्वरूप वह तेजी से फैलेगा.’ इसके लिए रूस अपनी ओर से हरसंभव मदद देनेे को तैयार था. भारत की स्वाधीनता के लिए समर्थक शक्तियों की खोज में लगे भारतीयों के लिए जर्मनी सबसे उम्मीदवाला देश था. इसलिए भारतीय क्रांतिकारियों का बड़ा दल मदद की उम्मीद में जर्मनी में डेरा डाले हुए था. मगर बहुत जल्दी उनका यह भ्रम जाता रहा. इसलिए क्रांतिकारियों का एक दल रूस की ओर मुड़ गया और उसकी मदद के भरोसे भारत की ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ने के मंसूबे पालने लगा.

भारत में क्रांति का वैसा असर न था, जैसा रूसी सरकार को भ्रम था. यहां की परिस्थितियां परर्शिया से अलग थी. उल्लेखनीय है कि रूस ने परर्शिया में बोल्शेविक क्रांति को बढ़ावा देने के लिए वहां के जुझारू गुरिल्ला सरदार मिर्जा कुचुक खान को सहायता देकर उसे ईरान पर हमले के लिए उकसाया था. ब्रितानी भारत छोटेछोटे रजबाड़ों में बंटा था. राजाओं में आपसी फूट थी. अपनेअपने स्वार्थ के लिए वे अंग्रेजों का कृपापात्र बने रहना चाहते थे. इसलिए क्रांति के माध्यम से सत्ता प्राप्ति का सपना देखने वाले अधिकांश भारतीय विदेशों में रहकर अपनी गतिविधियां चला रहे थे. सामाजिक स्तर पर जातिव्यवस्था का बोलवाला था. परिणामस्वरूप समाज का बड़ा वर्ग जिसको जातिव्यवस्था के चलते निर्णय प्रक्रिया से काट दिया गया था. ‘कोऊ नृप होय हमें क्या हानि’ की भावना के अनुरूप काम करता था. राष्ट्रीयता के मुद्दे पर आम आदमी के सोच को लेकर किसी को विशेष चिंता भी न थी.

भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के लिए रूस की घटनाएं उत्प्रेरक के समान थीं. भारत में समाजवादी चेतना का उदय राष्ट्रीयता की भावना के साथ ही हो चुका था. उस समय ब्रिटेन की छवि एक साम्राज्यवादी देश की थी. औपनिवेशिक देश उसके कच्चे माल के उम्दा òोत थे. ब्रिटिश कंपनियों द्वारा स्थानीय संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से वहां परिस्थितिकीय समस्याएं पैदा होने लगी थीं. छोटेछोटे उद्योग, धंधे जो अर्थव्यवस्था की प्राणवायु थे, तबाह हो रहे थे. उसे लेकर किसानों और कामगारों में बेहद आक्रोश था. माक्र्स ने यूरोपीय पूंजीवादी शोषण की जो तस्वीर दुनिया के सामने प्रस्तुत की थी, उसका प्रभाव भारत की पढ़ीलिखी युवा पीढ़ी पर भी पड़ा था. राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, महर्षि दयानंद, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि समाज सुधारकों की विचारचेतना तथा अंग्रेजी के ज्ञान से लैस भारतीय युवाओं की वह पीढ़ी आत्मविश्वास से लैस थी. अंग्रेज सरकार के शोषण ने उसको भड़काने का काम किया था. इस आग में घी डालने का काम किया अंग्रेजों द्वारा 1905 में बंगाल विभाजन की घटना ने. बंगाल के युवकों ने इसे अपनी अस्मिता पर हमला माना. उन दिनों माक्र्स साम्राज्यवाद के विरोध का सशक्त, सार्थक प्रतीक बन चुका था. इसलिए साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार के चंगुल से बाहर आने के लिए युवाओं का ध्यान दुनियाभर में चल रही समाजवादी क्रांतियों की ओर गया. फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, अमेरिका, ब्रिटेन में उन दिनों समाजवादी आंदोलन की गरमाहट थी. समाजवाद को ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से मुक्ति का माध्यम मान लिया गया था.

श्यामजीकृष्ण वर्मा का इंग्लेंड के राष्ट्रप्रेमियों में बड़ा नाम था. महर्षि दयानंद से प्रभावित श्यामजी कृष्ण वर्मा हर्वर्ट स्पेंसर की इस उक्ति में विश्वास करते थे कि ‘आक्रमण का प्रतिरोध न केवल न्यायसंगत, बल्कि अनिवार्य भी होता है.’ हाई गेट, उत्तरी लंदन स्थित अपना आवास उन्होंने भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए खोला हुआ था. लंदन और यूरोप में रह रहे राष्ट्रवादियों का उनके यहां नियमित आनाजाना था. ब्रिटेन के प्रवासी हिंदुस्तानियों के बीच श्यामजी कृष्ण वर्मा का वह आवास ‘इंडिया हाउस’ के नाम से विख्यात होकर राष्ट्रवादी गतिविधियों का केंद्र बना हुआ था. श्यामजी कृष्ण वर्मा की कल्पना समाजवादी आदर्श के अनुरूप गठित स्वाधीन भारतीय राष्ट्र की थी, जिसकी वैश्विक पहचान हो. इसी सपने को संकल्प का रूप देते हुए उन्होंने ‘इंडियन सोश्लिष्ट’ नामक मासिक समाचारपत्र की शुरुआत की थी. एक पेनी में बिकने वाला वह छोटासा समाचारपत्र बहुत जल्दी लंदन स्थित भारतीयों के बीच लोकप्रिय हो गया. मदनलाल धिंगरा, वीवीएस अय्यर, विनायक दामोदर सावरकर, सेनापति बापट, अनंत लक्ष्मण कन्हेड़े जैसे प्रखर राष्ट्रभक्त ‘दि इंडियन सोश्लिष्ट’ से जुड़े थे. इस समाचारपत्र में प्रख्यात समाजवादी चिंतकों के लेख समयसमय पर प्रकाशित होते थे. लेखों के अनुवाद का काम स्वयं श्यामजी संभालते थे. उनका मानना था कि भारतीयों को यह पूरा अधिकार है कि वे औपनिवेशिक शोषण का विरोध करें. स्वाधीनता यदि हिंसा के रास्ते भी आती है तो यह उसकी छोटीसी कीमत होगी. लेकिन हिंसा का इस्तेमाल सबसे बाद में बाकी रास्तों के पूरी तरह बंद हो जाने के बाद ही होना चाहिए. वह समाचार पत्र 1905 से लेकर 1910 तक लगातार निकलता रहा. उसने प्रवासी भारतीयों के बीच राष्ट्रीयता का प्रसार करने में काफी सफलता प्राप्त की. इस बीच उसको ब्रिटिश सरकार के प्रतिरोध का सामना भी करना पड़ा. ब्रिटिश सरकार की मनमानी के आगे आखिर वह समाचारपत्र बंद करना पड़ा. ‘इंडिया हाउस’ को अंग्रेज सरकार ने ‘भारत से बाहर गठित सबसे खतरनाक’ संगठन का दर्जा दिया था.

क्रमश:….

© ओमप्रकाश कश्यप

अराजकतावाद (अनार्किज्म)

अराजकतावाद यानी ‘anarchism’ ग्रीक मूल के शब्द ‘anarchos’ से जन्मा है, जिसके उपसर्ग ‘an-’ का अर्थ है ‘बिना’(without), जबकि ‘archê’ का अभिप्राय राज्यसत्ता, सरकार अथवा कानून से है. इस प्रकार ‘अनार्किज्म’ का अर्थ हुआ—‘बिना सरकार का राज’. ऐसा राज्य जो नागरिक-संचेतना द्वारा अनुशासित हो. कानून के बजाय जहां मनुष्यता का अनुशासन चलता हो. यह थोपे हुए शासन का विरोध करता है. ‘अनार्किज्म’ के पर्यायवाची के रूप में कुछ विद्वान ‘लिब्रटेरियनिज्म’ यानी ‘स्वाधीनतावाद’ शब्द का उपयोग करते हैं, इसका भी अभिप्राय मनुष्य की अबाध-गतिशील स्वाधीनता से है. यह माना गया है कि बाह्यः सत्ता द्वारा आरोपित कानून, पुलिस, न्यायिक संस्थाएं, सैन्य बल आदि मनुष्य की स्वतंत्रता को बाधित करते हैं. इससे सत्ता शक्तिकेंद्र के रूप में ढलती जाती है और प्रकारांतर में वह मनुष्य के नैतिक उत्थान में अवरोधक बनती है. अपनी अधिसत्ता की सुरक्षा के लिए शिखरस्थ शक्तियां समाजिक स्तरीकरण की पोषक संस्थाओं का सहारा लेते हैं. कुछ विद्वान ‘अराजकतावाद’ के स्थान पर ‘लिबर्टेरियन सोशियलिज्म’ ‘स्वाधीनतावादी समाजवाद’ शब्दयुग्म का उपयोग भी करते हैं. विश्व में अराजकतावाद समर्थक दार्शनिकों की खासी संख्या रही है. ईसापूर्व पांचवी-छठी शताब्दी में भारत, चीन और यूनान में अराजकतावाद के समर्थक दार्शनिक रहे हैं. चीन में ताओ के शिष्य लाओ जु, चुआंग-जु, बाओ जिंग्यान राज्यसत्ता के आलोचक थे. चुआंग जु(369—286) ने किसी भी प्रकार की अधिकारिता को मनुष्यता पर अंकुश माना था. राज्यसत्ता में पलने वाले अन्याय का उल्लेख करते हुए उसने लिखा था कि वह प्रायः अन्यायी का पक्ष लेती है. साधारण व्यक्ति के लिए कानून अनगिनत निषेधाज्ञाओं और प्रतिबंधों का जखीरा खड़ा कर देता है, जबकि शक्तिशाली को मनमानी करने के लिए खुला छोड़ देता है. कानून का लाभ उठाकर सत्ताशीर्ष पर विराजमान लोग जनसाधारण का शोषण और उत्पीड़न करते रहते हैं. राज्य का झुकाव समृद्धिशाली वर्ग की ओर होता है, वह पहले से ही सुविधासंपन्न वर्ग को और अधिक सुख-सुविधाएं बटोरने का अवसर प्रदान करता है, जबकि निर्धन उसकी दया पर जीने के लिए विवश होता है.

राज्य के असमानतापूर्ण आचरण के बारे में चुआंग जु ने लिखा था कि उसके बनाए कानून ने—‘मामूली चोर को जेल भेज दिया गया है, जबकि खूंखार डकैत राज्याधिपति बना हुआ है.’ जीवन में कृत्रिमता के विरुद्ध चुआंग-जु का मानना था कि प्रत्येक प्राणी अपने आप में पूर्ण है. प्राकृतिक रूप से समृद्ध. सामान्य जीवन जीने के लिए प्राणी को किसी बाह्यः साधन की आवश्यकता ही नहीं है. वह उदाहरण देता है—

घोड़ों के खुर होते हैं, जिनसे वे बर्फीली, फिसलनयुक्त सतह पर चल सकें. बाल होते हैं जो उनकी तेज हवा और ठंड से रक्षा कर सकें. वे प्रकृति में सहज उपलब्ध घास खाते, पानी पीते तथा अपनी मजबूत ऐड़ियों के बल पर लंबी दौड़ भी लगाते हैं. यह घोड़ों का कुदरती लक्षण है. राजसी जीन उनके लिए व्यर्थ है.’

चुआंगजु के विचार सुनकर एक दिन पो लो नामक व्यक्ति उसके सामने पहुंचा और कहने लगा—‘घोड़ों की देखभाल कैसे की जाए, यह मैं भलीभांति जानता हूं.’

उसने घोड़ों पर निशान लगाया, उन्हें बांधा, उनके खुरों को अच्छी तरह से साफ किया, वे भागें नहीं इसलिए पैरों में रस्सा भी डाल दिया. उसके बाद उसने उनपर लगाम कसकर अश्वशाला में बांध दिया. लेकिन इस कोशिश में कुछ दिनों बाद दस में से दोतीन घोड़े मर गए. प्रशिक्षण देने के लिए उसने घोड़ों को भूखा और प्यासा रखा, उन्हें सरपट और दुलकी चाल से दौड़ाया. उनके बालों को तराशा. लगाम कसी. फिर एक दिन ऐसा भी आया जब उनमें से आधों ने दम तोड़ दिया.’

चुआंग-जु का यह उदाहरण दर्शाता है कि कृत्रिमता जीवन को सुविधाजनक भले बनाए, किंतु वह अनेक व्यवधान भी खड़े करती है. मनुष्य को हालांकि सामाजिक प्राणी कहा जाता है, लेकिन सामाजिक होना केवल मनुष्य का लक्षण नहीं है. यह गुण अन्य जीवों में भी पाया जाता है. चींटियों, मधुमक्खियों तथा पक्षियों की सामाजिकता पर अनेक ग्रंथ रचे जा चुके हैं. मनुष्य ने लंबा जीवन प्रकृति के सान्न्ध्यि में बिताया है. अब भी प्रकृति पर उसकी निर्भरता कम नहीं हो पाई है. इसलिए उसकी सामाजिकता प्रकृति और नैसर्गिक नियमों से मुक्त नहीं हो सकती, जो जीवन में कृत्रिमता का निषेध करते हैं. जीवन की नैसर्गिकता को बचाए रखने की आवश्यकता के पक्ष में चुआंग-जु एक के बाद एक कई तर्क देता है. वह लिखता है कि कुम्हार यह दावा करता है कि वह मामूली मिट्टी को मनमानी आकृति में ढाल सकता है, चाहे गोल हो या चौकोर, आयताकार हो अथवा वृताकार—उसके लिए कुछ भी कठिन या असंभव नहीं है. काष्ठकार यह गुमान करता है कि वह लकड़ी को जैसी चाहे वैसी आकृति देने में कुशल है. चाहे गोलाकार हो या घुमावदार. सीधी हो अथवा आड़ी—सब उसके लिए बाएं हाथ का खेल है. ऐसा ही दावा दूसरे शिल्पकर्मी भी कर सकते हैं. चुआंग-जु के अनुसार उपर्युक्त उदाहरण में कुम्हार और काष्ठकार दोनों अपनी-अपनी कला का बखान करते हैं. मिट्टी और लकड़ी स्वयं क्या चाहती हैं, उनकी अपनी खुशी किसमें है, यह उनमें से कोई नहीं जानना चाहता. जैसे पो लो ने घोड़ों से साथ वह किया जो वह चाहता था; या जो उसको सिखाया गया था. घोड़े स्वयं क्या पसंद करते हैं. किस कार्य में उन्हें सर्वाधिक खुशी हासिल होती है, यह उसने कभी जानने का प्रयास ही नहीं किया था.

यही प्रवृत्ति शासक की होती है. हर शासक सत्ता पर सवार होते ही मनमानी पर उतर आता है. वह दावा करता है कि उसका शासन जनता के हक में, उसकी बेहतरी के लिए है. जनता स्वयं क्या चाहती है, यह जानने का वह कभी प्रयास तक नहीं करता. जनता के लिए ऐसा शासक अनपेक्षित और अनावश्यक है. राज्यसत्ता को अनावश्यक और अप्रासंगिक बताने वाला चुआंग-जु पहला विद्वान नहीं था. उससे लगभग दो शताब्दी पहले जन्मे लाओ-जु ने साफ लिखा था कि सर्वोत्तम तो यह है कि सरकार हो नहीं. यदि सरकार बनाना अनिवार्य है, तो बुद्धिमानी इसमें है कि उसका स्वरूप एकदम सादा और सरल हो. वह कोई काम न करे. बस शांत बनी रहे. व्यक्तिमात्र को बदलने के लिए, उसको नागरिक धर्म सिखाने के लिए वे अपनी ओर से कौन-सा कदम उठाना चाहेंगे, इस प्रश्न के उत्तर में लाओ-जु का कहना था—

मैं कोई कदम नहीं उठाऊंगा. लोग खुद अपने आप को बदलेंगे. मैं खामोशी का पक्ष लूंगा, लोग स्वयं अपनी मंजिल तय कर लेंगे. मैं कोई कार्रवाही नहीं करूंगा, अपने उत्थान के लिए लोग स्वयं आगे आएंगे….’

लाओ-जु का मानना था—

संसार में लोगों पर जितने अधिक प्रतिबंध और निषेध थोपे गए हैं, उतनी ही यहां दरिद्रता है….दुनिया में जितने अधिक नियम, कानूनादि होंगे, उतने ही अधिक चोरडकैतदुराचारी यहां होंगे.’

मानव-समूह की कुछ सामान्य विशेषताएं होती हैं. जैसे हर व्यक्ति अपना भोजन स्वयं कमाना-करना पसंद करता है. अपने कपड़े वह स्वयं पहनता है. अनौपचारिक वातावरण में ऐसे अनेक कार्य हो सकते हैं, जिन्हें मनुष्य को स्वयं करने से प्रसन्नता प्राप्त होती हो. कहा जा सकता है कि ये उसके जन्मजात लक्षण हैं. इन कार्यों के लिए किसी बाहरी उपकरण अथवा सहायता की आवश्यकता भी नहीं पड़ती. इस स्तर तक मनुष्य को शासन की भी आवश्यकता नहीं है. यह आदिम अवस्था है. परंतु जब कोई समाज विकास की ओर अग्रसर होता है, तो वह पाता है कि विकास के लिए आवश्यक मानी जाने वाली सभी वस्तुओं का उत्पादन प्रत्येक के लिए संभव नहीं है. अपनी रुचि, स्वभाव, सामथ्र्य के आधार पर व्यक्ति किसी कार्य-विशेष में ही निपुण हो सकता है. इन स्थितियों में कार्य-विभाजन समाज की आवश्यकता बन जाता है. पूंजीवादी व्यवस्था में कार्य-विभाजन का आधार लाभ की वांछा से किया जाता है. उससे समाज में स्पर्धा बढ़ती है, जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की दासता के लिए बाध्य करती है. इसलिए आवश्यक है कि कार्य-विभाजन लार्भाजन के बजाय सामूहिक कल्याण की भावना से प्रेरित हो, ताकि मनुष्य की स्वतंत्रता किसी भी प्रकार से बाधित न हो.

यूनानी विचारकों में अराजकतावाद का प्रमुख व्याख्याकार हम क्रीटवासी जीनो को पाते हैं. ईसा पूर्व 342 ईस्वी में जन्मा यह प्रतिभाशाली यूनानी दार्शनिक स्टोइक दर्शन का जन्मदाता था. प्लेटो के आदर्श राज्य की परिकल्पना का विरोध करते हुए उसने मुक्त समाज की स्थापना पर जोर दिया था. उसने राज्य की संप्रभुता, शक्ति संपन्नता, नागरिकों के जीवन में हस्तक्षेप करने के उसके अधिकार, ताकत बटोरने हेतु सेनाएं खड़ी करने की प्रवृत्ति तथा साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं का विरोध करते हुए व्यक्तिमात्र की नैतिकता तथा उसको संरक्षण प्रदान करने वाले नियमों का पक्ष लिया था. व्यक्ति की जटिल मनोरचना का विश्लेषण करते हुए जीनो ने लिखा था कि आत्मसंरक्षण और आत्मपरिर्वधन की प्रवृत्ति जहां मनुष्य को अहंवादी बनाती है, वहीं इसको संतुलित करने के लिए एक अन्य प्रवृत्ति भी मानव मन में सतत सक्रिय रहती है, वह है व्यक्तिमात्र में अंतनिर्हित उसका सामाजिकताबोध, जो विश्व-भर के जनसमूहों में दूसरे जनसमूहों यानी मानवमात्र के बीच एकता का भाव पैदा करता है. दूसरों से मिल-जुलकर रहने का स्वभाव मनुष्य को प्रकृति की ओर से प्राप्त है. मैत्री नैसर्गिक गुण है. इसलिए उसको न तो किसी कानून की आवश्यकता है, न पुलिस, न कोर्ट-कचहरी की. यहां तक कि उसे धर्म, धर्मालय, धन-संपदा, उपहार आदि की भी कोई आवश्यकता नहीं है. इसके लिए मनुष्य को चाहिए कि वह आवश्यकताओं को सीमित रखे, विलासिता के दुर्गुण को अपने मन में न पनपने दे. अपने अधिकार में ऐसी कोई वस्तु न रखे, जो समाज के दूसरे सदस्यों को सहज उपलब्ध न हो.

यह दुर्भाग्य ही है कि जीनो के अराजकतावादी विचारों को उन दिनों बहुत महत्त्व नहीं दिया जा सका. इसका कारण उसके समकालीन प्लेटो और अरस्तु की उच्चस्तरीय ख्याति थी, जिनके विचार सुकरात के दर्शन की छत्रछाया में विकसित हुए थे. उन दिनों राज्य छोटे थे और और वे आपस में युद्ध करते रहते थे. ऐसे में बिना राज्य के राज्य यानी ‘वैराज्य’ की परिकल्पना के लिए उन दिनों समाज में बहुत कम स्थान था. एक अन्य कारण जीनो की लिखी पुस्तकों का अनुपलब्ध होना है. उसके अराजकतावादी विचारों की झलक छिटपुट रूप से प्राप्त उसके वक्तव्यों में दर्ज है. भारत में बौद्ध धर्म का उदय राजसत्ता का प्रतीकात्मक विरोध था. ‘अप्प दीपोभव’ की चेतना के साथ गौतम बुद्ध ने मनुष्य से अपना मार्गदर्शक स्वयं बनने का आवाह्न किया. उन्होंने बाहरी अनुशासन के बजाय आंतरिक अनुशासन पर जोर दिया. बौद्ध विहारों की स्थापना की जहां जीवन सामूहिकता के नियम से अनुशासित होता था. महावीर स्वामी ने भी स्वयांनुशासित जीवन पर जोर दिया. उन्होंने अहिंसा को अपने दर्शन के केंद्र में रखा जो समाज और सहसंबंधों के स्थायित्व से लिए अपरिहार्य है.

मध्यकाल में अराजकतावादी दर्शन की झलक मार्को जिरोलमो वाइड के विचारों में देखने को मिलती है. अराजकतावाद और स्वाधीनतावाद के बारे में विस्तृत विमर्श हमें सोलहवीं शताब्दी के फ्रांस के दूरद्रष्टा कवि-दार्शनिक ला बूइटी(1530—1563) के साहित्य में भी प्राप्त होता है. उसने स्वाधीनतावाद के पक्ष में जोरदार तर्क दुनिया के सामने रखे. क्रीटवासी जीनो से प्रभावित बूइटी का विचार था कि तानाशाही चाहे वह बलपूर्वक स्थापित की गई हो, अथवा किसी अन्य माध्यम से, बड़े से बड़ा तानाशाह केवल उस समय तक सत्ता शिखर पर बना रह सकता है, जब तक कि जनता उसको वहां बनाए रखना चाहती है. ऐसे तानाशाह को बलपूर्वक खदेड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती. जनता यदि अपने दासताबोध से बाहर आ जाए तो तानाशाही स्वतः दम तोड़ लेती है. इसलिए आजादी की चाह रखने वाली जनता को सबसे पहले स्वयं दासता-चक्र से बाहर निकालना चाहिए. बूइटी को हम सत्याग्रह आंदोलन का आदि प्रवत्र्तक भी मान सकते हैं. यह बात चैंका सकती है कि 1575 में धार्मिक सुधारवादी नेता ह्युजनोट द्वारा प्रकाशित एक पंपलेट में बूइटी ने—

कस्बों और शहर में रहने वाले लोगों से सिविल नाफरमानी का सहारा लेते हुए राज्य को दिए जाने वाला किसी भी प्रकार का टैक्स न चुकाने की अपील की थी.’

बूइटी असल में मानवतावादी विचारक था. उस समय तक भी अराजकतावाद अथवा उसके किसी पर्यायवाची शब्द का चलन नहीं हो पाया था. अंग्रेजी शब्दावली में ‘अनार्किस्ट’ शब्द 1642 में इंग्लेंड के गृह-युद्ध के दौरान उपयोग किया गया. उन दिनों इस शब्द का आशय आज से एकदम भिन्न था. तब यह शब्द उपहास और हेयताबोध दर्शाने के लिए प्रयुक्त किया गया था. प्रयोग करने वाले अंग्रेजी राजशाही के समर्थक थे. उन्होंने इस शब्द का गालीनुमा प्रयोग राजशाही के स्थान पर संसदीय राज्यप्रणाली की मांग कर रहे परिवर्तनवादियों के लिए किया था. 1793 में फ्रांसिसी क्रांति के दौरान साम्राज्यवादी जेकोबिन के विरुद्ध परिवर्तनवादी आंदोलनकारियों द्वारा भी इस शब्द का उपयोग किया था. हालांकि उस समय भी अराजकतावादी होना, उपहास और हंसी का पात्र माना जाता था. आंदोलनकारी भीड़ को संबोधित करते हुए फ्रांसिसी क्रांति के सूत्रधार जेकुइस राॅक्स ने ‘आक्रोश का घोषणापत्र’ में समाज में व्याप्त असमानता पर प्रहार करते हुए कहा था कि ऐसे राज्य में जहां—

एक वर्ग शोषण द्वारा दूसरे वर्ग को भूखा मरने पर विवश कर दे, वहां आजादी सिवाय प्रेतछाया के कुछ नहीं है. जहां धनी अपने एकाधिकार और मनमानी द्वारा निर्धन व्यक्ति के जीवनमरण का फैसला करने लगे, वहां समानता सिवाय प्रेतछाया के कुछ नहीं है. जिस राज्य की तीनचैथाई जनता दिनोंदिन आसमान चढ़ती महंगाई से त्रस्त होकर रातदिन आंसू बहाती हो, वहां गणतंत्र सिवाय प्रेतछाया के कुछ नहीं है.’

अपने घोषणापत्र में रा॓क्स ने जनता से आततायी राजसत्ता को उखाड़ फेंकने का आवाह्न किया था. इस पर साम्राज्यवादियों द्वारा प्रतिक्रियावादी कहकर उसका मजाक उड़ाया गया था. अठारवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक व्यक्ति-स्वातंत्रय की मांग विस्तार ले चुकी थी. उन्हीं दिनों इमानुएल जोसेफ सीयेस(1748—1836) ने क्रांतिकारी काम किया, जिसने इतिहास की धारा ही बदल दी. कुलीन मध्यवर्गी परिवार में जन्मे सीयेस ने अपनी शिक्षा धार्मिक माहौल में पूरी की थी. समय आने पर उसको एक चर्च में पादरी की नौकरी मिल गई. लेकिन वह पादरी के परंपरागत कार्य में रमे रहने के बजाय सुधारवादी कार्यक्रमों में प्रवृत्त हुआ. अपने क्रांतिधर्मी विचारों को लेकर सीयेस ने कई छोटे-छोटे परिपत्र लिखे, जिन्होंने समाज में नई चेतना का प्रसार किया. उसके लिखे परिपत्रों में ‘तीसरी दुनिया क्या है?(व्हा॓ट इज थर्ड एस्टेट?)’ शीर्षक से लिखा गए परिपत्र में नए युग का संदेश निहित था. कालांतर में यही परिपत्र फ्रांसिसी क्रांति का प्रमुख उत्प्रेरक बना. राजशाही में जनता की हैसियत पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए सीयेस ने लिखा था—

तीसरी दुनिया क्या है?’

सबकुछ.’

अभी तक राजतंत्र में तीसरी दुनिया की हैसियत कैसी है?’

तुच्छ, कुछ भी नहीं.’

इसकी हसरत क्या है?’

थोड़ेसे मानसम्मान की.’

किसी राष्ट्र की जीवंतता और समृद्धि के लिए क्या अनिवार्य है?’

व्यक्तिगत प्रयास एवं सामूहिक कर्तव्यपरायणता.’

सीयेस ने अस्सी प्रतिशत नागरिकों को अधिकार वंचित करने वाली व्यवस्था को चुनौती दी थी. उसके परिपत्र ने जादू का असर किया, इसके बावजूद उनीसवीं शताब्दी के आरंभ तक ‘अनार्किज्म’ तथा उसके समर्थकों के प्रति लोगों का नकारात्मक रवैया बना रहा. अराजकतावाद को कोई भी गंभीरता से लेने को तैयार न था, किंतु उनीसवीं शताब्दी में यूरोपीय नवजागरण के दौर में, विशेषकर रूसो द्वारा व्यक्ति स्वातंत्रय के पक्ष में दिए गए जोरदार तर्कों के बाद अराजकतावाद के प्रति लोगों ने नए सिरे से सोचना आरंभ किया. उनीसवीं शताब्दी में पहली बार विलियम गुडविन(1756—1836) ने पहली बार अराजकतावाद का दर्शन सामने रखा, हालांकि अपने इस दर्शन को उसने कोई नया नाम नहीं दिया था. गुडविन के विचारों का प्रभाव एडमंड ब्रूक, बेंजामिन टुकर पर पड़ा. परंतु उसका श्रेय मिला अमेरिकी सुधारवादी विचारक जोसीह वारेन(1798—1874) को जिसने संभवतः पहली बार राज्य की उपयोगिता को नकारते हुए राज्यविहीन स्वावलंबी बस्तियों की स्थापना पर जोर दिया. राबर्ट ओवेन के सामूहिक आवास बस्तियों के विचार से प्रभावित वारेन के प्रस्तावित स्वावलंबी राज्य में सभी संपत्तियों तथा सेवाकार्यों को सामूहिक बस्तियों के अधिकार में रखा गया था. वारेन द्वारा स्थापित सामूहिक आवास बस्तियों में मानवजीवन पर बाहरी हस्तक्षेप कम से कम था. वे व्यक्तिमात्र की स्वतंत्रता का समर्थन करती थीं, लेकिन निवासियों में सामूहिक जीवन के प्रति निष्ठा का अभाव, अनुभव की कमी के कारण उनका वही अंत हुआ जो राबर्ट ओवेन द्वारा स्थापित ‘न्यू हार्मोनी’ का हुआ था. उन दिनों सहकारिता आंदोलन उठान पर था. वारेन के प्रयासों को भी सहकारिता के उपांग के रूप में देखा गया. असफलता का एक कारण यह भी था कि वारेन ने सहजीवन का पक्ष तो लिया, किंतु राजशाही और साम्राज्यवाद की उतनी तीखी आलोचना नहीं की, जैसी फ्रांसिसी क्रांति के सूत्रधार नेताओं ने की थी.

दर्शन के रूप में ‘अराजकतावाद’ भले ही ढाई हजार वर्ष अथवा उससे भी अधिक पुराना हो, परंतु एक परिपक्व राजनीतिक दर्शन के रूप में इस शब्द का सर्वप्रथम उपयोग 1890 में फ्रांस में पियरे जोसेफ प्रूधों द्वारा किया गया था. वह पहला विचारक था जिसने खुद को जोरदार शब्दों में अराजकतावादी कहते हुए व्यवस्था परिवर्तन की मांग की थी. निजी संपत्ति की अवधारणा को चुनौती देते हुए उसने लिखा था—‘निजी संपत्ति चोरी है तथा संपत्तिधारक व्यक्ति चोर है.’ प्रूधों सीयेस की तीसरे राज्य की अवधारणा से प्रभावित था, जिसने बाइबिल से संदर्भ लेकर राजशाही की तीखी आलोचना की थी. अपने समय में प्रूधों की ख्याति मार्क्स से कहीं बढ़कर थी. प्रूधों जब व्यक्तिगत संपत्ति को चोरी बता रहा था तो उसका आशय उसके कुछ हाथों तक सिमट जाने से था. राज्य चूंकि संपत्ति के केंद्रीयकरण को वैधता प्रदान करता है, इसलिए उसने राज्य की सत्ता को ही अवैध मानते हुए ऐसे राज्य की परिकल्पना की थी, जहां व्यक्ति कानून की अपेक्षा आत्मसंयम एवं आत्मानुशासन से बंधा हो.

अराजकतावाद की सैद्धांतिकी

अराजकतावाद ऐसा विचार अथवा सिद्धांत है जिसमें कोई समाज बिना सरकारी हस्तक्षेप अथवा मदद के आपसी भाईचारा, एकता और खुशहाली के लिए प्रयासरत रहता है. अराजकतावादी समाज में लोग स्वेच्छा और सहमति की भावना से एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हैं. वहां समर्पण की भावना किसी सत्ता के प्रति न होकर एक-दूसरे के प्रति होती है. उत्पादन का कार्य तकनीक विशेषज्ञों, पेशेवरों, कामगारों के समूह द्वारा किया जाता है, जो लाभ के बजाय सामूहिक हितों के लिए स्वेच्छापूर्वक संगठित होते हैं. एम्मा गोल्डमेन ने अराजकतावाद को परिभाषित करते हुए लिखा है—

अराजकतावाद—नव्य सामाजिक व्यवस्था का दर्शन है, जिसमें मानवीय स्वाधीनता को मनुष्यनिर्मित कानूनों द्वारा सुरक्षितसंरक्षित किया जाता है. इस दर्शन की मूल अवधारणा यह है कि सरकार के सभी रूप हिंसा पर टिके होते हैं, इसलिए वे अनुचित, अनावश्यक एवं हानिकारक हैं.’

अराजकतावाद मनुष्य की स्वाधीनता और समृद्धि दोनों की सुरक्षा चाहता है. वह दर्शाता है कि ‘समाजवाद के अभाव में स्वाधीनता कुछ लोगों का विशेषाधिकार और अनाचार है, जबकि स्वाधीनता के अभाव में समाजवाद दासता और क्रूरता का प्रतीक है. अराजकतावाद के आधार पर अनुशासित समाज में स्वयंसेवी संस्थाएं, समितियां उत्पादन, विपणन, अंतरण, शिक्षा, व्यापार, चिकित्सा, यातायात सहित सभी आवश्यक क्षेत्रों तक विस्तृत होती हैं. आवश्यकता पड़ने पर वे सरकार के श्रेष्ठतर विकल्प के रूप में राजनीतिक निर्णय भी लेती हैं. वे उत्पादन, वितरण, संचार, सफाई, शिक्षा, उपचार, सुरक्षा, प्रबंधन, अंतरण, आवागमन आदि समाजोपयोगी कार्यों के लिए विभिन्न आकार-प्रकार की स्थानीय, क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय स्तर की सभी संस्थाओं, संगठनों, संघीय स्वरूपों को परस्पर जोड़े रखती हैं. साहित्य, कला, संस्कृति आदि मानव-रुचि के विभिन्न क्षेत्रों में भी वे समाज के सक्रिय कार्यकत्र्ताओं, संगठनों, जनसमूहों के सहयोग द्वारा परस्पर संबंध बनाए रखती हैं. वे मनुष्य को यह संदेश देती हैं कि पारस्परिक सहयोग और सद्भाव मानवमात्र की आवश्यकता हैं तथा ऐसा कोई भी सुख और संतुष्टि नहीं है, जिसको इनके द्वारा प्राप्त कर पाना असंभव हो. और समाज के पास जो कुछ है, उसपर उसके प्रत्येक सदस्य का अधिकार है.

अराजकतावाद में चूंकि बाहरी सत्ता की पूरी तरह अनुपस्थिति होती है, इसलिए वहां सामाजिक अंर्तद्वंद्वों में खप रही ऊर्जा को अन्य उत्पादक कार्यों में लगा पाना संभव होता है, जिससे अपेक्षाकृत अधिक स्थायी सामाजिक संरचना जन्म लेती है तथा सामाजिक विकास को गति प्राप्त होती है. इस व्यवस्था में उत्पादन कार्य में लगे समूह, लोगों की रुचि एवं आवश्यकता को पहचानकर उत्पादन कर्म में हिस्सा लेते हैं, न कि लाभार्जन की वांछा से. उत्पादन प्रक्रिया में हिस्सा ले रहा व्यक्ति पूरे समाज के प्रति उत्तरदायी होता है, न कि किसी एक व्यक्ति के. एकाधिकारवाद और मनमानी के लिए अराजकतावादी समाज में कोई स्थान नहीं होता, इससे समाज पूंजीवादी समाज की बुराइयों से दूर बना रहता है. वहां उत्पादन के लाभ पर पूरे समूह का अधिकार होता है. चूंकि व्यक्तिमात्र स्वेच्छा और सहयोग भावना से उत्पादनकार्य में हिस्सा लेता है, इसलिए उसकी उत्पादकता अधिकतम होती है. उत्पादन समाज के निर्देशन और आवश्यकता के अनुरूप होने के कारण वहां स्पर्धा का लोप हो जाता है, इससे सामाजिक अंतद्र्वंद्वों में कमी आती है. व्यक्ति को कला, संस्कृति, नैतिकता, आदर्श आदि के मामले में विकास की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त करने के अवसर प्राप्त होते हैं. प्रत्येक व्यक्ति चूंकि नैतिकता और आत्मानुशासन की भावना से शेष समाज के प्रति कर्तव्यरत होता है, इसलिए वहां कानून, अदालत, पुलिस जैसी पूंजीवादी समाजों में सभ्यता का प्रतीक मानी जाने वाली व्यवस्थाएं अपनी प्रासंगिकता खोने लगती हैं. उनमें खप रही समाज की ऊर्जा एवं संपदा का उपयोग अन्य रचनात्मक कार्यों के लिए किया जा सकता है. नागरिकों का आपसी विश्वास बढ़ने से तीव्र सामाजिक विकास संभव होता है.

अराजकतावाद समाजवाद की पूरक विचारधारा है. उसकी आर्थिक नीतियां समाजवाद की आर्थिकी से मेल खाती है. भू-संपदा, संसाधनों पर निजी अधिकारिता तथा पूंजीवादी उत्पादन पद्धतियां अपने एकाधिकारवादी सोच के कारण सामाजिक न्याय की भावना के प्रतिकूल कार्य करती हैं. इससे समाज में विशेषाधिकार संपन्न वर्ग पनपने लगता है. परिणामस्वरूप नवीनतम तकनीक, शिक्षा एवं वैज्ञानिक शोधों का लाभ समाज के सीमित वर्गों तक सिमटकर रह जाता है. इससे धन का ऊपरी वर्गों की ओर संचरण होने लगता है. खुली स्पर्धा के अंतर्गत वे लाभ को अपने पक्ष में मोड़े रखते हैं. परिणामस्वरूप समाज में आर्थिक-सामाजिक स्तरीकरण बढ़ता है. अराजकतावादी विचारक मानते हैं कि श्रम एवं मजदूरी की आधुनिक पद्धतियां तथा राज्य के संरक्षण में बने उत्पादन के पूंजीवादी तरीके, समाज के सर्वांगीण विकास में बाधक हैं. इसलिए शक्ति के दम पर टिकी राजसत्ता येन-केन-प्रकारेण शक्तिशाली का ही पक्ष लेती है. इससे समाज में अन्याय की मात्रा बढ़ती है. वे यह भी मानते हैं कि राज्य अपने आरंभ से, अब तक भूमि पर सीमित व्यक्तियों के अधिकार को समर्थन देता रहा है. राज्य की अनुमति पर पूंजीवादी शक्तियां लाभ के बड़े हिस्से को पूंजी में बदलकर उसका उपयोग अपने लाभानुपात को और तीव्रता से बढ़ाने के लिए करती हैं. इसलिए भूमि और उत्पादन पर सीमित लोगों के अधिकार को समर्थन देने वाली सामंतवादी-पूंजीवादी व्यवस्थाओं के साथ-साथ अराजकतावाद को राज्य से भी जूझना पड़ता है, जो सामाजिक असमानताओं को जन्म देने वाली व्यवस्थाओं का पोषण-संरक्षण करता है. अराजकतावाद के लिए इस बात से अधिक अंतर नहीं पड़ता कि सत्ता का स्वरूप कैसा है. तानाशाही अथवा गणतंत्र?

अराजकतावादी विचारक मानते हैं कि सत्ता-शिखर पर विद्यमान लोगों के चरित्र में बहुत अधिक अंतर नहीं होता. राज्य का झुकाव केंद्र की ओर होता है. इसी विशेषता के चलते सुविधाभोगी अल्पसंख्यक लोगों के हाथों में असीमित अधिकार एवं शक्तियां सौंप देता है, जिसका उपयोग वे अपनी सत्ता को अक्षुण्ण रखने के लिए बहुसंख्यक वर्गों के अधिकार हनन के रूप में करते हैं. सत्ता-शिखर पर विराजमान अल्पसंख्यक वर्ग कानून के समर्थन द्वारा उत्पादन, यातायात, खनन, भूमि, बीमा, विपणन, व्यापार समेत आय के समस्त स्रोतों पर अपना अधिकार जमा लेता है. राज्य के संरक्षण में पलने वाला पूंजीवाद नौकरशाही को बढ़ावा देता है, जिससे केंद्रीय सत्ता निरंतर ताकतवर होती जाती है. इससे मुक्ति का एक ही उपाय है, शक्ति और अधिकारों का विकेंद्रीकरण. अतः अराजकतावाद सत्ता, शक्ति एवं अधिकारों के संपूर्ण विकेंद्रीकरण का पक्ष लेता है, ताकि आमजन की शासन में सहभागिता सुनिश्चित की जा सके. यह कतिपय सर्वाधिक पुराना और अकेला राजनीतिक दर्शन है, जो मनुष्य को उसकी चेतना से जोड़ता है. उसके अनुसार ईश्वर, राज्य, समाज जैसे पारंपरिक विश्वास जो अभी तक सामाजिक चेतना को निर्धारित करने वाले प्रमुख कारक रहे हैं, असल में ये बाहर से थोपी गई यथास्थितिवाद की पोषक-समर्थक और अनावश्यक व्यवस्थाएं हैं. नई सामाजिक संरचना का जन्म मनुष्य के स्वेच्छिक और सहयोगात्मक संगठनों के द्वारा ही संभव है.

अराजकतावाद आज का दर्शन नहीं है. भले ही मानवेतिहास में लंबा दौर ऐसा रहा हो जब इसको हेय और निंदात्मक दृष्टि से देखने वालों की खासी संख्या रही हो. लेकिन लगभग प्रत्येक युग और कालखंड में राजसत्ता और धर्मसत्ता समेत किसी भी प्रकार की सत्ता पर प्रश्न उठाने वाले लोग समाज में हुए हैं. भारतीय धर्मग्रंथों में सतयुग भले ही मिथकीय कल्पना हो, लेकिन उसमें भी ‘राज्यविहीन समाज’ की परिकल्पना की गई है. ‘वैराज’ अर्थात ‘बिना राजा का राज्य’ यहां सम्मानित शास्त्रीय परिकल्पना का हिस्सा रहा है. ऋग्वेद में कहा गया था—‘मनुर्भव! ‘मनुष्य बनो!’ ‘रामराज्य’ की परिकल्पना में भले ही ब्राह्मणवादी दृष्टि रही हो, किंतु इसके मूल में समानताधारित समाज की स्थापना का सपना निहित है. महाभारत तक आते-आते साम्राज्यवाद राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का रूप ले चुका था. लेकिन मनुष्य के प्रति आस्था उस समय में भी विद्यमान थी, तभी तो व्यास ने लिखा है—

इस सृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठतर कुछ भी नहीं है.’

अराजकतावाद यह शिक्षा देता है कि मनुष्य और समाज में इतना ही अंतर है जितना रक्त और धमनियों में. इमर्सन ने कहा था कि इस संसार में काम की एक ही चीज है. एक जीवंत आत्म, जो हर व्यक्ति में मौजूद होती है तथा हर वस्तु पर निगाह रखती है. आत्मरूप होने के कारण ही व्यक्तिमात्र महत्त्वपूर्ण है. अराजकतावाद संसार में एकता और अभिन्नता का संदेश देता है. चूंकि हर व्यक्ति आत्मरूप है, इसलिए सब एक हैं. सभी को समान अधिकार हैं. कोई छोटा है न बड़ा. इस कारण उनमें से किसी भी उपेक्षा संभव नहीं. अतएव आवश्यकता है कि प्रत्येक के कहे का सम्मान हो. प्रत्येक को अपने परिष्कार के बराबर अवसर प्राप्त हों. प्रत्येक के जीवन की महत्ता है. इसको तभी अक्षुण्ण रखा जा सकता है, जब कि उस पर समाज, राज्य, कानून आदि के न्यूनतम दबाव हों. रूसो ने कहा था—मनुष्य स्वतंत्र जन्मा है, पर हर जगह वह बेड़ियों में है. ये बेड़ियां मनुष्य ने कुछ अपने आप पैदा की हैं, कुछ उसी के स्वार्थी बंधु-बांधवों द्वारा पैदा की गई हैं. कुछ प्रसिद्ध बेड़ियों के नाम धर्म, राज्य, संपत्ति आदि हैं, जो मनुष्य की गुलामी के कारक हैं—

इनमें धर्म मानवमस्तिष्क का उपनिवेश है. संपत्ति मानवीय आवश्यकताओं की उपनिवेश है. इसी प्रकार सरकार मानवीय व्यवहार की उपनिवेश है—ये सब मिलकर मानवीय दासता और उसके लिए अन्यान्य डरों का कारण बनते हैं. यहां एक प्रश्न सहज ही उपस्थित हो जाता है कि धर्म! आखिर किस प्रकार यह मानवमस्तिष्क को नियंत्रित करता है? किस तरह से यह आत्मा के उत्पीड़न तथा उसकी अवमानना का कारण बनता है? धर्म कहता है—जो भी है, ईश्वर है, मनुष्य कुछ भी नहीं.’ जबकि इसी ‘नाकुछसे इंसान’ के बल पर ईश्वर ने इस अनाचारी, निरंकुश, कठोर, निर्दयी, आतंककारी, अनमेल सृष्टि की रचना की है. सच तो यह है कि उदासी, आंसू और रक्त मिलकर इस संसार को तब से अनुशासित करते आए हैं, जब से ईश्वर का जन्म हुआ है.’

संपत्ति जो मानवीय आवश्यकताओं का उपनिवेश है, वह मनुष्य के असंतोष को विस्तार देती है. वह कुछ मनुष्यों को यह हौसला भी देती है कि वे दूसरों के सुख की कीमत पर अपने असंतोष का दायरा बढ़ाते रहें. यह हमेशा नहीं था. प्रारंभ में जब सभ्यता का इतना विकास नहीं हुआ था, मानव जीवन पूरी तरह प्रकृति-आश्रित था, तब वह संपत्ति और संसाधनों का भोग करते समय यह ध्यान रखता था कि वे उसके अपने न होकर प्रकृति-प्रदत्त हैं. इसलिए वह प्रकृति के प्रति एक सम्मानभाव से भरा रहता था. अपने साथ वह दूसरों की आवश्यकताओं की चिंता भी करता था. उल्लेखनीय है कि मानवमात्र की कुछ न कुछ आध्यात्मिक जिज्ञासा होती है. धर्म इसी विश्वास को जमीन देता है. सभी व्यक्ति कैसे एक ही आध्यात्मिक विश्वास की ओर प्रेरित हों, कैसे उस जमीन पर संगठित होकर खड़े रहें. इसके लिए धर्म को नैतिकता से जोड़ा गया. चूंकि विराट वसुंधरा पर मनुष्य की चिंताएं एक समान हैं, उनका संघर्ष, सपने और समस्याएं एक हैं, इसलिए विभिन्न धर्मों के आध्यात्मिक विश्वास चाहे जो हों, उनकी नैतिक मान्यताएं आपस में इतनी मेल खाती हैं कि इस आधार पर उनकी पहचान कर पाना अंसभव-सा है. कालांतर में सत्ता और संसाधनों पर कब्जे की होड़ में मनुष्यों के अतिमहत्त्वाकांक्षी वर्ग ने प्रकृतिजन्य वस्तुओं पर भी अपना अधिकार जमाना आरंभ कर दिया. इससे अव्यवस्था फैली, जिसको नियंत्रित करने के लिए कानून, पुलिस, न्यायालय आदि बनाए गए. अराजकतावाद मनुष्य को वही नैसर्गिक परिवेश प्रदान करने के लिए संकल्पबद्ध है. यह मनुष्य की अपनी खोज है जो शताब्दियों लंबी सभ्यता की यात्रा में कहीं गुम हो चुकी है. यह मनुष्य द्वारा अपने व्यक्तित्व को संपूर्णता प्रदान करने का प्रयास है.

अराजकतावाद का पक्ष लेते हुए एम्मा गोल्डमेन ने लिखा है कि संपूर्ण मानवीय व्यक्ति उसी समाज और राज्य में संभव है जो उसको अपने कार्य का चयन, उसकी परिस्थितियों का निर्धारण करने की खुली छूट देता हो. तभी व्यक्ति अपने काम का आनंद ले सकेगा. तभी उसकी अधिकतम उत्पादकता संभव है. यह मुमकिन है उस समय उसकी आर्थिक उपलब्धियां कम रह जाएं. पर उसके माध्यम से जो सामाजिक लाभ होंगे, उनके आगे मौद्रिक लाभ गौण पड़ जाएंगे. इसलिए कि सरकार और शासन मनुष्य को बांधते हैं. वहां व्यक्ति की आवश्यकताओं और भावनाओं को एक ही तराजू पर तौला जाता है; तथा मौद्रिक आमदनी के आधार पर मनुष्य के सुख के स्तर की परिकल्पना कर ली जाती है. ऐसी सुविधाओं और स्पर्धाओं से घिरा मनुष्य कितना एकाकी, निरीह और बेबस होता है, इसका आकलन करने अथवा इसपर अंकुश लगाने के लिए कोई कानून दुनिया के किसी भी देश में आज तक नहीं बन पाया है. निरंकुश व्यवहार हर शीर्षस्थ शक्ति का लक्षण है, शायद इसलिए इमर्सन ने कहा था—

सरकार चाहे किसी भी प्रकार की हो, मूलतः तानाशाही का प्रतीक होती है. यह सवाल पूरी तरह अर्थहीन है कि वह सरकार दैवीय अधिकार द्वारा संचालित है अथवा बहुमत के आधार पर. प्रत्येक परिस्थिति में उसका एक ही उद्देश्य होता है, व्यक्तिमात्र को पूरी तरह अपने अधीन बना लेना.’

आधुनिक युग में भी अराजकतावादी विचारकों की लंबी शृंखला रही है. हेनरी डेविड रूसो, बट्रेंड रसेल, पीटर क्रोप्टोकिन, थोरो, महात्मा गांधी जैसे विचारक राज्य की मनमानी से आहत होकर स्वतंत्र, विवेकवान, स्वअनुशासित समाज की स्थापना पर जोर देते रहे हैं. थोरो ने सरकार की आलोचना करते हुए कहा था कि प्राचीनकाल से आज तक सरकार सिर्फ अपनी समृद्धि, शक्तिसंपन्नता और सफलता पर जोर देती रही है. हर बार उसकी निष्ठा को संदेहजनक पाया गया है. नियम कभी भी मनुष्य को श्रेष्ठ नागरिक नहीं बनाता. कानून के प्रति सम्मान दर्शाता हुआ व्यक्ति अनायास ही अन्याय की ओर मुड़ जाता है. किसी विद्वान की उक्ति याद आती है. कानून की निस्सारता और उसकी असफलता के बारे में उसका कहना था—

दुनिया के सभी कानून व्यर्थ हैं. इसलिए कि बुरा आदमी उनसे सुधर नहीं पाता और भले को उसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ती.’

यह मानते हुए कि सत्तामद में शीर्षस्थ शक्तियां सदैव अकसर अधिकारों का उल्लंघन करने लगती हैं, राज्य की आलोचना करने वाले विद्वानों की संख्या खासी रही है. लियो टॉल्सटाय जैसे महान लेखक, विचारक और महात्मा गांधी जैसे नेता अराजकतावाद के समर्थक रहे हैं. टॉल्सटाय द्वारा महात्मा गांधी को लिखित पत्र ‘लेटर टू ए हिंदू’, जिसने उन्हें सत्याग्रह के लिए प्रेरित किया, पर फ्रांसिसी कवि ला बूइटी का प्रभाव था. उनीसवीं शताब्दी का महान अमेरिकी विचारक-दार्शनिक हेनरी डेविड थोरो राज्यसत्ता के पर कतर देने के पक्ष में था. उसका मानना था—

सरकार वही सर्वोत्तम है जो बिलकुल भी शासन नहीं करती.

थोरो का ‘सिविल नाफरमानी’ का विचार ही आगे चलकर ‘सत्याग्रह’ के रूप में विकसित हुआ था. महात्मा गांधी की ग्राम-स्वराज्य की परिकल्पना भी राज्य की भूमिका को कमतर करने की कोशिश थी. हालांकि भारत में उसको अपेक्षित महत्त्व कभी मिल ही नहीं पाया.

कहा जा सकता है कि अराजकतावाद का लक्ष्य मस्तिष्क को धर्म की अधीनता से, शरीर को संपत्ति की गुलामी से तथा उसकी मानव-स्वातंत्रय को सरकार की हड़कड़ियों, बेड़ियों और अन्यान्य बंधनों से मुक्त कराना है. इस लक्ष्य को पाने के लिए वह नागरिक चेतना का पक्ष लेता है. यह मनुष्य के स्वेच्छिक समूहों के गठन के प्रति आग्रहशील होता है, जो समाजकल्याण की व्यापक लक्ष्य के लिए समूहबद्ध होते हैं. यह मानते हुए कि मनुष्य स्वतंत्र जन्मा है तथा उसको अपनी रुचि के अनुरूप सुखोभोग के सभी अधिकार प्राप्त हैं. इसलिए आवश्यक है कि उसपर न्यूनतम नियंत्रण हों. इसके लिए प्रूधों ने ‘सरकार रहित राज्य’ की अवधारणा प्रस्तुत की थी, जिसके लिए उसने ‘अ-राजकता’ शब्द का उपयोग किया. उसने साम्यवाद का यह कहकर विरोध किया था कि उसमें वैचारिक दुराग्रह के चलते पूरे समाज को मठों और छावनियों में बदल दिया जाता है. वह राज्याश्रित समाजवाद का भी विरोधी था, जिसका समर्थन उसके समकालीन लुइस ब्लेंक जैसे विचारक कर रहे थे. ‘संपत्ति चोरी है’ उक्ति से प्रूधों का आशय था कि संपत्ति अधिकारिता से जुड़े रोमन कानून संपत्ति पर अल्पसंख्यक वर्ग के अधिकार को मान्यता देते आए हैं. यानी धर्म समाज में व्याप्त आर्थिक विभाजन को न केवल मान्यता देता है, बल्कि पाप-पुण्य, पुनर्जन्म की अपनी व्याख्याओं के आधार पर उसको तार्किक भी ठहराता है. लेकिन इससे मुक्ति कैसे संभव हो? कैसे धार्मिक पाखंड से समाज की रक्षा की जाए, अपने समकालीन विचारकों की भांति प्रूधों के समक्ष भी यह चुनौती थी. मार्क्स ने श्रमिक समूहों का आवाह्न किया कि वे संगठित विरोध द्वारा उत्पादन-तंत्र को अपने अधिकार में ले लें. प्रूधों नहीं चाहता था कि जमींदारों, खान मालिकों, कारखानेदारों आदि को बेदखल करने के लिए हिंसा का उपयोग किया जाए. हिंसा किसी भी मुक्त समाज के लिए वरेण्य नहीं है, इसलिए उसने उस राज्यसत्ता की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किए जो ऊंच-नीच और आर्थिक विषमता को अधिमान्य ठहराती है. उसने संपत्ति पर सामूहिक अधिकारिता के विचार का समर्थन किया जो उन दिनों समाजवादियों की प्रमुख मांग थी.

समाज के संसाधनों को सामूहिक अधिकारिता की परिधि में कैसे लाया जा सकता है? संपत्ति को लाभ की अवधारणा से मुक्त करके यह संभव है—प्रूधों का सुझाव था. बैंकों में जो धनराशि हो, वह पूरी तरह ब्याजमुक्त रहे. अपना प्रशासनिक खर्च निकालने के लिए बैंक अधिक से अधिक एक प्रतिशत वार्षिक ब्याज ले सकते हैं. इससे बैंकों से ऋण प्राप्त करना सुविधाजनक होगा. इसके लिए उसने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का सुझाव देते हुए आपसी सहमति के सिद्धांत का पक्ष लिया था. यही व्यवस्था अन्य उद्योगों, काम-धंधों के लिए भी संभव है. लाभ की कामना से मुक्ति के लिए आवश्यक है कि उत्पादन में जुडे़ समूह अपने उत्पाद का विपणन न कर, आपसी समझौते के आधार पर आदान-प्रदान की नीति को अपनाएं. जिसके पास जो वस्तु अपनी आवश्यकता से अधिक है, वह अपनी जरूरत की अन्य वस्तुओं के आधार पर उनका दूसरे उत्पादक समूहों के साथ आदान-प्रदान करे. आदान-प्रदान का स्वरूप तय करने के लिए प्रत्येक वस्तु में लगे श्रम को कार्यघंटों में बांट दिया जाए. उन्हीं श्रमघंटों के आधार पर लोग अपनी आवश्यकता की वस्तुओं का लेन-देन करें. पारस्परिक सहमति की इस व्यवस्था में सभी सेवाओं को बराबर आंका जाएगा.

प्रूधों का विश्वास था कि समाज में धन को अत्यधिक महत्त्व मिलने से लोगों में उसको अतिरिक्तरूप से अर्जित करने की चाहत पैदा होती है. इससे समाज में स्पर्धा बढ़ती है तथा मुनाफाखोरी भी. धन को लाभ की वांछा से मुक्त कर दिए जाने से समाज में उसका महत्त्व घटेगा, जिससे आर्थिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त कर पाना आसान होगा. इस आधार पर गठित समाज में राज्य की भूमिका गौण होगी. संबंध पारस्परिक सहयोग और सद्भावना पर आधारित होंगे. क्या ऐसा समाज विवादों और आपसी अंतद्र्वंद्वों से सर्वथा मुक्त होगा? प्रूधों का मानना था कि मानवीय कमजोरियां वहां भी होंगी. इसके समाधान हेतु उसका सुझाव था कि अराजकतावाद पर आधारित समाज में विवादों का निपटान आपसी समझौते के आधार पर किया जाएगा. परस्पर समर्पित, स्पर्धाविहीन समाज में पुलिस, कानून, न्यायालय आदि की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. अराजकतावाद के प्रति पू्रधों की निष्ठा उसकी पुस्तक ‘व्हा॓ट इज प्रापर्टी’ के इस संवाद से समझी जा सकती है—

 

क्यों, आप यह सवाल कैसे कर सकते हैं? आप तो गणतंत्रसमर्थक हैं.’

गणतंत्र समर्थक, ठीक है, लेकिन इस शब्द से कुछ साफ नहीं होता. ‘रिपब्लिक’ यानी ‘रेस पब्लिका’ के मायने हैं, जनता से संबंधित मुद्दा. ऐसा कोई मसला जिसका लोकहित से सचमुच संबंध हो, वह न तो इस शब्द की सीमा में आता है, न उस सरकार के जो स्वयं के ‘रिपब्लिकन’ होने का दावा करती है. इस शब्दार्थ के अनुसार तो एक तानाशाह सम्राट भी स्वयं को गणतंत्रवादी कह सकता है.’

समझ गया, तुम प्रजातंत्र समर्थक हो?’

नहीं.’

क्या! क्या तुम्हारा विश्वास राजशाही में है?’

यह भी नहीं.’

संविधानवादी हो?’

भगवान माफ करे!’

अच्छा! तब तुम जरूर कुलीनतंत्र में विश्वास करते होगे?

कतई नहीं.’

क्या तुम चाहते हो कि मिलीजुली बने?

इससे भी कम.’

तुम आखिर चाहते क्या हो?’

मैं अराजकतावादी हूं.’

अराजकतावादी! तुम अवश्य ही परिहास रहे हो. वरना यह तो सरकार पर प्रहार करने जैसा है.’

कदापि नहीं! मैंने बस वही कहा है जो मैं एक मनुष्य के रूप में सोचता रहा हूं. मैं अनुशासन का कट्टर समर्थक हूं, लेकिन कुल मिलाकर हूं एक अराजकतावादी ही.’

प्रूधों के बाद अराजकतावाद की सैद्धांतिकी को आगे बढ़ाने वाले विद्वानों-आंदोलनकारियों में महत्त्वपूर्ण नाम है—मिखाइल बकुनिन(30 मई, 1814—1 जुलाई, 1876) का. मार्क्स के समकालीन बकुनिन की उससे कई मुद्दों में गहरी असहमति थी. हालांकि दोनों ही पूंजीवाद और साम्राज्यवाद से मुक्ति चाहते थे. दोनों का ही रुझान समाजवाद की ओर था. दोनों ने ही फ्रांस की समाजवादी क्रांति में हिस्सा लिया था. प्रथम इंटरनेशनल की बैठक के दौरान उनके मतभेद खुलकर सामने आए थे, जो प्रकारांतर में उसकी असफलता का कारण भी बने. मार्क्स जहां श्रमिक वर्ग की अधिसत्ता में विश्वास रखता था, वहीं बकुनिन किसी भी प्रकार की सत्ता को मनुष्यता के लिए घातक मानता था, इसलिए उसने अराजकतावाद का समर्थन किया, किंतु मार्क्स की बौद्धिक प्रतिष्ठा के आगे बकुनिन के विचार अपना अपेक्षित प्रभाव न छोड़ सके. अपने अतिसक्रिय जीवन में उसने श्रमिकों और दासों की मुक्ति के लिए एक गोपनीय संगठन ‘इंटरनेशनल ब्रदरहुड’ का गठन किया था, जिसमें फ्रांस, इटली, स्केंडनेविया, स्वीडन, नार्वे, डेनमार्क, बेल्जियम, इंग्लेंड, स्पेन, पोलेंड, रूस आदि देशों के दास और श्रमिकसंगठन सम्मिलित थे. वह राजसत्ता की भांति धर्मसत्ता को भी मनुष्य की पराधीनता का कारण मानता था. अपने निबंध ‘केटकिज्म आफ ए रिवोल्युशनरी’ में उसने धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों का यह कहकर विरोध किया था कि—

किसी भी प्रकार की सत्ता के किसी भी रूप, जिसमें राज्य की सुविधा के नाम पर नागरिकों की स्वतंत्रता न्योछावर करा ली जाती है, का संपूर्ण निषेध.’

बकुनिन की आस्था समाजवाद में थी, किंतु समाजवाद की संरचना किसी गुलाम समाज में संभव नहीं, ऐसे समाज में भी वह असंभव है, जहां अभिव्यक्ति के अधिकार को बाधित किया जाता है. इसलिए बकुनिन स्वाधीनता के बगैर समाजवाद को दिवास्वप्न मानता था. उसका कहना था कि—

बगैर समाजवाद स्वाधीनता कुछ लोगों का विशेषाधिकार और अन्याय है, जबकि समाजवाद के बिना स्वाधीनता दासता और पाशविकता.’

मिखाइल बकुनिन ने श्रमिकों का आवाह्न किया था कि वे अपने उत्पादन संगठन बनाएं तथा उत्पादन कार्य को अपने हाथ में ले लें. उत्पादन, शिक्षा, अर्जन, भोजन, आवास आदि के साधन सामूहिक होने चाहिए. प्रत्येक बालक को चाहे वह लड़का हो अथवा लड़की, भोजन, वस्त्र, शिक्षा, आदि के समान अवसर प्राप्त होने चाहिए. बड़ा होने पर उसको अपनी रुचि का व्यवसाय चुनने, सम्मानजनक ढंग से आजीविका कमाने का अवसर मिले, ताकि वह अपनी स्वाधीनता और श्रम का भरपूर आनंद ले सके. कुछ अराजकतावादी स्वाधीनता को समानता की अपेक्षा अधिक महत्त्व देते थे. यहां तक कि स्वाधीनता के पक्ष में वे समानता के लक्ष्य को टालने के भी समर्थक थे. बेंजामिन टुकर ने कहा था कि समानता हमें चाहिए—

यदि हम इसको प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन स्वाधीनता हमें किसी भी कीमत पर चाहिए.’

समानता सहकारिता का अभीष्ठ है. सहकारी समूह अपने सदस्यों के बीच हर तरह की समानता का पक्ष लेता है. स्वाधीनता के अभाव में स्वैच्छिक सहयोग असंभव है. इसलिए अजारकतावादी का सहकार एवं समाजवाद का समन्वित रूप था. मार्क्स के साम्यवाद से थोड़ा अलग. हालांकि दोनों का ही लक्ष्य राजनीति और अर्थव्यवस्था को समाजवादी भावना के अनुरूप ढालना था. उसके सिद्धांत को ‘सांगठनिक अराजकतावाद’ कहा जाता है.

अराजकतावाद के सिद्धांत के आधार पर किसी प्रथक राज्य का गठन तो नहीं हो सका, तो भी उनीसवीं शताब्दी के बाद से ही यह यह दर्शन परिवर्तनकामी विचारकों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों को आकर्षित करता रहा है. विलियम थांपसन, मिखाइल बकुनिन, लियो टाल्सटाय, जॉन ग्रे, जे. एफ. फ्रे. जोसीह वारेन, एडवर्ड कारपेंटर, फ्रैड्रिक नीत्शे, जॉन स्टुअर्ट मिल, लार्ड गैरीसन, हेनरी डेविड थोरो, एम्मा गोल्डमेन, स्पेंसर, पीटर क्रोप्टकिन, नोम चामस्की, महात्मा गांधी, भगत सिंह आदि उनीसवीं-बीसवीं शताब्दी के अनेक महत्त्वपूर्ण विचारक, नेता, साहित्यकार अराजकतावाद का समर्थन करते आए हैं. अराजकतावाद का पूरक सिद्धांत ‘स्वाधीनतावाद’ तो बीसवीं शताब्दी के प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण लेखकों, साहित्यकारों का सर्वाधिक पसंदीदा विषय रहा है.

इकीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में अराजकतावाद ने अपने पंख फैलाए हैं. इन दिनों विश्व का सबसे बड़ा अराजकतावादी आंदोलन स्पेन में चल रहा है. वहां ‘नेशनल कन्फेडरेशन आ॓फ लेबर’(1910) तथा ‘जनरल कन्फेडरेशन आफ लेबर(1979) नामक अराजकतावाद समर्थकों के दो बड़े संगठन हैं. इनमें नेशनल कन्फेडरेशन आ॓फ लेबर के सदस्यों की संख्या लगभग 50000 है, जबकि दूसरे संगठन की सदस्य संख्या 2003 में 1 लाख से ऊपर थी. इसके अलावा अमेरिका, फ्रांस, इटली आदि देशों में भी अराजकतावाद के समर्थक विचारकों, लेखकों, संगठनों की अच्छी-खासी संख्या है. आदर्श के सर्वाधिक निकट होने के बावजूद अराजकतावाद विश्व-समाज में अपना सम्मानजनक स्थान बना पाने में असमर्थ रहा है. इसका कारण यह हो सकता है कि सहस्राब्दियों से राजशाही, सामंतवाद तथा अन्यान्य व्यवस्थाओं के अनुशासन में स्वयं को ढालने में अभ्यस्त हो चुका जनसमाज, बिना सत्ता के राज्य की कल्पना ही नहीं कर सकता. ऐसे लोगों के लिए अराजकता आज भी नकारात्मक स्थिति है. दूसरे धर्म के सामंती ढांचे में बंधे समाजों की मानसिकता समर्पण की होती है, जो आत्मचेतित समाज के राजदर्शन ‘अराजकतावाद’ के विरुद्ध जाती है. इसलिए अराजकतावाद को यदि जनमानस में अपनी व्यापक पैठ बनानी है तो उसको बड़े स्तर पर लोक-प्रबोधीकरण का आंदोलन खड़ा करना होगा, जो मनुष्य के उपभोक्ताकरण जिसमें पूंजीवाद के प्राण बसते हैं—के सर्वथा विरुद्ध है.

© ओमप्रकाश कश्यप