बालसाहित्य का विकासयुग : साहित्य में बचपन की दस्तक

हिंदी बालसाहित्य : अतीत से आज तक—3

विश्व इतिहास में अठारवीं शताब्दी को विभिन्न वैचारिक आंदोलनों की जन्मदाता होने का श्रेय प्राप्त है. मगर भारत के संदर्भ में यह शताब्दी करीबकरीब ठहरा हुआ समय था. मुगल समाज पतनोन्मुखी था. रजबाड़ों में विलासिता का दौर जारी जारी था. भक्त कवियों ने जिस सामाजिक क्रांति का शुभारंभ किया था, वह कर्मकांडों और बौद्धिक हताशा के दौर में पड़कर दम तोड़ चुकी थी. यही कारण है कि इस कालखंड में जो विदेशी व्यापार कंपनियां भारत में आईं, स्थानीय राजाओं की आपसी फूट और राजसी लिप्साओं के कारण वे यहां बड़ी आसानी से राजनीतिक शक्ति बटोरती चली गईं. निहित स्वार्थ के लिए उन्होंने भारतीय साहित्य का अध्ययनशोधन करना आरंभ किया. कालांतर में उसका लाभ देशवासियों को भी हुआ. यूरोपीय ज्ञानविज्ञान और संस्कृतियों के लेनदेन के बीच नए विचारों ने देश में दस्तक दी. इससे साहित्यसंस्कृति में नया युग आरंभ हुआ. यूरोप के संदर्भ में यह पंद्रहवीं शताब्दी से शुरू होता है. उस संधिकाल का एक पक्ष वैज्ञानिक प्रबोधन की घटना से जुड़ा है, जब एक ओर मार्टिन लूथर, जान काल्विन जैसे सुधारवादी विचारक धर्म के नाम पर फैलाई जा रही जड़ता और पुरोहितवर्ग की लूटखसोट की ओर ध्यानाकर्षित करा रहे थे. दूसरी ओर वैज्ञानिकों और मौलिक विचारकों का वर्ग था जो लोगों को अज्ञानता के दलदल से निकालने की कोशिश कर रहे थे. वैज्ञानिकों में न्यूटन और कापरनिकस सबसे अग्रणी थे. उन्होंने अपने मौलिक खोजों द्वारा उन्होंने अर्से से चली आ रही अवैज्ञानिक मान्यताओं, रूढ़ियों तथा अज्ञानता के प्रतीकों पर जोरदार प्रहार किया था. प्रौद्योगिकीय क्रांति ने अनेक सामाजिक समस्याएं भी पैदा की थीं. जिसने दार्शनिकों, समाजविज्ञानियों को नए सिरे से सोचने को विवश कर दिया था. कालांतर में मानवाधिकार एवं स्वाधीनतावादी आंदोलनों ने समाज में एक नई चेतना प्रवाहित की. इसी दौर में स्त्रीस्वातंत्रय की बयार चली. प्रकारांतर में उसने बालकों के अधिकारों की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया.

साहित्य भूमि पर बचपन की दस्तक शब्दों में मासूमियत की दस्तक है. यह उस क्षण की खोज है जब से बालक की स्वतंत्र अस्मिता को पहचानने का चलन शुरू हुआ. उस अवसर की खोज है जब यह माना जाने लगा कि बालक स्वतंत्र नागरिक है तथा बच्चों की सक्रिय मौजूदगी के अभाव में कोई रचना उनपर थोपी हुई रचना कही जानी चाहिए. प्राचीन भारतीय वाङमय यथा स्मृतियों, ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों आदि में इसपर विस्तार से चर्चा है. उपनिषद का तो मतलब ही गुरु के आगे बैठकर ज्ञानार्जन करना है. वेदउपनिषदादि में एकलव्य, नचिकेता, उपमन्यु, ध्रुव, अभिमन्यु, आरुणि उद्दालक आदि उदात्त बालचरित्रों का वर्णन हैं. उनमें दर्शन है, गुरुभक्ति है, त्याग है, समर्पण है, प्रेम और श्रद्धा भी है. सूरदास ने कृष्ण की बाललीलाओं का ऐसा मनोरम वर्णन किया है जिसका उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है. लेकिन सब बड़ांे द्वारा, बड़ों के बड़े उद्देश्य साधने के निमित्त किया गया साहित्यिक आयोजन था. बचपन का मुक्त उल्लास वहां अनुपस्थित है. लेकिन यह भी स्मरण रखने योग्य है कि बच्चों की शिक्षा को लेकर तो मनुष्य सभ्यता के आरंभ से ही सजग था, परंतु बचपन पर वास्तविक विमर्श काफी विलंब से आरंभ हो सकता. यह वस्तुतः बीसवीं शताब्दी के मध्याह्न की घटना है. वह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शुरू हुई द्वितीय औद्योगिक क्रांति की सफलता का चमचमाता हुआ दौर था. दूसरा विश्वयुद्ध ही अपने आप में चुनौतीर्पूण समय था.

पश्चिम में स्वतंत्र बालसाहित्य की आवश्यकता पंद्रहवी शताब्दी में ही अनुभव की जाने लगी थी. यूनानी साहित्य में बचपन को महत्त्व दिए जाने का प्रथम प्रयास हमें प्लेटो के लेखन से दिखाई पड़ता है. सुकरात का अपना लिखा तो कुछ नहीं मिलता, लेकिन प्लेटो ने सुकरात के विचारों को अपनी संवाद पुस्तकों ‘सीता,’ पर जो लिखा लेकर जो लिखा है, उससे स्पष्ट है कि गुरुशिष्य दोनों ही बच्चों की शिक्षा को पर्याप्त महत्त्व देते थे. किंचित विरोधाभास के बावजूद प्लेटो का शिक्षादर्शन पर्याप्त आधुनिक और अभिनव संभावनाओं से युक्त है. वह पहला विचारक था जिसने स्त्रियों की शिक्षा पर बराबर जोर दिया, खासकर ऐसे समय में जब उसके समकालीन विचारकों में से अधिकांश स्त्रियों को घर की चारदीवारी से बाहर कोई जिम्मेदारी देने को तैयार न थे. उसने सुझाव दिया था कि पूरा शिक्षातंत्र किसी कुशल पर्यवेक्षक की देखरेख में संचालित होना चाहिए. ऐसा व्यक्ति जो शिक्षा से जुड़े समस्त मामलों की विशद जानकारी रखता हो तथा जो समाज के सभी वर्गों, स्त्री, पुरुष आदि के बीच बिना किसी भेदभाव के शिक्षा का प्रसार कर सके. उल्लेखनीय है लोकतांत्रिक पद्धति के आलोचक रहे प्लेटो ने राज्य की बागडोर दार्शनिक मंडल के हाथों में सौंपने का सुझाव दिया था. यह पूछे जाने पर शिक्षा का लाभ क्या है, प्लेटो संवाद पुस्तक ‘लाज’ में एक एथेंसवासी के माध्यम से स्पष्ट करता है—‘यदि तुम यह जानना चाहते हो कि शिक्षा का सामान्य लाभ क्या है, तो इसका उत्तर बहुत आसान है—शिक्षा मनुष्य को सद्गुणसंपन्न करती है; और सद्गुणसंपन्न व्यक्ति विनम्रतापूर्ण व्यवहार करता है. अपनी विनम्रता के बल पर वह युद्ध में अपने शत्रुओं का दिल भी जीत लेता है.’

शिक्षा के लिए विद्यार्थी की उम्र कितनी हो? इस बारे में वह लिखता है कि बालक की शिक्षा का शुभारंभ यथासंभव न्यूनतम उम्र से कर देना चाहिए. यदि संभव हो तो उसके जन्म से अथवा उसके पहले से ही. उसके अनुसार शिक्षा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा ही वह है, जो बचपन में सिखाया जाता है—इसलिए अभिभावक वर्ग का दायित्व है कि वह शिशु की शिक्षा का अनुकूल प्रबंध करे. ताकि बड़ा होने पर वह अपने कार्य में पूरी दक्षता प्राप्त कर सके. प्लेटो के अनुसार शिक्षा कभी समाप्त न होने वाला कर्म है. उसके लिए उम्र की कोई सीमा नहीं है. इसलिए बालक को जहां तक संभव हो, जन्म से ही शिक्षा के लिए तैयार किया जाना चाहिए. वह बच्चों को जन्म से ही राज्य के संरक्षण में रखने और पूर्व निर्धारित मापदंडों के अनुसार उनका पालनपोषण करने का सुझाव देता है. वह मानता है कि शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर तथा हृष्टपुष्ट बच्चों का लालनपालन अलगअलग समूहों में होना चाहिए. कठोर निर्णय लेते हुए वह अःशक्त एवं अपंग बच्चों को अज्ञात स्थान पर रखने का सुझाव देता है. वह मातापिता को अपने बच्चों के साथ संतुलित व्यवहार करने का परामर्श देता है. उपेक्षा एवं असंतुलित व्यवहार से बालक मानसिक रूप से कमजोर रह सकता है. वह लिखता है—

बच्चों की उपेक्षा उन्हें मानसिक रूप से चिड़चिड़ा, कमजोर तथा अधैर्यवान बना सकती है, उनके साथ दोषपूर्ण व्यवहार तथा अज्ञानतापूर्ण जोरजबरदस्ती, मारपीट उन्हें कठोर, चापलूस, संकोची एवं एकांतजीवी बनाएगी. प्रकारांतर में वे सामान्य पारिवारिक और नागरिक जीवन जीने के अयोग्य हो सकते हैं.’

प्लेटो के बाद अरस्तु ने भी बच्चों की शिक्षा पर जोर दिया. उसका कहना था कि शिक्षा मनुष्य लिए शिक्षा मनुष्य को नैतिक बनाए रखने के लिए अनिवार्य है. प्लेटो के अनुसार राजनीति प्रकटतः शिक्षा कार्यक्रम का हिस्सा थी. इसलिए उसने अकादमिक ज्ञान के बजाय व्यावहारिक ज्ञान पर ज्यादा जोर दिया, ‘पढ़नालिखना बच्चों को इसलिए नहीं सिखाया जाना चाहिए कि वह उपयोगी है, प्रत्युत इसलिए भी सिखाएं जाने चाहिए कि उसके द्वारा ज्ञान की अन्य बहुतसी शाखाएं प्राप्त करना संभव है….बच्चों को पढ़ाने के लिए विवेक से पहले अभ्यास का उपयोग करना चाहिए तथा बुद्धि से पहले शरीर को शिक्षित करना चाहिए.’3 अरस्तु के अनुसार शिक्षा का काम नागरिकों के मन में आवश्यक सद्गुणों का संचार करना है, ताकि वे समाज हित में आवश्यक कर्तव्यों को बेहतर ढंग से अंजाम दे सकें. प्लेटो और अरस्तु के शिक्षासंबंधी विचार शताब्दियों तक पश्चिमी समाज का नेतृत्व करते रहे. अरस्तु के करीब तेरह सौ वर्ष बाद उसके ज्ञानसिद्धांत को पहली चुनौती मिली पीटर अबेलार्ड के शब्दों में. उसने ज्ञान के आरंभिक लोकप्रचलित सिद्धांत कि ‘जो दिखता है, वह विश्वसनीय है’ सूत्रवाक्य को बदलते हुए उसने कहा कि ‘जो दिखता है, वह संद्धिग्ध है.’ उसका संकेत एकदम स्पष्ट था. अब तक चले आ रहे ज्ञान और उसपर विश्वास को एक झटके में धराशायी करते हुए ज्ञान की उपलब्ध विरासत पर संदेह करना और फिर पूरी तरह जांचपड़ताल के बाद सत्य का अवगाहन करना. वह अनूठा कविदार्शनिक था. संदेह से आगे बढ़ते ससंदेह को सम्मान देना. पीटर अबेलार्ड ने लिखा था—

संदेह होने पर हम जांचपड़ताल आरंभ करते हैं तथा जांचपड़ताल हमें सत्य तक पहंुचा देती है.’

पीटर अबलार्ड की इस उक्ति में जहां मानवीय जिज्ञासा को महत्त्व दिया गया था, वहीं मस्तिष्क की संभावनाओं और ज्ञान की शक्ति की ओर इशारा भी निहित था. इसमें एक आशावाद था. अबेलार्ड स्वयं आस्थावादी था. सत्य से उसका अभिप्राय ‘परमात्मा’ से ही था. तो भी परमात्मा की खोज के लिए संदेह को महत्त्व देकर उसने मानवीय जिज्ञासा की महत्ता को रेखांकित किया था. इसका परिणाम सोलहवीं और सतरहवीं शताब्दी में दो प्रमुख पुस्तकों के रूप में सामने आया, जो एक तरह से अबेलार्ड की संदेहवादी खोज का विस्तार थीं. ये पुस्तकें थीं ‘दि रिबोल्युनिबस आरबियम(1543)’ तथा ‘फिलास्फी नेचुरलिस प्रिंसिपिया मेथमैटिका(1687)’. लेखक थे क्रमशः निकोलस कापरनिकस और इसाक न्यूटन. महान खगोलविज्ञानी निकोलस कापरनिकस ने स्थापित किया था कि ब्रह्मांड का केंद्र पृथ्वी न होकर सूर्य है. उसने यह खोज अपने जीवन के आरंभिक दिनों में ही कर ली थी, लेकिन इस डर से कि उसकी खोज धार्मिक जगत में तहलका मचा सकती है, वह उसको वर्षों तक दबाए रखा था. अंततः जीवन के अंतिम दिनों में एक मित्र के आग्रह पर उसने पुस्तक की पांडुलिपि छपने को दे दी. पुस्तक जब बाजार में आई तब समाज में उसकी वही प्रतिक्रिया हुई, जैसा काॅपरनिकस ने कल्पना की थी. आखिरकार चर्च से क्षमाचायना करने के बाद ही बूढ़े काॅपरनिकस को जीवन के चंद दिन उधार मिल सके. न्यूटन ने काॅपरनिकस के निष्कर्षों से आगे बढ़ते हुए गुरुत्वबल की खोज की थी. उसके निष्कर्ष भी तत्कालीन धार्मिक मान्यताओं का विरुद्ध जाते थे, लेकिन उस समय तक यूरोपीय समाज काफी आगे आ चुका था. उसकी पुस्तक ‘प्रिंसिपिया मेथमैटिका’ को विज्ञान के क्षेत्र में अभी तक लिखी मौलिक पुस्तकों में श्रेष्ठतम का दर्जा दिया जाता है.

इन पुस्तकों का साहित्य से सीधा संबंध नहीं था. मनुष्य की शाश्वत ज्ञानपिपासा को रेखांकित करने वाली ये पुस्तकें मानवीय मेधा की अनूठी देन थीं. दर्शाती थीं कि केवल आध्यात्मिक जिज्ञासाएं नहीं, बल्कि भौतिक जगत को जाननेसमझने की ललक भी मनुष्य को अज्ञान के अंधेरे से बाहर ला सकती हैं. इन पुस्तकों के प्रकाशन के साथ ही समाज में नए ज्ञान की ललक पैदा हुई. जिससे वैज्ञानिक शोध को विस्तार मिला, जो कालांतर में औद्योगिक क्रांति का वाहक बना. वैज्ञानिक ज्ञान एवं औद्योगिकीकरण की ताकत को समय रहते पहचाना—फ्रांसिस बेकन ने. उसने लिखा कि आनेवाले दिनों में मनुष्यता का इतिहास मनुष्य की ज्ञान के प्रति ललक के आधार पर लिखा जाएगा. ‘ज्ञान ही शक्ति है’—बेकन का यह वाक्य वैज्ञानिक प्रबोधन की आधारशिला बन गया. हालांकि जड़ता में आकंठ डूबे समाज में उस समय भी ऐसे बहुत से लोग थे, जो नए ज्ञान के विरोध में जुटे थे. वे ज्ञान को अलौकिक और दिव्य मानते आए थे. उनका विचार था कि आध्यामिक जिज्ञासाएं ही मानवीय ज्ञान का मूल हैं. इसलिए बच्चों और बड़ों को दी जाने वाली शिक्षा केवल धर्म सीमित होती थी. इसी बोध के साथ बच्चों को धार्मिक प्रतीकों, कर्मकांडों, अवतारवाद, पूजापाठ और तंत्रमंत्र के बारे में अच्छी तरह रटा दिया जाता था. ज्ञान के नाम पर यह पोंगापंथी आचरण पीढ़ीदरपीढ़ी अंतरित होता था. उस व्यवस्था के साथ बालक का इस प्रकार अनुकूलन कर दिया जाता था कि वह उनपर शायद ही संदेह कर सके. सांस्कृतिकसामाजिक दबावों के बीच यही बोध पीढ़ीदरपीढ़ी अंतरित होता था. नए बोध के फलस्वरूप समाज के उपेक्षित वर्गों के बारे में नए सिरे से सोचा जाने लगा. अवसर का लाभ उठाते हुए स्त्रीस्वातंत्रयवादी आंदोलनों ने जोर पकड़ा, इसकी पहल का श्रेय फ्रांस को जाता है.

बच्चों के लिए विशेष रूप से लिखी गई पहली सचित्र पुस्तक जाॅन अमोस कामिनियस(1592—1670) की ‘आरिबस सेन्युलियम पिक्चस्(1657)’ थी, जिसका अभिप्राय है—‘चित्रों की दुनिया’. इस पुस्तक में बच्चों की रोजमर्रा की दुनिया की वस्तुओं को चित्रों के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया था. कामिनियस का मानना था कि मानवीय मस्तिष्क की सीमाएं अनंत होती हैं. उसने अरस्तु की इस बात से तो सहमति व्यक्त की थी कि मानवमस्तिष्क कोरी सलेट के समान होता है, जिसपर कुछ भी लिखा जा सकता है. मगर मस्तिष्क की सीमा को जड़ सलेट तक सीमित कर देने पर उसकी असहमति थी. मानवीय मस्तिष्क के विपुल सामर्थ्य का उल्लेख करते हुए अपनी पुस्तक ‘शिक्षण की संपूर्ण कला’ में उसने लिखा था—

यह ठीक है कि बच्चे का मस्तिष्क कोरी सलेट होता है, जिसपर हम मनचाही इबारत लिख सकते हैं. लेकिन एक अर्थ में यह उससे भी बढ़कर है. सलेट की सीमा होती है. हम उसपर उसके आकार से अधिक कोई इबारत लिख ही नहीं सकते. जबकि मानवमस्तिष्क अनंत क्षमतावान होता है. उसपर जितना चाहे लिखा जा सकता है, क्योंकि वह निस्सीम विस्तार है.’

कामिनयस का कहना था कि बच्चे स्वभावतः अच्छे होते हैं. इतने अच्छे कि उन्हें सद्गुणों की खान कहा जा सकता है. किंतु उनके व्यक्तित्व को निखारने के लिए शिक्षा अनिवार्य है. कामिनियस ने ये विचार उस समय और समाज में व्यक्त किए थे, जहां एक सर्वमान्य मान्यता थी कि पाप मनुष्य के साथ उसके जन्म से जुड़ा है. अतः पतित मनुष्य के त्राण हेतु शिक्षा (धार्मिक) अनिवार्य है. इस मान्यता के चलते तत्कालीन समाज में शिक्षा के नाम पर बलप्रयोग सामान्य बात थी. शिक्षाकर्म के जुड़े अधिकांश विचारक परंपरावादियों की ‘कर्मआचार संहिता’ से प्रभावित थे, जिसका संदेश था—‘कठिन परिश्रम, बुराई के विरुद्ध युद्ध में हथियार की तरह डटे रहना.’ इस खतरनाक और स्वार्थी अवधारणा के चलते अबोध बच्चों को तांबे और कोयला की खदानों, कारखानों, खेतों और कपड़ा मिलों में जोत दिया जाता था. उनसे ऐसे काम लिए जाते जिन्हें बड़े आदमी करने से कतराते थे. आर्थर वालेस काल्हों(1885—1979) ने अपनी पुस्तक ‘ए सोशल हिस्ट्री आफ अमेरिकन फेमिलीज’ में एक रोंगटे खड़े कर देने वाले तथ्य का खुलासा किया है. उसने लिखा है कि यूरोप से लेकर अमेरिका तक बालश्रम इतना आम था कि यूरोप से अपहृत बच्चों को कृषिमजदूर तथा उद्योग मजदूर के रूप में अमेरिका ले जाकर बेच दिया जाता था. वहां खतरनाक परिस्थितियों में बच्चों से अमानवीय परिस्थितियों में सोलहसतरह घंटे प्रतिदिन बिना किसी विश्राम के काम लिया जाता था. बदले में उन्हें मामूली मजदूरी दी जाती थी. बीमार होने पर उनके इलाज का भी कोई इंतजाम न था. भारत के हालात भी भिन्न न थे. यहां भी लोहे, तांबे और कोयले की खदानों में छोटेछोटे बच्चों से अमानवीय परिस्थितियों में काम लिया जाता था. बीमार होने पर उपचार की कोई व्यवस्था न थी. दम घुटने से होने वाली दुर्घटनाएं आम थीं.

कामिनियस ने जोर देकर कहा था कि न केवल अमीर और ताकतवर वर्ग के बच्चों, बल्कि गांवों, कस्बों, शहरों में रहने वाले अभिजात्य और सामान्य, गरीब और अमीर, झोपड़ियों और अट्टालिकाओं में रहने वाले सभी लड़केलड़कियों को शिक्षा के लिए अनिवार्यतः स्कूल जाना चाहिए. ये विचार तत्कालीन यूरोपीय समाज में क्रांतिकारी थे. ‘डाइडेक्टि मेग्ना’ को चतुर्दिक सराहना मिली और प्रायः सभी यूरोपीय भाषाओं में उसका अनुवाद किया गया. यह पुस्तक वर्षों तक कई यूरोपीय भाषाओं में सर्वाधिक बिकने वाली बनी रही. बच्चों के बीच शिक्षा को सरल एवं ग्राह्यः बनाने के लिए उसने सचित्र पुस्तक, आरबिस सेंसुलियम पिक्चस् (1658), जिसका अर्थ है—चित्रों की दुनिया, भी तैयार भी की थी. वह पुस्तक वास्तव में एक लघु ज्ञानकोश थी, जिसमें बच्चों के काम की जानकारी चित्रों के साथ प्रकाशित की गई थी. ‘आरबिस सेंसुलियम पिक्चस्’ को विश्व की पहली सचित्र पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है. काॅमिनियस द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में दिए गए योगदान के लिए यूरोपवासी उसको सम्मान के साथ ‘आधुनिक शिक्षा का पितामह’ कहकर बुलाते हैं. उसने जोर देकर कहा था कि शिक्षा पर हर बच्चे का अधिकार है, इसलिए यह राज्य का धर्म है कि वह प्रत्येक बच्चे के लिए शिक्षण की समुचित व्यवस्था करे—

न केवल संपन्न और शक्तिशाली वर्ग के बच्चों के लिए, बल्कि हर वर्ग के बच्चों को जैसे की लड़का और लड़की, गरीब और अमीर, सभ्रांत और असभ्रांत, शहर और कस्बे, गांव और बस्ती प्रत्येक बच्चे को शिक्षार्जन के लिए अनिवार्य रूप से स्कूल भेजा जाना चाहिए.’

बचपन के मनोविज्ञान को समझने की वास्तविक शुरुआत हुई सतरहवीं शताब्दी में. इसका श्रेय अनुभववादी दार्शनिक जान लाक(1632—1704) तथा स्वतंत्रतावादी विचारक रूसो को जाता है. अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एन ऐस्से आन ह्युमैन अंडरस्टेंडिंग’ में लाक ने प्लेटो की उस धारणा को चुनौती दी, जिसमें उसने कहा था कि पढ़ना असल में दिमाग में पहले से ही विद्यमान ज्ञानसंपदा को तरोताजा करने की प्रक्रिया है. इस बारे में अरस्तु का समर्थन करते हुए लाक ने बच्चों के मस्तिष्क को ‘कोरा कागज’ बताया और माना कि मनुष्य का ज्ञान उसके अनुभव की देन है. उसने बच्चों में पुस्तकपाठन की रुचि बढ़ाने के लिए सुझाव देते हुए कहा था कि बच्चों के लिए ऐसी पुस्तकें प्रकाशित की जाएं जो उनकी बौद्धिक क्षमता और वयस् के अनुकूल हों. जिनमें उनका बचपन झलकता हो. जो उनके मनोविज्ञान और रुचि को प्राथमिकता दें. जिनमें भरपूर कल्पनाशीलता हो, साथ में रोचकता भी. अरस्तु परीकथाओं को बच्चों के लिए गैरजरूरी मानता था, जबकि लोककथाओं और नीतिकथाओं का यह मानते हुए पक्ष लिया था कि उनमें यदाकदा नैतिकता से भरपूर सामग्री होती है, जो कि बच्चों में सामाजिक बोध जगाने के लिए आवश्यक है. यही नहीं लाॅक ने रेनार्ड दि फाक्स(1481) ईसप की बोधकथाओं(1484) की प्रशंसा की थी. साथ में यह भी कहा था कि ‘यदि ईसप अपनी अपनी कहानियों में चित्रों का संयोजन भी करते तो वह और भी अधिक उपयोगी हो सकती थीं.’

बच्चों की पुस्तकें कैसी हों, इस बारे में सुझाव देते हुए लाॅक ने कहा था कि बच्चों की पुस्तकें उनके लिए—‘‘उपयोगी और आनंददायक हों, जिन्हें पढ़ाते समय शिक्षक को और पढ़ते समय विद्यार्थी को आनंद आए.’ यह बचपन को समझने की पहली गंभीर कोशिश थी. लाॅक के विचारों का प्रभाव आगे आने पीढ़ियों पर भी पड़ा. उसकी मृत्यु के लगभग मात्र आठ वर्ष बाद जन्मे रूसो ने बचपन को लघु अभ्यारण्य की अवधि माना. अपनी पुस्तक ‘एमाइल’ में वह प्रश्न करता है—‘आखिर वह कौनसी अवस्था है जिसकी सामान्य गतिविधियां करुणा और परोपकार से भी बढ़कर हैं?’ उत्तर वह स्वयं देता है—‘बचपन!’ अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह लिखता है—‘बचपन को प्यार करो. उसके साथ खेल खेलो. उसके सुखामोद में शामिल होकर उसकी मनोरम प्रकृति में डूब जाओ.कृबचपन के आनंदमय दिनों को छीनो मत, ये बहुत जल्दी गुजर जाने वाले हैं.’ इसी पुस्तक में संत पियरे की बात को आगे बढ़ाता हुआ वह लिखता है—‘संत पियरे ने व्यक्ति को बड़ा बालक कहा है. हम चाहें तो बालक को छोटा व्यक्ति भी कह सकते हैं.’ ‘एमाइल’ पहली बार फ्रांसिसी भाषा में 1762 में प्रकाशित हुई थी, उसका तत्काल अंग्रेजी में अनुवाद हुआ. पुस्तक में रूसो ने शुद्धतावादियों की ‘मूल अपराध’ की विचारधारा का खंडन किया था, जो सृष्टि के उद्भव को आदम और हव्वा के ‘प्रथम अपराध’ से जोड़ती थी. उल्लेखनीय है कि उस समय तक शुद्धतावादियों के दबाव में बच्चों को उपदेशक साहित्य ही पढ़ने को दिया जाता था. उसमें बच्चों को पढ़ाया जाता थाआदम के पाप मेंहम सब अपराधी.’

जान लाक के तर्क को विस्तार देते हुए रूसो ने ‘एमाइल’ में लिखा—‘बच्चे निर्दोष जन्मते हैं, बाद में समाज उन्हें बिगाड़ देता है.’ रूसो की एक और मान्यता थी कि बच्चे पढ़ने के बजाय अनुभवों से गुजरते हुए सीखते हैं. उसका मानना था कि बच्चों की शिक्षा की शुरुआत बारह वर्ष की उम्र से होनी चाहिए. आरंभ के लिए डेनियल डिफोई की राबिन्सन क्रूसो(1719) की पुस्तक पर्याप्त है. हालांकि आगे चलकर रूसो के विचारों को अपरिपक्व मानते हुए करीबकरीब छोड़ दिया गया, तो भी उस समय रूसो के विचारों को मौलिक और क्रांतिकारी माना गया. बालसाहित्य के क्षेत्र में उसके विचार नए लेखन और प्रयोगों का माध्यम बने. उसकी प्रेरणा पर थाॅमस डे ने ‘हिस्ट्री आॅफ स्टेंडफोर्डेंड मार्टन(1783-1789) की रचना की. तीन खंडों में लिखी गई इस पुस्तक में गरीब किसान के सद्गुण संपन्न बेटे हेरी सेंडफोर्ड तथा एक धनी सौदागर के बिगडैल बेटे टामी मार्टन की कहानी थी.

स्टेंडफोर्ड अपने किसान पिता के साथ खेतों पर खेलतेकूदते बड़ा होता है. उसका गरीब पिता उसकी शिक्षा की व्यवस्था भी ढंग से नहीं कर पाता. दूसरी ओर मार्टिन का पिता अपने बेटे के लिए बेहतरीन शिक्षण की व्यवस्था करता है. वह उसको अच्छी पाठशाला में भेजता है, जहां उसको नियमित नैतिक शिक्षा दी जाती है. बावजूद इसके मार्टन बिगड़ जाता है. इस कहानी का शिक्षा थी कि केवल महंगी शिक्षा की पर्याप्त नहीं है, बल्कि बालक के संपूर्ण चारित्रिक विकास के लिए अनुकूल वातावरण भी जरूरी है. यह बालसाहित्य के क्षेत्र में यथार्थवादी लेखन का शुभारंभ था. निस्संदेह उसका श्रेय रूसो को ही जाता है. उसके पश्चात तो यूरोपीय साहित्य में ऐसे कथानकों की बाढ़सी आ गई. बालकों की मनोरचना को समझकर उनके अनुरूप मनोरंजक और उद्देश्यपूर्ण बालसाहित्य की रचना की मांग जोर पकड़ने लगी. 1744 में जान लाक और रूसो से प्रभावित एक समर्पित प्रकाशक जान न्यूबेरी आगे आया. ‘एक छोटीसुंदर पाकेट बुक’ के नारे के अंतर्गत प्रकाशित न्यूबेरी की चित्रात्मक पुस्तकें असल में बालोपयोगी सूचनाओं का कोष थीं. उनमें अक्षरों, कहावतों, लोकोक्तियों को ईसप की कहानियों के साथ चित्रों के साथ प्रकाशित किया जाता था. उसको आधुनिक रचनात्मक बालसाहित्य की प्रारंभिक पुस्तक कहा जाता है. अपनी पुस्तकों को लोकप्रिय बनाने के लिए न्यूबेरी ने कुशल विपणन तकनीक अपनाई थी. ग्राहक यदि लड़का हो तो प्रत्येक पुस्तक के साथ एक गेंद और लड़की हो तो उसे एक पिनकुशन भेंट में दिया जाता था. न्यूबेरी द्वारा प्रकाशित पुस्तकमाला को इंग्लेंड में व्यापक लोकप्रियता मिली.

न्यूबेरी द्वारा बच्चों के लिए पुस्तकों का प्रकाशन किसी भी पुस्तक विक्रेता द्वारा मौलिक एवं सुरुचिपूर्ण बालसाहित्य के प्रकाशन के क्षेत्र में किया गया पहला गंभीर प्रयास था. न्यूबेरी से पहले बच्चों के लिए उपलब्ध पुस्तकों के कथानक किसी लोकनायक अथवा मिथकीय पात्र पर निर्भर करते थे. इसी क्रम में विलियम के केक्सटन ने ‘रेनार्ड दि फाक्स’(1481) तथा फ्रांसिसी से अनूदित ‘ईसप की बोधकथाओं’(1484), थामस मलोरी की ‘मोर्ट डार्थर’(1485) के कई संस्करण प्रकाशित किए थे. उसके बाद वाइकिन दि वार्ड ने ‘राबिन हुड के कारनामे’(गेस्ट आफ राबिनहुड, 1510) का प्रकाशन किया. साहसी और बहादुर नायकों की कथा के रूप में किंग आर्थर तथा लोकगाथाओं के नायक डिक व्हीटिंग्टन की कहानियों लोगों के बीच पहुंचने लगीं. सोलहवीं शताब्दी में ये पुस्तकें छोटे दुकानदारों और फेरी वालों के माध्यम से गांवगांव पहुंचाई जातीं, जहां वे कुछ पेंस में बेची जाती थीं. सोलह से चैबीस पृष्ठ संख्या वाली पुस्तकों को आकर्षक बनाने के लिए उनमें लकड़ी के ब्लाॅक की सहायता से चित्र बनाए जाते थे. ये पुस्तकें हालांकि ‘विशेषरूप से बच्चों के लिए’ जैसी श्रेणी में प्रकाशित नहीं हुई थी, उनपर धार्मिक शिक्षा का गहरा प्रभाव था. तो भी ये बच्चों में पुस्तकपाठन संस्कृति की आधारशिला रखने में सहायक बनीं. बच्चों के बीच इन्हें खूब पसंद किया जाता था.

न्यूबेरी ने अंग्रेजी बालसाहित्य को जो दिशा दी, वही कालांतर में बच्चों के लिए मौलिक साहित्यलेखन का प्रस्थान बिंदु बन गई. तदनंतर बालसाहित्य के नाम पर नीति, धर्म, अध्यात्म आदि के नाम पर छापे जा रहे ‘उपदेशक साहित्य’ का प्रकाशन घटने लगा. उसके स्थान पर बच्चों की रुचि, मनोरंजन एवं उपयोगिता को केंद्र में रखकर लिखी गई पुस्तकें बाजार में छाने लगीं. उन पुस्तकों का लक्ष्य बच्चों को केवल कहानियोंं सुनाना या उनका मनोरंजन मात्र न था, उनके माध्यम से लेखक की कोशिश होती थी कि बालक अपने व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास करे, ताकि भविष्य की चुनौतियों से आसानी से निपट सके. बच्चों के मनोविज्ञान को नए सिरे समझने का गंभीर प्रयास भी किया गया, जो अंततोगत्वा मौलिक बालसाहित्य की आवश्यकता को स्थापित करने में सहायक बना. उस समय पुस्तकों की उपलब्धता धनी और उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों तक ही सीमित थी. गरीब परिवारों में व्यक्तिगत संबंधों और आपसी अनुराग, शिक्षा आदि का महत्त्व आर्थिक भरणपोषण के बाद था. गरीब परिवारों में जन्मे बच्चे अपने मातापिता के साथ श्रम करते थे. पठनपाठन की सुविधा उनमें से गिनेचुने बच्चों को ही मिल पाती थी. हां, माताएं घर लौटने पर अपने बच्चों के मनोरंजन के लिए किस्सेकहानियोंं अवश्य सुनाती थीं. निर्धन बच्चों के लिए, विशुद्ध बालसाहित्य की कोटि में रखे जाने योग्य पुस्तकों की संख्या नगण्य थी. इसके स्थान पर उपदेशक और प्रचारात्मक पुस्तकों की भरमार थी. इस स्थिति ने अपने समय के कई महान लेखकों जैसे डेनियल डेफो(राबिन्सन क्रूसो, 1719), जोनाथन स्फिट(गुलीवर की यात्राएं, 1726), लेविस केरौल(ऐलिस इन वंडरलें, 1865 लुकिंग ग्लास, 1871), मेरी शेरवुड(हिस्ट्री आॅफ दि फेयरचाइल्ड फैमिली, 1818), मार्क ट्वेन(दि एडवेंचर आफ दि टाम सायर), चाल्र्स डिकेन्स जैसे महान बालसाहित्यकारों को जन्म दिया. सतरहवींअठारवीं शताब्दी के यूरोपीय पुनर्जागरण का असर देर से ही सही, भारत पर भी पड़ा. स्वाभाविक रूप से इसमें ईस्ट इंडिया कंपनी तथा अन्य यूरोपवासियों की भी भूमिका रही, जो मुगल शासन के अवसान के दिनों में भारत आए और यहां की राजनीतिक अस्थिरता देख अपने पांव जमाने की कोशिश करने में लगे थे.

अंग्रेज भारत में व्यापार के सिलसिले में आए थे. सतरहवीं शताब्दी में वहां आरंभ हुई औद्योगिक क्रांति ने उत्पादन में तीव्र बढ़ोत्तरी की थी. उत्पादित माल की बिक्री के लिए अब उन्हें नए बाजारों की तलाश थी. उनके लिए भारत आदर्श बाजार हो सकता था. पराधीनता के बावजूद यहां की जनता अपने प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के दम पर पूरी दुनिया में अपनी ललचाती थीं. अंग्रेजों ने अपने ठिकाने समुद्र के किनारे बसाए थे. जहां से उन्हें माल लानेले जाने में आसानी रहे. शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए लिए उन्हें अंग्रेजी पढ़ेलिखे लोगों की आवश्यकता थी. इसके लिए लार्ड मैकाले ने औपनिवेशिक भारत की शिक्षानीति में कंपनी के स्वार्थानुरूप बदलाव किया, जिसका भारतीय बुद्धिजीवियों द्वारा व्यापक विरोध भी हुआ. उस समय तक भारत में लोकचेतना की लहर व्याप चुकी थी. राष्ट्रीय अस्मिता का संघर्ष दो स्तरों पर जारी था. एक ओर तो धार्मिकसामाजिक सुधारवादी के रूप में स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, महर्षि अरविंद, राजा राममोहनराय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती जैसे विचारक थे, जो देश को रूढ़ियों और परतंत्रता से मुक्ति दिलाकर उसका पुराना गौरव लौटाने को प्रतिबद्ध थे. दूसरी ओर देश की राजनीतिकसामाजिक अस्मिता की लड़ाई भी जोर पकड़ने लगी थी. इसके उत्प्रेरकों में राष्ट्रवादी लेखक, पत्रकार, साहित्यकर्मी आदि थे.

भारत में छापाखाना 1694 में स्थापित हुआ. लेकिन देश को भारतीय अस्मिता से परचानेवाला एक और महान व्यक्ति इसी दौर में अवतरित हुआ था, जो भारतीय नहीं था. मगर उसने भारतीयता का अनुसंधान इतनी लगन, गहन निष्ठा और परिश्रम के साथ किया था कि उसके द्वारा भारत के बारे में, अपने बारे में जानकार भारतीय विद्वान भी चौंक पड़े थे. उन्हें पहली बार अनुभव हुआ था कि शताब्दियों लंबी दासता के दौरान वे अपने आपको, अपनी पहचान को कितना पीछे छोड़ आए हैं. वह विद्वान था—मैक्समूलर. जर्मन के इस भारतअनुरागी विद्वान ने विलुप्तप्रायः संस्कृत वाङमय से न केवल पूरी दुनिया, बल्कि भारत का भी परिचय कराया था. मैक्समूलर के अध्ययन का प्रभाव यूरोपीय देशों पर भी पड़ा. इसके फलस्वरूप भारतीय दर्शन और साहित्य को लेकर बड़े पैमाने पर शोधकार्य आरंभ हुआ. पश्चिम में उन दिनों सुधारवादी आंदोलनों की बाढ़ आई हुई थी. फ्रांसिसी क्रांति सफल हो चुकी थी. उसका असर भारतीय जनमानस पर पड़ना स्वाभाविक ही था. वे सभी कारण भारतीय अस्मिता के उभार के दिन थे, जो आगे चलकर राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरणा बने.

सतरहवीं शताब्दी में जब पश्चिम में वैचारिक आंदोलन जोर पकड़ रहा था, भारत में मुगल साम्राज्य का सूरज अस्ताचलगामी था. अपनी रूढ़ धार्मिक परंपराओं और विरल शैक्षिक रुझान के कारण मुगलों में धर्मेत्तर पुस्तकों को पढ़ने की परंपरा क्षीण थी. लंबी दासता से हिंदी मनीषा का आत्मविश्वास डिगा हुआ था. विद्वान देश पर छाए राजनीतिक संकट को धार्मिक संकट के रूप में देखते थे. अंग्रेज सरकार धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप छोड़कर राजनीतिक निर्णय चाहे जो ले, भारत के शिखरस्थ वर्ग की यह सामान्य नीति थी. इसलिए उनका अधिकांश लेखन प्रतिक्रियावादी था. सामंतवादी सोच एवं जातीय पूर्वाग्रहों के बीच विद्वानों से क्रांतिकारी सोच की अपेक्षा कम ही थी. लार्ड मैकाले ने तत्कालीन शिक्षा प्रणाली पर धर्म के वर्चस्व को लेकर बेहतर टिप्पणी की है. हिंदू एवं मुस्लिम शिक्षा प्रणाली पर आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए उसने लिखा था—

हिंदुओं और मुसलमानों की शिक्षापद्धति में काफी समानता थी. वे उस भाषा में शिक्षा देते थे जो जनता की भाषा नहीं थी. उनकी शिक्षा का मूलस्रोत धर्म था और उसकी आप्तता अपरिवर्तनीय थी. वे नए अभिनिवेश और परिवर्तन के विरुद्ध थे….’

दरअसल उनीसवीं शताब्दी में हिंदू और मुस्लिम दोनों को मानने वाले कट्टरता में डूबे हुए थे. मुस्लिमों की अपेक्षा हिंदू धर्म अपेक्षाकृत अधिक सहिष्णु रहा है, लेकिन निरंतर बाहरी आक्रमणों के बीच इस प्रकार की शिक्षा पद्धति धर्म के प्रति कट्टरता की भावना ही पैदा कर सकती थी. इसके द्वारा स्वतंत्र व्यक्तित्व और विवेक सम्मत(रेशनल) वैज्ञानिक दृष्टिकोण का निर्माण संभव नहीं था. इकीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय संस्कृति और साहित्य को समझने के गंभीर प्रयास आरंभ कर दिए. कंपनी की ओर से जार्ज प्रिंसेप, विलियम जोन्स, गियर्सन जैसे विद्वानों को नियुक्त किया था. उन्होंने भारतीय साहित्य का दस्तवेजीकरण कर उसका यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद किया, इससे भारत की परंपरागत छवि जो जेम्स मिल जैसे दार्शनिकइतिहासकारों की अधूरी और एकांगी समझ द्वारा बनी थी, में बदलाव होने लगा. इससे विदेशी विद्वानों का ध्यान भारतीय संस्कृति और साहित्य की ओर गया.

ईस्ट इंडिया कंपनी ने सुखवादी विचारक जेम्स मिल को भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए नियुक्त किया था. मिल भारत आने से पहले ही उपयोगितावादी दार्शनिक के रूप में पर्याप्त ख्याति अर्जित कर चुका था. ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी की हैसियत से उसने ‘हिस्ट्री आॅफ ब्रिटिश इंडिया’ नामक ग्रंथ की रचना की. पुस्तक में भारतीय समाज के जातीय विभाजन, धर्म और परंपरा के नाम पर फैली घोर रूढ़िवादिता तथा आडंबर, राजनीति की जगह घोर अवसरवाद, छोटेछोटे रजबाड़ों के आपसी वैमनस्य, अकारण युद्ध और मारकाट जैसी बुराइयों का, जो भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक दुर्दशा का कारण बन चुकी थीं, प्रामाणिक और तथ्यपरक चित्रण किया था. छह खंडों की इस पुस्तक को पूरा करने में मिल को बारह वर्ष लगे थे. इस पुस्तक को भारी सफलता प्राप्त हुई. हालांकि इसके कारण उसकी आलोचना भी खूब हुई. अपने महत्त्वपूर्ण उपयोगितावादी दर्शन के कारण मिल की जैसी प्रतिष्ठा इंग्लेंड तथा अन्य यूरोपीय देशों पर सवार थी. भारत में वह प्रतिष्ठा कभी हासिल न हो सकी. अपने एकतरफा आकलन में साम्राज्यवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए मिल ने भारत के बारे कटु टिप्पणियां की थीं, साथ ही भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का समर्थन किया था. ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा किए गए कार्यों की सराहना करते हुए उसने लिखा था—

‘‘ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को सभ्य बनाने, उसका नागरीकरण करने में मदद की थी. अंग्रेजों के आने से पहले भारत एक बर्बर युग से बाहर आने के लिए छटपटा रहा था.’ हालांकि बाद में मिल ने अपने ही कथन का उलट करते हुए भारत में ब्रिटिश राज को ‘समाज के संपन्न तबके के लिए बाहरी मदद उपलब्ध कराने वाला व्यापक तंत्र’’ कहकर ब्रिटिश राज्य की वास्तविक खामियों की ओर इशारा भी किया था.’’

पुस्तक में मिल ने एक तरह से तत्कालीन ब्रिटिश सरकार का बचाव ही किया था.उसकी पुस्तक ब्रिटिश सरकार उपनिवेशवादी सोच को मान्यता प्रदान करती थी. वह अंग्रेजों के इस दुष्प्रचार का समर्थन करती थी कि भारतीय समाज के नागरीकरण तथा उनमें एकराष्ट्र की भावना पैदा करने के लिए अंगे्रजों का इस देश में टिके रहना आवश्यक है. मिल को उसका लाभ भी मिला. पुस्तक लिखने के साथ ही मिल को इंडिया हाउस में नियुक्ति मिल गई. उसके बाद तो उसने विभिन्न राजनीतिक पदों पर रहते हुए खूब प्रतिष्ठा एवं मानसम्मान अर्जित किया. इसमें कोई संदेह नहीं कि मिल का विश्लेषण औपनिवेशिक दृष्टि से परिपूर्ण था. बावजूद इसके पुस्तक में उसने कई स्थानों पर भारतीय समाज की कटु सचाइयों को बेनकाब भी किया था, जो उसकी राजनीतिकआर्थिक और सामाजिक दुरवस्था का कारण थीं. इसलिए भारत में उस पुस्तक की आलोचना होना स्वाभाविक ही था. मिल के कई निष्कर्ष भारतीय विद्वानों, खासकर ब्राह्मणों की स्वार्थपरता और उनकी शोषणवादी प्रवृत्तियों पर सीधे चोट करते थे. पुस्तक के दूसरे खंड में उसने लिखा था—

हिंदू शासनव्यवस्था का अध्ययन करते समय हम पहले ही देख चुके हैं कि राजशाही के रूप में एक चालू किस्म की शासकीय निरंकुशता, नितांत अकलात्मक यानी बड़े ही रूढ़ तरीके से भारत में स्थापित हुई, जिसको (निहित स्वार्थों के लिए) दैवीसत्ता के रूप में मान्यता दी जाती रही. भारतीय समाज का जातीय आधार पर विभाजन, हयुक्त तथा घृणास्पद विचारों का कुफल था, जिसने हिंदूसमाज का बेहद ओछा और हानिकारक स्तरीकरण किया था. यही नहीं, स्वार्थी तत्वों द्वारा इस जातीय विभाजन को दुनिया के किसी भी अन्य समाज की अपेक्षा कहीं अधिक विध्वंसात्मक महत्ता प्रदान की गई; और हम देखते हैं कि अत्यंत हानिकारक अंधविश्वासों पर टिकी उस उत्पीड़क और ताकतवर धर्मसत्ता ने मनुष्यता की ऐसी अवमानना की जिसकी मिसाल किसी भी अन्य राष्ट्रसमाज में मिलनी मुश्किल है. उनके दिमाग उनके शरीरों से कहीं अधिक असहिष्णु थे. संक्षेप में निरंकुश राजशाही तथा धर्मसत्ता की सम्मिलित शक्ति ने हिंदुओ के दिलोदिमाग पर कब्जा कर उन्हें मानवसमाज के सबसे दाससमूह में बदल दिया था.’

इससे आगे वह सर विलियम जोन्स द्वारा मनुस्मृति के अनुवाद की भूमिका से उद्धरण देते हुए लिखता है—

वैधानिक रूप से मान्य राजनीतिक निरंकुशता तथा धर्मसत्ता का वह मिलाजुला तंत्र आपसी सहमति के सिद्धांत के आधार पर समाज में अपनी जगह बनाए था. वह अज्ञात दिव्य सत्ता के नियम द्वारा संचालित तथा उसी के द्वारा नियंत्रित होता था. हमने देखा कि समाज के जातीय बंटवारे तथा ब्राह्मणों के पूर्वाग्रहयुक्त, विभेदनकारी सोच ने हिंदुओं में ऊंचनीच की घोर हानिकारक प्रथा को जन्म दिया. इस प्रकार का जाति आधारित विध्वंसकारी विभाजन जैसा भारत में देखने को मिला, वैसा अन्यत्र कहीं न था. हमने देखा कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था के घृणित, पीड़ादायी और अमानवीय विभाजन ने समाज के बड़े वर्ग का निरंतर उत्पीड़न किया है. इतनी बुरी तरह से कि लोगों के दिमाग उनके शरीर से बड़े गुलाम बन चुके हैं. संक्षेप में धार्मिकराजनीतिक निरंकुशता एवं पुरोहितवाद ने मिलकर हिंदुओं के दिलोदिमाग को मानवीय सभ्यता का सबसे बड़ा दास बनाने का काम किया है.’

एक ओर व्यक्तिस्वातंत्रय और जनवादी विचारधारा का पक्ष लेना तथा दूसरी ओर एक औपनिवेशिक सत्ता के समर्थन में भारीभरकम तर्क गढ़ना, ये जेम्स मिल के जीवन के अंतर्विरोध हैं. ब्रिटिश कालीन भारत का इतिहास लिखते समय अपनी लेखकीय ईमानदारी का प्रदर्शन करते हुए वह यह तो लिखता है कि उसने भारत नहीं देखा और उसका समस्त ज्ञान भारत संबंधी पुस्तकों, संदर्भ ग्रंथों और छुटपुट आलेखों तक सीमित है, मगर अपनी पुस्तक को प्रामाणिक बनाने के लिए वह भारतीय सभ्यता और संस्कृति को लेकर वैसा शोध नहीं कर पाता, जो विलियम जोन्स, मैक्समूलर जैसे विद्वानों ने खुले मन से बिना किसी पूर्वाग्रह के किया, जिससे प्राचीन भारत की बौद्धिक संपदा को लेकर वे दरवाजे खुले जिनके बारे में अधिकांश भारतीय बुद्धिजीवी भी अनजान थे. इसके बावजूद हमें मानना पड़ेगा कि अपनी पुस्तक में जेम्स मिल ने भारतीय समाज के बारे में कटु वास्तविकताओं की ओर संकेत किया था, जो यहां जातीय विभाजन के रूप में शताब्दियों से चली आ रही थीं. उनकी जकड़ इतनी मजबूत थी कि जातिव्यवस्था के निचले पायदान पर मौजूद लोगों ने जातीय शोषण को अपनी नियति मान लिया था. उल्लेखनीय है कि सतरहवींअठारहवीं शताब्दी में यूरोपीय देशों में प्राचीनकाल से चली आ रही दासप्रथा के उन्मूलन के लिए आंदोलन जोरों पर थे; और जेम्स मिल उन विचारकों में से था जो घृणित दासप्रथा को तत्काल समाप्त किए जाने के पक्ष में थे. इसलिए भारतीय समाज के जातीय विभाजन तथा उसके आधार पर एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग की शारीरिकमानसिक गुलामी के बारे में सुनने के बाद उसका क्षुब्ध होना स्वाभाविक ही था.

बहरहाल, भारतीय इतिहास और संस्कृति को लेकर अंग्रेजों की कोशिश का परिणाम यह हुआ कि जिस देश का इतिहास एक हजार वर्ष पहले तक खोजे नहीं मिलता था, उसको ग्रियर्सन और विलियम जोन्स, जार्ज प्रिंसेप की टीम ने न केवल ढाई हजार वर्ष पहले तक पहुंचा दिया, बल्कि भारतीय संस्कृति की विविधता एवं विशालता को लेकर ऐसे तथ्य भी उजागर किए जो लंबी गुलामी और समाज में व्याप्त अशिक्षा, धार्मिकजातीय वैमनस्य के कारण लुप्तप्रायः थे. लगभग यही वह दौर था, जब मैक्समूलर ने वेदों का जर्मन अनुवाद किया और भारत का वह रूप दुनिया के सामने आया, जिसके आधार पर वह ढाई हजार वर्ष पहले विश्वगुरु का दर्जा हासिल कर चुका था. मैक्समूलर की प्रेरणा से यूरोपीय विद्वानों के बीच भारतीय साहित्य के अध्ययनविश्लेषण को लेकर मानो होड़सी व्याप गई. आर्थर एंथोनी मैक्डानल, मौरिस विंटरनिट्ज, जे. गोंडा, कीथ आदि विद्वानों ने भारतीय साहित्य का विशद् अध्ययन द्वारा उसे संयोजित, विश्लेषित करने का युगांतरकारी कार्य किया. इन प्रयासों द्वारा भारतीय जनता का खोया हुआ आत्मविश्वास वापस लाने में मदद मिली, जो शताब्दियों की दासता में लगभग गायब हो चुका था. जर्मनी के अलावा फ्रांस तथा इंग्लेंड के विद्वान भी आगे आए, जिसके फलस्वरूप भारत को समझने के लिए पाश्चात्य विद्वानों को साहित्यिक सामग्री उन्हीं की भाषा में उपलब्ध हो सकी.

अंग्रेज अपने साथ एक आर्थिक व्यवस्था भी लाए थे, जो मशीनों द्वारा उत्पादन पर टिकी थी. उन्होंने भारत का वैसा औद्योगिकीकरण नहीं किया, जैसा इंग्लेंड में हो चुका था. व्यापारी अंग्रेजों की इसके पीछे भी एक चाल थी. उनका इरादा अपने अन्य उपनिवेशों की भांति भारत को भी कच्चे माल के òोत के रूप में इस्तेमाल करने का था. उन्होंने भारत में सिर्फ वही कारखाने या उद्यम स्थापित किए जिनकी या तो यहां प्रशासनिक दृष्टि से अनिवार्यता थी अथवा वे जिन्हें पर्यावरण की दृष्टि से इंग्लेंड में लगाया जाना उचित न था. पहली श्रेणी में रेल यातायात और छापाखाना आते हैं, जबकि दूसरी में नील और अफीम की खेती जैसे विनाशकारी उद्यम, जो कालांतर भारत में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश को बढ़ावा देने और उनकी शोषणकारी वृत्ति को सामने लाने में सहायक बने. ये चेताएं समाज को औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध एकजुट कर रही थीं. लगभग पूरी दुनिया में चल रहे सुधारवादी आंदोलनों का प्रभाव भारत पर भी पड़ रहा था. इससे वे प्रसुप्त अस्मिताएं भी सिर उठा रही थीं, जिन्हें अभी तक जाति, धर्म, सामंतवाद आदि के कारण उपेक्षा का शिकार होना पड़ा था. अंग्रेजी शिक्षा के बढ़ते चलन के कारण परंपरागत शिक्षा तक सीमित रहना अब जरूरी नहीं रह गया था. नई शिक्षा के लिए आधुनिक भावबोध से भरपूर पुस्तकों की आवश्यकता थी. इसलिए अन्य देशों की भांति भारत में भी बच्चों के लिए पुस्तक लेखन का सिलसिला पाठ्य पुस्तकें तैयार करने से आरंभ हुआ, फिर जैसे ही बच्चों में पढ़ने की ललक जन्मी, उनके लिए साहित्यकारों ने बहुउपयोगी पुस्तकें रचना आरंभ कर दिया.

हिंदी बालसाहित्य की मुख्य प्रेरणाएं

पहले भी कहा गया कि भारत में बालक कभी उपेक्षित नहीं रहा. धर्मग्रंथों में भी उदात्त बालचरित्रों का वर्णन जगहजगह हुआ है. हमारे यहां नचिकेताओं की परंपरा रही है, जो बचपन से ही मृत्यु जैसे गंभीर सवालों से दो चार होते रहे हैं. ध्रुव, प्रहृलाद, आरुणि उद्दालक, एकलव्य, सत्यकाम जाबालि जैसे बच्चों की कहानियोंं भले ही धार्मिकसामाजिक जरूरतों के आधार पर गढ़ी गई हों, मगर वे यह दर्शाती हैं कि भारतीय परिवारों में बालक चेतना के केंद्र में रहा है. उन्हें देश की आध्यात्मिक चेतना का उत्तराधिकारी और सूत्रधार भी बताया गया था. बावजूद इसके चाहे वह कठोपनिषद हो अथवा कोई और, बच्चों के माध्यम से जो विषय विमर्श के केंद्र में लाए गए हैं, उनका संबंध बड़ों से था, या कह सकते हैं कि वे बच्चों को बड़ीबड़ी बातें, बड़ों की भाषा और संस्कार के साथ पढ़ातेसुनाते थे. बालसाहित्य की आधुनिक अवधारणा से जो अभिप्रेत है, उसके उन दिनों तक विकास ही नहीं हो पाया था. प्राचीन ग्रीक, यूनानी, मिश्र, अरब देशों आदि की भांति भारत में भी साहित्य का प्रथम लक्ष्य धर्म का प्रसारप्रचार रहा है. अन्य सभ्यताओं की भांति भारत में भी अक्षर के आविष्कार को मनुष्य की आध्यात्मिक चेतना का विचार माना गया. हालांकि वह विस्तार संपूर्ण मानवीय चेतना का था, जिसका अध्यात्मिक चेतना केवल एक अंग है. संभव है कि समाज के कुछ वर्गों ने निहित स्वार्थों के लिए जानबूझकर ऐसा किया हो. तो भी लेखनपाठन लंबे समय तक धर्मदर्शन और अध्यात्म तक सिमटा रहा. इसके अलावा जो पढ़ना पड़ता था, वह वर्गीय शिक्षा थी. जैसे क्षत्रिय बालक को गुरु से हथियार चलाने की शिक्षा लेना अनिवार्य था. वैश्य बालक को गणित के बारे में सिखाना जरूरी माना जाता था, ताकि वह अपने पैत्रिक व्यवसाय को आगे बढ़ा सके. इसका अभिप्राय यह नहीं है कि भारतीय परंपरा में बालक को सर्वथा उपेक्षित माना जाता था. वैदिक साहित्य की वाचिक परंपरा में गुरु बच्चे को अपने समक्ष बिठाकर पाठ सिखाता था. उस समय लेखनवाचन को समान महत्त्व दिया जाता था. वेदों में ऐसी कई रचनाएं हैं जिन्हें बच्चों के नैतिक विकास के लिए अनिवार्य माना जाता है. भारतीय वाङमय में बच्चों के लिए उपयोगी साहित्य के रूप मे वड्डकथा, कथासरित्सागर, जातक कथाएं, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि पुस्तकों की चर्चा समयसमय पर होती रहती है. इनमें कथासरित्सागर और हितोपदेश मौलिक न होकर क्रमशः वड्डकथा(बृहत्कथा) और पंचतंत्र का पुनर्लेखन हैं. वड्डकथा की रचनाकाल 495 ईस्वीपूर्व माना जाता है. उसके रचनाकार गुणादय सातवाहन के राज्य में मंत्री थे. कहा जाता है कि प्राकृत भाषा में लिखी गई ‘वड्डकथा’ में सात लाख सूक्त थे, लेकिन उसका कोई भी हिस्सा आज उपलब्ध नहीं है. कश्मीरी पंडित सोमदेव ने ‘वड्डकथा’ को संस्कृत में लिखा और नाम दिया ‘कथासरित्सागर’. सोमदेव कश्मीर सम्राट अनंत के आश्रित थे. कथासरित्सागर की रचना उन्होंने रानी सूर्यमती के मनोरंजन के निमित्त की थी.

पंचतंत्र’ को न केवल भारत बल्कि दुनियाभर के बालसाहित्य का स्रोत कहा सकता है. इस कृति का मूल रचनाकार विष्णु शर्मा को माना गया है, जो महिलारोप्य नामक नगर के सम्राट अमरशक्ति के आश्रित थे. राजा के तीन उद्दंड बेटों बहुशक्ति, उग्रशक्ति और मंदशक्ति को सही रास्ते पर लाने के लिए विष्णु शर्मा ने उन्हें एकएक कर कई कहानियों सुनाई थीं, वही पंचतंत्र के रूप में संकलित हैं. कुछ विद्वानों के अनुसार विष्णुशर्मा और कोई नहीं चंद्रगुप्त मौर्य के मंत्री विष्णुगुप्त चाणक्य हैं. उन्होंने ही छद्म नाम से इस पुस्तक की रचना की है. उल्लेखनीय है कि प्राचीन भारतीय वाङमय में महिलारोप्य नाम के किसी राज्य का उल्लेख नहीं है. इससे लगता है कि यह पंचतंत्रकार की एक कल्पना थी. दूसरी बात यह कि जिस कूटनीति की शिक्षा पंचतंत्र की कहानियों देती हैं, वे चाणक्य की नीति से बहुत मेल खाती है. जो हो इतना तो साफ है कि व्यावहारिक राजनीति के बारे में पंचतंत्रकार और चाणक्य की नीति एकदूसरे से बहुत मेल खाती थी. इस आधार पर पंचतंत्र ईसा से करीब 350 वर्ष पुरानी रचना है. जबकि हटेल ‘पंचतंत्र’ को 200 ईस्वीपूर्व की रचना मानता है. कहते हैं कि पुस्तक के लेखक ने उसकी रचना 80 वर्ष की परिपक्व अवस्था में की थी. इसलिए ‘पंचतंत्र’ में उस समय की कूटनीति और व्यवहारशास्त्र का निचोड़ है. यह उस समय की रचना है जब भारत में गणतांत्रिक राज्य अपनी प्रासंगिकता खो चुके थे तथा साम्राज्यवाद की धारणा जोर पकड़ने लगी थी. ‘पंचतंत्र’ का अनुवाद और पुनर्लेखन भारतीय और विदेशी भाषाओं में लगातार होता रहा है. भारतीय दर्शन के विशेषज्ञ, गीता, पंचतंत्र जैसी पुस्तकों का सीधे संस्कृत से अंग्रेजी में अनुवाद, संस्कृत व्याकरण तथा उसका शब्दकोश तैयार करने वाले फ्रैंकलिन एडगर्टन(1885—1963) ने पंचतंत्र के अनुवादों की विशद्ता का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उसके—

पचास से अधिक भाषाओं में दो सौ से अधिक अलगअलग अनुवाद हुए है. इनमें से तीनचैथाई भाषाएं भारत से बाहर की हैं. यह ग्रंथ अनुवाद के माध्यम से ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में ही यूरोप में दस्तक दे चुका था. सोलवीं शती में उसकी गूंज यूनान, लैटिन, स्पेन, इटली, जर्मनी, अंग्रेजी, स्लोवाकिया, चेक गणराज्य सहित स्लोवाकिया की अन्यान्य भाषाओं में सुनाई पड़ने लगी थी. उसकी पहुंच जावा से लेकर दक्षिणी ध्रुव तक बनी थी. (भारत में भी)…पंचतंत्र का निरंतर लेखनपुनर्लेखन चलता रहा. इसका विस्तार, संक्षेपीकरण, टीकाकरण जैसे कार्य लगातार होते रहे. भारतीय में भी पंचतंत्र की रचनाओं के पद्यानुवाद तथा गद्य लेखनरूपातंरण होते रहे. संस्कृत में पुनर्लेखन सहित इसका मध्यकालीन लोकभाषाओं में भी अनुवाद किया गया. किस्साकहानी के दीवाने भारतीयों ने पंचतंत्र की अनेक कहानियों को लोककथाओं के रूप में पिरोया और शताब्दियों तक लगातार सुनतेसुनाते रहे. फिर आधुनिक लेखकों ने लोककथाओं में अनेक रूप में सुनीसुनाई जाने वाली पंत्रतंत्र की कथाओं का अनेक बार पुनर्प्रस्तुतिकरण भी किया.’

भारत में पंचतंत्र के विभिन्न भाषाओं में 25 से अधिक रूप मिलते हैं. जिनमें एक संस्कृत में लिखी तंत्रआख्यायिका भी है. पारसी भाषाओं में इसका अनुवाद 570 ईस्वी में बोर्जुया द्वारा किया गया. वहां से वह सीरियाई भाषाओं में ‘कलिलग तथा दमनग’ के शीर्षक के अंतर्गत अनूदित किया गया. अरबी में इसका अनुवाद पारसी विद्वान अब्दुल्ला इब्न अलमुकाफा द्वारा ‘कलिला वा दिमनाह’ शीर्षक से किया गया. अरबी अनुवाद के आधार पर पंचतंत्र पारसी भाषा में ‘अनवारेसोहेली’ के रूप में सामने आया. यूरोप में पंचतंत्र के आरंभिक अनुवाद अरबी भाषा से हुए, जहां पंचतंत्र की कहानियों ‘बिदपई(कुछ यूरोपीय देशों में पिलपई) की परीकथाओं’ के रूप में प्रसिद्ध हैं. बिदपई का उल्लेख कुछ स्थानों पर सूफी संत के रूप में हुआ है. संभव है यह पंचतंत्रकार विष्णु शर्मा के नाम का अरबी संस्करण हो, जो बोलीभाषा की सहजता के कारण बदलकर ‘बिदपई’ हो गया हो. जबकि कुछ विद्वान इसे मध्यकाल के लेखक विद्यापति का अपभ्रंश बताते हैं. डोरिस लेसिंग ने अपने एक निबंध में बिदपई को एक सूफी संत के रूप में दर्शाया है. लेकिन सभी में बिदपई का कार्यकाल पंचतंत्रकार के मुकाबले बहुत बाद का है. यहां डोरिस लेसिंग ने एक निबंध में बिदपई को लेकर एक कहानी का उल्लेख किया है. कहानी में बिदपई एक सूफी संत के रूप में दर्शित है. वह लोककथाओं का जादूगर तथा अनूठा किस्सागो है. कहानी कुछ इस प्रकार है—

बात उन दिनों की है जब सम्राट सिकंदर भारत छोड़कर जा रहा था. भारत में विजित राज्यों की देखभाल के लिए उसने अपने प्रतिनिधि नियुक्त किए थे. उनमें एक राजा बहुत ही उदंड एवं आततायी था. प्रजा के सुखदुख से उसे कोई मतलब ही न था. उस समय एक साधु आगे आया, नाम था बिदपई. उसने अपनी पत्नी से कहा कि मैं राजा को डपटने समझाने जा रहा हूं. इसपर पत्नी रोनेझींकने लगी तो बिदपई ने उसको समझाया और प्रस्थान कर गया. जब वह सम्राट के दरबार में पहुंचा तो उस समय रात हो चुकी थी. इसपर पत्नी रोनेझींकने लगी. उसको समझाकर बिदपई प्रस्थान कर गया. जिस समय वह सम्राट की नगरी में पहुंचा अंधेरा हो चुका था. राजभवन की छत पर बैठा सम्राट खुले आसमान में तारे देख रहा था. विस्तीर्ण अनंताकाश में टिमटिमाते अनगिनत तारों को देख अचानक राजा को अपने अस्तित्व की लघुता का बोध होने लगा. उसका लगा कि अनंताकाश के समक्ष वह कितना तुच्छ है. ये तारे हजारोंलाखों वर्षों से इसी प्रकार टिमटिमाते आ रहे हैं. इन्हें देखते हुए उसका जीवन कितना लघु है. देखते ही देखते सम्राट का नगण्यताबोध अवसाद में ढल गया. उसे अपना जीवन तुच्छ लगने लगा.

उसी क्षण सम्राट ने एक भव्य आकृति को अपने समक्ष पाया. वह हरे वस्त्रों पहने थी, जिनपर अनेक कहानियों छपी हुई थीं. सम्राट की मनःस्थिति को पहचानते हुए भव्य आकृति बोली—‘चूंकि तुमने पहली बार अपने वैभव और महत्त्वाकांक्षाओं से परे हटकर जीवन के सत्य के बारे में सोचा है, इसलिए मैं तुम्हें एक वरदान देना चाह रहा हूं. यदि तुम कल प्रातःकाल मेरी बताई गई दिशा में प्रस्थान करोगे तो वहां तुम्हें अनमोल खजाना प्राप्त होगा.’

राजा वैभव से उकता चुका था. साधु की बात मान अगले दिन उसने राज्य छोड़ दिया और साधु द्वारा बताई दिशा में प्रस्थान कर गया. चलतेचलते अचानक उसकी निगाह एक फटेहाल व्यक्ति पर पड़ी. राजा उसके पास पहुंचा. पूछने पर थकान से चूर राजा ने कहा—‘मित्र कल रात मुझसे कहा गया था कि यहां पहुंचने पर मुझे खजाना मिलेगा, मैं उसी की तलाश में हूं.’

क्या तुम सम्राट देवशलीन हो!’

हां, मैं सम्राट देवशलीन ही हूं.’

तब तो उस गुफा में खजाना तुम्हारी प्रतीक्षा में है. चलकर देखो.’ मंत्रमुग्धसा सम्राट उसके पीछे चल दिया. गुफा के भीतर पहुंचते ही सम्राट की आंखें चौंधियां गईं. वहां सोने और हीरेजवाहरात का ढेर लगा था. सम्राट उसको फटीफटी आंखों से मग्न मन कुछ देर तो देखता रहा, थोड़ी देर बाद बोला—‘अरे, यह सब तो मेरे पास पहले ही बहुत सारा है. और मुझे भला क्यों चाहिए?’

तभी उसकी निगाह एक पुस्तक पर पड़ी. उसने जतन से उसको उठाया और खोलकर देखा. लेकिन उसकी कुछ समझ में न आया. हीरेजवाहरात के ढेर को वहीं छोड़ सम्राट उस पुस्तक को ले राजमहल लौट आया. लेकिन पुस्तक में कही गई पहेलीनुमा बातें उसकी समझ में न आ सकीं. उसने उकताकर पुस्तक को नाली में फेंक दिया. अचानक वह हरे वस्त्रधारी साधु वहां उपस्थित हुआ. उसने पुस्तक को निकाला. साफ किया. राजा उसको हैरानी से देखता रहा—

क्या तुम इस पुस्तक के बारे में बता सकते हो?’ उसने साधु से फरियाद की.

अवश्य.’ साधु ने कहा. वह साधु बिदपई था.’

पंचतंत्र की कहानियों की अरब यात्रा के साथ अनेकानेक कहानियों के साथ यह कहानी भी जन्मी और उनके साथसाथ अरब देशों के लोकसमाज का हिस्सा बन गई.

भारत में हितोपदेश के रूप में पंचतंत्र का पुनर्लेखन नारायण पंडित ने संवत 1393(12वीं शताब्दी) में किया था. नारायण पंडित बंगाल के राजा धवलचंद के आश्रित थे. हितोपदेश की कहानियों के संकलन के पीछे उनका उद्देश्य था युवाओं को व्यावहारिक जीवनदर्शन से परचाना, ताकि बड़े होकर वे जिम्मेदार नागरिक बन सकें. पंचतंत्र और हितोपदेश की कई कहानियोंं जातक कथाओं से भी मिलती हैं. ऐतिहासिक दृष्टि से जातक कथाएं इन सबमें पुरानी हैं. जातक कथाओं के रूप में लगभग तीनहजार रचनाएं प्राप्त होती हैं. उनका लेखनकाल ईसापूर्व तीसरीचैथी शताब्दी है. इस वर्ग में धर्म, नीति और आचारशास्त्र पर अलगअलग कहानियोंं प्राप्त होती हैं. प्रत्येक कहानी में नैतिक संदेश छिपा हुआ है. इन कहानियों को बुद्ध के पूर्वजन्म की कथाएं कहकर प्रचलित किया गया है. लगभग इसी दौर में रचे गए महाकाव्यों, शताधिक पुराणों, स्मृतियों और आरण्यकों में भी ऐसी कई कहानियों और दृष्टांत आए हैं, जिन्हें बच्चों के लिए उपयोगी माना जा सकता है. हालांकि उस समय के अधिक साहित्य की भांति इन सबकी रचना भी बड़ों की जरूरत और पसंद को केंद्र में रखकर की गई थी.

मध्यकाल में भी ऐसी कई कृतियों की रचना इस देश में हुई जिन्हें बच्चे चाव से पढ़ते हैं. इनमें अकबरबीरबल के चुटुकले, तेनाली राम के किस्से, देवन मिसर, गोनू झा की कहानियों, वैताल पचीसी, सिंहासन बतीसी आदि सम्मिलित हैं. कुछ रचनाएं मुगलों और इस्लाम के अनुयाइयों के सौजन्य से भी इस देश में पहुंची थीं, जिनमें ‘हजार रातें उर्फ आलिफ लैला’, हातिम ताई, मुल्ला नसीरुद्दीन, गुलबकाबली आदि किस्से सम्मिलित हैं. बीरबल सम्राट अकबर का समकालीन और उसका दरबारी था. जबकि तेनाली राम विजयनगर सम्राट महाराज कृष्णदेव के दरबार में रहता था. गोनू झा मिथिलांचल में चैदहवीं शताब्दी में जन्मे थे. उनके वुद्धि चातुर्य और सूझबूझ का परिचय देते छोटेछोटे किस्से हैं, उनमें गजब की पठनीयता है. ‘वैताल पचीसी’ और ‘सिंहासन बतीसी’ वस्तुतः कथासरित्सागर की कुछ कहानियों का ही पुनर्लेखन है. लेकिन कथासरित्सागर की कहानियों में जहां नैतिकताबोध प्रबल है, वहीं ‘वैताल पचीसी’ और ‘सिहांसन बतीसी’ की कहानियों में कर्मकांड की प्रचुरता है. ‘वैताल पचीसी’ के रचनाकार या प्रस्तोता वैताल भट्ट बताए जाते हैं, जो न्याय और वीरता के लिए प्रसिद्ध सम्राट विक्रमादित्य के दरबार में मंत्री थी. ‘वैताल पचीसी’ की भांति ‘सिंहासन बतीसी’ भी सम्राट विक्रमादित्य की न्यायप्रियता और बहादुरी का बखान करती है. ‘सिंहासन बत्तीसी’ का प्रस्तोता मुनि क्षेमेंद्र हैं. इन कहानियों का प्रस्तुतीकरण दक्षिण भारत और बंगाल में भी अलगअलग समय हुआ. दक्षिण में ये कहानियों ‘विक्रमचरित’ के नाम से विख्यात हुईं. बंगाल में इनके प्रस्तोता वररुचि थे. वर्षों तक यह कहानियों जनसमाज के बीच किस्सेकहानियों के रूप में सुनीसुनाई जाती रहीं. घरों में पंचतंत्र और हितापदेश की कहानियों के लौकिक संस्करण भी परिजनों द्वारा बच्चों को सुनाए जाते रहे. इनमें पंचतंत्र को छोड़कर जिसके बारे में सभी जानते हैं कि उसकी रचना उदंड राजकुमारों को व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा देने के ध्येय से की गई था. जबकि वैताल पचीसी, कथासरितसागर और सिंहासन बतीसी आदि की रचनाओं का मुख्य ध्येय बड़ों का मनोरंजन करना, उन्हें कुछ नैतिकव्यावहारिक सीख देना था. उनकी रचना भी बड़ों को केंद्र में रखकर की गई थी. मध्ययुग के कथाचरित्र पर लोक और सामंतवाद की छाया है. अधिकांश जनजीवन चूंकि ग्राम्याश्रित था, जहां मनोरंजन के कम साधन थे, इसलिए कहानीकिस्से सुननासुनाना लोगों के मनोरंजन का प्रमुख साधन था. गोनू झा, बीरबल, तेनाली राम आदि सभी किसी न किसी सम्राट के आश्रित थे. इसलिए उनकी कहानियों पर सामंतवाद की छाया है. यह भारतीय इतिहास का वह कालखंड है जब राजनीति तेजविहीन हो चुकी थी. वर्णव्यवस्था, जातिवाद और कर्मकांडों से ग्रस्त भारतीय मनीषा की धार कुंद थी. उम्मीद थी तो बस लोक से. उन लेखकों, कवियों से जो स्वयं को राजसत्ता के बजाय लोक के अधिक निकट पाते थे. गोनू झा उन्हीं में से थे. वे लोक को बिसराते नहीं है. समयसमय पर हंसीमजाक के जरिये ही सही, जहां सम्राट को उसके कर्तव्य की याद दिलाते हैं, वहीं लोक के विचलन पर उसको भी आवश्यक चेतावनी दे जाते हैं. गोनू झा की कहानियों लोक के अधिक करीब, सीधे लोकसाहित्य का हिस्सा जान पड़ती हैं. मध्ययुग के कथासाहित्य की बानगी के तौर पर उनकी एक कहानी का आनंद लेते हैं—

गोनू झा की मां बीमार थी. मरणासन्न अवस्था. बचने की कोई उम्मीद न थी. कुदरत का कमाल. उस बरस गोनू झा के खेतों में गन्ने की फसल खूब लहलहाई थी. जो भी देखता उसकी प्रशंसा किए बिना न रहता. गोनू झा ने मां का काफी उपचार कराया, पर जराजर्जर काया प्राणों को अधिक दिन संभाल न सकी. वृद्धा के देहांत का समाचार इलाके के पंडितों और गांववालों को मिला तो जोरदार भोज की उम्मीद में सबने गोनू झा को घेर लिया—

गरीब आदमी हूं, पांच ब्राह्मणों से अधिक नहीं जिमा सकता.’ गोनू झा ने कहा.

आप और गरीब, इस पर कौन विश्वास करेगा? कम से कम पचीस गांवों का भोज जमना चाहिए.’

पचीस गांव! यह तो ज्यादती है. इतने लोगों को जिमाने के लिए धन कहां से लाऊंगा!’

वह केवल आपकी नहीं, हमारी भी मां थी. इसलिए हम सब इसमें सहयोग करने को तैयार हैं. आपको जितने धन की आवश्यकता हो मांग लीजिए. उधार रहेगा, धीरेधीरे चुकाते रहना.’

कर्ज लेकर भोज कराना क्या की समझदारी है!’

इसमें गलत क्या है. मां आखिर रोजरोज तो मरती नहीं. और हां, भोज में शुद्ध मिष्ठान चलना चाहिए.’ गोनू झा ने गांववालों को काफी समझाने की कोशिश की. परंतु वे जिद ठाने रहे. निर्णय के लिए एक दिन का समय लेकर गोनू झा घर लौट गए. बेहद चिंतित. समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें! गांव में जो घटा, उसकी खबर पत्नी को भी मिल चुकी थी. गांववालों के व्यवहार से वह गुस्से में थी. गोनू झा घर पहुंचे तो बोली—

उन्हें भोज ही चाहिए तो पत्तल पर एकएक ढेली गुड़ की रख दीजिए.’

त्वरित बुद्धि गोनू झा ने झट से निर्णय ले लिया. अगले दिन गांव में लोग जुटे तो उन्होंने पचीस गांवों को भोज देने की स्वीकृति दे दी.

भोज में शुद्ध मिष्ठान्न होना चाहिए.’

अवश्य!’ गोनू झा ने कहा.

आपने गांव वालों की बात रखी तो हम भी पीछे नहीं रहेंगे. पचीस गांवों की दावत है. बड़ा खर्च होगा. आप चिंता छोड़कर बता दीजिए….जितना उधार चाहेंगे मिल जाएगा.’ गांव के महाजन आगे आए. पर गोनू झा ने मना कर दिया—

रहने दीजिए, यदि आवश्यकता पड़ी तो मांग लूंगा.’

देखा हम कहते थे न, यह गोनू झा हैं. मालमत्ते की कोई कमी थोड़े ही है इन पर. वो तो बस दावत से बचना चाहते थे.’ एक बार फिर शुद्ध मिष्ठान्न की याद दिलाकर गांववाले अपनेअपने घर लौट गए. आखिर दावत का दिन करीब आया. एक दिन पहले ही गोनू झा ने अपनी ईख कटवा दी. गन्नों को साफ कर उसके छोटेछोटे टुकड़े कराकर रख लिए. अगले दिन दावत थी. सुबह से ही भोज के लिए गांववालों का आना शुरू हो गया.

मिष्ठान्न की महक नहीं आ रही.’ एक पंडित ने बोला.

आप बैठिए तो सही, मिठाई बस आने ही वाली है.’

भीतर हवेली में हलवाई जुटे होंगे. आखिर गोनू झा ठहरे. कोई ऐसेवैसे आदमी थोड़े ही हैं.’

पंडित कतारबद्ध होकर बैठने लगे. उनके बैठते ही गोनू झा सिर पर टोकरा रखकर मिष्ठान्न परोसने निकले. सब ललचाई निगाहों से टोकरे की ओर देखने लगे. गोनू झा ने परोसना आरंभ किया. पर यह क्या! पत्तल पर मिठाई के स्थान पर गन्ने का टुकड़ा देख पंडित लोग चैंक पड़े.

क्या यही खिलाने लिए आपने हमें यहां बुलवाया है?’

क्यों इसमें क्या बुराई है. मिठाई है. शुद्ध है. यही तो मैंने कहा था.’

पर क्या गन्ना भी दावत में परोसा जाता है.’

क्यों नहीं. दावत तो गृहस्थ की मर्जी से होती है. और मेरे पास जो था, वह तो मैंने आपके हवाले कर दिए.’

भोज में आए ब्राह्मणों के पास इसका कोई जवाब न था. गन्ने के टुकड़े को बगल में दबाए वे घर लौटने लगे.

ये लोक से जुड़ी कहानियों हैं. हास्य मिश्रित, मगर कुरीतियों पर कटाक्ष करती हुई. देवन मिसर, गोपाल भांड, गोनू झा, तेनालीराम, मुल्ला नसीरुद्दीन के किस्से इस कसौटी पर खरे उतरते हैं. यही आगे चलकर हिंदी बालसाहित्य की मुख्य प्रेरणा बने और किसी न किसी रूप में उसको लगभग एक शताब्दी तक प्रभावित करते रहे. बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब दूसरी औद्योगिक क्रांति ने लोगों के सोच और जीवनमूल्यों पर प्रभाव डालना आरंभ किया तो बालसाहित्य भी परिवर्तन से अछूता न रहा. लेकिन संस्कृति के नाम पर, परंपरा के नाम पर लोक में घुलमिल गए इन किस्सेकहानियों का प्रभाव उसपर आज तक बना है.

हिंदी बालसाहित्य का उद्भव

अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव और परिवर्तनशील समय की आवश्यकताओं को देखते हुए बच्चों के लिए उपयुक्त साहित्यिक पुस्तकों की आवश्यकता अनुभव की गई तो श्रेष्ठ और मौलिक बालसाहित्य के विकल्प के अभाव में वैताल पचीसी, सिंहासन बतीसी, कथासरितसागर, जातक कथा, आलिफ लैला की रचनाओं को भी बालोपयोगी साहित्य में शुमार लिया. उनकी कहानियों का संक्षिप्त रूप लिखित और वाचिक परंपरा के माध्यम से बच्चों को पढ़ायासुनाया जाता रहा. यह स्थिति हिंदी में मौलिक बालसाहित्य की दस्तक तक चलती रही. कालांतर में हिंदी में मौलिक लेखन का शुभारंभ हुआ. उसका श्रेय जाता है, भाखामुंशी लल्लूलाल(1763—1835) तथा सदल मिश्र(1767/68—1847/48) आदि को. वे फोर्ट विलियम कालेज में हिंदी की पुस्तकों को बढ़ावा देने के लिए नियुक्त किए गए थे. दोनों में विशेष साहित्यिक प्रतिभा तो न थी, लेकिन संस्कृत, ब्रजभाषा आदि का अच्छा ज्ञान था. उपलब्ध साहित्य के खड़ी बोली में रूपांतरण के साथ नए भाषाई क्षेत्र में आत्मविश्वास के साथ कदम बढ़ाने का उन्होंने जो साहस दिखाया वह उनकी ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है. उस समय के साहित्यकारों की प्रमुख समस्या थी कि भाषा का रूप तत्सम हो या आम बोलचाल वाला? उर्दू और हिंदवी में साहित्य की भाषा क्या हो, यह भी मसला था. इस बीच बच्चों की शिक्षा के लिए पुस्तकों की आवश्यकता आन पड़ी. इसके लिए हिंदी लेखकों की आवश्यकता थी, जो बच्चों की युगीन आवश्यकता को पहचानकर पुस्तकें लिख सकें. फोर्ड विलियम कालेज के प्रोफेसर गिलक्राइस्ट उस योजना के प्रभारी थे. उन्होंने लल्लूलाल और सदल मिश्र को यह जिम्मेदारी सौंपी—

लल्लूलाल ने ब्रजभाषा में लिखी कहानियों को उर्दूहिंदी गद्य में लिखा. इन्होंने ‘सिंहासन बत्तीसी’, ‘वैताल पचीसी’, ‘शकुंतला नाटक’, ‘माधोनल’ आदि पुस्तकें लिखीं. सके अतिरिक सन 1812 में इन्होंने ‘राजनीति’ नाम से हितोपदेश की कहानियों को भी गद्य में लिखा. वास्तव में इस समय जो पुस्तकें लिखवाई जा रही थीं, उनके दो उद्देश्य थे—एक यह कि ‘भाखा’ की समस्या सुलझाई जा सके और दूसरा यह कि वे पुस्तकें स्कूलों में भी पढ़ाई जाएं, जिनसे ‘भाखा’ का भविष्य निर्मित हो सके और वह अधिक लोकप्रिय हो सके….इन पुस्तकों की भाषा सरल और आसानी से समझ में आने वाली होती थी. जिन स्थानों पर अंग्रेजी पढ़ाने के लिए स्कूल और कालेज खुल चुके थे, वहां भी अंग्रेजी के साथसाथ हिंदी पढ़ाई जाने लगी.’(हिंदी बालसाहित्य: एक अध्ययन—डा. हरिकृष्ण देवसरे)

बालसाहित्य के शुभचिंतकों के लिए यह सुखदायक है कि हिंदी के इन प्रारंभिक गद्यकारों ने शेष साहित्य के साथ बालोपयोगी साहित्य को भी पर्याप्त महत्त्व दिया था. वस्तुतः यह उनके काम का ही हिस्सा था. ईस्ट इंडिया कंपनी भारत पर अपने प्रभुत्व को स्थायी बनाने के लिए यहां के जनसमाज को अपने प्रभाव में लेना चाहती थी. कंपनी के विरोध में आए दिन होने वाले विरोधों को देखते हुए उसके संचालकों यह लगने लगा था कि भारत में स्थायी प्रभुत्व के लिए यहां के साहित्य, संस्कृति और इतिहास को समझना अनिवार्य है. इसके लिए उन्होंने खड़ी बोली को महत्त्व दिया. सन 1800 में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना का उद्देश्य भी भारत में अंग्रेजों को प्रशासिक मामलों में मदद के लिए आवश्यक संसाधन तैयार करना था. उस समय तक संस्कृत, फारसी और अरबी प्रमुख साहित्यिक भाषाएं थीं. अंग्रेजों को लोकभाषा को महत्त्व दिए जाने का परिणाम यह हुआ कि कालांतर में बांग्ला, तमिल, हिंदुस्तानी, भाखा, मराठी आदि भाषाओं में भी साहित्यिक लेखन होने लगा. हिंदुस्तानी के प्राध्यापक के रूप में फोर्ट विलियम काॅलेज की ओर से गिलक्राइस्ट को नियुक्त किया गया. गिलक्राइस्ट के लिए हिंदुस्तानी का अभिप्राय था, अरबीफारसी शब्दों से भरपूर भाषा. उनके नेतृत्व में अरबीफारसी मिश्रित हिंदवी भाखा को बढ़ावा मिला. लगभग 25 वर्षों तक फोर्ट विलियम कालेज में अरबीफारसी भाखा का दबदबा बना रहा. इसलिए उसके समय में जो अनुवाद या लेखन कार्य हुआ, उसपर अरबीफारसी का असर बना रहा. स्थिति 1824 में उस समय बदली जब कैप्टन विलियम प्राइस को हिंदुस्तानी भाषा का प्रभारी बनाया गया. प्राइस ने गिलक्राइस्ट की भाखानीति में बदलाव लाते हुए उर्दू के बजाय हिंदवी को प्रमुखता दी. इससे खड़ी बोली का रास्ता साफ हुआ. ईसाई मिशनरियों ने भी नई भाषा नीति का समर्थन किया.

नई भाखानीति के अनुरूप विद्यार्थियों को पुस्तकें प्राप्त हो सकें, इसलिए कालेज की ओर से उर्दू और भाखा यानी हिंदी में पुस्तकें लिखने के लिए अलगअलग विभागों की स्थापना की गई. भाखा के लिए पुस्तकें तैयार करने का दायित्व सौंपा गया लल्लू लाल और सदल मिश्र को. यह एक युगप्रर्वत्तनकारी पहल थी, मगर इसका आशय यह नहीं है कि खड़ी बोली में साहित्यिक लेखन की पहल फोर्ट विलियम कालेज की ओर से की गई थी तथा उससे बाहर उसे कोई पूछने वाला ही नहीं था. वस्तुतः कालेज से बाहर भी खड़ी बोली के प्रशंसक भारी मात्रा में थे. फोर्ट विलियम कालेज से बाहर के प्रमुख लेखकों में इंशाअल्ला खां और सदासुख राय निसार(1746—1824) प्रमुख थे. सदासुखराय हिंदी में ‘सुखसागर’ तथा उर्दू में ‘निसार’ उपनाम से रचनाएं लिखते थे. वे लल्लूलाल और सदल मिश्र से वरिष्ठ थे, जबकि इंशाअल्ला खां उनके समकालीन. इंशाअल्ला खां की लिखी ‘रानी केतकी की कहानी’ को हिंदी की पहली कहानी माना जाता है. स्पष्ट है कि हिंदी लेखन का शुभारंभ फोर्ड विलियम कालेज में भाखा के लिए अलग विभाग खोले जाने से पहले ही हो चुका था. लेकिन बालोपयोगी पुस्तकों के लेखन और अनुवाद का श्रेय फोर्ट विलियम कार्य के भाखा अध्यापक लल्लूलाल को ही जाता है. उन्होंने छोटीबड़ी लगभग 14 पुस्तकें लिखीं. अनेक बालोपयोगी पुस्तकों के अनुवाद भी उन्होंने किए. खड़ी बोली में अनूदित उनकी बालोपयोगी पुस्तकों में ‘राजनीति’(1802, हिस्ट्री आफ हिंदी लिटरेचर के लेखक फ्रेंक अर्नेस्ट ने इसे 1809 उद्धृत किया है) अथवा ‘वार्तिक’ भी आती है, जो ब्रजभाषा में ‘हितोपदेश’ यानी ‘पंचतंत्र’ का गद्यानुवाद थी. पंचतंत्र के अनुवाद के अलावा लल्लूलाल ने ‘वैताल पचीसी’ और ‘सिंहासन बतीसी’ का भी अनुवाद किया. उनकी भाषा उर्दू के निकट थी. हिंदी साहित्य के इतिहासकार फ्रांसिसी विद्वान गार्सा दा तासी का मानना है कि लल्लूलाल के अनुवाद कार्य केवल उनके अपने नहीं थे. इसके लिए उन्होंने दूसरे विद्वानों की भी मदद ली थी. लल्लूलाल द्वारा अनूदित वैताल पचीसी की भाषा का एक नमूना देखिए—

ये बातें करते थे कि इतने में सांझ हुई. उसे अच्छा भोजन दिया और उसने अच्छा व्यालू किया. मसल मशहूर है कि भोग आठ प्रकार का है. एक सुगंध है, दूसरे वनिता, तीसरे वस्त, चैथे गीत, पांचवे पान, छठे भोजन, सातवें सेज, आठवें आभूषण—ये सब वहां मौजूद थे. गरज जब पहररात आई, उसने रंगमहल में जा उसके साथ सारी रात आनंद से काटी. जब भोर हुई, वह अपने घर गया और वह उठके अपनी सहेलियों के पास आई.’

सिंहासन बतीसी’ की भाषा भी अरबी, हिंदवी, हिंदुस्तानी और संस्कृत का मिश्रण थी. इसके बावजूद उसकी नजदीकी आधुनिक हिंदी भाषा से है. इस अनुवाद का उदाहरण देखिए—

तीनों लोक में हंगामा मचा कि राजा वीर विक्रमाजीत का काल हुआ उस वक्त आगिया कोयला दोनों वीर भी साथ राजा ही के लोप हो गए न वह स्वामी रहा न वे दास रहे—संसार में से धर्म की धजा उखड़ गई सब रएयत राजा के राज की रोने लगी—विराहमन भाट भिखारी रांड दुखी सब धाय मारमार रोरो कहने लगे कि हमारा आदर करने वाला और मान रखने वाला आज जग से उठ गया रानियां राजा के साथ सती हुईं, और जितने दासदासी थे सब अनाथ हो गए….’

जैसा कि कहा जा चुका है ऊपर दी हुई रचना अथवा उनका अनुवाद करने वाले लेखक राजाओं के आश्रित थे और ब्राह्मण थे. इसलिए इन ‘सिंहासन बत्तीसी’ और ‘वैताल पचीसी’ की कहानियों में समाज में व्याप्त वर्णाश्रम व्यवस्था को तरहतरह से सराहा गया है. उनमें वर्णित मूल्य किसी न किसी रूप में सामंतवाद को बढ़ावा देने वाले हैं, जिनका उनीसवीं शताब्दी में बदलते जीवनमूल्यों और सुधारवादी आंदोलनों के बीच कोई महत्त्व न था. इसलिए अंग्रेजी शासन में जो सुधारवादी आंदोलन भारत में चले उनमें अंग्रेजों के सर्वसत्तावादी दृष्टिकोण का तो विरोध किया गया था, अंग्रेजी शासन के शासन के विरुद्ध जगहजगह आंदोलन भी चलते रहे, मगर उनके पश्चिम से आ रहे प्रगतिशील विचारों को अपनाने पर भी जोर दिया जाने लगा था. इसका प्रभाव हिंदी के बहुआयामी विकास पर पड़ा. प्रारंभिक दौर में जो साहित्यकार खड़ी बोली को साहित्यिक समृद्धि प्रदान करने के लिए आगे आए उनके समक्ष एक और समस्या थी कि भाषा का रूप तत्सम हो या आम बोलचाल वाला. उर्दू और हिंदवी का भी मसला था. इस बीच बच्चों की शिक्षा के लिए अपनाई जाने वाली भाषा की भी समस्या थी. कुछ लोग उन्हें उर्दू से संपन्न रखना चाहते थे, क्योंकि वह लंबे समय तक राजदरबार की भाषा थी और उस समय भी अदालतों और सरकारी विभागों में संवाद का प्रमुख माध्यम बनी हुई थी. परंतु हिंदू जागरण का सपना आंखों में बसाए एक वर्ग उर्दू को अध्ययन की भाषा बनाने का सख्त विरोधी था. भारत में अपने पांव जमाने के प्रयास में जुटे अंग्रेजों के लिए किसी भी वर्ग को नाराज करना संभव न था. इसलिए फोर्ड विलियम कालेज से लेकर सरकार के कामकाज तक, अंग्रेज मिलीजुली भाषा की ही सिफारिश करते रहे. यही कारण है कि अंग्रेज नौकरशाहों के नेतृत्व में जो हिंदी पनपी उसमें अरबी, फारसी के अलाबा ब्रजभाषा, अवधी आदि स्थानीय भाषाओं का भी पुट था. इसका लाभ यह हुआ कि हिंदी का शब्द भंडार तेजी से बढ़ता गया और कालांतर में अनेक भाषाबोली से संबंधित क्षेत्रों के विद्वान साहित्यकार हिंदी की ओर मुड़े, जिससे अंततः हिंदी साहित्य को लाभ ही हुआ.

हिंदी बालसाहित्य की नींव: आदि युग

किसी भी भाषा में साहित्य का जन्म उस भाषा के विकास का आदि चरण होता है. इसलिए कि अपने जन्म के साथ ही भाषा अपने समाज के विभिन्न वर्गों की भावनाओं, इच्छाआकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने लगती है. साहित्य का प्रारंभिक रूप लोकाश्रयी रहा है. वह वाचिक परंपरा के माध्यम से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति, एक स्थान से दूसरे स्थान और एक कालखंड से दूसरे कालखंड के बीच यात्रा करता रहा है. हिंदी में भी साहित्य की वाचिक परंपरा की शुरुआत इस भाषा जितनी ही पुरानी है, जो कुछ विद्वानों के अनुसार पंद्रहवीं शताब्दी तक जाती है. उस समय साहित्य का बालक और बड़ों के बीच विभाजन नहीं हुआ था. हिंदी ही क्यों दुनिया की किसी भी भाषा में यही स्थिति थी. बड़ों के लिए लिखीगढ़ी जाने वाली रचनाओं में से सहजसरल बोलीबानी और रोचक कथानक वाली रचनाएं ही बच्चों के मनोरंजन का काम भी करती थीं. लिखित साहित्य की विधिवत शुरुआत के बाद भी दशकों तक यही होता रहा. साहित्यकार की निगाह में केवल उसका पाठक होता था. बालक के लिए अलग साहित्य लिखा जा सकता है या लिखा जाना चाहिए, यह उस समय तक परिकल्पित ही नहीं था. इसलिए आधुनिक समय में विश्वसाहित्य में बालसाहित्य की जो भी धरोहर कृतियां कही जाती हैं, हिंदीसंस्कृत के संदर्भ में कहें तो पंचतंत्र, कथासरितसागर, हितोपदेश, जातक कहानियों आदि सभी की रचना बड़ों द्वारा बड़ों के मनोरंजन अथवा कल्याणभावना के साथ लिखी गई थीं. इनमें पंचतंत्र की रचना अवश्य महिलारोप्य नामक नगर के राजकुमारों को व्यावहारिक शिक्षा देने के लिए की गई थी, तथापि उसका उद्देश्य बड़ों के बड़े उद्देश्य साधना ही था. साहित्य से जो अपेक्षा आज की जाती है, वह इस पुस्तक से जुड़ी हुई नहीं थी. तो भी इन पुस्तकों का लोक और संस्कृति पर गहरा प्रभाव था. यही कारण है कि उनीसवीं शताब्दी के आरंभ में फोर्ट विलियम कालेज में जब बच्चों की शिक्षा के लिए पुस्तक तैयार करने का समय आया तो प्रारंभ में बालोपयोगी पुस्तकों के नाम पर पंचतंत्र, सिंहासन बतीसी, हितोपदेश जैसी पुस्तकों के अनुवाद से ही काम चलाया गया. मौलिक बालसाहित्य की परंपरा देर से जन्म ले सकी.

कुछ विद्वान यद्धपि हिंदी बालसाहित्य का शुभारंभ सूरदास से मानते हैं. लेकिन यह उचित नहीं लगता. सूरदास ने कृष्ण की बाल्यावस्था का वर्णन अवश्य किया, उनके वर्णन में प्रामाणिकता है तथा भाषा में लालित्य. इसके बावजूद सूरदास ने जो लिखा उसको बालसाहित्य नहीं कहा सकता. कई दशकों तक नंदन जैसी लोकप्रिय बालपत्रिका के संपादन का दायित्व संभाल चुके जयप्रकाश भारती हिंदी बालसाहित्य के उद्भवकाल को 1623 तक खींच लाते हैं. वे जटमल द्वारा लिखित ‘गोरा बादल की कथा’ पर हिंदी बालसाहित्य की पहली पुस्तक का विशेषण चस्पां कर देते हैं. बालसाहित्य के कतिपय आधुनिक समीक्षकविचारक भी मिश्र बंधुओं के हवाले से ‘गोरा बादल की कथा’ को हिंदी बालसाहित्य की पहली पुस्तक मानते हैं. लेकिन यह धारणा अतार्किक और पूर्वाग्रह प्रेरित लगती है. इस पुस्तक के बारे में जो विवरण हमें डा. रामकुमार वर्मा की पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’(पृष्ठ 593—594) से प्राप्त होते हैं, वे हैं—

‘‘इधर राजस्थान में हस्तलिखित पुस्तकों की जो खोज की गई है, उसमें जटमलकृत ‘गोराबादल की कथा’ की जितनी हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध हुई हैं, वे सब पद्य में हैं. राजपूताने के चारणों और ऐतिहासिक ग्रंथों का जो विवरण बंगाल की ऐशियाटिक सोसायटी की ओर से, डा. एल. पी. टेसीटरी ने सन 1918 में प्रकाशित कराया है, उसके प्रथम भाग के द्वितीय खंड में 52वें पृष्ठ पर ‘गोराबादल की कथा’ के संबंध में कुछ ज्ञातव्य बातें मालूम होती हैं. डा. टेसीटरी को गद्य का एक हस्तलिखित ग्रंथ प्राप्त हुआ है जिसका नाम है—‘फुटकर वातां रो संग्रह’. इसे उन्होंने हस्तलिखित ग्रंथ नंबर 15 माना है. इस ग्रंथ में 425 पन्ने हैं, जिनका आकार 12 गुणा 8 है. यह ग्रंथ बड़ी बुरी दशा में है. इसके कई पन्ने फट गए हैं. अंत के कुछ पन्ने गायब भी हो गए हैं. प्रत्येक पृष्ठ में 26 या 27 पंक्तियां हैं और प्रत्येक पंक्ति में 20 से 24 अक्षर हैं. इसका कुछ भाग तो संवत 1845 में देशणोक में और कुछ भाग दासोढ़ी में रतन मन रूप के द्वारा लिखा गया है. इस वृहत ग्रंथ में भिन्नभिन्न 39 फुटकर वार्ताओं का संग्रह है. इन्हीं वार्ताओं में तीसवीं वार्ता गोराबादल के संबंध में है. इस ग्रंथ में टेसीटरी उसका वर्णन इस प्रकार करते हैं—

गोराबादल री कथा—(पृष्ठ 288 . से 295 . तक) जटमल द्वारा लिखित चित्तौड़ की सुंदरी पद्यिमिनी और उसके सगेसंबंधी गोराबादल की पद्यबद्ध प्रसिद्ध कहानी, उसका प्रारंभ इस प्रकार है—

चरण कमल चीत लायक। स्मरू श्री सारदा। मुझ अष्यर दे माय। कहो सकथा चीत लायक।।1।। जम्बू द्वीप मंझार। भरतषंड षंडा सिर। नगर भलो इ संसार। गढ़ चित्तौड़ है विषम अत।। 2।। आदि

इसी खंड के 73 वें पृष्ठ पर गोराबादल के संबंध में एक दूसरी प्रति मिलती है. यह प्रति हस्तलिखित ग्रंथ नंबर 22 ‘फुटकर बातां रो संग्रह’ में है. इस संग्रह में 436 पन्ने हैं जिनका आकार 11.5 गुणा 7.25 है. प्रत्येक पृष्ठ में 30 पंक्तियां हैं और प्रत्येक पंक्ति में 24 से 30 अक्षर हैं. इस संग्रह में कई पन्ने कोरे हैं. इससे ज्ञात होता है कि यह किसी दूसरे ग्रंथ की प्रतिलिपि है, जिसके कुछ पन्ने या तो खो गए हैं या पढ़े नहीं जा सके. ‘ड’ और ‘ड़’ में कोई अंतर नहीं रखा गया. यह संग्रह महाराजा राजसिंह बीकानेर वालों ने संवत 1820 में लिखाया था. इसी से 15(1845 संवत), 18, 20, 21 नंबर के संग्रहों की बहुतसी वार्ताएं नकल की गई हैं. पांचवीं वार्ता में गोराबादल की कथा का विवरण निम्नवत है—

गोंरेबादल री कथा—(पृष्ठ 87 . से 93 . तक) यह लगभग वही वार्ता है जो हस्तलिखित ग्रंथ नंबर 15 में है. पर पाठांतर बहुत है, उदाहरण के लिए इस प्रति का प्रारंभिक भाग देखिए—

चरण कमल चित लाय के समरूं सरसति माय

कहिस कथा बनाय के प्रणमू सदगुरु पाय।।1।।

जंबू दीप मझारि भरथ क्षेत्र सोभित अधिक।

नगर भलो चित्रोड़ है ता परि दूठ दुरंग।

रतनसेन राणो निपुण अमली माण अभंग।।2।। आदि

इस प्रति के अंत में एक दोहा है, जो संग्रह 15 में नहीं है. इसमें कवि का नाम (जटमल) और कथा का लेखनकाल(संवत 1680) दिया है.

सोलै सो असी थै समै फागुण पूनिम मास

बीरारस सिणगाररस कही जटमल सुपरकास(1)49

इस प्रकार गोराबादल की ये दोनों प्रतियां क्रमशः संवत 1820 और 1845(अथवा 1892) में लिखी गईं थीं, पद्य ही में हैं, हां, दोनों के पाठ में भेद बहुत है भाव तो अधिकतर वही हैं.’’

उपर्युक्त 22वें हस्तलिखित ग्रंथ का अंतिम दोहा जो ग्रंथ संख्या 15 में नहीं है, से स्पष्ट है कि कवि जटमल की यह रचना वीर एवं शृंगार रस की कृति है. ऐसी कृतियों का मूल उद्देश्य अपने आश्रयदाता सम्राट को प्रसन्न करना था. ‘गोराबादल की कथा’ के मूल में भी जो कथा है वह भी, राजशाही के प्रंपचों और सनकों से भरी पड़ी है. ऐसी कथा को बालसाहित्य की आधारकृति मान लेना सरासर अनुचित है. इसके मूल में कहानी चित्तौड़ की रानी पद्यमिनी की है, जिसके सौंदर्य के वशीभूत बादशाह अलाउद्दीन खिलजी उसपर हमला कर देता है. उसकी विशाल सेना के आगे चित्तौड़ के बांकुरे कुछ नहीं कर पाते. पराजय सन्निकट देख पद्यमिनी चतुराई का सहारा लेती है. वह अपने काका गोरा और भाई बादल के साथ मिलकर सात सौ पालकी तैयार कराती है. प्रत्येक पालकी में एक सैनिक को छिपाकर अलाउद्दीन के शिविर में पहुंचती है. वहां जो घमासान होता है, ‘गोराबादल की कथा’ उसी की रोमांचक गाथा है. युद्ध में दोनों रणबांकुरे वीरगति को प्राप्त होते हैं.

इस कहानी में गोराबादल की वीरता है. परंतु उसका जो संदर्भ है, वह उसको कहीं से भी बालसाहित्य की रचना सिद्ध नहीं करता. ‘गोराबादल’ की कहानी सामंती मूल्यों के समक्ष बलिदान की गाथा है, जिसका लोकतांत्रिक समाज में कोई महत्त्व नहीं है. यदि ‘गोराबादल की कथा’ को हिंदी की पहली बालसाहित्य की रचना कहा जा सकता है तो सूरदास की बालसुलभ चेष्ठाओं का वर्णन तो उससे भी कहीं अधिक मौलिक और बालमनोविज्ञान के निकट है. उस अवस्था में तो हिंदी या ब्रजभाषा के प्रथम बालसाहित्य सर्जक का श्रेय सूरदास को ही मिलना चाहिए. फिर सूरदास ही क्यों, पहेलियां भी तो बालसाहित्य की एक मान्य विधा है. इस दृष्टि से देखें तो अमीर खुसरो से भी बालसाहित्य की शुरुआत मानी जा सकती है. उल्लेखनीय है कि अमीर खुसरो का हिंदी गद्य भी ‘गोराबादल की कथा’ के गद्य की अपेक्षा कहीं सहज और आधुनिक हिंदी के करीब है. वह इस उदाहरण से भी स्पष्ट हो जाता है. अपनी रचना ‘आशिका’ में अमीर खुसरो हिंदी की प्रशंसा जी खोलकर करते हैं—

किंतु मेरी यह भूल थी, क्योंकि यदि आप इस विषय पर अच्छी तरह से विचार करें तो आप हिंदी भाषा को फारसी से किसी प्रकार भी हीन न पावेंगे. वह भाषाओं की स्वामिनी अरबी से कुछ हीन अवश्य है पर राय और रूम(परशिया के शहर) में जो भाषा प्रचलित है, वह हिंदी से हीन है. यह मैंने बहुत विचारपूर्वक निर्धारित किया है.

हिंदी अरबी के समान है, क्योंकि इन दोनों में से कोई भी मिश्रित नहीं है. यदि अरबी में व्याकरण और शब्दविन्यास है तो हिंदी में भी वह एक अक्षर कम नहीं है. यदि आप पूछें कि उसमें काव्यशास्त्र है तो हिंदी किसी प्रकार भी इस क्षेत्र में हीन नहीं है. जो व्यक्ति तीनों भाषाओं का ज्ञाता है, वह समझ लेगा कि मैं न तो भूल कर रहा हूं और न अतिश्योक्ति ही.’1 .

खुसरो की मुकरियां और पहेलियां भी आमफहम हिंदी में लिखी हुई हैं. इसके बावजूद यदि सूरदास और खुसरों की रचनाओं को बालसाहित्य का आदिस्रोत मानने में आपत्ति है तो जटमल को भी यह श्रेय दे पाना कदापि संभव नहीं है. अधिकांश विद्वान हिंदी बालसाहित्य के शुभारंभ का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को देते हैं. और यह तार्किक भी है. स्वयं डा. देवसरे भी इससे सहमत हैं. उनके अनुसार बालसाहित्य की शुरुआत 1 जनवरी 1874 से, पत्रिका ‘बालाबोधिनी’ के प्रकाशन की तिथि से मानना उचित होगा. लेकिन ’बालाबोधिनी’ के प्रकाशन की तिथि से नारीवादी साहित्य की दस्तक तो मानी जा सकती है, बालसाहित्य की नहीं. केवल अपनी सुविधा के लिए तथ्यों से छेड़छाड़ अनुचित है. फिर बालाबोधिनी के संपादक ने तो पत्रिका के मुखपृष्ठ पर—‘स्त्री जनों की प्यारी हिंदी भाषा में सुधारी’ लिखकर अपनी मंशा साफ कर दी थी कि वे महिलाओं के लिए पत्रिका निकाल रहे हैं. पत्रिका के मुखपृष्ठ पर उपर्युक्त वाक्य के नीचे ये पंक्तियां भी छपा करती थीं—

सीता अनुसूया सती अरुंधती अनुहारि

शील लाजि विद्यादि गुण लहौ सकल जग नारि

स्पष्ट है कि ‘बालाबोधिनी’ के प्रकाशन तिथि को हिंदी बालसाहित्य की पहली दस्तक नहीं माना जाता. परंतु इसी कारण डा. देवसरे को पूरी तरह गलत भी नहीं ठहराया जा सकता. हिंदी बालसाहित्य के आदिउन्नायक का श्रेय भारतेंदु जी को ही जाता है. इसलिए कि उन्होंने बालसाहित्य के उन्नयन हेतु अनेक जहां बालोपयोगी नाटक, जिनमें ‘सत्य हरिश्चंद्र’ एवं ‘अंधेर नगरी’ प्रमुख हंै, हिंदी में नाट्य विधा का श्रेय भी उन्हीं को जाता है. इसके साथ उन्होंने कुछ मौलिक बालोपयोगी कहानियों भी लिखीं हैं. उनकी दो बालोपयोगी कहानियों हम पाठकों के लिए बानगी के तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं. इनमें पहली कहानी का शीर्षक ‘एक से दो’ है—

एक काने ने किसी आदमी से यह शर्त बदी कि, ‘जो मैं तुमसे ज्यादा देखता हूं तो पचास रुपया जीतूं.’

और जब शर्त पक्की हो चुकी तो काना बोला कि, ‘लो, मैं जीता.’

दूसरे ने पूछा, ‘क्यों?’

इसने जवाब दिया कि, ‘मैं तुम्हारी दोनों आंखें देखता हूँ और तुम मेरी एक ही.’

ऐसी ही अनेक मजेदार कहानियों भारतेंदु जी ने बच्चों के लिए लिखी हैं, जिनमें आधुनिक हिंदी बालकथा के बीजतत्व सुरक्षित हैं. उनके द्वारा लिखी गई एक और मजेदार कहानी ‘सच्चा घोड़ा’ शीर्षक से है—

एक सौदागर किसी रईस के पास एक घोड़ा बेचने को लाया और बारबार उसकी तारीफ में कहता, ‘हुजूर, यह जानवर गजब का सच्चा है.’

रईस साहब ने घोड़े को खरीद कर सौदागर से पूछा कि, ‘घोड़े के सच्चे होने से तुम्हारा मतलब क्या है?’

सौदागर ने जवाब दिया, ‘हुजूर, जब कभी मैं इस घोड़े पर सवार हुआ, इसने हमेशा गिराने का खौफ दिलाया, और सचमुच, इसने आज तक कभी झूठी धमकी न दी.’

कहा जा सकता है कि नाट्य विधा की भांति ही भारतेंदु ने हिंदी बालसाहित्य को भी पहली दस्तक दी. बालसाहित्य की पहली रचना कौनसी है, यह आज भी शोध का विषय है, लेकिन बालसाहित्य की ओर हिंदी लेखकों का पहली बार ध्यान भारतेंदु युग में ही गया. भारतेंदु ने स्वयं रोचक बालकहानियों भी लिखीं. संभव है वे बालसाहित्य को स्वतंत्र रूप से भी आगे बढ़ाते यदि नियति ने उन्हें कुछ लंबा जीवन दिया होता. लेकिन अल्पायु में ही उन्होंने बच्चों और बड़ों सभी के लिए साहित्यकारों की एक समर्थ पीढ़ी तैयार की. भारतेंदु की प्रेरणा से ही 1882 ईस्वी में इलाहाबाद से ‘बाल दर्पण’ नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ. इसके छह वर्ष बाद लखनऊ से ‘बालहितकर’ प्रकाशित हुई. इसका परिणाम यह हुआ कि बड़ों के लिए लिख रहे साहित्यकारों का ध्यान बालसाहित्य की ओर गया. उल्लेखनीय है कि संस्कृत में बालपत्रकारिता का आरंभ बहुत पहले, 1876 में ही हो चुका था. संस्कृत की प्रथम बालपत्रिका थी—‘विद्यार्थी’. पहले चरण में इसके मात्र दो अंक ही निकल पाए थे. पत्रिका का पुनःप्रकाशन 1878 में हुआ. उसके बाद भी पत्रिका थोड़े समय ही निकल पाई थी.

रचनात्मक बालसाहित्य लेखन के क्षेत्र में भी भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रेरणा से युगांतरकारी कार्य हुआ. उनके उत्साहवर्धन के फलस्वरूप बद्री नारायण ‘प्रेमघन’ ने सुंदर बालोपयोगी कविताएं लिखीं. उनके अलावा श्रीनिवास दास, प्रतापनारायण मिश्र, रायकृष्णदास, काशीनाथ खत्री, बालकृष्ण भट्ट आदि ने भी बालोपयोगी साहित्य की रचना की. प्रेमघन कवि थे. उन्होंने मुख्यतः बालोपयोगी कविताओं की रचना की. जबकि प्रताप नारायण मिश्र, रायकृष्ण दास, बालकृष्ण भट्ट, काशीनाथ खत्री ने बच्चों के लिए कहानियों और नाटकादि लिखकर बालसाहित्य की धारा को आगे बढ़ाने का काम किया. इनके अलावा फ्रेडरिक पिन्काट(1836—1896) जैसे विदेशी भी थे, जिन्हें हिंदी का लालित्य अपनी ओर खींच लाया था. गौरतलब है कि साधारण परिवार में जन्मे पिन्काट का कभी भारत आना नहीं हुआ था. वे ब्रिटेन में एक छापाखाने में शब्द संयोजक थे, जो आगे चलकर प्रसिद्ध एलन कंपनी में अधिकारी बने. छापाखाने में कार्य करते हुए उनकी हिंदी तथा भारतीय भाषाओं में रुचि जन्मी. संस्कृत, ब्रजभाषा, अवधी आदि उस समय की भारतीय भाषाओं का ज्ञान उन्होंने अपने स्वाध्याय के बल पर अर्जित किया. यह ज्ञान इतना गहरा और प्रामाणिक था कि पिन्काट की हिंदी में लिखी गई पुस्तकें उन दिनों ‘ब्रिटिश सिविल सर्विस’ के पाठ्यक्रम में सम्मिलित थीं. पिन्काट स्वयं हिंदी एवं संस्कृत के विद्वान थे. ब्रिटेन से भारत आने वाले अधिकारियों को हिंदी का ज्ञान अनिवार्य हो—इसके लिए भी पिन्काट का योगदान सराहनीय था. खड़ी बोली के आरंभिक कवियों में प्रमुख श्रीधर पाठक को लिखे गए पत्र में उन्होंने लिखा है—

बीस साल पहले मैं एकमात्र यूरोपीयन था, जिसने सरकार पर हिंदी के बारे में दबाव डाला और दस साल बाद इस नियम को बनवाने में सफल रहा कि भारत आने वाले अंग्रेजों को हिंदी की परीक्षा पास करना अनिवार्य किया जाए.’

पिन्काट आस्थावान व्यक्ति थे. तत्कालीन साहित्यिक परंपरा के अनुसार उन्होंने भी बच्चों के लिए नीतिप्रधान रचनाएं ही लिखीं. उनकी पुस्तक ‘एक थी बालदीपक’ को उन दिनों बिहार के स्कूलों में पढ़ाया जाता था. इस कालखंड की कविताएं और कहानियों साहित्यिक दृष्टि से चाहे जो हों, उनमें मौलिकता का अभाव है. अधिकांश रचनाएं बच्चों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिए लिखी गई हैं. उनमें उपदेशात्मकता का भाव है. मौलिक बालसाहित्य के अभाव के बावजूद इस युग का महत्त्व इसलिए है क्योंकि पहली बार बच्चों को लेकर विमर्श की शुरुआत हुई तथा उनके लिए स्वतंत्र शैक्षणिकसाहित्यिक सामग्री की आवश्यकता के बारे में सोचा गया.

हिंदी साहित्य के इतिहास में भारतेंदु युग का महत्त्व लगभग सभी विधाओं के दिशानिर्धारण के लिए जाना जाता है. विशेषकर नाटक, कविता, कहानी आदि के क्षेत्र में इस युग में जो शुरुआत हुई, उसने कालांतर में महान साहित्यकारों की कई पीढ़ियों को जन्म दिया. उनीसवीं शताब्दी के समापन तक पहुंचतेपहुंचते हिंदी साहित्य की धाराओं के निर्धारण का काम लगभग पूरा हो चुका था. खड़ी बोली स्वयं को उस समय राजकाज में उपयोग हो रहीं भाषाओं के विकल्प के रूप में स्थापित कर चुकी थी. स्वयं पिन्काट ने माना था कि इस भाषा में राजभाषा बनने के समस्त गुण उपलब्ध हैं. आगे चुनौती भाषा के परिमार्जन तथा मौलिकता के समावेश को लेकर थी. भाषा को लेकर अब भी दो वर्ग थे, जो भारतेंदु युग के आरंभ से चले आ रहे थे. उनमें से एक संस्कृतनिष्ठ हिंदी का समर्थक था, तो दूसरा उर्दू मिश्रित हिंदी का. भाषासंबंधी इस मतभेद के पीछे उस समय कुछ लेखकों की सांप्रदायिक दृष्टि भी थी. कुछ हिंदी साहित्यकार संस्कृतनिष्ठ हिंदी के प्रयोग को जातीय पुनरुत्थान के रूप में देख रहे थे. उनके अलावा कुछ साहित्यकार थे जो समावेशी चेतना पर जोर देते थे और लेखक की भाषा को आमजन की भाषा बनाए रखने के समर्थक थे. बालसाहित्य को लेकर भी चुनौतियां कम नहीं थीं. वह अब भी उपदेशात्मक बना हुआ था. इस क्षेत्र में युगांतरकारी काम हुआ, महावीर प्रसाद द्विवेदी के तत्वावधान में. 1903 में ‘सरस्वती’ के संपादन के साथ ही द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य को रचनात्मक और तत्वात्मक सुधार के प्रति समर्पित कर दिया. बालसाहित्य की दृष्टि से भी द्विवेदीयुग में उल्लेखनीय कार्य हुआ. इस युग के आरंभ में बच्चों के मनोरंजन के लिए पाठ्येत्तर पुस्तकों के प्रकाशन पर जोर दिया गया. कई लेखकों ने बच्चों के लिए स्वयंस्फूर्त भाव से मौलिक पुस्तकें लिखीं. आवश्यकतानुसार कुछ पुस्तकें लिखवाई भी गईं. यद्यपि आरंभ में जो पुस्तकें प्रकाशित हुईं, उनपर धार्मिक पुस्तकों का दबाव था. रामायण और महाभारत के बालोपयोगी संस्करणों ने बच्चों को भारतीय साहित्य की परंपरा से जोड़ने में मुख्य भूमिका अदा की. बालमनोरंजन को केंद्र में रखकर लोककथाओं और पौराणिक कथाओं को संकलित किया जाने लगा. लगभग इसी दौर में श्रीसीतारामशरण भगवानप्रसाद रूपकलाजी द्वारा रचित ‘पीपाजी की कथा’ नामक लघु पुस्तक का प्रकाशन हुआ. यह गन्नौर के विलासी सम्राट पीपा के भोग विलास से उकताकर वैराग्य धारण कर, ‘संत पीपाजी’ बनने की कथा थी. पुस्तक बड़ों के साथसाथ बच्चों में भी लोकप्रिय हुई. इस पुस्तक के उस दौर में कई संस्करण प्रकाशित हुए.

सरस्वती का प्रकाशन साहित्यिक पत्रकारिता के दौर में नए युग की शुरुआत थी. यह युग पत्रकारिता के नए क्षेत्रों में विस्तार का भी था. महिलापत्रकारिता की नींव तो भारतेंदु ही रख चुके थे. ‘बाला बोधिनी’ में समयसमय पर बालोपयोगी सामग्री प्रकाशित होती थी. बालसाहित्य की स्वतंत्र पत्रकारिता के शुभारंभ का श्रेय द्विवेदी युग को जाता है, जिसमें पहली दस्तक 1882 में निकली पत्रिका ‘बालसखा’ की रही. 1906 में अलीगढ़ से ‘छात्र हितैषी’ का प्रकाशन आरंभ हुआ तो बनारस से इसी वर्ष ‘बाल प्रभाकर’ ने दस्तक दी, इसके संपादक थे, किशोरीलाल गोस्वामी. फिर तो एक के बाद बालपत्रिकाओं के प्रकाशन का सिलसिला आरंभ हो गया. 1910 में इलाहाबाद से ‘विद्यार्थी’ का प्रकाशन हुआ. इसमें किशोर और बालक दोनों के लिए उपयोगी सामग्री का प्रकाशन होता था. इसके मात्र दो वर्ष बाद 1912 में नरसिंहपुर से एक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ, नाम था—‘मानीटर’. देश में जैसेजैसे स्वाधीनता संग्राम जोर पकड़ रहा था, हिंदी पत्रकारिता भी उतनी ही तेजी से विस्तार ले रही थी. बालपत्रकारिता पर उसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही था. इसके फलस्वरूप एक के बाद एक नई और उपयोगी बालोपयोगी पत्रिकाओं के प्रकाशन का सिलसिला बन रहा था. बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में प्रकाशित होने वाली प्रमुख बालपत्रिका थी, सुदर्शनाचार्य के संपादन में निकली—‘शिशु’. सुदर्शनाचार्य के पास बालसाहित्य को लेकर मौलिक दृष्टि थी. इसके फलस्वरूप बालसाहित्य के नए युग की शुरूआत हुई. पहली बार बालक को परंपरा और उपदेशात्मक साहित्य की कैद से बाहर निकालकर मौलिक लेखन के बारे में विचार किया गया. उसके बाद तो ‘बालसखा(1917)’ संपादक बद्रीनाथ भट्ट, ‘छात्र सहोदर(1920)’ संपादक मातादीन शुक्ल बाद में नरसिंह दास, ‘वीर बालक’(1924), ‘बालक’(1926), इलाहाबाद से संपादक रामजीलाल शर्मा के संपादन में ‘खिलौना’(1927) जैसी बालसाहित्य की श्रेष्ठ एवं मौलिक पत्रिकाओं की कतार लग गई. इनमें सबसे अधिक प्रतिष्ठा मिली ‘बालसखा’ को. 53 वर्षों तक निरंतर प्रकाशित होते वाली यह पत्रिका बालसाहित्य में नवीनता की स्थापक सिद्ध हुई. महान बालसाहित्यकारों की बड़ी पीढ़ी तैयार करने का श्रेय भी इस पत्रिका को जाता है. इससे बालसाहित्य को महत्त्व मिलना आरंभ हुआ. फलस्वरूप बड़े साहित्यकारों का ध्यान भी बालसाहित्य की ओर गया. रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की प्रथम कविता जो 1924 में छपी थी, के प्रकाशन का श्रेय ‘छात्र सहोदर’ को जाता है.

द्विवेदी युग में साहित्य में भाषा के परिमार्जन के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम हुआ. स्वयं द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ जैसी स्तरीय पत्रिका का संपादनदायित्व संभाला जिसने हिंदी साहित्य को भाषा और वर्तनी की एकरूपता में बांधने में बड़ी भूमिका अदा की. इससे हिंदी की प्रतिष्ठा में इजाफा हुआ. फलस्वरूप हिंदी और उर्दू के बीच की वह दूरी मिटने लगी, जो खड़ी बोली के मूल में जन्मी थी. स्मरणीय है कि खड़ी बोली को महत्त्व दिए जाने के पीछे हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच वर्चस्व की लड़ाई थी. 1837 में स्थानीय प्रशासन को चुस्त एवं जिम्मेदार बनाने तथा जनसाधारण में कंपनी के प्रति विश्वास पैदा करने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने घोषणा की थी कि स्थानीय प्रशासन तथा अदालतों की कार्रवाही के लिए स्थानीय भाषा का प्रयोग होगा. उस समय तक हिंदी और उर्दू का भेद नहीं बन पाया था. न हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच कोई सांप्रदायिक दुराव था. लेकिन भाषाई नीति लागू होने के बाद संबंधों में खटास पड़ने लगी थी. हिंदुओं को लगता था कि यदि सरकारी कामकाज की भाषा उर्दू बनती है तो भाषा के जानकार होने के कारण मुस्लिमों को सरकारी नौकरियों में अधिक अवसर प्राप्त होंगे, इससे उनका विकास बाधित होगा. इसलिए हिंदुओं का एक वर्ग सरकारी कामकाज के लिए वैकल्पिक भाषा की खोज में था. हालांकि ब्रज, अवधी और भोजपुरी उस समय की स्थापित भाषाएं थीं. ब्रज और अवधी की तो समृद्ध साहित्यिक परंपरा भी थी. इन भाषाओं का साहित्य लोकतत्वों से समृद्ध था. संस्कृत देवभाषा थी. उसपर अपना विशेषाधिकार कायम रखते हुए हिंदू पुनरुत्थानवादी लेखक ऐसी भाषा चाहते थे, जो अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय हो. इसके लिए दिल्ली और मेरठ के आसपास के क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषा को साहित्यिक भाषा के रूप में चुना गया. उसको नाम दिया गया ‘खड़ी बोली’ का. भाषाई राजनीति के चलते तत्कालीन बुद्धिजीवी वर्ग दो हिस्सों में बंट गया. भारतेंदु युग का आरंभ उर्दू के समानांतर वैकल्पिक भाषा खड़ी करने के संघर्ष के फलस्वरूप हुआ था. इसलिए उस युग की चुनौतियां बड़ी थीं. द्विवेदी युग में हिंदी अपना संस्कार ग्रहण कर चुकी थी, अतएव नए लेखकों तेजी से उसकी ओर आकर्षित हुए थे.

सरस्वती’ ने न केवल हिंदी को भाषाई कलेवर में ढाला, वर्तनी को एकरूपता प्रदान की, बल्कि लेखकों की कई पीढ़ियां भी तैयार कीं. इसके बावजूद बालसाहित्य के क्षेत्र में यथास्थिति बनी रही. यह बात अलग है कि बच्चों के लिए कई उल्लेखनीय पत्रिकाएं इस युग में आरंभ हुईं. बालसाहित्य को बढ़ावा देने के कारण ‘विद्यार्थी’, ‘बालसखा’, ‘वानर’ आदि पत्रिकाएं इस युग की विशिष्ट पहचान बनीं. लेखन की दृष्टि से भी इस युग में बदलाव देखा गया. भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय में बालसाहित्य रामायण, महाभारत आदि के बालोपयोगी संस्करणों….उपनिषदों, पुराणों की कहानियों के पुनर्लेखन तथा ‘हितोपदेश’ आदि के अनुवाद तक सीमित था. द्विवेदी युग में बालसाहित्य के क्षेत्र में मौलिक विषयों का समावेश हुआ. इस युग में महाकाव्यों, पुराणों, वैताल पचीसी, सिंहासन बतीसी आदि रचनाओं के अनुवाद, पुनर्लेखन के अलावा लोकसाहित्य ने भी बालसाहित्य में दस्तक दी. यूं तो लोकसाहित्य को साहित्य की मुख्यधारा में लाने की शुरुआत भारतेंदु हरिश्चंद्र कर चुके थे. उन्होंने ‘भारत दुर्दशा’ तथा ‘अंधेर नगरी’ में लोकतत्वों का जमकर उपयोग किया था. इन दोनों नाटकों की सफलता का मुख्य कारण भी व्यंजना के साथ लोकतत्व की उपस्थिति थी, जो दर्शाती थी कि भारतीय लोकमानस अंग्रेजी शासन से त्रस्त होकर उसको नकार चुका है. लेकिन मौलिक कथासाहित्य का अभाव था. द्विवेदी युग में राजारानी, पशुपक्षी के अलावा चोरठग आदि भी बालसाहित्य में पात्र के रूप में समाने लगे. हालांकि उसपर अब भी उपदेशात्मकता का कब्जा था. लेकिन रचनाओं में नए पात्रों की दस्तक से संकेत मिलता है कि बालसाहित्य में गुणात्मक परिवर्तनों का दौर जारी था.

नई बालपत्रिकाओं ने इस युग में बड़ी संख्या में साहित्यकारों को बालसाहित्य से जोड़ा. इस युग के प्रमुख बालसाहित्यकारों में महावीर प्रसाद द्विवेदी के अलावा श्रीधर पाठक, बालमुकुंद गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, मैथिलीशरण गुप्त, ललन द्विवेदी गजपुरी, कामताप्रसाद गुरु, रामजीलाल शर्मा, सुखराम चौबे ‘गुणाकर’, लज्जाशंकर, ठाकुर श्रीनाथ सिंह, रामनरेश त्रिपाठी, रामचंद रघुनाथ सर्वटे, विद्याभूषण ‘विभु’, गिरिजादत्त ‘गिरीश’, सुदर्शन, सुदर्शनाचार्य, डा. रामकुमार वर्मा, शंभुदयाल सक्सेना, रघुनंदन प्रसाद त्रिपाठी, गोपालशरण सिंह आदि सम्मिलित थे. इस युग में बालसाहित्य की नई पुस्तकों के साथसाथ बच्चों के लिए नया पाठ्यक्रम बनाने की पहल भी की गई. ‘उपन्यास सम्राट’ कहे जाने वाले प्रेमचंद ने भी इसी युग में दस्तक दी. उनका अधिकांश साहित्य बड़ों के लिए है. लेकिन भाषाशैली और कथ्य के स्तर पर सहजाभिव्यक्ति के कारण उनकी अनेक कहानियों आधुनिक बालसाहित्य की धरोहर मानी जाती हैं. उनके द्वारा रचित कहानियों में कई के पात्र बालक और किशोर थे. ‘ईदगाह’, ‘गिल्लीडंडा’, ‘आत्माराम’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘पुरस्कार’, ‘बड़े भाई साहब’, ‘जुलूस’, ‘सवा सेर गेंहूं’, ‘नशा’, ‘जुलूस’ जैसी कहानियों मौलिक बालसाहित्य की प्रेरक और पहचान बन गईं. बालपाठकों के लिए प्रेमचंद ने ‘कुत्ते की कहानी’ शीर्षक से एक उपन्यास भी लिखा. इसे हिंदी का पहला बाल उपन्यास माना जाता है. प्रेमचंद के अलावा सुदर्शन ने भी कुछ बालोपयोगी कहानियों लिखीं, जिनमें ‘हार की जीत’, ‘साइकिल की सवारी’ हिंदी की उत्कृष्टतम कहानियों में से हैं. कविताओं के क्षेत्र में विद्याभूषण ‘विभू’, रामनरेश त्रिपाठी, श्रीधर पाठक आदि कवियों का उल्लेखनीय योगदान रहा. उस समय तक भी हालांकि बालसाहित्य को गंभीरता से लेने का चलन कम ही था. न बालक के स्वतंत्र व्यक्तित्व को महत्त्व देने वाली अवधारणा का ही जन्म हुआ था. इसके बावजूद इस युग के कई साहित्यकारों ने स्तरीय बालसाहित्य की रचना की. लेकिन इस युग की श्रेष्ठतम बालोपयोगी कहानियोंं वे हैं, जिनका लेखन सामान्य पाठकों को ध्यान में रखकर किया गया था. इसके अलावा कुछ नई बालोपयोगी पत्रिकाओं का प्रकाशन भी इस दौर में आरंभ हुआ. प्रेमचंद, सुदर्शन आदि की बालोपयोगी कहानियोंं परंपरा से हटकर थीं, इससे बालसाहित्य में मौलिक लेखन को बढ़ावा मिला, जो उससे पहले दूर की कौड़ी लगती थी. बच्चों के लिए नई पाठ्यपुस्तकों के लेखन की जिम्मेदारी भी विद्वान साहित्यकारों और मनीषियों ने संभाली. हालांकि उनका महत्त्व केवल पाठ्य पुस्तकें उपलब्ध कराने जैसा था, लेकिन यह पहला अवसर था जब पाठ्यपुस्तकों में कविता, कहानी के अलावा पहेलियों, निबंध, बुझौवल आदि को भी स्थान दिया गया था. फलस्वरूप हिंदी पाठकों का नया वर्ग पैदा हुआ.

द्विवेदी युग के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षरों में बालमुकुंद गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, सुखराम चैबे ‘गुणाकर’, मनन द्विवेदी गजपुरी, मैथिलीशरण गुप्त आदि प्रमुख हैं. इस युग में ‘बालहितकर’, ‘बालप्रभाकर’, ‘विद्याथीं’, ‘बालमनोरंजन’, ‘शिशु’ आदि पत्रिकाओं का आरंभ हुआ. बालकों के भाषाज्ञान को समृद्ध करने के लिए व्याकरण पर आधारित पुस्तकों का लेखन भी हुआ. इससे बालसाहित्य की ओर समीक्षकों का ध्यान गया. स्वयं महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ में बालोपयोगी रचनाओं को मुक्तमन से स्थान दिया. इसी युग में बच्चों के लिए स्वतंत्र समाचारपत्रों का श्रीगणेश हुआ. ‘बालहितकर’(लखनऊ), ‘छात्र हितैषी’(अलीगढ़, 1906), ‘बालप्रभाकर’, ‘मानीटर’, ‘विद्यार्थी’, ‘बालमनोरंजन’, ‘शिशु’ आदि अनेक बालोपयोगी पत्र आरंभ किए गए. इन सभी ने अपनीअपनी तरह से बालसाहित्य को आगे ले जाने, उसको स्थायित्व देने में मदद की. यह बात अलग है कि संसाधनों के अभाव में ये पत्र लंबे समय तक मौजूदगी बनाए रखने में नाकाम रहे. इसी समय में ‘बालसखा’ निकालने की घोषणा हुई. द्विवेदी जी के प्रोत्साहन पर इस समाचारपत्र को निकालने का दायित्व वहन किया था—‘इंडियन प्रेस’ ने. यह पत्रिका न केवल चली बल्कि उस समय बालसाहित्य के स्वरूप का निर्धारण करने में भी बहुत सहायक सिद्ध हुई. ‘बालसखा’ ने बच्चों के लिए मौलिक साहित्य रचना को आंदोलन के रूप में लिया, जिसके परिणामस्वरूप हिंदी बालसाहित्य तंत्रमंत्र, जादूटोने, पुराकथाओं और परीकथाओं के दायरे से बाहर निकलने को छटपटाने लगा. इसी युग में साहित्यकारों का एक वर्ग ऐसा भी उभरा, जो बच्चों के लिए रोजमर्रा के जीवन से उठाई गई, कदाचित नए आविष्कार और विज्ञान के रोमांच भरपूर, मौलिक एवं समसामयिक रचनाएं लिख रहा था. रेल का आगमन भारत में हो चुका था. भारतीय रेल पर इसी समय में लिखी गई, एक अख्यातनाम् कवि माधव या माधो कवि की हस्तलिखित पाण्डुलिपि से प्राप्त एक कविता का उद्धरण देखिए—

घन सो घहराति औ उड़ति हाहाकार करि

खात पाठ पानी धुवा छायो आसमान है.

वौक बाहार देश देशन सो भेंट हो

ऐसी फहरात मानो अर्जुन को बान है.

माधो कवि कहै नेक पाइके बखान करौ

लाखान मन लादि लेत जानत जहान है.

धाम है सुजान बात दूसरी न आन मारौ

रेल मेरी जान तो कुबेर को विमान है.

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और की सवारी असवारी सबै न्यारीन्यारी

रेल की सवारी से सवारी सबै रद्द है.

हिंदी बालसाहित्य को द्विवेदी युग का महत्त्वपूर्ण योगदान यह रहा कि बच्चों के मनोरंजन को ध्यान में रखकर रचनाएं लिखी जाने लगीं. हालांकि एक वर्ग अब भी बच्चों को पौराणिक साहित्य से भरपूर सामग्री लिख रहा था. राजारानी, भूतप्रेत, तंत्रमंत्र और जादूगरी से भरपूर कहानियों की रचना भी धड़ल्ले से जारी थी. बच्चों की रुचि एवं उनके मनोरंजन के नाम पर बालसाहित्यकारों का बड़ा वर्ग इस प्रकार की रचनाएं दे रहा था. निश्चित रूप से ये कहानियोंं लोकपरंपरा से साहित्य में आई थीं; तथा पर्याप्त साहित्यिक चेतना एवं स्पष्ट दृष्टिकोण के अभाव में लेखकों द्वारा बच्चों के लिए अपना भी ली गई थीं. तथापि ऐसे भी अनेक लेखक थे, जो इस प्रकार के साहित्य को अनुपयोगी मानते हुए बच्चों के लिए रोचक, मनोरंजक, मौलिक तथा प्रेरणास्पद रचनाएं दे रहे थे. यही उस युग की वास्तविक देन कही जानी चाहिए. बालसाहित्य को द्विवेदी युग की एक और बड़ी देन थी, जिसपर पर्याप्त चर्चा अभी तक अपेक्षित है, वह है विज्ञान बालसाहित्य का आर्विभाव. अठारहवीं शताब्दी की औद्योगिक क्रांति विज्ञानशोधों के आधार पर संभव हो पाई थी. बालसाहित्य में नई चेतना के स्थायित्व के लिए उसको विज्ञान साहित्य से जोड़ना अनिवार्य था. पश्चिम में चूंकि तकनीकी क्रांति भी पहले आई थी, इसके फलस्वरूप वहां विज्ञान साहित्य उनीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही दस्तक दे चुका था. वहां बच्चों के लिए एक से बढ़कर एक विज्ञान पुस्तकें लिखी जा रही थीं. बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में सापेक्षिकता के सिद्धांत की खोज हो चुकी थी और मानवप्रज्ञा मुक्त ब्रह्मांड के नएनए छोरों की तलाश में जुटी हुई थी. ऐसे में जूलियस बर्न तथा एच. जी. वेल्स ने बच्चों के लिए विज्ञानपरक बालसाहित्य को रचकर नए युग का सूत्रपात किया. जूलियस बर्न द्वारा लिखित ‘जर्नी टू सेंटर आफ दि अर्थ’ गुरुत्वाकर्षण के बारे जानकारी देने वाला रोमांचक उपन्यास था. एच. जी. वेल्स ने ‘टाइम मशीन’ तथा ‘दि इन्वीजिबिल मेन’ जैसे उपन्यास लिखकर विज्ञान साहित्य में क्रांति लाने का काम किया था. इन पुस्तकों की लोकप्रियता का प्रभाव भारतीय लेखकों और पाठकों पर भी पड़ा, जो प्रकारांतर में हिंदी विज्ञान साहित्य की नींव बना. इससे प्रेरित होकर हिंदी के कई साहित्यकार आगे आए. इस प्रकार हिंदी विज्ञान साहित्य नींव पड़ी. यद्यपि विज्ञान साहित्य संबंधी स्पष्ट सोच के अभाव में उनका लेखन अनुवाद और अनुसरण की परंपरा से आगे न बढ़ सका. तो भी उनके योगदान को नकार पाना संभव नहीं है.

हिंदी में विज्ञान साहित्य की शुरुआत करने का श्रेय अंबिकादत्त व्यास को जाता है. उन्होंने ‘आश्चर्य वृतांत’ नामक उपन्यास लिखा था. यह उपन्यास स्वयं लेखक द्वारा संपादित पत्र ‘पीयूष प्रवाह’ में चार वर्षों 1884 से 1888 तक प्रकाशित होता रहा. इस आधार पर अंबिकादत्त व्यास को हिंदी का प्रथम विज्ञान लेखक होने का श्रेय दिया जाता है. हालांकि उनकी इस दावेदारी पर सवाल भी लगातार उठते रहे हैं. इसका कारण है कि ‘आश्चर्य वृतांत’ मौलिक कृति न होकर, जूलियस बर्न के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ए जर्नी टू दि सेंटर आफ दि अर्थ’ से प्रभावित था. इसके वर्षों बाद केशव प्रसाद सिंह ने ‘चंद्र लोक की यात्रा’ शीर्षक से एक उपन्यास लिखा. उसका प्रकाशन 1900 में सरस्वती में हुआ. यह कृति भी विदेशी प्रभाव से मुक्त नहीं थी. अंबिकादत्त व्यास के उपन्यास की भांति केशवप्रसाद सिंह की पुस्तक पर भी बन्र्स के उपन्यास ‘फाइव वीक्स इन बैलून’ की छाया थी. इनके अलावा भी हिंदी में कई विज्ञानपरक बालोपयोगी पुस्तकों की रचना की गई, लेकिन द्विवेदी युग तक हिंदी विज्ञान साहित्य अनुवाद और विदेशी प्रभाव से मुक्त न हो सका. हिंदी विज्ञान साहित्य में वास्तविक हलचल स्वतंत्रता के बाद ही संभव हो सकी. इसके बावजूद विज्ञान साहित्य के क्षेत्र में द्विवेदी युग के योगदान को नकार पाना संभव नहीं है. इसलिए कि अनुवाद के बहाने से ही सही, इस युग में हिंदी साहित्यकारों का ध्यान विज्ञान साहित्य की ओर गया. इसके फलस्वरूप सरस्वती जैसी पत्रिका ने भी वैज्ञानिक कथानकों पर आधारित कहानियों को प्रमुखता से प्रकाशित किया.

©  ओमप्रकाश कश्यप