‘मेरा बचपन’(छेलबेला) कवियों का कवि कहे जाने वाले रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा बच्चों के लिए लिखी गई पुस्तक है. शांतिनिकेतन के अपने सहयोगी गोसाईं जी के आग्रह पर कि बच्चों के लिए कुछ लिखा जाए, कविवर ने सोचा—‘बालक रवींद्रनाथ की कहानी ही लिखी जाए.’ बालक रवींद्रनाथ दूसरे बच्चों की भांति साधारण था. बल्कि अतिसाधारण कहिए. बच्चों की प्रतिभा को आंकने के जो सामान्य कसौटियां आजमायी जाती हैं, बालक रवींद्रनाथ उनपर कभी पूरा नहीं उतर पाता था. प्रतिभा का जो विस्फोट उसमें आगे देखने को मिला, आरंभिक जीवन में उसका कोई संकेत नहीं था—
‘उन दिनों के प्रदीप में जितना उजेला था, उससे कहीं अधिक अंधेरा था. बुद्धि के इलाके में उस समय तक वैज्ञानिक सर्वे नहीं हुई थी. संभव और असंभव की चौहद्दियां उस समय एक–दूसरे में उलझी हुई थीं.’
कवि के बचपन की स्मृतियों को संजोए ‘छेलबेला’ 1940 में रची गई. उसी वर्ष उसका प्रथम संस्करण बांग्ला में छपकर आया. हिंदी पाठकों के लिए पुस्तक उपलब्ध कराने का जिम्मा लिया डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने. उनके द्वारा अनूदित ‘छेलबेला’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरा बचपन’ अगले ही वर्ष बाजार में आ गया. इस आलेख के समस्त उद्धृण उसी पुस्तक से हैं. ‘छेलबेला’ में रवींद्रनाथ के बचपन से किशोरावस्था तक की कहानी है.
पुस्तक लिखते समय कविवर की आयु 79 वर्ष थी. सुख–समृद्धि और यशकीर्ति से भरपूर जीवन वे जी चुके थे. चौतरफा ख्याति और वैश्विक प्रतिष्ठा के बावजूद कोई सूनापन उनके मन में था. यूं तो रचनाकार कभी अपने कृतित्व से संतुष्ट नहीं होता. कुछ नया रचने और गढ़ने की ललक उसके मन में बनी ही रहती है. लेकिन रवींद्रनाथ ठाकुर की पीड़ा न रच पाने की पीड़ा नहीं है. वे उन विरलों में से थे जो जीवन के अंतिम क्षण तक अपनी रचनाधर्मिता को बचाए रखते हैं. अपने रचनाकर्म के प्रति आश्वस्तिबोध भी उनके मन में था. तभी तो जीवन की संध्याबेला में मृत्यु सन्निकट देख वे सारा लेन–देन साफ कर लेना चाहते हैं. 7 अगस्त 1941 को उनकी मृत्यु हुई, उससे मात्र एक सप्ताह पहले 30 जुलाई को सहायक के जरिये एक कविता उन्होंने रची थी. जिसमें उन्होंने आत्मीय स्वजनों को बहुत स्नेह और सम्मान के साथ याद किया था—
‘जन्म दिन निकट आते–आते मैं ढल रहा हूं. इस अवसान वेला में मैं चाहता हूं अपने सभी मित्र, उनका स्नेहिल स्पर्श. हृदय की अतल गहराइयों में मैं लूंगा जीवन की अनंत भेंट….मनुष्यता का आखिरी आशीर्वाद. मेरी झोली आज खाली है. जो कुछ मेरे पास देने को था, वह मैं लुटा चुका हूं. बदले में मैंने पाया है, थोड़ा प्यार, थोड़ी क्षमा. ये मेरे जीवन की अमूल्य निधियां हैं. मैं इन्हें अपने साथ उस सफर पर ले जाऊंगा जो वर्णनातीत है….’
कविता से यह स्पष्ट होता है कि उन्हें यशर्कीति थी. लेकिन कहीं कुछ असंतोष भी था. रवींद्रनाथ के जन्म के समय जमींदारी का वैभव क्षीण पड़ चुका था. अपने बचपन की स्मृति के बहाने कवि–शिरोमणि उसी वैभव को याद करने की कोशिश करते हैं. ‘छेलबेला’ इसी की कहानी है. बचपन की ओर लौटती हुई स्मृतिरेख ‘कलकत्ता’ से जा मिलती है—‘मेरा जन्म लिया था पुराने कलकत्ते में….’ अतीत की स्मृतियां वैसे भी गाढ़ी हुआ करती हैं. शायद उनसे कुछ पीछे छूट जाने का गम जुड़ा होता है. वही उन्हें आसानी से विस्मृत नहीं होने देता. रवींद्रनाथ की आंखों में भी पुराना कोलकाता मानो साकार हो उठता है, बढ़ी उम्र के बावजूद याददाश्त धोखा नहीं देती. एक–एक चीज उन्हें याद आती है—‘शहर में उन दिनों छकड़े छड़–छड़ करते हुए धूल उड़ाते दौड़ा करते और रस्सीवाले चाबुक घोड़ों की हड्डी निकली पीठ पर सटासट पड़ा करते.’ यहां हम कविवर की स्फटिक–जैसी स्वच्छ–पारदर्शी स्मृति का अनुभव कर सकते हैं. स्मृति चित्रों की ऐसी बिंबात्मकता दुर्लभ है. अस्सी की उम्र में भी वेे ‘घोड़ों की हड्डी निकली पीठ’ पर चाबुकों की मार को साफ–साफ देख पाते है. जैसे–जैसे आगे बढ़ते हैं, वर्णन उतना ही करीबी और साफ होता जाता है, मानो बीच के पैंसठ–सत्तर वर्ष घटकर शून्य में ढल गए हों या उनके पास ऐसी कोई दृष्टि हो, जिससे वे अतीत को साफ–साफ देख सकते हैं—
‘उन दिनों काम की ऐसी दम फुला देने वाली ठेलमठेल नहीं थी. इतमीनान से दिन कटा करते थे. बाबू लोग कश खींचकर पान चबाते–चबाते आफिस जाते—कोई पालकी में और कोई साझे की गाड़ी में. जो लोग पैसेवाले थे उनकी गाड़ी पर तमगे लगे होते. चमड़े के आधे घूंघट वाले कोचबक्स पर कोचवान बैठा करता, जिसके सिर पर बांकी पगड़ी लहराती थी.’ शैली गज़ब और वर्णन इतना स्वाभाविक कि पढ़ते–पढ़ते दृश्य आंखों में साकार हो उठते हैं.
उपन्यास बच्चों के लिए लिखा गया है. उपन्यास में बालक सिर्फ एक रवींद्रनाथ है. बाकी सब या तो नौकर–चाकर और शिल्पकर्मी हैं; अथवा बड़े भाई बहन और भाभियां. दादा द्वारिकानाथ ठाकुर के तीन पुत्र थे—देवेंद्रनाथ, गिरींद्रनाथ तथा नगेंद्रनाथ. दादा बंगाल के प्रतिष्ठित व्यापारी थे. उनके राजसी ठाठबाट को देखते हुए लोग लोगों ने उन्हें ‘प्रिंस’ की उपाधि दी थी. रवींद्रनाथ पिता देवंेद्रनाथ की तेरह जीवित संतान में सबसे छोटे थे. समाज में उनके परिवार की काफी अच्छी प्रतिष्ठा थी. उस भरे–पूरे समृद्ध परिवार में प्रतिभाओं की कमी न थी. साहित्य एवं कला का वातावरण था. सबसे बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ प्रसिद्ध कवि और दर्शनशास्त्री थे, मंझले भाई ज्योतिंद्रनाथ कवि और संगीतज्ञ. एक बहन स्वर्णकुमारी उपन्यासकार थीं और भाई सत्येंद्रनाथ ‘इंडियन सिविल सर्विस’ में प्रवेश करनेवाले प्रथम भारतीय. उन्होंने तिलक की प्रसिद्ध कृति ‘गीता रहस्य’ का बंगला अनुवाद किया था. ज्योतिंद्रनाथ की पत्नी कादंबरी देवी जिनसे रवींद्रनाथ का गहनानुराग था, भी कविताओं में रुचि रखती थीं. रवींद्रनाथ ने स्वयं लिखा है कि कादंबरी देवी उनकी कविताओं की प्रथम श्रोता और आलोचक थीं. ऐसे परिवेश में ही रवींद्रनाथ का बचपन बीता. पिता की चौदहवीं संतान और माता से असमय बिछुड़ जाने ने कारण, नौकर–चाकरों और भाई–बहनों से भरे परिवार के बावजूद वे अंतर्मुखी बनते चले गए.
रवींद्र परिवार के सदस्यों में कला और संस्कृति के प्रति तीव्र आकर्षण क्या अनायास था? इसके लिए पुराने कोलकाता की पड़ताल करनी पड़ेगी. उन दिनों वह भारत के प्रमुख नगरों में था. ‘पूरब का मोती’ कहे जाने वाला वह शहर ब्रिटिश साम्राज्य का दूसरा सबसे बड़ा नगर था, जिसकी पहचान अपने आलीशान भवनों से होती थी. ब्रिटिश और फ्रांसिसी व्यापारियों के संपर्क में आने पर कोलकाता के समाज में पुनर्जागरण की लहर व्याप्त थी. अंग्रेजी के संपर्क में आने से बाबू संस्कृति का जन्म हुआ जो पढ़े–लिखे बंगालियों की जमात थी. ब्रिटिश साम्राज्य को जमाने में इन बाबुओं का बड़ा योगदान था. ‘बाबू’ शब्द अच्छे अर्थों में प्रयुक्त नहीं था. यह उन लोगों को दिया गया संबोधन था जो पश्चिमी ढंग की शिक्षा पाकर भारतीय जीवनमूल्यों को हिकारत की दृष्टि से देखते तथा अंग्रेजों का कृपापात्र बने रहने के लिए खुद को उनके रंग–ढंग में ढालने के लिए प्रयत्नशील रहते थे.
जनसाधारण में बाबू लोगों की जीवनशैली को लेकर आकर्षण था. उनका दिखावटी सम्मान भी होता था, लेकिन यह मानते हुए कि वे ब्रिटिश सत्ता के सहयोगी हैं, लोग उनसे मन ही मन नफरत भी करते थे. यह बात बाबू लोग भी जानते थे. इसके बावजूद वे अपने जीवन की सिद्धि सत्तावर्ग से निकटता प्राप्त करने में मानते. स्वयं को अंग्रेजों का स्वामीभक्त और खैरख्वाह सिद्ध करने के लिए वे निरंतर प्रयत्नरत रहते. बदले में बस इतना चाहते थे कि अंग्रेज भी उनपर उतना ही विश्वास करें. लेकिन बाबू वर्ग के तमाम प्रयत्नों के बावजूद जब अंग्रेजों के बीच उनकी अस्वीकार्यता बनी रही तो उनका एक वर्ग छिटककर राष्ट्रवादियों में जा मिला. तब के राष्ट्रवादी नेताओं में से अधिकांश मध्यवर्म से आए थे. वे नई शिक्षा, विशेषकर यूरोप से आ रही खबरों से प्रभावित थे. वे अपनी राष्ट्रवादी चेतना का उपयोग अपनी स्वायत्तता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए करना चाहते थे. इसके फलस्वरूप समाज में नई बहसों का जन्म हुआ. इसी को इतिहास में पुनर्जागरण के नाम से जाना जाता है. आगे चलकर उसमें जमींदारी प्रथा, धर्म, दर्शन, समाज सुधार आदि मुद्दे भी सम्मिलित होते गए. राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक सुधारों को गति मिली, आर्थिक प्रगति का लंबा दौर चला. इसका लाभ बंगाल के साहित्य और संस्कृति दोनों को हुआ. रवींद्रनाथ का उदय इसी पुनर्जागरण काल की देन है.
‘छेलबेला’ में कविवर अपने परिजनों को याद करते हैं. नौकर–चाकर तथा उस परिवेश को याद करते हैं, जो कभी पुराने कोलकाता की पहचान हुआ करता था. इनमें रोचक प्रसंग गड़ीवान को लेकर हैं, ‘जो बांट–बखरे के मामले में नाराज होता तो ड्योढ़ी के सामने पूरा टंटा खड़ा कर देता.’ पहलवान जमादार शोभाराम के बारे में है जो, ‘वजनदार मुगदर घुमाता, बैठा–बैठा भंग घोटता और कभी–कभी बड़े आराम से पत्ता समेत पूरी–पूरी मूली चबा जाता.’ अपने आसपास के परिजनों को याद करते हुए कवि अपनी उन शरारतों को भी नहीं भूल पाता जो बचपन की अक्षय–निधि कही जा सकती हैं, ‘‘हम लोग उसके कान के पास जोर से चिल्ला उठते—‘राधाकृष्ण’. वह जितना ही–हां–हां करके पैर पीटता उतनी ही हमारी जिद बढ़ती जाती. ईष्टदेवता का नाम सुनने को यह उसकी फंदी थी.’’ पढ़ने में वे साधारण थे. भावुक और कल्पनाशील मन निरंतर नए विषयों की तलाश में रहता था. पुस्तक को सामने देख उन्हें नींद आने लगती. इस बारे में, ‘न कहना ही अच्छा है. सब लड़कों में अकेले मूर्ख होकर रहने के समान गंदी भावना भी मुझे होश में न ला पाती.’
भूत–प्रेत के किस्से उन दिनों आम थे. उस शनैः–शनैः खंडहर में बदलती लंबी–चौड़ी हवेली को यत्र–तत्र झूलती लालटेनें भला कितना रोशन कर पातीं! उल्टा वे उसे और भी रहस्यमय बनाने का काम करती थीं. अंधेरा होते ही पेड़ डरावना साया बन जाते. बालक रवींद्र भूतों के ख्याल आते ही घबरा जाता, ‘मैं उधर से गुजरता तो दिल कहता रहता कि न जाने क्या पीछा कर रहा है, पीठ सनसना उठती. कोई महरी अचानक चुडै़ल की नकियान सुनती और धड़ाम से पछाड़ खाकर गिर पड़ती. वह भूतनी ही सबसे अधिक बदमिजाज थी. वह मछली पर ज्यादा चोट करती थी. घर के पश्चिमी कोने पर एक घने पत्तोंवाला बादाम का पेड़ था. एक पैर इसकी डाल पर दूसरा पैर तितल्ले के कार्निश पर रखकर कोई मूर्ति प्रायः ही खड़ी रहा करती—इसे देखा है, ऐसा कहने वाले उन दिनों अनेक थे. विश्वास करने वाले भी कम नहीं थे….आतंक ने उन दिनों चारों ओर अपना जाल ऐसा फैला रखा था कि मेज के नीचे पैर रखने से पैर सनसना उठते थे.’ बालमन के ये स्वाभाविक डर हैं जो उन दिनों आम थे. रवींद्रनाथ घटनाओं का वर्णन इतने सहज–स्वाभाविक ढंग से करते हैं कि जिज्ञासा टूटती नहीं. पाठक मन में और अधिक जानने की उत्सुकता निरंतर बनी रहती है.
आजकल भूत–प्रेत के किस्से को बच्चों और किशोरों के लिए अच्छा नहीं माना जाता. बालक पहले की अपेक्षा अधिक प्रबुद्ध भी हुआ है. उसमें वैज्ञानिक चेतना बढ़ी है. ऐसे प्रसंगों पर वह विश्वास भी नहीं करता. लेकिन जिस दौर की यह कहानी है, उसमें ऐसे विश्वास आम थे. न केवल जनसाधारण, बल्कि पढ़े–लिखें वर्ग के बीच भी. शताब्दियों से चले आ रही ये रूढ़ियां और अंधविश्वास जनसाधारण की दुर्दशा के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार भी हैं. ‘छेलबेला’ में कवि ने इन स्मृतियों को ज्यों का ज्यों समाहित किया है. मन में छिपा डर बालमन से कैसी–कैसी डरावनी कल्पनाएं करवा लेता है, इसकी जीवंत अभिव्यक्ति देखिए, ‘उन सीड़भरी अंधेरी कोठरियों में जो लोग डेरा डाले हुए थे, कौन नहीं जानता कि वे मुंह बाये रहते थे. आंखें उनकी छाती पर हुआ करती थीं, दोनों कान सूप के समान होते थे और दोनों पैर उल्टी तरफ मुड़े हुए होते थे. मैं उस भुतही छाया के सामने से मकान के भीतर के बगीचे की ओर जाता, तो हृदय के भीतर उथल–पुथल मच जाती, पैर में तेजी आ जाती थी.’ आगे कवि ने भाव–गीत ढेर सारे लिखे, जिनपर रहस्यवादी आवरण है. उनके बीजतत्व हम अतीत के डर और मुक्त आसमान में विचरण को छटपटा रही कल्पना के संगंुफन में देख सकते हैं.
बचपन की ओर लौटते हुए रवींद्रनाथ को दादी के जमाने की पालकी याद आती है, जिसका वैभव अतीत की कहानी कहानी बन चुका है. हवेली याद आती है, ‘जिसमें कितने अपने(थे), कितने पराये, कुछ ठीक नहीं.’ उन्हें ‘कांख में दबाये’ सब्जी लाती महरी की याद आती है, साथ में ‘कंधे पर कांवर रखकर’ पानी लाता दुक्खन, ‘नए फैशन की साड़ी का सौदा करने घर के भीतर घुसी आ रही’ तांतिन, ‘महावारी मजूरी पाने’ वाला दीनू सुनार, ‘कान में पांख की कलम खोंसे….मुखुज्जे के पास अपने बकाया का दावा करने चला आ रहा’ कैलाश भी उनकी सुदीर्घ स्मृति में साथ–साथ आते–जाते हंै. स्मृति की वेगवती धारा ठहरती नहीं. उसके साथ बढ़ता कवि हवेली के आंगन में रूई धुनते धुनिया, काने पहलवान के साथ लस्टम–पस्टम कुश्ती के दाव लगाते मुकंदलाल दरबान को भी भूल नहीं पाता. परिवेश की प्रामाणिक प्रस्तुति के लिए लेखक कथानक के विस्तार पर कम, पाठक को उससे अंतरंग बनाने पर ज्यादा जोर देता है. भाषायी समृद्धि के लिए उसके पास भरपूर मसाला है, फलस्वरूप शैली के बिंबात्मक होते देर नहीं लगती. पाठक को लगता है कि कवि की स्मृति के साथ वह भी उसके बचपन की यात्रा पर है.
बालक को कहानियां अच्छी लगती हैं. दूसरी चीजों की भांति रवींद्रनाथ को किस्सागोओं की भी कम न थी. वे भी हवेली में बहुसंख्यक थे. नहीं तो ठलवार के समय रवींद्रनाथ जैसे कद्रदान बालक को फुसलाने के लिए नौकरों में से ही कोई न कोई किस्सागो का वेश धारण कर लेता था. उन्हें ‘नुकीली दाढ़ी, सफाचट मूंछें, घुटी चांद’ वाले अब्दुल मांझी याद आते हैं जो उनको प्यारी–प्यारी कहानियां सुनाया करते थे. वह कोरा किस्सागो न थे. सागर–लहरों से नित–नित संघर्ष रहता था उनका. अनथक संघर्ष के दौरान कुछ कहानियां भी स्वतः उभर आतीं, ‘भयंकर तूफान, नाव अब डूबी, अब डूबी. अब्दुल ने दांत से रस्सी पकड़ी और कूद पड़ा पानी में. तैरकर रेती पर आ खड़ा हुआ और रस्सी से खींचकर अपनी डोंगी निकाल लाया.’ इतनी रोमांचक कहानी का जल्दी अंत हो यह बालक के कौतूहल को स्वीकार कहां, ‘नाव डूबी नहीं, यों ही बच गई, यह तो कोई कहानी नहीं हुई….फिर क्या हुआ?’ और बालक के उकसाने पर अब्दुल मांझी जब शुरू होते हैं तो रुकने का नाम ही नहीं लेते थे, ‘फिर तो एक नया टंटा खड़ा हो गया. क्या देखता हूं कि एक लकड़बघ्घा है. ये उसकी बड़ी–बड़ी मूंछें हैं. आंधी के समय उस पार के गंजघाटवाले पाकड़ के पेड़ पर चढ़ गया. आंधी का एक झोंका आया, उधर सारा पेड़ पर्ािं नदी में आ गिरा. और बाघराम बह चले पानी की धार में.’
उसके बाद तो कहानी ऐसी रफ्तार लेती कि पूछो मत. बीच–बीच में मोड़ आते जो बालक रवींद्रनाथ की जिज्ञासा को बढ़ावा देने वाले सिद्ध होते. कुशल किस्सागो की भांति अब्दुल मांझी एक कहानी में दूसरी कहानी पिरोते हुए आगे बढ़ जाते. पुराने जमाने में बालक के मनोरंजन का बड़ा हिस्सा लोककहानियां पूरा करती थीं. मामूली घटना को रोचक अंदाज में किस्से के रूप में सुहाने वाले लोग उसको बहुत प्यारे लगते थे. बालक रवींद्र पालकी में घूमने जाता तो ऐसी ही कहानियां और प्रसंग देखने सुनने को मिलते. हवेली में नौकरों के बीच होता तो भी मनःरंजन के लिए किस्सा–कहानी का सहारा लिया जाता. वे उसके अकेलेपन को बांटते तथा कहानी का बीजतत्व बनकर उसके मानस में पैठते गए. जोडासांको मेसन की हवा में साहित्य–गंध चौबीसों घंटे घुली रहती थी. कवि और काव्य–रसिकों का वहां प्रायः आना–जाना था. उनके प्रभाव से रवींद्रनाथ की तुकबंदी की शुरुआत सात–आठ वर्ष की अवस्था में ही हो चुकी थी.
रवींद्रनाथ के पिता अक्सर बाहर रहते थे. मां अस्वस्थ. इसलिए खेलने, खाने, घूमने–फिरने तक का अधिकांश समय नौकरों के साथ ही गुजरता था. जमींदारी का वैभव ढल रहा था, ‘हमारी चाल–ढाल गरीबों जैसी ही थी. गाड़ी–घोड़े की कोई बला नाममात्र को ही थी….पहनने के कपड़े निहायत सादे होते थे.’ असल में यह नौकर–चाकरों से भरी उस हवेली का हाल था, जिसके मालिक का ध्यान अर्थाजन से हटकर समाज के पुननिर्माण पर टिका हुआ था. राजाराम मोहनराय(1772—1833) की मृत्यु के बाद ब्रह्मसमाज को संभालने का दायित्व उन्हीं के कंधों पर था. इसलिए वे जमींदारी तथा घर–गृहस्थी के काम के लिए बहुत कम समय दे पाते थे. रवींद्रनाथ कृशकाय थे. इसका एक कारण भोजन पर नियंत्रण भी था. उसके पीछे रसोइया का योगदान भी कम न था. रसोइया ब्रजेश्वर को वे याद करते हैं, ‘सिर और मूंछों के बाल गंगा–जमुनी. मुंह के ऊपर सूखी झुर्रियां, गंभीर मिज़ाज, कड़ा गला, चबा–चबाकर बोली हुई बातें…’ ऐसे ब्रजेश्वर को उनकी देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी हुई थी. ऊपर से पवित्रता का ढोंग रचाने वाला ब्रजेश्वर स्वभाव से बड़ा ही पेटू था, ‘जब हम खाने बैठते तो एक पूरी अलग से ही हाथ में झुलाता हुआ पूछता, और दूं? कौन–सा जवाब उसके मनमाफिक है, यह बात उसके गले की आवाज से भली–भांति समझ में आ जाती थी….दूध के कटोरे पर भी उसका खिंचाव उसकी सभ्हाल के बाहर था.’
इससे रवींद्रनाथ का बचपन से ही कम भोजन पर जीने का अभ्यास होता गया. इसने उन्हें कृशकाय भले बनाया हो, लेकिन आंतरिक मजबूती बढ़ती गई. भरोसा जमा कि वे शरीर से अच्छे–खासे दिखने वाले बच्चों से कहीं अधिक ताकतवर हैं, ‘शरीर इस बुरी तरह से तंदुरुस्त था कि स्कूल से भागने का इरादा जब हैरान करने लगता तो शरीर पर तरह–तरह के जुर्म करके भी उसमें बीमारी पैदा नहीं कर पाता. पानी में भिगोया हुआ जूता पहनकर दिन–भर घूमता रहा, सर्दी नहीं हुई. कातिक के महीने में खुली छत पर सोया किया, कुर्ता और बाल भीग गए; लेकिन गले में जरा–सी खुस–खुसाहटवाली खांसी का आभास भी नहीं पाया गया. और पेटदर्द नाम भीतरी बदहजमी की जो सूचना मिला करती है, उसे मैंने पेट में कभी अनुभव ही नहीं किया.’ अब्दुल मांझी ने बालक रवींद्रनाथ को कहानियां सुना–सुनाकर गद्य का संस्कार दिया तो ब्रजेश्वर ने कविता का. वह रामायण की पदावलियां ऊंचे स्वर में गाता था. संगीत की प्रेरणा उन्हें अपने बड़े भाइयों तथा हवेली में आने वाले मेहमानों से मिली.
‘छेलबेला’ सही मायने में विश्व–कवि की स्मृति यात्रा है. उस कवि की जो जीवन के अंतिम सोपान पर यादों को एकदम करीब जाकर दुलराता है. इस खूबी के साथ कि अतीत–गंगा में नहाते हुए भी वर्तमान के प्रवाह को आंखों से ओझल नहीं होने देता. जो नए जमाने की खूबियों से परिचित है, तो पुराने का मोह भी उससे गया नहीं है. बड़ी शाइस्तगी के साथ वह दोनों का अंतर बयान करता है. हालांकि उसमें कवि का अतीतानुराग एकदम साफ नजर आता है,
‘पुराना जमाना राजकुंवर के समान था. बीच–बीच में त्योहार–पर्व के दिन जब उसकी मर्जी होती, अपने इलाके में दान–खैरात बांट देता. आज का जमाना सौदागर का लड़का है. हर किस्म का चमकदार माल सजाकर सदर रास्ते की चौमुहानी पर बैठा है. बड़े रास्ते से भी खरीदार आते हैं, छोटे रास्ते से भी.’
और जब बड़े सौदागर होंगे तो डकैत भी होंगे. नौकरों का सरदार श्याम रवींद्रनाथ को कहानियां सुनाया करता था. उसकी अधिकांश कहानियां डकैतों की होती थीं. सुनते हुए बालक रवींद्र के रोंगटे खड़े हो जाते. इस तरह एक ओर ये दिल हिला देने वाले डरावने किस्से थे, दूसरी ओर संगीत शिक्षा. बड़े भाई हेमेंद्र दा ने रवींद्रनाथ को संगीत की शिक्षा देने की जिम्मेदारी संभाल ली थी. बाद में संगीत शिक्षा देने के लिए यदु भट्ट भी चले आए. पर बालक रवींद्र का मन मोहा उस अज्ञात गायक ने जो हवेली में आकर अचानक रहने लगा था. उसका संगीत शिक्षण का अंदाज दूसरों से हटकर था. उनके स्वभाव के खुलेपन ने रवींद्र को प्रभावित किया, ‘प्रातःकाल मैं उनको उनकी मच्छरदानी से खींचकर बाहर निकालता और उनका गान सुनता. जिनके स्वभाव में नियम से सीखना नहीं है, उनका स्वभाव बेकायदे सीखने का होता है.’ रवींद्र संगीत में जो नयापन है, उसमें इस बेकायदे की सीख का बहुत बड़ा योगदान है.
रवींद्रनाथ की प्रतिभा बहुआयामी है. लेकिन जब हम उनके जीवन का अध्ययन करते हैं तो यह साफ नजर आने लगता है, कि इसमें उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि से अधिक योगदान उनके परिवेश का था, जिसमें समाज के तरह–तरह के लोगों की बहुतायत है. उनमें धुनिया है, कोचवान है. पहलवान, माली, तंबाकू कूटने वाला लड़का, दरबान, मांझी, दर्जी और अलग–अलग प्रवृत्ति–स्वभाव वाले नौकर–नौकराइन हैं. बचपन में अपना अधिकांश समय उन्हें बंद हवेली में बिताना पड़ा. बाहर जाने का अवसर बहुत कम मिल पाता था, ‘किसी–किसी दिन आंगन में भालू नचाने वाला आ जाता. सपेरा सांप खेलाने आ जाता और जरा–सी नवीनता की झांकी दिखा जाता.’ किशोरावस्था तक वे उसी हवेली में रहे. यह संयोग ही है हवेली के भीतर ही उन्हें समाज के ऐसे चरित्र मिले जिन्होंने उन्हें जीवन की बहुवर्णी छटा से परचाया. ज्योतिंद्रनाथ के साथ उनके संबंध सहज ही थे. उनके विवाह के बाद रवींद्रनाथ को मानो एक साथी और मिल गया, कादंबरी देवी के रूप में. ज्योतिंद्रदा से उनकी निकटता थी, सो स्वाभाविक रूप से कादंबरी देवी के प्रति भी उनका स्नेह अपेक्षाकृत अधिक था. पहली बार ज्योतिदा ने ही उन्हें जमींदारी के काम के हवेली से बाहर निकालकर सियालदह चलने का अवसर दिया. किशोरावस्था की ओर बढ़ चले रवींद्रनाथ के लिए यह चमत्कार जैसा था, ‘उन्होंने समझ लिया होगा कि मेरा मन आकाश और हवा में उड़नेवाला है; वहां से मैं अपने आप खुराक पाया करता हूं.’
यह स्वीकारोक्ति दर्शाती है कि हवेली की भीड़–भाड़ में भी बालक रवींद्रनाथ अकेलापन महसूस करता था. शायद यह हवेली के दायरे में रहने की बंदिश ही रही हो, जिसने उन्हें अंदरूनी रूप से इतना कल्पनाशील बनाया कि मन हमेशा हवापंखी रहता था. जमींदारी का अनुभव होने के बाद ही उन्होंने जाना कि ‘अभागी रैयत की दुहाई देने वाली रुलाई ऊपरवालों के कान तक पहुंच ही नहीं पाती थी. उनकी हुकूमत का रास्ता लंबा होकर सदर जेलखाने तक चला करता था.’ परिवेश की देन की भांति काव्य संस्कार बचपन से ही था. सियालदह यात्रा के दौरान मुक्त परिवेश में उसने खुलकर उड़ान भरी, ‘इसके साथ ही मेरी काॅपी पद्य से भरनी शुरु हो गई है. ये पद्य मानो आम की झड़ जानेवाली पहली बौर हैं, झड़ भी गए हैं.’ काव्य रचना के लिए उन्होंने चौदह शब्दों के छंद को अपनाया. उस समय कविता दूसरों को सुनाने का अधिक शौक न था. अधिक से अधिक भाभी कादंबरी देवी को सुनाकर उनकी राय ले लेते. और कादंबरी देवी ठहरीं ठेठ आलोचक. नव–कवि को प्रोत्साहित करने के बजाय वे सीधे–सीधे उसकी खबर लेतीं, ‘बहुठकुरानी का व्यवहार उल्टा था. कभी भी मैं लिखने वाला बन सकता हूं, यह बात वे किसी भी तरह मानने को राजी न थीं. सिर्फ ताने देतीं और कहतीं, तुम कभी भी बिहारी चक्रवर्ती की तरह नहीं लिख सकते.’ और रवींद्रनाथ की कविता कापियों से बाहर आती–आती रह जाती. पर कविता तो केसर–गंध ठहरी. वह भला कहां छिपने वाली थी. एक दिन स्कूल में कविता लिखने की चुनौती मिली. कविता लिखी. कविता अच्छी थी. इतनी अच्छी कि किसी को विश्वास न हुआ कि एक किशोरवय का लड़का ऐसी कविता लिख सकता है. वह बालक रवींद्रनाथ की काव्य प्रतिभा का प्रथमांकुरण था, जिसकी ताजगी और चिकनेपन ने उनके होनकार कवि के दर्शन करा दिए थे. इसके बाद तो लोगों में भी उनकी काव्य प्रतिभा सराही जाने लगी. परंतु भाभियों का हाल दूसरा था. वे फिर भी उलाहना देती रहीं.
सियालदह में रहते हुए ही किशोर रवींद्र ने घुड़सवारी सीखी. ज्योतिंद्रदा के साथ शिकार पर भी गए. परंतु यह सब अधिक लंबा नहीं चला. एक दिन टट्टु उन्हें पीठ पर लेकर आंगन में घुस आया तो घुड़सवार से उनकी हमेशा के लिए छुट्टी कर दी गई. रवींद्रनाथ को इसका शायद ही कभी अफसोस हुआ हो. तब तक उन्हें मनोजगत में रमने का हुनर आ चुका था. जिज्ञासु मन नए–नए प्रयोगों के लिए उकसाता रहता. एक दिन विचार आया कि फूलों के रंगीन रस से कविता लिखी जाए. रस निकालने की कोशिश की. परंतु कलम निगोरने लायक रस न निकला. तब उन्होंने सोचा कि एक मशीन बनाई जाए, जिससे फूलों का रस निकाला जा सके, ‘छेदवाला एक कटोरा और उसके ऊपर घुमाकर चला दिया जा सकने लायक एक इमामदस्ते का लोढ़ा, बस इतने से ही काम चल जाएगा. वह घुमाया जाएगा रस्सी में बांधकर एक चक्के से.’ ज्योतिदादा से कहा तो सामान हाजिर हो गया. जैसा सोचा था, मशीन तो वैसी बन गई, मगर फल वैसा नहीं मिल पाया. लोढ़ा घूमने से फूल कुचल जाते. कुचलकर कीचड़ में बदल जाते, लेकिन कलम निगोरने के लिए जो रस चाहिए वह पर्याप्त मात्रा में बाहर नहीं आ पाता था. जिंदगी में पहली बार इंजीनियरिंग का प्रयोग किया था. नाकामी मिली तो बालक रवींद्र ने मान लिया कि यह काम उसके लिए नहीं बना. इसके बाद हमेशा के लिए उससे कदम पीछे खींच लिए.
जोडासांको मेसन में बालक रवींद्रनाथ की आरंभिक पढ़ाई हुई. वहीं रहकर कविता सिरे चढ़ी. वहीं गीत–संगीत का अभ्यास हुआ और वहीं रहकर पारिवारिक पत्रिका ‘भारती’ का काम भी देखा. उनके एक भाई ब्रिटेन में थे. किशोर रवींद्रनाथ को भी आगे की पढ़ाई के लिए ब्रिटेन जाना पड़ा. वहां वे यूनीवर्सिटी में दाखिल हुए. विज्ञान और दूसरे विषयों की औपचारिक पढ़ाई में उनका मन ही नहीं लगता था. अधिक दिन नहीं टिक नहीं पाए. मानो औपचारिक शिक्षा के लिए वे बने ही नहीं थे, ‘मैं यूनीवर्सिटी में सिर्फ तीन महीने पढ़ सका था. लेकिन मेरी विदेश शिक्षा का प्रायः सारा का सारा मनुष्य की छत से आया था. जो हमारे मूर्तिकार हैं, वे सुयोग पाते ही अपनी रचना में नया मसाला मिला देते हैं….यह क्लास की पढ़ाई नहीं थी. यह साहित्य के साथ मनुष्य के मन का मिलन था….विलायत गया, पर बैरिस्टर नहीं बना.’ उस समय भारत से पढ़ाई के लिए विलायत जाने वाले अधिकांश युवाओं का सपना होता था, बैरिस्टर बनकर लौटना. रवींद्रनाथ कवि बनकर वहां गए थे, कवि ही बने रहे. पश्चिम में रहकर उन्होंने लिया कम, दिया ज्यादा. उनकी पाश्चात्य शिक्षा की यही उपलब्धि थी.
‘छेलबेला’ कवि के छह–सात वर्ष की अवस्था से लेकर करीब सोलह वर्ष का होने तक की कहानी कहती है. हम बालक रवींद्र को ऐसे परिवेश में देखते हैं, जो सुरक्षित और पूरी तरह घिरा हुआ है. जिसमें उनका भरा–पूरा परिवार और परिजन हैं तो ढेर सारे कारीगर, शिल्पकर्मी, नौकर–चाकर, साथ में हवेली में आने वाले मेहमान भी. जाने–अजाने लोगों के बीच अपने अस्तित्व को बचाए रखने का एक ही उपाय था, कल्प–यात्रा. कल्पना के पंखों के सवार वह धरती पर रहकर भी उड़ान में रहता. लेखक की विशेषता है कि वह व्यक्ति के पेशे या स्तर को न देखकर उनके काम को देखता है. उस समय शेष भारत की भांति बंगाली समाज में भी जातीय विभाजन था. पुस्तक में मांझी, जमादार, धुनिया जैसे जाति सूचक शब्द आए हैं. लेकिन रवींद्रनाथ इस आधार पर किसी प्रकार का स्तरीकरण नहीं पनपने देते. उस समय जब शीर्ष से देखने का चलन था, आधार से नहीं, ‘छेलबेला’ में शीर्ष और आधार दोनों ससम्मान मौजूद हैं. आसमान और धरती की तरह, फलस्वरूप कृति सीधे आत्मा में पैठकर संवाद करती है. गीतांजलि की कुछ कविताओं पर हम रूस के आंदोलन का असर पाते हैं. तो उसके पीछे निश्चय ही जोडासांको मेसन के सर्वहारा किस्म के लोग और सामंती चरित्र थे, जिनके बीच उनका बचपन बीता. उन्होंने ही उनको कविता और कहानी के लौकिक संस्कार दिए.
बावजूद इसके कुछ ऐसा है जिसको लगता है वे जानबूझकर भूल रहे हैं. ‘छेलबेला’ को कविवर ने आत्मीयता के साथ लिखा है. शायद इसी कारण यह हवेली से बाहर नहीं जा पाती. अगर जाना भी होता है, तो हवेली साथ जाती है. कृति में सिवाय रवींद्रनाथ और उनके भाई–बहनों के लिए बाकी किसी बालक का न होना भी अखरता है. हवेली के दर्जनों नौकर–चाकर के अपने परिवार और बच्चे भी रहे होंगे. आश्चर्यजनक रूप से रवींद्रनाथ समकालीन बचपन का उल्लेख नहीं कर पाते. कृति का शेष समाज और इतिहासचक्र से कटा होना ही इसकी सीमा है. कह सकते हैं कि यह रवींद्रनाथ के बचपन की कहानी है. इसलिए जो विषय एक बालक की समझ से संबंधित हो सकते हैं, उन्हीं को इसमें लिया गया है. लेकिन जिस तरह कवि पुराने कोलकाता तथा जोडासांको मेसन के जीवन को याद करता है, बार–बार नए और पुराने के भेद की ओर ध्यानाकर्षित करता है, अपनी भाभियों पहनावे पर टिप्पणी करता है, ‘आजकल साड़ी–शेमीज की जो चलन हुई है, उसे पहले पहल बहुठकुरानी ने ही शुरू किया था.’—उससे यह जमींदारी के ढहते कंगूरों की कहानी तो बन जाती है, अपने समय का दस्तावेज नहीं. यह कुछ ऐसा ही जैसे किसी भावुक बादशाह का अपने बचपन की यादों के बहाने, मसहरी पर लेटे–लेटे हवेली के ढहते कंगूरों की पुरानी चमक–दमक को याद करना. बावजूद इसके यह पुस्तक अपने प्रामाणिक वर्णन, भाषा की जिंदादिली तथा अनूठी बिंबात्मकता के लिए बार–बार पढ़ी जाने योग्य है.
© ओमप्रकाश कश्यप