छेलबेला : बचपन से दूर बचपन की कथा

मेरा बचपन’(छेलबेला) कवियों का कवि कहे जाने वाले रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा बच्चों के लिए लिखी गई पुस्तक है. शांतिनिकेतन के अपने सहयोगी गोसाईं जी के आग्रह पर कि बच्चों के लिए कुछ लिखा जाए, कविवर ने सोचा—‘बालक रवींद्रनाथ की कहानी ही लिखी जाए.’ बालक रवींद्रनाथ दूसरे बच्चों की भांति साधारण था. बल्कि अतिसाधारण कहिए. बच्चों की प्रतिभा को आंकने के जो सामान्य कसौटियां आजमायी जाती हैं, बालक रवींद्रनाथ उनपर कभी पूरा नहीं उतर पाता था. प्रतिभा का जो विस्फोट उसमें आगे देखने को मिला, आरंभिक जीवन में उसका कोई संकेत नहीं था

‘उन दिनों के प्रदीप में जितना उजेला था, उससे कहीं अधिक अंधेरा था. बुद्धि के इलाके में उस समय तक वैज्ञानिक सर्वे नहीं हुई थी. संभव और असंभव की चौहद्दियां उस समय एकदूसरे में उलझी हुई थीं.’

कवि के बचपन की स्मृतियों को संजोए ‘छेलबेला’ 1940 में रची गई. उसी वर्ष उसका प्रथम संस्करण बांग्ला में छपकर आया. हिंदी पाठकों के लिए पुस्तक उपलब्ध कराने का जिम्मा लिया डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने. उनके द्वारा अनूदित ‘छेलबेला’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरा बचपन’ अगले ही वर्ष बाजार में आ गया. इस आलेख के समस्त उद्धृण उसी पुस्तक से हैं. ‘छेलबेला’ में रवींद्रनाथ के बचपन से किशोरावस्था तक की कहानी है.

पुस्तक लिखते समय कविवर की आयु 79 वर्ष थी. सुखसमृद्धि और यशकीर्ति से भरपूर जीवन वे जी चुके थे. चौतरफा ख्याति और वैश्विक प्रतिष्ठा के बावजूद कोई सूनापन उनके मन में था. यूं तो रचनाकार कभी अपने कृतित्व से संतुष्ट नहीं होता. कुछ नया रचने और गढ़ने की ललक उसके मन में बनी ही रहती है. लेकिन रवींद्रनाथ ठाकुर की पीड़ा न रच पाने की पीड़ा नहीं है. वे उन विरलों में से थे जो जीवन के अंतिम क्षण तक अपनी रचनाधर्मिता को बचाए रखते हैं. अपने रचनाकर्म के प्रति आश्वस्तिबोध भी उनके मन में था. तभी तो जीवन की संध्याबेला में मृत्यु सन्निकट देख वे सारा लेनदेन साफ कर लेना चाहते हैं. 7 अगस्त 1941 को उनकी मृत्यु हुई, उससे मात्र एक सप्ताह पहले 30 जुलाई को सहायक के जरिये एक कविता उन्होंने रची थी. जिसमें उन्होंने आत्मीय स्वजनों को बहुत स्नेह और सम्मान के साथ याद किया था—

जन्म दिन निकट आतेआते मैं ढल रहा हूं. इस अवसान वेला में मैं चाहता हूं अपने सभी मित्र, उनका स्नेहिल स्पर्श. हृदय की अतल गहराइयों में मैं लूंगा जीवन की अनंत भेंट….मनुष्यता का आखिरी आशीर्वाद. मेरी झोली आज खाली है. जो कुछ मेरे पास देने को था, वह मैं लुटा चुका हूं. बदले में मैंने पाया है, थोड़ा प्यार, थोड़ी क्षमा. ये मेरे जीवन की अमूल्य निधियां हैं. मैं इन्हें अपने साथ उस सफर पर ले जाऊंगा जो वर्णनातीत है….’

कविता से यह स्पष्ट होता है कि उन्हें यशर्कीति थी. लेकिन कहीं कुछ असंतोष भी था. रवींद्रनाथ के जन्म के समय जमींदारी का वैभव क्षीण पड़ चुका था. अपने बचपन की स्मृति के बहाने कविशिरोमणि उसी वैभव को याद करने की कोशिश करते हैं. ‘छेलबेला’ इसी की कहानी है. बचपन की ओर लौटती हुई स्मृतिरेख ‘कलकत्ता’ से जा मिलती है—‘मेरा जन्म लिया था पुराने कलकत्ते में….’ अतीत की स्मृतियां वैसे भी गाढ़ी हुआ करती हैं. शायद उनसे कुछ पीछे छूट जाने का गम जुड़ा होता है. वही उन्हें आसानी से विस्मृत नहीं होने देता. रवींद्रनाथ की आंखों में भी पुराना कोलकाता मानो साकार हो उठता है, बढ़ी उम्र के बावजूद याददाश्त धोखा नहीं देती. एकएक चीज उन्हें याद आती है—‘शहर में उन दिनों छकड़े छड़छड़ करते हुए धूल उड़ाते दौड़ा करते और रस्सीवाले चाबुक घोड़ों की हड्डी निकली पीठ पर सटासट पड़ा करते.’ यहां हम कविवर की स्फटिकजैसी स्वच्छपारदर्शी स्मृति का अनुभव कर सकते हैं. स्मृति चित्रों की ऐसी बिंबात्मकता दुर्लभ है. अस्सी की उम्र में भी वेे ‘घोड़ों की हड्डी निकली पीठ’ पर चाबुकों की मार को साफसाफ देख पाते है. जैसेजैसे आगे बढ़ते हैं, वर्णन उतना ही करीबी और साफ होता जाता है, मानो बीच के पैंसठसत्तर वर्ष घटकर शून्य में ढल गए हों या उनके पास ऐसी कोई दृष्टि हो, जिससे वे अतीत को साफसाफ देख सकते हैं—

‘उन दिनों काम की ऐसी दम फुला देने वाली ठेलमठेल नहीं थी. इतमीनान से दिन कटा करते थे. बाबू लोग कश खींचकर पान चबातेचबाते आफिस जाते—कोई पालकी में और कोई साझे की गाड़ी में. जो लोग पैसेवाले थे उनकी गाड़ी पर तमगे लगे होते. चमड़े के आधे घूंघट वाले कोचबक्स पर कोचवान बैठा करता, जिसके सिर पर बांकी पगड़ी लहराती थी.’ शैली गज़ब और वर्णन इतना स्वाभाविक कि पढ़तेपढ़ते दृश्य आंखों में साकार हो उठते हैं.

उपन्यास बच्चों के लिए लिखा गया है. उपन्यास में बालक सिर्फ एक रवींद्रनाथ है. बाकी सब या तो नौकरचाकर और शिल्पकर्मी हैं; अथवा बड़े भाई बहन और भाभियां. दादा द्वारिकानाथ ठाकुर के तीन पुत्र थे—देवेंद्रनाथ, गिरींद्रनाथ तथा नगेंद्रनाथ. दादा बंगाल के प्रतिष्ठित व्यापारी थे. उनके राजसी ठाठबाट को देखते हुए लोग लोगों ने उन्हें ‘प्रिंस’ की उपाधि दी थी. रवींद्रनाथ पिता देवंेद्रनाथ की तेरह जीवित संतान में सबसे छोटे थे. समाज में उनके परिवार की काफी अच्छी प्रतिष्ठा थी. उस भरेपूरे समृद्ध परिवार में प्रतिभाओं की कमी न थी. साहित्य एवं कला का वातावरण था. सबसे बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ प्रसिद्ध कवि और दर्शनशास्त्री थे, मंझले भाई ज्योतिंद्रनाथ कवि और संगीतज्ञ. एक बहन स्वर्णकुमारी उपन्यासकार थीं और भाई सत्येंद्रनाथ ‘इंडियन सिविल सर्विस’ में प्रवेश करनेवाले प्रथम भारतीय. उन्होंने तिलक की प्रसिद्ध कृति ‘गीता रहस्य’ का बंगला अनुवाद किया था. ज्योतिंद्रनाथ की पत्नी कादंबरी देवी जिनसे रवींद्रनाथ का गहनानुराग था, भी कविताओं में रुचि रखती थीं. रवींद्रनाथ ने स्वयं लिखा है कि कादंबरी देवी उनकी कविताओं की प्रथम श्रोता और आलोचक थीं. ऐसे परिवेश में ही रवींद्रनाथ का बचपन बीता. पिता की चौदहवीं संतान और माता से असमय बिछुड़ जाने ने कारण, नौकरचाकरों और भाईबहनों से भरे परिवार के बावजूद वे अंतर्मुखी बनते चले गए.

रवींद्र परिवार के सदस्यों में कला और संस्कृति के प्रति तीव्र आकर्षण क्या अनायास था? इसके लिए पुराने कोलकाता की पड़ताल करनी पड़ेगी. उन दिनों वह भारत के प्रमुख नगरों में था. ‘पूरब का मोती’ कहे जाने वाला वह शहर ब्रिटिश साम्राज्य का दूसरा सबसे बड़ा नगर था, जिसकी पहचान अपने आलीशान भवनों से होती थी. ब्रिटिश और फ्रांसिसी व्यापारियों के संपर्क में आने पर कोलकाता के समाज में पुनर्जागरण की लहर व्याप्त थी. अंग्रेजी के संपर्क में आने से बाबू संस्कृति का जन्म हुआ जो पढ़ेलिखे बंगालियों की जमात थी. ब्रिटिश साम्राज्य को जमाने में इन बाबुओं का बड़ा योगदान था. ‘बाबू’ शब्द अच्छे अर्थों में प्रयुक्त नहीं था. यह उन लोगों को दिया गया संबोधन था जो पश्चिमी ढंग की शिक्षा पाकर भारतीय जीवनमूल्यों को हिकारत की दृष्टि से देखते तथा अंग्रेजों का कृपापात्र बने रहने के लिए खुद को उनके रंगढंग में ढालने के लिए प्रयत्नशील रहते थे.

जनसाधारण में बाबू लोगों की जीवनशैली को लेकर आकर्षण था. उनका दिखावटी सम्मान भी होता था, लेकिन यह मानते हुए कि वे ब्रिटिश सत्ता के सहयोगी हैं, लोग उनसे मन ही मन नफरत भी करते थे. यह बात बाबू लोग भी जानते थे. इसके बावजूद वे अपने जीवन की सिद्धि सत्तावर्ग से निकटता प्राप्त करने में मानते. स्वयं को अंग्रेजों का स्वामीभक्त और खैरख्वाह सिद्ध करने के लिए वे निरंतर प्रयत्नरत रहते. बदले में बस इतना चाहते थे कि अंग्रेज भी उनपर उतना ही विश्वास करें. लेकिन बाबू वर्ग के तमाम प्रयत्नों के बावजूद जब अंग्रेजों के बीच उनकी अस्वीकार्यता बनी रही तो उनका एक वर्ग छिटककर राष्ट्रवादियों में जा मिला. तब के राष्ट्रवादी नेताओं में से अधिकांश मध्यवर्म से आए थे. वे नई शिक्षा, विशेषकर यूरोप से आ रही खबरों से प्रभावित थे. वे अपनी राष्ट्रवादी चेतना का उपयोग अपनी स्वायत्तता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए करना चाहते थे. इसके फलस्वरूप समाज में नई बहसों का जन्म हुआ. इसी को इतिहास में पुनर्जागरण के नाम से जाना जाता है. आगे चलकर उसमें जमींदारी प्रथा, धर्म, दर्शन, समाज सुधार आदि मुद्दे भी सम्मिलित होते गए. राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक सुधारों को गति मिली, आर्थिक प्रगति का लंबा दौर चला. इसका लाभ बंगाल के साहित्य और संस्कृति दोनों को हुआ. रवींद्रनाथ का उदय इसी पुनर्जागरण काल की देन है.

छेलबेला’ में कविवर अपने परिजनों को याद करते हैं. नौकरचाकर तथा उस परिवेश को याद करते हैं, जो कभी पुराने कोलकाता की पहचान हुआ करता था. इनमें रोचक प्रसंग गड़ीवान को लेकर हैं, ‘जो बांटबखरे के मामले में नाराज होता तो ड्योढ़ी के सामने पूरा टंटा खड़ा कर देता.’ पहलवान जमादार शोभाराम के बारे में है जो, ‘वजनदार मुगदर घुमाता, बैठाबैठा भंग घोटता और कभीकभी बड़े आराम से पत्ता समेत पूरीपूरी मूली चबा जाता.’ अपने आसपास के परिजनों को याद करते हुए कवि अपनी उन शरारतों को भी नहीं भूल पाता जो बचपन की अक्षयनिधि कही जा सकती हैं, ‘‘हम लोग उसके कान के पास जोर से चिल्ला उठते—‘राधाकृष्ण’. वह जितना हीहांहां करके पैर पीटता उतनी ही हमारी जिद बढ़ती जाती. ईष्टदेवता का नाम सुनने को यह उसकी फंदी थी.’’ पढ़ने में वे साधारण थे. भावुक और कल्पनाशील मन निरंतर नए विषयों की तलाश में रहता था. पुस्तक को सामने देख उन्हें नींद आने लगती. इस बारे में, ‘न कहना ही अच्छा है. सब लड़कों में अकेले मूर्ख होकर रहने के समान गंदी भावना भी मुझे होश में न ला पाती.’

भूतप्रेत के किस्से उन दिनों आम थे. उस शनैःशनैः खंडहर में बदलती लंबीचौड़ी हवेली को यत्रतत्र झूलती लालटेनें भला कितना रोशन कर पातीं! उल्टा वे उसे और भी रहस्यमय बनाने का काम करती थीं. अंधेरा होते ही पेड़ डरावना साया बन जाते. बालक रवींद्र भूतों के ख्याल आते ही घबरा जाता, ‘मैं उधर से गुजरता तो दिल कहता रहता कि न जाने क्या पीछा कर रहा है, पीठ सनसना उठती. कोई महरी अचानक चुडै़ल की नकियान सुनती और धड़ाम से पछाड़ खाकर गिर पड़ती. वह भूतनी ही सबसे अधिक बदमिजाज थी. वह मछली पर ज्यादा चोट करती थी. घर के पश्चिमी कोने पर एक घने पत्तोंवाला बादाम का पेड़ था. एक पैर इसकी डाल पर दूसरा पैर तितल्ले के कार्निश पर रखकर कोई मूर्ति प्रायः ही खड़ी रहा करती—इसे देखा है, ऐसा कहने वाले उन दिनों अनेक थे. विश्वास करने वाले भी कम नहीं थे….आतंक ने उन दिनों चारों ओर अपना जाल ऐसा फैला रखा था कि मेज के नीचे पैर रखने से पैर सनसना उठते थे.’ बालमन के ये स्वाभाविक डर हैं जो उन दिनों आम थे. रवींद्रनाथ घटनाओं का वर्णन इतने सहजस्वाभाविक ढंग से करते हैं कि जिज्ञासा टूटती नहीं. पाठक मन में और अधिक जानने की उत्सुकता निरंतर बनी रहती है.

आजकल भूतप्रेत के किस्से को बच्चों और किशोरों के लिए अच्छा नहीं माना जाता. बालक पहले की अपेक्षा अधिक प्रबुद्ध भी हुआ है. उसमें वैज्ञानिक चेतना बढ़ी है. ऐसे प्रसंगों पर वह विश्वास भी नहीं करता. लेकिन जिस दौर की यह कहानी है, उसमें ऐसे विश्वास आम थे. न केवल जनसाधारण, बल्कि पढ़ेलिखें वर्ग के बीच भी. शताब्दियों से चले आ रही ये रूढ़ियां और अंधविश्वास जनसाधारण की दुर्दशा के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार भी हैं. ‘छेलबेला’ में कवि ने इन स्मृतियों को ज्यों का ज्यों समाहित किया है. मन में छिपा डर बालमन से कैसीकैसी डरावनी कल्पनाएं करवा लेता है, इसकी जीवंत अभिव्यक्ति देखिए, ‘उन सीड़भरी अंधेरी कोठरियों में जो लोग डेरा डाले हुए थे, कौन नहीं जानता कि वे मुंह बाये रहते थे. आंखें उनकी छाती पर हुआ करती थीं, दोनों कान सूप के समान होते थे और दोनों पैर उल्टी तरफ मुड़े हुए होते थे. मैं उस भुतही छाया के सामने से मकान के भीतर के बगीचे की ओर जाता, तो हृदय के भीतर उथलपुथल मच जाती, पैर में तेजी आ जाती थी.’ आगे कवि ने भावगीत ढेर सारे लिखे, जिनपर रहस्यवादी आवरण है. उनके बीजतत्व हम अतीत के डर और मुक्त आसमान में विचरण को छटपटा रही कल्पना के संगंुफन में देख सकते हैं.

बचपन की ओर लौटते हुए रवींद्रनाथ को दादी के जमाने की पालकी याद आती है, जिसका वैभव अतीत की कहानी कहानी बन चुका है. हवेली याद आती है, ‘जिसमें कितने अपने(थे), कितने पराये, कुछ ठीक नहीं.’ उन्हें ‘कांख में दबाये’ सब्जी लाती महरी की याद आती है, साथ में ‘कंधे पर कांवर रखकर’ पानी लाता दुक्खन, ‘नए फैशन की साड़ी का सौदा करने घर के भीतर घुसी आ रही’ तांतिन, ‘महावारी मजूरी पाने’ वाला दीनू सुनार, ‘कान में पांख की कलम खोंसे….मुखुज्जे के पास अपने बकाया का दावा करने चला आ रहा’ कैलाश भी उनकी सुदीर्घ स्मृति में साथसाथ आतेजाते हंै. स्मृति की वेगवती धारा ठहरती नहीं. उसके साथ बढ़ता कवि हवेली के आंगन में रूई धुनते धुनिया, काने पहलवान के साथ लस्टमपस्टम कुश्ती के दाव लगाते मुकंदलाल दरबान को भी भूल नहीं पाता. परिवेश की प्रामाणिक प्रस्तुति के लिए लेखक कथानक के विस्तार पर कम, पाठक को उससे अंतरंग बनाने पर ज्यादा जोर देता है. भाषायी समृद्धि के लिए उसके पास भरपूर मसाला है, फलस्वरूप शैली के बिंबात्मक होते देर नहीं लगती. पाठक को लगता है कि कवि की स्मृति के साथ वह भी उसके बचपन की यात्रा पर है.

बालक को कहानियां अच्छी लगती हैं. दूसरी चीजों की भांति रवींद्रनाथ को किस्सागोओं की भी कम न थी. वे भी हवेली में बहुसंख्यक थे. नहीं तो ठलवार के समय रवींद्रनाथ जैसे कद्रदान बालक को फुसलाने के लिए नौकरों में से ही कोई न कोई किस्सागो का वेश धारण कर लेता था. उन्हें ‘नुकीली दाढ़ी, सफाचट मूंछें, घुटी चांद’ वाले अब्दुल मांझी याद आते हैं जो उनको प्यारीप्यारी कहानियां सुनाया करते थे. वह कोरा किस्सागो न थे. सागरलहरों से नितनित संघर्ष रहता था उनका. अनथक संघर्ष के दौरान कुछ कहानियां भी स्वतः उभर आतीं, ‘भयंकर तूफान, नाव अब डूबी, अब डूबी. अब्दुल ने दांत से रस्सी पकड़ी और कूद पड़ा पानी में. तैरकर रेती पर आ खड़ा हुआ और रस्सी से खींचकर अपनी डोंगी निकाल लाया.’ इतनी रोमांचक कहानी का जल्दी अंत हो यह बालक के कौतूहल को स्वीकार कहां, ‘नाव डूबी नहीं, यों ही बच गई, यह तो कोई कहानी नहीं हुई….फिर क्या हुआ?’ और बालक के उकसाने पर अब्दुल मांझी जब शुरू होते हैं तो रुकने का नाम ही नहीं लेते थे, ‘फिर तो एक नया टंटा खड़ा हो गया. क्या देखता हूं कि एक लकड़बघ्घा है. ये उसकी बड़ीबड़ी मूंछें हैं. आंधी के समय उस पार के गंजघाटवाले पाकड़ के पेड़ पर चढ़ गया. आंधी का एक झोंका आया, उधर सारा पेड़ पर्ािं नदी में आ गिरा. और बाघराम बह चले पानी की धार में.’

उसके बाद तो कहानी ऐसी रफ्तार लेती कि पूछो मत. बीचबीच में मोड़ आते जो बालक रवींद्रनाथ की जिज्ञासा को बढ़ावा देने वाले सिद्ध होते. कुशल किस्सागो की भांति अब्दुल मांझी एक कहानी में दूसरी कहानी पिरोते हुए आगे बढ़ जाते. पुराने जमाने में बालक के मनोरंजन का बड़ा हिस्सा लोककहानियां पूरा करती थीं. मामूली घटना को रोचक अंदाज में किस्से के रूप में सुहाने वाले लोग उसको बहुत प्यारे लगते थे. बालक रवींद्र पालकी में घूमने जाता तो ऐसी ही कहानियां और प्रसंग देखने सुनने को मिलते. हवेली में नौकरों के बीच होता तो भी मनःरंजन के लिए किस्साकहानी का सहारा लिया जाता. वे उसके अकेलेपन को बांटते तथा कहानी का बीजतत्व बनकर उसके मानस में पैठते गए. जोडासांको मेसन की हवा में साहित्यगंध चौबीसों घंटे घुली रहती थी. कवि और काव्यरसिकों का वहां प्रायः आनाजाना था. उनके प्रभाव से रवींद्रनाथ की तुकबंदी की शुरुआत सातआठ वर्ष की अवस्था में ही हो चुकी थी.

रवींद्रनाथ के पिता अक्सर बाहर रहते थे. मां अस्वस्थ. इसलिए खेलने, खाने, घूमनेफिरने तक का अधिकांश समय नौकरों के साथ ही गुजरता था. जमींदारी का वैभव ढल रहा था, ‘हमारी चालढाल गरीबों जैसी ही थी. गाड़ीघोड़े की कोई बला नाममात्र को ही थी….पहनने के कपड़े निहायत सादे होते थे.’ असल में यह नौकरचाकरों से भरी उस हवेली का हाल था, जिसके मालिक का ध्यान अर्थाजन से हटकर समाज के पुननिर्माण पर टिका हुआ था. राजाराम मोहनराय(1772—1833) की मृत्यु के बाद ब्रह्मसमाज को संभालने का दायित्व उन्हीं के कंधों पर था. इसलिए वे जमींदारी तथा घरगृहस्थी के काम के लिए बहुत कम समय दे पाते थे. रवींद्रनाथ कृशकाय थे. इसका एक कारण भोजन पर नियंत्रण भी था. उसके पीछे रसोइया का योगदान भी कम न था. रसोइया ब्रजेश्वर को वे याद करते हैं, ‘सिर और मूंछों के बाल गंगाजमुनी. मुंह के ऊपर सूखी झुर्रियां, गंभीर मिज़ाज, कड़ा गला, चबाचबाकर बोली हुई बातें…’ ऐसे ब्रजेश्वर को उनकी देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी हुई थी. ऊपर से पवित्रता का ढोंग रचाने वाला ब्रजेश्वर स्वभाव से बड़ा ही पेटू था, ‘जब हम खाने बैठते तो एक पूरी अलग से ही हाथ में झुलाता हुआ पूछता, और दूं? कौनसा जवाब उसके मनमाफिक है, यह बात उसके गले की आवाज से भलीभांति समझ में आ जाती थी….दूध के कटोरे पर भी उसका खिंचाव उसकी सभ्हाल के बाहर था.’

इससे रवींद्रनाथ का बचपन से ही कम भोजन पर जीने का अभ्यास होता गया. इसने उन्हें कृशकाय भले बनाया हो, लेकिन आंतरिक मजबूती बढ़ती गई. भरोसा जमा कि वे शरीर से अच्छेखासे दिखने वाले बच्चों से कहीं अधिक ताकतवर हैं, ‘शरीर इस बुरी तरह से तंदुरुस्त था कि स्कूल से भागने का इरादा जब हैरान करने लगता तो शरीर पर तरहतरह के जुर्म करके भी उसमें बीमारी पैदा नहीं कर पाता. पानी में भिगोया हुआ जूता पहनकर दिनभर घूमता रहा, सर्दी नहीं हुई. कातिक के महीने में खुली छत पर सोया किया, कुर्ता और बाल भीग गए; लेकिन गले में जरासी खुसखुसाहटवाली खांसी का आभास भी नहीं पाया गया. और पेटदर्द नाम भीतरी बदहजमी की जो सूचना मिला करती है, उसे मैंने पेट में कभी अनुभव ही नहीं किया.’ अब्दुल मांझी ने बालक रवींद्रनाथ को कहानियां सुनासुनाकर गद्य का संस्कार दिया तो ब्रजेश्वर ने कविता का. वह रामायण की पदावलियां ऊंचे स्वर में गाता था. संगीत की प्रेरणा उन्हें अपने बड़े भाइयों तथा हवेली में आने वाले मेहमानों से मिली.

छेलबेला’ सही मायने में विश्वकवि की स्मृति यात्रा है. उस कवि की जो जीवन के अंतिम सोपान पर यादों को एकदम करीब जाकर दुलराता है. इस खूबी के साथ कि अतीतगंगा में नहाते हुए भी वर्तमान के प्रवाह को आंखों से ओझल नहीं होने देता. जो नए जमाने की खूबियों से परिचित है, तो पुराने का मोह भी उससे गया नहीं है. बड़ी शाइस्तगी के साथ वह दोनों का अंतर बयान करता है. हालांकि उसमें कवि का अतीतानुराग एकदम साफ नजर आता है,

पुराना जमाना राजकुंवर के समान था. बीचबीच में त्योहारपर्व के दिन जब उसकी मर्जी होती, अपने इलाके में दानखैरात बांट देता. आज का जमाना सौदागर का लड़का है. हर किस्म का चमकदार माल सजाकर सदर रास्ते की चौमुहानी पर बैठा है. बड़े रास्ते से भी खरीदार आते हैं, छोटे रास्ते से भी.’

और जब बड़े सौदागर होंगे तो डकैत भी होंगे. नौकरों का सरदार श्याम रवींद्रनाथ को कहानियां सुनाया करता था. उसकी अधिकांश कहानियां डकैतों की होती थीं. सुनते हुए बालक रवींद्र के रोंगटे खड़े हो जाते. इस तरह एक ओर ये दिल हिला देने वाले डरावने किस्से थे, दूसरी ओर संगीत शिक्षा. बड़े भाई हेमेंद्र दा ने रवींद्रनाथ को संगीत की शिक्षा देने की जिम्मेदारी संभाल ली थी. बाद में संगीत शिक्षा देने के लिए यदु भट्ट भी चले आए. पर बालक रवींद्र का मन मोहा उस अज्ञात गायक ने जो हवेली में आकर अचानक रहने लगा था. उसका संगीत शिक्षण का अंदाज दूसरों से हटकर था. उनके स्वभाव के खुलेपन ने रवींद्र को प्रभावित किया, ‘प्रातःकाल मैं उनको उनकी मच्छरदानी से खींचकर बाहर निकालता और उनका गान सुनता. जिनके स्वभाव में नियम से सीखना नहीं है, उनका स्वभाव बेकायदे सीखने का होता है.’ रवींद्र संगीत में जो नयापन है, उसमें इस बेकायदे की सीख का बहुत बड़ा योगदान है.

रवींद्रनाथ की प्रतिभा बहुआयामी है. लेकिन जब हम उनके जीवन का अध्ययन करते हैं तो यह साफ नजर आने लगता है, कि इसमें उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि से अधिक योगदान उनके परिवेश का था, जिसमें समाज के तरहतरह के लोगों की बहुतायत है. उनमें धुनिया है, कोचवान है. पहलवान, माली, तंबाकू कूटने वाला लड़का, दरबान, मांझी, दर्जी और अलगअलग प्रवृत्तिस्वभाव वाले नौकरनौकराइन हैं. बचपन में अपना अधिकांश समय उन्हें बंद हवेली में बिताना पड़ा. बाहर जाने का अवसर बहुत कम मिल पाता था, ‘किसीकिसी दिन आंगन में भालू नचाने वाला आ जाता. सपेरा सांप खेलाने आ जाता और जरासी नवीनता की झांकी दिखा जाता.’ किशोरावस्था तक वे उसी हवेली में रहे. यह संयोग ही है हवेली के भीतर ही उन्हें समाज के ऐसे चरित्र मिले जिन्होंने उन्हें जीवन की बहुवर्णी छटा से परचाया. ज्योतिंद्रनाथ के साथ उनके संबंध सहज ही थे. उनके विवाह के बाद रवींद्रनाथ को मानो एक साथी और मिल गया, कादंबरी देवी के रूप में. ज्योतिंद्रदा से उनकी निकटता थी, सो स्वाभाविक रूप से कादंबरी देवी के प्रति भी उनका स्नेह अपेक्षाकृत अधिक था. पहली बार ज्योतिदा ने ही उन्हें जमींदारी के काम के हवेली से बाहर निकालकर सियालदह चलने का अवसर दिया. किशोरावस्था की ओर बढ़ चले रवींद्रनाथ के लिए यह चमत्कार जैसा था, ‘उन्होंने समझ लिया होगा कि मेरा मन आकाश और हवा में उड़नेवाला है; वहां से मैं अपने आप खुराक पाया करता हूं.’

यह स्वीकारोक्ति दर्शाती है कि हवेली की भीड़भाड़ में भी बालक रवींद्रनाथ अकेलापन महसूस करता था. शायद यह हवेली के दायरे में रहने की बंदिश ही रही हो, जिसने उन्हें अंदरूनी रूप से इतना कल्पनाशील बनाया कि मन हमेशा हवापंखी रहता था. जमींदारी का अनुभव होने के बाद ही उन्होंने जाना कि ‘अभागी रैयत की दुहाई देने वाली रुलाई ऊपरवालों के कान तक पहुंच ही नहीं पाती थी. उनकी हुकूमत का रास्ता लंबा होकर सदर जेलखाने तक चला करता था.’ परिवेश की देन की भांति काव्य संस्कार बचपन से ही था. सियालदह यात्रा के दौरान मुक्त परिवेश में उसने खुलकर उड़ान भरी, ‘इसके साथ ही मेरी काॅपी पद्य से भरनी शुरु हो गई है. ये पद्य मानो आम की झड़ जानेवाली पहली बौर हैं, झड़ भी गए हैं.’ काव्य रचना के लिए उन्होंने चौदह शब्दों के छंद को अपनाया. उस समय कविता दूसरों को सुनाने का अधिक शौक न था. अधिक से अधिक भाभी कादंबरी देवी को सुनाकर उनकी राय ले लेते. और कादंबरी देवी ठहरीं ठेठ आलोचक. नवकवि को प्रोत्साहित करने के बजाय वे सीधेसीधे उसकी खबर लेतीं, ‘बहुठकुरानी का व्यवहार उल्टा था. कभी भी मैं लिखने वाला बन सकता हूं, यह बात वे किसी भी तरह मानने को राजी न थीं. सिर्फ ताने देतीं और कहतीं, तुम कभी भी बिहारी चक्रवर्ती की तरह नहीं लिख सकते.’ और रवींद्रनाथ की कविता कापियों से बाहर आतीआती रह जाती. पर कविता तो केसरगंध ठहरी. वह भला कहां छिपने वाली थी. एक दिन स्कूल में कविता लिखने की चुनौती मिली. कविता लिखी. कविता अच्छी थी. इतनी अच्छी कि किसी को विश्वास न हुआ कि एक किशोरवय का लड़का ऐसी कविता लिख सकता है. वह बालक रवींद्रनाथ की काव्य प्रतिभा का प्रथमांकुरण था, जिसकी ताजगी और चिकनेपन ने उनके होनकार कवि के दर्शन करा दिए थे. इसके बाद तो लोगों में भी उनकी काव्य प्रतिभा सराही जाने लगी. परंतु भाभियों का हाल दूसरा था. वे फिर भी उलाहना देती रहीं.

सियालदह में रहते हुए ही किशोर रवींद्र ने घुड़सवारी सीखी. ज्योतिंद्रदा के साथ शिकार पर भी गए. परंतु यह सब अधिक लंबा नहीं चला. एक दिन टट्टु उन्हें पीठ पर लेकर आंगन में घुस आया तो घुड़सवार से उनकी हमेशा के लिए छुट्टी कर दी गई. रवींद्रनाथ को इसका शायद ही कभी अफसोस हुआ हो. तब तक उन्हें मनोजगत में रमने का हुनर आ चुका था. जिज्ञासु मन नएनए प्रयोगों के लिए उकसाता रहता. एक दिन विचार आया कि फूलों के रंगीन रस से कविता लिखी जाए. रस निकालने की कोशिश की. परंतु कलम निगोरने लायक रस न निकला. तब उन्होंने सोचा कि एक मशीन बनाई जाए, जिससे फूलों का रस निकाला जा सके, ‘छेदवाला एक कटोरा और उसके ऊपर घुमाकर चला दिया जा सकने लायक एक इमामदस्ते का लोढ़ा, बस इतने से ही काम चल जाएगा. वह घुमाया जाएगा रस्सी में बांधकर एक चक्के से.’ ज्योतिदादा से कहा तो सामान हाजिर हो गया. जैसा सोचा था, मशीन तो वैसी बन गई, मगर फल वैसा नहीं मिल पाया. लोढ़ा घूमने से फूल कुचल जाते. कुचलकर कीचड़ में बदल जाते, लेकिन कलम निगोरने के लिए जो रस चाहिए वह पर्याप्त मात्रा में बाहर नहीं आ पाता था. जिंदगी में पहली बार इंजीनियरिंग का प्रयोग किया था. नाकामी मिली तो बालक रवींद्र ने मान लिया कि यह काम उसके लिए नहीं बना. इसके बाद हमेशा के लिए उससे कदम पीछे खींच लिए.

जोडासांको मेसन में बालक रवींद्रनाथ की आरंभिक पढ़ाई हुई. वहीं रहकर कविता सिरे चढ़ी. वहीं गीतसंगीत का अभ्यास हुआ और वहीं रहकर पारिवारिक पत्रिका ‘भारती’ का काम भी देखा. उनके एक भाई ब्रिटेन में थे. किशोर रवींद्रनाथ को भी आगे की पढ़ाई के लिए ब्रिटेन जाना पड़ा. वहां वे यूनीवर्सिटी में दाखिल हुए. विज्ञान और दूसरे विषयों की औपचारिक पढ़ाई में उनका मन ही नहीं लगता था. अधिक दिन नहीं टिक नहीं पाए. मानो औपचारिक शिक्षा के लिए वे बने ही नहीं थे, ‘मैं यूनीवर्सिटी में सिर्फ तीन महीने पढ़ सका था. लेकिन मेरी विदेश शिक्षा का प्रायः सारा का सारा मनुष्य की छत से आया था. जो हमारे मूर्तिकार हैं, वे सुयोग पाते ही अपनी रचना में नया मसाला मिला देते हैं….यह क्लास की पढ़ाई नहीं थी. यह साहित्य के साथ मनुष्य के मन का मिलन था….विलायत गया, पर बैरिस्टर नहीं बना.’ उस समय भारत से पढ़ाई के लिए विलायत जाने वाले अधिकांश युवाओं का सपना होता था, बैरिस्टर बनकर लौटना. रवींद्रनाथ कवि बनकर वहां गए थे, कवि ही बने रहे. पश्चिम में रहकर उन्होंने लिया कम, दिया ज्यादा. उनकी पाश्चात्य शिक्षा की यही उपलब्धि थी.

छेलबेला’ कवि के छहसात वर्ष की अवस्था से लेकर करीब सोलह वर्ष का होने तक की कहानी कहती है. हम बालक रवींद्र को ऐसे परिवेश में देखते हैं, जो सुरक्षित और पूरी तरह घिरा हुआ है. जिसमें उनका भरापूरा परिवार और परिजन हैं तो ढेर सारे कारीगर, शिल्पकर्मी, नौकरचाकर, साथ में हवेली में आने वाले मेहमान भी. जानेअजाने लोगों के बीच अपने अस्तित्व को बचाए रखने का एक ही उपाय था, कल्पयात्रा. कल्पना के पंखों के सवार वह धरती पर रहकर भी उड़ान में रहता. लेखक की विशेषता है कि वह व्यक्ति के पेशे या स्तर को न देखकर उनके काम को देखता है. उस समय शेष भारत की भांति बंगाली समाज में भी जातीय विभाजन था. पुस्तक में मांझी, जमादार, धुनिया जैसे जाति सूचक शब्द आए हैं. लेकिन रवींद्रनाथ इस आधार पर किसी प्रकार का स्तरीकरण नहीं पनपने देते. उस समय जब शीर्ष से देखने का चलन था, आधार से नहीं, ‘छेलबेला’ में शीर्ष और आधार दोनों ससम्मान मौजूद हैं. आसमान और धरती की तरह, फलस्वरूप कृति सीधे आत्मा में पैठकर संवाद करती है. गीतांजलि की कुछ कविताओं पर हम रूस के आंदोलन का असर पाते हैं. तो उसके पीछे निश्चय ही जोडासांको मेसन के सर्वहारा किस्म के लोग और सामंती चरित्र थे, जिनके बीच उनका बचपन बीता. उन्होंने ही उनको कविता और कहानी के लौकिक संस्कार दिए.

बावजूद इसके कुछ ऐसा है जिसको लगता है वे जानबूझकर भूल रहे हैं. ‘छेलबेला’ को कविवर ने आत्मीयता के साथ लिखा है. शायद इसी कारण यह हवेली से बाहर नहीं जा पाती. अगर जाना भी होता है, तो हवेली साथ जाती है. कृति में सिवाय रवींद्रनाथ और उनके भाईबहनों के लिए बाकी किसी बालक का न होना भी अखरता है. हवेली के दर्जनों नौकरचाकर के अपने परिवार और बच्चे भी रहे होंगे. आश्चर्यजनक रूप से रवींद्रनाथ समकालीन बचपन का उल्लेख नहीं कर पाते. कृति का शेष समाज और इतिहासचक्र से कटा होना ही इसकी सीमा है. कह सकते हैं कि यह रवींद्रनाथ के बचपन की कहानी है. इसलिए जो विषय एक बालक की समझ से संबंधित हो सकते हैं, उन्हीं को इसमें लिया गया है. लेकिन जिस तरह कवि पुराने कोलकाता तथा जोडासांको मेसन के जीवन को याद करता है, बारबार नए और पुराने के भेद की ओर ध्यानाकर्षित करता है, अपनी भाभियों पहनावे पर टिप्पणी करता है, ‘आजकल साड़ीशेमीज की जो चलन हुई है, उसे पहले पहल बहुठकुरानी ने ही शुरू किया था.’—उससे यह जमींदारी के ढहते कंगूरों की कहानी तो बन जाती है, अपने समय का दस्तावेज नहीं. यह कुछ ऐसा ही जैसे किसी भावुक बादशाह का अपने बचपन की यादों के बहाने, मसहरी पर लेटेलेटे हवेली के ढहते कंगूरों की पुरानी चमकदमक को याद करना. बावजूद इसके यह पुस्तक अपने प्रामाणिक वर्णन, भाषा की जिंदादिली तथा अनूठी बिंबात्मकता के लिए बारबार पढ़ी जाने योग्य है.

© ओमप्रकाश कश्यप

धर्मसत्ता और राजनीतिक अभिजन

धर्म एवं अभिजन संस्कृति5

मनुष्य धार्मिक पशु है. वह एकमात्र धार्मिक पशु है. वह एकमात्र पशु है जिसके पास, उन सबका एक सच्चा धर्म है….वह एकमात्र ऐसा पशु है जो अपने पड़ोसी से उतना ही प्यार करता है, जितना खुद से; और यदि उसकी धार्मिक आस्था उससे मेल नहीं खाती तो उसका गला भी काट देता है.मार्क ट्वेन.1

महाभारत के शांतिपर्व में भीष्म युधिष्ठिर को समझाते हैं‘नैव राज्यं न राजाऽऽसीन्न च दण्डो न दाण्डिकः। धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्।। (12-58-14).—पहले न तो राज्य था, न ही राजा. न दंड था, न ही दंडाधिकारी. लोग एकजुट होकर रहते; तथा मिलजुलकर अपनी रक्षा करते थे. इसमें न तो कविमन की उड़ान है, न अतिश्योक्ति—बल्कि अक्षरशः सत्य है. प्रश्न उठता है कि जब न राजा था, न राज्य. न दंड था, न दंडाधिकारी, तो अचानक ये सब कैसे आ गए? जो लोग अपनी रक्षा स्वयं करने में समर्थ थे. इतने आत्मनिर्भर थे कि अपने जीवन को लेकर स्वयं निर्णय ले सकें, उन्होंने खुद को राज्य द्वारा शासित होने के लिए समर्पण क्यों कर दिया? राज्य में कौनसी खूबी थी कि अपनी आजादी खोकर भी लोगों ने, उसके अधीन रहना पसंद किया? इसपर चर्चा करने से पहले यह जान लेना आवश्यक होगा कि अन्य प्राणियों की भांति मनुष्य भी प्रकृति से स्वच्छंद होता है. उसने समाज का हिस्सा इसलिए बनना स्वीकार किया था ताकि वह अपने सुख में स्थायित्व ला सके. उसे बढ़ा सके और वह अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित भी महसूस करे. दूसरे प्राणियों से इतर मनुष्य के पास सपना था. भविष्य को खूबसूरत बनाने का सपना. मनुष्येत्तर प्राणी पेट भरने पर बचा हुआ भोजन को छोड़ आगे बढ़ जाते हैं. मनुष्य ऐसा नहीं था. वह विवेकवान था. उसके पास भविष्य को लेकर एक दृष्टि थी. दूसरे प्राणियों की भांति उसने स्वयं को भोजन जुटाने तक सीमित नहीं रखा. वह अतिरिक्त भोजन को संग्रहीत करने लगा. न केवल अपने लिए, बल्कि समूह के बाकी सदस्यों के लिए भी. इसलिए कि वह जानता था कि अकेले व्यक्ति की उपलब्धियों का कोई मूल्य नहीं है. उसकी प्रतिष्ठा दूसरों के साथ जुड़े रहने में है. इसलिए वह समाज रचने, उसे बनाए रहने को उत्सुक हुआ. दूसरे शब्दों में मनुष्य समाज का वरण नहीं था, बल्कि समाज मनुष्य का चयन था, जिसे व्यक्ति ने अपनी सुखशांति के लिए चुना था और समूह ने व्यक्ति और समूह के हितों के लिए जरूरी माना था. यह बात अलग है कि कालांतर में समाज उत्तरोत्तर जटिल और शक्तिशाली होता गया. इसलिए कि मनुष्यों के ही एक समूह ने पक्षपातपूर्ण विधान रचकर समाज की निर्णय प्रक्रिया को हथिया लिया था. परिणामस्वरूप समाज में बहुसंख्यक वर्ग के लिए सार्थक हस्तक्षेप करना निरंतर मुश्किल होता गया. इसे गहराई से समझने के लिए उचित होगा कि थोड़ी तांकझांक सभ्यता के इतिहास में भी कर ली जाए.

मानव सभ्यता की नींव लगभग 12000 वर्ष रखी गई. वह लंबे हिम युग से बाहर आने की घड़ी थी. कृषि का विकास अभी दूर था. मनुष्य शिकार के भरोसे जीवनयापन करता था. धीरेधीरे उसका प्रकृति से रिश्ता बढ़ा. भोजन के लिए वह शिकार के अलावा खेती को अपनाने लगा. फिर भी आदिम अहेरी अवस्था से पशुपालन और तदनंतर कृषिकर्म का विकास होने में चार हजार वर्ष लग गए. आठ हजार वर्ष पहले तक मनुष्य कृषि में दक्षता प्राप्त कर चुका था. उससे अतिरिक्त भोजन का उत्पादन संभव हुआ. कृषि उत्पादों को अपेक्षाकृत लंबे समय तक संरक्षित रखा जा सकता था. भोजन की चिंता घटी तो मनुष्य ने दूसरे क्षेत्रों के बारे में सोचना आरंभ किया. फलस्वरूप विकास के नए पथ प्रशस्त हुए. भौगोलिक परिस्थितियों तथा उनके आधार पर छोटेमोटे अंतर को छोड़ दिया जाए तो चार हजार वर्ष पहले तक दुनिया के सभी समाजों में कमोबेश यही स्थिति थी. हालांकि थोड़ाबहुत स्तरीकरण तो तब भी रहा होगा. कुशल प्रबंधन के लिए कुछ लोगों को विशेषाधिकार उन दिनों भी दिए जाते होंगे. यह स्वाभाविक था, किंतु आरंभिक दायित्वविभाजन प्राकृतिक था. उसे समूह अथवा परिवार के मुखिया के स्तर पर निपटा लिया जाता था. पुरावशेषों से यह भी पता चलता है कि सिंधु सभ्यता यानी ईसा से 3000—4000 वर्ष पहले तक राज्य के विधिवत गठन की शुरुआत हो चुकी थी. आरंभिक राज्य छोटे और प्रायः नगरविशेष तक सीमित होते थे. उनकी देखरेख एवं संचालन का दायित्व जो व्यक्ति संभालता, सामान्यतः वही धार्मिक मामलों का मुखिया होता था. सुमेरियन और सिंधु सभ्यता दोनों से जो प्रमाण मिले हैं, उनसे साफ हो जाता है कि उस समय तक राजनीति धर्म का हिस्सा थी और धर्म राजनीति का प्रमुख निदेशक तत्व. नगरराज्य का प्रबंधन उसकी विशिष्ट संस्कृति, रीतिरिवाज एवं परंपराओं के आधार पर किया जाता था.

धर्म के राजनीति का निदेशक तत्व बनने के पर्याप्त कारण थे. वह प्रकृति की विराटता, अनिश्चितता तथा उसके संपर्क के फलस्वरूप जन्मी आध्यात्मिक प्रेरणाओं की देन था. संस्कृति के मुख्य उपादान कारण के रूप में वह जीवन को नियंत्रित एवं मर्यादित करता था. वह मानवीय बोध के विकास के साथ उसके आरंभिक क्षण से ही जुड़ चुका था. आदिमानव प्रकृति के अंचल में रहता था. बाढ़, तूफान, वर्षा, गर्मी, शीत आदि को झेलता, तथापि प्रकृति की विराटता के समक्ष उसे अपनी सीमाएं साफ नजर आती थीं. इसलिए उसके प्रति श्रद्धाभाव और डर स्वाभाविक थे. तेजी से होते प्राकृतिक बदलाव भी इसका कारण रहे होंगे. हिम युग के ढलते ही धरती के आंचल का वनवनस्पतियों से महमहा उठना दैवी अनुकंपा की प्रतीति कराता था. प्राकृतिक विचित्रताओं एवं जीवनसत्य को समझने की ललक ने मानवमन में अध्यात्मचेतना को जन्म दिया. सुखी, सुरक्षित एवं वैभवशाली जीवन के लिए वह दैवी शक्तियों को मनाने, उनकी कृपा प्राप्त करने का अनुग्रह रचने लगा. तुर्की के दक्षिणपूर्वी इलाके में ऐतिहासिक नगर ‘उरफ’ के पास गोबेली टेप (Gobekli Tepe) नामक पठारी क्षेत्र है. स्थानीय लोग उसे ‘बेली हिल’ कहते हैं. उसके उत्खनन से विशाल संरचनाएं मिली हैं. उनके विश्लेषण के आधार पर पुरावेत्ताओं ने गोबेली टेप को अब तक प्राप्त विश्व का प्राचीनतम पूजास्थल स्वीकार किया है. वहां मिलीं बीस गोलाकार संरचनाओं में से चार को छोड़ बाकी खंडहर में तब्दील हो चुकी हैं. वहां अंग्रेजी के अक्षर ‘टी’ के आकार के स्तंभ प्राप्त हुए हैं, जिनपर खरगोश, छिपकली, सांप, शेर, गधा, लोमड़ी, सांड आदि जीवजंतुओं की आकृतियां उकेरी गई हैं. कार्बन रेटिंग के आधार पर गोबेली टेप से प्राप्त संचरनाओं की आयु ग्यारह हजार वर्ष आंकी गई है. बाइस एकड़ में फैले उस स्थल पर अभी मात्र एक एकड़ की खुदाई हो पाई है. उत्खनन के दौरान नग्न स्त्री और कामोदीप्त पुरुष की मूर्तियां भी मिली हैं. उल्लेखनीय है कि मोनजोदारो और सुमेरियन सभ्यताओं के अन्वेषण से भी नग्न स्त्री की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, जिनसे तत्कालीन समाज के मातृसत्तात्मक होने का संकेत मिलता है, लेकिन यही बात गोबेली टेप को रचने वाली सभ्यता के बारे में कह पाना कठिन है. उल्लेखनीय है कि गोबेली टेप की सभ्यता की अपेक्षा सिंधु एवं सुमेरियन सभ्यताएं लगभग छह हजार वर्ष बाद की हैं. इसके बावजूद दोनों सभ्यताओं के मूर्तिशिल्पों के बीच सुस्पष्ट भावसाम्य है. ये प्रतीक आरंभिक जीवन में विकास की अत्यंत धीमी गति की ओर संकेत करते हैं. साथ में यह भी दर्शाते हैं कि जीवनोत्पत्ति को समझने की लोकजिज्ञासा, मानवीय बोध के एकदम आरंभिक बिंदू से जुड़ी है. वही आगे चलकर विभिन्न दार्शनिक सिद्धांतों और सांस्कृतिक विकास का कारण बनी. गोबेली टेप से प्राप्त अवशेषों ने स्थापित पुरातात्विक धारणाओं का भी खंडन किया है. यह मान्यता कि स्थापत्य कला का आविष्कार कृषि के विकास के बाद संभव हो पाया था, नवीनतम अनुसंधान के बाद गलत सिद्ध हुई है. नई खोजों से साफ हुआ है कि कृषि के विकास से बहुत पहले मनुष्य अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पूजास्थलों का निर्माण करने लगा था. उसे वह जीवन और प्रकृति की एकात्मकता के लिए जरूरी मानता था.

तुर्की की इस प्राचीन सभ्यता के बारे में पर्याप्त जानकारी न मिलने के कारण तत्कालीन समाज में अभिजनवर्ग की उपस्थिति पर ठीकठीक कुछ कह पाना असंभवसा है, लेकिन इतना स्पष्ट है कि सुमेर, सिंधु, चीन, भारत आदि क्षेत्रों में कालांतर में जो सभ्यताएं विकसित हुई, तब तक समाज के एक वर्ग में दूसरों से श्रेष्ठ दिखने की प्रवृत्ति जन्म ले चुकी थी. प्राचीन यूनान में यह विभाजन भूमिपति एवं दास के रूप में देखने को मिलता है, जबकि ऋग्वैदिक समाज आर्य एवं आर्येत्तर लोगों में बंटा था. जो आर्य है, वह श्रेष्ठ हैं, शासन के अधिकारी हैं. जो अनार्य हैं, वे दास हैं. अनार्यों के शासक आर्यों के शत्रु हैं, ऋग्वैदिक समाज मोटे तौर पर इसी तरह विभाजित है. विभिन्न वर्गों के बीच ऊंचनीच की भावना भी पनपने लगी थी. डा॓. रामविलास शर्मा इसे और भी स्पष्ट कर देते हैं—‘ऋग्वेद से इस विषय में संदेह नहीं रह जाता कि राजा केवल आदिम कबीलों का नेता नहीं है, वरन उसका स्थान ऊंचा है और जानबूझकर इस तरह से शेष जनता से उसकी विभिन्नता दिखाई गई है.’2यह विभिन्नता आर्यों के बीच एक सीढ़ी ऊपर थी. ब्राह्मण और राजन्य खुद को दूसरों से न केवल ऊपर मानते थे, बल्कि अनार्यों को दास बनाकर उनके श्रम से लाभ भी उठाने लगे थे. व्यक्तिगत संपत्ति में पशुओं, आभूषणों एवं कृष्ठ भूमि के अलावा दास भी गिने जाते थे. तत्कालीन समाज में वर्गभेद को जमीन देता हुआ ऋग्वेद में एक और शब्द आता है—उपास्ति. जिसकी तुलना प्राचीन यूनान के ‘हैलोत’ से की जा सकती है. उपास्ति सेवक अथवा आश्रित व्यक्ति का द्योतक था—‘उपास्ति वे लोग थे जो शेष प्रजा से भिन्न थे और राजा के विशेषरूप से आश्रित थे.’3राजा चाहे तो उन्हें किसी को भेंट कर सकता था. आगे चलकर उपास्ति का अर्थ देवोपासक तक सीमित कर दिया गया. ईसा से छह सौ वर्ष पहले स्पार्टा और एथेंस में हैलोत लोगों की संख्या वहां की कुल जनसंख्या की एक तिहाई थी. ‘उपास्ति’ की भांति ‘हैलोत’ की सामाजिक स्थिति भी ‘दास’ और ‘शीर्षजन’ के बीच की थी. अंतर बस इतना था कि उपास्ति जहां विशेषरूप से राजा पर आश्रित थे, वहीं हैलोत खेती करते थे और बदले में लगान अपने स्वामी को देते थे. कुछ हैलोत खेती से जुड़े उद्यम चलाते थे और अपनी सेवा या कराधान द्वारा स्वामी को प्रसन्न रखते थे. इन कृषिदासों जमीन से अलग करके खरीदनाबेचना संभव न था. दासों की स्थिति उनसे निम्नतर थी. ऋग्वेद(8, 56, 3) में दान की अन्य वस्तुओं के साथ दासों का भी उल्लेख हुआ है. ऐतरेय ब्राह्मण(39, 8) में सम्राट अपने चहेते पुरोहित को दस हजार दासियां दानस्वरूप प्रदान करता है.

वेदोत्तर साहित्य और वेदों में एक अंतर अवश्य है. वैदिक देवता प्राकृतिक शक्तियों के अधिष्ठाता हैं. अग्नि, वायु, वरुण, इंद्रादि देवतागण जीवनदाता शक्तियों के स्वामी हैं. लेकिन उनमें कहीं न कहीं मनुष्यत्व है. वे मनुष्य जैसे, उसके आसपास की दिखते हैं. युद्ध करने के लिए देवताओं को खुद चलकर आना पड़ता है. आगे चलकर जब राजा का स्तर ईश्वर के तुल्य मान लिया गया तो उनका वैभव जताने के लिए चारण आश्रयदाता सम्राट को देवताओं के मददगार के रूप में स्वर्ग में भेजना आरंभ कर दिया. के युद्ध में उन्हें युद्ध में उन्हें आगे चलकर राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाने लगा. ऋग्वेद में इसकी शुरुआत तो नहीं हुई, मगर नींव जरूर रखी जा चुकी थी. देवता ऋग्वेदकालीन अभिजन हैं. वेदादि ग्रंथ उनकी महिमा के बखान से भरे पड़े हैं—‘हे इंद्र और वायु, दोनों अन्न लेकर आओ, सोमरस तैयार है, यह तुम दोनों की अभिलाषा करता है.’(1/1/2/5)—जैसी स्तुतियां तत्कालीन अभिजनसमाज की उच्च समाजार्थिक हैसियत एवं विशिष्ट अभिरुचियों का प्रदर्शन करती हैं. ऋग्वेद में इंद्रादि देवताओं का चित्रण राजनीतिकधार्मिक शक्तियों के रूप में हुआ है. हालांकि जिस तरह उन्हें अनार्यों पर प्रहार करते, उनके दुर्गों का ध्वंस करते तथा उनके संसाधनों को बलात् हस्तगत करते उल्लिखित किया गया है, उससे एकाएक यह निर्णय कर पाना कठिन है कि वे पहले राजसत्ता के प्रतीक हैं अथवा धर्मसत्ता के. यह काम इसलिए भी कठिन है क्योंकि तत्कालीन समाज में धार्मिकराजनीतिक अभिजन के बीच बहुत अंतर न था. ऋग्वैदिक समाज में पुरोहित, राजनीतिज्ञ के अलावा व्यापारी वर्ग के पनपने के स्पष्ट संकेत हैं. धर्मसत्ता, राजसत्ता और अर्थसत्ता के प्रतीक ये तीनों वर्ग राज्य की शक्ति एवं संसाधनों का अपनीअपनी तरह से भोग करते थे. मगर जैसा कि ऊपर कहा गया है, उनमें धर्म की भूमिका सर्वोपरि थी.

सभ्यता के इतिहास में मानवी मेधा का विस्फोट लगभग तीन हजार वर्ष पहले की घटना है. ईसा से लगभग एक हजार वर्ष पहले तक यूनान, मिस्र, भारत, चीन आदि में विकसित सभ्यता आकार ले चुकी थी. सिंधु सभ्यता के पराभव के उपरांत भारत में नई सभ्यता गंगायमुना के मैदानी इलाकों में विकसित हुई. आसपास की उपजाऊ भूमि के संपर्क में आने के बाद वह कुछ ही शताब्दियों में अतिसमृद्ध होकर सामने आई. रामायण और महाभारत इसी सभ्यता की देन हैं. इन महाकाव्यों की लोकप्रसिद्धि के आधार पर अधिकांश विद्वान इस कालखंड, 800 ईस्वी पूर्व से 1500 ईस्वी पूर्व, को ‘महाकाव्यों का युग’ भी कहते हैं. इनके प्रणयन से तत्कालीन समाज के विकासक्रम को भी परखा जा सकता है. रामायण काल में धर्म अधिक रूढ़ और शक्तिशाली हो चला था. किसी सम्राट में इतना साहस न था कि वह किसी तापस या ऋषि के आग्रह की अवहेलना कर सके. विश्वामित्र जब राम और लक्ष्मण को लेने जाते हैं तो वृद्ध दशरथ उन्हें मना नहीं कर पाते. छांदोग्योपनिषद में रैक्व को मनाने के लिए राजा जानश्रुति सबसे प्रिय वस्तु के रूप में अपनी पुत्री उन्हें दान कर देते हैं. इसके अलावा भी ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं, जो राजसत्ता पर धर्मसत्ता की श्रेष्ठता को दर्शाते हैं.

महाभारत काल तक आतेआते धर्म का वैभव क्षीण पड़ने लगा था. सम्राटों में राजनीतिक स्वार्थ के अनुसार निर्णय लेने की प्रवृत्ति बढ़ रही थी. महाभारत का युद्ध धर्मसत्ता द्वारा राजसत्ता पर वर्चस्व वापस लौटाने की कशमकश को दिखाता है. कृष्ण आदि भले ही यह दावा करें कि धर्म पांडवों के पक्ष में है, महाभारत युद्ध में हिस्सा लेने के लिए जब सेनाओं का जमाबड़ा होता है तो अधिकांश सेनाध्यक्ष सत्तापक्ष यानी दुर्योधन के साथ खड़े नजर आते हैं. यह उनका अपने सामाजिकराजनीतिक हितों में ध्यान में रखकर लिया गया विशुद्ध राजनीतिक फैसला था. ‘धर्मो रक्षति रक्षतः का मुहावरा वहां काम नहीं आता. फलस्वरूप दुर्योधन के पक्ष में ग्यारह अक्षोहिणी सेना आती है और पांडवों के पक्ष में केवल सात, लेकिन महाभारत युद्ध में हुई भीषण जनहानि ने संभवतः तत्कालीन अभिजनों को भी हतोत्साहित कर दिया था. इसी ग्लानिभाव में वे युद्ध के बाद बिखरी शक्तियों को समेटने का कोई प्रयास नहीं करते. पांडव बंधु अभिशप्त मृत्यु का वरण करते हैं. स्वयं कृष्ण यादवकुल के अंतःकलह और उसमें उन्हें लड़तेमिटते देख मौन बने रहते हैं. उसे उनकी नियति मान लिया जाता है. इनमें कृष्ण जिन्हें ईश्वरत्व महाभारतकाल में प्रदान किया गया, सर्वाधिक द्विधाग्रस्त नजर आते हैं. एक युगदृष्टा नायक की भांति वे अपने समाज को आगे ले जाना चाहते हैं. लेकिन बाकी समाज, जिन लोगों को वे तथाकथित धर्म के रास्ते पर लाना चाहते हैं, अथवा वे आदर्श जिन्हें महाभारतकार अपने ग्रंथ के माध्यम से स्थापित करना चाहता है, कृष्ण के कर्मविचार से मेल नहीं खाते. देखा जाए तो यह कृष्ण की नीतियों की असफलता नहीं थी. बल्कि महाभारतकार द्वारा आर्यसंस्कृति विरोधी कृष्ण को उसके समर्थन में ला खड़ा करने से पैदा हुई उलझन का परिणाम था.

ऋग्वेदकालीन अनार्य महानायक कृष्ण को आर्य संस्कृति का हिस्सा बनाने की कोशिश में महाभारतकार उन्हें अपने ग्रंथ में जगह तो देते हैं, लेकिन उनके विद्रोही चरित्र का पूरी तरह सांस्कृतिकरण नहीं कर पाते. गोकुल और बरसाने की स्थानीय शासन प्रणाली वेदकालीन कबीलाई क्षेत्रों की याद दिलाती है. कृष्ण के जीवन की कई घटनाएं, उन्हें जनसंस्कृति का प्रतिनिधि चरित्र सिद्ध करती हैं, जो उसकी रक्षा के लिए अवसर पड़ने पर अभिजात्य के शिखरपुरुष देवराज इंद्र से भी रार मोल ले लेते हैं. ‘हिंदू सभ्यता’ में राधाकुमुद मुखर्जी ने लिखा है कि सिंधु सभ्यता के अवसान के बाद वहां के निवासी कबीले गंगायमुना के मैदानी इलाकों की ओर पलायन करने लगे थे. वहां उन्होंने नई सभ्यता की नींव रखी, कृष्ण यदुओं का नेता था. यह संभव है कि आर्यों के हमले से तंग आकर यदुओं की एक टुकड़ी पूर्व की ओर बढ़ गई हो. या फिर जैसा कि महाभारत में वर्णित है, आंतरिक कलह से व्यथित यदुओं को अपना ठिकाना छोड़ना पड़ा हो. महाभारत में एकलव्य का उल्लेख निपुण धनुर्धर के रूप में होता है. राजकुल का अर्जुन उससे वीरता में पिछड़ न जाए इसलिए द्रोण उसका अंगूठा कटवा लेता है. अभिजन मानसिकता इसे एकलव्य की गुरुभक्ति कहकर उसकी प्रशंसा करती है. लेकिन वह कृष्ण और एकलव्य के बीच हुए भीषण युद्ध को भुला देती है. संभव है सिंधु से पलायन करते समय कृष्ण का मुकाबला एकलव्य से हुआ हो. कृष्ण की कूटनीति के आगे वीर एकलव्य की पराजय हुई. यह घटनाएं महाभारत में प्रक्षेपित हैं. संभव है है ऐसी की किसी घटना की स्मृति एकलव्य के अंगूठाहनन का कारण बनी हो. ये घटनाएं वैदिक सभ्यता की याद दिलाती हैं. जबकि मथुरा का राजतंत्र अपनी प्रकृति में गंगायमुना के मैदानों में विकसित वेदोत्तर सभ्यता का प्रतिनिधित्व करता है. वह कृष्ण का लोकान्मुखी चरित्र, अतुलनीय नायकत्व, बुद्धिचातुर्य, सूझबूझ, रणकौशल और विद्रोहीभाव ही रहा होगा, जिनके कारण महाभारतकार शताब्दियों बाद उसे नए नायकत्व के साथ और ब्राह्मण संस्कृति के समर्थक के रूप में पुर्नावतरण करने को विवश होता है, ठीक ऐसे ही ऐसे गौतम बुद्ध को आत्मसात करने की कोशिश में ब्राह्मणपरंपरा उन्हें विष्णु का अवतार घोषित कर देती है. महाभारत के उपरांत देश के बौद्धिकराजनीतिक स्तर पर लंबा सन्नाटा नजर आता है. आगे चलकर उनके पांडवों के उत्तराधिकारी सम्राट परीक्षित और जनमेजय पुनः वैदिक यज्ञयाग संस्कृति को आश्रय देते हैं.

वैदिक कर्मकांड, बलिप्रथा, तंत्रमंत्र, यज्ञादि के विरुद्ध वास्तविक बौद्धिक हलचल ईसापूर्व छठी शताब्दी में नजर आती है. यही वह समय है जब हम मिथक और इतिहास के ऊहापोह से बाहर आकर ठोस इतिहास से रूरू हो पाते हैं. तब तक धर्मसत्ता राजसत्ता के साथ समझौता कर चुकी थी. सम्राटों के मन में साम्राज्यवादी मनसूबे जन्म लेने लगे थे. दूसरी ओर स्मृतियों, ब्राह्मणग्रंथों, धर्मसूत्रों आदि के माध्यम से ब्राह्मण राजनीति में मुख्य परामर्शक की भूमिका को बनाए हुए थे. इसके लिए उन्हें राजा की ओर से मुफ्त उपहार, जागीरें आदि भी मिलती थीं. जो राजा ब्राह्मणों को दान देने से इन्कार करता था, उसको वे ‘कंजूस’, ‘धर्मविरोधी’ आदि कहकर आलोचना भी करते थे. जनता पर ब्राह्मणों का प्रभाव था, अतएव अपना राजनीतिक प्रभुत्व बनाए रखने के लिए राजा भी दानादि द्वारा ब्राह्मणों को प्रसन्न रखते थे. ‘सुत्तपिटक’ से मालूम होता है कि अकेले बिंबिसार के राज्य में सोणदंड, कूटदंत आदि ब्राह्मणों को और कौशल देश में पोक्खरसाति(पौष्करसादि), तारुक्ख(तारुक्ष) आदि ब्राह्मणों को बड़ेबड़े इनामइकराम मिले हुए थे. ‘परस्पर भावयंतः श्रेय परमवाप्स्यथ’ के न्याय से ब्राह्मण जाति और एकतंत्रात्मक शासनप्रणाली का प्रभाव एक दूसरे की सहायता से बढ़ जाना स्वाभाविक हो गया.’4

वे दिन बौद्ध दर्शन के उभार के थे. बौद्ध तथा ब्राह्मणधर्म के अनुयायियों के बीच दार्शनिक वादविवाद, शास्त्रार्थ आदि चलते रहते थे. उस वादविवाद से रोजीरोटी के संघर्ष में बुरी उलझे साधारणजन का कोई वास्ता न था. उनके लिए धर्म केवल रूढ़ि, परंपरा और कर्मकांड तक सीमित था. स्वयं को शिक्षा के प्रति उत्तरदायी मानने और इसके लिए सत्तासुख भोगनेवाले ब्राह्मणों का इस ओर कोई ध्यान न था कि वे साधारणजन के बौद्धिक परिष्कार के लिए हेतु समुचित प्रयास करें. बल्कि महाभारत में एकलव्य, रामायण में शूद्रक जैसे अनेक उदाहरण प्राचीन वांङमय में बिखरे पड़ें हैं, जिनमें अपनी प्रतिभा और लगन के बल पर आगे बढ़ने वाले अब्राह्मण, अनार्य महापुरुषों की राह अवरुद्ध करने की अनैतिक कोशिशें बारबार की गईं. इस डर से कि भविष्य में उन्हें किसी भी प्रकार की चुनौती उत्पन्न न हो, राम शूद्रक को मृत्युदंड देते हैं, कृष्ण की एकलव्य की युद्ध में छलपूर्वक हत्या कर देते हैं. राम के समय में शूद्रक से तत्कालीन ब्राह्मणों को खतरा था. डरते थे शूद्रक के वेदज्ञ बनने से एक शूद्र उसके कमजोर पक्षों को समझ जाएगा. एकलव्य से डर था कि उसके उभार से क्षत्रियों की वीरता और युद्धकौशल पर सवाल उठेंगे, जो एक दिन उनके राजनीतिक वर्चस्व को चुनौती देंगे.

वैदिक परंपरा के ऋषियों को अपने पूर्वजों की दार्शनिक पैठ पर गुमान था. इसी कारण वे वेदों के आप्त वचन होने का दावा करते थे. उनकी जरासी आलोचना भी उन्हें स्वीकार न थी. आस्था और धर्म के नाम पर प्रचलित अंधश्रद्धा शताब्दियों तक मौलिक चिंतन की राह अवरुद्ध किए रही. ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध का जन्म हुआ. जैन और बौद्ध दर्शन के माध्यम से दोनों ने जिन नए विचारों को दुनिया के सामने रखा वे किसी भी दृष्टि से वैदिक परंपरा के ऋषियों से कम न थे, बल्कि कई मामलों में अनूठे और वैदिक चिंतनधारा का मौलिक विस्तार थे. अपने मौलिक एवं लोकोन्मुखी दर्शनों के आधार पर उन्होंने ब्राह्मणों के एकाधिकारवाद को चुनौती दी थी. फलस्वरूप उन्हें क्षत्रिय सम्राटों का समर्थन प्राप्त हुआ. उन्हें व्यापारी वर्ग का समर्थन भी मिला जो बलिप्रथा और दूसरे निषेधों के कारण खुद को बंधाबंधा महसूस कर रहा था. उल्लेखनीय है कि वैदिक कर्मकांड, बलिप्रथा और आडंबरवाद के विरुद्ध आवाजें बौद्ध दर्शन से पहले भी उठी थीं. वैदिक युग में भी आजीवक नाम का संप्रदाय था, जिसके अनुयायी यज्ञयाग और बलि प्रथा के तीखे आलोचक थे. जैन और बौद्ध दर्शन के समानांतर चार्वाक और लोकायत दार्शनिक भी अपना भौतिकवादी पक्ष रख रहे थे. जनसाधारण को बौद्ध दार्शनिकों का मध्यम मार्ग स्वीकार्य था, इसलिए उसकी लोकव्याप्ति उत्तरोत्तर बढ़ती गई.

जैन और बौद्ध दर्शनों ने कई नई बहसों को जन्म दिया. इनमें एक बहस राजनीति के स्वरूप को लेकर भी है. ज्ञातव्य है कि जैन और बौद्ध दर्शन का मूल उद्देश्य प्रदूषित हो चली अध्यात्म परंपरा का परिष्कार कर समाज को नया दार्शनिक विकल्प प्रस्तुत करना था, न कि किसी नए राजदर्शन की खोज. तत्कालीन समाज में धर्म, राजनीति और सामाजिकी के अध्ययन को अलगअलग देखने की परंपरा भी नहीं थी. उनपर समग्रता में विचार किया जाता था. बुद्ध का गणतंत्र प्रति विशेषानुराग था. हालांकि उस समय केवल नाम के ही गणराज्य थे. यूनान की भांति यहां भी गणतंत्र के बहाने वहां कुलीनतंत्र पनप रहा था, जिसमें समाज के प्रतिष्ठित लोग ही हिस्सा ले पाते थे. उनका व्यवहार राजशाही सोच से किसी भांति कम न था. वज्जिसंघों के बारे में तो ‘ललितविस्तर’ में आया है कि वहां हर कोई ‘मैं राजा हूं’….‘मैं राजा हूं’ कहकर गणतांत्रिक प्रणाली का मखौल उड़ाते रहते थे. उन राज्यों में मुखिया को एक बार चुन लिया था, तो आजन्म मुखिया बना रहता था. ‘बाप के पीछे उनका बेटा राजा होता था….इन गणराज्यों को जनता का समर्थन प्राप्त होना संभव नहीं था. कोई राजा यदि अपनी मर्जी से लोगों पर जुल्म ढाने लगता तो उसको रोकने का सामर्थ्य लोगों में राजा में नहीं होता था.5राजनीतिक दुरवस्था का आलम यह था कि हर कोई ‘मैं राजा हूं’….मैं राजा हूं’ का दावा करता रहता था. ऐसे गणतंत्रों का पतन स्वाभाविक ही था. इन्हीं अवगुणों के कारण ब्राह्मणवर्ग गणतंत्र का आलोचक और एकसत्तावादी राजशाही का समर्थक रहा है. वह स्वयं अधिसत्तावादी था. इस कारण ब्राह्मण पुरोहित गणराज्यों को नापसंद करते थे. इसका एक कारण उनका यज्ञादि कर्मकांड में कम रुचि लेना था. जबकि एकसत्तात्मक राज्य ब्राह्मणों को दान आदि देकर प्रसन्न रखते थे. ‘अतः ‘परस्परं भावयन्तः श्रेयं परम् वाप्स्यथ’ के न्याय से एकसत्तात्मक राज्य और ब्राह्मण परस्पर सहयोग कर एकदूसरे का सहयोग करते हुए आगे बढ़ते गए. इसलिए ब्राह्मण आज भले ही स्वयं को प्राचीन भारतीय गणतंत्र का बखान करें उस समय वे उसके कट्टर आलोचकों में से थे. यही कारण है कि प्राचीन भारतीय गणतंत्रों का उल्लेख बौद्ध ग्रंथों में जितना हुआ है, उसका एकांश भी ब्राह्मण ग्रंथों में नहीं हुआ. वेदों में साम्राज्यवाद के बीजतत्व बिखरे पड़े हैं. उनके देवताओं का स्वरूप भी सर्वस्ववादी है. बुद्ध प्रकटरूप में गणतंत्र समर्थक थे, हालांकि उसके तत्कालीन कुलीनतावादी चेहरे से उन्हें असंतोष था और इसकी उन्होंने आलोचना भी की थी. वज्जिसंघों में गणतंत्र के बहाने फलतेफूलते कुलीनतंत्र को हम प्राचीन अभिजन समाज का प्रतिनिधि मान सकते हैं.

ईसा पूर्व छठी शताब्दी में राज्य खुद को बेहतर ढंग से संगठित करने लगे थे. उन्हीं दिनों प्रचलित राज्यप्रणालियों की समीक्षा का काम भी आरंभ हो चुका था. वह समस्या अकेले भारत की न थी. यूनान में सुकरात अपने शिष्यों के साथ इसी पर विचार करता हुआ नजर आता है. बौद्ध साहित्य में यह बहस नए रूप में सामने आई है—एक बार बुद्ध के अनुयायी इस बात पर विचार करते हैं कि उन्हें यदि नया जन्म लेना हो तो उसके लिए कौनसा राज्य सर्वाधिक उपयुक्त होगा. इस क्रम में उस समय भारत में मौजूद 16 जनपदों पर विचार किया जाता है. शिष्यगण एकएक जनपद की खूबी पर उल्लेख करते हैं. दूसरे शिष्य उसका तत्क्षण विरोध करते हैं. ‘ललितविस्तर सूत्र’ में यह प्रसंग बहुत रोचक ढंग से आया है—

‘‘गौतम बुद्ध जब तुषिददेवभवन में प्रवास पर थे. वहां चर्चा चली कि अगले जन्म में बोधिसत्व को किस राज्यकुल में जन्म लेकर उसका उद्धार करना चाहिए? इस सवाल पर बुद्ध की शिष्य मंडली दो हिस्सों में बंट गई. एक वर्ग को उस समय के प्रमुख राज्यकुलों में कुछ गुण नजर आते थे. दूसरे को उतने ही दोष. उस समय के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य मगध के बारे में लिखा गया है—‘किन्हीं देवपुत्रों ने कहा, ‘मगध देश में वैदेहीकुल अत्यंत संपन्न है. बोधिसत्व के जन्म लेने के लिए वह स्थान अतिउत्तम होगा.’ इस पर दूसरे देवपुत्र बोले, ‘यह कुल उचित नहीं है. क्योंकि वह मातृशुद्ध एवं पितृशुद्ध नहीं है. चंचल है. विपुल पुण्य से अभिसिंचित नहीं हुआ है. उसकी राजधानी उद्यानों एवं तालाबों से सुशोभित नहीं, बल्कि जंगली लोगों को शोभा देने लायक है.’

दूसरे देवपुत्र बोले—‘कोसलकुल, सेना, वाहन एवं धन से संपन्न होने के कारण बोधिसत्व के लिए प्रतिरूप है.’ इसपर अन्य देवगणों ने कहा, ‘वह कुल मातंग च्युति से उत्पन्न हुआ है, वह मातृपितृ शुद्ध नहीं है और हीन धर्म पर श्रद्धा रखनेवाला है. अतएव वह भी योग्य नहीं है.’ आगे वैशाली पर चर्चा होती है, जहां उन दिनों गणतंत्र था. कुछ देवपुत्रों ने कहा, ‘यह वैशाली महानगरी समृद्ध, सुक्षेम, सुभिक्ष, रमणीय, मनुष्यों से भरी हुई, मकानों एवं महलों से अलंकृत, पुष्पवाटिकाओं एवं उद्यानों से प्रफुल्लित है. वह मानो देवों की राजधानी का अनुकरण करती है. इसलिए वह बोधिसत्व के जन्म लेने हेतु अतिउत्तम प्रतीत होती है.’ इसपर दूसरे बोले, ‘वहां के राजा परस्पर न्याययुक्त वर्ताब नहीं करते. वे धर्माचरण वाले नहीं हैं. उत्तम, मध्यम, वृद्ध, ज्येष्ठ आदि के प्रति वे आदरभाव नहीं रखते. हर कोई केवल स्वयं को राजा मानता है. कोई किसी का शिष्य नहीं बनना चाहता. अतः वह नगर बोधिसत्व के अनुकूल नहीं.’ आगे हस्तिनापुर के बारे में चर्चा होती है, जो कभी पांडवों की राजधानी था—‘इस हस्तिनापुर में पांडवकुल का शूर एवं सुस्वरूप राजा राज्य कर रहा है. वह कुल दूसरे की सेना को हरानेवाला है. अतः बोधिसत्व के वही योग्य है.’ इसपर दूसरे बोले—‘पांडवकुल के राजाओं ने अपनेअपने वंश को व्याकुल कर दिया है. युधिष्ठिर को धर्म का, भीमसेन को वायु का, अर्जुन को इंद्र और नकुलसहदेव को अश्विनों का पुत्र कहा जाता है. अतः यह कुल भी बोधिसत्व के लिए योग्य नहीं है.’6

इस प्रकार उन देवपुत्रों ने जंबूद्वीप के सोलह राज्यों(षोड्श जानपदेषु) की, जो छोटेबड़े राजकुल थे, परीक्षा कर डाली. पर वे सभी उन्हें दोषपूर्ण दिखाई पड़े.’ इस विवरण से तत्कालीन समाज की अभिजन मानसिकता को समझा जा सकता है. यहां ध्यान रखना होगा कि ‘ललितविस्तर’ सूत्र का रचनाकाल तीसरी शताब्दी है. तब तक बौद्ध एवं जैन दर्शन की स्थापना को छह शताब्दियां बीत चुकी थीं. और बौद्ध धर्म को वैदिक परंपरा से जोड़ने के आग्रह खुलकर सामने आ रहे थे. इस ग्रंथ को बौद्ध आचार्यों से ओर से मान्यता प्राप्त है. अतएव कहा जा सकता है कि विकास के आरंभिक वर्षों में, युगीन परिस्थितियों के चलते, बौद्ध धर्म चाहे जितना क्रांतिकारी रहा हो, उसके उत्तराधिकारी जाति, धर्म, बलिप्रथा आदि को लेकर ब्राह्मणवादी जकड़बंदी से बाहर नहीं निकल पाए थे. उपर्युक्त उद्धृणों में शिष्य मंडली के सदस्य अपने चर्चा में लीन अपने साथी को ‘देव’ कहकर संबोधित करते हैं. जिन वज्जिसंघों की गौतम बुद्ध प्रशंसा करते हैं, उनके उत्तरवत्र्ती शिष्य उन्हीं को उनके पुनर्जन्म के अयोग्य ठहराते हैं. यह ब्राह्मणधर्म के प्रभाव को दर्शाता है. उन दिनों छोटेछोटे नगरराज्य मामूली बातों पर परस्पर झगड़ते रहते थे. अस्थिरता के माहौल में धर्म ने अपनी हैसियत को कुछ और ऊपर किया था. लेकिन वह पहले जितना प्रभावी न था. खुद को राजनीतिक महत्त्वांकाक्षाओं के अनुसार मोड़ देने का लचीलापन जिसे अवसरवाद भी कह सकते हैं, उसमें आ चुका था. राजसत्ता के शिखर पर विराजमान लोगों के लिए यही उपयुक्त था. धर्म के समर्थन से वे अपनी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं को आसानी से स्वीकार्य बना सकते थे, अपनी कमजोरियों पर पर्दा डाले रह सकते थे. हालांकि इसके कुछ अपवाद भी थे. मगध सम्राट अजातशत्रु सम्राट लिच्छवी गणराज्य की समृद्धि से ईष्र्या रखता था और उसपर अधिकार करना चाहता था. लेकिन गौतम बुद्ध चूंकि वज्जिसंघों के प्रशंसक थे, इसलिए उनके जीवनकाल में मगध सम्राट का इतना साहस न हुआ कि वैशाली पर आक्रमण कर सके. इसके लिए उसको गौतम बुद्ध के निर्वाण तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है.

इस अवधि में राजनीति के प्रति हलचल थी, तथापि धर्म का हस्तक्षेप बना हुआ था. धर्मसूत्रों के माध्यम से राजनीति और समाज दोनों पर अंकुश बनाए रखने की कोशिश चल रही थी. इस क्षेत्र में गौतम, बौधायन, आपस्तंब, वशिष्ट, मिताक्षरा, हारीत आदि आचार्यों का विशिष्ट योगदान रहा. धर्मसूत्रों के अलावा ‘स्मृति’ और ‘ब्राह्मण’ ग्रंथों के जरिये भी समाज एवं राजनीति को अनुशासित करने का काम किया. पश्चिम में समाज और राजनीति को मर्यादित करने के लिए कतिपय वैज्ञानिक तरीके अपनाए गए. वहां लिखित संविधान की शुरुआत एथेंस में 621 ईस्वी पूर्व से हो चुकी थी. लेकिन वह कमजोर और राज्य की निरंकुशता को बढ़ावा देने वाला था. अपराध चाहे छोटा हो या बड़ा, उसमें सभी के लिए एकमात्र सजा थी—मृत्यदंड. उससे आरंभ में तो स्पार्टा ने खूब तरक्की की. धीरेधीरे कट्टरता के दुश्परिणाम सामने आने लगे. कालांतर में एथेंस के ही एक और प्रतापी सम्राट सोलोन ने 594 ईस्वीपूर्व में संविधान का संशोधित प्रारूप लागू किया. यहां भारत और यूनान के राजनीतिक दर्शन के बीच अंतर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. भारत में राजनीतिक दर्शन पर धर्म और धर्मसत्ता का पूरापूरा प्रभाव था. जबकि पश्चिम में सोफिस्टों के बाद, सुकरात, प्लेटो जैसे दार्शनिकों के प्रभाव में राजनीति को नैतिकता से आबद्ध रखने की कोशिशें होने लगी थीं. यह बात अलग है कि इस काम में ढंग की सफलता न पूरब को मिली न पश्चिमी देशों को. सत्ता की अपनी चाल होती है, सो समयसमय पर थोड़ेबहुत बदलाव के साथ वह अपनी ही चाल चलती रही.

ईसा पूर्व चैथीपांचवीं तक गठित राज्य आकार में बहुत छोटे होते थे. इसलिए उनमें परस्पर युद्ध होते रहते थे. उनके बीच शांति और सौहार्द बनाए रखना तत्कालीन दार्शनिकों, विचारकों के आगे बड़ी चुनौती थी. कुछ विद्वानों को इसका निदान बड़े राज्यों की स्थापना में नजर आता था. तब तक न केवल स्वतंत्र और मजबूत राजनीतिक अभिजन अस्तित्व में आ चुका था, बल्कि वह पहले की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वाकांक्षी हुआ था. उसके पहले तक धर्म का राजनीति और समाज पर समान प्रभाव होता था, इसलिए धार्मिक अभिजन की सत्ता सर्वोपरि थी. राजाओं द्वारा धर्मसत्ता की उपेक्षा कर पाना असंभव जैसा था. लेकिन कुछ शताब्दियों में धार्मिक अभिजन अपना बौद्धिक तेज गंवा कर राजसत्ता के आश्रय पर पलने वाला पुरोहितवर्ग बनकर रह गया. ऐसी अवस्था में उसका पराभव निश्चित था. इस बीच राजनीतिक अभिजन कुछ और महत्त्वाकांक्षी हुआ था. अब वह बड़े राज्यों की स्थापना का सपना देखने लगा था. पश्चिम में अरस्तु, पूर्व में चाणक्य बड़े राज्यों के समर्थक थे. जिनके प्रभावस्वरूप राजनीतिक चेतना का विकास हुआ था. लेकिन बड़े राज्यों की स्थापना का लक्ष्य तब तक संभव न था, जब तक राजाओं को अपनी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं को साधने के लिए मुक्त न कर दिया जाए. पश्चिम में यह कार्य अरस्तु ने किया. सुकरात शुभ की स्थापना को जीवन का लक्ष्य मानता था. प्लेटो ने इसके लिए प्रचलित राजदर्शनों की समीक्षा करते हुए उन्हें कहीं न कहीं कमजोर माना था. अपने आदर्श राज्य के लिए उसने दार्शनिक सम्राट का सुझाव दिया था. अरस्तु ने राज्यप्रणाली के स्वरूप पर विचार नहीं किया, समाज में शुभत्व की स्थापना राजनीति का पहला ध्येय होना चाहिए अतः उसने इसी को सर्वोपरि मान लिया. राज्यदर्शन चाहे जैसा हो, यदि वह समाज में ‘शुभ’ की स्थापना करने में सफल है तो वह शुभ है, कहकर उसने महत्त्वाकांक्षी सम्राटों के लिए रास्ता खोल दिया था. अब उनमें से कोई भी सत्ता पर कब्जा करता हुआ, शुभ की स्थापना का दावा कर सकता था. भारत में चाणक्य का एकमात्र लक्ष्य था, देश को संगठित कर, एक सूत्र में बांधना. इसके लिए उसने राजशाही को चुना. लेकिन उसको सभी परंपरागत नीतिरीति के दबावों से बाहर रखा. मगध की सत्ता पर चंद्रगुप्त को बिठाने के लिए वे हर रीतिनीति को अपनाते हैं. उनके अनुसार सामदामदंडभेद द्वारा राज्य को संगठित और सत्ता को सुरक्षित रखना ही राजधर्म माना गया. अरस्तु और चाणक्य दोनों को ही अपनेअपने लक्ष्य में सफलता मिली.

कह सकते हैं कि धर्म का सांगठनीकरण, बड़े राज्यों की जरूरत और सभ्यता का नागरीकरण दोनों लगभग एक साथ की घटनाएं हैं. उल्लेखनीय है कि समाज में रहकर दूसरों के साथ अपने सुखदुख साझा करते हुए जीने को मनुष्य ने सभ्यता का नाम दिया था. उसका प्रमुख आकर्षण विकास का भरोसा था. एक सीढ़ी थी जिससे वह अपनी पिछली पीढ़ियों के और अपने जीवन के बीच तुलना कर सकता था. उसके द्वारा वह आंक सकता था कि शिक्षा, रहनसहन, उत्पादन, साहित्य, कला, संस्कृति आदि क्षेत्रों में उसने पिछली पीढ़ियों के मुकाबले कितना कुछ खोया और पाया है. इसमें पाने का एहसास खोने की अपेक्षा अधिक होता था. भविष्य में विश्वास बनाए रखने के लिए वह जरूरी भी था. लेकिन यह भी तय है कि विकासक्रम में किसी समाज की कुल उपलब्धियां उसके सभी सदस्यों की सहउपलब्धियां नहीं थीं. सच तो यह है कि मनुष्य जिस गति से तरक्की कर रहा था, समाज में आर्थिकसामाजिक और राजनीतिक स्तरीकरण भी उतनी ही तेजी से बढ़ रहा था. इसे यूं भी कह सकते हैं कि विकासक्रम में शीर्ष पर विराजमान वर्ग, शेष समाज को अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और स्वार्थ के अनुरूप हांकने में सफल था. कला, संस्कृति, इतिहास, धर्म आदि पर उसी वर्ग का प्रभुत्व था. इसलिए उनके जीवनदर्शन के अनुसार शास्त्रों में बदलाव किया जाने लगा था. थोड़े उत्तरवर्ती कालखंड में एक बड़े विद्वान भृर्तहरि हुए हैं. उन्होंने धन आने से अभिजन मानसिकता में आए बदलाव की ओर संकेत किया है—

जिसके पास धन है, वही उच्चकुलोद्भव, वही ज्ञाता पंडित है. वही सर्वशास्त्र प्रवीण है, वही दूसरों के गुणों का आकलन करने की योग्यता रखता है. वही प्रभावी वक्ता है. उसी का व्यक्तित्व दर्शनीय है. इसलिए कि सभी गुण धन के प्रतीक कांचन अर्थात सोने पर निर्भर हैं. धन है तो वे गुण हैं, अन्यथा व भी नहीं हैं.’7

धन से व्यक्ति की योग्यता का आकलन करने की लोकप्रवृत्ति की ओर इशारा चाणक्य ने भी किया था—

गरीब की अच्छी बात पर भी कोई ध्यान नहीं देता.’8

सत्ता की लालसा अंतहीन होती है. वह बढ़ती ही जाती है. एक से हजारगुनी होने में उसको समय नहीं लगता. मगर संसाधनों की तो सीमा है. कहते हैं कि पृथ्वी सभी की जरूरतों का पेेट भर सकती है. मगर लालच किसी एक का भी नहीं. धन को लेकर आकर्षण भारत के प्राचीन ग्रथों, महाभारत आदि में भरा पड़ा है. उसी धन के लिए ब्राह्मण, पुरोहित दान की महिमा गाते थे. दानप्राप्ति की लालसा मध्यकाल तक आतेआते इतनी बढ़ चुकी थी, कि हिंदू धर्म की तत्कालीन शीर्षस्थ शक्तियां मुस्लिम शासकों को एक ओर विधर्मी ओर मलेच्छ आदि कहकर उनपर हंसती थीं, दूसरी ओर यदि धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न हो तो बाकी की ओर से आंख मूंदकर वह शासन के स्तर पर उनकी यथासंभव मदद भी करती थीं.

अगले अंक में समाप्य…..

©ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भानुक्रमणिका

1. Man is a Religious Animal. He is the only Religious Animal. He is the only animal that has the True Religion–several of them. He is the only animal that loves his neighbor as himself and cuts his throat if his theology isn’t straight.” Mark Twainin The Lowest Animal.

2. मानव सभ्यता का विकास—डा॓. रामविलास शर्मा, पृष्ठ -54

3. मानव सभ्यता का विकास, पृष्ठ—55.

4. गौतम बुद्ध, धर्मानंद कोसांबी, पृष्ठ—57

5. वही, 56

6 वही, 51—52

7. ‘‘म्स्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पंडितः स श्रुतवान् गुणज्ञः। स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणा कांचनमाश्रयंति।।’ भृर्तहरि नीतिशतक, 41

8. ‘हितंप्य धनस्य वाक्यं न शृणोति. अर्थशास्त्र