कार्ल मार्क्स के सहयोगी : जेनी कोरलाइन, फ्रैड्रिक ऐंगल्स और देमुट

मार्क्स के व्यक्तित्व को देखें तो उसके निर्माण में अनके विद्वानों, दार्शनिकों और विचारकों का योगदान है. इनमें सबसे पहला नाम महान दार्शनिक फ्रैड्रिक हीगेल का है. मार्क्स की संपूर्ण दार्शनिक चेतना, भौतिकवादी चिंतन हीगेल से ही प्रभावितप्रेरित है. इसके अतिरिक्त उसपर प्लेटो, वाल्तेयर, रूसो, रिकार्डो आदि अनेक विद्वानों का प्रभाव था. धर्म की आलोचना संबंधी तत्व उसने फायरबाख एवं ब्रूनो बायर से उधार लिए थे. जबकि जनप्रतिबद्धता, स्पष्टवादिता, वैचारिक निष्ठा तथा उसके लिए किसी भी प्रकार का जोखिम मोल लेने की कला उसने वाल्तेयर और रूसो से सीखी थी. मार्क्स इन सबसे प्रेरित भी था और प्रभावित भी. इसके साथसाथ वह विमर्शचिंतन को लेकर सर्वथा मौलिक भी था.उसके दिल में श्रमिकों के प्रति बेहद प्यार था. खुद वह सदैव संघर्षशील अवस्था में रहा.शायद ही ऐसा कोई अवसर आया हो जब उसको अपनी आर्थिक चिंताओं से पूर्ण मुक्ति मिली हो. हालांकि अपनी प्रतिभा के दम पर वह अच्छी जीवनशैली को अपना सकता था. मगर उसने अपनी वैचारिक निष्ठा से कभी समझौता नहीं किया. उसके इस संघर्ष को सफल बनाने में जिन दो व्यक्तित्वों का बड़ा योगदान था, जिनके बिना उसका अस्तित्व अधूरा रह जाता है, उनमें एक है, जेनी कोरलीनमार्क्स की पत्नी. दूसरा उसका अभिन्न मित्र एवं मददगारफ्रैड्रिक ऐंगल्स. कई पुस्तकों में उसका सहलेखक, ऐसा मित्र जो आजीवन मार्क्स को आर्थिक मदद पहुंचाता रहा. जिसने अपने परिवार का जमाजमाया व्यापार अपनी मैत्री और वैचारिक निष्ठा पर न्योछावर कर दिया.

 

जीवनसंगिनी : जेनी

 

उसका पूरा नाम था जेनी वान कोरलाइन. वह एक सुंदर, संवेदनशील, दयालु, कोमल हृदय वाली, ममतामयी और अपने परिवार के प्रति समर्पित स्त्री थी. उदारमना और संघर्षशील. पूंजीवाद के मुखर आलोचक और प्रखर लेखक की छवि बना चुका मार्क्स अपने जीवन में आरामदेय नौकरी की संभावना तो पहले ही खारिज कर चुका था, सिर्फ लेखन ही उसका सहारा था. वैचारिक उग्रता के कारण गिनेचुने समाचारपत्रों में ही उसके लेखों को जगह मिलती थी. ऐसे समाचारपत्र निजी परिश्रम और संसाधनों के दम पर निकाले जाते थे. उनका आर्थिक पक्ष भी अपेक्षाकृत कमजोर होता था. अतएव वहां से मिलने वाला मानदेय अपेक्षाकृत बहुत कम होता. ऊपर से उसका बड़ा परिवार. मार्क्स स्वयं फेफड़ों की कमजोरी का शिकार था. अपने उपचार और बड़े परिवार का खर्च चलाने के लिए जितनी धनराशि की उसे आवश्यकता पड़ती, आय के स्रोत अत्यंत सीमित थे. परिणामस्वरूप जेनी को काफी कष्ट उठाना पड़ता था. लेकिन यह सब वह प्रसन्नतापूर्वक करती थी. यहां तक कि मार्क्स कभीकभी खुद भी घर की दरिद्रता देखकर दुखी हो जाता. उदासमन से अपने आप को दोष देने लगता. उस समय जेनी ही उसको गरीब मजदूरों के जीवन से तुलना करके बताती कि उनकी अपेक्षा वह कितनी बेहतर अवस्था में हैकि लेखक का काम मजदूर के काम से कितना आरामदेय और सुखकर है. जेनी सुंदर होने के साथसाथ भावुक कवियित्री भी थी. संघर्ष के दिनों में जेनी की प्रेमकविताएं मार्क्स के लिए बहुत बड़ा सहारा थीं. वह आजीवन श्रमिकों के हित में सोचतालिखता रहा तो उसके पीछे जेनी का बहुत बड़ा योगदान था. बल्कि लेखक मार्क्स की कामयाबी के पीछे जेनी का ही हाथ था. वह एक अच्छी पत्नी, आदर्श मां, कुशल ग्रहणी और संवेदनशील महिला थी. वह चाहती तो स्वयं भी अच्छी लेखक बन सकती थी. किंतु वह आजीवन मार्क्स की मदद करने, उसको लेखन के लिए उत्साहित करने का काम करती रही.

 

अभिन्न मित्र : फ्रैड्रिक ऐंगल्स


जेनी के अलावा मार्क्स की जीवनगाथा जिस व्यक्ति के बगैर अधूरी है, वह था फ्रैड्रिक ऐंगल्स. ऐंगल्स के लिए तो मार्क्स की मित्रता उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुकी थी. दोनों परम मित्र और सहयोगी थे. दोनों की हीगेल के विचारों में आस्था थी. दोनों श्रमिक जीवन की त्रासदियों से परिचित थे और उत्पादनतंत्र में सुधार की कामना करते थे. दोनों की रुचि दर्शनशास्त्र में थी. उम्र में मार्क्स से मात्र दो वर्ष छोटा ऐंगल्स धनी उद्योगपति की संतान था. उसके पिता सूती मिल के हिस्सेदार थे. इसलिए ऐंगल्स का बचपन आरामदेय परिस्थितियों में बीता. तो भी अपने स्वतंत्र सोच और पारिवारिक स्थितियों के कारण वह हाईस्कूल से आगे शिक्षा प्राप्त न कर सका. वस्तुतः अध्ययन के दौरान ही उसका झुकाव प्रगतिशील विचारों की ओर हो चुका था, जिसको उसके पिता और संबंधी अपने वर्गीय हितों के विपरीत मानते थे. उन्हांेने अपने बेटे को अपने व्यवसाय से जोड़े रखने, अपने वर्गीय हितों से जोड़ने का भरपूर प्रयास किया. लेकिन ऐंगल्स की वैचारिक निष्ठा उसके मन में पूंजीवाद के विरोध की प्रेरणाएं भरती रही. इससे परिवार में तनाव की स्थिति आना स्वाभाविक था.

पारिवारिक कलह से तंग आकर वह ब्रीमेन चला गया, जहां उसने एक कार्यालय में बिना वेतन के लिपिक का काम किया. ब्रीमेन में काम करते हुए ऐंगल्स ने दर्शन का अध्ययन जारी रखा. कविताओं में उसकी रुचि थी. मात्र अठारह वर्ष की अवस्था में उसका पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुए. उस समय तक उसके समाचारपत्रों में लेख भी छपने लगे थे. बीस वर्ष की अवस्था में वह प्रूशिया की सेना में भर्ती हो गया. उसी दौरान उसको बर्लिन जाना पड़ा, जहां उन दिनों नवहीगेलवादियों की बड़ी चर्चा थी. युवा और स्वप्नदृष्टा ऐंगल्स स्वयं को उनके प्रभाव से न बचा सका. वहीं रहते हुए उसने हीगेल सहित समकालीन दार्शनिकों का गहन अध्ययन किया. अनेक समकालीन विचारकों की भांति वह भी हीगेल के विचारों से प्रभावित हुए बिना न रह सका.

1841 तक ऐंगल्स एक युवा लेखक के रूप में अपनी पहचान बना चुका था. उसी समय उसको अपने परिवार की ओर से मेनचेस्टर स्थित सूती मिल का काम देखने का निमंत्रण मिला. ऐंगल्स के पिता उस मिल के हिस्सेदारों में से थे. उन्होंने सोचा था कि कारखाने की जिम्मेदारी सौंपने से ऐंगल्स के मन में अपने वर्गीय हितों के प्रति झुकाव पैदा होगा. उन दिनों मार्क्स ‘रींसचे जीटुंग’ नामक प्रगतिशील समाचारपत्र का संपादक था. कम उम्र में ही वह प्रगतिशील विचारक, लेखक के रूप में पर्याप्त ख्याति बटोर चुका था. मेनचेस्टर जाते समय ऐंगल्स ने मार्क्स से मुलाकात की. दोनों की पहली भेंट औपचारिक ही रही. कोई भी एकदूसरे को प्रभावित करने में असमर्थ रहा. मेनचेस्टर में ऐंगल्स की भेंट मेरी बन्र्स नामक महिला से हुई. दोनों ही प्रगतिशील विचारों को मानने वाले थे. मेरी बन्र्स और ऐंगल्स का संबंध आजीवन बना रहा. ऐंगल्स की विवाह नामक संस्था में कोई आस्था न थी. दोनों आजीवन अविवाहित रहकर भी परस्पर गहरे मित्र और शुभचिंतक बने रहे.

मेनचेस्टर में रहते हुए ऐंगल्स को मजदूरों के जीवन को करीब से देखने का अवसर मिला. उसने देखा कि दिनभर कारखाने में जीतोड़ परिश्रम करने वाले श्रमिक शाम को भरपेट खाना भी नहीं खा पाते हैं. उनकी स्त्रियों और बच्चों को अधनंगे तन रहना पड़ता है. रातें भूख से काटनी पड़ती हैं. छोटेछोटे मकानों में जानवरों की भांति रहकर वे अपना समय बिता देते हैं. ऐंगल्स के लिए ये नए अनुभव थे, जिन्हें केवल लेखक के रूप में श्रमिकजीवन को करीब से देखे बिना वह समझ नहीं सकता था. ऐंगल्स ने अनुभव किया कि इंग्लेंड में लगभग सभी जगह मजदूरों की एक जैसी हालत है. उसी से प्रेरित होकर उसने अपनी पुस्तक ‘दि कंडीशन आ॓फ दि वर्किंग क्ला॓स इन इंग्लेंड इन 1844’ पूरी की. इंग्लेंड में उन दिनों चार्टिस्ट आंदोलन का उफान पर था. चार्टिस्ट आंदोलनकारी मजूदरों के सम्मान और उनके संवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे. यूरोप के करोड़ों मजदूर उसके समर्थन में थे. उनके संपर्क में आने के बाद ऐंगल्स में मजदूर आंदोलनों के प्रति निष्ठा का विकास हुआ. उन्हीं दिनों राबर्ट ओवेन, विलियम किंग, रिकार्डो तथा अन्य साहचर्यवादी अर्थशास्त्रियों को भी उसने पढ़ा. मगर उसको संतोष न हुआ. श्रमिकों के जीवन की दुर्दशा देखकर उसको अपने जीवन से घिन होने लगी. आखिर उसने मेनचेस्टर छोड़ने का निश्चय कर लिया. वहां से वह जर्मनी के लिए प्रस्थान कर गया. पेरिस में उसने एक बार फिर मार्क्स से मिलने का निश्चय किया. दोनों की भेंट एक स्थानीय कहवाघर में हुई. इस मुलाकात में दोनों एकदूसरे के मित्र बन गए. उनकी मित्रता आजीवन बनी रही. मार्क्स उन दिनों ‘दि होली फैमिली’ नामक पुस्तक पर काम कर रहा था. इस पुस्तक में उसने ब्रूनो बायर और अन्य नवहीगेलवादियों की आलोचना की थी. मार्क्स का जीवन संघर्षमय था. ऐंगल्स उसके काम से बेहद प्रभावित था. इसलिए उसने पेरिस में ही रुकने का निर्णय लिया, ताकि वहां रहकर अपने मित्र की आर्थिक मदद कर सके.

1848 में पेरिस में क्रांति भड़क उठी. मार्क्स को प्रूशिया में शरण लेनी पड़ी. वहां उसने एक समाचारपत्र का संपादन शुरू किया. मगर कलम का धनी और विचारों से निर्भीक मार्क्स वहां भी शांत रहने वाला न था. उसकी कुछ विवादित टिप्पणियों के कारण प्रूशिया की सरकार मार्क्स से नाराज हो गई. परिणामस्वरूप उसको समाचारपत्र और पू्रशिया की नागरिकता, दोनों से हाथ धोना पड़ा. मार्क्स वहां से इंग्लेंड चला गया. जहां उसने स्वयं को ‘पूंजी’ के लेखन के प्रति समर्पित कर दिया. ऐंगल्स को कारखानेदारों के जीवन से चिढ़ थी. उन्हें वह दूसरों के श्रम पर जीवनवाला, परजीवी वर्ग मानता था. उनकी विलासिता एवं स्पर्धा में एकदूसरे को पछाड़ देने की आदत से उसको कोफ्त होती थी. एक मालिक के रूप में उसे अपना जीवन बोझ लगता था. इसलिए वह मेनचेस्टर छोड़कर बर्लिन पहुंचा था. बर्लिन जैसे अपेक्षाकृत शांत नगर को अपना डेरा बनाने का उसका उद्देश्य यह भी था कि वह अपनी लेखनसंबंधी योजना को आगे बढ़ाना चाहता था. उसकी कोशिश आंशिक रूप से सफल भी रही. बर्लिन में उसके लेख वहां के प्रसिद्ध समाचारपत्रों में स्थान पाने लगे. बर्लिन पहुंचकर थोड़े ही दिन हुए थे कि उसको मार्क्स के परिवार पर आए आर्थिक संकट पर पड़ी. अंततः अपने परममित्र के जीवनसंघर्ष को देखते हुए उसको पुनः उसी जीवन में लौटना पड़ा. परिस्थितिवश जिस मिल में उसके पिता की साझेदारी दी, उसी में उसको लिपिक के रूप में काम करना पड़ा.

स्मरणीय है कि ऐंगल्स ने अपने कैरियर की शुरुआत भी एक लिपिक के रूप में की थी. तब उसने वैचारिक मतभेदों के कारण परिवार छोड़ा था. इस बार वह इसलिए काम पर लगा था, क्योंकि उसके परममित्र को उसकी मदद की आवश्यकता थी. एक बार फिर ऐंगल्स ने स्वयं को कुशल प्रबंधक सिद्ध किया और 1864 में उसने पुनः उस कारखाने की हिस्सेदारी खरीद ली. इस बीच मार्क्स लंदन के लिए रवाना हो गया. कारखाने का सफलतापूर्वक संचालन करता हुआ ऐंगल्स बर्लिन से ही मार्क्स की मदद बराबर करता रहा. उन दिनों मार्क्स एवं ऐंगल्स के बीच संवादवहन का एकमात्र माध्यम पत्राचार था. ऐंगल्स को अपने मित्र मार्क्स से मिलने की ललक थी. इसलिए उसने कारखाना छोड़ दिया. इस बार भी उसके परिजनों ने खूब समझाया. जमाने की ऊंचनीच का वास्ता दिया. लेकिन ऐंगल्स को उनसे अधिक अपने मित्र मार्क्स की चिंता थी. इसलिए वह लंदन के लिए रवाना हो गया, जहां वह मार्क्स के साथ रहने लगा. अपने जीवन के अंतिम दिनों में मार्क्स की बीमारी ने जोर पकड़ लिया था, उस समय ऐंगल्स ने एक आदर्श मित्र का दायित्व निभाते हुए उसकी भरपूर मदद की थी. ऐंगल्स जिद्दी, धुन का पक्का और खुशमिजाज इंसान था. साहित्य, संगीत, कविता लिखने के अतिरिक्त उसको लोमड़ी का शिकार करने का भी शौक था, जो उन दिनों इंग्लेंड के रईसों का पसंदीदा खेल था. जीवन के आरंभिक दिनों में वह क्रांति के लिए हिंसा का समर्थक था, मगर आगे चलकर वह शांतिपूर्ण तरीके से समाजवाद का पक्षधर बना.

मार्क्स के जीवन की एक विडंबना यह भी है कि वह आजीवन पूंजीवाद की आलोचना करता रहा. किंतु उसका सर्वाधिक घनिष्ट मित्र स्वयं एक पूंजीपति वर्ग से आता था. जिससे वह आजीवन मदद लेता रहा. मार्क्स ने जब ‘पूंजी’ की रचना की तो उसके लिए श्रमिकों के बारे में तथ्यात्मक जानकारी उसको ऐंगल्स से ही प्राप्त हुई थी. यही नहीं पूंजी की रचना के दौरान वह समयसमय पर मार्क्स को सुझाव भी देता रहा. इस पुस्तक के दूसरे और तीसरे खंड तो उसके संपादन में ही प्रकाशित हुए थे. दोनों ने हालांकि एक साथ कई पुस्तकों पर काम किया, लेकिन दोनों में कुछ उल्लेखनीय मतभेद भी थे. मार्क्स राजनीतिक अर्थशास्त्र में रुचि रखता था, जबकि ऐंगल्स की विशेषज्ञता इतिहास और प्राकृतिक विज्ञान में थी. दोनों के स्वभाव में भी काफी अंतर था. मार्क्स जहां तुनकमिजाज और बहुत जल्दी आपा खो देने वाला इंसान था, वहीं ऐंगल्स अपेक्षाकृत धैर्यवान और सोचसमझकर निर्णय लेता था. इन चारित्रिक भिन्नताओं के बावजूद दोनों के बीच गहरी और अटूट दोस्ती थी.

 

देमुट

जेनी और ऐंगल्स के अतिरिक्त एक तीसरा व्यक्ति और भी है, जिसका मार्क्स से अंतरंग संबंध था. वह थी, हेलेन लेंकन देमुट. देमुट मार्क्स की समवयस्का थी, और उसके घर नौकरानी का काम करती थी. मार्क्स की नौकरानी बनने से पहले सतरह वर्ष की जेनी टायर निवासी हेमुट जाॅन लुडविग वाॅन वेस्टफ्लान के घर नौकरी करती थी. जेनी काॅरलीन का जब मार्क्स से विवाह हुआ तो, देमुट भी जेनी के साथ उसके परिवार में चली आई. उन दिनों के सामंती परिवेश का अनुमान लगाया जा सकता है. भारत समेत पूरे यूरोप में स्त्री की यही अवस्था थी. खासकर नौकरानियां. संपन्नवर्ग के परिवार अपने घरों में काम करने वाली स्त्रियों का भी दहेज के रूप में लेनदेन करते रहते थे. यद्यपि मार्क्स दंपति के घर देमुट की हैसियत केवल नौकरानी तक सीमित नहीं थी. वह उनकी शुभचिंतक, सलाहकार, मित्र और नौकर सबकुछ थी. युवा मार्क्स भी उसके आकर्षण से बच न सका. 23 जून, 1851 को हेलेन देमुट ने मार्क्स के संपर्क से एक बच्चे को जन्म दिया, मगर वह कभी पिता का नाम न पा सका. सर्वहारा वर्ग को क्रांति के लिए प्रेरित करने वाला, ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत का जन्मदाता, श्रमिकों का हितचिंतक, महान दार्शनिक, क्रांतिकारी चिंतक और संवेदनशील कवि मार्क्स, अपने घर में देमुट के गर्भ से जन्मी अपनी औरस संतान को कभी अपना नाम न दे सका. तो भी धीरेधीरे देमुट के बच्चे को लेकर अफवाहें बढ़ती गईं. मार्क्स के आलोचकों के लिए उसको बदनाम करने का यह एक बेहतरीन अवसर था.

एक बार फिर ऐंगल्स मार्क्स का सखा और उद्धारक बनकर आगे आया. उसने खुद को देमुट के गर्भ से जन्मे बच्चे का पिता होने की घोषणा कर दी, ताकि मार्क्स और जेनी के संबंधों में किसी भी प्रकार की खटास न आए. मार्क्स के घर में रहने के कारण उसपर आरोप तो लगने ही थे, लगे, मगर ऐंगल्स ने अपनी जिंदादिली से उन सबको चुप रहने को विवश कर दिया. 1883 में मार्क्स की मृत्यु के पश्चात देमुट ऐंगल्स के घर में नौकरानी का काम करने लगी. 1890 में उस दयालु और परिश्रमी स्त्री को केंसर ने घेर लिया. ऐंगल्स ने उसका उपचार करने का भरसक प्रयास किया. लेकिन पहले अपनी मित्र जेनी कोरलीन और बाद में मार्क्स की मृत्यु से हताश देमुट की सेहत में कोई सुधार न हुआ. आखिर उसी वर्ष 4 नवंबर को बीमारी के कारण उसका निधन हो गया. उसको मार्क्स के परिवार के साथ दफनाया गया है.

ओमप्रकाश कश्यप