प्लेटो का समाजार्थिक दर्शन : न्याय की अवधारणा

रिपब्लिक’ में प्लेटो ने अपने राजनीतिक दर्शन के मूलभूत तत्वों की रूपरेखा प्रस्तुत की थी. गंभीर चिंतन के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि समाज के गठन का उद्देश्य अयाचित और किसी कल्याणभाव से प्रेरित नहीं है. यह सीधेसीधे व्यक्ति के स्वार्थ से जुड़ा है. चूंकि अकेले मनुष्य के लिए जीवन की अनेक दुश्वारियां थीं, इसलिए उसने समूह में रहना सीखा. समूह को स्थायित्व प्रदान करने, उसमें शांतिव्यवस्था बनाए रखने, विकास और सुखानंद के लिए उसने कुछ नियमों का विन्यास किया. कालांतर में ये नियम सभ्यता का प्रतीक बनकर जटिल सामाजिक संबंधों में ढलते चले गए. आज से करीब पांच हजार वर्ष पहले मनुष्य व्यापार में तरक्की कर चुका था. उसने नौकाओं और भारी जलयानों की सहायता से लंबी समुद्री यात्रएं करना सीख लिया था. दुर्गम स्थानों की यात्रा के लिए वह पशुओं की मदद लेता था. रास्ते में हिंस्र पशुओं और दस्युओं का खतरा था. उनसे निपटने के लिए उसने भाड़े के सैनिक रखने आरंभ किए.

सैन्यबल और धनसंपदा दोनों ही ताकत का प्रतीक थीं, व्यक्ति के पास जब इनका प्राचुर्य हुआ तो उसकी महत्त्वाकांक्षाएं अंगड़ाई लेने लगीं. प्रारंभ में जिन स्थानों से उसको वाणिज्यिक लाभ पहुंचता था, उन स्थानों पर सीधे अथवा अपने सहयोगियों की सहायता से अपने उपनिवेश कायम करने लगा. प्रारंभ में जो राज्य बने उनका क्षेत्रफल बहुत कम, नगरविशेष की सीमा तक होता था. निश्चितरूप से तत्कालीन नगरराज्य की स्थापना एक स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर आर्थिकराजनीतिक इकाई के रूप में की गई होगी. शीघ्र ही मनुष्य को लगने लगा था कि विकास की निरंतरता के लिए संबंधों का विस्तार अत्यावश्यक है. ऐसी कार्यकारी संस्थाओं की आवश्यकता है जिनके द्वारा संबंधों को मर्यादित और नियंत्रित किया जा सके. इससे नए राजनीतिक दर्शन की आवश्यकता महसूस की जाने लगी.

आदिम मानवीय जिज्ञासा केवल जीवन और प्रकृति के रहस्यों के अन्वेषण तक सीमित थी, जिसके कारण दर्शनों का विस्तार हुआ. बहुत शीघ्र मनुष्य को लगने लगा कि केवल पराभौतिक सत्ता की खोज से काम चलने वाला नहीं है. जीवन को अधिक सुविधासंपन्न बनाने तथा प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए प्रकृति को समझना भी अनिवार्य है. इसलिए बुद्धिजीवियों का ध्यान इहलौकिक सत्यों के अन्वेषण की ओर गया, जिससे ज्ञानविज्ञान की खोज के नए रास्तों का विकास हुआ. ईसा से 426 वर्ष पहले जन्मे यूनानी दार्शनिक वैज्ञानिक डेमोक्रिटिस ने लोकभ्रांतियों का खंडन करते हुए घोषणा की कि चंद्रमा पर दिखने वाली छाया वस्तुतः उसकी सतह पर बने ऊबड़खाबड पठार हैं. उसने नीहारिकाओं का रहस्योद्घाटन करते हुए बताया कि रात में आसमान में नजर आने वाली दूधिया नदी, वास्तव में तारों का प्रकाश है, जो अरबों की संख्या में विराट अंतरिक्ष में फैले हुए हैं.

हालांकि लोकमानस सूर्य, चंद्र आदि ग्रहनक्षत्रों की भावनात्मक कहानियां आगे भी गढ़ता रहा, तो भी डेमोक्रिटिस के लेखन से आने वाले विचारकों को एक नई दिशा मिली. लोगों को लगा कि विश्वसमाज और उसकी उत्पत्ति की तह में जाने का एक तरीका यह भी हो सकता है, जो दूसरे की अपेक्षा कहीं अधिक वस्तुनिष्ठ और तर्कसम्मत है. इससे आगे चलकर विज्ञान के विकास को नई दिशा मिली. देखा जाए तो वह समय दुनिया की सभी बड़ी सभ्यताओं भारत, यूनान, मिश्र, चीन में वैचारिक क्रांति के उद्घोष का था, जिसमें महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, सुकरात, कन्फ्यूशियस, अजित केशकंबलि आदि का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्होंने अपने मौलिक चिंतन से प्रचलित धर्मदर्शन की जड़ता और उसके पोंगापंथी सोच पर तीखा प्रहार किया. लगभग यही वह दौर था जब व्यवस्थित राजनीतिक दर्शन पर विचार किया गया, जो धार्मिक आग्रहों से पूरी तरह स्वतंत्र था.

यह नया चिंतन विज्ञानवादी सोच के साथसाथ उभर रहा था. राज्य की उत्तरोत्तर बढ़ती महत्ता को पहचानकर डेमोक्रिटिस ने ही सपना देखा था कि कोई तो होगा जो राज्य के मामलों को दूसरे सभी मामलों पर तजरीह देगा. कुछ इस तरह कि सबकुछ संतुलितसा लगे. जो न तो वास्तविकता से बहुत परे, विवादपूर्ण हो, न ही किसी सार्वजनिक शुभ से इतर विषयों पर जोर देता हो. उसकी निगाह में राज्य का प्रबंधन किसी भी अन्य कार्य से अधिक महत्त्वपूर्ण और श्लाघनीय कर्म था. उसके अनुसार ऐसे राज्य के लिए जिसको सही ढंग से व्यवहृत किया जा रहा है

विकास का सर्वोत्तम रास्ता है कि सबकुछ इसी(राज्य)पर निर्भर हो. यदि राज्य की सुरक्षा हुई तो बाकी सब सुरक्षित रहेगा; और यदि राज्य को नष्ट किया गया तो शेष सभी नष्ट हो जाएगा.’

डेमोक्रिटिस का यही सोच आगे चलकर प्लेटो, अरस्तु आदि के राजनीतिक चिंतन की प्रेरणा बना. पश्चिमी समाज में सुकरात की स्थिति एक धार्मिक आचार्य के तुल्य है. उसने हालांकि स्वयं कुछ नहीं लिखा था, लेकिन एक मसीहा की भांति उसका गहरा प्रभाव पूरे यूरोपीय चिंतन पर बना हुआ है. सुकरात के बारे में दुनिया जो भी जानती है, वह प्लेटो सहित सुकरात के अन्य शिष्यों, समकालीनों के माध्यम से ही. तो भी यह सुकरात के सोच का अनूठापन ही था कि उसको प्लेटो जैसे विचारकों ने अपना गुरु माना. धर्मदर्शन के क्षेत्र में जिस आदर्शवाद का पक्ष सुकरात लेता था, प्लेटो ने उसी के माध्यम से अपने राजनीतिक दर्शन की परिकल्पना की. यही कारण है कि प्लेटो का राजनीतिक दर्शन धार्मिक टच लिए हुए है. सुकरात का उल्लेख उसने तेजस्वी विद्वान व्यक्ति के रूप में किया है, जो ‘शुभ’ को पहचानने तथा उसका अनुसरण करने की आवश्यकता पर जोर देता है. वह ईश्वर की परंपरागत अवधारणा से भिन्न, यद्यपि उसकी कुछ समानताएं लिए हुए है. प्लेटो एथेंस की राजनीतिक उथलपुथल का साक्षी रहा था.

सुकरात से करीब 40 वर्ष छोटे प्लेटो ने एथेंस और स्पार्टा के बीच तीस वर्ष तक चलने वाले युद्ध को अपनी आंखों से देखा था. वह 429 ईस्वी पूर्व की एथेंस की प्लेग का भी साक्षी रहा था, जिसमें उसके महान योद्धा और राजनीतिज्ञ पेरीक्लीस समेत अनेक बहादुर सैनिकों को जान गंवानी पड़ी थी. 401 ईस्वी पूर्व में एथेंस की हार के बाद वहां के सम्राट को अपदस्थ कर विजयी स्पार्टा ने वहां तीस सदस्यीय संसद की स्थापना की थी. उसके बाद कुछ समय तक सबकुछ ठीकठाक चलता रहा, मगर उसके बाद एथेंस में भ्रष्टाचार और तानाशाही का बोलबाला हो गया. इस तरह प्लेटो ने राजशाही और कुलीनतंत्र दोनों का अनुभव था. गणतंत्र के नाम पर गठित परिषद के सदस्य निजी अहं के शिकार होकर मनमानी करने लगे. परिषद कुलीनतंत्र की हठधर्मी का माध्यम बन चुकी है.

इन दोनों राजनीतिक प्रणालियों से निराश प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में दार्शनिक सम्राट की अनिवार्यता पर जोर दिया था. वह स्वयं एक अभिजात परिवार से था, एथेंस के सम्राट से उसका संबंध था, इस कारण वह स्वयं को एथेंस की राजनीति का उत्तराधिकारी भी मानता था. उसको सक्रिय राजनीति में योगदान देने का अवसर तो कभी न मिल सका, तो भी राजनीति उसके दिलोदिमाग पर सदैव हावी रही. ‘रिपब्लिक’ में जिस आदर्शलोक का सपना वह देखता है और उसके लिए जिस राजनीतिक दर्शन की परिकल्पना करता है, वह सक्रिय राजनीति में हिस्सा न ले पाने से उत्पन्न कुंठा की उपज था.

प्लेटो को लगता था कि राजनीतिक पदों पर जिम्मेदारी का निर्वहन चुनौतीभरा काम होता है. महत्त्वपूर्ण कर्तव्यों के निष्पादन के लिए उपयुक्त व्यक्ति पर्याप्त संख्या में सर्वदा उपलब्ध हों, यह संभव भी नहीं होता. इसलिए किसी भी राज्य के सामने, जो नागरिक हितों को सर्वोपरि समझता है, बड़ी समस्या ईमानदार, दूरदृष्टा, साहसी और नीतिवान राजनीतिज्ञों के चयन की होती है. प्लेटो को विश्वास था कि शिक्षा के माध्यम से अच्छे राजनीतिज्ञ तैयार किए जा सकते हैं. उसने द्वारा ‘अकादमी’ की स्थापना इसी उद्देश्य के निमित्त की गई थी. पलभर के लिए एकदम हाल के युग में लौटकर याद करने की कोशिश करें. कुशलनीतिवान राजनीतिज्ञों की उपलब्धता की समस्या को लेकर ब्रिटिश की तत्कालीन प्रधानमंत्री मारर्गेट थैचर ने भी अपने एक बयान में कहा था कि उन्हें राजकर्म के कुशल संपादन के लिए केवल छह व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो निपुण एवं नीतिवान हों. पर ऐसे लोग इतनी संख्या में कभी एक साथ नहीं मिल पाते.

यही समस्या प्लेटो के सामने भी थी. इसलिए उसने शिक्षा के माध्यम से भावी राजनीतिज्ञों की पीढ़ी तैयार करने पर जोर दिया था. ‘रिपब्लिक’ की रचना में प्लेटो के गुरु सुकरात के अलावा उसके और भी कई समकालीन एवं पूर्ववर्त्ती दार्शनिकों का योगदान था. उनमें पाइथागोरेस के अनुयायी, पेरामेनीडिस, डेमोक्रिटिस, हेराक्लाटस आदि प्रमुख थे. इनमें से प्लेटो पर सर्वाधिक प्रभाव, ईसा से पांच शताब्दी पहले जन्मे यूनानी दार्शनिक पेरामेनीडिस का पड़ा था. उसका मानना था कि ‘सत्य को अनतिंम तथा अपरिवर्तनीय होना चाहिए.’

पेरामेनीडिस शब्दों की ताकत पर भरोसा करता था. उसका विचार था कि यदि भाषा में अभिव्यक्तिसामथ्र्य है तो उसके द्वारा हम जिस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, यानी लगातार विमर्श के माध्यम से जो ज्ञान में प्राप्त होता है, वह भी सच होना चाहिए. पेरामेनीडिस के दर्शन का स्रोत ‘दि नेचर’ शीर्षक से लिखी गई एक कविता है. कहा जाता है कि उस कविता में लगभग 3000 पद थे. उनमें से अधिकांश पद अब गायब हो चुके हैं. मूल भी कविता अनुपलब्ध है. उसका सिर्फ संदर्भ प्राप्त होता है. अपनी कविता में पेरामनीडिस ने कहा था कि आप उस वस्तु के बारे में नहीं जान सकते जिसका कोई अस्तित्व ही न हो. इसका अभिप्राय है कि मनुष्य का ज्ञान केवल अस्तित्वमान प्रत्ययों की व्याख्याविश्लेषण तक संभव है. इस आधार पर पेरामेनीडिस को पहला तत्वविज्ञानी भी कहा जा सकता है, जो कालांतर में भौतिकवादी दर्शन की प्रेरणा बना.

पेरामेनीडिस के अलावा प्लेटो पर सर्वाधिक प्रभाव उससे कुछ ही वर्ष पहले जन्मे हेराक्लाट्स का पड़ा था. यूनानी दर्शन के पितामह थेल्स से प्रभावित हेराक्लाट्स जल को ही सृष्टि का मूलाधार मानता था. उसका मानना था कि सबकुछ गतिमान है. दो व्यक्ति यदि आगे पीछे जा रहे हैं तो पीछे मौजूद व्यक्ति कभी पहले को नहीं पकड़ पाएगा. इसलिए कि उनकी यात्र का भौतिक जगत के अलावा एक आयाम और भी है—वह है समय, जो सदैव गतिमान रहता है. जिस समय पीछे चल रहा व्यक्ति आगे वाले के बराबर पहुंचेगा, उस समय तक आगे वाला व्यक्ति समय के प्रवाह में कुछ और आगे निकल चुका होगा. हेराक्लाइटस की प्रसिद्ध उक्ति है—‘सबकुछ प्रवाहमान है.’ किवदंति है कि उसने यह नदी में खड़े होकर, उसके प्रवाह को देखते हुए कहा था. हेराक्लाइट्स के अनुसार—

यह विश्व, जो सभी के लिए एक समान है, इसमें जो कुछ है सभी सनातन है—वह न तो ईश्वरनिर्मित है, न ही मानवनिर्मित. जो कुछ आज है वह अखंड ज्योति के समान, परिवर्तनशीलता के बीच, हमेशाहमेशा के लिए रहने वाला है.’

हेराक्लाइट्स के चिंतन में भौतिकवादी विचारधारा के बीजतत्व मौजूद हैं, जिन्होंने प्लेटो, अरस्तु समेत आने वाली पीढ़ी के अनेक दार्शनिकों को प्रभावित किया था. उसके बारे में यह बात भी चौंका सकती है कि वह युद्ध का समर्थक था. यहां तक कि न्याय की स्थापना के लिए भी वह युद्ध को अनिवार्य मानता था. युद्ध का जैसा दुराग्रही समर्थन हेराक्लाइट्स ने किया, वैसा शायद ही किसी और विचारक ने किया हो—

युद्ध आमखास, राजाओं तथा राजाओं के राजा का जनक है. युद्ध ने ही कुछ को भगवान, कुछ को इंसान, कुछ को दास, कुछ को स्वामी बनाया है. हमें मालूम होना चाहिए कि युद्ध से हम सभी का नाता है. विरोध न्याय का जन्मदाता है, प्रत्येक वस्तु संघर्ष से ही जन्मती तथा उसी से अंत को प्राप्त होती है.’

हेराक्लाइट्स तथा पारमेनीडिस की विचारधारा के प्रभाव में कालांतर में जिस विचारधारा ने यूनानी बुद्धिजीवियों का दिल जीता, उसके अनुसार ठोस और दृश्यमान जगत को अस्थायी एवं क्षणभंगुर माना गया है. इस विचारधारा के अनुसार दृश्यमान जगत स्वयं में अवास्तविक और मायावी है, जैसा कि आगे चलकर भारतीय वेदांतियों की मान्यता रही.यह विचारधारा लोगों में यह विश्वास जगाने में कामयाब हुई कि मनुष्य का ज्ञान स्वतः प्रामाण्य है. चेतना जगत वास्तविक है. ज्ञान के रूप में यह जो ग्रहण करता है, जिन निष्कर्षों की सृष्टि करता है, वे चिरंतन एवं कालातीत होते हैं. प्लेटो ने इसी विचारधारा का उपयोग अपने राजनीतिक दर्शन के लिए किया था. लंबे विमर्श के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि आदर्श राज्य की स्थापना केवल समर्थन, सहयोग और परिवर्तनशील बने रहने से संभव नहीं है. इसे दृढ़, स्थायी, अपरिवर्तनीय राजनीतिक तंत्र के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है, जो सामाजिक परिवर्तनों को निरंतर नियंत्रितनिर्देशित करने में सक्षम हो.

उस समय तक राजनीति के इतने व्यवस्थित उपयोग के बारे में किसी ने नहीं सोचा था. अतः राजनीतिक दर्शन के लिहाज से यह एक अद्भुत और विकासगामी सोच था. इस विचार को नए आयाम देते हुए प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ की रचना की और एक आदर्श समाज का खाका तैयार किया. इस कार्य के पीछे उसके कविहृदय का भी उतना ही योगदान था, जितना कि दार्शनिक मस्तिष्क का. इसलिए अपने आदर्शराज्य में उसने कानून के हस्तक्षेप को न्यूनतम रखते हुए आत्मानुशासन पर ज्यादा जोर दिया है. इस ग्रंथ को कुछ विद्वान प्लेटो की कुंठा की उपज भी मानते हैं, जो एथेंस की राजनीति में सक्रिय भूमिका न निभा पाने के कारण जनमी थी. प्लेटो स्वयं दार्शनिक था. सुकरात, डेमोक्रिटिस, हेराक्लाइट्स, पेरामेनीडिस समेत पाइथागोरस के अन्य अनुयायी आदि जिनसे वह प्रभावित था, वे सब भी दार्शनिक थे. ‘रिपब्लिक’ को राजनीति के विभिन्न स्वरूपों का अनुभव था. उसने एथेंस में गणतंत्रीय शासन को कुलीनतंत्र की मनमानी में ढलते हुए देखा था. सायराकस के सम्राट डायोनिसियस प्रथम और द्वितीय की तानाशाही भी देखी थी. डायोनिसियस प्रथम अपने राज्य में विद्वानों और दार्शनिकों को रखता था. लेकिन उसकी मनमानी, सनकों और महत्त्वाकांक्षाओं पर रोक लगाने में वे सभी अक्षम थे. इस कारण राजशाही से भी उसका विश्वास उठ चुका था. इसलिए राज्य के मुखिया के रूप में वह ऐसे शासकों की कल्पना करता था, जो दूरदर्शी, वीर, साहसी, दृढ़निश्चयी, बुद्धिमान और किसी भी प्रकार से प्रलोभन से मुक्त हों. उसके अनुसार ये गुण किसी दार्शनिक में ही संभव हैं. इसलिए उसने राज्य की बागडोर किसी दार्शनिक के हाथों में सौंपने की कल्पना की थी. ‘

रिपब्लिक’ में उसकी यही परिकल्पना विस्तार लेती दिखाई पड़ती है. ध्यातव्य है कि ‘रिपब्लिक’ उसके प्रौढ जीवन की रचना है, हालांकि उसका लेखन वर्षों तक चलता रहा. कुछ खंड उसने अपने उत्तरवर्ती जीवन में पूरे किए थे. जब उसको लगने लगा था कि ‘रिपब्लिक’ के सपने को यथार्थ में साकार कर पाना सहज नहीं है. तो भी उसका ‘शुभ’ की अनिवार्यता और आदर्शों से मोह भंग नहीं हुआ था. अतएव अपने अंतिम दिनों की कृति ‘लाज’ में वह उन व्यवस्थाओं की परिकल्पना करता है, जिनके द्वारा उस सपने को साकार किया जा सकता है. ‘रिपब्लिक’ की मुख्य स्थापना थी कि राज्य का मुखिया किसी दार्शनिक को होना चाहिए. वही चुनौतीपूर्ण स्थितियों में दृढ़ निश्चय लेकर राज्य का कल्याण कर सकता है. दार्शनिक सम्राट का प्रयोग प्लेटो से पहले भी यूनान के नगरराज्यों में हो चुका था. बल्कि किसी नगरराज्य के विकास के लिए आचारसंहिता तैयार करने का काम प्रायः दार्शनिकविचारक ही करते आए थे. परंतु मार्क्स की भांति प्लेटो भी दुनिया को समझने नहीं, बदलने में विश्वास करता था. यही कारण है कि वह सहस्राब्दियों से दार्शनिक विचारकों को प्रभावित करने में सक्षम रहा है.

राजनीतिक दर्शन को समर्पित प्लेटो की महान रचना ‘रिपब्लिक’ न तो किसी विशिष्ट राजनीतिक दर्शन की स्थापना करती है, न ही किसी खास राजनीतिक विचारधारा का पक्ष लेती है. उसकी स्थापनाएं यूनान के किसी भी नगरराज्य के बारे में सच हो सकती थीं. इसलिए कि वह किसी विशेष राजनीतिक प्रणाली पर जोर देने के बजाय समाज में आदर्शों की स्थापना पर जोर देता था. चूंकि आदर्श की स्थापना परोक्षतः न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना ही है, इसलिए इस ग्रंथ में वह न्याय को विभिन्न कोणों से परिभाषित करने का प्रयास करता है. न्याय की उसकी अवधारणा भी तत्संबंधी आधुनिक विचारधाराओं से भिन्न है. ‘जस्टिस’ के माध्यम से एक भयमुक्त, अपराधमुक्त, न्यायाधारित समाज की स्थापना का पक्ष लेने के बजाय वह नागरिकों में कर्तव्यबोध पैदा करने पर ज्यादा जोर देता है. उसकी निगाह में न्याय का अभिप्राय व्यक्ति और समाज के आचरण की स्वयंस्फूर्त पवित्रता से है. ‘न्याय’ हालांकि अपने आप में एक जटिल अवधारणा है. इसका संबंध व्यक्ति मात्र के सदाचरण तथा समाज में अनुशासन बनाए रखने से होता है.

रिपब्लिक’ के पहले खंड में प्लेटो ने सुकरात को अपने साथियों के साथ ‘न्याय’ की अवधारणा पर विस्तार से चर्चा करते हुए दर्शाया है. उस चर्चा के माध्यम से ‘न्याय’ की चार परिभाषाएं हमें प्राप्त होती हैं. मगर उनमें से एक भी परिभाषा ऐसी नहीं है, जिसे सर्वमान्य सर्वकालिक सत्य माना जा सके. स्वयं प्लेटो के अनुसार न्याय व्यक्तिसापेक्ष, स्थितिसापेक्ष होता है. अतः उसकी उपयोगिता विशिष्ट संदर्भों तक सीमित होती है. चर्चा के भागीदारों में से एक केफलस के अनुसार न्याय का आशय, ‘सच बोलना तथा दूसरों से लिए उधार को समय पर लौटाना है.’

यह अवधारणा व्यक्ति की सत्यनिष्ठा तथा सामाजिक परंपरा, जो आपसी व्यवहार को बनाए रखने के लिए अत्यावश्यक है, पर जोर देती है. पर न्याय क्या सिर्फ सच बोलने और समय पर उधार चुकाने तक सीमित है? उससे परे कुछ नहीं? सुकरात प्रतिवाद करता है—‘यह सही है कि न्याय शुभ का प्रतीक है. व्यक्ति ने किसी से उधार लिया है तो उसे समय पर चुकाना उसका दायित्व है. किंतु यह प्रत्येक अवस्था में उतना ही सम्मानेय हो, जरूरी नहीं है. वह तर्क देता है—

मान लीजिए मेरा एक दोस्त अपनी अच्छी मनःस्थिति में अपना कोई हथियार मेरे पास सुरक्षित रख देता है. उस हथियार को वह उस समय मांगने आता है, जब वह संतुलित मनःस्थिति में नहीं है. तो क्या मुझे उसके हथियार को तत्क्षण वापस कर देना चाहिए? कोई इस बात से सहमत नहीं होगा कि ऐसी स्थिति में जब मेरे प्रिय मित्र का मानसिक संतुलन डांवाडोल है, मुझे उसके हथियार को लौटा देना चाहिए. स्पष्ट है कि दोस्त को उसी समय हथियार न लौटाने के लिए मुझे कोई बहाना भी बनाना पड़ सकता है. यानी ऐसी अवस्था में न केवल उधार चुकाना अनैतिक हो सकता है, बल्कि सच बोल पाना भी संभव नहीं है.’

इससे सुकरात और उसके साथी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सिर्फ समय पर उधार चुकाने को न्याय का पर्याय नहीं माना जा सकता. दूसरे शब्दों में समय पर उधार चुकाना न्याय का द्योतक तो हो सकता है, लेकिन न्याय की सर्वांगता का प्रतीक वह हरगिज नहीं बन सकता. केफलस का बेटा पोलीमाक्र्स चर्चा को विस्तार देते हुए न्याय को नए ढंग से परिभाषित करने का प्रयास करता है. उसके अनुसार—

न्याय का आशय मित्रों के साथ सहृयतापूर्ण तथा दुश्मनों के प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार करना है.’

परंतु मित्रों के चयन में भी व्यक्ति का स्वार्थभाव झलकता है. इसलिए वह उन्हीं लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करेगा, जो उसकी स्वार्थसिद्धि के काम आते हैं या आने वाले हैं. इस तरह तो पूरा समाज ही स्वार्थभावना से संचालित होगा. फिर व्यक्ति का स्वार्थ भी हमेशा एक जैसा नहीं रहता. कोई वस्तु एक समय में उसके लिए सुखकारी हो सकती है तथा अगले ही क्षण दुखदायी. ऐसा हो तो, सुकरात तर्क देता है—‘न्याय अन्याय को बढ़ावा दे सकता है. पोलीमाक्र्स सुकरात के तर्क से सहमत है कि न्याय जो सर्वत्रसार्वकालिक शुभ की कामना करता है, वह किसी के लिए हानिकारक हो ही नहीं सकता. सुकरात साइमनडिस के इस तर्क से सहमति जताता है कि, ‘न्याय प्रत्येक व्यक्ति को वह सबकुछ देता है, तो उसके लिए लाभकारी है.’

रिपब्लिक’ के पहले खंड में ‘न्याय’ की अवधारणा को लेकर सभी अपनेअपने तर्क प्रस्तुत करते हैं. वहां न्याय को लेकर सबसे चैंकाने वाली परिभाषा थ्रमाइचस की ओर से आती है. वह जोर देकर कहता था कि, ‘न्याय बलशाली के हित के सिवाय और कुछ नहीं है.’ सुकरात को यह भी मंजूर नहीं. वह तर्क करता है—

हमारे बीच पोलीडमस मौजूद है, हम सब जानते हैं कि यह पहलवान है. यह हम सबसे अधिक बलशाली है. अपने शरीर की ताकत को बनाए रखने के लिए यह मांस का नियमित सेवन करता है. तो क्या यह समझना चाहिए कि मांस का सेवन करना हम सभी के लिए, जो शारीरिक रूप से बहुत दुर्बल हैं, उतना ही स्वास्थ्यकारी है, जितना वह पोलीडमस के लिए है? क्या यह हमारे लिए भी उतना ही पोषक सिद्ध होगा, जितना इसके लिए?’

सुकरात की आपत्ति पर थ्रमाइचस अपने तर्क के समर्थन में प्रजातांत्रिक, कुलीनतंत्र और तानाशाही सरकारों का उदाहरण देता हुआ कहता है कि सरकार के ये सभी रूप आम हैं—‘विभिन्न प्रकार की सरकारें यथा लोकतांत्रिक, कुलीनतंत्र और तानाशाही अपनीअपनी विचारधारा को ध्यान में रखकर कानून बनाती हैं, जिन्हें वे सिर्फ अपने हितों को ध्यान में रखकर विरचित करती हैं. ऐसे कानून भला उस जनता के लिए कैसे न्यायकारी हो सकते हैं, जिसपर उन्हें शासन करना है? यदि कोई व्यक्ति उन कानूनों का अतिक्रमण करेगा, विरोध का साहस दिखाएगा तो वे उसको कानून का द्रोही मानकर दंडित करेंगे. यही वह बात है जो मैं समझाना चाहता हूं कि सभी राज्यों के न्याय के अपने सिद्धांत और व्याख्याएं होती हैं, जिनका झुकाव सरकार के हितों की ओर होता है, जो स्वाभाविक रूप से राज्य में सर्वाधिक शक्तिशाली होती है. इसलिए मेरी यह बात सच है कि न्याय हमेशा शक्तिशाली का हित देखता है.’

सुकरात विनम्रतापूर्वक थ्रमाइचस के इस तर्क को नकार देता है. वह अपने प्रतिवादी को समझाता है कि डाक्टर की दवा स्वयं डाक्टर के लिए नहीं, बल्कि मरीज के लिए हितकारी होती है. सारथी का हुनर उसके किसी काम का नहीं होता, वह अपेक्षाकृत सवार के लिए हितकारी होता है. इसलिए राज्य जो कानून बनाता है, वे भी उसके लिए तथा उसकी जनता के लिए समानरूप से हितकारी होने चाहिए. इसलिए ‘न्याय शक्तिशाली के लिए हितकारी होता है—इस परिभाषा में दोष है.

रिपब्लिक’ में आगे भी न्याय की अवधारणा पर चर्चा होती है, परंतु किसी एक परिभाषा पर सहमति नहीं बन पाती, सिवाय इस मान्यता के कि न्याय को सर्वत्रसार्वकालिक शुभ होना चाहिए. परंतु थ्रमाइचस के तर्कों से एक बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि सरकार चाहे जिस तरह की हो, वह सिर्फ अपना स्वार्थ देखती है. लोकतांत्रिक सरकारें ऐसे नियम बनाती हैं, जो लोकतंत्र को पुष्ट करने वाले हों. राजशाही ऐसे कानून बनाने पर जोर देती है, जिनके द्वारा उसकी आने वाली पीढ़ियों के लिए सत्ता सुरक्षित रहे. पूंजीवादी सरकारें उन कानूनों को अपनाती हैं, जिससे समाज में उपभोक्तावाद पनपे, जो अंततः व्यापारियों के लिए खुलकर लाभ कमाने का अवसर प्रदान करता है. उन सभी के लिए न्याय वही है, जो उनके अपने हितों के फलनेफूलने का अवसर देता है. परंतु सरकार चाहे जिस प्रकार हो, वह कानून भले अपने हितों को केंद्र में रखकर बनाए, मगर उसका दावा यही होता है कि वे पूरे राज्य के हितों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं. उनमें जनता के हितों का पूरा ध्यान रखा गया है. अतः राज्य के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह उन कानूनों का पालन करे. उल्लंघन करने वाले को दंडित करने का प्रावधान भी उन कानूनों में होता है.

चूंकि सत्ता ताकत का प्रतीक होती है, इसलिए उसके द्वारा बनाए गए कानून प्रायः ताकतवर का ही समर्थन करते हैं. अतएव वे समाज के दुर्बल वर्गों के लिए हानिकर होते हैं. न्याय को लेकर लंबी परिचर्चा एवं वादप्रतिवाद के बावजूद हम पाते हैं कि ‘रिपब्लिक’ का पहला खंड अनिर्णय की स्थिति में समाप्त हो जाता है. थ्रमाइचस यह कहकर रोषपूर्ण तरीके से चर्चा से बाहर हो जाता इस बहस से किसी परिणाम तक पहुंचना असंभव है. चर्चा का सूत्रधार और प्रमुख वार्ताकार सुकरात समस्या पर अगले दिन नए सिरे से विचार करने का निश्चय कर घर की राह लेता है. न्याय की सर्वमान्य परिभाषा की खोज की ओर बढ़ रहा पाठक अचानक निराशा से भर जाता है. लगता है कि पुस्तक के माध्यम से प्लेटो का लक्ष्य ‘न्याय’ को परिभाषित करना था ही नहीं. वास्तव में वह विभिन्न प्रकार की राजनीतिक प्रणालियों को अपनी समीक्षा के दायरे मे लाना चाहता था. उसका ध्येय यह दर्शाना था कि शीर्षस्थ शक्तियों के लिए केवल अपने हित सर्वोपरि होते हैं. यह कार्य वे व्यापक लोकहित का नाम लेते हुए करती हैं. इससे नुकसान उन्हें उठाना पड़ता है जो शक्तिहीन और विपन्न है

बहस के दौरान सुकरात न्याय को सार्वकालिकसर्वहितकारी बताकर उसको नैतिक उठान तो देता है, परंतु वह यह संकेत भी करता है कि शासन की प्रचलित प्रणालियों में से कोई भी ‘न्याय’ की स्थापना करने में समर्थ नहीं है. यानी सत्ता के नैतिक स्वरूप की खोज ‘रिपब्लिक’ का उद्देश्य है, मगर अंत तक वह लक्ष्य ही बना रहता है. इससे एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि सत्ताकेंद्र पर विराजमान व्यक्तियों के हितों में कोई तालमेल नहीं होता है. वे सिर्फ अपने स्वार्थ पर एकमत होते हैं. इसलिए सदैव यही प्रयास करते हैं कि अपनी सत्ता को अक्षुण्ण रखते हुए अपने हितों को कैसे साधा जाए? और किस प्रकार उन्हें प्रकार जल्दी से जल्दी तथा अधिकतम सीमा तक पूरा किया जा सकता है?

पुस्तक का अगला खंड छोड़ी गई चर्चा को नए पात्रों के साथ विस्तार देता है. सुकरात के माध्यम से प्लेटो न्याय की पुरानी अवधारणा को पुनः दोहराता है, जिसके अनुसार न्याय का उद्देश्य सार्वकालिकसार्वत्रिक शुभ और सर्वश्रेष्ठ न्यायिकराजनीतिक शासन की स्थापना करना है. तुलनात्मक रूप से न्याय को वह दो प्रकार से देखता है. उसका पहला चेहरा वह है जो राज्य की कार्यप्रणाली के जरिए सामने आता है. जिसके द्वारा निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए कोई राज्य अपने कर्तव्यों के निष्पादन के बहाने, विभिन्न संस्थाओं का गठन तथा उनका नियमिन करता है. न्याय का दूसरा चेहरा वह है जो उसके नागरिकों के आचरण में दिखाई पड़ता है. प्लेटो की मान्यता थी कि व्यक्ति की अपेक्षा बड़े तंत्र, जैसे राज्य के व्यवहार में न्याय की पहचान अपेक्षाकृत आसानी से की जा सकती है. लेकिन यदि प्रत्येक नागरिक न्याय की ओर से उदासीन हो जाए तो राज्य के न्याय का कोई अर्थ नहीं रह जाता. ऐसे में उसे मनमानी करने का अवसर मिल जाता है. इसलिए व्यक्तिमात्र का कर्तव्य है कि वह समाज को उस रूप में व्यवस्थित करने के बारे में सोचे जिस, प्रकार वह स्वयं को व्यवस्थित करना चाहता है. किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश न रहे

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वह स्पष्ट कर देना चाहता है कि मनुष्य न्याय को एक गुण के रूप में देखना चाहता है जो व्यक्ति के व्यवहार में भी उसी प्रकार मौजूद हो, जैसे कि वह समाज में है. जबकि समाज सदैव दो से बड़ा होता है. इसलिए वहां न्याय की मौजूदगी उसी अनुपात में अधिक होनी चाहिए. प्लेटो का यह तर्क बड़ा ही अजीब है. तो भी इस बात में कोई संदेह नहीं कि वह राजनीतिक सत्ता को अधिक न्यायोन्मुखी, उदार, कर्तव्यपरायण और दायित्वभावना से युक्त देखना चाहता था. उसका राजनीतिकदर्शन ही इस सिद्धांत पर टिका है कि अपने समाज और राज्य के लिए ‘मैं क्या कर सकता हूं?’ उसके प्रति मेरा ‘कर्तव्य और जिम्मेदारियां क्या हों?’

इसे कर्तव्यबोध कहें अथवा नागरिकबोध, प्लेटो के मन में वह यूनानवासियों, विशेषकर वहां के अभिजात्यवर्ग के चारित्रिक पतन की प्रतिक्रियास्वरूप उपजा था. परोक्ष रूप में समाज को बेहतर बनाने की चिंता ही ‘रिपब्लिक’ का प्रतिपाद्य विषय है, जो कभी ‘न्याय’ की अवधारणा और कभी ‘आदर्श राज्य’ की परिकल्पना के रूप में सामने आती है. उसकी निगाह में आदर्श राज्य की स्थापना उस समय तक असंभव है, जब तक वहां के नागरिक और शीर्षस्थ वर्ग के लोग ‘शुभत्व’ से भलीभांति परिचित न हों. ‘शुभत्व’ की संकल्पना सुकरात की देन थी, जिसको पाने की लालसा प्लेटो के पूरे साहित्य की कसौटी है.

प्लेटो को पढ़ते हुए मार्क्स की याद आना स्वाभाविक है. दोनों ही भौतिकवादी थे. दोनों का ही मानना था कि कोई मनुष्य अपने आप में पूर्ण नहीं है. मानवमात्र की यही अपूर्णता समाज की आवश्यकता की जननी है. लेकिन एक सीमा के बाद मनुष्य और समाज के रिश्ते जटिल होने लगते हैं. उन्हें नियंत्रित करना अकेले समाज के लिए संभव नहीं होता. ऐसे में राज्य की अहमियत बढ़ जाती है. मनुष्य की अनेक आवश्यकताएं होती हैं. उनमें भोजन, वस्त्र, आवास आदि ऐसी आवश्यकताएं हैं, जिन्हें उसकी मूलभूत आवश्यकताएं माना जाता है. इनके बगैर जीवन असंभव है

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कुछ आवश्यकताएं विकास की देन होती हैं—जैसे सड़क, औजार, मशीनें, बिजली के उपकरण, यातायात के साधन इत्यादि. प्रत्येक मनुष्य कामना करता है कि उसके जीवन में दूसरों का हस्तक्षेप न हो. सुरक्षा का पक्का भरोसा हो. यह काम मनुष्य आपस में एकदूसरे के साथ सहयोग करते हुए भी कर सकता है. अक्सर करता भी है. सहकारिता आंदोलन इसी का सुपरिणाम है, जहां राज्य के हस्तक्षेप अथवा उसकी नीतियों से स्वतंत्र रहकर भी व्यक्तिसमूह अपना विकास कर सकते हैं. परंतु सहकार के लिए जैसे विवेक और समूह के हित में अपने हितों के किंचित त्याग और सामान्यीकरण की आवश्यकता पड़ती है, वह हर समाज और हर समूह में संभव नहीं हो पाता. व्यक्ति के भीतर मौजूद स्वार्थलोलुपताएं सहकारी प्रयासों के लिए घातक होती हैं.

व्यक्ति की स्वार्थलोलुपता दूसरों के लिए घातक सिद्ध न हो, इसके लिए राज्य की आवश्यकता पड़ती है. लेकिन मनमानी करना तो राज्य में भी संभव नहीं होता. वहां भी व्यक्ति को दूसरे के हितों का ध्यान रखकर चलना पड़ता है. हितों के सामान्यीकरण की प्रक्रिया ही व्यक्ति को परस्पर करीब लाने का काम करती है. यही उनको एक स्थान पर टिककर रहने और समाज की स्थापना करने के लिए प्रेरित करती और अंततः राज्य की आवश्यकता को जन्म देती है.

क्रमश:…..

© ओमप्रकाश कश्यप

साम्यवाद : द्वैत से अद्वैत की यात्रा

मनुष्यता के इतिहास में उनीसवीं शताब्दी का बड़ा महत्त्व है. यह वह कालखंड है जब मार्क्स ने वर्गसंघर्ष के नारे के साथ सर्वहारा क्रांति का आवाह्न किया था. ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के माध्यम से दिए गए इस नारे की सीमाएं अथवा कमजोरियां 23वें वर्ष में ‘पेरिस कम्यून’ के प्रयोग की असफलता के साथ सामने आ गईं. मार्क्स के विचारों पर आधारित वह पहली समाजवादी क्रांति थी. अपने विचारों की प्रारंभिक असफलता से निराश होने के बजाय मार्क्स ने वर्गसंघर्ष की सैद्धांतिकी में सुधार हेतु स्वयं को नए सिरे से इतिहास, दर्शन, समाजविज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीतिक दर्शन आदि के अध्ययन को समर्पित कर दिया. वह फ्रांस छोड़कर इंग्लेंड चला आया जहां अपेक्षाकृत शांति थी. साथ में बौद्धिकरूप से खुला माहौल भी. करीब 15 वर्ष के गहन अध्ययनमनन के फलस्वरूप ‘पूंजी’ का पहला खंड सामने आया. इस युग प्रवर्त्तक ग्रंथ में पूंजी के शोषणकारी चरित्र तथा उसकी बहुआयामी पैठ को पहली बार समग्रता के साथ इतिहास, दर्शन एवं अर्थनीति के संदर्भ में उजागर किया गया था. सर्वहारा क्रांति का समर्थक मार्क्स इस नतीजे पर पहुंचा था कि पूंजीवादी अधिनायकवाद का उत्तर श्रमअधिनायकवाद से नहीं दिया जा सकता. श्रमअधिनायकत्व की संभावनाओं को कम करने के लिए उसने वर्गहीन समाज की संकल्पना की थी. लिखा था कि समाजवादी क्रांति का लक्ष्य बुर्जुआ वर्ग को अपदस्थ कर उत्पादन के साधनों पर कब्जा कर लेने से पूरा नहीं हो जाता. वास्तविक चुनौती उस एकाधिकारवादी भावना को समाप्त करने की है, जो वर्गविभाजन की संभावना को जन्म देती तथा प्रकारांतर में उसे मजबूत एवं स्वीकार्य बनाती है. ‘थीसिस आन फायरबाख’ में उसने लिखा था—

विद्वानों ने इस सृष्टि की अनेक प्रकार से व्याख्या की है. वास्तविक चुनौती तो इसको बदलने की है.’ 1

दुनिया को बदलने की कामना के साथ मार्क्स ने वर्गसंघर्ष का सिद्धांत प्रस्तुत किया. इसकी प्रेरणा उसको हीगेल के दार्शनिक सिद्धांत ‘द्वंद्ववाद’ से मिली थी. हीगेल के ‘शुभ’ एवं ‘अशुभ’ के द्वंद्व को उसने सर्वहारा और पूंजीपति के द्वंद्व के रूप में देखा था. उल्लेखनीय है कि हीगेल से बहुत पहले शंकराचार्य ने जीवन की व्याख्या के लिए आत्मा और परमात्मा के द्वैत का विचार प्रस्तुत किया था. कार्यकारण संबंधों की व्याख्या करते हुए उन्होंने सृष्टि की रचना में माया की अतार्किकअवैज्ञानिक परिकल्पना की थी. उनसे पहले सांख्य दर्शन में भी सृष्टिरचना को प्रकृति एवं पुरुष के संपर्क द्वारा समझाने की कोशिश की गई. सांख्याचार्य के अनुसार प्रकृति प्रमुख कार्यकारी शक्ति है. वही पुरुष को कार्य के उकसाती है.2

तुलनात्मकरूप से देखा जाए तो माया की अपेक्षा प्रकृति की परिकल्पना अधिक यथार्थवादी है. वेदांताचार्य के अनुसार माया कार्यकारण की प्रेरक शक्ति है. वहीं द्वैत की जन्मदाता है. इसके मूल में अज्ञान है. जैसे ही आत्मा अपने मूलस्वरूप अर्थात परमात्मा को पहचानने लगती है, उसका मायारूपी संसार से मोहभंग हो जाता है. आत्मा और परमात्मा के द्वैत के समापन की अवस्था को वेदांत में ‘मोक्ष’ कहा गया. उसके अनुसार मोक्ष चिरंतन ठहराव और परमशांति की ऐसी कल्पनातीत अवस्था है, जिसमें मानवात्मा के समस्त विक्षोभ शांत हो जाते हैं. मन से माया का आवरण हट जाता है और मनुष्य परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानने लगता है. वेदांत दर्शन में आत्मतत्व स्वयं क्रियात्मक नहीं हैं. माया के संपर्क में आने के उपरांत उत्पन्न विक्षोभ उसे क्रियाधर्मी बनने को उकसाता है. इसके विपरीत हीगेल का ‘द्वंद्ववाद’ विपरीत गुणसंपन्न शक्तियों की नैसर्गिक क्रियाशीलता तथा उनके बीच सतत द्वंद्व की परिणति है. द्वंद्वात्मकता की प्रतीति सृष्टि में अनेक स्तर पर भिन्न रूपों में, विभिन्न प्रकार से द्रष्टिगत होती है. द्वंद्व के कारणों को हीगेल ने आभासी माना है. हीगेल के अनुसार यह सृष्टि परमसत्ता का विस्तार है. उसमें आभासी विपरीतात्मकता मानवेंद्रियों की सीमा की देन है.

सृष्टि व्यापार को द्वंद्वात्मकता के सिद्धांत से समझाने वाले हीगेल ने द्वैत को ‘शुभ’ और ‘अशुभ’ के रूप में देखा था. उसका मानना था कि सृष्टि में प्रत्येक विचार का प्रतिविचार मौजूद है. सफेद के साथ स्याह, अच्छे के साथ बुरा, पुण्य के साथ पाप, उत्तर के विरुद्ध दक्षिण आदि परस्पर विपरीतार्थी एवं समानधर्मा सत्ताओं से दुनिया भरी पड़ी है. साधारण द्रष्टिबोध उन्हें अलग, एकदूसरे से स्वतंत्र तथा परस्पर विरोधी मानता है. हीगेल के लिए इस विपरीतार्थ के अलग मायने थे. वह द्वैत की सत्ता को स्वीकारता है, लेकिन उसका कारण वस्तुगत न होकर मानवेंद्रियों की सीमा है. दूसरों से अलग वह ‘शुभ’ को ‘अशुभ’ का पूरक, उनके द्वैत को अस्थायी मानता था, जिसको मनुष्य अपने ज्ञान के माध्यम से चुनौती दे सकता था. परमसत्ता के बारे में स्पिनोजा से सहमत हीगेल का मानना था कि वह परमशुभ है. उसका विस्तार अनंत है. मानवेंद्रियों का सामथ्र्य नहीं कि उसकी विलक्षणता और विराटपन का साक्षात कर सकें. शंकर इसे माया के आवरण के रूप में देखते हैं. उसको देखते हुए हीगेल का विचार अधिक तार्किक प्रतीत होता है. हीगेल के अनुसार मनुष्य की विवशता है कि वह सत्य को केवल टुकड़ों में देख पाता है. मसलन आंखें त्रिविमीय संसार की केवल दो विमाओं को देख पाती हैं. जबकि दृश्यमान जगत की समस्त वस्तुएं त्रिविमीय संसार का हिस्सा हैं. प्रसंगवश बता दें कि चैथी विमा के रूप में ‘समय’ को मान्यता बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशक में उस समय मिली, जब आइंस्टाइन ने अपने आपेक्षिकता के सिद्धांत की व्याख्या करते हुए समय को चौथा आयाम माना. दर्शन के क्षेत्र में चैथी विमा की परिकल्पना बहुत पहले लगभग ढाई हजार वर्ष पहले की जा चुकी थी. उसकी ओर स्पष्ट संकेत अठारहवीं शताब्दी के दार्शनिक डेविड ह्यूम ने किया. समय को पहली बार महत्त्व देते हुए ह्यूम ने कहा था कि कोई भी व्यक्ति एक ही नदी में दो बार पांव नहीं रख सकता. जब तक हम नदी के प्रवाह में दूसरी बार पैर रखते हैं, उसका जल कहीं आगे बढ़ चुका होता है. उस समय दार्शनिकों ने डेविड ह्यूम को संदेहवादी कहकर उसकी खिल्ली उड़ाई गई थी. बाद में जब यही बात आइंस्टाइन ने वैज्ञानिक प्रमाण देते हुए कही, तब जाकर समय को चैथी विमा के रूप में मान्यता मिल सकी. आज अनिश्चितता अथवा संदेह के सिद्धांत को वैज्ञानिक मान्यता मिल चुकी है. ‘थ्योरी आ॓फ अनसर्टेनिटी’ आधुनिक परमाणु विज्ञान का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अनुसंधान है, जिससे सृष्टि के रहस्यों को समझने में मदद मिल सकती है. विज्ञान की इस संशयवादी धारा ने दर्शन और विज्ञान के बीच की दूरी को पाटने का काम किया है.

ऐंद्रियक अनुभवों की सीमा की ओर संकेत करते हुए हीगेल का कहना था कि ‘सांत’ इंद्रियों द्वारा ‘अनंत’ को पूरी तरह समझा ही नहीं जा सकता. अपने बोध के लिए मनुष्य को जिन इंद्रियों पर भरोसा करना पड़ता है, वे पूरा सच कभी देख ही नहीं पातीं. मसलन आंखें दीवार पर लगी तस्वीर का एक समय में केवल एक ही पृष्ठ देख पाती हैं. तस्वीर के अगलेपिछले हिस्सों को, एक ही समय में देख पाना उनके लिए कदापि संभव नहीं है. यह कार्य मस्तिष्क को करना पड़ता है. इसलिए दीवार पर टंगी तस्वीर का हमारा आकलन सिर्फ वह नहीं होता जो हमारी आंखें तात्कालिक रूप से देख रही होती हैं. तस्वीर को पूरा देखने के लिए हमें अपनी स्थिति में बदलाव करना होता है. मगर स्थिति में परिवर्तन के साथ हम दूसरे समय में चले जाते हैं. पहला पक्ष तत्क्षण हमसे ओझल हो जाता है. पूरी छवि की परिकल्पना के लिए हमें अपने मस्तिष्क और अनुभव की मदद लेनी ही पड़ती है. आशय है कि किसी वस्तु अथवा विचार की अवधारणा के पीछे हमारे अनुभवों, स्मृतिबोध तथा मस्तिष्क का योगदान होता है.

यदि मनुष्य की इंद्रिया सांत हैं, उनकी सीमा है, तब तो वह अनंत को कदापि नहीं जान पाएगा. उस अवस्था में तो उसको अनंत सत्ता को जाननेसमझने की कोशिश छोड़ ही देनी चाहिए. हीगेल के विचारों को पढ़ते हुए ऐसा निष्कर्ष सहसा दिमाग से टकराने लगता है. लेकिन अगर यहीं तक सीमित होता तो हीगेल का दर्शन द्वंद्ववाद से आगे बढ़ ही नहीं पाता. वह संशयवादी ही बना रहता. जबकि द्वंद्व उसके दर्शन का प्रस्थान बिंदू है, लक्ष्य नहीं. प्रारंभिक स्थापना से आगे बढ़कर वह कहता है कि ठीक है, मानवेंद्रियों की सीमाएं हैं. उसकी इंद्रियां उसको किसी वस्तु को समग्रता से एक ही पल में देखने का अवसर ही नहीं देतीं. इसके बावजूद उसके पास एक चीज है, जो उसके ऐंद्रियक अनुभवों की सीमा को पाटने में सहायक है. वह है उसका मस्तिष्क. मानव मस्तिष्क ही है जो एक ही क्षण में किसी तस्वीर को पूरा न देख पाने के बावजूद उसका यथार्थबोध कराने में सक्षम होता है. इसलिए जो मनुष्य अपने सांत ऐंद्रियक साधनों से अनंत को समझना चाहता है, उसे निरंतर अपना बौद्धिक परिष्कार करते रहना चाहिए. इसके लिए वह अनुभव के साथ निरंतर अध्ययनमनन पर जोर देता है. कोई हताश न हो, इसलिए वह द्वंद्ववाद की आगे व्याख्या भी करता है. वह समझाता है कि ‘अच्छे’ और ‘बुरे’, ‘काले’ और ‘सफेद’, ‘गुणअवगुण’ का भेद आभासी है.

असल में वह हमारी अज्ञानता और अधूरे ज्ञान की देन है. सही मायने में हमारी सीमाओं का प्रतीक. परोक्षरूप में वह भी द्वैत की महत्ता को स्वीकारता है. परंतु मानता है कि बोध के विकासक्रम में द्वैतभाव तिरोहित होने लगता है. मनुष्य समझने लगता है कि ‘काला’ और ‘सफेद’ रंग एकदूसरे के विपरीतधर्मा न होकर परस्पर भिन्न स्थितियां हैं. जो वस्तु काली दिखती है, वह अपने ऊपर पड़ी प्रकाश किरणों को पूरी तरह सोख लेती है. दूसरे शब्दों में उसका गुण है अपने ऊपर पड़ने वाली समस्त प्रकाश किरणों को अवशोषित कर लेना. जबकि सफेद रंग वाली वस्तु का गुण है, प्रकाश किरणों को ज्यों का त्यों परावर्तित कर देना. दोनों के अपनेअपने गुण हैं. उनमें विरोधाभास हो सकता है, परंतु विपरीत गुणसंपन्न होने के बावजूद दोनों में कहीं टकराव नहीं है. बल्कि वे एकदूसरे के पूरक का कार्य करती हैं. साधारण मनुष्य इस अंतर को समझ नहीं पाता, इसलिए वह सफेद और काले को एकदूसरे का विपरीतधर्मा मान लेता है. हीगेल के तर्कों के आगे हमारी आंखों के आगे पड़ी द्वैत की चदरिया लगातार झीनी पड़ती हुई अंत में गायबसी हो जाती है. यही ‘सांत’ के ‘अनंत’ तक पहुंचने की यात्रा है.

अच्छे’ और ‘बुरे’, गुणअवगुण’ के विपरीतार्थ को नकारता हुआ वह कहता है कि ‘अच्छा’, ‘बुरे’ का विलोम न होकर भिन्न स्थिति है. यह वह प्रत्यय है जो समाज के एक वर्ग द्वारा थोप दिया जाता है. समाज बदलने पर वह बदल भी सकता है. हीगेल की दृष्टि में ‘बुरा’ वह है जिसमें उन गुणों का, जिन्हें हम अच्छाई का प्रतीक मानते हैं, अभाव है. ये गुण या स्थापनाएं व्यक्ति की न होकर उस समाज की होती हैं, जिसमें वह जन्मा है. इसी प्रकार तस्वीर या कमरे में पड़ी मेज की वह व्याख्या करता है कि जो दिख रहा है, वह तस्वीर वास्तविक नहीं है. वह मात्र द्विविमीय छवि है. आंखें अपनी खूबी तथा मस्तिष्क की मदद से उसको त्रिविमीय छवि में बदल रही हैं. छवि की सीमा है कि वह केवल स्थिति एवं क्षणविशेष में ही सत्य हो सकती है. मेज को पूरा समझने के लिए हमें उसके दूसरे पहलुओं को भी जोड़ना पड़ता है. इसलिए अलगअलग समय में मस्तिष्क पर पड़ने वाले मेज के बिंबों को एकदूसरे का विरोधी नहीं माना जा सकता, बल्कि वे एकदूसरे के पूरक हैं. जैन दर्शन इसे स्याद्वाद के सिद्धांत द्वारा अभिव्यक्त करता है. चार अंधों और हाथी के रूपक द्वारा वह समझाता है कि हाथी को पहचानने में जुटे चार अंधों के अनुभव परस्पर भिन्न होंगे. उनमें जो व्यक्ति हाथी की सूंड की ओर होगा वह उसकी उपमा बेल से देगा, कानांे को छूकर हाथी को पहचानने में जुटे अंधे की निगाह में हाथी का आकार सूप के समान होगा. इसी प्रकार पेट और पैर का स्पर्श करने वाले अंधों के निष्कर्ष भी एकदूसरे से अलग होंगे. व्यक्तिगत निष्कर्ष में वे चारों सही हैं, परंतु उनमें से एक भी सत्य का पूर्णानुमान लगाने में असमर्थ है. सामान्य व्यक्ति के प्रकरण में भी उसकी ऐंद्रियिक सीमा सत्य की पूर्णानुभूति कराने में अक्षम होती है. तर्कों के माध्यम से हीगेल स्पष्ट करता है संसार में दिखने वाली सभी विरोधी स्थितियां एकदूसरे की पूरक हैं. यहां हम हीगेल को स्पिनोजा के करीब पाते हैं. अंतर सिर्फ इतना है कि स्पिनोजा ‘सर्वेश्वरवाद’ को सीधेसीधे एक झटके में छू लेता है. हीगेल वहां तक पहुंचने के लिए अनेक तर्कों, स्थितियों का सहारा लेता है. स्पिनोजा पर अतिरेकी आस्था का दबाव है. हीगेल बौद्धिकता के मुक्ताकाश में सत्य को समझने की चेष्ठा करता है. कह सकते हैं कि स्पिनोजा जो लक्ष्य निर्धारित करता है, हीगेल उसको स्वीकार करता है, लेकिन पूरी तर्कबुद्धि के साथ. एकएक के लिए समर्थन जुटाते हुए. वह एक ओर तो मनुष्य को उसकी सीमाओं का एहसास कराता है, दूसरी ओर उसे यह विश्वास भी दिलाता है कि निरंतर अभ्यास, अध्ययनचिंतन से वह अपनी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर सकता है.

मार्क्स हीगेल से द्वंद्ववाद की विचारधारा उधार लेता है. लेकिन उसका उपयोग केवल साधन तक सीमित रखता है. वह द्वंद्ववाद से प्रभावित है. पूंजीवादी समाज में जन्मे मार्क्स को सर्वहारा और बुर्जुआ ही अपने चारों ओर दिखाई पड़ते हैं. अपने परिवेश के प्रति वह इतना सम्मोहित है कि उससे इतर अतींद्रिय दुनिया की परिकल्पनाएं उसको जम ही नहीं पातीं. आरंभ में समाज में वांछित परिवर्तन के लिए वह दोनों वर्गों के संघर्ष की अनिवार्यता पर जोर देता है. शुभ और अशुभ के शाश्वत संघर्ष की भांति, ताकि परमशुभ की सर्वकल्याणक, सर्वत्र शुभदायक स्थिति को प्राप्त किया जा सके. वह साम्यवाद का सपना रचता है, जिसमें सुख पर किसी का भी एकाधिकार न हो. बल्कि अधिकतम व्यक्ति अधिकतम सुख का भोग कर सकें. यह सपना उसकी आंखों में 1845 में ही जन्म ले चुका था. साम्यवाद की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसने ‘दि जर्मन आइडियोला॓जी’ में लिखा है—

हमारे लिए साम्यवाद किसी प्रस्तावित राज्य के गठन का ऐसा मसला नहीं है जिससे अपने आदर्श लक्ष्य की प्राति हेतु वह नागरिकों से सहयोग एवं समन्वय बनाए रखने की अपेक्षा करे. इसके बजाय साम्यवाद को ऐसा जमीनी आंदोलन कहना उचित होगा जो वर्तमान राज्य को विखंडित कर देगा. नए राज्य की शर्त उसके होने में न होकर उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता में निहित होगी.’3

वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि समाज में असमानता का कारण केवल आर्थिक विषमता नहीं है. अकेले पूंजी के रहने या न रहने से वर्गीय विषमताओं को मिटा पाना असंभव होगा. उसके पीछे धर्म, राजनीति, समाज आदि कारक भी सम्मिलित हैं, जो वर्गभेदकारी स्थितियों को जन्म देने के साथसाथ नागरिकों को विभेदकारी तंत्र से अनुकूलन की प्रेरणा देते हैं. इन्हीं की मदद से शिखरस्थ शक्तियां उत्पादन केंद्रों पर अधिकार जमाए रहती हैं. स्थायी परिवर्तन वर्गभेद को जन्म देने वाली स्थितियों के उन्मूलन बगैर संभव नहीं. आमूल परिवर्तन के लिए उस मानसिकता में भी संशोधन करना पड़ेगा जो विभेदकारी वातावरण से अनकूलन करना सिखाती है. स्थितियों को उनकी समग्रता में देखने का यह गुण मार्क्स ने अपने गुरु हीगेल से लिया था. अन्य शब्दों में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद वह दरवाजा है जिसको वह अपने जीवनकाल में ही पार कर चुका था. भौतिकवादी मार्क्स आत्मा, परमात्मा और माया जैसी अमूत्र्त धारणाओं के फेर में नहीं पड़ता. हीगेल की पुस्तक ‘फिलास्फी आ॓फ राइट’ की आलोचना करते हुए वह धर्म को जनसाधारण के लिए अफीम बताता है. ‘थीसिस आ॓न फायरबाख’, ‘क्रिटीक आन फिलास्फी आ॓फ राइट’ ऐसी ही पुस्तकें हैं, जिनमें उसके धर्मसंबंधी विचारों की आलोचना की झलक है. एक अन्य पुस्तक में उसने हीगेल के शिष्य और अपने मित्र बूनो बायर की आलोचना की थी. लेकिन पेरिस क्रांति की असफलता के बाद उसको अपने चिंतन के अधूरेपन की अनुभूति होती है. उसको लगता है कि ‘सर्वहारा’ और ‘पूंजीपति’ की विपरीतधर्मिता ‘काले’ और ‘सफेद’, ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ की द्वैत जितनी ही आभासी है. आमूल परिवर्तन के अभाव में ही सर्वहारा राज्य के सर्वहारा अधिनायकवादी राष्ट्र में बदलते देर नहीं लगती.

मार्क्स द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से अपने चिंतन की शुरुआत करता है, लेकिन वह उससे उतना ही काम लेता है, जितना कोई भौतिक विज्ञानी गणित के पूर्वस्थापित सूत्र से, मिस्त्री अपने औजार से. सर्वहारा वर्ग द्वारा सत्ता पर अधिकार कर लेने के बाद आंदोलन का दूसरा लेकिन अतिमहत्त्वपूर्ण चरण आरंभ हो जाता है, साम्यवाद के सिद्धांतों के अनुरूप राज्य को ढालने का. उसमें वह वर्गहीन समाज की स्थापना के लक्ष्य को सामने रखता है. वह एक ऐसे समाज की परिकल्पना करता है, जिसमें लोग पारस्परिक कल्याण भावना के आधार पर एकदूसरे से जुड़े हों. उसकी व्याख्या में साम्यवाद केवल राजनीतिक व्यवस्था तक ही सीमित नहीं रह जाता. साम्यवादी दर्शन को उठान देता हुआ मार्क्स , उसे अपने गुरु हीगेल के ‘परमशुभ’ का पर्याय बना देता है. उसके अनुसार साम्यवाद ऐसी अवस्था है, जहां समाज के सभी प्रकार के द्वैतों का शमन हो जाता है. समस्त द्वंद्वों का समाधान हो जाता है. सामाजिकआर्थिकराजनीतिकमनोभौतिक समरसता का वातावरण बनने लगता है. असंतुलन एवं असमानता की भावना कमजोर पड़ जाती है. कह सकते हैं कि साम्यवाद के रूप में वह ऐसे दर्शन की परिकल्पना करता है जहां नियंत्रणकारी समूहों की आवश्यकता ही न हो. मनुष्य जीवन और समाज के उच्चादर्शों से स्वतः अनुशासित हों. धर्म, संस्कृति जैसे परंपरागत मूल्यों के बजाय लोग उत्पादन, समान उपभोग और सहजीवन के वैज्ञानिक नियमों से एकदूसरे से आबद्ध हों. समाज अपनी आंतरिक नैतिकता, समानता के सिद्धांत एवं लोकतंत्र द्वारा मर्यादित रहे . ऐसे राज्य में सरकार की उपस्थिति महज इसलिए जरूरी हो, ताकि वह शेष विश्व को उसकी भावनाओं और संकल्पों से परचा सके. हीगेल के दर्शन में परमशुभ एक लक्ष्य है. चूंकि वर्गहीन समाज की स्थापना का लक्ष्य भी अपने आप में काफी जटिल और लंबी प्रक्रिया है, इसलिए साम्यवाद को समर्पित संस्थाओं को इसके लिए सतत प्रयासरत रहना होता है.

यहां एक स्वाभाविक प्रश्न उभरता है कि यदि साम्यवाद इतनी ही उत्कृष्ट व्यवस्था है तो यह विश्व में इतनी सिमटी हुई क्यों है? बीसवीं शताब्दी के मध्याह्न में विश्व के लगभग आधे देशों में प्रभाव रखने वाला साम्यवाद शताब्दी के अंत तक मात्र पांच देशों का खेवनहार बनकर रह गया, आखिर क्यों? सोवियत संघ जैसी व्यवस्था का पतन हुआ. अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए चीन पूंजीवाद के साथ समझौतावादी रुख अपनाए हुए है. आखिर क्या कारण है कि साम्यवाद जैसी आदर्शोन्मुखी प्रणाली अपनी प्रतिबद्ध सैद्धांतिकी के बावजूद बिखराव का शिकार होने से स्वयं को बचाने में असमर्थ रही? इसके बरक्स पूंजीवाद जिसकी अपनी कोई सैद्धांतिकी नहीं है, आज दुनिया के बड़ेबड़े देशों का भाग्यविधाता बना हुआ है. आखिर क्यों? मुझे लगता है कि साम्यवाद की अतिआदर्शोन्मुखी दार्शनिक प्रतिबद्धता ही उसकी असफलता का कारण है, बड़ा कारण. इसकी तह में जाने के लिए हमें एक बार फिर मार्क्स की शरण में लेनी होगी. कार्ल मार्क्स का कुल जीवनदर्शन दो हिस्सों में बंटा है. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद. जिसमें वह सर्वहारा और पूंजीपति के बीच संघर्ष को अनिवार्य मानता है. दूसरा वर्गहीन समाज की स्थापना का साम्यवादी लक्ष्य. जो उसका दूसरा और महत्त्वपूर्ण चरण है. इतना कि उसके अभाव में पहले चरण की सफलता के असफलता में बदलते देर नहीं लगती. यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो पहली अवधारणा में जबरदस्त राजनीतिक अपील है, जो व्यवस्था से उत्पीड़ित बहुसंख्यक वर्ग को सामूहिक कल्याण की भावना के अनुसार संगठित करने का सामर्थ्य रखती है. यह अपील बहुत कुछ परंपरागत सामंतवादी राजनीति से मिलतीजुलती है. जिसमें युद्ध एवं हिंसा के रास्ते सत्ता हथिया ली जाती थी. अंतर केवल इतना है कि सामंतवाद में प्रायः उग्र राष्ट्रवाद और बाद में तलवार की ताकत के दम पर ही उसको कायम रखा जाता था. अंतर सिर्फ इतना है कि राजशाही में युद्ध किसी एक व्यक्ति की साम्राज्यवादी लिप्साओं द्वारा आम प्रजा पर थोप दिए जाते थे, साम्यवाद में वे सर्वहारा वर्ग द्वारा, जो मार्क्स के अनुसार वास्तविक उत्पादक शक्ति है, परिवर्तन की कामना के साथ तय होते हैं. दोनों अवस्थाओं में हिंसा अपरिहार्य है. इसलिए हम देखते हैं कि जिन देशों में साम्यवादी क्रांति हुई वहां जनाक्रोश का लाभ उठाने के लिए ऐसे नेता उभरकर सामने आए जो सैन्य संचालन में निपुण थे. रूस, चीन, क्यूबा, वियतनाम, आदि इसके उदाहरण हैं. जर्मनी में हिटलर ने जब निरंकुश तानाशाही कायम की तो उसका नारा भी समाजवादी होने का था. भारत आदि देशों में जहां नेतृत्व की बागडोर गैर सैनिक नेताओं के हाथों में थी, वहां साम्यवाद केंद्रीय व्यवस्था का हिस्सा कभी न बन सका. जिन देशों में सैन्य कार्रवाही अथवा सैन्य नेताओं के प्रभाव से साम्यवाद आया, वहां जनता और सामरिक शक्तियां साथसाथ थीं. लेकिन सैन्य नेतृत्व की अपनी कमजोरी होती है. साम्यवादी अनुशासन में स्वयं को ढालने के लिए बाहरी के साथ आंतरिक अनुशासन भी अपेक्षित था. सामरिक बल पर सत्तारूढ़ हुए सर्वहारा संगठन जनता पर बाहरी अनुशासन तो थोप सकते थे, आंतरिक अनुशासन के लिए उनमें न तो आवश्यक नैतिक बल था, न ही वैसा अभ्यास. इसलिए कि यह राजनीति से अधिक सामाजिक कृत्य था, जिसका उनको अभ्यास न था. तलवार की धार और बाहरी अनुशासन के बल पर साम्यवादी शक्तियां जब तक बनी रह सकती थीं, रहीं. बाद में उनको बढ़ते जनाक्रोश की मदद से अपदस्थ कर दिया गया.

पूंजीवाद साम्यवाद के मुकाबले बहुत लचीली व्यवस्था है. वह उपभोक्ताअधिकार, मानवाधिकार, लैंगिक समानता, जातीय भेदभाव के उन्मूलन, मुक्त व्यापार, लोकतंत्र आदि लोकलुभावन नारों के बूते जनता का अपने प्रति अनुकूलन कर लेती है. साम्यवाद आधुनिकता का दावा करते हुए धर्म का विरोध करता था. लेकिन पूंजीवाद धर्म का उपयोग भी अपने पक्ष में माहौल बनाए रखने के लिए करता है. साम्यवाद के प्रचार में लगी शक्तियों की कमजोरी है कि जनता पर अपना प्रभाव बनाए रखने वे उन्हीं रास्तों का अनुसरण करती हैं, जिनपर चलकर धर्म मानवीय विवेक की उपेक्षा का वातावरण बनाता है. शायद इसी कारण अल्पचेतनशील समाजों वे आरोपित धर्म को अपनाने के बजाय परंपरागत धर्म की शरण में जाना उचित समझते हैं. ऐसा नहीं है कि साम्यवादी विचारक इस कमजोरी से अनभिज्ञ हों. अंतोनियो ग्राम्शी ने इसलिए सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से मुक्ति का नारा भी साथसाथ दिया था. उसने सर्वहारा वर्ग से अपील की थी कि वे अपने बीच से बुद्धिजीवी पैदा करें. ताकि उसके अनुरूप राजनीतिक नेतृत्व तैयार हो सके. भारत जैसे देशों में साम्यवाद की असफलता का कारण यह रहा है कि यहां राजनीति में वे लोग आए जो संसद में घुसपैठ के लिए गलियारों की तलाश में थे. साम्यवाद के दार्शनिक पक्ष को समझेसमझाए बिना केवल व्यावहारिक पक्ष की राजनीति को बढ़ावा दिया गया. उन समस्याओं को केंद्र में रखकर आंदोलन चलाए गए, जिनका जनता के वास्तविक विकास से कोई सीधा संबंध न था. उन्होंने सामाज के न तो मूल ढांचे में छेड़छाड़ की जरूरत महसूस की, न आमूल परिवर्तन के लिए वांछित प्रयास किए. वैचारिक निष्ठा के अभाव तथा लोकप्रिय राजनीति से लगाव के कारण वे हताशा की लड़ाई लड़ते रहे हैं.

अंत में एक प्रश्न कि क्या साम्यवाद का कोई भविष्य है. तो मैं बेहिचक बिना कोई पल गंवाए कहूंगा कि है. राजनीतिक सामंतवाद की तरह पूंजीवादी सामंतवादी निरंकुशता नहीं चल सकती. इसलिए एक न एक दिन साम्यवाद को अपनाना ही होगा. शोषणकारी शक्तियों में साम्यवाद का आज भी कितना भय है, वह एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है. मार्क्स ने ‘बुर्जुआ’ शब्द का उपयोग अनेक स्थान पर किया है. इस शब्द से उसका आशय उन लोगों से था जिन्होंने तीव्र मशीनीकरण का लाभ उठाकर, पूंजीगत निवेशविनिवेश के माध्यम से अकूत पूंजी जमा की है. उसका उपयोग अब वे श्रमिक शोषण को बनाए रखने के लिए नएनए रूप में कर रहे हैं. लेकिन आधुनिक शब्दकोशों में इस शब्द का अर्थ देख लीजिए, वह ‘मध्यवर्ग’ अथवा ‘शिक्षित मध्यवर्ग’ ही मिलेगा, जिसका मार्क्स की अवधारणा से कोई संबंध नहीं है.

अब यह सर्वहारा वर्ग के ऊपर है कि कब पूंजीवादी प्रलोभनों से बाहर निकलकर आमूल परिवर्तन का आवाह्न करता है.

© ओमप्रकाश कश्यप

1. the philosophers have only interpreted the world, the point is to change it” – Karl Marx in Theses on Feuerbach, 1845.

2. कार्याणि प्रकृतिजेगुणे कर्माणि सर्वशः।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।

3. Communism is for us not a state of affairs which is to be established, an ideal to which reality will have to adjust itself. We call communism the real movement which abolishes the present state of things. The conditions of this movement result from the premises now in existence.” —Karl Marx in The German Ideology, 1845.