आस्था और समाज

आस्था का सामान्य अर्थ दैवी शक्ति पर विश्वास से है। आमतौर पर वह सृष्टि या दृश्यमान जगत से परे होती है। उसका उलट नास्तिकता है। लेकिन इस लेख के माध्यम से हमारा मकसद पाठक को आस्तिक और नास्तिक की बहस में उलझाना नहीं है। इस कार्य को हम दार्शनिकों के लिए छोड़ देते हैं। हमारा उद्देश्य आस्था के सामाजिक पक्ष पर विचार करना है। यह देखना है कि जिस आस्था को जीवन के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और कल्याणकारी बताया जाता है, धर्म के हाथों में पड़कर वह मनुष्य को कैसे उसके वास्तविक लक्ष्यों से भटकाने का काम रखती है। जिस जाति-व्यवस्था को हिंदू समाज का कलंक बताया जाता है, उसे सहेजकर आगे बढ़ाने में भी आस्था का योगदान है। यह काम धर्म, समाज और पूर्वजों के प्रति आस्था के नाम पर किया जाता है। इसलिए इस लेख के बहुजन-संदर्भ भी हैं, जो लेख में यथा-स्थान सामने आ जाएंगे।
आस्थावान व्यक्ति आमतौर पर कार्य-कारण संबंधों पर विश्वास रखता है। मूल कारण को वह दृश्यमान जगत की हलचलों से मुक्त और सर्वोपरि मानता है। किंतु वह दृश्यमान जगत से सर्वथा परे हो, यह आवश्यक नहीं है। उसकी व्याप्ति दृश्यमान जगत के भीतर भी हो सकती है। कबीर इसे ‘चकमक में आग’ और वेदांती ‘सर्वखाल्विदं ब्रह्म’ कहते आए हैं। फिर भी आस्था के मूल केंद्र के रूप में मुख्य कार्यकारी शक्ति का दृश्यमान जगत से परे होना अनिवार्य है। इसका आशय यह नहीं है कि आस्था केवल परमानवीय शक्ति के प्रति संभव है। वह जीवित अथवा मृत व्यक्ति, वस्तु, विचार आदि किसी के भी प्रति हो सकती है। उस अवस्था में वह कहीं न कहीं स्थितियों अथवा व्यक्तियों का परामानवीकरण करती है। मानव-प्रवृत्ति के अनुसार आस्था के कई रूप हो सकते हैं। वह सामूहिक भी हो सकती है और व्यक्तिगत भी। प्रत्येक अवस्था में उसके गुण-दोष, हानि-लाभ करीब-करीब एक जैसे होते हैं।
नास्तिक के लिए दृश्यमान जगत कार्य भी है, कारण भी। वह प्रकृति को स्वतंत्र और सक्षम मानता है। वही जड़-चेतन सबकी जीवनदाता है। सृष्टि में पल-छिन घट रहीं असंख्य घटनाओं की भांति मानव-जीवन भी एक प्राकृतिक घटना है। इसलिए नास्तिक दृश्यमान जगत से इतर किसी पराशक्ति या कारक सत्ता पर विश्वास नहीं करता। वह मानता है कि जन्म से पहले मनुष्य प्रकृति का हिस्सा होता है। मृत्यु के बाद पुनः उसी में समा जाता है। अपने दार्शनिक मत को लेकर वह तर्क करने के लिए सदैव तैयार होता है। उसके तर्क अपेक्षाकृत वैज्ञानिक आधार लिए होते हैं। यही कारण है कि अठारवीं-उनीसवीं शताब्दी के बौद्धिक पुनर्जागरण के पश्चात जितने भी नए दर्शन सामने आए हैं, सभी के केंद्र में मनुष्य है। उनमें प्रत्ययवादी दर्शनों की संख्या, ऐसे दर्शनों की संख्या जो मानव जीवन की समस्याओं और उसकी जिज्ञासाओं का समाधान सृष्टि से परे, किसी काल्पनिक दुनिया में खोजने की कोशिश करते हैं—आनुपातिक रूप से बहुत कम, लगभग नगण्य है। इस कारण उनमें आस्था के लिए भी बहुत कम गुंजाइश है।
आस्तिक व्यक्ति सृष्टि की कारक सत्ता के रूप में अपने विश्वास या आस्था के अनुरूप केंद्रीय शक्ति की कल्पना करते हैं। जो स्वयं वैसी कल्पना नहीं कर सकते वे दूसरों द्वारा कल्पित कारक सत्ता पर विश्वास करने लगते हैं। जनसाधारण के लिए रोजमर्रा के जीवन की चुनौतियां ही इतनी विकट होती हैं, कि वह उनसे मुक्त होकर सोच ही नहीं पाता, इसलिए दूसरों द्वारा कल्पित या बताई गई कारक सत्ता पर विश्वास रखने वाले लोग ही ज्यादा होते हैं। हिंदू धर्म में जनसाधारण को थोपी गई आस्था के साथ-साथ, दूसरों के आदेश या सलाह के अनुसार काम करने का संस्कार जाति प्रथा से प्राप्त होता है—जो ब्राह्मण को शिखर पर रखकर, उसकी योग्यता के बारे में सवाल किए बगैर ही, समाज के नेतृत्व का अधिकार सौंप देती है। जनसाधारण की यह कमजोरी, जो प्रायः उसकी समाजार्थिक विवशता की देन होती है—समाज में धर्म के लिए जगह बनाकर जातिप्रथा को मजबूती प्रदान करती है। इस कमजोरी(या विवशता) का लाभ वे लोग उठाते हैं, जो कारक सत्ता का जानकार होने का दावा करते हैं। इसका शिकार वे लोग ज्यादा होते हैं, जो समाजार्थिक स्तर पर पिछड़े तथा अपनी आवश्यकताओं के लिए दूसरों पर आश्रित होते हैं। प्रकारांतर में आस्था, विशेषरूप से धार्मिक प्रतीकों से जुड़ी आस्था, सामाजिक अन्याय का पोषण करती है। असमानता को दैवीय बताकर, विषमता और अन्याय को स्वीकार्य बनाती है।
सृष्टि से परे कही जाने वाली, तथाकथित मूल कारक सत्ता का अस्तित्व कल्पना या अनुमान पर टिका होता है। तर्क के आधार पर उसे सिद्ध कर पाना संभव नहीं होता। इसलिए उसके समर्थक आस्था और विश्वास पर जोर देते हैं; तथा धर्म के नाम पर उसका मानकीकरण कर, उसे किसी भी प्रकार के तर्क और संदेह से परे मान लेते हैं। उनके तर्क बड़े ही कमजोर, ‘मानो तो देव या फिर मिट्टी का लेप’ या ‘मानो तो ईश्वर नहीं तो पत्थर’ जैसे होते हैं। यदि ईश्वर का अस्तित्व केवल व्यक्ति के मानने या न मानने पर टिका है, तो मान लेने की क्या जरूरत है? क्या जरूरत है पत्थर की शिला छाती पर रखकर कसरत का दिखावा करने की? इसके बावजूद अपने विश्वास को पुख्ता दिखाने के लिए वे तर्क का दमदार नाटक करते हैं। लोक-लुभावन किस्से-कहानियां गढ़कर प्रायः अपने समर्थक भी जुटा लेते हैं। परिणामस्वरूप नए संप्रदायों का जन्म होता है। ध्यानपूर्वक देखा जाए तो उनके तर्कों का मूलाधार उनकी आस्था होती है। वे प्रायः परंपरा की दुहाई देते हैं। ईश्वर या परमसत्ता को अनुभूति का विषय बताकर उन्हें तर्कातीत मान लेते हैं। तत्संबंधी अनुभवों का विवरण देने को कहा जाए तो सिवाय कल्पनाओं के, जिनके पीछे उनके पूर्वाग्रहों और संस्कारों का योगदान होता है—से आगे बढ़ ही नहीं पाते। उनके हर संदेह का समाधान परामानवीय होता है। वैसे भी धर्म तथा उससे जुड़ी परंपराएं मानवीय आस्था और विश्वास पर टिकी होती हैं। अपने-अपने आराध्य को बड़ा घोषित करने के लिए वैष्णव, शाक्त अथवा अन्य कोई धर्मावलंबी लंबे-लंबे तर्क दे सकते हैं। परंतु उनके तर्कों का मूलाधार उनकी आस्था ही होगी। उनके हर तर्क के साथ यह विश्वास जुड़ा होगा कि ‘मैं ऐसा सोचता हूं, इसलिए तुम भी इसपर विश्वास करो।’ वे संदेह को अज्ञान और विश्वास को ज्ञान का मूल मानते हैं। दूसरे शब्दों में उनके तर्क भी कल्पना या पूर्वानुमान पर आधारित होते हैं। गीता-रामायण पवित्र ग्रंथ हैं, यह घोषणा वे उन्हें बिना पढ़े ही कर सकते हैं। बिना यह समझे कि आस्था और पवित्रता दोनों मिथ हैं—वे उन्हें यत्नपूर्वक सहेजे रहते हैं।

दर्शनों का विकास मानवीय जिज्ञासा के भरोसे हुए है। मनुष्य अपने आसपास जो भी देखता है, उसको समझना भी चाहता है। इसलिए जिज्ञासा के मूल में अनुभव की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। यही कारण है कि प्रत्येक दर्शन के पीछे कहीं न कहीं भौतिकवादी प्रेरणा अंतनिर्हित होती है। इसे तथ्यों की मामूली पड़ताल से भी समझा जा सकता है। आरंभ में आसपास के जीवन में जो वस्तु जितनी अधिक महत्त्वपूर्ण और अपरिहार्य दिखाई पड़ती थी, उसी को जीवन का आधार मान लिया जाता था। ऋग्वैदिक मनीषी परमेष्ठिन को जब लगा कि बिना पानी के जीवन असंभव है तो उसने जल को सृष्ठि का मूल ठहरा दिया। ऐसे ही प्रकृतिवादी रैक्व ने वायु को सृष्टि का सारतत्व माना। परमेष्ठिन की भांति यूनानी दार्शनिक थेलीज भी जल को मूल तत्व मानता था। हेराक्लाइट्स का विचार था कि मूल-तत्व अग्नि है। हेराक्लाइट्स को दर्शन के क्षेत्र में अनिश्चिततावाद का समर्थक भी माना जाता है। नदी के उद्दाम प्रवाह के बीच उसे यह बोध हुआ था कि कुछ भी स्थिर नहीं है। हम एक ही नदी में दो बार स्नान नहीं कर सकते। विराट, पल-छिन परिवर्तनशील प्रकृति के सीधे सान्निध्य में रहने वाले मनुष्य के लिए इस प्रकार का बोध अस्वाभाविक नहीं था। बावजूद इसके देश-विदेश के दर्शनों में संदेहवाद खास जगह नहीं बना सका। मगर आज जब हम क्वांटम यांत्रिकी को पढ़ते हैं तो पता चलता है कि प्रकृति के सातत्य के पीछे संदेह और अनिश्चितता का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसे नकारा नहीं जा सकता। यह दर्शाता है कि ब्रह्मांड जितना दृश्यमान और ज्ञेय है, उतना अदृश्य और अज्ञेय भी है। कोरी आस्था के भरोसे उसे जानना संभव नहीं है। उसकी ओर से आंखें अवश्य मूंदी जा सकती हैं, जो मनुष्य के सहज जिज्ञासा-भाव के प्रतिकूल है। इसीलिए ब्रह्मांड की व्याख्या के नाम पर आस्थावादी जहां तरह-तरह की कहानियां गढ़कर मन बहलाते रहते हैं, वहीं अनास्थावादी ज्ञान-विज्ञान के रास्ते संदेहों के समाधान पर जोर देता है। ‘संदेह हमें जांच-पड़ताल तक ले जाते हैं। जांच-पड़ताल सत्य तक तक पहुंचने में हमारी मदद करती है’—मध्यकालीन विचारक पीटर अबेलार्ड का यह कथन उसका मार्गदर्शन करता है। उसके फलस्वरूप नए ज्ञान के रास्ते प्रशस्त होते हैं। समाज में नएपन का सम्मान बढ़ता है। यही कारण है कि आस्थावादी की अपेक्षा अनास्थावादी के तर्क ज्यादा ठोस और वस्तुनिष्ठ हो सकते हैं।
दुनिया में जितने भी धर्म-दर्शन हैं, कहीं न कहीं सब प्रकृतिवाद से पोषित और प्रभावित हैं। लगभग सभी सभ्यताओं में सूर्य को देवता माना गया है। चीन, इंडोनेशिया, जापान में सूर्य को सृष्टि का जन्मदाता मानने से जुड़ी अनेक कहानियां हैं। यूनानी पुराकथाओं का पात्र प्रोमेथियस सूर्य को सर्वेसर्वा मानता था। रामायण में आदिवासी समाज के संपाति का उल्लेख आया है। हम उसे भारतीय परंपरा के आदि-जिज्ञासुओं में से एक मान सकते हैं। संपाति को धूप-ताप उगलता सूर्य ललचाता था। वह उसे जानना-समझना चाहता था। इसलिए एक वैज्ञानिक की भांति, अंजाम की परवाह किए बगैर वह सूर्य की ओर बढ़ा था। सूर्य के करीब पहुंचने से पहले ही उसके पंख झुलस गए। संभव है भारत के लंबे सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास में संपाति जैसा कोई प्राणी रहा ही न हो। रामायण के दूसरे मिथों की भांति वह भी एक मिथ हो। इसके बावजूद संपाति की कथा का महत्त्व है। यह सूर्य के तेज पीछे निहित कारण को समझने की आदिम छटपटाहट की परिचायक है।
प्राचीन मिस्र का इख्नातून भी सूर्य से प्रभावित था। उसका विश्वास था कि सूर्य की अंतहीन ऊर्जा के पीछे कोई न कोई कारक सत्ता है। वही सूर्य के तेज की जन्मदाता है। इख्नातून ने सूर्य की अपेक्षा उसके पीछे अंतनिर्हित काल्पनिक शक्ति को पूजने पर जोर दिया जाता है। इसलिए कुछ विद्वान इख्नातून को धर्म के जन्मदाता के रूप में भी देखते हैं। कदाचित सूर्य से ही देवताओं के आकाश में स्थित होने की प्रेरणा जगी थी, लेकिन जब हम इख्नातून के उल्लेखों को देखते हैं, तो पाते हैं कि सूर्य की कारक सत्ता को पूजने के नाम पर असल में वह सूर्य की ही पूजा करता है। इख्नातून की सूर्य की प्रशस्ति में रची गई कविता प्राचीन साहित्य की धरोहर हैं—
डूब जाता है जब तू पश्चिमी आसमान के पीछे
मृत्यु समान कालिमा घेर लेती है, इस धरा को
सिंह निकल पड़ते हैं अपनी मांदों से
सांप बिलों से निकलकर डंसने लगते हैं
अंधकार का राज पसर जाता है,
सन्नाटा अपने पंजों में जकड़ लेता है धरती को

क्षितिज से निकलते ही दमक उठती है, धरा
अंधेरे का हो जाता है लोप
किरनें पसरते देख मुस्करा उठता है इंसान
जाग उठता है, अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है,
तू ही उसे जगाता है
….. …..

तू ही मां के गर्भ में शिशु को सिरजता है
आदमी में आदमी का बीज रखता है
गर्भस्थ शिशु रोये नहीं, इसलिए तू उसे प्यार से दुलराता है
धाय है तू कोख के बालक के लिए
तू ही उसे सिरजता, प्राण फूंकता है उसमें
गिरता है जब वह मां की कोख से धरा पर
उसके कंठ में आवाज भरता है तू ही।

भौतिकवादियों ने पृथ्वी जल, वायु और आकाश इन चार तत्वों को जीवन का स्रोत माना। याज्ञवल्क्य जैसे प्रत्ययवादियों ने इसमें आकाश को भी जोड़ दिया। फिर भी मौटे तौर पर देखा जाए तो अनीश्वरवादी भौतिकवादी दर्शनों तथा आस्तिक दर्शनों में बहुत अंतर नहीं है। भौतिकवादी प्राकृतिक शक्तियों से सीधे संबोधित होते हैं। उनके लिए प्रकृति अपने सहज निरपेक्ष भाव से क्रियाशील रहती है। वह आकर्षक और आत्मीय है तो वीभत्स और डरावनी भी है। उनके अनुसार अच्छा समाज केवल नैतिकता के भरोसे गढ़ा जा सकता है। बैंथम जैसे विचारक विधि शासित राज्य की अनुशंसा करते हैं। ऐसा समाज जो ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ के सिद्धांत पर गढ़ा गया हो। जिसमें मनुष्य अपने साथ-साथ दूसरों के सुख का भी ख्याल रखे। दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करे, जैसा वह उनसे अपने प्रति चाहता है।
आस्तिक के लिए धर्म ही नैतिकता है और उसके द्वारा कल्पित देवता नैतिकता का स्रोत। जीवन की अनिवार्यता होने के कारण प्रकृति को नकार पाना उनके लिए भी संभव नहीं है। अंतर केवल इतना है कि वे प्राकृतिक शक्तियों पर सीधे विश्वास न करके, उनके पीछे की कारक सत्ता पर, जो किसी के लिए भी अनदेखी-अजानी है और कल्पना से परे जिसका कोई महत्त्व नहीं है—को ज्यादा महत्त्व देते हैं। चूंकि उन काल्पनिक शक्तियों को सीधे-सीधे नहीं समझा जा सकता, इसलिए वहां आस्था को अपरिहार्य मान लिया जाता है। ठीक ऐसे ही जैसे इख्नातून ने करीब 3300 वर्ष पहले किया था। हर आस्तिक की स्थिति इख्नातून जैसी होती है, जो सीधे नजर आ रही प्राकृतिक सत्ता के बजाय उसकी कारक सत्ता के रूप में काल्पनिक देवता को ले आता है। परिणामस्वरूप अग्नि का स्वामी अग्निदेव को मान लिया जाता है, वायु का मरुत। हिंदू धर्म में चराचर जगत में नजर आने वाली प्रत्येक वस्तु के लिए एक देवता कल्पित है। नास्तिक गंगा को महज नदी मानता है। आस्तिक गंगा में स्नान करता है, लेकिन पूजता किसी काल्पनिक ‘देवी’ को है। उसके आस्थालोक की नदी, कभी प्रदूषित नहीं होती। परंपरा और संस्कृति के नाम पर वह उसमें रोज अपशिष्ट बहाता है और धार्मिक होने का ढोंग पाले रहता है।
नास्तिक के लिए भौतिक पदार्थों की सत्ता स्वतः प्रामाणित होती है। उसके लिए जो दिखता है, वही सत्य है। आस्तिक दृश्यमान भौतिक जगत को माया कहता है। सांसारिक सुख उसे छलावा और भरमाने वाले लगते हैं। उनके प्रति अनुराग भव-प्रपंच में फंसना है। यह धारणा परिवेश के प्रति अलगाव को जन्म देती है। उससे मुक्ति के लिए वह अधिदैविक शक्तियों को खुश करने की कोशिश में लगा रहता है। इससे उसके श्रम और विवेक का बड़ा हिस्सा अनुत्पादक कार्यों में खर्च होने लगता है। नास्तिक के लिए मानवजीवन का उद्देश्य अपने और समाज के सुख के स्तर में वृद्धि करना है। इसके लिए समाज के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण आवष्यक है। वह आस्तिक की भांति माया कहकर संसार के अस्तित्व को नकारता नहीं है। उन्हें उसी रूप में स्वीकारता है, जैसे वे दिखाई पड़ते हैं। नास्तिक जल को जीवनोपयोगी तत्व मानता है। आस्तिक के लिए जल वरुणदेव की अनुकंपा है। उनकी कृपा बनी रहे, तो जल का अभाव न होगा। यह धारणा अनेक पर्यावरणीय समस्याओं को जन्म देती है। इस आस्था के साथ कि देवताओं की अनुकंपा जब तक है, सब मंगल होगा, आस्थावादी पर्यावरण संबंधी समस्याओं से मुंह फेरे रहते हैं। चूकि धर्म का राजनीतिक पक्ष भी है, इसलिए लोगों की नाराजगी से बचने के लिए सरकार भी धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने से बचती है।
मनुष्य की पहुंच से परे, काल्पनिक सत्ता को सर्वेसर्वा मानते ही मनुष्य का जीवन के प्रति पूरा नजरिया बदल जाता है। वहां मनुष्य और उसके कर्तव्य के बीच तीसरी सत्ता के रूप में ईश्वर आ जाता है, मानव-समाज से ज्यादा देवता महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। अपने आसपास के लोगों को सुखी एवं संतुष्ट देखने के बजाए मनुष्य काल्पनिक शक्तियों को खुश करने में जुट जाता है। सामाजिक संबंध गौण होने लगते हैं। काल्पनिक सुखों की चाहत में वह छायाओं के पीछे भागने लगता है। संसार को माया समझकर, छाया के पीछे भागने की प्रवृत्ति मनुष्य को परिवेश के प्रति उदासीन और स्वार्थी बनाती है। रोज-रोज धर्म-कर्म, पूजा-पाठ में लीन रहने वाला आस्तिक शनैः-शनैः यह विश्वास करने लगता है कि उसपर उसके आराध्य की विशेष कृपा है। इस कारण वह बाकी लोगों से उत्तम और आराध्य के करीब है। धीरे-धीरे यह विशिष्टताबोध उसके व्यवहार का हिस्सा बन जाता है। धार्मिक आख्यानों में निष्कर्ष केवल थोपे जाते हैं। विपरीत विचारधारा से संवाद की उनमें कोई कोशिश नहीं होती, इसलिए खास किस्म की अलोकतांत्रिक जड़ता उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बनती चली जाती है। यदि जातिगत पूर्वाग्रह भी इसमें मिल जाएं तो स्थिति करेले और नीमचढ़े जैसी हो जाती है। उसके प्रभाव में समाज कुछ लोगों की मर्जी से चलने लगता है। बहुसंख्यक वर्ग के विवेक, इच्छाओं और सपनों की उपेक्षा होने लगती है। परिणामस्वरूप समाज में ऊंच-नीच का अनुपात बढ़ता ही जाता है। कालांतर में वह अनेक अंतर्द्वंद्वों को जन्म देता है। समाज में नए ज्ञान को आत्मसात करने की प्रवृत्ति कम होने से रूढ़ियों और आडंबरों में वृद्धि होने लगती है। सामाजिक विकास थम-सा जाता है।

इसका आशय यह नहीं है कि आस्था सदैव नकारात्मक होती है। जीवन में उसकी कोई भूमिका नहीं है। चूंकि मानव जीवन की सीमा है, इस कारण उसकी बुद्धि की भी सीमा है। प्रकारांतर में वही सीमा समाज की भी है। मनुष्य और समाज दोनों स्थायित्व चाहते हैं, इसके लिए कुछ मर्यादाओं का होना आवश्यक है। इसलिए प्रत्येक समाज अपने स्थायित्व और पहचान के लिए कुछ मूल्यों का निर्धारण करता है। चाहता है कि उसकी प्रत्येक इकाई उनमें विश्वास रखे, उनका पालन करे। समाज की सुख-शांति के लिए उन मूल्यों के प्रति सदस्य इकाइयों का विश्वास आवश्यक है। लेकिन अपनी आस्था को सर्वोपरि मान, दूसरे के विश्वासों का निरादर करना, सांप्रदायिक अस्थिरता पैदा करता है। इसलिए आवश्यक है कि मनुष्य अपनी आस्था के साथ दूसरों की आस्था का भी सम्मान करे। पारंपरिक धर्म इसकी इजाजत नहीं देते। क्योंकि लंबे समय में उनके बीच ऐसा वर्ग पनप चुका होता है जो यथास्थिति बनाए रखने में ही अपना स्वार्थ देखता है। हिंदू वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार यह ब्राह्मण है, जो वर्गीय स्वार्थों की सुरक्षा के लिए जातिवाद का समर्थन और पोषण करता है। वह धार्मिक आस्था और तत्संबंधी कर्मकांडों को किसी भी प्रकार के संदेह और संशोधन से परे मान लेता है। इस तथ्य को नजरंदाज कर देता है कि आस्था और विश्वास किसी वस्तु, विचार, प्रतीक, लौकिक या तथाकथित पारलौकिक शक्ति के प्रति संवेदनमात्र होते हैं, जो वस्तु-विशेष के प्रति कौतूहल तो जगा सकते हैं, स्वयं ज्ञान नहीं होते।
उदाहरण के लिए हिंदू धर्म में मूर्तियों के प्रति आस्था(संवेदन) को ज्ञान मान लिया जाता है। प्रकट में कहा जाता है कि मूर्ति देवता न होकर उसका प्रतीक मात्र होती है। मनुष्य अपने विवेक, कल्पनाशक्ति और अनुभवजन्य बोध से उस मूर्ति के पीछे निहित सत्य, जिसके प्रतीक स्वरूप उसे गढ़ा गया है—को प्राप्त कर सकता है। लेकिन यह केवल सैंद्धांतिक रह जाता है। व्यवहार में मूर्ति ही सबकुछ मान ली जाती है। पुजारी के लिए मूर्ति और मंदिर उसकी विशिष्ट सामाजिक प्रस्थिति, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा के साथ-साथ आजीविका का आधार भी होते हैं। वह मूर्ति को नहलाता, धुलाता, भोग लगाता और समय-समय पर वे सभी काम करता है, जिन्हें वह तथाकथित देवता के नाम पर करना चाहता है। मूर्ति के अवमानना को वह देवता और प्रकारांतर में धर्म का अपमान समझता हैं। आडंबरों के चलते मूर्ति केवल प्रतीक नहीं रह पाती। चूंकि समाज में धर्म-शास्त्रों की व्याख्या उनके पठन-पाठन का अधिकार स्वयं ब्राह्मण ने कब्जाया हुआ है और मानव जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक, कदम-कदम पर उसकी भूमिका है, इसलिए पुजारी के कथन और उसके सभी कर्मकांडों पर जनसाधारण आसानी से विश्वास कर लेता है।
आस्था के अतिरेक में, मूर्ति को देवता मान लेने से आस्था के प्रभाव और भी विकृत हो जाते हैं। विशेषरूप से उन लोगों के लिए जो विभिन्न प्रकार के समाजार्थिक शोषण का शिकार रहे हैं। इसका असर जातिवाद से प्रभावित वर्गों में देख सकते हैं। उनीसवीं और बीसवीं शताब्दी में दलितों और पिछड़ों में जागृति लाने में महामना ज्योतिराव फुले, डा. आंबेडकर, ई. वी. रामास्वामी नायकर आदि ने अनथक संघर्ष किया था। जातिवाद से मुक्ति के लिए इन सभी ने तंत्र-मंत्र, मूर्ति-पूजा जैसे ब्राह्मणवादी औजारों से मुक्ति को आवश्यक माना था। वे चाहते थे कि दलित और पिछड़े अधिकाधिक शिक्षा ग्रहण करें। ब्राह्मणवाद के चंगुल से बाहर आने के लिए उसके द्वारा थोपे गए सभी कर्मकांडों का बहिष्कार करें। शताब्दियों से ब्राह्मणवाद के दमन के चलते उनसे अनुकूलित हो चुकी चेतना का ही असर है कि दलितों और पिछड़ों में जातिभेद आज भी बरकार है। ब्राह्मणवाद से मुक्त दिखने के लिए वे फुले और आंबेडकर की मूर्तियां बस्तियों में लगा लेते हैं, और बजाय इन महापुरुषों के लिखे हुए को पढ़ने के, उनकी मूर्तियों की वैसी ही पूजा-अभ्र्यना करते हैं, जैसा पुजारी मंदिर में करता है। ब्राजील के शिक्षा शास्त्री पाब्लो फ्रेरा के अनुसार परिवर्तन के आरंभिक चरण में उत्पीड़ित, उत्पीड़क की भूमिका में आने की कोशिश करता है। वह उन्हीं गतिविधियों को दोहराता है, जिन्हें उत्पीड़क अपना वर्चस्व दर्शाने के लिए करता है. इससे परिवर्तन की गति धीमी पड़ने लगती है। प्रतिक्रियावादी शक्तियों को नए सिरे से, नई ताकत और रणनीतियों के साथ उभरने का अवसर मिल जाता है।
आमूल परिवर्तन के लिए आवश्यक है कि समाज विशेष के महापुरुषों की चेतना, उसके प्रत्येक नागरिक की चेतना का अनिवार्य हिस्सा बन जाए। यह कार्य डा. आंबेडकर, फुले, पेरियार जैसे महापुरुषों के प्रति कोरी आस्था द्वारा संभव नहीं है। उसके लिए आवश्यक कि उन्हें आदर्श मानने वाले लोग वैसी ही चेतना से लैस हों। कुछ लोग कह सकते हैं कि महापुरुष रोज-रोज पैदा नहीं होते। हर व्यक्ति उनके जैसा नहीं बन सकता। हम मान लेते हैं। पर इतना तो कोई भी कर सकता है कि दूसरों की नकल करने, उनके कहे अनुसार आचरण करने के बजाए, व्यक्ति अपने विवेक का अधिकाधिक इस्तेमाल करे। दूसरों की बातों में आने के बजाय खुद फैसला करने की आदत डाले। यदि किसी को गीता या रामचरितमानस में कोई आदर्श नजर आता है, तो बजाय पंडा-पुरोहित के बहकावे में आने के स्वयं पढ़कर उनके बारे में अपनी राय बनाए। साथ में वह सब भी पढ़े जो इन धर्मग्रंथों की आलोचना में महापुरुषों ने कहा था।
सारतः, आमूल परिवर्तन की इच्छा रखने वाले बहुजन समाज के लिए, जड़ आस्था चाहे वह खास मूल्यों के प्रति हो या महापुरुषों के प्रति—किसी काम की नहीं है।

ओमप्रकाश कश्यप

क्रांतिकारी कवि और उपदेशक : पोईकाइल योहन्नान

लेख

बीसवीं शताब्दी का दूसरा दशक। पूरा भारतवर्ष आजादी के संघर्ष में डूबा हुआ है। रविवार का दिन। दूर दक्षिण की त्रावणकोर रियासत में खपरैली छत की पुरानी इमारत प्रार्थना-संगीत से गूंज रही है। श्रद्धालु सफेद वस्त्र धारण किए, कच्चे फर्श पर विराजमान हैं। उनके आगे थोड़ा खाली स्थान है। उसके बाद चार फुट ऊंचा मिट्टी का बना चबूतरा। चबूतरे के बीचों-बीच दीपक झिलमिला रहा है। एक अधेड़, अधनंगा आदमी उसमें तेल डालने के लिए बार-बार उठकर आता है। दीपक के पीछे कोई दैवी प्रतीक है। उसका चेहरा एकदम खाली है। सिर के पीछे पीला प्रकाश फैला हुआ है। श्रद्धालुओं के आगे कुछ कुर्सियां और एक मेज हैं। एक बुजुर्ग आदमी कुर्सी के सहारे खड़ा होकर प्रवचन कर रहा है। सम्मोहित श्रद्धालु उसकी उपदेश गंगा में स्नान कर रहे हैं। बीच-बीच में वह अपनी आंखों में उतर आई नमी को साफ करता है। उपदेशक सीरियाई मारथोमा चर्च से छिटककर आया है। बाईबिल में इसलिए विश्वास नहीं करता, क्योंकि उसमें उसके लोगों और पूर्वजों के बारे में एक भी शब्द नहीं है। प्रवचन के बीच-बीच में वह उपस्थित श्रद्धालुओं को अपने दास पूर्वजों के बारे में बताता है। उनके साथ हुए जातीय और सामंती उत्पीड़न का जिक्र करता है। श्रद्धालुओं को उपदेशक की एक-एक बात पर विश्वास है। इसलिए कि जो वह बता रहा है, वे स्वयं उन्हीं हालात से गुजर रहे हैं। दास लोग हैं, उन्हें न खुलकर बोलने की आजादी है, न मनभाता खाने और पहनने की। सार्वजनिक स्थानों पर वे आ-जा नहीं सकते। अपने मालिक से बात करनी हो तो कम से कम पचास कदम की दूरी रखनी पड़ती है। कहीं देह की  छाया भी उनपर पड़ न जाए। ऊपर से बात-बात पर मार देने या बेच आने की धमकी। उपदेशक उन्हें उनके जीवन की त्रासदियों के साथ-साथ सपनों से भी परचाता है। प्रवचन में लीन श्रद्धालु कभी भाव-विभोर होकर झूमने लगते हैं, तो कभी उनकी आंखें छलछला जाती हैं। सारा देश अंग्रेजों से देश की आजादी चाहता है। वे लोग जातीय उत्पीड़न और अपने दासत्व से मुक्ति के लिए प्रार्थनारत हैं। मुक्ति-संदेश जब-जब आंखों में आजादी का बिंब बनकर उभरता है, झुर्राए चेहरों पर खुशी झिलमिलाने लगती है।

भारतीय इतिहास की कोई भी पुस्तक उठाकर देख लीजिए। इस तरह की घटनाओं का उल्लेख नहीं मिलेगा। क्योंकि इतिहासकारों को राजा-महाराजाओं की जय-पराजय, उनके वैभव-विलास और पर्दे के पीछे चलने वाले षड्यंत्रों को लिखने में मजा आता है। आम आदमी की समस्याएं, उसके सुख-दुख उनकी चिंता का विषय नहीं होते। ‘फलां राजा ने नहर बनवाई’─वे बस इतना लिखते हैं। नहर का पानी हर जरूरतमंद तक पहुंचा या नहीं, यह उनकी चिंता का विषय नहीं होता। उनीसवीं और बीसवीं शताब्दी को वे भारतीय समाज के नवजागरण का नाम देते हैं। लेकिन समाज सुधारकों का नाम पूछा जाए तो अधिकांश की सुई राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती और विवेकानंद तक आते-आते अटक जाएगी। कुछ और खंगाला जाए तो संभव है, केशवचंद सेन, महादेव गोविंद रानाडे का नाम भी निकलकर सामने आ जाए। किसी पिछड़े या दलित समुदाय के समाज सुधारक का नाम जानने की कोशिश कीजिए? सवाल सुनते ही लोग कन्नी काटने लगेंगे। संभव है कुछ हंसने भी लग जाएं? कहें कि जो अपना भला नहीं कर सकते वे समाज का खाक सुधार करेंगे। इस तरह की टिप्पणी करने वालों पर आपको चाहे जितना गुस्सा आए, पर असल में उनका ज्यादा दोष नहीं है। शताब्दियों से उन्हें यही सिखाया गया है। यही उनकी मानस-रचना है। भारत का इतिहास, उसके धर्म-शास्त्र, नीति-शास्त्र सब समाज के खास लोगों द्वारा खास लोगों के लिए गढे़ गए हैं। इस तरह गढे़ गए हैं कि उनमें जो विरोधाभास और बड़बोलापन है, वह नजर ही नहीं आता। महाभारत के लिए नायक अवतारी कृष्ण हैं। परंतु धर्मराज का दर्जा पांडव-ज्येष्ठ को प्राप्त है। ये ‘धर्मराज’ एक बार 88000 ब्राह्मण स्नातकों को, प्रति स्नातक 30 के हिसाब से कुल 26,40,000 दासियां दान कर देते हैं(सभापर्व, शिशुपाल बध, भाग 48)। इतनी सारी दासियां कहां से जुटाई गईं? ब्राह्मण स्नातक इतनी दासियों का क्या करेंगे? ये सवाल दिमाग में आते ही नहीं हैं। क्योंकि सवाल करना उन धर्मग्रंथों के अनुसार पाप की श्रेणी में आता है।

यहां जो धर्म का लाभार्थी है, वह जाति का लाभार्थी भी है। जो इन दोनों का जितना बड़ा लाभार्थी है, समाज में उसका स्थान उतना ही ऊंचा है। जो इनका लाभार्थी नहीं है, उससे इस व्यवस्था में हस्तक्षेप करने का अधिकार ही छीना हुआ है। जातिवाद की पैठ इतनी गहरी है कि ईसाई और इस्लाम जैसे धर्म जिनकी मूल संरचना में जाति के लिए कोई स्थान नहीं था, भारत आकर वे भी जाति के प्रभाव से मुक्त न रह सके। हिंदू धर्म से राहत की उम्मीद लेकर दूसरे धर्मों में गए लोग, अपने साथ जाति ले जाना नहीं भूले─

एक के बाद एक नए-नए चर्च बनते गए

फिर भी जाति-भेद गया नहीं….

एक चर्च स्वामी की खातिर है

एक चर्च दास के लिए

एक चर्च पुलाया के लिए है

एक परायास के लिए

एक चर्च ‘मुराक्कन’

मछुआरे के लिए है।1

इस प्रवृत्ति का विरोध न हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। उनीसवीं शताब्दी में दलितों और पिछड़ों को लेकर कई सुधारवादी आंदोलन समानांतर रूप से चले थे, जिनका नेतृत्व उन समाजों के महापुरुषों के हाथों में था। उनकी पहल करने वाले थे, ज्योतिराव फुले। महाराष्ट्र में ‘सत्यशोधक मंडल’ की स्थापना द्वारा उन्होंने सीधे ब्राह्मणवाद को चुनौती दी थी। पंजाब में जाति-भेद और ब्राह्मणवाद विरोधी चेतना ‘आदिधर्म आंदोलन’, मध्यप्रदेश में ‘आदि हिंदू आंदोलन’ और बंगाल में ‘नामशूद्र आंदोलन’ के रूप में विद्यमान थी। दक्षिण भारत भी अप्रभावित नहीं था। बल्कि कुछ मायनों में तो वह शेष भारत से भी आगे था। तमिलनाडु में पेरियार के नेतृत्व में ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ के साथ वैकल्पिक राजनीति की मांग करते हुए धर्म तथा जाति से जुड़े सभी प्राचीन संस्थानों को चुनौती दे रहे थे। केरल में श्री नारायण गुरु, अय्यंकालि, तथा पोईकाइल योहन्नान के नेतृत्व में क्रमशः ‘श्री नारायण धर्म परिपालन योगम’, ‘साधु जन परिपालन संघम’ तथा ‘प्रत्यक्ष रक्षा दैव सभा’ ने भी शताब्दियों से व्याप्त जातीय असमानता के विरुद्ध लोगों को जागरूक करने का काम किया था। आधुनिक भारत के निर्माण में इन आंदोलनों की बड़ी भूमिका है। 

ऊपर जिस उपदेशक का जिक्र हुआ है, वे थे─पोईकाइल योहन्नान। जिस सभा का वर्णन किया गया है, वह थी पोईकाइल योहन्नान द्वारा स्थापित ‘प्रत्यक्ष रक्षा देव सभा’ की साप्ताहिक धर्म-गोष्ठी। आगे बढ़ने से पहले उचित होगा कि सरसरी निगाह केरल के तत्कालीन हालात पर भी डाल ली जाए। 19वीं शताब्दी का केरल तीन बड़े राज्यों─कोचीन, त्रावणकोर और मालाबार में बंटा हुआ था। ईसाई मिशनरियां वहां सक्रिय थीं। समाज मुख्यतः दो हिस्सों में विभाजित था। पहले में विशेषाधिकार प्राप्त जातियां थीं। नंबूदरी ब्राह्मण, जो स्थानीय ब्राह्मण थे। उनका दर्जा समाज में सबसे ऊंचा था। दूसरे स्थान पर बाहर से आए ब्राह्मण और क्षत्रिय थे। नैय्यर मुख्यतः जमींदार थे। मंदिरों की देखरेख का काम भी उन्हीं के अधीन था। सरकारी नौकरियों पर भी उनका अधिकार था। इनके अलावा चेट्यिार, मुस्लिम और ईसाई भी समाज के उच्च वर्गों में आते थे। निचले वर्गों में इझ़वा, पुलाया, परायास, चेनान जैसी जातियां शामिल थीं। इझ़वा पिछड़ी जाति में गिने जाते थे। उनकी कुल जनसंख्या लगभग 15 प्रतिशत थी।  इझ़वाओं की आर्थिक स्थिति दलितों से कुछ बेहतर थी; लेकिन सामाजिक स्तर पर वे भी भेदभाव का शिकार थे। पुलाया(पुलायार), परायास, चेन्नान जातियों  की स्थिति दास के समान थी। छूआछूत कायम थी। इझ़वा ब्राह्मण से 30 फुट दूर रखकर बात कर सकता था, जबकि नैय्यर के अधिकाधिक 12 फुट निकट जा सकता था। वहीं पुलाया को ब्राह्मण से 90 फुट तथा नैय्यर से 60 दूरी रखनी पड़ती थी। सब कुछ ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अनुसार था।

दास प्रथा का चलन था। चांगनचेरी बड़ा बाजार था, जहां दासों की बड़े पैमाने पर खरीद-फरोख्त होती थी। अन्य बाजारों में तिरुअंकारा, अलेप्पी, कुनोल, अतिंग्गल, कायमकुलम जैसे बाजार थे। उनमें माता-पिता या सगे-संबंधी दास लड़के-लड़कियों को बिक्री के लिए लाते थे। एक दास युवक का मूल्य 6 से 18 रुपयों के बीच हो सकता था। डॉ। जेनफी के अनुसार अकेले त्रावणकोर में खरीदे गए दासों की संख्या 130000 थी। ईसाई मिशनरियां उनके बीच तेजी से पैठ बना रही थीं। धर्मांतरित पुलाया, परायास को ईसाई धर्म में स्वीकृति तो मिल जाती थी। परंतु उनकी सामाजिक स्थिति पर कोई अंतर नहीं पड़ता था। इझ़वा चूंकि समाज में बीच की हैसियत रखते थे, इसलिए तत्कालीन जातिप्रथा से उन्हें बहुत ज्यादा शिकायत नहीं थी। श्री नारायण गुरु ने इझ़वाओं को सड़क पर चलने और मंदिर प्रवेश की आजादी के लिए सफल आंदोलन किया था। जिसके लिए उन्हें पेरियार का समर्थन भी प्राप्त हुआ था, लेकिन पुलाया आंदोलन के नेता अय्यंकालि का, जिन्होंने दलित जातियों के आत्मसम्मान के लिए सवर्णों से सीधी लड़ाई लड़ी थी, श्रीनारायण गुरु ने कोई साथ नहीं दिया था। इससे तत्कालीन केरल की सामाजिक स्थिति को समझा जा सकता है। नारायण गुरु का नारा था─‘एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर।’ पेरियार और अय्यंकालि के सपने को उन आंदोलनों के साक्षी और सहभागी रहे, कवि सहोदरन अय्यपन(1889-1968) की कविता से समझा जा सकता है─

‘कोई धर्म नहीं, कोई जाति नहीं,

न कोई ईश्वर

केवल सदाचार, सदाचार….सदाचार

सबसे अच्छी तरह से,

और भी अच्छी तरह से’

पोईकाइल योहन्नान का जन्म 17 फरवरी 1879 को तत्कालीन त्रावणकोर राज्य तथा आधुनिक केरल के  पथानमथिट्टा जिले के इराबीपेरूर नामक गांव में हुआ था। पिता थे कंडन, मां केचि। माता-पिता ने उन्हें कोमारन नाम दिया था। ‘कोमारन’ कुमारन का अपभ्रंश है। जिस जाति, परायास में उनका जन्म हुआ था, समाज में उसकी हैसियत दास के समान थी। उन्हें शुद्ध संस्कृत नाम रखने की अनुमति न थी। हालांकि सरकार 1855 में कानून बनाकर दास प्रथा के उन्मूलन की घोषणा कर चुकी थी। बावजूद इसके दूर-दराज के क्षेत्रों हालात पहले जैसे ही थे। कुमारन के माता-पिता उसी गांव के जमींदार शंकरमंग्गलम के यहां दास थे। उस जाति के अधिकांश सदस्यों की हैसियत भू-दास के समान थी। जिस जमीन पर वे खेती करते थे, उसी के साथ उनका जीवन बंधा होता था। जमीन की खरीद-फरोख्त में आमतौर पर उससे जुड़े दास के स्वामी भी बदल जाते थे। ऐसा भी होता था कि दासों की खरीद-फरोख्त में उनका पूरा परिवार बिखर जाता था। नया मालिक केवल माता-पिता की कीमत लगाता, ऐसे में बच्चे अनाथ होकर रह जाते थे। कई बार माता-पिता अलग-अलग मालिकों की सेवा में चले जाते; और बच्चे बेसहारा होकर इधर-उधर भटकते रहते थे─

सुनो-सुनो

मेरे प्यारे भाइयो सुनो

हमारे पूर्वजों ने खूब झेला है

गुलामी में जीना

बिना रुके मालिक की मार सहना

कष्ट और अभावों से गुजरना

पिता एक बाजार में बिके

मां दूसरे में

बच्चे हुए अनाथ2

उन दिनों ईसाई मिशनरियां दलितों के बीच अपनी पैठ बनाने में लगी थीं। कुमारन जब पांच वर्ष का था, तभी उसका ‘बपत्सिमा’ कर दिया था। अपनी जाति के दूसरे किशोरों की भांति कुमारन को भी जमींदार के लिए काम करना पड़ता था। अपने मालिक के लिए वह जानवर चराता। हल जोतते समय यथासंभव मदद करता। इसके अलावा वह काम भी करता जो उसका मालिक उसे सौंपता था। दास के रूप में जन्म लेने के बावजूद कुमारन अपने हमउम्र बच्चों से अलग था। उसका मस्तिष्क सक्रिय था। अपनी सामाजिक स्थिति को देखकर उसके दिमाग में अनेक सवाल कौंधते रहते थे। जातीय ऊंच-नीच और छूआछूत के प्रति वह उद्धिग्न रहता था। घर में तरह-तरह के रीति-रिवाज देख वह चकित रह जाता था। 

परायास जाति का एक रिवाज था। बालक के शुद्धिकरण के नाम पर उसके कान में पानी डालना। कुमारन की मां जब उसका शुद्धिकरण करने चलीं तो उसने मां से सहज भाव से पूछा था─‘एक कान में पानी डालते समय, यदि दूसरे कान से गंदगी प्रवेश करेगी, तब तुम उसे कैसे रोकोगी?’3 भोली स्त्री को कोई जवाब न सूझा। वह बस बेटे के मुंह की ओर देखने लगी। कुमारन की व्यवस्था से विद्रोह, परंपराओं को लेकर सवाल खड़े करने की प्रवृत्ति, उम्र के साथ-साथ बढ़ती गई। उसकी जिज्ञासाएं व्यावहारिक होती थीं। उनका समाधान वह अपने रोजमर्रा के जीवन से ही खोजने की कोशिश करता था। निचली जातियों में तंत्र-मंत्र, झाड़-फूंक और काला जादू को लेकर अनेक भ्रांतियां व्याप्त थीं। एक जादूगर कौड़ियों और घंटी की मदद से काला-जादू दिखाया करता था। एक बार कुमारन ने खेल-खेल में उसकी कौड़ियां और घंटी चुरा लीं। जब वह तांत्रिक काला-जादू दिखाने लगा तो उसने इन चीजों को अपने झोले से गायब पाया। इसपर कुमारन ने उसे चुनौती दी, ‘यदि तुम्हारे काले जादू में सचमुच कोई शक्ति है तो उसकी मदद से उन चीजों को ढूंढकर दिखाओ।’ तांत्रिक बगलें झांकने लगा। कुमारन ने अपने दोस्तों को समझाया कि काला जादू जैसी कोई चीज नहीं होती─

‘यदि काला जादू ठीक उसी तरह काम करता, जैसा तांत्रिक का दावा है तो हम शताब्दियों से दास बनकर नहीं रह रहे होते।’4

इससे जहां कुमारन की सूझबूझ का पता चलता है, वहीं अंदाजा लगाया जा सकता है कि अपने दासत्व को लेकर वह बचपन में कितना सजग था। यही सजगता आगे चलकर जातीय शोषण और सामाजिक रूढ़ियों प्रति आक्रोश का रूप लेती गई। उन्हीं दिनों की एक घटना है। एक दिन कुमारन सामंत के खेतों में हल चला रहा था। उसकी जाति के कई और लड़के भी उसके साथ थे। खेत जोतते समय एकाएक नरकंकाल सामने आ गया। बाकी लड़के भी नरकंकाल को देखने के लिए आसपास सिमट आए। सभी के भीतर कंकाल के बारे में जानने की उत्सुकता थी। तब कुमारन ने अपने साथियों से कहा कि वह कंकाल उनके किसी पुरखे का भी हो सकता है, जो भूख-प्यास से व्याकुल काम करते-करते खेत में गिर पड़ा हो या मालिक ने मारकर यहां दफना दिया हो। सुनते ही उसके दोस्त सोच में पड़ गए। उन्होंने नरकंकाल के अवशेषों को संभालकर मिट्टी से उठाया और पूरे सम्मान के साथ पुनः जमीन में दफना दिया।

मालिक के यहां कुमारन को सुपारी के पत्तों पर खाना परोसा जाता था, जो उनके दासत्व को दर्शाता था। पोईकाइल नामकरण के पीछे भी एक कहानी है। कुमारन अपने अनुभव से जो सीखता था, उसे अपने दोस्तों को बता देता था। धीरे-धीरे दोस्तों के बीच उसकी इज्जत बढ़ने लगी। उसने ‘पोइका कूत्तर’(पोइका की सभा) नामक एक संगठन बनाया था, जिसमें वह अपने अनुभव द्वारा सीखी हुई बातें नियमित रूप से साथियों को बताता था। उसी से उसको ‘पोईकाइल’ उपनाम मिला। आगे चलकर वही उसकी मुख्य पहचान बन गया।  

ईसाई मिशनरियां दलितों में अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए कई तरह से प्रयास कर रही थीं। भयंकर जातिवाद के चलते सरकारी स्कूलों में दलित और निम्नतर जातियों को पढ़ाए जाने की सुविधा प्राप्त न थी। मिशनरियां ऐसी ही जातियों में पैठ बनाने की कोशिशा में लगी थीं। उनके लिए स्कूल खोले जा रहे थे। शिक्षा के नाम पर वहां केवल बाईबिल तथा ईसाई धर्म से जुड़े विश्वासों के बारे में सिखाया जाता था। विद्यालयों में प्रवेश के समय ही बच्चों को ईसाई परंपरा के अनुरूप नया नाम दिया जाता था। उसके बाद वे ईसाई समुदाय का हिस्सा मान लिए जाते थे, उसके लिए बपत्सिमा की रस्म, जो ईसाई धर्म का खास संस्कार है─आवश्यक नहीं थी। नए नाम या धार्मिक पहचान से जुड़ने का विद्यार्थी या उसके माता-पिता की सामाजिक हैसियत पर कोई अंतर नहीं पड़ता था, बावजूद इसके स्कूल प्रवेश के समय नया नाम देने की परंपरा बड़े पैमाने पर स्वीकार्य थी। इसका मुख्य कारण यह भी था कि हिंदू धर्म की मान्यताओं के चलते दास समुदाय अपने लिए अच्छे नाम चुन ही सकता था। बाकी स्कूलों के दरवाजे दलित समुदाय के लिए बंद थे। ऐसी स्थिति में मिशनरी स्कूल जो पहचान देते, वही मान ली जाती थी।

उन थेवरक्कुटू कोचकुंजु नाम का दलित अध्यापक बच्चों को ईसाई धर्म के अनुरूप शिक्षा देने के लिए पाठशाला चलाता था। कुमारन को उसी की पाठशाला में भर्ती कराया गया। वहीं रहकर उसने बाईबिल का अध्ययन किया। बाईबिल की कहानियों में पढ़ाया जाता था कि परमात्मा दुखी लोगों की मदद करता है। उनके लिए ईश्वर के दरवाजे सदैव खुले रहते हैं। इसपर वह सोचता कि यदि परमात्मा सचमुच ऐसा ही है तो वह दलितों और दासों के उद्धार के लिए कोई पहल क्यों नहीं करता? किसने उसे रोक रखा है? बाईबिल में किसी दास जाति का वर्णन क्यों नहीं है? यहीं से प्रचलित धर्म को लेकर उसके मन में शंकाएं पैदा होने लगीं। पर यह शुरुआत थी। शिक्षा के दौरान कुमारन ने स्वयं को अच्छा विद्यार्थी सिद्ध किया। बड़ा होने पर कुमारन की धर्म-संबंधी जिज्ञासाएं उसे चर्च की ओर ले गईं।

वे पोईकाइल के पोईकाइल योहन्नान बनने के लिए दिन थे। हालांकि माता-पिता और बस्ती वालों के लिए वह तब भी ‘कोमारन’ ही था। योहन्नान संत थॉमस द्वारा स्थापित मारथोमा चर्च में धर्म की शिक्षा देने लगे। चर्च का हिस्सा बनने के बावजूद योहन्नान के अपने समाज और जाति के प्रति सरोकार पूर्ववत थे। धीरे-धीरे उन्होंने खुलना आरंभ किया। दुनिया भर में बाईबिल को परमात्मा का संदेश खोजने के लिए पढ़ा जाता है। योहन्नान उसमें अपने समाज को खोजने लगे। उन्हें लगा कि बाईबिल के पात्रों की त्रासदी उनके अपने समाज के, त्रावणकोर के दास जीवन की त्रासदी से मेल खाती हैं। 

उन दिनों ईसाई धर्म की ओर आकर्षित होने वाले दो तरह के लोग थे। अंग्रेजों को अपना शासन चलाने के लिए अंग्रेजी के जानकार लोगों की आवश्यकता थी, ऐसे लोगों की आवश्यकता थी जो उनके भरोसेमंद रहकर सौंपी गई जिम्मेदारियों को निभा सकें। इससे आकर्षित होकर आरंभ में उच्च जाति के लोग बड़ी संख्या में ईसाई धर्म की ओर आकर्षित हुए थे। दूसरा वर्ग पुलाया, परायास जैसी दास जातियों का था, जो जातीय उत्पीड़न से तंग आकर या सरकारी स्कूलों में शिक्षा के अवसर न देखकर ईसाई मिशनरियों की शरण में चले जाते थे। वहां उन्हें, उनके चाहे-अनचाहे ईसाई पहचान से जोड़ दिया जाता था। उच्च जाति के ईसाई धर्म में शामिल हुए लोग अपने साथ अपने जातीय संस्कार भी ले जाते थे। इसलिए मूल ईसाई धर्म में जाति-आधारित विभाजन की भले ही कोई अनुमति न हो, परंतु भारतीय ईसाइयों में इस तरह का विभाजन सामान्य बात थी। इसी से योहन्नान के मन में ईसाई धर्म के प्रति शंकाएं उत्पन्न होने लगीं। उन्हें लगा कि ईसाई धर्मांतरित होकर आने वाले दलितों को कभी भी अपेक्षित मान-सम्मान देने वाले नहीं हैं। धर्म की सांगठनिक क्षमता का उपयोग करते हुए उन्होंने निचली जाति के लोगों को जोड़ना आरंभ किया।

लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए योहन्नान ने जो रास्ता अपनाया उसी में उनकी मौलिकता छिपी थी। दूसरे धर्मप्रचारक परमात्मा के साम्राज्य का महिमा-मंडन करते। इस संसार तो पाप और दुराचारों से भरपूर बताते थे। मानव-जीवन को वे अब्बा और ईव के दुराचार की देन मानते थे। योहन्नान का इस कहानी पर विश्वास नहीं था। जीवन चाहे जितना कष्टमय हो, पर है तो वह जीवन ही। जिस बाईबिल में यह कहानी है, वह उनके समाज की नहीं हो सकती। होगी किसी अदृश्य-अनाम समाज की। बाईबिल में जो स्थितियां हैं उनका देशकाल एकदम भिन्न है। उसमें एक भी अध्याय ऐसा नहीं है जो पुलायाओं और परायासों की कहानी कहता हो─

मैंने पढ़े हैं कई सभ्यताओं के इतिहास

खोजा है, देश-प्रदेश के प्रत्येक इतिहास में

कहीं, कुछ भी नहीं मिला मेरी जाति पर

पृथ्वी पर नहीं कोई ऐसा कलमकार

जो लिखे मेरी जाति का इतिहास

जिसे डुबा दिया गया है रसातल में

जो खो चुकी है

इतिहास की अतल गहराइयों में

यह एक प्रकार की राजनीति ही थी? शताब्दियों से लुटी-पिटी जातियों को न्याय दिलाने की राजनीति! या फिर पुराने धर्म को कठघरे में लाकर नया संप्रदाय चलाने की राजनीति! परंतु राजनीति कहां नहीं है? हिंदू धर्म स्वयं बड़ी राजनीति है जो जाति के नाम पर समाज का स्तरीकरण कर देता है। उसे ऊंच-नीच में बांट देता है। व्यवस्था ऐसी है कि जो इसमें सबसे ऊपर है, तमाम कमजोरियों के बावजूद वह वहीं बना रहता है। और जो नीचे है, वह कितना ही अच्छा करने का प्रयत्न करे, ऊपर जाने का उसका स्वप्न भी पाप मान लिया जाता है। यह ऐसी संस्कृति है जिसमें देवराज इंद्र चाहे जितने बलात्कार करें, उनका देवत्व कभी खंडित नहीं होता। अपवित्र और पतित मानी जाती हैं, बलत्कृत होने वाली स्त्रियां।

बाईबिल का स्वप्नलोक(यूटोपिया) यदि योहन्नान का स्वप्नलोक नहीं था तो फिर क्या था? कह सकते हैं कि योहन्नान ने अपना स्वप्नलोक बड़ी शाइस्तगी से गढ़ा था। वही द्रविड़ अस्मिता का यूटोपिया, जिसमें उसने बस थोड़ा-सा संशोधन किया था। ब्राह्मणों को विदेशी मूल का बताकर फुले ने अनार्य बहुजनों को इस देश का मूल निवासी घोषित किया था। मैक्समूलर से लेकर तिलक तक, सबकी यही मान्यता थी। यह दर्शाती थी कि दक्षिण भारत के निवासी ही इस देश के मूल निवासी हैं। ऐतिहासिक सिद्धांत के रूप में पेरियार ने इसी को आधार मानकर ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ की रूपरेखा गढ़ी थी। योहन्नान ने इसका सीमित संदर्भों में, अपनी तरह से प्रयोग किया था। उसने पुलाया और परायास जातियों को समझाया कि उनके पूर्वज त्रावणकोर के वैभवशाली बाशिंदे थे। उसकी सुख-समृद्धि उनकी अपनी सुख-समृद्धि थी। आर्य उसे लूटकर खुद त्रावणकोर के वैभवशाली शासक बन बैठे। जो कभी स्वामी थे आज वे गुलामगिरी करने के लिए विवश हैं।

पुराने वैभव को प्राप्त करने के फुले बहुजनों को शिक्षित होने की सलाह देते हैं। पेरियार का तरीका लोकतांत्रिक था। वे चाहते थे कि धर्म और जाति का विनाश हो। लोग उनसे ऊपर उठकर सोचें। जातिवाद के संरक्षक ब्राह्मणवाद भी नाश हो। लोग लोकतांत्रिक तरीके से अपने अधिकारों के लिए संगठित हों। योहन्नान के लिए वही पुराना धर्म का रास्ता था। उद्धार के लिए मसीहा का इंतजार करना। कई बार वे स्वयं को ही मसीही दूत के रूप में पेश कर देते थे। रास्ता भले ही पुराना हो, सपना तो नया था। वह सपना ही लोगों को योहन्नान की ओर खींच रहा था। योहन्नान की धर्म-संबंधी व्याख्याएं चर्च के अधिकारियों को स्वीकार्य न थीं। भीतर ही भीतर उसके विरुद्ध माहौल बनता जा रहा था। लेकिन यह सोचकर कि लोग योहन्नान से प्रभावित हैं, उनकी सभाओं में भीड़ बढ़ती ही जा रही है, सब के सब अनुयायी ईसाई धर्म की निरंतर फूलती-फलती खेती हैं─वे आरंभ में उनके प्रति नर्म बने रहे।

उन्हीं दिनों एक घटना घटी जिससे योहन्नान को सीधे चर्च के विरोध में उतरना पड़ा। एक निम्न जातीय दलित को चर्च की कब्रगाह में दफनाया गया था। अधिकारियों को पता चला तो उन्होंने कब्र खोदकर उसका शव बाहर निकाल दिया। कहा कि उसे उसकी जाति की कब्रगाह में ले जाकर दफनाएं। योहन्नान के लिए यह सूचना हैरान कर देने वाली थी। उन्हें चर्च का व्यवहार पक्षपातपूर्ण लगा। विवाद बढ़ा तो योहन्नान ने सीरयाई चर्च को अलविदा कह दिया। बाद उन्होंने ‘चर्च मिशनरी सोसाइटी’ की सदस्यता ग्रहण कर ली। लोगों तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए योहन्नान को खास ठिकाने की आवश्यकता नहीं थी। लोगों के बीच जाकर, जहां भी, जिस रूप में भी अपने विचार रखने का अवसर मिले, उन्हें स्वीकार था। वे चौराहों पर, सड़क किनारे, घरों और झोंपड़ियों के बीच कहीं भी उपयुक्त स्थान देख, लोगों को एकजुट कर, उपदेश देने लगते थे। बाईबिल की बातों को ज्यों का त्यों स्वीकारने के बजाए वे दलित दृष्टिकोण से उनकी व्याख्या करते। उनका मानना था कि बाईबिल ने स्वयं दमितों के साथ छल किया गया है। ये बातें चर्च की चारदीवारी में संभव नहीं थीं, इसलिए वे वहां से हटकर सभाएं करते। लोगों को समझाते कि उनकी सामाजिक हैसियत हमेशा से ऐसी न थी, अपितु त्रावणकोर के प्राचीन वैभव में उनका भी योगदान था। आर्यों ने उनपर हमला करके द्रविड़ों को अपना गुलाम बना लिया। वे लोगों को बताते कि प्राचीन द्रविड़ उदार सभ्यता के निर्माता थे। उनमें ऊंच-नीच की भावना नहीं थी। आर्यों ने न केवल उस सभ्यता को नष्ट किया, अपितु दास-पृथा भी लागू की। जिससे समाज में गुलाम और मालिक का चलन आरंभ हुआ। तभी से द्रविड़ों का जीवन नर्कमय बना हुआ है। योहन्नान के उपदेशों से प्रभावित होकर पुलायार और परायास जैसी दास जातियों के लोग उसके पीछे संगठित होने लगे। एक उपदेशक के रूप में उनका मान-सम्मान बढ़ता ही जा रहा था। योहन्नान ने बड़ी कुशलता से धर्म की ताकत को शताब्दियों से होते आ रहे शोषण से जोड़ा था। 

लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए वे कई कहानियों का सहारा लेते। कुछ मौखिक कहानियां भी दासों के बीच विद्यमान थी। उनमें से एक यह थी कि दास पृथा लागू होने से पहले खेती के लिए बैलों का उपयोग किया जाता था। दास पृथा लागू होने के बाद हल में बैलों के साथ-साथ दास भी जोते जाने लगे। उनकी साप्ताहिक बैठकों में एक किस्सा खूब चलता था, जिसमें एक कमजोर मरणासन्न दास को हल में बैल के साथ जुता हुआ दिखाया जाता। बताया जाता कि 1855 में दास-पृथा उन्मूलन से पहले प्रत्येक दास की पीठ पर सांड का निशान बना होता था, जो उसके दासत्व का प्रतीक था। उनके पुराने अनुयायी मानते थे कि वैसा ही निशान योहन्नान की पीठ पर भी था। साप्ताहिक सभाओं में योहन्नान अकसर यह गीत लोगों को सुनाया करते थे─

जंजीरों में जकड़े, तालों में कैद

रखा जाता था उन्हें बंदियों की तरह

पीठ पर बरसते कोड़े कर उन्हें देते थे अधमरा

जीवन उनका था जानवरों के समान

बैल के साथ हल में जोतकर

जुतवाए जाते थे खेत….

ये गीत दासों को उनके जीवन की त्रासदियों से परचाते थे। इसलिए लोग उन कहानियों पर सहज विश्वास कर लेते थे। योहन्नान उनके लिए न केवल उपदेशक थे, बल्कि मार्गदर्शक भी। अनुयायियों को लगता था कि केवल वही उनका उद्धार कर सकते हैं। 

उच्च जातियों में इसकी प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक थी। सो चर्च सहित तथाकथित उच्च जातियों का बड़ा वर्ग योहन्नान के विरोध में संगठित होने लगा। उसकी सभाओं पर हमले होने लगे। एक बड़ा हमला, 1905 में कडापरा में धर्मांतरित दलित ईसाई कुझीपरंबिल पैथ्रोस के घर पर हुआ। उस दिन योहन्नान ने एक गोपनीय बैठक बुलाई हुई थी। बैठक का विषय था, ‘अनैतिकता की संतान, ईश्वर की संतान तथा एशिया के सात चर्च’। उस बैठक में उनका व्याख्यान व्यंग्यात्मक था। दूसरा हमला जो पहले से भी बड़ा था, ‘ओथारा’ में हुआ। उस बैठक में भारी संख्या में लोग जमा थे। बैठक के लिए पंडाल का इंतजाम किया गया था। उपद्रवियों ने रोशनी के लिए लगाए गए लालटेनों की मदद से पंडाल को आग के हवाले कर दिया। दलितों को वहां से भागना पड़ा। योहन्नान को अपने अनुयायियों के साथ एक पेड़ के नीचे शरण लेने पड़ी। ऐसे ही एक बार जब हमलावर उनपर आक्रमण के उतारू थे, योहन्नान को भागकर नाले में छिपना पड़ा था। कोझुकुचिरा, वेलांदि, वैंकठनम, मंगलम् की सभाओं में भी व्यवधान उत्पन्न किया गया। वेत्तियादु की बैठक में उपद्रवियों के हमले में एक महिला की हत्या कर दी गई। एक बार जब वे प्रवचन कर रहे थे, उच्च जातियों का हमला हुआ। जान बचाने के लिए उन्हें स्त्रियों के बीच छिपना पड़ा।  

योहन्नान उच्च जाति के लोगों के साथ-साथ चर्च की निगाह में खटकने लगे थे। उसपर चर्च छोड़ने का दबाव बढ़ता ही जा रहा था। लोग किसी भी तरह योहन्नान को दंडित करना चाहते थे। दूसरी ओर लगातार हमलों से योहन्नान की प्रतिष्ठा बढ़ती ही जा रही थी। साथ ही बढ़ रहा था, उसका हौसला। एक अवसर ऐसा आया जब योहन्नान और चर्च एकदम आमने सामने थे। उन दिनों वे ‘ब्रेदरान मिशन’ के सदस्य थे। उस संप्रदाय के लोगों का विश्वास था कि यह संसार कपटपूर्ण लोगों का जमाबड़ा है। योहन्नान को वह कपट अपने चारों और नजर आता। उन्हीं दिनों योहन्नान ने बाईबिल को भी अपनी आलोचना के दायरे में शामिल कर लिया। उसके तर्क बहुत सीधे और लोगों के दिमाग में घर कर जाने वाले थे। जैसे कि उसका कहना था कि बाईबिल के धर्मादेश बाहरी लोगों के लिए हैं। नए धर्मादेश(न्यू टेस्टामेंट) के बारे में योहन्नान का कहना था कि उसमें संत पॉल और दूसरे लोगों के धर्म-संदेश उन लोगों, जैसे रोमन और कुरिंथवासियों के लिए हैं, जिन्हें वे संबोधित करना चाहते थे। उनमें त्रावणकोर के पुलायाओं के लिए एक भी धर्म-संदेश शामिल नहीं है। ईसाई धर्म कहता है कि स्वर्ग का राज्य उन लोगों के लिए है, जो शोषित और उत्पीड़ित हैं। यह सच के नाम पर मजाक है। वे लोगों को समझाते कि धरती से परे स्वर्ग कहीं नहीं है। पुलायाओं और परायासों का स्वर्ग कभी त्रावणकोर था। उसका वैभव उनका अपना वैभव था। उसकी समृद्धि उनके अपने जीवन से झलकती थी। कुछ कपटी लोगों के कारण उनका सुख-वैभव उनसे छिन चुका है। केवल बाईबिल के प्रति आस्था उसे नहीं लौटा सकती। उसे दुबारा प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए मृत्यु की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। मृत्यु बाद स्वर्ग का बाईबिल का दावा लोगों के साथ सिवाय छल के कुछ और नहीं है।

ध्यातव्य है कि पेरियार ने भी तमिलनाडु को द्रविड़ों की मूल भूमि घोषित करने के साथ-साथ ब्राह्मणों को बाहरी घोषित किया था। वे नास्तिक थे। किसी धर्म में विश्वास नहीं करते थे। योहन्नान आस्थावादी थे। उन्होंने अपना जीवन चर्च के उपदेशक से आरंभ किया था। लेकिन बाईबिल से उनका विश्वास हट चुका था। इस ईसाई मान्यता पर भी उनका विश्वास नहीं था कि परमात्मा सब देख रहा है। जितने भी दीन-दुखी हैं, अंत में सब उसकी शरण में होंगे। वह न्याय करेगा। योहन्नान ने स्वतंत्र रास्ता चुना था। ईसाई धर्म के प्रति उठते इन्हीं संदेहों के फलस्वरूप योहन्नान ने बहुप्रसिद्ध मेरामोन सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया। उसके पहले वे वेकठनम की सभा में बाईबिल की आलोचना कर चुके थे। उनका कहना था कि दासों के लिए वह पुस्तक वृथा है। इसलिए उसे साथ लेकर चलना बेमानी है।

मेरामेन सम्मेलन के विरोध में मुथलपुरा में समानांतर सम्मेलन का आयोजन किया गया। उस समय तक योहन्नान अपने समर्थकों के हृदय में ईसाईधर्म और बाईबिल के प्रति आक्रोश पैदा कर चुके थे। मुथलपुरा सम्मेलन में उसका चरमोत्कर्ष देखने को मिला। उसके अनुयायी अपने हाथों में बाईबिल की प्रतियां लिए हुए थे। उत्साहित लोगों ने बड़ी वेदिका तैयार की। उसमें आग जलाई गई। देखते ही देखते लोग साथ लाई बाईबिल की प्रतियां उसमें फैंकने लगे। जो लोग बाईबिल को आग के हवाले करने से झिझक रहे थे, उन्हें दूसरे लोगों  द्वारा उकसाया गया। एक ही दिन में बाईबिल की हजारों प्रतियां आग के हवाले कर दी गईं।5 यह अप्रत्याशित था। योहन्नान के उस कदम से सारा ईसाई समुदाय सकते में आ गया। आनन-फानन में योहन्नान के कृत्य को धर्म-विरोधी घोषित कर दिया गया। जांच कमीशन बिठाया गया। योहन्नान को मारथोमा चर्च से निष्काषित कर दिया गया।

यह 1905 के आसपास की घटना है। उसके बाद वे ‘चर्च मिशनरी सोसाइटी’ से जुड़े। उसका नजरिया अपेक्षाकृत सुधारवादी था। उसका प्रभावक्षेत्र ऊंची जाति के लोगों में अधिक था। जाति-भेद के प्रति उसका नजरिया भी दूसरों से अलग न था। योहन्नान का बहुत जल्दी उससे भी मोह भंग हो गया। खिन्न होकर उन्होंने ‘चर्च मिशनरी सोसाइटी’ को छोड़ दिया। उसके बाद कुछ समय के लिए ‘ब्रोदरान मिशन’ में शामिल हुए। ये ईसाई धर्म की वे संस्थाएं थीं जो मानव-मात्र के बीच बराबरी का दावा करती थीं। लेकिन एक के बाद एक संस्था का अनुभव प्राप्त करने के बाद योहन्नान समझ चुके थे कि संस्थाओं का मूल चरित्र जो बताया जाता है, उससे बिलकुल अलग है। उनके साथ रहकर दासत्व और जातिभेद का समाधान तो दूर, उनके विरोध में आवाज उठाना भी संभव नहीं है। 1907 के आसपास उन्होंने ‘ब्रोदरान मिशन’ को भी छोड़ दिया और स्वतंत्र होकर काम करने लगे।

प्रत्यक्ष रक्षा दैव सभा

यह मानते हुए कि ईसाई धर्म में कपटी जातिवादी लोगों का जमाबड़ा है, बाईबिल दासों के लिए पूरी तरह अप्रासंगिक  है। वह दमित जातियों की समस्या का समाधान करने में अक्षम है─ योहन्नान ने 1909 में उन्होंने ‘प्रत्यक्ष रक्षा दैव सभा’ की स्थापना की। अब योहन्नान स्वतंत्र ‘उपदेशी’ थे। उनके सामने उनका समाज था, उसके दमन और शोषण की अंतहीन व्यथाएं थीं। अपने व्याख्यानों वे दास जातियों से साफ-सुथरा रहने को कहते। शिक्षा ग्रहण करने की सलाह देते और संगठित होने का आवाह्न करते। ‘प्रत्यक्ष रक्षा दैव सभा’ के मुख्य उद्देश्य थे─

1. ईसाई धर्म और हिंदुत्व दोनों का खंडन करना।

2. यह विश्वास करना कि ईश्वर दमित लोगों के उत्थान के लिए पुनः अवतरित होंगे।

3. समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व भाव में विश्वास रखना

4. सृष्टि रचियता के नाम पर प्रार्थना करना, लेकिन बलिप्रथा का परित्याग

5. चर्च से अलग, अपने मंदिर में प्रार्थना करना

‘प्रत्यक्ष रक्षा दैव सभा’ का एकमात्र स्वप्न था, दासत्व से मुक्ति उसका एकमात्र स्वप्न था। दास जातियों के पुराने वैभव को प्राप्त करना। हालांकि इसके लिए योहन्नान के पास सिवाय प्रार्थना के दूसरा कोई रास्ता न था। प्रत्यक्ष रक्षा दैव सभा का एक गीत6 जिसमें व्यंग्य भी झलकता है, इस प्रकार है─

ईश्वर को किसी ने नहीं सुना

देवदूतों को किसी ने भी देखा नहीं

मुक्ति की चाहत में प्रार्थना करने वाले

उसके सेवक भी दिखाई नहीं पड़ते

मैंने परमात्मा को नहीं देखा

मैंने जीसस को नहीं देखा

कोई देवदूत, कोई आत्मा

भी मेरी निगाह से नहीं गुजरी

…..

उनसे जुड़ी दुखद अनुभूतियों

की चर्चा न कर पाने का मुझे खेद है।

पेरियार की भांति योहन्नान ने भी अपने अनुयायियों को ‘आदि द्रविड़’ कहकर संबोधित किया है। उसका मानना था कि दलित एक समृद्ध परंपरा के अनुगामी थे। लेकिन लंबी दासता के चलते वे अपने ही इतिहास को भुला चुके हैं। और जब तक उनमें दास-भाव है, तब तक वे अपनी समृद्ध परंपरा की ओर नहीं लौट सकते। उसका विश्वास था कि ‘परमात्मा गुलामों की मुक्ति के रूप में उसके रूप में अवतरित हुए हैं।’7 यह कहना एकदम गलत है कि ‘स्वर्ग’ और ‘मोक्ष’ की प्राप्ति केवल मृत्यु के बाद ही संभव है। परमात्मा अपनी मर्जी से समय-समय पर जन्म लेते हैं। इसलिए उनके नाम पर बनी परंपराएं और कर्मकांड वृथा हैं। मुथलपुरा की घटना की जांच के लिए समिति के सदस्यों में के। वी। सिमॉन नाम का सदस्य भी था। जन्म से दलित सिमॉन कवि, लेखक और उपदेशक भी थे। अपनी पुस्तक ‘दि वर्क आफ पोईकाइल योहन्नान एंड पीआरडीएस’ में उसने लिखा है─

‘योहन्नान और उसके साथियों का मुख्य लक्ष्य था, अपने अनुयायियों को जाति-आधारित भेदभाव से मुक्ति दिलाना….बाईबिल उस समय या उसकी पीढ़ी(जाति) के लिए उपयोगी नहीं थी। इस दुनिया में चर्च को धर्मदूतों(जीसस के प्रथम 12 अनुयायी) के साथ ही समाप्त हो जाना चाहिए था। तब से आज तक हजारों वर्ष के अंतराल में एक भी व्यक्ति की रक्षा नहीं हो सकी है….कोई दुबारा आने वाला नहीं है, कोई हजार वर्ष लंबा शासन नहीं है। इन(बाईबिल के) उपदेशों के फलस्वरूप जिन्होंने स्वयं को औपचारिक रूप से ‘सुरक्षित’ मान लिया था, वे एक बार फिर योहन्नान के हाथों में सुरक्षित हुए(उनमें से अधिकांश निचली जाति के लोग थे)। इन ‘सुरक्षित’ अनुयायियों को योहन्नान के उपदेशों और विचारों से परे किसी चीज की आवश्यकता नहीं थी। इसलिए उन्होंने बाईबिल को आग के हवाले कर दिया। उनके लिए योहन्नान के शब्द किसी भी धर्मादेश या कानून से बढ़कर थे।’7  

यह ठीक है कि योहन्नान दलितों को कोई स्पष्ट पहचान देने में असमर्थ रहे। उनका प्रभाव क्षेत्र भी सीमित था। फिर भी वे अकेले संत थे, जो ईसाई धर्म को मंदिरों और चर्च की दीवारों से बाहर निकालकर लोगों के बीच ले आए थे। उनके लिए मुक्ति का अभिप्राय मोक्ष नहीं था, बल्कि उस दासत्व से मुक्ति थी, जिसे उनके लोगों पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुलामी के रूप में भोगते आए थे। ऐसे लोग पचास-सौ या हजार नहीं, लाखों में हैं। योहन्नान के समकालीन कवि और समाज सुधारक सहोदरान अय्यपन ने अपनी कविता में इस ओर इशारा करते हुए कहा है─

अपने पसीने और जीवन-रक्त के साथ

इस वसुंधरा के धन-भंडार भरने वाले बहुजनो

श्रमजनो….याद रखो

जीर्ण-शीर्ण झोपड़ियों में,

भोजन और वस्त्रों के लिए तिल-तिल करतीं संघर्ष

गरीब, अभावग्रस्त─कच्चे नर्म फर्श पर बच्चे जनती स्त्रियां                                                                                                                                                                                                               

एक-दो नहीं लाखों में हैं

योहन्नान के योगदान को देखते हुए उन्हें त्रावणकोर की पहली विधायिका ‘श्री मूलम पोपुलर असेंबली’ का सदस्य चुना गया था। वे 1921 और 1931 में दो बार उस पद पर रहे। वे कदाचित अकेले सदस्य थे जिन्हें कई जातियों के प्रतिनिधि के रूप में चुना गया था। उस पद पर रहते हुए योहन्नान ने दास कही जाने वाली जातियों के लड़कों को शिक्षा में अतिरिक्त मदद देने का प्रस्ताव पेश किया था, ताकि वे दूसरी जाति के बच्चों के साथ स्पर्धा कर सकें। इसके अलावा उन्होंने सरकार निचली जाति की गरीबी दूर करने के लिए उनके बीच छोटे उद्यमों को बढ़ावा देने की मांग भी की थी , जिससे वे आत्मनिर्भर होकर आगे बढ़ सकें। अपने अनुयायियों के बीच वे पोईकाइल अप्पचन, कुमार देवा के नाम से भी जाने जाते हैं.

ओमप्रकाश कश्यप

1-      PRDS and Dalit Renaissance: An essay set by The Association of Kerala History Publication Committee, translated by P. M. Abraham, February 1996, Page 15.

1.      PRDS and Dalit Renaissance: An essay set by The Association of Kerala History Publication Committee, translated by P. M. Abraham, February 1996, Page 15.

2.           Songs of Poykayil Appachan 1905 to 1939, Edited by V V Swamy and E V Anil, Institute of PRDS Studies, Kottayam

3.            An Anti-Slavery Spiritual Revolution in Kerala — Prathyaksha Raksha Daiva Sabha, article written by Tharun T. Tharun

4.           As above

5.            PRDS and Dalit Renaissance: An essay set by The Association of Kerala History Publication Committee, translated by P. M. Abraham, February 1996, Page 12.

6.      Above, page 14-15.

7।       As above page 13

1-      PRDS and Dalit Renaissance: An essay set by The Association of Kerala History Publication Committee, translated       by P। M। Abraham, February 1996, Page 15।

2।            Songs of Poykayil Appachan 1905 to 1939, Edited by V V Swamy and E V Anil, Institute of PRDS Studies,        Kottayam।

3।            An Anti-Slavery Spiritual Revolution in Kerala — Prathyaksha Raksha Daiva Sabha, article written by Tharun T।             Tharun

4।            As above।

5।            PRDS and Dalit Renaissance: An essay set by The Association of Kerala History Publication Committee, translated       by P। M। Abraham, February 1996, Page 12।

6।       Above, page 14-15।

7।       As above page 13