आस्था का सामान्य अर्थ दैवी शक्ति पर विश्वास से है। आमतौर पर वह सृष्टि या दृश्यमान जगत से परे होती है। उसका उलट नास्तिकता है। लेकिन इस लेख के माध्यम से हमारा मकसद पाठक को आस्तिक और नास्तिक की बहस में उलझाना नहीं है। इस कार्य को हम दार्शनिकों के लिए छोड़ देते हैं। हमारा उद्देश्य आस्था के सामाजिक पक्ष पर विचार करना है। यह देखना है कि जिस आस्था को जीवन के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और कल्याणकारी बताया जाता है, धर्म के हाथों में पड़कर वह मनुष्य को कैसे उसके वास्तविक लक्ष्यों से भटकाने का काम रखती है। जिस जाति-व्यवस्था को हिंदू समाज का कलंक बताया जाता है, उसे सहेजकर आगे बढ़ाने में भी आस्था का योगदान है। यह काम धर्म, समाज और पूर्वजों के प्रति आस्था के नाम पर किया जाता है। इसलिए इस लेख के बहुजन-संदर्भ भी हैं, जो लेख में यथा-स्थान सामने आ जाएंगे।
आस्थावान व्यक्ति आमतौर पर कार्य-कारण संबंधों पर विश्वास रखता है। मूल कारण को वह दृश्यमान जगत की हलचलों से मुक्त और सर्वोपरि मानता है। किंतु वह दृश्यमान जगत से सर्वथा परे हो, यह आवश्यक नहीं है। उसकी व्याप्ति दृश्यमान जगत के भीतर भी हो सकती है। कबीर इसे ‘चकमक में आग’ और वेदांती ‘सर्वखाल्विदं ब्रह्म’ कहते आए हैं। फिर भी आस्था के मूल केंद्र के रूप में मुख्य कार्यकारी शक्ति का दृश्यमान जगत से परे होना अनिवार्य है। इसका आशय यह नहीं है कि आस्था केवल परमानवीय शक्ति के प्रति संभव है। वह जीवित अथवा मृत व्यक्ति, वस्तु, विचार आदि किसी के भी प्रति हो सकती है। उस अवस्था में वह कहीं न कहीं स्थितियों अथवा व्यक्तियों का परामानवीकरण करती है। मानव-प्रवृत्ति के अनुसार आस्था के कई रूप हो सकते हैं। वह सामूहिक भी हो सकती है और व्यक्तिगत भी। प्रत्येक अवस्था में उसके गुण-दोष, हानि-लाभ करीब-करीब एक जैसे होते हैं।
नास्तिक के लिए दृश्यमान जगत कार्य भी है, कारण भी। वह प्रकृति को स्वतंत्र और सक्षम मानता है। वही जड़-चेतन सबकी जीवनदाता है। सृष्टि में पल-छिन घट रहीं असंख्य घटनाओं की भांति मानव-जीवन भी एक प्राकृतिक घटना है। इसलिए नास्तिक दृश्यमान जगत से इतर किसी पराशक्ति या कारक सत्ता पर विश्वास नहीं करता। वह मानता है कि जन्म से पहले मनुष्य प्रकृति का हिस्सा होता है। मृत्यु के बाद पुनः उसी में समा जाता है। अपने दार्शनिक मत को लेकर वह तर्क करने के लिए सदैव तैयार होता है। उसके तर्क अपेक्षाकृत वैज्ञानिक आधार लिए होते हैं। यही कारण है कि अठारवीं-उनीसवीं शताब्दी के बौद्धिक पुनर्जागरण के पश्चात जितने भी नए दर्शन सामने आए हैं, सभी के केंद्र में मनुष्य है। उनमें प्रत्ययवादी दर्शनों की संख्या, ऐसे दर्शनों की संख्या जो मानव जीवन की समस्याओं और उसकी जिज्ञासाओं का समाधान सृष्टि से परे, किसी काल्पनिक दुनिया में खोजने की कोशिश करते हैं—आनुपातिक रूप से बहुत कम, लगभग नगण्य है। इस कारण उनमें आस्था के लिए भी बहुत कम गुंजाइश है।
आस्तिक व्यक्ति सृष्टि की कारक सत्ता के रूप में अपने विश्वास या आस्था के अनुरूप केंद्रीय शक्ति की कल्पना करते हैं। जो स्वयं वैसी कल्पना नहीं कर सकते वे दूसरों द्वारा कल्पित कारक सत्ता पर विश्वास करने लगते हैं। जनसाधारण के लिए रोजमर्रा के जीवन की चुनौतियां ही इतनी विकट होती हैं, कि वह उनसे मुक्त होकर सोच ही नहीं पाता, इसलिए दूसरों द्वारा कल्पित या बताई गई कारक सत्ता पर विश्वास रखने वाले लोग ही ज्यादा होते हैं। हिंदू धर्म में जनसाधारण को थोपी गई आस्था के साथ-साथ, दूसरों के आदेश या सलाह के अनुसार काम करने का संस्कार जाति प्रथा से प्राप्त होता है—जो ब्राह्मण को शिखर पर रखकर, उसकी योग्यता के बारे में सवाल किए बगैर ही, समाज के नेतृत्व का अधिकार सौंप देती है। जनसाधारण की यह कमजोरी, जो प्रायः उसकी समाजार्थिक विवशता की देन होती है—समाज में धर्म के लिए जगह बनाकर जातिप्रथा को मजबूती प्रदान करती है। इस कमजोरी(या विवशता) का लाभ वे लोग उठाते हैं, जो कारक सत्ता का जानकार होने का दावा करते हैं। इसका शिकार वे लोग ज्यादा होते हैं, जो समाजार्थिक स्तर पर पिछड़े तथा अपनी आवश्यकताओं के लिए दूसरों पर आश्रित होते हैं। प्रकारांतर में आस्था, विशेषरूप से धार्मिक प्रतीकों से जुड़ी आस्था, सामाजिक अन्याय का पोषण करती है। असमानता को दैवीय बताकर, विषमता और अन्याय को स्वीकार्य बनाती है।
सृष्टि से परे कही जाने वाली, तथाकथित मूल कारक सत्ता का अस्तित्व कल्पना या अनुमान पर टिका होता है। तर्क के आधार पर उसे सिद्ध कर पाना संभव नहीं होता। इसलिए उसके समर्थक आस्था और विश्वास पर जोर देते हैं; तथा धर्म के नाम पर उसका मानकीकरण कर, उसे किसी भी प्रकार के तर्क और संदेह से परे मान लेते हैं। उनके तर्क बड़े ही कमजोर, ‘मानो तो देव या फिर मिट्टी का लेप’ या ‘मानो तो ईश्वर नहीं तो पत्थर’ जैसे होते हैं। यदि ईश्वर का अस्तित्व केवल व्यक्ति के मानने या न मानने पर टिका है, तो मान लेने की क्या जरूरत है? क्या जरूरत है पत्थर की शिला छाती पर रखकर कसरत का दिखावा करने की? इसके बावजूद अपने विश्वास को पुख्ता दिखाने के लिए वे तर्क का दमदार नाटक करते हैं। लोक-लुभावन किस्से-कहानियां गढ़कर प्रायः अपने समर्थक भी जुटा लेते हैं। परिणामस्वरूप नए संप्रदायों का जन्म होता है। ध्यानपूर्वक देखा जाए तो उनके तर्कों का मूलाधार उनकी आस्था होती है। वे प्रायः परंपरा की दुहाई देते हैं। ईश्वर या परमसत्ता को अनुभूति का विषय बताकर उन्हें तर्कातीत मान लेते हैं। तत्संबंधी अनुभवों का विवरण देने को कहा जाए तो सिवाय कल्पनाओं के, जिनके पीछे उनके पूर्वाग्रहों और संस्कारों का योगदान होता है—से आगे बढ़ ही नहीं पाते। उनके हर संदेह का समाधान परामानवीय होता है। वैसे भी धर्म तथा उससे जुड़ी परंपराएं मानवीय आस्था और विश्वास पर टिकी होती हैं। अपने-अपने आराध्य को बड़ा घोषित करने के लिए वैष्णव, शाक्त अथवा अन्य कोई धर्मावलंबी लंबे-लंबे तर्क दे सकते हैं। परंतु उनके तर्कों का मूलाधार उनकी आस्था ही होगी। उनके हर तर्क के साथ यह विश्वास जुड़ा होगा कि ‘मैं ऐसा सोचता हूं, इसलिए तुम भी इसपर विश्वास करो।’ वे संदेह को अज्ञान और विश्वास को ज्ञान का मूल मानते हैं। दूसरे शब्दों में उनके तर्क भी कल्पना या पूर्वानुमान पर आधारित होते हैं। गीता-रामायण पवित्र ग्रंथ हैं, यह घोषणा वे उन्हें बिना पढ़े ही कर सकते हैं। बिना यह समझे कि आस्था और पवित्रता दोनों मिथ हैं—वे उन्हें यत्नपूर्वक सहेजे रहते हैं।
दर्शनों का विकास मानवीय जिज्ञासा के भरोसे हुए है। मनुष्य अपने आसपास जो भी देखता है, उसको समझना भी चाहता है। इसलिए जिज्ञासा के मूल में अनुभव की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। यही कारण है कि प्रत्येक दर्शन के पीछे कहीं न कहीं भौतिकवादी प्रेरणा अंतनिर्हित होती है। इसे तथ्यों की मामूली पड़ताल से भी समझा जा सकता है। आरंभ में आसपास के जीवन में जो वस्तु जितनी अधिक महत्त्वपूर्ण और अपरिहार्य दिखाई पड़ती थी, उसी को जीवन का आधार मान लिया जाता था। ऋग्वैदिक मनीषी परमेष्ठिन को जब लगा कि बिना पानी के जीवन असंभव है तो उसने जल को सृष्ठि का मूल ठहरा दिया। ऐसे ही प्रकृतिवादी रैक्व ने वायु को सृष्टि का सारतत्व माना। परमेष्ठिन की भांति यूनानी दार्शनिक थेलीज भी जल को मूल तत्व मानता था। हेराक्लाइट्स का विचार था कि मूल-तत्व अग्नि है। हेराक्लाइट्स को दर्शन के क्षेत्र में अनिश्चिततावाद का समर्थक भी माना जाता है। नदी के उद्दाम प्रवाह के बीच उसे यह बोध हुआ था कि कुछ भी स्थिर नहीं है। हम एक ही नदी में दो बार स्नान नहीं कर सकते। विराट, पल-छिन परिवर्तनशील प्रकृति के सीधे सान्निध्य में रहने वाले मनुष्य के लिए इस प्रकार का बोध अस्वाभाविक नहीं था। बावजूद इसके देश-विदेश के दर्शनों में संदेहवाद खास जगह नहीं बना सका। मगर आज जब हम क्वांटम यांत्रिकी को पढ़ते हैं तो पता चलता है कि प्रकृति के सातत्य के पीछे संदेह और अनिश्चितता का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसे नकारा नहीं जा सकता। यह दर्शाता है कि ब्रह्मांड जितना दृश्यमान और ज्ञेय है, उतना अदृश्य और अज्ञेय भी है। कोरी आस्था के भरोसे उसे जानना संभव नहीं है। उसकी ओर से आंखें अवश्य मूंदी जा सकती हैं, जो मनुष्य के सहज जिज्ञासा-भाव के प्रतिकूल है। इसीलिए ब्रह्मांड की व्याख्या के नाम पर आस्थावादी जहां तरह-तरह की कहानियां गढ़कर मन बहलाते रहते हैं, वहीं अनास्थावादी ज्ञान-विज्ञान के रास्ते संदेहों के समाधान पर जोर देता है। ‘संदेह हमें जांच-पड़ताल तक ले जाते हैं। जांच-पड़ताल सत्य तक तक पहुंचने में हमारी मदद करती है’—मध्यकालीन विचारक पीटर अबेलार्ड का यह कथन उसका मार्गदर्शन करता है। उसके फलस्वरूप नए ज्ञान के रास्ते प्रशस्त होते हैं। समाज में नएपन का सम्मान बढ़ता है। यही कारण है कि आस्थावादी की अपेक्षा अनास्थावादी के तर्क ज्यादा ठोस और वस्तुनिष्ठ हो सकते हैं।
दुनिया में जितने भी धर्म-दर्शन हैं, कहीं न कहीं सब प्रकृतिवाद से पोषित और प्रभावित हैं। लगभग सभी सभ्यताओं में सूर्य को देवता माना गया है। चीन, इंडोनेशिया, जापान में सूर्य को सृष्टि का जन्मदाता मानने से जुड़ी अनेक कहानियां हैं। यूनानी पुराकथाओं का पात्र प्रोमेथियस सूर्य को सर्वेसर्वा मानता था। रामायण में आदिवासी समाज के संपाति का उल्लेख आया है। हम उसे भारतीय परंपरा के आदि-जिज्ञासुओं में से एक मान सकते हैं। संपाति को धूप-ताप उगलता सूर्य ललचाता था। वह उसे जानना-समझना चाहता था। इसलिए एक वैज्ञानिक की भांति, अंजाम की परवाह किए बगैर वह सूर्य की ओर बढ़ा था। सूर्य के करीब पहुंचने से पहले ही उसके पंख झुलस गए। संभव है भारत के लंबे सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास में संपाति जैसा कोई प्राणी रहा ही न हो। रामायण के दूसरे मिथों की भांति वह भी एक मिथ हो। इसके बावजूद संपाति की कथा का महत्त्व है। यह सूर्य के तेज पीछे निहित कारण को समझने की आदिम छटपटाहट की परिचायक है।
प्राचीन मिस्र का इख्नातून भी सूर्य से प्रभावित था। उसका विश्वास था कि सूर्य की अंतहीन ऊर्जा के पीछे कोई न कोई कारक सत्ता है। वही सूर्य के तेज की जन्मदाता है। इख्नातून ने सूर्य की अपेक्षा उसके पीछे अंतनिर्हित काल्पनिक शक्ति को पूजने पर जोर दिया जाता है। इसलिए कुछ विद्वान इख्नातून को धर्म के जन्मदाता के रूप में भी देखते हैं। कदाचित सूर्य से ही देवताओं के आकाश में स्थित होने की प्रेरणा जगी थी, लेकिन जब हम इख्नातून के उल्लेखों को देखते हैं, तो पाते हैं कि सूर्य की कारक सत्ता को पूजने के नाम पर असल में वह सूर्य की ही पूजा करता है। इख्नातून की सूर्य की प्रशस्ति में रची गई कविता प्राचीन साहित्य की धरोहर हैं—
डूब जाता है जब तू पश्चिमी आसमान के पीछे
मृत्यु समान कालिमा घेर लेती है, इस धरा को
सिंह निकल पड़ते हैं अपनी मांदों से
सांप बिलों से निकलकर डंसने लगते हैं
अंधकार का राज पसर जाता है,
सन्नाटा अपने पंजों में जकड़ लेता है धरती को
क्षितिज से निकलते ही दमक उठती है, धरा
अंधेरे का हो जाता है लोप
किरनें पसरते देख मुस्करा उठता है इंसान
जाग उठता है, अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है,
तू ही उसे जगाता है
….. …..
तू ही मां के गर्भ में शिशु को सिरजता है
आदमी में आदमी का बीज रखता है
गर्भस्थ शिशु रोये नहीं, इसलिए तू उसे प्यार से दुलराता है
धाय है तू कोख के बालक के लिए
तू ही उसे सिरजता, प्राण फूंकता है उसमें
गिरता है जब वह मां की कोख से धरा पर
उसके कंठ में आवाज भरता है तू ही।
भौतिकवादियों ने पृथ्वी जल, वायु और आकाश इन चार तत्वों को जीवन का स्रोत माना। याज्ञवल्क्य जैसे प्रत्ययवादियों ने इसमें आकाश को भी जोड़ दिया। फिर भी मौटे तौर पर देखा जाए तो अनीश्वरवादी भौतिकवादी दर्शनों तथा आस्तिक दर्शनों में बहुत अंतर नहीं है। भौतिकवादी प्राकृतिक शक्तियों से सीधे संबोधित होते हैं। उनके लिए प्रकृति अपने सहज निरपेक्ष भाव से क्रियाशील रहती है। वह आकर्षक और आत्मीय है तो वीभत्स और डरावनी भी है। उनके अनुसार अच्छा समाज केवल नैतिकता के भरोसे गढ़ा जा सकता है। बैंथम जैसे विचारक विधि शासित राज्य की अनुशंसा करते हैं। ऐसा समाज जो ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ के सिद्धांत पर गढ़ा गया हो। जिसमें मनुष्य अपने साथ-साथ दूसरों के सुख का भी ख्याल रखे। दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करे, जैसा वह उनसे अपने प्रति चाहता है।
आस्तिक के लिए धर्म ही नैतिकता है और उसके द्वारा कल्पित देवता नैतिकता का स्रोत। जीवन की अनिवार्यता होने के कारण प्रकृति को नकार पाना उनके लिए भी संभव नहीं है। अंतर केवल इतना है कि वे प्राकृतिक शक्तियों पर सीधे विश्वास न करके, उनके पीछे की कारक सत्ता पर, जो किसी के लिए भी अनदेखी-अजानी है और कल्पना से परे जिसका कोई महत्त्व नहीं है—को ज्यादा महत्त्व देते हैं। चूंकि उन काल्पनिक शक्तियों को सीधे-सीधे नहीं समझा जा सकता, इसलिए वहां आस्था को अपरिहार्य मान लिया जाता है। ठीक ऐसे ही जैसे इख्नातून ने करीब 3300 वर्ष पहले किया था। हर आस्तिक की स्थिति इख्नातून जैसी होती है, जो सीधे नजर आ रही प्राकृतिक सत्ता के बजाय उसकी कारक सत्ता के रूप में काल्पनिक देवता को ले आता है। परिणामस्वरूप अग्नि का स्वामी अग्निदेव को मान लिया जाता है, वायु का मरुत। हिंदू धर्म में चराचर जगत में नजर आने वाली प्रत्येक वस्तु के लिए एक देवता कल्पित है। नास्तिक गंगा को महज नदी मानता है। आस्तिक गंगा में स्नान करता है, लेकिन पूजता किसी काल्पनिक ‘देवी’ को है। उसके आस्थालोक की नदी, कभी प्रदूषित नहीं होती। परंपरा और संस्कृति के नाम पर वह उसमें रोज अपशिष्ट बहाता है और धार्मिक होने का ढोंग पाले रहता है।
नास्तिक के लिए भौतिक पदार्थों की सत्ता स्वतः प्रामाणित होती है। उसके लिए जो दिखता है, वही सत्य है। आस्तिक दृश्यमान भौतिक जगत को माया कहता है। सांसारिक सुख उसे छलावा और भरमाने वाले लगते हैं। उनके प्रति अनुराग भव-प्रपंच में फंसना है। यह धारणा परिवेश के प्रति अलगाव को जन्म देती है। उससे मुक्ति के लिए वह अधिदैविक शक्तियों को खुश करने की कोशिश में लगा रहता है। इससे उसके श्रम और विवेक का बड़ा हिस्सा अनुत्पादक कार्यों में खर्च होने लगता है। नास्तिक के लिए मानवजीवन का उद्देश्य अपने और समाज के सुख के स्तर में वृद्धि करना है। इसके लिए समाज के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण आवष्यक है। वह आस्तिक की भांति माया कहकर संसार के अस्तित्व को नकारता नहीं है। उन्हें उसी रूप में स्वीकारता है, जैसे वे दिखाई पड़ते हैं। नास्तिक जल को जीवनोपयोगी तत्व मानता है। आस्तिक के लिए जल वरुणदेव की अनुकंपा है। उनकी कृपा बनी रहे, तो जल का अभाव न होगा। यह धारणा अनेक पर्यावरणीय समस्याओं को जन्म देती है। इस आस्था के साथ कि देवताओं की अनुकंपा जब तक है, सब मंगल होगा, आस्थावादी पर्यावरण संबंधी समस्याओं से मुंह फेरे रहते हैं। चूकि धर्म का राजनीतिक पक्ष भी है, इसलिए लोगों की नाराजगी से बचने के लिए सरकार भी धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने से बचती है।
मनुष्य की पहुंच से परे, काल्पनिक सत्ता को सर्वेसर्वा मानते ही मनुष्य का जीवन के प्रति पूरा नजरिया बदल जाता है। वहां मनुष्य और उसके कर्तव्य के बीच तीसरी सत्ता के रूप में ईश्वर आ जाता है, मानव-समाज से ज्यादा देवता महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। अपने आसपास के लोगों को सुखी एवं संतुष्ट देखने के बजाए मनुष्य काल्पनिक शक्तियों को खुश करने में जुट जाता है। सामाजिक संबंध गौण होने लगते हैं। काल्पनिक सुखों की चाहत में वह छायाओं के पीछे भागने लगता है। संसार को माया समझकर, छाया के पीछे भागने की प्रवृत्ति मनुष्य को परिवेश के प्रति उदासीन और स्वार्थी बनाती है। रोज-रोज धर्म-कर्म, पूजा-पाठ में लीन रहने वाला आस्तिक शनैः-शनैः यह विश्वास करने लगता है कि उसपर उसके आराध्य की विशेष कृपा है। इस कारण वह बाकी लोगों से उत्तम और आराध्य के करीब है। धीरे-धीरे यह विशिष्टताबोध उसके व्यवहार का हिस्सा बन जाता है। धार्मिक आख्यानों में निष्कर्ष केवल थोपे जाते हैं। विपरीत विचारधारा से संवाद की उनमें कोई कोशिश नहीं होती, इसलिए खास किस्म की अलोकतांत्रिक जड़ता उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बनती चली जाती है। यदि जातिगत पूर्वाग्रह भी इसमें मिल जाएं तो स्थिति करेले और नीमचढ़े जैसी हो जाती है। उसके प्रभाव में समाज कुछ लोगों की मर्जी से चलने लगता है। बहुसंख्यक वर्ग के विवेक, इच्छाओं और सपनों की उपेक्षा होने लगती है। परिणामस्वरूप समाज में ऊंच-नीच का अनुपात बढ़ता ही जाता है। कालांतर में वह अनेक अंतर्द्वंद्वों को जन्म देता है। समाज में नए ज्ञान को आत्मसात करने की प्रवृत्ति कम होने से रूढ़ियों और आडंबरों में वृद्धि होने लगती है। सामाजिक विकास थम-सा जाता है।
इसका आशय यह नहीं है कि आस्था सदैव नकारात्मक होती है। जीवन में उसकी कोई भूमिका नहीं है। चूंकि मानव जीवन की सीमा है, इस कारण उसकी बुद्धि की भी सीमा है। प्रकारांतर में वही सीमा समाज की भी है। मनुष्य और समाज दोनों स्थायित्व चाहते हैं, इसके लिए कुछ मर्यादाओं का होना आवश्यक है। इसलिए प्रत्येक समाज अपने स्थायित्व और पहचान के लिए कुछ मूल्यों का निर्धारण करता है। चाहता है कि उसकी प्रत्येक इकाई उनमें विश्वास रखे, उनका पालन करे। समाज की सुख-शांति के लिए उन मूल्यों के प्रति सदस्य इकाइयों का विश्वास आवश्यक है। लेकिन अपनी आस्था को सर्वोपरि मान, दूसरे के विश्वासों का निरादर करना, सांप्रदायिक अस्थिरता पैदा करता है। इसलिए आवश्यक है कि मनुष्य अपनी आस्था के साथ दूसरों की आस्था का भी सम्मान करे। पारंपरिक धर्म इसकी इजाजत नहीं देते। क्योंकि लंबे समय में उनके बीच ऐसा वर्ग पनप चुका होता है जो यथास्थिति बनाए रखने में ही अपना स्वार्थ देखता है। हिंदू वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार यह ब्राह्मण है, जो वर्गीय स्वार्थों की सुरक्षा के लिए जातिवाद का समर्थन और पोषण करता है। वह धार्मिक आस्था और तत्संबंधी कर्मकांडों को किसी भी प्रकार के संदेह और संशोधन से परे मान लेता है। इस तथ्य को नजरंदाज कर देता है कि आस्था और विश्वास किसी वस्तु, विचार, प्रतीक, लौकिक या तथाकथित पारलौकिक शक्ति के प्रति संवेदनमात्र होते हैं, जो वस्तु-विशेष के प्रति कौतूहल तो जगा सकते हैं, स्वयं ज्ञान नहीं होते।
उदाहरण के लिए हिंदू धर्म में मूर्तियों के प्रति आस्था(संवेदन) को ज्ञान मान लिया जाता है। प्रकट में कहा जाता है कि मूर्ति देवता न होकर उसका प्रतीक मात्र होती है। मनुष्य अपने विवेक, कल्पनाशक्ति और अनुभवजन्य बोध से उस मूर्ति के पीछे निहित सत्य, जिसके प्रतीक स्वरूप उसे गढ़ा गया है—को प्राप्त कर सकता है। लेकिन यह केवल सैंद्धांतिक रह जाता है। व्यवहार में मूर्ति ही सबकुछ मान ली जाती है। पुजारी के लिए मूर्ति और मंदिर उसकी विशिष्ट सामाजिक प्रस्थिति, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा के साथ-साथ आजीविका का आधार भी होते हैं। वह मूर्ति को नहलाता, धुलाता, भोग लगाता और समय-समय पर वे सभी काम करता है, जिन्हें वह तथाकथित देवता के नाम पर करना चाहता है। मूर्ति के अवमानना को वह देवता और प्रकारांतर में धर्म का अपमान समझता हैं। आडंबरों के चलते मूर्ति केवल प्रतीक नहीं रह पाती। चूंकि समाज में धर्म-शास्त्रों की व्याख्या उनके पठन-पाठन का अधिकार स्वयं ब्राह्मण ने कब्जाया हुआ है और मानव जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक, कदम-कदम पर उसकी भूमिका है, इसलिए पुजारी के कथन और उसके सभी कर्मकांडों पर जनसाधारण आसानी से विश्वास कर लेता है।
आस्था के अतिरेक में, मूर्ति को देवता मान लेने से आस्था के प्रभाव और भी विकृत हो जाते हैं। विशेषरूप से उन लोगों के लिए जो विभिन्न प्रकार के समाजार्थिक शोषण का शिकार रहे हैं। इसका असर जातिवाद से प्रभावित वर्गों में देख सकते हैं। उनीसवीं और बीसवीं शताब्दी में दलितों और पिछड़ों में जागृति लाने में महामना ज्योतिराव फुले, डा. आंबेडकर, ई. वी. रामास्वामी नायकर आदि ने अनथक संघर्ष किया था। जातिवाद से मुक्ति के लिए इन सभी ने तंत्र-मंत्र, मूर्ति-पूजा जैसे ब्राह्मणवादी औजारों से मुक्ति को आवश्यक माना था। वे चाहते थे कि दलित और पिछड़े अधिकाधिक शिक्षा ग्रहण करें। ब्राह्मणवाद के चंगुल से बाहर आने के लिए उसके द्वारा थोपे गए सभी कर्मकांडों का बहिष्कार करें। शताब्दियों से ब्राह्मणवाद के दमन के चलते उनसे अनुकूलित हो चुकी चेतना का ही असर है कि दलितों और पिछड़ों में जातिभेद आज भी बरकार है। ब्राह्मणवाद से मुक्त दिखने के लिए वे फुले और आंबेडकर की मूर्तियां बस्तियों में लगा लेते हैं, और बजाय इन महापुरुषों के लिखे हुए को पढ़ने के, उनकी मूर्तियों की वैसी ही पूजा-अभ्र्यना करते हैं, जैसा पुजारी मंदिर में करता है। ब्राजील के शिक्षा शास्त्री पाब्लो फ्रेरा के अनुसार परिवर्तन के आरंभिक चरण में उत्पीड़ित, उत्पीड़क की भूमिका में आने की कोशिश करता है। वह उन्हीं गतिविधियों को दोहराता है, जिन्हें उत्पीड़क अपना वर्चस्व दर्शाने के लिए करता है. इससे परिवर्तन की गति धीमी पड़ने लगती है। प्रतिक्रियावादी शक्तियों को नए सिरे से, नई ताकत और रणनीतियों के साथ उभरने का अवसर मिल जाता है।
आमूल परिवर्तन के लिए आवश्यक है कि समाज विशेष के महापुरुषों की चेतना, उसके प्रत्येक नागरिक की चेतना का अनिवार्य हिस्सा बन जाए। यह कार्य डा. आंबेडकर, फुले, पेरियार जैसे महापुरुषों के प्रति कोरी आस्था द्वारा संभव नहीं है। उसके लिए आवश्यक कि उन्हें आदर्श मानने वाले लोग वैसी ही चेतना से लैस हों। कुछ लोग कह सकते हैं कि महापुरुष रोज-रोज पैदा नहीं होते। हर व्यक्ति उनके जैसा नहीं बन सकता। हम मान लेते हैं। पर इतना तो कोई भी कर सकता है कि दूसरों की नकल करने, उनके कहे अनुसार आचरण करने के बजाए, व्यक्ति अपने विवेक का अधिकाधिक इस्तेमाल करे। दूसरों की बातों में आने के बजाय खुद फैसला करने की आदत डाले। यदि किसी को गीता या रामचरितमानस में कोई आदर्श नजर आता है, तो बजाय पंडा-पुरोहित के बहकावे में आने के स्वयं पढ़कर उनके बारे में अपनी राय बनाए। साथ में वह सब भी पढ़े जो इन धर्मग्रंथों की आलोचना में महापुरुषों ने कहा था।
सारतः, आमूल परिवर्तन की इच्छा रखने वाले बहुजन समाज के लिए, जड़ आस्था चाहे वह खास मूल्यों के प्रति हो या महापुरुषों के प्रति—किसी काम की नहीं है।
ओमप्रकाश कश्यप