सहविधान : एक विकल्प

धर्म और अभिजन संस्कृति7

आप जिसे संविधान कहते हैं, मैं उसको सहविधान के रूप में देखना चाहूंगा. सहविधान ही क्यों? क्या अंतर है दोनों में? संविधान की भांति सहविधान के गठन में भी नागरिकों की सहमति होती है. उसे भी जनसहमति पर उनके प्रतिनिधियों द्वारा बनाया जाता है. बनाने के पहले लंबी चर्चां, विचारविमर्श होते हैं. बन जाने के बाद भी उसपर विचार किया जा सकता है. आवश्यकता पड़ने पर संशोधन मंजूर होते हैं. तदनंतर सर्वसम्मति अथवा बहुमत के आधार पर ही उसको लागू किया जाता है. इस प्रकार संविधान अपने नागरिकों की सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति होता है. एक ऐसा अनुबंध जिससे राष्ट्र और नागरिक दोनों बंधे होते हैं. संविधान में उनके कर्तव्यों एवं अधिकारों की सुस्पष्ट व्याख्या होती है. अपेक्षा की जाती है कि दोनों अपने कर्तव्य के प्रति सत्यनिष्ठ रहकर प्रदत्त अधिकारों का व्यापक लोकहित में उपयोग करेंगे. इन व्यवस्थाओं के बाद प्रकटतः उसमें कोई झोल नहीं रह जाता. उसमें विश्वास करना राष्ट्रभक्ति का परिचायक माना जाता है और अविश्वास राष्ट्रद्रोह. लागू संविधान में संशोधनों की प्रक्रिया यद्यपि बहुत लंबी और जटिल होती है, तथापि असहमति और अस्वीकारों के बावजूद, संविधान के प्रति सम्मान बनाए रखना राष्ट्रीय भावनाओं का प्रतीक माना जाता है.

इसके बावजूद सहविधान की मेरी कल्पना संविधान से मेल नहीं खाती. हालांकि संविधान भी मेरी परिकल्पना के सहविधान की भांति खुली व्यवस्था है. जिसे सर्वसम्मति अथवा बहुमत की स्वीकृति के उपरांत लागू किया जाता है. उसमें भी संशोधनों के लिए आवश्यक गुंजाइश होती है. संविधान भी न्याय एवं समानता की भावना से आबद्ध होता है. उसी के अनुसार उसमें समाज के विभिन्न वर्गों, संस्थाओं और समूहों के अधिकारों एवं कर्तव्यों की सुस्पष्ट व्याख्या होती है. इन सब विशेषताओं के बावजूद संविधान की मूल अभिकल्पना को निर्दोष मानने में मुझे संकोच है. मेरे विचार में संविधान एक बेहद जटिल संरचना है. कुछ विशेषज्ञों को छोड़कर शेष के लिए उसे आत्मसात करना तो दूर, पढ़ना तक संभव नहीं हो पाता. सरकार की ऐसी योजना भी नहीं है कि वह संविधान के बारे में लोगों को शिक्षित करे, उन्हें उनके नागरिक धर्म से परचाए. न नागरिकों की ऐसी रुचि होती है कि संविधान को भी अपने परमप्रिय धर्मग्रंथों की बगल में जगह दें तथा संवैधानिक व्यवस्थाओं को अपने नागरिक धर्म का हिस्सा माने रहें. कई बार तो सरकार संविधान को लोकतंत्र के धर्मग्रंथ की भांति परोसती है. वह उसके प्रति उतनी ही दुराग्रही नजर आती है, जितना कोई मठाधीश धर्मग्रंथों को लेकर. अंतर केवल इतना है कि धर्माचार्य अपने धर्मग्रंथों की महत्ता से परचाने के लिए बड़े स्तर पर अभियान चलाते रहते हैं, यहां तक कि प्रचारसाहित्य को निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं, वहीं सरकार का इस ओर कोई प्रयास नहीं होता. इस उद्देश्य के लिए गठित संस्थाएं भी अधिकारियों की काहिली, अदूरदर्शिता तथा सरकार की उपेक्षा के चलते प्रभावहीन सिद्ध होती हैं. पर्याप्त चर्चाविमर्श के अभाव में संविधान अभिजात्य तानाशाही का मूकदृष्टा बनकर रह जाता है. उसका महत्त्व मठों में संरक्षित उस धर्मग्रंथ की तरह होता है जो सिर्फ इसलिए मान्य होता है कि कुछ लोगों ने जिन्हें हम बड़ा मानते है, उसको विशिष्ट माना और अपनाया है. इस धारणा के चलते लोग निजविवेक से काम लेना बंद कर देते हैं. उनकी वृत्ति अनुसरणात्मक हो जाती है. यह वृत्ति समाज के बड़े हिस्से को उसके बौद्धिक सामर्थ्य का उपयोग करने से रोकती है. उसका नुकसान व्यक्ति एवं समाज दोनों को उठाना पड़ता है.

संविधान और उसके तहत गठित संस्थाएं पेशेवर बुद्धिजीवियों को जन्म देती हैं. इससे विशेषज्ञ संस्कृति पनपने लगती है. पेशेवर बुद्धिजीवियों की कमजोरी होती है कि वे मानवीय विवेकीकरण के प्रत्येक आयोजन को निजी लाभ की दृष्टि से देखते हैं. और जिस दिशा में उन्हें लाभ दिखाई दे, अपने बुद्धिविवेक के अनुसार संविधान की वैसी ही व्याख्याएं करने लगते हैं. संविधान सम्मत भारीभरकम संस्थाओं के औचित्य का वे जमकर समर्थन करते हैं, इसलिए कि वे संस्थाएं उनकी स्वार्थसिद्धि का खूबसूरत ठिकाना सिद्ध होती हैं. वे उन्हें भले ही लोकहित से जोड़कर देखते हों, किंतु उनका बड़ा श्रम निजी हितों की सुरक्षा करने में ही खप जाता है. उनके नेतृत्व में संवैधानिक संस्थाओं में वर्गीय सोच पनपने लगता है. परिणामस्वरूप उनके न्याय का पलड़ा समाज के प्रभुवर्ग की ओर झुक जाता है. इस प्रकार वे सकल राष्ट्रीय उत्पाद के बड़े हिस्से को अपने अधिकार में रख लेते हैं. मूल संवैधानिक प्रावधान भले ही इसका विरोध करते हों, किंतु खरीदे गए बुद्धिजीवियों की टीम उनकी मनमानी व्याख्या कर माहौल को उनके अनुकूल बनाए रखती है.

लोकतंत्र के सफल संचालन, कल्याण के समविभाजन तथा न्यायाधारित राज्यों की स्थापना हेतु ऐसे भारीभरकम संविधान भले ही अपरिहार्य माने जाते हों, लेकिन यह भी सच है कि उनकी उलझी हुई कानूनी व्याख्याएं कथित कल्याण राज्यों में, जहां संपत्ति और अधिकारों के विभाजन में ढेर सारा अंतर और अनियमितताएं हों, वहां जनसाधारण के हित में उन्हें लागू कर पाना असंभवप्रायः होता है. ऐसे समाजों में सरकारी उदासीनता और जनसाधारण में अधिकारचेतना की कमी के चलते, संवैधानिक व्यवस्थाएं अल्पसंख्यक अभिजन समाज के एकाधिकार के समर्थन में उतर आती हैं. उसकी अगली परिणति बहुसंख्यक जनसमाज पर अल्पसंख्यक अभिजन वर्ग की तानाशाही के रूप में होती है. परिणामस्वरूप संविधान में अंतनिर्हित न्याय और समानता की भावना बहुत पीछे छूट जाती है. संविधान, विशेषरूप से लोकतांत्रिक देशों के संविधान के पक्ष में यह कहा जा सकता है कि वे सामाजिक असमानता का प्रकटतः समर्थन नहीं करते. लेकिन यह भी उतना ही सही है कि उनके अधीन बनी कथित लोकतांत्रिक सरकारें वर्गीय असमानता को दूर करने के गंभीर प्रयासों से सुरक्षित दूरी बनाए रखती हैं, जिससे आमजन और न्याय के बीच की दूरी निरंतर बढ़ती जाती है.

एक बार लागू हो जाने के बार राष्ट्र अपने नागरिकों को निर्दिष्ट करता है कि वे संविधान के अनुबंधों का अक्षरशः पालन करें. यदि कोई उल्लंघन करता है तो उसे कानूनी उलझनों का सामना करना पड़ता है. आशय है कि लागू होने के तुरंत बाद संविधान ऐसा बंद निकाय बन जाता है, जिसके प्रति श्रद्धा राष्ट्रभक्ति तथा संदेह राष्ट्रद्रोह मान लिया जाता है. सरकार और शीर्ष पर विराजमान अल्पसंख्यक अभिजन की कोशिश होती है कि लोग संविधान को चाहे पढ़ें या न पढ़ें, उसके पालन में जराभी कोताही न बरतें. संविधान के प्रति उनकी अंधश्रद्धा ठीक वैसी ही होती है, जैसी धार्मिक संस्थाओं की अपने विश्वासों को लेकर. इसके फलस्वरूप अंधश्रद्धा का कारोबार करने वाले लोगों की बन आती है. लोकतांत्रिक छूटों का सहारा लेकर स्वार्थी राजनीतिक दल, कभी लोकहित तो कभी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा लगाते हुए सत्ता में चले आते हैं. प्रकारांतर में वे समाज के वर्गीय विभाजन की जड़ों को मजबूत करने का काम करते हैं, जिससे सामाजिक अंतर्द्वंद्वों को जमीन मिलती है, राष्ट्र विकास की पटरी से उतरकर अंतर्द्वंद्वों के दिखावटी समाहार में जुट जाता है. चूंकि राष्ट्र का संचालन कर रही शक्तियों में अधिसंख्यक लोग अल्पसंख्यक अभिजन वर्ग से संबंधित होते हैं, इसलिए उनका स्वाभाविक झुकाव समाज के शीर्षस्थ वर्गों के हितसंरक्षण की ओर होता है. नतीजा यह होता है कि उत्पीड़ित वर्ग के पक्ष में न्याय की संभावना और भी कम हो जाती है.

एक और बात भी ध्यान देने योग्य है. अभी तक के अनुभव से यह प्रमाणित हुआ है कि संविधान की जरूरत प्रायः उन्हीं समाजों में ज्यादा पड़ती है, जहां आर्थिकसामाजिक स्तर पर भारी असमानताएं हों, सामाजिक न्यायव्यवस्था एवं संसाधनों पर मुट्ठीभर लोगों का अधिकार हो.. ऐसे समाजों में संविधान वंचित वर्ग के मन में न्याय की उम्मीद जगाता है. इसलिए नहीं कि संविधान ऐसा करने में सर्वथा सक्षम होता है. बल्कि इसलिए कि शताब्दियों लंबी राजनीतिकमानसिक दासता के चलते आमजन का आत्मविश्वास बुरी तरह डगमगाया होता है. उसका आंतरिक बिखराव, अपने ही जैसे लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा एवं तज्जनित अंतर्द्वंद्व भी उसे मानसिक रूप से डावांडोल रखते हैं. आपसी सूझबूझ एवं संगठनसामर्थ्य के बल पर वह परिवर्तनचक्र को अपने बलबूते नई दिशा दे सकता है—आत्मविश्वास की कमी के चलते इसका उसे ख्याल तक नहीं आता. इसलिए लोकतंत्र का सहारा लेकर वह अपना नेतृत्व अपने प्रतिनिधियों को सौंप, स्वयं नेपथ्य में चला जाता है. यह अस्वाभाविक भी नहीं है. लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाने वाले समाजों में, लंबी सामंती दासता से उबरने के बाद जनसाधारण के विवेकीकरण का यह पहला चरण होता है. विवेकीकरण के दूसरे चरण में लोग समझने लगते हैं कि अपने दैन्य से उबरने के लिए उन्हें स्वयं आगे आने आना होगा. इस बोध के पश्चात, अभिजन प्रतिनिधियों के बजाय वे अपने ही समूह के सदस्यों पर विश्वास करने लगते हैं. तदनंतर कॉमन समस्याओं की पहचान की जाती है. उसके बाद ही परिवर्तन की वास्तविक शुरुआत संभव हो पाती है. संविधान की परिकल्पना इसी आदर्श को सामने रखकर की जाती है. लेकिन इतिहास में ऐसा उदाहरण दीया लेकर खोजने पर भी नहीं मिलेगा जहां संविधान दूसरे चरण में सफल हो पाया हो. लोकतंत्र के पहले चरण में शीर्ष पर विराजमान शक्तियां समस्त सत्ताकेंद्रों पर अपना अधिकार जमाकर उन्हें ऐसी दिशा देने में कामयाब हो जाती हैं, जो संविधानसम्मत विकास की मूल भावना से एकदम परे होती है. इससे जनसाधारण के लिए दिल्ली उत्तरोत्तर दूर होती जाती है.

संविधान प्रायः उन अर्धलोकतांत्रिक अथवा सामंती समाजों में अपनाया जाता है, जिनमें अत्यधिक आर्थिकसामाजिक विषमताएं और अंतर्द्वंद्व हों. सार्थक विकल्पों के अभाव में संविधान निर्माताओं को उम्मीद होती है कि उसकी मदद से वे समाज के वंचित वर्गों को एकजुट कर उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और संप्रेरित कर सकेंगे. व्यवहार में उसके एक छोर पर पर वे लोग होते हैं जो संविधान की धाराओं का जोड़तोड़ द्वारा अपने पक्ष में उपयोग करने में सक्षम होते हैं. संविधान विशेषज्ञों की बड़ी फौज उनकी मदद को तैयार होती है. दूसरी ओर साधारणजन रहता है, जिनके हितरक्षण हेतु संविधान विशिष्ट प्रावधानों का दावा करता है. विडंबना यह है कि संविधान को समझने तथा उसकी व्यवस्थाओं का लाभ उठाने के लिए यह वर्ग पूरी तरह समाज के प्रभुवर्ग पर आश्रित होता है. इस कारण वह संविधान प्रदत्त लाभों से वंचित रह जाता है. लंबे शोषण एवं उत्पीड़न के दौरान ऐसे क्षण अकसर आते हैं जब जनसाधारण को अपने छले जाने का बोध हो और उसे शीर्षस्थ वर्ग की मनमानी अखरने लगे. लेकिन उपयुक्त नेतृत्व एवं प्रेरणाओं के अभाव में जनगणमन की यह कचोट सार्थक आक्रोश में ढलने में नाकाम सिद्ध होती है. यदि असंतोष की चिंगारी उठे भी तो यथास्थिति बनाए रखने के लिए समाज का प्रभुवर्ग तानाशाहीपूर्ण आचरण पर उतर आता है.

उल्लेखनीय है कि संविधान के जटिल प्रावधान व्यापक लोकहित की दुहाई देते हुए बनाए जाते हैं. चूंकि जिनके नाम पर वे प्रावधान होते हैं, विभिन्न कारणों से वे उन्हें समझ पाने में असमर्थ होते हैं, इसलिए आवश्यकता पड़ने पर उन्हें अभिजन विशेषज्ञों की शरण में जाना ही पड़ता है. विभिन्न दबावों के बीच जनसाधारण को अभिजन वर्ग के तानाशाही पूर्ण आचरण का विरोध करने की न तो छूट होती है, न इसका उन्हें अवसर मिल पाता है. इस अवस्था में संविधान केवल दिखावे और मनबहलाव की चीज बनकर रह जाता है.

सहविधान

सवाल है कि सहविधान और संविधान को अलगअलग करके कैसे देखा जाए? दोनों एकदूसरे से कहां मिलते और किन बिंदुओं पर अपनी स्वतंत्र राह ले लेते हैं? उनके संधिस्थल एवं विरोधबिंदुओं की पहचान कैसे की जाए? यह बहुत उलझनवाली बात भी नहीं है. संविधान को हम लोकतंत्र का संरक्षक कह सकते हैं. जबकि सहविधान न केवल लोकतंत्र के जिम्मेदार संरक्षक का दायित्व निभाता है, बल्कि लोगों की जीवनशैली में ढलकर मनोभौतिक एवं समाजार्थिक विकास का वातावरण तैयार करता है. दूसरे शब्दों में सहविधान ‘अपूर्ण लोकतंत्र’ से ‘संपूर्ण जनतंत्र’ को प्राप्त करने की यात्रा है. इसके लिए व्यक्ति और समाज दोनों के विवेकीकरण एवं सामंजस्यपूर्ण प्रयत्न आवश्यक होते हैं. सहविधान चुनींदा व्यक्तियों अथवा घटकों के नेतृत्व में होने वाली प्रयाण यात्रा, जिसमें कुछ अतिसक्रिय लोग, लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बूते आगे बढ़कर राज्य की बागडोर संभाले रहते हैं, तथा पूरा समाज शासक और शासित में बंटा होता है—से पूरी तरह भिन्न है.

सहविधान में प्रत्येक व्यक्ति अपने परिवार, समाज और फिर राज्य के साथ पूरे जोश एवं उछाह से जुड़ा होता है. उसमें न कोई बड़ा होता है न छोटा. न निदेशक होता है न ही निदेशित. यदि कुछ अंतर हो भी तो वह परिस्थितिगत होता है. जिसे पाटने की भरपूर स्वतंत्रता और समूह के सदस्यों का संपूर्ण भरोसा, उस सदस्य को सहज प्राप्त होता है. दूसरी ओर संविधान में वर्णित लोक एक अमूर्त्त धारणा है. सहविधान लोकतंत्र पर जनतंत्र को वरीय बनाकर उसे लौकिक संस्कार देता है. फलस्वरूप वह राजनीति का ऐसा विधान बन जाता है, जिसमें राज की समस्त शक्तियां निचुड़कर उसकी सदस्य इकाइयों के हाथों में चली आती हैं और समाजदेश के समस्त कार्यकलाप जनसंगठनों द्वारा संचालित पूर्णतः विकेंद्रीकृत संस्थाओं और दलों द्वारा संपन्न होने लगते हैं. दूसरे शब्दों में सहविधान, संविधान में फलनेफूलने वाली विशेषज्ञ संस्कृति को जनसंस्कृति में परिवर्तित कर देने वाली युगांतरकारी यात्रा का प्रबंधकाव्य है, जिसकी रचना जनता द्वारा अपने सहज विवेक और समन्वयकारी चेतना के बल पर की जाती है.

लोकतांत्रिक समाजों में ऐसे क्षण प्रायः आते हैं जब संविधानप्रदत्त छूटों का लाभ उठाते हुए विशेषज्ञ शक्तियां निर्णायक पदों पर विराजमान हो जाती हैं और वे शेष समाज का संचालन निहित स्वार्थ के अनुसार करने लगती हैं. वे ऐसा वातावरण रचते हैं जिससे शासित जनसमाज के लिए उनके शीर्षत्व को चुनौती देना असंभवप्रायः हो जाए. परिणामस्वरूप वहां धार्मिक और समाजार्थिक स्तरीकरण पनपने लगता है. जनचेतना के अभाव में वह निरंतर बढ़ता ही जाता है. सहविधान में अधिकारों एवं कर्तव्यों का नियोजन इस प्रकार होता है कि वहां कोई भी व्यक्ति अपने पद, प्रतिष्ठा, धनसंपदा, रंग, पारिवारिक हैसियत, कुल, गौत्र, जाति, लिंग अथवा किसी भी अन्य लौकिक कारण से दूसरों पर अधिपत्य जमाने की स्थिति में नहीं रहता. प्रत्येक नागरिक इस भावना से बंधा होता है कि उसका अस्तित्व दूसरों पर निर्भर है. इसलिए अपने सुखसम्मान को पाने का एकमात्र रास्ता है कि दूसरों के सुख और सम्मान का ख्याल रखा जाए. जनसंस्कृति की यह अंकुराहट कालांतर में समानतावादी, समरस समाज की स्थापना के लक्ष्य को पाने में सहायक होती है.

सहविधान का उद्देश्य है औपचारिक सरकार के लिए अवसरों को शून्य की स्थिति में ले आना. एकएक कर उन सभी कारणों का उन्मूलन जो सरकार की सर्वस्वीकार्यता को अनिवार्य बनाते हैं. यह तभी संभव है जब लोग जागरूक और आत्मानुशासित हों. वे यह भलीभांति जानते हों कि उनके विकास, शोषण एवं उत्पीड़न से मुक्ति के लिए कोई उनकी मदद को आगे आने वाला नहीं है. इसके लिए उन्हें स्वयं प्रयास करना होगा. वर्गीय हितों को पहचानकर उन लोगों के साथ मिलजुलकर आगे बढ़ना होगा, जो उन्हीं भांति शोषित और उत्पीड़ित हैं. उन लोगों के साथ साझा करना करना जो उन्हीं के समान परिस्थितियों में जी रहे हैं. हो सकता है कि इतिहास में कुछ ऐसे उदाहरण उन्हें मिलें जब किसी महापुरुष ने वर्गीय हितों से ऊपर उठकर जनसामान्य के कल्याण के लिए ईमानदार प्रयास किए हों और उनसे समाज वास्तविक परिवर्तन की डगर पर आगे बढ़ा हो. ऐसे महापुरुषों के प्रति सम्मान व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है. लेकिन यह समझना भी जरूरी है कि महापुरुषों के उत्तराधिकारी लंबे समय तक अपने कर्तव्य और सोच के प्रति ईमानदार नहीं रह पाते. वे महापुरुष के आदर्शों का मिथकीकरण कर, उन्हें बड़ी आसानी से अपने वर्गीय हितों के समर्थन में उतार देते हैं. ऐसे माहौल में आमूल परिवर्तन की संभावना कमजोर पड़ती जाती है. जनसामान्य को यह हकीकत बहुत देर से समझ में आती है कि वास्तविक एवं स्थायी परिवर्तन तभी संभव है जब समाज और व्यवस्था का नियंत्रण उसके अपने हाथों में हो.

सहविधान का आशय ऐसी व्यवस्था से भी है जिसमें सबकी स्वैच्छिक सहभागिता हो. इस उत्तरदायी तंत्र के एक छोर पर मनुष्य होगा. अपनी स्वतंत्रता, मर्यादा, इच्छाआकांक्षा, कर्तव्यनिष्ठा से युक्त स्वतंत्र, विवेकवान इकाई. दूसरे छोर पर समाज को रखा जाएगा. विभिन्न वर्गों, क्षेत्रीय विषमताओं, संस्कृति, धनसंपदा के साथ अनेकता में एकता तथा सामूहिक विवेक की प्रतीति कराता मानव समुदाय. यहां समाज की मेरी कल्पना वैसी नहीं है जैसी इसे सामान्यतः समझा जाता है. प्रायः समाज को व्यक्ति से बड़ा माना जाता है. अपने भीतर अनेक मानव इकाइयों को समाहित रखने के कारण कदाचित वह बड़ा है भी. अनेक एकल इकाइयों के हित जुड़े होने के कारण समाजहित में व्यक्ति का बलिदान करना प्रशंसनीय कर्तव्य माना जाता रहा है. किंतु यदि स्वतंत्रता के लिहाज से देखा जाए तो सहविधान में जितनी स्वतंत्रता समाज के लिए जरूरी है, उतनी ही जरूरी व्यक्ति की स्वतंत्रता भी है. स्वतंत्रता के मामले में सहविधान में व्यक्ति दूसरे पक्ष यानी समाज से न एक अंश कम होगा, न एक अंश ज्यादा. उनकी स्वतंत्रता अपनीअपनी जगह पूर्ण, समानांतर और महत्त्वपूर्ण मानी जाएगी.

पूर्ण स्वातंत्र्य एवं सहअस्तित्व के लिए दोनों यह स्वीकार करेंगे कि उनकी स्वतंत्रता एकदूसरे पर निर्भर है. सहविधान में स्वतंत्रता की कसौटी इससे तय होगी कि वह मनुष्य की प्राकृतिक स्वच्छंदता के कितनी निकट है. समाज के गठन से पहले या समाज से मुक्त होने के बाद जितनी स्वच्छंदता की कल्पना मनुष्य अपने लिए कर सकता है, वह उसको न्यूनतम कटौती के साथ प्राप्त होनी चाहिए. न्यूनतम कटौती का मापदंड समाज और मनुष्य के सहसंबंधों को स्थायी एवं उत्पादनसक्षम बनाए रखने की आवश्यकता के अनुसार तय किया जाना चाहिए. इसमें कानून और अनुशासन के नाम पर अधिकारों में कटौती न्यूनतम होगी. सहविधान अपने प्रत्येक नागरिक से यह अपेक्षा करेगा कि वह स्वयं को नैतिकता के उच्चतम मापदंड के अनुरूप मर्यादित करें और दूसरों के साथ सहयोग करते हुए समाजकल्याण की राह पर आगे बढ़े.

संक्षेप में सहविधान ‘अपूर्ण लोकतंत्र’ से ‘संपूर्ण जनतंत्र’ तक की यात्रा होगी. इस दृष्टि से देश के इतिहास में ‘बड़ा दिन’ वह होगा जब हम ‘गणतंत्र दिवस’ के स्थान पर ‘जनतंत्र दिवस’ कहकर पुकार सकेंगे तथा प्रस्तावित ‘जनतंत्र दिवस’ ‘गणतंत्र दिवस’ की भांति केवल उत्सवी आयोजन न होकर लोगों की संस्कारचेतना का हिस्सा होगा. वह कागजी व्यवस्था तक सीमित न होकर सचमुच का जनतंत्र होगा, जिसमें नागरिक अधिकारों और कर्तव्यों की व्याख्या उस अर्थ में फिजूल मानी जाएगी क्योंकि समूहसमाज के सभी सदस्य अपनेअपने कर्तव्य एवं अधिकारों के प्रति स्वतः जागरूक होंगे तथा उन्हें पाने के लिए अंतःस्फूर्त्त प्रेरणा से प्रवृत्त भी होंगे. सहविधान का मूल मंत्र होगा—‘हितों का सामान्यीकरण, अपने समूह एवं समाज के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता तथा साझा प्रयास.’ सहविधान में शिक्षा, धर्म, राजनीति, अर्थव्यवस्था, अंतराष्ट्रीय संबंध, उत्पादन, विपणन, न्याय, कानून, प्रशासन, लोकनीति आदि का स्वरूप इस प्रकार तय होगा कि वे विकास की सार्वजनीन प्रक्रिया, मानव स्वातंत्र्य तथा उच्चतम जीवनमूल्यों द्वारा परिचालित हों.

शिक्षा

शिक्षा के सामान्यतः तीन उद्देश्य होते हैं. अपने लिए, यानी अपना बौद्धिक परिष्कार. यह सोचना कि समाज के लिए स्वयं को अधिकाधिक उपयोगी कैसे बनाया जा सकता है? फिर उस दिशा में संकल्पबद्ध हो आगे बढ़ना. दूसरा अपने ज्ञान और कौशल का समाज के हित के उपयोग. तदनुसार समाज में रहते हुए अपनी उपयोगिता सिद्ध करना तथा सामाजिक विकास को गति प्रदान करना. शिक्षा का तीसरा उद्देश्य ज्ञान को सहेजने और विस्तार देने के लिए है. ये तीनों ही भेद व्यावहारिक हैं. बारीकी से सोचा जाए तो इनमें कोई अंतर है ही नहीं. समाज और व्यक्ति दोनों ही अन्योन्याश्रित हैं. एकदूसरे पर निर्भर, एकदूसरे से बंधे हुए. इसलिए उनके हित भी आपस में जुड़े हैं. व्यक्ति द्वारा अर्जित ज्ञान में समाज का भी साझा होता है. उन लोगों का भी जो कभी समाज का हिस्सा थे; और अब केवल स्मृतियों में हैं. इस तरह व्यक्ति और समाज दोनों का हित ज्ञान की सुदीर्घ परंपरा को सहेजने और उपयुक्त विस्तार देने में है. व्यक्ति की कार्यकुशलता का अधिकतम सदुपयोग समाज में रहकर ही संभव है. शिक्षा व्यक्ति को समाज के लिए उपयोगी बनाती है. उसे वह आत्मविश्वास देती है जो अच्छे और बुरे की पहचान करने और फिर अच्छाई के मार्ग पर दृढ़तापूर्वक डटे रहने के लिए जरूरी है. अच्छे से अच्छे हलवाई की सर्वश्रेष्ठ मिठाई भी तभी अपना महत्त्व रखती है, जब उसका कोई भोग करने वाला हो. अपने लिए तो कोई रोजरोज मिठाई नहीं बना सकता! फिर अच्छी मिठाई बनाने के लिए जिस सामग्री की दरकार है वह दूसरों की मदद के बिना संभव नहीं. व्यक्ति के ज्ञान, अनुभव, बौद्धिक सामर्थ्य एवं कार्यकौशल का समाज में रहकर ही उपयोग संभव है. इसी तरह किसी समाज में अनगिनत ज्ञानीध्यानी व्यक्ति हों, खूब हुनरमंद और बेमिसाल कारीगर हों, लेकिन यदि उस समाज में तालमेल का अभाव है, यदि वे अपनी ऊर्जा एकदूसरे को आगे बढ़ाने के बजाय पीछे खींचने में खपाते हैं, तो वहां के लोगों के ज्ञानानुभव और कार्यकौशल तथा समाजीकरण की प्रक्रिया का होना निरर्थक है. यानी अच्छी शिक्षा व्यक्ति को सहयोग और समभाव के दर्शन से भी परचाती है. किंतु और व्यक्ति का समाज से संबंध एकतरफा नहीं है. व्यक्ति समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई है. अतएव व्यक्ति की समाज से भी कुछ स्वाभाविक अपेक्षाएं होती हैं.

यदि कोई समाज अपने शिल्पकारों, श्रमजीवियों, कारीगरों यथा हलवाई, कुंभकार, बुनकर, राजमिस्त्री, बिजली मिस्त्री, बढ़ई, लुहार आदि की प्रतिभा को पहचानता है, मनस्वियों का सम्मान करता है, उनकी कार्यकुशलता के भरपूर उपयोग की योग्यता रखता है, उनके लिए पर्याप्त रोजगार अवसरों का सृजन करता है, यदि वह उनके विकास हेतु व्यापक योजनाएं बनाता है तथा सामूहिक प्रेरणाओं के सिद्धांत के आधार पर उनसे अधिकतम उत्पादकता हासिल करने में कामयाब भी रहता है तो यह उसकी व्यावहारिक सफलता मानी जाएगी. किंतु समाज के गठन का उद्देश्य मात्र इसी से पूरा नहीं हो जाता. न इससे समाज का वास्तविक विकास संभव है. यदि उसके सुधारों की प्रक्रिया यदि यहीं आकर विराम ले लेती है, तब यह मानना पड़ेगा कि वहां समाजीकरण की प्रक्रिया अभी अधूरी है. उसमें कहीं न कहीं खोट है. सदस्य इकाइयां और उनके संगठन सहविधान के दर्शन को समझने में नाकाम रहे हैं; तथा विकास के परम लक्ष्य को हासिल कर रहे जनसमूह के लिए समाजीकरण की कसौटी पर खरा उतरना अभी बाकी है.

आखिर क्या है समाजीकरण की कसौटी? इसकी ओर संकेत हम आरंभ में ही कर चुके हैं. समाज और मनुष्य का संबंध अन्योन्याश्रित है. मनुष्य समाज में अपने सुख की वृद्धि, शांति और समृद्धि के लिए सम्मिलित हुआ है. यह सोचकर कि जिन सुखसुविधाओं को वह स्वयं अर्जित नहीं कर सकता, उन्हें पाने में समाज उसकी मदद करेगा. समाजीकरण की प्रक्रिया के आरंभ में यही शर्त थी. बदले में व्यक्ति को समाज के साथ हितों का साझा करना पड़ता था और अपनी नैसर्गिक स्वच्छंदता के थोड़ेसे हिस्से की कुर्बानी देनी पड़ती थी. उस समय भी जिन्हें यह बंधन अस्वीकार्य था, वे समाज की जकड़न से दूर, यायावरी जीवन बिताते थे. देशविदेश का साहित्य उनके उदात्त किस्सों से भरा है. किंतु समाज से दूर रहने के बावजूद वे उसके औचित्य पर उंगली कभी नहीं उठाते थे. बल्कि उनका सारा चिंतन समाज के कल्याण के लिए होता था. दूसरे शब्दों में वे खुद को समाज नहीं, मात्र उसके प्रलोभनों से दूर रखते थे. समाज से विलग रहकर भी उसके विकास और कल्याण की चिंता उन्हें हर पल सताती थी. उनमें से कुछ तो इसलिए सामाजिक प्रलोभनों से दूर रहते थे, ताकि समाज को और भी सुंदर भी, और अधिक विकासोन्मुखी बना सकें. इस तरह उनका समाज से छिटके रहना भी लोककल्याण के निमित्त होता था. समाज से भौतिक दूरी बनाए सिद्ध यायावर, लोगों से परस्पर मिलजुलकर रहने तथा समन्वित विकास के लिए निरंतर प्रयासरत रहने की कामना करते थे—

तुम्हारा अध्यवसाय एक हो, तुम्हारे हृदय एक हों, तुम्हारा अंतःकरण एक हो, और तुम लोगों का संगठन अटूट हो.’1

ऋग्वेद की इस प्रार्थना में उदगाता ऋषि उपद्रष्टाओं के संगठित होने की कामना करता है. वहां स्पर्धा नहीं मैत्री और सहयोग का दर्शन है. इसे महाभारतकार ने कुछ अलग ढंग से कहा है. ‘न मानुषात श्रेष्ठतरं हि किंचित.’ सृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठतर कुछ भी नहीं है, कहकर वह मनुष्य को विमर्श के केंद्र में ले आता है. यह बात अलग है कि भारतीय वाङमय की, इस विरल किंतु नैतिकतावादी अवधारणाओं पर भारत में बहुत कम काम हो पाया है. उस अनुपात में तो और भी कम जितना उस दौर में चीन और प्राचीन यूनान में हुआ. पश्चिमी विचारकों में यदि हम देखें तो सुकरात, प्लेटो और अरस्तु आदि से लेकर इमानुएल कांट, स्पिनोजा, बट्रेंड रसेल, आस्कर वाइल्ड तक नैतिकतावादी चिंतन की वहां सुर्दीर्घ परंपरा रही है. चीन में भी बुद्ध के समकालीन कन्फ्यूशियस ने शिक्षा में नैतिक मूल्यों को बनाए रखने पर जोर दिया. उसका कहना था शिक्षा और ज्ञान पर सभी का समानाधिकार है. इसलिए सभी बच्चों को बगैर किसी भेदभाव के शिक्षा मिलनी चाहिए. कन्फ्यूशियस द्वारा अकेले दम पर संचालित विद्यालय में तीन हजार से ऊपर विद्यार्थी थे और वहां दर्शन, राजनीति, शिल्पकला, युद्धनीति आदि की शिक्षा दी जाती थी. ईसा से भी पांच शताब्दी पहले यह बात बहुत मायने रखती है. ‘इल्म के लिए चीन भी जाना पड़े तो जाना चाहिए.’ यह कहावत कन्फ्यूशियस जैसे महान शिक्षकों के अवदान के कारण ही बनी है. इसके पीछे उन जिज्ञासुओं का भी बड़ा योगदान था, जो कष्ट सहकर भी ज्ञान को सहेजना चाहते थे. इसके विपरीत भारत में शिक्षा पर खास वर्गों का विशेषाधिकार माना गया. ऊपर से मनुष्य की स्वाभाविक नैतिकता को धर्म से आच्छादित कर दिया गया.

व्यक्ति और समाज के बीच बेहतर तालमेल के लिए ज्ञानाधारित समाज की स्थापना कैसे संभव हो, पश्चिम में इस पर शुरू से ही विचार होता रहा है. वहां विचारकों ने लोगों के बीच रहकर शिक्षा और नीतिदर्शन के प्रसार के लिए कार्य किया. इसके लिए अपने निजी सुख यहां तक की परिवार की भी परवाह न की. यूनानी दार्शनिक सुकरात का निजी जीवन बहुत कष्टमय था. पत्नी चिड़चिड़ी थी. घर में क्लेश रहा करता था. इसके बावजूद वह अपनी शिष्यमंडली से घिरा मनुष्यता की बेहतरी की चिंता में डूबा रहता था. जिस समाज में वह रहता था, जिसके कल्याण के लिए वह हमेशा विचारमग्न रहता थाउसी ने उसे जहर पीने को विवश किया. सुकरात ने विनम्र रहकर समाज के उस अतिचार को सहा और जहर गले में उतार लिया. उस ‘शुभत्व’ की मानरक्षा के लिए जिसे वह मानवमात्र के जीवन का लक्ष्य बनाना चाहता था. सुकरात के अनुसार शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है, व्यक्ति को अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित कर उसको पाने योग्य बनाना. तदनंतर उसे अपने परमलक्ष्य यानी ‘शुभत्व’ की प्राप्ति हेतु अग्रसर करना. शुभत्व नैतिकता की चरमसीमा है, जिसमें मानवमात्र के विकास और पूर्ण कल्याण की भावना सन्निहित है.

अरस्तु ने मनुष्य को विवेकशील प्राणी कहा है. उसके अनुसार विवेक की सफलता जीवन को समग्रता से देखने में है. प्लेटो का आदर्शवाद अरस्तु की चिंतनधारा में आकर व्यावहारिक चिंतन में ढल जाता है. उसका मानना था कि शासनव्यवस्था चाहे जैसी हो, यदि वह लोककल्याण को समर्पित है, तो शुभ है. अरस्तु जीवन को समग्रता से देखता था. यह कला स्पर्धायुक्त समाजों में नहीं आती. इसलिए कि स्पर्धा समाज को बांट देती है. उसमें एकदूसरे को पीछे ढकेल, आगे निकलने की होड़ कर रहे व्यक्तियों का समूह होता है, जिनका दूसरों के सुखसुविधाओं से कोई संबंध नहीं होता. उनमें से प्रत्येक अपना स्वार्थ देखता है. दूसरों को दौड़ में पछाड़कर वह आगे निकल जाने को आतुर रहता है. सीधी तरह से काम न चले तो उसके लिए कुटिल चालें चली जाती हैं. स्पर्धा की और भी सीमाएं है. उसका लाभ हर कोई नहीं उठा सकता. उसमें बराबरी नहीं, आगेपीछे की दौड़ होती है. उस दौड़ में एक वर्ग का पीछे छूट जाना लाजिमी होता है, जिसे उस व्यवस्था की स्वाभाविक नियति मान बड़ी बेदर्दी से बिसरा दिया जाता है.

स्पर्धायुक्त समाजों में एक समूह ऐसा भी होता है, जो चाहकर भी उससे नहीं जुड़ पाता. वह खुद को अलग रखने के लिए विवश होता है. इसमें नुकसान भी उस वर्ग का अधिक होता है. इसलिए कि वह दौड़ में उतरने से पहले ही वह स्वयं को पराजित मान लेता है. स्पर्धा के एकाधिकारवादी माहौल में ऐसे लोगों के लिए न जगह होती है, न उनके प्रति किसी की सहानुभूति. ‘दौड़ में आगे रहने वाले को अधिकतम’—के सिद्धांत के चलते किसी कारणवश पीछे छूट गए समूह निरंतर पिछड़ते जाते हैं. इससे विषमता पनपती है. शिक्षा का काम ऐसे लोगों को एकजुट करना है. उनमें यह विश्वास पैदा करना है कि स्पर्धा नहीं, सहयोग के आधार पर वे आगे निकल चुके समूहों को चुनौती दे सकते हैं. उन्हें समझाया जा सकता है कि आगे निकल चुके समूह हमेशा आगे रहने वाले नहीं हैं. क्योंकि उनकी अंतहीन स्पर्धा और अंतसंघर्ष, एकदूसरे को टंगड़ी मार आगे बढ़ जाने की उनकी सहजवृत्ति, जिसे वे व्यावसायिक कौशल का नाम देते हैं—उन्हें एकदूसरे की काट करने को प्रेरित करती रहेगी. इससे शिखर पर मौजूद शक्तियों का एक न एक दिन नीचे आना तय है. आशय है कि स्पर्धायुक्त समाजों में शीर्ष पर, जहां उसके सर्वाधिक संसाधन और बौद्धिक संपदा जुटी होती हैं, वहां भी घोर अनिश्चितता का माहौल रहता है. अंतर केवल इतना है कि शीर्ष पर मौजूद लोगों के पास संसाधनों का जखीरा होता है, जरूरत पड़ने पर सरकार और अन्य संस्थाएं भी उनकी मदद को आ जाती हैं. इसलिए कड़ी स्पर्धा के बीच वे देर तक संघर्ष करने और अपनी हैसियत को बनाए रखने में सक्षम होते हैं. जबकि श्रमिक वर्ग को केवल अपने श्रम—कौशल के साथ अपने ही जैसे साधन—विपन्न लोगों से स्पर्धा करनी पड़ती है. सिवाय चंद सरकारी आश्वासनों के उनके समर्थन में कोई नहीं आता. इसलिए स्पर्धा उसके अस्तित्व के लिए चुनौती बनकर आती है. व्यावसायिक अनिश्चितता ऊपरले वर्गों को और अधिक स्वार्थी, शंकालू एवं क्रूर बनाती है. परिणामस्वरूप उनके निर्णयों में व्यावसायिक हिंसा एवं स्वार्थपरता का अनुपात बढ़ता ही जाता है. इसका नुकसान अपने श्रमकौशल के बल पर जीवनयापन करने वाले लोगों को अधिक होता है. उच्चतकनीक और स्पर्धा के चलते उत्पादनतंत्र में उनकी भूमिका निरंतर घटती जाती है.

शिक्षा का प्रमुख कार्य है ज्ञानविज्ञान को सहेजना, उसको आगे बढ़ाने के साथ मनुष्य में यह विवेक पैदा करना कि उसका अस्तित्व दूसरों के साथ सुरक्षित है. न केवल अपनी दैनिक आवश्यकताओं, बल्कि अपने अस्तित्व के लिए भी वह दूसरों के सहयोग पर निर्भर है. अतएव सहविधान के अंतर्गत मैं ऐसी शिक्षा प्रणाली का पक्ष लूंगा जो व्यावहारिक और सरलतम हो. जो लोगों में सहकारदर्शन के प्रति विश्वास लगाए तथा उनके विज्ञानबोध का विस्तार करे. मनुष्य की आंतरिक अच्छाइयों को बाहर लाकर उसे शुभत्व की डगर पर आगे ले जाए तथा नवीनतम ज्ञान की राह प्रशस्त करे. सहविधान में शिक्षा ‘शुभत्व’ के पवित्र लक्ष्य को समर्पित होगी. यहां ‘शुभत्व’ का अभिप्राय है, अधिकतम लोगों का अधिकतम कल्याण और सुख का न्यायिक विभाजन. तदनुसार सहविधान में शिक्षा का तीसरा और वास्तविक लक्ष्य होगा—लोगों के मनमस्तिष्क से आपसी द्वैत का उन्मूलन. स्पर्धा को पूर्ण तिलांजलि. समाज का मैत्री, बंधुत्व, समानता, सहयोग, सद्भाव एवं सर्वकल्याण की भावना के अनुरूप संचालन. इसके लिए व्यक्ति और समाज के बीच बराबरी का नाता अनिवार्य है.

इधर समाज में विज्ञान शिक्षा का बड़ा जोर है. सुनियोजित एवं त्वरित विकास बगैर विज्ञान और तकनीक की सहायता के संभव नहीं. समाज को अज्ञानता की रूढ़ियों से बाहर निकालने के लिए भी वैज्ञानिक शिक्षा अनिवार्य है. बच्चों को विज्ञान और तकनीक की आधुनिकतम शिक्षा मिले, सहविधान में इसकी भी माकूल व्यवस्था होगी. ऐसी विज्ञान और तकनीक के आविष्कार पर जोर दिया जाएगा, जो लोगों के श्रमकौशल का सम्मान करे, उसे विस्तार दे. उन्हें अनावश्यक श्रम तथा खतरों से बचाए. जो सस्ती तथा अधिकतम लोगों की सीधी पहुंच में हो. इतनी सरल हो कि उसे आसानी से इस्तेमाल किया जा सके. लोग अपनी जरूरत के अनुसार उसमें आवश्यक संशोधन भी कर सकें. वैज्ञानिक आविष्कार यूं तो आज भी संपूर्ण समाज की थाती कहे जाते हैं. लेकिन व्यवहार में ऐसा होता नहीं है. बौद्धिक संपदा कानून और पेटेंट जैसी पूंजीवादी व्यवस्थाएं उनपर कुछ समूहों के एकाधिकार को वैध ठहराती हैं. इससे उनका लाभ समाज के कुछ वर्गों तक सीमित होकर रह जाता है. समाज का वह वर्ग जो अपने श्रमकौशल पर जीना चाहता है, जो वास्तविक उत्पादक और सर्वहारा है, उसके लाभों से वंचित रह जाता है.

सहविधान में वैज्ञानिक आविष्कार के क्षेत्र में पेटेंट व्यवस्था के लिए कोई स्थान न होगा. सवाल उठाया जा सकता है कि यदि किसी वैज्ञानिक या इंजीनियर को उसके आविष्कार का सीधा लाभ न मिला तो वह शोध की थकाऊ स्थितियों में खुद को क्यों खपाएगा! इस बारे में जो मूलभूत भ्रांति है उसे मैं पहले ही दूर कर देना चाहता हूं. पेटेंट व्यवस्था या बौद्धिक संपदा कानून का आविष्कार किसी वैज्ञानिक के दिमाग की उपज नहीं है. वह सीधेसीधे पूंजीवाद के एकाधिकारवादी आचरण की खोज रही है. उनीसवीं शताब्दी तक के आविष्कारों में से अधिकांश वैज्ञानिकों के निजी श्रमकौशल का सुफल थे. उनके पीछे व्यक्तिगत लाभ उठाने की मंशा उतनी न थी जितनी आज है. उत्पादन व्यवस्था के पूंजीवादी ताकतों के हाथों में जाने के बाद वह निरंतर विस्तार लेती गई. यदि पेटेंट हुए भी थे तो वास्तविक शोधकर्ताओं के नाम, जिन्हें उपयुक्त शुल्क चुकाने पर कोई भी इस्तेमाल कर सकता था. औद्योगिक क्रांति ने जोर पकड़ा तो वैज्ञानिक शोधों पर भी पूंजी का एकाधिकारवादी रवैया हावी होता चला गया. बड़े औद्योगिक घरानों ने वैज्ञानिकों को मोटा वेतन देकर नौकरी पर रखना आरंभ कर दिया. इससे जो आविष्कार हुए वे पूंजीवादी ताकतों के कब्जे में चले गए. आविष्कार भी वही हुए जिनसे पूंजीपतियों को सीधा लाभ पहुंचे. उनका एकाधिकार मजबूत हो. यह एक तरह से समाज की कुल मेधा को निहित स्वार्थ के लिए कैद कर लेने जैसा उपक्रम था.

सहविधान में ऐसी स्वार्थपरता के लिए कोई स्थान न होगा. वैज्ञानिक शोधों को बढ़ावा देने के लिए वहां भी हर संभव प्रयास किए जाएंगे. और उनके शोध पर समाज का अधिकार होगा. यहां पुनः एक शंका खड़ी हो सकती है. यह कि ऊंचे वेतन और सुविधाओं के बीच काम करने के अभ्यस्त वैज्ञानिक कम परिलब्धियों के लिए क्यों तैयार होंगे? और सुविधाओं के अभाव में क्या वैज्ञानिक शोधों की गति को बनाए रखा जा सकता है. एक एक बड़ी चुनौती है. यही सहविधान की सफलता की कसौटी होगी. परंतु इसका निदान सहविधान की स्थापना की उस अवधारणा में छिपा है जो आर्थिक लाभ को सामाजिक लाभ में बदल देने पर जोर देगी. वैज्ञानिक आविष्कार भी सामाजिक लाभ की मूल सैद्धांतिकी को ध्यान में रखकर किए जाएंगे. सहविधान में बड़ी मशीनों और आधुनिकतम तकनीक के लिए भी जगह होगी. लेकिन उनपर निर्वाचित संगठनों का अधिकार होगा. वे समूह और समाज की संपत्ति माने जाएंगे. उनका उपयोग इस प्रकार किया जाएगा कि उनकी सघन उत्पादकता का लाभ समाज के सभी वर्गों को एकसमान रूप से पहुंचे. उसपर कुछ लोगों अथवा उनके समूह का एकाधिकार न हो. इसके लिए ‘आर्थिक लाभ’ के स्थान पर ‘सामाजिक लाभ’ की अवधारणा को अपनाया जाएगा.

समाज में वैज्ञानिक शिक्षा को नैतिक शिक्षा जितना ही सम्मान प्राप्त होगा. लेकिन यदि विज्ञान और नैतिक शिक्षा के बीच चयन का अवसर आन पड़े तो वहां नैतिक शिक्षा को पहले स्थान पर रखूंगा. इस डर से कि नैतिक शिक्षा का अर्थ लोग धार्मिक शिक्षा न निकालने लगें, मैं वही कहूंगा जो अन्यत्र इससे पहले भी कह चुका हूं. मेरे विचार में नैतिकता धर्म का एकमात्र संबल है. अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करने के लिए नैतिकता को धर्म के सहारे की आवश्यकता नहीं पड़ती. जबकि धर्म नैतिकता के बगैर केवल कर्मकांडीय टीमटाम है. धर्म से अध्यात्म तक की यात्रा को संभव बनाने के लिए यह कोशिश की जाएगी की समाज में पर्याप्त वैज्ञानिक बोध हो. यह लक्ष्य दर्शन और विज्ञान की नियमित शिक्षा द्वारा प्राप्त किया जा सकता है.

नैतिकता को विज्ञान से ऊपर रखने का निर्णय भी सोचाविचारा है. सहविधान में नागरिक स्वतंत्र, विवेकवान इकाई के रूप में, सामान्य नैतिकता और कल्याणभावना के साथ एकजुट होकर काम करेंगे. इसके फलस्वरूप वैज्ञानिक शोधों में कमी नहीं आएगी. यदि एकाध अवसर हाथ से चला भी जाता है तो सहयोग, समन्वय और संगठनसामर्थ्य के बल पर उस कमी को पूरी कर लिया जाएगा. यदि नैतिकता न रही तो वैज्ञानिक आविष्कारों का दुरुपयोग होगा. लोग उनका अपने स्वार्थानुरूप उपयोग करने के लिए स्वतंत्र होंगे. वह समाज में भयानक समाजार्थिक स्तरीकरण का कारण बनेगा. समाज में ऊंचनीच की खाइयां बनेंगी. ऐसे में यदि युद्ध हुआ तो वह पूरी दुनिया को शताब्दियों पीछे ढकेल देगा. इसलिए शिक्षा का नैतिक होना, कानून की परिभाषा में न्यायसंगत होने से कहीं ज्यादा जरूरी है. मनुष्यता का महान शिक्षक कन्फ्यूशियस नैतिक शिक्षा पर जोर देते हुए कहता है—

कानून एवं दंडप्रणाली द्वारा शासित राज्यों में लोग केवल इतना जानते हैं कि खुद को कानूनी अड़चनों से कैसे बचाया जाए. ऐसा करते समय उन्हें शर्म भी नहीं आती. जबकि ‘सद्गुण’ एवं ‘नैतिकता’ प्रधान शिक्षा पाए नागरिक अनजानी गलती पर भी न केवल ग्लानिबोध से भर जाते हैं, बल्कि खुद को स्वयं सुधारना भी जानते हैं.’2

जन्म से सभी बालक एकसमान होते हैं. सभी का मस्तिष्क कोरी स्लेट जैसा होता है. शिक्षा के आधार पर उनके अनुभव और ज्ञान का दायरा बंटता है. इसलिए शिक्षा को लेकर किसी भी प्रकार का पक्षपात, एकाधिकार अथवा मनमानी, चाहे किसी भी वर्ग की क्यों न हो—अस्वीकार्य होगी. सहविधान में सभी वर्गों के लिए एक समान शिक्षा की व्यवस्था होगी. इसका अर्थ यह नहीं कि प्रत्येक विद्यार्थी को इतिहास पढ़ना पड़ेगा; या कविता में रुचि रखने वाले विद्यार्थी को गणित में अपना दिमाग खपना ही पड़ेगा. इसका बस इतना अभिप्राय है कि जो विद्यार्थी इतिहास पढ़ना चाहता है, उसको उस विषय में शिक्षा और रोजगार के उतने ही अवसर प्राप्त होंगे, जितने उस विद्यार्थी को जो अपनी रुचि के अनुसार विज्ञान पढ़ा है—प्राप्त हैं. लेकिन समाज, राजनीति, दर्शन और नैतिक शिक्षा सभी के लिए अनिवार्य होगी. शिक्षा का ढांचा इस प्रकार बनाया जाएगा ताकि वह लोगों को संगठित के स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाए और सम्मिलित हितों के लिए कार्य करने को प्रेरित करे. इसके लिए ऐसे शिक्षकों की आवश्यकता होगी, जो बिना किसी गुरुताबोध के पढ़ाने के लिए आगे आएं. कक्षा में आकर जो स्वयं को विद्यार्थी ही समझें और छात्रों को ज्ञान बांटने के साथसाथ उनसे कुछ ग्रहण करने का साहस भी दिखला सकें. जो विद्यार्थियों को समझाएं कि मनुष्य सामान्यतः भला होता है. यदि उसमें कुछ विचलन है तो उसके लिए वह अकेला जिम्मेदार नहीं. उसका परिवेश भी समानरूप से जिम्मेदार है. इसलिए यही न्याय संगत है कि स्थितियों के समग्र विवेचन के बाद निर्णय लिया जाए. उन्हें यह भी समझाया जाना चाहिए कि लोकहित के कार्य को आगे बढ़ाना उसपर बातचीत करने से कहीं ज्यादा जरूरी है. अतीत में इस बारे में बातें अधिक होती रही हैं. वास्तविक काम बहुत कम हो पाया है. इससे विद्यार्थियों की समाज के प्रति अनुराग में वृद्धि होगी, साथ ही उनमें कर्तव्यनिष्ठा भी जगेगी.

शिक्षार्जन के दौरान विद्यार्थी को जाति, धर्म, गौत्र वर्ण आदि की कम से कम शिक्षा मिलनी चाहिए. उसे निरंतर यह बोध होना चाहिए कि ‘अपने लिए’ और ‘समाज के लिए’ शिक्षा की अवधारणा में कोई व्यावहारिक अंतर नहीं है. देखा जाए तो दोनों एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं. मनुष्य शिक्षा ग्रहण करता है तो उसकी समाज के लिए उपयोगिता बढ़ जाती है. उधर समाज का भी दायित्व है कि वह बालक को वह सब सिखाए जो उसके लिए जरूरी हो. ताकि उसका बहुआयामी विकास संभव हो सके. साथ में यह व्यवस्था भी करे कि शिक्षा की समाप्ति के बाद उसको रोजगार की तलाश में भटकना न पड़े. दूसरी ओर विद्यार्थी का दायित्व है कि वह खुद को समाज के लिए उपयोगी बनाए. ध्यान रखे कि समाज भले ही उसका स्वैच्छिक वरण हो, शताब्दियों से समाज के साथ रहते आए मनुष्य के लिए आज वह एक अनिवार्यता है. इस कारण कुछ विद्वान अरस्तु की परिभाषा, ‘मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है’ को संशोधित कर, ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’ कहने लगे हैं. यह समाज और मनुष्य के गाढे़ संबंधों का प्रतीक है. शिक्षा मानवीकरण की सीढ़ी, आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है. बालक के लिए अनिवार्य शिक्षा उसके समाजीकरण की आरंभिक जरूरत भले हो, किंतु यह बड़ों के लिए उतनी ही जरूरी है जितनी बच्चों को किशोरों के लिए. इसलिए आवश्यक है कि शिक्षा को ताउम्र चलने वाली ज्ञार्नाजन की सतत प्रक्रिया के रूप में अपनाया जाए. कन्फ्यूशियस कुछ ऐसा ही चाहता था—

‘‘कन्फ्युशियस चीन के प्रांत ‘वी’ की यात्रा पर था. उसका शिष्य रेन यू उसकी गाड़ी हांक रहा था. वी एक घनी आबादी वाला शहर था. इतने बड़े शहर में पहुंचकर रेन ने हैरानी से कन्फ्युशियस से पूछा—

गुरुदेव! शहर की इतनी सघन आबादी में भला हम क्या करेंगे?’

लोगों को समृद्धि की ओर ले जाएंगे.’ कन्फ्यूशियस ने नपातुला जवाब दिया. रेन यू को अपने गुरु पर विश्वास था. किंतु उसके दिमाग में अब भी एक शंका थी. इसलिए उसने आगे पूछा—

एक दिन जब शहर के सभी नागरिक समृद्ध हो जाएंगे, तब हम क्या करेंगे.’

तब हम उन्हें शिक्षित करेंगे.’3

कन्फ्यूशियस शिक्षा को नैतिक आयोजन मानता था. उसने परंपरा का भी पक्ष लिया था, लेकिन इस तरह कि लोग उसके पीछे अंतनिर्हित सत्य से परिचित हो सकें. भारतीय पंरपरा में शिक्षा को विशिष्ट वर्गों तक सीमित रखा गया है. शिक्षा के लिए विद्यार्थी की प्रतिभा और रुचि नहीं, उसका वर्ग देखा जाता था. लंबे समय तक यही नीति भारतीय शिक्षा की दिशादशा को तय करती रही. आधुनिक भारत के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले गांधी भी इसी के समर्थक थे. ‘शिक्षा का आश्रमी यथार्थ’ के नाम पर वर्णव्यवस्था का समर्थन करते हुए वे लिखते हैं—

इस काल में मातापिता का धंधा यदि निश्चित रूप से मालूम हो, तो बच्घ्चे को उसी धंधे का ज्ञान मिलना चाहिये; और उसे इस तरह तैयार किया जाय कि वह अपने बापदादा के धंधे से जीविका चलाना पसंद करे. यह नियम लड़की पर लागू नहीं होता.’4

एक कहावत है कि उत्पीड़ित को उसकी दुर्दशा का एहसास करा दो, वह बगावत कर देगा. दुरवस्था की जानकारी और उसके फलस्वरूप जन्मे असंतोष ने कई मानवीय आविष्कारों और क्रांतिकारी विचारों की राह प्रशस्त की है. मगर गांधी के विचार इस मामले में भिन्न थे. यहां वे परंपरा का दामन छोड़ नहीं पाते. गोया वे नहीं चाहते थे कि गरीब अपनी दुरवस्था और उसके कारणों को समझे. इसलिए अन्यत्र लिखते हैं—

शिक्षा तालीम का अर्थ क्या है?….एक किसान ईमानदारी से खुद खेती करके रोटी कमाता है. उसे मामूली तौर पर दुनियावी ज्ञान है. अपने मां बाप के साथ कैसे बरतना, अपनी स्त्री के साथ कैसे बरतना? बच्चों से कैसे पेश आना? जिस देहात में वह बसा हुआ है वहां उसकी चालढाल कैसी होनी चाहिये? इस सबका उसे काफी ज्ञान है. वह नीति के नियम समझता है और उनका पालन करता है. लेकिन वह अपने दस्तखत करना नहीं जानता. इस आदमी को आप अक्षर ज्ञान देकर क्या करना चाहते है? उसके सुख में आप कौनसी बढ़ती करेंगे? क्या उसकी झोपड़ी या उसकी हालत के बारे में आप उसके मन में असंतोष पैदा करना चाहते हैं? ऐसा करना हो तो भी उसे अक्षर ज्ञान देने की जरूरत नहीं है. पश्चिम के असर के नीचे आकर हमने यह बात चलायी है कि लोगों को शिक्षा देनी चाहिये, लेकिन उसके बारे में हम आगेपीछे की बात सोचते ही नहीं.’5

भारत में धर्म महत्त्वपूर्ण है. वह लोगों की जीवनशैली और दिनचर्या को प्रभावित करता है. यदि सत्तरअस्सी वर्ष के बूढ़े व्यक्ति तमाम कष्ट सहकर दुर्गम यात्राओं को निकल पड़ते हैं, कड़क सर्दी में भी गंगाजल में स्नान करने की हिम्मत जुटा पाते हैं, तो साफ है कि उनकी आस्था उन्हें इसके लिए प्रेरित करती है. इसलिए धर्म के सवाल की एकाएक उपेक्षा संभव नहीं है. इसके बावजूद जहां तक धार्मिक शिक्षा का प्रश्न है, समाज में वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना और कल्याण के समविभाजन के लिए उसको फिलहाल तिलांजलि देनी होगी. तब शिक्षा का धर्म से नाता क्या हो? इसका सीधासा उत्तर है, निषेध का, या फिर धर्म की अवधारणा में आमूल परिवर्तन का. इसे गहराई में जानने के लिए हम एक प्रतिप्रश्न का सहारा लेते हैं—‘क्या धर्म शिक्षा से जुड़कर ज्ञान की परंपरा को विस्तार देने में सक्षम होगा? क्या वह जिज्ञासा को बढ़ावा देता है? यदि ईमानदारी से देखें तो धर्म ऐसा नहीं करता. हम सब जानते हैं कि धर्म और ज्ञान के नवीकरण का दूर तक संबंध नहीं है, ज्ञान की खोज का सिलसिला संदेह से आरंभ होता है; और संदेह धर्म की निगाह में ‘पाप’ है. परंपरागत धर्म में संदेह के लिए कोई स्थान नहीं है. न वह जिज्ञासा को महत्त्व देता है. बल्कि आस्था के नाम पर वह दैनंदिन अनुभव के दौरान में जन्मते रहनेवाले संदेहों पर पर्दा डालने का काम करता है. शंका करना वहां गुरुअपराध है. धर्म में जो जितना पुराना है, परिवर्तन से दूर है, वह उतना ही सम्मानेय है. दूसरी ओर वास्तविक शिक्षा मनुष्य का नित नवीकरण करती है. वह मानवीय विवेक की ऊंचाइयों की ओर सतत आरोहण है. जबकि धर्म जड़ता है, ठहराव है. भ्रांति है. यथास्थिति बनाए रखने के लिए प्रभुवर्ग का षड्यंत्र, झूठी दिलासा है.

आस्था की नींव पर खड़े धर्म से, यदि कोई व्यक्तिस्वातंत्र्य की दुहाई देते हुए उससे चिपका रहना चाहता है तो उसी तक सीमित रखने में भलाई है. ऐसे लोगों के लिए शिक्षक का काम है, उसको धर्म के स्थान पर अध्यात्म से जोड़ने को प्रेरित करे. यह काम आसान नहीं है. जो लोग शताब्दियों से धर्म से चिपके हुए हैं, उनके लिए एकाएक अध्यात्म की डगर पकड़ना कठिन हो सकता है. ऐसे लोगों को धीरेधीरे उसकी ओर लाना होगा. उसका पहला चरण यह हो सकता है कि धर्म के नाम पर, कर्मकांड के नाम पर वे जो भी करना चाहते हैं, उसे अपने बूते पर करें. मसलन यदि किसी को ‘सत्यनारायण की कथा’ में धर्म का पालन नजर आता है, तो वह इसी से शुरुआत कर सकता है. बाजार से इस कथा की पुस्तक लेकर उसको पढ़नासमझना शुरू करे. यदि उससे जुड़े कर्मकांडों को जरूरी मानता है तो बिना किसी मध्यस्थ को बीच में लाए उस अनुष्ठान को स्वयं करने की कोशिश करे. खुद नहीं पढ़ सकते तो किसी परिजन या पड़ोसी से पढ़वाए. परंपरागत पुरोहितों को बीच में न आने दे. शब्द से जुड़ाव का सिलसिला एक बार शुरू हुआ तो थम नहीं पाएगा. उसकी जिज्ञासा उसको दूसरी पुस्तकों की ओर ले जाएगी. जिससे धर्म के नाम पर व्याप्त रूढ़ियों और निरर्थक कर्मकांडों से मुक्ति की राह प्रशस्त होगी.

संविधान लोकविकास के नाम पर शिक्षा के प्रति वचनबद्ध होता है. किंतु शिक्षा कैसी हो, इस बारे में बहुसंख्यक समाज की राय की प्रायः उपेक्षा होती है. उसका स्वरूप विशेषज्ञों द्वारा तय किया जाता है, जो अपने वर्गीय हितों की ओर ज्यादा समर्पित होते हैं. कदाचित यह जरूरी भी है. लेकिन विशेषज्ञों के हाथों में पड़कर शिक्षा का प्रभाव एकतरफा रह जाता है. व्यक्ति अपनी और स्थानीय समुदाय की विशेषताओं को समझ ही नहीं पाता. इससे उसके भीतर अविश्वास बढ़ने लगता है. इसलिए वह समाजकल्याण के कार्यों से मुंह चुराने लगता है. जबकि सामाजिक विकास संबंधी कार्यों में व्यक्ति की हिस्सेदारी आत्मस्फूर्त्त होनी चाहिए. दबाव की स्थिति मनुष्य को भविष्य के प्रति शंकालु बनाती है. नैतिक दायरे से बाहर आकर वह केवल स्वार्थसिद्धि का संकल्प मन पर लादे रखता है. औनिषदिक चिंतन का निचोड़ हैं—‘सर्व भूत हिते रतः, कृणवंतो विश्वमार्यम्।’ समस्त प्राणियों के कल्याण की वांछा रखते हुए विश्व को श्रेष्ठ बनाने का संकल्प लें.’ सहविधान में शिक्षा ज्ञान की इसी उदात् भावना और संकल्प से अनुप्रेरित होगी.

क्रमश:….

© ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भानुक्रमणिका :

 1. समानी व आकूति समाना हृदयानि वः।

समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।—ऋग्वेद, अष्ठम अध्याय, दशम मंडल, 191/4.

2. Regulated by the edicts and punishments, the people will know only how to stay out of t rouble but will not have a sense of shame. Guilted by virtues and the rites, they will not only have a sense of shame but also know how to correct their mistakes of their own accord.Analects of Confucius, pp. 13, Beijing Foreign Languages Printing House, 1994.

3. When Confucius went to the state of Wei, Ran You (one of Confucius’ student) drove the carriage for him. Confucius said, ‘What a large population Wei has?’ Ran You asked, ‘what should be done with such a large population?’ Confucius answered, ‘Enrich the people.’ Ran You went on asking. ‘What should be done when they have become rich?’ Confucius answered, ‘Educate them.’ Analects of Confucius, pp. 233-234.

4. महात्मा गांधी, मेरे सपनों का भारत.

5. वही.

परिवर्तन का तीसरा मोर्चा

धर्म एवं अभिजन संस्कृति6

हर बार चुनावों के आते ही तीसरे मोर्चे के गठन की चर्चाएं गर्म हो जाती हैं. अखबारों में संपादकीय लिखे जाते हैं. चमचा लोग खबरें उगलने लगते हैं. फूली तोंद, चिकने चेहरे वाले नेताजी गले मिलकर फोटो खिंचवाने लगते हैं. लेकिन चुनाव आतेआते मामला टांयटांय फिस्स हो जाता है. मुद्दों के अकाल के बीच तीसरे मोर्चे के गठन की अफवाह फैलाना भी एक मुद्दा है. मूल्यविहीन राजनीति में, ऐसे अवसर कोई छोड़ना नहीं चाहता. कम से कम इसी बहाने चर्चा में आने और खुद को दूसरों से अलग सिद्ध करने का अवसर मिल जाता है. यह काम चुपकेचुपके और बड़ी शाइस्तगी के साथ किया जाता है. ‘हम उन जैसे नहीं हैं’, ‘हम उनसे अलग हैं’, ‘वे नेष्ठ, हम श्रेष्ठ.’ ऐसा दिखावा किया जाता है. सब अलगअलग अपनी ढपली अपना राग अलापते हैं, लेकिन आमनासामना होते ही अनजान बन जाते हैं. इसलिए कि उन्हें केवल मुद्दे उछालना आता है, सुलझाना नहीं. न ही सुलझाने की उनकी इच्छा होती है. चाहते हैं कि जनता हमेशा उनपर निर्भर बनी रहे. अपनी रीढ़ के बल कभी खड़ी न हो. छोटीसेछोटी समस्या के लिए उन्हीं की ओर देखे. अपने मकसद में वे प्रायः कामयाब भी हो जाते हैं. अनजान जनता भी नहीं है. वह जानती है कि लोकतंत्र की शुरुआत कहां से हुई थी; और आज वह कहां है? इस पतन के लिए जिम्मेदार लोगों को भी वह जानती है. बस लिहाज की मारी चुप बनी रहती है. इसमें सारा दोष नेताओं का भी नहीं है. उन्हें कंधों पर उठाकर संसद और विधानसभा तक पहुंचा देने वाली जनता भी उतनी ही दोषी है.

साफ है तीसरा मोर्चा खबर से आगे नहीं बढ़ पाता तो इसलिए कि उसके गठन कोशिश करने वाले नेताओं के मन में स्वार्थ भरा होता है. वे केवल राजनीति करते हैं. वरना इस देश में तीसरे मोर्चे के गठन की आवश्यकता हमेशा रही है. तब से रही है जब से आदमी ने राजनीतिक नजरिये से सोचना आरंभ किया था. आजादी के बाद तो उसकी तत्काल आवश्यकता थी. इसके लिए इच्छाशक्ति की कमी हमेशा रही. समस्या यह भी रही कि तीसरे मोर्चे के प्रभावी घटकों की पहचान कैसे की जाए! उसकी दार्शनिकी क्या हो! कौन हैं जो तीसरा मोर्चा गठित कर सकते हैं! उसकी आवश्यकता किसे है! कुछ लोग सुनकर कहेंगे, इसमें क्या कठिन है? तीसरे मोर्चे को पहले से मौजूद दो मोर्चों पर फतह पानी होगी. उनमें पहला मोर्चा सत्ताधारी दल कांग्रेस तथा सहयोगियों का है, दूसरा भाजपा और उसके सहयोगी दलों का. जो लोग दक्षिणपंथी विचारधारा के हैं वे भाजपा को अगला तथा कांग्रेस को पिछला स्थान दे सकते हैं. लेकिन जानने वाले जानते हैं कि भाजपा और कांग्रेस एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. एक ही धातु, एकसमान अस्थिमज्जा से बने. जो काम भाजपा डंके की चोट करती है, कांग्रेस उसे अपने गठन के बाद से चोरीचुपके करती आई है. उनमें कोई अंतर है ही नहीं. एक बड़बोला है, दूसरा मनघुन्ना. तीसरा मोर्चा यदि इन्हीं दोनों दलों को अपनी चुनौती मान लेगा तो उलझकर रह जाएगा. वह लकीर पीटने से ज्यादा कुछ कर ही नहीं पाएगा. यदि तीसरे मोर्चे को सामाजिक परिवर्तन का वाहक बनना है! परिवर्तन के लिए आवाज उठाने के बजाय जमीनी काम करना है! तब उसे इन सबसे ऊपर उठकर सोचनाकरना पड़ेगा. उसकी व्याप्ति संस्कृति, समाज एवं राजनीति तीनों क्षेत्रों में एकसमान प्रभावी होगी. वह आर्थिक कार्यकलापों पर भी नजर रखेगा और लोकहित में जितना आवश्यक हो, उनपर उतना नियंत्रण भी रखेगा. यही तीन प्रमुख क्षेत्र मानवजीवन को प्रभावित करते हैं. तो फिर तीसरे मोर्चे के गठन की आधार संरचना क्या हो? वे कौनसे कारण हैं जो तीसरे मोर्चे के गठन को जरूरी बनाते हैं? इसे समझ लिया जाए तो तीसरे मोर्चे की जरूरत, उद्देश्य तथा उसकी भावी रूपरेखा साफ होने लगेगी.

मनुष्य आजाद जन्मा है. लेकिन वह हर जगह बेड़ियों में है.’ रूसो के इन शब्दों में लक्ष्य एकदम साफ झलकता है. यानी तीसरे मोर्चा के गठन का ध्येय होना चाहिए—मानवमात्र की अधिकतम स्वतंत्रता. यह स्वतंत्रता केवल बाहरी ही न हो. बल्कि ऐसा हो जिसमें व्यक्ति अपने कर्म और चिंतन के क्षेत्र में भी स्वतंत्र अनुभव कर सके. मानवमात्र की नैसर्गिक स्वच्छंदता में बस इतनी कटौती हो, जितनी समाज के गठन और उसको चलाने के लिए अपरिहार्य है. आप कहेंगे कि भारत एक स्वयंभू राष्ट्र है. और देश में लोकतंत्र है. ये दोनों ही देश और व्यक्तिमात्र की स्वाधीनता की सुरक्षा करने के लिए पर्याप्त हैं. आपका प्रतिवाद करने का मेरा कोई इरादा नहीं है. देश की स्वयंप्रभुता को लेकर भी मैं कोई सवाल नहीं करूंगा. बस कुछ बातें आपके समक्ष रखूंगा और निर्णय आपके ऊपर छोड़ दूंगा. तब शायद आप जान जाएं कि जिसे आप देश कहते हैं, जिसे एकराष्ट्र के विशेषण से नवाजते हैं, वह दरअसल मुट्ठीभर लोगों की इजारेदारी है. उसकी स्वयंप्रभुता सवा सौ करोड़ नागरिकों के बजाए कुछ लोगों तक सीमित है. उन्हीं के लिए वह सोचता, करता है. बाकी जनता तो नेताओं द्वारा भाषण पिलाने और आश्वासन बांटने के लिए है. क्या इसमें सारा दोष सरकार का है?

सबसे पहले मनुष्य की स्वतंत्रता को लेते हैं. ठीक है देश स्वतंत्र है. पर क्या इस स्वतंत्रता का लाभ उसके प्रत्येक नागरिक को प्राप्त है? क्या राजनीतिक स्वतंत्रता ही मनुष्य के लिए सबकुछ है? देश में आज जातिव्यवस्था है. मनुष्य के निजी मामलों में हस्तक्षेप न करने की आड़ में सरकार भी इसको स्वीकार कर चुकी है. सेना में जाति के नाम पर अलग रेजीमेंट हैं. धर्म उसको मजबूती प्रदान करता है. मनुष्य के व्यवहार में, सामाजिकव्यक्तिगत एवं राजनीतिक कार्यकलापों में, आपको इसके द्वारा पैदा की गई घोर असंगतियां और दुश्वारियां साफ नजर आएंगी. जाति एक ऐसा पट्टा है जो गर्भ से ही बच्चे के गले में डाल दिया जाता है. अजन्मे बच्चे के पिता का नाम भले ही किसी को मालूम न हो, किंतु उसकी जाति बीजदान के समय ही तय कर दी जाती है. फिर पूरा जीवन उन्हीं बेड़ियों में रहकर काटना पड़ता है. ऐसे बहुत से कार्य हो सकते हैं, जिन्हें बड़ा होने के बाद उसका विवेक अस्वीकार करता हो. फिर भी मजबूरी में उन्हें निभाना पड़ता है. जाति की जकड़न के आगे मानवाधिकार जैसी आधुनिक व्यवस्थाएं भी बेअसर सिद्ध होती हैं. थोपे गए कार्यविभाजन में मनुष्य अनमने भाव से हिस्सा लेता है. परिणामस्वरूप काम की गुणवत्ता पर विपरीत असर पड़ता है. उत्पादन में गिरावट आने लगती है.

जाति से कहीं अधिक नुकसानदेह है, जाति—व्यवस्था को मानवनियति मान लेना. उसके बाद इस सड़ी हुई, प्रगति विरोधी व्यवस्था से अनुकूलन होने लगता है. मनुष्य समझौते पर उतर आता है. जातीय स्तरीकरण का ही कमाल है कि इसके निचले स्तर पर मौजूद व्यक्ति भी अपनी जाति को दूसरी जातियों से श्रेष्ठ दिखाने के बहाने ढूंढ लेता है. दरअसल यह नफरत की व्यवस्था है जो शीर्ष स्तर से शेष समाज पर थोप दी जाती है. ऐसा नहीं है कि इस व्यवस्था से केवल निचले क्रम पर मौजूद जातियों को हानि पहुंची हो. उन्हें तो ऊपरले वर्गों के अत्याचार और मनमानी के कारण नारकीय जीवन बिताना ही पड़ा है. इससे कथित ऊंची जातियों को भी कम नुकसान नहीं पहुंचा. बीसतीस पृष्ठ के गलेसड़े पत्रे को रट लेने, उसे जजमान के आगे पढ़ देने को कुछ लोग भले ही पांडित्य का प्रतीक मान लें, और फिर पूरा जीवन इसी भ्रम में क्यों न गुजार दें—लेकिन हम यदि इस देश के गत बारहतेरह शताब्दियों का इतिहास देखें, और यह भी कि इस अवधि में भारत की बौद्धिक उपलब्धियां लगभग अकालग्रस्त होकर शून्यसम हैं, तब हमें उपर्युक्त पांडित्य का खोखलापन सहज ही नजर आने लगेगा. थोडे़ सुख, स्वार्थ एवं अकर्मण्यता के चलते शीर्षस्थ वर्गों ने इसे अपनाया और खुद को एक लकीर पीटने वाली व्यवस्था के अनुसार ढाल लिया. इसका लाभ उन लोगों को मिला, जो एकाधिकारवादी थे. जो चालाकी और धूर्त्तता के दम पर सबकुछ हड़प लेना चाहते थे. उन्होंने धर्म, परंपरा, जाति, वर्ग आदि के नाम पर संसाधनों को कब्जाना जारी रखा. इसी स्वार्थी उच्चस्थ वर्ग ने अंततः असमानता की प्रतीक अभिजन संस्कृति को जन्म दिया.

शीर्ष स्तर पर विराजमान अभिजन संख्या में अल्पसंख्यक होकर भी बहुसंख्यक पर शासन करते हैं और तरहतरह की समस्याओं, उत्पीड़न, अनाचार, उपेक्षा, अवहेलना आदि से जूझ रहे बहुसंख्यक जनसमाज को, जिसे उनके कारण दुश्वारियों का शिकार होना पड़ता है, घृणा के साथ देखते हैं. चूंकि बहुसंख्यक जनसमाज अभिजन अल्पसंख्यक की ओर ललचाई दृष्टि से देखता है, इसलिए वह उसकी नफरत और घृणा को भी अपने आचरण में उतार लेता है. अभिजन अल्पसंख्यक के प्रति घृणा का सरेआम प्रदर्शन उसे अव्यावहारिक लगता है. अतः अपने अंतर्मन की घृणा जो उसने अभिजन अल्पसंख्यक से प्रेरणा के तौर पर प्राप्त की है, अपने ही जैसे उपेक्षित, वंचित एवं उत्पीड़ित लोगों के प्रति तरहतरह से फूटती है. बहुसंख्यक जनसमाज की एकता और विकास में यह सबसे बड़ी बाधा है. अपने ही जैसे लोगों से साथ स्पर्धा, विपन्नों के साथ रोजीरोटी के संघर्ष के बीच उनकी इंसानियत दांव पर लग जाती है. उनके लिए विकास बड़ा मुद्दा नहीं होता. कई बार तो उसका ख्याल तक नहीं आता, बस जीवनसंघर्ष से जैसेतैसे गुजरते जाने की हड़बड़ी बनी रहती है. इस कारण वे अपनी कार्यक्षमताओं का पूरा उपयोग करने में असमर्थ रहते हैं. वर्गीय हित की बात तो कभी सोच भी नहीं पाते. असमानताकारी व्यवस्था में अपने ही जैसे विपन्नों से स्पर्धा करते हुए वे जैसेतैसे अपने अस्तित्व को बचाने का प्रयास करते रहते हैं.

धर्म की स्थिति यहां ऐसे बिचैलिये की होती है, जो अल्पसंख्यक अभिजन और बहुसंख्यक जनसमाज दोनों का हिमायती बनता है. हालांकि वह स्वयं अभिजन अल्पसंख्यक समाज का ही हिस्सा होता है. किंतु खुद को बहुसंख्यक जनसमाज का सबसे बड़ा हितरक्षक होने का दावा करता है. वह बहुसंख्यक समाज को बताता है कि वे ईश्वर की सबसे प्रिय संतान हैं. कि एक ऊंट का सुईं के छेद से निकल पाना संभव है, लेकिन एक धनी व्यक्ति का स्वर्ग के दरवाजे को पार करना असंभव है. और इस जन्म में उसको जो अभाव, दुश्वारियां, कष्ट आदि सहने पड़ रहे हैं, उसके लिए कोई दूसरा व्यक्ति जिम्मेदार नहीं है. बल्कि उसके पूर्वजन्मों के कर्म रहे हैं. जिनका दंड उसे इस जन्म में भोगना पड़ रहा है. कि पूर्वजन्मों के कर्मफल को इस जन्म में धैर्यपूर्वक, ईश्वर को धन्यबाद देते हुए सह लेना ही अच्छा है. वरना बकाया दंड अगले जन्म में भोगना पड़ सकता है. कि पूर्वजन्मों के कर्मफल सह लेने के बाद, पूर्णतः पापमुक्त होने पर वह स्वर्ग का सुखोपभोग कर सकेगा. वहां ऐसे अलौकिक सुख मिलेंगे जो इस लोक में अल्पसंख्यक अभिजन के लिए भी दुर्लभ हैं. धर्म कर्मफल के सिद्धांत का सहारा लेकर अल्पसंख्यक अभिजन के अन्याय, उत्पीड़न, अनैतिकता एवं अनाधिकार को मान्यता प्रदान करता है. उनके मूल कारणों पर पर्दा डालकर वह व्यक्ति का ध्यान ऐसी दिशा की ओर मोड़ देता है जिसका उसके वास्तविक विकास से दूर तक का संबंध नहीं होता. तुच्छ प्रलोभनों में फंसा, छोटेछोटे समूहों में बंटा हुआ निराश, हताश, दिशाहीन बहुसंख्यक जनसमाज, धर्माचार्य के इन शब्दों पर आंख मूंद कर भरोसा कर लेता है. इस तरह धर्म असमानताकारी व्यवस्था का सबसे बड़ा समर्थक, तारणहार सिद्ध होता है. गरीबी अभिशाप है, लेकिन कई बार जहां उससे मुक्ति की संभावना दूर तक धूमिल हो, विपन्नता के शिकार लोगों के आक्रोश से बचने के लिए धर्म खुद को माहौल के अनुकूल ढाल लेता है. यह भी कह सकते हैं कि अपने धार्मिक विश्वासों को जिलाए रखने के लिए दीनहीन, सर्वहारा कंगाली के प्रतीकों से ही ईश्वरीय कृपा पाने का उद्यम करने लगते हैं. पुराने गंदेगले कपड़े से खुश हो जाने वाले गूदड़ पीर, बोतल के ढकन्न से बहल जाने वाले ढक्कन पीर, कंकड़ पीर, मामूली धागे से कृपा लुटाने वाले वाले धर्म स्थान ऐसे भ्रमों को जिलाए रखने में सहायक होते हैं.

तो तीसरे मोर्चे के गठन का सबसे पहला ध्येय यह होगा कि वह धर्म और उसके नाम पर की जा रही चालबाजियों से बहुसंख्यक जनसमाज को परचाए. सावधान करे, और जो लोग अज्ञानतावश उसके चंगुल में फंसे हुए हैं, उन्हें बाहर ले जाने का उद्यम करे. यहां कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है. वे कह सकते हैं कि धर्म मनुष्य की स्वयं को जानने की उत्कंठा का परिणाम है. मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह जीवन के बारे में जाने. यह वांछा भी आज की नहीं है. बल्कि सहस्राब्दियों से मनुष्य इस दिशा में सोचता रहा है. वे यह भी कहेंगे कि धर्म लोगों की जीवन प्रदाता शक्ति के प्रति स्नेह और सम्मान से उत्पन्न आस्था का नाम है. कि समाज को एकसूत्र में बांधने में धर्म की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है. कि धरती धर्म पर टिकी है. समाज में जो नैतिकता है, वह धर्म की ही देन है. और धर्म सामान्य नैतिकता का एकमात्र संबल है. उसके अभाव में समाज को एकसूत्र में बांध पाना कठिन हो जाएगा. उनके इस कथन में कुछ सचाई तो अवश्य है. मैं इसे स्वीकार करूंगा. इस संशोधन के साथ कि नैतिकता धर्म की चेरी नहीं है. बल्कि धर्म स्वयं लोगों के दिलों में पैठ बनाने के लिए नैतिकता का सहारा लेता है. धर्म के बिना भी नैतिकता कारगर है. वह कारगर रह सकती है, किंतु नैतिकता के अभाव में धर्म मरी हुई बिल्ली नजर आएगा. इसके बावजूद धर्म के धंधेबाज बौद्धिक जड़ता को समाज पर थोपने के लिए धर्म का सहारा लेते आए हैं. आस्था के नाम पर उन्होंने लोगों के विवेकीकरण की स्वाभाविक प्र्रक्रिया को ही अवरुद्ध कर दिया. उन्होंने अध्यात्म का इतना साधारणीकरण किया कि जिस काम में मनस्वी लोग अपना पूरा जीवन खपा देते थे, वह कुछ आरतियों, तंत्रमंत्र, कर्मकांड, मूर्तिपूजा तथा पंद्रहसोलह पृष्ठों की लुगदी पुस्तक में सिमटकर रह गया.

इसलिए मेरी समझ का परिवर्तनकामी मोर्चे का अगला मोर्चा वह होगा जो लोगों में धर्म, अध्यात्म और नैतिकता को अलगअलग करके देखने की योग्यता पैदा कर सके. उन्हें समझा सके कि अध्यात्म और नैतिकता की गति उध्र्वमुखी होती है. दोनों ही मनुष्य का परिष्करण चाहते हैं. अपनीअपनी तरह से ये उसके लिए समर्पित भी होते हैं. दोनों मनुष्य द्वारा प्रणीत हैं. नैतिकता जीवनमूल्यों की वह उच्चतम अवस्था है जो अनगिनत मनस्वियों ने लंबे अनुभव तथा विचारविमर्श के उपरांत मानवमात्र के कल्याण के निमित्त स्वीकार की है. अपने आदर्शरूप में नैतिकता सदैव लक्ष्य होती है. मनुष्य जितना उसके एक स्तर को प्राप्त करता है, तब वह कुछ और ऊपर उठ जाती है. नैतिकता की ओर मनुष्य की अविरत यात्रा, उसके शुभ के संकल्प को सार्थक एवं संभव बनाती है. अध्यात्म मनुष्य को जीवन और सृष्टि के रहस्यों को समझने की योग्यता प्रदान करता है. वह चिर जिज्ञासु और नित युवा है. उसकी शान तर्क में है, मतवैभिन्न्य में है. चीजों को गहराई से समझने में है. नैतिकता मनुष्य को दुनिया की सभी सत्ताओं से ऊंचा स्थान देती है. चरअचर के प्रति करुणा का भाव बनाए रखकर वह मनुष्य से मनुष्य को जोड़े रखने का माध्यम बनती है. बकौल वेदव्यास ‘न मानुषात श्रेष्ठतम् हि किंचित.’ कि ‘सृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है.’ इससे इतर धर्म दो मनुष्यों के बीच तीसरी सत्ता जिसका अस्तित्व ही अप्रामाणिक है, ले आता है. परिणामस्वरूप मनुष्य अनसुलझे भ्रमों में जीने लगता है.

अध्यात्म और नैतिकता से भिन्न धर्म की गति लोकोन्मुखी होती है. व्यवहार में वह लोगों की जीवनचर्या का हिस्सा होता है. समाज की धारा के साथ सहज रूप से गतिमान रहता है. यह सरलता ही उसकी विशेषता है. आप किसी श्रद्धालु को देखिए. उसके धैर्य की दाद देनी पड़ेगी. प्रतिदिन एक लोटा पानी, माला फेरते, इक्कादुक्का आरती को गातेदोहराते वह पूरा जीवन बिता देता है. यह कतई आवश्यक नहीं कि जिस आरती को वह प्रतिदिन वर्षदरवर्ष गाता आया है, उसका अर्थ भी जानता हो. और आरतियां क्या हैं! उनमें आराध्य की वेशभूषा, देह सौष्ठव, अस्त्रशस्त्र अथवा उन कर्मों का बखान होता है, जो वास्तविकता से परे, पोंगापंथियों की कपोलकल्पना होते हैं. आप इसे उसकी श्रद्धा और संयम का नाम देंगे? परंतु मुझे ऐसा मानने में संकोच होगा. आप फिर भी इसे श्रद्धा और संयम कहने पर अड़े रहेंगे तो मैं अपनी बात पर दृढ़ रहते हुए कहूंगा कि यह ओढ़ा हुआ संयम है. क्योंकि ऐसे संयम और श्रद्धा कर्मकांड से बंधे होते हैं और उनसे बाहर कहीं प्रकट नहीं हो पाते. यह विवेकहीन आस्था है. धर्म का लोकप्रिय संस्कार व्यक्ति को व्यक्ति के करीब रहने, उसके साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने से अधिक कथित ईश्वर के निकट रहने को लालायित करता है. अपने पड़ोसी को भूखा रहकर भी देवता को जिलाए रखता है. एक ही तरह के कर्मकांड को बारबार लगातार दोहराने से उसे ऊब नहीं होती. ऊपर से यह भी चाहता है कि उसके बाद आने वाली पीढ़ियां उस क्रम को बनाए रखें. धर्म में परिवर्तन के लिए कोई स्थान नहीं है. वह खंडहरों को पूजता है. जो जितना पुराना है, अपरिवर्तनीय है, वह धर्म की राह में उतना ही सम्मानेय है. इस तरह धर्म लोकव्यवहार का हिस्सा भले हों, अपने असली प्रभाव में वह अधोगामी होता है. वह व्यक्ति को उसके मूल स्वभाव, जो उसके मनुष्य होने की शर्त से जुड़ा है, यानी विवेकीकरण की प्रक्रिया से काट देता है. इसलिए तीसरे मोर्चे के रूप में मैं ऐसे जनसंगठन की कल्पना करूंगा जो मानवीय प्रबोधीकरण का समर्थक हो. जो उसको नैतिकता और अध्यात्म की ओर प्रवृत्त कर सके.

तीसरे मोर्चे का अगला मोर्चा राजनीति होगा. व्यक्ति और समाज का संबंध अन्योन्याश्रित है. बहुसंख्यक होने के कारण ही समाज का स्तर सचमुच बड़ा है. किंतु इस आधार पर उसे व्यक्ति के अधिकारों में कटौती का अधिकार नहीं मिल जाता. इसलिए कि व्यक्ति अपनी स्वाधीनता की सुरक्षा के लिए समाज में सम्मिलित हुआ है, ताकि वह अपने सुख, शांति, सपनों और संकल्पों को सच में बदल सके. समाज के संचालन के लिए उसने अपने ही बीच के कुछ व्यक्तियों को जिम्मेदारी सौंपी थी. लेकिन जिन व्यक्तियों को उसने यह दायित्व सौंपा था, उनमें से कुछ ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग करना आरंभ कर दिया. मनुष्य की बनाई गई व्यवस्था सरल थी. वह उसकी आजादी की रक्षा करती थी. किंतु व्यवस्था के नाम पर, सामाजिक शांति और विकास के नाम पर मनुष्य को हर बार अपनी स्वतत्रंता का एक हिस्सा बलिदान करना पड़ा. आज हालात सामने हैं. आम आदमी महज एक कठपुतली है, कभी धर्म उसको नचाता है, कभी समाज तो कभी राजनीति.

श्रेष्ठ राजनीति वह है जिसका व्यक्ति के जीवन में न्यूनतम हस्तक्षेप हो. जो अपने नागरिकों को भयमुक्त करती हो. इतनी सरल भी हो कि उसके बारे में प्रत्येक व्यक्ति की स्फटिकसी समझ हो. इतनी पारदर्शी हो कि उसका प्रत्येक निर्णय नागरिकमात्र को अपना निर्णय लगने लगे. उल्लेखनीय है कि वैकल्पिक राजनीति स्वयं एक विचारधारा है. परिवर्तनकारी राजनीति का आसान रास्ता नहीं है, बल्कि सर्जना डगर है. उसके लिए न जातीय दमखम जरूरी है न जुगाड़ की राजनीति. बस सबको अपने विवेक के साथ चलने की जरूरत है. इधर यह मान लिया गया है कि लोकतंत्र अभी तक आजमायी गई शासनप्रणालियों में सर्वोत्तम है. कुछ तो इससे इतने ज्यादा सम्मोहित हैं कि ‘विचारधारा के अंत’ की बात कहने लगे हैं. लोकतंत्र से मैं भी अभिभूत हूं. लेकिन आधुनिक लोकतंत्र में जो विकृतियां हैं यदि वह इन्हें दूर करने में असमर्थ रहता है तो मेरा उससे विश्वास जाता रहेगा. आधुनिक लोकतंत्रात्मक राजनीति की दुर्बलता भी यही है कि वह बेहद जटिल संरचना है. आम आदमी तो दूर, साधारण पढ़ेलिखों की समझ से भी परे. उसकी जटिलता से विशेषज्ञ तंत्र को पनपने का मौका मिलता है. ये विशेषज्ञ आमतौर पर अभिजन समुदाय के सदस्य होते हैं. अपनी मेधा से अधिक वे बुद्धिचातुर्य और समझौतापरस्ती से काम चलाते हैं. विशेषज्ञ संस्कृति में उन्हें अपनी बुद्धि जिसे बुद्धिकौशल कहना ही उपयुक्त होगा, का अधिकतम मूल्य वसूलने का अधिकार मिल जाता है. चूंकि निर्णय के अधिकांश अधिकार इसी वर्ग के अधीन होते हैं, इसलिए उनके निरंतर दुरुपयोग द्वारा वह अपनी स्थिति को उत्तरोत्तर मजबूत करता जाता है. परिणामस्वरूप जनसाधारण के अधिकारों में कटौती बढ़ती ही जाती है. शासनप्रशासन की ये चालाकियां साधारणजन की समझ से परे होती हैं. इसलिए आवश्यकता पड़ने पर उसे भी घोषित विशेषज्ञों की शरण में आना पड़ता है. चूंकि उसका क्रय सामर्थ्य अभिजन की अपेक्षा बहुत कम, करीबकरीब नगण्य होता है, अतएव न्याय की स्पर्धा में शोषण एवं पराजय उसकी नियति बन जाते हैं. उत्तरजीविता के संघर्ष में अभिजन समाज पर उसकी निर्भरता बढ़ती ही जाती है. इस स्थिति का उपयोग अभिजन समाज स्वयं को और मजबूत करने के लिए करता है.

लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सरकार बनाने का अधिकार यद्यपि आम नागरिक के पास होता है. इस कार्य को कभी जोश तो कभी अनमने भाव से वह करता भी है. किंतु उदार लोकतंत्र का दावा करने वाले समाजों में भी नागरिकों को न तो भूलसुधार के अवसर प्राप्त होते हैं, न सरकार बनने के बाद उसको नियंत्रित करने के. सिवाय कुछ कानूनी प्रावधानों के जो अत्यधिक जटिल, समयखाऊ एवं खर्चीले होते हैं. आम आदमी उन तक पहुंच ही नहीं पाता है. खुद को उदार कहनेवाले लोकतंत्र आम मताधिकार की प्रशंसनीय व्यवस्था तो करते हैं. किंतु जनमत के आधार पर बनी सरकारें जनाकांक्षाओं पर खरी उतरें, जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के साथसाथ कल्याण के समविभाजन हेतु उनके प्रयास ईमानदार करें, यह सुनिश्चित करने की कोई ठोस व्यवस्था नहीं की जाती. नतीजा यह होता है कि लोकतंत्र कुछेक वर्गों की इजारेदारी बन जाता है. वही बाकी शीर्षस्थ सत्ताओं के सहयोग से समाज को मनमर्जी से हांकने में सफल रहते हैं.

तो मेरी समझ में तीसरा मोर्चे का अगली चुनौती यह होगी कि वह राजनीतिक एकाधिकारवाद के विरुद्ध कार्य करते हुए सत्ता को लोकेच्छा के अनुरूप संचालित कर सके. जो शासन की नीतियों की समीक्षा और अधिकारों का निचले वर्ग की ओर अंतरण करने में सक्षम हो. जो आमजन में भरोसा पैदा कर सके कि अपने हितों की रक्षा के लिए वही बेहतर प्रयास कर सकता है. निजी कल्याण के लिए स्वयं आगे आना होगा. ऐसा उसे अविलंब करना भी चाहिए. सरकार कैसी हो इस बारे में थोरो के विचार बहुत काम के हैं. उसने कहा था—‘सरकार वही भली जो कम से कम शासन करे.’ जिसकी शक्तियां विकेंद्रीकृत हों. फैसलों में पारदर्शिता हो. जो अपनी संरचना में सरलतम हो. तो तीसरे मोर्चे का एक काम यह भी होना कि वह सत्ताओं के पूर्ण विकेंद्रीकरण के लिए कार्य करे. समाज में बड़े शक्तिपीठ न पनपने दे. व्यापक सामाजिक कार्यक्रमों के माध्यम से जनशक्ति को जाग्रत कर, इसे संभव किया जा सकता है.

तीसरे मोर्चे की अगली चुनौती आर्थिक पहलू को लेकर भी होगी. प्राकृत अहेरी अवस्था में अर्थ जैसी कोई चीज न थी. मनुष्य समूहबद्ध होकर शिकार करता था. प्राप्त भोज्यसामग्री का मिलजुलकर भोग कर लेता था. भोजन को लेकर छोटेमोटे झगड़े उस समय भी होते होंगे. संभव है इसे लेकर कबीला बंट जाने की नौबत आ जाती हो. इसके बावजूद, चूंकि पशुअवशिष्ट को लंबे समय तक संरक्षित कर पाना आसान न था, व्यक्तिगत संपत्ति जैसी अवधारणा तब संभव न थी. कालांतर में मनुष्य पशुओं को पालने लगा. पशुओं की संख्या समृद्धि का पर्याय बन गई. पशुधन को अपेक्षाकृत लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता था. प्राकृतिक संसाधन निजी वैभव का पर्याय बने तो विचार भी पहले से निर्मैल्य न रह सके. समाज में छोटेबड़े, ऊंचनीच का भाव फैलने लगा. धर्म के नाम पर, समाज एवं न्यायव्यवस्था के नाम पर बेगार प्रणाली आकार लेने लगी. धीरेधीरे मनुष्य ने खेती में महारत हासिल की. अनाज को लंबे समय तक संरक्षित रखा जा सकता था. प्रकृति मेहरबान हो तो खेतखलिहान सोना उगलने लगते थे. तब अतिरिक्त अनाज के प्रबंधन के लिए समाज के ही चुने हुए व्यक्तियों को उसकी देखरेख की जिम्मेदारी सौंपी जाने लगी. खेती के विकास के साथ सहायक उद्यमों का भी विकास हुआ. इस बीच व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा और गहराने लगी. भूमि वैभव का प्रतीक थी. नश्वर मनुष्य उसके बहाने सतत परिवर्तनशील किंतु अनश्वर प्रकृति से होड़ का भ्रम पाल सकता था. इससे उसके अहं को संतुष्टि मिलती थी. कुल मिलाकर जीवन और समाज में भूसंपदा का महत्त्व लगातार बढ़ता गया.

अतिरिक्त अन्न की देखभाल जैसे कार्यों ने समाज में मुखिया की उपस्थिति को महत्त्वपूर्ण बना दिया था. बाद में उनकी मदद के लिए कुछ आदमी साथ कर दिए गए. धीरेधीरे मुखिया के इर्दगिर्द एक शक्तिपीठ उभरने लगा. घोषित रूप में मुखिया सारा काम समूह एवं बस्ती के विकास के नाम पर कर रहा था. इस कारण अपने निर्णयों के लिए लोग मुखिया पर निर्भर होते चले गए. यह व्यक्ति द्वारा व्यक्ति की दासता की शुरुआत थी. एक व्यक्ति के पास अधिकारों का बाहुल्य था, जबकि दूसरा वर्ग अधिकार और संसाधन दोनों के मामले में पूरी तरह विपन्न था. समाज अभिजन और सामान्यजन में ढलने लगा था. फिर जिस दिन गुमान से भरे मुखिया या उसके उत्तराधिकारी ने विस्तृत भूभाग को देखकर कहा होगा, ‘वह भूमि मेरी है.’—सही मायने में वही आर्थिकराजनीतिक साम्राज्यवाद की शुरुआत थी.

अर्थ, धर्म एवं राजनीति के गठजोड़ से उभरते नएनए सत्ताकेंद्र ऊपर से भिन्न दिखने के बावजूद, स्वार्थ को लेकर एकजुट थे. मनु ने यह कहकर कि समस्त सृष्टि ब्राह्मण की है, वही इसका स्वामी है. बाकी लोग उसी का दिया हुआ खाते हैं, धर्मसत्ता के नाम पर ब्राह्मणवाद की नींव रखी, तो व्यास ने धर्म के साथ राज्यसत्ता को भी पूरा सम्मान दिया. महाभारत में युधिष्ठिर के मुख से उन्होंने कहलवाया कि ‘राजा कभी गलती नहीं करता’. यक्ष द्वारा यह पूछने पर, ‘काल राजा का कारण है कि राजा काल का’, व्यास ने कहलवाया….‘इसमें जराभी दुविधा नहीं कि राजा ही काल का कारण है’—

कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम्

इति ते संशयो मा भूत् राजा कालस्य कारणं.’

भारत ही क्यों? ‘दि किंग इज आ॓लवेज राइट’—कहकर पश्चिम में भी वर्चस्ववाद को तजरीह दी जाती रही. उस समय पूरी दुनिया में आर्थिक संसाधनों पर राज्य का अधिकार होता था. अपने सर्वाधिक वैभवशाली दिनों में रोम की कुल तीन लाख जनसंख्या में से दोतिहाई संख्या दास और अर्धदास की थी. भारत में सत्ता ऊपर के तीन वर्गों ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की अधीन थी. ये तीनों वर्ग मिलकर शूद्र से काम लेते थे. जिसकी जनसंख्या इन तीनों वर्गों की कुल जनसंख्या से अधिक थी. राजा के आदेश पर ही जमींदार और सामंत लगान आदि लेकर किसानों से खेती करवाते थे. जो किसान नहीं थे, उनसे बेगार ली जाती थी. शूद्रों में अनेक हुनरमंद शिल्पकर्मी और मेहनतकश लोग थे. वही सेना के लिए हथियार, खेती, व्यापार के लिए संसाधन और प्रभुवर्ग के लिए विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन करते थे. देखा जाए तो वही असली उत्पादक थे. इसके बावजूद वह व्यवस्था ऐसी थी उन्हें अपनी कला के मूल्यांकन के लिए बाकी तीनों वर्गांे पर निर्भर रहना पड़ता था. ‘सवै भूमि गौपाल की’ दुहाई देने वाला धर्म इस व्यवस्था के लिए चुनौती बनने के बजाय सहायक की भूमिका में था. आय के वैकल्पिक साधन के रूप में व्यापार और शिल्पकला का विकास बहुत पहले हो चुका था. परंतु किसी न किसी रूप में वे सभी राजसत्ता एवं धर्मसत्ता से अनुशासित होते थे. ‘सर्वे सुखिन भवंतु’ कहने वाली जाति और धार्मिक संप्रदायों के ये स्वाभाविक अंतर्विरोध थे.

15वीं शताब्दी तक यही स्थिति बनी रही. न्यूटन और का॓परनिकस की शोधों ने पहली बार धर्म की जड़ताओं को चुनौती दी. विज्ञान ने आगे चलकर औद्योगिक क्रांति का जन्म दिया. फलस्वरूप उत्पादन के वैकल्पिक साधनों का विकास हुआ. नई शिक्षा ने धर्म, राजनीति और अर्थ के परंपरागत ढांचे पर चोट की थी. प्रगतिगामी विचारों की रोशनी में साम्राज्यवाद के गढ़ एकएक कर ढहने लगे. उल्लेखनीय है कि पश्चिम की भांति भारत में भी पंद्रहवीं शताब्दी में सुधारवादी आंदोलन खडे़ हुए थे. कबीर, दादू, रविदास, मलूका जैसे कवियों ने धर्म सत्ता एवं राजसत्ता दोनों के अन्याय एवं अनाचार के विरुद्ध आवाज उठाई थी. पंद्रहवींसोलहवीं शताब्दी में जन्मी सामाजिक क्रांति अपने भीतर धार्मिक सुधारवाद की विपुल संभावनाएं लिए हुए थी. आर्थिक मुद्दों पर वह या तो मौन थी, अथवा अर्थ को नैतिकता की राह में बाधा मानती थी. उससे धार्मिकसामाजिक सुधार की हवा चली, किंतु उसका असर अल्पकालिक ही रहा. कबीर, दादू, रविदास की अगली पीढ़ी के रूप जो कवि आए, चाहे वे तुलसी हों या सूर, सभी ने संतकाव्य की क्रांतिचेतना को निचोड़ने का काम किया. सगुण भक्ति के रूप में वे व्यक्तिपूजा और आडंबरवाद की पुनस्र्थापना करने वाले कवि सिद्ध हुए.

बहरहाल, पश्चिम की वैचारिक क्रांति का लाभ वहां के समाज को पहुंचा, किंतु जैसेजैसे तकनीक में सुधार हुआ, बढ़े उत्पादन को खपाने के लिए नए बाजारों की खोज जरूरी हो गया. बढ़ती स्पर्धा ने उपभोक्ता की पसंद को किनारे कर दिया. विज्ञापन लोगों को चयन को प्रभावित करने लगे. महंगी होती तकनीक ने बाजार में एकाधिकार को बढ़ावा दिया. उत्पादन लोगों की जरूरत के बजाय मुनाफे के लिए होने लगा. यह नए किस्म का सामंतवाद है. इसमें और पुराने सामंतवाद में अंतर बस इतना है कि उसमें संपत्ति का मुख्य आधार जमीन थी. नई व्यवस्था में जमीन की जगह आधुनिक तकनीक ने ले ली है. पूंजीपति इस व्यवस्था का प्रमुख कर्णधार है. इतना मुंहफट कि राजसत्ता से कह सकता था—‘लैजेस फेयर!’ बीच से हटो. हमें हमारा काम करने दो. यह समाज में अर्थसत्ता के बढ़ते दखल का द्योतक है, जिसने बीसवीं शताब्दी में ही तेजी से पांव पसारते हुए पूरी दुनिया को अपने प्रभाव में ले लिया था.

सही मायने में तो यह पूंजीवाद भी नहीं है. क्योंकि जिस एडम स्मिथ को आधुनिक पूंजीवाद का जन्मदाता माना जाता है, उसने अपनी पुस्तक का नाम ‘वैल्थ आ॓फ दि नेशनस्’ रखा था, न कि ‘वैल्थ आ॓फ दि पर्सनस्.’ पुस्तक के माध्यम से उसका ध्येय समाज के समक्ष ऐसी अर्थनीति को पेश करना था, जो संपूर्ण राष्ट्र, न कि कुछ व्यक्तियों या व्यक्ति समूहों, को समृद्धि की ओर अग्रसर कर सके. दूरद्रष्टा स्मिथ पूंजी और राजसत्ता के गठजोड़ की संभावना से परिचित था. उसके दुरुपयोग की ओर संकेत करते हुए उसने इस पुस्तक में लिखा है—

जन सरकारों का गठन (राष्ट्र की) परिसंपत्तियों की सुरक्षा हेतु किया गया था. किंतु वे अपने इस लक्ष्य से बहुत दूर हैं. असल में वे अमीरों की गरीबों से अथवा जिनके पास कुछ संपत्ति है उनकी, जिनके पास कुछ भी नहीं है—से सुरक्षा हेतु गठित की गई है.’1

सच तो यह है कि धर्म, राजनीति और अर्थसत्ता के गठजोड़ से बनी सत्ताएं एकदूसरे को समर्थन देने तथा स्वार्थसिद्धि में जुटी थीं. निजी स्वार्थ को आड़ देने के लिए उन्होंने मानवाधिकार, उपभोक्ता कानून जैसे चलताऊ मुहावरे गढ़ लिए थे. इसके बावजूद एक डर भी उनके भीतर था. ऐसा डर जो लुटेरे, डाकुओं और भ्रष्ट आदमी के मन में हमेशा बना रहता है. पकड़ लिए जाने का डर. वे जानते थे कि जो कर रहे हैं, वह प्रकृति के आचरण के विरुद्ध है, अनैतिक है. प्रकृति ने सभी को आजादी दी है. बराबरी से जीने का अधिकार दिया है. वे जानते थे कि गुलामी का एहसास गुलाम को नया हौसला देता है. धर्म, मानवाधिकार, जैसे आयोजन व्यक्ति को भरमाए रखने के लिए थे. लेकिन नई चेतना के साथ जैसेजैसे अपनी दुर्दशा का वास्तविक कारण लोगों की समझ में आया, वे लूट और शोषण की वर्चस्ववादी व्यवस्थाओं के विरुद्ध सिर उठाने लगे. अठारहवीं शताब्दी के फ्रांसिसी विद्वान इमानुएल जोसेफ सीयेस ने ‘व्हा॓ट इज थर्ड स्टेट’ में लिखा—

 ‘यह थर्ड एस्टेट क्या है?’

कुछ नहीं!’

इसको क्या होना चाहिए?’

सब कुछ.’

राजा क्या है?’

जनता का सेवक’

यदि राजा हमारा सेवक है तो उसका कर्तव्य है हमें रिपोर्ट करे, हमारा आदेश माने.’

यदि वह हमें रिपोर्ट करता, हमारा आदेश मानता है तो वह हमारे नियंत्रण में है.’

यदि वह हमारे नियंत्रण में है तो उसकी कुछ जिम्मेदारियां हैं.’

यदि उसकी कुछ जिम्मेदारियां हैं तो उसको दंडित किया जा सकता है.’

यदि उसको दंडित किया जा सकता है तो उसको उसके अपराध के अनुसार ही दंड दिया जाएगा.’

यदि उसको अपराध के अनुसार दंड दिया जाना है तो उसको मृत्युदंड भी संभव है.’

यह फ्रांसिसी क्रांति से पहले की बात है. उसके बाद तो वहां परिवर्तन की ऐसी लहर उठी थी कि उसकी गमक पूरी दुनिया में सुनाई दी. जितने भी पुराने निजाम थे, जो स्वयं को अजेय, अजस्र, अविनाशी मानते थे. जिन्हें अमरत्व प्राप्त होने के भ्रम था, एकएक कर वे सब ढहने लगे थे.

बीसवीं शताब्दी में मानवतावादी संगठनों के बंटने से पूंजीवाद एक बार पुनः हावी हुआ है. बल्कि कुछ दशकों में तो यह और भी मजबूत हुआ है. इकीसवीं शताब्दी का पूंजीवाद उनीसवीं शताब्दी के पूंजीवाद से भिन्न है. तब का पूंजीवाद परंपरागत सामंतवादी लक्षणों से युक्त था. बाजारों की तलाश तो उसे भी थी, किंतु उसको नए खरीददारों की तलाश होती थी. क्रेता को उपभोक्ता समझने की धृष्टता वह नहीं करता था. नया पूंजीवाद व्यक्ति की पसंदों का निहित स्वार्थ के अनुसार अनुकूलन करता है. उपभोक्ता को भ्रम में डाल देने वाले लुभावने विज्ञापनों के माध्यम से वह उसे चयन का अवसर तक नहीं देता. वह पहले की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशाली है. उसकी पहुंच अंतरराष्ट्रीय, और पैठ इतनी गहरी है कि जब चाहे दो देशों को युद्ध की आग में ढकेल सकता है. अमेरिका द्वारा जापान पर परमाणु बम गिराने का मसला केवल राजनीतिक या सामरिक नहीं था, उसके पीछे उन पूंजीपतियों का भी योगदान था, जिन्हें मंदी से गुजर रही अर्थव्यस्था को उबारने के लिए नए बाजारों की तलाश थी. दुनिया को युद्धों में उलझाकर वे हथियारों का बड़ा बाजार देख रहे थे. परमाणु अस्त्रों ने आमनेसामने के युद्ध की संभावनाओं को कम कर दिया है. यूं भी नए युद्ध अर्थव्यवस्था की जमीन पर लड़े जाते हैं. उनमें जीतहार किसी की हो, जनसाधारण के हिस्से महंगाई और मुश्किलें ही आती हैं.

तो मेरी समझ में तीसरे मार्चे का तीसरा और आखिरी मोर्चा यह होगा कि वह दुनिया को बराबरी और समानता का संदेश दे सके. वह देश की जनता को ‘थर्ड स्टेट’ के मायने समझा सके. जो पूरे समूह को एक इकाई के रूप में देखने का जज्बा अपने देशवासियों में भर सके. जो उन्हें आर्थिक आत्मनिर्भरता के मायने सिखाए. लोगों को यह भी बताए कि देह चाहे अमीर की हौ या गरीब की, वह एक समान प्राकृतिक तत्वों की बनी है. उसकी जरूरतें समान हैं. जो प्रकृति लोगों को जीवन देती है, काया का संस्कार देती है, उसपर उसी की बनाई देह कब्जा करे, उसको मनमर्जी से हांकने की कोशिश करे, उसे वह न दे जो नैसर्गिक समानता के सिद्धांत के चलते उसका अधिकार है, तो यह सरासर अनैतिकता है. यह सब करने के बाद ही तीसरा मोर्चा परिवर्तन का असली मोर्चा बन सकेगा.

© ओमप्रकाश कश्यप

1. Civil government, so far as it is instituted for the security of property, is in reality instituted for the defence of the rich against the poor, or of those who have some property against those who have none at all.” Adam Smith, The Wealth of Nations:An Inquiry into the Nature & Causes of the Wealth of Nations.