प्लेटो का मानना था कि सभी मनुष्य अपूर्ण हैं, इसलिए उन्हें राज्य के रूप में संगठित–सुनियोजित होने की आवश्यकता पड़ती है. चूंकि हर व्यक्ति प्रत्येक कार्य में निपुण नहीं हो सकता, इसलिए राज्य का कर्तव्य है कि व्यक्ति की रुचि, योग्यता और सामर्थ्य के आधार पर उसके अनुकूल कर्तव्य का निर्धारण करे. प्लेटो का यह भी मानना था कि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति स्वयं को समाज के लिए उपयोगी बना सकता है. शिक्षा की महत्ता को समझते हुए उसने ‘अकादमी’ की स्थापना की थी. प्लेटो का शिक्षा–दर्शन उसकी संवाद–पुस्तकों ‘रिपब्लिक’ तथा ‘लॉज‘ में विस्तारपूर्वक सामने आया है. उसने न्यायाधारित समाज की परिकल्पना की थी, जिसमें सभी व्यक्ति अनुशासनबद्ध रहकर अपना सर्वोत्तम सहयोग दे सकें. कबीलाई योद्धाओं और तानाशाह सम्राटों से भरे यूनान में यह एक आदर्श कल्पना थी. प्लेटो का राज्य एक कल्पनालोक जैसा है. लेकिन वह आदर्श मनुष्य द्वारा अभिकल्पित वृहद नागरिक समाज के लिए है, जिसमें पराभौतिक शक्तियों का कोई हस्तक्षेप नहीं है. उल्लेखनीय है कि आदर्शलोक की अभिकल्पना भारतीय वेदादि ग्रंथों में भी गई है, लेकिन वहां आदर्शलोक की स्थापना बिना आध्यात्मिक शक्तियों की कृपा के असंभव है. प्लेटो यथार्थ और कल्पना के अंतर को भली–भांति समझता था. वह जानता था कि विचारों को सर्वत्र साकार कर पाना संभव नहीं होता. वे सिर्फ प्रेंरणादायी हो सकते हैं. इसलिए उसका यह भी मानना था कि विचारजगत, परिवर्तनशील वस्तुजगत की अपेक्षा अधिक स्थायी एवं वास्तविक होता है. रूसो ने अपनी पुस्तक ‘एमाइल’ में प्लेटो के संवाद ‘रिपब्लिक’ को शिक्षा–दर्शन की सबसे पहली पुस्तक माना है. ‘लॉज‘ में प्लेटो औपनिवेशिक नगर–राज्य के लिए न्यायिक व्यवस्था का विस्तृत खाका तैयार करता है. इन दोनों संवाद–पुस्तकों की विषयवस्तु प्लेटो के आदर्शराज्य की स्थापना के लिए समर्पित है. यद्यपि उनमें किंचित अंतर है, तथापि समाज में शिक्षा की अनिवार्यता को लेकर दोनों ही पुस्तकों में असंद्धिग्ध एकरूपता है. उल्लेखनीय है कि जहां ‘रिपब्लिक’ में उसने आदर्श राज्य की व्याख्या की है, वहीं ‘लॉज‘ में उन व्यावहारिक पक्षों की गंभीर विवेचना की गई है, जिनके आधार पर किसी वांछित शासन–व्यवस्था को अनुकूल आकार दिया जा सकता है.
प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में लोगों को कुल तीन भागों में विभाजित किया है. पहला है—दास, जिनके लिए उसने इस ‘संवाद’ में विशिष्ट प्रावधान किए हैं. दूसरे हैं दस्तकार, हस्तशिल्पी यथा काष्ठकार, बुनकर, चर्मकार, दुकानदार, राज–मिस्त्री छोटे व्यवसायी, जो उत्पादन विपणन के लिए जिम्मेदार हैं और सही मायने में किसी भी समाज अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं. दास और शिल्पकार वर्गों को उसने नागरिकता के अधिकार से वंचित रखा है. तीसरी श्रेणी संरक्षक वर्ग की है, जिसको उसने पुनः दो भागों ‘पूरक’ अथवा ‘सहायक’ और ‘सक्षम’ में विभाजित किया है. राज्य के शासन को कुशलतापूर्वक चलाने की जिम्मेदारी इसी संरक्षक वर्ग की है. ‘पूरक’ अथवा ‘सहायक’ संरक्षक अपेक्षाकृत युवा होते हैं, जिनके ऊपर राज्य की आंतरिक एवं बाह्यः सुरक्षा का दायित्व होता था. पुलिस और सेना इनके अधीन होती हैं. संरक्षकों का दूसरा वर्ग शासन का वास्तविक कर्ता–धर्ता और नियामक होता है. राज्य की समस्त निर्णायक शक्तियां इसी वर्ग के अधीन होती हैं. प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य के सर्वोच्च शासनाधिकारी के रूप में ‘दार्शनिक सम्राट’ को रखा है. दार्शनिक सम्राट वह बन सकता है जो बुद्धि, विवेक, साहस, ज्ञान, समानता, दयालुता, निष्पक्षता आदि मानवीय गुणों से संपन्न हो. ऐसे व्यक्ति के कंधों पर राज्य की सुरक्षा और शांति–व्यवस्था के साथ विकासदर को भी उत्तरोत्तर गतिमान बनाए रखने की जिम्मेदारी होती है. उल्लेखनीय है कि प्लेटो के दो प्रमुख ‘संवाद’ ‘रिपब्लिक’ एवं ‘दि स्टेट्समेन’ में जहां दार्शनिक सम्राट का उल्लेख होता है, वहीं ‘लॉज‘ में वह संरक्षक वर्ग में से चुने गए प्रतिनिधि–मंडल को राज्य की बागडोर सौंपने का समर्थन करता है. ‘लॉज‘ प्लेटो के अंतिम दिनों की रचना है. ‘रिपब्लिक’ का लेखन ‘लॉज‘ से लगभग बीस पहले संपन्न हुआ था. जिसमें उसने दार्शनिक सम्राट की परिकल्पना की थी और लोकतांत्रिक शासन–पद्धति की आलोचना. इससे लगता है कि ‘लॉज‘ तक आते–आते प्लेटो को लगने लगा था कि कुछेक व्यक्तियों, चाहे वे दार्शनिक ही क्यों न हों, के हाथ में सत्ता का सिमटना घातक हो सकता है, इसके निदान के लिए वह दार्शनिक मंडल के हाथों में सत्ता सौंपने का विचार प्रस्तुत करता है, जो गणतंत्र की भावना के अपेक्षाकृत निकट है.
प्लटो का मानना था कि आदर्शराज्य में बहुत अधिक फेरबदल की संभावना नहीं होती. अगर नागरिक ऐसा महसूस करते हैं, तो समझना चाहिए कि उनमें असंतोष बना हुआ है, यानी वहां राज्य के स्तर पर कोई कमी बनी है. आदर्श राज्य की तुलना उसने प्राचीन यूनानी मंदिर से की थी, जिसमें कोई बड़ा फेरबदल संभव नहीं होता. आदर्श राज्य के बदलाव व्यवस्था को और आदर्श एवं नीति–संपन्न बनाने के लिए होने चाहिए. संरक्षक वर्ग का दायित्व है कि वह स्वयं को राज्य–कल्याण के प्रति समर्पित रखे. उनमें भौतिक वस्तुओं, विशेषकर विलासितापूर्ण सामग्री के प्रति कोई आकर्षण नहीं होना चाहिए, इसलिए कि ऐसी वस्तुएं निरर्थक स्पर्धा और आपसी ईष्र्या को बढ़ाती हैं. इसलिए उन्हें इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि उनमें विलासिता की सामग्री के प्रति स्वतः अनाकर्षण हो. अभिभावकों को सैनिक की भांति करना चाहिए, जिसका दायित्व उसकी रक्षा करना है, जिसके लिए उसे नियुक्त किया गया है. उन्हें गंभीर और मननशील होना चाहिए, ताकि वे निजी आकांक्षाओं से बच सकें. संरक्षक वर्ग में निजी महत्त्वाकांक्षा के शमन के लिए प्लेटो उनके लिए सामूहिक आवास–बस्तियां बनवाने का सुझाव देता है. यही नहीं सामाजिक एकता के पक्ष में वह निजी संपत्ति के सभी प्रतीकों का सामूहिकीकरण करते हुए संरक्षक वर्ग के लिए सामूहिक आवास–कक्ष, मनोरंजनालय, यहां तक कि पत्नियों और बच्चों में भी साझेदारी का सुझाव देता है. प्लेटो ने शिक्षा के महत्त्व को स्वीकारा है, मगर इस बारे में प्लेटो के विचार उस समय आधुनिकता विरोधी जान पड़ते हैं, जब वह लिखता है कि शिक्षा का एक कृत्य यथास्थिति बनाए रखना भी है. वह ऐसे आविष्कारों का निषेध करता है, जो आदर्श समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हों. और अपेक्षा करता है कि शिक्षा ऐसे परिवर्तनों से आगाह करने के लिए सचेतक की भूमिका भी निभाएगी. उसके अनुसार शिक्षा इन बदलावों का न केवल विरोध करती है, बल्कि अपसंस्करण की कोशिशों को नाकाम करने के लिए नागरिकों को सदैव तत्पर भी रखती है.
किंचित विरोधाभास के बावजूद प्लेटो का शिक्षा दर्शन पर्याप्त आधुनिक और अभिनव संभावनाओं से युक्त है. वह पहला विचारक था जिसने स्त्रियों की शिक्षा पर बराबर जोर दिया, खासकर ऐसे समय में जब उसके समकालीन विचारकों में से अधिकांश स्त्रिायों को घर की चारदीवारी से बाहर कोई जिम्मेदारी देने को तैयार न थे. प्लेटो के आदर्श राज्य में लड़के और लड़की की शिक्षा में कोई भेद नहीं था. लड़कियां लड़कों की भांति उनके साथ न केवल नंगी व्यायाम कर सकती थीं, बल्कि वे शिक्षा भी ग्रहण कर लेती थीं. उन्हें सेना के साथ सशस्त्र सैनिक के रूप में युद्ध में भाग लेने के अधिकार भी प्राप्त थे. शिक्षालयों में उनके साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं बरता जाता था. प्लेटो ने संरक्षक वर्ग के सदस्यों और उनकी संतान के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया है. दस्तकारों, शिल्पकर्मियों तथा दुकानदारों की शिक्षा के बारे में उसका मानना था कि उन्हें केवल उनके व्यवसाय से संबंधित प्रशिक्षण देना ही पर्याप्त होगा. दासों के लिए उसने शिक्षा को पूर्णतः अनावश्यक माना है. उल्लेखनीय है कि प्लेटो अभिजात नागरिकों की शिक्षा के बारे में तो क्रांतिकारी सुझाव देता है, किंतु बाकी जनसमाज की शिक्षा के प्रति उसके विचार परंपरागत और रूढ़िवादी हैं. इसके लिए प्लेटो को दोष देने के बजाय हमें यह भी मानना होगा कि वह स्वयं अभिजात्य वर्ग से था. शिक्षा को लेकर उसके विचार तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल थे. उनमें बहुत परिवर्तनकारी चिंतन भी नहीं था, जैसा कि सतरहवीं–अठारवीं शताब्दी के फ्रांस में संभव हो सका, जहां रूसो ने शिक्षा को सभी वर्गीय भेदभावों से परे, सभी के लिए सुलभ करने की आवश्यकता पर जोर दिया. तथापि हमें प्लेटो की इसके लिए सराहना करनी होगी कि 2400 वर्ष पहले के समाज में उसने एक संपूर्ण शिक्षातंत्र की परिकल्पना की थी, जिसमें प्रशासन से लेकर शैक्षिक विषय–वस्तु पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया था.
आदर्शराज्य की परिकल्पना की स्थितियों की संभावना को आगे बढ़ाने वाली अपनी एक अन्य संवाद पुस्तक ‘लॉज‘ में प्लेटो उसके अनिवार्य शिक्षातंत्र की विशेषताओं का सविस्तार उल्लेख करता है. उसके अनुसार पूरा तंत्र किसी कुशल पर्यवेक्षक की देखरेख में होना चाहिए, जो शिक्षा से जुड़े समस्त मामलों की विशद जानकारी रखता हो तथा जो समाज के सभी वर्गों, स्त्री, पुरुष आदि के बीच बिना किसी भेदभाव के शिक्षा का प्रसार कर सके. यह पूछे जाने पर शिक्षा का लाभ क्या है, प्लेटो इसी संवाद में एक एथेंसवासी के माध्यम से स्पष्ट करता है—
‘यदि तुम यह जानना चाहते हो कि शिक्षा का सामान्य लाभ क्या है, तो इसका उत्तर बहुत आसान है—शिक्षा मनुष्य को सदगुण–संपन्न करती है; और सद्गुण–संपन्न व्यक्ति विनम्रतापूर्ण व्यवहार करता है. अपनी विनम्रता के बल पर वह युद्ध में अपने शत्रुओं का दिल भी जीत लेता है.’1
प्लेटो यहां निर्दिष्ट करता है शिक्षा का दायित्व मंत्री स्तर के उस व्यक्ति को सौंपा जाना चाहिए तो उदार, गुणी और भेदभाव रहित हो. वह किसी प्रतिष्ठित परिवार में जन्मा हो तथा उसकी उम्र ‘कम से कम पचास वर्ष’ होनी चाहिए. उसको यह पता होना चाहिए कि उसका कार्य बाकी सभी मंत्रियों की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है. शिक्षा के लिए विद्यार्थी की उम्र कितनी हो? इस बारे में वह लिखा है कि बालक की शिक्षा का शुभारंभ यथासंभव न्यूनतम उम्र से कर देना चाहिए. यदि संभव हो तो उसके जन्म से अथवा उसके पहले से भी. उसके अनुसार शिक्षा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा ही वह है, जो बचपन में सिखाया जाता है—इसलिए अभिभावक वर्ग का दायित्व है कि वह शिशु की शिक्षा का अनुकूल प्रबंध करे. ताकि बड़ा होने पर वह अपने कार्य में पूरी दक्षता प्राप्त कर सके. प्लेटो के अनुसार शिक्षा कभी समाप्त न होने वाला कृत्य है. उसके लिए उम्र की कोई सीमा नहीं है. इसलिए बालक को जहां तक संभव हो, जन्म से ही शिक्षा के लिए तैयार किया जाना चाहिए. प्लेटो प्रौढ़ शिक्षा का समर्थक था. उसके अनुसार ऐसे व्यक्तियों को जो किसी कारणवश बचपन में शिक्षा से वंचित रह गए हों, बड़ा होने पर शिक्षा दी जा सकती है. संरक्षक वर्ग को तो आजीवन, जन्म से लेकर सेवानिवृत्ति की अवस्था तक, कुछ न कुछ लगातार सीखते रहना चाहिए. ‘लॉज‘ में प्लेटो आदर्श राज्य में अधिकारियों की भर्ती की प्रविधियों के बारे में भी विस्तार सहित चर्चा करता है, जिसके अंतर्गत वह कानून–विशेषज्ञ संरक्षकों, पुजारियों, पहरेदारों, शिक्षा विभाग के मंत्री, न्यायाधीश आदि की भर्ती के तरीकों के बारे में सुझाव देता है. उसके अनुसार कानून सभी के लिए सुलभ होना चाहिए. न्याय से असहमति की स्थिति में व्यक्ति को अपील का अधिकार होना चाहिए—इसे ध्यान में रखते हुए वह अपील प्राधिकारी की नियुक्ति तथा अपील की प्रविधि का विस्तार सहित उल्लेख करता है.
‘रिपब्लिक’ में प्लेटो ने शिक्षा को दो प्रमुख वर्गों ‘संगीत’ एवं ‘व्यायाम’ में विभाजित किया है. यह विभाजन केवल नाम तक सीमित नहीं है. प्लेटो के लिए ‘संगीत’ का अर्थ हर उस बोध से है जिसको मनुष्य अपने जीवन में ग्रहण कर सकता है. उसी प्रकार ‘व्यायाम’ से उसका आशय लगभग वैसा ही है, जैसा आजकल ‘एथिलीट’ शब्द से है, जो शारीरिक और मानसिक स्वाथ्य दोनों पर जोर देता है. प्लेटो नागरिकों को शारीरिक और मानसिक रूप से हृष्ट–पुष्ट देखना चाहता था. धैर्य, अनुशासन और साहस को उसने शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य के रूप में लिया था. साहित्य के अंतर्गत बच्चों को क्या पढ़ाना चाहिए, इसपर भी वह नियंत्राण के पक्ष में था. खासकर प्राचीन यूनानी प्रेमकथाओं को लेकर, जिन्हें वह बालमनोविज्ञान के प्रतिकूल मानता था. लेकिन वह संगीत शिक्षा की अनुमति देता है. उसके अनुसार मां और नर्स का कर्तव्य है कि वे बच्चों को केवल साहस, धैर्य और कर्तव्यपरायणता से भरपूर कहानियां सुनाएं. होमर और हेसोद की रचनाओं को वह बालमनोविज्ञान के प्रतिकूल मानता था, इसलिए उसने ‘रिपब्लिक’ में इन कहानियों को सुनाए जाने का निषेध किया है. प्लेटो के अनुसार ये कहानियां ईश्वर के बारे में गलत पाठ पढ़ाती हैं. ये शिक्षा देती हैं कि ईश्वर भी कभी–कभी बुरे कार्यों में लिप्त हो जाता है, जो सर्वथा असत्य एवं भ्रामक है, जिसे तर्क द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता. प्लेटो के अनुसार किशोरों को पढ़ाया जाना चाहिए कि बुराइयां कभी भी ईश्वर की ओर से नहीं आतीं. सृष्टि में व्याप्त ‘शुभ–अशुभ’ में से केवल ‘शुभ’ ही ईश्वर की निर्मिति है. ‘अशुभ’ या तो भ्रांति है अथवा मानवीय लालच और अज्ञानता की उपज. इसलिए सुधार की आवश्यकता मनुष्य और उसकी समाज रचना में. प्लेटो के परमशुभ की धारणा का विस्तार सर्वेश्वरवादी दार्शनिक बरुच स्पिनोजा(1632—1677) तथा द्वंद्ववादी विचारक फ्रैड्रिक हीगेल (1770—1831) के दर्शन में देखने को मिलता है. इन दोनों ही दार्शनिकों ने शुभत्व की अवधारणा को स्वीकार किया है.
महान यूनानी कवि होमर की रचनाओं को बच्चों के लिए निषिद्ध मानने का अन्य कारण यह था कि उसकी रचनाएं प्रेम और संवेदना का पक्ष लेती हुई, उन्हें बढ़ावा देने का काम करती हैं. प्लेटो के अनुसार वे बच्चों को मृत्यु से डरना सिखाती हैं, जबकि शिक्षा का उद्देश्य बालकों में जोश भरना, वीरता और युद्धक्षेत्र में शहीद हो जाने की भावना पैदा करना भी है. अतः किशोरों को सिखाया जाना चाहिए कि दासता मृत्यु से कहीं बदतर है. इसलिए उन्हें रोने–धोने वाले मनुष्य की कहानी सुनाने से बचना चाहिए, भले ही वह व्यक्ति अपने किसी निकट मित्र अथवा संबंधी की मृत्यु के कारण शोक–निमग्न क्यों न हो. अनुशासन के रूप में प्लेटो चाहता था कि बच्चों को गंभीर रहने की शिक्षा दी जाए. उन्हें सिखाया जाना चाहिए कि जोर से हंसना अशिष्ठता का प्रतीक है. उसने होमर, हेसोद की रचनाओं को बालकों के लिए इसलिए भी अनुपयुक्त माना था, क्योंकि उनमें शानदार दावतों का गुणगान किया गया है. वे ईश्वर को लालची सिद्ध करती हैं. प्रकारांतर में वे बच्चों में धनसंग्रहण एवं विलासितामय जीवनशैली के प्रति ललक बढ़ाती हैं. इस प्रकार की कहानियां बालकों के धैर्य के लिए घातक हैं. वह बच्चों को ऐसी कहानियां सुनाने के पक्ष में भी नहीं था, जिसमें बुरे आदमी को सुखी और भले व्यक्ति को दुखी बताया गया हो. उसके अनुसार इससे बालक की अनैतिक जीवन के प्रति आसक्ति बढ़ सकती है. चूंकि कविताओं में करुणा, दया आदि मानवीय संवेगों का बढ़ा–चढ़ाकर बखान किया जाता है, इसलिए उसने युवा विद्यार्थियों को कवि और कविताओं से दूर रखने की सलाह दी है. नाटक को लेकर भी प्लेटो ने रोचक बात कही है. उसके अनुसार कोई भी भला व्यक्ति किसी बुरे व्यक्ति की नकल करने से बचेगा, जबकि प्रायः सभी नाटकों में खलनायक की मौजूदगी होती है. नाटककार एवं अभिनेता उस पात्र को जीवंत बनाने के लिए उसकी खलनायकी के तरह–तरह के रूप, कई बार बढ़ा–चढ़ाकर भी, दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं. परिणामस्वरूप लोगों को अपराध के नए तरीकों की जानकारी मिल सकती है. प्लेटो लिखता है कि न केवल खलनायक, बल्कि स्त्री, दास तथा अन्य निम्नवर्गीय व्यक्तियों का अभिनय भले व्यक्तियों को करना पड़ता है. इसलिए ऐसे नाटकों के प्रदर्शन पर रोक लगाई जानी चाहिए, विशेषकर बच्चों को तो उनसे दूर रखना ही श्रेयस्कर है. उनके लिए ऐसे नाटक लिखे जाने चाहिए जिसमें किसी भी दोषी, अपराधी अथवा चरित्राहीन व्यक्ति का उल्लेख न हो. चूंकि अधिकांश नाटक मंडलियों की राय में ऐसे नाटक लिखे जाने संभव नहीं हैं, इसलिए प्लेटो ने उन सभी को नगर से निर्वासित करने की सलाह दी है.
प्लेटो संगीत पर भी नजर रखने के पक्ष में था. खासकर बच्चों के संगीत को लेकर. उसका मानना था कि अभिभावक वर्ग का यह कर्तव्य है कि बच्चों को उसी संगीत का आनंद लेने दें, जो उनके लिए पूरी तरह उपयुक्त हो. जो उनके चारित्रिक विकास में सहायक हो. इस आधार पर उसने प्राचीन लीडियन और आयोनियन संगीत को बच्चों के मनोविज्ञान के प्रतिकूल मानते हुए उससे उन्हें दूर रखने का सुझाव दिया है. प्लेटो के अनुसार इस प्रकार का संगीत बच्चों में दुख तथा नैराश्य की भावना पैदा कर उन्हें भाग्योन्मुखी और शिथिल बनाता है. इसके स्थान पर उसने डोरियन तथा फ्राइजियन संगीत को बच्चों के लिए उपयुक्त माना है, इसलिए कि वह बच्चों में साहस, धैर्य एवं दृढ़ता की भावना का विकास करता है. उसका मानना था कि बच्चों के लिए तैयार की जाने वाली धुनें आसान होनी चाहिए. आवश्यक है कि उनसे साहस और आपसी तालमेल युक्त, सामूहिक जीवन का संदेश मिलता हो. बच्चों को सादा और संयमित जीवन की शिक्षा दी जानी चाहिए. उनका भोजन साधारण हो, जिसमें भुने हुए मांस–मछली तथा ऐसे ही साधारण व्यंजनों को सम्मिलित किया जा सकता है. विलासिता के प्रतीक चटनी, मिठाई जैसे चटकारेदार और स्वादिस्ट व्यंजनों को बच्चों के भोजन से दूर रखना चाहिए. यदि लोगों का रहन–सहन मर्यादित और संयमित होगा तो उनका स्वास्थ्य भी उत्तम रहेगा. उन्हें चिकित्सक की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी.
प्लेटो के अनुसार युवाओं को मर्यादित भाषण की शिक्षा दी जानी चाहिए. उन्हें न तो जोर से गाना चाहिए, न ही मुंह से कोई भद्दा मजाक करना चाहिए. लेकिन किशोरावस्था पार करते समय, उन्हें गाने और चीखने–चिल्लाने की शिक्षा दी जा सकती है. उन्हें अपने मुंह से ऐसी आवाज निकालने का अभ्यास कराना चाहिए, जो आतंक पैदा करती हो. यह भी अत्यावश्यक है कि उस समय वे स्वयं आतंकित न हों. उन्हें पीड़ा का अहसास भी कराया जाना चाहिए, परंतु इस प्रकार कि वह उनकी इच्छाशक्ति एवं संघर्ष–भावना को कमजोर न पड़ने दे. युद्ध की शिक्षा देने के लिए युवाओं को युद्धस्थल पर ले जा सकता चाहिए, किंतु उन्हें युद्ध में सीधे भाग लेने से यथासंभव बचाना चाहिए. इस तरह कठोर प्रशिक्षण से गुजरने के पश्चात ही बच्चे भविष्य में संरक्षक की भूमिका का सफल निर्वाह कर सकते हैं.
प्लेटो लैंगिक समानता का समर्थक था. ‘रिपब्लिक’ में उसने लड़कों और लड़कियों को संगीत तथा व्यायाम की एकसमान शिक्षा दिए जाने का समर्थन किया है. अपने समकालीन विचारकों से इतर वह लड़कियों को युद्ध की भी वैसी ही शिक्षा दिए जाने के पक्ष में था, जैसी लड़कों को—
‘समान शिक्षा आदमी को श्रेष्ठ संरक्षक तथा स्त्री को अच्छी संरक्षिका बनने में मदद करेगी, इसलिए कि दोनों का मूलभूत स्वभाव एक जैसा होता है.’2
बावजूद शैक्षिक समानता के प्लेटो स्त्रिायों को सक्रिय राजनीति से दूर रखने का समर्थक था. उसके अनुसार राजनीति का क्षेत्र स्त्रियों के लिए अनुपयुक्त है. न स्त्रियों के पास कुछ ऐसा है जिसके द्वारा वे राजनीति में कामयाब हो सकें. हालांकि कुछ स्त्रियां दार्शनिक प्रवृत्ति की हो सकती हैं. मगर यह गुण उन्हें अच्छी संरक्षिका तो बना सकता है, राजनीति में पारंगत नहीं. प्लेटो के अनुसार स्त्रिायों की अतिशय भावुकता ही उन्हें राजनीति के लिए अपात्र सिद्ध करती है. यह संभव है कि कुछ लड़कियों की रुचि युद्ध में हो, उनमें अच्छी सैनिक बनने के लक्षण भी हो सकते हैं. इसके बावजूद उन्हें सेना में भर्ती के योग्य नहीं माना जा सकता. प्लेटो के अनुसार राज्य के संविधान व्यवस्था होनी चाहिए कि वह स्त्राी और पुरुष में सादा रहन–सहन और सहजीवन के प्रति उत्सुकता एवं ललक को बढ़ावा दे. इसके लिए उन्हें बचपन से ही प्रशिक्षित किया जाना चाहिए. उन्हें एक ही रसोई का बना भोजन करने की प्रेरणा मिलनी चाहिए. वह विवाह–संस्था के परंपरागत स्वरूप में क्रांतिकारी परिवर्तन का समर्थक था. चूंकि उस समय राज्य छोटे थे और उनमें अक्सर युद्ध होते रहते थे, ऐसे में जनसंख्या के न्यूनतम स्तर को बनाया रखना भी एक बड़ी चुनौती थी. इसलिए प्लेटो ने संतानोत्पत्ति को नागरिक–धर्म माना है. ‘रिपब्लिक’ में उसने अनुशंसा की है कि खास अवसरों पर उतने पति–पत्नियों को, जितने जनसंख्या को स्थायी बनाए रखने के लिए आवश्यक हों, साथ–साथ रहने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए. यहां उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि प्लेटो ‘टाइमस’ में विवाह संस्था का निषेध करता है. ऐसे में संतति नियमन और प्रजनन का स्वरूप क्या होगा? विशेषकर उस राज्य में जो अपने प्रत्येक नागरिक की देखभाल करना, उसके हितों का संरक्षण करना अपना कर्तव्य मानता हो. इसपर टिप्पणी करते हुए सुकरात टाइमस को अपने पिछले संवाद की याद दिलाता है, जिसमें उसने अपने आदर्श राज्य के लिए व्यवस्था की थी कि उसमें—
‘सभी पत्नियां और बच्चे साझे होगे, संबंधों का निर्वाह इस प्रकार किया जाएगा कि कोई भी व्यक्ति अपने बेटे अथवा बेटी की पहचान न कर सके, बल्कि लोगों में यह धारणा बलवती रहे कि वे सब एक ही परिवार के अंग हैं. उम्र–विशेष तक सभी लड़के–लड़कियां स्वयं को भाई–बहन मानेंगे, जो उनसे बड़े हैं वे स्वयं को अपनी उम्र के अनुसार माता–पिता और दादा–दादी समझेंगे, इसी प्रकार युवा स्वयं को उनके बेटा–बेटी अथवा पोते–पोतियां मानेंगे.’3
प्लेटो बच्चों को जन्म से ही राज्य के संरक्षण में रखने और और पूर्व निर्धारित मापदंडों के अनुसार उनका पालन–पोषण करने का सुझाव देता है. किंतु वह मानता है कि शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर तथा हृष्ट–पुष्ट बच्चों का लालन–पालन अलग–अलग समूहों में होना चाहिए. कठोर निर्णय लेते हुए वह अःशक्त एवं अपंग बच्चों को अज्ञात स्थान पर रखने का सुझाव देता है. प्लेटो का लेखनकाल लंबा रहा है. अपने सुदीर्घ जीवन में वह पचास से अधिक वर्षों तक सक्रिय लेखन करता रहा. इसलिए उसके लेखन में कहीं–कहीं विरोधाभास भी नजर आते हैं. जैसे एक स्थान पर तो वह लिखता है कि बच्चों की प्राथमिक शिक्षा का दायित्व उनके माता–पिता का होगा. ‘रिपब्लिक’ में वह जोर देकर कहता है कि समाज में पति–पत्नी साझे होंगे और अभिभावक अपनी वास्तविक संतान के बारे कभी नहीं जान पाएंगे. वहीं दूसरी ओर ‘लॉज‘ में वह माता–पिता को अपने बच्चों के साथ संतुलित व्यवहार करने का परामर्श देता है. वह अपेक्षा करता है कि आदर्श राज्य के माता–पिता अपने बच्चों को कानून की मर्यादाओं का पालन करने तथा अनुशासन में रहने की शिक्षा देंगे. वह लिखता है कि—
‘बच्चों की उपेक्षा उन्हें मानसिक रूप से चिड़चिड़ा, कमजोर तथा अधैर्यवान बना सकती है, उनके साथ दोषपूर्ण व्यवहार तथा अज्ञानतापूर्ण जोर–जबरदस्ती, मारपीट उन्हें कठोर, चापलूस, संकोची एवं एकांतजीवी बनाएगी. प्रकारांतर में वे सामान्य पारिवारिक और नागरिक जीवन जीने के अयोग्य हो सकते हैं.’4
प्लेटो का मानना था कि शारीरिक प्रशिक्षण, कसरत के बारे में बच्चों को उनके बचपन से ही सिखाया जाना चाहिए. शिशु के अच्छे स्वास्थ्य के लिए उसने गर्भवती महिलाओं को भी घूमने–फिरने तथा भोजन पर ध्यान देने की सलाह दी है. शारीरिक शिक्षा की भांति बच्चों का सांस्कृतिक प्रशिक्षण भी छोटी अवस्था से ही आरंभ कर देना चाहिए. अभिभावक कहानी के माध्यम से बच्चों को अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के बारे में बता सकते हैं. लेकिन उन्हें वही कहानियां सुनाई जानी चाहिए जो उनकी उम्र के लिए उपयुक्त हों तथा उनके मानसिक विकास में सहायक सिद्ध हों. वह बच्चों को सुनाई जानी वाली कहानियों पर नियंत्राण रखने के पक्ष में था. उसका सुझाव है कि बच्चों को सुनाई जाने वाली कहानियां सरल, किंतु प्रभावयुक्त होनी चाहिए, जो उनके मानसिक स्तर के अनुकूल हों—तभी वे उन्हें रुचि लेकर पढ़ सकेंगे. बच्चों को सुनाई जाने वाली कहानियों को लेकर प्लेटो इतना सतर्क है कि वह होमर आदि प्राचीन यूनानी कवियों की रचनाओं को भी बच्चों के लिए निषिद्ध ठहराता है. कहानियों के अलावा खेल भी बच्चों के चरित्र विकास में सहायक होते हैं. इसलिए उसका मानना था कि बड़ा होने पर व्यक्तिमात्र के लिए जो भी आवश्यक है, उसकी शिक्षा उसको बचपन से ही, खेलों के माध्यम से दी जानी चाहिए. यदि किसी बालक में अच्छा भवन निर्माता बनने का गुण है, तो उसके खेलों की रूपरेखा इस प्रकार निर्धारित की जानी चाहिए, जिससे उसको भवन–निर्माण की बारीकियों की जानकारी खेल–खेल में मिलती हो. इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति काष्ठकला में रुचि रखता है तो उसको उस उद्यम के बारे में बताया जाना चाहिए. इससे बच्चों की रुचि में स्वाभाविक निखार आएगा. फलस्वरूप आगे चलकर अपने कार्य में पूरी तरह दक्ष सिद्ध होंगे.
प्लेटो प्रावधान करता है कि तीन से छह वर्ष तक के बच्चों को माता–पिता अपनी देखरेख में खेलने का अवसर दें. यह कार्य गृहणियां अधिक कुशलतापूर्वक कर सकती हैं, इसलिए उन्हें इसकी जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए. छह वर्ष का होते ही उसको स्कूल में भर्ती कर देना चाहिए. वहां प्रारंभ में उसको पढ़ना, लिखना और गिनती करना सिखाया जाए. छह वर्ष के बाद लड़के और लड़की को अलग–अलग, उनके कार्य और रुचि के अनुसार शिक्षा देने की अनुशंसा प्लेटो ने की है. लेकिन किसी भी प्रकार के लैंगिक भेदभाव से परे. लड़कियां चाहें तो वे सभी कार्य सीख सकती हैं, जो लड़कों के लिए निर्धारित हैं—
‘छह वर्ष की अवस्था लड़के–लड़की को अलग–अलग कर देने का समय होता है. तदनंतर लड़के को लड़कों के समूह में तथा लड़की को लड़कियों के साथ रहना चाहिए. उसके बाद उनकी पढ़ाई आरंभ कर देनी चाहिए. लड़कों को घुड़सवारी, तीरंदाजी, बर्छी तथा अन्य हथियार चलाने की कला. यदि स्वेच्छापूर्वक सीखना चाहें तो लड़कियों को भी इन सभी कलाओं में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, जब तक कि वे भारी हथियार चलाना सीख न जाएं. इसके लिए चाहे जितनी मेहनत करनी पड़े.’5
प्लेटो के अनुसार दस वर्ष का होते ही बालक की विधिवत शिक्षा आरंभ कर देनी चाहिए. उसके आगे 3 वर्ष तक उन्हें अक्षर–ज्ञान दिया जाना चाहिए. तेरह वर्ष का होते–होते बालक संगीत की धुनों को समझने–योग्य हो जाता है. उसके बाद पूरे तीन वर्ष तक, न इससे कम न अधिक उसको संगीत आदि कलाओं के विधिवत अध्ययन में जुटे रहना चाहिए. भले ही उसके माता–पिता की उसके अध्ययन में कोई रुचि न हो. इसके बाद यदि वह चाहे तो भी संगीत में उसको संगीत के और अध्ययन की अनुमति नहीं देनी चाहिए. प्लेटो एथेंस की समकालीन शिक्षा प्रणाली से असंतुष्ट था. उसको लगता था कि वर्तमान शिक्षा–पद्धति अंकगणित तथा ज्योतिष के अध्यापन के प्रति उदासीन है. जबकि प्राचीन यूनान में ये दोनों ही विषय खासे लोकप्रिय थे. इसलिए वह बच्चों को गणित और ज्योतिष पढ़ाए जाने के पक्ष में था. उसके अनुसार नृत्य, संगीत, व्यायाम तथा गणित जैसे विषय शिक्षा का अनिवार्य अंग होने चाहिए. और बिना यह जाने कि लड़का है या लड़की, सभी को यह शिक्षा अनिवार्यरूप से दी जानी चाहिए. संगीत, गणित तथा व्यायाम की पढ़ाई के अलावा बच्चों को सभी प्रकार के खेल भी सिखाना जरूरी है, ताकि वे शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहें.
अठारह वर्ष तक विभिन्न विषयों की शिक्षा प्रदान करने के पश्चात बच्चों की परीक्षा भी ली जानी चाहिए. परीक्षा में सभी विषय जैसे हथियार चलाना, घुड़सवारी, संगीत, नृत्य, अंकगणित आदि, जिनका वह अध्ययन करता रहा है—सम्मिलित होने चाहिए. प्लेटो द्वारा उच्च शिक्षा के लिए विद्यार्थी की न्यूनतम उम्र 21 वर्ष निर्धारित की गई है, जिसमें विद्यार्थी की पिछली प्रगति को देखते हुए प्रवेश दिया जाता था. उच्च शिक्षा के लिए प्लेटो द्वारा जो पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया था, वह सोफिस्टों द्वारा तय पाठ्यक्रम से भिन्न था. दर्शन प्लेटो का पसंदीदा विषय था. इसलिए उसने उच्च शिक्षा के लिए दर्शनशास्त्र को अनिवार्य माना था. दर्शनशास्त्र की महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली धारा के रूप में उसने राजनीतिक दर्शन के अध्ययन पर भी जोर दिया है. उसने अकादमी में बीस वर्ष की अवस्था तक शिक्षा को अनिवार्य घोषित किया था. किंतु वह शिक्षा के मामले में व्यक्ति की रुचि और उसकी इच्छा का सम्मान करने का समर्थक था. इस कार्य में किसी भी प्रकार का दबाव उसे अस्वीकार था. अतएव—
‘प्लेटो ने अनुशंसा की थी कि व्यक्ति की संपूर्ण शिक्षा अनिवार्य निर्देशों के दबाव से मुक्त रहनी चाहिए. इसलिए कि किसी भी मुक्त आत्मा को पराधीनतापूर्ण स्थितियों में अध्ययन नहीं करना चाहिए. यही नहीं, जोर–जबरदस्ती से सिखाया हुआ ज्ञान मस्तिष्क में कभी ठहर ही नहीं सकता.’6
उच्च शिक्षा की अवधि अगले दस वर्ष तक संभव है. उसमें विद्यार्थी को दर्शन और राजनीति के अलावा हर उस विषय की शिक्षा दी जानी चाहिए, जो भविष्य में उसके लिए हितकारक सिद्ध हो सके. उच्च शिक्षा के दौरान निचले स्तर पर दी गई शिक्षा की पुनरावृत्ति भी साथ–साथ होती रहनी चाहिए, ताकि विद्यार्थी उसे याद रख सकें. राजनीति एवं दर्शन के अतिरिक्त उन्हें गणित, संगीत, विज्ञान, समाज विज्ञान, कानून आदि विषयों के बारे में भी सिखाया जाना चाहिए, ताकि वे बड़े होकर अभिभावक के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाह भली–भांति कर सकें. तथापि यह अत्यावश्यक है कि विषयों का चयन विद्यार्थी की रुचि एवं मानसिक क्षमता के अनुसार हो. सुकरात को संवाद–शैली का जन्मदाता माना जाता है. प्लेटो के अधिकांश लेखन इसी शैली में है. अपने गुरु की शैली से प्रभावित प्लेटो का मानना था कि उच्च शिक्षा के आग्रही विद्यार्थी को संवाद–कला में निपुण होना चाहिए. इससे वह न केवल दूसरों के मंतव्य को भली–भांति समझ सकता है, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर अपने विचारों को भी तर्क–सहित, पूरी दृढ़ता एवं आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत कर सके. व्यक्ति को तर्ककला में निपुण होना चाहिए.
ध्यातव्य है कि सुकरात और प्लेटो के समकालीन सोफिस्ट विद्वान भी वाक्कला को शिक्षा के प्रमुख विषय के रूप में स्वीकार करते थे. उनके लिए शिक्षा का एकमात्र लक्ष्य था, व्यक्ति खासकर अभिजात्य युवाओं को तर्ककला में निपुण बनाना, ताकि बातचीत के दौरान वे दूसरों को प्रभावित कर सकें. अपने भाषण और वाक्निपुणता से बड़े से बड़े समूह, यहां तक कि भीड़ को भी अपने प्रभाव में ले सकें. सुकरात और प्लेटो दोनों सोफिस्ट विचारकों का सिद्धांततः विरोध करते हैं. तथापि सोफिस्टों से अपने गहरे मतभेदों के बावजूद सुकरात ने वाक्कला की महत्ता को स्वीकारा है. विचारों के आदान–प्रदान के लिए सुकरात अपने शिष्यों के साथ अविरत संवाद करता है. उसका पूरा दर्शन प्लेटो की पुस्तकों में प्रभावशाली संवादों के रूप में सुरक्षित है. प्लेटो का अधिकांश लेखक संवाद शैली में है, इसी कारण उसकी पुस्तकों को ‘संवाद’ का विशेषण भी दिया जाता है. इससे तय है कि सुकरात और प्लेटो के वैचारिक स्तर पर चाहे जो मतभेद हों, मगर वह वाक्कला की शक्ति को परिचित और प्रभावित थे. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि संवाद–शैली प्राचीन यूनान की सबसे लौकप्रिय शैली थी. ऐसे में किसी भी विचारक के लिए उससे बच पाना असंभव था. किंतु सोफिस्टों के विपरीत सुकरात और प्लेटो वाक्कला को अपने विचारों को प्रकट करने का माध्यम मानते हैं. उनके लिए संवाद अपना मत प्रकट करने तथा दूसरों की सुनने का माध्यम है. तर्ककला में निपुण व्यक्ति का आशय ऐसे व्यक्ति से नहीं है, जो येन–केन–प्रकारेण अपनी बात दूसरों पर थोपना चाहता हो. उन्होंने ऐसे व्यक्ति को तर्कशास्त्री माना है, जो दूसरे मंतव्य और बातों की गहराई को भली–भांति समझ सके.इसकी व्याख्या करते हुए ‘रिपब्लिक’ में सुकरात के मुंह से कहलवाया गया है कि श्रेष्ठ—
‘तर्कशास्त्री वह है जो प्रत्येक वस्तु के मंतव्य, उसकी मूलभूत विशेषताओं को गहराई से समझ सके. जो लेशमात्र भी दुराग्रही न हो और स्वयं को वह इस धारणा से एकदम मुक्त रखता हो कि तर्क करते समय यदि किसी मुद्दे पर वह मात खाता है तो इसका आशय उसकी अज्ञानता अथवा बुद्धिमानी का अभाव है.’7
यह मानते हुए कि सभी व्यक्ति एकसमान बुद्धि–स्तर के नहीं हो सकते, प्लेटो ने सामान्य नागरिकों को प्रतिष्ठित दार्शनिकों, तर्कशास्त्रियों का अनुकरण करने की छूट दी है. इसके लिए आवश्यक है कि उस दार्शनिक या तर्कशास्त्री की बौद्धिक चेतना सत्य के अनुसंधान के प्रति समर्पित हो. जो विचारों से रूढ़िवादी तथा दुराग्रही न हो. जिसके तर्क के पीछे प्रतिपक्षी को पराजित कर यश प्राप्त करने के बजाय, उससे कुछ ग्रहण करने की स्वाभाविक जिज्ञासा और लग्न हो. प्लेटो का मानना था कि दर्शनशास्त्री को अंकगणित, ज्यामिति, खगोलविज्ञान तथा समन्वय–विद्या में निपुण होना चाहिए. इन विषयों का ज्ञान व्यक्ति को वैचारिक दृढ़ता तथा ऊंचे आत्मविश्वास के लिए परमावश्यक है—
‘ये विषय विद्यार्थी की आत्मा को वैचारिक दृढ़ता एवं आत्मविश्वास के उच्चतम स्तर तक ले जाएंगे. गणित यानी ‘अंकगणित’ तथा ‘ज्यामिति’, मस्तिष्क को व्यर्थ की उत्तेजना और सनसनी से मुक्त रख, उसका विशुद्ध विचारों से परिचय कराएंगे तथा आत्मा को विचार–जगत की वास्तविक ऊंचाइयों की ओर ले जाने में सहायक होंगे. ‘ज्यामिति’ वस्तुतः अनंत सत्ता की उपस्थिति की प्रतीति है. यही वह विषय हैं जिनके द्वारा कोई व्यक्ति समझ सकता है कि वह अपनी अवधारणाओं को तार्किक परिणति तक किस प्रकार पहुंचा सकता है. ‘खगोल विज्ञान’ की समझ आत्मा को बृह्मांड के अनूठे ऐक्यभाव और सांमजस्य–भावना से जोड़ती है. एकता अथवा सामंजस्यता की भावना असल में ‘खगोल विज्ञान’ की बहन है, यह व्यक्ति के मनस् को ज्ञान के शोध पर केंद्रित रखते हुए उसे संगीत–कला की बारीकियां समझाने में भी सहायक सिद्ध होती है.’8
प्लेटो का गणित के प्रति अनुराग उसपर पाइथागोरस के अनुयायियों के प्रभाव की देन था. उसके अनुसार जिज्ञासु व्यक्ति को अपने विचारों में सुस्पष्ट होना चाहिए. उसके भीतर सीखने की प्रबल इच्छा होनी चाहिए. स्वयं को समस्त पूर्वग्रहों से मुक्त रहते हुए उसे केवल ज्ञान के अनुसंधान के प्रति समर्पित रहना चाहिए. दर्शनशास्त्र अथवा तर्कशास्त्र के अध्ययन के लिए उसने न्यूनतम 30 वर्ष की वयस् निर्धारित की है. लेकिन दर्शनशास्त्र का विषयक्षेत्र अत्यंत व्यापक है, इसलिए इस विषय का अध्ययन–मनन करते हुए उसे इसमें एकदम डूब नहीं जाना चाहिए. उस अवस्था में व्यक्ति अपने सामाजिक–राजनीतिक दायित्वों को पूरा करने में असमर्थ सिद्ध होगा. अतः दर्शनशास्त्र आदि विषयों के 5 वर्ष के नियमित अध्ययन–मनन के पश्चात उसको वापस समाज की ओर मुड़ जाना चाहिए. अगले 15 वर्ष तक उसे सेना तथा अन्य राजकीय सेवाओं में, जहां वह स्वयं को सर्वाधिक सहज एवं उपयुक्त मानता हो, अथवा जहां राज्य को उसकी सेवाओं की सर्वाधिक आवश्यकता हो, अपना योगदान देना चाहिए. 50 वर्ष की अवस्था तक व्यक्ति वैचारिक और आनुभविक रूप से परिपक्व हो चुका होता है. इस अवस्था तक पहुंचने के बाद जो व्यक्ति ज्ञान की सभी शाखाओं में प्रवीण हो चुका हो, वह दूसरों के लिए आदर्श और अनुकरणीय है. ऐसे व्यक्ति की सेवाएं राज्य के लिए कानून बनाने, व्यवस्थित रखने के लिए ली जा सकती हैं. ऐसे सर्वगुण संपन्न व्यक्ति यदि चाहें तो अपना बाकी जीवन दर्शनशास्त्र का अध्ययन करने अथवा समाजसेवा करते हुए भी बिता सकते हैं. राजकीय अथवा सामाजिक सेवा से मुक्त होने के उपरांत उन्हें अपना शेष जीवन दर्शनशास्त्र और जीवन के वास्तविक सत्य के अनुसंधान, चिंतन–मनन को समर्पित कर देना चाहिए. यही उनके जीवन की वास्तविक उपलब्धि होगी.
प्लेटो की नगर–योजना में रहने वाले नागरिक वस्तुतः एक शिक्षित और विवेकवान समुदाय के सदस्य थे. उन्हें राजनीति, अर्थनीति तथा सामाजिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करने, उसको बेहतर बनाने के लिए सुझाव देने के पर्याप्त अधिकार थे. वह शिक्षा को परंपरा के दबावों से मुक्त कर, उसमें दर्शनशास्त्र, गणित, विज्ञान, खगोल विद्या, राजनीति, कानून आदि को सम्मिलित करने पर जोर देता है. उसका मानना था कि सभी नागरिकों को शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए, ताकि वे विकासोन्मुखी राजनीतिक निर्णय ले सकें तथा अपने राज्य और समाज को उन सभी दुष्प्रभावों से दूर रह सकें जो मानवीय अज्ञानता के कारण जन्म लेते हैं. यहां उल्लेखनीय है कि प्लेटो और उसका गुरु सुकरात दोनों दर्शनशास्त्र को सभी विषयों में श्रेष्ठतम मानते हुए उसके नियमित अध्ययन–मनन को विशिष्टतम मानवीय उपलब्धि में शुमार करते हैं. धर्म तथा तत्संबधी रूढ़ धारणाओं के लिए वहां कोई स्थान नहीं है, उसके स्थान पर दोनों मानवीय विवेक को महत्ता देते हैं. प्लेटो के लिए शिक्षा का लक्ष्य किसी व्यक्ति का निजी उत्थान नहीं है. वृहद सामाजिक हितों के आगे वह स्त्री–पुरुष की निजता को महत्त्व ही नहीं देता. वह व्यक्ति के अंतरंग काम–संबंधों को भी उनके राज्य के प्रति दायित्व का हिस्सा मानता है. वह लिखता है कि कोई भी दार्शनिक दर्शनशास्त्र का अध्ययन–मनन इसलिए नहीं करता कि उसके माध्यम से वह अपनी मुक्ति की कामना करना रखता है, न ही वह इस विषय को अपना जीवन इसलिए समर्पित करता है कि दुनिया को अपनी बौद्धिक क्षमताओं से चमत्कृत कर, ख्याति बटोर सके. उसके लिए शिक्षा का उद्देश्य राज्य की सेवा करना, समाज के निमित्त स्वयं को अधिकतम उपयोगी बनाना है.
यदि हम तुलनात्मक रूप से उस समय के भारतीय विचारकों, विशेषकर वैदिक साहित्य की बात करें तो पाते हैं कि वहां सारा जोर मोक्ष पर केंद्रित है. संसार को वहां माया और भ्रम माना गया है. इसलिए कुछेक को छोड़कर प्रायः सभी भारतीय विचारक इस ‘मायावी’ विश्व के मोहजाल से निकल भागने का उपाय सुझाते रहे हैं. मोक्ष की यह छटपटाहट व्यक्ति को कहीं न कहीं आत्मकेंद्रित और स्वार्थी भी बनाती है. भारतीय वांङमय में राज्य की सुरक्षा और उसकी देखभाल का दायित्व सम्राट का होता था, जिसको प्रायः युद्धकला और राजनीति की शिक्षा ही दी जाती थी. उसके असल मार्गदर्शक वे पुरोहित होते थे, जिनका काम यज्ञादि कर्मकांडों को संपन्न कराना तथा ऐसी व्यवस्था बनाए रखना था जो वर्ण–विभाजन की पोषक–समर्थक हो. रट्टा लगाकर ग्रंथों को कंठस्थ कर लेना उनके लिए विद्वता का पर्याय था. इससे तुलना की जाए तो प्लेटो ने शिक्षा को लेकर जो सुझाव दिए हैं, वे अधिक वैज्ञानिक एवं उपयोगी हैं. हालांकि सच यह भी है कि उसके काल्पनिक आदर्शराज्य में शिक्षा के समस्त अधिकार केवल समाज के अभिजात वर्ग तक सीमित थे. मजदूरों, लघु उद्यमियों और शिल्पकर्मियों को उसने केवल उतनी शिक्षा प्रदान करने का सुझाव दिया है, जितनी उनके व्यवसाय के लिए आवश्यक हो. जबकि दासों को उसके आदर्श नगर–राज्य में समस्त अधिकारों से वंचित रखा गया था. इन कमजोरियों के बावजूद प्लेटो के योगदान की अवहेलना कर पाना असंभव है. उसका मौलिक अवदान था—स्त्रियों को पुरुषों के समान शिक्षा का अधिकार देना. यद्यपि स्त्री–शिक्षा का वास्तविक उपयोग उसकी काल्पनिक नगर–रचना में संभव नहीं था, तथापि हमें ध्यान रखना चाहिए कि ये सुझाव प्लेटो ने उस समय दिए थे, जब पूरी दुनिया कबीलाई समुदायों में बंटी थी. उनके बीच मामूली–सी बात पर युद्ध छिड़ जाना एकदम सामान्य बात थी. ऐसे में एक आदर्श को लेकर समाज की व्यवस्थित परिकल्पना उसकी बौद्धिक विलक्षणता का ही पर्याय है. यही कारण है कि चौबीस शताब्दियां गुजर जाने के बाद भी प्लेटो आधुनिक विचारकों को प्रभावित करता है. व्यक्तिगत मान्यता चाहे जो हो, उसके विपुल साहित्यक भंडार में प्रत्येक विद्वान को प्रायः कुछ न कुछ मिल ही जाता है.
© ओमप्रकाश कश्यप
संदर्भानुक्रमणिका
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….if you ask what is the good of education in general, the answer is easy””that education makes good men, and that good men act nobly, and conquer their enemies in battle…-The Laws by Plato.
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The same education which makes a man a good guardian will make a woman a good guardian; for their original nature is the same.-REPUBLIC.
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...for all wives and children were to be in common, to the intent that no one should ever know his own child, but they were to imagine that they were all one family; those who were within a suitable limit of age were to be brothers and sisters, those who were of an elder generation parents and grandparents, and those of a younger, children and grandchildren.– Plato in TIMAEUS, translated by Benjamin Jowett.
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…while spoiling of children makes their tempers fretful, peevish and easily upset by mere trifles, the contrary treatment, the severe and unqualified tyranny which makes its victims spiritless, servile, and sullen, renders them unfit for the intercourse of domestic and civic life.- LAWS.
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After the age of six years the time has arrived for the separation of the sexes, “”let boys live with boys, and girls in like manner with girls. Now they must begin to learn””the boys going to teachers of horsemanship and the use of the bow, the javelin, and sling, and the girls too, if they do not object, at any rate until they know how to manage these weapons, and especially how to handle heavy arms…LAWS.
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Plato recommended that all this study must be presented not in the form of compulsory instruction, because a free soul ought not to pursue any study slavishly’. Moreover, nothing that is learned under compulsion stays with the mind.’-Charles Hummel in his article PLATO, published in Prospects, vol. 22, no. 4, 1992.
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....the dialectician as one who attains a conception of the essence of each thing? And he who does not possess and is therefore unable to impart this conception, in whatever degree he fails, may in that degree also be said to fail in intelligence? – REPUBLIC.
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These disciplines lift the soul to the level of the immutable. Mathematics—arithmetic and geometry—liberate the mind from sensation, familiarize it with the world of pure thought and turn the soul towards the heights of the world of ideas. ‘Geometry is the knowledge of the eternally existent’ (Republic, 527b). It is through geometry that one learns how to manipulate concepts (Republic, 510–511). Astronomy initiates the soul to the order and immutable harmony of the cosmos. Harmony, a sister science of astronomy’s, focuses on the search for and knowledge of the laws of, and the order in, the world of sound.–Charles Hummel.