प्लेटो के आदर्शराज्य की शिक्षानीति—दो

प्लेटो का मानना था कि सभी मनुष्य अपूर्ण हैं, इसलिए उन्हें राज्य के रूप में संगठितसुनियोजित होने की आवश्यकता पड़ती है. चूंकि हर व्यक्ति प्रत्येक कार्य में निपुण नहीं हो सकता, इसलिए राज्य का कर्तव्य है कि व्यक्ति की रुचि, योग्यता और सामर्थ्य के आधार पर उसके अनुकूल कर्तव्य का निर्धारण करे. प्लेटो का यह भी मानना था कि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति स्वयं को समाज के लिए उपयोगी बना सकता है. शिक्षा की महत्ता को समझते हुए उसने ‘अकादमी’ की स्थापना की थी. प्लेटो का शिक्षादर्शन उसकी संवादपुस्तकों ‘रिपब्लिक’ तथा लॉजमें विस्तारपूर्वक सामने आया है. उसने न्यायाधारित समाज की परिकल्पना की थी, जिसमें सभी व्यक्ति अनुशासनबद्ध रहकर अपना सर्वोत्तम सहयोग दे सकें. कबीलाई योद्धाओं और तानाशाह सम्राटों से भरे यूनान में यह एक आदर्श कल्पना थी. प्लेटो का राज्य एक कल्पनालोक जैसा है. लेकिन वह आदर्श मनुष्य द्वारा अभिकल्पित वृहद नागरिक समाज के लिए है, जिसमें पराभौतिक शक्तियों का कोई हस्तक्षेप नहीं है. उल्लेखनीय है कि आदर्शलोक की अभिकल्पना भारतीय वेदादि ग्रंथों में भी गई है, लेकिन वहां आदर्शलोक की स्थापना बिना आध्यात्मिक शक्तियों की कृपा के असंभव है. प्लेटो यथार्थ और कल्पना के अंतर को भलीभांति समझता था. वह जानता था कि विचारों को सर्वत्र साकार कर पाना संभव नहीं होता. वे सिर्फ प्रेंरणादायी हो सकते हैं. इसलिए उसका यह भी मानना था कि विचारजगत, परिवर्तनशील वस्तुजगत की अपेक्षा अधिक स्थायी एवं वास्तविक होता है. रूसो ने अपनी पुस्तक ‘एमाइल’ में प्लेटो के संवाद ‘रिपब्लिक’ को शिक्षादर्शन की सबसे पहली पुस्तक माना है. ‘लॉजमें प्लेटो औपनिवेशिक नगरराज्य के लिए न्यायिक व्यवस्था का विस्तृत खाका तैयार करता है. इन दोनों संवादपुस्तकों की विषयवस्तु प्लेटो के आदर्शराज्य की स्थापना के लिए समर्पित है. यद्यपि उनमें किंचित अंतर है, तथापि समाज में शिक्षा की अनिवार्यता को लेकर दोनों ही पुस्तकों में असंद्धिग्ध एकरूपता है. उल्लेखनीय है कि जहां ‘रिपब्लिक’ में उसने आदर्श राज्य की व्याख्या की है, वहीं लॉजमें उन व्यावहारिक पक्षों की गंभीर विवेचना की गई है, जिनके आधार पर किसी वांछित शासनव्यवस्था को अनुकूल आकार दिया जा सकता है.

प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में लोगों को कुल तीन भागों में विभाजित किया है. पहला है—दास, जिनके लिए उसने इस ‘संवाद’ में विशिष्ट प्रावधान किए हैं. दूसरे हैं दस्तकार, हस्तशिल्पी यथा काष्ठकार, बुनकर, चर्मकार, दुकानदार, राजमिस्त्री छोटे व्यवसायी, जो उत्पादन विपणन के लिए जिम्मेदार हैं और सही मायने में किसी भी समाज अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं. दास और शिल्पकार वर्गों को उसने नागरिकता के अधिकार से वंचित रखा है. तीसरी श्रेणी संरक्षक वर्ग की है, जिसको उसने पुनः दो भागों ‘पूरक’ अथवा ‘सहायक’ और ‘सक्षम’ में विभाजित किया है. राज्य के शासन को कुशलतापूर्वक चलाने की जिम्मेदारी इसी संरक्षक वर्ग की है. ‘पूरक’ अथवा ‘सहायक’ संरक्षक अपेक्षाकृत युवा होते हैं, जिनके ऊपर राज्य की आंतरिक एवं बाह्यः सुरक्षा का दायित्व होता था. पुलिस और सेना इनके अधीन होती हैं. संरक्षकों का दूसरा वर्ग शासन का वास्तविक कर्ताधर्ता और नियामक होता है. राज्य की समस्त निर्णायक शक्तियां इसी वर्ग के अधीन होती हैं. प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य के सर्वोच्च शासनाधिकारी के रूप में ‘दार्शनिक सम्राट’ को रखा है. दार्शनिक सम्राट वह बन सकता है जो बुद्धि, विवेक, साहस, ज्ञान, समानता, दयालुता, निष्पक्षता आदि मानवीय गुणों से संपन्न हो. ऐसे व्यक्ति के कंधों पर राज्य की सुरक्षा और शांतिव्यवस्था के साथ विकासदर को भी उत्तरोत्तर गतिमान बनाए रखने की जिम्मेदारी होती है. उल्लेखनीय है कि प्लेटो के दो प्रमुख ‘संवाद’ ‘रिपब्लिक’ एवं ‘दि स्टेट्समेन’ में जहां दार्शनिक सम्राट का उल्लेख होता है, वहीं लॉजमें वह संरक्षक वर्ग में से चुने गए प्रतिनिधिमंडल को राज्य की बागडोर सौंपने का समर्थन करता है. ‘लॉजप्लेटो के अंतिम दिनों की रचना है. ‘रिपब्लिक’ का लेखन लॉजसे लगभग बीस पहले संपन्न हुआ था. जिसमें उसने दार्शनिक सम्राट की परिकल्पना की थी और लोकतांत्रिक शासनपद्धति की आलोचना. इससे लगता है कि लॉजतक आतेआते प्लेटो को लगने लगा था कि कुछेक व्यक्तियों, चाहे वे दार्शनिक ही क्यों न हों, के हाथ में सत्ता का सिमटना घातक हो सकता है, इसके निदान के लिए वह दार्शनिक मंडल के हाथों में सत्ता सौंपने का विचार प्रस्तुत करता है, जो गणतंत्र की भावना के अपेक्षाकृत निकट है.

प्लटो का मानना था कि आदर्शराज्य में बहुत अधिक फेरबदल की संभावना नहीं होती. अगर नागरिक ऐसा महसूस करते हैं, तो समझना चाहिए कि उनमें असंतोष बना हुआ है, यानी वहां राज्य के स्तर पर कोई कमी बनी है. आदर्श राज्य की तुलना उसने प्राचीन यूनानी मंदिर से की थी, जिसमें कोई बड़ा फेरबदल संभव नहीं होता. आदर्श राज्य के बदलाव व्यवस्था को और आदर्श एवं नीतिसंपन्न बनाने के लिए होने चाहिए. संरक्षक वर्ग का दायित्व है कि वह स्वयं को राज्यकल्याण के प्रति समर्पित रखे. उनमें भौतिक वस्तुओं, विशेषकर विलासितापूर्ण सामग्री के प्रति कोई आकर्षण नहीं होना चाहिए, इसलिए कि ऐसी वस्तुएं निरर्थक स्पर्धा और आपसी ईष्र्या को बढ़ाती हैं. इसलिए उन्हें इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि उनमें विलासिता की सामग्री के प्रति स्वतः अनाकर्षण हो. अभिभावकों को सैनिक की भांति करना चाहिए, जिसका दायित्व उसकी रक्षा करना है, जिसके लिए उसे नियुक्त किया गया है. उन्हें गंभीर और मननशील होना चाहिए, ताकि वे निजी आकांक्षाओं से बच सकें. संरक्षक वर्ग में निजी महत्त्वाकांक्षा के शमन के लिए प्लेटो उनके लिए सामूहिक आवासबस्तियां बनवाने का सुझाव देता है. यही नहीं सामाजिक एकता के पक्ष में वह निजी संपत्ति के सभी प्रतीकों का सामूहिकीकरण करते हुए संरक्षक वर्ग के लिए सामूहिक आवासकक्ष, मनोरंजनालय, यहां तक कि पत्नियों और बच्चों में भी साझेदारी का सुझाव देता है. प्लेटो ने शिक्षा के महत्त्व को स्वीकारा है, मगर इस बारे में प्लेटो के विचार उस समय आधुनिकता विरोधी जान पड़ते हैं, जब वह लिखता है कि शिक्षा का एक कृत्य यथास्थिति बनाए रखना भी है. वह ऐसे आविष्कारों का निषेध करता है, जो आदर्श समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हों. और अपेक्षा करता है कि शिक्षा ऐसे परिवर्तनों से आगाह करने के लिए सचेतक की भूमिका भी निभाएगी. उसके अनुसार शिक्षा इन बदलावों का न केवल विरोध करती है, बल्कि अपसंस्करण की कोशिशों को नाकाम करने के लिए नागरिकों को सदैव तत्पर भी रखती है.

किंचित विरोधाभास के बावजूद प्लेटो का शिक्षा दर्शन पर्याप्त आधुनिक और अभिनव संभावनाओं से युक्त है. वह पहला विचारक था जिसने स्त्रियों की शिक्षा पर बराबर जोर दिया, खासकर ऐसे समय में जब उसके समकालीन विचारकों में से अधिकांश स्त्रिायों को घर की चारदीवारी से बाहर कोई जिम्मेदारी देने को तैयार न थे. प्लेटो के आदर्श राज्य में लड़के और लड़की की शिक्षा में कोई भेद नहीं था. लड़कियां लड़कों की भांति उनके साथ न केवल नंगी व्यायाम कर सकती थीं, बल्कि वे शिक्षा भी ग्रहण कर लेती थीं. उन्हें सेना के साथ सशस्त्र सैनिक के रूप में युद्ध में भाग लेने के अधिकार भी प्राप्त थे. शिक्षालयों में उनके साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं बरता जाता था. प्लेटो ने संरक्षक वर्ग के सदस्यों और उनकी संतान के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया है. दस्तकारों, शिल्पकर्मियों तथा दुकानदारों की शिक्षा के बारे में उसका मानना था कि उन्हें केवल उनके व्यवसाय से संबंधित प्रशिक्षण देना ही पर्याप्त होगा. दासों के लिए उसने शिक्षा को पूर्णतः अनावश्यक माना है. उल्लेखनीय है कि प्लेटो अभिजात नागरिकों की शिक्षा के बारे में तो क्रांतिकारी सुझाव देता है, किंतु बाकी जनसमाज की शिक्षा के प्रति उसके विचार परंपरागत और रूढ़िवादी हैं. इसके लिए प्लेटो को दोष देने के बजाय हमें यह भी मानना होगा कि वह स्वयं अभिजात्य वर्ग से था. शिक्षा को लेकर उसके विचार तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल थे. उनमें बहुत परिवर्तनकारी चिंतन भी नहीं था, जैसा कि सतरहवींअठारवीं शताब्दी के फ्रांस में संभव हो सका, जहां रूसो ने शिक्षा को सभी वर्गीय भेदभावों से परे, सभी के लिए सुलभ करने की आवश्यकता पर जोर दिया. तथापि हमें प्लेटो की इसके लिए सराहना करनी होगी कि 2400 वर्ष पहले के समाज में उसने एक संपूर्ण शिक्षातंत्र की परिकल्पना की थी, जिसमें प्रशासन से लेकर शैक्षिक विषयवस्तु पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया था.

आदर्शराज्य की परिकल्पना की स्थितियों की संभावना को आगे बढ़ाने वाली अपनी एक अन्य संवाद पुस्तक लॉजमें प्लेटो उसके अनिवार्य शिक्षातंत्र की विशेषताओं का सविस्तार उल्लेख करता है. उसके अनुसार पूरा तंत्र किसी कुशल पर्यवेक्षक की देखरेख में होना चाहिए, जो शिक्षा से जुड़े समस्त मामलों की विशद जानकारी रखता हो तथा जो समाज के सभी वर्गों, स्त्री, पुरुष आदि के बीच बिना किसी भेदभाव के शिक्षा का प्रसार कर सके. यह पूछे जाने पर शिक्षा का लाभ क्या है, प्लेटो इसी संवाद में एक एथेंसवासी के माध्यम से स्पष्ट करता है—

यदि तुम यह जानना चाहते हो कि शिक्षा का सामान्य लाभ क्या है, तो इसका उत्तर बहुत आसान है—शिक्षा मनुष्य को सदगुणसंपन्न करती है; और सद्गुणसंपन्न व्यक्ति विनम्रतापूर्ण व्यवहार करता है. अपनी विनम्रता के बल पर वह युद्ध में अपने शत्रुओं का दिल भी जीत लेता है.’1

प्लेटो यहां निर्दिष्ट करता है शिक्षा का दायित्व मंत्री स्तर के उस व्यक्ति को सौंपा जाना चाहिए तो उदार, गुणी और भेदभाव रहित हो. वह किसी प्रतिष्ठित परिवार में जन्मा हो तथा उसकी उम्र ‘कम से कम पचास वर्ष’ होनी चाहिए. उसको यह पता होना चाहिए कि उसका कार्य बाकी सभी मंत्रियों की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है. शिक्षा के लिए विद्यार्थी की उम्र कितनी हो? इस बारे में वह लिखा है कि बालक की शिक्षा का शुभारंभ यथासंभव न्यूनतम उम्र से कर देना चाहिए. यदि संभव हो तो उसके जन्म से अथवा उसके पहले से भी. उसके अनुसार शिक्षा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा ही वह है, जो बचपन में सिखाया जाता है—इसलिए अभिभावक वर्ग का दायित्व है कि वह शिशु की शिक्षा का अनुकूल प्रबंध करे. ताकि बड़ा होने पर वह अपने कार्य में पूरी दक्षता प्राप्त कर सके. प्लेटो के अनुसार शिक्षा कभी समाप्त न होने वाला कृत्य है. उसके लिए उम्र की कोई सीमा नहीं है. इसलिए बालक को जहां तक संभव हो, जन्म से ही शिक्षा के लिए तैयार किया जाना चाहिए. प्लेटो प्रौढ़ शिक्षा का समर्थक था. उसके अनुसार ऐसे व्यक्तियों को जो किसी कारणवश बचपन में शिक्षा से वंचित रह गए हों, बड़ा होने पर शिक्षा दी जा सकती है. संरक्षक वर्ग को तो आजीवन, जन्म से लेकर सेवानिवृत्ति की अवस्था तक, कुछ न कुछ लगातार सीखते रहना चाहिए. ‘लॉजमें प्लेटो आदर्श राज्य में अधिकारियों की भर्ती की प्रविधियों के बारे में भी विस्तार सहित चर्चा करता है, जिसके अंतर्गत वह कानूनविशेषज्ञ संरक्षकों, पुजारियों, पहरेदारों, शिक्षा विभाग के मंत्री, न्यायाधीश आदि की भर्ती के तरीकों के बारे में सुझाव देता है. उसके अनुसार कानून सभी के लिए सुलभ होना चाहिए. न्याय से असहमति की स्थिति में व्यक्ति को अपील का अधिकार होना चाहिए—इसे ध्यान में रखते हुए वह अपील प्राधिकारी की नियुक्ति तथा अपील की प्रविधि का विस्तार सहित उल्लेख करता है.

रिपब्लिक’ में प्लेटो ने शिक्षा को दो प्रमुख वर्गों ‘संगीत’ एवं ‘व्यायाम’ में विभाजित किया है. यह विभाजन केवल नाम तक सीमित नहीं है. प्लेटो के लिए ‘संगीत’ का अर्थ हर उस बोध से है जिसको मनुष्य अपने जीवन में ग्रहण कर सकता है. उसी प्रकार ‘व्यायाम’ से उसका आशय लगभग वैसा ही है, जैसा आजकल ‘एथिलीट’ शब्द से है, जो शारीरिक और मानसिक स्वाथ्य दोनों पर जोर देता है. प्लेटो नागरिकों को शारीरिक और मानसिक रूप से हृष्टपुष्ट देखना चाहता था. धैर्य, अनुशासन और साहस को उसने शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य के रूप में लिया था. साहित्य के अंतर्गत बच्चों को क्या पढ़ाना चाहिए, इसपर भी वह नियंत्राण के पक्ष में था. खासकर प्राचीन यूनानी प्रेमकथाओं को लेकर, जिन्हें वह बालमनोविज्ञान के प्रतिकूल मानता था. लेकिन वह संगीत शिक्षा की अनुमति देता है. उसके अनुसार मां और नर्स का कर्तव्य है कि वे बच्चों को केवल साहस, धैर्य और कर्तव्यपरायणता से भरपूर कहानियां सुनाएं. होमर और हेसोद की रचनाओं को वह बालमनोविज्ञान के प्रतिकूल मानता था, इसलिए उसने ‘रिपब्लिक’ में इन कहानियों को सुनाए जाने का निषेध किया है. प्लेटो के अनुसार ये कहानियां ईश्वर के बारे में गलत पाठ पढ़ाती हैं. ये शिक्षा देती हैं कि ईश्वर भी कभीकभी बुरे कार्यों में लिप्त हो जाता है, जो सर्वथा असत्य एवं भ्रामक है, जिसे तर्क द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता. प्लेटो के अनुसार किशोरों को पढ़ाया जाना चाहिए कि बुराइयां कभी भी ईश्वर की ओर से नहीं आतीं. सृष्टि में व्याप्त ‘शुभअशुभ’ में से केवल ‘शुभ’ ही ईश्वर की निर्मिति है. ‘अशुभ’ या तो भ्रांति है अथवा मानवीय लालच और अज्ञानता की उपज. इसलिए सुधार की आवश्यकता मनुष्य और उसकी समाज रचना में. प्लेटो के परमशुभ की धारणा का विस्तार सर्वेश्वरवादी दार्शनिक बरुच स्पिनोजा(1632—1677) तथा द्वंद्ववादी विचारक फ्रैड्रिक हीगेल (1770—1831) के दर्शन में देखने को मिलता है. इन दोनों ही दार्शनिकों ने शुभत्व की अवधारणा को स्वीकार किया है.

महान यूनानी कवि होमर की रचनाओं को बच्चों के लिए निषिद्ध मानने का अन्य कारण यह था कि उसकी रचनाएं प्रेम और संवेदना का पक्ष लेती हुई, उन्हें बढ़ावा देने का काम करती हैं. प्लेटो के अनुसार वे बच्चों को मृत्यु से डरना सिखाती हैं, जबकि शिक्षा का उद्देश्य बालकों में जोश भरना, वीरता और युद्धक्षेत्र में शहीद हो जाने की भावना पैदा करना भी है. अतः किशोरों को सिखाया जाना चाहिए कि दासता मृत्यु से कहीं बदतर है. इसलिए उन्हें रोनेधोने वाले मनुष्य की कहानी सुनाने से बचना चाहिए, भले ही वह व्यक्ति अपने किसी निकट मित्र अथवा संबंधी की मृत्यु के कारण शोकनिमग्न क्यों न हो. अनुशासन के रूप में प्लेटो चाहता था कि बच्चों को गंभीर रहने की शिक्षा दी जाए. उन्हें सिखाया जाना चाहिए कि जोर से हंसना अशिष्ठता का प्रतीक है. उसने होमर, हेसोद की रचनाओं को बालकों के लिए इसलिए भी अनुपयुक्त माना था, क्योंकि उनमें शानदार दावतों का गुणगान किया गया है. वे ईश्वर को लालची सिद्ध करती हैं. प्रकारांतर में वे बच्चों में धनसंग्रहण एवं विलासितामय जीवनशैली के प्रति ललक बढ़ाती हैं. इस प्रकार की कहानियां बालकों के धैर्य के लिए घातक हैं. वह बच्चों को ऐसी कहानियां सुनाने के पक्ष में भी नहीं था, जिसमें बुरे आदमी को सुखी और भले व्यक्ति को दुखी बताया गया हो. उसके अनुसार इससे बालक की अनैतिक जीवन के प्रति आसक्ति बढ़ सकती है. चूंकि कविताओं में करुणा, दया आदि मानवीय संवेगों का बढ़ाचढ़ाकर बखान किया जाता है, इसलिए उसने युवा विद्यार्थियों को कवि और कविताओं से दूर रखने की सलाह दी है. नाटक को लेकर भी प्लेटो ने रोचक बात कही है. उसके अनुसार कोई भी भला व्यक्ति किसी बुरे व्यक्ति की नकल करने से बचेगा, जबकि प्रायः सभी नाटकों में खलनायक की मौजूदगी होती है. नाटककार एवं अभिनेता उस पात्र को जीवंत बनाने के लिए उसकी खलनायकी के तरहतरह के रूप, कई बार बढ़ाचढ़ाकर भी, दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं. परिणामस्वरूप लोगों को अपराध के नए तरीकों की जानकारी मिल सकती है. प्लेटो लिखता है कि न केवल खलनायक, बल्कि स्त्री, दास तथा अन्य निम्नवर्गीय व्यक्तियों का अभिनय भले व्यक्तियों को करना पड़ता है. इसलिए ऐसे नाटकों के प्रदर्शन पर रोक लगाई जानी चाहिए, विशेषकर बच्चों को तो उनसे दूर रखना ही श्रेयस्कर है. उनके लिए ऐसे नाटक लिखे जाने चाहिए जिसमें किसी भी दोषी, अपराधी अथवा चरित्राहीन व्यक्ति का उल्लेख न हो. चूंकि अधिकांश नाटक मंडलियों की राय में ऐसे नाटक लिखे जाने संभव नहीं हैं, इसलिए प्लेटो ने उन सभी को नगर से निर्वासित करने की सलाह दी है.

प्लेटो संगीत पर भी नजर रखने के पक्ष में था. खासकर बच्चों के संगीत को लेकर. उसका मानना था कि अभिभावक वर्ग का यह कर्तव्य है कि बच्चों को उसी संगीत का आनंद लेने दें, जो उनके लिए पूरी तरह उपयुक्त हो. जो उनके चारित्रिक विकास में सहायक हो. इस आधार पर उसने प्राचीन लीडियन और आयोनियन संगीत को बच्चों के मनोविज्ञान के प्रतिकूल मानते हुए उससे उन्हें दूर रखने का सुझाव दिया है. प्लेटो के अनुसार इस प्रकार का संगीत बच्चों में दुख तथा नैराश्य की भावना पैदा कर उन्हें भाग्योन्मुखी और शिथिल बनाता है. इसके स्थान पर उसने डोरियन तथा फ्राइजियन संगीत को बच्चों के लिए उपयुक्त माना है, इसलिए कि वह बच्चों में साहस, धैर्य एवं दृढ़ता की भावना का विकास करता है. उसका मानना था कि बच्चों के लिए तैयार की जाने वाली धुनें आसान होनी चाहिए. आवश्यक है कि उनसे साहस और आपसी तालमेल युक्त, सामूहिक जीवन का संदेश मिलता हो. बच्चों को सादा और संयमित जीवन की शिक्षा दी जानी चाहिए. उनका भोजन साधारण हो, जिसमें भुने हुए मांसमछली तथा ऐसे ही साधारण व्यंजनों को सम्मिलित किया जा सकता है. विलासिता के प्रतीक चटनी, मिठाई जैसे चटकारेदार और स्वादिस्ट व्यंजनों को बच्चों के भोजन से दूर रखना चाहिए. यदि लोगों का रहनसहन मर्यादित और संयमित होगा तो उनका स्वास्थ्य भी उत्तम रहेगा. उन्हें चिकित्सक की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी.

प्लेटो के अनुसार युवाओं को मर्यादित भाषण की शिक्षा दी जानी चाहिए. उन्हें न तो जोर से गाना चाहिए, न ही मुंह से कोई भद्दा मजाक करना चाहिए. लेकिन किशोरावस्था पार करते समय, उन्हें गाने और चीखनेचिल्लाने की शिक्षा दी जा सकती है. उन्हें अपने मुंह से ऐसी आवाज निकालने का अभ्यास कराना चाहिए, जो आतंक पैदा करती हो. यह भी अत्यावश्यक है कि उस समय वे स्वयं आतंकित न हों. उन्हें पीड़ा का अहसास भी कराया जाना चाहिए, परंतु इस प्रकार कि वह उनकी इच्छाशक्ति एवं संघर्षभावना को कमजोर न पड़ने दे. युद्ध की शिक्षा देने के लिए युवाओं को युद्धस्थल पर ले जा सकता चाहिए, किंतु उन्हें युद्ध में सीधे भाग लेने से यथासंभव बचाना चाहिए. इस तरह कठोर प्रशिक्षण से गुजरने के पश्चात ही बच्चे भविष्य में संरक्षक की भूमिका का सफल निर्वाह कर सकते हैं.

प्लेटो लैंगिक समानता का समर्थक था. ‘रिपब्लिक’ में उसने लड़कों और लड़कियों को संगीत तथा व्यायाम की एकसमान शिक्षा दिए जाने का समर्थन किया है. अपने समकालीन विचारकों से इतर वह लड़कियों को युद्ध की भी वैसी ही शिक्षा दिए जाने के पक्ष में था, जैसी लड़कों को—

समान शिक्षा आदमी को श्रेष्ठ संरक्षक तथा स्त्री को अच्छी संरक्षिका बनने में मदद करेगी, इसलिए कि दोनों का मूलभूत स्वभाव एक जैसा होता है.’2

बावजूद शैक्षिक समानता के प्लेटो स्त्रिायों को सक्रिय राजनीति से दूर रखने का समर्थक था. उसके अनुसार राजनीति का क्षेत्र स्त्रियों के लिए अनुपयुक्त है. न स्त्रियों के पास कुछ ऐसा है जिसके द्वारा वे राजनीति में कामयाब हो सकें. हालांकि कुछ स्त्रियां दार्शनिक प्रवृत्ति की हो सकती हैं. मगर यह गुण उन्हें अच्छी संरक्षिका तो बना सकता है, राजनीति में पारंगत नहीं. प्लेटो के अनुसार स्त्रिायों की अतिशय भावुकता ही उन्हें राजनीति के लिए अपात्र सिद्ध करती है. यह संभव है कि कुछ लड़कियों की रुचि युद्ध में हो, उनमें अच्छी सैनिक बनने के लक्षण भी हो सकते हैं. इसके बावजूद उन्हें सेना में भर्ती के योग्य नहीं माना जा सकता. प्लेटो के अनुसार राज्य के संविधान व्यवस्था होनी चाहिए कि वह स्त्राी और पुरुष में सादा रहनसहन और सहजीवन के प्रति उत्सुकता एवं ललक को बढ़ावा दे. इसके लिए उन्हें बचपन से ही प्रशिक्षित किया जाना चाहिए. उन्हें एक ही रसोई का बना भोजन करने की प्रेरणा मिलनी चाहिए. वह विवाहसंस्था के परंपरागत स्वरूप में क्रांतिकारी परिवर्तन का समर्थक था. चूंकि उस समय राज्य छोटे थे और उनमें अक्सर युद्ध होते रहते थे, ऐसे में जनसंख्या के न्यूनतम स्तर को बनाया रखना भी एक बड़ी चुनौती थी. इसलिए प्लेटो ने संतानोत्पत्ति को नागरिकधर्म माना है. ‘रिपब्लिक’ में उसने अनुशंसा की है कि खास अवसरों पर उतने पतिपत्नियों को, जितने जनसंख्या को स्थायी बनाए रखने के लिए आवश्यक हों, साथसाथ रहने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए. यहां उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि प्लेटो ‘टाइमस’ में विवाह संस्था का निषेध करता है. ऐसे में संतति नियमन और प्रजनन का स्वरूप क्या होगा? विशेषकर उस राज्य में जो अपने प्रत्येक नागरिक की देखभाल करना, उसके हितों का संरक्षण करना अपना कर्तव्य मानता हो. इसपर टिप्पणी करते हुए सुकरात टाइमस को अपने पिछले संवाद की याद दिलाता है, जिसमें उसने अपने आदर्श राज्य के लिए व्यवस्था की थी कि उसमें—

सभी पत्नियां और बच्चे साझे होगे, संबंधों का निर्वाह इस प्रकार किया जाएगा कि कोई भी व्यक्ति अपने बेटे अथवा बेटी की पहचान न कर सके, बल्कि लोगों में यह धारणा बलवती रहे कि वे सब एक ही परिवार के अंग हैं. उम्रविशेष तक सभी लड़केलड़कियां स्वयं को भाईबहन मानेंगे, जो उनसे बड़े हैं वे स्वयं को अपनी उम्र के अनुसार मातापिता और दादादादी समझेंगे, इसी प्रकार युवा स्वयं को उनके बेटाबेटी अथवा पोतेपोतियां मानेंगे.’3

प्लेटो बच्चों को जन्म से ही राज्य के संरक्षण में रखने और और पूर्व निर्धारित मापदंडों के अनुसार उनका पालनपोषण करने का सुझाव देता है. किंतु वह मानता है कि शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर तथा हृष्टपुष्ट बच्चों का लालनपालन अलगअलग समूहों में होना चाहिए. कठोर निर्णय लेते हुए वह अःशक्त एवं अपंग बच्चों को अज्ञात स्थान पर रखने का सुझाव देता है. प्लेटो का लेखनकाल लंबा रहा है. अपने सुदीर्घ जीवन में वह पचास से अधिक वर्षों तक सक्रिय लेखन करता रहा. इसलिए उसके लेखन में कहींकहीं विरोधाभास भी नजर आते हैं. जैसे एक स्थान पर तो वह लिखता है कि बच्चों की प्राथमिक शिक्षा का दायित्व उनके मातापिता का होगा. ‘रिपब्लिक’ में वह जोर देकर कहता है कि समाज में पतिपत्नी साझे होंगे और अभिभावक अपनी वास्तविक संतान के बारे कभी नहीं जान पाएंगे. वहीं दूसरी ओर लॉजमें वह मातापिता को अपने बच्चों के साथ संतुलित व्यवहार करने का परामर्श देता है. वह अपेक्षा करता है कि आदर्श राज्य के मातापिता अपने बच्चों को कानून की मर्यादाओं का पालन करने तथा अनुशासन में रहने की शिक्षा देंगे. वह लिखता है कि—

बच्चों की उपेक्षा उन्हें मानसिक रूप से चिड़चिड़ा, कमजोर तथा अधैर्यवान बना सकती है, उनके साथ दोषपूर्ण व्यवहार तथा अज्ञानतापूर्ण जोरजबरदस्ती, मारपीट उन्हें कठोर, चापलूस, संकोची एवं एकांतजीवी बनाएगी. प्रकारांतर में वे सामान्य पारिवारिक और नागरिक जीवन जीने के अयोग्य हो सकते हैं.’4

प्लेटो का मानना था कि शारीरिक प्रशिक्षण, कसरत के बारे में बच्चों को उनके बचपन से ही सिखाया जाना चाहिए. शिशु के अच्छे स्वास्थ्य के लिए उसने गर्भवती महिलाओं को भी घूमनेफिरने तथा भोजन पर ध्यान देने की सलाह दी है. शारीरिक शिक्षा की भांति बच्चों का सांस्कृतिक प्रशिक्षण भी छोटी अवस्था से ही आरंभ कर देना चाहिए. अभिभावक कहानी के माध्यम से बच्चों को अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के बारे में बता सकते हैं. लेकिन उन्हें वही कहानियां सुनाई जानी चाहिए जो उनकी उम्र के लिए उपयुक्त हों तथा उनके मानसिक विकास में सहायक सिद्ध हों. वह बच्चों को सुनाई जानी वाली कहानियों पर नियंत्राण रखने के पक्ष में था. उसका सुझाव है कि बच्चों को सुनाई जाने वाली कहानियां सरल, किंतु प्रभावयुक्त होनी चाहिए, जो उनके मानसिक स्तर के अनुकूल हों—तभी वे उन्हें रुचि लेकर पढ़ सकेंगे. बच्चों को सुनाई जाने वाली कहानियों को लेकर प्लेटो इतना सतर्क है कि वह होमर आदि प्राचीन यूनानी कवियों की रचनाओं को भी बच्चों के लिए निषिद्ध ठहराता है. कहानियों के अलावा खेल भी बच्चों के चरित्र विकास में सहायक होते हैं. इसलिए उसका मानना था कि बड़ा होने पर व्यक्तिमात्र के लिए जो भी आवश्यक है, उसकी शिक्षा उसको बचपन से ही, खेलों के माध्यम से दी जानी चाहिए. यदि किसी बालक में अच्छा भवन निर्माता बनने का गुण है, तो उसके खेलों की रूपरेखा इस प्रकार निर्धारित की जानी चाहिए, जिससे उसको भवननिर्माण की बारीकियों की जानकारी खेलखेल में मिलती हो. इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति काष्ठकला में रुचि रखता है तो उसको उस उद्यम के बारे में बताया जाना चाहिए. इससे बच्चों की रुचि में स्वाभाविक निखार आएगा. फलस्वरूप आगे चलकर अपने कार्य में पूरी तरह दक्ष सिद्ध होंगे.

प्लेटो प्रावधान करता है कि तीन से छह वर्ष तक के बच्चों को मातापिता अपनी देखरेख में खेलने का अवसर दें. यह कार्य गृहणियां अधिक कुशलतापूर्वक कर सकती हैं, इसलिए उन्हें इसकी जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए. छह वर्ष का होते ही उसको स्कूल में भर्ती कर देना चाहिए. वहां प्रारंभ में उसको पढ़ना, लिखना और गिनती करना सिखाया जाए. छह वर्ष के बाद लड़के और लड़की को अलगअलग, उनके कार्य और रुचि के अनुसार शिक्षा देने की अनुशंसा प्लेटो ने की है. लेकिन किसी भी प्रकार के लैंगिक भेदभाव से परे. लड़कियां चाहें तो वे सभी कार्य सीख सकती हैं, जो लड़कों के लिए निर्धारित हैं—

छह वर्ष की अवस्था लड़केलड़की को अलगअलग कर देने का समय होता है. तदनंतर लड़के को लड़कों के समूह में तथा लड़की को लड़कियों के साथ रहना चाहिए. उसके बाद उनकी पढ़ाई आरंभ कर देनी चाहिए. लड़कों को घुड़सवारी, तीरंदाजी, बर्छी तथा अन्य हथियार चलाने की कला. यदि स्वेच्छापूर्वक सीखना चाहें तो लड़कियों को भी इन सभी कलाओं में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, जब तक कि वे भारी हथियार चलाना सीख न जाएं. इसके लिए चाहे जितनी मेहनत करनी पड़े.’5

प्लेटो के अनुसार दस वर्ष का होते ही बालक की विधिवत शिक्षा आरंभ कर देनी चाहिए. उसके आगे 3 वर्ष तक उन्हें अक्षरज्ञान दिया जाना चाहिए. तेरह वर्ष का होतेहोते बालक संगीत की धुनों को समझनेयोग्य हो जाता है. उसके बाद पूरे तीन वर्ष तक, न इससे कम न अधिक उसको संगीत आदि कलाओं के विधिवत अध्ययन में जुटे रहना चाहिए. भले ही उसके मातापिता की उसके अध्ययन में कोई रुचि न हो. इसके बाद यदि वह चाहे तो भी संगीत में उसको संगीत के और अध्ययन की अनुमति नहीं देनी चाहिए. प्लेटो एथेंस की समकालीन शिक्षा प्रणाली से असंतुष्ट था. उसको लगता था कि वर्तमान शिक्षापद्धति अंकगणित तथा ज्योतिष के अध्यापन के प्रति उदासीन है. जबकि प्राचीन यूनान में ये दोनों ही विषय खासे लोकप्रिय थे. इसलिए वह बच्चों को गणित और ज्योतिष पढ़ाए जाने के पक्ष में था. उसके अनुसार नृत्य, संगीत, व्यायाम तथा गणित जैसे विषय शिक्षा का अनिवार्य अंग होने चाहिए. और बिना यह जाने कि लड़का है या लड़की, सभी को यह शिक्षा अनिवार्यरूप से दी जानी चाहिए. संगीत, गणित तथा व्यायाम की पढ़ाई के अलावा बच्चों को सभी प्रकार के खेल भी सिखाना जरूरी है, ताकि वे शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहें.

अठारह वर्ष तक विभिन्न विषयों की शिक्षा प्रदान करने के पश्चात बच्चों की परीक्षा भी ली जानी चाहिए. परीक्षा में सभी विषय जैसे हथियार चलाना, घुड़सवारी, संगीत, नृत्य, अंकगणित आदि, जिनका वह अध्ययन करता रहा है—सम्मिलित होने चाहिए. प्लेटो द्वारा उच्च शिक्षा के लिए विद्यार्थी की न्यूनतम उम्र 21 वर्ष निर्धारित की गई है, जिसमें विद्यार्थी की पिछली प्रगति को देखते हुए प्रवेश दिया जाता था. उच्च शिक्षा के लिए प्लेटो द्वारा जो पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया था, वह सोफिस्टों द्वारा तय पाठ्यक्रम से भिन्न था. दर्शन प्लेटो का पसंदीदा विषय था. इसलिए उसने उच्च शिक्षा के लिए दर्शनशास्त्र को अनिवार्य माना था. दर्शनशास्त्र की महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली धारा के रूप में उसने राजनीतिक दर्शन के अध्ययन पर भी जोर दिया है. उसने अकादमी में बीस वर्ष की अवस्था तक शिक्षा को अनिवार्य घोषित किया था. किंतु वह शिक्षा के मामले में व्यक्ति की रुचि और उसकी इच्छा का सम्मान करने का समर्थक था. इस कार्य में किसी भी प्रकार का दबाव उसे अस्वीकार था. अतएव—

प्लेटो ने अनुशंसा की थी कि व्यक्ति की संपूर्ण शिक्षा अनिवार्य निर्देशों के दबाव से मुक्त रहनी चाहिए. इसलिए कि किसी भी मुक्त आत्मा को पराधीनतापूर्ण स्थितियों में अध्ययन नहीं करना चाहिए. यही नहीं, जोरजबरदस्ती से सिखाया हुआ ज्ञान मस्तिष्क में कभी ठहर ही नहीं सकता.’6

उच्च शिक्षा की अवधि अगले दस वर्ष तक संभव है. उसमें विद्यार्थी को दर्शन और राजनीति के अलावा हर उस विषय की शिक्षा दी जानी चाहिए, जो भविष्य में उसके लिए हितकारक सिद्ध हो सके. उच्च शिक्षा के दौरान निचले स्तर पर दी गई शिक्षा की पुनरावृत्ति भी साथसाथ होती रहनी चाहिए, ताकि विद्यार्थी उसे याद रख सकें. राजनीति एवं दर्शन के अतिरिक्त उन्हें गणित, संगीत, विज्ञान, समाज विज्ञान, कानून आदि विषयों के बारे में भी सिखाया जाना चाहिए, ताकि वे बड़े होकर अभिभावक के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाह भलीभांति कर सकें. तथापि यह अत्यावश्यक है कि विषयों का चयन विद्यार्थी की रुचि एवं मानसिक क्षमता के अनुसार हो. सुकरात को संवादशैली का जन्मदाता माना जाता है. प्लेटो के अधिकांश लेखन इसी शैली में है. अपने गुरु की शैली से प्रभावित प्लेटो का मानना था कि उच्च शिक्षा के आग्रही विद्यार्थी को संवादकला में निपुण होना चाहिए. इससे वह न केवल दूसरों के मंतव्य को भलीभांति समझ सकता है, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर अपने विचारों को भी तर्कसहित, पूरी दृढ़ता एवं आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत कर सके. व्यक्ति को तर्ककला में निपुण होना चाहिए.

ध्यातव्य है कि सुकरात और प्लेटो के समकालीन सोफिस्ट विद्वान भी वाक्कला को शिक्षा के प्रमुख विषय के रूप में स्वीकार करते थे. उनके लिए शिक्षा का एकमात्र लक्ष्य था, व्यक्ति खासकर अभिजात्य युवाओं को तर्ककला में निपुण बनाना, ताकि बातचीत के दौरान वे दूसरों को प्रभावित कर सकें. अपने भाषण और वाक्निपुणता से बड़े से बड़े समूह, यहां तक कि भीड़ को भी अपने प्रभाव में ले सकें. सुकरात और प्लेटो दोनों सोफिस्ट विचारकों का सिद्धांततः विरोध करते हैं. तथापि सोफिस्टों से अपने गहरे मतभेदों के बावजूद सुकरात ने वाक्कला की महत्ता को स्वीकारा है. विचारों के आदानप्रदान के लिए सुकरात अपने शिष्यों के साथ अविरत संवाद करता है. उसका पूरा दर्शन प्लेटो की पुस्तकों में प्रभावशाली संवादों के रूप में सुरक्षित है. प्लेटो का अधिकांश लेखक संवाद शैली में है, इसी कारण उसकी पुस्तकों को ‘संवाद’ का विशेषण भी दिया जाता है. इससे तय है कि सुकरात और प्लेटो के वैचारिक स्तर पर चाहे जो मतभेद हों, मगर वह वाक्कला की शक्ति को परिचित और प्रभावित थे. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि संवादशैली प्राचीन यूनान की सबसे लौकप्रिय शैली थी. ऐसे में किसी भी विचारक के लिए उससे बच पाना असंभव था. किंतु सोफिस्टों के विपरीत सुकरात और प्लेटो वाक्कला को अपने विचारों को प्रकट करने का माध्यम मानते हैं. उनके लिए संवाद अपना मत प्रकट करने तथा दूसरों की सुनने का माध्यम है. तर्ककला में निपुण व्यक्ति का आशय ऐसे व्यक्ति से नहीं है, जो येनकेनप्रकारेण अपनी बात दूसरों पर थोपना चाहता हो. उन्होंने ऐसे व्यक्ति को तर्कशास्त्री माना है, जो दूसरे मंतव्य और बातों की गहराई को भलीभांति समझ सके.इसकी व्याख्या करते हुए ‘रिपब्लिक’ में सुकरात के मुंह से कहलवाया गया है कि श्रेष्ठ—

तर्कशास्त्री वह है जो प्रत्येक वस्तु के मंतव्य, उसकी मूलभूत विशेषताओं को गहराई से समझ सके. जो लेशमात्र भी दुराग्रही न हो और स्वयं को वह इस धारणा से एकदम मुक्त रखता हो कि तर्क करते समय यदि किसी मुद्दे पर वह मात खाता है तो इसका आशय उसकी अज्ञानता अथवा बुद्धिमानी का अभाव है.’7

यह मानते हुए कि सभी व्यक्ति एकसमान बुद्धिस्तर के नहीं हो सकते, प्लेटो ने सामान्य नागरिकों को प्रतिष्ठित दार्शनिकों, तर्कशास्त्रियों का अनुकरण करने की छूट दी है. इसके लिए आवश्यक है कि उस दार्शनिक या तर्कशास्त्री की बौद्धिक चेतना सत्य के अनुसंधान के प्रति समर्पित हो. जो विचारों से रूढ़िवादी तथा दुराग्रही न हो. जिसके तर्क के पीछे प्रतिपक्षी को पराजित कर यश प्राप्त करने के बजाय, उससे कुछ ग्रहण करने की स्वाभाविक जिज्ञासा और लग्न हो. प्लेटो का मानना था कि दर्शनशास्त्री को अंकगणित, ज्यामिति, खगोलविज्ञान तथा समन्वयविद्या में निपुण होना चाहिए. इन विषयों का ज्ञान व्यक्ति को वैचारिक दृढ़ता तथा ऊंचे आत्मविश्वास के लिए परमावश्यक है—

ये विषय विद्यार्थी की आत्मा को वैचारिक दृढ़ता एवं आत्मविश्वास के उच्चतम स्तर तक ले जाएंगे. गणित यानी ‘अंकगणित’ तथा ‘ज्यामिति’, मस्तिष्क को व्यर्थ की उत्तेजना और सनसनी से मुक्त रख, उसका विशुद्ध विचारों से परिचय कराएंगे तथा आत्मा को विचारजगत की वास्तविक ऊंचाइयों की ओर ले जाने में सहायक होंगे. ‘ज्यामिति’ वस्तुतः अनंत सत्ता की उपस्थिति की प्रतीति है. यही वह विषय हैं जिनके द्वारा कोई व्यक्ति समझ सकता है कि वह अपनी अवधारणाओं को तार्किक परिणति तक किस प्रकार पहुंचा सकता है. ‘खगोल विज्ञान’ की समझ आत्मा को बृह्मांड के अनूठे ऐक्यभाव और सांमजस्यभावना से जोड़ती है. एकता अथवा सामंजस्यता की भावना असल में ‘खगोल विज्ञान’ की बहन है, यह व्यक्ति के मनस् को ज्ञान के शोध पर केंद्रित रखते हुए उसे संगीतकला की बारीकियां समझाने में भी सहायक सिद्ध होती है.’8

प्लेटो का गणित के प्रति अनुराग उसपर पाइथागोरस के अनुयायियों के प्रभाव की देन था. उसके अनुसार जिज्ञासु व्यक्ति को अपने विचारों में सुस्पष्ट होना चाहिए. उसके भीतर सीखने की प्रबल इच्छा होनी चाहिए. स्वयं को समस्त पूर्वग्रहों से मुक्त रहते हुए उसे केवल ज्ञान के अनुसंधान के प्रति समर्पित रहना चाहिए. दर्शनशास्त्र अथवा तर्कशास्त्र के अध्ययन के लिए उसने न्यूनतम 30 वर्ष की वयस् निर्धारित की है. लेकिन दर्शनशास्त्र का विषयक्षेत्र अत्यंत व्यापक है, इसलिए इस विषय का अध्ययनमनन करते हुए उसे इसमें एकदम डूब नहीं जाना चाहिए. उस अवस्था में व्यक्ति अपने सामाजिकराजनीतिक दायित्वों को पूरा करने में असमर्थ सिद्ध होगा. अतः दर्शनशास्त्र आदि विषयों के 5 वर्ष के नियमित अध्ययनमनन के पश्चात उसको वापस समाज की ओर मुड़ जाना चाहिए. अगले 15 वर्ष तक उसे सेना तथा अन्य राजकीय सेवाओं में, जहां वह स्वयं को सर्वाधिक सहज एवं उपयुक्त मानता हो, अथवा जहां राज्य को उसकी सेवाओं की सर्वाधिक आवश्यकता हो, अपना योगदान देना चाहिए. 50 वर्ष की अवस्था तक व्यक्ति वैचारिक और आनुभविक रूप से परिपक्व हो चुका होता है. इस अवस्था तक पहुंचने के बाद जो व्यक्ति ज्ञान की सभी शाखाओं में प्रवीण हो चुका हो, वह दूसरों के लिए आदर्श और अनुकरणीय है. ऐसे व्यक्ति की सेवाएं राज्य के लिए कानून बनाने, व्यवस्थित रखने के लिए ली जा सकती हैं. ऐसे सर्वगुण संपन्न व्यक्ति यदि चाहें तो अपना बाकी जीवन दर्शनशास्त्र का अध्ययन करने अथवा समाजसेवा करते हुए भी बिता सकते हैं. राजकीय अथवा सामाजिक सेवा से मुक्त होने के उपरांत उन्हें अपना शेष जीवन दर्शनशास्त्र और जीवन के वास्तविक सत्य के अनुसंधान, चिंतनमनन को समर्पित कर देना चाहिए. यही उनके जीवन की वास्तविक उपलब्धि होगी.

प्लेटो की नगरयोजना में रहने वाले नागरिक वस्तुतः एक शिक्षित और विवेकवान समुदाय के सदस्य थे. उन्हें राजनीति, अर्थनीति तथा सामाजिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करने, उसको बेहतर बनाने के लिए सुझाव देने के पर्याप्त अधिकार थे. वह शिक्षा को परंपरा के दबावों से मुक्त कर, उसमें दर्शनशास्त्र, गणित, विज्ञान, खगोल विद्या, राजनीति, कानून आदि को सम्मिलित करने पर जोर देता है. उसका मानना था कि सभी नागरिकों को शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए, ताकि वे विकासोन्मुखी राजनीतिक निर्णय ले सकें तथा अपने राज्य और समाज को उन सभी दुष्प्रभावों से दूर रह सकें जो मानवीय अज्ञानता के कारण जन्म लेते हैं. यहां उल्लेखनीय है कि प्लेटो और उसका गुरु सुकरात दोनों दर्शनशास्त्र को सभी विषयों में श्रेष्ठतम मानते हुए उसके नियमित अध्ययनमनन को विशिष्टतम मानवीय उपलब्धि में शुमार करते हैं. धर्म तथा तत्संबधी रूढ़ धारणाओं के लिए वहां कोई स्थान नहीं है, उसके स्थान पर दोनों मानवीय विवेक को महत्ता देते हैं. प्लेटो के लिए शिक्षा का लक्ष्य किसी व्यक्ति का निजी उत्थान नहीं है. वृहद सामाजिक हितों के आगे वह स्त्रीपुरुष की निजता को महत्त्व ही नहीं देता. वह व्यक्ति के अंतरंग कामसंबंधों को भी उनके राज्य के प्रति दायित्व का हिस्सा मानता है. वह लिखता है कि कोई भी दार्शनिक दर्शनशास्त्र का अध्ययनमनन इसलिए नहीं करता कि उसके माध्यम से वह अपनी मुक्ति की कामना करना रखता है, न ही वह इस विषय को अपना जीवन इसलिए समर्पित करता है कि दुनिया को अपनी बौद्धिक क्षमताओं से चमत्कृत कर, ख्याति बटोर सके. उसके लिए शिक्षा का उद्देश्य राज्य की सेवा करना, समाज के निमित्त स्वयं को अधिकतम उपयोगी बनाना है.

यदि हम तुलनात्मक रूप से उस समय के भारतीय विचारकों, विशेषकर वैदिक साहित्य की बात करें तो पाते हैं कि वहां सारा जोर मोक्ष पर केंद्रित है. संसार को वहां माया और भ्रम माना गया है. इसलिए कुछेक को छोड़कर प्रायः सभी भारतीय विचारक इस ‘मायावी’ विश्व के मोहजाल से निकल भागने का उपाय सुझाते रहे हैं. मोक्ष की यह छटपटाहट व्यक्ति को कहीं न कहीं आत्मकेंद्रित और स्वार्थी भी बनाती है. भारतीय वांङमय में राज्य की सुरक्षा और उसकी देखभाल का दायित्व सम्राट का होता था, जिसको प्रायः युद्धकला और राजनीति की शिक्षा ही दी जाती थी. उसके असल मार्गदर्शक वे पुरोहित होते थे, जिनका काम यज्ञादि कर्मकांडों को संपन्न कराना तथा ऐसी व्यवस्था बनाए रखना था जो वर्णविभाजन की पोषकसमर्थक हो. रट्टा लगाकर ग्रंथों को कंठस्थ कर लेना उनके लिए विद्वता का पर्याय था. इससे तुलना की जाए तो प्लेटो ने शिक्षा को लेकर जो सुझाव दिए हैं, वे अधिक वैज्ञानिक एवं उपयोगी हैं. हालांकि सच यह भी है कि उसके काल्पनिक आदर्शराज्य में शिक्षा के समस्त अधिकार केवल समाज के अभिजात वर्ग तक सीमित थे. मजदूरों, लघु उद्यमियों और शिल्पकर्मियों को उसने केवल उतनी शिक्षा प्रदान करने का सुझाव दिया है, जितनी उनके व्यवसाय के लिए आवश्यक हो. जबकि दासों को उसके आदर्श नगरराज्य में समस्त अधिकारों से वंचित रखा गया था. इन कमजोरियों के बावजूद प्लेटो के योगदान की अवहेलना कर पाना असंभव है. उसका मौलिक अवदान था—स्त्रियों को पुरुषों के समान शिक्षा का अधिकार देना. यद्यपि स्त्रीशिक्षा का वास्तविक उपयोग उसकी काल्पनिक नगररचना में संभव नहीं था, तथापि हमें ध्यान रखना चाहिए कि ये सुझाव प्लेटो ने उस समय दिए थे, जब पूरी दुनिया कबीलाई समुदायों में बंटी थी. उनके बीच मामूलीसी बात पर युद्ध छिड़ जाना एकदम सामान्य बात थी. ऐसे में एक आदर्श को लेकर समाज की व्यवस्थित परिकल्पना उसकी बौद्धिक विलक्षणता का ही पर्याय है. यही कारण है कि चौबीस शताब्दियां गुजर जाने के बाद भी प्लेटो आधुनिक विचारकों को प्रभावित करता है. व्यक्तिगत मान्यता चाहे जो हो, उसके विपुल साहित्यक भंडार में प्रत्येक विद्वान को प्रायः कुछ न कुछ मिल ही जाता है.

© ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भानुक्रमणिका

  1. ….if you ask what is the good of education in general, the answer is easy””that education makes good men, and that good men act nobly, and conquer their enemies in battle…-The Laws by Plato.

  2. The same education which makes a man a good guardian will make a woman a good guardian; for their original nature is the same.-REPUBLIC.

  3. ...for all wives and children were to be in common, to the intent that no one should ever know his own child, but they were to imagine that they were all one family; those who were within a suitable limit of age were to be brothers and sisters, those who were of an elder generation parents and grandparents, and those of a younger, children and grandchildren.– Plato in TIMAEUS, translated by Benjamin Jowett.

  4. …while spoiling of children makes their tempers fretful, peevish and easily upset by mere trifles, the contrary treatment, the severe and unqualified tyranny which makes its victims spiritless, servile, and sullen, renders them unfit for the intercourse of domestic and civic life.- LAWS.

  5. After the age of six years the time has arrived for the separation of the sexes, “”let boys live with boys, and girls in like manner with girls. Now they must begin to learn””the boys going to teachers of horsemanship and the use of the bow, the javelin, and sling, and the girls too, if they do not object, at any rate until they know how to manage these weapons, and especially how to handle heavy arms…LAWS.

  6. Plato recommended that all this study must be presented not in the form of compulsory instruction, because a free soul ought not to pursue any study slavishly’. Moreover, nothing that is learned under compulsion stays with the mind.’-Charles Hummel in his article PLATO, published in Prospects, vol. 22, no. 4, 1992.

  7. ....the dialectician as one who attains a conception of the essence of each thing? And he who does not possess and is therefore unable to impart this conception, in whatever degree he fails, may in that degree also be said to fail in intelligence?REPUBLIC.

  8. These disciplines lift the soul to the level of the immutable. Mathematics—arithmetic and geometry—liberate the mind from sensation, familiarize it with the world of pure thought and turn the soul towards the heights of the world of ideas. ‘Geometry is the knowledge of the eternally existent’ (Republic, 527b). It is through geometry that one learns how to manipulate concepts (Republic, 510–511). Astronomy initiates the soul to the order and immutable harmony of the cosmos. Harmony, a sister science of astronomy’s, focuses on the search for and knowledge of the laws of, and the order in, the world of sound.Charles Hummel.

टीम अन्ना के नाम खुली चिट्ठी

प्रिय अन्ना जी,

आपसे मैंने चौबीस वसंत कम देखे हैं. फिर भी यदि मैंने आपको प्रिय संबोधन किया है, तो इसलिए कि आप मेरे उन अति प्रिय नायकों में से हैं, जिन्होंने इस छलप्रपंच से भरी दुनिया में भी इंसानियत और नैतिकता को बचाए रखा है. आपके द्वारा रालेगणसिद्धि में किए गए कार्यों की भनक मेरे कानों तक डेढ़ दशक पहले ही पहुंच चुकी थी. उन दिनों मैं सहकारिता की वैचारिकी को समझने के प्रयत्न में था. सरकार मीडिया और पूंजीपतियों के साथ मिलकर नवउदारवाद के गीत गा रही थी. पूंजीवाद का सांड भारत की धरती पर छोटेछोटे उद्यमियों, व्यापारियों, शिल्पकर्मियों को कुचलता हुआ आगे बढ़ रहा था. छोटेछोटे धंधे तबाह हो रहे थे. मेहनतमशक्कत द्वारा रोजीरोटी कमाने वाले कामगारों का बुरा हाल था. टेलीविजन और समाचारपत्रों पर नवउदारवाद का रंग चढ़ा हुआ था. दोनों एक स्वर में स्पर्धा का गुणगान कर रहे थे. सहस्राब्दियों से सहयोग, सहअस्तित्व और सद्भाव में जीते आए भारतीयों को समझाया जा रहा था कि स्पर्धा से चीजें सस्ती होंगी, तरक्की के नए रास्ते खुलेंगे और जानलेवा महंगाई से मुक्ति मिलेगी. सोवियत संघ के पतन के पीछे वहां के नेताओं की निजी महत्त्वाकांक्षाएं, अदूरदर्शिता, लालच और अन्यान्य कमजोरियां थीं. लेकिन उसके पतन से लोगों ने समाजवाद को समयबाह्यः विचारधारा मान लिया. अमेरिका को विकल्पहीन मान भारत जैसे देश उसकी आरती उतारने लगे थे. बिका हुआ मीडिया स्पर्धा के गुणगान में जुटा था. महानगरों की चमकदमक से परे जो चंद अच्छे सहयोगाधारित प्रयास किए जा रहे थे, उन्हें जाननेसमझने के लिए उसके पास न तो समय था न समझ. उस दौर में पांडुरंग आठवले, राजस्थान की ‘कुल्हड़ी’ संस्था की कर्मठ और दूरद्रष्टा महिलाओं तथा रालेगण सिद्धि में आपके सहयोगाधारित प्रयोगों के प्रति श्रद्धा मन में जगी, जो वर्षों तक बनी रही. इसलिए जब जनलोकपाल आंदोलन की हवा चली तो अंधेरे में लौ की किरण की तरह मैंने उस आंदोलन का मन ही मन स्वागत किया था. जब आपने ‘जनता सर्वोपरि’ कहा तो दिनकर की आपातकाल के दौरान लिखी वे पंक्तियां सहसा याद आने लगीं, जिनमें उन्होंने कहा था‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.’ लेकिन बहुत जल्दी लगने लगा कि जिन लोगों के कंधों का सहारा लेकर आप उम्र के आठवें दशक में आंदोलन को बढ़ाना चाहते हैं, वे प्रदर्शन प्रिय, नामलिप्सा के मारे हुए लोग हैं. कैमरे और माइक की भूख उनमें आपसे कहीं अधिक है. ऐसे लोग तमाशा तो खड़ा कर सकते हैं, एक परिवर्तनकामी आंदोलन में रचनात्मक सहभागिता उनसे संभव नहीं है.

गांधी जी के बारे में आप मुझसे कहीं अधिक जानते हैं. उनका काम पहले दिखता था. वही जनता को अपनी ओर खींचता था. लेकिन आपकी टीम के सदस्य सबकुछ पलटने पर उतारू हैं. वे माइक पर अपना चेहरा दिखाने के लिए मचलते रहते हैं. भारतीय जनता इतनी समझदार तो है कि वह समझ ले कि माइक और कैमरों की ओर ललचाई दृष्टि से देखने वाले चेहरों में राजनीति की कितनी भूख है. राजनीतिक क्षेत्रों में पैठ बनाने का आपके सहयोगियों का उतावलनापन हरियाणा के चुनावों में कांग्रेस विरोध के माध्यम से नंगे सच की तरह सामने आया था. आप अच्छी तरह जानते हैं कि जनलोकपाल के समर्थन में घरों से निकले लोगों के मन में भ्रष्टाचार को लेकर आक्रोश था, जिससे कोई भी राजनीतिक दल बचा नहीं है. नेताओं के लिए राजनीति एक व्यापार है. सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के बीच वंशवाद को मौन सहमति मिल चुकी है. ऐसे में कोई नहीं कह सकता था कि केवल कांग्रेसी भ्रष्ट हैं और भाजपा, प्रकारांतर में आप जिसका समर्थन कर रहे थे, वह दूध के धुले नेताओं की पार्टी है. यह बात तो आपकी टीम के सदस्य भी नहीं मानते थे. इसलिए वे ‘किंतुपरंतु’ का सहारा लेते हैं. ‘देश में कांग्रेस पार्टी की सरकार है, इसलिए कांग्रेस को हराना है’—अरविंद केजरीवाल का यह तर्क बेतुका और तथ्यों से परे था. क्या वे नहीं जानते कि देश में कांग्रेस की न होकर ‘संयुक्त जनतांत्रिक मोर्चा’ की सरकार है. कांग्रेस के बहुमत के बावजूद यह संभव नहीं कि जब तक संजमो के बाकी दल न चाहें, अकेली सोनिया या कांग्रेस कोई बिल पास करा ही नहीं सकती. दूसरे लोकसभा में बिल पास होने से ही वह कानून नहीं बन जाएगा. इसके लिए उसको राज्यसभा से भी पास कराना जरूरी है. जहां कांग्रेस पार्टी अल्पमत में है. आपके चुनावी तीर का सामना कांग्रेस और संजमो के सहयोगी दलों ने चुनावी रणनीति से ही किया. उन्होंने लोकसभा में बिल पास करवा दिया. लेकिन राज्यसभा में, जहां भाजपा और उसके सहयोगी दलों का बहुमत है, उसके बड़े नेता मौन साधे रहे. वहां जिस तरह बहस चली, जनता समझ गई कि राजनीतिक दलों में से कोई भी लोकपाल अथवा जनलोकपाल जैसा बिल पास कराना नहीं चाहता. परिस्थितियों में आमूल परिवर्तन की जरूरत है, यह आप और आपके सहयोगी भी मानते हैं. इसके बावजूद उनके भाषण तथा रामलीला मैदान में किरन बेदी की नौटंकी से संदेश गया कि आप केवल कांग्रेस को हराने की राजनीति कर रहे हैं. यह भी कारगर होता यदि विपक्ष की जनता के बीच कुछ साख होती. संसद में विपक्ष की मान्यता प्राप्त भाजपा जनता के बीच पहले ही साख गंवा चुकी है, ऐसे में लोग आपके समर्थन में बारबार घर से क्यों निकलते? खासकर उस मुंबई में जहां शिवसेना का प्रभाव हो और उसके नेता बाल ठाकरे खुलकर आपका विरोध करते आ रहे हों.

अन्ना जी, एक गांव का सुधार करने और देश को सुधारने में बड़ा अंतर होता है. भारत के गांवों का चेहरामोहरा आज भी सामंतवादी है. धर्म से साथ स्वार्थपूर्ण गठजोड़ कर वह समाज के बड़े वर्ग को सत्ता और संसाधनों से बेदखल कर देता है. शिखर पर गिनेचुने लोग बचे रह जाते हैं. जिन्हें उनके आपसी हित एकदूसरे से जोड़े रखते हैं. वस्तुस्थिति से अनजान लोग इसी को विकास मान लेते हैं. देश में न केवल बहुरंगी सांस्कृतिक छटा है, बल्कि विभिन्न राजनीतिक दांवपेच, मान्यताएं और अनेक धार्मिक प्रपंच हैं. उनसे एक झटके में पार पाना संभव नहीं है. विशेषकर उस आंदोलन के जरिये जिसका स्वरूप ही प्रतिक्रियात्मक हो. जो दावा अराजनैतिक होने का करता हो, लेकिन आंदोलन का स्वरूप, भाषणबाजी, जनता को चेहरा दिखाने की ललक, आरोपप्रत्यारोप ठीक वैसे ही हों, जैसे दूसरी राजनीतिक पार्टियों के हैं. जिसका कोई रचनात्मक कार्यक्रम न हो. ऐसी उखाड़पछाड़ से कुछ दिनों के लिए गहमागहमी का माहौल जरूर बनाया जा सकता है, वास्तविक परिवर्तन जिसके लिए लंबे संघर्ष की आवश्यकता पड़ती है, इसके द्वारा सर्वथा असंभव है.

आमूल परिवर्तन के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता अनिवार्य है. साथ ही जरूरी है नेता और जनता के बीच प्रामाणिक संवादसेतु. निरंतर जनसंवाद द्वारा ही समर्पित और सत्यनिष्ठ कार्यकर्ताओं का समूह बनाया जा सकता है. यदि विचारधारा ठोस, आचरण निष्प्रह और नेतृत्व ईमानदार हो तो आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता नहीं पड़ती. कस्तूरी गंध की भांति उसका संदेश दूर तक जाता है और लोग उससे स्वतः जुड़ने लगते हैं. भीड़ को बहलाफुसलाकर चुनावों में ठप्पा तो लगवाया जा सकता है. मतदाता के पास बेहतर विकल्प न होने से यह काम आसान भी है. वास्तविक परिवर्तन के लिए लंबे समय और संयम की दरकार होती है. वहां केवल शिखर नेतृत्व के आचरण की पवित्रता, नैतिकता और दूरंदेशी ही लोगों को बांधे रख सकती है. नमक सत्याग्रह के लिए गांधीजी ने केवल 78 कार्यकर्ताओं को चुना था. यह उनका नैतिक आभामंडल था जो बिना किसी फेसबुकिया अभियान के डांडी यात्रा को देशभर में व्यापक जनसमर्थन मिला था. 24 दिनों की 390 किलोमीटर की यात्रा पूरी करने के बाद वह यात्रा जब डांडी पर पहुंची तो वहां एक लाख से अधिक लोग जमा थे. साबरमती तट के अलावा भी देश में जगहजगह नमक बनाया जा रहा था. लाखों सत्याग्रही आंदोलन के घरों से निकले हुए थे. औपनिवेशिक सरकार के दमन का विरोध करते हुए 80,000 से अधिक सत्याग्रही जेल जा चुके थे. वह आंदोलन नैतिकता के कंधों पर सवार होकर परवान चढ़ा था. कोई प्रतिक्रियात्मक सोच उसके पीछे नहीं था. देश को नमक सत्याग्रह के तुरंत बाद आजादी नहीं मिली थी. पूरे 17 वर्ष लगे थे. लेकिन उस आंदोलन ने इस देश के आम आदमी के भीतर राजनीति का एक जज्बा पैदा किया था. यह विश्वास उसके दिल में पैदा किया था कि लोग निडर हों तो दुनिया की बड़ी से बड़ी हुकूमत उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती. यह अवसर आपको भी मिला था, लेकिन आपके सहयोगियों की निजी महत्त्वाकांक्षा और उनपर लग रहे एक के बाद एक आरोपों से जनता का विश्वास इस आंदोलन से डिगा है. लोगों को यह आंदोलन एकसूत्री और सियासी चाल लगने लगा है. आप कह सकते हैं सरकार टीम अन्ना को बदनाम कर रही है. संभव है यह सच हो. लेकिन सत्ता चाहे देशी हो या विदेशी, उसका चरित्र अमूमन एक जैसा होता है. केवल चैतन्य जनसमाज द्वारा उसे नियंत्रित किया जा सकता है. जनता को जगाने, उसका विश्वास जीतने के लिए नेता को पहले उसके करीब आना पड़ता है. इसीलिए दूरदृष्टा गांधी सार्वजनिक जीवन में आने से पहले एक लंगोटी, घड़ी, लाठी और टोपी जैसे कुछ साधारण वस्तुओं को छोड़कर बाकी सब से नाता तोड़ चुके थे.

आप कहेंगे कि बारबार गांधी को याद करना जरूरी क्यों? वह इसलिए कि आप अपने आंदोलन में गांधीजी के ‘औजार’ सत्याग्रह का इस्तेमाल कर रहे हैं. आप यह भी भलीभांति जानते हैं कि गांधी के रास्ते पर चलना साध्य और साधन की समानता के बगैर संभव ही नहीं हैं. वे जब तक दक्षिण अफ्रीका में रहे, तभी तक बेरिस्टर रहे. भारत आने के साथ ही उनका कायाकल्प हो चुका था. बेरिस्टर गांधी लंगोटीछाप बन चुका था. उन्हें मालूम था कि लोगों का विश्वास जीतने के लिए पारदर्शिता आवश्यक है. ईमानदार होना नहीं, दिखना भी चाहिए. न केवल नेता को, बल्कि उसके आसपास जुटे कार्यकर्ताओं को भी. उनके नैतिक आभामंडल ने विनोबा जैसे अनुयायी पैदा किए थे, जिनमें गांधीवाद गांधीजी के अपने आचारव्यवहार से भी ज्यादा दमदार था. गांधीजी का आंदोलन ऐसे ही समर्पित कार्यकर्ताओं के कंधों पर टिका था. गांधीजी स्वयं खास अवसर पर ही नेतृत्व की जिम्मेदारी ओटते थे. आपकी टीम में कोई ऐसा नहीं है, जिसके कंधों पर किसी आंदोलन की जिम्मेदारी डाली जा सके. न किसी में इतना आत्मविश्वास है कि आपके प्रतिनिधि के रूप में स्वतंत्र आंदोलन की बागडोर संभाल सके. इसलिए वे हर जगह, हर बार आपको अनशन और आंदोलन के बहाने आगे ले आते हैं. एक मुखैटे की भांति वे आपका इस्तेमाल कर रहे हैं. आप सत्तर पार कर चुके हैं. शतायु हों यह कामना भी है. लेकिन आमूल बदलाव के लिए लंबे आंदोलन की दरकार होती है. आपकी उम्र और सेहत को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि आप लंबे समय तक किसी रचनात्मक आंदोलन में सक्रिय भागीदारी कर सकते हैं. कहीं ऐसा न हो आपके बाद टीम अन्ना की हालत भी बिना सोनिया की कांग्रेस या बिना अटलविहारी वाजपेयी के भाजपा जैसी बनकर रह जाए.

आप जो आंदोलन लेकर चले हैं उसकी सफलता के लिए ठोस वैकल्पिक विचारधारा का होना जरूरी है. यह काम गांधी के रास्ते चलकर भी हो सकता है. बशर्ते उसमें ‘टीम अन्ना’ के सभी सदस्यों की संपूर्ण आस्था हो. साथ में अपने बूते आंदोलन को आगे बढ़ाने का जज्बा. यदि अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण, किरन बेदी में ‘गांधीवाद’ के प्रति सच्ची आस्था का अभाव है? यदि उनमें अपेक्षित आत्मविश्वास गायब है? यदि वे मंच पर अपरिग्रही और निष्प्रह दिखना चाहें और पीछे अपनेअपने संगठन के जरिये करोड़ों का अनुदान पचाएं, तो वे आपके सच्चे साथी हो ही नहीं सकते. जनता नारों की हकीकत को जानती है. वह समझती है कि ‘अन्ना’ के नाम का जयकारा लगाने वालों के दिल में नाम और नामे दोनों की भूख है. इसलिए वे बारीबारी से माइक झटककर मंच पर आते हैं. हर कोई हाथ लहरालहराकर जनता को अपना चेहरा दिखाना चाहता है. फिर बिना किसी ठोस रणनीति, वैकल्पिक राजनीतिक दर्शन या वर्तमान संसदीय लोकतंत्र में सुधार हेतु ठोस सुझावों के, सिर्फ एक जिद के लिए साल में तीनतीन अनशन! हमारे घरों में औरतें साल में साठसत्तर व्रत रख लेती हैं. वे अच्छा करती हैं या बुरा, उसपर विचार करना इस लेख का विषय नहीं है. लेकिन रोजरोज उपवास करने पर वे घर के सदस्यों तक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं करा पातीं.

आप गांधीजी के अनुयायी हैं. आपको उनके बारे में बताने की जरूरत नहीं. गांधीजी कभी इकहरे आंदोलन पर विश्वास नहीं करते थे. उनकी अहिंसक लड़ाई एक से अधिक मोर्चों पर लगातार जारी रहती थी. उनके पास समर्पित कार्यकर्ताओं और नेताओं की पूरी टीम थी. प्रत्येक आंदोलन उनके द्वारा नामित सत्याग्रही हिस्सा लेते थे. विनोबा भावे, जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, आचार्य कृपलानी, कस्तूरबा गांधी, सरोजिनी नायडू, अबुल कलाम आजाद, हरिलाल गांधी जैसे अनेक नेता गांधीजी के साथ थे. सभी का स्वतंत्र व्यक्तित्व और नैतिक आभामंडल था. दुर्भाग्य की बात है कि आपकी टीम में जितने भी सदस्य हैं, एक आपको छोड़कर किसी की जनता के बीच नैतिक छवि नहीं है. सबके दामन पर दाग लगे हैं. आंदोलन से बाहर वे सभी जुगाडू़ किस्म के लोग हैं. ऐसे में जनता उनपर विश्वास करे भी तो कैसे? ‘मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना’ का नारा लगाने हर कोई अन्ना नहीं बन जाता. न मंच की पृष्ठभूमि पर महात्मा गांधी की तस्वीर लगा देने से किसी में गांधीजी की आत्मा उतर आती है. दुनिया में ‘गांधी’ एक विचारधारा एक आंदोलन पद्धति का पर्याय बन चुका है. उनके रास्ते पर चलना बिना उनके जैसा बने संभव नहीं है.

भारतीय लोकतंत्र की आज जो अवस्था है वह अनायास नहीं है. न ऐसा है जिसके बारे में कभी सोचा न गया हो. भारत में लोकतंत्र के नाम पर बनी विभिन्न संस्थाओं की आज जो दुर्दशा है वह अकल्पित भी नहीं है. लोकतंत्र की विसंगतियों के बारे में प्लेटो ने खुलकर लिखा है. 2400 वर्ष पहले लिखे गए उसके ग्रंथ ‘रिपब्लिक’ में लोकतंत्र की विस्तृत समीक्षा को देखा जा सकता है. यह आपको तय करना है कि जो परिवर्तन आप चाहते हैं, क्या वे संसदीय लोकतंत्र की वर्तमान व्यवस्था में संभव हैं? यदि ‘हां’ तो उसके लिए कौनसे कार्यक्रम जरूरी हैं और कैसे उन कार्यक्रमों पर चरणबद्ध तरीके से अमल किया जाए? यदि वांछित परिवर्तन संसदीय लोकतंत्र द्वारा संभव नहीं है तो भावी लोकतंत्र अथवा नए राजनीतिक दर्शन का स्वरूप क्या हो? उल्लेखनीय है कि लोकतंत्र उन्हीं देशों में बचा हुआ है जो किसी न किसी प्रकार पूंजीवाद को समर्पित हैं. इसलिए पूंजीवाद का विरोध कर रहे देश लोकतंत्र के वैसे समर्थक भी नहीं है. समस्या यह भी है कि पूंजीवाद का विकल्प कही जाने वाली समाजवाद और साम्यवाद जैसी विचारधाराओं का वैश्विक प्रभाव सिकुड़ रहा है. बीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद के विकल्प के रूप में श्रमिक संघवाद, अराजकतावाद, समष्ठिवाद और सहजीवितावाद जैसे नए राजनीतिक दर्शन आए हैं, लेकिन उनको आजमाया जाना बाकी है. मार्क्सवाद से प्रेरितप्रभावित हैं ये सभी विचारधाराएं उसकी अपनीअपनी तरह से अधुनातन व्याख्या करती है. जहां तक भारत की बात है, धर्म, जाति, सांप्रदायिकता के आधार पर बुरी तरह विभाजित समाज में इन विचारधाराओं के आधार पर परिवर्तन असंभव है. फिलहाल जो सबसे जरूरी है वह है आम जनता को लोकतंत्र और उसके विकल्पों से परचाना. उसको परिवर्तन के लिए मानसिकशारीरिक रूप से तैयार करना, जो केवल नैतिक धरातल पर खड़े नायक द्वारा संभव हो सकता है. ऐसा नायक जो निजी नैतिकता के सम्मोहन से आगे बढ़ते हुए पूरे समाज में उसकी स्थापना करना चाहता हो. यह एक लंबा काम है, पर आमूल परिवर्तन के लिए विकल्पहीन भी है.

आधुनिक राजनीतिक दर्शन की सबसे बड़ी समस्या व्यक्तिहित तथा समाजहित में तालमेल बनाने की है. बदले हुए समय में व्यक्ति की राय और उसकी आकांक्षाओं की अवहेलना कर पाना संभव नहीं रह गया है. न ही शासक दल के लिए यह संभव है कि जनमत की उपेक्षा करते हुए वह मनमाना आचरण करे. इसलिए बदलाव अपरिहार्य हैं. लोगों के दिलों में यह विश्वास पैदा कराना जरूरी है कि यह कोरी राजनीति नहीं, वास्तविक परिवर्तन की लड़ाई है. महोदय, मुंबई में अपेक्षाकृत कम जनसमर्थन मिलने पर निराश होने की आवश्यकता नहीं है. हर आंदोलन की राह में ऐसे दौर आते हैं. परिवर्तन की लड़ाई किसी एक दिन में नहीं जीती जा सकती. सुनिश्चित जीत के लिए बारबार चाल अदलबदल कर प्रयास करने पड़ते हैं. इसलिए जरूरी है कि परिवर्तन का पहले खाका बनाया जाए. फिर ऐसे लोगों को आंदोलन से जोड़ा जाए जिनका कोई नैतिक आभामंडल हो. इसके अभाव में लोगों की भीड़ तो जुटाई जा सकती है, समर्पित और प्रतिबद्ध कार्यकर्ता पैदा नहीं होते. लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए एक मुखपत्र भी जरूरी है. फेसबुक आदि को त्वरित संदेश का माध्यम बनाया जा सकता है, सामान्य स्थिति में उनके माध्यम से सरकार पर दबाव भी बनाया जा सकता है. वैकल्पिक समाज की संरचना के लिए ठोस कार्यनीति और राजनीतिक दर्शन की पीठिका तैयार कर पाना उनसे सर्वथा असंभव है. यह अच्छा है कि आपने असफलता के कारणों की पड़ताल शुरू कर दी है. ‘टीम अन्ना’ को चूक का एहसास होना परिवर्तनकामियों को संतोष प्रदान कर सकता है. भविष्य के कार्यक्रम ऐसे हों जो जनता को उसकी उसकी ताकत और अधिकारों से परचाने के साथसाथ लोगों को संकल्पनिष्ठ एवं कर्तव्यनिष्ठ बनने की प्रेरणा भी देते हों.

©ओमप्रकाश कश्यप

2011 in review

The WordPress.com stats helper monkeys prepared a 2011 annual report for this blog.

Here’s an excerpt:

A New York City subway train holds 1,200 people. This blog was viewed about 7,300 times in 2011. If it were a NYC subway train, it would take about 6 trips to carry that many people.

Click here to see the complete report.

हिंदी व्यंग्य की अवसान बेला

मैं यह मान लेता हूं कि साहित्यिक विधाएं कभी मरती नहीं. वे अपने पाठकों, लेखकों, आलोचकों, समीक्षकों और प्रशंसकों के बीच सदैव जीवंत बनी रहती हैं. यूं भी साहित्य को अक्षयवट कहा जाता है. सदाबहार, उसकी शाखाओं के विस्तार का सिलसिला कभी थमता नहीं. भूस्पर्श के साथ ही वे नया रूप ले लेती हैं. जीवन की तरह उतारचढ़ाव के दौर साहित्य में भी आते हैं. कभी कोई विधा विकास की तेज रफ्तार पकड़ लेती है, कभी ठहराव की शिकार हो जाती है. विधाएं जबतब स्थानापन्न भी होती रहती हैं. जैसे कहानी पहले लोककथा के रूप में घर, चौपाल, गली, नुक्कड़, अलाव के आसपास कहीसुनी जाती थी, फिर वह किताबों में सिमटने लगी. एक समय किस्सागो का समाज में सम्मानजनक स्थान था. उनके नाम पर गलीमुहल्लों के नाम रखे जाते थे. वक्त के साथ पहले उनका मानसम्मान गया, फिर पेशा. कहानी दादादादी, नानानानी के माध्यम से नौनिहालों का मनोरंजन करने लगी. इस लंबे अंतराल में प्रस्तुतिकरण का रूप बदला था, उद्देश्य नहीं. लोकसाहित्य की उपयोगिता भी समय के साथ निरंतर परवान चढ़ती गई. लेकिन भागमभाग के इस युग में आज वह परंपरा दम तोड़ रही है, चौपालों पर घंटों तक अपनी किस्सागोई का जलवा बिखेरने वाले किस्सागो अब कहीं नजर नहीं आते, किंतु पुस्तकों, पत्रपत्रिकाओं, टेलीविजन, इंटरनेट आदि पर कहानी साहित्य की प्रमुख विधा के रूप में अपना सम्मान बनाए है. चारसाढ़ चार सौ वर्ष पहले तक चौपाई नामक छंद पद्य साहित्य की जान हुआ करता था. तुलसी ने ‘मानस और जायसी ने ‘पदमावत’ इसी छंद में रचा था. अतुकांत कविता के दौर में चौपाई, सवैया जैसे छंदों का प्रयोग घटा है. इधर छंदबद्ध कविता पर ही संकटसा है. हालांकि लोकमानस में उद्धरणों, किवदंतियों के रूप में उनकी पैठ आज भी पहले जितनी ही है. अतः इस लेख के शीर्षक को लेकर व्यंग्य के प्रति यदि अवसादजन्य विचार उमड़ते हैं, तो उनको लेकर बहुत चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है. न इसके द्वारा चौंकाने का मेरा कोई इरादा है. इस सब के बावजूद इस शीर्षक का चयन अन्यथा नहीं है. बल्कि काफी सोचविचार के उपरांत तय किया गया है. कुछ वर्षों से व्यंग्य को लेकर जो विचार मेरे मन में उठते रहे हैं, मैं कोशिश करूंगा कि उन्हें इस लेख के माध्यम से आपके समक्ष प्रस्तुत कर सकूं.

अपनी संपूर्ण आशावाद और सकारात्मकबोध के बावजूद मैं कहना चाहूंगा कि हिंदी व्यंग्य के लिए यह सबसे बुरा दौर है. ऐसे समय में जब हमारे समक्ष अनगिनत चुनौतियां हैं, जिस दौर में व्यंग्यकारों के नश्तर को और अधिक नुकीला और प्रहारक होना चाहिए, वे लगभग दिशाहीन और निस्तेज अवस्था में हैं. प्रतिकूल परिस्थितियों तथा उनके लिए जिम्मेदार कारकों को पहचान कर, उन पर व्यंग्य लिखने, जीवन समर में आगे बढ़कर चुनौतियों के साथ खेल खेलने तथा इसके लिए दूसरों को प्रेरित करने का सामर्थ्य वे खोते जा रहे हैं. व्यंग्य को लेकर होने वाली गोष्ठियों, सभाओं की संख्या निरंतर घट रही है. अखबारों में उसे लघुकथा जितना स्पेस दिया जाता है. पांचछह सौ शब्दों से अधिक शब्दों की व्यंग्यरचना इधर समाचारपत्रों में दिखाई नहीं देती. पत्रिकाएं 1000-1500 शब्दों से बड़ी रचना से बचती हैं. हालांकि आज भी दर्जनभर व्यंग्य को समर्पित पत्रिकाएं देशभर में प्रकाशित होती हैं. बाकी भी व्यंग्य को किसी न किसी रूप में प्रकाशित करती ही हैं. पुस्तक रूप में हर वर्ष पचासियों व्यंग्यकृतियां सामने आती हैं. मगर मुझे याद नहीं आता कि पिछले पांचछह वर्षों में किसी व्यंग्य कृति ने हिंदीसमाज में व्यापक चर्चा बटोरी हो, पाठकों और समीक्षकों का मन समानरूप से मोहा हो. प्रायोजित विमर्श को छोड़ दिया जाए तो पुस्तकें आती हैं और गुमनामी में खो जाती हैं. साहित्य की दूसरी विधाओं के साथ भी कमोबेश यही स्थिति है, मगर व्यंग्य मुझे सर्वाधिक उपेक्षित लगता है. खासकर तब जब व्यंग्य का पाठकवर्ग विशाल हो. हर वर्ग, हर उम्र का पाठक उसको पसंद करता हो. हिंदी व्यंग्य के स्वर्णिम दौर जब हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी जैसे दिग्गज व्यंग्यकार थे, की वापसी की आहट तक नहीं है. ज्ञान चतुर्वेदी से उम्मीद थी. मगर उनकी कलम की धार कभी की भौंथरी हो चुकी है. वे कॉलमजीवी बनकर रह गए हैं. वर्षों पहले ‘इंडिया टुडे’ की साहित्य वार्षिकी में प्रकाशित एक व्यंग्य रचना जिसमें उन्होंने मुर्गा के बहाने समाज और राजनीति पर व्यंग्य कसा था, के अलावा उनकी कोई और यादगार रचना मेरी नजर से नहीं गुजरी. हिंदी व्यंग्य के हरावल दस्ते के लेखकों को यह सुनकर शायद बुरा लगे, मगर मुझे कहने में किंचित संदेह नहीं है कि यह हिंदी व्यंग्य की अवसान बेला है. व्यंग्य का पाठकप्रशंसक होने के नाते मैं चाहूंगा कि इसके वर्तमान परिदृश्य को लेकर उनके मन में यदि कुछ खुशफहमियां हैं, तो वे खरी साबित हों.

व्यंग्य को छोड़कर शायद ही किसी और विधा में सृजनधर्मियों को पहले और दूसरे नंबर पर रखने का चलन हो, लेकिन व्यंग्य लेखन में यह काम न केवल पूरी ठसक के साथ किया जाता है, बल्कि इसको समीक्षकों की मान्यता भी प्राप्त है. तदनुसार इस विधा में पहला और दूसरा स्थान हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के लिए सुरक्षित है. तीसरेचौथे की मारामारी में श्रीलाल शुक्ल और रवींद्रनाथ त्यागी आ जाते हैं. प्रथम चार में पहले दो लेखन को समर्पित फ्रीलांसर थे तो बाकी दो सरकार के वरिष्ठ ओहदेदार. पांचवेछठे के लिए लंबी कतार है. रवींद्रनाथ त्यागी पांचवा स्थान लतीफ घोंघी को देते हैं. स्तरीकरण की इस परंपरा को व्यंग्यकारों और व्यंग्यसमीक्षकों के लिए छोड़ मैं कहना चाहूंगा कि व्यंग्य की जो मारक क्षमता परसाई और जोशी की रचनाओं में है, बाकी किसी व्यंग्यकार के पास न तो वैसी क्षमता है, न दृष्टि. परसाई अपनी देशज शैली में मारक हैं तो शरद के पास व्यंग्यात्मक स्थितियों को पकड़ने की सूक्ष्म दृष्टि है. दोनों की ताकत निर्भीक प्रस्तुति में है. रवींद्रनाथ त्यागी अपनी नौकरी की सीमाओं के चलते सीधा प्रहार करने से कतराते रहे. सरलीकरण के लिए उन्होंने हास्यमिश्रित व्यंग्य की शरण ली. इसके बावजूद जब वे अपनी रंगत में हों तो लाजवाब हैं. श्रीलाल शुक्ल ‘रागदरबारी’ में सिमटे हैं. उससे बाहर उनका व्यंग्यकार करवट तक नहीं लेता. साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए इस उपन्यास की राही मासूम रजा के ‘आधा गांव’ से स्पर्धा थी. उस समय शुक्ल जी का अधिकारी होना काम आया. इस उपन्यास के कारण ही शुक्ल जी को हिंदी के शीर्षस्थ व्यंग्यकारों में पहचान मिली. शंकर पुणतांबेकर और लतीफ घोंघी ने लिखा खूब, परंतु उनके पास विट की कमी थी. साथ में विषय की सीमाएं भी.

परसाई और जोशी की शैली में भी मूलभूत अंतर था. परसाई की पारसाई लोकतत्व को साथ लेकर चलती है. वही उनकी रचनाओं को अधिक संप्रेषणीय और ग्राह्यः बनाकर उनमें सहज किस्सागोई भर देता है. उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता रचना की प्रहार क्षमता को बढ़ाती है, उसे स्वाभाविक विस्तार देती है. अतीत और वर्तमान दोनों के प्रति विवेकसम्मत आलोचनादृष्टि, जो शरद जोशी में उनसे कम और बाकी रचनाकारों जिन्हें उन दोनों से निचले क्रम में दिखाया जाता है, अत्यल्प है. परसाई स्थितियों पर चोट करते हैं. उनका व्यंग्य विसंगतियों से अपने आप उभरता है. इस कारण वह अधिक प्रभावी है. वे धर्म के नाम पर पाखंड रचने वालों की खबर लेते हैं तो माक्र्सवादियों की छद्म क्रांतिकारिता भी उनकी वक्रोक्तियों से बच नहीं पाती. ‘रानी नागफनी की कहानी’ के माध्यम से वे सामंतवाद पर निशाना साधते हैं. ‘भोलाराम का जीव’ तथा ‘वैष्णव की फिसलन’ में उनके सामने धार्मिक पाखंड और रूढ़ियां होती हैं. भारतीय समाज के चरित्र निर्माण में चूंकि धर्म की भूमिका बहुत व्यापक और बहुआयामी है. उसमें लंबे समय से अनेक कुरीतियां, भ्रांतियां और आडंबर जड़ जमाए हुए हैं. परसाई उनके सामने झुकते नहीं. रूढ़ियों और पाखंडों पर लिखते समय उनकी कलम और भी नुकीली हो जाती है. वहां वे सीधे व्यवस्था पर प्रहार करते हैं. विट तो शरद जोशी के पास भी खूब था. ‘अतृप्त आत्माओं की रेलयात्रा’ में उन्होंने धार्मिक पाखंड को तारतार किया है. धर्म के नाम पर दिखावा करने वाले साधुओं की खबर ली है. परसाई के पास ऐसी रचनाओं का खजाना है. शरद जोशी अपनी लेखन ऊर्जा का उपयोग राजनीति की पैमाइश में अधिक करते हैं, उनका लगभग सत्तर प्रतिशत साहित्य राजनीति को लक्षित है. लेकिन दलीय राजनीति के प्रति तटस्थता के अभाव में वे सत्ताविरोध का वैसा रूपक नहीं रच पाते जो परसाई अपनी लोकशाही की रौ में सहज ले आते थे. परसाई की रचनाओं में ऊंचे वर्ग का अनाचार है. ‘जीप पर सवार इल्लियां’ में शरद जोशी भ्रष्टाचार के मुद्दों पर अपनी जमीनी पकड़ का प्रमाण देते हैं, जिससे उनका व्यंग्य कुछकुछ इलीट बन जाता है. इसके बावजूद अपनी देहाती कड़क में परसाई उनपर सवाये पड़ते हैं. एक सामान्य पढ़ालिखा व्यक्ति भी परसाई के व्यंग्य को समझ सकता है, जबकि अन्य व्यंग्यकारों की थाह को पाने के लिए दिमागी कसरत करनी पड़ सकती है.

परसाई और शरद जोशी दोनों ने ही कलम को अपनी आजीविका का माध्यम बनाया था. दोनों का लेखन जिन दिनों परवान चढ़ रहा था, समाज में स्वप्नभंग की अवस्था में था. देश उन सपनों का हश्र देख रहा था, जो स्वाधीनता संग्राम के दौरान नेताओं द्वारा दिखाए गए थे. उनमें नेहरू का पंचशील का नारा भी था, जो चीन से मिली बुरी शिकस्त के बाद तारतार हो चुका था. देश की जनता सकते जैसी हालत में थी. परसाई देख रहे थे कि दोष अकेले नेताओं का ही नहीं है, उन लोगों का भी है जो उन्हें चुनकर अपना भविष्य संवारने की जिम्मेदारी के साथ संसद में भेजते हैं, लेकिन मतदान के समय उम्मीदवार के चरित्र के बजाय उसकी जाति, धर्म या सामाजिक हैसियत के अनुसार निर्णय लेते हैं. उन लोगों में वे भी थे जो विभाजन के दौरान एकदूसरे के खून के प्यासे हो उठे थे. दोष उन पुजारियों, मौलवियों, तांत्रिकों और पादरियों का भी है जो स्वार्थ के लिए धर्म के नाम पर पाखंड रचते तथा लोगों को बरगलाते तथा प्रकारांतर में उनका भावनात्मक, आर्थिक, सामाजिक शोषण करते हैं. वे जानते थे कि धर्म और जाति जैसी संस्थाओं की सदाशयता को लेकर चाहे जो दावे किए जाएं, अपनी मूल संरचना में हर धर्म सामंतवाद का पोषण करता है. जातीय विभाजन उसको मजबूती प्रदान करता है. धर्म का पहला हमला व्यक्ति के विवेक और सहिष्णुता पर होता है. परिणामस्वरूप वह अपनी दुर्दशा के कारणों की पहचान पराभौतिक, असांसारिक शक्तियों के रूप में करने लगता है, जिससे दुरवस्था की वास्तविक जिम्मेदार शक्तियों को मनमानी करते रहने का अवसर मिल जाता है. निहित स्वार्थ के लिए सामंत और पूंजीपति धार्मिक पाखंड को संरक्षण प्रदान करते हैं. व्यक्तिमात्र का विवेकीकरण न बाजार चाहता है, न राजनीतिज्ञ और न पूंजीपति. बाजार को उपभोक्ता चाहिए, राजनीतिज्ञों को मतदाताऐसे जो कभी कोई तर्क न करें. कठपुतली की तरह इशारों पर नांचें. धर्म आदमी का ध्यान जीवन समस्याओं और उसके कारकों से हटाकर वायवी दुनिया की ओर ले जाता है और शोषण के सहायक, उत्पीड़क और संरक्षक की भूमिकाएं एक साथ निभाता है. इस समझ के साथ परसाई ने धर्म और राजनीति दोनों को अपनी आलोचना के दायरे में रखा और व्यंग्य के सिद्ध कलमकार बने.

नवभारत टाइम्स’ में ‘प्रतिदिन’ लिखने से पहले जोशी ‘नई दुनिया’ के लिए कॉलम लिखा करते थे. वे तब भी व्यंग्य के मुखर हस्ताक्षर थे. ‘प्रतिदिन’ लिखने के दौरान हिंदी के बड़े पाठक समूह से उनका साबका पड़ा. उन दिनों भारतीय जनता राजनीति का खेल देखकर हैरान थी. आपातकाल थोपने के लिए इंदिरा गांधी को सजा देने वाली जनता, ‘जनता पार्टी’ के नेताओं की उच्छ्रंखलता और आपसी खींचतान से उकता चुकी थी. विकल्प के अभाव में उसने पुनः इंदिरा गांधी को सत्ता सौंपी थी. फिर एक ऐतिहासिक घटनाक्रम के दौरान इंदिरा गांधी की हत्या, सहानुभूति की लहर के चलते राजीव गांधी की ताजपोशी को भी उसने देखा था. ‘जनता पार्टी’ के प्रयोग के रूप में असफल हो चुकी दक्षिणपंथी शक्तियां इस बार विश्वनाथ प्रताप सिंह के पीछे लामबंद थीं, जो पूरे देश में राजीव गांधी की राजनीतिक अपरिपक्वता और उनके शासन में पल रहे भ्रष्टाचार के विरुद्ध अलख जगाने में लगे थे. शरद जोशी विश्वनाथ प्रताप सिंह के व्यक्तित्व से सम्मोहित थे. उन्होंने राजीव गांधी की राजनीतिक अपरिपक्वता से उत्पन्न स्थितियों तथा बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के विरुद्ध रचे जा रहे कांग्रेसीगैरकांग्रेसियों के षड्यंत्र पर तीखे प्रहार किए. ‘प्रतिदिन’ की लोकप्रियता के साथ ‘नवभारत टाइम्स’ और शरद जोशी का नाम भी लोगों की जुबान पर छाने लगा. कहा जा सकता है कि शरद जोशी में राजनीतिक परिपक्वता थी. बारीक अन्वीक्षण की क्षमता थी उनमें. इसलिए उनके कॉलम व्यंग्य के साथसाथ राजनीतिक विश्लेषण का भी आनंद देते थे. ‘प्रतिदिन’ की लोकप्रियता का कारण भी यही था, लेकिन उसका बड़ा हिस्सा कांगे्रस विरोध और प्रकारांतर में राजीव गांधी के विरोध तक सीमित था. एक अच्छा साहित्यकार सत्ता के प्रतिपक्ष में रहता है. परसाई सदैव प्रतिपक्ष को साधते रहे. दल विशेष का समर्थनविरोध शरद जोशी को स्थितियों के बारीक अन्वीक्षणविश्लेषण का अवसर तो देता है, लेकिन उनकी सीमाओं को संकुचित भी करता है. इसलिए परसाई की पारसाई जोशी के ‘नावक के तीर’ पर सवाई पड़ती है. परसाई और जोशी के अलावा भी अनेक व्यंग्यकारों ने समाचारपत्रों में नियमित कॉलम लेखन किया, लेकिन प्रतिबद्ध दृष्टि के अभाव में वे अपेक्षित सफलता पाने में नाकाम रहे. इस कमी को कुछ व्यंग्यकारों ने ‘हास्यव्यंग्य’ लिखकर पाटने की कोशिश की, जिसका खामियाजा अंततः व्यंग्यविधा को उठाना पड़ा.

कॉलम लेखन’ ने हिंदी व्यंग्य को लोकप्रिय बनाया. उसको ढेर सारे पाठक भी दिए. लेकिन एक गंभीर मानी जाने वाली विधा का लोकप्रियता की डगर पर चल पड़ना, अंततः उसी के लिए हानिकर सिद्ध हुआ. ‘नई दुनिया’ और ‘नवभारत टाइम्स’ की देखादेखी लगभग सभी समाचारपत्रों ने व्यंग्य के लिए कॉलम तय कर दिए. व्यंग्यकारों के लिए अभिव्यक्ति के रास्ते खुलते गए. उसने व्यंग्यकारों की बड़ी पौध तैयार की, लेकिन समाचारपत्रों को व्यंग्य के बजाय बाजार से मोह था. इसलिए उन्हें उतने ही लंबे व्यंग्य की दरकार थी, जिसको पाठक खड़ेखड़े बांच सके. उनके लिए व्यंग्यरचना का महत्त्व दावत में चटनी या अचार जितना था. हिंदी व्यंग्यकार उसी को अपना लक्ष्य मानकर अपनी ऊर्जा खपाने लगे. परिणाम यह हुआ कि कॉलम की सीमारेखा से बाहर की रचनाएं लिखना, समाचारपत्रपत्रिकाओं की शब्द सीमा को लांघकर अपने और पाठकों के मनोनुकूल लेखन करनाहिंदी व्यंग्यकारों के लिए मुश्किल होता गया. छपासमोह से ग्रस्त लेखक भूल गए कि मीडिया के लिए व्यंग्य केवल एक ‘उत्पाद’ है, जिसके द्वारा वह अपने कुछ नए उपभोक्ता बना सकता है. उसको व्यंग्य की मारक क्षमता, उसकी उद्देश्यपरकता से कुछ लेनादेना नहीं है. बाजार सदैव उन वस्तुओं पर ध्यान केंद्रित रखता है, जो उसके काम की हों. उन कार्यों को बढ़ावा देता है जो उसकी स्वार्थसिद्धि के आड़े न आते हों. जो भी वस्तु अथवा विचार उसकी सुखसत्ता को चुनौती देने का प्रयास करता है, उसके चारों ओर वह इतना महीन और मारक जाल बिछाता है कि अच्छे से अच्छे विद्वान, अर्थशास्त्री और समाजविज्ञानी धोखा खा जाते हैं. समाचारपत्रों द्वारा व्यंग्यकॉलमों को प्रमुखता देना उनका अपना स्वार्थ था. सर्कुलेशन’ की स्पर्धा के बीच किसी भी तरह बाजार से अधिकाधिक पाठक बटोर लेना. जैसेजैसे समाचारपत्रपत्रिकाओं का ‘ब्रांड’ सफल होने लगा, उन्होंने व्यंग्य के प्रति उपेक्षा दर्शाना आरंभ कर दिया. व्यंग्यकालमों के प्रबंधन की जिम्मेदारी ऐसे कर्मचारियों को सौंपी जाने लगी जिन्हें न तो व्यंग्य की समझ थी, न उनमें साहित्यिक रचनात्मकता ही थी. परिणामस्वरूप व्यंग्य का॓लमों की रचनाओं का स्तर गिरने लगा. इसका प्रतिकूल प्रभाव उसकी लोकप्रियता पर भी पड़ा. ऊपर से बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में पूंजीवाद ने जैसेजैसे अपना प्रभाव जमाना आरंभ किया, नकार और आलोचना को ‘अनुत्पादकता’ एवं ‘अनुशासनहीनता’ का पर्याय माना जाने लगा. पूंजीवाद प्रेरित ‘सकारात्मक सोच’ के प्रति सम्मोहन ऐसा बढ़ा कि असहमति को भी नकार का प्रतीक बन गई. ‘बी पा॓जिटिव’ विकास और प्रबंधनकला का मूलमंत्र मान लिया गया. परिणामस्वरूप व्यंग्य जो ‘नकार’ के रास्ते ‘निर्माण’ को समर्पित होता है उपेक्षित होने लगा. व्यंग्यकॉलमों के आकर सिकुड़ने लगे. शरद जोशी के जमाने में जो कॉलम सातआठ सौ शब्दों की जगह लेता था, वह डेढ़दो सौ शब्दों पर सिमट गया. इससे गंभीर व्यंग्यकारों का कॉलम लेखन से मोहभंग होना ही था. यहां उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि व्यंग्य कॉलम शरद और परसाई से पहले से ही लिखे जा रहे थे. गोपाल प्रसाद व्यास ‘दैनिक हिंदुस्तान’ में अर्से से ‘नारद जी खबर लाए हैं’ लिखते आ रहे थे. लेकिन व्यास जी हास्य कवि थे. उनके लेखन में विट का अभाव था. दूसरे उनका अतीत के प्रति अतिरेकी सम्मोहन भी गंभीर व्यंग्यकार बनने की सबसे बड़ी बाधा था.

व्यंग्य की अवसानोन्मुखी अवस्था तक पहुंचाने के लिए राजनीतिक परिवर्तनों का योगदान भी कम न था. शरद जोशी के लेखन का इतना प्रभाव रहा कि व्यंग्य मुख्यतः राजनीति और भ्रष्टाचार तक सिमट गया. चूंकि अधिकांश व्यंग्यकार नौकरीपेशा मध्यवर्ग से थे, इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि व्यंग्यकारों ने अपनी अभिव्यक्ति का सबसे सुरक्षित कोना चुना था. धर्म के नाम पर आडंबर, जातिगत विभाजन, सांप्रदायिकता, ऊंचनीच, समाज में उत्तरोत्तर जड़ जमाते पूंजीवाद और उपभोक्तावाद, सरकार द्वारा बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोश के समक्ष निःशर्त समर्पण, समाज में निरंतर कमजोर पड़ते नागरिकबोध जैसी प्रमुख समस्याओं पर वे प्रायः मौन साधे रहे हैं. भू्रण हत्या, घटते लैंगिक अनुपात जैसे विषयों पर अच्छी तो अच्छी साधारण कोटि की रचनाएं भी देखने को नहीं मिलीं. बीच में 1992 में बाबरी मास्जिद के ध्वंस के समय भी ऐसी स्थितियां बनी थीं, जब व्यंग्यकार सरकार और प्रशासन को आड़े लेकर साहित्यिक मोर्चा संभाल सकते थे. परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ. भारतीय जनता पार्टी’ के शासनकाल में तो अधिकांश व्यंग्यकारों ने संभवतः मान ही लिया था कि उनका अभीष्ठ प्राप्त हो चुका है. यह कुछ ऐसा ही था, जैसे बसपा की सरकार बनने पर कुछ दलितों द्वारा यह मान लेना कि दलित अस्मिता का संघर्ष पूरा हो चुका है. मेरी निगाह में यही सोच व्यंग्य के पराभव का प्रमुख कारण बना.

इकीसवीं शताब्दी भी व्यंग्य के लिए और भी भारी सिद्ध हुई. संतोष की बात इसके पहले दशक में ‘व्यंग्ययात्रा’ जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ होना रहा. ‘अट्टहास’ और ‘व्यंग्य तरंग’ भी इस अवधि में नियमित बनी रहीं. लेकिन ये पत्रिकाएं व्यंग्य के गए वैभव को पटरी पर लाने में नाकाम सिद्ध हुईं. आज व्यंग्य लेखन से ऊर्जा गायब है. इस अवसान बेला में यदि उसमें कुछ हलचल बाकी है तो निश्चित रूप से इसका श्रेय प्रेम जनमेजय को दिया जाना चाहिए जो ‘व्यंग्ययात्रा’ को नियमित रूप से निकाल रहे हैं. लेकिन किसी पत्रिका को निकालने के लिए केवल संपादकीय समर्पण पर्याप्त नहीं होता. उसके लिए मौलिक लेखकीय ऊर्जा की दरकार भी होती है. ‘व्यंग्य यात्रा’ और बाकी व्यंग्य पत्रिकाएं इस मोर्चे पर बहुत आश्वस्त नहीं कर पातीं. व्यंग्य आज भी बासी पड़ चुके विषयों से काम चला रहा है. नए विषय, नया जीवनबोध, नई चेतना और ऊर्जा उससे नदारद है. उसकी मुख्य प्रेरणाएं आज भी राजनीति के गलियारों से निकलती हैं, भ्रष्टाचार आज भी व्यंग्यकारों के सर्वाधिक पसंदीदा विषयों में से है. जिनका यहां स्पष्ट कर दें कि व्यंग्य का राजनीतिक और भ्रष्टाचार केंद्रित होना बुरा नहीं है. कूड़ाकरकट जहां अधिक हो वहीं ज्यादा सफाई की जरूरत पड़ती है. ऐसी अवस्था में प्रस्तुतिकरण का रचनापन व्यंग्य की मौलिकता को बढ़ा सकता है. यह काम निरी मध्यवर्गी मानसिकता द्वारा संभव नहीं है, जिसका प्रमुख चरित्र आज समझौतावादी हो चुका है. वर्षों पहले रवींद्र कालिया ने त्रिवेणी सभागार में अपने वक्तव्य में व्यंग्य को ‘निठल्लों का लेखन’ कहा था. उसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी. उन दिनों शरद जोशी संभवतः जीवित थे और उनका ‘प्रतिदिन’ व्यंग्य के क्षेत्र में हलचल मचा रहा था. आज हालात बदल चुके हैं. रवींद्र कालिया की टिप्पणी में मुझे सच नजर आने लगा है. मुझे लगता है कि व्यंग्य इन दिनों सुविधाभोगी मध्यवर्ग का लेखन बना है. वे सिर्फ लिखने के लिए लिखते हैं. कलावादी दृष्टिकोण व्यंग्यकारों पर हावी है. प्रतिबद्धता के अभाव में ही दृष्टि बासी पड़ चुके विषयों से परे नहीं जा पाती, जबकि परिस्थितियां व्यंग्य के लिए आज पहले से कहीं अधिक अनुकूल हैं.

लेखकीय चुनौतियां लगातार बढ़ रही हैं. व्यंग्यकार के लिए नए विषयों की कमी नहीं. संसदीय लोकतंत्र अधोगति की ओर है. बाजार ने संबंधों और सांस्कृतिक प्रतीकों पर कब्जा कर लिया है, राजनीति पर परिवारवाद हावी है. एक नए वर्णाश्रम धर्म का उदय हो रहा है. भविष्य में जनता जनता रहेगी, नेता नेता. भ्रष्टाचार अंतरराष्ट्रीयकरण की डगर पर है. टेलीविजन ‘लीलाकेंद्र’ बनता जा रहा है. धार्मिक ‘लीलाओं’ की बाढ़ आई हुई है. इधर कुछ वर्षों से एक नए देवता ‘शनि’ का अवतार हुआ है. आदमी के दिल में पैठे डर और असुरक्षाबोध को भुनाने के लिए ‘शनिदेव’ के मंदिर तेजी से बनाए जा रहे हैं. टेलीविजन भी ‘शनिलीलाओं’ का प्रदर्शन कर रहा है. कैसी विडंबना है, मंगलग्रह की यात्रा को तत्पर लोग कंप्यूटर से खेल खेलते, मोबाइल पर ‘चैट’ और इंटरनेट से संवाद करते हैं, लेकिन देवताओं से हमेशा डरे रहते हैं. उन देवताओं से जो अपने भविष्य को लेकर स्वयं आक्रांत हैं. इन विसंगतियों पर व्यंग्यकार मौन हैं. बदली हुई परिस्थितियों के अनुकूल अपने विचारों, अभिव्यक्तिकला में परिवर्तन करने में वे असमर्थ रहे हैं. उनके निजी पूर्वग्रह व्यंग्यलेखन पर हावी हैं. दक्षिणपंथी शक्तियों से ऊर्जस्वित जनलोकपाल समर्थक आंदोलन और सरकार के मंत्रियों के बेलगाम, मर्यादाविहीन आचरण ने समाज को महीनों से उद्वेलित बनाए रखा, जनता और संसद के अधिकारक्षेत्र को लेकर महीनों बहस चली, अनेक व्यंग्यात्मक स्थितियां बनीं. व्यंग्यकार इस मुद्दे पर भी चुप्पी साधे रहे. उनका यह मौन व्यंग्य और व्यंग्यकार दोनों के लिए नुकसानदेह सिद्ध हो रहे है. उपर्युक्त का अभिप्राय यह नहीं कि व्यंग्यकार के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता अनिवार्य है. प्रतिबद्ध होना दूसरी विधाओं के लिए अनिवार्य हो सकता हैव्यंग्यकार के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता से ज्यादा जरूरी है अपने लेखन के प्रति निष्ठावान होना. यदि वह दक्षिणपंथी है तो रहे, लेकिन व्यंग्यकार होने के नाते उसका दायित्व है कि वह दक्षिपंथी विचारों, संस्थाओं में व्याप्त वौद्धिक जड़ता को अपने लेखन का निशाना बनाए. और यदि उसका विश्वास वामपंथ में है तो उसका कर्तव्य है कि वह वामपंथ के विचलन पर अपनी वक्रोक्ति का प्रहार करे. यदि ऐसा नहीं है तो यह माना जाएगा कि वह अपने लेखनकर्म के प्रति ईमानदार नहीं है. तब वह और कुछ हो सकता है, व्यंग्यकार कदापि नहीं हो सकता. व्यंग्य को ऐसे ही निष्ठावान रचनाधर्मियों की आवश्यकता है जिनकी दृष्टि से खुद से जग तक जाती हो. जो पैनी दृष्टि से अपने आसपास व्याप्त विसंगतियों को रचना के जरिये उभार सकें. ऐसे ही व्यंग्यकार इस अवसानबेला में नवोन्मेष की दस्तक दे सकते हैं.

© ओमप्रकाश कश्यप