जाति और सामाजिक गतिशीलता

जीवन सभी का होता है. इतिहास भी सभी का होता है. जो लोग अपने इतिहास के प्रति उदासीन होते हैं, वे लुटेरों और आक्रामकों के इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं. लेकिन तब उनकी भूमिकाएं बदल जाती हैं. लुटेरे और आक्रामक इतिहास में दयालु और देशभक्त बन जाते हैं. जबकि कमजोर और अपने इतिहास के प्रति उदासीन सीधेसादे लोग लुटेरे, बेईमान और संस्कृति के दुश्मन घोषित कर दिए जाते हैं. इसीलिए गुणीजन कहते हैं, अपना इतिहास स्वयं लिखने की आदत डालो. लिखेलिखाए इतिहास पर भरोसा मत करो. यदि उसे पढ़ना मजबूरी है तो उसके पात्रों की भूमिका को बदलकर पढ़ो. उपलब्ध इतिहास का सच जानना है तो उसकी भूमिकाएं बदलकर पढ़ो.

भारतीय समाज, विशेषकर हिंदुओं में जाति के प्रश्न बहुत पुराने हैं. यह ऐसी हकीकत है जिसके कारण हिंदू धर्म को अनेकानेक आलोचनाएं झेलनी पड़ी हैं. इसका सहारा लेकर कथित ऊंची जातियां शताब्दियों से निम्नस्थ जातियों का शोषण करती आई हैं. इस कारण कुछ आलोचक जातिप्रथा को भारतीय समाज का कलंक मानते हैं. वे गलत नहीं हैं. आज भी समाज में जो भारी असमानता और ऊंचनीच है, आदमीआदमी के बीच गहरा भेदभाव हैजाति उसका बड़ा कारण है. समाजार्थिक समानता के लक्ष्य की यह आज भी सबसे बड़ी बाधा है. जातीय उत्पीड़न के शिकार समाज के दोतिहाई से अधिक लोग, निरंतर इसकी जकड़बंदी से बाहर आने को छटपटाते रहे हैं. यदाकदा उन्हें आंशिक सफलता भी मिली है. मगर आत्मविश्वास की कमी और बौद्धिक दासता की मनःस्थिति उन्हें बारबार कथित ऊंची जातियों का वर्चस्व स्वीकारने को बाध्य करती रही है. भारतीय समाज में जातिविधान इतना अधिक प्रभावकारी है कि सिख और इस्लाम जैसे धर्म भी, जिनमें जाति के लिए सिद्धांततः कोई स्थान नहीं हैइसके प्रभाव से अछूते नहीं हैं. इनमें सिख धर्म का तो जन्म ही जाति और धर्म पर आधारित विषमताओं के प्रतिकारस्वरूप हुआ था, जबकि इस्लाम की बुनियाद बराबरी और भाईचारे पर रखी गई थी. भारत में आने के बाद इस्लाम पर भी जातिभेद का रंग चढ़ चुका है.

जाति आधारित विभाजन पूरी तरह अमानवीय है. यह मनुष्य की नैसर्गिक स्वतंत्रता में अवरोध उत्पन्न करता है. जाति और वर्ण की संकल्पना सामान्य मनोविज्ञान के भी विपरीत है, जिसके अनुसार जन्म के समय सभी शिशु एक समान होते हैं. उनका मस्तिष्क कोरी सलेट जैसा होता है. एकदम साफ. इबारत उसपर बाद में लिखी जाती है. ब्राह्मण और शूद्र के शिशुओं को यदि एक साथ, एक ही जंगल में छोड़ दिया जाए और उनसे किसी भी प्रकार का संपर्क न रखा जाए; तो समान अवधि के उपरांत दोनों की बौद्धिक परिपक्वता का स्तर लगभग एकसमान होगा. जो भी अंतर होगा, उसके पीछे उनकी देहयष्टि का योगदान होगा. लगभग वैसा ही विकास जैसा पशुओं और वन्य प्राणियों में दिखाई पड़ता है. जाहिर है मनुष्य अपने गुणकर्म और प्रवृत्तियां समाज में रहते हुए ग्रहण करता है. जातिव्यवस्था के अनुसार मान लिया जाता है कि फलां शिशु ‘पंडित’ के घर में जन्मा है, इसलिए उसमें जन्मजात पांडित्य है. जबकि शूद्र के घर में जन्म लेने वाले शिशु सामान्य बुद्धिविवेक से भी वंचित मान लिए जाते हैं. इसलिए उनका काम बताया जाता हैविप्र वर्ग की सेवा करना, उनकी चाकरी करते हुए जीवन बिताना. यह थोपी हुई दासता है, परंतु हिंदू परंपरा में इसे धर्म बताया गया है. बिना कोई शंका किए, चुपचाप परंपरानुसरण करते जाने को पुरुषार्थ की संज्ञा दी जाती रही है. इस तरह जो धर्म बुद्धिमत्तापूर्ण व्यवहार की अपेक्षा के साथ ब्राह्मण को शीर्ष पर रखता है, और प्रकांतर में मानवीय विवेक का सम्मान करता हैव्यवस्था बनते ही समाज के अस्सी प्रतिशत लोगों से बौद्धिक हस्तक्षेप और पसंदों का अधिकार छीनकर, पूरे समाज को नए ज्ञान का विरोधी बना देता है. हिंदू धर्म की यही विडंबना समयसमय पर उसके बौद्धिक एवं राजनीतिक पराभव का कारण बनी है. आज भी समाज में जो भारी असमानता और असंतोष है, उसके मूल में भी जाति ही है. जाति का लाभ उठा रहे वर्गों और जातीय उत्पीड़न का शिकार रहे लोगों के बीच अविश्वास की खाई इतनी गहरी है कि संस्कृति को लेकर जरासी बहस भी चले तो जनता का बड़ा हिस्सा उसपर संदेह करने लगता है. इससे कई बार धार्मिकसांस्कृतिक सुधारवादी आंदोलन भी खटाई में पड़ जाते हैं.

वैसे भी पांडित्य, चिंतनमनन और स्वाध्याय की उपलब्धि होता है. वह न तो बैठेठाले आ सकता है, न ही व्यक्ति का जन्मजात गुण हो सकता है. कथित दैवी अनुकंपा भी जड़बुद्धि व्यक्ति को पंडित नहीं बना सकती. दूसरी ओर जाति है कि उसके माध्यम से एक वर्ग जन्मजात पांडित्य के दावे के साथ हाजिर होता है तो दूसरा वर्ग ‘शासक’ के रूप में. फिर निहित स्वार्थ के लिए ये दोनों वर्ग संगठित होकर शेष समाज के लिए शोषक की भूमिका में आ जाते हैं. ‘पांडित्य’ को यदि ज्ञान का पर्याय भी मान लिया जाए तो वह स्वाभाविक रूप से व्यवहार का विषय होगा, अनुभव का विषय होगा, प्रदर्शन की वस्तु वह हरगिज नहीं हो सकता. यदि हम प्राचीन पुराणों और टीकाओं की बात करें तो उनमें दर्शित ज्ञान प्रदर्शन और महिमामंडन से आगे नहीं बढ़ पाता. पूरी की पूरी ब्राह्मण मेधा, कुछ अपवादों को छोड़कर, देवताओं के नखसिख वर्णन और उनके छलप्रपंच भरे काल्पनिक विजय अभियानों के बखान में लगी रहती है. मनुष्य का अस्तित्व, जिसने विषम परिस्थितियों से जूझकर, आपदाओं से निरंतर संघर्ष करते हुए इस धरती को रहने लायक बनाया है, इन ग्रंथों में बस एक दास जितना है. उपनिषदों में अवश्य कुछ श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम है, मगर उनमें भी जबरदस्त दोहराव है. बाकी सब आत्मरति और मनःरंजन का विषय तो हो सकता है. समाज का वास्तविक हित उससे सध ही नहीं सकता. इस वास्तविकता को जातिव्यवस्था के शीर्ष पर मौजूद लोग जानते जरूर थे, मगर निहित स्वार्थ की खातिर सत्य की ओर से मुंह फेरे रहते थे. उन्होंने शूद्रों के लिए धर्मग्रंथों का अध्ययन केवल इसलिए निषिद्ध नहीं किया कि वे उन्हें अपात्र मानते थे. डर यह भी था कि शूद्र यदि वेदादि धर्मग्रंथ पढे़ंगे तो उनमें दर्ज देवों की सत्ता लोलुपता, वासनाएं, साधारण सम्राट की तरह किए गए छलप्रपंच पर विमर्श करने का अधिकार भी उन्हें मिल जाएगा. क्योंकि धर्म और शास्त्र के नाम पर मनमानी तभी तक चल सकती है, जब तक सामनेवाला अनपढ़ हो, या उसे जानबूझकर अनपढ़ रखा गया हो. जब व्यक्ति जानने लगता है तो सवाल भी उठाने लगता है. संभवतः वे भूल गए थे कि नदी की तरह विचार भी निरंतर गतिशील रहने पर ही शुद्ध रह पाते हैं. ठहराव आते ही उनमें अशुद्धियां पनपने लगती हैं. आलोचना, विमर्श न हो तो परंपरा के नाम पर आडंबरों को खुली छूट मिल जाती है. जाति, धर्म और संस्कृति के नाम पर इस देश में यही हुआ. आड़ंबरपूर्ण शास्त्रीयता धीरेधीरे सभ्यता और संस्कृति के पाखंड में ढलती चली गई. ऐसा नहीं कि इसका विरोध नहीं हुआ. आडंबरवाद को प्रत्येक युग में लताड़ा गया, किंतु सत्ता के शिखर पर मौजूद लोग विरोध को हमेशा नजरंदाज करते रहे. विरोध में रचे गए साहित्य और कलाओं को पुराने जमाने के ‘गजनवियों’ द्वारा निमर्मतापूर्वक मिटाया जाता रहा.

कुछ देर के लिए यदि मान भी लिया जाए कि वर्णविभाजन तत्कालीन समाज में कार्यविभाजन के लिए आवश्यक था. हमारे पूर्वजों ने समाज की आवश्यकताओं, सुख एवं संसाधनों की वृद्धि हेतु बड़े ही बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से उसे चार वर्णों में विभाजित किया था. उनका ध्येय समाज के संपूर्ण सुख एवं संसाधनों में वृद्धि करना था. दूसरे शब्दों में जाति और वर्ण को यदि कार्यविभाजन की बेहतरीन पद्धति मान लिया जाए तो उन्हें अर्थशास्त्र का विषय होना चाहिए था. धर्म और संस्कृति का हिस्सा बनाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता. यदि यह कहा जाए कि प्राचीनकाल में सभी कुछ धर्म और संस्कृति का हिस्सा था….कि ‘अर्थशास्त्र’ में अर्थनीति, राजनीति, व्यवहारशास्त्र आदि सभी कुछ हैतो भी जातीयता की संकल्पना के चारपांच हजार वर्षों में उसपर कभी तो अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से विचार किया जाना था? आकलन किया जाता कि कार्यविभाजन की उस परंपरागत भारतीय प्रणाली की समसामयिक उपयोगिता कैसी और कितनी है? निष्पक्ष समीक्षा के बाद ही उन्हें बनाए रखने या हटाने का निर्णय लेना चाहिए था. जैसे यूनान में हुआ था. प्लेटो ने मनुष्यों को स्वर्ण, रजत और लौह वर्गों में बांटा था. उसने जन्म को उसके लिए आधार नहीं बनाया था. उसके द्वारा किए गए वर्गीकरण का आधार व्यक्ति के अपने गुण और प्रवृत्तियां थीं. तो भी अरस्तु को अपने गुरु का यह विचार जमा नहीं. उसने यह मानते हुए कि मानवव्यक्तित्व जटिल रचना है, और उसका इस तरह सरलीकरण नहीं किया जाना चाहिए, प्लेटो द्वारा किए गए वर्गीकरण को अनुपयुक्त मानकर उसे आधी शताब्दी से भी कम समय में नकार दिया था. भारत में ऐसा नहीं हुआ. इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उस अवैज्ञानिक कार्यविभाजन को शिखरस्थ वर्गों का समर्थन प्राप्त था. सत्ताधारी वर्गों के स्वार्थ उससे जुड़े थे. उसके बहाने वे समाज के अधिकांश संसाधनों पर कब्जा जमाए रखते थे. इसलिए एक के बाद एक स्मृतिग्रंथ वर्णव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए रचे गए. सांस्कृतिक वैविध्य के मुखौटे में जातीय भेदभाव को बचाया गया.

गौरतलब है कि कार्यविभाजन समाज की आवश्यकता है. मनुष्य की अनेकानेक भौतिकअभौतिक आवश्यकताएं उससे जुड़ी होती हैं. इसलिए वही कार्यविभाजन श्रेष्ठ माना जाता है, जो मनुष्य की अधिकतम उत्पादकता को सामने लाए और जरूरत पड़ने पर उसमें सुधार भी कर सके. उत्पादकता के आकलन के नियम आज के नहीं है. कम से कम दो शताब्दियों से तो उनपर खुलकर विचार किया जा रहा है. जातिव्यवस्था उनके आगे कहीं नहीं टिकती. इसलिए वह आधुनिक विमर्श से बाहर है. केवल चलन में है. वह भी इसलिए कि जो वर्ग इससे लाभान्वित हैं, वे इसे छोड़ना नहीं चाहते. प्रत्यक्ष या परोक्ष हठ के द्वारा इसे अपनाए हुए हैं. अच्छा होता जातिव्यवस्था का मूल्यांकन भी व्यक्ति की सामाजिकआर्थिक और भौतिक जरूरतों के आधार पर किया जाता. यदि ऐसा होता तो उसकी परिभाषाओं पर बहस होती. उसकी समाजेतिहासिकता को बहुत पहले विमर्श में शामिल किया जाता. तब उन विसंगतियों से बचा जा सकता था, जो वर्ण के जाति में रूढ़ होने के साथसाथ जन्मीं और लगातार बढ़ती गईं. मगर भारत में कार्य(वर्ण) विभाजन को सामाजिकसांस्कृतिक सवाल बनाकर जानबूझकर समीक्षा से काट दिया. नतीजा यह हुआ कि जाति और वर्ण को लेकर पूरा समाज दो हिस्सों में बंट गया. एक वे जो उसका समर्थन करते हैं, दूसरे वे जो शताब्दियों तक जातीय शोषण का शिकार रहने के बाद आज उससे नफरत करते हैं. संख्या जातिव्यवस्था के आलोचकों की अधिक और निर्णायक है. लोकतांत्रिक दौर में विचार बहुमत को प्रभावित ही नहीं करते, उससे प्रभावित भी होते हैं, इसलिए जातिसमर्थकों के स्वर दबेदबे होते हैं. चूंकि मन से वे जातिभेद के समर्थक हैं तथा किसी न किसी रूप में उससे लाभान्वित भी हैं, इसलिए उनका अपना जीवन और चिंतन अंतर्विरोधों से भरा होता है. समाज का यह वर्ग आज भी जाति को अपनी अस्मिता का पर्याय समझता है; और वह चाहता है कि दूसरे वर्ग भी जाति की मर्यादाओं को समझें, इसलिए उन वर्गों के पास जो जातिअनुक्रम में निचले स्तर पर हैं, सीधे विरोध के अलावा और कोई रास्ता रह ही नहीं जाता. यह विरोध कभी धर्मांतरण के रूप में सामने आता है तो कभी जातीय संघर्ष के रूप में.

सवाल है कि चौतरफा विरोध और आलोचनाओं के बावजूद जाति जीवित क्यों है? विरोधों में डटे रहने की खुराक उसे कहां से मिलती है? प्रश्न भले ही नए लगें, इनका उत्तर अनजाना नहीं है. जैसा ऊपर कहा गया है, जाति यदि सचमुच कार्यविभाजन की जरूरत होती तो वह अर्थशास्त्र के विमर्श का विषय भी होती; या देरसवेर अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से उसकी समीक्षा की जाती. उस अवस्था में उसे बहुत पहले अप्रासंगिक मान लिया गया होता. मगर ऐसा कभी नहीं किया गया. इसलिए कि वह कार्यविभाजन की प्रणाली थी ही नहीं. असल में वह अभिजन हितों की सुरक्षा के लिए की गई असमानताकारी और स्वार्थपरक व्यवस्था थी, जिसमें शक्तिशाली वर्ग केवल अपनी जरूरतों के हिसाब से लोगों को अलगअलग पेशे में बांट रहे थे. फिर जैसेजैसे उस वर्ग की जरूरतें बढ़ी, जातियों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी होती गई. वह एक चालाकीभरा कदम था. उन अनेक कदमों में से एक जिन्हें अभिजन वर्ग शेष समाज पर अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए उठाता है. आर्थिकसामाजिक असमानता से ग्रस्त समाजों में मुट्ठीभर अभिजन सत्ताप्रतिष्ठानों पर कब्जा जमाए होते हैं. बाकी जनसमाज उनसे कहीं अधिक शक्तिशाली होने के बावजूद, बंटा होने के कारण अपनी वास्तविक शक्ति से अपरिचित होता है. शीर्षस्थ अभिजन उसे छोटेछोटे वर्गों में बांटकर उसकी प्रभावी शक्ति को कमजोर कर देते हैं, और उस बंटी हुई शक्ति को अपने हितों की सुरक्षा के लिए काम में लाते हैं. इससे गैरअभिजन वर्ग की शक्तियां अपने ही समूहों से टकराकर जाया होती रहती हैं. बंटा हुआ जनसमाज अपने ही सदस्यों पर संदेह करना है. चूंकि उत्पादकता के अधिकांश संसाधनों पर अभिजन समुदाय का अधिकार होता है, इसलिए रोजीरोटी की मजबूरियां भी गैरअभिजन समाज को अभिजनों के आदेशानुपालन हेतु विवश करती हैं. इस काम में धर्म और संस्कृति मददगार बनते हैं. अतः इस प्रश्न के उत्तर में कि जाति को विरोधों के बीच डटे रहने की खुराक कहां से मिलती है, विश्वासपूर्वक कहा जा सकता हैधर्म और संस्कृति से.

ऋग्वेद का पुरुषसूक्त जातिभेदवर्गभेद का बीजमंत्र है. उसमें लिखा है कि ब्राह्मण, ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य उदर से तथा शूद्र उसके पैरों से जन्मे हैंꟷ‘ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः. ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत.’ ब्रह्मा यहां समाज का प्रतीक हैं. इसका लक्ष्यार्थ है कि समाज में ज्ञान, व्यापार तथा सेवाकर्म चार प्रमुख अंग होते हैं. रूपक के चयन में भी चतुराई देखी जा सकती है. यदि सीधेसीधे कार्यविभाजन किया जाता तो देरसवेर लोगों का ध्यान उसके औचित्य पर भी जाता. ऐसा न हो इसलिए अभिजन वैदिक मनीषियों ने उसे सांस्कृतिक रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया था. ताकि उसको आस्था और विश्वास की साम्रगी के रूप में देखा जाए. आलंकारिक भाषा केवल कविता में ही फबती है. बौद्धिक विमर्श को उससे दूर रखने की सलाह दी जाती है. दरअसल मिथकों और बिंबों की विशेषता होती है कि उन्हें सामान्य विवेक के सहारे मनचाहा आकार दिया जा सकता है. वे सर्वसाधाराण की चेतना का हिस्सा भले हों, मगर समयसमय पर उनकी ऐसी व्याख्याएं होती रहती हैं जो उनकी मूल संकल्पना से एकदम अलग होती हैं. जैसे इंद्र का मिथक. वह एक ओर देवराज है. दूसरी ओर देवताओं में ही सबसे बड़ा खलनायक. गिरे हुए चरित्र का स्वामी, जिसे अपने सिंहासन के खिसकने का भय हमेशा सताता रहता है. इसकी प्रतीकात्मकता को देखें तो सत्ता छिन जाने का भय केवल इंद्र का भय नहीं था. यह हर उस राजा का डर हो सकता है, जो प्रजा कल्याण से दूर, केवल भोगविलास में लिप्त रहता है. बावजूद इसके देवराज इंद्र के मिथक के जरिये उस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता. इसलिए कि वह भौतिक जगत का न होकर, सांस्कृतिक विमर्श का हिस्सा है; और संस्कृति को प्रायः आस्था और विश्वास का विषय माना जाता है. इंद्र उन देवताओं का सम्राट है जिन्हें मत्र्य जीवन के कष्टों का सामना नहीं करना पड़ता. मिथकों के विरूपण या उनकी नवव्याख्याओं के पीछे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार के दृष्टिकोण हो सकते हैं. कुल मिलाकर मिथक उससे अपने परंपरागत संदर्भों से कट सकता है. अतएव मिथक को यथार्थ मानना, ‘ईश्वर की मूर्ति है, इसलिए ईश्वर भी है’जैसा ही भ्रांत धारणा है. इसके बावजूद परंपरावादियों का जातीय विभाजन को लेकर ब्रह्मा के मिथक में विश्वास आज भी बना हुआ है. गीता में कृष्ण स्वयं को विराट पुरुष के रूप में पेश कर, वर्णभेद की इसी संकल्पना को आगे बढ़ाते हैंꟷ‘चातुर्वर्णमरूपक मयास्रष्ठं गुणकर्म विभागभ्य’….‘मैंने चार प्रकार के मनुष्यों की रचना की है. उनके गुण, स्वभाव के आधार पर उन्हें वर्णों में विभाजित किया है.’ दबे स्वर में ही सही, परंपरावादी आज भी इन घिसेपिटे तर्कों को आगे बढ़ाकर असमानताकारी जातिव्यवस्था के पोषण में लगे रहते हैं.

कुछ विद्वानों के अनुसार पुरुषसूक्त ऋग्वेद का प्रक्षेपित हिस्सा है. इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता. ऋग्वेद आर्यों की कई शताब्दियों की यादों को समेटे हुए है. उसका आरंभिक हिस्सा तब का है जब आर्य भारतभूमि पर पांव जमाने का प्रयास ही कर रहे थे. उस समय तक वर्णव्यवस्था इतनी जटिल नहीं हुई थी. वैसे भी ब्रह्मा प्राचीनतम देवता नहीं है. भारत में शिव और बाकी सभ्यताओं में सूर्य प्राचीनतम देवता रहे हैं. आरंभ में शूद्र राजन्य और ब्राह्मण केवल तीन वर्ण थे. इसके साथ ही ऋक्, यर्जु, साम तीन वेद. वेद त्रयी और वर्णत्रयी का साम्य था. कालांतर में जब शूद्रों के एक वर्ग ने स्वयं को आर्थिक रूप से संपन्न कर लिया तो उसकी उपेक्षा कर पाना असंभव हो गया. चौथे वर्ग की कल्पना करनी पड़ी. यजुर्वेद में वैश्य और क्षत्रियों को सजातीय कहा गया है. इसलिए जब तक वेद तीन रहे, तब तक तीन वर्ण भी मान्य रहे होंगे. कालांतर में चौथे वर्ण को मान्यता मिली तो अथर्ववेद के रूप में चौथे वेद को भी स्वीकार किया जाने लगा. हालांकि इनमें पहले क्या हुआ? पहले चौथे वर्ण को मान्यता मिली या चौथे वेद को यह शोध का विषय है. कल्पना की जा सकती है कि दोनों का समय आसपास का रहा होगा. ऐसे में परमपुरुष की अवधारणा; यानी पुरुष सूक्त की रचना ईसा से पांच से आठ सौ वर्ष पहले तक की हो सकती है.

आरंभ में वर्ण इतने रूढ नहीं थे. आरंभिक ग्रंथों में अनुलोम और विलोम दोनों ही प्रकार के अंतरण के उदाहरण मिलते हैं. यह अंतरण तत्कालीन परिस्थितियों में जब आर्य और मूल निवासी घुलनेमिलने की कोशिश में थे, स्वाभाविक था. आर्यों ने भारत भूमि पर आक्रामक के रूप में प्रवेश किया. वे यहां पहले से रह रहे मूल निवासियों की अपेक्षा निपुण लड़ाके, रणकौशल में पारंगत थे. उत्तरी एशिया से भारत तक पहुंचने में उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. उनकी अपेक्षा इस देश के मूल निवासी शांतिप्रिय और अपने संतोष के साथ जीवन जीने वाले थे. मूल निवासी अनेक कबीलों में बंटे थे, किंतु लंबे समय तक साथ रहने के बाद वे सहअस्तित्व की कला में निपुण होने लगे थे. धर्मशास्त्रों में देवासुर संग्राम के अनेक उल्लेख हैं, मगर ऐसा कोई उल्लेख नहीं है जो दैत्यों के आपसी वैमनस्य को दर्शाता हो. बहरहाल एक लंबी संघर्षपूर्ण यात्रा के अनुभव के बाद आर्यों का कुशल रणनीतिकार के रूप में उभरना स्वाभाविक था. बावजूद इसके भारत के मूल निवासियों को अपने साथ जोड़ना, उनपर अपना सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करना आसान नहीं था. हड़प्पा और मोनजोदाड़ो से प्राप्त अवशेष बताते हैं कि भारतीय मूल निवासी एक समृद्ध संस्कृति के वासी थे. कदाचित उनकी समृद्धि ही आर्यों को मध्यएशिया से भारत तक खींच कर लाई थी. यात्रा के दौरान आर्यों ने जहां आवश्यक समझा, वहां युद्ध किया. जहां लगा कि युद्ध के माध्यम से ऐच्छिक परिणाम तक पहुंचना असंभव है, वहां उन्होंने युद्धेत्तर नीतियों का सहारा लिया.

उदाहरण के लिए शिव भारत की आदिम जातियों के आराध्य थे. उनका सभी समूहों पर प्रभाव था. मूल निवासी कबीलों को प्रसन्न करने के लिए शिव को प्रसन्न करना अनिवार्य था. इसके लिए आर्यों ने उनके साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए. उन्हें महादेव की पदवी दी. पार्वती आर्य सम्राट हिमवान की पुत्री थी. शिव को अपना जामाता बना लेने के बाद आर्यों की मुश्किलें आसान होने लगीं. शिव का स्थानीय कबीलों के सर्वमान्य मुखिया थे. मिलीजुली सभ्यता की खातिर उन्होंने आर्यों तथा प्राचीन कबीलों के मध्यस्थ का काम किया. शिव के सहयोगी के रूप में भूत, पिशाच, प्रेत आदि को हम भारत के आदिम कबीलों के प्रतीक के रूप में देख सकते हैं. चतुराईपूर्वक आर्यों ने शिव को तो अपनाया, उन्हें अपने आराध्य और ‘महादेव’ का दर्जा दिया. अपनी प्रवृत्ति के अनुसार उनसे हितसाधन किया. लेकिन शिव के सहयोगी भारत की प्राचीन कबीलों को, जिनके वे नेता और आराध्य थे, पूरी तरह उपेक्षा की. उन्हें असभ्य मानते हुए भूत, प्रेत, कापालिक आदि कहा गया. नतीजा यह हुआ कि शिव का तो दैवीकरण हुआ, किंतु उनके सहयोगी कबीलों की पूरी तरह उपेक्षा हुई. उन्हें ऐसा ही दर्शाया जैसा विकसित सभ्यता पर गर्वाए सत्ताधीश करते हैं. बख्शा शिव को भी नहीं गया. उन्हें आक, धतूरा खाने वाला, भभूत लगाकर रमने वाले अवधूत की तरह दर्शाया गया. इससे सृष्टि को चलाने की जिम्मेदारी ‘ब्राह्मण ब्रह्मा’ तथा उसके सहयोगी ‘क्षत्रिय विष्णु’ पर आ गई. इसके बावजूद एक डर उनके मन में हमेशा बना रहा. उस डर ने ही शिव को मृत्यु के देवता का पद देने को बाध्य किया. शिव की तीसरी आंख दरअसल जनसंस्कृति के वाहक उन कबीलों की सम्मिलित ताकत और विद्रोह शक्ति का प्रतीक है, जिन्हें भूत, प्रेत, कापालिक आदि कहा जाता है और जिनके मुखिया शिव थे. किसी भी राष्ट्र की शक्ति उसकी जनता में निहित होती है. राज्य केवल उसका प्रतीक होता है. जनता यदि कुपित हो जाए तो बड़ी से बड़ी सामरिक शक्ति को मिट्टी में मिला सकता है. चूंकि शिव के पीछे कबीलों की शक्ति थी, इसलिए उन्हें महादेव, मृत्यु का देवता जैसा पद दिया गया. उनकी तीसरी आंख खुलने का अभिप्राय था, समर्थक कबीलों के साथ विद्रोह पर उतर आना, जिनसे अल्पसंख्यक अभिजात तथा उनके कथित देवता भय खाते थे.

महाकाव्य काल में ही वर्ण जातियों में ढलने लगे थे. व्यक्ति के अपने कौशल का कोई महत्त्व नहीं रह गया था. कर्ण और एकलव्य ऐसे ही उदाहरण हैं. जो उस समय की व्यवस्था के अनुसार क्षत्रिय नहीं थे. लेकिन दोनों ने ही स्वयं को धनुर्विद्या में अत्यंत निपुण बना लिया था. महाभारत युद्ध में दुर्योधन के पक्ष में होने के बावजूद कर्ण को बारबार आहत और अपमानित होना पड़ता है. वहीं एकलव्य के वाणकौशल से विस्मित द्रोणाचार्य उसका अंगूठा ही मांग लेता है. हालांकि इस युग तक जाति को रूढ बनाने का विरोध भी जारी रहा. लोग जातिविहीन सभ्यता की याद भी दिलाते रहते थे, जैसे महाभारत के शांतिपर्व में कहा गयाꟷ‘असलियत में वर्णविभाजन जैसी कोई चीज नहीं है. यह पूरी सृष्टि ब्रह्म है, क्योंकि इसे ब्रह्मा ने बनाया है.’ इस प्रसंग की यदि एकलव्य और कर्ण के प्रकरण से तुलना की जाए तो उस सभ्यता के विरोधाभास सामने आने लगते हैं. लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि ‘जय’ से ‘विजय’, ‘विजय’ से ‘भारत’ और फिर ‘महाभारत’ तक की यात्रा अनेक विरोधाभासों से भरी है. इसलिए कि हर मनीषी ने सत्य को अपनी तरह से देखा और उसे प्रक्षेपण का हिस्सा बना दिया.

बाद के धर्मग्रंथों में रक्तशुद्धता एवं कुलीनता पर काफी जोर दिया गया, लेकिन आरंभ में ऐसा न था. आर्यों के आगमन के साथ ही उनका यहां रह रही प्राचीन जातियों के साथ सम्मिलन शुरू हो चुका था. भारत में आर्यों का आगमन एक समूह में नहीं रहा. वे अनेक बार टुकड़ोंटुकड़ों में आए थे. इस बात की प्रबल संभावना है कि जो आरंभिक कबीले भारत तक पहुंचे हों उनमें स्त्री सदस्यों की संख्या आनुपातिक रूप से कम रही हो; या हो सकता है कि लंबी यात्रा के पश्चात भारत तक पहुंचने में उनका लिंगानुपात गड़बड़ा गया हो. इसलिए आरंभ में ही हम अंतवर्गीय संबंधों की बहुलता देखते हैं. व्यवस्था की गई कि स्त्री किसी भी वर्ग की हो, उससे उत्पन्न संतान पिता के गौत्र की होगी. मनुस्मृति में कहा गया, ‘वैध दांपत्य में बंधने के बाद स्त्री अपने पति के वर्ण में सम्मिलित हो जाती है, ठीक ऐसे ही जैसे नदी सागर में मिलकर उसके गुणों को धारण कर लेती है.’(मनुस्मृति 9/22). उदाहरण कई हैं. वशिष्ट की पत्नी अक्षमाला निम्न जाति की स्त्री थी. इसी प्रकार सारंग मुनि की पत्नी भी निम्न वर्ण से आती थी. भविष्य पुराण के अनुसार शृंग ऋषि हरिणी के गर्भ से उत्पन्न थे. पराशर चांडाल स्त्री की संतान हैं, व्यास केवट पुत्री मत्स्यगंधा की. वशिष्ट वेश्या के गर्भ से जन्मते हैं. अपनी लग्न और प्रतिभा के बल पर वे ब्राह्मण बनते हैं. भिन्न वर्णों के बीच विवाह सामान्य थे. क्षत्रिय सम्राट ययाति की एक पत्नी देवयानी ब्राह्मणसुता थी, दूसरी असुर राज की बेटी. बाद में रक्त शुद्धता की अवधारणा विकसित होने पर, आर्यों ने प्राचीन अंतर्जातीय संबंधों को वैध बनाने अथवा चमत्कार सिद्ध करने के लिए उन्हें मिथकीय आख्यानों का हिस्सा बना लिया. लोग उन दिनों चमत्कार पर भरोसा भी खूब करते थे. यदि आकस्मिक रूप से कुछ हो जाए तो उसे दैवी कृपा मानकर चुपचाप स्वीकार कर लेते थे. इसके फलस्वरूप लोकमहत्त्व के विभिन्न मुद्दों को लेकर ब्राह्मणवादी नजरिये से कहानियां गढ़ी जाने लगीं.

अपनी प्रतिभा और लगन के बल पर दूसरे वर्ग में अंतरण के भी अनेक उदाहरण धर्मग्रंथों में उपलब्ध हैं. विश्वामित्र के क्षत्रिय कुल से ब्राह्मण वर्ग में दाखिल होने का किस्सा तो जानापहचाना है. क्षत्रिय दिवोदास का पुत्र मैत्रेय ब्राह्मण बनता है. हरिवंश पुराण के अनुसार वैश्य पुत्र नाभाग और अरिष्ट ब्राह्मण कुल में शामिल होते हैं. वर्णअंतरण को लेकर सत्यकाम जाबाल का किस्सा भी खूब चर्चित है. सत्यकाम दासीपुत्र था. उसने गुरु की शरण में जाकर शिक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की तो गुरु ने उसका नाम, गौत्र आदि पूछा. सत्यकाम ने घर आकर यही प्रश्न अपनी मां से किया. तब मां ने बताया, ‘पुत्र, दासी होने के कारण मुझे अनेक घरों में काम के लिए जाना पड़ता है. एक घर से दूसरे घर की यात्रा के दौरान तू कब मेरे गर्भ में आ गया, मुझे नहीं पता. तू सत्यकाम है. मेरा नाम जाबाला है. सो तू सत्यकाम जाबाल हुआ.’ सत्यकाम यही बात गुरु से बता देता है. गुरु उसके सत्यवाचन से प्रसन्न होकर दीक्षा देने के लिए तैयार हो जाते हैं. यही सत्यकाम जाबाल आगे चलकर वेदमंत्रों के रचियता के रूप में उभरता है.

जाति प्रथा चलते ही यह संभव हुआ कि पंडित के घर पंडितजी जन्म लेने लगे. यदि सबकुछ बिना किए जन्म ही से प्राप्त है तो कुछ और पाने के लिए गुणवत्ता को क्यों बढ़ाया जाए! इसलिए तप और स्वाध्याय का अभिप्राय रामराम जपने तक सिमट गया और अध्यापन कर्मकांड तक. लोग सोलह पृष्ठ की पंजिका पढ़कर ‘पंडित’ कहलाने लगे. बिना ‘सत्य’ और ‘सत्यनारायण’ वाली ‘सत्यनारायण की कथा’ घरघर बंचीबंचवाई जाने लगी. उन कहानियों में आदमी की पहचान जाति से जुड़ी थी. जानते सब थे कि जन्म आधारित वर्गीकरण मनुष्य के मूल स्वभाव के विरुद्ध है. दो व्यक्ति कभीभी पूरी तरह से एक हो ही नहीं सकते. इसलिए किसी एक की परिस्थितियों पर विचार कर हूहू वही निर्णय दूसरे के लिए नहीं लिया जा सकता. चूंकि यह मनुष्य की प्रवृत्ति के विरुद्ध है, समाजीकरण की धारा के विरुद्ध है, इसलिए व्यक्ति केवल परंपराएं ढोता रहा. समाज जड़ और लोग यथास्थितिवादी बन गए. जाति ने लोगों से उनका विवेक, चयन का अधिकार छीनकर उन्हें एक नशा थमा दिया. बिना कुछ किएधरे खास होने का नशा. जाति आधारित विभाजन की खूबी है कि उसमें हर कोई खास होता है. हालांकि खासियत के लिए उसका अपना कोई योगदान नहीं होता. बस अपनी लकीर के बराबर में मनमाफिक थोड़ी छोटी लकीर खींच लेता है. इसलिए कि वह जातीय पायदान पर अपने से नीचे के किसी कम खास की उपस्थिति मानकर मन को तसल्ली देने लगता है. दूसरा चाहे उसका विरोध करे, और विरोध होता ही है, फिर भी वह खुद को ‘अपने मुंह मिंया मिट्ठू’ बनने से रोक नहीं पाता. चूंकि जाति पर उसका जोर नहीं चलता, इसलिए जिस जाति वर्ग में वह जन्म लेता है, उसे अपनी नियति मानकर जीवन से समझौता किए रहता है. इससे भाग्यवाद और नियतिवाद को बढ़ावा मिलता है, जो परिवर्तनकामी आंदोलनों की आंच पर राख डालते रहने का काम करता है.

विद्वानों ने जातिप्रथा की आलोचना की. कहा कि जाति ऐसी व्यवस्था है जिसमें व्यक्ति अपनी मर्जी से शामिल नहीं होता. जन्म व्यक्ति की जाति निर्धारित करता है, फिर मनुष्य मृत्युपर्यंत उसके चंगुल से निकल नहीं पाता. दूसरे शब्दों में जाति व्यक्ति की नैसर्गिक स्वतंत्रता का हनन करती है. यह कार्यविभाजन की असमानताकारी निकृष्ट शैली है. यह व्यक्ति के चयन के अधिकार को बाधित करती है. जन्मना जाति मनुष्य का कुदरत के नाम पर लगाया गया बदसूरत ठप्पा है, जो मनुष्यता का अवमूल्यन करता है. कहीं आनेजाने, पेशा बदल देने से व्यक्ति की जाति में कोई बदलाव नहीं आता. फिर भी कुछ विद्वान जाति के जड़ स्वभाव के कारण ही उसे पसंद करते रहे. जाति उनके द्वारा भारतीय समाज और संस्कृति के महिमामंडन का कारण बनी. उनमें प्रायः वही लोग थे, जो समाज के शीर्ष पर विराजमान, समस्त संसाधनों पर कुंडली मारे नजर आते हैं. समयसमय पर ऐसे कार्यकर्ता और विद्वान भी हुए हैं जिन्होंने जाति प्रथा का जमकर विरोध किया. जाति और जन्म के आधार पर पक्षपात करनेवालों को बुरी तरह से लताड़ा. समयसमय पर जातिविरोधी आंदोलन चले. कह सकते हैं जाति का जब से जन्म हुआ, जब से उसने समाज को जकड़ना आरंभ किया, तभी से उसपर हमले आरंभ हो चुके थे.

ज्ञात इतिहास में जाति प्रथा को सबसे पहली चुनौती गौतम बुद्ध ने दी थी. उन्होंने भिक्षु संघ की स्थापना की, जिसमें जाति संबंधी किसी भी प्रकार का पक्षपात न था. मध्यकाल में संत कवियों ने जाति को भारतीय समाज का कलंक मानते हुए जन्म के आधार पर आदमीआदमी में भेद करने वालों को धिक्कारा. तीखे शब्दों में उनकी आलोचना कीꟷ‘जो तू कहे बाहमन का जाया, और मार्ग ने क्यों न आया.’(कबीर). बावजूद इसके जाति का बाल भी बांका न हुआ. इसलिए कि बहुत पहले से इसे रोजीरोटी से जोड़ दिया गया था. उस व्यवस्था में समस्त संसाधनों पर कथित ऊंची जातियों का कब्जा था. क्षत्रिय को हथियार उठाने का अधिकार दिया गया था. ब्राह्मण को सलाह देने का. इन दोनों ने बाकी वर्गों को उभरने ही नहीं दिया. जिसने विरोध किया, उसको दंडित किया गया. धीरेधीरे ये जातियां व्यवस्था से अनुकूलित होती गईं. धर्म ने इसमें मदद की. पिछला जन्म किसी ने देखा नहीं था, न उसका कोई प्रमाण ही था. बावजूद इसके हिंदुओं में कर्मसिद्धांत की ऐसी आंधी चली कि अच्छेअच्छों के विवेक को उड़ाकर ले गईं. लोग लकीर पीटने के अभ्यासी होते चले गए. शताब्दियों तक ऐसा ही चलता रहा.

गौरतलब है कि गौतम बुद्ध ने जाति व्यवस्था के विरोध में सीधे कुछ नहीं कहा था. केवल भिक्षुसंघ में सभी जातिवर्ग के लोगों को प्रवेश देकर बराबरी का संदेश दिया था. लेकिन उसका चामत्कारिक असर हुआ. धार्मिक बंधन शिथिल पड़ने से लोग, विशेषकर कर्मकार जातियां भविष्य के बारे में नए सिरे से सोचने को उद्धत हुए. संसाधनों की कमी को उन्होंने अपने संगठनसामथ्र्य से पाटा. भारतीय शिल्पकार संगठन हालांकि पहले से ही अंतद्र्वीपीय बाजार में आगे थे. गौतम बुद्ध के समय में उसमें बहुत तेजी से वृद्धि हुई. तेली, चर्मकार, बुनकर, काष्ठकार, रंगरेज, राजमिस्त्री, गुड़ बनाने वाले, रथवाह आदि जितने भी शिल्पकार वर्ग थे, उन सबके अपनेअपने व्यावसायिक संगठन थे. वैदिक परंपरा में प्रतिवर्ष लाखों पशुओं की यज्ञों में दी जानेवाली बलियों के कारण तत्कालीन समाज की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ा था. बौद्ध और जैन दर्शन के प्रभाव में बलि में कमी आई थी. बचा हुआ पशुधन किसानों और पशुपालन द्वारा आजीविका चलाने वाली जातियों के लिए आर्थिक रूप से बहुत मददगार सिद्ध हुआ था. इसका प्रभाव उस समय के व्यापार पर पड़ा था. उसमें तेजी आई. सहयोगाधारित उन व्यापारिक संगठनों को श्रेणि, पूग, गिल्ड, व्रात्य, संघ आदि कहा जाता था. चंद्रगुप्त मौर्य तक तो श्रेणियां खुद को प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित कर चुकी थीं. श्रेणियों की शक्ति का आकलन इससे भी किया जा सकता था कि कौटिल्य उनके संगठनों को राज्य पर संकट की संभावना के रूप में देखता है. इसलिए उसने श्रेणियों पर नजर रखने की अनुशंसा ‘अर्थशास्त्र’ में की थी. श्रेणियों की आर्थिक हैसियत ऊंची थी. वे जरूरतमंद राजाओं की आर्थिक मदद भी खूब करती थीं. ईसा पूर्व दोतीन सौ वर्ष के समय को अनेक विद्वान भारत का स्वर्णकाल मानते हैं. उसके पीछे शिल्पकार संगठनों का बड़ा योगदान था. अर्थव्यवस्था विकेंद्रीकृत थी. गांव संपन्न, आत्मनिर्भर इकाई. धीरेधीरे श्रेणियों का पतन होने लगा. दूसरीतीसरी शताब्दी में उनके कारोबार में मंदी आने लगी थी. इसका पहला कारण बौद्ध धर्म के कमजोर पड़ते ही जातिवादी बंधनों का एक बार फिर मजबूत हो जाना था. व्यापारी संगठन को चलाने के लिए अनेक प्रकार के शिल्पकारों की जरूरत पड़ती थी. पहले वे अपनी जातीय शुचिता को बिसराकर साथसाथ काम करते थे. जातीय अनुशासन मजबूत होने से एकजुट होकर काम करना कठिन हो गया. देश छोटेछोटे राज्यों में बंटने लगा था. खुलकर व्यापार करना कठिन होता गया. श्रेणियों के कारोबार में कमी आई. शिल्पकार संगठन बिखरने से लोग एक बार फिर अपनीअपनी जाति के दड़बों में लौटने लगे. इस तरह जातीयता के बंधनों के शिथिल पड़ने की जो शुरुआत बुद्ध के समय हुई थी, उसपर पानी फिरने लगा. आगे चलकर वर्णव्यवस्था और भी रूढ़ होने लगी. उससे नईनई जातियां बनने लगीं. जातीय शुचिता के नाम पर भेदभाव परोसा जाने लगा.

मध्यकाल में जाति विरोधी आंदोलन के सूत्रधार संतकवि थे. संत रैदास, कबीर, दादू, आदि समाज के निचले वर्गों से आए थे. जो जातीय उत्पीड़न का शिकार थे. इसलिए उन्होंने जातिआधारित ऊंचनीच को अपनी समानताधारित समाज की स्थापना के सपने का अवरोधक माना था. लेकिन समानता से उनका आशय बस इतना था कि गरीबगरीब रहे, अमीरअमीर और सब अपनेअपने संतोष के साथ जीना सीख लें. बावजूद इसके संत कवि जातीय उत्पीड़न का शिकार रहे लोगों की उम्मीद का केंद्र थे. इसलिए वे संत कवियों के आसपास जुटने लगे. जातिभेद को बढ़ावा देने के लिए संत कवियों ने ब्राह्मणों एवं जाति के पैरोकारों को ललकारा. लेकिन कुछ खास नहीं कर पाए. बहुत जल्दी उनके आंदोलन को संस्कृति का हिस्सा बनाकर हिंदू धर्म में समाहित कर लिया गया. सामंतवादी दौर में उनकी आर्त्त पुकार झोपडि़यों और चौराहों पर दम तोड़ने लगी. जाति को सामाजिक असमानता एवं अंतर्द्वंद्वों का कारण मानते हुए विवेकानंद, दयानंद आदि ने भी उसकी आलोचना की. लेकिन परिणाम लगभग शून्य ही निकला. उनकी असफलता के कारण एकदम स्पष्ट थे. वे विचारक चाहते थे कि कथित ऊंची जातियां अपने से निम्न जातियों के प्रति करुणाभाव लाएं और अपने मन से ऊंचनीच की भावना को निकाल फैंकें. प्रकारांतर में जाति उन्मूलन उनके लिए शीर्षस्थ जातियों की कृपा पर टिका ऐच्छिक प्रश्न था. विचारक शीर्ष जातियों से अपेक्षा करते थे कि वे अपना बड़प्पन दिखाते हुए जातीय भेदभाव को दिल से निकाल फेंकें और पिछड़े वर्गों के साथ करुणा के साथ पेश आएं. यह ठीक ऐसा ही था, जैसे ‘ट्रस्टीशिप’ के सहारे गांधी जी ने जमींदारों और पूंजीपतियों से दुर्बल और आर्थिक रूप से विपन्न लोगों के पक्ष में, अपने संपत्ति अधिकार समाज को सौंप देंने का आवाह्न किया था. जबकि मुफ्त में मिलने वाला सम्मान हो या सुविधाएं, शिखरस्थ वर्ग अपनी मर्जी से कुछ भी छोड़ने को तैयार न थे. अतएव इन महापुरुषों की सदेच्छाओं तथा वक्त की जरूरत होने के बावजूद जाति की सामाजिक सत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. फिर भी उन महापुरुषों के प्रयास निरर्थक नहीं गए. उनके अनथक प्रयत्नों के फलस्वरूप समाज में थोड़ी हलचल अवश्य मची. लोग धर्म और जाति के नाम पर होने पाखंड के प्रति एकजुट होने लगे. जिससे समाज सुधार के आंदोलनों को प्रेरणा मिली. उसके फलस्वरूप विचारकों का ध्यान निचले वर्गों समस्याओं की ओर गया.

जाति विरोधी प्रयासों की असफलता के कुछ कारण एकदम साफ थे. जातीय संरचना के संगठन से जुड़ी, उसके बनाए रखने की समर्थक जातियों की मूल प्रवृत्ति कछुए के समान थी. परिस्थितियां प्रतिकूल हों तो वे कछुए की भांति अपने अंगप्रत्यंगों को धर्म के कवच में ढक लेती थीं. परिस्थितियां अनुकूल होते ही अपने पैने नखदंतों के साथ वे अपने आलोचकों पर आक्रामक होकर जातीयता के बंधनों को और भी कसने लगती थीं. जैसा लगभग 1900 वर्ष पहले बौद्ध धर्म के अवसान के समय देखने को मिला. बुद्ध ने जाति का सीधे विरोध नहीं किया था. मगर उनके बौद्ध विहारों के दरबार सभी जातिवर्गों के लिए खुले थे. उन्होंने हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों और बलिप्रथा के माध्यम से उसपर गहरी चोट की. बावजूद इसके बौद्ध दर्शन ने जितनी चोट वैदिक धर्मदर्शन पर की थी, उतनी चोट जाति प्रथा पर नहीं कर सका. उनका विरोध मुख्यतः हिंदू धर्म में व्याप्त कर्मकांड तथा बलि प्रथा से था. जो सामाजिक असमानता को सांस्थानिक बनाते थे. इसलिए जाति उन्हें अपनी संघीय मान्यताओं की अवरोधक लगी. चूंकि बौद्ध दर्शन धर्म की अधीनता में जाति व्यवस्था का विरोध करता था, इसलिए उसका जाति पर वास्तविक प्रभाव बहुत ही कम पड़ा.

जाति और सामाजिक गतिशीलता

जाति हिंदू धर्म की मानस रचना है. उसका पूरा कारोबार धर्म के सहारे चलता है. हिंदू धर्म मजबूत, तो जाति मजबूत. हिंदू धर्म शिथिल तो जाति बंधन शिथिल. बौद्ध धर्म ने हिंदू धर्म को पाश्र्व में ढकेला तो जाति भी नेपथ्य में जाने लगी थी. अठारहवीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के साथ हिंदू धर्म ने अपनी जड़ें दुबारा मजबूत कीं तो जाति भी सिर उठाने लगी. महाराष्ट्र, दक्षिण भारत, बंगाल यानी जहांजहां हिंदू धर्म पुनर्जागरण की ओर बढ़ा, वहांवहां जाति भी पांव पसारने लगी. हिंदू धर्माचार्यों में से अनेक आज भी जाति को हिंदू धर्म का आभूषण समझते हैं. उन्हें आज भी लगता है कि जाति के न रहने पर धर्म संकट में पड़ सकता है. इसलिए आजादी के सातवें दशक में भी दलितों को मंदिर की चौखट पर देख उन्हें अपना धर्म संकट में नजर आने लगता है. विषम परिस्थितियों में भी वे शांत नहीं बैठते. जबतब जाति विरोधी आंदोलन होते हैं, जब उनमें लगे लोगों को लगता है कि वे बस जीतने ही वाले हैं, जाति का जनाजा अब उठा कि बस अब उठा; तब तब वे ऐसी चाल चलते हैं कि परिवर्तन और सुधार की सारी संभावनाओं पर पानी फिर जाता है. जाति समर्थक लोग धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता की आड़ में, बहुत तसल्ली के साथ जाति को तरहतरह से मजबूत कर, सामाजिक व्यवहार के केंद्र में बनाए रखने हेतु जुटे होते हैं. उनके प्रयास बहुत ही महीन, आसानी से न समझ में आनेवाले होते हैं. जिन दिनों बौद्ध धर्म प्रभाव में था, उन दिनों पुराणों और स्मृतियों के लेखन में तेजी आई थी. मध्यकाल में किस्सेकहानियों के माध्यम से ब्राह्मणवाद में जान फूंकी गई तो भक्ति साहित्य में जाति को बचाए रखने का काम तुलसी, सूरदास, मीरा, हरिदास जैसे भक्त कवियों ने किया. इन दिनों कानून के दखल से जाति संबंधी आचारविचार शिथिल पड़े हैं तो जातिवादी संगठन उसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का कवच पहनाने की तैयारी में लगे हैं. धर्म और जाति के इस नाभिनाल संबंध को सर्वप्रथम महामना ज्योतिबा फुले ने समझा था. इसलिए उन्होंने जाति के मूल यानी धर्म की विकृतियों पर प्रहार किया. उनके आंदोलन को जमीन शाहू जी महाराज ने दी. दलितोंशोषित वर्गों को आत्मविश्वास से लैस करने, अपने अधिकारों के लिए खड़े होने तथा दलित आंदोलन को सही दिशा देकर नई युगचेतना लाने का सबसे महत्त्वपूर्ण काम डॉ. अंबेडकर ने किया. फलस्वरूप अस्मितावादी आंदोलनों को जमीन मिली. दबेकुचले लोग अपने अधिकारों के लिए आगे आने लगे.

पहले जाति प्रथा की आलोचना वे लोग करते थे जो खुद जातीय उत्पीड़न और असमानता का शिकार थे. तब उत्पीडि़त वर्ग जाति का उच्छेद चाहता था. उसके लिए ‘जातितोड़क’ आंदोलन चलाए गए थे. स्वयं डॉ. अंबेडकर ने ‘जाति का उच्छेद’ पुस्तक लिखकर जाति और जातिवादी शोषण दोनों को कठघरे में खड़ा कर दिया था. अब हालात बदले हुए हैं. जातीय शोषण का शिकार रहे वर्ग अब जाति को ही हथियार बना रहे हैं. ऐसा नहीं है कि जातिआधारित शोषण समाप्त हो चुका है? या उन्होंने उन्होंने जाति के नाम पर सामाजिक ऊंचनीच से समझौता कर लिया है. जातीय आधार पर ऊंचनीच की भावना तो आज भी बरकार है. लेकिन वह केवल सामाजिक संबंधों तक सीमित है. लोकतंत्र ने जाति आधारित भेदभाव को सिद्धांततः समाप्त किया है. अस्पृश्यता आज एक कानूनी अपराध है, भले ही सामाजिक स्तर पर उसके अवशेष आज चिंता का विषय हों. कानून हालांकि बराबरी का अधिकार देता है, लेकिन सामाजिक और आर्थिक स्तर पर भेदभाव पूरी तरह बना हुआ है. इसलिए नए परिवेश में जातीय शोषण का शिकार रहे वर्गों को अपनी रणनीतियों में संशोधन करना पड़ा है. दलितों और पिछड़ों की समझ में आ चुका है कि केवल कानूनी प्रावधान होने से समानता के लक्ष्य को प्राप्त कर पाना असंभव है. कल्याण राज्य की अवधारणा के चलते सरकार से कुछ उम्मीद की जा सकती है, लेकिन अपनी पैठ और राजनीतिक हैसियत का लाभ उठाकर सत्ता में बारीबारी से वही लोग आते रहते हैं, जो जातीय शोषण के लिए जिम्मेदार हैं. ऐसी परिस्थितियों में शोषित वर्ग का नया संघर्ष आनुपातिक हिस्सेदारी को लेकर है. दलित और पिछड़े वर्ग अब संसाधनों और अवसरों में आनुपातिक हिस्सेदारी की मांग कर रहे हैं. चूंकि यह मांग न्याय सम्मत है, इसलिए संवैधानिक स्थितियां भी उनके पक्ष में हैं. इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ा है. जाति को लेकर हीनताबोध समाप्त हो चुका है. दबीकुचली जातियां पहले सरकार और शीर्षस्थ वर्गों से अपनी जरूरतों की भरपाई की उम्मीद करती थीं, दैन्य दिखाती थीं, उनसे विकास के समुचित अवसरों की मांग करती थीं. अब उन्हें लगता है कि दैन्य दिखाने, गिड़गिड़ाने की अपेक्षा संगठित संघर्ष द्वारा, अपने अधिकारों को ससम्मान प्राप्त किया जा सकता है.

पेशागत आधार पर भी जातीय विभाजन बेमानी सिद्ध हो रहा है. ब्राह्मण चमड़े का काम करने लगे हैं. जबकि चर्मकार जाति के होनहार पढ़लिखकर दूसरों को पढ़ाने लगे हैं. दूसरी दबीकुचली जातियां भी मुख्यधारा की ओर बढ़ रही हैं. गति बहुत धीमी है, मगर जैसेजैसे लोग शिक्षित हो रहे हैं, उनमें अपने अधिकारों के प्रति चेतना भी बढ़ती जा रही है. यदि आधुनिक समाज में परिवर्तन की ललक है और कुछ समूह तेजी से विकास की ओर अग्रसर हैं तो इसका एक कारण यह भी है कि वे लोग जो शताब्दियों तक शोषितउत्पीडि़त होते आए थे, जिन्होंने पीढ़ीदरपीढ़ी जातीय आधार पर भेदभाव, उत्पीड़न, और असमानता का दंश सहा है, जिन्हें जाति के आधार पर विकास के अवसरों से वंचित रखा गया थाअब संगठित होकर विकास में साझेदारी चाहते हैं. प्रौद्योगिकी के अलावा जाति आज सामाजिक गतिशीलता की सबसे बड़ी उत्पेरक है. कुछ मामलों में तो यह प्रौद्योगिकी से अधिक प्रभावशाली है. आधुनिक प्रौद्योगिकी की क्षमताएं अनंत हैं. मगर पूंजीपतियों के नियंत्रण के कारण वह फैशन का हिस्सा बन चुकी है. वह मनुष्य को तकनीक के स्तर पर समृद्ध, किंतु मनोभौतिक स्तर पर बौद्धिकविपन्न बना रही है. एक तरह से जीतेजागते मनुष्यों को मशीन में तबदील कर रही है. दूसरी ओर जाति नएनए विमर्श छेड़कर मानवसमाज को नए विचारों से लैस कर रही है. जाति के पीछे कोई कल्याणकारी विचारधारा नहीं है. हो भी नहीं सकती. किंतु जाति के माध्यम से संघर्षरत आंदोलनकारियों को लगता है कि केवल संगठित प्रतिकार ही उन्हें समाजार्थिक शोषण से मुक्ति दिला सकता है. कुछ लोग जाति के उभार से खिन्न हैं. वे लगातार आरोप लगा रहे हैं कि जातिवादी आंदोलन देश को शताब्दियों पीछे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसा सोचने वालों में वही लोग हैं जिन्हें अस्मितावादी आंदोलनों से खतरा है. जो जाति के नाम पर संगठित होते युवाओं को संस्कृति और राष्ट्र के वास्ते जाति से अलग होने को उपदेश दे रहे हैं. जबकि जाति स्वयं उनके आचारव्यवहार का हिस्सा है. समाचारपत्रों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों से उनकी मनस्थिति और द्वैध को आसानी से समझा जा सकता है. कुल मिलाकर जातीय शोषण का शिकार रहे वर्गों के लिए आज जाति ही सबसे बड़ा हथियार है. वे कांटे से कांटा निकालना चाहते हैं. जाति उन्हें संगठित होने में मदद करती है. इसलिए कार्यविभाजन की अवैज्ञानिक शैली होने के बावजूद अधिकांश मानवसमूह जाति को संगठनकारी औजार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं.

इन दिनों एक ओर तो विभिन्न जातियों के बीच अस्मिता की पहचान को लेकर होड़ मची हुई है. दूसरी ओर आरएसएस जैसे संगठन धर्म और संस्कृति को रोपने में लगे हुए हैं. इसलिए जो लोग भारतीय समाज को जातिमुक्त देखना चाहते हैं, उन्हें धर्म की संकल्पना में आमूलचूल बदलाव करना पड़ेगा. जो समझते हैं कि हिंदू धर्म अपने वर्तमान स्वरूप में, लुंजपुंज देवताओं की फौज के रूप में रहे और जाति चली जाए? वे या तो बहुत भोले हैं या जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति अगंभीर हैं. बहुजन राजनीति के पैरोकार इस तथ्य को बाखूबी समझते हैं. इसलिए वे इस बार जाति के सवालों को सीधे नहीं उठा रहे हैं. देखा जाए तो उठा ही नहीं रहे हैं. शताब्दियों से जो जाति के औचित्य पर सवाल उठाते थे, अब उन्होंने इसे भारतीय समाज की हकीकत के रूप में, भले ही अस्थायी तौर पर, स्वीकार कर लिया है. इसलिए जाति के आधार पर सवाल उठाने के बजाय उसके आधार पर हुए समाजार्थिक शोषण और गैरबराबरी पर सवाल उठाए जा रहे हैं. जाति का सहारा लेकर शोषित और वंचित वर्गों को संगठित किया जा रहा है. लंबे अर्से के बाद यह समझ लिया है कि लोकतंत्र में राजनीतिक सहभागिता सामाजिक अन्याय को मेटने वाले प्रमुख उपकरणों में से है. इससे आर्थिक समानता के उस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है, जो मनुष्यता का अभीष्ट है. इस विभेदकारी समस्या के निदान के लिए शिक्षा और संसाधनों में साझेदारी की आवाज बुलंद की जा रही है. चूंकि इस बार जाति भी समानता के संघर्ष का एक हथियार है, इसलिए उससे सबसे अधिक तखलीफ उन लोगों को हो रही है, जो अभी तक जाति प्रथा का लाभ उठाते आए हैं. और जिसका सहारा लेकर उन्होंने बहुसंख्यक समाज को अपना आश्रित बनाए रखा है.

एक समय था जब आर्थिक सुदृढ़ीकरण देश के विकास की धुरी था. विशेषकर देश की आजादी के समय. तब आर्थिक उन्नति को लेकर नईनई योजनाएं बनाई जा रही थीं. इन दिनों सामाजिक न्याय जैसी समसामयिक अवधारणा विकास के साथ जुड़ चुकी है. विकास हो और उसका लाभ देश के सभी वर्गों तक पहुंचेꟷ˹ऐसी अपेक्षा की जाती है. सामाजिक न्याय के संघर्ष में जाति एक तात्कालिक माध्यम बन सकती है. लेकिन यह एकदम आसान भी नहीं है. जाति की अवधारणा ही अपने आप में नकारात्मक है. अतएव जाति को औजार की तरह इस्तेमाल कर रहे वर्गों और समूहों को समझना चाहिए कि औजार केवल माध्यम होता है. वह लक्ष्य को अपेक्षाकृत सुगम तो बनाता है, लेकिन स्वयं लक्ष्य नहीं होता. इसलिए अस्मितावादी आंदोलनों की मूल प्रवृत्ति छोटे जातिसमूहों को बड़े जाति समूहों में ढालने, जन से बहुजन और बहुजन से सर्वजन की ओर ले जाने वाली होनी चाहिए. ऐसा होगा, तभी जाति के कलंक से मुक्ति पाई जा सकती है. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सामना वैकल्पिक जनसंस्कृति और श्रमसंस्कृति के उभार द्वारा आसानी से किया जा सकता है. वह ऐसी संस्कृति होगी जिसमें लोग धर्म के आधार पर नहीं हितों की समानता के आधार पर एकजुट होंगे तथा परस्पर सहयोग करते हुए आगे बढ़ेंगे. उस समय धर्म और उसपर टिकी विभेदक संस्कृति उनके रास्ते के सबसे बड़े अवरोधक होंगे. तब यह याद रखना उन्हें विशेष बल देगा कि प्रकृति ने अधिकार तो सभी को दिए हैं, बराबर दिए हैं, मगर विशेषाधिकार संपन्न किसी को भी नहीं बनाया है.

© ओमप्रकाश कश्यप

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आलेख 

एक

 

बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्ध पूंजीवाद के विकास का था. उस कालखंड में पूंजी का वर्चस्व पूरी दुनिया में तेजी से बढ़ा; और मुनाफा जिसे कभी व्यावसायिक नैतिकता के अनुपालन में मर्यादित रखने की सलाह दी जाती थी, उसे आर्थिक विकास के नजरिये से देखा जाने लगा था. पूंजीवाद का अभीष्ट थाबाजार पर एकाधिकार और अधिकतम मुनाफा. यह कहीं न कहीं श्रम शोषण से जुड़ा मसला भी था. इतिहास की तह में जाकर देखें तो पता चलेगा कि श्रमशोषण की समस्या पूंजीवाद की पूर्ववर्ती अर्थव्यवस्थाओं में भी थी. सहयोगाधारित संगठनों को छोड़कर, जिनके बारे में 3000 वर्ष पहले तक की जानकारी उपलब्ध है—श्रमशोषण प्रायः हर युग की समस्या रही है. बल्कि लंबे युग तक इसे नियतिबद्ध मानते हुए गंभीरता से लिया ही नहीं गया. सहयोगाधिारित संगठनों ने इस समस्या का सार्थक समाधान खोजने की कोशिश की थी. उस समय तेली, रंगरेज, बुनकर, राजमिस्त्री, काष्ठकार जैसे दस्तकारों के प्रभावशाली संगठन थे. समाज में उनका खासा मानसम्मान था. हालांकि उसी युग में जिसे सहयोगाधारित संगठनों का स्वर्णकाल माना जाता है, समानांतर रूप में दासप्रथा भी कायम थी.े दास की निजी इच्छाओं का कोई महत्त्व न था. वह एकमात्र अपने स्वामी की इच्छा से नियंत्रित होता था. प्रकारांतर में उससे अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने के अधिकार छीन लिए जाते थे. कालांतर में जैसेजैसे छोटे राज्यों का विकास हुआ, श्रमिक संगठनों के लिए स्वतंत्र रूप में काम करना कठिन होता गया. अद्वितीय शिल्पी जो अपने कौशल के लिए दूरदूर तक जाने जाते थे, वे पूरी तरह राज्याश्रित होने लगे. स्वामी प्रसन्न तो इनामइकराम की भरमार, स्वामी अप्रसन्न तो मृत्युदंड तक की नौबत आ जाती थी. उसके विरुद्ध सुनवाई किसी अदालत में संभव न थी. संभव है सहयोगाधारित संगठन भी दासों की सेवाएं लेते हों. लेकिन शिल्पकार और पेशेवरों द्वारा गठित वे संगठन निजी लाभ के साथसाथ सामाजिक लाभ की वांछा से चलाए जाते थे. उनमें स्वामीश्रमिक संबंधों नहीं होते थे. समूह के अंदर कार्यों का सामान्य सहमति के आधार पर विभाजन और अन्योन्याश्रितता होती थी. श्रेणियों का यह गुण उन्हें समकालीन उत्पादक समूहों से श्रेष्ठतर और मानवीय सिद्ध करता है.

मशीनी क्रांति के आरंभ में श्रमिकों को उम्मीद थी कि पूंजीवाद का आगमन सामंती शक्तियों के पतन में सहायक होगा, फलस्वरूप श्रमिक को श्रम और शिल्पकार को उसके शिल्पकौशल का भरपूर प्रतिदेय प्राप्त होगा. वे अपने श्रमकौशल का मूल्यांकन करने को पूर्ण स्वतंत्र होंगे. इसमें कोई संदेह नहीं कि पूंजीवाद ने सामंतवाद की अनेक ज्यादतियों पर प्रहार किया. कठिन श्रम से मुक्ति दिलाने में भी नई प्रौद्योगिकी मनुष्य की मददगार बनी. औद्योगिक अर्थव्यवस्था ने बेगार जैसी कुप्रथाओं पर नियंत्रण लगाया था. श्रमिक को उसके श्रम के बदले नकद भुगतान किया जाने लगा. किंतु श्रम पर पूर्ण स्वत्वाधिकार; यानी श्रममूल्य के निर्धारण का अधिकार जो श्रमिक की पुरानी नीतिसम्मत मांग थी—पर पूंजीपतियों और सरमायेदारों का अधिकार यथावत था. वैज्ञानिक क्रांति ने उत्पादन वृद्धि के जो नए रास्ते ईजाद किए थे, उनका अधिकांश लाभ पूंजीपति के हिस्से आया था. कामगारों को तुलनात्मक रूप से बहुत कम, बल्कि नगण्य लाभ पहुंचा था. नई प्रौद्योगिकी समाज में आर्थिक असमानता की खाई को और गहरा करने में सहायक बनी, जिसके परिणामस्वरूप पूंजीवादी शोषण का दायरा लगातार बढ़ता गया.

नई अर्थव्यवस्था में व्यावसायिक और उत्पादक इकाइयों को प्रतिस्पर्धी बनने/बनाने की अपेक्षाओं के चलते मुनाफे को तय करने का अधिकार समाज एवं सरकार के हाथों से खिसककर, पूर्णतः पूंजीपति के हाथों में चला गया. कुछ अपवादों को छोड़कर पूंजीपतियों को मिला अधिकार असीमित था. विशेषकर श्रमिकसंबंधी विषयों को लेकर. श्रमअधिकारों के संरक्षण हेतु कुछ कानून अवश्य बनाए गए. लेकिन उनका रास्ता इतना लंबा, दुरूह और जटिलताओंभरा था कि साधारण श्रमिक द्वारा उनका लाभ उठाना तो दूर, समझना तक कठिन था. इस तरह प्रतिस्पर्धा का पहला शिकार बना था—श्रमिक. दूसरा वह शिल्पकर्मी जिसके पास सिवाय अपने शिल्पकर्म के उपार्जन का कोई और माध्यम नहीं था. नतीजा यह हुआ कि जो शिल्पकर्मी प्राचीन समाजों में अपने हुनर के लिए सराहे जाते थे, जिनका विशेष मानसम्मान था, वे बेरोजगारी का शिकार होने लगे. इससे उनका कलाकौशल भी दम तोड़ने लगा, जो उन्होंने पीढि़यों के संघर्ष के बूते प्राप्त किया था. उचित यही था कि जिस प्रकार उद्यमी अपने उत्पाद के मूल्यनिर्धारण को स्वतंत्र होता है, श्रमकौशल के मूल्यांकन की वैसी ही स्वतंत्रता श्रमिक और शिल्पकार को भी प्राप्त होती. व्यावसायिक और सामाजिक नैतिकता की दृष्टि से भी यही अपेक्षित था. परंतु प्रौद्योगिकीकरण ने श्रम और शिल्प दोनों के सक्षम और सस्ते विकल्प पेश किए थे. परिणामस्वरूप श्रमिक और कामगार वर्गाें के ऊपर बेरोजगारी की तलवार लटकने लगी थी. मशीनों ने मानवश्रम का विकल्प बनना शुरू किया तो बेरोजगारी संकट से घिरे, हतोत्साहित शिल्पकार और मजदूर पूंजीपतियों पर निर्भर होते चले गए. उनके शिल्प और श्रम के मूल्यांकन का अधिकार उन लोगों के हाथों में चला गया जो केवल और केवल अपने मुनाफे के लिए काम करते थे.यह पूंजी की सुदृढ़ता का पहला चरण था. दूसरे चरण की शुरुआत उपभोक्तावाद से होनी थी. जिसमें उत्पादन व्यक्ति की जरूरत के बजाय पूंजीवादी अर्थतंत्र की लाभकामना के निमित्त होता था. उसकी शुरुआत तो मशीनीकरण के साथ ही हो चुकी थी, मगर वास्तविक सफलता मध्य वर्ग के मजबूत आर्थिक शक्ति बनने के बाद संभव हो सकी.

स्वाधीन भारत में कल्याण राज्य की नींव रखी गई और आजादी का लाभ सभी वर्गों तक पहुंचाने के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया. सोचा गया कि राष्ट्रीय महत्त्व के जितने भी भारी उद्यम हैं, उनपर सरकार का अधिपत्य हो. इसके फलस्वरूप सार्वजनिक उद्यमों की स्थापना की गई थी. मगर कमजोर नेतृत्व, इच्छाशक्ति का अभाव, पूंजीपति और भ्रष्ट नौकरशाही के अनुचित गठजोड़ में फंसकर, वे लगातार घाटे का शिकार होने लगे. भारीभरकम पूंजी के आधार पर लगे सार्वजनिक उद्यमों पर पूंजीपतियों की कुदृष्टि थी. येनकेनप्रकारेण वे उनपर एकाधिकार चाहते थे. आजादी के तीसरे दशक बाद से राजनीति पर पूंजीपतियों का प्रभाव बढ़ने लगा था. इसलिए हुआ वही जो पूंजीपति तथा उनके चहेते भ्रष्ट नेता चाहते थे. बीसवीं शताब्दी के समाप्त होतेहोते यह मान लिया गया कि मिश्रित अर्थव्यवस्था के बूते दुनिया के साथ स्पर्धा कर पाना असंभव है. इसलिए उदारीकरण के बहाने भारतीय बाजारों को दुनियाभर के उद्यमों के लिए खोल दिया गया. इसी के साथ देशभर में प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन और शोषण की शुरुआत हो गई. पूंजीपतियों और वैश्विक कारपोरेट घरानों की गिद्धदृष्टि अर्से से इस देश के प्राकृतिक संसाधनों पर टिकी थी. उदारीकरण के साथ वे उन संसाधनों को औनेपौने दामों में खरीदने या जोड़तोड़ द्वारा हड़पने का स्वप्न देखने लगे. मिश्रित अर्थव्यवस्था के दौरान पिछले पचास वर्षों में जो बड़ेबड़े सार्वजनिक उद्यम खड़े किए गए थे, उनसे पीछा छुड़ाने के लिए विनिवेश पर खास जोर दिया गया. सरकार किसी भी दल की रही हो, अपनीअपनी तरह से सभी ने, कभी प्रकट रूप में तो कभी पिछले दरवाजे से, उदारवाद और विनिवेशीकरण को बढ़ावा दिया. यह अवधारणा बनी कि कारखाने चलाना सरकार का काम नहीं है. उसका काम केवल शासन और व्यवस्था संभालना है. नतीजा यह हुआ कि कुछ वोटबटोरू, लोकप्रिय योजनाओं को छोड़कर बाकी योजनाएं निजी हाथों की ओर खिसकने लगीं. यह काम पश्चिम की तर्ज पर किया गया, जिनकी पहचान विकसित देश के रूप में थी. जहां शिक्षा, भोजन, आवास और बेरोजगारी जैसी समस्याएं उतनी भयावह नहीं थीं, जितनी वे भारत सहित दूसरे विकासशील एवं अल्पविकसित देशों में. पिछली ढाई दशाब्दियों से तो पूरी अर्थव्यवस्था ही पूंजीवाद के नाम लिख जा चुकी है.

घोषित रूप से समाजवादी भारत में पूंजीवाद ने बड़े नाजुक अंदाज में, उदारवाद के नाम से प्रवेश किया था. चूंकि अर्थव्यवस्था के पूंजीकरण को लेकर समाज में अनेकानेक अंतर्विरोध थे पहला अंतर्विरोध यहां की जाति व्यवस्था के रूप में था, जिसमें व्यक्ति को अरुचि और अनिच्छा के बावजूद पैत्रिक पेशे की ओर ढकेल दिया जाता था. अंततः वह उसको अपनी नियति मानकर, परंपरा की लकीर पीटते हुए काम करता था. चूंकि उसके पास भविष्य को लेकर कोई बड़ा सपना नहीं होता था, इसलिए साधारणतः उसके काम में रचनात्मक कौशल और मौलिकता का अभाव रहता था. यह कमी कथित ऊंची जातियों में भी थी. ‘पंडिज्जी’ संबोधन सुन, फूलकर कुप्पा हो जानेवाले ब्राह्मणपुरोहित कथावाचन को ज्ञान, रटंत को शिक्षा और कर्मकांडों को सभ्यता एवं संस्कृति मानकर, एक पोथीपत्रा पढ़ते हुए ‘अंधों में काना सरदार’ वाली कहावत को चरितार्थ करते रहते थे. वास्तव में ज्ञान से उनका नाता केवल रटे हुए को रटाने तक सीमित था. उन अंतर्विरोधों को दूर करने, देश को बड़े परिवर्तन के लिए तैयार करने के बजाए आननफानन में उदारीकृत अर्थनीतियों को लागू किया था. उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि भारत विश्वउत्पादकों के लिए मंडी बन गया. छोटेमोटे लाखों उद्यम, जिनसे देश के करोड़ों लोगों को रोजगार मिलता था, धीरेधीरे बंद होने लगे. सरकार किसी भी दल की रही हो, उसकी व्यापार नीति करीबकरीब एक समान और पूंजीपतियों की हितरक्षक रही है. आज ‘मेक इन इंडिया’ की हवा में भी लघु, कुटीर उद्यमों तथा छोटे व्यवसायों की सुध लेने वाला कोई नहीं है. अब तो इसे देखकर ऐसा लगता है कि वह खुद पर सवारी गांठ रहे सहसवार के नियंत्रण से भी बाहर जा चुका है.

पूंजीवाद को मिली इस अप्रत्याशित सफलता का राज? कौनसा विचार है जिसने नईपुरानी सभी पीढि़यों को अपने मोहपाश में जकड़ लिया है? जवाब है, कोई नहीं. पूंजीवाद की सफलता का एकमात्र रहस्य है कि वह अपने उपभोक्ताओं को विचारधाराओं के दबाव से मुक्त करता है. परंपरागत सामाजिक मूल्यों के के स्थान पर वह उत्पादकउपभोक्ता के संबंधों को ले आता हौ. ‘जिन चीजों से मनुष्य को सुख प्राप्त हो, उन्हें प्राप्त करने का उसे अधिकार है.’—यह धारणा पूंजीवाद का आदर्श है. यह धारणा मनुष्य और पशु के अंतर को मिटाती है. समाज को उत्पादक और उपभोक्ता में बांट देती है. उत्पादक का सुख अधिकतम मुनाफे में निहित होता है. इसलिए अपने सुख की तलाश में बाजार में पहुंचे उपभोक्ता, बहुसंख्यक होने के बावजूद, उत्पादक की अधिकतम लाभ में अपना सुख खोजने की मानसिकता के विरुद्ध कोई नैतिक दबाव नहीं बना पाते. 1751 में फ्रांस के अर्थशास्त्री फ्रांसिस केने ने पहली बार ‘लेजेज फेयर’ पद का उपयोग कर, उद्योगों को नियंत्रण मुक्त करने की सलाह दी थी. आगे चलकर एडम स्मिथ ने केने की इस मान्यता को तर्कसम्मत ढंग से आगे बढ़ाया. वे उद्योगों को नियंत्रण मुक्त करने की मांग कर रहे थे, क्योंकि उन्हें उद्यमों की स्वतंत्रता में ही राष्ट्र हित नजर आता था. वे भूल गए थे कि उत्पादकों को नियंत्रण मुक्त करने के पीछे एडम स्मिथ का ध्येय राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि करना था, न कि अर्थव्यवस्था को कुछ पूंजीपतियों के हाथों में सौंप देना. इसलिए उसने ‘वैल्थ आ॓फ नेशन’ लिखा था, न कि ‘वैल्थ आ॓फ कैपीटलिस्ट’. नीतिनिर्माण की दृष्टि से तत्कालीन राजनीतिज्ञों की भूमिका किसी भी पूंजीपति की अपेक्षा अधिक सामथ्र्यशाली थी. वे राष्ट्रहित के अनुसार आवश्यक निर्णय लेने के लिए पूर्ण स्वतंत्र थे. मगर कुछ ही दिनों में औद्योगिक संस्थानों को दी गई स्वतंत्रता सरकार की सीमा बनने लगी. देशहित के निर्णय पूंजीवादी संस्थानों के निर्देश पर, उनके हितों को देखकर लिए जाने गले. भारत में यह आपाधापी के साथ, कतिपय भौंडे तरीके से हुआ.

हमारे नेतागण ‘मेक इन इंडिया’ का नारा लगाते हैं. 56 इंची सीने का दावा करते हैं, मगर इस तथ्य को नजरंदाज कर देते हैं कि भारतीय बाजार चीनी और दूसरे विदेशी उत्पादों से भरे पड़े हैं. इनमें चीन का तो इतना दबदबा है कि सस्ते खिलौने, इलेक्ट्रोनिक्स, मोबाइल, कंप्यूटर, टेलीविजन से लेकर छोटीछोटी चीजें जैसे दर्पण और बच्चों की काॅपी, कलम, पेंसिल, वर्कबुक तक चीन से आयात की जा रही हैं. मंडी में जाओ तो फल और सब्जियां तक आयातित मिल जाएंगी. उन्हें कौन बताए कि देशभक्ति हवा में नहीं तैरती, लोगों के व्यवहार में बसती है. वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं के इस दौर में जो देश बाजार में नहीं होता, उसकी हैसियत समाज में भी घट जाती है. ऐसा देश नागरिकों के आत्मसम्मान का सबब नहीं बन पाता. वैसे भी पुरानी कहावत है कि लोग जिसका खाते हैं, गुण भी उसी के गाते हैं. एक समय था जब देश में बाजार में जापान के उत्पाद छाये होते थे. उच्चगुणवत्ता युक्त वे उत्पाद भारतीयों के मन में जापानी प्रौद्योगिकी के बारे में एक सकारात्मक छवि का निर्माण करते थे. इसलिए जापानियों की कमर्ठता और अनुशासनप्रियता के किस्से उन दिनों आम हुआ करते थे. आजकल बाजार पर चीन का कब्जा है. इसलिए हम व्यवहार में देख सकते हैं कि जापान हमारे लिए एक भूला हुआ देश बनता जा रहा है. जनसाधारण तक चीन के जो उत्पाद पहुंचते हैं, वे घटिया गुणवत्ता के होते हैं. चीन के बारे में नागरिकों की राय भी एक गैर भरोसेमंद देश की है. दरअसल हम ऐसे राष्ट्रवादियों की सरकार के इकबाल में रह रहे हैं जहां बाजार में राष्ट्रीय उत्पादों का टोटा है. इसका नकारात्मक प्रभाव हमारे राष्ट्रीयताबोध पर पड़ा है. पिछले 14 वर्षों में देश से 61000 करोड़पतियों के पलायन की घटना भी इसी प्रवृत्ति की संकेतक है. ऐसी घटनाएं यदि सरकार की नींद खराब नहीं करतीं तो समझ लेना चाहिए कि वे सरकारें देश की होकर भी देश के लिए काम नहीं कर रही हैं. वे या तो अपने नेताओं के स्वार्थ के लिए काम कर रही हैं, अथवा उन पूंजीपतियों के लिए जो उन्हे सत्ताकेंद्र तक पहुंचाने में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं. इसके लिए वे अकेले जिम्मेदार भले न हों, लेकिन सुधार की कोशिश करने के बजाए इसे और आयातनिर्भर बना देना चाहते हैं. हमारी प्रथम दर्जे की प्रतिभाएं परराष्ट्रों के अर्थतंत्र को मजबूत करने के लिए नईनई योजनाएं बनाती हैं. और औसत दर्जे की प्रतिभाएं हैं, वे उनके लिए बाजार का काम देखती हैं. पिछले कुछ दशकों में भारतीय शिक्षा ने जितने सेल्समेन इस देश को दिए हैं, वह अपने आपमें विश्वरिकार्ड है.

वे दिन गए जब युद्ध सीमाओं पर लड़े जाते थे. दुनिया बदल चुकी है. इन दिनों राष्ट्र की भूमिकाएं अब राष्ट्राध्यक्ष तय नहीं करते. उन्हें मनमाफिक भूमिका निभाने के लिए पूंजीवादी कंपनियों की ओर से बाध्य किया जाता है. आदमी का मोल समाप्त हो चुका है. मोल संसाधनों का है. इसलिए नई युद्धनीतियां कूटनीतिपरक होती हैं. वे संसाधनों पर अधिकार को हड़पने के लिए बनाई जाती हैं. इस लड़ाई में चीन भारत से बहुत आगे है. हम भले ही सीमा पर चीन को उसकी गीदड़भभकियों से बाज आने की सलाह दे रहे हों, अर्थव्यवस्था के मैदान में वह हमारे घर में घुसकर हमें मात दे रहा है और हमारे नेता रेत में गर्दन दबाए शुतुरमुर्ग की भांति खुद को धोखा दिए जा रहे हैं. सतरहवीं शताब्दी में मानवमुक्ति के जितने भी शब्द, मुहावरे, उपकरण और औजार चुने गए थे, इस दैत्य के आगे, एकएक कर वे सभी बेअसर सिद्ध हो रहे हैं. कमी उन विचारों की नहीं, विचारहीनता को अपनी जीवनशैली बना चुके समाजों की थी. वे तार्किकता और उन निष्ठाओं से निरंतर परे हटते गए, जो उनके विकास की आधारशिला बनी थीं. इस संबंध में भारतीय विरोधाभास छिपे नहीं हैं. हमारे यहां पश्चिम से मशीनीकरण तो उधार लिया गया. लेकिन उन विचारों से पूरी तरह कन्नी काट ली, जो वहां मशीनीकरण की समस्याओं से जूझते हुए, उनके समाधान की चाहत में विकसित हुए थे. परिणामस्वरूप समाज तथा हमारे व्यवहार में विचारशून्यता पसरती गई, जो आगे चलकर उपभोक्तावाद के समाज में पैठ बनाने में मददगार बनी. मसलन जेरेमी बैंथम का उपयोगितावादी सिद्धांत निरे भोग का, कोरा उपभोक्तावादी दर्शन नहीं था. वह खुशियों पर खास वर्गों के एकाधिकार का विरोधी था. वह शताब्दियों से वंचित रहे समाज के अधिकारों का समर्थन करते हुए उसे मुख्य धारा में शामिल करने का पक्षधर था. उससे पहले राज्य धार्मिक आचारसंहिताओं से अनुशासित होते थे. बैंथम ने पहली बार विधि के न्याय का पक्ष लिया था. इसके लिए आधुनिक न्याय प्रणाली बैंथम की ऋणी है. सामाजिक न्याय की आधुनिक संकल्पना को हम बैंथम के उपयोगितावाद और विधि के दर्शन की अवधारणा के विकास के रूप में देख सकते हैं. उसका आदर्श कथन था—‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख.’ उपयोगितावादी विचारकों के अनुसार दुनिया में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिसका मानव कल्याण के हित में उपयोग वर्जित हो. जो है, जिसकी उपयोगिता है, उसपर समूची मनुष्यता का अधिकार है. न तो कोई व्यक्ति विशेष है, न ही तिरष्कृत. बाजार ने उपयोगितावाद को उपभोक्तावाद में बदल दिया, जिसमें ऐसा जताया जाता है कि जीवन का अभीष्ट केवल सर्वोत्तम का भोग करना है, उसके कोई और सरोकार नहीं हैं. विचार शून्यता के परिवेश में यह पूर्ण स्वाभाविक था.

बैंथम ने जनसाधारण तक सुख की समान उपलब्धता सुनिश्चित करने को राज्य का कर्तव्य बताया था. इसके लिए उसने कानून के राज्य का समर्थन किया. जिन दिनों पूरा यूरोप चर्च से अनुशासित होता था, कानून के राज्य की बात करना बहुत बड़ी बात थी. इसकी शुरुआत पूर्ववत्र्ती विचारकों द्वारा हो चुकी थी. बैंथम ने उसको विधिक आधार दिया, साथ ही लागू भी कराया. पूंजीवाद की मान्यता रही कि सुखसुविधाएं उसकी जिसकी जेब में पैसा है. जो उनके मूल्य का भुगतान कर सकता है. बैंथम के आदर्श था, ‘अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख.’ सिक्का शक्तिशाली पूंजीवाद का चला. बैंथम का सिद्धांत केवल अकादमिक क्षेत्रों तक सिमटकर रह गया. देखते ही देखते, ‘अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख’ का विचार ‘संपन्नतम व्यक्तियों को अधिकतम वैभवविलास’ में बदल गया. पूंजी या धन को सुविधाओं के साथसाथ सुख को अर्जित करने का पैमाना मान लिया गया. सामाजिक लाभ की संकल्पना मौद्रिक लाभ तक सीमित होकर रह गई. इससे मानवसंबंधों पर पूंजी को वरीयता मिलने लगी. खुद की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए पूंजीवाद ने समाज में जो भी, जब भी मिला, सभी का अपने स्वार्थानुकूल इस्तेमाल किया. कानून, न्याय, अदालत, व्यक्ति स्वातंत्रय, मानवाधिकार, उपभोक्ता अधिकार, लोकतंत्र सब पूंजीवाद के हितों के अनुकूल ढलते गए. उपयोगितावाद, सुखवाद और मानवतावाद जैसी विचारधाराएं उच्चमानवीय आदर्शों को केंद्र में रखकर गढ़ी गई थी. उनमें किसी भी प्रकार के वर्चस्ववाद को नकारने की सर्वसाधारणीय वांछा शुरू से ही स्पष्ट थी. पूंजीवाद एक और तो उपभोक्ता वस्तुओं की आधुनिकतम रेंज बाजार में उतारता रहा, संस्कृति के क्षेत्र में वह ‘प्राचीनतम को महानतम’ सिद्ध करने में सहायक बना. पोंगापंथी पुरोहित इस काम को लगातार अंजाम देते रहे. यंत्रों पर निर्भर समाज में भावुक और संवेदनशील होना अविवेकपूर्ण तथा दुर्बलता की निशानी कहा जाने लगा. मानवाधिकार, स्वतंत्रता, व्यक्तिस्वातंत्रय जैसी जितनी भी चेतनाप्रधान अभिव्यक्तियां थीं, उन सभी को पूंजीवाद ने अपनाया अवश्य, मगर पूरी तरह से निस्तेज कर, स्वार्थानुसार अनुकूलन करते हुए. ताकि वे अंधानुकरण और स्तुतिगान के अलावा कहीं और सहायक न हो सकें. मानवीकरण के इन माध्यमों का अपने पक्ष में अनुकूलन करते हुए पूंजीवादी अर्थतंत्र के लक्ष्य को मौद्रिक लाभ तक सीमित कर, केवल और केवल एक शब्द को स्थापित करता गया. उदारवादी अर्थतंत्र की दृष्टि में वह पवित्रतम, मार्गदर्शक, परमकल्याणकारी शब्द है—मुनाफा. आखिर ऐसा क्यों हुआ कि धर्मदर्शन, संस्कृति, परंपरा आदि मानवसभ्यता और जीवन को मर्यादित करने वाली जितनी भी संस्थाएं और संगठन थे, सब के सब पूंजी के आराधन में लग गए? यहां तक कि इसके लिए राष्ट्रीय हितों की बलि भी दी जाने लगी. इसके कारणों तक पहुंचने के लिए हमें भारतीय संस्कृति और सभ्यता की पड़ताल करनी पड़ेगी. विशेषकर डेढ़दो शताब्दी पहले के इतिहास में जाना होगा.

1857 के भारतीय स्वाधीनता संग्राम की बात करें. उस समय तक भारत लगभग 400 वर्ष पराधीनता में गुजार चुका था. प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद भारत पर जब ब्रिटिश राज्य हुआ तथा मुस्लिमों के हाथ से सत्ता जाने पर भारतीय अभिजात वर्ग ने प्रशंसा व्यक्त की थी, जबकि शासक बदल जाने से भारतीयों की राजनीतिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था. वे पहले की तरह ही परतंत्र थे. वह परतंत्रता पहले से कहीं अधिक परेशान करने वाली इसलिए भी थी कि 1857 में लगभग 25 करोड़ भारतीयों पर मात्र कुछ हजार अंग्रेज शासन चला रहे थे. मुस्लिम शासकों के जमाने में यह बात नहीं थी. इसलिए कि इस्लामिक जिहादियों के भारत आक्रमण से पहले यहां सूफी संतों, औलियाओं के रूप में इस्लाम दस्तक दे चुका था. उसने जाति के आधार पर बुरी तरह से बंटे समाज के निचले वर्गों में काफी पैठ पैदा कर ली थी. उसके फलस्वरूप लोग इस्लाम के प्रति आकर्षित हो रहे थे. बाद में भी इस्लाम के शासकों ने भारतीय जनजीवन को प्रभावित करने की कोशिश नहीं की. चारपांच शताब्दी के इस्लामिक शासन में भारत का इलीट वर्ग राजनीतिक और आर्थिक लाभों के लिए मुस्लिम शासकों से जुड़ा था, जबकि जनसाधारण, विशेषकर समाज के निचले जातिवर्गों के लिए के लिए वह उनकी लुप्त अस्मिता की पहचान का मसला था, जिसे वे इस देश में जातीय विभाजन के कारण शताब्दियों से सहते आए थे. ब्राह्मण एवं पुरोहित वर्ग को केवल अपने धर्म एवं संस्कृति की चिंता थी. शासक का धर्म और चरित्र क्या है, इससे उन्हें कोई संबंध न था. मुगल शासकों के पराभव तथा उनके स्थान पर अंग्रेज शासकों के आने से इलीट वर्ग प्रसन्न था. इसलिए कि मुगल सभ्यता भारतीय सभ्यता के सापेक्ष पिछड़ी हुई थी, जबकि औद्योगिकीकरण के कारण यूरोपियन सभ्यता तीव्र गति से विकासमान थी. अंग्रेज इस देश में व्यापार के लिए आए थे. मगर उनके भारत आगमन से पहले ही यूरोपियन औद्योगिक क्रांति की खबरें शेष दुनिया को चमत्कृत कर रही थीं. भारत का अभिजात वर्ग उसके प्रति आकर्षित था और एक तरह से उस सभ्यता को अपनाने के लिए उतावला भी.

गौरतलब है कि भारत का प्राचीन गौरव कम न था. प्राचीन भारतीय सभ्यता अपनी समकालीन सभी सभ्यताओं के मुकाबले बहुत अधिक विकसित भले न हो, मगर उसे पिछड़ा हरगिज नहीं माना जा सकता. ढाईतीन हजार वर्ष पहले भारतीय मेधा ने विश्वमेधा को चमत्कृत करते हुए उसपर अपना प्रभाव छोड़ा था. लेकिन परतंत्रता के लंबे दौर में वह निरंतर क्षरणशील होकर अपना तेज खो चुकी थी. दूसरों को तो दूर उसे खुद अपनी वास्तविकता की पहचान तक न थी. अतः 1874 के आसपास जब यूरोपियनों ने अपनी सत्ता के स्थायित्व के लिए भारतीय सभ्यता और इतिहास को समझना आरंभ किया, तो सबसे ज्यादा चमत्कृत होने वालों में वे लोग थे, जिनपर इस सभ्यता के बौद्धिक नेतृत्व की जिम्मेदारी थी. इसलिए कि वे अपना कर्तव्य भुलाकर केवल चाटुकारिता को अपने आचरण में ढाल चुके थे; और सत्ता के इर्दगिर्द रहकर उसका लाभ उठाने में प्रवीण थे. उस समय तक दर्शन की जगह कर्मकांड छा चुका था. जातिवाद का बोलवाला था और रूढि़यों में जकड़ी सभ्यता अपने अतीत को पूरी तरह बिसराए हुए थी. पढ़ालिखा वर्ग अंग्रेजों की कृपा प्राप्त करने के लिए अपने ही देशवासियों पर जुल्म ढा रहा था. वह एक प्राचीन जाति और वर्ग में बंटी संस्कृति का अपेक्षाकृत विकसित संस्कृति के आगे समर्पण था. भारतीय समाज चूंकि छोटेछोटे जाति, वर्गों में बुरी तरह बंटा हुआ था. जाति व्यवस्था की जकड़ बहुत गहरी थी. इसलिए अंग्रेजों के आगमन पर खुश होने के विभिन्न वर्गों के अलगअलग कारण थे. अभिजात वर्ग अंग्रेजों की कृपा शासन के निकट रहने, उनके जैसी जीवनशैली प्राप्त करने के लिए चाहता था. औद्योगिकीकरण के बाद यूरोप की अर्थव्यवस्था का जादुई तेजी से विकास हुआ था. उच्च वर्गों की संपन्नता बहुत तेजी से बढ़ी थी. भारतीय सामंतवर्ग में उसके प्रति विशेष आकर्षण था. यूरोपीय उद्यमियों की भांति वे भी आननफानन में संपन्नता बटोर लेना चाहते थे; और इसके लिए कुछ भी करने को तैयार थे. समाज के पढ़ेलिखे वर्गों के एक तबके की श्रद्धा यूरोप में चले बौद्धिक आंदोलनों के कारण थी, जिसमें वे अपने मानसम्मान और अस्मिता की सुरक्षा का सपना देखते थे. नए विचारों की रोशनी में उत्पीडि़त वर्ग भी अपनी अस्मिता के संघर्ष को खड़ा करना चाहते थे. उसकी शुरुआत ज्योतिबा फुले महाराष्ट्र से कर ही चुके थे. उसके लिए अंग्रेजी शिक्षा नए विचारों के साथ मुक्तिसंदेश की वाहक बनी हुई थी.

लगभग दो शताब्दियों के ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय समाज को अपने भीतर झांकने का अवसर मिला था. हालांकि उस समय भी समाज का एक वर्ग परिवर्तनों के विरोध में अड़ा था. जबकि पढ़ालिखा वर्ग अंग्रेजों से प्रभावित था. ज्ञानविज्ञान की यूरोपियन शैली उसको आकर्षित करती थी. यह प्रभाव इतना गहरा था कि औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए भारत में वही रास्ते अपनाए गए जो अंग्रेजों के थे. यह स्वाभाविक भी था. ब्रिटिश साम्राज्यवाद के मूल में आर्थिक साम्राज्यवाद की लालसा थी. वह एक ऐसा राजनीतिक तंत्र था जो जनता की विकास की आकांक्षा तथा पंूजीपतियों की अतिमहत्त्वाकांक्षाओं के योग से बना था. अलगअलग दिखने के बावजूद उसमें अन्योन्याश्रितता का भाव था. उसकी कमी थी कि उसमें उत्पादन में भागीदारी सभी वर्गों की थी, मगर लाभानुपात शीर्ष की ओर तेजी से बढ़ता जाता था. इससे मध्यक्रम और निचले वर्गों में भारी असंतोष था. उस असंतोष के फलस्वरूप उपजे विद्रोह ने ही पश्चिम में प्रतिरोध के नए हथियारों को जन्म दिया था. देशी सभ्यता और संस्कृतिसमर्थक गांधी ने भी अंग्रेजों से काफी ग्रहण किया. उन्होंने समय रहते ही समझ लिया था कि इस नए किस्म के साम्राज्यवाद को गैरपरंपरागत हथियारों से ही चुनौती दी जा सकती है. ‘सत्याग्रह’ नामक उनका औजार थोरो के ‘सिविल डिसओविडियंस’ का भारतीयकरण था. उसने लोगों को अपनी शक्ति का आकलन करने तथा आजादी के लिए एकजुट होने के लिए प्रेरित किया. फलस्वरूप देशभर की जनता स्वाधीनता की मांग लेकर घरों से निकल पड़ी.

अच्छा नेता जनता का मार्गदर्शन करता है. लेकिन सबसे अच्छा नेता वह होता है जो लोगों को उनके भीतर छिपी शक्तियों से परचाता है. उन शक्तियों को बाहर लाकर उपयुक्त प्रेरणा जगाता हे. गांधी ने यही जादू इस देश की जनता के साथ किया था. ज्ञात हो कि धर्म, जातपात में बंटा भारतीय समाज कोई जड़ समाज नहीं था. कभी रहा भी नहीं है. परिवर्तन की कामना विशेषकर उत्पीडि़त वर्ग में हमेशा से विद्यमान रही है. उसके लिए शीर्ष नेतृत्व आवश्यक नहीं था. बल्कि जनता के भीतर से ही नेतृत्वकारी शक्तियां स्वयंस्फूर्त्त भाव से निकल आती थीं. वैदिक कर्मकांड के विरोध में जैन और बौद्ध दर्शन के उदय से बहुत पहले ही पूर्ण कस्सप, निगंठ नागपुत्त, अजित केशकंबली, संजय वेल्ट्ठिपुत्त, कौत्स, मक्खलि घोषाल आदि के बौद्धिक अवदान स्वरूप भौतिकवादी परंपरा इस देश में पनप चुकी थी. उनसे प्रेरणाओं के आधार पर ही जैन और बौद्ध दर्शन का विकास हुआ. जैन दर्शन का प्रसिद्ध ‘स्याद्वाद’ का सिद्धांत जिसे आज कुछ विद्वान क्वांटम थ्योरी के निष्कर्ष ‘अनिश्चितता का सिद्धांत’(थ्योरी आ॓फ अनसर्टेनिटी) से जोड़ते हैं, की मूल अवधारणा संजय वेल्ट्ठिपुत्त से प्राप्त हुई थी. साधना के आरंभिक दौर में महावीर स्वामी और मक्खलि घोषाल साथसाथ थे. कालांतर में दोनों अलगअलग हुए तो मक्खलि ने आजीवक संप्रदाय और महावीर स्वामी ने जैन धर्म की नींव डाली थी. मक्खलि घोषाल और बाकी विचारकों के बारे में भारतीय साहित्य में अधिक प्रसंग प्राप्त नहीं होते. लेकिन इतना महत्त्वपूर्ण उल्लेख हमें प्राप्त होता है कि बौद्ध धर्म के आरंभिक दिनों में आजीवक संप्रदाय को चाहनेवालों की संख्या बौद्ध धर्म से कहीं अधिक थी. मक्खलि के बारे में प्रसेनजित ने बुद्ध से एक बार कहा था कि वह उसे(मक्खलि को) उनसे अधिक बुद्धिमान मानता है. क्या इसके पीछे कोई सामाजिक कारण थे? इसे प्रमाणसहित कह पाना तो कठिन है. भारतीय समाज में व्याप्त जातीय भेदभाव को देखते हुए कुछ आकलन अवश्य लगाए जा सकते हैं. महावीर स्वामी और बुद्ध दोनों ही क्षत्रिय कुलों से आए थे. उन दिनों बलि, धार्मिक भेदभाव, अनावश्यक निषेधों की वजह से क्षत्रिय और ब्राह्मणों के बीच मनमुटाव बढ़ने लगे थे. इसलिए जब महावीर स्वामी और बुद्ध ने धर्मदर्शन में रुचि खोजने की कोशिश की तो तत्कालीन क्षत्रिय सम्राट उनकी ओर आकर्षित होते गए. आशय है कि न केवल आज बल्कि सहस्राब्दियों से भारतीय जनसमाज में परिवर्तन की वांछा रही है. उसके लिए उसे जब भी, जो भी अवसर मिला, उसका उपयोग किया है. चाहे वह निराकार की भक्ति हो अथवा सूफी परंपरा, कबीर हों या गांधी, जयप्रकाश नारायण हों या कांशीराम अथवा विश्वनाथ प्रताप सिंह समाज की परिवर्तन की चाहत, अलगअलग स्वरों से गूंजती रही है. इतिहास जनविद्रोहों से भरा पड़ा है. लेकिन यह भी सच है कि भारतीय दमित वर्गों का वास्तविक संघर्ष बाहरी लोगों से कम, अपने लोगों से अधिक रहा है. भारतीय समाज की परिवर्तन की उत्कट अभिलाषा का सबसे सार्थक उपयोग गांधी ने सत्याग्रह के दौरान किया था. जबकि डा॓. अंबेडकर जनमानस के मुक्तिस्वरों को आवाज दे रहे थे.

परंपरा और संस्कृति का गुणगान करनेवाला भारतीय समाज का अभिजात तबका अंग्रेजी शिक्षा और नई प्रौद्योगिकी से के प्रति भी आकर्षित था. इसलिए 1947 तक आतेआते भारत में अंग्रेजी राज और अंग्रेजी शिक्षा के समर्थकों की बड़ी फौज खड़ी हो चुकी थी. जिसे अपने अंग्रेजी ज्ञान पर गर्व था, वह अंग्रेजी ज्ञान एवं आधुनिक सभ्यता से वंचित अपने ही भाईबहनों को वह हेय दृष्टि से देखता था. उनीसवीं शताब्दी के अंतिम अंतिम दशकों में मध्यम मार्गी कांगेस की स्थापना मुख्यतः पढ़ेलिखे वर्ग को अंग्रेजी शासन से जोड़ने और जनाक्रोश पर नियंत्रण रखने के लिए की गई थी. एक प्रकार से वह अंग्रेजी शैली का ही संगठन था. धीरेधीरे वक्त बदला और जनता के दबावों में कांग्रेस को स्वराज की मांग पर उतरना पड़ा. उल्लेखनीय है कि ‘स्वराज्य’ और ‘स्वराज’ के आधार पर कांग्रेस में भी दो दल बन चुके थे. स्वराज्य की मांग करनेवाले कम संख्या में थे. उनमें से बड़ी संख्या उन नेताओं की थी, जो किसी न किसी प्रकार से ग्रामीण क्षेत्रों से आए थे और जिनकी प्रतिबद्धता अपने लोगों के साथ थी. कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक दादा भाई नौरोजी हालांकि कांग्रेस की नर्म राजनीति की धारा का प्रतिनिधित्व करते थे. किंतु उनकी लिखी पुस्तक ‘पावर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया’ ब्रिटिश भारत की त्रासदी को बयान करती थी. पुस्तक में उन्होंने ‘ड्रैन थ्योरी’ को स्थापित किया था, जिसके अनुसार अंग्रेजों द्वारा विभिन्न रास्तों से भारतीय संपदा के दोहन तथा उसको इंग्लेंड ले जाने की बात कही थी. इस पुस्तक ने ब्रिटिश शासन के विरोध को तार्किक आधार प्रदान किया था. वे देश की अंग्रेजों से पूर्ण आजादी चाहते थे. ‘स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है.’ कहनेवाले तिलक इस वर्ग के अग्रणी नेताओं में से थे. उनके सापेक्ष गांधी चतुर बनिये की तरह अपनी और भारतीय समाज की स्वाधीनता की वांछा को तौल रहे थे. 1942 से पहले तक उनकी मांग ‘स्वराज’ तक सीमित थी. संभवतः पूरी तैयारी के बिना अंग्रेजों से कोई टकराव मोल लेना नहीं चाहते थे. वे मानते थे कि अंग्रेज इस देश का समाजार्थिक शोषण कर रहे हैं. ‘हिंद स्वराज’ का पहला संस्करण गुजराती में ‘हिंद स्वराज्य’ के नाम पर लिखा गया था. परंतु जब अंग्रेजों ने उस उस संस्करण को प्रतिबंधित कर दिया तो गांधी ने तुरंत पुस्तक का शीर्षक बदलकर उसका अंग्रेजी अनुवाद ‘इंडियन होमरूल’ नाम से प्रकाशित कराया, ‘हिंद स्वराज’ के नाम से प्रकाशित किया, जो कांग्रेस की मांग से मिलतीजुलती थी.

बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशक विश्वराजनीति में हलचल भरे थे. सोवियत संघ, जर्मनी, इटली, फ्रांस, चीन आदि देशों में राजनीतिक परिवर्तन जारी थे. इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण था, सोवियत संघ का कम्युनिज्म के घेरे में चले जाना. चीन में भी साम्यवादी शक्तियां प्रभावी थीं. वहां माओ के नेतृत्व में साम्राज्यवादी शक्तियों से संघर्ष जारी था. उसकी लाल सेना चीन के बड़े हिस्से को अपने अधिकार में चुकी थी. भारतीय बुद्धिजीवियों खासकर पढ़ेलिखे वर्ग पर साम्यवादी आंदोलन का गहरा प्रभाव था. उन्हें उसमें ब्रिटिश साम्राज्यवाद का तोड़ नजर आता था. बंगाल, केरल, पंजाब आदि प्रांतों के युवक सोवियत संघ जाकर वहां की राजनीतिक जमीन को समझने में लगे थे. रूस के साम्यवादियों का भी भारतीयों को भरपूर समर्थन था. वे इसे साम्यवादी आंदोलन की पूर्णता के रूप में देखते थे. इससे पूंजीवादी ताकतों में इस बात की चिंता स्वाभाविक थी कि यदि भारत भी साम्यवादी झंडे के नीचे आ जाता है तो एशिया के छोटेछोटे देशों को भी उसके प्रभाव में आते देर न लगेगी. वह यूरोप के बाकी देशों के लिए बड़ा खतरा हो सकता है, जिसके उस समय पूरे आसार थे. भारतीय स्वाधीनता आंदोलनकारियों की पहली खेप साम्यवादी रूस से काफी प्रेरित थी. उस समय के सभी प्रमुख नेता और बुद्धिजीवी उससे प्रभावित थे. महान समाज सुधारक राजा राममोहन राय स्वयं कार्ल मार्क्स से प्रेरित थे. वे मार्क्स से मिलने इंग्लेंड भी गए थे. लेकिन उनकी मार्क्स से मुलाकात न हो सकी थी. उस समय के प्रमुख नेता डा॓. हरदयाल, करतार सिंह सराबा आदि क्रांतिकारी नेताविचारकों पर रूस के साम्यवादी आंदोलन का असर था. भारत के सैकड़ों युवा रूसी जमीन पर रहकर क्रांति की शिक्षा ले रहे थे. यहां तक कि पूरी तरह भारतीयता के रंग में रंगे विवेकानंद पर भी साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव था.

दूसरी ओर भारत में लाल झंडा न फहरने पाए, इसके लिए देश और विदेश में बड़ेबड़े कूटनीतिज्ञ सक्रिय थे. लाला लाजपत राय, भगत सिंह, राजगुरु जैसे क्रांतिकारियों के देश के युवावर्ग पर प्रभावी होने से रोकने के लिए बड़ा खेल खेलने की तैयारी हो रही थी. 1857 का संग्राम हिंदुओं और मुस्लिमों ने मिलकर लड़ा था. उस समय तक देश में सांप्रदायिक विभाजन जैसी बात न थी. अंगेज चाहते थे कि भारतीय अंग्रेजी सीखें. कम से कम इतनी कि सरकारी कामकाज में उनकी मदद ली जा सके, लेकिन साम्यवाद जैसी विचारधाराओं से उन्हें चिढ़ थी. सामरिक दृष्टि से भी अंग्रेज भारत को रूसी साम्यवाद के प्रभाव से बचाए रखना चाहते थे. इसलिए अंग्रेजी के प्रति सम्मोहित, मगर प्राचीन भारतीय संस्कृति में गहरी आस्था रखने वाले गांधी और रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे व्यक्तित्वों को अतिरिक्त रूप से बढ़ावा दिया गया. यही कारण है कि महात्मा गांधी ने जब सत्याग्रह की शुरुआत की तो उन्हें अपने समय के सभी प्रमुख उद्यमियों का साथ मिला था. जमनालाल बजाज, घनश्यामदास बिड़ला, खेतान जैसे उद्यमियों और व्यापारियों से गांधी जी के आत्मीय संबंध थे. उनकी समृद्धि का अधिकांश विश्वयुद्धों की देन था. दोनों विश्वयुद्धों के दौरान गांधी भी, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में साम्राज्यवादियों के साथ थे. उल्लेखनीय है कि रूस ने अपनी स्वतंत्रता हिंसक क्रांति के माध्यम से ग्रहण की थी. चीन भी उसी दिशा में बढ़ रहा था. ऐसे में गांधीजी का अहिंसा का विचार केवल जमीनी सचाइयों की देन न होकर भारत को रूसी एवं चीनी प्रभाव से बचाने की कोशिश भी था. दूसरे शब्दों में गांधी की अहिंसा केवल साम्राज्यवादी अंग्रेजों का रक्षाकवच नहीं थी. वह भारतीय नवपूंजीपतियों एवं जमींदारों को उस भय से बचाने में सहायक थी, जो रूस तथा दूसरे देशों के रास्ते आ रहा था. दूसरे शब्दों में गांधी जितना काम भारतीयों के लिए कर रहे थे, उतना ही काम अंग्रेजों के लिए भी कर रहे थे. और चाहेअनचाहे वैसा ही काम भारतीय नवपूंजीपति वर्ग की रक्षा के लिए भी कर रहे थे, जिनके लिए स्वतंत्रता के मायने पश्चिमी प्रौद्योगिकी से गठजोड़ तथा उसके माध्यम से भारत की अर्थसत्ता पर कब्जा करने तक सीमित था.

यहां एक प्रश्न स्वाभाविक है कि महात्मा गांधी जो बडे़ उद्यमों में कटौती के पक्ष में थे, हाथ के उद्यमों तथा दस्तकारों को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे, आखिर क्यों बिड़ला और बजाज जैसे उद्यमी उनके पीछे लगे हुए थे. बड़ी पूंजी का निषेध करनेवाले गांधी को अपने कार्यक्रमों के लिए पूंजीपतियों की ओर से चंदा आता था. साध्य एवं साधन दोनों की पवित्रता के समर्थक गांधी को उससे कोई विरोध क्यों नहीं था? क्या वह पूंजीपतियों का राष्ट्रप्रेम था? गांधीजी द्वारा चलाए गए स्वदेशी अभियान का लाभ सीधे पूंजीपतियों को पहुंचा था. खादी का लाभ उठाने वालों में बिरला घराना सबसे आगे था. बदले में वह उनका लाभ भी उठा रहा था. उल्लेखनीय है कि गांधीजी ने खादी को बढ़ावा देने के लिए मिल से बुने कपड़े का बहिष्कार किया था. बाद में अपनी राय में संशोधित करते हुए भारतीय मिलों से बुने कपड़े को उपयोग में लाने की छूट दे दी थी. यह गांधी की नीति में बड़ा परिवर्तन था. वे यदि इसकी अनुमति न देते तो भी मशीनीकरण की ओर बढ़ते भारत के कदम रुकनेवाले नहीं थे. इसलिए पूंजीपति गांधी जी का उतना ही समर्थन चाहते थे, जो उनको व्यावसायिक दृष्टि से लाभकारी हो. दरअसल गत शताब्दी के दूसरे दशक में जब दक्षिण अफ्रीका में सफलता के झंडे गाढ़कर गांधीजी हिंदुस्तान पहुंचे उस समय दुनिया में माक्र्स के विचारों की धूम मची हुई थी. रूसी क्रांति सफल हो चुकी थी. चीन का बड़ा भूभाग माओत्से तुंग की लाल सेना के अधिकार में था. लेनिन के सिपहसालार ट्राटस्की भारत में भी साम्यवादी क्रांति को सफल देखना चाहते थे. भारत के सैकड़ों युवा उससे उत्साहित थे. अंग्रेज अब सर्वविजेता कौम नहीं नहीं रह गई थी. भगत सिंह, सुभाष, नेहरू आदि पर साम्यवादी विचारों की छाया थी. अमेरिका में बसे भारतीय समानता और व्यक्ति स्वातंत्रय का संदेश भारत तक पहुंचा रहे थे. अब्राह्म लिंकन के नेतृत्व में वहां जो स्वाधीनता संग्राम लड़ा गया था, उसका अगला सफलतापूर्ण चरण फ्रांस में पूरा हुआ था. टामस पेन, थामस जेफरसन आदि ने, ने व्यक्ति मात्र की समानता, समानता और अधिकारों को लेकर आवाज उठाई थी. भारत में वही काम ज्योतिबा फुले और बाद में चलकर उनके सशक्त उत्तराधिकारी डा॓. अंबेडकर द्वारा किया गया. यही कारण है कि घबराए हुए भारतीय पूंजीपतियों ने धर्म भीरू और परंपरावादी गांधी की लुकाटी को चमकाते रहने में ही अपनी भलाई समझी थी. चूंकि आर्थिक और सामाजिक समानता के सवालों को राजनीतिक स्वतंत्रता के उत्साह में दबाया जा सकता था, इसलिए कांग्रेस ने सामाजिकआर्थिक स्वतंत्रता के प्रश्न को कोई महत्त्व नहीं दिया गया था. गांधी की राजनेता और धार्मिक संत की तस्वीर साथसाथ गढ़ी गई. भारतीय हिंदूमन जो सात सौ वर्ष की दासता से गुजर चुका था, अपनी पहचान को सम्मान देना चाहता था. इसलिए राष्ट्रीय भावनाओं की धार्मिक आर्थिकसामाजिक समानता जैसे शाश्वत मूल्यों पर संप्रदायवाद की जीत हुई. इस बीच भारतीय जनमानस पर गांधी का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया. गांधी तथा अन्य परंपरापोषी नेताओं की छत्रछाया में भारतीय उद्योगपति अपना काम करते रहे. कुल मिलाकर भारतीयता की बात करनेवाले हमारे तत्कालीन बड़े नेता, पूंजीवाद के प्रवेश को रोकने के बजाय उसकी पैठ बनाने में सहायक सिद्ध हुए.

स्वातंत्रयोत्तर भारत में पूंजी का हस्तक्षेप आजादी के समय से ही रहा. महात्मा गांधी की सफलता में उन पूंजीवादी ताकतों का बड़ा योगदान था. गांधीजी के आयोजनों में खर्च सामंतों और पूंजीवादी ताकतों का ही लगता था. स्वाधीनता आंदोलन में उन्होंने खादी का समर्थन किया था. स्वदेशी का जोरदार समर्थन करते हुए वे आगे बढ़े. दरअसल खादी और स्वदेशी में अंतर है. खादी की अवधारणा गांधीजी की गांव के आर्थिक स्वावलंबन से जुड़ी थी, जबकि स्वदेशी की सीमा में भारतीय उद्योग भी आ जाते थे. ‘हिंद स्वराज’ में गांधी ने मशीनों की आलोचना की थी. खादी मानवीय श्रम का सम्मान करती है. वह मानवीय कौशल को हस्तशिल्प और यंत्रशिल्प की स्पर्धा में भी मरने नहीं देती. व्यक्ति को उसके श्रम का पूरापूरा मूल्य मिले, यह व्यवस्था गांधी दर्शन में कहीं नहीं है. गांधीजी ने जब खादी का दर्शन दुनिया को दिया, वे चरखे के बारे में जानते नहीं थे. हिंद स्वराज पर अपने साक्षात्कार के दौरान उन्होंने यह स्वयं स्वीकारा था. उस समय तक खादी को ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आधार के रूप में प्रस्तुत करने में कोई बड़ी आर्थिक समझ नहीं हो सकती. स्वयं गांधी जी ने इसका कोई दावा नहीं किया था. लेकिन गांधी की व्यापक लोकप्रियता के चलते इसका बड़े उद्योगों पर इसका असर पड़ना स्वाभाविक था. कालांतर में पूंजीपतियों के आग्रह या दबाव में ‘हिंद स्वराज’ के मूल कथ्य में कोई परिवर्तन न करनेवाले, पुस्तक के प्रथम संस्करण में आदमी को अपने हाथ का कताबुना कपड़ा पहनने का आग्रह करने वाले गांधी, 1931 में ‘भारतीय मिलों का कताबुना’ पहनने की अनुशंसा कर चुके थे. यानी खादी का स्थान स्वदेशी ले चुकी थी. स्वदेशी का मतलब है देश में बना हुआ. यह अपने आप में भावुक अवधारणा है. उसे बनाने के, बनाने का कारखाना लगाने के लिए किसका पैसा लगा है, तकनीक कैसी है, उसपर जोर नहीं देती. यानी स्वदेशी का समर्थन करते समय गांधीजी मशीनों की आलोचना के बारे में अपने तर्क को बहुत पीछे छोड़ चुके थे. यदि लंकाशायर का कोई पूंजीपति सस्ते श्रम की चाहत में भारत में कोई कारखाना, अत्याधुनिक श्रमविरोधी मशीनों के साथ लगाए तो उसका बुना कपड़ा स्वदेशी है. तथा गांधीजी का उससे विरोध नहीं था. इसलिए वे खादी की अपनी अवधारणा में संशोधन कर, स्वदेश निर्मित वस्तुओं के पक्ष में तर्क देने लग जाते हैं. भले ही लंकाशायर का वह पूंजीपति अपने देश के मुकाबले यहां के श्रमिकों को बहुत कम वेतन पर रख रहा हो. गांधी जी जीवन को धार्मिक नजरिये से देखते हैं. आर्थिक दृष्टिकोण उनके लिए अधिक महत्त्व नहीं रखता. जो पूंजीपति गांधीजी के आगेपीछे लगे थे, उन्हें इससे मतलब भी नहीं था. बल्कि प्रकारांतर में धार्मिक जड़ता उनके लिए मददगार ही थी.

गांधी बारबार धार्मिक आजादी की बात करते रहे. आर्थिक स्वावलंबन के लिए उन्होंने ग्राम स्वराज, खादी एवं ग्रामोद्योग का नारा दिया. वैसे भी उन दिनों शिक्षा और शहरों से कटे भारतीय गांवों के मशीनीकरण की संभावना भी नहीं थी. भीषण गरीबी के कारण लोगों का क्रयसामथ्र्य अत्यधिक कम था. उनमें निवेश करने से पूंजीपतियों को कोई तात्कालिक लाभ होनेवाला नहीं था. इसलिए इस बात को खूब उछाला गया. गांधी ब्रिटेन के सम्राट के बुलाने पर गए तो एक लंगोटी में थे. इसके लिए उनकी प्रशंसा भी की जाती है. बात है भी प्रशंसा की. उन्होंने कहा था कि वे भारत की जनता के प्रतिनिधि हैं. एक नेता को ऐसा ही होना चाहिए. ऐसे सुनने में भी अच्छा लगता है. लेकिन क्या इससे यह जाहिर नहीं होता कि इससे गरीबी का महिमा मंडन होता है. क्या इससे यह नहीं लगता कि कि गांधीजी ने गरीब भारत की अभावग्रस्तता को चुनौती मानने के बजाय उसको उसी रूप में स्वीकार कर लिया था. वैसे भी उनके ऐजेंडा में राजनीतिक आजादी प्रमुख थी. समाजार्थिक आजादी के सवालों को वे स्वातंत्र्योत्तर भारत में सुलझाना चाहते थे. इसलिए गांधीजी की वह घटना एक गरीब देश के स्वाभिमान का प्रतीक तो बन सकती है, लेकिन उसके माध्यम से गरीबी के महिमा मंडन का जो संदेश जाता है, उससे आगे चलकर नुकसान ही हुआ. प्रकारांतर में यह नामक एक और हथियार मिल गया. आशय है कि गांधी और गांधीवाद, मशीनीकरण को रोकने और त्याज्य बताने के बावजूद पूंजीवाद पर नकेल कसने में नाकाम रहे हैं. पूंजीवाद को नाथने के लिए गांधी ने ट्रस्टीशिप का विचार रखा था. ऊपर से देखने पर यह आदर्श विचार प्रतीत होता है. मगर व्यवहार में यह आर्थिक विभाजन को न्यायसम्मत मान देती है. वह दान की व्याख्या को जन्म देता है. जिसके आधार पर समाज में परजीवी वर्ग को फलनेफूलने का अवसर मिलता है. जिस ग्रामस्वराज को वे ग्रामीण परिवेश में फलतेफूलते देखना चाहते हैं, उसकी परिणति सामंतवाद में होती रही है. पूंजीवाद चूंकि लोकतंत्र का पक्ष लेता है, जिसमें उसका अपना हित भी है. जबकि सामंतवाद में पूंजीपतियों पर नियंत्रण केवल मनमानी और बलप्रयोग द्वारा होता था. इसलिए पूंजीवाद की सफलता के लिए सामंतवाद को पुराना, दकियानूसी शासन पद्धति वाला और लोकतंत्र विरोधी कहकर बदनाम करने का काम किया गया. बहरहाल सामंतवाद जिन कमजोरियों का शिकार था, उसका पतन स्वाभाविक था.

पूंजीवाद को नाथने की कोशिश गत दो सौ वर्षों में होती रही है. निश्चय ही इसका केंद्र यूरोप था. मगर उसकी धमक दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों तक सुनाई पड़ी थी. पूंजीवाद को नाथने के लिए साहचर्य, अराजकतावाद, श्रमिक संघवाद, संगठनवाद, सहजीवितावाद जैसे विचार आए. उन सभी की विशेषता थी कि वे श्रम को महत्त्व दिए जाने पर जोर देते थे. सभी का आग्रह था कि पूंजीस्वामी को पूंजी के आधार पर अतिरिक्त लाभ का अधिकारी बनाने से रोका जाए और आपसी व्यवहार में मौद्रिक विनिमय को न्यूनतम किया जाए. संक्षेप में ये सभी धनबल के स्थान पर श्रमबल को खड़ा कर देना चाहते थे. संगठन में ताकत है. पूंजीवाद के सुरसई आतंक पर केवल संगठित जनशक्ति रोक लगा सकती है, ऐसा इस वर्ग का विश्वास था. इनके बीच एक समानता यह भी है कि वे लोकतंत्र और व्यक्तिमात्र की इच्छाओं का समर्थन करते हैं. व्यक्ति और समाज से उनकी अपेक्षा होती है कि वे एकदूसरे की इच्छाओं का सम्मान करते हुए उपलब्ध संसाधनों के न्यायपूर्ण बंटवारे से सभी वर्गों के लिए काम करें. वे मानते हैं कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति की राय महत्त्वपूर्ण है. इसलिए निर्णय में सभी की साझेदारी होनी चाहिए. व्यक्ति की अपनी आवश्यकता भी होती है. इसके लिए उसको अपने अलावा दूसरों के उत्पाद पर भी निर्भर रहना पड़ता है. विडंबना यह है कि सुख, व्यक्तिगत आकांक्षाओं और मानवाधिकार को लेकर, समाजवाद के आधुनिक प्रकल्पों तथा पूंजीवाद में बहुत अंतर नहीं है. व्यक्ति कल्याण के जिस लक्ष्य को लेकर समाजवाद आगे बढ़ता है, पूंजीवाद भी उन्हीं के आधार पर अपना औचित्य सिद्ध करने में लगा रहता है. समाजवाद की भांति पूंजीवाद भी व्यक्तिस्वातंत्र्य एवं मानवाधिकार का बढ़चढ़कर गुणगान करता है, किंतु उसकी कमजोरी है कि वह इसको सस्थाओं के माध्यम से लागू करना चाहता है. संस्थाओं की जटिलता और नियमादि उनकी कार्यप्रणाली को जटिल बनाते हैं जिससे जनसाधारण के लिए संस्थाओं का लाभ उठा पाना बहुत कठिन होता है. इससे विशेषज्ञ संस्कृति को बढ़ावा मिलता है. उसके फलस्वरूप समाज में बौद्धिक आधार पर विभाजन को स्वीकृति मिलने लगती है. यही समाज के आर्थिक आधार पर विभाजन का बुनियादी आधार है, जिसे पूंजीवाद निहित स्वार्थ के लिए पोषितपल्लवित करता है.

पूंजीवाद में मनुष्य की नैतिक प्रेरणाओं को जगाने के लिए कोई कोई तंत्र नहीं होता. न ही वह इस तरह का कोई प्रयास करता है. इसके उलट पूंजीवाद सुखसुविधाओं के नाम पर ऐसे उपकरण और संसाधन बाजार में उतार देता है जो मनुष्य के भीतर अकेलेपन को संपूर्णता के साथ जी लेने का भ्रम पैदा करते हैं. इससे समाज में संवाद के अवसर घटते जाते हैं. परिणामस्वरूप विभिन्न इकाइयों के बीच संदेह और अविश्वास को बढ़ावा मिलता है. व्यक्ति के अकेलेपन को बांटने, उसकी भरपाई के नाम पर पूंजीवाद बहुत चतुराई से बाह्यः संस्थाओं को ले आता है. जिससे समाज के विभिन्न वर्गों के बीच संदेह और अविश्वास स्थायी रूप लेने लगता है. इससे सामाजिक विक्षोभ पैदा होते हैं. उस समय वह मध्यस्थता का नाटक करते हुए ऐसे रेफरी की भूमिका में होता जिसका टीमों की हारजीत से कोई नाता नहीं होता. उसकी नजर अपने मुनाफे और प्रोत्साहनलाभ पर टिकी होती है. इसके बावजूद पूंजीवाद के समर्थक शांत नहीं बैठते. वे मनुष्य के अकेलेपन को बढ़ाने, समाज में अविश्वास और संदेह पैदा करने के लिए चोरीचोरी हर समय, हर कालखंड में काम करते रहते हैं. इसलिए कि अकेलेपन की अनुभूति और समाज से डरे हुए व्यक्ति को पूंजीवाद के चंगुल में फंसाना बहुत आसान होता है. उसे पूंजीवाद द्वारा खड़ी की गई संस्थाओं के मोहपाश में आसानी से फंसाया जा सकता है. पूंजीवाद के लिए मुनाफा ही मोक्ष है. उसकी हर बहस लाभ पर आकर दम तोड़ लेती है. स्वयं को वैज्ञानिक सोच और नवीतम ज्ञान का समर्थक बताने वाला, नवीनतम शोध एवं प्रौद्योगिकी के आधार पर अहर्निंश काम करने वाला पूंजीवाद, मुनाफे के लिए बुरी नजर से बचाने वाले ‘नजर सुरक्षा कवच’ तथा ‘शनियंत्र’ आदि बेचता है. पाखंड के कारोबार को तरहतरह से बढ़ावा देता है. मुनाफे के लिए उसे मौत को प्रायोजित करने का अवसर मिले वह उसके लिए भी सहर्ष तैयार रहता है.

इसी स्वार्थपरता के कारण पूंजीवाद की आलोचना उसके उभार के दिनों में ही होने लगी थी. इसके बावजूद वह विकासमान रहा. इसका कारण है कि पूंजीवाद ने समाज में मध्यवर्ग पैदा किया था. उससे पहले समाज में अमीर और गरीब का विभाजन था. उसकी विडंबना थी कि जो अमीर था, उसके पास जरूरत से इतना अधिक था, उसको बनाए रखना ही उसके लिए बड़ी चुनौती थी. दूसरी ओर गरीब था जिसके पास इतने अभाव थे कि जीवन को बचाए रखना बड़ी चुनौती होती थी. एक को सपनों की जरूरत इसलिए नहीं थी क्योंकि उसकी हर ख्वाइश तत्काल पूरी हो जाती थी. दूसरे के पास कोई सपना नहीं था. इसलिए कि घोर अभावों के बीच सपना देखने की उसकी हिम्मत ही नहीं होती थी. मामला सीधेसीधे ‘होने’ या ‘न होने’ का था, इसलिए उसे आसानी से नियतिबद्ध किया जाता था. लोगों के दिलों में यह बात बिठाई जा चुकी थी कि जो विशिष्ट तथा सुखसुविधा संपन्न वर्ग है, उसपर ईश्वर की विशेष अनुकंपा है. मध्यवर्ग ने व्यक्ति की खुशहाली को नियतिबद्ध मानने वाली धारणा पर प्रहार किया था. उसके पास सपने थे और संकल्प भी. ऊपर से खूबी यह कि वह अपनी सीमाओं के अतिक्रमण के लिए निरंतर प्रयत्नरत रहता था. मशीनीकरण और पूंजीवाद की सफलता में इस वर्ग का योगदान किसी से छिपा नहीं था. इसका उसे लाभ भी मिला था. इस वर्ग का बड़ा हिस्सा पूंजीवाद को कामयाब बनाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता था. मगर एक हिस्सा असंतोष का शिकार भी था. उसे हमेशा यह लगता था कि मात्र पूंजी और अपने निष्क्रिय योगदान के बल पर पूंजीपति जितना लाभ कमाता है, उसका उसे कोई अधिकार नहीं है. यह वर्ग लाभ में अपनी सम्मानजनक हिस्सेदारी चाहता था. इस वर्ग के असंतोष के कारण पश्चिम में अनेक पूंजीवादी आंदोलनों और विचारधाराओं का जन्म हुआ था. उन आंदोलनों और विचारधाराओं को पूंजीवाद उत्पादन व्यवस्था से जुड़े अन्य वर्गों का समर्थन भी प्राप्त हुआ.

क्रमश:

ओमप्रकाश कश्यप