जीवन सभी का होता है. इतिहास भी सभी का होता है. जो लोग अपने इतिहास के प्रति उदासीन होते हैं, वे लुटेरों और आक्रामकों के इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं. लेकिन तब उनकी भूमिकाएं बदल जाती हैं. लुटेरे और आक्रामक इतिहास में दयालु और देशभक्त बन जाते हैं. जबकि कमजोर और अपने इतिहास के प्रति उदासीन सीधे–सादे लोग लुटेरे, बेईमान और संस्कृति के दुश्मन घोषित कर दिए जाते हैं. इसीलिए गुणीजन कहते हैं, अपना इतिहास स्वयं लिखने की आदत डालो. लिखे–लिखाए इतिहास पर भरोसा मत करो. यदि उसे पढ़ना मजबूरी है तो उसके पात्रों की भूमिका को बदलकर पढ़ो. उपलब्ध इतिहास का सच जानना है तो उसकी भूमिकाएं बदलकर पढ़ो.
भारतीय समाज, विशेषकर हिंदुओं में जाति के प्रश्न बहुत पुराने हैं. यह ऐसी हकीकत है जिसके कारण हिंदू धर्म को अनेकानेक आलोचनाएं झेलनी पड़ी हैं. इसका सहारा लेकर कथित ऊंची जातियां शताब्दियों से निम्नस्थ जातियों का शोषण करती आई हैं. इस कारण कुछ आलोचक जाति–प्रथा को भारतीय समाज का कलंक मानते हैं. वे गलत नहीं हैं. आज भी समाज में जो भारी असमानता और ऊंच–नीच है, आदमी–आदमी के बीच गहरा भेदभाव हैꟷजाति उसका बड़ा कारण है. समाजार्थिक समानता के लक्ष्य की यह आज भी सबसे बड़ी बाधा है. जातीय उत्पीड़न के शिकार समाज के दो–तिहाई से अधिक लोग, निरंतर इसकी जकड़बंदी से बाहर आने को छटपटाते रहे हैं. यदा–कदा उन्हें आंशिक सफलता भी मिली है. मगर आत्मविश्वास की कमी और बौद्धिक दासता की मनःस्थिति उन्हें बार–बार कथित ऊंची जातियों का वर्चस्व स्वीकारने को बाध्य करती रही है. भारतीय समाज में जाति–विधान इतना अधिक प्रभावकारी है कि सिख और इस्लाम जैसे धर्म भी, जिनमें जाति के लिए सिद्धांततः कोई स्थान नहीं हैꟷइसके प्रभाव से अछूते नहीं हैं. इनमें सिख धर्म का तो जन्म ही जाति और धर्म पर आधारित विषमताओं के प्रतिकार–स्वरूप हुआ था, जबकि इस्लाम की बुनियाद बराबरी और भाईचारे पर रखी गई थी. भारत में आने के बाद इस्लाम पर भी जाति–भेद का रंग चढ़ चुका है.
जाति आधारित विभाजन पूरी तरह अमानवीय है. यह मनुष्य की नैसर्गिक स्वतंत्रता में अवरोध उत्पन्न करता है. जाति और वर्ण की संकल्पना सामान्य मनोविज्ञान के भी विपरीत है, जिसके अनुसार जन्म के समय सभी शिशु एक समान होते हैं. उनका मस्तिष्क कोरी सलेट जैसा होता है. एकदम साफ. इबारत उसपर बाद में लिखी जाती है. ब्राह्मण और शूद्र के शिशुओं को यदि एक साथ, एक ही जंगल में छोड़ दिया जाए और उनसे किसी भी प्रकार का संपर्क न रखा जाए; तो समान अवधि के उपरांत दोनों की बौद्धिक परिपक्वता का स्तर लगभग एक–समान होगा. जो भी अंतर होगा, उसके पीछे उनकी देह–यष्टि का योगदान होगा. लगभग वैसा ही विकास जैसा पशुओं और वन्य प्राणियों में दिखाई पड़ता है. जाहिर है मनुष्य अपने गुण–कर्म और प्रवृत्तियां समाज में रहते हुए ग्रहण करता है. जाति–व्यवस्था के अनुसार मान लिया जाता है कि फलां शिशु ‘पंडित’ के घर में जन्मा है, इसलिए उसमें जन्मजात पांडित्य है. जबकि शूद्र के घर में जन्म लेने वाले शिशु सामान्य बुद्धि–विवेक से भी वंचित मान लिए जाते हैं. इसलिए उनका काम बताया जाता हैꟷविप्र वर्ग की सेवा करना, उनकी चाकरी करते हुए जीवन बिताना. यह थोपी हुई दासता है, परंतु हिंदू परंपरा में इसे धर्म बताया गया है. बिना कोई शंका किए, चुपचाप परंपरानुसरण करते जाने को पुरुषार्थ की संज्ञा दी जाती रही है. इस तरह जो धर्म बुद्धिमत्तापूर्ण व्यवहार की अपेक्षा के साथ ब्राह्मण को शीर्ष पर रखता है, और प्रकांतर में मानवीय विवेक का सम्मान करता हैꟷव्यवस्था बनते ही समाज के अस्सी प्रतिशत लोगों से बौद्धिक हस्तक्षेप और पसंदों का अधिकार छीनकर, पूरे समाज को नए ज्ञान का विरोधी बना देता है. हिंदू धर्म की यही विडंबना समय–समय पर उसके बौद्धिक एवं राजनीतिक पराभव का कारण बनी है. आज भी समाज में जो भारी असमानता और असंतोष है, उसके मूल में भी जाति ही है. जाति का लाभ उठा रहे वर्गों और जातीय उत्पीड़न का शिकार रहे लोगों के बीच अविश्वास की खाई इतनी गहरी है कि संस्कृति को लेकर जरा–सी बहस भी चले तो जनता का बड़ा हिस्सा उसपर संदेह करने लगता है. इससे कई बार धार्मिक–सांस्कृतिक सुधारवादी आंदोलन भी खटाई में पड़ जाते हैं.
वैसे भी पांडित्य, चिंतन–मनन और स्वाध्याय की उपलब्धि होता है. वह न तो बैठे–ठाले आ सकता है, न ही व्यक्ति का जन्मजात गुण हो सकता है. कथित दैवी अनुकंपा भी जड़बुद्धि व्यक्ति को पंडित नहीं बना सकती. दूसरी ओर जाति है कि उसके माध्यम से एक वर्ग जन्मजात पांडित्य के दावे के साथ हाजिर होता है तो दूसरा वर्ग ‘शासक’ के रूप में. फिर निहित स्वार्थ के लिए ये दोनों वर्ग संगठित होकर शेष समाज के लिए शोषक की भूमिका में आ जाते हैं. ‘पांडित्य’ को यदि ज्ञान का पर्याय भी मान लिया जाए तो वह स्वाभाविक रूप से व्यवहार का विषय होगा, अनुभव का विषय होगा, प्रदर्शन की वस्तु वह हरगिज नहीं हो सकता. यदि हम प्राचीन पुराणों और टीकाओं की बात करें तो उनमें दर्शित ज्ञान प्रदर्शन और महिमामंडन से आगे नहीं बढ़ पाता. पूरी की पूरी ब्राह्मण मेधा, कुछ अपवादों को छोड़कर, देवताओं के नख–सिख वर्णन और उनके छल–प्रपंच भरे काल्पनिक विजय अभियानों के बखान में लगी रहती है. मनुष्य का अस्तित्व, जिसने विषम परिस्थितियों से जूझकर, आपदाओं से निरंतर संघर्ष करते हुए इस धरती को रहने लायक बनाया है, इन ग्रंथों में बस एक दास जितना है. उपनिषदों में अवश्य कुछ श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम है, मगर उनमें भी जबरदस्त दोहराव है. बाकी सब आत्मरति और मनःरंजन का विषय तो हो सकता है. समाज का वास्तविक हित उससे सध ही नहीं सकता. इस वास्तविकता को जाति–व्यवस्था के शीर्ष पर मौजूद लोग जानते जरूर थे, मगर निहित स्वार्थ की खातिर सत्य की ओर से मुंह फेरे रहते थे. उन्होंने शूद्रों के लिए धर्मग्रंथों का अध्ययन केवल इसलिए निषिद्ध नहीं किया कि वे उन्हें अपात्र मानते थे. डर यह भी था कि शूद्र यदि वेदादि धर्मग्रंथ पढे़ंगे तो उनमें दर्ज देवों की सत्ता लोलुपता, वासनाएं, साधारण सम्राट की तरह किए गए छल–प्रपंच पर विमर्श करने का अधिकार भी उन्हें मिल जाएगा. क्योंकि धर्म और शास्त्र के नाम पर मनमानी तभी तक चल सकती है, जब तक सामनेवाला अनपढ़ हो, या उसे जानबूझकर अनपढ़ रखा गया हो. जब व्यक्ति जानने लगता है तो सवाल भी उठाने लगता है. संभवतः वे भूल गए थे कि नदी की तरह विचार भी निरंतर गतिशील रहने पर ही शुद्ध रह पाते हैं. ठहराव आते ही उनमें अशुद्धियां पनपने लगती हैं. आलोचना, विमर्श न हो तो परंपरा के नाम पर आडंबरों को खुली छूट मिल जाती है. जाति, धर्म और संस्कृति के नाम पर इस देश में यही हुआ. आड़ंबरपूर्ण शास्त्रीयता धीरे–धीरे सभ्यता और संस्कृति के पाखंड में ढलती चली गई. ऐसा नहीं कि इसका विरोध नहीं हुआ. आडंबरवाद को प्रत्येक युग में लताड़ा गया, किंतु सत्ता के शिखर पर मौजूद लोग विरोध को हमेशा नजरंदाज करते रहे. विरोध में रचे गए साहित्य और कलाओं को पुराने जमाने के ‘गजनवियों’ द्वारा निमर्मतापूर्वक मिटाया जाता रहा.
कुछ देर के लिए यदि मान भी लिया जाए कि वर्ण–विभाजन तत्कालीन समाज में कार्य–विभाजन के लिए आवश्यक था. हमारे पूर्वजों ने समाज की आवश्यकताओं, सुख एवं संसाधनों की वृद्धि हेतु बड़े ही बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से उसे चार वर्णों में विभाजित किया था. उनका ध्येय समाज के संपूर्ण सुख एवं संसाधनों में वृद्धि करना था. दूसरे शब्दों में जाति और वर्ण को यदि कार्य–विभाजन की बेहतरीन पद्धति मान लिया जाए तो उन्हें अर्थशास्त्र का विषय होना चाहिए था. धर्म और संस्कृति का हिस्सा बनाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता. यदि यह कहा जाए कि प्राचीनकाल में सभी कुछ धर्म और संस्कृति का हिस्सा था….कि ‘अर्थशास्त्र’ में अर्थनीति, राजनीति, व्यवहारशास्त्र आदि सभी कुछ हैꟷतो भी जातीयता की संकल्पना के चार–पांच हजार वर्षों में उसपर कभी तो अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से विचार किया जाना था? आकलन किया जाता कि कार्य–विभाजन की उस परंपरागत भारतीय प्रणाली की समसामयिक उपयोगिता कैसी और कितनी है? निष्पक्ष समीक्षा के बाद ही उन्हें बनाए रखने या हटाने का निर्णय लेना चाहिए था. जैसे यूनान में हुआ था. प्लेटो ने मनुष्यों को स्वर्ण, रजत और लौह वर्गों में बांटा था. उसने जन्म को उसके लिए आधार नहीं बनाया था. उसके द्वारा किए गए वर्गीकरण का आधार व्यक्ति के अपने गुण और प्रवृत्तियां थीं. तो भी अरस्तु को अपने गुरु का यह विचार जमा नहीं. उसने यह मानते हुए कि मानव–व्यक्तित्व जटिल रचना है, और उसका इस तरह सरलीकरण नहीं किया जाना चाहिए, प्लेटो द्वारा किए गए वर्गीकरण को अनुपयुक्त मानकर उसे आधी शताब्दी से भी कम समय में नकार दिया था. भारत में ऐसा नहीं हुआ. इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उस अवैज्ञानिक कार्य–विभाजन को शिखरस्थ वर्गों का समर्थन प्राप्त था. सत्ताधारी वर्गों के स्वार्थ उससे जुड़े थे. उसके बहाने वे समाज के अधिकांश संसाधनों पर कब्जा जमाए रखते थे. इसलिए एक के बाद एक स्मृति–ग्रंथ वर्ण–व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए रचे गए. सांस्कृतिक वैविध्य के मुखौटे में जातीय भेदभाव को बचाया गया.
गौरतलब है कि कार्य–विभाजन समाज की आवश्यकता है. मनुष्य की अनेकानेक भौतिक–अभौतिक आवश्यकताएं उससे जुड़ी होती हैं. इसलिए वही कार्य–विभाजन श्रेष्ठ माना जाता है, जो मनुष्य की अधिकतम उत्पादकता को सामने लाए और जरूरत पड़ने पर उसमें सुधार भी कर सके. उत्पादकता के आकलन के नियम आज के नहीं है. कम से कम दो शताब्दियों से तो उनपर खुलकर विचार किया जा रहा है. जाति–व्यवस्था उनके आगे कहीं नहीं टिकती. इसलिए वह आधुनिक विमर्श से बाहर है. केवल चलन में है. वह भी इसलिए कि जो वर्ग इससे लाभान्वित हैं, वे इसे छोड़ना नहीं चाहते. प्रत्यक्ष या परोक्ष हठ के द्वारा इसे अपनाए हुए हैं. अच्छा होता जाति–व्यवस्था का मूल्यांकन भी व्यक्ति की सामाजिक–आर्थिक और भौतिक जरूरतों के आधार पर किया जाता. यदि ऐसा होता तो उसकी परिभाषाओं पर बहस होती. उसकी समाजेतिहासिकता को बहुत पहले विमर्श में शामिल किया जाता. तब उन विसंगतियों से बचा जा सकता था, जो वर्ण के जाति में रूढ़ होने के साथ–साथ जन्मीं और लगातार बढ़ती गईं. मगर भारत में कार्य(वर्ण) विभाजन को सामाजिक–सांस्कृतिक सवाल बनाकर जानबूझकर समीक्षा से काट दिया. नतीजा यह हुआ कि जाति और वर्ण को लेकर पूरा समाज दो हिस्सों में बंट गया. एक वे जो उसका समर्थन करते हैं, दूसरे वे जो शताब्दियों तक जातीय शोषण का शिकार रहने के बाद आज उससे नफरत करते हैं. संख्या जाति–व्यवस्था के आलोचकों की अधिक और निर्णायक है. लोकतांत्रिक दौर में विचार बहुमत को प्रभावित ही नहीं करते, उससे प्रभावित भी होते हैं, इसलिए जाति–समर्थकों के स्वर दबे–दबे होते हैं. चूंकि मन से वे जातिभेद के समर्थक हैं तथा किसी न किसी रूप में उससे लाभान्वित भी हैं, इसलिए उनका अपना जीवन और चिंतन अंतर्विरोधों से भरा होता है. समाज का यह वर्ग आज भी जाति को अपनी अस्मिता का पर्याय समझता है; और वह चाहता है कि दूसरे वर्ग भी जाति की मर्यादाओं को समझें, इसलिए उन वर्गों के पास जो जाति–अनुक्रम में निचले स्तर पर हैं, सीधे विरोध के अलावा और कोई रास्ता रह ही नहीं जाता. यह विरोध कभी धर्मांतरण के रूप में सामने आता है तो कभी जातीय संघर्ष के रूप में.
सवाल है कि चौतरफा विरोध और आलोचनाओं के बावजूद जाति जीवित क्यों है? विरोधों में डटे रहने की खुराक उसे कहां से मिलती है? प्रश्न भले ही नए लगें, इनका उत्तर अनजाना नहीं है. जैसा ऊपर कहा गया है, जाति यदि सचमुच कार्य–विभाजन की जरूरत होती तो वह अर्थशास्त्र के विमर्श का विषय भी होती; या देर–सवेर अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से उसकी समीक्षा की जाती. उस अवस्था में उसे बहुत पहले अप्रासंगिक मान लिया गया होता. मगर ऐसा कभी नहीं किया गया. इसलिए कि वह कार्य–विभाजन की प्रणाली थी ही नहीं. असल में वह अभिजन हितों की सुरक्षा के लिए की गई असमानताकारी और स्वार्थपरक व्यवस्था थी, जिसमें शक्तिशाली वर्ग केवल अपनी जरूरतों के हिसाब से लोगों को अलग–अलग पेशे में बांट रहे थे. फिर जैसे–जैसे उस वर्ग की जरूरतें बढ़ी, जातियों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी होती गई. वह एक चालाकी–भरा कदम था. उन अनेक कदमों में से एक जिन्हें अभिजन वर्ग शेष समाज पर अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए उठाता है. आर्थिक–सामाजिक असमानता से ग्रस्त समाजों में मुट्ठी–भर अभिजन सत्ता–प्रतिष्ठानों पर कब्जा जमाए होते हैं. बाकी जनसमाज उनसे कहीं अधिक शक्तिशाली होने के बावजूद, बंटा होने के कारण अपनी वास्तविक शक्ति से अपरिचित होता है. शीर्षस्थ अभिजन उसे छोटे–छोटे वर्गों में बांटकर उसकी प्रभावी शक्ति को कमजोर कर देते हैं, और उस बंटी हुई शक्ति को अपने हितों की सुरक्षा के लिए काम में लाते हैं. इससे गैर–अभिजन वर्ग की शक्तियां अपने ही समूहों से टकराकर जाया होती रहती हैं. बंटा हुआ जनसमाज अपने ही सदस्यों पर संदेह करना है. चूंकि उत्पादकता के अधिकांश संसाधनों पर अभिजन समुदाय का अधिकार होता है, इसलिए रोजी–रोटी की मजबूरियां भी गैर–अभिजन समाज को अभिजनों के आदेशानुपालन हेतु विवश करती हैं. इस काम में धर्म और संस्कृति मददगार बनते हैं. अतः इस प्रश्न के उत्तर में कि जाति को विरोधों के बीच डटे रहने की खुराक कहां से मिलती है, विश्वासपूर्वक कहा जा सकता हैꟷधर्म और संस्कृति से.
ऋग्वेद का पुरुषसूक्त जातिभेद–वर्गभेद का बीज–मंत्र है. उसमें लिखा है कि ब्राह्मण, ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य उदर से तथा शूद्र उसके पैरों से जन्मे हैंꟷ‘ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः. ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत.’ ब्रह्मा यहां समाज का प्रतीक हैं. इसका लक्ष्यार्थ है कि समाज में ज्ञान, व्यापार तथा सेवाकर्म चार प्रमुख अंग होते हैं. रूपक के चयन में भी चतुराई देखी जा सकती है. यदि सीधे–सीधे कार्य–विभाजन किया जाता तो देर–सवेर लोगों का ध्यान उसके औचित्य पर भी जाता. ऐसा न हो इसलिए अभिजन वैदिक मनीषियों ने उसे सांस्कृतिक रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया था. ताकि उसको आस्था और विश्वास की साम्रगी के रूप में देखा जाए. आलंकारिक भाषा केवल कविता में ही फबती है. बौद्धिक विमर्श को उससे दूर रखने की सलाह दी जाती है. दरअसल मिथकों और बिंबों की विशेषता होती है कि उन्हें सामान्य विवेक के सहारे मनचाहा आकार दिया जा सकता है. वे सर्वसाधाराण की चेतना का हिस्सा भले हों, मगर समय–समय पर उनकी ऐसी व्याख्याएं होती रहती हैं जो उनकी मूल संकल्पना से एकदम अलग होती हैं. जैसे इंद्र का मिथक. वह एक ओर देवराज है. दूसरी ओर देवताओं में ही सबसे बड़ा खलनायक. गिरे हुए चरित्र का स्वामी, जिसे अपने सिंहासन के खिसकने का भय हमेशा सताता रहता है. इसकी प्रतीकात्मकता को देखें तो सत्ता छिन जाने का भय केवल इंद्र का भय नहीं था. यह हर उस राजा का डर हो सकता है, जो प्रजा कल्याण से दूर, केवल भोग–विलास में लिप्त रहता है. बावजूद इसके देवराज इंद्र के मिथक के जरिये उस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता. इसलिए कि वह भौतिक जगत का न होकर, सांस्कृतिक विमर्श का हिस्सा है; और संस्कृति को प्रायः आस्था और विश्वास का विषय माना जाता है. इंद्र उन देवताओं का सम्राट है जिन्हें मत्र्य जीवन के कष्टों का सामना नहीं करना पड़ता. मिथकों के विरूपण या उनकी नवव्याख्याओं के पीछे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार के दृष्टिकोण हो सकते हैं. कुल मिलाकर मिथक उससे अपने परंपरागत संदर्भों से कट सकता है. अतएव मिथक को यथार्थ मानना, ‘ईश्वर की मूर्ति है, इसलिए ईश्वर भी है’ꟷजैसा ही भ्रांत धारणा है. इसके बावजूद परंपरावादियों का जातीय विभाजन को लेकर ब्रह्मा के मिथक में विश्वास आज भी बना हुआ है. गीता में कृष्ण स्वयं को विराट पुरुष के रूप में पेश कर, वर्ण–भेद की इसी संकल्पना को आगे बढ़ाते हैंꟷ‘चातुर्वर्णमरूपक मयास्रष्ठं गुण–कर्म विभागभ्य’….‘मैंने चार प्रकार के मनुष्यों की रचना की है. उनके गुण, स्वभाव के आधार पर उन्हें वर्णों में विभाजित किया है.’ दबे स्वर में ही सही, परंपरावादी आज भी इन घिसे–पिटे तर्कों को आगे बढ़ाकर असमानताकारी जाति–व्यवस्था के पोषण में लगे रहते हैं.
कुछ विद्वानों के अनुसार पुरुष–सूक्त ऋग्वेद का प्रक्षेपित हिस्सा है. इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता. ऋग्वेद आर्यों की कई शताब्दियों की यादों को समेटे हुए है. उसका आरंभिक हिस्सा तब का है जब आर्य भारत–भूमि पर पांव जमाने का प्रयास ही कर रहे थे. उस समय तक वर्ण–व्यवस्था इतनी जटिल नहीं हुई थी. वैसे भी ब्रह्मा प्राचीनतम देवता नहीं है. भारत में शिव और बाकी सभ्यताओं में सूर्य प्राचीनतम देवता रहे हैं. आरंभ में शूद्र राजन्य और ब्राह्मण केवल तीन वर्ण थे. इसके साथ ही ऋक्, यर्जु, साम तीन वेद. वेद त्रयी और वर्ण–त्रयी का साम्य था. कालांतर में जब शूद्रों के एक वर्ग ने स्वयं को आर्थिक रूप से संपन्न कर लिया तो उसकी उपेक्षा कर पाना असंभव हो गया. चौथे वर्ग की कल्पना करनी पड़ी. यजुर्वेद में वैश्य और क्षत्रियों को सजातीय कहा गया है. इसलिए जब तक वेद तीन रहे, तब तक तीन वर्ण भी मान्य रहे होंगे. कालांतर में चौथे वर्ण को मान्यता मिली तो अथर्ववेद के रूप में चौथे वेद को भी स्वीकार किया जाने लगा. हालांकि इनमें पहले क्या हुआ? पहले चौथे वर्ण को मान्यता मिली या चौथे वेद को यह शोध का विषय है. कल्पना की जा सकती है कि दोनों का समय आसपास का रहा होगा. ऐसे में परमपुरुष की अवधारणा; यानी पुरुष सूक्त की रचना ईसा से पांच से आठ सौ वर्ष पहले तक की हो सकती है.
आरंभ में वर्ण इतने रूढ नहीं थे. आरंभिक ग्रंथों में अनुलोम और विलोम दोनों ही प्रकार के अंतरण के उदाहरण मिलते हैं. यह अंतरण तत्कालीन परिस्थितियों में जब आर्य और मूल निवासी घुलने–मिलने की कोशिश में थे, स्वाभाविक था. आर्यों ने भारत भूमि पर आक्रामक के रूप में प्रवेश किया. वे यहां पहले से रह रहे मूल निवासियों की अपेक्षा निपुण लड़ाके, रणकौशल में पारंगत थे. उत्तरी एशिया से भारत तक पहुंचने में उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. उनकी अपेक्षा इस देश के मूल निवासी शांतिप्रिय और अपने संतोष के साथ जीवन जीने वाले थे. मूल निवासी अनेक कबीलों में बंटे थे, किंतु लंबे समय तक साथ रहने के बाद वे सहअस्तित्व की कला में निपुण होने लगे थे. धर्मशास्त्रों में देवासुर संग्राम के अनेक उल्लेख हैं, मगर ऐसा कोई उल्लेख नहीं है जो दैत्यों के आपसी वैमनस्य को दर्शाता हो. बहरहाल एक लंबी संघर्षपूर्ण यात्रा के अनुभव के बाद आर्यों का कुशल रणनीतिकार के रूप में उभरना स्वाभाविक था. बावजूद इसके भारत के मूल निवासियों को अपने साथ जोड़ना, उनपर अपना सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करना आसान नहीं था. हड़प्पा और मोन–जो–दाड़ो से प्राप्त अवशेष बताते हैं कि भारतीय मूल निवासी एक समृद्ध संस्कृति के वासी थे. कदाचित उनकी समृद्धि ही आर्यों को मध्य–एशिया से भारत तक खींच कर लाई थी. यात्रा के दौरान आर्यों ने जहां आवश्यक समझा, वहां युद्ध किया. जहां लगा कि युद्ध के माध्यम से ऐच्छिक परिणाम तक पहुंचना असंभव है, वहां उन्होंने युद्धेत्तर नीतियों का सहारा लिया.
उदाहरण के लिए शिव भारत की आदिम जातियों के आराध्य थे. उनका सभी समूहों पर प्रभाव था. मूल निवासी कबीलों को प्रसन्न करने के लिए शिव को प्रसन्न करना अनिवार्य था. इसके लिए आर्यों ने उनके साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए. उन्हें महादेव की पदवी दी. पार्वती आर्य सम्राट हिमवान की पुत्री थी. शिव को अपना जामाता बना लेने के बाद आर्यों की मुश्किलें आसान होने लगीं. शिव का स्थानीय कबीलों के सर्वमान्य मुखिया थे. मिली–जुली सभ्यता की खातिर उन्होंने आर्यों तथा प्राचीन कबीलों के मध्यस्थ का काम किया. शिव के सहयोगी के रूप में भूत, पिशाच, प्रेत आदि को हम भारत के आदिम कबीलों के प्रतीक के रूप में देख सकते हैं. चतुराईपूर्वक आर्यों ने शिव को तो अपनाया, उन्हें अपने आराध्य और ‘महादेव’ का दर्जा दिया. अपनी प्रवृत्ति के अनुसार उनसे हित–साधन किया. लेकिन शिव के सहयोगी भारत की प्राचीन कबीलों को, जिनके वे नेता और आराध्य थे, पूरी तरह उपेक्षा की. उन्हें असभ्य मानते हुए भूत, प्रेत, कापालिक आदि कहा गया. नतीजा यह हुआ कि शिव का तो दैवीकरण हुआ, किंतु उनके सहयोगी कबीलों की पूरी तरह उपेक्षा हुई. उन्हें ऐसा ही दर्शाया जैसा विकसित सभ्यता पर गर्वाए सत्ताधीश करते हैं. बख्शा शिव को भी नहीं गया. उन्हें आक, धतूरा खाने वाला, भभूत लगाकर रमने वाले अवधूत की तरह दर्शाया गया. इससे सृष्टि को चलाने की जिम्मेदारी ‘ब्राह्मण ब्रह्मा’ तथा उसके सहयोगी ‘क्षत्रिय विष्णु’ पर आ गई. इसके बावजूद एक डर उनके मन में हमेशा बना रहा. उस डर ने ही शिव को मृत्यु के देवता का पद देने को बाध्य किया. शिव की तीसरी आंख दरअसल जनसंस्कृति के वाहक उन कबीलों की सम्मिलित ताकत और विद्रोह शक्ति का प्रतीक है, जिन्हें भूत, प्रेत, कापालिक आदि कहा जाता है और जिनके मुखिया शिव थे. किसी भी राष्ट्र की शक्ति उसकी जनता में निहित होती है. राज्य केवल उसका प्रतीक होता है. जनता यदि कुपित हो जाए तो बड़ी से बड़ी सामरिक शक्ति को मिट्टी में मिला सकता है. चूंकि शिव के पीछे कबीलों की शक्ति थी, इसलिए उन्हें महादेव, मृत्यु का देवता जैसा पद दिया गया. उनकी तीसरी आंख खुलने का अभिप्राय था, समर्थक कबीलों के साथ विद्रोह पर उतर आना, जिनसे अल्पसंख्यक अभिजात तथा उनके कथित देवता भय खाते थे.
महाकाव्य काल में ही वर्ण जातियों में ढलने लगे थे. व्यक्ति के अपने कौशल का कोई महत्त्व नहीं रह गया था. कर्ण और एकलव्य ऐसे ही उदाहरण हैं. जो उस समय की व्यवस्था के अनुसार क्षत्रिय नहीं थे. लेकिन दोनों ने ही स्वयं को धनुर्विद्या में अत्यंत निपुण बना लिया था. महाभारत युद्ध में दुर्योधन के पक्ष में होने के बावजूद कर्ण को बार–बार आहत और अपमानित होना पड़ता है. वहीं एकलव्य के वाण–कौशल से विस्मित द्रोणाचार्य उसका अंगूठा ही मांग लेता है. हालांकि इस युग तक जाति को रूढ बनाने का विरोध भी जारी रहा. लोग जाति–विहीन सभ्यता की याद भी दिलाते रहते थे, जैसे महाभारत के शांतिपर्व में कहा गयाꟷ‘असलियत में वर्ण–विभाजन जैसी कोई चीज नहीं है. यह पूरी सृष्टि ब्रह्म है, क्योंकि इसे ब्रह्मा ने बनाया है.’ इस प्रसंग की यदि एकलव्य और कर्ण के प्रकरण से तुलना की जाए तो उस सभ्यता के विरोधाभास सामने आने लगते हैं. लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि ‘जय’ से ‘विजय’, ‘विजय’ से ‘भारत’ और फिर ‘महाभारत’ तक की यात्रा अनेक विरोधाभासों से भरी है. इसलिए कि हर मनीषी ने सत्य को अपनी तरह से देखा और उसे प्रक्षेपण का हिस्सा बना दिया.
बाद के धर्मग्रंथों में रक्तशुद्धता एवं कुलीनता पर काफी जोर दिया गया, लेकिन आरंभ में ऐसा न था. आर्यों के आगमन के साथ ही उनका यहां रह रही प्राचीन जातियों के साथ सम्मिलन शुरू हो चुका था. भारत में आर्यों का आगमन एक समूह में नहीं रहा. वे अनेक बार टुकड़ों–टुकड़ों में आए थे. इस बात की प्रबल संभावना है कि जो आरंभिक कबीले भारत तक पहुंचे हों उनमें स्त्री सदस्यों की संख्या आनुपातिक रूप से कम रही हो; या हो सकता है कि लंबी यात्रा के पश्चात भारत तक पहुंचने में उनका लिंगानुपात गड़बड़ा गया हो. इसलिए आरंभ में ही हम अंतवर्गीय संबंधों की बहुलता देखते हैं. व्यवस्था की गई कि स्त्री किसी भी वर्ग की हो, उससे उत्पन्न संतान पिता के गौत्र की होगी. मनुस्मृति में कहा गया, ‘वैध दांपत्य में बंधने के बाद स्त्री अपने पति के वर्ण में सम्मिलित हो जाती है, ठीक ऐसे ही जैसे नदी सागर में मिलकर उसके गुणों को धारण कर लेती है.’(मनुस्मृति 9/22). उदाहरण कई हैं. वशिष्ट की पत्नी अक्षमाला निम्न जाति की स्त्री थी. इसी प्रकार सारंग मुनि की पत्नी भी निम्न वर्ण से आती थी. भविष्य पुराण के अनुसार शृंग ऋषि हरिणी के गर्भ से उत्पन्न थे. पराशर चांडाल स्त्री की संतान हैं, व्यास केवट पुत्री मत्स्यगंधा की. वशिष्ट वेश्या के गर्भ से जन्मते हैं. अपनी लग्न और प्रतिभा के बल पर वे ब्राह्मण बनते हैं. भिन्न वर्णों के बीच विवाह सामान्य थे. क्षत्रिय सम्राट ययाति की एक पत्नी देवयानी ब्राह्मण–सुता थी, दूसरी असुर राज की बेटी. बाद में रक्त शुद्धता की अवधारणा विकसित होने पर, आर्यों ने प्राचीन अंतर्जातीय संबंधों को वैध बनाने अथवा चमत्कार सिद्ध करने के लिए उन्हें मिथकीय आख्यानों का हिस्सा बना लिया. लोग उन दिनों चमत्कार पर भरोसा भी खूब करते थे. यदि आकस्मिक रूप से कुछ हो जाए तो उसे दैवी कृपा मानकर चुपचाप स्वीकार कर लेते थे. इसके फलस्वरूप लोक–महत्त्व के विभिन्न मुद्दों को लेकर ब्राह्मणवादी नजरिये से कहानियां गढ़ी जाने लगीं.
अपनी प्रतिभा और लगन के बल पर दूसरे वर्ग में अंतरण के भी अनेक उदाहरण धर्मग्रंथों में उपलब्ध हैं. विश्वामित्र के क्षत्रिय कुल से ब्राह्मण वर्ग में दाखिल होने का किस्सा तो जाना–पहचाना है. क्षत्रिय दिवोदास का पुत्र मैत्रेय ब्राह्मण बनता है. हरिवंश पुराण के अनुसार वैश्य पुत्र नाभाग और अरिष्ट ब्राह्मण कुल में शामिल होते हैं. वर्ण–अंतरण को लेकर सत्यकाम जाबाल का किस्सा भी खूब चर्चित है. सत्यकाम दासी–पुत्र था. उसने गुरु की शरण में जाकर शिक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की तो गुरु ने उसका नाम, गौत्र आदि पूछा. सत्यकाम ने घर आकर यही प्रश्न अपनी मां से किया. तब मां ने बताया, ‘पुत्र, दासी होने के कारण मुझे अनेक घरों में काम के लिए जाना पड़ता है. एक घर से दूसरे घर की यात्रा के दौरान तू कब मेरे गर्भ में आ गया, मुझे नहीं पता. तू सत्यकाम है. मेरा नाम जाबाला है. सो तू सत्यकाम जाबाल हुआ.’ सत्यकाम यही बात गुरु से बता देता है. गुरु उसके सत्यवाचन से प्रसन्न होकर दीक्षा देने के लिए तैयार हो जाते हैं. यही सत्यकाम जाबाल आगे चलकर वेदमंत्रों के रचियता के रूप में उभरता है.
जाति प्रथा चलते ही यह संभव हुआ कि पंडित के घर पंडितजी जन्म लेने लगे. यदि सबकुछ बिना किए जन्म ही से प्राप्त है तो कुछ और पाने के लिए गुणवत्ता को क्यों बढ़ाया जाए! इसलिए तप और स्वाध्याय का अभिप्राय राम–राम जपने तक सिमट गया और अध्यापन कर्मकांड तक. लोग सोलह पृष्ठ की पंजिका पढ़कर ‘पंडित’ कहलाने लगे. बिना ‘सत्य’ और ‘सत्यनारायण’ वाली ‘सत्यनारायण की कथा’ घर–घर बंची–बंचवाई जाने लगी. उन कहानियों में आदमी की पहचान जाति से जुड़ी थी. जानते सब थे कि जन्म आधारित वर्गीकरण मनुष्य के मूल स्वभाव के विरुद्ध है. दो व्यक्ति कभी–भी पूरी तरह से एक हो ही नहीं सकते. इसलिए किसी एक की परिस्थितियों पर विचार कर हू–ब–हू वही निर्णय दूसरे के लिए नहीं लिया जा सकता. चूंकि यह मनुष्य की प्रवृत्ति के विरुद्ध है, समाजीकरण की धारा के विरुद्ध है, इसलिए व्यक्ति केवल परंपराएं ढोता रहा. समाज जड़ और लोग यथास्थितिवादी बन गए. जाति ने लोगों से उनका विवेक, चयन का अधिकार छीनकर उन्हें एक नशा थमा दिया. बिना कुछ किए–धरे खास होने का नशा. जाति आधारित विभाजन की खूबी है कि उसमें हर कोई खास होता है. हालांकि खासियत के लिए उसका अपना कोई योगदान नहीं होता. बस अपनी लकीर के बराबर में मनमाफिक थोड़ी छोटी लकीर खींच लेता है. इसलिए कि वह जातीय पायदान पर अपने से नीचे के किसी कम खास की उपस्थिति मानकर मन को तसल्ली देने लगता है. दूसरा चाहे उसका विरोध करे, और विरोध होता ही है, फिर भी वह खुद को ‘अपने मुंह मिंया मिट्ठू’ बनने से रोक नहीं पाता. चूंकि जाति पर उसका जोर नहीं चलता, इसलिए जिस जाति वर्ग में वह जन्म लेता है, उसे अपनी नियति मानकर जीवन से समझौता किए रहता है. इससे भाग्यवाद और नियतिवाद को बढ़ावा मिलता है, जो परिवर्तनकामी आंदोलनों की आंच पर राख डालते रहने का काम करता है.
विद्वानों ने जाति–प्रथा की आलोचना की. कहा कि जाति ऐसी व्यवस्था है जिसमें व्यक्ति अपनी मर्जी से शामिल नहीं होता. जन्म व्यक्ति की जाति निर्धारित करता है, फिर मनुष्य मृत्युपर्यंत उसके चंगुल से निकल नहीं पाता. दूसरे शब्दों में जाति व्यक्ति की नैसर्गिक स्वतंत्रता का हनन करती है. यह कार्य–विभाजन की असमानताकारी निकृष्ट शैली है. यह व्यक्ति के चयन के अधिकार को बाधित करती है. जन्मना जाति मनुष्य का कुदरत के नाम पर लगाया गया बदसूरत ठप्पा है, जो मनुष्यता का अवमूल्यन करता है. कहीं आने–जाने, पेशा बदल देने से व्यक्ति की जाति में कोई बदलाव नहीं आता. फिर भी कुछ विद्वान जाति के जड़ स्वभाव के कारण ही उसे पसंद करते रहे. जाति उनके द्वारा भारतीय समाज और संस्कृति के महिमामंडन का कारण बनी. उनमें प्रायः वही लोग थे, जो समाज के शीर्ष पर विराजमान, समस्त संसाधनों पर कुंडली मारे नजर आते हैं. समय–समय पर ऐसे कार्यकर्ता और विद्वान भी हुए हैं जिन्होंने जाति प्रथा का जमकर विरोध किया. जाति और जन्म के आधार पर पक्षपात करनेवालों को बुरी तरह से लताड़ा. समय–समय पर जाति–विरोधी आंदोलन चले. कह सकते हैं जाति का जब से जन्म हुआ, जब से उसने समाज को जकड़ना आरंभ किया, तभी से उसपर हमले आरंभ हो चुके थे.
ज्ञात इतिहास में जाति प्रथा को सबसे पहली चुनौती गौतम बुद्ध ने दी थी. उन्होंने भिक्षु संघ की स्थापना की, जिसमें जाति संबंधी किसी भी प्रकार का पक्षपात न था. मध्यकाल में संत कवियों ने जाति को भारतीय समाज का कलंक मानते हुए जन्म के आधार पर आदमी–आदमी में भेद करने वालों को धिक्कारा. तीखे शब्दों में उनकी आलोचना कीꟷ‘जो तू कहे बाहमन का जाया, और मार्ग ने क्यों न आया.’(कबीर). बावजूद इसके जाति का बाल भी बांका न हुआ. इसलिए कि बहुत पहले से इसे रोजी–रोटी से जोड़ दिया गया था. उस व्यवस्था में समस्त संसाधनों पर कथित ऊंची जातियों का कब्जा था. क्षत्रिय को हथियार उठाने का अधिकार दिया गया था. ब्राह्मण को सलाह देने का. इन दोनों ने बाकी वर्गों को उभरने ही नहीं दिया. जिसने विरोध किया, उसको दंडित किया गया. धीरे–धीरे ये जातियां व्यवस्था से अनुकूलित होती गईं. धर्म ने इसमें मदद की. पिछला जन्म किसी ने देखा नहीं था, न उसका कोई प्रमाण ही था. बावजूद इसके हिंदुओं में कर्म–सिद्धांत की ऐसी आंधी चली कि अच्छे–अच्छों के विवेक को उड़ाकर ले गईं. लोग लकीर पीटने के अभ्यासी होते चले गए. शताब्दियों तक ऐसा ही चलता रहा.
गौरतलब है कि गौतम बुद्ध ने जाति व्यवस्था के विरोध में सीधे कुछ नहीं कहा था. केवल भिक्षुसंघ में सभी जाति–वर्ग के लोगों को प्रवेश देकर बराबरी का संदेश दिया था. लेकिन उसका चामत्कारिक असर हुआ. धार्मिक बंधन शिथिल पड़ने से लोग, विशेषकर कर्मकार जातियां भविष्य के बारे में नए सिरे से सोचने को उद्धत हुए. संसाधनों की कमी को उन्होंने अपने संगठन–सामथ्र्य से पाटा. भारतीय शिल्पकार संगठन हालांकि पहले से ही अंतद्र्वीपीय बाजार में आगे थे. गौतम बुद्ध के समय में उसमें बहुत तेजी से वृद्धि हुई. तेली, चर्मकार, बुनकर, काष्ठकार, रंगरेज, राजमिस्त्री, गुड़ बनाने वाले, रथवाह आदि जितने भी शिल्पकार वर्ग थे, उन सबके अपने–अपने व्यावसायिक संगठन थे. वैदिक परंपरा में प्रतिवर्ष लाखों पशुओं की यज्ञों में दी जानेवाली बलियों के कारण तत्कालीन समाज की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ा था. बौद्ध और जैन दर्शन के प्रभाव में बलि में कमी आई थी. बचा हुआ पशुधन किसानों और पशु–पालन द्वारा आजीविका चलाने वाली जातियों के लिए आर्थिक रूप से बहुत मददगार सिद्ध हुआ था. इसका प्रभाव उस समय के व्यापार पर पड़ा था. उसमें तेजी आई. सहयोगाधारित उन व्यापारिक संगठनों को श्रेणि, पूग, गिल्ड, व्रात्य, संघ आदि कहा जाता था. चंद्रगुप्त मौर्य तक तो श्रेणियां खुद को प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित कर चुकी थीं. श्रेणियों की शक्ति का आकलन इससे भी किया जा सकता था कि कौटिल्य उनके संगठनों को राज्य पर संकट की संभावना के रूप में देखता है. इसलिए उसने श्रेणियों पर नजर रखने की अनुशंसा ‘अर्थशास्त्र’ में की थी. श्रेणियों की आर्थिक हैसियत ऊंची थी. वे जरूरतमंद राजाओं की आर्थिक मदद भी खूब करती थीं. ईसा पूर्व दो–तीन सौ वर्ष के समय को अनेक विद्वान भारत का स्वर्णकाल मानते हैं. उसके पीछे शिल्पकार संगठनों का बड़ा योगदान था. अर्थव्यवस्था विकेंद्रीकृत थी. गांव संपन्न, आत्मनिर्भर इकाई. धीरे–धीरे श्रेणियों का पतन होने लगा. दूसरी–तीसरी शताब्दी में उनके कारोबार में मंदी आने लगी थी. इसका पहला कारण बौद्ध धर्म के कमजोर पड़ते ही जातिवादी बंधनों का एक बार फिर मजबूत हो जाना था. व्यापारी संगठन को चलाने के लिए अनेक प्रकार के शिल्पकारों की जरूरत पड़ती थी. पहले वे अपनी जातीय शुचिता को बिसराकर साथ–साथ काम करते थे. जातीय अनुशासन मजबूत होने से एकजुट होकर काम करना कठिन हो गया. देश छोटे–छोटे राज्यों में बंटने लगा था. खुलकर व्यापार करना कठिन होता गया. श्रेणियों के कारोबार में कमी आई. शिल्पकार संगठन बिखरने से लोग एक बार फिर अपनी–अपनी जाति के दड़बों में लौटने लगे. इस तरह जातीयता के बंधनों के शिथिल पड़ने की जो शुरुआत बुद्ध के समय हुई थी, उसपर पानी फिरने लगा. आगे चलकर वर्ण–व्यवस्था और भी रूढ़ होने लगी. उससे नई–नई जातियां बनने लगीं. जातीय शुचिता के नाम पर भेदभाव परोसा जाने लगा.
मध्यकाल में जाति विरोधी आंदोलन के सूत्रधार संतकवि थे. संत रैदास, कबीर, दादू, आदि समाज के निचले वर्गों से आए थे. जो जातीय उत्पीड़न का शिकार थे. इसलिए उन्होंने जाति–आधारित ऊंच–नीच को अपनी समानताधारित समाज की स्थापना के सपने का अवरोधक माना था. लेकिन समानता से उनका आशय बस इतना था कि गरीब–गरीब रहे, अमीर–अमीर और सब अपने–अपने संतोष के साथ जीना सीख लें. बावजूद इसके संत कवि जातीय उत्पीड़न का शिकार रहे लोगों की उम्मीद का केंद्र थे. इसलिए वे संत कवियों के आसपास जुटने लगे. जाति–भेद को बढ़ावा देने के लिए संत कवियों ने ब्राह्मणों एवं जाति के पैरोकारों को ललकारा. लेकिन कुछ खास नहीं कर पाए. बहुत जल्दी उनके आंदोलन को संस्कृति का हिस्सा बनाकर हिंदू धर्म में समाहित कर लिया गया. सामंतवादी दौर में उनकी आर्त्त पुकार झोपडि़यों और चौराहों पर दम तोड़ने लगी. जाति को सामाजिक असमानता एवं अंतर्द्वंद्वों का कारण मानते हुए विवेकानंद, दयानंद आदि ने भी उसकी आलोचना की. लेकिन परिणाम लगभग शून्य ही निकला. उनकी असफलता के कारण एकदम स्पष्ट थे. वे विचारक चाहते थे कि कथित ऊंची जातियां अपने से निम्न जातियों के प्रति करुणा–भाव लाएं और अपने मन से ऊंच–नीच की भावना को निकाल फैंकें. प्रकारांतर में जाति उन्मूलन उनके लिए शीर्षस्थ जातियों की कृपा पर टिका ऐच्छिक प्रश्न था. विचारक शीर्ष जातियों से अपेक्षा करते थे कि वे अपना बड़प्पन दिखाते हुए जातीय भेदभाव को दिल से निकाल फेंकें और पिछड़े वर्गों के साथ करुणा के साथ पेश आएं. यह ठीक ऐसा ही था, जैसे ‘ट्रस्टीशिप’ के सहारे गांधी जी ने जमींदारों और पूंजीपतियों से दुर्बल और आर्थिक रूप से विपन्न लोगों के पक्ष में, अपने संपत्ति अधिकार समाज को सौंप देंने का आवाह्न किया था. जबकि मुफ्त में मिलने वाला सम्मान हो या सुविधाएं, शिखरस्थ वर्ग अपनी मर्जी से कुछ भी छोड़ने को तैयार न थे. अतएव इन महापुरुषों की सदेच्छाओं तथा वक्त की जरूरत होने के बावजूद जाति की सामाजिक सत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. फिर भी उन महापुरुषों के प्रयास निरर्थक नहीं गए. उनके अनथक प्रयत्नों के फलस्वरूप समाज में थोड़ी हलचल अवश्य मची. लोग धर्म और जाति के नाम पर होने पाखंड के प्रति एकजुट होने लगे. जिससे समाज सुधार के आंदोलनों को प्रेरणा मिली. उसके फलस्वरूप विचारकों का ध्यान निचले वर्गों समस्याओं की ओर गया.
जाति विरोधी प्रयासों की असफलता के कुछ कारण एकदम साफ थे. जातीय संरचना के संगठन से जुड़ी, उसके बनाए रखने की समर्थक जातियों की मूल प्रवृत्ति कछुए के समान थी. परिस्थितियां प्रतिकूल हों तो वे कछुए की भांति अपने अंग–प्रत्यंगों को धर्म के कवच में ढक लेती थीं. परिस्थितियां अनुकूल होते ही अपने पैने नख–दंतों के साथ वे अपने आलोचकों पर आक्रामक होकर जातीयता के बंधनों को और भी कसने लगती थीं. जैसा लगभग 1900 वर्ष पहले बौद्ध धर्म के अवसान के समय देखने को मिला. बुद्ध ने जाति का सीधे विरोध नहीं किया था. मगर उनके बौद्ध विहारों के दरबार सभी जाति–वर्गों के लिए खुले थे. उन्होंने हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों और बलिप्रथा के माध्यम से उसपर गहरी चोट की. बावजूद इसके बौद्ध दर्शन ने जितनी चोट वैदिक धर्म–दर्शन पर की थी, उतनी चोट जाति प्रथा पर नहीं कर सका. उनका विरोध मुख्यतः हिंदू धर्म में व्याप्त कर्मकांड तथा बलि प्रथा से था. जो सामाजिक असमानता को सांस्थानिक बनाते थे. इसलिए जाति उन्हें अपनी संघीय मान्यताओं की अवरोधक लगी. चूंकि बौद्ध दर्शन धर्म की अधीनता में जाति व्यवस्था का विरोध करता था, इसलिए उसका जाति पर वास्तविक प्रभाव बहुत ही कम पड़ा.
जाति और सामाजिक गतिशीलता
जाति हिंदू धर्म की मानस रचना है. उसका पूरा कारोबार धर्म के सहारे चलता है. हिंदू धर्म मजबूत, तो जाति मजबूत. हिंदू धर्म शिथिल तो जाति बंधन शिथिल. बौद्ध धर्म ने हिंदू धर्म को पाश्र्व में ढकेला तो जाति भी नेपथ्य में जाने लगी थी. अठारहवीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के साथ हिंदू धर्म ने अपनी जड़ें दुबारा मजबूत कीं तो जाति भी सिर उठाने लगी. महाराष्ट्र, दक्षिण भारत, बंगाल यानी जहां–जहां हिंदू धर्म पुनर्जागरण की ओर बढ़ा, वहां–वहां जाति भी पांव पसारने लगी. हिंदू धर्माचार्यों में से अनेक आज भी जाति को हिंदू धर्म का आभूषण समझते हैं. उन्हें आज भी लगता है कि जाति के न रहने पर धर्म संकट में पड़ सकता है. इसलिए आजादी के सातवें दशक में भी दलितों को मंदिर की चौखट पर देख उन्हें अपना धर्म संकट में नजर आने लगता है. विषम परिस्थितियों में भी वे शांत नहीं बैठते. जब–तब जाति विरोधी आंदोलन होते हैं, जब उनमें लगे लोगों को लगता है कि वे बस जीतने ही वाले हैं, जाति का जनाजा अब उठा कि बस अब उठा; तब तब वे ऐसी चाल चलते हैं कि परिवर्तन और सुधार की सारी संभावनाओं पर पानी फिर जाता है. जाति समर्थक लोग धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता की आड़ में, बहुत तसल्ली के साथ जाति को तरह–तरह से मजबूत कर, सामाजिक व्यवहार के केंद्र में बनाए रखने हेतु जुटे होते हैं. उनके प्रयास बहुत ही महीन, आसानी से न समझ में आनेवाले होते हैं. जिन दिनों बौद्ध धर्म प्रभाव में था, उन दिनों पुराणों और स्मृतियों के लेखन में तेजी आई थी. मध्यकाल में किस्से–कहानियों के माध्यम से ब्राह्मणवाद में जान फूंकी गई तो भक्ति साहित्य में जाति को बचाए रखने का काम तुलसी, सूरदास, मीरा, हरिदास जैसे भक्त कवियों ने किया. इन दिनों कानून के दखल से जाति संबंधी आचार–विचार शिथिल पड़े हैं तो जातिवादी संगठन उसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का कवच पहनाने की तैयारी में लगे हैं. धर्म और जाति के इस नाभि–नाल संबंध को सर्वप्रथम महामना ज्योतिबा फुले ने समझा था. इसलिए उन्होंने जाति के मूल यानी धर्म की विकृतियों पर प्रहार किया. उनके आंदोलन को जमीन शाहू जी महाराज ने दी. दलितों–शोषित वर्गों को आत्मविश्वास से लैस करने, अपने अधिकारों के लिए खड़े होने तथा दलित आंदोलन को सही दिशा देकर नई युगचेतना लाने का सबसे महत्त्वपूर्ण काम डॉ. अंबेडकर ने किया. फलस्वरूप अस्मितावादी आंदोलनों को जमीन मिली. दबे–कुचले लोग अपने अधिकारों के लिए आगे आने लगे.
पहले जाति प्रथा की आलोचना वे लोग करते थे जो खुद जातीय उत्पीड़न और असमानता का शिकार थे. तब उत्पीडि़त वर्ग जाति का उच्छेद चाहता था. उसके लिए ‘जाति–तोड़क’ आंदोलन चलाए गए थे. स्वयं डॉ. अंबेडकर ने ‘जाति का उच्छेद’ पुस्तक लिखकर जाति और जातिवादी शोषण दोनों को कठघरे में खड़ा कर दिया था. अब हालात बदले हुए हैं. जातीय शोषण का शिकार रहे वर्ग अब जाति को ही हथियार बना रहे हैं. ऐसा नहीं है कि जाति–आधारित शोषण समाप्त हो चुका है? या उन्होंने उन्होंने जाति के नाम पर सामाजिक ऊंच–नीच से समझौता कर लिया है. जातीय आधार पर ऊंच–नीच की भावना तो आज भी बरकार है. लेकिन वह केवल सामाजिक संबंधों तक सीमित है. लोकतंत्र ने जाति आधारित भेदभाव को सिद्धांततः समाप्त किया है. अस्पृश्यता आज एक कानूनी अपराध है, भले ही सामाजिक स्तर पर उसके अवशेष आज चिंता का विषय हों. कानून हालांकि बराबरी का अधिकार देता है, लेकिन सामाजिक और आर्थिक स्तर पर भेदभाव पूरी तरह बना हुआ है. इसलिए नए परिवेश में जातीय शोषण का शिकार रहे वर्गों को अपनी रणनीतियों में संशोधन करना पड़ा है. दलितों और पिछड़ों की समझ में आ चुका है कि केवल कानूनी प्रावधान होने से समानता के लक्ष्य को प्राप्त कर पाना असंभव है. कल्याण राज्य की अवधारणा के चलते सरकार से कुछ उम्मीद की जा सकती है, लेकिन अपनी पैठ और राजनीतिक हैसियत का लाभ उठाकर सत्ता में बारी–बारी से वही लोग आते रहते हैं, जो जातीय शोषण के लिए जिम्मेदार हैं. ऐसी परिस्थितियों में शोषित वर्ग का नया संघर्ष आनुपातिक हिस्सेदारी को लेकर है. दलित और पिछड़े वर्ग अब संसाधनों और अवसरों में आनुपातिक हिस्सेदारी की मांग कर रहे हैं. चूंकि यह मांग न्याय सम्मत है, इसलिए संवैधानिक स्थितियां भी उनके पक्ष में हैं. इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ा है. जाति को लेकर हीनताबोध समाप्त हो चुका है. दबी–कुचली जातियां पहले सरकार और शीर्षस्थ वर्गों से अपनी जरूरतों की भरपाई की उम्मीद करती थीं, दैन्य दिखाती थीं, उनसे विकास के समुचित अवसरों की मांग करती थीं. अब उन्हें लगता है कि दैन्य दिखाने, गिड़गिड़ाने की अपेक्षा संगठित संघर्ष द्वारा, अपने अधिकारों को ससम्मान प्राप्त किया जा सकता है.
पेशागत आधार पर भी जातीय विभाजन बेमानी सिद्ध हो रहा है. ब्राह्मण चमड़े का काम करने लगे हैं. जबकि चर्मकार जाति के होनहार पढ़–लिखकर दूसरों को पढ़ाने लगे हैं. दूसरी दबी–कुचली जातियां भी मुख्यधारा की ओर बढ़ रही हैं. गति बहुत धीमी है, मगर जैसे–जैसे लोग शिक्षित हो रहे हैं, उनमें अपने अधिकारों के प्रति चेतना भी बढ़ती जा रही है. यदि आधुनिक समाज में परिवर्तन की ललक है और कुछ समूह तेजी से विकास की ओर अग्रसर हैं तो इसका एक कारण यह भी है कि वे लोग जो शताब्दियों तक शोषित–उत्पीडि़त होते आए थे, जिन्होंने पीढ़ी–दर–पीढ़ी जातीय आधार पर भेदभाव, उत्पीड़न, और असमानता का दंश सहा है, जिन्हें जाति के आधार पर विकास के अवसरों से वंचित रखा गया थाꟷअब संगठित होकर विकास में साझेदारी चाहते हैं. प्रौद्योगिकी के अलावा जाति आज सामाजिक गतिशीलता की सबसे बड़ी उत्पेरक है. कुछ मामलों में तो यह प्रौद्योगिकी से अधिक प्रभावशाली है. आधुनिक प्रौद्योगिकी की क्षमताएं अनंत हैं. मगर पूंजीपतियों के नियंत्रण के कारण वह फैशन का हिस्सा बन चुकी है. वह मनुष्य को तकनीक के स्तर पर समृद्ध, किंतु मनोभौतिक स्तर पर बौद्धिक–विपन्न बना रही है. एक तरह से जीते–जागते मनुष्यों को मशीन में तबदील कर रही है. दूसरी ओर जाति नए–नए विमर्श छेड़कर मानव–समाज को नए विचारों से लैस कर रही है. जाति के पीछे कोई कल्याणकारी विचारधारा नहीं है. हो भी नहीं सकती. किंतु जाति के माध्यम से संघर्षरत आंदोलनकारियों को लगता है कि केवल संगठित प्रतिकार ही उन्हें समाजार्थिक शोषण से मुक्ति दिला सकता है. कुछ लोग जाति के उभार से खिन्न हैं. वे लगातार आरोप लगा रहे हैं कि जातिवादी आंदोलन देश को शताब्दियों पीछे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसा सोचने वालों में वही लोग हैं जिन्हें अस्मितावादी आंदोलनों से खतरा है. जो जाति के नाम पर संगठित होते युवाओं को संस्कृति और राष्ट्र के वास्ते जाति से अलग होने को उपदेश दे रहे हैं. जबकि जाति स्वयं उनके आचार–व्यवहार का हिस्सा है. समाचारपत्रों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों से उनकी मनस्थिति और द्वैध को आसानी से समझा जा सकता है. कुल मिलाकर जातीय शोषण का शिकार रहे वर्गों के लिए आज जाति ही सबसे बड़ा हथियार है. वे कांटे से कांटा निकालना चाहते हैं. जाति उन्हें संगठित होने में मदद करती है. इसलिए कार्य–विभाजन की अवैज्ञानिक शैली होने के बावजूद अधिकांश मानव–समूह जाति को संगठनकारी औजार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं.
इन दिनों एक ओर तो विभिन्न जातियों के बीच अस्मिता की पहचान को लेकर होड़ मची हुई है. दूसरी ओर आरएसएस जैसे संगठन धर्म और संस्कृति को रोपने में लगे हुए हैं. इसलिए जो लोग भारतीय समाज को जातिमुक्त देखना चाहते हैं, उन्हें धर्म की संकल्पना में आमूल–चूल बदलाव करना पड़ेगा. जो समझते हैं कि हिंदू धर्म अपने वर्तमान स्वरूप में, लुंज–पुंज देवताओं की फौज के रूप में रहे और जाति चली जाए? वे या तो बहुत भोले हैं या जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति अगंभीर हैं. बहुजन राजनीति के पैरोकार इस तथ्य को बाखूबी समझते हैं. इसलिए वे इस बार जाति के सवालों को सीधे नहीं उठा रहे हैं. देखा जाए तो उठा ही नहीं रहे हैं. शताब्दियों से जो जाति के औचित्य पर सवाल उठाते थे, अब उन्होंने इसे भारतीय समाज की हकीकत के रूप में, भले ही अस्थायी तौर पर, स्वीकार कर लिया है. इसलिए जाति के आधार पर सवाल उठाने के बजाय उसके आधार पर हुए समाजार्थिक शोषण और गैरबराबरी पर सवाल उठाए जा रहे हैं. जाति का सहारा लेकर शोषित और वंचित वर्गों को संगठित किया जा रहा है. लंबे अर्से के बाद यह समझ लिया है कि लोकतंत्र में राजनीतिक सहभागिता सामाजिक अन्याय को मेटने वाले प्रमुख उपकरणों में से है. इससे आर्थिक समानता के उस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है, जो मनुष्यता का अभीष्ट है. इस विभेदकारी समस्या के निदान के लिए शिक्षा और संसाधनों में साझेदारी की आवाज बुलंद की जा रही है. चूंकि इस बार जाति भी समानता के संघर्ष का एक हथियार है, इसलिए उससे सबसे अधिक तखलीफ उन लोगों को हो रही है, जो अभी तक जाति प्रथा का लाभ उठाते आए हैं. और जिसका सहारा लेकर उन्होंने बहुसंख्यक समाज को अपना आश्रित बनाए रखा है.
एक समय था जब आर्थिक सुदृढ़ीकरण देश के विकास की धुरी था. विशेषकर देश की आजादी के समय. तब आर्थिक उन्नति को लेकर नई–नई योजनाएं बनाई जा रही थीं. इन दिनों सामाजिक न्याय जैसी समसामयिक अवधारणा विकास के साथ जुड़ चुकी है. विकास हो और उसका लाभ देश के सभी वर्गों तक पहुंचेꟷ˹ऐसी अपेक्षा की जाती है. सामाजिक न्याय के संघर्ष में जाति एक तात्कालिक माध्यम बन सकती है. लेकिन यह एकदम आसान भी नहीं है. जाति की अवधारणा ही अपने आप में नकारात्मक है. अतएव जाति को औजार की तरह इस्तेमाल कर रहे वर्गों और समूहों को समझना चाहिए कि औजार केवल माध्यम होता है. वह लक्ष्य को अपेक्षाकृत सुगम तो बनाता है, लेकिन स्वयं लक्ष्य नहीं होता. इसलिए अस्मितावादी आंदोलनों की मूल प्रवृत्ति छोटे जाति–समूहों को बड़े जाति समूहों में ढालने, जन से बहुजन और बहुजन से सर्वजन की ओर ले जाने वाली होनी चाहिए. ऐसा होगा, तभी जाति के कलंक से मुक्ति पाई जा सकती है. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सामना वैकल्पिक जनसंस्कृति और श्रमसंस्कृति के उभार द्वारा आसानी से किया जा सकता है. वह ऐसी संस्कृति होगी जिसमें लोग धर्म के आधार पर नहीं हितों की समानता के आधार पर एकजुट होंगे तथा परस्पर सहयोग करते हुए आगे बढ़ेंगे. उस समय धर्म और उसपर टिकी विभेदक संस्कृति उनके रास्ते के सबसे बड़े अवरोधक होंगे. तब यह याद रखना उन्हें विशेष बल देगा कि प्रकृति ने अधिकार तो सभी को दिए हैं, बराबर दिए हैं, मगर विशेषाधिकार संपन्न किसी को भी नहीं बनाया है.
© ओमप्रकाश कश्यप