भारतीय दर्शनों में समतावादी द्रष्टिकोण

जातिप्रथा और वर्णव्यवस्था जैसी अवैज्ञानिक व्यवस्था ने भारतीय चिंतन को जगहजगह लांछित किया है. लेकिन कम सही, भारतीय धर्मदर्शन में मानवमात्र के प्रति समानतावादी द्रष्टिकोण देखने को मिल ही जाता है, भले ही उसका स्वरूप केवल सैद्धांतिक हो.वैदिक सभ्यता पशुपालन सभ्यता थी. जो तेजी से कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रही थी. पशुपालक समाज प्रकृति के अंचल में रहता था. मुक्त हवा में सांस लेता, खुले आसमान तले सोता. पूंजी की अवधारणा विकसी नहीं थी. उसके आर्थिक संबंध सरल और एकरैखिक थे. कुल धनसंपदा पशुओं तक सीमित थी. वेदों और पुराणों में ऐसी अनेक कहानियां हैं जब सम्राट को गायांे को दान करते हुए बताया गया है. कठोपनिषद में नचिकेता के पिता उद्दालक द्वारा यज्ञ में एक लाख गाएं दान करने का उल्लेख है. पशुओं के लिए युद्ध भी होते थे. ऋग्वेद में शत्रु को परास्त कर उसके पशुओं को हांक लाने का उल्लेख किया गया है. यह कार्य उन दिनों उतना ही वीरतापूर्ण एवं सम्मानीय माना जाता था, जितना बाद के समय में दूसरे के राज्य पर कब्जा जमाकर उसकी भूमि को कब्जा लेना. हालांकि कृषिकर्म का प्रचलन बढ़ रहा था, तो भी पशुधन की महत्ता कम नहीं हुई थी. आश्रमों में जीवनयापन का मुख्य स्रोत पशु ही होते थे. जनसंख्या का बड़ा हिस्सा जंगलों में, प्रकृति के सीधे सान्न्ध्यि में रहता था. इसके साथसाथ नागरी सभ्यता के विकास के संकेत भी वेदों से प्राप्त होते हैं. वेदों में इंद्र को पुरंदर कहा गया है, जिसका अभिप्राय है, दुश्मन के किलों को ध्वस्त कर देने वाला. ऋग्वेद में में बारबार प्रार्थना की गई है कि शत्रु पर विजय प्राप्त हो, दास हमारे अधीन हों. एक प्रार्थना में इंद्र को स्वर्ण, दास आदि को जीतते हुए दर्शाया गया है.

वेदों में भारतीय समाज के उस कालखंड की एकांगिक झलक है. आधुनिक विद्वानों का एक दल मोनजोदारो और हड़प्पा नगर की सभ्यता को वैदिक सभ्यता से जोड़ता है. इन स्थानों के उत्खनन से जो विस्तृत नगरसंरचनाएं देखने को मिली हैं. उनमें मोनजोदारो बड़ा और करीब 200 एकड़ में बसा हुआ था. दूसरा शहर हड़प्पा अपेक्षाकृत छोटा था. उसका कुल क्षेत्रफल लगभग 150 एकड़ था. उनका बेबीलोन, रोम, अरब, मेसोपोटामिया आदि अनेक देशों के साथ व्यापार था. व्यापारिक काफिले हजारों मील की यात्रा करते रहते थे. उन्हें न केवल सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, बल्कि कई मायनों में उन्हें विशेष छूट भी मिली हुई थी. उस समय तक कृषि क्षेत्र में पर्याप्त विकास हो चुका था. गेहूं और जौ की खेती बहुतायत से होती थी. कृषि उत्पादों को लानेले जाने के लिए बैलगाड़ी का प्रयोग होने चलन में था. दोनों स्थानों की खुदाई से मिले मिट्टी के बर्तन उस समय मृदाकला के विकास को दर्शाते हैं. हड़प्पा में घर लगभग एक ही आकार के बने थे, जिससे प्रतीत होता है कि वहां के नागरिक जीवन में समानता थी. तो भी ऐसे अनेक लक्षण हैं, जो दर्शाते हैं कि आर्थिक स्तरीकरण की शुरुआत सभ्यता के आरंभ में ही हो चुकी थी. मोनजोदारो में ही सार्वजनिक स्नानग्रहों और विशिष्ट स्नानगृहों की अलगअलग उपस्थिति उन दिनों समाज में बढ़ते आर्थिक स्तरीकरण की मौजूदगी को साफ करती है. सामाजिक स्तरीकरण की शुरुआत केवल आर्थिक आधार तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह समाज के बड़े वर्ग को राजनीतिक, सामाजिक स्तर पर भी अधिकारों से वंचित करती थी.

वेदों को भारतीय मनीषा की उड़ान माना जाता है. कुछ ऋचाओं के कारण उन्हें पवित्र भी माना जा सकता है. इनमें मानवमन की सहज जिज्ञासा है, विराट प्रकृति के आगे अपनी अनश्वरता और तुच्छता के कारण उत्पन्न भय है. साथ ही सुदीर्घ, सुखमय, समृद्ध और स्वस्थ जीवन के लिए मंगलकामनाएं भी हैं. वैदिक मनुष्य प्रकृति को ओज एवं जीवनदायिनी शक्ति के रूप में देखता था. इसलिए उसको मनाने, खुश रखने हेतु उसके प्रति स्नेह और सम्मान की अभिव्यक्ति वैदिक ऋचाओं में अनेक स्थानों पर हुई है, हालांकि उनका बहुत सारा हिस्सा निरर्थक कर्मकांडों, युद्ध के वर्णनों और आडंबरयुक्त वक्तव्यों से भरा पड़ा है. दर्शन की जो धारा उपनिषदों, न्याय और वैशेषिक ग्रंथों में आगे चलकर दिखाई पड़ती है, वेदों में उसका शतांश भी नहीं है. उनकी अधिकांश ऋचाएं स्तुति और यज्ञगान से भरी हैं और वे किसी न किसी बहाने निरर्थक कर्मकांड को पुष्ट करती हैं. सैंकड़ों ऋचाएं ऐसी हैं, जिनमें युद्ध का उल्लेख हुआ है. तो भी भारतीय सभ्यता के प्राचीनतम ग्रंथ होने के नाते वेदों में जो श्रेयस्कर है, उसका उल्लेख भी उपयुक्त जान पड़ता है. ऋग्वेद के दशम मंडल के अंतिम सूक्तों में वैदिक जनों की प्रार्थनाएं देखिएः

हम सब साथ गमन करें, साथ रहें, परस्पर मिलकर प्रेमालाप करें, एकनिष्ठ, एकात्म हो साथसाथ ज्ञानार्जन को तत्पर हों. जैसे अभी तक सब मिलजुलकर रहते आए हैं, उसी तरह एकमत होकर आगे भी कार्य करें.’

हम सबकी प्रार्थना एक हो. हमारा मिलन भेदभाव रहित, एकरस हो, हमारे विचार एक हों. हमारा चिंतनमनन और उसके साधन, अंतःकरण, मंत्र, विचारधारा आदि सब एकसमान हों. हमारा ज्ञान एक हो, हमारा प्रभाव, हमारे प्रयत्न एक हों.

तुम्हारा संकल्प एक समान हो. तुम्हारे हृदय एकसमान हों. तुम्हारे मन एक समान हों. तुम्हारे कार्य पूर्ण और प्रयास एकनिष्ठ हों.

अर्थवेद में यही मंगलकामना कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त हुई है—

तुम सभी में हृदय की एकता हो. मन की एकता हो. मैं तुम्हारे अंतर में अविद्वेष की भावना चाहता हूं. तुम्हारा जीवन परस्पर प्रेम और अनुराग से भरा हो. जिस तरह गाय अपने बछडे़ को प्रेम करती है, उसी प्रकार तुम भी आपस में प्रेम करो.’

दरअसल लंबे सहजीवन के बाद उसकी समझ में आ चुका था कि उसका सुख, सुरक्षा एवं समृद्धि दूसरों पर निर्भर है. अकेला होने पर प्रकृति का विराट वैभव भी उसके लिए अर्थहीन है. ऊपरोल्लित सद्कामनाएं उन मुनियों की थीं, जो श्रमण परंपरा के पोषक थे. प्रकृति के साहचर्य में रहकर शांतिपूर्वक अपना जीवनयापन करते थे. ‘जियो और जीने दो’ जिनके जीवन का मूलमंत्र था. उनके लिए प्राणीमात्र में कोई भेद नहीं था. जो ज्ञान और प्रकृतिप्रदत्त संसाधनों को मानवमात्र के उपयोग की वस्तु मानते थे. जो ज्ञान को पवित्र और मानवमात्र की साझा धरोहर मानते थे. इसलिए उन्होंने आवाह्न किया था—‘ज्ञान को चारो दिशाओं से आने दो.’ वे प्रकृति को अपना घर, संरक्षक और देवता मानते थे. उनके लिए पूरी वसुधा एक आंगन थी और उसपर बसने वाले सभी मानवजन एक ही परिवार के सदस्य. जिनका मानवमात्र से अपनापा था. पराया उनके लिए कोई न था—

यह अपना है, वह पराया है—यह सोच क्षुद्र वृत्ति की उपज है. उदारचरितों, सज्जनों के लिए तो पूरा विश्व एक परिवार के समान है, पृथ्वी पर रहने वाले सभी नरनारी उनके परिजन हैं.’

वेदों में राजाओं के बीच युद्ध की अनेक घटनाएं हैं. देवासुर संग्राम के अलावा सुदास का युद्ध भी है, जो अनार्य सम्राट था. ये युद्ध राजनीति पर पुरोहितों के बढ़ते प्रभाव को दर्शाते हैं. उनमें दर्शन और अध्यात्म की खोज करना बेमानी होगा. लेकिन धर्म के नाम पर पाखंड और राजनीति के स्थान पर युद्धोन्मत्तता से भरी स्तुतियों के बीच कुछ काम की बातें भी वेदों में आई हैं. राजा कैसा हो, यह बात भी वैदिक ऋषि जोर देकर कहते हैं. राजा है तो प्रजा के लिए कल्याणकारी हो. राजा ऐसा होना चाहिए जो अपनी प्रजा के सुखदुःख को समझ सके. उसमें साझा कर सके. ऋग्वेद(1.82.2) में कहा गया है, ‘अहि दभ्रस्य चिद वृध’— राज्य के प्रत्येक नागरिक को पर्याप्त भोजन मिले, यह व्यवस्था राजा को करनी चाहिए. वेदों में ऐसी सूक्तियां बिखरी पड़ी हैं. समाजवाद यदि एक राजनीतिक सदेच्छा है, तो उसका प्रावधान भी वेदों में था. मगर कल्याण की धारा बहुत ही प्रच्छन्न और कर्मकांड के बीच दबसी गई है.

वेदों के उद्गाता ऋषियों की संख्या करीब 300 है. उनमें से अधिकांश अपनी प्रतिभा का उपयोग कर्मकांडों की स्थापना और युद्धों के बखान के लिए करते हैं. कहीं वे अदृश्य, अविकारी परमात्मा की स्तुति करते हुए दिखाई पड़ते हैं, तो अधिकांश जगह उनकी स्तुतियों में बहुदेववादी स्थापनाएं हैं. आशय यह है कि बहुदेववाद, कर्मकांड और युद्ध के वर्णन के बीच वेदों की यह मानवतावादी धारा म्लान होने लगती थी. तो भी उपनिषदों, महाकाव्यों में यत्रतत्र ये अनमोल मोती बिखरे पड़े हैं. बीसवीं शदी के महान महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटाइन ने कहा था कि मनुष्य के लिए मनुष्य से बढ़कर कुछ नहीं है. इस बात को लगभग तीन सहस्राब्दी पहले वेदव्यास महाभारत में कह चुके हैं—‘न हि मानुषात्परतरं किंचिदस्ति’—मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है. इसी उक्ति का प्रस्फुटन लगभग तीन हजार वर्ष पश्चात महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर अपनी कविता पंक्तियों में कुछ इस प्रकार नजर आता है—‘सबार ऊपरे मानुस सत्यं, तहार ऊपरे केऊ नाहीं,’ आशय यही है कि मानवसत्य सबसे ऊपर है, उससे बढ़कर कुछ भी नहीं है.हालांकि ऐसी उक्तियां कवियों की संवेदना से आगे, यथार्थ स्तर पर बहुत कम प्रभाव छोड़ पाई हैं.

जैसा कि ऊपर कहा गया है, वेदों में सबकुछ श्रेयस्कर हो, ऐसा नहीं है. अगर ऐसा होता तो वे हर भारतीय के समानरूप से सम्मान के पात्र होते. मगर अब हकीकत है कि वे मुट्ठीभर ब्राह्मणों और कर्मकांडों के प्रेरणास्रोत बनकर रह गए हैं. ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में ही भारत की जातिव्यवस्था के चिह्न मिलते हैं. वर्गविभाजन को उस समय भले कितनी ही सदेच्छा के साथ अपनाया गया हो, मगर बहुत शीघ्र उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे थे. इसलिए इसका विरोध भी उसी समय प्रारंभ हो चुका था. वैदिक युग में भी वर्णव्यवस्था एवं कर्मकांडों का विरोध करने वाले भारी संख्या में थे. उनमें वेन, सुदास, सुमुख, निमि, हिरण्यकाश्यप आदि सम्राट भी थे, जिन्होंने धर्म और दर्शन के नाम पर थोपे जा रहे, पुरोहितवाद का जमकर विरोध किया था. इन सभी ने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध भारी संघर्ष छेड़ा हुआ था. वेन की कथा हरिवंश पुराण में भी आई है, जिसके अनुसार वह विश्व का प्रथम निर्वाचित सम्राट था. मगर अंततः कर्मकांड के विरोध के चलते पुरोहितों, ब्राह्मणों के षड्यंत्र का शिकार हुआ. इसकी एक दिलचस्प मगर चैंका देने वाली कहानी है. जबकि बालि, प्रहलाद जैसे कुछ सम्राट ब्राह्मणवाद के बढ़ते प्रभाव के आगे समर्पण कर उसको अपना चुके थे.

वस्तुतः देवताओं के अभिकल्पना और उनका विकास मनुष्यता के विकास से जुड़ा है. समय के साथ प्रासंगिकता को देखते हुए मनुष्य ने जहां अनेक देवताओं की संकल्पना की, वहीं समय के प्रवाह में प्रासंगिक न होने के कारण अनेक देवता अपना महत्त्व खोते चले गए. नए देवताओं का आना भी जुड़ा रहा. जिन दिनों कृषि जीवन का मुख्याधार थी, उन दिनों जल का देवता वरुण और वर्षा के अधिष्ठाता इंद्र की बड़ी महिमा थी. मगर अब इनकी शायद ही कहीं नियमित पूजा होती हो. प्रागैतिहासिक काल में जब मानवजीवन शिकार पर निर्भर था, और पशुओं का मांस मनुष्य का मुख्य अहार था, उन दिनों पशुओं की भांति मनुष्य भी धरती पर भटकता रहता था. भोजन एवं सहवास जैसी सहज प्राकृतिक इच्छाएं वह खुले में संपन्न करता था. उन दिनों अपने भोजन के लिए वह शिकार पर निर्भर था. इसलिए पत्थर के औजारों के शोध पर जोर दिया गया. उसने वही हथियार बनाए जिनसे शिकार करने में सुविधा हो. शिकार में पालतू जानवरों की मदद भी ली जाती थी. स्वभाविक रूप से उन समय तक उसके देवता भी जंगलवासी थे. इसलिए देवताओं की प्रारंभिक अभिकल्पना टोटम के रूप में की गई. टोटम यानी प्रतीक या गणचिह्न, जिससे कोई कबीला या समुदाय अपने अस्तित्व को जोड़कर देखता था. वह जानवर या कोई पेड़पौधा भी हो सकता था.

टोटम कबीले अथवा गणसमूह की संपन्नता और शुभता का प्रतीक था. बाद में शिकार के समय जब यह पाया गया कि आदमियों में उनके शारीरिक सौष्ठव, प्राकृतिक गुण और शारीरिक विकास के आधार कुछ लोग अधिक उपयोगी सिद्ध होते हैं, तो समूह के नेता के चयन की परंपरा की शुरुआत हुई. साथ ही एक ऐसे देवता की अभिकल्पना की गई जिसमें सभी गुण एकसाथ हों. सभ्यता के आरंभ में आदिदेव शंकर के रूप में ऐसे ही देवता की परिकल्पना में दिखाई पड़ती है. उनके हाथों में त्रिशूल सजाया गया, जिसको पत्थर और उससे बने औजारों की भांति दूर से ही फेंककर मारा जा सकता था. मगर उसकी मार पत्थर के मुकबाले कहीं ज्यादा मारक थी. खासकर शिकार के काम में. कृषियुग आया तो इंद्र, वरुण, अग्नि और मरुत आदि देवताओं का महत्त्व बढ़ता गया. ऋग्वेद के एक मंत्र में इंद्र को पशुओं और दासों को साथसाथ हांकते हुए उल्लेख किया गया है. युद्ध मंे जीते हुए दासों के साथ शत्रुओं जैसा व्यवहार किया जाता था. वेद में इंद्र की चर्चा स्वयं सम्राट की भांति की गई है. आगे चलकर बौद्ध धर्म के प्रचारप्रसार के बीच जब वैदिक कर्मकांड की उपयोगिता को लेकर प्रश्न उठाए जाने लगे तो समाज का बड़ा वर्ग उनकी आलोचना करने लगा. यह विरोध इतना अधिक बढ़ा था कि वेदों में वर्णित इंद्र के लिए देवराज की सत्ता डगमगाने लगी. कालांतर में जैसे ही बौद्धधर्म कमजोर पड़ा, तो ब्राह्मणों ने इंद्र को उसके स्थान से हटाकर राम, कृष्ण, आदि को देवता के रूप में स्थापित करना प्रारंभ कर दिया, जिसमें उन्हें व्यापक सफलता मिली.

उल्लेखनीय है कि भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के लगभग पांच हजार वर्ष के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ जब समाज का बौद्धिक नेतृत्व पूरी तरह ब्राह्मणों के हाथों में रहा हो. राजसिंहासन पर केवल क्षत्रिय विराजमान रहे हों और विणजव्यौपार वैश्यों की बपौती बनकर रहा हा—प्रतिभाशाली और कर्मठ लोग, इतिहास को मनचाहा मोड़ देने वाले नायक, हर युग, प्रत्येक कालखंड में के साक्षी बने हैं. वर्णव्यवस्था की शुरुआत में जब तक विभिन्न वर्णों के बीच अंतपर्रिवर्तनीयता संभव थी, उस समय तक तो विभिन्न वर्णों के लोग हर क्षेत्र में कार्यरत थे ही, बाद के वर्षों में भी जब जातिप्रथा समाज पर अपनी जकड़ बना चुकी थी, विभिन्न जातियों के प्रतिभाशाली लोग धर्म, राजनीति, व्यापार, शिल्पकला आदि में अपनी उपस्थिति बनाए हुए थे. मगध सम्राट महानंद शूद्र था. चाणक्य के प्रयासों से महानंद से सत्ता हथियाने वाला चंद्रगुप्त मौर्य भी शूद्र ही था. वैदिक तत्ववेत्ताओं में रैक्व और सत्यकाम जाबालि भी शूद्र वर्ग से आए थे. सत्यकाम जाबालि की मां तो वेश्या थी. सुग्रीव, बालि, हनुमान वन्य जाति से संबंधित थे, जिन्होंने अपनी शांति की कीमत पर साम्राज्यवादी राम से समझौता किया था. रामायण और महाभारत में असुर जातियों का उल्लेख हुआ है, जिनका ब्राह्मणधर्म से तीखा विरोध था और उनके बीच लड़ाइयां चलती ही रहती थीं.

असुरों में भी एक से बढ़कर एक प्रतापी राजा हुए हैं, जिन्हें वर्णव्यवस्था से बाहर होने के कारण क्षत्रिय नहीं माना जा सकता. राम के पूर्वज अयोध्या के सम्राट नहुष भी ब्राह्मणवाद के मुखर विरोधियों में से थे. राजा हरिश्चंद्र को अपने ब्राह्मणविरोध के चलते अनेक कष्ट झेलने पड़े थे. इसके बावजूद एक षड्यंत्र के रूप में लोगों को बताया जाता रहा कि केवल ही समाज का बौद्धिक नेतृत्व कर सकता है. केवल क्षत्रिय में युद्धकौशल और राज करने की कला और वैश्य को व्यापार का गुण आता है. रामायण काल से लेकर गौतम बुद्ध, यहां तक कि हषवर्धन तक शूद्र कही जाने वाली जातियां व्यापार में काफी आगे थीं. जुलाहों, कोविदों, तैलिकों, तांबूलकों, काष्ठकारों, शिल्पकर्मियों आदि के अपने व्यापारिक संगठन थे, जिनकी पहुंच राजदरबारों तक थी. महत्त्वपूर्ण अवसरों पर सम्राट उनसे परामर्श लेता था. राज्य के अधीन संचालित अनेक कल्याणकारी योजनाओं के सफलतापूर्वक संचालन के लिए इन संगठनों का सहयोग लिया जाता था. लेकिन साजिशाना ढंग से, विशेषकर धर्मग्रंथों में इस तथ्य की घोर उपेक्षा की गई. गैर द्विज जातियों को या तो जानबूझकर छोड़ दिया गया, अथवा उनकी उपलब्धियों और गुणों का उल्लेख करते समय कृपणता को अपनाया गया, ताकि छोटी कही जाने वाली जातियों का आत्मविश्वास डोलता रहे. ‘शूद्रधर्मः परो नित्यं शुश्रूषा च द्विजातिषु’—तीनों वर्णों की सेवा करना ही शूद्र का परम कर्तव्य है, यह महाभारत में व्यास के मुंह से कहलवाया गया है, जो स्वयं शूद्र थे. एक अन्य जगह पर इसी महाकाव्य में लिखा है—‘देवताद्विज बंदक’, देवताओं एवं ब्राह्मणों की सेवा, शिल्पकर्म, खेतीबाड़ी, नाटक और नक्काशी जैसे काम शूद्रों के हैं, ब्राह्मण के लिए ये कार्य निषिद्ध थे. इस तरह की बातों से न केवल शूद्रों के स्वाभिमान को चुनौती दी गई, बल्कि उनकी उपलब्धियों को अपना बताकर समाजनिर्माण में उनकी भूमिका को कमतर आंका गया.

जिस समाज में ऐसा सोच हो, जहां कर्मकांडों की बहुलता हो, जहां आत्मरक्षा को सबसे बड़ा आपद्धर्म माना जाता हो. जो समाज स्त्रियों के बारे में कहा जाता हो कि ‘स्त्रियोहि मूलं दोषाणाम्’ अर्थात ‘स्त्रियां बुराई की जड़ होती हैं. जिसका मानना हो कि विपत्ति के लिए बचाए धन से पहले भार्या को बचाएं. लेकिन खुद पर संकट आन पड़े तो बचाने के लिए धन और पत्नी दोनों को जाने दें. जिस समाज का ऐसा निर्लज्ज सोच हो, जो समाज अपनी तीनचौथाई आबादी से संसाधन छीनकर उन्हें दूसरे के सहारे जीवनयापन के लिए विवश बना दे, जिस समाज में स्वार्थ को नीति की मान्यता प्राप्त हो, जहां आत्मरक्षा ही सबसे बड़ा आपद्धर्म माना जाता हो, जहां शास्त्रों की व्यवस्था हो कि—‘एक आदमी की कीमत पर कुल को बचाना चाहिए. कुल जा रहा हो तो गांव को बचाना चाहिए. गांव की कीमत देकर जनपद को बचाना चाहिए. पर अपने को बचाने का सवाल हो तो सारी पृथ्वी को कुर्बान कर देना चाहिए.’ ऐसे समाज में सचमुच की समानता होगी, यह विचार गले नहीं उतरता.

वेदसमर्थित वर्णव्यवस्था सत्तावान वर्ग को अतिरिक्तरूप से अधिकारसंपन्न बनाती थी, इसलिए आगे चलकर उस व्यवस्था को बदलना असंभवसा होता गया. वेदों में या तो ब्राह्मण पुरोहित हैं अथवा उनके यजमान. इनके अतिरिक्त उनका वर्णन है जिनका इंद्र ने अपनी श्रेष्ठता दर्शाने के लिए हनन किया. विजेता के पक्ष में वह समाज है जो दूसरे के परिश्रम पर जीवनयापन का अभ्यस्त है. किसान, श्रमिक, शिल्पकार आदि की उपस्थिति वहीं तक है, जहां तक वह सामंतवाद का पोषण करती हो. इनके अलावा अनगिनत देवगण हैं, जो ब्राह्मणों से समिधा ग्रहण करते हैं, इसलिए उनके संरक्षक हैं. सर्वशक्ति संपन्न होने के बावजूद वे दूसरे के श्रम का क्यों खाते हैं? उन्हें आत्मप्रशंसा क्यों प्रिय है? क्यों बिना चाटुकारिता कराए उनसे रहा नहीं जाता? भोजन करने से पहले उन्हें भोग लगाए बिना वे क्यों नाराज हो जाते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर न तो वेदों में है, न ही बाद के ग्रंथों में इसपर विचार किया गया है. बल्कि अधिकांश जगह इसको श्रद्धा का मसला बताकर टाल दिया जाता है. हैरानी की बात यह होती है कि दिनभर सड़कों पर पत्थर तोड़कर अपने परिवार का पोषण करने वाला श्रमिक भी अपनी मामूली आय का एक हिस्सा चढ़ावे में चढ़ाकर देवता से अपने कल्याण की प्रार्थना करता है. वह कभी यह प्रार्थना नहीं करता कि देवता उसके भारी काम को पूरा करने में उसका सहयोग करे. पत्थर तोड़ने या मेहनत का दूसरा कोई काम जो वह करता है, उसमें उसके साथ मिलकर पसीना बहाए. कोई धर्मग्रंथ इसपर विचार नहीं करता कि परिश्रम श्रमिक की नियति और मुफ्तखोर होना, दूसरे की कमाई खाना देवताओं की नियति क्यों है. ऐसे ही देवताओं की महिमा का बखान वेदों में है. इसके अलावा उनमें बलि है, सुरापान की प्रशंसा है, पुरोहितों का व्यभिचार है यानी उनमें हर वह वस्तु अथवा विचार है जो शिखरस्थवर्गों के अन्याय, उत्पीड़न, वर्चस्व, विशेषाधिकार को उचित ठहराता हो. वेदों में तत्कालीन जनजीवन की झलक न होकर, निरर्थक कर्मकांडों का गुणगान है.

बौद्धकाल

बौद्धधर्म का उद्भव वैदिक धर्म की प्रतिक्रिया में हुआ था. वेदों में बहुदेववाद, कर्मकांड और युद्धों का इतना विशद् वर्णन है कि उनके आगे उनकी दार्शनिक, नैतिक, आध्यात्मिक चिंतनधारा म्लान दिखने लगती है. इसलिए वे तत्वचिंतन के नाम पर कर्मकांड, धर्म के बजाय पाखंड, नीति के स्थान पर ऊंचनीच और आडंबर रचते हुए नजर आते हैं. पुरोहित वर्ग उनके माध्यम से धर्मदर्शन की स्वार्थानुकूल और मनमानी व्याख्याएं थोपने का प्रयास करता है. राजनीति के सहयोग से वह इस धृष्टता में कामयाब भी होता है. धर्म और राजसत्ता परस्पर मिलकर लोगों के शोषण के लिए नएनए विधान गढ़ते हैं. समाजार्थिक शोषण का यह सिलसिला लगभग पांच शताब्दियों तक निरंतर चलता है. ऐसा भी नहीं है कि शेष समाज शोषण को अपनी नियति मान चुका था. बल्कि जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, ब्राह्मणवाद का विरोध उसके आरंभिक दिनों से ही होने लगा था. मगर उसको रचनात्मक दिशा देने का काम किया था, जैन और बौद्ध दर्शन ने. इन दोनों दर्शनों ने वेदों की बुद्धिवाद की उस धारा को नई एवं युगानुकूल दिशा देने का काम किया, जो कर्मकांड और मिथ्याडंबरों के बीच अपनी पहचान लगभग गंवा चुकी थी.

जैन और बौद्ध धर्म के प्रवर्तक क्रमशः महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध, ईसा से छह शताब्दी पहले, क्षत्रिय कुल में जन्मे थे. अपनेअपने दर्शन में दोनों ने ही कर्मकांड और आडंबरवाद का जमकर विरोध किया था. दोनों ही यज्ञों में दी जाने वाली पशुबलियों के विरुद्ध थे. दोनों ने शांति और अहिंसा का पक्ष लिया था, और भरपूर ख्याति बटोरी. जैन और बौद्ध, दोनों ही दर्शनों को भारतीय चिंतनधारा में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. इनमें से जैन धर्म अहिंसा को लेकर अत्यधिक संवेदनशील था, जबकि जीवन को लेकर बुद्ध का दृष्टिकोण व्यावहारिक था. अहिंसा के प्रति अत्यधिक आग्रहशीलता के कारण जैन दर्शन प्रचारप्रसार के मामले में बौद्ध दर्शन से पिछड़ता चला गया. व्यावहारिक होने के कारण बौद्ध दर्शन को उन राजाओं आ समर्थन भी मिला जो ब्राह्मणवाद से तंग हो चुके थे; और उपयुक्त विकल्प की तलाश में थे.

गौतम बुद्ध ने कर्मकांड के स्थान पर ज्ञानसाधना पर जोर दिया था. पशुबलि को हेय बताते हुए वे अहिंसा के प्रति आग्रहशील बने रहे. वेदवेदांगों में आत्मापरमात्मा आदि को लेकर इतने अधिक तर्कवितर्क और कुतर्क हो चुके थे कि बुद्ध को लगा कि इस विषय पर और विचार अनावश्यक है. इसलिए उन्होंने आत्मा, परमात्मा, ईश्वर आदि विषयों को तात्कालिक रूप से छोड़ देने का तर्क दिया. उसके स्थान पर उन्होंने मानवजीवन को संपूर्ण बनाने पर जोर दिया. समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए उन्होंने पंचशील का सिद्धांत दिया. जिसमें पहला शील है, अहिंसा. जिसके अनुसार किसी भी जीवित प्राणी को कष्ट पहुंचाना अथवा मारना वर्जित कर दिया गया था. दूसरा शील था, चौर्य. जिसका अभिप्राय था कि किसी दूसरे की वस्तु को न तो छीनना न उस कारण उससे ईर्ष्या करना. तीन शील सत्य था. मिथ्या संभाषण भी एक प्रकार की हत्या है. सत्य की हत्या. इसलिए उससे बचना, सत्य पर डटे रहना. तीसरे शील के रूप में तृष्णा न करना शामिल था. व्यक्ति के पास जो है, जो अपने संसाधनों द्वारा अर्जित किया गया, उससे संतोष करना. आवश्यकता से अधिक की तृष्णा न करना. इसलिए कि यह पृथ्वी जरूरतें तो सबकी पूरी कर सकती है, मगर तृष्णा एक व्यक्ति की भी भारी पड़ सकती है. पांचवा शील मादक पदार्थों के निषेद्ध को लेकर है. पंचशील को पाने के लिए उन्होंने अष्ठांगिक मार्ग बताया था, जिसमें उन्होंने सम्यक दृष्टि(अंधविश्वास से मुक्ति), सम्यक वचन(स्पष्ट, विनम्र, सुशील वार्तालाप), सम्यक संकल्प(लोककल्याणकारी कर्तव्य में निष्ठा, जो विवेकवान व्यक्ति से अभीष्ट होता है), सम्यक आचरण(प्राणीमात्र के साथ शांतिपूर्ण, मर्यादित, विनम्र व्यवहार), सम्यक जीविका(किसी भी जीवधारी को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुंचाना), सम्यक परिरक्षण(आत्मनियंत्रण और कर्तव्य के प्रति समर्पण का भाव), सम्यक स्मृति(निरंतर सक्रिय एवं जागरूक मस्तिष्क) तथा सम्यक समाधि(जीवन के गंभीर रहस्यों पर सुगंभीर चिंतन) पर जोर दिया था.

बुद्ध की चिंता थी कि किस प्रकार मानवजीवन को सुखी एवं समृद्ध बनाया जाए. सुख से उनका अभिप्राय केवल भौतिक संसाधनों की उपलब्धता से नहीं था. इसके स्थान पर वे न केवल मानवजीवन के लिए सुख की सहज उपलब्धता चाहते थे, बल्कि समाज के बड़े वर्ग के लिए सुख की समान उपलब्धता की कामना करते थे. यह वैदिक ब्राह्मणवाद के समर्थकों से एकदम भिन्न था. जिन्होंने परलोक की काल्पनिक भ्रांति के पक्ष में भौतिक सुखों की उपेक्षा की थी, जबकि उनका अपना जीवन भोग और विलासिता से भरपूर था. यही नहीं वर्णाश्रम व्यवस्था के माध्यम से उन्होंने समाज के बहुसंख्यक वर्गों, जो मेहनती और हुनरमंद होने के साथसाथ समाज के उत्पादन को बनाए रखने के लिए कृतसंकल्प थे, सुख एवं समृद्धि से दूर रखने की शास्त्रीय व्यवस्था की थी. शूद्र कहकर उसको अपमानित करते थे. और इस आधार पर उन्हें अनेक मानवीय सुविधाओं से वंचित रखा गया था.

उल्लेखनीय है कि वेदों के आडंबरवाद का विरोध उन्हीं दिनों शुरू हो चुका था. उस समय के महानतम विद्वान कौत्स तो वैदिक ऋचाओं को शब्दाडंबर मात्र मानते थे. समाज का बड़ा वर्ग वैदिक परंपराओं का खंडन करता था. इस कारण वेद समर्थकों और उनके विरोधियों के बीच घमासान भी होते रहते थे. जिनसे कूटनीति और छल के कारण ब्राह्मणवादियों को विजय प्राप्त हुई थी. दरअसल यह बुद्ध ही थे जिन्होंने दर्शन को वायवी आडंबर से बाहर लाकर आचरण और व्यवहार के धरातल पर लाकर अवस्थित किया था. उन्होंने दर्शन को निरर्थक और अनुपयोगी प्रश्नों के चक्र से बाहर लाकर जीवन से जोड़ा. मानव मन की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के सापेक्ष नैतिकता को केंद्र में लेकर आए. पंडितों और पुरोहितों से अलग भाषा अपनाते हुए उन्होंने जोर देकर कहा कि धर्म और दर्शन, दोनों का उद्देश्य इस विश्व का पुनर्निर्माण करना है, ब्रह्मांड की उत्पत्ति की व्याख्या नहीं. आज प्रयोगों द्वारा सिद्ध हो चुका है कि ब्रह्मांड की व्याख्या वैज्ञानिक नियमों द्वारा ही सटीक ढंग से की जा सकती है. नैतिकता से कटा हुआ धर्म महज आडंबर है. विरोधियों की आलोचना की परवाह न करते हुए उन्होंने आगे कहा कि सृष्टि का केंद्र मनुष्य है, न कि ईश्वर. धर्म के बारे में उनका कहना था कि उसका केंद्रविषय नैतिकता है. वे जीवन में दुःख को अवश्यंभावी मानते थे. साथ ही उनका मानना था कि दुःखों से मुक्ति संभव है. इसके लिए जीवन के प्रति संपूर्ण समर्पण अनिवार्य है.

पुरोहितों और पंडितों के चंगुल से आमजन को बचाने के लिए उन्होंने अष्ठांग मार्ग का प्रवर्तन किया. जीवन की पवित्रता के लिए उन्होंने उसको संपूर्णता के साथ अपनाने की सलाह दी. बातबात पर पुरोहितों और धर्माचार्यों की शरण में जाने वाले लोगों को उन्होंने नेक सलाह दी—अप्प दीपो भवः अपना दीपक स्वयं बनो. उन्होंने जोर देकर कहा कि सुख केवल शीर्षस्थ वर्गों की बपौती नहीं है. गृहस्थ के लिए धनार्जन न तो पाप है, न कोई अभिशाप. जीवन के प्रति मध्यमार्गी दृष्टिकोण अपनाते हुए उन्होंने धर्नाजन को गृहस्थ के लिए अनिवार्य उपक्रम माना. वे पहले धर्माचार्य थे, जिन्होंने गणतंत्र का पक्ष लिया, यह उस युग में एकदम क्रांतिकारी था. परिणाम यह हुआ कि सांसारिक सुखों के प्रति जनसामान्य पापबोध लगातार घटने लगा. शिल्पकर्मियों को शूद्र का दर्जा देकर उन्हें तरहतरह से प्रताड़ित किया जाता था. बौद्ध धर्म में जातिवर्ण के लिए कोई स्थान न था. बल्कि सभी के लिए सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार था. इसलिए जातीय उत्पीड़न का शिकार रही जातियां बड़ी तेजी से बौद्धधर्म में शामिल होने लगीं. देखते ही देखते वह देश की सीमाएं पार कर, विदेशी भूमियों पर अपनी पकड़ बनाता गया.

बुद्ध स्वयं क्षत्रिय थे. उनके समकालीन महावीर स्वामी भी क्षत्रिय ही थे. दोनों ने ही राजनीतिक सुखसुविधाओं को ठुकराकर अध्यात्मचिंतन का मार्ग चुना था. राजघराना छोड़कर उन्होंने चीवर धारण किया था. इसलिए बाकी वर्गों में विशेषकर उन लोगों में जो ब्राह्मणों और उनके कर्मकांडों से दूर रहना चाहते थे, जैन और बौद्धधर्म की खासी पैठ बनती चली गई. मगर सामाजिक स्थितियां बौद्ध धर्म के पक्ष में थीं. इसलिए कि एक तो वह व्यावहारिक था. दूसरे जैन दर्शन में अहिंसा आदि पर इतना जोर दिया गया था कि जनसाधारण का उसके अनुरूप अपने जीवन को ढाल पाना बहुत कठिन था. यज्ञों एवं कर्मकांडों के प्रति जनसामान्य की आस्था घटने से उनकी संख्या में गिरावट आई थी. उनमें खर्च होने वाला धर्म विकास कार्यों में लगने लगा था. पहले प्रतिवर्ष हजारों पशु यज्ञों में बलि कर दिए जाते थे. महात्मा बुद्ध द्वारा अहिंसा पर जोर दिए जाने से पशुबलि की कुप्रथा कमजोर पड़ी थी. उनसे बचा पशुधन कृषि एवं व्यापार में खपने लगा. शुद्धतावादी मानसिकता के चलते ब्राह्मण समुद्र पार की यात्रा को निषिद्ध और धर्मविरुद्ध मानते थे. बौद्ध धर्म में ऐसा कोई बंधन न था. इसलिए अंतरराज्यीय व्यापार में तेजी आई थी. चूंकि अधिकांश राजाओं द्वारा अपनाए जाने से बौद्ध धर्म राजधर्म बन चुका था, इसलिए युद्धों में कमी आई थी, जो राजीनितिक स्थिरता बढ़ने का प्रमाण थी. व्यापारिक यात्राएं सुरक्षित हो चली थीं. जिससे व्यापार में जोरदार उछाल आया था.

ये सभी स्थितियां जनसामान्य के लिए भले ही आह्लादकारी हों, मगर ब्राह्मणधर्म के समर्थकों के लिए अत्यंत अप्रिय और हितों के प्रतिकूल थीं. इसलिए उसका छटपटाना स्वाभाविक ही था. अतएव महात्मा बुद्ध को लेकर वे ओछे व्यवहार पर उतर आए थे. बुद्ध का जन्म शाक्यकुल में हुआ था, जो वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार क्षत्रियों में गिनी जाती थी. ब्राह्मणों ने उन्हें शूद्र कहकर लांछित किया, जिसको बुद्ध इन बातों से अप्रभावित बने रहे. दर्शन को जनसाधारण की भावनाओं का प्रतिनिधि बनाते हुए उन्होंने दुःख की सत्ता को स्वीकार किया. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि दुःख निवृत्ति संभव है. उसका एक निर्धारित मार्ग है. दुःख स्थायी और ताकतवर नहीं है. बल्कि उसको भी परास्त किया जा सकता है.

बुद्ध का दर्शन वर्जनाओं पर प्रहार का दर्शन है. सबसे पहले वह वर्णाश्रम व्यवस्था पर प्रहार करते हैं. उस व्यवस्था पर प्रहार करते हैं, जो ब्राह्मणों को विशेषाधिकार संपन्न बनाती है. पुरोहितवाद की जरूरत को नकारते हुए वे कहते हैं— तुम स्वयं दीपक हो.तुम्हें किसी बाहरी प्रकाश की आवश्यकता नहीं हैं. किसी मार्गदर्शक की खोज में भटकने से अच्छा है कि अपने विवेक को अपना पथप्रदर्शक चुनो. समस्याओं से निदान का रास्ता मुश्किलों से हल का रास्ता तुम्हारे पास है. सोचो, सोचो और खोज निकालो. इसके लिए मेरे विचार भी यदि तुम्हारे विवेक के आड़े आते हैं, तो उन्हें छोड़ दो. सिर्फ अपने विवेक की सुनो. करो वही जो तुम्हारी बुद्धि को जंचे. न्होंने पंचशील का सिद्धांत दुनिया को दिया. उसके द्वारा मर्यादित जीवन जीने की सीख दुनिया को दी. कहा कि सिर्फ उतना संजोकर रखो जिसकी तुम्हें जरूरत है. तृष्णा का नकारहिंसा छोड़, जीवमात्र से प्यार करो. प्रत्येक प्राणी को अपना जीवन जीने का उतना ही अधिकार है, जितना कि तुम्हें है. इसलिए अहिंसक बनो. झूठ भी हिंसा है. इसलिए कि वह सत्य का दमन करती है. झूठ मत बोलो. सिर्फ अपने श्रम पर भरोसा रखो. उसी वस्तु को अपना समझो जिसको तुमने न्यायपूर्ण ढंग से अर्जित किया है. पांचवा शील था, मद्यपान का निषेध. बुद्ध समझते थे वैदिक धर्म के पतन के कारण को. उन कारणों को जिनके कारण वह दलदल में धंसता चला गया. दूसरों को संयम, नियम का उपदेश देने वाले वैदिक ऋषि खुद पर संयम नहीं रख पा रहे थे. अपने आत्मनियंत्रण को खोते हुए उन्होंने खुद ही नियमों को तोड़ा. मांस खाने का मन हुआ तो यज्ञों के जरिये बलि का विधान किया. कहा कि ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ और अपनी जिव्हा के स्वाद के लिए पशुओं की बलि देते चले गए. नशे की इच्छा हुई तो सोम को देवताओं का प्रसाद कह डाला और गले में गटागट मदिरा उंडेलने लगे. ऐसे में धर्म भला कहां टिकता. कैसे टिकता!

बुद्ध पहले महात्मा थे, साहचर्य का पाठ दुनिया को पढ़ाया. उससे पहले आश्रम सहजीवन की पहचान हुआ करते थे. लेकिन वहां गुरु का नाम चलता था. सारे आश्रम गुरु के नाम से जाने जाते थे. वौद्ध विहार किसी एक भिक्षु की संपत्ति नहीं थे. वे सबसे साझे थे. बुद्ध का कहना था कि जो है, सबका है. जितना है, उसको मिलबांटकर उपयोग करो. उनके भिक्षुसंघ की व्यवस्था ही ऐसी थी. प्रारंभ में गौतम बुद्ध का शिष्यत्व धारण करने वाले अधिकांश भिक्षु राजपरिवारों से आए थे. संघ के नियमानुसार प्रत्येक भिक्षु को चीवर धारण करना पड़ता था. जिसका अर्थ है जीर्णशीर्ण परिधान. उस समय आम आदमी के यही वस्त्र थे. वह मेहनत मजदूरी करता और अपने राजा के लिए कमाता था. जमीन या संपत्ति पर उसका अधिकार न था. वह राजा की मानी जाती थी. लगान चुकाने के बाद जो बचता उससे वह सिर्फ आधा तन ही ढक पाता था. बहुत बाद में अपने राजनीतिक गुरु गोविंदवल्लभ पंत के कहने पर गांधी जी जब ‘भारत को जानने’ के लिए यात्रा पर निकले तो उन्होंने भी एक नदी तट पर ऐसे ही अंधनंगे स्त्रीपुरुषों को देखकर अपने वस्त्र उनकी ओर बहा दिए थे. वह जनता के दुःखदर्द को पहचानकर उसके करीब आने की कोशिश थी. बिना इसके लोगों के दिल में बनाना आसान न था. बौद्ध संघों के नियम भी ऐसे थे कि जो भी वहां आए, अतीत के वैभव को बिसराकर सच्चे मन से आए.

बुद्ध के कुछ शिष्यों को अच्छा नहीं लगा कि उनका गुरु ऐसे जीर्णशीर्ण वस्त्र धारण करे. यह उनका प्रेरक रहा होगा. मगर यह उस सत्ता की प्रतीति का भी परिणाम था, जो धर्मसत्ता के संगठित होतेहोते आकार ले लेता है. ऐसे शिष्यों ने बुद्ध के लिए नए कपड़े से बुना चीवर लाकर दिया. प्रार्थना की कि उसको पहनें. बुद्ध ने अपने शिष्यों पर निगाह डाली. वे भी जीर्णशीर्ण चीवर में थे. ‘मुझे कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन संघ में तो सभी बराबर हैं. बाकी भिक्षु भी पुराने वस्त्र क्यों धारण करें. उस दिन के बाद से संघ में पुराने कपड़े का बना चीवर पहनने की शर्त हटा दी गई.

ऐसा ही एक और उदाहरण है. गौतम बुद्ध की मां माया तो उन्हें जन्म देने के नवें दिन ही मर चुकी थीं. उन्हें मां का स्नेह देकर पालने वाली थी, गौतमी, जिन्हें वे सदैव मां का सम्मान देते रहे. गौतम बुद्ध ने भिक्षु संघ की स्थापना की तो गौतमी भी उसमें सम्मिलित हो गई. सर्दी का मौसम था. गौतमी ने बुद्ध को एकमात्र चीवर में देखा तो उनका वात्सल्य मचलने लगा. जानती थीं कि राजपाट को ठोकर मार चुका उनका संन्यासी बेटा सर्दी से बचाव के लिए भी अन्य वस्त्र धारण नहीं करेगा. इसलिए उन्होंने रातदिन लगकर बुद्ध के लिए एक गुलुबंद तैयार किया. उसको लेकर वे खुशीखुशी उनके पास पहुंची और उनसे पहनने का आग्रह किया. बुद्ध ने बाकी भिक्षुओं की ओर देखा. वे सभी एकमात्र चीवर में थे. उन्होंने गुलुबंद लेने से इनकार कर दिया. बोले कि यदि यह उपहार है तो सभी भिक्षुओं के लिए होना चाहिए. सिर्फ उन्हीं के लिए क्यों? गौतमी ने बहुत अनुनयविनय की. लेकिन बुद्ध नहीं माने. समाजवाद की, सहजीवन की पहली शर्त है, संसाधनों में बराबर की हिस्सेदारी. इसके लिए उनका राष्ट्रीयकरण. बुद्ध ने भिक्षु संघ की जो व्यवस्था की थी, उसके अनुसार समस्त संपत्ति संघ की मानी जाती थी. संपत्ति और संसाधनों के समान बंटवारे के अतिरिक्त भिक्षु संघ में अधिकारों का भी एकसमान विभाजन था. सभी निर्णय सहमति के आधार पर लिए जाते थे. भिक्षु संघ के बीच महात्मा बुद्ध की हैसियत अधिक से अधिक एक प्रधान सचिव जैसी थी. किसी को भी मनमानी करने अथवा अपना निर्णय थोपने का अधिकार नहीं था. महात्मा बुद्ध वैशाली गणतंत्र के प्रशंसक थे. ऐसी ही व्यवस्था वे भिक्षु संघ में चाहते थे. जीवन के उत्तरार्ध में कम से कम दो अवसर ऐसे आए, जब उनसे उनके उत्तराधिकारी के बारे में पूछा गया था. कहा गया कि जिसको वे उपयुक्त समझते हों उसको संघ की व्यवस्था सौंप सकते हैं. उस समय यदि वे चाहते तो किसी भी व्यक्ति को यह दायित्व सौंपकर उपकृत कर सकते थे. मगर हर बार उन्होंने यही कहा कि धम्म ही संघ का सेनापति है. और आजकल के कथावाचक टाइप स्वयंभू भगवानों को देखें, जो धर्म के नाम पर बने अपने संगठन को भी किसी कारपोरेट कंपनी की भांति चलाते हैं. धर्म के नाम पर जनसाधारण की भावनाओं का दोहन कर मुनाफा बटोरना और पूंजी बटोरना ही उनका ही उनका व्यवसाय है. शंकराचार्य की गद्दी पाने के लिए षड्यंत्र किए जाते हैं, हत्याएं तक होती हैं.

बुद्ध कोरे अध्यात्म पर जोर नहीं देते. बल्कि व्यक्ति की दैनंदिन की समस्याओं पर भी विचार करते हैं. बुद्ध का दुःख की शाश्वतता को स्वीकारना और उसे अपने चिंतन की परिधि में लाना उन्हें व्यावहारिक और जनसाधारण के निकट लाता है. मगर दुःख की बात कहकर, वे डराते नहीं हैं. वे स्पष्ट कहते हैं कि दुःख की सत्ता है, और उसका कारण भी है. कारण का निवारण कर दुःख से मुक्ति संभव है. इसके लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है. खुद को पहचानो. अपने भीतर छिपे प्रकाश को पकड़ो.

यूं तो हिंदू दर्शन भी चार पुरुषार्थों को मान्यता देता है. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष. लेकिन काम और मोक्ष को लेकर भारतीय परंपरा विरोधाभासों का शिकार रही है. एक ओर तो व्यक्ति को अर्थ और काम के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा है, दूसरे उन्हें माया और भ्रांति कहकर पारलौकिक सुख का लालच दिया जाता रहा. बुद्ध मुक्ति की बात नहीं कहते. मुक्ति का अभिप्राय वैदिक आचार्यों को लिए आत्मा का परमात्मा से सम्मिलन रहा है. बुद्ध आत्मा और परमात्मा को अचिंत्य मानते थे. इसलिए उन्होंने निर्वाण का पक्ष लिया. मुक्ति के लिए मृत्यु अनिवार्य है. निर्वाण इसी जीवन में संभव है. बस उसके लिए चित्तवृत्तिनिरोध और आत्मसंयम की आवश्यकता है. भिक्षु के लिए उन्होंने किंचित कठोर नियम बनाए थे. संन्यासी को संचय की आवश्यकता ही क्या. यदि संचय से लगाव था तो संन्यास की आवश्यकता ही क्या थी. अतः भिक्षु को चाहिए कि वह प्रतिदिन पहनने के लिए तीन वस्त्र(त्री चीवर), एक कटिबांधनी यानी कमर में बांधने वाली पेटी, एक भिक्षापात्र, वाति यानी उस्तरा, सुईधागा तथा पानी साफ करने के लिए एक छननी अथवा छन्ना के अतिरिक्त कुछ और न रखे. भिक्षु के लिए महंगी धातुएं यथा सोना, चांदी पहनना या पास में रखना निषिद्ध था. डर था कि सोने को बेचकर वह विलासिता का प्रतीक बाकी वस्तुएं भी खरीद सकता है.

एक ओर जहां भिक्षु के लिए इतने सख्त नियम थे, वहीं गृहस्थ को उन्होंने उदारतापूर्वक संपत्ति संचय की छूट दी थी. इस संबंध में एक कथा है—

अनाथ पिंडक गौतम बुद्ध का प्रिय शिष्य था. एक बार उसने सोचा कि गौतम बुद्ध ने भिक्षुओं की संचय की प्रवृत्ति के निषेध के लिए काफी कठोर नियम बनाए हैं. इसलिए उसके मन में जिज्ञासा जगी कि बुद्ध से व्यक्तिगत संपत्ति के बारे में उनका मत जाना जाए. निर्वाण की लालसा तो जितनी भिक्षु को है, करीबकरीब उतनी ही गृहस्थ को भी होती है. इसलिए अभिवादन करने के बाद उसने गौतम बुद्ध से पूछा—

क्या भगवन, यह बताएंगे कि गृहस्थ के लिए कौनसी बातें स्वागतयोग्य, सुखद एवं स्वीकार्य हैं, परंतु जिन्हें प्राप्त करना दुष्कर है?’

प्रश्न सुनने के उपरांत बुद्ध ने कहा—

इनमें प्रथम विधिपूर्वक धन अर्जित करना है. दूसरी बात यह देखना है कि आपके संबंधी भी विधिपूर्वक धनसंपत्ति अर्जित करें. तीसरी बात है दीर्घकाल तक जीवित रहो और लंबी आयु प्राप्त करो.’

गृहस्थ को इन चार चीजों की प्राप्ति करनी है, जो कि संसार में स्वागतयोग्य, सुखकारक तथा स्वीकार्य हैं. परंतु जिन्हें प्राप्त करना कठिन है. चार अवस्थाएं भी हैं, जो कि इनसे पूर्ववर्ती हैं. वे हैं, श्रद्धा, शुद्ध आचरण, स्वतंत्रता और विवेक. शुद्ध आचरण दूसरे का जीवन लेने अर्थात हत्या करने, चोरी करने, व्यभिचार करने तथा मद्यपान करने से रोकता है.

स्वतंत्रता ऐसे गृहस्थ का गुण होती है, जो धनलोलुपता के दोष से मुक्त, उदार, दानशील, मुक्तहस्त, दान देकर आनंदित होने वाला और इतना शुद्ध हृदय का हो कि उसे उपहारो का वितरण करने के लिए कहा जा सके.

बुद्धिमान कौन है?

जो यह जानता हो कि जिस गृहस्थ के मन में लालच, धन लोलुपता, द्वेष, आलस्य, उनींदापन, निद्रालुता, अन्यमनस्कता तथा संशय है और जो कार्य उसको करना चाहिए, उसकी उपेक्षा करता है, और ऐसा करने वाला प्रसन्नता तथा सम्मान से वंचित रहता है.

लालच, कृपणता, द्वेष, आलस्य तथा अन्यमनस्कता तथा संशय मन के कलंक हैं. जो गृहस्थ मन के इन कलंकों से छुटकारा पा लेता है, चह महान बुद्धि, प्रचुर बुद्धि एवं विवेक, स्पष्ट दृष्टि तथा पूर्ण बुद्धि व विवेक प्राप्त कर लेता है.

अतएव, न्यायपूर्ण ढंग से तथा वैध रूप में धन प्राप्त करना, भारी परिश्रम से कमाना, भुजाओं की शक्ति व बल से धन संचित करना, तथा भौहों का पसीना बहाकर परिश्रम से प्राप्त करना, एक महान वरदान है. ऐसा गृहस्थ स्वयं को प्रसन्न तथा आनंदित रखता है तथा अपने मातापिता, पत्नी तथा बच्चों, मालिकों और श्रमिकों, मित्रों तथा सहयोगियों, साथियों को भी प्रसन्नता तथा प्रफुल्लता से परिपूर्ण रखता है.’

उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि बुद्ध का दर्शन मानव जीवन को संपूर्ण और परिपक्व बनाने के लिए आग्रहशील है. वह सीधेसीधे उस ब्राह्मणवाद के विरोध में जन्मा था, जिसके केंद्र में जनसाधारण था ही नहीं. जो आत्ममोह से ग्रस्त समाज था, एक प्रकार से लड़ाकू कबीला. जो सिर्फ वर्चस्व की भाषा जानता था. बुद्ध गणतंत्र के प्रशंसक थे. इसलिए उनके दर्शनचिंतन में भी गणतंत्र की खूबियां हैं. वे न केवल सामाजिक समानता पर जोर देते हैं, और उसके लिए सामाजिक समाज के जातीय विभाजन को दोषी ठहराते हैं, वहीं आर्थिक अधिकार देकर व्याक्ति को उन सामंती संस्कारों से बचाए रखना चाहते हैं, जो धर्म और राजनीति की कुटिल संधियों की उपज थे. इन सब कारणों से बुद्ध का दर्शन समाजवादी भावनाओं से ओतप्रोत जान पड़ता है. कई मायने में तो वह माक्र्स के वैज्ञानिक समाजवाद तथा व्यक्ति से भी आगे ले जाता है. इसलिए कि भौतिक द्वंद्ववाद का विश्लेषण करता हुआ माक्र्स उत्साह के साथ शुरू तो करता है, मगरउसका चिंतन आर्थिक पहलुओं से आगे नहीं बढ़ पाता. वह आर्थिक समस्याओं को जीवन की मूल समस्याओं के रूप में देखता है. जबकि ऐसा नहीं है. दूसरी ओर बुद्ध का दर्शन राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक समानता यानी समानता के सभी पहलुओं की विस्तार से चर्चा करता है. और आर्थिक मानवीकरण के मुद्दे पर कई जगह से माक्र्स के समाजवाद से आगे निकल जाता है.

जैन दर्शन

जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी, बुद्ध के समकालीन, उनसे लगभग तीस वर्ष बड़े थे. दोनों के दर्शन में काफी समानता है. जैसे कि दोनों ही क्षत्रिय परिवार में जन्मे थे. दोनों ने ही अपना दर्शन ब्राह्मणवाद के विरोध में प्रस्तुत किया था. दोनों ही कर्मकांड के बजाय आचरण की पवित्रता के प्रति अधिक आग्रहशील थे. आत्मापरामात्मा और ईश्वर आदि की वैदिक मताब्लंबियों की बंधीबंधाई धारणा पर उन्हें विश्वास नहीं था. वैदिक ग्रंथों में श्रमणों का जगहजगह उल्लेख हुआ है. ये श्रमण कर्मकांड के विरोधी थे. अपनी जिज्ञासा के समाधान हेतु अधिकांश प्रकृति के सान्न्ध्यि में रहकर सृष्टि के रहस्यों की खोज में लगे रहते थे. जैन धर्म में विश्वास करने वाले श्रद्धालुओं का मानना है कि नदी को पाटने का पहला चमत्कार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी किया था. इसके अतिरिक्त लिपिकला, कुंभकारी, चित्रकारी तथा मूर्तिशिल्प का भी आविष्कार उन्होंने ही किया था. ऋषभदेव का नाम यजुर्वेद तथा श्रीमद् भागवत में भी आया है. ईसा से लगभग 900 वर्ष पूर्व जन्मे बाइसवें तीर्थंकर अरिष्ठनेमि भी क्षत्रिय वंशज तथा कृष्ण के चचेरे भाई थे. कृष्ण के प्रयासों के फलस्वरूप ही राजकुमारी राजमती से उनका विवाह तय हुआ था. लेकिन अरिष्ठनेमि ने जब अपने विवाह में हिरन समेत अन्य निरीह प्राणियों को बलि होते देखा तो उनका मन उचट गया, उसके बाद उन्होंने अपना समस्त जीवन बलि की कुप्रथा को समाप्त करने पर झोंक दिया. तेइसवें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ भी अहिंसा पर जोर देते थे. जैन धर्म के प्रवर्तकचौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म ईसा से 599 वर्ष पहले वैशाली के निकट कुंदपुरा नामक स्थान पर हुआ था. बुद्ध की भांति वे भी क्षत्रिय परिवार से संबंधित थे. उस समय पुरोहितों के कर्मकांड अपने शिखर पर थे. यज्ञादि अनुष्ठानों के बीच पोंगापंथी, बुद्धि के नाम पर वितंडा रचना, ज्ञान के स्थान पर पौरोहित्य का प्रशिक्षण देना और तर्क की जगह तंत्रमंत्र साधना ही उस समय अध्यात्म चिंतन मान लिया जाता था. चारों ओर ब्राह्मणवाद का बोलबाला था, जो स्वयं छोटेछोटे गुटों में बंटे थे. उनके बीच ढेर सारे मतांतर थे. उनमें आपस में बहसें चलती रहती थीं. सिर्फ वर्गीय श्रेष्ठता के दावे और स्वार्थ संबंधी मुद्दों को छोड़कर दूसरा शायद की कोई ऐसा पक्ष था, जिसपर वे सभी एकमत होते हों. देश छोटेछोटे राज्यों में बंटा था. राजा अन्यान्य कारणों से परस्पर लड़तेझगड़ते रहते थे. पूरी श्रमण परंपरा, जिनमें कौत्स एवं सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि जैसे विद्वान, चार्वाक दार्शनिक उनके विरोध में थे. प्रजा मन से लोकायतों और श्रमणों के साथ थी, किंतु ब्राह्मणवादी कर्मकांडों से गुजरना उसकी व्यावहारिक मजबूरी थी.

महावीर स्वामी के पिता का नाम सिद्धार्थ और मां त्रिशला थीं. पिता पाश्र्वनाथ के अनुयायी थे. त्रिशला देवी वैशाली के राजा की बहन थी. महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्धमान था. इस नामकरण के पीछे भी एक रहस्य था. बताते हैं कि जब वे गर्भ में थे, उन दिनों राजकोष में तीव्र वृद्धि हुई थी. यही उनके वर्धमान नामकरण का कारण बना. बचपन में उनका लालनपालन राजकीय वैभव के बीच हुआ. वे स्वभाव से उदार, निडर और शक्तिशाली थे. एक बार उत्तेजित हाथी की सूंड पकड़कर उसपर सवारी गांठने और दूसरी घटना में विषैले नाग को पूंछ पकड़कर एक ओर फेंक देने जैसे साहसपूर्ण कार्य दिखाने के बाद सभी उन्हें ‘महावीर’ कहने लगे थे. उनका विवाह राजकुमारी यशोदा के साथ हुआ, जिनसे एक बेटी भी जन्मी. राजसी वैभव के बीच पलनेबढ़ने के बावजूद वहां का वातावरण उन्हें पसंद न था. सारे ठाठबाट, नौकरचाकर, वैभवविलास बनावटी लगने लगे. मातापिता की मृत्यु के बाद महावीर का संसार से मन उचट गया. उन्होंने संन्यास लेने का निर्णय लिया. उस समय उनकी अवस्था मात्र अठाइस वर्ष की थी. मगर अपने बड़े भाई के आग्रह पर उन्होंने दो वर्ष और परिवार के साथ बिताने के लिए सहमत हो गए.

अगले दो वर्ष महावीर ने खुद को सुखसुविधाओं से मुक्त करने का अभ्यास करते हुए बिताए. उन्होंने एकएक कर अपनी सारी वस्तुएं भिखारियों को दान कर दीं. राजकीय वैभवविलास से परे रहकर अपने मन और शरीर को तापसी जीवन के लिए तैयार करने लगे. तीस वर्ष की अवस्था तक वे अपनी समस्त धनसंपत्ति, विलासितापूर्ण साम्रगी, परिवार यहां तक कि पत्नी से भी किनारा कर चुके थे. अपने गांव कुंदपुरा में दो दिनों तक निराहार, निर्जल, मौन रहते हुए उन्होंने अपने सिर के बाल उखाड़ लिए. देह से वस्त्राभरण दूर करने के उपरांत उन्हें अद्भुत शांति की प्रतीति हुई. एकमात्र उत्तरीय को कंधों पर डाल उन्होंने गृहस्थान छोड़ने का संकल्प कर लिया. जिस समय वे प्रस्थान कर रहे थे, ठीक उसी समय एक भिखारी वहां उपस्थित हुआ. यह कहकर कि गत दो वर्षों से वे जो दान करते आ रहे हैं, उससे वह वंचित रहा है, उसने महावीर से दान की अपेक्षा की. इसपर महावीर ने कंधे पर पड़े उत्तरीय में से आधा फाड़कर उस भिखारी को थमाया और वहां से प्रस्थान कर गए. एक स्थान से दूसरे स्थान तक विचरते हुए एक दिन उन्हें निर्वाण की अनुभूति हुई. महावीर स्वामी ने उस अवस्था को कैवल्य कहा है, विदेह हो जाने की उच्चतम स्थिति जब शरीर में रहते हुए भी शरीर का बोध, उसकी सीमाएं समाप्त हो जाता है. व्यक्ति परमज्ञान की अवस्था में होता है. निर्वाण प्राप्ति के उपरांत महावीर स्वामी ने पहला उपदेश दिया. उनके आत्मबोध की प्रथम अनुभूति का विवरण मज्झिम निकाय में है—‘मुझे सबकुछ समझ आ रहा है, मैं सबकुछ पूरी तरह साफसाफ देख रहा हूं. मुझे पवित्र आत्मज्ञान की प्रतीति हो चुकी है. अब चाहे मैं चलता रहूं अथवा एक ही स्थान पर स्थिर होकर खड़ा रहूं. चाहे सो जाऊं अथवा जागता रहूं, परमज्ञान और उसकी अंतरानुभूति प्रतिपल मेरे साथ है…’

जैन धर्म में अनुशासन एवं नैतिकता के स्तर को बनाए रखने के लिए पांच व्रत साधने होते थे. ये हैं: अहिंसा, सत्य, चौर्य, अपरिग्रह तथा पवित्रता. इनमें से प्रथम चार पाश्र्वनाथ के विचारों से अनुप्रेरित थे. यह परदुःखकातरता और करुणा पर केंद्रित दर्शन है. इसमें व्यक्तिगत संपत्ति की भावना का निषेध किया गया है. गृहस्थों के लिए तो संपत्तिसंबंधी मान्यताओं में फिर भी किंचित छूट है. किंतु जैन तापसों के लिए तो देह पर वस्त्र धारण करना भी विलासिता की श्रेणी में आता है. यह मान लिया जाता है कि शरीर ढकने के लिए वस्त्र का लालच भी मोक्ष प्राप्ति की अवधि को लंबा खींचने का काम करता है. जैन दर्शन में आवश्यकता से अधिक संचय को पाप माना गया है. समझा गया है कि यह भी एक प्रकार की हिंसा है. जैन दर्शन का संपत्ति संबंधी अवधारणा समाजवादी विचारधारा से मेल खाती है. समाजवाद भी हर व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुरूप देने का आश्वासन देता है. वहां संपत्ति कल्याणकारी राज्य के अधीन सुरक्षित मानी जाती है, जिसका उपयोग नागरिकों की आवश्यकता को ध्यान में रखकर व्यापक लोककल्याण की कामना के निमित्त किया जाता है. जैनमत के संपत्तिसंबंधी सिद्धांत और समाजवाद में महज इतना अंतर है कि समाजवाद राजनीतिकसंवैधानिक व्यवस्था है. जबकि जैन दर्शन नैतिक आचरण है. वह त्याग और सर्वकल्याण की भावना पर टिका है. यह आत्मानुशासन के बिना संभव नहीं. समाजवाद में अनुशासन के लिए राजनीति की मदद ली जाती है. जोकि बाहरी और खर्चीला उपक्रम है. उसकी अपेक्षा अपरिग्रह नैतिकता की जमीन पर खड़ा होता है. जाहिर है कि यह उच्च मानवादर्श है.

जैनमत में लोकतांत्रिक समाजवाद का एक अन्य रूप ‘स्याद्वाद’ के रूप में भी मिलता है. जैन मतावलंबियों की विशेषता यह है कि वे किसी भी कोटि के दुराग्रह का संपूर्ण निषेध करते हैं. अपनी बात दूसरों से बलात् मनवाना या केवल अपने ही मत को अंतिम सत्य मानना हठधर्मी, एक प्रकार की वैचारिक हिंसा है. इसलिए वहां अहिंसा पर इतना जोर दिया गया है. जैनमत के अनुसार किसी भी जीव की हत्या करना तो पाप है ही, विचारों की हिंसा भी वहां सर्वथा वज्र्य है. इसलिए कि विचार भी जीवात्मा की देन, उसकी विशेषता हैं. वैचारिक सहिष्णुता, विरोधों को आत्मसात करने की यह प्रवृत्ति जैन मत में स्याद्वाद के सिद्धांत के उद्भव का कारण बनी. ‘स्याद्वाद’ जैनदर्शन का सर्वाधिक मौलिक एवं वैज्ञानिकता पर आधारित विचार है. इसके अनुसार किसी भी वस्तु अथवा विचार के बारे में जो कहा जाता है, वह अनेक संभावनाओं से युक्त होता है. सत्य कई रूपों में प्रकट होता है.

अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए हाथी और छह अंधों की कहानी का उदाहरण देते हैं. कहानी के छह अंधों को हाथी के सामने खड़ा कर उसकी शरीर रचना के बारे में बताने को कहा जाता है. जिस अंधे ने हाथी के कान का स्पर्श किया था, उसके अनुसार हाथी की देह पंखे के समान है. दूसरा जो हाथी की सूंड का स्पर्श करता है, वह हाथी को मोटी बेल जैसा बताता है. तीसरा अंधा जो हाथी के पैर का स्पर्श करता है, वह उसकी रचना को खंबेनुमा कहकर अपने अनुभव का बखान करता है. वे सभी अपनी जगह सही है. सभी सच्चे हैं. मगर उनका सत्य आंशिक और परिस्थितिजन्य है, जो उनकी सीमा को दर्शाता है. उन छह के अलावा एक दृष्टिसंपन्न व्यक्ति भी है. हाथी की वास्तविक देहरचना के बारे में केवल वही जानता है. ज्ञान की स्थिति केवल प्रज्ञावान को ही संभव है. यही निर्वाण की अवस्था भी है, जब कोई तापस सृष्टि के वास्तविक रहस्य को जान चुका होता है. जैनमत मानता है कि साधारण व्यक्ति की ऐंद्रियानुभूति सीमित होती है. इसलिए उसका बोध भी सीमित होता है. मगर वह गलत नहीं है. अंधों की कहानी में यदि उन सभी के अनुभवों को परस्पर मिला दिया जाए तो हाथी की संपूर्ण रचना सामने आ सकती है. यही लोकतंत्र में होता है, जो समाजवादी व्यवस्था की धुरी है. वहां अनेक नागरिक मिलकर अपने विकास के लिए उपयुक्त व्यवस्था का चयन करते हैं.

जैनदर्शन की सृष्टि संबंधी व्याख्या आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से मेल खाती है. उसके अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति का कारण छोटेछोट पुद्गलों को माना है. ये पुद्गल परस्पर मिलकर अणु बनाते हैं. अणुओं के संयोग से संसार की विभिन्न वस्तुओं, जड़चेतनादि की उत्पत्ति होती है. जड़चेतन में पुद्गलों की उपस्थिति उसे जीवनमय बनाती है. जैन दर्शन का पुद्गल का विचार कणाद मुनि के वैशेषिक दर्शन से मेल खाता है. पुद्गल की तुलना हम परमाणुवाद के साथ के आधुनिक सिद्धांत से भी कर सकते हैं. यह भी विज्ञानप्रमाणित है कि दो परमाणु परस्पर मिलकर एक अणु की रचना करते हैं, जो सृष्टि के समस्त पदार्थों की उत्पत्ति का कारण है. लेकिन पुद्गल परमाणु नहीं है. परमाणु में जीवन है, वैज्ञानिक ऐसा कोई दावा नहीं करते. वे परमाणु की गति का आकलन कर सकते हैं. परमाणु में अंतनिर्हित ऊर्जा की खोज भी की जा चुकी है. वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार परमाणु जड़चेतन से परे लघुत्तम कण है, जो संसार की प्रत्येक वस्तु, जड़ और चेतन दोनों की व्युत्पत्ति का कारण है. इससे भिन्न पुदगल चेतनामय इकाई, जीवन का लघुत्तम रूप है. तदुनुसार यह समस्त संसार छोटेछोटेकणों से मिलकर बना है. अतएव जैन दर्शन के अनुसार दृश्यमान जगत के कणकण में जीवन है. उनका सम्मान करना जीवन का सम्मान करना है.

जैन शब्द ‘जिन’ धातु से बना है. यानी ऐसा व्यक्ति जिसने इंद्रियों को अधीन कर लिया हो. इंद्रियनिग्रह के लिए अपरिग्रह अस्तेय, अहिंसा, सत्य आदि की कसौटियां बनाई र्गइं. जिनका अर्थ है, जरूरत से अधिक संचय न करना. चोरी न करना. दूसरे के धन की लालसा न रखना. हिंसा का पूर्ण निषेध और सत्याचरण. यही सिद्धांत बौद्ध धर्म के भी थे. आशय यह है कि नैतिक मान्यताओं को लेकर जैन और बौद्ध धर्म एक ही कोटि के माने जा सकते हैं. इसलिए कुछ विद्वानों ने जैनधर्म को बौद्ध धर्म की ही एक शाखा माना है. हालांकि कुछ मायने में दोनों में अंतर भी है. बौद्ध दर्शन व्यावहारिक बोध को महत्त्व देता है. वह जीवन की उपेक्षा करने के बजाय, उसको संयमित ढंग से जीने पर विश्वास रखता है. ऐसा जीवन जो अपने और दूसरों के लिए समानरूप से सुखकारी हो. इसलिए जैनदर्शन का अतिअनुशासन भी वहां वज्र्य है. कामनाओं से भागने से उनसे बच पाना संभव नहीं. वे पीछा करती हैं. उनसे मुक्ति का एक ही उपाय है, कामनाओं के बीच रहकर उनसे मुक्ति. मन को साधना. यह आसान नहीं है. लेकिन अभ्यास से इसको साधा जा सकता है. इसके लिए बुद्ध ने अष्ठांग योग का विचार दुनिया के सामने रखा था. मगर उनका अष्ठांग योग भी व्यावहारिक है. वह मनुष्य की पहुंच में है. जबकि जैन मत का अहिंसा का सिद्धांत और अन्य धार्मिक अनुशासन बहुत कड़े हैं. यही कारण है कि जैन धर्मदर्शन जनसाधारण के बीच अपनी जगह बनाने में असमर्थ रहा था.

बोधि वृक्ष के नीचे साधना करते समय बुद्ध को समझ आया था कि जीवन वीणा के तारों की तरह भांति है. ढीला छोड़ने पर सुर नहीं निकलते. अधिक कसने पर तार टूट भी सकते हैं. इसलिए उन्होंने मध्यम मार्ग को अपनाने का आग्रह किया था. लेकिन अहिंसा जैसे विषय को लेकर जैन मत व्यावहारिकता की सीमा तक प्रतिबद्ध है. वहां अपरिग्रह पर इतना आशय है कि शरीर पर वस्त्र धारण करना भी मोक्ष की राह में बाधक माना गया है. बौद्ध धर्म की अहिंसा के सिद्धांत को उसकी तत्व विवेचना के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है. जैन दर्शन सम्यक व्यवहार, सम्यक बोध, तथा सम्यक आचरण पर जोर देता है.

जैन दर्शन एक भौतिकवादी दर्शन है. वह संसार की सत्ता को नकारता नहीं है. बल्कि उसकी वास्तविकता को स्वीकारते हुए कतिपय वैज्ञानिक आधार पर उसकी व्याख्या करता है. जीवनमूल्यों को वरीयता देते हुए वह मनुष्य को अपनी चिंताओं के केंद्र में रखता है. उसकी आचारसंहिता तीन प्रमुख सिद्धांतों पर टिकी है. जैन दर्शन को यदि श्रेष्ठ विचारों की एक माला स्वीकारा जाए तो इन तीन सिद्धांतों को उसके माणिकमुक्ता समझा जाता है, जिनपर माला की समस्त सुंदरता निर्भर करती है. ये हैं—सम्यक आचरण, सम्यक कर्तव्य एवं सम्यक बोध. सम्यक आचरण से अभिप्राय सृष्टि के प्रत्येक प्राणी के साथ भेदभाव रहित दयालुतापूर्ण व्यवहार से है. हर प्राणी में एक ही जीवात्मा है, इसलिए उसका सम्मान. सभी के साथ एक समान व्यवहार. सम्यक बोध मानव चेतना के विकास के पांच स्तरों को दर्शाता है. वे हैं अध्ययन, साधना, सिद्धि एवं कैवल्य. सम्यक कर्तव्य आत्मानुशासन, निश्छल व्यवहार, सदाशयता को दर्शाता है. यह मानवेंद्रियों को विचलन से बचाकर उन्हें साधना पथ पर अग्रसर करने से संभव है. वह उपदेश से अधिक आत्मनियंत्रण पर जोर देता है. जैनग्रंथ ‘उत्तरध्यान’ में आत्मानुशासन की आवश्यकता पर लिखा गया है—

‘खुद को जीतो/इसलिए कि आत्मविजय सबसे बड़ी साधना है/यदि तुम स्वयं को जीत लेते हो/तो संसार में रहकर भी बनोगे अनिवर्चनीय आनंद के भागी/उससे भी श्रेष्ठ है/इससे पहले कि दुनिया के प्रलोभन और मायावी शक्तियां/मेरी इंद्रियों को अपने जाल में फंसा लें/मुझे भटकाएं/प्रताड़ित करें/आत्मनुशासन एवं प्रायश्चित द्वारा खुद को जीतकर/ आत्मविजयी बनना.’

इन सिद्धांतों की तुलना हम बौद्ध धर्म के अष्ठांग योग से कर सकते हैं. महावीर स्वामी का जन्म बुद्ध से पहले हुआ था. मगर दोनों में अधिक अंतर नहीं है. दोनों का कार्यक्षेत्र भी भारत का पूर्वी क्षेत्र है. हम आसानी से कल्पना कर सकते हैं कि जिन दिनों महात्मा बुद्ध ने संन्यास के लिए घर छोड़ा था, उन दिनों देशभर में महावीर स्वामी के विचारों की धूम मची होगी. कर्मकांड और यज्ञ के नाम पर होने वाली जीवहत्या से उकताए हुए लोग जैन धर्म में दीक्षित हो रहे थे. उनमें हर वर्ग के लोग सम्मिलित थे. वैशाली जैसे गणराज्य जिसके महात्मा बुद्ध प्रशंसक थे, के शासक भी भी जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण कर चुके थे. आचार्य वर्षकार जब वैशाली पर आक्रमण से पहले बुद्ध से परामर्श लेने पहुंचते हैं तो बुद्ध वैशाली गणराज्य की मिलजुलकर निर्णय लेने की गणतांत्रिक प्रणाली की प्रशंसा करते हुए वैशाली को अजेय घोषित करते हैं.

सम्यक आचरण मनुष्य के मानवीय स्वरूप को बनाए रखने की कला है. प्रत्येक मनुष्य के भीतर एक ही जीवात्मा है. स्त्रीपुरुष सभी एक समान हैं. इसलिए मनुष्य का पहला धर्म है कि वह सभी के साथ एक जैसा आचरण करे. बिना किसी पक्षपात, वगैर किसी स्वार्थलिप्सा के सबके साथ समानतापूर्ण व्यवहार करते हुए प्राणीमात्र के कल्याण के निमित्त समर्पित हो. दूसरों के साथ वही व्यवहार करो, जैसा उनसे अपने प्रति अपेक्षित है. संसार में रहकर भी उसके प्रलोभन से विरक्ति. देह में रहकर भी विदेहत्व की साधना. मुक्ति का साक्षात अनुभव. बौद्धदर्शन की भांति जैन दर्शन भी वेदों को प्रामाण्य नहीं मानता. उसके स्थान पर वह व्यक्ति की सत्ता को सर्वोच्च ठहराता है. नैतिक आचरण पर जोर देता है.

संसाधनों के न्यायिक बंटवारे और प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार देना ही समाजवादी व्यवस्था का प्रमुख ध्येय है. यह कार्य वह राज्य की नियामक शक्ति की मदद से करती है. राज्य भी व्यक्तियों से परे नहीं है. वह नागरिकों की सहमति और अनुशंसा के आधार पर बनी संस्था है. अंधों की कहानी में जैसे किसी एक अंधे की राय का कोई मूल्य नहीं है, लेकिन जब उन सबके अनुभवों को मिला दिया जाता है, तो उससे वही विंब बनता है, जो एक दृष्टिसंपन्न व्यक्ति की चेतना में बनता है. राज्य भी अपने नागरिकों की संस्तुति के आधार पर बनी संस्था है, जो एक नियामक संस्था सत्ता का रूप ग्रहण कर लेती है. कह सकते हैं कि जैन दर्शन की नैतिक मान्यताएं समाजवाद की मूल आस्था के अनुकूल हैं. हालांकि इसकी कड़ी अनुशासनव्यवस्था, इसको जनसाधारण के लिए असहज बनाती है.

©ओमप्रकाश कश्यप

opkaashyap@gmail.com

2012 in review

The WordPress.com stats helper monkeys prepared a 2012 annual report for this blog.

Here’s an excerpt:

4,329 films were submitted to the 2012 Cannes Film Festival. This blog had 14,000 views in 2012. If each view were a film, this blog would power 3 Film Festivals

Click here to see the complete report.

भारतीय दर्शनों में समय की अवधारणा

समय का दर्शन : चार

समय को लेकर आज भले ही हम नियतिवादी द्रष्टिकोण से आगे कुछ न सोच पाते हों, परंतु हमेशा ऐसा नहीं था. मानवीय चेतना में विकास के साथ समयसंबंधी अवधारणा में भी परिवर्तन होते रहे हैं. वैदिक युग में जब मनुष्य प्रकृति के सान्निध्य में जीवनयापन करता था, अपने चारों ओर बिखरी विपुल प्राकृतिक संपदा नदियां, पहाड़, झरने, महासागर, फलफूल, वनवनस्पतियों को देखकर अभिभूत था….जीवनमृत्यु, दिनरात और ग्रहनक्षत्रों को देख चमत्कृत रह जाता था. तब समय को लेकर उसका सोच भी लगभग नियतिवादी था. वह मानता था जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी आदि जैसे दूसरे भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है, वैसे ही समय का भी है. समय की सीधे प्रतीति भले न हो, परंतु दिनरात, धूपछांव, जीवनमृत्यु के अंतर से उसकी उपस्थिति का एहसास होता था. इतना स्वाभाविक कि यह मानकर भी कि परिवर्तन वस्तुओं की सहज प्रवृत्ति है, उसे लगता था कि वस्तुओं के अपने गुण के अलावा भी कुछ ऐसा है जो उन्हें नियंत्रित रखता है. उनके रूपाकार को बदलते हुए देखता है. इसी गुण को कभी ‘समय’ की संज्ञा दी गई, तो कभी ‘काल’ कहकर संबोधित किया गया. फिर घटनाओं की सटीक परख, आवृत्ति, अंतराल आदि की जांच के लिए समय के घंटा, मिनट, सैकंड, पल, अनुपल, वर्ष, संवत्सर जैसे मात्रक गढ़े गए. कालांतर में धूपवर्षाताप आदि के उपादान कारणों की भांति समय को भी देवता का दर्जा दिया गया था. यज्ञ में उसके नाम समिधा अर्पित की जाने लगी. उष्मा और प्रकाश बांटने वाले सूरज तथा परिवर्तन के प्रतीक ‘द्यौ’(दिन, उजास) की गिनती भी वैदिक देवताओं में होने लगी. उसको ‘प्रकृति पूजा की पहली श्रेणी का उपलक्ष्य’ माना गया. विकास की आरंभिक बेला में यह अप्रत्याशित भी नहीं था. दिनारंभ के साथ शरीर में नई स्फूर्ति आ जाती है. नवीन ऊर्जा से ओतप्रोत मनुष्य अपना काम शुरू कर देता है. उजास प्रकृति में नई चेतना भर लाता है. जीवजगत से लेकर जड़जंगम, वनस्पति आदि सभी पर उसका प्रभाव बहुआयामी होता है. यह सब बिना किसी दैवीसामर्थ्य के संभव नहीं. इसलिए वह देवता है. सभी को हर्षित, ऊर्जस्वित, उमंगित एवं आलोकित करनेवाला. प्राणिमात्र को नई स्फूर्ति एवं चेतना से भर देने वाला. पूरी तरह प्रकृतिआश्रित जीवन में यह विश्वास स्वाभाविक ही था. एक अन्य स्थान पर ऋग्वेद में समय को शक्तिरूप कहा गया है. ऐसी सचेतन शक्ति जो जीवनसंघर्षों, आपदाओं के बीच सबकी रक्षा करती है. जीवनचक्र को आगे बढ़ाती और उसका संवर्धननिर्देशन आदि करती है.

समय का प्रत्यय मानवीय बोध के साथ ही जन्म ले चुका था. उसको उतना ही पुराना माना गया, जितनी सृष्टि. हालांकि सृष्टि के विकास में समय का योगदान जल के बाद आंका गया. नासदीय सूक्त के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति जल से मानी गई है. वही आदिमहाभूत है. इस मान्यता के अनुसार सृष्टि निर्माण में सहायक बने पंचमहाभूतोंअग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश में जल सर्वप्रथम आया. उसी से बाकी तत्वों का विकास हुआ है. यह सीधेसीधे अनुभव से जन्मा दर्शन था. जल से प्रकृति हरियाती है. जीवन संभव हो पाता है. वह प्राणतत्व की पहली आवश्यकता है. ऋग्वेद में प्राकृतिक सत्ताओं के प्रति श्रद्धाभाव से विकसित बहुदेववाद है. मगर सृष्टि की प्रथम कारक सत्ता होने के कारण जल सबसे महत्त्वपूर्ण है. डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार—‘ऋग्वेद की प्रवृत्ति एक सीधासादासरल यथार्थवाद है….(वह) केवल एक जल की ही परिकल्पना करता है. वही आदिमहाभूत है, जिससे धीरेधीरे दूसरे तत्वों का विकास हुआ.’ (भा. . पृष्ठ 83). लेकिन सृष्टि की रचना अकेले जल द्वारा संभव न थी. जल की अवस्था से आकाश, अग्नि, जल, वायु के विकास के बीच सुदीर्घ अंतराल है. नासदीय सूक्त के अनुसार आरंभ में न दिन था न रात. इसलिए समय का बोध कराने वाले भूतभविष्य आदि का भी लोप था. इस तरह महाशून्य अवस्था से दिनरात से भरपूर ब्रह्मांड में आने के बीच जो लाखों, करोड़ों वर्ष बीते, उनसे समय की उपस्थिति स्वतः सिद्ध है. कह सकते हैं कि सृष्टि के निर्माण में पंचतत्वों के सहयोग के अलावा समय का भी योगदान रहा. वैदिक ऋषियों को लगा होगा कि सतत परिवर्तनशील जगत की व्याख्या के लिए अंतरिक्ष अपर्याप्त है. उससे सृष्टि के विस्तार और व्याप्ति की परिकल्पना तो संभव है, मगर चराचर जगत की परिवर्तनशीलता एवं क्रमानुक्रम की व्याख्या के लिए, कुछ ऐसा भी होना चाहिए जो अंतरिक्ष जैसा अनादिअनंत होकर भी वस्तुजगत की गतिशीलता की परख करने में सक्षम हो. अंतरिक्षनुमा होकर भी उससे भिन्न हो. जिसमें वह अपने होने को सार्थक कर सके. अपनी चेतना को दर्शा सके. जिसके माध्यम से घटनाओं के क्रम तथा उनके वेग आदि की व्याख्या भी संभव हो. जो सकल ब्रह्मांड के चैतन्य का साक्षी, उसकी गतिशीलता का परिचायक एवं संवाहक हो.

अंतरिक्ष आभासी संरचना है. वह ग्रहनक्षत्रों तथा तरहतरह के गतिमान पिंडों को अपने भीतर समाए रहता है. कह सकते हैं कि गतिमान पिंडों की स्थिति तथा उनका अंतराल हमें अंतरिक्ष का आभास कराते हैं. तदनुसार अंतरिक्ष वह त्रिविमीय आभासी संरचना है जो विभिन्न प्रकार के छोटेबड़े पिंडों, कणों को अपने भीतर समाहित रखता है. उनके भीतरीबाहरी, भौतिक अथवा काल्पनिक अंतराल की प्रतीति कराता है. उनकी गतिशीलता के लिए पर्याप्त आकाश देता है. दूसरी ओर समय महज एक विमीय सरंचना है. उसका गुण है कि वह ब्रह्मांड में पलछिन घटने वाली कोटिक घटनाओं का साक्षी बन सके. वह दो या उससे अधिक घटनाओं के क्रमानुक्रम, बारंबारता, अंतराल तथा उनके आपसी संबंधों का बोध कराता है. यह भी कह सकते हैं कि घटनाओं का वेग, मानवमस्तिष्क द्वारा उन घटनाओं को सहेजने का क्रम तथा उनका अंतराल समयबोध का निर्माण करते हैं. व्यवहार में समय आभासी मगर सापेक्ष सत्ता है. दूसरी ओर समय की निरपेक्षता के समर्थन में भी अनेकानेक उल्लेख शास्त्रों में मौजूद हैं. यह माना जाता रहा कि समय बाह्यः प्रभावों, दृश्यअदृश्य घटनाओं से मुक्त है. वह घटनाओं पर नियंत्रण रखता है, मगर स्वयं किसी से प्रभावित नहीं होता. इसलिए उसकी गति सदैव एकसमान बनी रहती है. यह धारणा भी बनी रही कि चराचर जगत में जो कुछ बनतामिटता है, समय उसका साक्षी है. काल नहीं मिटता, हम ही बनतेमिटते हैं—कहकर समय की परमसत्ता को स्वीकृति दी गई. उसे अजेय माना गया. एकेश्वरवादी चिंतन में ईश्वर के अतिरिक्त समय या उस जैसी शाश्वत सत्ता की परिकल्पना, ईश्वर की सर्वोच्चता पर प्रश्नचिह्न लगाती थी. अतएव परमात्मा की सर्वोच्चता को दर्शाने के लिए गीता में श्रीकृष्ण के मुख से कहलवाया गया—कालोऽस्मि.’ ‘मैं ही समय हूं.’ यहां काल समस्त घटनाओं के आगार, विराट ब्रह्मांडीय विस्तार का द्योतक है. वह श्रीकृष्ण के मुख से उच्चारित हुआ है, इसलिए वह विराट शक्ति का भी बोध देता है. समय के साथ बीतना, गुजरने, घटित होने जैसी प्रतीतियां सहजरूप से जुड़ी हुई हैं. उसे परिवर्तनशील माना गया है. मगर परमसत्ता की महत्ता को रेखांकित करने के लिए यत्रतत्र उसको कालातीत भी कहा जाता है. सृष्टि निर्माण में समय के योगदान को स्वीकार करते हुए प्राचीन आचार्यों ने लिखा—‘जल की अवस्था से उन्नत होकर इस जगत का विकास समय, संवत्सर अथवा वर्ष, इच्छा या काम, एवं बुद्धिरूपी पुरुष तथा तप की शक्तियों से हुआ था.’ (भा. . पृष्ठ 83). इसमें समय तथा ‘संवत्सर अथवा वर्ष’ को अलगअलग लिखा हुआ है. जबकि व्यवहार में संवत्सर और वर्ष समय के ही मात्रक हैं.

उपर्युक्त से सिद्ध होता है कि समय को लेकर वैदिक आचार्यों की दो स्पष्ट प्रतीतियां थीं. पहली उसे अनंत, ब्रह्मांडनुमा सत्ता मानती थी. उसके अनुसार समय को स्थिर, विचलनहीन और अनंत विस्तारयुक्त सत्ता माना गया. जिसमें सबकुछ घटता रहता है. जो घटनाओं का क्रमानुक्रम मात्र न होकर अंतहीन त्रिविमीय फैलाव है. चराचर जगत का सहयात्री न होकर सर्वस्व द्रष्टा है. जिसका न आदि है न अंत. जो इतना विस्तृत है कि कोटिक कोटि ग्रहनक्षत्रनीहारिकाएं उसमें सतत गतिमान रहती हैं—या जो कोटिक घटनाओं, गतियों का एकमात्र द्रष्टा एवं साक्षी है. दूसरी प्रतीति के अनुसार समय भूत, वर्तमान तथा भविष्य के रूप में परिलक्षित होने वाली, नदीसम निरंतर प्रवाहशील एकविमीय संरचना है. घटनाओं के साथ घटते जाना उसका स्वभाव है. वह न केवल घटनाओं के क्रमानुक्रम का साक्षी है, बल्कि उनका हिसाब भी रखता है. मगर है आदिअंत से परे. उनकी न शुरुआत है न ही अंत. समय को लेकर ये दोनों ही धारणाएं कमोबेश आज भी उसी रूप में विद्यमान हैं. इस तरह यह संभवतः अकेली अवधारणा है जिसके बारे में मनुष्य के विचारों में शुरू से आज तक बहुत कम परिवर्तन हुआ है. इतना अवश्य है कि समय जब तक दर्शन का विषय था, तब तक उसे लेकर वस्तुनिष्ठ ढंग से विचार होता रहा. विशेषकर जैन और बौद्ध दर्शन में समय की सत्ता पर गंभीर चिंतन हुआ. कालांतर में समय के दार्शनिकवैज्ञानिक पक्ष पर विचार करने के बजाय केवल उसके व्यावहारिक पक्ष पर विमर्श होता रहा. आगे चलकर जीवन में स्पर्धा और सामाजिक विभाजनकारी स्थितियां बढ़ीं तो पोंगा पंडितों ने समय को प्रारब्ध से जोड़ दिया. एक निरपेक्ष सत्ता को नियामक सत्ता मान लिया गया. इससे मानवमन में समय के प्रति अतिरिक्त श्रद्धाभाव उमड़ने लगा. उसके पीछे समय को जानने की वांछा कम, डर और समर्पण का अंश कहीं अधिक था. समय के प्रति डर, अविश्वास एवं स्थूल चिंतन का दुष्प्रभाव यह हुआ कि उसे लेकर दार्शनिक चिंतन लगभग ठहरसा गया. इससे उन पोंगापंथियों को सहारा मिला जो समय को लेकर लोगों को डराते थे.

 

 

समय का बोध मानवीय बोध के साथ जन्मा और उतना ही पुराना है. सवाल है कि समय की उत्पत्ति कब हुई? क्या समयबोध के साथ? अथवा उससे पहले? इस मामले में वैदिक ऋषि और वैज्ञानिक दोनों एकमत थे कि समय का जन्म सृष्टि के जन्म के साथ हुआ. उससे पहले समय की कोई सत्ता नहीं थी. हालांकि दोनों की मान्यताओं का आधार अलगअलग है. स्वाभाविक रूप से वैज्ञानिक इसकी व्याख्या तार्किक आधार पर करना चाहते हैं, जबकि वैदिक आचार्यों का द्रष्टिकोण अध्यात्मप्रेरित था. अंतरिक्षीय महाविस्फोट द्वारा सृष्टिरचना के सिद्धांत में विश्वास रखने वाले वैज्ञानिक मानते हैं कि उससे पहले ब्रह्मांड अतिउच्च संपीडन की अवस्था में था. इस तरह विज्ञान की दृष्टि में ब्रह्मांड और समय दोनों एक ही घटना का उत्स हैं, जिसे वैज्ञानिक महाविस्फोट का नाम देते हैं. इसलिए ‘समय का संक्षिप्त इतिहास’ लिखने के बहाने स्टीफन हाकिंग जैसे वैज्ञानिक प्रकारांतर में इस ब्रह्मांड का ही इतिहास लिख रहे होते हैं. ब्रह्मांड के जन्म की घटना से पहले समय की उपस्थिति को नकारना वैज्ञानिकों की मजबूरी थी. क्योंकि उससे पहले समय की उपस्थिति स्वीकार करने के लिए उनके पास कोई तार्किक आधार नहीं था. समय ही प्रतीति ‘घटित होने’ से जुड़ी हुई है और उच्च संपीडन की अवस्था में घटना का आधार ही गायब था. ऐसा कोई कारण नहीं था जिससे समय की उपस्थिति प्रमाणित हो सके. समय के बारे में एक महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक द्रष्टिकोण आइंस्टाइन के शोध में मिलता है. सापेक्षिकता के सिद्धांत की खोज के बाद घटना विशेष के संदर्भ में दिक् और काल को अपरिवर्तनशील एवं निरपेक्ष मानना संभव नहीं रह गया था. वे प्रभावशाली मात्राएं बन गई थीं, जिनका स्वरूप पदार्थ और ऊर्जा पर निर्भर था. सापेक्षिकता का सिद्धांत महाविस्फोट से पहले समय की संभावना को नकारता है. उसके अनुसार समय और दिक् की परिकल्पना केवल ब्रह्मांड के भीतर रहकर संभव है. उससे पहले चूंकि घटनाओं के बारे में कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा सकता, अतएव यह माना गया कि समय की परिकल्पना केवल ब्रह्मांड की संभावनाओं में संभव है. इसके बावजूद समय की निरपेक्ष तस्वीर कुछ वैज्ञानिकों को आज भी लुभाती है. हालांकि 1915 में आइंस्टीन द्वारा ‘जनरल थ्योरी आफ रिलेटिविटी’ का क्रांतिकारी सिद्धांत पेश होने के बाद उसपर दृढ़ रहना आसान नहीं रह गया था. सापेक्षिकता के सिद्धांत को स्वीकृति मिलने के बाद स्पेस और टाइम किसी घटना के स्थिर आधार जैसे अपरिवर्तनशील और निरपेक्ष नहीं रह गए. बल्कि वे बेहद प्रभावशाली मात्राएं बन गईं, जिनकी रूपरेखा पदार्थ और ऊर्जा से तय होती है. यह मान लिया गया कि दिक्, काल की व्याख्या केवल ब्रह्मांडीय सीमाओं में संभव है. तदनुसार ब्रह्मांड के जन्म से पहले दिक्, काल की परिकल्पना करना बिल्कुल बेमानी हो गया. इस निरीश्वरवादी परिकल्पना थी, जिसके समर्थक जैन और बौद्ध दर्शन थे.

वैदिक मनीषियों का द्रष्टिकोण सर्वथा भिन्न था. समय और सृष्टि की उत्पत्ति को एकदूसरे से जोड़ना उनके आस्थावादी मन के लिए जरूरी था. जहां वैज्ञानिक महाविस्फोट से पहले समय की परिकल्पना करने से इसलिए हिचकते हैं कि उसके लिए उनके पास उपर्युक्त तर्कों का अभाव है, और उसको सिद्ध कर पाना फिलहाल असंभव, वहीं आस्थावादी दार्शनिकों की समस्या थी कि समय को पूर्व अथवा समानांतर सत्ता मान लेने से उसकी सर्वेश्वरवादी व्याख्याएं संकट में पड़ने लगती हैं. सर्वशक्तिमान परमात्मा की परिकल्पना तो असंभव हो जाती है. इसलिए ऋग्वेद में कहा गया, ‘वह काल की, देश की, आयु, मृत्यु और अमरता आदि सबकी पहुंच के बाहर और उनसे परे है. हम इसकी ठीकठीक व्याख्या नहीं कर सकते, सिवाय इसके कि यह अस्तित्व रखती है.’(. . पृष्ठ – 81). यह एक प्रकार का रहस्यवाद ही था. इस संकट से उबरने की कोशिश बौद्ध दर्शन में दिखाई पड़ती है. उसके अनुसार समय चिरंतन है. मनुष्य की भांति वस्तुजगत का भी समय निर्धारित है. समय के सुदीर्घ अंतराल में ब्रह्मांड भी बनतेमिटते रहे हैं.

नासदीय सूक्त में उद्गाता ऋषि ब्रह्मांड की उत्पत्ति की कल्पना शून्य से करता है—नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्, किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीन्दहनं गभीरम्.’ इसका सरल पद्यात्मक अनुवाद यशदेव शल्य द्वारा किया गया है. लेकिन हम मैक्समूलर द्वारा किए गए अनुवाद को लेना चाहेंगे, जिसे डॉ. राधाकृष्णन ने ‘भारतीय दर्शन’ खंड—एक में उद्धृत किया है. उसके अनुसार—‘उस समय न तो सत था, न ही असत्. न आकाश विद्यमान था, न ही उसके ऊपर अंतरिक्ष. तब किसने उसे आवृत कर रखा था. वह कहां था? किसके आश्रय में रखता था? क्या वह आदिकालीन गहनगंभीर जल था? जिसमें समाहित था सबकुछ. मृत्यु का अभाव था. इस कारण अमरताबोध अजन्मा ही था. जिसके माध्यम से दिन और रात का होना निश्चित किया जा सके. केवल और केवल ब्रह्म था, बिना श्वांसप्रश्वांस की प्रक्रिया के जीवित रहने वाला. बाकी था अंधकार, घोर अंधकार….तब फिर कौन जानता है कि सृष्टि कहां से हुई? जिससे इस सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ, उसने इस सृष्टि को बनाया या नहीं बनाया, ऊंचे से ऊंचे अंतरिक्षलोक लोक में, ऊंचे से ऊंचा देखने वाला, वही यथार्थरूप में जानता है, अथवा क्या वह भी नहीं जानता?’(भा. . पृष्ठ 81). सृष्टि के उत्स को जानने के बहाने असल में यह निराकार ब्रह्म की कल्पना थी, जो बहुदेववाद की आलोचनाओं के बीच आवश्यक हो चुकी थी. परमात्मा सृष्टि की कारक सत्ता है. इसलिए वह उससे पहले है. किसी को कोई संदेह न हो, इसलिए ऋग्वेद में यह नासदीय सूक्त से पहले, हिरण्यगर्भ सूक्त के माध्यम से स्पष्ट कर दी जाती है. हिरण्यगर्भ सूक्त में उद्गाता मुनि ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पहले की स्थिति की कल्पना करते हुए लिखता है—हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्. स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय् हविषा विधेम.’ वह था. परंतु क्या था? किस रूप में था? इस बारे में दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता….हम उसकी अभ्यर्थना करते हैं. यह भी एकेश्वरवाद की ओर संकेत रहस्यवादी कल्पना है. उद्गाता ऋषि कल्पना की उड़ान भरतेभरते विराट शून्य में तल्लीनसा प्रतीत होता है और अव्याख्येय को परमात्मा का नाम देकर तसल्ली कर लेता है.

वैदिक साहित्य में समय को लेकर जो आस्थावादी द्रष्टिकोण बना, वह सहòाब्दियों तक बना रहा. उपनिषदों में समय को लेकर चर्चा हुई, परंतु उसी समर्पण भाव के साथ. समय की सत्ता को स्वीकारते हुए. ब्रहदारण्यक उपनिषद में याज्ञव्ल्क्य भी समय के बारे में वैदिक द्रष्टिकोण को ही आगे रखते हैं—‘‘हे गार्गी! वह जो अंतरिक्ष से ऊपर है, और वह जो पृथ्वी के भी नीचे है, वह जिसे मनुष्य भूत, वर्तमान और भविष्य कहते हैं, उस सबकी रचना अंदर और बाहर देश के अंतर्गत है. किंतु फिर इस देश की रचना भीतर और बाहर किसके अंदर हुई? हे गार्गी! सत्य के अंदर, इस अविनाशी के अंदर, सब देश के अंदर और बाहर गुंथा हुआ है’’ बृहदारण्यक 3-6-7). एक अन्य स्थान पर ऋग्वेद में ब्रह्म का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि वह काल की मर्यादा से स्वतंत्र है. अर्थात वह अनित्य है, जिसका न आदि है न अंत. अथवा वह एक तात्कालिक अवधि है जिसे एक नियमित कालव्यवधान की आवश्यकता नहीं है. वह भूत् और भविष्यत् के विचार से मुक्त है(भा. . 142). वेदादि धर्म ग्रंथों में अनादि, अनश्वर, कालातीत, अमर जैसे विशेषण बारबार आते हैं. उसके पीछे एकमात्र कारण था, मृत्यु का भय. इसलिए आस्थावादी दर्शन का बड़ा हिस्सा मृत्यु के चंगुल से बाहर निकल जाने की कोशिश तक सिमटा हुआ है. साफ है कि ‘अमरताबोध’ जैसी परिकल्पना के पीछे भी मृत्युभय निहित था. मृत्यु तथा आकस्मिक रूप से आ धमकने वाली आपदाओं ने ही समय के प्रति डर को जन्म दिया था. अमरत्व की कल्पना का एकमात्र आशय था, समय के साथ अनंतकाल तक बने रहने की सुविधा; या फिर समय की पकड़ के बाहर आकर अनंत में बने रहने की प्रतीति. लेकिन जब आप मृत्यु अथवा उसके पार जाने के लिए कथित अमरता की कल्पना कर रहे होते हैं, तो प्रकारांतर में अंतहीन समय की परिकल्पना कर, उसे भी अमरत्व प्रदान कर रहे होते हैं. आस्थावादी दार्शनिकों के लिए यह कोई समस्या ही नहीं थी. इसलिए ऐसी कल्पनाएं प्रायः हर धर्म ग्रंथ का हिस्सा बनी हैं. श्वेताश्वरोपनिषद कतिपय बाद की रचना है. मगर उसमें भी समय को लेकर इसी प्रकार का आस्थावादी द्रष्टिकोण सामने आता है. परमसत्ता की स्थिति की कल्पना करते हुए उपनिषदकार लिखता है—‘वहां फिर न दिन रहता है, न रात रहती है, न कोई अस्तित्व रहता है, और न कोई अनस्तित्व रहता है—केवल ईश्वर रहता है.’(भा. . 160). इसका भी सीधा सा अर्थ है कि ईश्वर पर समय का कोई असर नहीं पड़ता. वह उसकी पकड़ से बाहर है.

दरअसल समय पर निरपेक्ष सत्ता के रूप में विचार करना वैदिक ऋषियों की प्राथमिकता था भी नहीं. गंभीरतापूर्वक विचार करने पर हम पाएंगे कि वैदिक काल में दर्शन का स्तर अपेक्षाकृत स्थूल था. भारतीय दर्शनों में समय को लेकर थोड़ाबहुत वस्तुनिष्ट चिंतन मिलता भी है तो केवल बौद्ध और जैन दर्शन में. जैन दर्शन में संसार की समस्त वस्तुओं को ‘जीव’ और ‘अजीव’ दो श्रेणियों में रखा गया है. ‘जीव’ में समस्त प्राणी समुदाय आता है. ‘अजीव’ वर्ग में आकाश, पुद्गल, धर्म, अधर्म के अलावा ‘काल’ को भी सम्मिलित किया गया है. ‘अजीव’ को कहींकहीं अर्धद्रव्य की से भी संबोधित किया गया है. तदनुसार ‘काल’ भी अर्धद्रव्य है, ‘यह विश्व की वह सर्वव्यापक आकृति है, जिसके द्वारा संसार की समस्त गतियां सूत्रबद्ध हैं. यह एक व्यवधानपूर्ण परिवर्तनों की शृंखलाओं का केवल जोड़मात्र नहीं है, किंतु स्थिरता की एक प्रक्रिया है—भूत् एवं वर्तमान काल को चिरस्थायी बनाना है(भा. . 256).’ इसमें समय संबंधी दोनों धारणाओं का सम्मिलन दिखाई पड़ता है. सर्वदर्शन संग्रह में अंतरिक्ष और काल को समानधर्मा माना गया है. उसके अनुसार अंतरिक्ष और काल दोनों सर्वव्यापी हैं. इसके बावजूद दोनों में अंतर है. अंतरिक्ष चतुर्विमीय संरचना है. जबकि काल एकपक्षीय विस्तार. सर्वदर्शन संग्रह के अनुसार काल का अस्तित्व तो है, किंतु उसमें कायत्व अथवा विशालता का अभाव है. एक पक्षीय होने के कारण इसमें विस्तार नहीं है.(भा. . 256) जैन ग्रंथ ‘पंचास्तिकारसमयसार’ में समय को लेकर गहन चिंतन मिलता है. देखा जाए तो यही वह ग्रंथ है जिसमें समय के बारे में आधुनिक चिंतन की सच्ची झलक मौजूद है. पंचास्तिकारसमयसार समय को नित्यकाल और सापेक्षकाल में बांटता है. नित्य काल निराकार एवं आदिअंत से सर्वथा मुक्त है. जबकि सापेक्षकाल समय के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण. नित्यकाल का न आदि है न ही अंत. दूसरी ओर सापेक्षकाल का आदि भी है तथा अंत भी. सुविधा के लिए उसको घंटे, मिनट आदि में भी विभाजन किया जा सकता है, ‘नित्यरूप काल को हम ‘काल’ के नाम से एवं सापेक्षकाल को ‘समय’ के नाम से पुकारते हैं. काल समय का महत्त्वपूर्ण कारण है. वर्तन अथवा परिवर्तनों की निरंतरता परिणाम द्वारा अनुमान की जाती है. (पंचास्तिकायसमयसार-89) सापेक्ष समय का निर्णय परिवर्तनों अथवा वस्तुओं के अंदर गति के द्वारा होता है. यह परिवर्तन अपने आपमें निरपेक्षकाल के कार्य हैं. (पंचास्तिकायसमयसार-107-108). काल को चक्र अथवा पहिया या घूमने वाला कहा जाता है. चूंकि काल की गति से सब पदार्थों की आकृति का विलयन संभव होता है, नई आकृतियां जन्म ले पाती हैं—अतएव काल को संहारकर्ता भी कहा गया है. बौद्ध मतावलंबी भी समय को अंतविहीन मानते हैं. बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति के अनुसार संसार सतत प्रवाह है. इसका न आदि है न ही अंत. इसलिए समय का भी न आदि है न अंत.

 

 

प्रकट में, अपनेअपने आग्रहों के फलस्वरूप विज्ञान और दर्शन दोनों ही सृष्टि पूर्व समय की उपस्थिति को नकारते हैं. विज्ञान मानता है महाविस्फोट से पहले समय का कोई अस्तित्व नहीं था. ब्रह्मांड अतिउच्च संपीडन की अवस्था में. रातदिन का अस्तित्व ही नहीं था. महाविस्फोट के साथ ब्रह्मांड का जन्म हुआ और अगले ही क्षण वह तेजी से फैलने लगा. सेकंड के बेहद सूक्ष्म हिस्से के भीतर ब्रह्मांड का आकार दोगुना हो गया. उसके बाद तो यह और भी तीव्र गति से फैलने लगा. आगे चलकर आकाशगंगाएं बनीं. सौरमंडल अस्तित्व में आया. लेकिन वैज्ञानिक भी इतना तो मानते ही हैं कि महाविस्फोट से पहले ब्रह्मांड उच्च संपीडित अवस्था में था. भले ही इतनी सघनावस्था में कि दिनरात आदि का अस्तित्व ही संभव न हो. परंतु महाविस्फोट से पहले भी कुछ था. भले ही वह उच्च संपीडित अवस्था में, बिंदुरूप में हो. वैज्ञानिक यह जानने के लिए सिर नहीं खपाते कि उच्चतम संपीडन की अवस्था कब से थी? क्यों थी? इस बारे में उनकी परिकल्पनाएं मौन दिखाई पड़ती हैं. असल में ब्रह्मांड के अस्तित्व से पहले समय को ले जाने की कठिनाई है कि तब हमें एक और ब्रह्मांड की कल्पना करनी पड़ेगी, भले ही उसका आकार लघुत्तम अथवा बिंदुसम क्यों न रहा हो. जैसा कि बौद्ध दर्शन में किया गया है. वह ब्रह्मांड की नश्वरता के सिद्धांत पर विश्वास रखता है. बौद्ध दर्शन के लिए यह आसान है. इसलिए कि वह आत्मा और ईश्वर के अस्तित्व पर मौन रहने की सलाह देता है. ब्रह्मांड के सातत्य का सिद्धांत उसके लिए कोई मुश्किल खड़ी हीं करता. मगर सर्वेश्वरवादियों के लिए यह संभव नहीं है.

आस्थावादी ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पहले परमात्मा की सत्ता को स्वीकारते हैं. उनके अनुसार समय की कोई बाहरी प्रतीति नहीं है. वह परमात्मा का ही गुण है, उसके भीतर समाया हुआ—‘यह सब भूत और भविष्यत् जगत् पुरुष ही है.’(10/90/2). ऐसे में समय की सत्ता को चुनौती देना, उसके ऊपर सवाल खड़े कर देता है—स्वयं परमात्मा की सत्ता के ऊपर सवाल खड़े करता है. सर्वेश्वरवादी तो परमात्मा को ही सब कुछ मानते हैं. उनके अनुसार यह चराचर जगत, दृश्यअदृश्य सभी सत्ताएं ईश्वरीय चेतना का ही विस्तार हैं. परमात्मा उनके लिए वह अनंत शुभ का पर्याय है. यह सृष्टि उसका अनंत विस्तार है. सीमित ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मनुष्य इसको समझने का प्रयत्नमात्र कर सकता है. इसी को विस्तार देते हुए ऋग्वेद में आगे लिखा गया है—‘हमारे भौतिक विभाग केवल इंद्रियगम्य भौतिक जगत की व्याख्या देश, काल और कारणों से आबद्ध आकृतियों के रूप में कर सकते हैं. किंतु यथार्थ सत्ता इस सबसे परे है. देश को वह अपने अंदर धारण करते हुए भी स्वयं काल की सीमा में बद्ध नहीं, यह काल से ऊपर है. ’ (भा. . – पृष्ठ 142). समय की स्वतंत्र सत्ता सर्वेश्वरवादी मान्यताओं के आगे प्रश्नचिह्न लगा देती है. ईश्वर यदि समय है, अथवा समय ईश्वर की विशिष्टता है तो क्या समय की भांति ईश्वर भी बीतता है? ईश्वर का बीतना अथवा उसकी परिवर्तनकारी अवस्था प्रकारांतर में उसमें विक्षोभ की ओर इशारा करती है. इससे बचने के लिए परमात्मा को मृत्यु और काल की सीमाओं से परे माना गया.

हालांकि समय पूर्व परमात्मा की उपस्थिति अथवा परमात्मा में समय को स्थित मानकर अध्यात्मवादी अपने ही तर्कों के जाल में फंसे नजर आते हैं. होना अपने आप में घटना का प्रतीक है. आस्थावादियों के अनुसार यदि सृष्टि की कारक सत्ता के रूप में ईश्वर पहले से ही अस्तित्व में था तो उसके होने की क्रिया स्वयं सिद्ध है. चाहे वह ईश्वरीय सत्ता के विस्तार के रूप में हो अथवा उसके समानांतर एक स्वतंत्र सत्ता. दूसरे शब्दों यदि सृष्टि से पहले परमात्मा की सत्ता को स्वीकार कर लेते हैं और उससे समस्त घटनाओं की अन्विति मान लेते हैं तो परमात्मा के एक गुण के रूप में अथवा उसके समानांतर, भले ही कितनी ही अवधि के लिए क्यों न हो, समय की उपस्थिति को भी स्वीकार करना पड़ेगा. उस अवस्था में नए सवालों का सिलसिला शुरू हो जाता है. सृष्टि से पहले परमात्मा यदि परमशांत अवस्था था, जैसा कि अध्यात्मवादी स्वीकार करते हैं, तो उसके कथित निष्क्रिय अवस्था से सक्रिय अवस्था में आने तक कुछ न कुछ अंतराल अवश्य रहा होगा. यदि वह निरपेक्ष निष्क्रिय सत्ता के रूप में मौजूद था, तो भी उसके होने की क्रिया अपने आप में स्वयं एक घटना है. आशय है कि दोनों अवस्थाओं में चाहे वह महाविस्फोट से पहले अंतरिक्ष के उच्च संपीडन की अवस्था हो अथवा सृष्टि की प्रमुख कारक शक्ति परमात्मा के रूप में—व्यावहारिक समय की मौजूदगी से इन्कार नहीं किया जा सकता. क्योंकि ऐसी अनेकानेक वस्तुएं हैं जिनके होने की क्रिया से हमारा सीधा परिचय नहीं है. इसके बावजूद हम उनके होने को स्वीकार करते हैं. जैसे अंतरिक्ष.

उस अवस्था में विकास की अभी तक ज्ञात समस्त परिकल्पनाएं सवालों के घेरे में आ जाती हैं. इससे बचाव का दूसरा उपाय भी है कि यह कि समय की सत्ता और उसके अस्तित्व को ही चुनौती दी जाए. यह मान लिया जाए कि अंतरिक्ष की भांति वह भी एक भ्रांति है. घटनाओं की क्रमिकता और मानवस्मृति के योग से बना एक एहसास मात्र है. प्रत्येक घटना अपनी विशिष्ट गति से संपन्न होती है. उसके अनुसार हमारे मनस् पर स्मृति के योग से बना प्रभाव समयांतराल की प्रतीति देता है. यहां एक सामान्यसा प्रश्न उठाया जा सकता है कि घटनाओं के प्रभाव, क्रमानुक्रम अथवा उनकी अन्वति से परे समय क्या है? यदि यह माना जाए कि समय भूतभविष्य, वर्तमान आदि न होकर अंतरिक्षसम संचरना है और घटनाएं उसके भीतर घटती रहती हैं, तो घटनाओं की आवृत्ति, क्रमानुक्रम से परे भी क्या समय की प्रतीति संभव है? यदि हां, तो तब समय की प्रतीति और अंतरिक्ष की प्रतीति के बीच भेद कैसे संभव होगा. वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड के जन्म से पहले उच्च संपीडन की अवस्था तथा अध्यामवादियों की दृष्टि में ब्रह्मांड से पहले परमात्मा की मौजूदगी अपने आप में स्वयं एक घटना थी. तदनुसार किसी न किसी रूप में सृष्टिपूर्व समय की उपस्थिति भी अवश्य रही होगी, भले ही अपनी सीमाओं में हमारा मस्तिष्क उसकी कल्पना कर पाने में असमर्थ हो. समय की सत्ता को मान्यता प्रदान करना, ऐसी ही उलझनों से दोचार होना है. दर्शन का कार्य ऐसी ही चुनौतियों से संवाद करते रहना है.

समय को लेकर मौलिक चिंतन पश्चिम में इमानुएल कांट के दर्शन में प्राप्त होता है. विशेषकर समय और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में. क्या ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई? अथवा यह हमेशा ऐसा ही था? इमानुएल कांट के लिए यह विवेचना का विषय था. कांट जीवन में नैतिक मूल्यों को महत्त्व देता था और विचारों से उसका द्रष्टिकोण समन्वयवादी था. उसको लगता कि समय के प्रति लोगों के मन में समाया डर अनेक नैतिक समस्याएं खड़ी कर देता है. भयभीत मनुष्य दूसरों को भूलकर केवल अपनी चिंता करने लगता है. इसलिए समय और ब्रह्मांड के अस्तित्व को लेकर तत्कालीन चिंताएं उसके दर्शन का हिस्सा भी बनीं. दोनों पर विचार करने के बाद उसको लगा कि दोनों ही विचारधाराओं में न केवल अंतर्विरोध हैं, बल्कि वे अतिवादी भी हैं. यदि यह माना जाए कि किसी बिंदू पर ब्रह्मांड की शुरुआत हुई तो फिर कर्ता ने शुरुआत के लिए अनंतकाल तक प्रतीक्षा क्यों की? आखिर क्या कमी थी, जो अपने संरचना को लंबे समय तक दबाए रखा. और यदि यह मान लिया जाए कि ब्रह्मांड अनंतकालीन सत्ता है, उसमें बस परिवर्तन होते रहते हैं हैं तो ब्रह्मांड ने अपनी पुरानी स्थिति से, इसको बिग बैंग कहें या कुछ और, वर्तमान अवस्था तक आने में इतना लंबा समय क्यों लिया? कांट ने इन दोनों धारणाओं को क्रमशः ‘थीसिस’ और ‘एंटीथीसिस’ का नाम दिया. लेकिन समय को लेकर वह किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सका.

कांट के समय तक भी अधिकांश दार्शनिकों का विचार था कि समय निरपेक्ष और अपरिवर्तनशील सत्ता है. वह अनंत भूतकाल से अनंत भविष्य की ओर अग्रसर है. महाविस्फोट(बिग बैंग) सैद्धांतिकी ने भले ही समय को ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पहले मानने से इन्कार कर दिया था, मगर अधिकांश दार्शनिकों का कहना था कि समय अनंत भूतकाल से अनंत भविष्य की ओर अग्रसर है. वह इससे अप्रभावित है कि उसकी पृष्ठभूमि में किसी ब्रह्मांड का अस्तित्व है या नहीं? इन्हीं चुनौतियों ने आइंस्टाइन को समय को चौथा आयाम स्वीकारने के लिए प्रेरित किया था. प्रयोगों के आधार पर आइंस्टाइन ने सिद्ध किया कि समय पर भी ब्रह्मांड की दूसरी गतिविधियों का प्रभाव पड़ता है. समय संबंधी उसके दो प्रयोग चौंकानेवाले थे—पहला यह कि यदि स्रोत और प्रेक्षक दोनों के बीच वेग की स्थिति है और विस्थापन बढ़ रहा है, उस अवस्था में यदि स्रोत टार्च का प्रकार प्रेक्षक पर डालकर देखता है, तो स्रोत और प्रेक्षक के बीच वेग की चाहे जो स्थिति हो, प्रकाशवेग दोनों के लिए एकसमान रहेगा. दूसरा समय की सिकुड़न का विचार था. आइंस्टाइन से पहले माना जाता था कि समय का वेग हर स्थिति में एक ही होता है. मगर आंइस्टान ने अपने सापेक्षिकता के सिद्धांत द्वारा सिद्ध किया था कि यदि अलगअलग पिंडों पर मौजूद दो व्यक्ति समय का आकलन करते हैं और उनमें से एक अतिउच्च वेग, प्रकाशवेग के बराबर से गमितान है तो गतिशील पिंड पर मौजूद प्रेक्षक के लिए समय ठहरा हुआ प्रतीत होगा. यह मानते हुए कि प्रकाश वेग से उच्च वेग असंभव हैं और समय के वेग को प्रकाशवेग से कम आंकने पर दूसरी समस्याएं खड़ी हो सकती हैं, आइंस्टाइन ने समय के वेग को प्रकाशवेग के बराबर माना.

आइंस्टाइन के शोध से आगे बढ़ते हुए पेनरोज और स्टीफन हाकिंग इस नतीजे पर पहुंचे थे कि यदि सापेक्षिकता का सिद्धांत सही है तो ‘परमबिंदू’(सिंगुलैरिटी) की अवस्था भी होनी चाहिए, जिसमें उन्होंने अनंत घनत्व और दिक्काल कर्वेचर वाले ऐसे बिंदू की कल्पना की थी, जहां से समय की शुरुआत होती है. यदि हम समय को प्रकाश जैसा वेगवान मान लेते हैं या फिर हाकिंग के शब्दों में परमबिंदू की कल्पना करने लगते हैं तो, प्रकाश की ही भांति समय भी भौतिक पदार्थ सिद्ध हो जाता है. जैसा निरीश्वरवादी जैन दर्शन मानता है. उसमें समय को अर्धद्रव्य माना गया है. मगर इससे भी शंकाओं का समाधान नहीं हो पाता. क्योंकि द्रव्य हो या अर्धद्रव्य, दोनों ही नश्वर हैं. उस अवस्था में समय को भी एक न एक दिन नष्ट हो जाना चाहिए. परंतु समय ऐसी कोई प्रतीति नहीं देता. वह हमारे चारों और घट रही घटनाओं के रूप में निरंतर अपने होने का एहसास कराता है. यदि ध्यानपूर्वक देखें तो हाकिंग द्वारा प्रस्तुत परमबिंदू की अवस्था घटनाओं की परमशून्यता की स्थिति भी है, जहां समय की परख के लिए संभावनाएं ही समाप्त हो जाती हैं. कुल मिलाकर समय एक पहेली के रूप में हमारे सामने आता है. सुलझाने के लिए यदि हम पीछे की ओर लौटते हैं तो उसकी पैठ सुदूर अतीत में दिखाई पड़ती है. यदि भविष्य की ओर झांकते हैं तो वह हम सबसे कहीं आगे चल रहा मुसाफिर जान पड़ता है.

क्रमशः….

© ओमप्रकाश कश्यप

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