इतिहास समंदर के समान होता है. उसका काम होता है स्मृतियों के नगीनों को सहेज-संभाल कर रखना. ताकि आने वाली पीढ़ियां उससे सबक ले सकें. इसके लिए आवश्यक है कि इतिहास-लेखन का कार्य पूरी ईमानदारी और जिम्मेदारी की भावना के साथ किया जाए. अधिकतम ग्राह्यता एवं प्रामाणिकता के लिए उसमें पर्याप्त वस्तुनिष्ट संवेदनशीलता भी हो. चूंकि इतिहास स्वयं कुछ नहीं होता. उसे गढ़ने वाले महापुरुष, अमर सेनानी, लेखक-कवि-कलाकार-चिंतक आदि होते हैं, जबकि उसको लिखने वाले कलमकार अलग. इसलिए स्वाभाविक रूप से इतिहास पर उसके लेखक के पूर्वाग्रहों की छाया होती है. इतिहास की सामान्य कमजोरी यह भी है कि वह केवल शीर्षस्थ स्थितियों का दस्तावेज रचता है, इसलिए उसको जनविरोधी आख्यान की संज्ञा भी दी जा सकती है. पूर्वाग्रहयुक्त इतिहास अतीत की कसौटी कभी नहीं बन पाता, बल्कि स्वयं उसको अपनी प्रामाणिकता वक्त की कसौटी पर दर्शानी पड़ती है. सामाजिक परिवर्तनशीलता के दौर में इतिहास के नाम पर थोपी गईं छद्मपूर्ण स्थापनाएं लंबे समय तक नहीं टिक पातीं. ऐसे में इतिहास के सामने विश्वसनीयता का संकट खड़ा हो जाता है. यह स्थिति चिंताजनक होती है, क्योंकि किसी भी राष्ट्र-समाज के इतिहास पर प्रामाणिकता का संकट स्वयं उस राष्ट्र-समाज के अस्तित्व का संकट बन सकता है, जिससे उबरने के लिए लंबे समय और संघर्ष की जरूरत पड़ती है.
इतिहास चूंकि शासक के नजरिये से लिखा जाता है, इसलिए उसमें शासक तथा उसकी पसंदों की छाया एकदम स्पष्ट होती है, जिससे सत्ताकेंद्रों से अपनी निकटता के कारण कुछ अपात्र व्यक्ति भी इतिहास के पन्नों में घुसपैठ कर जाते हैं, तो कभी उपयुक्त पात्रों को भी उनका अधिकार नहीं मिल पाता. इसी पूर्वग्रहग्रस्तता के कारण वह विलक्षण मेधाओं, वास्तविक नायकों के मूल्यांकन में अक्सर चूक कर बैठता है. इतिहास के झूठ से मनुष्यता तो अपमानित होती ही है, स्वयं उसे भी भारी नुकसान उठाना पड़ता है. पुराने समय में इतिहास-लेखन राज्याश्रित विद्वानों द्वारा, अक्सर अपने आश्रयदाता के इशारे पर लिखा जाता था. उनकी विद्वता भी अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने की क्षमता से तय की जाती थी. राज्य-प्रदत्त सुख-सुविधाओं से उऋण होने की कामना ऐसे विद्वानों से आश्रयदाता का विरुदगान ही लिखवा पाती थी, जिसे उन्हीं की तरह के चंद सुविधाभोगी राज्य-भट्ट इतिहास की संज्ञा दे देते थे. इसलिए बहुत-से विद्वान इतिहास को सत्ता का उच्छिष्ट कहते आए हैं. ऐसे इतिहास के समक्ष सबसे बड़ा संकट होता है अपनी विश्वसनीयता को बनाए रखना. अतः सत्ता-परिवर्तन के समय उसकी प्रामाणिकता खतरे में पड़ जाना आम बात होती थी.
ऐतिहासिक विमर्शों की सामान्य कमजोरी यह भी है कि वे अपने समय की टीका रचने के बजाय उसके लोकप्रिय संवादों को ज्यादा महत्त्व देते हैं. अपनी स्मृति का बड़ा हिस्सा वे इन्हीं लोकप्रिय संवादों की सुरक्षा में लगाए रखते हंै. इस प्रक्रिया में कई बार महान व्यक्तियों का सही-सही मूल्यांकन नहीं हो पाता। इतिहास को भटकाने में, विशेषकर पूंजीवादी व्यवस्था मे, बाजार की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण होती है. बाजार की मांग के सिद्धांत के आधार पर बाजार प्रायः उन वस्तुओं को चर्चा के केंद्र में ले आता है, जो बहुतायत की पसंद होने के कारण लोकप्रियता की श्रेणी में आती हैं. इससे बाकी तथ्य अनायास ही नेपथ्य में जाने लगते हैं. समाज एक बार फिर अपनी ऐतिहासिक विरासत के साथ खिलवाड़ करता हुआ नजर आता है. मगर विज्ञापनों की चकाचैंध और शोर-शराबे के बीच वह तुरंत उसकी उपेक्षा कर आगे बढ़ जाता है. चूंकि बाजार अपने समय के अधिकांश संचार-साधनों पर नियंत्रण भी रखता है, अतः बाकी चीजें चाहे-अनचाहे नेपथ्य में जाने लगती हैं. इसका नुकसान पूरे समाज को उठाना पड़ता है, क्योंकि तब व्यक्ति के लिए विवेकपूर्ण चयन के अवसर घट जाते हैं. वह केवल उन वस्तुओं, विचारों में से चयन के लिए विवश होता है, जिन्हें प्रायोजित मीडिया और बाजार निहित स्वार्थों के लिए उसके ऊपर थोप देना चाहते हैं.
बाजार और सत्ता की पसंद को इतिहास में स्थान मिलने का उदाहरण विश्व के महान चित्रकार लियोनार्दो दा विंसी के मूल्यांकन में भी देखा जा सकता है. जनसामान्य में लियोनार्दो की प्रतिष्ठा प्रायः उनकी दो महान चित्रकृतियोंµ‘मोनालिसा’ और ‘लास्ट सपर’ के कारण है. वह केवल इतना जानता और समझता है कि लियोनार्दो दा विंसी एक महान चित्रकार थे. समाचार पत्र-पत्रिकाओं में लियोनार्दो के अपने सहायकों के साथ कथित अंतरंग संबंधों को लेकर जब-तब, तरह-तरह की चटखारेदार कहानियां पाठकों के बीच परोसी जाती रहती हैं. कुछ महीने पिछले ‘लास्ट सपर’ मीडिया के बीच इसलिए चर्चा में चली आई थी कि क्योंकि उन्हीं दिनों रिलीज हुई एक फिल्म में इस चित्र से जुड़ी रहस्यात्मक किवदंतियों का लोकलुभावन ढंग से उपयोग किया गया था. चित्र की कलात्मक श्रेष्ठता का कोई जिक्र किए बिना मीडिया सिर्फ उस किवदंती को ही चटखारेदार भाषा में परोस रहा था. इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘मोनालिसा’ की रहस्यमय मुस्कान ने अपने चित्रकार की ख्याति को चार चांद लगाए हैं, मगर यह भी सच है कि उसी के कारण उसके बहुआयामी व्यक्तित्व का मूल्यांकन भी ढंग से नहीं हो पाया है. कला की दृष्टि से देखा जाए तो लियोनार्दो ने ‘लास्ट सपर’ और ‘मोनालिजा’ जैसी कई महान चित्रकृतियों कि रचना की थी. बावजूद इसके जितनी चर्चा इन दोनों कृतियों और विशेषरूप में मोनालिसा की होती है, उतनी किसी और की नहीं. कारण यही है कि मोनालिसा की मुस्कान जितने लोकप्रिय संवाद रचने में सहायक होती है, उतनी उसकी दूसरी कृतियां नहीं रच पातीं. या उनमें वह मसाला नहीं है, जो लोकरुचि को बाजार के अनुकूल मोड़ दे सके. यह मानव-व्यक्तित्व के समस्त गुणों का देहीकरण तथा उसे भी कुछ खास अवयवों तक सीमित कर देने जैसा है. स्त्रीदेह के इसी अवयवीकरण को लेकर कुछ वर्ष पहले राजेंद्र यादव ने जब एक मारक टिप्पणी की थी, उस समय पूरा हिंदी जगत उबल पड़ा थाµशब्द-सूरमाओं में अपना नाम लिखवाने. मोनालिसा की अनूठी मुस्कान और उसके कारण लियोनार्दो को जानने वालों में से कितने ऐसे हैं जो यह जानते हैं कि उनका महान चित्रकार अपने समय का महानतम वैज्ञानिक, इंजीनियर, शरीरविज्ञानी, वास्तुविद् और स्वप्नदृष्टा दार्शनिक भी था. यह लियोनार्दो ही था जिसने आज से लगभग पांच सौ वर्ष युद्धक टेंक और हेलिकाप्टर का डिजाइन तैयार किया. रोबोट की परिकल्पना की. मानव शरीर की आंतरिक संरचना का अध्ययन कर, विभिन्न अंगों के प्रामाणिक चित्र भी बनाए. इसके अलावा भी अपने समय में लियोनार्दो ने इतने आविष्कार किए हैं कि उनके कारण उसको न्यूटन, थाॅमस अल्वा एडीसन जैसे महान वैज्ञानिकों की श्रेणी में रखा जा सकता है.
जीवनयात्रा
आगे जानने से पहले उचित होगा कि महान लियोनार्दो के जीवन-चरित्र के कुछ पन्ने पलट लिए जाएं. विश्व की विलक्षण प्रतिभा, वैज्ञानिक, इंजीनियर, चित्रकार, विचारक, गणितज्ञ, समाज-सुधारक, शरीरविज्ञानी, वास्तुविद् लियोनार्दो का जन्म 15 अप्रैल, 1452 को इटली के विंसी (फ्लोरेंस) नामक क्षेत्र में हुआ. उसी इटली में जहां आगे चलकर मुसोलिनी जैसा तानाशाह जन्मा, जिसने हिटलर के साथ मिलकर पूरे विश्व को भीषण युद्ध की भट्टी में झोंक दिया था. एक विरोधाभास देखिए कि लियोनार्दो को प्रगतिशील आंदोलन का जनक माना जाता है, जबकि मुसोलिनी ने लोकाधिकार की सर्वत्र उपेक्षा नागरिकों को सर्वसत्तावादी तंत्र के हवाले कर दिया था. लियोनार्दो के पिता का नाम था सेर पियरो. एक संपन्न जमींदार, जिनकी आसपास के इलाके में खूब प्रतिष्ठा थी. अपने उत्तराधिकारी की चाहत में एक के बाद एक चार विवाह कर चुके सेर पियरे के देर तक किसी भी पत्नी से कोई संतान नहीं हुई. जब हुई, तब तक लियोनार्दो बाइस वर्ष का युवा हो चुका था. उसकी मां कैटरीना पियरे के खेतों में काम करने वाली साधारण मजदूर थी. लियोनार्दो के जन्म के कुछ ही समय पश्चात कैटरीना स्थानीय शिल्पकार से विवाह करके उसके साथ रहने लगी. लियोनार्दो अकेला पड़ गया. चूंकि वह पियरे की विवाहिता पत्नी नहीं थी, इसलिए जन्म के समय लियोनार्दो को उसके पिता की अवैद्य संतान माना गया.
बचपन में पिता की कोई और संतान न होने का लाभ लियोनार्दो को यह मिला कि उसको पिता के संरक्षण में, घर ही पर पढ़ने का अवसर मिल गया. आगे चलकर लियोनार्दो को वैद्य संतान का दर्जा भी प्राप्त हो गया. पिता सेर पियरे चाहते थे कि वह लैटिन में विद्वता प्राप्त करे, जो उस समय तक ज्ञान-विज्ञान और विचार की प्रमुख भाषा थी. मगर लियोनार्दो की रुचि चित्रकारी में अधिक थी. हालांकि आगे चलकर जब प्रकृति विज्ञान के अध्ययन का अवसर मिला तो उसने उसमें भी मनोयोगपूर्ण हिस्सा लिया, और अपनी विलक्षण प्रतिभा की छाप छोड़ी. मगर गणित उसके लिए हमेशा जटिल पहेली बना रहा. चित्रकला के प्रति उसकी रुचि का खयाल रखते हुए पिता ने शिक्षा की उपयुक्त व्यवस्था कर दी थी. स्वाभिमानी लियोनार्दो ने पिता के इस एहसान को पूरे मन से स्वीकार किया, मगर उनके कुलनाम से स्वयं को दूर ही रखा. उसके पूरे नाम ‘लियोनार्दो द सेर पियरे दा विंसी’ का अभिप्राय हैµ‘लियोनार्दो, विंसी के सेर पियरे का बेटा.’ जन्म से जुड़ी इस विडंबना का असर लियोनार्दो के मन पर सदैव बना रहा. बचपन के इस अभावों ने उसको अंतर्मुखी बनाया. अपने ही भीतर रमे रहने, रहस्यमय जीवन जीने और खुद से संवाद करने की उसकी प्रवृत्ति आजीवन बनी रही.
लियोनार्दो असाधारण प्रतिभाशाली था. उसका दिमाग बड़ी तेजी से सोचता. उतनी ही तेजी से वह अपने विचारों को लिखता भी रहता. शब्द साथ देने में असमर्थ दिखते तो वह चित्रों और प्रतीकों की भाषा में अपने विचारों को कैद करने लगता. टहलते समय वह प्रायः अकेला ही निकलता, अपनी पैनी निगाह से आसपास के वातावरण को परखता हुआ चलता. कान प्रकृति की हर नई आहट को पकड़ने के लिए आतुर दिखाई पड़ते. देह में प्रकृति के स्पंदनों से उमगाई रहती. राह चलते जैसे ही कोई नया दृश्य या अनोखा विचार कौंधता, वह अपनी बेल्ट में खोंसी हुई नोटबुक निकालकर फटाफट उसको नोट कर लेता, शब्द नहीं तो रेखाओं का सहारा लेता. उस समय उसकी निगाह और उंगलियां आसमान में उड़ते पक्षियों से होड़ करती हुई नजर आतीं. दोस्त कम ही थे. किसी का साथ उसको पसंद भी कहां था. सो जिधर निकल जाता, वहीं रम जाता. प्रकृति जैसे उसको अपनी बिछुड़ी हुई मां की गोद जैसी लगती. उसके सान्निध्य में वह खुद को कुछ देर के लिए बिसरा देता. चीजों को परखने की विलक्षण दृष्टि थी उसके पास. एक बार जिसे देख लेता, वह मानो दिमाग में टंक जाता. आसमान में उड़ते पक्षी की झलक-भर देख उसको रेखाओं में उकेर देना उसके लिए सामान्य बात थी. यही आदत आगे भी बनी रही.
लियोनार्दो ने प्रारंभिक शिक्षा घर पर रहकर ही प्राप्त की थी. करीब पंद्रह साल की उम्र से ही कला उसके जीवन का आधार बन चुकी थी. लियोनार्दो की रुचि को देखते हुए पिता ने उसको वेरोशियो की एक मशहूर कार्यशाला में प्रशिक्षण के लिए भेज दिया. भविष्य के वैज्ञानिक, इंजीनियर, चित्रकार, विचारक, गणितज्ञ, समाजसुधारक, शरीरविज्ञानी और वास्तुविद् लियोनार्दो का असली जन्म वहीं पर हुआ. वहां के एक अध्यापक तकनीकी ज्ञान को भी समान महत्त्व देते और सतत इस प्रयास में रहते थे कि उनके विद्यार्थी विज्ञान एवं तकनीकी में हो रही वैचारिक क्रांति से भी लाभ उठाएं. उनके सान्निध्य में रहते हुए लियोनार्दो ने पेंटिंग और मूत्र्तिकला के अलावा तकनीकी ज्ञान भी प्राप्त किया. वहां अपना प्रशिक्षण पूरा करने के बाद वह उस समय के प्रख्यात चित्रकार, मूर्ति-शिल्पी अंतोनो पाॅलियोलो की कार्यशाला में जाकर काम सीखने लगा. वहां उसे शरीरविज्ञान, वनस्पति विज्ञान, प्रकृति विज्ञान के क्षेत्र में और भी गहराई तक जाने का अवसर मिला. अपने समय के प्रतिष्ठित कलाकारों के साथ काम करने का लियोनार्दो को पूरा लाभ मिला. 1472 में लियोनार्दो को स्थानीय चित्रकार संघ ने अपने संगठन में सम्मिलित कर लिया. इसके बाद वह चित्रकार संघ की प्रयोगशाला में काम कर सकता था, बावजूद इसके लियोनार्दो अगले पांच वर्षों तक पाॅलियोलो के साथ ही काम करता रहा, परिणाम यह हुआ कि उसकी मेधा एक साथ अनेक क्षेत्रों में परिपक्व होती गई.
कला के क्षेत्र में लियोनार्दो की धमक उसकी किशोरावस्था से ही सुनाई पड़ने लगी थी. मात्र पेंसिल और पेन के उपयोग से बनाए गए गए अनेक चित्रों को देखकर पारखी विस्मित रह जाते थे. उसके आरंभिक चित्रों में से सबसे पहली कृति स्थानीय घाटी का लेंड स्केप है, जो इंक पेन का उपयोग करते हुए उसने 5 अगस्त 1473 को बनाया था. प्रारंभिक सफलताओं से उत्साहित होकर लियोनार्दो ने चित्रकला को ही अपना मुख्य व्यवसाय बनाने का निश्चय किया. वह लगातार नए विषयों के बारे में सोचता. इससे उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती गई, हालांकि बिक्री के लिहाज से आरंभिक दिनों में उसके चित्रों की बाजार-मांग कम ही थी. मगर इसकी लियोनार्दो को पहचान ही कहां थी. कला उसके व्यक्तित्व का हिस्सा, उसका जुनून थी. अपने इसी जुनून की खातिर 1476 में उसने स्वतंत्र कार्यशाला आरंभ की. उसके भी प्रारंभिक अनुभव बहुत अच्छे नहीं रहे. अगले दो वर्षों में लियोनार्दो को केवल दो ही आर्डर प्राप्त हो सके. बावजूद इसके बिना निराश हुए वह अपने काम में लगा रहा. कुछ ही वर्षों में उसकी ख्याति चतुर्दिक फैलने लगी. लियानार्दो का मानना था कि कला केवल सहेजने की वस्तु अनुभव नहीं है, न उसका काम केवल ऐतिहासिक प्रतीकों-घटनाओं का संरक्षण करना है. उसका वास्तविक लक्ष्य मानवीय संवेदनाओं एवं जीवनमूल्यों के सहसंबंधों का उदात्तीकरण करते हुए उन्हें सहेजना है, ताकि वे अपने समय-समाज के साथ संवाद कर सकें. किशोरावस्था से यौवन की दहलीज पर कदम रखते हुए उसने एक के बाद बाद एक अनेक चित्र बनाए. उसके द्वारा बनाए गए खास चित्रों में बेप्टिज्म आॅफ क्राइस्ट, मेडोना विद दि काॅरनेशन, मेडोना बेनोइस, पोर्टेट आॅफ जिनेवरा दि बेंसी, सेंट जेरोम तथा ऐडोरेशन आॅफ दि मेगी प्रमुख थे. रंगीन चित्रों के अतिरिक्त उसने दर्जनों चित्र केवल पेन तथा पेंसिल की मदद से बनाए थे. युगानुकूल सोच एवं मौलिक प्रतीक रचना के बल पर लियोनार्दो के चित्रों की मांग लगातार बढ़ती गई. अपनी रहस्यमय जीवन शैली और कुछ चित्रों के कारण वह अपने जीवन में कई बार विवादों के घेरे में भी आया, लेकिन हर बार उसकी प्रसिद्धि का ग्राफ ऊंचा और ऊंचा चढ़ता गया.
यूरोपीय इतिहास में पंद्रहवीं शताब्दी वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति के लिए विख्यात है. लियोनार्दो की प्रतिभा इस क्षेत्र में भी अपना कमाल दिखा रही थी. पेंसिल और पेन की सहायता से उसने दर्जनों ऐसे स्केच बनाए जो आगे चलकर वैज्ञानिक एवं अभियांत्रिकीय आविष्कारों के जनक बने. लेकिन उसके जीवन में परिवर्तनकारी मोड़ 1482 ईस्वी में तब आया, जब उसको मिलान के शासक सम्राट लुडोविको स्र्फोजा की ओर से सम्मानपूर्ण प्रस्ताव भेजा गया. उस समय उसकी आयु केवल तीस वर्ष थी. उन दिनों अपने अध्ययन के प्रशिक्षणकाल से गुजर रहा था, इसलिए उसको मिला सम्मान उसके मौलिक सोच एवं मेधा की विलक्षणता का प्रतीक था. भेंट के समय युवा लियोनार्दो ने अपनी कुछ पेंटिग्स, जिनमें उसकी अधूरी चित्रकृति ‘दि ऐडोरेशन आॅफ दि मेगी’ भी सम्मिलित थी, सम्राट स्र्फोजा को भेंट कीं. उससे प्रभावित होकर सम्राट ने लियोनार्दो को मिलान में अपनी कार्यशाला आरंभ करने के लिए सभी आवश्यक सुविधाएं प्रदान कराने का ऐलान कर दिया. उसने सम्राट को वचन दिया कि वह अपनी अधूरी कृतियों को मिलान में रहकर पूर्ण करेगा, परंतु निरंतर आगे और नए-नए विषय पर सोचने वाली उसकी मेधा दुबारा अपने ही बनाए चित्रों पर उतनी एकाग्र न हो सकी, कि अधूरे काम को आगे बढ़ाया जा सके.
मिलान का सम्राट स्र्फोजा साम्राज्य के संस्थापक, अपने पूर्वज सम्राट फ्रांस्सिको स्र्फोजा की स्मृति में एक विशालकाय घुड़सवार मूर्ति का निर्माण कराना चाहता था. लियोनार्दो को आमंत्रित करने के पीछे उसका उद्देश्य भी यही था. इसलिए लियोनार्दो के मिलान पहुंचते ही सम्राट ने सत्तर टन कांसा उस परियोजना के लिए सुरक्षित रखवा दिया था. मिलान में कुल बिताए सतरह वर्षों में से बारह वर्ष लियोनार्दो उस महत्त्वपूर्ण परियोजना की तैयारी में लगा रहा. मूर्ति-शिल्प के दर्जनों स्केच तैयार किए गए. यहां तक 1493 में बादशाह मैक्सीमिलन तथा बाइंका मारिया स्र्फोजा के विवाह के अवसर पर उस मूर्ति-शिल्प का मिट्टी का माॅडल बनाकर खुले मैदान में प्रशिक्षण के लिए भी रख दिया गया. मान लिया गया कि सम्राट स्र्फोजा की सर्वाधिक महत्त्वाकांक्षी परियोजना विशालकाय ‘महान कावेलो’ नामक मूर्तिशिल्प को पूरा करने की समस्त तैयारियां हो चुकी हैं. बहुत जल्द वह साकार भी होने वाली है. तभी मिलान पर युद्ध के बादल मंडराने लगे. 1495 में फ्रांस ने सम्राट चाल्र्स अष्ठम ने पूरे दलबल के साथ उसपर आक्रमण कर दिया. मिलान की सेना हथियारों की कमी का सामना कर रही थी. उनके निर्माण के लिए कांसे की तात्कालिक जरूरत को देखते हुए मूर्तिशिल्प के लिए सुरक्षित रखी धातु को पिघलाना पड़ा. लियोनार्दो की अनुमति पर उसका उपयोग युद्धक तोपें बनाने के लिए कर लिया गया. उस युद्ध में मिलान स्वयं को बचाने में कामयाब रहा, लेकिन लियोनार्दो की वह महत्त्वाकांक्षी मूर्ति कभी पूरी न हो सकी.
बीसवीं शताब्दी के मध्यकाल में लियोनार्दो की एक डायरी में उस मूर्तिशिल्प की परिकल्पना की गई है, जिसमें उसके कई स्केच बनाए गए है. अंतिम स्केच में मूर्तिशिल्प की ऊंचाई पंाच मीटर रखी गई थी, जो पंद्रहवी शताब्दी में बाकी मूर्तिशिल्पों को देखते हुए सबसे महान परिकल्पना थी. उस डायरी से यह भी पता चलता है कि लियोनार्दो उस परियोजना को लेकर पूरी तरह गंभीर नहीं था, शायद इसीलिए वह उसपर लगातार काम टलता चला गया. इस बीच सम्राट स्र्फोजा के लिए वह निरंतर नई-नई कलाकृतियां तैयार करता रहा. मिलान का दुर्भाग्य था कि उसके तीन वर्ष बाद लुइस सप्तम के नेतृत्व में फ्रांस ने उसपर दुबारा हमला किया, इस बार बिना युद्ध किए ही मिलान ने हार मान ली. नया शासक लियोनार्दो की प्रतिभा से परिचित था. उसके आग्रह पर वह मिलान में ही बना रहा. किंतु 1498 में एक दिन जब उसने फ्रांसिसी सैनिकों को ‘महान कावेलो’ के मिट्टी के माॅडल पर तीरंदाजी का अभ्यास करते हुए देखा तो उसका मन वहां से ऊब गया. उसके कुछ महीने बाद लियोनार्दो मिलान को अलविदा कह, अपने मित्र लूका पेसियोली के साथ वेनिस के लिए प्रस्थान कर गया.
वेनिस में एकदम नया जीवन उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. वहां का शासक लियोनार्दो की विलक्षण प्रतिभा का उपयोग नए हथियारों के विकास के लिए करना चाहता था. वहां उसकी नियुक्ति इंजीनियर के पद पर की गई. काम था, युद्धक साम्रगी के लिए नए डिजाइन बनाकर उनके निर्माण-कार्य को आगे बढ़ाना. इसके लिए उसे वेतन के रूप में मोटी धनराशि और सम्मान देने का आश्वासन दिया गया था. मगर वेनिस में लियोनार्दो का मन बहुत अधिक न रम सका. मात्र दो महीने के भीतर उसने वेनिस छोड़कर अपने मूलप्रांत के लिए प्रस्थान कर दिया. अप्रैल 1500 में वह पुनः फ्लोरंेस लौट आया. जहां उसको तत्कालीन महान योद्धा और सेनापति सीजर बोर्गिया का सान्न्ध्यि मिला। उसकी सेवा में वह मिल्ट्री आर्कीटेक्ट तथा इंजीनियर के रूप में काम करने लगा. कुछ ही समय में दोनों के बीच गहरी दोस्ती हो गई. सीजर के साथ रहते हुए लियोनार्दाे ने पूरी इटली की यात्राएं कीं. जहां उसको अनेक विद्वानों से भंेट करने का अवसर मिला. इससे उसकी ख्याति में और भी निखार आता चला गया.
मिलान अभी भी लियोनार्दो की स्मृति का अटूट हिस्सा बना हुआ था. उसके द्वारा वहां बताए गए दिन बहुत सक्रिय और चुनौतीपूर्ण थे. एक साथ वैज्ञानिक, इंजीनियर, चित्रकार, मूर्तिकार, प्रकृतिविज्ञानी के रूप में कार्य करते हुए वहां उसने प्रायः हर क्षेत्र में अपनी मौलिक प्रतिभा की छाप छोड़ी थी. अपने 17 वर्ष के प्रवास के दौरान उसने कई महान पेंटिग्स की रचना की, जिनमें कुछ अधूरी थीं. मिलान प्रवास के दौरान बनाए गए महान चित्रों में से एक उसकी विश्वप्रसिद्ध कृति ‘लास्ट सपर’ भी है. इसके अलावा ‘पोर्टेट आॅफ केसिला गार्लेनी एंड ए म्युजिशियन’ जिसे उसने ‘लेडी विद एक एरमाइन’ शीर्षक दिया है. इसी की शृृंखला में अगली पेंटिंग ‘दि वर्जिन आॅफ दि राॅक्स’ एवं ‘गे्रजी’ थीं. मिलान में बनाए चित्रों में कुछ चित्र अधूरे थे. 1506 में भाड़े के सैनिकों की मदद से मिलान को फ्रांस्सियों से मुक्त करा लिया गया. लियोनार्दो को वहां के तत्कालीन शासक मैक्सीमिलिन स्र्फोजा की ओर निमंत्रण प्राप्त हुआ तो वह स्वयं को खुद को रोक न सका और सीजर की सेवाओं से मुक्त होकर पुनः मिलान लौट गया. जहां उसको फिर युद्ध-साम्रगी के निर्माण में योगदान देना पड़ा.
1513 में लियोनार्दो रोम की यात्रा पर निकल गया, जहां वह तीन साल तक रहा. लियोनार्दो के जीवन के पिछले छह वर्ष, उसकी अब तक की बेशुमार उपलब्धियों और वैश्विक ख्याति के बावजूद चुनौतियों से भरे थे. 1513 में जब उसने अपने दो प्रमुख शिष्यों मेल्जी तथा सलाई के साथ रोम के लिए प्रस्थान किया तो उस समय उसकी उम्र साठ की सीमा को पार कर चुकी थी. लियानार्दो को आशा थी कि रोम जाकर उसको कुछ न कुछ काम अवश्य मिलेगा, क्योंकि उस समय मिलान की स्थितियां उसके लिए प्रतिकूल हो चुकी थीं. रोम के नए पोप लियो दशम के भाई गुलिनो दि मेडिसी के साथ लियोनार्दाे के अच्छे संपर्क थे, जिनसे उसको बल मिला था. गुलिनो ने लियोनार्दो के ठहरने के लिए दो कमरों का एक मकान उपलब्ध कराते हुए हर महीने नियमित राशि देने का भी आश्वासन दिया, ताकि वह आसानी से रह सके. रोम प्रवास के दौरान वह राफेल, दांतो ब्रेमांट और माइकलेंजेलो जैसे महान चित्रकारों से मिला, जिनकी उस समय पूरे रोम में धूम मची हुई थी. ब्रेमांट को छोड़ बाकी दोनों के साथ उसकी मैत्री जम न सकी. मगर उनका प्रभाव लियोनार्दो ने उनका प्रभाव जरूर ग्रहण किया. वे दोनों महान चित्रकार भी उसकी प्रतिभा देखकर चमत्कृत रह गए. लियोनार्दो के लिए रोम प्रवास बहुत अर्थपूर्ण न सिद्ध हो सका. वहां वह लगभग एकाकी, बिना किसी खास काम के वह पूरे तीन वर्षों तक रहा. उन दिनों रोम में भारी मात्रा में निर्माण कार्य चल रहा था. दूसरे चित्रकारों, वास्तु-शिल्पियों के पास काम की कोई कमी नहीं थी. राफेल, माइकलोएंजिलो, दांतो ब्रामांट यहां तक कि पेरेजी, टिमोटियो, विटी, सोडोमा, जैसे लियोनार्दो से उम्र में छोटे और कम प्रतिभाशाली चित्रकारों-वास्तुविद्ों के पास काम की कमी न थी. ऐसे में लियोनार्दो खुद को काफी उपेक्षित अनुभव कर रहा था.
उदास और एकाकी जीवन जी रहे लियोनार्दो के जीवन का अगला मोड़ 1515 में तब आया जब उसको फ्रांस से बुलावा आया. एक ऐतिहासिक अवसर लियोनार्दो की प्रतिभा के प्रदर्शन की बाट जोह रहा था. पोप लियो दशम तथा फ्रांस के सम्राट के बीच शांति-वार्ता प्रस्तावित थी. उस अवसर को गरिमामय बनाने के लिए लियोनार्दो को एक लौह-सिंह बनाने का निमंत्रण मिला. फ्रांस पहुंचने के बाद वह पहले सम्राट से मिला. 1516 में लियोनार्दो को सम्राट की सेवा में रख लिया गया. रहने के लिए उसको राजभवन से मिली क्लोस लूस नामक आलीशान भवन उपलब्ध करा दिया गया. लियोनार्दो वहां तीन वर्ष रहा. सम्राट की ओर से लियोनार्दो और उसके सहयोगियो के नाम पेंशन के रूप में मोटी रकम बांध दी गई. जो उसको अबाध रूप में मिलती रही. वहां भी लियोनार्दो की उपस्थिति एक सम्मानित अतिथि के रूप में ही अधिक रही. सिवाय सम्राट की मां के लिए स्वतंत्र राजमहल का प्रारूप तैयार करने के उसको वहां कोई मुख्य काम नहीं दिया गया. लेकिन फ्रांस में अपने जीवन के अंतिम दिनों में रहते हुए लियोनार्दो को अपने विचारों और अनुभवों को कलमबद्ध करने का पूरा अवसर मिला. वहीं 2 मई, 1519 में उस महान कलाकार, दार्शनिक, वैज्ञानिक, वास्तुविद लियोनार्दो का निधन हो गया.
उस समय तक लियोनार्दो की प्रतिष्ठा देश-विदेश की सीमाओं को पार कर चुकी थी. फ्रांस के सम्राट और लियोनार्दो के बीच गहरी मैत्री थी. माना तो यह भी जाता है कि लियोनार्दो ने अपनी आखिरी सांस फ्रांसिसी सम्राट की बाहांे में ही ली थी. वह आजीवन अविवाहित रहा था. अपने उत्तराधिकारी के रूप में उसने मेल्जी को चुना था. मगर मेल्जी ने लियोनार्दो के आजीवन साथ रहने वाले उसके सहयोगी मित्र सलाई को जायदाद का एक हिस्सा खुशी-खुशी सौंप दिया. लियोनार्दो की अंतिम इच्छा के अनुसार उसकी शवयात्रा में साठ भिखारियों को सम्मिलित किया गया था. उसकी मृत्यु के लगभग बीस वर्ष बाद एक अवसर पर उसको याद करते हुए फ्रांसिसी सम्राट ने उस समय के एक बड़े कलाकार बेनवनुतो सेलिनी से कहा थाµ
‘लियोनार्दो से पहले ऐसा कोई इंसान नहीं हुआ जो वास्तुशास्त्र, चित्रकला और मूर्तिशिल्प की उसके बराबर जानकारी रखता हो, इससे भी अधिक खास बात यह कि वह एक महान दार्शनिक था.’
मिलान में अपने पहले प्रवास के दौरान ही लियोनार्दो को हाथ में कापी-पेन लेकर चलने का चस्का लगा था. उस समय चारों ओर फैले विस्तृत भूभाग में, खुले आसमान के नीचे बिखरी विपुल प्राकृतिक संपदा, थरथराती नदी की लहरों के ऊपर, धरती पर पलते जीवन से जुड़ा जो भी दृश्य उसकी आंखों को भा जाता, या जो विसंगति मन को आड़ोलित कर जाती, उसको उसकी दृष्टि निमिषमात्र में कैद कर लेती थी. उसी के साथ मस्तिष्क का संकेत पाते ही उंगलियां हरकत में आ जातीं. कुछ ही पलों में उस चित्र का स्केच कापी में समा जाता. कोई नया विचार दिमाग में आ धमकता तो वह भी चित्र की बगल में लेटकर उसकी शोभा बढ़ाने लगता. कापी न होने पर खुले कागज और वह भी न हो तो रास्ते में पड़ा रद्दी कागज भी दिख पड़े तो उसके भाग्य संवर जाते. स्केच पूरा होते ही लियोनार्दो कागज-कापी को अपनी बेल्ट में खोंसकर आगे बढ़ जाता. किसी नए चित्र, नए बिंब, नए विचार की तलाश में. आगे जो चित्र पसंद आता, उसके साथ फिर वही क्रियाएं दोहराई जातीं. कार्यशाला में जाकर वह उन चित्रों को एक के बाद एक निहारता, कहीं कुछ छूटा हुआ महसूस होता तो पेंसिल को हरकत देता. फिर सारे के सारे स्केच एक सुनियोजित क्रम में किसी बड़ी चित्रकृति का हिस्सा बन जाते. विचार अलग डायरी को शोभामंडित करने लगते. खेतों में काम करने वाले किसान-मजदूर अडोल खड़े लियोनार्दो की उंगलियों को जल्दी-जल्दी अपना काम करते हुए देखते. कुछ उसको पागल समझते, जो उसकी प्रतिभा से परिचित थे, वे उसको आदर से सिर नवाते, फिर रास्ते से अलग हट जाते. मिलान में रहते हुए लियोनार्दो की प्रतिभा कई क्षेत्रों एक साथ अपना कमाल दिखा रखी थी. कला और मूर्तिकारी के अलावा वह विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी उतनी तेजी से काम कर रहा था और इसमें उसको बराबर कामयाबी भी मिलती जा रही थी.
लियोनार्दो की प्रसिद्ध चित्रकृतियों में दि बेपटिज्म आॅफ क्राइस्ट(1472-1475), अनुनशिएसन(1475-1482), जिनेवरा द’बेंसी (1475), दि बेनीओस मेडोना(1478-1480), दि वर्जिन विद फ्लावर(1478-1481), दि मेडोना आॅफ दि राॅक्स(1483-1486), एडोरेशन आॅफ मेगी(1481), लेडी विद एरमाइन(1488-90), पोर्टेट आॅफ ए म्युजीशियन, मेडोना लिट्टा(1490-91), लास्ट सपर(1498), मोनालिजा या ला जीयोकोंडा(1503-1505/1507), लीडा एंड स्वान(1508), दि वर्जिन एंड चाइल्ड विद सेंट ऐनी(1510), संेट जाॅन बेपटिस्ट (1514), इनमें से लियोनार्दो के दो चित्रों ‘लास्ट सपर’ तथा ‘मोनालिजा’ पर चर्चा करना आवश्यक लगता है, क्योंकि उन्हीं के कारण लियोनार्दो लगभग पांच सौ वर्ष से जनसामान्य के बीच अपनी खास पहचान बनाए हुए है.
दि ‘लास्ट सपर’ नाम की लियोनार्दो की चित्रकृति दुनिया की सबसे प्रसिद्ध चित्रकृतियों में से एक है. इसकी प्रसिद्धि का कारण इसकी महान सादगी में निहित है. चित्र में बाईबल के नए विधान में उल्लेखित एक घटना को आधार बनाया गया है. जिसमें ईसामसीह अपने बारह शिष्यों के साथ रात्रिकालीन भोजन में व्यस्त हैं. उस समय ईसामसीह की एक टिप्पणी उनके शिष्यों को चैंका देती है. अपने शिष्यों को सुनाते हुए वे कहते हैं, ‘आप में से जो इस समय मेरे साथ भोजन कर रहें, एक मेरे साथ विश्वासघात करेगा.’ यह सुनते ही उनके शिष्यों में हड़बड़ी मच जाती है. शिष्यगण इसे अपने ऊपर आरोप मानकर नाराज हो जाते हैं. लेकिन ईसामसीह अपने स्थान पर शांत बैठे रहते हैं, मानो अपनी दिव्यदृष्टि से भविष्य को साफ देख रहे हों. एक शिष्य ईसामसीह की ही तरह शांत बैठा रहता है, मानो वह सबकुछ जानता हो. वह है, उनका एक प्यारा शिष्य जूदास. चित्र में सभी कुछ बहुत सादगी और गंभीरता के साथ दर्शाया गया है. इसीलिए यह चित्र पूरी दुनिया में पहचाना जाता है. लियोनार्दो की ख्याति को स्थिर बनाए रखने वाली दूसरा चित्र है मोनालिसा. जो उसने फ्लोरेंस में अपने प्रवास के दौरान बनाया था. चित्र में मोनालिसा की मुस्कान आज तक सौंदर्यवादियों के लिए एक रहस्य बनी हुई है. इसमें मोनालिसा का आंतरिक सौंदर्य अपने आप फूटकर बाहर आता हुआ महसूस होता है.
पाश्र्वलेखन की कला
लियोनार्दो अपने नियमित लेखन में में भी विलक्षण था. अपने शब्दों को प्रायः वह खुद ही पढ़ पाता. इसलिए नहीं कि उसका लेख बहुत गंदा था. न इसलिए कि जल्दबाजी में वह पढ़ने लायक लिख ही नहीं पाता था. न वह कूट भाषा का उपयोग करता था, न अपनी बात को गोपनीय और दूसरों से छिपाकर रखना चाहता था. बस समझ लीजिए कि वह उसको अच्छा लगता था, इसलिए पसंद भी आता था. पाश्र्व लेखन, यानी वह लिखाई जिसकी शुरुआत दाईं ओर से हो और बाईं ओर तक जाए. धारा के विपरीत. जिसको दर्पण में देखकर ही पढ़ा जा सके. लियोनार्दो को बाएं हाथ से काम करना रास आता था. अपना सारा काम वह पाश्र्व लिपि में ही करता. सिवाय उन लेखों के जिन्हें वह दूसरों से पढ़वाना चाहता. या दूसरों के पढ़ने के लिए लिखता था. पाश्र्व लेखन अथवा मिरर राइटिंग से लियोनार्दो को इतना प्यार था कि उसकी डायरियां यहां तक कि कुछ पुस्तकें भी, पूरी की पूरी पाश्र्व लेखन में लिखी गई हैं. यांत्रिकी के मूल सिद्धांतों पर लिखी गई उसकी एक पुस्तक पूरी की पूरी पुस्तक पाश्र्व लेखन में है. इसके अतिरिक्त वास्तुशास्त्र तथा चित्रकला पर लिखे गए उसके कुछ महत्त्वपूर्ण नोट्स, तथा मानव शरीर पर आधारित एक शोधात्मक पुस्तक का प्रथम अध्याय भी पाश्र्वलेखन में हंै, जो अब भी पेरिस और मेड्रिड के पुस्तकालयों में ऐतिहासिक धरोहर बने हुए हैं. कई बार अपने नोट्स को सुधारते समय भी वह मिरर राइटिंग का प्रयोग करता था. यह बात बहुत हैरान करने वाली है कि उसके कई लेख तो साफ लिखावट के साथ इतने कल्पनाशील और सहज-प्रवाहयुक्त हैं कि उन्हें देख यह सोचकर हैरानी होती है कि इतनी क्षिप्र और सहज प्रवाहयुक्त कल्पना को शब्द देने के लिए लियोनार्दो ने पाश्र्व लेखन जैसी अपेक्षाकृत जटिल पद्धति का चयन क्यों किया.
कुछ विद्वान लियानार्दो के पाश्र्व लेखन के पीछे तकनीकी कारण भी खोजने का प्रयास करते हैं. उन दिनों पंख से बनी कलम का उपयोग लेखन के लिए किया जाता था. जिसको धक्का देकर आगे ले जाने के बजाय उसको अपनी ओर खींचना सरल होता है. वाम-हस्थ लेखन का उपयोग करते हुए वामहास्थिक व्यक्ति अपेक्षाकृत आसानी से कलम को दाएं से बाएं ला सकते हैं. इससे कागज पर रोशनाई के छिटकने अथवा धब्बा लगने की संभावना भी कम हो जाती है. चूंकि लियोनार्दो के दिमाग में विचार बहुत तेजी से आते थे, इसलिए भी वह वामहस्थ लेखन का उपयोग करता था, विचारों की आंधी में से, बिना एक पल भी व्यर्थ गंवाए, एक साथ ज्यादा से ज्यादा विचार लपककर उन्हें कागज पर टांक सके. असली कारण कुछ और भी हो सकता है. दरअसल जीनियस व्यक्ति को सामान्य अवधारणाओं के दायरे में नहीं बांधा जा सकता. उसपर लियोनार्दो जैसी जीनियस प्रतिभा तो शताब्दियों में ही जन्म लेती है. लियोनार्दो के पाश्र्व लेखन पर टिप्पणी करते हुए फ्रांसेस्का डेबोलिनी ने लिखा हैµ
‘वामहास्थिक होने के कारण लियोनार्दो के लिए पाश्र्व लेखन आसान और अनुकूल था. लेकिन उसके लिखे को गोपनीय विषयवस्तु की तरह नहीं लेना चाहिए. लियोनार्दो के समकालीन विद्वानों ने भी माना था कि अपवादस्वरूप एकाध अवसर को छोड़कर उसकी लिपि ऐसी है जिसे दर्पण के माध्यम से बहुत आसानी से पढ़ा जा सकता है. मगर यह सचाई है कि वह जीवन-भर पाश्र्व लेखन में रमा रहा. यहां तक कि उसकी साफ पांडुलिपियों में भी, जो उसने धीरे-धीरे बहुत ही सुपाठ्य और सुलेख के रूप में लिखी हैं, पाश्र्व लेखन का उपयोग किया गया है. इससे हम यह निष्कर्ष निकालने को बाध्य होते हैं कि लियोनार्दो ने अपने लेखन में यद्धपि लगातार एक काल्पनिक पाठक को संबोधित किया है, बावजूद इसके यह भी सही है कि उसने अपने लेखन में कभी सुगम शैली अपनाने का प्रयास नहीं किया. लियोनार्दाे द्वारा सामान्य लेखन-शैली में यदाकदा लिखे गई पत्र-साम्रगी, टिप्पणियां, अन्य व्यक्तियों के लिए लिखे गए लेख दर्शाते हैं कि वह उस शैली में भी पूर्णतः पारंगत था. लियोनार्दो द्वारा पाश्र्व लेखन शैली में लिखी गई विपुल सामग्री को देखकर इस बात का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वह ‘धाराप्रवाह लेखन का महारथी’ था.
लियोनार्दो के लेखन की दूसरी विशेषता, जो उसके युग को देखते हुए अनूठी ही कही जाएगी, यह थी कि अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए वह शब्दों के साथ-साथ चित्रों का भी उतना ही सहारा लेता था. चित्रों के कारण उसकी भाषा न केवल स्पष्ट बल्कि बोलती हुई महसूस होती है. उसकी शब्द-संपदा विपुल थी, जिसको उसके गहन अध्ययन का सुफल माना जा सकता है. निर्विवाद रूप से लियोनार्दो को यह श्रेय दिया जाता है कि उसने इटली की लोकभाषा को वैज्ञानिक शब्दावली से समृद्ध करने का काम किया. दूसरी ओर विशेषकर अध्यापन के समय लियोनार्दो ने लिखित शब्दों की व्याख्या के लिए चित्रों का सहारा लेने का काम किया. उससे पहले पाठ्यः साम्रगी की व्याख्या के लिए चित्रों का उपयोग करने की परंपरा नहीं थी. बल्कि चित्रों की व्याख्या के लिए शब्दों का उपयोग होता रहता था. साफ है कि लियोनार्दो ने एक नई शैली विकसित करने का काम किया था. उस शैली को उसने प्रदर्शनकला का नाम दिया था. इसके आधार पर कहा जा सकता है कि वह आधुनिक वैज्ञानिक लेखन का प्रवत्र्तक था.
वैज्ञानिक आविष्कार एवं अभियांत्रिकी योगदान
लियोनार्दो में सर्जनात्मक प्रतिभा कूट-कूट कर भरी थी. अपने समकालीनों में वह सबसे अलग है, सबसे विलक्षण और सर्वाधिक मौलिक. तत्कालीन विद्वानों में ऐसा कोई नजर आता जो एक साथ इतने क्षेत्रों में सक्रिय रहा हो और सभी में समानरूप से अपनी सफलता प्राप्त की हो. इसमें भी कोई संदेह नहीं कि लियोनार्दो के चित्रों और वास्तुशिल्पों ने उसको प्रसिद्धि के उच्चतम सोपान पर स्थापित करने का काम किया था. लियोनार्दो ने भी अपनी मौलिक प्रतिभा से उसको समृद्धि प्रदान करने का काम किया. उसके द्वारा पाश्र्व लिपि में लिखे गए लगभग 13000 विभिन्न विषयों पर नोट्स प्राप्त हुए हैं, जिनमें कला, विज्ञान, इंजीनियरिंग, वास्तुकला आदि विभिन्न विषयों पर लिखे गए हजारों लेख मौजूद हैं. इन लेखों से लियोनार्दो की बहुमुखी प्रतिभा का अनुमान लगाया जा सकता है. गणित की कम जानकारी होने के कारण लियोनार्दो ने अपने विषय की अभिव्यक्ति के लिए बड़े-बड़े विवरणों का सहारा लिया है. शायद यही कारण है कि उसके समकालीन वैज्ञानिकों ने लियोनार्दो को एक वैज्ञानिक के रूप में स्वीकार करने में उदासीनता दिखाई थी. इसका एक कारण उसकी लेटिन के बारे में कम जानकारी भी थी, जो उन दिनों सभी महत्त्वपूर्ण विमर्श की प्रमुख भाषा थी. हालांकि आगे चलकर लियोनार्दो ने लेटिन में पारंगत होने का प्रयास करने, उसमें शोधप्रबंधों की एक लंबी शृंखला लिखने की भी घोषणा की थी, मगर इस काम में वह कभी सफल न हो सका. बावजूद इसके वैज्ञानिक, शरीर-विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान जैसे अनेक विषयों में मौलिक शोधों के क्षेत्र में उसका योगदान अविस्मरणीय है.
आगे के अनुच्छेदों में हम लियोनार्दो द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में किए गए योगदानों पर संक्षिप्त चर्चा करेंगे:
शरीर विज्ञान
शरीर विज्ञान के प्रति लियोनार्दो की रुचि उसके बचपन से ही थी. संयोगवश वेरोशियो में प्रशिक्षण के दौरान उसके एक अध्यापक का भी प्रिय विषय शरीर विज्ञान ही था. वह अपने सभी विद्यार्थियों को शरीर विज्ञान की शिक्षा देने पर जोर देता था. कला के क्षेत्र में अपनी धाक जमा देने के बावजूद लियोनार्दो ने शरीर विज्ञान के क्षेत्र में अपने अध्ययन और प्रयोगों को जारी रखा. उसकी लगन को देखते हुए उसको फ्लोरेंस के संत मारिया अस्पताल, नोवा में चिकित्सकीय कार्यों के लिए मानव-शवों की चीरफाड़ करने की अनुमति प्राप्त हो गई. अपने अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए लियोनार्दो ने मृत देह पर अपना अगला प्रयोग मिलान में किया. उसके बाद तो रोम और फ्रांस के प्रायः सभी अस्पतालों ने लियोनार्दो को अपना अध्ययन करने की अनुमति प्रदान कर दी. इस बीच उसे अपने समय के महान चिकित्सकों के संपर्क में आने और उनके अनुभव जानने का भी अवसर मिला. परिणामस्वरूप वह शरीर की आंतरिक कार्यप्रणाली को समझने लगा. उससे आगे के तीस सालों में लियोनार्दो लगभग तीस स्त्री और पुरुष शवों की चीरफाड़ कर चुका था. अपने सहयोगी डाॅक्टर मार्केंटोनियो के साथ काम करते हुए लियोनार्दो ने अपने अध्ययनों के आधार एक पुस्तक तैयार करने का काम किया. उसका विषय शरीर विज्ञान ही था. उस शोध-प्रबंध में अपने विषय को स्पष्ट करने के लिए लियोनार्दो ने 200 से अधिक चित्रों का सहारा लिया था. हालांकि उसकी शरीर विज्ञान के संबंधित वह पुस्तक उसके जीवनकाल में प्रकाशित न हो सकी. उसका पहला संस्करण 1680 में, लियोनार्दो की मृत्यु के लगभग 161 वर्ष पश्चात ही प्रकाशित हो पाया. मानवदेह के अतिरिक्त लियोनार्दो ने गाय, बंदर, पक्षी, भालू, तथा मेडकों के शरीर की भी चीरफाड़ कर, उनके माध्यम से मानव-शरीर की कार्यप्रणाली को समझने का प्रयास किया था.
अपनी कला का उपयोग करते हुए लियोनार्दो ने मानव-कंकाल के अनेक चित्र बनाए. उसने मानव-खोपड़ी की आंतरिक संचरना, रीढ़ की हड्डी की वक्रीय रचना, मस्तिष्क, गुर्दे, जननेंन्द्रियों, मूत्राशय आदि शरीर के विविध अंगों के अनेक चित्र बनाकर, उनकी संरचना को समझाने का प्रयास किया है. वह स्त्री के गर्भ में पलते हुए भ्रूण को प्रकृति का बड़ा चमत्कार मानता था. उसने पहली बार मानव-भ्रूण की गर्भस्थ स्थिति की स्थिति की परिकल्पना करते हुए उसने अनेक चित्र बनाए. उसने गले और कंधे की नसों और मांसपेशियों को भी रेखाचित्रों के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया. वह भूगर्भशास्त्र और प्रकृति विज्ञान का विलक्षण विद्वान था. यहां उल्लेखनीय है कि लियोनार्दो का अध्ययन केवल शरीर के हिस्सों के चित्र निर्माण तक ही सीमित नहीं था. बल्कि उसने विभिन्न अंगों की संरचना और उनकी अलग-अलग कार्यप्रणाली का भी विशिष्ट अध्ययन किया था.
मानव-प्रकृति विज्ञान का अध्ययन करते हुए उसने यंत्रचालित मनुष्य की परिकल्पना भी की. रोबोट का सपना तो शताब्दियों बाद साकार हो सका, लेकिन उसका पहला माॅडल बनाने का श्रेय लियोनार्दो को ही प्राप्त है. लियोनार्दो ने रोबोट का डिजायन 1495 में बना लिया था, लेकिन शताब्दियों तक उसका आविष्कार अज्ञानता के अंधेरे में डूबा रहा. 1950 में लगभग साढ़े चार सौ वर्ष बाद उसकी दुबारा खोज की तब जाकर दुनिया को लियोनार्दो के उस अमूल्य योगदान के बारे में जानकारी मिली. दरअसल रोबोट बनाने का लियोनार्दो का मकसद सिर्फ देह में रक्तप्रवाह का अध्ययन करना था. उसको विश्वास था कि हृदय रक्त को मांशपेशियों में प्रवाहित करता है, जहां वह सोख लिया जाता है. अपने विचार को स्पष्ट करने के लिए लियोनार्दो ने मानव हृदय का एक चित्र भी बनाया था, जिससे प्रेरणा लेते हुए 2005 एक ब्रिटेन के एक डाॅक्टर ने दिल के आपरेशन की एक नई विधि का आविष्कार किया.
भौतिक विज्ञान
लियोनार्दो ने लंबा जीवन युद्धक सामग्री के निर्माणकार्य का नेतृत्व करते हुए बिताया था. पक्षियों को आकाश में मुक्त उड़ान भरते देख वह रोमांचित हो उठता और खुद को अपनी कल्पना के सहारे आसमान में उड़ते हुए महसूस करता. अपनी उसी कल्पना को मूर्त रूप देते हुए लियोनार्दो ने उड़ते हुए पक्षियों का अध्ययन करते हुए कई उड़ान-युक्तियों का आविष्कार किया, जिनमें हेलीकाॅप्टर भी था. लियोनार्दो का हेलीकाॅप्टर चार व्यक्तियों द्वारा चलाया जाता था. अपनी तकनिकी खामियों के कारण लियोनार्दो का हेलीकाॅप्टर का प्रयोग सफल न हो सका, लेकिन उससे हार माने बिना वह अपने प्रयोगों का सिलसिला आगे बढ़ाता रहा. अगले चरण में उसने एक ग्लाइडर के निर्माण में सफलता प्राप्त की. लियोनार्दो द्वारा बनाए गए ग्लाइडर से का पहला परीक्षण 3 जनवरी 1496 को किया गया. लेकिन हेलिकाप्टर की भांति लियोनार्दो का वह प्रयोग भी असफल ही रहा.
सिविल इंजीनियरिंग
निर्माणक्षेत्र में अपनी सूझबूझ का परिचय देते हुए लियोनार्दो ने एक पुल की अभिकल्पना की, लगभग 240 मीटर लंबा वह पुल केवल एक आधार पर टिका हुआ था. लेकिन इंस्तांबुल के सुलतान बयाजिद द्वितीय ने जिसके लिए उस पुल की अभिकल्पना की थी, एक आधार पर टिके पुल को असंभव रचना मानकर उसका निर्माण करने से इंकार कर दिया था. लियोनार्दो की अभिकल्पना की जांच के लिए मई 2001 में नार्वे ने उसके आधार पर एक छोटे पुल का निर्माण कराया गया. जिसे इंजीनियरों द्वारा जांच करने के उपरांत उस पुल को पूरी तरह निर्माण-योग्य पाया. इसपर अपनी ऐतिहासिक भूल मानते हुए तुर्की सरकार ने 2006 में लियोनार्दो-पुल का नाम देते हुए उसकी अभिकल्पना के आधार पर पुल के निर्माण का लिया गया है. गतिविज्ञान के क्षेत्र में अपना योगदान सुनिश्चित करते हुए लियोनार्दो ने 1490 में एक स्केच बनाया, जिसमें उसने सतत परिवर्तनशील गतिज प्रसारण की की युक्ति का अभिकल्पन किया था. लियोनार्दो के डिजायन का परिष्कृत रूप आधुनिक ट्रेक्टर, मोटरसाइकिल, वर्फगाड़ियों में वर्षों से किया जा रहा है.
युद्धक सामग्री का निर्माण
चैदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी के बीच संसार में साम्राज्यवाद का बोलबाला था. छोटे-बड़े साम्राज्य अपने स्वार्थ के लिए आपस में लड़ते रहते थे. इसलिए उस समय युद्धक साम्रगी की जरूरत पड़ती रहती थी. नए युद्धक हथियारों की खोज बड़े साम्राज्यों की खास जरूरत हुआ करती थी. ताकि वे न केवल अपने अस्तित्व को बचाए रख सकें, बल्कि अवसर पड़ने पर कमजोर राज्यों को हमला कर उन्हें हड़प सकें. मामूली विषयों, प्रतिष्ठा आदि के कारण भी युद्ध अक्सर होते ही रहते थे. यह भी विडंबना ही कही जाएगी कि प्रकृति को सबसे अधिक प्यार करने वाले लियोनार्दो की अद्भुत कल्पना शक्ति का प्रयोग साम्राज्यवादी शक्तियों ने निहित स्वार्थों के लिए भी खूब किया. युद्ध-साम्रगी के निर्माण में सहयोग देते हुए लियोनार्दो ने अनेक सैन्य उपकरणों का आविष्कार किया. जिनमें मशीनगन, हथियारयुक्त टेंक का निर्माण भी सम्मिलित है. लियोनार्दो का टेंक मनुष्यों द्वारा चलाया जाता था. उसने उस टेंक का एक परिष्कृत रूप भी तैयार किया था, जिसके संचालन के लिए घोड़ों की सहायता ली जाती थी, जिसके मारक क्षमता उसके पिछले संस्करण से कहीं अधिक थी. युद्ध को घातक हथियारों से लैस करने के लिए उसने क्लस्टर बम, बनाए. पेराशूट का डिजायन तैयार किया. उसका पेराशूट सुअर के चमड़े से निर्मित था. पेराशूट को उड़ाने के लिए हवा का उपयोग किया जाता था, उसमें हवा एक पाइप द्वारा पहुंचाई जाती थी. पहली पनडुब्बी के आविष्कार का श्रेय भी लियोनार्दो को ही जाता है. गणना के काम को सरल बनाने के लिए लियोनार्दो ने एक दंतचक्र युक्ति का निर्माण किया, जिसको पहला यांत्रिक केलकुलेटर माना जाता है. स्पिं्रग का उपयोग करके उसने एक रोबोट का निर्माण किया, जो दिए गए दिशा-निर्देशों के अनुसार गति करता था.
ऊर्जा संरक्षण
रोम के प्रसिद्ध वेटिंकन नगर में रहते हुए लियोनार्दो ने पहली बार एक ऐसा प्रयोग किया, जो ऊर्जा संरक्षण के काम में आधुनिक विद्वानों को भी चैंका सकता है. अवतल दर्पणों का प्रयोग करते हुए उसने सौरऊर्जा का उपयोग पानी गर्म करने के लिए किया और सफलता प्राप्त की. इनके अलावा ऐसे भी कई माॅडल रहे, जिनका वास्तविक निर्माण लियोनार्दो के जीवनकाल में संभव न हो सका. लियोनार्दो के रेखाचित्रों में दर्शाई गई कई युक्तियों पर विश्वप्रसिद्ध कंपनी आईबीएम ने अनेक माॅडल बनाए हैं, जो लियोनार्दो दा विंसी संग्राहलय में सुरक्षित हैं.
अन्य चारित्रिक विषेशताएं
विश्व के महानतम चित्रकारों में से एक लियोनार्दो की अन्य चारित्रिक विशेषताएं भी विस्मय में डालने वाली हैं. तेज दिमाग चाल में चीते जैसी फुर्ती और तेज नजर रखने वाला वह अद्भुत चितेरा पूरी तरह शाकाहारी था. यहां तक कि दुग्ध उत्पादों को लेने से भी बचता था. उसके जीवनीकारों ने लिखा है कि वह प्राणीमात्र के प्रति बेहद संवेदनशील था. उसकी नैतिक अवधारणाएं असाधारण थीं. प्राणीमात्र के जीवन को एक जैसा सम्मान देते हुए जीवन के अंतिम वर्षों में उसने पूर्ण-शाकाहार को अपना लिया था. वह अक्सर कहा करता था कि गाय के थन से दूध निकालना, चोरी के अपराध जैसा है. इसपर जब किसी ने उससे पूछा था कि उसी वक्ष से जिससे मक्खन निकाला जाता है. लियोनार्दो ने इसका तीव्र प्रतिवाद करते हुए कहा था कि नहीं, यह बछड़े के मुंह से भोजन निकालना जैसा है.
लियोनार्दो की संवेदनशीलता और उसकी दयालुता को दर्शाती हुई एक कहानी का उल्लेख उसके समकालीन इटली के महान चित्रकार और लेखक वासेरी ने किया है. उसके अनुसार उन दिनों फ्लोरेंस में एक लड़का पिंजडे में पक्षियों को लेकर आता था. लियोनार्दो की जैसे ही उसपर निगाह पड़ती, वह तत्काल उसको आवाज देकर रोक लेता और पिंजरे में कैद सभी पक्षियों का मोल देकर खरीद लेता था, और फिर उन्हें जंगल में लेजाकर खुले आसमान में विचरने के लिए आजाद कर देता था. वह लड़का लियोनार्दो के स्वभाव का लाभ उठाते हुए पक्षियों को अन्यत्र बेचने के बजाय सीधे लियोनार्दो के घर के समीप ले चला आता था, ताकि उसको तत्काल कीमत मिल सके. अपनी इसी न्यायप्रियता और संवेदनशीलता के कारण लियोनार्दो को सौंदर्य और लालित्य की प्रतियोगिताओं में सम्मानित न्यायाधीश की तरह नियुक्त किया जाता था. उसका सौंदर्यबोध उसके चित्रों, विशेषकर मोरों की उपस्थिति में भी नजर आता है.
लियोनार्दो और उसके जीवन से जुड़ी विचित्र घटनाओं और कहानियों में से एक यह भी है. दिसंबर 2006 में कुछ मानवविज्ञानियों ने यह दावा किया था कि उन्होंने लियोनार्दो की बाईं उंगली के निशानों की अनुकृति तैयार कर ली है. उसके आधार पर मानव-विज्ञानियों का मानना है कि लियोनार्दो की उंगली के निशान के साठ प्रतिशत लक्षण अरब लोगों से मिलते-जुलते हैं. यह निष्कर्ष भी दर्शाता है कि लियोनार्दाे की मां एक दास थी, जो वहां तुर्की के महानगर कोस्टेंटिनोपिल से लाई गई थी.. मानवविज्ञानियों ने लियोनार्दो के खानपान संबंधी रुचियों और उसके वातावरण का भी विश्लेषण किया है. लियोनार्दो के स्वाभाव से जुड़ी एक और विचित्र बात यह है कि वह सोते समय बहुत छोटी-छोटी बहुखंडीय नींद लेने का अभ्यस्त था. सामान्य पांच-छह घंटे की नींद लेने के बजाय उसको नींद के छोटे-छोटे झोंके आते थे. वही उसकी कल्पना को सपनों को विस्तार देते थे.
लियोनार्दो की महानता असंदिग्ध है. मगर उसके चरित्र के कुछ पहलु विवादित भी हैं. जिन्होंने एक तरह से उसके व्यक्तित्व को बहसों और आलोचनाओं के दायरे में लाने का काम किया है. उसका निजी जीवन बहुत ही रहस्यमय था. बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि अपने निजी जीवन में उसको दूसरों का दखल कतई स्वीकार नहीं था. वह आजीवन अविवाहित रहा. अपने जीवन में वह किसी स्त्री से प्रभावित हुआ हो, इस बारे में कोई संकेत नहीं हैं. यहां तक कि संतति प्रजनन के लिए अनिवार्य काम-संबंधों को लेकर भी उसकी एक आलोचकीय दृष्टि थी. स्त्री-पुरुष के बीच संभोग को लेकर उसका मानना था कि ‘प्रजनन संबंधी सहवास और तत्संबंधी अन्य क्रियाएं इतनी भद्दी और बेहूदा हैं कि उन्हें देखकर तो मन में यही भाव उठते हैं कि इस मानव-सभ्यता को बहुत जल्दी मिट जाना चाहिए, अगर सुंदर-सुंदर चेहरे तथा संवेदनशील एवं आनंददायी स्थितियां न हों.’ आगे चलकर लियोनार्दो के स्वाभाव का अध्ययन करने वाले सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड ने इस सोच को प्राकृतिक कामसंबंधों के प्रति उसके ‘ठंडेपन’ का परिणाम माना है. लेकिन लियोनार्दो के जीवन से जुड़ी कुछ घटनाएं और विवाद इस आधार पर भी उसको दूसरों से अलग और विशिष्ट ठहराते हैं.
एक घटना 1476 की है, जब वह वेरोशियो में रह रहा था. तब उसपर एक सतरह वर्ष के लड़के के यौन शोषण के आरोप लगे थे. जेकोपो साल्टरली नाम का वह युवक लियोनार्दो के लिए ‘माॅडल’ का काम करता था और स्वयं भी पुरुषों के प्रति यौनाकर्षण के लिए खासा चर्चित था. साल्टरली के साथ अनुचित कामसंबंधों का आरोप लगाकर लियोनार्दो को अभियुक्त की तरह पेश किया गया. लेकिन दो महीने चली जांच के दौरान, प्रत्यक्षदशिर्याे के पीछे हट जाने के कारण लियोनार्दो को दोषमुक्त मान लिया गया. इस बारे में कुछ लोगों का मानना है कि चूंकि लियोनार्दो के पिता की समाज में खासी प्रतिष्ठा थी, इसी लिए प्रत्यक्षदर्शियों ने अपने कदम पीछे खींच लिए थे. इन लोगों का दावा इसलिए भी मजबूत माना जाता है कि दोषमुक्त करार देने के कुछ ही अर्से बाद लियोनार्दो और उसके साथियों को ‘दि आफीसरर्स आॅफ नाइट’ के अधिकारियों की नजर में रखा गया था, जिसका गठन समाज में समलैंगिकता की रोकथाम के लिए किया गया था.
युवा लड़कों के प्रति लियोनार्दो का कथित यौनाकर्षण सोलहवीं शताब्दी में भी चर्चा का विषय बना रहा. तत्कालीन कला-समीक्षक और लेखक जियान पाओलो लोमाजो ने रूपक की रचना की है, जिसमें लियोनार्दो आकर घोषणा करता है-‘आपको जानना चाहिए कि दो पुरुषों के बीच आकर्षण वास्तव में सद्गुण का प्रतीक है, जो उन्हें परस्पर मैत्री के कारण एक-दूसरे के करीब लाता है, और उन्हें यह बोध कराता है कि वे अपनी क्रियाशील अवस्था में एक-दूसरे से और करीब जाकर गहरे और अंतरंग मित्र बन सकते हैं.’ एक अन्य संवाद में सूत्रधार लियोनार्दो से उसके अपने सहयोगी इल सालोनियो के साथ संबंधों के बारे में जानने के लिए सवाल करता है-‘क्या तुमने फ्लोरेंस के उस निवासी के साथ विपरीत-रति का खेल खेला है, जिसको वह बेहद पसंद करता था?’ इसपर लियोनार्दो को उत्तर देते हुए बताया गया है, ‘यह पूछो कितनी बार? ध्यान रहे कि वह अत्यधिक सुंदर और जवान लड़का था, खासकर तब जब वह मात्र पंद्रह साल का था.’ उल्लेखनीय है कि जियान जियाकोमो कापोरेती दि ओरेने नाम का लड़का जिसे लियोनार्दो प्यार से सलाई अथवा इल सलेनियो कहकर बुलाता था, उसका नौकर था. इल सलाई का अर्थ है ‘गंदा छोकरा.’
लियोनार्दो के परवर्ती इटली के प्रसिद्ध चित्रकार-लेखक और इतिहासकार जोर्जियो वसारी ने इल सलोनियो का उल्लेख ‘रेशमी घुंघराले बालों वाला सुंदर और चित्ताकर्षक लड़का, जिसमें लियोनार्दो की खुशियां सिमटी हुई थीं.’ के रूप में किया है. इल सलोनियो लियोनार्दो के साथ दस वर्ष के लड़के के रूप में उसके घर में रहने आया था. उसके साथ यौन संबंध वाली बात एकाएक गले नहीं उतरती., विशेषकर तब जब लियोनार्दो ने उसको उन बच्चों की सूची में सम्मिलित किया है जो उसकी निगाह में ‘चोर, झूठे, हठीले और हद से ज्यादा पेटू’ थे. उसने तो यहां तक आरोप लगाया है कि वह ‘नन्हा राक्षस’ कम से कम पांच बार उसके रुपये और अन्य कीमती सामान, जिसमें उसके चैबीस जोड़े जूते भी थे भाग चुका था. उनसे मिली रकम से काफी समय तक गुजारा करता रहा. बावजूद इसके यह भी आश्चर्यजनक रूप में सत्य है कि इल सेलोनियो नाम का वह लड़का तीस वर्षों तक लियोनार्दो के घर काम करता रहा. और लियोनार्दो की आरंभिक कापियांे में एक घुंघराले बाल वाले सुंदर किशोर का छायांकन कई स्थानों पर किया गया है. यही नहीं उसके द्वारा 1513 में बनाई गई एक बेहद उत्तेजक मानी गई पेंटिंग के पीछे भी इल सालोनियो का नाम लिखकर उसको काटा हुआ है. ‘देहधारी फरिश्ता’;ज्ीम प्दबंतदंजम ।दहमसद्ध नाम की वह चित्रकृति वर्षों तक ब्रिटैन की महारानी विक्टोरिया के संग्रहालय की शोभा बनी रही थी.
लियोनार्दो की एक अन्य चर्चित कृति ‘सेंट जाॅन दि बेपटिस्ट’ में भी इल सलोनियों की छवि कुछ इस प्रकार नजर आती है, जिससे आलोचकों को उसे चित्रकार की समलैंगिक संबंधों में रुचि की ओर देखने का अवसर मिलता है. इसके अतिरिक्त और भी कई चित्रकृतियों पर इल सलोनियो और का प्रभाव देखने को मिलता है, वे सभी कृतियां विपरीत रति अथवा बहुरति जैसे विषयों को लेकर बनाई गई वे कृतियां लियोनार्दो के असामान्य यौन व्यवहारों की ओर संकेत करती हैं. समलैंगिक और विपरीत रति को ध्यान में रखकर बनाए गए लियोनार्दो के कई चित्रों को अश्लील मानते हुए, उसकी मृत्यु के बाद पादरियों ने नष्ट करा दिया था.
लियोनार्दो की असामान्य काम-व्यवहार के संकेत मेल्जी के पत्र से मिलते हैं. एक नामी-गिरामी पिता लांबार्ड का पुत्र फ्रांसिको मेल्जी और लियोनार्दो 1506 में एक-दूसरे के संपर्क में आए थे. मेल्जी उस समय 15 वर्षीय किशोर था, जबकि लियोनार्दो की उम्र 54वें वर्ष में प्रवेश कर प्रौढ़ता प्राप्त कर चुका था. पत्र में मेल्जी ने लियोनार्दो का उल्लेख अपने प्रति ‘तीव्र कामुकता से प्रेरित और प्यार में अंधा’ व्यक्ति के रूप किया है. अल सलोनियो ने भी मेल्जी की उपस्थिति का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उन तीनों ने इटली की कई यात्राएं साथ-साथ की थीं. मेल्जी लियोनार्दो के सबसे प्रिय शिष्यों में गिना जाता था. चित्रकारी के क्षेत्र में सलाई स्वयं को लियोनार्दो का शिष्य मानता था. लेकिन एक स्वतंत्र चित्रकार के रूप में उसकी मान्यता सदैव ही विवादों के घेरे में रही है. सिवाय एक नग्न चित्र लिजा देल जियोकोंडा जिसे मोनावाना के नाम से भी जाना जाता है, आंद्रे सलाई के नाम से और कोई चित्रकृति उपलब्ध नहीं है. हैरानी की बात है कि ‘लिजा देल जियोकोंडा’ के नाम से ही एक पेंटिंग्ग लियोनार्दो ने भी बनाई थी, जिसको आज पूरी दुनिया ‘मोनालिजा’ के नाम से जानती है और जो चित्रकला की दुनिया में मानक कही जाती है. मोनालिजा से जुड़ी एक विशेष सूचना यह भी है कि लियोनार्दो ने यह चित्र अल सलोनियो को उसकी सेवाओं के बदले वसीयत कर दिया था. जिसे अल सलोनियो के अनुसार उन दिनों कीमत दो लाख पाउंड कीमत थी. बहरहाल लियोनार्दो के विवादित असामान्य यौनव्यवहार को कुछ देर के लिए भुला दिया जाए तो एक इंसान के रूप में वह वह एकदम खरा, संवेदनशील और दयालु व्यक्ति था. और ऐसा उसने अनेक अवसरों पर प्रदर्शित भी किया था.
उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं अपने समय में लियोनार्दो अपने समय का सबसे मेधावी कलाकार, लेखक और वैज्ञानिक था. यह उसकी बदकिस्मती है कि जनसाधारण में उसकी प्रतिष्ठा केवल उसकी दो चित्रकृतियों तक सिमटी हुई है.
ओमप्रकाश कश्यप