लियोनार्दो दा विंसी: रचनात्मकता मेधा की गगनचुंबी उड़ान – ओमप्रकाश कश्यप

इतिहास समंदर के समान होता है. उसका काम होता है स्मृतियों के नगीनों को सहेज-संभाल कर रखना. ताकि आने वाली पीढ़ियां उससे सबक ले सकें. इसके लिए आवश्यक है कि इतिहास-लेखन का कार्य पूरी ईमानदारी और जिम्मेदारी की भावना के साथ किया जाए. अधिकतम ग्राह्यता एवं प्रामाणिकता के लिए उसमें पर्याप्त वस्तुनिष्ट संवेदनशीलता भी हो. चूंकि इतिहास स्वयं कुछ नहीं होता. उसे गढ़ने वाले महापुरुष, अमर सेनानी, लेखक-कवि-कलाकार-चिंतक आदि होते हैं, जबकि उसको लिखने वाले कलमकार अलग. इसलिए स्वाभाविक रूप से इतिहास पर उसके लेखक के पूर्वाग्रहों की छाया होती है. इतिहास की सामान्य कमजोरी यह भी है कि वह केवल शीर्षस्थ स्थितियों का दस्तावेज रचता है, इसलिए उसको जनविरोधी आख्यान की संज्ञा भी दी जा सकती है. पूर्वाग्रहयुक्त इतिहास अतीत की कसौटी कभी नहीं बन पाता, बल्कि स्वयं उसको अपनी प्रामाणिकता वक्त की कसौटी पर दर्शानी पड़ती है. सामाजिक परिवर्तनशीलता के दौर में इतिहास के नाम पर थोपी गईं छद्मपूर्ण स्थापनाएं लंबे समय तक नहीं टिक पातीं. ऐसे में इतिहास के सामने विश्वसनीयता का संकट खड़ा हो जाता है. यह स्थिति चिंताजनक होती है, क्योंकि किसी भी राष्ट्र-समाज के इतिहास पर प्रामाणिकता का संकट स्वयं उस राष्ट्र-समाज के अस्तित्व का संकट बन सकता है, जिससे उबरने के लिए लंबे समय और संघर्ष की जरूरत पड़ती है.
इतिहास चूंकि शासक के नजरिये से लिखा जाता है, इसलिए उसमें शासक तथा उसकी पसंदों की छाया एकदम स्पष्ट होती है, जिससे सत्ताकेंद्रों से अपनी निकटता के कारण कुछ अपात्र व्यक्ति भी इतिहास के पन्नों में घुसपैठ कर जाते हैं, तो कभी उपयुक्त पात्रों को भी उनका अधिकार नहीं मिल पाता. इसी पूर्वग्रहग्रस्तता के कारण वह विलक्षण मेधाओं, वास्तविक नायकों के मूल्यांकन में अक्सर चूक कर बैठता है. इतिहास के झूठ से मनुष्यता तो अपमानित होती ही है, स्वयं उसे भी भारी नुकसान उठाना पड़ता है. पुराने समय में इतिहास-लेखन राज्याश्रित विद्वानों द्वारा, अक्सर अपने आश्रयदाता के इशारे पर लिखा जाता था. उनकी विद्वता भी अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने की क्षमता से तय की जाती थी. राज्य-प्रदत्त सुख-सुविधाओं से उऋण होने की कामना ऐसे विद्वानों से आश्रयदाता का विरुदगान ही लिखवा पाती थी, जिसे उन्हीं की तरह के चंद सुविधाभोगी राज्य-भट्ट इतिहास की संज्ञा दे देते थे. इसलिए बहुत-से विद्वान इतिहास को सत्ता का उच्छिष्ट कहते आए हैं. ऐसे इतिहास के समक्ष सबसे बड़ा संकट होता है अपनी विश्वसनीयता को बनाए रखना. अतः सत्ता-परिवर्तन के समय उसकी प्रामाणिकता खतरे में पड़ जाना आम बात होती थी.
ऐतिहासिक विमर्शों की सामान्य कमजोरी यह भी है कि वे अपने समय की टीका रचने के बजाय उसके लोकप्रिय संवादों को ज्यादा महत्त्व देते हैं. अपनी स्मृति का बड़ा हिस्सा वे इन्हीं लोकप्रिय संवादों की सुरक्षा में लगाए रखते हंै. इस प्रक्रिया में कई बार महान व्यक्तियों का सही-सही मूल्यांकन नहीं हो पाता। इतिहास को भटकाने में, विशेषकर पूंजीवादी व्यवस्था मे, बाजार की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण होती है. बाजार की मांग के सिद्धांत के आधार पर बाजार प्रायः उन वस्तुओं को चर्चा के केंद्र में ले आता है, जो बहुतायत की पसंद होने के कारण लोकप्रियता की श्रेणी में आती हैं. इससे बाकी तथ्य अनायास ही नेपथ्य में जाने लगते हैं. समाज एक बार फिर अपनी ऐतिहासिक विरासत के साथ खिलवाड़ करता हुआ नजर आता है. मगर विज्ञापनों की चकाचैंध और शोर-शराबे के बीच वह तुरंत उसकी उपेक्षा कर आगे बढ़ जाता है. चूंकि बाजार अपने समय के अधिकांश संचार-साधनों पर नियंत्रण भी रखता है, अतः बाकी चीजें चाहे-अनचाहे नेपथ्य में जाने लगती हैं. इसका नुकसान पूरे समाज को उठाना पड़ता है, क्योंकि तब व्यक्ति के लिए विवेकपूर्ण चयन के अवसर घट जाते हैं. वह केवल उन वस्तुओं, विचारों में से चयन के लिए विवश होता है, जिन्हें प्रायोजित मीडिया और बाजार निहित स्वार्थों के लिए उसके ऊपर थोप देना चाहते हैं.
बाजार और सत्ता की पसंद को इतिहास में स्थान मिलने का उदाहरण विश्व के महान चित्रकार लियोनार्दो दा विंसी के मूल्यांकन में भी देखा जा सकता है. जनसामान्य में लियोनार्दो की प्रतिष्ठा प्रायः उनकी दो महान चित्रकृतियोंµ‘मोनालिसा’ और ‘लास्ट सपर’ के कारण है. वह केवल इतना जानता और समझता है कि लियोनार्दो दा विंसी एक महान चित्रकार थे. समाचार पत्र-पत्रिकाओं में लियोनार्दो के अपने सहायकों के साथ कथित अंतरंग संबंधों को लेकर जब-तब, तरह-तरह की चटखारेदार कहानियां पाठकों के बीच परोसी जाती रहती हैं. कुछ महीने पिछले ‘लास्ट सपर’ मीडिया के बीच इसलिए चर्चा में चली आई थी कि क्योंकि उन्हीं दिनों रिलीज हुई एक फिल्म में इस चित्र से जुड़ी रहस्यात्मक किवदंतियों का लोकलुभावन ढंग से उपयोग किया गया था. चित्र की कलात्मक श्रेष्ठता का कोई जिक्र किए बिना मीडिया सिर्फ उस किवदंती को ही चटखारेदार भाषा में परोस रहा था. इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘मोनालिसा’ की रहस्यमय मुस्कान ने अपने चित्रकार की ख्याति को चार चांद लगाए हैं, मगर यह भी सच है कि उसी के कारण उसके बहुआयामी व्यक्तित्व का मूल्यांकन भी ढंग से नहीं हो पाया है. कला की दृष्टि से देखा जाए तो लियोनार्दो ने ‘लास्ट सपर’ और ‘मोनालिजा’ जैसी कई महान चित्रकृतियों कि रचना की थी. बावजूद इसके जितनी चर्चा इन दोनों कृतियों और विशेषरूप में मोनालिसा की होती है, उतनी किसी और की नहीं. कारण यही है कि मोनालिसा की मुस्कान जितने लोकप्रिय संवाद रचने में सहायक होती है, उतनी उसकी दूसरी कृतियां नहीं रच पातीं. या उनमें वह मसाला नहीं है, जो लोकरुचि को बाजार के अनुकूल मोड़ दे सके. यह मानव-व्यक्तित्व के समस्त गुणों का देहीकरण तथा उसे भी कुछ खास अवयवों तक सीमित कर देने जैसा है. स्त्रीदेह के इसी अवयवीकरण को लेकर कुछ वर्ष पहले राजेंद्र यादव ने जब एक मारक टिप्पणी की थी, उस समय पूरा हिंदी जगत उबल पड़ा थाµशब्द-सूरमाओं में अपना नाम लिखवाने. मोनालिसा की अनूठी मुस्कान और उसके कारण लियोनार्दो को जानने वालों में से कितने ऐसे हैं जो यह जानते हैं कि उनका महान चित्रकार अपने समय का महानतम वैज्ञानिक, इंजीनियर, शरीरविज्ञानी, वास्तुविद् और स्वप्नदृष्टा दार्शनिक भी था. यह लियोनार्दो ही था जिसने आज से लगभग पांच सौ वर्ष युद्धक टेंक और हेलिकाप्टर का डिजाइन तैयार किया. रोबोट की परिकल्पना की. मानव शरीर की आंतरिक संरचना का अध्ययन कर, विभिन्न अंगों के प्रामाणिक चित्र भी बनाए. इसके अलावा भी अपने समय में लियोनार्दो ने इतने आविष्कार किए हैं कि उनके कारण उसको न्यूटन, थाॅमस अल्वा एडीसन जैसे महान वैज्ञानिकों की श्रेणी में रखा जा सकता है.

जीवनयात्रा
आगे जानने से पहले उचित होगा कि महान लियोनार्दो के जीवन-चरित्र के कुछ पन्ने पलट लिए जाएं. विश्व की विलक्षण प्रतिभा, वैज्ञानिक, इंजीनियर, चित्रकार, विचारक, गणितज्ञ, समाज-सुधारक, शरीरविज्ञानी, वास्तुविद् लियोनार्दो का जन्म 15 अप्रैल, 1452 को इटली के विंसी (फ्लोरेंस) नामक क्षेत्र में हुआ. उसी इटली में जहां आगे चलकर मुसोलिनी जैसा तानाशाह जन्मा, जिसने हिटलर के साथ मिलकर पूरे विश्व को भीषण युद्ध की भट्टी में झोंक दिया था. एक विरोधाभास देखिए कि लियोनार्दो को प्रगतिशील आंदोलन का जनक माना जाता है, जबकि मुसोलिनी ने लोकाधिकार की सर्वत्र उपेक्षा नागरिकों को सर्वसत्तावादी तंत्र के हवाले कर दिया था. लियोनार्दो के पिता का नाम था सेर पियरो. एक संपन्न जमींदार, जिनकी आसपास के इलाके में खूब प्रतिष्ठा थी. अपने उत्तराधिकारी की चाहत में एक के बाद एक चार विवाह कर चुके सेर पियरे के देर तक किसी भी पत्नी से कोई संतान नहीं हुई. जब हुई, तब तक लियोनार्दो बाइस वर्ष का युवा हो चुका था. उसकी मां कैटरीना पियरे के खेतों में काम करने वाली साधारण मजदूर थी. लियोनार्दो के जन्म के कुछ ही समय पश्चात कैटरीना स्थानीय शिल्पकार से विवाह करके उसके साथ रहने लगी. लियोनार्दो अकेला पड़ गया. चूंकि वह पियरे की विवाहिता पत्नी नहीं थी, इसलिए जन्म के समय लियोनार्दो को उसके पिता की अवैद्य संतान माना गया.
बचपन में पिता की कोई और संतान न होने का लाभ लियोनार्दो को यह मिला कि उसको पिता के संरक्षण में, घर ही पर पढ़ने का अवसर मिल गया. आगे चलकर लियोनार्दो को वैद्य संतान का दर्जा भी प्राप्त हो गया. पिता सेर पियरे चाहते थे कि वह लैटिन में विद्वता प्राप्त करे, जो उस समय तक ज्ञान-विज्ञान और विचार की प्रमुख भाषा थी. मगर लियोनार्दो की रुचि चित्रकारी में अधिक थी. हालांकि आगे चलकर जब प्रकृति विज्ञान के अध्ययन का अवसर मिला तो उसने उसमें भी मनोयोगपूर्ण हिस्सा लिया, और अपनी विलक्षण प्रतिभा की छाप छोड़ी. मगर गणित उसके लिए हमेशा जटिल पहेली बना रहा. चित्रकला के प्रति उसकी रुचि का खयाल रखते हुए पिता ने शिक्षा की उपयुक्त व्यवस्था कर दी थी. स्वाभिमानी लियोनार्दो ने पिता के इस एहसान को पूरे मन से स्वीकार किया, मगर उनके कुलनाम से स्वयं को दूर ही रखा. उसके पूरे नाम ‘लियोनार्दो द सेर पियरे दा विंसी’ का अभिप्राय हैµ‘लियोनार्दो, विंसी के सेर पियरे का बेटा.’ जन्म से जुड़ी इस विडंबना का असर लियोनार्दो के मन पर सदैव बना रहा. बचपन के इस अभावों ने उसको अंतर्मुखी बनाया. अपने ही भीतर रमे रहने, रहस्यमय जीवन जीने और खुद से संवाद करने की उसकी प्रवृत्ति आजीवन बनी रही.
लियोनार्दो असाधारण प्रतिभाशाली था. उसका दिमाग बड़ी तेजी से सोचता. उतनी ही तेजी से वह अपने विचारों को लिखता भी रहता. शब्द साथ देने में असमर्थ दिखते तो वह चित्रों और प्रतीकों की भाषा में अपने विचारों को कैद करने लगता. टहलते समय वह प्रायः अकेला ही निकलता, अपनी पैनी निगाह से आसपास के वातावरण को परखता हुआ चलता. कान प्रकृति की हर नई आहट को पकड़ने के लिए आतुर दिखाई पड़ते. देह में प्रकृति के स्पंदनों से उमगाई रहती. राह चलते जैसे ही कोई नया दृश्य या अनोखा विचार कौंधता, वह अपनी बेल्ट में खोंसी हुई नोटबुक निकालकर फटाफट उसको नोट कर लेता, शब्द नहीं तो रेखाओं का सहारा लेता. उस समय उसकी निगाह और उंगलियां आसमान में उड़ते पक्षियों से होड़ करती हुई नजर आतीं. दोस्त कम ही थे. किसी का साथ उसको पसंद भी कहां था. सो जिधर निकल जाता, वहीं रम जाता. प्रकृति जैसे उसको अपनी बिछुड़ी हुई मां की गोद जैसी लगती. उसके सान्निध्य में वह खुद को कुछ देर के लिए बिसरा देता. चीजों को परखने की विलक्षण दृष्टि थी उसके पास. एक बार जिसे देख लेता, वह मानो दिमाग में टंक जाता. आसमान में उड़ते पक्षी की झलक-भर देख उसको रेखाओं में उकेर देना उसके लिए सामान्य बात थी. यही आदत आगे भी बनी रही.
लियोनार्दो ने प्रारंभिक शिक्षा घर पर रहकर ही प्राप्त की थी. करीब पंद्रह साल की उम्र से ही कला उसके जीवन का आधार बन चुकी थी. लियोनार्दो की रुचि को देखते हुए पिता ने उसको वेरोशियो की एक मशहूर कार्यशाला में प्रशिक्षण के लिए भेज दिया. भविष्य के वैज्ञानिक, इंजीनियर, चित्रकार, विचारक, गणितज्ञ, समाजसुधारक, शरीरविज्ञानी और वास्तुविद् लियोनार्दो का असली जन्म वहीं पर हुआ. वहां के एक अध्यापक तकनीकी ज्ञान को भी समान महत्त्व देते और सतत इस प्रयास में रहते थे कि उनके विद्यार्थी विज्ञान एवं तकनीकी में हो रही वैचारिक क्रांति से भी लाभ उठाएं. उनके सान्निध्य में रहते हुए लियोनार्दो ने पेंटिंग और मूत्र्तिकला के अलावा तकनीकी ज्ञान भी प्राप्त किया. वहां अपना प्रशिक्षण पूरा करने के बाद वह उस समय के प्रख्यात चित्रकार, मूर्ति-शिल्पी अंतोनो पाॅलियोलो की कार्यशाला में जाकर काम सीखने लगा. वहां उसे शरीरविज्ञान, वनस्पति विज्ञान, प्रकृति विज्ञान के क्षेत्र में और भी गहराई तक जाने का अवसर मिला. अपने समय के प्रतिष्ठित कलाकारों के साथ काम करने का लियोनार्दो को पूरा लाभ मिला. 1472 में लियोनार्दो को स्थानीय चित्रकार संघ ने अपने संगठन में सम्मिलित कर लिया. इसके बाद वह चित्रकार संघ की प्रयोगशाला में काम कर सकता था, बावजूद इसके लियोनार्दो अगले पांच वर्षों तक पाॅलियोलो के साथ ही काम करता रहा, परिणाम यह हुआ कि उसकी मेधा एक साथ अनेक क्षेत्रों में परिपक्व होती गई.
कला के क्षेत्र में लियोनार्दो की धमक उसकी किशोरावस्था से ही सुनाई पड़ने लगी थी. मात्र पेंसिल और पेन के उपयोग से बनाए गए गए अनेक चित्रों को देखकर पारखी विस्मित रह जाते थे. उसके आरंभिक चित्रों में से सबसे पहली कृति स्थानीय घाटी का लेंड स्केप है, जो इंक पेन का उपयोग करते हुए उसने 5 अगस्त 1473 को बनाया था. प्रारंभिक सफलताओं से उत्साहित होकर लियोनार्दो ने चित्रकला को ही अपना मुख्य व्यवसाय बनाने का निश्चय किया. वह लगातार नए विषयों के बारे में सोचता. इससे उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती गई, हालांकि बिक्री के लिहाज से आरंभिक दिनों में उसके चित्रों की बाजार-मांग कम ही थी. मगर इसकी लियोनार्दो को पहचान ही कहां थी. कला उसके व्यक्तित्व का हिस्सा, उसका जुनून थी. अपने इसी जुनून की खातिर 1476 में उसने स्वतंत्र कार्यशाला आरंभ की. उसके भी प्रारंभिक अनुभव बहुत अच्छे नहीं रहे. अगले दो वर्षों में लियोनार्दो को केवल दो ही आर्डर प्राप्त हो सके. बावजूद इसके बिना निराश हुए वह अपने काम में लगा रहा. कुछ ही वर्षों में उसकी ख्याति चतुर्दिक फैलने लगी. लियानार्दो का मानना था कि कला केवल सहेजने की वस्तु अनुभव नहीं है, न उसका काम केवल ऐतिहासिक प्रतीकों-घटनाओं का संरक्षण करना है. उसका वास्तविक लक्ष्य मानवीय संवेदनाओं एवं जीवनमूल्यों के सहसंबंधों का उदात्तीकरण करते हुए उन्हें सहेजना है, ताकि वे अपने समय-समाज के साथ संवाद कर सकें. किशोरावस्था से यौवन की दहलीज पर कदम रखते हुए उसने एक के बाद बाद एक अनेक चित्र बनाए. उसके द्वारा बनाए गए खास चित्रों में बेप्टिज्म आॅफ क्राइस्ट, मेडोना विद दि काॅरनेशन, मेडोना बेनोइस, पोर्टेट आॅफ जिनेवरा दि बेंसी, सेंट जेरोम तथा ऐडोरेशन आॅफ दि मेगी प्रमुख थे. रंगीन चित्रों के अतिरिक्त उसने दर्जनों चित्र केवल पेन तथा पेंसिल की मदद से बनाए थे. युगानुकूल सोच एवं मौलिक प्रतीक रचना के बल पर लियोनार्दो के चित्रों की मांग लगातार बढ़ती गई. अपनी रहस्यमय जीवन शैली और कुछ चित्रों के कारण वह अपने जीवन में कई बार विवादों के घेरे में भी आया, लेकिन हर बार उसकी प्रसिद्धि का ग्राफ ऊंचा और ऊंचा चढ़ता गया.
यूरोपीय इतिहास में पंद्रहवीं शताब्दी वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति के लिए विख्यात है. लियोनार्दो की प्रतिभा इस क्षेत्र में भी अपना कमाल दिखा रही थी. पेंसिल और पेन की सहायता से उसने दर्जनों ऐसे स्केच बनाए जो आगे चलकर वैज्ञानिक एवं अभियांत्रिकीय आविष्कारों के जनक बने. लेकिन उसके जीवन में परिवर्तनकारी मोड़ 1482 ईस्वी में तब आया, जब उसको मिलान के शासक सम्राट लुडोविको स्र्फोजा की ओर से सम्मानपूर्ण प्रस्ताव भेजा गया. उस समय उसकी आयु केवल तीस वर्ष थी. उन दिनों अपने अध्ययन के प्रशिक्षणकाल से गुजर रहा था, इसलिए उसको मिला सम्मान उसके मौलिक सोच एवं मेधा की विलक्षणता का प्रतीक था. भेंट के समय युवा लियोनार्दो ने अपनी कुछ पेंटिग्स, जिनमें उसकी अधूरी चित्रकृति ‘दि ऐडोरेशन आॅफ दि मेगी’ भी सम्मिलित थी, सम्राट स्र्फोजा को भेंट कीं. उससे प्रभावित होकर सम्राट ने लियोनार्दो को मिलान में अपनी कार्यशाला आरंभ करने के लिए सभी आवश्यक सुविधाएं प्रदान कराने का ऐलान कर दिया. उसने सम्राट को वचन दिया कि वह अपनी अधूरी कृतियों को मिलान में रहकर पूर्ण करेगा, परंतु निरंतर आगे और नए-नए विषय पर सोचने वाली उसकी मेधा दुबारा अपने ही बनाए चित्रों पर उतनी एकाग्र न हो सकी, कि अधूरे काम को आगे बढ़ाया जा सके.
मिलान का सम्राट स्र्फोजा साम्राज्य के संस्थापक, अपने पूर्वज सम्राट फ्रांस्सिको स्र्फोजा की स्मृति में एक विशालकाय घुड़सवार मूर्ति का निर्माण कराना चाहता था. लियोनार्दो को आमंत्रित करने के पीछे उसका उद्देश्य भी यही था. इसलिए लियोनार्दो के मिलान पहुंचते ही सम्राट ने सत्तर टन कांसा उस परियोजना के लिए सुरक्षित रखवा दिया था. मिलान में कुल बिताए सतरह वर्षों में से बारह वर्ष लियोनार्दो उस महत्त्वपूर्ण परियोजना की तैयारी में लगा रहा. मूर्ति-शिल्प के दर्जनों स्केच तैयार किए गए. यहां तक 1493 में बादशाह मैक्सीमिलन तथा बाइंका मारिया स्र्फोजा के विवाह के अवसर पर उस मूर्ति-शिल्प का मिट्टी का माॅडल बनाकर खुले मैदान में प्रशिक्षण के लिए भी रख दिया गया. मान लिया गया कि सम्राट स्र्फोजा की सर्वाधिक महत्त्वाकांक्षी परियोजना विशालकाय ‘महान कावेलो’ नामक मूर्तिशिल्प को पूरा करने की समस्त तैयारियां हो चुकी हैं. बहुत जल्द वह साकार भी होने वाली है. तभी मिलान पर युद्ध के बादल मंडराने लगे. 1495 में फ्रांस ने सम्राट चाल्र्स अष्ठम ने पूरे दलबल के साथ उसपर आक्रमण कर दिया. मिलान की सेना हथियारों की कमी का सामना कर रही थी. उनके निर्माण के लिए कांसे की तात्कालिक जरूरत को देखते हुए मूर्तिशिल्प के लिए सुरक्षित रखी धातु को पिघलाना पड़ा. लियोनार्दो की अनुमति पर उसका उपयोग युद्धक तोपें बनाने के लिए कर लिया गया. उस युद्ध में मिलान स्वयं को बचाने में कामयाब रहा, लेकिन लियोनार्दो की वह महत्त्वाकांक्षी मूर्ति कभी पूरी न हो सकी.
बीसवीं शताब्दी के मध्यकाल में लियोनार्दो की एक डायरी में उस मूर्तिशिल्प की परिकल्पना की गई है, जिसमें उसके कई स्केच बनाए गए है. अंतिम स्केच में मूर्तिशिल्प की ऊंचाई पंाच मीटर रखी गई थी, जो पंद्रहवी शताब्दी में बाकी मूर्तिशिल्पों को देखते हुए सबसे महान परिकल्पना थी. उस डायरी से यह भी पता चलता है कि लियोनार्दो उस परियोजना को लेकर पूरी तरह गंभीर नहीं था, शायद इसीलिए वह उसपर लगातार काम टलता चला गया. इस बीच सम्राट स्र्फोजा के लिए वह निरंतर नई-नई कलाकृतियां तैयार करता रहा. मिलान का दुर्भाग्य था कि उसके तीन वर्ष बाद लुइस सप्तम के नेतृत्व में फ्रांस ने उसपर दुबारा हमला किया, इस बार बिना युद्ध किए ही मिलान ने हार मान ली. नया शासक लियोनार्दो की प्रतिभा से परिचित था. उसके आग्रह पर वह मिलान में ही बना रहा. किंतु 1498 में एक दिन जब उसने फ्रांसिसी सैनिकों को ‘महान कावेलो’ के मिट्टी के माॅडल पर तीरंदाजी का अभ्यास करते हुए देखा तो उसका मन वहां से ऊब गया. उसके कुछ महीने बाद लियोनार्दो मिलान को अलविदा कह, अपने मित्र लूका पेसियोली के साथ वेनिस के लिए प्रस्थान कर गया.
वेनिस में एकदम नया जीवन उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. वहां का शासक लियोनार्दो की विलक्षण प्रतिभा का उपयोग नए हथियारों के विकास के लिए करना चाहता था. वहां उसकी नियुक्ति इंजीनियर के पद पर की गई. काम था, युद्धक साम्रगी के लिए नए डिजाइन बनाकर उनके निर्माण-कार्य को आगे बढ़ाना. इसके लिए उसे वेतन के रूप में मोटी धनराशि और सम्मान देने का आश्वासन दिया गया था. मगर वेनिस में लियोनार्दो का मन बहुत अधिक न रम सका. मात्र दो महीने के भीतर उसने वेनिस छोड़कर अपने मूलप्रांत के लिए प्रस्थान कर दिया. अप्रैल 1500 में वह पुनः फ्लोरंेस लौट आया. जहां उसको तत्कालीन महान योद्धा और सेनापति सीजर बोर्गिया का सान्न्ध्यि मिला। उसकी सेवा में वह मिल्ट्री आर्कीटेक्ट तथा इंजीनियर के रूप में काम करने लगा. कुछ ही समय में दोनों के बीच गहरी दोस्ती हो गई. सीजर के साथ रहते हुए लियोनार्दाे ने पूरी इटली की यात्राएं कीं. जहां उसको अनेक विद्वानों से भंेट करने का अवसर मिला. इससे उसकी ख्याति में और भी निखार आता चला गया.
मिलान अभी भी लियोनार्दो की स्मृति का अटूट हिस्सा बना हुआ था. उसके द्वारा वहां बताए गए दिन बहुत सक्रिय और चुनौतीपूर्ण थे. एक साथ वैज्ञानिक, इंजीनियर, चित्रकार, मूर्तिकार, प्रकृतिविज्ञानी के रूप में कार्य करते हुए वहां उसने प्रायः हर क्षेत्र में अपनी मौलिक प्रतिभा की छाप छोड़ी थी. अपने 17 वर्ष के प्रवास के दौरान उसने कई महान पेंटिग्स की रचना की, जिनमें कुछ अधूरी थीं. मिलान प्रवास के दौरान बनाए गए महान चित्रों में से एक उसकी विश्वप्रसिद्ध कृति ‘लास्ट सपर’ भी है. इसके अलावा ‘पोर्टेट आॅफ केसिला गार्लेनी एंड ए म्युजिशियन’ जिसे उसने ‘लेडी विद एक एरमाइन’ शीर्षक दिया है. इसी की शृृंखला में अगली पेंटिंग ‘दि वर्जिन आॅफ दि राॅक्स’ एवं ‘गे्रजी’ थीं. मिलान में बनाए चित्रों में कुछ चित्र अधूरे थे. 1506 में भाड़े के सैनिकों की मदद से मिलान को फ्रांस्सियों से मुक्त करा लिया गया. लियोनार्दो को वहां के तत्कालीन शासक मैक्सीमिलिन स्र्फोजा की ओर निमंत्रण प्राप्त हुआ तो वह स्वयं को खुद को रोक न सका और सीजर की सेवाओं से मुक्त होकर पुनः मिलान लौट गया. जहां उसको फिर युद्ध-साम्रगी के निर्माण में योगदान देना पड़ा.
1513 में लियोनार्दो रोम की यात्रा पर निकल गया, जहां वह तीन साल तक रहा. लियोनार्दो के जीवन के पिछले छह वर्ष, उसकी अब तक की बेशुमार उपलब्धियों और वैश्विक ख्याति के बावजूद चुनौतियों से भरे थे. 1513 में जब उसने अपने दो प्रमुख शिष्यों मेल्जी तथा सलाई के साथ रोम के लिए प्रस्थान किया तो उस समय उसकी उम्र साठ की सीमा को पार कर चुकी थी. लियानार्दो को आशा थी कि रोम जाकर उसको कुछ न कुछ काम अवश्य मिलेगा, क्योंकि उस समय मिलान की स्थितियां उसके लिए प्रतिकूल हो चुकी थीं. रोम के नए पोप लियो दशम के भाई गुलिनो दि मेडिसी के साथ लियोनार्दाे के अच्छे संपर्क थे, जिनसे उसको बल मिला था. गुलिनो ने लियोनार्दो के ठहरने के लिए दो कमरों का एक मकान उपलब्ध कराते हुए हर महीने नियमित राशि देने का भी आश्वासन दिया, ताकि वह आसानी से रह सके. रोम प्रवास के दौरान वह राफेल, दांतो ब्रेमांट और माइकलेंजेलो जैसे महान चित्रकारों से मिला, जिनकी उस समय पूरे रोम में धूम मची हुई थी. ब्रेमांट को छोड़ बाकी दोनों के साथ उसकी मैत्री जम न सकी. मगर उनका प्रभाव लियोनार्दो ने उनका प्रभाव जरूर ग्रहण किया. वे दोनों महान चित्रकार भी उसकी प्रतिभा देखकर चमत्कृत रह गए. लियोनार्दो के लिए रोम प्रवास बहुत अर्थपूर्ण न सिद्ध हो सका. वहां वह लगभग एकाकी, बिना किसी खास काम के वह पूरे तीन वर्षों तक रहा. उन दिनों रोम में भारी मात्रा में निर्माण कार्य चल रहा था. दूसरे चित्रकारों, वास्तु-शिल्पियों के पास काम की कोई कमी नहीं थी. राफेल, माइकलोएंजिलो, दांतो ब्रामांट यहां तक कि पेरेजी, टिमोटियो, विटी, सोडोमा, जैसे लियोनार्दो से उम्र में छोटे और कम प्रतिभाशाली चित्रकारों-वास्तुविद्ों के पास काम की कमी न थी. ऐसे में लियोनार्दो खुद को काफी उपेक्षित अनुभव कर रहा था.
उदास और एकाकी जीवन जी रहे लियोनार्दो के जीवन का अगला मोड़ 1515 में तब आया जब उसको फ्रांस से बुलावा आया. एक ऐतिहासिक अवसर लियोनार्दो की प्रतिभा के प्रदर्शन की बाट जोह रहा था. पोप लियो दशम तथा फ्रांस के सम्राट के बीच शांति-वार्ता प्रस्तावित थी. उस अवसर को गरिमामय बनाने के लिए लियोनार्दो को एक लौह-सिंह बनाने का निमंत्रण मिला. फ्रांस पहुंचने के बाद वह पहले सम्राट से मिला. 1516 में लियोनार्दो को सम्राट की सेवा में रख लिया गया. रहने के लिए उसको राजभवन से मिली क्लोस लूस नामक आलीशान भवन उपलब्ध करा दिया गया. लियोनार्दो वहां तीन वर्ष रहा. सम्राट की ओर से लियोनार्दो और उसके सहयोगियो के नाम पेंशन के रूप में मोटी रकम बांध दी गई. जो उसको अबाध रूप में मिलती रही. वहां भी लियोनार्दो की उपस्थिति एक सम्मानित अतिथि के रूप में ही अधिक रही. सिवाय सम्राट की मां के लिए स्वतंत्र राजमहल का प्रारूप तैयार करने के उसको वहां कोई मुख्य काम नहीं दिया गया. लेकिन फ्रांस में अपने जीवन के अंतिम दिनों में रहते हुए लियोनार्दो को अपने विचारों और अनुभवों को कलमबद्ध करने का पूरा अवसर मिला. वहीं 2 मई, 1519 में उस महान कलाकार, दार्शनिक, वैज्ञानिक, वास्तुविद लियोनार्दो का निधन हो गया.

उस समय तक लियोनार्दो की प्रतिष्ठा देश-विदेश की सीमाओं को पार कर चुकी थी. फ्रांस के सम्राट और लियोनार्दो के बीच गहरी मैत्री थी. माना तो यह भी जाता है कि लियोनार्दो ने अपनी आखिरी सांस फ्रांसिसी सम्राट की बाहांे में ही ली थी. वह आजीवन अविवाहित रहा था. अपने उत्तराधिकारी के रूप में उसने मेल्जी को चुना था. मगर मेल्जी ने लियोनार्दो के आजीवन साथ रहने वाले उसके सहयोगी मित्र सलाई को जायदाद का एक हिस्सा खुशी-खुशी सौंप दिया. लियोनार्दो की अंतिम इच्छा के अनुसार उसकी शवयात्रा में साठ भिखारियों को सम्मिलित किया गया था. उसकी मृत्यु के लगभग बीस वर्ष बाद एक अवसर पर उसको याद करते हुए फ्रांसिसी सम्राट ने उस समय के एक बड़े कलाकार बेनवनुतो सेलिनी से कहा थाµ
‘लियोनार्दो से पहले ऐसा कोई इंसान नहीं हुआ जो वास्तुशास्त्र, चित्रकला और मूर्तिशिल्प की उसके बराबर जानकारी रखता हो, इससे भी अधिक खास बात यह कि वह एक महान दार्शनिक था.’
मिलान में अपने पहले प्रवास के दौरान ही लियोनार्दो को हाथ में कापी-पेन लेकर चलने का चस्का लगा था. उस समय चारों ओर फैले विस्तृत भूभाग में, खुले आसमान के नीचे बिखरी विपुल प्राकृतिक संपदा, थरथराती नदी की लहरों के ऊपर, धरती पर पलते जीवन से जुड़ा जो भी दृश्य उसकी आंखों को भा जाता, या जो विसंगति मन को आड़ोलित कर जाती, उसको उसकी दृष्टि निमिषमात्र में कैद कर लेती थी. उसी के साथ मस्तिष्क का संकेत पाते ही उंगलियां हरकत में आ जातीं. कुछ ही पलों में उस चित्र का स्केच कापी में समा जाता. कोई नया विचार दिमाग में आ धमकता तो वह भी चित्र की बगल में लेटकर उसकी शोभा बढ़ाने लगता. कापी न होने पर खुले कागज और वह भी न हो तो रास्ते में पड़ा रद्दी कागज भी दिख पड़े तो उसके भाग्य संवर जाते. स्केच पूरा होते ही लियोनार्दो कागज-कापी को अपनी बेल्ट में खोंसकर आगे बढ़ जाता. किसी नए चित्र, नए बिंब, नए विचार की तलाश में. आगे जो चित्र पसंद आता, उसके साथ फिर वही क्रियाएं दोहराई जातीं. कार्यशाला में जाकर वह उन चित्रों को एक के बाद एक निहारता, कहीं कुछ छूटा हुआ महसूस होता तो पेंसिल को हरकत देता. फिर सारे के सारे स्केच एक सुनियोजित क्रम में किसी बड़ी चित्रकृति का हिस्सा बन जाते. विचार अलग डायरी को शोभामंडित करने लगते. खेतों में काम करने वाले किसान-मजदूर अडोल खड़े लियोनार्दो की उंगलियों को जल्दी-जल्दी अपना काम करते हुए देखते. कुछ उसको पागल समझते, जो उसकी प्रतिभा से परिचित थे, वे उसको आदर से सिर नवाते, फिर रास्ते से अलग हट जाते. मिलान में रहते हुए लियोनार्दो की प्रतिभा कई क्षेत्रों एक साथ अपना कमाल दिखा रखी थी. कला और मूर्तिकारी के अलावा वह विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी उतनी तेजी से काम कर रहा था और इसमें उसको बराबर कामयाबी भी मिलती जा रही थी.
लियोनार्दो की प्रसिद्ध चित्रकृतियों में दि बेपटिज्म आॅफ क्राइस्ट(1472-1475), अनुनशिएसन(1475-1482), जिनेवरा द’बेंसी (1475), दि बेनीओस मेडोना(1478-1480), दि वर्जिन विद फ्लावर(1478-1481), दि मेडोना आॅफ दि राॅक्स(1483-1486), एडोरेशन आॅफ मेगी(1481), लेडी विद एरमाइन(1488-90), पोर्टेट आॅफ ए म्युजीशियन, मेडोना लिट्टा(1490-91), लास्ट सपर(1498), मोनालिजा या ला जीयोकोंडा(1503-1505/1507), लीडा एंड स्वान(1508), दि वर्जिन एंड चाइल्ड विद सेंट ऐनी(1510), संेट जाॅन बेपटिस्ट (1514), इनमें से लियोनार्दो के दो चित्रों ‘लास्ट सपर’ तथा ‘मोनालिजा’ पर चर्चा करना आवश्यक लगता है, क्योंकि उन्हीं के कारण लियोनार्दो लगभग पांच सौ वर्ष से जनसामान्य के बीच अपनी खास पहचान बनाए हुए है.
दि ‘लास्ट सपर’ नाम की लियोनार्दो की चित्रकृति दुनिया की सबसे प्रसिद्ध चित्रकृतियों में से एक है. इसकी प्रसिद्धि का कारण इसकी महान सादगी में निहित है. चित्र में बाईबल के नए विधान में उल्लेखित एक घटना को आधार बनाया गया है. जिसमें ईसामसीह अपने बारह शिष्यों के साथ रात्रिकालीन भोजन में व्यस्त हैं. उस समय ईसामसीह की एक टिप्पणी उनके शिष्यों को चैंका देती है. अपने शिष्यों को सुनाते हुए वे कहते हैं, ‘आप में से जो इस समय मेरे साथ भोजन कर रहें, एक मेरे साथ विश्वासघात करेगा.’ यह सुनते ही उनके शिष्यों में हड़बड़ी मच जाती है. शिष्यगण इसे अपने ऊपर आरोप मानकर नाराज हो जाते हैं. लेकिन ईसामसीह अपने स्थान पर शांत बैठे रहते हैं, मानो अपनी दिव्यदृष्टि से भविष्य को साफ देख रहे हों. एक शिष्य ईसामसीह की ही तरह शांत बैठा रहता है, मानो वह सबकुछ जानता हो. वह है, उनका एक प्यारा शिष्य जूदास. चित्र में सभी कुछ बहुत सादगी और गंभीरता के साथ दर्शाया गया है. इसीलिए यह चित्र पूरी दुनिया में पहचाना जाता है. लियोनार्दो की ख्याति को स्थिर बनाए रखने वाली दूसरा चित्र है मोनालिसा. जो उसने फ्लोरेंस में अपने प्रवास के दौरान बनाया था. चित्र में मोनालिसा की मुस्कान आज तक सौंदर्यवादियों के लिए एक रहस्य बनी हुई है. इसमें मोनालिसा का आंतरिक सौंदर्य अपने आप फूटकर बाहर आता हुआ महसूस होता है.

पाश्र्वलेखन की कला
लियोनार्दो अपने नियमित लेखन में में भी विलक्षण था. अपने शब्दों को प्रायः वह खुद ही पढ़ पाता. इसलिए नहीं कि उसका लेख बहुत गंदा था. न इसलिए कि जल्दबाजी में वह पढ़ने लायक लिख ही नहीं पाता था. न वह कूट भाषा का उपयोग करता था, न अपनी बात को गोपनीय और दूसरों से छिपाकर रखना चाहता था. बस समझ लीजिए कि वह उसको अच्छा लगता था, इसलिए पसंद भी आता था. पाश्र्व लेखन, यानी वह लिखाई जिसकी शुरुआत दाईं ओर से हो और बाईं ओर तक जाए. धारा के विपरीत. जिसको दर्पण में देखकर ही पढ़ा जा सके. लियोनार्दो को बाएं हाथ से काम करना रास आता था. अपना सारा काम वह पाश्र्व लिपि में ही करता. सिवाय उन लेखों के जिन्हें वह दूसरों से पढ़वाना चाहता. या दूसरों के पढ़ने के लिए लिखता था. पाश्र्व लेखन अथवा मिरर राइटिंग से लियोनार्दो को इतना प्यार था कि उसकी डायरियां यहां तक कि कुछ पुस्तकें भी, पूरी की पूरी पाश्र्व लेखन में लिखी गई हैं. यांत्रिकी के मूल सिद्धांतों पर लिखी गई उसकी एक पुस्तक पूरी की पूरी पुस्तक पाश्र्व लेखन में है. इसके अतिरिक्त वास्तुशास्त्र तथा चित्रकला पर लिखे गए उसके कुछ महत्त्वपूर्ण नोट्स, तथा मानव शरीर पर आधारित एक शोधात्मक पुस्तक का प्रथम अध्याय भी पाश्र्वलेखन में हंै, जो अब भी पेरिस और मेड्रिड के पुस्तकालयों में ऐतिहासिक धरोहर बने हुए हैं. कई बार अपने नोट्स को सुधारते समय भी वह मिरर राइटिंग का प्रयोग करता था. यह बात बहुत हैरान करने वाली है कि उसके कई लेख तो साफ लिखावट के साथ इतने कल्पनाशील और सहज-प्रवाहयुक्त हैं कि उन्हें देख यह सोचकर हैरानी होती है कि इतनी क्षिप्र और सहज प्रवाहयुक्त कल्पना को शब्द देने के लिए लियोनार्दो ने पाश्र्व लेखन जैसी अपेक्षाकृत जटिल पद्धति का चयन क्यों किया.
कुछ विद्वान लियानार्दो के पाश्र्व लेखन के पीछे तकनीकी कारण भी खोजने का प्रयास करते हैं. उन दिनों पंख से बनी कलम का उपयोग लेखन के लिए किया जाता था. जिसको धक्का देकर आगे ले जाने के बजाय उसको अपनी ओर खींचना सरल होता है. वाम-हस्थ लेखन का उपयोग करते हुए वामहास्थिक व्यक्ति अपेक्षाकृत आसानी से कलम को दाएं से बाएं ला सकते हैं. इससे कागज पर रोशनाई के छिटकने अथवा धब्बा लगने की संभावना भी कम हो जाती है. चूंकि लियोनार्दो के दिमाग में विचार बहुत तेजी से आते थे, इसलिए भी वह वामहस्थ लेखन का उपयोग करता था, विचारों की आंधी में से, बिना एक पल भी व्यर्थ गंवाए, एक साथ ज्यादा से ज्यादा विचार लपककर उन्हें कागज पर टांक सके. असली कारण कुछ और भी हो सकता है. दरअसल जीनियस व्यक्ति को सामान्य अवधारणाओं के दायरे में नहीं बांधा जा सकता. उसपर लियोनार्दो जैसी जीनियस प्रतिभा तो शताब्दियों में ही जन्म लेती है. लियोनार्दो के पाश्र्व लेखन पर टिप्पणी करते हुए फ्रांसेस्का डेबोलिनी ने लिखा हैµ
‘वामहास्थिक होने के कारण लियोनार्दो के लिए पाश्र्व लेखन आसान और अनुकूल था. लेकिन उसके लिखे को गोपनीय विषयवस्तु की तरह नहीं लेना चाहिए. लियोनार्दो के समकालीन विद्वानों ने भी माना था कि अपवादस्वरूप एकाध अवसर को छोड़कर उसकी लिपि ऐसी है जिसे दर्पण के माध्यम से बहुत आसानी से पढ़ा जा सकता है. मगर यह सचाई है कि वह जीवन-भर पाश्र्व लेखन में रमा रहा. यहां तक कि उसकी साफ पांडुलिपियों में भी, जो उसने धीरे-धीरे बहुत ही सुपाठ्य और सुलेख के रूप में लिखी हैं, पाश्र्व लेखन का उपयोग किया गया है. इससे हम यह निष्कर्ष निकालने को बाध्य होते हैं कि लियोनार्दो ने अपने लेखन में यद्धपि लगातार एक काल्पनिक पाठक को संबोधित किया है, बावजूद इसके यह भी सही है कि उसने अपने लेखन में कभी सुगम शैली अपनाने का प्रयास नहीं किया. लियोनार्दाे द्वारा सामान्य लेखन-शैली में यदाकदा लिखे गई पत्र-साम्रगी, टिप्पणियां, अन्य व्यक्तियों के लिए लिखे गए लेख दर्शाते हैं कि वह उस शैली में भी पूर्णतः पारंगत था. लियोनार्दो द्वारा पाश्र्व लेखन शैली में लिखी गई विपुल सामग्री को देखकर इस बात का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वह ‘धाराप्रवाह लेखन का महारथी’ था.
लियोनार्दो के लेखन की दूसरी विशेषता, जो उसके युग को देखते हुए अनूठी ही कही जाएगी, यह थी कि अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए वह शब्दों के साथ-साथ चित्रों का भी उतना ही सहारा लेता था. चित्रों के कारण उसकी भाषा न केवल स्पष्ट बल्कि बोलती हुई महसूस होती है. उसकी शब्द-संपदा विपुल थी, जिसको उसके गहन अध्ययन का सुफल माना जा सकता है. निर्विवाद रूप से लियोनार्दो को यह श्रेय दिया जाता है कि उसने इटली की लोकभाषा को वैज्ञानिक शब्दावली से समृद्ध करने का काम किया. दूसरी ओर विशेषकर अध्यापन के समय लियोनार्दो ने लिखित शब्दों की व्याख्या के लिए चित्रों का सहारा लेने का काम किया. उससे पहले पाठ्यः साम्रगी की व्याख्या के लिए चित्रों का उपयोग करने की परंपरा नहीं थी. बल्कि चित्रों की व्याख्या के लिए शब्दों का उपयोग होता रहता था. साफ है कि लियोनार्दो ने एक नई शैली विकसित करने का काम किया था. उस शैली को उसने प्रदर्शनकला का नाम दिया था. इसके आधार पर कहा जा सकता है कि वह आधुनिक वैज्ञानिक लेखन का प्रवत्र्तक था.

वैज्ञानिक आविष्कार एवं अभियांत्रिकी योगदान
लियोनार्दो में सर्जनात्मक प्रतिभा कूट-कूट कर भरी थी. अपने समकालीनों में वह सबसे अलग है, सबसे विलक्षण और सर्वाधिक मौलिक. तत्कालीन विद्वानों में ऐसा कोई नजर आता जो एक साथ इतने क्षेत्रों में सक्रिय रहा हो और सभी में समानरूप से अपनी सफलता प्राप्त की हो. इसमें भी कोई संदेह नहीं कि लियोनार्दो के चित्रों और वास्तुशिल्पों ने उसको प्रसिद्धि के उच्चतम सोपान पर स्थापित करने का काम किया था. लियोनार्दो ने भी अपनी मौलिक प्रतिभा से उसको समृद्धि प्रदान करने का काम किया. उसके द्वारा पाश्र्व लिपि में लिखे गए लगभग 13000 विभिन्न विषयों पर नोट्स प्राप्त हुए हैं, जिनमें कला, विज्ञान, इंजीनियरिंग, वास्तुकला आदि विभिन्न विषयों पर लिखे गए हजारों लेख मौजूद हैं. इन लेखों से लियोनार्दो की बहुमुखी प्रतिभा का अनुमान लगाया जा सकता है. गणित की कम जानकारी होने के कारण लियोनार्दो ने अपने विषय की अभिव्यक्ति के लिए बड़े-बड़े विवरणों का सहारा लिया है. शायद यही कारण है कि उसके समकालीन वैज्ञानिकों ने लियोनार्दो को एक वैज्ञानिक के रूप में स्वीकार करने में उदासीनता दिखाई थी. इसका एक कारण उसकी लेटिन के बारे में कम जानकारी भी थी, जो उन दिनों सभी महत्त्वपूर्ण विमर्श की प्रमुख भाषा थी. हालांकि आगे चलकर लियोनार्दो ने लेटिन में पारंगत होने का प्रयास करने, उसमें शोधप्रबंधों की एक लंबी शृंखला लिखने की भी घोषणा की थी, मगर इस काम में वह कभी सफल न हो सका. बावजूद इसके वैज्ञानिक, शरीर-विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान जैसे अनेक विषयों में मौलिक शोधों के क्षेत्र में उसका योगदान अविस्मरणीय है.
आगे के अनुच्छेदों में हम लियोनार्दो द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में किए गए योगदानों पर संक्षिप्त चर्चा करेंगे:
शरीर विज्ञान
शरीर विज्ञान के प्रति लियोनार्दो की रुचि उसके बचपन से ही थी. संयोगवश वेरोशियो में प्रशिक्षण के दौरान उसके एक अध्यापक का भी प्रिय विषय शरीर विज्ञान ही था. वह अपने सभी विद्यार्थियों को शरीर विज्ञान की शिक्षा देने पर जोर देता था. कला के क्षेत्र में अपनी धाक जमा देने के बावजूद लियोनार्दो ने शरीर विज्ञान के क्षेत्र में अपने अध्ययन और प्रयोगों को जारी रखा. उसकी लगन को देखते हुए उसको फ्लोरेंस के संत मारिया अस्पताल, नोवा में चिकित्सकीय कार्यों के लिए मानव-शवों की चीरफाड़ करने की अनुमति प्राप्त हो गई. अपने अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए लियोनार्दो ने मृत देह पर अपना अगला प्रयोग मिलान में किया. उसके बाद तो रोम और फ्रांस के प्रायः सभी अस्पतालों ने लियोनार्दो को अपना अध्ययन करने की अनुमति प्रदान कर दी. इस बीच उसे अपने समय के महान चिकित्सकों के संपर्क में आने और उनके अनुभव जानने का भी अवसर मिला. परिणामस्वरूप वह शरीर की आंतरिक कार्यप्रणाली को समझने लगा. उससे आगे के तीस सालों में लियोनार्दो लगभग तीस स्त्री और पुरुष शवों की चीरफाड़ कर चुका था. अपने सहयोगी डाॅक्टर मार्केंटोनियो के साथ काम करते हुए लियोनार्दो ने अपने अध्ययनों के आधार एक पुस्तक तैयार करने का काम किया. उसका विषय शरीर विज्ञान ही था. उस शोध-प्रबंध में अपने विषय को स्पष्ट करने के लिए लियोनार्दो ने 200 से अधिक चित्रों का सहारा लिया था. हालांकि उसकी शरीर विज्ञान के संबंधित वह पुस्तक उसके जीवनकाल में प्रकाशित न हो सकी. उसका पहला संस्करण 1680 में, लियोनार्दो की मृत्यु के लगभग 161 वर्ष पश्चात ही प्रकाशित हो पाया. मानवदेह के अतिरिक्त लियोनार्दो ने गाय, बंदर, पक्षी, भालू, तथा मेडकों के शरीर की भी चीरफाड़ कर, उनके माध्यम से मानव-शरीर की कार्यप्रणाली को समझने का प्रयास किया था.
अपनी कला का उपयोग करते हुए लियोनार्दो ने मानव-कंकाल के अनेक चित्र बनाए. उसने मानव-खोपड़ी की आंतरिक संचरना, रीढ़ की हड्डी की वक्रीय रचना, मस्तिष्क, गुर्दे, जननेंन्द्रियों, मूत्राशय आदि शरीर के विविध अंगों के अनेक चित्र बनाकर, उनकी संरचना को समझाने का प्रयास किया है. वह स्त्री के गर्भ में पलते हुए भ्रूण को प्रकृति का बड़ा चमत्कार मानता था. उसने पहली बार मानव-भ्रूण की गर्भस्थ स्थिति की स्थिति की परिकल्पना करते हुए उसने अनेक चित्र बनाए. उसने गले और कंधे की नसों और मांसपेशियों को भी रेखाचित्रों के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया. वह भूगर्भशास्त्र और प्रकृति विज्ञान का विलक्षण विद्वान था. यहां उल्लेखनीय है कि लियोनार्दो का अध्ययन केवल शरीर के हिस्सों के चित्र निर्माण तक ही सीमित नहीं था. बल्कि उसने विभिन्न अंगों की संरचना और उनकी अलग-अलग कार्यप्रणाली का भी विशिष्ट अध्ययन किया था.
मानव-प्रकृति विज्ञान का अध्ययन करते हुए उसने यंत्रचालित मनुष्य की परिकल्पना भी की. रोबोट का सपना तो शताब्दियों बाद साकार हो सका, लेकिन उसका पहला माॅडल बनाने का श्रेय लियोनार्दो को ही प्राप्त है. लियोनार्दो ने रोबोट का डिजायन 1495 में बना लिया था, लेकिन शताब्दियों तक उसका आविष्कार अज्ञानता के अंधेरे में डूबा रहा. 1950 में लगभग साढ़े चार सौ वर्ष बाद उसकी दुबारा खोज की तब जाकर दुनिया को लियोनार्दो के उस अमूल्य योगदान के बारे में जानकारी मिली. दरअसल रोबोट बनाने का लियोनार्दो का मकसद सिर्फ देह में रक्तप्रवाह का अध्ययन करना था. उसको विश्वास था कि हृदय रक्त को मांशपेशियों में प्रवाहित करता है, जहां वह सोख लिया जाता है. अपने विचार को स्पष्ट करने के लिए लियोनार्दो ने मानव हृदय का एक चित्र भी बनाया था, जिससे प्रेरणा लेते हुए 2005 एक ब्रिटेन के एक डाॅक्टर ने दिल के आपरेशन की एक नई विधि का आविष्कार किया.

भौतिक विज्ञान
लियोनार्दो ने लंबा जीवन युद्धक सामग्री के निर्माणकार्य का नेतृत्व करते हुए बिताया था. पक्षियों को आकाश में मुक्त उड़ान भरते देख वह रोमांचित हो उठता और खुद को अपनी कल्पना के सहारे आसमान में उड़ते हुए महसूस करता. अपनी उसी कल्पना को मूर्त रूप देते हुए लियोनार्दो ने उड़ते हुए पक्षियों का अध्ययन करते हुए कई उड़ान-युक्तियों का आविष्कार किया, जिनमें हेलीकाॅप्टर भी था. लियोनार्दो का हेलीकाॅप्टर चार व्यक्तियों द्वारा चलाया जाता था. अपनी तकनिकी खामियों के कारण लियोनार्दो का हेलीकाॅप्टर का प्रयोग सफल न हो सका, लेकिन उससे हार माने बिना वह अपने प्रयोगों का सिलसिला आगे बढ़ाता रहा. अगले चरण में उसने एक ग्लाइडर के निर्माण में सफलता प्राप्त की. लियोनार्दो द्वारा बनाए गए ग्लाइडर से का पहला परीक्षण 3 जनवरी 1496 को किया गया. लेकिन हेलिकाप्टर की भांति लियोनार्दो का वह प्रयोग भी असफल ही रहा.

सिविल इंजीनियरिंग
निर्माणक्षेत्र में अपनी सूझबूझ का परिचय देते हुए लियोनार्दो ने एक पुल की अभिकल्पना की, लगभग 240 मीटर लंबा वह पुल केवल एक आधार पर टिका हुआ था. लेकिन इंस्तांबुल के सुलतान बयाजिद द्वितीय ने जिसके लिए उस पुल की अभिकल्पना की थी, एक आधार पर टिके पुल को असंभव रचना मानकर उसका निर्माण करने से इंकार कर दिया था. लियोनार्दो की अभिकल्पना की जांच के लिए मई 2001 में नार्वे ने उसके आधार पर एक छोटे पुल का निर्माण कराया गया. जिसे इंजीनियरों द्वारा जांच करने के उपरांत उस पुल को पूरी तरह निर्माण-योग्य पाया. इसपर अपनी ऐतिहासिक भूल मानते हुए तुर्की सरकार ने 2006 में लियोनार्दो-पुल का नाम देते हुए उसकी अभिकल्पना के आधार पर पुल के निर्माण का लिया गया है. गतिविज्ञान के क्षेत्र में अपना योगदान सुनिश्चित करते हुए लियोनार्दो ने 1490 में एक स्केच बनाया, जिसमें उसने सतत परिवर्तनशील गतिज प्रसारण की की युक्ति का अभिकल्पन किया था. लियोनार्दो के डिजायन का परिष्कृत रूप आधुनिक ट्रेक्टर, मोटरसाइकिल, वर्फगाड़ियों में वर्षों से किया जा रहा है.
युद्धक सामग्री का निर्माण
चैदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी के बीच संसार में साम्राज्यवाद का बोलबाला था. छोटे-बड़े साम्राज्य अपने स्वार्थ के लिए आपस में लड़ते रहते थे. इसलिए उस समय युद्धक साम्रगी की जरूरत पड़ती रहती थी. नए युद्धक हथियारों की खोज बड़े साम्राज्यों की खास जरूरत हुआ करती थी. ताकि वे न केवल अपने अस्तित्व को बचाए रख सकें, बल्कि अवसर पड़ने पर कमजोर राज्यों को हमला कर उन्हें हड़प सकें. मामूली विषयों, प्रतिष्ठा आदि के कारण भी युद्ध अक्सर होते ही रहते थे. यह भी विडंबना ही कही जाएगी कि प्रकृति को सबसे अधिक प्यार करने वाले लियोनार्दो की अद्भुत कल्पना शक्ति का प्रयोग साम्राज्यवादी शक्तियों ने निहित स्वार्थों के लिए भी खूब किया. युद्ध-साम्रगी के निर्माण में सहयोग देते हुए लियोनार्दो ने अनेक सैन्य उपकरणों का आविष्कार किया. जिनमें मशीनगन, हथियारयुक्त टेंक का निर्माण भी सम्मिलित है. लियोनार्दो का टेंक मनुष्यों द्वारा चलाया जाता था. उसने उस टेंक का एक परिष्कृत रूप भी तैयार किया था, जिसके संचालन के लिए घोड़ों की सहायता ली जाती थी, जिसके मारक क्षमता उसके पिछले संस्करण से कहीं अधिक थी. युद्ध को घातक हथियारों से लैस करने के लिए उसने क्लस्टर बम, बनाए. पेराशूट का डिजायन तैयार किया. उसका पेराशूट सुअर के चमड़े से निर्मित था. पेराशूट को उड़ाने के लिए हवा का उपयोग किया जाता था, उसमें हवा एक पाइप द्वारा पहुंचाई जाती थी. पहली पनडुब्बी के आविष्कार का श्रेय भी लियोनार्दो को ही जाता है. गणना के काम को सरल बनाने के लिए लियोनार्दो ने एक दंतचक्र युक्ति का निर्माण किया, जिसको पहला यांत्रिक केलकुलेटर माना जाता है. स्पिं्रग का उपयोग करके उसने एक रोबोट का निर्माण किया, जो दिए गए दिशा-निर्देशों के अनुसार गति करता था.
ऊर्जा संरक्षण
रोम के प्रसिद्ध वेटिंकन नगर में रहते हुए लियोनार्दो ने पहली बार एक ऐसा प्रयोग किया, जो ऊर्जा संरक्षण के काम में आधुनिक विद्वानों को भी चैंका सकता है. अवतल दर्पणों का प्रयोग करते हुए उसने सौरऊर्जा का उपयोग पानी गर्म करने के लिए किया और सफलता प्राप्त की. इनके अलावा ऐसे भी कई माॅडल रहे, जिनका वास्तविक निर्माण लियोनार्दो के जीवनकाल में संभव न हो सका. लियोनार्दो के रेखाचित्रों में दर्शाई गई कई युक्तियों पर विश्वप्रसिद्ध कंपनी आईबीएम ने अनेक माॅडल बनाए हैं, जो लियोनार्दो दा विंसी संग्राहलय में सुरक्षित हैं.

अन्य चारित्रिक विषेशताएं
विश्व के महानतम चित्रकारों में से एक लियोनार्दो की अन्य चारित्रिक विशेषताएं भी विस्मय में डालने वाली हैं. तेज दिमाग चाल में चीते जैसी फुर्ती और तेज नजर रखने वाला वह अद्भुत चितेरा पूरी तरह शाकाहारी था. यहां तक कि दुग्ध उत्पादों को लेने से भी बचता था. उसके जीवनीकारों ने लिखा है कि वह प्राणीमात्र के प्रति बेहद संवेदनशील था. उसकी नैतिक अवधारणाएं असाधारण थीं. प्राणीमात्र के जीवन को एक जैसा सम्मान देते हुए जीवन के अंतिम वर्षों में उसने पूर्ण-शाकाहार को अपना लिया था. वह अक्सर कहा करता था कि गाय के थन से दूध निकालना, चोरी के अपराध जैसा है. इसपर जब किसी ने उससे पूछा था कि उसी वक्ष से जिससे मक्खन निकाला जाता है. लियोनार्दो ने इसका तीव्र प्रतिवाद करते हुए कहा था कि नहीं, यह बछड़े के मुंह से भोजन निकालना जैसा है.
लियोनार्दो की संवेदनशीलता और उसकी दयालुता को दर्शाती हुई एक कहानी का उल्लेख उसके समकालीन इटली के महान चित्रकार और लेखक वासेरी ने किया है. उसके अनुसार उन दिनों फ्लोरेंस में एक लड़का पिंजडे में पक्षियों को लेकर आता था. लियोनार्दो की जैसे ही उसपर निगाह पड़ती, वह तत्काल उसको आवाज देकर रोक लेता और पिंजरे में कैद सभी पक्षियों का मोल देकर खरीद लेता था, और फिर उन्हें जंगल में लेजाकर खुले आसमान में विचरने के लिए आजाद कर देता था. वह लड़का लियोनार्दो के स्वभाव का लाभ उठाते हुए पक्षियों को अन्यत्र बेचने के बजाय सीधे लियोनार्दो के घर के समीप ले चला आता था, ताकि उसको तत्काल कीमत मिल सके. अपनी इसी न्यायप्रियता और संवेदनशीलता के कारण लियोनार्दो को सौंदर्य और लालित्य की प्रतियोगिताओं में सम्मानित न्यायाधीश की तरह नियुक्त किया जाता था. उसका सौंदर्यबोध उसके चित्रों, विशेषकर मोरों की उपस्थिति में भी नजर आता है.
लियोनार्दो और उसके जीवन से जुड़ी विचित्र घटनाओं और कहानियों में से एक यह भी है. दिसंबर 2006 में कुछ मानवविज्ञानियों ने यह दावा किया था कि उन्होंने लियोनार्दो की बाईं उंगली के निशानों की अनुकृति तैयार कर ली है. उसके आधार पर मानव-विज्ञानियों का मानना है कि लियोनार्दो की उंगली के निशान के साठ प्रतिशत लक्षण अरब लोगों से मिलते-जुलते हैं. यह निष्कर्ष भी दर्शाता है कि लियोनार्दाे की मां एक दास थी, जो वहां तुर्की के महानगर कोस्टेंटिनोपिल से लाई गई थी.. मानवविज्ञानियों ने लियोनार्दो के खानपान संबंधी रुचियों और उसके वातावरण का भी विश्लेषण किया है. लियोनार्दो के स्वाभाव से जुड़ी एक और विचित्र बात यह है कि वह सोते समय बहुत छोटी-छोटी बहुखंडीय नींद लेने का अभ्यस्त था. सामान्य पांच-छह घंटे की नींद लेने के बजाय उसको नींद के छोटे-छोटे झोंके आते थे. वही उसकी कल्पना को सपनों को विस्तार देते थे.
लियोनार्दो की महानता असंदिग्ध है. मगर उसके चरित्र के कुछ पहलु विवादित भी हैं. जिन्होंने एक तरह से उसके व्यक्तित्व को बहसों और आलोचनाओं के दायरे में लाने का काम किया है. उसका निजी जीवन बहुत ही रहस्यमय था. बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि अपने निजी जीवन में उसको दूसरों का दखल कतई स्वीकार नहीं था. वह आजीवन अविवाहित रहा. अपने जीवन में वह किसी स्त्री से प्रभावित हुआ हो, इस बारे में कोई संकेत नहीं हैं. यहां तक कि संतति प्रजनन के लिए अनिवार्य काम-संबंधों को लेकर भी उसकी एक आलोचकीय दृष्टि थी. स्त्री-पुरुष के बीच संभोग को लेकर उसका मानना था कि ‘प्रजनन संबंधी सहवास और तत्संबंधी अन्य क्रियाएं इतनी भद्दी और बेहूदा हैं कि उन्हें देखकर तो मन में यही भाव उठते हैं कि इस मानव-सभ्यता को बहुत जल्दी मिट जाना चाहिए, अगर सुंदर-सुंदर चेहरे तथा संवेदनशील एवं आनंददायी स्थितियां न हों.’ आगे चलकर लियोनार्दो के स्वाभाव का अध्ययन करने वाले सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड ने इस सोच को प्राकृतिक कामसंबंधों के प्रति उसके ‘ठंडेपन’ का परिणाम माना है. लेकिन लियोनार्दो के जीवन से जुड़ी कुछ घटनाएं और विवाद इस आधार पर भी उसको दूसरों से अलग और विशिष्ट ठहराते हैं.
एक घटना 1476 की है, जब वह वेरोशियो में रह रहा था. तब उसपर एक सतरह वर्ष के लड़के के यौन शोषण के आरोप लगे थे. जेकोपो साल्टरली नाम का वह युवक लियोनार्दो के लिए ‘माॅडल’ का काम करता था और स्वयं भी पुरुषों के प्रति यौनाकर्षण के लिए खासा चर्चित था. साल्टरली के साथ अनुचित कामसंबंधों का आरोप लगाकर लियोनार्दो को अभियुक्त की तरह पेश किया गया. लेकिन दो महीने चली जांच के दौरान, प्रत्यक्षदशिर्याे के पीछे हट जाने के कारण लियोनार्दो को दोषमुक्त मान लिया गया. इस बारे में कुछ लोगों का मानना है कि चूंकि लियोनार्दो के पिता की समाज में खासी प्रतिष्ठा थी, इसी लिए प्रत्यक्षदर्शियों ने अपने कदम पीछे खींच लिए थे. इन लोगों का दावा इसलिए भी मजबूत माना जाता है कि दोषमुक्त करार देने के कुछ ही अर्से बाद लियोनार्दो और उसके साथियों को ‘दि आफीसरर्स आॅफ नाइट’ के अधिकारियों की नजर में रखा गया था, जिसका गठन समाज में समलैंगिकता की रोकथाम के लिए किया गया था.
युवा लड़कों के प्रति लियोनार्दो का कथित यौनाकर्षण सोलहवीं शताब्दी में भी चर्चा का विषय बना रहा. तत्कालीन कला-समीक्षक और लेखक जियान पाओलो लोमाजो ने रूपक की रचना की है, जिसमें लियोनार्दो आकर घोषणा करता है-‘आपको जानना चाहिए कि दो पुरुषों के बीच आकर्षण वास्तव में सद्गुण का प्रतीक है, जो उन्हें परस्पर मैत्री के कारण एक-दूसरे के करीब लाता है, और उन्हें यह बोध कराता है कि वे अपनी क्रियाशील अवस्था में एक-दूसरे से और करीब जाकर गहरे और अंतरंग मित्र बन सकते हैं.’ एक अन्य संवाद में सूत्रधार लियोनार्दो से उसके अपने सहयोगी इल सालोनियो के साथ संबंधों के बारे में जानने के लिए सवाल करता है-‘क्या तुमने फ्लोरेंस के उस निवासी के साथ विपरीत-रति का खेल खेला है, जिसको वह बेहद पसंद करता था?’ इसपर लियोनार्दो को उत्तर देते हुए बताया गया है, ‘यह पूछो कितनी बार? ध्यान रहे कि वह अत्यधिक सुंदर और जवान लड़का था, खासकर तब जब वह मात्र पंद्रह साल का था.’ उल्लेखनीय है कि जियान जियाकोमो कापोरेती दि ओरेने नाम का लड़का जिसे लियोनार्दो प्यार से सलाई अथवा इल सलेनियो कहकर बुलाता था, उसका नौकर था. इल सलाई का अर्थ है ‘गंदा छोकरा.’
लियोनार्दो के परवर्ती इटली के प्रसिद्ध चित्रकार-लेखक और इतिहासकार जोर्जियो वसारी ने इल सलोनियो का उल्लेख ‘रेशमी घुंघराले बालों वाला सुंदर और चित्ताकर्षक लड़का, जिसमें लियोनार्दो की खुशियां सिमटी हुई थीं.’ के रूप में किया है. इल सलोनियो लियोनार्दो के साथ दस वर्ष के लड़के के रूप में उसके घर में रहने आया था. उसके साथ यौन संबंध वाली बात एकाएक गले नहीं उतरती., विशेषकर तब जब लियोनार्दो ने उसको उन बच्चों की सूची में सम्मिलित किया है जो उसकी निगाह में ‘चोर, झूठे, हठीले और हद से ज्यादा पेटू’ थे. उसने तो यहां तक आरोप लगाया है कि वह ‘नन्हा राक्षस’ कम से कम पांच बार उसके रुपये और अन्य कीमती सामान, जिसमें उसके चैबीस जोड़े जूते भी थे भाग चुका था. उनसे मिली रकम से काफी समय तक गुजारा करता रहा. बावजूद इसके यह भी आश्चर्यजनक रूप में सत्य है कि इल सेलोनियो नाम का वह लड़का तीस वर्षों तक लियोनार्दो के घर काम करता रहा. और लियोनार्दो की आरंभिक कापियांे में एक घुंघराले बाल वाले सुंदर किशोर का छायांकन कई स्थानों पर किया गया है. यही नहीं उसके द्वारा 1513 में बनाई गई एक बेहद उत्तेजक मानी गई पेंटिंग के पीछे भी इल सालोनियो का नाम लिखकर उसको काटा हुआ है. ‘देहधारी फरिश्ता’;ज्ीम प्दबंतदंजम ।दहमसद्ध नाम की वह चित्रकृति वर्षों तक ब्रिटैन की महारानी विक्टोरिया के संग्रहालय की शोभा बनी रही थी.
लियोनार्दो की एक अन्य चर्चित कृति ‘सेंट जाॅन दि बेपटिस्ट’ में भी इल सलोनियों की छवि कुछ इस प्रकार नजर आती है, जिससे आलोचकों को उसे चित्रकार की समलैंगिक संबंधों में रुचि की ओर देखने का अवसर मिलता है. इसके अतिरिक्त और भी कई चित्रकृतियों पर इल सलोनियो और का प्रभाव देखने को मिलता है, वे सभी कृतियां विपरीत रति अथवा बहुरति जैसे विषयों को लेकर बनाई गई वे कृतियां लियोनार्दो के असामान्य यौन व्यवहारों की ओर संकेत करती हैं. समलैंगिक और विपरीत रति को ध्यान में रखकर बनाए गए लियोनार्दो के कई चित्रों को अश्लील मानते हुए, उसकी मृत्यु के बाद पादरियों ने नष्ट करा दिया था.
लियोनार्दो की असामान्य काम-व्यवहार के संकेत मेल्जी के पत्र से मिलते हैं. एक नामी-गिरामी पिता लांबार्ड का पुत्र फ्रांसिको मेल्जी और लियोनार्दो 1506 में एक-दूसरे के संपर्क में आए थे. मेल्जी उस समय 15 वर्षीय किशोर था, जबकि लियोनार्दो की उम्र 54वें वर्ष में प्रवेश कर प्रौढ़ता प्राप्त कर चुका था. पत्र में मेल्जी ने लियोनार्दो का उल्लेख अपने प्रति ‘तीव्र कामुकता से प्रेरित और प्यार में अंधा’ व्यक्ति के रूप किया है. अल सलोनियो ने भी मेल्जी की उपस्थिति का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उन तीनों ने इटली की कई यात्राएं साथ-साथ की थीं. मेल्जी लियोनार्दो के सबसे प्रिय शिष्यों में गिना जाता था. चित्रकारी के क्षेत्र में सलाई स्वयं को लियोनार्दो का शिष्य मानता था. लेकिन एक स्वतंत्र चित्रकार के रूप में उसकी मान्यता सदैव ही विवादों के घेरे में रही है. सिवाय एक नग्न चित्र लिजा देल जियोकोंडा जिसे मोनावाना के नाम से भी जाना जाता है, आंद्रे सलाई के नाम से और कोई चित्रकृति उपलब्ध नहीं है. हैरानी की बात है कि ‘लिजा देल जियोकोंडा’ के नाम से ही एक पेंटिंग्ग लियोनार्दो ने भी बनाई थी, जिसको आज पूरी दुनिया ‘मोनालिजा’ के नाम से जानती है और जो चित्रकला की दुनिया में मानक कही जाती है. मोनालिजा से जुड़ी एक विशेष सूचना यह भी है कि लियोनार्दो ने यह चित्र अल सलोनियो को उसकी सेवाओं के बदले वसीयत कर दिया था. जिसे अल सलोनियो के अनुसार उन दिनों कीमत दो लाख पाउंड कीमत थी. बहरहाल लियोनार्दो के विवादित असामान्य यौनव्यवहार को कुछ देर के लिए भुला दिया जाए तो एक इंसान के रूप में वह वह एकदम खरा, संवेदनशील और दयालु व्यक्ति था. और ऐसा उसने अनेक अवसरों पर प्रदर्शित भी किया था.
उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं अपने समय में लियोनार्दो अपने समय का सबसे मेधावी कलाकार, लेखक और वैज्ञानिक था. यह उसकी बदकिस्मती है कि जनसाधारण में उसकी प्रतिष्ठा केवल उसकी दो चित्रकृतियों तक सिमटी हुई है.

ओमप्रकाश कश्यप

किस्सागोई की कला और बालसहित्य – ओमप्रकाश कश्यप

साहित्य चाहे वह किसी भी देश अथवा भाषा का हो, वह अपने लोकसाहित्य और उसमें मौजूद जनसंवादन की कला का सदैव ऋणी रहा है. अपनी मुख्य प्रेरणाओं के लिए आधार-सामग्री वह श्रुति परंपरा से ग्रहण करता है. सामाजिक कर्तव्यों-दायित्वों के संहिताकरण का कार्य भले ही विद्वतवर्ग करता रहा हो किंतु उसके पालन, संरक्षण तथा देश-देशांतर तक फैलाव का कार्य लोक के हिस्से ही आता है. अतः जिस देश का लोकसाहित्य समृद्ध है वहां संस्कृति और परंपराओं को बचाने-निखारने के साथ-साथ नए ज्ञान को आत्मसात करने में अपेक्षाकृत कम समय लगता है. भारत में तो शिक्षा की परंपरा ही गुरुकुलों से निकली है. सत्य की खोज के लिए न जाने कितने नचिकेताओ ने इस देश में राज-पाट छोड़े हैं. यह बात अलग है कि विधिवत शिक्षार्जन की सुविधा पहले समाज के विशिष्ट वर्गों तक ही सीमित थी. जिसके दुष्परिणामवश कर्ण और एकलव्य जैसे जिज्ञासुओं की ज्ञान की तलाश अंततः अभीप्सा ही सिद्ध होती रही है. शिक्षा-वंचित वर्ग के लिए जनसंवादन की कला का महत्त्व समाज के बाकी लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक था. विशेषकर सामंती दौर में जब प्रकाशन की दुनिया आज जितनी बड़ी और सामथ्र्यवान नहीं थी, सामाजिक संबंधों, वर्गीय जटिलता के चलते जनसंख्या के बहुलांश को संसाधनों से वंचित कर दिया जाता था. तब जनसामान्य की मनोरंजन-संबंधी आवश्यकता को पूरा करने, अनुभव तथा ज्ञान की परंपराओं को अगली पीढ़ी तक ले जाने और उन्हें सहेजकर रखने के लिए जनसंवादन की कला का सहारा लिया जाता था. कहा जा सकता है कि इतिहास, परंपरा, व्यवहार, सांस्कृतिक प्रतीकों एवं मिथकों को संग्रहणीय बनाने तथा उनका अन्वेषण-विश्लेषण करने के लिए बौद्धिकों ने एक ओर जहां शास्त्राीय गं्रथों की रचना की, वहीं उन्हें लोकमानस तक पहुंचाने और जनजीवन का हिस्सा बनाने के साथ-साथ लोकरंजन के लिए किस्सागोई की कला का विकास हुआ.
किस्सागोई की शुरुआत कब और कहां पर हुई इसके बारे में ठीक-ठीक बता पाना तो संभव नहीं है. केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है. सभ्यता के आरंभिक दौर में जब मनुष्य ने किसी अनोखी वस्तु, प्राणी या घटना के बारे में कुछ बढ़ा-चढ़ाकर, कतिपय रोचक अंदाज में और लोकरंजन की वांछा के साथ बयान करने की कोशिश की होगी; तो स्वाभाविक रूप में बाकी लोगों में उसके कहन के प्रति ललक पैदा हुई होगी. परिणामतः उन अनुभवों के प्रति सामूहिक जिज्ञासा तथा उनको रोचक अंदाज में, बार-बार सुने-कहे जाने की परंपरा का विकास हुआ. उसमें कल्पना का अनुपात भी उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया. इसी से लोकसाहित्य और किस्सागोई की कला का विकास हुआ. अब सवाल उठता है कि किस्सा और किस्सागोई हैं क्या?
कहानी का बड़ा स्वरूपµ ऐसा जो अपेक्षाकृत लंबे समय तक चले, जिसके कथानक में कई मोड़, चरित्रों के टकराव, भावनाओं के उतार-चढ़ाव, मानसिक उद्वेलन, और विचारों का संघर्ष हो, वह किस्सा की कोटि में आता है. इसे बात अथवा बतकही के नाम से भी जाना गया है. किस्सा एकल कथानक प्रधान भी हो सकता है और बहुकथानकों का समुच्चय भी. कभी-कभी प्रधान कथानक के इर्द-गिर्द विविध भाव-भंगिमाओं से भरपूर कई लघु कहानियां लपेट दी जाती हैं. छोटी-छोटी कहानियों को गुंफित कर बड़े कथानक का रूप देने और उन्हें किस्सागोई में ढालने की परंपरा दुनिया के प्रायः सभी देशों में, न केवल मौजूद बल्कि लोकप्रिय भी रही है. उनका स्वरूप भी समय और परिस्थतियों के अनुसार अदलता-बदलता रहता था. किस्सागो अपनी योग्यता और कल्पनाशक्ति के दम पर उन्हें और अधिक रोचक तथा स्मरणीय बनाने के लिए आवश्यकतानुसार फेरबदल करता रहता था.
बंधे-बंधाए शब्दों में कहें तो किस्सागोई कल्पना के रसात्मक कहन की कला है. जिससे हम सभी का वास्ता पड़ता रहता है. मां की लोरी के साथ-साथ…जब बालक शब्दों का अर्थ पहचानना शुरू करता है, शायद तभी से. किस्सागोई को लेकर बचपन से शुरू हुआ सम्मोहन ताजिंदगी कम नहीं होता. इसमें कल्पना का माधुर्य भरा होता है. ऐसा लालित्य समाहित होता जिसमें आखर बोलने लगते हैं. शब्दों को जुबान मिल जाती है. अर्थ स्वयं मुखर हो उठते हैं. काल्पनिक होने के बावजूद उसका वर्णन इतना प्रामाणिक, रसमय और जीवंत होता है कि श्रोता उसके प्रवाह में बहे चले जाते हैं. लेखन के संदर्भ में यह एक विशिष्ट शैली है. जिसमें कथाकार अपने पाठक के साथ संबोधन की स्थिति में होता है. लिखने के बजाए वह कहानी को कहता है. कथ्य में किस्सागो की रचनात्मकता भी शामिल हो जाती है. जिससे रचना में नाद सौंदर्य स्वाभाविक रूप से उतर आता है और उसकी ग्राह्यता बढ़ जाती है. परिणामतः पाठक-श्रोता को अपेक्षाकृत अधिक आनंद और तृप्ति का अनुभव होता है. लोकपरंपरा में मान्य किस्सागोई ही शास्त्राीय भाषा आख्यान बन जाती है.
जनसंस्कृति में किस्से-कहानियों का बहुत ही महत्त्व रहा है. प्रायः समाज के बडे़-बूढे ही किस्सागो की जिम्मेदारी को संभालते थे. कई बार यही कला लोगों की जीविका का आधार भी बन जाती थी. अच्छी कहानी के साथ सुनाने की बेहतरीन कला सोने पर सुहागे का काम करती है. ऐसे प्र्रतिभावान किस्सागो भी रहे हैं जो बिना किसी पूर्व तैयारी के सिर्फ अपनी कल्पनाशक्ति के बल पर, एक सूत्रा थामकर कहना प्रारंभ करते और बात/बहकही बढ़ते-बढ़ते मजेदार कहानी या किस्से का रूप ले लेती थी. पारंपरिक ग्रामीण जीवन में नैतिक एवं सामाजिक चेतना इतनी प्रगाढ़ थी कि व्यक्तिमात्रा उनसे विचलन के खतरों को न केवल पहचानता था, बल्कि यथासंभव उससे दूर रहने का प्रयास भी करता था. नैतिक एवं सामाजिक मूल्यबोध से परिचित कराने के लिए उसे साहित्य जैसे किसी बाह्यः उपक्रम की आवश्यकता उतनी नहीं थी; जितनी कि आज महसूस की जाती है. तब यह कार्य धर्म एवं लोकाचार से जुड़े विविध माध्यमों द्वारा संपन्न होता था. दूसरे शब्दों में सहकार एवं सहअस्तित्व को समर्पित तब के ग्राम्यःजीवन में सामाजिक मूल्य, मनस् के साथ-साथ विकसित होते थे तथा उनके बीच द्वैत की स्थिति कम ही उत्पन्न होती थी. निश्चय ही जनसंवादन की कला जिसका एक रूप किस्सागोई भी है, का इसमें बहुत बड़ा योगदान था. और संचार माध्यमों के अतिरेक के बीच, कम ही हो, मगर आज भी उसी तरह बना हुआ है.
चैपाल संस्कृति कृषि समाजों की पहचान रही है. हर गांव में एक चैपाल होना अनिवार्य था. यही नहीं चैपाल के क्षेत्राफल उसके निर्माण में प्रयुक्त सामग्री, वास्तु-शिल्प आदि से गांव-भर के मान-मर्यादा का निर्धारण होता था. इन्हीं चैपालों पर किस्सागोई की कला खूब फली-फूली. लेकिन किस्सागो के लिए जरूरी नहीं था कि अपनी हुनरपेशी के लिए चैपाल को ही चुने. गर्मियों में पेड़ों की छांव तले मवेशी चराते हुए, बरसात में खुले आसमान के नीचे रिमझिम बूंदों का आनंद लेते हुए, सर्दी में गांव के तिराहों-चैराहों पर अलाव तापते हुए, अभावग्रस्त झोंपड़ियों में रात बिताते समय किस्से-कहानियों के अनवरत दौर चलते ही रहते थे. किस्सागोई के प्रति अनुराग समाज के किसी खास वर्ग या समुदाय तक सीमित नहीं था. बल्कि समाज के प्रायः सभी वर्ग इसमें रुचि लेते थे. कुछ लोगों की जीविका तो राजा-महाराजाओं को किस्सा सुनाने से ही चलती थी. इसके भी कई प्रमाण हैं कि पुराने जमाने में बादशाह के दरबार में कुछ ऐसे हुनरमंद लोग भी होते थे; जो उन्हें और उनके शहजादों को सिर्फ किस्से-कहानी सुनाया करते थे. सफल किस्सागो को अपनी जीविका के लिए भटकना नहीं पड़ता था. सहअस्तित्व और अपरिग्रह को समर्पित लोकभावना उसकी जरूरतों की भरपाई के लिए कोई न कोई विधान गढ़ ही लेती थी. आसपास के गांवों से उनके लिए बुलावे आते ही रहते. ठलवार के दिनों दक्ष किस्सागो दूरदराज के गांवों की सैर कर आते.
किसी मेले, पर्व-त्योहार अथवा विवाहादि के अवसर पर ऐसे कलाकार जब कहीं पहुंचते तो वहां धूम मच जाती थी. दिन-भर के काम के बाद अपने अनुभव और सुख-दुख बांटने के लिए लोग उनके पास जुटने लगते. जहां मौसम, विभिन्न सामाजिक स्थितियों पर विचार-विमर्श के अलावा, मनोरंजन का ख्याल भी रखा जाता था. जिसमें गद्य और पद्य दोनों प्रकार की प्रस्तुतियां स्थान पातीं. पद्य रचनाओं में ढोला-मारू, आल्हा, रामायण आदि प्रमुख थीं तो गद्य में मुख्यतः किस्से सुने-सुनाए जाते थे. जिनमें अलिफ-लैला, किस्सा तोता-मैना, सहस्र रजनीचरित्रा, दास्ताने चार दरवेश, सिंहासन बतीसी, वैताल पचीसी, कथासरित्सागर, जातक कथाएं आदि प्रमुख थे. ये किस्से जनसामान्य में बेहद लोकप्रिय थे तथा भिन्न-भिन्न रूपों में बिना उनके मूल स्रोत को जाने, सुने-सुनाए जाते थे. यही नहीं अवसर के अनुरूप रोचकता एवं आकर्षण बनाए रखने के लिए किस्सागो उनमें अपनी रुचि एवं प्रतिभानुरूप बदलाव करने को भी स्वतंत्रा रहते थे. कुछ किस्से गद्य तथा पद्य दोनों ही रूप में प्र्र्रचलित थे तथा यह किस्सागो-कलाकार की योग्यता तथा श्रोताओं की पसंद पर निर्भर करता था कि वह प्रस्तुतीकरण के लिए किस विधा का चयन करते हैं.
कथानक प्रायः श्रोताओं के जाने-पहचाने होते थे. उनकी मौलिकता के प्रति किस्सागो का कोई दावा भी नहीं होता था. मौलिक होता था किस्से के प्रस्तुतीकरण का अंदाज. उच्च कल्पनाशक्ति, मौलिक शैली, दिलकश संप्रेषण और पात्रों की अंदरूनी जद्दोजहद को उभारने में सफल कलाकार ही जनमानस को अपने जादुई प्रभाव में लाने में कामयाब रहते थे. उसी के आधार पर उनकी श्रेष्ठता के दावे का निर्धारण होता. समाज में किस्सागोई की परंपरा के संपुष्ट होने का ही परिणाम था कि रामचरितमानस की शुरुआत तुलसीदास काकभुशुण्डी के मुख से कराते हैं. गीता जैसी गहन-गंभीर दार्शनिक गवेष्णा का अवतरण श्रीकृष्ण के मुख से होता है, अर्जुन वहां मात्रा श्रोता है. पूरी महाभारत संजय का ‘कथन’ है. किस्सागोई शैली के आधुनिक गद्यकारों में देवकीनंदन खत्राी, प्रेमचंद, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, अमृतलाल नागर, विजयदान देथा आदि की लोकप्रियता का यही रहस्य है. मार्खेज के गद्य में मौजूद जादुई यथार्थवाद दरअसल किस्सागोई का वह लालित्य ही है; जिसकी आज पूरी दुनिया दीवानी हो रही है.

लोकाचार का अनिवार्य हिस्सा होने के कारण जरूरी है कि किस्सागो को लोकमानस की अच्छी परख हो. उसे लोकरुचि के अनुसार विषयों के चयन की कला आती हो. ध्यातव्य है कि किस्सागोई का विकास सामूहिक मनोरंजन की कला के रूप में हुआ है. कहन के भीतर ही समूूह के प्रति संबोधन की भावना छिपी है. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. उसके सुख-दुख साझे हैं. इसलिए मनोरंजन अथवा लोकरंजन के माध्यमों पर सभी का अधिकार एकसमान होता हैे. किस्सागो यह मानकर चलता है कि वह दूसरों के, जो असल में उसके अपने ही समाज का हिस्सा हैं, कल्याण का हेतु है. तभी वह प्रस्तुतीकरण के लिए अक्सर बगैर किसी लालच के, केवल अपनत्व एवं सौहार्द-भावना के साथ प्रस्तुत होता है. जनकल्याण की भावना और उसके लिए निःकलुश समर्पण ही किस्सा और किस्सागोई को सर्वस्वीकार्य और उपयोगी बनाता है. पुस्तकों में हालांकि किस्सागोई केवल एक शैली के रूप में मौजूद रहती है. और उनसे गुजरते समय पाठक प्रायः अकेला ही होता है. किंतु उसका प्रस्तुतीकरण सामूहिक संबोधन ही होता है, जहां लेखक लिखने के बजाए सुनाता है. जिससे पाठक को हमेशा यह अनुभूति बनी रहती है कि वह अकेला नहीं है. अपितु बृहद समाज की एक अतिमहत्त्वपूर्ण इकाई है. किस्सागोई का यही गुण उसको संप्रेषण की बाकी शैलियों से अलग और विशिष्ट सिद्ध करता है तथा उसकी लोकव्याप्ति की संभावनाओं को बढ़ाता है. अतः सामूहिकता को किस्सागोई के एक आवश्यक लक्षण के रूप मे देखा जा सकता है.
सामूहिकता के साथ-साथ सार्वलौकिकता की भावना भी किस्सागोई से संबद्ध रहती है. यद्धपि दुनिया के विभिन्न देशों-समाजों की भौगोलिक तथा परिस्थितिगत कारणों से अपनी कुछ खास विशिष्टताएं होती हैं. वही उसे बाकी देशों और समाजों से अलग सिद्ध करती हैं. इसके बावजूद अलग-अलग देशों और समाजों में रह रहे लोगों के स्वभाव में कुछ समानताएं भी होती हैं. वही उन्हें एक-दूसरे के करीब भी लाती हैं. जैसे कि नैतिकता को लेकर दुनिया के सभी समाज एक जैसा सोच रखते हैं. प्रायः सभी मानवीय समाजों में प्राणिमात्रा के प्रति करुणा को उदात्त मानवीय मूल्य माना गया गया है. इसी प्रकार दान को आवश्यक कर्तव्य की संज्ञा सभी समाजों में प्राप्त है. इसके विपरीत झूठ, बेईमानी, धोखा आदि दुगुर्णों को हेय मानते हुए इनसे बचने की शिक्षा सभी समाजों में समानरूप में दी जाती है.
किस्सागोई की सफलता के लिए जरूरी है कि उसके पीछे शाश्वत जीवनमूल्य और सार्वलौकिकता की उदात्त भावना निहित हो. तभी उसे विभिन्न रुचि और विचार के व्यक्तियों का समर्थन मिल पाता है. इसी के कारण किस्सागोई प्रधान रचनाएं देश-प्रदेशों की सीमाओं को पारकर दुनिया-भर की यात्रा करने में कामयाब सिद्ध होती हैं. इस बीच उनमें हालांकि कुछ न कुछ अंतर स्वाभाविक रूप से आ ही जाता है, मगर रचना की मूल आत्मा प्रायः अपरिवर्तित ही रहती है. प्रायः वही विषय किस्सागोई में स्वीकार्यता पाने में सफल रहते हैं जो विवाद से परे हों तथा जिनकी सार्वकालिक उपयोगिता सिद्ध हो चुकी हो. यहां तक कि मनोरंजन के स्तर पर भी यह ध्यान बराबर रखा जाता है कि उससे किसी व्यक्ति, धर्म अथवा वर्ग की भावनाएं आहत न हों. और वह इतना ‘बल्गर’ भी न हो कि समूह में उसको कहा-सुना न जा सके. ऐसे विषय जो देश-काल की सीमाओं से परे हों और थोड़े-बहुत बदलाव के बाद किसी भी समाज की कहानी का आधार बन सकें; जिनमें अंर्तनिहित सत्य बहुसंख्यक समाजों का सत्य बनने की योग्यता रखता हो, किस्सों में ज्यादा लोकप्रिय माने जाते हैं.
किस्सागोई का जन्म ही लोकरंजन के लिए हुआ है. लोग प्रमुखतः मनोरंजन की तलाश में किस्सागो के संपर्क में आते हैं. किस्से-कहानी में अंतर्निहित मूल्य उसके बाद का स्थान रहते हैं. इसलिए किस्सागोई के आवश्यक लक्षणों में रोचकता भी विशेष महत्त्व रखती है. इसके अभाव में किस्सागो की सफलता संभव ही नहीं है. इसका अर्थ यह भी न मान लिया जाए कि केवल मनोरंजन ही किस्सागोई का अभीष्ट होता है. जीवन और मनुष्यता के बारे कोई भी बयान तभी महत्त्वपूर्ण बन पाता है जब वह या तो किसी औचित्य की व्याख्या करता हो या उससे किसी न किसी रूप में जुड़ा हो. लोकरंजन यदि सकारात्मक चरित्रों, घटनाओं पर आधारित है अथवा उन्हें किसी भी रूप में वरेण्य सिद्ध करता है तो श्रोता/पाठक उससे सामान्यतः प्रेरणा लेते ही हैं. अतः किस्से-कहानी में नैतिकता के प्रति आग्रहशीलता सदैव अपेक्षित होती है. परंतु उसे इसके दबावांे से सर्वथा मुक्त रहना चाहिए. किस्से-कहानी में रोचकता के मूल्य पर नैतिकता की घुसपैठ होनी ही नहीं चाहिए. दूसरे शब्दों में ज्ञान अथवा मूल्य रचनात्मक प्रस्तुति के समुत्पाद अथवा सह-उत्पाद तो हो सकते हैं, मूल उत्पाद नहीं. अगर ऐसा है भी तो यह काम इतने कौशल से किया जाना चाहिए कि पाठक अथवा श्रोता को उसका आभास तक न हो. यानी रचना का प्रस्तुतीकरण इतना सहज और रसात्मक होना चाहिए कि वह श्रोताओं-पाठकों को अपने जादुई आकर्षण में बांध ले.
किस्सागोई में कामयाबी का एक मापदंड यह भी है कि प्रस्तुतीकरण के दौरान किस्सागो अपने पाठक या श्रोता को अपने कितने करीब लाने में कामयाब रहता है. अंतरंगता का यही गुण लोगों के दिलों में किस्सागो के प्रति लगाव पैदा करता है. यही उसकी लोकप्रियता को निरंतर आगे ले जाता है. सफल किस्सागो वही है जिसकी आवाज के उठान के साथ-साथ श्रोता अंतरिक्ष की सैर करने लगें, और उसका ठहराव देखकर उन्हें वक्त ठहरा-ठहरा-सा लगने लगे. जिसकी रचना को सुनते या पढ़ते समय श्रोता/पाठक खुद को उसके साथ इतना अंतरंग अनुभव करें कि किसी तरह के द्वैत की संभावना ही न रहे, सिर्फ किस्सागोई के प्रवाह में बहते चले जाएं. इसके लिए किस्सागो को अपने बौद्धिक अहम् से कई पायदान नीचे उतरकर अपने अपने श्रोता या पाठक से सीधे संवाद करना होता है. किसी भी प्रकार का विशिष्टताबोध अहमन्यता का एहसास किस्सागो की शैली को न केवल बोझिल बना देता है; बल्कि श्रोताओं/पाठकों को मनोरंजन के अन्य साधनों की ओर भी ढकेल सकता है.
जाहिर है कि इसके लिए प्रस्तुति को भाषा के स्तर पर भी संवारना और तराशना पड़ता है. सहजबोध्य मुहावरेदार भाषा का प्रयोग किस्सागोई को निखारने में मदद करता है. जैसा कि ऊपर कहा गया है कि किस्सा कलात्मक कहन की परंपरा का निकष् है. जिसमें किस्सागो अपने अनुभव, ज्ञान तथा कल्पना के योग से इतिहास के किसी अंश, घटना अथवा कथानक को रोचक अंदाज में श्रोता के समक्ष प्रस्तुत करता है. कुुछ इस तरह कि श्रोता उसमें डूबकर रह जाएं. यहां तक वक्त का एहसास भी उन्हें न रहे. वह प्रायः बृहद श्रोतावर्ग को संबोधित होता है. जिसमें अशिक्षित भी हो सकते हैं तथा अलग-अलग मिजाज और रुचि के भी. भाषाई बोझिलता, शैलीगत चमत्कारों अथवा वैचारिक कट्टरता का किस्सागोई में कोई स्थान नहीं होता. सहज-सरल, मुहावरेदार और रवानगी से भरपूर भाषा ही किस्सागोई के लिए उपयुक्त होती है. इस कसौटी पर खरा उतरना हर अच्छे किस्सागो के लिए एक चुनौती होती है. यह किस्सागो की अपनी शैली, रचनात्मकता और प्रस्तुतीकरण के कौशल पर निर्भर करता है कि अपने पाठकों/श्रोताओं को कितना सम्मोहित कर पाता है. मुहावरों और लोकोक्तियों का आसान और अवसरानुकूल उपयोग उसे लोकप्रिय तथा प्रभावयुक्त बनाता है.
लेख के इस अंश में हम बालसाहित्य के संदर्भ में किस्सागोई की उपयोगिता का आकलन करेंगे. यह भी जानने का प्रयास करेंगे कि किस्सागोई प्रधान रचनाएं बच्चों में क्यों अधिक लोकप्रिय होती हैं. प्रायः सभी समाज लंैगिक आधार भेदभाव के शिकार रहे हैं. किस्सागोई की कला यद्यपि स्त्रिायों और बच्चों में समानरूप से लोकप्रिय रही है. किंतु परिस्थितिगत अंतर के कारण उसमें किंचित भिन्नता भी रही है. चैपाल-संस्कृति की मर्यादा या उसकी सीमा के चलते चैपालों पर जवान, बच्चे और बूढे़ तो जा सकते थे. परंतु स्त्रिायों और छोटे बच्चों का वहां जाना विभिन्न कारणों से निषिद्ध था. इस कारण किस्सागोई की कला घरों में भी समानरूप में विकसित तो हुई, परंतु किंचित भिन्नता के साथ. दोनों में एक मुख्य अंतर तो यह रहा कि चैपालों पर जो काम प्रायः दक्ष किस्सागो अथवा मंजे हुए व्यक्ति जो कहानी सुनाने की कला में पारंगत हो, द्वारा किया जाता था. वहीं घरों में यह दायित्व दादा-दादी, नाना-नानी, बुआ या ऐसे ही परिवार के किसी वरिष्ठ सदस्य द्वारा उठाया जाता था. किस्से-कहानी के माध्यम से ही बालक को अपनी परंपरा, संस्कृति तथा राजनीति आदि का व्यावहारिक ज्ञान करा दिया जाता था. बचपन में किस्से-कहानी के प्रति जन्मा अनुराग ही व्यक्ति को किस्सागोई के चर्चित ठिकानोंµ जैसे चैराहों, चैपालों तथा ऐसे ही अन्य सार्वजानिक स्थलों तक ले जाता था. जबकि परिस्थतिगत अंतर के कारण घरेलू प्रस्तुतियां प्रायः छोटे-छोटे किस्सों तक ही सीमित रह जाती थीं. अक्सर चैपालों पर सुनाए जाने वाले बड़े किस्से संक्षिप्त रूप लेकर बात या बतकही का रूप धारण कर लेते थे. हालांकि उनमें भी किस्सागोई का जादू पूरी तरह विद्यमान रहता था. कहा जा सकता है कि प्रारंभिक शिक्षण-संस्कार के साथ-साथ किस्सागोई के लिए उत्सुक मानस, उसके प्रति अनुराग और आकर्षण घर के आंगन, माता की गोद से ही पैदा होने लगता था और बालक उन्हीं के माध्यम से बाहर की दुनिया को समझने का प्रयास करता था.
किस्सागोई का ही कमाल है जिसके कारण बीते जमाने में बिना किसी प्रकाशन सुविधा, संचार माध्यमों के भी कहानियां दूर-दराज के देशों तक की यात्रा कर आती थीं. पूरा लोकसाहित्य देखा जाए तो किस्सागोई की कला का ऋणी है. किस्सागोई की लोकप्रियता और पहंुच के कारण ही पंचतंत्रा की कहानियां आज दुनिया-भर के सभी देशों में न केवल प्रचलित हैं बल्कि स्थानीय रुचियों और परंपराओं के अनुरूप उनमें व्यापक बदलाव भी हुए हैं. इसका सबसे अच्छा उदाहरण ईसप की कहानियां हैं जिनपर पंचतंत्रा का पूरा-पूरा प्रभाव है. छठी शताब्दी पहले जन्मा ईसप यूं तो यूनान का एक मामूली गुलाम था. शक्ल-सूरत से बदसूरत. परंतु उसके प्रशंसकों की कमी नहीं थी. अपने समाज में उसका सम्मान था. इसलिए कि वह अपने श्रोताओं को स्पंदित करने की कला में दक्ष एक बेहतरीन किस्सागो था. नीति और व्यावहारिक ज्ञान को कहानियों में ढालकर सुनाने में उसको महारत हासिल थी. अपनी कहानियों में उसने पंचतंत्रा की उन कहानियों का भी उपयोग किया जो हजारों मील की यात्रा के बाद यूनान पहुंची थीं. लगभग सतरह शताब्दियों तक ईसप की कहानियां श्रुति के माध्यम से एक देश से दूसरे देश तक की यात्रा करती रहीं. चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने भी जनमानस के बीच अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए दृष्टांत परंपरा का सहारा लिया था.
किस्सागोई की महत्ता को दर्शाता एक उदाहरण और भी है. एक बददिमाग बादशाह का किस्सा जो अपने आप में बेहद मजेदार है और आज भी खूब रस ले-लेकर सुना-सुनाया जाता है. उसमें किस्से का शौकीन बादशाह किसी बात पर शहजादी से नाराज हो जाता है. दंड से पहले बुद्धिमान शहजादी उसे किस्सा सुनाना चाहती है. बादशाह तैयार हो जाता है. मगर जैसे ही एक किस्सा समाप्त होने को होता शहजादी बड़ी चतुराई और कलात्मकता से उसमें दूसरा किस्सा जोड़ देती. किस्सा सुनते-सुनाते रात बीत जाती. बादशाह किस्से में इतना डूब जाता था कि उसका बाकी हिस्सा अगली रात में सुनने के लिए शहजादी को एक दिन और जीने की मोहलत दे देता. इस तरह दिन पर दिन बीतते चले गए. अंततः बादशाह उस बुद्धिमान शहजादी को क्षमा कर देता है. यह अकेला प्रसंग ही किस्से की ताकत का अंदाज कराने के लिए पर्याप्त है. जबकि प्रतीक रूप में यह किस्सा बादशाहों की जीवनशैली और बददिमागी पर कटाक्ष भी करता है.
जर्मनी की लोककथाओं को संकलित करने के लिए ग्रिम-बंधुओं के प्रयास की सराहना दुनिया-भर में हुई है. उनके द्वारा संकलित लोककथाएं जगत्प्रसिद्ध ‘ग्रिम्स फेयरी टेल्स’ नामक ग्रंथ में संकलित हैं. कहानियों को जुटाने लिए ग्रिम बंधुओं ने जर्मनी के गांव-गांव जाकर बुजुर्गों से कहानियां सुनी थीं. इसी सिलसिले में एक बेहद रोचक घटना है जिसका जिक्र कहानियों के संकलन के दौरान के अपने अनुभवों का उल्लेख के रूप में ग्रिम बंधु कुछ इस तरह करते हैं कि…एक बार जब वे एक गांव में पहुंचे तो वहां उन्हें एक चुड़ैल बुढ़िया के बारे में बताया गया. जिसके पास गांववाले अपने बच्चों को भेजने से कतराते थे. किसी ने उन्हें यह भी जानकारी दी कि उस बुढ़िया के पास कहानियों का बेशुमार खजाना है. परंतु साथ ही यह भी बता दिया कि वह ‘जादूगरनी और डायन है…चुड़ैल है जो बच्चों पर ऐसा जादू करती है कि बच्चे रात में डरावने सपने देखकर चीखते-चिल्लाते हैं.’ ग्रिम-बंधु कहानियों की खोज में निकले थे. इसलिए वे उस बुढ़िया के पास पहंुचे और उससे कहानी सुनाने का आग्रह किया. जवाब में बुढ़िया ने शर्त लगा दी कि वह कहानी तभी सुना सकती है, जब श्रोता के रूप में वहां बच्चे भी उपस्थित हों. उधर गांववाले अपने बच्चों को बुढ़िया के पास भेजने को जरा भी तैयार नहीं थे. इससे ग्रिम-बंधुओं के सामने विकट समस्या उपस्थित हो गई. बुढ़िया जिद्दी थी. लोककथाओं के मोह में ग्रिम बंधु भी वहां से निराश लौटने को तैयार नहीं थे.
अंततः ग्रिम बंधुओं ने अपने एक मित्रा की मदद ली. उसने गांववालों को समझाया. उनके बच्चों की सुरक्षा का आश्वासन भी दिया. अंततः काफी प्रयास के बाद, गांववाले अपने बच्चों को बुढ़िया के पास भेजने को राजी हो गए. वर्षों से गांववालों की प्रताड़ना का शिकार, गांव से दूर और अकेली रहती आई बुढ़िया की आंखों में बच्चों को देखते ही चमक आ गई. वह कहानी सुनाने को तैयार हो गई. और फिर बुढ़िया ने जैसे ही पहला किस्सा शुरू किया, बच्चों समेत ग्रिम-बंधु भी मंत्रा-मुग्ध हो गए. उसकी कहानी सुनाने कला इतनी अद्भुत और रोमांचक थी कि कुछ देर के लिए सब अपना आपा भूलने लगे. कहानी सुनाते-सुनाते, प्रसंगानुरूप कभी वह शेर की भांति गुर्राने लगती तो कभी चिड़ियों की तरह चहचहाना शुरू कर देती. कहानी में बिल्ली का जिक्र आते ही वह झट से मियाऊं-मियाऊं करने लगती. यही नहीं अपनी आवाज से बुढ़िया आंधी, बारिश, बादलों के गड़गड़ाने जैसे विचित्रा ध्वनिप्रभाव उत्पन्न करने में पारंगत थी. उसके कहन में जादुई प्रभाव था. जितनी देर तक बुढ़िया ने कहानियां सुनाईं, वे सम्मोहित से सुनते रहे. उसके बाद ग्रिम बंधुओं की समझ में सारा रहस्य आ गया. घटना के प्रभावी प्रस्तुतीकरण द्वारा बुढ़िया ऐसे जीवंत बिंब उत्पन्न करती थी कि बच्चों को कहानी के पात्रा तथा घटनाएं वास्तविक-से लगने लगते और सीधे उनके दिलो-दिमाग में पैठ जाते. उनका असर भी देर तक रहता. जिससे वे सपनों में डर जाते.
अपने इस अनुभव का वर्णन ग्रिम-बंधुओं ने विस्तार से किया है. वे लिखते हैं कि बच्चों को तो हमने उस बुढ़िया के सामने बिठा दिया और हम खुद बराबर के कमरे में पर्दे के पीछे जा बैठे. बुढ़िया कहानियां सुनाने लगी और हमने उन्हें लिपिबद्ध करना शुरू कर दिया. ग्रिम-बंधु लिखते हैं कि ‘बुढ़िया जब कहानी सुनाने लगी तो हमने अनुभव किया कि वह शायद कहानी सुनाने की कला में माहिर दुनिया की सर्वश्रेष्ठ किस्सागो थी…वह वर्षा, आंधी, जानवरों, चिड़ियों आदि के ध्वनि-प्रभाव अपने मुंह से पैदा करती और कहानी को अत्यधिक प्रभावशाली बना देती. इस कहानी कला का प्रभाव ही वह जादू था; जो बच्चों के मन-मस्तिष्क पर छा जाता था. उसी के प्रभाव के कारण वे सपनों में उन चित्रों को साकार देखकर डर जाते थे.’ इस रहस्य से अनभिज्ञ गांववाले बुढ़िया को जादूगरनी, डायन, चुड़ैल आदि कहकर तिरष्कृत और लांछित करते रहते थे. (यह प्रसंग और इसके कुछ वाक्य डाॅ. हरिकृष्ण देवसरे की पुस्तक ‘बालसाहित्यः मेरा चिंतन’ से साभार लिए गए हैं.)
इस बारे में हम सभी एकमत हैं कि बच्चे कहानियां पढ़ने के बजाए प्रायः उनको सुनना अधिक पसंद करते हैं. कहानी सुनते समय बालक के दिमाग पर वैसा दबाव नहीं होता जैसा उसे पढ़ने के दौरान अक्सर होता है. इसलिए वह कहानी और उसमें निहित संदेश को आत्मसात करता हुआ चलता है. कुछ इस तरह कि कहानी की घटनाएं, उसमें आए पात्रों के व्यक्तित्व, आदि उसके मानस में विकसित होते चले जाते हैं. अंतरंगता के गुण के कारण ही बालपाठक उन रचनाओं की प्रति अधिक लगाव रखता है जो उसके मन की बात को बातचीत के अंदाज में उसके आमने-सामने बैठकर की जाती हैं. अतः यह शैली बालकों द्वारा न केवल सबसे ज्यादा पसंद की जाती है बल्कि इसमंे लेखक के लिए सर्वाधिक प्रयोग करने की गंुजाइश भी निहित होती है. इस कारण वही बालसाहित्यकार अधिक लोकप्रिय हुए हैं जिन्होंने किस्सागोई को समसामयिक संदर्भों के साथ जोड़ते हुए साहित्य रचना की है. पाठकों के साथ सीधे संवाद की स्थिति में होने के कारण उसकी रचना में स्वाभाविक प्रवाह बना रहता है. अच्छा किस्सागो अपने श्रोताओं को बांधे रखने के लिए चित्रात्मकता और नाटकीयता का सहारा लेता है.
पाठ्य पुस्तकों में सामान्यतः ज्ञान को आत्मसात करने का बाहरी दबाव रहता है. जो बालक के मन में तनाव की पैदा करता है. जिससे वह पाठ्यपुस्तकों से भागने की कोशिश करता है. एक और सच यह भी है कि पाठ्यपुस्तकों में प्रायः गवेष्णात्मक शैली का सहारा लिया जाता है. विषय के अनुरूप अध्ययन शैली भी उत्तरोत्तर जटिल होती चली जाती है. जिससे बालक को बराबर यह एहसास बना रहता है कि उसे सिखाया या पढ़ाया जा रहा है. कोई है जो उसको खास दिशा की ओर ले जाना चाहता है…उसकी स्वतंत्राता में अवरोधक बना है…शिक्षा के लिए उत्सुक उसका मानस किंचित विवशता के साथ पुस्तकों को पढ़ता तो है लेकिन साथ-साथ उनसे बचने की ललक, उनसे दूर भागने की इच्छा, उपदेशात्मकता के प्रति एक निषेध भी उसके मन में उमड़ता रहता है. किस्सागो का अपनत्व तथा किस्सागोई शैली में उपलब्ध रचनाएं उसे ज्ञान और प्रस्तुतीकरण की एकरसता से उबारती हैं. संप्रेषण की अन्य शैलियों में लेखक और पाठकों के बीच द्वैत के हालात बने रहते हैं. जिससे पाठक रचना का पूरा रस नहीं ले पाता. उसे वह रचना ऊपर से थोपी हुई-सी प्रतीत होती है. किस्सागोई बच्चे को रूमानी दुनिया में ले जाने का सबसे कामयाब माध्यम है. इसमें कल्पना का प्राचुर्य रहता है, बुद्धि का अनावश्यक दबाव नहीं, इसलिए भी संप्रेषण की यह शैली बच्चों को खासतौर पर पसंद आती है. यहां ज्ञान साहित्य की एक शर्त के रूप में रचना में मौजूद तो होता है किंतु वह इतना प्रांजल और छिपा-छिपा-सा होता है कि पाठक उसे आहिस्ता से बिना किसी दबाव या आहट के ग्रहण करता चला जाता है. कल्पना से मिलकर ज्ञान रोचक और ग्रहणीय बन जाता है.
एक बात आरोप की तरह कही जा सकती है कि किस्सागोई प्रधान रचनाओं में कल्पना का आधिक्य होता है. जो श्रोता अथवा पाठक को यथार्थ से परे ले जाती है. संभवतः इसी कारण काॅमिक्स, चित्राकथाओं आदि में किस्सागोई का फैलाव अधिक हुआ है. जबरदस्त फंतासीयुक्त पुरा-कथाएं, और ग्रीक कथाएं भी इसी शैली के प्राधान्य के कारण रोचक होने के बावजूद आलोचना की पात्रा रही हैं. लेकिन कल्पना सदैव ही बुरी और त्याज्य नहीं होती. अरस्तू की माने तो हरेक काल्पनिक रचना में भी मौलिक सत्य विद्यमान रहता है. यही कारण है कि किस्सागोई शैली को मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक मूल्यों के संप्रेषण हेतु भी अपनाया जाता रहा है. आज भी संस्कृति और परंपराओं के प्रति आग्रहशीलता तथा उससे प्रेरणा लेने पर जिस तरह जोर दिया जा रहा है, उससे यह तय है कि साहित्य और लोकजीवन में किस्सागोई का महत्त्व आगे भी बराबर बना रहेगा, न केवल बना रहेगा बल्कि इसमें नए-नए प्रयोगों, आविष्कारों की भी भरपूर संभावनाएं निहित होंगी.

सुपरमार्केट संस्कृति में उपभोक्ता सहकारिताओं की उत्तरजीविता

I know of no other instrument so potentially powerful and full of social purpose as the co-operative movement – Smt. Indira Gandhi.

उपभोक्ता सहकारिता से हमारा आशय लोकोपयोगी वस्तुओं के विपणन में लगे परस्पर सहयोगाधारित व्यावसायिक संगठनों से है, जो सहकल्याण के ध्येय से सहकारिता के सिद्धांत के आधार पर संगठित होते हैं. ऐसे संगठनों में व्यावसायिक नैतिकता के उच्चतम मापदंडों का पालन करते हुए अधिलाभ में सदस्यों की हिस्सेदारी की न्यायिक व्यवस्था की जाती है. सहकारिता की भावना आर्थिक एवं सामाजिक लाभों का समन्वयीकरण करते हुए, उपभोक्ता एवं विक्रेता के बीच के द्वैत को न्यूनतम स्तर पर रखकर, उनके बीच अपनत्व की भावना का संचार करती है. यह स्थिति सामाजिक अंतद्र्वंद्वों का शमन करते हुए समूह को विकास की ओर अग्रसर कर देती है. सहकारिता में लोकतंत्रा एवं समाजवाद दोनों के आदर्श समाहित हैं, अतः सहकार-प्रेरित विकास नैतिकता के उच्चादर्शों से अनुपूरित होता है. आधुनिक उपभोक्ता सहकारिता आंदोलन की शुरुआत इंग्लेंड के रोशडेल नामक कस्बे से हुई थी. उससे पहले भारत में ‘श्रेणी’, जर्मनी में ‘किबुत्ज’, यूरोपीय देशों में ‘गिल्ड’ जैसे परस्पर सहयोगाधारित व्यावसायिक संगठन थे, जो राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय स्तर पर व्यापार करते थे. उनीसवीं शताब्दी में उपभोक्ता सहकारिताओं को मिली अप्रत्याशित सफलता वस्तुतः प्रौद्योगिकीय सुधारों के कारण उत्पादन व्यवस्था में आए भारी बदलावों एवं तज्जनित आर्थिक असमानता की देन थी. वस्तुतः सोलहवीं शताब्दी की वैज्ञानिक-प्रौद्योगिक क्रांति ने तीव्र औद्योगिकीकरण को जन्म दिया था. अत्याधुनिक तकनीक के रूप में पूंजीपति वर्ग के हाथों में अलादीन का ऐसा चिराग आ गया था, जिससे दक्ष शिल्पकारों के सहयोग के बिना भी वे भारी मुनाफा कमा सकते थे। समाज की पूंजी कुछ हाथों में सिमटने लगी थी. इसका परिणाम उनीसवीं शताब्दी के अराजक पूंजीवाद के रूप में हुआ. उसने समाज को दो हिस्सों में बांट दिया. उसके एक और भयंकर गरीबी थी, तो दूसरी ओर अमीरी ही अमीरी. दोनों के बीच की खाई उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही थी. मजदूरों के हाथ से रोजगार फिसलते जा रहे थे. पूंजीपति मनमाना लाभ वसूलते थे. दुकानदार जल्दी से जल्दी अमीर हो जाने की चाहत में मिलावटयुक्त सामान बेचते थे. इन सबके बीच पिसते आ रहे मजदूर वर्ग की हालत दयनीय हो चली थी. जाॅनसन ब्रिशैल ने उस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए लिखा हैµ ‘चारों ओर से मिलने वाली रिपोर्टें बताती थीं कि उनके (बुनकरों के) घर का सारा साज-सामान, फर्नीचर आदि बिक चुका था। पहनने को केवल चिथड़े नसीब होते थे। प्रतिदिन सोलह-सोलह घंटे लगातार मेहनत करने वाले कारीगरों का इतना बुरा हाल था कि उन्हें आलू, प्याज, शकरकंद, दलिया, शीरे जैसी चीजों के सहारे पेट भरना पड़ता था।’1 ब्रिशेल आगे लिखते हैं- ‘अपने एकमात्र वस्त्रों कोे गंदगी से बचाने के लिए औरतें, बच्चे को जन्म देते समय अपने दोनों हाथ ऊपर उठा, दो अन्य औरतों के कंधें का सहारा लेकर खड़ी हो जाती थीं। उसी अवस्था में वे बच्चे को जन्म देती थीं। जो बुनकर अपनी बेमिसाल कारीगरी के पूरी दुनिया में जाने जाते थे, जो अपना समस्त जीवन पूरी दुनिया के लिए कपड़ा, बिस्तर आदि बुनने में लगा देते थे, उनके अपने शरीर पर फटे चिथड़े और बिस्तर पर गंदे तौलिये पड़े होते थे।’2 पूंजीवाद के वर्चस्व एवं उसकी मनमानियों के प्रति जहां लोगों में जनाक्रोश फैल रहा था, वहीं उसके विरुद्ध आवाजें भी उठने लगीं थीं. वुद्धिजीवियों का एक वर्ग पूंजीवाद के दुष्प्रभावों से जनता को बचाने के लिए जनजागरण के काम में जुटा हुआ था. 1830 में डाॅ. विलियम किंग ने पूंजीवाद को एक सामाजिक बुराई मानते हुए अपने समाचारपत्रा ‘दि को-आॅपरेटर’ लिखा थाµ‘इस व्याधि से बचा जा सकता है, उपचार हमारे हाथों में है, और वह उपचार है- सहकारिता।3 राबर्ट ओवेन, चाल्र्स डिकेन्स, विलियम किंग, फ्यूरियर आदि की प्रेरणा पर इंग्लेंड के रोशडेल नामक कस्बे के 28 बुनकरों ने मिलकर रोशडेल इक्वीट्ेवल पायनियर्स सोसाइटी की स्थापना की, जिसके तत्वावधान में 21 दिसंबर 1844 को उपभोक्ता भंडार की शुरुआत की गई. प्रारंभ में लोगों ने ‘बुनकरों की दुकान’ कहकर रोशडेल पायनियर्स के प्रयास की हंसी उड़ाई, लेकिन बाद में उन्हें मिली चामत्कारिक सफलता ने इस आंदोलन को आगे ले जाने में मदद की. हाॅल्याॅकी ने अपनी पुस्तक ‘रोशडेल पायनियर्स का इतिहास’ में रोशडेल पायनियर्स के उपभोक्ता भंडार की कार्यशैली का प्रामाणिक एवं सुंदर वर्णन किया है, जो सुनने में चामत्कारिक और किसी रोमांचकारी गल्प का हिस्सा लगता हैµ ‘ठीक सात बजे स्टोर ग्राहकों के लिए खुल जाता था। उसके खुलते ही काउंटर के एक ओर पांच सेल्समैन ग्राहकों की सेवा के लिए तत्पर नजर आते। उनके मुस्कुराते हुए चेहरे ग्राहकों के चेहरों को आमंत्रित करते दिखाई पड़ते। एक लड़का चाशनी तैयार करता रहता। दो छिटपुट सामान तौलने में व्यस्त रहते। बाकी लड़कों का कार्य तेजी से खाली होते जा रहे रैकों पर जरूरी सामान की आपूर्ति करना था। उपभोक्ता भंडार में बारह फुट लंबा दोतरफा काउंटर था। उसके एक ओर सदस्यों की पत्नियां, बच्चे, वृद्ध जितने कि उस दुकान में समा सकें, सामान खरीदने के लिए कतारबद्ध खड़े हो जाते। बाकी दरवाजे के बाहर आपस में बातचीत करते हुए अपना नंबर आने की प्रतीक्षा में रहते। उस काउंटर के ठीक सामने कपड़े की दुकान पर तैनात, तीन सेल्समैन नौ-दस ग्राहकों जिनमें मुख्यतः महिलाएं होती थीं, की सेवा में तत्पर होते। स्त्रिायां अपने बच्चों के साथ कपड़ों के चयन में व्यस्त नजर आती थीं। बराबर में मौजूद बड़े उपभोक्ता भंडार में तीन व्यक्ति ग्राहकों के लिए मांस तैयार करने में जुटे होते। कम से कम बारह से पंद्रह ग्राहक सदैव उस काउंटर पर नजर आते थे। उसी दुकान में दो अलग सेल्समैन आटा, आलू, दाल, चीनी आदि खरीदने आए ग्राहकों की सेवा में लगे होते थे….भंडार में व्यक्तिगत खातों के रख-रखाव, उसके रोजाना के व्यवसाय के हिसाब-किताब के लिए एक लिपिक हर समय तैनात रहता था, जो प्रत्येक ग्राहक द्वारा खरीदे गए सामान को एक रजिस्टर में दर्ज करता जाता था; ताकि भंडार से निर्धरित अवधि के बीच खरीदे गए सामान के आधार पर ग्राहकों के अधिलाभ की गणना की जा सके…शहर के दूसरे इलाकों में भंडार की चार शाखाएं थीं, जहां कमोबेश यही प्रबंध किए हुए थे.’ वस्तुतः रोशडेल पायनियर्स की सफलता ने न केवल ब्रिटेन बल्कि पूरी दुनिया के सहकारिता आंदोलन के विकास को नई प्रेरणा दी. उनकी तरक्की इतनी बेमिसाल थी कि कालांतर में रोशडेल पायनियर्स को सहकारिता का पर्याय मान लिया गया। भारत में आधुनिक सहकारिता आंदोलन का आरंभ 1904 ईस्वी में सरकार की प्रेरणा के आधार पर हुआ था. प्रारंभ में केवल ऋण सहकारिताओं को ही मान्यता प्रदान की गई थी. लेकिन बहुत जल्दी सरकार इस निर्णय पर पहुंच गई की सहकारिता आंदोलन को समग्रता से अपनाए बिना, ऐच्छिक लक्ष्यों की प्राप्ति असंभव ही है. अतएव 1912 में सहकारिता कानून में संशोधन करते हुए ऋण सहकारिता से इतर भी सहकारी समिति बनाने की अनुमति दे दी गई. नया कानून सहकारिता के विकास में सहायक सिद्ध हुआ. उसके अंतर्गत मुंबई तथा मद्रास में उपभोक्ता सहकारी समितियों का गठन किया गया. 1914 में देश में उपभोक्ता सहकारिताओं की संख्या 14 थी, जो मात्रा छह वर्ष यानी 1920-21 में तेजी से बढ़कर 103 तक पहुंच गई. भारतीय उपभोक्ता सहकारिताओं को असली उछाल दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान प्राप्त हुआ. जिसने इस आंदोलन को नई दिशा दी, परिणामस्वरूप देश-भर में उपभोक्ता सहकारिताएं तेजी से गठित की जाने लगीं. 1950-51 में देशभर में कुल 9757 सहकारी उपभोक्ता भंडार थे. उससे अगले दशक में प्रतिकूल स्थितियों के कारण उपभोक्ता सहकारिताओं की संख्या और उनकी कुल उपलब्धियों में घटत नजर आई. बाद के दशकों में सहकारिता आंदोलन विभिन्न क्षेत्रों में निरंतर वृद्धि करता रहा. वर्तमान में भारत में कुल पंजीकृत सहकारी संस्थाओं की संख्या लगभग 5,35,000, सदस्य संख्या 26.5 है. लेकिन जहां अन्य क्षेत्रों में सहकारिता का विकास तेजी से हो रहा, उपभोक्ता सहकारिताओं की प्रगति लगभग अवरुद्ध सी है. हालांकि माॅल्स संस्कृति के विस्तार के इस दौर में उपभोक्ता सहकारिताओं की प्रासंगिकता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है. पिछले कुछ दशकों के दौरान स्थितियां तेजी से बदली हैं. आर्थिक उदारीकरण का लाभ उठाते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस देश में अपने पूंजी आधार को बढ़ाने में सफल रही हैं. तेज-तर्रार आधुनिक प्रबंधन, मीडिया के खुले समर्थन तथा राजनीतिक संरक्षण के कारण वे ग्राहकों को आकर्षित करने में सफल रही हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने विपुल पूंजी-सामथ्र्य के बल पर भारत और पूरे एशियाई बाजार को अपनी गिरफ्त में लेने को आतुर हैं. अपनी अकूत पूंजी-संपदा पर इतराए पूंजीपतिवर्ग के समस्त प्रयास मनुष्य-मात्रा को आत्मकेंद्रित उपभोक्ता में बदल देने का है. जो लोग इस खुशफहमी में हैं कि खुदरा बाजार के ग्रामीणीकरण से ग्रामोद्योगों तथा अन्य भारतीय उद्योगों को भी लाभ पहुंचेगा, उन्हें जितनी जल्दी हो सके, इससे बाहर आ जाना चाहिए. नए खुदरा बाजारों के लिए माल वहीं से खरीदा जाएगा जहां से सस्ता मिलेगा. भले ही इसके लिए सरकार को आयातनीति में बदलाव के लिए बाध्य क्यों न किया जाए. चीन से होने वाले आयात ने हमारे लघु और कुटीर उद्योग क्षेत्रा की कमर तोड़कर रख दी है. आगे भी माल की खरीद के लिए चीन की कंपनियों से बातचीत की जा रही है. जो वस्तुएं भारतीय उत्पादक उन्हें सस्ती दे सकते हैं, उन्हें भारतीय अथवा भारत-स्थित उत्पादकों से ही खरीदा जाएगा. जनता के दबाव में रिलायंस फ्रेश को उत्तरप्रदेश में अपने उपभोक्ता भंडार बंद करने के लिए विवश जरूर होना पड़ा है, अब खबर है कि कंपनी अपने उपभोक्ता भंडारों का ब्रांडिड आभूषण बिक्री केंद्र के रूप कायाकल्प करने जा रही है. पिछले दिनों कंपनी द्वारा हिमाचल प्रदेश में सेव, गुजरात में आम के बाग खरीदे जाने के भी समाचार मिले हैं. देश की सबसे बड़ी सिगरेट निर्माता कंपनी आईटीसी दक्षिणी-पश्चिमी प्रांतों में अनेक वर्षों से यही सब करती आ रही है. उसके देश-भर में चैपाल नाम से साढ़े छह हजार से अधिक उपभोक्ता भंडार हैं, जिन्हें वह किसान सहायता केंद्र के नाम पर चला रही है. कंपनी अपनी विकास योजना के अंतर्गत महानगरों में बड़े उपभोक्ता भंडारों की स्थापना की करने की योजना बना रही है. अब जरा इसका भी हल्का-सा जायजा लें कि ग्रामीण बाजार में कारपोरेट जगत के हस्तक्षेप के क्या परिणाम होने वाले हैं. देश में गांवों की कुल संख्या करीब छह लाख है. वहां के लोगों की आम जरूरतों की पूर्ति अभी तक छोटे दुकानदार करते आ रहे हैं. इन दुकानदारों की संख्या गांव की जनसंख्या के अनुसार घटती-बढ़ती है. यह बीस से लेकर पचास तक कुछ भी हो सकती है. दुकानदारी समाज के एक वर्ग का पैत्रिक व्यवसाय रही है. लेकिन आजादी के बाद जातीय समीकरण और उनके व्यवसायों में काफी बदलाव आया है. पढ़े-लिखे या साधारण प्रशिक्षित युवा भी नौकरी के अभाव में दुकान खोलकर बैठ जाते हैं. इनमें महिलाओं की संख्या भी काफी है. एक और कारण भी दुकानदारी के व्यवसाय से जुड़ने का यह रहा है कि जो लोग नौकरी के तनावों से बचना तथा स्वावलंबी बने रहना चाहते हैं, उन्हें भी दुकानदारी करना मुफीद लगता है. ध्यान रहे कि जब हम दुकानदारी कह रहे हैं तो हमारा आशय साधारण परचून और किराना दुकानदारों से लेकर हलवाई, नाई, धोबी, प्लंबर आदि विभिन्न सेवाओं में लगे शिल्पकारों, सेवाप्रदाताओं से भी है, जिन्होंने अपनी पेशवर दक्षता के कारण उस व्यवसाय को अपनाया हुआ है. कारपोरेट सेक्टर के निशाने पर छोटे दुकानदारों के अलावा वे सेवाकर्मी भी होंगे जो किसी न किसी रूप में परंपरागत सेवाओं से जुड़े हैं. ऐसे सभी दुकानदारों की कुल संख्या प्रति गांव यदि तीस भी मान ली जाए जो देशभर में लगभग एक करोड़ अस्सी लाख दुकानदार या पेशेवर केवल गांवों में हो सकते हैं. नगरों, महानगरों और कस्बों की संख्या भी कम नहीं हैं. वहां पर यह संख्या यदि डेढ़-दो करोड़ भी हुई तो देश में दुकानदारों एवं परंपरागत सेवाकर्मियों की संख्या तीन से चार करोड़ तक संभव है. इन प्रकार देश के पंद्रह-बीस करोड़ लोग प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से दुकानदारी के पेशे से जुड़े हुए हैं. दूसरे शब्दों में यह एक इकतरफा-सी लड़ाई जरूरतमंदों तथा बड़े दुकानदारों, सरमायेदारों के बीच है, जो व्यावसायिक स्थलों पर बड़े शोरूम खोलकर पूंजी को अपनी ओर खींचने तथा अपने उत्पादों के लिए नई जरूरतें क्रिएट करने का सामथ्र्य रखते हैं. प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक किशन पटनायक के अनुसार राज्य में, राज्य की ही सत्ता-सामथ्र्य सर्वोपरि होने चाहिए. व्यवस्था के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए यह अत्यावश्यक है. जबकि अब तो भारत की ही कुछ ऐसी कंपनियां हैं जिनकी कुल हैसियत देश के कई राज्यांे की आर्थिक स्थिति से बढ़कर है. उसपर भारत पर धावा बोलने को तैयार वालमार्ट, न्यूबीज, आईटीसी जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तो कहना ही क्या! अकेली वालमार्ट का सालाना व्यवसाय भारत के कुल सालाना खुदरा बजार, लगभग 350 अरब डाॅलर के बराबर है. ऐसी विशालकाय कंपनियां जब हिंदुस्तान आएंगी, तब यहां के छोटे-दुकानदारों, लघु उद्यमियों का क्या होगा, उस वीभत्स स्थिति की केवल कल्पना ही की जा सकती है. यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि बाजार के साथ-साथ उसके संस्कार भी गांवों तक जाएंगे. जिससे सांस्कृतिक प्रदूषण को गति मिलेगी. हालांकि प्रबंधन के आधुनिकतम व्यवस्थाओं के चलते ये गांव जाकर भारतीय समाज के परंपरागत स्वरूप पर भी हमला करेंगी, जिसका सकारात्मक प्रभाव यह हो सकता है कि वह उन जातीय विभदों का शमन करने का काम करे, जो परंपरा से भारतीय समाज के पिछड़ेपन का कारण रहे हैं. तथापि यह भी संभावना है कि तीव्र उपभोक्ताकरण के फलस्वरूप भारतीय समाज की आर्थिक विषमता की और वृद्धि हो. अतएव समय रहते वैकल्पिक उपायों पर विचार किया जाना अत्यावश्यक है. यह भी जरूरी है कि समाज में नागरिकताबोध को विस्तार दिया जाए. ऐसी संस्थाएं खड़ी की जाएं जो स्वयं को बाजार के प्रलोभनों और उनके संसाधनों से दूर रखने का सामथ्र्य रखती हों. बहुराष्ट्रीय औद्योगिक निगमों की मनमानी से निपटने के लिए ऐसा नहीं है कि हमारे पास विकल्पों की कमी है, बल्कि शताब्दियों से आजमाए गए विकल्प है, इनमें एक उपभोक्ता सहकारिताओं को विस्तार देने का है, जिसका संकेत ऊपर किया गया है. परिस्थितियों में उपभोक्ता सहकारिताओं को बचाए रखने के लिए एक व्यापक और दूरगामी प्रयासों की आवश्यकता है. इसके लिए सरकारी और गैरसरकारी दोनों ही स्तर पर संगठित होकर कार्य करना होगा. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वर्चस्व के चलते उपभोक्ता सहकारिताओं को बचाए रखने तथा उन्हें बढ़ावा देने के लिए निम्नलिखित रणनीति को योजनाबद्ध तरीके से अमल में लाया जा सकता हैµ व्यावसायिक दृष्टिकोण ब्रांडीकरण विश्वसनीयता अपनत्व की भावना परंपरागत शिल्पकारों, पेशेवरों को लेकर संगठन निर्माण समग्र सहकारिता आंदोलन को प्रोत्साहन/प्रशिक्षण 1. व्यावसायिक दृष्टिकोण बाजार में बने रहने के लिए उसके समीकरणों का अनुपालन आवश्यक है. कोरी आदर्शवादिता से उपभोक्ता सहकारिताआंे को दीर्घजीवी नहीं बनाया जा सकता. वैसे भी आज के बाजार पहले की अपेक्षा कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण हैं. आधुनिक पूंजीवादी कंपनियां किसी उत्पाद को बाजार में उतारने से पहले उसके बारे में उपभोक्ताओं से राय लेती हैं. उसके विश्लेषण के बाद पूर्णतः योजनाबद्ध तरीके से अपने उत्पाद को बाजार में उतारा जाता है. उत्पाद को बाजार में उतारने के बाद भी उनके बारे में उपभोक्ताओं की प्रतिक्रिया, बिक्री बाद मदद के लिए भी वे तैयार रहती हैं. इससे उपभोक्ता के मन में उत्पाद के साथ-साथ कंपनी की विश्वसनीयता भी स्थापित हो जाती है, जो उत्पाद के बाजार के विस्तार तथा भविष्य में नई योजनाओं के कार्यान्वन के समय काम आती है. निश्चित रूप से इन सब कार्यों के लिए अधिक पूंजी की आवश्यकता पड़ती है. पूंजीवादी कंपनियों का पूंजी-आधार चूंकि विस्तृत होता है, अतएव वे अत्याधुनिक तरीकों तथा कुशल पेशेवरों की मदद से अपने कार्य को कुशलतापूर्वक अंजाम देती हैं. पूंजीवादी कंपनियों की सापेक्ष सहकारिताओं का पूंजी-आधार सीमित होता है. हालांकि केंद्रीय बाजार, सुपरबाजार जैसी बड़ी उपभोक्ता सहकारिताएं भी अस्तित्व में आई, परंतु किसी न किसी रूप में वे सरकारी मदद पर आश्रित रही हैं. स्वयंस्फूर्त भावना के साथ बनने वाली बड़ी उपभोक्ता सहकारिताएं हमारे यहां कम ही हैं. सरकार द्वारा नियंत्रित सहकारिताओं की कमी होती है कि वे बाजार की गति को पहचानकर तत्कालिक निर्णय लेने में असमर्थ होती हैं. इसलिए उनके संचालन में व्यावसायिक संगठन के संचालन के आवश्यक लचीलापन नहीं आ पाता. अतएव उपभोक्ता सहकारिता आंदोलन के स्थायित्व के लिए आवश्यक है, कि उनका संचालन पेशेवराना अंदाज में किया जाए. उनसे ऐसे लोगों को जोड़ा जाए जो पेशेवर समझ रखते हों. साथ ही बाजार में दूरगामी महत्त्व की योजनाएं बनाई जाएं तथा उन्हें निश्चित समयसीमा में पूरा करने के लिए उनसे अधिक से अधिक लोगों को स्वयंस्फूर्त भावना के साथ जोड़ा जाए. 2. ब्रांडीकरण ब्रांड लोगों की चयन-संबंधी मुश्किल को आसान करता है. ब्रांडीकरण का अभिप्राय किसी उत्पाद को उसके विशिष्ट नाम एवं पहचान सहित उपभोक्ताओं के बीच स्थापित करना है. बाजार में अपनी पहचान स्थापित कर चुके ब्रांड को उपभोक्ता आसानी से अपना लेता है, उसके लिए दुकानदार की विश्वसनीयता आवश्यक नहीं होती. भारत में आॅनलाइन बढ़ता बाजार ब्रांडीकरण की ही देन है. क्योंकि वहां खरीदारी के समय वस्तु ग्राहक के समक्ष नहीं होती. वह उत्पादक के नाम तथा उल्लिखित विशेषताओं के आधार पर उत्पाद के बारे में अपना निर्णय लेता है. बहुराष्ट्रीय निगमों की व्यावसायिक नीतियां ब्रांड की स्थापना पर टिकी होती हंै. बाजार में एक बार ब्रांड की धाक जम जाने के बाद उसके साथ दूसरे उत्पादों की शंृखला को भी आसानी से उतारा जा सकता है. एक ही उत्पाद के अनेक ब्रांड हो सकते हैं, कई बार एक ही कंपनी गुणवत्ता में थोड़ी फेरबदल कर बाजार में एकाधिक ब्रांड उत्पाद उतार देती है. इससे अनेक रुचियों, क्रय सामथ्र्य वाले उपभोक्ताओं तक उत्पाद की पहुंच बना पाना संभव होता है. कालगेट, लक्स, फेयर एंड लवली, डालडा, अमूल आदि बाजार के स्थापित ब्रांड हैं. कई बार कंपनी ही ग्राहकों के बीच अपनी विश्वसनीयता कायम कर लेती है, ऐसी स्थिति में वह जो भी उत्पाद बाजार में उतारती है, वह उसके नाम के साथ आसानी से अपनी जगह बना लेता है. रिलायंस, डाबर, टाटा, आदि जहां बड़ी भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नाम हैं, वहीं ये स्थापित ब्रांड भी हैं. कभी-कभी यह भी होता है कि ब्रांड किसी व्यक्ति या संस्था के आदर्शों से जुड़कर समाज के बीच अपनी विश्वसनीयता हासिल कर लेता है. खादी इसका उदाहरण है. सूती वस्त्रों के लिए खादी का उपयोग भारतीय गांवों में अर्से से किया जाता रहा है, लेकिन विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार के समय महात्मा गांधी द्वारा खादी का उपयोग सूती वस्त्रों की गुणवत्ता के साथ स्वावलंबन एवं आत्मनिर्भरता का प्रतीक मान लिया गया, कमोबेश उसकी यही प्रतिष्ठा आज भी बनी हुई है. उपभोक्ता सहकारिताओं को समाज में पुनस्र्थापित होने और दीर्घकालिक उपस्थिति बनाए रखने के लिए ब्रांडीकरण की महत्ता को स्वीकारना ही होगा. लेकिन ब्रांड की स्थापना के समय सहकारिताओं को सावधान रहना पड़ेगा. उत्पादन-विपणन की परंपरागत नीति में लोगों की आवश्यकताओं को पहचानकर उसके अनुरूप उत्पाद की अभिकल्पना की जाती थी. लेकिन कम समय में अधिक मुनाफे के लालच में, अथवा बाजार में अपना एकाधिकार बनाए रखने के लिए पूंजीवादी कंपनियां पहले उत्पाद की अभिकल्पना करती हैं, बाद में उसके लिए जरूरत पैदा करने का काम करती हैं. यह काम हालांकि काफी कठिन है, लेकिन घर-घर में पैठ बना चुका मीडिया पूंजीवादी कंपनियों के मनसूबों को पूरा करने में खास भूमिका निभाता है. उदाहरण के रूप में हम पानमसाला को ले सकते हैं. उसकी संकल्पना के पीछे कोई सामाजिक लाभ की भावना नहीं थी. उल्टे स्वास्थ्य की हानि होती है. किंतु कम निवेश, सरल तकनीक तथा उच्चतम लाभ-संभाव्यता जैसे कारण हैं, जिससे यह उत्पादकों को ललचाता था. उत्पाद की अभिकल्पना के बाद उसके लिए बाजार का अभिरचना की गई. सघन विज्ञापन के माध्यम से उसके उपयोग को मस्ती, फुर्ती, और सामाजिक प्रतिष्ठा आदि से जोड़कर उसकी आवश्यकता पैदा की गई. आज पानमसाला के ही दर्जनों ब्रांड बाजार में उपलब्ध हैं. ऐसे ही बोतलबंद पानी के ब्रांडीकरण को ले सकते हैं. आज से पचीस-तीस वर्ष पहले तक बोतलबंद पानी के बारे में शायद सोचना भी संभव नहीं था। विशेषकर भारत जैसे देश में. जहां उत्तर से दक्षिण तक सदानीरा नदियां बहती हों. लेकिन जलप्रदूषण को आधार बनाते हुए, प्राकृतिक रूप में उपलब्ध पानी को संदेह के दायरे में लाकर तथा स्वास्थ्य को केंद्र में रखते हुए बोतलबंद पानी को स्थापित करने का काम किया गया. आज ‘बिसलेरी’ नामक ब्रांड बोतलबंद पानी का पर्याय बन चुका है. अब खबर है कि बोतलबंद पानी बेचने वाली बड़ी कंपनियां सुगंधित जल के रूप में एक नए उत्पाद को बाजार में लाने के लिए योजना बना रही है. उसके लिए विज्ञापन नीति पर काम चल रहा है. तय है कि सुगंधित जल की अवधारणा को उपभोक्ताओं के मानस में स्थापित करने के लिए स्वास्थ्य, प्रफुल्लता, संपन्नता आदि को आधार बनाया जाएगा. उपभोक्ता सहकारिताएं ब्रांडीकरण को महत्त्व दें, लेकिन उनके उत्पाद मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप होने चाहिए. पहले लाभप्रद उत्पाद की अभिकल्पना फिर उसके लिए जरूरतों की खोज की नीति उपभोक्ता सहकारिताओं के लिए कारगर नहीं हो सकती. क्योंकि वहां उपभोक्ता एवं विक्रेता एक ही हैं, वही उसके निवेशक भी हैं और लाभ-हानि के समान साझीदार भी. हालांकि यहां भी एक पेच है, हर नया उत्पाद जो बाजार में अपनी पहचान बनाने में सफल रहता है, कालांतर में वह लोगों की आवश्यकता भी बन जाता है. नए ब्रांडों की खोज के कार्य की पूरी तरह उपेक्षा करने पर उपभोक्ता सहकारिताएं विकास की दौड़ में पिछड़ भी सकती हैं. अतएव नए उत्पादों के अभिकल्पन तथा उनके लिए आवश्यकताओं के निर्माण के कार्यक्रम को पूरी तरह तिलांजलि नहीं दी सकती. विश्वसनीयता और प्रगतिशीलता के बीच तालमेल बनाए रखने के लिए आवश्यक होगा कि सहकारिताएं उन्हीं उत्पादों के ब्रांडीकरण एवं अभिकल्पन तक स्वयं को सीमित रखें, जो बहुसंख्यक वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति करने का सामथ्र्य रखते हों तथा जिनसे आर्थिक एवं सामाजिक दोनों ही प्रकार के लाभों की सिद्धि होती हो. 3. विश्वसनीयता पिछले किसी की समय की अपेक्षा आज का उपभोक्ता पहले से कहीं अधिक सजग है. सरकार एवं गैरसरकारी कई ऐसी संस्थाएं हैं जो उसके अधिकारों के लिए सरंक्षण के लिए समर्पित हैं. अतः आधुनिक उपभोक्ता को मूर्ख बना पाना आसान नहीं है. विशेषकर बाजार के बीच जहां उसके पास चयन के लिए अनेक विकल्प मौजूद होते हैं. अतः उपभोक्ता सहकारिताओं की सामाजिक पहचान बनाने के लिए आवश्यक है कि उनके उत्पाद लोगों के विश्वास को जीतने में समर्थ हों. इसके लिए उत्पाद की गुणवत्ता, उचित मूल्य, पूरी तौल तथा समय पर माल की उपलब्धता आदि कुछ सामान्य-सी शर्तें हैं, जिनपर चलकर उपभोक्ता के विश्वास को जीता जा सकता है. एक बार उपभोक्ता का विश्वास जीत लेने के बाद बाजार में प्रतिष्ठा तो बढ़ती ही है, भावी योजनाओं पर अमल करना भी आसान हो जाता है. इस संबंध में रोशडेल पायनियर्स से भी प्रेरणा ली जाती है. हाॅल्याॅकी ने अपनी पुस्तक में एक घटना का उल्लेख किया हैµ लंदन की एक शाम, कड़कड़ाती ठंड…सिर से पांव तक मोटे लबादे में लिपटी एक बुढ़िया स्टोर की ओर दौड़ी चली आ रही थी. चाहती थी कि स्टोर का दरवाजा बंद हो, उससे पहले ही वहां जा ध्मके. रास्ते में कई दुकानें पड़ीं। चिढ़े हुए दुकानदार बुढ़िया को लालची कहकर उसपर अपनी खिसियाहट फेंकते रहे. ‘दो पाउंड मांस तो तोलना.’ कहते हुए बुढ़िया के मुंह से गर्म हवा निकली जो बाहर आते ही झट से वर्फ के धुंए में बदल गई. ‘मांस तो बिक चुका मैडम!’ काउंडर पर तैनात कर्मचारी ने अपनी शर्मिंदगी प्रकट की. ‘बिक गया, ओह! लेकिन मुझे तो घर में बीमार को खिलाना है.’ ‘साॅरी मैडम! मुझे दुःख है कि मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता.’ बुढ़िया ने बड़बड़ाते हुए उस डाॅक्टर को दो-चार गालियां सुनाईं, जिसने बीमार को मांस खिलाने की सलाह दी थी. अपने कदमों को जबरदस्ती खींचती वह बाजार में पहुंची. वहां से मांस के दो पैकेट तुलवाए. पहला एक पाउंड का तथा दूसरा आधे पाउंड का. ‘जरूर कुछ गड़बड़ है?’ पैकेट हाथ में लेते हुए बुढ़िया ने सोचा. घर पहंुचते ही उसने अपनी बेटी को तराजू लाने का निर्देश दिया। दोनों पैकेट तौलकर देखे तो बड़ा पैकेट दो ओंस कम था. छोटे में दुकानदार ने एक ओंस की घटतौली की थी. बुढ़िया ने खीझते हुए दो गालियां भंडार के संचालकों भी दीं, जिन्होंने उस दिन मांस का कोटा जल्दी बेच दिया था. विश्वसनीयता प्राप्त करना कोई आसान काम नहीं है. न यह किसी एक दिन का काम है. बल्कि इसके लिए लोगों के बीच जाकर अपनी विश्वसनीयता सिद्ध करनी पड़ती है. अपने विपुल पूंजी-सामथ्र्य के दम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी विश्वसनीयता सिद्ध करने के लिए मीडिया का सहारा लेती हैं. वैज्ञानिक दावों और शोध के सहारे उपभोक्ता के मानस पर छा जाना चाहती हैं. उपभोक्ता सहकारिताएं भी इन माध्यमों का सहारा ले सकती हैं. लेकिन इससे भी आसान है कि अपने सदस्यों के बीच उत्पाद की विश्वसनीयता बनाए रखकर सदस्य संख्या के विस्तार पर नियमित रूप से कार्य किया जाए. ध्यान रहे कि भारत में पांचवे-छठे दशक के बीच उपभोक्ता सहकारिताओं को मिली भारी सफलता का कारण भी उपभोक्ताओं के बीच उनकी सहज स्वीकार्यता ही थी. अपनत्व की भावना किसी भी सहकारी संगठन की कार्यक्षमता एवं उसका स्थायित्व उसके सदस्यों की एकता एवं एकजुटता पर भी निर्भर करता है. सहकारिता की खूबी भी यही है कि यह ‘मैं’ की सीमा को ‘हम’ के रूप में असीमित कर देती है. ‘हम’ में विस्तार की अनंत संभावनाएं हैं. अतएव उपभोक्ता सहकारिताआंे को अपनी विकास की रणनीति ऐसी बनानी होगी कि उसके प्रत्येक सदस्य संगठन की प्रत्येक गतिविधि और कार्यक्रम के साथ अपनत्व की अनुभूति होने लगे. उसे यह विश्वास हो जाए कि संगठन और वे अलग-अलग नहीं हैं, संगठन को होने वाला लाभ उनका अपना लाभ है. हानि होने पर उसके वे सपने धराशायी हो सकते हैं, जो उसने संगठन से जुड़ते समय देखे थे. हाॅल्याकी ने रोशडेल पायनियर्स के संदर्भ में एक घटना का उल्लेख किया हैµ एक स्त्राी के घर से भंडार काफी दूर था। अपनी छोटी-मोटी जरूरतों के लिए वह अपने बेटे को भंडार तक भेज देती थी। रास्ते में कई दुकानें पड़ती थीं। उनपर मौजूद दुकानदार उस बच्चे को प्रलोभन भी देते थे। बच्चा हैरान था, एक दिन मां से पूछ बैठा, ‘मां, तुम मुझे रोज उस बुनकरों की दुकान पर ही क्यों भेजती हो? घर के निकट और भी तो दुकानें हैं, उससे भी बड़ी…वहां बैठे दुकानदार भी भलेमानस दिखते हैं।’ ‘जानती हूं बेटा! पर बुनकरों की दुकान पर हुए मुनाफे का एक हिस्सा हमारे घर भी आता है!’ बेटा समझ गया. उस दिन के बाद वह बिना कहे बुनकरों की दुकान पर जाने लगा। सदस्यों में अपनत्व की भावना का संचार उन्हें संगठन की निर्णय प्रक्रिया से जोड़कर, अधिलाभ वितरण की पारदर्शी नीति अपनाकर तथा उनके सुख-दुख को पहचानकर उनके साथ सामूहिक भागीदारी करके प्राप्त किया जा सकता है. इसके लिए उपभोक्ता सहकारिताओं को अपने संगठन का विस्तार आधारभूत स्तर तक करना होगा. अपनत्व की भावना सहकारिता के प्रति गंभीर समझ के बिना भी संभव नहीं है. इसके लिए उन्हें ग्रामीण एवं कस्बाई स्तर पर सहकारिता प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने होंगे. परंपरागत शिल्पकारों, पेशेवरों को लेकर संगठन निर्माण माॅल संस्कृति ने भारत के परंपरागत शिल्पकारों, दुकानदारों, फेरी वालों के सामने उनके अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है. उनके हाथों से रोजगार से अवसर छीनकर बड़ी कंपनियों के पास जा रहे हैं. माल संस्कृति के प्रति उन लोगों के मन में आक्रोश भरा है. उपभोक्ता सहकारिताएं उनके आक्रोश, जनशक्ति और पहुंच का जितना उपयोग कर पाएंगी, उनका भावी स्वरूप इसी से निर्धारित होगा. उपभोक्ता सहकारिता के रणनीतिकारों को चाहिए कि वे गांव-गांव कस्बे-कस्बे जाकर छोटे दुकानदारों, फेरीवालों, किसानों, परंपरागत शिल्पकारों को ग्रामीण क्षेत्रों में माल्स संस्कृति के विस्तार से समाज पर पड़ने वाले प्रभावों से अवगत कराएं. उन्हें लेकर स्थानीय स्तर पर छोटे-छोटे संगठन बनाए जाएं. उन संगठनों को शोध, बाजार प्रबंधन, उत्पादन, विपणन, आदि की जिम्मेदारी सौंपी जाए. अलग-अलग होकर भी वह संगठन एक वृहद सहकारिता का हिस्सा हों. उनमें एकत्व की भावना हो और यह एहसास भी हो कि उनके हित आपस में एकजुट रहने में हैं. अभी तक भारत में सहकारिता आंदोलन सरकार द्वारा समर्थित रहा है. आगे भी वह सरकार के समर्थन पर चले इसमें कोई बुराई नहीं है. किंतु सरकार की भूमिका केवल उत्प्रेरक की होनी चाहिए. ग्रामीण सहकारिताएं जितनी आत्मनिर्भर एवं स्वयं स्फूर्त होंगी, उनकी सफलता की संभावना उतनी ही अधिक होगी. समग्र सहकारिता आंदोलन को प्रोत्साहन/प्रशिक्षण पिछले दिनों उत्तरप्रदेश सरकार ने कांट्रेक्ट खेती की अनुमति दी. लेकिन बहुत जल्दी वह इसके खतरों को समझ गई और कानून पर अमल होने से पहले ही लगभग एक सप्ताह के भीतर वापस ले लिया गया. कांट्रेक्ट खेती के अंतर्गत बड़ी पूंजीवादी कंपनियां और किसान मिलकर करार कर सकते हैं. कांट्रेक्ट खेती की व्यवस्था के अनुसार कंपनियों की पूंजी से किसान उनकी पसंद की फसल की बुवाई करता है. फसल पकने के बाद पूंजीपति उसे बाजार दाम से कम से दस प्रतिशत अधिक मूल्य पर किसान से खरीद लेगा. इस प्रणाली के खतरे बेशुमार हैं. जिनमें सबसे बड़ा खतरा किसान के हाथ से उसकी जमीन चले जाने का भी है. जिन राज्यों में कांट्रेक्ट खेती को मंजूरी है, वहां भी सफल नहीं हो पा रही है. किसान मुख्यतः पूंजी अभाव के कारण कांट्रेक्ट खेती की अपनाते हंै. गांवों में कृषि जोतों के सिकुड़ते जाने के कारण वैसे भी किसानों के पास उतनी जमीन नहीं है कि वे साल भर उसकी उपज पर निर्भर रह सकें. मजबूरी में वे या तो नौकरी करने को विवश होते हैं, अथवा कांट्रेक्ट खेती के रूप में पूंजीपतियों और उनके दलालों के हाथों का खिलौना बन जाते हैं. इसलिए आवश्यक है कि सहकारी खेती को प्रोत्साहन दिया जाए. भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था अभी भी कृषि पर आधारित है, लेकिन जोतों के सिकुड़ने से खेती करना बहुत लाभकारी नहीं रहा है. अतएव आवश्यकता इस बात की है कि ग्रामीण और स्थानीय बाजार की संभावनाओं का आकलन करते हुए उपभोक्ता सहकारिताएं गांवों में जाकर कृषि-आधारित एवं वैकल्पिक उद्योगों को बढ़ावा देने का कार्य करें. किसान संगठनों, दुकानदारों, शिल्पकारों, फेरीवालों, सेवाकर्मियों को सहकारी संगठनों, स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से परस्पर जोड़ा जाए. दूसरे शब्दों में गांवों में उत्पादन के जितने भी रूप हैं, वे सभी उन अपने-अपने समूह के साथ वृहद ग्रामीण सहकारिताओं का हिस्सा हों. जिनमें उत्पादक सहकारिताएं उत्पादन एवं उपभोक्ता सहकारिताएं उस उत्पाद को गांव, कस्बों और शहर तक ले जाने का वीणा उठाएं. उपर्युक्त से स्पष्ट है कि उपभोक्ता सहकारिताएं आज की आवश्यकता हैं. माॅल्स संस्कृति के अनियंत्रित विस्तार को रोकने तथा प्रगतिशीलता को बनाए रखने के लिए उनकी उपयोगिता पहले से कहीं भी अधिक आज है. लेकिन परिवर्तन के इस दौर में अपनी निर्णायक भूमिका निभाने के लिए उन्हें व्यापक कार्ययोजना पर अमल करना होगा. समाज को आत्मनिर्भर एवं स्वावलंबी बनाने वाले राष्ट्रहित के इस कार्य में समाजविज्ञानियों, लेखकों और पत्राकारों के साथ मजदूरों, शिल्पकारों, बेरोजगारों, छोटे दुकानदारों की भूमिका समान महत्त्व रखती है. 1943 के ग्रीष्मकाल में प्रसिद्ध उपन्यासकार चाल्र्स डिकेन्स ने लंकाशायर की मजदूर बस्तियों की दुर्दशा देखने के बाद आहत मन से मजदूरों की एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि यदि वे वास्तव में परिवर्तन को उत्सुक हैं तो अपने दिल और दिमाग खुले रखें. उनका आशय दुर्दशा के कारणों को समझने तथा परस्पर मिलकर उसका उपचार ढूंढने से था. वैसी ही आवश्यकता आज भारतीय समाज में है. हमंे चाहिए कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव से बावजूद अपने दिल और दिमाग को खुला रखें और सहयोगाधारित उपभोक्ता संगठनों के माध्यम से उनकी रोकथाम के लिए उपयुक्त व्यवस्था करें. स्मरण रखें कि लोग यदि चेतना संपन्न होगें तो वे स्वयं संगठित होते जाएंगे.

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M- 09868206548/ E’ mail : opkaashyap@indiatimes.com

1. …from all around came reports of weavers clothed in rags, who had sold all their furniture, who worked 16 hours a day yet lived on a diet of oatmeal, potatoes, onion porridge and treacle” E. P. Thompson, The Making of the English Working Class, (Penguin, Harmondsworth, 1968)- as quoted in Johnston Birchall, Co-op: The People’s Business [Manchester University Press, Manchester, UK, 1994), p. 34].

2. …to give birth standing up, their arms round two other women, because they had no change of bedclothing; the very people who had spent their lives weaving clothes and blankets for the world had come down to this, rags on their backs and no blankets on their beds” Birchall, pp. 35-37.

  1. These evils may be cured: and the remedy is in our own hands. The remedy is CO-OPERATION. King, Dr William, 1786-1865.