नास्ति दत्तम् नास्ति हूतम् नास्ति परलोकम् इति।। ᅳमेधातिथि , लोकायत, 30
(प्रसाद चढ़ाना, यज्ञों में आहुतियां देना व्यर्थ है. परलोक जैसा कुछ भी नहीं है.)
.)
वैदिक संस्कृति के कर्मकांड, बलिप्रथा, पुरोहितवाद का उल्लेख जब–जब होता है, उसके प्रतिरोधी स्वरों की खोज हमें सीधे बौद्ध दर्शन तक ले जाती है. हम वैदिक समाज की कुरीतियों का प्रतिकार बुद्ध के दर्शन में खोजने लगते हैं. भारतीय संस्कृति के इतिहास में बौद्ध दर्शन का उदय निश्चय ही युगांतरकारी घटना थी. जैन दर्शन की भांति उसका निकास भी श्रमण परंपरा से हुआ था. दोनों स्वतंत्र–समृद्ध दार्शनिक परंपरा से अनुप्रेत थे. ईश्वर, आत्मा, परमात्मा जैसी ध्यान भटकाने वाली अवधारणाएं दोनों को अस्वीकार थीं. बावजूद इसके ध्यान सीधे बौद्ध दर्शन की ओर जाता है तो इसलिए कि उसकी सफलता के अनुपात में उसके समकालीन दर्शनों को मिली सफलता नगण्य थी. स्वयं बुद्ध अपनी सफलता के प्रति आश्वस्त थे. कुछ अवसरों पर तो आत्ममुग्धता की हद तक. भिक्षु–संघ के प्रति उनका आत्मविश्वास देखते ही बनता था. महावीर के निधन के उपरांत उनके अनुयायियों के आपसी लड़ाई–झगड़े का समाचार जब चुंड द्वारा उन्हें दिया गया तो उनका कहना था, ‘चुंड अब संसार में कितने उपदेशक हैं जिन्हें इतनी प्रतिष्ठा और मान–सम्मान प्राप्त हुआ है, जितना मुझे? मुझे तो ऐसा कोई उपदेशक दिखाई नहीं पड़ता. हे चुंड! आज संसार में अनेक धार्मिक संघ हैं. लेकिन मुझे तो ऐसा कोई संघ दिखाई नहीं पड़ता जिसके भिक्षु संघ ने बौद्ध संघ के समान सफलता और लोक–सिद्धि अर्जित की हो.’ यदि कोई व्यक्ति किसी धर्म को हर प्रकार से सफल, पूर्ण, त्रुटिहीन, सुगठित एवं सुस्थापित बताना चाहेगा, तो वह इसी संघ का उदाहरण देगा.’ अपनी विचारधारा, धर्म और संप्रदाय के प्रति इतना सघन विश्वास, अनपेक्षित नहीं है. बौद्ध संघ को मिली प्रतिष्ठा और लोक–व्याप्ति की दृष्टि से बुद्ध को ऐसा सोचने का अधिकार भी था. यह बात अलग हैं कि बुद्ध के निर्वाण प्राप्ति के महज ढाई सौ वर्ष के भीतर बौद्ध धर्म भी 18 संप्रदायों में बंट चुका था. उसके विभिन्न धड़ों के बीच गहरे मतभेद थे.
बुद्ध को मध्यमार्गी कहा जाता है. माना जाता है कि यह बोध उन्होंने लोक–परंपरा से ग्रहण किया था. इस बारे में एक रोचक कहानी है. बोध–प्राप्ति के लिए घर से निकलते समय दूसरे तापसों की भांति बुद्ध भी शरीर को मुक्तिमार्ग की सबसे बड़ी बाधा मानते थे. उन्होंने अराड़ मुनि को अपना गुरु माना और भद्रजित आदि के साथ छह वर्षों तक कठिन साधना करते रहे. उस दौरान उन्होंने भोजन, पानी, स्नान–दान, फूल–फल आदि सब त्याग दिया. लेकिन उस कठिन साधना का कोई अनुकूल परिणाम नहीं निकला. नतीजा यह हुआ कि देह सूखकर कांटा बन गई. एक दिन जब वे साधनारत थे तो गीत गाती स्त्रियों का दल उधर से गुजरा. गीत के बोल थेᅳ‘वीणा के तारों को साधे रहो/उन्हें न तो ढीला छोड़ो/न ज्यादा कसो/तार ढीले रहे तो स्वर नहीं निकलेंगे/अत्यधिक कसने पर वे टूट भी सकते हैं.’ गीत सुनते ही बुद्ध की आंखें खुल गईं. तपस्या छोड़कर वे उठ खड़े हुए. उन्हें लगा कि आत्मा–परमात्मा के प्रश्न अंतहीन हैं. मनुष्य सहस्राब्दियों से उनपर तर्क करता आया है. आगे भी अनंतकाल तक करता रहेगा. उनके जरिए किसी सर्वसम्मत समाधान पर पहुंच पाना असंभव है. ऐसे प्रश्नों को छोड़ देने की अनुशंसा के साथ–साथ बुद्ध ने आचरण की शुद्धता पर जोर दिया. कहा कि सच्चे संकल्प द्वारा मन के विकार मिट सकते हैं. अपने विचारों को लेकर संघ की स्थापना की. बुद्ध वैदिक संस्कृति के केंद्रीय विषयों, आत्मा और परमात्मा को नकारते नहीं हैं. केवल अंतहीन प्रश्न मानकर उन्हें किनारे कर देने को कहते हैं. सामान्य नैतिकता जिसे ब्राह्मण दर्शनों में पूरी तरह किताबी बना दिया गया था, जिसका निर्धारण शिखरस्थ वर्गों की मर्जी से, उनके स्वार्थानुसार किया जाता था उसे उन्होंने गणतांत्रिक स्वरूप देने की कोशिश की थी. खासकर भिक्षु संघों में ऐसी व्यवस्था की जिससे समाज में फैले जाति–भेद की उनपर छाया तक न पड़े. वुद्ध विहारों को समाज के सभी वर्गों के लिए खोलते हुए उन्होंने समानता के विचार को महत्त्वपूर्ण माना. उस समय तक वर्ण जाति में ढलकर रूढ़ हो चुके थे. कुल मिलाकर बौद्ध दर्शन की महत्ता जीवन और दर्शन के केंद्र में मनुष्य को वापस ले आने में है. जिसे ब्राह्मणवादियों ने मायावाद के भ्रम में उपेक्षित कर रहा था. इससे वे लोग भी बौद्ध संघों से जुड़ने लगे जिन्हें वर्णव्यवस्था के चलते समानता, स्वतंत्रता एवं जीवन के मूलभूत अधिकारों से वंचित किया गया था. समय के हिसाब से वह क्रांतिकारी घटना थी. उसके थोड़े–से अंतराल के पश्चात यही कार्य सुकरात ने यूनान में किया था.
बावजूद इसके पुरोहित संस्कृति का असल विरोध बौद्ध दर्शन में नहीं था. सवाल है बुद्ध को मध्यम–मार्गी माने तो पुरोहित संस्कृति का वास्तविक प्रतिपक्ष कौन–सा दर्शन था? क्या अहिंसा पर असंभाव्य की सीमा तक जोर देने वाले जैन दर्शन को इसका श्रेय दिया जाए? बुद्ध की भांति महावीर भी भारत की प्राचीन श्रमण परंपरा की देन थे. वैदिकी हिंसा और कर्मकांडों के आलोचक. उन्होंने भी वेदों को अप्रामाण्य मानकर ईश्वरत्व को नकारा था. बावजूद इसके जैन दर्शन, वैदिक दर्शन का वास्तविक प्रतिपक्ष नहीं था. बौद्ध दर्शन की भांति वह भी मध्यमार्गी था. अहिंसा को लेकर वह अव्यावहारिक की सीमा तक चला जाता है. जबकि ‘स्याद्वाद’ की उसकी अवधारणा विरोधी विचारों के लिए भी पर्याप्त स्पेस रखती है. ब्राह्मणवादी दर्शन का असल विरोध भौतिकवादी विचारधारा में था, जिसके बुद्ध के जीवनकाल में कम से कम पांच प्रखर विचारक थे. मक्खलि गोसाल, अजित केशकंबलि, संजय वेलट्ठपुत्त, पूर्ण कस्सप और पुकुद कात्यायन. इस बात के पर्याप्त प्रमाण है कि बुद्ध को बोध प्राप्ति, या उनके प्रसिद्ध होने से बहुत पहले ही वे पांचों काफी प्रतिष्ठा और जनसमर्थन बटोर चुके थे. उनकी विद्वता की धाक उनके विरोधियों पर भी थी. इनके अलावा छठा नाम निगंठ नाथपुत्त का है. आगे चलकर वह जैन दर्शन के प्रवर्त्तक महावीर स्वामी के रूप में ख्यात हुए. विडंबना है कि निगंठ नाथपुत्त को छोड़कर किसी भी विद्वान का उसके जीवन और विचारों को लेकर कोई स्वतंत्र, मौलिक ग्रंथ उपलब्ध नहीं है. उनके जीवन और विचारों का संक्षिप्त परिचय हमें बौद्ध एवं जैन ग्रंथों से प्राप्त होता है. वह पूर्वाग्रहों से भरा पड़ा है. प्राप्त वर्णन में पर्याप्त भिन्नता है, किंतु इस बात से दोनों एकमत हैं कि वे भौतिकवादी दार्शनिक ब्राह्मण दर्शन के प्रबल विरोधी थे.
भौतिकवादी विचारकों को लेकर ‘दीघ–निकाय’ के ‘समन्न्फल्सुत्र सुत्त’ में गौतम बुद्ध एवं अजातशत्रु के बीच लंबी चर्चा है, जिसमें उन्हें ‘संघ स्वामी’, ‘गणाध्यक्ष’, ‘बहुपूज्य’, ‘गणाचार्य’, ‘परमप्रज्ञ’, ‘अनुभवी विद्वान’, ‘साधु’, ‘मत–संस्थापक’, ‘तत्ववेत्ता’, ‘असंख्य समर्थकों वाला’ जैसे लगभग एक समान विशेषणों से संबोधित किया गया है. उसके लिए भूमिका कहानी के रूप में रची गई हैᅳपूर्णमासी का दिन था. बुद्ध राजगृह में वैद्य जीवक के आम्रक्षुओं के साथ विश्राम कर रहे थे. उधर मगध का बलशाली सम्राट अजातशत्रु अपने मंत्रियों और दरबारियों के साथ उत्तम आसन पर विराजमान था. चारों ओर चांदनी छितराई हुई थी, ‘‘अहो, कैसी रमणीय चांदनी रात है! कैसी सुंदर चांदनी रात है!! कैसी दर्शनीय चांदनी रात है!!! कैसी प्रासादिक चांदनी रात है!!! कैसी लक्षणीय चांदनी रात है!!!’’(दीघ निकाय, अनुवादᅳराहुल सांकृत्यायन एवं जगदीश काश्यप) संपूर्ण वातावरण उल्लासमय होने के बावजूद राजा अप्रसन्न है. उसका मन अवसाद से भरा है. वातावरण की रमणीयता, दरबारी वैभव–विलास, सुख एवं सुरक्षा की भरपूर अनुभूति भी उसे संतुष्ट नहीं कर पाती. वह किसी विलक्षण मेधावी ‘श्रमण या ब्राह्मण के तत्वज्ञान द्वारा चित्त को प्रसन्न’ करना चाहता है. धर्म कबीलाई युग यानी उस समय की उपज है जब पराजित का जीवन, चाहे वह राजनीतिक हो या वैचारिक, विजेता के अधिकार में होता था. प्रत्येक धर्म की आधारशिला सांसारिक सुखोपभोग को हेय और निस्सार दिखाने पर टिकी होती है. इस कसौटी पर बौद्ध धर्म भी बाकी धर्मों से अलग नहीं रहा. ‘समन्न्फाफलसुत्त’ का ध्येय ‘श्रमण जीवन के फल’ को दर्शाते हुए सम्राट अजातशत्रु को धर्म–मार्ग की ओर प्रवृत्त करना है. अंतर केवल इतना है कि ब्राह्मणवादी धर्मों में मोक्ष की अवधारणा मृत्यु पश्चात मुक्ति के लिए रची गई है. बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण इसी जन्म में संभव है. आगे छह भौतिकवादी दार्शनिकों के मत का संक्षिप्त उल्लेख है, जिसे भौतिकवाद के सापेक्ष बुद्ध–मार्ग की श्रेष्ठता स्थापित करने की कोशिश के रूप में भी देखा जा सकता है. संवाद की शुरुआत में विकल अजातशत्रु दरबारियों से प्रश्न करता हैᅳ‘क्या आप हमें ऐसे विद्वान का नाम बता सकते हैं जिसके पास बैठकर कुछ तत्व चर्चा की जा सके?’
उत्तर देते हुए एक राजदरबारी पूर्ण कस्सप का नाम लेता है, ‘महाराज! पूर्ण कस्सप, संघ–स्वामी, गणाध्यक्ष, गण–प्रमुख, बहु–सम्मानित, वयोवृद्ध, ज्ञानी, यशस्वी, मत–संस्थापक और बहुप्रज्ञ हैं. आप उन्हीं से ज्ञान–चर्चा करें.’ अजातशत्रु के शांत रहने पर दूसरे दरबारी बारी–बारी से मक्खलि गोसाल, पुकुद कात्यायन, अजित केशकंबलि, निगंठ नाथपुत्त तथा संजय वेलट्ठिपुत्त का नाम लेते हैं. अजातशत्रु उनसे प्रभावित होने के बजाय जीवक से पूछता है, ‘सौम्य जीवक तुम चुपचाप क्यों बैठे हो?’ उत्तर में जीवक अपने आम्रकुंज में ठहरे हुए गौतम बुद्ध के बारे में बताता है, ‘वह भगवान अर्हंत्, सम्यक संबुद्ध, विद्या एवं सदाचरण से युक्त, सुगत, सदोपदेशक, प्रबुद्ध और प्रज्ञावान हैं. उनके साथ धर्मचर्चा करके आपको शांति अवश्य प्राप्त होगी. सम्राट कोई प्रश्न या शंका जाहिर करने के बजाय आम्रकुंज तक चलने का आदेश देता है. तैयारी होते ही वह अपनी पांच सौ पत्नियों को हथिनियों पर बिठा, स्वयं राजसी हाथी पर सवार होकर, पूरे ठाठ–बाट के साथ बुद्ध से भेंट करने हेतु प्रस्थान कर देता है.
आम्रकुंज में संपूर्ण शांति देख अजातशत्रु के मन में संदेह उमड़ आता है. संदेह जिनसे मिलने जा रहा है उनके बुद्धत्व को लेकर नहीं है. उसका आधार वह सामान्य भय है जो हर व्यक्ति के मन में छिपा होता है. डर से मुक्ति के साधनों की खोज ही व्यक्ति को धर्म की ओर प्रवृत्त करती है. अजातशत्रु सम्राट है, इसलिए उसे राजनीतिक दुश्मनों का भी भय है, ‘सौम्य जीवक! कहीं तुम मुझसे छल तो नहीं कर रहे हो? कहीं इसके पीछे मेरे शत्रुओं की कोई चाल तो नहीं है? तुमने बताया कि शास्ता के साथ 1250 भिक्षु भी हैं. पर यहां तो गहन सन्नाटा है! जरा–सी हलचल तक नहीं है! कहीं मुझे धोखा तो नहीं दिया जा रहा?’ जीवक के आश्वासन देने पर सम्राट आम्रकुंज में प्रवेश करता है. फिर हाथी से उतरकर पैदल ही उस स्थान तक पहुंचता है, जहां बुद्ध अपने शिष्यों के साथ निर्मल–शांत जलाशय के समान भिक्षुसंघ के बीच दिव्य कमल की भांति विराजमान हैं. पूरा वातावरण अजातशत्रु का मन मोह लेता है. वह सोचता हैᅳ‘यह भिक्षुसंघ जिस पवित्र शांति से युक्त है, क्या ऐसी ही शांति मेरे पुत्र उभयभद्र को भी प्राप्त हो सकती है?’ वह शास्ता को नमन करता है.
कुशल–क्षेम जानने के पश्चात शास्ता गौतमबुद्ध उससे संबोधित होते हैं. अवसर मिलते ही अजातशत्रु प्रश्न करता है. उसकी जिज्ञासा एकदम स्पष्ट हैᅳ‘भंते जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के शिल्प यथा हस्ति–आरोहण, अश्वारोहण, धनुर्विद्या, रथिक तथा शिल्पकार जैसे कि युद्ध–ध्वज धारक, उग्र योद्धा, महानाग(हाथी से युद्ध करने वाले), दास, कल्पक(नाई), नहापक(नहलाने वाले), काष्ठकार, चर्मकार, रजक, मालाकार, पेशकार, लौहकर्मी आदि अपने–अपने कर्तव्य द्वारा स्वयं को तृप्त करते हैं, उनका फल प्राप्त करते हैं, अपने सगे–संबंधियों, मित्रों, अमात्यों को भी लाभ पहुंचाते हैं, क्या वैसा ही फल इसी जन्म में श्रामण्य जीवन द्वारा भी संभव है?’ प्रश्न सुनकर बुद्ध के चेहरे का तेज बढ़ जाता है. सीधे उत्तर देने के बजाय वे राजा से प्रतिप्रश्न करते हैंᅳ‘क्या यही प्रश्न तुमने दूसरे श्रमणों के सम्मुख भी रखा है?’ अजातशत्रु के ‘हां’ कहने पर वे उनके उत्तर बताने को कहते हैं. आगे एक–एक कर सभी छह प्रमुख मतावलंबियों के दर्शन पर चर्चा होती है. चर्चा का एकमात्र ध्येय समकालीन दर्शनों के सापेक्ष बुद्ध के दर्शन की श्रेष्ठता को स्थापित करना है.
सर्वप्रथम पूर्ण कस्सप के विचारों का जिक्र होता है. अजातशत्रु बताता है कि जब उसने पूर्ण कस्सप से यही प्रश्न किया तो उसका कहना थाᅳ‘कार्य करते–कराते हुए, छेदन करते–कराते, शोक करते–कराते, चलते–चलाते, परेशान करते–कराते, गांव लूटते, चोरी–सैंधमारी करते–कराते, हत्या करते–कराते, गंगा के उत्तर या दक्षिण जाते, दान देते–दिलाते रहने से कभी कोई पाप नहीं होता. यहां तक कि यदि कोई व्यक्ति छुरे से किसी दूसरे व्यक्ति की गर्दन भी तराश दे, तब भी उससे कोई पाप नहीं होता. दान देने, दान लेने या सत्य बोलने से न पुण्य का आगम होता न ही पाप का….’ पूर्ण कस्सप के अनुसार जीव–जगत की संपूर्ण हलचल सहित ब्रह्मांड की अनेकानेक क्रिया–अभिक्रियाएं भौतिक घटनाएं मात्र हैं. उनसे मानव जीवन भौतिक स्तर पर भले प्रभावित हो, मगर उनका कोई नैतिक या दैवीय आधार नहीं होता. प्राकृतिक घटनाओं का कोई परोक्ष संदेश भी नहीं है. जो है, जैसा है वह स्वतः गतिमान है. पूर्ण कस्सप का संदेश संपूर्ण ‘अक्रियावाद’ में सिमटा हुआ है. उसके अनुसार मनुष्य स्वयं भौतिक परिवेश का हिस्सा–भर है और उसी के नियमों से पूरी तरह अनुशासित होता है. घटनाएं उसके नियंत्रण से बाहर होती हैं. इसलिए जो होता है उसका मनुष्य के नैतिक या पराभौतिक जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. पूर्ण कस्सप के विचारों से असंतुष्ट अजातशत्रु कहता है, ‘भंते जैसे कोई पूछे आम, जवाब मिले कटहल, और पूछे कटहल, जवाब मिले आम. ऐसे ही मैंने जो पूछा था, उसके स्थान पर पूर्ण कस्सप ने ‘अक्रियावाद’ का बखान किया. उनके कथन की मैंने न तो प्रशंसा की, न ही निंदा. मैंने न तो उनका अभिनंदन किया, न ही तिरस्कार. केवल शांत–भाव से वहां से उठकर चला आया.’
पूर्ण कस्सप के पश्चात अगला नंबर मक्खलि गोसाल का आता है. अजातशत्रु पुनः अपने प्रश्न को उठाता है, ‘भंते अगले दिन मैं मक्खलि गोसाल के यहां गया. वहां कुशलक्षेम पूछने के पश्चात पूछा, ‘महाराज, जिस प्रकार दूसरे शिल्पों का लाभ व्यक्ति अपने इसी जन्म में प्राप्त करता है, क्या श्रामण्य जीवन का लाभ भी मनुष्य इसी जन्म में प्राप्त कर सकता है?’ मक्खलि गोसाल की ओर से जो उत्तर मिलता है, उसमें उनके जीवन–दर्शन की झलक मिलती हैᅳ‘घटनाएं स्वतः घटती हैं. उनका न तो कोई कारण होता है, न ही कोई पूर्वनिर्धारित विधान. उनके क्लेश और शुद्धि का कोई हेतु नहीं है. प्रत्यय भी नहीं है. बिना हेतु और प्रत्यय के सत्व क्लेश और शुद्धि प्राप्त करते हैं. न तो कोई बल है, न ही वीर्य, न ही पराक्रम. सभी भूत जगत, प्राणिमात्र आदि परवश और नियति के अधीन हैं. निर्बल, निर्वीर्य भाग्य और संयोग के फेर से सब छह जातियों में उत्पन्न हो सुख–दुख का भोग करते हैं…..संसार में सुख और दुख बराबर हैं. घटना–बढ़ना, उठना–गिरना, उत्कर्ष–अपकर्ष जैसा कुछ नहीं होता. जैसे गेंद फेंकने पर उछलकर गिरती है और फिर शांत हो जाती है. वैसे ही ज्ञानी और मूर्ख सांसारिक कर्मों से गुजरते हुए अपने दुख का अंत करते रहते हैं.’ इस तरह ‘दीघ–निकाय’ में मक्खलि गोसाल थोड़े ऐर–फेर के साथ पूर्ण कस्सप के विचारों को ही दोहराता है. अजातशत्रु की प्रतिक्रिया पहले जैसी होती है. ‘भंते! जैसे किसी से आम के बारे में पूछा जाए और वह कटहल के बारे में बताने लगे और कटहल के बारे में पूछने पर आम का गुणगान करने लगे, ऐसे ही मैंने जो प्रश्न किया था, उसके उत्तर में मक्खलि गोसाल ने ‘दैववाद’ का बखान किया. मैं असंतुष्ट था. फिर भी बिना कोई प्रतिवाद किए वहां से चला आया.
अगले चरण में अजित केशकंबलि के विचारांे की झलक है. अजातशत्रु कहता है, ‘हे राजन! अजित केशकंबलि के समक्ष पहुँचकर मैंने वही प्रश्न किया जो मक्खलि गोसाल एवं पूर्ण कस्सप के समक्ष किया था. उत्तर में उसने बतायाᅳ‘महाराज! न दान है न यज्ञ है, न होम है न ही पाप–पुण्य. न लोक है, न ही परलोक है, न माता हैं न ही पिता. न तो अयोनिज सत्व हैं, न ही ज्ञानी पुरुष जो इस लोक को जानकर इसकी व्याख्या करेंगे. मानव–मात्र चार तत्वों के योग से बना है. जब कोई मरता है तो पृथ्वी महापृथ्वी में, विलीन हो जाती है, जल, तेज, वायु आदि आकाश में विलीन हो जाते हैं. मृत देह को लोग खाट पर डालकर ले जाते हैं. उसकी निंदा या प्रशंसा की होती है. थोड़ी देर बार सबकुछ भस्म हो जाता है. हड्डियां उजली हो श्वेत कपोतों की भांति छितरा जाती हैं. न आत्मा है न ही परमात्मा. केवल मूर्ख लोग दान देते हैं, जिसका कोई फल नही होता. पंडित हो या मूर्ख, मरने के बाद सबकुछ नष्ट हो जाता है. कुछ भी शेष नहीं बचता.’ महाबोधि को संबोधित होकर अजातशत्रु फिर उसी प्रतिक्रिया पर लौट आता है, ‘भंते! जैसे कोई कटहल पूछने पर आम के बारे में बतावे और आम पूछने पर कटहल का वर्णन करने लगे, वैसा ही मुझे लगा. फिर भी बगैर कोई प्रतिवाद किए, शांत–मन वहां से चला आया. अगले दिन मैं पुकुद कात्यायन के सान्निध्य में पहुंचा. उनसे भी वही प्रश्न किया.
पुकुद कात्यायन का मानना है कि संपूर्ण सृष्टि, ‘कुल सात पदार्थों से बनी है. उन्हें न तो बदला जाता है, न ही विकारग्रस्त किया जा सकता है. सातों पदार्थ एक–दूसरे से स्वतंत्र और निरपेक्ष हैं. वे न तो एक–दूसरे को हानि पहुंचाते हैं, न ही किसी और तरह से प्रभावित करते हैं. वे सात पदार्थ हैंᅳपृथ्वी, अग्नि, वायु, आकाश, सुख, दुख एवं जीवन. मनुष्य को इन सातों को लेकर हर्ष–शोक से बचना चाहिए. सातों मूल पदार्थ हैं. वे अचल, अखंड, निरपेक्ष और अपरिवर्तनीय हैं. इस तरह वे पूरी तरह अजर, अमर, अविनाशी और अपरिवर्तनीय हैं. यदि कोई तेज धार के हथियार से किसी की गर्दन तराश देता है तब भी वह कोई अपराध नहीं करता. केवल अपने हथियार से शरीर के दो हिस्सों के बीच कुछ अंतराल बना देता है.’ पुकुद के विचारों के उल्लेख के पश्चात अजातशत्रु तथागत से कहता हैᅳ‘हे भंते! मैंने तो केवल श्रामण्य जीवन के फल के बारे में पूछा था. उत्तर में पकुद ने इधर–उधर की बातें कीं. उसके अनुसार सृष्टि के बीच कोई अंतर्संबद्धता नहीं है. सबकुछ निरपेक्ष और स्वतंत्र है. ऐसा भला कैसे हो सकता है!’
इसके पश्चात वह निगंठ नाथपुत्त के विचारों पर टिप्पणी करता हैᅳ‘भंते! जब मैंने वही प्रश्न निगंठ नाथपुत्त से किया तो उसने चर्तुआयामी संवर(अवरोध) का उपदेश दिया. उसका कहना था, ‘निगंठ(निर्गंथ: जिसमें कोई गांठ न हो) चार प्रकार के संवरों से घिरा होता है. वे चार प्रकार के संवर क्या हैं? तो सुनिए, पहला वह जल की भांति व्यवहार करता है. दूसरे वह सभी प्रकार के पापों का वारण करता है. तीसरा, पापों का वारण करने के बावजूद वह निष्पाप होता है. चौथा, वह सभी पापों का वारण करने में लगा रहता है. चार संवरों से संवृत होने के कारण ही वह निर्गंठ, निष्पाप, अनिच्छुक, संयमी और स्थितात्मा कहलाता है.’
संजय वेलट्ठिपुत्त का उत्तर अनेक संशयों से भरा था. ‘महाराज यदि आप पूछें कि क्या इस लोक अलावा भी कहीं जीवन(मृत्यु पश्चात) है? यदि मैं यह सोचता भी हूं कि मृत्यु–पश्चात भी जीवन है. तो मैं आपको क्यों बताऊं! यदि मैं सोचता हूं कि परलोक है तो मैं आपको क्यों बताऊं कि परलोक है. इसलिए मैं ऐसा नहीं कहता. मैं वैसा भी नहीं कहता. मैं किसी और तरह से भी नहीं कहता. मैं ऐसा भी नहीं कहता कि यह नहीं है. मैं नहीं कहता कि नहीं, नहीं है. मैं नहीं कहता कि परलोक है. मैं नहीं कहता कि परलोक नहीं है. मैं नहीं कहता कि तथागत मरने के बाद भी होते हैं. मैं नहीं कहता कि तथागत मरणोपरांत नहीं होते हैं. कोई मुझसे पूछे कि क्या तथागत मरने के बाद होते हैं? तो मैं वैसा भी नहीं कहता.’ यानी संदेह ही संदेह. कुछ भी निश्चित नहीं. जिस संसार में हम रहते हैं, वहां जीवन को सुखी एवं सुरक्षित बनाने के लिए कुछ विश्वास भी करना पड़ता है. किंतु संजय वेलट्ठिपुत्त के विचार तो पूरी तरह संदेह में लिपटे थे.
इन विचारों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया जाए तो कोई खास अंतर दिखाई नहीं पड़ता. लगता है कि सभी दार्शनिक एक ही बात को घुमा–फिराकर कह रहे हैं. जहां कुछ अंतर है, वहां भी स्पष्टता का अभाव है. जिस कारण उनकी ओर से किसी परीपक्व दार्शनिक विचारधारा की तस्वीर नहीं बन पाती. दूसरा अंतर प्रवृत्ति को लेकर भी है. अजातशत्रु का प्रश्न श्रमण जीवन की उपयोगिता को लेकर है. वह जानना चाहता है कि जो लोग सश्रम आजीविका कमाकर लोकजीवन में अपना योगदान देते हैं, तथा वे लोग जो सांसारिक जीवन को त्यागकर निष्पृह, निर्लिप्त, असांसारिक और यायावर जीवन अपनाते हैंᅳदोनों के फल में क्या अंतर है? लोकजीवन में सीधे सहयोग करने वालों का योगदान स्पष्ट दिखता है. जबकि श्रमण जीवन को अपनाने वाले लोगों का योगदानᅳभले ही उनके अपने निमित्त हो अथवा कुल समाज के, नजर नहीं आता. अजातशत्रु की यह जिज्ञासा ही उसे छह दार्शनिकों तक ले जाती है. मगर उत्तर देने के बजाय वे सब अपने–अपने दार्शनिक विचारों का वर्णन करने लगते हैं. उनके उत्तर संवाद की काल्पनिकता की ओर संकेत करते हैं. क्योंकि निगंठ नाथपुत्त को छोड़कर जिन्होंने आगे चलकर जैन मत का प्रवत्र्तन किया, शेष पांचों दार्शनिकों के लिए श्रमण संस्कृति को लेकर खास उत्साह नहीं था. ‘दीघ–निकाय’ में उन्हें ‘संघ प्रमुख’, गणाध्यक्ष, ज्ञानी, अनुभवी, यशस्वी, तीर्थंकर(मत–संस्थापक) आदि बताया गया है. यहां संघ प्रमुख से लेखक का आशय अनुयायियों के समुच्चय से है. नास्तिक दार्शनिकों में सृष्टि की उत्पत्ति को लेकर भले ही मतांतर हो, किंतु वे जीवन से भागने के बजाय उसे भोगने में विश्वास रखते थे. इस संबंध में वे सभी एकमत थे. सुख उनके लिए मायावी अथवा हेय वस्तु नहीं था. बल्कि वह तत्व था(और है भी), जो जीवन को उत्सव में ढालने के लिए आवश्यक होता हैᅳ‘दुख के डर से हमें उस सुख से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए, जिसे हमारी बुद्धि अपने लिए अनुकूल समझती है. पशुओं द्वारा चर लिए जाने के भय से लोग धान बोना बंद नहीं कर देते. न ही भिखारियों के भय से भोजन पकाना रोक देते हैं.(माधवाचार्य, सर्वदर्शन संग्रह, 9.3). धर्म और मोक्ष के नाम पर जब समस्त संसाधन ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने बांट लिए हों, तथा अपने श्रम–कौशल के आधार पर आजीविका कमाने वाले लोगों को दास का जीवन जीना पड़ता हो, अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए ब्राह्मण वर्ग उन्हें त्याग और मोह पाठ पढ़ाता हो तथा स्वयं यज्ञ और बलियों के नाम पर भोगविलास में लिप्त रहता हो, तब ऐसा सोच क्रांतिकारी ही कहा जाएगा.
आजीवक दार्शनिकों के बारे में गहन शोध करने वाले ए. एल बाशम का तो यहां तक मानना है कि निगंठ नाथपुत्त सहित सभी छह उपदेशक एक ही ‘उपदेश समवाय के अंश थे.’ जैन और बौद्ध लेखकों ने उनके विचारों को घुमा–फिराकर प्रस्तुत किया है. पांचवी शताब्दी के बौद्ध विद्वान बुद्धघोष के अनुसार पूर्ण कस्सप दास थे. जिस स्वामी के यहां रहते थे, उसके पास पहले से ही 99 दास थे. कस्सप के शामिल होने के पश्चात संख्या बढ़कर 100 हो गई. इस संख्या को पूर्ण मानते हुए उनका नामकरण किया गया था. जैन परंपरा में बताया गया है कि वे संपूर्ण ज्ञानी होने के कारण ही वे ‘पूर्ण’ कहलाए. ‘कस्सप’ उपनाम को देखते हुए वेणीमाधव बरुआ उन्हें ब्राह्मण गौत्रीय बताते हैं. यह बात हजम नहीं होती. क्योंकि जिस काल में पूर्ण कस्सप का जन्म हुआ, उसमें ब्राह्मण को, वह चाहे जितना विपन्न हो, दास नहीं बनाया जा सकता था. दूसरे कस्सप गोत्रनाम के शूद्रों में भी होते हैं. मक्खलि का जन्म गोशाला में हुआ था. इसी से उनके नाम के साथ ‘गोसाल’ जुड़ा. जैन परंपरा के अनुसार ‘मक्खलि’ ‘मंख’ से बना है. मंख एक पिछड़ी जाति थी. जिसके सदस्य चारण या भाट जैसा जीवन यापन करते हैं. जैन साहित्य के अनुसार मक्खलि हाथ में मूर्ति लेकर भटका करता था. अजित केशकंबलि के बारे में बताया जाता है कि वह शरीर पर हमेशा मोटा कंबल लिपेटे रखता था. पुकुद कात्यायन और संजय वेलट्ठिपुत्त के बारे में अधिक पता नहीं है. बुद्धघोष ने पकुध को सनकी बताया है. उसके अनुसार वह हमेशा गर्म पानी ही ग्रहण करता था. नदी–नाले को पार करना पाप समझता था. यदि करना ही पड़े तो बाद में प्रायश्चित करता था. यदि गर्म पानी न मिले तो वह नहाना छोड़ देता था. संजय वेलट्ठिपुत्र को कुछ विद्वान ‘संजय परिब्बाक’ कहते हैं. संजय के साथी जब अपने गुरु का साथ छोड़ देते हैं. इससे निराश होकर वह आत्महत्या कर लेता है. पूर्ण कस्सप भी बुद्ध से जादू के खेल में पराजित आत्महत्या का मार्ग चुनता है. कुछ विद्वानों का मानना है कि लोकायत दर्शन, जिसे वे अपनी–अपनी तरह से परिभाषित करते हैं, का ईसा से 250-300 साल पहले तक एक विशिष्ट ग्रंथ था. इन दिनों उसका कोई अस्तित्व नहीं है. संभव है उसे नष्ट कर दिया गया हो. पोंगा पंथी पुरोहितों के लिए यह बहुत सामान्य बात थी.
हो सकता है अजातशत्रु और छह भौतिकवादी विचारकों की भंेट बौद्ध लेखकों की कल्पना की उपज हो. अपने विचारों को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए उन्होंने भौतिकवादी विचारकों का नाम जोड़ दिया हो. लेकिन छह नास्तिक विचारकों का उल्लेख जैन और बौद्ध दर्शनों में अनेक जगह हुआ है. इससे उन विचारकों को कल्पित नहीं कहा जा सकता. बल्कि इससे उनकी समाज में व्यापक स्वीकार्यता का पता चलता है. इसलिए कि अपने मत की संस्थापना के लिए बौद्ध दार्शनिकों को न केवल अपने पूर्ववत्र्ती दार्शनिकों के मत का खंडन अनिवार्य जान पड़ता है, बल्कि खंडन के लिए शक्तिशाली मगध सम्राट अजातशत्रु को बीच में लाना पड़ता है. वस्तुतः ‘दीघ–निकाय’ के जिस अध्याय में छह भौतिकवादी नास्तिक दार्शनिकों का उल्लेख है, उसका ध्येय इन विचारकों के दर्शन का वर्णन या व्याख्या करना नहीं है, अपितु ‘श्रामण्य जीवन के फल’ की समीक्षा करते हुए बौद्ध धर्म–दर्शन एवं भिक्षु संघ के प्रति सम्मान–भाव उत्पन्न करना है. अपने धर्म–संप्रदाय के लिए दूसरे धर्म–संप्रदाय को कमतर आंकना, उनमें जानबूझकर खोट निकालना लोगों की पुरानी प्रवृत्ति रही है. बौद्ध विचारक भी इस प्रवृत्ति से मुक्त न थे. विडंबना है कि प्राचीन भौतिकवादी दर्शनों के अध्ययन–मनन के लिए कोई स्वतंत्र ग्रंथ प्राप्त नहीं होता. विवश होकर हमें उन्हीं जैन और बौद्ध स्रोतों की ओर लौटना पड़ता है जिनके लेखक उनके प्रतिद्विंद्वी और आलोचक रहे हैं.
वस्तुतः ढाई हजार वर्ष पहले तक, वर्ण–व्यवस्था के चलते भारत में ब्राह्मणेत्तर वर्गों में पढ़ने–लिखने के प्रति जागरूकता का अभाव था. स्वयं बुद्ध ने अपने विचारों के बारे में कुछ नहीं लिखा. वे आजीवन भिक्षु वेश में घूम–घूमकर उपदेश देते रहे. अपने मत के प्रचार के लिए वे अनेक सम्राटों से भी मिले. शिष्यों, यहां तक कि अपने पुत्र–पुत्रियों को भी उन्होंने धर्म–प्रचार में लगा दिया. बुद्ध के विचारों से प्रभावित होकर अनेक क्षत्रिय सम्राट, विशेषकर वे जो यज्ञों में दी जाने वाली बलियों का विरोध कर रहे थे, संघ के समर्थन में आए. यह उनकी प्रतिष्ठा ही थी कि मगध जैसे बलशाली साम्राज्य का अधिपति अजातशत्रु, उनकी सहमति के अभाव में वज्जि–संघों पर आक्रमण का इरादा टाल देता है. बाद में भी सीधे आक्रमण करने के बजाय कूटनीति से काम लेता है. बुद्ध और उनके शिष्यों के प्रयास के फलस्वरूप भिक्षु संघ बुद्ध के जीवनकाल में ही इतना संगठित हो चुका था कि उनके जीवन–कर्म को संकलित करना, उसके अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए आवश्यक था. लेकिन हमारी जिज्ञासा यहीं शांत नहीं होती. कुछ प्रश्न अब भी अनुत्तरित रह जाते हैं. क्योंकि ‘दीघ–निकाय’ के अनुसार संघ तो नास्तिक दार्शनिकों के भी थे. ‘संयुत्त निकाय’(1/69) के एक प्रसंग के अनुसार कोशल सम्राट प्रसेनदि मक्खलि गोसाल तथा अन्य नास्तिक विचारकों की तुलना में गौतमबुद्ध को नौसीखिया मानता था. क्यों न हो, उस समय तक आजीवक धर्म के समर्थकों की संख्या बौद्ध के अनुयायियों से अधिक थी. बावजूद इसके अपने प्रवत्र्तक और शास्ता के जीवन संबंधी घटनाओं एवं विचारों को संग्रहीत करने का जो युगांतरकारी कार्य बुद्ध के शिष्यों ने किया, वैसा कार्य पूर्ण कस्सप, मक्खलि गोसाल, अजित केशकंबलि, पकुध आदि के शिष्यों ने क्यों नहीं किया? यह ऐसी पहेली है, जिसका समाधान हमें भारतीय समाज की अंतग्र्रंथियों को सुलझाने में मदद कर सकता है.
‘दीघ–निकाय’ में जिन छह नास्तिक विचारकों का जिक्र हुआ है, उनमें केवल निगंठ नाथपुत्त ऐसे हैं जो आगे चलकर जैन दर्शन के प्रवत्र्तक महावीर स्वामी के रूप में ख्यात हुए. हालांकि उन्हें मिली सफलता बुद्ध की सफलता के आगे नगण्य थी. लेकिन जैन दर्शन को लेकर विपुल वाङ्मय आज उपलब्ध है. उसके माध्यम से महावीर के जीवन के बारे में हमें प्रामाणिक जानकारी प्राप्त है. बाकी के बारे में जैन, बौद्ध और तमिल ग्रंथों में यत्र–तत्र उपलब्ध सामग्री के अलावा प्रामाणिक सूचनाओं का अभाव है. जो जानकारी मिलती है, उसमें भी अंतर हैं. उदाहरण के लिए ‘दीघ–निकाय’ में पांचों नास्तिक विचारकों को बुद्ध का समकालीन बताया गया है. जबकि ‘महाबोधि जातक’ के अनुसार वे पांचों बुद्ध के पूर्ववर्ती थे. अपने पूर्वजन्मों में बुद्ध ने उन पांचों को अलग–अलग परास्त किया था. नास्तिक दार्शनिकों का जिक्र ‘मिलिंद प्रश्न’ में भी हुआ है, जो ‘दीघ–निकाय’ से 250-300 वर्ष बाद की रचना है. अंतर मात्र इतना है कि ‘दीघ–निकाय’ में संवाद सम्राट अजातशत्रु और गौतम बुद्ध के बीच है, ‘मिलिंद प्रश्न’ में अजातशत्रु की जगह ग्रीक मूल का भारतीय सम्राट मिनांडर ले लेता है. दोनों की शब्दावलि एक समान है. मिनांडर ने भारत में ईसा पूर्व पहली–दूसरी शताब्दी के बीच राज्य किया था. ‘मिलिंद प्रश्न’ को तभी की रचना बताया जाता है. विषय–वस्तु के आधार पर वह किसी अधपके लेखक की रचना लगती है. इसलिए उसकी मौलिकता पर संदेह है. मल्लशेखर, दुर्गाप्रसाद चट्टोपाध्याय आदि विद्वानों का मानना है कि मिलिंद प्रश्न का संबंधित प्रकरण ‘दीघ–निकाय’ के ‘समन्न्फल सुत्त‘ की सस्ती नकल है.
इस विवरण के बावजूद हमारा एक प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है. आखिर क्या कारण है कि पांचों नास्तिक दार्शनिकों के जीवन और कर्म के बारे में आवश्यक जानकारी का अभाव है? महाभारतकाल तक वर्ण–व्यवस्था जाति व्यवस्था के रूप में रूढ़ हो चुकी थी. ब्राह्मण समाज के शीर्ष पर आसीन थे. बिना उनकी सहमति के किसी भी निर्णय को लागू कर पाना असंभव था. निहित स्वार्थ के लिए वे नास्तिक विचारधारा को नापसंद करते थे. चूंकि नास्तिक विचारक न केवल ईश्वर और उसकी सत्ता, बल्कि सभी प्रकार के कर्मकांडों का, जिनके चलते ब्राह्मणों को विशेषाधिकार प्राप्त थे, विरोध करते थे. अतएव ब्राह्मणों द्वारा जो उस समय का पढ़ा–लिखा वर्ग थाᅳउनकी उपेक्षा स्वाभाविक थी. यही कारण कि नास्तिक विचारकों के साथ ही उनके विचार भी इस तरह विला गए कि उनके कुछ अवधि बाद किसी ने उन्हें आगे बढ़ाने की आवश्यकता नहीं समझी. कुछ विद्वानों का मानना है कि लोकायत दर्शन, जिसे वे अपनी–अपनी तरह से परिभाषित करते हैं, का ईसा से 250-300 साल पहले तक एक विशिष्ट ग्रंथ था. इन दिनों उस ग्रंथ का कोई अस्तित्व नहीं है. इसलिए नास्तिक दार्शनिकों के विचारों को लेकर अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती. फिर भी कुछ बातें हैं जो उनकी बौद्धिक पैठ और लोकप्रियता को दर्शाती हैं. जैसे कि गोसाल को महावीर से दो वर्ष पहले ही ‘जिन्’ की पदवी प्राप्त हो चुकी थी. और अपने समय में गोसाल के अनुयायियों की संख्या गौतम बुद्ध के समर्थकों से अधिक थी. जैन और बौद्ध ग्रंथों में उनके विचारों को तोड़–मरोड़कर पूर्वाग्रह के साथ पेश किया गया है. कई जगह तो इतने हल्के तरीके से कि मामला सुलझने के बजाय और भी उलझता चला जाता है. इसका कारण भारतीय समाज की जातीय संरचना है, जो गैर–द्विजों की बौद्धिक क्षमता को लेकर जानबूझकर संशयग्रस्त रही है.
महावीर स्वामी और बुद्ध दोनों क्षत्रिय कुलोत्पन्न थे. समाज के शीर्ष वर्गों पर उनका प्रभाव था. बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनंद, सारिपुत्र, मोदग्लायन आदि ब्राह्मण वर्ग से आए थे. बुद्ध जानते थे कि प्रजा अपने राजा का अनुसरण करती है. इसलिए वे सम्राटों और समाज के श्रेष्ठि वर्ग को अपने प्रभाव में लेने की सीधी कोशिश करते हैं. इसका लाभ भी उन्हें मिलता है. उनका धर्म–दर्शन उनके जीवनकाल में ही काफी प्रतिष्ठा बटोर चुका था. इसलिए बुद्ध के निर्वाण प्राप्ति के तुरंत बाद उनके शिष्यों ने उनके विचारों और जीवन–यात्रा को शब्द–बद्ध करना आरंभ कर दिया था. बुद्ध ने अपने शिष्यों को धर्म–प्रचार करने उन देशों में भी भेजा था, जिनमें जाति और वर्ण व्यवस्था का नामोनिशां न था.
बुद्ध द्वारा स्थापित भिक्षु–संघ दिखावे और कर्मकांड की संस्कृति से मुक्त था. सहजता के साथ–साथ वह उस सामूहिकताबोध की भी रक्षा करता था, जो ब्राह्मण धर्म के नेतृत्व में वर्ण–व्यवस्था के मजबूत होने के साथ–साथ छीजता जा रहा था. इसलिए जनसाधारण को जैसे ही बुद्ध मार्ग के रूप में पुरोहितवाद से मुक्ति का रास्ता दिखाई दिया, उसने ब्राह्मणवाद से किनारा करना आरंभ कर दिया. श्रेष्ठिवगण, शिल्पकार, श्रमिक वर्ग यज्ञादि आयोजनों तथा बलि–प्रथा से होने वाले नुकसान से बचने के लिए पहले आजीवक धर्म की ओर मुड़े. मजदूर, शिल्पकार, नाई, धोबी, काष्ठकार, किसान, तेली, बुनकर जैसे किसानों, मजदूरों और शिल्पकारों के संगठनों ने खुलकर आजीवकों का साथ दिया. आगे चलकर बुद्ध के नेतृत्व में नए धर्म–दर्शन का विकास हुआ तो वे उसकी ओर पलायन करने लगे. जातीय भेदभाव एवं पुरोहितवाद के सताए लोगों ने भी घोर नास्तिकतावाद तथा विशेषाधिकार संपन्न ब्राह्मणवाद के बीच मध्य मार्गी बौद्ध धर्म को अपनाना ही उचित समझा था. उसके फलस्वरूप जैन और बौद्ध दर्शन स्वयं को ब्राह्मण धर्म का विकल्प प्रस्तुत करने में सफल सिद्ध हुए. बावजूद इसके नास्तिक विचारकों की महत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता. क्योंकि बौद्ध और जैन धर्म के उदय से पहले नास्तिक विचारकों ने ही ब्राह्मणवादी दर्शनों के विरोध की जमीन तैयार की थी, जिसपर आगे चलकर उन दोनों दर्शनों ने अपनी सफलता की महागाथा लिखी और मानवतावादी दर्शन कहलाए. नास्तिक विचारकों के जीवन के बारे में अधिक जानकारी मौजूद नहीं है. लेकिन जितना मौजूद है, उससे भी पता चलता है कि नास्तिक विचारकों के लिए अपने आप को संगठित कर चुके ब्राह्मणवाद के किले में सैंध लगाना आसान नहीं था. यह धारा के विरुद्ध चलने जैसा चुनौतीपूर्ण कार्य था, जिसे उन्होंने अपनी अद्वितीय प्रतिभा और लोकसमर्थन के दम पर संपन्न किया था. उन विचारकों के बारे में जानना भारतीय सभ्यता, संस्कृति और दर्शन के सबसे परिवर्तनकारी दौर से संवाद करने जैसा है.
अजातशत्रु का द्वैध
आलेख के इस हिस्से में हम जो लिखने जा रहे हैं वह जिन स्रोतोंं पर आधारित है, उनमें एक ही घटना और पात्र को लेकर भिन्न प्रकार के संदर्भ मौजूद हैं. अतः हमारे इस प्रयास को सचाई की तहों में जाने की कोशिश समझना चाहिए. जिन स्रोतों पर यह आधारित है, उसके लेखकों और प्रस्तोताओं की मंशा, नास्तिक विचारकों तथा उनकी विचारधारा को लेकर ईमानदार विमर्श की थी ही नहीं. अगर वे ईमानदार होते तो उस विचारधारा को लेकर उनकी राय चाहे जो भी हो, सामग्री के आधार–तथ्यों में पर्याप्त एकरूपता होती. उस अवस्था में वे उस विचारधारा के समानांतर लंबी लकीर खींच सकते थे. आखिरकार यह कतई आवश्यक नहीं कि अपनी लकीर को लंबा दिखाने के लिए पहले से मौजूद लकीर में कांट–छांट की जाए. असली जीत तब है जब पहले से मौजूद लकीर की भली–भांति नाप–जोख कर, उसके समानांतर लंबी लकीर खींच दी जाए. परंतु, कदाचित विचारों के ढुलमुलपन अथवा आत्मविश्वास की कमी के चलते, उन्हें लगा होगा कि बिना लोकप्रियता की ऊंचाइयों को छू रही विचारधारा की ओर उंगली उठाए, उनकी अपनी विचारधारा की स्वीकार्यता असंभव है. वस्तुतः यह उनका युग–संस्कार था. राजनीति हो या विचार, उस दौर में विरोध को आत्मसात् करने के लिए बहुत सीमित आयाम थे. युद्ध में ‘जीत’ तभी मानी जाती थी जब दुश्मन को या तो कैद कर लिया जाए अथवा उसे मौत के घाट उतार दिया जाए. विरोधों और असहमतियों के साथ जीवन जीने के उस युग में बहुत सीमित अवसर थे. विचार भी राजनीति से अछूता न था. इसलिए नास्तिक दर्शन को लेकर बौद्ध एवं जैन स्रोतोंं से प्राप्त सामग्री में भारी अंतर है. क्योंकि वह उन विद्वानों द्वारा रची गई है, जो न केवल पहले से लोकमानस में जगह बना चुकी नास्तिक विचारधारा के, बल्कि आपस में भी वैचारिक प्रतिद्विंद्वी थे और मान चुके थे कि बगैर समानांतर विचारधाराओं को कठघरे में लाए, उनके विचारों की स्वीकार्यता असंभव है. मुश्किल यह भी कि हमारे पास ऐसा कोई जरिया नहीं है, जिससे हम नास्तिक विचारधारा के प्रमुख चिंतकों के जीवन–कर्म के बारे में सही–सही जान सकें. साहित्य और संस्कृति के दस्तावेजीकरण का काम जब दूसरों को, खासकर उन्हें जिनकी उसमें कोई निष्ठा न हो, सौंप दिया जाए तो यही होता है. लिखने वाला अपने हितों और वर्गीय दृष्टिकोण को केंद्र में रखकर ही लिखता है. यानी इतिहास उसका होता है जो उसे लिखना–लिखवाना जानता है. जो इतिहास की उपेक्षा करता है, वक्त उसे उपेक्षित छोड़कर आगे बढ़ जाता है. हमारी मुश्किल है कि ढाई हजार वर्ष पहले की उस बौद्धिक क्रांति के अतिमहत्त्वपूर्ण पक्ष की पड़ताल करने के लिए प्रामाणिक स्रोतों का सरासर अभाव है.
तमाम कमियों के बावजूद भारतीय नास्तिक दर्शनों की पहचान के कुछ चिह्न बाकी हैं तो इसका श्रेय भी बौद्ध एवं जैन ग्रंथों को जाता है. ठीक है, अपने दार्शनिक मतों को श्रेष्ठतर जताने के उन्होंने नास्तिक विचारों को तोड़–मरोड़कर पेश किया था. लेकिन ब्राह्मण–लेखकों की भांति उन्हें राक्षस, दैत्य, दानव, बेडौल, उच्छ्रंखल, विकारी और बुद्धिहीन बताकर उनके बौद्धिक सामथ्र्य को नकारने की कभी कोशिश भी नहीं की. आलोचना की, विचारों को आधा–अधूरा पेश किया. तथापि विरोधी विचारधारा को बिसराया नहीं. आज यदि हम उनके नाम से परिचित हैं, पूर्वाग्रहों के साथ ही सही उनके विचारों की झलक प्राप्त कर सकते हैं, तो इसका श्रेय प्राचीन बौद्ध एवं जैन लेखकों को ही जाता है. यह ठीक है कि नास्तिक दार्शनिकों को लेकर अलग–अलग ग्रंथों में प्राप्त जानकारी में भारी अंतर है. परंतु हमें याद रखना होगा कि ये ग्रंथ अलग–अलग दौर में, विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमि के लेखकों द्वारा रचे गए हैं. इसमें श्रुति परंपरा का भी योगदान रहा है. इसलिए प्रस्तुतीकरण में विविधता का होना स्वाभाविक है. इन परिस्थितियों में लिखे से ज्यादा महत्त्व अनलिखे का होता है. पाठकीय विवेक महत्त्वपूर्ण हो जाता है. अपेक्षा की जाती है कि पढ़ते समय पाठक अपने दिमाग की खिड़कियों, रोशनदानों को पूरी तरह से खुला रखे. जो लिखा गया है उसपर तो ध्यान दे ही, जो नहीं लिखा गया है, वह क्यों नहीं लिखा जा सका, इसपर भी विचार करता चले. चिंतन की लंबी यात्रा बताती है कि जो ‘क्यों’ का उत्तर खोजने में सफल रहता है, देर–सबेर ‘क्या’ के बारे में सटीक आकलन तक पहुंच ही जाता है.
अब हम अजातशत्रु की समस्या पर लौटते हैं. उस समस्या पर विचार करते हैं जो उसे पहले नास्तिक विचारकों तथा अंत में गौतम बुद्ध तक ले जाती है. हर जगह वह एक ही बात जानना चाहता हैᅳ‘जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के शिल्प यथा हस्ति–आरोहण, अश्वारोहण, धनुर्विद्या, रथिक तथा शिल्पकार जैसे कि युद्ध–ध्वज धारक, उग्र योद्धा, महानाग, दास, कल्पक, नहापक, काष्ठकार, चर्मकार, रजक, मालाकार, पेशकार, लौहकर्मी आदि अपने–अपने कर्तव्य द्वारा स्वयं को तृप्त करते हैं, उनका फल प्राप्त करते हैं, अपने सगे–संबंधियों, मित्रों, अमात्यों को भी लाभ पहुंचाते हैं, क्या वही फल इस जन्म में श्रामण्य जीवन द्वारा संभव है?’ यह प्रश्न अपने आप में महत्त्वपूर्ण है. यह कोई बड़ी आध्यात्मिक समस्या खड़ी नहीं करता. अजातशत्रु श्रामण्य जीवन द्वारा उन्हीं फलों को प्राप्त करना चाहता है, जिन्हें साधारण शिल्पकार, योद्धा, महावत आदि सहज प्राप्त कर लेते हैं. बुद्ध को यदि सामान्य अर्थों में आध्यात्मिक व्यक्तित्व मान लिया जाए तो उनके आगे इस प्रश्न को उठाना विचित्र लग सकता है. लेकिन बुद्ध का अध्यात्म–बोध परंपरा से हटकर था. वह लोक–कल्याण से विलग न था. लोककल्याण से जुड़ा होना, यानी नीति–संगत होना बुद्ध के लिए इतना जरूरी था कि इसके लिए उन्होंने उन अनेेक आध्यात्मिक समस्याओं से भी किनारा कर लिया था, जो उन दिनों विभिन्न दार्शनिक संप्रदायों के बीच गर्मागरम बहस का माध्यम बनी हुई थीं. तब वे कौन–से दबाव हो सकते थे, जिन्होंने अजातशत्रु जैसे शक्तिशाली सम्राट को इसी जन्म में सुकून के लिए भटकने पर विवश कर दिया था. एक सम्राट होकर क्यों वह साधारण श्रमिक–शिल्पकार, कृषक, कर्मकार आदि को मिलने वाली छोटी–छोटी खुशियों के लिए आकुल है? यह ऐसी समस्या है जिसके समाधान से न केवल अजातशत्रु की आकुलता के कारण को समझा जा सकता है, बल्कि मक्खलि गोसाल सहित अन्यान्य आजीवकों को मिली व्यापक लोक–स्वीकार्यता तथा उनके बरक्स बुद्ध को मिली आपेक्षिक सफलता पर भी रोशनी डाली जा सकती है.
उन दिनों बौद्ध दर्शन के उदय का आरंभिक चरण था. गौतम बुद्ध का हालांकि समकालीन सम्राटों और जनसाधारण पर प्रभाव था, लेकिन ब्राह्मण धर्म भी पूरी तरह मिटा नहीं था. ऋषिगण यज्ञों और दूसरे कर्मकांडों के जरिये लोगों को ‘कल्याण’ का पाठ पढ़ा रहे थे तो मुनिगण उपनिषदों, स्मृतियों, पुराणों तथा अन्यान्य ब्राह्मण ग्रंथों की रचना में व्यस्त थे. साधारण सम्राट के लिए यह संभव न था कि वह ब्राह्मण तथा उसके बताए मार्ग की उपेक्षा कर सके. मंत्री, अमात्य, पुरोहित, वैद्य, चिकित्सक, प्रशिक्षक, अध्यापक, ज्योतिषी जैसे शीर्ष पद केवल ब्राह्मण के लिए आरक्षित थे. क्षत्रिय का काम राजा के लिए युद्ध करना था. उनकी शिक्षा–दीक्षा युद्ध–कौशल तक सीमित रहती थी. युद्ध किससे हो? कब हो? पड़ोसी राज्यों को लेकर कैसी नीति अपनाई जाए? यह सब निर्णय लेना सामान्यतः ब्राह्मण पदाधिकारियों का काम था. इनके अलावा तीसरा वर्ग व्यापारियों का था, जिनका राजनीति से कोई संबंध न था. वे व्यापार करते और समय–समय पर सम्राट को कर, भेंट, उपहार आदि देकर राजा को प्रसन्न रखते थे. उनकी निष्ठा सिंहासन के प्रति रहती थी. उसपर बैठे व्यक्ति की ओर उनका ध्यान कम ही जाता था. चौैथा वर्ग दास, भृत्य, किसान, मजदूर, शिल्पकर्मी, छोटे व्यापारियों और साधारण योद्धाओं का था. उनका कार्य विभिन्न प्रकार की सेवाओं द्वारा शीर्षस्थ वर्गों को प्रसन्न रखना था.
अजातशत्रु का मंत्री चतुर ब्राह्मण वस्सकार था. कूटनीति में चाणक्य सरीखा. बुद्ध के मुंह से यह सुनकर कि वज्जि गणतंत्र जब तक संगठित हैं, उनको जीतना असंभव हैᅳवह फूट डलवाकर अजातशत्रु की जीत को संभव बना देता है. बावजूद इसके अजातशत्रु ब्राह्मण पुरोहितों के फेर में नहीं पड़ता. यही उसका युगबोध है. उसके चरित्र की इन विशेषताओं के कारण उसे केंद्र में रखकर न जाने कितने ग्रंथ रचे गए हैं. उसे इसी जन्म में मोक्ष की तलाश है. ऐसा क्यों है? अजातशत्रु के जीवन में झांके तो इस रहस्य की पर्तें खुलती चली जाती हैं. मगध की सत्ता उसने अपने पिता की हत्या करके हथियाई थी. कहा जाता है कि पिता की हत्या के बाद अजातशत्रु को इतनी आत्मग्लानि हुई कि जीवन–भर कभी ढंग से सो नहीं पाया था. अनजाना डर भीतर ही भीतर उसे कचोटता रहता था. जीवक के आम्रवन में बुद्ध से मिलने पहुंचा तो बुरी तरह घबराया हुआ था. भारतीय राजनीति के इतिहास में उसे अभिशप्त सम्राट भी माना जाता है. यह अभिशाप जन्म से ही उसके साथ जुड़ा था. उसके जन्म को लेकर जैन और बौद्ध ग्रंथों में अलग–अलग कहानियां हैं. एक–दूसरे से मिलती–जुलती. अजातशत्रु के पिता का नाम बिंबसार था. मां का नाम कोसल देवी, जिन्हें वैदेही भी कहा गया है. कहते हैं, रानी जब गर्भवती हुई तो उसकी इच्छा मनुष्य का मांस खाने की हुई. यह बहुत ही अनोखी, घिनौनी और पाशविक अनायास प्रकटी इच्छा थी. जिसने भी सुना सहम गया. फौरन ज्योतिषी को बुलवाया गया. काल–गणना का दिखावा करने के बाद उसने बताया कि जातक पितृहंता होगा. एक दिन अपने ही जन्मदाता की मृत्यु का कारण बनेगा. घबराई रानी ने गर्भ को गिराने के कई उपाय किए. लेकिन सफलता नहीं मिली. इसी से उसका नामकरण हुआ, अजातशत्रु. अपने जन्मदाता का दुश्मन.
चाहे जितनी बुरी हो, पर मांस खाने की इच्छा मां के मन में कौंधी थी, फिर भी शिकार बना अबोध अजातशत्रु. हम उस व्यक्ति की मनस्थिति और यंत्रणा का अनुमान लगा पाने में असमर्थ हैं, जिसे जन्म के साथ ही कलंकित मान लिया गया हो. और जन्म के साथ ही जिसे माता–पिता ने अपशकुनी मानकर कूड़े के ढेर पर फिंकवा दिया हो. मगध में सब कुछ चुपचाप हुआ था. किसी को खबर न होने दी थी. लेकिन अजातशत्रु की नियति तो मगध–सम्राट बनना था. शिशु अजातशत्रु जब कूड़े में पड़ा था तो एक कौए ने उसकी कनिष्ठा अंगुली काट ली. पीड़ा से व्यथित शिशु जोर–जोर से रोने लगा. पिता के कानों में आवाज पड़ी तो उसके हृदय में वात्सल्य उमड़ आया. राजा ने अबोध शिशु को गोदी में उठा लिया. घायल अंगुली से खून बहते देख सम्राट पिता ने उसे मुंह में डाल लिया और तब तक चूसता रहा, जब तक कि खून बहना बंद नहीं हो गया. उसके बाद अजातशत्रु का लालन–पालन राजकुमार की तरह होने लगा. बड़ा होकर वह प्रतापी सम्राट बना. बहुत जल्दी उसने काशी, कोसल जैसे राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया. उसकी नजर वज्जि गणतंत्रों पर थी. किंतु बुद्ध द्वारा मना किए जाने पर उसने तात्कालिक रूप से निर्णय टाल दिया. अजातशत्रु की मैत्री बुद्ध के फुफेरे भाई देवदत्त से थी. निहित स्वार्थ के लिए देवदत्त अजातशत्रु को सम्राट बनते देखना चाहता था. उसने अजातशत्रु को भड़काना आरंभ कर दिया. एक दिन देवदत्त की बातों में आकर उसने अपने पिता को कैद कर लिया और स्वयं मगध–सम्राट बन बैठा. कुछ दिनों बाद बिंबसार की कारावास में ही मृत्यु हो गई.
एक महत्त्वाकांक्षी सम्राट जिसके नाम कई राजनीतिक सफलताएं थीं, वह अपने ही अपराधबोध के बीच जीने लगा. ब्राह्मण धर्म कर्म–भोग के सिद्धांत पर टिका था. मानता था कि जो किया है उसका फल भोगना ही पड़ेगा. मगर इस जन्म में नहीं, अगले जन्म में. उनके अनुसार स्वर्ग–भोग या नर्कवास मृत्युपश्चात ही संभव है. अंतर–पीड़ा से आकुल अजातशत्रु को संगठित ब्राह्मण धर्म से कोई उम्मीद न थी. उसके पास सबकुछ था. राजशाही ठाठ–बाट, सेवक, दास–दासियां, विलासिता की सामग्री, सुरक्षा के लिए बेहद शक्तिशाली सेना. भोग के लिए पांच सौ से अधिक रानियां. मगर मन की शांति गायब थी. ग्लानिभाव उसे खाए जाता था. नास्तिक विचारक कार्य–कारण संबंध पर विश्वास नहीं करते थे. उनके लिए सबकुछ नियतिबद्ध था. वे सबकुछ भुलाकर प्रकृस्थ हो जाने का उपदेश देते थे. यह दर्शन जनसाधारण के लिए कारगर था. उसका जीवन ही प्रकृति से बंधा था. लेकिन चारों ओर सुरक्षा सैनिकों के बीच असुरक्षा के एहसास के शिकार सम्राट को शांति प्रदान करने में वह अधिक कारगर न था. कदाचित ऐसे ही संताप–ग्रस्त लोगों के लिए बुद्ध निर्वाण के नाम से अपने समय का सबसे बड़ा संभ्रम रच रहे थे. ब्राह्मण दर्शनों में मोक्ष केवल मृत्योपरांत संभव था, बुद्ध उसे इसी जन्म में संभव बताते थे. सो ऐसे लोगों के लिए जिन्हें विलास–वैभव के बीच भी मन की शांति नसीब न होती हो, निर्वाण बड़ा आकर्षण था.
कदाचित अजातशत्रु भी समझता था कि ब्राह्मण पुरोहित मोक्ष के नाम पर जो मायाजाल रचते हैं, वह दिखावा है. फिर उसे महावत, घुड़सवार, नाई, धोबी, जैसे पेशेवरों का ध्यान आता है जो अपने श्रम के बल पर जीवित रहते हैं; तथा शांति, सम्मान एवं आत्मनिर्भरता का जीवन जीते हैं. आखिर क्यों? बुद्धकालीन भारत के सामाजिक–सांस्कृतिक इतिहास में इस प्रश्न का उत्तर खोजना मुश्किल नहीं है. बुद्ध पूर्व भारत में यज्ञ के नाम पर सैंकड़ों पशु बलि चढ़ा दिए जाते थे. कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक ‘मदर इंडिया’ में कोलकाता के एक ऐसे मंदिर का उल्लेख किया है जहां प्रतिदिन 150ᅳ200 मासूम जानवरों की बलि चढ़ाई जाती थी. प्राचीनकाल में हालात और भी बुरे थे. तेजी से बढ़ती कृषि–निर्भरता को देखते हुए उपयोगी पशुधन का सुरक्षित रहना बहुत बड़ी उपलब्धि थी. जैन और बौद्ध दर्शन अहिंसा पर केंद्रित थे. उनके बढ़ते प्रभाव से यज्ञों में दी जाने वाली बलियों तथा उनपर होने वाले अकूत खर्च में कमी आई थी. खान–पान संबंधी शुचिता में भी ढील पड़ी थी. ब्राह्मणकाल में खानपान संबंधी नियम सख्त थे. उच्च जाति का व्यक्ति निचले वर्गों के व्यक्ति के साथ भोजन नहीं कर सकता था. इससे उनके धर्म–खंडित होने का डर था. इससे बाहरी लोगों से उनका संपर्क कम ही हो पाता था. परिणामतः दूर–दराज की संस्कृतियों के साथ व्यापार असंभव था. बुद्ध के आगमन के बाद जाति और खान–पान भेद में भी कमी आई थी. इसका अनुकूल प्रभाव व्यापार पर पड़ा. लोग मिल–जुलकर दूर–दराज की संस्कृतियों के साथ व्यापार करने लगे. फलस्वरूप व्यापार में तेजी आई.
उन दिनों किसानों, व्यापारियों, शिल्पकारों जैसे बुनकर, रंगरेज, ब्याज पर उधार देने वालों, तेली, नाविक, किसान, सुनार, बढ़ई, कसाई यहां तक कि ठगों के भी अपने सहकारी संगठन थे. रमेश मजूमदार ने अपनी पुस्तक ‘कोआॅपरेटिव्स इन एन्शिएंट इंडिया’ में विभिन्न जातक कथाओं, उपनिषदों आदि के हवाले से 18 प्रकार के सहयोगी संगठनों का उल्लेख किया है और माना है कि यह संख्या अधिक भी हो सकती है. वे इतने मजबूत थे कि सम्राट भी आवश्यक मामलों में उनसे सलाह लिया करते थे. आवश्यकता पड़ने पर वे राजाओं को भी उधार दिया करते थे. आजीवक और चार्वाक मतावलंबियों द्वारा भौतिक सुखों को महत्ता देना, जहां उनके व्यापारिक हितों के अनुरूप था. जबकि जैन एवं बौद्ध दर्शन का अहिंसा का विचार उनके आर्थिक–सामाजिक हितों की रक्षा करता था. इसलिए वे इन धर्मों की ओर तेजी से आकर्षित हुए थे. उसके फलस्वरूप 2500 वर्ष पहले तक देश में श्रम–कौशल, शिल्प और संगठन के आधार जीविका कमाने वाले लोगों का एक खुशहाल वर्ग पनप चुका था. इसलिए यह हैरानी की बात नहीं कि अपनी ही आत्मग्लानि में डूबा, असुरक्षा के एहसास का मारा हुआ अजातशत्रु बुद्ध की सभा में पहुंचकर उनके जैसी शांति की कामना बुद्ध के आगे करता है. अंत तक वह न तो पूरी तरह बौद्ध बन पाता है, न ही जैन. हालांकि दोनों धर्मावलंबी अजातशत्रु के अपना समर्थक होने का दावा करते हैं. दोनों के धर्मग्रंथों में उसकी दानशीलता का बखान किया गया है.
भारत में भौतिकवादी दर्शन की परंपरा बहुत पुरानी है. वह अध्यात्मवादी दर्शनों से भी पहले से चली आ रही है. ‘चार्वाक’, ‘लोकायत’ और ‘आजीवक’ इसी परंपरा के दर्शन हैं. इनमें लोकायत दर्शन को आचार्य बृहश्पति से जोड़ा जाता है. उन्हें ‘बृहश्पति सूत्र’ का रचियता भी माना जाता है. मूल ‘बृहश्पति सूत्र’ आज अनुपलब्ध है. उसके नाम से जिस कृति के फुटकर अंश हमें प्राप्त हैं, विद्वानों के अनुसार वह छठी शताब्दी की रचना है. ‘बृहश्पति सूत्र’ में लोकायत दर्शन की प्राचीनता का समर्थन करते हुए लिखा गया हैᅳ‘आरंभ में जब मनुष्य ने अन्न जुटाना आरंभ ही किया था, तब यह संपूर्ण ब्रह्मांड लोकायती था.’(सर्वथा लौकायतिकमेव शास्त्रमर्थसाधनकाले, बृहश्पति सूत्र 2/5). भारत में कृषि–कला का विस्तार लगभग 8000-10000 वर्ष पहले ही हो चुका था. इससे देश में भौतिकवादी विचारधारा को कम से कम 8000 वर्ष पुराना कहा जा सकता है. मक्खलि गोसाल ने भी इसका समर्थन किया है. उसने स्वयं को आजीवक परंपरा का 24वां तीर्थंकर माना है. देवताओं में सोमरस को ऊर्जा और स्फूत्र्ति दायक कहा गया है. वह नशीला मगर बहु–प्रचलित पेय था. ‘बृहश्पति सूत्र’ उसे ‘सुरा’ कहा गया है. चूंकि विष्णु आदि देवता सोमरस का सेवन करते हैं, इसलिए आचार्य बृहश्पति ने मद्यपान के कारण उन्हें भी ‘लोकायती’ माना है. (विष्णवादायः सुरापानिन इति कापालिकाः। बृहश्पति सूत्र 2/21). सोमदेव सूरि तथा उसके टीकाकार श्रुतसागर सूरि ने बृहश्पति को चार्वाक संप्रदाय का आदि प्रवत्र्तक बताया है. बृहश्पति को अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और लोकव्यवहार का ज्ञाता तथा लोकायत परपंरा का विद्वान भी बताया गया है. यहां ध्यान रखना चाहिए कि ‘बार्हस्पत्य सूत्र’ में जो सूत्र प्राप्त होते हैं, वे अलग–अलग समय की रचनाएं हैं.
बृहश्पति को देवताओं का गुरु भी बताया गया है. देवगुरु के पद पर रहते हुए लोकायत परंपरा का लेखन संभव नहीं है. देवराज इंद्र के दरबार में निरंतर नृत्य, संगीत, सुरापान, अप्सराओं के नृत्य आदि के किस्से चलते हैं. हो सकता है है उसी से प्रेरित होकर बाद में किसी लेखक ने ‘बृहश्पति सूत्र’ लिखकर लेखक के रूप में कथित देवगुरु का नाम दे दिया हो. वैसे भी ब्राह्मण लेखकों के यहां लेखक न होकर लेखकीय परंपरा होती है, जिसमें बिना नामोल्लेख किए अपनी ओर से कुछ जोड़ दिया जाता है. व्यास, वाल्मीकि, वशिष्ट, भरद्वाज, शुक्राचार्य, आचार्य बृहश्पति आदि इसी लेखकीय परंपरा के नाम हैं.
भारतीय वाङ्मय में नास्तिक दार्शनिकों की मौजूदगी को लेकर तो इतने प्रमाण मौजूद हैं, कि उनके अस्तित्व और वैचारिकता के इतिहास में उनकी उपस्थिति को लेकरᅳसंदेह नहीं किया जा सकता. वे थे और समाज में भरपूर मान–सम्मान, अपनी खूबियों, कमजोरियों के साथ थे. यह भी कि उनका ज्ञान, संप्रेषण का माध्यम उस युग की रवायत से कुछ ज्यादा ही श्रुति–आधारित रहा होगा. उनमें से अधिकांश समाज के उन वर्गों से थे जिनके जीवन की सिद्धि सेवा–कर्म में मानी जाती थी. जिनका कर्तव्य उपदेश सुनना और उनका पालन करना था, उपदेश देना नहीं. जिनका पेशा जन्म लेने से पहले ही निर्धारित कर दिया जाता था. जिनके लिए पढ़ना–लिखना आवश्यक नहीं था. या उतना जरूरी माना जाता था, जिससे वे उच्चस्थ जातियों का सेवाकर्म बिना किसी शिकायत का अवसर दिए पूरा कर सकें. इस कारण उनका ज्ञान शास्त्र–सम्मत होने के बजाय अनुभव–सिद्ध अधिक होता था. लेकिन अपने स्वार्थ के लिए समाज चाहे जैसी व्यवस्थाएं चुन ले. मनुष्य की जन्मजात प्रतिभा और सपनों पर अंकुश लगा पाना उसके बस में नहीं होता. मौलिकता दिमाग की उर्वरा शक्ति को पहचानती है, उसकी जात नहीं देखती. नास्तिक विचारधारा के प्रवत्र्तक दार्शनिक उन वर्गों से थे, जिनके बारे में माना जाता है कि सोचने–समझने से उनका कोई संबंध नहीं होता. पांच नास्तिक विचारकों में से संजय वेलट्ठपुत्त और पुकुद कात्यायन के जीवन के बारे में ठोस जानकारी अनुपलब्ध है. बाकी तीन यानी पूर्ण कस्सप, मक्खलि गोसाल और अजित केशकंबलि के बारे में उपलब्ध विवरण के आधार पर पता चलता है कि उनका संबंध समाज के निचले वर्गों से था. पेट खाली हो तो दिमाग परमात्मा के नहीं, रोटी के बारे में सोचता है. उसे अर्जित कैसे किया जाए, इस बारे में सोचता है. इन परिस्थितियों में जनसाधारण केवल अपनी भूख के बारे में सोचते हैं. लेकिन जो अपने पूरे समाज के भूख और संघर्ष को अनुभव करते हैं वे पूरे समाज यहां तक कि आने वाली पीढि़यों के दुख से निजात के बारे में सोचते हैं. इसलिए भौतिकवादी दर्शन रूमानियत के चक्कर नहीं काटता. बल्कि जीवन की ठोस सच्चाइयों के आधार पर खड़ा होता है.
क्रमशः
© ओमप्रकाश कश्यप