मई दिवस पर विशेष
यदि तुम सोचते हो कि हमें फांसी पर लटकाकर तुम मजदूर आंदोलन को, गरीबी, बदहाली और विपन्नता में कमरतोड़ परिश्रम करने वाले लाखों लोगों के आंदोलन को—कुचल डालोगे….अगर तुम्हारी यही राय है तो हमें खुशी–खुशी फांसी के तख्ते पर चढ़ा दो। किंतु याद रहे, आज तुम एक चिंगारी को कुचल रहे हो, कल यहां–वहां, तुम्हारे आगे–पीछे, प्रत्येक दिशा से लपटें उठेंगीं। यह जंगल की आग है। तुम इसे कभी भी बुझा नहीं पाओगे। एक दिन आएगा, जब हमारी खामोशी उन आवाजों से कहीं ज्यादा ताकतवर होगी, जिनका तुम आज गला घोंट रहे हो —ऑगस्ट स्पाइस।
‘मई दिवस’ के साथ कोई खुशनुमा प्रसंग नहीं जुड़ा है। न यह मजदूरों के लिए उत्सव मनाने का दिन है। फिर भी हर मेहनतकश के लिए इस दिन का महत्त्व है। यह उन्हें संगठन की ताकत का एहसास दिलाता है। उस हौसले की याद दिलाता है जिसके बल पर उनके लाखों मजदूर भाई अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतर आए थे। चार्ल्स ई. रथेनबर्ग के शब्दों में, ‘मई दिवस वह दिन है जो मजदूरों के दिलों में उम्मीद तथा पूंजीपतियों के मन में खौफ पैदा करता है।’ यह अकेला दिन है जिसे मजदूरों के नाम पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। मजदूरों के लिए यह याद रखने का दिन है। ठीक ऐसे ही जैसे कोई जीवंत समाज अपनी आजादी के महानायकों के किस्सों को सहेजकर रखता है।
मशीनीकरण के बाद का दौर पूंजी के केंद्रीकरण का था। उसमें आदमी को भी मशीन मान लिया गया था। फैक्ट्रियों में काम के घंटे निर्धारित नहीं थे। उनीसवीं शताब्दी के आरंभ तक ‘कार्य–दिवस’ का अर्थ था, सूरज निकलने से सूरज छिपने तक काम करना।1 मौसम के अनुसार दिन घटता–बढ़ता तो काम के घंटे भी घट–बढ़ जाते। हर कामगार को प्रतिदिन 14 से 16 घंटे काम करना पड़ता था। कभी–कभी तो एक कार्य–दिवस 18 घंटे तक पहुंच जाता था।2 कार्य–घंटों को लेकर महिलाओं और पुरुषों, बच्चों और बड़ों में कोई भेद नहीं था। इसके आलावा मजदूरी बहुत कम थी। 16 से 18 घंटों तक काम करने के बावजूद मजदूरों को इतनी मजदूरी नहीं मिलती थी, जिससे वे सामान्य जीवन भी जी सकें। ऊपर से बार-बार आने वाली मंदी के कारण मजदूरों को बेरोजगारी का सामना करना पड़ता था। आड़े वक्त में सरकार भी उद्यमियों और पूंजीपतियों का ही पक्ष लेती थी। 1834 में ‘वर्किंगमेन्स एडवोकेट’ नामक अखबार ने छापा था, ‘डबलरोटी के पैकेटों को लाने–ले जाने के काम में लगे मजदूरों की हालत मिस्र के बंधुआ मजदूरों से भी बुरी थी। उन्हें दिन के 24 घंटों में 18 से 20 घंटे काम करना पड़ता था।’ मजदूर उसे 10 घंटों तक सीमित करने की मांग करते आ रहे थे। 1791 में फिलाडेफिया के बढ़इयों ने 10 घंटे के कार्यदिवस के लिए हड़ताल की थी। उसके बाद 1827 में ‘मेकेनिक्स यूनियन ऑफ़ फिलाडेफिया’, जिसे विश्व का पहला मजदूर संगठन कहा जा सकता है, के नेतृत्व में निर्माण कार्य के मजदूरों ने, 10 घंटों के कार्यदिवस की मांग को लेकर हड़ताल की थी।3 उनके बैनरों पर लिखा होता था—‘छह से छह तक, दस घंटे काम के, दो घंटे आराम के।’ 1830-40 के बीच उनकी मांग में और भी तेजी आ गई। उसके फलस्वरूप 1860 तक लगभग सभी देशों ने कार्यदिवस के औसत घंटों को 12 से घटाकर, 11 कर दिया था।
मजदूर कार्यदिवस को 10 घंटों तक सीमित करने की मांग पर अड़े थे। 1837 में अमेरिका में उसे लेकर चक्काजाम जैसी स्थिति बन गई। आखिरकार संयुक्त राष्ट्र के राष्ट्रपति वेन बुरान ने सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए प्रतिदिन 10 घंटे करने का आदेश जारी कर दिया। उसकी देखा–देखी कारखाना मजूदरों ने यह कहते हुए कि उनसे भी सरकारी कर्मचारियों के बराबर काम लिया जाए, आंदोलन को और तेज कर दिया।4 1853 में नए–नए बने कैलीफोर्निया राज्य ने कार्यघंटों को सीमित करने से संबंधित पहला, मगर आधा–अधूरा कानून बनाया था। मूल प्रस्ताव में दस घंटे के वैध कार्यदिवस के साथ, उससे अधिक काम लेने वाले नियोक्ताओं को दंडित किए जाने का प्रावधान था। उसकी काफी चर्चा भी हुई थी। प्रस्ताव कानून की शक्ल ले, उससे पहले ही उद्यमियों ने सरकार पर जोर डालकर, उसे कमजोर करने का षड्यंत्र रच दिया। जो कानून बना उसमें कहा गया था कि ‘राज्य की किसी भी अदालत में 10 घंटों के श्रम को, एक कार्यदिवस का श्रम माना जाएगा।’5 इस तरह दस घंटों के कार्यदिवस की घोषणा महज कानूनी अवधारणा तक सीमित थी। वह नियोक्ताओं को न तो कोई निर्देश देता था, न उसमें क़ानून के उल्लंघन पर किसी तरह के दंड काप्रावधान था। कानून की कमजोरी का लाभ उठाकर नियोक्ता मजदूरों के साथ खूब सौदेबाजी करते थे। मजदूर संगठन उस कानून में आवश्यक संशोधन की मांग कर रहे थे।
10 घंटे के कार्यदिवस की मांग अभी चल ही रही थी कि श्रमिकों ने 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग तेज कर दी। इस बार वह मांग सिर्फ अमेरिका तक सीमित नहीं थी। बल्कि जहां-जहां भी श्रमिक उत्पीड़न का शिकार थे, वहां–वहां वे अपनी मांग के समर्थन में सरकार और उद्योगों पर दबाव बनाने में लगे थे। 1856 में आस्ट्रेलिया के निर्माण मजदूरों ने, 8 घंटे की मांग को लेकर नारा गढ़ा था—‘8 घंटे काम, 8 घंटे मनोरंजन और 8 घंटे आराम।’ इस मांग को तब बल मिला जब अगस्त 1866 में ‘नेशनल लेबर यूनियन’ ने 8 घंटे की मांग का समर्थन किया। वह अमेरिका का पहला मजदूर संगठन था। अपने स्थापना समारोह में ही 8 घंटे के कार्यदिवस की मांग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाते हुए संगठन की ओर कहा गया था कि पूंजीवादी दासता से श्रमिकों की मुक्ति हेतु वर्तमान समय की सबसे पहली और बड़ी जरूरत है, अमेरिका के सभी राज्यों में 8 घंटे के कार्यदिवस को वैध माना जाए। सितंबर 1866 में फर्स्ट इंटरनेशनल द्वारा अपने जिनेवा सम्मेलन में 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग, घोषणा के साथ ही अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गई। फर्स्ट इंटरनेशनल का निष्कर्ष था—
‘काम के घंटों की वैध सीमा तय होना आवश्यक है। इसके अभाव में कामगार वर्गों की स्थिति में सुधार तथा शोषण से मुक्ति का कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सकता…..एक वैध कार्यदिवस के लिए यह सभा 8 घंटों की सीमा के प्रस्ताव को मंजूर करती है।’6
1867 में ‘पूंजी’ का प्रथम खंड प्रकाशित हो चुका था। उससे पहले माना जाता था कि उत्पादकता सांस्कृतिक उपादानों पर निर्भर करती है। मार्क्स ने शताब्दियों से चली आ रही इस धारणा का खंडन किया था। कहा था कि संस्कृति स्वयं उत्पादकता के साधनों द्वारा तय होती है। उस पुस्तक में मार्क्स ने श्रमिक शोषण की विशद विवेचना की थी। पूंजीवादी शोषण के लगभग सभी पक्ष उसमें शामिल थे। उसका विश्लेषण इतना गहन था कि श्रमिक शोषण से जुड़ी छोटी-से–छोटी बात भी उसकी पैनी नजर से बच नहीं पाई थी। मार्क्स ने ‘नेशनल लेबर यूनियन’ के 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग का समर्थन किया था। कहा था कि श्रमिकों को रंग-भेद की भावना से ऊपर उठकर, अपने अधिकारों के पक्ष में आवाज उठानी चाहिए। उन दिनों अमेरिका में मजदूर को प्रति सप्ताह 63 घंटे काम करना पड़ता था। मार्क्स चाहता था कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका श्रमिक अधिकारों के समर्थन में 8 घंटों के वैध कार्यदिवस की घोषणा करे। पूंजीपतिवर्ग दूसरों को दास बनाकर रखने की मानसिकता से बाहर आए। उसने लिखा था—
‘जब तक दासता उसके गणतंत्र को विरुपित करती रहेगी, तब तक श्रमिक मुक्ति की दिशा में उठाया गया कोई भी कदम नाकाम सिद्ध होगा। जब तक काले श्रमिकों की पहचान उनके रंग के आधार पर होगी, तब तक श्वेत मजदूरों के लिए भी शोषण–मुक्ति संभव नहीं है….24 घंटे के सामान्य दिन में मनुष्य अपनी कार्यशक्ति का भरपूर इस्तेमाल सीमित घंटों तक ही कर सकता है। यहां तक कि एक घोड़ा भी, प्रतिदिन अधिकतम 8 घंटे काम कर सकता है। दिन के बाकी घंटों में 8 घंटे कार्यशक्ति को आराम करना चाहिए, बाकी घंटे उन्हें अपने भौतिक आवश्यकताओं स्नान, भोजन आदि के लिए मिलने चाहिए।’7
8 घंटे के कार्यदिवस की मांग असामयिक नहीं थी। उसके पीछे भरा-पूरा वैचारिक दर्शन था। उसे जमीन दी थी, पीयरे जोसेफ प्रूधों, मार्क्स, मिखाइल बकुनिन, एंगेल्स जैसे विचारकों ने। वे अर्थव्यवस्था के समाजीकरण की मांग कर रहे थे। उसके पीछे समानता और स्वतंत्रता का दर्शन था। मान्यता थी कि यदि सब बराबर हैं, तो सभी को अपनी जरूरत के अनुसार भोग करने का भी अधिकार है। इसलिए मार्क्स का कहना था—‘प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार। प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुरूप।’ समाजवाद की दिशा में सबसे क्रांतिकारी पहल प्रूधों ने की थी। वह अराजकतावादी चिंतक था। मानता था कि व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा गुलामी जितनी ही घातक है। उसका कहना था—‘व्यक्तिगत संपत्ति चोरी है। संपत्तिधारक व्यक्ति चोर है।’ वह संपत्ति को सामाजिक दासता का कारक मानता था—
“यदि मुझसे कोई यह पूछे कि गुलामी क्या है? तो मैं उसका एक ही शब्द में उत्तर दूंगा—‘गुलामी, हत्या है!’ मेरा मंतव्य पूरी तरह सरल और स्पष्ट है। उसके लिए किसी अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य की चेतना, उसके मस्तिष्क तथा व्यक्तित्व को छीन लेने की शक्ति—उसके जीवन–मृत्यु का फैसला करने की शक्ति के समान हैं। यह मनुष्य को गुलाम बनाती है। यह उसकी हत्या है, क्यों? अब यदि कोई मुझसे पूछे—‘संपत्ति क्या है?’ क्या मुझे इसका वैसा ही उत्तर नहीं देना चाहिए! कहना चाहिए कि यह डकैती है!’ इसमें गलत समझे जाने की कतई गुंजाइश नहीं है। दूसरा निष्कर्ष निश्चित रूप से पहले का ही रूपांतरण है?”8
प्रूधों की धारा का ही दूसरा विचारक था, मिखाइल बकुनिन। उसका राजनीतिक दर्शन नागरिक स्वतंत्रता, समाजवाद, संघवाद, नास्तिकता और भौतिकवाद से मिलकर बना था। बकुनिन का मानना था कि किसी समाज में व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह को दिए गए विशेषाधिकार उसके बुद्धि-विवेक एवं संवेदनशीलता को मार देते हैं। विशेषाधिकार चाहे राजनीतिक हों अथवा आर्थिक, वे मनुष्य के समाजीकरण की धारा को अवरुद्ध करते हैं। उसे स्वार्थी और आत्मपरक बनाते हैं। मनुष्य की अधिकतम स्वतंत्रता का समर्थक बकुनिन लोकतंत्र का भी आलोचक था। उसका कहना था कि जब जनता पर लाठियां बरसाई जा रही हों तो लोगों को यह जानकर कोई प्रसन्नता नहीं होगी कि वे लोकतंत्र की लाठियां हैं। बुद्धिजीवियों और दार्शनिकों से उसकी अपील थी—
‘हमें अपने सिद्धांतों का प्रचार शब्दों के माध्यम से नहीं, कार्यों के माध्यम से करना चाहिए। यही प्रचार का सबसे लोकप्रिय, शक्तिशाली और अनूठा तरीका है….दुनिया में क्रांतिकारी गतिविधियों को बढ़ावा देने में सत्तावादी क्रांतिकारियों का बहुत कम योगदान रहा है। इसलिए कि वे जनमानस को आड़ोलित कर, क्रांति की ओर उन्मुख करने के बजाय, मात्र अपने दम पर, अपनी योग्यता, सत्ता और विचारों के माध्यम से क्रांति लाना चाहते थे….उन्हें क्रांति के समर्थन में फरमान जारी करके नहीं, अपितु जनता को अपने लक्ष्य–प्राप्ति की दिशा में प्रोत्साहित करके, क्रांति को बढ़ावा देना चाहिए।’9
मई दिवस के आंदोलन का चरित्र मूलतः ‘अराजकतावादी’ था। बता दें कि अराजकतावाद का आशय, जैसा प्रचार किया जाता है, राज्य तथा उसकी शक्तियों का लोप हो जाना नहीं है। उसके मूल में यह विचार है कि राज्य जनता का चयन है। उसका गठन जनता द्वारा अपने सुख एवं सुरक्षा के लिए किया जाता है। वह जनता के तभी हितकारी हो सकता है, जब उसपर जनता का अधिकाधिक नियंत्रण हो। अराजकतावाद में राज्य की अधिकतम शक्तियां जनता की ओर अंतरित हो जाती हैं। परिणामस्वरूप राज्य की शक्तियां प्रतीकात्मक होकर रह जाती हैं। सरकार की आवश्यकता नहीं रह जाती, यदि हो भी तो वह न्यूनतम अधिकारों के साथ न्यूनतम शासन करती है।
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प्रूधों और बकुनिन का उल्लेख यहां इसलिए प्रासंगिक समझा गया क्योंकि मई दिवस आंदोलन की बागडोर मुख्यतः अराजकतावादियों के हाथों में थी, जो किसी भी प्रकार के सत्तावाद का विरोध करते थे। ‘अंतरराष्ट्रीय वर्किंग मेन्स ऐसोशिएसन’ जिसे ‘प्रथम इंटरनेशनल’ के नाम से भी जाना जाता है, समाजवादी संगठन था। उसके पीछे सोच था कि मजदूर चाहे किसी देश का हो, उसकी मूल–भूत समस्याएं और चुनौतियां एक जैसी होती हैं, इसलिए उसके विरोध में लड़ाई भी संगठित होकर लड़ी जानी चाहिए। वे समाजवाद के समर्थक थे, किंतु उसके लिए रास्ता क्या हो, इसे लेकर उनमें मतभेद थे। उसमें से कुछ राबर्ट ओवन के अनुयायी थे, कुछ लुइस ब्लेंक के। कुछ का भरोसा संघवाद में था, तो कुछ अपना तारणहार गणतंत्र को मानते थे। यह विभाजन ऊपर की श्रेणी के बुद्धिजीवियों में भी था। हीगेल से प्रभावित कार्ल मार्क्स द्वंद्ववादी विचारधारा का समर्थक था। उसका मानना था कि सत्ता प्रतिष्ठानों और उत्पादन केंद्रों पर श्रमिक वर्गों का नियंत्रण होना चाहिए। बकुनिन किसी भी प्रकार के सत्तावाद का विरोधी था। उसे वह मनुष्य की स्वतंत्रता में बाधक मानता था। दोनों गुटों के मतभेद इतने बढ़े कि इंटरनेशनल की छठी कांग्रेस के बाद, दोनों के बीच विभाजन हो गया। अराजकतावादी बकुनिन के नेतृत्व में अलग हुए टुकड़े को ‘एंटी-आथरटेरियन इंटरनेशनल’ का नाम दिया गया था। ‘एंटी-आथरटेरियन इंटरनेशनल’ के नेता मानते थे कि ‘हड़ताल का संघर्ष का बेशकीमती हथियार’ है। इसलिए श्रमिकों को ‘महान एवं अंतिम चुनौती’ के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए। अराजकतावादी नेताओं के मनस् में नई वर्गहीन, समाजवादी आदर्शों से युक्त और सभी प्रकार यहां तक राज्य के वर्चस्व से भी मुक्त नए समाज का सपना कौंधता रहता था। 8 घंटे के कार्यदिवस से जुड़ी हड़ताल में इसी गुट के नेता थे, जो ‘बेहतर समाजवादी दुनिया’ के सपने के साथ जूझ रहे थे।
1872 में ‘प्रथम इंटरनेशनल’ का कार्यालय, लंदन से न्यू यार्क शिफ्ट कर दिया गया था। इससे उसकी गतिविधियों में व्यवधान आया था। प्रभाव भी घटने लगा था। लेकिन मजदूर 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग पर अडिग थे। उसके लिए धरना, प्रदर्शन, हड़ताल चलते ही रहते थे। 1877 में मार्टिंग्स वर्ग, पश्चिमी वर्जिनिया में रेलवे कर्मचारियों ने हड़ताल का ऐलान कर दिया। मामला इतना बढ़ा कि उसपर काबू करने के लिए सेना बुलानी पड़ी। बलप्रयोग के कारण हड़ताल तो दब गई, परंतु उससे जो चिंगारियां फूटीं उसने बहुत जल्दी वाल्टीमोर, ओहियो, पेनसिल्वेनिया जैसे शहरों की रेलवे कंपनियों को अपनी गिरफ्त में ले लिया। धीरे-धीरे दूसरे उद्यमों से जुड़े मजदूर भी हड़ताल पर उतर आए। पहली बार मजदूरों ने सरकार और पूंजीपतियों को अपनी विराट शक्ति का एहसास कराया था। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ा था। वह ऐसा जनउभार था, जिसका असर राष्ट्रव्यापी था।
1884 का वर्ष अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलनों के इतिहास में बड़ा परिवर्तनकारी सिद्ध हुआ। उसी वर्ष फेडरेशन ऑफ़ आर्गनाइज्ड ट्रेड एंड लेबर यूनियंस, जिसे बाद में ‘अमेरिकन फेडरेशन ऑफ़ लेबर’ के कूटनाम से भी जाना गया—का शिकागो में चौथा राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ। 7 अक्टूबर, 1884 को आयोजित उस सम्मेलन में निम्नलिखित प्रस्ताव को स्वीकृति मिली थी—
‘‘फेडरेशन ऑफ़ आर्गनाइज्ड ट्रेड एंड लेबर यूनियंस ऑफ़ दि यूनाइटिड स्टेट्स एंड कनाडा’ तय करती है कि पहली मई तथा उसके बाद से 8 कार्यघंटों का एक कार्यदिवस, वैध कार्यदिवस के रूप में जाना जाएगा। हम सभी श्रमिक संगठनों से अपील करते हैं कि वे अपने-अपने नियमों को इस प्रकार निर्धारित करें कि वे इस प्रस्ताव के अनुकूल हों।”10
‘अमेरिकन फेडरेशन ऑफ़ लेबर’ स्वैच्छिक और संघीय आधार पर बना था। फेडरेशन के राष्ट्रीय सम्मेलन के निर्णय सिर्फ उससे जुड़े श्रमिक संगठनों पर लागू होते थे; वह भी तब जब श्रमिक संगठन उन निर्णयों का विधिवत समर्थन करें। 8 घंटे के प्रस्तावित कार्यदिवस की घोषणा में हड़ताल का संकल्प भी छिपा था। चूंकि हड़ताल के दौरान श्रमिकों के पास अपनी आजीविका का कोई साधन नहीं होता, इसलिए हड़ताल लंबी खिंचने पर मजदूरों को संगठन की आर्थिक मदद की जरूरत पड़ सकती थी। परोक्ष रूप में फेडरेशन का संकेत बड़ी हड़ताल की ओर था। उसके लिए सदस्य श्रमिक संगठनों का समर्थन और सहभागिता आवश्यक थी। उस समय फेडरेशन के सदस्यों की संख्या लगभग 50000 थी। राष्ट्रीय स्तर पर यह बहुत ज्यादा भी नहीं थी। सरकारों पर दबाव बनाने की स्थिति में तो वह संगठन बिलकुल भी नहीं था।
उस दिनों अमेरिका का श्रमिक आंदोलन तीन प्रमुख धाराओं में बंटा हुआ था। उसके सबसे बड़े मजदूर संगठन का नाम था—‘आर्डर ऑफ़ दि नाइट्स ऑफ़ लेबर’ यानी योद्धाओं का संगठन।’ 1886 में सदस्य संख्या की दृष्टि से वह सबसे बड़ा मजदूर संगठन था। उसके लगभग 7 लाख से अधिक सदस्य थे। उसमें कई महिलाएं भी शामिल थीं। टेरेंस वी. पोव्देर्ली उसका नेता था। यह संगठन 1878 में ही 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग करता हुआ आ रहा था। उसकी ख्याति एक जुझारू संगठन की थी। 1886 में उसकी लोकप्रियता शिखर पर थी। इस कारण उसके सदस्यों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। उसके प्रमुख नेता हड़ताल के बजाए सरकार के साथ सहयोग और बातचीत करते हुए, उसका हल निकालना चाहते थे। हालांकि उसका एक हिस्सा हड़ताल के लिए तैयार था। नाइट ऑफ़ लेबर‘ ने 1886 की 8 घंटों के कार्यदिवस हेतु ऐतिहासिक हड़ताल में हिस्सा न लेने का निर्णय लिया था।. नतीजा यह हुआ कि उसका प्रभाव कम पड़ने लगा।। उसके बाद जितनी तेजी से उसकी सदस्य संख्या बढ़ी थी, उतनी ही तेजी से उसकी सदस्य संख्या और प्रतिष्ठा कम होने लगी थी। दूसरी धारा अराजकतावादियों की थी। उन्होंने 1883 में ‘इंटरनेशनल वर्किंग पिपुल्स एसोशिएसन’ का गठन किया था। वे लोग न केवल कानून अपितु राज्य की सत्ता को ही श्रमिक हितों में बाधक मानते थे। इसलिए वे सहयोग या बातचीत के बजाए, मांग को लेकर जोरदार संघर्ष छेड़ने के पक्ष में थे। उसके लिए मारक हथियारों के प्रयोग से भी उन्हें आपत्ति नहीं थी।
तीसरा संगठन ‘अमेरिकन फेडरेशन ऑफ़ लेबर’ था। इस संगठन के कई सदस्य मार्क्सवादी विचारधारा के थे। यह संगठन शुरू से ही आठ घंटों के कार्यदिवस की मांग करता आया था। आरंभ में इसका तरीका भी संवाद और सहयोग पर आधारित था। उसमें एक गुट ऐसा भी था जिसे बातचीत के तरीके पर शुरू से ही विश्वास न था। यह गुट आगे चलकर न केवल फेडरेशन के बाकी सदस्यों को हड़ताल के लिए तैयार करने में सफल रहा, अपितु अपने अनुषंगी संगठनों के कुछ गुटों को हड़ताल के लिए अपने साथ लाने में सफल रहा था।
यह दिखाने के लिए कि 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग केवल घोषणा नहीं है, श्रमिक संगठन उसके बारे में पूरी तरह से गंभीर हैं, ‘फेडरेशन ऑफ़ लेबर’ ने अपरोक्ष तैयारियां आरंभ कर दी थीं। आने वाले वर्ष में श्रमिक नेताओं की जगह-जगह सभाएं आयोजित की गईं। हर जगह 8 घंटों के कार्यदिवस के संकल्प को दोहराया गया। उसे सबसे सुधारवादी कदम बताया जा रहा था। कहा जा रहा था कि उससे ‘पूंजीवाद’ की जड़ पर प्रहार होगा। हालांकि कुछ अराजकतावादी अब भी यह मानकर चल रहे थे कि 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग से श्रमिकों की हालत में सुधार होने की संभावना बहुत कम है। श्रमिक नेताओं में ऑगस्ट स्पाइस जैसे उग्र अराजकतावादी भी थे, जो 8 कार्यघंटों की मांग से सहमत थे, मगर श्रमिकों के कल्याण के लिए उन्हें अपर्याप्त मानते थे। स्पाइस का विचार था कि—‘हमारी समस्याओं का वास्तविक समाधान बुराई की जड़ पर सीधा प्रहार किए बगैर संभव नहीं है।’11 एक और अराजकतावादी सेमुअल फील्डेन ने हेमार्किट नरसंहार से एक वर्ष पहले अराजकतावादी अखबार ‘दि अलार्म’ में लिखा था—‘‘कोई आदमी चाहे दिन में आठ घंटे काम करे या दस घंटे, वह गुलाम है, गुलाम रहेगा।’12 फील्डेन ने कहा था कि मजदूरों की समस्या का एकमात्र समाधान है, ‘निजी संपत्ति का खात्मा और प्रतिस्पर्धा का अंत।’
8 कार्यघंटों की मांग को श्रमिकों का चौतरफा समर्थन मिल रहा था। मजूदर संगठन भी अपनी-अपनी तरह से सक्रिय थे। ‘कारपेंटरर्स एंड सिगार मेकर्स’, ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ की सदस्य संख्या में दिन दूनी, रात चौगुनी वृद्धि हो रही थी। इसका अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है, कि फेडरेशन की घोषणा के बाद, श्रमिक संगठन ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’(मजदूरों के शूरवीर) की सदस्य संख्या 1884 में 70000 से 1885 तक 200000 और फिर 1886 तक 700000 हो चुकी थी।13 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग नाइट आफ लेबर के कार्यक्रम का हिस्सा थी। आरंभ में वह उस मुद्दे पर हड़ताल के लिए बाकी सदस्यों का साथ देने को तत्पर था. मगर बाद में, कदाचित मजदूर संगठनों पर अराजकतावादियों के प्रभाव के चलते, ‘नाइट ऑफ़ लेबर‘ के नेता हड़ताल से कटने लगे थे. स्वयं पोव्देर्ली, फेडरेशन से जुड़ी यूनियनों से हड़ताल में भाग लेने को कहने लगा था।
दूसरे कई संगठनों में भी बढ़ती सदस्य संख्या को देखकर उत्साह था। उसका असर किसी एक शहर तक सीमित नहीं था, बल्कि अमेरिका के विभिन्न शहरों के श्रमिक इस मांग को लेकर जोश से भरे हुए थे। मजदूरों को अंदाजा था कि 8 कार्यघंटों की मांग के लिए होने वाली हड़ताल लंबी खिंच सकती है। इसलिए कुछ सरकार पर दबाव बनाने के लिए निर्धारित तिथि से पहले अल्पावधिक हड़तालों का सिलसिला शुरू हो चुका था। उन हड़तालों में ‘कुशल और अकुशल, काले और गोरे, स्त्री और पुरुष, नेटिव और प्रवासी सभी शामिल होते थे।
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मजूदर संघर्ष का केंद्र शिकागो बना था। क्या इसके पीछे कोई खास कारण था? बिलकुल। अमेरिकी गृहयुद्ध(1861-1865) के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था को जोरदार झटका लगा था। वह भयानक मंदी के दौर से गुजर रही थी। 1873 से 1879 के बीच 18000 कंपनियां दिवालिया घोषित हो चुकी थीं। 8 राज्य और सैकड़ों बैंक तबाह हो चुके थे।14 मगर जैसे ही मंदी का दौर समाप्त हुआ, अमेरिका खासकर उसके शिकागो शहर में जो उन दिनों बड़ा औद्योगिक केंद्र था—बाहर से आने वाले मजदूरों की संख्या अचानक बढ़ चुकी गई। इससे शहर की समस्याएं भी बढ़ी थीं। उन दिनों अमेरिका में प्रति सप्ताह औसत 63 घंटे काम का प्रावधान था।15 मंदी से उबरने की छटपटाहट में जहां उद्योगपति अधिक से अधिक मुनाफा कमाना चाहते थे। वहीं श्रमिक संगठन अपने लिए बेहतर मजदूरी की मांग कर रहे थे। कारण यह था कि मंदी के बाद जिस अनुपात में मंहगाई में वृद्धि हो रही थी, उस अनुपात में वेतन–वृद्धि नहीं हो पा रही थी। तनाव तब और बढ़ गया था जब बाल्टिमोर एंड ऑहियो रेलरोड ने मंदी के बहाने मजदूरों की पगार में 10 की कटौती की घोषणा की। नतीजा यह हुआ की जुलाई 25, 1877 से मजदूरों ने हड़ताल कर दी। देखते ही देखते उसने पूरे अमेरिका को अपनी चपेट में ले लिया। स्थानीय पुलिस और सुरक्षा बल हड़ताल पर काबू पाने में नाकाम रहे तो सेना बुलानी पड़ी। दो सप्ताह चलने वाली उस हड़ताल ने सैकड़ों की जान ली थी। करोड़ों डॉलर की संपत्ति को नुकसान पहुंचा था। जार्ज शिलिंग नाम के एक मजदूर नेता ने उसे ‘सामाजिक और औद्योगिक ग़दर’ की संज्ञा की थी।
महत्त्वपूर्ण बात यह कि ‘गृह युद्ध की समाप्ति के एक दशक के भीतर ही उद्योगपति शिकागो पुलिस को गैर–भरोसेमंद बताने लगे थे। उनका मानना था कि सरकारी सुरक्षाबल मजदूरों के प्रति उदारता बरतते हैं। ऐसा न हो, इसके लिए सुरक्षा बलों की जगह अपने खर्च पर पेशेवर संगठन बनाने की कोशिश जारी थी। 1870 और 1880 के दशक में उन्होंने प्राइवेट सशस्त्र बलों की भर्ती शुरू कर दी थी। निजी तथा सरकारी सशस्त्र बलों की सुरक्षा के लिए मजबूत हथियार-घर और किले बनाए जा रहे थे।16 इसके साथ–साथ मजदूर संगठनों पर लगाम लगाने के प्रयत्न भी जारी थे। वे मजदूरों को डराने, धमकाने, उनके संगठनों को काली सूची में डालने जैसे काम कर रहे थे। श्रमिक संगठनों में फूट डालने के लिए जासूसों, ठगों, निजी सुरक्षा बलों, और भेदियों की भरती की जा रही थी। सीधे-साधे गरीब मजदूरों को अनार्किस्ट और कम्युनिस्ट जैसे नाम देकर नौकरी से हटाया जा रहा था। मंदी के नाम पर मजदूरों के वेतन की कटौती की जा रही थी।
इसके बावजूद मुख्य धारा के अखबार पूंजीपतियों का समर्थन कर रहे थे। शिकागो ट्रिबून, दि टाइम्स, जैसे बड़े अखबारों का किसी न किसी रूप में राजनीतिकरण हो चुका था। मजदूरों की ओर ‘सोशलिष्ट’ और ‘अनार्किस्ट’ जैसे कुछ जनवादी तेवर के अखबार थे। लेकिन तुलनात्मक रूप से उनकी पहुंच बहुत छोटे समूह तक थी। उदाहरण के लिए 1890 के दशक में शिकागो डेली न्यूज की पाठक–संख्या जहां 2,00,000 थी, वहीं सोशलिष्ट और अनार्किस्ट जैसे प्रतिबद्ध विचारधारा के अखबारों की संयुक्त पाठक संख्या महज 30,000 थी।17 जैसे–जैसे मई का महीना करीब आ रहा था, मजदूरों का जोश भी बढ़ता जा रहा था। 1886 के आरंभ में, जहां जाओ वहां, 8 घंटे के कार्यदिवस, मजदूर एकता और पूंजीपतियों के शोषण पर चर्चा होती सुनाई पड़ती थी। सड़कों पर, सेलूनों और बाजारों में जोशीले गीत सुनाई पड़ते थे —
लाखों मेहनतकश, जागे हुए है
आओ उन्हें मार्च करते हुए देखें
उधर देखो, तानाशाह कांप रहे हैं,
अरे! उनकी ताकत खत्म होने लगी है
ओ श्रम–योद्धाओं किलों को उड़ा दो
अपने उद्देश्य की खातिर लड़ो
लड़ो, ताकि तुम्हें और तुम्हारे
सभी पड़ोसियों को बराबर का हक मिल सके
उठो, इन निरंकुश कानूनों को दफन कर दो
ऐसे गीतों ने श्रमिकों की आंखों में सपने रोपने का काम किया था। सपने बराबरी और एकता के। समानता और स्वतंत्रता के। फेडरेशन ऑफ़ लेबर की 8 कार्यघंटों को कानूनी घोषित करने की मांग के साथ ही श्रमिक संगठन उसके लिए तैयारियों में जुटने लगे थे। कामगारों का जुझारूपन, लक्ष्यप्राप्ति के लिए बल–प्रयोग से न हिचकने का संकल्प श्रम आंदोलनों को विस्तार दे रहा था। अराजकतावादी नेताओं में से अल्बर्ट पार्सन्स, जोहान्न मोस्ट, ऑगस्ट स्पाइस, लुईस लिंग्ग जैसे नाम घर–घर के जाने–पहचाने नाम बन चुके थे। 1885 में ही हड़तालों का सिलसिला आरंभ हो चुका था। अपनी एकजुटता दर्शाने के लिए मजदूर बेंड-बाजे के साथ परेड के निकलते थे। 1881-1884 के बीच अमेरिका में हड़ताल और तालाबंदी की घटनाओं का वार्षिक औसत लगभग 500 था। उनमें करीब 1,50,000 श्रमिकों ने हिस्सा लिया था। मगर 1885 में हड़ताल और तालाबंदी की घटनाओं की संख्या 700 तक पहुंच चुकी थी। उनमें 2,50,000 मजदूरों की भागीदारी थी। उससे अगले साल यानी 1886 में हड़तालों तथा तालाबंदी की संख्या पिछले साल, यानी 1885 के मुकाबले दुगुनी से भी ज्यादा, 1572 थी। उनमें 6,00,000 श्रमिकों की हिस्सेदारी थी। 1885 में जहां 2467 औद्योगिक संस्थान हड़ताल और तालाबंदी से प्रभावित थे, वहीं उससे अगले वर्ष में 11562 कारखाने प्रभावित हुए थे। ‘नाइट्स ऑफ़ लेबर’ के नेताओं ने हालांकि हड़ताल में भाग न लेने का खुला ऐलान कर दिया था। बावजूद इसके उसके लगभग 7,00,000 सदस्यों में से 5,00,000 कामगार हड़ताल में सीधे तौर पर शामिल थे।18
आसन्न संकट को सामने देख सावधान हो जाना मनुष्य का प्राकृतिक लक्षण है। संकट जितना अधिक बड़ा हो, वह उतनी ही अधिक शक्ति से उसका सामना करता है। 1870 और 1880 के बीच श्रमिक संगठनों की भी यही हालत थी। इसलिए एक और जहां पूंजीपति और राज्य मिलकर मजदूर एकता और उनके संगठनों को कमजोर करने में लगे थे, उनसे निपटने की तैयारियां की जा रहीं थीं, वहीं श्रमिक भी 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग को लेकर एकजुट हो रहे थे। इस बीच श्रमिक संगठनों में ही कुछ ऐसे नेता भी थे, जो मजदूर एकता में खलल डालकर, हड़ताल की संभावना का टालने या उसे कमजोर करने में लगे थे। उनमें ऐसे लोग भी थे जिन्हें पूंजीपतियों ने इस काम के लिए नियुक्त किया था। लेकिन मजदूरों में जोश था। 1 मई से ठीक पहले एक गुमनाम प्रकाशक की ओर से छपा पर्चा मजूदरों में बांटा गया, जिसमें अपील थी—
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मजदूर हथियारों के लिए!
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महल के लिए युद्ध, झोपड़ी के लिए शांति, विलासितापूर्ण सुस्ती के लिए मौत।
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मजदूरी प्रथा दुनिया की बदहाली की एकमात्र वजह है। वह धनाढ्यों द्वारा समर्थित है। इसे नष्ट करने के लिए उन्हें या तो काम करना होगा, अथवा मरना होगा।
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एक पाउंड डायनामाइट, एक बुशेल मतदातापत्रों से बेहतर है!(बुशेल: 32 सेर या 25.4 किलोग्राम की माप)
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पूंजीपति लकड़बघ्घों, पुलिस और लड़ाकुओं का समुचित सामना करने के लिए, अपने हाथों में हथियार लेकर, आठ घंटों की मांग उठाओ।19
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साफ है कि दोनों ओर से कमानें तन चुकी थीं। हड़ताल का केंद्र शिकागो था। लेकिन आंदोलन केवल वहीं तक सीमित नहीं था। न्यू यार्क, बाल्टीमोर, सिनसिनाटी, सेंट लुईस, वाशिंग्टन, डेट्रोइट, पिटसबर्ग, मिलवोकी, कैलीफोर्निया सहित दूसरे और भी कई शहरों में मजदूर भड़के हुए थे। अफवाहों का बाजार गर्म था। इतिहासकार और समाज-वैज्ञानिक एक और गृह युद्ध की संभावना जता रहे थे। पूंजीपतियों के प्रति घृणा चारों ओर पसरी हुई थी। मजदूर मान चुके थे कि कार्यघंटों को लेकर सरकार और कारखाना मालिकों ने उन्हें और रियायत मिलने वाली नहीं है। मैकार्मिक कंपनी ने अपने सैकड़ों कर्मचारियों को लॉकआउट के बहाने बाहर निकाल दिया था। बाहर किए गए कर्मचारी किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न न करें, इसके लिए 300 सुरक्षा कर्मियों को नियुक्त किया गया था। कंपनी के इस निर्णय को लेकर कर्मचारियों में खासी कड़वाहट थी। मैकार्मिक के लॉकआउट में ‘इंटरनेशनल कारपेंटरर्स यूनियन’ की बड़ी भूमिका था। उसके नेताओं में से एक लुइस लिंग्ग चरमपंथी था। वह निर्भीक और मुखर वक्ता था तथा जो डायनामाइट को ‘सच्चा औजार’ मानता था।
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आखिर वह दिन भी आ पहुंचा जिसके लिए दोनों ही वर्गों ने भरपूर तैयारी की थी। सबसे ज्यादा क्रांतिधर्मा श्रमिक संगठन शिकागो में ही जमा हुए थे। विभिन्न संगठनों के बीच तालमेल बनाए रखने के लिए ‘8-घंटा समिति’ का गठन किया गया था। दूसरी ओर उग्र वामपंथी मजदूर संगठनों ने हड़ताल का मोर्चा संभालने के लिए ‘सेंट्रल लेबर यूनियन’ का गठन किया था। समन्वय की व्यवस्था ‘8-घंटा समिति’ और ‘सेंट्रल लेबर यूनियन’ के बीच भी थी। उन्होंने हड़ताल के संचालन के लिए एक संयुक्त मोर्चा बनाया हुआ था। ‘सेंट्रल लेबर यूनियन’ ने अभ्यास के लिए 1 मई से पहले रविवार के दिन लामबंदी प्रदर्शन किया था। उसमें कई श्रमिक संगठनों के लगभग 25000 मजदूरों ने हिस्सा लिया था। उसके साथ नाइट्स ऑफ़ लेबर, सोशलिष्ट लेबर पार्टी भी थीं। लेकिन नाइट्स ऑफ़ लेबर ने, शिकागो में एकदम अंतिम क्षण में खुद को प्रस्तावित हड़ताल से अलग कर लिया।20 इससे नाराज उसका एक गुट, हड़ताल के सक्रिय समर्थन में उतर आया था। 1 मई का ‘दि आर्बीटर जाइटुंग’ हड़ताल के आवाह्न के साथ पाठकों तक पहुंचा था—
‘बहादुरो आगे बढ़ो! संघर्ष शुरू हो चुका है….साथियो! इन शब्दों पर ध्यान रखना—कोई समझौता नहीं। कापुरुष पीछे चले जाएं, बहादुर आगे आ जाएं। अब हम पीछे नहीं हट सकते। यह मई की पहली तारीख है….अपनी बंदूकों को साफ करो, कारतूसों को संभालकर रखो। पूंजीपतियों द्वारा किराये पर बुलाए गए हत्यारे, पुलिस और सैन्यबल, हत्या के लिए तैयार हैं। इन दिनों कोई भी मजदूर खाली जेब घर से बाहर कदम नहीं रखेगा।’21
उद्योगपतियों और व्यापारियों ने अपनी सुरक्षा के लिए निजी सुरक्षा बलों का गठन किया था। दूसरी ओर मजदूर संगठन भी 8 घंटे कार्यदिवस की मांग को अपने जीवन और मरण का सवाल बना चुके थे। पूंजीपतियों के सुरक्षाबलों का जवाब देने के लिए जर्मन तथा बोहेमियन समाजवादियों की ओर से शिकागो में ‘लेहर अंड वेहर वीरीन’(शैक्षिक एवं सुरक्षा समिति) का गठन किया गया था।22 उद्देश्य था कि राज्य यदि श्रम–आंदोलनों को रोकने के लिए बल का इस्तेमाल करे तो उसका उत्तर बलपूर्वक उसी अंदाज में दिया जा सके। साथी मजदूरों से संवाद करने के लिए श्रमिक संगठनों के पास ‘अलार्म’ और ‘आर्बीटर जाइटुंग’ जैसे समाचारपत्र थे। उनका सर्कुलेशन मुख्यधारा के अखबारों के मुकाबले बहुत कम था। मगर मजदूरों पर उनका प्रभाव दूसरे अखबारों की अपेक्षा कहीं ज्यादा था। उनकी भाषा आह्वानकारी होती थी। इसे एक उदाहरण के जरिये समझना उपयुक्त होगा। नवंबर-1884 में ‘इंटरनेशनल एसोशिएसन ऑफ़ वर्किंगमेन’ ने, स्थानीय श्रमिक संगठनों और संस्थाओं की मदद से समाजवाद को परिभाषित करने की कोशिश की थी23—
1. निष्ठुर क्रांति तथा अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों की मदद से वर्तमान वर्गीय वर्चस्व को समाप्त करना।
2. साम्यवादी संगठनों अथवा उत्पादन को लेकर मुक्त समाज की रचना।
3. उत्पादक संगठनों के माध्यम से, बगैर लार्भाजन तथा लूट के बराबर श्रम–मूल्य के आधार पर वस्तुओं का विनिमय।
4. ऐसा शिक्षा–तंत्र खड़ा जिसमें स्त्री–पुरुष सभी धर्म–रहित, वैज्ञानिक सूझबूझ तथा बराबरी के सिद्धांत के अनुरूप शिक्षा ग्रहण कर सकें।
5. लिंग अथवा जातीय भेदभाव से परे, सभी के लिए समान अधिकार।
6. जनता के आपसी कार्यकलापों को संघों एवं कम्यूनों के बीच समझौतों के माध्यम से नियंत्रित करना।
इस समाचार को 3 नवंबर 1884 के ‘अलार्म’ ने निम्नलिखित टिप्पणी के साथ प्रकाशित किया गया था—
‘दुनिया–भर के मजदूर भाइयो! एक हो जाओ। साथियो! इस महान लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जो सबसे आवश्यक है, वह है हमारा संगठन और हमारी एकता…..सो एकजुट होने का दिन आ पहुंचा है। हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो जाओ। ड्रम बजाकर बेखटके युद्ध की मुद्रा में आ जाओ—दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ। तुम्हारे पास खोने के लिए जंजीरों के अलावा कुछ भी नहीं है, जीतने के लिए दुनिया पड़ी है।’24
जैसे ही पहली मई का दिन आया, मजदूरों ने अपने औजार रख दिए। उनके चेहरों पर विश्वास था। हर कोई अपने अधिकारों के लिए लड़ने का उद्धत था। श्रमिक आंदोलनों के इतिहास का वह सबसे अविस्मरणीय दिन था। शिकागो मजदूर क्रांति का केंद्र था। वहां मेकार्मिक हार्वेस्टर नामक कंपनी थी, जो खेती के औजार, मशीनें और ट्रक बनाने का काम करती थी। उसके आधे कामगार पहले ही दिन सड़क पर उतर आए। अकेले शिकागो में लगभग 40000 मजदूर हड़ताल पर थे।25 उनके चेहरों पर जोश था। होठों पर गगनभेदी नारे थे—‘‘8 घंटे काम के। आठ घंटे आराम के। 8 घंटे हमारी मर्जी के।’ काम के घंटे घटाओ-मजदूरी बढ़ाओ।’ हड़ताल में 11562 कारखानों के मजदूर शामिल हुए थे।26 शिकागो के अलावा केलीर्फोनिया जैसे दूसरे बड़े शहर भी हड़ताल में शामिल थे। पूरे अमेरिका में पांच लाख से अधिक मजदूर सड़कों पर थे। नेतागण अपने भाषण द्वारा मजदूरों को प्रोत्साहित कर रहे थे। अल्बर्ट पार्सन्स, ऑगस्ट स्पाइस, जोहन्न मोस्ट, लुईस लिंग्ग, सेमुअल फील्डेन जैसे अराजकतावादी नेताओं के भाषण आग उगल रहे थे। हड़ताल के बारे में एक अखबार ने लिखा था—‘फैक्ट्रियों और मिलों की ऊंची-ऊंची चिमनियों से उस दिन धुंआ नहीं निकला था। लगता था, जैसे छुट्टी के दिन, सब कुछ ठहरा हुआ हो।’27 उल्लेखनीय स्तर पर शांत रही पहले दिन की हड़ताल ने अमेरिका के श्रम आंदोलन के इतिहास में बड़ा अध्याय जोड़ दिया था।
3 मई को हड़ताली फिर सड़क पर थे। इस बार मैकार्मिक हार्वेस्टर कंपनी के अलावा ‘लंबर शोवर’ के 6000 कर्मचारी भी सड़क पर थे। गौरतलब है कि मैकार्मिक कंपनी में 16 फरवरी, 1886 से लॉकआउट चल रहा था। उसके कर्मचारी पिछले तीन महीनों से काम न मिलने के कारण क्षुब्ध थे। सच तो यह है कि वे हताश हो चुके थे। इसलिए उनमें दो वर्ग बन चुके थे। हड़ताली मजदूर मैकार्मिक हार्वेस्टर से थोड़ा हटकर जमा हुए थे। कुछ और हड़ताली वहां पहले से ही जमा थे। कुल लगभग 15000 हडताली वहां जमा थे। हड़ताल का नेतृत्व कर रहे नेताओं में से एक ऑगस्ट स्पाइस ने जोरदार भाषण दिया था। अपने भाषण में उसने पूंजीवादी दमन, उसकी क्रूरताओं और कुटिलताओं पर चर्चा की थी। कहा था कि मजदूरों की हालत गुलामों से भी बदतर है। उसने मजदूरों से अपील की थी कि एकजुट होकर खड़े रहें। अपने मालिकों और हड़ताल तोड़ने वालों को बीच में न घुसने दें। मजदूर सावधान थे। हड़ताली मजदूर सड़क पर आकार मार्च करने लगे। इस बीच उनके बीच कुछ भेदिये भी आ मिले थे, जिन्हें मजदूरों ने वापस लौटने को विवश कर दिया था। मजदूरों का जुलूस शांतिपूर्वक आगे बढ़ रहा था। चारों तरफ से जत्थे निकलकर उसमें शामिल हो रहे थे। तभी हड़तालियों पर पत्थरों, ईंटों और लाठी–डंडों से मार पड़ने लगी। मजदूर समझ पाएं, तभी 200 पुलिसकर्मियों का जत्था उनके सामने पहुंच गया। बिना किसी चेतावनी के लिए उसने मजदूरों पर लाठियों और बंदूकों से हमला कर दिया। उसमें चार मजदूरों की मृत्यु हो गई। अनेक घायल हो गए।28
3 मई की घटना के बारे में शिलिंग नामक मजदूर ने पीटर आल्टगोल्ड के सामने इस प्रकार बयान दिया था—‘‘मैकार्मिक कारखाने पर आयोजित प्रदर्शन सिर्फ लंबर शोवर्स यूनियन का ही प्रदर्शन नहीं था, वहां पर मैकार्मिक कारखाने के भी एक हजार से अधिक हड़ताली मजदूर थे। हालांकि ऑगस्ट स्पाइस वहां बोला था, पर उसने गड़बड़ी करने का नारा नहीं दिया था। उसने एकता का आह्वान किया था….गड़बड़ी तो तब शुरू हुई जब हड़ताल–भेदिये कारखाने से बाहर जाने लगे। हड़तालियों ने उन्हें देख लिया और भला-बुरा कहना, गालियां देना शुरू कर दिया जो यहां दोहराने लायक नहीं हैं। उस दृश्य की कल्पना करो। दो यूनियनों के छह हजार हड़ताली मजदूर बाहर सभा कर रहे हैं और उनकी नजरों के सामने से हड़ताल भेदिये चले जा रहे हैं। मैंने देखा वहां क्या हुआ। मैकार्मिक के हड़ताली कारखाने की ओर बढ़ने लगे। किसी ने उनसे कहा नहीं था। किसी ने उन्हें उकसाया नहीं था। उन्होंने सुनना बंद कर दिया था और वे फाटकों की ओर बढ़ रहे थे। हो सकता है उन्होंने कुछ पत्थर उठा रखे हों, हो सकता है उन्होंने भद्दी बातें कही हों। लेकिन उनके कुछ कहने से पहले की कारखाने की पुलिस ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं। हे भगवान लगता है, जैसे कोई युद्ध हो। हड़ताली निहत्थे और पुलिस मानो चांदमारी कर रही हो, पिस्तौलें हाथ–भर की दूरी पर थीं। रायफलें भी तनी हुई थीं—धांय, धांय, धांय…..मजदूर ऐसे गिर रहे थे, जैसे लड़ाई का मैदान हो। जब उन्होंने टिककर खड़े होने की कोशिश की तो पुलिस वाले चढ़ दौड़े और लाठियों से पीटकर उन्हें अलग कर दिया। जब वे तितर-बितर होकर दौड़े तो पुलिसवालों ने उनका पीछा किया। पीछे से लाठियां बरसाईं। देखा नहीं जाता था। वह क्रूरता थी। बहशीपन था। भाग जाने का मन कर रहा था। लगता था कै हो जाएगी। और यही किया मैंने.’’29
ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि हड़तालियों पर पुलिस का हमला न केवल आकस्मिक, अपितु पूर्वनिर्धारित षड्यंत्र जैसा था। क्रोधित ऑगस्ट स्पाइस अराजकतावादी दैनिक आर्बीटर जाइटुंग के कार्यालय में पहुंचा था। वहां उसने हड़तालियों के नाम एक पोस्टर जारी किया। उसका शीर्षक था—‘बदला।’ घटना के कुछ ही घंटों बाद सड़कें उन पोस्टरों से पटी हुई थीं—
‘‘तुम्हारे मालिकों ने अपने शिकारी कुत्ते, पुलिस भेज दी है। इस दोपहर उन्होंने मैकार्मिक के पास तुम्हारे छह साथियों को मार गिराया है। उन्होंने उन गरीब दुखियारों को मार गिराया है, क्योंकि तुम्हारी तरह उन्होंने भी अपने मालिकों के आगे झुकने से इन्कार कर दिया था….तुम वर्षों से अंतहीन असमानता को झेलते आ रहे हो। तुम उनके लिए मृत्युपर्यंत काम करते हो। उनके लिए तुम अपनी इच्छाओं के साथ–साथ, अपनी और अपने बच्चों की भूख को अनंतकाल से दबाते आए हो। यहां तक कि अपने बच्चों को भी तुमने अपने मालिकों के लिए कुर्बान कर दिया है। तुम हमेशा से दुखियारे और आज्ञाकारी गुलाम रहे हो। क्यों? अपने सुस्त और चोर मालिकों के अंतहीन लालच और उनकी तिजोरियों को भर देने के लिए….
यदि तुम इंसान हो, यदि तुम अपने उन पूर्वजों की संतान हो, जिन्होंने तुम्हें आजाद करने के लिए अपनी कुबार्नियां दी हैं, तो महाशक्तिशाली हरकुलिस की तरह उठो। और उन छिपे हुए राक्षसों का अंत कर दो, जो तुम्हें मिटा देना चाहते हैं। हथियार उठाओ….हम तुमसे कहते हैं….हथियार उठा लो।’’30
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4 मई की सुबह ‘दि आर्बीटर जाइटुंग’ के मुख्य पृष्ठ पर मोटे अक्षरों में छपा था—
‘खून! असंतुष्ट मजदूरों की सेवा के लिए सिर्फ गोली और बारूद….यह है कानून और पुलिस! वे महलों में महंगी शराब से अपने जाम भरकर कानून और पुलिस के खूनी दरिंदों के स्वास्थ्य की कसमें उठा रहे हैं। गरीब और दुखियारो, अपने आंसू पोंछ डालो। अपनी ताकत को पहचानकर उठे खड़े हो और इस बेईमान शासन को धूल में मिला दो।’31
रात–भर में पोस्टरों और पर्चों की एक और खेप सड़कों पर आ चुकी थी। लिखा था—‘मजदूरो, हथियार बांध लो। पूरी ताकत के साथ मोर्चे पर डट जाओ।’ पूरा शहर अफवाहों से भरा हुआ था। दोपहर होते-होते हेमार्किट चौक पर भीड़ जुटने लगी। उपस्थित श्रमिकों में बहुत से बेरोजगार थे। भूख से व्याकुल थे। अनेक लोग ऐसे भी थे, जिनके पास सिर छिपाने के लिए कोई ठिकाना तक नहीं था। सैकड़ों ऐसे थे जिनके सिर पर महीनों से मंदी की तलवार लटकी हुई थी। ऐसा लग रहा था कि जो वे कर रहे या करने जा रहे हैं, खुद को और अपने परिवार को बचाए रखने के लिए, उसके अलावा उनके पास दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है। उनके पूंजीपति मालिक उन्हें रोजगार देते हैं। लेकिन उनके सपने देखने के अधिकार को छीन लेना चाहते है। यदि कोई सपना बचता-बचाता कहीं से चला आए तो वे उसे नोंचने पर उतारू हो जाते हैं। उनके नेताओं ने उन्हें सपना देखना सिखाया है। अपने ऊपर विश्वास करना सिखाया है। बताया है कि अपनी तमाम लाचारी, बेकारी, हताशा, विपन्नता और दैन्य के बावजूद वे इन्सान हैं। सपने देखने का हक उन्हें भी है। संगठन उनके सपनों के पूरा होने का भरोसा दिलाता है। सपने पूरे हों न हों, लेकिन वे सपनों को छोड़ना नहीं चाहते। 8 घंटे का कार्यदिवस तो असल में बहाना है। हड़ताल तो सपनों को बचाने के लिए है। जीवन रहे या जाए, बस सपने बचे रहें।
पूरा शहर दो हिस्सों में बंट चुका था। एक ओर मजदूर थे। भूख और बेरोजगारी के मारे हुए, ठंडे, गरीब और बदहाल। उन्हीं के सामने, उनकी ओर बंदूकें थामें, पुलिस के सिपाही और सुरक्षाबल थे। उनमें और मजदूरों में ज्यादा अंतर नहीं था। बल्कि उन्हीं के बीच से निकलकर आए थे। उन्हीं के भाई-बंधु–पड़ोसी–रिश्तेदार थे। मालिकों ने उन्हें बंदूकें और लाठियां थमायी थीं। उन हथियारों का असर था कि अब वे अपने ही भाई-बंधु–पड़ोसी या रिश्तेदारों को पहचानने को भी तैयार न थे। मालिकों के इशारे पर वे कुछ भी कर सकते थे। दूसरी ओर बड़े-बड़े उद्योगपति, व्यापारी, पूंजीपति, राजनेता और व्यापारी थे। उनके पास धन था। ताकत थी। अखबार थे, जिनके मदद से वे अपने झूठ को भी सच बनाते आए थे। अपने वर्चस्व को बचाने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार थे।
अचानक आसमान घिर आया। तेज हवाएं चलने लगीं। ऊपर काले बादलों की मोटी परत छा गई। फिर बूंदा–बांदी होने लगी। मानो मौसम उन्हें सावधान कर देना चाहता हो। मैदान पर उस समय मात्र तीन हजार लोग थे। जिनमें स्त्री-पुरुष, बच्चे–बड़े सभी शामिल थे। मजदूर नेता भाषण दे रहे थे। उनके भाषण में हिंसा की कोई बात नहीं थी। पार्संस ने अर्थव्यवस्था पर बात रखी थी। समानांतर से रूप से उसी समय कारखाना मालिकों की भी गुप्त बैठक चल रही थी। गोपनीय ढंग से आदेश आ-जा रहे थे। घटना स्थल से थोड़ी दूर पर पुलिस स्टेशन था। वहां पुलिस कप्तान पूरे दल-बल के साथ मौजूद था। इस बीच मौसम कुछ और खराब हुआ था। झील की ओर से आती तेज-ठंडी हवाएं चल रही थीं। उससे पहले कि तूफान आए लोग घर लौट जाना चाहते थे।
उस समय शिकागो के मेयर कार्टर एच. हरीसन थे। अपनी लोकप्रियता के दम पर चौथी बार मेयर चुना गया था। हरीसन झुकाव मजदूरों की ओर था। शिकागो को वह अपनी ‘दुल्हन’ मानता था। वह चाहता था कि मजदूर उसपर भरोसा करें—‘मैं चाहता हूं कि लोग यह जान लें कि उनका मेयर यहीं पर है।’32 कार्यघंटों के लिए चल रहे आंदोलन के दौरान उसने अपनी ओर से तनाव को कम करने की पूरी कोशिश की थी। उसने यह कहते हुए कि मजदूर भी शिकागो के नागरिक हैं, सुरक्षा बलों को बुलाने से इन्कार कर दिया था। लेकिन मेयर होने के बावजूद सब कुछ उसके नियंत्रण में नहीं था। अनजाना भय उसे खाए जा रहा था। घबराया मेयर कभी निकट के पुलिस स्टेशन पर जाता तो कभी हेमार्किट चौक पर लौट आता था। थाने में कुछ सिपाही तैयार बैठे थे। कुछ काली पोशाक पहले लोग भी वहां थे।33 बावजूद इसके मेयर के लिए मजदूरों की सभा ‘अनुशासित’ थी। उसके नेताओं के भाषण अहिंसक थे।
10 बजे, मेयर हरीसन अपने बुझे हुए सिगार को चबाता हुआ पुलिस स्टेशन पहुंचा। और वहां मौजूद पुलिस अधिकारी से बोला—‘ऐसा कुछ भी होने की संभावना नहीं है, जिससे हस्तक्षेप की जरूरत पड़े।’ इसके बाद वह घर चला गया। मानो सब मेयर के वहां से चले जाने की प्रतीक्षा में हों। उसके जाने के 15 मिनट के भीतर ही पुलिस इंस्पेक्टर ने अपने सहायक से सारी पुलिस को आगे बढ़ने को कहा। उसमें 176 अधिकारी थे। आदेश मिलने पर वे घटनास्थल की ओर बढ़ने लगे। पुलिस इंस्पेक्टर बोनाफाइड को संभवतः उसे किसी बड़े अधिकारी, कदाचित मेयर से भी ऊंचे अधिकारी, का आदेश मिला था, जो निस्संदेह दंगा कराना चाहता था।34
उस समय फील्डेन का भाषण चल रहा था। हड़ताली घर वापसी की तैयारी कर रहे थे। बारिश के कारण अधिकांश जा भी चुके थे। मैदान पर अब केवल 500 लोग जमा थे। फील्डेन आखिरी वक्ता था। वह अपने भाषण को समेटना चाहता था। पुलिस इंस्पेक्टर को करीब आते देख उसने कहा—‘यहां सब कुछ शांतिपूर्वक है। बस कुछ मिनट दीजिए, हम सब जाने ही वाले हैं।’ उसके बाद वह वहां उपस्थित लोगों की ओर मुड़ा और अपने भाषण का समापन करते हुए कहने लगा, ‘और अंत में….’ तभी उसने पुलिस के दस्ते को आंदोलनकारियों की ओर बढ़ते हुए देखा। मंच से कुछ फुट दूर रहने पर इंस्पेक्टर ने सिपाहियों को रुकने का आदेश दिया ओर स्वयं मंच की ओर बढ़ा। फील्डेन के पास पहुंचकर उसने जोर से कहा—‘मैं तुम्हें गिरफ्तार करता हूं।’
‘मैं लोगों की ओर से तुम्हें अभी इसी क्षण यहां से शांतिपूर्वक हट जाने का आदेश देता हूं।’ उसकी बात सुनते ही वहां शांति पसर गई। अब केवल हवाओं का शोर था जो झील से होकर आ रही थीं। आसमान में बादल मंडरा रहे थे।
‘किसलिए कैप्टन, यहां सब शांतिपूर्वक चल रहा है।’ फील्डेन ने कहा। फील्डेन ने गलत नहीं कहा था। बैठक पिछले सात-आठ घंटों से शांतिपूर्वक जारी थी। किसी भी पक्ष ने शिकायत का अवसर नहीं दिया था। एक सफल बैठक के शांतिपूर्वक समापन के अवसर पर फील्डेन इसके अलावा कुछ और कह ही नहीं सकता था। बावजूद इसके पुलिस की ओर से जो फील्डेन का जो बयान अदालत के सामने पेश किया गया, वह उपर्युक्त बयान से पूर्णतः भिन्न था। पुलिस रिकार्ड के अनुसार फील्डेन के शब्द थे, ‘यहां कुछ शिकारी कुत्ते हैं! जाओ, अपना काम करो और मैं अपना काम करूंगा।’ फील्डेन के बयान के बाद वहां पुनः शांति छा गई। हालांकि भविष्य में क्या होने वाला है, कुछ लोग यह अवश्य जानते थे।
और तब अचानक, एक भयानक विस्फोट हुआ। तेज रोशनी में कुछ चेहरे दमके, और वातावरण दुर्गंध से भर गया। पुलिस की टुकड़ी की दायीं ओर से फैंका गया, हवा में लहराता हुआ बम स्पीकर स्टेंड से कुछ फुट दूरी पर फटा था। इसी के साथ वहां अव्यवस्था फैल गई। क्या हुआ किसी की कुछ समझ में नहीं आया। बम किसी अराजकतावादी ने फैंका था अथवा किसी उपद्रवी ने, अथवा पूंजीपतियों ने मिलकर हड़ताली नेताओं के विरोध में साजिश रची थी। या किसी सिरफिरे का काम था—इस बारे में अंत तक कुछ पता नहीं चला। हड़बड़ी में पुलिस ने भी फायरिंग शुरू कर दी। उधर मजदूर भी गोलियां बरसाने लगे। बम का धुंआ फैलने से कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था। पुलिस मजदूरों के साथ अपने साथियों पर भी गोली चला रही थी। बदहवासी का वह आलम 2-3 मिनट में समाप्त हो गया। उसके बाद किसी की लाश जमीन पर पड़ी थी। कोई घायलों में अपने मित्र, परिचित या रिश्तेदार को खोज रहा था। कोई खुद घायल पड़ा कराह रहा था। कानून की तरफ से 7 पुलिसकर्मियों की मृत्यु हुई थी। 67 घायल हुए थे।35 मजदूरों की ओर से मरने वालों तथा हताहतों की संख्या उससे कई गुना था। परंतु सचमुच कितनी थी, यह कभी पता नहीं चल सका। अगले दिन के अखबारों ने मुख्यपृष्ठ पर उस घटना को जगह दी थी। सभी ने अराजकतावाद को अमेरिकी लोकतंत्र के लिए खतरा बताया था।
आठ अराजकतावादी नेता, अल्बर्ट पार्संस, ऑगस्ट स्पाइस, सेमुअल फील्डेन, ऑस्कर नीबे, माइकल श्वाब, जार्ज एंजिल, एडोल्फ फिशर तथा लुईस लिंग्ग को गिरफ्तार कर दिया गया। आठों मामूली मजदूर और कारीगर थे। अल्बर्ट पार्संस, प्रिंटिंग प्रेस का मजदूर था; और ‘अलार्म’ नाम का अख़बार निकलता । ऑगस्ट स्पाइस फर्नीचर तैयार करने वाला बढ़ई। फिशर भी प्रिंटिंग प्रेस में काम करता था। जार्ज एंजिल खिलौने बेचता था। ऑस्कर नीबे के अनुसार, ‘एंजिल मजदूर वर्ग के संघर्ष का एक बहादुर सिपाही था। वह मेहनतकशों की मुक्ति के लिए जी–जान लड़ा देने वाला बागी था।’ सेमुअल फील्डेन कारखाने में सामान की ढुलाई करने वाला साधारण मजदूर था। वह कहा करता था, ‘लिखने–पढ़ने वालों के बीच से अगर कोई क्रांतिकारी बन जाए तो आमतौर पर उसे गुनाह नहीं माना जाता। लेकिन अगर कोई गरीब क्रांतिकारी बन जाए तो वह भयंकर गुनाह हो जाता है।’ लुईस लिंग्ग बढ़ई था। विचारों से अराजकतावादी लिंग्ग के क्रांति रग-रग में बसी थी। वह कहा करता था, ‘मजदूरों को दबाने के लिए ताकत का इस्तेमाल किया जाता है। इसलिए उसका जवाब भी ताकत से ही दिया जाना चाहिए।’ माइकल श्वाब बुकबाइंडर था। ऑस्कर नीबे साधारण मजदूर संगठनकर्ता था। दिल का साफ और सरल। उसकी खमीर बेचने वाली एक दुकान में भागीदारी थी।
आठों पर हत्याओं का आरोप था। लेकिन एक को भी बम फैंकने का आरोपी नहीं बताया गया था। बम वास्तव में किसने फैंका था, यह कभी पता नहीं चल सका। साफ था कि अदालत को उन नेताओं के कारनामे से ज्यादा उनकी विचारधारा से चिढ़ थी। हालांकि केवल ऊपर दिए गए नामों में से मात्र 3 नेता ही घटनास्थल पर मौजूद थे। बावजूद इसके जज जोसेफ ई. गैरी की अध्यक्षता में जूरी का गठन किया गया था, जो एक प्रतिक्रियावादी राजनेता था। अदालत ने उन सभी को फांसी की सजा सुनाई। यह वही अमेरिका था जिसने अपने संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ससम्मान अपने संविधान में जगह दी थी, और उसके लिए अपनी पीठ थपथपाता था। उसी अमेरिका में 8 लोगों को फांसी की सजा इसलिए सुनाई गई थी, क्योंकि वे खास विचारधारा में विश्वास रखते थे। लोकतांत्रिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सबसे बड़े दावेदार अमेरिका के लिए तो वह कलंक जैसा था। यह हुआ क्योंकि वहां का लोकतंत्र पूंजीपतियों के कब्जे में जा चुका था। जूलिस ग्रिनेल्ल जिसकी राजनीतिक संपर्क किसी से छिपे न थे, को मुदकमे का एटोर्नी बनाया गया था। जूरी के सामने अपने तर्क का समापन उसने इन शब्दों में किया था—
‘यह कानून की परीक्षा है, अराजकता की परीक्षा है। इन लोगों को जिन्हें सामने लाया गया है, जिन्हें इस महान जूरी द्वारा अभियुक्त ठहराया गया है, और चिन्हित किया गया है, क्योंकि वही नेता थे। ये उन हजारों लोगों से बड़े अपराधी नहीं हैं जो इनका अनुसरण करते हैं। जूरी के माननीय सदस्यो, इन लोगों को दंडित करो। फांसी पर लटकाकर इन्हें दूसरों के लिए नजीर बनाओ, और हमारी संस्थाओं और हमारे समाज की रक्षा करो।36
11 नवंबर 1887 को पार्सन्स, स्पाइस, जार्ज एंगेल्स और एडोल्फ फिशर को मृत्युदंड दे दिया गया। लुईस लिंग्ग ने जल्लाद को फांसी लगाने का मौका तक नहीं दिया। उसने अपने मुंह में विस्फोटक दबाकर खुद को उड़ा दिया था। विस्फोटक सिगार की आकृति में लाया गया था। लाने वाला लिंग्ग का करीबी दोस्त था। जिस दिन उन्हें दफनाया गया, उस दिन उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए 600000 लोग शिकागो की सड़कों पर थे। फील्डेन, नीबे और श्वाब की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। पूंजीवादी मीडिया ने, जिसे बुद्धिजीवियों ने मुख्यधारा का मीडिया कहना आरंभ कर दिया था, अराजकतावाद, समाजवाद आदि की इतनी आलोचना की कि इन्हें अमेरिका के लिए निषिद्ध मान लिया गया। मुदकमें के दौरान आठों अभियुक्तों को अदालत को संबोधित करने का अवसर मिला था। फील्डेन ने तीन घंटे समाजवाद सहित मजदूरों की समस्या पर भाषण दिया था। उसने कहा था—
‘‘आज, ठंडी मनभावन हवाओं के साथ शरत्काल की रुपहली किरणें हर आजाद ख्याल इंसान के चेहरे को स्पर्श कर रही हैं। लेकिन मैं यहां अपने चेहरे को फिर कभी सूर्य-रश्मियों में स्नान न कराने के लिए खड़ा हूं। मैं अपने साथियों से प्यार करता हूं। मैं अपने आप से प्यार करता हूं। मैं धोखेबाजी, बेईमानी और अन्याय से नफरत करता हूं। यदि इससे कुछ भला होगा, तो मैं मुक्त भाव से इन्हें अपना लूंगा।’
स्पाइस का भाषण जोशीला था—
‘यदि तुम सोचते हो कि हमें फांसी पर चढ़ा देने से तुम मजदूर आंदोलन को दबा दोगे, तब बुलाओ अपने जल्लाद को….तुम इसे नहीं समझ सकते।’
नीबे;
‘ठीक है, यह सब अपराध था मैं मान लेता हूं: मैंने मजदूर आंदोलनों को संगठित किया था। मैं कार्यघंटों को सीमित कराने को, मजदूरों की शिक्षा को, श्रमिकों के अखबार दाई आर्बीटर जाइटुंग को नए सिरे से आरंभ करने को समर्पित था। इसका कोई प्रमाण नहीं है कि बम फेंकने से मेरा कोई संबंध है, या मैं उसके पास था, या मैंने कुछ वैसा किया था।’
फिशर;
‘इन मांगों के लिए जितने ज्यादा लोग फांसी पर चढ़ाए जाएंगे, विचार उतनी ही जल्दी हकीकत बन जाएंगे।’
पार्संस;
‘मैं उनमें से एक हूं, यद्यपि मैं वृत्तिक–दास हूं, जो मानता है कि यह मेरे लिए अपराध है, मेरे पड़ोसी के लिए गलत है….मेरे लिए यह….गुलामी से पीछा छुड़ाने अपना स्वामी आप बनने के लिए था….अनंत आकाश के नीचे यह मेरा इकलौता अपराध है।
एंजिल;
‘मैं भी ऐसे बहुत कुछ ऐसे व्यक्ति की तरह हूं, वर्तमान से टकराने से बचने की सोचता है। प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को ऐसी सत्ता से जूझना चाहिए तो एक आदमी को कुछ ही वर्षों में विलासी और जमाखोर बना देती है, दूसरी ओर हजारों बेरोजगार आवारा और भिखमंगे बना दिए जाते हैं।’
श्वाब ने अराजकतावाद को परिभाषित करते हुए कहा था—
‘ऐसे समाज में जिसमें केवल सरकार को नीतिसंगत कहा जाता हो, ऐसे समाज में(बदल देना) जिसमें सभी मनुष्य सामान्य हितों के लिए नीतिसंगत कार्य करें और ऐसी चीजों से घृणा करें जो सचमुच घृणा के योग्य हैं।
लिंग्ग पूरी अदालती कार्रवाही के दौरान सबसे निर्भीक सबसे विद्रोही बनकर उभरा था। अपने दिलेर और तिरस्कारपूर्ण भाषण में उसने कहा था—
‘मैं फिर याद दिलाता हूं कि मैं आज के ‘कानून’ का दुश्मन हूं। और मैं फिर से यह दोहराता हूं कि जब तक भी मेरे शरीर में सांस रहेगी, अपनी पूरी शक्तियों के साथ में इससे जूझता रहूंगा। मैं साफ तौर पर, सबके सामने कहता हूं कि मैं बलप्रयोग का हिमायती था। मैंने कैप्टन स्काक से कहा था(जिसने उसे गिरफ्तार किया था) और मैं आज भी उसपर कायम हूं, ‘यदि तुम हम पर गोली चलाओगे, हम तुम्हें बम से उड़ा देंगे। ओह! तुम्हें हंसी आ रही है! शायद तुम सोचते हो, ‘तुम और ज्यादा बम नहीं फेंक सकते।’ परंतु मुझे यह विश्वास है कि मैं फांसी के फंदे पर पर भी इसी तरह खुशी-खुशी चढ़ जाऊंगा और मुझे आपको आश्वस्त करना चाहिए कि सैकड़ों, हजारों लोग ऐसे होंगे जो मेरे इन शब्दों को याद रखेंगे, वे बम फैंकना जारी रखेंगे। इस उम्मीद के साथ मैं आपको कहना चाहूंगा कि मैं आपसे घृणा करता हूं! आपके ‘आदेश’ आपके कानून, बलप्रयोग पर टिकी आपकी सत्ता से नफरत करता हूं। इसके लिए मुझे फांसी पर लटका दिया जाए।’
उन आठों ने अदालत के सामने जो कहा था, वह मुख्यधारा के अखबारों में ठीक उसी भावना के साथ भले ही न आया हो, लेकिन बाद में इश्तहारों, पर्चों और पोस्टरों के रूप में लोगों के बीच फैल गया। आज भी उनके विचार लोगों को प्रभावित करते हैं। दुख की बात यह नहीं है कि लाखों मजदूरों के समर में उतरने के बावजूद अमेरिका में 1 मई, 1886 की क्रांति की नाकाम क्यों रही थी। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जिस अमेरिका ने अब्राह्मम लिंकन के नेतृत्व में दासता को शिकस्त दी थी। जिसके पास थॉमस जेफरसन और मानव थॉमस पेन ने द्वारा तैयार किया गया आधुनिकतम संविधान था। ऐसा संविधान जो नागरिक अधिकारों को राज्य के अधिकारों जितना ही महत्त्व देता था—वह सात–आठ दशक के भीतर ही वह अप्रासंगिक क्यों होने लगा था। क्यों उनके विरुद्ध मजदूरों को कामगारों को खड़ा होना पड़ा जो लोकतंत्र से सर्वाधिक उम्मीद पाले रहते हैं, और जिन्हें उसकी सर्वाधिक आवश्यकता पड़ती है—वहां अराजकतावाद को जमीन कैसे मिली। इस प्रश्न का उत्तर कुछ जटिल हो सकता है। लेकिन यदि हम इसका उत्तर खोज लें तो भारतीय समाज में उभर रहे असंतोष, जिसे कुछ लोग भीड़तंत्र भी कह रहे हैं, का जवाब मिल सकता है।
इस बारे में हम अभी सिर्फ इतना कहना आवश्यक समझते हैं कि अराजकतावाद लोकतंत्र का पुरोगामी दर्शन हैं। लोकतंत्र को न संभाल सकने वाली जनता, अराजकतावादी समाज गढ़ ही नहीं सकती। उसे संभालने के लिए लोकतंत्र से कहीं अधिक प्रबुद्ध जनता चाहिए। उस अवस्था में सत्ता परिवर्तन के लिए हिंसा गैर जरूरी हो जाती है। दूसरे शब्दों में अराजकतावाद का रास्ता लोकतंत्र की बहुविध सफलता से निकल सकता है। ऐसे लोकतंत्र से जो अपने नागरिकों के प्रबोधीकरण को भी आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक विकास जितना ही महत्त्व देता है। अमेरिकी क्रांति की असफलता के पीछे भी उसमें हिस्सेदारी कर रहे नेताओं तथा उनके अनुयायियों की अधूरी समझ थी। वे राज्य की आवश्यकता को समाप्त करने के बजाय, राज्य को ही समाप्त कर देना चाहते हैं। जबकि अराजकतावाद में राज्य समाप्त नहीं होता, अपनी खूबियों के साथ वह नागरिकों के रोजमर्रा के व्यवहार का हिस्सा बन जाता है। वह नागरिकीकरण की उच्चतम अवस्था है। इस बात को शिकागो के भोले-भाले मजदूर समझ ही नहीं पाए थे। इसलिए पूंजीवाद के शिकंजे में जकड़े हुए अमेरिकी राज्य की शक्ति द्वारा कुचल किए गए। अच्छा जनतंत्र चलाने की जिम्मेदारी नेताओं से ज्यादा जनता की होती है। जो जनता नेताओं पर जितनी कम निर्भर होगी, वह उतनी ही लोकतांत्रिक बन सकेगी।
अमेरिका में 8 घंटे के कार्यदिवस की मांग 1836 से आरंभ हुई थी। 1864 में वह अमेरिकी मजदूरों की प्रमुख मांग बन चुकी थी। आखिरकार 1916 एडमसन एक्ट के माध्यम से अमेरिका रेलरोड वर्कर्स के लिए पहली बार 8 घंटे का कार्यदिवस लागू किया गया। फैक्ट्री मजदूरों को यह अधिकार मिला, फेयर लेबर स्टेंडर्डस् एक्ट—1938 के लागू होने के बाद। इस तरह से देखा जाए तो 8 घंटे के कार्यदिवस के लिए मजदूरों को एक शताब्दी से भी लंबा संघर्ष करना पड़ा था। चलते–चलते एक अवांतर–सी चर्चा। अमेरिका में धर्मसंसद का आयोजन 1893 में किया गया था। कहा यह गया था कि धर्मसंसद का आयोजन क्रिस्ठोफर कोलंबस के अमेरिकी महाद्वीप पर पहुंचने की 400वीं सालगिरह के तौर पर मनाया गया था। लेकिन क्या यही एकमात्र कारण था? ध्यान रहे कि हेमार्केट नरसंहार के दौरान ज्यादा नुकसान मजदूर पक्ष को उठाना पड़ा था। लेकिन उससे न तो मजदूर अपनी मांगों को लेकर पीछे हटे थे। न वहां समाजवादी आंदोलन में कमी आई थी। फिर 8 घंटों के कार्यदिवस की मांग और धर्मसंसद का क्या संबंध? सही मायने में तो यह शोध का विषय है। लेकिन जो लोग धर्म के अभिजन चरित्र को जानते हैं, जिन्होंने वोलनी, मोसका और परेतो को पढ़ा है, उनके लिए इस पहेली को सुलझा पाना कठिन नहीं होगा। आखिर क्या कारण है कि जिस अमेरिका में 8 घंटे के कार्यदिवस की मांग के समर्थन में सबसे बड़ी वर्ग–क्रांति ने जन्म लिया था, उस देश में वह मांग 1937 में मानी गई, जबकि दुनिया के छोटे–बड़े दर्जनों देश 1918–19 में ही इसे मान चुके थे?
© ओमप्रकाश कश्यप
संदर्भ
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2. वही पृष्ठ 3
3. वही, पृष्ठ 3
4. वही, पृष्ठ 4
5. जे. डेविड सेकमेन, मे डे एंड दि स्ट्रगल फॉर दि एट आवर डे इन कैलीफोर्निया
6. अलेक्जेंडर ट्रेक्टनबर्ग, दि हिस्ट्री ऑफ़ मे डे, इंटरनेशनल पंपलेट, 14, 799 ब्रोडवे, न्यू यार्क, पृष्ठ 6
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9. मिखाइल बकुनिन, लेटर टू फ्रेंचमेन, ऑन दि प्रजेंट क्राइसिस, 1870
10. अलेक्जेंडर ट्रेक्टनबर्ग, दि हिस्ट्री ऑफ़ मे डे, इंटरनेशनल पंपलेट, पृष्ठ 8
11. पॉल एवरिच, दि हेमार्किट ट्रेजेडी, प्रिंस्टन यूनीवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ 182
12. पॉल एवरिच, पृष्ठ 182
13 अलेक्जेंडर ट्रेक्टनबर्ग, दि हिस्ट्री ऑफ़ मे डे, इंटरनेशनल पंपलेट, 14, 799 ब्रोडवे, न्यू यार्क। पृष्ठ 10
14 दि इकोनॉमिक्स पर्फोमेंस इंडेक्स, इंटरनेशनल मोनेटरी फंड, वादिम खरामोव एंड जॉन राइडिंग्स ली, अक्टूबर 2013
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18. अलेक्जेंडर ट्रेक्टनबर्ग, दि हिस्ट्री ऑफ़ मे डे, इंटरनेशनल पंपलेट, 14, 799 ब्रोडवे, न्यू यार्क, पृष्ठ 10-11.
19. ऐरिक चेज द्वारा उद्धृत, दि ब्रीफ ओरीजिंस ऑफ़ मे डे, 1993
20. लुईस एडामिक, डायनामाइट : स्टोरी ऑफ़ क्लास वायलेंस इन अमेरिका, 1931, पृष्ठ-69
21. लुईस एडामिक, पृष्ठ-69
22. न्यू यार्क टाइम्स, 20 जुलाई 1886
23. पॉल एवरिच, दि हेमार्किट ट्रेजेडी, पृष्ठ 75
24. पॉल एवरिच, दि हेमार्किट ट्रेजेडी, पृष्ठ 75
25. ऐरिक चेज द्वारा उद्धृत, दि ब्रीफ ओरीजिंस ऑफ़ मे डे, 1993(कुछ स्थानों पर यह संख्या 400000 दी है)
26. अलेक्जेंडर ट्रेक्टनबर्ग, पृष्ठ-11
27. मिशेल जे. स्काक, अनार्की एंड अनार्किस्ट, एफ. जे. स्कल्ट एंड कंपनी, न्यू यार्क, 1889, पृष्ठ-83
28. अनार्किस्ट ओरीजिन ऑफ़ मे डे, लीफलेट बाई वर्कर्स सोल्डरिटी मूवमेंट.
29. हॉवर्ड फ़ास्ट, शिकागो के शहीद मजदूर नेताओं की कहानी, राहुल फाउंडेशन, पृष्ठ-16
30. लुईस एडामिक, डायनामाइट : स्टोरी ऑफ़ क्लास वायलेंस इन अमेरिका, 1931, पृष्ठ-70
31. लुईस एडामिक, डायनामाइट, पृष्ठ-71
32. लुईस एडामिक, डायनामाइट, पृष्ठ-71
33. लुईस एडामिक, डायनामाइट, पृष्ठ-71
34. लुईस एडामिक, डायनामाइट, पृष्ठ-74
35. उपर्युक्त, पृष्ठ-74
36. उपर्युक्त, पृष्ठ-72