प्लेटो के आदर्शलोक में शिक्षा नीति : लैंगिक समानता का प्रथम स्वप्न

राज्य की एकता और अखंडता सर्वोपरि है. इसके लिए प्लेटो ने सुझाव दिया था कि राज्य का आकार कभी भी तय सीमा से अधिक नहीं होना चाहिए. लोगों को अपने विकास के, तरक्की के अवसर भी मिलने चाहिए. इसके लिए उचित होगा कि प्रशासन को समानता के दायरे में रखा जाए. उसमें किसी भी प्रकार का वर्गीय विभाजन, ऊंचनीच की भावना नहीं होनी चाहिए. लोगों में कर्तव्यभावना जाग्रत हो, उनमें इतना विवेक हो कि वे राज्य के कल्याण के लिए आवश्यक नियमकानून बना सकें. वे शारीरिक रूप से स्वस्थ और मजबूत हों, ताकि युद्धकाल में शत्रु के समक्ष मोर्चे पर डटे रह सकेंइसके लिए प्लेटो शारीरिक और बौद्धिक दोनों ही प्रकार की शिक्षा पर जोर देता है.

शिक्षा के बारे में उसके विचार आधुनिक के करीब तथा किसी भी प्रकार के पूर्वग्रह से मुक्त थे. वह समाज में स्त्रीपुरुष के बीच किसी भी प्रकार के भेदभाव को अस्वीकार करता था. उसका मानना था कि स्त्री और पुरुष बराबर हैं. इसलिए स्त्रियों को भी पुरुषों के समान पढ़नेलिखने के अवसर मिलने चाहिए. उन्हें समाज के सर्वश्रेष्ठ संरक्षकों के अधीन रखा जाना चाहिए, जो उनके साथ समानतापूर्ण व्यवहार कर सकें. उल्लेखनीय है कि प्लेटो से जीवनकाल में एथेंस में स्त्रीपुरुष अधिकारों में काफी अंतर था. स्त्रियों को पुरुषों से अलग, एकांत स्थल पर रहना पड़ता था. सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेने की उन्हें मनाही थी. समाज में भी उन्हें केवल कामेच्छापूर्ति तथा संतानोत्पत्ति का साधन माना जाता था. ऐसे में प्लेटो ने खुलकर लिखा था कि उन्हें पुरुषों के समान ही शिक्षा तथा अन्य अवसर प्राप्त होने चाहिए, ताकि वे भी अपना विकास कर सकें. प्लेटो का यह विचार इस भावना से प्रेरित था कि मनुष्य की आत्मा ही महत्त्वपूर्ण है, वही ‘शुभ’ की संरक्षक है. लेकिन वह एक उभयलिंगी सत्ता है. हालांकि उसने माना कि स्त्री और पुरुष की स्वभावगत भिन्नताएं और शारीक्षिक क्षमताएं अलगअलग हो सकती हैं. सामान्यतः ये समाज और स्थानीय लोकाचारों में अंतर का परिणाम होती हैं. तथापि यह भेद कहीं से भी प्राकृतिक नहीं है. अतः समाज को स्त्री के साथ बजाय किसी प्रकार का भेदभाव करने के, उन्हें वे सभी अवसर देने चाहिए जो उनके मानसिक और शारीरिक विकास के लिए अत्यावश्यक हैं.

प्लेटो ने यह भी स्वीकार किया था कि स्त्री और पुरुष को साथसाथ शिक्षा देने, साथसाथ व्यायाम कक्षाओं में हिस्सा लेने की अनुमति देने से कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां उत्पन्न हो सकती हैं. सामान्य लोकाचार के विपरीत होने के कारण लोग आरंभ में उनका उपहास भी उड़ा सकते हैं. एक प्रश्न के उत्तर में वह उन स्थितियों पर भी विचार करता है जब लड़के और लड़की को साथसाथ व्यायाम करते देख, विशेषकर जब लड़कियां अर्धनग्न अवस्था में व्यायामरत हों, उत्पन्न हो सकती हैं. उस अवस्था में लड़के उनका उपहास भी कर सकते हैं. यदि स्त्री वुजुर्ग अथवा देखने में असुंदर है तो इसकी संभावना अधिक भी हो सकती है. इसके बावजूद व्यापक हित में उन्हें मात्र इसी कारण से शारीरिक और अकादमिक शिक्षा से वंचित नहीं किया जाना चाहिए.

रिपब्लिक’ के पांचवे खंड में वह स्त्रीपुरुष की शारीरिक एवं मानसिक भिन्नताओं पर चर्चा करता है और इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि ये आभासी हैं. पांचवे खंड में एडीमेंटस, पोलीमार्क्स और ग्लुकोन के साथ चर्चा में हिस्सा ले रहा सुकरात कहता है कि जिस प्रकार घर की देखभाल के लिए कुत्ते का चयन करते समय यह नहीं देखा जाता कि वह नर है अथवा मादा, केवल उसके गुणों पर ध्यान पर रखा जाता है, इसी प्रकार सामाजिक दायित्वों के अनुपालन के लिए भी स्त्री और पुरुष के भेद को नजरंदाज किया जाना चाहिए. यदि फिर भी कोई मानता है कि स्त्री और पुरुष की कार्यक्षमताओं में अंतर होता है तो भी कार्यविभाजन के समय इस अंतर की उपेक्षा की जानी चाहिए. प्लेटो ने सुकरात से कहलवाया है—

और यदिस्त्री और पुरुष की देहयष्टि, उसके कार्य अथवा प्रदर्शन में यदि कोई अंतर लक्षित भी होता है, तो हम यह कहते हैं कि उस कार्य अथवा प्रदर्शन का दायित्वभार उनमें से ही किसी अन्य को सौंप दिया जाना चाहिए(जो उस कार्य को करने में अधिक निपुण हों). लेकिन वह अंतर यदि सिर्फ बाहरी पहनावे और देहरचना तक सीमित है तो इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि स्त्री पुरुष से भिन्न अथवा कमतर है तथा उसको किसी क्षेत्रविशेष में शिक्षित किया ही नहीं जा सकता, इसलिए हमें अपने अभिभावकों तथा उनकी पत्नियों को एक ही स्तर की शिक्षा देनी चाहिए. इस मामले में किसी भी प्रकार का भेद करना अनुचित एवं न्याय भावना के विरुद्ध होगा.’

ऐसा नहीं है कि अपने विचारों में प्लेटो ने सर्वत्र उदारता ही बरती हो. यदि ऐसा होता तो आज से करीब चौबीस सौ वर्ष पहले ही यूनान में वास्तविक लोकतंत्र को बढ़ावा मिलता है. कम से कम उस दिशा में मौलिक चिंतन कुछ तो आगे बढ़ता. दरअसल प्लेटो और सुकरात दोनों ही स्पार्टा की सादगी से बेहद प्रभावित थे. एक युद्धसमर्पित समाज बनाने के लिए स्पार्टा ने अपने नागरिकों से उनका निजी जीवन छीन रखा था. परंतु प्लेटो के लिए व्यापक राज्य हितों के लिए यह बलिदान बहुत मामूली था. यद्यपि सादगी की कीमत वहां के नागरिकों को अपने अस्मिताबोध से चुकानी पड़ती थी. राज्यहित के आगे वहां व्यक्तिहितों को गौण माना जाता था. यही नहीं, व्यक्ति को अपनी महत्त्वाकांक्षाएं, जीवन की खुशियां, यहां तक कि अपनी पारिवारिक पहचान भी राज्य के पक्ष में भुलानी पड़ती थी. प्लेटो सुदृद्ध राजनीतिक तंत्र के पक्ष में था. इसके लिए राज्य का अधिनायकवादी रवैया भी उसको स्वीकार्य था. शिक्षा, कला, स्वास्थ्यरक्षण आदि के प्रति वह इसलिए आग्रहशील है. क्योंकि वह केंद्र की मजबूती और खुशहाली के लिए भी अत्यावश्यक है. प्लेटो की निगाह में राज्य के आगे व्यक्ति की अपनी इच्छाआकांक्षाएं अर्थविहीन है. यहां तक वह बच्चों को भी उनके मातापिता से अलग राज्य के संरक्षण में इस प्रकार पाले जाने का अनुमोदन करता है, ताकि मातापिता और संतान में से कोई भी परस्पर पहचान न सके. प्लेटो की अंतिम संवादिका है—‘लॉज’. जिसमें वह ऐसी सलाह देता है, जो आधुनिक समाज में शायद ही मान्य हो. हालांकि उन दिनों स्पार्टा में ऐसी वही व्यवस्था थी, परंतु प्लेटो का इसे समर्थन इसलिए हैरान करने वाला है, क्योंकि वह संभवतः पहला विचारक है जो स्त्रीपुरुष समानता के पक्ष में आवाज उठाता है. स्त्री की शिक्षा एवं स्वास्थ्यरक्षण की अनिवार्यता पर जोर देते हुए वह लिखता है कि—

अभिभावक वर्ग की पत्नियां तथा उनकी संतान संयुक्त होनी चाहिए. इस तरह कि किसी भी मातापिता को उसकी संतान के बारे में कोई जानकारी न हो, न ही कोई बालक अपने मातापिता के बारे में जान पाए.’

यह संदेह व्यक्त करने पर कि पत्नियों और बच्चों के संयुक्त रहने पर क्या विवाद नहीं होंगे? प्रत्युत्तर में प्लेटो आश्वस्त करता है कि स्थिति ठीक इसके विपरीत होगी. पत्नी और संतान के एक होने से लोगों के बीच परस्पर अधिक भाईचारा, विश्वसनीयता और पारिवारिकता भी पनप सकती है, जो उन्हें एकदूसरे से सहयोग के लिए प्रेरित करेगी. संयुक्त पत्नियों और बच्चों की परिकल्पना के पीछे प्लेटो की असली मंशा अभिभावक वर्ग को पारिवारिक संबंधों तथा भावनात्मक बंधनों से मुक्त करने की थी, ताकि वे समाज के प्रति पूर्णतः एकनिष्ठ रहकर अपने दायित्वों का परिपालन कर सकें. उसका मानना था कि बच्चे और पत्नियां संयुक्त होंगे तो निजी संपत्ति की आवश्यकता भी खत्म हो जाएगी. इसलिए उससे बच्चों को राज्य के संरक्षण में रखने का सुझाव दिया था. यह संभावना व्यक्त करने पर कि संयुक्त संतान होने पर बच्चों की उपेक्षा होने लगेगी—प्लेटो की प्रतिक्रिया थी कि इससे लोग बच्चों के लालनपालन पर संयुक्तरूप से अधिक ध्यान देंगे. बालक परिवार की आर्थिक हैसियत से मुक्त एक समानतापूर्ण वातावरण में पलेगा. इसलिए बच्चों के पालनपोषण में कोई कमी नहीं आएगी.

परिवार की अवधारणा को समाप्त करने के पीछे प्लेटो का मानना था कि इससे एक ऐसे स्वयं अनुशासित शासकवर्ग का विकास हो सकेगा जो अधिक संगठित, एकात्मक, सहिष्णु तथा प्रतिद्विंद्वता की भावना से मुक्त हो. स्पार्टा का नागरिक जीवन युद्ध की अनिवार्यताओं से संचालित था. प्लेटो स्पार्टा की समाजव्यवस्था से कितना प्रेरित था. इसका अनुमान उसकी इस मान्यता से भी लगाया जा सकता है कि वह जहां हृष्टपुष्ट बच्चों का विशेष ध्यान देने पर जोर देता है, ताकि वे बड़े होकर अच्छे सैनिक का धर्म निभा सकें. वह शारीरिकमानसिकरूप से कमजोर बच्चों को शेष बच्चों से अलग रखने की सलाह देता है. अपने आदर्श राज्य में प्लेटो विवाहसंस्था को अनावश्यक मानता था. उसका मानना था कि—

समाज में स्त्रीपुरुष की एक संयुक्त जीवनचर्या होनी चाहिए….उनकी शिक्षा संयुक्त रूप से हो, उनके बच्चे संयुक्त परिवेश में रहें. फिर चाहे वे युद्ध पर हों अथवा शांति काल में आम शहरी का जीवन बिता रहे हों—बच्चों का पालनपोषण भी संयुक्तरूप से करें. वे साथसाथ काम करें, ऐसे ही जैसे कि कुत्ते एकजुट होकर शिकार करते हैं. स्त्रियोंपुरुषों के संबंध भी सामूहिक हों तथा वे अपने कर्तव्य का पालन इतनी निष्ठा के साथ करें, जितना कि वे अधिकतम कर सकते हैं. कोई भी कानून का उल्लंघन न करे, कामसंबंधों के प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखा जाए.’

बच्चों के संयुक्त पालनपोषण की परिकल्पना के पीछे उसका विचार था कि इससे लोग अपने बारे में सोचना छोड़कर पूरे समाज के बारे में सोचेंगे. अपने राज्य के बारे में सोचेंगे. शिक्षा के बारे में प्लेटो के विचार अपने समय के किसी भी अन्य विद्वान की अपेक्षा कहीं अधिक प्रगतिशील थे. वह शिक्षा के मामले में किसी भी प्रकार की जोरजबरदस्ती अथवा दबाव का विरोध करता था. उसका मानना था कि—

एक स्वतंत्र व्यक्ति को कुछ भी दबाव में नहीं सीखना चाहिए. अनिवार्य शारीरिक व्यायाम शरीर को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता, किंतु जोरजबरदस्ती की शिक्षा कभी दिमाग में नहीं ठहरतीइसलिए दबाव को छोड़ो, बच्चों को खेलखेल में सीखने दो.’

करीब 2400 वर्ष पहले जब तक यूनानी समाज में नागरिकबोध पर्याप्तरूप से विकसित नहीं हुआ था, प्रायः सभी समाज कबीलों में बंटे थे. उनके बीच आपसी युद्ध और तनातनी सामान्य बात थी. युद्ध के कारण भी मामूली होते थे. मगर उन युद्धों में अनेक निर्दोष मारे जाते थे. जो गिरफ्तार होते, उन्हें विजेता पक्ष दास बनाकर अपने अधिकार में ले लेता था. बाकी जीवन उन्हें इसी गुलामी में बिताना पड़ता था. ऐसे में राज्य में शांतिव्यवस्था बनाए रखना प्रत्येक विचारक की समस्या थी. इसका एक उपाय उन्हें मजबूत केंद्र के रूप में दिखाई देता था. भारत में चाणक्य की भांति प्लेटो भी एक सुदृढ़ केंद्र का समर्थक था. राज्य की संगठित ताकत को कोई खतरा न हो, इसलिए उसका सुझाव था कि राज्य यह ध्यान रखे कि उसके नागरिकों के दिमाग में क्या चल रहा है. खासकर बुद्धिमान लोगों के. स्पार्टा में तो कला, साहित्य आदि जो व्यक्ति को अंतर्मुखी बनाते हैं, को गैरजरूरी माना गया था. प्लेटो स्वयं भी स्पार्टा से प्रभावित था. युवावस्था में प्लेटो ने स्वयं भी प्रेम कविताएं लिखी थीं. शायद इसी लगाव के कारण वह साहित्य और कलाओं का सीधे विरोध तो नहीं करता. वह राज्य को ऐसे लोगों पर नजर रखने की सलाह देता है. उसके अनुसार—

राज्य का सबसे पहला काम होगा गल्पकथा लेखकों पर पाबंदी लगाना, और उसके बाद अच्छी और बुरी गल्पकथाओं का चयन करना, हम चाहेंगे कि माताएं और धाय बच्चों को वही कहानियां सुनाएं जो उनके लिए निर्धारित की गई हैं. उन कहानियों को बच्चों में लोकप्रिय बनाएं जो उनके हाथपैर सक्रिय बनातीं यानी उन्हें परिश्रम करना सिखाती हों. समाज में फिलहाल सुनीसुनाई जा रही कहानियों में से अधिकांश बकवास हैं, इसलिए उनका विरोध किया जाना चाहिए.’

साहित्य और कलाओं में यथार्थवाद का समर्थक प्लेटो प्राचीन यूनानी कवियों होमर और हेसोद की रचनाओं को भी बच्चों के लिए नुकसानदेह मानता है. उसका मानना है कि इन कथाओं को बच्चों को सुनाना उनके आगे ‘झूठ बोलने, बल्कि भद्दा झूठ बोलने जैसा’ है. कलात्मक चित्रकला का विरोध करते हुए उसने कहा था कि चित्रकार अपनी कूंची से प्रकृति का जो चित्र खींचता है, उसका सच से कोई वास्ता नहीं होता. वह जिस फंतासी को अपने चित्र के माध्यम से दर्शाना चाहता है, वह बच्चों को एक ऐसी बनावटी दुनिया से परचाती से है, जो यथार्थ से एकदम परे है. इसलिए बच्चों को ऐसी चित्रकला और कथासाहित्य से दूर रखना चाहिए. सुकरात का विचार था कि बच्चे यथार्थ और कल्पनाजगत में अंतर करने में असमर्थ होते हैं, इस कारण कभीकभी वे कल्पनाजगत को ही वास्तविक संसार मानकर व्यवहार करने लगते हैं. इसलिए प्रारंभ में उन्हें ऐसी कहानियां सुनाई जानी चाहिए जो नैतिक शिक्षा देने वाली हों.

स्मरणीय है कि उस समय प्राचीन यूनान में कला और साहित्य की स्थिति भारत के रीतिकालीन कलासाहित्य के समान थी. यूनानी सम्राट प्रतिष्ठित कलाकारों एवं दार्शनिकों को अपने आश्रय में रखते थे. ऐसे उपकृत विद्वान अपनी प्रतिभा का उपयोग अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने के लिए करते थे. प्लेटो ने ऐसे साहित्य को बच्चों से दूर रखने को कहा है. उसका मानना था कि सभी मनुष्य अपने आप में अपूर्ण हैं और उनके अनेक लक्षण जानवरों से मिलतेजुलते हैं. मगर वह यह भी मानता कि शिक्षा के माध्यम से मनुष्य अपने आप को ऊपर उठा सकता है.

© ओमप्रकाश कश्यप

समाजवाद का उत्तरपक्ष

प्रश्न है कि इकीसवीं शताब्दी के आरंभ में समाजवाद को कैसे लिया जाए? क्या राजनीतिक दर्शन के रूप में यह आज भी प्रासंगिक है? विशेषकर ऐसे समय में जब पूंजी का बोलबाला हो और उसके समर्थक अर्थविज्ञानी समाजवाद को डूबा हुआ जहाज मान चुके हों. समाजवाद का समर्थन करते आए विद्वानों में हताशा का माहौल हो. मनुष्यता की कीमत पर प्राप्त आधुनिक सुखसुविधाओं के आगे वह नतमस्तक हो. दरअसल उनीसवीं शताब्दी के मध्याह्न तक समाजवाद का ग्राफ जितनी तेजी से ऊपर चढ़ा, वाद में उतनी ही तेजी से नीचे खिसकता गया. एकएक कर उसके गढ़ पूंजीवाद के गाल में समाते चले गए. सोवियत संघ का बिखराव उसके ताबूत की अंतिम कील साबित हुआ. रही सही कसर चीन ने पूंजीवाद की गोद में शरण लेकर पूरी कर दी. मात्र ढाईतीन दशक पहले तक दुनिया की आधी आबादी के सपनों में छाया रहने वाला समाजवाद आज उजड़ा हुआ दयार है, जिसपर बात करना भी बौद्धिक पिछड़ापन माना जाने लगा है. हालांकि बौद्धिक रूप से आज भी उसका तेज ज्यों का ज्यों है.

हालांकि हताशा के कठिन दौर में भी पूंजीवाद के विकल्प के रूप में समाजवाद की भावना से औतप्रोत नित नए विचार सामने आ रहे हैं. पूंजीवादी शोषण से खिन्न और उसके असंतुष्टों का दायरा बढ़ता ही जा रहा है. यह विरोध विश्व के अलगअलग क्षेत्रों में भिन्नभिन्न प्रकार से, स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप आकार ले रहा है. यह अनायास नहीं है कि उनीसवीं और बीसवीं शताब्दी के प्रायः सभी मौलिक विचारक, साहित्यकार, दार्शनिक और वैज्ञानिक समाजवाद के समर्थक रहे हैं. इनमें जान स्टुअर्ट मिल, बट्रेंड रसेल, आ॓स्कर वाइल्ड, अल्बर्ट आइंस्टाइन, जा॓न रस्किन, एमाइल दुर्खीम, अंतोनियो ग्राम्शी, रोजा लेक्जमबर्ग, पीटर क्रोप्टोकिन, थोरो, चे ग्वेरा, चार्ल्स डिकेंस, आ॓स्कर वाइल्ड जैसे लेखक, विचारक समाजवाद के समर्थक रहे हैं. इस अवधि में पूंजीवाद यदि मजबूत हुआ तो समाजवाद ने भी स्वयं को नएनए विचारों से लैस किया है. पूंजीवाद के एक से बढ़कर एक विकल्प वह लाया है, भले ही उनकी पहुंच कुछ देशों, समाजों, समूहों तक सीमित हो और पूंजीवाद की खाकर रातदिन गाल बजाने वाला मीडिया उसकी पहुंच और प्रभावक्षेत्रों की लगातार उपेक्षा करता आ रहा होफिर भी दुनिया के प्रायः सभी क्षेत्रों में उसकी सार्थकसशक्तसारगर्भित उपस्थिति है. इस बीच पूंजीवाद और समाजवाद की बीच भी परस्पर आदानप्रदान हुआ है. समाजवादी हलचलों से प्रेरणा लेते हुए पूंजीवाद ने स्वयं को उदार बनाया है तथा श्रमिक बीमा, स्वास्थ्य बीमा, आवास जैसी सुविधाएं भी जोड़ी हैं, हालांकि उनकी पहुंच सीमित क्षेत्रों तक है और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को अभाव और शोषण की स्थितियों में जीना पड़ता है.

दूसरी ओर पूंजीवाद से प्रेरणा लेते हुए समाजवाद ने भी अपनी उग्रता को कुछ कम किया है. मानवस्वातंत्र्य के पक्ष में समाजवाद और लोकतंत्र की नजदीकियां बढ़ी हैं, जिसका सुफल समष्ठिवाद, सहजीवितावाद, गणतांत्रिक समाजवाद जैसे नए समाजार्थिक दर्शन हैं, जो राज्य के समानांतर अथवा उसके बिना भी स्वतंत्रता और समानता के लक्ष्य को पाने के लिए संकल्पबद्ध हैं. उत्पादन के पूंजीवादी तरीकों, यहां तक कि सघन उत्पादन तकनीक से उसको परहेज नहीं है. गणतांत्रिक समाजवाद का समर्थन तो घोर पूंजीवादी देशों में भी किया जाने लगा है. कई बार तो पूंजीवाद अपनी असल मंशा छिपाने के लिए भी गणतांत्रिक समाजवाद का नारा लगाने लगता है. समाजवाद सैद्धांतिक वादविवाद में पड़ने के बजाय अब सीधे कार्रवाही में विश्वास करने लगा है. हालांकि विश्व में युवा मार्क्स और माओ जिदांग को आदर्श मानने वाले उग्र साम्यवादियों की कमी नहीं है, तो भी उसके आधुनिक संस्करण जैसे समष्ठिवाद, श्रमिकसंघवाद आदि हिंसा से सुरक्षित दूरी बनाए रखने में विश्वास रखते हैं. पूंजीवाद को टक्कर देने में समर्थ सहकारिता आंदोलन भी किसी न किसी रूप में इसी भावना से संचालित हैं. दूसरी ओर पूंजीवाद से सम्मोहित ऐसे अमेरिकापरस्त विचारकों की भी कमी नहीं है, जो गर्व से कभी ‘इतिहास का अंत’ तो कभी ‘विचारधारा का अंत’ जैसी घोषणाएं करते रहते हैं.

इधर कुछ विद्वान कह रहे हैं कि गणतांत्रिक समाजवाद राजनीतिकसमाजार्थिक चिंतन की पराकाष्ठा है. विचारहंस इससे ऊंची उड़ान नहीं भर सकता. इससे बेहतर अर्थदर्शन कुछ भी संभव नहीं. ऐसे विद्वानों की भी भारी संख्या है जो पूंजीवाद पर अटूट भरोसा रखते हैं और मानते हैं कि ऊपरी वर्ग की समृद्धि वहीं नहीं टिकी रहेगी, वह रिसकर निचले स्तर की ओर जाएगी. इससे प्रकारांतर में गरीबी हटेगी. समाज में समृद्धि आएगी.ऐसे विद्वानों की संख्या भी बहुतायत में है जो गणतांत्रिक समाजवाद को पूंजीवाद का छल मानते हैं. उनके अनुसार गणतांत्रिक समाजवादी और कुछ नहीं, बल्कि पूंजीवाद का लोकलुभावन चेहरा है. जबकि गणतांत्रिक समाजवादियों का मानना है कि हिंसा अथवा सर्वहारा क्रांति द्वारा आर्थिकराजनीतिक शक्तिकेंद्रों पर बलात् अधिकार जमा लेने से वास्तविक और स्थायी परिवर्तन संभव नहीं. आवश्यकता है कि आर्थिकराजनीतिक असमानता को दूर करने हेतु ठोस राजनीतिकसामाजिक परिवर्तन का सहारा लिया जाए.मानवमात्र की मूलभूत अच्छाई में विश्वास रखते हुए वे हिंसा के बजाय हृदयपरिवर्तन को प्राथमिकता देते हैं. गणतांत्रिक समाजवादी पूंजीवाद के प्रति आलोचनात्मक रुख अपनाते हैं, मगर उनका मानना है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा पूंजीवाद की उग्रता को समाप्त करना संभव है. चाल्र्स एंथनी क्रासलेंड(1918—1977) जैसे अर्थविज्ञानी इस विचारधारा के समर्थक हैं. उनका मानना है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पूंजीवाद ने स्वयं को बदला है तथा बदली हुई परिस्थितियों में वह अपेक्षाकृत बड़े लोकहितैषी के रूप में उभरा है. इस आधार पर वह मानता है कि सर्वहारा क्रांति अथवा हिंसा का सहारा लिए बिना भी, पूंजीवादी तरीकों से अर्जित आय के लोकोपकारी कल्याणकार्यक्रमों में निवेश तथा जनसुविधाओं में विस्तार द्वारा सामाजिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है. श्रम सहकारिताएं तथा नागरिक संगठन इस लक्ष्य को और भी आसान बना सकते हैं. इसके लिए वे अधिक आय वाले नागरिकों पर आनुपातिकरूप में अधिक आयकर लगाकर विकास के लिए अपेक्षित पूंजी अर्जित करने का पक्ष लेते हैं. इससे पूंजी का प्रवाह स्वाभाविक रूप से निचले वर्गों की ओर होने लगता है. यह अहिंसक और मंथर क्रांति है, और हृदय परिवर्तन पर आश्रित होने के कारण अपेक्षाकृत अधिक स्थायी है. अपने समर्थन के लिए वे विद्वान जान स्टुअर्ट मिल के स्वाधीनतावादी समाजवाद का भी उदाहरण देते हैं. मिल का कहना था कि गणतांत्रिक समाजवाद असल में मुक्त उपभोक्तावाद को मान्यता दिए जाने जैसा है, लेकिन यदि इससे व्यक्तिमात्र की स्वाधीनता की रक्षा होती है तो इसमें कुछ अनुचित भी नहीं है. अपनी पुस्तक ‘दि प्रिंसिपल्स आ॓फ पा॓लिटिकल इकानामी(1848)’ के परिवर्धित संस्करण में मिल ने कहा था—

जहां तक आर्थिक विचारधारा का प्रश्न है, अर्थशास्त्र के सिद्धांतों में ऐसा कुछ नहीं है, जो किसी समाजवादी रणनीति पर आधारित विचारधारा को प्रतिबंधित करता हो.’

गणतांत्रिक समाजवाद को अमेरिका में भी भरपूर समर्थन मिला. विशेषकर शीत युद्ध के दौर में अमेरिकी अर्थशास्त्री सोवियत संघ की आलोचना के लिए इस विचारधारा को मान्य ठहराते रहे. लेकिन यह उनकी तात्कालिक कूटनीति का हिस्सा था. इसलिए सोवियत संघ के पतन के बाद उसने समाजवाद से पूरी तरह किनारा कर लिया है. लेकिन इससे यह मान लेना अनुचित होगा कि अमेरिका में समाजवाद के लिए कोई स्थान ही नहीं है. वहां समाजवादी आंदोलन की शुरुआत उनीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में ही हो चुकी थी. अमेरिकी समाजवादियों के आमंत्रण पर ही राबर्ट ओवेन वहां पहुंचा था और उसने जोसीह वारेन जैसे सहयोगियों को साथ लेकर सहजीवन पर आधारित बस्तियां बसाने का निर्णय किया था. ‘न्यू हार्मोनी’ वहां सहकारिता के दर्शन पर आधारित पहली बस्ती थी. ‘सोश्लिस्ट लेबर पार्टी’ का गठन वहां पर 1876 में हुआ. 1901 में वहां ‘सोश्यिलिस्ट पार्टी आ॓फ अमेरिका’ का गठन किया गया. अमेरिकी बहुमत की पसंद भले ही समाजवाद कभी नहीं बन सका, लेकिन एक सशक्त विपक्ष के रूप में उसकी 1901 के बाद से निरंतर उपस्थिति रही है. कई राष्ट्रपति चुनावों में कई बार पार्टी के प्रतिनिधि पूंजीवाद समर्थित उम्मीदार को जबरदस्त टक्कर दे चुके हैं. औद्योगिक सुधार के लिए कई सफल हड़तालें समाजवादियों के नाम रही हैं. लेकिन अमेरिका में समाजवाद की लोकप्रियता को लेकर सबसे चौंकाने वाले परिणाम रासम्सेन रिपोर्ट में सामने आए. 2007 की भीषण आर्थिक मंदी के के प्रभाव के आकलन के लिए रासम्सेन की अध्यक्षता में एक सर्वे कराया गया था. अपनी रिपोर्ट में समिति ने अमेरिका में समाजवाद के प्रति बढ़ते रुझान की ओर संकेत किया था. रिपोर्ट के अनुसार यद्यपि 53 प्रतिशत अमेरिकी नागरिक पूंजीवाद को बेहतर मानते हैं, समाजवाद के समर्थन में मात्र 20 प्रतिशत नागरिक थे और 27 प्रतिशतों ने अपनी स्पष्ट राय जताने में असमर्थता प्रकट की थी. लेकिन इससे इतना तो स्पष्ट है कि दुनिया में पूंजीवाद का डंका बजाने वाले अमेरिका में उसके विरुद्ध माहौल बनता जा रहा है. वहां लगभग आधे लोग ऐसे हैं जो पूंजीवाद के या तो सीधे विरोध में हैं अथवा उसकी उपयोगिता को लेकर सुनिश्चित नहीं हैं. सर्वे का सबसे चौंकाने वाला निष्कर्ष यह था कि 30 वर्ष से कम के युवकों में से मात्र 37 प्रतिशत नागरिक पूंजीवाद के पक्ष में थे. शेष 33 प्रतिशत समाजवाद के और लगभग 30 प्रतिशत अनिर्णय की स्थिति में थे. उल्लेखनीय है कि रासम्सेन द्वारा जो प्रश्नावली सर्वे के लिए नागरिकों में दी गई थी, उसमें पूंजीवाद और समाजवाद को परिभाषित नहीं किया गया था और अमेरिका में समाजवाद का अर्थ प्रायः ‘गणतांत्रिक समाजवाद’ से ले लिया जाता है. जो कम से कम गणतंत्र के बारे में पूंजीवाद से निकट संबंध रखता है.

आशय है कि राज्य के स्तर पर अमेरिका में भले ही पूंजीवाद फलफूल रहा हो, मगर वहां लोकतंत्र आधारभूत संस्थाओं ने नागरिकों को अपने हितानुरूप समानांतर संगठन चलाने का प्रशिक्षण भी दिया है. इसलिए वहां सहजीवितावाद, श्रमिकसंघवाद, समष्ठिवाद जैसे समाजवाद के आधुनिक रूप भी जहांतहां अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं. चूंकि वहां जनजीवन में पर्याप्त समृद्धि है, इसलिए थोड़ीबहुत शिकायतों से अधिक नागरिक असंतोष वहां नहीं पनप पाता. लेकिन प्रकट रूप में अमेरिका की नीति पूंजीवाद को प्रश्रय देने की है, ताकि दुनियाभर में फैली उसकी पूंजीवादी कंपनियों को बढ़ावा मिले. वहां के पूंजीवाद समर्थित अर्थशास्त्रियों के लिए समाजवाद और फासीवाद में कोई अंतर ही नहीं है. अमेरिकी अर्थनीति के समर्थन में नोबल पुरस्कार विजेता अमेरिकी अर्थशास्त्री फ्रैड्रिक आ॓गस्ट हायक के विचारों की व्याख्या करते हुए ‘फ्यूचर फ्रीडम फाउंडेशन’ के अध्यक्ष जेकब हा॓नबर्गर लिखते हैं—

नाजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद तथा फासीवाद की अर्थनीतियों तथा कल्याण राज्य अमेरिका की नियंत्रित अर्थनीति में कोई अंतर नहीं है.’

क्या सचमुच नाजीवाद, फासीवाद और समाजवाद में कोई अंतर नहीं है? क्या सचमुच समाजवाद की डगर अंततः तानाशाही की ओर ले जाती है? इन्हीं के बीच से एक प्रश्न उभरता है कि क्या समाजवाद का कोई भविष्य है? इस प्रश्न एक स्वाभाविक प्रश्न और जुड़ा हुआ है कि क्या समाजवाद का अपना कोई अतीत था? एक राजनीतिक दर्शन के रूप में समाजवाद का उदय और पूंजीवाद का जन्म लगभग साथसाथ हुआ. दोनों मानवमात्र को सुखी देखना चाहते हैं. दोनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक हैं तथा व्यक्ति को स्वतंत्र इकाई मानते हैं. दोनों का दावा मानवमात्र को अधिकतम सुख पहुंचाने का है. अंतर सिर्फ उत्पादन पर अधिकारिता को लेकर है. पूंजीवाद में आर्थिक संसाधन चंद हाथों तक सिमटे होते हैं. समाजवाद में उत्पादन प्रणाली पर राज्य अथवा श्रमिकों का, जिन्हें वह वास्तविक उत्पादक मानता है—अधिकार होता है. पूंजीवाद में पूंजी के बल पर एक विशेषाधिकार संपन्नवर्ग पनपने लगता है. जो स्वयं निष्क्रिय रहता है, लेकिन उत्पादन के लाभ पर अपना अधिकार जमाए रहता है. कहीं न कहीं उसको यह भय भी होता है कि वास्तविक उत्पादक यानि श्रमिकवर्ग कभी भी अपने अधिकारों के लिए उपस्थित हो सकता है. अतः अपने सुरक्षित भविष्य, सुनिश्चित लाभ हेतु श्रमशक्ति पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए प्रयत्नरत रहता है. इसके लिए वह स्वचालित तकनीक का चयन करता है तथा अपने लाभ का बड़ा हिस्सा तकनीकी शोध पर खर्च करता है, मशीनों की अधिकाधिक मदद करता है, जो उसके लिए उत्पादन की जिम्मेदारी निभाते हुए लाभ में हिस्सेदावेदारों को कम से कम करने का काम करती हैं. हालांकि पूंजीपति जिसको पूंजीवाद के आलोचक निष्क्रिय उत्पादक कहते हैं, वह सदैव निष्क्रिय नहीं होता. वह शारीरिक के बजाय बौद्धिक श्रम में दक्ष होता है. अपनी पूंजी और बुद्धिबल द्वारा वह श्रमिकों से पूरा काम लेता है. वह श्रमिकों को अपना बुद्धिसामर्थ्य उपयोग करने की वहीं तक अनुमति देता है, जहां तक वे उसका हित साधन करते हैं. कहा जा सकता है, कि पूंजीवाद में समाज का बौद्धिक सामथ्र्य कुछ व्यक्तियों का हित सोचने लगता है. सामंतवाद में भी पूंजीवाद की भांति सभी लोगों को अपनी बौद्धिक क्षमताओं का अपने लिए इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जाती. इस कार्य के लिए सामंतवाद धर्म को सहायक बनाता है, जो मनुष्य का ध्यान इहलौकिक समस्याओं तथा उनके कारणों की ओर से हटाकर अमत्र्य संसार की ओर ले जाते हैं. धर्म भौतिक संसार की आलोचना करता है, ऐंद्रियक सुखों को छलावा बताता है. इसके लिए उनको राजसत्ता का पूरा समर्थन प्राप्त होता है. राजसत्ता से अपनी निकटता का लाभ उठाकर धर्मसत्ता के शीर्ष पर विराजमान लोग स्वयं तो ऐंद्रियक सुखों में डूबे रहते हैं, जबकि जनसाधारण को अपरिग्रह और अस्तेय का दर्शन बघारते थे.

सतरहवीं शताब्दी में जब मशीनों ने रोजगार छीनने आरंभ किए तो उनकी आलोचना ने जोर पकड़ा. यह वास्तविक उत्पादक के हाथों में उत्पादन का श्रेय छिन जाने जैसी सामान्य घटना नहीं थी. चूंकि मशीनें त्वरित उत्पादन करती थीं, इसलिए उत्पाद की खपत के लिए नए बाजारों की आवश्यकता थी. नए बाजारों की खोज ने ब्रिटिश उपनिवेशों को जन्म दिया. यह संभवतः पहली बार हो रहा था जब साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं की पहल व्यापारिक दलों की ओर से आरंभ हुई थी. मशीनों ने पहले लोगों के हाथों से रोजगार छीना. उससे पहले मनुष्य औजारों से काम लेता था. लेकिन वे मनुष्य के सहायक की भूमिका निभाते थे. पाषाण युग से ही विकासयात्रा में औजार मनुष्य का हमसफर बने थे. मशीनों ने मनुष्य को उत्पादक के स्थान से बेदखल कर दिया था. पहले उत्पादन पर उनका अधिकार होता था जो अपने श्रमकौशल से उसको संभव बनाते थे. मशीनों ने ऐसे व्यक्तियों को उत्पादक बनाने का काम किया, जिनमें ऐसे कौशल का अभाव था, और जो सिर्फ अपनी पूंजी के बल पर अपने लिए मशीनें खरीद सकते थे. कार्य में प्रवीणता उत्पादक होने की शर्त नहीं रह गई थी. इसलिए ऐसे लोग भी उत्पादक की ओर आकर्षित हुए जो अपनी पूंजी के बल पर उत्पादन का लाभ उठाने को तैयार थे. बाजार की ललक ने लोगों से उनकी जमीनें और प्राकृतिक संसाधन छीनना भी आरंभ कर दिया था. पूंजीपतियों का आग्रह था—तुम हमारे कारखानों में काम करो, हमारे कारखानों में बना माल उपयोग में लाओ, अपनी धरती, अपने संसाधन, अपने सपने और महत्त्वाकांक्षाएं हमें सौंप दो. वे हमारे कारखानों के काम आएंगे. बदले में हम तुम्हें नया सामाजिक बोध देंगे. जिसमें व्यक्ति सिर्फ अपने लिए जीता है. अपने सारों ओर मौजूद लोगों पर संदेह करता है. अंतर्मन में समाए डर से मुक्ति तथा सामाजिकता की तलाश में वह मायावी दुनिया में घुसता चला जाता है.

उल्लेखनीय है कि मायावी दुनिया का यह सच सामंतवादी समाज में भी था. यहां तो काम पूंजीपतियों के पैसे पर पलने वाले समाजविज्ञानी और अर्थशास्त्री और नौकरशाह करते हैं, सामंतवाद में वह पुरोहितवर्ग के जिम्मे था. पूंजीवाद की भांति पुरोहितवाद भी शीर्षस्थ वर्ग के हितों को समर्पित था. पूंजीवादी तकनीक द्वारा रची गई आभासी दुनिया का सपना दिखा लोगों का ध्यान उनकी वास्तविक समस्याओं की ओर से हटाए रखता है. पुरोहित इसके लिए धर्म, स्वर्ग, नर्क जैसी भ्रांत और अतींद्रिय कल्पनाएं रचता है. समाज में उस समय भी शिल्पकार वर्ग का यथेष्ट सम्मान नहीं था. मनुष्य की पहली आवश्यकता भोजन था. और अनाज पर जमींदार का अधिकार होता था. जो यह कहकर कि जिस भूमि पर अनाज उपजा है, वह उसके स्वामित्व में है, अनाज का बड़ा हिस्सा घर ले जाता था. तथा गांवदेहात की बाकी जनता, जिसमें नाई, बुनकर, काष्टकार, लौहकार, चर्मकार, कुंभकार आदि सम्मिलित थे, उन्हें अनाज के छोटे हिस्से से संतोष करना पड़ता था. एक बुनकर से कहीं अधिक उन दिनों भी पुरोहित सम्मान का पात्र था, जो धर्म के क्षेत्र में भक्त और भगवान के बीच दलाल की भूमिका निभाता था. कर्मकांडों और आडंबरों की उसकी दुनिया का बड़ा महत्त्व था. सामंतवर्ग उसको सम्मान देता था, इसलिए कि पुरोहित की दिखाई दुनिया के बहाने वह जनसाधारण का ध्यान अपने शोषण, उत्पीड़न से दूर रख सकता था. लोगों का भरमाए रखने में उसको विशेषज्ञता प्राप्त थी. पुरोहित वर्ग भी अपने काम की निस्सारता को समझता था. वह यह सब यजमान की संतुष्टि के लिए करता था. हालांकि उन दिनों भी ऐसे अवसर आए जब शिल्पकारों, छोटे व्यापारियों ने राजनीति और धर्मसत्ता को समझौता करने के लिए बाध्य कर दिया. मगर उन संगठनों का प्रभाव सीमित लोगों पर था. दूसरे धर्मसत्ता को चुनौती देने का हौसला भी उनमें नहीं था. सच तो यह है कि वे धर्मसत्ता के संरक्षण में ही स्वायत्तता चाह रहे थे. आशय यह है कि कि पूंजीवाद ने ऐसा कुछ नहीं किया जो सामंतवादी व्यवस्था में पहले से ही मौजूद न हो. बल्कि अपने स्वार्थ के लिए ही सही, पूंजीवाद ने शिक्षा का सरलीकरण किया. उसे विभिन्न क्षेत्रों में फैलाया. इसलिए कि कारखानों और बाजार पर पकड़ बनाए रखने के लिए उसे विभिन्न क्षेत्रों के कुशल पेशवरों की जरूरत थी. पूंजीवाद ने दुनिया को नवीनतम शोध दिए, जीवन को सुविधामय बनाया. संचार, यातायात, कृषि, चिकित्सा, आवास आदि अनेक क्षेत्र हैं जहां पूंजीवाद ने सफलता का परचम लहराया लेकिन हमें मालूम होना चाहिए कि इन्हीं क्षेत्रों में ऐसी कई चूक भी हुई हैं, जिन्हें विज्ञान का अभिशाप कहा जा सकता है. पूंजीवादी सोच के चलते नई चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार हुआ, जिससे जीवन संभाव्यता में आशानुरूप सुधार हुआ. बड़ी महामारियां अब प्रायः नहीं आतीं. लेकिन पूंजीवाद ने जो कुछ किया वह सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए किया है. उसने तनाव कुंठा, हृदयरोग, रक्तचाप, जैसी बीमारियां भी दी हैं. पूंजीवादी तंत्र द्वारा विकसित किए गए रिऐक्टरों ने विद्युत उत्पादन की ओर कदम बढ़ाया है तो ऐसे परिस्थिकीय संकट भी पैदा किए हैं, जिनसे जबतब सभ्यता पर संकट मंडराने लगता है.

पूंजीवाद का स्वभाव है कि वह हर काम में अपना मुनाफा देखता है. जिसमें उसका लाभ न हो उसे वह अनुत्पादक मानता है. यहां लाभ का अभिप्राय मौद्रिक लाभ से है जो प्रायः पूंजीपति वर्ग का उत्प्रेरक होता है. सहकार जैसे गैरपूंजीवादी उपक्रम मौद्रिक लाभ के बजाय सामाजिक लाभों को वरीयता देते हैं. जबकि पूंजीवाद ऐसे उत्पाद जिससे केवल जनता को लाभ हो और पूंजीपति को अपेक्षित धनलाभ न पहुंचता हो, उन्हें अनुत्पादक मानकर उनकी ओर से वह मुंह फेरे रहता है. उदाहरण के रूप में हम साइकिल और हल को ले सकते हैं. साइकिल आम आदमी की जरूरत है, हल भारतीय किसान की. आजादी से पहले भी साइकिल और हल का मूलभूत आकारप्रकार ऐसा ही था, जैसा आज है. यही हल के साथ है. उसका रूप पिछले पचाससौ वर्ष में अपरिवर्तित रहा है, जबकि इस बीच विज्ञान ने अवर्णनीय तरक्की की है. इसके बावजूद इन लोकोपयोगी यंत्रों की कार्यक्षमता में सुधार लाने के लिए कोई शोध पिछले पांचछह दशकों में नहीं हुआ, जबकि कार, रेफरीजरेटर, टेलीविजन, कंप्युटर, मोबाइल जैसी वस्तुओं के दिनप्रतिदिन नएनए माॅडल बाजार की शोभा बढ़ाते रहते हैं. चूंकि अधिकांश शोधों में पूंजीपति का धन लगा होता है, अतएव उनका विस्तार उन्हीं क्षेत्रों में होता है, जहां पूंजीपति के वर्गीय हित साधे जा सकें. पूंजीवादी का स्वार्थ नवीनतम उपभोक्ता वस्तुओं तथा उनके नएनए माॅडल विकसित कर बाजार पर एकाधिकार कायम करने तक सीमित नहीं होता. बल्कि वह उत्पादन पद्धति का भी निरंतर स्वचालीकरण करता जाता है, जिससे उत्पादन में श्रमिकों का योगदान घटता है. इससे बेरोजगारी बढ़ती है और मनुष्य की उपयोगिता पूंजीपति के निए नए बाजारों की खोज तक सिमटकर रह जाती है. कह सकते हंै कि पूंजीवादी व्यवस्था में मनुष्य को जो मिला है, उसकी बहुत बड़ी कीमत उसको अदा करनी पड़ी है. इसमें मनुष्य को सबसे बड़ा आघात यह जानकर लगता है कि पूंजीपति की निगाह में उसका मूल्य महज एक उपभोक्ता जितना है, जो उसके मुनाफे के लिए उसके कारखानों में अपना श्रम बेचता है, प्राप्त मजदूरी से अपनी आवश्यकता की वस्तुएं खरीदता है, और उनके उपभोग द्वारा इतनी ऊर्जा अर्जित कर लेता ताकि अगले दिन कारखाने में जाकर पूंजीपति के लिए काम कर सके. पूंजीपति मजदूरी के रूप में उसको इतना ही देता है, जिससे वह तैयार होकर अगले दिन काम पर आ सके. अपने प्रत्येक उपभोक्ता को वह लाभ के उपकरण के रूप में देखता है और निरंतर इस प्रयास में रहता है कि लाभानुपात को कैसे बढ़ाया जाए. इस बीच वह अपना शोषणकारी चेहरा कतई सामने नहीं आने देता. इसके उलट जो सामने आता है, वह दाता का पूरी तरह बनावटी चेहरा होता है, जिसको और लोकलुभावन बनाए रखने के लिए वह अपने साथ समाजविज्ञानियों, अर्थशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों की पूरी फौज रखता है, जो लगातार उसका महिमामंडन करते रहते हैं. अपने पक्ष में शास्त्रीय समर्थन जुटाए रखने के लिए वह दान का सहारा लेता है. अपनी पूंजी के नितांत छोटे हिस्से का उपयोग वह दान और लोककल्याण के नाम पर करता है, इससे धर्म और संस्कृति के प्रचारप्रसार में लगी शक्तियां अनायास ही उसकी ओर आकर्षित होती हैं. पूंजीपति इस अवसर का उपयोग अपने उत्पाद के लिए नए अवसरों की खोज तथा पूंजीवाद के प्रति सहानुभूति अर्जित करने के लिए करता है. दान, चैरिटी आदि की मद में खर्च की गई धनराशि पर वह सरकार से कर लाभ अर्जित करता है. राजसत्ता और धर्मसत्ता का समर्थन पूंजीपति को समाज में अतिरिक्तरूप से प्रतिष्ठित करता है. इससे सरकार और अन्य संस्थाओं का ध्यान उसके शोषण की ओर नहीं जा पाता.

सामंतवाद में सहायक की भूमिका में धर्म होता है. वहां यह प्रसारित किया जाता है, ज्ञान की सभी धाराएं तथा उसके समस्त प्रकल्प, माध्यम आदि एकमात्र धर्म से जन्मते तथा उसी में समाते चले जाते हैं. इसलिए सामंतगण धर्माचारियों, पुरोहितों, तांत्रिकों को अपने सान्न्ध्यि में रखा करते थे. पूंजीवाद का धर्म के प्रति रवैया कभी आलोचनात्मक तो कभी सहयोगकारी होता है. चूंकि पूंजीवादी कारखानों में सभी प्रकार के उत्पाद विनिर्मित होते हैं, इसलिए उसको अपनी छवि सर्वहितैषी, सर्वकल्याणक, सर्वसहयोगी की गढ़नी पड़ती है. वह परंपरापोषक और परंपराभंजक साथसाथ होता है. अपने नए उत्पादों को खपाने के लिए वह उपभोक्ता के मनस् में अपनी आधुनिक छवि गढ़ता है, ताकि वैज्ञानिक शोधों के आधार पर नए उत्पाद बाजार में लाकर उनसे मुनाफा कमा सके. प्रत्येक धर्म अपने कुछ विशिष्ट प्रतीकों एवं कर्मकांडों से पहचान पाता है. वही बहुसंख्यक वर्ग की जीवनशैली को निर्धारित करते हैं. उनके पीछे बड़ा बाजार होता है. पूंजीपतियों का एक वर्ग इन्हीं कर्मकांडों, प्रतीकों में बाजार की नईनई संभावनाएं खोजता हुआ भाड़े के पुरोहितों, पंडितों, आचार्यों की सहायता से उनसे जुड़ी वस्तुओं का बाजार विनिर्मित करता है. कह सकते हैं कि पूंजीवाद एक ओर तो समाज में ज्ञानविज्ञान के नएनए रूपों को स्थापित करने हेतु प्रयासरत होता है, दूसरी ओर वह धर्म और अध्यात्म पर प्रायोजित बहसें चलाकर उनका अधिक से अधिक स्थूलीकरण करता चला जाता है. परिणामस्वरूप धर्म और अध्यात्म की दूरी लगातार बढ़ती जाती है. यह स्थिति धर्म के बाजारीकरण के लिए मददगार सिद्ध होती है. आवश्यकता पड़ने पर वह धर्म की आलोचना करता है, लेकिन वहां भी उसका ध्यान अपने लिए नए बाजारों की खोज पर होता है. इस तरह धर्म की आलोचना करतेकरते पूंजीवाद उसके सहायक की भूमिका में आ जाता है. इसके उदाहरण के रूप में कांबड़ यात्रा को ले सकते हैं. बाजार और पूंजीवाद के आसरे पल रहे बुद्धिजीवियों तथा लोकप्रिय राजनीति के जरिये सत्ता की वैतरिणी से गुजरने की चाहत रखने वाले राजनीतिज्ञों के लिए कांबड़ियों की बरसोंबरस बढ़ रही संख्या, अपनेअपने प्रभावक्षेत्रों का विस्तार करने का अनूठा अवसर सिद्ध होती है. इसलिए तमाम असुविधाओं के बावजूद पूंजीवाद के प्रभावक्षेत्र वाले समाचारपत्र तथा समाचार चैनल उन यात्राओं की प्रशंसा ही करते हैं. इससे यात्रियों का जोश बढ़ता है और उनकी संख्या भी. पूंजीवाद यात्रापयोगी वस्तुओं के उत्पादनवितरण द्वारा वहां भी लार्भाजन का अवसर खोज लेता है. लाभ की यह प्रवृत्ति अंतहीन होती है, जो सामाजिक शुचिता, पवित्रता, शांति, सद्भावना और मानवीय सौहार्द की कीमत पर निरंतर बढ़ती जाती है.

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मनुष्य को उपभोक्ता से अधिक कुछ न समझने वाला, मशीन को जीवित मनुष्य ये अधिक महत्त्व देने वाला पूंजीवाद मनुष्यता का भविष्य नहीं हो सकता. तो क्या साम्यवाद मनुष्यता का भविष्य बन सकता है? सर्वहारा क्रांति का आवाह्न करते समय मार्क्स ने तो यही कहा था कि भविष्य साम्यवाद का है. पूंजीवाद तो अपनी करनी आप भुगतेगा. अपने ही हाथों उसका सर्वनाश होगा. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. उल्टे बीसवीं शताब्दी में साम्यवाद के जो गढ़ बने थे, शताब्दी का उत्तरार्ध आतेआते वे एकएक कर स्वयं ढहते चले गए. अतः एक स्वाभाविकसा प्रश्न उपजता है कि पूंजीवाद से निपटने का सही रास्ता क्या हो? समाज में उत्तरोत्तर बढ़ती उपभोक्तावादी ललक, आर्थिकसामाजिक विषमताओं पर काबू कैसे पाया जाए? बाजार में व्याप्त स्पर्धा और एकाधिकारवाद को किस प्रकार परस्पर पूरक, सहयोगी, सर्वोपकारी एवं सौहार्दमय उत्पादनतंत्र में बदला जाए? इतना तो हम मान ही चुके हैं कि पूंजीवाद बेहतर विकल्प नहीं है. इसलिए यदि अमीरगरीब के बीच बढ़ती खाई को रोकना है, यदि संस्कृति को बाजार बनने से बचाना है, यदि मनुष्य के उत्तरोत्तर उपभोक्ताकरण पर अंकुश लगाना है, यदि इस पृथ्वी और यहां के वासियों को परिस्थितिकीय संकट से उबारते हुए स्पर्धा रहित, समानतामूलक और सहयोगाधारित समाज की रचना करनी है, यदि आपसी अंतद्र्वंद्व, डर, पीड़ा, घुटन, संत्रास, वेदना, तनाव, ईष्र्या, द्वैध, चिंता और आपाधापी से भरे समाज को विवेकवान, संवेदनशील, सौहार्दमय, सदभावना और सामंजस्य पूर्ण बनाना है, तो पूंजीवाद के प्रेत को बोतल से बाहर छोड़ देना नासमझी है. लेकिन पूंजीवाद को यह बढ़त आसानी से नहीं मिली. इसके पीछे भी कहीं न कहीं मार्क्स वाद की दुर्बलताएं छिपी हैं. वैचारिक जकड़बंदी द्वारा मार्क्स वाद यह तो दर्शा ही चुका है कि उसके आधार पर समतामूलक, सर्वकल्याणकारी विश्वसमाज का गठन संभव नहीं. इसलिए कि परंपरागत धर्म की आलोचना के साथ उसके निषेध का नारा लगाने वाले मार्क्स वाद ने अपने प्रभावक्षेत्र के विस्तार के लिए अंततः उन्हीं रास्तों का उपयोग किया जिन्हें धर्म बहुत पहले अपनाता आया था. इसमें बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों की मार्क्स और उसके विचारों के प्रति अंधश्रद्धा भी सम्मिलित है. ऐसा नहीं है कि इस बीच मार्क्स वाद के स्वस्थ आलोचना बिलकुल संभव न हो सकी, किंतु इतना अवश्य हुआ कि मार्क्स वाद के आधार पर गठित राज्यों के स्वस्थ सैद्धांतिक आलोचना को भी असहनीय बनी रही. परिणाम यह हुआ कि मार्क्स वाद में वे सभी जड़ताएं, टोटम और विकार घर करते गए, जो परंपरागत धर्म के क्षरण का कारण बने थे या जिनके कारण धर्म रूढ़िवाद का शिकार होकर जीवन से पलायनोन्मुखी बन जाता है. यहां तक कि साम्यवाद की जिस सैद्धांतिकी को मार्क्स ने अपने जीवन के उत्तरार्ध में विकसित किया था, वैचारिक अंधश्रद्धा के चलते वह निरंतर प्रदूषित होती चली गई और मार्क्स वाद साम्यवाद के अपने ही लक्ष्य के दूर, ‘सर्वहारा के अधिनायकवाद’ तक सिमट कर रह गया, जिसके खतरे के बारे में स्वयं मार्क्स ने आगाह किया था.

उपर्युक्त विश्लेषण का अभिप्राय यह नहीं कि मार्क्स वाद अप्रासंगिक हो उठा है.उनमें अब भी काफी कुछ मौलिक और समाज को बदलने का सामथ्र्य मौजूद है. अतएव आवश्यकता उससे मुक्ति की न होकर उसके परिष्करण की है. बीसवीं शताब्दी में मार्क्स वाद की इस आधार पर तीखी आलोचना की गई कि उसने राज्य के समक्ष मनुष्य सत्ता को अत्यधिक बौना कर दिया है. विशेषकर रूसो के स्वाधीनतावाद, मिल के व्यक्तिस्वातंत्रय, थाॅमस पेन(1737—1809) के मानवाधिकारवादी विचारों के प्रवाह तथा लोकतंत्र की बयार ने ‘व्यक्तिमात्र’ को महत्त्वपूर्ण बना दिया था. इससे लोकतांत्रिक समाजवाद की प्रतिष्ठा और स्वीकार्यता बढ़ी. किंतु लोकतंत्र की अपनी दुर्बलताएं हैं. जनमत के वास्तविक मुद्दों से भटकने के साथ ही उसको अल्पसंख्यक का राजतंत्र बनते देर नहीं लगती. चुने गए जनप्रतिनिधि अपनी विशिष्टताबोध को बनाए रखने के लिए पूंजी की शरण में चले जाते हैं. इससे विकास के वास्तविक मुद्दों से लोगों का ध्यान हट जाता है. पूंजीवाद की निगाह में मानवमात्र एक उपभोक्ता है. वह उसको उपभोग के लिए स्वतंत्र देखना चाहता है. इसी के चलते समाजवादी विचारधारा के पूंजीवाद और समाजवाद के सभी आधुनिकतम रूप इस तथ्य से तो एकमत हैं कि मानवस्वातंत्रय की रक्षा करनी चाहिए. दरअसल मानवस्वातंत्रय ही एक ऐसा बिंदू है जिसपर ये दोनों एकमत हैं. इसलिए भविष्य का समाजार्थिक दर्शन ऐसा नहीं हो सकता जो मानवस्वांतत्रय का विरोध करता हो. लेकिन यह भी ध्यान रखना अनिवार्य है कि मनुष्य मात्र का हित समाज के हित से अलग नहीं हो सकता. इसी को केंद्र में रखकर समाजवाद कहता है कि समाज में—सब एक के लिए काम करे और एक सबके कल्याण के प्रति समर्पित हो. मगर यह तभी संभव है जब प्रत्येक मनुष्य मुक्त हो. उसको यह एहसास हो कि वह समाजकल्याण के निमित्त समर्पित है. दूसरी ओर यह भरोसा भी उसको हो कि संकट के समय वह कतई अकेला नहीं होगा. उसका संकट समाज का संकट होगा और समाज का प्रत्येक सदस्य व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से उसकी सहायता के लिए तत्पर होगा. व्यक्तिगत और सामाजिक आकांक्षाओं का रचनात्मक तालमेल ही एक सफल समाजदर्शन की पीठिका बन सकता है. बीसवीं शताब्दी के विचारकों के समक्ष सबसे बड़ी समस्या यह रही कि व्यैक्तष्ठि और समष्ठि में तालमेल कैसे बनाया जाए. कुछ इस प्रकार की व्यक्ति की अबाध स्वाधीनता के साथ उसकी कार्यक्षमता और सामाजिक प्रतिबद्धताएं भी अप्रभावित बनी रहे. समाज में आर्थिक विषमता फैलाए बिना विकासदर बनी रहे. समष्ठिवाद, संघवाद, अराजकतावाद, सहजीवितावाद, श्रमिक संघवाद जैसी अनेक विचारधाएं इस कालखंड में उभरीं. जिन्होंने मार्क्स वादी गरिमा के साथ पूंजीवाद की असल मनोवृत्तियों को पकड़ते हुए समाजवाद के किंचित लाभों को भी अपनाते जाने पर जोर दिया. असल में मनुष्यता के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती भी यही है कि किस प्रकार व्यक्तिहित और समाजहित में तालमेल बनाया जाए. बीसवीं शताब्दी में समष्ठिवाद, श्रमिकसंघवाद, अराजकतावाद और सहजीवितावाद, संगठनवाद समष्ठि में व्यैक्तष्ठि एवं समष्ठि में एक विश्वसमाज का दर्शन मानवाधिकारों की सुरक्षा, सहभागिता और सहअस्तित्व की जरूरी शर्तों पर अमल करने से ही निकल सकता है.

पूंजीवाद से मुक्ति की छटपटाहट

पूंजीवाद से मुक्ति की छटपटाहट अलगअलग देशों में अलगअलग तरीके से दिखाई पड़ रही है. कहीं वह आर्थिक औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया से आने के लिए उत्सुक है. तो कहीं समाज में बड़ी आर्थिक असमानता अंतःसंघर्ष की स्थिति पैदा कर रही है. और असंतुष्ट वर्ग शोषण से मुक्ति के लिए आर्थिक व्यवस्था में बदलाव की मांग कर रहे हैं. कुछ देशों में जनता में बढ़ रहा क्रांतिबोध तानाशाही से मुक्ति का जोश पैदा कर रहा है. विशेषकर 2011 के प्रारंभिक महीनों लीबिया, यमन, मिश्र में नागरिक चेतना ने जो अंगड़ाई ली, उसने अन्याय और दमन की प्रतीक सामंती सत्ताओं को हिलाकर रख दिया है. उनका संघर्ष अभी जारी है, हालांकि पूंजीवाद आधुनिकता और व्यक्तिस्वांत्रय के नाम पर आंदोलन को अपने प्रभाव में लेने का प्रयास कर रहा है. इससे उसकी सफलता की संभावनाएं इसलिए भी हैं, ये जनक्रांतियों आधुनिक संचार तकनीक पर अतिरिक्तरूप से निर्भर हैं. ऐसा कोई वैश्विक क्रांतिकारी चेहरा इनके पीछे नहीं है, जिसमें लोगों का लंबे समय तक नेतृत्व करने का सामथ्र्य हो, न ही कोई बड़ा विचार इसके पीछे है, जो अपने साथ लोगों को बांधे रख सके. इसलिए यह प्रश्न अब भी अपनी जगह है कि बीसवीं शताब्दी में समाजवाद का क्या रूप होगा. राज्य आश्रित समाजवाद अपनी असफलता दर्शा चुका है. बीसवीं शताब्दी में सोवियत क्रांति की असफलता के बाद एक के बाद एक कई देशों ने राज्यआश्रित समाजवाद को अपना था. परंतु देखा गया कि सत्ताएं अपना मूल चरित्र कभी नहीं बदलतीं. इसी कारण जनमत के दबाव में जिन देशों ने राज्याश्रित समाजवाद को अपनाया गया था, वे सभी एकएक कर पूंजीवाद की शरण में जाते रहे. समाजवादी व्यवस्थाओं की इस अवस्था पर बुद्धिजीवियों ने विचार कर कुछ सुझाव भी दिए. इससे समाजवादी राजनीतिक दर्शन के नए रूप सामने आए. अराजकतावाद, श्रमिकसंघवाद, समष्ठिवाद, सहजीवितावाद आदि राजनीतिक दर्शन नए न होकर भी इसलिए चर्चा का विषय बने कि उनीसवीं शताब्दी में मार्क्स वाद की आंधी में इन नए विचारों की विद्वानों का ध्यान की नहीं कहा गया है. अधिकांश बुद्धिजीवीराजनेता जिनमें लेनिन ट्राटस्की, रोजा लेक्समबर्ग, अंतोनियो ग्राम्शी आदि सम्मिलित हैं, मार्क्स वाद के भीतर रहकर भी उसमें संशोधनपरिष्करण के पक्ष में थे. कालांतर में मार्क्स वाद की विश्वव्यापी असफलता ने अराजकतावाद, श्रमिकसंघवाद, समष्ठिवाद आदि समाजवाद की समानधर्मा विचारधाराओं को एकाएक चर्चा के केंद्र में ला दिया. मार्क्स वाद के विकल्प के रूप में बीसवीं शताब्दी में तेजी से उभरी इन विचारधाराओं की प्रमुख कमजोरी यह है कि ये साम्यवादमार्क्सवाद की भांति साधारणजन के बीच अपनी पैठ बनाने में असफल सिद्ध हुई हैं. इसलिए बीसवीं शताब्दी के प्रमुख प्रतिभाशाली दार्शनिकों, विचारकों ने समाजवाद के इन युवा प्रकल्पों को अपनी रचनात्मक मेधा से समृद्ध किया है, तथापि ये जनमानस में पैठ न होने के कारण ये अकादमिक बहसों का हिस्सा जान पड़ती हैं. हालांकि सहजीवितावाद, श्रमिकसंघवाद के समर्थकों की संख्या अमेरिका जैसे ठेठ पूंजीवादी देश में भी है. लेकिन वे किसी प्रभावकारी भूमिका में नहीं हैं.

स्वयं को पूंजीवाद का विकल्प कहने वाले ये राजनीतिकआर्थिक दर्शन किसी न किसी रूप में राज्य नामक संस्था का विरोध करते हैं तथा उसकी उपस्थिति को समाजवाद और श्रमकल्याण पर संकट के रूप में देखते हैं, परंतु कानूनव्यवस्था पर आए आसन्न संकट से निपटने, बाहरी आक्रमण के सामय देशसमाज की अस्मिता की सुरक्षा के लिए कोई सशक्त और संदेहरहित विकल्प इनके पास नहीं है. वे यह मान लेते हैं कि दुनिया के प्रायः सभी देशों में श्रमिकों की समस्या तथा उनकी चुनौतियां एक समान हैं, अतएव समाजवाद की ओर बढ़ते श्रमिक संगठन स्वयं को विश्वसमुदाय का अभिन्न अंग समझेंगे. इस तरह सीमाओं के संघर्ष, बाहरी आक्रमण जैसी स्थितियां ही नहीं रहेंगी. पूरा विश्व समाजवाद के झंडे के नीचे होगा. इस आदर्शोन्मुखी परिकल्पना को भारत में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के नाम से जाना जाता है. परंतु वे भूल जाते हैं कि राज्यों का निर्माण केवल केवल राजनीतिकआर्थिक कारणों से नहीं होता. धर्म भी राज्यनिर्माण में महती भूमिका निभाता है. आज भी दुनिया के पचास प्रतिशत देशों में धर्म निर्णायक शक्ति बना हुआ है. पाकिस्तान जैसे देशों का तो गठन ही धर्म के आधार पर हुआ है. ऐसे देशों को श्रमिकसंघों की परिसीमा में कैसे लाया जाएगा, इसके बारे में ये विचारधाराएं कोई सुझाव नहीं देतीं. फिर धर्म स्वयं में गजब की संगठन शक्ति रखता है. बल्कि आर्थिक मसलों से अधिक संगठन की सामथ्र्य धर्म में देखी गई है. अधिकांश धर्म अर्थोपार्जन को हेय दृष्टि से देखते हैं. ऐसे में धर्माधारित संगठनों, समूहों को समाजवाद की परिसीमा में कैसे लाया जाएगा, इसके बारे में भी कोई सुझाव समाजवाद के इन नए प्रकल्पों के पास नहीं है. शायद इसीलिए वे धर्म को उपेक्षित कर आगे बढ़ जाना चाहते हैं. कहा जा सकता है कि धर्म को लेकर समाजवाद के नए प्रकल्प भी उसी गलतफहमी का शिकार हैं, जो गलतफहमी कभी मार्क्स वाद ने की थी. जिसके कारण साम्राज्यवादीसामंतवादी ताकतों को उसकी आलोचना का आधार मिला और अनेक ऐशियाई देशों में मार्क्स वाद आतेआते रह गया. समाजवाद के ये प्रकल्प मनुष्य को आर्थिकराजनीतिक प्राणी के रूप में देखते हैं. जबकि ‘अर्थ’ और ‘राज्य’ के अलावा भी मनुष्य की चेतना को प्रभावित करने वाले अनेक कारक हैं. एक कारक संस्कृति भी है, जो मनुष्य की पूरी जीवनपद्धति को प्रभावित करती है. ग्राम्शी ने संस्कृति के आधार पर ही समाज में पलने वाले वर्गभेद की व्याख्या की है.

धर्म नैतिकता का उपयोग आध्यात्मिक मान्यताओं के अवलंबन के रूप में करता है. अध्यात्म चेतना मानवमात्र का विषय है. हर कोई सृष्टि और जीवन के रहस्यों को लेकर विशिष्ट सोच रखता है. धर्म नहीं मान्यताओं का सामान्यीकरण करता है. उनके प्रकटीकरण हेतु कुछ कर्मकांडों का विधान रचता है. धर्म का मूल्य समाजीकरण का विषय है, अपने औचित्य को बनाए रखने के लिए ही धर्म नैतिकता का सहारा लेता है. तो क्या समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए राज्य का धर्म की शरण में आना उपयुक्त स्थिति है? क्या समाजवाद को समर्पित कोई राज्य धर्म का उपयोग अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक उपकरण के रूप में कर सकता है? इसका उत्तर ‘न’ में है. इसलिए कि धर्म की नींव भले ही कुछ मानवमात्र की अध्यात्मिक जिज्ञासा के निदान और कुछ नैतिक मान्यताओं पर रखी जाती हो, परंतु जिस आध्यात्म संपदा को वह अपनी धरोहर मानता है, उसका पूरा का पूरा अभिकल्पन सामंती परिवेश से युक्त होता है. प्रत्येक धर्म सृष्टि के मूल में किसी सर्वशक्तिमान सत्ता के योगदान की बात करता है. जो इतना शक्तिसंपन्न है कि बैठेठाले संकेतमात्र से अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सकता है. सर्वगुणसंपन्नता को महत्त्व दिए जाने का यही संस्कार कुछ लोगों को दूसरों से स्वयं को श्रेष्ठ ठहराने का बहाना देता है. ईश्वर की यह अभिकल्पना समाज के शीर्षस्थ वर्ग द्वारा अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए की गई है. इसके अनुसार जो बैठेठाले सबकुछ सहजता से प्राप्त कर सके, जिसको परिश्रम करना ही न पड़े वही श्रेष्ठ है. जबकि समाजवाद का प्रयास होता है, समस्त सुखों में सभी की साझेदारी. इस दायित्व के लिए वह राज्य को नियुक्त करता है तथा समस्त संसाधन उसके अधीन रखने का सुझाव देता है. यह देखते हुए कि सत्ता का प्रत्येक रूप कभी न कभी तानाशाही का रूप ले लेता है, समाजवाद के आधुनिक संस्करण राज्यसत्ता का विरोध करने लगे हैं. समाजवाद के इन नए प्रकल्पों के अनुसार समाजवाद विशिष्टता का नहीं साधारणतम के संगठित प्रयास की परिणति होता है. इस प्रकार वह धर्म की सैद्धांतिकी जो किसी न किसी सर्वशक्तिमान केंद्रीय सत्ता पर विश्वास रखती से विपरीत आचरण रखता है. आध्यात्मिकता की खोज के लिए धर्म का नारा होता है—‘स्वयं को पहचानो.’

अकेले व्यक्ति की अंतर्यात्रा समाजवाद के लिए विशिष्ट महत्त्व नहीं रखती. इसलिए वह नारा देता है उल्लेखनीय है कि भारत, श्रीलंका आदि ऐशियाई देशों में समाजवाद की असफलता का एक कारण यह भी रहा कि वहां की जनता सहòाब्दियों से धर्म और राजशाही की जकड़न में रहने के कारण लोकतांत्रिक परिवेश में रहने का अभ्यास भूल चुकी थी. उस जकड़न से बाहर लाने के लिए जबजब इन देशों में प्रयास किया गया, तब तक रूढ़िवादियों ने उसको धर्म और संस्कृति पर हमला बताकर लोगों के चिंतन की धारा ही पलट दी. ‘खुद को पहचानो(नो दाइसेल्फ)’ के स्थान पर नए मनुष्य का नारा होना चाहिए—‘अपने जैसा बनो(बी दाइसेल्फ). अर्थात वह बनो, जो तुम बनना चाहते हो. उन लोगों के साथ जुड़ो जो तुमको पसंद हैं. उस संगठन अथवा समूह के साथ हितों का साझा करो, जिसको तुम्हें सर्वाधिक हितकारी लगता हो. वह करो जिससे तुम्हें अधिकतम लाभ की संभावना हो. ‘स्वैच्छिक सहभागिता’ आधुनिक समाजवादी चिंतन का मूल सिद्धांत है. आस्कर वाइल्ड का कहना है—

सभी संगठन पूर्णतः स्वैच्छिक होने चाहिए. केवल स्वैच्छिक संगठनों में ही मनुष्य पूर्णतः प्रसन्न रह सकता है.’

स्वैच्छिक सहभागिता उन्हीं समाजों में संभव है, जहां लोगों को अपने मन का करने की आजादी हो. जहां लोकतांत्रिक परिवेश हो. इसका दूसरा छोर ‘व्यक्तिवाद’ की ओर जाता है. समाजवाद में राज्य की मर्जी सर्वोपरि होती है. वहां व्यक्तिविशेष के बजाय संपूर्ण समाज के कल्याण पर जोर दिया जाता है. प्रश्न उठता है कि क्या व्यक्तिवादी माहौल में समाजवाद की उपस्थिति संभव है? यदि सभी को अपने मन की करने, मर्जी का व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता होगी तो फिर लोग दूसरों से क्यों जुड़ेंगे? क्यों कोई दूसरे के लिए अपने सुख का बलिदान करने को तैयार होगा? जबकि इच्छाओं का सामान्यीकरण समाजवाद की पहली शर्त है. व्यक्तिवादी वातावरण में पूंजीपति को कैसे दोषी ठहराया जा सकता है, क्योंकि उसका संपत्ति अर्जित करने का चाहे जो रास्ता रहा हो, है तो आखिर वह भी एक व्यक्ति ही? उसको भी इच्छानुरूप व्यवसाय चुनने की उतनी ही स्वतंत्रता है, जितनी दूसरों को! और यदि सभी अपनी मर्जी की करने को स्वतंत्र होंगे तो व्यक्तिगत कामनाओं और लालचों पर कैसे अंकुश साधा जाएगा? आर्थिक विषमता को कैसे कठघरे में लाया जा सकता है? समाजवादियों के लिए तो ये सब पुरानी समस्याएं हंै. इसके लिए वे राज्य को अतिरिक्तरूप से अधिकारसंपन्न बनाने पर जोर देते हैं. जबकि समाजवाद के आधुनिक संस्करण यह मानकर कि राज्य का चाहे जो स्वरूप हो, वह अंततः मनमाना आचरण करने लगता है, राज्य का ही निषेध करते हैं. यद्यपि आजकल यह माना जाने लगा है कि लोकतांत्रिक समाजवाद राजनीतिक दर्शन की सर्वोच्च उड़ान है, तथा उससे परिपक्व राजनीतिक दर्शन की परिकल्पना संभव ही नहीं है. पर इन सभी का एक निहितार्थ है. वह है व्यक्तिगत संपत्ति का निषेध. समाजवाद के नए रूप व्यक्तिगत संपत्ति का परोक्षतः निषेद्ध करते हुए उसको सामूहिक अधिकारिता में ले आना चाहते हैं. लेकिन इन्हें अमेरिका तथा यूरोप के उन देशों में ही सफलता मिल पाई है, जहां पूंजीवाद पहले से ही काफी मजबूत है. भारत और अन्य दक्षिण एशियाई देशों में में जहां पूंजीवाद अपनी जड़े तेजी से गहरी करता जा रहा है, और उसके दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं, समाजवाद के नए प्रकल्प समष्ठिवाद, सहजीवितावाद, श्रमिकसंघवाद, संगठनवाद यहां उतने असरकारक नहीं बन पाए. आखिर क्यों? असल में ये समाज धर्म और क्षेत्रीयता की जकड़बंदी में इतने गहरे फंसे हैं कि उससे बाहर निकल पाना इनके लिए संभव ही नहीं हो पा रहा है. भारत में तो धर्म के अलावा जाति भी समाज को बांटने वाला प्रमुख कारक है, जिसके चलते यहां व्यक्तिगत संपत्ति का निषेध कर पाना संभव नहीं हो पाया है. जाति की विशेषता है कि वह जन्म के आधार पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्वतः अंतरित होती है. जाति के साथ व्यक्ति के व्यवसाय की अवधारणा भी जुड़ी है. प्रत्येक व्यक्ति जब जन्मना आधार पर अपने व्यवसाय से जुड़ा है तो उसके आधार पर होने वाले हानिलाभ और संपत्ति संबंधी अधिकारों से उसको वंचित कर पाना जातिप्रथा पर प्रहार किए बिना संभव ही नहीं है. लेकिन इन देशों मंे तेजी से बढ़ती आर्थिक असमानता और पूंजीवाद की मनमानी के चलते यह बात साफ हो चली है कि जनता लंबे समय तक शोषण को सह नहीं पाएगी. और जनता का संघर्ष आज का नहीं है. यह शताब्दियों पुराना है, हालांकि भारत जैसे संस्कृति अधीन समाजों में उसकी धमक बहुत अधिक सुनाई नहीं पड़ती है, लेकिन यत्रतत्र उसकी उपस्थिति का अनुभव आसानी से किया जा सकता है. यहां एक बार फिर पू्रधों को याद करना आवश्यक है. ‘संपत्ति क्या है?’ पुस्तक में वह सीयेस के ‘थर्ड एस्टेट’ के विचार को विस्तार देता हुआ कहता है—

यह थर्ड एस्टेट क्या है?’

कुछ नहीं!’

इसको क्या होना चाहिए?’

सब कुछ.’

राजा क्या है?’

जनता का सेवक’

यदि राजा हमारा सेवक है तो उसका कर्तव्य है हमें रिपोर्ट करे, हमारा आदेश माने.’

यदि वह हमें रिपोर्ट करता, हमारा आदेश मानता है तो वह हमारे नियंत्रण में है.’

यदि वह हमारे नियंत्रण में है तो उसकी कुछ जिम्मेदारियां हैं.’

यदि उसकी कुछ जिम्मेदारियां हैं तो उसको दंडित किया जा सकता है.’

यदि उसको दंडित किया जा सकता है तो उसको उसके अपराध के अनुसार दंड जाएगा.’

यदि उसको अपराध के अनुसार दंड जाएगा तो उसको मृत्युदंड भी संभव है.’

उल्लेखनीय है कि जिस समय सीयेस ने थर्ड एस्टेट को लेकर अपनी मामूली पंपलेट के आकार की थी पुस्तक लिखी, उस समय फ्रांसिसी जनता की हालत बहुत बुरी थी. राजा और अधिकारी विलासिता में डूबे थे. ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार व्याप्त था. धर्मसत्ता राजनीति से सांटगांठ कर जनता को बरगलाती और मजे लूटती थी. आम जनता की कहीं सुनवाई न थी. अपनी दुर्दशा के कारण जनसाधारण के मन में धर्मसत्ता और राजसत्ता के प्रति आक्रोश पनप रहा था. उसको हवा देने के लिए कवि, लेखक, साहित्यकार, विचारक, दार्शनिक अपनीअपनी तरह से प्रयास कर रहे थे. समाज और जनाकांक्षाओं का नए सिरे से विश्लेषण किया जा रहा था. सीयेस और समकालीन विचारकों ने तत्कालीन फ्रांसिसी समाज को तीन हिस्सों में बांटा है. प्रथम एस्टेट, द्वितीय एस्टेट तथा तृतीय एस्टेट. प्रथम एस्टेट में धर्माचार्य और पुरोहित वर्ग सम्मिलित थे, जिनपर कथित रूप से धर्म के संचालन की जिम्मेदारी थी. प्रथम एस्टेट में हालांकि कोई औपचारिक विभाजन न था, तो भी भीतर ही भीतर यह वर्ग दो प्रमुख भागों ‘उच्च’ एवं ‘निम्न’ वर्ग में विभाजित था. पहले वर्ग में बिशप तथा चर्च के प्रतिष्ठित अधिकारीगण आते थे, जो धर्मसत्ता में ऊंचा स्थान रखते थे. दूसरे वर्ग में सहायक पादरी, नर्स, चर्च के सेवादार आदि आते थे, जिनकी संख्या प्रथम एस्टेट के कुल सदस्यों की संख्या का 90 प्रतिशत थी. 1789 यानी सीयेस के जीवनकाल में प्रथम एस्टेट के सदस्यों की संख्या लगभग 130000 थी, जो उस समय की फ्रांस की कुल जनसंख्या का आधा प्रतिशत थी.

द्वितीय एस्टेट में फ्रांस के अभिजन तथा राजकुल से जुड़े लोग आते थे. यह वर्ग राजसत्ता के निकटस्थ था और स्वयं को धर्मसत्ता के अधीन मानता था. हालांकि उसकी अपनी सत्ता भी धर्मसत्ता के समानांतर थी. इस वर्ग में वरिष्ठ नौकरशाह, सेनापति, उच्च राजकीय अधिकारी वगैरह भी आते थे, जो उन दिनों के कानून के अनुसार केवल अभिजन वर्ग के हो सकते थे. वे समाज के प्रतिष्ठित नागरिक माने जाते थे. उनसे जबरन काम नहीं लिया जा सकता था. इस वर्ग को प्रत्यक्ष कर संबंधी छूट भी प्राप्त थी. द्वितीय एस्टेट के सदस्यों का संख्यानुपात फ्रांस की कुल जनसंख्या का मात्र 1.5 प्रतिशत था. शेष 98 प्रतिशत जनसंख्या तृतीय एस्टेट के अंतर्गत आती थी. एक तरह से यह छोटे व्यापारियों, उत्पादकों का समूह था, जो बहुसंख्यक होकर भी अधिकार और संपत्ति के मामले में बहुत पिछड़े हुए थे. तृतीय एस्टेट में भी दो प्रकार के लोग थे. 8 प्रतिशत हिस्सा शहरी सीमा में रहने वाले नागरिक वर्ग का थे. उनमें से अधिकांश व्यापारी, नौकरशाह और वेतन भोगी मजदूर थे. बाकी 90 प्रतिशत में ग्रामीण किसान, खेतिहर मजदूर, मिल मजदूर आदि सम्मिलित थे. तृतीय वर्ग के पास अपनी कोई संपत्ति नहीं थी. न उन्हें राजनीति में हिस्सा लेने के अवसर प्राप्त थे. अपनी कोई संपत्ति न होने के कारण यह वर्ग अपनी जीविका के लिए अभिजन जमींदारों, नौकरशाहों के अधीन कार्य करने को विवश था. बदले में उन्हें जो वृत्तिका प्राप्त होती थी, उसका बड़ा हिस्सा उनसे कराधान के रूप में वापस ले लिया जाता था. इस वर्ग में छोटे शिल्पकार भी सम्मिलित थे, जिनके व्यवसाय मशीनीकरण के कारण तेजी से छिन रहे थे. रोजगार का संकट, गरीबी, कराधान की लगातार बढ़ती दरें आदि तृतीय एस्टेट के सदस्यों की कुछ सामान्य समस्याएं थीं, जो उन्हें एक करती थीं. फ्रांसिसी क्रांति दरअसल इसी तृतीय स्टेट के आक्रोश की परिणति थी. सीयेस के पुस्तिका ने जादूई असर किया था. प्रूधों लिखता है कि सीयेस की पुस्तक के पांच वर्ष के अंदर ही स्थिति एकदम पलट चुकी थी. उसके बाद तीसरी स्टेट ही सबकुछ थी. सम्राट, अभिजन, तथा धर्माधिकारी वर्ग अपनी चमकदमक गंवा चुके थे. फ्रांसिसी नवोदय की चमक पूरे यूरोप में कौंधी थी. इसके फलस्वरूप इंग्लेंड, जर्मनी, इटली, स्पेन आदि देशों में समाजवादी चेतना का विस्तार हुआ, हालांकि उसका स्वरूप विभिन्न देशों की परिस्थिति के अनुसार परिवर्तनशील था.

आधुनिक भारत की यदि तत्कालीन फ्रांसिसी समाज से तुलना करें तो स्थिति में बहुत अधिक अंतर नजर नहीं आता. बल्कि अठारवीं शताब्दी के फ्रांसिसी समाज की जो दुरवस्था थी, भारतीय समाज की स्थिति आज भी उससे कुछ अलग नहीं है. कहने को इस देश में लोकतंत्र है. मगर व्यवहार में पूरी राजनीतिक सत्ता पांचछह सौ राजनीतिक परिवारों के बीच सिमटी हुई है. बारीबारी से वही लोग सत्ता में आते रहते है. उनके बीच लोकतंत्रीय छूट का लाभ उठाकर यदि को नया प्रतिनिधि चुनकर आ भी जाए तो संसदीय बहुमत की राजनीति में उसकी आवाज नक्कारखाने में तूती बनकर रह जाती है. उच्च वर्ग के चक्रव्यूह को तोड़ने की न तो वह हिम्मत जुटा पाता है, न इसके लिए उसको व्यापक जनसमर्थन ही मिल पाता है. यही वर्ग अपने चहेतों के साथ राजनीतिक और उच्च नौकरशाही के रूप में सत्ता को कब्जाए रहता है. अर्थतंत्र की हालत भी इससे बेहतर नहीं है. देश के उत्पादन तंत्र पर भी लगभग चारपांच सौ बड़ी कंपनियों का अधिपत्य है. उनमें भी मात्र आठदस उद्यमी ऐसे हैं जिनका पूरे व्यापारतंत्र के आधे से अधिक हिस्से पर कब्जा है. यह स्थिति तब है जबकि भारतीय संविधान में आर्थिक असमानता को उखाड़ फंेकने का आवाह्न किया गया है. संविधान से कट जाने के कारण ही भारतीय राजनीति और समाज में अनेकानेक बुराइयां आ चुकी हैं. संसदीय राजनीति का आज भले ही कोई विकल्प नजर न आता हो, किंतु यह भी सच है कि भारतीय लोकतंत्र में आज वे सभी बुराइयां आ चुकी हैं, जिनकी ओर प्लेटो ने संकेत किया था. लोकतंत्र के नाम पर भारतवासी अर्थसत्ता, धर्मसत्ता और कुलीतंत्र के मकड़जाल में जी रहे हैं. अस्सी प्रतिशत राजनीति विकास की परिधि से बाहर है. ऐसे में भारत के लिए सर्वाधिक उपयुक्त रास्ता जिससे यह देश पूंजीवादी प्रभुत्व के दायरे से बाहर आ सके कौनसा हो सकता है? इसका एक विकल्प महात्मा गांधी ने सुझाया था. वह था ग्रामीण स्वराज्य और आर्थिक विकेंद्रीकरण का. वह अपने आप में एक बेहतर व्यवस्था हो सकती है. परंतु भारत के संबंध में उसकी उपयोगिता इसलिए संदेह से परे नहीं है, इसलिए कि यहां एक तो अशिक्षा का साम्राज्य है, विशेषकर गांवों में अभी भी पचास प्रतिशत आबादी अशिक्षितों की है, शिक्षितों में भी अल्पशिक्षित ही अधिक हैं. उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों की जनसंख्या तो पढ़ेलिखों का पांचछह प्रतिशत ही है. दूसरा कारण जो इससे भी अधिक चिंतनीय है, वह भारतीय समाज में व्याप्त जातिप्रथा है, जिसको फासीवाद से प्रेरणा मिलती है. जातिप्रथा में समाज का बहुसंख्यक वर्ग सिर्फ इस कारण कि उसका जन्म किसी कुल या जाति विशेष में नहीं हुआ, विकास के अवसरों यहां तक कि सामान्य मानसम्मान से भी वंचित कर दिया जाता है. महात्मा गांधी समाज का बदलाव तो चाहते थे, परंतु भारतीय समाज के जातिवादी ढांचे से उन्हें कोई शिकायत न थी. इसलिए ग्राम स्वराज्य से समानता के अपेक्षित लक्ष्य की प्राप्ति उस समय तक संभव नहीं है, जब तक देश में जाति प्रथा है. भारत में मार्क्स वाद की दस्तक उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही हो चुकी थी. 1925 में ‘भारतीय साम्यवादी पार्टी’ का विधिवत गठन हुआ. लेकिन भारतीय समाज की संरचना और साम्यवादी दलों का नेतृत्व प्रायः उच्चस्थ वर्गों के अधीन रहने के कारण यहां साम्यवादी चेतना का भरपूर विस्तार नहीं हो सका. साम्यवादी विचारधारा के विकास के लिए न केवल धार्मिक रूढ़ियों पर प्रहार किया जाना आवश्यक था, बल्कि इसके जातिवादी ढांचे को तोड़ना भी आवश्यक था. मगर इस ओर से निरपेक्ष रहने के कारण भारतीय साम्यवाद एक प्रकार से बुर्जुआ राजनीति का प्रतीक बना रहा. आजादी के बाद राममनोहर लोहिया ने अवश्य जातिव्यवस्था पर प्रहार किए, परंतु भारतीय जनमानस की धार्मिक छवि को बदलने के लिए वे भी कुछ खास नहीं कर पाए. विशेषकर धार्मिक मान्यताओं को लेकर तो वे भी भारत की लोकप्रिय राजनीति का ही परिष्कृत संस्करण जान पड़ते हैं. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि आजादी के तुरंत बाद देश में दक्षिणपंथी राजनीति मजबूत हो चुकी थी, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बनाए रखना चाहती थी. समाज के जातिवादी ढांचे को लेकर भारत के मार्क्सवादी नेताओं को भी कोई शिकायत न थी. चूंकि दक्षिणपंथी विचारों को प्रश्रय देने वाली पार्टियां दूसरी भी थीं तथा भारतीय साम्यवादी नेता समाज के उत्पीड़ित वर्ग का विश्वास जीतने में असफल सिद्ध हुए थे, इसलिए आजादी के साठ वर्ष बाद भी भारत में साम्यवादी राजनीति अपना असर छोड़ने में असमर्थ रही हैं. बीते दो दशकों में तो उदार आर्थिक नीतियों ने तो प्रशासन और मीडिया में पूंजीवाद के इतने प्रशंसक खड़े कर दिए हैं कि उनके प्रभाव में साम्यवादी राजनीति की आमजन तक पहुंच भी घटी है.

तो क्या यह मान लिया जाए कि पूंजीवाद के अंधकूप से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है? भारत में साम्यवादी राजनीति के दिन लद चुके हैं? वर्तमान और भविष्य पूंजीवाद के हाथ में है और वह अनिश्चित समय तक अपनी मनमानी करता रहेगा? रूस में साम्यवादी राजनीति के पराभव के उपरांत अराजकतावाद, समष्ठिवाद, श्रमिकसंघवाद, सहजीवितावाद, संगठनवाद, अराजक समष्ठिवाद आदि समाजवाद के जो नए विकल्प आए हैं, क्या उनका भारतीय समाज में कोई भविष्य अथवा उपयोगिता नहीं है? यह तो कहना सरासर अनुचित होगा कि भारतीय और समाज में परिवर्तन की संभावनाएं लुप्त हो चुकी हैं. भविष्य ऐसे घटाटोप के घेरे में जिससे लंबे समय तक मुक्ति असंभव है. लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि भारतीय समाज जब तक जातिवादी ढांचे को बनाए रखता है, जब तक यहां कथावाचक या पुरोहित स्तर के लोग स्वयं को भगवान कहकर जनता को बरगलाते रहेंगे, जब तक समाज में अशिक्षा का साम्राज्य है—उस समय तक भारतीय समाज में किसी स्थायी परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती. हालांकि इसी घटाटोप और नाउम्मीदी के बीच परिवर्तन की हल्कीसी सुगबुगाहट पिछले कुछ वर्षों में देखने को मिली है. भारत में जिस प्रकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनता में चेतना फैली है. मिश्र और यूनान के प्रचीनतम देशों से जैसी खबरें आ रही हैं, उनसे तो लगता है कि पूरे विश्व में तानाशाही और पूंजीवाद की वर्चस्वकारी नीतियों के विरोध में माहौल बन चुका है. लोग बदलाव चाहतें हैं. खुशी की बात यह है कि इस बार जनता खुद सड़क पर है, नेता या तो बचाव की मुद्रा में हैं अथवा उसके पीछे. प्रथम दृष्टया इसे विचारहीन क्रांतियों का दौर भी कहा जा सकता है, लेकिन इस जनआड़ोलन से जो नवनीत निकलेगा, वह अवश्य ही आमूलपरिवर्तनकारी होगा, जिसका सपना हर मानवतावादी विचारक देखता है.

ओमप्रकाश कश्यप

प्लेटो का श्रम-विभाजन का सिद्धांत एवं राजनीतिक चिंतन

प्रारंभिक समाज में सामाजिक संबंधों की स्थापना मनुष्य की जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वस्तुओं के मुफ्त आदानप्रदान के माध्यम से हुई थी. वह एक स्वाभाविक शुरुआत थी. उत्पादनसंबंधों की प्रारंभिक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति उस वस्तु को जो उसके पास उसकी आवश्यकता से अधिक होती, दूसरे व्यक्ति को देता था. बदले में वह दूसरों से अपनी जरूरत की वस्तुएं ग्रहण भी करता था. मनुष्य ने एकदूसरे से सहयोग करना, आपस में मिलकर रहना, उत्पादों का परस्पर आदानप्रदान करना आपसी समझौते के अंतर्गत केवल अपने अनुभव के बल पर सीखा था. इसके लिए न तो कोई लिखित सामाजिक संविदा थी न कोई संविधान. आदमी को यह सब अपने हितों के अनुकूल लगता था, इसलिए वह ऐसा करता था. प्लेटो का विचार था कि—

हमें अपने सपनों के राज्य का निर्माण उसके आरंभ से ही करना चाहिए. तभी वह, अपने आप को हमारी आवश्यकताओं के अनुसार ढाल सकेगा. हमारी सर्वप्रथम और सबसे बड़ी जरूरत पर्याप्त भोजन का प्रबंध करना है, जिसके सहारे हम जीवित रह सकते हैं. अगली आवश्यकता सिर पर छत की होती है तथा तीसरी वस्त्रदि सामग्री की.’

समाज के प्रत्येक नागरिक को उसकी आवश्यकता की वस्तुएं प्राप्त कैसे हों? उत्पादनतंत्र का नियोजन और नियंत्रण कैसे संभव हो? आज से 2400 वर्ष पहले प्लेटो इसके लिए श्रमविभाजन की सलाह देता है. किंतु श्रमविभाजन का यह विचार सीधे प्लेटो की कलम से नहीं आता. यह प्लेटो की महानता और अपने गुरु के प्रति समर्पण का ही सुफल है कि वह अपने विचारों को सुकरात के मुंह से सामने लाता है. श्रमविभाजन की अनिवार्यता को स्वीकारते हुए सुकरात ‘रिपब्लिक’ के दूसरे खंड में कहता है कि हम सभी अपूर्ण हैं. हमारी आवश्यकताएं इतनी हैं कि हममें से कोई भी इस योग्य नहीं कि अपनी सभी जरूरतों को पूरा कर सके. इसलिए हमें दूसरों के सहयोग की जरूरत पड़ती है. मनुष्यता के कल्याण के लिए राज्य का गठन अनिवार्य है और राज्य को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए हमें—‘हमें कम से एक किसान की जरूरत पड़ेगी. दूसरी भवननिर्माता की तथा तीसरी बुनकर की.’ ये तीनों ही मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं क्रमशः भोजन, आवास तथा वस्त्र को पूरा करने में सक्षम होंगे. पर ये तीनों तो मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएं हैं. इनसे जीवन तो संभव है, परंतु विकास के वांछित रास्ते प्रशस्त नहीं होते. विकास एवं जीवन की गतिशीलता के लिए और भी कई वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है. दूरदृष्टा प्लेटो विकास के स्थायित्व के लिए बहुत आगे की सोचते हुए एक आदर्श समाज का खाका तैयार करता है.

ईसा से चार सौ वर्ष पहले श्रमविभाजन का विचार सिर्फ मूलभूत आवश्यकताओं के प्रबंधन तक सीमित नहीं था. खासकर प्राचीन यूनान के एथेंस जैसे शहरों में, जहां एक अतिसंपन्न व्यापारी वर्ग पनप चुका था और मनुष्य की आवश्यकताएं भोजन, वस्त्र और आवास से आगे बढ़ चुकी थीं. इसलिए सुकरात और वार्तालाप में हिस्सा ले रहे उसके साथी महसूस करते हैं कि किसान, भवननिर्माता और बुनकर के अलावा कम से कम दो प्रकार के व्यक्तियों की आवश्यकता समाज को पड़ेगी. उनमें से एक मोची हो सकता है, जो बाकी लोगों के लिए जूतों का निर्माण करेगा तथा दूसरा व्यापारी, जो समाज में वस्तुओं की आपूर्ति की जिम्मेदारी संभालेगा. उल्लेखनीय है कि एथेंस में सामाजिक वर्गीकरण की यह कोशिश पहली न थी. 594 ईस्वी पूर्व में उसके महानायक सोलोन ने लोगों के आर्थिक स्तर को देखते समाज को चार वर्गों में विभाजित किया था. अपने उद्देश्य में उसको सफलता भी मिली थी. उससे पहले एथेंस एक गरीब राज्य था, उसके आसपास गांवों का समूह था, जहां किसान अंगूर और लौंग की खेती द्वारा जैसेतैसे अपना गुजारा करते थे. समाज में विकट आर्थिक असमानता थी. सोलोन ने गरीब किसानों को कर्ज मुक्ति दिलाकर एक नई शुरुआत की थी, जिससे एथेंस के विकास को नई दिशा मिली और कुछ ही दिनों में वह यूनान का प्रमुख नगरराज्य बन गया. बहरहाल, अपने लघुत्तम समाज की स्थापना के लिए प्लेटो चार या पांच प्रकार के व्यक्तियों की आवश्यकता अनुभव करता है. उसका मानना था कि राज्य की सफलता मात्र श्रमविभाजन द्वारा संभव नहीं. अधिक जरूरी यह है कि समाज के विभिन्न वर्गों में समुचित तालमेल हो. वे एकदूसरे की आवश्यकताओं को समझें तथा अपनीअपनी जिम्मेदारियों का विधिवत पालन करें. वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि प्रत्येक व्यक्ति उस कार्य को चुने जिसे वह सबसे अच्छी तरह कर सकता है—जिसको करने से उसे सर्वाधिक संतुष्टि प्राप्त होती हो. प्लेटो की समाजरचना में स्त्रीपुरुष का कोई भेद न था. उसका मानना था कि स्त्री एवं पुरुष दोनों के भीतर एक ही आत्मा का वास है, जो न स्त्री है, न ही पुरुष. इसलिए प्रत्येक प्राणी को अपनी रुचि के अनुकूल व्यवसाय का चयन करने का अधिकार है—

कार्य तभी श्रेष्ठ और सरल होगा जब प्रत्येक व्यक्ति को उपयुक्त समय पर मनोवांछित कार्य चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता होगी, ऐसा कार्य जो उसकी रुचि और प्रकृति के सर्वाधिक अनुकूल हो.’

प्लेटो मानता था कि मानवमात्र में से कोई भी संपूर्ण नहीं है. प्रत्येक की सीमा है. वह कार्यविशेष को ही दक्षतापूर्वक कर सकता है. परंतु उसकी आवश्यकताएं अनेक हैं. किसान का कार्य केवल अनाज उत्पादन से नहीं चल जाता. उसको रहने के लिए घर, पहनने के लिए वस्त्र, खेती करने के लिए औजार भी चाहिए. यदि वह अपनी जरूरत का सारा सामान उत्पादित करने का प्रयास करे तो इसमें वह शायद ही सफल हो सके, किंतु यदि वह अपनी ऊर्जा किसी एक काम में लगाता है, तब वह अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर सकता है. उस उत्पाद का आदानप्रदान वह उन व्यक्तियों के साथ बहुत आसानी से कर सकता है, जो उसकी आवश्यकता की शेष वस्तुओं को बनाने में दक्ष हैं. प्लेटो के अनुसार बड़े सामाजिक समूह यानी शहरों में लुहार, बढ़ई, रसोइये, राजगीर, भवननिर्माता, मोची, बुनकर आदि कामगार तो होने ही चाहिए. इनके साथसाथ व्यापारी, बैंकर, सेवाप्रदाता शिल्पकर्मी आदि भी समुचित संख्या में हों, ताकि वहां एक सफल नागरिक जीवन फलफूल सके. ‘रिपब्लिक’ में वह सुकरात के मुंह से कहलवाता है कि मध्य वर्ग में आने वाले पढ़ेलिखे व्यक्ति, दुकानदार, व्यापारी आदि मिलकर बैंक, दुकान आदि की देखभाल करें. ताकि लोगों को उनकी जरूरत की वस्तुएं आसानी से, समय पर और उचित मूल्य पर प्राप्त होती रहें. प्लेटो विभिन्न व्यवसायों की जरूरत तथा उनके वर्गीकरण तक ही स्वयं को सीमित नहीं रखता. वह आगे बढ़कर उन उद्यमों के लिए दक्ष कारीगरों, दस्तकारों और किसानों के रहने की व्यवस्था की भी परिकल्पना करता है. उसके अनुसार व्यापारी को बाजार में, किसान और दस्तकार को अपने उद्यम के निकट ही रहना चाहिए, ताकि आवश्यकता पड़ने पर उनके ग्राहक उनसे संपर्क कर सकें.

प्लेटो तथा उसका शिष्य अरस्तु जिसने आगे चलकर समाज को ज्यादा बारीकी से विभिन्न प्राणी वर्गों में विभाजित किया था, जो आज तक मान्य है, ऐसी सामाजिक व्यवस्था चाहते थे, जिसमें व्यक्तिमात्र अपने पूरी योग्यता एवं सामर्थ्य का उपयोग कर सके. जहां व्यापारी व्यापार द्वारा धनार्जन करें, चिकित्सक लोगों के स्वाथ्यलाभ का ध्यान रख सकें, सैनिक आवश्यकता पड़ने पर भीतरी और बाहरी संकट से देश की रक्षा करें. दस्तकार वर्ग जैसे काष्ठशिल्पी, लौहकार, चर्मकार, दर्जी, राजमिस्त्री, बुनकर आदि अपनेअपने क्षेत्र में कार्यरत रहते हुए सामाजिक विकास में अपना यथासंभव योगदान दें. ‘पालिटक्स’ में अरस्तु ने लिखा था कि शासक के राजकौशल की सफलता तब है, जब राज्य के सभी लोग, अपनीअपनी योग्यता के अनुसार कर्तव्यपालन में लीन हों. राज्य अनुशासित एवं विकासमान अवस्था में हो तथा सभी लोग खुश हों. उसी अवस्था में राज्य में ‘शुभत्व’ की व्याप्ति संभव है. सुकरात के मन में परमसत्ता के प्रतीक के रूप में जन्मी ‘शुभत्व’ की संकल्पना को अरस्तु और प्लेटो न केवल समर्थन देते हैं, बल्कि दोनों ही उसे अपनीअपनी तरह से आगे भी बढ़ाते हैं. उनके बीच मतांतर हैं, चीजों को देखने की दृष्टि भिन्नभिन्न है, तो भी लक्ष्य को लेकर वे अविवादित रूप से एक हैं. प्लेटो का मानना था कि ‘शुभत्व’ के प्रत्यय को एक दार्शनिक सम्राट ही भलीभांति समझ सकता है. इसलिए उसने शासक के रूप में दर्शनशास्त्री की वकालत की थी. उसका मानना था कि राष्ट्रवादी शासक बजाय लोकोन्मुखी व्यवस्था के अपने इर्दगिर्द सत्ता और शक्ति का केंद्र बनाए रखने पर जोर देगा. और जितना वह अपनी स्वार्थपूर्ति पर जोर देगा उतना ही सत्ता के छिन जाने का डर भी बढ़ता जाएगा. किसी भी अप्रिय स्थिति से बचने के लिए वह कल्याणकारी समाज की स्थापना के बजाय सैन्य कार्रवाही में दक्ष राज्य की स्थापना पर जोर देगा. इससे समाज में शक्ति की होड़ पैदा होगी तथा स्तरीकरण को बढ़ावा मिलेगा. यह ‘शुभत्व’ नहीं, उसकी भ्रांति ही कही जाएगी.

सुकरात, प्लेटो और अरस्तु की दार्शनिकत्रयी के तीनों विद्वान सदस्य ‘शुभत्व’ को अत्यधिक महत्त्व देते थे. हालांकि ‘शुभत्व’ संबंधी तीनों की अवधारणा भिन्न है. सुकरात के लिए केवल ‘ज्ञान ही परमशुभ’ है. प्लेटो ने ‘शुभत्व’ का थोड़ासा विस्तार किया. उसने भी माना कि वास्तविक ज्ञान का बोध होना ही ‘शुभत्व’ का प्रतीक है. लेकिन उसकी की प्राप्ति सर्वथा आसान भी नहीं है. यह व्यक्ति की अपनी कमजोरियों, स्वार्थकामनाओं से बाधित होती रहती है. उसके लिए ‘शुभत्व’ ज्ञान की उपलब्धता के साथ सामाजिक और राजनीतिक चेतना का भी पर्याय है, जिसके कारण कुछ विचारक उसको भौतिकवादी भी मानते हैं. हालांकि प्लेटो की विचारधारा उस भौतिकवाद से बहुत दूर है, जिसका विस्तार हमें माक्र्स एवं ऐंगल्स के चिंतन में दिखता है. प्लेटो का भौतिकवादी चिंतना भी भावनाओं से लबरेज है. तो भी समाज के विभिन्न वर्गों में विभाजन की उसकी योजना आधुनिक जीवन से बहुत कुछ मिलती है—

इस तरह हमारे आदर्श राज्य की रचना तो पूरी हुई. अब हम वहां के नागरिकों के जनजीवन, उनके रहनसहन के ढंग पर चर्चा करते हैं, जैसा कि हमने उनके बारे में अभी तक निश्चित किया है. क्या वे अपने भरणपोषण के लिए अनाज उत्पादन की जिम्मेदारी नहीं संभालेंगे तथा अपनी आवश्यकतानुसार अन्य वस्तुओं यथा जूते, वस्त्र, शराब आदि का निर्माण नहीं करेंगे? एक बार गृहनिर्माण के दायित्व से मुक्त होने के बाद ग्रीश्मकाल में वे सामान्यतः नंगे तनबदन रहकर काम करेंगे, किंतु सर्दी में ठंड से बचने के लिए उन्हें भरपूर वस्त्रों सहित जूतांे की भी दरकार होगी. गेंहूं और जौ के आटे को मांडकर अपने लिए वे स्वादिष्ट केक और डबलरोटियों का निर्माण करेंगे. पकाए हुए भोजन को स्वच्छ पत्तियों अथवा यत्न से बुनी गई स्वच्छ चटाइयों पर परोसेंगे. बिस्तर के लिए उन्हें साफ चादरों की भी जरूरत होगी, जिसके लिए वे सर्वोत्तम सामग्री का चयन करेंगे. पवित्र अवसरों पर वे अपने परिवार के साथ महान देवता के लिए उपवास रखेंगे, उसके बाद स्वयं की बनाई मदिरा का सेवन कर, सिर पर फूलमालाएं धारण कर, उत्सव मनाते हुए वे देवता की अभ्यर्थना करेंगे. युद्ध और गरीबी जैसी आपदाओं पर नजर रखते हुए वे इस बात का भी पूरा ध्यान रखेंगे कि उनका परिवार उनके द्वारा स्थापित जीवनमूल्यों का पालन करे.’

अपनी राज्य योजना में प्लेटो उन सभी वस्तुओं की परिकल्पना करता है, जो नागरिकों के स्वस्थ, सुखी एवं संपन्न जीवन के लिए अनिवार्य मानी जाती हैं. ये वे न्यूनतम आवश्यकताएं हैं, जिनके बिना मानवजीवन असंभव है. इन अनिवार्य वस्तुओं में वह उत्तम मदिरा के अलावा मक्खन, पनीर, फलों तथा अन्य खाद्य सामग्रियों की भी अपने नागरिकों के रोजमर्रा के भोजन के रूप में कामना करता है, जिससे वे वृद्धावस्था में भी स्वस्थ एवं शांतिमय जीवन बिता सकें तथा वैसा ही जीवन अपने बच्चों के लिए भी सौंप सकें. सुकरात इससे भी परिचित था कि व्यक्ति की कामनाओं का अंत नहीं है. इसलिए चर्चा में भाग ले रहा ग्लुकोन जब उससे जीवन के लिए आधुनिकता की प्रतीक कुछ और वस्तुओं जैसे सोफा सेट, डाइनिंग टेबिल आदि को भी आदर्श राज्य के नागरिकों के जीवन में शामिल करने को कहता है, तो सुकरात उसके विरोध में नए तर्क के साथ उपस्थित हो जाता है—‘निःसंदेह समाज में ऐसे भी व्यक्ति होंगे जो सादा जीवन से संतुष्ट न हों. उन्हें आराम के सोफा, भोजन के लिए मेजकुर्सी, इत्रफुलेल, स्वादिष्ट केक यहां तक कि रखैलों की जरूरत पड़ेगी, वह भी एक तरह के नहीं, बल्कि जितने हैं, सभी प्रकार के. जीवन में इन वस्तुओं की अनिवार्यता को स्वीकारते हुए हम अपने उन वस्तुओं की सूची से आगे निकल जाते हैं, जिन्हें हमने अभी तक जीवन की मूलभूत आवश्यकता माना है, जैसे भोजन, वस्त्र, आवास और जूते आदि. फिर तो हमें खूबसूरत कलाकृतियों, इंब्राडरी, सोने और हाथी दांत की वस्तुओं को भी इस सूची में सुरक्षित रखना पड़ेगा.’

ग्लुकोन इसपर सहमति व्यक्त करता है. सुकरात मानो इसी की प्रतीक्षा में हो. अपने तर्क को और आगे बढ़ाते हुए वह कहता है कि अगर व्यक्ति की आवश्यकताएं इसी तरह अंतहीन विस्तार लेती रहीं तो एक दिन प्रत्येक व्यक्ति तथा समूह की अंतहीन इच्छाएं होंगी. हालांकि यह राज्य का दायित्व होगा कि वह न्याय के हित में अपने नागरिकों को वे सभी वस्तुएं उपलब्ध कराए, जिन्हें वे अपने लिए आवश्यक मानते हैं. परंतु क्या किसी राज्य के लिए यह संभव है कि वह अपने नागरिकों की समस्त कामनाओं की पूर्ति कर सके. व्यावहारिक दृष्टि से यह काम कठिन ही नहीं बल्कि असंभव होगा. और वह भूमि जो अपने नागरिकों की समस्त मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम है, एक दिन छोटी पड़ने लगेगी. निरंतर बढ़ती हुई कामनाएं समाज में असंतुलन और आक्रोश पैदा करेंगी, और तब—

यह धरती जो अपने नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम है, बहुत छोटी पड़ जाएगी….उस अवस्था में हम पड़ोसी की जमीन का कुछ हिस्सा चाहेंगे, ताकि उससे अपनी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें. लेकिन जिस प्रकार हमारी निगाह पड़ोसी की रोटी पर है, वैसे ही उसकी निगाह भी, यदि वह भी अपनी विलासिता को अनियंत्रित तरीके से बढ़ाता रहा तो, हमारी रोटी पर होगी.’

इससे राज्यों के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा होगी. उसको नियंत्रित करने के लिए ढेर सारा श्रम और संसाधन खपाने पड़ेंगे. इससे विकासधारा अवरुद्ध होगी. तब, प्लेटो के अनुसार युद्ध अपरिहार्य हो जाएगा. राज्य को अपनी सुरक्षा पर भारीभरकम धनराशि खर्च करनी पड़ेगी. चूंकि दुश्मन राज्य के नागरिकों की भी ऐसी ही महत्त्वाकांक्षाएं होंगी, इसलिए अपने राज्य के नागरिकों तथा उनकी संपत्ति की सुरक्षा के लिए सेना को हर समय युद्ध के मोर्चे पर सन्नद्ध रहना पड़ेगा. प्लेटो के अनुसार कामनाओं की अंतहीन स्थिति में युद्ध अपरिहार्य हो जाएगा. एक अन्य महत्त्वपूर्ण संवादपुस्तक ‘फीडियो’ में वह कहता है कि—

सभी युद्धों का एक ही ध्येय है—संपत्ति हड़पना.’

आगे वह लिखता है कि युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं है. इसलिए भारीभरकम सेना के बावजूद राज्य के लिए अपने अस्तित्व को कायम रखना निरंतर कठिन होता जाएगा. आंतरिक और बाह्यः चुनौतियां उसकी एकता एवं अखंडता पर प्रहार करने लगेंगी. इसके बाद वह उस निष्कर्ष की ओर बढ़ता है, जो ‘रिपब्लिक’ के दूसरे खंड का प्रतिपाद्य विषय है. उसके अनुसार नागरिकों की अंतहीन कामनाएं समाज में असंतोष को बढ़ावा देंगी, जिससे वह दूसरे की संपत्ति पर लालचभरी नजर रखेगा. यह स्थिति अशांति को बढ़ावा देगी. इससे राज्य में अराजकता फैल सकती है. उस अवस्था में राज्य की देखभाल कौन कर सकता है? प्लेटो के अनुसार यह यह काम दार्शनिकों के एक समूह को सौंपा जाना चाहिए. ऐसे योग्य व्यक्तियों को जो मित्रों और शत्राुओं में भेद करना जानते हों. दार्शनिकों को और क्या करना चाहिए—

उन्हें अपने शत्रुओं के प्रति खतरनाक तथा मित्रों के लिए विनम्र होना चाहिए. यदि ऐसा नहीं है तो वे स्वयं को, इससे पहले कि शत्रु आकर उन्हें नष्ट करे, अपने आप नष्ट कर लेंगे.’

प्लेटो दार्शनिक सम्राट की उपयोगिता का बखान हालांकि अपने गुरु सुकरात के माध्यम से करता है, परंतु यह परिकल्पना प्लेटो की अपनी कल्पना थी. राज्यसंरक्षकों के रूप में वह ऐसे सर्वगुणसंपन्न व्यक्तियों को नियुक्त करना चाहता था, जो न केवल युद्धनीति, बल्कि राजनीति, प्रबंधन, सुरक्षा, उत्पादन, कला एवं संस्कृति संरक्षण में भी पारंगत हों. संरक्षकवर्ग में युवा और अनुभवी दोनों को प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए. किंतु युवा संरक्षकों को वृद्ध संरक्षकों के अनुभवों का लाभ मिले—यह अनुशासनात्मक प्रावधान भी वह अपने ‘रिपब्लिक’ में करता है. उसके अनुसार युवा संरक्षकों का चयन उनकी योग्यता के आधार पर किया जाना चाहिए. संरक्षकों का दायित्व है कि वे ‘कुत्ते’ की भांति प्राणप्रण से राज्य की सुरक्षा में जुटे रहें. यहां ‘कुत्ता’ शब्द का प्रयोग आलंकारिक है और वह सुदृढ़ सरकार के लिए प्रयुक्त है, जिसके कर्ताधर्ता अपने दायित्वों के प्रति सजग हों. समाजरचना में प्लेटो जिस सादगी और सरलता का पक्ष लेता है, वह स्पार्टा से प्रेरित थी. जहां व्यक्ति को पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त रखा जाता था. प्लेटो ने हालांकि उद्यमी वर्ग को निजी संपत्ति रखने की अनुमति दी थी, साथ ही उसने संरक्षक दार्शनिकों को यह अधिकार भी दिया था कि वह संपत्ति के अतिरिक्त जमाव पर नजर रखे. इसी प्रकार यदि कहीं गरीबी बढ़ती जा रही है तो उसको भी नियंत्रण में रखे, ताकि समाज में आर्थिक संतुलन कायम रहे. वह मानता था कि संपत्ति का असमान विभाजन, यानी समाज का अमीर और गरीब वर्ग में विभाजन सामाजिक आक्रोश को बढ़ावा देगा, जो सामाजिक शांति और सद्भाव के लिए कभी भी चुनौती बन सकता है.

राजनीतिक दर्शन

प्लेटो दार्शनिक सम्राट का पक्षधर था. लोकतंत्र को लेकर भी वह बहुत आशान्वित नहीं था. उसके अनुसार ऐसे लोगों को राज्य की बागडोर नहीं सौंपी जा सकती, जो मंदबुद्धि, अस्थिर और भीड़ का आचरण करने वाले हों, जिन्हें दर्शन का जराभी ज्ञान न हो. उसके अनुसार लोकतांत्रिक पद्धति लोगों को बहुमत की राय के अनुसार शासित होने तथा आचरण करने के लिए बाध्य करती है. बहुमत के आकलन के लिए सिर्फ उस पक्ष के लोगों की संख्या देखी जाती है. किसी कारण मतदान प्रक्रिया से बाहर रह गए अथवा छोड़ दिए गए लोगों तथा अल्पमत वाले नागरिकों की इच्छा का वहां कोई मूल्य नहीं होता. इसलिए उन्हें अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बहुमत की प्रतीक्षा करनी पड़ती है. इस तरह लोकतंत्र में वे लोग सत्ता से बाहर रह जाते हैं, जो अल्पमत में हैं, भले ही वे कितने ही बुद्धिमान, योग्य तथा तार्किक रूप से सही क्यों न हों. प्लेटो पाइथागोरेस के अनुयाइयों के इस तर्क से सहमत था कि लोकतंत्र ‘असमान लोगों की समानता’ है, जिसमें अल्पमत नागरिकों को बहुमत की राय के अनुरूप अनुसरण करने के लिए बाध्य किया जाता है. प्लेटो के अनुसार दार्शनिक मंडल को शासन की जिम्मेदारी सौंपने से लोकतंत्र की अनेक बुराइयों से बचा जा सकता है.

प्लेटो ने सुदीर्घ और सक्रिय जीवन जिया. इस अवधि में वह लगातार लेखन करता रहा. उसका लिखा विपुल साहित्य आज भी हमें उपलब्ध है. हालांकि उसमें बाद के विचारकों द्वारा प्रक्षेपण भी खूब हुआ है, मगर किसी भी ख्यातिनाम विचारक के लिए यह अनहोनी या असामान्य घटना नहीं है. लेकिन जिन पुस्तकों को विद्वान प्लेटो द्वारा रचित मानते हैं, उनमें भी ऐसे कई विरोधाभास हैं, जिनसे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसके विचार लगातार बदलते रहे थे. किसी भी विचारक के लिए यह एकदम स्वाभाविक बात है. आदर्श राज्य अथवा सरकार की अवधारणा में भी उसके पूर्ववर्ती और परिवर्ती विचारों में अंतर देखने को मिलता है. प्लेटो के ‘रिपब्लिक’ और ‘ला॓ज’ में आए कुछ विचार तो आज भी विद्वानों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं.

प्लेटो अपने गुरु सुकरात की इस विचार से सहमत था कि मनुष्य तीन प्रकार की ऐषणाओं से युक्त होता है. पहली ऐषणा उसकी मूलभूत आवश्यकताओं से निर्मित होती है—यथा आवास, भोजन, वस्त्रदि. दूसरी ऐषणा मन यानी जिज्ञासा होती है जिसमें वह अपने भीतरी और बाहरी संसार के बारे में कुछ धारणाएं बनाता हैं, जिससे उसका जीवन संचालित होता है. इन दोनों के बीच समन्वय करने वाली तीसरी ऐषणा अथवा प्रवृत्ति उसका तर्कसामर्थ्य अथवा विवेक है, जो उसको बाकी प्राणियों से विशिष्ट दर्शाता है. तथा जिसके द्वारा वह सभ्यता और बोध के उच्चतम स्तर की ओर गतिमान रहने का प्रयास कर सकता है. मनुष्य की इन तीन प्रवृत्तियों अथवा ऐषणाओं के आधार पर सुकरात ने समाज को भी तीन वर्गों यथा उत्पादक, संरक्षक तथा शासक में विभाजित किया है. इस विभाजन के अनुसार समाज के तीन निम्नलिखित अंग हैं—

1. उत्पादक: इस वर्ग में समाज के वे लोग सम्मिलित हैं जो उसके भरषपोषण यानी उत्पादन का दायित्व वहन करते हैं. इनमें किसान, मजदूर, लौहार, बढ़ई, दुकानदार, गड़हरिये, राजमिस्त्री, प्लंबर आदि आते हैं, जो अपने श्रमकौशल से समाज की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं. हम मानव शरीर में इसकी तुलना पेट से कर सकते हैं.

2. संरक्षक: संरक्षक वर्ग का समाज में वही स्थान है, जो मानव शरीर में छाती और भुजाओं का है. ऐसे लोग जो बहादुर एवं साहसी हैं, जो शारीरिक रूप से मजबूत तथा खतरों का सामना करने को तत्पर रहते हैं वे सैन्य सेवाओं के लिए उपयुक्त होते हैं. ऐसे व्यक्तियों को राज्य की सेवा की जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए. चूंकि इन कार्यों के लिए विवेक की भी आवश्यकता होती है, अतएव इन्हें मानव शरीर में ‘आत्मन्’ के तुल्य माना गया है.

3. शासक: शरीर में जो काम मस्तिष्क का है, वही काम समाज में प्रशासक वर्ग का है. ऐसे व्यक्ति तो बुद्धिमान और तार्किक हैं, जिनमें धैर्य और आत्मनियंत्रण की भावना है, जो ज्ञान के प्रति समर्पित, उदार एवं सबके कल्याण की सोचने वाले हैं. वे समाज के प्रशासक वर्ग में चुने जा सकते हैं. प्लेटो ने इन्हें समाज का मस्तिष्क माना है. ऐसे व्यक्ति समाज में हालांकि बहुत कम संख्या में होते हैं, तो भी समाज के हित के लिए यह जरूरी है कि नेतृत्व की जिम्मेदारी इन्हीं लोगों को सौंपी जाए.

प्लेटो के समय में एथेंस में जो गणतांत्रिक पद्धति प्रचलन में थी, उसके समर्थकों का विश्वास था कि समाज में बहुत कम ही लोग होते हैं, जिनमें शासन करने का गुण होता है. कुछ अर्थों में प्लेटो भी उनसे सहमत था. किंतु उसका मानना था कि शिक्षा के द्वारा व्यक्ति के ज्ञान और विवेक में सुधार लाकर उसे शासन करने योग्य बनाया जा सकता है. इसके लिए प्लेटो ने जलयान के कप्तान तथा डाक्टर का उदाहरण दिया था. उसके अनुसार जिस प्रकार जलयान पर नियंत्रण करने अथवा रोगों से उपचार के लिए विशिष्ट ज्ञानयुक्त पेशवरों की आवश्यकता होती है. इसी प्रकार शासन करना भी विशिष्ट योग्यता की अपेक्षा करता है. दार्शनिक समर्थन के पीछे प्लेटो की मान्यता थी कि वे न केवल विवेकवान एवं दूरदृष्टा होते हैं, बल्कि उनमें सत्य के प्रति तीव्र आग्रहशीलता भी होती है. अधिकतम लोगों को अधिकतम विवेकवान कैसे बनाया जाए? समाज की जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए अधिकतम दार्शनिक कैसे पैदा किए जाएं? फिर दार्शनिकों की विवेकशीलता भी सनातन नहीं. उनका बौद्धिक क्षरण भी संभव है. ऐसी समस्याओं पर ‘रिपब्लिक’ में विस्तार सहित चर्चा की गई है. उल्लेखनीय है कि प्लेटो के आदर्शलोक में किसानों, शिल्पकर्मियों, सौदागरों, तथा मजदूरों को तो रहने का सम्मानजनक स्थान था. परंतु उसने इत्रफुलेल का धंधा करने वालों, वेश्याओं, पेस्ट्री अथवा केक बनाने के कारखानों, सुनार, हाथीदांत आदि पर नक्काशी करने वालों, बग्गी बनाने वालों, कवियों और चित्रकारों के लिए बहुत कम स्थान था. उसका मानना था कि ये वे प्रशाधन हैं, जिनका समाज के उच्चवर्गीय लोग ही उपयोग कर सकते हैं.

राज्य और प्रशासक के बारे में भी प्लेटो के विचार अपने समकालीनों से हटकर थे. अपने विचारों के पक्ष में उसने कई रोचक तर्क भी दिए हैं. लोकतंत्र के बारे में टिप्पणी करने से पहले वह प्रश्न करता है—‘निकृष्ट लोकतंत्र अथवा तानाशाही? इनमें आपकी दृष्टि में क्या श्रेष्ठतर है?’ वह प्रश्न उछालकर ही शांत नहीं हो जाता. उसपर आगे भी विचार करता है. लंबे विमर्श के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि एक बुरे लोकतंत्र की अपेक्षा बुरे तानाशाह के शासन में रहना अच्छा है. इसलिए कि लोकतंत्र में पूरा समाज बुरे काम में संलिप्त होता है, बजाय व्यक्ति अथवा समूहविशेष के. यह कुछ ऐसा ही है जैसे जहाज के कप्तान के कंपार्टमेंट में पूरी भीड़ घुस आई हो. अंदर आए लोगों में से प्रत्येक अपनी हांक रहा हो. कोई किसी की सुनने, धैर्यपूर्वक विचार करने या अपना पक्ष रखने को तैयार न हो. दूसरी ओर जहाज का कप्तान भी मनमानी करने लगे तो वह भी राज्य के लिए अहितकर सिद्ध होगा. अतः अत्यावश्यक है कि दूसरे नागरिकों की भांति कप्तान भी लोकतांत्रिक नियमों का पालन करे. यह तभी संभव है जब कप्तान दूरंदेश और सबके प्रति समान व्यवहार करने वाला हो. उसमें दूसरों की इच्छाआकांक्षाओं के प्रति सम्मान हो. प्लेटों का यह विचार जहां लोकतंत्र का समर्थन करता है, वहीं उसकी समस्याओं की ओर इशारा भी करता है. वह मानता है कि राज्य में विभिन्न विचारधाराओं के समर्थक व्यक्ति हो सकते हैं. नागरिकों में से कुछ अभिजाततंत्र और कुछ कुलीनतावाद के समर्थक हो सकते हैं. उन्हीं में से कुछ को तानाशाह से लगाव हो सकता है. जबकि कुछ लोकतंत्र को सर्वोत्तम शासन पद्धति मानते होंगे. नागरिकों के इन मतांतरों में यदि समुचित समन्वय न हो तो उनमें आक्रोश पनप सकता है. व्यापक असंतोष की स्थिति अंततः तानाशाही व्यवस्था को पनपने का अवसर दे सकती है, जो प्रकारांतर में अराजकता की जननी है.

प्लेटो की विचारधारा में प्रारंभिक समाजवाद के लक्षण स्पष्ट नजर आते हैं. उसके अनुसार अत्यधिक धन और निर्धनता दोनों ही कार्य की गुणवत्ता एवं कारीगर की कार्यकुशलता पर प्रतिकूल असर डालते हैं. अत्यधिक धन ‘विलासिता, सुस्ती तथा अभिजात्यबोध पैदा करता है. दूसरी ओर निर्धनता से कार्यकुशलता का हृास होता है, यह व्यक्ति को ‘ओछा और समझौतावादी’ भी बनाती है. समाज में धन के असमान वितरण से ही शासक वर्ग का जन्म तथा उसको मनमानी करने का अवसर प्राप्त होता है. इन स्थितियों से सर्वथा बच पाना संभव नहीं. इसलिए आवश्यक है कि शासन की बागडोर ऐसे लोगों के हाथों में सौंपी जाए जो दार्शनिक प्रवृत्ति के हों. जो समाज में विचारों और राज्यकल्याण को धन से अधिक महत्त्व देते हों. जिनके लिए व्यक्तिमात्र का सुख भी उतना ही महत्त्वपूर्ण हो, जितना उनका अपना सुख. प्लेटो की यही मान्यता दार्शनिक सम्राट की परिकल्पना का आधार बनी. चूंकि व्यक्ति की अपनी दुबर्लताएं होती हैं, कोई भी अपने आप में परिपूर्ण नहीं है. इसलिए किसी एक को सारे अधिकार दिए जाने से तानाशाही की स्थिति पैदा हो सकती है. उससे बचने के लिए अत्यावश्यक है कि निर्णय की प्रक्रिया में अधिकतम लोगों को भागीदार बनाया जाए. इसके लिए वह ‘संरक्षक’ वर्ग की नियुक्ति का सुझाव देता है. प्लेटो व्यवस्था करता है कि संरक्षकों के लिए शिक्षा की न्यूनतम योग्यता निर्धारित होगी. उनपर राज्य की अंदरूनी और बाहरी सुरक्षा की जिम्मेदारी होगी, इसलिए उनके लिए अनिवार्य सैन्य प्रशिक्षण के साथ राजनीतिकसामाजिक दर्शन का ज्ञान भी अत्यावश्यक होगा.

अपने आदर्शलोक के लिए प्लेटो साधारण नागरिकों के कर्तव्यों का भी निर्धारण करता है. उसके अनुसार संरक्षक वर्ग के अलावा शेष नागरिकों को बड़े ही सहज भाव से, किंतु उनकी रुचि एवं योग्यताओं का ध्यान रखते हुए विभाजित किया जाएगा. प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व होगा कि वह निर्धारित कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा के साथ करे. चिकित्सक का कर्तव्य होगा कि वह नागरिकों के स्वास्थ्य की भलीभांति देखभाल करे और उन्हें शारीरिक रूप से हृष्टपुष्ठ बनाए रखने में अपना भरपूर योगदान दे. व्यापारी वर्ग का दायित्व होगा कि वह राज्य में आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति को बनाए रखे, तथा व्यापार में निजी हित की अपेक्षा राज्यकल्याण को सर्वोपरि समझे. शारीरिक रूप से अस्वस्थ और असाध्य रोगों के शिकार नागरिकों के प्रति प्लेटो का रवैया अनुदारता पूर्ण था. वह उन्हें समाज के लिए अनावश्यक मानते हुए करीबकरीब मरने के लिए छोड़ देता है. उसने संरक्षकों के लिए न्यूनतम आयु भी निर्धारित की है. उसका मानना था कि पर्याप्त अध्ययन और प्रशिक्षण के बाद, करीब पचास की अवस्था में व्यक्ति संरक्षक का दायित्व वहन करने योग्य हो जाता है. उसके अनुसार संरक्षक का जीवन सादा और आचरण दूसरों के लिए अनुकरणीय होना चाहिए. उसका सुखामोद दर्शनशास्त्र के अध्ययन, राज्य कल्याण के लिए चिंतनमनन में होना चाहिए. प्लेटो कुछ परिस्थितियों को छोड़कर व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा का विरोधी था. समाज में आर्थिक समानता बनाए रखने के लिए उसने व्यवस्था की थी कि राज्य में संरक्षक का दायित्व संभालने वाले व्यक्तियों को भी अन्य नागरिकों की भांति सामूहिक भोजनालय में भोजन करना होगा. मनोरंजन के लिए अपने पास कुछ वस्तुएं रखने का अधिकार उसने संरक्षकों को दिया है. पर उसके वह संपत्ति का भोग राज्य की अमानत की भांति करना चाहिए—

उन्हें (गार्जियन को) सैनिकों की भांति सामूहिक आवासस्थलों में सबके साथ रहना होगा तथा सबके साथ सामूहिक भोजनालय में भोजन करना होगा. उन्हें यह समझना चाहिए कि उन्हें सोने और चांदी के गहनों की कतई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनके हृदय उससे कहीं अधिक पवित्र स्वर्गीय स्वर्णआभा और रजतआभाओं से दीप्तिमान हैं…’

संरक्षक वर्ग जब इस प्रकार आदर्श और जीवनमूल्यों से भरपूर आचरण करेगा, जब वह अपनी कामनाओं की पूर्ति राज्यकल्याण और जनसाधारण के उद्धार में देखने लगेगा, तो राज्य की अनेक समस्याएं यथा संपत्ति के लिए युद्ध, सामाजिक असंतोष, अंतद्र्वंद्व आदि स्वतः समाप्त होते जाएंगे. उनके आचरण से अन्य नागरिक भी प्रभावित होंगे. उस अवस्था में पूरा राज्य एक समान नागरिक चेतना और नैतिक भावनाओं से अनुशासित होगा. ‘रिपब्लिक’ में प्लेटो ने ऐसे राज्य को आदर्श माना है. ऐसा राज्य निम्नलिखित सद्गुणों से स्वतः अनुशासित होगा—

ज्ञान : शासन प्रणाली के कामकाज में.

साहस : सुरक्षा प्रणाली की कार्रवाही में.

सहिष्णुता : शासनतंत्र के समस्त कार्यकलापों में.

उपर्युक्त तीन सदगुणों को हम प्लेटो के आदर्शराज्य का लक्षण भी मान सकते हैं. आगे वह व्याख्या करता है कि ‘संरक्षक’ स्वयं ‘ज्ञान’ का प्रतिरूप होंगे, उन्हीं से ज्ञान की धारा समाज के अन्य वर्गों में प्रवाहित होगी. वे साहसी भी होंगे तथा उनके साहस से प्रेरणा लेकर सैन्यदल राज्य की सुरक्षा को संगठित होंगे. समाज के विभिन्न वर्गों तथा प्रशासनतंत्र के में आपसी सामन्जस्य और सहिष्णुता अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं. मगर यह तभी संभव है, जब शासक, प्रशासक एवं उत्पादक शक्तियों के बीच संपूर्ण तालमेल एवं विश्वास की भावना हो.

राज्य की अवधारणा को लेकर प्लेटो ने जो विचार प्रस्तुत किए थे, उनके साथ विडंबना रही कि वे शायद ही कभी किसी राज्य में शासन प्रणाली के रूप में अपनाए जा सके. स्वयं प्लेटो का शिष्य अरस्तु ही अपने गुरु के राजनीतिक विचारों से असहमत था, अपनी महत्त्वपूर्ण कृति ‘दि पाॅलिटिक्स’ मंे उसने एक सुदृढ़ केंद्र का समर्थन किया है. लेकिन वहां दार्शनिक सम्राट का कोई उल्लेख नहीं है. दरअसल अरस्तु के समय तक राजनीतिक में साम्राज्यवाद के बीज अंकुराने लगे थे. ‘दि पाॅलिटिक्स’ में अरस्तु ऐसी ही राजनीति का समर्थन करना दिखाई पड़ता है. हालांकि नवप्लेटोवाद के व्याख्याताओं में से एक ब्रिटिश दार्शनिक कार्ल रेमंड पोपर(28 जुलाई, 1902—17 सितंबर, 1994) जैसे कुछ विद्वानों ने नवप्लेटोवाद के कुछ लक्षण पूर्व सोवियत संघ की शासन प्रणाली में अनुभव किए थे. उसके अनुसार सोवियत संघ—

नवप्लेटोवाद का आधुनिक उदाहरण था. इसलिए कि वहां एक अभिजात किस्म का शासक वर्ग (सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी) था, राज्य में शिक्षा के प्रति तीव्र लगाव, लैंगिक समानता पर पूरा जोर तथा पारिवारिक संस्था के प्रति अनाकर्षण का भाव था. इसके साथ ही वह व्यक्तिगत संपत्ति की भावना का निषेध करता था. हालांकि, यह भी सच है कि अपनी अत्यधिक समृद्धि और ज्ञान की होड़ के कारण ही वह तंत्र नाकाम भी हुआ, जिसकी कल्पना प्लेटो ने की थी.’

स्पष्ट है कि प्लेटो ने न केवल आदर्श राज्य के लक्षणों की व्याख्या की है, बल्कि क्षरणशील राज्यव्यवस्थाओं के गहन अध्ययन के उपरांत यह भी बताया है कि ऐसे राज्य, जहां न्याय की अवमानना हो, नागरिक समाज में सहिष्णुता एवं सामंजस्यभावना का अभाव हो, की अंतिम नियति क्या हो सकती है.! कैसे वह अवनति को प्राप्त होगा! उसका मानना था कि अन्यायी तंत्र में बुराइयां सिर्फ ऊपरी स्तर तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि वे निचले स्तरों पर भी फैलती चली जाती हैं. इसका नुकसान पूरे समाज को उठाना पड़ता है. एक दिन पूरा समाज विकृति का रूप धारण कर अपने ही बोझ से धराशायी हो जाता है. सोवियत संघ में कुछ ऐसा ही हुआ था. उसकी स्थापना एक समानताआधारित समाज की परिकल्पना के साथ की गई थी, जो स्वयं को किसी भी प्रकार की स्पर्धा से सर्वथा मुक्त रखेगा तथा परस्पर सहयोग एवं सहिष्णुता की भावना के साथ शासन कार्य करेगा. परंतु सोवियत शासकों ने कल्याण का अपने नागरिकों के बीच समविभाजन करने के बजाय, जो कि साम्यवाद का वास्तविक लक्ष्य था, स्वयं को अंतहीन स्पर्धा और हथियारों की दौड़ में झोंक दिया. यह जानते हुए भी कि पूंजीपति व्यवस्था में हथियारों का निर्माण भी लाभ की वांछा के साथ किया जाता है. इसलिए अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश के शासक देश जहां निजी पूंजी के दम पर बनी हथियारों की कमाई से फलफूल रहे थे, हथियारों का बाजार कम न हो इसके लिए दुनिया में यहांवहां युद्ध थोपते रहना वहां राजनीति का चरित्र बन चुका था, वहीं सोवियत शासक नागरिकों के खूनपसीने से अर्जित सरकारी पूंजी द्वारा उन्हें स्पर्धा में पछाड़ देना चाहते थे. यह कार्य लंबे समय तक नामुमकिन था. केंद्रीय शासन के स्तर पर स्पर्धा की यह भावना धीरेधीरे नागरिकों के आचरण में उतरती गई. अंततः वही सोवियत गणराज्य के पतन का कारण बनी. प्लेटो के राजनीतिक दर्शन का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो अंततः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि यह संभावना वह आज से 2400 वर्ष पहले ही व्यक्त कर चुका था. अमेरिका के साथ स्पर्धा करते हुए सोवियत संघ ने जो राह पकड़ी वह न केवल प्लेटो बल्कि उत्तरवत्र्ती माक्र्सवादी धारा के भी विपरीत थी.

यहां उल्लेख करना प्रासंगिक है कि जिस समाज में प्लेटो का जन्म हुआ वहां शीर्षस्थ वर्ग के लिए संपत्ति हासिल करना उतना ही महत्त्वपूर्ण था, जितना राजनीति में हिस्सा लेना. वहां व्यक्ति की संपत्ति के आधार पर ही उसका राजनीतिक स्तर तय किया जाता था. यही नहीं राजनीतिक भागीदारी के लिए व्यक्ति का न्यूनतम संपत्तिधारक होना अनिवार्य था. प्लेटो के अनुसार व्यक्तिवादी महत्त्वाकांक्षाएं वहां प्रेरक शक्ति का रूप धारण कर चुकी थीं. इससे उसको डर था कि समाज के शीर्षस्थ वर्ग के बीच संपत्ति की अंधी होड़ उसको विभाजित भी कर सकती है. संपत्ति के असमान विभाजन की स्थिति में जो उससे वंचित हैं, गरीब और विपन्न हैं वे भी शांत नहीं रहते. उन्हें हमेशा अपने अस्तित्व पर संकट की अनुभूति बनी रहती है. इससे मुक्ति की छटपटाहट उन्हें सत्तासंघर्ष में वापस ले आती है. जीवन के अभाव और संघर्ष उन्हें लालची और अवसरवादी बनाते हैं. परिणामस्वरूप वे केवल अपने बारे में सोचने लगते हैं. उनका सारा सारा ध्यान भौतिक संपदा प्राप्त करने तक सीमित हो जाता है. मनुष्यता, ईमानदारी, सहिष्णुता और समर्पण जैसे आदर्श उनके लिए अर्थहीन हो जाते हैं. एक दिन वे सत्ताशिखर पर काबिज भी हो जाते हैं, जिसमें उन्हीं के समान कुछ लोगों की साझेदारी होती है. सही मायने में वह अल्पतंत्र होता है, जिसमें शक्ति और संसाधन कुछ हाथों तक सीमित होकर रह जाते हैं. प्लेटो की यह परिकल्पना उनीसवीं शताब्दी में मजदूर क्रांति के बाद पेरिस कम्यून के रूप में सच होती दिखाई पड़ती है. इस विमर्श के उपरांत प्लेटो इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि समाज में—

भौतिक समृद्धि जैसेजैसे अपनी चरमावस्था की ओर बढ़ती है, वैसेवैसे मनुष्यता सिकुड़ती चली जाती है….धनवानों की महत्त्वाकांक्षाओं के बीच बढ़ती स्पर्धा उनके सभी प्रयासों को धनार्जन तक सीमित कर देती है. सत्तासीन अल्पवर्ग गरीबों से घृणा करता है तथा धनवानों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन देता है. परिणामस्वरूप वे समस्त पुरस्कारों तथा मानसम्मान पर कब्जा जमाए रखते हैं.’

अल्पतंत्रत्मक सत्ता के दोषों की व्याख्या करता हुआ प्लेटो आगे लिखता है कि सत्तारूढ़ अत्पवर्ग धनार्जन को न केवल अपने जीवन का ध्येय बना लेता है, बल्कि वह यह व्यवस्था भी करता है कि समाज की कुल निधियां बहुत सीमित वर्ग तक सिमटकर रह जाएं. उसका यह काम अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने जैसा होता है. क्योंकि समाज की कुल धनसंपदा का मुट्ठीभर लोगों तक सिमट जाना बाकी लोगों को अपनी स्थिति पर सोचने के लिए प्रेरित करता है. जनता में उस अन्यायी व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश पनपने लगता है. वे उसके विरुद्ध एकजुट होने लगते हैं. यह स्थिति समाज को लोकतंत्र की ओर ले जाती है. परंतु प्लेटो उसपर अधिक विचार नहीं करता. इसलिए कि उसके विचार में लोकतंत्र की अगली परिणति अराजकता में होती है. सामान्यतः अराजकता को राजनीतिकसामाजिक अव्यवस्था का पर्याय माना जाता है. अठारहवीं शताब्दी में पियरे जोसेफ प्रूधों ने अराजकता का विचार लोगों के सामने प्रस्तुत किया था. उसके अनुसार अराजकता विवेकवान समाज के आत्मानुशासन और स्वतः मर्यादानुपालन के साथ बाहरी सत्ता की आवश्यकता के गौण हो जाने वाली अवस्था है. समाज यदि स्वतः अनुशासित हो तो बाहरी कानून अप्रासंगिक हो जाते हैं. दूसरी ओर प्लेटो की अराजकता से सामाजिक अव्यवस्था और राजनीतिक सत्ता के महत्त्वहीन हो जाने का संकेत मिलता है. लोकतंत्र के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए प्लेटो ‘रिपब्लिक’ में लिखता है कि लोकतांत्रिक शासन जनमानस में मुक्ति का एहसास पैदा करता है. प्रत्येक नागरिक को यह बोध होता है कि वह कुछ भी कहने, करने के लिए स्वतंत्र है. लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक को अपना मनपसंद कार्य चुनने की आजादी होती है. अतः प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन को इस प्रकार निर्धारित करता है, जिससे वह अधिकाधिक सुखोपभोग कर सके. इससे समाज में अराजकता फैलती जाती है. परिणामस्वरूप राष्ट्र का हित, समाजकल्याण का लक्ष्य व्यक्तिगत स्वार्थभावना के चलते पीछे छूटता जाता है. इस प्रकार लोकतंत्र स्वेच्छापूर्वक अपनाई गई अराजकता का विविधवर्णी तंत्र है. देखने में यह बहुत आदर्श और मानवीय लगता है, किंतु प्रकारांतर में इसकी परिणति एक क्रूर तानाशाही व्यवस्था में होती है. इसलिए कि जनता के समर्थन पर चुनकर आए लोग कानून और संविधान के नाम पर ऐसी कार्रवाहियां जनता पर थोपते हैं, जो उनके वर्गीय हितों को पुष्ट करती हैं, जिनसे कल्याणकारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में बचा जाना चाहिए. विश्व के दो बड़े देश, भारत और अमेरिका आज लोकतांत्रिक होने का दावा करते हैं. लेकिन अमेरिकी लोकतंत्र जहां पूंजीवादी शक्तियों के आगे समर्पित है, वहीं भारत में धार्मिक और जातीय समूह इसे मनमाना मोड़ देने में सक्षम हैं. इन स्थितियों में लोकतंत्र को लेकर आज से 2400 वर्ष पहले प्लेटो कहा एकदम सच लगता है.

लोकतंत्र के प्रति प्लेटो की अवधारणा उसके लंबे राजनीतिक अनुभवों से जन्मी थी. सुकरात को एथेंस की उस सरकार ने दंडित किया था, जो स्वयं के लोकतांत्रिक होने का दावा करती थी. तीस सदस्यीय उस सभा में जो सुकरात के मुकदमे की साक्षी थी, के मात्र तीन सदस्य सुकरात का स्पष्ट विरोध कर रहे थे. शेष सदस्य चुप रहकर उनका मूक समर्थन कर रहे थे. जो सुकरात के समर्थन में थे, उनकी आवाज में इतना दम नहीं था कि उसके विरोधियों का मुंह बंद करा सकें. उनमें कुछ प्लेटो जैसे सुकरात के युवा सदस्य भी थे, जिनकी वयस् मतदान के लिए निर्धारित न्यूनतम वयस् से कम थी. लोकतंत्र की कमजोरी का उल्लेख का करते हुए प्लेटो ने स्पष्ट किया था कि उसमें नेतागण अलगअलग पृष्ठभूमियों से चुनकर आते हैं, जिनके हित भिन्नभिन्न होते हैं. कभीकभी धर्म, जाति, क्षेत्राीयता, भाषा संबंधी मुद्दे इतने गहरे हो जाते हैं कि वे प्रतिनिधि केवल अपने वर्गीय हितों को साधने पर ध्यान देते हैं, अतः वृहद सामाजिकराष्ट्रीय लक्ष्य पीछे छूटते चले जाते हैं. चूंकि सभी अपने हित साधन को प्राथमिकता देते हैं, इसलिए उनके बीच राष्ट्रीय मुद्दों पर आम सहमति बन पाना असंभवसा हो जाता है. उसके अभाव में अक्सर ऐसा भी होता है कि वे अपने उन हितों को भी नहीं साध पाते, जिन्हें लेकर उन्होंने चुनाव लड़ा था, जबकि निर्धारित अवधि के बाद जनता के सामने जाना उनकी लोकतांत्रिक विवशता बन जाती है. उस अवस्था में चुनाव में जीत के लिए वे अलोकतांत्रिक तरीके अपनाते हैं. चूंकि जनप्रतिनिधियों का अनैतिक आभामंडल क्षीण होता है, कभीकभी वे खासे बदनाम भी होते चुके होते हैं, जिन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया की कमजोरियां सत्ताशिखर ते ले जाती हैं—ऐसे सदस्य प्रशासन पर अपनी पकड़ नहीं बना पाते, जिसके कारण शासन के स्तर पर अराजकता की स्थिति बन जाती है. इसकी ओर प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में संकेत किया है. परिणामस्वरूप लोकतंत्र विरोधी शक्तियों को मनमानी करने का अवसर मिल जाता है. ऊपर से एक दिखता समाज भीतर ही भीतर अनेक वर्गों, जनसमूहों में बंट जाता है. उन सबकी समस्याएं एक जैसी होती हैं, समस्याआंे के कारक एक समान होते हैं. बावजूद इसके समस्याओं से निपटने के रास्तों पर उनके बीच कभी आम सहमति नहीं बन पाती है. इससे समाज सामाजिकराष्ट्रीय मुद्दों पर एकमत होने के बजाय क्षुद्र स्वार्थांे के आधार पर बंट जाता है. समस्याओं के लिए जिम्मेदार शक्तियां लोगों को धर्म, क्षेत्रीयता, जाति, वर्ग, भाषा, प्रांतीयता आदि ऐसे मुद्दों पर बांटे रखती हैं, जिनका उनकी समस्याओं तथा विकास से को संबंध नहीं होता. प्रकारांतर में पूरा समाज—

तीन वर्गों में बंट जाता है. इनमें पहला है—पूंजीपति वर्ग(हालांकि प्लेटो ने इस शब्द का उल्लेख नहीं किया है), जो किसी न किसी बहाने धनसंचय के काम में लगा रहता है. दूसरी आम जनता, जो राजनीति के नाम से कतराती है, पर भ्रष्ट एवं स्वार्थी राजनयिकों का साथ देते हुए रातदिन अपने काम में जुटी रहती है. तीसरा वर्ग उन स्वार्थी, प्रवंचक, धोखेबाज नेताओं का होता है जो अपने तात्कालिक हितसाधन के लिए जनोत्तेजना फैलाने का बहाना खोजते रहते हैं.’

इसका दुष्परिणाम होता है कि राष्ट्र अपने उन लक्ष्यों से दूर चला जाता है, जिनको सामने रखकर उसका गठन किया गया था. आमजनता का अपने प्रतिनिधियों और राजनीतिक व्यवस्था से विश्वास टूट जाता है. व्यापक सामाजिक असंतोष एवं जनाक्रोश का लाभ उठाने के लिए उन्हीं के बीच से कोई व्यक्ति आगे आता है. राजनीतिक अराजकता एवं फूट का लाभ उठाते हुए वह सबकुछ अपने अधीन कर लेता है. नागरिकों से उनके सामान्य अधिकार छीन लिए जाते हैं. अवसर का लाभ उठाते हुए पूंजीवादी ताकतें जो पहले उदंड और स्वार्थी नेताओं के साथ थीं, खेमा बदलकर वे तानाशाह के समर्थन में उतर आती हैं. उल्लेखनीय है कि तानाशाह बनकर जनाधिकारों ही हत्या करने वाला शासक दिखने में भला एवं नेकनीयत प्रतीत होता है. सत्ता पर कब्जा जमाते समय उसका नारा भी व्यापक लोकहित के निमित्त व्यवस्थापरिवर्तन का होता है. लेकिन सबकुछ अपने अधीन रखने, सत्ताकेंद्रों पर छा जाने की उसकी निरंकुश वृत्ति समाज के बहुसंख्यक वर्ग को निर्णय प्रक्रिया एवं राजनीतिक अधिकारों से बेदखल कर देती है. दोहरे चरित्र का उद्घाटन करते हुए प्लेटो ‘रिपब्लिक’ में लिखता है कि अपने आरंभिक दिनों में वह, स्वयंभू सत्ताओं का खंडन करते हुए, प्रत्येक व्यक्ति का खुली मुस्कान के साथ विनम्रतापूर्वक स्वागत करता है. धीरेधीरे वह अपने मित्रों तथा आम जनता के दिल में जगह बना लेता है, वह कर्जदाताओं को राहत देता है, भूमि का जनता और अपने समर्थकों के बीच विभाजन करता है तथा एक उदार एवं सहिष्णु वातावरण तैयार करता है. मगर यह स्थिति बहुत लंबे समय तक नहीं रह पाती. उसके मनसूबे उस समय साफ होते हैं, जब वह अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए अघोषित युद्ध का सहारा लेता है. वह अपने शत्रुओं तथा मित्रों को अलगअलग खेमों में बांट देता है. लोगों से उनके सामान्य अधिकार छीन लिए जाते हैं. हालांकि उस समय भी दिखावे के तौर पर वह आम जनता के हित और उसके कल्याण की ही बात कहता है. हिटलर जैसा तानाशाह भी स्वयं को समाजवादी कहता था. वस्तुतः बड़े से बड़े तानाशाह के दिल में भी जनता का डर समाया होता है. जनविद्रोह को रोकने के लिए वह अपनी ताकत का भ्रम पैदा करता है, उदारता का मुखौटा लगाता है. राष्ट्रीयता का बढ़चढ़ कर बखान करता है. पर उसकी ये सभी कोशिशें एक दिन वृथा सिद्ध होती है. जनविद्रोह की संभावित घटना को टालने, लोगों की एकजुटता को रोकने के लिए वह—

सामान्य भोजों, दावतों, क्लबों, शिक्षा सदनों तथा ऐसे ही अन्य संस्थानों पर जो लोगों को परस्पर करीब लाते हैं, प्रतिबंध लागू करता है. वह हर उस रास्ते का अनुसरण करता है जो लोगों को परस्पर अजनबी बनाते हुए, उन्हें एकदूसरे से दूर ले जाने में सहायक हो.’

अरस्तू तानाशाही व्यवस्था का विस्तार से उल्लेख करता है. तानाशाह के शासन में प्रत्येक नागरिक पर कड़ा अनुशासन और सरकार की पैनी नजर होती है. उसके दिल में समाया हुआ डर उसको कभी भी निद्र्वंद्व नहीं होने देता इसलिए वह शासन को लगातार कठोर बनाता चला जाता है. अरस्तु ने अपनी पुस्तक ‘दि पाॅलिटिक्स’ में तानाशाही व्यवस्था के लक्षणों का विस्तार सहित उल्लेख किया है. वहीं प्लेटो के ‘रिपब्लिक’ में हम विभिन्न राजनीतिक दर्शनों की छाया देखते हैं, जिनमें वह दार्शनिक सम्राट के पक्ष में अपना निर्णय सुनाता है. एक कवि हृदय विचारक की एथेंस की तानाशाही के प्रत्युत्तर में ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही थी. अरस्तु ने अपेक्षाकृत परिपक्व राजनीतिक दर्शन प्रस्तुत करते हुए ‘दि पालिटिक्स’ की रचना की, जिसमें उसने नैतिकता को पहले रखते हुए कहा कि राज्य वास्तव में परिवारों में सुखामोद एवं असंतोष की संतुलित उपस्थिति है, जो आत्मनिर्भर एवं सुखीसमृद्ध जीवन के लिए अनिवार्य है. वह समाज को नैतिकता की पुण्यभूमि मानता था. संविधान निर्माता को उसने शिल्पकर्मी माना. उसके अनुसार समाज वह पदार्थ है, जिसे वह अपने शिल्पकर्म से संवारता है. प्लेटो की आरंभिक संवाद पुस्तक ‘प्रोटेगोरस’ में प्रोटेगोरस सुकरात से प्रश्न करता है कि जिस प्रकार तलवारबाजी, घुड़सवारी, युद्धनीति के शिक्षक आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, उसी प्रकार नैतिकता और सद्गुण के शिक्षक क्यों उपलब्ध नहीं होते? इसपर सुकरात का उत्तर था कि सद्गुण और नैतिकता के लिए अलग से कोई अध्यापक हो ही नहीं सकता, क्योंकि इनकी शिक्षा तो संपूर्ण समाज द्वारा दी जाती है. आशय है कि समाज में नैतिकता हो, तभी वह नवागत उसके सदस्यों में अंतरित हो सकती है.

अरस्तु का जन्म सुकरात को मृत्युदंड दिए जाने के 15 वर्ष बाद, 384 ईस्वी पूर्व हुआ था—प्लेटो द्वारा अकादमी की स्थापना से करीब एक वर्ष बाद. लगभग 18 वर्ष की अवस्था में उसने प्लेटो द्वारा स्थापित अकादमी में प्रवेश लिया. वहां लगभग बीस वर्षों तक उसने शिक्षार्जन किया. अरस्तु द्वारा अकादमी को छोड़ने तक प्लेटो की मृत्यु हो चुकी थी. तदनंतर अरस्तु ने अकादमी और यूनान दोनों को छोड़कर एशिया माइनर की ओर प्रस्थान किया, जहां अगले पांच वर्ष उसने दर्शन और विज्ञान के अध्ययन में बिताए. इस बीच मेकाडोनिया के सम्राट फिलिप द्वितीय के आमंत्रण पर वह मेकादोनिया पहुंचा. वहां उसको सिकंदर के अध्यापन का दायित्व सौंप दिया गया. युवा और महत्त्वाकांक्षी सिकदंर में उसको महान सम्राट के लक्षण दिखाई दिए. 300-400 ईस्वी पूर्व का समय इतिहास का वह दौर है जब लोग छोटेछोटे कबीलाई राजाओं के आतंक, उनकी सनकों और मनमाने आचरण से तंग आ चुके थे. यह माना जाने लगा था कि राज्य के कल्याण के लिए बड़े राज्य की स्थापना अपरिहार्य है. ये प्रयास यूनान और भारत में लगभग साथसाथ हो रहे थे. जो प्रयोग अरस्तु ने सिकंदर के रूप में यूनान के मेकाडोनिया राज्य में आरंभ किया था. ठीक वही कार्य चाणक्य(350 ईस्वी पूर्व—283 ईस्वी पूर्व) चंद्रगुप्त मौर्य को लेकर भारत में दोहरा रहा था. अरस्तु तथा चाणक्य दोनों सुदृढ़ केंद्र के समर्थक थे तथा उसके लिए कूटनीति का सहारा लेने से भी उन्हें गुरेज नहीं था. अरस्तु की राज्य की अवधारणा प्लेटो से पूरी तरह भिन्न थी. उसने स्पष्ट लिखा था कि ‘राज्य वाणिज्यिक प्रसार और आपसी सुरक्षा हेतु गठित समूहमात्र नहीं है.’ बल्कि वह ऐसी व्यवस्था है, जिसमें प्रत्येक नागरिक अपनी स्वतंत्रता का आनंद लेते हुए अमनचैन के साथ रह सकता है. अच्छा राजनयिक वह है जो अपने नागरिकों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को समझता और उनका सम्मान करता हो.

समाज के बारे में अरस्तु की धारणा अपने गुरु प्लेटो से भिन्न थी. उसके लिए समाज उन मानवीय वृत्तियों का स्रोत है, जो मनुष्य को एकदूसरे के हित के लिए परस्पर संगठित होने, परिवारों का गठन करने, मैत्री स्थापित करने, दूसरों को नियंत्रित कर उनपर अपना अधिपत्य जमाने, नकारात्मक वृत्तियों जैसे लालच, क्रूरता, दैन्य, स्वार्थपरता आदि से दूर रहने तथा ज्ञानार्जन की चाहत, सामंजस्य, उदारता, ईमानदारी, सहिष्णुता आदि के लिए प्रेरित करती है. अरस्तु ने मनुष्य को ‘बुद्धिमान पशु’ माना था. उसके समानांतर समकालीन चीनी दार्शनिकों ने मनुष्य को ‘नैतिक पशु’ कहकर परिभाषित किया था. उल्लेखनीय है कि प्लेटो की भांति अरस्तु का जन्म भी एक अभिजात्य परिवार में हुआ था. वह सुकरात और प्लेटो के आदर्शवाद से प्रभावित था, किंतु अपने अनुभव से वह समझ चुका था कि उनका आदर्शवाद छोटेछोटे राज्यों के आपसी युद्धों, मनमुटावों को रोकने में नाकाम रहा है. इसलिए वह जतन से मनुष्य को राजनीति का पाठ पढ़ाता है, जो उसको बड़ी राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित होने के लिए प्रेरित कर सके. सुदृढ़ राजनीतिक केंद्र की अनुशंसा करते समय वह नैतिकता और आदर्शवाद को बिसराता नहीं—यही उसकी महानता है. यद्यपि उसके इस चिंतन में जगहजगह विरोधाभास भी हैं. एक स्थान पर उसने राज्य को नागरिकों का वह सीमित समूह भी माना है, जो नगर में राजनीतिक गतिविधियों का संचालन करने के लिए जिम्मेदार होते हैं. अरस्तु का यह अभिजात्यीय संस्कार ही है, जिसके कारण वह स्त्रिायों, दासों, साधारण पेशेवरों को ‘नागरिकता’ की परिभाषा से अलग रखता है, जबकि प्लेटो ने स्त्रिायों को भी ‘नागरिक’ माना था. अरस्तु के अनुसार—

कुछ आदमीस्वभाव से ही दूसरों पर निर्भर होते हैंइसलिए सही मायने में उन्हें या तो दास कहा जा सकता है अथवा ऐसा ही कोई चलताफिरता प्राणी.’

यहां प्रश्न स्वाभाविक है कि अरस्तु ने जिन्हें ‘नागरिक’ की गरिमा से महिमामंडित किया है, उनका जीवन कैसा होगा? राज्य तथा उनके बीच क्या संबंध होंगे? अरस्तु के अनुसार नागरिकों के जीवन और कर्तव्यों का निर्धारण करने का दायित्व राज्य का है. यह बहुत कुछ उस संविधान पर निर्भर होगा जिसको वे नागरिक अपने लिए उपयुक्त मानते हैं. उसने तीन प्रमुख राज्य प्रणालियों का उल्लेख अपनी पुस्तक ‘दि पालिटिक्स’ में किया है. वे हैं—राजशाही, कुलीनतंत्र तथा संवैधानिक आधार पर चुनी गई सरकारें अथवा जनतंत्र. जैसा कि स्पष्ट है तीनों में निर्णायक शक्तियां क्रमशः एक के हाथ में, कुछ व्यक्तियों के हाथ में तथा वृहद जनसमाज के हाथों में होती हैं. यद्यपि जनसामान्य की राय को भी कई ऐसे कारणों से प्रभावित किया जाता है, जिनका व्यक्ति के सामाजिकराजनीतिक विकास से कोई संबंध नहीं होता. लोकतांत्रिक दल समाज को जाति, धर्म, क्षेत्रीयता, भाषा जैसे समूहों में बांट देते हैं. जिससे लोक की शक्ति क्षीण हो जाती है. स्वार्थी राजनयिकों द्वारा बाद में उसका मनमाना दुरुपयोग किया जाता है. उपर्युक्त तीनों के अतिरिक्त सरकार के कुछ अन्य रूप भी संभव हैं, जो व्यक्तियों की आपसी समझ और स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं. अरस्तु इनमें से किसी एक का पक्ष लेने के बजाय ‘श्रेष्ठतम व्यक्तियों द्वारा श्रेष्ठतम शासन’ की पद्धति को अपनाने का पक्ष लेता है—

अभी तक हमने तीन प्रकार की शासन प्रणालियों पर विचार किया है तथा पाया है कि इन तीनों में से वही सर्वश्रेष्ठ है, जो सर्वोत्तम व्यक्तियों द्वारा शासित हो. यह किसी एक व्यक्ति द्वारा शासित प्रणाली भी हो सकती है, किसी परिवार द्वारा और बहुतसे व्यक्तियों द्वारा भी, जो शेष समाज को मनुष्यता की सर्वोन्नत अवस्था तक ले जाने में सक्षम हों, जिनमें शासन करने की पर्याप्त क्षमता हो, और जो इस प्रकार शासन करें, जिससे अधिकतम लोगों का अधिकतम कल्याण संभव हो तथा जिसको अधिकतम लोग स्वीकार करते हों. इससे अंततः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि एक अच्छे व्यक्ति के गुण तथा सर्वोत्तम सरकार में नागरिक के गुण एकसमान होते हैंयह तथ्य स्वतः प्रमाणित है.’

शब्दों के थोड़े ऐरफेर के साथ इस तथ्य को प्लेटो भी स्वीकार करता है. अपने संवाद ‘स्टेट्समेन’ में युवा सुकरात ‘अच्छी सरकार’ के विषय पर चर्चा करते हुए अजनबी यात्राी से कहलवाता है कि—

यह मानने में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि संविधान का अनुसरण करनाकराना ही सम्राट का पवित्र कर्तव्य है. इसमें सर्वोत्तम यह नहीं है कि कानून शासन करे, बल्कि उचित यह होगा कि मनुष्यमात्र, सम्राट को ज्ञान एवं शक्ति का सर्वाेच्च केंद्र मानते हुए स्वयं शासन करे….क्योंकि कानून स्वयं यह नहीं समझ पाता कि सबके लिए सर्वोचित एवं सर्वाेत्तम क्या है, इसलिए वह सर्वश्रेष्ठ को लागू करने में भी असमर्थ रहता है. मनुष्यों एवं उनकी कार्यशैलियों का व्यावहारिक अंतर तथा उसके द्वारा संचालित अनेकानेक कार्यक्रमों में अंतहीन अनियमिततताओं की व्याख्या किसी एक सामान्य तथा सार्वभौमिक नियम द्वारा असंभव है.’

अरस्तु स्वाधीनता को मनुष्य का मूल अधिकार मानता था, हालांकि स्वाधीनता की उसकी अवधारणा समाज के विशेषाधिकारसंपन्न वर्ग तक सीमित थी. विशेषाधिकार संपन्न वर्ग से उसका तात्पर्य अभिजात वर्ग से था, जिसके पास संसाधनों की प्रचुरता थी. एथेंस, स्पार्टा समेत प्राचीन यूनानी राज्यों में राजनीतिक अधिकार इसी वर्ग के अधीन थे. अपने गुरु प्लेटो की भांति अरस्तु ने भी राज्य को यह अधिकार दिया है कि वह अपने लाभ के लिए संपत्ति और संसाधनों की देखभाल और व्यवस्था करे. इस अर्थ में हम प्लेटो और अरस्तु दोनों को समाजवादी मान सकते हैं, हालांकि ‘समाजवाद’ नामक पद का जन्म उस समय तक नहीं हो पाया था. वे दोनों इस बात को लेकर भी एकमत थे कि बच्चों का जन्म और उनका पालनपोषण राज्य की देखरेख में इस प्रकार हो कि वे बड़े होकर स्वस्थ एवं सुशिक्षित नागरिक बन सकें. उन्हें वही शिक्षा मिलनी चाहिए, जैसा कि राज्य के लिए उचित हो—

जनता से जुड़े सभी मामलों का प्रबंधन सर्वमान्य पद्धतियों द्वारा सार्वजनिक रूप से किया जाना चाहिए. हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि नागरिकों में से प्रत्येक केवल स्वयं तक सीमित नहीं है, बल्कि उन सभी का संबंध राज्य से है.

प्लेटो की भांति अरस्तु भी केवल राज्य को उसके कर्तव्यों के बारे में निर्देशित कर शांत नहीं हो जाता. वह उन रास्तों पर भी विचार करता है कि जिनसे जनसाधारण के जीवन को अनुशसित एवं सुखमय बनाया जा सके. उसके अनुसार राज्य की भूमिका सुव्यवस्थित परिवार के मुखिया के समान होनी चाहिए, जो बच्चों(नागरिकों) का पालनपोषण नैसर्गिक स्नेहानुराग तथा निष्ठापूर्वक करना अपना पवित्र कर्तव्य मानता है. परिवार(नागरिकों) का मुखिया होने के नाते वह भलीभांति जानतासमझता है कि उसकी संतान(नागरिकों) में से कौन किस योग्य है, तथा कौन किस काम को खुशीखुशी तथा सफलतापूर्वक पूरा कर सकता है. इसलिए वह ऐसी व्यवस्था करता है, जिसमें प्रत्येक नागरिक समाज के विकास में, कर्तव्यपालन का आनंद उठाता हुआ, अपना सर्वोत्तम योगदान दे सके. राज्यप्रबंधनकर्ता यानी मुखिया कोई स्वयंभू सम्राट भी हो सकता है. यदि किसी अकेले व्यक्ति में ये गुण न हों तो राज्य के विधिवत संचालन के लिए लोकतंत्र को भी अपनाया जा सकता है. आशय यह है कि अरस्तु के लिए शासनप्रणाली उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितनी राज्य का विकास. उसके अनुसार राजसत्ता का स्वरूप चाहे जैसा हो, उसका अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत रहना अनिवार्य है. ‘पाॅलिटिक्स’ में एक स्थान पर वह गणतंत्र का समर्थन करता हुआ भी नजर आता है. वह मानता है कि विशेष परिस्थितियों में ‘बहुसंख्यक की राय को हीशासन का अधिकार’ सौंपना ही बेहतर होता है. संभवतः अपने जीवन के कड़वे अनुभवों से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि—

किसी अकेले व्यक्ति की राय हमेशा उतनी बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं हो सकती. इस बात की सदैव पर्याप्त संभावना रहती है कि सभी नागरिक परस्पर मिलबैठकर जो निर्णय लेते हैं, वह श्रेष्ठतर होता हैजैसे सामूहिक भोज किसी अकेले व्यक्ति के खर्च पर दी गई दावत की अपेक्षा कहीं अधिक आनंददायक होता है.’

आदर्श राज्य की स्थापना प्लेटो और अरस्तु दोनों की ही चिंताओं में शामिल थी.इस बारे में प्लेटो का सोच आदर्शात्मक था, जबकि अरस्तु व्यावहारिक धरातल पर भी विचार करता है. हालांकि अपने लक्ष्य में पूर्ववर्ती विचारकों, गुरुओं से सामंजस्य रखते हुए अरस्तु भी ऐसी व्यवस्था के गठन पर जोर देता है, जहां ‘शुभत्व’ एवं ‘कल्याण’ की सर्वत्र व्याप्ति हो. ऐसे राज्य की स्थापना हेतु प्लेटो ने राज्य की बागडोर किसी दार्शनिक के हाथों में सौंप देने का सुझाव दिया था, जबकि अरस्तु परिस्थितियों के अनुसार सर्वोत्तम राज्यप्रणाली के चयन का मार्ग सुझाता है. उल्लेखनीय है कि प्लेटो के ‘दार्शनिक राजा’ का विचार उसके जीवनकाल में भी अनुपयोगी सिद्ध हो चुका था. स्वयं प्लेटो सायराकस सम्राट डायोजिनियस प्रथम के दरबार में महत्त्वपूर्ण पद पर रह चुका था. उसके दरबार में और भी कई विद्वान विचारक थे, किंतु उनकी उपस्थिति केवल दरबार की शोभा बढ़ाने के लिए थी. उसका उद्देश्य अन्य राजाओं पर अपनी बुद्धिमत्ता की धाक जमाना होता था. प्लेटो, डीओन सहित अन्य विचारकों, दार्शनिकों की उपस्थिति भी डायोजिनियस प्रथम की निरंकुशता पर लगाम लगाने में नाकाम सिद्ध हुई थी. सायराकस के अलावा भी अन्य कई स्थानों पर दार्शनिकों की पहल पर उदार एवं प्रगतिशील समूहों की स्थापना की कोशिश भी हो चुकी थी, लेकिन वे सभी प्रयास अल्पकालिक तथा असफल सिद्ध हुए थे. इससे यह मान लेना अनुचित होगा कि प्लेटो की संकल्पनाओं अथवा आदर्श राज्य को लेकर उसकी अभिकल्पना में दोष था. न ही यह सोचना उचित होगा कि आदर्श की स्थापना के प्रति प्लेटो की निष्ठा संद्धिग्ध थी. वस्तुतः उसकी विचारधारा व्यावहारिकता से परे, दार्शनिक गुणों, मानवीय सर्वोच्चता, सत्य के प्रति तीव्र आग्रहशीलता, न्याय और वास्तविक सौंदर्य पर केंद्रित है. उसमें वह ऊंचाई है जिसको शायद ही कभी प्राप्त किया जा सके. तथापि उसमें आदर्श व्यवस्था के रूप में मानव समाज को प्रेरित करते रहने का गुण है. स्वयं प्लेटो की प्रेरणा का आधार सुकरात का वह पत्र है, जो उसने एथेंस के गणतंत्र द्वारा दिए गए मृत्युदंड पर अमल की प्रतीक्षा करते हुए, कारावास से अपने शिष्योंसमर्थकों के लिए लिखा था. पत्र में वह सभी तात्कालिक शासन प्रणालियों, यहां तक कि दार्शनिक राज्य की अवधारणा से भी निराश दिखता है. उस पत्र में सुकरात लिखता है कि—

मैं अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि सभी समकालीन राज्य बड़े ही निकृष्ट ढंग से शासित थे, साथ ही यह कि उनके संविधान मानव कल्याण के सर्वोच्च लक्ष्य के हित में, व्यवस्था में आमूल परिवर्तन करने में अक्षम थे. सही मायने में, मुझे यह मानने के लिए बाध्य किया गया कि सामाजिक और व्यक्तिगत न्याय की स्थापना की अंतिम धुरी केवल सच्चे दर्शन में ही केंद्रित है. मनुष्यता का भला, संकटों से उसकी मुक्ति उस समय तक असंभव है, जब तक कोई सच्चाभला दार्शनिक राजनीतिक सत्ता प्राप्त नहीं कर लेता अथवा अकस्मात ऐसा कोई चमत्कार नहीं हो जाता कि राजनयिकगण सच्चे दार्शनिक बन जाएं.’

इस वक्तव्य में सुकरात की निराशा की झलक साफ देख सकते हैं. अपने गुरु से प्रेरित प्लेटो के राजनीतिक दर्शन की सीमा भी यही है कि जिस प्रकार वह अपने आदर्शलोक की परिकल्पना पर दृढ़ है, उतना उस परिकल्पना को यथार्थ में साकार करने के तरीकों पर नहीं. इस कमी के चलते आदर्शलोक केवल पुस्तकों और चिंतनमनन की विषयवस्तु बनकर रह जाता है. तो भी यह प्लेटो ही जो गत 2400 वर्षों से विचारकोंदार्शनिकों को निरंतर प्रभावित करता आ रहा है. उसका यह कथन आज भी सर्वाधिक स्वीकार्य है कि सामाजिक संगठनों का सर्वाधिक सक्षम रूप वही हो सकता है, जिनमें व्यक्ति और समूह सभी के अलगअलग कर्तव्य और विशिष्टताएं निर्धारित हों. वह सामाजिक, राजनीतिक एवं शैक्षिक आधार पर समाज के स्तरीकरण को स्वीकार तो करता है, किंतु उसका यह स्तरीकरण स्थायी नहीं है. वह जन्माधारित न होकर व्यक्ति की कार्यकुशलता, रुचि एवं योग्यता पर आधारित है. वह यह मानता था कि सभी मनुष्य अपूर्ण हैं, लेकिन पर्याप्त शिक्षा, प्रशिक्षण आदि द्वारा उन्हें इस योग्य बनाया जा सकता है कि वे दिए गए कर्तव्यों का निष्पादन भलीभांति कर सके.

प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में चर्मकार, काष्ठकार, बुनकर, योद्धा, नाविक, चिकित्सक, राजमिस्त्री आदि भिन्नभिन्न शिल्पकर्मियों तथा उनके व्यवसायों का उल्लेख किया है, किंतु उनके बीच न तो किसी प्रकार का आर्थिक विभाजन अथवा स्तरीकरण है, न ही उन्हें जन्म के आधार पर उसी व्यवसाय में रहने के लिए बाध्य किया जाता था—जिस प्रकार भारत में वेद एवं मनुस्मृति को आधार बनाकर समाज का वर्गविभाजन किया गया, जिससे भारतीय समाज में ऊंचनीच की धारणा बलवती हुई. निहित स्वार्थों के कारण ब्राह्मणवाद के पोषक धर्माचार्योंपुरोहितों द्वारा इस व्यवस्था का लगातार पोषणपल्लवन किया जाता रहा. परिणामस्वरूप समाज में अनेकानेक अंतर्द्वंद्वों तथा विक्षोभ पैदा हुए, जिनकी मार से भारतीय जनसमाज अभी तक कराह रहा है. प्लेटो द्वारा सुझाया गया सामाजिक स्तरीकरण वास्तविकताओं और व्यावहारिक मजबूरियों के कारण है. उसका कहना था कि लोग संगठित रहते हुए अपनेअपने कर्तव्य का पालन करें. उसने राज्य की तुलना एक मानव शरीर से की है, जिसका शीर्ष, हृदय और शरीर सभी कुछ होता है. यह तभी हृष्टपुष्ट रह सकता है जब शरीर के सभी अंगउपांग अपने अपने दायित्वों का निर्वहन अपने पूरे सामर्थ्य, मनोयोग और निष्ठापूर्वक करें. यही ‘रिपब्लिक’ का वास्तविक और चिरप्रासंगिक संदेश है.

 © ओमप्रकाश कश्यप