प्रारंभिक समाज में सामाजिक संबंधों की स्थापना मनुष्य की जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वस्तुओं के मुफ्त आदान–प्रदान के माध्यम से हुई थी. वह एक स्वाभाविक शुरुआत थी. उत्पादन–संबंधों की प्रारंभिक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति उस वस्तु को जो उसके पास उसकी आवश्यकता से अधिक होती, दूसरे व्यक्ति को देता था. बदले में वह दूसरों से अपनी जरूरत की वस्तुएं ग्रहण भी करता था. मनुष्य ने एक–दूसरे से सहयोग करना, आपस में मिलकर रहना, उत्पादों का परस्पर आदान–प्रदान करना आपसी समझौते के अंतर्गत केवल अपने अनुभव के बल पर सीखा था. इसके लिए न तो कोई लिखित सामाजिक संविदा थी न कोई संविधान. आदमी को यह सब अपने हितों के अनुकूल लगता था, इसलिए वह ऐसा करता था. प्लेटो का विचार था कि—
‘हमें अपने सपनों के राज्य का निर्माण उसके आरंभ से ही करना चाहिए. तभी वह, अपने आप को हमारी आवश्यकताओं के अनुसार ढाल सकेगा. हमारी सर्वप्रथम और सबसे बड़ी जरूरत पर्याप्त भोजन का प्रबंध करना है, जिसके सहारे हम जीवित रह सकते हैं. अगली आवश्यकता सिर पर छत की होती है तथा तीसरी वस्त्रदि सामग्री की.’
समाज के प्रत्येक नागरिक को उसकी आवश्यकता की वस्तुएं प्राप्त कैसे हों? उत्पादनतंत्र का नियोजन और नियंत्रण कैसे संभव हो? आज से 2400 वर्ष पहले प्लेटो इसके लिए श्रम–विभाजन की सलाह देता है. किंतु श्रम–विभाजन का यह विचार सीधे प्लेटो की कलम से नहीं आता. यह प्लेटो की महानता और अपने गुरु के प्रति समर्पण का ही सुफल है कि वह अपने विचारों को सुकरात के मुंह से सामने लाता है. श्रम–विभाजन की अनिवार्यता को स्वीकारते हुए सुकरात ‘रिपब्लिक’ के दूसरे खंड में कहता है कि हम सभी अपूर्ण हैं. हमारी आवश्यकताएं इतनी हैं कि हममें से कोई भी इस योग्य नहीं कि अपनी सभी जरूरतों को पूरा कर सके. इसलिए हमें दूसरों के सहयोग की जरूरत पड़ती है. मनुष्यता के कल्याण के लिए राज्य का गठन अनिवार्य है और राज्य को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए हमें—‘हमें कम से एक किसान की जरूरत पड़ेगी. दूसरी भवन–निर्माता की तथा तीसरी बुनकर की.’ ये तीनों ही मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं क्रमशः भोजन, आवास तथा वस्त्र को पूरा करने में सक्षम होंगे. पर ये तीनों तो मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएं हैं. इनसे जीवन तो संभव है, परंतु विकास के वांछित रास्ते प्रशस्त नहीं होते. विकास एवं जीवन की गतिशीलता के लिए और भी कई वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है. दूरदृष्टा प्लेटो विकास के स्थायित्व के लिए बहुत आगे की सोचते हुए एक आदर्श समाज का खाका तैयार करता है.
ईसा से चार सौ वर्ष पहले श्रम–विभाजन का विचार सिर्फ मूलभूत आवश्यकताओं के प्रबंधन तक सीमित नहीं था. खासकर प्राचीन यूनान के एथेंस जैसे शहरों में, जहां एक अतिसंपन्न व्यापारी वर्ग पनप चुका था और मनुष्य की आवश्यकताएं भोजन, वस्त्र और आवास से आगे बढ़ चुकी थीं. इसलिए सुकरात और वार्तालाप में हिस्सा ले रहे उसके साथी महसूस करते हैं कि किसान, भवन–निर्माता और बुनकर के अलावा कम से कम दो प्रकार के व्यक्तियों की आवश्यकता समाज को पड़ेगी. उनमें से एक मोची हो सकता है, जो बाकी लोगों के लिए जूतों का निर्माण करेगा तथा दूसरा व्यापारी, जो समाज में वस्तुओं की आपूर्ति की जिम्मेदारी संभालेगा. उल्लेखनीय है कि एथेंस में सामाजिक वर्गीकरण की यह कोशिश पहली न थी. 594 ईस्वी पूर्व में उसके महानायक सोलोन ने लोगों के आर्थिक स्तर को देखते समाज को चार वर्गों में विभाजित किया था. अपने उद्देश्य में उसको सफलता भी मिली थी. उससे पहले एथेंस एक गरीब राज्य था, उसके आसपास गांवों का समूह था, जहां किसान अंगूर और लौंग की खेती द्वारा जैसे–तैसे अपना गुजारा करते थे. समाज में विकट आर्थिक असमानता थी. सोलोन ने गरीब किसानों को कर्ज मुक्ति दिलाकर एक नई शुरुआत की थी, जिससे एथेंस के विकास को नई दिशा मिली और कुछ ही दिनों में वह यूनान का प्रमुख नगर–राज्य बन गया. बहरहाल, अपने लघुत्तम समाज की स्थापना के लिए प्लेटो चार या पांच प्रकार के व्यक्तियों की आवश्यकता अनुभव करता है. उसका मानना था कि राज्य की सफलता मात्र श्रम–विभाजन द्वारा संभव नहीं. अधिक जरूरी यह है कि समाज के विभिन्न वर्गों में समुचित तालमेल हो. वे एक–दूसरे की आवश्यकताओं को समझें तथा अपनी–अपनी जिम्मेदारियों का विधिवत पालन करें. वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि प्रत्येक व्यक्ति उस कार्य को चुने जिसे वह सबसे अच्छी तरह कर सकता है—जिसको करने से उसे सर्वाधिक संतुष्टि प्राप्त होती हो. प्लेटो की समाज–रचना में स्त्री–पुरुष का कोई भेद न था. उसका मानना था कि स्त्री एवं पुरुष दोनों के भीतर एक ही आत्मा का वास है, जो न स्त्री है, न ही पुरुष. इसलिए प्रत्येक प्राणी को अपनी रुचि के अनुकूल व्यवसाय का चयन करने का अधिकार है—
‘कार्य तभी श्रेष्ठ और सरल होगा जब प्रत्येक व्यक्ति को उपयुक्त समय पर मनोवांछित कार्य चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता होगी, ऐसा कार्य जो उसकी रुचि और प्रकृति के सर्वाधिक अनुकूल हो.’
प्लेटो मानता था कि मानवमात्र में से कोई भी संपूर्ण नहीं है. प्रत्येक की सीमा है. वह कार्य–विशेष को ही दक्षतापूर्वक कर सकता है. परंतु उसकी आवश्यकताएं अनेक हैं. किसान का कार्य केवल अनाज उत्पादन से नहीं चल जाता. उसको रहने के लिए घर, पहनने के लिए वस्त्र, खेती करने के लिए औजार भी चाहिए. यदि वह अपनी जरूरत का सारा सामान उत्पादित करने का प्रयास करे तो इसमें वह शायद ही सफल हो सके, किंतु यदि वह अपनी ऊर्जा किसी एक काम में लगाता है, तब वह अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर सकता है. उस उत्पाद का आदान–प्रदान वह उन व्यक्तियों के साथ बहुत आसानी से कर सकता है, जो उसकी आवश्यकता की शेष वस्तुओं को बनाने में दक्ष हैं. प्लेटो के अनुसार बड़े सामाजिक समूह यानी शहरों में लुहार, बढ़ई, रसोइये, राजगीर, भवन–निर्माता, मोची, बुनकर आदि कामगार तो होने ही चाहिए. इनके साथ–साथ व्यापारी, बैंकर, सेवाप्रदाता शिल्पकर्मी आदि भी समुचित संख्या में हों, ताकि वहां एक सफल नागरिक जीवन फल–फूल सके. ‘रिपब्लिक’ में वह सुकरात के मुंह से कहलवाता है कि मध्य वर्ग में आने वाले पढ़े–लिखे व्यक्ति, दुकानदार, व्यापारी आदि मिलकर बैंक, दुकान आदि की देखभाल करें. ताकि लोगों को उनकी जरूरत की वस्तुएं आसानी से, समय पर और उचित मूल्य पर प्राप्त होती रहें. प्लेटो विभिन्न व्यवसायों की जरूरत तथा उनके वर्गीकरण तक ही स्वयं को सीमित नहीं रखता. वह आगे बढ़कर उन उद्यमों के लिए दक्ष कारीगरों, दस्तकारों और किसानों के रहने की व्यवस्था की भी परिकल्पना करता है. उसके अनुसार व्यापारी को बाजार में, किसान और दस्तकार को अपने उद्यम के निकट ही रहना चाहिए, ताकि आवश्यकता पड़ने पर उनके ग्राहक उनसे संपर्क कर सकें.
प्लेटो तथा उसका शिष्य अरस्तु जिसने आगे चलकर समाज को ज्यादा बारीकी से विभिन्न प्राणी वर्गों में विभाजित किया था, जो आज तक मान्य है, ऐसी सामाजिक व्यवस्था चाहते थे, जिसमें व्यक्तिमात्र अपने पूरी योग्यता एवं सामर्थ्य का उपयोग कर सके. जहां व्यापारी व्यापार द्वारा धनार्जन करें, चिकित्सक लोगों के स्वाथ्य–लाभ का ध्यान रख सकें, सैनिक आवश्यकता पड़ने पर भीतरी और बाहरी संकट से देश की रक्षा करें. दस्तकार वर्ग जैसे काष्ठशिल्पी, लौहकार, चर्मकार, दर्जी, राजमिस्त्री, बुनकर आदि अपने–अपने क्षेत्र में कार्यरत रहते हुए सामाजिक विकास में अपना यथासंभव योगदान दें. ‘पालिटक्स’ में अरस्तु ने लिखा था कि शासक के राज–कौशल की सफलता तब है, जब राज्य के सभी लोग, अपनी–अपनी योग्यता के अनुसार कर्तव्यपालन में लीन हों. राज्य अनुशासित एवं विकासमान अवस्था में हो तथा सभी लोग खुश हों. उसी अवस्था में राज्य में ‘शुभत्व’ की व्याप्ति संभव है. सुकरात के मन में परमसत्ता के प्रतीक के रूप में जन्मी ‘शुभत्व’ की संकल्पना को अरस्तु और प्लेटो न केवल समर्थन देते हैं, बल्कि दोनों ही उसे अपनी–अपनी तरह से आगे भी बढ़ाते हैं. उनके बीच मतांतर हैं, चीजों को देखने की दृष्टि भिन्न–भिन्न है, तो भी लक्ष्य को लेकर वे अविवादित रूप से एक हैं. प्लेटो का मानना था कि ‘शुभत्व’ के प्रत्यय को एक दार्शनिक सम्राट ही भली–भांति समझ सकता है. इसलिए उसने शासक के रूप में दर्शनशास्त्री की वकालत की थी. उसका मानना था कि राष्ट्रवादी शासक बजाय लोकोन्मुखी व्यवस्था के अपने इर्द–गिर्द सत्ता और शक्ति का केंद्र बनाए रखने पर जोर देगा. और जितना वह अपनी स्वार्थ–पूर्ति पर जोर देगा उतना ही सत्ता के छिन जाने का डर भी बढ़ता जाएगा. किसी भी अप्रिय स्थिति से बचने के लिए वह कल्याणकारी समाज की स्थापना के बजाय सैन्य कार्रवाही में दक्ष राज्य की स्थापना पर जोर देगा. इससे समाज में शक्ति की होड़ पैदा होगी तथा स्तरीकरण को बढ़ावा मिलेगा. यह ‘शुभत्व’ नहीं, उसकी भ्रांति ही कही जाएगी.
सुकरात, प्लेटो और अरस्तु की दार्शनिक–त्रयी के तीनों विद्वान सदस्य ‘शुभत्व’ को अत्यधिक महत्त्व देते थे. हालांकि ‘शुभत्व’ संबंधी तीनों की अवधारणा भिन्न है. सुकरात के लिए केवल ‘ज्ञान ही परमशुभ’ है. प्लेटो ने ‘शुभत्व’ का थोड़ा–सा विस्तार किया. उसने भी माना कि वास्तविक ज्ञान का बोध होना ही ‘शुभत्व’ का प्रतीक है. लेकिन उसकी की प्राप्ति सर्वथा आसान भी नहीं है. यह व्यक्ति की अपनी कमजोरियों, स्वार्थकामनाओं से बाधित होती रहती है. उसके लिए ‘शुभत्व’ ज्ञान की उपलब्धता के साथ सामाजिक और राजनीतिक चेतना का भी पर्याय है, जिसके कारण कुछ विचारक उसको भौतिकवादी भी मानते हैं. हालांकि प्लेटो की विचारधारा उस भौतिकवाद से बहुत दूर है, जिसका विस्तार हमें माक्र्स एवं ऐंगल्स के चिंतन में दिखता है. प्लेटो का भौतिकवादी चिंतना भी भावनाओं से लबरेज है. तो भी समाज के विभिन्न वर्गों में विभाजन की उसकी योजना आधुनिक जीवन से बहुत कुछ मिलती है—
‘इस तरह हमारे आदर्श राज्य की रचना तो पूरी हुई. अब हम वहां के नागरिकों के जनजीवन, उनके रहन–सहन के ढंग पर चर्चा करते हैं, जैसा कि हमने उनके बारे में अभी तक निश्चित किया है. क्या वे अपने भरण–पोषण के लिए अनाज उत्पादन की जिम्मेदारी नहीं संभालेंगे तथा अपनी आवश्यकतानुसार अन्य वस्तुओं यथा जूते, वस्त्र, शराब आदि का निर्माण नहीं करेंगे? एक बार गृह–निर्माण के दायित्व से मुक्त होने के बाद ग्रीश्मकाल में वे सामान्यतः नंगे तन–बदन रहकर काम करेंगे, किंतु सर्दी में ठंड से बचने के लिए उन्हें भरपूर वस्त्रों सहित जूतांे की भी दरकार होगी. गेंहूं और जौ के आटे को मांडकर अपने लिए वे स्वादिष्ट केक और डबलरोटियों का निर्माण करेंगे. पकाए हुए भोजन को स्वच्छ पत्तियों अथवा यत्न से बुनी गई स्वच्छ चटाइयों पर परोसेंगे. बिस्तर के लिए उन्हें साफ चादरों की भी जरूरत होगी, जिसके लिए वे सर्वोत्तम सामग्री का चयन करेंगे. पवित्र अवसरों पर वे अपने परिवार के साथ महान देवता के लिए उपवास रखेंगे, उसके बाद स्वयं की बनाई मदिरा का सेवन कर, सिर पर फूलमालाएं धारण कर, उत्सव मनाते हुए वे देवता की अभ्यर्थना करेंगे. युद्ध और गरीबी जैसी आपदाओं पर नजर रखते हुए वे इस बात का भी पूरा ध्यान रखेंगे कि उनका परिवार उनके द्वारा स्थापित जीवनमूल्यों का पालन करे.’
अपनी राज्य योजना में प्लेटो उन सभी वस्तुओं की परिकल्पना करता है, जो नागरिकों के स्वस्थ, सुखी एवं संपन्न जीवन के लिए अनिवार्य मानी जाती हैं. ये वे न्यूनतम आवश्यकताएं हैं, जिनके बिना मानव–जीवन असंभव है. इन अनिवार्य वस्तुओं में वह उत्तम मदिरा के अलावा मक्खन, पनीर, फलों तथा अन्य खाद्य सामग्रियों की भी अपने नागरिकों के रोजमर्रा के भोजन के रूप में कामना करता है, जिससे वे वृद्धावस्था में भी स्वस्थ एवं शांतिमय जीवन बिता सकें तथा वैसा ही जीवन अपने बच्चों के लिए भी सौंप सकें. सुकरात इससे भी परिचित था कि व्यक्ति की कामनाओं का अंत नहीं है. इसलिए चर्चा में भाग ले रहा ग्लुकोन जब उससे जीवन के लिए आधुनिकता की प्रतीक कुछ और वस्तुओं जैसे सोफा सेट, डाइनिंग टेबिल आदि को भी आदर्श राज्य के नागरिकों के जीवन में शामिल करने को कहता है, तो सुकरात उसके विरोध में नए तर्क के साथ उपस्थित हो जाता है—‘निःसंदेह समाज में ऐसे भी व्यक्ति होंगे जो सादा जीवन से संतुष्ट न हों. उन्हें आराम के सोफा, भोजन के लिए मेज–कुर्सी, इत्र–फुलेल, स्वादिष्ट केक यहां तक कि रखैलों की जरूरत पड़ेगी, वह भी एक तरह के नहीं, बल्कि जितने हैं, सभी प्रकार के. जीवन में इन वस्तुओं की अनिवार्यता को स्वीकारते हुए हम अपने उन वस्तुओं की सूची से आगे निकल जाते हैं, जिन्हें हमने अभी तक जीवन की मूलभूत आवश्यकता माना है, जैसे भोजन, वस्त्र, आवास और जूते आदि. फिर तो हमें खूबसूरत कलाकृतियों, इंब्राडरी, सोने और हाथी दांत की वस्तुओं को भी इस सूची में सुरक्षित रखना पड़ेगा.’
ग्लुकोन इसपर सहमति व्यक्त करता है. सुकरात मानो इसी की प्रतीक्षा में हो. अपने तर्क को और आगे बढ़ाते हुए वह कहता है कि अगर व्यक्ति की आवश्यकताएं इसी तरह अंतहीन विस्तार लेती रहीं तो एक दिन प्रत्येक व्यक्ति तथा समूह की अंतहीन इच्छाएं होंगी. हालांकि यह राज्य का दायित्व होगा कि वह न्याय के हित में अपने नागरिकों को वे सभी वस्तुएं उपलब्ध कराए, जिन्हें वे अपने लिए आवश्यक मानते हैं. परंतु क्या किसी राज्य के लिए यह संभव है कि वह अपने नागरिकों की समस्त कामनाओं की पूर्ति कर सके. व्यावहारिक दृष्टि से यह काम कठिन ही नहीं बल्कि असंभव होगा. और वह भूमि जो अपने नागरिकों की समस्त मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम है, एक दिन छोटी पड़ने लगेगी. निरंतर बढ़ती हुई कामनाएं समाज में असंतुलन और आक्रोश पैदा करेंगी, और तब—
‘यह धरती जो अपने नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम है, बहुत छोटी पड़ जाएगी….उस अवस्था में हम पड़ोसी की जमीन का कुछ हिस्सा चाहेंगे, ताकि उससे अपनी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें. लेकिन जिस प्रकार हमारी निगाह पड़ोसी की रोटी पर है, वैसे ही उसकी निगाह भी, यदि वह भी अपनी विलासिता को अनियंत्रित तरीके से बढ़ाता रहा तो, हमारी रोटी पर होगी.’
इससे राज्यों के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा होगी. उसको नियंत्रित करने के लिए ढेर सारा श्रम और संसाधन खपाने पड़ेंगे. इससे विकासधारा अवरुद्ध होगी. तब, प्लेटो के अनुसार युद्ध अपरिहार्य हो जाएगा. राज्य को अपनी सुरक्षा पर भारी–भरकम धनराशि खर्च करनी पड़ेगी. चूंकि दुश्मन राज्य के नागरिकों की भी ऐसी ही महत्त्वाकांक्षाएं होंगी, इसलिए अपने राज्य के नागरिकों तथा उनकी संपत्ति की सुरक्षा के लिए सेना को हर समय युद्ध के मोर्चे पर सन्नद्ध रहना पड़ेगा. प्लेटो के अनुसार कामनाओं की अंतहीन स्थिति में युद्ध अपरिहार्य हो जाएगा. एक अन्य महत्त्वपूर्ण संवाद–पुस्तक ‘फीडियो’ में वह कहता है कि—
‘सभी युद्धों का एक ही ध्येय है—संपत्ति हड़पना.’
आगे वह लिखता है कि युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं है. इसलिए भारी–भरकम सेना के बावजूद राज्य के लिए अपने अस्तित्व को कायम रखना निरंतर कठिन होता जाएगा. आंतरिक और बाह्यः चुनौतियां उसकी एकता एवं अखंडता पर प्रहार करने लगेंगी. इसके बाद वह उस निष्कर्ष की ओर बढ़ता है, जो ‘रिपब्लिक’ के दूसरे खंड का प्रतिपाद्य विषय है. उसके अनुसार नागरिकों की अंतहीन कामनाएं समाज में असंतोष को बढ़ावा देंगी, जिससे वह दूसरे की संपत्ति पर लालच–भरी नजर रखेगा. यह स्थिति अशांति को बढ़ावा देगी. इससे राज्य में अराजकता फैल सकती है. उस अवस्था में राज्य की देखभाल कौन कर सकता है? प्लेटो के अनुसार यह यह काम दार्शनिकों के एक समूह को सौंपा जाना चाहिए. ऐसे योग्य व्यक्तियों को जो मित्रों और शत्राुओं में भेद करना जानते हों. दार्शनिकों को और क्या करना चाहिए—
‘उन्हें अपने शत्रुओं के प्रति खतरनाक तथा मित्रों के लिए विनम्र होना चाहिए. यदि ऐसा नहीं है तो वे स्वयं को, इससे पहले कि शत्रु आकर उन्हें नष्ट करे, अपने आप नष्ट कर लेंगे.’
प्लेटो दार्शनिक सम्राट की उपयोगिता का बखान हालांकि अपने गुरु सुकरात के माध्यम से करता है, परंतु यह परिकल्पना प्लेटो की अपनी कल्पना थी. राज्य–संरक्षकों के रूप में वह ऐसे सर्वगुणसंपन्न व्यक्तियों को नियुक्त करना चाहता था, जो न केवल युद्धनीति, बल्कि राजनीति, प्रबंधन, सुरक्षा, उत्पादन, कला एवं संस्कृति संरक्षण में भी पारंगत हों. संरक्षक–वर्ग में युवा और अनुभवी दोनों को प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए. किंतु युवा संरक्षकों को वृद्ध संरक्षकों के अनुभवों का लाभ मिले—यह अनुशासनात्मक प्रावधान भी वह अपने ‘रिपब्लिक’ में करता है. उसके अनुसार युवा संरक्षकों का चयन उनकी योग्यता के आधार पर किया जाना चाहिए. संरक्षकों का दायित्व है कि वे ‘कुत्ते’ की भांति प्राण–प्रण से राज्य की सुरक्षा में जुटे रहें. यहां ‘कुत्ता’ शब्द का प्रयोग आलंकारिक है और वह सुदृढ़ सरकार के लिए प्रयुक्त है, जिसके कर्ता–धर्ता अपने दायित्वों के प्रति सजग हों. समाज–रचना में प्लेटो जिस सादगी और सरलता का पक्ष लेता है, वह स्पार्टा से प्रेरित थी. जहां व्यक्ति को पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त रखा जाता था. प्लेटो ने हालांकि उद्यमी वर्ग को निजी संपत्ति रखने की अनुमति दी थी, साथ ही उसने संरक्षक दार्शनिकों को यह अधिकार भी दिया था कि वह संपत्ति के अतिरिक्त जमाव पर नजर रखे. इसी प्रकार यदि कहीं गरीबी बढ़ती जा रही है तो उसको भी नियंत्रण में रखे, ताकि समाज में आर्थिक संतुलन कायम रहे. वह मानता था कि संपत्ति का असमान विभाजन, यानी समाज का अमीर और गरीब वर्ग में विभाजन सामाजिक आक्रोश को बढ़ावा देगा, जो सामाजिक शांति और सद्भाव के लिए कभी भी चुनौती बन सकता है.
राजनीतिक दर्शन
प्लेटो दार्शनिक सम्राट का पक्षधर था. लोकतंत्र को लेकर भी वह बहुत आशान्वित नहीं था. उसके अनुसार ऐसे लोगों को राज्य की बागडोर नहीं सौंपी जा सकती, जो मंदबुद्धि, अस्थिर और भीड़ का आचरण करने वाले हों, जिन्हें दर्शन का जरा–भी ज्ञान न हो. उसके अनुसार लोकतांत्रिक पद्धति लोगों को बहुमत की राय के अनुसार शासित होने तथा आचरण करने के लिए बाध्य करती है. बहुमत के आकलन के लिए सिर्फ उस पक्ष के लोगों की संख्या देखी जाती है. किसी कारण मतदान प्रक्रिया से बाहर रह गए अथवा छोड़ दिए गए लोगों तथा अल्पमत वाले नागरिकों की इच्छा का वहां कोई मूल्य नहीं होता. इसलिए उन्हें अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बहुमत की प्रतीक्षा करनी पड़ती है. इस तरह लोकतंत्र में वे लोग सत्ता से बाहर रह जाते हैं, जो अल्पमत में हैं, भले ही वे कितने ही बुद्धिमान, योग्य तथा तार्किक रूप से सही क्यों न हों. प्लेटो पाइथागोरेस के अनुयाइयों के इस तर्क से सहमत था कि लोकतंत्र ‘असमान लोगों की समानता’ है, जिसमें अल्पमत नागरिकों को बहुमत की राय के अनुरूप अनुसरण करने के लिए बाध्य किया जाता है. प्लेटो के अनुसार दार्शनिक मंडल को शासन की जिम्मेदारी सौंपने से लोकतंत्र की अनेक बुराइयों से बचा जा सकता है.
प्लेटो ने सुदीर्घ और सक्रिय जीवन जिया. इस अवधि में वह लगातार लेखन करता रहा. उसका लिखा विपुल साहित्य आज भी हमें उपलब्ध है. हालांकि उसमें बाद के विचारकों द्वारा प्रक्षेपण भी खूब हुआ है, मगर किसी भी ख्यातिनाम विचारक के लिए यह अनहोनी या असामान्य घटना नहीं है. लेकिन जिन पुस्तकों को विद्वान प्लेटो द्वारा रचित मानते हैं, उनमें भी ऐसे कई विरोधाभास हैं, जिनसे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसके विचार लगातार बदलते रहे थे. किसी भी विचारक के लिए यह एकदम स्वाभाविक बात है. आदर्श राज्य अथवा सरकार की अवधारणा में भी उसके पूर्ववर्ती और परिवर्ती विचारों में अंतर देखने को मिलता है. प्लेटो के ‘रिपब्लिक’ और ‘ला॓ज’ में आए कुछ विचार तो आज भी विद्वानों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं.
प्लेटो अपने गुरु सुकरात की इस विचार से सहमत था कि मनुष्य तीन प्रकार की ऐषणाओं से युक्त होता है. पहली ऐषणा उसकी मूलभूत आवश्यकताओं से निर्मित होती है—यथा आवास, भोजन, वस्त्रदि. दूसरी ऐषणा मन यानी जिज्ञासा होती है जिसमें वह अपने भीतरी और बाहरी संसार के बारे में कुछ धारणाएं बनाता हैं, जिससे उसका जीवन संचालित होता है. इन दोनों के बीच समन्वय करने वाली तीसरी ऐषणा अथवा प्रवृत्ति उसका तर्कसामर्थ्य अथवा विवेक है, जो उसको बाकी प्राणियों से विशिष्ट दर्शाता है. तथा जिसके द्वारा वह सभ्यता और बोध के उच्चतम स्तर की ओर गतिमान रहने का प्रयास कर सकता है. मनुष्य की इन तीन प्रवृत्तियों अथवा ऐषणाओं के आधार पर सुकरात ने समाज को भी तीन वर्गों यथा उत्पादक, संरक्षक तथा शासक में विभाजित किया है. इस विभाजन के अनुसार समाज के तीन निम्नलिखित अंग हैं—
1. उत्पादक: इस वर्ग में समाज के वे लोग सम्मिलित हैं जो उसके भरष–पोषण यानी उत्पादन का दायित्व वहन करते हैं. इनमें किसान, मजदूर, लौहार, बढ़ई, दुकानदार, गड़हरिये, राजमिस्त्री, प्लंबर आदि आते हैं, जो अपने श्रम–कौशल से समाज की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं. हम मानव शरीर में इसकी तुलना पेट से कर सकते हैं.
2. संरक्षक: संरक्षक वर्ग का समाज में वही स्थान है, जो मानव शरीर में छाती और भुजाओं का है. ऐसे लोग जो बहादुर एवं साहसी हैं, जो शारीरिक रूप से मजबूत तथा खतरों का सामना करने को तत्पर रहते हैं वे सैन्य सेवाओं के लिए उपयुक्त होते हैं. ऐसे व्यक्तियों को राज्य की सेवा की जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए. चूंकि इन कार्यों के लिए विवेक की भी आवश्यकता होती है, अतएव इन्हें मानव शरीर में ‘आत्मन्’ के तुल्य माना गया है.
3. शासक: शरीर में जो काम मस्तिष्क का है, वही काम समाज में प्रशासक वर्ग का है. ऐसे व्यक्ति तो बुद्धिमान और तार्किक हैं, जिनमें धैर्य और आत्मनियंत्रण की भावना है, जो ज्ञान के प्रति समर्पित, उदार एवं सबके कल्याण की सोचने वाले हैं. वे समाज के प्रशासक वर्ग में चुने जा सकते हैं. प्लेटो ने इन्हें समाज का मस्तिष्क माना है. ऐसे व्यक्ति समाज में हालांकि बहुत कम संख्या में होते हैं, तो भी समाज के हित के लिए यह जरूरी है कि नेतृत्व की जिम्मेदारी इन्हीं लोगों को सौंपी जाए.
प्लेटो के समय में एथेंस में जो गणतांत्रिक पद्धति प्रचलन में थी, उसके समर्थकों का विश्वास था कि समाज में बहुत कम ही लोग होते हैं, जिनमें शासन करने का गुण होता है. कुछ अर्थों में प्लेटो भी उनसे सहमत था. किंतु उसका मानना था कि शिक्षा के द्वारा व्यक्ति के ज्ञान और विवेक में सुधार लाकर उसे शासन करने योग्य बनाया जा सकता है. इसके लिए प्लेटो ने जलयान के कप्तान तथा डाक्टर का उदाहरण दिया था. उसके अनुसार जिस प्रकार जलयान पर नियंत्रण करने अथवा रोगों से उपचार के लिए विशिष्ट ज्ञानयुक्त पेशवरों की आवश्यकता होती है. इसी प्रकार शासन करना भी विशिष्ट योग्यता की अपेक्षा करता है. दार्शनिक समर्थन के पीछे प्लेटो की मान्यता थी कि वे न केवल विवेकवान एवं दूरदृष्टा होते हैं, बल्कि उनमें सत्य के प्रति तीव्र आग्रहशीलता भी होती है. अधिकतम लोगों को अधिकतम विवेकवान कैसे बनाया जाए? समाज की जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए अधिकतम दार्शनिक कैसे पैदा किए जाएं? फिर दार्शनिकों की विवेकशीलता भी सनातन नहीं. उनका बौद्धिक क्षरण भी संभव है. ऐसी समस्याओं पर ‘रिपब्लिक’ में विस्तार सहित चर्चा की गई है. उल्लेखनीय है कि प्लेटो के आदर्शलोक में किसानों, शिल्पकर्मियों, सौदागरों, तथा मजदूरों को तो रहने का सम्मानजनक स्थान था. परंतु उसने इत्र–फुलेल का धंधा करने वालों, वेश्याओं, पेस्ट्री अथवा केक बनाने के कारखानों, सुनार, हाथी–दांत आदि पर नक्काशी करने वालों, बग्गी बनाने वालों, कवियों और चित्रकारों के लिए बहुत कम स्थान था. उसका मानना था कि ये वे प्रशाधन हैं, जिनका समाज के उच्चवर्गीय लोग ही उपयोग कर सकते हैं.
राज्य और प्रशासक के बारे में भी प्लेटो के विचार अपने समकालीनों से हटकर थे. अपने विचारों के पक्ष में उसने कई रोचक तर्क भी दिए हैं. लोकतंत्र के बारे में टिप्पणी करने से पहले वह प्रश्न करता है—‘निकृष्ट लोकतंत्र अथवा तानाशाही? इनमें आपकी दृष्टि में क्या श्रेष्ठतर है?’ वह प्रश्न उछालकर ही शांत नहीं हो जाता. उसपर आगे भी विचार करता है. लंबे विमर्श के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि एक बुरे लोकतंत्र की अपेक्षा बुरे तानाशाह के शासन में रहना अच्छा है. इसलिए कि लोकतंत्र में पूरा समाज बुरे काम में संलिप्त होता है, बजाय व्यक्ति अथवा समूह–विशेष के. यह कुछ ऐसा ही है जैसे जहाज के कप्तान के कंपार्टमेंट में पूरी भीड़ घुस आई हो. अंदर आए लोगों में से प्रत्येक अपनी हांक रहा हो. कोई किसी की सुनने, धैर्यपूर्वक विचार करने या अपना पक्ष रखने को तैयार न हो. दूसरी ओर जहाज का कप्तान भी मनमानी करने लगे तो वह भी राज्य के लिए अहितकर सिद्ध होगा. अतः अत्यावश्यक है कि दूसरे नागरिकों की भांति कप्तान भी लोकतांत्रिक नियमों का पालन करे. यह तभी संभव है जब कप्तान दूरंदेश और सबके प्रति समान व्यवहार करने वाला हो. उसमें दूसरों की इच्छा–आकांक्षाओं के प्रति सम्मान हो. प्लेटों का यह विचार जहां लोकतंत्र का समर्थन करता है, वहीं उसकी समस्याओं की ओर इशारा भी करता है. वह मानता है कि राज्य में विभिन्न विचारधाराओं के समर्थक व्यक्ति हो सकते हैं. नागरिकों में से कुछ अभिजाततंत्र और कुछ कुलीनतावाद के समर्थक हो सकते हैं. उन्हीं में से कुछ को तानाशाह से लगाव हो सकता है. जबकि कुछ लोकतंत्र को सर्वोत्तम शासन पद्धति मानते होंगे. नागरिकों के इन मतांतरों में यदि समुचित समन्वय न हो तो उनमें आक्रोश पनप सकता है. व्यापक असंतोष की स्थिति अंततः तानाशाही व्यवस्था को पनपने का अवसर दे सकती है, जो प्रकारांतर में अराजकता की जननी है.
प्लेटो की विचारधारा में प्रारंभिक समाजवाद के लक्षण स्पष्ट नजर आते हैं. उसके अनुसार अत्यधिक धन और निर्धनता दोनों ही कार्य की गुणवत्ता एवं कारीगर की कार्यकुशलता पर प्रतिकूल असर डालते हैं. अत्यधिक धन ‘विलासिता, सुस्ती तथा अभिजात्यबोध पैदा करता है. दूसरी ओर निर्धनता से कार्यकुशलता का हृास होता है, यह व्यक्ति को ‘ओछा और समझौतावादी’ भी बनाती है. समाज में धन के असमान वितरण से ही शासक वर्ग का जन्म तथा उसको मनमानी करने का अवसर प्राप्त होता है. इन स्थितियों से सर्वथा बच पाना संभव नहीं. इसलिए आवश्यक है कि शासन की बागडोर ऐसे लोगों के हाथों में सौंपी जाए जो दार्शनिक प्रवृत्ति के हों. जो समाज में विचारों और राज्य–कल्याण को धन से अधिक महत्त्व देते हों. जिनके लिए व्यक्तिमात्र का सुख भी उतना ही महत्त्वपूर्ण हो, जितना उनका अपना सुख. प्लेटो की यही मान्यता दार्शनिक सम्राट की परिकल्पना का आधार बनी. चूंकि व्यक्ति की अपनी दुबर्लताएं होती हैं, कोई भी अपने आप में परिपूर्ण नहीं है. इसलिए किसी एक को सारे अधिकार दिए जाने से तानाशाही की स्थिति पैदा हो सकती है. उससे बचने के लिए अत्यावश्यक है कि निर्णय की प्रक्रिया में अधिकतम लोगों को भागीदार बनाया जाए. इसके लिए वह ‘संरक्षक’ वर्ग की नियुक्ति का सुझाव देता है. प्लेटो व्यवस्था करता है कि संरक्षकों के लिए शिक्षा की न्यूनतम योग्यता निर्धारित होगी. उनपर राज्य की अंदरूनी और बाहरी सुरक्षा की जिम्मेदारी होगी, इसलिए उनके लिए अनिवार्य सैन्य प्रशिक्षण के साथ राजनीतिक–सामाजिक दर्शन का ज्ञान भी अत्यावश्यक होगा.
अपने आदर्शलोक के लिए प्लेटो साधारण नागरिकों के कर्तव्यों का भी निर्धारण करता है. उसके अनुसार संरक्षक वर्ग के अलावा शेष नागरिकों को बड़े ही सहज भाव से, किंतु उनकी रुचि एवं योग्यताओं का ध्यान रखते हुए विभाजित किया जाएगा. प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व होगा कि वह निर्धारित कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा के साथ करे. चिकित्सक का कर्तव्य होगा कि वह नागरिकों के स्वास्थ्य की भली–भांति देखभाल करे और उन्हें शारीरिक रूप से हृष्ट–पुष्ठ बनाए रखने में अपना भरपूर योगदान दे. व्यापारी वर्ग का दायित्व होगा कि वह राज्य में आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति को बनाए रखे, तथा व्यापार में निजी हित की अपेक्षा राज्यकल्याण को सर्वोपरि समझे. शारीरिक रूप से अस्वस्थ और असाध्य रोगों के शिकार नागरिकों के प्रति प्लेटो का रवैया अनुदारता पूर्ण था. वह उन्हें समाज के लिए अनावश्यक मानते हुए करीब–करीब मरने के लिए छोड़ देता है. उसने संरक्षकों के लिए न्यूनतम आयु भी निर्धारित की है. उसका मानना था कि पर्याप्त अध्ययन और प्रशिक्षण के बाद, करीब पचास की अवस्था में व्यक्ति संरक्षक का दायित्व वहन करने योग्य हो जाता है. उसके अनुसार संरक्षक का जीवन सादा और आचरण दूसरों के लिए अनुकरणीय होना चाहिए. उसका सुखामोद दर्शनशास्त्र के अध्ययन, राज्य कल्याण के लिए चिंतन–मनन में होना चाहिए. प्लेटो कुछ परिस्थितियों को छोड़कर व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा का विरोधी था. समाज में आर्थिक समानता बनाए रखने के लिए उसने व्यवस्था की थी कि राज्य में संरक्षक का दायित्व संभालने वाले व्यक्तियों को भी अन्य नागरिकों की भांति सामूहिक भोजनालय में भोजन करना होगा. मनोरंजन के लिए अपने पास कुछ वस्तुएं रखने का अधिकार उसने संरक्षकों को दिया है. पर उसके वह संपत्ति का भोग राज्य की अमानत की भांति करना चाहिए—
‘उन्हें (गार्जियन को) सैनिकों की भांति सामूहिक आवास–स्थलों में सबके साथ रहना होगा तथा सबके साथ सामूहिक भोजनालय में भोजन करना होगा. उन्हें यह समझना चाहिए कि उन्हें सोने और चांदी के गहनों की कतई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनके हृदय उससे कहीं अधिक पवित्र स्वर्गीय स्वर्ण–आभा और रजत–आभाओं से दीप्तिमान हैं…’
संरक्षक वर्ग जब इस प्रकार आदर्श और जीवनमूल्यों से भरपूर आचरण करेगा, जब वह अपनी कामनाओं की पूर्ति राज्य–कल्याण और जनसाधारण के उद्धार में देखने लगेगा, तो राज्य की अनेक समस्याएं यथा संपत्ति के लिए युद्ध, सामाजिक असंतोष, अंतद्र्वंद्व आदि स्वतः समाप्त होते जाएंगे. उनके आचरण से अन्य नागरिक भी प्रभावित होंगे. उस अवस्था में पूरा राज्य एक समान नागरिक चेतना और नैतिक भावनाओं से अनुशासित होगा. ‘रिपब्लिक’ में प्लेटो ने ऐसे राज्य को आदर्श माना है. ऐसा राज्य निम्नलिखित सद्गुणों से स्वतः अनुशासित होगा—
ज्ञान : शासन प्रणाली के कामकाज में.
साहस : सुरक्षा प्रणाली की कार्रवाही में.
सहिष्णुता : शासनतंत्र के समस्त कार्यकलापों में.
उपर्युक्त तीन सदगुणों को हम प्लेटो के आदर्शराज्य का लक्षण भी मान सकते हैं. आगे वह व्याख्या करता है कि ‘संरक्षक’ स्वयं ‘ज्ञान’ का प्रतिरूप होंगे, उन्हीं से ज्ञान की धारा समाज के अन्य वर्गों में प्रवाहित होगी. वे साहसी भी होंगे तथा उनके साहस से प्रेरणा लेकर सैन्यदल राज्य की सुरक्षा को संगठित होंगे. समाज के विभिन्न वर्गों तथा प्रशासनतंत्र के में आपसी सामन्जस्य और सहिष्णुता अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं. मगर यह तभी संभव है, जब शासक, प्रशासक एवं उत्पादक शक्तियों के बीच संपूर्ण तालमेल एवं विश्वास की भावना हो.
राज्य की अवधारणा को लेकर प्लेटो ने जो विचार प्रस्तुत किए थे, उनके साथ विडंबना रही कि वे शायद ही कभी किसी राज्य में शासन प्रणाली के रूप में अपनाए जा सके. स्वयं प्लेटो का शिष्य अरस्तु ही अपने गुरु के राजनीतिक विचारों से असहमत था, अपनी महत्त्वपूर्ण कृति ‘दि पाॅलिटिक्स’ मंे उसने एक सुदृढ़ केंद्र का समर्थन किया है. लेकिन वहां दार्शनिक सम्राट का कोई उल्लेख नहीं है. दरअसल अरस्तु के समय तक राजनीतिक में साम्राज्यवाद के बीज अंकुराने लगे थे. ‘दि पाॅलिटिक्स’ में अरस्तु ऐसी ही राजनीति का समर्थन करना दिखाई पड़ता है. हालांकि नवप्लेटोवाद के व्याख्याताओं में से एक ब्रिटिश दार्शनिक कार्ल रेमंड पोपर(28 जुलाई, 1902—17 सितंबर, 1994) जैसे कुछ विद्वानों ने नवप्लेटोवाद के कुछ लक्षण पूर्व सोवियत संघ की शासन प्रणाली में अनुभव किए थे. उसके अनुसार सोवियत संघ—
‘नवप्लेटोवाद का आधुनिक उदाहरण था. इसलिए कि वहां एक अभिजात किस्म का शासक वर्ग (सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी) था, राज्य में शिक्षा के प्रति तीव्र लगाव, लैंगिक समानता पर पूरा जोर तथा पारिवारिक संस्था के प्रति अनाकर्षण का भाव था. इसके साथ ही वह व्यक्तिगत संपत्ति की भावना का निषेध करता था. हालांकि, यह भी सच है कि अपनी अत्यधिक समृद्धि और ज्ञान की होड़ के कारण ही वह तंत्र नाकाम भी हुआ, जिसकी कल्पना प्लेटो ने की थी.’
स्पष्ट है कि प्लेटो ने न केवल आदर्श राज्य के लक्षणों की व्याख्या की है, बल्कि क्षरणशील राज्य–व्यवस्थाओं के गहन अध्ययन के उपरांत यह भी बताया है कि ऐसे राज्य, जहां न्याय की अवमानना हो, नागरिक समाज में सहिष्णुता एवं सामंजस्य–भावना का अभाव हो, की अंतिम नियति क्या हो सकती है.! कैसे वह अवनति को प्राप्त होगा! उसका मानना था कि अन्यायी तंत्र में बुराइयां सिर्फ ऊपरी स्तर तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि वे निचले स्तरों पर भी फैलती चली जाती हैं. इसका नुकसान पूरे समाज को उठाना पड़ता है. एक दिन पूरा समाज विकृति का रूप धारण कर अपने ही बोझ से धराशायी हो जाता है. सोवियत संघ में कुछ ऐसा ही हुआ था. उसकी स्थापना एक समानता–आधारित समाज की परिकल्पना के साथ की गई थी, जो स्वयं को किसी भी प्रकार की स्पर्धा से सर्वथा मुक्त रखेगा तथा परस्पर सहयोग एवं सहिष्णुता की भावना के साथ शासन कार्य करेगा. परंतु सोवियत शासकों ने कल्याण का अपने नागरिकों के बीच समविभाजन करने के बजाय, जो कि साम्यवाद का वास्तविक लक्ष्य था, स्वयं को अंतहीन स्पर्धा और हथियारों की दौड़ में झोंक दिया. यह जानते हुए भी कि पूंजीपति व्यवस्था में हथियारों का निर्माण भी लाभ की वांछा के साथ किया जाता है. इसलिए अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश के शासक देश जहां निजी पूंजी के दम पर बनी हथियारों की कमाई से फल–फूल रहे थे, हथियारों का बाजार कम न हो इसके लिए दुनिया में यहां–वहां युद्ध थोपते रहना वहां राजनीति का चरित्र बन चुका था, वहीं सोवियत शासक नागरिकों के खून–पसीने से अर्जित सरकारी पूंजी द्वारा उन्हें स्पर्धा में पछाड़ देना चाहते थे. यह कार्य लंबे समय तक नामुमकिन था. केंद्रीय शासन के स्तर पर स्पर्धा की यह भावना धीरे–धीरे नागरिकों के आचरण में उतरती गई. अंततः वही सोवियत गणराज्य के पतन का कारण बनी. प्लेटो के राजनीतिक दर्शन का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो अंततः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि यह संभावना वह आज से 2400 वर्ष पहले ही व्यक्त कर चुका था. अमेरिका के साथ स्पर्धा करते हुए सोवियत संघ ने जो राह पकड़ी वह न केवल प्लेटो बल्कि उत्तरवत्र्ती माक्र्सवादी धारा के भी विपरीत थी.
यहां उल्लेख करना प्रासंगिक है कि जिस समाज में प्लेटो का जन्म हुआ वहां शीर्षस्थ वर्ग के लिए संपत्ति हासिल करना उतना ही महत्त्वपूर्ण था, जितना राजनीति में हिस्सा लेना. वहां व्यक्ति की संपत्ति के आधार पर ही उसका राजनीतिक स्तर तय किया जाता था. यही नहीं राजनीतिक भागीदारी के लिए व्यक्ति का न्यूनतम संपत्तिधारक होना अनिवार्य था. प्लेटो के अनुसार व्यक्तिवादी महत्त्वाकांक्षाएं वहां प्रेरक शक्ति का रूप धारण कर चुकी थीं. इससे उसको डर था कि समाज के शीर्षस्थ वर्ग के बीच संपत्ति की अंधी होड़ उसको विभाजित भी कर सकती है. संपत्ति के असमान विभाजन की स्थिति में जो उससे वंचित हैं, गरीब और विपन्न हैं वे भी शांत नहीं रहते. उन्हें हमेशा अपने अस्तित्व पर संकट की अनुभूति बनी रहती है. इससे मुक्ति की छटपटाहट उन्हें सत्ता–संघर्ष में वापस ले आती है. जीवन के अभाव और संघर्ष उन्हें लालची और अवसरवादी बनाते हैं. परिणामस्वरूप वे केवल अपने बारे में सोचने लगते हैं. उनका सारा सारा ध्यान भौतिक संपदा प्राप्त करने तक सीमित हो जाता है. मनुष्यता, ईमानदारी, सहिष्णुता और समर्पण जैसे आदर्श उनके लिए अर्थहीन हो जाते हैं. एक दिन वे सत्ता–शिखर पर काबिज भी हो जाते हैं, जिसमें उन्हीं के समान कुछ लोगों की साझेदारी होती है. सही मायने में वह अल्पतंत्र होता है, जिसमें शक्ति और संसाधन कुछ हाथों तक सीमित होकर रह जाते हैं. प्लेटो की यह परिकल्पना उनीसवीं शताब्दी में मजदूर क्रांति के बाद पेरिस कम्यून के रूप में सच होती दिखाई पड़ती है. इस विमर्श के उपरांत प्लेटो इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि समाज में—
‘भौतिक समृद्धि जैसे–जैसे अपनी चरमावस्था की ओर बढ़ती है, वैसे–वैसे मनुष्यता सिकुड़ती चली जाती है….धनवानों की महत्त्वाकांक्षाओं के बीच बढ़ती स्पर्धा उनके सभी प्रयासों को धनार्जन तक सीमित कर देती है. सत्तासीन अल्पवर्ग गरीबों से घृणा करता है तथा धनवानों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन देता है. परिणामस्वरूप वे समस्त पुरस्कारों तथा मान–सम्मान पर कब्जा जमाए रखते हैं.’
अल्पतंत्रत्मक सत्ता के दोषों की व्याख्या करता हुआ प्लेटो आगे लिखता है कि सत्तारूढ़ अत्पवर्ग धनार्जन को न केवल अपने जीवन का ध्येय बना लेता है, बल्कि वह यह व्यवस्था भी करता है कि समाज की कुल निधियां बहुत सीमित वर्ग तक सिमटकर रह जाएं. उसका यह काम अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने जैसा होता है. क्योंकि समाज की कुल धन–संपदा का मुट्ठी–भर लोगों तक सिमट जाना बाकी लोगों को अपनी स्थिति पर सोचने के लिए प्रेरित करता है. जनता में उस अन्यायी व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश पनपने लगता है. वे उसके विरुद्ध एकजुट होने लगते हैं. यह स्थिति समाज को लोकतंत्र की ओर ले जाती है. परंतु प्लेटो उसपर अधिक विचार नहीं करता. इसलिए कि उसके विचार में लोकतंत्र की अगली परिणति अराजकता में होती है. सामान्यतः अराजकता को राजनीतिक–सामाजिक अव्यवस्था का पर्याय माना जाता है. अठारहवीं शताब्दी में पियरे जोसेफ प्रूधों ने अराजकता का विचार लोगों के सामने प्रस्तुत किया था. उसके अनुसार अराजकता विवेकवान समाज के आत्मानुशासन और स्वतः मर्यादानुपालन के साथ बाहरी सत्ता की आवश्यकता के गौण हो जाने वाली अवस्था है. समाज यदि स्वतः अनुशासित हो तो बाहरी कानून अप्रासंगिक हो जाते हैं. दूसरी ओर प्लेटो की अराजकता से सामाजिक अव्यवस्था और राजनीतिक सत्ता के महत्त्वहीन हो जाने का संकेत मिलता है. लोकतंत्र के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए प्लेटो ‘रिपब्लिक’ में लिखता है कि लोकतांत्रिक शासन जनमानस में मुक्ति का एहसास पैदा करता है. प्रत्येक नागरिक को यह बोध होता है कि वह कुछ भी कहने, करने के लिए स्वतंत्र है. लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक को अपना मनपसंद कार्य चुनने की आजादी होती है. अतः प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन को इस प्रकार निर्धारित करता है, जिससे वह अधिकाधिक सुखोपभोग कर सके. इससे समाज में अराजकता फैलती जाती है. परिणामस्वरूप राष्ट्र का हित, समाज–कल्याण का लक्ष्य व्यक्तिगत स्वार्थभावना के चलते पीछे छूटता जाता है. इस प्रकार लोकतंत्र स्वेच्छापूर्वक अपनाई गई अराजकता का विविधवर्णी तंत्र है. देखने में यह बहुत आदर्श और मानवीय लगता है, किंतु प्रकारांतर में इसकी परिणति एक क्रूर तानाशाही व्यवस्था में होती है. इसलिए कि जनता के समर्थन पर चुनकर आए लोग कानून और संविधान के नाम पर ऐसी कार्रवाहियां जनता पर थोपते हैं, जो उनके वर्गीय हितों को पुष्ट करती हैं, जिनसे कल्याणकारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में बचा जाना चाहिए. विश्व के दो बड़े देश, भारत और अमेरिका आज लोकतांत्रिक होने का दावा करते हैं. लेकिन अमेरिकी लोकतंत्र जहां पूंजीवादी शक्तियों के आगे समर्पित है, वहीं भारत में धार्मिक और जातीय समूह इसे मनमाना मोड़ देने में सक्षम हैं. इन स्थितियों में लोकतंत्र को लेकर आज से 2400 वर्ष पहले प्लेटो कहा एकदम सच लगता है.
लोकतंत्र के प्रति प्लेटो की अवधारणा उसके लंबे राजनीतिक अनुभवों से जन्मी थी. सुकरात को एथेंस की उस सरकार ने दंडित किया था, जो स्वयं के लोकतांत्रिक होने का दावा करती थी. तीस सदस्यीय उस सभा में जो सुकरात के मुकदमे की साक्षी थी, के मात्र तीन सदस्य सुकरात का स्पष्ट विरोध कर रहे थे. शेष सदस्य चुप रहकर उनका मूक समर्थन कर रहे थे. जो सुकरात के समर्थन में थे, उनकी आवाज में इतना दम नहीं था कि उसके विरोधियों का मुंह बंद करा सकें. उनमें कुछ प्लेटो जैसे सुकरात के युवा सदस्य भी थे, जिनकी वयस् मतदान के लिए निर्धारित न्यूनतम वयस् से कम थी. लोकतंत्र की कमजोरी का उल्लेख का करते हुए प्लेटो ने स्पष्ट किया था कि उसमें नेतागण अलग–अलग पृष्ठभूमियों से चुनकर आते हैं, जिनके हित भिन्न–भिन्न होते हैं. कभी–कभी धर्म, जाति, क्षेत्राीयता, भाषा संबंधी मुद्दे इतने गहरे हो जाते हैं कि वे प्रतिनिधि केवल अपने वर्गीय हितों को साधने पर ध्यान देते हैं, अतः वृहद सामाजिक–राष्ट्रीय लक्ष्य पीछे छूटते चले जाते हैं. चूंकि सभी अपने हित साधन को प्राथमिकता देते हैं, इसलिए उनके बीच राष्ट्रीय मुद्दों पर आम सहमति बन पाना असंभव–सा हो जाता है. उसके अभाव में अक्सर ऐसा भी होता है कि वे अपने उन हितों को भी नहीं साध पाते, जिन्हें लेकर उन्होंने चुनाव लड़ा था, जबकि निर्धारित अवधि के बाद जनता के सामने जाना उनकी लोकतांत्रिक विवशता बन जाती है. उस अवस्था में चुनाव में जीत के लिए वे अलोकतांत्रिक तरीके अपनाते हैं. चूंकि जनप्रतिनिधियों का अनैतिक आभामंडल क्षीण होता है, कभी–कभी वे खासे बदनाम भी होते चुके होते हैं, जिन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया की कमजोरियां सत्ता–शिखर ते ले जाती हैं—ऐसे सदस्य प्रशासन पर अपनी पकड़ नहीं बना पाते, जिसके कारण शासन के स्तर पर अराजकता की स्थिति बन जाती है. इसकी ओर प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में संकेत किया है. परिणामस्वरूप लोकतंत्र विरोधी शक्तियों को मनमानी करने का अवसर मिल जाता है. ऊपर से एक दिखता समाज भीतर ही भीतर अनेक वर्गों, जनसमूहों में बंट जाता है. उन सबकी समस्याएं एक जैसी होती हैं, समस्याआंे के कारक एक समान होते हैं. बावजूद इसके समस्याओं से निपटने के रास्तों पर उनके बीच कभी आम सहमति नहीं बन पाती है. इससे समाज सामाजिक–राष्ट्रीय मुद्दों पर एकमत होने के बजाय क्षुद्र स्वार्थांे के आधार पर बंट जाता है. समस्याओं के लिए जिम्मेदार शक्तियां लोगों को धर्म, क्षेत्रीयता, जाति, वर्ग, भाषा, प्रांतीयता आदि ऐसे मुद्दों पर बांटे रखती हैं, जिनका उनकी समस्याओं तथा विकास से को संबंध नहीं होता. प्रकारांतर में पूरा समाज—
‘तीन वर्गों में बंट जाता है. इनमें पहला है—पूंजीपति वर्ग(हालांकि प्लेटो ने इस शब्द का उल्लेख नहीं किया है), जो किसी न किसी बहाने धन–संचय के काम में लगा रहता है. दूसरी आम जनता, जो राजनीति के नाम से कतराती है, पर भ्रष्ट एवं स्वार्थी राजनयिकों का साथ देते हुए रात–दिन अपने काम में जुटी रहती है. तीसरा वर्ग उन स्वार्थी, प्रवंचक, धोखेबाज नेताओं का होता है जो अपने तात्कालिक हितसाधन के लिए जनोत्तेजना फैलाने का बहाना खोजते रहते हैं.’
इसका दुष्परिणाम होता है कि राष्ट्र अपने उन लक्ष्यों से दूर चला जाता है, जिनको सामने रखकर उसका गठन किया गया था. आमजनता का अपने प्रतिनिधियों और राजनीतिक व्यवस्था से विश्वास टूट जाता है. व्यापक सामाजिक असंतोष एवं जनाक्रोश का लाभ उठाने के लिए उन्हीं के बीच से कोई व्यक्ति आगे आता है. राजनीतिक अराजकता एवं फूट का लाभ उठाते हुए वह सबकुछ अपने अधीन कर लेता है. नागरिकों से उनके सामान्य अधिकार छीन लिए जाते हैं. अवसर का लाभ उठाते हुए पूंजीवादी ताकतें जो पहले उदंड और स्वार्थी नेताओं के साथ थीं, खेमा बदलकर वे तानाशाह के समर्थन में उतर आती हैं. उल्लेखनीय है कि तानाशाह बनकर जनाधिकारों ही हत्या करने वाला शासक दिखने में भला एवं नेकनीयत प्रतीत होता है. सत्ता पर कब्जा जमाते समय उसका नारा भी व्यापक लोकहित के निमित्त व्यवस्था–परिवर्तन का होता है. लेकिन सबकुछ अपने अधीन रखने, सत्ताकेंद्रों पर छा जाने की उसकी निरंकुश वृत्ति समाज के बहुसंख्यक वर्ग को निर्णय प्रक्रिया एवं राजनीतिक अधिकारों से बेदखल कर देती है. दोहरे चरित्र का उद्घाटन करते हुए प्लेटो ‘रिपब्लिक’ में लिखता है कि अपने आरंभिक दिनों में वह, स्वयंभू सत्ताओं का खंडन करते हुए, प्रत्येक व्यक्ति का खुली मुस्कान के साथ विनम्रतापूर्वक स्वागत करता है. धीरे–धीरे वह अपने मित्रों तथा आम जनता के दिल में जगह बना लेता है, वह कर्जदाताओं को राहत देता है, भूमि का जनता और अपने समर्थकों के बीच विभाजन करता है तथा एक उदार एवं सहिष्णु वातावरण तैयार करता है. मगर यह स्थिति बहुत लंबे समय तक नहीं रह पाती. उसके मनसूबे उस समय साफ होते हैं, जब वह अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए अघोषित युद्ध का सहारा लेता है. वह अपने शत्रुओं तथा मित्रों को अलग–अलग खेमों में बांट देता है. लोगों से उनके सामान्य अधिकार छीन लिए जाते हैं. हालांकि उस समय भी दिखावे के तौर पर वह आम जनता के हित और उसके कल्याण की ही बात कहता है. हिटलर जैसा तानाशाह भी स्वयं को समाजवादी कहता था. वस्तुतः बड़े से बड़े तानाशाह के दिल में भी जनता का डर समाया होता है. जनविद्रोह को रोकने के लिए वह अपनी ताकत का भ्रम पैदा करता है, उदारता का मुखौटा लगाता है. राष्ट्रीयता का बढ़–चढ़ कर बखान करता है. पर उसकी ये सभी कोशिशें एक दिन वृथा सिद्ध होती है. जनविद्रोह की संभावित घटना को टालने, लोगों की एकजुटता को रोकने के लिए वह—
‘सामान्य भोजों, दावतों, क्लबों, शिक्षा सदनों तथा ऐसे ही अन्य संस्थानों पर जो लोगों को परस्पर करीब लाते हैं, प्रतिबंध लागू करता है. वह हर उस रास्ते का अनुसरण करता है जो लोगों को परस्पर अजनबी बनाते हुए, उन्हें एक–दूसरे से दूर ले जाने में सहायक हो.’
अरस्तू तानाशाही व्यवस्था का विस्तार से उल्लेख करता है. तानाशाह के शासन में प्रत्येक नागरिक पर कड़ा अनुशासन और सरकार की पैनी नजर होती है. उसके दिल में समाया हुआ डर उसको कभी भी निद्र्वंद्व नहीं होने देता इसलिए वह शासन को लगातार कठोर बनाता चला जाता है. अरस्तु ने अपनी पुस्तक ‘दि पाॅलिटिक्स’ में तानाशाही व्यवस्था के लक्षणों का विस्तार सहित उल्लेख किया है. वहीं प्लेटो के ‘रिपब्लिक’ में हम विभिन्न राजनीतिक दर्शनों की छाया देखते हैं, जिनमें वह दार्शनिक सम्राट के पक्ष में अपना निर्णय सुनाता है. एक कवि हृदय विचारक की एथेंस की तानाशाही के प्रत्युत्तर में ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही थी. अरस्तु ने अपेक्षाकृत परिपक्व राजनीतिक दर्शन प्रस्तुत करते हुए ‘दि पालिटिक्स’ की रचना की, जिसमें उसने नैतिकता को पहले रखते हुए कहा कि राज्य वास्तव में परिवारों में सुखामोद एवं असंतोष की संतुलित उपस्थिति है, जो आत्मनिर्भर एवं सुखी–समृद्ध जीवन के लिए अनिवार्य है. वह समाज को नैतिकता की पुण्य–भूमि मानता था. संविधान निर्माता को उसने शिल्पकर्मी माना. उसके अनुसार समाज वह पदार्थ है, जिसे वह अपने शिल्पकर्म से संवारता है. प्लेटो की आरंभिक संवाद पुस्तक ‘प्रोटेगोरस’ में प्रोटेगोरस सुकरात से प्रश्न करता है कि जिस प्रकार तलवारबाजी, घुड़सवारी, युद्धनीति के शिक्षक आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, उसी प्रकार नैतिकता और सद्गुण के शिक्षक क्यों उपलब्ध नहीं होते? इसपर सुकरात का उत्तर था कि सद्गुण और नैतिकता के लिए अलग से कोई अध्यापक हो ही नहीं सकता, क्योंकि इनकी शिक्षा तो संपूर्ण समाज द्वारा दी जाती है. आशय है कि समाज में नैतिकता हो, तभी वह नवागत उसके सदस्यों में अंतरित हो सकती है.
अरस्तु का जन्म सुकरात को मृत्युदंड दिए जाने के 15 वर्ष बाद, 384 ईस्वी पूर्व हुआ था—प्लेटो द्वारा अकादमी की स्थापना से करीब एक वर्ष बाद. लगभग 18 वर्ष की अवस्था में उसने प्लेटो द्वारा स्थापित अकादमी में प्रवेश लिया. वहां लगभग बीस वर्षों तक उसने शिक्षार्जन किया. अरस्तु द्वारा अकादमी को छोड़ने तक प्लेटो की मृत्यु हो चुकी थी. तदनंतर अरस्तु ने अकादमी और यूनान दोनों को छोड़कर एशिया माइनर की ओर प्रस्थान किया, जहां अगले पांच वर्ष उसने दर्शन और विज्ञान के अध्ययन में बिताए. इस बीच मेकाडोनिया के सम्राट फिलिप द्वितीय के आमंत्रण पर वह मेकादोनिया पहुंचा. वहां उसको सिकंदर के अध्यापन का दायित्व सौंप दिया गया. युवा और महत्त्वाकांक्षी सिकदंर में उसको महान सम्राट के लक्षण दिखाई दिए. 300-400 ईस्वी पूर्व का समय इतिहास का वह दौर है जब लोग छोटे–छोटे कबीलाई राजाओं के आतंक, उनकी सनकों और मनमाने आचरण से तंग आ चुके थे. यह माना जाने लगा था कि राज्य के कल्याण के लिए बड़े राज्य की स्थापना अपरिहार्य है. ये प्रयास यूनान और भारत में लगभग साथ–साथ हो रहे थे. जो प्रयोग अरस्तु ने सिकंदर के रूप में यूनान के मेकाडोनिया राज्य में आरंभ किया था. ठीक वही कार्य चाणक्य(350 ईस्वी पूर्व—283 ईस्वी पूर्व) चंद्रगुप्त मौर्य को लेकर भारत में दोहरा रहा था. अरस्तु तथा चाणक्य दोनों सुदृढ़ केंद्र के समर्थक थे तथा उसके लिए कूटनीति का सहारा लेने से भी उन्हें गुरेज नहीं था. अरस्तु की राज्य की अवधारणा प्लेटो से पूरी तरह भिन्न थी. उसने स्पष्ट लिखा था कि ‘राज्य वाणिज्यिक प्रसार और आपसी सुरक्षा हेतु गठित समूह–मात्र नहीं है.’ बल्कि वह ऐसी व्यवस्था है, जिसमें प्रत्येक नागरिक अपनी स्वतंत्रता का आनंद लेते हुए अमन–चैन के साथ रह सकता है. अच्छा राजनयिक वह है जो अपने नागरिकों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को समझता और उनका सम्मान करता हो.
समाज के बारे में अरस्तु की धारणा अपने गुरु प्लेटो से भिन्न थी. उसके लिए समाज उन मानवीय वृत्तियों का स्रोत है, जो मनुष्य को एक–दूसरे के हित के लिए परस्पर संगठित होने, परिवारों का गठन करने, मैत्री स्थापित करने, दूसरों को नियंत्रित कर उनपर अपना अधिपत्य जमाने, नकारात्मक वृत्तियों जैसे लालच, क्रूरता, दैन्य, स्वार्थपरता आदि से दूर रहने तथा ज्ञानार्जन की चाहत, सामंजस्य, उदारता, ईमानदारी, सहिष्णुता आदि के लिए प्रेरित करती है. अरस्तु ने मनुष्य को ‘बुद्धिमान पशु’ माना था. उसके समानांतर समकालीन चीनी दार्शनिकों ने मनुष्य को ‘नैतिक पशु’ कहकर परिभाषित किया था. उल्लेखनीय है कि प्लेटो की भांति अरस्तु का जन्म भी एक अभिजात्य परिवार में हुआ था. वह सुकरात और प्लेटो के आदर्शवाद से प्रभावित था, किंतु अपने अनुभव से वह समझ चुका था कि उनका आदर्शवाद छोटे–छोटे राज्यों के आपसी युद्धों, मनमुटावों को रोकने में नाकाम रहा है. इसलिए वह जतन से मनुष्य को राजनीति का पाठ पढ़ाता है, जो उसको बड़ी राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित होने के लिए प्रेरित कर सके. सुदृढ़ राजनीतिक केंद्र की अनुशंसा करते समय वह नैतिकता और आदर्शवाद को बिसराता नहीं—यही उसकी महानता है. यद्यपि उसके इस चिंतन में जगह–जगह विरोधाभास भी हैं. एक स्थान पर उसने राज्य को नागरिकों का वह सीमित समूह भी माना है, जो नगर में राजनीतिक गतिविधियों का संचालन करने के लिए जिम्मेदार होते हैं. अरस्तु का यह अभिजात्यीय संस्कार ही है, जिसके कारण वह स्त्रिायों, दासों, साधारण पेशेवरों को ‘नागरिकता’ की परिभाषा से अलग रखता है, जबकि प्लेटो ने स्त्रिायों को भी ‘नागरिक’ माना था. अरस्तु के अनुसार—
‘कुछ आदमी…स्वभाव से ही दूसरों पर निर्भर होते हैं…इसलिए सही मायने में उन्हें या तो दास कहा जा सकता है अथवा ऐसा ही कोई चलता–फिरता प्राणी.’
यहां प्रश्न स्वाभाविक है कि अरस्तु ने जिन्हें ‘नागरिक’ की गरिमा से महिमामंडित किया है, उनका जीवन कैसा होगा? राज्य तथा उनके बीच क्या संबंध होंगे? अरस्तु के अनुसार नागरिकों के जीवन और कर्तव्यों का निर्धारण करने का दायित्व राज्य का है. यह बहुत कुछ उस संविधान पर निर्भर होगा जिसको वे नागरिक अपने लिए उपयुक्त मानते हैं. उसने तीन प्रमुख राज्य प्रणालियों का उल्लेख अपनी पुस्तक ‘दि पालिटिक्स’ में किया है. वे हैं—राजशाही, कुलीनतंत्र तथा संवैधानिक आधार पर चुनी गई सरकारें अथवा जनतंत्र. जैसा कि स्पष्ट है तीनों में निर्णायक शक्तियां क्रमशः एक के हाथ में, कुछ व्यक्तियों के हाथ में तथा वृहद जनसमाज के हाथों में होती हैं. यद्यपि जनसामान्य की राय को भी कई ऐसे कारणों से प्रभावित किया जाता है, जिनका व्यक्ति के सामाजिक–राजनीतिक विकास से कोई संबंध नहीं होता. लोकतांत्रिक दल समाज को जाति, धर्म, क्षेत्रीयता, भाषा जैसे समूहों में बांट देते हैं. जिससे लोक की शक्ति क्षीण हो जाती है. स्वार्थी राजनयिकों द्वारा बाद में उसका मनमाना दुरुपयोग किया जाता है. उपर्युक्त तीनों के अतिरिक्त सरकार के कुछ अन्य रूप भी संभव हैं, जो व्यक्तियों की आपसी समझ और स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं. अरस्तु इनमें से किसी एक का पक्ष लेने के बजाय ‘श्रेष्ठतम व्यक्तियों द्वारा श्रेष्ठतम शासन’ की पद्धति को अपनाने का पक्ष लेता है—
‘अभी तक हमने तीन प्रकार की शासन प्रणालियों पर विचार किया है तथा पाया है कि इन तीनों में से वही सर्वश्रेष्ठ है, जो सर्वोत्तम व्यक्तियों द्वारा शासित हो. यह किसी एक व्यक्ति द्वारा शासित प्रणाली भी हो सकती है, किसी परिवार द्वारा और बहुत–से व्यक्तियों द्वारा भी, जो शेष समाज को मनुष्यता की सर्वोन्नत अवस्था तक ले जाने में सक्षम हों, जिनमें शासन करने की पर्याप्त क्षमता हो, और जो इस प्रकार शासन करें, जिससे अधिकतम लोगों का अधिकतम कल्याण संभव हो तथा जिसको अधिकतम लोग स्वीकार करते हों. इससे अंततः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि एक अच्छे व्यक्ति के गुण तथा सर्वोत्तम सरकार में नागरिक के गुण एकसमान होते हैं…यह तथ्य स्वतः प्रमाणित है.’
शब्दों के थोड़े ऐर–फेर के साथ इस तथ्य को प्लेटो भी स्वीकार करता है. अपने संवाद ‘स्टेट्समेन’ में युवा सुकरात ‘अच्छी सरकार’ के विषय पर चर्चा करते हुए अजनबी यात्राी से कहलवाता है कि—
‘यह मानने में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि संविधान का अनुसरण करना–कराना ही सम्राट का पवित्र कर्तव्य है. इसमें सर्वोत्तम यह नहीं है कि कानून शासन करे, बल्कि उचित यह होगा कि मनुष्यमात्र, सम्राट को ज्ञान एवं शक्ति का सर्वाेच्च केंद्र मानते हुए स्वयं शासन करे….क्योंकि कानून स्वयं यह नहीं समझ पाता कि सबके लिए सर्वोचित एवं सर्वाेत्तम क्या है, इसलिए वह सर्वश्रेष्ठ को लागू करने में भी असमर्थ रहता है. मनुष्यों एवं उनकी कार्यशैलियों का व्यावहारिक अंतर तथा उसके द्वारा संचालित अनेकानेक कार्यक्रमों में अंतहीन अनियमिततताओं की व्याख्या किसी एक सामान्य तथा सार्वभौमिक नियम द्वारा असंभव है.’
अरस्तु स्वाधीनता को मनुष्य का मूल अधिकार मानता था, हालांकि स्वाधीनता की उसकी अवधारणा समाज के विशेषाधिकारसंपन्न वर्ग तक सीमित थी. विशेषाधिकार संपन्न वर्ग से उसका तात्पर्य अभिजात वर्ग से था, जिसके पास संसाधनों की प्रचुरता थी. एथेंस, स्पार्टा समेत प्राचीन यूनानी राज्यों में राजनीतिक अधिकार इसी वर्ग के अधीन थे. अपने गुरु प्लेटो की भांति अरस्तु ने भी राज्य को यह अधिकार दिया है कि वह अपने लाभ के लिए संपत्ति और संसाधनों की देखभाल और व्यवस्था करे. इस अर्थ में हम प्लेटो और अरस्तु दोनों को समाजवादी मान सकते हैं, हालांकि ‘समाजवाद’ नामक पद का जन्म उस समय तक नहीं हो पाया था. वे दोनों इस बात को लेकर भी एकमत थे कि बच्चों का जन्म और उनका पालन–पोषण राज्य की देखरेख में इस प्रकार हो कि वे बड़े होकर स्वस्थ एवं सुशिक्षित नागरिक बन सकें. उन्हें वही शिक्षा मिलनी चाहिए, जैसा कि राज्य के लिए उचित हो—
‘जनता से जुड़े सभी मामलों का प्रबंधन सर्वमान्य पद्धतियों द्वारा सार्वजनिक रूप से किया जाना चाहिए. हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि नागरिकों में से प्रत्येक केवल स्वयं तक सीमित नहीं है, बल्कि उन सभी का संबंध राज्य से है.
प्लेटो की भांति अरस्तु भी केवल राज्य को उसके कर्तव्यों के बारे में निर्देशित कर शांत नहीं हो जाता. वह उन रास्तों पर भी विचार करता है कि जिनसे जनसाधारण के जीवन को अनुशसित एवं सुखमय बनाया जा सके. उसके अनुसार राज्य की भूमिका सुव्यवस्थित परिवार के मुखिया के समान होनी चाहिए, जो बच्चों(नागरिकों) का पालन–पोषण नैसर्गिक स्नेहानुराग तथा निष्ठापूर्वक करना अपना पवित्र कर्तव्य मानता है. परिवार(नागरिकों) का मुखिया होने के नाते वह भली–भांति जानता–समझता है कि उसकी संतान(नागरिकों) में से कौन किस योग्य है, तथा कौन किस काम को खुशी–खुशी तथा सफलतापूर्वक पूरा कर सकता है. इसलिए वह ऐसी व्यवस्था करता है, जिसमें प्रत्येक नागरिक समाज के विकास में, कर्तव्यपालन का आनंद उठाता हुआ, अपना सर्वोत्तम योगदान दे सके. राज्य–प्रबंधनकर्ता यानी मुखिया कोई स्वयंभू सम्राट भी हो सकता है. यदि किसी अकेले व्यक्ति में ये गुण न हों तो राज्य के विधिवत संचालन के लिए लोकतंत्र को भी अपनाया जा सकता है. आशय यह है कि अरस्तु के लिए शासन–प्रणाली उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितनी राज्य का विकास. उसके अनुसार राजसत्ता का स्वरूप चाहे जैसा हो, उसका अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत रहना अनिवार्य है. ‘पाॅलिटिक्स’ में एक स्थान पर वह गणतंत्र का समर्थन करता हुआ भी नजर आता है. वह मानता है कि विशेष परिस्थितियों में ‘बहुसंख्यक की राय को ही…शासन का अधिकार’ सौंपना ही बेहतर होता है. संभवतः अपने जीवन के कड़वे अनुभवों से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि—
‘किसी अकेले व्यक्ति की राय हमेशा उतनी बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं हो सकती. इस बात की सदैव पर्याप्त संभावना रहती है कि सभी नागरिक परस्पर मिल–बैठकर जो निर्णय लेते हैं, वह श्रेष्ठतर होता है… जैसे सामूहिक भोज किसी अकेले व्यक्ति के खर्च पर दी गई दावत की अपेक्षा कहीं अधिक आनंददायक होता है.’
आदर्श राज्य की स्थापना प्लेटो और अरस्तु दोनों की ही चिंताओं में शामिल थी.इस बारे में प्लेटो का सोच आदर्शात्मक था, जबकि अरस्तु व्यावहारिक धरातल पर भी विचार करता है. हालांकि अपने लक्ष्य में पूर्ववर्ती विचारकों, गुरुओं से सामंजस्य रखते हुए अरस्तु भी ऐसी व्यवस्था के गठन पर जोर देता है, जहां ‘शुभत्व’ एवं ‘कल्याण’ की सर्वत्र व्याप्ति हो. ऐसे राज्य की स्थापना हेतु प्लेटो ने राज्य की बागडोर किसी दार्शनिक के हाथों में सौंप देने का सुझाव दिया था, जबकि अरस्तु परिस्थितियों के अनुसार सर्वोत्तम राज्यप्रणाली के चयन का मार्ग सुझाता है. उल्लेखनीय है कि प्लेटो के ‘दार्शनिक राजा’ का विचार उसके जीवनकाल में भी अनुपयोगी सिद्ध हो चुका था. स्वयं प्लेटो सायराकस सम्राट डायोजिनियस प्रथम के दरबार में महत्त्वपूर्ण पद पर रह चुका था. उसके दरबार में और भी कई विद्वान विचारक थे, किंतु उनकी उपस्थिति केवल दरबार की शोभा बढ़ाने के लिए थी. उसका उद्देश्य अन्य राजाओं पर अपनी बुद्धिमत्ता की धाक जमाना होता था. प्लेटो, डीओन सहित अन्य विचारकों, दार्शनिकों की उपस्थिति भी डायोजिनियस प्रथम की निरंकुशता पर लगाम लगाने में नाकाम सिद्ध हुई थी. सायराकस के अलावा भी अन्य कई स्थानों पर दार्शनिकों की पहल पर उदार एवं प्रगतिशील समूहों की स्थापना की कोशिश भी हो चुकी थी, लेकिन वे सभी प्रयास अल्पकालिक तथा असफल सिद्ध हुए थे. इससे यह मान लेना अनुचित होगा कि प्लेटो की संकल्पनाओं अथवा आदर्श राज्य को लेकर उसकी अभिकल्पना में दोष था. न ही यह सोचना उचित होगा कि आदर्श की स्थापना के प्रति प्लेटो की निष्ठा संद्धिग्ध थी. वस्तुतः उसकी विचारधारा व्यावहारिकता से परे, दार्शनिक गुणों, मानवीय सर्वोच्चता, सत्य के प्रति तीव्र आग्रहशीलता, न्याय और वास्तविक सौंदर्य पर केंद्रित है. उसमें वह ऊंचाई है जिसको शायद ही कभी प्राप्त किया जा सके. तथापि उसमें आदर्श व्यवस्था के रूप में मानव समाज को प्रेरित करते रहने का गुण है. स्वयं प्लेटो की प्रेरणा का आधार सुकरात का वह पत्र है, जो उसने एथेंस के गणतंत्र द्वारा दिए गए मृत्युदंड पर अमल की प्रतीक्षा करते हुए, कारावास से अपने शिष्यों–समर्थकों के लिए लिखा था. पत्र में वह सभी तात्कालिक शासन प्रणालियों, यहां तक कि दार्शनिक राज्य की अवधारणा से भी निराश दिखता है. उस पत्र में सुकरात लिखता है कि—
‘मैं अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि सभी समकालीन राज्य बड़े ही निकृष्ट ढंग से शासित थे, साथ ही यह कि उनके संविधान मानव कल्याण के सर्वोच्च लक्ष्य के हित में, व्यवस्था में आमूल परिवर्तन करने में अक्षम थे. सही मायने में, मुझे यह मानने के लिए बाध्य किया गया कि सामाजिक और व्यक्तिगत न्याय की स्थापना की अंतिम धुरी केवल सच्चे दर्शन में ही केंद्रित है. मनुष्यता का भला, संकटों से उसकी मुक्ति उस समय तक असंभव है, जब तक कोई सच्चा–भला दार्शनिक राजनीतिक सत्ता प्राप्त नहीं कर लेता अथवा अकस्मात ऐसा कोई चमत्कार नहीं हो जाता कि राजनयिकगण सच्चे दार्शनिक बन जाएं.’
इस वक्तव्य में सुकरात की निराशा की झलक साफ देख सकते हैं. अपने गुरु से प्रेरित प्लेटो के राजनीतिक दर्शन की सीमा भी यही है कि जिस प्रकार वह अपने आदर्शलोक की परिकल्पना पर दृढ़ है, उतना उस परिकल्पना को यथार्थ में साकार करने के तरीकों पर नहीं. इस कमी के चलते आदर्शलोक केवल पुस्तकों और चिंतन–मनन की विषयवस्तु बनकर रह जाता है. तो भी यह प्लेटो ही जो गत 2400 वर्षों से विचारकों–दार्शनिकों को निरंतर प्रभावित करता आ रहा है. उसका यह कथन आज भी सर्वाधिक स्वीकार्य है कि सामाजिक संगठनों का सर्वाधिक सक्षम रूप वही हो सकता है, जिनमें व्यक्ति और समूह सभी के अलग–अलग कर्तव्य और विशिष्टताएं निर्धारित हों. वह सामाजिक, राजनीतिक एवं शैक्षिक आधार पर समाज के स्तरीकरण को स्वीकार तो करता है, किंतु उसका यह स्तरीकरण स्थायी नहीं है. वह जन्माधारित न होकर व्यक्ति की कार्य–कुशलता, रुचि एवं योग्यता पर आधारित है. वह यह मानता था कि सभी मनुष्य अपूर्ण हैं, लेकिन पर्याप्त शिक्षा, प्रशिक्षण आदि द्वारा उन्हें इस योग्य बनाया जा सकता है कि वे दिए गए कर्तव्यों का निष्पादन भली–भांति कर सके.
प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में चर्मकार, काष्ठकार, बुनकर, योद्धा, नाविक, चिकित्सक, राजमिस्त्री आदि भिन्न–भिन्न शिल्पकर्मियों तथा उनके व्यवसायों का उल्लेख किया है, किंतु उनके बीच न तो किसी प्रकार का आर्थिक विभाजन अथवा स्तरीकरण है, न ही उन्हें जन्म के आधार पर उसी व्यवसाय में रहने के लिए बाध्य किया जाता था—जिस प्रकार भारत में वेद एवं मनुस्मृति को आधार बनाकर समाज का वर्ग–विभाजन किया गया, जिससे भारतीय समाज में ऊंच–नीच की धारणा बलवती हुई. निहित स्वार्थों के कारण ब्राह्मणवाद के पोषक धर्माचार्यों–पुरोहितों द्वारा इस व्यवस्था का लगातार पोषण–पल्लवन किया जाता रहा. परिणामस्वरूप समाज में अनेकानेक अंतर्द्वंद्वों तथा विक्षोभ पैदा हुए, जिनकी मार से भारतीय जनसमाज अभी तक कराह रहा है. प्लेटो द्वारा सुझाया गया सामाजिक स्तरीकरण वास्तविकताओं और व्यावहारिक मजबूरियों के कारण है. उसका कहना था कि लोग संगठित रहते हुए अपने–अपने कर्तव्य का पालन करें. उसने राज्य की तुलना एक मानव शरीर से की है, जिसका शीर्ष, हृदय और शरीर सभी कुछ होता है. यह तभी हृष्ट–पुष्ट रह सकता है जब शरीर के सभी अंग–उपांग अपने अपने दायित्वों का निर्वहन अपने पूरे सामर्थ्य, मनोयोग और निष्ठापूर्वक करें. यही ‘रिपब्लिक’ का वास्तविक और चिर–प्रासंगिक संदेश है.
© ओमप्रकाश कश्यप
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