‘दुर्गा चरित्र’ के बहाने मिथ-चर्चा

विशेष रुप से प्रदर्शित

मिथ हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श का महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं. वे वास्तविक हों, न हों, अनगिनत मनुष्यों का अटूट विश्वास उन्हें वास्तविक से कहीं ज्यादा प्रभावशाली बना देता है. आंखों-देखी झूठ मानी जा सकती है, परंतु मिथ में अंतर्निहित या उसके माध्यम से दिया गया संदेश, यदि व्यक्ति का मिथ पर विश्वास है, उसके लिए परमसत्य होता है. यही विश्वास किसी मिथ को दीर्घजीवी और शक्तिशाली बनाता है. मिथ आमतौर पर संस्कृति का हिस्सा होते हैं. कई बार उनकी उपस्थिति को ज्ञान-विज्ञान के दूसरे क्षेत्रों पर भी थोप दिया जाता है. ऐसे मिथों की उम्र सीमित होती है. जबकि धर्म और संस्कृति के नाम पर गढ़े गए मिथ व्यावहारिक जीवन में वास्तविक पात्रों के मुकाबले अधिक शक्तिशाली तथा प्रभावी सिद्ध होते हैं. विशेषकर पारंपरिक समाजों में जो किसी कारण आधुनिक चेतना और शिक्षा से वंचित हैं. ऐसा उन समाजों में भी देखने को मिलता है जो अपनी प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति को लेकर श्रेष्ठताबोध से पीड़ित हों. ऐसे लोग अपने अधिकांश निर्णय, विशेषरूप से परिवार एवं समाज से जुड़े मामलों में, परंपरा और संस्कृति के आधार पर लेते हैं. वहां मिथ बड़ी आसानी से लोगों के सामान्य व्यवहार का हिस्सा बन जाते हैं. संस्कृति स्वयं ऐसे मूल्यों एवं परंपराओं के सहारे गढ़ी जाती है, जिनकी जड़ें सुदूर अतीत तक फैली हों. कभी-कभी इतिहास भी इनकी जकड़ में आ जाता है. हालांकि यह तभी होता है जब संस्कृति पर वर्गीय चरित्र हावी हों.

अशिक्षित समाज अपनी परंपरा एवं संस्कृति को स्मृति के सहारे सहेजता है. ऐसे में मिथों का जानकर अथवा उनकी व्याख्या का दावा करने वाला वर्ग, उन प्रतीकों को संस्कृति का हिस्सा बनाने में सफल हो जाता है, जिनसे उसके स्वार्थ जुड़े हुए हों. उन्हें लेकर कुछ कहानियां गढ़ ली जाती हैं. बार-बार सुने-सुनाए जाने तथा लोगों का विश्वास हासिल कर लेने के पश्चात वे मिथ में ढल जाती हैं. मिथों को लेकर समाज प्रायः दो वर्गों में बंटा होता है. एक वर्ग हमेशा ऐसे मिथों को जीवन की मुख्य प्रेरणा तथा जीवनीशक्ति के रूप में प्रस्तुत करने में लगा रहता है. उसके सदस्य संख्या में कम परंतु समाज में शिखर हैसियत वाले लोग होते हैं. दूसरा वर्ग मिथों की अद्वितीयता में विश्वास रखने वाला, उन्हें अपनी प्रेरणा और मार्गदर्शक मानने अधिसंख्यक लोगों का होता है. समाज की प्रमुख उत्पादक शक्ति होने के बावजूद सामाजिक संरचना में उनका स्थान गौण होता है. उनके लिए आजीविका से जुड़े प्रश्न बेहद महत्त्वपूर्ण होते हैं. उनमें वे इतने उलझे होते हैं कि मिथों की अंतर्रचना तथा उनकी सामाजिकी के बारे में शंका करने या सवाल उठाने का समय ही नहीं मिल पाता. समाज से जुड़े से रहने की इच्छा भी थोपे गए मिथों को अपनाने के लिए विवश कर सकती है. जनसाधारण की आस्था एवं विश्वास के बल पर मिथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी जगह बनाते जाते हैं. प्रचलित परिभाषा में वे लोगों की प्रमुख मार्गदर्शक शक्ति, उनका धर्म बन जाते हैं. अपनी जरूरत तथा आस्था के अनुसार समाज उनके साथ ऐसे मूल्य जोड़ता चला जाता है, जिन्हें वह अपने स्थायित्व के लिए अत्यावश्यक मानता है. सांस्कृतिक मूल्य का परिवर्तनशील होते हैं. हालांकि उसकी गति बहुत धीमी होती है. सामाजिक मूल्यों में पर्याप्त लचीलापन समाज हित में होता है. फिर भी कभी शिक्षा की कमी तो कभी अंध-श्रद्धा के कारण जनसाधारण, यहां तक कि कुछ विशिष्ट जन भी—उन मूल्यों को मिथों में अधिष्ठित तथा उन्हीं से उत्पत्तित माने रहता है.

कभी-कभी परंपरा के प्रति दुराग्रहों का आवेग स्थापित जीवनमूल्यों को भी मिथ बना देता है. महाभारत में हम भीष्म की प्रतीज्ञा को मिथ बनते हुए देखते हैं. भीष्म का पूरा जीवन वचनबद्धता का अतिरेक है. आगे चलकर वही महाभारत का कारण बनता है. कुरुक्षेत्र में अर्जुन को कमजोर पड़ते देख कृष्ण युद्ध में शस्त्र न उठाने की अपनी ही प्रतीज्ञा तोड़, भीष्म को संदेश देना चाहते हैं कि दुराग्रह किसी भी सद्गुण को अवगुण बना सकते हैं. आपत्काल में स्थापित नियमों और परंपराओं पर पुनर्विचार किया जा सकता है. लेकिन भीष्म के लिए उसकी प्रतीज्ञा ही परमसत्य है. महाभारत की कथा भीष्म की सफलताओं और असफलताओं से भरी पड़ी है. वह महाभारत का सबसे दुखी पात्र है. अत्यंत बलशाली होने के बावजूद जिस वर्ग में वह रहता है, उसी को पराजय का सामना करना पड़ता है. एक सद्गुण को मिथ की तरह जीने की सजा न केवल भीष्म, बल्कि पूरे हस्तिनापुर को झेलनी पड़ती है. धर्मयुद्ध में विजेता का पक्ष देवता तथा न्याय का पक्ष भी होता है. वर्चस्वकारी संस्कृति के समर्थक कृष्ण को ईश्वर का दर्जा देते हैं. ऐसे लोग विजेता के पक्ष को अपना पक्ष माने रहते हैं. निहित स्वार्थ के लिए ऐसे ही लोग भीष्म को त्याग और वीरता का पर्याय घोषित कर देते हैं. उसके चलते सरोकारविहीन ‘वचनबद्धता’ प्रतीज्ञा का आदर्श मान ली जाती है.

राम, कृष्ण, शिव, महादेव, गणेश, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, हनुमान आदि भारतीय संस्कृति के स्थापित मिथ हैं. इनमें तात्कालिक जीवनमूल्यों को जिन्हें सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की लालसा में गढ़ा गया था—इस तरह केंद्रीभूत किया गया है कि शताब्दियों के बाद भी वे चरित्र हमारे मनस् में रूढ़ बने हुए हैं. अंध-आस्था के योग से वे मिथ इतने प्रभावशाली हो चुके हैं कि स्वार्थवश अथवा अज्ञानता के कारण काल्पनिक प्रतीकों के आगे हमें यह जीता-जागता संसार भी भ्रम और माया लगता है. उनपर थोपे गए चरित्र से मामूली विक्षेप भी हमें उत्साही कर्म लगता है. ऐसे ही परिवेश में सांप्रदायिकता पनपती है तथा मिथों के दुरुपयोग की संभावना बराबर बनी रहती है. इन्हीं मिथों में से एक दुर्गा, ‘नारी-शक्ति’ का प्रतीक है. मिथ के रूप में उसकी जो भूमिका शास्त्रों(मार्कंडेय पुराण) में तय है, उसमें स्त्री-सुलभ गुणों का कोई योग नहीं है. शत्रु-हंता के रूप में उसे शिव की अर्धांगिनी के रूप में दर्शाया जाता है. उसका मूल चरित्र चामुंडा के करीब है, जो स्वयं असुरों की मातृदेवी से अनुप्रेत है. ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब दलितों की भांति चामुंडा का स्थल गांव-बाहर हुआ करता था. वे ग्रामदेवी की भांति पूजी जाती थीं. उनकी प्रतिष्ठा निचली और किसान जातियों में थी. ब्राह्मण और क्षत्रिय स्थापित पुरुष देवताओं की ही पूजा करते थे.

हिंदू संस्कृति में गृहस्थी पालन भी धर्माचरण है. हनुमान जैसे अर्धदेवता को छोड़ दें तो लगभग सभी देवता विवाहित हैं. उनकी पत्नियां ठीक उसी प्रकार पति-अनुगामिनी हैं, जैसी सामान्य भारतीय पत्नियां होती हैं. परमशक्तिशाली त्रिदेव की पत्नियों पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती की भी यही स्थिति है. हनुमान को रूद्र का अवतार माना गया है, लेकिन रामायण आदि ग्रंथों में जिस तरह से उसका चित्रण है, उससे जाहिर होता है कि हनुमान की शक्तियां उसकी अपनी नहीं हैं. वे किसी न किसी देवता का वरदान हैं. यह तर्क शौर्य की देवी दुर्गा पर भी लागू होता है. मार्कंडेय पुराण के अनुसार उसका जन्म विष्णु की नाभि से हुआ है. असुरों से लड़ने में सक्षम बनाने के लिए विभिन्न देवताओं ने उसे अपनी शक्तियां अंतरित की थीं. पुराणों में जगह-जगह पार्वती, लक्ष्मी और दुर्गा को समकक्ष माना गया है. ऐसा एकेश्वरवाद की भावना के चलते हुआ. भारत में कुछ उपनिषदें भले ही एकेश्वरवाद का समर्थन करती हों, व्यवहार में वह बहुदेववाद ही प्रचलन में रहा है. पंडित-पुरोहितों के स्वार्थ जो उससे जुड़े थे. मगर सूफी मत के रूप में दक्षिण भारत पहुंचा इस्लाम का एकेश्वरवादी दर्शन भारतीय समाज में भी जगह बनाने लगा था. हिंदू धर्म में रहकर जातीय उत्पीड़न से त्रस्त लोगों को सूफियों का एकेश्वरवाद बहुत पंसद आया था. उसकी प्रेरणा से दक्षिण में भी संत आंदोलन का सूत्रपात हुआ. आगे चलकर, हिंदुओं का इस्लाम की ओर पलायन रोकने के लिए ही शंकराचार्य को एकेश्वरवाद के समर्थन में आना पड़ा. यह भी कह सकते हैं कि इस्लाम के राजनीतिक, धार्मिक हमले से बचने के लिए वैष्णव, शैव, पाशुपत, तांत्रिक, पुराणिक, स्मार्त्त आदि मतावलंबियों को एकजुट होकर, निजी पहचान के संकट पर भी, वेदांत का समर्थन में आना पड़ा था.

दुर्गा की कथा मार्कंडेय पुराण में ‘देवी महात्म्य’ के अंतर्गत शामिल की गई है. मार्कंडेय पुराण को एफ. ईडन पार्जिटर ने लगभग नवीं शताब्दी की रचना माना है. ‘देवी महात्म्य’ की उपलब्ध प्रतियों में सबसे पुरानी प्रति नबारी लिपि में है, जिसे हरप्रसाद शास्त्री ने ‘रायल लायब्रेरी ऑफ नेपाल’ से प्राप्त किया था. उसपर 998 ईस्वी की तिथि अंकित है. तदनुसार पार्जिटर इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि मार्कंडेय पुराण का लेखनकाल नवीं या दसवीं शताब्दी होना चाहिए. पुराणों का रचनाकाल ईसापूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से 1000 ईस्वी तक फैला हुआ है. इसकी संभावना है कि पुराणों की रचना बौद्ध एवं जैन कथाओं की प्रेरणा से हुई थी. हालांकि रामायण एवं महाभारत में सैकड़ों उपकथाएं प्राप्त होती हैं, लेकिन जिस रूप में वे आज हमें प्राप्त हैं, वह ईसा पूर्व दूसरी-तीसरी शताब्दी से पहले का नहीं है. जाहिर है, कहानी की ताकत को पहचानकर उसकी पहुंच का उपयोग ब्राह्मणों ने अपने धर्म-दर्शन के प्रचार-प्रसार के लिए किया. चूंकि आरंभिक वैदिक धर्म केवल और केवल ब्राह्मणों द्वारा ब्राह्मणों के लिए रचा गया था, इसलिए पुराणादि ग्रंथ प्रकारांतर में ब्राह्मणवाद के प्रचार-प्रचार का माध्यम बन जाते हैं. उनकी कहानियां पाठक का मनोरंजन तो करती हैं, परंतु खास संदेश नहीं दे पातीं. इसके विपरीत जातक कथाओं तथा जैन कथाओं में, भले ही बुद्ध के माध्यम से हो, एक नैतिक संदेश छिपा हुआ रहता है.

आरंभिक संस्कृत ग्रंथों में मुख्यतः ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्गों की उपस्थिति है. बाकी वर्ग या तो उपेक्षित हैं अथवा उनका उपयोग वहीं तक सीमित है, जहां तक वे ब्राह्मणवाद का समर्थन करते हों. उससे प्रतीत होता है कि आरंभिक ऋषिगण आत्ममुग्ध समाज का हिस्सा थे. और बाकी जनसमाज से कटे-छंटे रहते थे. यज्ञ बलि के लिए पशु अथवा अन्य समिधा की आवश्यकता पड़ती तो उसके लिए राजाओं से मांग लिया करते थे. जो पुनः अपनी प्रजा से जुटाता था. बाद के ग्रंथों में जिनमें मार्कंडेय पुराण भी है, वैश्य वर्ण से जुड़ी कहानियां भी आती हैं. इस पुराण का मुख्य भाग ईसा से तीसरी-चौथी शताब्दी की रचना हैं. जब वैश्य समुदाय मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में खुद को स्थापित कर चुका था. यदि ऋषिगण अलग-थलग रहते थे तो प्रजा का क्या धर्म था? ब्राह्मण ग्रंथों में इसकी कोई चर्चा नहीं है. क्योंकि उस ओर उस समय के बुद्धिजीवी ब्राह्मणों का ध्यान ही नहीं था. लेकिन बौद्ध और जैनग्रंथों में छह भौतिकवादी संप्रदायों का कई जगह उल्लेख किया गया है. वे आजीवक और लोकायत मत के प्रवर्त्तक थे तथा आजीविका को प्रमुख मानते थे. ऋषियों के आश्रम उनके लिए ऐसे ही रहे होंगे जैसे कुछ यायावर कबीले आकर गांव बाहर डेरा डाल लें.

अपने धर्म-दर्शन के प्रचार के लिए बुद्ध ने क्षत्रियों के अलावा उन वर्गों पर ज्यादा ध्यान दिया था, जो ब्राह्मण धर्म से बाहर थे. या बुद्ध के विचारों से सहमत होकर उनके दर्शन की ओर आकृष्ट हुए थे. बुद्ध ने अपने उपदेशों के लिए पालि को इस्तेमाल किया था, जो उन दिनों आमजन की भाषा थी. श्रेष्ठताबोध से दबे ब्राह्मण संस्कृत के दायरे से बाहर आने की हिम्मत न जुटा सके. पुराकथाओं में उन्होंने सृष्टि निर्माण का ठेठ ब्राह्मणवादी नजरिया पेश किया. मार्कंडेय पुराण में मनु और इंद्र के उत्तराधिकारियों की चर्चा है. इनके बीच देवी महात्म्य का सम्मिलित होना अवांतर कथा जैसा है. इसलिए पार्जिटर उसे प्रक्षिप्त मानता है. देवी महात्म्य गीता की तरह सात सौ पदों में फैला हुआ है. पार्जिटर ने यह संभावना भी व्यक्त की है कि मार्कंडेय के अनुयायी उन्हें अपने समय के व्यास के सदृश सिद्ध करना चाहते थे. दूसरे यदि मार्कंडेय पुराण का मूल हिस्सा तीसरी-चौथी शताब्दी की है तब भी दो मुख्य प्रश्न विचार के लिए आवश्यक है. यदि मार्कंडेय पुराण तीसरी-चौथी शताब्दी की रचना है तो क्या उस समय ‘दुर्गा महात्म्य’, भले की स्वतंत्र कृति के रूप में—मौजूद था?  मेरा अनुमान है कि दुर्गा और काली का रूप अन्यत्र देखने को नही मिलता. दुर्गा की महत्ता कदाचित उस दौर में मिली जब पुरुष सत्तात्मक राज्य उजड़ने लगे थे. उनके राजाओं का वैभव क्षीण पड़ चुका था. वह महमूद गजनवी के आने का था. एक के बाद एक हिंदू राजा पराजित हो रहे थे. उस समय लगा कि कदाचित असुर शक्ति से लैस, कोई स्त्री-शक्ति ही उनकी रक्षा कर सकती है. दुर्गा की रचना उन्होंने इसी उद्देश्य से की, बाद में उसे मार्कंडेय पुराण का हिस्सा बना दिया गया.

छंदों की संख्या के कारण ‘दुर्गा महात्म्य’ को ‘दुर्गा सप्तशती’ भी कह दिया जाता है. उसके हिंदी अनुवाद गद्य और पद्य में पहले भी आ चुके हैं. जहां तक मुझे याद पड़ता है, डॉ. राष्ट्रबंधु ने भी ‘दुर्गा सप्तशती’ का काव्यानुवाद किया था. उस अनुवाद के बारे में इससे अधिक जानकारी मुझे नहीं है. इस काम को लेकर हाल ही में एक और नाम जुड़ा है. वह हैं—डॉ. रामपुनीत ठाकुर ‘तरुण’ तथा पुस्तक का शीर्षक है—‘दुर्गाचरित.’ पुस्तक को छापा है, समीक्षा प्रकाशन मुजफ्फरपुर. डॉ. तरुण हिंदी के सिद्ध-हस्त कवि हैं. उनके इस अनुवाद को देख कर इसपर विश्वास होने लगता है. अनुवाद सहज, सरल एवं बोधगम्य है. चौपाई, दोहा आदि रामायण के प्रचलित छंदों में लिखे जाने से पुस्तक की पठनीयता में इजाफा हुआ है. पाठक बड़ी सहजता से पाठ को आत्मसात करता चला जाता है. फिर भी कुछ प्रश्न ‘दुर्गा चरित’ को पढ़ते समय दिमाग में कौंध सकते हैं. जैसे कि कोई लेखक या रचनाकार ऐसी पुस्तकों का चयन ही क्यों करता है, जिनमें उसे मौलिक प्रयोग के न्यूनतम अवसर उपलब्ध हों? दूसरे क्या ऐसी पुस्तकों में लेखक को अपनी ओर से कहने-जोड़ने का क्या कोई अवसर उपलब्ध नहीं होता? इनमें सबसे पहला प्रश्न तो आस्था का है. कदाचित लेखक की अपनी आस्था ही उसे ऐसे ग्रंथों की ओर ले जाती है. स्वयं तुलसीदास इसी भावना के साथ रामचरितमानस की ओर आकृष्ट हुए थे.

मातृशक्ति के रूप में दुर्गा का मिथ हमें हजारों साल पुरानी उस संस्कृति की याद दिलाता है, जो मातृशक्ति प्रधान थी. सिंधू सभ्यता के उत्खनन से जो मूर्तिशिल्प प्राप्त हुए हैं, उनमें एक प्रसिद्ध मातृदेवी की मूर्ति है. ध्यातव्य है कि मातृदेवी की प्रतिमा से मिली-जुली प्रतिमाएं लगभग सभी सभ्यताओं में प्राप्त हुई हैं. उससे दो निष्कर्ष निकाले जाते हैं. पहला आरंभिक संस्कृतियां आपस में जुड़ी हुई थीं. उनके बीच व्यापारिक-सांस्कृतिक संबंध थे. दूसरे यह कि संस्कृति का सीधा संबंध उत्पादन व्यवस्था से होता है. चूंकि आदिम सभ्यताओं में उत्पादन का तौर-तरीका लगभग मिलता-जुलता था, इसलिए उनकी पूजा पद्धतियां, अध्यात्म चेतना आदि में भी अप्रत्याशित समानताएं नजर आती हैं.

जैसा कि ऊपर कहा गया है, प्रस्तुत अनुवाद सरल, सहज और बोधगम्य है. इसके लिए कवि बधाई का पात्र है. मुझे यहां विनोबा की याद आ रही है. संत ज्ञानेष्वर की ‘ज्ञानेश्वरी’ की महाराष्ट्र में बड़ी प्रतिष्ठा है. विनोबा की मां ने उसका सरल मराठी में अनुवाद करने को कहा. मां की इच्छापूर्ति के लिए विनोबा ने ‘ज्ञानेश्वरी’ को सरल ‘गीताई’ के रूप में अनुदित किया. जब वह पुस्तक प्रकाशित होकर बाजार में आई, तब तक मां दुनिया छोड़ चुकी थी. परंतु ‘गीताई’ के रूप में ‘ज्ञानेश्वरी’ महाराष्ट्र के घर-घर तक पहुंच गई. इसे अनुवाद की ताकत भी कह सकते हैं. फिर भी एक बात अखरती है. रचनाकार के लिए आवश्यक है कि उसकी रचना नए विमर्श का दरवाजा खोले. यदि धर्म उसका केंद्रीय विषय है तब भी वह केवल श्रद्धालुओं तक सिमटकर न रह जाए. उसमें साहित्य और दर्शन के विद्यार्थियों के लिए भी संभावना हो. अनूदित पुस्तकों में प्रयोग के सीमित अवसर होते हैं. इसलिए उनमें भूमिका का महत्त्व रचना जैसा ही है. भूमिका में लेखक-रचनाकार न केवल रचना की ऐतिहासिकी पर विचार करता है, अपितु उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका तथा नए अनुवाद, प्रस्तुतीकरण के औचित्य पर भी अपना पक्ष रचता है. प्राचीन पुस्तकों के अनुवाद के लिए ‘एशियाटिक सोसाइटी ऑफ कलकत्ता’ कुछ मार्गदर्शक नियम बनाए थे. उनमें से एक पुस्तक का विस्तृत विवेचनात्मक परिचय भी था. ‘दुर्गा चरित’ सहज अनुवाद की शर्त को तो पूरा करती है, परंतु उसमें सिवाय शैली के, नएपन का अभाव है. अतएव उन लोगों के लिए जो ‘दुर्गामहत्म्य’ के कवित्व का आनंद लेना चाहते हैं, मगर संस्कृत का ज्ञान नहीं रखते, उन्हें यह पुस्तक खूब पसंद आएगी. लेकिन विद्यार्थियों और आलोचकों के लिए पुस्तक में आत्मतुष्टि के बहुत कम अवसर हैं.

फिर भी सहज, सरल अनुवाद और शैलीगत प्रबंध के लिए कवि बधाई का पात्र है.

ओमप्रकाश कश्यप



ओमप्रकाश कश्यप

जी-571, अभिधा, गोविंदपुरम

गाजियाबाद-201013