न्याय की अवधारणा

धर्म और अभिजन संस्कृति—9

न्याय की मूल भावना मनुष्यता के साथ प्रेमसंबंधों का नैरंतर्य है.’1

जॉन रॉल्स

न्याय बड़ा खूबसूरत शब्द है. साथ में सम्मानित भी. इसीलिए आम आदमी उसकी ओर उम्मीदभरी निगाह से देखता है. उसका कृपापात्र बनने की कामना करता है. लेकिन ऐंठ में डूबा हुआ न्याय उसकी ओर से मुंह फेरे रहता है. यह उसका सांस्कृतिक दर्प है. ‘न्याय’ को हम शब्दों का ‘अभिजन’ भी कह सकते हैं. कारण, बात जैसेजैसे आगे बढ़ेगी, आप स्वयं समझते जाएंगे. न्याय की आधारशिला इस विश्वास पर टिकी होती है कि मनुष्यों में अच्छे भी हैं और बुरे भी. सभी समाज में साथसाथ रहते हैं. यह बात भी किसी से छिपी नहीं कि अच्छाई और बुराई सापेक्षिक स्थितियां हैं. ‘क’ के लिए जो अच्छा है, वह ‘ख’ के संदर्भ में बुरा हो सकता है. कह सकते हैं कि न्याय संभाव्यता के सिद्धांत के आधार पर काम करता है. यानी जो साधारणतः अच्छा और तर्कसम्मत है, वही न्यायसम्मत भी है—ऐसा मान लिया जाता है. इसमें चूक होने की पर्याप्त संभावना होती है. न्यायिक एवं तर्कसम्मत के आकलन का पैमाना न्याय का अपना होता है. इसे प्रायः वे लोग बनाते हैं, जो न्याय का मनमाना उपयोग करने में पारंगत होते हैं. समर्थन के लिए स्याह को सफेद और सफेद को स्याह सिद्ध करना बाखूबी जानते हैं. इसके लिए विशेषज्ञों की पूरी टीम उनके साथ होती है. उनकी भाषा और कार्यशैली आम आदमी की समझ से सर्वथा परे होती है. जरूरत पड़ने पर त्राण की उम्मीद में उसे अंततः उन्हीं लोगों की शरण में जाना पड़ता है, जो न्याय के बारे में उसके अल्पज्ञान का लाभ उठाने के लिए अपनी गिद्धदृष्टि उसपर जमाए होते हैं. वे न केवल उसकी अज्ञानता का लाभ उठाते हैं, बल्कि येनकेनप्रकारेण यह विश्वास भी उसके दिलोदिमाग में बसा देते हैं कि संसार में केवल वही उसके सबसे बड़े शुभेच्छु एवं हितचिंतक हैं. उनके बौद्धिक वर्चस्व को स्वीकार कर चुका व्यक्ति उनपर आसानी से विश्वास कर लेता है. यह प्रवृत्ति उसे देरसवेर समझौतावादी प्रगतिविरोधी बना देती है.

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार व्यक्ति में नकारात्मक और सकारात्मक दोनों प्रकार की प्रवृत्तियां मौजूद रहती हैं. समाज में शांति और व्यवस्था के लिए आवश्यक है नकारात्मक प्रवृत्तियों का शमन तथा सकारात्मक वृत्तियों की अभिरक्षा एवं प्रोत्साहन. ‘परित्राणाय साधूनाम—विनाशाय च दुष्कृताम्’—महाभारत में अपने आगमन का औचित्य सिद्ध करने के लिए कृष्ण ने यही कहा है. इसको अन्यथा भी नहीं कहा जा सकता. ‘सज्जनों का कल्याण तथा दुर्जनों का विनाश’—यह किसी भी न्यायव्यवस्था का आदर्श हो सकता है, किंतु धर्मानुप्रेत परंपरागत न्याय प्रणाली यहीं तक सीमित नहीं रहती. इसके पीछे उसकी कुछ दूसरी ही मंशा होती है. धर्मानुग्राही न्यायप्रणाली का सहारा लेकर इस देश का अभिजन सहस्राब्दियों समाज के शीर्ष पर विराजमान रहा है. महाभारत में वह कृष्ण के बहाने धर्म को बीच में ले आता है—‘यदायदा हि धर्मस्य ग्लार्निभवति भारतः…’ आम आदमी हालांकि खुद को धार्मिक मानता है. हर चीज को वह आस्था के नजरिये से देखता है, किंतु धर्म और न्याय की युति को समझ पाना उसके सामान्य बुद्धिविवेक से बाहर होता है. आस्था की आंच पर रोटियां सेंकने वाली धार्मिक शक्तियां जनविवेकीकरण के लिए कोई प्रयास भी नहीं करतीं. उनकी स्वार्थकेंद्रित दृष्टि स्थितियों की मनमानी व्याख्या में जुटी होती है. धर्म आमजन के भावुक, भक्तिआकुल मन को देखनेसुनने में खूबसूरत लगता है. उसपर वह आंख मूंदकर भरोसा भी कर लेता है. नतीजन न्याय सीधीसादी लीक से उतरकर, आम आदमी की पहुंच से बाहर निकल जाता है. धर्म के सामंती परिवेश में रंगा न्याय बनावटी एवं ऊपर से थोपा हुआ प्रतीत होता है. धार्मिक अभिजन इसकी कतई परवाह नहीं करता. वह आम आदमी के दुखसंत्रास, घुटन और अभावों को उसकी नियति बताकर अपना उल्लू सीधा करने में लगा रहता है. महाभारत की व्याख्या कि कृष्ण न्याय के पक्ष में है, इसी से निकली है.

कुछ सीधे आपराधिक मामलों को छोड़ दें तो न्याय और अन्याय की पहचान का मामला बड़ा जटिल है. कई बार तो उलझन खड़ी हो जाती है. जो बात किसी खास संदर्भ में न्याय लगती है, संदर्भ बदलते ही वह अन्याय प्रतीत होने लगती है. ऊहापोह के दौरान शीर्षस्थ शक्तियां चतुराईपूर्वक अपने स्वार्थ को बीच में ले आती हैं. महाभारत में कृष्ण का पक्ष कहीं न कहीं राजसत्ता का पक्ष भी है, जिसमें विजेता का समर्थन करने के लिए अनुकूल तर्क अपने आप गढ़ लिए जाते हैं. वहां कृष्ण ही दंडपाशक हैं, वे ही न्यायाधीश. महाभारतकार को भी कृष्ण का पक्ष न्याय का पक्ष लगता है. बाकी कथापात्र तो उसकी कलम की कठपुतलियां हैं. कृष्ण के किसी निर्णय पर उंगली न उठे इसलिए उन्हें ‘भगवान’ की तरह पेश किया जाता है. दुर्योधन इसलिए दुश्मन क्योंकि वह कृष्ण के रिश्तेदार पांडवों को उनका हिस्सा देने से इन्कार कर देता है. कुपित कृष्ण युद्ध को अपरिहार्य मान लेते हैं. अंततः अठारह अक्षौहिणी सेनाएं कुरुक्षेत्र के मैदान में उतरती हैं और ‘भगवान’ के देखते ही देखते सब मटियामेट हो जाती हैं. राजशाही के अनुसार के पांडवों का हस्तिनापुर की संपत्ति में वैध हिस्सा था. किंतु उसी कानून के अनुसार राज्य का एक हिस्सेदार तो दुर्योधन भी था. ठीक है, दंभी दुर्योधन(महाभारतकार ने ऐसा ही चित्रित किया है) पांडवों को पांच गांव तक देने के लिए तैयार नहीं था. उसका निर्णय अन्यायपूर्ण था. युद्ध में जीत के बहाने दुर्योधन के संपत्तिअधिकार का हनन क्या कम अन्यायपूर्ण था! पांडवों से परास्त हो जाने के बाद भी हस्तिनापुर के राज्य में दुर्योधन की हिस्सेदारी समाप्त नहीं हो जाती. राजसत्ता यहां मनमाने तर्क के सहारे खड़ी नजर आती है. उसके न्यायतंत्र में युद्ध हारने के बाद व्यक्ति को न केवल संपत्ति, बल्कि जीवन के अधिकार से भी वंचित किया जा सकता था. महाभारतकार व्यास कृष्ण से वही निर्णय लिवाते हैं, जो तत्कालीन धर्मव्यवस्था चाहती थी. कृष्ण यदि सामान्य से हटकर निर्णय लेते, दुर्योधन को युद्ध में परास्त करने के बाद उसका हिस्सा दिलवाने को तैयार हो जाते, तब वह वास्तविक और नैतिक न्याय कहा जाता. परास्त दुर्याेधन के आगे उसे स्वीकारने के अलावा दूसरा रास्ता भी नहीं होता. तब वे महावीर और गौतम बुद्ध की श्रेणी के उदामना दार्शनिक गिने जाते. भगवान शायद ही बन पाते. महाभारतकार के कथानायक कृष्ण कौरवों को पराजित करने के लिए पांडवों का साथ निभाते हैं. आर्य संस्कृति को खतरा न हो, इसलिए वन्य संस्कृति के रक्षक महावीर एकलव्य का वध करवा देते है. वीर एकलव्य गुरु से छला जाता है और ‘भगवान से भी.

उस न्याय प्रणाली की खूबी थी कि उसके सारे तर्क विजेता के द्रष्टिकोण से गढ़े जाते थे. उन्हीं के आधार पर उसकी समीक्षा होती है. ‘यतो कृष्ण ततो जय’—कृष्ण का पथ न्याय का पथ है. धर्म की शरण में न्याय की खोज करने वालों द्वारा आज भी यह बढ़चढ़कर प्रचारित किया जाता है. राम के लिए रावण और शंबूक में कोई अंतर नहीं है. एक से उन्हें राजनीतिक चुनौती मिलती है, दूसरे से सांस्कृतिक. वे दोनों ही को मृत्युदंड देते हैं. केवल शक्तिशाली को शासन करने का अधिकार है. शक्तिहीन की स्वतंत्रता शक्तिसंपन्न की दया पर निर्भर है—इस तर्क को कभी धर्म तो कभी सत्ता के बल के सिद्धांत के आधार पर समझाया जाता है. लोकतंत्र के दौर में भी लोग कहते फिरते हैं कि राज्य इकबाल से चलता है, जो राजा ढीलाढाला हो, उसके राज्य सबकुछ अस्तव्यस्त रहता है. इकबाल बुलंद हो तो चोर, डाकू, लुटेरे मुंह छिपाए रहते हैं. ऐसा सोचने वालों की दृष्टि में जनता का अपना विवेक, आत्मानुशासन, मेलमिलाप और भाईचारा कुछ भी नहीं है. एक प्रकार से यह भी शक्तिशाली के न्याय को समाज पर थोप देने की चाल है. यह सोच फासीवादी कहलाता है. दोटूक अंदाज में कहा जाए तो जंगल का न्याय. इस कारण उदारमना चिंतक उसकी आलोचना भी करते हैं. मगर उस न्यायप्रणाली का मानना था पृथ्वी पर मौजूद सुखसंपदा समाज के खास वर्गों के लिए है. आमजन की नियति खास वर्ग में आने वाले लोगों की दासता और उच्छिष्ट पर जीवनयापन करना है. मानवनिर्मित असमानता और ऊंचनीच को नियति की तरह थोपने वाली उस व्यवस्था में पहला हस्तक्षेप भारत में गौतम बुद्ध और पश्चिम में सुकरात के आगमन के बाद होता है. करीबकरीब उन्हीं दिनों चीन में कन्फ्यूशियस की दस्तक सुनाई पड़ती है. उन्हें न जो सत्ता का भय था, न ही लालच. तीनों दार्शनिक ‘शुभ’ और ‘सदगुण’ पर जोर देते हैं. संभवतः पहली बार जीवन और समाज में नैतिकता की मांग उठती है.

आजकल दुनिया के अनेक देशों में लोकतंत्र है. अपनी मूल प्रवृत्ति में वह समानता और समानाधिकार की बात करता है. इसके बावजूद राज्य की न्यायसंबंधी अवधारणा में खास बदलाव नहीं आया है. सैद्धांतिक व्यवस्थाएं चाहे जो हों, किंतु व्यवहार में आज भी न्याय के नाम पर वही सहस्राब्दियों पुराना हंटर फटकारा जाता है. यदि कोई राज्य से टकराने की कोशिश करे तो राज्य उसे सुरक्षाव्यवस्था के लिए खतरा मानकर मृत्युदंड भी दे सकता है. हालांकि राज्य अभी तक किसी को भी जीवन देने में सक्षम नहीं है. इस तरह कुपित राज्य व्यक्ति से वह हड़प सकता है, जिसे देना उसके सामथ्र्य से परे है. उस समय राज्य यह भुला देता है कि व्यक्ति को गढ़ने में, चाहे वह अच्छा है या बुरा, उसका और समाज का योगदान कम नहीं होता. जन्म के समय तो हर बालक मासूम, सरलमना, निर्दोष और निस्वार्थ होता है. अनुभव के नाम पर कोरी सलेट. उसकी आवश्यकताएं प्राकृतिक होती हैं. दूध का कटोरा मिट्टी का है या सोने का, इससे उसपर कोई फर्क नहीं पड़ता. बड़ा होतेहोते वह यथार्थ से परिचित होता है. इस दौरान जो व्यक्तित्व वह प्राप्त करता है, उसके निर्माण में समाज का भी पूरापूरा योगदान होता है. इस बीच वह सामाजिक विसंगतियों से दोचार होता है. यदि वह बिगड़ता है तो उसे बिगाड़ने की नैतिक जिम्मेदारी से, चाहे पूरी हो या आंशिक, राज्य को अलग नहीं किया जा सकता. किंतु राज्य न्याय करते समय व्यक्ति को पूरी तरह अकेला छोड़ देता है. उस समय समाज शक्तिशाली के न्याय के सिद्धांत का ही अनुसरण कर रहा होता है. वह भूल जाता है कि बड़ी ताकत बड़ी जिम्मेदारी भी लाती है. समाज बड़ी इकाई है. इसलिए उसकी जिम्मेदारी भी अधिक है. समाज भले ही अल्पसंख्यक अभिजन के दिशानिर्देश के अनुसार चलता हो, मगर अल्पसंख्यक अभिजनों को भी अपनी ताकत, कार्यकारी ऊर्जा एवं प्रतिष्ठा समाज की ओर से ही प्राप्त होती हैं. अपनी प्रभुता को बनाए रखने के लिए समाज का अल्पसंख्यक अभिजन अपने बहुत से निर्णय बहुसंख्यक सर्वजन को अंधेरे में रखकर लेता है. इस कारण न्याय के ऊपर पर्दा पड़ा रहता है. जाॅन राॅल्स ने ठीक ही कहा है—

न्याय की सैद्धांतिकी लापरवाही के पर्दे के पीछे गढ़ी जाती है.’2

आप कहेंगे कि राज्य या समाज का न्याय सभी के लिए बराबर होता है. सर्वकल्याण के प्रति उनकी निष्ठा असंद्धिग्ध होती है. दो सगे भाइयों में से यदि एक साधु बनता है, दूसरा शैतान निकल आता है तो मातापिता का क्या दोष! दोष तो उस शैतान का है जिसने साधु बनने का अवसर गंवाकर शैतानी की राह पकड़ी. प्रत्येक मनुष्य स्वतंत्र मस्तिष्क का स्वामी होता है. स्थितियों के चयन की उसको छूट होती है. लोकहित में उचित यही है कि वह ऐसे रास्तों का चयन करे, जिससे समाज में दूसरों को नुकसान न हो. प्रथम दृष्टया यह तर्क उचित ही लगता है. आखिर समाज एक दिन में तो बना नहीं है. उसके पीछे हजारों वर्षों का परिश्रम, मानवीय संकल्प, सद्भाव तथा विद्वानों की सदेच्छाएं रही हैं. ऐसे में समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरूरी है कि ऐसे व्यक्ति को दंडित किया जाए जो उसके लिए खतरा बन चुका है. सवाल है कि व्यक्ति क्या इतना ही स्वतंत्र होता है, जितना समाज में उसके न्यायिक हस्तक्षेप के लिए जरूरी है. इसका उत्तर नकारात्मक ही होगा. भारत जैसे परंपरागत समाजों में व्यक्ति की निर्णय क्षमता धर्म, जाति, परंपरा आदि से निर्धारित होती है. इसके अलावा आर्थिक विषमताएं भी हैं. अधिकांश मामलों में विपन्नता के शिकार व्यक्ति को अपने जीवनसंबंधी महत्त्वपूर्ण निर्णयों के लिए दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है. समाज उसके सोच का अपने स्वार्थ से अनुकूलन कर लेता है. दंडविधान का सहारा लेकर वह व्यक्ति को समाज से स्थायी अथवा अस्थायी रूप में काट देता है. इस कार्य को राज्य लोककल्याण, न्याय एवं व्यवस्था के नाम पर करता है. उल्लेखनीय है कि मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में उसके परिवेश का योगदान सर्वाधिक होता है.

अपराध एक सामाजिक व्याधि है. वह न धर्म देखता है न जाति. अपकर्म की ओर प्रवृत्त होने वाला व्यक्ति कहीं न कहीं अपने परिवेश तथा अपने आसपास रहने वाले व्यक्तियों से असंतुष्ट होता है. व्यक्ति के असंतोष का कारण उसका अतिशय लालच अथवा अतिमहत्त्वाकांक्षाएं हो सकती हैं. दूसरा कारण संभव है कि समाज के एक वर्ग की ओर से उसका उत्पीड़न अथवा असमानतापूर्ण व्यवहार. अपराधी आत्मविश्वास, अभ्यास एवं संयम के कमी के चलते अपने आक्रोश पर नियंत्रण नहीं रख पाता. और समस्या का निदान उग्रता के रास्ते तलाशना चाहता है. उसका दोष होता है कि अपने असंतोष को समाज के समक्ष धैर्यपूर्वक रखने, अपने लालच पर काबू करने के बजाय वह समस्या का समाधान छल अथवा बल के रास्ते करना चाहता है. उस समय वह भूल जाता है कि उसकी शक्ति और बुद्धिबल की अपेक्षा समाज की संयुक्त शक्ति और बुद्धिबल कहीं अधिक है. समाज उससे कई गुना सामर्थ्यवान है तथा उससे टकराव के दौरान उसकी पराजय सुनिश्चित है. कई बार घमंड भी व्यक्ति के विवेक पर पर्दा डाले रहता है. समाज का दोष होता है कि वह अपनी ईकाई के भीतर अपेक्षित विश्वास एवं धैर्य पैदा करने में विफल रहता है. तथा समाज को स्थायी समाधान की अपेक्षा उस अकेले व्यक्ति को दंडित कर, वास्तविक समस्या की ओर से आंख मूंद लेता है. इसे मूल समस्या की ओर से समाज का पलायन कह सकते हैं. मां यदि दुर्बल और रोगग्रस्त है तो स्वस्थ संतान की उम्मीद कम हो जाती है. उसकी देह के विकार स्वाभाविक रूप से संतान में चले आते हैं. इसलिए व्यक्ति के विचलन के लिए केवल उसे दोष देने से पहले यह भी सोचना चाहिए कि जो मनुष्य पारिवारिक संबंधों को लेकर अतिरेक की सीमा तक संवेदनशील होता है, रिश्तों की मानमर्यादा का ख्याल रखता है—देश और समाज को लेकर वह अचानक व्यावहारिक क्यों हो जाता है? इसका कारण यह भी हो सकता है कि समाज भी ऐसे व्यक्तियों के साथ उदारमना संरक्षक की भांति पेश आने के बजाय सौदागर जैसा व्यवहार करने लगता है. एक जिम्मेदार अभिभावक की भूमिका निभाने की अपेक्षा वह दरोगा की तरह पेश आता है. जिन समाजों में सामाजिकसांस्कृतिक स्तर पर भयानक स्तरीकरण हो, वहां न्याय को लेकर राज्य की चुनौतियां और भी बढ़ जाती है. इसलिए कि सामाजिकसांस्कृतिक विश्वासों की जड़ें बहुत गहरी होती हैं. परंपरा और संस्कार के रूप में वे पीढ़ीदरपीढ़ी गहराती जाती हैं. उनमें बदलाव करना आसान नहीं होता. निरंतर संवाद, सदस्यों के बीच आपसी विश्वास, वैज्ञानिक सोच, भविष्य के प्रति सुस्पष्ट दृष्टि तथा ठोस कार्ययोजना से सामाजिकसांस्कृतिक असमानताओं की खाई को पाटने के लिए पहल अवश्य की जा सकती है. इसके लिए राज्य का कर्तव्य होता है कि आपसी संवाद और न्याय के संवितरण की प्रणालियों को मजबूत बनाए तथा उन असमानताओं को दूर करने का भरसक प्रयास करे जो धर्म, संस्कृति, परंपरा, जाति, वर्ग अथवा ऐसे ही किसी कारण द्वारा पैदा हुई हैं.

ऊपर हमने न्याय के लिए साधु और शैतान का उदाहरण दिया. समाज की निगाह में साधु वह है जो उसकी व्यवस्था में जरा भी खलल नहीं डालता. जैसी भी है उसे शिरोधार्य कर लेता है. वह सामाजिक स्थितियों से समझौता कर चुका अथवा उनकी ओर से मुंह फेर चुका व्यक्ति हो सकता है. ऐसा व्यक्ति समाज के लिए चुनौती नहीं बनता, बल्कि उसकी हर स्याहसफेद व्यवस्था का समर्थक बनकर आत्मलीन जीवन जीता चला जाता है. अपने परिवेश की ओर से वह इतना उदासीन हो जाता है कि समाज उसकी गतिविधियों को नजरंदाज कर देता है. दूसरी ओर अपराधी प्रायः अपने असंतोष के साथ जीता है. वह कहीं न कहीं अपने परिवेश से असंतुष्ट होता है. बदलाव की प्रबल कामना भले ही वह उसके निजी स्वार्थ के लिए क्यों न हो, उसे अवरोधों से टकराने के लिए उकसाती है. इस असंतोष के अनेक कारण हो सकते हैं. उसके पीछे अपराधी की स्वार्थलिप्सा हो सकती है और समाज के कुछ वर्गों द्वारा किया गया उत्पीड़न भी. लेकिन इतना तय है कि उसके अपराधकर्म की समीक्षा शिखरस्थ शक्तियां अपने नफानुकसान को ध्यान में रखकर करती हैं. उनकी स्वार्थपरता के कारण समस्या के असली कारणों को पहचानकर उसके स्थायी समाधान पर काम बहुत कम हो पाता है. ‘परित्राणाय साधूनाम्, विनाशाय च दुष्कृताम्’ भी सत्तासीन अभिजन के तानाशाहीपूर्ण आचरण की ओर संकेत करता है. उसमें न्याय ऊपर से थोपा जाता है. व्यक्ति या तो न्याय को सहता है अथवा उससे समझौता कर लेता है. न्याय की चालू अवधारणा अथवा केंद्राभिमुखी शासन में आज भी ऐसा ही होता है. उसमें न्याय की पड़ताल अपनीअपनी स्वार्थदृष्टि से की जाती है. उदाहरण के लिए 1857 की घटना ईस्ट इंडिया कंपनी और उसकी आका इंग्लेंड सरकार के लिए ‘सिपाहियों की बगावत’ थी, जबकि भारतीयों के लिए स्वाधीनता संग्राम. इसलिए केंद्र में बदलाव के साथ ही प्रायः अपराध के मायने बदल जाते हैं. आजकल भी ऐसे अनेक किस्से सुनने में आते हैं जब एक सरकार किसी भ्रष्ट अधिकारी को जेल में डालती है, किंतु सत्ता परिवर्तन के बाद वह व्यक्ति अपनी संरक्षक सरकार के आने पर, पुनः महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन हो जाता है. आशय है कि व्यक्ति का अपने कर्तव्य से विचलन समाज के लिए आत्मावलोकन का अवसर होता है. फिर भी यह कह देना कि व्यक्ति के अनाचार के लिए केवल समाज जिम्मेदार होता है, समस्या का एकाएक सरलीकरण कर देना है.

मानव समाज सहस्राब्दियों से धर्म द्वारा अनुशासित होता आया है. अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए प्रत्येक धर्म ने अपनीअपनी आचारसंहिता गढ़ी है. भारत में यह कार्य न्यायसूत्रों, स्मृतियों, ब्राह्मणग्रंथों तथा संहिताओं के माध्यम से किया जाता था. इस्लाम में इसके लिए शरीयत की व्यवस्था है. ईसाइयों में सोलोमान के उपदेश और चर्च. इनके आधार पर धर्मपरायण लोग निर्णय लेते रहे रहे हैं. कुछ लोग तो आज भी यह दावा करते हैं समाज को अन्य कानूनों की अपेक्षा धर्म की सहायता से आसानी से अनुशासित किया जा सकता है. इस्लाम के अनुयायी तो शरीयत से परे कुछ सोचना भी नहीं चाहते. उनके अंधानुकरण में कट्टरपंथी हिंदू भी स्मृतियों तथा अन्य ब्राह्मण ग्रंथों की दुहाई देने लगते हैं. सवाल है कि धर्म का राज्य क्या न्याय के राज्य का विकल्प बन सकता है? क्या धर्म व्यक्ति को इतनी आजादी देता है कि वह परंपरा और संस्कृति की सीमारेखा से बाहर आकर वस्तुनिष्ट ढंग से कुछ सोच सके? इन मुद्दों को लेकर बहसें प्रायः होती ही रहती हैं. छिटपुट विचार इस लेख में भी आ चुके हैं. धर्म का संबंध आस्था और विश्वास से होता है. इसलिए वह पूर्वाग्रह मुक्त कभी हो ही नहीं पाता. अपनी मूल प्रवृत्ति में वह पूरी तरह अलोकतांत्रिक होता है. व्यवहार में अपने लुभावने अंदाज में वह भले ही दया, करुणा, मैत्री, दान, मानवप्रेम और परोपकार की दुहाई दे, उसका वास्तविक रुझान शीर्ष की ओर होता है. इसलिए येनकेनप्रकारेण वह समाज के शीर्षस्थ वर्गों का हितचिंतक सिद्ध होता है. शिखर पर बने रहने के लिए हर जायजनाजायज कोशिश के दौरान वह मनुष्य से उसके परिष्कार का अवसर छीन लेता है. यह कहकर कि आततायी को दंडित करने की जिम्मेदारी दैवीय सत्ता की है, और व्यक्ति को अपनी अच्छाई और बलिदान का पुरस्कार इस जन्म में न सही अगले जन्म में मिल ही जाना है, वह मनुष्य को पलायनवादी बना देता है. असमानता के कारणों का प्रतिकार करने, अन्याय के विरुद्ध जंग छेड़ने के बजाय वह सहते रहने का आग्रह करता है. परिणामस्वरूप मनुष्य दुनिया को बदलने की कोशिश करने के बजाय, परिस्थितियों से समझौता करने लगता है. यह कहकर कि ईश्वर सब देखता है, वही एकमात्र नियंता और न्यायकर्ता है, वह ऐसी ख्याली दुनिया में जीने लगता है, जिसमें उसके अपने दुख और अभावों के अलावा बाकी सब सपना होता है. इसलिए धर्मप्रेरित न्याय, नीति संगत भी हो यह जरूरी नहीं है. चूंकि समाज में धर्म और नैतिकता को परस्पर पर्याय के रूप में पेश किया जाता है, इसलिए जनसाधारण धर्म को श्रद्धा के अतिरेक के साथ देखतासमझता है. ऐसे में उसका इकहरा, अभिजातीय चेहरा आमजन के सामने बहुत कम आ पाता है.

मानवव्यवहार में सकारात्मक एवं नकारात्मक वृत्तियों की खोज करते हुए मनोवैज्ञानिक प्रायः शताब्दियों पीछे चले जाते हैं. जब मनुष्य जंगल में रहता था. जंगली पशुओं से उसका वास्ता पड़ता था. मनोवैज्ञानिकों के अनुसार वनचारी जीवन की कुछ छाप, उसके कुछ अवशेष मानवचरित्र पर आज भी बाकी हैं. मनुष्य की नकारात्मक वृत्ति के लिए उसके अतीत को दोषी ठहराने वाले मनोवैज्ञानिक अरस्तु की परिभाषा को भूल जाते हैं. जिसने मनुष्य को विवेकशील प्राणी माना है. यह ठीक है कि आदि मानव के जन्म के दस लाख वर्षों के मुकाबले मानव सभ्यता का चालीसपचास हजार वर्ष का समय बहुत कम है. लेकिन इस अवधि में ऐसा अनेक बार हुआ है जब मनुष्य ने खुद को नैतिकता की खोज का सबसे बड़ा हिमायती सिद्ध किया है. बिना नैतिकता का हिमायती बने, विकास की इतनी लंबी यात्रा संभव ही नहीं थी. लेकिन जब कानून की चर्चा होती है तो मनुष्य के नैतिकता के इतिहास को एकदम भुला दिया जाता है. पेशेवर मनोवैज्ञानिक इस बात पर विचार नहीं करते कि वे कौनसी परिस्थितियां हैं, जो मनुष्य की नकारात्मक वृत्तियों के हावी हो जाने का कारण बनती हैं. कानून अपनी किताबों में लिखे प्रावधानों के अनुसार सजा सुनाकर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर लेता है. मनोवैज्ञानिक समाज और परिस्थितियों का विश्लेषण करने की जिम्मेदारी समाज वैज्ञानिक या किसी तीसरे के कंधों पर डालकर शांत हो जाते हैं. यह यह मान लिया जाए कि मनुष्य में नकारात्मक प्रवृत्तियां सदैव सक्रिय रहती हैं, कि उसमें अपने पूर्वजों के जंगली जीवन के कुछ प्रभाव अब भी अवशेष हैं. हालांकि वे यह नहीं बता पाते कि मनुष्य की नकारात्मक वृत्तियों के समाहार के लिए उन्होंने क्या इंतजाम किए हैं? यदि मनुष्य में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रवृत्तियां सक्रिय हैं तो सहस्राब्दियों से मानव समाज तरक्की क्यों करता रहा है? हम सब विकास चाहते हैं. तरक्की कर आगे निकल जाना चाहते हैं, किंतु जितनी तेजी से मनुष्य बाहरी परिवर्तनों को अपनाता है, आंतरिक परिवर्तनों को आत्मसात करने की गति बहुत धीमी होती है. इसलिए कि हर परंपरागत समाज अपने भीतर कुछ न कुछ पूर्वाग्रह बचाए रहता है, जो कदमकदम पर उसके लिए अवरोधक का काम करते हैं. जिन्हें वह कभी धर्म, कभी संस्कृति तो कभी कानून के नाम पर समाज पर लागू रखना चाहता है.

समानता और न्याय के संवितरण का उद्देश्य उन असमानताओं का उन्मूलन भी है जो विशेष परिवार, जाति या धर्म में जन्म लेने से पैदा होती हैं. परंपरागत समाजों में बालक का भविष्य उसके मातापिता तथा परिवार के सामाजार्थिक स्तर से तय होता है. संपन्न परिवार में जन्मे व्यक्ति को धनवैभव के साथ सामाजिक प्रतिष्ठा भी बिना कुछ अतिरिक्त श्रम किए हासिल हो जाती है. दूसरी और विपन्न परिवारों में जन्मे व्यक्ति को पहले अपने अस्तित्व के संकट से जूझना पड़ता है, तदनंतर वह विकास की बात सोच पाता है. इस तरह संपन्न परिवार में जन्मे व्यक्ति के बराबर में आने के लिए सामान्य व्यक्ति को उससे कहीं अधिक लंबी दूरी पार करनी पड़ती है. संपन्न परिवार में जन्मा व्यक्ति यदि कुछ न भी करें तो भी उच्च सामाजिक स्थिति, पदप्रतिष्ठा का लाभ उसे मिलता है. जिसके सहारे वह आगे बढ़ता जाता है. दूसरी ओर साधारणजन को विकास की मुख्यधारा में सम्मिलित होने के लिए अपनी वर्तमान स्थिति को बचाने हेतु प्रयत्न के अलावा उन बाधाओं से भी जूझना पड़ता है जो उसकी दुर्दशा को बनाए रखना चाहती हैं. दूसरे शब्दों में विकास की दौड़ में बने रहने के लिए संपन्न व्यक्ति का काम केवल समानांतर यात्रा से चल जाता है, वहीं विकास की धारा में शामिल होने के लिए विपन्न वर्ग को उध्र्वाधर यात्रा करनी पड़ती है, जो समानांतर यात्रा की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन होती है. संसाधनों और राज्य के समर्थन के अभाव में जनसाधारण की विकास यात्रा और भी कठिन हो जाती है. जाॅन राॅल्स के शब्दों में—

न्याय मनुष्यता का परम सत्य, सामाजिक संस्थाओं का प्रमुख सद्लक्षण है.’3

रॉल्स के अनुसार शब्दों में संवितरणात्मक न्याय ऐसे ही सामाजिक, राजनीतिक कारणों से वंचित रह गए लोगों को अतिरिक्त सहारा देकर उन्हें विकास की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए जरूरी है. राज्य तथा उसकी सहायक संस्थाओं का यह दायित्व है कि जन्म अथवा सामाजिक स्तरीकरण के कारण विकास की स्पर्धा में पिछड़ गए लोगों के कल्याण के लिए अतिरिक्त संसाधन उपलब्ध कराए. उनमें यह विश्वास उत्पन्न करे कि समाज जीवन की प्रत्येक चुनौती में उसके साथ है. उसे चाहिए कि व्यक्ति के चरित्र निर्माण का उपयुक्त माहौल पैदा करे. जिसमें उसके विकास के भी भरपूर अवसर हों. बजाय इसके समाज कानून का जखीरा खड़ा कर देता है. समाज के अनुसार मनुष्य की नकारात्मक वृत्तियां दूसरों को नुकसान न पहुंचाए इसके लिए कानून की जरूरत पड़ती है. विवाद की स्थिति में वे उचितअनुचित में से उचित का चिह्नन कर, उसको संरक्षण प्रदान करती हैं. अनुचित के लिए रोकथाम और दंड की व्यवस्था भी. लेकिन अपनी शीर्षोन्मुखता में न्याय सामाजिक स्तरीकरण को बढ़ावा देने वाला सिद्ध होता है, जिससे उसका उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है.

आम आदमी न्याय के प्रायः एक पक्ष जिससे राज्य की अधिसत्ता प्रकट होती है, जिससे वह अकसर शक्तिप्रदर्शन करता है, को जानतासमझता है. उसके अंतर्गत कानून, अदालतें, पुलिस, सैन्यबल आदि आते हैं. न्याय का दूसरा एवं महत्त्वपूर्ण पक्ष है, नागरिकों के बीच अधिकतम समानता की स्थापना; अर्थात सुखसंसाधनों का समाज के सदस्यों के बीच संवितरण. यदि न्याय के पहले पक्ष को राज्य का अधिकार तथा उसके शक्ति प्रदर्शन का जरिया माने तो उसका दूसरा पक्ष राज्य के कर्तव्यपालन और नैतिक दायित्वों से जुड़ा हुआ है. न्याय को लेकर समस्या तभी खड़ी होती है, जब समाज अपने कर्तव्यपालन से चूक जाता है. अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए वह कानून के उपयोग द्वारा बलप्रयोग पर उतर आता है. संवितरणात्मक न्याय के सटीक पर्याय के रूप में ‘सामाजिक न्याय’ जैसा सुंदरसार्थक शब्दयुग्म हमारे पास है. पिछले कुछ वर्षों में इस शब्दयुग्म का राजनीतिक प्रलोभनों के रूप में यद्यपि खूब दुरुपयोग हुआ है. इसके बावजूद इसका आकर्षण मिटा नहीं है. अपने पुनीत निहितार्थ के रूप में यह समाज के गठन के औचित्य की ओर संकेत करता है. दूसरे शब्दों में सामाजिक न्याय राज्य का वह लक्ष्य है जिसकी प्राप्ति उसके औचित्य की कसौटी तथा उसके नैतिक आचरण का मापदंड है. किसी भी राज्य की अधिसत्ता उसके कानून, पुलिस बल, राजनीति, आर्थिक आदि संस्थाओं द्वारा तय होती है. यही संस्थाएं आम आदमी के जीवनस्तर तथा उसके सोच का निर्धारण करती हैं.

संवितरणात्मक न्याय का आशय है कि इन सभी संस्थाओं के लाभों, कर्तव्यों तथा सुखसुविधाओं का उसके नागरिकों के बीच पक्षपातरहित समान संवितरण. जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं का एकसमान बंटवारा. इस दृष्टि से संवितरणात्मक न्याय प्राकृतिक न्याय के नजदीक आ जाता है. दूसरे शब्दों में यह मनुष्यता की कसौटी है. जैसे प्रकृति की निगाह में सभी प्राणी बराबर होते हैं. नदी का जल सभी के लिए उपलब्ध होता है. ठीक इसी प्रकार धूप, हवा, जल भी लोगों के बीच पक्षपात नहीं करते. लेकिन व्यक्तित्व के स्तर पर समाज में सभी व्यक्ति एकसमान नहीं होते. उनमें न केवल स्वभावगत अंतर होता है, बल्कि उनकी कार्यक्षमता भी भिन्नभिन्न होती है. इसलिए कल्याण सरकार का दायित्व है कि सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारण से सुविधाओं के मामले में पिछड़ गए लोगों को भी जीवनोपयोगी वस्तुओं की आपूर्ति में समानता को बनाए रखे. यह उस अवधारणा की काट करती है जो मानती है कि मनुष्यों में कुछ विशेष योग्य होते हैं. कुछ कम योग्य और कुछ अयोग्य. इसलिए जो विशेष योग्य हैं वे सामाजिक आय में से अधिकतम के स्वाभाविक अधिकारी हैं, कम योग्य उनसे कम और अयोग्य सबसे कम. चूंकि योग्यता के मापदंड विकसित करना और उन्हें बदलती हुई सामजिक मांगों, अपेक्षाओं के अनुरूप ढालते रहना चुनौतीभरा काम होता है, इसके चलते विशेष योग्यता की कसौटी शिखरस्थ परिवार अथवा ऐसे ही समूह में जन्म लेना मान लिया जाता है. धीरेधीरे यही रूढ़ बनता चला जाता है. ऐसे में वे लोग जो शिखरस्थ समूह में जन्म लेने से वंचित रहे हैं, जिन्हें किसी प्रकार का शक्तिसंरक्षण अप्राप्य है, जो बुद्धिचातुर्य और छलछंद से बचे हुए हैं, वे सामान्य सुविधाओं तथा अधिकारों से वंचित कर दिए जाते हैं. संवितरणात्मक न्याय इसी की भरपाई हेतु राज्य के नैतिक कर्तव्य की ओर संकेत करता है. उसका पहला और आधारभूत सिद्धांत है कि समाज में सभी मनुष्य बराबर हैं. जो है वह सभी का है. इसलिए उसकी सबसे पहली मांग होती है, संपूर्ण समानता तथा सुख का संवितरण. सभी के लिए अवसरों की समानता, ताकि उनका विकास दर अबाधित रहे.

सामाजिक न्याय का अभिप्राय समाज के कुल संसाधनों, वस्तुओं का उनकी जनसंख्या के आधार पर बांटकर विभाजन रेखा खींच देना नहीं है. प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र मस्तिष्क रखता है. वह केवल जैविक इकाई नहीं है. इसलिए सुख को लेकर हर व्यक्ति का विशिष्ट सोच एवं आग्रह होता है. कोई एक वस्तु सभी व्यक्तियों के लिए समान सुखकारी नहीं हो सकती. दूसरे शब्दों वस्तुओं के समान वितरण को सुख अथवा कल्याण का संवितरण मान लेना अनुचित होगा. उदाहरण के लिए एक व्यक्ति केवल दो केलों से काम चला सकता है. इससे अधिक केले उसके स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं. जबकि दूसरा व्यक्ति एक दर्जन केलों को आसानी से पचा सकता है. इन दोनों के अलावा तीसरा व्यक्ति ऐसा भी हो सकता है कि जिसको केले जराभी पसंद न हों. इसलिए ऐसे व्यक्ति को जिसे केले पसंद नहीं हैं, उसके लिए केलों की आपूर्ति सुनिश्चित करना अथवा जिसे दो केलों की आवश्यकता है, उसको उससे अधिक केलों के लिए बाध्य करना, अनावश्यक माना जाएगा. यानी कल्याण का संवितरण व्यक्ति के मनोविज्ञान तथा रुचियों से भी जुड़ा है. तदनुसार वस्तुओं की पक्षपात रहित, न्यायसंगत आपूर्ति के अलावा यह देखना भी आवश्यक है कि वे वस्तुएं विशिष्ट परिस्थितियों में रह रहे उस व्यक्ति को अधिकतम संतुष्ट करने के साथसाथ उसके विकास को स्वाभाविक गति देती हैं या नहीं! दूसरे शब्दों में उन्हें मनुष्य के लिए अधिकतम आत्मतुष्टिकारक तथा उसके कल्याण के स्तर में बढ़ाने वाला होना चाहिए. समाज के गठन का आधार भी यही है. मनुष्य के समाज में सम्मिलित होने का उद्देश्य भी यही रहा है कि अग्रज की भूमिका में समाज उसके संरक्षण के साथसाथ उसके हितों की रक्षा भी करेगा. उसके सान्निध्य में मनुष्य वांछित सुखों की अधिकतम प्राप्ति कर सकेगा. पूर्ण समाजीकरण ही वह रास्ता है जिससे राज्य तथा उसकी अन्य संस्थाएं, सामाजिक सहयोग के साथ मानवाधिकारों का संरक्षण कर सकती हैं. मानवाधिकारों की बात यहां इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि विभिन्न संस्कृतियों, समाजों में जन्मे व्यक्ति की भिन्न अपेक्षाएं होती हैं. सामाजिक न्याय की सफलता इसमें है कि समाज में सुविधाओं और शक्तियों के भिन्नभिन्न टापू न पनपने दे. जॉन रॉल्स तो अपनी पुस्तक ही इस वाक्य से करता है—

जिस प्रकार विवेकवान समाज की स्थापना का आधार सत्य है, ऐसे ही न्याय की स्थापना सामाजिक संस्थाओं का पुनीत कर्तव्य है.’4

न्याय की स्थापना के लिए जरूरी है कि कल्याण कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाते समय राज्य यह ध्यान रखे कि उनका लाभ उसके सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के प्राप्त हो सके. उनमें इतना लचीलापन भी हो कि कल्याण के संवितरण हेतु, प्राकृतिकसामाजिक कारणों से जिन नागरिकों को दूसरे नागरिकों से अधिक मदद की आवश्यकता है, वह उन्हें आसानी से, बगैर किसी आंतरिक विक्षोभ के प्राप्त हो सके. इस मदद का, न्याय के संवितरण का लक्ष्य नागरिकों के बीच कल्याण के बंटवारे तक सीमित नहीं है. बल्कि उन्हें इस योग्य बनाना है कि जो नागरिक परिस्थितियों की विपन्नता के चलते राष्ट्रनिर्माण में अपना श्रेष्ठतम योगदान देने में असमर्थ हैं, मदद के बाद उनके आत्मविश्वास और इरादों में वृद्धि हो, ताकि वे स्वयं को समाज के लिए अधिकाधिक उपयोगी सिद्ध कर सकें. साथ में उन मूल्यों की भी रक्षा हो, जो समाज के गठन का आदर्श रहे हैं. इसलिए कि कोई भी विधान, वह चाहे जितना पवित्र क्यों न हो, उसने रचने वाले महानतम में श्रेष्ठतम श्रेणी के परममेधावी क्यों न हों. यदि वह मानवीय स्वतंत्रता को किसी भी प्रकार से हानि पहुंचाता है, उसको अवरुद्ध करता है, तो वह अनैतिक है. यहां स्वत्रंतता के मायने केवल राजनीति तक सीमित नहीं है. वह आर्थिक, समाजिक, राजनीतिक तक व्यापक हैं. और समाज का अर्थ केवल मनुष्यों का समूह नहीं है, बल्कि एकदूसरे के कल्याण को समर्पित विवेकवान इकाइयों का जीवंत समूह हैं जिसके सदस्य अपने सुख और दूसरे के कल्याण के प्रति चैतन्य हैं.

सहविधान में न्याय

क्या कानून का राज्य ‘न्यायपूर्ण’ राज्य हो सकता है? इस प्रश्न को इस प्रकार भी पूछा जा सकता है कि क्या कानून और न्याय एक दूसरे के पूरक और अनुवर्ती हैं? कई दशक पहले पढ़ी किसी यूरोपीय लेखक की एक उक्ति यहां याद आती है. कानून की अप्रासंगिकता पर टिप्पणी करते हुए उसने कहा था—‘दुनिया के सभी कानून व्यर्थ हैं. इसलिए कि भले आदमी को कानून की जरूरत नहीं होती. जबकि बुरा आदमी उससे सुधारा नहीं जा सकता. आज देश में छोटेबड़े न्यायालयों की जितनी शाखाएं हैं, समाज में उनकी जैसी हैसियत और पैठ है, उसे देखकर भला कौन इस उक्ति पर विश्वास करेगा! अधिकांश तो इसका समर्थन ही करेंगे. इसे लेखक का पागलपन कहकर वे तत्काल खंडन पर उतर आएंगे, ‘कानून तो आधुनिक सभ्यता की आंख, सुशासन की अनिवार्यता है. इससे सरकार और समाज दोनों को दृष्टि मिलती है.’ किंतु इस कड़वी हकीकत को देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित अधिवक्ता राम जेठमलानी जब इन शब्दों में बयान करते हैं—‘दुनिया के श्रेष्ठतम कानून, निकृष्टतम अपराधियों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं.’ तब उपर्युक्त उक्ति की सचाई पर भरोसा होने लगता है. ध्यानपूर्वक देखा जाए तो कानून आधुनिकता की अभिजातीय नकाब है. सभ्यता का चमकीला आवरण. यह उन लोगों के लिए ढाल हैं, जो इसे समझतेबूझते हैं. पर जो रोजीरोटी में उलझे हैं, उनके लिए कानून की जटिल धाराएं अवसर आने पर फांसी का फंदा बन जाती हैं. प्रकारांतर में कानून अच्छाई के प्रोत्साहन के लिए नहीं, बल्कि बुराई की रोकथाम के लिए बनाए जाते हैं. सवाल है कि बुरे आदमी क्या उससे सुधर पाते हैं? कानून का एक लक्ष्य चरित्रनिर्माण भी है. इस मकसद में वह कामयाब रहता है, यह तो कानून का बड़े से बड़ा समर्थक नहीं कह पाता. ऊपर से समाज में जिस तेजी से रोज नएनए कानून बनाए जाते हैं, सरकार भारीभरकम और खर्चीली संस्थाओं का गठन करती जाती है, उससे यह संकेत भी मिलता है कि इतने सारे कानून मिलकर भी बुराई पर अंकुश लगाने में नाकाम रहे हैं.

दरअसल कानून की प्रकृति निषेधात्मक होती है. ‘फलां कार्य राजसमाज के लिए अहितकारी है. इसके करने पर फलां दंड का प्रावधान है.’ कानून की व्याख्याएं प्रायः इसी प्रकार नकारात्मक तत्व लिए होती हैं. सरकार जितनी तेजी से नए कानून बनाती है, उनके अनुपालन पर जितना ज्यादा खर्च करती है, उसका एकचौथाई हिस्सा भी आमजन को कानून और कानूनी प्रक्रिया से परचाने पर खर्च नहीं करती. पर्याप्त जानकारी के अभाव में आम आदमी उपलब्ध कानूनों का संरक्षण प्राप्त करने, उनसे लाभ उठाने में पीछे रह जाता है. दूसरे कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत न्याय व्यक्ति को स्वयं के प्रयत्न पर निर्भर करता है. राज्य और समाज दोनों सिवाय कुछ औपचारिक घोषणाओं के उसकी मदद के लिए नहीं आते. जबकि न्यायप्रधान व्यवस्था की कसौटी है कि उसमें न्याय व्यक्ति तक स्वयं और सहजरूप में, बगैर किसी विलंब के पहुंचना चाहिए. यदि आवश्यक हो तो उसमें मनुष्य का न्यूनतम श्रम, अर्थ और समय खर्च होना चाहिए. आधुनिक न्यायतंत्र में प्रायः इसके उलट दिखाई पड़ता है. अदालतों में प्रायः देखा जाता है कि वहां अपराधी और निर्दोष आमनेसामने खड़े होते हैं. जज महोदय का ध्यान अपराध की प्रकृति और परिस्थितियों पर विचार करने से ज्यादा कानून की उन धाराओं को समझने में जुटा होता है, जिनके तहत मुकदमा दायर किया गया है; अथवा जिसके अंतर्गत सुनवाई होनी है. उस समय कानून दोनों से समान व्यवहार का दावा करता है. किंतु आरोपमुक्त सिद्ध होने तक निर्दोष को भी उतनी ही बदनामी और मानसिक यंत्रणा का सामना करना पड़ता है, जितना असली अपराधी को. न्याय के राज्य में निर्दोष का ऐसा उत्पीड़न अक्षम्य होता है. जबकि कानून के राज्य में ऐसी स्थितियां न्यायप्रक्रिया का स्वाभाविक हिस्सा मान ली जाती हैं.

साफ है केवल कानूनआधारित होने से ही राज्य, न्याय का राज्य नहीं हो सकता. वह शिखर पर विराजमान अभिजन का, अभिजन के लिए, अभिजन द्वारा शासन अवश्य कहा जा सकता है. कानून के राज्य को बहुत से विद्वान आधुनिक सभ्यता की निशानी मानते हैं. इसके बहाने जिस सभ्यता की ओर उनका इशारा होता है, उनमें ऊपर से लेकर नीचे तक शीर्षस्थ वर्गों की इजारेदारी चलती है. सैद्धांतिक रूप से कानून का राज्य वहीं संभव है जब साधारणजन को उस कानून की पूरीपूरी जानकारी हो, ताकि वह आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय में अपना मुकदमा स्वयं बिना किसी बाहरी मदद के लड़ सके. चूंकि व्यवहार में ऐसा होना तो दूर करने की कोशिश तक नहीं की जाती. इस कारण जनसाधारण के लिए कानून का राज्य महज छलावा सिद्ध होता है. कानूनों के लंबेचैड़े जखीरे के बीच अधिकांश बहसें यह तय करने के लिए चलाई जाती हैं कि निर्णय प्रक्रिया को कानून की किस धारा के तहत चलाया जाए. जो कार्य सुविज्ञ न्यायाधीशों द्वारा प्रथम द्रष्टया, यानी मामले के अदालत के सम्मुख आते ही तय हो जाना चाहिए, मगर इसको अधिवक्ताओं के भरोसे छोड़ दिया जाता है, जो न्याय की मंड के सबसे चालबाज सौदागर होते हैं. उसके लिए कईकई वर्ष तक मुकदमे चलते रहते हैं. इससे जो संपन्न है, पहुंचवाला है, वह कानून को मनमाफिक मोड़ देने में या कार्रवाही को टालते रहने में सफल हो जाता है. न्याय में अनावश्यक और अवांछित विलंब अन्याय को पनपने का अवसर देता है. इसके चलते तो कई बार कानूनों का अनुपालन न चाहते हुए भी पक्षपातपूर्ण हो जाता है.

न्याय की सैद्धांतिकी

आधुनिक समाज में न्याय को सामान्यतः कानून के नजरिये से देखासमझा जाता है. इसलिए हमने कानून के राज्य की स्थिति पर विचार किया और मौटे तौर पर निष्कर्ष पर पहुंचे कि केवल कानून का राज्य न्याय का राज्य नहीं हो सकता. इसलिए कि कानून की जटिलताओं को समझना सामान्य बुद्धिविवेक के बाहर होता है, इस कमजोरी के चलते वह ताकतवर के साथ लड़ाई में लंबे समय तक टिक नहीं पाता. इसके एकाधिक अपवाद हो सकते हैं. इसके बावजूद कानूनी पेचीदगियों के आगे आम आदमी आसानी से कानूनी जटिलताओं में उलझ कर रह जाता है. परिणामस्वरूप वास्तविक न्याय उसकी पहुंच से निरंतर दूर होता जाता है. यदि ऐसा है तो न्याय की व्याख्या कैसे की जाए? कैसे माना जाए कि न्याय हुआ है? उसको तय करने के मापदंड क्या हों? उसकी प्रणाली क्या हो, आदि आदि. ऐसे सवाल अनायास ही दिमाग में उभरने लगते हैं. यहां प्रूधों के विचार हमारा मार्गदर्शन करते हैं—

मुक्त समाज में—कानून बनाने, नई संस्थाएं गठित करने, उनका संविधान रचने, स्थापना एवं प्रशासनिक ढांचा खड़ा करने से लेकर कार्यारंभ तक सरकार की भूमिका न्यूनतम, इतनी कम जितनी कि संभव हो—होनी चाहिए. राज्य कोई उद्यम नहीं है. मशीन, संयंत्र आदि की स्थापना तथा कार्यारंभ होने के बाद उद्यम से सरकार को स्वयं अलग होकर, उसे स्थानीय प्राधिकरणों तथा नागरिक संस्थाओं के सुपुर्द कर देना चाहिए.’5

मौटे तौर पर न्याय की चार विशेषताएं होती हैं; या यूं कहें कि न्यायपथ पर होने का दावा करने वाले राज्य में निम्नलिखित खूबियां होनी चाहिए—

1. सुख और समानता का संरक्षक

2. मानवीय स्वाधीनता का संरक्षक और प्रस्तोता

3. सर्वविकासोन्मुखी दृष्टि

3. न्यायिक प्रक्रिया में भरोसा, न्याय की प्रतीति,

क्रमशः

© ओमप्रकाश कश्यप

1. The sense of justice is continuous with the love of mankind.” A THEORY OF JUSTICE- JOHN RAWLS

2 The principles of justice are chosen behind a veil of ignorance.” Ibid

3. Justice is the first virtue of social institutions, as truth is of systems of thought.-Ibid.

4. Justice is the first virtue of social institutions, as truth is of systems of thought.- Ibid

5. In a free society, the role of the government is essentially that of legislating, instituting, creating, beginning, establishing, as little as possible should it be executive…The state is not an entrepreneur…Once a beginning has been made, the machinery established, the state withdraws, leaving the execution of the task to local authorities and citizens.-Proudhon’s Federal Principle, p. 45, from Proudhon and Anarchism: Proudhon’s Libertarian Thought and the Anarchist Movement by L. Gambone, Red Lion Press, 1996.

सहविधान और अर्थनीति : असमान संपत्ति वितरण की समस्याएं और विकल्प

धर्म और अभिजन संस्कृति—8

राज्य का ध्येय होना चाहिएराष्ट्रीय समर्थताओं का विकास. राष्ट्रीय जीवन का परिमार्जन तथा अंत में उसकी पूर्णता. किंतु नैतिक एवं राजनीतिक गति का मानवनियति से विरोध न हो. ब्लंट्श्ली, ’थ्योरी आ॓फ दि स्टेट’.

आधुनिक समाज की अधिकांश समस्याएं आर्थिकसामाजिक विषमताओं की देन हैं. और समाजार्थिक विषमताएं! वे किसकी देन हैं? गौरतलब है कि समाज में आर्थिकसामाजिक वैषम्य केवल आर्थिकसामाजिक कारणों से पैदा नहीं होता. उनके गढ़न में उस समाज की संस्कृति और भौगोलिक परिस्थितियां भी बड़ी भूमिका निभाती हैं. संसाधनों की उपलब्धता, भौगोलिक परिवेश, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, लोकाचार आदि सब मिलकर समाज की आर्थिक संरचनाओं को प्रभावित करते हैं. वे एकाएक पैदा नहीं हो जातीं. किसी मुक्त वनचारी सरल सभ्यता को आधुनिक प्रौद्योगिकीकुशल सभ्यता की ऊंचाइयों तक पहुंचने में सहस्राब्दियां लग जाती हैं. इस परिवर्तन यात्रा के दौरान विकासरत समाज को सभ्यता और संस्कृति के लंबे द्वंद्व से गुजरना पड़ता है. विकास की चेष्ठा में हुई ज्ञानविज्ञान की हर नई पहल का प्रथम सामना धार्मिकसांस्कृतिक शक्तियों होता है. वे परिवर्तन की प्रत्येक धारा को आसन्न संकट के रूप में देखती हैं. चूंकि विकासोन्मुखी धारा में समाज के अधिकांश लोग सम्मिलित होते हैं, वे भी जो धर्म एवं संस्कृति के पैरोकार होने का दावा करते हैं, इसलिए परिवर्तन के विरुद्ध उनका दिखावटी प्रतिरोध लंबा नहीं खिंच पाता. विरोध की अवधि का उपयोग वे परिवर्तन का वाहक बने हर नए व्यक्ति, विचार, आविष्कार आदि को अपने अनुकूल ढालने अथवा उसकी काट के लिए परंपरा और संस्कृति में से स्वार्थानुरूप तर्क खोजने; और यदि बस न चले तो उससे अनुकूलन के लिए करते हैं. उनके साथ समाज के प्रतिभाशाली और समर्थक बुद्धिजीवियों की टीम होती है. उनकी सहायता द्वारा अंततः वे अपने लक्ष्य में सफल भी हो जाते हैं.

उदाहरण के लिए कंप्यूटर के आविष्कार को लें. हर नए आविष्कार की भांति आरंभ में उसे भी यथास्थितिवादियों का खुला विरोध झेलना पड़ा था. परंपरा से जुड़े लोगों को लगता था कि उनकी प्राचीन कार्यशैली कंप्यूटर के अकूत सामर्थ्य के आगे असफल सिद्ध होगी. कुछ अन्य का मानना था कि उससे मानवीय श्रम की अवमानना होगी; तथा उत्पादनक्षेत्र में मानवश्रम की महत्ता और भी कम हो जाएगी. कंप्यूटर के आने के बाद उसकी कार्यक्षमता ने लोगों को चैंकाया भी. मगर जैसे ही उसने आमजन के बीच पैठ बनानी आरंभ की, जैसे ही उसकी उपयोगिता को परखा गया, पढ़ेलिखे लोगों में अपनी पैठ बनाने के इच्छुक ज्योतिषी आधुनिक होने का दावा करते हुए, कंप्यूटर द्वारा जन्मकुंडली बनाने लगे. ब्रह्मांडीय हलचलों के अध्ययन के लिए गढ़ा गया विषय ज्योतिष जो उससे पहले ‘शास्त्र’ कहलाता था, उसे अकारण ही ‘विज्ञान’ कहा जाने लगा. परिणाम सामने है. देश में अंतरराष्ट्रीय स्तर के खगोल वैज्ञानिक हाथ में उंगलियों की संख्या से भी कम होंगे, जबकि मोटी दक्षिणा के बदले पाखंड का सौदा करने वाले ज्योतिषियों की संख्या हजारों में है. प्रत्येक छोटेबड़े अवसर को अपने मुनाफे तब्दील कर लेने के अभ्यस्त पूंजीपति भी भला क्यों पीछे रहते. यथासंभव उन्होंने भी इस काम में मदद की. उनके दिए दान से कथावाचक किस्म के स्वयंभू महात्मा अपने प्रवचन के वीडियो बनवाकर बांटने लगे. धंधा बढ़ा तो उन्होंने अपने लिए टेलीविजन के चौनल ही खरीद लिए. कुल मिलाकर ज्ञानविज्ञान और आधुनिक क्रांति के संदेश के साथ विकसित एक तकनीक के प्रभाव को यथास्थितिवादियों ने भौंथरा कर दिया.

केवल कंप्यूटर के आविष्कार के साथ ऐसा हुआ हो, यह भी नहीं है. लिपि का आविष्कार कबीलाई संस्कृति की असाधारण प्रतिभाओं की देन था. अभिव्यक्ति, प्रशिक्षण, संप्रेषण आदि के लिए पहले प्रस्तर चित्रों को उपयोग में लाया जाता था. कालांतर में मनुष्य का बौद्धिक विकास हुआ तो अभिव्यक्तियों में प्रतीकात्मकता बढ़ने लगी. संकेतों द्वारा संप्रेषण की कला कीलाक्षर लिपि के रूप में विकसित हुई. दुनिया की अधिकांश लिपियां उसी कीलाक्षर लिपि का संशोधित संस्करण हैं. लिपि के विकास के उपरांत आदर्श स्थिति तो यह होती कि उसमें ऐसा काम होता, जिससे ज्ञानविज्ञान का पोषण हो सके. ताकि समाज का बहुमुखी विकास संभव हो, जो ज्ञानानुभवों की परंपरा को सहेजकर समाज के वास्तविक विकास को गति दे सके. जिसकी मदद से ज्ञान, विज्ञान और तकनीक का लाभ सीधे आमजन तक पहुंचाया जा सके. लेकिन हुआ क्या? ज्ञान को सहेजने की प्रक्रिया में भारत में सबसे पहली कृति सामने आई—ऋग्वेद. वह धार्मिक दृष्टिकोण से लिखा गया, भारत का सांस्कृतिक दस्तावेज था. उसका वर्णित प्रच्छन्न इतिहास आर्य लड़ाकों का महिमामंडन करता था. वह सीधेसीधे विजेता के द्रष्टिकोण से, उसे प्रसन्न रखने के लिए किया गया स्तुतिकर्म था. कालांतर में उसकी धार्मिकदार्शनिक ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठा हुई.

ऋग्वेद ने तत्कालीन धर्माचार्यों को इतना सम्मोहित किया कि कालांतर में उसकी प्रतिष्ठा हेतु साम और यजुर्वेद नामक संहिताओं की रचना की गई, जिनमें साम् ऋक् की ऋचाओं के गायन तथा यजुर्वेद उसके याज्ञिक कर्मकांड के निरूपण से संबंधित थी. आशय है कि ज्ञान और परंपरा के संहिताकरण की शुरुआत ही कर्मकांडीकरण से हुई. इसके बावजूद ऋग्वेद के आगे ही संकरी हो चली इस धारा को ‘वेद(ज्ञान)’ कहा गया. कालांतर में यजु, साम और अथर्व को भी उसकी श्रेणी में रख लिया गया. वेद नाम की संज्ञा ज्ञान के पर्याय के रूप में रूढ़ होती गई. शताब्दियों तक भारतीयों की चिंतनधारा वेदों को आप्तवाक्य मानने अथवा न मानने की बहसों में उलझी रही. वेदों का पठनपाठन पुनीत कर्तव्य माना गया, उनमें विश्वास विद्वता की निशानी. आलोचकीय दृष्टि से दूर रखने के लिए समाज के बड़े वर्ग पर उनके पठनपाठन पर पाबंदी लगा दी गई. यह मनुष्य की स्वाभाविक जिज्ञासा का आस्थाकरण था, जिसने आने वाली सहस्राब्दियों को प्रभावित किया था.

भारत ही क्यों, पूरी दुनिया में, लिपि का सर्वप्रथम उपयोग समाज की धार्मिक मान्यताओं, रीतिरिवाजों और कर्मकांडों को सहेजने के लिए किया गया. इसका यह अर्थ नहीं है कि सांस्कृतिकरण की सभी कोशिशें मानवीय स्वार्थ से प्रेरित थीं. दरअसल धर्मप्रेरित आरंभिक सभ्यताकरण का इतिहास व्यक्तिगत स्वार्थ और लोककल्याण, दोनों ही भावनाओं से बना है. प्राचीन आचार्यों ने धार्मिक आचारविचार के साथ तत्कालीन नैतिक मूल्यों को भी समान स्थान दिया गया था. तदनुसार यह कहना उचित होगा कि आरंभिक समाजीकरण की कोशिशों के मूल में कदाचित लोककल्याण की भावना भी थी. किंतु धर्म नामक जिस संस्था के बूते तत्कालीन आचार्य समाज को संगठित करना चाहते थे, उसकी नींव पलायनवाद पर टिकी थी. इहलोक से ज्यादा उसका आग्रह परलोक के प्रति था. सांसारिक सुखसुविधाओं को वह दोयम दर्जे का मानता है. अर्थधर्मकाम और मोक्ष में स्वार्थवश चौथे पुरुषार्थ मोक्ष पर ज्यादा जोर दिया गया था. उसका आकर्षण इतना प्रबल था कि दुनियादारी के संघर्ष में नाकाम रहे; अथवा बलपूर्वक पीछे ढकेल दिए गए लोग आसानी से उसकी ओर मुड़ जाते हैं. धार्मिक सम्मोहन में फंसकर वे स्वयं को परिस्थितियों के हवाले कर देते हैं. यह प्रवृत्ति समाज के बड़े वर्ग को विकास की दौड़ से अनायास ही बाहर कर देती है. कुल मिलाकर इस प्रवृत्ति ने पूर्ण समाजीकरण की कोशिशों को अवमंदित करने का काम किया.

आरंभिक जीवन पूरी तरह प्रकृतिआधारित था. अनिश्चित और संघर्षपूर्ण. उसकी निरंतर परिवर्तनशील स्थितियां मनुष्य के लिए जहां चुनौती थीं, वहीं प्रेरक का काम भी करती थीं. प्राकृतिक शक्तियों के उपादान कारण के रूप में मनुष्य ने अनेक देवताओं की परिकल्पना की. फिर उनके कोप का डर दिखाकर समाज को नियंत्रित करने की कोशिश भी. हालांकि यह कहना बड़ा मुश्किल है कि भारतीय समाज में समाजार्थिकवैषम्य पहले आया अथवा उसे नियति बना देने की चालें लोगों के दिमाग में पहले आईं, किंतु इतना तय है कि पूरी तरह प्रकृतिआश्रित समाज में धर्म के पालक, संरक्षक, संवर्धक तथा व्याख्याकार के रूप में जो वर्ग सामने आया, उसमें अधिकांश लोग लालची और विशिष्टताबोध का शिकार थे. बगैर किसी श्रम के वे अपनी सामाजिक हैसियत को बनाए रखना चाहते थे. अपनी पैठ का अनुचित लाभ उठाते हुए उन्होंने जनसाधारण के मन में लौकिक सुखसुविधाओं के प्रति विरक्ति का भाव पैदा करना आरंभ कर दिया, जबकि उनका अपना जीवन उनकी खुद की स्थापित मान्यताओं के विपरीत था. समाज के शीर्षस्थ वर्ग के दोहरे चरित्र का असर बाकी लोगों पर भी पड़ा. उससे शारीरिक श्रम को लेकर हेय भाव लोगों के मनस् में घर करता गया. धीरेधीरे निर्णय के सारे अधिकार समाज के शीर्षस्थ बुद्धिजीवी वर्ग के हाथों में समाते गए. ऐसे लोग जो केवल शारीरिक श्रम पर निर्भर थे, वे श्रम के मूल्यांकन का अधिकार दूरे वर्ग के अधीन होने के कारण जीवनसमर में निरंतार पिछड़ते गए.

राजसत्ता इस विसंगति का समाधान कर सकती थी. यह उसके गठन का मूल उद्देश्य भी था. लोगों ने राज्य के अधीन रहना स्वीकार ही इसलिए किया था कि वह शांति एवं व्यवस्था बनाए रखने के साथ सभी को जीवन के समान अधिकार प्रदान करेगा. न्यूनतम बलप्रयोग द्वारा शोषणकारी शक्तियों का शमन कर वह ऐसी न्यायपूर्ण एवं कल्याणकारी व्यवस्था स्थापित करेगा, जिसमें सभी को विकास के समान अवसर प्राप्त हों. विडंबना ही कहिए कि राज्य अपने मूल उद्देश्य से प्रायः विमुख ही रहा. उसके इतिहास में ऐसे अवसर बहुत कम आए जब वह अपने आदर्श के करीब पहुंच सका हो. सामान्यतः वह अपने उद्देश्य को पूरा करने में नाकाम ही रहा है. इसके बावजूद आमजन के कल्याण की कीमत पर राज्य की स्तुति, उसे अतिरिक्त सामर्थ्यशाली बनाने के प्रयास महाभारतकाल में ही नजर आने लगे थे. चाटुकारिता की परंपरा में राज्य सभी प्रकार के धर्मों, विद्या एवं शक्तियों का भंडार कहा जाने लगा था. सुशासन के लिए दंडनीति को आवश्यक मानते हुए राज्य को अतिरिक्त अधिकार दिए गए

जिस समय दंडनीति निर्जीव हो जाती है, उस समय तीनों वेद डूब जाते हैं. सभ्यता और संस्कृति के आधार सभी धर्म, चाहे वे कितने ही उन्नत क्यों न हों, पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं. जब प्राचीन राजधर्म का त्याग कर दिया जाता है, तब व्यैक्तिक आश्रम धर्म के आधार भी शेष नहीं बचते. इस प्रकार समस्त प्रकार के त्याग राजधर्म में ही दिखाई पड़ते हैं और समस्त प्रकार की दीक्षाएं राजधर्म में ही युक्त हैं. सब प्रकार की विद्याएं राजधर्म में ही सम्मिलित हैं और समस्त लोक राजधर्म के अंतर्गत हैं.’1

स्पष्ट है महाभारतकाल तक राज्यसत्ता और धर्मसत्ता का गठबंधन काफी मजबूत हो चुका था. वर्चस्व कायम रखने, यथास्थिति पर आंच न आने देने तथा खुद को शीर्ष पर रखने के लिए कूटनीतिक चालें चलने के मामले में धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों एक थे. कालांतर में तीसरा वर्ग भी उनमें आ मिला. यह तीसरा वर्ग अर्थसत्ता का प्रतीक था. जिसने विभिन्न समाजों, संस्कृतियों और राज्यों के बीच बढ़ते व्यापार का लाभ उठाकर अकूत संपदा बटोरी थी. अपने बुद्धिचातुर्य और संगठन सामर्थ्य के बल पर वास्तविक उत्पादक वर्ग को अपदस्थ कर वह अर्थसत्ता के शीर्ष पर जा विराजा था. पशुचारण अर्थव्यवस्था तक संपत्ति पूरे समाज की मानी जाती थी. कृषि ने जीवन में स्थायित्व तथा भूमि को स्थायी संपदा के रूप में पहचान दी थी. उपज बढ़ने से लोगों की आय भी बढ़ती जा रही थी. साथ में जरूरतें भी. उनकी भरपाई के लिए आरंभ में समाज का शिल्पकार वर्ग संगठित होकर व्यापार करने लगा. इससे उसकी सामाजिक प्रस्थिति में सुधार हुआ. सभ्यताकरण के दौर में जैसेजैसे मार्ग एवं परिवहनसंबंधी सुविधाए बढ़ीं, शिल्पकार संगठनों का व्यापार भी बढ़ता गया. चूंकि उन दिनों लंबी यात्राएं करना खतरनाक था. मार्ग में लुटेरे, डाकुओं का भय बना रहता था. राज्य की सुरक्षा सेवाएं सब जगह उपलब्ध नहीं थीं. विशेषकर दूसरे राज्यों तथा दुर्गम जंगलों से गुजरते समय. इसलिए लंबी दूरी के व्यापारी अपने माल की सुरक्षा के लिए हथियारबंद दस्ता रखने लगे. धीरेधीरे शिल्पकार वर्ग की दो कोटियां बनती चली गईं. एक वह जो अपने शिल्प एवं श्रम की सहायता से उत्पादन करता था. दूसरे उत्पाद को ग्राहकों तक पहुंचाता था. छोटे उत्पादकों के लिए यह संभव न रहा होगा कि उत्पादन कार्य को छोड़कर माल की बिक्री के लिए लंबी दुर्गम यात्राओं पर निकल सकें. इसलिए एक कोटि उन शिल्पकारों की बनी, जो केवल उत्पादन करते थे. बिक्री के लिए उन्हें स्थानीय ग्राहकों तथा व्यापारिक संगठनों पर निर्भर रहना पड़ता था. जैसेजैसे व्यापार बढ़ा, तीसरा यानी व्यापारी वर्ग और भी मजबूत होता गया. ऋग्वेद में ‘पण’ शब्द की आवृत्ति हुई है, जो सहयोगाधारित व्यापारिक संगठनों का पर्यायवाची है. महाभारत में यह वर्ग इतना शक्तिशाली हो चुका था कि उसकी उपेक्षा कर पाना संभव न रहा.

तीसरे वर्ग के सत्ताकेंद्र से मिल जाने के बाद आम जन को सत्ता और संसाधनों से बेदखल करना आसान हो गया. हालांकि राज्य के अधीन धनबल, राज्यबल, जनबल और बुद्धिबल सभी कुछ था, किंतु जनाक्रोश के आग के आगे वे कभी भी खाक हो सकते हैं, इस हकीकत का एहसास शीर्षस्थ शक्तियों को था. अपनी हैसियत को बचाए रखने का उनके पास एकमात्र उपाय था—जनशक्ति को भुलावे में रखकर जनाक्रोश की संभावनाओं को न्यूनतम किया जाए. उल्लेखनीय है कि आरंभ में कृषियेतर आर्थिक गतिविधियों की बागडोर शिल्पकार वर्ग के हाथों में थी. जैसेजैसे व्यापार कर्म का विस्तार हुआ, बाजार पर व्यापारी वर्ग की पकड़ बढ़ती गई. शिल्पकार वर्ग का आर्थिक स्तर निरंतर गिरता गया. उसके लिए यह संभव न था कि उत्पादन और व्यापार दोनों को एक साथ संभाल सके. वास्तविक क्रेता तक पहुंच व्यापारी की थी. इसलिए वह उत्पादक शिल्पकारों से मनमाना दाम वसूलने की स्थिति में था. दूसरे शब्दों में सभ्यताकरण के आरंभिक दौर में ही समाज में दो ताकतवर वर्ग पनप चुके थे. धर्मसत्ता आदमी और ईश्वर के बीच दलाली के नाम पर अपना उल्लू सीधा करती थी, तो अर्थसत्ता वास्तविक उत्पादक और उपभोक्ता के बीच.

सामाजिक असंतोष की मार से खुद को बचाने के लिए राजसत्ता ने सर्वकल्याणकारी, मुक्तिदाता, जीवन का परम लक्ष्य कहते हुए धर्म को न केवल खुद अपनाया, बल्कि लोगों को भी उसके लिए बाध्य किया. उसने दान, प्रलोभन, लालच के सहारे पुरोहित वर्ग को अपने समर्थन में ला खड़ा किया. राजसत्ता से निकटता और सामंजस्य बनाए रखने के लिए पुरोहित वर्ग ने भी ऊंचनीच, पापपुण्य, धर्मअधर्म के किले बनाए, जिनमें जनसाधारण को मानसिक गुलामी के लिए कैद किया जाने लगा. लोगों के मन में विद्रोह की भावना जन्मे ही नहीं, इसके लिए कर्मवाद का सहारा लिया गया. राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि घोषित कर, उसके हर अच्छेबुरे निर्णय को महिमामंडित करने की कोशिश की गई. सत्ता पर विराजमान लोगों के भोगविलास को औचित्यपूर्ण ठहराने के शास्त्रीय उपक्रम रचे गए. यही नहीं, उनके प्रत्येक निर्णय को ईश्वरीय कहकर हर गलतसही फैसले का समर्थन किया गया. आशय यह है कि जिसे सभ्यताकरण कहा जाता है, वह समाज के अभिजनवर्ग के उदय और निरंतर शक्तिशाली होते जाने की यात्रा है.

परिणाम यह हुआ कि समाज के संसाधन, जिनके भरोसे कुल समाज के विकास का दावा सच हो सकता था, सभी समाज के प्रभुवर्ग के अधीन होते चले गए. जब फैसले विवेक और तर्क के बजाय आस्था और कुलपरंपरा के नाम पर होने लगें तो समाज में न्याय का पलड़ा स्वतः ही शिखर की ओर झुक जाता है. उसी का सहारा लेकर शिखरस्थ वर्ग खुद को किसी भी प्रकार के न्याय, आलोचना, समीक्षा, विमर्श आदि से ऊपर समझने लगता है. सभ्यताकरण का यह कौतुक दुनिया के किसी एक कोने या समाज में नहीं, कुछेक कबीलाई संगठनों को छोड़कर, प्रायः सभी समाजों में रचा गया. उम्मीद थी कि विज्ञान के आगमन के पश्चात नई शिक्षा और ज्ञान की रोशनी में आम आदमी अभिजन के इस षड्यंत्र को समझ सकेगा. लेकिन विवेकवान जनसमाज या जनसमाज का विवेकीकरण को, प्रौद्योगिकीकरण के सहारे सफलता की सीढ़ियां चढ़ रहा पूंजीवाद भी अपने लिए अहितकारी समझता था. उसकी जरूरत जनसमाज नहीं उपभोक्ता समाज की रचना करना था. मशीनों का आविष्कार व्यापारी वर्ग के लिए वरदान सरीखा था, जिसने शिल्पकार वर्ग पर उसकी निर्भरता को न्यूनतम कर दिया. उसके लिए पूरी दुनिया महज उपभोक्ता थी. पूंजीवाद एक प्रकार का नया धर्म था, जो उपभोक्ताओं के लिए इसी जन्म में स्वर्ग गढ़ने का दावा करता था. आम आदमी अपने स्वर्ग को अपनी मर्जी से गढ़े. उसमें उसकी भावनाओं की भी कद्र हो, इसकी अनुमति न परंपरागत धर्म देता है, न पूंजीवाद प्रेरित प्रौद्योगिकीयधर्म. जब सबकुछ ऊपर से थोपा जाने लगे तो न्याय का पलड़ा उसी ओर झुक जाना स्वाभाविक था. यह हुआ और धूमधाम से विकास के नारों के बीच हुआ. गत दो दशकों में उसमें परिवर्तन के लिए कितने ही विचार आए, संघर्षकारी स्थितियां बनीं, सत्तापरिवर्तन हुए, किंतु जनसाधारण के लिए स्थिति लगभग वैसी ही रही, जैसी पहले थी.

क्या सहविधान समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता का समाधान कर सकेगा? इसका सहीसही उत्तर तो इसको अपनाने वालों की निष्ठा पर होगा. इस बात से तय होगा कि सहविधान को अपना विधान बनाने वाला समाज उसके प्रति कितना गंभीर है. कितनी निष्ठा के साथ उसे अपनाना चाहता है. इतना सुनिश्चित है कि वह आरोपित व्यवस्था नहीं होगी. सहविधान लोगों का स्वैच्छिक वरण होगा. इसकी सफलता लागू करनेवालों पर नहीं, अपनाने वालों पर निर्भर होगी. यह लोगों को निर्देशित नहीं अनुशासित करने पर जोर देगा. इसकी उपस्थिति दस्तावेजी न होकर नागरिकसंकल्प के रूप में होगी. समाज में उसकी उपस्थिति कानून न होकर नैतिक बल के रूप में होगी.

सहविधान के अनुसार संपत्ति पर व्यक्ति की अधिकारिता दो प्रकार से तय होगी—सामूहिक और व्यक्तिगत. बिना किसी पूर्वाग्रह अथवा भेदभाव के समाज यह प्रबंध करेगा कि व्यक्ति की सामान्य जरूरतें पूरी होती रहें. दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसको किसी का भी सहारा न लेना पड़े. वह ऐसी उत्पादन प्रणाली को अपनाने पर जोर देगा जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने उत्पादनसामर्थ्य, शिल्पकौशल की रक्षा कर सके और समाज के विकास में अपनी भूमिका निभा सके. नागरिकों को अपने अधीन संपत्ति के ऐच्छिक उपयोग की अनुमति होगी. व्यक्ति की जरूरतें क्या हैं, इसका निर्धारण मिलबैठकर, आपसी विचारविमर्श के बाद किया जाएगा और इसके लिए समानता और न्याय के सिद्धांत का पालन किया जाएगा. साथ में यह भी ध्यान में रखना होगा कि सदस्य इकाइयां अपनी रुचि, प्रकृति, मनोविज्ञान में अलग हो सकती हैं. यह भी कि व्यक्तिगत रुचियों, रुझानों, पसंदों, सोच और सामान्य आवश्यकताओं के मामले में समाज की ओर से अनावश्यक दखल मनुष्य की नैसर्गिक स्वतंत्रता को बाधित कर सकता है. यदि ऐसा हुआ तो सहविधान की स्थापना का उद्देश्य ही व्यर्थ चला जाएगा. मनुष्य की नैसर्गिक स्वतंत्रता, विचारवैविध्य और मानवीय गरिमा बनी रहे इसके लिए उसकी सामान्य निजता और रुचियों का भी ध्यान रखा जाएगा. इस सावधानी के साथ कि समाज की कोई भी इकाई स्वयं को उपेक्षित अनुभव न करे. प्रत्येक को यह विश्वास रहे कि समाज के विकास में उसका भी योगदान है. उसकी महत्ता है और समाज को उसकी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी कि उसको समाज की.

इकाई विशेष की जरूरतों को तय करने का एक मापदंड यह भी हो सकता है कि समाज की कुल संपत्ति को उसकी सदस्यसंख्या के अनुपात में बांट दिया जाए. फिर प्रत्येक इकाई के हिस्से में जितनी संपत्ति आती है, औसतरूप में उतनी संपत्ति पर व्यक्तिगत अधिकारिता की सीमा तय कर दी जाए. उसी के आधार पर व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं को तय करने की आजादी हो. सहविधान में मनुष्य की सुखसुविधाओं में बढ़ोत्तरी के लिए समाज की कुल आय, संपदा में वृद्धि अपरिहार्य होगी. किसी कारणवश यदि प्रगतिचक्र धीमा पड़ जाए, अर्थव्यवस्था को मंदी का सामना करना पड़े अथवा उसपर अनावश्यक संकट आन पड़े तब? क्या मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में कटौती की जाएगी? हरगिज नहीं. मूलभूत आवश्यकताएं मनुष्य के अस्तित्व से जुड़ी अनिवार्यताएं हैं. यह समाज का दायित्व है कि उनमें कमी यथासंभव न होने दे. यदि ऐसी कोई विपत्ति आन पड़े तो उसकी भरपाई अपने बाकी खर्चों में कटौती करके पूरा करने की करे. यदि फिर भी काम न बने तो नागरिकों से उसकी भरपाई के लिए अतिरिक्त योगदान का आग्रह करे. परस्पर आत्मीय व्यवहार, संगठन, सहानुभूति और लक्ष्य के प्रति समर्पण से समस्या का समाधान संभव है.

यदि कोई दावा करे कि समाज के विकास के लिए उसका योगदान दूसरों से कहीं अधिक है. इसलिए उसको अपनी इच्छाओं के विस्तार तथा उन्हें पूरा करने की अनुमति मिलनी ही चाहिए, तब समाज को चाहिए कि ऐसी नैतिक व्यवस्था करे ताकि दूसरों से विशिष्ट दिखने जैसा व्यक्तिवादी विचार नागरिकों के मन में पनपने ही न पाए. यदि किसी नागरिक के मन में ऐसा विचार आता है तो मान लेना चाहिए कि उससे अपने नागरिकों के सहविधान की भावना के अनुरूप शिक्षणप्रशिक्षण में चूक हुई है. व्यक्ति को भी समझना चाहिए कि प्रकृति के कुल ज्ञानविज्ञान और कर्मकौशल के समक्ष उसके द्वारा अर्जित ज्ञान नगण्य हैं. और जो भी ज्ञानकौशल उसने अर्जित किया है, वह वही है जिसको समाज पीढ़ीदरपीढ़ी सहेजता आया है. ज्ञान के इस अनुदान के लिए व्यक्ति समाज का ऋणी है. समाज से अलग रहकर वह उसका एकांश भी शायद ही अर्जित कर पाता. समाज की ज्ञानराशि अपनी सभी सदस्य इकाइयों के लिए खुली होती हैं और अर्जित ज्ञानसंपदा का अपनी तरह से विश्लेषण करने का अधिकार वह अपने प्रत्येक नागरिक को देता है. अतः यदि कुछ मामलों में वह दूसरे व्यक्तियों से बढ़कर है तो बाकी मामलों में अन्य लोग उससे काफी आगे हो सकते हैं. यह एहसास व्यक्ति को उसके विशिष्टताबोध से बाहर निकलने में कामयाब रहेगा.

दूसरी ओर समाज को भी समझना चाहिए कि किसी व्यक्ति ने यदि कुछ अतिरिक्त अर्जित किया है तो उसमें उसकी योग्यता एवं परिश्रम का भी योगदान है. ऐसे किसी व्यक्ति को उसके उत्कृष्ट योगदान के बदले जो सामाजिक लाभ मिलना चाहिए था, यदि वह नहीं मिला है, तो उसका आक्रोश तर्कसम्मत माना जाएगा. उस स्थिति में समाज को चाहिए कि समय रहते अपनी भूल स्वीकार कर ले और उस व्यक्ति को उसके अतिरिक्त योगदान के लिए लाभान्वित करे. यह लाभ पुरस्कार, सम्मान के माध्यम से भी किया जा सकता है. अथवा इसके लिए लोग आपस में मिलबैठकर ऐसी योजना बना सकते हैं, जो व्यक्ति को उसकी अधिकतम सेवाओं के लिए प्रोत्साहित कर सके. जिससे वह हताश हुए बगैर अपने योगदान को जारी रख सके. यह काम समाज में अभिजन मानसिकता के चलते नहीं हो सकता. इसके लिए विराट जनसंस्कृति को बढ़ावा देना जरूरी होगा. यह विश्वास रखना होगा कि पराजित सत्ताएं होती हैं, जनता नहीं. जनता को तो पराजय का एहसास कराया जाता है.

उत्पादकता को लेकर सामान्य धारणा यह भी है कि व्यक्ति तभी अतिरिक्त कार्य करने को उत्सुक होता है, जब उसको अतिरिक्त प्राप्तियों की संभावना हो. प्रायः कहा जाता है कि कुछ समाजवादी व्यवस्थाएं इसलिए ढह गईं कि श्रम पर सीधे लाभ मिलने की कोई उम्मीद न देख नागरिक अपने दायित्वों के प्रति उदासीन होने लगे थे. उत्पादन को लेकर अतिरिक्त उत्सुकता दिखाने, अपने श्रमकौशल के उपयोग से वृहद सामाजिक उद्देश्य की प्राप्ति हेतु स्वयंस्फूत्र्त निर्णय लेना और उत्पादन व्यवस्था में अभीष्ट बदलाव लाने की प्रवृत्ति जो नए शोधों को बढ़ावा देती है—पीछे छूटने लगी थी. परिणाम यह हुआ कि सहजीवितावादी द्रष्टिकोण को गठित वे अर्थव्यवस्थाएं—सीधे और तात्कालिक लाभ पहुंचाने वाली पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले निरंतर पिछड़ती चली गईं.

इस दावे में किंचित सचाई हो सकती है. लेकिन एकाएक यह मान लेना कि मनुष्य केवल सम्मान, पुरस्कार अथवा अतिरिक्त भौतिक सुखसुविधाओं के लिए काम करता है, भारत की उदार श्रमसंस्कृति की अवमानना करने जैसा है. ‘आदमी तभी काम करेगा, जब उसको सीधा लाभ होगा’यह सोच मुनाफे की संस्कृति की उपज है. इतिहास साक्षी है, सर्वहारा श्रमिक वर्ग तो हमेशा से ही न्यूनतम प्राप्तियों के बदले अधिकतम उत्पादन देता आया है. सच्चे कलाकार की भांति वे अपने हुनर की बोली नहीं लगाते. बल्कि उसे तराशने का अवसर तलाशते रहते हैं. लाभ का मनोविज्ञान न तो उनकी ईजाद है, न ही यह उनको सुहाता है. अधिकाधिक उत्पादकता के लिए स्पर्धा का सिद्धांत पूंजीवाद की देन है. शिल्पकर्मी और सर्वहारा मजदूर तो हमेशा अपने लिए सही अवसर और कद्रदान की तलाश में रहते हैं, ताकि अपने हुनर को पेश कर सकें. जिन समाजवादी राज्यों के असमय ढह जाने का उदाहरण दिया जाता है. कहा जा सकता है कि वे इसलिए नहीं ढही थीं कि वहां श्रमिक, सर्वहारा, शिल्पकर्मी अपने लिए अतिरिक्त सुविधाओं की मांग करने लगे थे. जिन्हें पूरा करना राज्य के बस से बाहर था. बल्कि इस कारण असमय कालकवलित हुईं कि जिन वादों, जो आश्वासन आमजन को सत्तापरिवर्तन के समय दिए गए थे, समय आने पर राष्ट्र उनसे मुंह मोड़ने लगा था. सोवियत संघ का उदाहरण दिया जा सकता है. सब जानते हैं कि वह मार्क्सवादी विचारों के आधार पर पहला प्रयोग था. बोल्शेविकों ने लेनिन का साथ इसलिए दिया था कि नवगठित राज्य में सत्ता प्राप्ति के पश्चात वर्गहीन समाज की स्थापना की ओर तेजी से बढ़ा पाएगा. समाजवाद उसका परमलक्ष्य होगा. लेकिन सत्ता प्राप्ति के बाद साम्यवादी सरकार की प्राथमिकताएं बदल चुकी थीं. वह सहयोग के बजाय स्पर्धा और प्रतिस्पर्धा की बातें करने लगी. शीतयुद्ध के बहाने देश को हथियारों की अंधस्पर्धा में झोंक दिया गया था. इससे उन लोगों का सपना चकनाचूर हुआ जो नए शासन से जीवन में बदलाव की उम्मीद लगाए थे. उल्लेखनीय है कि सोवियत क्रांति की सफलता में आमनागरिक का भी काफी योगदान था. क्रांति के लिए वहां के स्त्रीपुरुषों, मजदूरों और कारीगरों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था. जिस नेतृत्व को उन्होंने अपने लिए चुना था, वही अब साम्यवाद के नाम पर उनके साथ छल कर रहा था. इसलिए उसके मन में असंतोष स्वाभाविक था. सोवियत शासन का रवैया संघीय राज्य की स्थापना के मूल सिद्धांत के एकदम उलट था. यह विचलन ही उसके पतन का कारण बना था. इसलिए सोवियत संघ के पतन को समाजवाद या साम्यवाद की आलोचना का आधार नहीं बनाया जा सकता. न इससे यह सिद्ध होता है कि उत्पादकता केवल व्यक्तिगत स्वार्थ से अनुप्रेत होती है?

यदि अपवादस्वरूप ऐसा कहीं हुआ है तो इसके लिए सारा दोष श्रमिकवर्ग का नहीं है. उसका दोष मात्र इतना है कि वह हालात से अनुकूलन कर चुका है. शताब्दियों तक अभिजन समुदाय के नेतृत्व में काम करने के कारण यह अस्वाभाविक भी नहीं है. इसलिए अपनी मुक्ति का खयाल तक उसके दिमाग में नहीं आता. शोषणकारी शक्तियों का प्रभाव उसके दिल पर इतना गहरा है कि वह अपनी मुक्ति, शोषित वर्ग से बाहर शोषकवर्ग की श्रेणी में शामिल होने में देखता है. औपनिवेशिक शोषण का शिकार रहे देशों में तो अकसर ऐसा होता है. आवश्यकता इसी मनोस्थिति को बदलने की है. लक्ष्य साफ है, लेकिन डगर कठिन है. सहविधान की कामयाबी के लिए स्पर्धा के स्थान पर सहयोग की अवधारणा को स्थान देना होगा. स्पर्धा मुनाफे की संस्कृति की उपज है. सहयोग सहअस्तिव की अनिवार्यता. सहविधान की कामयाबी के लिए लाभ की वर्तमान परिभाषा को संशोधित कर बताना होगा कि आदर्श लाभ वह है जिसमें व्यक्तिगत लाभ और सामाजिक लाभ के बीच की दूरी न्यूनतम हो. दोनों में ऐसी निकटता हो कि उनकी स्वतंत्र पहचान कर पाना कठिन हो जाए.

चलिए कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि सीधे और तात्कालिक लाभ की संभावना व्यक्ति को अतिरिक्त श्रम की प्रेरणा देती हैं. लेकिन ऐसा वहीं होता है जहां व्यक्ति अपने साथी कारीगर, मजदूर से ही नहीं, समाज में अपने भाई, रिश्तेदार, पड़ोसी से भी स्पर्धा करने लगता है. उस समय वह भूल जाता है कि वह अपने साथी, परिजनों, पड़ोसियों से नहीं, अपने आप से भी स्पर्धा कर रहा होता है. इसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगते हैं. मान लीजिए कारखाने में एक काम के लिए न्यूनतम चार घंटे का समय निर्धारित है. इस अवधि काफी सोचविचार और कार्यअध्ययन के बाद तय की गई है. इससे मालिक भी संतुष्ट है. अब यदि कोई कामगार मालिक को प्रसन्न करने या अतिरिक्त आय के लिए उस काम को साढ़े तीन घंटे में करने का दावा करता है, तो निश्चित रूप से उसका व्यक्तिगत कौशल सराहनीय होगा, लेकिन उस समय वह किसी अजाने ही किसी अन्य कामगार को स्पर्धा के लिए तैयार कर रहा होता है. मालिक को भले ही ऐसी कोई अपेक्षा न हो, किंतु संभव है कुछ दिन बाद कारखाना कोई और मजदूर उसके आगे पहुंचकर उस कार्य को केवल तीन घंटे में निपटाने का दावा करे. मालिक तो खुश होकर उसको काम का न्योता दे देगा. श्रम की यह स्पर्धा उसके लिए लाभकारी है. जिस काम के लिए पहले चार घंटे लगाने पड़ते थे, अब वह तीन घंटों में पूरा हो रहा है, 25 प्रतिशत श्रमघंटों की सीधी बचत. उत्पादकता के लिहाज से यह बुरा नहीं है.

मुनाफे की संस्कृति के अनुयायी इसका पक्ष लेंगे. आप किसका पक्ष लेते हैं, इस निर्णय के लिए मैं इस उदाहरण को थोड़ा और आगे बढ़ाता हूं. श्रम का सीधा मूल्यांकन उसे उत्पाद बना देना है. स्वाभाविक रूप से बाजार में उपलब्ध श्रेष्ठ उत्पाद कम श्रेष्ठ अथवा निकृष्ट उत्पाद को चलनबाह्यः कर देता है. उपर्युक्त उदाहरण में भी वे कामगार जो किसी कारणवश त्वरित उत्पादन करने में अक्षम हैं, स्पर्धा से बाहर चले जाते हैं. उनके समक्ष बेरोजगारी का संकट मंडराने लगता है. यानी स्पर्धा से कारखाना मालिक और उत्पादन कुशल कामगार को तो लाभ है. दोनों को अतिरिक्त आमदनी होती है. किंतु अपनी समग्रता में यह स्थिति शेष समाज के लिए नुकसानदेह सिद्ध होती है. देखा जाए तो उत्पादनकुशल कामगार भी हमेशा लाभ की स्थिति में नहीं रहता. काम को त्वरित स्तर पर निटपाने के लिए वह उत्पादन के कुछ ऐसे चरणों, अनुदेशों की उपेक्षा करता है, जिनका उत्पादन से सीधे स्तर प्रभावित नहीं करते, किंतु स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए उनका पालन अनिवार्य है. जाहिर है उत्पादनकुशल कामगार मानक स्तर से अधिक उत्पादन अपनी सेहत और सुरक्षा की कीमत पर ही कर पाता है. दूसरे उसे डर होता है कि कोई तीसरा व्यक्ति कभी भी उसको चुनौती दे सकता है; या अपनी अतिरिक्त कार्यक्षमता जिसके लिए अतिरिक्त कौशल की आवश्यकता है, को वह लंबे समय तक स्थिर नहीं रख पाएगा. इससे एक असुरक्षाबोध उसके दिलोदिमाग में समा जाता है. इस असुरक्षाबोध के कारण वह अपने आसपास के हर व्यक्ति पर संदेह करने लगता है. कदमकदम पर उसे भ्रांति होती है कि उसके पड़ोसी, रिश्तेदार सभी उसकी तरक्की से ईर्ष्या करते हैं. मौका पड़ते ही वे सुख को हड़पने जाने वाले हैं. अपनों के प्रति उसके अविश्वास और डांवाडोल मनःस्थिति का लाभ उठाने के लिए धर्माचार्य आगे आ जाते हैं. इस अवसर का लाभ वे दुनिया को मायाजाल, आदमी को स्वाभाविक रूप से छलीप्रपंची सिद्ध करने में लगा देते हैं. नतीजा यह होता है कि व्यक्ति समाज में रहकर भी वह स्वयं को पराया समझने लगता है. नियति नाम की अदृश्य छाया का पीछा करने लगता है. उसके परिणामस्वरूप समाज और व्यक्ति दोनों के लिए यह स्थिति अलाभकारी होती है. इस डर का लाभ उठाने में कारखाना मालिक भी पीछे नहीं रखता. मौका देखकर वह अपने लाभानुपात को बढ़ा देता है.

इसका यह निष्कर्ष नहीं है कि उत्पादकता को बढ़ाने की कोशिश ही बेकार है. ऐसे कामगार को जो चार घंटे के मानक कार्य को केवल तीन घंटे में पूरा कर देता है, हमेशा खलनायक की देखा जाना चाहिए! उसकी तत्परता और उत्पादनकौशल असम्मानेय है! आगे बढ़ते समाज की जरूरतें भी बढ़ती जाती हैं. समाज के सतत विकास हेतु उत्पादकतावृद्धि अपरिहार्य है. लेकिन उत्पादन वृद्धि श्रमिक की सेहत या उसके जीवन को दांव पर लगाकर हासिल नहीं की जानी चाहिए. इससे तात्कालिक लाभ भले हों, व्यापक परिप्रेक्ष्य में यह स्थिति व्यक्ति एवं समाज दोनों के लिए हानिकारक होती है. उत्पादनवृद्धि के लिए प्रौद्योगिकी में सुधार की कोशिश की जानी चाहिए. ऐसी प्रौद्योगिकी के विकास पर जोर देना चाहिए जो कामगार के शिल्पकौशल तथा श्रमसंस्कृति का सम्मान करती हो.जो कामगार चार घंटे के कार्य को तीन घंटे में पूरा करने में सक्षम है, उसकी कार्यशैली का अध्ययन कर सामान्य निष्कर्ष निकाले जाने चाहिए, ताकि बाकी मजदूरों को भी, उनके जीवन या सेहत पर विपरीत प्रभाव के बिना अपनाया जा सके.

अधिकतम उत्पादकता के सिद्धांत का समर्थन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का समर्थन करना नहीं है. इसका आशय श्रमसंस्कृति का सम्मान करने वाली ऐसी जनोन्मुखी उत्पादनशैली से है जो न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन के लक्ष्य को पूरा कर सके. इस संशोधन के साथ कि विनिर्मित उत्पाद समाज के अधिकतम लोगों के लिए कल्याणकारी हो तथा उसके उत्पादन का लाभ पूरे समाज तक पहुंचता हो. पूंजी आधारित अर्थव्यवस्थाओं में स्पर्धा और निजी लाभ का बोलबाला होता है. वहां उत्पाद और उत्पादन प्रणाली का चयन व्यक्ति और समाज की मूलभूत आवश्यकताओं के बजाय पूंजीपति के मुनाफे के आधार किया जाता है. अधिकतम लाभ और स्पर्धा की दौड़ में आगे निकलने के लिए वहां पूंजीपति उत्पादन के नए क्षेत्र तलाशने पर जोर देता है. भले ही वे व्यक्ति मूल आवश्यकता से परे हों. पूंजीवादी अर्थतंत्र बड़ी चतुराई से व्यक्ति की पहचान और प्रतिष्ठा को विलासितापूर्ण उत्पादों से जोड़ देता है. परिणामस्वरूप समाज में निरर्थक होड़ पैदा होती है और विकास के मायने ही बदल जाते हैं. वहां सभ्यताकरण का अभिप्राय मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा और अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख के बजाय ‘सर्वाधिक सक्षम को अधिकतम सुख’ तक सिमट जाता है.

सहविधान के अंतर्गत उत्पादन का आधार मुनाफा न होकर व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताएं होंगी. विकास के साथ आवश्यकताओं में वृद्धि संभव है—इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती. इसलिए सहविधान सम्मत राज्य में नागरिकों की बढ़ी हुई जरूरतों का भी ध्यान रखा जाएगा. इस शर्त के साथ कि उनका प्रयोग केवल प्रतिष्ठा, प्रदर्शन अथवा विलासिता तक सीमित न हो. वे मनुष्य और मानवीय गरिमा का सम्मान करती हों, समाज के अधिकांश लोगों की सीधी पहुंच में हों तथा उनका उत्पादन किसी व्यक्ति या समूह विशेष को लाभ पहुंचाने के बजाय कुल समाज के विकास को ध्यान में रखकर किया जाता हो. सहविधान सम्मत राज्य में व्यक्ति की अधिकतम उत्पादकता को बनाए रखने के लिए समाज ऐसे साधनों की खोज करेगा, जो उसको अतिरिक्त श्रम के लिए उत्पे्ररित करते हों. इसके लिए मुद्रा का योगदान कम से कम होगा. दरअसल पूंजीवादी अर्थतंत्र बहुसंख्यक समाज को छोटेछोटे हिस्सों में बांटकर उन्हें एकदूसरे से इस प्रकार अलग कर देता है कि वे स्वयं को एकदूसरे के प्रतिस्पर्धी मानने लगते हैं. इससे सहयोग, समर्पण एवं त्याग जैसे जीवनमूल्य जो किसी भी समाज में सुख, शांति, समृद्धि और सदाचार का मूलाधार होते हैं, वे पीछे छूटने लगते हैं. लोग अजाने ही एकदूसरे की जड़ें खोखली करने पर जुट जाते हैं. सहविधान की नींव स्वैच्छिक सहभागिता, सहयोग और सर्वकल्याण की पुनीत भावना पर टिकी होगी. इसलिए लोगों को अतिरिक्त श्रम के लिए प्रोत्साहित करने हेतु ऐसे उत्पादनतंत्र को अपनाया जाएगा जो व्यक्ति को मौद्रिक लाभ के स्थान पर सामाजिक लाभ को महत्त्व देना सिखाते हों. यह ध्यान रखते हुए कि समस्त सुख मनुष्य के लिए हैं. मनुष्य यदि उपभोक्ता वस्तुओं को ही सुख का पर्याय मान लेगा तो उन्हीं का दास बनकर रह जाएगा. वास्तविक सुख को भोग ही नहीं सकेगा. इस स्थिति में वह अपने ही बंधुबांधवों से ईष्र्या करने लगेगा, जो अंततः पूरे समाज के लिए चुनौती का सबब बनेगी.

विनिमय

समाज के विकास में वहां की विनिमय प्रणाली का भी बड़ा योगदान होता है. किसी राष्ट्र के पास खाद्य वस्तुओं का बफर स्टाक हो, दवाइयां हों, सुगम यातायात के भरपूर संसाधन और सुखी जीवन हेतु व्यापक इंतजाम हों, यदि वहां की वस्तुविनिमय प्रणाली अक्षम है, यदि समाज समय रहते जरूरतमंद व्यक्ति तक आवश्यक वस्तु पहुंचाने में नाकाम रहता है, तो उस राष्ट्र की तरक्की और विकास के कोई मायने नहीं हैं. पहले उत्पादन प्रणाली सरल थी. उतना ही सरल था वस्तु विनिमय. किसान को मिट्टी के बर्तन की जरूरत पड़ती तो वह कुम्हार से ले लेता था. औजारों की जरूरत पड़ती तो लुहार या बढ़ई की सेवाएं लेता था. लुहार, बढ़ई और कुम्हार अपनी अनाजसंबंधी जरूरतों के लिए किसान पर निर्भर थे. फसल आने के साथ ही अनाज की पूर्वनिर्धारित मात्रा उन्हें प्राप्त हो जाती थी. कालांतर में व्यापार बढ़ा तो नईनई वस्तुएं मनुष्य के उपयोग में जुड़ती गईं. उन सभी का स्थानीय उत्पादन संभव न था, न ही आपसी आदानप्रदान पर आधारित वस्तुविनिमय संभव था. विकल्प रूप में महंगी धातुओं, सोनेचांदी को विनिमय का आधार बनाया गया. कालांतर में मुद्राओं का चलन हुआ. आधुनिक सभ्यता में मुद्रा ही विनिमय का सीधा, सरल और सबसे कारगर उपाय है. इससे विनिमय न केवल आसान और तात्कालिक हो जाता है, बल्कि उसके माध्यम से वस्तु का सटीक मूल्यांकन भी संभव है, जो दूसरी विनिमय प्रणालियों में कदाचित बेहद असहज और कठिन है. इसलिए मुद्राआधारित विनिमय प्रणाली का चलन इन दिनों पूरी दुनिया में है. विभिन्न देशों के बीच करार आधारित विनिमय का भी चलन है, जिसमें वस्तुओं का मूल्यांकन मुद्रा अथवा महंगी धातुओं के रूप में होता है. सभी देशों की अपनीअपनी मुद्राएं हैं. उनका मूल्यांकन आपसी सहमति के आधार पर तय होता है, जिसमें संबंधित देश की अर्थव्यवस्था भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है.

मुद्राआधारित विनिमय ने बाजार को विकास की नई जमीन दी है. वह हमारे अभ्यास का अभिन्न हिस्सा बन चुका है. मुद्राआधारित विनिमय के हम इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि बिना उसके जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकते. परिणामस्वरूप उससे होने वाले नुकसान की ओर हमारा कभी ध्यान ही नहीं जाता. अंतरराष्ट्रीय व्यापार और जटिल व्यापारिक कार्यकलापों की तो उसके अभाव में कल्पना भी संभव नहीं लगती. पूंजीवादी तंत्र के इशारे पर काम करने वाले, उसके द्वारा उपकृत उद्योगपति, अधिकारी, अर्थशास्त्री, राजनेता मौद्रिक विनिमिय के विकल्पों पर विचार तक नहीं करते. यही नहीं यदि कोई व्यक्ति, संस्था उस दिशा में काम करना चाहे, नई शुरुआत करे तो उसको पुराना, समयबाह्यः आदि कहकर अपमानित करने की कोशिश की जाती है.

इसमें कोई संदेह नहीं कि संचारक्रांति के दौर में जब विश्वग्राम की संकल्पना साकार होने लगी है, मौद्रिक विनिमय प्रणाली की सहजता एवं उपयोगिता लगभग विकल्पहीन है. हालांकि यह प्रणाली सर्वथा निरापद नहीं है. इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है कि इससे संबंधों में निरर्थक किस्म की व्यावसायिकता जन्म लेने लगती है. आदमी एकएक पाई का हिसाब रखने में अपना कौशल समझने लगता है. ‘हिसाब तो बापबेटे का’ जैसा मुहावरा इसी असामान्य किस्म की व्यावसायिकता के चलते बना है. इसके चलते सहज मानवीय संबंध और सामान्य नैतिकताएं भी मौद्रिक व्यवहार का रूप ले लेती हैं. मनुष्य हर कार्य का आकलन मौद्रिक लाभ की दृष्टि से करने लगता है. यह व्यावसायिकरण का जीवन में अवांछित हस्तक्षेप है. आदर्श अवस्था तो यह होगी कि आदमी की रोजमर्रा की जरूरत में काम आने वाली वस्तुएं, सामान्य सेवाएं आदि बगैर किसी मौद्रिक व्यवहार के प्राप्त हो. विनिमय प्रणाली के अंतर्गत वस्तुओं के आदानप्रदान में लगने वाले श्रम को श्रमघंटों में बांटा दिया जाए. किसी सेवा या वस्तु का विनिमय उसके निर्माण में लगे औसत कार्यघंटों के भुगतान के साथ किया जाता सकता है.

तदनुसार सहविधान में सदस्य इकाइयां इस बात के लिए सहमत और सदैव तत्पर होंगी की समुदाय के भीतर, जहां तक संभव हो मुद्रा आधारित विनिमय को नियंत्रित किया जाए. समूह के भीतर रोजमर्रा के व्यवहार हेतु ऐसे विकल्प आजमाए जाएं जिनमें मुद्रा का प्रयोग न्यूनतम हो. विशेषकर सेवाआधारित उद्यमों में. प्रायः हर समूह के भीतर बिजली मिस्त्री, लौहार, बढ़ई, नाई, प्लंबर, कंप्यूटर मैकेनिक, हलवाई आदि विभिन्न पेशे वाले लोग एक साथ रहते हैं. वे एकदूसरे से सेवाओं का आदानप्रदान करते हैं. सेवाओं के भुगतान हेतु मुद्रा का प्रयोग किया जाता है. यह एक विडंबना ही कही जाएगी कि एक ही समाज में, एक साथ रहते हुए जब उन्हें एकदूसरे की आवश्यकता पड़ती है, तो मंजे हुए व्यवसायी की भांति संपर्क में आते हैं. धर्म, जाति, आसपड़ोस, भाईचार कुछ काम नहीं आता. ऐसी अनावश्यक व्यावसायिकता, जिससे जीवन में पूंजी को अनावश्यक महत्त्व मिलता हो, बचा जा सकता है. यह चलन न तो समाज की एकता और अखंडता के हित है न ही मानवीय मूल्यों के. समाजीकरण के हित में इससे दूर रहना ही श्रेयस्कर है.

सहविधान में मुद्राआधारित विनिमय को नियंत्रित करने के लिए लोगों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा कि वे सेवाओं का आदानप्रदान आपसी सहयोग और समझौते के आधार पर करें. मुद्रा के प्रयोग को न्यूनतम बनाए रखने के लिए श्रम मुद्रा के चलन को बढ़ावा दिया जाएगा. इसके लिए आवश्यक वस्तुओं एवं सेवाओं में लगने वाले श्रम की गणना कर, उसका श्रमघंटों के आधार पर मूल्यांकन किया जाएगा. उदाहरण के लिए यदि विद्युत चलित ब्लेंडर की मरम्मत करने में दो घंटे लगते हैं, तो उसका श्रम मूल्यांकन दो श्रमघंटे होगा. ऐसे ही यदि नापित द्वारा किसी व्यक्ति की हजामत बनाने में आधा घंटा लगता है तो उसकी सेवा का मूल्य आधी श्रममुद्रा माना जाएगा. अब यदि किसी नापित को ब्लेंडर की मदद के लिए इलेक्ट्रीशियन की आवश्यकता है तो उसके मरम्मत के बाद इलेक्ट्रशियन की दो श्रममुद्राएं उसकी ओर उधार हो जाएंगी. जिन्हें वह अपने चार बार सेवाविनिमय द्वारा वापस कर सकता है. यदि किन्हीं कारणवश इलेक्ट्रीशियन नाई से उसकी सेवाओं से निपटान नहीं करना चाहता तो उस व्यक्ति के दो श्रममुद्रा के बदले नाई किसी तीसरे व्यक्ति से श्रममुद्रा विनिमय के आधार पर सेवाओं का समायोजन कर सकता है, और तीसरा किसी चौथे व्यक्ति के साथ. चूंकि यह व्यवस्था मान्य नियमों के तहत होगी और समाज को बीच में लाने की जरूरत ही न पड़ेगी, न ही औपचारिक मुद्रा की आवश्यकता होगी. यहां एक समस्या खड़ी हो सकती है. जो लोग सेवा उद्योग के दायरे के बाहर हैं, वे इस व्यवस्था में कैसे हिस्सा लेंगे. सो इसमें कोई मुश्किल नहीं है. थोड़े से प्रयास से उन्हें भी इसमें सम्मिलित किया जा सकता है. पढ़ेलिखे व्यक्ति सामाजिक सेवाओं को प्राप्त करने के लिए आवश्यक कार्यघंटे ट्यूशन या लिखापढ़ी के दूसरे कार्यों के जरिये जमा कर सकते हैं.

उल्लेखनीय है कि पूंजीवादी अर्थतंत्र में वस्तुओं का मूल्यांकन प्रचलित मुद्रा के माध्यम से किया जाता है. जो अपेक्षाकृत आसान है और यह मानने में भी कोई गुरेज नहीं है कि व्यक्ति ने लंबे अंतराल में उसको विकसित किया है. लेकिन उसकी कमी है कि इससे प्रत्येक वस्तुओं के खरीदयोग्य होने का भ्रम पैदा होता है. कई बार यह भ्रम जानबूझकर पैदा किया जाता है. सेवाओं के विनिमय या स्वैच्छिक आदानप्रदान की व्यवस्था एक बार लोगों को भा जाए तो उसके बाद इसका प्रयोग एकदम सहज लगने लगेगा. श्रमघंटों का हिसाबकिताब रखने के लिए स्थानीय सामाजिक इकाइयां रजिस्टर रख सकती हैं. या कोई और सर्वस्वीकार्य प्रणाली आविष्कृत कर सकती हैं. इस बात की भी काफी संभावना है कि यह प्रणाली आरंभ में बहुत दुष्कर नजर आए. कार्य का श्रममुद्रा में विभाजन अनुचित और अव्यावहारिक लगने पड़े. मगर जो इससे सहमत हैं, जो इससे होने वाले सामाजिक लाभों की कल्पना कर सकते हैं, वे व्यापक लोकहित में इसे सफलतापूर्वक लागू करने की यथासंभव कोशिश करेंगे.

सहविधान पर आधारित राज्य में नागरिक इसपर सहमत होंगे कि वे एक ऐसी सामाजिक इकाई के सदस्य हैं, जिनके सुखदुख, हानिलाभ, जीवनमरण सब साझे हैं. उसकी सफलता के लिए आदर्श स्थिति तो यह होगी कि उसके नागरिकों में नकारात्मक स्पर्धा बिलकुल भी न हो. सकारात्मक स्पर्धा भी केवल सामूहिक कल्याण की भावना के साथ अनुमन्य होगी. यानी विकास की होड़ में एक समूह दूसरे समूह से होड़ करे तो चलेगा, किंतु उनका ध्येय अपनी सदस्य इकाइयों तथा प्रकारांतर में पूरे समाज का कल्याण होना चाहिए. उम्मीद करनी चाहिए कि श्रममुद्राओं के आधार पर सेवाओं के विनिमय की प्रणाली समाज से अनावश्यक स्पर्धा को बाहर करने, व्यावहारिक नैतिकता को बनाए रखने में सहायक होगी. एक बार अपनाने के बाद आदमी धीरेधीरे इस व्यवस्था का अभ्यस्त होता जाएगा.

इस बात की भी संभावना है कि जटिल उत्पादन पद्धतियों के बीच श्रमविनिमय की प्रणाली काम ही न आए. ऐसी जगह इसपर जोर देना आवश्यक भी नहीं है. वहां आवश्यकतानुसार मुद्रा का प्रयोग जारी रखा जा सकता है. यह ध्यान में रखते हुए कि इसमें समाज का हित सन्निहित है, और यह भी कि मुद्रा का उपयोग उत्पादन, विपणन को आसान एवं उसकी उत्पादक को बनाए रखने के लिए है, न कि इसलिए कि उससे लाभ का अंतरण कुछ खास वर्गों की ओर ले जाने के लिए. ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए जिससे समाज में आर्थिक स्तरीकरण फैले. इसे रोकने के लिए ऐसी मुद्रानीति अपनाई जानी चाहिए जिसका केवल सार्वजनिक व्यवहार संभव हो. व्यक्तिगत व्यवहार में मुद्रा के उपयोग को वहीं तक बढ़ावा दिया जाना चाहिए जहां तक उससे सार्वजनिक हित जुड़े हों. इससे पूंजी के एक जगह जमा होने की संभावनाएं कम होंगी. समाज में पूंजी का प्रवाह बढ़ेगा तो उसके लाभ उसके सभी वर्गों तक पहुंच सकेंगे.

यह भी आवश्यक नहीं है कि मनुष्य की आवश्यकता की सभी वस्तुएं उसको सेवाओं के आदानप्रदान के तहत मिल सकें. यदि कोई व्यक्ति सेवाओं के आदानप्रदान के दायरे के बाहर की कोई वस्तु प्राप्त करना चाहता है, तो क्या उसको प्राप्त करने की छूट होगी? इसका उत्तर ‘हां’ में है. अपने सुख को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति स्वतंत्र होगा. मगर उस अवस्था में उसका निर्णय नैतिकतासम्मत एवं विवेकपूर्ण होना चाहिए. उसको जानना चाहिए कि ऐच्छिक सुख की प्राप्ति के लिए आवश्यक वस्तु प्राप्त करने का अधिकार उसको समाज की ओर से दिया जा चुका है. इसलिए कि सुख उसका जैविक अधिकार है. चूंकि वह सामाजिक प्राणी भी है, इसलिए सुख का सामाजिक अधिकार बनना भी जरूरती है. कोई सुख उसका नैतिकसामाजिक अधिकार बन सके, इसके लिए उसको ‘सुख की सार्वजनिकता’ के सिद्धांत पर विचार करना होगा. वस्तुतः यही वह बात है जो सहविधान को दूसरे अर्थदर्शनों से भिन्न डगर पर लाकर खड़ा करती है. अपने सुख का प्रबंध करने से पहले प्रत्येक नागरिक से यह अपेक्षा होगी कि वह सोचे कि जिस सुख को अपने लिए प्राप्त करना चाहता है, क्या वह दूसरों को भी, विशेषकर उसके आसपास के लोगों की भी पहुंच में है? यदि है तो उस सुख के लिए प्रयास करते समय समाज में कोई विक्षोभ तो नहीं होगा? सीधासा डिमांड और सप्लाई का नियम है. यदि मांग है और समाज के बहुसंख्यक वर्ग में मांग को पूरा करने का सामर्थ्य भी है तो व्यक्ति निःसंकोच उस सुख को प्राप्त करने के लिए अधिकृत होगा.

समस्या उस समय हो सकती है कि व्यक्ति जिस वस्तु में अपना सुख देखता है, वह उसके समाज के अधिकांश की पहुंच से बाहर हो. ऐसे माहौल में किसी अकेले व्यक्ति को वह सुख का उपलब्ध कराने का अभिप्राय है, बाकी को उससे वंचित कर देना. इससे समाज में अविश्वास और अशांति फैलेगी. तो क्या व्यक्ति को ऐसे सुख की कामना छोड़ देनी चाहिए? उस अवस्था में व्यक्तिस्वातंत्रय के लक्ष्य का क्या होगा? राज्य जो स्वयं को बड़ी संस्था मानता है, क्या यह उसकी क्षमताओं पर सवाल नहीं होगा कि वह अपने किसी नागरिक की इच्छाओं का सम्मान करने में अक्षम है. यहां हमारा सुझाव यह है कि इच्छाओं के द्वंद्व के मसले सामूहिक स्तर पर मिलबैठकर सुलझाने चाहिए. व्यक्ति को सोचना होगा कि समाज कोई बाहरी व्यवस्था नहीं है. बल्कि उसका अपना परिवार है. उसके सीमित परिवार की अपेक्षा बड़ा परिवार. परिवार में जैसे सभी मिलजुलकर भोग करते हैं, वैसे ही समाज में भी होना चाहिए. उसे समझना चाहिए कि जो वस्तु अधिकांश नागरिकों को अनुपलब्ध है, उसे प्राप्त करने का दुराग्रह समाज को विघटन के कगार पर ले जाएगा. वहीं समाज का भी दायित्व होगा कि वह अतिरिक्त इच्छाएं रखने वाले नागरिकों के साथ उदारता से पेश आए. यदि ऐच्छिक वस्तु समाज के बाकी लोगों के लिए भी उपयोगी है अथवा उनकी पसंद में शामिल है तो मिलबैठकर विचार करे, उन उपायों पर अमल भी करे जिससे उस वस्तु को समूह के अधिकतम सदस्यों के लिए कैसे उपलब्ध कराया जा सकता है, ताकि सदस्यों के सुख में वृद्धि हो सके. मंतव्य पूरी तरह स्पष्ट है, समाज को अपनी सदस्य इकाइयों की पसंदों का आकलन करते समय जिम्मेदार अभिभावक की भूमिका में नजर आए.

समाज द्वारा अपने प्रत्येक नागरिक के साथ समभावी द्रष्टिकोण तभी संभव है जब संबंध सामान्य नैतिकता द्वारा मर्यादित हों. अर्थव्यवस्था का परिचालन व्यावसायिकता के आधार पर न होकर समानता और सहयोग के आधार पर हो. यह उस पूंजीवादी दृष्टि इससे अलग है, जो मानती है कि समाज में सभी एकसमान नहीं होते. लोगों की रुचियां, कार्यक्षमता, बौद्धिक सामर्थ्य, चीजों को परखने की दृष्टि, उत्पादनकौशल तथा आवश्यकताएं अनेकस्तरीय एवं भिन्नभिन्न होती हैं. उसके अनुसार, ‘जो ज्यादा करता है, उसे अधिक लाभ पाने का अधिकार है.’ इस सिद्धांत के आधार पर पूंजीवादी तंत्र मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं का भी स्तरीकरण कर देती है. जिससे आर्थिक मोर्चे पर कमजोर पड़े व्यक्तियों को उनकी दैनिक जरूरत की वस्तुएं भी पूरी तरह नहीं मिल पातीं. यह प्रवृत्ति विशेषज्ञ संस्कृति और एकाधिकार को बढ़ावा देती है. यही कारण है कि वहां बौद्धिक श्रम करने वाला शारीरिक श्रम करने वाले से अधिक कमा लेता है. अभिजन मानसिकता, फिर चाहे पूंजीवादी हो या धार्मिक—इसे अपना अधिकार मानती है. यह जानते हुए भी कि धन का असमान वितरण बहुसंख्यक निर्धन लोगों से उनके विकास की आजादी छीन लेता है. ऐसे में उनकी स्वतंत्रता दिखावटी बनकर रह जाती है, बाबा भृर्तहरि लिखते हैं—

जिसके पास धन है, वही उच्चकुलोद्भव और वही ज्ञाता पंडित है. वही सर्वशास्त्र प्रवीण है, वही दूसरों के गुणों का आकलन करने की योग्यता रखता है. वही प्रभावी वक्ता है. उसी का व्यक्तित्व दर्शनीय है. इसलिए कि सभी गुण धन के प्रतीक कांचन अर्थात सोने पर निर्भर हैं. धन है तो वे गुण हैं, अन्यथा वे भी नहीं हैं.’2

धन और पारिवारिक हैसियत के आधार पर व्यक्ति के चरित्र का आकलन, अमानवीय एवं प्रकृति विरुद्ध है. कुछ ऐसा ही है जैसे पहले तो किसी से समानतापूर्वक जीवन जीने के अधिकार छीन लिए लो, उसका तरहतरह से उत्पीड़न करो, मारो, पीटो, प्रताड़ित करो. फिर यदि कोई दुर्बल तन, विगलित मन व्यक्ति हृष्टपुष्ट, भरे पेट वालों से स्पर्धा में पिछड़ जाता है तो उसे धिक्कारो. उसे नाकारा, कामचोर और निकम्मा घोषित कर सम्मानपूर्वक जीवन जीने के सारे अधिकार भी छीन लो. देश का अभिजन सर्वजन समाज के साथ अर्से से यही स्वार्थक्रीड़ा करता आया है. पहले तो उसको शताब्दियों तक शिक्षा और विकास से दूर रखा. जाति, परंपरा, कुल, गोत्र, धर्म, क्षेत्र, रीतिरिवाज आदि के नाम पर भेदभाव का शिकार बनाया गया. निरंतर उपेक्षा और उत्पीड़न से जब वह पिछड़ गया तो समाज के सारे नियमकानून अभिजन समूह ने अपने स्वार्थ के अनुसार ढाल लिए. समस्या का एकमात्र निदान है, हितों का सामान्यीकरण और लक्ष्य की एकता. अभिजन वर्ग की कामयाबी का मूल है कि वह सर्वजन को छोटेछोटे खानों में बांटकर उसकी शक्ति को बिखेर देता है. फिर अल्पमत में होकर भी अपने से कई गुने बड़े सर्वजन पर राज्य करता है. अपने बुद्धिचातुर्य से समस्त संसाधनों का स्वामी बन जाता है और सर्वजन को जो वास्तविक उत्पादक और कार्यकर्ता है, मूलभूत अधिकारों से भी वंचित कर देता है. केवल अपना हित, अपना ही कल्याण, अपना ही सुख देखना पशुता का लक्षण है. संगठित सर्वजन अपने नैतिक बल द्वारा आसानी से उसे अपदस्थ कर सकता है.

क्रमशः…..

© ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भ:

1. मज्जेत्रयी दण्डनीतौ हतायां सर्वे धर्मा प्रक्षयेयुर्विवृद्धाः

सर्वे धर्माश्चाश्रमाणां हताः सयुः क्षात्रो त्यक्ते राजधर्मे पुराणे

सर्वे त्यागा राजधर्मेषु दृष्टा सर्वा दीक्षा राजधर्मेषु युक्ताः

सर्वा विद्या राजधर्मेषु चोक्ताः सर्वे लोका राजधर्मे प्रविष्टाः महाभारत, शांतिपर्व, 68/27-29

2. ‘म्स्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पंडितः स श्रुतवान् गुणज्ञः.

स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणा कांचनमाश्रयंति.’ भृत्रहरि नीतिशतक.