धर्म और अभिजन संस्कृति—9
‘न्याय की मूल भावना मनुष्यता के साथ प्रेम–संबंधों का नैरंतर्य है.’1
— जॉन रॉल्स
न्याय बड़ा खूबसूरत शब्द है. साथ में सम्मानित भी. इसीलिए आम आदमी उसकी ओर उम्मीद–भरी निगाह से देखता है. उसका कृपापात्र बनने की कामना करता है. लेकिन ऐंठ में डूबा हुआ न्याय उसकी ओर से मुंह फेरे रहता है. यह उसका सांस्कृतिक दर्प है. ‘न्याय’ को हम शब्दों का ‘अभिजन’ भी कह सकते हैं. कारण, बात जैसे–जैसे आगे बढ़ेगी, आप स्वयं समझते जाएंगे. न्याय की आधारशिला इस विश्वास पर टिकी होती है कि मनुष्यों में अच्छे भी हैं और बुरे भी. सभी समाज में साथ–साथ रहते हैं. यह बात भी किसी से छिपी नहीं कि अच्छाई और बुराई सापेक्षिक स्थितियां हैं. ‘क’ के लिए जो अच्छा है, वह ‘ख’ के संदर्भ में बुरा हो सकता है. कह सकते हैं कि न्याय संभाव्यता के सिद्धांत के आधार पर काम करता है. यानी जो साधारणतः अच्छा और तर्कसम्मत है, वही न्यायसम्मत भी है—ऐसा मान लिया जाता है. इसमें चूक होने की पर्याप्त संभावना होती है. न्यायिक एवं तर्कसम्मत के आकलन का पैमाना न्याय का अपना होता है. इसे प्रायः वे लोग बनाते हैं, जो न्याय का मनमाना उपयोग करने में पारंगत होते हैं. समर्थन के लिए स्याह को सफेद और सफेद को स्याह सिद्ध करना बाखूबी जानते हैं. इसके लिए विशेषज्ञों की पूरी टीम उनके साथ होती है. उनकी भाषा और कार्यशैली आम आदमी की समझ से सर्वथा परे होती है. जरूरत पड़ने पर त्राण की उम्मीद में उसे अंततः उन्हीं लोगों की शरण में जाना पड़ता है, जो न्याय के बारे में उसके अल्पज्ञान का लाभ उठाने के लिए अपनी गिद्ध–दृष्टि उसपर जमाए होते हैं. वे न केवल उसकी अज्ञानता का लाभ उठाते हैं, बल्कि येन–केन–प्रकारेण यह विश्वास भी उसके दिलो–दिमाग में बसा देते हैं कि संसार में केवल वही उसके सबसे बड़े शुभेच्छु एवं हितचिंतक हैं. उनके बौद्धिक वर्चस्व को स्वीकार कर चुका व्यक्ति उनपर आसानी से विश्वास कर लेता है. यह प्रवृत्ति उसे देर–सवेर समझौतावादी प्रगति–विरोधी बना देती है.
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार व्यक्ति में नकारात्मक और सकारात्मक दोनों प्रकार की प्रवृत्तियां मौजूद रहती हैं. समाज में शांति और व्यवस्था के लिए आवश्यक है नकारात्मक प्रवृत्तियों का शमन तथा सकारात्मक वृत्तियों की अभिरक्षा एवं प्रोत्साहन. ‘परित्राणाय साधूनाम—विनाशाय च दुष्कृताम्’—महाभारत में अपने आगमन का औचित्य सिद्ध करने के लिए कृष्ण ने यही कहा है. इसको अन्यथा भी नहीं कहा जा सकता. ‘सज्जनों का कल्याण तथा दुर्जनों का विनाश’—यह किसी भी न्याय–व्यवस्था का आदर्श हो सकता है, किंतु धर्मानुप्रेत परंपरागत न्याय प्रणाली यहीं तक सीमित नहीं रहती. इसके पीछे उसकी कुछ दूसरी ही मंशा होती है. धर्मानुग्राही न्याय–प्रणाली का सहारा लेकर इस देश का अभिजन सहस्राब्दियों समाज के शीर्ष पर विराजमान रहा है. महाभारत में वह कृष्ण के बहाने धर्म को बीच में ले आता है—‘यदा–यदा हि धर्मस्य ग्लार्निभवति भारतः…’ आम आदमी हालांकि खुद को धार्मिक मानता है. हर चीज को वह आस्था के नजरिये से देखता है, किंतु धर्म और न्याय की युति को समझ पाना उसके सामान्य बुद्धि–विवेक से बाहर होता है. आस्था की आंच पर रोटियां सेंकने वाली धार्मिक शक्तियां जनविवेकीकरण के लिए कोई प्रयास भी नहीं करतीं. उनकी स्वार्थ–केंद्रित दृष्टि स्थितियों की मनमानी व्याख्या में जुटी होती है. धर्म आमजन के भावुक, भक्ति–आकुल मन को देखने–सुनने में खूबसूरत लगता है. उसपर वह आंख मूंदकर भरोसा भी कर लेता है. नतीजन न्याय सीधी–सादी लीक से उतरकर, आम आदमी की पहुंच से बाहर निकल जाता है. धर्म के सामंती परिवेश में रंगा न्याय बनावटी एवं ऊपर से थोपा हुआ प्रतीत होता है. धार्मिक अभिजन इसकी कतई परवाह नहीं करता. वह आम आदमी के दुख–संत्रास, घुटन और अभावों को उसकी नियति बताकर अपना उल्लू सीधा करने में लगा रहता है. महाभारत की व्याख्या कि कृष्ण न्याय के पक्ष में है, इसी से निकली है.
कुछ सीधे आपराधिक मामलों को छोड़ दें तो न्याय और अन्याय की पहचान का मामला बड़ा जटिल है. कई बार तो उलझन खड़ी हो जाती है. जो बात किसी खास संदर्भ में न्याय लगती है, संदर्भ बदलते ही वह अन्याय प्रतीत होने लगती है. ऊहापोह के दौरान शीर्षस्थ शक्तियां चतुराईपूर्वक अपने स्वार्थ को बीच में ले आती हैं. महाभारत में कृष्ण का पक्ष कहीं न कहीं राजसत्ता का पक्ष भी है, जिसमें विजेता का समर्थन करने के लिए अनुकूल तर्क अपने आप गढ़ लिए जाते हैं. वहां कृष्ण ही दंड–पाशक हैं, वे ही न्यायाधीश. महाभारतकार को भी कृष्ण का पक्ष न्याय का पक्ष लगता है. बाकी कथापात्र तो उसकी कलम की कठपुतलियां हैं. कृष्ण के किसी निर्णय पर उंगली न उठे इसलिए उन्हें ‘भगवान’ की तरह पेश किया जाता है. दुर्योधन इसलिए दुश्मन क्योंकि वह कृष्ण के रिश्तेदार पांडवों को उनका हिस्सा देने से इन्कार कर देता है. कुपित कृष्ण युद्ध को अपरिहार्य मान लेते हैं. अंततः अठारह अक्षौहिणी सेनाएं कुरुक्षेत्र के मैदान में उतरती हैं और ‘भगवान’ के देखते ही देखते सब मटियामेट हो जाती हैं. राजशाही के अनुसार के पांडवों का हस्तिनापुर की संपत्ति में वैध हिस्सा था. किंतु उसी कानून के अनुसार राज्य का एक हिस्सेदार तो दुर्योधन भी था. ठीक है, दंभी दुर्योधन(महाभारतकार ने ऐसा ही चित्रित किया है) पांडवों को पांच गांव तक देने के लिए तैयार नहीं था. उसका निर्णय अन्यायपूर्ण था. युद्ध में जीत के बहाने दुर्योधन के संपत्ति–अधिकार का हनन क्या कम अन्यायपूर्ण था! पांडवों से परास्त हो जाने के बाद भी हस्तिनापुर के राज्य में दुर्योधन की हिस्सेदारी समाप्त नहीं हो जाती. राजसत्ता यहां मनमाने तर्क के सहारे खड़ी नजर आती है. उसके न्यायतंत्र में युद्ध हारने के बाद व्यक्ति को न केवल संपत्ति, बल्कि जीवन के अधिकार से भी वंचित किया जा सकता था. महाभारतकार व्यास कृष्ण से वही निर्णय लिवाते हैं, जो तत्कालीन धर्म–व्यवस्था चाहती थी. कृष्ण यदि सामान्य से हटकर निर्णय लेते, दुर्योधन को युद्ध में परास्त करने के बाद उसका हिस्सा दिलवाने को तैयार हो जाते, तब वह वास्तविक और नैतिक न्याय कहा जाता. परास्त दुर्याेधन के आगे उसे स्वीकारने के अलावा दूसरा रास्ता भी नहीं होता. तब वे महावीर और गौतम बुद्ध की श्रेणी के उदामना दार्शनिक गिने जाते. भगवान शायद ही बन पाते. महाभारतकार के कथानायक कृष्ण कौरवों को पराजित करने के लिए पांडवों का साथ निभाते हैं. आर्य संस्कृति को खतरा न हो, इसलिए वन्य संस्कृति के रक्षक महावीर एकलव्य का वध करवा देते है. वीर एकलव्य गुरु से छला जाता है और ‘भगवान से भी.
उस न्याय प्रणाली की खूबी थी कि उसके सारे तर्क विजेता के द्रष्टिकोण से गढ़े जाते थे. उन्हीं के आधार पर उसकी समीक्षा होती है. ‘यतो कृष्ण ततो जय’—कृष्ण का पथ न्याय का पथ है. धर्म की शरण में न्याय की खोज करने वालों द्वारा आज भी यह बढ़–चढ़कर प्रचारित किया जाता है. राम के लिए रावण और शंबूक में कोई अंतर नहीं है. एक से उन्हें राजनीतिक चुनौती मिलती है, दूसरे से सांस्कृतिक. वे दोनों ही को मृत्युदंड देते हैं. केवल शक्तिशाली को शासन करने का अधिकार है. शक्तिहीन की स्वतंत्रता शक्तिसंपन्न की दया पर निर्भर है—इस तर्क को कभी धर्म तो कभी सत्ता के बल के सिद्धांत के आधार पर समझाया जाता है. लोकतंत्र के दौर में भी लोग कहते फिरते हैं कि राज्य इकबाल से चलता है, जो राजा ढीला–ढाला हो, उसके राज्य सबकुछ अस्त–व्यस्त रहता है. इकबाल बुलंद हो तो चोर, डाकू, लुटेरे मुंह छिपाए रहते हैं. ऐसा सोचने वालों की दृष्टि में जनता का अपना विवेक, आत्मानुशासन, मेल–मिलाप और भाईचारा कुछ भी नहीं है. एक प्रकार से यह भी शक्तिशाली के न्याय को समाज पर थोप देने की चाल है. यह सोच फासीवादी कहलाता है. दो–टूक अंदाज में कहा जाए तो जंगल का न्याय. इस कारण उदारमना चिंतक उसकी आलोचना भी करते हैं. मगर उस न्याय–प्रणाली का मानना था पृथ्वी पर मौजूद सुख–संपदा समाज के खास वर्गों के लिए है. आमजन की नियति खास वर्ग में आने वाले लोगों की दासता और उच्छिष्ट पर जीवनयापन करना है. मानव–निर्मित असमानता और ऊंच–नीच को नियति की तरह थोपने वाली उस व्यवस्था में पहला हस्तक्षेप भारत में गौतम बुद्ध और पश्चिम में सुकरात के आगमन के बाद होता है. करीब–करीब उन्हीं दिनों चीन में कन्फ्यूशियस की दस्तक सुनाई पड़ती है. उन्हें न जो सत्ता का भय था, न ही लालच. तीनों दार्शनिक ‘शुभ’ और ‘सदगुण’ पर जोर देते हैं. संभवतः पहली बार जीवन और समाज में नैतिकता की मांग उठती है.
आजकल दुनिया के अनेक देशों में लोकतंत्र है. अपनी मूल प्रवृत्ति में वह समानता और समानाधिकार की बात करता है. इसके बावजूद राज्य की न्याय–संबंधी अवधारणा में खास बदलाव नहीं आया है. सैद्धांतिक व्यवस्थाएं चाहे जो हों, किंतु व्यवहार में आज भी न्याय के नाम पर वही सहस्राब्दियों पुराना हंटर फटकारा जाता है. यदि कोई राज्य से टकराने की कोशिश करे तो राज्य उसे सुरक्षा–व्यवस्था के लिए खतरा मानकर मृत्युदंड भी दे सकता है. हालांकि राज्य अभी तक किसी को भी जीवन देने में सक्षम नहीं है. इस तरह कुपित राज्य व्यक्ति से वह हड़प सकता है, जिसे देना उसके सामथ्र्य से परे है. उस समय राज्य यह भुला देता है कि व्यक्ति को गढ़ने में, चाहे वह अच्छा है या बुरा, उसका और समाज का योगदान कम नहीं होता. जन्म के समय तो हर बालक मासूम, सरलमना, निर्दोष और निस्वार्थ होता है. अनुभव के नाम पर कोरी सलेट. उसकी आवश्यकताएं प्राकृतिक होती हैं. दूध का कटोरा मिट्टी का है या सोने का, इससे उसपर कोई फर्क नहीं पड़ता. बड़ा होते–होते वह यथार्थ से परिचित होता है. इस दौरान जो व्यक्तित्व वह प्राप्त करता है, उसके निर्माण में समाज का भी पूरा–पूरा योगदान होता है. इस बीच वह सामाजिक विसंगतियों से दो–चार होता है. यदि वह बिगड़ता है तो उसे बिगाड़ने की नैतिक जिम्मेदारी से, चाहे पूरी हो या आंशिक, राज्य को अलग नहीं किया जा सकता. किंतु राज्य न्याय करते समय व्यक्ति को पूरी तरह अकेला छोड़ देता है. उस समय समाज शक्तिशाली के न्याय के सिद्धांत का ही अनुसरण कर रहा होता है. वह भूल जाता है कि बड़ी ताकत बड़ी जिम्मेदारी भी लाती है. समाज बड़ी इकाई है. इसलिए उसकी जिम्मेदारी भी अधिक है. समाज भले ही अल्पसंख्यक अभिजन के दिशा–निर्देश के अनुसार चलता हो, मगर अल्पसंख्यक अभिजनों को भी अपनी ताकत, कार्यकारी ऊर्जा एवं प्रतिष्ठा समाज की ओर से ही प्राप्त होती हैं. अपनी प्रभुता को बनाए रखने के लिए समाज का अल्पसंख्यक अभिजन अपने बहुत से निर्णय बहुसंख्यक सर्वजन को अंधेरे में रखकर लेता है. इस कारण न्याय के ऊपर पर्दा पड़ा रहता है. जाॅन राॅल्स ने ठीक ही कहा है—
‘न्याय की सैद्धांतिकी लापरवाही के पर्दे के पीछे गढ़ी जाती है.’2
आप कहेंगे कि राज्य या समाज का न्याय सभी के लिए बराबर होता है. सर्वकल्याण के प्रति उनकी निष्ठा असंद्धिग्ध होती है. दो सगे भाइयों में से यदि एक साधु बनता है, दूसरा शैतान निकल आता है तो माता–पिता का क्या दोष! दोष तो उस शैतान का है जिसने साधु बनने का अवसर गंवाकर शैतानी की राह पकड़ी. प्रत्येक मनुष्य स्वतंत्र मस्तिष्क का स्वामी होता है. स्थितियों के चयन की उसको छूट होती है. लोकहित में उचित यही है कि वह ऐसे रास्तों का चयन करे, जिससे समाज में दूसरों को नुकसान न हो. प्रथम दृष्टया यह तर्क उचित ही लगता है. आखिर समाज एक दिन में तो बना नहीं है. उसके पीछे हजारों वर्षों का परिश्रम, मानवीय संकल्प, सद्भाव तथा विद्वानों की सदेच्छाएं रही हैं. ऐसे में समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरूरी है कि ऐसे व्यक्ति को दंडित किया जाए जो उसके लिए खतरा बन चुका है. सवाल है कि व्यक्ति क्या इतना ही स्वतंत्र होता है, जितना समाज में उसके न्यायिक हस्तक्षेप के लिए जरूरी है. इसका उत्तर नकारात्मक ही होगा. भारत जैसे परंपरागत समाजों में व्यक्ति की निर्णय क्षमता धर्म, जाति, परंपरा आदि से निर्धारित होती है. इसके अलावा आर्थिक विषमताएं भी हैं. अधिकांश मामलों में विपन्नता के शिकार व्यक्ति को अपने जीवन–संबंधी महत्त्वपूर्ण निर्णयों के लिए दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है. समाज उसके सोच का अपने स्वार्थ से अनुकूलन कर लेता है. दंड–विधान का सहारा लेकर वह व्यक्ति को समाज से स्थायी अथवा अस्थायी रूप में काट देता है. इस कार्य को राज्य लोककल्याण, न्याय एवं व्यवस्था के नाम पर करता है. उल्लेखनीय है कि मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में उसके परिवेश का योगदान सर्वाधिक होता है.
अपराध एक सामाजिक व्याधि है. वह न धर्म देखता है न जाति. अपकर्म की ओर प्रवृत्त होने वाला व्यक्ति कहीं न कहीं अपने परिवेश तथा अपने आसपास रहने वाले व्यक्तियों से असंतुष्ट होता है. व्यक्ति के असंतोष का कारण उसका अतिशय लालच अथवा अतिमहत्त्वाकांक्षाएं हो सकती हैं. दूसरा कारण संभव है कि समाज के एक वर्ग की ओर से उसका उत्पीड़न अथवा असमानतापूर्ण व्यवहार. अपराधी आत्मविश्वास, अभ्यास एवं संयम के कमी के चलते अपने आक्रोश पर नियंत्रण नहीं रख पाता. और समस्या का निदान उग्रता के रास्ते तलाशना चाहता है. उसका दोष होता है कि अपने असंतोष को समाज के समक्ष धैर्यपूर्वक रखने, अपने लालच पर काबू करने के बजाय वह समस्या का समाधान छल अथवा बल के रास्ते करना चाहता है. उस समय वह भूल जाता है कि उसकी शक्ति और बुद्धिबल की अपेक्षा समाज की संयुक्त शक्ति और बुद्धिबल कहीं अधिक है. समाज उससे कई गुना सामर्थ्यवान है तथा उससे टकराव के दौरान उसकी पराजय सुनिश्चित है. कई बार घमंड भी व्यक्ति के विवेक पर पर्दा डाले रहता है. समाज का दोष होता है कि वह अपनी ईकाई के भीतर अपेक्षित विश्वास एवं धैर्य पैदा करने में विफल रहता है. तथा समाज को स्थायी समाधान की अपेक्षा उस अकेले व्यक्ति को दंडित कर, वास्तविक समस्या की ओर से आंख मूंद लेता है. इसे मूल समस्या की ओर से समाज का पलायन कह सकते हैं. मां यदि दुर्बल और रोगग्रस्त है तो स्वस्थ संतान की उम्मीद कम हो जाती है. उसकी देह के विकार स्वाभाविक रूप से संतान में चले आते हैं. इसलिए व्यक्ति के विचलन के लिए केवल उसे दोष देने से पहले यह भी सोचना चाहिए कि जो मनुष्य पारिवारिक संबंधों को लेकर अतिरेक की सीमा तक संवेदनशील होता है, रिश्तों की मान–मर्यादा का ख्याल रखता है—देश और समाज को लेकर वह अचानक व्यावहारिक क्यों हो जाता है? इसका कारण यह भी हो सकता है कि समाज भी ऐसे व्यक्तियों के साथ उदारमना संरक्षक की भांति पेश आने के बजाय सौदागर जैसा व्यवहार करने लगता है. एक जिम्मेदार अभिभावक की भूमिका निभाने की अपेक्षा वह दरोगा की तरह पेश आता है. जिन समाजों में सामाजिक–सांस्कृतिक स्तर पर भयानक स्तरीकरण हो, वहां न्याय को लेकर राज्य की चुनौतियां और भी बढ़ जाती है. इसलिए कि सामाजिक–सांस्कृतिक विश्वासों की जड़ें बहुत गहरी होती हैं. परंपरा और संस्कार के रूप में वे पीढ़ी–दर–पीढ़ी गहराती जाती हैं. उनमें बदलाव करना आसान नहीं होता. निरंतर संवाद, सदस्यों के बीच आपसी विश्वास, वैज्ञानिक सोच, भविष्य के प्रति सुस्पष्ट दृष्टि तथा ठोस कार्ययोजना से सामाजिक–सांस्कृतिक असमानताओं की खाई को पाटने के लिए पहल अवश्य की जा सकती है. इसके लिए राज्य का कर्तव्य होता है कि आपसी संवाद और न्याय के संवितरण की प्रणालियों को मजबूत बनाए तथा उन असमानताओं को दूर करने का भरसक प्रयास करे जो धर्म, संस्कृति, परंपरा, जाति, वर्ग अथवा ऐसे ही किसी कारण द्वारा पैदा हुई हैं.
ऊपर हमने न्याय के लिए साधु और शैतान का उदाहरण दिया. समाज की निगाह में साधु वह है जो उसकी व्यवस्था में जरा भी खलल नहीं डालता. जैसी भी है उसे शिरोधार्य कर लेता है. वह सामाजिक स्थितियों से समझौता कर चुका अथवा उनकी ओर से मुंह फेर चुका व्यक्ति हो सकता है. ऐसा व्यक्ति समाज के लिए चुनौती नहीं बनता, बल्कि उसकी हर स्याह–सफेद व्यवस्था का समर्थक बनकर आत्मलीन जीवन जीता चला जाता है. अपने परिवेश की ओर से वह इतना उदासीन हो जाता है कि समाज उसकी गतिविधियों को नजरंदाज कर देता है. दूसरी ओर अपराधी प्रायः अपने असंतोष के साथ जीता है. वह कहीं न कहीं अपने परिवेश से असंतुष्ट होता है. बदलाव की प्रबल कामना भले ही वह उसके निजी स्वार्थ के लिए क्यों न हो, उसे अवरोधों से टकराने के लिए उकसाती है. इस असंतोष के अनेक कारण हो सकते हैं. उसके पीछे अपराधी की स्वार्थ–लिप्सा हो सकती है और समाज के कुछ वर्गों द्वारा किया गया उत्पीड़न भी. लेकिन इतना तय है कि उसके अपराध–कर्म की समीक्षा शिखरस्थ शक्तियां अपने नफा–नुकसान को ध्यान में रखकर करती हैं. उनकी स्वार्थपरता के कारण समस्या के असली कारणों को पहचानकर उसके स्थायी समाधान पर काम बहुत कम हो पाता है. ‘परित्राणाय साधूनाम्, विनाशाय च दुष्कृताम्’ भी सत्तासीन अभिजन के तानाशाहीपूर्ण आचरण की ओर संकेत करता है. उसमें न्याय ऊपर से थोपा जाता है. व्यक्ति या तो न्याय को सहता है अथवा उससे समझौता कर लेता है. न्याय की चालू अवधारणा अथवा केंद्राभिमुखी शासन में आज भी ऐसा ही होता है. उसमें न्याय की पड़ताल अपनी–अपनी स्वार्थ–दृष्टि से की जाती है. उदाहरण के लिए 1857 की घटना ईस्ट इंडिया कंपनी और उसकी आका इंग्लेंड सरकार के लिए ‘सिपाहियों की बगावत’ थी, जबकि भारतीयों के लिए स्वाधीनता संग्राम. इसलिए केंद्र में बदलाव के साथ ही प्रायः अपराध के मायने बदल जाते हैं. आजकल भी ऐसे अनेक किस्से सुनने में आते हैं जब एक सरकार किसी भ्रष्ट अधिकारी को जेल में डालती है, किंतु सत्ता परिवर्तन के बाद वह व्यक्ति अपनी संरक्षक सरकार के आने पर, पुनः महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन हो जाता है. आशय है कि व्यक्ति का अपने कर्तव्य से विचलन समाज के लिए आत्मावलोकन का अवसर होता है. फिर भी यह कह देना कि व्यक्ति के अनाचार के लिए केवल समाज जिम्मेदार होता है, समस्या का एकाएक सरलीकरण कर देना है.
मानव समाज सहस्राब्दियों से धर्म द्वारा अनुशासित होता आया है. अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए प्रत्येक धर्म ने अपनी–अपनी आचार–संहिता गढ़ी है. भारत में यह कार्य न्याय–सूत्रों, स्मृतियों, ब्राह्मण–ग्रंथों तथा संहिताओं के माध्यम से किया जाता था. इस्लाम में इसके लिए शरीयत की व्यवस्था है. ईसाइयों में सोलोमान के उपदेश और चर्च. इनके आधार पर धर्मपरायण लोग निर्णय लेते रहे रहे हैं. कुछ लोग तो आज भी यह दावा करते हैं समाज को अन्य कानूनों की अपेक्षा धर्म की सहायता से आसानी से अनुशासित किया जा सकता है. इस्लाम के अनुयायी तो शरीयत से परे कुछ सोचना भी नहीं चाहते. उनके अंधानुकरण में कट्टरपंथी हिंदू भी स्मृतियों तथा अन्य ब्राह्मण ग्रंथों की दुहाई देने लगते हैं. सवाल है कि धर्म का राज्य क्या न्याय के राज्य का विकल्प बन सकता है? क्या धर्म व्यक्ति को इतनी आजादी देता है कि वह परंपरा और संस्कृति की सीमारेखा से बाहर आकर वस्तुनिष्ट ढंग से कुछ सोच सके? इन मुद्दों को लेकर बहसें प्रायः होती ही रहती हैं. छिटपुट विचार इस लेख में भी आ चुके हैं. धर्म का संबंध आस्था और विश्वास से होता है. इसलिए वह पूर्वाग्रह मुक्त कभी हो ही नहीं पाता. अपनी मूल प्रवृत्ति में वह पूरी तरह अलोकतांत्रिक होता है. व्यवहार में अपने लुभावने अंदाज में वह भले ही दया, करुणा, मैत्री, दान, मानवप्रेम और परोपकार की दुहाई दे, उसका वास्तविक रुझान शीर्ष की ओर होता है. इसलिए येन–केन–प्रकारेण वह समाज के शीर्षस्थ वर्गों का हित–चिंतक सिद्ध होता है. शिखर पर बने रहने के लिए हर जायज–नाजायज कोशिश के दौरान वह मनुष्य से उसके परिष्कार का अवसर छीन लेता है. यह कहकर कि आततायी को दंडित करने की जिम्मेदारी दैवीय सत्ता की है, और व्यक्ति को अपनी अच्छाई और बलिदान का पुरस्कार इस जन्म में न सही अगले जन्म में मिल ही जाना है, वह मनुष्य को पलायनवादी बना देता है. असमानता के कारणों का प्रतिकार करने, अन्याय के विरुद्ध जंग छेड़ने के बजाय वह सहते रहने का आग्रह करता है. परिणामस्वरूप मनुष्य दुनिया को बदलने की कोशिश करने के बजाय, परिस्थितियों से समझौता करने लगता है. यह कहकर कि ईश्वर सब देखता है, वही एकमात्र नियंता और न्यायकर्ता है, वह ऐसी ख्याली दुनिया में जीने लगता है, जिसमें उसके अपने दुख और अभावों के अलावा बाकी सब सपना होता है. इसलिए धर्म–प्रेरित न्याय, नीति संगत भी हो यह जरूरी नहीं है. चूंकि समाज में धर्म और नैतिकता को परस्पर पर्याय के रूप में पेश किया जाता है, इसलिए जनसाधारण धर्म को श्रद्धा के अतिरेक के साथ देखता–समझता है. ऐसे में उसका इकहरा, अभिजातीय चेहरा आमजन के सामने बहुत कम आ पाता है.
मानव–व्यवहार में सकारात्मक एवं नकारात्मक वृत्तियों की खोज करते हुए मनोवैज्ञानिक प्रायः शताब्दियों पीछे चले जाते हैं. जब मनुष्य जंगल में रहता था. जंगली पशुओं से उसका वास्ता पड़ता था. मनोवैज्ञानिकों के अनुसार वनचारी जीवन की कुछ छाप, उसके कुछ अवशेष मानव–चरित्र पर आज भी बाकी हैं. मनुष्य की नकारात्मक वृत्ति के लिए उसके अतीत को दोषी ठहराने वाले मनोवैज्ञानिक अरस्तु की परिभाषा को भूल जाते हैं. जिसने मनुष्य को विवेकशील प्राणी माना है. यह ठीक है कि आदि मानव के जन्म के दस लाख वर्षों के मुकाबले मानव सभ्यता का चालीस–पचास हजार वर्ष का समय बहुत कम है. लेकिन इस अवधि में ऐसा अनेक बार हुआ है जब मनुष्य ने खुद को नैतिकता की खोज का सबसे बड़ा हिमायती सिद्ध किया है. बिना नैतिकता का हिमायती बने, विकास की इतनी लंबी यात्रा संभव ही नहीं थी. लेकिन जब कानून की चर्चा होती है तो मनुष्य के नैतिकता के इतिहास को एकदम भुला दिया जाता है. पेशेवर मनोवैज्ञानिक इस बात पर विचार नहीं करते कि वे कौन–सी परिस्थितियां हैं, जो मनुष्य की नकारात्मक वृत्तियों के हावी हो जाने का कारण बनती हैं. कानून अपनी किताबों में लिखे प्रावधानों के अनुसार सजा सुनाकर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर लेता है. मनोवैज्ञानिक समाज और परिस्थितियों का विश्लेषण करने की जिम्मेदारी समाज वैज्ञानिक या किसी तीसरे के कंधों पर डालकर शांत हो जाते हैं. यह यह मान लिया जाए कि मनुष्य में नकारात्मक प्रवृत्तियां सदैव सक्रिय रहती हैं, कि उसमें अपने पूर्वजों के जंगली जीवन के कुछ प्रभाव अब भी अवशेष हैं. हालांकि वे यह नहीं बता पाते कि मनुष्य की नकारात्मक वृत्तियों के समाहार के लिए उन्होंने क्या इंतजाम किए हैं? यदि मनुष्य में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रवृत्तियां सक्रिय हैं तो सहस्राब्दियों से मानव समाज तरक्की क्यों करता रहा है? हम सब विकास चाहते हैं. तरक्की कर आगे निकल जाना चाहते हैं, किंतु जितनी तेजी से मनुष्य बाहरी परिवर्तनों को अपनाता है, आंतरिक परिवर्तनों को आत्मसात करने की गति बहुत धीमी होती है. इसलिए कि हर परंपरागत समाज अपने भीतर कुछ न कुछ पूर्वाग्रह बचाए रहता है, जो कदम–कदम पर उसके लिए अवरोधक का काम करते हैं. जिन्हें वह कभी धर्म, कभी संस्कृति तो कभी कानून के नाम पर समाज पर लागू रखना चाहता है.
समानता और न्याय के संवितरण का उद्देश्य उन असमानताओं का उन्मूलन भी है जो विशेष परिवार, जाति या धर्म में जन्म लेने से पैदा होती हैं. परंपरागत समाजों में बालक का भविष्य उसके माता–पिता तथा परिवार के सामाजार्थिक स्तर से तय होता है. संपन्न परिवार में जन्मे व्यक्ति को धन–वैभव के साथ सामाजिक प्रतिष्ठा भी बिना कुछ अतिरिक्त श्रम किए हासिल हो जाती है. दूसरी और विपन्न परिवारों में जन्मे व्यक्ति को पहले अपने अस्तित्व के संकट से जूझना पड़ता है, तदनंतर वह विकास की बात सोच पाता है. इस तरह संपन्न परिवार में जन्मे व्यक्ति के बराबर में आने के लिए सामान्य व्यक्ति को उससे कहीं अधिक लंबी दूरी पार करनी पड़ती है. संपन्न परिवार में जन्मा व्यक्ति यदि कुछ न भी करें तो भी उच्च सामाजिक स्थिति, पद–प्रतिष्ठा का लाभ उसे मिलता है. जिसके सहारे वह आगे बढ़ता जाता है. दूसरी ओर साधारणजन को विकास की मुख्यधारा में सम्मिलित होने के लिए अपनी वर्तमान स्थिति को बचाने हेतु प्रयत्न के अलावा उन बाधाओं से भी जूझना पड़ता है जो उसकी दुर्दशा को बनाए रखना चाहती हैं. दूसरे शब्दों में विकास की दौड़ में बने रहने के लिए संपन्न व्यक्ति का काम केवल समानांतर यात्रा से चल जाता है, वहीं विकास की धारा में शामिल होने के लिए विपन्न वर्ग को उध्र्वाधर यात्रा करनी पड़ती है, जो समानांतर यात्रा की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन होती है. संसाधनों और राज्य के समर्थन के अभाव में जनसाधारण की विकास यात्रा और भी कठिन हो जाती है. जाॅन राॅल्स के शब्दों में—
‘न्याय मनुष्यता का परम सत्य, सामाजिक संस्थाओं का प्रमुख सद्लक्षण है.’3
रॉल्स के अनुसार शब्दों में संवितरणात्मक न्याय ऐसे ही सामाजिक, राजनीतिक कारणों से वंचित रह गए लोगों को अतिरिक्त सहारा देकर उन्हें विकास की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए जरूरी है. राज्य तथा उसकी सहायक संस्थाओं का यह दायित्व है कि जन्म अथवा सामाजिक स्तरीकरण के कारण विकास की स्पर्धा में पिछड़ गए लोगों के कल्याण के लिए अतिरिक्त संसाधन उपलब्ध कराए. उनमें यह विश्वास उत्पन्न करे कि समाज जीवन की प्रत्येक चुनौती में उसके साथ है. उसे चाहिए कि व्यक्ति के चरित्र निर्माण का उपयुक्त माहौल पैदा करे. जिसमें उसके विकास के भी भरपूर अवसर हों. बजाय इसके समाज कानून का जखीरा खड़ा कर देता है. समाज के अनुसार मनुष्य की नकारात्मक वृत्तियां दूसरों को नुकसान न पहुंचाए इसके लिए कानून की जरूरत पड़ती है. विवाद की स्थिति में वे उचित–अनुचित में से उचित का चिह्नन कर, उसको संरक्षण प्रदान करती हैं. अनुचित के लिए रोकथाम और दंड की व्यवस्था भी. लेकिन अपनी शीर्षोन्मुखता में न्याय सामाजिक स्तरीकरण को बढ़ावा देने वाला सिद्ध होता है, जिससे उसका उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है.
आम आदमी न्याय के प्रायः एक पक्ष जिससे राज्य की अधिसत्ता प्रकट होती है, जिससे वह अकसर शक्ति–प्रदर्शन करता है, को जानता–समझता है. उसके अंतर्गत कानून, अदालतें, पुलिस, सैन्यबल आदि आते हैं. न्याय का दूसरा एवं महत्त्वपूर्ण पक्ष है, नागरिकों के बीच अधिकतम समानता की स्थापना; अर्थात सुख–संसाधनों का समाज के सदस्यों के बीच संवितरण. यदि न्याय के पहले पक्ष को राज्य का अधिकार तथा उसके शक्ति प्रदर्शन का जरिया माने तो उसका दूसरा पक्ष राज्य के कर्तव्यपालन और नैतिक दायित्वों से जुड़ा हुआ है. न्याय को लेकर समस्या तभी खड़ी होती है, जब समाज अपने कर्तव्यपालन से चूक जाता है. अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए वह कानून के उपयोग द्वारा बलप्रयोग पर उतर आता है. संवितरणात्मक न्याय के सटीक पर्याय के रूप में ‘सामाजिक न्याय’ जैसा सुंदर–सार्थक शब्द–युग्म हमारे पास है. पिछले कुछ वर्षों में इस शब्द–युग्म का राजनीतिक प्रलोभनों के रूप में यद्यपि खूब दुरुपयोग हुआ है. इसके बावजूद इसका आकर्षण मिटा नहीं है. अपने पुनीत निहितार्थ के रूप में यह समाज के गठन के औचित्य की ओर संकेत करता है. दूसरे शब्दों में सामाजिक न्याय राज्य का वह लक्ष्य है जिसकी प्राप्ति उसके औचित्य की कसौटी तथा उसके नैतिक आचरण का मापदंड है. किसी भी राज्य की अधिसत्ता उसके कानून, पुलिस बल, राजनीति, आर्थिक आदि संस्थाओं द्वारा तय होती है. यही संस्थाएं आम आदमी के जीवन–स्तर तथा उसके सोच का निर्धारण करती हैं.
संवितरणात्मक न्याय का आशय है कि इन सभी संस्थाओं के लाभों, कर्तव्यों तथा सुख–सुविधाओं का उसके नागरिकों के बीच पक्षपात–रहित समान संवितरण. जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं का एकसमान बंटवारा. इस दृष्टि से संवितरणात्मक न्याय प्राकृतिक न्याय के नजदीक आ जाता है. दूसरे शब्दों में यह मनुष्यता की कसौटी है. जैसे प्रकृति की निगाह में सभी प्राणी बराबर होते हैं. नदी का जल सभी के लिए उपलब्ध होता है. ठीक इसी प्रकार धूप, हवा, जल भी लोगों के बीच पक्षपात नहीं करते. लेकिन व्यक्तित्व के स्तर पर समाज में सभी व्यक्ति एकसमान नहीं होते. उनमें न केवल स्वभावगत अंतर होता है, बल्कि उनकी कार्यक्षमता भी भिन्न–भिन्न होती है. इसलिए कल्याण सरकार का दायित्व है कि सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारण से सुविधाओं के मामले में पिछड़ गए लोगों को भी जीवनोपयोगी वस्तुओं की आपूर्ति में समानता को बनाए रखे. यह उस अवधारणा की काट करती है जो मानती है कि मनुष्यों में कुछ विशेष योग्य होते हैं. कुछ कम योग्य और कुछ अयोग्य. इसलिए जो विशेष योग्य हैं वे सामाजिक आय में से अधिकतम के स्वाभाविक अधिकारी हैं, कम योग्य उनसे कम और अयोग्य सबसे कम. चूंकि योग्यता के मापदंड विकसित करना और उन्हें बदलती हुई सामजिक मांगों, अपेक्षाओं के अनुरूप ढालते रहना चुनौती–भरा काम होता है, इसके चलते विशेष योग्यता की कसौटी शिखरस्थ परिवार अथवा ऐसे ही समूह में जन्म लेना मान लिया जाता है. धीरे–धीरे यही रूढ़ बनता चला जाता है. ऐसे में वे लोग जो शिखरस्थ समूह में जन्म लेने से वंचित रहे हैं, जिन्हें किसी प्रकार का शक्ति–संरक्षण अप्राप्य है, जो बुद्धि–चातुर्य और छल–छंद से बचे हुए हैं, वे सामान्य सुविधाओं तथा अधिकारों से वंचित कर दिए जाते हैं. संवितरणात्मक न्याय इसी की भरपाई हेतु राज्य के नैतिक कर्तव्य की ओर संकेत करता है. उसका पहला और आधारभूत सिद्धांत है कि समाज में सभी मनुष्य बराबर हैं. जो है वह सभी का है. इसलिए उसकी सबसे पहली मांग होती है, संपूर्ण समानता तथा सुख का संवितरण. सभी के लिए अवसरों की समानता, ताकि उनका विकास दर अबाधित रहे.
सामाजिक न्याय का अभिप्राय समाज के कुल संसाधनों, वस्तुओं का उनकी जनसंख्या के आधार पर बांटकर विभाजन रेखा खींच देना नहीं है. प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र मस्तिष्क रखता है. वह केवल जैविक इकाई नहीं है. इसलिए सुख को लेकर हर व्यक्ति का विशिष्ट सोच एवं आग्रह होता है. कोई एक वस्तु सभी व्यक्तियों के लिए समान सुखकारी नहीं हो सकती. दूसरे शब्दों वस्तुओं के समान वितरण को सुख अथवा कल्याण का संवितरण मान लेना अनुचित होगा. उदाहरण के लिए एक व्यक्ति केवल दो केलों से काम चला सकता है. इससे अधिक केले उसके स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं. जबकि दूसरा व्यक्ति एक दर्जन केलों को आसानी से पचा सकता है. इन दोनों के अलावा तीसरा व्यक्ति ऐसा भी हो सकता है कि जिसको केले जरा–भी पसंद न हों. इसलिए ऐसे व्यक्ति को जिसे केले पसंद नहीं हैं, उसके लिए केलों की आपूर्ति सुनिश्चित करना अथवा जिसे दो केलों की आवश्यकता है, उसको उससे अधिक केलों के लिए बाध्य करना, अनावश्यक माना जाएगा. यानी कल्याण का संवितरण व्यक्ति के मनोविज्ञान तथा रुचियों से भी जुड़ा है. तदनुसार वस्तुओं की पक्षपात रहित, न्यायसंगत आपूर्ति के अलावा यह देखना भी आवश्यक है कि वे वस्तुएं विशिष्ट परिस्थितियों में रह रहे उस व्यक्ति को अधिकतम संतुष्ट करने के साथ–साथ उसके विकास को स्वाभाविक गति देती हैं या नहीं! दूसरे शब्दों में उन्हें मनुष्य के लिए अधिकतम आत्मतुष्टिकारक तथा उसके कल्याण के स्तर में बढ़ाने वाला होना चाहिए. समाज के गठन का आधार भी यही है. मनुष्य के समाज में सम्मिलित होने का उद्देश्य भी यही रहा है कि अग्रज की भूमिका में समाज उसके संरक्षण के साथ–साथ उसके हितों की रक्षा भी करेगा. उसके सान्निध्य में मनुष्य वांछित सुखों की अधिकतम प्राप्ति कर सकेगा. पूर्ण समाजीकरण ही वह रास्ता है जिससे राज्य तथा उसकी अन्य संस्थाएं, सामाजिक सहयोग के साथ मानवाधिकारों का संरक्षण कर सकती हैं. मानवाधिकारों की बात यहां इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि विभिन्न संस्कृतियों, समाजों में जन्मे व्यक्ति की भिन्न अपेक्षाएं होती हैं. सामाजिक न्याय की सफलता इसमें है कि समाज में सुविधाओं और शक्तियों के भिन्न–भिन्न टापू न पनपने दे. जॉन रॉल्स तो अपनी पुस्तक ही इस वाक्य से करता है—
‘जिस प्रकार विवेकवान समाज की स्थापना का आधार सत्य है, ऐसे ही न्याय की स्थापना सामाजिक संस्थाओं का पुनीत कर्तव्य है.’4
न्याय की स्थापना के लिए जरूरी है कि कल्याण कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाते समय राज्य यह ध्यान रखे कि उनका लाभ उसके सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के प्राप्त हो सके. उनमें इतना लचीलापन भी हो कि कल्याण के संवितरण हेतु, प्राकृतिक–सामाजिक कारणों से जिन नागरिकों को दूसरे नागरिकों से अधिक मदद की आवश्यकता है, वह उन्हें आसानी से, बगैर किसी आंतरिक विक्षोभ के प्राप्त हो सके. इस मदद का, न्याय के संवितरण का लक्ष्य नागरिकों के बीच कल्याण के बंटवारे तक सीमित नहीं है. बल्कि उन्हें इस योग्य बनाना है कि जो नागरिक परिस्थितियों की विपन्नता के चलते राष्ट्र–निर्माण में अपना श्रेष्ठतम योगदान देने में असमर्थ हैं, मदद के बाद उनके आत्मविश्वास और इरादों में वृद्धि हो, ताकि वे स्वयं को समाज के लिए अधिकाधिक उपयोगी सिद्ध कर सकें. साथ में उन मूल्यों की भी रक्षा हो, जो समाज के गठन का आदर्श रहे हैं. इसलिए कि कोई भी विधान, वह चाहे जितना पवित्र क्यों न हो, उसने रचने वाले महानतम में श्रेष्ठतम श्रेणी के परममेधावी क्यों न हों. यदि वह मानवीय स्वतंत्रता को किसी भी प्रकार से हानि पहुंचाता है, उसको अवरुद्ध करता है, तो वह अनैतिक है. यहां स्वत्रंतता के मायने केवल राजनीति तक सीमित नहीं है. वह आर्थिक, समाजिक, राजनीतिक तक व्यापक हैं. और समाज का अर्थ केवल मनुष्यों का समूह नहीं है, बल्कि एक–दूसरे के कल्याण को समर्पित विवेकवान इकाइयों का जीवंत समूह हैं जिसके सदस्य अपने सुख और दूसरे के कल्याण के प्रति चैतन्य हैं.
सहविधान में न्याय
क्या कानून का राज्य ‘न्यायपूर्ण’ राज्य हो सकता है? इस प्रश्न को इस प्रकार भी पूछा जा सकता है कि क्या कानून और न्याय एक दूसरे के पूरक और अनुवर्ती हैं? कई दशक पहले पढ़ी किसी यूरोपीय लेखक की एक उक्ति यहां याद आती है. कानून की अप्रासंगिकता पर टिप्पणी करते हुए उसने कहा था—‘दुनिया के सभी कानून व्यर्थ हैं. इसलिए कि भले आदमी को कानून की जरूरत नहीं होती. जबकि बुरा आदमी उससे सुधारा नहीं जा सकता. आज देश में छोटे–बड़े न्यायालयों की जितनी शाखाएं हैं, समाज में उनकी जैसी हैसियत और पैठ है, उसे देखकर भला कौन इस उक्ति पर विश्वास करेगा! अधिकांश तो इसका समर्थन ही करेंगे. इसे लेखक का पागलपन कहकर वे तत्काल खंडन पर उतर आएंगे, ‘कानून तो आधुनिक सभ्यता की आंख, सुशासन की अनिवार्यता है. इससे सरकार और समाज दोनों को दृष्टि मिलती है.’ किंतु इस कड़वी हकीकत को देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित अधिवक्ता राम जेठमलानी जब इन शब्दों में बयान करते हैं—‘दुनिया के श्रेष्ठतम कानून, निकृष्टतम अपराधियों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं.’ तब उपर्युक्त उक्ति की सचाई पर भरोसा होने लगता है. ध्यानपूर्वक देखा जाए तो कानून आधुनिकता की अभिजातीय नकाब है. सभ्यता का चमकीला आवरण. यह उन लोगों के लिए ढाल हैं, जो इसे समझते–बूझते हैं. पर जो रोजी–रोटी में उलझे हैं, उनके लिए कानून की जटिल धाराएं अवसर आने पर फांसी का फंदा बन जाती हैं. प्रकारांतर में कानून अच्छाई के प्रोत्साहन के लिए नहीं, बल्कि बुराई की रोकथाम के लिए बनाए जाते हैं. सवाल है कि बुरे आदमी क्या उससे सुधर पाते हैं? कानून का एक लक्ष्य चरित्र–निर्माण भी है. इस मकसद में वह कामयाब रहता है, यह तो कानून का बड़े से बड़ा समर्थक नहीं कह पाता. ऊपर से समाज में जिस तेजी से रोज नए–नए कानून बनाए जाते हैं, सरकार भारी–भरकम और खर्चीली संस्थाओं का गठन करती जाती है, उससे यह संकेत भी मिलता है कि इतने सारे कानून मिलकर भी बुराई पर अंकुश लगाने में नाकाम रहे हैं.
दरअसल कानून की प्रकृति निषेधात्मक होती है. ‘फलां कार्य राज–समाज के लिए अहितकारी है. इसके करने पर फलां दंड का प्रावधान है.’ कानून की व्याख्याएं प्रायः इसी प्रकार नकारात्मक तत्व लिए होती हैं. सरकार जितनी तेजी से नए कानून बनाती है, उनके अनुपालन पर जितना ज्यादा खर्च करती है, उसका एक–चौथाई हिस्सा भी आमजन को कानून और कानूनी प्रक्रिया से परचाने पर खर्च नहीं करती. पर्याप्त जानकारी के अभाव में आम आदमी उपलब्ध कानूनों का संरक्षण प्राप्त करने, उनसे लाभ उठाने में पीछे रह जाता है. दूसरे कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत न्याय व्यक्ति को स्वयं के प्रयत्न पर निर्भर करता है. राज्य और समाज दोनों सिवाय कुछ औपचारिक घोषणाओं के उसकी मदद के लिए नहीं आते. जबकि न्याय–प्रधान व्यवस्था की कसौटी है कि उसमें न्याय व्यक्ति तक स्वयं और सहजरूप में, बगैर किसी विलंब के पहुंचना चाहिए. यदि आवश्यक हो तो उसमें मनुष्य का न्यूनतम श्रम, अर्थ और समय खर्च होना चाहिए. आधुनिक न्यायतंत्र में प्रायः इसके उलट दिखाई पड़ता है. अदालतों में प्रायः देखा जाता है कि वहां अपराधी और निर्दोष आमने–सामने खड़े होते हैं. जज महोदय का ध्यान अपराध की प्रकृति और परिस्थितियों पर विचार करने से ज्यादा कानून की उन धाराओं को समझने में जुटा होता है, जिनके तहत मुकदमा दायर किया गया है; अथवा जिसके अंतर्गत सुनवाई होनी है. उस समय कानून दोनों से समान व्यवहार का दावा करता है. किंतु आरोपमुक्त सिद्ध होने तक निर्दोष को भी उतनी ही बदनामी और मानसिक यंत्रणा का सामना करना पड़ता है, जितना असली अपराधी को. न्याय के राज्य में निर्दोष का ऐसा उत्पीड़न अक्षम्य होता है. जबकि कानून के राज्य में ऐसी स्थितियां न्याय–प्रक्रिया का स्वाभाविक हिस्सा मान ली जाती हैं.
साफ है केवल कानून–आधारित होने से ही राज्य, न्याय का राज्य नहीं हो सकता. वह शिखर पर विराजमान अभिजन का, अभिजन के लिए, अभिजन द्वारा शासन अवश्य कहा जा सकता है. कानून के राज्य को बहुत से विद्वान आधुनिक सभ्यता की निशानी मानते हैं. इसके बहाने जिस सभ्यता की ओर उनका इशारा होता है, उनमें ऊपर से लेकर नीचे तक शीर्षस्थ वर्गों की इजारेदारी चलती है. सैद्धांतिक रूप से कानून का राज्य वहीं संभव है जब साधारणजन को उस कानून की पूरी–पूरी जानकारी हो, ताकि वह आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय में अपना मुकदमा स्वयं बिना किसी बाहरी मदद के लड़ सके. चूंकि व्यवहार में ऐसा होना तो दूर करने की कोशिश तक नहीं की जाती. इस कारण जनसाधारण के लिए कानून का राज्य महज छलावा सिद्ध होता है. कानूनों के लंबे–चैड़े जखीरे के बीच अधिकांश बहसें यह तय करने के लिए चलाई जाती हैं कि निर्णय प्रक्रिया को कानून की किस धारा के तहत चलाया जाए. जो कार्य सुविज्ञ न्यायाधीशों द्वारा प्रथम द्रष्टया, यानी मामले के अदालत के सम्मुख आते ही तय हो जाना चाहिए, मगर इसको अधिवक्ताओं के भरोसे छोड़ दिया जाता है, जो न्याय की मंड के सबसे चालबाज सौदागर होते हैं. उसके लिए कई–कई वर्ष तक मुकदमे चलते रहते हैं. इससे जो संपन्न है, पहुंचवाला है, वह कानून को मनमाफिक मोड़ देने में या कार्रवाही को टालते रहने में सफल हो जाता है. न्याय में अनावश्यक और अवांछित विलंब अन्याय को पनपने का अवसर देता है. इसके चलते तो कई बार कानूनों का अनुपालन न चाहते हुए भी पक्षपातपूर्ण हो जाता है.
न्याय की सैद्धांतिकी
आधुनिक समाज में न्याय को सामान्यतः कानून के नजरिये से देखा–समझा जाता है. इसलिए हमने कानून के राज्य की स्थिति पर विचार किया और मौटे तौर पर निष्कर्ष पर पहुंचे कि केवल कानून का राज्य न्याय का राज्य नहीं हो सकता. इसलिए कि कानून की जटिलताओं को समझना सामान्य बुद्धि–विवेक के बाहर होता है, इस कमजोरी के चलते वह ताकतवर के साथ लड़ाई में लंबे समय तक टिक नहीं पाता. इसके एकाधिक अपवाद हो सकते हैं. इसके बावजूद कानूनी पेचीदगियों के आगे आम आदमी आसानी से कानूनी जटिलताओं में उलझ कर रह जाता है. परिणामस्वरूप वास्तविक न्याय उसकी पहुंच से निरंतर दूर होता जाता है. यदि ऐसा है तो न्याय की व्याख्या कैसे की जाए? कैसे माना जाए कि न्याय हुआ है? उसको तय करने के मापदंड क्या हों? उसकी प्रणाली क्या हो, आदि आदि. ऐसे सवाल अनायास ही दिमाग में उभरने लगते हैं. यहां प्रूधों के विचार हमारा मार्गदर्शन करते हैं—
‘मुक्त समाज में—कानून बनाने, नई संस्थाएं गठित करने, उनका संविधान रचने, स्थापना एवं प्रशासनिक ढांचा खड़ा करने से लेकर कार्यारंभ तक सरकार की भूमिका न्यूनतम, इतनी कम जितनी कि संभव हो—होनी चाहिए. राज्य कोई उद्यम नहीं है. मशीन, संयंत्र आदि की स्थापना तथा कार्यारंभ होने के बाद उद्यम से सरकार को स्वयं अलग होकर, उसे स्थानीय प्राधिकरणों तथा नागरिक संस्थाओं के सुपुर्द कर देना चाहिए.’5
मौटे तौर पर न्याय की चार विशेषताएं होती हैं; या यूं कहें कि न्यायपथ पर होने का दावा करने वाले राज्य में निम्नलिखित खूबियां होनी चाहिए—
1. सुख और समानता का संरक्षक
2. मानवीय स्वाधीनता का संरक्षक और प्रस्तोता
3. सर्वविकासोन्मुखी दृष्टि
3. न्यायिक प्रक्रिया में भरोसा, न्याय की प्रतीति,
क्रमशः
© ओमप्रकाश कश्यप
1. The sense of justice is continuous with the love of mankind.” A THEORY OF JUSTICE- JOHN RAWLS
2 The principles of justice are chosen behind a veil of ignorance.” Ibid
3. Justice is the first virtue of social institutions, as truth is of systems of thought.-Ibid.
4. Justice is the first virtue of social institutions, as truth is of systems of thought.- Ibid
5. In a free society, the role of the government is essentially that of legislating, instituting, creating, beginning, establishing, as little as possible should it be executive…The state is not an entrepreneur…Once a beginning has been made, the machinery established, the state withdraws, leaving the execution of the task to local authorities and citizens.-Proudhon’s Federal Principle, p. 45, from Proudhon and Anarchism: Proudhon’s Libertarian Thought and the Anarchist Movement by L. Gambone, Red Lion Press, 1996.