कोई भी भाषा तभी समृद्ध मानी जा सकती है, जब उसमें समाज के प्रत्येक वर्ग जिनमें स्त्री–पुरुष, बाल–वृद्ध, धनवान–निर्धन, उच्च और अल्प शिक्षित आदि सभी के लिए भरपूर पाठ्यः सामग्री उपलब्ध हो. भरपूर पाठ्य–सामग्री से हमारा अभिप्राय शिक्षा, संस्कृति, कला, दर्शन, साहित्य एवं साहित्येत्तर विषयों पर आवश्यक समस्त शब्द–संपदा से है, जो किसी भी समाज के प्रबोधीकरण के लिए अनिवार्य हो सकती है. पाठ्य सामग्री की बहुलता के साथ आवश्यक है कि उसको पढ़ने, समझने और पसंद करने वाले भी बहुसंख्यक हों. हालांकि किसी भाषा का पूरी दुनिया के लिए एकसमान उपयोगी होना, विभिन्न मान्यताओं, संस्कृतियों और सभ्यता वाले समाजों के प्रत्येक वर्ग से, एक ही स्तर पर संवाद करना पूर्णतः आदर्श एवं अव्यावहारिक अवस्था है, लेकिन किसी भी भाषा के लिए जो स्वयं को जीवंत और सचेतक होने का दम भरती हो, जिसका दुनिया के विभिन्न समाजों के बीच संपर्क सेतु बनाने का दावा हो, यह पवित्र लक्ष्य भी है. चूंकि देश की भांति प्रत्येक भाषा–भाषी समाज की भी सीमाएं, विशिष्ट सामाजिक–सांस्कृतिक आग्रह एवं परिस्थितियां होती हैं. इसलिए प्रत्येक वर्ग–विषय के अनुरूप पर्याप्त सामग्री उपलब्ध करा पाना, अभी तक किसी भी भाषा के लिए संभव नहीं हो पाया है. वैसी स्थिति में व्यावहारिक रूप में भाषा की समृद्धता का स्तर समाज में उसकी पैठ तथा उसके लिए साहित्य एवं ज्ञान–विज्ञान से भरपूर पाठ्य–सामग्री की उपलब्धता से लिया जाता है.
जब कोई भाषा लोक संपर्क से आगे बढ़ती है, तो वह सबसे पहले अपने समाज की मूल–भूत जिज्ञासाओं को पंख देना चाहती है. उसके बाद उसका अगला काम उन जिज्ञासाओं, जीवनानुभवों, सामाजिक–सांस्कृतिक प्रतीकों, पुराख्यानों तथा ज्ञान के अन्यान्य उपादानों को सहेजते हुए, जिन्हें वह समाज के प्रबोधीकरण के लिए आवश्यक मानती है—विमर्श के बीच निरंतर बनाए रखना रह जाता है. इन जिज्ञासाओं में जीवन–जगत की उपस्थिति, व्यक्ति और समाज की समस्याएं, परिस्थतिकीय ससंबंध, प्रकृति और बृह्मांड से उपजी जिज्ञासाएं होती हैं. स्वाभाविक रूप से हर भाषा पहले इन्हीं चुनौतियों से दो–चार होती है. वह न केवल उनसे प्रभाव ग्रहण करती है, बल्कि अनिवार्यरूप से उनको प्रभावित भी करती है. शायद इसीलिए इतिहास में प्रत्येक भाषा पहले आध्यात्मिक जिज्ञासाओं की शोधक बनी है. कालांतर में उसमें समाज, संस्कृति, उत्पादन के साधनों के आधार पर विकसित अर्थनीति, राजनीति एवं विज्ञान सहित अन्य लोकोपयोगी धाराएं भी समाविष्ठ होती जाती हैं. देखा जाए तो यही मनुष्य की बौद्धिक चेतना का विस्तारक्रम भी है. जिसे हम साहित्य कहते हैं अथवा साहित्य का जो रूप आजकल प्रचलित है, वह विभिन्न विचारधाराओं के समन्वय एवं संघर्ष, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकीकरण के परिणामों, उसकी उपलब्धियों, विसंगतियों एवं तज्जनित आंदोलनों का संवेदनात्मक विस्तार है.
किसी भी समाज में साहित्य की प्रथम दस्तक लोककथाओं एवं लोकपरंपराओं के रूप में सामने आती है. ये साहित्य की वे मूल धाराएं हैं, जिनके लिए औपचारिक शिक्षा आवश्यक नहीं होती. वाचिक परंपरा में समाज के सभी वर्ग इनसे न केवल लाभान्वित होते हैं, बल्कि अपनी–अपनी तरह से इनके विस्तार में योगदान भी देते हैं. साहित्य का आदिस्वरूप वाचिक परंपरा से समृद्ध रहा है. सहस्राब्दियों तक वही सभ्यता और संस्कृति के आदान–प्रदान, लोकानुभवों को सहेजने, अंतरित करने, नए प्रतीक तथा जीवनमूल्य गढ़ने का माध्यम बना रहा. साहित्य का जो रूप आज प्रचलन में है तथा उसकी परिभाषा से जो सामान्यबोध अभिव्यक्त होता है—कुछ शताब्दियों के पहले तक साहित्य के वह मायने नहीं थे. साहित्य का आरंभिक रूप मनुष्य की नैसर्गिक आवश्यकता की भांति स्वतः जन्मा. वह मनुष्य को उपयोगी जान पड़ा इसलिए उसको अपनाया जाने लगा. अपने आदिरूप में साहित्य लोक संस्कार का हिस्सा था. मनोरंजन के अलावा लोग उसका उपयोग अपने मंतव्य को स्पष्ट करने, बात को धार देने, तार्किकता प्रदान करने हेतु भी करते थे. जीवन में स्थायित्व आने पर समाज की एकता एवं विकास–दर को बनाए रखने के दबाव ने साहित्य की सप्रयोजन रचना की मांग को जन्म दिया. हालांकि लेखनकला के विकास तथा उसकी सर्वोपलब्धता तक साहित्य का मौखिक रूप ही बहुस्वीकार्य बना रहा. कालांतर में लिपि का विकास हुआ तो साहित्य को जैसे ठोस आधार मिला. जनसाधारण तक उसकी पहुंच बढ़ी, साथ में जिम्मेदारियां तथा अपेक्षाएं भी. लिपिबद्ध साहित्य पर बहस करना आसान था. उससे एकाएक मुकर पाना संभव नहीं था. इससे विचारधाराओं के जन्म का मार्ग प्रशस्त हुआ. लोकसाहित्य में रचनाकार की पहचान स्थायी रखने का कोई कारगर उपाय न था. लिपिबद्ध साहित्य ने यह समस्या दूर कर दी थी. अब रचनाकार आसानी से अपना नाम रचना के साथ चला सकता था. इससे रचनाओं पर परिश्रम कर, सोच–समझकर उद्देश्यपूर्ण ढंग से लिखने की परंपरा ने जोर पकड़ा. धीरे–धीरे विचारधारा की अभिव्यक्ति के लिए भी साहित्य का उपयोग होने लगा. सवाल उठता है कि वे कौन–सी आवश्यकताएं थीं, जिन्होंने साहित्य को जन्म दिया. उसको मनुष्य के लिए अपरिहार्य बनाया. इसके लिए हमें मानव–इतिहास के वे पन्ने पलटने होंगे जब वह आखेट युग से कृषि युग में प्रवेश कर चुका था और जीवन में आए स्थायित्व ने मनुष्य को सोचने के लिए न केवल नए क्षेत्र बल्कि अवसर भी दिए थे.
कृषि–कला के विकास ने मानवीय सभ्यता के विकास को नए पंख दिए थे. आखेट युग में मनुष्य का प्रमुख भोजन मांस था. उसकी सुलभता थी, परंतु जुटा पाना आसान न था. शिकार करने के लिए मनुष्य को कठिन परिश्रम भी करना पड़ता था. इस कार्य में जान का भी खतरा था. स्वयं शिकार हो जाने का खतरा शिकारी के सिर पर मंडराता ही रहता था. पशु उत्पादों को भोज्य पदार्थ के रूप में उपयोग करने की दूसरी कमजोरी थी कि उन्हें लंबे समय तक संरक्षित कर पाना संभव न था. जबकि कृषि उत्पादों को न केवल लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता था, बल्कि कृष्ठ भूमि की प्रचुरता के कारण अकेला व्यक्ति अनेक परिवारों के लिए भोजन उगा सकता था. इससे बची हुई श्रमशक्ति का उपयोग शिल्पकर्मों में होने लगा, जो कृषिकर्म के विकास के साथ समाज की अनिवार्य आवश्यकता बन चुके थे. कृषि–औजार तथा जीवन की बढ़ती जरूरतों के लिए अन्यान्य वस्तुओं की आपूर्ति के लिए मृदाकारी, लौहकारी, काष्ठकर्म, बुनकर, चर्मकारी जैसे शिल्पकर्मों का विकास हुआ. अतिरिक्त अनाज को संरक्षित करने के लिए मिट्टी के बर्तन बनाए जाने लगे. भोजन की निश्चिंतता बढ़ने से सभ्यता के विकास को गति मिली. उपजाऊ भू–स्थलों पर, जहां सिंचाई के लिए पानी का उपयुक्त प्रबंध था, मानव बस्तियां आकार गढ़ने लगीं. समूह की सदस्य संख्या बढ़ने के साथ–साथ समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए भी मनुष्य की जिम्मेदारी बढ़ती जा रही थी. समाज को व्यवस्थित रखने के लिए ग्रामणी, गण, गणप्रमुख आदि पदों का सृजन किया गया. इन पदों पर समाज के वरिष्ठ एवं योग्यतम व्यक्तियों को बिठाया जाता. यही वर्ग अतिरिक्त अनाज के सरंक्षण एवं जरूरतमंद लोगों के बीच विपणन का दायित्व वहन करता था.
एक ओर समाज भौतिक जीवन में प्रगति की डगर पर था तो दूसरी ओर उसकी बौद्धिक उपलब्धियां नित–नए आसमान छू रही थीं. उसकी बुद्धि विराट प्रकृति के जितने रहस्यों का अनावरण करती, उतनी ही उलझती जाती थी. वह उसकी विलक्षणता के प्रति नतमस्तक था. जिज्ञासा के आयाम अनंत थे. उन सबका एकाएक समाधान उसके लिए संभव न था. मनुष्य की बौद्धिक सीमाओं ने प्रकारांतर में प्रकृति के प्रति दैवीय भाव को जन्म दिया. वैसे भी खेती हो अथवा नदी–सागर तट पर बनी बस्ती, सभी तो प्रकृति की कृपा पर निर्भर थे. बारिश न पड़े तो खेती बंजर बन जाए, अतिवृष्टि हो तो खड़ी फसल बह जाए. जीवन से कदम–कदम पर जूझता मनुष्य इन प्राकृतिक आपदाओं का सामना भी करता था. आपदाओं के डर तथा प्रकृति के प्रति मन में उमड़ी अतिश्रद्धा ने स्तुतियों को जन्म दिया. जीवन–संघर्ष से गुजरते मनुष्य ने अपनी भावनाओं को कविता में ढालना, कहानी में पिरोना आरंभ कर दिया. इसके मूल में आदि मानव की मनोरंजन की भूख तथा दूसरों के साथ अपने अनुभव बांटने की ललक थी.
दिन–भर की घटनाएं सुनना–सुनाना भी कम मनोरंजक न था. सांझ को काम से निवृत्त हुए लोग अलाव के सहारे, गांव–बस्ती के सार्वजनिक स्थलों पर जुटते तो अनुभवों–आख्यानों के आदान–प्रदान का सिलसिला आरंभ हो जाता. उन्हीं में एकाध व्यक्ति ऐसा भी मिल जाता, जिसको कहन की कला में दूसरों की अपेक्षा महारत हासिल होती. लोगों का सूचना के साथ मनोरंजन भी हो जाता. प्रकृति के सीधे साहचर्य में रहने वाले, कदम–कदम पर संघर्ष करने वाले मनुष्य के लिए यह सौगात कम न थी. इसलिए लोगों के बीच वह व्यक्ति गुणी, अतिरिक्त सम्मान और सराहना का पात्र समझा जाता. चतुर किस्सागो अपनी रचना में जीवन–जगत से जुडे़ उदाहरण पेश करता, साथ में कुछ न कुछ काम की बातें भी जोड़ देता था. इससे वे न केवल मनोरंजन की कसौटी पर सौ टका खरी उतरतीं, बल्कि बालकों–बड़ों को बौद्धिकरूप में समृद्ध भी बनाती थीं. इस तरह साहित्य का वाचिक रूप समाज में विकसित होने लगा था. लेखनकला का विकास हुआ तो रोजमर्रा के अनुभवों तथा संपर्क में आने वाले व्यक्तियों, पशु–पक्षियों, वस्तु जगत आदि को लोकाख्यानों में ढालने, सुगठित रचना का रूप देने की परंपरा बनी. इससे साहित्य और अन्यान्य कलाओं के विकास को गति मिली. अनुभव सहेजे जाने से मनुष्य के बौद्धिक विकास को पुनः गति मिली.
सभ्यता के विकास केव्व दौरान अक्षर की खोज मनुष्य के लिए सर्वाधिक चौंकाने और आत्ममुग्ध कर देने वाली है. यह उसको रचयिता की अनुभूति से भर देती है. इसलिए मनुष्य ने ज्यों ही अक्षरों को जोड़ना सीखा, इस कला का उपयोग उसने अपने सोच और संकल्पनाओं को शब्दबद्ध करने के लिए किया. इसमें उसको अभूतपूर्व आनंद मिला. मनुष्य अथवा समाज विशेष की धार्मिक–आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के उस समय तक पूर्णतः निजी, सीमित और उथला रह जाने का अंदेशा था, जब तक कि उनमें समाज के वृहद हिस्से के लिए उपयोगी तत्व न हो. इसलिए उसके लेखन में धार्मिक–आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के साथ उन सामान्य नैतिकताओं को भी स्थान मिलने लगा, जिन्हें मनुष्य ने विकासक्रम के अंतर्गत अपने अनुभव से जाना–समझा था. जिनके बिना उसे लगता था कि समाज का चल पाना असंभव होगा. रचे गए धर्म–ग्रंथ तथा उनमें वर्णित विचार सर्वमान्य तथा बहुउपयोगी हों, इसके लिए उनमें लोककल्याण की भावना को स्थान मिला. चूंकि सृजन का काम कहीं न कहीं बड़ेपन की अनुभूति से भी भर देता था, अतएव रचनाकार तथा उसकी कृति को दैवीय मानने का चलन हुआ. मानवमात्र के लिए कल्याणकारी कृतियों को लोकेत्तर माने जाने का चलन आरंभ हुआ. वे आसानी से सर्वग्राह्यः हों, इसके लिए उनके साथ दैवीय सहमति जैसा कुछ जोड़ा जाने लगा. भारतीय मनीषियों ने नाम के बजाय लेखन के उद्देश्य को प्राथमिकता दी है. विशेषकर प्राचीन समाजों में, जहां विद्वानों की लंबी कतार है जो अपनी बड़ी से बड़ी रचना से अपना जोड़ने के बजाय उसको स्थापित गोत्र या ऋषिकुल के नाम करते रहे हैं. उनके द्वारा प्रणीत ग्रंथों का उद्देश्य ही लोककल्याण की उदात्त भावना थी. समाज की ओर से मानव जीवन के लिए अनिवार्य मान लिए गए आचार–विचारों के प्रतिपादन हेतु रचित ग्रंथों को कालांतर में दैवीय मानने का चलन हुआ. इस प्रवृत्ति के पीछे आरंभ में भले ही मनुष्य की सदेच्छाएं, सद्भावनाएं रही हों, मगर यह सर्वथा निःस्वार्थ नहीं रह सका. कुछ अरसे बाद ही उनके समर्थन का हवाला देते हुए समाज में एक परजीवी वर्ग पनपने लगा. उसने स्वयं को धर्म–ग्रंथों का व्याख्याकार, लेखक बताते हुए उनमें मनमाना प्रक्षेपण करना आरंभ कर दिया. प्राचीन ग्रंथों के प्रणयन से एक संकेत भी मिलता है कि वैचारिक द्वंद्व और मत–वैभिन्न्य उस उस समय भी थे. ऐसे में वही लेखक या लेखक समूह, जो अपने विचारों के संग्रंथन में सफल रहा, जिसने समावेशी दृष्टि का परिचय दिया, अपने विचारों को बचाने तथा दूर–दूर तक फैलाने में भी कामयाब हो सका.
साहित्य का आधुनिक रूप औद्योगिकीकरण और विज्ञान के विस्तार की देन है. जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, उससे पहले या तो सामंतों और राजाओं की प्रशस्ति में किया जाने वाला लेखन था, अथवा आत्मश्लाघा से भरा इतिहास, जिसे राजा और बादशाह अपने आश्रित विद्वानों से लिखवाया करते थे. गौरवशाली अतीत से आगामी पीढ़ियों को परचाने के लिए प्रत्येक भाषा और समाज में महाकाव्य भी लिखे गए. उनमें इतिहास, अर्थशास्त्र, दर्शन तथा राजनीतिक–सामाजिक गठन का विवरण मिलता है. इन सब ग्रंथों का आज साहित्येतिहासिक महत्त्व है, मगर उन्हें आधुनिक चेतनाबोध का उत्स मान लेना, एक प्रकार का अतीत व्यामोह, नास्टेल्जिया या अधिक से अधिक स्मृति को सहेजने का परिणाम है. साहित्य में समकालीन मूल्यबोध ही सर्वाधिक प्रेरणाशील एवं उपयोगी होता है. लेकिन परंपरागत रूप में सहेजे गए आचार–विचार, नियम, संकल्प आदि भी अपनी भूमिका निभाते हैं.
भारतीय संदर्भों में मनुष्य के सामाजिक–सांस्कृतिक विकास के आगे के इतिहास को हम चार वर्गों में बांट सकते हैं—
क. वैदिक युग:यह युग मानवेतिहास में लगभग तीन हजार ईसा पूर्व से लेकर लगभग एक हजार वर्ष ईसापूर्व तक विस्तृत है.
ख. महाकाव्य युग:एक हजार ईसा पूर्व से लगभग छह सौ ईस्वी पूर्व तक.
ग. बौद्धकाल:ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर हर्षवर्धन तक. इस कालखंड का बड़ा हिस्सा इतिहास में भारत के स्वर्णकाल के नाम से भी जाना जाता है. हम इसको प्रबोधनकाल भी कह सकते हैं.
घ. मध्यकाल से लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन तक:इसमें भक्ति आंदोलन का परिवर्तनकारी दौर भी शामिल है.
ङ. आधुनिक काल:सुविधा की दृष्टि से इस कालखंड को चाहें तो स्वतंत्रता पूर्व और स्वातंत्रयोत्तर भारत में पिछली शताब्दी के दौरान रचे गए बालसाहित्य में भी बांट सकते हैं.
बालसाहित्य की स्वतंत्र अवधारणा का विकास तो बीसवीं शताब्दी में हुआ. उससे पहले बच्चे बड़ों के लिए गए साहित्य से काम चलाते थे. बड़ों के लिए लिखी गई जो रचना बच्चों को रुचिकर लगती, वही उनकी हो जाती थी. यह बात विद्वानों के काफी देर से समझ आई कि बच्चों की रुचि और मनोविज्ञान को पहचानते हुए उनके लिए अलग साहित्य रचा जाए. यह सिर्फ भारत में नहीं हुआ, बल्कि दुनिया के प्रायः सभी देशों, भाषाओं की यही स्थिति रही. वहां भी जिसको श्रेष्ठतम बालसाहित्य कहा जाता है, वह मूलतः बड़ों के लिए रचा गया है. दूसरे शब्दों में बालोपयोगी साहित्य से बालसाहित्य तक की यात्रा अपने भीतर लंबा इतिहास समेटे हुए है. बालसाहित्य की पीठिका को समझने के लिए उसपर संक्षिप्त चर्चा आवश्यक है.
पुरा वैदिक युग से वैदिक युग तक
कहानी कहने–सुनने का इतिहास मानवीय सभ्यता के इतिहास से भी बहुत अधिक पुराना है. सितंबर 1940 को में भ्रमण पर निकले चार फ्रांसिसी किशोरों—मार्सल रेवीडट, जेकुइस मार्शल, साइमन कोइनकस तथा जार्ज एंगेल ने पाइरेनीस पर्वतमालाओं के बीच लेसका॓क्स नामक गुफाओं की ऐसी शृंखला की खोज की, जिनकी दीवारों पर जानवरों और कीड़े–मकोड़ों की रंगीन चित्राकृतियां बनी हैं. उससे पहले 1880 स्पेन की अल्टामाइरा नामक गुफाओं में भी इसी प्रकार की शैल–चित्र शृंखलाएं पाई गई थीं. ये चित्र महज दीवारों पर उकेरी गई आकृतियां नहीं हैं. बल्कि उनमें अद्भुत कलात्मक तारतम्यता है, जिसमें कथात्मकता का आभास होता है. उससे लगता है कि प्राचीन मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति और मनोरंजन के माध्यमों की खोज कर चुका था. अल्टामाइरा की गुफाओं की जब खोज की गई तो अनेक विद्वानों ने इस बात पर संदेह व्यक्त किया था कि पूर्व पाषाण युग का मनुष्य इस प्रकार कलात्मक अभिव्यक्ति की क्षमता क्षमता शायद ही रखता था. उसकी अगली कड़ी के रूप में लेसकाॅक्स गुफाओं की खोज ने उनके संदेह को निर्मूल सिद्ध कर दिया है. कार्बन जांच से पता चला है कि इनमें से कुछ गुफाएं 35,000 वर्ष पुरानी हैं. 1940 के बाद लेसकाक्स में दर्जनों गुफाओं की खोज की जा चुकी है. उनकी दीवारों पर विभिन्न पशुओं की आकृतियां इस प्रकार चित्रित की गई हैं, मानो उनके माध्यम से कहानी कहने का प्रयास किया गया हो. स्पष्ट है कि आखेट युग में मनुष्य कहानी कहने की कला में प्रवीणता प्राप्त कर चुका था. यह स्वाभाविक भी था. समूह में रहकर शिकार करने वाला मनुष्य शाम को जब अपने परिजनों के साथ आराम करने के लिए जुटता होगा, तो दिन–भर की घटनाओं को सुनने–सुनाने की रुचि स्वाभाविक रूप से लोगों को रहती होगी. इसी से कहानी कला का विकास हुआ. आदि मानव के लिए कहानी सुनना–सुनाना भी चमत्कारी कला रही होगी. समूह के उन सदस्यों को जो किसी कारण उस दिन शिकार पर जाने में असमर्थ रहे हों, अथवा वृद्ध परिजनों जो शिकार करने में अक्षम हो चुके हों, को दिन–भर की संघर्षपूर्ण घटनाओं का रोमांचक बयान देना एक नैमत्तिक कर्म रहा होगा. यदि शिकार करते समय कोई बड़ी घटना घटी है अथवा कोई बड़ा शिकार करने में कामयाबी मिली है तो उसको समूह के सदस्यों के बीच बांटना बड़ा मनोरंजक रहा होगा. कहानी सुनाने के उत्साह में अवश्य ही कुछ अतिश्योक्तिपूर्ण, कुछ अतिरेकी होता होगा, जिसे श्रोता ज्यादा पंसद करते हों. इससे सचाई से परे केवल कल्पनाधारित किस्से–कहानी गढ़ने की शुरुआत हुई, जिनका ध्येय केवल मनोरंजन था. धीरे–धीरे जंगल तथा वहां के जानवरों के बारे में कहानियों गढ़ना, शिकार के बनावटी किस्से सुनाने का प्रचलन भी बढ़ता गया.
आदिमानव के लिए यह भी संभव नहीं था कि वह प्रतिदिन शिकार पर जा सके. इसलिए विश्राम के दिनों में शिकार की रूपरेखा बनाना, बच्चों एवं वृद्धों को वन्य जीवों एवं शिकार के बारे में बताना, अपनी स्मृति को बनाए रखने के लिए विशिष्ट अवसरों पर घटनाओं को पत्थर पर उकेरना आदिमानव के पसंदीदा काम रहे होंगे. यह कार्य विभिन्न स्थानों पर वन्य जीवों तथा जंगल की परिस्थितियों के अनुसार भिन्न–भिन्न प्रकार से किया जाता है. इससे अलग–अलग संस्कृतियों की नींव पड़ी. सिंधु घाटी की सभ्यता में भी बड़ी संख्या में प्रस्तर चित्रावलियां प्राप्त हुई हैं, जिससे लगता है कि वहां भी कहानी कहने की परंपरा मौजूद थी. कह सकते हैं कि कहानियों गढ़ने का प्रचलन एक युगीन घटना है.
शिकार कर्म में निपुण, समूह का नेतृत्व करने वाले नायक, अथवा शिकार के दौरान विपरीत परिस्थितियों में विशिष्ट साहस का प्रदर्शन करने वाले व्यक्ति को अतिरिक्त सम्मान का पात्र समझा जाता होगा. इसलिए उसके किस्से समूहों के बाकी सदस्यों और बच्चों को सुनाने की परंपरा बनी होगी. इसने कालांतर में समूह के नायकों, बहादुर व्यक्तियों को अतिरिक्त महत्त्व मिलना शुरू हुआ. प्रकारांतर में सर्वगुणसंपन्न व्यक्तित्व के रूप में देवताओं की कल्पना की गई. सबसे पहले यह कल्पना कहानियों के माध्यम से सामने आई होगी. इस आधार पर कहा जा सकता है कि कहन की परंपरा मानव–संस्कृति की न केवल साक्षी बनी, बल्कि उसमें सहायक भी रही है. आगे चलकर जब मनुष्य ने पशुपालन व्यवस्था से कृषि व्यवस्था में प्रवेश किया, गांवों और कस्बों का विकास हुआ तो ऐसे व्यक्तियों जो घटनाओं को आकर्षक ढंग से सुना सकें को अतिरिक्त महत्त्व दिया जाने लगा. इसी से पेशेवर किस्सागो का जन्म हुआ. दुनिया का पहला लिखित किस्सा यूनान में गिलगमेश के महाकाव्य के रूप में उपलब्ध है. वह लगभग 4000 वर्ष पुराना है. यूनान के अलावा चीन और भारत भी कहानी सुनने–सुनाने की परंपरा आदिकाल से रही है.
प्रायः सभी प्रमुख सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ. पानी की उपलब्धता के कारण वहां पर खेती करना, पशुओं के लिए भोजन जुटाना आसान था. परंतु नदी के तटवर्ती जीवन–बसर की अपनी अलग समस्याएं थीं. बरसात के दिनों में उमड़ती नदियां पूरी बस्ती को तबाह कर जाती थी. तबाही का मंजर वर्षों तक लोगों की यादों में बना रहता और धीरे–धीरे किस्से कहानी का रूप ले लेता. प्रायः सभी सभ्यताओं में जल–प्लावन को युगांतरकारी घटना के रूप में दर्ज किया है. भारतीय प्रायद्वीप में भी जल–प्लावन की घटना शतपथ ब्राह्मण में नई सृष्टि के जन्म के रूप में दर्ज है. इस बात के भी पर्याप्त प्रमाण है कि ईसा से तीन हजार वर्ष तक पहले गांवों में स्थानीय प्रशासन व्यवस्था विकसित हो चुकी थी. ग्राम्य–स्तर के पदाधिकारियों में ग्रामणी के अलावा किस्सागो का भी पद हुआ करता था. विशिष्ट अवसरों पर वह कहानी सुनाकर गांववालों का मनोरंजन करता था. लेखनकला का विकास उस समय तक नहीं हो पाया था. समूह की अनुभव संपदा और रोमांचक स्मृतियों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने का दायित्व किस्सागो का था. इसलिए उसे हम उस दौर का संस्कृतिकर्मी भी कह सकते हैं. इस तरह कहानी के कहन की परंपरा का इतिहास सभ्यता के इतिहास जितना ही पुराना है. विभिन्न संस्कृतियों में गढ़ी गई प्राचीन कहानियोंं में आश्चर्यजनक एकरूपता है. बाढ़ की स्मृतियां लगभग सभी में सुरक्षित हैं. इसके अलावा नैतिकता के प्रति तीव्र आग्रह, भोजन के बंटवारे को लेकर संघर्ष की लगभग एक समान स्थितियां हैं.
ऋग्वेद को भारतीय मेधा का पहला लिखित दस्तावेज माना जाता है. विद्वानों के अनुसार इसका संहिताकरण ईसा से करीब 1500 वर्ष पहले किया गया. हालांकि श्रुति परंपरा के रूप में यह ग्रंथ उससे बहुत पहले से भारतीय जनजीवन को प्रभावित करता रहा है. विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद की कुछ ऋचाएं ईसा से पांच से छह हजार वर्ष पुरानी हैं. ऋग्वेद तक आते–आते भारत में नागरी सभ्यता विकसित हो चुकी थी. बालक के महत्त्व को समझा जाने लगा था. यद्यपि उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व को मान्यता नहीं मिल पाई थी, तथापि उसके चारित्रिक विकास में शिक्षा के योगदान को स्वीकारा जाने लगा था. वेद, उपनिषद, स्मृति–गं्रथ और आरण्यकों में ऐसी अनेक कहानियों उपलब्ध हैं, जिनको आज भी हिंदी बालसाहित्य की महत्त्वपूर्ण निधि के रूप में स्वीकार किया जाता है. वेदों में ऐसी अनेक कथाएं हैं, जिनके पात्र बच्चे हैं. उनसे यह साफ जाहिर होता है कि उनकी रचना बच्चों को संस्कारित करने अथवा उनकी संस्कारशीलता को दर्शाने हेतु की गई थी. इनमें सत्यकाम जाबालि, नचिकेता, आरुणि उद्दालक, उपमन्यु की कहानियों उदात्त बालचरित्रों को दर्शाती हैं—
‘‘जाबाला का पुत्र सत्यकाम अपनी माता के पास जाकर बोला, ‘हे माता, मैं ब्रह्मचारी बनना चाहता हूं. मैं किस वंश का हूं?’
माता ने उसे उत्तर दिया, ‘हे मेरे पुत्र! मैं नहीं जानती कि तू किस वंश का है. अपनी युवावस्था में जब मुझे दासी के रूप में बहुत अधिक बाहर आना–जाना होता था, तभी तू मेरे गर्भ में आया था. इसलिए मैं नहीं जानती कि तू किस वंश का है. मेरा नाम जाबाला है. तू सत्यकाम है. तू कह सकता है कि मैं सत्यकाम जाबाला हूं.
हरिद्रमुत के पुत्र गौतम के पास जाकर उसने कहा, ‘भगवन्! मैं आपका ब्रह्मचारी बनना चाहता हूं. क्या मैं आपके यहां आ सकता हूं?’
उसने सत्यकाम से कहा, ‘हे मेरे बंधु, तू किस वंश का है?’
उसने कहा, ‘भगवन्, मैं नहीं जानता कि मैं किस वंश का हूं. मैंने अपनी माता से पूछा था और उसने यह उत्तर दिया—‘अपनी युवावस्था में जब दासी का काम करते समय मुझे बहुत बाहर आना–जाना होता था, तब तू मेरे गर्भ में आया. मैं नहीं जानती कि तू किस वंश का है. मेरा नाम जाबाला है और तू सत्यकाम है’—इसलिए हे भगवन्! मैं सत्यकाम जाबाला हूं.’
गौतम ने सत्यकाम से कहा कि, ‘एक सच्चे ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य कोई इतना स्पष्टवादी नहीं हो सकता. जा और समिधा ले आ. मैं तुझे दीक्षा दूंगा. तू सत्य के मार्ग से च्युत नहीं हुआ है.’’ (छांदोग्योपनिषद 4.4,1,4).
भले ही विधिवत बालसाहित्य का हिस्सा न हों, पर ये कहानियोंं कहन की उस परंपरा का विस्तार हैं, जो उससे हजारों वर्ष पहले आरंभ हो चुकी थी. चूकि वेद–उपनिषद आदि दार्शनिक विवेचना के लिए लिखे गए ग्रंथ हैं, अतएव उनमें बालकों को भी दर्शन के गूढ़ प्रश्नों से साक्षात करते हुए दिखाया गया है. आरुणि उद्दालक, उपमन्यु की कहानियोंं तो सर्वख्यात हैं. दोनों में ही गुरुभक्ति और समाज के प्रति अनन्य निष्ठा का प्रदर्शन हैं. आरुणि गुरु के आदेश पर बांध का निरीक्षण करने जाता है. बरसात का मौसम है. बांध पर जाकर वह देखता है कि वहां से पानी रिस रहा है. आरुणि पानी को रोकने का प्रयास करता है. मगर नाकाम रहता है. इसी कोशिश में शाम हो जाती है. बांध का छेद बढ़ता ही जा रहा है. आश्रम और खेतों को बचाने के लिए आरुणि को जब कोई और उपाय नहीं सूझता तो वह बांध के टूटे हुए भाग से पीठ सटाकर बैठ जाता है. पूरी रात वह बांध से पीठ सटाए बैठा रहता है. सुबह ऋषि धौम्य अपने शिष्यों के साथ आरुणि को खोजते हुए वहां पहुंचते हैं, तब उन्हें आरुणि की गुरुभक्ति एवं आश्रम के प्रति निष्ठा का पता चलता है.
छांदोग्योपनिषद के एक प्रसंग में श्वेतकेतु को अपने पिता से संवाद करते हुए दर्शाया गया है. पिता उससे कहता है—
‘वहां से मेरे लिए न्यग्रोध वृक्ष का फल लाकर दो.’
‘यह लीजिए, भगवन, यह है.’
‘इसे फोड़ो.’
‘लीजिए तात्, यह फूट गया.’
‘तुम्हें इसमें क्या दिखाई देता है.’
‘यह बीज है, जो अत्यंत सूक्ष्म है.’
‘इसमें किसी एक को फोड़ो.’
‘लीजिए भगवन, यह फूट गया.’
‘तुम्हें इसमें क्या दिखाई देता है?’
‘कुछ नहीं भगवन्!’
पिता ने कहा, ‘हे मेरे पुत्र, वह सूक्ष्म तत्व जो तुम्हें उसमें प्रत्यक्ष नहीं होता, वस्तुतः उसी तत्व से इस महान नयग्रोध वृक्ष की सत्ता है. हे मेरे पुत्र! विश्वास करो इस सत्य पर कि यह सूक्ष्म तत्व ही है, और इसी के अंदर सब कुछ वर्तमान है. वही आत्मा को धारण करता है. यही सत्य है. यही आत्मा है. और तू, हे श्वेतकेतु, तू यही है.’’
(छांदोग्योपनिषद: 6: 10 और आगे).
नचिकेता और उपमन्यु की कथाओं के बीजतत्व ऋग्वेद में मौजूद हैं. सम्राट वाजश्रवा का पुत्र नचिकेता पिता द्वारा बीमार और अशक्त गायों को दान दिए जाने पर खिन्न होकर पिता से पूछता है—‘पिताजी मुझे किसको दान देंगे?’ पिता के यह कहने पर कि यमराज को, तब वह उससे मिलने की उत्कंठा में राज्य छोड़ देता है. लंबी साधना के उपरांत उसकी भेंट यमराज से होती है. यमराज उसको मृत्यु के बारे में बताते हैं. यह प्रसंग कठोपनिषद् में विस्तार आया है. बल्कि पूरी उपनिषद ही यमराज और नचिकेता के संवाद पर केंद्रित है. कुछ लोग यह कह सकते हैं कि आठ–नौ वर्ष के बालक से जीवन–मृत्यु जैसे गंभीर प्रश्नों पर संवाद कराना उसके साथ खिलवाड़ करना है. भले ही यह संवाद सर्वथा काल्पनिक हो. तो भी यह कहा जा सकता है कि उस समय तक जीवन–मूल्यों, विचारों, दार्शनिक–सामाजिक मान्यताओं को लेकर साहित्य सृजन की शुरुआत हो चुकी थी. दूसरे यह उस कालखंड की रचना है जब आश्रमों में दार्शनिक प्रश्नों पर विमर्श करना सामान्य चर्या थी. शिष्य गुरु के सान्न्ध्यि में रहता था. माता–पिता भी अपने बच्चों को गुरु के आश्रम में कठोर दिनचर्या के लिए छोड़ देते थे, ताकि उसका नवोन्मेष हो सके. बच्चों के प्रसंग में एक संस्कार का उल्लेख ऋग्वेद में कई स्थानों पर हुआ है. वह था—उपनयन संस्कार. जब बालक माता–पिता के आंगन से निकलकर गुरु के आश्रम में चला जाता था. शिक्षार्जन करने. जितनी अवधि वह पाठशाला में रहता, उसपर केवल उसके गुरु का आदेश चलता था. शिष्य की निष्ठा को परखने के लिए गुरु उसकी तरह–तरह से परीक्षा भी लेते थे. एक और बालक उपमन्यु की गुरुभक्ति का किस्सा ऋग्वेद में मिलता है—
‘‘महर्षि आयोदधौम्य का शिष्य उपमन्यु दूसरे शिष्यों के साथ भिक्षाटन करने जाता है. एक दिन गुरु प्रश्न करते हैं—
‘वत्स उपमन्यु, तुम भोजन क्या करते हो.’
‘गुरुदेव भिक्षाटन से जो मिलता है, उसी से कुछ अपने लिए रख लेता हूं.’
‘पर भिक्षाटन पर तो गुरु और आश्रम का अधिकार होता है.’
अगले दिन उपमन्यु को जो भिक्षान्न प्राप्त हुआ वह उसने गुरु के समक्ष लाकर रख दिया. गुरु ने उसको आश्रम के सुपुर्द कर दिया. उपमन्यु को भूखा रह जाना पड़ा. दूसरे दिन भी यही हुआ तो उपमन्यु भूख मिटाने के लिए दुबारा भिक्षाटन के लिए निकल गया. अगले दिन गुरुदेव ने पुनः वही प्रश्न किया—
‘वत्स उपमन्यु, आजकल भोजन क्या करते हो?’ उपमन्यु ने सच कह दिया. इसपर गुरु विचलित होकर बोले—‘दुबारा भिक्षाटन करना तो धर्म विरुद्ध है. इससे गृहस्थों पर अतिरिक्त भार पड़ता है.’
गुरु की आज्ञा मानकर उपमन्यु ने वह भी छोड़ दिया. एक दिन गुरु ने फिर पूछा—
‘वत्स उपमन्यु, आजकल भोजन क्या करते हो?’
‘गुरुदेव, गायों का दूध पी लेता हूं.’
‘परंतु आश्रम की गायों पर तो मेरा अधिकार है? मुझसे बिना अनुमति के गायों का दूध पी लेना तो चोरी हुई.’ उसके बाद उपमन्यु केवल दूध दुहने के बाद गायों के फेन से काम चलाने लगा. गुरु को पता चला तो वह भी बंद करा दिया. उपमन्यु निराहार रहने लगा. भूख असह् होने पर एक दिन उसने आक के पत्ते खा लिए. इससे उसकी नेत्रों की ज्योति चली गई…’’
कहानी का अंत दुःखद होता है. गुरु–शिष्य के संबंधों में बंटी उस शिक्षा–व्यवस्था में गुरु के गुरुत्व को दर्शाने के लिए चामत्कारिक कहानियोंं लिखना सामान्य बात थी. यहां इन कहानियों की नैतिकता खंगालने का उद्दिष्ट हमारा नहीं. हमारा उद्देश्य मात्र यह दिखाना है कि बच्चों के लिए साहित्य लेखन का आरंभ वैदिक युग में ही हो चुका था. उसका आरंभिक उद्देश्य समाज को तात्कालिक मान्यताओं, विश्वासों के अनुकूल ठालना था. यह भी कह सकते हैं कि कहन की कला लिपि के आविष्कार के साथ ही शब्दों में ढलने लगी थी. उपनिषदों, ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों और स्मृतियों में आकर इसको और भी गति मिली. कहानी सुनना–सुनाना लोगों में इतना लोकप्रिय हुआ कि हर ‘पुर’ में एक दक्ष किस्सागो की मौजूदगी अनिवार्य मान ली गई. उसको लगभग उतना ही सम्मान मिलता था, जितना गांव प्रमुख को.
महाकाव्य युग
महाकाव्य युग(1500 ईस्वी पूर्व—800 ईस्वी पूर्व तक) तक आते–आते भारतीय समाज व्यवस्थित हो चुका था. आपस में युद्धरत रहने वाले छोटे–छोटे कबीलों ने बड़े राज्यों में संगठित होना आरंभ कर दिया था. राजाओं में स्पर्धा और साम्राज्यवादी ललक बढ़ी थी. अर्थव्यवस्था के स्रोतों में भी बदलाव आया था. कृषि की उपयोगिता बढ़ती जा रही थी. हालांकि समाज के कुछ वर्ग उस समय भी पशुपालन अर्थव्यवस्था को अपनाए हुए थे.अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करता, अधिक से अधिक कृष्ठ भूमि को अपनी सीमाओं में सम्मिलित करना, वीरता और राजकीय कौशल की पहचान बन चुका था. जिस सम्राट का अधिक भू–भाग पर अधिकार हो, वह अधिक सम्मान का पात्र माना जाने लगा था. कृषि के विकास ने सहायक उद्योग–धंधों को जन्म दिया था. लोगों की आवश्यकताएं निरंतर बढ़ रही थीं. इसके फलस्वरूप समाज में शिल्पकार वर्ग का सम्मान बढ़ा था. आय बढ़ने से व्यापार में तेजी आई थी. समृद्धि और वैभव के प्रतीक बड़े–बड़े प्रासाद, अट्टालिकाएं, दुर्ग समाज में आकर्षण का केंद्र बनते जा रहे थे. वर्ग–विभाजन एवं आर्थिक स्तरीकरण की शुरुआत हो चुकी थी. शीर्षस्थ वर्ग की निकटता का लाभ उठाने के लिए पुरोहितों एवं धर्माचार्यों ने लोगों को अपने प्रभाव में लेना आरंभ कर दिया था. वे धर्म के नाम पर लोगों का सत्ता के साथ अनुकूलन करना सिखा रहे थे. राजा का पद महत्त्वपूर्ण था. उसको पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था. उससे अपेक्षा की जाती थी कि वह ब्राह्मण को यथोचित महत्त्व दे. इस तरह पूरे समाज पर धर्मसत्ता और राजसत्ता का समवेत अधिकार था.
उस दौर में बच्चों के लिए अथवा उनके नाम पर जो साहित्य रचा गया, वह किसी न किसी प्रकार इन्हीं दो सत्ताओं से संबद्ध था. उसका एक ही उद्देश्य था शिखर–सत्ताओं से तालमेल बनाकर चलना. उससे अनुकूलन करते रहने की शिक्षा देना. कर्मकांड और दैवीय ताकतों के भरोसे पूरा समाज स्वयं को वर्णव्यवस्था के अनुरूप ढाल चुका था. वर्चस्ववादी सत्ता का विरोध उस समय भी होता था. उसके प्रमाण वैदिक और उत्तरवैदिक साहित्य में भरे पड़े हैं. रामायण–महाभारतकाल तक वैदिक सभ्यता के समानांतर उसी के समान तेजवंत और प्रतापी सभ्यता मौजूद थी. उसको रक्षक(राक्षसी) सभ्यता कहा गया है. इस सभ्यता का कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है. दोनों महाकाव्य असल में पुरातन रक्षक सभ्यता पर वैदिक सभ्यता की जीत का बयान है. आर्यों को युद्धप्रिय जाति बताया गया है. अतः यह संभव है कि आर्य–द्रविड़ युद्ध में युद्ध जीतने के उपरांत आर्यों ने रक्षक सभ्यता के सभी संदर्भग्रंथ, साहित्यिक प्रमाण जला दिए हों. वैदिक साहित्य में इंद्र की महिमा तथा उस समय के देव–दानव युद्धों का वर्णन तो है, लेकिन उस समय के रक्षक सभ्यता के साहित्य का नामोल्लेख तक नहीं है. जिसको प्राचीन भारतीय साहित्यिक संपदा कहा जा सकता है, वह असल में व्यवस्था से अनुकूलित–मर्यादित साहित्य–रचना है. उसमें विद्रोह की छवि सर्वथा अलभ्य है. अपने से बड़ों के प्रति विद्रोह तो दूर मतभेद की अनुमति तक नहीं थी. बालक को घर में माता–पिता और पाठशाला में गुरु के अनुशासन में रहना पड़ता था. इस युग के बालकों में राम और कृष्ण के अलावा एकलव्य, श्रवण कुमार, कौषिक, ध्रुव, प्रहलाद, लव–कुश आदि ऐसे बालचरित्र हैं, जिनका उल्लेख रामायण और महाभारत दोनों में मिलता है. इनमें ध्रुव और प्रहलाद की कहानियोंं आर्य संस्कृति के विस्तार को दर्शाती हैं. जबकि एकलव्य की कहानी एक बालक के आत्मविश्वास और अंततः उस व्यवस्था से छले जाने की गाथा है.
एकलव्य सम्राट हिरण्यधेनु का बेटा है. द्रोणाचार्य जो केवल राजपुत्रों को शस्त्र–संधान करना सिखाते हैं, की ख्याति से प्रभावित होकर वह उनके पास जाता है. ठुकराए जाने पर वह उन्हीं को गुरु मानकर अपनी एकांत साधना आरंभ कर देता है. कठिन परिश्रम और अनवरत अभ्यास द्वारा वह अल्प समय में ही इतनी निपुणता प्राप्त कर लेता है कि उसके धनु–संधान कौशल की धूम मच जाती है. एक दिन द्रोणाचार्य स्वयं शर–संधान का उसका कौशल देख चमत्कृत रह जाते हैं. एकलव्य का शस्त्र–कौशल देखकर उन्हें अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के लिए दिया गया वचन खटाई में जान पड़ता है. उसमें जीत ब्राह्मणवाद की होती है. द्रोण कुटिलतापूर्वक एकलव्य का अंगूठा मांग लेते हैं. उल्लेखनीय है कि बालक एकलव्य स्वयं राजपुत्र है. द्रोण द्वारा केवल राजपुत्रों को शस्त्र–संधान सिखाने की शर्त को वह पूरा करता है. यही विश्वास उसको उनके पास खींच ले जाता है. हालांकि उसके अग्रज जानते हैं कि द्रोण उसको शिक्षा देने को हरगिज तैयार न होंगे. वही होता भी है. द्रोण इन्कार कर देते हैं. एकलव्य का संबंध उस अनार्य संस्कृति से था, जिसपर विजय की कामना रामायण और महाभारत युद्ध की प्रमुख प्रेरणाएं हैं. सांस्कृतिक प्रेरणा के दबाव में ही द्रोण गुरुदक्षिणा में एकलव्य का अंगूठा मांग लेता है. एक विलक्षण अनार्य योद्धा आर्य संस्कृति के मनमाने आचरण और सम्मोहन का शिकार हो जाता है. विलक्षण प्रतिभा की इस बलात् हत्या को ‘गुरुभक्ति’ का नाम दिया जाता है. एकलव्य की कहानी यदि देखा जाए तो सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की कहानी है. दिखाती है कि एक ताकतवर संस्कृति किस प्रकार कमजोर संस्कृति को मिटने पर बाध्य कर देती है. यह बात बिलकुल भिन्न है कि कटे हुए अंगूठे के बावजूद एकलव्य केवल उंगलियों की मदद से तीर–संधान के अपने अभ्यास को जारी रखता है और जरासंध की सेना में सम्मिलित होकर कृष्ण के आगे चुनौती पेश करता है. उस युद्ध में वह वीरगति को प्राप्त होता है. उसकी वीरता देखकर स्वयं कृष्ण सम्मोहित हैं. महाभारत युद्ध में पराक्रमी एकलव्य के रणकौशल की प्रशंसा करते हुए वे अर्जुन से कहते हैं—‘हे पार्थ! आज यदि एकलव्य जीवित होता तो देव, दानव और नाग ये सब मिलकर भी उसे युद्ध में जीत नहीं सकते थे.’ एकलव्य के साथ हुए अन्याय का बोध विजेता संस्कृति के आचार्यों को भी रहा. संभवतः इसी घटना से जन्मे पापबोध पर पछतावा करते हुए बाद के एक उपनिषदकार ने कहा है—
‘वत्स, तू केवल हमारे अच्छे कर्मों से प्रेरणा लेना. उससे इतर कर्मों से: अर्थात जो अश्रेष्ठ और हेय हैं, तू कोई शिक्षा ग्रहण मत करना.’1
तत्कालीन साहित्य द्वारा यह भ्रम भी लगातार बनाया जाता है कि केवल क्षत्रिय ही राज करते थे या विद्याध्ययन का कार्य केवल तथा केवल ब्राह्मण शिक्षित एवं विद्धान. इतिहास में कोई समय ऐसा नहीं हुआ जब केवल इन्हीं दो वर्गों का वर्चस्व रहा हो, लेकिन इस व्यवस्था से अनुकूलन की कोशिश हर समय होती रही. लेकिन समाज पर धर्म का बढ़ता अनुशासन सदैव प्रतिगामी रहा हो, ऐसा नहीं है. अच्छे जीवन–मूल्यों से परचाने के लिए भी धर्म को माध्यम बनाया जाता था.
महाभारत में कौषिक नाम के ब्राह्मण की एक बालोपयोगी कहानी आती है—
‘‘वेदाध्ययन को उत्सुक कौषिक जब गुरु की खोज में जाने को उद्धत हुआ तो उसके वृद्ध माता–पिता को चिंता हुई. मां ने कहा—
‘वत्स! हम दोनों जराशक्त हैं. तुम चले गए तो हमारी देखभाल कौन करेगा?’
कौषिक पर तो वेदाध्यन का भूत सवार था. वृद्ध माता–पिता को निराश्रित छोड़कर वह जंगल की ओर प्रस्थान कर गया. कुछ वर्षों की साधना के पश्चात उसने अनेक सिद्धियां प्राप्त कर लीं. एक दिन वह एक वृक्ष के नीचे बैठा आराम कर रहा था. उसी समय एक सारस ऊपर डाल पर आकर बैठ गया. उसने कौषिक के सिर पर बीट कर दी. कुपित कौषिक ने पक्षी को घूरा. कहानी बताती है कि तापस की कोप दृष्टि के आगे पक्षी कहां टिक पाता. वह भस्म होकर भूमि पर आ गिरा. पक्षी को जमीन पर तड़फते देख कौषिक को बड़ा अपराधबोध हुआ—
‘यदि मैं अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं रख पाता तो मुझे मान लेना चाहिए कि मेरी साधना में दोष है.’ उसने स्वयं से कहा. समस्या थी कि गुस्से पर नियंत्रण कैसे प्राप्त हो? अगले दिन वह भिक्षाटन के लिए निकला. एक गृहणी के द्वार जाकर उसने टेर लगाई. गृहणी बाहर आई और शीघ्र लौटने का आश्वासन देकर भीतर चली गई. उसी समय स्त्री का पति वहां पहुंच गया. स्त्री सब–कुछ छोड़कर अपने पति की सेवा में जुट गई. कौषिक को यह बहुत अपमानजनक लगा. कुछ देर बाद स्त्री भिक्षान्न का कटोरा लिए बाहर आई तो उससे रहा न गया. उसने कुपित दृष्टि स्त्री पर डाली—
‘एक साधु को दरवाजे पर छोड़कर तुम अपने पति की सेवा में जुट गईं. यह ब्राह्मण का अपमान है….’
‘मैंने तो केवल अपने कर्तव्य का पालन किया है.’ स्त्री ने उत्तर दिया.
‘ब्राह्मण के अपमान के लिए मैं तुम्हें शाप भी दे सकता हूं.’
‘मुझे धमकी देने की आवश्यकता नहीं है, भिक्षुक. मैं कोई सारस नहीं हूं जो तुम्हारी कोप–दृष्टि से भस्म हो जाऊंगी.’ कौषिक हैरान. आखिर उस घटना के बारे में स्त्री कैसे जानती हे. अवश्य यह सिद्ध स्त्री है. वह क्षमायाचना करने लगा—
‘क्षमा करें देवि, इतनी सिद्धियां प्राप्त करने के बावजूद मैं अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं रख पाता….क्या आप मेरी गुरु बनकर मुझे बताएंगी कि गुस्से पर नियंत्रण कैसे पाया जा सकता है?’
‘मेरा समय तो अपने पति और बच्चों के लिए है. मैं तुम्हें शिक्षा नहीं दे सकती. परंतु मथुरा में धर्मव्याध रहता है. वह तुम्हारी समस्या का समाधान अवश्य करेगा.’ कौषिक धर्मव्याध के पास पहुंचा. वह उस समय अपनी दुकान पर था. दुकान पर लटके मांस के लोथड़ों को देखकर कौषिक दंग रह गया—
‘एक कसाई भला धर्मसिद्ध कैसे हो सकता है.’
‘व्यक्ति को उसके कार्य से नहीं, कर्तव्य–निष्ठा द्वारा पहचाना जाता है.’ धर्मव्याध ने कहा. यही वह सीख है, जिसे समझाने के लिए उस गृहणी ने तुम्हें यहां भेजा है. आओ घर चलें. घबराओ मत, मेरा ठिकाना यहां से बस थोड़ी दूर है.’
‘मांस का कारोबार तो हिंसा से भरा है…’ चलते–चलते कौषिक ने कहा.
‘दुनिया में ऐसा कौन–सा कारोबार है, जिसमें हिंसा न होती हो. किसान हल चलाता है तो फाल से लगकर लाखों कीड़े–मकोड़ों की सहसा जान चली जाती है, पर किसान को कोई कसाई या हत्यारा नहीं कहता. राह चलते व्यक्ति के कदमों के नीचे भी हजारों छोटे जीव रोज कुचले जाते हैं, परंतु कोई स्वयं को अपराधी नहीं मानता. मैं भी अपना कार्य करता हूं. फिर मुझे पाप का भागीदार क्यों होना पड़ेगा?’
कौषिक धर्मव्याध के घर पहुंचा तो आंगन में बच्चों को खेलता हुआ पाया. उसकी पत्नी घर के कार्यों में लगी थी. धर्मव्याध ने बुलाकर उसका परिचय कराया. भीतर के कमरे में पहुंचा तो धर्मव्याध के वृद्ध माता–पिता वहां मौजूद थे. धर्मव्याध ने आगे बढ़कर उनके पांव छुए. फिर मुड़कर कौषिक से बोला—‘मेरे माता–पिता ही मेरे सर्वस्व हैं. अपने परिवार के साथ मैं इनकी सेवा करता हूं. जो काम अपने लिए चुना है, उसका पालन करता हूं. और बचा हुआ समय अपने माता–पिता की सेवा में लगाता हूं.’
कौषिक कुछ सोचने लगा. इसपर धर्मव्याध ने कहा—
‘यही वह शिक्षा है, जिसे ग्रहण करने के लिए उस स्त्री ने तुम्हें यहां भेजा है. ’ कौषिक को अपनी गलती का एहसास हुआ. वह वापस अपने वृद्ध माता–पिता के पास लौट गया.’’
ऊपर कहानी में उस समय की परंपरा के अनुसार यह दर्शाने की कोशिश की गई है कि समाज द्वारा निर्दिष्ट जीविका के लिए किया जाने वाला कार्य पाप की श्रेणी में नहीं आता, भले ही उससे कुछ जीवों को नुकसान पहुंचता हो. युद्धभूमि पर परिजनों को सामने देख मोहाग्रस्त हो हथियार छोड़ बैठे अर्जुन को भी कृष्ण का यही उपदेश है कि हे अर्जुन, तू केवल अपना कर्म कर. फल की चिंता जाने दे. कहानी में सामाजिक मर्यादाओं का पूरा–पूरा ध्यान रखा गया है. ब्राह्मण को देख धर्मव्याध के वयोवृद्ध माता–पिता ससम्मान प्रणाम करते हैं. ब्राह्मण उनके घर जाता अवश्य है, मगर भोजन से दूर रहता है. इस प्रकार की युगीन नैतिकता प्रधान कहानियोंं रामायण और महाभारत में भरी पड़ी हैं. दरअसल यही वह साहित्य है जो सांस्कृतिक रूप से हमारे जीवन को प्रभावित–निर्देशित करता है. प्राचीन भारतीय साहित्य की एक भी पुस्तक, इस मर्यादा के पार नहीं जाती. सिवाय चार्वाक दर्शन के जो कर्मकांडों और पोंगापंथी पर मुक्त कटाक्ष करता है, परंतु शेष साहित्य उसे इतना निंदनीय और त्याज्य घोषित कर देता है कि प्रकट रूप से उसका समर्थन कर पाना किसी के लिए भी असंभव था. ये कहानियों धार्मिक साहित्य के रूप में प्रचलित थीं. रचनाकर्मियों का लक्ष्य पाठक संपूर्ण जनसमाज था. बच्चों के लिए अलग साहित्य का विचार उस समय तक जन्मा ही नहीं था.
बौद्ध और जैन साहित्य में बालोपयोगी साहित्य
इस युग में कहानियों कहने–सुनाने की परंपरा तत्कालीन सभ्यता और संस्कृति का अंग बन चुकी थी. प्रमाणस्वरूप उस युग की उन चित्राकृतियों का जिक्र किया जा सकता है, जो हमें प्राचीन भवनों, स्तूपों, मीनारों पर उकेरी हुई प्राप्त होती हैं. उनकी उम्र दो हजार वर्ष से भी ऊपर मानी जा सकती है. गौतम बुद्ध ने मूर्तिपूजा का तीव्रतम विरोध किया था. बल्कि बौद्ध धर्म की तो नींव ही कर्मकांड, जीव हिंसा एवं मूर्तिपूजा के विरोध स्वरूप रखी गई थी. यह बात अलग है कि गौतम बुद्ध के अवसान के बाद बौद्ध धर्म को जनता के बीच स्थापित करने की छटपटाहट ने बौद्ध भिक्षुओं को भी वही रास्ते अपनाने के लिए बाध्य कर दिया था, जिसपर चलकर वैदिक सभ्यता पतनोन्मुखी बनी थी. इसके बावजूद यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि बौद्धधर्म के प्रचार–प्रसार हेतु उसके अनुयायियों ने जो रास्ते अपनाए वे कालांतर में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के बहुआयामी विकास में मददगार बने. पहली बार भारत की दार्शनिक संपदा देश की सीमाओं को लांघकर चीन, जापान, श्रीलंका, कंबोडिया, जावा, सुमित्रा, मारीशस आदि हजारों किलोमीटर दूर देशों तक पहुंची. कंबोडिया, जाबा, सुमात्रा तो भारतीय संस्कृति के अविस्मरणीय ठिकाने हें. सैकड़ों प्राचीन बौद्ध इमारतों, स्तूपों, धर्म स्तंभों पर आज गौतम बुद्ध के पूर्वजन्म की कथाएं चित्रों में उकेरी गई हैं, जो तत्कालीन समाज में कहानी की स्थापित लोकप्रियता के बारे में बताती हैं. सांची, अमरावती, सारनाथ, बेहरूत आदि स्थानों से प्राप्त बौद्धकालीन इमारतों के भग्नावशेषों, धर्मस्तंभों पर गौतम बुद्ध के पूर्वजन्म की कहानियों दी गई हैं. राजकुल में जन्मे बालक सिद्धार्थ का गौतम बुद्ध के रूप में उभरना और दार्शनिक चिंतन के आधार पर दुनिया–भर पर अपना प्रभाव जमाना अपने आप में ही एक कहानी है. ऐसी कहानी जिससे बालक और बड़े दोनों आनंद ले सकते हैं. गौतम बुद्ध के निधन के उपरांत उनके विचारों को पंथ में बदलने की चाहत ने उनके शिष्यों को बुद्ध के जीवन से जुड़ी कहानियों गढ़ने के लिए बाध्य कर दिया. परिणामस्वरूप जातक कथाओं का जन्म हुआ.
उस समय कहानियों जनसमुदाय में अपने विचारों को फैलाने का सशक्त माध्यम थी. बस्तियों में दक्ष किस्सागो का बहुत मान किया जाता था. बौद्ध धर्म की घर–घर में पैठ बनाने के लिए जातक कथाओं की रचना की गई. जैन मुनिगण भी महावीर स्वामी के बाद से ही अपने धर्म–दर्शन को किस्सों–कहानियों, किवदंतियों के माध्यम से जन–जन में लोकप्रिय बनाने के लिए जुटे थे. जातक कथाओं तथा महावीर स्वामी के जीवन तथा उनके जीवनदर्शन को लोकप्रिय बनाने के लिए कहानियों के अलावा भी इस युग में बहुत कुछ ऐसा रचा गया जिसका उद्देश्य हालांकि तात्कालिक धर्म और उसके नैतिक मूल्यों को जनसाधारण में लोकप्रिय बनाना था. कथासरितसागर, जातक कथाएं, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि प्रमुख ग्रंथ जिन्हें आज हिंदी बालसाहित्य की अमूल्य संपदा माना जाता है, की रचना इसी युग में की गई. इनमें ‘कथासरितसागर’ प्राकृत में रचित, इस भाषा की संभवतः सबसे पहली पुस्तक, गुणाढ्य की बृहद पुस्तक ‘बड्डकहा’ पर आधारित है. गुणाढ्य पंडित सातवाहन सम्राट के दरबारी थे. सातवाहन सम्राट के सिक्कों पर ‘सात’ अथवा ‘साड’ छापा गया है. वे प्राकृत भाषा के बड़े प्रेमी थे. बताते हैं कि उन्होंने अपने राजमहल में प्राकृत बोलने का नियम बना रखा था. इसके लिए संस्कृत अनुरागी पंडित समाज उनका उपहास भी करता था. ‘बड्डकहा’ का मूल स्वरूप आज अनुपलब्ध है. इसके पीछे कहानी है कि महाराज सातवाहन के ही अन्य दरबारी कवि वत्सल ‘हाल’ द्वारा कृति का उपहास उड़ाए जाने से क्षुब्ध गुणाढ्य पंडित ने उसको स्वयं ही जला दिया था. राजा के प्रयास से पुस्तक का सातवां हिस्सा जलने से बचा लिया गया था. बचाया गया सातवां हिस्सा भी मूल रूप में अनुपलब्ध है. उसके संस्कृत भावानुवाद बुद्धस्वामी के ‘बृहत्कथा श्लोक संग्रह’, ‘क्षेमेंद्र की बृहत्कथा मंजरी’ तथा सोमदेव के ‘कथासरित्सागर’ के रूप में उपलब्ध हैं. इसके बारह खंडों में कुल 124 अध्याय हैं. पुस्तक का दसवां खंड ‘पंचतंत्र’ तथा बारहवां ‘वैताल पचीसी’ को अपने साथ जोड़े हुए है. इससे इस ग्रंथ की विशद्ता का अनुमान लगाया जा सकता है. पंचतंत्र, वैताल पचीसी तथा कथासरित्सागर की कहानियों के मूल चरित्र में जो एकरूपता और लोकतत्व है, उससे प्रतीत होता है कि ये कहानियोंं लिखे जाने से पहले ही लोकसाहित्य में प्रचलित हो चुकी थीं. इन कहानियों की रचना समाज के सभी वर्गों के लिए की गई थी. इनका सहज किस्सागोई रूप बच्चों को घर–परिवार में सुनाया जाता था. यही स्थिति जातक कथाओं के साथ भी है. जातक कथाएं यद्यपि गौतम बुद्ध के पूर्वजन्म की कहानियों के रूप में लिखी गई थीं. उद्देश्य था गौतमबुद्ध तथा उनके धर्म के बारे में लोगों को शिक्षित करना. ये नैतिकता और मानवीय मूल्यों की कहानियोंं हैं. उनसे मिली–जुली कथाएं हमारे लोकसाहित्य में भी मौजूद रही हैं. कहा जा सकता है कि समाज में पहले से ही व्याप्त कहानियों की लोकप्रियता का लाभ उठाने के लिए उनके आधार अपनी धार्मिक–दार्शनिक मान्यताओं को समाज में लोकप्रिय बनाने का प्रयास, दार्शनिकों, प्रचारकों द्वारा समय–समय पर किया जाता रहा है.
पंचतंत्र को छोड़कर शेष दोनों खंडों का उद्देश्य यद्धपि बड़ों को धार्मिक नैतिकता से परचाना था. लेकिन अपनी उद्देश्यपरकता, रोचकता, मनोरंजन सामथ्र्य तथा सहजता के आधार पर ये कृतियां बड़ों के साथ बच्चों में भी समानरूप से लोकप्रिय होती गईं. पर्याप्त लोकतत्व होने के कारण उन्हें लोकसाहित्य का हिस्सा बनते देर न लगी. बौद्ध दर्शन के पराभव के उपरांत भारत भारत में नए सिरे से कर्मकांडों तथा जातीय ऊंच–नीच की बाढ़ आ गई. बौद्धिक क्षेत्र में जड़ता का प्रवाह होने लगा था. बौद्धधर्म के साथ–साथ इस युग में जैन धर्म भी अपनी जड़ जमा चुका था. लेकिन अहिंसा के प्रति अपने अतिवादी द्रष्टिकोण के कारण यह लोकमानस में अपेक्षित पैठ न बना सका. दूसरी ओर जातक कथाएं अपने नैतिकतावादी द्रष्टिकोण और रोचक शैली के कारण देश–विदेश में समाज के हर वर्ग के बीच लोकप्रिय होती चली गईं. उन्हें विद्वानों द्वारा समयानुसार लिपिबद्ध किया जाता रहा है—
कौशल नरेश सम्राट प्रसेनजित के पास एक हाथी था. नाम था—पायेक्का. महाराज प्रसेनजित थे, उदार, प्रजावत्सल और पराक्रमी. ऐसा ही उनका हाथी था. सुंदर, सजीला, परम बलशाली और बुद्धिमान. चिंघाड़ पड़े तो दुश्मन की सेना के छक्के छूट जाएं. कमजोर दिल इंसान गश खाकर जमीन पर जा पड़े. पायेक्का पर सवार होकर महाराज प्रसेनजित ने अनेक युद्ध लड़े थे. हर बार विजयश्री प्राप्त की थी. खुद पायेक्का भी अनेक बार, अनेक दुश्मनों के दांत खट्टे कर चुका था. महाराज उसे पुत्रवत प्यार करते, उसकी देखभाल में कोई कमी न आने देते.
पर वक्त के साथ हाथी बूढ़ा होने लगा. तब सम्राट प्रसेनजित ने उसे अपनी सेवा से मुक्त कर दिया. हाथी के साथ बूढ़ा महावत भी सेवामुक्त होकर गांव लौट गया. राज्य में एक झील थी. प्रकृति की गोद में पनपी. गहरी और नीले–स्वच्छ जल से लबालब भरी हुई. मनोहर कमलदल हमेशा उसकी शोभा बढ़ाते. एक बार की बात. बूढ़ा पायेक्का झील में पानी पीने गया. झील की सुंदरता ने उसका मन मोह लिया. वह उसमें और भीतर, और भीतर घुसता चला गया. झील में दलदल था. बूढ़ा पायेक्का उसमें फंसने लगा. बाहर निकलने की वह जितनी भी कोशिश करता, दलदल उसको अपनी ओर खींचता जाता. पायेक्का को झील से निकालने के लिए लोगों ने उकसाया. बाहर आने के लिए स्वादिष्ट भोजन का लालच दिया. डंडे का डर भी दिखाया. उकसावे पर पायेक्का बार–बार जोर लगाता. पर उबरने के बजाय दलदल में और गहरा धंसता चला जाता. रक्षक दल के औसान बिगड़ने लगे.
इस बीच पायेक्का को देखने हजारों की भीड़ झील के किनारे आ जुटी थी. महाराज तक खबर पहुंची तो वे भी अपने प्यारे हाथी को बचाने के लिए झील–किनारे आ गए. उन्होंने खुद भी पायेक्का को उकसाया. बाहर आने के लिए पुकारा. महाराज की आवाज सुनकर पायेक्का ने एक बार फिर जोर लगाया. लेकिन बूढे शरीर में दलदल को पार करने की ताकत कहां! अपनी विवशता पर पायेक्का की आंखों में आंसू आ गए. उसको उदास देख प्रसेनजित भी अपने आंसू न रोक सके. अपने प्यारे सम्राट को रोता हुआ देख प्रजा भी रोने लगी. मंत्री–महामंत्री, बाल–वृद्ध सब उदास हो गए. प्रकृति में रुदन मच गया. तब किसी ने पुराने महावत को बुलाने की सलाह दी. उन दिनों अनाथपिंडक सेठ के जेतवनाराम में महात्मा बुद्ध पधारे हुए थे. उनका धर्मोपदेश चल ही रहा था कि महावत को बुलाने के लिए सम्राट का दूत आ पहुंचा. बुद्ध का आशीर्वाद लेकर महावत वहां से चल पड़ा. कुछ भिक्कु भी उसके साथ हो लिए.
पायेक्का को दलदल में फंसा देख महावत की हंसी छूट गई. फिर देर तक वह हंसता ही रहा. लोग उसकी उन्मादित हंसी देखकर हैरान थे.
‘यह कैसा पागलपन है महावत. राज्य से दूर रहकर क्या आप उसके अनुशासन भी भूल चुके हैं. महाराज अपने प्रिय हाथी को फंसा देखकर उदास हैं और आपको हंसी छूट रही है?’ महामंत्री ने चेताया.
‘क्षमा करें महाराज!’ महावत ने कहा. आप फौरन युद्ध के वाद्य मंगवाइये. नगाड़ा और बिगुल बजने दीजिए.’
महामंत्री को लगा कि बूढ़ा महावत सठिया चुका है. उम्र के साथ उसकी अक्ल भी बुढ़ा चुकी है. पर उस समय महावत की बात न मानने के अलावा कोई और रास्ता भी न था. तत्काल युद्ध के वाद्य मंगवाए गए. रणभेरियां बजने लगीं. पायेक्का ने बिगुल की आवाज सुनी तो उसका खून उबाल मारने लगा. रग–रग सनसना उठी. लगा कि उसका दुश्मन आंखों के सामने है. एक झटके में उसको वह रौंद सकता है. वह उछला. एक ही प्रयास में दलदल से बाहर था. उसे झील से कुलांचे मारकर बाहर आते देख लोग खुशी से चीखने लगे. महाराज की आंखें भी खुशी से छलछला उठीं.
बूढ़े महावत को भारी ईनाम देकर विदा किया गया. वह भिक्कुओं के साथ बुद्ध की शरण में पहुंचा. भिक्कुओं के मन बेचैन थे. उलझे हुए अनगिनत प्रश्न उनके दिलो–दिमाग को मथ रहे थे.
‘वत्स, प्रश्न की खोज उत्तर से भी कठिन है. जिज्ञासा को दबाओ मत.’ भिक्कुओं के चेहरे के भाव पहचानकर बुद्ध ने कहा.
‘देव, आप प्राणीमात्र के प्रति दया की शिक्षा देते हैं. सभी से प्रेम करना सिखाते हैं. दूसरों को संकट में देखकर उनका उपहास करना और भी बुरा है—यह आप ही ने सिखाया है.’
‘अपनी शंका तो व्यक्त करो वत्स!’ बुद्ध ने मुस्कान बिखेरी.
‘देव, आप जानते हैं कि वह महावत वर्षों तक उस हाथी के साथ रहा है. फिर भी अपने दुलारे हाथी की दलदल में दुर्दशा देखकर वह हंसने लगा, बुद्धिमान होकर भी उसने पागलों जैसा व्यवहार क्यों किया? सिर्फ आप ही इस रहस्य की व्याख्या कर सकते हैं?’ तब बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्यों पर दिव्य मुस्कान बिखेरते हुए कहा—
‘तुम ठीक कहते हो. वह महावत ज्ञानी है, उसको हाथी का मूल स्वभाव और महान अतीत पता था. वह हंसा तो इसलिए कि सम्राट प्रसेनजित को सैकड़ों बार युद्ध के मैदान से सुरक्षित निकाल लाने वाला पायेक्का मामूली दलदल को देखते ही घबरा गया. उसी घबराहट में वह अपना मूल स्वभाव और आत्मविश्वास भी भूल बैठा. युद्ध के नगाड़े और बिगुल की आवाज सुनकर हाथी को अपना महान अतीत और पराक्रम फिर याद आ गए. साथ ही उसका आत्मविश्वास भी लौट आया. उसी के जोश में वह दलदल से बाहर आने में सफल हो सका.’
यह जातक कथा जितनी बड़ों के लिए उपयोगी है, उतनी ही बच्चों के लिए मूल्यवान है. उनका रचनाकाल पंचतंत्र से पुराना है. लेकिन वह कई शताब्दियों तक फैला हुआ है. इससे यह भी सिद्ध होता है कि पशु–पक्षियों को केंद्रीय पात्र बनाकर किस्सागोई का आरंभ बौद्धकाल में ही हो चुका था. अंतर सिर्फ इतना है कि जातक कथाओं का उद्देश्य जहां गौतम बुद्ध के नीति–संदेश को जन–जन तक पहुंचाना था. वहीं पंचतंत्र की रचनाओं का प्रथम उद्देश्य था राजकुमारों को व्यावहारिक ज्ञान से समृद्ध करना. पंचतंत्र की रचना चाणक्य के समकालीन विष्णुशर्मा ने की थी. चाणक्य का एक नाम विष्णुगुप्त भी है, इसलिए अनेक विद्वान दोनों को एक ही व्यक्ति मानते हैं. चाणक्य तक आते–आते बड़े साम्राज्यों का महत्त्व बढ़ चुका था. और बड़े साम्राज्य की स्थापना केवल नीतिगत उपदेशों के सहारे संभव न थी. इसलिए चाणक्य के समय में नीति कूटनीति का रूप ले लेती है. यही कूटनीति व्यवहारशास्त्र के रूप में पंचतंत्र की मूल प्रेरणा है. चाणक्य के समकालीन अरस्तु ने भी अपने गुरु प्लेटो के दार्शनिक सम्राट के सुझाव को किनारे करते हुए नीति–आधारित व्यावहारिक राजनीतिक दर्शन का पक्ष लिया है.
मध्यकाल: भक्तिकाव्य
हर्षवर्धन(590—647) के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में राजनीतिक अस्थिरता का लंबा दौर चला. स्थानीय राजाओं की आपसी रंजिशों और महत्त्वाकांक्षाओं के कारण देश छोटे–छोटे राज्यों में बिखरता चला गया. इस बीच दक्षिण में कुछ बड़े राज्य पनपे. मगर कुल मिलाकर राजनीतिक अस्थिरता ही व्यापती रही. बिखरी हुई राजनीतिक शक्तियां विदेशी आक्रामकों से अपनी और देश की रक्षा करने में अक्षम सिद्ध हुई थीं. इस बीच उत्तर में पृथ्वीराज चैहान तथा दक्षिण में चालुक्य वंशीय राजाओं ने भारतीय राजाओं की कीर्ति रक्षा के लिए संघर्ष किया ओर कुछ सीमा तक उसे बचाए भी रखा, परंतु आपसी फूट के कारण वे मुस्लिम आक्रामकों के निरंतर प्रहार को झेल पाने में असमर्थ रहे. सोलहवीं शताब्दी में मुगल शासकों ने भारत को फिर से एकसूत्र में पिरोने में कामयाबी हासिल की. इससे भिन्न संस्कृतियों से मेलजोल का सिलसिला बना. इसके फलस्वरूप साहित्यिक–सांस्कृतिक आदान–प्रदान में भी तेजी आई. मध्य युग तक आते–आते साहित्य की दो प्रमुख धाराएं बन चुकी थीं. पहली वेद–वेदांगों पर आधारित रचनाएं, जो मूलतः मनुष्य की प्राकृतिक उपादानों के प्रति तीव्र आस्था, विश्वास, तर्क–सामथ्र्य, आध्यात्मिक चेतना एवं समर्पण–भाव को अभिव्यक्त करती थीं, लेकिन उसमें पहले जैसी गूढ़ता और ज्ञान के प्रति ललक गायब हो चुकी थी. उसकी जगह कर्मकांड तथा स्तुतिकाव्य ने ले ली थी. सम्राटों, सामंतों और जमींदारों की प्रशस्ति, उनके आग्रह पर रचा गया स्तुतिगान अथवा उनका कृपापात्र बनने, उन्हें रिझाने की कोशिश में नायक–नायिकाओं का नख–सिख वर्णन जोर पकड़ने लगा था. साहित्यिकता तथा उसकी मूल भावना से उसका दूर–दूर तक कोई संबंध नहीं था.
इस कालखंड में संस्कृतियों के संलयन के साथ साहित्य का भी संलयन हो रहा था. काफिलों के रूप में दूर–देश की यात्रा करने वाले व्यापारियों के माध्यम से अरब, रोम, मिò और भारत की सभ्यताएं परस्पर तेजी से पास आ रही थीं. इस परंपरा में जातक कथाएं, कथासरित्सागर, हितोपदेश, पंचतंत्र, वैतालपचीसी, शुकसप्तति, सिहांसनबतीसी आदि हिंदी की क्लासिक कृतियों की रचना हुई. ये कृतियां टीका और अनुवाद के सहारे विभिन्न भाषाओं में अपना स्थान बनाने में सफल रहीं. दूसरी ओर आलिफ–लैला, हातिमताई, गुलबकाबली जैसी पुस्तकें अनूदित होकर भारत में आईं. लोकसाहित्य में भी उनका जादू सिर चढ़कर बोला, जिसके फलस्वरूप सांस्कृतिक तालमेल का वातावरण बना. इनमें किस्सागोई का कमाल था. जो कहन की प्राचीन परंपरा से जन्मी थी. कथासरितसागर, वैतालपचीसी, सिंहासनबतीसी आदि पुस्तकों की रचना के केंद्र में बच्चे नहीं थे. ‘शुक सप्तति’ तो बड़ों की कहानियों की पुस्तक थी. लेकिन अपनी रोचक–सहज भाषा शैली के कारण ये पुस्तकें शीघ्र ही लोकमानस का हिस्सा बन गईं. इस अवधि में चंदबरदाई, सूरदास, अमीर खुसरो, कबीर जैसे कवि हुए. सूरदास ने कृष्ण के बचपन को लेकर अनूठी कविताएं लिखीं, लेकिन वे बच्चों की समझ से बहुत ऊपर थीं.
सोलहवीं शताब्दी में जन्मे नरोत्तम दास(1550—1605) ने ‘सुदामा चरित’ और ‘धु्रव चरित’ लिखकर बालोपयोगी साम्रगी की रचना की. उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जन्मे गिरधर कविराय(1877) ने भी अपनी कुंडलियों के माध्यम से लोकरुचि के अनेक विषयों पर कविताएं लिखीं. उनकी लगभग 500 प्राप्य कुंडलियों में से अनेक बालोपयोगी हैं. नरोत्तम दास और गिरधर कवि दोनों के मन में बालसाहित्य संबंधी कोई प्रत्यय मौजूद नहीं था. लेकिन अपनी विषय–भूमि तथा सहज अभिव्यक्ति के कारण उनकी रचनाएं आज भी बच्चों में लोकप्रिय हैं. कुल मिलाकर इस युग का सारा साहित्य बड़ों के लिए बड़ों द्वारा बड़ी कामनाओं की सिद्धि के लिए किया गया आयोजन था. बानगी के तौर पर गिरधर की दो कुंडलियां यहां उद्धृत की जा रही हैं—
हुक्का बांध्यौ फेंट में नैं गहि लीनी हाथ
चले राह में जात है, बंधी तमाकू साथ
बंधी तमाकू साथ गैल कौ धंधा भूल्यौ
गई सब चिंता दूर आग देखत मन फूल्यौ
कह गिरधर कविराय जु जम कौ आयो रुक्का
जीव लै गया काल हाथ में रह गयौ हुक्का.
गिरधर कवि की ही एक और कुंडली, जो समसामयिक और आधुनिकताबोध से परिपूर्ण है—
साईं घोड़न के अछत गदहन आयौ राज
कौआ लीजै हाथ में दूर कीजियै बाज
दूर कीजियै बाज राज ऐसौ ही आयो
सिंह कैद में कियो स्यार गजराज चढ़ायौ
कह गिरधर कविराय जहां यह बूझ बढ़ाई
तहां न कीजै सांझ सवेरहि चलियै साईं
भारतीय साहित्य के लौकिकीकरण तथा उसको आम–आदमी की इच्छा–आकांक्षाओं, कुंठाओं, तनावों एवं जनसमस्याओं से रू–ब–रू कराने का श्रेय प्रारंभिक भक्त कवियों को जाता है. उन्होंने जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर बुरी तरह विभाजित समाज में मूर्तिपूजा, कर्मकांड, रूढ़िवाद तथा तंत्र–मंत्र के सहारे चल रहे शोषण एवं अमानवीय आचरण का अपनी सीधी–सादी मगर तीखी वाणी में चुनौती देते हुए निराकार–निर्गुण परमात्मा की अराधना पर जोर दिया था. जाति–धर्म तथा संप्रदाय के नाम पर भेद करने वालों को ललकारा. प्रारंभिक भक्त कवि समाज की उन जातियों से आए थे, जो स्वयं शोषण का शिकार थीं. उन्हें वेद पढ़ने की मनाही थी. मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने से उन्हें रोक दिया जाता था. उन्होंने समाज के वंचित तबके की पीड़ा, धर्म तथा जाति के आधार पर उसके शोषण–उत्पीड़न को समझा और कहा कि ईश्वर की खोज में बाहर भटकना नादानी है. वह तो जन–जन के भीतर है. उसके लिए मंदिर–मस्जिद जाने की जरूरत नहीं है. लोगों ने इस सीख को हाथों–हाथ लिया. इसके फलस्वरूप समाज में क्रांतिधर्मी लहरें उठने लगीं. लोकोपकारी साहित्य–सर्जक के रूप में संत कवि सत्ता से निस्पृह रहकर, लगभग विद्रोही अवस्था में क्रांतिधर्मा साहित्य का सृजन कर रहे थे. स्तुतिकाव्य रचने वाले कवियों, चारण–वृंदों के लिए जो प्रजा थी, भक्त कवियों की निगाह में वह आत्मा का रूप ले चुकी थी. उनके लिए राजा और प्रजा की आत्मा में भेद न था. भक्ति काल का उद्भव सही मायने में धार्मिक आडंबरवाद और जातीय वर्चस्ववाद के विरुद्ध शंखनाद था, उसका श्रेय उन संत कवियों को जाता है, जो समाज के कथित निचले वर्गों से अपनी प्रतिभा और नैतिक ऊंचाई के बल पर उभरकर आए थे; और अपने नैतिक सामथ्र्य के दम पर बड़ी से बड़ी सत्ता से टकराने का साहस रखते थे. जनसाधारण ने भक्त कवियों को सिर–माथे बिठाया, दूसरी ओर यथास्थितिवादियों की ओर से इन कवियों का भरपूर विरोध किया गया. उन्हें तरह–तरह की प्रताड़नाएं दी गईं. धीरे–धीरे समाज पर उनका प्रभाव बढ़ता गया.
दक्षिण भारत से शुरू हुआ निर्गुण भक्ति आंदोलन दो शताब्दी से अधिक अपना तेज कायम न रख सका. कालांतर में भक्त–कवियों में ऊंची जातियों के कवि आ मिले. वे अपने साथ जातीय संस्कार भी लाए थे. उनके प्रभाव से निर्गुण के उपासक सगुण की उपासना करने लगे. पूर्वस्थापित देवताओं के स्थान पर राम और कृष्ण जैसे नए देवता अवतार बनकर विराजमान हो गए. उन्होंने भक्ति आंदोलन की धार को कंुद करने का ही काम किया. सगुण उपासना भक्ति आंदोलन की क्रांतिधर्मिता पर पानी फेरने का कारण बनी. तो भी इस युग की उपलब्धियां सराहनीय थीं. आध्यात्मिक नजरिये से मध्यकाल में ही यह संभव हो पाया कि समानता और बराबरी की बातें, जो सहस्राब्दियों से लुप्त हो चली थीं, भक्त–कवियों की वाणी में पुनः सामाजिक विमर्श का हिस्सा बनने लगीं. अधिकांश भक्त कवि धर्म और जाति के आधार पर समाज के विभाजन का विरोध करते हैं. आदमी–आदमी के बीच फर्क तथा आवश्यकता से अधिक संचय न करने, सबके साथ समानतापूर्ण व्यवहार एवं जरूरत के समय दूसरों की मदद करने का आवाह्न भी वे करते हैं. इसके बावजूद भक्ति आंदोलन की क्रांतिचेतना, उच्चवर्गीय लोगों की मानस–रचना में आमूल बदलाव लाने में असमर्थ रही. सगुण भक्तों के अवतारवादी द्रष्टिकोण ने पूरे भक्ति आंदोलन की उपलब्धियों पर पानी फेरने का काम किया. इस बीच इस धारा में कुछ ऐसे कवि–लेखक भी आ मिले जिनकी आस्था पुरातन वर्णव्यवस्था में थी. उन्होंने अपने वर्गीय हितों के अनुकूल साहित्य की रचना पर जोर दिया. इसी के चलते तुलसी युग के सबसे बड़े कवि के रूप में स्थापित हुए. निर्गुण भक्त कवि सामान्यतः राज्याश्रय से दूर रहते थे, मगर उनके सगुण उत्तराधिकारियों ने राज्याश्रय अथवा सत्ता–शिखर के आसपास रहना आरंभ कर दिया. मगर इससे भक्ति काव्य की क्रांतिधर्मिता फीकी पड़ती गई.
ईष्ठ देव के आगे त्राण की पुकार करते संत कवियों की रचनाओं में आम आदमी, विशेषकर सामाजिक रूप से उपेक्षित वर्गों की व्यथा को खूब विस्तार मिला. यह कहना तो अनुचित होगा कि उस दौरान राजा की प्रशस्ति में साहित्य रचा ही नहीं गया. बल्कि ढेर इसी कोटि में समा सकता है. बड़े–बड़े राजाओं, सम्राटों की लिखित शब्द के प्रति आस्था ही थी, जिससे उसे राजदरबार में इतिहासकारों, लेखकों और कवि के रूप में चारण–वृंदों की विधिवत नियुक्ति होती थी. उनकी प्रतिभा का कथित ‘सम्मान’ होता था. चूंकि समस्त मान–सम्मान और पद–प्रतिष्ठा आश्रयदाता की खुशी पर निर्भर थे, उसकी वक्री नजर से सब कुछ एक झटके में छिन सकता था. इसलिए कवि लेखक अपने आश्रयदाता की भावनाओं के अनुकूल इतिहास और काव्य के सृजन में लीन रहते थे. उन कवियों ने जो लिखा उसको आधुनिक हिंदी आलोचक रीतिकालीन साहित्य मानते हैं. ‘स्तुतिकाव्य’ को ‘रीतिकाव्य’ कहना, तत्कालीन सामंतीतंत्र से सहानुभूति का ही द्योतक है. बहरहाल उस समय तक साहित्य के तीन रूप प्रचलित थे—
1. धार्मिक आस्थाओं, संप्रदाय आदि को लेकर लिखा जाने वाला साहित्य : महत्त्वपूर्ण होते हुए भी यह आमजन की वास्तविक समस्याओं से दूर था.
2. आश्रयदाता की सहमति पर उसकी प्रशंसा या कृपा के लिए लिखा जाने वाला साहित्य : इस श्रेणी के लेखकों की वर्गीय दृष्टि प्रबल थी. इसलिए ऐसे लेखन का कलात्मक मूल्य चाहे जो हो, उसका साहित्यिक मूल्य नगण्य है.
3. भक्त कवियों द्वारा लिखा जाने वाला साहित्य: इसमें समाज के धर्म और जातीयता आधारित विभाजन तथा ऊंच–नीच की भावना को ललकारा गया था. तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए ऐसे साहित्य को हम क्रांतिधर्मी साहित्य कह सकते हैं. और ऐसा हुआ भी है. लेकिन भक्त कवियों की समस्या है कि वे छोटी से छोटी समस्या से त्राण के लिए परमात्मा की ओर ही देखते थे. सामंती सत्ताओं से टकराने के बजाय वह वर्ग उससे दूर रहने पर जोर देता था.राजनीतिक चेतना से लगभग शून्य होने के कारण भक्ति साहित्य समाज को अपेक्षित दिशा देने में असफल रहा. बल्कि इसकी जनमानस में लोकप्रियता का लाभ उठाते हुए ऐसे कवि भी इससे जुड़ गए जिनका उसकी भक्ति आंदोलन मूल चेतना से दूर तक संबंध नहीं था.
4. जन–प्रतिभाओं द्वारा रचा जाने वाला लोकसाहित्य: जनसमाज किसी भी प्रकार की सत्ता और उसके आतंककारी प्रभावों से परे जनसाधारण भी अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुकूल मौखिक परंपरा का साहित्य रचने में दक्ष होता है. सही मायने में यही साहित्य समाज की जीवनधारा होता है. यह श्रुति–स्मृति के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अंतरित होता रहता है; और सत्ता परिवर्तन से निरपेक्ष रहकर विषम परिस्थितियों में भी अपनी जगह बनाए रखता है.
भक्तिकाल में साहित्य जीवन के करीब आया था. भले ही इसके मूल में उस समय व्याप्त राजनीतिक–धार्मिक हताशा रही हो, जो लगभग तीन शताब्दी तक परतंत्र रह चुके जनसमाज में स्वभाविक रूप से उभरने लगी थी. भक्तिकाल के प्रमुख कवियों कबीर, रहीम, सूरदास, मीरा आदि के काव्य में बहुत कुछ ऐसा है, जिसको आज हम बच्चों के लिए उपयोगी पाते हैं. तो भी उसको बालसाहित्य नहीं कहा जा सकता. इस कालखंड के दौरान लोकसाहित्य खूब समृद्ध हुआ. बीरबल, तेनालीराम, गोपाल भांड, गोनू झा, देवन मिसर मुल्ला नसरुद्दीन के किस्से दक्ष किस्सागोओं और लोगों की जुबान पर चढ़कर गांव–गांव सुनाए जाते थे. आल्ह खंड, नल दमयंती, गोरा–बादल जैसी कालजयी लोकगाथाओं की रचना भी इसी कालाखंड में हुई, जिन्होंने बच्चों और बड़ों के बीच एकसमान लोकप्रियता अर्जित की.
क्रमश:….
© ओमप्रकाश कश्यप