दो आसमानों के बीच-एक

यात्रा संस्मरण

कुल डेढ़ महीना पहले संपन्न हुई इलाहाबाद यात्रा के अनुभव अच्छे नहीं थे. मन में कड़वाहट घुली थी. उस यात्रा की कुछ परेशानियां अपनी ही चूक का नतीजा थीं, कुछ दूसरों की गलती का. कुछ रेले में ढेले की भांति अकस्मात बीच में आ अड़ी थीं. इसलिए जब असम में गुवाहाटीडिब्रूगढ़ की यात्रा का प्रस्ताव आया तो जाने की कतई उत्सुकता नहीं थी. पर बानक कुछ ऐसा बना कि यात्रा टल गई. दो सप्ताह बाद जब नए सिरे से कहा गया तब तक पिछली यात्रा की कडु़वाहट और थकान उड़न छू हो चुकी थी. इसलिए बिना किसी हिचक, बगैर कोई अवसर गंवाए ‘हां’ कह दिया. यदि भाग्यवादी या ज्योतिष में विश्वास रखने वाला होता तो इस बार यात्रा पर निकलने से पहले शुभ मुहुर्त अवश्य बंचवाता, पंडेपुजारी की सलाह लेता. मुहुर्त निकलवाना आज भले कितना ही निरर्थक और कर्मकांडी आयोजन बन चुका हो, बीते जमाने में इसकी भरपूर प्रासंगिकता थी. उन दिनों यात्रा करना दुरूह और कष्टदायी कर्म था. बीच रास्ते सैकड़ों बाधाएं आतीं. सकुशल घर लौटना भी चुनौतीपूर्ण होता. गंतव्य तक पहुंचने में महीनों, कभीकभी तो पूरा वर्ष लग जाता था. यात्रा के बीच मौसम की मार भी असर करती. कभी आंधीतूफान तो कभी बरसात राह रोक लेती. समुद्री यात्राओं की सफलता तो मौसम की मेहरबानी बगैर मानो असंभव ही थी. पुराने ज्योतिषी, भविष्यवक्ता असल में अच्छे मौसम विज्ञानी होते थे. वे खुले आसमान को ताककर मौसम का मिजाज भांप लेते. हवाओं का रुख देख अपने अनुभवविवेक के बाद ही कोई समाधान देते थे. फिर भी अनिश्चितता तो थी. अनचीन्हे हजार संकट. शकुनविचार भी चलता था. यात्रा सफल हो, बाहर गए प्रियजन, सकुशल वापस लौट आएंइस कामना के साथ शहर में अप्र्रिय काम रोक दिए जाते थे. सुकरात की फांसी को एक महीना इसलिए टालना पड़ा था, क्योंकि एथेंस का पवित्र जहाज डेलोस की यात्रा पर निकला हुआ था. बाद में यात्राएं सुगम होती गईं. फिर भी आदमी के दिल का डर गया नहीं. सुविधाओं के साथ वह भी परवान चढ़ता गया. लेकिन हालात बदल चुके थे. अब पहले जैसे अनुभव का ताप खाए मौसमविज्ञानी न थे. वे कुछ और ‘सभ्य’ हो चुके थे. ज्योतिष परजीवियों का बैठेठाले का धंधा बन चुकी थी, भविष्यवाणी करना कोरा कर्मकांड. भविष्यवक्ता और प्रपंची तांत्रिक दोनों घुलमिल गए थे. वे जैसे भी संभव हो, लोगों का उल्लू सीधा करने में लगे रहते.

बहरहाल, पिछली यात्रा के दौरान एक के बाद एक जो समस्याएं झेली थीं. उन्हें देख शुभ मुहुर्त का विचार मन में आना स्वाभाविक ही था. भारतीय मन कुछ इसी प्रकार सोचताकरता है. परंतु अपन न तो किसी कोण से आस्थावादी है, न घटनाओं के पीछे ‘अदृश्य हाथ’ पर विश्वास करने वाले. ठेठ नास्तिक ठहरे. अपना ऐसी किसी सत्ता में विश्वास नहीं जो भौतिक नियमों के दायरे से बाहर हो. जो संसार में है, इस अखिल ब्रह्मांड में है, वह चाहे दृश्य हो अथवा अदृश्य—भौतिकी के नियमों से आबद्ध है. यहां अमरत्व की बात करना, भले ही देवताओं के लिए हो, नादानी है. गत पांचछह हजार वर्षों में जब से सभ्यता ने कुलांचे भरना आरंभ किया है, आदमी ने न जाने कितने देवता गढ़े हैं. और आदमी की उपेक्षा से ही, न जाने कितने देवता काल के गाल में समा चुके हैं. आदमी की तरह उसका बनाया भगवान भी नश्वर है. उससे जुड़ा हर चमत्कार कपोलकल्पना, निठल्लों का स्वार्थकृत्य है. यह संभव है कि अपनी ज्ञान की सीमाओं के रहते हम प्रकृति में हर रोज घटने वाली चमत्कारनुमा घटनाओं की सटीक व्याख्या न कर सकें. लेकिन उनकी व्याख्या होगी भौतिकी और ज्ञानविज्ञान की सीमाओं में ही—ऐसा मेरा विश्वास है. भौतिक घटनाएं कभी अभौतिक कारणों से प्रभावित नहीं होतीं. ऐसा हो, इसका कोई कारण भी नहीं है. जीवनसृष्टि अपनी ही विज्ञान दृष्टि में चलायमान है. इसलिए प्रतीत्यसमुत्पाद यानी कार्यकारण की खोज अपुन को किसी अदृश्य सत्ता तक नहीं ले जाती. इस कारण न तो ग्रहनक्षत्रों की कृपा पर भरोसा जमता है, न किसी और देवीदेवता पर. मन सहज भाव से बीती भुला आगे बढ़ने को तैयार रहता है.

टिकटों का इंतजाम समय रहते हो चुका था. साथ में मार्गव्यय की व्यवस्था भी. इसलिए निश्चिंत था. काफी हद तक शांत. आपातस्थिति से निपटने के लिए एटीएम भी कब्जे में कर लिया था. यात्रा छोटी अवधि की थी. सुबह मुंहअंधेरे निकलने के बाद तीसरी रात वापस लौट आना था. परिजनों से मात्र दो रात, तीन दिन का वियोग….सहा जा सकता है. इस विचार के साथ गंतव्य के पतेठिकाने नोट कर, टिकटों को संभाल आगे का विचार किया. पिछली यात्रा की असफलता के अनुभव इस बार काम आ रहे थे. एक समय में किसी एक ही काम पर ध्यान केंद्रित करना. दुनिया के बाकी लंदफंद में उलझने से खुद को बचाए रखना. कार्यक्रम के अनुसार सुबह साढ़े चार बजे टैक्सी दरवाजे पर आ लगी. ड्राइवर भला था. समय का पाबंद. इस धंधे में घंटाआधा घंटा खपा देना मुश्किल नहीं. चतुरसुजान वाहन चालक पांच मिनट कहतेकहते पूरा घंटा चाट जाते हैं. पर इसने ठीक समय पर टैक्सी दरवाजे पर लगा दी. घर से चला तो सीधे सहयात्री के आवास पर. वे लगभग तैयार थे. पांच मिनट में हम थोड़ेसे सामान के साथ वहां से निकल चुके थे. खाली सड़कों पर टैक्सी रफ्तार दिखाने लगी.

किसी को दिल्ली की हरियाली, चिकनी सड़कें और नई दिल्ली इलाके की खूबसूरती देखनी हो तो उसके लिए मुंहअंधेरे का समय सर्वोत्तम है. सड़क किनारे खड़े पेड़पौधों, हरी घास, फूलपत्तियों के लिए यही समय होता है, जब वे इत्मिनान से सांस ले सकें. अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए आवश्यक प्राणवायु वे इसी अवधि में पचा लेती हैं. दिन के बाकी समय तो उनकी नियति कुचलना, झुलसना और धुआं, दुर्गंध के बीच दम घुंटना रह जाता है. उस समय देर रात तक दिल्ली की सड़कों को रौंद चुकी गाड़ियां गैराज में आराम कर रही होती हैं. जिन्हें गैराज नसीब नहीं होता, उन्हें सड़क किनारे लावारिस की भांति खड़ा कर दिया जाता है. गाड़ी उसी समय तक स्टेटस सिंबल है, जब आप लोगों के बीच हैं. घर पहुंचते ही गाड़ी आफत लगने लगती है. टीन के उस हाथी की तरह जिसने आंगन के बड़े हिस्से को कब्जाया हुआ है. जिनके आंगन बड़े हैं, वे चाहें जितनी गाड़ियां खड़ी करें. पर निम्नमध्यमवर्गीय आदमी के लिए तो एक को संभालना भी भारी पड़ जाता है. सुबह की ठंडक में उनके सवार, जिनकी देह देर तक बैठने से बुरी तरह अकड़ चुकी होती है, कमर सहलाने पर जुटे होते हैं. रात में उन्हें नींद आती भी है तो खर्राटों के बम फोड़ते हुए. देह न जाने कितनी बीमारियों का ठिकाना बनी होती है. नई सभ्यता का यही चलन है. परंतु समाज में होड़, अपने ही जैसे जिंदगी की जद्दोजहद से रोजरोज गुजरनेवाले पड़ोसियों के साथ इर्ष्या, दिखावा सबकुछ करताकराता है. जगह और विश्वास की कमी ने यहां आदमियों के दिलों में सिकुड़न पैदा कर दी है. इस सिकुड़न को आपसी विश्वास, सहयोग, सद्भाव से दूर करने के बजाय आदमी दूसरे की सिकुड़न को बढ़ाकर मिटाना चाहता है. पूंजीवादी विकास की यह अवश्यंभावी देन है. उस व्यवस्था की निगाह में आदमी की हैसियत महज एक उपभोक्ता की है. जिसमें आदमी को खिलानेपिलाने, हिलानेडुलाने से लेकर घुमानेफिराने यहां तक कि बीमार पड़ने पर इलाज करने वालों की भी लंबी कतार लगी होती है. एक विक्रेता बीच में आकर ‘खाते जाओखाते जाओ’ का प्रलोभन इसलिए देता है, ताकि ग्राहक पेटदर्द और बदहजमी के शिकार ग्राहकों के बीच पाचक गोलियों का बाजार बने. पूंजीवादी निर्माणतंत्र उपभोक्ता के दिलोदिमाग पर इसी तरह कब्जा करके उसको हांकता रहता है.

उड़ान समय पर थी. जानकर मन को संतोष हुआ. बीते दिनों पायलटों और सरकार के बीच जो रस्साकशी चली उसके दौरान उड़ान लटक जाने का खतरा भी बना हुआ था. पर कहीं यह भरोसा भी था कि सरकारी अस्तपालों में डाॅक्टर, नर्सों की हड़ताल के समय सबकुछ भगवान भरोसे छोड़ देने वाली सरकार पायलेट की हड़ताल को खिंचने नहीं देगी. इसलिए कि हवाई जहाज से वह तबका चलता है जो देश और सरकार चलाता है. सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने वाली जनता की जरूरत तो पांच वर्ष में एक बार पड़ती है. उस समय भी उसे जाति, धर्म, सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता, भूख, गरीबी, मंदिरमस्जिद आदि के नाम पर इस प्रकार बांट दिया जाता है कि वह अपने ही बंधुवांधवों और पड़ोसियों पर संदेह करने लगती है. ऐसे में सरकार को अपनी मर्जी से हांकने वालों को मनमानी करने का अवसर मिल जाता है. वे बारीबारी से लोकतंत्र की चक्की चलाते हैं, जनता उसमें पिसती रहती है.

यही अवसर है कि आपको अपने सहयात्री से परचा दिया जाए. हालांकि यह केवल औपचारिकता ही होगी. न बताऊं तो भी इस यात्रा के बयान पर शायद ही कोई असर पड़े. मेरा मानना है कि हर यात्रा दो स्तरों पर चलती है. भीतरी और बाहरी यात्रा. बाहरी यात्रा का संबंध हमारे शरीर और परिवेश से होता है. किसी भी यात्रा को कलेवर प्रदान करने के लिए बाहरी यात्रा अनिवार्य है. परंतु मात्र कलेवर से तो कोई रचना प्राणवंत हो नहीं सकती. यात्रा में प्राणप्रतिष्ठा करती है—अंदरूनी यात्रा जो हर समय चलती रहती है. परिवेश के अनुसार हमारे सोच में भी बदलाव होता रहता है, जो प्रकारांतर में बाहरी यात्रा पर भी असर डालता है. अतः बाहरी यात्रा के साथ यदि अंतर्मन की यात्रा का मेल न हो तो वह इकहरी यात्रा बनकर रह जाए. बाहरी यात्रा की अनुभूतियां बदलती रहती हैं, उसका परिवेश और पात्र परिवर्तनशील रहते हैं, लेकिन भीतरी यात्रा में हमारे अंतःप्रदेश का वातावरण अपरिवर्तित रहता है, सिर्फ उसपर नए अनुभव टंकते जाते हैं. बदलते परिवेश के साथ हमारे मनस् का सतत जुड़ाव हमें एकता की अनुभूति कराता है. वही हमारी यात्रा को संपूर्ण बनाता है. किसी भी यात्रा में ये दोनों साथसाथ न चलें तो वह महज मशीनी क्रिया बनकर रह जाए. मानो हम नहीं, मात्र हमारी देह यात्रारत है. मेरे बारे में तो यह शब्दशब्द सत्य है. अंदर की यात्रा को संपन्न बनाने के लिए जरूरी नहीं कि यात्राएं बड़ी ही हों. कई बार छोटी यात्राएं भी बड़ी कारगर सिद्ध होती हैं. वे भी मन को इतना कुछ एकसाथ दे जाती हैं कि वह सदैव नए सोच और चेतना से भराभरा रहता है. दूसरे, सहयात्री चाहे परिचित हो अथवा अपरिचित, वह होता तो परिवेश का ही हिस्सा है. उसके होने या न होने से भी यात्रा अबाध चलती रहती है, बशर्ते उसके साथ अंतर्मन की यात्रा का पूरापूरा योग हो. सहयात्री का होना तो परिवेश में कुछ चीजोंप्राणियों का घटनाबढ़ना है.

इस यात्रा में मेरे साथ चल रहे मेरे सहयात्री एक नेता हैं. दिल्ली के पिछड़े इलाके से चुनाव जीतकर तीन बार विधानसभा पहुंचे हुए. बहुत कम पढ़ेलिखे होने के बावजूद अपने मतदाताओं का भरपूर प्यार उन्हें मिलता रहा है. गत पचास वर्षों में इस देश में यदि कोई क्षेत्र सर्वाधिक आभाहीन हुआ है वह राजनीति का है. क्या इसका कारण जितने बाहरी हैं, उतने ही अंदरूनी भी हैं. कम पढ़ालिखा होने के बावजूद जनता ने उन्हें तीन बार विधानसभा जाने का अवसर दिया है. इससे लगता है कि जनता औपचारिक शिक्षा से अधिक इसमें विश्वास रखती है कि उसका नेता उसके लिए कितना काम कर पाता है, कितनी लोकनिष्ठा उसमें है, कितना समय उसके कार्यों के लिए देता है. अपने सहयात्री के बारे में इतना मैं जान पाया हूं कि अपनी जनता के प्रति वे पूरी तरह ईमानदार हैं. उसमें शायद ही कभी कोताही बरतते हों. एकाध बार तो ऐसा हुआ कि आधी रात को किसी का फोन आया और उठकर चल दिए. रास्ते में गश्ती पुलिस ने रोका, पूछताछ की, तब जाने दिया. इसी कारण लोग उन्हें अपना मानते हैं. इसके बावजूद लोकप्रतिनिधि होना उनके लिए दर्प नहीं कृतज्ञता का विषय है. कृतज्ञताबोध जनता के बजाय उस राजनीतिक दल की मुखिया के प्रति है, जिसने उन्हें पार्टी झंडे के नीचे चुनाव में उतर जाने का अवसर दिया था. इसे भारतीय राजनीति की विडंबना कहें कि सहòाब्दियों से चली आ रही जातिप्रथा के साथ अनुकूलन. अपने दम पर चुनाव जीतने का दम रखने वाले, जातीय संस्कारों से दबे और व्यवस्था को आत्मसात् कर चुके बहुतसे नेता अपनी लोकतांत्रिक उपलब्धियों का श्रेय ऐसे ही बांटते रहे हैं. उनकी जिंदगी बीत जाती है जनता के बीच जाते, उसका विश्वास जीतते हुए. फिर भी अपने नेता के एहसान से मारी उनकी कमर सीधी नहीं होती. आत्मविश्वास की कमी के कारण वे समझकर भी अनजान बने रहते हैं कि जनता का विश्वास महज दलीय अनुकंपा से प्राप्त नहीं होता. उसके लिए लोगों के बीच रहकर उसके दुखसुख का साझीदार बनना पड़ता है. यह काम उन्होंने किया है, कर रहे हैं. फिर भी उनकी सफलता उन्हें दर्प नहीं देती. जिस जाति समूह से वे संबंध रखते हैं, वह समाज के निम्नतम स्तर पर आती है. वहां गर्त से उबरकर सतह तक आ जाना ही बड़ी उपलब्धि है. दूसरे, हमारी राजनीति में या तो अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी नेता हैं, या वे लोग जिन्होंने अपनी और अपने समर्थकों की महत्त्वाकांक्षाएं अपने नेता के नाम समर्पित कर दी है. अति महत्त्वाकांक्षी लोगों ने अपनीअपनी पार्टी बना ली है. उसका वे जमकर दुरुपयोग करते हैं. ये पार्टियां असल में प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां हैं, जिनसे वे राजनीतिक दांव लगाते रहते हैं. उसी के आधार पर वे वोटों का सौदा करते हैं, सदन में होहल्ला मचाते हैं और जरूरत पड़ने पर सांसदोंविधायकों की बोली भी लगवाते हैं. जिनकी महत्त्वाकांक्षाएं कमजोर हैं, भरपूर जनाधार होने के बावजूद वे राजनीति का खेल दूसरों के लिए खेलते हंै. हालांकि, चुनाव जीतने के लिए जरूरी लंदफंद उन्हें भी करने पड़ते हैं, लेकिन उनके प्रयासों में उस संभ्रातपन का अभाव होता है, जो शासनप्रशासन को अपनी उंगलियों पर नचा सके. इसलिए दूसरे के खेल का हिस्सा और उनके सर्वाधिकारवाद का मूक समर्थक बन जाना उनकी नियति होती है. परिणामस्वरूप आमूल परिवर्तन टलता जाता है तथा लूट संस्कार बनी लगती है.

इंदिरागांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा’ यहां आने वालों को अपने देश की हकीकत से दूर पश्चिमी सभ्यता के करीब ले जाता है. सब कुछ औपचारिक, बनावटी पर करीने से सजा हुआ. जो पैसा खर्च कर सकते हैं, वे लोगों की मुस्कान भी खरीद सकते हैं. उन्हें सबकुछ इसी तरह करीने से सजा हुआ चाहिए. इसके लिए कितना खर्च होता है, इसकी वे चिंता नहीं करते. वह आएगा कहां से इसकी भी उन्हें परवाह नहीं होती. विमान परिचारिका के मुस्कराते चेहरे देखने से उन्हें तसल्ली होती है. भले ही वह मुस्कान नकली क्यों न हो. जब से आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुई, बाजारवादी संस्कृति ने पांव पसारे हैं, तब से भारतीय मध्यवर्ग भी अपनी बचतसंस्कृति की केंचुल उतारकर अपने ऊपर खर्च करने लगा है. इस कारण हवाई जहाज के टिकट के लिए भी रेलगाड़ी के टिकट जैसी मारामारी रहती है. आपाधापी के बीच टिकट लेना जंग जीतने का एहसास करा देता है. इसके बाद आदमी अपनी सफलता के नशे में डूब जाता है. नशा स्पर्धा का. दूसरों को पीछे छोड़कर आगे निकल आने का. विमान उड़ान भरने को तैयार था. परिचारिकाएं सुरक्षा निर्देश दे रही थीं. उनके स्वभाव में हड़बड़ी का भाव था. गोया जानती थीं कि जहाज में बैठे यात्रियों के लिए यह रोज की बात है. फिर रोजरोज बल्कि दिन में कईकई बार वही बातें दोहरानी पड़ें तो नयापन कहां से लाएं! यात्रियों के लिए विमान परिचारिकाओं की बातों से अधिक महत्त्वपूर्ण उनके दमकते चेहरे और रूपलावण्य था.

हवाई उड़ान का अनुभव अपने लिए नया नहीं था. एक बात जरूर नई थी. इससे पहले जितनी भी विमान यात्राएं की थीं, संयोगवश सभी रात में थीं. दिन में उड़ान के समय आसमान कैसा दिखता है, मन में यह कौतूहल था. इस बार कुछ ऐसा बानक बना था कि तीनों यात्राएं दिन के उजाले में संपन्न होनी थीं. जहाज का रनवे पर दौड़ना और हवा में उठना कुछ भी अनोखा नहीं लगा. अभ्यास की बात है. मौत जब तक दूर है, अदृश्य है तभी तक उसका भय समाया होता है. अगर वह मानवरूप धारण कर साथ चलने लगे तो आदमी उसके साथ भी जीना सीख ले. जमकर चुहलबाजी करे. वह एक तरह से अच्छा ही होगा. मौत से डरे इंसान ने जो ढेर सारे धर्मकर्म, देवीदेवता और भगवान पैदा किए हैं, उनकी जरूरत ही न पड़े. जहाज बादलों को चीरता हुआ ऊपर उठ रहा था. दिल्ली का आसमान तो धुंध और धुंए से बाहर जा ही नहीं पाता. महानगरीकरण ने यहां के निवासियों से आसमान का मुक्त वितान, उसका अकूत सौंदर्य छीन लिया है, यह बात दिल्ली वाले समझते तो हैं, पर चर्चा नहीं कर पाते. राजधानी से दूर जाने का विचार ही उन्हें डरा देता है. कुछ मिनटों की उड़ान के बाद ही हवाई जहाज दिल्ली के धुंध और धुंए भरे आसमान से काफी दूर निकल चुका था. पूरब में मानसून दस्तक दे चुका है. उसकी आहट आसमान में सुनाई दे रही थी. दूरदूर तक फैले बेपरवाह बादल मानो धरती से गले मिलने को आतुर थे.

यान में सबसे लुभावना था वह कार्यदल का व्यवहार. यह दिखाता हुआ कि पूंजीवाद के मूलमंत्र स्पर्धा ने जहां आदमी को मशीन बनाने जैसा धत्कर्म किया है, वहीं कुछ अच्छे काम भी उसके नाम हैं. उनमें एक है परंपरागत पेशों की दीवार को तोड़कर जातिवाद की रीढ़ पर प्रहार करना. कुछ ही देर पहले जो परिचारिकाएं सुरक्षा निर्देश दे रही थीं, वे जलपान की व्यवस्था में जुट चुकी थीं. सहयात्री को मधुमेह की बीमारी है. देर तक खाली पेट रहना उनसे बन नहीं पाता. वे नाश्ते की ट्राली के इंतजार में थे. लेकिन परिचारिकाओं का अपना नियम था. जहां सभी अतिविशिष्ट हों, वहां वीआईपी होना काम नहीं आता. परिचारिकाओं ने पूरा काम मिलकर संभाल लिया है. उनमें न कोई छोटा है, न बड़ा. औरत की वैसे भी कोई जाति नहीं होती. वे जिससे ब्याह दी जाएं उसी का जातिनाम अपना लेती हैं. पूंजीवाद ने जाति की जकड़न को तोड़ा है. हालांकि यह सब उसने स्वार्थवश, सिर्फ अपने हितों को ध्यान में रखकर किया है. चालक दल जहाज के का॓कपिट में था. कार्यदल और चालक दल के बीच कार्यविभाजन हो तो हो, कार्यदल में आंतरिक कार्यविभाजन शून्य था. यह बात उस समय पूरी तरह साफ हो गई जब उद्घोषिका के रूप में सुरक्षासंकेत बता रही परिचारिकाएं हाथ में प्लास्टिक का बड़ासा थैला उठाए बीच से गुजरीं. जूठे चाय के कप, खाली कार्टन उसमें डाल देने का आग्रह करती हुईं.

मेरा ध्यान खिड़की से बाहर अटका था. दिल्ली का आकाश तो प्रदूषण से धुंधला नजर आता है. खुले आसमान को देख पाना भी असंभव है. यहां मेरे सामने दोदो आसमान थे. एक जहाज के नीचे. कालेमोटे बादलों से भरा. नील छटा बिखेरता हुआ. दूसरा ऊपर. हल्के, सफेद, आलसी बादलों से निर्मित. दूर, जहां तक नजर जाए वहां बादल ही बादल. ऊपरनीचे, मोटे, रूई से हलके, गेंद से गोलगदबदे. सुदूर क्षितिज तक, शामियाने से तने. बीचबीच में सफेद दूध की नदी, नदी में उभरे वर्फ के टापू जैसे. या फिर जलपोत, हौलेहौले आसमान की नील नदी में डुबकी लगाते हुए. कालिदास ने कभी संदेश ले जाने के लिए बादल को अपना दूत बनाया था. वे बादलों का ऐसा जमघट देखते तो पेशोपेश में पड़ जाते कि इनमें से कौनसा बादल अधिक सुंदर, संवेदनशील और आज्ञाकारी है जो प्रियतमा तक संदेश पहुंचा सके! पर मेरे ही जनपद के कवि घनानंद के लिए यह कोई समस्या न होती. प्रीति का सच्चा मतलब ही खुद को दुख में रखकर प्रियतम के लिए मंगल कामना करना है. इसलिए सफेदमोटियाए, बूढ़ेजवान वारिदकणों से लबालब बादलों को देख, वियोग की पीड़ा से विदीर्ण विरहनीर बहाते हुए वे उलाहना देते—

पर कारज देह को धारे फिरों, पर्जण्य जथारथ ह्वें दरसों

निधिनीर सुधा के समान करौं, सबहिं विधि सुंदरता हरषों

….

कबहूं वा विसांसि सुजान के आंगन मो अंसुआन को ले बरसौं.

बरसों पहले कालिज में पढ़े इस सवैया की पंक्तियां स्मृति ओझल हो चुकी हैं. संभव है कि कुछ शब्द या वर्तनी भी इधरउधर हो. पर भरोसा गया नहीं कि घनानंद ने ये पंक्तियां ऐसे ही दमदार बादलों को देखकर रची होंगी. ऐसे दमदार बादलों को देख किसी का भी दिल उमंगित हो सकता है. वह तो घनानंद थे. सुजान के प्रेमरस में रमे हुए. कहते हैं कि घनानंद की कविता की चहुंदिश प्रशंसा सुनकर दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले ने उन्हें बुलवा भेजा. घनानंद की प्रतिभा देख उन्हें अपना मीरमुंशी बना लिया. एक बार बादशाह का मन हुआ कि घनानंद से कुछ सुनें.

कुछ सुनाइए, दोहा, सवैया, छप्पय, सोरठा, जिससे बादशाह का दिल बहले. हीरों की पहचान है उन्हें. खुश हुए तो इनामइकराम का ढेर लगा देंगे.’ घनानंद से कहा गया.

पर घनानंद का मन तो कहीं और था. दूसरी बार कहा गया. फिर भी चुप. नजर कहीं और टिकी रही. तब किसी दरबारी ने कहा, ‘महाराज, ये ऐसे नहीं गाएंगे. सुजान को बुलाइए.’ बादशाह ने फौरन सुजान को बुलवा भेजा. सुजान का मुख देखना था कि घनानंद के रोमरोम से कविता झरने लगी. वे गाने लगे. सुजान की ओर देखकर. भूल गए कि बादशाह की ओर पीठ करना बेअदबी है. मुहम्मदशाह का पारा चढ़ गया. बादशाही ऐंठ, उसने घनानंद को राज्य से निकाल दिया. घनानंद ने सुजान से भी साथ चलने को कहा. पर वह नट गई. एकतरफा मुहब्बत को ले घनानंद वहां से चले आए….प्रेम की नई इबारत लिखने.

जहाज उस समय पृथ्वी से तकरीबन 10000 मीटर की ऊंचाई पर, 1000 किलोमीटर प्रतिघंटा के वेग से उड़ रहा था. सत्तरअस्सी किलोमीटर प्रतिघंटा के वेग से भागती रेलगाड़ी की पटरियों पर नजर रखना कठिन हो जाता है. लेकिन उससे चैदहगुना तेज उड़ रहे जहाज के साथ अनुभव बिलकुल अलग था. लगता था कि हम एक जगह ठहरे हुए हैं. मानो किसी ने आसमान में लटका दिया हो. दूरियां वेग की अनुभूति को घटा देती हैं. मैं कल्पना करता हूं कि अगर आसमान एकदम साफ होता, बादलों का टुकड़ा तक कहीं नजर न आता तो जहाज की गति का एहसास कराने के लिए निकटवर्ती माध्यम कोई न होता. दस किलोमीटर ऊपर से पृथ्वी भी नजर आए यह संभव नहीं. उस अवस्था में गति की अनुभूति शून्य होती. इस समय बादलों के बीच जहाज धीरेधीरे उड़ता प्रतीत हो रहा है, उस समय यह बोध भी नदारद होता. समय आरोपित प्रत्यय है. एक गैरजरूरी अवधारणा. असल चीज परिवर्तन है, जो घटनाओं के माध्यम से हमारे सामने आता है. स्मृति द्वारा घटनाओं का मस्तिष्क पर टंकित प्रभाव ही समय की अनुभूति बनता है. ठीक अंतरिक्ष की भांति. जो कुछ न होकर भी होने का आभास देता है.

लगभग दो घंटे की उड़ान के बाद चालक दल गुवाहाटी पहुंचने की घोषणा कर चुका था. विमान उतार पर था. खिड़की से नजर आती गुवाहाटी दूर तक हरियाला पाट थी. बड़ीबड़ी झीलें, तालाब, पानी से लबालब खेत, उनके बीच सिर उठाए खड़े सुपारी और नारियल के एकदम हरियाले लंबे पेड़, असमवासियों के स्वाभिान का प्रतीक. झीलों, तालाबों के बीच सिर उठाए खड़ी इमारतें, मानो कपास वन फूला हो. उन्हें देखते हुए मैं दिल्ली के कंक्रीट के जंगल को याद नहीं करना चाहता. फिर कहां राजधानी में पानी की एकएक बूंद के लिए तरसते हुए लोग, कहां यह प्रकृति प्रदत्त जलराशि का अकूत भंडार. गर्वीली ब्रह्मपुत्र की अथाह जलराशि. मैदान इतने हरे और जलसमृद्ध कि आंखें टिकी की टिकी रह जाएं. अपने शहर की प्राकृतिक निर्धनता को पर्दे में रखने के लिए मैं गुवाहाटी का इतिहास याद करने की कोशिश करने लगता हूं.

पौराणिक नगर गुवाहाटी. इसका इतिहास हजारों वर्ष पीछे तक जाता है. महाभारत काल में यह नरकासुर की राजधानी ‘प्राग्ज्योतिषानंद’ कहलाता था. जिसका अर्थ है ‘पूर्वी ज्ञानोदय का नगर’. कुछ इसका अनुवाद ‘पूर्वी ज्योतिष का नगर’ भी करते हैं. अपनी अजेय जिजीविषा के लिए इसे कहींकहीं ‘दुर्जय’—जिसको ‘जीता न जा सके, भी कहा गया है. यह इतिहासप्रसिद्ध वर्मन और पाल राजाओं की राजधानी रहा है. सातवीं शताब्दी में यहां सम्राट भास्कर वर्मन के शासनकाल में यह नगर समृद्धि के लिए जाना जाता था. इसकी मुक्तकंठी प्रशंसा हुऐनसांग ने भी की है. वह लिखता है कि सातवीं शताब्दी में यह नगर भास्कर वर्मन की राजधानी थी. जिसके पास 30,000 से अधिक मारक युद्धक जलपोत थे. पूरा नगर 15 मील तक फैला था. दक्ष नाविक चीन तक अबाध यात्राएं किया करते थे. सेना समुद्री युद्धकला में प्रवीण थी. उस समय इस नगर का वैभव देखते ही बनता था. ग्यारहवीं शताब्दी में वर्मन राजाओं की कीर्ति मंद पड़ने लगी. मध्यकाल में नगर पर हमले हुए, जिसमें प्रसिद्ध कामाख्या देवी मंदिर तहसनहस कर दिया गया. आगे चलकर ओहम राजाओं ने नगर की कीर्ति को वापस लाने का काम किया. बताते हैं कि नगर को जीतने के लिए मुगलों ने इसपर 17 बार आक्रमण किया. 1610 में सरायघाट में निर्णायक युद्ध हुआ, जिसमें लचित बोरफुकन के नेतृत्व में ओहम सेनाओं ने मुगल सेनाओं के छक्के छुड़ा दिए. उसकी वीरता की कहानी आज भी घरघर दोहराई जाती है.

यान उतर चुका था. एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही पता चला की असमावसियों की मेहमाननवाजी का परिचय हुआ. धरती पर कदम पड़ चुके हैं. बाहर स्वागत के लिए मेजबान के प्रतिनिधि मौजूद थे. अंगवस्त्र पहनने के बाद गाड़ी में बैठे तो मन उनकी मेहमाननवाजी से अभिभूत था. पहाड़ी लोग भले होते हैं. प्रकृति से जुड़े हुए. मैदानी लोगों जैसी स्वार्थपरता, बनावटीपन और छलछदम् से कोसों दूर. मेजवान की ओर से आत्मीयतापूर्ण स्वागत ने यह सिद्ध कर दिया था. कार्य निपटान के लिए उनकी ओर से गाड़ी की व्यवस्था थी. स्थानीय अधिकारी हमारे साथ थे. पूरा दिन मेलमुलाकात और कार्य संपादन में किस प्रकार गुजर गया, पता ही चला. आपसी संवाद के लिए हम हिंदी का प्रयोग कर रहे थे. विभागीय यात्रा के सिलसिले में कुछ महीनों में देश के चार बड़े शहरों की यात्राएं की थीं. संयोग से सभी उन प्रदेशों में आते हैं जिन्हें अहिंदीभाषी माना जाता है. हर बार मैंने पाया कि हिंदी भाषी के लिए किसी भी शहर में कोई समस्या नहीं है. वे लोग हिंदी को अपना चुके हैं. हम भी उनकी भाषाओं को अपना लें तो उस संकट का हमेशाहमेशा के लिए समाधान हो जाएगा, जिसे हम सांस्कृतिक अपसंस्करण कहते हैं.

हमारे मेजबान चाहते थे कि सोने से पहले हम हम कामाख्या देवी के दर्शन करें. मुझे इसमें कोई आस्था न थी. मेरे सहयात्री भी बहुत उत्सुक न थे. पर मेजबान बंधु हमें वहां ले जाने को उत्सुक थे.

नीलाचल की चोटी से ब्रह्मपुत्र और शहर का नजारा देखने लायक होगा सर!’ उन्होंने सहयात्री की जिज्ञासा बढ़ाने के लिए कहा.

सात बज चुके हैं. जातेजाते आठ बज जाएंगे. मंदिर बंद हो चुका होगा.’ मंदिर आठ बजे बंद हो जाता है, यह हमें बेयरे से पता चल चुका था.

फिर भी, ब्रह्मपुत्र के दर्शन तो कर ही सकते हैं.’ उन्होंने आग्रह किया. टैक्सी की व्यवस्था उन्हीं की ओर से थी. फिर भी हमें घुमाने की इतनी उत्सुकता. हम सुबह तीन बजे से जगे हुए थे. थकान भी थी. मैंने सहयात्री की ओर देखा—

फिर कभी….हम लोग थके हुए हैं.’ सहयात्री ने कहा.

मैं जानता हूं….आप वहां जाना चाहते हैं सर, पर यह सोचकर सकुचा रहे हैं, कि पता नहीं इतनी रात गए माता के दर्शन होंगे कि नहीं. जो हो, हमें चलना चाहिए. मुझे भी माता के दो भक्तों को उनके मंदिर तक ले जाने का पुण्य मिलेगा.’

अब उनका आशय समय आया. उस भोली आस्था पर मैं हंस सकता था. पर उनकी सहृदयता ने मुझे चुप रहने को बाध्य कर दिया. आखिर हमें मेजबान की इच्छा को पानी देना पड़ा. मेरा मन ब्रह्मपुत्र के चैड़े पाट को देखने का था. देखना चाहता कि नमदार हवा में गुवाहाटी की सड़कें कितनी सुहानी लगती हैं. देखना चाहता था नीलाचल पहाड़ की ऊंचाई से गुवाहाटी शहर को. मेरे सहयात्री मंदिर को दूर से देखकर नमन करने को कह चुके थे. पर मेजबान के उत्साह के आगे वे भी समर्पित थे. शाम के साढ़े सात बज रहे थे. बताया गया था कि असम में रात कुछ जल्दी हो जाती है. पर हम तो आधीरात को सलाम करने के बाद चारपाई पर जाने के अभ्यस्त ठहरे. ड्राइवर नीचे प्रतीक्षारत था. कुछ देर बाद गाड़ी गुवाहाटी की सड़कों पर दौड़ रही थी.

असम का पहला नगर, राजधानी होने के बावजूद गुवाहाटी की हालत किसी भारतीय कस्बे जैसी ही है. सड़कों पर वही भीड़भाड़, अनियंत्रित यातायात, दुकानदारों द्वारा सड़क पर कब्जा. यहांवहां ठेले लगाए खड़े दुकानदार, रिक्शाचालक और चाटपकौड़ीवाले ठीक वैसे ही मिले जैसे किसी दूसरे देश में. बाहर से आया कोई यात्री, जो यहां की बोलीबानी से अपरिचित है, भारतीय शहरों के बाजार देखकर भी यहां की साभ्यतिक एकता का अनुमान लगा सकता है. ड्राइवर सड़कों से अभ्यस्त था. पहाड़ के चढ़ावदार, संकरे, चक्राकार मार्गों पर गाड़ी दौड़ाने में कलावंत. सड़क पहाड़ की परिक्रमा करती हुई ऊपर उठ रही थी. उसी के अनुपात में घूम रहा था, गाड़ी का स्टेयरिंग. ड्राइवर बायें हाथ से गाड़ी के गीयर बदलता. दायें से स्टेयरिंग को संभालता. मानो किसी समर में हो. सबकुछ चैकन्नी नजर और सधे हाथों की कलाबाजी. संतुलन जरासा बिगड़ा नहीं कि गाड़ी लुढ़कती हुई पहाड़ी की तलहटी में जा गिरेगी. उसकी निपुणता की सराहना करते हुए मैं उन मजदूरों और श्रमिकों को याद कर रहा था, जिन्होंने इन पत्थरों को काटकर रास्ता बनाया था. संभव है उनमें भी कोई ‘दशरथ मांझी’ रहा हो. आनबान का पक्का. या कोई और दीवाना प्रेमी जिसकी प्रिया बातोंबातों में कह बैठी हो—

ब्रह्मपुत्र मैया और गुवाहाटी के दर्शन एक साथ करना चाहती हूं.’

तो सोचना क्या है, अभी चल.’

नहीं….ऐसे नहीं.’ वह मानिनी की तरह मचली होगी. सबकुछ एक ही बार में. ब्रह्मपुत्र और शहर दोनों को. एक साथ. एक जगह से….’ और प्रिया ने अपनी नजर नीलाचल की गर्विणी चोटी पर टिका दी होगी. प्रियामन को समझ पाए वह प्रेमी कैसा!’

इतना ऊंचा पहाड़….लगातार पानी बरसने से चट्टानों पर काई जम चुकी है, तुम चढ़ पाओगी?’

वही तो!’

कहकर वह चुप हो गई होगी. मानो प्रियतम को मन ही मन तोल रही हो. और चेहरे की झलक से प्रिया के मनोभावों को पहचान लेने वाला उसका दीवाना प्रेमी, अगले ही दिन छैनीहथौड़ाकुदाली लेकर पहाड़ियों को काटने पर तुल गया होगा. आंखों में प्रिया की तस्वीर, कंधे पर गमछा, पसीना पोंछने के लिए. हाथों में छेनीहथौड़ा, कुदाली और मन में अटूट संकल्प. दीवाना प्रेमी पहाड़ काटता रहाकाटता ही रहा होगा. उसके दीवानेपन पर लोग लोग हंसे होंगे. जैसे दशरथ मांझी पर हंसे थे. उसे ‘पागल’ कहा होगा, जैसे दशरथ मांझी को कहा था. लेकिन वह अपनी धुन में जुटा रहा होगा. दशरथ मांझी की पत्नीप्रिया तो अपने दीवाने के पसीने से झरी इबारत को देख पाने में नाकाम रही थी. पति के भीष्म संकल्प के लिए खुद को जिम्मेदार ठहराती….उसके कष्ट के लिए खुद को दोषी मानती वह जल्दी ही चल बसी थी. नीलाचल के ‘दशरथ मांझी’ की प्रिया क्या अपने दीवाने के संकल्पपथ को साकार होते देख पाई होगी! कुछ भी हुआ हो, लेकिन प्यार की कसौटियां तो ऐसे ही बना करती हैं….

सुना है पहले राजा लोग सजायाफ्ता कैदियों को ऐसे ही मेहनतदार कामों में जोत दिया करते थे. कमी पड़ती तो सैनिक गांवों से गरीब मजदूरों, किसानों को खदेड़ लाते थे. इस मंदिर के निर्माण में कितने मजदूरों ने कितने दिनों तक बेगार किया होगा? पांचसात सौ मजदूर तो रहे ही होंगे. और समय. सातआठ वर्ष या इससे भी अधिक. इतने श्रमिकों लिए भोजन की व्यवस्था क्या राजा के खजाने से होती होगी? पगार की बात तो सोचिए भी मत, सामंती आतंक के बीच किसानमजदूर की जिंदगी बचे रहना ही सबसे बड़ी पगार थी. संभव है मजदूरों ने श्रद्धावश वैसी कोई अपेक्षा भी न की हो. सिर्फ आस्था के वशीभूत पसीना बहाने चले आए हों. राजा का नाम हो, गरीब का संतोष बना रहे, और क्या! दिनभर वे काम करते होंगे, भूख लगने पर जंगल के कंदमूल पर गुजारा करते होंगे.पानी तो ब्रह्मपुत्र मैया की मेहरबानी ठहरी. उन सातआठ वर्षों या में या जब तक यह मंदिर बना तब तक मजदूरों, शिल्पकारों ने पसीना बहाया, यदि उसको एक जगह जमा किया जा सकता तो ब्रह्मपुत्र मैया के बराबर में ही एक विशाल झील उस पसीने से बन जाती. एक और कल्पना, जो मजदूर पहाड़ खोदकर रास्ता बना रहे थे, सीढ़ियों बनाने के लिए छैनीहथौड़ी चला रहे थे, काम करतेकरते उनमें से कितने फिसले होंगे. कितनों की जानें गई होंगी. कितने हमेशा के लिए अपंग हो गए होंगे, क्या राजा ने उनका हिसाब रखा होगा? हो सकता है काम के बीच किसी युवा मजदूर को अपनी पत्नी की याद हो आई हो, जिसे वह गांव में अकेली छोड़कर आया हो. तब संभव है उसने राजा के कारिंदों से घर जाने की अनुमति मांगी हो! क्या उन्होंने वह अनुमति दी होगी? सत्तामद में चूर हो उस अलबेले युवक को हमेशा के लिए अपनी विरहणि पत्नी से अलग कर दिया गया होगा! उसकी पीड़ा और छटपटाहट का क्या किसी ने हिसाब रखा होगा? देवी का जयकारा लगाकर मनौती की गठरी कंधों पर लादे, उखड़ी सांस से ऊपर चढ़ते श्रद्धालुओं ने क्या कभी उन संकल्प सारथियों और श्रमकरों को याद किया होगा, जिन्होंने भूखे पेट, अधनंगे तन इन पहाड़ों को काटने में अपनी पूरी जिंदगी खपा दी. यहीं पर जो मरखप गए, अपने प्यार की खातिर, अपने संकल्प की खातिर….अपने जुनून और भूख की खातिर. उनकी मौत पर शोक तो जाने दीजिए, क्या कभी किसी ने उनके श्रमसीकरों को सराहा होगा?

यहां आकर पता चलता है कि इतिहास कितना बड़ा झूठ होता है. उसकी निगाह केवल शिखर पर टिकी होती है. ठीक कामाख्या देवी के मंदिर की तरह. जो जब मर्जी हो बादलों से बतियाने लगता है और जब चाहे ब्रह्मपुत्र की लहरों पर खेल सकता है. पर उसके प्रांगण में कितने निरीह जानवरों की जानें गईं. कितनों को कनफड़ करके भटकने के लिए छोड़ दिया गया? कितनों ने उसके नाम पर गरीब जनता का शोषण किया? उन्हें क्या मालूम! मंदिर तो पत्थर की इमारत ठहरी, क्या इस शक्तिपीठ की अधिष्ठाता देवी ने भी इसका हिसाब रखा होगा? देवी रखे न रखे पर मजदूर देवी का हर हिसाब रखता है. अपने पसीने का भी जो उसने अधनंगे तन बहाया है. उनका भी जो उनसे बीच राह बिछड़े हैं, काम करतेकरते जिन्होंने अपनों को खोया है. पर वह सब्र कर जाता है. अपने लिए नहीं, इस दुनिया की खातिर, यहां के देवीदेवताओं की खातिर, क्योंकि वह जानता है कि मरी खाल की सांस से लोहा भी भस्म हो जाता है—फिर वह तो जिंदा इंसान है. फिर सारा दोष पुजारियों और मंदिर निर्माताओं का तो नहीं है. उन्होंने तो अपने स्वार्थ को युगधर्म बना लिया था. दोष उन लोगों का भी है जो इस चालाकी को कभी समझ न पाए. या समझकर भी अनजान बने रहे. जो खुद को भीड़ का हिस्सा से अधिक मानने को तैयार नहीं होते….सच यह भी है कि देरसबेर जबजब उनका रक्त उबला है, उसमें सारे आततायी सम्राट, धर्म, देवता, पंडेपुजारी भस्म होते रहे हैं.

क्रमश:

ओमप्रकाश कश्यप

इस आंदोलन को सफल होना ही चाहिए

अन्ना हजारे गांधी नहीं हैं. पर वे अच्छे उद्देश्य के लिए अड़ जाने वाले नेता हैं. ऐसे व्यक्ति उन चुनौतियों को आसानी से पार करने में सफल हो जाते हैं, जहां लक्ष्य का एका हो तथा समूह की बागडोर पूरी तरह अपने हाथों में हो. जहां बहुत से शक्तिकेंद्र हों, उलझावभरी, जटिल सत्तासंरचना हो, जहां मौजूद लोगों में अधिकांश का उद्देश्य महज स्वार्थसिद्धि हो, ऐसे लोगों को सही रास्ते पर लाने के लिए जैसा बुद्धिचातुर्य तथा रणनीतिक कौशल चाहिए, उसका उनमें अभाव है. इसलिए यह संघर्ष अन्ना हजारे और सरकार के बीच न होकर टीम अन्ना और सरकार के बीच है. टीम अन्ना के दूसरे सदस्य अरविंद केजरीवाल राजनीति के क्षेत्र में व्याप्त अराजकता, अनैतिकता, अनाचार तथा भ्रष्टाचार से आहत, भावुक और संवेदनशील इंसान दिखते हैं. कई बार वे अपने जज्बात पर काबू नहीं रख पाते. किरन बेदी ने अपनी छवि सख्त पुलिस अधिकारी की बनाई थी. बाद में प्रशासन से पटरी न बैठ पाने के कारण वे नौकरी से इस्तीफा देकर समाज सेवा के क्षेत्र में गईं. उन्हें वहां प्रतिष्ठा भी मिली. परंतु कुछ अति उत्साह, कुछ उनकी गलती से सरकार उनकी छवि को दागदार करने में कामयाब रही है. इकानॉमी क्लॉस में यात्रा करके, बिजनिस क्लॉस का किराया लेना उनकी नैतिकता पर सवाल बनकर आया. इससे भी भारी पड़ा था रामलीला मैदान में किरन बेदी छाप प्रहसन, जिसने उनकी गंभीरता को सवालों के घेरे में ला दिया. शांति भूषण और प्रशांत भूषण पितापुत्र का योगदान आंदोलन से जुड़े कानूनी मुद्दे देखना है. अभी तक उन्होंने अपनी भूमिका का सफल निर्वाह किया है. पिछले वर्ष अगस्त आंदोलन में अन्ना हजारे द्वारा रिहाई की पेशकश को ठुकराकर थाने में धरना देने की घोषणा उनकी रणनीतिक जीत थी. मनीष सिशौधिया प्रायः लोप्रोफाइल दिखते हैं. जनलोकपाल से इतर राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक सुधार के लिए उनके पास भी कोई ठोस रणनीति नहीं है. बाकी सदस्य बाड़ के समान हैं. संख्या बढ़ाने वाले. भ्रष्टाचार जो टीम अन्ना का केंद्रीय मुद्दा है, को लेकर भी जनलोकपाल बिल पर मौन सहमति से आगे नहीं जाते. यही कारण है कि सरकार को घेरने के लिए टीम अन्ना पुराने मुद्दों से आगे नहीं बढ़ पाई है. वह अभी तक जनलोकपाल पर अटकी हुई है, जिसे लेकर सरकार और बुद्धिजीवियों में अनेक मतभेद हैं. उसी का लाभ उठाकर सरकार मुद्दे को लगातार टालती आ रही है.

एक कानून के रूप ‘जनलोकपाल’ एक प्रतिबंधात्मक व्यवस्था है. वह अपराधियों को दंड दिलवाने पर केंद्रित है. अपराध की स्थितियां पैदा ही न हों, उसकी यह कोई व्यवस्था नहीं करता. दूसरे यह केवल आर्थिक अपराधों पर विचार तथा उनके निषेध तक सीमित रहता है. सामाजिक कदाचार, निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार पर वह चुप्पी साधे हुए है. जो कदाचित आर्थिक भ्रष्टाचार से भी खतरनाक है. उनके सहयोगी बाबा रामदेव का मुख्य मुद्दा विदेशों में जमा धन वापस लाना है. आगे क्या होगा, इस बारे में वे भी कोई विचार नहीं रखते. विदेशी बैंकों में जमा धनराशि को वापस लाना अव्वल तो आसान नहीं है. यदि यह चमत्कार संभव भी हो जाए तब क्या होगा? क्या गारंटी है कि उस धन को लेकर उनके नएपुराने दावेदार परोक्षरूप में कोर्ट में दावेदारी पेश नहीं करेंगे! तब क्या यह संभव नहीं कि पद्मनाभ मंदिर के खजाने की तरह वह भी दिखावटी बनकर रह जाए! विनोबा ने भूदान में चालीस लाख एकड़ से अधिक भूमि जुटाई थी. ठोस एवं सक्षम कार्यनीति के अभाव में वह, पचाससाठ वर्षों के बाद आज तक, भूमिहीनों में नहीं बांट पाई है. परिणामस्वरूप अधिकांश भूमि पर दबंगों ने कब्जा कर लिया है.

इधर सरकार तथा जनलोकपाल आंदोलन का विरोध कर रहे दलों को लगता है कि वे टीम अन्ना के सदस्यों से लोगों का विश्वास डिगाने में कामयाब हो चुके हैं. इसलिए वे पूरी तरह जनलोकपाल के विरोध में उतर आए हैं. कानून मंत्री का हालिया कथन कि आंदोलनकारी सरकारी रवैये से असहमत हैं तो वे संयुक्त राष्ट्र में जा सकते हैं, बहुत ही बचकानी और गैरजिम्मेदराना टिप्पणी है. यह लोकपाल या जनसरोकारों से युक्त अन्य मसलों पर बिल के प्रति सरकार की उपेक्षा और उसकी दीठता को दर्शाता है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि गत वर्ष अगस्त आंदोलन के बाद अन्ना हजारे की रैलियों में लोगों की उपस्थिति घटी है. इस बार टीम अन्ना का फेसबुक अभियान भी पहले जैसा नहीं है. संभव है उसको सेंसर किया जा रहा हो. लेकिन यदि टीम अन्ना का कथित ‘सोशल’ साइट्स से भरोसा टूटा है तो यह अच्छा ही है. जिसे सोशल मीडिया कहा जाता है, वह प्रायः समाज से कटे या ऐसा महसूस कर रहे व्यक्तियों के लिए आभासी संबंधों का मंच है. उससे सूचनाओं का त्वरित आदानप्रदान तो संभव है. लेकिन समुचित विवेकनिर्माण और समाज की संगठित ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग संभव नहीं है. आभासी समूहों का प्रत्येक सदस्य स्वयं को समूह का नायक अथवा नायकजैसा माने रहता है. वह काल्पनिक और गढ़ी हुई आभासी दुनिया होती है, जिसमें सहमति या असहमति कंप्यूटर की मात्र एक ‘क्लिक’ जितना महत्त्व रखती है. अव्वल तो वह व्यावहारिक चुनौतियों से दूर रहता है, लेकिन उसकी स्थिति बने भी तो उनका नायकत्व एक झटके में बिखर जाता है. सोशल मीडिया द्वारा समाज का ऐसा विवेक निर्माण संभव नहीं है, जिससे वह अपने अंतद्र्वंद्वों से उभरकर एकजुट हो, विकास के रास्ते पर आगे बढ़ सके. 2011 के आरंभ में अरब देशों में हुई क्रांति इसका उदाहरण है. सालडेढ़ साल के भीतर वहां नई पोशाक में पुराना निजाम वापस आ चुका है.

ऐसी परिस्थितियों में क्या टीम अन्ना से मोह भंग हो जाना चाहिए? उनके चालू आंदोलन को चंद सिरफिरों की उछलकूद मानकर क्या हमें स्वयं को उससे पूरी तरह अलग कर लेना चाहिए? यदि यह हुआ तो वह बहुत ही बुरा होगा. टीम अन्ना के हम प्रशंसक हों या आलोचक, परंतु हमें यह हरगिज नहीं मानना चाहिए कि जनता में बदलाव की इच्छा मर चुकी है. न सरकार को यह लगने देना चाहिए कि जनता का मनोबल टूट चुका है. बल्कि अधिक विचारवान ढंग से, अधिक जागरूकता, समर्पण एवं चेतनाशक्ति से लोगों को मतभेद भुलाकर इस आंदोलन में साथ देना चाहिए. जिन लोगों की टीम अन्ना से सैद्धांतिक असहमति है, उन्हें सकारात्मक विरोध की नई संभावनाओं के बारे में सोचना चाहिए. मेधा पाटकर, अरुंधति राय, सुंदरलाल बहुगुणा जैसे आंदोलनकारी इससे पहले भी जनसहभागिता के बल पर निरंतर आंदोलन करते रहे हैं, लेकिन लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप पर सवाल खड़ा करने वाला यह शायद अकेला आंदोलन है. इसकी सफलता देश में लोकतंत्र की बुनियादी मजबूती के लिए अपरिहार्य है.

पर्याप्त लोकचेतना के अभाव में राजनेता मनमानी पर उतर आए हैं. उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने अपने पुत्र अखिलेश यादव को प्रदेश के मुख्यमंत्री की गद्दी देकर वंशवाद की राजनीति में एक नया आयाम जोड़ा है. वही काम अब कांग्रेस करने जा रही है. राहुल गांधी को सरकार में अतिरिक्त जिम्मेदारी देने की घोषणा इसी का संकेत है. उत्तर प्रदेश के दो चुनावों में असफलता का मुंह देर चुके राहुल की कामयाबी पर पूरा भरोसा तो खुद कांग्रेसियों को भी नहीं है. मंच पर बांह चढ़ाकर दो हाथ करने की मुद्रा में भाषण देने से संभव है एकदो प्रतिशत वोट और अधिक मिल जाएं. लेकन पार्टी और देश को सफलतापूर्वक चलाने के लिए दूरदर्शी सोच और विवेक की जरूरत पड़ती है. उसका कोई प्रमाण राहुल ने अभी तक नहीं दिया है. लोकतंत्र के नाम पर वंशवाद की अमरबेलि, राजनीति के नाम पर अनाचार, विकास योजनाओं के पीछे छिपे भ्रष्टाचार पर यदि अंकुश लगाना है तो उसका केवल एक ही उपाय है, सरकार को लगे कि जनता उसके प्रत्येक धत्कर्म पर नजर रखे है. इसके लिए आवश्यक है कि सरकार जनलोकपाल जैसे परिवर्तनकामी आंदोलनों को कामयाबी मिले. उससे जनता के आत्मविश्वास में वृद्धि हो. सरकार को लगे कि सर्वकल्याणकारी राजनीति की मांग को अब और टालना असंभव है. फिलहाल ‘जनलोकपाल’ आंदोलन संभवतः अकेला ऐसा उदाहरण है जिसने इस देश के लोकतांत्रिक विकारों को लेकर बहस की शुरुआत की है. ऐसे आंदोलनों का बचे रहना, देश में लोकतंत्र अच्छी सेहत के लिए बहुत जरूरी है, फिर बहाना चाहे जनलोकपाल बिल हो या कुछ और.

ओमप्रकाश कश्यप

विनोबा भावे: प्रथम सत्याग्रही—दो

सर्वोदय की ओर

स्वाधीनता संग्राम को तेज करने के लिए ढेर सारे सत्याग्रही आंदोलनकारियों की आवश्यकता थी. ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध उस संघर्ष में सफलता जनता के सहयोग और लोगों द्वारा कंधे से कंधा मिलाकर समर में उतरे बिना असंभव थी. मगर स्वाधीनता के लिए एकजुट होना, कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष के लिए आगे आना तब तक असंभव था, जब तक लोगों के मन में जाति-पांत की भावना और धार्मिक संकीर्णता हो. जातिगत ऊंचनीच की भावना शताब्दियों से इस देश को कमजोर करती आ रही थी. वर्गीय स्तरीकरण के आधार पर जन्मना श्रेष्ठता का दावा करते हुए समाज के मुट्ठी-भर लोग, पीढ़ी दर पीढ़ी संसाधनों पर कुंडली मारे बैठे रहते थे. वर्णव्यवस्था के समर्थक हालांकि यही कहते आए थे कि यह एक खुली व्यवस्था थी. वह जन्मना न होकर कर्मणा थी. कोई भी व्यक्ति अपने गुण और योग्यता के आधार पर एक वर्ग से दूसरे वर्ग में अंतरण कर सकता है. ब्राह्मण होने के लिए ‘फलां-फलां’ शर्त है. अपने तर्क के समर्थन में उनके पास चंद उदाहरण भी होते थे. ‘गिने-चुने’ और गढ़े गए उदाहरण. वे ऐसा एक भी उदाहरण देने में असमर्थ रहते थे, जिनमें किसी ब्राह्मण ने अपने मूर्ख और स्वार्थी बेटे को ब्राह्मणत्व से अपदस्थ किया हो. यही जाति सम्मोहन चार पन्नो की पोथी रटने वाले को विद्वान शिरोमणि ब्राह्मण देवता की उपाधि देता गया. जाति और वर्ण के नाम पर शीर्षस्थ वर्ग शताब्दियों से जनसाधारण का शोषण-उत्पीड़न करता रहा. इस कारण समाज के उत्पीड़ित वर्ग में गहरा असंतोष था.

     अंग्रेजी शिक्षा और समाज में ज्योतिबा फुले के समय से चले आ रहे अस्मितावादी आंदोलनों ने इस असंतोष को और भी हवा दी थी. सामंत और राजे-महाराजे तो श्रीहीन हो ही चुके थे. गांधी के नेतृत्व में आंदोलनरत कांग्रेस के कार्यक्रमों में उनका योगदान यूं भी नगण्य ही था. कांग्रेस के सिपाही जनसाधारण थे. उभरते जनांदोलन को कमजोर करने के लिए अंग्रेजों के पास एक ही रास्ता था, लोगों को जाति, धर्म, संप्रदाय आदि पर आधारित ऊंच-नीच की भावना का शिकार बनाया जाए. भारतीय समाज की फूट का लाभ उठाकर अंग्रेज सत्ता सुंदरी को येन-केन-प्रकारेण अपने पाश्र्व में बनाए रखना चाहते थे. लगभग पौने दो सौ वर्षों से उन्होंने इसी नीति से देश पर राज किया था. उनका हाथ समाज के अंत्यजों और अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों पर था, जिनके पूर्वजों ने इस देश पर शताब्दियों तक राज किया था और उनमें से अधिकांश अब भी स्वयं को दिल्ली की गद्दी का वास्तविक उत्तराधिकारी समझते थे. अनेक हिंदू और मुस्लिम नेता स्वार्थवश उनके साथ थे. दोनों ही एक-दूसरे को ढकेलकर केंद्रीय सत्ता का निकटतम स्थान प्राप्त करना चाहते थे. ऐसे में स्वाधीनता संग्राम का संचालन कर रहे गांधी तथा समर्थकों के आगे बड़ी चुनौती थी, समाज को एक रखना. जनशक्ति को बंटने से रोकना, तथा जनता की ताकत का उपयोग अपने आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए करना. अंग्रेज समाज को जातीय आधार पर बांट न पाएं, इसलिए समाज को जातीय आधार पर एक रखने की जरूरत थी. इसके लिए आवश्यक था कि सभी देवालय समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए समानरूप से खुले हों. लोगों में आपसी भाईचारा और धार्मिक-सामाजिक एकजुटता हो. जातिवादी आग्रहों की खाई को पाटकर पूरे समाज को एक राष्ट्र की आत्मा के साथ एकीकृत करना, उनका लक्ष्या था.

     दक्षिण भारत के कई मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश की मनाही थी. गांधी जी पहले ही कह चुके थे कि अश्पृश्यता हिंदू समाज के माथे पर कलंक है. उनके इसी वक्तव्य को मंत्र मानते हुए विनोबा ने हिंदू समाज में व्याप्त अश्पृश्यता और जात-पांति के विरुद्ध कई लेख अपनी पत्रिका में लिखे थे. विनोबा की निष्ठा और समर्पण भाव को देखते हुए 1925 में गांधी जी ने उन्हें केरल के वाइकोन नामक स्थान पर एक आंदोलन का नेतृत्व करने का दायित्व सौंपा. आंदोलन हरिजनों की अस्मिता और उनके मंदिर-प्रवेश के अधिकार को लेकर था. विनोबा ने उस आंदोलन का सफलतापूर्वक नेतृत्व कर गांधी जी के भरोसे को पूरा किया. 1932 में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए सरकार बिनोवा से फिर नाराज हो गई. उन्हें छह महीने की सजा सुनाई गई. धुलिया जेल में सजा काटते हुए विनोबा ने अपने रचनात्मक कार्यक्रमों पर निरंतर काम करते रहे. लगातार परिश्रम और जेल के प्रतिकूल वातावरण का प्रभाव विनोबा की सेहत पर पड़ा था. वे दिनोंदिन कमजोर होते जा रहे थे. 1938 में उन्हें गंभीर बीमारी ने आ घेरा, तब गांधी जी ने उन्हें कुछ दिन आराम करने की सलाह दी.

     ‘ठीक है, बापू. आपकी आज्ञा है तो मैं आराम अवश्य करूंगा.’ विनोबा ने आश्वासन दिया.

     पवनार में जमनालाल बजाज का बंगला खाली पड़ा हुआ था. गांधी जी स्वयं चाहते थे कि वर्धा में भी साबरमती जैसा आश्रम स्थापित किया जाए, ताकि स्वाधीनता आंदोलन को गतिमान बनाया जा सके. वर्धा की जलवायु भी अनुकूल थी. गांधी जी का आग्रह विनोबा के लिए आदेश ही था. उन्होंने वर्धा जाने की सहमति दे दी. एक दिन गांधी जी से अनुमति ले उन्होंने पवनार के लिए प्रस्थान कर दिया. आगे चलकर वही उनकी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बना. वहीं रहते हुए उन्होंने अनेक सत्याग्रह आंदोलनों का नेतृत्व किया. वहीं से राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की.

     इधर देश में राजनीतिक गतिविधियां तेज होती जा रही थीं. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी माहौल गर्मा रहा था. इसी बीच दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ने से मामला और भी बिगड़ गया. गांधी जी को भरोसा था कि दूसरे  विश्वयुद्ध के पश्चात अंग्रेज भारत को अधिक स्वायत्तता सौंप देंगे, इसलिए उन्होंने युद्ध में औपनिवेशिक सरकार का साथ देने का निर्णय लिया था. अंग्रेजों के पक्ष में हजारों भारतीय सैनिकों ने उस युद्ध में हिस्सा लिया. विजय मित्र देशों की हुई. मगर गांधीजी का आकलन गलत निकला. अंग्रेज इतनी आसानी से हिंदुस्तान छोड़ने वाले न थे. उधर लगातार संघर्ष के पश्चात भारतीय जनता में स्वाधीनता की चाहत बढ़ चुकी थी. उसकी उपेक्षा कर पाना गांधी जी और कांग्रेस के लिए भी संभव न था. अतएव अंग्रेज सरकार के विरुद्ध व्यापक स्तर पर जनांदोलन छेड़ने की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी थी. आजादी की मुहिम को और तेज करते हुए गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया और अंग्रेजों के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष छेड़ने की घोषणा कर दी.

     आजादी की यह लड़ाई अहिंसक तरीके से लड़ी जाने वाली थी. गांधी जी उसके माध्यम से एक ऐसा संदेश दुनिया को देना चाहते थे कि भारत अपनी स्वाधीनता के प्रति प्रतिबद्ध है. अंग्रेजों की धारणा के उलट वह एक-राष्ट्र है. सांस्कृतिक एकता और इच्छाशक्ति पूरे भारत को आपस में जोड़ती है. संगठित जनशक्ति की इच्छा का अब और दमन असंभव है. यदि ऐसा हुआ तो पूरा देश अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़ा हो सकता है. मगर जनसाधारण को आजादी की लड़ाई में उतार पाना तभी संभव था जब उन्हें यह संदेश जाए कि गुलामी उनकी अस्मिता और सम्मान के लिए खतरा है और वे उनकी एकजुटता ही उन्हें इसके पार ले जा सकती है.

     जनता और सरकार दोनों को सही संदेह जाए, इसके लिए आंदोलन का जोरदार शुभारंभ महत्त्वपूर्ण था. उसके लिए ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जिसकी गांधी जी के नैतिक सिद्धांतों में न केवल पूरी आस्था हो, बल्कि उसका अपना प्रभामंडल भी कम देदीप्यमान न हो. जनता का उसपर अटूट विश्वास हो. इसके लिए गांधी जी के दिमाग में सिर्फ एक व्यक्ति का नाम था. वे थे विनोबा भावे, जिन्हें लोग प्यार से आचार्य विनोबा भावे कहने लगे थे. गांधी जी की अनुशंसा पर विनोबा को 1940 में प्रथम सत्याग्रही चुना गया. उस समय तक बहुत से लोगों नहीं जानते थे कि विनोबा नामक यह शख्स कौन-सा है, जिसपर गांधी जी ने इतना बड़ा भरोसा किया है. लोग प्रथम सत्याग्रही के बारे में जानने को उत्सुक थे. लोगों की जिज्ञासा शांत करने के लिए स्वयं गांधी जी ने विनोबा का परिचय कराते हुए लिखा कि—

     ‘विनोबा भारतीय स्वाधीनता में विश्वास करते हैं. वे इतिहास के विद्धान हैं. लेकिन उनका मानना है कि भारत के गांवों की वास्तविक आजादी बिना रचनात्मक कार्यक्रमों के असंभव है, और यह रचनात्मक कार्यक्रम खादी है.’

     प्रथम सत्याग्रही चुने जाने और गांधी द्वारा परिचय कराए जाने के बाद विनोबा की ख्याति पूरे देश में फैल गई. विनोबा भी ने बापू के विश्वास की रक्षा की. अंग्रेज सरकार के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन का शुभारंभ उन्होंने नागपुर से किया गया. आंदोलन पूरी तरह कामयाब रहा. देश गांधी की भांति विनोबा पर भी  भरोसा करने लगा. उसके बाद तो एक के बाद एक कई सत्याग्रह आंदोलनों में हिस्सा लेते हुए विनोबा को 1940 से 1941 के बीच तीन बार जेल जाना पड़ा. पहली बार तीन महीने के लिए. दूसरी बार छह महीने और तीसरी बार एक वर्ष के लिए. 1942 में गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया तो अहिंसा के प्रशिक्षित सैनिक की तरह विनोबा भावे फिर उस आंदोलन में कूद पड़े. तब तक अंगे्रज सरकार उनके पीछे पड़ चुकी थी. परिणाम यह हुआ कि वे पकड़ लिए गए. इस बार उन्हें तीन वर्ष तक वैलूर और सियोनी जेलों में रखा गया. हमेशा की तरह इस बार भी कारावास की अवधि का उपयोग उन्होंने अध्ययन और लेखन के लिए किया. गीता के अनुवाद-कर्म को आरंभ किए वर्षों बीत चुके थे. अंततः वैलूर जेल में सजा काटते हुए वह अवसर आया जब विनोबा ने ‘गीताई’ को अंतिम रूप दिया. विनोबा का यह जेल प्रवास अनेक रचनात्मक उपलब्धियों से भरा हुआ था.

     वैलूर जेल में देश के विभिन्न प्रांतों से आए हुए कैदी थे. आपस में संवाद के लिए वे प्रायः अंग्रेजी का प्रयोग करते. विनोबा को यह बहुत बुरा लगता. जिन अंग्रेजों से वे स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहे हैं, आपसी संवाद के लिए उनकी भाषा पर निर्भरता क्यों हो! लोगों को यह संदेश देने के लिए कि वे एक-दूसरे की भाषाएं सीखें, उन्होंने जेल प्रवास के दौरान तमिल, तेलुगु, कन्नड और मलयालम भाषाएं सीखीं. उनके अध्ययन-पाठन को आसान बनाने के लिए उन्होंने ‘लोकनागरी लिपि’ का आविष्कार भी किया, जिसमें वे चारों भाषाएं सफलतापूर्वक लिखी जा सकती हैं. उर्दू वे सेवाग्राम में रहते हुए न केवल सीख चुके थे, बल्कि प्रवीणता भी प्राप्त कर चुके थे. विनोबा की उर्दू प्रवीणता को दर्शाने वाली एक दिलचस्प घटना है.

     सेवाग्राम में, गांधी जी की सेवा का व्रत लेकर एक मुस्लिम युवक भर्ती हुआ. आश्रम की नीति सर्व-धर्म समभाव की थी. उसके अनुसार मुस्लिम किशोर को अरबी भाषा सिखाना जरूरी था. लेकिन संयोग से वहां ऐसा कोई व्यक्ति न था जो अरबी के अध्यापन की जिम्मेदारी संभाल सके. इस समस्या के निदान के लिए विनोबा ने अरबी सीखना आरंभ कर दिया. कुरआन शरीफ की आयतों के सही उच्चारण के लिए वे नियमित रूप से उनका रेडियो प्रसारण सुनते. एक दिन उनके ज्ञान की परीक्षा की घड़ी भी आ गई. आश्रम में मौलाना अबुल कलाम आजाद आए हुए थे. वे अरबी-फारसी के विद्वान थे. गांधी जी ने उनसे विनोबा के अरबी भाषा के ज्ञान की परीक्षा लेने को कहा. परीक्षा के उपरांत मौलाना आजाद ने गांधी जी से कहा—

     ‘बापू, आपका विनोबा तो हाफिज हो गया है.’

     अरबी भाषा में में ‘हाफिज’ होना धर्म की परीक्षा में प्रवीणता प्राप्त कर लेना है. विनोबा द्वारा धर्म, दर्शन पर लिखी गई पुस्तकें अनेक भाषाओं में प्रकाशित हुईं और उन्हें एक आध्यात्मिक संत की पहचान मिलने लगी. देश-भर में अंग्रेज विरोध की लहर बढ़ती ही जा रही थी. गांधी के नेतृत्व में उनकी पूरी अहिंसक सेना आंदोलन में हिस्सा ले रही थी. विनोबा भी उसमें सम्मिलित थे. गांधी द्वारा सौंपे गए दायित्वों को सफलतापूर्वक पूरा करते हुए. साथ में बढ़ रही थी, उनकी ख्याति. अहिंसा और सत्याग्रह के प्रति उनकी निष्ठा. यदि किसी देश की प्रजा समझ जाए कि वह गुलाम है, और ठान ले कि आजाद होना है, तो फिर उसकी स्वाधीनता को लंबे समय तक टाला नहीं जाता. जागरूक जनता अपनी आजादी, अपने अधिकार किसी न किसी रूप में छीन ही लेती है. भारतवर्ष में भी यही हुआ.

अगस्त 1947 को देश स्वाधीन हुआ. आजादी के बाद देश के पुनः निर्माण की आवश्यकता थी. अब अलग चुनौतियां थीं. पहले से अलग और कई मायने में उनसे बड़ी भी. बिखरे हुए को समेटते हुए देश की ऊर्जा को रचनात्मक मोड़ देना था. इस बारे में गांधी जी का सोच पूरी तरह साफ था. उन्होंने पहले ही कह दिया था कि कांग्रेस और उनके कार्यकर्ताओं का काम आजादी मिलने मात्र से पूरा नहीं होगा. नई भूमिका के लिए वे चाहते थे कि आजादी के बाद कांग्रेस भंग कर दी जाए तथा उसके कार्यकर्ता गांव-गांव जाकर रचनात्मक कार्यक्रमों का संचालन करें. वे गांवों को आत्मनिर्भर देखना चाहते थे. गांधी जी के सपने को ही अपना दायित्व मानते हुए विनोबा ने कई रचनात्मक कार्यक्रमों की शुरुआत की. उन्होंने बैलों की सहायता के बिना खेती का प्रारूप देश के सामने रखा. जाते-जाते अंग्रेज इस देश को बांटकर गए थे. आजादी के बाद देश में दंगे भड़क उठे. लोग भारत-पाकिस्तान में बंटने लगे. समस्या थी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को बसाने की. विनोबा इसमें भी जी जान से जुटे रहे. भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान हुए दंगों के बाद शांति-स्थापना के कार्य में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर योगदान किया.

     आजादी के बाद देश को जवाहर लाल नेहरू जैसा कल्पनाशील प्रधानमंत्री मिला था. स्वाधीनता संग्राम के दौरान जवाहरलाल ने गांधीजी का स्नेह और विश्वास प्राप्त करने में सर्वाधिक सफल सिद्ध हुए थे. वे विद्वान प्रधानमंत्री थे, लेकिन उनके निर्णयों में प्रशासनिक ढुलमुलपन था; साथ में कूटनीतिक चातुर्य की कमी भी. दूसरे उनके इर्द-गिर्द एक चमचा-मंडली जन्म ले चुकी थी. यह सब गांधी जी की पैनी निगाह से छिपा न था. उन्हें रहा था कि प्रशासनिक व्यवस्था में आजादी के बाद जो जिन आमूल परिवर्तनों की आवश्यकता थी, वे नहीं हो पा रहे हैं. वे उसमें बदलाव चाहते थे. इसके लिए विनोबा की भूमिका अवश्य उनके मन में रही होगी. लेकिन कोढ़ में खाज यह कि 30 जनवरी 1948 को एक सिरफिरे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी. विनोबा सकते में रह गए. अहिंसा के पुजारी की गोली मारकर हत्या. उन्हें लगा कि उनसे इस देश के मानस को पहचानने में चूक हुई है.

     महात्मा गांधी की हत्या के पश्चात उनके देश-भर में फैले गांधीवादी कार्यकर्ताओं को नेतृत्व की तलाश थी. विनोबा गांधी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे. गांधी स्वयं यह कह चुके थे कि विनोबा ने उनके विचारों को उनसे भी अधिक गहराई से समझा है. इसका प्रमाण भी था. विनोबा की गांधीवाद संबंधी अवधारणाएं अपेक्षाकृत स्पष्ट थीं. इसलिए उनके समक्ष नेतृत्व का प्रस्ताव आया. मगर विनोबा की नेतृत्व के लिए तैयार न थे. महात्मा गांधी की हत्या से वे बुरी तरह टूट चुके थे. बार-बार उन्हें वह दिन याद आ रहा था, जब उन्होंने परमसत्य को पाने की चाहत में घर छोड़ा था. मुंबई जाने के लिए घर से निकले थे, मगर जा पहुंचे थे काशी. वहीं गांधी जी को पहली बार सुना था. उन्हीं से प्रभावित होकर वे स्वाधीनता आंदोलन में उतरे थे. अब आजादी का लक्ष्य पूरा हो चुका था. विनोबा को लग रहा था कि अपनी पुरानी खोज को, सत्य की खोज को नए सिरे से आरंभ करने का समय आ चुका है. इसलिए वे दिनोंदिन आत्मोन्मुखी होते जा रहे थे. उनका मन अध्यात्म और आश्रम की दिनचर्या में रमता. दिमाग निरंतर भविष्य के कार्यक्रम बनाता रहता.

     उधर नेतृत्व की आस लेकर आए कार्यकर्ताओं को तसल्ली भी देनी ही थी. सो उनसे विनोबा ने वही कहा, जो गांधी जी चाहते थे. आजादी के लाभ को जन-जन तक पहुंचाना. प्रत्येक नागरिक को यह एहसास दिलाना कि वह आजाद है. स्वतंत्रता भी केवल राजनीतिक सीमाओं में कैद नहीं है. राजनीति के साथ-साथ उसमें आर्थिक और सामाजिक आजादी के सभी मूल्य अंतर्निहित हैं. इसलिए मार्गदर्शन की उम्मीद लेकर आए कार्यकर्ताओं से विनोबा ने कहा कि वे अविलंब लोककल्याण के कार्यों में जुट जाएं. ‘भारत स्वराज प्राप्त कर चुका है. अब एक ही लक्ष्य बाकी है, जन-जन का कल्याण, स्वाधीनता का लाभ देश के प्रत्येक नागरिक, अमीर-गरीब और हर छोटे-बड़े तक पहुंचाना.

     सभी का कल्याण यानी ‘सर्वोदय’(Universal Awakening). यह नया मंत्र था. विनोबा का सुझाव सबको पसंद आया. कार्यकर्ताओं को विनोबा के रूप में एक और गांधी मिल गया. सर्वोदय के संकल्प को साधने के लिए ‘सर्व-सेवा-संघ’ नामक संगठन की स्थापना की गई. गांधी जी के सपनों को कार्यरूप देने के लिए जितने भी कार्यकर्ता और संगठन उन दिनों देशभर में कार्यरत थे, उन सबका ‘सर्व-सेवा-संघ’ के अंतर्गत विलय कर दिया गया. सर्वोदय को गांधीजी के सपनों की अभिव्यक्ति मान लिया गया. विनोबा ही गांधीजी के सच्चे उत्तराधिकारी हैं, यह एक बार फिर सिद्ध हुआ. लोगों द्वारा यह स्वीकार भी लिया गया. विनोबा व्यक्तिगत मान-प्रतिष्ठा से हमेशा ही ऊपर थे. देश के पुनर्निर्माण में उनका वास्तविक अवदान अब भी बाकी था. नियति उन्हें उसी ओर लिए जा रही थी.

     मार्च 1948 में गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने के लिए उनके अनुयायियों ने सेवाग्राम में एक सम्मेलन की योजना बनाई. विनोबा ने उसमें आत्मनिर्भर गांव की एक छवि प्रस्तुत की. सम्मेलन के दौरान सर्वोदय समाज की योजनाओं को सर्वसम्मिति से स्वीकार लिया गया. परिणामस्वरूप उनकी व्यस्तता और भी बढ़ गई. रचनात्मक कार्यों को अंजाम देने के लिए संसाधनों की आवश्यकता थी. देश के अधिकांश लोग गरीब थे. उनसे उम्मीद रखना उचित न था. इसलिए विनोबा ने देश के संपन्न लोगों से अपील की कि वे लोककल्याण के लिए अपने सारे मतभेद भुलाकर आगे आए. स्त्रियों से प्रार्थना की कि वे लोककल्याण के लिए अपने रत्नाभूषणों का दान कर दें. अपील पर गांधीजी का असर था.

     विनोबा की हृदयग्राही अपील का व्यापक असर हुआ. सर्वोदय कार्यक्रम चल निकला. बावजूद इसके विनोबा को लग रहा था कि आजादी के बाद से देश के पुनःनिर्माण के कार्यों को जितनी तेजी से चलाया जाना चाहिए था, उनकी तेजी से वे नहीं चला पा रहे हैं. परिणास्वरूप आजादी का जो लाभ जनता को मिलना चाहिए था, जो सपने उसको आजादी के आंदोलन के दौरान दिखाए गए थे, वे दूर छिटकते जा रहे हैं. गांधी जी की नीतियां और उनके विचार जो अंग्रजों के विरुद्ध जंग में हथियार बने थे, सरकार उनकी उपेक्षा करती जा रही है. ऐसे में उनका उदास होना स्वाभाविक था. उनके मन में हलचल थी. पवनार आश्रम की रचनात्मक गतिविधियों के नेतृत्व के साथ-साथ उस हलचल के पार जाने की कोशिशें भी निरंतर जारी थीं. वे भविष्य के आंदोलन की रूप रेखा गढ़ने की कोशिश कर रहे थे कि एक परिवर्तनकामी अवसर एकाएक सामने आ गया, उससे वह क्रांति संभव हो सकी, जिसके लिए दूसरे देशों में हिंसा और सैन्यबल का सहारा लेना पड़ा था. भारत में यह क्रांति पूरी तरह अहिंसक और जनसहयोग से संपन्न हुई थी, इसलिए भारत एक बार फिर दूसरों के लिए मिसाल बन गया.

भूदान आंदोलन

15 अगस्त 1947 को देश को आजादी मिली. जनता उससे बड़ी आस लगाए बैठी थी. लोगों को उम्मीद थी कि अब उनकी सरकार है, इसलिए न्याय स्वयं उनके द्वार तक चलकर आएगा. उनमें खासकर वे लोग थे जो शताब्दियों से भू-सामंतों और जागीरदारों के उत्पीड़न का शिकार रहे थे. जिनके पास जीविका का माध्यम मात्र उनकी देह थी. पेट था, इसलिए भूख भी लगती थी. भूख के दबाव में ही वे देह बेचकर बंधुआगिरी करने को बाध्य थे. इसके बावजूद उन्हें अपमान और अत्याचार दोनों का सामना करना पड़ता था. आजादी से उन्हें उम्मीद थी. उन्हें भरोसा था कि अपना निजाम होगा तो उनकी समस्याओं की सुनवाई भी हो सकेगी. सोचते थे कि अपने राज्य में बंधुआगिरी से मुक्त होगी. वे भी आजादी की हवा में सांस ले सकेंगे. इसी उम्मीद के साथ वे आजादी के आंदोलन में कूदे थे. गांधी जी आह्वान पर. बिना कोई विरोध किए लाठियां खाई थीं. अहिंसक सत्याग्रह में हिस्सा लिया था. गांधी जी के आंदोलन की सफलता का रहस्य ही इसमें था कि वे सत्याग्रह को व्यापक जनांदोलन का रूप देने में कामयाब रहे थे. लेकिन आजादी के बाद भू-सामंत जब सत्ता के गलियारों से संपर्क गांठकर प्रत्यक्ष या परोक्षरूप में दुबारा उनपर शासन करने लगे तो उनका भड़क जाना स्वाभाविक ही था. रूस और चीन की क्रांति की खबरें उनको प्रेरणा दे रही थीं. अफ्रीकी महाद्वीप से भी साम्यवादी क्रांति की खबरें आ रही थीं.

     हैदराबाद के पास का एक क्षेत्र तेलुगू भाषियों का है. इस कारण वह तेलंगाना कहलाता है. वहां की भू-संपत्ति का बंटवारा बड़े ही असामान्य ढंग से हुआ है. एक ओर वहां पचासियों हजार एकड़ के अनेक जमींदार थे, तो दूसरी ओर हजारों-लाखों की संख्या में बेघर, बे जमीन लोग. वे विलासी और कठोर, अत्याचारी जमींदारों, भू-सामंतों के यहां मजदूरी करते, बंधुआ रहकर चाकरी बजाते. यदि किसी प्राकृतिक आपदा के कारण फसल नष्ट हो जाए तो उनके अत्याचार-उत्पीड़न सहते थे. ऊपर से लगान वसूली के लिए सरकार और जमींदार का तानाशाही भरा रवैया. आजादी से उन्हें उम्मीद थी. आजादी मिली, परंतु उनकी समस्या ज्यों की त्यों थी. इसलिए नक्सली और साम्यवादी विचारधारा के नेता उन इलाकों में अपना प्रभाव जमाते जा रहे थे, जो रूस की भांति भारत में भी सशस्त्र क्रांति का सपना देख रहे थे. उन्हें उन गरीब, साधनहीन लोगों का समर्थन था, जिनके सपने देश की राजनीतिक आजादी प्राप्त होने के बाद भंग हुए थे. और वे अब अपनी तरह से बदलाव चाहते थे.

     तेलंगाना के तीन हजार से ऊपर गांवों पर नक्सलवादियों का प्रभाव था. स्थानीय प्रशासन उनके आगे बेबस था. कारण यह था कि उग्रपंथियों को स्थानीय जनता का समर्थन प्राप्त था. वर्षों से उपेक्षित-उत्पीड़ित लोग उनका साथ भी दे रहे थे. तेलंगाना की हालत अत्यंत चिंताजनक थी. लग रहा था कि वह कभी भी भारत की झोली से छिटक सकता है. स्थिति जब नियंत्रण से बाहर जाने लगी तो वह इलाका सेना को सौंप दिया गया. मगर अपने ही देशवासियों के बीच समस्या के समाधान के लिए सेना का उपयोग, किसी भी देश के लिए अच्छी बात न थी. विशेषकर भारत के लिए, जहां कुछ ही महीने पहले गणतांत्रिक व्यवस्था लागू की गई थी, जिसमें लोगों को यह भरोसा दिलाया गया था कि नई व्यवस्था में जाति-धर्म-वर्गीय पहचान से परे अमीर-गरीब सबके लिए विकास के एकसमान अवसर प्राप्त होंगे. सेना के उपयोग से अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में बदनामी का पूरा-पूरा खतरा था.

     विनोबा को निमंत्रण मिला था कि वे तेलंगाना जाकर आंदोलनरत किसानों को समझाएं. उन्हीं दिनों शिवराम पल्ली में ‘अखिल भारतीय सर्वोदय सम्मेलन’ की योजना बनी. सर्वोदय सम्मेलन की स्थापना विनोबा के कहने पर ही की गई थी. अब ऐसे सम्मेलन में विनोबा न जाएं यह संभव न था. वे उन दिनों वर्धा में थे, जो शिवरामपल्ली, हैदराबाद से तीन सौ मील अर्थात लगभग चार सौ अस्सी किलोमीटर की दूरी पर था. अंततः विनोबा ने सम्मेलन में जाने की सहमति दे दी. लेकिन उन्होंने ठान लिया कि वे उस सम्मेलन में हिस्सेदारी के लिए पैदल चलकर पहुंचेंगे.

     ‘ठीक है, मैं पहुंचूंगा, मगर पैदल चलकर’.

     विनोबा ने घोषणा की थी. मानो नियति ही उनके मुंह से यह कहलवा रही थी. देश के पटल पर विनोबा की विशिष्ट भूमिका अभी लिखी जानी बाकी थी. गांधी जी के रहते तो वे वहीं करते रहे थे, जो गांधी जी चाहते थे. जिसकी गांधी जी की ओर से आज्ञा प्राप्त होती थी. अब गांधी जी नहीं थे. उनकी अनुपस्थिति में विनोबा को अपनी आंतरिक प्रेरणा के आधार पर अपने रचनात्मक कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना था. 7 मार्च 1951 को गांधी जी की कुटिया को नमन करते हुए विनोबा ने उस यात्रा की शुरुआत की. वह एक अचर्चित यात्रा थी. समाचारपत्रों में उसका खास उल्लेख भी नहीं हुआ. मगर उस समय कोई नहीं जानता था कि आने वाले कई वर्षों में समस्त अखबार उस यात्रा की कामयाबियों से रंगे होंगे. बाद में एक कवि ने उस यात्रा पर लिखा—

     ‘धर्मचक्र फिरते पड़ता एकाकी पाउले.’

     ‘वह एकाकी जैसे ही आगे बढ़ा, धर्मचक्र में प्रवत्र्तन होने लगा.’

     सर्वोदय सम्मेलन ठीक-ठाक संपन्न हो गया. अब तेलंगाना की यात्रा की बारी थी, जो वहां से थोड़ी ही दूरी पर था. मगर वहां के हालात बिगड़े हुए थे. विनोबा के हितैषियों ने उनके पुलिस की मदद लेने को कहा. लेकिन विनोबा ने तत्काल मना कर दिया. अहिंसा के सिपाही को हथियारबंद सिपाहियों की क्या आवश्यकता. तेलंगाना यात्रा आरंभ हुई. यात्रा में वे पीड़ित किसानों से मिलते. उनसे उनकी समस्याओं पर बात करते. साम्यवादी नेता भी उनके संपर्क में आते, वही समझाते कि समस्या का निदान बिना हथियारों के प्रयोग के असंभव है. बिना आर्थिक समानता और स्वतंत्रता के संविधान जिसे लागू हुए बस कुछ ही महीने हुए थे, के सपने को भी सच नहीं किया जा सकता. इसमें यदि कोताही हुई तो लोग उखड़ेंगे ही. एक तेलंगाना की समस्या का समाधान यदि समय रहते नहीं खोजा गया तो ऐसे तेलंगाना पूरे देश में जगह-जगह होंगे. क्योंकि असमानता और असमान भूवितरण केवल हैदराबाद की समस्या नहीं है. यह तो पूरे देश में है. देश अमीरी और गरीबी में पूरी तरह बंटा है. विनोबा भी समझ रहे थे कि देश को राजनीतिक आजादी मिल चुकी है. अब बारी आम जन के लिए उसकी सामाजिक-आर्थिक स्वतंत्रता मुहैया कराना है.

     विनोबा को समस्या का केवल एक ही हल सुझाई देता. भूमिहीनों को भूमि दे जी जाए. ताकि उनकी जीविका का साधन हो सके. पर भूमि देगा कौन. विनोबा को महाभारत की कहानी रह-रह कर याद आती. दुर्योधन ने पांडवों के मांगने पर पांच गांव देने से इंकार कर दिया था, तो महाभारत हुआ, जिसमें पूरा कौरव-कुल तबाह हो गया. तेलंगाना की समस्या का समाधान न हुआ तो ऐसे महाभारत पूरे देश में जगह-जगह होंगे. मगर समस्या थी कि जमींदारों को जमीन देने के लिए तैयार कैसे किया जाए. सरकार इसमें कुछ सार्थक भूमिका निभा सकती थी, मगर सरकार तो अपना वायदा बिसरा ही चुकी थी. लोकसेवा का व्रत लेकर राजनीति में आए नेता प्रण भूलकर अपना घर भरने में लगे थे. अंग्रेज साहबों की जगह भारतीय बाबुओं ने ले ली थी. विनोबा रात-दिन सोचते, बेचैन रहते. मगर निदान नहीं था. उधर समस्या इतनी विकराल कि निदान तत्काल चाहती थी. सर्वोदय सम्मेलन के अंतिम दिन विनोबा ने तेलंगाना के उपद्रव-ग्रस्त क्षेत्रों में शांति संदेश ले जाने का निर्णय लिया. 17 अप्रैल को अपनी यात्रा के दूसरे दिन विनोबा ने अनुभव किया कि ग्रामीण दुहरे आतंक के शिकार हैं. एक और पुलिस उन्हें परेशान करती है, दूसरी और कम्युनिस्ट आंदोलनकारी उनपर दबाव डालते रहते हैं. तेलंगाना क्षेत्र के गांव के गांव वर्गीय आधार पर विभाजित थे.

     और फिर वह दिन आ ही गया जिस दिन वास्तविक क्रांति की शुरुआत हुई. 18 अप्रैल, 1951 का दिन था. विनोबा का डेरा पोचमपल्ली गांव में जमा था. लगभग सात सौ परिवारों का गांव था पोचमपल्ली जिसमें दो-तिहाई आबादी भूमिहीनों की थी. गांव में विनोबा का जोरदार स्वागत किया गया. गांव की हरिजन बस्ती में प्रार्थना सभा हुई. दोपहर बाद का समय था. लोग विनोबा का प्रवचन सुनने के लिए उनके आसपास जुटने लगे. विनोबा ने सदा ही तरह गीता और वेंदात से बात आरंभ की. लोगों को मिलजुलकर रहने का उपदेश दिया. लोग तन्मय होकर सुनते रहे. उस सभा में भूमिहीन हरिजन भी थे. सबके सब विनोबा के पास उम्मीद भरी नजरों से देख रहे थे. उनकी निगाह में विनोबा की पैठ सरकार में सीधे प्रधानमंत्री तक थी. इसलिए प्रवचन के पश्चात जब चर्चा का दौर आरंभ हुआ तो हरिजनों की ओर से जमीन की मांग की गई—

     ‘हमारे पास न तो जमीन है, न दूसरा कोई रोजगार, थोड़ी-सी जमीन भी होती तो हम उसपर मेहनत करके अपना गुजारा कर लेते.’

     ‘जमीन चाहिए, पर कितनी?’ विनोबा ने सवाल किया.

     ‘हमारे कुल चालीस परिवार है. सो कुल चालीस एकड़ सिंचाईयुक्त और चालीस एकड़ सूखे की जमीन मिल जाए तो हमारे लिए पर्याप्त होगी.’

     ‘आपको जमीन मिल जाए तो सब मिलकर खेती तो करोगे न!’

     ‘जी, हम सब मिलकर आपका एहसान भी मानेंगे.’

     ‘ठीक है, लिखकर दीजिए, मैं आपका प्रार्थनापत्र सरकार को भिजवा दूंगा.’ उस समय विनोबा के पास उन हरिजनों को सांत्वना देने का यही एक उपाय था कि उनकी फरियाद सरकार तक पहुंचा दी जाए. हरिजन लिखकर देने की तैयारी करने लगे. तभी विनोबा को न जाने क्या सूझा उन्होंने वहां बैठे लोगों का आवाहन करते हुए कहा—

     ‘अगर किसी कारण सरकार इन्हें जमीन देने में असफल होती है तो क्या आप गांववाले मिलकर इनकी मदद करने को तैयार हैं?’

     उस सभा में गांव के ही किसान रामचंद्र रेड्डी भी उपस्थित थे. उदारमना, बाकी भू-सामंतों से बिलकुल अलग. विनोबा की ख्याति सुनकर प्रवचन सुनने चले आए थे. हरिजनों की बात सुनी तो विनोबा के प्रवचन का असर उनपर था ही. हरिजनों की बात सुनते ही तत्काल बोल पड़े—‘मैं देता हूं सौ एकड़ जमीन.’ जिसने भी सुना वही अवाक रह गया. इसे जादू कहें या चमत्कार. विनोबा हैरान थे. जितनी जमीन चाहिए थी, उससे ज्यादा जमीन उन्हें मिल रही है. वह भी बिना मांगे. शाम की प्रार्थना सभा में रामचंद्र रेड्डी फिर उपस्थित हुए. उन्होंने अपने निर्णय पर दुबारा सहमति की मुहर लगा दी. अनायास ही एक नए आंदोलन का जन्म हो चुका था.

     विनोबा के लिए वह पवित्र अनुष्ठान था. यज्ञ था. तेलांगाना की समस्या से जूझने, उसके पार जाने का रास्ता उन्हें मिल चुका था. ईश्वर में उनकी आस्था थी. विनोबा ने उस उपलब्धि को भी ईश्वर का आशीर्वाद ही माना. विनोबा की पदयात्रा वहां से आगे बढ़ने लगी. वे जहां भी जाते, सीधे ग्रामीणों, किसानों से सीधे संवाद करते. महाभारत की कहानी का हवाला देकर पूछते कि पांडव कितने भाई थे?

     ‘पांच!’ तत्काल उत्तर मिलता.

     ‘नहीं छह, कर्ण छठा पांडव था. पांडवों ने उसको अपने साथ मिलाने से इंकार कर दिया तो वह कौरवों में जा मिला. नतीजा भाई-भाई के बीच युद्ध हुआ. आप भी अपने क्षेत्र में शांति चाहते हैं, पूरे देश और समाज का कल्याण चाहते हैं तो अपने भूमिहीन भाइयों को अपना लीजिए. उन्हें उनका अधिकार दे दीजिए.’

     कहीं वे कहते कि मैं दरिद्र नारायण का प्रतिनिधि बनकर आया हूं. आप पांच भाई हैं तो मुझे छठा मानकर मेरा हिस्सा मुझे दे दीजिए. विनोबा की अपील का जादुई असर होता. तेलंगाना की उस पदयात्रा में विनोबा को प्रतिदिन औसतरूप में लगभग 200 एकड़ जमीन प्राप्त हुई. वह एक चमत्कार ही था. दान में जमीन. जिस देश में एक-एक इंच जमीन के लिए झगड़े होते हों, मामूली टुकड़े के लिए भाई-भाई की गर्दन तराश देता हो, जहां की जनता ने शताब्दियों तक सामंतवाद का दमन सहा हो, वहां दान में जमीन मिलना अनूठी घटना थी. मगर वह हो रहा था और पूरी दुनिया के सामने हो रहा था. हालांकि कुछ मतिमंद आलोचक बैठे-ठाले दूसरों को संदेह की नजर से देखने वाले विनोबा के अभियान पर भी सवाल खड़े कर कर रहे थे. चूंकि जमीन का मिलना तो झुठलाया नहीं जा सकता था. जमीन न केवल मिल रही थी, बल्कि हाथोंहाथ बंट रही थी. जिन इलाकों से विनोबा गुजर जाते, वह इलाका अप्रत्याशित रूप से शांत हो जाता. इसके बावजूद आलोचकों ने कहना आरंभ कर दिया कि तेलंगाना में जमींदार कम्युनिस्टों से डरकर जमीन दान कर रहे हैं. हैदराबाद से बाहर जाते ही भूदान आंदोलन ठप्प पड़ जाएगा. मगर विनोबा को अपने आप में विश्वास था. अपने ईश्वर में विश्वास था और उससे भी अधिक जनता जनार्दन में विश्वास था. और विश्वास था कि सच्चे मन से आरंभ किए गए अभियान में असफलता की संभावना न्यूनतम होती है.

     तेलांगाना से बाहर विनोबा को लगभग तीन सौ एकड़ प्रतिदिन जमीन प्राप्त हुई. इससे स्वयं विनोबा भी हैरान रह गए. यह तेलंगाना में प्रतिदिन के औसत से लगभग डेढ़ गुनी थी. इससे उनके आलोचकों को मौन हो जाना पड़ा. मध्यप्रदेश की घटना है. दिन का समय था. विनोबा उस समय कुछ पढ़ रहे थे. तभी एक किसान चुपके से सामने आकर बैठ गया. विनोबा ने पूछा तो उसने कहा—

     ‘आज प्रातःकाल पूजापाठ के उपरांत ही मिलने के लिए चल पड़ा था. अब पहुंचा हूं.’ विनोबा के कारण पूछने पर उसने अंटी में से जमीन दान करने के कागज निकाले और विनोबा की ओर बढ़ाते हुए बोला—‘ये पचीस एकड़ मेरी ओर से?’

     ‘आपके पास कुल कितनी जमीन है?’ विनोबा ने मुस्कराते हुए प्रश्न किया.

     ‘छह सौ एकड़…’ किसान ने बताया.

     ‘और आप भाई कितने हैं?’

     ‘दो!’

     ‘तो मैं हुआ आपका तीसरा भाई. मेरा हिस्सा हिस्सा मुझे दे दीजिए.’

दान हमेशा दाता की मर्जी पर निर्भर रहता है. मगर यहां दान लेने वाला स्वयं दान की निर्धारित कर रहा था. मगर देने वाला जानता था कि वह संत अपने लिए कुछ नहीं रखने वाला. वह किसान शाम तक आश्रम में रुका. अंततः दो सौ एकड़ का दान पत्र विनोबा भूदान समिति के नाम लिख गया. जब से आंदोलन की शुरुआत हुई थी, विनोबा के पास दूर-दूर से लोग आते थे. आगंतुकों को कोई परेशानी न हो, इसलिए आश्रम का एक न एक कार्यकर्ता रात को जागा रहता था.

     एक बार मुंह-अंधेरे एक अंधा किसान बैलगाड़ी में सवार होकर विनोबा का पता पूछता-पूछता उनके शिविर में पहुंचा. रात का समय था, विनोबा समेत शिविर में सभी लोग सोए हुए थे. गाड़ीवान के सहारे से वह किसान नीचे उतरा. कार्यकर्ता विनोबा को जगाने चला तो उसने रोक दिया, बोला—

     ‘बहुत दूर से आना हुआ. गाड़ीवान अंधेरे में रास्ता भी ठीक से नहीं पहचान पाया. इसलिए देर हो गई. मेरे छोटे-से दान के लिए बाबा को जगाने के लिए जरूरत नहीं है. सुबह जब वे उठें तो यह दानपात्र उन्हें थमा देना.’

     इतना कहकर वह अंधा किसान गाड़ी में सवार हो जैसा आया वैसा ही लौट गया. सुबह जब लोगों ने सुना तो सब उस अंधे भूदानी की चर्चा करने लगे. विनोबा के मुंह से निकला—

     ‘स्वयं भगवान मुझे दर्शन देने आए थे. मैं ही अवसर चूक गया.’

     कुछ लोगों को संदेह था कि जमीन गरीब लोगों तक नहीं पहुंच पाएगी. जमीन सही लोगों तक पहुंचे इसके लिए कई सुझाव आए. विनोबा सब पर विचार करते. अंततः तय हुआ कि जमीन गांव में सबसे अधिक गरीब लोगों में बांटी जाएगी. उनमें से एक-तिहाई लोग दलित होंगे. भूदान की सफलता से उल्लसित विनोबा के कार्यकर्ता भूमिहीनों की सूची आमतौर पर पहले ही बना लेते थे. फिर उनके लिए गांव वालों से जमीन मांगी जाती. बैठक में ही सरकारी पटवारी भी तैनात रहता. दान में मिली जमीन का बैनामा तत्काल जरूरतमंदों के नाम कर दिया जाता. बैठक में कई बार भावुक अवसर भी आते जब आंखें छलछला जातीं. नियम के अनुसार जहां जमीन मिलती, वहीं के भूमिहीनों में बांट दी जाती.

     एक बार विनोबा एक गांव में थे. गांव में जरूरतमंदों की सूची बनाई गई. कुल बारह व्यक्ति थे, जिन्हें जमीन की आवश्यकता थी. मगर जब भूदान आरंभ हुआ तो जरूरत की आधी जमीन ही मिल पाई. कार्यकर्ता असंमजस में पड़ गए. लेकिन किया क्या जा सकता था. जो जमीन प्राप्त हुई थी उसी को प्रभु की अनुकंपा मानकर विनोबा जमीन बांटने लगे. बुराई बुराई को, अच्छाई अच्छाई को और त्याग त्याग को आमंत्रित करता है. कम जमीन जरूरतमंदों के बीच कैसे बांटी जाए कि उनका गुजारा हो सके, इस समस्या को लेकर विनोबा सहित सभी भूदानी असमंजस में थे. इसपर उनमें से एक व्यक्ति बोल पड़ा कि जमीन दूसरे व्यक्ति को दे दी जाए.

     ‘क्यों, तुम्हें जमीन नहीं चाहिए?’ विनोबा ने सहजभाव से पूछा.

     ‘मेरे बच्चे बड़े हैं, कहीं भी मेहनत-मजदूरी करके अपना पेट भर लेंगे. उसके बच्चे छोटे हैं. उसे ज्यादा जरूरत है.’ उसकी बात सुनकर विनोबा की आंखें भर आईं. उन्होंने तब बैठक में हिस्सा लेने आए लोगों को संबोधित करके कहा, ‘जब यह व्यक्ति इतना त्याग कर सकता है, तो आप क्यों पीछे रहते हैं.’ उस सभा में एक व्यक्ति पाकिस्तान से आया था. कुछ अपनी मेहनत से और कुछ पीछे की कमाई से जोड़-जाड़कर उसने जमीन का जुगाड़ किया गया था. विनोबा को असमंजस में देख उससे न रहा गया. उसने खड़े होकर कहा—

     ‘मेरी बारह एकड़ जमीन भी लिख लीजिए. मैं तो किसी तरह खा-कमा ही लूंगा.’

     इसपर दान में मिली जमीन का खाता चढ़ा रहे पटवारी से न रहा गया.

     ‘मेरे पास कुछ ढाई एकड़ जमीन है. मुझे तो सरकार से गुजारे लायक मिल ही जाता है. जमीन से किसी का परिवार पल सकता है तो उसको ले लीजिए.’

     ऐसे अवसर भूदान के दौरान अक्सर आते. एक बार एक मुसलमान जमीन दान करने के लिए विनोबा के पास पहुंचा. वह दस एकड़ के कागजात बनवाकर लाया था. विनोबा ने उससे उसकी कुल जमीन के बारे में पूछा—

     ‘आप भाई कितने हैं?’

     ‘पांच.’

     ‘तो छठा मुझे मानकर मेरा हिस्सा मुझे दे दीजिए.’ हमेशा की तरह विनोबा ने कहा.

     ‘इस्लाम में लड़कियों का भी पिता की जायदाद में हिस्सा होता है. मेरे तीन बहने भी हैं.’

     आगंतुक ने बताया. इसके बाद वह विनोबा को अपनी जमीन का नौ वां हिस्सा दान कर गया. विनोबा के आंदोलन से तेलंगाना आंदोलन में नरमी आई थी. केवल सात सप्ताह के भीतर विनोबा 12000 एकड़ जमीन प्राप्त कर चुके थे, जो एक चमत्कार था. इस बीच स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं की पूरी फौज सम्मिलित हो चुकी थी. वे विनोबा के नाम पर भूदान मांग रहे थे और लोग खुशी-खुशी उनका मनोरथ साध रहे थे. विनोबा ने जब दक्षिण छोड़ा उस समय तक उन्हें एक लाख एकड़ से अधिक जमीन प्राप्त हो चुकी थी. वे तेलंगाना के दो सौ से अधिक गांवों में भूदान के लिए गए. इससे सभी प्रभावित थे.

     जिन दिनों विनोबा दक्षिण में थे, तभी उन्हें जवाहर लाल नेहरू का दिल्ली आने का निमंत्रण प्राप्त हुआ था. वे भूदान आंदोलन की सफलता से अभिभूत थे और पंचवर्षीय योजना में उसको एक आंदोलन के रूप में सम्मिलित करना चाहते थे. विनोबा ने दिल्ली पहुंचने की सहमति दी. लेकिन अपनी पदयात्रा की शर्त जड़ दी. पवनार से दिल्ली की तरफ बढ़ते हुए विनोबा को प्रतिदिन तीन सौ एकड़ जमीन प्राप्त हुई. इससे उनके आलोचकों का मुंह बंद हो गया, जो यह कह रहे थे कि हैदराबाद और उसके आसपास सटे क्षेत्रों में लोगों ने कम्युनिस्टों के डर से जमीन दान में दी है. सरकार ने भूदान आंदोलन को पंचवर्षीय योजना में शामिल किया. दिल्ली से विनोबा ने उत्तरप्रदेश का रुख किया.

     जैसे ही दिल्ली से विनोबा ने उत्तरप्रदेश के लिए कूंच किया, गांव-गांव में समाचार फैलने लगा कि विनोबा आ रहे. भूमिहीनों की उम्मीद बलवती होने लगी. जिस गांव में भी विनोबा कदम रखते वहां उनका बड़े जोरदार तरीके से स्वागत किया जाता. पवनार से दिल्ली तक आते-आते प्रतिदिन औसतन तीन सौ एकड़ भूमि दान में प्राप्त हुई थी. उत्तरप्रदेश राम और कृष्ण की भूमि थी. विनोबा को वहां भी सफलता की पूरी-पूरी उम्मीद थी. और हुआ भी ऐसा ही. कुछ ही महीने के भीतर विनोबा उत्तरप्रदेश में सवा तीन लाख एकड़ जमीन दान में प्राप्त कर चुके थे. उनका कहना था कि दलितों और अंतज्यों के प्रति केवल करुणा-प्रदर्शन के लिए नहीं आए हैं. बल्कि हमारा उद्देश्य ही ऐसे समाज की रचना करना है, जहां के निवासियों में एक-दूसरे के प्रति प्यार, मैत्री, विश्वास और करुणा हो. ऐसे ही समाज का गठन करना मेरा लक्ष्य है.

     बैशाख का महीना था. ऊपर आसमान में सूरज तप रहा था. कार्यकर्ता चिलचिलाती धूप से परेशान रहते. मगर विनोबा के आगे तो लक्ष्य था. उनका इरादा पूरे देश में एक करोड़ एकड़ भूमि दलितों के लिए जुटाना था. प्रकट में उन्होंने केवल पचास लाख एकड़ का लक्ष्य अपने कार्यकर्ताओं के समक्ष रखा था. फिर आया भूदान के इतिहास का अविस्मरणीय दिन यानी 29 मई 1952. विनोबा बेतवा के किनारे अपने साथियों के साथ डेरा डाले हुए थे. इरादा जल्दी से जल्दी और अधिक से अधिक जमीन जुटा लेना था. सुबह और शाम की पूजा-अर्चना उनकी दैनिक गतिविधि का हिस्सा थी. दिन में प्रायः दो बैठकें होतीं, उनसे पहले पूजा का कार्यक्रम संपन्न होता. उस समय वे मंगरौठ के राजा के आथित्य में थे. वहां की सभा में विनोबा ने मंत्र दिया—सारी जमीन देवताओं की, गांव का मतलब बड़ा परिवार.’

     सभा में मंगरौठ के जमींदार शत्रुघ्न सिंह तथा उनकी पत्नी राजेंद्र कुमारी भी पधारे हुए थे. दोनों पर महात्मा गांधी के विचारों का गहरा प्रभाव था. उनके आंदोलन में वे हिस्सा भी ले चुके थे. बात जब भूदान की आई तो होठों पर अधखिली मुस्कान लिए विनोबा ने उनकी ओर मुड़कर पूछा—

     ‘आप इस फकीर की झोली में क्या डालने जा रहे हैं?’

     इस पर शत्रुघ्न सिंह ने अपनी अर्धांगिनी राजेंद्र कुमारी की ओर देखा. आंखों ही आंखों में जैसे निर्णय ले लिया गया—

     ‘जितनी भी हमारी जमींदारी है, सब.’ शत्रुघ्न सिंह ने पूरी सभा को चमत्कृत कर दिया.

     गांव वाले पहले भी जानते थे कि उनके जमींदार बड़े दिल के इंसान हैं. पर उनका दिल बड़ा है, इसकी उन्होंने कल्पना भी न की थी. और जब गांव का राजा अपना सबकुछ त्याग सकता है तो वे क्यों नहीं. फिर तो सभा में दानदाताओं की जैसे कतार-सी लग गई. अगले दिन विनोबा को लिखा हुआ दानपत्र मिल गया. गांव का अमीर-गरीब हर आदमी अपनी जमीन दान कर दी थी. गांव में अब भी उतनी ही मिल्कियत थी. मगर अब उसपर एक का साझा नहीं था. वह सबकी हो चुकी थी. पूरा गांव जैसे बड़े परिवार में ढल चुका था. ‘सबै भूमि गोपाल की’ तो किसी कवि द्वारा भावुकतावश रचा गया छंद रहा होगा. मगर मंगरौठ में तो वह दिन की रोशनी में चरितार्थ हो रहा था. जिस जमीन के एक-एक इंच पर अधिकार-भावना को लेकर गांव वाले मरने-मारने पर उतारू हो जाते थे, उसपर गांव वालों की त्यागवृत्ति से विनोबा अभिभूत थे. इसकी तो उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी. वह पहला ग्रामदान हुआ. उसके बाद तो ग्रामदान की मानो झड़ी-सी लग गई.

     उत्तर प्रदेश में अपनी पदयात्रा पूरी कर विनोबा बिहार के लिए बढ़ गए. वहां  सितंबर 1952 से दिसबंर 1954 के बीच के लगभग सताइस महीनों में उन्हें कुल 23 लाख एकड़ जमीन दान में प्राप्त हुई. उड़ीसा, केरल, तमिलनाडु में विनोबा को कई ग्रामदान हुए. उड़ीसा की पदयात्रा के दौरान कुल 6,38,706.50 एकड़ जमीन दान में मिली. गांव दान के अलावा संपत्ति दान, स्वर्णदान आदि की झड़ी ही लग गई. इसी से जन्म हुआ श्रमदान का. श्रमदान के पीछे अवधारणा थी कि अकेले जमीन देने से ही गांव का कल्याण होना संभव नहीं है. अभी तक गांववाले विकास के लिए सरकार की ओर देखते आए थे. श्रमदान आत्मनिर्भरता का मूलमंत्र था. लोककल्याण के लिए लिया गया लोकसंकल्प. गांव के सभी काम करने योग्य व्यक्तियों का योगदान उसमें अपेक्षित था. यानी जिसके पास कुछ नहीं है, सिर्फ उसका श्रम है, रचनात्मक कार्यों से वह भी पीछे क्यों रहे. श्रम दान कर अपनी भूमिका सुनिश्चित करे. देने वाला देवता है, उसका दर्जा ईश्वर जितना है, लेने वाले से उसका योगदान ज्यादा बड़ा है. विनोबा अक्सर दोहराते—

     ‘हमें स्वराज की, जनता के शासन की स्थापना करनी है. हमें स्वयं को इतना ऊंचा उठाना है कि समाज में व्याप्त हिंसा और दमन पर काबू पर सकें. जनता ही ईश्वर है, जनता ही जर्नादन है.’

     ग्रामदान अपने आप में एक क्रांति था. प्रवृत्ति में भूदान से भी अधिक सुधारवादी. वर्षों से सामाजिक न्याय के पक्षधर गांवों में समानता और बराबरी का सपना देखते आए थे. उनका कहना था कि गांवों से ऊंच-नीच मिटेगी तो पूरे देश में समानता का संचार होगा. समाजवाद का सपना सच हो जाएगा. उल्लेखनीय है कि समाजवादी क्रांति के नाम पर रूस सुलग चुका था. चीन की आंच अभी ठंडी नहीं पड़ी थी. अफ्रीकी देशों जैसे क्यूबा, बोलेविया, घाना, ग्वाटेमाला आदि में अमेरिकी उपनिवेश से आजाद होने के लिए संघर्ष जारी था. खूनी संघर्ष….उन सबसे अलग भारत में भी समाजवादी आंदोलन जारी था. भूदान के नाम पर. बाकी दुनिया से अलग. सबको शांति और सहअस्तित्व का संदेश देता हुआ. यह बताता हुआ कि भारत अब भी अपनी संस्कृति और परंपरा से जुड़ा हुआ है. यह आंदोलन एक ऐसे व्यक्ति के कंधों पर था जिसका वजन बामुश्किल तीस किलो था. जो केवल डेढ़ छटांक चावल पर अपना गुजारा करता था.

     ग्रामदान के अंतर्गत आए गांव में वहां की पूरी जमीन पर पूरे गांव का सामूहिक अधिकार होता. परिवारों के बीच उनकी जरूरत के आधार पर भूमि का विभाजन कर दिया जाता. बांटी गई जमीन पर लोगों को केवल खेती करने का अधिकार होता. उस जमीन को वे न तो खरीद-बेच सकते थे, न बंधक रखकर उसपर उधार ले सकते थे. न ही जरूरत के समय उस बेचकर रकम उठा सकते थे. गांव के प्रशासनिक मामलों की देखभाल के लिए ग्राम परिषद का गठन किया जाता था. गांव के सभी वयस्क सदस्य परिषद के भी सदस्य होते. परिषद के निर्णय के आपसी विचार-विमर्श के उपरांत लिए जाते. निर्णय का आधार सर्वसम्मिति होता, मगर सामाजिक हित के मुद्दों पर सर्वसम्मिति बनाना बहुत जटिल काम था. यानी जब तक एक भी सदस्य निर्णय से असहमत है, तब तक परिषद का निर्णय अमान्य समझा जाता था.

     सर्वसम्मत निर्णय उसी स्थिति में संभव था, जब गांव के सदस्यों के बीच आपसी भाईचारा और विश्वास हो. इससे यह भी साफ है कि परिषद का अनुचित लाभ उठा पाना असंभव था. ग्रामदान की रफ्तार आरंभ में ठीक रही. 1965 तक ग्रामदान आंदोलन धीरे-धीरे आगे बढ़ता रहा. ग्रामदान आंदोलन में गति लाने के लिए विनोबा ने बाद में उसके लिए सघन अभियान भी छेड़ा, जिसे उन्होंने ‘तूफान यात्रा’ का नाम दिया. इसका आशानुकूल परिणाम भी निकला. 1975 तक ग्रामदान के साये में आए गांवों की संख्या 1,60,000 हो चुकी थी, जो देश के कुल गांवों की संख्या की लगभग एक-तिहाई थी.

     बाद में ग्रामदान आंदोलन में भी स्वार्थी तत्व सम्मिलित होने लगे. आंदोलन इतना फैल चुका था कि अकेले विनोबा के बूते उसको संभाल पाना संभव न था. समर्पित और ईमानदार कार्यकर्ताओं की कमी भी साफ तौर पर अनुभव की जाने लगी थी. स्वार्थपरता और प्रसिद्धि की भूख के चलते यह भी देखने को आया कि लोग केवल नाम के लिए ग्रामदान की घोषणा कर देते हैं. अच्छे खेत देने के बजाय अक्सर ऊसर और तराई की जमीन दान में कर दी जाती थी. कुछ लोग विनोबा के नैतिक प्रभामंडल के दबाव में आकर जमीन दान कर देते थे. मगर जैसे ही विनोबा प्रस्थान करते, वे जमीन वापस छीन लेते थे. ग्रामदान की आचार संहिता के अंतर्गत उसकी आमूल कायापलट नहीं हो पाता था. 1970 तक ग्रामदान के अंतर्गत प्राप्त गांवों में से मात्र कुछ गांवों में ग्राम-परिषद का गठन हो पाया था. दरअसल विनोबा का प्रभामंडल जनता के मन में इतनी तेजी से फैलता जा  रहा था कि लोकप्रिय राजनीति के कर्णधारों के मन में उसको लेकर ईश्र्या-सी व्यापने लगी थी. वे भूदानी मुखौटा लगाकर उसमें सम्मिलित हो रहे थे. विनोबा उनकी चाल को समझते थे. देशव्यापी आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए अब सरकारी मदद की आवश्यकता महसूस की जा रही थी. मगर छठे दशक की समाप्ति तक राजनीति जोड़-तोड़ और स्वार्थपरता का खेल बन चुकी थी. इस कारण सरकार से किसी प्रकार के नैतिक समर्थन की उम्मीद विनोबा को न थी. परिणामस्वरूप 1971 के आसपास ग्रामदान आंदोलन अपने ही भार तले दबकर शांत हो गया.

     भूदान आंदोलन की सफलता आगे चलकर और भी कई रूपों में सामने आई. उपद्रव ग्रस्त क्षेत्रों में अहिंसक तरीके से शांति स्थापना के लिए शांति सेना बनी. भूदान आंदोलन की सफलता के लिए आजीवन उसके लिए कार्य करने का व्रत यानी जीवनदान. बिहार में जयप्रकाश नारायण ने विनोबा के भूदान यज्ञ के लिए अपना जीवन आहूत करने का निश्चय किया. इसी यात्रा में विनोबा की सर्वोदय की अवधारणा खुल कर सामने आई. सर्वोदय यानी सभी का उदय. सभी का कल्याण. विकास में सबकी समान सहभागिता. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि विनोबा को लगभग 1,60,000 ग्रामदान प्राप्त हुए, जो देश के कुल गांवों की संख्या का लगभग एक तिहाई है. हर घर के लिए एक ‘सर्वोदय-पात्र’ की संकल्पना की गई. बिहार यात्रा के दौरान विनोबा ने लोगों से आग्रह किया कि वे अपने घर में एक पात्र रखें और हर सद्ग्रहस्थ उस पात्र में प्रतिदिन अंजुलि-भर अनाज डालता चला जाए. ताकि उन लोगों का जो भूखे हैं, विपन्न हैं, पेट भर सके.

     विनोबा को स्वास्थ्य की समस्या आरंभ से ही थी. लंबी यात्रा की थकान वे सह ही नहीं सकते थे. लेकिन वह संत ही क्या जो अपनी सीमाओं का अतिक्रमण न कर सके. विनोबा तो रोज-रोज अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने के लिए विख्यात होते जा रहे थे. भूदान यात्रा के दौर भी उनका स्वास्थ्य खराब था. फिर भी वे प्रतिदिन दस से बारह मील यानी सतरह से बीस किलोमीटर तक यात्रा करते. यात्रा दल का अनुशासन पक्का था. प्रातः तीन बजे सब जाग जाते. प्रार्थना होती. उसके बाद यात्रा आरंभ हो जाती. भूदान की चाहत में सर्वोदयी कार्यकत्र्ता गांव-गांव जाते. यात्रा टोली में स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े, जवान, आदर्शवादी स्वयंसेवक, गृहस्थ सभी होते. राजनेता, व्यापारी गरीब, मजदूर सभी के बीच विनोबा की लोकप्रियता एकसमान थी. गांव, शहर और कस्बों से लोग विनोबा दर्शन के लिए आते. जिस गांव भी विनोबा का आगमन होता, वहां के निवासी उनके दर्शन के लिए मुख्यमार्ग के किनारे-किनारे जुट जाते. हाथ में फूलमालाएं लिए. सजे-धजे, अपनी विपन्नता छिपाकर मुस्काने का प्रयास करते, मन में बदलाव की आस जगाए हुए. गांव के प्रवेशद्वार पर तोरण सजाए जाते. जैसे ही विनोबा की एक झलक ग्रामीणों को मिलती, वे संत विनोबा, संत विनोबा, भूदानी बाबा के नाम से उनका जयगान करने लगते. विनोबा का वह स्वागत होता, जो संभवतः गांधीजी का भी नहीं होता था. वहां कुछ देर विश्राम करने के बाद कार्यकर्ता नाश्ता करते. उसके बाद सभी कार्यकर्ता गांव में फैल जाते. जगह-जगह ग्रामीणों से भेंट-मुलाकात जमती. उस समय विनोबा एक स्थान पर बैठे रहते, आगंतुकों और ग्रामीणों से बतियाते. उनके प्रश्नों का जवाब देते हुए.

     दोपहरी में कुछ देर आराम करते. उसके बाद शाम की प्रार्थना का समय हो आता. प्रार्थना सभा में सैकड़ों ग्रामीणों की भीड़ होती. दूर-दूर से आए हुए लोग. सभा में लोकगीत, भजन के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रमों की बैठक भी जमती. उसके बाद विनोबा का प्रवचन आरंभ होता. उनकी गंभीर, ओजस्वी वाणी जब सभा-मंडप में गूूंजती तो चारों और सन्नाटा छा जाता. लोग एकाग्र होकर उनका प्रवचन सुनने लगते. प्रवचन से पहले विनोबा पूरी तैयारी कर चुके होते. जिस विषय को भी वे छूते वह जीवंत हो उठता. भारतीय धर्मग्रंथों के अलावा वे ग्रामीण जीवन से भी जीवंत चरित्र उठाते. उनके संदेश में सर्व धर्म समभाव होता. आपस में मिल-जुलकर रहने की भावना का संदेश देते. फिर भूदान की बारी आती. सभा के समापन पर एक बार फिर प्रार्थना होती. विनोबा धर्म के नाम पर, इंसानियत के नाम पर, आपसी भाईचारे और सद्भाव के नाम पर, संस्कृति और सौहार्द के नाम पर भूदान का आह्वान करते. उनके आह्वान से लोगों के दिल खुल जाते. दानदाताओं की कतार-सी बंध जाती.

     भूदान यात्रा अनवरत चलती. प्रतिदिन, बिना किसी विराम, बगैर किसी साप्ताहिक अवकाश के. विनोबा उस समय जीवन के 57 वर्ष में थे. बुढ़ापा देह पर असर जमाने लगा था. ऊपर से स्वास्थ्य अक्सर चुनौती बना रहता था. रोजाना बदलती परिस्थितियां और जलवायु उन्हें और भी परेशान करतीं. कभी पेचिश आ घेरती, कभी वातरोग तो कभी मलेरिया अपना शिकार बना लेता. अलसर तो ताजिंदगी बना रहा. जो खाते आंत्र-शोथ के कारण उसका बहुत कम हिस्सा देह को लग पाता. फिर भी उनकी चुस्ती-फुरती देखने लायक होती. उनकी आवाज का ओज कभी मंद न पड़ता. दिमाग हमेशा तेज और जिज्ञासु बना रहता. स्वास्थ्य कारणों से यात्रा में कोई बिघ्न न पड़े, लोककार्य बाधित न हो, इसके लिए खाने-पीने का परहेज वे हमेशा रखते. अधिकतर शहद और दही पर गुजारा होता. जहां यह न मिलता वहां केवल पानी पर दिन गुजार देते. लोग उनका श्रम और उसकी तुलना में लिया गया अल्पाहार देखकर हैरान होते. सोचते इतना कम खाकर इतना श्रम कैसे कर लेते हैं बाबा. श्रद्धावश कुछ लोग उन्हें ‘भूदानी बाबा’ तो कुछ अतिउत्साही ‘वरदानी बाबा’ भी कहते. और वे गलत भी नहीं थे. लगभग एक दशक की भूदान यात्रा के दौरान विनोबा लाखों एकड़ जमीन भूदान में लेकर बेजमीनों में बांट चुके थे. कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में बेजमीनों को जमीन मिल जाना, वरदान ही तो था.

     विनोबा का नाम देश की जुबान पर था. लोग कहते—‘दूसरा गांधी उनके भले के लिए गांव-गांव भटकर रहा है.’ वे उनमें किसी सिद्ध-महात्मा की छवि देखते. सोचते कि विनोबा के हाथ में जादू की छड़ी है. जिसके माध्यम से पलक झपकते सारी समस्याओं का निदान संभव है. विनोबा स्वयं बीमार रहते. यात्रा की थकान, पेट की बीमारी लगी ही रहतीं. फिर भी लोग विनोबा के पास अपने बीमार परिजनों को लेकर आते. स्त्रियां अपने बच्चों को विनोबा के आगे कर कहतीं—

     ‘बाबा देखिए तो, पंद्रह दिनों से बीमार है. न हंसता है और न खेलता है. और तो और मां का दूध तक नहीं पीता. इसको आशीर्वाद दीजिए कि पहले जैसा हंसने-खेलने लगे.’

     विनोबा लाख समझाते कि वे साधारण आदमी हैं. हाड़-मांस का पुतला, ‘अगर हाथ में जस होता तो अपनी ही बीमारियों से न सुलट लेता.’ लेकिन ऋद्धावान लोग कहां मानने वाले थे! आशीर्वाद लेकर ही टलते. विनोबा ईश्वर से प्रार्थना करते कि उनकी इच्छाएं पूरी हों. रोग-शोक का जड़ से नाश हो. ये प्रार्थनाएं किसी साधु-तांत्रिक या चमत्कारी की भांति न होकर एक संत प्रवृत्ति के व्यक्ति की ओर से थीं. जिसके मन में पूरी दुनिया के लिए दर्द था. सच्चे मन से उस समय वे यदि पीड़ित व्यक्ति को छू भी लेते तो उसका दर्द घट जाता. आत्मा को नैतिक संबल मिलता. इसे दूसरों के लिए जीने वालों की आत्मिक शक्ति का परिणाम माने या प्रकृति की सहज कृपा. बहुत से रोगी ठीक हो जाते. या विनोबा के दर्शनमात्र से उन्हें अपने संकट का एहसास जाता रहता.

     विनोबा उन दिनों असम की यात्रा पर थे. संत शंकरदेव का देश. विनोबा ने उनकी ख्याति सुनी थी. असम की मिट्टी में उस महान संत की आत्मा को महसूस कर वे अभिभूत हो उठे. वहां से वे पश्चिमी बंगाल जाने चाहते थे. गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर और शरतचंद्र का प्रांत. सुभाष और रासबिहारी बोस की धरती. महर्षि अरविंद की जन्मस्थली.

     पांच सितंबर 1962 को विनोबा असम की सीमा पर पहुंचे. मगर इस बार अपना देश नहीं, दूसरे देश की सीमा थी. पूर्वी पाकिस्तान. विनोबा को पदयात्रा पर निकले कई वर्ष बीत चुके थे. इस बीच हजारों किलोमीटर लंबी पदयात्रा उन्होंने बिना थके, बगैर रुके की थी. पहली बार वे दूसरे देश की सीमा पर थे. विनोबा के लिए हालांकि दूसरा देश कुछ भी नहीं था. वे तो खुद को आरंभ से ही पूरे विश्व का मानते हुए आए थे. फिर पाकिस्तान, वह तो भारत का ही छोटा हिस्सा, उसी की आत्मा का टुकड़ा था. वक्त की गलतफहमियों ने उसको दूसरे देश का रूप दे दिया था. हालात ने इन दोनों देशों को दो दुश्मन पड़ोसियों के रूप में ढाल दिया था. पूर्वी पाकिस्तान से होकर पश्चिमी बंगाल तक जाने में छोटा रास्ता पड़ता था. विनोबा ने अनुमति मांगी. अब ऐसे संत को भला कौन मना करता. विनोबा न तो राजनीतिक थे, न राजनीति उनका पेशा थी. वे भारतीय जनता के चहेते थे तो पाकिस्तानी आवाम के भी. अनुमति मिल गई. उस समय जवाहरलाल नेहरू का बयान आया—

     ‘विनोबा जी की इस छोटी-सी पाकिस्तान यात्रा से दो देशों के बीच आपसी सौहार्द बढ़ेगा. मन-मुटाव कम होगा.’

     विनोबा भले ही अराजनीतिक व्यक्ति हों, उनका अभियान भी मानवमात्र के कल्याण के प्रति समर्पित हो जिसके लिए देश-समाज की सीमाएं कोई मायने नहीं रखतीं. मगर लोग तो उतने सच्चे, उतने ही खरे न थे. कुछ लोगों को पाकिस्तान सरकार द्वारा रास्ता दिए जाने के काम में भी राजनीति नजर आई. आर्थिक विभाजन वहां भी था. सामंतवाद के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जमा हुआ. वहां के जमींदार और उनकी नुमाइंदगी करने वाला बुद्धिजीवी वर्ग मानो डरा हुआ था. नहीं चाहता था कि नैतिक दबाव में आकर उसको भूदान के लिए बाध्य होना पड़े. ऐसे लोगों द्वारा विनोबा की अराजनीतिक यात्रा का राजनीतिकरण किया गया. पश्चिमी पाकिस्तान के समाचारपत्रों ने विनोबा को अनुमति दिए जाने की खुलकर आलोचना की. कुछ लोगों ने इसको भारत की चाल बताया. अंततः पाकिस्तान के विदेशमंत्री को ही हस्तक्षेप करना पड़ा. विनोबा की यात्रा के प्रति अपनी प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने कहा कि—

     ‘विनोबा जी को पूर्वी पाकिस्तान जाने की इजाजत केवल इंसानियत के नाते दी गई है. पाकिस्तान सरकार के इस कार्य की तारीफ पूरी दुनिया में हो रही है. विनोबा की पाकिस्तान यात्रा बहुत थोड़े समय की है. इससे दोनों देशों के बीच आपसी मेल-मिलाप बढ़ेगा. हम भी भारत के साथ मेल-मिलाप चाहते हैं.’

     विनोबा की कश्मीर यात्रा के दौर की बात है. जब वे पाकिस्तान सीमा के निकटवर्ती गांवों की यात्रा पर थे तो सीमा से सटे पाकिस्तानी गांवों के नागरिक भारत से जाने वाले लोगों से अक्सर यह सवाल पूछते—

     ‘आपका यह बाबा हमारे पाकिस्तान कब आएगा?’

     ‘वह इधर क्यों आएगा, आना भी चाहे तो पाकिस्तान सरकार क्या आज्ञा देगी!’

     ‘क्यों नहीं देगी…बाबा क्या केवल हिंदुस्तान का है!’

     सच ही तो कहा था. विनोबा जैसे महापुरुषों को क्या किसी एक देश की सीमा में बांधा सकता है. विनोबा की पाकिस्तान आने की बाट जोहने वाले पाकिस्तानी नागरिकों में प्रायः भूमि से वंचित लोग थे. जिनके लिए विनोबा एक उम्मीद की किरण थे. विनोबा के पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश पर ऐसे लोगों में खुशी की लहर दौड़ना स्वाभाविक था. विनोबा के लिए तो देशकाल की सीमाएं न पहले थीं, न बाद में. उनके लिए पूरी दुनिया ‘विश्वग्राम’ थी. पाकिस्तान की धरती पर अपने पहले प्रवचन में इन्हीं अनुभूतियों का विस्तार करते हुए उन्होंने कहा—

     ‘मैं अमन और मुहब्बत का पैगाम लेकर पाकिस्तान की आवाम के बीच उपस्थित हूं. आप सब मेरे अपने हैं. किसी तरह के परायेपन का एहसास यहां मुझे नहीं हो रहा. वही आवोहवा, वही आसमान, वही मिट्टी, वही इंसान, वही मुहब्बत-भरा दिल. हिंदुस्तानी आवाम को देखकर मेरे दिल में प्यार की जैसी लहर उठती है. वैसा ही यहां भी हो रहा है. सारी दुनिया मेरी है; मैं केवल उसका सेवक हूं. मैं ‘जय जगत’ कहता हूं, जिसका मतलब है कि सारी दुनिया एक है. सारे इंसान एक हैं.’

     जो लोग यह सोच रहे थे कि विनोबा की पाकिस्तान यात्रा साधारण ही रहेगी, भारत विरोध की राजनीति करने वाले पाकिस्तानी राजनीतिज्ञों की भांति वहां की जनता भी कूटनीति की भाषा बोलेगी; और हिंदू विनोबा पाकिस्तान की मुस्लिम बहुल जनता के बीच उपेक्षित होकर रह जाएंगे—वे पूरी तरह गलत सिद्ध हुए. जिस रास्ते से वे गुजरते वहां की जनता विनोबा के दर्शनों को उमड़ पड़ती. लोग पैदल, गाड़ियों पर चलकर उनके दर्शनों को खिंचे चले आते. विनोबा जहां से भी गुजरते, पाकिस्तानी सरकार का धन्यवाद देने से न चूकते. फिर भी विनोबा से तेज उनकी कीर्ति पाकिस्तान की यात्रा पर थी. लोग कहते, ‘हिंदुस्तान से एक फकीर आया है. वह पैदल चलता है. दान में जमीन और गांव मांगता है. अपने लिए नहीं, गरीबों के लिए. हिंदुस्तान में लाखों गरीबों का भला उसने किया है. अब पाकिस्तान के लोगों की बारी है. हिंदुस्तान के दूसरे सूबे में जाने के लिए पाकिस्तानी सरकार ने रास्ता दिया है. जिधर से वह फकीर गुजरेगा, उस इलाके के गरीबों की किस्मत संवर जाएगी.

     लोगों को संबोधन के दौरान विनोबा कुरआन से संदर्भ लेते. स्थानीय सांस्कृतिक प्रतीकों को भी अपने प्रवचन का विषय बनाते. पाकिस्तान यात्रा में पहला पड़ाव भरूंगामारी गांव बना. साथ चल रहे कार्यकर्ताओं ने पड़ाव के बारे में पहले ही घोषित कर दिया था. इसलिए विनोबा के पहुंचने से पहले ही हजारों की तादाद में दर्शानार्थी वहां जमा थे. विनोबा के आने की सूचना बिना पंखों के, मानो हवा पर सवार होकर गांव-गांव फैल जाती थी. विनोबा के साथ चलने वाले बहुत से कार्यकर्ता पाकिस्तान यात्रा के दौरान भी उनके साथ थे. उन्हें लग ही नहीं रहा था कि वे किसी बाहरी मुल्क में हैं. पाकिस्तान में हैं.

     भारत की भांति भरूंगामारी में भी सर्वधर्म प्रार्थना सभा हुई. पाकिस्तान में यह शायद पहला अवसर रहा हो, जब हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई एक साथ प्रार्थना में सम्मिलित हुई. स्थानीय नागरिक द्वारा कुरआन पाठ कराया गया. प्रार्थना सभा के बाद विनोबा फिर अपने रंग में आ गए. उन्होंने पाक्स्तिानी नागरिकों को संबोधित करते हुए कहा कि उन्हें यह हरगिज नहीं लगा रहा है कि वे किसी दूसरे देश में हैं. उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान की तरह पाक्स्तिान में भी गरीबी है. बेरोजगारी और विषमता है. गरीबों के कल्याण के लिए गरीबी को मिटाना होगा. कैसे मिटाना होगा, इसके लिए विचार करना है. गरीबी हिंदुस्तान में है. गरीबी पाकिस्तान में भी है. गरीबों की गरीबी मिटे, उनके दुःख दूर हों, उसके लिए सबको मिलकर प्रयास करने चाहिए. प्रयास कैसे होने चाहिए इस पर भी उन्होंने बताया, बोले—

     ‘भाइयो, आपने मुझे खिलाया-पिलाया. इस फकीर को अपना प्यार दिया. मगर गांव के गरीबों को कौन खिलाएगा-पिलाएगा. कौन उन्हें प्यार देगा. कौन उनके सुख-दुःख का इंतजाम करेगा.’

     लोग चुप हो गए. सभा में सन्नाटा व्याप गया. भारत में विनोबा के कारनामे के बारे में वे लोग सुन चुके थे. गरीब लोगों के दिल धड़क रहे थे. भारत में तो इस फकीर के आवाह्न पर दानदाताओं की कतार लग जाती है. पाकिस्तान में कौन आएगा. कुछ देर सन्नाटा भांय-भांय करता रहा. विनोबा अपने आसन पर शांतचित्त बैठे रहे. थोड़ी देर बाद एक व्यक्ति खड़ा हुआ. चेहरे पर नूरानी चमक और विश्वास लिए हुए. मानो भीतर से कोई दिव्य प्रेरणा उभर रही हो. विनोबा को संबोधित कर उसने कहा—

     ‘बाबा, मेरे पास कुल चार एकड़ जमीन है. मेरा परिवार बड़ा है. घर में कई खाने वाले हैं. फिर भी एक बीघा जमीन तो मैं दे ही सकता हूं.’

     साथ चल करे कार्यकर्ताओं ने दानपत्र उसकी ओर बढ़ा दिया. दानपत्र पर हस्ताक्षर करते समय उस व्यक्ति की अंतश्चेतना एक बार पुनः प्रबल हो उठी. वहां मौजूद एक-एक व्यक्ति को चमत्कृत करते हुए उस आदमी ने कहा,

     ‘एक बीघा से उस गरीब का गुजारा कैसे चलेगा. एक एकड़ ही लिख लीजिए. रजिस्ट्री कराने का खर्च भी मैं ही दे दूंगा.’

     उस व्यक्ति का नाम था अब्दुल खालिफ मुंशी. उसकी खुद की आर्थिक हालत भी बहुत टिकाऊ न थी. लोगों की आंखें झरझरा उठीं. खुद विनोबा भी भावविह्वल हो उठे. पाकिस्तान के उस रामचंद्र रेड्डी के कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘मैं आपके लिए ईश्वर से प्रार्थना करूंगा.’

     भारत में विनोबा की यात्रा का प्रबंध कार्यकर्ता और स्थानीय निवासी करते थे. पाकिस्तान में वे सरकारी अतिथि थे. इसलिए नियमानुसार पुलिस उनके साथ रहती. भरूंगामारी में पुलिस के सिपाही भी विनोबा का चमत्कार देखकर दंग थे. जिस जमीन के एक-एक अंश के लिए लोग अपनों की लाशें बिछा देते हैं. झूठ बोलते हैं. पाप करते हैं. बेईमानी से दूसरे का हिस्सा दबा जाते हैं. वही जमीन एक आदमी अपनी मर्जी से खुशी-खुशी दूसरों के नाम लिख रहा था. अब्दुल खालिफ मुंशी….पाकिस्तान का रामचंद्र रेड्डी. पाकिस्तान का भरूंगामारी गांव, भूदान की पहल का साक्षी, भारत का पोचनपल्ली बन बन गया. भारत के रामचंद्र रेड्डी तो बड़े जमींदार थे. पर अब्दुल खालिफ तो मात्र चार एकड़ जमीन का मालिक ठहरा. उसपर उसका बड़ा परिवार. दानपात्र पर दस्तखत होते ही लोग भारत और पाकिस्तान की जय के नारे लगाने लगे. विनोबा ने उन्हें समझाया कि इंसानियत को देशों की सीमाओं में मत बांधिए. ‘जय जगत’ बोलिए. पाकिस्तान यात्रा के दौरान पहले दो दिन तो दर्शानार्थी भारत और पाकिस्तान की जीत के नारे लगाते रहे. फिर वे नारे ‘जय-जगत’ में बदल गए. लोगों ने मनुष्यता का एक नया पाठ पढ़ा. ‘वसुधैव कुटंुबकम्’ की औपनिषदिक् भावना साकार होने लगी.

     यात्रा आगे बढ़ गई. पूरे जोश और हुजूम के साथ. रास्ते में विनोबा से तरह-तरह सवाल करते. विनोबा भी खुले मन से उनका जवाब देते. दूर-दूर से उनसे मिलने के लिए लोग आते. अगले पड़ाव में वे अपने कारवां के साथ पगलागीर गांव पहुंचे. लोग पहले की तरह वहां उपस्थित थे. छोटे-से गांव में दूर-दूर से चलकर आए लोग. उन्हीं लोगों में एक सुदर्शन युवक भी था. हाथ में कैमरा लिए हुए. स्थानीय नागरिकों में से कई उसको पहचानते थे. वह एक अभिनेता था, जो विनोबा से मिलने के लिए ढाका से चलकर पहुंचा था.उस युवक ने तीन एकड़ जमीन का दानपत्र लिखा. और विनोबा को नमन कर वापस लौट गया. खुद को अभिनेता बताते हुए उसने कहा कि बाबा के दर्शनों के लिए दूर ढाका से चलकर आया हूं.

     विनोबा के लिए यह क्षण नया नहीं था. पहले भी ऐसे अवसर आए थे जब लोग उनके प्रति अपनी श्रद्धा का प्रदर्शन करने दूर-दराज से चलकर उनसे मिलने पहुंचते थे. पर पराए देश में. ऐसे देश में जो भारत को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता आया हो, जहां के नागरिकों के दिलों में विभाजन की त्रासदी अभी भी जिंदा हो, वहां के लोगों का इतना प्यार देखकर विनोबा का दिल भी पिघलने लगा. इसमें कोई अनूठी बात भी नहीं थी. दूसरों के कल्याण के लिए अपना जीवन जीने वालों, निष्प्रह और अपरिग्रही लोगों का जनता इसी तरह खुले दिल से स्वागत करती रही है. पगलागीर में पांच दानदाताओं ने भूदानपत्र विनोबा को सौंपे. मगर एक व्यक्ति का दान वहां मौजूद सभी को भावाकुल कर गया.

     नंगे पांग गांव-गांव जाकर दूसरों के लिए जमीन मांगने वाले विनोबा की ख्याति सुनकर उनके दर्शनों की साध ले एक गरीब लड़का सभा में पहुंचा. उसके तन पर साधारण कपड़े थे. विनोबा के पास पहुंचकर उस लड़के ने जेब में हाथ डाला. कुछ रुपये बाहर निकाले और विनोबा की ओर बढ़ाते हुए बोला—

     ‘बाबा, मुझ गरीब के पास जमीन नहीं है. दान देने के लिए कोई बड़ी संपत्ति भी नहीं. चना-चबैना बेचता हूं. बड़े प्रयत्न से चना-चबैना बेचकर पांच रुपए जमा किए हैं. आप इन्हें स्वीकार कर लेंगे तो मेरी यात्रा सफल हो जाएगी.’

     विनोबा ने रुपए ले लिए. दानपत्र लिख दिया गया. लड़के के कंधे पर हाथ रख प्यार और आशीर्वाद देते हुए विनोबा बोले—

     ‘तुम्हारा दान किसी भू-स्वामी से कम नहीं है. मैं इसका मोल नहीं चुका सकता. अल्लाह तुम्हें बरकत दे. वही तुम्हारे दान कर हिसाब रखेगा.’

     पगलागीर से यात्रा-दल आगे बढ़ गया. रास्ते में नए लोग मिले. भजन-कीर्तन के साथ-साथ विचार-विमर्श चलता रहा. लोग विनोबा से भारत और पाकिस्तान के बीच व्याप्त तनाव पर बात करना चाहते. पूर्वी पाकिस्तान के लिए बृह्मपुत्र नदी की बाढ़ एक समस्या थी. नदी जब उफनती तो आसपास के इलाके को अपने आगोश में ले लेती. फसलें तबाह हो जातीं. घर-झोपड़ियां और मवेशी बह जाते. बाढ़ के बाद बीमारियों का दौर चलता. हैजा, खांसी, बुखार और दूसरी जानलेवा बीमारियों से जनजीवन त्रस्त हो उठता. किसी ने विनोबा से प्रश्न किया, इस बाढ़ का कोई समाधान बताइए बाबा. विनोबा तो संगठन और समन्वय के पक्षधर थे. बोले—

     ‘भारत और पाकिस्तान दोनों देशों को इसके लिए मिलकर काम करना होगा.’

     ‘क्या दोनों देश इस मुद्दे पर एक साथ होंगे?’

     पता चला कि सरकारें राजनीति करती हैं. वे लोककल्याण के किसी मुद्दे पर शायद ही एक मंच पर आएं. लेकिन आवाम के लिए उसकी समस्याएं प्रमुख हैं. उसके लिए राजनीतिक दांव-पेंच से अधिक रोजमर्रा की मुश्किलों से निजात पाना है. ये समस्याएं दोनों तरफ लगभग एक जैसी हैं. विनोबा अपनी यात्रा को राजनीतिक होने से बचाए रखना चाहते थे. उन्होंने लोगों से मिल-जुलकर रहने और संबंधों में राजनीति को न लाने की अपील की.

     भूदान यात्रा के दौरान ही विनोबा को पदयात्रा का महत्त्च समझ में आया. उन्हें समझ आया कि समाज में अच्छे लोगों की बहुतायत है. जरूरत उन्हें अपनी सचाई का भरोसा दिलाने, अपने आचरण द्वारा उनकी अच्छाइयों को सामने लाने की है. अपने इसी विश्वास की खातिर वे लगातार तेरह वर्ष तक पदयात्रा करते रहे. 12 सितंबर, 1951 को पवनार आश्रम से शुरू हुई उनकी यात्रा लगभग 13 वर्ष पश्चात 10 अप्रैल, 1964 को वहीं पहुंचकर संपन्न हुई. इस बीच उन्होंने पूरे देश की पदयात्रा की. हजारों किलोमीटर पैदल चले.     विनोबा की पदयात्राओं से पूरे देश में एक नैतिक वातावरण बना था. इसलिए उसका उपयोग देश की अन्य जटिल समस्याओं के निदान के लिए करने का विचार भी बना. चंबल की तलहटी में बसे गांववालों ने विनोबा के आगे जाकर गुहार की. बाबा, हमारे पास थोड़ी-बहुत जमीन भी है. लेकिन डाकू हैं कि खेती ही नहीं करने देते. वे हमारी सारी कमाई लूट ले जाते हैं. ना करो तो गोली मार देते हैं. हमारे बच्चों का अपहरण करके ले जाते हैं. और नहीं तो खड़ी फसल को ही आग लगा देते हैं.

     कानून की नजर में डाकू अपराधी थे. इसलिए उसने अपने सिपाही और सैनिक डाकुओं की खोज में छोड़ रखे थे. कभी आमना-सामना हो जाता, तो कभी डाकू चकमा देकर निकल जाते. आमने-सामने की लड़ाई कभी सिपाही दो-चार डाकुओं की लाश बिछाने में कामयाब भी हो जाते. कभी इसका उल्टा भी हो जाता. डाकुओं की लाशें बिछतीं तो सरकार और कानून अपनी पीठ थपथपाते. सिपाहियों की मौत पर डाकु समस्या पर चर्चाएं आम हो जातीं. इस बीच खबर मिलती कि घाटी में उससे कहीं ज्यादा नए डाकू बढ़ चुके हैं. कानून मन मसोसता. उनसे निपटने के नाम पर कुछ सिपाही तथा सैनिक भेजता. नए-नए चक्रव्यूह डाकुओं को फंसाने के लिए बनाए जाते. मगर समस्या ज्यों की त्यों बनी रहती.

     विनोबा सोचते कि समस्या सिर्फ लूट-खसोट की नहीं है. कहीं न कहीं वह संपत्ति और संसाधनों के असमान बंटवारे से जुड़ी है. डाकू भी आखिर इंसान हैं. जब तक आसानी से खाने को मिलेगा, तब तक कोई बीहड़ का रास्ता क्यों चुनेगा. वह कहते थे कि दोष डाकुओं का नहीं, उस बंदूक का है, जो उन्हें हिंसा की ओर ले जाती है. मई 1960 में चंबल के बीहड़ों में ही विनोबा को आशातीत सफलता प्राप्त हुई थी. अनेक खूंखार डाकू जो वर्षों से पुलिस और प्रशासन को छकाते आ रहे थे, उन्होंने विनोबा के आगे अपने हथियार डाल दिए थे. उनमें एक खूंखार डाकू लालमन भी था.

     7 जून 1966 को विनोबा को गांधी से मिले पूरे पचास वर्ष बीत चुके थे. इस बीच गांधी जी के आदर्शों को उन्होंने संभवतः गांधी जी से भी अधिक पवित्रता के साथ जिया था. लेकिन अब उन्हें लगने लगा था कि बाहरी यात्रा का दौर पूरा हो चुका है. अब उन्हें अपने भीतर की यात्रा करनी होगी. भारत-भर का भ्रमण करने के बाद 2 नबंवर 1969 को अपने आश्रम पवनार में लौट आए. और यह तय कर लिया कि अब वे एक स्थान पर टिके रहकर अध्यात्म चिंतन करेंगे. 25 दिसंबर 1974 को उन्होंने अपना मौनव्रत आरंभ कर दिया. 1976 में उन्होंने गौकशी के विरोध में अनशन आरंभ किया.

     भूदान ऐसा आंदोलन था जिसे पश्चिम में संभवतः गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन से भी अधिक सराहना मिली. अमेरिका के लुइस फिश्चर ने लिखा—

     ‘ग्रामदान हाल के दौर में पूर्व की ओर से आने वाला सबसे रचनात्मक विचार है.’

     अल्फ्रेड टेनीसन के पोते हेलम टेनीसन ने विनोबा के साथ कई वर्षों तक पदयात्रा की थी. भूदान से जुडे़ अपने अनुभवों को उसने एक पुस्तक की शक्ल में दी, जिसका शीर्षक ह—‘पदयात्रा पर संत(The Saint on the march) भारत में अमेरिकी राजदूत चेस्टर बाउल ने अपनी पुस्तक ‘शांति के सोपान’ (The dimensions of peace) में भूदान के बारे में अपने अनुभवों का उल्लेख करते हुए लिखा कि हमने पाया कि 1955 में भूदान आंदोलन भारत-भर में परिवर्तनकारी संदेश दे रहा था. उसने साम्यवाद के विरुद्ध एक क्रांतिकारी विचार बनकर सामने आया, जिसने मानवीय आत्मसम्मान और अस्मिता को नए सिरे से स्थापित किया.

     भूदान ने न केवल भारत में बल्कि दुनिया के उद्योगपतियों पर भी अपना प्रभाव छोड़ा. ब्रिटिश उद्योगपति अर्नेस्ट बार्डर ने भूदान आंदोलन की सफलता से प्रेरित-प्रभावित होकर अपनी कंपनी के 90 प्रतिशत शेयर कंपनी के कर्मचारियों में बांट दिए. एक आंदोलन के रूप में भूदान को खूब सराहना मिली. उसको परिवर्तनकामी आंदोलन माना गया. हालांकि कुछ विद्वानों ने उसकी जमकर आलोचना भी की. जितने दिन आंदोलन चला उतने दिन संयुक्त राष्ट्र के समाचारपत्र आंदोलन की खबरों से भरे रहते थे. न्यूयार्क टाइम्स, दि नयू यार्कर जैसे अखबारों में आंदोलन को लेकर नित्यप्रति कुछ न कुछ प्रकाशित होता था. सुप्रसिद्ध ‘टाइम’ पत्रिका ने विनोबा का चित्र अपने मुख्य पृष्ठ पर छापकर उनके प्रति अपने सम्मान का प्रदर्शन एवं भूदान को अपनी नमन प्रस्तुत किया था.

     भूदान के दौरान देश भर में कुल 41,94,270 एकड़ जमीन प्राप्त हुई. विड़ंबना देखिए कि 1975 तक सरकार उस जमीन में से केवल 12,85,738 एकड़ ही भूमिहीनों को बांट पाई थी. 18,57,398 एकड़ जमीन को बंटवारे के अयोग्य पाया गया. ब्रिटेन का डोनाल्ड गू्रम सर्वोदय कार्यकर्ताओं के साथ पूरे छह महीने साथ रहा और इस अवधि में उसने 2200 किलोमीटर से अधिक की पदयात्रा की. आर्थर कोस्टलर ने 1959 में लंदन आबजर्बर में लिखा कि भूदान आंदोलन ने नेहरू के प्रश्चिम से प्रेरित विकास के मा॓डल का सार्थक स्वदेशी विकल्प दुनिया के सामने रखा. जितने दिन भूदान आंदोलन चला, अमेरिकी अखबार उसके समाचारों से भरे रहते थे. न्यूयार्क टाइम्स और न्यूयार्क जैसे प्रतिष्ठित समाचारपत्रों ने विनोबा पर कई लेख प्रकाशित किए.

    अगर हम गांधी के जीवन को देखें तो उसमें हमें कई विचलन दिखाई पड़ेंगे. बचपन में चोरी करने से लेकर अपने सेक्स के विवादित प्रयोगों तक. वहां गाधीं का महात्मापन कई बार हमें चैंकाता है तो अनेक बार हमारे मन में क्षोभ और जुगुप्सा का संसार करता है. इसके विपरीत विनोबा का जीवन एक संत का कल्याणकामी जीवन है. संभव है बचपन की कुछ स्वाभाविक गलतियां विनोबा ने भी की हों. और उन्हें गांधी जी की तरह सार्वजनिक करने का साहस उनमें न रहा हो. तो भी यह सत्य है कि आरंभ से ही संन्यास उन्हें आकर्षित करता रहा था. मां की आध्यात्मिक शिक्षा उन्हें इस संसार की मोह-माया से निर्लिप्त रखती रही. इसलिए किशोर विनोबा अपने सारे प्रमाणपत्र आग के हवाले कर देते हैं. उस समय तक उन्होंने गांधी जी का नाम भी नहीं सुना था. बस एक ही साध थी, हिमालय में जाकर तापसी जीवन जीने की. तुकाराम, शंकराचार्य और समर्थ गुरु रामदास उनके आदर्श थे. इस चाहत को मां रुक्मिणी बाई यह कहकर कि ‘अगर मैं पुरुष होती तो बताती कि संन्यास क्या होता है, और भी हवा देती रहीं. मां ने उन्हें संन्यास की ओर ले जाने की मदद की. उन्हें अपरिग्रही, और आत्मसंतोषी जीव बनाया तो गांधी जी ने उन्हें कर्मयोग से जोड़ा. विनोबा के जीवन में मां रुक्मिणी बाई और गांधी दोनों में से किसका योगदान अधिक है, यह कह पाना कठिन है. इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उनके जीवन और आचरण में गीता जैसी विविधता है. उसमें भक्ति है और ज्ञानयोग भी कर्मयोग है और चरैवेति-चरैवेति की भावना भी.

     बचपन में मां रुक्मिणी बाई विनोबा को यदि संन्यास की ओर न ले जातीं तो उनका नैतिक आभामंडल शायद उतना ऊंचा न उठता. ऐसे में भूदान जैसे आंदोलन की सफलता संद्धिग्ध ही थी. गांधी जी जब आवाहन करते थे तो स्त्रियां अपने घरों से निकल आती थीं. अपने कीमती गहने और वस्त्राभूषण दान कर देती थीं. विनोबा जब आवाह्न करते हैं तो किसान जमींदार और सामंत जो उससे पहले जमीन के लिए खून-खराबा और मारकाट करते आए थे, जिसके एक कूंड के लिए गांवों में लाशें बिछ जाया करती थीं, वे उस जमीन को खुशी-खुशी दान कर देते हैं, ताकि वह गांव के ही भूमिहीनों के पेट भरने के काम आ सके.

     उल्लेखनीय है कि भूदान की संकल्पना का जन्म गांधी जी की मृत्यु के लगभग तीन वर्ष बाद हुआ था. स्वयं विनोबा भी कहां सोचते थे कि जिस जमीन के लिए महाभारत हुआ, लोग आपस में लड़-मर जाया करते हैं, उससे इतनी आसानी से अधिकार छोड़ने को राजी हो जाएंगे. निश्चितरूप से इसके पीछे रूस और  चीन की क्रांतियों का भी हाथ था. जहां आंदोलनकारियों ने आततायी जमींदारों को विषैली गैसों के चेंबर में बंदकर मौत की सजा दी थी. उनपर तेलगांना के कम्युनिस्टों का भी दबाव था, जिन्होंने अपने अधिकारों और न्याय के लिए संघर्ष की राह चुनी थी. इससे जागीरदारों और सामंतों को लगने लगा था कि यदि उन्होंने गरीबों को खुशी-खुशी उनका हक नहीं दिया तो भारत में भी हिंसक क्रांति होने से वे रोक नहीं पाएंगे. यह उन्होंने तेलगांना में देखा था. बंगाल में भी ऐसी ही परिस्थितियां बन रही थीं. बाद में किसी किसान ने जो भूदान करने के बाद टिप्पणी भी की थी कि विनोबा ने हमें उग्र कम्युनिस्टों के कोप से बचाया है. वरना हमारा हाल भी चीन और रूस के किसानों जैसा हुआ होता.

     विनोबा के भूदान को विश्वव्यापी ख्याति मिली. राजनीतिक कारणों से यूरोपीय इतिहासकार और विद्वान गांधी जी के आंदोलन और उनके सत्याग्रह पर उतना सकारात्मक नहीं लिख पाए थे, जितना अपेक्षित और न्यायसंगत था. मगर विनोबा के भूदान पर उन्होंने खूब लिखा. कई विदेशी पत्रकार वर्षों तक विनोबा की भूदान यात्रा में उनके साथ रहे और उसके सकारात्मक प्रभाव को दुनिया के सामने लाते रहे. 1951 में विनोबा ने शिवराम पल्ली जाने के लिए पवनार छोड़ा था. उसके बाद वे 1964 तक भूदान के काम से बाहर ही रहे. इन तेरह वर्षों में उन्हें दान-स्वरूप चालीस लाख एकड़ से अधिक भूमि दान में प्राप्त हुई. अपने अंतिम वर्षों में भूदान का प्रभाव वह नहीं रह गया था जो उसके आरंभिक वर्षों में था. आंदोलन की असफलता में उन अवसरवादी लोगों का भी हाथ था जो विशुद्ध राजनीतिक महत्त्चाकांक्षाओं के कारण विनोबा के साथ जुड़े थे. फिर भी भूदान की उपलब्धियां अतुलनीय थीं. वह एक सच्चा परिवर्तनकामी आंदोलन था.

     प्रश्न उठता है कि इतनी अप्रतिम कामयाबी के बावजूद भूदान को क्यों भुला दिया गया? उनके विरोधी उनपर कांग्रेस सरकार और इंदिरागांधी के अंर्धसमर्थक होने का आरोप लगाते हैं. विनोबा ने आपातकाल का समर्थन ‘अनुशासन पर्व’ कहकर किया था, जो उनके विरोधियों को बुरा लगा. बल्कि इससे जयप्रकाश नारायण जैसे उनके समर्थक भी विनोबा से परे छिटक गए. लेकिन सत्ता में आने के बाद जनता पार्टी और उसके नेताओं जो धत्कर्म किया, उसके छोटे-से कार्यकाल में जैसी अराजकता पनपी, और उसके बाद लोगों में जो गुस्सा और असंतोष फैला, जिससे इंदिरा गांधी की सत्ता वापसी संभव हुई—उसे देखकर तो लगता है कि विनोबा ने गलत नहीं कहा था. वे जनता पार्टी तथा उसके नेताओं के अवसरवादी चरित्र को समझते थे. इसलिए उन्होंने आपातकाल को अनुशासन पर्व समझने-कहने की भूल कर बैठे थे. यहां उल्लेखनीय है कि विनोबा कोई राजनीतिक जीव नहीं थे. होते तो अपने वक्तव्य को घुमा-फिराकर ऐसा मोड़ दे सकते थे, जिससे की दोनों अर्थ निकाले जा सकें. परंतु विनोबा ने न तो कभी अपने तर्क का खंडन किया न कभी पछतावा व्यक्त किया. बल्कि बाद में उनका मौन और गहरा गया, जो आगे उनकी मृत्यु तक बना रहा.

     1965 में उड़ीसा में बाढ़ आई हुई थी. जुलाई-अगस्त 1965 में मूर डिक्सन ने उड़ीसा के गांवों का निरीक्षण किया. उससे पहले के वर्षों में मानसून असफल होने के कारण उड़ीसा समेत पूर्वी भारत के कई हिस्सों में अकाल जैसी स्थिति बन चुकी थी. स्थानीय नागरिकों की याद में उससे ठीक एक शताब्दी पहले का वह भीषण अकाल पसारा हुआ था, जिसने कुछ ही वर्षों में उड़ीसा और आसपास के इलाकों की लगभग एक-चैथाई आबादी को अपना शिकार बनाया था. इस बार भी पहले सूखे 1965 में भी सूखे के हालात लगभग वैसे ही थे. कई जिलों की जमीन सूखे के कारण पड़ा चुकी थी. हालांकि अब हिंदुस्तान आजाद था और सरकार तथा स्वयंसेवी संगठन बचाव कार्य में जी-जान से जुटे हुए थे. हालांकि सरकार ने हालात की गंभीरता का अनुमान देरी से लगाया था. तब तक सूखे और कुपोषण के कारण सैकड़ों जाने जा चुकी थीं. सरकार उसको अकाल घोषित करने से बच रही थी. दूसरी ओर विदेशी अखबार बार-बार अकाल की चेतावनी दे रहे थे. उसी दौर में मूरे डिक्सन ने उड़ीसा के गांवों में सूखे और राहत कार्यों की स्थिति का जायजा लेने के लिए जुलाई 1966 में वहां का निरीक्षण किया था.

     उस समय तक राहत कार्यों को शुरू हुए कुछ महीने बीत चुके थे. लोगों को भोजन के साथ-साथ मुफ्त दवाइयां भी उपलब्ध कराई जा रही थीं. अंतरराष्ट्रीय संस्था रेडक्रास उन गरीब बच्चों की देखभाल में लगी थी, जिनकी माताएं कुपोषण के चलते उन्हें स्तनपान कराने में असमर्थ थीं. निरीक्षण के दौरान मूर ने पाया कि एक गांव ऐसा था, जहां प्राकृतिक सूखे के बावजूद लोगों के जीवन पर उसका बहुत कम प्रभाव हुआ था. हालांकि वहां के नागरिकों ने सूखे के प्रकोप को उतनी ही बुरी तरह झेला था, जैसा कि आसपास के ग्रामवासियों ने. बावजूद इसके वे उसकी विभीषिका से खुद को बचाए हुए थे. अपने इस अनुभव का डिक्सन ने बड़ा ही मर्मस्पर्शी वर्णन किया है, अपनी पुस्तक COMMUNITY DEVELOPMENT AND THE GRAMDAN MOVMENT IN INDIA  में वे लिखते हैं—

     ‘सूखाग्रस्त क्षेत्र की अपनी यात्रा के दौरान में एक ऐसे गांव में पहुंचा जहां किसी प्रकार के राहत कार्य की आवश्यकता नहीं थी. यद्यपि वहां के निवासी सूखे के भयावह दौर से गुजर चुके थे. लेकिन उन्होंने बिना किसी बाहरी मदद के उसका सफलतापूर्वक सामना किया था. उनपर आसपास के गांवों की अपेक्षा सूखे का कम असर था. उनकी यह उपलब्धि सराहनीय थी. मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने अपने बचाव के लिए क्या किया? उसके जवाब में गांव के प्रमुख व्यक्तियों ने जो कहा, उसको मेरे साथ चल रहे अनुवादकों के माध्यम से मैंने सुना, ‘हमारा गांव ग्रामदान गांव है. इसलिए हम अपनी समस्याओं का निवारण ग्राम परिषद में आपसी विचार-विमर्श के द्वारा करने में विश्वास रखते हैं. हम मिल-बांटकर खाने में विश्वास रखते हैं. हमारा प्रयास रहता है कि अपने गांव को अधिकतम की सीमा तक आत्मनिर्भर बनाएं. इसलिए पिछले वर्ष जब मानसून की उदासीनता के चलते यह स्पष्ट हो चला था कि आने वाले महीने भारी सूखे के होंगे. खेत खाली रह जाएंगे, तब ग्राम-परिषद ने आपसी परामर्श से आने वाली परिस्थितियों का सामना करने के लिए योजनाएं बनाना आरंभ कर दिया था. ग्राम-परिषद में विचार-विमर्श के दौरान अनेक व्यक्तियों ने बड़े उपयोगी सुझाव दिए. जैसे कि कुछ आदमी यह बताने में निपुण थे कि आने वाले दिनों में कौन-कौन से काम कर सकते हैं. उसी दौरान एक आदमी ने परिषद को बताया कि वह अभी भी अपनी परंपरा का पालन करते हुए घर में एक वर्ष का अनाज आरक्षित रखता है. उसने खुशी-खुशी सुझाव दिया कि सुरक्षित अनाज को वह गांव वालों के साथ मिल-बांट सकता है. उस व्यक्ति की बात का असर हुआ. इससे दूसरे व्यक्ति भी उन वस्तुओं का साझा करने को तैयार हो गए, जिसका दूसरे व्यक्तियों के पास अभाव था. अंततः हमने एक योजना बनाई. पूरे गांव के लिए लिए एक कार्यनिर्देशिका. उस योजना से हमें अपने गांव के सर्वांगीण विकास हेतुु, उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करते हुए योजना बनाने में मदद की. ध्यान यह रखा गया कि गांव का एक भी व्यक्ति भूख से त्रस्त न हो.

     हमारे द्वारा ग्रामदान का संकल्प लिए जाने से पहले सूखे की आपदा गांव के हर किसान के लिए उसकी निजी समस्या होती थी. जिसका सामना कुछ परिवार तो बहुत आसानी से कर लेते थे. जबकि कुछ इससे तबाह हो जाते थे. ग्रामदान ने हमें मिल-जुलकर करना सिखाया, हमें यह भी सिखाया कि हम कैसे दूसरों के सुख-दुःख में साथ दें, कैसे उनके हितों की सुरक्षा करें.’

     गांधी जी अस्प्रश्यता विरोधी आंदोलन के माध्यम से हरिजनों को कांग्रेस से जोड़ा था. सत्याग्रह को एक आंदोलन से अधिक विचार की मान्यता प्राप्त थी. बाद में यही काम विनोबा ने भूदान आंदोलन का विकल्प देश को दिया और उसके माध्यम से लाखों-करोड़ों दलितों, गरीब लोगों को कांग्रेस से जोड़कर किया. उन्हीं के दम पर कांग्रेस 25 वर्षों तक निष्कंट राज करती रही. इन आंदोलनों को मिली अप्रत्याशित कामयाबी के पीछे भी यही तथ्य था कि जनता उन्हें विचार के रूप में स्वीकार चुकी थी. 1951 से पहले विनोबा का जीवन आध्यात्मिक कार्यकर्ता का रहा. गांधी जी के अनुशासित शिष्य के रूप में उन्होंने सत्याग्रह आंदोलन में भी हिस्सा लिया. भूदान की कोई रूपरेखा उस समय तक विनोबा के मन में न थी. भूदान आंदोलन का रास्ता दिखाने वाला तो किसान रामचंद्र रेड्डी था. संभव है कि भूदान के समय कम्युनिस्टों का डर भी उसकी प्रेरणा रहा हो. मगर उससे जो राह प्रशस्त हुई उसने देश में भू-वितरण संबंधी असमानताओं, ग्रामीण जीवन की विसंगतियों और संसाधनों के असमान वितरण से उत्पन्न समस्याओं के निदान का एक सार्थक रास्ता देश दुनिया को दिखा दिया. जनता पार्टी के शासनकाल के दौरान जो जो लोग विनोबा का विरोध कर रहे थे, वे दरअसल उस विचार की आलोचना कर रहे थे, जो समानतावादी, समताधारी दृष्टिकोण से प्रेरित हो सकता था.

     एक वक्तव्य के दौरान विनोबा को सरकारी संत की उपाधि दी गई. पूछा जा सकता है कि आपातकाल को अनुशासन पर्व कहना क्या इतनी बड़ी भूल थी कि इसके लिए उनके भूदान जैसे आंदोलन को भुला दिया जाए. उल्लेखनीय है कि भूदान ने गांधीवादी विचारधारा के समर्थक राजनीतिक सामाजिक-कार्यकर्ताओं की एक पूरी पीढ़ी तैयार की थी, जिसने आगे चलकर कांगेस सरकार को जीवनदान दिया. मौन के बावजूद विनोबा के जीवन के अंतिम वर्ष सक्रियता से भरपूर थे. उन्होंने स्त्री शक्ति के उत्थान, स्त्रीवादी विमर्श को आगे ले जाने के लिए भी समय-समय पर आंदोलन किए. भारत की तीन-चैथाई आबादी कृषि पर निर्भर है और कृषि बैल पर. ग्रामीण जीवन में कृषि का महत्त्व पहचानते हुए विनोबा ने गौकशी के विरुद्ध आंदोलन भी छेड़ा. हालांकि उसके लिए भी उन्हें काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. जयप्रकाश नारायण ने भूदान आंदोदन के लिए अपना सर्वस्व दान करने का संकल्प लिया था, बिहार में आंदोलन को सफल बनाने के लिए उन्होंने विनोबा के साथ पदयात्राएं भी कीं. पर इससे राजनीति ही अधिक पनपी.

     सत्तर के दशक के मध्य में विनोबा ‘सर्व सेवा संघ’ में अलग-थलग पड़ने लगे थे. इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल के विरोध में जयप्रकाश नारायण ने भूदान के बजाय अपना लक्ष्य कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी को हटाने का बना लिया और वे अपने एकसूत्री कार्यक्रम के प्रति समर्पित हो गए. क्या यह काम भूदान आंदोलन जितना ही महत्त्वपूर्ण था? इस बात पर बहस हो सकती थी. मगर इसने चतुराई पूर्वक, आपातकाल के बहाने से, सर्वोदय और भूदान के समानतावादी विचार को ही मीडिया से गायब कर दिया गया. यह सामाजिक परिवर्तन की जरूरत और भूदान जैसे परिवर्तनकारी आंदोलन को बहस से बाहर ले जाने के लिए रची गई साजिश थी. जिसके लिए आपातकाल को माध्यम बनाया गया था. 15 नबंवर 1982 को विनोबा ने अंतिम सांस ली. विनोबा को पेट के अल्सर की बीमारी वर्षों से थी. इस कारण वे अपना जीवन शहद और दही के सहारे बिताते आ रहे थे.

     अप्रैल 1951 का महीना परिवर्तनवादियों के लिए खास अविस्मरणीय है. विशेषकर उनके लिए जो आर्थिक-सामाजिक समानता का सपना देखते हैं. जिनके लिए मनुष्यमात्र में एकसमानता है. ध्यातव्य है कि उससे मात्र पंद्रह महीने पहले अर्थात 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू किया गया था. जिसके साथ देश को प्रभुसत्ता संपन्न गणराज्य घोषित किया गया था. संविधान के माध्यम से देश में समानता पर आधारित कानून-व्यवस्था लागू करने, आर्थिक-सामाजिक समानता के लिए निरंतर प्रयास करने की कसमें भारतीय कर्णधारों ने खाई थी. उससे ठीक तीन वर्ष पहले ही महात्मा गांधी का अवसान हुआ था. लेकिन भारतीय राजनीति पर उनके विचारों का असर था. नेहरू, पटेल, पंत समेत अनेक नेता जिन्होंने महात्मा गांधी के साथ स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सा लिया था, उस समय भारतीय राजनीति में थे. हालांकि ऐसे भी अनेक नेता थे, जो महात्मा गांधी के आदर्शों को बिसराकर केवल निहित स्वार्थों के लिए ही काम कर रहे थे. फिर भी राजनीति पर गांधीजी के विचारों का असर था. हालांकि कुछ नेता यह मान चुके थे कि गांधीजी के विचारों को व्यावहारिकता के धरातल पर लोगों को लग रहा था, कि

     आजीवन राजनीति से दूर रहने वाले उस विनोबा भावे अंततः राजनीति के शिकार हुए थे. वर्तमान राजनीति की कमजोरी यह है कि वह हर विचार अथवा वस्तु को उसकी तात्कालिक उपयोगिता के आधार पर आंकती है. और जो विचार तात्कालिक नहीं है, जो दूरगामी प्रभाव देने वाला है, वह बहुउपयोगी होने के बावजूद नकार दिया जाता है. परिणामस्वरूप आमूल परिवर्तन हर बार आगे टलता जाता है. कहा जा सकता है कि स्वातंत्रयोत्तर भारत में जिन महापुरुषांे के आकलन में विद्वानों से चूक हुई उनमें विनोबा भावे भी हैं. वे राजनीति का शिकार हुए. विद्याधर सूरज नायपाल जैसे लेखक भी विनोबा के आलोचकों में से एक हैं. अनंत विजय ने अपने एक लेख में नायपाल के विनोबा संबंधी विचारों को प्रकट किया है. उन्हें पढ़कर हैरानी होती है कि कोई संवेदनशील लेखक भला ऐसी टिप्पणी कैसे कर सकता है. लेख में गांधी की आलोचना की गई है, लेकिन बख्शा विनोबा को भी नहीं गया है—

     ‘एक मूर्ख शख्स थे विनोबा भावे, जिन्होंने पचास के दशक में गांधी की नकल करने की कोशिश की. वे गांधी के विभिन्न आश्रमों में रहे थे. उन जगहों की बौद्धिक शिथिलता ने उनके दिमाग को मोथरा कर दिया था और ये उनकी आत्मा तक में प्रवेश कर गया था. वो रसोई में काम करते थे, पखाना भी साफ करते थे…इतनी देर तक चरखा चलाते थे कि गांधी भी उनके बारे में चिंतित रहने लगे थे….खुशी की बात ये है कि विनोबा को बाद में एक करियर मिल गया—एक सुधारक के रूप में नहीं, बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि एक तरह के धार्मिक मूर्ख के रूप में, जिनके साथ आला नेता फोटो खिंचवाना पसंद करते थे और आशीर्वाद के लिए लालायित रहते थे।’ (वक्त के साथ बूढ़े हो चले हैं ना॓यपा॓ल के विचार, अनंत विजय, आईबीएन खबर, सिंतबर 8, 2008).

     असल में यह ना॓यपा॓ल जैसे लेखकों की भड़ास है जो विनोबा और भूदान की वैचारिकी को न जानने के कारण जन्मी है. इस देश की विडंबना ही यही है कि यहां वास्तविक परिवर्तन को समर्पित जब भी कोई नई और कारगर व्यवस्था सामने आती है, यथास्थितिवादियों तथा उनके द्वारा खरीदे गए बुद्धिजीवियों की एक जमात उस आंदोलन को टालने, बदनाम करने की बार-बार कोशिश करती है. भूदान का आंदोलन विषमताकारी समाज में एक उम्मीद की तरह जन्मा था. यह उम्मीद आगे भी बनी रहे, इसकी आवश्यकता है, फिर चाहे ना॓यपा॓ल जैसे लेखक कुछ भी कहें. गांधी को इस देश के कुछ लोग राष्ट्रपिता कहते हैं. उन्हें आजादी का श्रेय दिया जाता है.

     इस देश को विनोबा का बहुत बड़ा, संभवतः गांधी से भी बड़ा योगदान होता, यदि भूदान आंदोलन पूरी तरह सफल हो गया होता. भूदान असल में उस सामाजिक स्वतंत्रता का पर्याय था, जिसका सपना ज्योतिबा फुले ने देखा था, जिसकी मांग डॉ. आंबेडकर कर रहे थे, जिसकी कामना ऋग्वेद में की गई है तथा जिसकी आवश्यकता इस देश के करोड़ों दलित, मजूदरों, गरीब किसानों, सर्वहारा श्रमिकों तथा आर्थिक-सामाजिक स्तर पर पिछड़े हुए लोगों को थी. कमी विनोबा की भी रही, उन्होंने स्वयं को कभी गांधी की छवि से बाहर लाने की कोशिश नहीं की. अगर वे ‘सर्वोदय’ के अपने चिंतन को ‘गांधीवाद’ के समानांतर खड़ा करने की कोशिश करते, अगर वे उसको समाजार्थिक आंदोलन की तरह प्रस्तुत करते तथा बार-बार धर्म का उल्लेख करने के बजाय उसे केवल नैतिकतावादी आंदोलन रहने देते तब शायद उसपर अधिक गंभीरता से बहस हो पाती. उसके परिणाम भी अधिक स्थायी और दूरगामी होते थे. तब उन्हें इस देश में स्वतंत्र विचारक की तरह याद किया जाता. भूदान असल में परिस्थितिजन्य आंदोलन था. दान में जमीन भी ली जा सकती है, इसकी उम्मीद विनोबा को भी न थी. पोचनपल्ली में जो हुआ, वह आकस्मिक घटना थी. हालांकि उसके बीजतत्व चीन, रूस में चल रहे समाजवादी आंदोलनों तथा तेलंगाना सहित देश के अन्य क्षेत्रों में चल रहे जनविद्रोह में छिपे थे.

     भूदान ने जहां क्षेत्रीय स्तर पर बड़ी संख्या में आदर्शोंन्मुखी कार्यकर्ताओं तैयार किए वहीं उसके प्रभाव में अवसरवादी नेताओं, सामंती शक्तियों को भी अपनी छवि सुधारने का अवसर मिला. आगे चलकर वे शक्तियां जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एकजुट हुईं और इंदिरा विरोध के नाम पर भूदान आंदोलन की सारी उपलब्धियों पर पानी फेरने का काम उन्होंने किया. इसके बावजूद भूदान आंदोलन को इस लिए याद किया जाएगा कि उसने इस देश के आम आदमी पर भरोसा कायम किया. इस विश्वास को पुनर्जीवित किया कि जनसाधारण आज भी सहयोग और सहअस्तित्व की चाहत रखता है. नेतृत्व यदि ईमानदार, भरोसेमंद और उच्च नैतिकता संपन्न है तो वह स्वयं कष्ट सहकर भी दूसरों की मदद को तत्पर रहता है.

©  ओमप्रकाश कश्यप