समाजवादी चिंतन की पृष्ठभूमि

प्लेटो का समाजार्थिक दर्शन 

रिपब्लिक’ में प्लेटो ने अपने राजनीतिक दर्शन के मूलभूत तत्वों की रूपरेखा प्रस्तुत की थी. गंभीर चिंतन के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि समाज के गठन का उद्देश्य अयाचित और किसी कल्याणभाव से प्रेरित नहीं है. यह सीधेसीधे व्यक्ति के स्वार्थ से जुड़ा है. चूंकि अकेले मनुष्य के लिए जीवन की अनेक दुश्वारियां थीं, इसलिए उसने समूह में रहना सीखा. समूह को स्थायित्व प्रदान करने, उसमें शांतिव्यवस्था बनाए रखने, विकास और सुखानंद के लिए उसने कुछ नियमों का विन्यास किया. कालांतर में ये नियम सभ्यता का प्रतीक बनकर जटिल सामाजिक संबंधों में ढलते चले गए. आज से करीब पांच हजार वर्ष पहले मनुष्य व्यापार में तरक्की कर चुका था. उसने नौकाओं और भारी जलयानों की सहायता से लंबी समुद्री यात्राएं करना सीख लिया था. दुर्गम स्थानों की यात्रा के लिए वह पशुओं की मदद लेता था. रास्ते में हिंस्र पशुओं और दस्युओं का खतरा था. उनसे निपटने के लिए उसने भाड़े के सैनिक रखने आरंभ किए. सैन्यबल और धनसंपदा दोनों ही ताकत का प्रतीक थीं,

व्यक्ति के पास जब इनका प्राचुर्य हआ तो उसकी महत्त्वाकांक्षाएं अंगड़ाई लेने लगीं. प्रारंभ में जिन स्थानों से उसको वाणिज्यिक लाभ पहुंचता था, उन स्थानों पर सीधे अथवा अपने सहयोगियों की सहायता से अपने उपनिवेश कायम करने लगा. प्रारंभ में जो राज्य बने उनका क्षेत्रफल बहुत कम, नगरविशेष की सीमा तक होता था. निश्चितरूप से तत्कालीन नगरराज्य की स्थापना एक स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर आर्थिकराजनीतिक इकाई के रूप में की गई होगी. शीघ्र ही मनुष्य को लगने लगा था कि विकास की निरंतरता के लिए संबंधों का विस्तार अत्यावश्यक है. ऐसी कार्यकारी संस्थाओं की आवश्यकता है जिनके द्वारा संबंधों को मर्यादित और नियंत्रित किया जा सके. इससे नए राजनीतिक दर्शन की आवश्यकता महसूस की जाने लगी. आदिम मानवीय जिज्ञासा केवल जीवन और प्रकृति के रहस्यों के अन्वेषण तक सीमित थी, जिसके कारण दर्शनों का विस्तार हुआ. बहुत शीघ्र मनुष्य को लगने लगा कि केवल पराभौतिक सत्ता की खोज से काम चलने वाला नहीं है. जीवन को अधिक सुविधासंपन्न बनाने तथा प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए प्रकृति को समझना भी अनिवार्य है. इसलिए बुद्धिजीवियों का ध्यान इहलौकिक सत्यों के अन्वेषण की ओर गया, जिससे ज्ञानविज्ञान की खोज के नए रास्तों का विकास हुआ.

ईसा से 426 वर्ष पहले जन्मे यूनानी दार्शनिक वैज्ञानिक डेमोक्रिटिस ने लोकभ्रांतियों का खंडन करते हुए घोषणा की कि चंद्रमा पर दिखने वाली छाया वस्तुतः उसकी सतह पर बने ऊबड़खाबड पठार हैं. उसने नीहारिकाओं का रहस्योद्घाटन करते हुए बताया कि रात में आसमान में नजर आने वाली दूधिया नदी, वास्तव में तारों का प्रकाश है, जो अरबों की संख्या में विराट अंतरिक्ष में फैले हुए हैं. हालांकि लोकमानस सूर्य, चंद्र आदि ग्रहनक्षत्रों की भावनात्मक कहानियां आगे भी गढ़ता रहा, तो भी डेमोक्रिटिस के लेखन से आने वाले विचारकों को एक नई दिशा मिली. लोगों को लगा कि विश्वसमाज और उसकी उत्पत्ति की तह में जाने का एक तरीका यह भी हो सकता है, जो दूसरे की अपेक्षा कहीं अधिक वस्तुनिष्ठ और तर्कसम्मत है. इससे आगे चलकर विज्ञान के विकास को नई दिशा मिली. देखा जाए तो वह समय दुनिया की सभी बड़ी सभ्यताओं भारत, यूनान, मिश्र, चीन में वैचारिक क्रांति के उद्घोष का था, जिसमें महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, सुकरात, कन्फ्यूशियस, अजित केशकंबलि आदि का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्होंने अपने मौलिक चिंतन से प्रचलित धर्मदर्शन की जड़ता और उसके पोंगापंथी सोच पर तीखा प्रहार किया.

लगभग यही वह दौर था जब व्यवस्थित राजनीतिक दर्शन पर विचार किया गया, जो धार्मिक आग्रहों से पूरी तरह स्वतंत्र था. यह नया चिंतन विज्ञानवादी सोच के साथसाथ उभर रहा था. राज्य की उत्तरोत्तर बढ़ती महत्ता को पहचानकर डेमोक्रिटिस ने ही सपना देखा था कि कोई तो होगा जो राज्य के मामलों को दूसरे सभी मामलों पर तजरीह देगा. कुछ इस तरह कि सबकुछ संतुलितसा लगे. जो न तो वास्तविकता से बहुत परे, विवादपूर्ण हो, न ही किसी सार्वजनिक शुभ से इतर विषयों पर जोर देता हो. उसकी निगाह में राज्य का प्रबंधन किसी भी अन्य कार्य से अधिक महत्त्वपूर्ण और श्लाघनीय कर्म था. उसके अनुसार ऐसे राज्य के लिए जिसको सही ढंग से व्यवहृत किया जा रहा हैµ

विकास का सर्वोत्तम रास्ता है कि सबकुछ इसी(राज्य)पर निर्भर हो. यदि राज्य की सुरक्षा हुई तो बाकी सब सुरक्षित रहेगा; और यदि राज्य को नष्ट किया गया तो शेष सभी नष्ट हो जाएगा.’

डेमोक्रिटिस का यही सोच आगे चलकर प्लेटो, अरस्तु आदि के राजनीतिक चिंतन की प्रेरणा बना. पश्चिमी समाज में सुकरात की स्थिति एक धार्मिक आचार्य के तुल्य है.उसने हालांकि स्वयं कुछ नहीं लिखा था, लेकिन एक मसीहा की भांति उसका गहरा प्रभाव पूरे यूरोपीय चिंतन पर बना हुआ है. सुकरात के बारे में दुनिया जो भी जानती है, वह प्लेटो सहित सुकरात के अन्य शिष्यों, समकालीनों के माध्यम से ही. तो भी यह सुकरात के सोच का अनूठापन ही था कि उसको प्लेटो जैसे विचारकों ने अपना गुरु माना. धर्मदर्शन के क्षेत्र में जिस आदर्शवाद का पक्ष सुकरात लेता था, प्लेटो ने उसी के माध्यम से अपने राजनीतिक दर्शन की परिकल्पना की. यही कारण है कि प्लेटो का राजनीतिक दर्शन धार्मिक टच लिए हुए है. सुकरात का उल्लेख उसने तेजस्वी विद्वान व्यक्ति के रूप में किया है, जो ‘शुभ’ को पहचानने तथा उसका अनुसरण करने की आवश्यकता पर जोर देता है. वह ईश्वर की परंपरागत अवधारणा से भिन्न, यद्यपि उसकी कुछ समानताएं लिए हुए है. प्लेटो एथेंस की राजनीतिक उथलपुथल का साक्षी रहा था. सुकरात से करीब 40 वर्ष छोटे प्लेटो ने एथेंस और स्पार्टा के बीच तीस वर्ष तक चलने वाले युद्ध को अपनी आंखों से देखा था. वह 429 ईस्वी पूर्व की एथेंस की प्लेग का भी साक्षी रहा था, जिसमें उसके महान योद्धा और राजनीतिज्ञ पेरीक्लीस समेत अनेक बहादुर सैनिकों को जान गंवानी पड़ी थी. 401 ईस्वी पूर्व में एथेंस की हार के बाद वहां के सम्राट को अपदस्थ कर विजयी स्पार्टा ने वहां तीस सदस्यीय संसद की स्थापना की थी. उसके बाद कुछ समय तक सबकुछ ठीकठाक चलता रहा, मगर उसके बाद एथेंस में भ्रष्टाचार और तानाशाही का बोलबाला हो गया. इस तरह प्लेटो ने राजशाही और कुलीनतंत्र दोनों का अनुभव था. गणतंत्र के नाम पर गठित परिषद के सदस्य निजी अहं के शिकार होकर मनमानी करने लगे. परिषद कुलीनतंत्र की हठधर्मी का माध्यम बन चुकी है. इन दोनों राजनीतिक प्रणालियों से निराश प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में दार्शनिक सम्राट की अनिवार्यता पर जोर दिया था. वह स्वयं एक अभिजात परिवार से था, एथेंस के सम्राट से उसका संबंध था, इस कारण वह स्वयं को एथेंस की राजनीति का उत्तराधिकारी भी मानता था. उसको सक्रिय राजनीति में योगदान देने का अवसर तो कभी न मिल सका, तो भी राजनीति उसके दिलोदिमाग पर सदैव हावी रही. ‘रिपब्लिक’ में जिस आदर्शलोक का सपना वह देखता है और उसके लिए जिस राजनीतिक दर्शन की परिकल्पना करता है, वह सक्रिय राजनीति में हिस्सा न ले पाने से उत्पन्न कुंठा की उपज था.

प्लेटो को लगता था कि राजनीतिक पदों पर जिम्मेदारी का निर्वहन चुनौतीभरा काम होता है. महत्त्वपूर्ण कर्तव्यों के निष्पादन के लिए उपयुक्त व्यक्ति पर्याप्त संख्या में सर्वदा उपलब्ध हों, यह संभव भी नहीं होता. इसलिए किसी भी राज्य के सामने, जो नागरिक हितों को सर्वोपरि समझता है, बड़ी समस्या ईमानदार, दूरदृष्टा, साहसी और नीतिवान राजनीतिज्ञों के चयन की होती है. प्लेटो को विश्वास था कि शिक्षा के माध्यम से अच्छे राजनीतिज्ञ तैयार किए जा सकते हैं. उसने द्वारा ‘अकादमी’ की स्थापना इसी उद्देश्य के निमित्त की गई थी. पलभर के लिए एकदम हाल के युग में लौटकर याद करने की कोशिश करें. कुशलनीतिवान राजनीतिज्ञों की उपलब्धता की समस्या को लेकर ब्रिटिश की तत्कालीन प्रधानमंत्री मारर्गेट थैचर ने भी अपने एक बयान में कहा था कि उन्हें राजकर्म के कुशल संपादन के लिए केवल छह व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो निपुण एवं नीतिवान हों. पर ऐसे लोग इतनी संख्या में कभी एक साथ नहीं मिल पाते. यही समस्या प्लेटो के सामने भी थी. इसलिए उसने शिक्षा के माध्यम से भावी राजनीतिज्ञों की पीढ़ी तैयार करने पर जोर दिया था. ‘रिपब्लिक’ की रचना में प्लेटो के गुरु सुकरात के अलावा उसके और भी कई समकालीन एवं पूर्ववत्र्ती दार्शनिकों का योगदान था. उनमें पाइथागोरेस के अनुयायी, पेरामेनीडिस, डेमोक्रिटिस, हेराक्लाटस आदि प्रमुख थे. इनमें से प्लेटो पर सर्वाधिक प्रभाव, ईसा से पांच शताब्दी पहले जन्मे यूनानी दार्शनिक पेरामेनीडिस का पड़ा था. उसका मानना था कि ‘सत्य को अनतिंम तथा अपरिवर्तनीय होना चाहिए.’ पेरामेनीडिस शब्दों की ताकत पर भरोसा करता था. उसका विचार था कि यदि भाषा में अभिव्यक्तिसामथ्र्य है तो उसके द्वारा हम जिस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, यानी लगातार विमर्श के माध्यम से जो ज्ञान हमें प्राप्त होता है, वह भी सच होना चाहिए. पेरामेनीडिस के दर्शन का स्रोत ‘दि नेचर’ शीर्षक से लिखी गई एक कविता है. कहा जाता है कि उस कविता में लगभग 3000 पद थे. उनमें से अधिकांश पद अब गायब हो चुके हैं. मूल भी कविता अनुपलब्ध है. उसका सिर्फ संदर्भ प्राप्त होता है. अपनी कविता में पेरामनीडिस ने कहा था कि आप उस वस्तु के बारे में नहीं जान सकते जिसका कोई अस्तित्व ही न हो. इसका अभिप्राय है कि मनुष्य का ज्ञान केवल अस्तित्वमान प्रत्ययों की व्याख्याविश्लेषण तक संभव है. इस आधार पर पेरामेनीडिस को पहला तत्वविज्ञानी भी कहा जा सकता है, जो कालांतर में भौतिकवादी दर्शन की प्रेरणा बना.

पेरामेनीडिस के अलावा प्लेटो पर सर्वाधिक प्रभाव उससे कुछ ही वर्ष पहले जन्मे हेराक्लाट्स का पड़ा था. यूनानी दर्शन के पितामह थेल्स से प्रभावित हेराक्लाट्स जल को ही सृष्टि का मूलाधार मानता था. उसका मानना था कि सबकुछ गतिमान है. दो व्यक्ति यदि आगे पीछे जा रहे हैं तो पीछे मौजूद व्यक्ति कभी पहले को नहीं पकड़ पाएगा. इसलिए कि उनकी यात्रा का भौतिक जगत के अलावा एक आयाम और भी हैवह है समय, जो सदैव गतिमान रहता है. जिस समय पीछे चल रहा व्यक्ति आगे वाले के बराबर पहुंचेगा, उस समय तक आगे वाला व्यक्ति समय के प्रवाह में कुछ और आगे निकल चुका होगा. हेराक्लाइटस की प्रसिद्ध उक्ति हैµ‘सबकुछ प्रवाहमान है.’ किवदंति है कि उसने यह नदी में खड़े होकर, उसके प्रवाह को देखते हुए कहा था. हेराक्लाइट्स के अनुसार

यह विश्व, जो सभी के लिए एक समान है, इसमें जो कुछ है सभी सनातन हैवह न तो ईश्वरनिर्मित है, न ही मानवनिर्मित. जो कुछ आज है वह अखंड ज्योति के समान, परिवर्तनशीलता के बीच, हमेशाहमेशा के लिए रहने वाला है.’

हेराक्लाइट्स के चिंतन में भौतिकवादी विचारधारा के बीजतत्व मौजूद हैं, जिन्होंने प्लेटो, अरस्तु समेत आने वाली पीढ़ी के अनेक दार्शनिकों को प्रभावित किया था. उसके बारे में यह बात भी चैंका सकती है कि वह युद्ध का समर्थक था. यहां तक कि न्याय की स्थापना के लिए भी वह युद्ध को अनिवार्य मानता था. युद्ध का जैसा दुराग्रही समर्थन हेराक्लाइट्स ने किया, वैसा शायद ही किसी और विचारक ने किया हो

युद्ध आमखास, राजाओं तथा राजाओं के राजा का जनक है. युद्ध ने ही कुछ को भगवान, कुछ को इंसान, कुछ को दास, कुछ को स्वामी बनाया है. हमें मालूम होना चाहिए कि युद्ध से हम सभी का नाता है. विरोध न्याय का जन्मदाता है, प्रत्येक वस्तु संघर्ष से ही जन्मती तथा उसी से अंत को प्राप्त होती है.

हेराक्लाइट्स तथा पारमेनीडिस की विचारधारा के प्रभाव में कालांतर में जिस विचारधारा ने यूनानी बुद्धिजीवियों का दिल जीता, उसके अनुसार ठोस और दृश्यमान जगत को अस्थायी एवं क्षणभंगुर माना गया है. इस विचारधारा के अनुसार दृश्यमान जगत स्वयं में अवास्तविक और मायावी है, जैसा कि आगे चलकर भारतीय वेदांतियों की मान्यता रही.यह विचारधारा लोगों में यह विश्वास जगाने में कामयाब हुई कि मनुष्य का ज्ञान स्वतः प्रामाण्य है. चेतना जगत वास्तविक है. ज्ञान के रूप में यह जो ग्रहण करता है, जिन निष्कर्षों की सृष्टि करता है, वे चिरंतन एवं कालातीत होते हैं. प्लेटो ने इसी विचारधारा का उपयोग अपने राजनीतिक दर्शन के लिए किया था. लंबे विमर्श के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि आदर्श राज्य की स्थापना केवल समर्थन, सहयोग और परिवर्तनशील बने रहने से संभव नहीं है. इसे दृढ़, स्थायी, अपरिवर्तनीय राजनीतिक तंत्र के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है, जो सामाजिक परिवर्तनों को निरंतर नियंत्रितनिर्देशित करने में सक्षम हो. उस समय तक राजनीति के इतने व्यवस्थित उपयोग के बारे में किसी ने नहीं सोचा था. अतः राजनीतिक दर्शन के लिहाज से यह एक अद्भुत और विकासगामी सोच था. इस विचार को नए आयाम देते हुए प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ की रचना की और एक आदर्श समाज का खाका तैयार किया. इस कार्य के पीछे उसके कविहृदय का भी उतना ही योगदान था, जितना कि दार्शनिक मस्तिष्क का. इसलिए अपने आदर्शराज्य में उसने कानून के हस्तक्षेप को न्यूनतम रखते हुए आत्मानुशासन पर ज्यादा जोर दिया है. इस ग्रंथ को कुछ विद्वान प्लेटो की कुंठा की उपज भी मानते हैं, जो एथेंस की राजनीति में सक्रिय भूमिका न निभा पाने के कारण जनमी थी. प्लेटो स्वयं दार्शनिक था. सुकरात, डेमोक्रिटिस, हेराक्लाइट्स, पेरामेनीडिस समेत पाइथागोरस के अन्य अनुयायी आदि जिनसे वह प्रभावित था, वे सब भी दार्शनिक थे. ‘रिपब्लिक’ को राजनीति के विभिन्न स्वरूपों का अनुभव था. उसने एथेंस में गणतंत्रीय शासन को कुलीनतंत्र की मनमानी में ढलते हुए देखा था. सायराकस के सम्राट डायोनिसियस प्रथम और द्वितीय की तानाशाही भी देखी थी. डायोनिसियस प्रथम अपने राज्य में विद्वानों और दार्शनिकों को रखता था. लेकिन उसकी मनमानी, सनकों और महत्त्वाकांक्षाओं पर रोक लगाने में वे सभी अक्षम थे. इस कारण राजशाही से भी उसका विश्वास उठ चुका था. इसलिए राज्य के मुखिया के रूप में वह ऐसे शासकों की कल्पना करता था, जो दूरदर्शी, वीर, साहसी, दृढ़निश्चयी, बुद्धिमान और किसी भी प्रकार से प्रलोभन से मुक्त हों. उसके अनुसार ये गुण किसी दार्शनिक में ही संभव हैं. इसलिए उसने राज्य की बागडोर किसी दार्शनिक के हाथों में सौंपने की कल्पना की थी. ‘रिपब्लिक’ में उसकी यही परिकल्पना विस्तार लेती दिखाई पड़ती है. ध्यातव्य है कि ‘रिपब्लिक’ उसके प्रौढ जीवन की रचना है, हालांकि उसका लेखन वर्षों तक चलता रहा. कुछ खंड उसने अपने उत्तरवर्ती जीवन में पूरे किए थे. जब उसको लगने लगा था कि ‘रिपब्लिक’ के सपने को यथार्थ में साकार कर पाना सहज नहीं है. तो भी उसका ‘शुभ’ की अनिवार्यता और आदर्शों से मोह भंग नहीं हुआ था. अतएव अपने अंतिम दिनों की कृति ‘लाॅज’ में वह उन व्यवस्थाओं की परिकल्पना करता है, जिनके द्वारा उस सपने को साकार किया जा सकता है. ‘रिपब्लिक’ की मुख्य स्थापना थी कि राज्य का मुखिया किसी दार्शनिक को होना चाहिए. वही चुनौतीपूर्ण स्थितियों में दृढ़ निश्चय लेकर राज्य का कल्याण कर सकता है. दार्शनिक सम्राट का प्रयोग प्लेटो से पहले भी यूनान के नगरराज्यों में हो चुका था. बल्कि किसी नगरराज्य के विकास के लिए आचारसंहिता तैयार करने का काम प्रायः दार्शनिकविचारक ही करते आए थे. परंतु माक्र्स की भांति प्लेटो भी दुनिया को समझने नहीं, बदलने में विश्वास करता था. यही कारण है कि वह सहस्राब्दियों से दार्शनिक विचारकों को प्रभावित करने में सक्षम रहा है.

राजनीतिक दर्शन को समर्पित प्लेटो की महान रचना ‘रिपब्लिक’ न तो किसी विशिष्ट राजनीतिक दर्शन की स्थापना करती है, न ही किसी खास राजनीतिक विचारधारा का पक्ष लेती है. उसकी स्थापनाएं यूनान के किसी भी नगरराज्य के बारे में सच हो सकती थीं. इसलिए कि वह किसी विशेष राजनीतिक प्रणाली पर जोर देने के बजाय समाज में आदर्शों की स्थापना पर जोर देता था. चूंकि आदर्श की स्थापना परोक्षतः न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना ही है, इसलिए इस ग्रंथ में वह न्याय को विभिन्न कोणों से परिभाषित करने का प्रयास करता है. न्याय की उसकी अवधारणा भी तत्संबंधी आधुनिक विचारधाराओं से भिन्न है. ‘जस्टिस’ के माध्यम से एक भयमुक्त, अपराधमुक्त, न्यायाधारित समाज की स्थापना का पक्ष लेने के बजाय वह नागरिकों में कर्तव्यबोध पैदा करने पर ज्यादा जोर देता है. उसकी निगाह में न्याय का अभिप्राय व्यक्ति और समाज के आचरण की स्वयंस्फूर्त पवित्रता से है. ‘न्याय’ हालांकि अपने आप में एक जटिल अवधारणा है. इसका संबंध व्यक्ति मात्र के सदाचरण तथा समाज में अनुशासन बनाए रखने से होता है. ‘रिपब्लिक’ के पहले खंड में प्लेटो ने सुकरात को अपने साथियों के साथ ‘न्याय’ की अवधारणा पर विस्तार से चर्चा करते हुए दर्शाया है. उस चर्चा के माध्यम से ‘न्याय’ की चार परिभाषाएं हमें प्राप्त होती हैं. मगर उनमें से एक भी परिभाषा ऐसी नहीं है, जिसे सर्वमान्य सर्वकालिक सत्य माना जा सके. स्वयं प्लेटो के अनुसार न्याय व्यक्तिसापेक्ष, स्थितिसापेक्ष होता है. अतः उसकी उपयोगिता विशिष्ट संदर्भों तक सीमित होती है. चर्चा के भागीदारों में से एक केफलस के अनुसार न्याय का आशय, ‘सच बोलना तथा दूसरों से लिए उधार को समय पर लौटाना है.’ यह अवधारणा व्यक्ति की सत्यनिष्ठा तथा सामाजिक परंपरा, जो आपसी व्यवहार को बनाए रखने के लिए अत्यावश्यक है, पर जोर देती है. पर न्याय क्या सिर्फ सच बोलने और समय पर उधार चुकाने तक सीमित है? उससे परे कुछ नहीं? सुकरात प्रतिवाद करता है‘यह सही है कि न्याय शुभ का प्रतीक है. व्यक्ति ने किसी से उधार लिया है तो उसे समय पर चुकाना उसका दायित्व है. किंतु यह प्रत्येक अवस्था में उतना ही सम्मानेय हो, जरूरी नहीं है. वह तर्क देता है

मान लीजिए मेरा एक दोस्त अपनी अच्छी मनःस्थिति में अपना कोई हथियार मेरे पास सुरक्षित रख देता है. उस हथियार को वह उस समय मांगने आता है, जब वह संतुलित मनःस्थिति में नहीं है. तो क्या मुझे उसके हथियार को तत्क्षण वापस कर देना चाहिए? कोई इस बात से सहमत नहीं होगा कि ऐसी स्थिति में जब मेरे प्रिय मित्र का मानसिक संतुलन डांवाडोल है, मुझे उसके हथियार को लौटा देना चाहिए. स्पष्ट है कि दोस्त को उसी समय हथियार न लौटाने के लिए मुझे कोई बहाना भी बनाना पड़ सकता है. यानी ऐसी अवस्था में न केवल उधार चुकाना अनैतिक हो सकता है, बल्कि सच बोल पाना भी संभव नहीं है.’

इससे सुकरात और उसके साथी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सिर्फ समय पर उधार चुकाने को न्याय का पर्याय नहीं माना जा सकता. दूसरे शब्दों में समय पर उधार चुकाना न्याय का द्योतक तो हो सकता है, लेकिन न्याय की सर्वांगता का प्रतीक वह हरगिज नहीं बन सकता. केफलस का बेटा पोलीमार्क्स चर्चा को विस्तार देते हुए न्याय को नए ढंग से परिभाषित करने का प्रयास करता है. उसके अनुसार

न्याय का आशय मित्रों के साथ सहृयतापूर्ण तथा दुश्मनों के प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार करना है.’

परंतु मित्रों के चयन में भी व्यक्ति का स्वार्थभाव झलकता है. इसलिए वह उन्हीं लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करेगा, जो उसकी स्वार्थसिद्धि के काम आते हैं या आने वाले हैं. इस तरह तो पूरा समाज ही स्वार्थभावना से संचालित होगा. फिर व्यक्ति का स्वार्थ भी हमेशा एक जैसा नहीं रहता. कोई वस्तु एक समय में उसके लिए सुखकारी हो सकती है तथा अगले ही क्षण दुखदायी. ऐसा हो तो, सुकरात तर्क देता है‘न्याय अन्याय को बढ़ावा दे सकता है. पोलीमार्क्स सुकरात के तर्क से सहमत है कि न्याय जो सर्वत्रसार्वकालिक शुभ की कामना करता है, वह किसी के लिए हानिकारक हो ही नहीं सकता. सुकरात साइमनडिस के इस तर्क से सहमति जताता है कि, ‘न्याय प्रत्येक व्यक्ति को वह सबकुछ देता है, तो उसके लिए लाभकारी है.’

रिपब्लिक’ के पहले खंड में ‘न्याय’ की अवधारणा को लेकर सभी अपनेअपने तर्क प्रस्तुत करते हैं. वहां न्याय को लेकर सबसे चैंकाने वाली परिभाषा थ्रमाइचस की ओर से आती है. वह जोर देकर कहता था कि, ‘न्याय बलशाली के हित के सिवाय और कुछ नहीं है.’ सुकरात को यह भी मंजूर नहीं. वह तर्क करता है

हमारे बीच पोलीडमस मौजूद है, हम सब जानते हैं कि यह पहलवान है. यह हम सबसे अधिक बलशाली है. अपने शरीर की ताकत को बनाए रखने के लिए यह मांस का नियमित सेवन करता है. तो क्या यह समझना चाहिए कि मांस का सेवन करना हम सभी के लिए, जो शारीरिक रूप से बहुत दुर्बल हैं, उतना ही स्वास्थ्यकारी है, जितना वह पोलीडमस के लिए है? क्या यह हमारे लिए भी उतना ही पोषक सिद्ध होगा, जितना इसके लिए?’

सुकरात की आपत्ति पर थ्रमाइचस अपने तर्क के समर्थन में प्रजातांत्रिक, कुलीनतंत्र और तानाशाही सरकारों का उदाहरण देता हुआ कहता है कि सरकार के ये सभी रूप आम हैं‘विभिन्न प्रकार की सरकारें यथा लोकतांत्रिक, कुलीनतंत्र और तानाशाही अपनीअपनी विचारधारा को ध्यान में रखकर कानून बनाती हैं, जिन्हें वे सिर्फ अपने हितों को ध्यान में रखकर विरचित करती हंै. ऐसे कानून भला उस जनता के लिए कैसे न्यायकारी हो सकते हैं, जिसपर उन्हें शासन करना है? यदि कोई व्यक्ति उन कानूनों का अतिक्रमण करेगा, विरोध का साहस दिखाएगा तो वे उसको कानून का द्रोही मानकर दंडित करेंगे. यही वह बात है जो मैं समझाना चाहता हूं कि सभी राज्यों के न्याय के अपने सिद्धांत और व्याख्याएं होती हैं, जिनका झुकाव सरकार के हितों की ओर होता है, जो स्वाभाविक रूप से राज्य में सर्वाधिक शक्तिशाली होती है. इसलिए मेरी यह बात सच है कि न्याय हमेशा शक्तिशाली का हित देखता है.’

सुकरात विनम्रतापूर्वक थ्रमाइचस के इस तर्क को नकार देता है. वह अपने प्रतिवादी को समझाता है कि डा॓क्टर की दवा स्वयं डा॓क्टर के लिए नहीं, बल्कि मरीज के लिए हितकारी होती है. सारथी का हुनर उसके किसी काम का नहीं होता, वह अपेक्षाकृत सवार के लिए हितकारी होता है. इसलिए राज्य जो कानून बनाता है, वे भी उसके लिए तथा उसकी जनता के लिए समानरूप से हितकारी होने चाहिए. इसलिए ‘न्याय शक्तिशाली के लिए हितकारी होता हैइस परिभाषा में दोष है.

रिपब्लिक’ में आगे भी न्याय की अवधारणा पर चर्चा होती है, परंतु किसी एक परिभाषा पर सहमति नहीं बन पाती, सिवाय इस मान्यता के कि न्याय को सर्वत्रसार्वकालिक शुभ होना चाहिए. परंतु थ्रमाइचस के तर्कों से एक बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि सरकार चाहे जिस तरह की हो, वह सिर्फ अपना स्वार्थ देखती है. लोकतांत्रिक सरकारें ऐसे नियम बनाती हैं, जो लोकतंत्र को पुष्ट करने वाले हों. राजशाही ऐसे कानून बनाने पर जोर देती है, जिनके द्वारा उसकी आने वाली पीढ़ियों के लिए सत्ता सुरक्षित रहे. पूंजीवादी सरकारें उन कानूनों को अपनाती हैं, जिससे समाज में उपभोक्तावाद पनपे, जो अंततः व्यापारियों के लिए खुलकर लाभ कमाने का अवसर प्रदान करता है. उन सभी के लिए न्याय वही है, जो उनके अपने हितों के फलनेफूलने का अवसर देता है. परंतु सरकार चाहे जिस प्रकार हो, वह कानून भले अपने हितों को केंद्र में रखकर बनाए, मगर उसका दावा यही होता है कि वे पूरे राज्य के हितों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं. उनमें जनता के हितों का पूरा ध्यान रखा गया है. अतः राज्य के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह उन कानूनों का पालन करे. उल्लंघन करने वाले को दंडित करने का प्रावधान भी उन कानूनों में होता है. चूंकि सत्ता ताकत का प्रतीक होती है, इसलिए उसके द्वारा बनाए गए कानून प्रायः ताकतवर का ही समर्थन करते हैं. अतएव वे समाज के दुर्बल वर्गों के लिए हानिकर होते हैं. न्याय को लेकर लंबी परिचर्चा एवं वादप्रतिवाद के बावजूद हम पाते हैं कि ‘रिपब्लिक’ का पहला खंड अनिर्णय की स्थिति में समाप्त हो जाता है. थ्रमाइचस यह कहकर रोषपूर्ण तरीके से चर्चा से बाहर हो जाता इस बहस से किसी परिणाम तक पहुंचना असंभव है.

चर्चा का सूत्रधार और प्रमुख वार्ताकार सुकरात समस्या पर अगले दिन नए सिरे से विचार करने का निश्चय कर घर की राह लेता है. न्याय की सर्वमान्य परिभाषा की खोज की ओर बढ़ रहा पाठक अचानक निराशा से भर जाता है. लगता है कि पुस्तक के माध्यम से प्लेटो का लक्ष्य ‘न्याय’ को परिभाषित करना था ही नहीं. वास्तव में वह विभिन्न प्रकार की राजनीतिक प्रणालियों को अपनी समीक्षा के दायरे मे लाना चाहता था. उसका ध्येय यह दर्शाना था कि शीर्षस्थ शक्तियों के लिए केवल अपने हित सर्वोपरि होते हैं. यह कार्य वे व्यापक लोकहित का नाम लेते हुए करती हैं. इससे नुकसान उन्हें उठाना पड़ता है जो शक्तिहीन और विपन्न हैं. बहस के दौरान सुकरात न्याय को सार्वकालिकसर्वहितकारी बताकर उसको नैतिक उठान तो देता है, परंतु वह यह संकेत भी करता है कि शासन की प्रचलित प्रणालियों में से कोई भी ‘न्याय’ की स्थापना करने में समर्थ नहीं है. यानी सत्ता के नैतिक स्वरूप की खोज ‘रिपब्लिक’ का उद्देश्य है, मगर अंत तक वह लक्ष्य ही बना रहता है. इससे एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि सत्ताकेंद्र पर विराजमान व्यक्तियों के हितों में कोई तालमेल नहीं होता है. वे सिर्फ अपने स्वार्थ पर एकमत होते हैं. इसलिए सदैव यही प्रयास करते हैं कि अपनी सत्ता को अक्षुण्ण रखते हुए अपने हितों को कैसे साधा जाए? और किस प्रकार उन्हें प्रकार जल्दी से जल्दी तथा अधिकतम सीमा तक पूरा किया जा सकता है?

पुस्तक का अगला खंड छोड़ी गई चर्चा को नए पात्रों के साथ विस्तार देता है. सुकरात के माध्यम से प्लेटो न्याय की पुरानी अवधारणा को पुनः दोहराता है, जिसके अनुसार न्याय का उद्देश्य सार्वकालिकसार्वत्रिक शुभ और सर्वश्रेष्ठ न्यायिकराजनीतिक शासन की स्थापना करना है. तुलनात्मक रूप से न्याय को वह दो प्रकार से देखता है. उसका पहला चेहरा वह है जो राज्य की कार्यप्रणाली के जरिए सामने आता है. जिसके द्वारा निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए कोई राज्य अपने कर्तव्यों के निष्पादन के बहाने, विभिन्न संस्थाओं का गठन तथा उनका नियमिन करता है. न्याय का दूसरा चेहरा वह है जो उसके नागरिकों के आचरण में दिखाई पड़ता है.

प्लेटो की मान्यता थी कि व्यक्ति की अपेक्षा बड़े तंत्र, जैसे राज्य के व्यवहार में न्याय की पहचान अपेक्षाकृत आसानी से की जा सकती है. लेकिन यदि प्रत्येक नागरिक न्याय की ओर से उदासीन हो जाए तो राज्य के न्याय का कोई अर्थ नहीं रह जाता. ऐसे में उसे मनमानी करने का अवसर मिल जाता है. इसलिए व्यक्तिमात्र का कर्तव्य है कि वह समाज को उस रूप में व्यवस्थित करने के बारे में सोचे जिस, प्रकार वह स्वयं को व्यवस्थित करना चाहता है. किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश न रहे. वह स्पष्ट कर देना चाहता है कि मनुष्य न्याय को एक गुण के रूप में देखना चाहता है जो व्यक्ति के व्यवहार में भी उसी प्रकार मौजूद हो, जैसे कि वह समाज में है. जबकि समाज सदैव दो से बड़ा होता है. इसलिए वहां न्याय की मौजूदगी उसी अनुपात में अधिक होनी चाहिए. प्लेटो का यह तर्क बड़ा ही अजीब है. तो भी इस बात में कोई संदेह नहीं कि वह राजनीतिक सत्ता को अधिक न्यायोन्मुखी, उदार, कर्तव्यपरायण और दायित्वभावना से युक्त देखना चाहता था. उसका राजनीतिकदर्शन ही इस सिद्धांत पर टिका है कि अपने समाज और राज्य के लिए ‘मैं क्या कर सकता हूं?’ उसके प्रति मेरा ‘कर्तव्य और जिम्मेदारियां क्या हों?’

वस्तुतः इसे कर्तव्यबोध कहें अथवा नागरिकबोध, प्लेटो के मन में वह यूनानवासियों, विशेषकर वहां के अभिजात्यवर्ग के चारित्रिक पतन की प्रतिक्रियास्वरूप उपजा था. परोक्ष रूप में समाज को बेहतर बनाने की चिंता ही ‘रिपब्लिक’ का प्रतिपाद्य विषय है, जो कभी ‘न्याय’ की अवधारणा और कभी ‘आदर्श राज्य’ की परिकल्पना के रूप में सामने आती है. उसकी निगाह में आदर्श राज्य की स्थापना उस समय तक असंभव है, जब तक वहां के नागरिक और शीर्षस्थ वर्ग के लोग ‘शुभत्व’ से भलीभांति परिचित न हों. ‘शुभत्व’ की संकल्पना सुकरात की देन थी, जिसको पाने की लालसा प्लेटो के पूरे साहित्य की कसौटी है.

प्लेटो को पढ़ते हुए मार्क्स की याद आना स्वाभाविक है. दोनों ही भौतिकवादी थे. दोनों का ही मानना था कि कोई मनुष्य अपने आप में पूर्ण नहीं है. मानवमात्र की यही अपूर्णता समाज की आवश्यकता की जननी है. लेकिन एक सीमा के बाद मनुष्य और समाज के रिश्ते जटिल होने लगते हैं. उन्हें नियंत्रित करना अकेले समाज के लिए संभव नहीं होता. ऐसे में राज्य की अहमियत बढ़ जाती है. मनुष्य की अनेक आवश्यकताएं होती हैं. उनमें भोजन, वस्त्र, आवास आदि ऐसी आवश्यकताएं हैं, जिन्हें उसकी मूलभूत आवश्यकताएं माना जाता है. इनके बगैर जीवन असंभव है. कुछ आवश्यकताएं विकास की देन होती हैंजैसे सड़क, औजार, मशीनें, बिजली के उपकरण, यातायात के साधन इत्यादि.

प्रत्येक मनुष्य कामना करता है कि उसके जीवन में दूसरों का हस्तक्षेप न हो. सुरक्षा का पक्का भरोसा हो. यह काम मनुष्य आपस में एकदूसरे के साथ सहयोग करते हुए भी कर सकता है. अक्सर करता भी है. सहकारिता आंदोलन इसी का सुपरिणाम है, जहां राज्य के हस्तक्षेप अथवा उसकी नीतियों से स्वतंत्र रहकर भी व्यक्तिसमूह अपना विकास कर सकते हैं. परंतु सहकार के लिए जैसे विवेक और समूह के हित में अपने हितों के किंचित त्याग और सामान्यीकरण की आवश्यकता पड़ती है, वह हर समाज और हर समूह में संभव नहीं हो पाता. व्यक्ति के भीतर मौजूद स्वार्थलोलुपताएं सहकारी प्रयासों के लिए घातक होती हैं. व्यक्ति की स्वार्थलोलुपता दूसरों के लिए घातक सिद्ध न हो, इसके लिए राज्य की आवश्यकता पड़ती है. लेकिन मनमानी करना तो राज्य में भी संभव नहीं होता. वहां भी व्यक्ति को दूसरे के हितों का ध्यान रखकर चलना पड़ता है. हितों के सामान्यीकरण की प्रक्रिया ही व्यक्ति को परस्पर करीब लाने का काम करती है. यही उनको एक स्थान पर टिककर रहने और समाज की स्थापना करने के लिए प्रेरित करती और अंततः राज्य की आवश्यकता को जन्म देती है.

क्रमशः

© ओमप्रकाश कश्यप

ट्रस्टीशिप की सैद्धांतिकी तथा गांधीवाद के अंतर्विरोध

जरूरी नहीं कि गांधी और गांधीवाद पर चर्चा करते समय समाजवाद को बीच में लाया जाए. गांधीजी ने कभी कहा भी नहीं कि वे समाजवाद का समर्थन करते हैं. लेकिन देश में जब भी पूंजीवाद के विकल्प की बात होती है, गांधीवाद का जिक्र स्वाभाविक रूप से होने लगता है. बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में गांधी जब ‘हिंद स्वराज’ के माध्यम से साम्राज्यवाद तथा अनियोजित औद्योगिकीकरण से उत्पन्न समस्याओं जैसे आर्थिक असमानता, गरीबी, औपनिवेशिक शोषण आदि के समाधान हेतु अपना दर्शन गढ़ रहे थे, विश्वभर में पूंजीवाद के विकल्प के रूप में समाजवाद की ही चर्चा थी. हालांकि उसके स्वरूप को लेकर विद्वानों में विचारवैविध्य इतना अधिक था कि लगता जैसे हर कोई समाजवाद की स्वतंत्र परिभाषा गढ़ना चाहता है. उस समय पूंजीवाद के विकल्प के रूप में गांधीजी ने ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार सामने रखा था. ट्रस्टीशिप तथा समाजवाद दोनों का उद्देश्य चूंकि पूंजीवादजनित समस्याओं का निदान करना है, अतएव प्रथम द्रष्टया दोनों निकटवर्ती विचारधाराएं जान पड़ती हैं.

ट्रस्टीशिप प्रेरणा उन्हें ईश्वास्योपनिषद से मिली थी. इस उपनिषद के पहले ही श्लोक में कहा गया है

ईश्वर इस सृष्टि के कणकण में व्याप्त है. जड़चेतन, राई से लेकर पहाड़ तक सब उसी का विस्तार है. सभी ईश्वरस्वरूप है. इसलिए मनुष्य को चाहिए कि इस सृष्टि का भोग निष्काम भाव से, परमात्मा का अंश समझते हुए करे. पृथ्वी पर मौजूद धनसंपदा किसी की नहीं है, इसलिए उसका उपयोग निरासक्ति भाव से करना चाहिए.’

गांधीजी पर जा॓न रस्किन का प्रभाव था. जो स्वयं बाइबिल से प्रभावित थे. रस्किन का मानना था कि पूंजीवाद जनित बुराइयों का समाधान ईसाई धर्म की मर्यादाओं में संभव है. अपनी पुस्तक ‘अनटू दिस लास्ट’ में रस्किन ने बाइबिल से एक उद्धरण दिया है. उसमें कहा गया है कि उत्पादन के लाभ पर सभी का समान अधिकार है. उसका भी जो सबसे अंतिम सिरे पर स्थित है. उद्धरण में एक किसान काम पर देर से पहुचने वाले श्रमिक को भी उतनी ही मजदूरी देने की घोषणा करता है, जितनी समय पर पहुंचने वाले को. संदेश है कि दुनिया परमात्मा आशीर्वाद लुटाने के लिए है, न कि व्यापार द्वारा लाभ कमाने के लिए. इस अन्त्योदयी भावना ने गांधीजी को प्रभावित किया था. यही बीजतत्च प्रकारांतर में ट्रस्टीशिप की प्रेरणा बना.

गांधीजी ने ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार पहलेपहल पत्रकारों द्वारा आर्थिक समानता को लेकर किए गए प्रश्न के उत्तर में प्रकट किया था. पृथ्वी पर मौजूद संपूर्ण संपदा पर समस्त मानव समुदाय का अधिकार मानते हुए, वे उसका उतना ही उपयोग करने के पक्ष में थे, जितना सम्मानजनक जीवन, वैसा जीवन जैसा अन्य करोड़ों नागरिक जीते हैं, जीने के लिए आवश्यक हो. बाकी बचा हुआ धन समाज का है, अतएव उसका उपयोग समाजकल्याण के निमित्त ही किया जाना चाहिए—ऐसा उनका मानना था. उन्होंने लिखा था कि यह सिद्धांत वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को समतावादी समाज में बदलने की युक्ति से परचाता है. इसमें पूंजीवाद एवं एकाधिकारवाद के लिए कोई स्थान नहीं है. यह वर्तमान शक्तिशाली वर्ग को स्वयं को बदलने का अवसर उपलब्ध कराता है. यह इस विश्वास पर टिका है कि मानवीय प्रकृति सहयोग और सामंजस्य से भरपूर है. मनुष्य स्वभाव से भला होता है. मात्र अपने स्वार्थ के लिए दूसरे को मुश्किल में डालना उसकी मूल प्रवृत्ति नहीं है. वे चाहते थे कि समाज के शक्तिशाली वर्ग यानी पूंजीपति और सामंतवर्ग अपने से छोटे लोगों के बारे में सोचें. यह मानकर चलें की उनका धनसंपदा परमात्मा की ओर से उन्हें लोककल्याण के निमित्त सौंपी गई है. इसलिए उनका कर्तव्य है कि अपनी संपत्ति को लोकनिधि मानते हुए उसका उपयोग बहुजन के कल्याण के निमित्त करें.

उनका मानना था कि समस्त संपत्ति ईश्वर की है. पूंजीपतियों और जमींदारों को चाहिए कि वे ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को अपनाएं. जमींदार स्वयं को भूमि का संरक्षकमात्रा मानते हुए, जमीन जोतनेबोने का अधिकार किसानों को खुशीखुशी सौंप दें. पूंजीपति अपने कारखानों में कार्यरत मजदूरों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें. मान लें कि उनके पास जो पूंजी और धनसंपदा है, वह समाज की धरोहर है. ‘हरिजन’ में उन्होंने लिखा था कि—

मान लीजिए, मेरे पास व्यापार, उद्योग अथवा अन्य किसी वैधानिक तरीके से अर्जित किया गया पर्याप्त धन जमा हो जाता है, तो मुझे जानना चाहिए कि वह सारा का सारा धन मेरा नहीं है. उसमें से सिर्फ उतना ही धन मेरा है, जो मेरे सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकार के अंतर्गत आता है, उस अवस्था में शेष धन का उपयोग समाज के दूसरे लोग भी करें, इससे बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता. मुझे यह मान लेना चाहिए कि शेष धन पूरे समुदाय का है, अतएव उसका उपयोग सामुदायिक कल्याण के लिए ही किया जाना चाहिए.’

ट्रस्टीशिप का सिद्धांत निजी संपत्ति को उस समय तक मान्यता प्रदान नहीं करता, जब तक कि वह समाज द्वारा मान्य तथा उसके कल्याण के लिए उपयोग न की गई हो. यह संपत्ति के स्वामित्व एवं उपयोग का निषेध नहीं करता, बल्कि उसको दूसरों के साथ बांटने, जरूरतमंदों के साथ मिलबांटकर खाने पर जोर देता है. वह राज्य को निर्देश देता है कि वह पूंजीपतियों को अपने संसाधनों का उपयोग लोककल्याण हेतु करने के लिए प्रोत्साहित करे. समाज में इतनी विषमता न पनपने दें कि एक वर्ग का अपना ही जीवन उसके लिए समस्या बन जाए. राज्यनियोजित ट्रस्टीशिप के अनुसार व्यक्ति विशेष को निजी कामनाओं की पूर्ति के लिए धनसंचय करने तथा उनके उसका निजी उपयोग करने की अनुमति नहीं होती. गांधीजी चाहते थे कि न्यूनतम मजदूरी की दरें आकर्षक हों. आर्थिक समानता के स्तर को बनाए रखने के लिए मनुष्य की अधिकतम आय की सीमा भी निर्धारित हो. न्यूनतम एवं अधिकतम मजदूरी के बीच का अंतर तर्कसम्मत तथा समानता के सिद्धांत को सामने रखकर तय किया जाना चाहिए. इस अंतर की समयसमय पर समीक्षा होती रहनी चाहिए, ताकि समाज के आर्थिक स्तर पर होने वाले विभाजन को रोका जा सके.

ट्रस्टीशिप तथा समाजवाद

ट्रस्टीशिप’ के विचार की एक अतिमहत्त्वपूर्ण शर्त यह भी है कि समाज में उत्पादन आवश्यकताकेंद्रित हो. व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं, जरूरतों अथवा कामनाओं को उत्पादन का आधार हरगिज न बनाया जाए. कुछ ऐसे ही उत्पादन की कामना समाजवाद भी करता है. इसके बावजूद ट्रस्टीशिप को समाजवाद का पूरक अथवा सहायक सिद्धांत मानने में कठिनाई है. इसकी प्रमुख कमजोरी है कि यह न तो पूंजी के केंदीयकरण पर कोई प्रश्न उठाता है, न ही लाभ के औचित्य को समीक्षा के दायरे में लाता है. इसके विपरीत यह बहुजन के विकास को पूंजीपतियों और धनकुबेरों की दया पर छोड़ देता है. समाजवाद में राज्य की समस्त परिसंपत्तियां राज्य के अधीन होती हैं. वहां यह अपेक्षा की जाती है कि सरकार उन परिसंपत्तियों, संसाधनों का उपयोग व्यापक लोकहित में, इस प्रकार करेगी कि उसका लाभ समाज के साधारण से साधारणतम जन तक आसानी से पहुंच सके. सरकार की उत्तरदेयता को बनाए रखने के लिए वहां लोकप्रतिनिधित्व पर जोर दिया जाता है. समाजवाद में कानून बनाकर राज्य की संपदा का अधिग्रहण कर लिया जाता है. जहां कानून द्वारा अधिग्रहण संभव न हो, वहां बलप्रयोग की अनुमति भी समाजवाद देता है. उदाहरण के लिए रूस में जार से बलपूर्वक सत्ता वापस छीन ली थी. इसी तरह चीन में माओत्सेतुंग के नेतृत्व में किसानों ने सशस्त्र आंदोलन द्वारा राजशाही को सत्ता से बेदखल किया गया था. ये दोनों घटनाएं समाजवादी क्रांति के रूप में इतिहास में सुरक्षित हैं. दूसरी ओर भारत जैसे भी कुछ देश हैं, जिन्होंने अहिंसक क्रांति को प्राथमिकता दी. हालांकि अपने आधेअधूरे समर्थन के कारण वे समाजवाद की स्थापना में अपेक्षित रूप से कामयाब नहीं हो पाए. यह मानते हुए कि रूस और चीन जैसी क्रांतियां यहां संभव नहीं, इन देशों में समाजवाद की नई परिभाषाएं गढ़ी गईं. इसके चलते मिश्रित अर्थव्यवस्था की संकल्पना ने जन्म लिया. नेहरू युगीन भारत में समाजवाद के नारों और मिश्रित अर्थव्यवस्था की जुगलबंदी खूब चली. राजनीतिक अदूरदर्शिता तथा विकास के प्रति किसी ठोस कार्यनीति के अभाव में यह देश धीरेधीरे पूंजीवाद की शरण लेता गया. यद्यपि लोकतांत्रिक दबावों के कारण सरकारें आज भी समाजवादी राग अलापना नहीं भूली हैं, तथापि अशिक्षा एवं नागरिकताबोध के अभाव के चलते भारत में समाजवाद का नारा पूंजीवाद के लिए पथप्रदर्शक सिद्ध हुआ है. इन्हीं दुर्बलताओं तथा विरोधाभासों के चलते समाजवाद को अपने आप में अस्पष्ट विचार माना गया है, परिणामस्वरूप हिटलर एवं मुसोलिनी जैसे तानाशाह भी स्वयं को समाजवादी घोषित करते रहे हैं.

गांधीजी अहिंसा के पुजारी थे. यह हालांकि उनका मौलिक विचार नहीं था. लगभग ढाई हजार वर्ष पहले, महावीर स्वामी के नेतृत्व में जैन दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ तो अहिंसा उसका केंद्रीय विचार बना. यह विचार वैदिक हिंसा के विरोधस्वरूप जन्मा था, जहां ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति’ मंत्रजाप के स्वरघोष में उच्छ्रंखल पुरोहितवाद एवं पशुबलि को वैध ठहरा दिया जाता था. महावीर स्वामी की अहिंसा का उद्देश्य आध्यात्मिकनैतिक ऊंचाई प्राप्त करना था. गांधीजी अहिंसापथ पर चलकर राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहते थे. इस हथियार का उपयोग उन्होंने उस समय कामयाबी के साथ किया जब शेष विश्व में सत्तापरिवर्तन के लिए युद्ध को अपरिहार्य माना जाता था. चूंकि अहिंसा का राजनीति में इतने बड़े स्तर पर प्रयोग करने वाले महात्मा गांधी अकेले नेता हैं, इसलिए उन्हें बीसवीं शताब्दी के महानतम नायक का गौरव प्राप्त है. गांधीजी का अंहिसा पर इतना विश्वास था कि वे आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए भी अहिंसा का उपयोग करना चाहते थे. जबकि कल्याणकारी राज्य के रूप में रामराज्य का उनका सपना वर्णविभाजन तथा आर्थिक असमानता की व्याख्या नियतिवाद के दायरे में करता है.

गांधीजी द्वारा ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार समाजवाद के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया था. हालांकि वे इसे परिपक्व ‘थ्योरी’ के रूप में विकसित करने में सर्वथा असमर्थ रहे. गांधीवाद और समाजवाद की आभासी निकटता को देखते हुए एक स्वाभाविक प्रश्न उठ सकता है, कि क्या गांधीजी समाजवाद की अवधारणा से जानबूझकर दूरी बनाए हुए थे. या फिर अपने उद्योगपति मित्रों के हितों को देखते हुए वे खुद को घोषित रूप से समाजवादी कहने से रोके रहे. मुझे दोनों ही संभावनाएं उचित जान पड़ती हैं. दरअसल उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक दुनिया में समाजवाद का जो चेहरा सामने आया वह हिंसा पर आधारित था. मार्क्स, ऐंग्लस, प्रूधों आदि उस समय के जितने भी समाजवादी थे, उन्हें समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हिंसा का रास्ता अपनाने से कोई गुरेज न था. शायद इसीलिए अहिंसा को समर्पित गांधीजी मार्क्स के विचारों को उतना महत्त्व नहीं देते. वे रूसो का पक्ष लेते हैं, जिसके अनुसार शक्तिशाली को उस समय तक लोकमान्यता नहीं मिलती, जब तक उसने अपनी शक्तियां वैध तरीकों से अर्जित न की हो. सत्ता का वैधानिकीकरणसमाज के प्रति दायित्वबोध की अनुभूति और उसके लिए समर्पित प्रयास करने, लोककल्याण के लिए आगे आने की प्रेरणा देना, इसी में श्रेय निहित है.

ट्रस्टीशिप के सिद्धांत का कमजोर पक्ष तथा गांधी जीवन के अंतर्विरोध

ऊपर से आकर्षक दिखने के बावजूद ट्रस्टीशिप के सिद्धांत में अनेक कमजोरियां हैं. यह सम्राटोंसामंतों की दानपरंपरा का आधुनिक संस्करण है. चूंकि धर्म स्वयं सामंती परिवेश की देन है, इसलिए प्रायः सभी धर्मग्रंथों में किसी न किसी रूप में दान का महत्तम गाया गया है. राजामहाराजाओं के दरबारीचाटुकार उनकी दानशीलता का तो बखान करते थे, उसके लिए चारणवृंदों को वृत्तिका पर रखा जाता था. उन सबका दायित्व अपने आश्रयदाता की प्रशंसा उसमें सदगुणों की स्थापना करना था. दानशीलता को राजा का सद्गुण माना गया था. मगर राजा के धनागम के स्रोत क्या हैं? उनका नैतिक स्वरूप क्या है? इस बारे में प्रायः कोई चर्चा नहीं होती थी. राजा का खजाना उसके जागीरदारों, जमींदारों, सेठों, व्यापारी संगठनों के प्राप्त कराधान, भेंट और सौगातों पर निर्भर रहता था. हालांकि राजासामंतों की कमाई के लिए धार्मिक ग्रंथों में आचारसहिंताएं थीं, मगर व्यवहार में उनका पालन कम ही होता था. बल्कि युद्ध के दौरान निरीह प्रजा से लूटे गए धन को भी राजा का पराक्रम बताते हुए राजदरबार में उसका प्रदर्शन अपनी उपलब्धि के बखान के लिए किया जाता था. भारतीय ग्रंथों में दान की महानता का वर्णन किया गया है. मगर दान की परंपरा ने ही भारतीय समाज में एक पराश्रित तथा दूसरे के श्रम पर पलने वाले वर्ग को जन्म दिया था, जिसका दुष्परिणाम देश आज तक भुगतता आ रहा है.

ट्रस्टीशिप के साथ खतरा यह है कि जैसे धर्म के आवरण में राजा की कमाई के सारे स्रोत छिपा दिए जाते थे, उनकी नैतिकता पर कभी कोई चर्चा नहीं होती थी, वैसे ही यह विचार पूंजीवाद की समस्त अतियों और अनाचारों पर पर्दा डालने का काम करेगा. यह अनुचित और असंवैधानिक माध्यम से कमाए गए धन का वैधानिकीकरण करता है. अपनी पूंजी और तज्जनित संसाधनों के दम पर ट्रस्ट अथवा उसके सदस्य यह समझाने में कामयाब हो जाते हैं कि उनका लाभार्जन का तरीका व्यापक जनहित में है. कि लाभ द्वारा अर्जित धन का उपयोग लोकहित में किया जाना है. ट्रस्ट में धन के ‘धनार्जन’ के रास्ते पर भी सवाल नहीं उठाए जा सकते, न ही अपेक्षित होता है कि इस प्रकार के प्रश्नों को बीच में लाया जाए. स्वयं पूंजीपतियों को भी मालूम था कि ट्रस्टीशिप का विचार समाजवाद के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया तो समाज की उनसे अपेक्षाएं बढ़ेंगी. उसपर हुई बहस पूंजीपतियों को कठघरे में खड़ा करेगी. इसलिए उन्होंने स्वयं ही उसको किसी भी प्रकार की बहस के दायरे से बाहर रखा. इसका एक परिणाम यह हुआ कि ट्रस्टीशिप का विचार कभी पुस्तकों से बाहर न आ सका.

ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को समझाने के लिए गांधीजी धर्म का सहारा लेते हैं. संभवत: वे उम्मीद करते हैं कि धर्म का आकर्षण अथवा डर पूंजीपतियों को लोककल्याण के पथ पर चलने का विवश कर देगा. यहां वे भूल जाते हैं कि पूंजीपति और राजनेता ही हैं जो परस्पर मिलकर धर्म को ताकतवर बनाते हैं. बदले में धर्म भी उनकी अनैतिक सत्ता को वैधता प्रदान करता है. ट्रस्टीशिप में पूंजीपतियों से अपेक्षा की जाती है कि वे जनसमस्याओं को एक जिम्मेदार अभिभावक की भांति देखें. अपने विवेक से उनके निदान के लिए आवश्यक उपाय भी करें. इससे निर्णय प्रक्रिया में आम आदमी की महत्ता घट जाती है. अप्रत्यक्ष रूप में समाज के बहुसंख्यक वर्ग को अविवेकी मानकर उसकी उपेक्षा करने का ट्रस्टीशिप का विचार पूंजीपतियों को अतिरिक्तरूप से अधिकार संपन्न करता है. उसकी अगली पीढ़ी जब चाहे उस निर्णय को वापस ले सकती है अथवा ट्रस्ट के नियमों में फेरबदल कर सकती है. पूंजीपति अपनी परिसंपत्तियां श्रमिक के श्रम के बल पर अर्जित करता है. अपने मुनाफे के मामूली हिस्से को ही वह ट्रस्ट के संचालन में लगाता है. ट्रस्ट में लगी पूंजी श्रमिक के खूनपसीने की कमाई होती है. इसके बावजूद श्रमिक को यह अधिकार नहीं होता कि वह ट्रस्ट के काम में हस्तक्षेप कर सके अथवा पूंजीपति को कोई सलाह दे सके. ट्रस्टी के रूप में जिन व्यक्तियों को यह जिम्मेदारी सौंपी जाती है, उनका चयन पूंजीपति द्वारा किया जाता है. अतः वे उसी का हितसाधन करते हैं. इस तरह देखा जाए तो ट्रस्टीशिप से आर्थिकसामाजिक विभाजन के निदान का स्थायी उपाय कभी संभव नहीं है. शायद यही कारण है जो यह विचार पुस्तकों से बाहर कभी नहीं आ सका.

ट्रस्टीशिप को ‘श्रमिकसंघवाद’(Syndicalism)का विरोधी विचार भी कहा जा सकता है, जो श्रमिकों को संगठित होने, संघर्ष करने और अपनी एकजुटता के दम पर समस्त उत्पादनतंत्र पर अधिकार कर लेने का आवाह्न करता है. अभिसंघवाद श्रमिक सहकारिता का विस्तार था, एक ऐसा सुधारवादी आंदोलन जिसमें अभिकल्पना की गई थी कि श्रमसंघ उत्पादक कारखानों को हड़ताल, विरोधप्रदर्शन के माध्यम से अपने हाथों में ले लेंगे. श्रमिकसंघवाद का उद्देश्य समस्त श्रमिकों को एक झंडे, एक संगठन के रूप में संगठित करना है, जिसपर उसके साधारण से साधारण सदस्य का नियंत्रण हो. इसके व्याख्याता बेकुनिन का मानना था कि इससे पूंजीवाद की समस्त बुराइयों का हल खोजा जा सकता है. श्रमिकसंघवाद के लागू होने से बेरोजगारी और आर्थिक विषमता अपने आप समाप्त हो जाएंगी. चूंकि उस समय उत्पादक एवं उपभोक्ता का कोई अंतर ही नहीं रहेगा, इसलिए वस्तुओं का उत्पादन व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुरूप होगा, न कि लाभार्जन की वांछा से. गांधीजी का ट्रस्टीशिप का विचार एक परिकल्पना से आगे नहीं बढ़ पाता. दूसरी ओर पूंजीवाद के विरोधस्वरूप उपजे दर्शनों में उसके विकल्पों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया है.

स्मरणीय है कि जिस समय महात्मा गांधी ‘हिंद स्वराज’ में आधुनिक सभ्यता और मशीनीकरण की आलोचना कर रहे थे, उसको ‘शैतानी सभ्यता’ कहकर उसका तिरष्कार कर रहे थे, शेष दुनिया विशेषकर पश्चिम में पूंजीवाद के विरोध नएनए विचारों का जन्म हो रहा था. पूंजीवाद के आलोचकों में एक अराजकतावादी पियरे जोसेफ प्रूधों भी था, जो व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा का ही विरोधी था—‘व्यक्ति संपत्ति चोरी है. व्यक्तिगत संपत्तिधारक चोर है.’ उसका यह कथन बुद्धिजीवी हलकों में खलबली मचाए हुए था. प्रूधों के अलावा मार्क्स, ऐंगल्स, फ्यूरियर, राबर्ट ओवेन, बेकुनिन आदि विचारक पूंजीवाद के निरंकुश विस्तार से नाखुश थे. इन सबके विचारों में भिन्नता थी, किंतु वे सभी इस तथ्य पर एकमत थे कि समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता अन्यान्य बुराइयों के लिए पूंजीवाद जिम्मेदार है. इसलिए समाज के वास्तविक कल्याण के लिए, विकास का लाभ जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए पूंजीवाद पर अंकुश लगाना अत्यावश्यक है. उन सबसे अलग गांधीजी ‘हिंद स्वराज’ में तीखेपन के साथ मशीनों और आधुनिक सभ्यता की आलोचना तो करते हैं, मगर पूंजीपतियों की आलोचना नहीं कर पाते. वे संपत्ति पर समाज का अधिकार तो स्वीकारते हैं, किंतु उसके समान विभाजन के लिए कोई नई व्यवस्था का सुझाव देने के बजाय पूंजीपतियों से ही अपेक्षा करते हैं कि वे स्वयं को समाज की संपत्ति का रखवाला मानें. यह पूंजीवाद के प्रति समझौतावादी रवैया अपनाने जैसा है.

ट्रस्टीशिप का औचित्य सिद्ध करने के लिए गांधीजी धर्म को माध्यम बनाते हैं. उम्मीद करते हैं कि धर्म का आकर्षण अथवा डर पूंजीपतियों को लोककल्याण के पथ पर चलने का विवश कर देगा. जबकि पूंजीपति और राजनेता ही हैं जो परस्पर मिलकर धर्म को ताकतवर बनाते हैं. धर्म उन्हें मजबूत करता है. निहित स्वार्थ के लिए वे धर्म की बेड़ियों को लगातार कसते जाते हैं. ट्रस्टीशिप में पूंजीपतियों से अपेक्षा की जाती है कि वे जनसमस्याओं को एक जिम्मेदार अभिभावक की भांति देखें. अपने विवेक से उनके निदान के लिए आवश्यक उपाय भी करें. परंतु इस निर्णय प्रक्रिया में आम आदमी की महत्ता घट जाती है. समाज के बहुसंख्यक वर्ग को अविवेकी मानकर उसकी उपेक्षा करने का ट्रस्टीशिप का विचार पूरी तरह पूंजीपतियों की अनुकंपा पर निर्भर रहता है. इससे समाज के आर्थिकसामाजिक विभाजन का स्थायी समाधान संभव नहीं. शायद इसीलिए यह विचार पुस्तकों से बाहर कभी नहीं आ सका.

ट्रस्टीशिप’ की अवधारणा के पीछे हम गांधीजी के निजी जीवन के अनुभवों की छाया भी देख सकते हैं. दक्षिण अफ्रीका में प्रारंभिक सफलता के पश्चात वे प्रवासी भारतीयों के सर्वमान्य नेता बन चुके थे. यह प्रसिद्धि उन्हें सत्याग्रह आंदोलनों द्वारा प्राप्त हुई थी, जिनकी प्रेरणा उन्हें थोरो से मिली थी. इसमें उनके मित्रों और सहयोगियों का भी पूरा समर्थन उनके साथ रहा था. दक्षिण अफ्रीका में अपना पहला आश्रम खरीदने के लिए 100 एकड़ भूमि गांधीजी ने स्वयं खरीदी थी. उस स्थान पर उन्होंने फीनिक्स आश्रम की स्थापना की थी. वही दक्षिण अफ्रीका में उनकी प्रारंभिक गतिविधियों का केंद्र बिंदू बना. उसके बाद जैसेजैसे उनका प्रभामंडल बढ़ता गया, मददगार आगे आते गए. आंदोलनों और कार्यक्रमों के लिए संसाधन अपने आप जुटते चले गए. जोहन्सबर्ग में टाल्सटाय फार्म की स्थापना का विचार बना तो हरमन केलिनवर्थ मैत्रीधर्म निभाने आगे आ गया. पेशे से वास्तुकार, धनी यहूदी केलिनवर्थ ने 1910 में आश्रम के लिए 1100 एकड़ भूमि की व्यवस्था अपने संसाधनों के बल पर की थी. वहां बनाया गया टाल्सटाय आश्रम गांधींजी के ‘सत्य के प्रयोगों’ की कर्मस्थली बना. मार्क्सवाद की आंधी भारतीय उद्योगपतियों को भी ’गांधी शरणम गच्छामि’ के लिए विवश कर दिया था. वे एक ओर ब्रिटिश सरकार से संपर्क बनाए हुए थे, तो दूसरी ओर गांधीजी से भी उनका निकट संबंध था. गांधी समर्थन का एक तरीका था कि उनके आंदोलन के लिए संसाधन उपलब्ध कराए जाएं. यह उनके लिए आसान कार्य था. अत: 1915 में भारत आगमन के उपरांत राजनीतिकसामाजिक आंदोलनों के कार्यान्वन के लिए स्थान की आवश्यकता पड़ी तो गांधीजी के बैरिस्टर मित्र जीवनलाल देसाई ने जिम्मेदारी संभाली. उनके ‘कोचरब बंगले’ में 25 मई, 1915 को ‘सत्याग्रह आश्रम’ की नींव रखी गई. 1917 में अहमदाबाद नगर को प्लेग की महामारी ने जकड़ लिया. घनी आबादी के बीच प्लेग ज्यादा फैलती थी, इसलिए आश्रम को अन्यत्र ले जाने की जरूरत अनुभव की गई. उसके लिए शहर से दूर, खाली पड़ी बंजर जमीन को चुना गया. उसके पास ही ब्रिटिश जेल थी, जहां लौहशृंखलाओं में बंधे ब्रिटिश साम्राज्य के कैदी काम करते रहते थे. वह भूमि गांधीजी को बिना कोई मूल्य चुकाए मिल गई. सत्याग्रह आंदोलन के विस्तार के लिए गांधीजी के आदेश पर विनोबा ने जब वर्धा जाकर पवनार आश्रम की नींव डाली तो उसके लिए भूमिभवन जमनालाल बजाज ने भेंट किया था. गांधीजी की व्यक्तिगत नैतिकता और ईमानदारी का पूरापूरा सम्मान करते हुए हमें याद रखना चाहिए कि उस समय बिरला घराना कपड़ा उद्योग में अग्रणी था. जिसके मालिक घनश्यामदास बिरला गांधीजी के बेहद करीबी लोगों में थे. क्या यह केवल संयोग है एक लंगोटी में ब्रिटेन की यात्रा कर आने वाला वह ‘अधनंगा फकीर’ पूंजीपतियों अथवा जमींदारों के बंगलों में ठहरता था. यहां तक कि उन्होंने आखिरी सांस भी बिरला के ही भवन में ली थी.

बेन ब्रैडले द्वारा अपने एक लेख में व्यक्त की गई यह घटना हालांकि बहुत बाद की है, किंतु गांधीजी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत की पृष्ठभूमि को समझने में सहायक हो सकती है. 1933 में मंदी के चलते मुंबई समेत देश के अन्य शहरों में कपड़ा मिलों में काम करने वाले श्रमिकों की मजदूरी में अचानक कटौती कर दी गई. एक तरफ महंगाई की मार, दूसरी ओर वेतन की कटौती, मजदूरों को एक साथ दोहरे संकट का शिकार बनना पड़ा. इससे उनमें आक्रोश फैलना स्वाभाविक था. श्रमिकों ने मिलमालिकों पर दबाव बनाने की कोशिश की तो उन्होंने पुलिस की मदद से श्रमिकों को कुचलना आरंभ कर दिया. मजदूरों को कम वेतन पर काम करने के लिए बाध्य किया जाने लगा. इस बीच मिल मालिक कारखानों के विस्तार पर पूरापूरा ध्यान दे रहे थे. मजदूरी के नाम पर पूंजी की कमी और बढ़ते व्यापारिक घाटे का दावा करने वाले मिलमालिकों की विस्तार योजनाओं में कोई कमी नहीं थी. कपड़ा मिलें जोरशोर से आधुनिकीकरण में जुटी थीं. नई प्रौद्योगिकीयुक्त मशीनें लगाई जाने लगी थीं, जिससे एक साथ छह करघे जुड़े थे. एक श्रमिक छह करघों का संचालन एक साथ कर सकता था. इससे मिल मालिकों की आय में आशातीत वृद्धि हुई. मगर नई तकनीक श्रमिकों के लिए बेरोजगारी का संकट लेकर आई थी. वे घटी दरों पर रात और दिन की पारियों में काम करने को विवश थे. ऊपर से महंगाई बढ़ती ही जा रही थी. इससे उनके आक्रोश का बढ़ना निश्चित था. उग्र श्रमिकों ने काम पर जाना बंद कर दिया. मद्रास, धुलिया, नागपुर, शोलापुर, आमलनेर, अहमदाबाद, कुरिया यानी जहांजहां कपड़ा मिलें थीं, सब जगह ऐसे ही हालात थे. दबाव से उकताकर अहमदाबाद में शेरा॓क मिल के मजदूरों ने अंततः हड़ताल घोषित कर दी. हड़ताल की घोषणा के साथ ही मिल मालिक दमन पर उतारू हो गए.

उस समय ‘मिल मजदूर यूनियन’ नामक श्रमसंगठन पर गांधीजी का नियंत्रण था. ‘मिल मजदूर यूनियन’ ने यह तर्क देते हुए कि श्रमिकों ने हड़ताल पर जाने से पहले संगठन की अनुमति नहीं ली, उन्हें अपने संगठन से बहिष्कृत करना आरंभ कर दिया. उसी समय बेजबाड़ा मिल के मालिकों ने मजदूरी में 25 प्रतिशत कटौती का ऐलान कर दिया. इस नाजायज कटौती के विरुद्ध मामला मध्यस्थता के लिए ‘आर्बीट्रेशन बोर्ड’ के सम्मुख पहुंचा. गांधीजी वहां श्रमिकों की ओर से उपस्थित हुए. उस समय के हालात पर टिप्पणी करते हुए बेन ब्रैडले ने अपने आलेख में लिखा है—

‘‘मिल मालिक संगठन’ के सदस्यों में अधिकांश राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थक थे. संगठन का अध्यक्ष तो पूरी तरह से कांग्रेसी था और वह स्वदेशी माल वस्तुओं के उपयोग का पूर्ण पक्षधर था, जो उसकी अपनी मिलों में बनती थीं. महात्मा गांधी तो स्वदेशी का पक्ष लेते ही थे, इसलिए कि उन्हें मिल मालिकों की ओर से चंदा प्राप्त होता था. सेठ चमनलाल पारिख जो मिल मालिकों की ओर से ‘आबीर्टेशन बोर्ड’ के समक्ष उपस्थित हुए थे, समर्पित कांग्रेसी नेता थे. महात्मा गांधी कांग्रेस के सर्वेसर्वा थे. ऐसे में यह सोचना व्यर्थ ही है कि मजदूरी में 25 प्रतिशत की कटौती को लेकर ‘आर्बीट्रेशन बोर्ड’ का क्या निर्णय रहा होगा. गांधीजी द्वारा वेतन कटौती हेतु सहमत होने के लिए मजदूरों पर जोर डालने की यह कोई पहली घटना नहीं थी.’

भारतीय वांङमय में कहा गया है—‘सबै भूमि गोपाल की.’ ट्रस्टीशिप के सिद्धांत की व्याख्या के समय कुछ ऐसा ही विचार गांधीजी के मन में रहा होगा. हो सकता है, उस समय गांधी जी के मनमस्तिष्क पर राबर्ट ओवेन जैसे उदार पूंजीपतियों की छवि रही हो. लियो टाल्सटाय, थोरो और रस्किन की प्रेरणाओं को तो स्वयं गांधीजी ने ही स्वीकारा है. चीन और रूस में हुई सामाजिक क्रांति से मन ही मन घबराए हुए उस समय के प्रायः सभी धनकुबेर महात्मा गांधी के संपर्क में थे. गांधीजी की प्रेरणा पर उनमें से कुछ पूंजीपतियों ने ट्रस्ट बनाए भी, लेकिन वे उनके वाणिज्यिक और पारिवारिक हितसाधन से आगे न बढ़ सके. अधिकांश ने उसका उपयोग पुरस्कारप्रोत्साहन द्वारा बुद्धिजीवियों को अपने पाले में बनाए रखने के लिए किया. कहा जा सकता है कि गांधीजी का ‘सत्याग्रह’ यानी राजनीति का अहिंसात्मक अनुप्रयोग तो कामयाब हुआ, किंतु आर्थिक क्षेत्र में उनका अहिंसावादी दृष्टिकोण सिवाय कुछ नारों और राजनीतिक अभिव्यक्तियों से आगे न बढ़ सका. जैसाकि ऊपर कहा गया है, कुछ नामीगिरामी उद्योगपति टोपीखद्दर पहनकर उनके पीछे जरूर चले, मगर इसके पीछे उनकी गांधीवाद में आस्था कम स्वयं को वर्गसंगर्ष के उन नतीजों से बचाए रखने की छटपटाहट अधिक थी, जिसकी धमक भारतीय जनसमाज को नई चेतना से सराबोर कर रही थी. लेनिन और ट्राटस्की जैसे जननेता रूस की क्रांति को भारत में दोहराना चाहते थे, ताकि एशिया महाद्वीप में पूंजीवाद के पर कतरे जा सकें. गांधीजी का ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार भले ही अव्यावहारिक मान लिया गया हो, मगर उसको उछाला खूब गया. सही मायने में तो उसने भारतीय किसानोंमजदूरों को सर्वहारा क्रांति से विमुख रखने, हालात से समझौता करने तथा दूसरों से दया की उम्मीद बनाए रखने के लिए प्रेरित किया.

जैसा कि पीछे कहा गया है, गांधीजी समाजवादी नहीं थे. किंतु उनकी विचारधारा जिसे प्रायः गांधीवाद कह दिया जाता है, समाजवाद के विकल्प के रूप में प्रस्तुत की जाती है. पिछले दिनों यह मांग की गई थी गांधीजी को जिन धनी सेठों ने भूमिभवन दान दिए, उनके आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए आर्थिक मदद पहुंचाई उनके बारे में शोध किया जाना चाहिए. यह काम अवश्य होना चाहिए कि गांधीजी को सार्वजनिक कार्य के लिए कब किस पूंजीपति ने कौनसी संपत्ति भेंट की थी, उसका उन दिनों मूल्य क्या था? आखिर हिंद स्वराज के हिंदी संस्करण में भारतीय उद्योगपतियों के कारखानों में बने कपड़े का उपयोग करने की अनुमति के पीछे कुछ तो वजह रही होगी.

© ओमप्रकाश कश्यप