राज्य के नेतृत्व में अदालतों के जरिये सामान्यतः जो फैसले होते हैं, प्रायः उन्हीं को न्याय मान लिया जाता है. जबकि उनमें से कुछ को छोड़कर जिनका संबंध संविधान, कानून या किसी अदालती निर्णय की लोकहित में समीक्षा करना है, अधिकांश का न्याय की मूल–भावना से दूर का भी संबंध नहीं होता. अधिकतर मामले वकीलों के दमखम तथा कानूनी दांवपेच में उलझे होते हैं. उनके अंबार के बीच न्याय और न्याय–भावना कहीं दब–सी जाती है. कानून अपना काम करे, लोगों को न्याय समय पर मिले, न्याय प्रणाली निष्पक्ष तथा उसकी प्रक्रिया पूर्णतः पारदर्शी हो—यह देखना राज्य का कर्तव्य भले हो, उसके गठन का वास्तविक लक्ष्य नहीं है. राज्य का गठन प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा अपने सुख, शांति, समृद्धि एवं शुभता के विस्तार हेतु किया जाता है. अपने नागरिकों के जानमाल की रक्षा करना राज्य का दायित्व है. इस दायित्वपूर्ति हेतु कानून राज्य के सहायक की भूमिका निभाता है. तदनुसार किसी अदालती निर्णय को न्याय तभी कहा जा सकता है, जब पीडि़त को हुए नुकसान की भरपाई संभव हो. बावजूद इसके अधिकांश अदालती मामले इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित होते हैं. उनमें अदालतें अपराधी को केवल दंड सुनाती हैं, न्याय नहीं करतीं. मान लीजिए किसी घर में चोरी होती है. चोर पकड़ा जाता है, किंतु माल बरामद नहीं हो पाता. चोरी होने तथा चोर के गिरफ्तार होने के मध्य जो अंतराल है, उसमें चोर माल को ठिकाने लगा चुका है. अदालत उस चोर को कानून के अनुसार दंड सुनाकर न्याय–प्रक्रिया को संपन्न मान लेती है. ठीक इसी प्रकार यदि किसी परिवार के सदस्य की हत्या हो, हत्यारा पकड़ा जाए तो अदालत अपराधी को काराग्रह भेजकर; अथवा मृत्युदंड सुनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है. दोनों मामलों में पीडि़त परिवारों को सिवाय इस तसल्ली के कि जिन्होंने अपराध किया, वे कारावास में हैं, कुछ भी प्राप्ति नहीं होती. मृतक को वापस लाना तो वैसे भी संभव नहीं होता. इस तरह कानून की मदद से किया गया न्याय, सामान्यतः निषेधात्मक होता है. इससे न्याय का उद्देश्य पूरा नहीं होता. वास्तविक न्याय तब कहा जा सकता था, जब राज्य व्यक्ति को हुए नुकसान की भरपाई या तो स्वयं करे अथवा अपराधी को उसके लिए बाध्य करे. परंतु ऐसा हो नहीं पाता. नुकसान की भरपाई करना अदालत को अव्यावहारिक लगता है. कदाचित वह सोचती है कि इस तरह के मामलों से राज्य के खजाने पर अनावश्यक बोझ पड़ेगा. दूसरा सोच यह होता है कि इस तरह के मामलों में यदि अदालतें नुकसान की भरपाई करने लगें तो पीडि़त व्यक्ति अपने नुकसान को बढ़ा–चढ़ाकर पेश करेगा. अपराधी पर नुकसान की भरपाई के लिए दबाव डालना भी उसे अव्यावहारिक लगता है. साफ है कि अदालतें अपने ही देशवासियों पर अविश्वास करती हैं. दूसरो शब्दों में राज्य के संरक्षण में चलाई जा रही अदालतें प्रथमतः राज्य का ही हित साधन करती हैं.
न्याय शुभत्व की व्याप्ति और उसका प्रसार है. यह तभी संभव है, जब न्यायाधीश स्वयं नैतिकता के उच्चतम मानकों पर आसीन होकर उच्चतम मापदंडों के अनुसार न्याय करें. लेकिन न्यायाधीश को चाहे वे कितने ही विद्वान, निष्पक्ष और न्याय–समर्पित क्यों न हों, उन्हें अपना प्रत्येक निर्णय राज्य द्वारा बनाई गई दंड–संहिता के अनुसार करना पड़ता है. ऐसे में निर्णय सुनाने वाले न्यायाधीश का कार्य केवल दंडाधिकारी तक सीमित होकर रह जाता है. दंड–विधान अथवा दंड की प्रक्रिया को न्याय जैसे शब्द से महिमा मंडित करना, राज्य के शक्ति–प्रदर्शन का ही रूप है. न्यायालयों की कार्रवाही न्याय की परिभाषा तथा उसकी मूल–भावना से भी मेल नहीं खाती है. इसके बावजूद लोक–व्यवहार और अदालती कामकाज में ‘न्याय’ शब्द का उल्लेख जमकर किया जाता है. न्याय की सैद्धांतिक जानकारी के अभाव में सामान्य ‘दंडाधिकारी’ से भी ‘न्याय–विद्, ‘न्यायमूर्ति’ जैसे लुभावने संबोधन जोड़ दिए जाते हैं. असल में वह राज्य की ताकत और उसकी सर्वोच्चता को प्रकट करने का एक माध्यम है. प्रकारांतर में यह वर्चस्वकारी सत्ताओं के खेल को आसान बनाते हैं. न्याय राज्य की सार्वभौमिक उदारता की कसौटी होता है. कल्याण राज्य होने का दावा करने वाले राज्य में तो उसकी हैसियत मुख्य दिशा–निर्देशक की होनी चाहिए. उसकी व्याप्ति कर्तव्य विभाजन से लेकर नागरिकों के बीच कल्याण के बंटवारे तक यथा–आवश्यक रूप में होनी चाहिए. प्लेटो ने इसी को लेकर ‘रिपब्लिक’ में लिखा है—
‘समाज के प्रत्येक सदस्य को वह कार्य सौंपना चाहिए, जिसके लिए वह स्वयं को सर्वाधिक उपयुक्त मानता है.’1
इस कोटि की न्याय–भावना के अभाव में राज्य अपने नागरिकों के साथ छल करता है. ‘न्याय की अनुपस्थिति में राज्य की स्वयं–प्रभुता को संगठित डकैती’ बताते समय संत अगस्ताइन के मन में भी कुछ इसी प्रकार के विचार उमड़े होंगे. न्याय–विहीन समाज में असंतोष पनपते हैं. परिणामस्वरूप उसके प्रति नागरिकों का विश्वास धीरे–धीरे क्षीण होता जाता है. नागरिकों के विश्वास से रहित राज्य एवं निरंकुश राज्य में कोई अंतर नहीं होता. जिस राज्य में न्याय न हो, वहां निरंकुशता स्वतः पनपने लगती है. उसकी प्रवृत्ति बहुआयामी होती है. निरंकुशता वैयक्तिक भी हो सकती है और राज्य के नाम पर गठित संस्थाओं की भी. दोनों ही स्थितियों में उसका शिकार जनसाधारण को बनना पड़ता है. परिणामस्वरूप जनसाधारण के लिए न्याय निरंतर दुर्लभ होता जाता है.
न्याय व्यक्तिमात्र के प्रति संवेदना, करुणा एवं समानता की भावना से जन्मता है. वही समाज में शुभत्व की स्थापना करता है. आधुनिक संदर्भों में वह पश्चिम में विकसी एक महत्त्वपूर्ण नैतिक एवं राजनीतिक संकल्पना है. न्याय के अंग्रेजी पर्याय Justice शब्द की उत्पत्ति लैटिन मूल के Jus शब्द से हुई है, जिसका अभिप्राय ‘विधि’ अथवा ‘सन्मार्ग’ से है. आ॓क्सफोर्ड शब्दकोश के अनुसार Just शब्द का आशय ऐसे व्यक्ति से है जो नैतिकता के उच्च मानदंड के अनुसार सही है; तथा दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार करता है, जो नैतिकता की दृष्टि से खरा और प्रभावी है. प्रकारांतर में श्रनेज शब्द से भी उसी धारणा की ओर संकेत मिलता है. कुल मिलाकर jus तथा justice दोनों न्याय और न्याय–भावना को दर्शाते हैं. इसके मायने केवल कानून और अदालतों तक सीमित नहीं हैं. बल्कि उससे कहीं अधिक व्यापक, मनुष्यता के शिखर की ओर इशारा करने वाले हैं. न्याय मानवीकरण की सफलता को दर्शाता है. कभी–कभी fair शब्द को भी न्याय के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त किया जाता है. इनका अभिप्राय है ‘प्रत्येक को वह मिले जो उसका अधिकार है.’, ‘उतना मिले जितनी उसको आवश्यकता है’, ‘जिसको जो मिले, पूरी पारदर्शिता के साथ मिले.’, ‘ईमानदारी से मिले और अविलंब मिले.’ श्रेष्ठ न्याय समाज के विक्षोभों का शमन करता है, समाज और व्यक्ति की दूरी घटाता तथा कानून के प्रति नागरिकों के भरोसे में वृद्धि करता है. निष्पक्षता और पारदर्शिता न्याय की अनिवार्य शर्तें हैं. ‘बतौर निष्पक्षता न्याय हमें वह देता है, जो हम उससे चाहते हैं.’2 न्याय में विलंब भी अन्याय को दर्शाता है. प्लेटो के अनुसार समाज में शुभत्व की व्याप्ति, नैतिकता का संचार ही न्याय है. वही समाज न्याय पथ पर है जिसमें नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन बगैर किसी बाहरी दबाव और स्वार्थ–भावना के करते हैं, जहां नागरिकों में परस्पर मेल हो, जो संकट में एक–दूसरे का साथ निभाने को तत्पर रहते हों तथा इतने अनुशासित एवं आत्म–मर्यादित हों कि शासन की मौजूदगी केवल प्रतीकात्मक बनकर रह जाए.
भारत में धर्म से इतर न्याय की कोई स्वतंत्र अवधारणा नहीं है. यहां न्याय के पर्याय के रूप में धर्म को रखा गया है, जिसकी हालत काठ के उस जूते की भांति है जिसमें हर कोई पांव डालकर देखना चाहता है. देखता है, लेकिन पूरी तरह से पहनना कोई नहीं चाहता. न ही पहन पाता है. पश्चिम में न्याय पर सुकरात से लेकर जॉन राउल तक गंभीर चिंतन देखने को मिलता है. प्लेटो की महत्त्वपूर्ण कृति ‘रिपब्लिक’ में साथियों के साथ चर्चा के दौरान सुकरात ‘न्याय’ के विभिन्न पक्षों पर विचार करता है. अंत में वह इस निर्णय पर पहुंचता है कि ‘न्याय सदगुण है.’ ऐसा गुण जिसे प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर रखना चाहिए. उसमें आदर्श और व्यवहार का भेद मिट जाता है. सुकरात के अनुसार वही समाज न्याय पर है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति वह करता है, जो वह दूसरों से अपने प्रति अपेक्षा रखता है. प्लेटो कवि हृदय और आदर्शवादी था. आदर्श समाज को लेकर उसका एक सपना था. ‘न्याय’ के लिए उसने ग्रीक भाषा के शब्द Dikaisyne का प्रयोग किया है, जिसका अभिप्राय ‘नैतिकता’ और ‘शुभता’ से है. उसके अनुसार न्याय वह अवस्था है जब व्यक्ति अपनी तात्कालिक इच्छाओं को शेष समाज की शुभता और भलाई के नाते स्थगित कर देता है. बदले में समाज उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं पर अपनी प्राथमिकताओं के मद्देनजर विचार करता है. प्लेटो के लिए न्याय मानवीय सद्गुणों का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, जो समाज और व्यक्ति की आपसी प्रतिबद्धताओं को दर्शाता है. वह स्पष्ट और स्वतंत्र होता है, और उसका ध्येय समाज में सचाई, शुभता एवं आपसी मेलजोल को बढ़ावा देना है. वह हमारे आत्म की शक्ति, उसका विधान है. आत्मा के लिए न्याय का वही महत्त्व होता है, जो देह के लिए स्वास्थ्य का. न्याय मार्गदर्शक होता है. वह हमें रास्ता दिखाता है. विशेष परिस्थितियों में कौन–सा निर्णय मनुष्यता के अनुकूल है, यह बताता है. वह केवल शक्ति नहीं होता, बल्कि शक्तियों, अधिकारों एवं कर्तव्यों की सामंजस्यपूर्ण व्याप्ति है. वह शक्तिशाली का अधिकार न होकर संपूर्ण समाज की प्रभावी एकता और सौहार्द है. न्याय स्वयं एक निर्देशक सत्ता है, जो बल के बजाय करुणा एवं संवेदना से संचालित होती है. समाज की सुदृढ़ता के संदर्भ में वह आत्मरूप है. वह समाज की संपूर्ण संगठित एवं समन्वित शक्ति का प्रतीक होता है. न्याय शक्तिशाली का अधिकार न होकर संपूर्ण समाज की समन्वित एकता और संवेदनशीलता में झलकता है.
प्लेटो के चिंतन का दायरा बड़ा था. उसने अनेक विचारकों को प्रभावित किया. प्लेटो की अपेक्षा अरस्तु नैतिक व्यवहारवाद का समर्थक था. उसकी न्याय–संबंधी अवधारणा व्यावहारिकता से परे न थी. उसका विचार था कि न्याय विधि–मान्य व्यवस्था के पारदर्शी और समानतापूर्ण व्यवहार का लक्षण है. राज्य की पारदर्शिता, उसका अपने नागरिकों के प्रति समानतापूर्ण–पक्षपातरहित व्यवहार—समाज में न्याय के संवितरण की स्थिति को दर्शाता है. दिखाता है कि समाज अपने नागरिकों के प्रति कितना उदार है. जो वस्तु सबके उपयोग की है, उसका सभी में समान वितरण हो, यह उसका मानना था. न्याय से उसका आशय प्रत्येक वस्तु को सभी मनुष्यों में बराबर–बराबर बांट देना नहीं है. यह तो परोक्ष रूप में राज्य की मनमानी ही कही जाएगी. उस समय व्यक्ति की रुचि, आवश्यकता तथा समाज के विकास में उसके द्वारा किए गए योगदान को ध्यान में रखा जाना ही न्याय संगत है. लेकिन यह कार्य इतनी खूबी से होना चाहिए कि समाज में कोई भी स्वयं को उपेक्षित अनुभव न करे. राज्य की उदारता एवं न्यायशीलता में सभी का भरोसा बना रहे. अरस्तु और प्लेटो दोनों पर सुकरात की ‘सद्गुण’ और ‘शुभत्व’ संबंधी मान्यता का प्रभाव था. अंतर केवल इतना है कि प्लेटो का समाज और विचार दोनों को परखने का नजरिया नितांत आदर्शवादी था. अरस्तु इसके लिए मानवीय सीमाओं को भी ध्यान में रखता है. लक्ष्य उसका भी समाज में नैतिकता और शुभता का संचार करना है.
अरस्तु के अनुसार संवैधानिक शासन की तीन प्रमुख विशेषताएं हैं—पहला संवैधानिक शासन का प्रमुख ध्येय जनकल्याण होता है. वह किसी एक व्यक्ति समूह या दल के लिए काम नहीं करता. न ही वह किसी एक दल अथवा व्यक्ति द्वारा संचालित ऐसा शासन होता है जो किसी व्यक्ति अथवा समूह के भले के लिए काम करे. दूसरा, संवैधानिक शासन विधिसम्मत शासन होता है. वह किसी एक व्यक्ति अथवा समूह की मर्जी से संचालित नहीं होता, बल्कि ऐसे कानूनों के माध्यम से शासन–कर्म करता है, जिनको शासित वर्गों की सहमति प्राप्त हो. वह समन्वयवादी भी होता है. प्राचीन रूढि़यों, रीति–रिवाजों और परंपरा का तिरष्कार करने के बजाय वह उनके साथ तालमेल बनाकर चलने में विश्वास रखता है. तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वह इच्छुक नागरिकों का शासन है. उसके प्रति नागरिकों की सहमति होती है. लोग समाज के सदस्य के रूप में बृहद हितों की खातिर अपनी प्राकृतिक स्वच्छंदता के एक हिस्से की बलि चढ़ाकर शासित होने को तैयार होते हैं. इस तरह का शासन लोगों से परे न होकर, नागरिक संस्था होती है. प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में दार्शनिक सम्राट की अवधारणा प्रस्तुत की थी. अरस्तु ने उससे असहमति जाहिर की थी. उसके अनुसार न्याय और निष्पक्षता के लिए शासन के निर्णयों में निर्वेयक्तिकता आवश्यक है. व्यक्ति चाहे कितना ही निष्पक्ष और विवेकवान क्यों न हो, उसका पूरी तरह निर्वेयक्तिक होना असंभव है. ऐसा राज्य लंबे समय तक निष्पक्ष नहीं रह पाता. अरस्तु ने न्याय के लिए कानून के राज्य पर जोर दिया है. उसके अनुसार नागरिकों के कल्याण को समर्पित शासन कानून का शासन भी होता है.
अरस्तु पर प्लेटो की महान कृति ‘दि लॉज’ का प्रभाव था. वह अपने गुरु की विलक्षण मेधा का सम्मान तो करता था, मगर किसी भी प्रकार के वैचारिक दबावों से मुक्त था. इसलिए उसकी स्थापनाएं अपने प्लेटो से प्रेरित होने के बावजूद स्वतंत्र एवं मौलिक हैं. लेकिन प्लेटो के विचारों में जहां आदर्श और कल्पना का पुट है, अरस्तु का दर्शन व्यावहारिकता के निकट है. दोनों के विचारों के अंतर को इससे भी समझा जा सकता है कि अरस्तु जिसे आदर्श राज्य मानता है, प्लेटो की निगाह में वह द्वितीय सर्वश्रेष्ठ राज्य है. जबकि प्लेटो की आदर्श राज्य संबंधी संकल्पना अरस्तु की निगाह में अव्यावहारिक है. अरस्तु के समय तक विभिन्न राजनीतिक दर्शन सामने आ चुके थे. उसने अपने समय के सभी प्रचलित शासन–तंत्रों यथा राजशाही, गणतंत्र, निरंकुश शासन, कुलीन तंत्र, सौम्य प्रजातंत्र, भीड़ का शासन, अतिवादी लोकतंत्र आदि पर खुलकर विचार किया था. इनमें से निरंकुश शासन, अतिवादी लोकतंत्र, भीड़ के शासन को उसने निकृष्ट शासन पद्धति माना था. बाकी के बारे में उसका विचार था कि प्रत्येक प्रणाली की कुछ न कुछ दुर्बलताएं हैं. राज्य के आदर्श को नागरिक और शासन के कुशल तालमेल से ही प्राप्त किया जा सकता है. इसके लिए उसने लिखित संवैधानिक व्यवस्थाओं पर जोर दिया था. वह शासन को नागरिकों की जीवनशैली मानता था. उसका विचार था कि राज्य अपने लक्ष्य में तभी सफल हो सकता है, जब उसे अपने नागरिकों का संपूर्ण समर्थन प्राप्त हो.
ईसा से पांच–छह शताब्दी वर्ष पहले का समय राजनीतिक दर्शनों के विकास का दौर था. बड़े राज्यों के गठन का सिलसिला आरंभ नहीं हुआ था और छोटे राज्य जिन्हें नगर राज्य भी कहा जा सकता है, धर्म की जकड़बंदी से बाहर थे. असल में वह दुनिया–भर में बौद्धिक जागरण का समय था. भारत में महावीर स्वामी, अजित केशकंबली, कौत्स, गौतम बुद्ध, यूनान में सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, पेरामेनडिस, चीन में कन्फ्यूशियस जैसे मानवतावादी चिंतक उसी दौर में जन्मे थे. मगध सम्राट अजातशत्रु द्वारा भेजे गए दूत महामंत्री वस्सकार के समक्ष उन्होंने गणतंत्रों का समर्थन किया था. जाहिर है उस समय तक राजनीति और दर्शन दोनों के केंद्र में मनुष्य था. गौतम बुद्ध द्वारा गणतांत्रिक संघों भी प्रशंसा, महावीर स्वामी का किसी भी प्रकार की हिंसा से बचने का संदेश, सुकरात का ‘शुभत्व’ एवं ‘सदगुण’ का विचार, प्लेटो की आदर्श राज्य की संकल्पना, अरस्तु का व्यावहारिक नैतिकता के आधार पर राज्यों के गठन का सुझाव तथा कन्फ्यूशियस की नैतिक शिक्षाएं—अलग–अलग दिखने के बावजूद ये परस्पर मिली–जुली, एक–दूसरे का पर्याय कही जाने वाली धाराएं थीं. उस दौर में जब सारे कामकाज ईश्वर तथा अन्य देवताओं के नाम पर किए जाते हों—मानव–कल्याण को राज्य के गठन का औचित्य बताना बड़ी बात थी. इस आधार पर हम उस कालखंड को हम मानव–इतिहास का सबसे परिवर्तनकारी दौर भी कह सकते हैं. उस समय तक साम्राज्यवाद भी महज एक अवधारणा तक सीमित था. हालांकि राजाओं की महत्त्वाकांक्षाएं नजर आने लगी थीं. रामायण और महाभारत को ईसा से 800—1500 ईस्वी पूर्व की रचना माना जाता है. दोनों में साम्राज्यवाद को जगह मिली है. ‘सम्राट’, ‘विराट’, ‘चक्रवर्ती’ जैसी संज्ञाएं साम्राज्यवादी भावनाओं की देन ही हैं. मगर अपने आदि स्वरूप में ये दोनों महाकाव्यों से प्रेरित हैं, जिनके कथानक नगर–राज्यों के संघर्ष की कल्पना के आधार पर रचे गए थे.
दोनों महाकाव्य आज जिस रूप में मौजूद हैं, वह मात्र 2000—2200 वर्ष पुराना है. इस बीच उनमें इतना ज्यादा प्रक्षेपण हुआ है कि मूल रचना और वर्तमान स्वरूप में अंतर कर पाना असंभव हो चुका है. दरअसल इन महाकाव्यों को, उनके वर्तमान रूप तक आते–आते अनेक सामाजिक–राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों से गुजरना पड़ा है. उनके कथ्य और कथानक दोनों ही में समयानुसार बदलाव होते रहे हैं. जिस कालखंड की हम बात कर रहे हैं, उसमें धर्म और राजनीति का वैसा, मूल्यविहीन गठजोड़ नहीं हुआ था, जैसा परिवर्ती शताब्दियों में देखने को मिलता है. उस दौर में धर्म सामान्य नैतिकता से जुड़ा हुआ था. इस कारण वह समाज और राजनीति दोनों का मार्गदर्शक बना था. मगर बुद्ध के रहते साम्राज्यवाद को पर्याप्त जमीन न मिल सकी थी, किंतु उनके निधन के एक शताब्दी बाद ही भारत में साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाएं जोर पकड़ने लगी थीं. उससे समूची व्यवस्था केंद्राभिमुखी हो गई. महाकाव्यों के बहाने धार्मिक–राजनीतिक साम्राज्यवाद का महिमामंडन किया जाने लगा. उसका असर न्याय पर भी पड़ा था. प्रकृति आधारित जीवन में समाज में पर्याप्त समानता थी. लेकिन केंद्र के मजबूत होने से अभिजन वर्ग तेजी से मजबूत होने लगा था. परिणामस्वरूप वे संस्थान जिनकी जिम्मेदारी समाज में न्याय का संवितरण करने की थी, कुछ शीर्षस्थ लोगों की मनमर्जी से चलने लगे. इससे उनकी नीतियां और कार्यशैली भी अभिजनोन्मुखी होती गईं. इस केंद्रवाद के विरुद्ध समय–समय पर आवाजें भी उठती रहीं. यत्किंचित सफलता मिली, मगर हालात कुल मिलाकर अभिजात वर्ग के पक्ष में ही बने रहे.
सुकरात आदि विचारकों ने मनुष्य की सर्वोच्चता को स्वीकारा, उसे दुनिया में किसी भी वस्तु के सापेक्ष वरीयता दी थी. स्थापित किया था कि मनुष्य शक्तिशाली होने के कारण श्रेष्ठतम नहीं है. श्रेष्ठता का आधार उसका विवेक है. अपने अंतःकरण की शुभता के विस्तार के साथ ही मनुष्य अपने श्रेष्ठत्व की रक्षा कर सकता है. सुकरात के समकालीन प्रोटेगोरस का मानना था कि सृष्टि में—‘सामान्य वस्तुजगत जैसा वह है, और जैसा वह नहीं है. उन वस्तुओं का भी जो नहीं हैं. और जैसी वे नहीं हैं—के मूल्यांकन की एकमात्र कसौटी मनुष्य है.’4 मानवतावाद का उदय, जिसे सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, कन्फ्यूशियस जैसे विचारकों ने आवाज दी थी. वह धर्म और राजनीति में पनप रहे वर्चस्ववाद के विरुद्ध बड़ी आवाज थी, उसका नेतृत्व यूनान में सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, प्रोटेगोरस, जीनो, चीन में कन्फ्यूशियस, ताओ आदि कर रहे थे. भारत में बौद्ध, जैन, आजीवक, लोकायत आदि दर्शन व्यक्ति को मानव–वैचारिकी के केंद्र में लाने की कोशिश कर रहे थे. उन्हें किंचित सफलता भी मिली थी. किंतु भिन्न परिस्थितियों के कारण उनका परिणाम ठीक वैसा नहीं निकला, जैसा पश्चिम में निकला था. इस बहाने हम भारतीय और पश्चिमी चिंतन के मूल अंतर पर विचार कर सकते हैं. वहां धर्म सामान्य नैतिकता को प्राप्त करने का एक माध्यम है. मृत्यु–पार जीवन एवं अमरता जैसे बिंदुओं पर वहां ज्यादा जोर नहीं दिया जाता. सुकरात, प्लेटो, कन्फ्यूशियस, जीनो से लेकर अरस्तु और तत्कालीन अन्य पश्चिमी विद्वानों के चिंतन की धुरी मनुष्य है. वे ईश्वर जैसी पराशक्ति की कल्पना तो करते हैं, मगर वह मनुष्य की सामान्य पहुंच से बाहर नहीं रहती. बुद्ध और सुकरात दोनों का मानना था कि ‘शुभत्व’ एवं ‘सद्गुणों’ में पैठ मनुष्य को इसी जीवन में पराशक्ति जितना महत्त्वपूर्ण बना सकती है. प्रोटेगोरस भी वस्तु जगत को मानवीय उपयोगिता की दृष्टि से देखता है. उसके अनुसार कोई वस्तु उतनी ही उपयोगी है, जितनी मनुष्य उसे उपयोगी मानता है. इसमें भौतिकवाद के बीजतत्व देखे जा सकते हैं. यह संकल्प एक तरफा नहीं हो सकता. वस्तु–जगत मानवमात्र के लिए तभी उपयोग रह सकता है जब मनुष्य भी उसके प्रति अपनी भूमिका को पहचाने. चूंकि प्रत्येक मनुष्य की दृष्टि स्वतंत्र होती है, इसलिए वह वस्तुओं का आकलन अपने विवेक और सुख के आधार पर करने को स्वतंत्र है.
भारतीय धर्म–दर्शन में पराशक्ति के आगे मनुष्य और वस्तु–जगत दोनों का महत्त्व गौण हो जाता है. यहां शुभता और सद्गुणों को ईश्वरीय लक्षण माना गया है. जिसके लिए ईश्वरीय इच्छा का होना आवश्यक है. ईश्वरीय क्या है? यह बताने के लिए व्यक्ति और परमात्मा के बीच पुरोहित मौजूद है. वह प्रत्येक स्थिति की स्वार्थानुकूल व्याख्या करता है. जाति के आधार पर बंटे भारतीय समाज में बौद्धिक नेतृत्व ब्राह्मण के अधीन रहा है, जिसकी प्राथमिकता लोकहित न होकर, वर्गीय स्वार्थ रहते हैं. परिणामस्वरूप भारतीय समाज शोषक और शोषित में बंटता गया. एक वर्ग जो किन्हीं कारणवश सत्ता से विलग था, वह शोषण और उत्पीड़न का शिकार होने लगा. आज स्थितियां बदली हैं, लेकिन स्थिति कमोबेश वैसी ही है. उल्लेखनीय है कि भारत में जो कार्य पुरोहित वर्ग कर रहा था, यूनान में वही सोफिस्ट कर रहे थे. उन्हें पहली चुनौती सुकरात की ओर से मिली. अपने समय का वह विलक्षण विद्वान, विमर्श–योगी वर्षों तक अकेला ही सोफिस्टों के साथ बौद्धिक बहस करता रहा. उसने अपने समर्थकों और शिष्यों की पूरी पीढ़ी तैयार की. सुकरात और उसके साथियों के प्रभा–मंडल में सोफिस्टों के बौद्धिक पाखंड की कलई खुलने लगी थी, लेकिन उस संघर्ष में आरंभिक जीत सोफिस्टों के हाथ लगी. सुकरात को मृत्युदंड झेलना पड़ा. बाद में प्लेटो, अरस्तु, जीनो आदि विचारकों ने बौद्धिक क्रांति का ऐसा आगाज किया कि सोफिस्ट बेचारे बगलें झांकने लगे. उस क्रांति का असर कई शताब्दियों तक बना रहा. लेकिन मध्यकाल तक आते–आते उस वैचारिकी की आंच मद्धिम पड़ने लगी थी. धर्म का प्रभा–मंडल बढ़ने लगा था. उससे सारी नैतिकताएं और आदर्श ईश्वर तथा उसके प्रतिनिधियों में अवस्थित कहे जाने लगे.
एक प्रवचन के दौरान सेंट पॉल(The Act-xvii 28) कहता है—‘हम उसमें ही रहते हैं, उसमें ही विचरण करते हैं. उसमें ही हमारा अस्तित्व है.’ भारतीय दर्शनों में इसे ‘सर्व खाल्विदं ब्रह्म’ कहा गया है. मान्यता रही है कि उसे केवल ईश्वरीय कृपा से प्राप्त किया जाता है. आगे चलकर पूरब की तरह पश्चिम में भी न्याय को धर्म के संबंध में परिभाषित किया जाने लगा. मध्यकाल में वहां भी ईश्वर को समस्त जागतिक शुभता का केंद्र मान लिया गया. मानव–कल्याण तथा सद्गुणों का महत्त्व ईश्वर को प्रसन्न करने की मनोकामना तक सिमट गया. धीरे–धीरे धर्म के घटाटोप में न्याय शब्द विलीन होने लगा. या यूं कहें कि कुछ कर्मकांडों, ऊपरी आवरण तक सिमटकर रह गया. भारत जैसे देशों में तो धर्म को ही न्याय कहा जाने लगा था. हालांकि धर्म का कोई स्थायी रूप न था. न ही लोग उसे लेकर एकमत थे. उसकी अलग–अलग परिभाषाएं थीं, अलग–अलग मापदंड. अधिकांश लोग पुरोहितों और पंडितों द्वारा किए जाने वाले कर्मकांड को ही धर्म समझ लेते थे. इस कारण धर्म का स्वरूप, देश, काल, समय और व्यक्ति की अपनी भावनाओं के अनुसार बदलता रहता था. धार्मिक होने की कोई कसौटी तक न थी. व्यक्ति कुछ और न करे, बस इतना कह भर दे कि वह धार्मिक है, तो भी उसको धर्म–विशेष का अनुयायी मान लिया जाता है. जिंदगी–भर आधी–अधूरी आरती गाकर या माला फेरकर भी धार्मिक होने का गौरव हासिल किया जा सकता है. इस तरह धर्म का दूसरा अर्थ अपने पूर्वाग्रहों या विश्वास का खुलासा कर देना भर है. यह भी न हो तो जन्म के आधार पर भी व्यक्ति का धर्म सुनिश्चित हो जाता है. यह उस समय तक बना रहता है, जब तक व्यक्ति स्वयं धर्म से बाहर जाने की विधिवत घोषणा न कर दे. धर्म की परिसीमा को लांघना लगभग असंभव है. अनेक व्यक्तियों के लिए धर्मानुसरण मजबूरी या परंपरा–पोषण बनकर रह जाता है. यदि धर्म जन्म से लादा न जाए, व्यक्ति को अपनी रुचि या आजीविका के अनुसार धर्म चुनने की भी आजादी हो, तो आधे से अधिक लोग खुद को धर्म के दायरे में लाने की कोशिश तक न करे करें. संभव हो तो अपनी रुचि, जरूरत और विश्वास के अनुसार एकाधिक धर्मों में साझा करें. वह स्थिति पुरोहितों और धर्म के नाम पर धंधा करने वाले धर्माचार्यों के प्रतिकूल सिद्ध होगी. हो सकता है इसकी घोषणा के साल–भर के भीतर ही उनकी सारी दुकानदारी बंद हो जाए. इस बात को धर्म की धंधागिरी करने वाले भी भली–भांति जानते हैं. इसलिए जन्म के साथ ही शिशु को धर्म के खूंटे से बांध देने के प्रति सहमति हर धर्म, प्रत्येक संपद्राय में है. कुल मिलाकर धर्म अपने अनुयायियों की मूक सहमति पर भी बना रहता है, जबकि न्याय के लिए प्रबुद्ध नागरिकों की मुखर सहमति अनिवार्य है. यदि समाज में न्याय को लेकर सर्वसम्मति नहीं है, तो कहा जाना चाहिए कि उस समाज में या तो बहुत अधिक मतभेद हैं अथवा न्याय–प्रणाली पर लोगों का भरोसा नहीं है. दूसरे यह भी संभव है कि शासन ने लोगों को अपनी न्याय–व्यवस्था से परचाने में कोताई बरती है. कुल मिलाकर न्याय की सर्वस्वीकार्यता ही उसे न्याय बनाती है.
प्लेटो और अरस्तु दोनों की न्याय संबंधी अवधारणाओं में विरोधाभास भी कम न थे. उन दोनों ने ही दास प्रथा का समर्थन किया था. उसे वे समाज की आवश्यकता के रूप में देखते थे. कह सकते हैं कि प्लेटो का आदर्श राज्य तथा अरस्तु का नैतिकता समर्पित राज्य दोनों अभिजनोन्मुखी व्यवस्थाएं थीं. दोनों व्यवस्थाओं में दासों को न्यूनतम मानवीय अधिकारभी अप्राप्य थे. यहां तक कि उन्होंने दासों की स्थिति को विचार–योग्य भी नहीं माना था. इसका कारण यह भी हो सकता है कि प्लेटो और अरस्तु दोनों उच्च कुल से संबंधित थे. प्लेटो तो एथेंस की सत्ता के प्रमुख दावेदारों में से था. जबकि अरस्तु को सिंकदर का गुरु होने का गौरव प्राप्त है. वह स्वयं मकदूनिया के कुलीन परिवार से था. जाहिर है, भारतीय ब्राह्मणों की भांति यूनानी विचारक भी वर्गीय पूर्वाग्रहों से मुक्त न थे. स्त्रियों के संदर्भ में प्लेटो अपने समकालीन विचारकों की अपेक्षा उदार था. वह उन्हें पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाने के पक्ष में था, जबकि अरस्तु की लैंगिक आधार पर समाज के विभाजन के प्रति सहमति थी. उसका मानना था कि बौद्धिक और प्राकृतिक स्तर पर पिछडे़ व्यक्ति, सामाजिक स्तर पर भी पिछड़े होंगे. अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ’पा॓लिटिक्स’ में वह लिखता है, ‘सुशासित राज्य में ऐसे नागरिक जो बौद्धिक और शारीरिक रूप से अक्षम हैं, उनके सामाजिक–राजनीतिक अधिकार भी आनुपातिक रूप में सीमित हो जाते हैं.’
न्याय की सार्वभौमिकता को लेकर प्राचीन भारत में भी कमोबेश यही स्थिति थी, मगर ईसा से सात–आठ सौ वर्ष पहले वर्ण–व्यवस्था निकृष्ट जाति–प्रथा का रूप लेने लगी थी. मनुस्मृति, कात्यायन स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि ग्रंथों में न केवल वर्ण–व्यवस्था के जाति में बदलने के प्रति मौन सहमति है, बल्कि उन समाजार्थिक असमानताओं को भी स्वाभाविक मान लिया गया है, जो धर्म और जाति की जकड़बंदी की देन थीं. मनुस्मृति में स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक माना गया है. उन्हें किसी मुकदमे के दौरान साक्षी नहीं बनाया जा सकता था. मनु महाराज को स्त्री की बौद्धिक क्षमताओं पर भी भरोसा न था. इसलिए स्त्री की अवमानना का कोई अवसर वह चूकना नहीं चाहता—‘निर्लोभ मनुष्य अकेला भी साक्षी के लिए पर्याप्त है. किंतु स्त्रियां अनेक होकर भी गवाही नहीं दे सकतीं. क्योंकि स्त्री चंचल, उसकी बुद्धि अस्थिर होती है.’5 स्त्री–अधिकारिता को लेकर समकालीन भारतीय विचारकों की मान्यताएं भी इसी प्रकार की थीं. मनु सहित तत्कालीन आचार्यों का यह असमानताकारी विधान केवल स्त्रियों तक सीमित न था. समाज के तीन–चौथाई हिस्से को भी शूद्र की श्रेणी में रखकर उसे सामान्य न्याय से वंचित कर दिया गया था. उस व्यवस्था में धार्मिक–राजनीतिक अभिजन को जो अधिकार प्राप्त थे, उनका शतांश भी महिलाओं और शूद्रों को प्राप्त नहीं था. कह सकते हैं कि न्याय की अपेक्षाओं के साथ लागू आरंभिक धर्माधारित विधान तथा शीर्षस्थ शक्तियों के वर्गीय स्वार्थ में घिरकर न्याय पटरी से उतर चुका था. परिणामस्वरूप पूरी व्यवस्था समाज के बड़े वर्ग के लिए शोषणकारी तंत्र का रूप ले चुकी थी.
आरंभ में आर्थिक अभिजन का विकास नहीं हो पाया था. उसके अवसर भी कम ही थे. आय का स्रोत या तो पशुधन होता था, अथवा भू–संपदा. दोनों ही पर समाज के शीर्षस्थ वर्गों का अधिकार था. वह व्यवस्था शताब्दियों तक बनी रही. धीरे–धीरे शिल्प–कर्म का विकास हुआ. समाज में शिल्पकारों की मांग बढने लगी. आरंभ में शिल्पकार वर्ग स्वयं अपनी बनाई कृतियों का व्यापार करता था. उनके संगठन देश–देशांतर में समूहबद्ध होकर व्यापार करते थे. कालांतर में मांग बढ़ने के साथ निर्माण और व्यापार दोनों को साधना कठिन होने लगा. इससे बिचौलिये के रूप में व्यापारी वर्ग का उदय हुआ जो उत्पादक और क्रेता के बीच पुल की तरह काम करने लगा. 2600—2700 वर्ष पहले तक इस वर्ग ने अपनी आर्थिक हैसियत इतनी मजबूत कर ली कि राजनीतिक और धार्मिक अभिजनों के लिए उसकी उपेक्षा करना असंभव हो गया. राजकीय आयोजनों में श्रेष्ठि वर्ग को ससम्मान आमंत्रित किया जाने लगा था. परिणाम यह हुआ कि समाज में तीसरे वर्ग को भी अभिजन की श्रेणी में शामिल करना पड़ा. उससे शिल्पवर्ग, किसान और मजदूर जो समाज का वास्तविक उत्पादक वर्ग था, चैथी श्रेणी में खिसक गया. धार्मिक शक्तियों ने चतुराईपूर्वक चार वर्णो को मान्यता दे दी. यह मात्र 2200-2300 वर्ष पुरानी घटना है. उस समय तक न केवल, भारत बल्कि दुनिया के सभी देशों में धर्म का प्रभुत्व कायम हो चुका था. परिणामस्वरूप सभी कार्य तीसरी–चैथी अदृश्य शक्तियों, जिन्हें ईश्वर, देवता आदि कहा जाता था, जबकि असलियत में उनका अपना कोई अस्तित्व न था, के नाम पर होने लगे. इससे व्यक्ति और व्यक्ति कल्याण जैसे शब्द विमर्श से गायब होने लगे; अथवा उन्हें खास संदर्भ में देखा जाने लगेगा.
चूंकि ईश्वर अभिजन मनोरचना थी तथा उसे सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञाता, संसार के सर्जक के रूप में प्रयुक्त किया था, इसलिए उसका व्याख्याता होने का दावा करने वाला ब्राह्मण हमेशा ही शीर्ष पद का दावेदार बना रहा. बाकी वर्गों की सामाजिक हैसियत ब्राह्मणों द्वारा की गई व्याख्या द्वारा निर्धारित थी. अपने–अपने स्वार्थ के वशीभूत शेष दोनों वर्ग ब्राह्मणों द्वारा विनिर्मित व्यवस्था का समर्थन–संवर्धन करते रहे. शीर्षस्थ तीनों वर्गों वैश्य, ब्राह्मण एवं क्षत्रिय की संख्या कुल जनसंख्या के चैथे–पांचवे हिस्से तक सीमित थी, जबकि निर्णय लेने के सारे अधिकार और अस्सी प्रतिशत संसाधन इन्हीं वर्गों के अधिकार में थे. चौथे वर्ग के शेष तीन–चौथाई से अधिक लोग उनकी मनमानी सहने को विवश थे. यहां एक बात विचारणीय है. यह कि जाति–प्रथा का प्रभाव केवल भारत तक सीमित था, किंतु किसी न किसी आधार पर समाज का लगभग ऐसा ही स्तरीकरण दुनिया के उन सभी देशों में हुआ जहां संस्कृति धर्म की चेरी बन चुकी थी; और धर्म सभ्यता के प्रत्येक चरण पर छाया हुआ था. जहां और कुछ न मिला, वहां पूजा–पद्धति और विश्वास के आधार पर धर्म के भीतर ही अनेक पंथ बना दिए गए. पूजा–पद्धति, परंपरा, टोटम और आराध्य के नाम पर एक–दूसरे को मरने–मारने पर उतारू लोग समाज के जातीय विभाजन तथा उसके माध्यम से होने वाले उत्पीड़न के आगे मौन रहते थे. सही मायने में वे अभिजन–संस्थाएं थीं. जिनका गठन समाज के अभिजात वर्ग द्वारा अभिजन हितों की सुरक्षा के लिए किया गया था. भारत में धर्म सांस्कृतिक बदलावों के अलावा निकृष्ट जातीय विभाजन का भी आधार बना था, जिसने सामाजिक असमानता को स्थायी रूप देने में मदद की. कालांतर में धर्म और जाति–प्रथा का संबंध नाभि–नाल का बन गया. अपने–अपने स्वार्थ के लिए दोनों एक–दूसरे का समर्थन–संबर्धन करने लगे. ऐसा नहीं है कि धर्म और जाति–प्रथा का कभी विरोध ही नहीं हुआ. जातिप्रथा पर बड़ी चोट गौतम बुद्ध की ओर से पड़ी थी. जैन धर्म ने भी अपनी तरह से ब्राह्मणों के कर्मकांड और जाति प्रथा को चुनौती देने की कोशिश की. किंतु कालांतर में वह स्वयं एक जाति के रूप में सिमटकर रह गया. बुद्ध के अनुयायी भी जाति, वर्ण, तंत्र–मंत्र आदि में विश्वास करने लगे. चूंकि धर्म और जातिप्रथा दोनों ही सामाजिक असमानता के पोषक और संवर्धक थे, अतएव इनके चलते भारत में सांस्कृतिक–सामाजिक न्याय सदैव एक सपना बना रहा. निहित स्वार्थ के लिए भारतीय मनीषी धर्म का महिमा–मंडन करते रहे. इससे भारत में सामाजिक न्याय के लक्ष्य को छूना सदैव चुनौतीपूर्ण रहा है. सामाजिक–सांस्कृतिक असमानताओं के चलते भारतीय समाज सदैव आंतरिक संघर्ष और विक्षोभों की संघर्ष–स्थली बना रहा. आशय है कि जिस धर्म को समाज में न्याय और नैतिकता की स्थापना हेतु उपकरण के तौर पर अपनाया गया था, कालांतर में उसके आगे न्याय एवं नैतिकता का महत्त्व गौण पड़ने लगा. निरर्थक कर्मकांड और जड़ विश्वास न्याय एवं नैतिकता का स्थान लेने लगे. यह समाज में धार्मिक शक्तियों के बलशाली होते जाने का प्रमाण था. आगे चलकर यह भारतीय चिंतन परंपरा के प्रमुख चरित्र में ढलता गया. ऐसे बुद्धि–विरोधी परिवेश में वाराहमिहिर जैसा खगोलशास्त्री और गणितज्ञ भी यदि अपनी प्रतिभा मूर्तियों की कद–काठी और रूपाकार तय करने में खपाने लगे तो आश्चर्य क्यों हो. उसने मौलिक चिंतन को अवरुद्ध करने का काम किया.
मध्यकालीन यूरोप में संत अगस्ताइन(13 नवंबर, 354—28 अगस्त 430), थाॅमस एक्वीनस(1225—7 मार्च 1274) आदि ने न्याय की व्याख्या के लिए ईसाइयत को आधार बनाया. ईसा मसीह का चरित्र समाज के विपन्न और सर्वहारा का प्रतिनिधित्व करता था. इसलिए उसमें न्याय एवं नैतिकता को लेकर मौलिक चिंतन लगातार होता रहा. संत अगस्ताइन और एक्वीनस दोनों ही मध्यकालीन धर्म और न्याय के बीच सेतु बनाने के समर्थक थे. दोनों में से एक आदर्शवादी था, दूसरा व्यवहारवादी. प्लेटो से प्रभावित अगस्ताइन मानवादर्शों को महत्त्व देता था, मगर ईसाइयत से परे झांकने का उसमें साहस न था. वह न्याय को धर्म की उपलब्धि के रूप में देखता था. अगस्ताइन के अनुसार ‘न्याय उन चार चीजों में प्रमुख है, जिनके माध्यम से ईश्वर को प्यार किया जा सकता है.’ मानवादर्श एवं नैतिकता की उठान को दर्शाने वाले अन्य बुनियादी सद्गुणों से भेद करते हुए अगस्ताइन ने न्याय को व्यक्ति एवं शेष समाज के मध्य ‘पवित्र रिश्ते’ की संज्ञा दी है. न्याय पथ पर गतिमान व्यक्ति ही अपने और शेष समाज के बीच पवित्र रिश्ता बना सकता है. न्याय न केवल व्यक्ति के भीतर सहिष्णुता और समरसता पैदा करता है, बल्कि अन्य सद्गुणों की भांति यह भी हमें ईश्वरीय साक्षात का पात्र बनाकर उत्तरोत्तर उसके करीब ले जाता है. न्याय पथ पर बढ़ रहे व्यक्ति की पहली लड़ाई अपने आप से ही होती है. उसका पहला चरण अपने मन में छिपे ‘शुभत्व’ की पहचान से शुरू होता है, ‘न्याय मनुष्य के अंतर्मन में छिपा होता है.’ अच्छे और बुरे के बीच मानव–मन का अंतद्र्वंद्व हमेशा चलता रहता है. सामान्य नैतिकता मनुष्य के आत्मसंघर्ष के दौरान नकारात्मक वृत्तियों के शमन में सहायक होती है. जब तक यह संघर्ष समाप्त नहीं हो जाता, तब तक न्याय की प्राप्ति भी अलभ्य बनी रहती है. इसलिए न्याय की चाहत रखने वाले मनुष्य को उसकी शुरुआत अपने आप से ही करनी पड़ती है.
अगस्ताइन प्लेटो के आदर्श राज्य की संकल्पना को पसंद करता था. लेकिन प्लेटो का आदर्श राज्य जहां श्रेष्ठतम मनुष्यों की मिली–जुली सर्वोत्तम रचना थी, वहीं अगस्ताइन का आदर्श राज्य ईश्वरीय अनुकंपा और उसकी उपस्थिति से बनता है. अपनी इस आदर्शवादी कल्पना को अगस्ताइन ईसाइयत के माध्यम से संभव बनाना चाहता था. उसका कहना था कि प्लेटो के आदर्शवाद एवं अरस्तु के नैतिकता केंद्रित व्यवहारवाद को धर्म के संदर्भ में देखना चाहिए. उसके अनुसार धर्म मनुष्य को विनम्र बनाता है. धर्म में विश्वास रखते हुए ही न्याय के लक्ष्य को संभव बनाया जा सकता है. इसके लिए आंतरिक शुद्धता अपरिहार्य है. न्याय का ध्येय प्रत्येक व्यक्ति को वह सबकुछ देना है, जो उसका है, जिसकी उसे आवश्यकता है; या जो उसे मिलना चाहिए. ईश्वर सत्य और मानव–उद्धार की भावना के परे कुछ नहीं है. जो लोग न्याय और सचाई के रास्ते पर हैं, वही ईश्वर के रास्ते पर भी हैं. जागतिक संसार ईश्वरीय चेतना का विस्तार है. न्याय ईश्वर के प्रति प्रार्थना है. जबकि अन्याय पाप और ईश्वर के प्रति अपराध. ईश्वरीय न्याय ही दैविक न्याय है, जिसमें न्याय–पथ पर चल रहे व्यक्ति के हिस्से ईश्वरीय अनुकंपाएं आती हैं, जबकि न्याय की अवमानना करने वालों के प्रति ईश्वर का कोप. न्याय की कामना करने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह खुद को पहले अपने आप से, फिर पड़ोसी से और उसके बाद शहर या गांव से जोड़े. अगस्ताइन को न्याय बिना ईश्वरीय अनुकंपा के कहीं दिखाई नहीं पड़ता. इसके पीछे उसके जीवन की त्रासदी को देखा जा सकता है. अगस्ताइन का जन्म अफ्रीका में हुआ था. उसका बचपन बड़ी संघर्षमयी परिस्थितियों में बीता था. अतएव जीवन की प्रत्येक उपलब्धि, अप्रत्याशित की प्राप्ति उसे ईश्वरीय अनुकंपा प्रतीत होती थी. सिसरो के शब्दों में राज्य, ‘अधिकारों तथा सामान्य हितों पहचान तथा सामान्य कल्याण की प्राप्ति हेतु— मानवीय संबंधों का सुदृढ़ एवं बहुआयामी अनुबंध है.6 रोमन साम्राज्य के वैभव एवं उसकी बौद्धिक उपलब्धियों की प्रायः सभी विचारकों ने प्रशंसा की है. लेकिन अगस्ताइन को उससे संतोष न था. उसका मानना था कि रोमन साम्राज्य सिवाय एक बेहतर राजनीतिक बस्ती के और कुछ न था. अपनी चर्चित पुस्तक ‘सिटी आ॓फ गा॓ड’ में अगस्ताइन ने लिखा था कि रोमवासी बुतपरस्त और दुनियावी लोग थे. सच्चा न्याय केवल ‘ईश्वर के राज्य’ में संभव हो सकता है. स्थायी न्याय के लिए राज्य को ईश्वरीय अनुराग पर टिका होना चाहिए. कानून का राज्य जैसी कोई अवधारणा नहीं हो सकती. जिस राज्य में न्याय नहीं हैं, मान लेना चाहिए कि वहां कोई कानून भी नहीं है.’
अगस्ताइन ईसाई धर्म की करुणा को राज्य की न्याय–भावना का आदर्श मानता था. इसलिए सिसरो द्वारा दी गई राज्य की परिभाषा जिसके अनुसार राज्य वस्तुतः ‘राज्य सामान्य हितों की प्राप्ति तथा मानव अधिकारों की पहचान हेतु नागरिकों का मजबूत बहुआयामी गठजोड़ है’—का उसने समर्थन किया था. उसके अनुसार न्याय का अभीष्ट है कि कोई भी व्यक्ति किसी को भी नुकसान न पहुंचाए; तथा उनमें से प्रत्येक को जरूरतमंद की इतनी मदद करनी चाहिए, जितनी वह कर सकता है. लेकिन राज्य का काम अपने नागरिकों की मदद करने मात्र से नहीं चल पाता. राज्य की उदारता तो उसकी नीतियों तथा उसके लिए किए गए गंभीर प्रयत्नों में नजर आनी चाहिए. राज्य को हमेशा यह कोशिश करनी चाहिए कि उसके प्रत्येक नागरिक को अपने विकास का अवसर मिले. किसी आपदा अथवा संकट के समय नागरिकों की मदद करना अच्छे राज्य का लक्षण हो सकता है. लेकिन चैरिटी को ही न्याय का पर्याय मान लेना भारी भूल होगी. ‘खैरात ऐसा विकल्प नहीं है, जिससे न्याय की पूर्ति हो सके.’7 अगस्ताइन के अनुसार आदर्श समाज का गठन बिना ईश्वरीय प्रेरणा के असंभव है. इसके लिए वह सामाजिक अनुशासन से अधिक व्यक्तिगत अनुशासन को महत्त्व देता है. उसका मानना था कि समाज परिवर्तनशील है. वह घूम–फिर कर फिर उसी स्थान पर लौट आता है. व्यक्ति को इससे बचना चाहिए. उसके अनुसार, ‘यदि नागरिक स्वयं मर्यादित नहीं होंगे तो निश्चित रूप से उनसे बनी सभा भी मर्यादित नहीं रह पाएगी.’8
अगस्ताइन और एक्वीनस के बीच लगभग आठ शताब्दियों का अंतर है. वैचारिक दृष्टि से देखें तो इस अंतराल को हम ठहरा हुआ पाते हैं. उस समय तक धर्म और साम्राज्यवाद एक हो चुके थे. मनुष्य की आध्यात्मिक चेतना एवं जिज्ञासाओं के समाधान के रूप में उभरा धर्म साम्राज्यवादियों के लिए बड़ा हथियार सिद्ध हुआ था. जनसाधारण को बताया जाने लगा कि उनकी सत्य की तलाश पूरी हो चुकी है. उस सत्य के कई रंग थे. वह भारत में जाति और वर्ण के अलग–अलग खानों में बंटा हुआ था. उनके बीच अलंघ्य दूरियां थीं. बुद्धिजीवी वर्ग का भी उसे समर्थन था. परिणाम यह हुआ कि पूरब और पश्चिम में हर जगह समाज की मेधा का बड़ा हिस्सा अपने–अपने धर्म के महिमा–मंडन में जुट गया. लोगों की रुचि और जरूरत के अनुसार देवता गढ़े जाने लगे. धर्म जीवन की उपयोगिता तीसरी शक्ति को प्रसन्न करने में खोजता था. उसके प्रभाव में प्रयाण गीत के स्थान पर प्रार्थनाएं गाई जाने लगीं. पुरुषार्थ के स्थान पर दैन्य छाने लगा. चाटुकारिता के उस दौर में स्वाभिमान मरने लगा. मनुष्य मनुष्य को महत्त्व दे, पूरे समाज की खुशी के लिए काम करे—इस विचार का अब कोई महत्त्व नहीं रह गया था. शुभता और सद्गुण जिन्हें गौतम बुद्ध, सुकरात, कन्फ्यूशियस जैसे महान विचारकों ने मनुष्य में अवस्थित मानते हुए मानवीय पहचान से जोड़ा था, वे ईश्वर में अवस्थित कहे जाने लगे. न्याय और समानता के दुर्दिनों की शुरुआत वहीं से हुई. धर्म के केंद्रीयवाद ने साम्राज्यवाद को शक्तिशाली बनाया था. इससे उसके निर्णयों पर निरंकुशता छाने लगी. धर्म के नाम पर, देवता के नाम पर शोषण के नए–नए तरीके खोजे जाने लगे. उन्हें पुरोहित वर्ग का पूरा समर्थन हासिल था. इससे असमानता पनपी. समाज साधारण, विशिष्ट और अतिविशिष्ट लोगों में बंटने लगा. जो विशिष्ट और अतिविशिष्ट श्रेणी के थे, उनके लिए जनसाधारण का, सिवाय इसके कि वे शासित रहकर उसके शासक होने के दर्प की पूर्ति करते थे—कोई महत्त्व न था.
क्षीण होती नैतिकता के प्रभाव में न्याय के मायने दंड और पुरस्कार तक सीमित रह गए. मौलिकता से कट जाने के कारण बार–बार पीछे मुड़कर देखने की प्रवृत्ति ने जन्म लिया. भारत में बार–बार वेदों, उपनिषदों, पुराणों और महाकाव्यों की दुहाई दी जाने लगी तो पश्चिम में किसी न किसी बहाने सुकरात, प्लेटो और अरस्तु से संदर्भ लेकर ज्ञान–साधना की भूख का समाधान किया जाने लगा. 2500—2600 वर्ष पहले ज्ञान का जो प्रकाश पूर्व और पश्चिम दोनों जगह लगभग साथ–साथ फैला हुआ था, उसका तेज दोनों ही जगह मद्धिम पड़ने लगा. प्रकृति के सान्निध्य में पलने वाले आदिम मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासा जो कभी बहते नीर के समान निर्मल–पावन थी, वह धर्म और संप्रदाय के नाम पर बने तालाबों, पोखरों में फंसकर गंदली होने लगी. शताब्दियों बाद भी प्लेटो, अरस्तु, सुकरात, गौतम बुद्ध आदि प्रासंगिक बने रहे तो इसका कारण यह भी है कि धर्म हमारे दिलो–दिमाग पर कब्जा कर, हमारे मौलिक चिंतन पर कब्जा कर चुका था. अगस्ताइन ने प्लेटो के आदर्शवाद पर जोर दिया था. उससे आठ सौ वर्ष बाद जन्मा थाॅमस एक्वीनस अरस्तु के नैतिक दर्शन का समर्थक था. उसने मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों पर जोर दिया था. लेकिन ईश्वर के नाम पर. यह कहते हुए कि ईश्वर ऐसा चाहता है. न कि इसलिए कि मानवीय स्वतंत्रता की गरिमा हेतु मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों की सुरक्षा–संरक्षा आवश्यक है. कुछ खूबियां भी उसकी विचारधारा में थीं. यदि वे न होतीं तो आठ सौ वर्ष लंबे अंतराल में विस्मृति उसे कभी का शिकार बना चुकी होती. एक्वीनस का जोर मानवीय नैतिकता पर था. धर्म को वह समाज में न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए आवश्यक मानता था. उसकी आस्था शुभत्व की भावना से प्रेरित थी. एक्वीनस का सुझाव था कि मनुष्य को स्वयं को नैतिकता की कसौटी पर लगातार कसते रहना चाहिए. प्रकृति के सापेक्ष लोक उत्तरवर्ती रचना है. अतएव ईश्वरीय नियमों की महत्ता लौकिक नियमों से अधिक है. तदनुसार मनुष्य के मौलिक अधिकार किसी राज्य अथवा समाज के अधिकार से बढ़कर नहीं होने चाहिए. उसके अनुसार न्याय सदैव ईश्वरीय सत्ता पर निर्भर होता है. अरस्तु की न्याय की परिभाषा को आगे बढ़ाते हुए एक्वीनस ने लिखा था—न्याय मानव समाज का हिस्सा है. जिसके अनुसार प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि नागरिक कल्याण के लिए वह सब करे, जी–जान से करे, जो वह कर सकता है.
फिर न्यायाधीश किसे माना जाए? एक्वीनस इसके बारे में भी आश्वस्त है. न्यायाधीश को ‘न्यायमूर्ति’ की संज्ञा दी है—‘न्यायाधीश वह है जो अपने आदेश और निर्देश के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को वह सब देता है, जिसका वह अधिकारी है. उसके अनुसार न्याय का मानवीकरण ही न्यायाधीश है. वही न्याय का संरक्षक भी है.’9 वह हमेशा यह ध्यान रखता है कि मनुष्य को जो अधिकार प्राकृतिक रूप से प्राप्त हैं, उनमें किसी भी प्रकार की कटौती न हो. ईश्वर प्रथम न्याय–कर्ता, सबसे बड़ा न्यायाधीश है. वह सबको प्राकृतिक न्याय का बोध कराता है, जिसमें सबके लिए समानता और स्वतंत्रता है. यही कारण है कि प्राकृतिक न्याय, लौकिक न्याय से सदैव ऊपर होता है. उनमें कोई विरोधाभास भी नहीं है. समाज का गठन ही सामान्य अधिकारों की पहचान के साथ–साथ परस्पर सहयोग करते हुए आगे बढ़ते रहने के लिए हुआ है. अरस्तु ने न्याय को संवितरणात्मक और योग्यतानुपाती माना था. संवितरणात्मक न्याय राज्य की उदारता, कार्यक्षमता और सामाजिक दायित्वों के प्रति उसकी गंभीरता का द्ययोतक है. वह सामाजिक विषमताओं के समाधान हेतु राज्य की गंभीरता तथा उसके कौशल को दर्शाता है. योग्यतानुपाती न्याय राज्य की नागरिकों की योग्यता और आवश्यकता के अनुसार, कारगर निर्णय लेने की योग्यता का प्रदर्शन करता है. इसका संबंध नागरिकों की योग्यता तथा उनके द्वारा समाज के हित में किए गए योगदान से है. न्याय की परिभाषा को लेकर एक्वीनस की अरस्तु से सहमति थी. उसके अनुसार न्याय सभी सद्गुणों में सर्वोत्तम है. मानवमात्र का कर्तव्य है कि समाज में न्याय की श्रीवृद्धि के लिए निरंतर प्रयत्नरत रहे. यह दूसरों से अपेक्षा के चलते हरगिज नहीं हो सकता. मनुष्य स्वयं न्याय की ओर तत्पर होगा, तभी न्याय–आधारित समाज का गठन संभव है. चुनौती बड़ी है. लेकिन मनुष्यता के सर्वांग कल्याण हेतु सिवाय इसके दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है. बकौल एक्वीनस समाज की अनेकानेक समस्याओं की जड़ उसमें न्याय की अनुपस्थिति है. यूं तो सारी सृष्टि परमात्मा की, परमात्मा में ही अवस्थित है. लेकिन विभिन्न प्रकार के दबावों के विरुद्ध अपने श्रम–कौशल और परिश्रम से मनुष्य जो कुछ अर्जित करता है, उसके सुखोपभोग का अधिकार उसे मिलना ही चाहिए. इसके लिए एक्वीनस ने व्यक्तिगत संपत्ति के विचार का समर्थन किया था. व्यक्तिगत संपत्ति ईश्वरीय अनुकंपा है. लेकिन दूसरे की संपत्ति पर कब्जा करना. उसे चुराना या हड़प लेना दोनों ही अन्याय के प्रतिमान हैं. ईसाई धर्म कहता है—तुम अपने पड़ोसी को उतना ही प्यार करो, जितना अपने आप से करते हो. ईश्वर से भी उतना ही प्यार करना चाहिए, जितना स्वयं से करते हैं. बस यहीं हमारे विरोधाभास सामने आने लगते हैं. हम कथित ईश्वर से उतना प्यार कर ही नहीं सकते, जितना स्वयं से करते हैं. इस तरह हम खुद और ईश्वर की सृष्टि के बीच के अंतर करने लगते हैं. एक्वीनस की दृष्टि में यह ईश्वरीय सत्ता में अविश्वास करने जितना बड़ा पाप है. निजी संपत्ति पर अधिकारिता को वह प्राकृतिक मानता था. उसके अनुसार किसी को उसकी संपत्ति से वंचित कर देना या उससे बलात् छीन लेना दोनों ही पाप हैं.
अरस्तु की भांति एक्वीनस ने भी दास–प्रथा का समर्थन किया था. मगर स्त्रियों को उपयुक्त अधिकार दिए जाने चाहिए, इसे लेकर दोनों ही सहमत थे. एक्वीनस के अनुसार चूंकि ईश्वर सर्वोत्तम है, अतः मनुष्य केवल ईश्वर के साम्राज्य में खुश हो सकता है. मनुष्य का राज्य उसे असंतोष और पीड़ा के सिवाय कुछ नहीं दे सकता. इसके लिए मनुष्य को अपनी आस्था केवल परमात्मा और उसकी नैतिक सर्वोच्चता में बनाई रखनी चाहिए. सामाजिक–आर्थिक विषमता का होना भी ईश्वरीय मान्यता के अनुसार पाप है. प्रकृति प्राणिमात्र के प्रति समभाव रखती है. राज्य और उसके नागरिकों की कोशिश होनी चाहिए कि समाज में किसी भी प्रकार की विषमता न फैले. अतः जो व्यक्ति ईश्वर के प्यार को सचमुच प्राप्त करना चाहता है, उसका प्राकृतिक समानता के मूल–भूत दर्शन में विश्वास रखना अत्यावश्यक है. अगस्ताइन और एक्वीनस दोनों के लिए न्याय आस्था का विषय है. वह इसलिए आवश्यक है क्योंकि ईश्वर ऐसा चाहता है; या उससे कथित ईश्वर को खुशी मिलती है. आखिर ये बड़े–बड़े विचारक व्यक्ति के लिए न्याय की खोज करते–करते लोग ईश्वर तक क्यों चले जाते हैं? ईश्वर की खुशी व्यक्तिमात्र की खुशी का पर्याय भला कैसे हो सकती है? ईश्वर को यदि किसी ने देखा नहीं, यदि वह केवल अवधारणा तक सीमित है, तो क्यों नहीं व्यक्ति की खुशी को ही न्याय की कसौटी मान लिया जाए? दूसरे शब्दों में न्याय यदि मनुष्य की जरूरत है तो उसको मनुष्य की इच्छा और रुचि के अनुरूप क्यों नहीं होना चाहिए? अगस्ताइन, एक्वीनस हो या कोई और अध्यात्मवादी, ऐसे सवालों पर विचार नहीं करते? अनेक तो ऐसा सोचना भी ‘कुफ्र’ मानते हैं. उनके लिए कथित ईश्वर प्रत्येक समस्या का समाधान है. हालांकि सिवाय आस्था के, जैसा दूसरे अध्यात्मवादी दावा करते हैं, वे कथित ईश्वरीय इच्छा अथवा समस्या के समाधान को लेकर दूसरों को आश्वस्त कर पाना तो दूर, खुद भी डांवाडोल रहते हैं. धर्म के इन विरोधाभासों पर जो न्याय–भावना पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं, यशपाल का कहना है—
‘जो लोग विद्वान हैं, शक्ति संपन्न हैं, उनके लिए ईश्वर का होना न होना बराबर है. ईश्वर का भय या विश्वास उन्हीं लोगों के लिए आवश्यक है जो सत्य, धर्म और उचित को स्वयं नहीं पहचान सकते. सत्य, धर्म और उचित को कौन पहचान सकता है, और कौन नहीं पहचान सकता; यह बात बहुत हद तक इस बात पर भी निर्भर करती है कि सत्य, धर्म और उचित क्या है और उसे निश्चित किसने किया है. जो व्यक्ति या श्रेणी सत्य, धर्म, उचित और न्याय का निश्चय करती है, सत्य, धर्म और न्याय को समझने में कोई कठिनाई उस श्रेणी को नहीं हो सकती. क्योंकि सत्य, धर्म और न्याय स्वयं उन्हीं की इच्छा के अनुसार, स्वयं उन्हीं के मस्तिष्क से, उनकी आवश्यकताओं और हितों को पूरा करने के लिए पैदा होते हैं. इस प्रकार के धर्म और न्याय का पालन करने के लिए इन लोगों को किसी भय की आवश्यकता नहीं, न समाज में कायम शासन की, न ही ईश्वर की आज्ञा की.’11
फिर आस्था को ढोते रहने का कारण? इसके पीछे सामाजिक परिस्थितियों की भूमिका कम नहीं है. दो सहस्राब्दी पूर्व बड़े राज्यों के गठन में धर्म की भूमिका सकारात्मक रही थी. पूरब हो या पश्चिम हर जगह मनुष्य को लगा था कि समाज में शांति और सुव्यवस्था के लिए धर्म अपरिहार्य है. एक सीमा तक धर्म ने इस जिम्मेदारी को संभाला भी. लेकिन धर्म की ताकत के भरोसे नहीं. बल्कि जो शक्तियां धर्म के माध्यम से समाज के शिखर पर विराजमान थीं, जनाक्रोश से बचने के लिए उन्हें उतना करते हुए दिखना आवश्यक था. दूसरा कारण परिपक्व राजनीतिक दर्शन का अभाव था, जो उनीसवीं शताब्दी तक बना रहा.
न्याय के संदर्भ में मध्यकाल के दौरान भारत और पश्चिमी जगत की स्थिति को देखें तो दोनों में पर्याप्त समानता दृष्टिगत होती है. दोनों ही जगह न्याय की मांग या उसकी अपेक्षा किसी तीसरी शक्ति यानी ईश्वर के नाम पर की जाती है. अंतर केवल इतना है कि पश्चिम में अगस्ताइन, एक्वीनस आदि विद्वान जिसे ईश्वरीय अनुकंपा मानते हैं, भारतीय ग्रंथकार उसे धर्म की संज्ञा देकर कर्मकांडों में ढाल देते हैं. तार्किक वस्तुनिष्ठता न यहां है न वहां. दोनों में अंतर उत्तर मध्यकाल के दौरान सामने आता है. उसे हम वास्तविक परिवर्तन का बीजारोपण भी कह सकते हैं. उसके परिणाम क्रांतिकारी सिद्ध हुए. चूंकि धर्म और सामंतवाद अपने उद्भवकाल से ही एक–दूसरे को मजबूत करते आए थे, उन दिनों भी वे निर्णायक भूमिका में थे—इसलिए वास्तविक परिवर्तन की शुरुआत के लिए अभी कुछ और शताब्दियों तक प्रतीक्षा करनी थी. यूरोप की वैचारिक क्रांति को हवा देने वाला वह दौर वैज्ञानिक क्रांति का था, जिसने समाज के सभी वर्गों को प्रभावित किया था. उसकी नींव रखने वाले दो प्रमुख वैज्ञानिक थे. पहला निकोलस का॓परनिकस, जिसने सूर्य को सौरमंडल का केंद्र सिद्ध कर, अनेक रूढि़यों और जड़–मान्यताओं पर प्रहार किया था. दूसरा भौतिक विज्ञानी आइजक न्यूटन. का॓परनिकस की पुस्तक ‘दि रिबोल्युशन आ॓रबिट’(1543) तथा न्यूटन की पुस्तक ‘दि प्रंसीपिया मेथमैटिका’(1657) ने धर्म और रूढि़यों के मकड़जाल में फंसे समाजों में ऐसा क्रांतिकारी आगाज किया, जिसे झुठलाने या उपेक्षित करने की हिम्मत किसी में न थी. उससे पूरे यूरोप में वैचारिक क्रांति की लहर उठी. इतनी तेज कि एक ही झटके में अनेकानेक जड़ मान्यताओं और पूर्वाग्रहों को अपनी रौ में बहा ले गई. उससे आगे चलकर एक वैज्ञानिक समाज का जन्म हुआ. भारतीय विद्वानों का दावा है कि जो कार्य पश्चिम में काॅपरनिकस ने सोलहवीं शताब्दी में किया था, अपने यहां उसकी शुरुआत आर्यभट्(476—550 ईस्वी) और ब्रह्मगुप्त(598—670 ईस्वी) बहुत पहले कर चुके थे. इसमें सचाई हो सकती है. यदि ऐसा है तो उसके लिए दोषी स्वयं भारतीय मनीषा है, जो धर्म और रूढि़यों में फंसकर अपनी मौलिकता गंवा चुकी थी. वह बात ईश्वरीय न्याय की करती है, लेकिन यदि किसी पर स्वतंत्रता, समानता और अस्मिता पर संकट आ पड़े तो उसे भगवान भरोसे छोड़ देती है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि आर्यभट् प्रतिभावान खगोलशास्त्री और गणितज्ञ था. का॓परनिकस से बहुत पहले वह इस निष्कर्ष पर पहुंच चुका था कि सौरमंडल का केंद्र पृथ्वी न होकर सूर्य है, जो पृथ्वी अपने कक्ष पर चक्रण करती रहती है. उसी से रात–दिन का मेला लगता है—
‘जिस तरह आगे बढ़ रही नाव में बैठा व्यक्ति किनारे पर मौजूद पेड़–पौधे आदि स्थायी वस्तुओं को विपरीत दिशा में गति करता हुआ देखता है, उसी प्रकार श्रीलंका में स्थिर किसी प्रेक्षक को तारे पश्चिम की ओर जाते हुए दिखाई देंगे.’12
भारतीय मनीषियों की कमजोरी रही कि उनकी भाषा या तो बहुत आलंकारिक रही अथवा अत्यंत प्रतीकात्मक. सीधी–सधी भाषा और विवेचनात्मक शैली में तथ्यात्मक लेखन के उदाहरण यहां बहुत विरल हैं. उपर्युक्त उदाहरण में आर्यभट् पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने का सीधे–सीधे उल्लेख नहीं करता, बल्कि पाठक को स्वयं निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए छोड़ देता है. इससे उनकी टीका करने वालों को मनमानी व्याख्या करने का अवसर मिल जाता है. का॓परनिकस तथ्यों को वैज्ञानिक की भांति प्रस्तुत करता है. मौलिक गणितज्ञ होने के साथ–साथ आर्यभट् प्रतिभा में किसी से पीछे न था. बावजूद इसके, कदाचित तथ्यों के प्रस्तुतीकरण की कमी के चलते, श्रेय काॅपरनिकस और न्यूटन जैसे वैज्ञानिकों को मिला, जिसने वैज्ञानिक सत्यों का सुसंगत अन्वेषण किया था. वैज्ञानिक क्रांति से प्रकृति के नए–नए रहस्य सामने आने लगे. इससे प्राकृतिक उपादानों को देखने की नई दृष्टि का विकास हुआ. धीरे–धीरे यह तथ्य भी सामने आया कि जो ऊर्जा एक पहाड़ के भीतर है, वही एक कण में भी अंतर्निहित है. प्रकृति केवल माया नहीं है. बल्कि उसका अस्तित्व है. उसे प्रयोगशाला में सिद्ध किया जा सकता है. शोध के दौरान यह तथ्य भी जगजाहिर हुआ कि कण मात्र में वैसी ही ऊर्जा है, जैसी कल्पना आध्यात्मशास्त्री पुराणों, धार्मिक गल्पों, टोटमों, देवताओं और दानवों आदि में करते आए थे. यूं तो जैन दर्शन का ‘पुद्गलवाद’ चर्चित रहा है, जिसे जीवन ऊर्जा से सराबोर माना गया है. लेकिन भारत में ईश्वर का मिथक हर प्रतीक पर सवार रहा है. कण को कण की तरह देखने वाली दृष्टि, सृष्टि को इस मिथक से परे देख ही नहीं पाती. इस कारण जैन दर्शन का ‘पुद्गलवाद’ एवं वैशेषिक का ‘अणुवाद’ केवल दार्शनिक ग्रंथों की शोभा बने जाते हैं. विज्ञान की ताकत तथ्यों की वस्तुनिष्ठ एवं तर्कसम्मत विवेचना में है. वैज्ञानिक जो कह रहे थे, वह प्रयोगशाला में सिद्ध था. इसीलिए सही मायने में जनवादी सोच का बीज वहीं से पड़ा. कालांतर में वही बड़े सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तनों का कारण बना.
बहरहाल, सांस्कृतिक प्रतीकों और मिथकों के समर्थन–विरोध में चाहे जितने वैज्ञानिक तथ्य हों, उनसे जुड़े प्रभाव और दुराग्रह इतनी जल्दी पीछा छोड़ने वाले नहीं थे. विज्ञान के क्षेत्र में होने वाला कोई शोध, पूर्व–स्थापित तथ्य को कभी भी झुठला सकता है. विज्ञान जगत उसके लिए सदैव तैयार रहता है. किंतु सामाजिक बदलाव हमेशा क्रमानुक्रम में होते है. वैज्ञानिक अन्वेषणों की गति के सापेक्ष सामाजिक परिवर्तनों की गति सदैव धीमी होती है. संस्कृति और वैचारिकी पर उनका प्रभाव पड़ते–पड़ते ही पड़ता है. एक परिवर्तन को आत्मसात कर, दूसरे तक पहुंचने में समाज समय लेता है. यही कारण है कि पंद्रहवीं–सोलहवीं शताब्दी में हुई वैज्ञानिक क्रांति का वास्तविक असर सतरहवीं–अठारहवीं शताब्दी में देखने को मिलता है.
मध्यकाल के न्यायवादी विचारकों में थामस हा॓ब्स का नाम प्रमुख है. वह पहला विचारक था जिसने राजनीतिक सिद्धांत और आधुनिक विचारधाराओं में सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की. अपने राजनीतिक दर्शन की रूपरेखा प्रस्तुत करते समय उसने, प्रकृति के तमाम तथ्यों, जिनमें मानव व्यवहार के मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक सभी पहलू सम्मिलित थे, विचार किया. सुकरात, प्लेटो, अरस्तु से लेकर संत अगस्ताइन और एक्वीनस सभी का दर्शन सोफिस्टों की विचारधारा के विरोध में जन्मा था. लेकिन हा॓ब्स ने अपनी बात अमूर्त्तन को नकारते हुए, मूर्त्तन की ओर वापस लौटने से शुरू की. उसने जोर देकर कहा कि जो वास्तविक है, उसको दृश्यमान होना ही चाहिए. इसका श्रेय भी उसको मिलना चाहिए. मनुष्य केवल आत्मा नहीं है. वह ‘जीवित शरीर’ भी है. देह न केवल व्यक्ति और शेष प्रकृति–जगत के बीच पृथकत्व का कारण है, बल्कि उसी के कारण मनुष्य एवं शेष प्राणिजगत में अनूठा नैकट्य है. वही मनुष्य एवं शेष विश्व के बीच संबंधों और प्रति–संबंधों का कारण है. देह के कारण ही प्राणिमात्र स्वयं को दूसरों से अलग और विशिष्ट मानता है. उसी के कारण उसे दूसरों की उपस्थिति, उनकी विशेषताएं आकर्षित करती हैं. दूसरे शब्दों में बहिर्जगत, बहिर्जगत है ही इसलिए, क्योंकि उसका कोई अंतर्जगत है. वही मनुष्य अंतर्मन में झांकने के लिए उकसाता है. जो भी ‘जीवित शरीर है.’ उसकी समाज में स्वतंत्र हैसियत है. ऐसे संसार में स्वतंत्र हैसियत है, जहां उस जैसे करोड़ों मनुष्य अपनी स्वतंत्र व्याप्ति के साथ मौजूद हैं. ऐसे में उसकी अस्मिता और उपस्थिति का सम्मान, उसकी स्वतंत्रता की रक्षा तभी संभव है—जब वह खुद भी दूसरों की स्वतंत्रता और अस्मिता का सम्मान करे. इसलिए आत्म की कीमत पर देह की उपेक्षा उचित नहीं है. हा॓ब्स के अनुसार व्यक्ति समाज के बीच रहकर ही सुख और सुरक्षा प्राप्त कर सकता है. मनुष्यता की रक्षा भी दूसरों के साथ सामंजस्य रखते हुए संभव है. वह लिखता है—
मनुष्य के सामने प्रथम लक्ष्य अपनी सुरक्षा अथवा शक्ति के रक्षण का होता है. उसके लिए दूसरे मनुष्यों का उसी सीमा तक महत्त्व है, जब तक वे असर डालते हैं. चूंकि बुद्धि–विवेक एवं शक्ति के मामले में सभी मनुष्य लगभग एकसमान हैं, इसलिए जब तक उसे अनुशासित रखने के लिए कोई नागरिक शक्ति न हो, तब तक हर मनुष्य की हर मनुष्य के साथ लड़ाई है. इस तरह की स्थिति यद्यपि सभ्यता के प्रतिकूल है. लेकिन यदि ऐसा न हो तो नौवहन, कृषिकला, शिल्पकर्म, कला और साहित्य, उद्योग आदि में से किसी की भी उन्नति असंभव है. उस स्थिति में मनुष्य का जीवन, एकांत, निर्धन, घृणित, जंगली और अल्पकालिक होगा. उस अवस्था में न तो न्याय होता है, न ही अन्याय. न तो उचित होता है, न ही अनुचित. वैसे हालात में जीवन का एकमात्र यह नियम काम करता है कि मनुष्य को जो प्राप्त करना कर ले, और उसमें से जितना पास रखना चाहता है, रख ले.’13
हाब्स का आशय था कि यदि समाज न हो, स्पर्धा न हो, हितों का टकराव न हो तो विकास असंभव है. विकास मनुष्य की चेतना और प्रतिचेतना दोनों पर निर्भर होता है. लेकिन मनुष्य की सफलता उसे ज्यों का त्यों बनाए रखने में नहीं है. यदि ऐसा हो तो उसके विवेकीकरण का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा. उसने जोर देकर कहा था कि आत्मरक्षा के लिए हिंसा और प्रतियोगिता के स्थान पर, शांति और सहयोग अपेक्षाकृत ज्यादा कारगर हैं. शांति के लिए पारस्पिरिक विश्वास और सहयोग की आवश्यकता पड़ती है. भय और असुरक्षा की भावना शांति और विश्वास बनाए रखने में सबसे बड़ी बाधाएं हैं. सामान्य मानव–प्रवृत्ति भय से मुक्ति पाने की है. प्रत्येक व्यक्ति सुख एवं सुरक्षा की कामना करता है. शाश्वत सुख की चाहत उसे समाज की शरण में ले आती है. अब यदि समाज अपने दायित्व की पूर्ति में चूक जाए. आवश्यकता पड़ने पर मनुष्य को समाज में शांति और सुरक्षा की प्राप्ति न हो, तब मनुष्य को यह अधिकार है कि वह अपनी शांति और सुरक्षा के लिए जो आवश्यक है, वह करे. कह सकते हैं कि समाज की चूक व्यक्ति को मनमानी का अवसर देती है. यह स्थिति उत्पन्न न हो, उसके लिए समाज और उसकी सदस्य इकाइयों के बीच तालमेल आवश्यक है. व्यक्ति की अपने अधिकारों के प्रति उदासीनता समाज को निष्ठुर और व्यक्ति को आत्मलीन बनाने का काम करती है. कुल मिलाकर पारस्परिक हितों की सुरक्षा की दृष्टि से काम करना, प्रथम दृष्टया संतुलित सुझाव लगता है. किंतु गंभीरतापूर्वक विचार करने पर उसका खोखलापन, यानी इसके पीछे किसी नैतिक प्रेरणा का न होना सामने आ जाता है. यह सीधे–सीधे एक सौदे जैसा है. व्यक्ति और समाज के बीच स्पष्ट लेन–देन का मामला. जिसमें व्यक्ति से कम से कम उस समय तक शांति–प्रयास की अपेक्षा की जा सकती है, जब तक दूसरे व्यक्ति भी उस काम में लगे हों. यह दर्शाता है कि सामाजिक शांति एवं सुख की स्थापना सामूहिक दायित्व है तथा व्यक्ति की सुरक्षा और स्वतंत्रता अन्योन्याश्रित है.
हा॓ब्स के अनुसार कर्तव्य और अधिकारों परस्पर पूरक हैं. इन्हें अलग–अलग देखना अनुचित है. दोनों का साथ–साथ पालन करते हुए ही समाज को सुस्थिर किया जा सकता है. इसलिए किसी को तभी तक सुरक्षा का आश्वासन दो, जब तक वह आपकी सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है. प्रत्येक व्यक्ति को उस समय तक अपनी स्वतंत्रता एवं सुरक्षा का भरोसा होना चाहिए, जब तक वह दूसरों की स्वतंत्रता और सुरक्षा की प्रतिबद्ध भाव से रक्षा करता है. दूसरों की स्वतंत्रता में अवांछित हस्तक्षेप के साथ ही व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का अधिकार खो बैठता है. हा॓ब्स के अनुसार ‘शासन में यह शक्ति होनी चाहिए कि वह शांति की स्थापना कर सके.’ इस तरह हा॓ब्स एक ओर व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता और सुरक्षा की रक्षा के लिए असीमित अधिकार देता है. यहां तक कि उसके लिए राज्य की उपेक्षा करने का सुझाव भी दे जाता है. दूसरी ओर राज्य को भी असीमित अधिकारों की छूट दे देता है. उसके अनुसार जब तक कोई मूर्त्त शासन न हो, जब तक अपनी इच्छा को लागू करने की शक्ति से संपन्न कोई व्यक्ति न हो, तब तक न तो राज्य होता है, न ही समाज, प्रत्युत् एक ‘प्रधानहीन’ भीड़ होती है. उसे नियंत्रित करने के लिए शक्ति की आवश्यकता पड़ती है. हा॓ब्स के शब्दों में, ‘बिना तलवार के समस्त प्रसंविदाएं कोरे शब्द हैं, उनमें इतनी शक्ति नहीं होती कि मनुष्य उनका पालन करने को विवश हो.’14
इससे हा॓ब्स को निरंकुशता का समर्थक मान लेना भूल होगी. दरअसल वह राज्य एवं समाज दोनों को इतना संगठित और शक्तिशाली देखना चाहता है कि दोनों की शक्तियां, सम्मिलित विवेक एक–दूसरे को संतुलित कर सकें. व्यक्तिगत रूप से वह राजतंत्र का समर्थक था. किंतु उसके प्रस्तावित राजतंत्र में प्रजा अपने अधिकारों से सर्वथा वंचित नहीं है. बल्कि वह प्रजा को इतनी संगठित, शक्तिशाली और विवेकवान देखना चाहता था कि आवश्यकता पड़ने पर राज्य को भी नियंत्रित कर सके. उसके अनुसार शक्ति केवल राज्य के हाथ में हो तो उसके निरंकुश होने की संभावना बढ़ जाती है. और राज्य निर्बल हो तो उसके अस्थिर होकर लक्ष्य से भटक जाने की संभावना बढ़ जाती है. नागरिक और प्रशासन में संतुलन के लिए समाज में शक्ति का विकेंद्रीकरण आवश्यक है. अपनी महान कृति Leviathan(The Matter) में समाज एवं राजनीति के संबंधों की गहन समीक्षा के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि—
‘समस्त मानवजाति शक्ति की शाश्वत एवं अविश्रांत इच्छा से प्रेरित है. इस लालसा का अंत मृत्यु के साथ ही होता है. इसका कारण यह नहीं है कि मनुष्य के पास जितनी खुशी है उससे अधिक खुशी वह चाहता है या मौजूदा शक्ति से कम में उसका काम नहीं चल सकता. इसका कारण है कि मनुष्य के पास अपनी जीविका के जितने साधन तथा शक्तियां है, उससे अधिक की लालसा रखे बगैर उसे अपनी सुरक्षा का भरोसा नहीं होता.’15
हा॓ब्स की दृष्टि में विधि का शासन सत्ता की ओर से प्रस्तुत की गई वह इच्छा या उसकी ओर से प्रचलित ऐसे नियम हैं, जो नागरिकों को उचित–अनुचित का बोध कराते हैं. विधान दो प्रकार के होते हैं. एक वह जो व्यक्ति या समुदाय द्वारा बनाए जाते हैं. हाब्स ने उन्हें नागरिक विधान कहा है. दूसरे प्राकृतिक विधान. जिनसे प्रकृति का हिस्सा होने के कारण प्रत्येक प्राणी स्वाभविक रूप से बंधा होता है. हा॓ब्स के अनुसार प्राकृतिक विधान नागरिक विधान की अपेक्षा श्रेष्ठतर होता है. लेकिन समाज में रहते हुए केवल प्राकृतिक विधान से काम नहीं चलता. उसके लिए नागरिक विधान को भी अपनाना पड़ता है. नागरिक विधान का गठन हालांकि नागरिकों की सहमति के आधार पर होता है. लेकिन नागरिकों की सामान्य सहमति मिलने के बाद वह राज्य की इच्छा का रूप ले लेता है. जिसे राज्य शासनादेश के रूप में लागू करता है. ऐसे में प्राकृतिक विधान का केवल आलंकारिक महत्त्व रह जाता है. लेकिन प्राकृतिक विधान की कुछ खूबियां ऐसी होती हैं, जिन्हें अपनाकर कोई भी समाज सभ्य होने का दावा कर सकता है. इसी कारण उन्हें नागरिक विधान का हिस्सा बनाया जाता है, लेकिन कुछ इस प्रकार कि नागरिक विधान उनकी पवित्रता को भंग करने के बजाय उनकी सुरक्षा में खड़ा हुआ नजर आए. प्रकारांतर में नागरिक विधि में बल प्रयोग का भाव निहित है. प्राकृतिक विधान की कमजोरी है कि उसके सभी नियम समाज को आगे नहीं ले जा सकते. हा॓ब्स का विचार था कि उपयोगितावादी दृष्टि से शासन, कोई भी शासन—निरंकुशता से बेहतर होता है. तो क्या निरंकुशता में शासन नहीं होता. बल्कि बहुत कठोर शासन होता है. वह इसलिए कामयाब होता है क्योंकि नागरिक संगठन कमजोर पड़ जाते हैं. निरंकुश शासन में नागरिक स्वयं को राज्य की इच्छा के आगे समर्पित कर देते हैं. इससे समाज का औचित्य ही समाप्त हो जाता है. आधुनिक विचारक ऐसे राजनीतिक दर्शन का समर्थन करते हैं, जो समाज की सामान्य चेतना द्वारा अनुशासित हो. हाब्स हालांकि राजतंत्र का समर्थक था, लेकिन अपने दर्शन में वह समाज की सामान्य चेतना को भी पर्याप्त महत्त्व देता है. वह जो सुझाव देता है, परिवर्ती विद्वान उन्हें गणतंत्रात्मक शासन पर भी लागू करते हैं.
© ओमप्रकाश कश्यप
संदर्भ:
1. every member of the community must be assigned to the class for which he finds himself best fitted. Plato, The Republic .
2. Justice as fairness provides what we want. -John Rawls, A Theory of Justice.
3. Justice is the first virtue of social institutions, as truth is of systems of thought. -John Rawls, A Theory of Justice. pg. 3.
4. Man is the measure of all things: of the things that are, that they are, of the things that are not, that they are not.” Plato’s Theaetetus, trans. Bostock, D (1988), Oxford.
5. एकोऽलुब्धस्तु साक्षी स्वाद्वह्व शुच्योपि न स्त्रियः
त्री बुद्धेरस्थिरत्वाच्च दौषे श्वाश्चेऽपि तः वृताः—मनुस्मृति, 8/77.
6. A multitude bound together by a mutual recognition of rights and a mutual cooperation for the common good.”-Cicero.
7. Charity is no substitute for justice withheld. -Augustine.
8. If a man has no order within himself, then there is certainly no justice in assembly made. Augustine, City of God.
9. a judge renders to each one what belongs to him by way of command and direction, because a judge is personification of justice and sovereign is its guardian.- St Thomas Aquinas, Summa Theologica, Volume 3 (Part II, Second Section), 2013
10. the habit whereby a man renders to each one his due by a constant and perpetual will.” St Thomas Aquinas, Summa Theologica, Volume 3 (Part II, Second Section), 2013.
11. यशपाल, गांधीवाद की शव परीक्षा, विपल्व प्रकाशन, 1941
12. अनुलोमगतिनौंस्थः पश्यत्यचलं विलोमर्ग यद्वत्
अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लंकायाम्. आर्यभट्टीयम्, गोलापद, 9.
13. From this account of human motives Hobbes’s description of the state of man outside society follows as a matter of course. Each human being is actuated only by considerations that touch his own security or power, and other human beings are of consequence to him only as they affect this. Since individuals are roughly equal in strength and cunning, none can be secure, and their condition, so long as there is no civil power to regulate their behavior, is a “war of every man against every man.” Such a condition is inconsistent with any kind of civilization: there is no industry, navigation, cultivation of the soil, building, art, or letters, and the life of man is “solitary, poor, nasty, brutish, and short.” Equally there is neither right nor wrong, neither justice nor injustice, since the rule of life is “only that to be every man’s that he can get; and for so long, as he can keep it.”- George H. Sabine, A HISTORY OF POLITICAL THEORY, page 463.
14. Covenants, without the sword, are but words, and of no strength to secure a man at all.-Thomas Hobbes, Leviathan, chapter17.
15. I put for a general inclination of all mankind, a perpetual and restless desire of power after power, that ceaseth only in death. And the cause of this, is not always that a man hopes for a more intensive delight, than he has already attained to; or that he cannot be content with a more moderate power: but because he cannot assure the power and means to live well, which he hath present, without the acquisition of more. Thomas Hobbes, Leviathan, chapter-11.