भारत में आर्थिक सहकार की परंपरा

सहकार का विचार भारतीय समाज के लिए अनजाना नहीं है. यह उस समय का है जब भारत ने सभ्यता का पहला पाठ पढ़ना सीखा. यदि हम यह मानकर चलें कि भारतीय सभ्यता, विश्व की प्रचीनतम और परिष्कृत सभ्यताओं में से एक है तो यह कहना भी अतार्किक न होगा कि सहकारी आर्थिक संगठन की पर्याय श्रेणियों का सर्वप्रथम उद्भव भारत में ही हुआ. आर्थिक सहकारिता का विचार यहीं से दुनिया के बाकी देशों में फैला और अपनी बहुआयामी उपयोगिता के कारण सर्वत्र स्वीकारा भी गया. यूनानी सभ्यता के पैरोकार उस सभ्यता के भारतीय सभ्यता के समकालीन होने का दावा कर सकते हैं, परंतु यह निर्विवाद सत्य है कि प्राचीन यूनानी सभ्यता अथवा उसकी समकालीन अन्य सभ्यताओं में साहचर्य आधारित उद्यमों का उतना विकास नहीं हो पाया था, जितना की भारत में. कारण यह था कि यूनानी राजसत्ता सहकार आधारित उद्यमों को अपनी स्वयंप्रभुता के लिए चुनौती मानती थी. दूसरी ओर भारत में राजनीति और सहकार आधारित उद्यमों के बीच सदैव अच्छा तालमेल बना रहा. कुछ यूनानी विचारकों की भांति चंद्रगुप्त मौर्य का महामंत्री कौटिल्य श्रेणियों की स्वायत्तता को शासन की स्वयंप्रभुता के लिए खतरे के रूप में देखता था, परंतु उसने भी श्रेणियों की आर्थिकसामाजिक उपयोगिता को देखते हुए उन्हें मुक्त व्यापार करने की अनुमति प्रदान करने की अनुशंसा की थी. इसलिए मौर्य प्रशासन में श्रेणियों का तीव्र विकास संभव हो सका.

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है भारत में श्रेणियों का उद्भव वैदिक काल से ही देखने को मिल जाता है. मोहनजोदारो, हड़प्पा आदि सिंधु घाटी की सभ्यता का प्रतीक कहे जाने वाले प्राचीन स्थानों की खुदाई से जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, उनके अनुसार तो प्रागैतिहासिक काल के भारतीय व्यापारी प्राचीन रोम, यूनान, मिश्र और सुमेर आदि अपनी समकालीन सभ्यताओं के व्यापारियों के साथ संबंध बनाए हुए थे. महाकाव्यकाल तक आतेआते सहयोगाधारित व्यापारिक समूह और भी मजबूत हो चुके थे. सभी जानते हैं कि महाभारत के युद्ध की परिणति अंततः विखंडित भारत के रूप में होती है. परीक्षित के बाद देश राजनीतिक रूप से अनेक छोटेछोटे राज्यों में विभाजित हो चुका था. विकास और लोकसशक्तीकरण के नाम पर आर्थिक एवं राजनीति शक्तियां अपनी मनमानी करने लगीं थीं, जिससे भारत कुछ वर्षों के लिए संभवतः कमजोर पड़ा. उस दौर के इतिहास की अनेक कड़ियां आज भी अनसुलझी हैं. बाद के भारत का प्रामाणिक रूप से उपलब्ध इतिहास ईसा से लगभग छह सौ वर्ष पहले का है. इसी कालखंड में संसार के दो महत्त्वपूर्ण उदारवादी धर्मों, जैन एवं बौद्धधर्म का उद्भव हुआ. प्रसंगवश बता दें कि इन दोनों ही धर्मों का उदय वैदिक धर्म में कर्मकांडों के अतिरेक के विरोधस्वरूप हुआ था, जो समाज के धूर्त और प्रपंची परजीवी पुरोहित वर्ग की देन थे. यह परजीवी वर्ग निहित स्वार्थों के लिए धर्म और राजनीति का गठजोड़ करने में सफल रहा था. जनसामान्य को लुभाए रखने के लिए इसी वर्ग ने एक के बाद एक कर्मकांडों की अंतहीन शृंखला आरंभ की, जिसके परिणामस्वरूप पूरा समाज बौद्धिकता से कटकर नियतिवाद और आंडबरवाद के चंगुल में फंसता गया, जिसने प्रकारांतर में बौद्ध और जैन दर्शनों के उद्भव की जमीन तैयार की.

बौद्धधर्म ने तर्क का सहारा लेते हुए मानव की सत्ता को सर्वोच्च माना और धर्म के नाम पर चलाई जा रही निरर्थक बहसों से दूर रहने की सलाह दी. यही नहीं उसने ईश्वर और आत्मा जैसे पदों की व्याख्या से दूर रहते हुए, अपने चिंतन को व्यावहारिक धरातल तक सीमित रखा, जिसका जनसामान्य द्वारा स्वागत किया गया. इस बीच दोनों धर्मों के अनुयायियों के बीच वर्चस्व का संघर्ष भी हुआ, जिसमें जनसाधारण का समर्थन बौद्धधर्म के प्रति बना रहा. अपने वैज्ञानिक सोच के कारण ही वह धर्म की सीमाओं को लांघकर दुनियाभर में फैला. विश्वविजय केवल तीरतलवारों और बंदूक की नोक के दम पर ही नहीं, अध्यात्म के बल पर भी सच हो सकती है, यह उसने संभव कर दिखाया.

जैन धर्म के प्रवर्त्तक महावीर स्वामी एवं गौतम बुद्ध दोनों ही क्षत्रिय कुल में जन्मे थे, किंतु उनके द्वारा प्रवर्त्तित जैन और बौद्ध दोनों ही धर्मों को व्यापारी वर्ग का भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ. जैन धर्म चूंकि अहिंसा पर अधिक जोर देता था, इस कारण अपेक्षाकृत कम व्यावहारिक था. इसलिए उसको सीमित लोकव्याप्ति मिली. दूसरी ओर व्यावहारिक होने के कारण बौद्धधर्म का प्रसार बहुत तेजी से हुआ. इसके पीछे एक कारण संभवतः यह भी रहा कि ब्राह्मण धर्म के हिमायती खुद तो अमर्यादित भोग में लिप्त रहते थे, किंतु जनसामान्य से वे उपभोग को सीमित रखने की अपेक्षा रखते थे. भोगवादी जीवन को हेय माना जाता था. उपभोग के प्रति जनसाधारण की उदासीनता तेजी से बढ़ते व्यापारी एवं उत्पादक वर्गों के लिए घाटे का सौदा थी. इसलिए नएउभरते बौद्धधर्म को व्यापारी वर्ग का भी भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ.

भारत में श्रेणियों का वास्तविक उद्भव एवं विकास छह सौ ईसा पूर्व से लेकर 1000 ईस्वी पश्चात तक है. इतिहास में लगभग यही कालखंड बौद्धधर्म की और उसके विकास का भी रहा है. उस युग में संगठित व्यापारी श्रेणियों के माध्यम से दूरदराज के देशों तक अपने व्यापार को विस्तार दे रहे थे. वहीं अपेक्षाकृत छोटे व्यापारी और उद्यमी साहचर्य के सिद्धांत के अनुरूप संगठित होकर, अपने उत्पादों को देश के कोनेकोने तक पहुंचा रहे थे. भारतीय इतिहास का यह कालखंड आर्थिक विकास के साथसाथ सुरुचि एवं सांस्कृतिक समृद्धि के लिए भी जाना जाता है. वर्णाश्रम व्यवस्था हिंदुत्व की देन थी. बौद्धधर्म में उसके और जातिप्रथा के लिए कोई स्थान नहीं था. वर्णाश्रमवादियों के प्रभाव के चलते भारतीय समाज में विभिन्न जातियों के मध्य आपसी व्यवहार को लेकर में जो अनुशासन अथवा निषेद्ध प्रचलन में थे, बौद्धधर्म उनका बहिष्कार करता था. उसके तेजी से लोकप्रिय होते जाने का यह भी एक कारण था. अंतद्वंद्वों की कमी के कारण आंतरिक और बाहरी व्यापार में तेजी आई. शताब्दियों से जातिवादी अनुशासन में बंधकर समाज के शीर्षस्थ वर्ग को सेवा देती आईं शूद्रवर्ग की शिल्पकार जातियां अनुकूल अवसर पाकर संगठित होने लगीं.

कुलीनचित्त’ नामक जातक में ‘बड्ढकिगम्’ नामक एक बस्ती का उल्लेख है, जो वाराणसी के करीब थी. उसमें 500 बढ़ई परिवार निवास करते थे. ऐसे ही एक अन्य जातक में ‘महाबड्ढकिगम्’ नामक बस्ती का जिक्र आता है,जहां एक हजार शिल्पियों के प्रवास करने का वर्णन किया है. बौद्ध साहित्य में 18 प्रकार की शिल्पी श्रेणियों का उल्लेख मिलता है. जिनका स्वतंत्र अस्तित्व था और जिन्हें राज्य द्वारा भी पर्याप्त अधिकार प्राप्त थे. स्पष्ट है कि तब तक कर्मकारों की न केवल अलगअलग श्रेणियाँ बन चुकी थीं. बल्कि उसमें उनके संगठन भी कायम थे. ये संगठन इतने कार्यक्षम थे कि राज्यसत्ता के समानांतर अपने हित के लिए, आवश्यक नियम बना सकते थे. कतिपय विवादों में निर्णय का अधिकार भी उन्हें प्राप्त था.

विनय पिटक में उल्लिखित है कि चौर कर्म करने वाली स्त्री को भिक्षुणी बनाने से पहले संघ, गण अथवा उसकी श्रेणि से उसकी अनुमति ले ली जाए. ध्यान देने की बात है कि तब तक अंतरद्विपीय व्यापार शुरू हो चुका थाशिल्पकार और व्यापारी दोनों यह मान चुके थे कि व्यापार को बढ़ाने—उसकी सुरक्षा और समृद्धि के लिए संगठित होकर रहना अत्यावश्यक था. यह आर्थिकराजनीतिक शक्तियों के सहसंबंधों के विकसित होने की शुरुआत थी. हालांकि यह कहना जल्दबाजी होगी कि इस प्रकार के संगठन उसी तरह सहकार में लिप्त थे—जिस तरह कि आज के सहकारी संगठन. हम केवल यह मान सकते हैं कि उस संगठनों में आधुनिक सहकारिता के बीजतत्व मौजूद थे. लोग सहयोग की महत्ता को स्वीकार कर चुके थे. बौद्धधर्म के आगमन के सौडेढ़ सौ वर्षों में ही सामाजिकता की भावना का तीव्रतर विकास हुआ.

इस युग में अनेक महान ग्रंथों की रचना हुई. बौद्धधर्म के प्रचारप्रसार के लिए भी अनेक ग्रंथ लिखे गए. वैदिक परंपरा भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई थी. उसमें तात्विक चिंतन का कार्य जारी था. दार्शनिक चिंतन के क्षेत्र में भी इस दौरान मौलिक कार्य हुए. गौतम मुनि के न्याय, कणाद के वैशेषिक दर्शन की नींव रखी गई. वैदिक सहिंताओं के नवान्वेषण की परंपरा में कपिल मुनि का सांख्य, जैमिनी का पूर्व मीमांसा एवं वेद व्यास का उत्तर मीमांसा(ब्रह्मसूत्र) दर्शन प्रकाश में आए. इसी दौर में छठा भारतीय दर्शन योग के नाम से पातंजलि की मेधा का उपहार बना. दर्शन और अध्यात्म के अतिरिक्त लोकव्यवहार के क्षेत्र में भी मौलिक रचनाएं प्रकाश में आईं. अनेक उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों की रचना का साक्षी यह कालखंड रहा. कौटिल्य, कणाद, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, कपिल, इस दौर के अतिमहत्त्वपूर्ण ग्रथों में कौटिल्य रचित अर्थशास्त्र का नाम बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है. ईसापूर्व चौथी शताब्दी में एक जिद्दी और धुन के पक्के ब्राह्मण विष्णुगुप्त चाणक्य, जिन्हें कूटनीतिक निपुणता के कारण कौटिल्य कहकर सम्मानित किया जाता है, ने मगध के सम्राट महानंद को गद्दी से उतारकर चंद्रगुप्त मौर्य के अधीन नए और कहीं विशाल राज्य की नींव डाली. इस कारण उनकी प्रतिष्ठा समाज के बीच आज भी बनी हुई है. अपने अर्थनीति एवं राजनीति संबंधी विचारों को लेकर उन्होंने ‘अर्थशास्त्र’ नामक पुस्तक की रचना की, जो अपने समय के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है. तत्कालीन भारत की राजनीति, अर्थशास्त्र एवं व्यवहारशास्त्र संबंधी विचारों को जानने के लिए अर्थशास्त्र की मान्यता इतनी बड़ी है कि बिना उसके उस कालखंड की चर्चा ही असंभव है.

अर्थशास्त्र अर्थनीति और राजनीति पर केंद्रित महान रचना है. हालांकि उसमें केंद्रीय सत्ता की भूमिका को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है. लेकिन यह मान लेना कि उस समय स्थानीय तंत्र पूरी तरह नाकाम हो चुके थे, अनुचित होगा. उन दिनों केंद्रीय सत्ता की सर्वोच्चता के बावजूद समाज में सक्रिय निजी तंत्र की प्रभावी मौजूदगी थी, विशेषकर आर्थिक कार्यकलापों को लेकर. समाज की प्रमुख आर्थिकव्यापारिक गतिविधियां श्रेणियों के अधीन थीं. मौर्यकालीन भारत में उत्पादन की गतिविधियां निजी क्षेत्र द्वारा नियंत्रित थीं. उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण विपुल मात्र में किया जाता था. उस युग में श्रेणियों की शक्ति और उनकी पहुंच का अनुमान केवल इसी बात से लगाया जा सकता है कि महाकूटनीतिज्ञ चाणक्य उनकी सत्ता को संदेह की दृष्टि से देखते था; उसका मानना था कि सम्राट को उनसे सतर्क रहना चाहिए. राधाकुमुद मुखर्जी आदि विद्वानों के हवाले से विक्रमादित्य खन्ना लिखते हैं कि—

ऐसी संभावना है कि चाणक्य श्रेणियों की उपस्थिति को लेकर काफी शंकाकुल थे. श्रेणि से उनका आशय एक ऐसी स्वयंभू सत्ता से था, जिसके बहुत से सक्रिय सदस्य हों, अच्छे संसाधन तथा सदस्यों के मन में संगठन के प्रति समर्पण की उदात्त भावना हो. कौटिल्य ऐसे संगठनों, जो किसी खास उद्देश्य के लिए प्रयत्नपूर्वक गठित किए गए हों, को चंद्रगुप्त के नवगठित साम्राज्य की एकता के लिए एक बड़े खतरे के रूप में देखते थे. बावजूद इसके श्रेणियों के गठन को हतोत्साहित करने के लिए वे कोई कानून नहीं बना सके. क्योंकि एक तो श्रेणियां मौर्य साम्राज्य की स्थापना से भी बहुत पहले से समाज और शासन में अपनी पैठ बना चुकी थीं. दूसरे उन्हें लगता था कि नवगठित साम्राज्य को मजबूत एवं वैभवशाली बनाए रखने के लिए श्रेणियों का सहयोगसमर्थन आवश्यक है. यह मानने के भी पर्याप्त कारण हैं कि राज्य की आर्थिक संपन्नता, विकास एवं नागरिक समर्थन, जो सम्राट को लोकप्रिय एवं उसकी सत्ता की सर्वोच्चता बनाए रखने के लिए अनिवार्य था, हासिल करने के लिए वे व्यापारिक संगठनों को पर्याप्त महत्त्व देते थे. यह स्वाभाविक ही था, क्योंकि मौर्यकाल में सहयोगाधारित स्वतंत्र आर्थिकवाणिज्यिक संगठन/श्रेणियां आर्थिक विकास के सर्वाधिक सक्षम एवं कारगर ऊर्जास्रोत थे. अतः उनके साथ किसी भी प्रकार की उदासीनता या अभद्रतापूर्ण व्यवहार असमीचीन था. राज्य की समृद्धि के उनका उनका सहयोग तो आवश्यक था, लेकिन किसी भी प्रकार से उनकी संगठित ताकत साम्राज्य की अस्थिरता का कारण न बने, इसलिए उनपर नजर रखना अत्यावश्यक था.’1

यही कारण है कि कौटिल्य द्वारा ‘अर्थशास्त्र’ में ‘सामुत्थायक’ अर्थात साथ मिलकर सभी का समान उत्थान करने वाले समुदायों को कायम रखने की व्यवस्था की गई. सामुत्थायक का अभिप्राय ऐसे समूहों से था, जिनका संगठन परस्पर मिलकर (सामुत्थान द्वारा) किया गया है. ‘अर्थशास्त्र’ में इस प्रकार के सामुत्थानकों (सहकारी समूहों) का भी उल्लेख है, जो मुख्यतः मजदूर संगठन थे. सामुत्थानकों में मजदूर सम्मिलित कार्य करते थे. उस कार्य से हुई आय या मजदूरी परस्पर बाँट ली जाती थी—

एक समान कार्य करने वाले श्रमिकगण एकजुट होकर एकलशक्ति की तरह, साथसाथ संवाद करते हुए कार्य करें तथा उस कार्य से हुई आमदनी को परस्पर बराबरबराबर बांट लें.’2

मौर्यकाल से पहले ही शिल्पकारों के स्वतंत्र संगठन बनने लगे थे. वे संगठन अपने आप में स्वायत्त थे. सामूहिक हितों को देखते हुए वे परस्पर मिलजुलकर निर्णय लेते थे. उनका सुदूर रोम व्यापारिक संगठनों के साथ तालमेल था. यहां यह उल्लेखनीय है कि आपस में व्यापारिक तालमेल होने के बावजूद रोम के व्यापारिक समूहों की आंतरिक संरचना भारतीय श्रेणियों की संरचना से भिन्न थी. उन्हें संभवतः उतनी स्वायत्ता प्राप्त नहीं थी, जो उनके समकालीन भारतीय शिल्पकार संगठनों को प्राप्त थी. न ही वे निर्णय लेने के बारे में सामूहिक राय को उतना महत्त्व देते थे. यह बात चौंका देने वाली हो सकती है कि भारत के सहकारआधारित व्यापारिक संगठनों की क्षमता एवं कार्यकुशलता से परिचित होने तथा उनके साथ दीर्घकालीन व्यापारिक संबंध होने के बाद भी, रोम के व्यापारियों ने भारतीय श्रेणियों के समानांतर स्वतंत्र आर्थिक संगठनों के गठन से परहेज क्यों रखा?

ऐसा प्रतीत होता है कि मौर्यकालीन भारत एवं तत्कालीन रोमन साम्राज्य की परिस्थितियां एकदम अलग थीं. हालांकि दोनों साम्राज्यों को स्वायत्त व्यापारिक संगठनों के बारे में पर्याप्त जानकारी थी. संभवतः दोनों ही मानते थे कि स्वाधीन व्यापारिक संगठनों का प्रसार, प्रजा की साम्राज्य के प्रति निष्ठा और सेवाभावना को प्रभावित कर सकता है. बावजूद इसके मौर्यों ने पहले से चले आ रहे स्वायत्त व्यापारिक संगठनों को आगे भी कार्य करते रहने की अनुमति प्रदान की, जबकि रोमन साम्राज्य ऐसा कर पाने में असमर्थ रहा. इससे कोई भी यह अनुमान लगा सकता है कि मौर्य शासकों को पहले से चले आ रहे शिल्पकार संगठनों का समर्थन प्राप्त था. इसलिए उन्होंने यह ध्यान रखते हुए कि वे राज्य के लिए किसी प्रकार का खतरा न बन सकें, उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करते रहने की अनुमति प्रदान की थी. उस समय रोम में ऐसे स्वाधिकार संपन्न और व्यापारिक संगठन विकसित नहीं हो पाए थे, जिनपर भरोसा किया जा सके.’3

यहां यह मान लेना कि तत्कालीन रोम में सहयोगाधारित संगठनों का एकदम अभाव रहा, अनुचित होगा. भारत की तरह वहां भी सहयोगाधारित स्वायत्त संगठन बने थे, परंतु वे छोटे स्तर थे, उनका प्रमुख लक्ष्य केवल मुनाफा कमाना था. भारतीय शिल्पकार संगठनों जैसी सामूहिक चेतना का उनमें अभाव था. इसलिए रोमन साम्राज्य को किसी भी प्रकार का नुकसान पहुंचा सकने की उनकी क्षमता लगभग शूण्य ही थी. उधर अपनी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं के बावजूद रोमन साम्राज्य अपने आप से ही भयभीत था. इसलिए वहां उस तरह के स्वशासी शिल्पकार संगठन विकसित नहीं हो सके, जैसे कि उसके समकालीन भारत में बहुत पहले से चले आ रहे थे. रोमन साम्राज्य को इसका नुकसान भी उठाना पड़ा. स्वायत्त शिल्पकार संगठनों को हतोत्साहित करने का ही परिणाम था कि कालांतर में रोमन साम्राज्य आर्थिक संकट का शिकार होता चला गया. दूसरी ओर कौटिल्य की सूझबूझ और चंद्रगुप्त के राजनीतिक कौशल का लाभ मौर्य साम्राज्य को मिला, जिससे वह तेजी से विकासशील शिल्पकार संगठनों का पूरा लाभ अपनी समृद्धि के लिए उठा सका. हालांकि कौटिल्यकृत ‘अर्थशास्त्र’ में श्रेणियों पर नियंत्रण या उनपर नजर रखने स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं है, तथापि इस बात की पर्याप्त संभावना है कि कौटिल्य के निर्देश पर सम्राट ऐसी सावधानियों का पालन करता था.

अर्थशास्त्र द्वारा यह भी बोध होता कि बुद्ध द्वारा निर्वाण प्राप्ति के सवाडेढ़ सौ वर्ष बाद ही समाज में पारस्परिकता का विकास बहुत तीव्रता से हुआ था. उस युग में एक ओर जहाँ बड़े व्यापारी अपने संगठन के माध्यम से देशदुनिया में अपने कार्यव्यापार का विस्तार कर रहे थे, वहीं अपेक्षाकृत छोटे व्यापारिक समूह सहकल्याण में ही जीवन की सार्थकता के दर्शन कर रहे थे. धनार्जन की भूख के साथ धन को त्यागने, उससे दूर रहने, अतिरिक्त धन को दान कर देने की प्रवृत्तियां जोर पकड़ती जा रही थीं. इनके साथसाथ अपरिग्रह, अस्तेय जैसी कल्याणकारी विचारधाराओं की मान्यता तेजी से बढ़ रही थी. आवश्यकता से अधिक धनसंचय को हेय मानकर उसका लगातार निषेद्ध किया जा रहा था. श्रीमद्भागवत में कहा गया—

जितने से पेट भरे उतना ही पाने का लोगों को अधिकार है. इससे अधिक रखने वाला चोर है.’4

प्रोफेसर आर.सी. मजुमदार के चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में सहकार पर आधारित संगठनों की मौजूदगी का उल्लेख अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ Cooperate life in Ancient Indiaमें किया है, जिसमें उन्होंने 27 प्रकार के संगठनों का उल्लेख किया है, जिन्हें श्रेणि, समिति, पुग, पाणि व्रात्य आदि विभिन्न नामों से संबोधित किया जाता था. कात्यायन ने भी कई प्रकार की समितियों, जो अलगअलग नामों से पुकारी जाती थीं, का उल्लेख किया है, जिसमें परस्पर विश्वास और उसके साथसाथ सामूहिक कल्याण की भावना से काम करने पर जोर दिया गया है.

भारतीय वाङ्मय में स्मृतियों का अत्यंत सम्मानीय स्थान है. इनमें तत्कालीन समाज के आचारव्यवहार पर न केवल गंभीर चिंतन है, बल्कि उसकी मौलिक गवेषणा के साथसाथ जीवन के लिए उनकी अपरिहार्यता सिद्ध करने वाली व्याख्याएँ भी मौजूद हैं. स्मृति ग्रंथों में भी शुक्रनीति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि का कार्यकाल अर्थशास्त्र से पहले का है. मनुस्मृति हालाँकि बाद की रचना है, तथापि राजनीतिक कारणों से उसको दूसरी स्मृतियों की अपेक्षा अधिक प्रसिद्धि मिली है. यद्यपि जिन कारणों से उसको राजनीतिक चर्चा में रखा जाता है, वे याज्ञवल्क्य स्मृति में अधिक तीव्रता या कहें कि कटुता के साथ विद्यमान हैं. जैसा कि पहले कहा गया है मनुस्मृति की रचना कौटिल्य का अर्थशास्त्र लिखे जाने के बाद हुई. मगर यदि यह मान लिया जाए कि उसकी ऋचाएं, लिखे जाने से पहले से ही लोकअनुश्रुति में प्रचलित थीं, तब मनुस्मृति के अनुसार भी समितियों को स्वायत्तता प्राप्त थी. एक प्रसंग में मनु ने लिखा भी है कि—

गांव या देश के संघों के साथ समझौता करने के बाद, यदि कोई व्यक्ति किसी लोभ या स्वार्थ के कारण उस समझौते की अवमानना करे तो ऐसे व्यक्ति को जेल में डाल दिया जाए और उसपर जुर्माना भी किया जाए.5

उल्लेखनीय है कि मनु ने समाज को चार वर्गों में विभाजित करते हुए राजनय एवं दंडनीति संबंधी व्याख्या में विभिन्न वर्गों के अपराधियों के लिए अलगअलग सजाएं सुनिश्चित की हैं, जिनमें ब्राह्मण को या तो सजा से पूरी तरह मुक्त रखा गया है, अथवा चारों वर्णों में उसके लिए न्यूनतम सजा का प्रावधान किया गया है. इसके लिए मनु की आलोचना भी की जाती है. किंतु श्रेणि के साथ किए समझौते के उल्लंघन को लेकर उसने वर्णभेद की ओर इशारा नहीं किया है. इसका कारण यह हो सकता है कि या तो वह इन आर्थिक संगठनों को वर्णाश्रम धर्म के बाहर मानता था. इसलिए उसपर विचार करते समय उसने विशुद्ध आर्थिक हितों पर ध्यान दिया था अथवा यह मानते हुए कि अधिकांश श्रेणियां ब्राह्मणेत्तर व्यापारी वर्ग अथवा शिल्पकारों द्वारा संचालित की जा रही थीं, जिनमें प्रायः एक ही वर्ण के लोग सम्मिलित होते थे, ऐसी संस्थाओं से उसके द्वारा पोषित वर्णव्यवस्था को कोई खतरा नहीं है, उसने वर्णाश्रम व्यवस्था के प्रतिबंधों को श्रेणियों पर लागू करने में उदासीनता बरती. एक तरह से इसका उसको लाभ ही हुआ. व्यापारी वर्ग जो उन दिनों अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत बना चुका था, तथा जिसका जनमानस पर गहरा प्रभाव भी था, वह उसके समर्थन में बना रहा.

इसका परिणाम यह हुआ कि मनुस्मृतिकाल में इन व्यापारिक संघों की महत्ता और भी बढ़ी. जिसके परिणामस्वरूप गाँव अथवा देश के साथ किए समझौते के उल्लंघन को केवल श्रेणि या वर्ग तक सीमित कर दिया गया. इस बात से ये संकेत भी मिलते हैं कि धीरेधीरे ही सही उस युग में विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था की रूपरेखा बन रही थी. मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि और कुल्लूक भट्ट ने अपने ग्रंथों में इसका स्पष्ट उल्लेख किया है. याज्ञवल्क्य स्मृति में भी गणों की महत्ता को अक्षुण्ण रखने तथा उनसे विश्वासघात करने वाले अथवा उन्हें किसी भी प्रकार का नुकसान पहुंचाने वाले व्यक्ति से समस्त संबंध तोड़ लेने के निर्देश दिए गए हैं. यह बात भी ध्यान देने की है कि है कि भारत के संदर्भ में श्रेणियों का योगदान केवल आर्थिक कार्यक्रमों तक ही सीमित नहीं था. बल्कि उनकी व्याप्ति धार्मिक और सामाजिक सभी क्षेत्रों में बराबर बनी हुई थी. अतएव याज्ञवल्क्य स्मृति का संदेश सभी के लिए एकसमान है.

सामूहिकता की भावना को सामाजिकता की अनिवार्यता बताते हुए तत्कालीन ऋषियोंमुनियों ने उसपर बहुत जोर दिया है. उनका अपना आचरण भी सहयोगी और परस्पर समर्पित जीवन की मिसाल था. आश्रमों का जीवन न्यूनतम आवश्यकता और सुखदुःख में समान सहभागिता के सिद्धांत पर आधारित होता था. उनकी अर्थव्यवस्था पशुशक्ति, शिल्पकर्म और कृषिकर्म पर आधारित थी, जिसमें आश्रमप्रमुख या गुरु के साथ सभी आश्रमवासी मिलजुलकर खेती करते थे. उससे होने वाली आय से ही सभी का भरणपोषण होता था. कई स्थानों पर आश्रमों को गाय, स्वर्णादि दृव्य दान में देने का भी उल्लेख है. बावजूद इसके समाज में प्रतिष्ठा उन्हीं आश्रमों की थी, जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होते थे. उल्लेखनीय है कि भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में व्यक्तिगत और आर्थिक उपलब्धियों को उल्लेखनीय कभी माना ही नहीं गया. उनके स्थान पर यहां मोक्ष अर्थात मुक्ति की कामना पर जोर दिया गया है. जिसे सभी वर्गों के बीच समान रूप से मान्यता प्राप्त है. याज्ञवल्क्य स्मृति में गण के अधिकारों को प्रमुखता दी गई है. उसके अनुसार—

समूह द्वारा जो कानून अथवा नियम बनाए गए हों, यदि राजा के अपने कानूनों द्वारा उनका विरोध न होता हो तो राजकीय कानूनों के समान उनकी भी संरक्षा की जानी चाहिए. यदि कोई व्यक्ति गण के अधिकार को बाधा पहुंचाए अथवा उसके साथ किए गए किसी समझौते का उल्लंघन करे, तो उसपर पर्याप्त जुर्माना किया जाना चाहिए. सामूहिक हितों को ध्यान में रखते हुए सबको समूह द्वारा बनाए गए नियमों का पालन करना चाहिए. जो भी इसका उल्लंघन करे अथवा पालन करने में आनाकानी करे, तो उस पर जुर्माना किया जाना चाहिए. राजा को चाहिए कि सामूहिक कार्य से उसके पास पहुँचे लोगों के काम पूरा होने पर, विदा होते समय उनको दान और मान के साथ विदा करे. उधर समूह के कार्य से राजा के पहुँचे लोगों का भी कर्तव्य है कि वे सामूहिक हित से प्राप्त धन को समूह को अर्पण कर दें. जो स्वयं अर्पण न करें उसपर ग्यारह गुना दंड लगाया जाए. इन समूहों के कार्यचिंतक ऐसे व्यक्ति होने चाहिए, जो धर्म के ज्ञान, शुचि एवं लोक से परे हों. समूह का हित चाहनेवालों को चाहिए कि उनके वचन को क्रियान्वित करें. यह विधि, श्रेणि, निगम और पाषंड सभी प्रकार के समूहों के लिए है. राजा इसके भेद की रक्षा करे—जो परंपरा चली आ रही हो, उसका सभी से पालन कराए.6

यह बात भी ध्यान में रखने की है कि उन दिनों उत्पादन मूलतः आवश्यकता केंद्रित था. आमतौर पर जीवन में नित्यप्रति काम आने वाली वस्तुओं का उत्पादन स्थानीय शिल्पकारों, कारीगरों द्वारा ही कर लिया जाता था. उनके लिए स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कच्चेमाल का ही प्रयोग किया जाता था. हालांकि जैसेजैसे मनुष्य की रुचि एवं संसाधनों का विकास हो रहा था, माल की खपत के लिए दूसरे बाजारों की खोज के साथ ही आयातित कच्चेमाल का प्रयोग भी आम हो चला था. फिर भी कच्चेमाल के स्रोत उन दिनों शिल्पकेंद्रों के विकास का प्रमुख कारण रहे. तत्कालीन समाज में शिल्पकार और कारीगर समाज का महत्त्वपूर्ण हिस्सा थे. तथापि जैसेजैसे जातिप्रथा अपना संकुचित रूप धारण करती चली गई, शिल्पकारों की प्रतिष्ठा भी उत्तरोत्तर घटती चली गई. धर्मशास्त्रों में यह भी उल्लिखित है कि स्थानीय उद्योगों एवं व्यवसायों से जुड़ी जातियां व्यवस्थित एवं धनवान थीं. उनके अनेक और मजबूत संगठन थे, जिन्हें उनकी संरचना और कार्यशैली के अनुसार विभिन्न नामों से पुकारा जाता था.

कौटिल्य ने भले ही आर्थिक समितियों को संदेह की दृष्टि से देखते हुए सम्राट को उनसे सावधान रहने को कहा हो, किंतु उनके पूर्ववर्ती एवं परिवर्ती चिंतकों ने श्रेणि आदि सभी आर्थिकवाणिज्यिक संगठनों को सामाजिक विकास के लिए अपरिहार्य माना था. आलोचना के बावजूद कौटिल्य भी श्रेणियों को समाप्त करने के पक्ष में नहीं थे. वे उनको राज्य के विकास के लिए अपरिहार्य मानते थे. यही कारण है कि उन्होंने श्रेणियों को प्रोत्साहित करने के लिए राजा को आवश्यक निर्देश दिए. अर्थशास्त्र में उसके लिए आवश्यक व्यवस्थाएं कीं. आर्थिक समितिकरण की आवश्यकता मात्र उद्यमियों एवं व्यापारियों के हित में ही नहीं थी. बल्कि उसका उद्देश्य आम जन को भी शोषण से सुरक्षित रखना था, जिसमें उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई थी.

प्राचीन भारत के अर्थशास्त्रियों में शुक्राचार्य और बृहश्पति के नाम बहुत सम्मान के साथ लिए जाते हैं. दोनों ही प्रखर विद्वान और कालजयी चिंतक थे, जिन्होंने आर्थिक समितियों पर खुलकर विचार किया था, उनकी उपयोगिता को दर्शाते हुए उनकी स्थापना एवं विकास पर जोर दिया तथा राज्य को उन्हें यथासंभव सहायता उपलब्ध कराने के निर्देश भी दिए. अर्थशास्त्र के आदि आचार्य माने जाने वाले बृहश्पति ने आर्थिक विषयों को अपने विवेचन, चिंतन का मुख्य आधार बनाया. यह बात अलग है कि उनका अधिकांश चिंतन भारतीय समाज में व्याप्त वर्णवाद को प्रश्रय देने वाला और परंपरावादी किस्म का है. हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि वर्णाश्रम धर्म को लेकर आचार्य बृहश्पति ने भी तत्कालीन वर्णभेद संबंधी मान्यताओं का समर्थन किया. शायद इसी कारण उन्हें पर्याप्त प्रतिष्ठा से वंचित रहना पड़ा है. उनका आर्थिक चिंतन तत्कालीन वर्चस्ववादी शक्तियों की अपेक्षाओं के अनुकूल था, जिससे तर्काधारित ज्ञानविज्ञान के प्रति जिज्ञासा के स्थान पर रूढ़िवाद को पांव जमाने का अवसर मिला. बावजूद इसके उनकी अप्रतिम मेधा का लोहा हमें मानना ही होगा. उन्हें अर्थशास्त्र में व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने पर जोर दिया है. एक स्थान पर वे लिखते हैं कि—

दान करना चाहिए….पचीस वर्षों तक अध्ययनमनन आदि करना चाहिए, तत्पश्चात धनोपार्जन. सम्राट को कृषि, गोकुल तथा वाणिज्य की सुरक्षा करनी चाहिए….नीति के चार उपाय हैं—साम दाम दंड और भेद….इनके अतिरिक्त तीन और भी हैं—माया, उपेक्षा एवं वध….धन को उसी प्रकार अर्जित करना चाहिए जिस प्रकार हाथी से हाथी पकड़ा जाता है….धन जगत का मूल हैइस कारण सब इसकी कामना करते हैं, जिसके पास धन हो उसके पास मित्रहितैषीधर्मविद्यागुणविक्रमादि सब मौजूद होते हैं….’7

बृहश्पति के आर्थिक विचारों में साम्राज्यवादी ढाँचे को मजबूत बनाए रखने की भावना प्रकट हुई हैब्राह्मणवादी विचारधारा का समर्थन करते हुए वे वर्णाश्रम धर्म की रक्षा करने का आह्नान करते हैं. सामाजिक स्तरीकरण को प्राकृतिक बताते हुए वे अन्याय और अनाचार का पक्ष लेने से भी नहीं चूकते. दुष्ट एवं दोषी ब्राह्मण को भी अबध्य बताकर वे समाज के एक वर्ग को अतिरिक्त रूप से अधिकारसंपन्न बनाने का कार्य करते हैं. यह वर्गीय दृष्टि आज के वैज्ञानिक समाज में भले ही अर्थहीन हो चुकी हो, किंतु एक समय में स्थिति इतनी ज्यादा पेचीदा और गंभीर थी कि भारतीय समाज में एक पराश्रित/परजीवी किस्म का वर्ग, शताब्दियों तक दूसरों की मेहनत और संसाधनों के दम पर मौज उड़ाता रहा.

भारत के प्राचीन अर्थशास्त्रियों में शुक्राचार्य का योगदान भी उल्लेखनीय है. मौलिकता की दृष्टि से उनका योगदान आचार्य बृहश्पति से भी बढ़कर है. उनका अर्थदर्शन कहीं अधिक आधुनिक एवं तर्काधारित है. इसी कारण वे भारतीय आर्थिक चिंतन के पितामह माने जाते हैं. भारतीय धर्मशास्त्रों के अनुसार शुक्राचार्य को असुरों का गुरु माना गया है. लोकश्रुति में असुर को देवविरोधी और घृणा का पात्र माना गया है, वस्तुतः असु़र(+सुर)से तात्पर्य उन लोगों से था, जो वैदिक कर्मकांड के विरोधी थे. ध्यातव्य है कि वैदिक सभ्यता मुख्यतः पशुचारण व्यवस्था थी. जबकि असुर, जिनमें अधिकांश संख्या भारत के मूलनिवासियों की ही थी, कृषिकर्म में पूर्ण दक्षता प्राप्त कर चुके थे. इसलिए उनकी अर्थव्यवस्था में स्थायित्व अधिक था. उनके विचारों में यथास्थतिवाद एवं परंपरा के पोषण की अपेक्षा व्यावहारिकता अधिक है. शायद इसी कारण हमें आचार्य बृहश्पति की अपेक्षा शुक्राचार्य के विचार कहीं अधिक व्यावहारिक एवं तर्कसंगत नजर आते हैं. अर्थशास्त्रीय मान्यताओं की सैद्धांतिक पुष्टि के लिए सर्वप्रथम शुक्राचार्य ने ही मूल्य की परिभाषा की थी, जो आज करीब 2600 वर्ष बाद भी लगभग ज्योंकीत्यों प्रचलन में है. मूल्य का 2600 वर्ष पूर्व इतना सटीक एवं प्रामाणिक विवेचन किसी अन्य विद्वान ने नहीं किया. मूल्य को परिभाषित करते हुए शुक्राचार्य ने लिखा है कि—

जिसके माध्यम से कोई वस्तु प्राप्त होती है, वही उसका मूल्य है. अर्थ अथवा मूल्य वस्तु के सुलभ अथवा असुलभ होने तथा गुण या अगुण और लोगों की कामना अथवा इच्छा के अनुसार घटताबढ़ता रहता है.’8

आचार्य शुक्र मूल्य को दो तरह देखते थे—एक तो मूल्य अथवा मूल्यक, दूसरा अर्थक. मूल्य अथवा मूल्यक वह खर्च था जो किसी वस्तु को खरीदने के लिए किया जाता है, जिसे क्रेता वांछित वस्तु के बदले में विक्रेता की सहमति होने पर उसे प्रदान कर वस्तु का स्वामित्व खरीदता है. वस्तु का मूल्य उसकी उपलब्धता एवं मांग के आधार पर घटताबढ़ता रहता है. अर्थ की विशेषता वस्तु की उपयोगिता में निहित रही है. कोई वस्तु जिस कार्य के निर्मित एवं अपेक्षित है, उसे पूरा करने में जितनी सामथ्र्यवान वह उतनी ही मूल्यवान भी समझी जाएगी. दूसरे शब्दों में कोई वस्तु जितनी अधिक उपयोगी होगी, वह उतनी ही अधिक मूल्यवान मानी जाएगी. कात्यायन और शुक्राचार्य की भांति आचार्य कामंदक भी विद्वान अर्थशास्त्री थे. हालांकि अर्थशास्त्र संबंधी उनकी स्थापनाएं बहुत कुछ आध्यात्मिक किस्म की हैं. उन्होंने अर्थशास्त्र को धर्म का ही उपांग माना है. उनका मानना था कि अर्थशास्त्र में धर्म की प्रतिष्ठा होनी चाहिए. दूसरे शब्दों में अर्थिक महत्त्व के विषयों की विवेचना के लिए धार्मिक मान्यताओं तथा रीतिरिवाजों का पूरा ध्यान रखना चाहिए.

ये तमाम अवधारणाएं अलगअलग दीखती हुई भी एक दूसरे से संबंधित हैं तथा तत्कालीन समाज के भीतर प्रचलित अलगअलग वैचारिक धाराओं तथा अपने समाज की परिस्थतियों का खुलासा करती हैं. आचार्य बृहश्पति देवताओं के गुरु थे. देवसमाज असुरों के समाज की अपेक्षा संगठित तथा आर्थिक रूप से संपन्न था. अपने आप में संपूर्णता का बोध लिए हुए, जो बाकी समाजों को खुद से हेय मानता था और इसी आधार पर दूसरों पर अपनी संस्कृति लादने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता था. इसलिए उनके चिंतन में व्यावहारिकता के स्थान पर उपदेशात्मकता अधिक नजर आती है. इसके विपरीत शुक्राचार्य जिस असुर समाज के निर्देशन का गुरुत्वभार संभाले हुए थे, वहां पर आंतरिक लोकतंत्र की भावना बहुत प्रिय थी. शिल्पकलाओं के विकास में इस वर्ग का योगदान सराहनीय रहा है, जो कालांतर में व्यापारिक विकास का मुख्याधार बनीं. स्पष्ट है कि आर्थिक एवं सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए पारस्परिक सहयोग की परंपरा बहुत पहले शुरू हो चुकी थी. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी श्रेणियों का वर्णन है, जिन्हें आधुनिक सहकारिताओं का आदिकालीन रूप में माना जा सकता है. यही नहीं कौटिल्य मजदूर समितियों का भी उल्लेख करते हैं, जो परस्पर संगठित होकर कार्य करते थे और प्राप्त मजदूरी को आपस में बाँट लेते थे—

एक साथ रहने, साथसाथ कार्य करने वाले शिल्पकर्मी समुत्थान अर्थात अपने समूह के कल्याण के लिए एकजुट होकर व्यापारकर्म अपनाते हैं और उससे हुई आय को आपस में बांट लिया करते हैं.’9

इस प्रकार समुत्थारक का आशय ऐसे गतिवान संगठन से है जिसके सदस्य परस्पर संगठित होकर सामूहिक लक्ष्यों के लिए कार्य करते थे. नारद स्मृति हालांकि बाद की रचना है, जिसमें व्यावहारिक जीवन की अनेक समस्याओं पर विचार किया गया है. उसमें भी सहयोग एवं सहकार की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है. वहाँ भी समुत्थान की उपयोगिता पर बल देते हुए संगठित होने तथा एकदूसरे के कल्याण के लिए सहकार करने की आवश्यकता पर जोर दिया है—

वणिकगण जहाँ संगठित होकर कार्य करते हैं, उसे संभूय समुत्थान कहा जाता है. लाभ की कामना से जब कोई कार्य अपनी ओर से किया जाए तो उसका आधार अपनी ओर से लगाया हुआ धन ही होता है. इसी हिस्से के आधार पर प्रत्येक हिस्सेदार को लाभ का उपयुक्त अंश प्रदान किया जाना चाहिए. लाभ, व्यय और वृद्धि—तीनों का अंश प्रत्येक हिस्सेदार पर उसके हिस्से के अनुसार पड़ना चाहिए.’10

समूह की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि उसके सदस्यों के बीच एकता के साथसाथ उनका मानसिक स्तर एक जैसा हो, उनमें अटूट विश्वास एवं संपूर्ण सांगठनिक चेतना हो. इससे आपस में तालमेल कायम रखने के साथसाथ कार्यक्रमों के निर्माण एवं उनके संचालन में मदद मिलती है. नारद स्मृति में चतुर एवं कुशल व्यापारियों को, मूर्ख और आलसी व्यक्तियों के साथ मिलाकर काम न करने की सीख दी गई है. इसके स्थान पर अपना लाभहित देखते हुए आचरण करने का फैसला किया गया है. आधुनिक अर्थशास्त्री भी अपना लाभहित देखते हुए आचरण करने की सलाह देते हैं. सामूहिकता की भावना को सामाजिकता की अनिवार्यता बताते हुए तत्कालीन ऋषियोंमुनियों ने उसपर बहुत जोर दिया है. उल्लेखनीय है कि भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में आर्थिक उपलब्धियों को बहुत ज्यादा उल्लेखनीय कभी माना ही नहीं गया. उनके स्थान पर मुक्ति की कामना पर जोर दिया गया है. लेकिन यह मान लेना कि व्यावहारिक स्तर पर भारतीय मनीषी पूर्णतः निरपेक्ष एवं चिंतनशूण्य थे, लौकिक विषयों की ओर उनका कोई रुझान ही नहीं था, अनुचित होगा. अगर ऐसा होता तो भारतीय कलाओं का विकास अधूरा ही रह जाता. बौद्धधर्म के विकास के पीछे वैदिक धर्माचार्यों द्वारा थोपे गए कर्मकांडों के अतिरिक्त भारतीय समाज के कुछ उपभोक्तावादी संस्कार भी थे. दरअसल भारतीय मेधा बहुआयामी रही है. उसने जहां विराट से लेकर शूण्य तक को अपनी विचारणा का विषय बनाया, वहीं उसके चिंतनमनन में लौकिक विषयों को लेकर चमत्कृत कर देने वाली, बहुरंगी और विविधतापूर्ण उपलब्धियां भी मौजूद हैं.

प्राचीन भारतीय मुनियों की अंतर्दृष्टि एक ओर तो विराट ब्रह्मांड के सूक्ष्मतम रहस्यों की पड़ताल में लगी थी, वहीं उसका दूसरा हिस्सा लौकिक विषयों को लेकर निरंतर शोध और संभावनाओं की तलाश में जुटा था. इनमें वैदिक और द्राविड़ दोनों ही सभ्यताओं का समान योगदान था. बल्कि यह कहना उचित होगा कि दोनों ही सभ्यताएं परस्पर समानांतर, कहीं एकदूसरे की पूरकसहयोगी बनकर साथसाथ आगे बढ़ती हुई, कहीं परस्पर तिर्यक—एकदूसरे को काटती हुईसी, सामाजिक विकास के कार्य में लगी रहती थीं. कालांतर में बड़े व्यापारिक संघों को स्वयंप्रभुता के लिए खतरे के रूप में देखता था, परंतु उसने भी श्रेणियों की आर्थिकसामाजिक उपयोगिता को देखते हुए उन्हें मुक्त व्यापार करने की अनुमति देने की अनुशंसा की थी. इसलिए मौर्य प्रशासन में श्रेणियों का तीव्र विकास संभव हो सका. मौर्यशासन से श्रेणियों ने विकास की जो रफ्तार पकड़ी वह गुप्तकाल तक बनी रही. बल्कि अपने पूर्ववर्ती शासनों की अपेक्षा विकेंद्रीकृत शासनव्यवस्था होने के कारण वह श्रेणियों के विकास के लिए और भी अनुकूल सिद्ध हुई. इस अवधि में व्यापार संगठनों एवं राजदरबार के संबंध परस्पर अन्योन्याश्रित रहे, जिससे राज्य का त्वरित विकास संभव हुआ, साथ ही श्रेणियों को अभूतपूर्व प्रतिष्ठा प्राप्त हुई.

गौतम बुद्ध ने सामाजिकआर्थिक विकास में श्रेणियों के योगदान को देखते हुए उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है. जातक कथाओं में उस समय की प्रतिष्ठित श्रेणियों का ससम्मान उल्लेख किया गया है. आगे चलकर गुप्त सम्राट स्कंदगुप्त का एक लेख देखने में आया है, जिसमें तेलियों की श्रेणि के पास अक्षयनिधि जमा कराने का उल्लेख मिलता है. लेख के अनुसार इंद्रपुर में निवास करने वाली तेलियों की एक श्रेणि के पास सम्राट स्कंदगुप्त द्वारा धन जमा कराया गया था. उद्देश्य मात्र इतना था कि उस धन से प्राप्त ब्याज से सूर्य मंदिर के दीपक के लिए तेल का खर्च चलता रहे. इस लेख के अनुसार आदेश था कि भले ही तैलिक श्रेणि स्थानापन्न होकर अन्यंत्र जा बसे, वहीं अपना व्यवसाय आदि करें, मगर राजा की ओर से जमा कराया गया धन उसी के पास जमा रहे. उस समय के प्रसिद्ध ग्रंथों यथा अर्थशास्त्र, याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद स्मृति, नीति वाक्यामृत आदि में श्रेणियों के योगदान की चर्चा की गई है. इससे स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में समाजव्यवस्था के अंतर्गत श्रेणियों और निगमों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था. अथर्ववेद के एक सूक्त के अनुसार—

राज्य, संस्था या समाज मनुष्य के क्रमिक विकास का परिणाम हैं. राज्य संस्था से पूर्व विराट(राज्यविहीन या अराजक) दशा थी. उस दशा के होने से भय होता था कि क्या सदैव यही दशा रहेगी. क्योंकि वह दशा भयावह थी, अतः उत्क्रांति होकर, ग्रहिपत्य संगठन बने. मनुष्यों का सबसे पहला संगठन परिवार के रूप में था. पारिवारिक दशा में उन्नति होकर ‘आहवनीय’ दशा आई. इस दशा में ग्रहों (परिवारों) के स्वामियों (गृहपतियों) का एक स्थान पर आह्नान किया जाता था. आहवनीय के नेताओं को वेदों में ग्रामणी कहा गया है. आहवनीय (ग्राम) से उत्क्रांति होकर ‘दक्षिणाग्नि’ दशा आई. यह गाँव की अपेक्षा अधिक बड़ा संगठन था. निरुक्त में अग्नि का अर्थ अग्रणी किया गया है. इस दक्षिणाग्नि दिशा में उत्क्रांति होकर सभा और समिति, संस्थाओं का निर्माण हुआ.’11

इस तरह समितिकरण की शुरुआत को हम विकासक्रम की अधिक परिपक्व अवस्था भी कह सकते है. जिसके आधार पर अपरिग्रह के महत्त्व को दर्शाते हुए, ‘सैकड़ों हाथों से अर्जन करने और हजारहजार हाथों से विसर्जित करने यानी बांटने.’ की उदात्त भावना भारतीय संस्कृति के पवित्र लोकादर्शों में सम्मिलित रही है. लोकतंत्र जिस सांगठनिता एवं समानता के उच्चादर्श के साथ आज प्रचलित है, वैसा तब भले ही न हो, उसका सीमित और अपरिष्कृत रूप की उस समय प्रचलित हो, किंतु प्राणिमात्र के प्रति समानता का आदर्श उस समय के प्रायः सभी ग्रंथों में मौजूद रहा है. उसी के अनुसार उस समय के आर्थिक सिद्धांत गढ़े गए है. उसी के आधार पर किसान अन्न उगाते समय समस्त प्राणियों के पोषण की कामना करता है, शिल्पकार अपने शिल्प के माध्यम से सबके काम आना चाहता है और मनस्वी कामना करता है कि वह सबके हित का सोचे, सबके कल्याण का सपना देखे और उसके लिए प्राणप्रण से संकल्प साधना को समर्पित होवे. तदनुसार बिना किसी वर्गभेद के समाज के एक समान कल्याण की कामना को समर्पित शास्त्रीय व्यवस्थाएं पूरे समाज को परिवार की भांति मानकर सबके उपकार का संकल्प रचती हैं. तभी तो वाणी के स्तर पर भी किसी का अकल्याण न हो, ऐसी हमारे यहां मान्यताएं थीं और सबके अनुपालन के लिए पर्याप्त शास्त्रीय व्यवस्थाएं भी थीं. एक वैदिक प्रार्थना देखिए—

हम सब समान गति, समान कर्म, समान ज्ञान एवं एक समान नियम अपनाते हुए, सबका कल्याण करने वाली वाणी बोलें.12

इसी प्रकार की एक पवित्र सद्कामना अथर्वेद के उद्गाता कवि की है—

हमारा साथसाथ रहनसहन हो—संकट में हम एकदूसरे के मददगार हों—एक साथ रहकर भरणपोषण करें.’13

और यह सब अचानक न होकर मनीषियों के शताब्दियों लंबे चिंतन की परिणति थी. प्राचीन भारत में सहकार की स्थिति को बल मिला था, उन जनतांत्रिक संस्थाओं के कारण जिनकी उपस्थिति ग्रामीण भारत में प्राचीनकाल से ही रही है. हम इस पर गर्व कर सकते हैं कि सामंतवाद के कठिन दौर में भी हमारे गांव आंतरिक लोकतंत्र का श्रेष्ठतम उदाहरण बने रहे. गांव की आंतरिक व्यवस्था को बनाए रखने, आपसी झगड़ों को सुलझाने, आर्थिक एवं सामाजिक नीतियां तय करने जैसे कार्य गांव पंचायतों तथा जनतांत्रिक ढंग से चुनी गई ऐसी ही अन्य व्यवस्थाओं पर निर्भर रहा है. ईसा से भी लगभग दो शताब्दी पहले तक भारत में ऐसी संस्थाओं यथा ग्रामसभा, ग्राम परिषद, ग्राम पंचायत, क्षेत्रीय पंचायत आदि स्थानीय निकायों की सार्थक एवं सक्रिय उपस्थिति थी, जो आंतरिक झगड़ों का निपटान करने, करों की वसूली तथा स्थानीय प्रशासन का दायित्व संभालती थीं.

ईसा से छह शताब्दी पूर्व परंपरागत ब्राह्मण धर्म अपनी ही कमजोरियों के कारण अपनी प्रासंगिकता खोने लगा था. बलि, बोझिल कर्मकांड एवं यज्ञों का अतिरेक उसकी प्रतिष्ठा और छवि को कलंकित करने में सहायक बने थे. उसके स्थान पर बौद्धधर्म तेजी से अपना स्थान बनाता जा रहा था, जो राजनीतिक रूप से राजामहाराजाओं का संरक्षण पाने के बावजूद धर्म के मामले में केंद्रीय सत्ता का विरोधी था. श्रेणियां चूंकि सत्ता एवं संसाधनों के विकेंद्रीकरण में सहायक थीं, संभवतः इसीलिए गौतम बुद्ध ने श्रेणियों के विकास पर जोर दिया था. बौद्धधर्म की संरचना एवं उसका प्रसार भी श्रेणियों के विकास में सहायक बना था. इस संबंध में विक्रमादित्य खन्ना के विचार दृष्टव्य हैं, जो उन्होंने किरन कुमार थपल्याल के हवाले से व्यक्त किए हैं—

बौद्ध धर्म एवं जैनधर्म, जिनका प्रादुर्भाव ईसापूर्व छठी शताब्दी में हुआ था, अपने पूर्ववत्ती ब्राह्मण धर्म की अपेक्षा अध्कि उदार एवं समतावादी थे. जिससे श्रेणियों को अपने विकास के लिए अपेक्षाकृत बेहतर एवं अनुकूल अवसर प्राप्त हों. ब्राह्मण धर्म के प्रभाव के चलते यज्ञों में बलि देने की घटनाएं तेजी से बढ़ी थीं, परिणामस्वरूप समाज की बहुत बड़ी पूंजी व्यर्थ चली जाती थी. बौद्ध तथा जैन धर्म यज्ञों नहीं करते थे. दोनों ही धर्मों में अपने से निचले वर्ग के साथ भोजन न करने की ब्राह्मणवादी शुचिताओं, निषेधों के लिए कोई स्थान नहीं था. व्यापार के सिलसिले में लंबी यात्राएं करना उनके लिए वर्जित नहीं था.’14

चंद्रगुप्त मौर्य यद्यपि हिंदू सम्राट था, लेकिन अशोक ने स्वयं को बौद्ध घोषित कर ब्राह्मणधर्म द्वारा पोषित कर्मकांडों पर अंकुश लगाने का कार्य किया था. यज्ञों में पशुबलि पर रोक लगाकर उसने स्वयं को न केवल अधिक मानवतावादी सम्राट सिद्ध किया था, बल्कि उस बहुमूल्य पशुशक्ति का भी संरक्षक घोषित किया था, जो उस समय भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मूलाधार थी. जातीय निषेधों के कमजोर पड़ने से समाज में आपसी संवाद एवं सहयोग की परंपरा को बल मिला, जिसके फलस्वरूप स्थानीय संस्थाएं और अधिक मजबूत बनकर उभरने लगीं. मौर्यकाल(322 .पू.) में गांवों में पंचायत की मौजूदगी थी, जिसका गठन गांव के पांच चुने हुए व्यक्तियों से किया जाता था. वह गांव की सुरक्षा तथा स्थानीय प्रशासन संबंधी अन्य मामलों की देखरेख करती थी. उसके सारे पद स्वैच्छिक होते थे. लोग समाजसेवा की भावना के साथ उन जिम्मेदारियों का वहन करते थे. गुप्तकाल(320 . से 600ई तक) के दौरान भी स्थानीय प्रशासन व्यवस्था मजबूत थी. उन दिनों भी ग्राम प्रमुख को ग्रामिका कहा जाता था. दस गांवों पर नियंत्रण तथा उनके आपसी व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए दस ग्रामिका अथवा महत्तर सभा होती थी.

ईसा से छह सौ वर्ष पश्चात देश में पालवंश का शासन था, उन दिनों गांव का मुखिया पाटक कहलाता था. गांव पंचायत के सदस्य गांव के वरिष्ठजन होते थे. उन्हीं के बीच से एक वरिष्ठ एवं योग्य सदस्य को ग्रामपति अथवा मुखिया चुन लिया जाता था. उससे ऊपर दस गांवों की एक सभा होती थी, जिसको महत्तर सभा अथवा दस ग्रामिका के नाम से पुकारा जाता था. उसका मुखिया दसग्रामिका कहलाता था. स्थानीय प्रशासन की यह व्यवस्था ईसा पूर्व दो हजार वर्ष से भी पुरानी है. इसके संकेत वैदिक ग्रंथों से लेकर कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा गुप्तकाल के साहित्य में मिलते हैं. विकेंद्रीकृत शासनव्यवस्था शिल्पकलाओं के विकास में सहायक सिद्ध हुई थी.

ईसा से पांचवी शताब्दी पूर्व के ग्रंथ गौतम धर्मसूत्र में इस बात के स्पष्ट उल्लेख है कि उस समय—

किसानों, व्यापारियों, पशुचारकों, साहूकारों तथा शिल्पकर्मियों के भी संगठन थे तथा उन्हें यह अधिकार प्राप्त था कि अपने वर्ग के कल्याण के लिए जरूरी नियम बना सकें. यहां तक कि सम्राट भी आवश्यक मसलों को लेकर संबंधित वर्ग के प्रतिनिधि से परामर्श करता था.’15

जातक कथाओं में अठारह प्रकार की श्रेणियों तथा श्रेणिप्रमुखों का उल्लेख आता है. वे बारबार विभिन्न व्यवसायों की वंशानुगतता की ओर भी संकेत करती हैं, जिसके अनुसार पुत्र अपने पिता के व्यवसाय को अपना लेता था. यहां तक कि व्यक्ति के परिवार, कुल आदि की पहचान भी उसकी श्रेणि या व्यवसाय से होती थी और लोग उनका उपयोग अपने नाम के साथ सम्मानसूचक शब्दों की भांति करते थे. वंशानुगतता भारतीय श्रेणियों का विशिष्ट गुण था. यही परंपरा भारतीय श्रेणियों को पश्चिम के उद्यमी संगठनों से अलग सिद्ध करती है. एक स्वाभाविक प्रश्न यहां जन्म लेता है कि देश में लगभग ढाई हजार वर्ष पहले ही कामयाब जनतंत्र लोकतांत्रिक शासन प्रणाली होने के बावजूद वे कौनसे कारण थे कि भारतीय समाज भटकाव का शिकार हुआ. अपने भटकाव के दौरान समाज न केवल अपनी स्थिति से गिरा, बल्कि उसको इसके लिए आर्थिक हानि भी उठानी पड़ी. कारण कई हैं और उनमें से अधिकांश उसी परांपरा एवं संस्कृति की देन हैं, जिन्हें वैदिक परंपरा सांस्कृतिक समृद्धि के प्रतीक मानती आई है. यानी समाज का चातुवर्ण्य विभाजन जो कालांतर में अनगिनत जातियों और वर्गों में बदल चुका है.

वस्तुतः ज्ञान के प्रत्येक सूत्र को वेदों में तलाशने की प्रवृत्ति ने भी समाज का नुकसान ही किया. क्योंकि निहित स्वार्थों के कारण समाज का एक वर्ग नए ज्ञान के प्रति उत्सुक्ता और उसके लिए बदलाव की हर स्वाभाविक प्रवृत्ति का निषेध, यह कहकर करता रहा कि उसमें नया कुछ भी नहीं है, वह तो हमारे शास्त्रों में पहले से ही उपलब्ध है. यह मनुष्य की विवेकशीलता की अवमानना जैसा,प्रतीक था, भारत की उस गुलाम मानसिकता का जो वर्तमान से उबरने की छटपटाहट में बारबार अतीत की ओर पलायन कर रही थी. अतएव सहकार की भावना का जो उभार प्राचीन भारत में देखने को मिलता है, मध्यकाल में आकर वह सहसा अवरुद्ध हो जाता है. परंतु वह ठहरता नहीं है, अवमंदन की स्थिति में भी वह सतत आगे बढ़ता जाता है. भारत में वैदिककाल से ही साहचर्य आधारित उद्यमों को सामाजिक संबंधों के विकास एवं उनके स्थायित्व के लिए, एक अनिवार्य उपक्रम के रूप में स्वीकारा गया. प्रायः सभी सम्राटों ने साहचर्य आधारित समूहों की उपयोगिता को स्वीकारते हुए उन्हें अपने राज्य में सम्मानजनक स्थान दिया, तथापि उनकी भिन्न राजनीतिकसामाजिक विचारधारा का प्रभाव श्रेणियों के विकास पर भी निरंतर पड़ा. जैसे मौर्यशासन के अंतर्गत जब केंद्रीय सत्ता अपेक्षाकृत मजबूत थी, उन दिनों श्रेणियों को अपने विकास के लिए उतने अनुकूल अवसर नहीं मिल पाए थे, जितने कि आगे चलकर गुप्तकाल के दौरान उन्हें मिले, जो अपेक्षाकृत विकेंद्रीकृत शासनव्यवस्था थी.

कालांतर में जैसेजैसे समाज का विकास हुआ, मनुष्य की जरूरतें बढ़ीं, नई खोजों ने मानवीय सभ्यता के नए पथों को प्रशस्त किया, तब सहकारिता भी अलगअलग रूपों में पनपती चली गई. उसका स्वरूप और अधिक जटिल तथा विस्तृत होता चला गया, जो बदली हुई परिस्थतियों में स्वाभाविक ही था. बदलते वक्त के साथ सहकारी संस्थाओं के व्यवसाय में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई तथा वे उत्तरोत्तर बहुउद्देश्यीय संगठन के रूप में ढलती चली गईं. लेकिन प्राचीन भारत में, विशेषकर ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी से लेकर ईसा पश्चात छठी शताब्दी तक सहकारी संबंधों का जितना विकास हुआ, उतना आगे के वर्षों में न हो सका. वस्तुतः उसके बाद के वर्षों में भारत आंतरिक रूप से निरंतर कमजोर पड़ने लगा था. विदेशी आक्रमणों के कारण यहां का सामाजिक ढांचा बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका था. प्रारंभिक भारतीय समाज में जो खुलापन तथा नए ज्ञान को आत्मसात करने की ललक थी, बाद के वर्षों में उसका स्थान रूढ़ियों एवं जड़ परंपराओं ने ले लिया था. गुलाम मानसिकताओं की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि हताशा के क्षणों में वे अक्सर अतीतोन्मुखी बनकर जीने लगती हैं, परिणामस्वरूप विकास उनके लिए छलावा बन जाता है.

जो भी हो, सहकारिता जिस स्वतन्त्रय चेतना की अपेक्षा रखती है, बदलती परिस्थितियों एवं राजनीतिक अस्थिरता के चलते, आगे के वर्षों में वह लगातार शिथिल पड़ती गई. इसके बावजूद अनौपचारिक रूप में सहकारिता का प्रभाव हमेशा बना रहा. विशेषकर खेतिहर ग्रामीण समाज मेंफसल की कटाईबुवाई, शादीविवाह, सुखदुःख के बीच सहयोग की उपस्थिति प्रत्येक वर्गजाति में सदैव और हरेक स्तर पर बनी रही. सामंतवाद ने स्वयं को स्थायित्व बनाने के लिए इस देश की जाति आधारित परंपराओं का सहारा लिया. परिणाम यह हुआ कि जैसेजैसे सामंतवाद का प्रभाव समाज पर बढ़ा, सहकार आधारित संगठनों की चमक फीकी पड़ती चली गई.

कहने को तो वर्णव्यवस्था की संकल्पना भी समाज में, मनुष्य की कार्यक्षमता के अधिकतम उपयोग और उसकी सामुदायिक एकता को बनाए रखने की कामना की देन थी. उसमें उत्पादन और वितरण से लेकर वैचारिक दायित्वों के निर्वहन की पूरीपूरी व्यवस्था थी. लेकिन कालांतर में धीरेधीरे वर्णव्यवस्था में उच्च स्तर पर मौजूद लोग अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर शेष समाज पर हावी होते चले गए. आगे चलकर वर्ण व्यवस्था ने ‘जाति व्यवस्था’ जैसी विकृति का रूप धारण कर लिया, जिसमें मौलिक प्रतिभाओं को या तो दरकिनार किया जाने लगा अथवा उन्हें इतना उपेक्षित किया गया कि वे कुंठा की शिकार होने लगीं. ऐसे में स्वाभाविक ही था कि दोयम दर्जे की प्रतिभाएं प्रायः हर क्षेत्र पर हावी होती चली जाएं; और यही हुआ भी. ध्यातव्य है कि प्राचीन भारत में सहकारिता अपने वर्तमान स्वरूप से कतई भिन्न थी. इसका कारण यह है कि तत्कालीन समाज में व्यक्ति चेतना सामाजिक चेतना की अपेक्षा कमजोर रहती थी. दूसरे शब्दों में उस समय तक व्यक्तिवाद उतना प्रभावकारी नहीं हुआ था जितना कि वह इन दिनों है. कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो वह साम्राज्यवाद के अधिपत्य का युग था. अतएव ग्रामीण समाज, यहाँ तक कि ग्राम पंचायतों का स्वरूप भी उसी का विस्तार था और उनमें सीमित जनतांत्रिकता थी. साफ शब्दों में कहें तो वह एक प्रकार का कुलीनतंत्र था, जिसमें समाज के खास वर्गों के लोग ही हिस्सा ले सकते थे.

निःसंदेह, सहकारिता का वर्तमान स्वरूप उनीसवीं शताब्दी की ही देन है—जब दुनियाभर में व्यक्तिस्वातन्त्रय एवं लोकतांत्रिक विचारों का प्रभाव बढ़ा. इसके बावजूद भारतीय समाज के उन प्राचीन सहकारी संगठनों को भूल पाना आसान नहीं है, क्योंकि सीमित जनतांत्रिकता के बावजूद उनमें जो खुलापन एवं पारदर्शिता थी, वह आज के लोकतांत्रिक समाजों में भी दुर्लभ है. शायद यही कारण है कि राजशाही और सामंतवाद के कठिनतम दौर में भी उन्होंने अपनी उपयोगिता बनाए रखी. इसका अभिप्राय यह नहीं है कि मध्यकाल में सहकारिता आंदोलन बिल्कुल बेअसर था. लेकिन यह भी सच है कि उसमें इस बीच कोई बहुत सैद्धांतिक विकास नजर नहीं आता. मध्यकाल में आर्थिक सुधार के कार्यक्रम तो चलाए गएव्यापारी संगठन भी अवसरानुकूल अपना कार्य करते रहे….परंतु बाह्यः दबावों तथा राजनीतिक उथलपुथल के कारण व्यापारिक समूहों की आजादी या तो छीन ली थी अथवा उसे इतना सीमित कर दिया था कि वह लगभग बेअसर हो चुकी थी. वैसे भी मध्यकाल की उपलब्धियां कला, साहित्य और स्थापत्य के क्षेत्र में अधिक प्रभावशाली हैं. निरंतर बाहरी आक्रमणों और बिखरी राजशक्ति के कारण जनजीवन में अनिश्चितता बढ़ी, जिसने लोगों को भाग्यवादी बनाने का काम किया. दर्शन को कर्मकांड का जामा पहनाकर उसे धर्म में ढालने की कोशिश तो वैदिककाल में ही प्रारंभ हो चुकी थी. उसी को मान्यता दिलाने के लिए यजुर्वेद की रचना की गई थी. आगे चलकर दर्शन को छिछले कर्मकांड में ढालने की षड्यंत्रकारी प्रवृत्ति का जोरदार विरोध उपनिषदों के रूप में देखने को मिला, जिसने कुछ वर्षों के लिए वैदिक समाज की ज्ञान एवं चिंतनआधारित परंपरा को पुनर्जीवित करने का काम किया.

इस बीच एक वर्ग निहित स्वार्थों के लिए समाज को बौद्धिक एवं गैरबौद्धिक वर्गों विभाजित करने में सफल रहा था. वह यह समझाने में भी सफल हुआ था कि समाज में एक गैरबौद्धिक यानी जनसामान्य वर्ग भी है, जो कठिन परिश्रम द्वारा जीवनयापन करने के लिए अभिशप्त है, जिसका कार्य समाज के शीर्षस्थ वर्ग की सेवा करना था—जिसका मनुष्यता की ज्ञानआधारित परंपरा से कोई लेनादेना नहीं है. वह वर्ग मात्र कर्मकांड के जरिए ही मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है. कहने की आवश्यकता नहीं कि बौद्धिकता पर दावा करने वाला वर्ग, दूसरों के श्रम पर मौज उड़ाने वाले धूर्त परिजीवियों का था. यह वर्ग शारीरिक श्रम से दूर रहता था, बावजूद इसके समाज के अधिकांश संसाधनों पर इसी का कब्जा था.

परिवार या जन्म के आधार पर समाज का विभाजन पूर्णतः अस्वाभाविक तथा मनुष्यता के सिद्धांतों के विपरीत था, जिसने समाज के बड़े वर्ग के मानस में कुंठा परोसने का कार्य किया. बाद में धर्म और राजनीति के गठजोड़ ने इसके ऊपर उठने वाले समस्त प्रश्नों को नेपथ्य में ढकेल दिया. ज्ञान की परंपरा से कटने का परिणाम यह हुआ की जनसाधारण का नैसर्गिक पराक्रम और आत्मविश्वास शिथिल होते चले गए. उनके स्थान पर कुंठा और हताशा का प्रसार बढ़ने लगी. अतएव वैसी चेतना जो सहकार संवर्धन के लिए प्रेरक शक्ति बनकर, सामाजिकता को गतिमान बनाती है, उसका समाज से लोप होता चला गया. तो भी समयसमय पर, अलगअलग क्षेत्रों में राजाओं ने कुछ ऐसे फैसले अवश्य लिए जिनसे जनसाधारण को लाभ पहुंचा; और जो सहकार की मूल भावना के अनुकूल भी थे. यह बात अलग है कि पर्याप्त जनचेतना के अभाव में उनका लाभ समाज के शीर्षस्थ वर्गों तक ही सिमटकर रह गया.

उस समय के आर्थिक सुधारकों में अलाउद्दीन खिलजी का नाम बहुत महत्त्वपूर्ण है. भारतीय इतिहास में इस बादशाह की अपनी घोर स्त्री लोलुपता के लिए यद्यपि खूब छीछालेदार हुई है. परंतु इससे अलग उसका एक चेहरा ओर भी था, जो उसको न्यायप्रिय और दूरदर्शी बादशाह का दर्जा प्रदान करता है. अलाउद्दीन खिलजी ने आमजनता के हित में आवश्यक वस्तुओं के मूल्यनियंत्रण की प्रणाली शुरू की. मुनाफाखोरी को उसने अपराध का दर्जा देते हुए उसके लिए कठोर दंड की व्यवस्था की. फलस्वरूप उसके राज्य में मुनाफाखोरी घटी. आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए उसने आम उपयोग की वस्तुओं की राशनिंग की व्यवस्था की. बेईमान दुकानदार लोगों को ठग न पाएं, इसके लिए उसने नए बाट बनाकर मापतोल प्रणाली को विश्वसनीय बनाया.

मध्यकाल का एक और बादशाह जिसका उल्लेख यहां अनुचित न होगा, का नाम था—मुहम्मद तुगलक! यद्यपि वह इतिहास में अपने तानाशाहीपूर्ण आचरण और कठोरतम आदेशों के लिए कुख्यात है. लेकिन आमजन के सुखसुविधा के लिए उसने भी कई उल्लेखनीय काम किए थे. अलाउद्दीन की भांति मुहम्मद तुगलक ने भी नई मुद्रा का चलन कर एक क्रांतिकारी शुरुआत की. उसने जमाखोरी को हराम घोषित कर उसकी रोकथाम के लिए कठोर कानून बनाए, जिनके फलस्वरूप वह जमाखोरों पर लगाम लगाने में कामयाब रहा. उसने व्यापारियों को निर्देश दिया कि वे अपने मुनाफे लिए आमजनता की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखें. प्रजा के कल्याण को ध्यान में रखते हुए उसने व्यापारियों को कम से कम मुनाफे के साथ व्यापार करने को बाध्य कर दिया था.

मध्ययुग के जिस बादशाह का उल्लेख किए बिना उस युग के आर्थिक परिवेश की सटीक व्याख्या असंभव है, वह था—शेरशाह सूरी. एक उदार, दूरदर्शी और पराक्रमी सम्राट! शेरशाह प्रजा का बहुत ही प्यारा बादशाह था. अपने राज्य के विस्तार के लिए उसने अनेक युद्ध लड़े थे. एक मामूली परिवार से निकलकर बाहशाह की गद्दी पर बैठा वह महान योद्धा आजीवन संघर्ष करता रहा. प्रजा के कल्याण को ध्यान में रखते हुए उसने कई विकास कार्यक्रम चलाए. सुखसमृद्धि के लिए उसने सड़कें बनवाईंभूमि की मापजोख कर लगान की आसान विधि की शुरुआत की. किसानों को मदद पहुंचाने के लिए भी उसने कई योजनाएं बनाई थीं. यही नहीं अंतःप्रांतीय व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए शेरशाह ने कारीगरों, उद्यमियों के कल्याण लिए विशेष कार्ययोजनाएं बनाईं, जिनका सकारात्मक परिणाम भी निकला.

शेरशाह के बाद जिस बादशाह ने सामाजिक कल्याण के कामों को सर्वाधिक बढ़ावा दिया, वह था—मुगल बादशाह अकबर! उसके एक दरबारी राजा टोडरमल को भूमिसुधार कार्यक्रमों को नए सिरे से लागू करने का श्रेय जाता है. टोडरमल ने भूमि की नए सिरे से मापजोख कर लगान की नई दरें लागू कीं. छोटे और मझोले कारीगरों को पुरस्कार, प्रोत्साहन आदि के जरिए आगे बढ़ाया. उस समय भी श्रेणियां या व्यापारिक संगठन देशदेशांतर तक अपना काम करते थे. हालांकि समाज के बीच उनकी अब पुरानी प्रतिष्ठा शेष नहीं थी. हालांकि लगभग पूरा भारतवर्ष उन दिनों मुगल साम्राज्य के अधीन था, किंतु अंतर्राराज्यीय संगठित व्यापार के संवर्धन के लिए शासन के पास संभवतः कोई बड़ी योजना नहीं थी. छोटेछोटे जनपदों में बंटे देश में उन दिनों नया काम नहीं हो सका.

अकबर के बाद भी भारत में यद्यपि बड़ेबड़े साम्राज्यों का उदय हुआ—मगर सामूहिकता या सहकारिता का बहुत ज्यादा विकास वहीं हो पाया. हां, उस दौर में भी श्रेणियां प्रच्छन्न रहकर अर्थव्यवस्था के सातत्य में महत्त्वपूर्ण योगदान कर अपना औचित्य सिद्ध करती रहीं. संगठित उद्यमों के विकास में आए ठहराव का एक कारण संभवतः यह हो सकता है कि उन दिनों समाज में सामंती मूल्यों का बोलबाला था. उद्योगधंधे ठप्प पड़े थे….बारबार पड़नेवालों अकालों ने जनमानस को हताश बना दिया था. प्रजा में जागरूकता का अभाव था. जाति और धर्म जैसे नकारात्मक मूल्यों ने समाज को बुरी तरह बाँटा हुआ था.

बौद्धिकता की दृष्टि से वह युग क्रांतिकारी भले ही न हो, लेकिन साहित्य, खगोलविज्ञान, आयुर्वेद, वास्तुकला जैसे अनेक ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें उस युग की उपलब्धियां चैंका देने वाली हैं. यह बात अलग है कि उस युग के अधिकांश विद्वानों का चिंतन शासनोन्मुखी था. समूचा साहित्य, कलाएँ, वास्तुनिर्माण, भूसंपदा आदि बादशाह को प्रसन्न करने का माध्यम थे. उनका उपयोग राजा की मर्जी से और उसके सुख के लिए ही संभव था. राजशाही और सामंतवादी चिंतन का प्रभाव उस समय के साहित्य और इतिहास पर भी पड़ा. हालांकि कुछ विद्वान उस युग में बादशाह को उसके कर्तव्य की याद दिलाते रहते थे. ग्यारहवीं शताब्दी में जन्मे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री सोमदेव सूरि, प्रजा की खुशहाली को राजा के सुखसमृद्धि से जोड़कर देखते हैं—

जहाँ राजा ही निर्धन होगा, वहाँ प्रजा कैसे धनी हो सकती हैजहाँ समुद्र ही प्यासा होगा वहाँ संसार में जल कैसे पाया जा सकता है.16

सोमदेव सूरि ने पशुओं के साथ मित्रवत व्यवहार करने, व्यापारियों और उद्योगसमूहों की रक्षा करने पर जोर दिया है. किंतु ये बदलाव वे राज्य के संरक्षण में ही चाहते थे. यह उनके चिंतन की सीमा थी. स्वतंत्र कार्यकारी समूह, जिनका नियंत्रण जनतांत्रिक परंपराओं और भावनाओं के अनुरूप हो, जो केवल अपने समूह के हितों को ध्यान में रखकर नीतियां बनाने, काम करने के लिए बाध्य हों, जिसमें पूरे समूह की सहभागिता हो, का उस युग में कोई अस्तित्व था ही नहीं.

इस युग में कबीर, सूर, तुलसी, नानक और रविदास जैसे कवि भी हुए—भक्त कवियों की सुदीर्घ परंपरा चली, मगर उन सभी ने इस संसार को माया और अस्सार बताते हुए, एक स्वर से धन के परित्याग की भावना पर ही जोर दिया. हताश और मानसिक रूप से हार माने बैठा जनमानस, अपनी स्थिति में सुधार के लिए किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए बैठा था. अपरिग्रह, अस्तेय और अहिंसा को उस युग के दर्शनों में केंद्रीय विचार की मान्यता मिलती रही. इस सब से हिंदू समाज का कितना हित हुआ और कितना अहित, यह हमेशा ही बहस का मुद्दा रहा है. एक तरह से यह गरीबी, धर्मांधता और रूढ़ियों में जकड़ी हताश जनता को झूठी तसल्ली देने की ही कोशिश थी.

आइने अकबरी’ नामक ग्रंथ में भी अकबर के दरबारी और मंत्री अबुल फजल, कृषि, व्यापार, भूमि आदि की व्यवस्था के उपाय तो सुझाते हैं, मगर स्वचेतित कार्यशील समूहों को बढ़ावा देने की युक्ति या परंपरा से सीख लेने की ललक का उनमें अभाव था. वस्तुतः अकबर के दरबार के नवरत्नों में से अधिकांश वे हताश योद्धा, बुद्धिजीवी आदि थे, जिन्हें सम्राट ने स्वयं को बहुसंख्यक हिंदू समाज का प्रतिनिधि सिद्ध करने के लिए चुना था. उन दिनों पूरा समाज शासक और शासित, नामक दो वर्गों में बंटा हुआ था, जिनके बीच आपसी सामाजिक व्यवहार लगभग शून्य था. जीवन का धर्म में अनावश्यक हस्तक्षेप था और धार्मिक शक्तियां ऐसे किसी भी वाद या विचार को आगे लाने से बचती थीं, जो परंपरा और पुरातन के संदर्भ में सवाल उठाता हो. आपसी संवाद के अभाव में समाज में बौद्धिक ठहराव की स्थिति बनी हुई थी.

एक तरह से वह सामाजिक विकास के ठहराव का भी युग था….उस युग में यद्यपि देश को बाहरी आक्रमणों का सामना भी करना पड़ा. उपनिषदों, आरण्यकों की मौलिकता, स्मृतियों के कर्मकांड और पुराणों की गल्पकथाओं में सिमटकर रह गई. बौद्ध धर्म की तार्किकता का स्थान तांत्रिकों तथा आश्रमों में पलने वाले व्यभिचारों ने ले लिया. पुराण आदि ग्रंथ वर्गविशेष द्वारा अपने वर्गीय हितों के समर्थन एवं सुरक्षा हेतु लिखे जा रहे थे, अतएव इनके माध्यम से ऐसी शास्त्रीय व्यवस्थाएँ परोसी जा रहीं थीं जिनसे समाज का बड़ा हिस्सा, चिंतन और कर्म के लिए दूसरों पर निर्भर होकर रह जाए. और उसका असर भी हो रहा था. यही कारण है कि इस आठनौ सौ वर्ष के अंतराल में एक भी ऐसा मौलिक विचारक, अन्वेषक भारत में नहीं जन्मा, जो अपने चिंतन या कर्म द्वारा वैश्विक ख्याति अर्जित कर सके. अनेक राज्यों, भौगोलिक सीमाओं में बंटा भारतीय समाज, कभी बाहरी आक्रामकों के इशारे पर, कभी अपने ही स्वार्थी सम्राट के कहने पर आपस में लड़ताझगड़ता रहा. सत्ता और ताकत के लिए यहां दुश्मनों से मिलकर अपनों को तबाह कर देने की नीति सैकड़ों वर्ष तक चली. परिणाम सैकड़ों वर्षों लंबी गुलामी. धर्मभीरूता और कुंठित समाज.

वाराहमिहिर या आर्यभट्ट का योगदान महत्त्वपूर्ण हो सकता है, और है भी. लेकिन एक तो उनकी कोटि के विद्वानों की संख्या उंगलियों पर गिने जाने योग्य है, दूसरे ज्ञान की परंपरा को बिना किसी पूर्वाग्रह, जातिभेद के आगे बढ़ाने का जो साहस और आत्मविश्वास चाहिए, भारतीय बुद्धिजीवियों में उसका सरासर अभाव था. इसीलिए वहां वाराहमिहिर, आर्यभट्ट अथवा उनके उत्तराधिकारियों में से एक भी न्यूटन, का॓परनिकस, गैलीलियो जितना योगदान अपने समाज को दे पाने में असमर्थ रहा. वैसे भी इतने बड़े समयांतराल में दोतीन मेधाओं की मौजदूगी अपवाद ही कही जाएगी—आश्वस्तिकारक नहीं. समाज के जातीय आधार पर विभाजन के ही कारण यहां पर मनुष्यता की रक्षा के लिए वैसे वौद्धिक आंदोलन जन्म नहीं ले पाए, जो यूरोप के देशों में जन्में और प्रकारांतर में पूरी दुनिया में फैले.

भारत में मुगल शासन के दौरान भी स्थानीय प्रशासन काफी मजबूत स्थिति था. उन्होंने बिना किसी छेड़छाड़ के परंपरा से चली आ रही स्थानीय प्रशासन की व्यवस्थाओं की स्वायत्तता को बनाए रखा. उन दिनों दस्तकारी, शिल्पकला, स्थापत्य, आभूषण आदि उद्योगों में पर्याप्त संभावनाएं जागी हुई थीं. उन दिनों भी किसी संस्था में यह सभी पद पूर्णतः बने हुए थे. जहांगीर के पश्चात मुगल साम्राज्य कमजोर पड़ने लगा था, जिससे स्थानीय जमींदार, राजेरजबाड़े सिर उठाने लगे थे. राजनीतिक अराजकता के उस माहौल में ईस्ट इंडिया कंपनी को अपना राज कायम करने का अवसर मिला. कहने की आवश्यकता नहीं कि कंपनी के मददगारों में यहीं के राजेरजबाड़े थे, जो किसी न किसी कारण असंतुष्ट रहते थे. यही कारण था कि प्लासी की लड़ाई में मुट्ठीभर अंग्रेज सेना अपने से दस गुना बड़ी सुराजुद्दौला की सेना पर भारी पड़ी. उसके बाद से अठारह सौ सतावन तक देश का इतिहास आपसी लड़ाई और व्यापार एकतरफा शोषण एवं संसाधनों की लूट का रहा. परंतु सन अठारह सौ सतावन के सैनिक एवं उससे पहले के किसान विद्रोहों ने अंग्रजों को जता दिया था कि वे अपने तानाशाही पूर्ण रवैये के साथ इस देश पर अधिक दिन तक राज नहीं कर पाएंगे. निश्चित रूप से फ्रांस समेत पूरे यूरोप में चल रहे नवजागरण के आंदोलनों का भी प्रभाव था कि अंग्रेज शासक इस देश के आधारभूत ढांचे में सुधार के लिए तैयार हुए.

अठारह सौ पिचासी के पश्चात ब्रितानी सरकार ने स्थानीय प्रशासन का पुनर्गठन किया, लेकिन उसने प्रशासन के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखा. उसने प्रशासन की तीन स्तरीय व्यवस्था कायम की, जिसमें स्थानीय बोर्ड, जिला स्तरीय बोर्ड तथा एक केंद्रीय बोर्ड सम्मिलित थे. तीनों ही स्तर पर नियुक्तियां शिक्षित व्यक्तियों के बीच से वयस्क मताधिकार द्वारा की जाती थीं. सभी पद स्वैच्छिक थे. अगले पृष्ठ पर दी गई तालिका में इन व्यवस्थाओं पर एक विहंगम दृष्टि डाली गई है.

कहने का आशय यह है कि भारत में आदिकाल से ही स्थानीय लोकतंत्र मजबूत रहा है. हालांकि सामंतवाद का एक दौर ऐसा भी आया जब स्थानीय व्यवस्थाएं जाति और धर्म के आधार पर बंटती चली गईं. बावजूद इसके देश में ऐसा समय कभी नहीं आया जबकि संगठन की अनिवार्यता को नकारा गया हो. चाहे वह जातीय पंचायतों के रूप में हो अथवा व्यापारिक श्रेणियों के रूप में, भारतीय समाज में सांगठनिकता ने सदैव अपनी उपस्थिति बनाए रखी. स्थानीय जनतंत्र की मिसाल के रूप में जहां प्रत्येक जाति की अपनी अलग पंचायत होती थी, वहीं शिल्पकारों, श्रेष्ठियों के अपने व्यावसायिक संगठन थे. प्राचीन समाज में श्रेणियों की महत्ता मात्र इसी से परखी जा सकती है कि उस समय में कतिपय चोरों की भी अपनी श्रेणियां थीं. हां तक कि धार्मिक मामलों की देखरेख का कार्य भी श्रेणियों के जिम्मेदारी थी. महस्थानगढ़ और मैनामती में बने बौद्ध स्तूपों इस बात का प्रमाण हैं कि उन दिनों धार्मिक संस्थाएं भी सामूहिक कल्याण के कार्यक्रमों यथा शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति के प्रचारप्रसार के कार्यों में समानरूप से रुचि लेती थीं.

प्राचीन भारत में सहकारिता के समानधर्मा संस्थानों/संगठनों की स्थिति17

अवधि

संथान

संगठन

सेवा की प्रकृति

से

तक

322 ईस्वी पूर्व

ग्रामीण परिषद

प्रतिष्ठित परिवारों के सदस्य

स्वैच्छिक

322 ईस्वी पूर्व

320 ईस्वी

पंचायत

समाज के वरिष्ठ लोग

स्वैच्छिक

321 ईस्वी

600 ईस्वी

ग्रामिका

ग्राम प्रमुख या मुखिया

स्वैच्छिक

601 ईस्वी

900 ईस्वी

दस ग्रामिका या पातक

दस गांवों का मुखिया

स्वैच्छिक

901 ईस्वी

1200 ईस्वी

ग्रामपति

ग्रामप्रमुख या मुखिया

स्वैच्छिक

1201 ईस्वी

1300 ईस्वी

पंचायत

प्रतिष्ठित वरिष्ठजन

स्वैच्छिक

1301 ईस्वी

1526 ईस्वी

पंचायत

प्रतिष्ठा, आयु एवं अनुभव के आधार पर निर्वाचित व्यक्ति

स्वैच्छिक

1527 ईस्वी

1757 ईस्वी

परगना

निर्वाचित अधिकारी

स्वैच्छिक

1758 ईस्वी

1885 ईस्वी

जमींदारी

शाही नुमाइंदा

कमीशन आधार पर

श्रेणियां, भारत में जिनका इतिहास लगभग चार हजार वर्ष पुराना है, न केवल इस देश बल्कि दुनिया के अनेक देशों में कतिपय संगठनात्मक अंतर के बावजूद समानरूप से प्रचलित थीं. पुराने मिश्र में उन्हें ‘कोयनन’(Koinon)कहा जाता था, जो रोम के ‘कालेजिया’(Collegia)से प्रेरित था. चीन में ईसापूर्व तीसरी शताब्दी, हान साम्राज्य से गिल्ड की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं. वहां उन्हें ‘हंगुई’ (Hanghui)कहा जाता था. इटली में मध्यकाल में व्यापारियों के संगठन बहुत मजबूत माने जाते थे. वहां उन्हें अर्स(ars)की संज्ञा दी गई थी. जर्मनी में ‘जुंफ’(Zunft)फ्रांस में मेटायर(Métier)ईरान में सेंफ अथवा सिंफ(senf, sinf)तथा इंग्लैंड क्राफ्ट, गिल्ड, अरब तथा तुर्की आदि देशों में उन्हें फुतुवा (futuwwah or fütüvvet)आदि नामों से पुकारा जाता था. उनके संगठनात्मक स्तर पर थोड़ी भिन्नता थी, परंतु सामूहिक कल्याण की उनकी भावना उन्हें एक जैसा स्तर प्रदान करती थी.

आधुनिक सहकारिता आंदोलन का भारत में आगमन उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ. निश्चित रूप से इसके पीछे पश्चिम की प्रेरणाएं थीं. इसका श्रेय नवजागरण और उन सुधारवादी आंदोलनों को भी जाता है, जिन्होंने सोए हुए जनमानस का परिचय अपने गौरवमय अतीत से कराया जिससे जनता का अस्मिताबोध प्रखर हुआ. इनमें राजा राममोहन राय, बंगाली अर्थशास्त्री शशिपद बनर्जी, गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर, आचार्य विनोबा भावे, महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, गोविंद रानाडे, विवेकानंद आदि प्रमुख थे. आधुनिक मनीषियों में पी.जी. कुरियन जैसे सहकारिता पुरुष सम्मिलित हैं, जिन्होंने भारतीय आंदोलन को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने में मदद की है.

© ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भानुक्रमणिका

1. Chanakya appeared quite suspicious of the sreni. He was generally concerned with any entity that had many members, good resources and a strong sense of group loyalty as the sreni did. He probably viewed them as potential threats to the cohesion of the recently formed empire, which was knit together with some considerable effort. However, the sreni could not simply be outlawed because they existed before the Mauryans and the support of the sreni was probably needed to increase the chances of unity in the empire. Moreover, it is likely that Chanakya was cognizant of the importance of economic prosperity to maintaining the support of the citizenry – a matter of paramount importance to the emperor and to maintaining unity. The sreni were the engines of economic growth and could not be dealt with in the same manner as a hostile regional monarch. Thus, regulating the sreni was a matter of balance for Chanakya – their support was needed, but they could not be permitted to destabilize the empire and hence needed to be watched carefully. Vikramaditya Khanna in The Economic History of the Corporate Form in Ancient India.

2. संद्यभृता संभूय समुत्थारा वा यथा

संभाषित वेतनं सम वा विभजरेन। रामशास्त्री द्वारा प्रणीत: कौटिल्य अर्थशास्त्र: नाम पुस्तक बुक नं VI, अध्याय 14, पृष्ठ संख्या-64.

3. It appears that the Mauryans and the Romans were in quite different situations. Both empires could have been concerned about alternative entities (e.g., sreni) that might attract the public’s loyalty away from the Empire, but the Romans did not, it appears, have to contend with pre-existing private commercial entities as the early Mauryan Empire did. One might speculate this would lead the Mauryans to be more concerned about keeping the support of the pre-existing private commercial entities (the sreni) while carefully watching that they do not threaten the cohesion of the Empire. The Romans did not have such entities to contend with and hence could have prevented any threat to the cohesion of their Empire by not permitting such entities to develop.- Vikramaditya Khanna.

4.  यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।
अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति।। श्रीमद्भागवत, 7/14/8.

5. यो ग्रामदेश संघानां कृत्वा सत्येन संविदाय

विसंवदेन्नरो लोभात्त राष्ट्रा द्विप्रवासयेत। मनुस्मृति.

6. निज धर्माधिरोधेन यस्तु सामयिको भवेत सोऽपि यत्नेन संरक्ष्यो धर्मोराज कृतश्च यः।

गणद्रव्यं हरेद यस्तु संविदं लंग्येत्च यः सर्वस्वरण कृतवातं राजद्विप्रवास येत्।

कर्तव्यं वचनं सर्वे समूहितवामिनाम्—यस्तत्र विपरीत रयात् सदाप्य प्रथम दमम्।

समूह कार्य अयातनान् कृत कर्मान विसर्जयेत, सदानमान सत्कारै पूजयित्वा महीपति।

समूहकार्येप्रहितो यल्लभेत तदर्पयेत—एकादश गुणंदाम्यो मद्यसौ नार्पयते स्वयम्।

धर्मज्ञाः शुचयोऽलुब्धा भवेयु कार्यचिंतका, कर्तव्यंवचनं तेषां समूह हितवादिनाम्।

श्रेणिनैगम्पाषिंड गणानाप्ययं विधिः भैद×चैषां नृपो रक्षेत पूर्ववृतिं च पालयेत।याज्ञवलक्य: 2/186-192

7. ब्राहस्पत्य अर्थशास्त्र—लाला कन्नोमल: 3/38

8. ये न व्ययेन संसि(स्त द्रव्यपस्तस्य मूल्यकम्

सुलभा सुलभत्वाच्चा गुणत्वगुण संश्रयै

यथा कामात्पदार्थानामघं हीनाधिकं भवेतः। शुक्रनीति 2/348-349

9. संघभृता संभूय समुत्थारां वा

यधा संभाषितं वेतनं समं वा विभजरेन, –आर. शाम शास्त्री, कौटिल्य अर्थशास्त्र.

10. वणिक प्रभृतयो यग कर्म सम्भूय कुर्वते

तत्सम्भूयसमुत्थानं व्यवहार पदं स्मृतम्

फलहेतो रूपायेन कर्म संम्भूय कुर्वताम्। —नारद स्मृति.

11. अर्थवेद-8/10/1, प्राचीन भारत की शासन संस्थाएँ एवं राजनीतिक विचार : डा॓. सत्यकेतु विद्यालंकार—पृ. 277.

12. समंन्च: सव्रताभूत्वा वाचं वदत भद्रया। अर्थवेद।

13. सहजाववजु सहसौ भुजुक्तु सहवीर्य करवाव है। अर्थवेद।

14. ….that Buddhism and Jainism, which emerged in the 6th century BC, were more egalitarian than Brahmanism that preceded them and provided a better environment for the growth of guilds. Material wealth and animals were sacrificed in the Brahmanical yajnas. The Buddhists and Jains did not perform such yajnas. Thus, material wealth and animals were saved and made available for trade and commerce. Since the Buddhists and Jains disregarded the social taboos of purity/pollution in mixing and taking food with people of lower varnas, they felt less constrained in conducting long distance trade. – Dr. Vikrmaditya Khanna.

15. …cultivators, traders, herdsmen, moneylenders, and artisans have authority to lay down rules for their respective classes and the king was to consult their representatives while dealing with matters relating to them.- Gautama Dharmasutra (c. 5th century BC) as qouted by Dr. Vikrmaditya Khanna.

16. समुद्रस्य पिपासायाँ कुतो जगति जलानि।नीति वाक्यामृत-817.

17. सैम्युअल हसन की पुस्तक Voluntarism and Rural Development in Bangladesh’ The Asian Journal of Public Administration, Vol. 15, No. 01, 1992, pp. 82-108.(संशोधित) से उद्धृत.