कल्पना और बालविकास

आलेख

विज्ञान नहीं जानता कि वह कल्पना का कितना कर्जमंद है.1राल्फ वाल्डो इमर्सन.

आपका बच्चा खोयाखोया रहता है! देर तक आसमान ताकना उसकी आदत में शुमार है! अकेला बैठा हुआ न जाने क्या सोचता रहता है! आप उसको समझा चुके हैं. इसके बावजूद स्कूल की कॉपी में न जाने क्याक्या लिख आता है. पढ़कर ‘मेम’ का दिमाग भी चकरा जाता है. वह डांटती हैं. पर वह मानता ही नहीं. जरूर कोई बीमारी है. इलाज के लिए आप उसे डॉक्टर के पास ले जाते हैं. वह किसी नई बीमारी का नाम लेता है—‘डिप्रेसन’….‘फोबिया’ या कुछ ऐसा ही भारीभरकम. नए जमाने की बीमारी! छोटे बालक को जिसने अभी सपने देखना शुरू ही किया है. जीवन की चुनौतियों के बारे में जो जानता तक नहीं है, उसे भला कैसा अवसाद! कैसी चिंता! कैसा फोबिया! कैसी घबराहट! फोबिया है भी तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है. डिप्रेसन यदि है तो इसलिए कि आपने अपनी अंतहीन अपेक्षाओं का बोझ उसपर लाद दिया है. नन्हा शिशु सांप को रस्सी समझकर खेल सकता है, और बड़ा होते ही यदि रस्सी को सांप मानकर भय से चिल्लाने लगता है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? आप, आपका समाज, या शायद दोनों ही. साफ है कि उम्र के साथ आपने उसे बड़ा नहीं होने दिया. उसका मन बचपन में जितना मजबूत था, उतना अब नहीं है. प्रकृति ने तो उसके साथ पूरा न्याय किया. शरीर अपनी गति से बढ़ता गया. ठीक समय पर लाकर देह खिला दी. मगर बौद्धिक परिपक्वता, मन का विश्वास, संघर्षचेतना, अपना निर्णय आप लेने की कूबत सब पीछे छूटते गए. तो जरूरत आपके इलाज की है. समाज के इलाज की है, मगर आप अपना दोष तो मानेंगे नहीं. न समाज को दोष देने का साहस आपके भीतर है. बचता है अकेला बालक. जो अपनी विशिष्ट शारीरिक अवस्था के कारण आपके ऊपर निर्भर है. या आपने जो समाजव्यवस्था बनाई हुई उसमें साधारण को स्वतंत्रता के इसलिए आप सारी जिम्मेदारी बालक के मत्थे मढ़ देते हैं. मान लेते हैं(न मानने का आपके पास कुछ आधार भी नहीं है?) कि डॉक्टर ने कहा है तो जरूर सच होगा. आप इलाज शुरू कर देते हैं. डॉक्टरी इलाज में चूक हो जाए तो दिमाग ठिकाने रखने के लिए दूसरा इंतजाम भी है. इसके लिए आप उसे नियमित मंदिर ले जाते हैं. हनुमानजी का भोग, अघोरी का झाड़ा लगवाते हैं. सुबहशाम महीने, दो महीने, छह महीने….नियमित इलाज, पाठपूजा और सत्संग का असर होता है. अब वह अकेला नहीं रहता. आसमान नहीं ताकता. ‘अच्छा बच्चा’ बन चुका है. आप खुश हैं. अध्यापक खुश होकर अच्छे नंबर देने लगे हैं. क्योंकि अब बालक सवालों के वही उत्तर देता है, जो उसे रटाए जाते हैं. पाठ्य पुस्तकों के बाहर भी ज्ञान की दुनिया है, इसका उसे अंदाजा तक नहीं है….दिमाग को उड़ान भरने का अभ्यास जो नहीं रहा. ‘अच्छा बच्चा’ बनने के लिए इस काम को वह कभी का छोड़ चुका है. पर जरा सोचिए, अल्बर्ट आइंस्टाइन की मां या उनका सगासंबंधी उन्हें लाइन पर लाने के लिए उन्हें इसी प्रकार खुद के वजूद से काट देता तो क्या हम सापेक्षिकता के सिद्धांत तक पहुंच पाते? जेम्स वाट की चाची यदि उसको प्रयोग करने से रोकतीं तो क्या वह भाप का इंजन बना पाता? थॉमस अल्वा एडीसन या माइकेल फैराडे के परिजन यदि उन्हें ‘अच्छा बच्चा’ बनाने के लिए उनके साथ मनमानी करते और जिज्ञासा से काट कर ‘परम विश्वास’ की दुनिया में ले जाते तो क्या हम बल्व और बिजली की मोटर जैसे आविष्कारों से रूरू हो पाते? शायद हो भी जाते, मगर तब जब किसी और अल्बर्ट आइंस्टाइन, एडीसन, फैराडे या जेम्स वाट के परिजनों को उन्हें वह करने की छूट देनी पड़ती, जिससे वे अपनी मनोसृष्टि को वास्तविक सृष्टि में ढाल पाते.

मनोसृष्टि या कल्पना पर बाकी चर्चा आगे. पहले 1954 के आसपास की एक घटना. बताया जाता है कि एक स्त्री आइंस्टाइन से मिलने पहुंची. नोबल पुरस्कार विजेता, विलक्षण प्रतिभा संपन्न वैज्ञानिक होने के कारण उनका मानसम्मान पहले भी कम न था. मगर 1952 में इजरायल के राष्ट्रपति पद का प्रस्ताव विनम्रतापूर्वक ठुकरा देने के बाद तो वे पूरी दुनिया पर छा चुके थे. मिलने पहुंची औरत आइंस्टाइन की प्रशंसक थी. वह चाहती थी कि आइंस्टाइन उसके बेटे को समझाएं. उन पुस्तकों की जानकारी दें, जिन्हें पढ़कर उसका बेटा उन जैसा महान वैज्ञानिक बन सके. उत्तर में आइंस्टाइन का कहना था—‘आप इसे परीकथाएं, अधिक से अधिक परीकथाएं पढ़ने को दीजिए.’ महिला चौंकी. उसको लगा आइंस्टाइन ने कोई मजाक किया है. उसने वैज्ञानिक से गंभीर होने की विनती की. बताया कि वह अपने बेटे से बहुत प्यार करती है तथा उसे जीवन में सफल देखना चाहती है. इसके बावजूद आइंस्टाइन का उत्तर पहले जैसा ही था. उनका कहना था कि रचनात्मक कल्पनाशक्ति सच्चे वैज्ञानिक के लिए उसका अनिवार्य बौद्धिक उपकरण है. परीकथाएं बालक की कल्पनाशक्ति को प्रखर करती हैं. उन्होंने जोर देकर कहा था, ‘मैंने अपने सोचनेसमझने के तरीके की पड़ताल की है. काफी सोचविचार के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि मेरे लिए मेरी अद्भुत कल्पनाशक्ति वस्तुजगत संबंधी किसी भी बोध, यहां तक कि सकारात्मक सोच से भी कहीं अधिक लाभकारी है.’

उन्होंने महिला को पुनः समझाया—

यदि तुम्हें अपने बेटे को प्रतिभाशाली बनाना है तो उसको परीकथाएं पढ़ाओ. यदि तुम उसे और ज्यादा प्रतिभाशाली बनाना चाहती हो तो उसे और अधिक परीकथाएं पढ़ने को दो.’2

उपर्युक्त प्रसंग का उल्लेख अनेक विद्वानों ने किया है. कितना सच है यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. यदि यह सच है तो आइंस्टाइन ने उस स्त्री से क्या सचमुच परिहास किया था? क्या शोध एवं कल्पना का कोई अंतःसंबंध है? क्या परीकथाओं को पढ़कर कोई बालक सचमुच वैज्ञानिक बन सकता है? यदि नहीं तो आइंस्टाइन ने ऐसा क्यों किया था? यदि हां, जो यह कैसे संभव है कि परीकथा जैसे निहायत कल्पनाशील किस्सों को पढ़कर कोई बालक वैज्ञानिक बन सके? ऐसी पहेलियां हम जैसे साधारण बौद्धिकों की उलझन होती हैं. जो विलक्षण मेधावी हैं, वैज्ञानिक प्रविधियों की जानकारी रखते हैं, जिन्हें विज्ञान और उसके इतिहास की समझ है, वे जानते हैं कि यह असंभव भी नहीं है. ज्ञानविज्ञान एवं कल्पना का रिश्ता बड़ा करीबी है. तीव्र कल्पनाशक्ति संभावनाओं के नए वितान खोलकर वैज्ञानिक बोध को रचनात्मक दिशा देने में मददगार सिद्ध होती है. आइंस्टाइन ने खुद स्वीकार किया था कि उनके द्वारा किए गए शोध के पीछे उनकी अद्भुत कल्पनाशक्ति का योगदान था. अन्यथा यह तो कभी का प्रमाणित हो चुका था कि पृथ्वी समेत ब्रह्मांड के सभी ग्रहनक्षत्र गतिमान हैं. उनकी गति चक्रीय एवं घूर्णन दो प्रकार की होती है. सतत परिवर्तनशील ब्रह्मांड के बीच दो गतिशील पिडों की प्रस्थिति की सटीक गणना तब तक असंभव है, जब तक बाकी गतियों की कल्पना में ही सही, प्रभावहीन मानकर उपेक्षा न कर दी जाए. प्रायः ऐसा ही होता आया है. तब आइंस्टाइन ने सापेक्षिकता की संकल्पना प्रस्तुत की. जिसके अनुसार चराचर जगत में कोई भी प्रस्थिति निरपेक्ष नहीं है. एक प्रस्थिति दूसरी प्रस्थिति के और दूसरी तीसरी के सापेक्ष है. सापेक्षिकता के सिद्धांत के पीछे यही मूल अवधारणा थी. यह खोज कल्पना की तीव्रतर उड़ान के बगैर संभव ही नहीं थी.

आइंस्टाइन सहित उस समय के भौतिक विज्ञानी एक जटिल पहेली से जूझ रहे थे. पहेली थी—‘मान लीजिए कोई अंतरिक्ष यात्री प्रकाशवेग जैसे असंभव वेग से अंतरिक्ष यात्रा पर है. उसके हाथ में एक दर्पण है. तो क्या उस दर्पण में वह अपना प्रतिबिंब देख पाएगा? कोई और होता तो उस पहेली पर कुछ देर माथापच्ची करता. तीरतुक्का चलाता. फिर हाथ झाड़कर आगे बढ़ जाता. जब से वह पहेली बनी थी, तब से यही होता आया था. साधारण मनुष्यों की भांति यदि आइंस्टाइन भी यही करते तो उन्हें ‘जीनियस’ कौन कहता! कौन उन्हें याद रखता! उस पहेली का हल ढूंढने में आइंस्टाइन एकदो दिन, महीने या वर्ष नहीं, पूरे दस वर्ष लगा दिए. 1895 से 1905 तक. 1895 में सोलह वर्ष का किशोर आइंस्टाइन पहेली पर दांव लगातेलगाते छबीस वर्ष का युवा हो गया. इस बीच जो भी उन्हें मिला उससे पहेली के बारे में चर्चा की. उसका समाधान करना चाहा. मित्रोंगुरुजनोंपरिजनों को पत्र लिखकर संवाद किया. मगर नाकामी हाथ लगी. आखिरकार उनकी तीव्र कल्पनाशक्ति ही उनके काम आई. मनोसृष्टि ने सृष्टि के गूढ़तम रहस्य से पर्दा हटाकर नए सिद्धांत के निर्माण की राह खोल दी. उस समय तक प्रकाशवेग को परिवर्तनशील माना जाता था. मान्यता थी कि प्रेक्षक के अनुसार प्रकाश का वेग भी बदलता रहता है. आइंस्टाइन ने पारंपरिक उद्भावनाओं को किनारे कर दिया. कल्पना की ऊंची छलांग लगाते हुए उन्होंने प्रकाश वेग को प्रकृति का सबसे उच्चतम वेग माना. साथ ही परिकल्पना की कि वह प्रेक्षक की स्थिति पर निर्भर नहीं करता. प्रकाश का वेग हर अवस्था में एक समान होता है. प्रेक्षक चाहे जिस अवस्था में हो वह कभी नहीं बदलता. यानी अंतरिक्ष में हाथ में दर्पण लिए प्रकाशवेग से गतिमान प्रेक्षक और कुछ चाहे कर सके या नहीं. दर्पण में अपना चेहरा अवश्य देख सकता है. ‘प्रकाशवेग की प्रेक्षक निरपेक्षकता’, जिसपर इस सिद्धांत की नींव रखी गई को हम सापेक्षिकता के सिद्धांत का आंतरिक विरोधाभास भी कह सकते हैं.

आइंस्टाइन ने जो कहा उसको वैज्ञानिक प्रणाली के अनुसार सिद्ध करने में तो पूरे बीस वर्ष लग गए. कल्पना के सहारे हुए इस खोज के फलस्वरूप खगोलीय पिंडों की स्थिति की सटीक व्याख्या के लिए क्षण को महत्ता प्राप्त हुई. समय को चौथे आयाम के रूप में स्वीकारा जाने लगा. न केवल आइंस्टाइन बल्कि न्यूटन, आर्कीमिडीज, लियोनार्दो दा विंसी, गैलीलियो, थाॅमस अल्वा एडीसन, जेम्स वाट आदि अनेक वैज्ञानिक हुए हैं, जिनकी सफलता के पीछे उनकी विलक्षण कल्पनाशक्ति का योगदान था. पृथ्वी में कोई शक्ति है यह विचार न्यूटन को कथित रूप से सेब के जमीन पर गिरने की घटना से सूझा था. ‘कथित’ इसलिए क्योंकि फल गिरने से आकर्षण शक्ति की परिकल्पना का उल्लेख न्यूटन से करीब नौ सौ वर्ष पहले लिखित ‘ब्रह्मस्फुटसिद्धांत’ में भी मिलता है, जो मध्यकालीन आचार्य ब्रह्मगुप्त की रचना है. उनसे भी पहले वाराहमिहिर ने लिखा था—‘पृथ्वी उसी को आकृष्ट करती है, जो उसके ऊपर हो. क्योंकि यह सभी दिशाओं में नीचे है और आकाश सभी दिशाओं में ऊपर है.’ ब्रह्मगुप्त इसे और भी स्पष्ट कर देते हैं—

चारों तरफ आकाश बराबर रहने पर पृथ्वी ही के ऊपर बहुत पके हुए फल को गिरता हुआ देखकर भूपृष्ठ स्थित प्रत्येक बिंदू में आकर्षण शक्ति है—यह अनुमान किया गया.’3

तात्पर्य है कि वैज्ञानिक शोध के लिए कल्पना का आश्रय प्राचीनकाल से लिया जाता रहा है. शोध क्षेत्र में कामयाबी भी प्रायः उन्हीं वैज्ञानिकों के हाथ लगी, जिनकी कल्पनाशक्ति मौलिक एवं प्रखर थी. यह न्यूटन की कल्पनाशक्ति ही थी जिसने उसको चेताया कि यदि पृथ्वी में आकर्षण बल है तो उसका कुछ न कुछ परिमाण भी होना चाहिए! अपनी विलक्षण मेधा से उसने गुरुत्वाकर्षण बल की संकल्पना को नए सिरे न केवल स्थापित किया, बल्कि उसकी परिगणना भी की. एक नई संकल्पना ने जन्म लिया कि पृथ्वी सहित ब्रह्मांड के सभी ग्रह एकदूसरे को आकर्षित करते हैं. आकर्षण बल की मात्रा उनके द्रव्यमान तथा बीच की दूरी पर निर्भर करती है. न्यूटन के पूर्ववर्ती वैज्ञानिक जिनमें भारतीय गणितज्ञ भी सम्मिलित हैं, इस दिशा में आगे न बढ़ सके तो इसलिए कि उनके धार्मिक आग्रह प्रबल थे. आस्था से बोझिल उनकी कल्पना अपनी मौलिकता गंवा चुकी थी. जैसे ब्रह्मगुप्त ने लिखा कि सभी भारी वस्तुएं प्रकृति के नियमानुसार नीचे पृथ्वी पर गिरती हैं. क्योंकि वस्तुओं को अपनी ओर आकृष्ट करना और उन्हें रखना पृथ्वी का धर्म है. उसी प्रकार जैसे जल का धर्म है बहना, अग्नि का जलना और वायु का गति प्रदान करना. इस सोच के पीछे एक पवित्र विश्वास झलकता था, एक ऐसी धारणा इसके पीछे थी जो कौतूहल को जिज्ञासा में बदलने के बजाय आस्था की ओर ले जाती है. परिणामस्वरूप आदमी दिमाग के बजाय, पूर्वनिष्पत्तियों से काम चलाने लगता है. श्रद्धा विवेक की राह रोक देती है.

वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में कल्पनाशक्ति का योगदान लक्ष्य की पूर्वपीठिका तैयार करने का है, जिसके बिना किसी यात्रा का शुभारंभ असंभव है. किसी भी वैज्ञानिक शोध के प्रायः दो रास्ते होते हैं. पहली आगमनात्मक प्रणाली. यह वैज्ञानिक शोध की सबसे लोकप्रिय प्रणाली है, जिसमें उपस्थित विशिष्ट तथ्यों के आधार पर सामान्य सिद्धांत का अन्वेषण किया जाता है. न्यूटन का जड़त्व का सिद्धांत, एडवर्ड जेनर द्वारा चेचक की वैक्सीन, फ्लेमिंग द्वारा बादलों में बिजली इसी प्रकार के शोध हैं. दूसरी ‘निगमनात्मक प्रणाली’ है. इसमें पहले सामान्य सिद्धांत की परिकल्पना कर ली जाती है, तदनंतर उसकी पुष्टि हेतु प्रमाण खोजे जाते हैं. इनमें से पहली यानी ‘आगमनात्मक प्रणाली’ का उपयोग प्रायः वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में किया जाता है. इसका आशय यह नहीं है कि ‘निगमनात्मक प्रणाली’ विज्ञान के लिए सर्वथा वर्जित है. बल्कि ऐसे अनेक मामले हैं, जिनमें प्रमाणों के अभाव में वैज्ञानिक अपने बोध अथवा अनुभव के आधार पर सामान्य परिकल्पना कर लेते हैं. बाद में विभिन्न प्रयोगों, अन्वीक्षण आदि के आधार पर उस परिकल्पना को जांचापरखा जाता है. न्यूटन के गुरुत्त्वाकर्षण और आइंस्टाइन के सापेक्षिकता के सिद्धांत की खोज में आगमनात्मक और निगमनात्मक दोनों प्रणालियों का योगदान दिखाई पड़ता है. तीसरी श्रेणी आकस्मिक रूप से होने वाली खोजों; यानी उन आविष्कारों की है जो किसी दूसरे प्रयोग अथवा घटना के दौरान अकस्मात हाथ लग जाते हैं—जैसे मैग्नीशिया के चरवाहों द्वारा चुंबक की खोज, मेडम क्यूरी द्वारा रेडियम, फीनीशिया के समुद्रतट पर सीरियाई व्यापारियों द्वारा कांच की खोज वगैरह. उनमें भी ऐसी सूझ का होना जरूरी है जो नएपन को तत्क्षण पकड़ सके तथा उसके आधार पर सामान्य परिकल्पना गढ़कर आगे बढ़ सके. बुदापेस्ट विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. के. स्टेलजेर ने शोधकर्ता में अपेक्षित जिन आठ गुणों को जरूरी बताया है, वे हैं—तत्परता(5%), खुला मन(10%), दृष्टि की विशालता(15%), कल्पनाशक्ति(30%), निर्णय दक्षता(15%), विषय का सांकेतिक ज्ञान(10%), अनुभव(10%) तथा दायित्वबोध(5%). इस विश्लेषण को ध्यान से देखें तो नवीन शोध के लिए कल्पना को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है. इससे यह निष्कर्ष सामने आता है कि कल्पना और विज्ञान में न तो कोई स्पर्धा है और न कोई वैर. बल्कि उच्च कल्पनाशक्ति वैज्ञानिक शोधों में मददगार सिद्ध होती है.

अब यह स्वतः सिद्ध है कि कल्पनाएं बालक के मौलिक विकास में सहायक होती हैं. बालक का सृजनसामर्थ्य उन्हीं के भरोसे आगे बढ़ता है. पर ये कल्पनाएं आती कहां से हैं? जन्म के समय बालक का मस्तिष्क खाली, परंतु ऊर्जा से लबालब होता है. साथ में इतना सक्रिय कि नन्हा शिशु जल्दी से जल्दी दुनियाभर की जानकारी उसमें समेट लेना चाहता है. उस जानकारी को कुछ वह परिवेश से जुटाता है. जो जानकारी परिवेश से नहीं मिल पाती उसके लिए वह अपने मस्तिष्क के घोडे़ दौड़ाने आरंभ करता है. अनुमान की प्रक्रिया का वह आरंभिक दौर होता है. आगे एक स्थिति ऐसी भी आती है, जब वह अपनी आभासी दुनिया का चित्र मन में बनाने लगता है. वे ऐच्छिकअनैच्छिक मनोनिर्मितियां कल्पना कही जाती हैं. कल्पनाएं आसमानी चीज हैं. परंतु सीधे आसमान से नहीं उतरतीं. उनकी जड़ें जमीन में होती हैं. बालक की कल्पना और उसके परिवेश में अनिवार्य संगति होती है. कुछ शताब्दी पहले तक, जब बारूद और बंदूक का आविष्कार नहीं हुआ था, बालक अपना युद्धकौशल प्रकट करने के लिए तलवार, भाला, बरछी जैसे उन हथियारों की ही कल्पना कर सकता था. लेकिन अब इस तकनीक के दौर में बालक की युद्धक कल्पनाएं बगैर बम, सैटेलाइट, मिसाइल, रिमोट तकनीक के बगैर संभव ही नहीं है.साधारण मनुष्य असंभव कल्पना कर सकता है, मगर असंभव कल्पना को विशेषीकृत करना, उसके लिए संभव नहीं होता. उदाहरण के लिए हम पचास हजार भुजाओं तथा पचास हजार एक भुजाओं वाले दो अलगअलग बहुभुजों की कल्पना तो कर सकते हैं. मगर यदि उनमें अंतर बताने, विशेषीकृत करने के लिए कहा जाए तो हम सिवाय उस अंतर के, जो इन दो संख्याओं के बीच है, कुछ और बता पाने में शायद ही सफल हो पाएं. ऐसे ही अंतरिक्ष में दो ग्रहों की कल्पना करना हमारे लिए आसान है. लेकिन यदि उन दोनों के बीच के सूक्ष्म अंतर की कल्पना करनी हो तो वह हमारे लिए संभव नहीं है. इसलिए कि पृथ्वी के बाहर के ग्रहों का हमारा अनुभव शून्य है. उस अवस्था में हमारे लिए उतनी ही कल्पना संभव है, जो सुनीपढ़ी घटनाओं के प्रभाव से बनी हो. उससे आगे की कल्पना के लिए सृजनात्मक क्षमता की जरूरत होती है. सामान्य नागरिक होने के नाते सुदूर ग्रहों की कल्पना हमारे लिए भले असंभव हो, किंतु सृजनात्मक प्रतिभा से युक्त लेखक, कवि और कलाकारों के लिए यह असंभव नहीं है. वे वहां के वातावरण को लेकर अच्छाखासा रूपक खड़ा कर सकते हैं. अतः यह बालक और समाज दोनों के हित में है कि उसका कल्पनासामर्थ्य मुक्त रचनात्मक विस्तार ले. परंतु प्रायः ऐसा हो नहीं पाता. धर्म, समाज, संस्कृति, जाति, परंपरा आदि के नाम से शुरू से उसके चारों ओर ऐसे घेरे बना दिए जाते हैं, जिनमें फंसकर वह एक दायरे के बाहर सोचना बंद कर देता है. आस्था और अंधविश्वास तो ऐसे घेरे हैं, जो मनुष्य के विवेक और प्रकारांतर में उसके रचनात्मक कौशल को मंद कर देते हैं.

बालक कल्पना के बारे में ऐसी शास्त्रीय बातें भले ही न जाने, मगर वह उन्हें जीना बाखूबी जानता है. उसकी आरंभिक कल्पनाओं को किसी खास रूपाकार में बांधना असंभव होता है. नन्हा शिशु अपने संपर्क में आने वाली प्रत्येक वस्तु को एक जिज्ञासा एवं कौतुहल की दृष्टि से परखना चाहता है. वस्तु के बारे में बंधाबंधाया ‘सच’ उसे स्वीकार्य नहीं होता. नएपन की खोज वह उतावलेपन की सीमा तक जाकर कर सकता है. मातापिता उसे खिलौना लाकर देते हैं. वह कुछ देर उससे खेलता है. मगर थोड़ी ही देर बाद उसकी आंतरिक संरचना को जानने के लिए उद्यत हो जाता है. खिलौने के बारे में दूसरों के दिए ज्ञान से उसको संतोष नहीं होता. अपने सजगसक्रियचैतन्य मष्तिष्क से वह स्वयं उसका अन्वीक्षण करना चाहता है. बालक अपने कल्पना जगत को अपनी ही तरह गढ़ता है. इसलिए वह नाकुछ वस्तुओं से खेल सकता है, विचित्र से विचित्र प्राणी को अपना सकता है. परंतु अधिक देर तक नहीं, जैसे ही उसको भरोसा जमता है कि उसने उस वस्तु या प्राणी में जानने योग्य जान लिया है, उसका कौतूहल समाप्त हो जाता है और वह उकताने लगता है. उसके बाद उसे खुद से दूर करते, उपेक्षा करते उसे देर नहीं लगती. हां, कोई खिलौना या वस्तु बालक की संवेदना को छू जाए तो वह उसको सोतेजागते, उठतेबैठते अपने साथ भी रख सकता है. उम्र के साथ बालक के बुद्धिसामर्थ्य का विकास होता है. मगर सीखने की रफ्तार लगातार कमजोर पड़ती जाती है. इसके लिए बालक जिम्मेदार नहीं होता. जिम्मेदार वे लोग या समाज होता है, जो उसके आसपास का परिवेश रचते हैं. किस्सेकहानियों में भी वह रुचि लेता है क्योंकि वे उसे उसके कल्पनाजगत के नजदीक ले जाकर उसको और भी समृद्ध करते हैं. अपने मातापिता और परिवार के बाहर बालक यदि किसी के सर्वाधिक सन्निकट होता है तो उसका कल्पनाजगत ही है. उसमें वह बड़ों द्वारा किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं चाहता. चूंकि बालक का मस्तिष्क बड़ों की अपेक्षा अधिक सक्रिय होता है, इसलिए जो भी उसके आरंभिक संपर्क में आता है, जिसके भी साथ वह समानता के स्तर पर संवाद करने में खुशी का अनुभव करता है, और जिसके बारे में उसको लगता है अपने बड़प्पन द्वारा वह उसकी अस्मिता को आहत करने वाला नहीं है, वही उसका मीतसखा बन जाता है. पशुपक्षी बालक को आकर्षित करते हैं तो इसलिए कि बालक को लगता है कि उनसे अपनी बात मनवा सकता है. वे न तो उपदेश देते हैं न अपने बड़ेपन का रौब गांठते हैं. बल्कि छोटे बनकर बालक को बड़ेपन का एहसास कराते हैं. उनके साथ खेलतेबतियाते हुए बालक अपनी नैसर्गिक स्वतंत्रता का आनंद ले सकता है. इस कारण बालक के अस्मिता जगत में वे बहुत जल्दी जगह बना लेते हैं. अपने लघु आकार और स्नेहिल व्यवहार द्वारा परियां भी यही करती हैं. बल्कि उनकी कल्पना ही बालक की मददगार के रूप में की गई. यही कारण है कि बालक के कल्पनालोक का सर्वाधिक हिस्सा पशुपक्षी, खेलखिलौने, बौने, परियां, पेड़पौधे आदि घेरते हैं. उन्हीं से वह अपनी सृजनात्मकता में रंग भरता है. सिंगमड फ्रायड ने बालक की कल्पनाशक्ति की दो कसौटियां निर्धारित की हैं. उनमें से द्वितीयक कल्पनाशक्ति रचनात्मक अभिव्यक्ति में सहायक होती है. बालक इसका प्रदर्शन विभिन्न कलाओं एवं खेलों के माध्यम से करता है. छोटा बालक रंगों की पहचान भले न कर सके, रुपहले सपने देखना उसे खूब आता है. उसके भविष्य की नींद इन्हीं सपनों पर टिकी होती है.

तीव्र कल्पनाशक्ति शोधवृति का अनिवार्य लक्षण है. सवाल है कि हम बालक की मौलिक कल्पनाशक्ति को उभारने के लिए क्या करते हैं. शायद कुछ भी नहीं. या इस क्षेत्र में हमारी कोशिश होती भी है तो नगण्य. जबकि मौलिक कल्पना सामर्थ्य की धार को कुंद करने के लिए हर चंद कोशिश की जाती है. धर्म के नाम पर, संस्कृति, समाज और परंपरा के नाम पर, यह कार्य योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है. सामंती आग्रहों पर बनी संस्थाएं जैसे धर्म संतोष को एक सदगुण की भांति परोसती हैं. रूखीसूखी खाय के ठंडा पानी पीव’ या रहीम का कथन—‘गौ धन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान, जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान.’ जैसी उक्तियां जो एक काल और परिस्थिति विशेष की उपज थीं, नैतिकता की तरह परोसी जाती थीं. उस समय संतोष और लालच के बीच के अंतर को समझाना तो दूर, कई बार उसको गड्डमड्ड कर दिया जाता था. भुला दिया जाता था कि संतोष का अर्थ ‘जो है, जितना है उसी से समझौता कर एक काल्पनिक सुख में जिंदगी गंवा देना है’—जबकि लालच दूसरे की सुख, संपदा पर अनैतिक दृष्टि रख उसको अनैतिक रूप से पाने की लालसा करना है. इस अंतर को समझे बिना, केवल संतोष को सर्वोच्चनिधि बताने वाली अतार्किक रचनाएं बालक को अनावश्यक रूप से अंतर्मुखी, पलायनवादी और समझौतापरस्त बनाती हैं. जबकि सुख पाने की अभिलाषा अपराध नहीं है. अच्छा जीवन जीने के सपने देखना और उसके लिए भरसक प्रयत्न करना, प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है. इसके बावजूद बालक को यथास्थितिवादी बनाने के प्रयास हर स्तर पर तरहतरह से किए जाते हैं. नतीजा यह होता है कि सृजनात्मक कल्पनाशक्ति जो बचपन से बाहर आने के लिए छटपटा रही थी, असमय कालकवलित हो जाती है. उसके अभाव में बालक बड़ा होतेहोते अनुसरण को अपना धर्म बना लेता है. धर्म स्वयं में बौद्धिक शैथिल्य का प्रमुख कारण है, जहां ‘सत्य’ निर्रथक आडंबरों के नीचे दबा दिया जाता है. साहित्य और दूसरी कलाओं का काम मौलिक अभिव्यक्तियों और कल्पनाओं का सरंक्षणसंवर्धन करना है. भारत में एकचौथाई बच्चे आज भी प्राथमिक या छठीसातवीं कक्षा से आगे नहीं जा पाते. बीच में पढ़ाई छोड़ देते हैं. ऐसे बच्चे जब बड़े होकर जिंदगी के समर में उतरते हैं तो उनपर कबीर और रहीम के दोहों का असर रहता है. वे जीवन में यथास्थितिवादी और पलायनोन्मुखी बने रहते हैं. ‘तेते पांव पसारिये जेती लांबी सौर’—पांव चादर के भीतर ही रहें, इस कोशिश में वे पूरा जीवन बिता देते हैं.

अतींद्रिय धार्मिक विश्वासों के बहाने बालक के मौलिक सोच और कल्पनाओं को अवरुद्ध करने की घटना आज की नहीं है. वह तब की है, जब से इस सभ्यता का विकास हुआ. इस कारण भी गत सहस्राब्दियों में जन्मे बेहद प्रतिभाशाली दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, कवि, कलाकारों और चिंतकों के अमूल्य योगदान के बावजूद मनुष्य का अब तक का अर्जित ज्ञान उसके अज्ञान के आगे बौना है. जितना उपलब्ध है उससे भी समाज के बहुसंख्यक वर्ग को वंचित कर दिया जाता है. धर्मकर्म, पूजापाठ, पीरऔलिया, नाथपैगंबर वगैरह के नाम पर जो कुछ उसे सिखाया जाता है, वह सत तो क्या ‘असत’ के भी करीब नहीं होता. वह केवल और केवल भ्रम होता है, जिसमें फंसकर व्यक्ति अपना पूरा जीवन गुजार देता है. बालपन से ही जनसाधारण को उसके कथित साधारणपन का एहसास तरहतरह से और इतनी बार कराया जाता है कि वह अपनी सीमाओं के पर जाने की कोशिश तो दूर, कल्पना तक नहीं कर पाता. इसकी नींव बालक के कल्पनासामर्थ्य को अवरुद्ध करने, उसके सोच के अनुकूलन के आरंभिक प्रयास के साथ ही रख दी जाती है. यह कोशिश तब की जाती है जब वह बौद्धिक स्तर पर सर्वाधिक सक्रिय और स्वतंत्र होता है; और इसलिए की जाती है ताकि समाज में व्याप्त अन्याय, असमानता और शोषणकारी स्थितियों को देखकर वह भड़के नहीं. मुक्ति के लिए खुद स्वतंत्र निर्णय लेने के बजाय दूसरों से पहल की उम्मीद करता रहे. ऐसे में साहित्य और साहित्यकार दोनों की चुनौती बढ़ जाती है. ‘अच्छी कल्पना मनुष्य को रोकती नहीं, निरंतर आगे ले जाती है.’4 इसलिए उनकी पहली चुनौती होती है बालक के मौलिक सोच को बनाए रखकर कल्पनाशक्ति को सृजनात्मक विस्तार देने की. दूसरे उसको इस विश्वास से भर देने की कि समाज के भले के लिए उसको हर दिशा में, पहल करनी है. बदलाव की खातिर जब भी जरूरी हो आगे आना है. यह तभी संभव है जब बालक की आंखों में सुंदर भविष्य का सपना हो. अपने गढ़े हुए सपनों पर उसको पूरापूरा विश्वास हो.

© ओमप्रकाश कश्यप

अनुक्रमणिका :

1. Science does not know its debt to imagination. – Ralph Waldo Emerson, in Poetry and Imagination. (1872)

2. When I examine myself and my methods of thought, I come to the conclusion that the gift of fantasy has meant more to me than any talent for abstract, positive thinking….If you want your children to be intelligent, read them fairy tales. If you want them to be more intelligent, read them more fairy tales….”ALBERT EINSTEIN, MONTANA LIBRARIES : Volumes 8-14 (1954).

3. अथ सत्यपि वृक्षाग्राच्चतुर्दिक्षु समाऽकाशे भुव्येव पक्वं फलमेकं बहुत्र पदत्वलोक्य भूपृष्ठनिष्ठाखिलबिंदुष्वाकर्षण शक्तिरस्तीत्यनुमितम्.

4. The Quality of imagination. Is to flow and not to freeze Ralph Waldo Emerson, in The Poet” (1844)

सामाजिक गतिशीलता के अवरोधक

लोकतंत्र और बाजारवाद के लगभग बेमेल से तालमेल ने हमारे समाज को विभ्रमों की स्थिति में ला दिया है. देश में एक ओर राजनीतिक शिथिलता का माहौल है. सत्ताकेंद्रों पर विराजित शक्तियां निर्णयात्मक दुर्बलता की शिकार हैं, वहीं दूसरी ओर बाजार पर पूंजीवादी शक्तियों का कब्जा है. वहां उत्पादों की खपत को लेकर गलाकाट प्रतियोगिता निरंतर बनी रहती है. सीमित संसाधनों के कारण स्पर्धा में पिछड़ रहे छोटे उद्यम तेजी से तबाही की ओर बढ़ रहे हैं. उपभोक्ता सामान की खरीद के लिए प्रलोभनकारी ऋणदाता संस्थाओं की बड़ी संख्या में उपस्थिति से आम आदमी के भीतर सुख-सुविधाओं का लाभ उठाने की ललक बढ़ी है. इस तरह बाजार का एक लोकलुभावनकारी रूप हमारे सामने है, जो इस समाज को उसकी जड़ों से पूरी तरह काट देना चाहता है. यह नए प्रकार का औपनिवेशीकरण है, जो हमारी स्वतंत्रता पर हमलावर रुख अपनाए हुए है. इनके निशाने पर मनुष्य का आत्मविश्वास और जीवनमूल्य हैं. देश के बुद्धिजीवियों में अपसंस्कृतिकरण को लेकर चिंता व्याप्त है. वे देश की राजनीतिक दिशाहीनता तथा पूंजीवादी शक्तियों के प्रति निर्णय को लेकर असमंजस की स्थिति में हैं. जो लोग सांस्कृतिक अपसंस्करण से जूझने का नाटक कर रहे हैं, वे ठेठ पुरातनवादी हैं. इस समाज को वे वापस सामंतकाल में ले जाना चाहते हैं ताकि लोकतांत्रिक परिवेश के प्रभाव में जनता में जो चेतना जगी है, उसपर काबू पा सके.

ध्यातव्य है कि भारतीय संस्कृति में त्याग, अपरिग्रह, अस्तेय और समानता जैसे मानवमूल्यों को वरीयता दी गई है. परोपकार हमारे उच्चतम मानवमूल्यों में सम्मिलित रहा है. दूसरी ओर आधुनिक कही जानेवाली सभ्यता में इन मूल्यों को कोई स्थान प्राप्त नहीं है. नई सभ्यता त्याग के बजाय भोग को, अपरिग्रह की जगह संग्रह की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाली है. निर-मानवीकरण की यह समूची कवायद लोकतंत्र, व्यक्ति-स्वातंत्र्य जैसे गरिमामय जीवनमूल्यों तथा मानविकी संस्थाओं के नाम पर की जा रही है. अभी तक अहिंसा, परोपकार, अपरिग्रह जैसे नैतिक मूल्यों से आमजन का परिचय कराने तथा उन्हें मनुष्य के आचरण का हिस्सा बनाने के लिए प्रेरित करने की जिम्मेदारी धर्म की थी. कुछ सीमा तक धर्म ने उसका निर्वाह भी किया. फलस्वरूप समाज में धर्म के प्रति स्वीकार्यता निरंतर बढ़ती गई. धर्म का प्रधान कर्तव्य मनुष्य के आध्यात्मिक विश्वास को सहेजे रखना था. लेकिन उसकी बढ़ती स्वीकार्यता के बीच, उसको नैतिकता से जोड़कर सामाजिक अनुशासन और मानवीकरण जैसे काम उससे लिए जाने लगे. जिससे वह धर्म और आस्था दोनों का प्रतीक बन गया. भिन्न देशों में शासन-प्रशासन के नियम भिन्न होते हैं. लेकिन उनके नैतिक मूल्यों में गजब की एकता होती है. इसलिए थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ वे किसी न किसी रूप में दुनिया के सभी धर्मों में पाए जाते हैं. देखने में यह भी आया है कि हाल के वर्षों में लोगों की अपने-अपने धर्म के प्रति आग्रहशीलता जिस तेजी से बढ़ी है, उसी तेजी से धर्म अपने नैतिक मूल्यों से कटा है. चालबाज लोगों द्वारा धर्म की सांगठनिक शक्ति का मनमाना दुरुपयोग जारी है. जीवन में मानव-मूल्यों का उत्तरोत्तर पतन दर्शाता है कि लोग जिन अर्थों में धर्माचरण को अपना रहे हैं, वह दुनिया के किसी भी धर्म की मूल सैद्धांतिकी से काफी परे है. नैतिक मूल्य जो धर्म को वास्तविक अर्थों में प्रासंगिक बनाते हैं, से धर्म को तकरीबन काट दिया गया है. इस तरह धर्म उन अपेक्षाओं से काफी परे है, जिनके आधार पर धर्माचरण को जीवन का उद्देश्य बताया गया है. इसका मुख्य कारण है कि धर्म के प्रचार-प्रसार में जुड़ी शक्तियों का उसके मूल स्वरूप तथा उसको समग्रता में लागू करने से कोई लेना-देना नहीं है. जनसाधारण को धार्मिक प्रलोभनों में फंसाकर वे केवल अपनी स्वार्थ-सिद्धि चाहती हैं. प्रकारांतर में ये सारी कोशिशें राजनीति और बाजार के बड़े से बड़े हिस्से पर कब्जा जमाने के लिए की जा रही हैं.

सामाजिक विभ्रमों के एक छोर पर परंपरा और संस्कृति के प्रति हमारी तीव्र आग्रहशीलता है. उन्हें हम उनकी उसी पुरातनता के साथ स्वीकारना चाहते हैं. ‘प्राचीनतम ही श्रेष्ठतम है’—धर्म और संस्कृति के आकलन का हमारा कुछ यही पैमाना होता है. इसके समानांतर ज्यादा भरोसे और चमक-दमक के साथ मीडिया और बाजार द्वारा परोसा जा रहा सुखवाद है. उल्लेखनीय है कि सुख की लालसा अपने आपमें हेय नहीं है. सुख पुरुषार्थ का संकल्प है. मनुष्य का प्राथमिक उद्देश्य खुद को अधिकतम सुख की स्थिति तक ले जाना है. उसके सारे प्रयास इसी के निमित्त होते हैं. समाज मनुष्य की सुखाकांक्षा की निर्मिति है. किंतु अपने लिए सुख का आयोजन करने के लिए दूसरों के सुख की बलि चढ़ाना नैतिक अपराध है. दूसरों के सुख का ख्याल रखते हुए अपने सुख को बढ़ाते जाना ही मनुष्यता का अभीष्ट है. जान स्टुअर्ट मिल ने इसी को ‘सुख का नैतिक आचरण’ कहा है. इस दृष्टि से देखा जाए तो भारतीय समाज, विशेषकर नागरी समाज की स्थिति लगभग उलट ही है. सुख की अंतहीन लालसा हमें उत्तरोत्तर व्यक्तिवाद की ओर ले जा रही है. जबकि सामूहिकता में त्राण पाने वाली हमारी परंपरा और संस्कृति व्यक्तिवाद को तब तक पसंद नहीं करती, जबतक उसका ध्येय लोककल्याण न हो. यहां ऋषि-मुनियों की एकांत साधना के सैकड़ों उदाहरण हैं. समाज उन्हें अपने त्राता की तरह याद करता है. इस तरह पूरा समाज अपने ही अंतर्विरोधों के बीच संघर्ष और तनाव की स्थिति में जी रहा है. जाहिर है, इन अंतर्विरोधों का प्रतिगामी प्रभाव सामाजिक गतिशीलता पर भी पड़ा है.

किसी समाज के अपने ही अंतर्विरोधों से जूझने और तथा उनमें खप रही ऊर्जा को सकारात्मक दिशा देने की योग्यता ही उसके विकास की धारा को तय करती है. एक सचेतन समाज अंतर्विरोधों में खप नही ऊर्जा का इस्तेमाल अपने निर्माण के लिए करता है. लेकिन अंतर्विरोधों से सर्वथा-मुक्ति किसी भी समाज के लिए संभव नहीं होती. बात बहुत कुछ बौद्ध दर्शन के दुख के सिद्धांत से मेल खाती है. जिसके अनुसार दुख है, दुख का कारण है और उससे मुक्ति का मार्ग भी है. लेकिन दुख से मुक्ति के लिए सार्थक प्रयत्न भी आवश्यक हैं. समाज में रहते हुए अंतर्विरोधों से पूर्ण मुक्ति भले ही संभव न हो, उनसे निरंतर संघर्ष करते हुए स्थितियों का अपने पक्ष में अनुकूलन अवश्य किया जा सकता है. इसके लिए जरूरी है कि व्यक्ति और समाज दोनों में अपने अंतर्विरोधों से जूझने तथा उनके कारणों को पहचानने की भरपूर क्षमता हो. जागरूक समाज अपने अंतर्विरोधों को पहचानकर उसमें खप रही ऊर्जा का उपयोग अपने विकास के लिए करता है. जब कोई समाज अपने अंतर्विरोधों को पहचानने लगता है तो देर-सवेर उनसे त्राण के रास्ते खोज ही लेता है.

आजादी के बाद जिस तेजी से हमारा समाज विकास की ओर बढ़ा, सामाजिक अंतर्विरोधों की वृद्धि-दर अपेक्षाकृत ज्यादा रही है. हमारी समस्या है कि हम अपने अंतर्विरोधों को पहचानकर उन्हें अपने हितानुकूल दिशा देने में नाकाम रहे हैं. हमारी सामाजिक असफलताओं और भटकावों का यह मुख्य कारण है. सामाजर्थिक मोर्चे पर असफल रही सरकारें सत्ता में बने रहने के लिए ऐसे हथकंडे अपनाती हैं, जो मानव-अस्मिता के लिए नुकसानदेह सिद्ध होते हैं. गौरतलब है कि सरकारें चाहे लोकतांत्रिक हों या सामंतवादी विचारधारा का अनुसरण करने वाली, भले ही वे तानाशाह के इशारों पर नाचनेवाली क्यों न हों—जनमत से हमेशा घबराती हैं. गैरलोकतांत्रिक और अकल्याणकारी सरकारों के समक्ष जनविद्रोह की संभावना सदैव बनी रहती है. अतएव सत्ता-शिखर पर विराजमान रहने के लिए ऐसी सरकारें, जनभावनाओं का अधिकाधिक दोहन करती हैं. वास्तविक समस्याओं की ओर से जनता का ध्यान हटाने के लिए ऐसे मुद्दे बार-बार उछाले जाते हैं जिनपर बुद्धि के बजाय भावना-प्रधान निर्णयों की आवश्यकता पड़ती है. उसके लिए संचार-तंत्र पर कब्जा कर उसकी जनोन्मुखता को बाधित किया जाता है. आंतरिक और बाह्य खतरों का हवाला देते हुए, जनता के बीच कृत्रिम भय का माहौल पैदा किया जाता है. जिनसे पूरा समाज अधैर्य और अविश्वास के माहौल में जीने को बाध्य हो जाता है. सामाजिकता छिन्न-भिन्न होने लगती है. परिणामतः सामाजिक चेतना आंतरिक संघर्षों, निरर्थक विवादों में पड़कर प्रभावशून्य हो जाती है. इस तरह अक्षम सरकारें सामाजिक अंतर्विरोधों की खाई को पाटने के बजाय ‘येन-केन-प्रकारेण’ उनका उपयोग सत्ता को बनाए रखने के लिए करती हैं.

दोष जनता का भी है. स्वाधीनता संग्राम के दौरान उसने जिस राष्ट्र-प्रेम, एकता और आत्मविश्वास का परिचय दिया था—आजादी मिलते ही उससे किनारा कर खुद को पूरी तरह से नेताओं के हवाले कर दिया. मामूली बातों के लिए भी सरकार का मुंख देखने लगी. उसने सरकार को स्वयं से ऊपर मान लिया. जबकि लोकतंत्र में सरकार की उपस्थिति ऐसी होनी चाहिए कि उसकी प्रतीति तक न हो. उसे सही मायने में जनता की चेरी होना चाहिए. इसका निहितार्थ है कि केवल, ‘श्रेष्ठ जनता ही श्रेष्ठ शासन दे सकती है’—तो जनता की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है. श्रेष्ठतव की प्राप्ति के लिए उसे आत्मपरीक्षण, पुनःजागरण के दौर से निरंतर गुजरते रहना पड़ता है. भारत में आजादी मिलते ही जनता ने अपनी शक्ति और सामर्थ्य को बिसरा दिया था. परिणामस्वरूप उसे उसी तंत्र की मनमानी का शिकार होना पड़ रहा है, जिसे उसने अपने भले के लिए खड़ा किया था. हमारे समय और समाज यह भारी विडंबना है.

स्वाधीन भारत में हम अकसर अपनी सार्वजनिक असफलताओं और भटकावों के प्रति चिंतित दिखते हैं. इसके बावजूद यह सिलसिला थमा नहीं है. इसलिए कि स्वतंत्र भारत में सामाजिक पुनर्निर्माण के लिए हमने जो विकल्प अपनाए उनके प्रति हम स्वयं एकमत नहीं थे. हमारे नेताओं और बुद्धिजीवियों पर यूरोप की छाप थी, सो उन्होंने उधार के पैटर्न को विकास का माध्यम बनाया, जिसमें जनता की कोई भागीदारी नहीं थी. केवल उसका उपयोग हो सकता था. सो आजादी के बाद जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा जनता का उपयोग कभी सस्ते श्रम, तो कभी उपभोक्ता के रूप में होता रहा. दूसरी ओर शीर्षस्थ वर्ग जो पहले अंग्रेज सरकार के समर्थन में था और उनकी निकटता का लाभ उठाता था, वह स्वतंत्र भारत में भी अपनी उसी हैसियत को बनाए रखना चाहता था. यह तभी संभव था जब जनता का विश्वास जीत सके. इसके लिए वह नए रूप में सामने था.

आधुनिक तकनीक के साथ गति शब्द सहज ही जुड़ चुका है. वेगवान होना उसकी विशेषता है. यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो हाल की दो शताब्दियों में इतने परिवर्तन एकसाथ देखने को मिले हैं, जितने उससे पहले पूरी सहस्राब्दी में संभव नहीं थे. सवाल है कि किसी समाज का प्रौद्योगिकीय विकास क्या सचमुच उसे आगे ले जाता है. यह तो सच है कि तकनीक ने जीवन को गतिशील बनाया है. आज इंटरनेट, मोबाइल, टेलीफोन जैसे त्वरित संसाधन हैं जो पल-भर में सूचनाओं को इधर से उधर कर सकते हैं. सवाल है कि क्या तकनीक-प्रदत्त गतिशीलता को सामाजिक गतिशीलता माना जा सकता है. अथवा कालखंड विशेष में सामाजिक विकास की दर क्या विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र की विकास दर क्या बराबर होती है? यह सच है कि पश्चिमी देशों में विकास का श्रेय वहां तकनीकी और प्रौद्योगिकीय क्रांति को जाता है. फिर भी यह बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती कि उसका लाभ बिना किसी भेदभाव के, समाज के सभी लोगों को एक-समान मिला है. तकनीक की उपयोगिता के आकलन का एक मापदंड यह भी हो सकता है कि उससे जनसाधारण को कितना लाभ पहुंचा है? आम आदमी के जीवन-स्तर को ऊपर उठाने में उसका कितना योगदान रहा है. लेकिन तकनीक विकास के आकलन की यदि यह पद्धति अपना ली जाए तो आधुनिक विज्ञान के अधिकांश बड़े उत्पाद उपयोगिता के आधार पर धूल चाटते हुए नजर आएंगे. गौरतलब है कि उच्च तकनीक ने समाज को तीन टापुओं में बांट दिया है. एक टापू उन लोगों का है जो चांदी की चम्मच के साथ जन्मते हैं. अपने पूंजीबल से दुनिया के उत्पादकता को प्रभावित करने में सक्षम होते हैं. ऐसे लोगों का ज्ञान से सीधा वास्ता भले न हो, मगर व्यावहारिक कौशल में दूसरे वर्गों से कहीं आगे होते हैं. दूसरे टापू पर पढ़े-लिखे, तकनीक शिक्षा संपन्न होते हैं. जो पहले वर्ग के लोगों के लिए भोज्य सामग्री और उसका मनोबल बनाए रखने का काम करते हैं. संख्या के मामले में तीसरे टापू पर बसे लोग अधिक संख्या में होते हैं. वे न तो इतनी बुद्धिकौशल से संपन्न होते हैं कि सीधे किसी को प्रभावित कर सकें. पहले वर्ग द्वारा तीसरे वर्ग का उपयोग उपभोक्ता के रूप में किया जाता है. उसे यह समझाने की कोशिश की जाती है कि उत्पादन का सारा दारोमदार उसी पर होता है. यह बात इतने प्रभावी ढंग से समझाई जाती है कि बहुत जल्दी अप्रासंगिक होने लगती है.

यहां कोई भी शंका कर सकता है कि सोवियत संघ के विकास का मा॓डल तो मौलिक था. फिर वह क्यों तबाह हुआ? प्रश्न अपने आप में बड़ा महत्त्व का है. सोवियत संघ का गठन रक्त-क्रांति के माध्यम से हुआ था. उसमें किसान और श्रमिक संगठनों की समान भागीदारी थी. उसके फलस्वरूप सोवियत समाज में समानतावादी द्रष्टिकोण तो पनपा, मगर व्यक्ति-स्वातंत्र्य को वहां पूरी तरह उपेक्षित रखा गया. अभिव्यक्ति की आजादी को तरह-तरह से बाधित किया गया. व्यक्तिवाद को पूंजीवाद का मददगार मानकर उससे किनारा कर लिया गया. मनुष्य समाज में अपने सुख के लिए सम्मिलित होता है. प्रबुद्ध होते विकासमान समाज में वह अपने सुख और स्वतंत्रता में भी वृद्धि होते देखना चाहता है. स्वतंत्रता के अभाव में उसे अपना हर सुख अधूरा लगने लगता है. सोवियत संघ में भी यही हुआ था. लोगों को साम्यवादी शासन एक दलीय तानाशाही लगने लगी थी. परिणाम यह हुआ कि ऊपर से एक दिखनेवाले समाज में भीतर ही भीतर आक्रोश पनपने लगा. सरकार के अंतर्विरोध उनके सामने आने लगे थे. 1991 में जनता को जैसे ही अवसर मिला, उसने साम्यवाद के पहले प्रयोग से तौबा कर ली. लोहिया का कथन सत्य हुआ. सोवियत संघ के पतन जो अवश्यंभावी घटना मानते थे. कालांतर में पूंजीवाद दबे पांव रूस में कदम रखने लगा. अमेरिका का धुर विरोधी रहा देश आर्थिक नीतियों के मामले में उसी के नक्शेकदम पर संशोधन करने को विवश हो गया. यह अपने आप में भारी विसंगतिपूर्ण घटना थी.

भारत ने भी पश्चिम की ताकतों के विरुद्ध लंबा संघर्ष किया था. विकास के नाम पर फिर पश्चिमी देशों की राह पकड़ लेना, कहीं न कहीं हमारे आत्मविश्वास को चुनौती देता था. भारत ने स्वाधीनता अपने ढंग से प्राप्त की थी. सो देश के पुनर्निर्माण का रास्ता भी अपने ढंग का, बाकी सबसे अलग होना चाहिए था. महात्मा गांधी ने इसकी ओर संकेत भी किया था. मगर कांग्रेस के, गांधी के काफी करीबी सत्ता-सुख को उतावले नेताओं ने उनकी सलाह को अनसुना कर दिया गया. भारत को आजादी अहिंसक क्रांति के दम पर प्राप्त हुई थी. स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी का साथ देने वे साधारण लोग आगे आए थे, जिन्हें समाज किसी न किसी बहाने उत्पीड़ित करता आया था. भारत की आजादी में उन साधारण सूरमाओं के योगदान की अवहेलना संभव ही नहीं है. इसीलिए आजाद भारत के संविधान में व्यक्तिमात्र के हितों और स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए पर्याप्त गारंटी की व्यवस्था की गई. मगर व्यवस्था बनाने और व्यवस्थित करने में रात और दिन का अंतर है. शासन-प्रशासन के स्तर पर शिथिलता बढ़ी तो आजादी उल्टे पांव चलती नजर आने लगी. आम आदमी को लगने लगा कि सत्ता पर काले अंग्रेजों ने कब्जा जमा लिया है. उनपर कोई जोर न चलता देख त्राण के लिए पंडा-पुजारियों की शरण में जाने लगे. भूल गए कि निचले वर्गों आजादी का लाभ न पहुंचने का कारण केवल ऊपर के वर्गों की मनमानी नहीं, निचले समूहों में व्याप्त उदासीनता भी होती है. सोवियत संघ में सामाजिक-राजनीतिक समानता का अधिकार देकर अभिव्यक्ति की समानता का अधिकार छीन लिया गया था, यहां अभिव्यक्ति का अधिकार था, लेकिन सामाजिक स्तर पर मनुष्य के आगे अनेक प्रकार के बंधन थे, जिससे राजनीतिक आजादी को सामाजिक स्वतंत्रता में बदलना असंभव प्रतीत होने लगा था. भारतीय राजनीति की विडंबना है कि इस तरह की कोशिशें भी कम रहीं. बल्कि ओछी राजनीति के चलते नेताओं को जब लगा कि लोगों को जाति और धर्म के नाम पर फुसलाया जा सकता है, तो उसी को हथियार बनाया जाने लगा.

भारतीय समाज, जैसा कि हम सभी जानते हैं, विभिन्न संस्कृतियों, सभ्यताओं का संकुल है. दूसरे समाजों की अपेक्षा हमारे समाज की अंतःरचना कहीं अधिक जटिल और बहुआयामी है. ध्यातव्य है कि आज से डेढ़-दो-सौ वर्ष पहले तक पश्चिमी समाज भारतीय समाज की भांति सामंतवाद जैसी कुरीतियों, रूढ़िवाद आदि से ग्रस्त थे. लेकिन बाद के वर्षों में आई औद्योगिक-सामाजिक और वैचारिक क्रांति के फलस्वरूप वे अपना कायाकल्प करने में सक्षम सिद्ध हुए. जबकि अपनी नीतिगत दुर्बलताओं के चलते भारतीय समाज आज भी सामंतवादी प्रवृत्तियों से त्रस्त है. लोकतंत्र अभी तक हमारे आचरण का स्वाभाविक हिस्सा नहीं बन पाया है. ऐसे में समाज में अंतर्विरोधों का होना अस्वाभाविक घटना नहीं है. सच यह भी है कि सामाजिक अंतर्विरोधों की जड़ें बहुत गहरी और परंपरा से अभिसिंचित होती हैं. उन्हें एकाएक दूर कर पाना संभव नहीं होता है. जैसा कि ऊपर के आकलन से स्पष्ट है, सामाजिक अंतर्विरोधों के जन्मदाता कारक धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, स्पष्ट-अस्पष्ट किसी भी प्रकार के हो सकते हैं. अंतर्विरोधों का समापन तो महात्मा गांधी जैसे महानायक भी नहीं कर पाए थे. उन्होंने जनता का विश्वास जीतकर अंतर्विरोधों को किसी सीमा तक निष्प्रभ अवश्य कर दिया था.

सामाजिक गतिशीलता के भारतीय संदर्भों को समझने के लिए हमें अपने समाज के वर्गीय चरित्र को भी समझना पड़ेगा. जिसकी सामाजिक अंतर्विरोधों को उभारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है. स्वाधीन भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली का चयन इस उम्मीद के साथ किया गया था कि यह समाज के सभी वर्गों को विकास के एक समान अवसर उपलब्ध कराएगी. जिससे समाज में सहअस्तित्व की भावना का विकास होगा. समाज के अप्रासंगिक हो चुके समाज के परंपरागत वर्गीय ढांचे में बुनियादी परिवर्तन आएगा. यह सोच बुरा नहीं था. जनसाधारण इसी उम्मीद के साथ स्वाधीनता-समर में उतरा था, किंतु सहस्राब्दियों से सामंतवाद के साये में जीती आई अशिक्षित और गरीब जनता को जिस लोकतांत्रिक प्रशिक्षण की आवश्यकता थी, उसके लिए गंभीर प्रयास कभी नहीं किए गए. सामाजिक समरसता के लिए कोई प्रभावकारी प्रयास सरकार या राजनीतिक दलों द्वारा नहीं किया गया.

संभवतः यह सब लोकतंत्र से अधिक अपेक्षाओं के चलते हुआ. हमने मान लिया कि लोकतांत्रिक प्रणाली सामाजिक परिवर्तनों को अनुकूल दिशा देगी. सत्ता हस्तांतरण के साथ लोकतंत्र समाज के वर्गीय चरित्र में भी अनुकूल बदलाव लाने में सक्षम सिद्ध होगा. देखा जाए तो यह वांछा अनुचित भी नहीं थी. किंतु असमान वितरण, गरीबी और अशिक्षा से ग्रस्त समाज में ऐसी संस्थाओं, सिद्धांतों का जो हश्र होता है, वही भारत में लोकतंत्र का हुआ. सच तो यह है कि सहस्राब्दियों से सत्ता के शिखर पर विराजमान रही शक्तियों की, जनता तक वास्तविक सत्तांतरण की कोई इच्छा ही नहीं थी. यहां हमारा मकसद लोकतंत्र को भारतीय संदर्भ में अप्रासंगिक सिद्ध करना नहीं है. लोकतंत्र आज भी शासन की बेहतरीन प्रणाली है. लेकिन यह एक राजनीतिक प्रणाली है. एक राजनीतिक प्रणाली सामाजिक प्रणाली की भूमिका को निभाए ऐसी कामना करना ही फिजूल है. चूंकि ऐसी उम्मीदें हम बहुत पहले ही बांध चुके थे, इसलिए उसका खामियाजा हमें आज तक भुगतना पड़ रहा है.

अनुभव सिखाते हैं कि सत्ता का हस्तांतरण समग्र सामाजिक परिवर्तन, वास्तविक परिवर्तन का विकल्प कभी नहीं बन सकता. गांधीजी इस तथ्य को भली-भांति समझते थे. इसलिए आजाद भारत में उन्होंने कांग्रेस को सलाह दी थी कि वह राजनीति का मोह छोड़कर सामाजिक चेतना लाने के लिए आवश्यक कदम उठाए. लेकिन सत्ता के लिए उतावले कांग्रेसी नेताओं ने गांधीजी की सलाह को ठुकरा दिया. हाल के वर्षों में समाज में राजनीतिक चेतना बढ़ी है. विशेषकर आम आदमी पार्टी के उभार के बाद से लोगों में जनतांत्रिक उभार एकदम साफ नजर आ रहा है. एक तरह से यह भी भारत में प्रबुद्ध होते लोकतंत्र का लक्षण है. यह और भी लाभकारी भी होता, बशर्ते राजनीतिक समानता के साथ-साथ सामाजिक समानता पर भी उतना ही जोर दिया जाता. लोकतांत्रिक समानता का विचार समाज के रोजमर्रा के व्यवहार पर भी उसी तरह लागू होता. फलस्वरूप जाति-बंधन शिथिल पड़ते तथा धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति को सदा-सदा के दफनाया जा सकता. उल्लेखनीय है कि भारतीय जनमानस के वर्गीय चरित्र का लाभ उठाने हेतु विभिन्न पूंजीवादी और राजनीतिक शक्तियां, संस्कृति और अन्य सामाजिक प्रकल्पों की अपने स्वार्थानुकूल व्याख्या करती रही है. ये शक्तियां संचार माध्यमों का अनुचित या सीमित संदर्भों में उपयोग करते हुए, दीर्घकालिक लाभों के लिए शुरू किए गए आंदोलनों को अल्पकालिक लाभों तक सीमित करने में सफल हो जाती है. बढ़ते रोजगार अवसरों के बावजूद आरक्षण और आरक्षण में से आरक्षण, आर्थिक आधार पर आरक्षण जैसी व्यवस्थाओं को ऐसी ही कोशिशों के रूप में लिया जाना चाहिए. ऐसे अल्पकालिक लाभ व्यवस्था में युगांतरकारी आमूल परिवर्तन करने, सामाजिक अंतर्विरोधों की खाई को पाटने में अक्षम सिद्ध होते हैं.

विडंबना है कि सत्ता-शीर्षों पर विराजमान शक्तियां इन अल्पकालिक परिवर्तनों को भी अपने अस्तित्व के संकट के रूप में देखती हैं. इसलिए वे उन प्रणालियों से जो इन परिवर्तनों के मूल में कार्यरत हैं, या तो उदासीन हो जाती हैं अथवा उनका उपयोग अपने निहित स्वार्थों के लिए करने का प्रयत्न करती हैं. जिससे उन प्रणालियों में भीतरी और बाहरी अंतर्विरोध पनपने लगते हैं. परिणामतः सामाजिक विकास की गति अवरुद्ध होती है. और वह वर्ग जो विकास से अछूता रहा है, कुंठा तथा असंतोष का शिकार होने लगता है. सामाजिक आंदोलनों की गैर मौजूदगी में परिवर्तन की लालसा इस वंचित वर्ग को राजनीति की शरण में ले आती है. यही कारण है कि आम चुनावों के दौरान जहां अभिजात वर्ग में मतदान के प्रति गहरी उदासीनता व्याप्त रहती है, वहीं सत्ता से वंचित वर्ग में इन्हें लेकर उत्सव जैसा माहौल रहता है. दक्षिणी दिल्ली की पाश कालोनियों और शेष दिल्ली की झुग्गी-झौपड़ी बस्तियों में मतदान के प्रतिशत में भारी अंतर से यह परिवर्तन साफ देखा जा सकता है. यह बात अलग है कि स्वार्थी और अक्षम राजनेता जनसामान्य की परिवर्तन के प्रति इस स्वाभाविक ललक का भी भावनात्मक दोहन करते हैं. और बड़ी चालाकी से वे मतदाताओं का ध्यान जनहित के सामान्य मुद्दों से हटाकर वर्गीय और स्थानीय मुद्दों तक ले आते हैं. इस तरह जनतंत्रीय और वैज्ञानिक सोच को परंपरा और रुढ़ि में ढाल देने की कोशिशें उतनी ही तेजी से चलती रहती हैं, जितनी किसी समाज को अंधविश्वास और वर्गीय चरित्र से मुक्त कराने के प्रयास. सामाजिक विकास की प्रक्रिया इन्हीं के द्वंद्व से संपन्न होती है.

सामाजिक गतिशीलता को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों में धर्म और प्रौद्योगिकी भी सम्मिलित हैं. उत्पादन प्रणाली में प्रौद्योगिकी तथा अन्य कारणों से सामाजिक जटिलताओं को जन्म देती है. प्रौद्योगिकी का अपरिष्कृत यानी कम जटिल रूप मनुष्य को मनुष्य के करीब लाने में सहायक था. अभी कुछ दशक पहले तक लुहार, बढ़ई आदि ग्रामीण शिल्पकार अपनी निम्न सामाजिक-आर्थिक प्रस्थिति के बावजूद ग्रामीण समाज-व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण हिस्सा माने जाते थे. इनमें से यदि एक भी कम पड़ जाए तो उसको बाहर से लाकर बसाया जाता था. प्रौद्योगिकी विकास का प्रारंभिक दौर उत्पादन प्रक्रिया में श्रम घटाने और उसको आरामदेय बनाने पर जोर देता था. जबकि अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी को मानवीय श्रम और उसके तकनीकी कौशल की ज्यादा परवाह नहीं होती. स्वचालीकरण की अधुनातन कोशिशें उत्पादन प्रक्रिया का शत-प्रतिशत मानवीकरण करने पर उतारू हैं. ऊपर से नवीन आविष्कारों पर समाज के मुट्टी-भर लोगों का नियंत्रण तथा उससे होने वाले लाभ का वर्ग विशेष तक सिमटकर रह जाना, कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के सर्वथा विरुद्ध है. प्रौद्योगिकी का सीमित हितों के लिए उपयोग समाज की मेधा के उपयोग को एकतरफा बना देता है. सामाजिक असंतोषों में वृद्धि का यह भी एक कारण है. इसका आशय यह नहीं है कि नई प्रौद्योगिकी को अपनाया ही न जाए. विकास की चुनौतियों और सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए नई प्रौद्योगिकी की उपयोगिता किसी से छिपी नहीं है. किंतु उसका उपयोग ऐसा होना चाहिए, जिससे समाज में किसी भी प्रकार के एकाधिकार अथवा वर्चस्ववाद में वृद्धि न हो और प्रौद्योगिकीय विकास का लाभ समाज के सभी वर्गों को बिना किसी भेद-भाव के प्राप्त हो सके.

प्रौद्योगिकी के साथ-साथ धर्म भी सामाजिक गतिशीलता पर प्रतिकूल असर डालनेवाला प्रमुख कारक है. धर्म यद्यपि व्यक्ति की निजी अवधारणा तक सीमित होता है. किंतु इसका सामूहिकीकरण कभी-कभी आक्रामकता को बढ़ाने वाला भी सिद्ध होता है. प्रकट में हर धार्मिक संप्रदाय यही मानता और घोषणा करता है कि सभी धर्मों का मूल स्वरूप एक जैसा है. किंतु वास्तविकता इस समतावादी द्रष्टिकोण से सर्वथा भिन्न होती है. समूह के रूप में धर्म शक्ति का प्रतीक होता है. अतः शक्ति-केंद्र में सर्वोपरि स्थान पाने की लालसा प्रायः सभी धर्मावलंबियों की होती है. इस कारण विधर्मी को उसकी इच्छा या अनच्छिा से अपने धर्म या संप्रदाय में खींच लेने की प्रवृत्ति प्रायः सभी समाजों में पाई जाती है. धर्मांतरण को विकास का प्रतीक बताकर सामूहिक धर्मांतरण की कोशिशें प्राचीनकाल से ही दुनिया-भर में होती रही हैं. किंतु आध्यात्मिक निष्ठा में परिवर्तन और तदनुरूप स्वयं-स्फूत्र्त धर्मांतरण के मामले बहुत कम देखे जाते हैं. जो हिंदू से मुसलमान बनते हैं, या मुसलमान से हिंदू धर्म की ओर आते हैं, वे इसलिए नहीं कि इस्लाम का भ्रातृत्व या हिंदू धर्म की दार्शनिक गहनता उन्हें अपनी ओर खींचती है. प्रायः सत्ताकेंद्रों के निकट बने रहने की लालसा ही धर्मांतरण का कारण रही है. दूसरी ओर अपवादस्वरूप ही सही ऐसे महामानव भी दुनिया-भर के देशों में हुए हैं, जिन्होंने धार्मिक आस्था और विश्वास खुशी-खुशी बलिदान किया है.

धर्म, राजनीति और प्रौद्योगिकी आदि के लाभों का वृहत्तर समाज के लाभ के बजाय अल्प समूहों तक सिमटकर रह जाना, समाज में व्याप्त गरीबी, अशिक्षा, जनसामान्य की भाग्यवादिता और सक्रिय बचाव की प्रवृत्ति के कारण ही संभव हो पाता है. जनसामान्य की यही कमजोरियां स्वार्थी शक्तियों को मनमानी करने की प्रेरणा देती हैं. वहीं वे समाज के भीतर आक्रोश एवं कुंठा भी जगाती हैं. जो अंततः अंतर्विरोधों को बढ़ावा देनेवाली सिद्ध होती है. बहरहाल, अब तक की तमाम निराशाओं के बावजूद भारतीय समाज में चल रही उथल-पुथल यह विश्वास जगाती है कि हम कोई जड़ समाज नहीं हैं और जब तक समाज के वंचित और उत्पीड़ित जन की आंखों में असंतोष और सुनहरे कल का सपना शेष है, तब तक सामाजिक परिवर्तनों की धारा को न तो कोई रोक पाएगा, न ही इनकी दिशा बदलने की कोशिशें लंबे समय तक कामयाब हो पाएंगी. हां उतार-चढ़ाव जरूर संभव हैं, मगर वे तो विकास की स्वाभाविक लक्षण होते हैं.

ओमप्रकाश कश्यप