अंध-आस्था का संस्थानीकरण

जन्म के आधार पर देखा जाये तो मैं हिंदू हूँ। यद्यपि मंदिर नहीं जाता। कभी गया होऊंगा यह भी याद नहीं। फिर भी गीता, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत, दुर्गा सप्तशती जैसी अनेक पुस्तकें, बिना किसी आस्था, विश्वास के, सहज पाठकीय जिज्ञासा और चाव से पढ़ी हैं। बचपन में ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करते समय लगता था कि संकट के समय बजरंगबली सहायक होंगे। उन दिनों गाँव के चारों ओर बाग थे, जहाँ आम के बुजुर्ग दरख्त जमीन से गलबहियाँ करते रहते। कुछ तो इतने पुराने कि शाखें खोखली पड़ चुकी थीं। हवा चलती तो तनों के चरमराने की आवाज सुनाई पड़ती। सूखे पत्ते झर-झर कर जमीन पर लोटने लगते। मानो जिस तने से वे अब तक लिपटते आए हों, स्नेह और समर्पण की पराकाष्ठा में उसके धराशायी होने से पहले खुद समाधिस्थ हो जाना चाहते हों। दिन में वे बाग अकसर सुनसान रहते। गुजरना पड़े तो धड़कनें अपने आप बढ़ जातीं। उस समय सिर्फ बजरंगबली का सहारा होता। लेकिन न तो कभी किसी प्रेत से मुलाकात हुई, न बजरंगबली ही मन का डर कम कर पाए। हाँ, ‘चालीसा’ इतना पढ़ा कि आज तक लगभग कंठस्थ है। धीरे-धीरे उसके प्रति आस्था भी खत्म होती गई। खोखली, अज्ञानजनित श्रद्धा और विश्वास का यह अकेला उदाहरण नहीं। हर साल गाँव में रामलीला मंडली आती। रात-रात भर जाग कर रामलीला देखी जाती। सिर्फ कथारस और मनोरंजन के लिए। राम दैव-पुरुष हैं, ऐसा भाव शायद ही कभी मन में उमड़ा हो। कभी नहीं लगा कि वे सामान्य सम्राट से बढ़ कर थे। हाँ, महाभारत पढ़ते-देखते कृष्ण-कथा की नाटकीयता से अवश्य अभिभूत हुआ हूँ। आज भी हो जाता हूँ। उनकी लौकिकता अद्भुत है। दैव-पुरुष कहलाकर भी वे आम जन के करीब हैं। उनके यहाँ परंपरा का दबाव नहीं है। बल्कि वे स्वयं परंपराओं को चुनौती देते हैं। इसके लिए वे देवराज इंद्र से भी पंगा ले सकते हैं। उनके साथ साख्य-भाव संभव है। यह लौकिकता उनसे कभी-कभी बड़े अनर्थ भी करवा लेती है। जैसे अपने पक्ष के पांडवों को जिताने के लिए धर्म के नाम पर छल (हालाँकि महाभारतकार ने उसे धर्मयुद्ध कहा है), एकलव्य की हत्या, युधिष्ठिर द्वारा अपनी ही पत्नी को जुए में दाँव लगाने के धत्कर्म को नजरंदाज कर उसको धर्मराज मानते रहना, गीता के बहाने वर्णाश्रम धर्म का पोषण आदि।

कृष्ण-कथा से इतर ‘सत्यनारायण कथा’ है, जिसमें ‘सत्यनारायण महाराज’ की कथा कभी नहीं आती। असल में तो वह डरी-सहमी, कुल-मर्यादा को समर्पित और पुरुष-सत्तात्मक परिवारों में अपनी अस्मिता गँवा चुकी ‘लीलावतियों’ के डर की कथा है, जो त्राण पाने के लिए दैवीय शक्ति की तलाश में रहती हैं। मेरे ही घर में आस्थावान पत्नी नियमपूर्वक इस कथा का आयोजन कराती हैं। उस समय पड़ोस की स्त्रियाँ भी जुट आती हैं। पुरोहित द्वारा हवन के दौरान देवताओं को बुलाना, कर्मकांड के बाद उन्हें वापस जाने को कहना। दिखावा इतना मानो ईश्वर, ईश्वर न हो कर उसके इशारे पर नाचनेवाला बंदर हो। एक ओर यजमान के लिए सुख-समृद्धि की कामना, दूसरी ओर गरीबी का यशस्वीकरण। दो-तीन घंटे के कर्मकांड का आखिरी पड़ाव, इहलौकिक-पारलौकिक सुख और समृद्धि की कामना….जितने समय तक पंडित घर में होता है, उतना समय छत पर अकेले बिताना मुझे भारी पड़ जाता है। सत्यनारायण की कथा बाँचनेवाले पंडित का भगवान मुझे उसी की तरह स्वार्थी एवं क्षुद्र-बुद्धि नजर आता है, जिसे अपना नाम लिवाने का शौक है। जो चाहता है कि पूरी दुनिया उसके रंग में रँग जाए। अगर कोई उसकी अवहेलना करे, उसके प्रसाद का अपमान करे, उसका नाम रटना भूल जाए, उसकी ओर से उदासीन हो जाए, तो वह कुटिल तानाशाह की भाँति अत्याचार पर उतर आता है। हर धार्मिक कथा की भाँति सत्यनारायण की कथा में भी चमत्कार होते हैं। वह प्रसन्न हो तो खोया पति, अर्जित धन-संपदा सहित, वापस लौट आता है। नाराज हो तो रास्ता भटक कर संकट में फँस जाता है। धन-संपदा नष्ट हो जाती है। मनुष्य की सारी की सारी कमजोरियाँ, धूर्तताएँ, छल-प्रपंच मुझे पुरोहित तथा उसके ‘सत्यनारायण’ में अंतर्निहित जान पड़ते हैं। ऐसे ‘सत्यनारायण’ की कथा में सत भला कहाँ से आए!

कह सकता हूं कि मेरा हिंदू होना ऐसी ही घटना है, जैसा मेरा जन्म। दोनों ही आकस्मिक हैं, मेरे नियंत्रण से बाहर। फिर भी जैसे मेरे होने का अधिकार सुरक्षित है, ऐसे ही मेरे हिंदू होने के अधिकार को भी कोई चुनौती नहीं दे सकता। सिवाय मेरे या जब तक मैं ऐसा न चाहूँ। यह अधिकार हिंदू धर्म ने ही मुझे दिया है, जहाँ किसी विशिष्ट देवता, पूजा-पद्धति, देवालय, धर्मग्रंथ, पंडा-पुजारी को माने बिना भी हिंदू रहा जा सकता है। हिंदुओं को छोड़ कर दुनिया के जितने भी बड़े धार्मिक समूह, संप्रदाय आदि हैं, प्रायः सभी का धर्मग्रंथ निर्धारित है। सिख होने के लिए ‘गुरुग्रंथ साहिब’ में आस्था और विश्वास जरूरी है। मुस्लिमों में तो कुरआन शरीफ न केवल व्यक्ति की धार्मिक आस्थाओं, बल्कि जीवनधारा को भी नियंत्रित करता है। पारसियों की आत्मा ‘जिंद अवेस्ता’ में त्राण पाती है। बाइबिल पर ईमान लाए बिना भी क्या ईसाई बना जा सकता है? मुझे लगता है शायद नहीं। ये धर्म ‘पुस्तकों से निकले हैं। इसलिए उनका पारायण करना ही धर्म मानते हैं। यह भी संभव है कि बदलाव की आशंका से डरे धर्माचार्यों ने ही इन्हें धर्मग्रंथों में कैद कर लिया हो। हिंदू होने के लिए ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। यहाँ धर्म की व्याख्या समावेशी है। व्यक्ति बिना किसी धर्मग्रंथ पर ईमान लाए, बगैर मंदिर-देवालय जाए, बिना किसी कर्मकांड अथवा पूजा-पाठ में हिस्सेदारी के भी हिंदू रह सकता है। यह अनायास नहीं हुआ है। इसके पीछे जितनी हिंदू धर्म की उदारता है, संभवतः उतनी विवशता भी है। दरअसल, ढाई-तीन हजार वर्ष के अंतराल में वैदिक बहुदेववाद ने धर्म, दर्शन, वर्णाश्रम, जाति, कर्मकांड, क्षेत्रवाद आदि के नाम पर इतनी शाखाएँ-प्रशाखाएँ खड़ी कर दी हैं कि बाद के आचार्यों को अपने बौद्धिक श्रम का बड़ा हिस्सा उनके बीच समन्वय कायम करने में खर्च करना पड़ा। हालाँकि कुछ विद्वान इसे हिंदू धर्म की विशेषता के रूप में प्रस्तुत करते हैं। हालांकि हिंदुओं के एक वर्ग की चाहत रही है कि दूसरे धर्मों की भांति उनका भी आधार धर्म-ग्रंथ हो। इसके लिए वे समय-समय पर प्रयास करते रहे हैं। किंतु जाति और संप्रदायों में बंटे हिंदू समाज में यह संभव नहीं हो पाया है।

वेद चूँकि प्राचीनतम ग्रंथ थे, इसलिए उन्हें भी हिंदुओं का आधार धर्मग्रंथ बनाने की चेष्टा की गई, लेकिन व्यावहारिक ज्ञान की कमी, दुरूह संस्कृत तथा तात्विक विषयवस्तु के कारण उनमें जनसाधारण को आकर्षित करने की क्षमता कम थी। दूसरे ऋग्वेद में कुछ ऐसे प्रसंग भी हैं, जिन्हें आज के युग में उचित नहीं समझा जा सकता। उदाहरण के लिए वैदिक देवता सोम का सेवन करते हैं। मांस खाते हैं। ऊपर से देवराज इंद्र का चारित्रिक विचलन, यम-यमी संवाद जैसे कई प्रसंग हैं, जिन्हें आज हमारी सामाजिक नैतिकता उचित नहीं मानती। संभवतः इस आधार पर होने वाली आलोचनाओं से बचने के लिए ही समाज के बहुसंख्यक वर्गों के लिए उनका पठन-पाठन निषिद्ध किया गया था। आलोचना दृष्टि के अभाव में वे प्रायः श्रद्धा की वस्तु बने रहे। यूँ भी जो ग्रंथ सर्वसाधारण के अध्ययन-मनन के लिए उपलब्ध न हो, वह आधार धर्म-ग्रंथ बन ही नहीं सकता था। वस्तुतः जिन दिनों वेदों का संकलन हुआ, धर्म स्वयं भी अविकसित अवस्था में था। वह निजी विश्वास से अधिक कुछ न था। लोग प्रकृति के सान्निध्य में रहने, उस पर विश्वास करनेवाले थे। जीवन में जो वस्तु उन्हें जरूरी लगती, उसके अधिष्ठाता के रूप में एक देवता की परिकल्पना कर ली जाती। एकेश्वरवादी धारा बहुत क्षीण, विकास की आरंभिक अवस्था में थी। यह बाद में समझा गया कि बिना व्यावहारिक हुए धर्म का संगठित सत्ता में बदलाव असंभव है। साथ में एक केंद्रीय शक्ति (चाहे वह बनावटी ही क्यों न हो) अथवा शक्तिबोध का होना भी जरूरी था। यह तब हो सका जब समाज में राजा नामक सत्ता का उदय हुआ और निर्णय के सारे अधिकार एक व्यक्ति के अधीन माने जाने लगे। धर्म का आधार सृष्टि-निर्माण और ध्वंस से उपजा सहजबोध था। राजा स्वयं जरा-मृत्यु के घेरे में था। उससे ऊपर भी कोई सर्वशक्तिमान सत्ता होनी चाहिए, इस सोच ने परम शक्तिषाली ईश्वर की संकल्पना को जन्म दिया। उसी का केंद्रीभूत रूप एकेश्वरवाद के रूप में सामने आया।

ऋग्वेद के रूप में मानवी मेधा की आरंभिक उड़ान ने स्वयं वैदिक आचार्यों को भी चमत्कृत कर दिया था। इसलिए उसको सँजो कर रखने के लिए तरह-तरह से प्रयास किए जाने लगे थे। चूँकि लेखनकला का आविष्कार नहीं हो पाया था, अतः उसके संरक्षण हेतु श्रुति का सहारा लिया गया। सामवेद की रचना वैदिक ऋचाओं के स्मरण तथा उनके शुद्ध गायन-उच्चारण की जरूरत को ध्यान में रख कर की गई। कालांतर में यज्ञ का प्रचलन बढ़ा तो याज्ञिक प्रविधियों को सहेजने तथा उन्हें अधिमान्य ठहराने के लिए नए ग्रंथों की आवश्यकता महसूस होने लगी। तब ऋक्, साम आदि से ऋचाएँ चुनकर बाकी दो वेद-संहिताओं की रचना संपन्न हुई। उस समय तक पुरोहित वर्ग काफी ताकतवर हो चुका था। यजुर्वेद एवं अथर्ववेद पर यह असर साफ दिखाई पड़ता है। उनमें यज्ञ की प्रविधियों तथा अन्य कर्मकांडों की प्रधानता है, जिनका विधान अभिजन वर्गों द्वारा अभिजन हितों के संरक्षण हेतु किया गया था। बहरहाल, दर्शन का आदिस्रोत होने के बावजूद वैदिक संहिताओं पर निरंतर बहसें होती रहती थीं। लोकायती और आजीवक विद्वान, वैदिक धर्म के नाम पर फल-फूल रहे कर्मकांड और टोटमवाद पर निरंतर प्रहार कर रहे थे। वैदिक धर्म का पोषक पुरोहित वर्ग, वेदों को अपौरुषेय बता कर उनके प्रति अपनी अंधश्रद्धा का प्रदर्शन करता, तो दूसरा वर्ग उनका मखौल उड़ाता था। परिणाम यह हुआ कि संपूर्ण दर्शन-परंपरा दो हिस्सों में बँट गई। वेदों पर विश्वास करनेवाले, उन्हें स्वतः प्रामाण्य एवं अपौरुषेय माननेवाले आस्तिक कहलाए, जब कि उन्हें मानवकृत और अप्रामाण्य माननेवाली धारा को नास्तिक और भौतिकवादी कहा गया। धीरे-धीरे नास्तिक विचारकों का चिंतन इतना प्रखर एवं और बहुव्यापी होता गया कि उसे न स्वीकारना ही आस्थावादियों के लिए चुनौती बन गया।

धर्म के अनुसार जीवन को मर्यादित करने की कोशिश स्मृतियों में दिखाई पड़ती है। उन्हें धर्म के संस्थानीकरण का पक्ष लेते, उसे वैध ठहरानेवाले आरंभिक ग्रंथ कहा जा सकता है। स्मृतियों तथा ब्राह्मण ग्रंथों के मुख्य रचयिता ब्राह्मण थे। इन ग्रंथों द्वारा शीर्षस्थ ब्राह्मण वर्ग ने अपने वर्गीय हितों को सुरक्षित करने की कोशिश की थी। उन दिनों भी समाज पर ब्राह्मणों, पुरोहितों का प्रभाव इतना गहरा था कि उसकी अवहेलना कर पाना राजाओं के लिए भी असंभव था। लेकिन धर्म को केंद्र बनाकर वर्णाश्रम व्यवस्था का जो ढाँचा खड़ा किया गया था, उसमें ऊपर के स्तर पर भी एका न था। यज्ञ एवं पुरोहिताई के अन्य कार्यों के आधार पर ब्राह्मणों की अलग-अलग उपजातियाँ बनी हुई थीं। क्षुद्र स्वार्थ के आधार पर वे बुरी तरह विभाजित थीं। पुरोहिताई में लगे ब्राह्मण प्रायः वे लोग थे, जो ज्ञान की मौलिक और अन्वेषणकारी परंपरा से कट चुके थे। उन्होंने समाज में परजीवी व्यवस्था को जन्म दिया था। ज्ञान की खोज को जीवन का मूल उद्देश्य माननेवाला वर्ग प्रायः अब भी यायावर जीवन जीता था। जहाँ पुरोहितकर्म पर ब्राह्मणवर्ग का अधिकार था, वहीं यायावर जिज्ञासुओं में सभी वर्गों के मनस्वी सम्मिलित थे। वे सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रलोभन से परे, सीधे प्रकृति के सान्निध्य में चिंतन-मनन में लीन रहते थे। समाज में उनका मान-सम्मान था। उनके प्रभामंडल के आगे पुरोहित वर्ग भी श्रद्धानत रहता था। राजाओं की ओर से सुरक्षा के प्रबंध के साथ आश्रमों को जब-तब सुविधाएँ भी मुहैया कराई जाती थीं। तथापि समाज पर वास्तविक नियंत्रण उस पुरोहित वर्ग का ही था, जो प्रकट रूप में ज्ञान-परंपरा से कट चुका था तथा जैसे भी संभव हो, अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने में ही जीवन की सिद्धि मानता था। राष्ट्र की एकता अथवा बड़े राज्यों की स्थापना जैसा कोई सपना उसके आगे न था।

भारत में चाणक्य और पश्चिम में अरस्तू के आने तक प्रायः यही हालात बने रहे। राजनीतिशास्त्र के ये दोनों महापंडित दुनिया के अलग-अलग देशों में करीब एक ही कालखंड में जनमे। दोनों बड़े राज्यों के समर्थक थे। ध्येय की प्राप्ति के लिए अरस्तू ने सिंकदर को अपना सहायक बनाया और चाणक्य ने चंद्रगुप्त को। इनमें अरस्तू का साम्राज्यवादी अभियान किंचित पहले आरंभ हुआ था। चाणक्य और अरस्तू के सोच में जमीन-आसमान का अंतर था। सुकरात की ज्ञान-परंपरा से जुड़ा अरस्तू ‘शुभत्व’ की प्राप्ति को जीवन का लक्ष्य मानता था। सत्ता का स्वरूप कैसा हो, इससे उसे कोई मतलब न था। उसकी निगाह में वही शासन प्रणाली श्रेयस्कर थी, जो जीवन में ‘शुभ’ की स्थापना करती हो। वह भले व्यक्ति और श्रेष्ठ नागरिक को परस्पर पर्याय मानता था—‘भले आदमी के सदगुण तथा श्रेष्ठ राष्ट्र के नागरिक के सदगुण से अवश्यमेव अभिन्न हैं….जिन उपायों और साधनों से मनुष्य नेक बन जाता है, उन्हीं उपायों एवं साधनों से वह श्रेष्ठ राष्ट्र की भी स्थापना करेगा। फिर चाहे उसका शासन श्रेष्ठ जनतंत्र पद्धतिवाला हो अथवा राजकीय पद्धतिवाला।’ हालाँकि इस सोच और सिकंदर की महत्त्वाकांक्षाओं को समर्थन दिए जाने में कोई साम्य न था। चाणक्य का विश्वास सुदृढ़ राजतंत्र की स्थापना में था। इस लक्ष्य को पाने के लिए साम-दाम-दंड भेद की किसी भी नीति को उसका समर्थन था। चंद्रगुप्त को भारत का एकक्षत्र सम्राट बनाने के लिए वह नंद के अमात्य राक्षस से भेंट में मिली विषकन्या को युद्ध में सहायक रहे सम्राट पर्वतक को भिजवा देता है, जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है। चंद्रगुप्त और सिकंदर में एक अंतर यह भी था कि सिकंदर मकदूनिया के सम्राट फिलिप की संतान था। राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएँ उसमें जन्मजात थीं, जबकि चंद्रगुप्त साधारण परिवार से आया था। बहरहाल, अरस्तू और चाणक्य दोनों को बड़े राज्यों की स्थापना में सफलता मिली। लेकिन बड़े राज्यों की स्थापना तथा उनके वैभव को बनाए रखना अलग-अलग बातें थीं। बड़े राज्यों में लोकहित के मुद्दों पर जनता के एकजुट हो जाने के भी खतरे थे। समाज में शांति-व्यवस्था एवं अनुशासन को बनाए रखने की चुनौती अलग से थी। इसके लिए जहाँ अरस्तू राजा से शुभत्व की स्थापना तथा कल्याण के न्याय-पूर्ण विभाजन को लक्ष्य मान कर काम करने की सलाह देता है. वहीं चाणक्य उत्तरदायी, नीति-कुशल और शक्तिशाली राजसत्ता के माध्यम से राज्य की एकता-अखंडता, शक्ति और समृद्धि को बनाए रखने का समर्थक था। दूसरे शब्दों में अरस्तू के लिए जनतंत्र कम से कम एक संभावना थी, जबकि चाणक्य के राजदर्शन में उसके लिए कोई स्थान न था।

‘शुभत्व’ की स्थापना जैसा नैतिक लक्ष्य व्यावहारिक दृष्टि में संभव न था। कोरी कूटनीति से सत्ता तो हथियाई जा सकती थी। इसके जरिए राजनीतिक दुश्मनों को ठिकाने भी लगाया जा सकता था, लेकिन महाशक्तिशाली सम्राट भी संगठित जनशक्ति से भय खाते थे. जानते थे कि संगठित जनाक्रोश से बचना कठिन और कभी-कभी तो असंभव हो जाता है। इस भय से मुक्ति में धर्म राजसत्ता का मददगार बना। वह इहलौकिक दुखों के सापेक्ष पारलौकिक सुखों को लाकर सामाजिक असंतोष कम करने तथा इसके माध्यम से जीवन में आभासी संतुलन बनाए रखने में सक्षम था। धर्म के इसी गुण के कारण धर्मसत्ता और राजसत्ता का गठजोड़ हुआ। स्वार्थी पुरोहित वर्ग द्वारा परंपरा और संस्कृति के नाम पर तरह-तरह के कर्मकांड व्यक्ति पर थोपे जाने लगे। स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य की कल्पनाएँ जीवनदर्शन की तरह पेश की जाने लगीं। परिणामस्वरूप आदमी का ध्यान इहलौकिक समस्याओं तथा उनके मूल कारणों से हटने लगा। ‘कोउ नृप होय हमें का हानी’ की भावना लोकचरित्र का हिस्सा बनती गई। समाज का बड़ा वर्ग राजनीति की ओर से विमुख हुआ तो वह अल्पसंख्यक अभिजन समूहों का कारोबार बनकर रह गई, जो अपने स्वार्थ के लिए बहुसंख्यक समूहों को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर स्वार्थ-सिद्धि करने में निपुण थे। वैदिक कर्मकांड और टोटमवाद की आलोचना करने वाले जैन और बौद्ध आचार्य भी धर्म और राजनीति के गठजोड़ के दुरुपयोग की कल्पना न कर सके। राजपरिवारों से आए महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध दोनों को अपने मत के प्रचार-प्रसार हेतु राजकुलों की षरण लेना सबसे आसान और प्रभावी तरीका जान पड़ा। गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी के रहते तो धर्म-दर्शन का दुरुपयोग संभव न था, लेकिन एक बार धर्म ने राजनीति को अपने लाभ का ‘औजार’ बनाने की कोशिश की तो बाद में राजनीति ने उसकी कीमत वसूलनी ही थी। धर्म और राजनीति के गठजोड़ ने स्थितियों की स्वार्थपूर्ण और मनमानी व्याख्या को जन्म दिया। देवासुर संग्राम की भांति महाभारत भी भाइयों के बीच राज्य के बंटवारे की लड़ाई थी। मगर दोनों संग्रामों की व्याख्या राजनीति की सामान्य घटना के बजाय धर्मयुद्ध के रूप में की गई। यह काम सिर्फ भारत नहीं, दुनिया के सभी देशों में हुआ।

बाइबिल, कुरआन, गुरुग्रंथ साहिब अथवा पारसियों के धर्मग्रंथ जिंद अवेस्ता की भाँति वेद ‘हिंदू धर्म’ का आधार-ग्रंथ रहे होते तो उससे हिंदू धर्म का उद्धार ही हुआ होता। क्योंकि वेदों में बहुरंगी संस्कृति से जनमा बहुदेववाद है। उनमें इतिहास तत्व भी है, जो तत्कालीन समाज को समझने में हमारी मदद कर सकता है। इस तरह दर्शन और जीवन-पद्धति के साथ इतिहास-दृष्टि भी बनी रहती। वह बिखरे समाज को एक सूत्र में बांधने और भावी पीढ़ियों को पे्ररणा देने के काम आती। जैसा यूनान में हुआ। होमर की ‘इलियड’ और ‘ओडिसी’ पुराकथाएं हैं, इसके बावजूद यूनानवासियों को भरोसा रहा है कि वे उनके जीवंत इतिहास का हिस्सा हैं। इसलिए सभ्यताओं के मिट जाने के बाद भी मध्यकाल में इटली जैसे देश अतीत की स्मृतियों की सहारे उठकर पुनः खड़े हो जाते हैं। कहने को तो भारत में भी पुराणकथाएं हैं। लेकिन उनकी रचना ऐसे की गई है कि वे मनुष्य से ज्यादा देवताओं का इतिहास लगती हैं। इतिहास का असली काम, प्रेरणा जगाने का काम-उनसे नहीं सधता। ऋग्वेद की आरंभिक ऋचाओं की भाषा लोकभाषा के करीब है। वह बाद में प्रक्षेपित ऋचाओं की भाषा अपेक्षाकृत परिष्कृत है। होना यह चाहिए था कि समय के साथ-साथ उनकी भाषा का सरलीकरण होता। वह लोक के कुछ और करीब आती। लेकिन बजाय उन्हें अर्थ-विस्तार देने के उनकी भाषा को और अधिक रूढ़ बनाने पर जोर दिया गया। यायावर वैदिक मुनियों की ज्ञान-चेतना कर्मकांडों में उलझने लगी। इस कारण वैदिक संहिताओं का विरोध स्वाभाविक था। श्रमण एवं आजीवक लोग यज्ञादि कर्मकांडों में दी जानेवाली बलि के लिए पुरोहित वर्ग की खूब खिल्ली उड़ाते। वैदिक कर्मकांडों के नाम पर बढ़ती हिंसा की प्रतिक्रियास्वरूप जैन और बौद्ध दर्शनों का विकास हुआ। न्याय, वैशेषिक और सांख्य जैसे तर्काधारित दर्शन अस्तित्व में आए। अपनी-अपनी तरह से ये सभी पुरोहितवादी प्रवृत्तियों तथा कर्मकांड चोट करते थे। दर्शन की ये वैकल्पिक धाराएँ इतनी विकसीं कि वैदिक धर्म को शताब्दियाँ नेपथ्य में गुजारनी पड़ीं। उसकी वापसी अंततः विरोध में जनमें जैन, बौद्ध, चार्वाक आदि धर्म-दर्शनों को भारत की दर्शन-परंपरा का अभिन्न हिस्सा मान लेने के बाद ही संभव हो सकी। मध्य काल तक हिंदू धर्म भी नाम प्रचलन में आ चुका था। लगभग उसी दौरान धर्म-दर्शन के क्षेत्र में सबसे सार्थक हस्तक्षेप शंकराचार्य की ओर से हुआ। उन्होंने अपना आचार्यत्व मीमांसक मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित करने के बाद स्थापित किया था। जैसे कोई विजेता हाथ आए प्रदेशों को छोड़ नहीं देता, उन्हें अपने अधीन कर, वहां उपनिवेश स्थापित कर लेता है, शंकराचार्य ने भी तर्क-वितर्क की प्राचीन दर्शन परंपरा को लौटाने के लिए ‘वेदांत’ जैसा नाम तो चुना, लेकिन उसकी जमीन मीमांसा की ही रही। इसलिए स्वयं यायावर रहते हुए भी उन्होंने मठों की स्थापना की। सृष्टि के आदि कारण के रूप में बृह्म की कल्पना की तो माया को भी बीच में ले आए। शंकर को अल्पायु मिली। उनके जाते ही ज्ञान और दर्शन के अन्वेषण के लिए स्थापित चातुर्मठ ‘मायावाद’ का शिकार होते गए।

कुछ लोगों ने गीता को हिंदू धर्म का आधार-ग्रंथ बनाने की कोशिशें कीं। थोड़ी सफलता भी मिली। पर एक तो गीता सर्वथा मौलिक ग्रंथ नहीं है। वह महाभारत का अध्याय-मात्र है। उसके अनेक मंत्र कठोपनिषद से आए हैं। दूसरे, सृष्टि के विकास को ले कर उसका दृष्टिकोण सांख्य दर्शन से प्रेरित है, जिसका द्वैतवादी रवैया बहुतों को नापसंद रहा है। दर्शन के रूप में सांख्य शंकराचार्य के आने के बाद अपनी आभा खो चुका था। तत्कालीन दर्शन-परंपरा में वेदांत को प्रमुख दर्शन का स्थान प्राप्त था। ब्रह्मसूत्र के अलावा श्वेताश्वर, ईश्वास्य आदि उपनिषदें वेदांत की ज्ञान-मार्गी धारा के समर्थन में थीं। फिर गीता को उपनिषदों से अधिक लोकप्रियता मिलने का कारण? दरअसल उत्तर मध्य काल में भक्ति आंदोलन में नया मोड़ आया था, जिससे निराकार भक्ति साकार की अभ्यर्थना में ढलने लगी थी। यह सर्वज्ञात तथ्य है कि निराकार भक्ति जाति-आधार पर बंटे समाज में उन लोगों की खोज थी, जिनके लिए वेद-पुराण निषिद्ध थे। मंदिर की सीढ़ियां जो चढ़ नहीं सकते थे। ऐसे लोगों में या तो शूद्र थे; अथवा उनसे भी नीचे के अंतज्य, जो शताब्दियों से जातीय उत्पीड़न का शिकार रहे थे। निराकार भक्ति, कर्मकांड की जगह रूढ़ियां और ज्ञान की स्थान पर कोरा वितंडा रच रहे पुरोहित वर्ग के विरुद्ध ऐसे ही लोगों का पहला सशक्त सामाजिक-सांस्कृतिक विद्रोह था—‘रखे रहो तुम अपने मंदिर, वेद-पुरान। हमारा देवता, सच्चा देवता तो हमारे हृदय में है।’

यह अलख जगानेवाले संतकवि थे, जो समाज के निचले वर्गों से आए थे। शताब्दियों से असमानता और उत्पीड़न की पीड़ा को झेलते हुए। सूफी और वेदांत से प्रभावित इन संत कवियों ने निर्गुण आधार की परिकल्पना की; और एक निर्मल-निराकार-निर्विकल्प-अनादि और अनंत परमात्मा की भक्ति में खुद को तल्लीन कर दिया। उन्होंने न केवल धर्म के नाम पर थोपे जा रहे कर्मकांडों को चुनौती दी, बल्कि वर्गभेद की तीखी आलोचना करते हुए समरस समाज की स्थापना हेतु गीत भी रचे। एक चेतना थी, जो देखते ही देखते क्रांति-लहर में बदल गई। कभी-कभी निचले स्तर के लोग भी शिखरस्थ शक्तियों को राह दिखाने लगते हैं। भक्ति आंदोलन के दौरान भी यही हुआ था। उसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि ऊपरले क्रम की जातियां जो अपना त्राण मूर्ति-पूजा और कर्मकांड में खोजती थीं, वे भी भक्तिमार्ग की ओर आकर्षित होने लगीं। लेकिन शिखरस्थ जातियों के लोग अपने साथ अपने जातीय संस्कार भी लाए थे। उन्होंने धीरे-धीरे निराकार बृह्म का मूर्तिकरण करना आरंभ कर दिया। कबीर और रविदास जैसे संतकवियों की जगह तुलसी और सूर जैसे भक्त-कवियों ने ले ली। इस घटना ने भक्ति आंदोलन की रही-सही क्रांतिकारिता को भी बिखेरने का काम किया। भक्ति आंदोलन की लोकमानस में स्वीकार्यता देखते हुए उन्होंने अपने आराध्य का मूर्तिकरण करना आरंभ किया। भक्ति और समर्पण के नाम पर अपने आराध्य का नख-शिख गुणगान करते हुए उन्होंने अपनी सारी प्रतिभा उसके श्रंगारिक वर्णन को रसमय और विलासितापूर्ण बनाने पर लगा दी। तुलसी जैसे कवियों संतकवियों का दास्य-भाव धार्मिक पाखंडियों के लिए यथास्थिति बनाए रखने में सहायक सिद्ध हुआ। भक्ति आंदोलन के दौरान निरंतर आलोचनाओं के कारण अपनी आब खो चुके इंद्रादि वैदिक देवताओं के स्थान पर कृष्ण और राम को प्रमुख देवता का दर्जा मिला। गीता का नाम कृष्ण से जुड़ा था। इस कारण ग्रंथ के रूप में उसकी लोक-प्रतिष्ठा बढ़ने लगी। उल्लेखनीय है कि गीता के पास हिंदू दर्शन का आधारग्रंथ बनने का अवसर बौद्ध धर्म के पराभव के दिनों में भी आया था, मगर उस समय हिंदू धर्म खुद छोटे-छोटे संप्रदायों में बंटा हुआ था। उस समय भी यह ऐसा धर्म था, जिसकी विविध मान्यताएँ, अनेक पूजा-पद्धतियाँ तथा बहुसंख्यक देवता थे। यहाँ तक कि जनमानस को अपनी सुविधानुसार नए देवता गढ़ने, नई पूजा-पद्धति अपनाने की भी छूट थी। कालांतर में प्रेम, स्वास्थ्य, परीक्षा में उत्तीर्ण होना, संतान-सुख आदि के लिए भी कृपादाता देवताओं का गठन किया जाने लगा। लोकमानस द्वारा गढ़े गए ये देवता अपने भक्तों की आर्थिक हैसियत के अनुसार उनकी तरह खुले में रह सकते थे। घाम, वर्षा, शीत आदि सह सकते थे। पुरोहितों के लिए ये उनके जेबी देवताओं जैसे थे। अशिक्षित जनसमाज के बीच उनकी मनमानी व्याख्याएँ संभव थीं।

अद्वैतवाद से अवतारवाद की परिकल्पना को जन्म मिला था। उस समय हिंदू धर्म में उभर रही दो प्रमुख धाराओं में समन्वयीकरण की कोशिशों के बीच कृष्ण और राम दोनों को विष्णु का अवतार मान लिया गया। उस समय तक वर्णाश्रम व्यवस्था हिंदू धर्म पर छा चुकी थी। देश पर विदेशियों का अधिपत्य कायम था। असुरक्षाबोध से आहत पुरोहितवर्ग संकीर्ण मानसिकता को अपना रहा था, जो हिंदू धर्म की अपनी ही मान्यताओं के विपरीत थी। कृष्ण के साथ गीता का नाम जुड़ा था। इसलिए समाज पर उनका प्रभाव अधिक था। लेकिन कृष्ण द्वारा गोपियों के साथ रमण करना, परंपरारोधी होना। आवश्यकता पड़ने पर इंद्र को चुनौती देना तथा शास्त्रीय व्यवस्थाओं में ‘उपयोगिता के सिद्धांत’ के आधार पर छूट लेना, उस समय की स्थापित मान्यताओं को ललकारने जैसा था। वर्णाश्रम धर्म के प्रवक्ता पुरोहितों को यह स्वीकार न था। उसके आदर्श मर्यादाबद्ध राम थे, जो वशिष्ट और विश्वामित्र की गुरुता के आगे नत रहकर ब्राह्मणों के श्रेष्ठत्व को स्वीकारते हैं। उनके प्रभाव से रामकथा को प्रतिष्ठा मिलने लगी। फिर भी कृष्ण कथा की बहु-स्वीकार्यता बनी रही तो उसका कारण उनकी कथित लीलाओं में लोकलुभावन तत्व थे, उनमें रामकथा की अपेक्षा अधिक नाटकीयता थी। कृष्ण-कथा के लोकलुभावन तत्व कालांतर में साकार भक्ति आंदोलन की नींव बने। भक्ति के बहाने बहुसंख्यक वर्ग को सत्ता की स्पर्धा से परे रखा जाने लगा। वह धर्म का राजनीतिक उपयोग था, जो उनके कट्टरपंथी मंसूबों को साधने में सहायक था। इसके बावजूद ब्राह्मण वर्ग का आदर्श रामकथा ही रही, जिसमें वर्णाश्रम व्यवस्था को आदर्श के रूप में स्थापित करने की कोशिश की गई थी। तुलसी के राम इसलिए ‘पुरुषोत्तम’ हैं, क्योंकि वे वर्ण-व्यवस्था का पूरी निष्ठा से पालन करते हैं। आगे चलकर हालाँकि राम और कृष्ण को बराबर का दर्जा दिया गया, दोनों एक ही शक्ति विष्णु के अवतार भी कहलाए। लेकिन पहला अवतार बता कर राम को कृष्ण पर वरीयता दी गई। रामचरितमानस पाँचवा वेद कहलाने लगा तथा गीता की महत्ता अदालतों में उसके नाम की शपथ उठाने, लाल कपड़े में बाँध कर पूजा के आले में सजाने तक सीमित हो कर रह गई। हमारे कानूनविदों को यह समझ न आया कि अशिक्षित लोग जिनके लिए गीता को समझना तो दूर, सुनना तक नसीब न हो, उन्हें गीता की शपथ दिलाने का भला क्या औचित्य हो सकता है! यह अंध-आस्था का वैधानिकीकरण था। जनसाधारण गीता से अधिक गीता महात्म्य पढ़कर मन को तसल्ली देता रहा, जिसे चालबाज पंडितों ने अपनी ओर से जोड़ दिया था। उसके आधार पर एक ऐसा वर्ग भी पनपा जो गीता के पाठों को नियमित रटने, उसके आधार पर कर्मकांडों की स्वार्थानुकूल व्याख्या को ही बुद्धि-विवेक का पर्याय मानता था।

ज्ञातव्य है कि ऋग्वेद में कृष्ण को गौ-पालक यदुओं का नेता बताया गया है। इंद्र से परास्त होने के बाद वह कबीला जिस प्रकार उसका उल्लेख वेदों में हुआ है, उत्तर-पश्चिम भारत की ओर प्रस्थान कर गया था, जहां उसने गंगा-यमुना सभ्यता की नीव डाली। उससे लगता है कि वह आर्यों की विस्तारवादी नीति का विरोधी था। इंद्र से उसके संघर्ष का उल्लेख भी ऋग्वेद में है। भारत में आर्यों का आगमन चरणबद्ध घटना है। बाद में आए आर्यों को न केवल यहाँ के मूल निवासी द्रविड़ों से संघर्ष करना पड़ा था, अपितु उन आर्य-दलों से भी जूझना पड़ता था जो अपेक्षाकृत उनसे पहले पहुँचकर यहां की संस्कृति के रंग में रँग चुके थे। ऋग्वेद में राजा सुदास और दस राजाओं के संघर्ष का उल्लेख है। उस प्रागैतिहासिक युद्ध में कृष्ण के यदु नामक कबीले ने सुदास विरोधी सेनाओं का साथ दिया था। उसकी अवशेष स्मृति को सहेजने की कोशिश महाभारत के नींव-ग्रंथ ‘जय’ में दिखाई पड़ती है। आज महाभारत तथा भागवत आदि ग्रंथों में जो कृष्ण-कथा उपलब्ध है, वह वर्णाश्रम संस्कृति से समझौता कर चुके कृष्ण की कहानी है। साफ है कि समन्वय की प्रक्रिया के दौरान, दूसरे सांस्कृतिक तत्वों की भाँति कृष्ण को भी आर्य संस्कृति में शामिल कर लिया गया। अंधास्था को समाज में प्रचलित करने की चतुराई कृष्ण और राम के काल-निर्धारण में भी दिखाई पड़ती है। हिंदू परंपरा में राम को विष्णु का पहला तथा कृष्ण को बाद का अवतार माना गया है। उसके अनुसार राम त्रेता और कृष्ण द्वापर में जनमे। सवाल है कि कृष्ण का उल्लेख यदि ऋग्वेद (80/85/13-15) में है तो उनके पूर्वावतार राम का क्यों नहीं है? इस पर पर्दा डालने के लिए कुछ विद्वान उसको कृष्णासुर का नाम देते हैं। लेकिन यदुओं का नेता और गो-पालक होना, इंद्र से संघर्ष उन्हें महाभारत का नायक कृष्ण सिद्ध करता है। द्वापर (दूसरा) और त्रेता (तीसरा) की अर्थसंगति, महाभारत की रामायण से प्राचीनता कृष्ण को राम का पूर्ववर्ती सिद्ध करती हैं। कृष्ण-युगीन अर्थव्यवस्था में पशुओं का महत्त्व कृषि से अधिक है। इंद्र से उनका टकराव भी पशु-संपदा की सुरक्षा के लिए होता है। गोकुल की संस्कृति पर कबीलाई समूह की छाप है, जिसमें मुखिया समूह का कर्ताधर्ता होता है। वहाँ वर्ण-विभाजन उतना प्रबल नहीं है। ये सब कारण कृष्ण को राम से प्राचीन ठहराते हैं।

प्रश्न उठता है कि कृष्ण यदि राम से पहले जनमे तो उन्हें बाद का सिद्ध करने का क्या औचित्य हो सकता है? ऋग्वेद का कृष्ण गोपालकों का नेता है, जो संभवतः यहाँ के आदि निवासियों में से थे; अथवा उन आर्यों के वंशज थे, जिनका भारत आगमन राम से पहले प्रमाणित है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में काफी पहले पहुँचकर यहाँ की संस्कृति में रम चुका था। बाद में आए आर्य कृषि कला में अपेक्षाकृत निपुण थे। कालांतर में सांस्कृतिक समन्वय की नीति में कृष्ण कथा को महाभारत में स्थान दिया गया तथा वर्णाश्रम व्यवस्था से उनकी सहमति दर्शाने के लिए गीता के रूप में प्रक्षिप्त अंश उसमें जोड़ा गया। कृष्ण की गोकुल से मथुरा की यात्रा असल में अलग-अलग युगों में दो भिन्न संस्कृतियों में समन्वय की संभावनाएँ तलाशती, उनके बीच की यात्रा है। आज का महाभारत जिस कालखंड की रचना है, उस समय तक वैदिक संस्कृति गंगा-यमुना के दोआब में एक परिपक्व संस्कृति के रूप में पनप चुकी थी, जब कि मूल ग्रंथ संभवतः राजा सुदास और दस राजाओं के संघर्ष की स्मृतियों को सहेजने की कोशिश में रचा गया था।

अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, हिंदुओं के आधारग्रंथ की मान्यता मिली ‘रामचरितमानस’ को। यह प्राचीन ग्रीक कथाओं से प्रभावित महाकाव्य ‘रामायण’ का वर्णवादी संस्करण था। रामचरितमानस के बाद ही राम को जनमानस में देवता की जगह मिलनी शुरू हुई। राम की ऐतिहासिकता को दर्शाने के लिए उन्हें विष्णु का अवतार बताया गया, जिन्हें वैदिक देवताओं की गिरती छवि के बाद पालनहारी देवता का स्थान मिला था। मनु के बाद वर्णाश्रम धर्म के प्रखरतम समर्थक तुलसी को महाकवि मान लिया गया। पत्नी द्वारा लांछित आत्महीनता के मारे तुलसी आस्था को मानवीय विवेक से उच्चतर स्थान देते हैं—‘कल्प-कल्प भरि एक-एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका।।’ —जो लोग वेदों की निंदा तर्क द्वारा करते हैं, वे एक-एक कल्प तक सभी नरकों में रहते हैं। यह तुलसी के सामंती संस्कार ही हैं जो वर्णव्यवस्था के अंध-समर्थक राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहलवा जाते हैं जब कि उस शब्दाडंबर के बाहर, सिवाय वर्ग-संस्कृति के समर्थन के वे कहीं मर्यादित नहीं हैं। वे बाली का वृक्ष की ओट लेकर वध करते हैं। निर्दोष गर्भवती सीता को लोकलाज के बहाने घर से निकाल देते हैं। वेदपाठी निर्दोष शूद्रक को मृत्युदंड देते हैं। ये बातें विचारशील हिंदुओं को परेशान करती थीं। इसका कारण हिंदू धर्म के अपने अंतर्विरोध भी थे। नई शिक्षा के आलोक में हिंदुओं का वह वर्ग जिसे वर्ण व्यवस्था में उत्पीड़ित होना पड़ा था, ऐसे किसी ग्रंथ को मान्यता देने को तैयार न था, जो उसके शोषण को शास्त्रीय वैधता प्रदान करता हो। इसलिए जैसे-जैसे हिंदू समाज में चेतना व्यापी, लोग उससे छिटकते चले गए। विशेष रूप से वह वर्ग जिसे वर्णाश्रम धर्म के कारण उपेक्षा और उत्पीड़न सहना पड़ा था, रामचरितमानस, मनुस्मृति जैसे ग्रंथों को संदेह की दृष्टि से देखता रहा। परिणाम यह हुआ कि पुरोहितों द्वारा रामचरितमानस को पाँचवा वेद घोषित करने के बावजूद उसे हिंदू धर्म के आधार ग्रंथ की मान्यता हासिल न हो सकी।

चलते-चलते एक और सवाल कि धर्म, जो व्यक्तिगत आस्था और विश्वास का विषय है, वह एकाएक ताकत या ताकतवर का संबल कैसे बन जाता है? इसको समझ पाना समाजविज्ञानियों के आगे बड़ी चुनौती रही है। उल्लेखनीय है कि धर्म का राजनीतिकरण और साम्राज्यवाद का उदय दोनों सहसंबद्ध घटनाएँ हैं। राजाओं के साम्राज्यवादी मंसूबे साधने में धर्म उनका कदम-कदम पर सहायक बना है। वह समाज के बहुसंख्यक वर्ग को शक्ति एवं संसाधनों से काट कर उन्हें परावलंबी बना देता था। चूँकि राज्य की अपनी व्यस्तताएँ थीं, इसलिए समाज में जुड़े मामलों की देखरेख की जिम्मेदारी पुरोहित वर्ग को सौंपी जाने लगी। इससे धर्म और राजनीति के संबंध की शुरुआत हुई। राजा धर्म की ताकत का इस्तेमाल करता था। राज्य का वह आरंभिक रूप था, जिसे धर्म के ठेकेदारों ने बड़ी चालाकी से कब्जाया हुआ था। उस समय चूँकि राजनीतिक विमर्श में गिने-चुने लोग सम्मिलित होते थे, जिन्हें धर्म के साथ-साथ अन्य मामलों की शिक्षा दी जाती थी, इसलिए धर्म उन दिनों अपेक्षाकृत कम प्रभावी था। धर्म की जिहादी ताकत का उपयोग सैनिकों को युद्धोन्मत्त बनाने के लिए तो हुआ, किंतु उसके आधार पर स्वतंत्र राज्य शायद ही कभी बन पाए। कारण साफ है। सत्तालोलुपों को केवल धर्म की संगठनकारी शक्ति से लगाव होता है, उन नैतिक प्रेरणाओं पर नहीं जिन्हें लोकमानस में अपनी पहचान बनाने के लिए धर्म अपने साथ जोड़ लेता है। साम्राज्यवाद के दौर में जितने भी राज्य बने, उनके पीछे राजाओं की निजी महत्त्वाकांक्षाएँ थीं। हालाँकि सत्ता प्राप्ति के बाद अपनी ताकत को मजबूत करने के लिए उन्होंने धर्म का भी सहारा लिया। इसके लिए धर्मांतरण को भी राजनीतिक हथियार की तरह प्रयोग किया गया। धर्मांतरित होकर आनेवाले दो प्रकार के लोग थे। एक वे जो जातीय उत्पीड़न से तंग आ कर अपने मान-सम्मान और अस्मिता की रक्षा के लिए नए धर्म की शरण में जाने को मजबूर हुए थे। दूसरे वे जो कतिपय सुविधाभोगी समाज से आए थे और अपने सामाजिक स्तर को बनाने, राज्य से निकटता का लाभ उठाने के लिए धर्मांतरित हो कर दूसरे धर्म में दाखिल हुए थे। इन सभी के विचार धर्म के विस्तार के लिए उपयोग किए गए। धर्म विशेष की सैद्धांतिकी से प्रभावित हो कर धर्मांतरण की घटनाएँ बहुत विरल होती हैं। जो लोग स्वार्थ के वशीभूत हो कर धर्मांतरण को अपनाते हैं, वे उसका उपयोग शिखर तक पहुँचानेवाली सीढ़ी के रूप में करते हैं। उनकी कोशिश धर्म को रूढ़ बना देने की होती है, ताकि उसके माध्यम से आमजन के विवेक को कुंठित कर, उसके व्यवहार को भीड़ की मानसिकता से जोड़ सकें।

इधर हिंदू धर्म को ‘जीवनपद्धति’ कहा जाने लगा है। ‘धर्म तो सनातन है, हमेशा से चला आ रहा है, उसका न आदि है न अंत।’—सनातन धर्म की व्याख्या कुछ इसी तरह की जाती है। प्रमाण के लिए वे वेदों और उपनिषदों का हवाला देने लगते हैं, जिन्हें उन्होंने शायद ही कभी पढ़ा हो। वे और साथ में दूसरे धर्मावलंबी भूल जाते हैं कि खरबों बर्ष पुराने ब्रह्मांड में धरती की उम्र कुछ अरब वर्ष है। जब कि इस धरती पर मनुष्य नामक प्राणी की उत्पत्ति मात्र 2,00,000 वर्ष पुरानी है। दूसरी ओर विश्व की प्राचीनतम सभ्यता मात्र 12,000 वर्ष पुरानी घटना है। अब मानव-पीढ़ी की औसत आयु यदि 25 वर्ष मान ली जाए तो मनुष्य के आदि पुरखे से आज तक लगभग 8000 पीढ़ियाँ गुजर चुकी हैं। जब कि मनुष्य की सभ्य पीढ़ी का आरंभिक सदस्य आज से 480वीं पुरानी पीढ़ी के रूप में जनमा होगा। इस आधार पर संगठित धर्म की शुरुआत; यानी वर्तमान देवताओं का सृजन आज से मात्र 80-90वीं पीढ़ी की मानसिक उड़ान थी। स्पष्ट है कि मनुष्य 8000 पीढ़ियों में से 7100 से अधिक पीढ़ियों ने, बहुत लंबा समय देवताओं की कृपा के बगैर, प्रकृति के साथ जूझते, संघर्ष करते तथा उसकी कृपाओं का आनंद लेते हुए बिताया है। सभ्यता के आरंभ के बाद से ही हर समूह-समाज ने अपने-अपने देवता गढ़े हैं, जो आम इन्सानों की भाँति मरते-खपते रहे हैं। भारतीय वाङ्मय में ऐसा बहुत कुछ है, जो यह बताता है कि वैदिक ऋषियों के देवता आसमान से नहीं, इसी जमीन से उपजे थे।

‘हिंदू धर्म वैज्ञानिक धर्म है’—यह निराधार तर्क नई पीढ़ी में धर्म की लोकप्रियता बनाए रखने के लिए दिया जाता है। मेरे विचार में धर्म की अवधारणा ही अवैज्ञानिक है। यह कैसी वैज्ञानिकता है जिसमें धार्मिक कर्मकांडों का निष्पादन किसी खास वर्ग, मुख्यतः ब्राह्मणों तक सीमित हो? दरअसल जो यह दावा करते हैं, वे धर्म और विज्ञान के अंतर को पहचानते ही नहीं हैं। विज्ञान वास्तव में चीजों को परखने की एक पद्धति है। उसका जन्म संदेह के साथ होता है और जब तक विश्वास करने योग्य पर्याप्त आधार नहीं मिल जाता, तब तक शंका बनी ही रहती है। ‘संदेह के द्वारा हम जाँच-पड़ताल तक पहुँचते हैं और जाँच-पड़ताल हमें सच तक ले जाती है।’—पीटर अबेलार्ड के ये शब्द विज्ञान को समझने में हमारे मददगार हो सकते हैं। इसके विपरीत धर्म आस्था और कदाचित अंधविश्वास के बल पर फूलता-फलता है। हर धर्म अपने अनुयायियों से अपेक्षा रखता है कि वे संदेह को त्याग कर पूरे आस्था-भाव से उसकी शरणागत हों। स्वार्थ-सिद्धि के लिए वह मानवीय विवेकशीलता को, जो मनुष्य होने का प्रमुख लक्षण है, किनारे कर देता है। किसी धार्मिक प्रवचन के दौरान उपस्थित भीड़ का आचरण बाड़े में कैद कर दी गई भेड़ों की तरह होता है, जो अपने ग्वाले द्वारा इधर से उधर हाँकी जाती हैं। जिन मनीषियों ने वैदिक ऋचाओं की रचना की थी, उन्होंने यह कभी नहीं सोचा था कि उनका उपयोग किसी धर्म या संपद्राय की गाड़ी चलाने के लिए किया जाएगा। अध्यात्म मनुष्य की बौद्धिक आकुलता की उपज था। उस जिज्ञासा की उपज था जो विराट, क्षण-क्षण परिवर्तनशील, विविध रूप-रंग-गुणवाली प्रकृति का सान्निध्य पा कर उसके मस्तिष्क में खलबली मचाने लगती थी। महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, डेमोक्रिटिस, सुकरात, कन्फ्युशियस, ताओ आदि जितने भी महान दार्शनिक हुए हैं, उनकी हरगिज यह मंशा नहीं थी कि अपने नाम से कोई नया धर्म या संप्रदाय स्थापित करें। गौतम बुद्ध ने तो अपनी मूर्तियाँ लगाने के लिए भी मना किया था। कन्फ्युशियस खुद को मामूली शिक्षक मानता था। सुकरात तो अपने अज्ञान का ज्ञान होने पर भी गर्व करता था। आजकल धर्म ‘न्यूनतम लागत और उच्चतम रिटर्न’ वाला सबसे भरोसेमंद कारोबार है, जिसमें घाटे की कोई संभावना नहीं। न उसका सेंसेक्स कभी नीचे आता है। आधुनिक बाबा माथे पर सोने का मुकुट लगा कर जनता के सामने आते हैं तथा उसकी भावनाओं का दोहन कर, धर्म का कारोबार चलाए रखते हैं। उन्हीं के बूते समाज में अंधास्था फलती-फूलती है और मानवीय विवेक का क्षरण होता है।

ओमप्रकाश कश्यप

बालशिक्षा एवं लोकतंत्रीय संस्कार

लोकतंत्र की सफलता का मूलाधार है कि लोग उसको जानें. उसे अपने आचरण का हिस्सा बनाएं. इसके लिए जरूरी है कि उन्हें उसके बारे में संपूर्ण जानकारी हो. नहीं है तो बताया जाए. बताने का काम सरकार का है. उन लोगों का है जो खुद को किसी न किसी रूप में देश और समाज के प्रति जिम्मेदार मानते हैं. शिक्षा का अनिवार्य कर्म होना चाहिए कि वह बच्चों के लोकतांत्रिक प्रबोधीकरण पर ध्यान दे. उन्हें स्कूल के दिनों में ही सिखाया जाना चाहिए कि लोकतंत्र ऊपर से थोपी गई व्यवस्था नहीं है. बल्कि यह तो व्यवस्था के नाम पर शासक थोपे जाने, सत्ताशिखर पर बैठकर मनमानी करने का विरोध है. यह व्यक्तिमात्र के विवेक का सार्वजनिकरण कर, उसे सामूहिक विवेक में ढालने की प्रणाली है. यही वह विधान है जिसको प्रबुद्ध नागरिक अपने कल्याण के लिए स्वेच्छाभाव से अपनाते हैं. जब उन्हें लगे कि सत्ताशिखर पर विराजमान लोग अपने रास्ते से भटके हुए हैं, सही काम नहीं कर पा रहे हैंतब बड़े बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से उन्हें अंगूठा भी दिखा देते हैं. लोगों की मर्जी से, उनके अनुशासन में जो सरकार बनती है, उसके लिए लोकेच्छा की अवहेलना करना संभव नहीं होता. इस तरह लोकतंत्र सरकार का सरकारीपन निचोड़कर उसे लोकानुशासन से बांध देने की व्यवस्था है. बच्चों को जान लाॅक के उन शब्दों के बारे में भी बताया जाना चाहिए जिनमें उसने कहा है

मनुष्य की नैसर्गिक स्वाधीनता के मायने हैं कि वह इस सृष्टि की किसी भी बलशाली शक्ति के नियंत्रण से बाहर है. वह किसी व्यक्ति के वैधानिक अथवा स्वयंघोषित अधिकार से भी सर्वथा मुक्त है. इनके बजाय मानवमात्र को केवल प्राकृतिक नियमों से अनुशासित होना चाहिए. समाज में मानवीय स्वाधीनता केवल और केवल ऐसी शक्ति से मर्यादित होनी चाहिए, जिसका गठन उसके सदस्यों ने परस्पर मिलबैठकर, आमसहमति और स्वेच्छा के आधार पर किया है.’

सामान्यवुद्धि धर्म को समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना का मूलाधार मानती है. यह जानते हुए कि उसका विकास के आधुनिक मापदंडों से कोई लेनादेना नहीं है, बच्चों को धर्म, जाति, पूजापाठ, देवीदेवता तथा कर्मकांडों के बारे में लगातार बताया जाता है. इसके परिणामस्वरूप घर में मातापिता को आरती करते देख अबोध बालक भी ‘जै’ करना सीख जाता है. पत्थर और कागज की मूर्तियों को देखकर वह हाथ जोड़ लेता है. मांबाप उसे देखकर प्रसन्न होते हैं. सोचते हैं कि बालक ठीक रास्ते पर है. पड़ोसी के सामने वे उसकी संस्कारशीलता की प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते. वे समझ नहीं पाते कि बालक का अपने परिवार और समाज से कटने का सिलसिला आरंभ हो चुका है. उसकी एकाकी यात्रा अनजाने ही आरंभ हो चुकी है. कारण साफ हैप्रत्येक धर्म व्यवहार में नैतिकता की बात करता है, संगठन की बात करता है, कल्याण की बात करता है. सबको साथ लेकर चलने की बात करता है. लेकिन जब वास्तविक फल की बात आती है. लक्ष्य की बात आती है, परिणाम से गुजरने की बात आती है तो वह प्राणी को अकेला छोड़ देता है. स्वर्ग के बहाने, जन्नत के बहाने, मोक्ष और कैवल्य के बहाने—उसकी रीतिनीति व्यक्ति को अंततः अकेला कर देने की होती है. मृत्युभय से जन्मा धर्म मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मुक्ति को मानता है. ईश्वरप्राप्ति को मानता है. कहता है कि मुक्ति के रास्ते पर, ईश्वरप्राप्ति के रास्ते पर अकेला ही बढ़ा जा सकता है….कि धर्म के उच्चतम सफर में प्रत्येक व्यक्ति अकेला होता है. चौबीस घंटे वह समझाता है कि अपने सिवाय हम जो कुछ देख रहे हैं, सब माया है, नश्वर है, भवप्रपंच है. यहां तक कि हमारे मातापिता, घरपरिवार में जीवन की कथित पवित्रतम यात्रा के दौरान कोई हमारा साथ देने वाला नहीं है. संबंधों का मोहजाल व्यक्ति को संसारचक्र में उलझाता है. लेकिन जिस मोक्ष के नाम पर इस खूबसूरत और सजीली दुनिया को माया, मिथ्या, प्रपंचादि कहकर तिरस्कार किया जाता है, उसकी वास्तविकता को लेकर बड़े से बड़ा भक्त भी तार्किक दावा नहीं कर पाता. इसके बावजूद उसका प्रलोभन इतना प्रबल कि व्यक्ति आजीवन उससे बाहर कुछ सोच ही नहीं पाता है. परिणामस्वरूप बालक जन्म से ही निराधार फंतासी की दुनिया में जीने लगता है, जो उसको पलायनवादी संस्कार देता है.

धर्म की नींव आस्था पर टिकी होती है, जो विवेकबुद्धि के ठहराव की अवस्था है. धर्म के व्यापार में लगी शक्तियां आस्था के नाम पर कुछ प्रतीक व्यक्ति के मानस पर आरोपित कर देती हैं. वे प्रतीक हालांकि पूरी तरह बाह्यारोपित होते हैं, लेकिन चतुराईपूर्वक व्यक्ति को यह विश्वास दिला दिया जाता है कि वे उसका अपना वरण हैं. आरोपित प्रतीक व्यक्ति की मनोरचना पर इस प्रकार सवार हो जाते हैं कि वह उनसे स्वतंत्र रहकर कुछ भी सोच नहीं पाता. हिंदू धर्म जाति प्रथा को मान्यता देता है. वह इसे समाजीकरण की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग मानता है. कहा जाता है कि स्वयं सृष्टिपुरुष ब्रह्मा ने लोगों के लिए अलगअलग वर्णों की रचना की है. इसके आधार पर कुछ व्यक्तियों को जन्म के साथ ही कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हो जाते हैं. विशेषाधिकारों का जन्म के आधार पर आरक्षण प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध है. परंपरागत धर्म इस व्यवस्था का पोषण करता है. अतः उसके द्वारा अनुशासित व्यवस्था लोकतांत्रिक हो ही नहीं सकती. जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त समाज में बालक जब खेलने के लिए बाहर निकलता है तो मां प्रायः उसे समझाती है कि अमुक के साथ मत खेलना. अमुक गंदा बच्चा है. अमुक अछूत है, उसके संपर्क में भी मत आना. अबोध बालक ऊंचनीच नहीं जानता. पर जब बारबार उसको समझाया जाता है, पिटाई का डर दिखाया जाता है, तो उसको मानना ही पड़ता है. इस तरह होश संभालते ही बालक प्रतिगामी सोच के प्रभाव में आ जाता है. जिसका उसके चारित्रिक विकास से दूरदूर तक संबंध नहीं होता. आरंभ में ही बच्चों की मनोरचना ऐसी बना दी जाती है कि वे धर्म, जाति, परिवार, कुलपरंपरा आदि के दायरे से बाहर सोच ही नहीं पाते. इसलिए जब असल चुनौती सामने आती है, जीवन में प्रतिकूल स्थितियों का सामना होता है, तो वे घबरा जाते हैं. संकट से त्राण के लिए उन्हीं शक्तियों की ओर देखने लगते हैं, जिनके बारे में बचपन से रटाया जाता है. वे हैं या नहीं, इस बारे में विश्वास के साथ कुछ भी कह पाना उनके लिए संभव नहीं होता. ऐसे में पंडा, पुजारी, ज्योतिषी, तांत्रिक, पादरी और मुल्लामौलवियों की बन आती है. इन सबका तो कारोबार ही लोगों के अज्ञान और चमत्कारप्रियता का दोहन करना है.

बालक अनुभव से सीखता है. वह अपने मातापिता, गुरु, अग्रज आदि से प्रेरणा लेता है. परिवार में जिन्हें वह पसंद करता है, उन्हीं का सर्वाधिक अनुसरण भी करता है. परिवार में लोकतांत्रिक परिवेश होगा तो उसका असर बालक पर अवश्य पढ़ेगा. पाठशाला में लोकतांत्रिक वातावरण हुआ तो बालक उससे भी प्रेरणा लेगा. इसलिए मातापिता को चाहिए कि वे परिवार की निर्णय प्रक्रिया में बच्चों को भागीदार बनाएं. उनके निर्णयसामर्थ्य को बढ़ाएं. यह कहा जा सकता है कि परिवार के हजार मसले होते हैं. उन्हें तय करना बड़ों की जिम्मेदारी होती है. बच्चे जब उन कामों के बारे में जानते ही नहीं तो राय कैसे दे पाएंगे? ऐसे में उनकी राय लेने की आवश्यकता ही क्या है? यह संभव है कि बच्चों को किसी काम के बारे में जानकारी ही न हो. फिर भी बालकों को लोकतांत्रिक संस्कार देने के लिए उचित होगा कि निर्णय प्रक्रिया के दौरान अथवा उसके बाद में मातापिता बच्चों को पास बिठाकर बताएं कि उस निर्णय के पीछे उनका तर्कसम्मत दृष्टि क्या है. वे उनसे पूछ सकते हैं उन परिस्थितियों में वे होते तो क्या निर्णय लेते? संभव है बच्चे इसपर चुप्पी साध लें. लेकिन इससे उनकी निर्णय क्षमता अवश्य विकसित होगी, प्रोत्साहन भी मिलेगा. संभव है अगली बार जब ऐसी ही स्थिति आ बने तो वे विकल्पों के साथ तैयार रहें. उनका यह जानना जरूरी है कि संसार से भागकर उसे नहीं बदला जा सकता. बीहड़ में रास्ता बिना जूझे नहीं मिलता. मानवीय सौहार्द, करुणा, समानता, समरसता, विश्वबंधुत्व, नैतिकता जैसे जीवनमूल्यों की स्थापना के लिए लोकतांत्रिक समझ जरूरी है. और ये सब हों इसके लिए आवश्यक है कि नागरिकों को उसकी शिक्षा बचपन से ही जाए. ठीक ऐसे ही जैसे दूसरी चीजों के बारे में बताया जाता है.

बालक अपने साथ ढेर सारी जिज्ञासाएं लेकर आता है. शिक्षा का प्रथम ध्येय उन जिज्ञासाओं का समाधान करना है. उसका वास्तविक कर्म है बालक की प्रश्नाकुलता को बढ़ावा देना. उसके व्यक्तित्व का परिष्कार करना, आत्मविश्वास को बढ़ाना. यह तभी संभव है बालकों को बताया जाए कि मानवीय सभ्यता ने शताब्दियों में जो प्रगति की है. वह सिर्फ और सिर्फ मानवीय श्रमकौशल की देन है. उसके पीछे न तो कोई चमत्कार है न ऊपरी कृपा. दुनिया में जिन्होंने भी विलक्षण कार्य किया, जोजो लोग महान कहलाए, जिन्होंने इतिहास की धारा को मोड़ने का युगांतरकारी कार्य किया, बाकी लोगों तथा उनमें बस इतना अंतर था कि वे अपने सपने को संकल्प में ढालना चाहते थे. इसलिए उन्होंने पलायन के बजाय प्रयाण का वरण किया. भागने के बजाय दुनिया को बदलना बेहतर समझा. मनुष्यता में विश्वास, इसलिए मानवमात्र के कल्याण की राह बनाते समय उन्होंने अपने सुख की परवाह तक नहीं की. संघर्ष किया, कष्ट भी सहे. इसलिए कि उनके लिए लौकिक लक्ष्य निजी सुखदुख से कही बड़े थे. बालक को समझाया जाना चाहिए कि मानुषजात होने के नाते उसमें भी वही गुणसामथ्र्य संभव हैं जो उन लोगों में थे. यही नहीं बाकी लोगों में भी वे सब गुण संभव हैं. इसलिए आवश्यकता सभी को साथ लेकर चलने की, उसकी क्षमताओं का लाभ उठाने और सम्मिलित बुद्धिविवेक से संसार संवारने की है.

स्कूल में अध्यापकगण को चाहिए कि वे बालकों के बीच किसी प्रकार का स्तरीकरण न पनपने दें. कक्षा में और उससे बाहर भी वे बच्चों को विभिन्न मसलों पर राय रखने के लिए आमंत्रित करें. विद्यालय की पाठननीति के बारे में बच्चों की राय लें. विभिन्न अवसरों पर उसपर परिचर्चा आयोजित कराएं, जिसमें बच्चों की मुक्त भागीदारी हो. महत्त्वपूर्ण अवसरों पर उन्हें विश्वास दिलाया जाना चाहिए कि उनमें से प्रत्येक अपनी विचारधारा में स्वतंत्र है….कि उनमें से किसी की भी विचारधारा केवल उसकी नहीं है. बल्कि वह उसके परिवेश की देन है. इसलिए उस विचारधारा को समझना प्रकारांतर में उसके परिवेश को समझने के लिए जरूरी है. तभी उसमें अपेक्षित सुधार संभव है. परिवेश सुधरेगा तो समाज अपने आप सुधरता जाएगा. उनमें से प्रत्येक की राय का महत्त्व है, अतः हर एक को अपनी बात रखनी ही चाहिए. सप्ताह के अंत में होने वाली सभाओं में निष्कर्ष निकालते समय भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे किसी एक व्यक्ति अथवा कुछ व्यक्तियों के मंतव्य के भरोसे न छोड़ दी जाएं. उन सभाओं में अधिक से अधिक बच्चों को अपनी राय रखने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए.

गणतंत्र आदर्श शासन प्रणाली भले न हो. मगर सभ्यता के इतिहास में आज तक आजमायी जा चुकी प्रायः सभी राजनीतिक प्रणालियों में यह श्रेष्ठतम है. इस कारण फिलहाल विकल्पहीन भी है. जिन कमजोरियों की चर्चा होती है, वे भी ऐसा नहीं कि आज ही जन्मी हैं. वर्षों पहले लोकतंत्र की आलोचना करते हुए प्लेटो ने कहा था—‘प्रजा में परिवर्तन की चाहत और उत्साह देख समाज का कुलीनतंत्र यानी वह तंत्र जो किसी न किसी भांति राजसत्ता पर आसीन रहा है—लोकतंत्र का राग अलापने लगता है. एक दिन वह पूरे समाज को तानाशाही की जद में ले आता है.’ लोकतंत्र की यह बीमारी पुरानी सही, लाइलाज नहीं है. इसका सर्वोत्तम निदान तो यही है कि समाज में कुलीनतंत्र को पनपने ही न दिया जाए. कुलीनतंत्र की जान असमान आर्थिक विभाजन में होती है. समाज के संसाधन जब कुछ हाथों में सिमट जाते हैं तो वे उनका मनमाना उपयोग करने लगते हैं. आर्थिकसामाजिक और राजनीतिक सत्ता पर काबिज होकर वे स्वयं को विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग घोषित कर लेते हैं. विशेषाधिकारों का पीढ़ीदरपीढ़ी मनमाना अंतरण ही कुलीनतावाद है. यह तभी फलताफूलता है जब समाज का बड़ा वर्ग निर्णय प्रक्रिया से खुद को अलगथलग कर लेता या कर दिया जाता है तथा निर्णय लेने का अधिकार दूसरों के हाथों में सौंपकर स्वयं भाग्यवादी बन जाता है.

व्यक्तिमात्र का कर्तव्य है कि वह अपने मौलिक अधिकारों के प्रति सचेत रहे. उन अधिकारों के प्रति सचेत रहे जिनका सीधा सरोकार उसके होने से है. जिनसे उसका अस्तित्व, उसकी पहचान सुरक्षित है. उसे जानना चाहिए कि ये अधिकार किसी बाहरी सत्ता की बख्शीश न होकर, मनुष्य होने के नाते उसको नैसर्गिक रूप से प्राप्त हैं. इस प्रकार के अधिकारों में बौद्धिक संपदा संबंधी अधिकार, अभिव्यक्ति का अधिकार तथा अन्य वे सभी कार्यकारी अधिकार सम्मिलित हैं, जिनके अनुसार वह दूसरों के नैसर्गिक अधिकारों को प्रभावित किए बिना, अपनी सुखसुविधा एवं प्रसन्नता अर्जित करता है. इसके लिए जरूरी है कि मनुष्य के सामने जहां कहीं भी राय देने का अवसर आए, आत्मविश्वास के साथ निर्भय, निस्संकोच अपनी राय रखे. यदि कहीं अधिकारों पर आंच आती दिखाई पड़े तो जमकर उनका विरोध करे. राज्य के संसाधनों का असमान विभाजन किसी एक व्यक्ति या वर्ग के लिए नुकसानदेह न होकर संपूर्ण राज्य के लिए नुकसानदेह होता है. इस बारे में थामस पेन ने बहुत काम की बात कही है. उसने कहा था कि जिस राज्य में आर्थिक विभाजन जितना अधिक समान होगा, उस राज्य के कानून आम जनता के लिए उतने ही हितकारी होंगे. दूसरे शब्दों में आर्थिक बंटवारा जितना अधिक समान होगा, नागरिकों की क्रियाशील मांगों में उतनी ही समानता होगी. उतना ही लोग एकदूसरे पर विश्वास रखेंगे. उनमें सहयोग की भावना उतनी ही प्रबल होगी. उनके अंतर्विरोध क्षीण होंगे. राज्य में अधिक अटूट एकता और समरसता होगी.

बालक को लोकतंत्रीय संस्कार देने में साहित्य की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है. हिंदी बालसाहित्य का जन्म औपनिवेशिक वातावरण में हुआ. उन दिनों समाज में सामंतीमूल्य प्रचलित थे. इसलिए आरंभिक हिंदी बालसाहित्य पर उसका असर साफ नजर आता है. आज हालात तेजी से बदल रहे हैं. बालसाहित्यकार को चाहिए कि वह पाठकों के लोकतांत्रिक प्रबोधीकरण पर ध्यान दे. नए जीवनमूल्यों से भरपूर बालसाहित्य की रचना करे. जिसमें बच्चों की इच्छाआकांक्षाओं, सपनों, संकल्पों और अधिकारों की अभिव्यक्ति होती हो. जिसमें आर्थिकसामाजिकसमानता के बारे में बताया गया हो. समाज की रचना ही इसलिए हुई है कि उसमें मनुष्य के मूलभूत अधिकारों की रक्षा हो. न इसलिए कि उसके अधिकारों पर कुछ साधनसंपन्न लोग कब्जा जमा लें—यह ध्वनि बालसाहित्य की हर रचना से आनी चाहिए. बालक का परिवेश लोकतांत्रिक होगा तभी वह अपने जीवन को उसके अनुसार ढाल पाएगा. लोकतंत्र में विश्वास रहेगा तो उसकी वे कमियां भी दूर होंगी, जिनके लिए आज उसकी आलोचना की जाती है.

© ओमप्रकाश कश्यप

रियल्टी सेक्टर की रीयल्टी

यह बात 1974 के आसपास की है. उन दिनों हाई स्कूल में पढ़ता था और दूसरे किशोरों की तरह सुंदर भविष्य का सपना देखता था. सरकारी नौकरी अच्छे, सुरक्षित भविष्य की द्योतक थी. गांव के कई और व्यक्ति भी नौकरी पर थे. जिनकी प्रतिष्ठा का आधार थी, अच्छी नौकरी तथा उससे जुड़ी आमदनी. उससे वे गांव में खेती की जमीन खरीदकर अपनी हैसियत बढ़ाते रहते थे. सही मायने में उन दिनों आदमी की हैसियत उसके अधिकार में मौजूद भूसंपदा से आंकी जाती है. नौकरीपेशा लोगों द्वारा अपनी बचत का निवेश कृषि भूमि की खरीद में करना आम था. गांव छोड़ शहर बसने का ख्याल तक नहीं आता था. गांव बड़ा था. ऐसे लोगों की संख्या काफी थी, जो सेवामुक्त होने के बाद गांव में जमे हुए थे. उन लोगों में सेना से सेवामुक्त मेजर, सूबेदार से लेकर थानेदार, सिपाही, अध्यापक, पटवारी आदि शामिल थे. रिटायरमेंट के बाद खेती की देखभाल करनी है, अभ्यास कहीं छूट न जाए, इस डर से ऐसे भी नौकरीपेशा लोग थे, जो छुट्टियों में गांव आते ही हलबैल लेकर शान से खेतों में चले जाते तथा तपती धूप में, नंगे पांव खेतों की जुताईबुवाई करते थे. जैसेजैसे सेवाकाल करीब आता, घरघेर की मरम्मत आरंभ हो जाती, जिस सामंती सोच के लिए गांव आज बदनाम हैं, उन दिनों अशिक्षित जनसमाज में वह और भी प्रबल हुआ करता था. इसके बावजूद नौकरीपेशा लोगों का अगला सपना रिटारयमेंट के बाद गांव में चैन की जिंदगी जीना होता. गांव छोड़ने की बात कम ही लोगों के दिमाग में आती थी.

इसी को संदर्भ देती कुछ घटनाएं बचपन की याद आती हैं. गांव से चौदहपंद्रह किलोमीटर दूर बुआजी का गांव था. साल में दोतीन बार जाना होता. वहां हमउम्र लड़कों के संग खेलतेबतियाते हम एक मुहल्ले से दूसरे तक निकल जाते. वहीं कच्ची मिट्टी का बड़ा घर था. चौड़ा आंगन, बीच में नीम का पेड़. चारों दिशाओं में कच्ची मिट्टी के बने छप्परदार कमरे. तीन कोठरियों में एकएक परिवार. हर समय चहलपहल रहती. बस एक कोठरी का छोटासा खिड़कीनुमा दरवाजा हमेशा बंद मिलता. एक दिन पता चला कि चारों भाइयों में सबसे बड़े, जिनके हिस्से में वह कोठरी आई है, शहर जा बसे हैं. सालछह महीने में जब आते हैं, तभी दरवाजा खुलता है. यह कोई नई बात न थी. गांव में ऐसे और भी घर, मकान थे जिनके दरवाजे पर ताला पड़ा रहता. घर की संपत्ति को बेचा जा सकता है, ऐसा विचार कभी दिमाग में भी नहीं आता था. कभीकभी उदारमना लोग अपनी संपत्ति को भाइयोंरिश्तेदारों के सुपुर्द कर आते. उस संपत्ति पर उनका नैतिक कब्जा सदा बना रहता. हालात चाहे जैसे हों, पुरखों की जमीन को बेचना पाप समझा जाता था. ऐसे लोग जिन्होंने शहरों में कामयाबी के झंडे गाड़कर वहां पर बड़े, आलीशान मकान बना लिए थे, जो शायद ही कभी गांव लौटने वाले थे, वे भी गांव की कच्चीपक्की पैत्रिक संपत्ति के बहाने उससे जुड़ा रहना चाहते थे. यह बात गांव से निकले लोगों में आज भी कमोबेश वैसी ही है. घरों से आदमी का अपनापा होता है. घर उनकी मानमर्यादाइज्जतशोहरतजातबिरादरी से जुड़ा होता है.

1990 तक आतेआते हालात बदलने लगे थे. आबादी बढ़ने से जोतें सिकुड़ने लगी थीं. खेती अब लाभ का धंधा नहीं रह गई थी. गांव में खेती के सहारे सम्मानजनक जीवन जी पाना सभी के लिए संभव नहीं रह गया था. इस कारण सोच में भी बदलाव आया था. इस दौर में जमीन की किल्लत बढ़ी थी. इसके साथ ही सुविधाएं और शहर में रहने की ललक भी. रंगीन टेलीविजन के साथ उपभोक्तावाद दस्तक दे चुका था. नौकरी के चलते गांव छोड़कर शहर आने वाले लोग सुविधाओं के मोह में वहीं बसने का ख्वाब पालने लगे थे. गांव में कईकई बीघा, एकड़ जमीन रखने वालों का नया सपना था, शहर या उसके आसपास एक टुकड़ा जमीन, जहां वे अपने लिए हैसियत के अनुसार घर बना सकें. शहर की अवैध कालोनी में बने घर की हैसियत गांव की उपजाऊ जमीन से अधिक हो चुकी थी. शहर में रहने का ठिकाना हो तो बेरोजगार न चिंता न कर लोग लड़के से अपनी बेटी ब्याह दिया करते थे. शहर में रहेगा तो खाकमा लेगा, लड़की और उसके गरीब मातापिता के लिए इतना भरोसा पर्याप्त था. कृषि अब घाटे का धंधा थी. जीविका के लिए नौकरी और व्यवसाय जैसे विकल्पों को महत्त्व दिया जाने लगा था. घाघ की कहावत, ‘उत्तम खेती, मध्यम बान’ झूठी पड़ने लगी थी. शिक्षा के प्रति आकर्षण बढ़ रहा था. इसके बावजूद किसी न किसी रूप में मिट्टी से लगाव अब भी शेष था. शहरों में फ्लैट संस्कृति जोर मारने लगी थी. जमीन की बढ़ती किल्लत को देखते हुए बहुमंजिला इमारतें सिर उठा रही थीं. पर ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए लोगों का सपना अब भी अपनी जमीन पर घर बनाना या बनाबनाया एक मंजिला घर खरीदना होता, ताकि जमीन से नाता बना रहे तथा आसमान आने वाली संततियों के लिए सुरक्षित रहे. इन दोतीन दशकों में जो बदलाव आया था, वह यह कि पहले गांव में खेतीयोग्य भूमि प्रतिष्ठा का मापदंड थी. बदले सोच के साथ शहर में मकान होना सुखसमृद्धि का प्रतीक माना जाने लगा था. इसके बावजूद मकान अब भी सिर पर छत की व्यवस्था के रूप में देखा जाता था. वह निवेश का द्योतक नहीं बन पाया था.

देश में उदारवाद की हवा चली. सरकार ने निजीकरण के बहाने अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ना शुरू कर दिया था. बाजार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खोल दिए गए. अब सबकुछ निजी पूंजी के भरोसे था. अनियोजित आयात के चलते छोटे उद्योगधंधे तबाह होने लगे तो उनमें से बहुतों ने समय रहते हथियार डालने में भलाई समझी. वे उन सुरक्षित रास्तों की ओर पलायन करने लगे जो अभी तक स्पर्धा से बचे थे. उनमें विपणन, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास क्षेत्र प्रमुख थे. कारपोरेट जगत के लिए ये चारों बड़े काम के थे. इनमें सबसे अधिक संभावनाओं वाला क्षेत्र थाआवास निर्माण. माल की बिक्री के लिए उन्हें बाजार की जरूरत थी. ऐसे पढे़लिखे युवकों की जरूरत थी जो संस्कृति के मोहपाश से मुक्त, उपभोक्ता वस्तुओं को ललचाई नजरों से देखते हों. ऐसे ही युवक उपभोक्ता वस्तुओं को प्रतिष्ठा की वस्तु बताकर बेच सकते थे. बाजार उनकी ख्वाबगाह था. वे कहीं सेल्समेन थे, कहीं पर उपभोक्ता. बाजार संस्कृति के चौतरफा विस्तार के लिए उपभोक्ता के मन को बदलना अनिवार्य था. वह तभी संभव था, जब मनुष्य अपनी परंपरा से बंधा दबा हुआ न हो. नौकरी की मजबूरी के चलते आम भारतीय का शहर में बसना विवशता थी. परंतु संस्कार एकाएक पीछा नहीं छोड़ते. रोजगार की तलाश में शहर आए आम भारतीय का मन अब भी गंवई मानसिकता में डूबा रहता. न्यूनतम खर्च में काम चलाकर वह भविष्य के लिए बचत का इंतजाम करता. सुरक्षित भविष्य के बहाने कुछ न कुछ बचाकर रखना चाहताबाजार के पंडितों की दृष्टि में यह मानसिकता बड़ी बाधा थी.

पूंजीपति कारपोरेट कंपनियों का लक्ष्य था उपभोक्ताओं के उपनिवेश बनाना. देश के भीतर छोटेछोटे उपदेश ‘क्रिएट’ करना. शहरीकरण के बहाने उपभोक्तासंस्कृति के नए टापू बसाना. सभ्यता और संस्कृति के कमजोर पहलुओं की पहचान कर वहां सूराख करना; तथा उन छेदों से अपने लिए प्राणवायु खींचना. ऐसी बस्तियां खड़ी करना जहां थोक के भाव उपभोक्ता उपलब्ध हों. जिनका अपना न कोई दिल हो न दिमाग. जो पूंजीवाद के आकाओं के अनुसार सोचें, उनका बताया हुआ खाएं, उनका दिखाया हुआ पहने. उनकी समयसारणी के अनुसार जिनकी जीवनचर्या हो. यह संभव कैसे हो? इलाज सोचासमझा और आजमाया हुआ था, औपनिवेशीकरण. बाधा थी तो एक, बचतसंस्कृति. अतीत से प्रेरणा लेना. भविष्य पर नजर रखना और वर्तमान को सबके साथ मिलजुलकर, सुखदुख बांटते हुए जी लेना. उसी के चलते तो हर आदमी अपने बुरे दिनों के लिए, आड़े वक्त में मित्रों, रिश्तेदारों की मदद के नाम पर, कुछ न कुछ बचाकर रखना चाहता था. आदमी की बचत पर कब्जा किया जाए! यह सोच तो कभी का पुराना पड़ चुका था. नया कारपोरेटी चिंतन था आदमी की पूरी की पूरी कमाई को अपनी जेब के हवाले कर लेना. उसके हिस्से बस इतना छोड़ना कि वह लकदक रहे. अगले दिन काम पर जाए और उनके लिए कमाकर लाए, ताकि किश्तें समय पर चुकाए. रास्ता तय था. आदमी को उसकी पूरी संस्कृति, परंपरा, कुल, मर्यादा, देश, समाज से अलगथलग कर देना. उसके लिए इतनी सुविधाएं जुटा देना कि उनसे बाहर वह कुछ देखसोच न सके. उपभोग में इतना डुबा देना कि उसकी अपनी ही सांसें एकदूसरे के साथ स्पर्धा करने लगें. अधिक से अधिक सुविधाएं कैसे जुटाई जाएंइसके अलावा आदमी यदि कुछ सोच पाए तो बस इतना कि पड़ोसी उससे ईर्ष्या करते हैं. रिश्तेदार उससे खार खाते हैं. दोस्त उससे जलते हैं. उन सबके कारण उसका भविष्य असुरक्षित है. उसका न स्वयं पर विश्वास हो, न किसी और पर. अपने मित्रों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों के प्रति संदेह और डर उसके दिलोदिमाग में समाया हुआ हो. डरा हुआ आदमी भविष्य से भागेगा. वह केवल वर्तमान में जिएगा. कल की चिंता से मुक्त होगा तभी वह आज में डूब पाएगा.

यह भूमिका थी, नए विशुद्ध बाजारवादी संस्कृति पर आधारित उपनिवेश बसाए जाने की. देश के आंतरिक औपनिवेशीकरण की. निरंकुश विस्तार के इस शातिराना तरीके को पूंजीपति उन स्थानों पर आजमाता है जहां सरकारें ढुलमुल हों. जहां सरकार कमजोर न हो, वहां उसकी विश्वसीनयता पर सवाल उठाकर उसको कमजोर करने का भरसक प्रयास किया जाता है. संस्कृति के कृत्रिम संकट खड़े कर आदमी को भरमाया जाता है. इसका उल्लेख मार्क्स ने किया था. अंतोनियो ग्राम्शी ने भी इस खतरे को पहचान लिया था. पर वे बीती बातें हो चली थीं. खुद लोगों ने ही उन्हें भुला दिया. नई संचार प्रौद्योगिकी के कंधों पर सवार पूंजीवाद विकास के नाम पर दबे पांव दफ्तर से बेडरूम तक पसर गया. दिलोदिमाग पर बाजार ने कब्जा कर लिया. समाजवाद को दकियानूसी कहा गया. साम्यवाद को दिमागी फितूर. कल की चिंता करना दिमागी पिछड़ापन मान लिया गया. आदमी बाहर का कुछ सोच न पाए इसके लिए फ्लैट संस्कृति का अंधाधुंध विस्तार किया गया. आवास समस्या के समाधान के नाम पर कंक्रीट के जंगल उगाए जाने लगे. हर किसी के लिए महंगा घर खरीद पाना संभव न था. स्पर्धा में पिटे हुए उद्योगपति पैसा, जमीन, दलाली और माफियागर्दी के नए सिंडीकेट का सदस्य बन गए. कंक्रीट के जंगल बसे. परंतु जनसाधारण अब भी किराये के मकानों में जैसेतैसे गुजारा कर रहा था. कीमत से चार गुना महंगा घर खरीद पाना उसके लिए संभव न थ. वह उन्हीं के लिए संभव था, जिनके पास अतिरिक्त आमदनी की अफरात हो. ऐसे लोगों को न्योंता जाने लगा. उन्हें बताया गया कि दूसरा मकान खरीदना सुरक्षित निवेश है. यानी निश्चित भविष्य की गारंटी और समझदारी का सौदा. एक रहने को दूसरा मुनाफा कमाने के लिए. और इस तरह अतिरिक्त घर का सपना उनकी आंखों में पिरो दिया गया. बैंकों के लुभावने आ॓फर आने लगे. मानो घर खरीदना चुटकी बजाने जैसा काम हो. लोग उस प्रलोभन का शिकार होने लगे. उसके बाद जो हुआ सामने है. घर जो मातापिता के आशीर्वाद की छांव, विरासत में मिली अनमोल थाती, वुजुर्गों की मीठीसुहानी याद था, उसको निवेश का माध्यम बन गया. जिस आंगन से मिट्टी की गंध उभरती थी, वहां इटालियन पेंट की गैसें सिर घुमाने लगीं. फुर्सत के जो क्षण परिवार के साथ बतियाने, हंसनेबोलने के थे, उसपर टेलीविजन और इंटरनेट सवार हो गए. आदमी गिनीपिग बन गया.

घर की संकल्पना तो करीब 12000 वर्ष पहले ही इंसान से जुड़ चुकी थी जब आदमी ने एक स्थान पर टिककर रहना शुरू किया. तब उसे पता चला कि एक जगह टिके रहने से वह तेजी से विकास कर सकता है. घर से रिश्तों में ठहराव आया. रिश्तों से समाज बना, समाज से सभ्यता की शुरुआत हुई. घर से मनुष्य का भावनात्मक रिश्ता दिनोंदिन गहरा होता गया. पर बारह हजार वर्ष पुराना यह सपना अब और अधिक नहीं टिकने वाला. कारपोरेटी कल्चर में घर सिर पर छत से अधिक कुछ नहीं. अब वह सीमेंट, बिजली, टेलीफोन, मोबाइल, परिवहन, टेलीविजन, रेफ्रीजरेटर, एयरकंडीशनर, जेनरेटर, लोहा, हार्डवेयर, सेनेटरी, वित्त कंपनियों की इजारेदारी है. घर बनाने से लेकर फिनिशिंग तक सैकड़ों कारपोरेट कंपनियों को काम मिलता है. बाकी जो बच जाती हैं वे ‘गृह प्रवेश’ के बाद मोर्चा संभाल लेती हैं. आवास ऋण की किस्तों के अलावा बिजली, पानी, टेलीफोन, सीवर, मेंटेनेंस, लिफ्ट, जेनरेटर, सेटेलाइट टीवी, कारऋण, बीमा जैसे दर्जनों खर्च जुड़ जाते हैं, जिनका किश्तवार भुगतान करना ही पड़ता है. यहां रहते हुए बचत की आदत छूट जाती है. आदमी उपनिवेश बसाने वालों की मर्जी का शिकार बन जाता है. उनके सुखसमृद्धि के लिए जीने की आदत डाल लेता है.

बहुमंजिला इमारतों में रहने वाले प्रायः सोचते हैं कि वे अपने मकान में रह रहे हैं. परंतु यह केवल आभासी सच होता है. वे शायद ही कभी समझ पाते हैं कि अपने ही देश में वे ऐसे उपनिवेश में रह रहे हैं, जिन्हें बड़ी पूंजीपति कंपनियों जिनमें वित्त, संचार, मनोरंजन, परिवहन, यातायात, बीमा, सीमेंट, लोहा, रंगरोगन, शराब, शरबत आदि सम्मिलित हैं, ने अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए खड़ा किया है. घर खरीदने के लिए आदमी दस से तीस वर्ष की किश्तों पर कर्ज उधार लेता है. एकतिहाई से ज्यादा आमदनी घर की किश्त चुकाने में निकल जाती है. एकतिहाई बिजली, पानी, जेनरेटर, मेनटेनेंस, बीमा के भुगतान पर. खानेपीने, बच्चों की लिखाईपढ़ाई के बाकी काम कतरब्योंत से चलते हैं. बीसतीस साल बाद जब मकान की किश्तें पूरी होने का समय आता है, तब तक उन मकानों की उम्र भी पूरी होने लगती है. दीवारें पलस्तर झड़ने से बेआब हो चुकी होती हैं. सड़कें मेंटेनेंस को तरसने लगती हैं. बुढ़ापा घर और गृहस्वामी दोनों को साथसाथ आता है. जिस बस्ती को उसने स्वर्णनगरी समझाकर घर लिया था, वह मलिन बस्ती बन जाती है. तब जाकर आदमी जान पाता है कि जिसको वह अपना घर समझा था, वह उसका था ही नहीं. उसके हिस्से रह जाता है केवल बुढ़ापा, बदरंग झुर्रियां, तनाव तथा अनगिनत बीमारियों से भरा ढला शरीर.

सरकार केंद्र की हो या राज्य की. अपनेअपने प्राधिकरणों के जरिये भूअधिग्रहण में जुड़ी हैं. केंद्र सरकार को जमीन चाहिए ताकि हाईवे निकालने के बहाने आटोमोबाइल, सीमेंट, लोहा, कंस्ट्रक्शन, हार्डवेयर, संचार जैसे क्षेत्रों में काम कर रही कंपनियों से दलाली खा सके. राज्य सरकारों को भी जमीन चाहिए, ताकि वे हाईवे के किनारेकिनारे नई बस्तियां बना सकें. एक के बाद एक राज्य सरकारें नए शहर बनाने की घोषणा कर रही हैं. ’अपना घर’ आज सबसे बिकाऊ सपना है. बड़ेबड़े पूंजीपति घर बनाने में लगे हैं. जिसे घर बनाने में रुचि नहीं वह बनेबनाए शहरों को बिजली, पानी, सड़क, संचार आदि उपलब्ध कराने में जुटा है. नए शहर बसाने के नाम पर किसानों को उजाड़ा जा रहा है. बहुमूल्य कृषि भूमि कौड़ियों के दाम कब्जाने का खेल जारी है. पहले औद्योगिक क्षेत्र और आवास बस्तियां बंजर और अनुपजाऊ भूक्षेत्रों पर बसाई जाती थीं. अब बस्तियां उपजाऊ जमीनों पर है. जमीन हथियाने के लिए किसानों को तरहतरह के प्रलोभन दिए जाते हैं. सवाल है कि ये घर किसके लिए हैं. बेघर लोगों के लिए? जिस देश की औसत आमदनी पांच हजार रुपये महीना है, वहां बीसबाइस हजार रुपये की औसत मासिक किश्त वाले मकान भला कौन खरीद सकता है? मतलब इन घरोंउपनिवेशों में उनको बसाया जाए जिनकी परचेज पावर अधिक है. जो आगे चलकर कमाई का जरिया बन सके. यही कारण है जो अंबानी और टाटा जैसे पूंजीपतियों को आम आदमी के सिर पर छत न होने की चिंता सताने लगी है? इन सभी को स्थायी उपभोक्ताओं की तलाश है. इसलिए आंतरिक औपनिवेशीकरण का खेल बड़े पैमाने पर जारी है. आपको भरोसा न हो तो किसी पंद्रहबीस मंजिला टावर को बिजली भाग जाने के कारण अंधेरे में डूबी बस्ती बीच खड़े होकर गौर से देखिए. इधर आपको पसीने से लथपथ बिजली कंपनी को कोसते हुए लोग नजर आएंगे, उधर जेनरेटर की रोशनी से लकदक अपार्टमेंट में मजे की बेफिक्र नींद लेते संभ्रांत. शहर के भीतर बसे उपनिवेशों की हकीकत आप झट से समझ जाएंगे. परंतु क्या वे लोग भी समझ पाएंगे कि वे जो देख रहे हैं, वह खुली आंखों का सपना है. उनके सिर पर छत, कमरे की ठंडी हवा है तो इसलिए कि अगले दिन तरोताजा होकर वह नए सिरे से जुट सकें….इन उपनिवेशों की प्रगति और उनकी समृद्धि के लिए. रियल्टी सेक्टर की यही ‘रीयल्टी’ है.

तो क्या देश के सामने आवास जैसी कोई समस्या नहीं है? जो लोग किराये के मकानों में रहते हैं, जिनके आवास शहर की पुरानी सघन बस्तियों में हैं, क्या उन्हें उन्हीं के हाल पर छोड़ देना चाहिए? हरगिज नहीं. बेघरों को घर उपलब्ध कराना सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है. पर यह लाजिम है कि घर लोगों की जरूरत को देखकर वनाए जाएं. न कि बेघरों को बिल्डरों, भूमाफिया और फाइनेंस कंपनियों के स्वार्थ के हवाले कर दिया जाए, समाज यदि एक शरीर है तो उसका विकास ऐसे होना चाहिए कि शरीर का प्रत्येक अंग समानरूप से लाभान्वित हो. शरीर का यदि कोई एक हिस्सा फूलने लगेगा तो वह गूमड़े के समान अलग दिखाई देगा. यदि कोई हिस्सा काम करना बंद कर देगा तो वह पक्षाघात से पीड़ित नजर आएगा. विकृति हर हाल में होगी. अशोभन हालात से बचने के लिए जरूरी है कि विकास का समांगीकरण हो. वह सबके हिस्से बराबर आए. तब शहरों की आवास समस्या का हल क्य़ा है? एक निदान तो यह हो सकता है कि आसपास के गावों को उजाड़ने के बजाय उनका नागरीकरण किया जाए. नीति गांव के सर्वांगीण विकास को लेकर बने और ध्येय आवास समस्या के निदान को बनाया जाए. पर यह तभी हो सकता है जब विवेकपूर्ण तरीके से चुनी गई सरकारें अपने ही विवेक से चलें, कार्पोरेट घरानों के स्वार्थ से हांकी न जाएं.

 © ओमप्रकाश कश्यप

विचारहीन क्रांति का दिशाहीन अंत

अन्ना हजारे तथा उनके साथियों से उम्मीद पहले भी कम थी. आस थी तो बस इतनी कि अपने आंदोलन के माध्यम से वे इस देश के आमजन को लोकतंत्र की ताकत याद दिलाने तथा उसकी सैद्धांतिकी से रूरू करने का काम करेंगे. इसलिए कि स्वाधीन भारत में आमजन के लोकतांत्रिक प्रशिक्षण के प्रयास बहुत कम, लगभग ‘न’ के बराबर हुए हैं. इस बीच आमजन ने अपने मताधिकार के आधार पर कुछ प्रबुद्ध निर्णय लिए तो उसका प्रमुख कारण उसके मानस में स्वाधीनता आंदोलन की अवशेष स्मृतियां थीं. इस देश को स्वाधीनता प्राप्ति के लिए बहुत लंबा, अनथक संघर्ष करना पड़ा था. वास्तविक सफलता गांधीजी के आजादी की लड़ाई में उतरने के बाद तब संभव हो पाई, जब उन्होंने आमजन को आंदोलन से जोड़ा. भारतीय स्वाधीनता संग्राम में गांधी और आंबेडकर के नेतृत्व वाले बाद के तीस वर्ष बहुत महत्त्व रखते हैं. यही वह कालखंड हैं जिसमें इस देश के आमजन यानी किसान, मजदूर, दस्तकार तथा शोषितउत्पीड़ित जन ने स्वतंत्रता, समानता और सम्मान की लड़ाई में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था. उसका अहिंसक जनसंघर्ष विश्वइतिहास में अनूठा था. उससे जनसाधारण को पहली बार अपनी ताकत और पहुंच का एहसास हुआ था. पहली बार उसको लगा था कि स्वार्थी सत्तासीन वर्गों पर भरोसा न करते हुए, अपनी मुक्ति का बीड़ा उसे स्वयं उठाना चाहिए. यही उसने किया भी, जिसका सुफल आजादी और लोकतंत्र के रूप में सामने आया.

 स्वाधीनता पूर्व की यह लोकचेतना आजाद भारत में राष्ट्रीय चेतना का रूप ले सके, इसके लिए सरकारी तथा गैरसरकारी स्तर पर बड़े कार्यक्रमों की आवश्यकता थी. आजादी के बाद ऐसी ईमानदार कोशिशें, बहुत कम, लगभग ’न’ के बराबर हुई हैं. इसके प्रमुख कारणों में पहला तो यह कि देश की आजादी अपने साथ विभाजन की त्रासदी को लेकर आई थी. इस कारण स्वाधीनता आंदोलन जिसने एकराष्ट्र के सिद्धांत के आधार पर जन्म लिया था, बहुत आसानी से और जल्दी ही द्विराष्ट्र के औचित्यअनौचित्य संबंधी बहसों में उलझ गया. इससे समाज में सांप्रदायिक विद्वेष पनपा, जिसका फायदा उन अलगाववादी सांप्रदायिक ताकतों ने उठाया, जिन्हें लोकतंत्र में कोई विश्वास न था. जो धार्मिकसांस्कृतिक पुनरुत्थान के नाम पर पुरातनपंथी सामंती संस्थाओं को वापस लाना चाहती थीं. हैरानी की बात तो यह है कि आमजन के कंधों पर सवार होकर सफलता की ओर सतत अग्रसर कांग्रेस के बड़े नेताओं में भी लोकतांत्रिक चेतना का अभाव था. स्वयं गांधी जी ’रामराज्य’ के बहाने पुरानी ग्रामीण शासन प्रणाली को चुस्त करना चाहते थे, जो लोकतंत्र की आधुनिक सैद्धांतिकी से कोसों दूर थी. उनके अनन्य शिष्य कहे जाने वाले विनोबा, जिनके बारे में माना जाता है कि ‘गांधीवाद’ के प्रति उनकी निष्ठा गांधीजी से भी ज्यादा दृढ़ थी, तो लोकतंत्र के कटु आलोचकों में थे. पुरी सर्वोदयसम्मेलन में वे इसका जमकर मखौल उड़ाते हैं

 ‘हम सुझाते यह हैं कि हमारे जो भाई भिन्नभिन्न संस्थाओं में हैं, वे यह कोशिश करें कि जिसको वे अहिंसात्मक, रचनात्मक कार्य समझते हैं, वे उन संस्थाओं के प्रधान हो जाएं और बाकी बातें गौण हो जाएं. चुनाव को कितना भी महत्त्व क्यों न दिया जाए, आखिर वह ऐसी चीज नहीं है कि उससे समाज के उत्थान में हम कुछ मदद पहुंचा सकें. वह ‘डेमोक्रेसी’ में खड़ा किया हुआ एक यंत्र है, एक फारमल डेमोक्रेसी, एक औपचारिक लोकसत्ता आई है. वह मांग करती है कि राजकार्य में हर मनुष्य का हिस्सा होना चाहिए. इस वास्ते हर एक की राय पूछनी चाहिए और मतों की गिनती करनी चाहिए. यह तो हर कोई जानता है कि ऐसी कोई समानता परमेश्वर ने पैदा नहीं की है कि जिसके आधार पर एक मनुष्य के लिए जितना एक वोट है, उतना ही दूसरे मनुष्य के लिए भी हो, इस बात का हम समर्थन कर सकें. ऐसी कोई योजना ईश्वर ने भी नहीं की. लेकिन यह स्पष्ट है कि पंडित नेहरू को एक वोट है, तो उनके चपरासी को भी एक ही वोट है, इसमें क्या अक्ल है, हम नहीं जानते.’ (शक्ति सत्ता में नहीं, लोकसेवा मेविनोबा, 25 मार्च 1655 को दिया गया भाषण, राजनीति से लोकनीति की ओर, पृष्ठ 20)

 ऊपर विनोबा सर्वोदयी कार्यकर्ताओं को विभिन्न संस्थाओं के शीर्षपद पर कब्जा कर लेने का आवाह्न करते हैं. बिना किसी चुनाव या नैतिकता के. विनोबा के अलावा उनके सहयोगियों में दादा धर्माधिकारी, धीरेंद्र मजूमदार, शंकरराव देव जैसे तत्कालीन कांग्रेसी, जिन्हें कांग्रेस में विचारवान नेता होने का गौरव प्राप्त था, भी संसदीय लोकतंत्र के आलोचकों में थे. स्वयं गांधीजी की वर्णाश्रम धर्म में आस्था उन्हें पूर्ण लोकतांत्रिक होने से रोकती थी. इसके बावजूद यदि देश में लोकतंत्र को जगह मिली तो इसलिए कि वह समय पूरी दुनिया में बदलाव का था. साम्राज्यवादी लालसा के रूप में दुनिया दो विश्वयुद्ध झेल चुकी थी, जिसकी परिणति हिरोशिमा और नागाशाकी की तबाही के रूप में सामने आई थी. इससे भी ज्यादा अहम् था, डा॓. आंबेडकर के नेतृत्व में दलित चेतना का उभार. नई शिक्षा के आलोक में सहस्राब्दियों से शोषितउत्पीड़ित पिछड़े जन अपने विकास तथा आत्मसम्मान हेतु सत्ता में भागीदारी चाहते थे. उनकी भावनाओं को नकारने का मतलब था, देश के बड़े वर्ग के भविष्य को फिर सामंती ताकतों के हवाले कर देना. प्रकारांतर में एक और विभाजन. कहने का आशय है कि आजाद भारत के लिए लोकतंत्र कांग्रेस या गांधी की देन न होकर परिस्थितियों के अनुसार अपरिहार्य हो चुका था. किसी भी नेता के लिए उसकी उपेक्षा कर पाना संभव नहीं रह गया था.

 लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक था कि आजादी पूर्व की लोकचेतना राष्ट्रीय चेतना का रूप ले सके, ताकि इस इस देश में मतदाताओं को जाति, धर्म, सांप्रदायिकता और क्षेत्रीयता जैसे अलगावकारी मुद्दों के आधार पर बांटा न जा सके. आजादी के बाद ऐसी ईमानदार कोशिशें ‘न’ के बराबर हुई थीं. परिणामस्वरूप भारतीय लोकतंत्र पूंजी, जातीयता, क्षेत्रीयता, दलगत स्वार्थपरता और सांप्रदायिकता का शिकार होकर अपने लक्ष्य से भटकता गया. अन्ना हजारे के आंदोलन से मामूली उम्मीद थी तो बस इतनी कि शायद यह आंदोलन, गांधीवाद की पुरानी सीमाओं का उत्क्रमण करते हुए वह लोकतांत्रिक चेतना के विस्तार के लिए सचमुच कार्य करेगा. आखिर देश में संसदीय लोकतंत्र अपने साठवें वर्ष में था. इस अवधि में उसने कई सफलताएं अर्जित की थीं. उम्मीद थी कि अन्ना हजारे के विचारों से प्रेरित होकर चुनावों में एक भीड़ की तरह व्यवहार करने वाली जनता, भविष्य में प्रबुद्ध संगठित निर्णायक लोकशक्ति होने के आत्मविश्वास से लैस होकर व्यवहार करेगी. राजनीति में कुलीनतावाद का जो नया दौर पनपा है, उसपर लगाम लगेगी. आंदोलन की शतप्रतिशत सफलता का विश्वास तो कभी था ही नहीं.

 इस अविश्वास के पीछे टीम अन्ना का दुराग्रही रवैया था. पिछला अगस्त आंदोलन टीम अन्ना ने केवल जनलोकपाल के मुद्दे पर चलाया था. उसको आंदोलन को युवाओं का भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ था. परंतु इसलिए नहीं कि वे भ्रष्टाचार से सचमुच आजिज आ चुके थे और अवसर मिलते ही उसकी बांह मरोड़ने को कृतसंकल्प थे. भ्रष्टाचार और जातिप्रथा इस देश की ऐसी दो कुरीतियां हैं जिससे इस देश की जनता पूरी तरह अनुकूलन कर चुकी है. बल्कि देखा जाए तो जातिप्रथा स्वयं एक बड़ा सामाजिकसांस्कृतिक भ्रष्टाचार है जो किसी व्यक्ति की योग्यता को जांचेपरखे बिना, केवल जन्म के आधार पर उसे विशिष्ट सुविधाओं का अधिकारी बना देता है. भ्रष्टाचरण की सुविधाजनक परिभाषा गढ़ते हुए उसको केवल आर्थिक स्वार्थपरता तक सीमित कर दिया गया, जिसपर रोकथाम के लिए वर्तमान कानूनों में ही पर्याप्त प्रावधान है. उसमें कामयाबी नहीं मिल पाती तो इसलिए कि अधिकांश लोग भ्रष्टाचार को लेकर दोहरे मापदंड के शिकार हैं. ज्यादातर को भ्रष्टाचार से शिकायत सिर्फ इसलिए है कि वे उसके अवसरों से वंचित हैं. ऊंचे पदों पर विराजमान शक्तियों में अपनेअपने स्वार्थ को लेकर समझौता है. वे एकदूसरे के भ्रष्टाचार पर पर्दा डाले रखती हैं.

 उचित होता कि टीम अन्ना भ्रष्टाचार तथा दूसरे मुद्दों की उपयोगिता पर व्यापक बहस चलाती. इसके बावजूद अगस्त आंदोलन केवल ‘जनलोकपाल’ लाने की जिद तक सिमटा रहा. हाल का आंदोलन भी तथाकथित भ्रष्ट मंत्रियों को सजा दिलवाने के लिए विशेष जांच दल गठित करने की मांग से आगे नहीं बढ़ पाया. इससे जाहिर होता है कि स्वयं अन्ना हजारे और उनके साथियों का मौजूदा लोकतांत्रिक संस्थाओं पर संदेह है. उल्लेखनीय है कि टीम अन्ना को अगर इन मंत्रियों के भ्रष्टाचार से सचमुच अत्यधिक पीड़ा है तो वह इनके विरुद्ध न्यायालय में जा सकती थी. उसके सदस्यों में दो इस देश के वरिष्ठ और जानेमाने वकील हैं, जो सरकार को वैधानिक तरीके से चुनौती पेश कर सकते थे. अगस्त आंदोलन की सफलता को दोहराने के मोह में उन्होंने आंदोलन का रास्ता चुना, जो सरकार की हठधर्मी के कारण विफल सिद्ध हुआ.

टीम अन्ना के अनुसार वह लोकशक्ति को जागरूक करना चाहती है. लेकिन उसकी सीमा है कि वह समाज के सभी वर्गों विश्वास जीतने में असफल रही है. अगस्त आंदोलन की कामयाबी के पीछे एक सच यह भी था कि उसके साथ आरक्षण व्यवस्था से स्वयं को घाटे में समझने वाला युवावर्ग उत्साहपूर्वक जुड़ा था. जनांदोलन के नाम पर दबाव की राजनीति उसके लिए लिटमस टेस्ट की तरह थी. यदि उस आंदोलन में अन्ना पूरी तरह कामयाब हो पाते तो निश्चय ही वह वर्ग ऐसे किसी आंदोलन का प्रयोग दबाव की राजनीति के रूप में आगे भी करता. इस मुद्दे को लेकर टीम अन्ना का सोच क्या है यह तो वही जाने, लेकिन वह अपने समर्थन में उतरे उन युवकों के मन को समझ रही थी, इसलिए जनलोकपाल आंदोलन से देश के सभी वर्गों को जोड़ने की अपील अगस्त आंदोलन के सबसे अंतिम दिन, बहुत ही दबे मन से की गई थी. तब तक दलित वर्ग रामलीला मैदान में उमड़ी युवाओं की भीड़ के मन को समझ चुका था. मन में शंका लिए वह निरंतर अन्ना के आंदोलन से कटता चला गया.

 टीम अन्ना को चाहिए था कि वह उस अविश्वास को दूर करने का प्रयास करती. लेकिन विचारहीनता के संकट और दूरदृष्टि की कमी में उलझी टीम अन्ना अपनी नीति स्पष्ट न कर सकी. रामलीला मैदान में अन्ना हजारे के समर्थन में उमड़ी भीड़ को देख सरकार आंदोलन के दबाव में जरूर नजर आई थी, लेकिन बाद में कूटनीतिक तरीके से उसने जनलोकपाल को ठंडे बस्ते में डाल दिया. साथ ही फेसबुक पर होने वाली अनर्गल, भड़ासनुमा टिप्पणियों की रोकथाम के लिए उसने कानून का सहारा लिया. फलस्वरूप छद्म पहचान के जरिए अनर्गल टिप्पणियां करने वाला समूह, जो अगस्त आंदोलन में सक्रिय था, फेसबुक से नदारद होने लगा.

अब जब टीम अन्ना सक्रिय राजनीति में जाने की घोषणा कर चुकी है तो एक बार फिर उसकी निष्ठा और वैचारिक प्रतिबद्धता को लेकर सवाल उठाए जाएंगे. इसलिए कि देश में नेताओं की कमी नहीं है. टीम अन्ना को अपने आंदोलन के लिए कार्यकर्ता मिलें न मिलें, चुनावों में मतदाताओं के लिए उसको भले ही तरसना पड़े, लेकिन नेताओं की उसके पास कमी नहीं होगी. एक बार आवाह्न करने की देर है, हजारों लोग उसके बैनर के नीचे चुनाव लड़ने को खड़े होंगे. अपनीअपनी ईमानदारी की तख्ती उठाए, आत्ममुग्ध और बड़ेबड़े प्रशस्तिपत्र हाथ में लिए. उस समय टीम अन्ना किस आधार पर निर्णय लेगी! कैसे उनमें से सत्यनिष्ठ और प्रतिबद्ध नेताओं को खोज निकालेगी, यही उसकी सफलता की कसौटी होगी. आज विधायकी का चुनाव लड़ने के लिए भी कम से कम तीसचालीस लाख की जरूरत पड़ती है. उनके लिए धन कहां से लाएगी. अभी तक जो कारपोरेट घराने उसकी आर्थिक मदद करते आए हैं, राजनीति में आमनेसामने होने पर वे कितने सहायक होंगे, यह आने वाला समय ही बताएगा.

 ऐसा नहीं है कि अच्छे लोग चुनाव मैदान में आते ही नहीं हैं. किशन पटनायक, प्रकाश झा जैसे प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता चुनावों में उतरते ही रहे हैं. लेकिन लोकप्रिय राजनीति पर पकड़ न होने के कारण उनकी उपस्थिति केवल प्रतीकात्मक बनकर रह जाती है. इसके लिए टीम अन्ना कौनसे हथकंडे अपनाएगी, यह तो वही जाने, फिलहाल उसके सामने अपने उद्देश्य की प्रामाणिकता और लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता को दर्शाने की बड़ी चुनौती होगी. इससे भी बड़ी चुनौती होगी, स्पष्ट विचारधारा, ठोस एजेंडे और सार्थक विकल्प के साथ जनता के सामने उपस्थित होने की, जिससे वह अभी तक बचती रही है. फिलहाल तो टीम अन्ना का आंदोलन दिशाहीन हो, बिखर गया लगता है.

 © ओमप्रकाश कश्यप

दो आसमानों के बीच: समापन किश्त

यात्रा संस्मरण

चार किलोमीटर की चढ़ाई के लिए गाड़ी पर पंद्रह मिनट का समय लगा. पहाड़ की चोटी पर मानो पूरा नगर बसा हुआ था. वहीं बीच चौक में ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी. चौक से मात्र पचास कदम दूर था नीलाचल पहाड़ी के शीर्ष पर ऊर्ध्वाधर खड़ा कामाख्या मंदिर. मुक्त आकाश से बतियाता हुआ. मंदिर के उत्तुंग शिखर को देखकर लगता था मानो उसके गर्भ में नीचे, मंदिर के प्रांगण में धर्म और आस्था के नाम पर जो कारोबार चलता है, उस ओर वह शायद ही देखता हो. शिखर की निगाह या तो दूर आसमान में तैरते बादलों पर जाती होगी, यदि कभी झुकें तो सीधे ब्रह्मपुत्र की विशाल जलराशि पर. आखिर पानी तो जड़जंगम को भी चाहिए ही.

मेजबान और सहयात्री आस्था में डूबे हुए, आगे बढ़ रहे थे. मैं पीछे था. आगे की अपनी भूमिका के बारे में अनुमान लगाता, अपने विश्वास को तौलता हुआ. मैं मन ही मन उन उन कारीगरों का चित्र अपने मनस् में बनाने की कोशिश कर रहा था, जिन्होंने रातदिन एक कर इस मंदिर का निर्माण किया था. बारीक नक्काशी का हुनर हासिल करने के लिए पहले वर्षों तक खुद को तराशा था, और बाकी की जिंदगी इस मंदिर को तराशने में खपा दी. क्या राजा सही मायने में उनके कला का मूल्यांकन कर पाया होगा! सुना है ऐसी विलक्षणभव्य इमारतों का निर्माण करने के बाद कारीगरों के हाथ काट दिए जाते थे. ताकि वे वैसी दूसरी कोई इमारत खड़ी न कर सकें. खुद को बाकी राजाओं से अलग दिखने के लिए सनकी सम्राट ऐसे कुकर्म करते ही रहे हैं. हम तो गाड़ी पर सवार होकर मजे से शीर्ष तक चले आए. जिस राजा ने इसका निर्माण करवाया वह भी पालकियों पर सवार होकर इसी तरह ऊपर चढ़ आया होगा. अपनी रानियों, मंत्रियों, संतरियों और कारिंदों के साथ. न उसको पसीना बहाना पड़ा न हमें. पर जिन्होंने पहाड़ी को काटकर यह रास्ता बनाया. मंदिर बनाने के लिए पत्थरों को तराशा, निर्माण सामग्री को दूर मैंदानों से लाकर यहां चोटी पर पहुंचाया. वे कितने पानीदार, जीवट वाले और उत्साही लोग रहे होंगे. या यह सब उन्होंने विवश होकर किया होगा?

पचास रुपये बतौर रिश्वत चढ़ावे में देकर सहयात्री और मेजबान मंदिर का गर्भद्वार खुलवाने में सफल हो चुके थे. भीतर अंधेरा था. कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था. सहयात्री और मेजबान मेरे आगे थे. मुझे नहीं लगता कि उन्होंने भी कुछ देखा हो. पर सहयात्री और मेजबान दोनों की आंखें श्रद्धावनत थीं. मेरा व्यवहार मेजबान को कुछ अजूबा लगा हो. निस्पंद खड़ा देख उन्होंने मुझसे भी देवी की अभ्यर्थना करने को कहा था. मैं मौन रहा. प्रतिवाद का मतलब था उनकी आस्था को ठेस पहुंचाना. उस सुंदर आतिथ्य का अपमान जो अभी तक हमारे लिए करते आ रहे थे. उस क्षण मैं सोच रहा था कि जिस देवी को हम इस अनंत सृष्टि की पालक, संहारकर्ता, निर्मात्री, सब मानते हैं, जिसमें समाये अनेकानेक ब्रह्मांडों के आगे इंसान तो क्या, स्वयं पृथ्वी का अस्तित्व नदी किनारे पड़े रेत कण जितना हो, उसके आगे धरती के एक क्षुद्र इंसान की गर्दन दो इंच उठाने या झुकान से क्या अंतर पड़नेवाला है! अंतर पड़ता भी हो उन पंडेपुजारियों के लिए जिनका कारोबार धर्म को कर्मकांड बनाए रखने पर निर्भर है, जो मनुष्य के विवेकीकरण से घबराते हैं तथा जैसे भी हो यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं.

देवी अभ्यर्थना के बाद लौटने की बारी थी. ड्राइवर हमें और ऊपर की ओर ले गया. वहां एक दर्शनस्पॉट था. उस स्थान से खड़ा होकर देखने पर गुवाहाटी शहर बिजली के बल्वों से झिलमिलाते टापू जैसा लग रहा था. ब्रह्मपुत्र की अथाह जलराशि का आकलन रात में संभव न था. परंतु पानी में झिलमिलाती तरहतरह की रोशनियां अलग ही नजारा पेश कर रही थीं. ऊपर से गहनजलराशि को छूकर आती ठंडी हवा. मन को भीतर तक शीतलता से भर जाती थी. हमें बताया गया था कि कुछ दिन बाद अंबुमासी मेला लगने वाला है. रास्ते के किनारे गाढ़े गए बांस बता रहे थे कि तैयारियां जोरों पर हैं. कुछ ही दिनों बाद यहां श्रद्धालुओं का हुजुम जुड़ने वाला है.

अंबुमासी का मतलब तो बाद में पता चला. असमवासी वर्ष में एक बार अंबुमासी के रूप में देवी के मासिकधर्म को पर्व की तरह मनाते हैं. हिंदुस्तान के बहुत से समाजों में मातृशक्ति की पूजा आज भी प्रचलित है. सभ्यता के आदिकाल से यह प्रथा चली आ रही है. खासकर जनजातियों में जहां प्रकृति के अपार वैभव के बीच जीवन बहुत विरल था. वहां जीवनचक्र को बनाए रखने के प्रयास भी स्तुत्य माने जाते थे. वही शिवलिंग की पूजा का आधार बने. वही मातृ शक्ति की अराधना का. हिंदुस्तान में जहांजहां देवी के मंदिर हैं, उनकी महिमा बनाए रखने के लिए उनमें से प्रत्येक को देवी के किसी न किसी अंग के गिरने से जोड़ा गया है. जहां कामाख्या का मंदिर है, वहां देवी का योनि भाग गिरा था. यह तांत्रिकों का प्रसिद्ध पीठ है. आमतौर पर कहा जाता है कि गौतम बुद्ध ने बौद्धधर्म के प्रचारप्रसार के लिए जो बौद्ध विहार बनवाए थे, वहीं कालांतर में मठ में रहने वालों के भोगविलास का कारण बन गए. उनमें मुक्त काम पनपने लगा, वही अंततः उनके पतन का कारण भी बना. भारतीय संस्कृति में योनि पूजा नई बात नहीं, बल्कि शताब्दियों से चली आ रही परंपरा है. अपनी यौनलिप्सा को संतुष्ट करने के लिए वैदिक पुजारियों ने यज्ञादि कर्मकांड को भी माध्यम बनायात्र. वौद्धधर्म के पराभव के दौर में वे रीतियां अपने रहस्यमयी आवरण के साथ तांत्रिक क्रियाकलापों में ढल गईं. परिणामस्वरूप बौद्ध मठों में मुक्त काम को जगह मिलने लगी. इससे तंत्र मार्ग का जन्म हुआ. देवीअराधना के नाम पर योनि पूजा और मुक्त कामाचार केवल बौद्धविहारों तक सीमित नहीं था. उसकी नींव महाकाव्य काल तक आतेआते चढ़ चुकी थी. मनुस्मृति के बाद ब्राह्मणवर्ग लोगों को यह समझाने में सफल हो चुका था कि संपूर्ण सृष्टि उसकी है. यहां तक कि स्त्रियां भी. इसलिए स्त्रियों में मुक्त भोग का खेल वैदिक काल में ही खेला जाने लगा था. उसी ने नियोगप्रथा को जन्म दिया. नियोग के लिए ब्राह्मण सर्वाधिक उपयुक्त पात्र है. यह भी शास्त्रसिद्ध बताया गया. रामायण के राम तथा उनके बंधु तथा महाभारत के पांच पांडवों को वीरता में अद्वितीय माना गया है. हमारा इरादा अर्जुन के समक्ष एकलव्य को खड़ा करके द्रोणाचार्य के छल को सामने लाना नहीं है. इतिहास उनके पाखंड को स्वयं तारतार कर चुका है. हम तो बस इतना याद दिलाना चाहते हैं कि रामायण और महाभारत दोनों के महानायक, महाकाव्यों के अद्वितीय वीर यानी चारों दशरथ पुत्र तथा पांचों पांडव नियोगसंतान हैं. क्या यह अन्यथा है? इस बात पर विमर्श अपेक्षित है कि कहीं यह नियोग को बढ़ावा देने का छल तो नहीं? यह कि ब्राह्मण की औरस संतान ही अद्वितीय वीर हो सकती है?

नीलाचल पर्वतमाला से ब्रह्मपुत्र तथा गुवाहाटी का विहंगावलोकन करने के बाद हम होटल वापस पहुंचे तो दस बज चुके थे. शरीर में थकान, आंखों में नीद दस्तक देने लगी थी. देह पर थकान ने कब्जा किया तो उसकी सहोदरा नींद भी आंखों के रास्ते उतरने लगी. दिल्ली की कूलर या एयरकंडीश्नर की बनावटी ठंडक से कुदरती शीलतता में अलग आनंद था. इसलिए भोजन के बाद नींद आई तो सुबह होने पर ही आंखें खुलीं. अगला दिन, अगली यात्रा. यह निर्णय लेने के बाद ही हमने एकदूसरे को शुभरात्रि कहा था.

सुबह का नाश्ता, आराम से केंटीन में किया. टेलीविजन, देखते हुए. दिल्ली में कांग्रेस प्रणव दा को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर चुकी थी. उनको समर्थनविरोध पर विभिन्न दलों की राजनीति जारी थी. व्यावसायिक चैनलों की खूबी देखिए कि उन्होंने खबरों को भी मनोरंजन का माध्यम बना दिया है. उसके चलते राजनीतिक समाचार भी अच्छेखासे प्रहसन लगने लगे हैं. उस समय भी टेलीविजन पर ऐसा ही प्रहसन जारी था. राष्ट्रपति गरिमामय पद है, उनका चुनाव भी गरिमापूर्ण होना चाहिए. परंतु यह प्रत्येक बात में मुनाफा और धंधागिरी करने वाले नेताओं की समझ आए तब न! भारतीय राजनीतिक दल जिस प्रकार स्वार्थी आचरण करते हैं, उससे तो देश का लोकतंत्र ही खतरे में नजर आने लगा है.

ठीक दस बजे होटल छोड़ा तो मन काफी शांत था. किसी भी नए शहर की सड़कों को सुबह की ताजगी में देखना यादों को गाढ़ा कर लेने जैसा जरूरी उपक्रम है. सहयात्री बहुत ही संवेदनशील हैं. उनका एक ही शौक, हर खास दृश्य, को अपने मोबाइल कैमरे में कैद कर लेना. कहीं सीधे फोटो, तो कभी वीडियोग्राफी के माध्यम से. उनका फोन हाथ से छूटता नहीं था. राजनीति में फुर्सत के क्षण बहुत कम आते हैं. उन व्यस्ततम क्षणों में एक पल को इन चित्रों को देखकर कुछ क्षणों के लिए तनाव से मुक्ति पाने का यह उनका अपना रास्ता है. चलने से पहले ही उन्होंने ड्राइवर से कह दिया था कि गाड़ी ब्रह्मपुत्र के घाट पर खड़ी करना. ताकि दिन के उजाले में ब्रह्मपुत्र के वैभव को जीभर निहार सकें. ड्राइवर ने मन की बात पकड़ ली. उसने गाड़ी को वहीं खड़ा किया जहां से ब्रह्मपुत्र साफ नजर आती थी. किनारे पर मजदूर बांसों की धुलाई कर रहे थे. उसी ने बताया कि ऊपर बांसों की खेती होती है. वहीं से वे यहां तक बहा कर लाए गए हैं. बहकर आए बांसों का किनारे जमघट लगा था. मानों दर्जनों नावों ने एकसाथ किनारे आकर लंगर डाल लिया हो. उस ओर गांव था, ड्राइवर हमें बता रहा था कि गुवाहाटी के लिए दूध की आपूर्ति उसी दिशा से होती है.

बांसों के ऊपर चढ़कर देखने से ब्रह्मपुत्र के बहाव को सीधे अनुभव किया जा सकता था. नीचे नदी की वेगवती धारा. मैं नदी के वैभव में डूबा हुआ था. जबकि सहयात्री को वहां के चित्र लेने की धुन सवार थी. जब से आए हैं उनका मोबाइल कैमरा लगातार चल रहा था. नदी किनारे झौपड़ियां पड़ी थीं. खाली. उनमें मजदूर परिवार आकर बसर करते होंगे. कड़ी मेहनत के बाद थकन मिटाने के लिए भी ये झोपड़ियां सिर पर छाया देने का काम करती होंगी. ब्रह्मपुत्र का विराट वैभव देखकर गंगा का चौड़ा पाट नजर आने लगा. बचपन में कई बार उसको देखा था. गढ़मुक्तेश्वर पर गंगा इसी तरह विराटरूप लेकर बहा करती थी. अब वह सिकुड़ने लगी है. फिर भी दिल्ली की यमुना से लाख दर्जे बेहतर. यमुना तो गंदानाला बनकर रह गई है. अपनी आर्थिक प्रगति पर इतराने वाली दिल्ली प्राकृतिक संसाधनों के मामले में कितनी कंगाल है, यह साफ नजर आ रहा था. संभव है अपनी आर्थिक ताकत के बल पर वह कुछ दशक और अपनी कंगाली को छिपा सके. लेकिन एक न एक दिन तो असलियत सामने आएगी ही.

विमान ने गुवाहाटी की उड़ान भरी तो मन वहां की यादों से भराभरा था. मेजबान का आत्मीय व्यवहार. निश्छल, प्यारे, सरलमना लोग. राजधानी होने के बावजूद गुवाहाटी अपने कस्बाई चरित्र को नहीं भुला पाया है. यह इस बात का प्रतीक है कि वहां की मिट्टी अपने लोगों को इतनी जल्दी नहीं भुलाती. लौटते हुए रहरह कर याद आ रहा था, राज्यपाल का वह गमन. जिसमें उनके आगेपीछे पचीसतीस कारों का कारवां था. सारा ट्रैफिक रोक दिया गया था. बीस मिनट से अधिक हमें चौराहे पर ही बिताने पड़े थे. इस देश में लोकतंत्र को आए 65 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन लोकतंत्र के झंडे तले सत्ता पर विराजमान होने वाले यहां के हुक्मरान, आज भी अपने चरित्र को लोकतांत्रिक भावना के अनुरूप नहीं ढाल पाए हैं. संविधान उनके लिए महज औपचारिक व्यवस्था है. एक ढाल जिसके पीछे वे अपने सामंती चरित्र को छिपाये रहते हैं.

विमान एक बार फिर दो आसमानों के बीच उड़ रहा था. ऊपरनीचे बादल ही बादल. नीम बेहोशी में डूबे. हौलेहौले चहलकदमी करते, आसमान में कुलांचे भरते, नन्हे मृगछौने से बादल. आसमान में व्यावहारिक दिशाबोध काम नहीं करता. जैसे बादल इस ओर हैं, ठीक वैसे ही बादल, ठीक ऐसा ही आसमान, ठीक ऐसे ही नीलाचल पर तैरतीं, श्वेत कपासी चट्टानें. हिमालय के उस पार चीन में भी होंगी. ऐसे ही बादल भूटान, नेपाल, तिब्बत, बर्मा आदि उस पार के देशों में भी होंगे. आदमी की हवस का सिक्का सिर्फ धरती पर चलता है. अच्छा ही है, जो आसमान को वह बांट नहीं पाया है. कुछ औपचारिक विभाजन आसमान का भले ही हुआ हो. हमारी धरती से ऊपर, फलां ऊंचाई तक का आसमान हमारा है. पर यह आसमान धरती की कक्षा के साथ ही अपनी जगह बदलता रहता है. आदमी की हवस का सिक्का आसमान पर चल ही नहीं सकता.

गुवाहाटी से डिब्रूगढ़….केवल पचपन मिनट का सफर. चालक दल विमान के उतरने की घोषणा कर कर रहा था‘अब से थोड़ी ही देर बाद हम डिब्रूगढ़ में होंगे. यात्री कृपया अपनी सीटबैल्ट बांध लें. खूबसूरत शहर डिब्रूगढ़ में आपका स्वागत है.’

डिब्रूगढ़! पहाड़ की गोद में बसा छोटासा शहर. डिबू्रगढ़ नाम बना है ‘डिब्रामुख’ से. यहां कभी अहोम राजाओं की छावनी हुआ करती थी. कुछ लोग मानते हैं कि ‘डिब्रू’ शब्द ‘डिबारू’ या ‘दिमसा’ नदी से निकला है. एक परंपरा के अनुसार ‘दिमसा’ का अर्थ ‘विशाल नदी का शहर’ भी है. ब्रिटिश इस शहर में 1826 में कदम रख चुके थे. अंग्रेजों को डिब्रूगढ़ की भौगोलिक स्थिति इतनी पसंद आई थी कि यहां फौरन अपना व्यापारिक और प्रशासनिक कार्यालय बना लिया. 1840 में इसे लखीमपुर जिले का मुख्यालय बनाया गया. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान यह शहर ब्रिटिश सेना का मुख्यालय बना. युद्ध के दौरान बर्मा से विस्थापित शरणार्थियों के लिए यह शरणस्थली बना. जनसंख्या के हिसाब से देखें तो डिब्रूगढ़ गुवाहाटी और जोरहट के बाद असम का तीसरा सबसे बड़ा शहर है. फिर भी कुल जनसंख्या मात्र तीन लाख. उत्तर भारत किसी छोटे शहर जितनी.

एयरपोर्ट से बहार निकले तो अगवानी के लिए यहां भी लोग तैयार थे. वही आत्मीय व्यवहार. वैसा ही दिल को छू लेने वाला संबोधन. सड़क संकरी थी. पर आसपास प्रकृति का वैभव मानो बिखरा पड़ा था. अतुलनीय सौंदर्य. ऐसा कि निगाह टिकी की टिकी रह जाए. सड़क के दोनों और चाय के बागान. दूर जहां तक नजर जाए, हरियाली ही हरियाली. लोग इसे ‘भारत का चाय का शहर’ कहते हैं तो वे गलत नहीं हैं. डिब्रूगढ़ को भारत के तीन प्रमुख चाय उत्पादक जिलों, तिनसुकिया, सिवसागर और स्वयं डिब्रूगढ़ का प्रवेश द्वार माना जाता है. देश के कुल चाय उत्पादन का आधा हिस्सा इन्हीं तीन जिलों से आता है. यहां गुवाहाटी जैसी भीड़भाड़ नहीं. न ही सड़कों पर अवैध कब्जादारी. प्राकृतिक वैभव ने यहां के निवासियों को संतोषी बना दिया है.

गाड़ी जहां रुकी वह डिब्रूगढ़ का पॉश इलाका था. होटल भी वहां के अच्छे होटलों में गिना जाता होगा. हालांकि दिल्ली के हिसाब से वह रेलवे स्टेशन के आसपास बने सस्ते विश्रामग्रह जैसा ही था. अधिक ठहरने का समय न था. डिबू्रगढ़ शहर और वहां के पठारों, नदियों का अवलोकन करना था. उसी शाम डिब्रूगढ़ की दलित बस्तियों में घूमने का अवसर मिला. पूरे नगर की साजसफाई की जिम्मेदारी संभालने वालों की हालत दिल्ली की किसी मलिन बस्ती से भी हजार गुना खस्ता थी. टीन के आठ बाई बारह के खोलीनुमा घर. सीलन और बदबू से बेहाल. छत पर प्लास्टिक, पोलीथीन, बांस की टाटियों सं बनी झोपड़ियां. सड़क से नीची. इतनी की गली का पानी सीधे झोपड़ी में जाकर रुके. कुम्हलाया बचपन. यूं तो दिल्ली में भी कई भारत बसते हैं. पर यह तस्वीर उस भारत की थी, जिसके अभी तक दर्शन नहीं हो पाए थे. लोकतंत्र का उत्सव तो यहां भी मनाया जाता होगा. हर पांच वर्ष में उम्मीद की गठरियां खोली जाती होंगी. पर पांच वर्ष ऐसे ही बीत जाते हैं, उन गठरियों की सौगात इन तक पहुंच ही नहीं पाती. छह फुट लंबा, चार फुट चौड़ा और लगभग डेढ़ फुट गहरा हथठेला. जिसे वे लोग शहर का कूड़ा यहां से वहां पहुंचाने के लिए काम में लाते हैं. कालोनी के सिरे पर ही एक अपेक्षाकृत पक्का कमरा था. सामने आंबेडकर जी की तस्वीर. अपनी कालोनी की तरह की खस्ताहाल. उसके आगे विद्यालय लिखा था. पर क्या वह सचमुच विद्यालय ही था! यहां बढ़कर जो विद्यार्थी बाहर निकलते होंगे, वे कितना आगे तक जाते होंगे. उनके सपने यहीं कीचड़ में दम तोड़ लेते हैं. ऐसे स्कूलों को उन लोगों को अवश्य दिखाया जाना चाहिए जो आरक्षण का विरोध करते हैं. जिन बच्चों को समय पर खाना, पेटभर भोजन, पहनने को कपड़े, पढ़ने को किताबें, सिर पर छत तक उपलब्ध नहीं, वे स्पर्धा के मामले में कितना टिक सकते हैं. उन लोगों के आगे तो सुविधासंपन्न एयरकंडीशनड विद्यालयों में पढ़े हैं. मेरे सहयात्री उनके लिए एक उम्मीद थे. बस्ती का युवक बता रहा था कि उसके दादेपरदादे असम के शासकों के बुलावे पर वहां पहुंचे थे. तीनचार पीढ़ियां वहीं गुजर चुकी हैं. इसके बावजूद उन्हें वहां का स्थायी निवासी नहीं माना जाता.

डिब्रूगढ़ के प्राकृतिक वैभव ने मन लुभाया था. पर उस बस्ती से गुजरने के बाद यात्रा का आनंद हवा हो चला था. अब वापस लौटना था. उस रात ढंग से सो भी न पाया. अगले दिन चाय बागान देखने का अवसर मिला. ब्रह्मपुत्र के दर्शन भी किए. पाट तक गए. असम की बोडो समस्या के बारे में भी पता चला. लेकिन बीते दिन की यादों ने पीछा नहीं छोड़ा. वे मुझे मनुष्यता के नाम पर गाली लगती रहीं. जहां एक ओर मीलों तक फैले चायबागान हों, धरती के वैभव का प्रदर्शन करती नदियां, ऊंचे पहाड़ और बेशुमार हरियाली हो. वहीं दूसरी ओर कीचड़सनी, भूख, बेकारी, गरीबी और गिजालतभरी जिंदगी हो, वहां ऐसे विद्रोही स्वरों का उभरना असामान्य नहीं. रूसो ने कहा था कि आदमी आजाद जन्मता है. लेकिन वह हर कहीं कैद में है. किसी और ने नहीं उसको इंसान ने उसके लिए बेड़ियां इंसान ने ही तैयार की हैं. इसलिए उत्पीड़ितों के न्याय के लिए विरोध के स्वर उभरना अवश्यंभावी है. भरपूर प्राकृतिक संपदा के बीच अमानवीय जिंदगी ये दस्तावेज इन संभावनाओं को और बढ़ा देते हैं.

वापसी में उड़ान चालीस मिनट के लिए कोलकाता में ठिठकी थी. कोलकाता भारतीय चेतना का शहर. महर्षि अरविंद, सुभाषचंद बोष और ऐसे ही न जाने कितने बंगवीरों, विद्वानों और महात्माओं की धरती. ममता दीदी का राज्य….उनकी राजनीति के बारे में तो नहीं मालूम, प्रथम दृष्टया वे मुझे ‘राजनीति की हरावल लेडी’ जान पड़ती हैं. कोलकाता से उड़ान भरी तो तेज हवाएं चल रही थीं. बादल कुछ और बोझिल हो चले थे. द्रवभार से झुकेझुके नजर आ रहे थे. बीच रास्ते दो बार चालक दल को सीटबेल्ट बांध लेने के निर्देश देने पड़े. थोड़ी घबराहट हुई. परंतु हवा के झोंके की तरह वह वक्त भी गुजर गया. अब दिल्ली करीब थी. अपनी उमस, प्रदूषण, भीड़भाड़, ट्रेफिक जाम, नाजनखरे, वैभव और अपनी समस्त राजनीतिक चालकुचाल के साथ.

© ओमप्रकाश कश्यप