कार्ल मार्क्स : वैज्ञानिक समाजवादी

‘हालांकि उनका दावा एक सभ्य समाज का था, परंतु उनके फीते बनाने के कारखानों में काम करने वाले अधिकांश बाल मजदूर गंदी, अभावग्रस्त और अमानवीय स्थितियों में कार्य करते थे. एक ही स्थान पर रहते हुए उन्हें वर्षों बीत जाते थे. इस बात का पता भी नहीं चल पाता था कि उनसे परे की दुनिया कैसी है. नौ-दस वर्ष के मासूम बच्चों को सुबह मुंह-अंधेरे चार बजे, और कभी-कभी तो प्रातः दो बजे से ही उनके गंदे बिस्तरों से खींचकर काम पर झोंक दिया जाता, जहां उन्हें बिना किसी विश्राम के, मात्र इतने-से भोजन पर कि वे किसी तरह जीवित रह सकें, रात के दस, ग्यारह और कभी-कभी तो बारह बजे तक काम करना पड़ता था. उनका बदन नंगा रहता. चेहरे भूख और कुपोषण से सफेद पड़े होते, आंखें हताशा से पथरा-सी जाती थीं. इस तरह विकट अमानवीय स्थितियों में उनसे काम लिया जाता था.’1

पूंजीवादी कारखानों में कार्यरत बाल मजदूरों के शोषण तथा उनकी अमानवीय परिस्थितियों की ओर इशारा करते हुए ये शब्द मार्क्स ने अपने ग्रंथ ‘पूंजी’ में व्यक्त किए थे. उस समय उसका इशारा यूरोपीय पूंजीवाद प्रेरित औद्योगिकीकरण के परिणामस्वरूप उत्पादन-व्यवस्था और तदनुसार समाज पर पड़ रहे दुष्प्रभावों की ओर था. उसने लिखा था कि पूंजीवाद ने मजदूर को भी एक ‘उपभोक्ता वस्तु’ में बदल दिया है, जिसका वह मनमाने तरीके से उपयोग करता है. चार खंडों में लिखे गए महाग्रंथ ‘पूंजी’ का पहला खंड 1867 में प्रकाशित हुआ था. उस समय मार्क्स की अवस्था करीब पचास वर्ष थी.इस तरह वह एक अनुभवी और तपे-तपाए वुद्धिजीवी का मनुष्यता के प्रति महान रचनात्मक अवदान था. बाजार में आते ही यह पुस्तक श्रम-आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं, विचारकों, वुद्धिजीवियों और आंदोलनकारियों का धर्मग्रंथ बन गई. मार्क्स का सपना पूरे मानव-समाज का सपना और उसके शब्द करोड़ों लोगों के लिए मुक्ति का मंत्र बन गए.

पूरी दुनिया को संघर्ष के लिए प्रेरित करने वाला मार्क्स अक्सर बीमार रहता था. उसके अपने बच्चे समय पर इलाज न मिलने के कारण मौत की भेंट चढ़ चुके थे. एक बार जब वह सेना में भर्ती के लिए भर्ती-स्थल पर पहुंचा तो सीने में कफ जमा होने के कारण डा॓क्टर ने उसको अयोग्य ठहरा दिया. एक तरह से यह अच्छा ही हुआ. भर्ती हो जाता तो किसी सम्राट-सामंत के लिए अपना खून जाया करता. राजभक्ति के नाम पर निर्दोष सैनिकों का खून बहाता. मगर नियति ने तो उसको मजदूर और किसानों के लिए पसीना बहाने के लिए जन्मा था. स्वभाव से स्वप्नदृष्टा और मन से कवि मार्क्स ने भर्ती से नकारे जाने के बाद, खुद को कानून और दर्शनशास्त्र के अध्ययन के लिए समर्पित कर दिया था. उसने इतिहास और राजनीति का भी गहन अध्ययन किया. गरीब मजदूरों के संघर्ष को जानने के लिए वह उनके बीच एक साधारण मजदूर की भांति रहा. कलम का मजदूर, जिसके शब्द अपने वर्ग की पीड़ा, हताशा और सपनों भरे-भरे रहते थे. उसके व्यक्तिगत जीवन के बारे में और अधिक जानने से पहले उचित होगा कि एक सरसरी नजर तत्कालीन यूरोप की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों पर भी डाल ली जाए.

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पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी से प्रारंभ हुआ अनियोजित औद्योगिकीकरण यूरोप के प्रायः सभी देशों में अराजक रूप ग्रहण कर चुका था. उससे औद्योगिक उत्पादन में तो निश्चय ही वृद्धि हुई थी. लोगों की जीवन-स्तर में सुधार भी देखने को मिला था. किंतु उसके नकारात्मक प्रभाव, विशेषकर उत्तरोत्तर बढ़ती आर्थिक असमानता और बेरोजगारी, विज्ञान और प्रौद्योगिकी की समस्त उपलब्धियों पर पानी फेरने को उतारू थे. एक ओर तो औद्योगिक सभ्यता विकास की डगर पर तेजी से गतिमान थी. नवीन कारखानों की गिनती दिनोंदिन बढ़ रही थी, साथ में उनकी उत्पादन क्षमता भी. प्रौद्योगिकी में सुधार के लिए शोध और विनिर्माण के क्षेत्र में तेजी से काम हो रहा था. दूसरी ओर श्रमिकों और कामगारों के शोषण का भी वह अभूतपूर्व युग था. फैक्ट्रियों में काम के घंटे तय नहीं थे. मजदूरों को दिन में सोलह-सोलह घंटे लगातार काम करना पड़ता था. स्त्री और पुरुष के वेतन में भेद किया जाता. समान कार्य के लिए स्त्री कामगार को पुरुष कामगार की अपेक्षा कम वेतन मिलता. बाल-श्रमिकों की हालत तो और भी बुरी थी. यदि किसी से कोई चूक हो जाए तो भरपाई उसकी मजदूरी से कर ली जाती थी. बुनकर, रंगरेज, दर्जी, मोची, जुलाहे आदि शिल्पकारी के जाने-माने क्षेत्र जो कुछ वर्ष पहले तक सम्मानजनक आजीविका देने वाले रोजगार माने जाते थे, मशीनों के आगमन के पश्चात उनकी स्थिति बहुत दयनीय हो चुकी थी. वे हुनरमंद लोग अब कारखानों में मामूली नौकरी करने को विवश थे.

उत्पादन प्रक्रिया में हस्तकौशल का महत्त्व घटने से अर्धकुशल अथवा अकुशल मजदूरों से भी काम चलाया जा सकता था. इसीलिए अधिकांश उद्यमियों ने नैतिकता को ताक पर रख, अपने कारखानों में बालश्रमिकों की भर्ती करना आरंभ कर दिया था. उन्हेें बहुत कम वेतन पर काम पर रखा जाता. ऐसी परिस्थितियों में काम लिया जाता था, जो कहीं से भी मानवोचित नहीं थीं. वैज्ञानिक आविष्कार और प्रौद्योगिकीकरण बच्चों, विशेषकर गरीब बच्चों के लिए बहुत हानिकर सिद्ध हो रहे थे. अठारहवीं शताब्दी फैक्ट्रियों के रूप में उनके लिए मानो कालकोठरियां तैयार कर रही थी. शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास अर्थात हर दृष्टि से बालश्रमिकों की हालत बेहद दयनीय थी। एक ओर जहां पूंजी की मनमानी जारी थी, वहीं दूसरी और उसका सामना करने के लिए बड़े-बड़े समाजविज्ञानी, दार्शनिक, विचारक और साहित्यकर्मी बेचैन थे. पूंजीवाद के दुष्प्रभावों से मुक्ति के लिए तरह-तरह के सुझाव दिए जा रहे थे. अधिकांश लोगों की कल्पना में था॓मस मूर का ‘यूटोपिया’ बसा था, जिसमें उसने व्यंग्य से ही सही, एक समानता-आधारित समाज का सपना देखा था.

इसी सपने को सच करने के लिए संत साइमन, लुईस ब्लेंक ने क्रांतिकारियों का साथ दिया था. फ्रांसिस बेकन, वाल्तेयर, रूसो, जेम्स मिल, बैंथम, फायरबाख, फ्यूरियर, हीगेल, प्रूधों, कांट, देकार्ते, ला॓क, जा॓न स्टुअर्ट मिल जैसे विद्वान अपनी कलम के दम पर सामाजिक-राजनीतिक असमानता से जूझ रहे थे. अपने उपन्यास ‘दि क्रिसमस कैरोल’ में चाल्र्स डिकेन्स ने मजदूर बस्तियों का जो हृदय विदारक चित्र खींचा था, उससे पूरे समाज में परिवर्तन की मांग होने लगी थी. इस उपन्यास का एक पात्र ‘स्क्रूज’ कंजूस महाजन के रूप में तत्कालीन शोषक समाज का प्रतिनिधि बनकर उभरा था. एक ओर पूंजीवादी शोषण अपनी चरमावस्था पर था, तो दूसरी ओर उनसे निपटने के लिए भी प्रयास जारी थे. असल में वह सामाजिक हलचल और परिवर्तनों का दौर था. दार्शनिक, विचारक, लेखक, समाजकर्मी, चित्रकार, नाटककार, कवि, कलाकार सभी अपनी-अपनी कला का उपयोग लोकजागरण के लिए कर रहे थे.

यह लोकचेतना अपने समन्वित, प्रखर और परिवर्तनकारी रूप में 10 मार्च, 1848 को उस समय सामने आई जब फीरगस ओ’क्रोनर के नेतृत्व में लगभग तीन लाख चार्टिस्ट आंदोलनकारियों ने समान मताधिकार जैसी लोकतांत्रिक मांगों को लेकर एक विशाल सभा का आयोजन किया था. उस बैठक को लेकर सरकार की गंभीरता और उसके डर का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है, कि उसको नियंत्रित करने के लिए उसकी ओर से लगभग 8000 सैनिक और 1,50,000 विशेष कांस्टेबिलों को नियुक्त किया गया था. वह सभा शांतिपूर्वक संपन्न हुई. आंदोलन के अगले चरण में अपनी मांगों को लेकर ओ’का॓नर के ब्रिटिश संसद के समक्ष करोड़ों नागरिकों द्वारा हस्ताक्षरित एक मांगपत्र प्रस्तुत किया था. ओ’काॅनर का दावा था कि उस मांगपत्र पर 5,70,6000 लोगों ने हस्ताक्षर किए थे. बाद में ब्रिटिश संसद ने स्वीकार किया कि मांगपत्र पर केवल 1,95,7496 नागरिकों के हस्ताक्षर थे. ब्रिटिश संसद ने बाकी हस्ताक्षरों को फर्जी माना था, जबकि ओ’का॓नर का कहना था कि मजदूरों में से अधिकांश अशिक्षित थे, जो अपने स्पष्ट हस्ताक्षर करना जानते ही नहीं थे.
जो हो उन दिनों यूरोपीय पुनर्जागरण की अनुगूंज पूरे विश्व में सुनाई पड़ रही थी. करोड़ों लोगों के अपनी मांगों के पक्ष में संगठित होकर आंदोलनरत होने के पीछे मार्क्स की प्रेरणा थी, उसका ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ उसी वर्ष लंदन में प्रकाशित हुआ था, जिसमें उसने मजदूरों को पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने का आवाह्न किया गया था. उस समय वह क्रांतिकारी विचारक और महान आंदोलनकारी की भूमिका में था. चार्टिस्ट आंदोलन सरकार के दमन का शिकार हुआ, मगर वह मार्क्स के विचारों या आंदोलनकर्मियों की पराजय नहीं थी. वस्तुतः आमूल परिवर्तन की चाहत में चलाए जाने वाले अभियान के जीवनकाल में जय-पराजय के ऐसे दौर अवश्यंभावी होते हैं. वैसे भी मार्क्स उन विचारकों में से था, जिनके विचारों का प्रभाव उनके जीवनकाल से बाद में देखने को मिलता है. उसका चिंतन प्रतिबद्ध होने के साथ-साथ इतना गंभीर और बहुआयामी है कि एक विचारक और आंदोलनकर्मी दोनों प्रेरणा ले सकते हैं.

जीवनयात्रा

उसका पूरा नाम था, कार्ल हेनरिक मार्क्स और जन्मस्थान था, जर्मनी में प्रूशिया की राजधानी ट्रायर. तिथि—5 मई, 1818. पिता हेनरिक मार्क्स शहर के प्रतिष्ठित वकील थे, जबकि उसकी मां का संबंध हालेंड के हेनरिक प्रेसबर्ग नामक स्थान से था. पति-पत्नी दोनों ही यहुदियों के धर्मगुरुओं के परिवार से संबद्ध थे. मार्क्स सहित उसके कुल आठ भाई-बहन थे, जिनमें से चार की बचमन में ही मृत्यु हो चुकी थी. हेनरिक मार्क्स वाल्तेयर और लिंसिंग के प्रशंसक थे. मार्क्स के जन्म से करीब एक वर्ष पहले ही उन्होंने अपेक्षाकृत प्रगतिशील मानी जाने वाली प्रोस्टेंट चर्च, इवांलिकल एस्टाब्लिस्ड से धर्म-दीक्षा ली थी. वकालत के पेशे को अपनाने के लिए यह आवश्यक भी था. प्रगतिशील और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के प्रति सचेत हेनरिक मार्क्स, प्रूशिया में संविधान सुधारों की मांग को लेकर हुए एक आंदोलन में हिस्सा भी ले चुके थे. समाज में उनकी छवि एक संघर्षशील और जुझारू नेता की थी. कार्ल मार्क्स के सक्रिय जीवन पर अपने पिता का गहरा असर पड़ा था.

मार्क्स की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई. उसके बाद उसको ट्रायर जिमनाजियम(जर्मन हाई स्कूल) का॓लेज में भेज दिया गया. उस समय वह तेरह वर्ष का किशोर था. परिवार में पठन-पाठन का अच्छा माहौल था. मार्क्स की रुचि दर्शनशास्त्र और साहित्य की पढ़ाई में थी, कविताओं में उसका मन रमता था. मगर पिता चाहते थे कि पुत्र उन्हीं की भांति वकील बनकर विरासत को संभाले. उस समय पिता की ही चली. उनकी इच्छा पर मार्क्स को बाॅन विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई के लिए भेज दिया गया. उस समय उसकी आयु मात्र सतरह वर्ष की थी. बाॅन में रहते हुए ही वह जेनी वान वेस्टफ्लेन के संपर्क में आया. जेनी के पिता बेरोन बान वेस्टफ्लोन वे बान के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे. जेनी सुंदर और संवेदनशील लड़की थी.उनके संपर्क में आने के बाद मार्क्स की रोमानी साहित्य तथा राजनीति में रुचि बढ़ी थी. खासकर संत-साइमन के विचारों के प्रति. मार्क्स उन दिनों युवा था. जेनी के साथ उसका प्रेम-प्रसंग आगे बढ़ा तो दोनों दांपत्य में बंध गए. जेनी से मार्क्स की कुल सात संतान हुईं. मगर भीषण गरीबी और जीवन-संघर्ष के बीच उनमें से चार असमय ही काल के गाल समा गए.

बा॓न में रहते हुए वह ट्रायर क्लब ड्रिंकिंग सोसाइटी के संपर्क में आया. कुछ दिनों के लिए वह उसका अध्यक्ष भी बना. इस बीच पिता को लगा कि मार्क्स वहां रहकर कानून के अध्ययन के प्रति पर्याप्त सचेत नहीं है. इसलिए उन्होंने एक जिद्दी अभिभावक की भूमिका निभाते हुए मार्क्स को बर्लिन विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए विवश कर दिया, जो उन दिनों कानून के अध्ययन के लिए सर्वाधिक जाना-पहचान संस्थान था. 1836 के ग्रीष्म में मार्क्स वहां पहुंचा. उसी वर्ष के अक्टूबर में उसको बर्लिन विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल गया. वहां रहकर उसके ‘क्रिमिनल ला॓’ के साथ मानवशास्त्र का अध्ययन करने लगा. मगर बदले परिवेश में भी मार्क्स कानून के प्रति वांछित रुचि जाग्रत न कर सका. दर्शन और साहित्य के क्षेत्र में उसका दखल लगातार बढ़ता ही गया. वहीं रहकर वह हीगेल के दर्शन के प्रभाव में आया, जिसने उसके सोचने-समझने का ढंग ही बदल दिया. अपने अध्ययनक्षेत्र का अतिक्रमण करते हुए उसने प्रख्यात दर्शनशास्त्रियों की पुस्तकों का अध्ययन किया. वह नियमित रूप से दार्शनिक सभाओं और सेमीनारों में जाता. वहां की गतिविधियों में सहभागी बनता. साहित्य के प्रति उसकी अभिरुचि निबंध और कविताओं के रूप में प्रकट होती. उसके लेख जहां आधुनिक विचारों से ओतप्रोत होते थे, वहीं कविताओं में आध्यात्मिकता का तत्व प्रधान रहता था, जिनपर उसके पिता के उदार विचारों की स्पष्ट छाया नजर आती थी. का॓लेज की पढ़ाई के अतिरिक्त दिन के कई घंटे वह अध्ययन-मनन में व्यतीत करता. लगातार और बहुविषयक अध्ययन से उसका दिमाग घूमने लगता. हालत पागलों जैसी हो जाती. फिर भी ज्यादा और ज्यादा पढ़ने, सब कुछ आत्मसात् कर लेने की जैसे सनक सवार हो उसपर. वह रात-दिन पुस्तकों में ही डूबा रहता. अपने पिता को लिखे पत्र में उसने स्वयं लिखा है: दर्शन, साहित्य और इतिहास की पुस्तकों को पढ़ते हुए—

‘मैं लगातार बीमार, वेदनामय, अनिद्रायुक्त और एकाकी जीवन की ओर बढ़ता जा रहा था.’2

मार्क्स की प्रतिभा की धमक पहली बार 1835 में सुनाई दी. ‘व्यवसाय चुनते समय एक युवा की प्राथमिकताएं’ शीर्षक के अंतर्गत लिखे गए निबंध में उसके विचारों की प्रखरता और मौलिकता दोनों ही विद्यमान थे. उसने लिखा था—

‘व्यवसाय का चयन इस आधार पर किया जाना चाहिए कि वह मनुष्यता के लिए सर्वथा वरेण्य और कल्याणकारी हो. ताकि उसके माध्यम से हम अपने सर्वश्रेष्ठ को अभिव्यक्त कर सकें….यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने लोगों के भले के लिए कार्य करते समय ही अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकता है.’3
अत्यधिक पठन-पाठन का मार्क्स की सेहत पर बुरा असर पड़ा था. 1838 में काॅलेज के दौरान ही उसने सैन्य सेवा के लिए आवेदन किया. किंतु अपनी कमजोर छाती तथा खून-मिश्रित कफ के कारण उसको अयोग्य ठहरा दिया गया. आजीविका के लिए किसी बंधी-बंधाई नौकरी से जुड़ने का उसका सपना धरा का धरा रह गया. पर एक तरह से उसने इसे अपने लिए हितकर ही माना. पिता के आग्रह पर उसने कानून का अध्ययन जरूर किया था, मगर वकालत के पेशे के प्रति उसकी कोई रुचि न थी. वह मानता था कि वकालत का धंधा उसको वह नहीं दे सकता, जोे वह अपने जीवन में बनना चाहता है. इसलिए का॓लेज की पढ़ाई पूरी होते-होते उसने स्वयं को पत्रकारिता के प्रति समर्पित करने का निश्चय कर लिया. तब तक उसकी प्रतिभा लोगों की समझ में आने लगी थी. अपने लेखों के माध्यम से उसने साफ कर दिया था कि वह दूसरों से हटकर और विशिष्ट है. संयोग से उन्हीं दिनों उसको राइनलेंड से निकलने जा रहे एक प्रगतिशील समाचारपत्र ‘रीनिश जेटुंग’ का संपादक बनने का न्योंता मिला. मार्क्स ने बिना कोई देर किए वह आमंत्रण स्वीकार कर दिया. अक्टूबर 1942 में जब उसने कोलोन स्थित उस समाचारपत्र के संपादक का दायित्व संभाला, उस समय उसकी आयु मात्र 24 वर्ष थी. उस समय कौन जानता था कि वह युवा संपादक लिए वह समाचारपत्र उसके क्रांतिकारी लेखन की पहली प्रयोगशाला सिद्ध होगा. उस समाचारपत्र के संचालन के पीछे एक पूंजीपति का योगदान था, मगर मार्क्स के संपादक बनने के बाद वह समाचारपत्र लोकचेतना और जनसाधारण की आवाज बनता चला गया.

बर्लिन उन दिनों हीगेल के समर्थकों का गढ़ बना हुआ था. मार्क्स हीगेल के युवा समर्थकों के संपर्क में आया. उनके समूह के नेता लुडविग फायरबाख और बूनो बायर थे. दोनों ही वामपंथी विचारधारा में विश्वास रखते थे, जो उन दिनों जनपक्षधरता और पूंजीवाद विरोध का प्रतीक बनती जा रही थी. नवहीगेलवादियों का यह समूह खुद को हीगेल का प्रशंसक बताता था, लेकिन उसके कई विचारों से इस समूह की असहमति थी. बावजूद इसके वे अपने तर्कों, बहसों और लेखन के दौरान हीगेल की द्वंद्वात्मक पद्धति का खुला उपयोग करते थे. खासकर स्थापित धार्मिक-राजनीतिक विचारधारों की आलोचना के लिए. वामपंथी विचारधारा के प्रति अपनी आग्रहशीलता के कारण सरकार और पूंजीपति नवहीगेलवादियों को किंचित नफरत की दृष्टि से देखते थे. इसलिए मार्क्स को उसके मित्रों ने सलाह भी दी थी कि जीवन में यदि आगे बढ़ना है तो नवहीगेलवादियों के संपर्क में आने से बचे. मगर मार्क्स तो जैसे अपना रास्ता तय कर चुका था. अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए वह किसी भी प्रकार का खतरा मोल लेने को भी तैयार था. शनै-शनै ही सही, मार्क्स के समर्थकों की संख्या बढ़ती जा रही थी.

बौद्धिकता के प्रति नवहीगेलवादियों का समर्पण मुक्त विमर्श का उदाहरण था.उनके अपने भी बौद्धिक मतभेद थे. यह मतभेद मेक्स स्टीर्नर की पुस्तक ‘दि इगो एंड इट्स ओन’ के रूप में उस समय और खुलकर सामने आए. इस पुस्तक में उसने फायरबाख और बायर की आलोचना की थी. उन्हें खोखला और धर्मभीरू इंसान कहकर उनका मजाक उड़ाया था. इसका मार्क्स, जो उस समय तक फायरबाख से प्रभावित था, ने गहरा प्रतिवाद किया. फायरबाख की आस्था समाज के शोषित एवं उत्पीड़ित वर्गों के विकास को लेकर थी. वह दर्शन को अमूत्र्तन धारणाओं से बाहर निकालकर मानव-कल्याण के उपकरण के रूप में स्थापित करना चाहता था. मार्क्स भी खुद को उसी धरातल पर पाता था. अतएव फायरबाख के भौतिकवादी विचारों के पक्ष में उसने एक के बाद एक कई लेख लिखे, जिसमें उसने हीगेल के द्वंद्वात्मक सिद्धांत की सहायता से भौतिकवादी विचारधारा की प्राचीनता को चिह्नित करने का प्रयास किया था. दूसरे मोर्चे पर मार्क्स मोसेस हेस से जूझ रहा था. हेस भी मार्क्स की भांति हीगेल का प्रशंसक था, मगर दोनों के बीच अनेक मतभेद भी थे. मार्क्स हेस के धर्म, राजनीति, सामाजिक संबंध आदि से जुड़े विचारों से सहमत था. मगर उसका तत्ववादी चिंतन मार्क्स को खलता था. फायरबाख की भांति वह भी दर्शन को जीवन की विभिन्न समस्याओं के निदान का माध्यम बनाना चाहता था. घंटों-घंटों लंबी लगातार बौद्धिक बहसों, लेखन और अध्ययन के दबाव ने मार्क्स को बीमार बना दिया था. इसका एक कारण वह हीगेल के दर्शन से चिपके रहने को भी मानता था, उसने लिखा भी था किः
‘किसी एक खास विचारधारा से चिपक जाने के कारण मैं एक गुड्डा-जैसा बनता जा रहा था, जिससे मैं नफरत करता था.’

1841 में मार्क्स को बर्लिन विश्वविद्यालय ने डाॅक्ट्रेट की डिग्री द्वारा सम्मानित किया. उसके शोध का विषय था—‘दि डिफरेंस बिटवीन डेमोक्रेट्रीयन एंड एपीक्यूरीयन फिलाॅस्फी आॅफ नेचर.’ अपने शोधप्रबंध में उसने प्राचीन ग्रीक दर्शन को अपने विवेचनात्मक अध्ययन का आधार बनाया था. यहां उसने मित्रों के इस परामर्श कि वह बर्लिन में रहते हुए नवहीगेलवादी के रूप में अपनी पहचान बनाने से बाज आए, का पूरा-पूरा पालन किया था. यही नहीं बजाय बर्लिन विश्वविद्यालय के, जहां से उसको शोध की अनुमति मिली थी, उसने अपना शोधप्रबंध ‘जेन विश्वविद्यालय’ में प्रस्तुत किया था. इस बीच वह समाचारपत्र से भी जुड़ा हुआ था. कारखानों में श्रमिकों और कारीगरों का शोषण देखकर वह आहत होता था. उसकी तात्कालिक प्रतिक्रिया अगले दिन के समाचारपत्र में नजर आती. लेखन के समय उसका एक ही ध्येय होता था, मनुष्यता का भला. किसी न किसी प्रकार मनुष्य का कल्याण—

‘जनसाधारण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाते हुए मार्क्स ने उस समाचारपत्र में राज्य द्वारा मजदूरों के शोषण और दमन को लेकर संपादकीय लिखने आरंभ कर दिए. आक्रामक शैली में लिखे गए उन आलेखों द्वारा यूरोपियन देशों की सरकार को निर्देश दिया जा रहा था कि वे अपने यहां स्थित कारखानों में कामगारों के हालात में सुधार हेतु उपयुक्त परिवर्तन लाएं. उन आलेखों से प्रूशिया की सरकार का बुरी तरह चिढ़ जाना स्वाभाविक था. परिणाम यह हुआ कि मार्क्स के अखबार पर सेंसर लगा दिया गया. अंततः उसे समाचारपत्र को बंद करने को विवश होना पड़ा.’5
इस घटना के उपरांत मार्क्स फ्रांस रवाना हो गया. वहां एक सक्रिय क्रांतिकारी जीवन उसकी प्रतीक्षा कर रहा था.

पेरिस के दिन
पेरिस उन दिनों इटली के क्रांतिकारियों का प्रमुख अड्डा था. उनको नियंत्रण में रखने के लिए वहां जमर्नी, फ्रांस, प्रूशिया आदि देशों के सैनिक डेरा डाले रहते थे. बावजूद इसके वहां बौद्धिक वातावरण खुला और परिवर्तनवादियों के अनुकूल था. बौद्धिक बहसों और नए विचारों के लिए भी वहां पर्याप्त अवसर थे. मार्क्स ने पेरिस पहुंचते ही खुद को एक बार फिर अध्ययन के हवाले कर दिया दिया. स्कूल के दिनों में ही वह वाल्तेयर, इमानुएल कांट और रूसो का प्रशंसक था. ये सभी उसके पसंदीदा लेखकों में से थे. पेरिस में रहते हुए मार्क्स ने वहां के श्रम-संगठनों से मेलजोल बनाना आरंभ कर दिया. पेरिस प्रवास के दौरान अपने रचनात्मक लेखन को विस्तार देते हुए उसने आरनोल्ड रूग के साथ मिलकर ‘दि जर्मन-फ्रांसिसी ईयर बुक’ का संपादन किया, यह पुस्तक उस समय नवहीगेलवाद तथा फ्रांस में उठ रही समाजवादी लहरों के समन्वयवादी विश्लेषण पर केंद्रित थी. उन दिनों मार्क्स की लेखन-ऊर्जा अपने उफान पर थी. पेरिस में अपने प्रारंभिक वर्षों में उसने अर्थशास्त्र, राजनीति तथा अपनी दार्शनिक मान्यताओं को लेकर कई लेख लिखे. फायरबाख के विचारों से प्रभावित उन लेखों में उसने साम्यवाद के मानवीय स्वरूप को संहिताबद्ध करने की कोशिश की थी, जो आगे चलकर वैज्ञानिक समाजवाद के विकास की पृष्ठभूमि बना.

उन दिनों मार्क्स की साम्यवादी परिकल्पना में एक ऐसा राज्य था, जहां मानवमात्र को एक-दूसरे के साथ मिलकर अपना विकास करने की पूर्ण आजादी हो. जहां संपत्ति और संसाधनों विकेंद्रीकरण हो और जहां रहते हुए नागरिक स्वयं को ‘मुक्त’ एवं आत्मनिर्भर अनुभव कर सकें. घटनाक्रम तेजी से बदल रहा था. पेरिस के एक कहवाघर कैफे दे ला रीजेंस में उसकी मुलाकात फ्रैडरिक ऐंगल्स से दूसरी मुलाकात हुई. वह 28 अगस्त, 1844 का दिन था. उससे पहले दोनों करीब दो वर्ष पहले राइनलेंड में रीन्शचे जीटुंग के कार्यालय में मिल चुके थे. मगर वह मुलाकात बहुत छोटी और अल्पकालिक थी. उससे कुछ पहले ही मार्क्स की पुस्तक ‘दि कंडीशन आॅफ वर्किंग क्लास इन-1844’ प्रकाशित हुई थी. पुस्तक में मार्क्स ने पूंजीवादी उद्योगों में श्रमिकों की दयनीय अवस्था का वास्तविक चित्रण किया था. इस बीच संगठित श्रम-शक्ति की कार्यक्षमता पर उसका भरोसा बढ़ा था. उसने तर्क द्वारा यह समझाने का प्रयास किया था कि सामाजिक-राजनीतिक क्रांति के इतिहास में संगठित श्रम-शक्ति की भूमिका ही सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी.

अपने प्रकाशन के साथ ही पुस्तक वुद्धिजीवियों का ध्यान खींचने में कामयाब हुई. उसी की चर्चा से प्रभावित होकर ऐंगल्स उससे मिलने पेरिस पहुंचा था. ऐंग्लस पर मार्क्स के विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा. पेरिस स्थित कहवाघर की वह छोटी-सी भेंट दोनों के बीच अटूट दोस्ती की शुरुआत की गवाह बनी, जो जीवनपर्यंत बनी रही. आदर्श दोस्तों की भांति दोनों एक-दूसरे के साथी और संपूरक बने रहे. बल्कि मार्क्स तो अपने रोजमर्रा के खर्च तक के लिए फ्रैडरिक से मदद लेता रहता था. मार्क्स का लगभग पूरा समय लिखने-पढ़ने में व्यतीत होता था. आमदनी का माध्यम अखबारों में लिखे गए आलेख होते थे, जिसके बूते पारिवारिक दायित्वों का पालन कर पाना असंभव ही था. वह स्वयं बीमार रहता. पत्नी जेनी से उसके सात बच्चे जन्मे थे. लेकिन समय पर उपचार न करा पाने के कारण उनमें से मात्र तीन बच्चे ही जीवित बचे थे. पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करने के लिए भी मार्क्स को कर्ज लेना पड़ता था. ऐंगल्स का छोटा व्यवसाय था, जिससे उसको मार्क्स के मुकाबले अच्छी आमदनी थी. किंतु यह अंतर उनकी मित्रता में बाधक न था, बल्कि सहायक ही बना. इसकी वजह दोनों की वैचारिक एकता थी. हालांकि ऐगल्स के लिखे में मौलिकता का अभाव है, एक तरह से उसने मार्क्स विचारों का विस्तार किया है.

मार्क्स उन दिनों पेरिस से प्रकाशित होने वाले प्रायः सभी प्रगतिशील समाचारपत्रों के लिए नियमित लेखन कर रहा था. वह एक समर्पित और प्रतिबद्ध लेखक-विचारक था. उसकी वैचारिक संबद्धता केवल आक्रामक शैली में लिखे गए लेखों और पुस्तकों तक सीमित नहीं थी, बल्कि मजदूर आंदोलनों की भूमिका बनाने, अपने आलेखों द्वारा उनके पक्ष में माहौल बनाने में वह सदैव आगे रहता था. यद्यपि पेरिस आंदोलन से पहले भी वह मजदूरों के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सेदारी कर चुका था. पेरिस प्रवास के दौरान वह एक और महत्त्वपूर्ण काम में जुटा, फ्रांसिसी क्रांति से जुड़े दुर्लभ दस्तावेज और प्रूधों की पुस्तकों के गंभीर अध्ययन का. मार्क्स द्वारा पू्रधों का अध्ययन दो क्रांतिकारियों का युगांतरकारी संवाद था. असहमति के बावजूद प्रूधों के लेखन ने मार्क्स के चिंतन को एक नई धारा से समृद्ध करने का काम किया. आने वाले वर्षों में जिस परिवर्तनकारी सोच के लिए मार्क्स को पहचाना गया, और आज भी जिसके कारण वह ख्यात-कुख्यात है, उसका वास्तविक विकास पेरिस प्रवास के दौरान ही संभव हो सका. उन्हीं दिनों मार्क्स की एक और महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘आॅन दि ज्यूश क्वश्चन’ का प्रकाशन हुआ. उसने उस पुस्तक की रचना नवहीगेलीयनवादी बाॅयर की पुस्तक ‘एथीज्म’ पर अपनी प्रतिक्रिया दर्शाते हुए रची गई थी.

‘आ॓न दि ज्यूश क्वश्चन’ नामक वह पुस्तक वास्तव में एक लंबा निबंध थी, जिसका विषय बाॅयर के समाज राजनीति, मानवाधिकार और अर्थनीतिक विषयक विचारों की समालोचना थी, जिसमें सामाजिक पुनर्रचना के लिए ईसाई और यहूदी धर्मग्रंथों से उद्धरण देकर समझाया गया था. ऎंगल्स ने जो उन दिनों एक साम्यवादी के रूप में बड़ी तेजी से अपनी पहचान बना रहा था, श्रमिक कल्याण से जुड़े मामलों में रुचि के लिए मार्क्स की मुक्त कंठ से सराहना की है. उल्लेखनीय है कि फायरबाख के प्रेरणा से मार्क्स का चिंतन पहले ही जनसाधारण की समस्याओं और उनके निदान के प्रति मुड़ चुका था. ऐंगल्स ने इस विश्वास को और प्रगाढ़ करने का काम किया. इसके फलस्वरूप मार्क्स का रुझान क्षेत्रीय मजदूरों की समस्याओं की और गया, जिसका निदान अर्थशास्त्र के माध्यम से खोजा जा सकता था. उसने कारखानों में मजदूरों की अवस्था का गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया. परिणाम यह हुआ कि वह पूंजीवाद के दुष्परिणामों के प्रति निरंतर जागरूक होता चला गया.

श्रम-कल्याण से जुड़े मुद्दों की महत्ता को देखते हुए उसने समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में लिखना आरंभ कर दिया. उसके लेखों की व्यापक प्रतिक्रिया हुई. वह एक मजदूर हितैषी के रूप में पहचाना जाने लगा. उन दिनों विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखे गए उसके लेख आगे चलकर ‘इकोनाॅमिक एंड फिलाॅसाफिकल मेन्युस्क्रिप्ट आॅफ 1844’ में संकलित किए गए हैं. साम्यवादी दर्शन का मानवतावादी दृष्टिकोण से विश्लेषण करते हुए उसने साम्यवादी समाज और पूंजीवादी समाज में मजदूरों की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन किया था. उसकी विश्लेषणात्मक क्षमता गजब थी, जिसके फलस्वरूप लोगों पर उसके विचारों का असर लगातार बढ़ता जा रहा था. पेरिस में उसका समय ठीक-ठाक बीत रहा. पुस्तकों और समाचारपत्रों में लिखे लेखों द्वारा उसको पर्याप्त आमदनी थी. सहसा 1845 में राजनीतिक घटनाक्रम के चलते प्रूशिया सरकार ने मार्क्स को अपने सभी साथियों के साथ देश छोड़ने का आदेश सुना दिया. मार्क्स चुनौतियां झेलने के लिए तैयार था. परिवार के साथ वह ब्रुसेल्स के लिए प्रस्थान कर गया. उस दिनों वह इतिहास के अध्ययन में डूबा हुआ था. ऐंगल्स के साथ मिलकर उसने ऐतिहासिक भौतिकवाद पर गवेषणात्मक आलेख तैयार किया था, जो उसकी मृत्यु के उपरांत ‘दि जर्मन आइडियोलाॅजी’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ. इस पुस्तक में उसने प्राचीनकाल में लोकप्रिय उत्पादन प्रणालियों का अध्ययन करते हुए स्थापित किया था कि—

‘सामाजिक परिवर्तनों और राजनीतिक क्रांतियों के वास्तविक कारण मानवमात्र की जीवनमूल्यों और न्याय को पाने की उत्तरोत्तर बढ़ती चाहत में ही निहित नहीं होते. वस्तुतः वे उस कालखंड के दौरान उत्पादन और विपणन के स्वरूप में हुए परिवर्तनों द्वारा निर्धारित होते हैं, इस तरह वे दर्शनशास्त्र का विषय न होकर, कालविशेष की अर्थनीति का परिणाम होते हैं.’6
मार्क्स की यह स्थापना उसके मित्र और सहलेखक ऐंगल्स के विचार का ही विस्तार थी. ऐंगल्स ने एक स्थान पर लिखा था कि—

‘यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि किसी भी समाज का विभिन्न जाति-वर्गों एवं क्षेत्रों का विभाजन इस बात पर निर्भर करता है कि उसके उत्पाद कौन-से हैं तथा उनके उत्पादन हेतु वह किन उत्पादन-प्रणालियों को अपनाता है, इसके अलावा यह समाज-विशेष की विपणन प्रणालियों पर भी निर्भर करता है.’7

अपने निबंध में मार्क्स ने ऐतिहासिक संदर्भों का हवाला देते हुए प्राचीन समाजों में प्रचलित उत्पादन प्रविधियों तथा उनके पतन के कारणों का विस्तृत विवेचन किया था. भौतिकवाद को ऐतिहासिक सत्य के रूप में स्थापित करते हुए उसने दावा किया था कि विकास के अगले चरण में पूंजीवाद का पतन अवश्यंभावी है. उसने भरोसा जताया था कि मजदूर वर्ग, वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत के अनुरूप अपनी ताकत को पहचानकर आगे बढ़ेगा और संघर्ष में बुर्जुआ वर्ग को परास्त कर सत्ता पर काबिज होता जाएगा. उत्पादन तंत्र पर नियंत्रण कर वह पूंजीवाद के खात्मे का ऐलान करेगा. अंततः पूरा समाज एक समानतावादी-समरसतावादी व्यवस्था द्वारा अनुशासित होगा. मार्क्स ने पहली बार भौतिकता को विकास के अनिवार्य उपकरण के रूप में स्वीकारा था. उससे पहले धर्म और संस्कृति के नाम पर समाज पर शासन करते आए लोग भौतिकता को सांसारिक बंधनों का पर्याय मानकर लांछित करते आए थे. भारतीय दर्शन की वेदांत परंपरा में भी संसार को माया और प्रपंच कहकर उसके प्रति लगाव को धिक्कारा गया है, मार्क्स ने धर्म को ही कठघरे में खड़ा करदिया था. इस कारण उसका चैतरफा विरोध होना स्वाभाविक था.

दूसरी ओर पूंजीवाद की मनमानियों से त्रस्त श्रमिकवर्ग मार्क्स के शब्दों को मंत्रों भी भांति बांच रहा था. लगभग उन्हीं दिनों पूधों ने ‘दि फिलाॅस्फी आॅफ पाॅवर्टी’ नामक पुस्तक की रचना की थी. प्रूधों उन दिनों एक ख्यातिनाम अराजकतावादी था. उसकी प्रतिष्ठा आसमान चढ़कर बोलती थी. मार्क्स उसके मुखर पूंजीवाद-विरोध से प्रभावित था, तथापि उसकी कई स्थापनाओं से उसकी असहमति थी. अपनी असहमतियों को स्वर देते हुए मार्क्स ने एक पुस्तक ‘दि पाॅवर्टी आॅफ फिलाॅस्फी’ की रचना की थी. 1847 में लिखी गई मार्क्स की यह पुस्तक मूल रूप से प्रूधों के विचारों की सटीक आलोचना थी. इसका परिणाम यह हुआ मार्क्स और उसके सहलेखक ऐंगल्स का नाम रातोंरात लोगों की जुबान पर छा गया. मार्क्स उस समय तक कम्युनिस्ट लीग की सदस्यता ग्रहण कर चुका था. इस संस्था का गठन लंदन में रह रहे जर्मन मजदूरों द्वारा किया गया था. मार्क्स और ऐंगल्स उसके प्रमुख सिद्धांतकारों में से थे.

कम्युनिस्ट लीग का गठन पूंजीवादी कारखानों में श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए किया गया था. श्रम-कल्याण के आंदोलन को गति देने और श्रमिकों को जोड़ने के लिए संस्था की ओर से एक सम्मेलन की परिकल्पना की गई. 1847 में प्रस्तावित सम्मेलन के लिए संस्था की नीतियों पर आधारित एक सारगर्भित वक्तव्य तैयार करने का दायित्व मार्क्स और एंेगल्स को सौंपा गया. उस समय तक श्रमिकों में व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ता ही जा रहा था. उस आक्रोश को स्वर देते हुए श्रमिक आंदोलन की रचनात्मकता को बनाए रखना एक चुनौती-भरा काम था. उस सम्मेलन के लिए ऐंगल्स के साथ मिलकर मार्क्स ने जो पर्चा तैयार किया, वही आगे चलकर दुनिया-भर के श्रमिकों की प्रेरणा का òोत बना. उसकी आवाज विश्व-भर में फैले करोड़ों मजदूरों, कामगारों, सर्वहाराओं की आवाज बन गई. पहली बार वह वक्तव्य 21 फरवरी 1848 को, कम्युनिस्ट मेनीफेस्टों के नाम से प्रकाशित हुआ और एक झटके में वैश्विक व्यवस्था-परिवर्तन का औजार बन गया. श्रमिक एकता का पक्ष लेते हुए उसने लिखा था कि—

‘तब और आज भी श्रमिक हमेशा विजयी रहे हैं, मगर मगर सीमित समय के लिए. उनके संघर्ष का सुफल तात्कालिक निष्कर्षों में नहीं, बल्कि मजदूरों के उत्तरोत्तर बढ़ते संगठनों से सन्निहित है. सांगठनिक एकता को बनाए रखने के लिए आधुनिक उद्योगों में प्रयुक्त संचार साधनों की मदद ली जाएगी, अलग-अलग मजदूर बस्तियों में उसकी उपलब्धता होगी, ताकि वे एक-दूसरे के साथ संपर्क कर सकें.’8

मार्क्स के आवाह्न का जादुई असर हुआ था. 1848 के प्रारंभिक वर्षों में ही पूरा यूरोप मजदूर आंदोलनों से धधक उठा. बेल्जियम की सरकार ने मार्क्स पर मजदूरों को भड़काने का आरोप लगाकर उसको गिरफ्तार कर लिया, मगर इस डर से कि गिरफ्तारी की सूचना पाकर श्रमिक और न भड़क जाएं, उसने मार्क्स को तत्काल बेल्जियम छोड़ने का आदेश सुना दिया. उन दिनों फ्रांस में मजदूर आंदोलन अपने उफान पर था. 24 फरवरी, 1848 को आंदोलनकारियों ने तत्कालीन फ्रांसिसी सम्राट लुईस फिलिप को पदच्युत कर सत्ता पर कब्जा कर लिया. क्रांति का सपना देखने वाले मार्क्स के लिए श्रमिकों की यह विजय आह्लादकारी थी. विजय से उल्लसित मजदूरों ने मार्क्स को फ्रांस आने का न्योता दिया. इस पर तुरंत पेरिस के लिए रवाना हो गया.

फ्रांस में नवगठित सरकार ने दो दिन बाद बेरोजगारी की समस्या के निदान के लिए नवगठित सरकार ने श्रमिक नेता लुईस ब्लेंक के नेतृत्व में 26 फरवरी, 1948 को ‘राष्ट्रीय उद्योगशालाओं’ के गठन की शुरुआत की थी, ताकि मंदी के कारण बेरोजगार हुए कामगारों के लिए रोजगार की व्यवस्था की जा सके. मगर राष्ट्रीय उद्योगशालाओं का प्रयोग सरकार ने मात्र चार महीने से भी कम समय में 21 जून, 1948 को धनाभाव का बहाना कहकर वापस ले लिया. इसपर मजदूर भड़क उठे. वस्तुतः मजदूर चेतना के बढ़ते प्रभाव में उन दिनों फ्रांसिसी नेताओं का खुद को प्रगतिशील और लोकतांत्रिक कहना फैशनेबल हो चुका था. मगर लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता-परिवर्तन के तुरंत बाद उनका असली चेहरा सामने आने लगा. उन्होंने ब्लेंक के राष्ट्रीय उद्योगशालाओं के प्रस्ताव का विरोध करना शुरू कर दिया. उन्हें प्रोत्साहित करने के कार्यक्रम में वे अड़ंगा लगाने लगे. अततः राष्ट्रीय कार्यशालाओं बंद करने का निर्णय हुआ. मजदूर संगठनों की ओर से उसका विरोध स्वाभाविक ही था. सरकार के निर्णय को अपने प्रति विश्वासघात मानते हुए मजदूर संगठन विरोध में सड़क पर उतर आए.

सरकार ने जनरल लुईस यूजेन केवनाॅक को युद्ध मंत्रालय का दायित्व सौंपा हुआ था. उसी के संकेत पर सेना आंदोलनकारी श्रमिकों के विरोध में उतर आई. 22 जून 1848 को सेना द्वारा निहत्थे मजदूरों पर बंदूकें तान दी गईं. 26 जून को मजदूर आंदोलन की कमर टूटने तक पुलिस उनपर गोलियां बरसाती रहीं. इस अवधि में 1500 से अधिक मजदूरों को गोली का निशाना बनाया गया. 15000 से अधिक राजनीतिक कैदी अलजीरिया निर्वासित कर दिए गए. ब्लेंक जान बचाकर भागते हुए बेल्जियम के रास्ते लंदन पहुंचा. उस हत्याकांड के लिए जिम्मेदार जनरल केवनाॅक को ‘जून का कसाई’ कहकर आज भी धिक्कारा जाता है.

मार्क्स ने जून-क्रांति को अपनी आंखों से देखा था. क्रांति की उस विफलता उसको गहरा आघात पहुंचा था. फ्रांस की परिस्थितियां अब उसके प्रतिकूल थीं. उसका अगला पड़ाव जर्मनी था, जहां उसने ‘न्यू रीनिश जेटुंग’ नामक समाचारपत्र को दुबारा निकालना आरंभ किया. उसकी ढेर सारी ऊर्जा इस पत्र के माध्यम से नए पूंजीपतिवर्ग जिसे वह ‘बुर्जुआ’ वर्ग कहता था तथा प्रूशियन कुलीनतावाद के विरोध पर खर्च होने लगी. जर्मन सरकार स्वयं मजदूर आंदोलनों से जूझ रही थी. यही कारण है कि मार्क्स और उसका समाचारपत्र जर्मन सरकार की आंखों की किरकिरी बनने लगे. अंततः सरकार ने दमन का रास्ता अपनाया. 7 फरवरी 1849 को उसको गिरफ्तार कर लिया. आरोप मामूली था, इसलिए तत्काल रिहा करना पड़ा. मार्क्स के लिए यह मुक्ति अल्पकालिक सिद्ध हुई. अगले ही दिन मजदूरों को बगावत के लिए उकसाने जैसा गंभीर आरोप लगाकर उसे पुनः गिरफ्तार कर लिया गया. प्रशासन इस बार भी मार्क्स को दोषी सिद्ध करने में नाकाम रहा. अंततः उसको रिहा करना पड़ा. सरकार भली-भांति समझती थी कि मजदूरों को क्रांति के लिए प्रेरित करने में मार्क्स के समाचारपत्र का बहुत बड़ा योगदान है. इसलिए उसके समाचारपत्र पर अघोषित प्रतिबंध लागू रहा. पेरिस में मार्क्स के लिए स्थितियां लगातार दुरूह होती जा रही थीं. विकट परिस्थितियों के बीच समाचारपत्र निकाल पाना संभव न था. अंततः फ्रांस को अलविदा कह, वह वहां से रवाना हो गया. नई क्रांति की चाहत के साथ, जिसके बारे में उसका मानना था कि वह नए संकट से ही जन्म ले सकती है.

लंदन प्रवास
मई 1849 में मार्क्स लंदन पहुंचा. लंदन प्रवास के प्रारंभिक दिन उसको अपने परिवार के साथ भीषण गरीबी और दीनता के बीच बिताने पडे़. कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो द्वारा दुनिया के करोड़ों मजदूरों-किसानों के दिलों में क्रांति की मशाल जला देने वाला विलक्षण लेखक-आंदोलनकारी उन दिनों ‘न्यू यार्क ट्रिब्यून’ का मामूली संवाददाता था. अखबारों में छपने वाले आलेख ही अपनी आमदनी का प्रमुख òोत थे. उन दिनों वह लंदन में अपने बड़े परिवार के साथ तीन कक्षवाले छोटे से मकान में रहता था. उसके सात बच्चों (एम. लांजेट(1844—1883), जेनी लौरा (1845—1911), एडगर(1847—1855), हेनरी एडवर्ड जीडो(1849—1850), जेनी एवलाइन फ्रांसिसका(1851—52), जेनी जूली एलीनर(1855—1898), तथा एक अन्य बच्चा जो नामकरण से पहले ही जुलाई, 1857 में कालकवलित हो चुका था. इनके अतिरिक्त मार्क्स का एक उसकी नौकरानी से भी एक बेटा था, जो मात्र नौ वर्ष ही जी सका.) में से केवल तीन जीवित रह सके थे. समय पर उपचार न हो पाने के कारण बाकी असमय मृत्यु का शिकार हुए थे. क्रांति की विफलता के बाद पूंजीवादी समाचारपत्रों में मार्क्स के लेखन पर अघोषित प्रतिबंध था. लोगों के मन में श्रमिक आंदोलन से विश्वास भी घटने लगा था, जिससे उसकी पुस्तकों की बिक्री पर भी ग्रहण लगा था. फ्रैडरिक ऐंगल्स उसका आत्मीय मित्र और मददगार था. ऐंगल्स का कपड़ों का छोटा व्यवसाय था. आर्थिक दृष्टि से वह मार्क्स की अपेक्षा बेहतर अवस्था में था. घोर आर्थिक संकट और शारीरिक व्याधियों के बावजूद उसका मस्तिष्क अब भी पहले की भांति सजग और सक्रिय था. लक्ष्य की ओर उन्मुख उसके मनस् में अब भी नई-नई योजनाएं उमड़ती रहती थीं.

क्रांति की विफलता ने मार्क्स को नए सिरे से सोचने के लिए विवश किया था.जनसाधारण के बीच श्रमिक आंदोलन के प्रतिष्ठा लगातार घट रही थी. आसन्न चुनौतियों से जूझने के लिए उसने राजनीति एवं अर्थव्यवस्था के अंतःसंबंधों और पूंजीवाद का अध्ययन करना आरंभ कर दिया, ताकि कारणों की तह तक जा सके. इसके साथ-साथ वह क्रांतिकारी संगठनों को एकजुट करने का प्रयास भी करने लगा. क्रांति की संभावना और उसके अनुकूल परिणामों के प्रति उसका विश्वास अब भी दृढ़ था. उसने कम्युनिस्ट लीग की सदस्यता दुबारा प्राप्त कर, खुद को एक बार पुनः परिवर्तन के प्रति झोंक दिया. लीग के सदस्य के रूप उसने फ्रांसिसी क्रांति और उसके परिणामों को लेकर दो लंबे पंपलेट्स लिखे. इसके साथ-साथ वांछित परिवर्तन के लिए नए रास्तों की खोज की चाहत में उसने राजनीतिक अर्थशास्त्र का अध्ययन करना आरंभ कर दिया. उस समय वह अपनी उम्र के चालीसवें दशक में था, मगर शारीरिक व्याधियां और परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति उसको लगातार परेशान रखती थीं. बावजूद इसके श्रम-कल्याण के प्रति उसके समर्पण में कहीं कमी नहीं थी. चुनौतियां उसको और ऊर्जस्वित करती थीं.

मार्क्स द्वारा राजनीतिक अर्थशास्त्र के गंभीर अध्ययन का परिणाम 1857 में सामने आया. उसके हाथों में 800 पृष्ठों की विशाल पांडुलिपि थी. इसके अलावा पांडुलिपि से संबंधित विषयों को लेकर दर्जनों लेख थे, जिसमें उसने पूंजी, श्रम, मजदूरी, राज्य, विदेश व्यापार, वैश्विक बाजार, उधार चल-अचल संपत्ति, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विकार, आदि की स्थिति तथा उनके अंतःसंबंधों को लेकर गंभीरतापूर्वक विचार किया था. वस्तुतः इन विषयों की विवेचना से संबंधित पुस्तक की रूपरेखा करीब बीस वर्ष से मार्क्स के दिमाग में थी. अंततः 1860 के प्रारंभिक महीनों में पुस्तक को तीन बड़े खंडों में टंकित कराया गया. इन खंडों में रिकार्डो और एडम स्मिथ के आर्थिक विचारों की समीक्षा के साथ पूंजीवाद के दुष्परिणामों का खुलासा करते हुए, विकल्प के रूप में वर्गहीन समाज के गठन का आग्रह किया गया था.

मार्क्स के असंतोष एवं अन्यान्य कारणों के चलते वे पांडुलिपियां तत्काल पुस्तकाकार न छप सकीं. 1867 में उस पुस्तक का पहला खंड प्रकाशित हुआ. मार्क्स ने उसको शीषर्क दिया था—पूंजी(दास कैपीटल). पहले खंड में उसने श्रम सिद्धांत, अधिशेष मूल्य एवं श्रम-शोषण से संबंधित विचारों को सम्मिलित किया था. विश्लेषण के दौरान वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि अधिशेष मूल्य, पूंजीवादी शोषण प्रकारांतर में औद्योगिक घाटे का कारण बनेंगे, जो अंततः पूंजीवाद को पतन की ओर ले जाएगा. ‘पूंजी’ का सर्वत्र स्वागत किया गया. मार्क्स की छवि एक सक्रिय आंदोलनकारी से एक प्रखर बुद्धिजीवी के रूप में उभरने लगी. मार्क्स अपने वृहद् गं्रथ ‘पूंजी’ के दूसरे और तीसरे खंड की तैयारी भी 1860 में ही कर चुका था. लेकिन पुस्तक और और समृद्ध करने की कोशिशों के फलस्वरूप उन खंडों का प्रकाशन उसके जीवनकाल में संभव न हो सका. पूंजी (दास कैपीटल) का दूसरा और तीसरा खंड, मार्क्स की मृत्यु के पश्चात ऐंगल्स के प्रयासों के फलस्वरूप, क्रमशः 1885 और 1894 में ही सामने आ सके. पूंजी के समय पर प्रकाशित न होने का एक कारण मार्क्स की विभिन्न मजदूर आंदोलन में सक्रियता भी थी.

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन
नई क्रांति की संभावना और मजदूर आंदोलन को पुनर्जीवित और सक्रिय करने के प्रयास में 1864 में ‘अंतरराष्ट्रीय कामगार संगठन—प्रथम अंतरराष्ट्रीय का गठन किया गया. इसके सदस्यों में पीयरे जोसेफ प्रूधों, मिखाइल बकुनिन, ए. ब्लेंकी आदि मजदूर नेता सम्मिलित थे. जर्मन मजदूरों के प्रतिनिधि के रूप में संगठन में सम्मिलित हुए मार्क्स को उसकी कार्यकारी परिषद का सदस्य बनाया गया. उन दिनों उसकी दर्शनशास्त्र के विशिष्ट अध्ययन की योजना थी. लेकिन संगठन के उद्देश्य को व्यापक लोकहित में मानते हुए उसने स्वयं को उसके पुनर्गठन और मजदूर आंदोलन को पुनः सक्रिय बनाने के प्रति समर्पित कर दिया. ‘फस्र्ट इंटरनेशनल’ के गठन में इंग्लेंड और फ्रांस के श्रमिक-संगठनों का वर्चस्व था. उसकी पहली सभा का आयोजन 1865 में जिनेवा में किया गया. मार्क्स तथा उसका एक साथी जाॅन जार्ज एक्युरियस जो लंदन में दर्जी का काम करता था, सभा की शुरुआत से लेकर अंत तक बैठे रहे. उस सभा में पहली बार समाजवादी अर्थव्यवस्था के स्वरूप पर खुलकर विचार किया गया. ‘फस्र्ट इंटरनेशनल’ का संदेश दूर तक गया. श्रमिक-वर्ग एक बार फिर समाजवादी राष्ट्र-राज्य का सपना देखने लगा, जो उसके पहले तक केवल पुस्तकों और व्याख्यानों तक सीमित था. सामंतवाद से त्रस्त वुद्धिजीवियों में से कुछ पूंजीवाद को विकल्पहीन मानने लगे थे, मार्क्स के विचारों से उनके मन में वैकल्पिक अर्थव्यास्था का खाका तैयार होने लगा.

पहली सभा के चार वर्ष पश्चात, समाजवादी आंदोलन को गतिशील बनाने के लिए मार्क्स और ऐंगल्स के प्रयासों के फलस्वरूप 1869 में जर्मनी में सामाजिक-गणतांत्रिक पार्टी का गठन किया गया था. मार्क्स का यह एक युग-प्रवत्र्तक कार्य था. उसी समय फर्डीलेंड लेसले द्वारा स्थापित जर्मन कामगार मजदूर संघ भी श्रमिकों को एकजुट करने के लिए प्रयासरत था. आंदोलन की एकजुटता और उसकी शक्ति को बचाए रखने के लिए मार्च में समाजवादी-गणतांत्रिक पार्टी का विलय, उसके गठन के छह वर्ष बाद ही, ‘जर्मन कामगार महासंगठन’ में कर दिया गया. कालांतर में इस संगठन ने ‘समकालीन जर्मन सामाजिक डेमोक्रेटिक पार्टी’ का रूप ले लिया.

मार्क्स को ‘अंतरराष्ट्रीय कामगार संगठन’ से काफी उम्मीदें थीं. वह उसकी सफलता के लिए अपने साथियों के साथ सक्रिय था. लेकिन संगठन की कार्यनीति को लेकर उसके भीतर से ही विरोध के स्वर उठने लगे थे. वस्तुतः मार्क्स और ऐंगल्स सहित उनके साथी मजदूर राज्य की कामना करते हुए समाजवादी ढांचे के अनुरूप, लोकतांत्रिक केंद्र द्वारा संचालित उत्पादनतंत्र की स्थापना का सपना देखते थे, जबकि अराजकतावादी नेता श्रमिकों द्वारा नियंत्रित, पूर्णतः विकेंद्रीकृत उत्पादन-तंत्र की स्थापना पर जोर दे रहे थे. उनका नेतृत्व मिखाइल बकुनाइन(1840—1913) के हाथों में था. प्रूधों तथा उसके समर्थक अराजकतावादी नेताओं का मानना था कि पूंजीवाद को राज्य से अलग कर पाना असंभव है. इनमें से किसी एक को नष्ट करने के लिए दूसरे का नष्ट करना आवश्यक है. अतएव पूंजीवाद के आमूल नाश के लिए वे राज्य की सत्ता का विखंडन अपरिहार्य मानते थे. उस विवाद में अंततः मार्क्स को ही जीत हासिल हुई. वह जनरल काउंसिल की सीट को लंदन से न्यू यार्क स्थानांतरित करने में कामयाब भी हो गया. मगर अंदरूनी विवादों और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के चलते फस्र्ट इंटरनेशनल को अपेक्षित सफलता न मिल सकी. एक समाजवादी समाज के रूप में 1871 में स्थापित पेरिस कम्यून उस संगठन के खाते में बड़ी उपलब्धि के रूप में दर्ज है.
पेरिस कम्यून

पेरिस कम्यून की स्थापना में मार्क्स का सीधे हाथ नहीं था. मगर प्रेरणा उसी की थी.अपने ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ की शुरुआत ही उसने इस वाक्य से की थी कि मानव-सभ्यता का अभी तक का इतिहास वर्ग-संघर्ष का रहा है. वह पूंजीवाद को सामंतवाद का ही परिष्कृत-परिवर्तित रूप मानता था. कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो में उसने तर्क द्वारा समझाने का प्रयास किया था कि अपनी पूर्ववर्ती सामाजिक-आर्थिक प्रणालियों की भांति पूंजीवाद भी सामाजिक असंतोष को बढ़ावा देने वाला सिद्ध होगा, जो अंततः सामाजिक संघर्ष और उसके विखंडन का कारण बनेगा. उसे विश्वास था कि एक न एक दिन समाजवादी व्यवस्था पूंजीवाद को अपदस्थ कर अपना स्थान बनाने में कामयाब सिद्ध होगी, जो एक वर्गहीन, राज्य-विहीन समाज की जननी होगी. तभी पूर्णसमाजवाद का सपना सत्य हो सकेगा. उस अवस्था को मार्क्स ने ‘विशुद्ध साम्यवाद’ की संज्ञा दी थी. सामान्य रूप से समाजवाद और साम्यवाद को एक ही समझा जाता है. मार्क्स की दृष्टि में साम्यवाद ‘श्रमिक-राज्य’ अथवा ‘श्रमिक गणतंत्र’ के बाद की अवस्था है. श्रमिक-राज्य को वह ‘श्रमिकों की तानाशाही’ पूर्ण व्यवस्था भी मानता था, उसमें समस्त निर्णय श्रमिकों द्वारा, श्रमिकों के हित में लिए जाते हैं. मार्क्स का मानना कि वर्ग संघर्ष के दौर में श्रमिक पूंजीपतियों के सत्ता छीनकर उसपर कब्जा कर लेंगे. वह वांछित परिवर्तन का पहला चरण होगा. दूसरे चरण में श्रमिक-शासित राज्य वर्गहीन-राज्यविहीन समाज की आधारशिला रखेगा. पेरिस कम्यून वास्तव में श्रमिकों द्वारा गणतांत्रिक पद्धति पर अनुशासित, वर्गविहीन अवस्था थी. हालांकि नेतष्त्व और अनुभव की कमी के कारण वह प्रयोग मात्र दो महीने तक ही चल सका था, मगर इतने कम समय में ही उसने पूंजीवाद के समानांतर जिस वैकल्पिक व्यवस्था का स्वरूप प्रस्तुत किया, वह कालांतर में दुनिया-भर के समाजवादी प्रयोगों का प्रेरक बना.
फ्रांस और प्रूशिया के युद्ध में फ्रांस की पराजय से वहां के आम नागरिकों के बीच जहां शासकवर्ग के प्रति आक्रोश की लहर थी. ऊपर से युद्ध के बाद बेरोजगारी और महंगाई की मार से जनजीवन अकुलाया हुआ था. घोर अराजकता का वातावरण था. अव्यवस्था के वातावरण में लोगों का तत्कालीन शासकों से भरोसा ही उठ चुका था. उल्लेखनीय है कि जुलाई 1870 में प्रूशिया से युद्ध की पहल तत्कालीन फ्रांसिसी सम्राट नेपोलियन तृतीय द्वारा की गई थी. बिना किसी तैयारी के युद्ध की घोषणा कर देना, सिर्फ एक राजसी सनक थी, जिसके कारण सम्राट को अंततः पराजय का मुंह देखना पड़ा. सितंबर आते-आते पेरिस का जनजीवन अस्तव्यस्त हो चला था. युद्ध के कारण अमीरी और गरीबी के बीच की खाई और भी चैड़ी हो चुकी थी. सूदखोर व्यापारी युद्ध की स्थितियों का लाभ उठाकर मनमाने तरीके से लूट मचा रहे थे. भोजन की काफी किल्लत थी. प्रशासन के स्तर पर पूरी तरह अराजक स्थिति थी. जनसाधारण की कोई सुनने वाला न था. ऊपर से प्रूशिया की सेनाओं द्वारा बमबारी और फ्रांसिसी सैन्यबलों की नाकामी से श्रमिक-असंतोष विद्रोह ही स्थिति तक जा पहुंचा था.

सेना में उच्चस्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार, सैनिकों के कमजोर मनोबल तथा हताशा के कारण फ्रांस का पतन हुआ. पराजित फ्रांसिसी सम्राट को जर्मनी के सम्राट के आगे, उसकी शर्तों पर युद्धविराम के लिए विवश होना पड़ा. इससे तुरंत बाद जर्मन सैनिकों ने नगर में विजेता के दंभ के साथ प्रवेश किया. पेरिसवासियों के मन में प्रूशियावासियों और जर्मन साम्राज्य के प्रति बेहद नाराजगी थी. लोग भीतर ही भीतर सुलग रहे थे. स्थानीय नागरिकों ने मिलकर एक ‘राष्ट्रीय सुरक्षादल’ का गठन किया था. उसने सदस्यों में अधिकांश श्रमिक और कारखानों में काम करने वाले कारीगर थे. नागरिक सेना का नेतृत्व प्रगतिशील समाजवादी नेताओं के अधीन था. नागरिक सेना के प्रति जनसाधारण के समर्थन और विश्वास का अनुमान मात्र इसी से लगाया जा सकता है कि स्वयंसेवी सैनिकों की संख्या रातदिन बढ़ रही थी. स्त्री, बच्चे और बूढ़े जो लड़ाई में सीधे हिस्सा लेेने में असमर्थ थे, वे भी अपने अनुकूल काम खोज रहे थे, ताकि अवसर पड़ने पर दुश्मन से लोहा रहे राष्ट्रीय सुरक्षाकर्मियों को मदद पहुंचा सकें.

इस बात की अफवाह भी उड़ रही थी कि जर्मन सम्राट नगर में घुसने के बाद नागरिकों पर आक्रमण भी कर सकता है, उसके बाद नगर राजशाही के अधीन होगा. फरवरी 1871 का चुनाव भी राजशाही को बढ़ावा देने का संकेत देता था. ऐसी अफवाहें लोगों के गुस्से को परवान चढ़ाने के लिए पर्याप्त थीं. पेरिसवासी वैसे भी निडर थे. युद्ध उनके लिए कोई नई बात न थी. वर्षों से वे स्वशासन और आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ते आ रहे थे. इसलिए जर्मन सम्राट के सैन्यबल के साथ नगर-प्रवेश के पूर्व ही उसके विरोध की तैयारियां हो चुकी थीं. नागरिक सेना के विद्रोह को जनसाधारण के समर्थन का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि सेना का सशस्त्र विरोध करने के लिए आवश्यक तोपों और हथियारों की खरीद के लिए पेरिस के सामान्य नागरिकों ने भी चंदा दिया था. जर्मन सम्राट के प्रवेश से पहले ही तोपें उपयुक्त स्थान पर अच्छी तरह से तैनात कर दी गई थीं. उनके संचालन के लिए नागरिक सैनिक तैयार किए जा रहे थे. ऊंचाई पर स्थित मोंटमेंट्री नामक स्थान को विद्रोह के प्रमुख ठिकाने के रूप में चुना गया था. वह सामरिक दृष्टि से भी अनुकूल था. उसके चारों ओर मजदूर बस्तियां थीं, निवासियों में से अधिकांश नागरिक सेना के प्रति समर्पित थे.

सारी तैयारी इतनी गुपचुप और भरोसेमंद थी कि भारी-भरकम सैन्यबल के साथ नगर-प्रवेश की तैयारी कर रहे जर्मन-सम्राट को इसकी खबर तक न लगी थी. गणतंत्र के अभ्यस्त हो चले पेरिसवासियों को राजशाही के नाम से ही चिढ़ थी. इसलिए जर्मन सेना से निपटने के लिए भीतर ही भीतर तैयारी चल रही थी. जर्मन की जंगी सेना के मुकाबले साधनविहीन, लगभग हार के मुहाने पर खड़े पेरिस- वासियों के मन में अपनी अस्मिता, मान-सम्मान और आजादी के प्रति इतना गहरा अनुराग था कि लोग नागरिक सेना में भर्ती होने उमड़े आ रहे थे. उनमें स्त्री-पुरुष, बूढ़े और बच्चे हर वर्ग के लोग थे, जो स्वेच्छा से मर-मिटने को तैयार थे. हर कोई ‘अपना राज’ चाहता था तथा उसके लिए यथासंभव बलिदान देने को उत्सुक था.

अस्थायी सरकार के मुखिया एडोल्फ थीयर को मालूम था कि राजनीतिक अस्थिरता और उथल-पुथल का लाभ उठाकर नागरिक सुरक्षादल ने वैकल्पिक शक्तिकेंद्र बना लिए हैं. आमजनता का उन्हें संरक्षण प्राप्त है. उसकी मुख्य चिंता थी कि हथियारबंद नागरिक सुरक्षादल के साथ-साथ श्रमिक-कामगार भी हथियार उठा सकते हैं, जिससे क्रुद्ध होकर जर्मन सेना नगर में तबाही मचा सकती है. इस बीच जर्मन सेना अल्प समय के लिए पेरिस में आई और समस्त आशंकाओं पर पानी फेरते हुए वहां से शांतिपूर्वक प्रस्थान कर गई. बावजूद इसके पेरिस का वातावरण गरमाया रहा. नगर के अशांत वातावरण से बचने के लिए नवनिर्वाचित राष्ट्रीय असेंबली ने बार्डोक्स के बजाय, उससे मीलों दूर पेरिस के दक्षिण-पश्चिम में स्थित वर्सेलाइस को अपना सम्मेलन-स्थल बनाने का निर्णय किया. सम्मेलन के लिए अधिकांश नेताओं के पेरिस से प्रथान कर जाने से वहां राजनीतिक शून्य पैदा हो गया. नेशनल असेंबली के सदस्यों में से

अधिकांश राजशाही और साम्राज्यवाद के के समर्थक थे. दूसरी ओर स्थानीय प्रशासन में लोकतंत्र समर्थकों का वर्चस्व था. असेंबली के सदस्यों के वर्सेलाइस प्रस्थान करते ही स्थानीय प्रशासन पर उनकी पकड़ ढीली पड़ गई. दूसरी ओर राष्ट्रीय सुरक्षादल की केंद्रीय समिति में सुधारवादियों का अनुपात और उनका प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था. हालात का अनुमान लगाते हुए सरकार ने निर्णय लिया कि सेना की चार सौ तोपों को नागरिक सुरक्षादलों के अधिकार में रखना सामरिक दृष्टि से उचित नहीं है. अतएव 18 मार्च को जनरल थीयर ने सेना को आदेश दिया कि वह मोंटमेंट्री की पहाड़ियों तथा उसके आसपास के क्षेत्रों पर तैनात तोपखाने को अपने अधिकार में कर ले. मगर कुछ ही दिन पहले जर्मन सेना से भारी पराजय झेल चुके सैनिकों का मनोबल बहुत गिरा हुआ था. अपने ही लोगों का सामना करने का उनमें साहस न था. विवश होकर नागरिक सुरक्षादल के स्वयंसेवकों तथा स्थानीय नागरिकों को भी उस टुकड़ी में शामिल करना पड़ा, जिनके मन में सरकार के प्रति पहले ही आक्रोश भरा था.

सरकारी तोपखाने को अपने कब्जे में लेने के लिए वह टुकड़ी जैसे ही मोंटमेंट्री पहुंची, स्थानीय नागरिक और सुरक्षाकर्मी भड़क गए. क्लाउड मार्टिन लेकाम्टे सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व कर रहा था, उसने अदूरदर्शिता और नासमझी का प्रदर्शन करते हुए सुरक्षाबलों और स्थानीय जनता पर गोलीबारी का आदेश सुना दिया. जिससे लोग भड़क गए. भीड़ ने लेकाम्टे तथा जनरल थाॅमस को उनके घोड़ों से खींच लिया. उत्तेजित नागरिक सैनिकों ने दोनों को वहीं गोली से उड़ा दिया. बुजुर्ग जनरल था॓मस कभी नागरिक सुरक्षादल का कमांडर होता था, मगर अवसरवादी रुख अपनाते हुए वह राजशाही के पक्ष में चला गया था. उत्तेजित भीड़ ने उसको भी वहीं दबोच लिया. विद्रोहियों का रुख पहचानकर सेना भी उनके साथ मिल गई. जनरल थीयर ने पेरिस को खाली कराने का आदेश दिया. तब तक विद्रोही पूरे शहर में फैल चुके थे. स्थानीय नागरिक बड़ी संख्या में उनका साथ दे रहे थे. सेना का कहीं अता-पता न था. उधर एक सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व करना हुआ जनरल थीयर वर्सेलाइस के लिए प्रस्थान कर चुका था. इससे लोगों में संकेत गया कि वह घबराकर भागा है. इसके फलस्वरूप नागरिक सेना का मनोबल और भी बढ़ गया. यद्यपि जनरल थीयर ने बाद में दावा किया था कि पेरिस से हटना उसकी एक रणनीतिक चाल थी, तथापि उस समय नागरिकों और सुरक्षाबलों ने माना कि आसन्न पराजय से क्षुब्ध होकर पेरिस से भागा है.

पेरिस के चप्पे-चप्पे पर नागरिक सुरक्षाकर्मी छाए हुए थे. शासक के रूप में मात्र नागरिक सुरक्षादल तथा उनकी केंद्रीय समिति थी. स्थिति की गंभीरता को समझते हुए उन्होंने गणतांत्रिक पद्धति के अनुरूप शासन चलाने का निर्णय लिया. आनन-फानन में लोकतांत्रिक विचारधारा के समर्थकों तथा श्रमिक नेताओं की बैठक बुलाई गई. आमचुनावों के लिए 26 मार्च, 1871 का दिन तय कर दिया गया. स्थानीय प्रशासन को व्यवस्थित रूप देते हुए 92 सदस्यीय कम्यून-परिषद का गठन किया गया. उसमें बड़ी संख्या दक्ष कामगारों और श्रमिक नेताओं की थी. उनके अलावा परिषद में डाॅक्टर, पत्रकार, नर्स, अधिवक्ता, अध्यापक जैसे पेशेवर, राजनीतिक कार्यकर्ता, सुधारवादी नेता, छोटे उद्यमी, उदार धर्मपंथी तथा समाजवादी नेता सम्मिलित थे. जर्मन सम्राट की सेना और उसके सभी सैनिक अवसर देखकर पेरिस छोड़ चुके थे. नगर पूरी तरह से विद्रोही नागरिक सेना के अधिकार में था.
इस अचानक सत्ता परिवर्तन का अनुमान न तो सरकार को था, न ही नागरिक सुरक्षाबलों को. इसलिए अप्रत्याशित परिवर्तन के बाद की स्थितियों के लिए कोई तैयार न था. प्रशासन को समाजवादी विचारधारा के अनुरूप, नए सिरे से गठित करने की आवश्यकता थी, जिसका सैनिकों और कार्यकर्ताओं को अनुभव ही नहीं था. उन्हें विश्वास था कि कि लुईस ब्लेंक और उसके समर्थक, अराजकतावादी-समाजवादी विचारक लुईस अगस्त ब्लेंकी प्रशासन और नागरिक सेना की बागडोर संभालेंगे तथा बदले हुए वातावरण में सबसे प्रभावी क्रांतिनेता सिद्ध होंगे. मगर नागरिक सेना का दुर्भाग्य रहा कि 17 मार्च के दिन ब्लेंकी को भी गिरफ्तार कर लिया गया. जीवन के बाकी दिन उसको जेल ही में बिताने पड़े. एक सौदे के रूप में कम्यून के नेताओं ने ब्लेंकी के प्रत्यार्पण के बदले पेरिस के पुजारी डारबी तथा 74 अन्य युद्धबंदियों को छोड़ देने का आश्वासन दिया, मगर थीयर ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया. तो भी नागरिक सुरक्षाबलों तथा आंदोलनकर्मियों के अनुशासन में 28 मार्च को पेरिस कम्यून में ढल गया. वर्गहीन-राज्यविहीन समाज गढ़ने की कोशिश में सभी स्थानीय निकायों को भंग कर दिया. अनुभव की कमी के बावजूद समाजवादी आंदोलन के इतिहास में पेरिस कम्यून को मिली कामयाबी अद्वितीय और चामत्कारिक थी.

क्रांति की सफलता और सुनिश्चितता के लिए जनजीवन को पटरी पर लाना अत्यावश्यक था. अतएव केंद्रीय परिषद ने जनसुविधाओं की बहाली और प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए कई कदम उठाए, जिसके कारण पेरिसवासियों को आजादी का एहसास हुआ. मगर युद्ध के बाद अस्त-व्यस्त हो चुके जनजीवन को सहेजने के लिए बड़े पैमाने पर नागरिक सुविधाओं की जरूरत थी. इसलिए उनकी बहाली हेतु सार्थक कदम उठाए गए. पेरिस के उन विद्रोही समाजवादियों, लोकसेवकों को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर बहुत कम, मात्र दो महीने ही मिल पाया. किसी भी व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त कर पटरी पर वापस लाने के लिए इतना समय नगण्य होता है. तो भी इस अवधि में कम्यून के संचालकों ने आपसी सहमति और सर्वकल्याण की भावना के साथ कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए थे, जो आगे चलकर समाजवादी व्यवस्था के प्रेरणास्रोत बने—

क. राज्य और धर्मस्थलों को एक-दूसरे से असंबद्ध करना.
ख. जितने समय तक नगर का कामकाज ठप्प रहा था, उस अवधि का किराया पूरी तरह माफ माफ करना.
ग. पेरिस स्थित सैकड़ों बेकरियों में रात की ड्यूटी करने पर पाबंदी. उनमें बड़ी संख्या में स्त्री और बच्चे काम करते थे.
घ. अविवाहित जोड़ों तथा ड्यूटी के दौरान मारे गए नागरिक सैनिकों के लिए पेंशन की व्यवस्था करना.
ड़. युद्धकाल में श्रमिकों द्वारा गिरवी रखे गए औजारों और घर के साज-सामान की बिना किसी अदायगी के वापसी. कम्यून का विचार था कि अधिकांश दक्ष कारीगरों को युद्धकाल अपने औजार गिरवी रखने के लिए विवश किया गया था.
च. वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए गए ऋण पर भुगतान को स्थगित करना तथा सभी प्रकार के ऋणों पर देय ब्याज से मुक्ति.
छ. कारखाना मालिकों द्वारा छोड़े गए तथा निष्क्रय पड़े कारखानों को श्रमिकों को चलाने का अधिकार. यद्यपि पूर्व कारखाना मालिकों को क्षतिपूर्ति के रूप में समुचित भत्ता मांगने का अधिकार दिया गया था.

चर्च को राज्य से अलग करने का परिणाम यह हुआ कि उसकी समस्त परिसंपत्तियां जनता के स्वामित्व में आ गईं. पाठशालों में धार्मिक गतिविधियों का आयोजन तत्काल प्रभाव से बंद करा दिया गया. चर्च की धार्मिक गतिविधियों को सीमित करने का भी प्रयास किया गया. वे अपनी धार्मिक गतिविधियां उसी अवस्था में चला सकती थीं, जब उन्हें शाम के समय राजनीतिक बैठकों के लिए खुला रखा जाए. यह जीवन में धर्म के हस्तक्षेप को न्यूनतम करने तथा उसके नाम पर संरक्षित संसाधनों का व्यापक लोकहित में उपयोग करने की दूरदर्शी योजना थी. शिक्षा में सुधार और सभी के लिए निःशुल्क और अनिवार्य तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था भी की गई. स्पष्ट है कि आंदोलनकारियों द्वारा पेरिस कम्यून को पूर्णतः वर्गहीन समाज के अनुरूप गढ़ने का प्रयास किया गया था.

पेरिस कम्यून के गठन की घटना को इसलिए भी याद किया जाना चाहिए कि उसके माध्यम से फ्रांस में पहली बार स्त्री-शक्ति का ओजस्वी रूप सामने आया. यद्यपि रूसो(1712—1778) अठारहवीं शताब्दी में ही स्त्री समानता का समर्थन कर चुका था. बाद में फ्यूरियर ने उस आंदोलन को आगे बढ़ाने काम किया. उसी ने ‘फेमिनिज्म’ जैसा सार्थक शब्द गढ़ा. फ्यूरियर की ही प्रेरणा पर महिला श्रमिकों ने आगे बढ़कर ‘अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन’ की सदस्यता ग्रहण की थी. पेरिस की आजादी के संघर्ष में भी महिला आंदोलनकारियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. उनमें से एक थी पेशे से जिल्दसाज, नेथाली लेमल. समाजवादी विचारों में आस्था रखने वाली नेथाली ने ऐलिजाबेथ डिमीट्रिफ के साथ मिलकर पेरिस की आजादी के लिए महिला संगठन बनाया था. उसका नाम था—‘पेरिस की सुरक्षा तथा घायलों की देखभाल के लिए महिला संगठन.’ डिमीट्रिफ अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रूसी शाखा की सदस्य रह चुकी थी और उन दिनों रूस से निर्वासन की सजा भोग रही थी. कुछ ही दिनों बाद इस संगठन को स्त्रीवादी लेखक आंद्रे लियो का भी समर्थन मिल गया. लियो पित्रसत्तात्मकता को पूंजीवाद को प्रश्रय देने वाली व्यवस्था मानते थे. उन्हें विश्वास था कि पित्रसत्तात्मकता के विरुद्ध उनका अभियान कालांतर में पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा बनेगा. नेथाली द्वारा गठित संगठन की मुख्य मांगें थीं—‘स्त्री समानता तथा समान मजदूरी’. इनके अलावा तलाक का अधिकार, धर्मनिरपेक्ष शिक्षा, संसाधनों में समान भागीदारी आदि भी स्त्रीवादियों की मांग में सम्मिलित थे. संगठन ने विवाहिता स्त्री और रखैल के बीच अंतर को मिटाने के साथ-साथ उनकी संतानों के बीच भेदभाव खत्म करने की मांग भी थी. आशय यह है कि पेरिस कम्यून का वातावरण पूरे समाज को नई चेतना सराबोर कर रहा था.

नागरिक संगठन एक ओर सामूहिक जीवन को समृद्ध बनाने के लिए निरंतर नए प्रयास कर रहे थे, उधर पू्रशिया सरकार थीयर की मदद के लिए हाथ बढ़ा चुकी थी. उसी की मदद से पूरे पेरिस की घेराबंदी कर दी गई. अंततः 21 मई को थीयर के नेतृत्व में संयुक्त सेना ने पश्चिमी दरवाजे से नगर पर हमला बोल दिया. नागरिक सुरक्षाकर्मियों ने आम जनता की मदद से उन्हें रोकने का प्रयास किया. क्रुद्ध होकर प्रूशिया के सैनिकों ने कत्लेआम मचा दिया. पेरिस के चप्पे-चप्पे पर नागरिकों और सैनिकों के बीच घमासान युद्ध छिड़ा था. लोग राजशाही के अधीन रहने के बजाय स्वाधीन रहते हुए जान देना ठीक समझते थे. नगर के पूर्वी सिरे पर मजदूर बस्तियां थी. कम्यून की जीवनशैली में उन्हें सम्मानजनक अवसर मिले थे. इसलिए पू्रशिया और जनरल थीयर के सैनिकों का सर्वाधिक विरोध भी उसी ओर था. गरीब मजदूर जी-जान से संघर्ष कर रहे थे. मगर हथियारों की कमी और युद्धनीति की जानकारी का अभाव उनकी सफलता के आड़े आया. धीरे-धीरे श्रमिक सेना कमजोर पड़ने लगी. 28 मई, 1871 को आखिरकार पेरिस फिर से राजशाही के अधीन चला गया. क्रुद्ध सैनिकों ने खूब कत्लेआम किया. लेक्समबर्ग के बागों और लोबाउ छावनी में विशेषरूप से बनाई गई कत्लगाहों में हजारों विद्रोहियों को मौत के घाट उतार दिया गया. करीब 40,000 से अधिक युद्धबंदियों को निष्कासन की सजा सुनाई गई. आमजनता यहां तक कि स्त्रियों और बच्चों को भी नहीं बख्शा गया.

सैनिकों ने हजारों स्त्रियों-बच्चों को अमानवीय अवस्था में भूखे-प्यासे कैद में रखा.
पेरिस पर सेना का कब्जा हो जाने के बाद 12,500 नागरिकों और सुरक्षाकर्मियों पर मुकदमा चलाया गया. उनमें से 10,000 को दोषी करार देते हुए सजा सुनाई गई, 23 को फांसी पर चढ़ा दिया गया. लगभग 4,000 को न्यू सेल्डोनिया में निर्वासित कर दिया गया. बाकी को कैद की सजा हुई. सेना द्वारा सामूहिक नरसंहार के उस सप्ताह में कुल कितने लोगों को मौत के घाट उतारा गया, इसका सही-सही आकलन आज तक नहीं हो पाया है. बेंडिक्ट एंडरसन के अनुसार उस ‘खूनी सप्ताह’ के भीतर पकड़े गए लगभग 20,000 सैनिकों में से कुल 7,500 को सजा सुनाई गई. जबकि कुछ विद्वान इस संख्या को 50,000 से भी अधिक बताते हैं. यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि हालांकि पेरिस कम्यून की अवधारणा मार्क्स के सिद्धांत के अनुकूल थी. इसके पीछे कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो की प्रेरणा भी थी. बावजूद इसके पेरिस कम्यून में हुए खून-खराबे से मार्क्स को गहरा धक्का पहुंचा था, जिससे उसने खुद को लेखन और अध्ययन के प्रति समर्पित कर दिया.

पेरिस कम्यून में भारी उद्योगों का संचालन मजदूर संघों के समन्वित प्रयासों द्वारा लोकतांत्रिक आधार पर संभव होता था. सभी उद्योग एक श्रमिक महासंघ के अधीन संचालित होते थे. वह पूरी तरह एक वर्गहीन समाज था, जिसमें न पुलिस बल था, न जेल, न किसी प्रकार की हिंसा को वहां स्थान था. उत्पादन के स्रोतों में सबका साझा था. ऐसे वातावरण में वहां कोर्ट-कचहरी, जज-मुन्सिफ वगैरह की भी आवश्यकता नहीं थी. सरकार के सभी पदों का चुनाव लोकतांत्रिक परिषद द्वारा किया जाता था. सामंतवाद और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में निचले और ऊपर के स्तर पर व्याप्त वेतनमान की असंगतियों को दूर करने की ईमानदार कोशिश की गई थी. चयनित अधिकारियों को भी कामगारों की औसत मजदूरी के बराबर वेतन प्राप्त होता था. कर्तव्य में कोताही बरतने, किसी भी प्रकार का आरोप सिद्ध होने पर उन्हें वापस बुलाया जा सकता था. यूजेन पोत्येर नामक एक कामगार ने कम्यून के जीवन पर एक कविता लिखी थी, जिसका आशय है—
‘सुबह जो नाला साफ करता है, वह दस बजे आकर आफिस में बैठता है, कोर्ट में जज बनता है, शाम को आकर कविता लिखता है.’

समाजवाद के पहले प्रयोग के रूप में ख्यात पेरिस कम्यून का जीवनकाल मात्र 70 दिन रहा, वह प्रयोग एक समानता-आधारित समाज का प्रतीक माना गया. मगर मार्क्स और उसके मित्र ऐंगल्स को उसी से संतुष्टि नहीं थी. उनकी आंखों में साम्यवाद और पूर्णतः वर्गहीन समाज का सपना बसा था. कम्यून-व्यवस्था को वे नौकरीपेशा मजदूरों (बुर्जुआ वर्ग) की तानाशाही मानते थे. उनका तर्क था कि, ‘राज्य और कुछ नहीं, बल्कि एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण का अवसर देने वाली मशीन है…’ दोनों का विश्वास था कि श्रमिक-क्रांति द्वारा विनिर्मित ‘नवीन एवं मुक्त सामाजिक परिवेश में एक दिन सभी साहूकारों, पूंजीपतियों को कूड़े के ढेर में बदला जा सकेगा.’9 पेरिस कम्यून साम्यवाद की स्थापना का पहला चरण था. सरकार के भारी बलप्रयोग द्वारा समाप्त कर दिया गया, मगर समाजवादी व्यवस्था का जो रास्ता उसने दिखाया, वही आगे चलकर मार्क्स और ऐंगल्स के वैज्ञानिक समाजवाद के रूप में विकसित हुआ था, जिसने कुछ दशकों में ही दुनिया के लगभग आधे देशों में अपनी अच्छी-खासी पैठ बना ली.

पेरिस कम्यून की असफलता के पीछे मजदूर नेताओें के आपसी मतभेद भी थे. उनमें से हर कोई क्रांति का श्रेय स्वयं लेना चाहता था. इनमें मार्क्स और बकुनाइन के मतभेद भी जगजाहिर हैं. पेरिस क्रांति के बड़े नेताओं में से एक बकुनाइन का मानना था कि मार्क्स जर्मन मूल का घमंडी यहूदी है. तानाशाही उसके स्वभाव का स्वाभाविक हिस्सा है. इसलिए वह फस्र्ट इंटरनेशनल के माध्यम से श्रमिकों को अपनी तरह से हांकना चाहता है. दूसरी ओर मार्क्स मानता था कि सर्वहारा वर्ग को अपना राजनीतिक दल स्वयं गठित कर, अन्य राजनीतिक दलों को राजनीति के मैदान में ही टक्कर देनी चाहिए. बकुनाइन और उसके समर्थकों के लिए पेरिस कम्यून वांछित परिवर्तन की दिशा में क्रांतिकारी कदम था, जिसके माध्यम से वे सोचते थे कि मार्क्स द्वारा कल्पित ‘आधिकारिक साम्यवाद’ को जवाब दिया जा सकता है. इस तरह वे मार्क्स की उस छवि को धूमिल करना चाहते थे, जो कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो के बाद बुद्धिजीवियों और श्रमिकों के बीच बनी थी.

बहरहाल मार्क्स और बकुनाइन के समर्थकों के बीच विवाद बढ़ता ही बढ़ता ही गया, जिसके परिणामस्वरूप बकुनाइन को ‘फस्र्ट इंटरनेशलन’ से निष्कासित होना पड़ा. मगर विवाद का यहीं अंत नहीं था. बकुनाइन के निष्कासन के बाद भी विवाद थमा नहीं था. परिणामस्वरूप श्रमिक नेताओं और विचारकों में फूट बढ़ती ही गई. जिस ऊर्जा और बौद्धिक क्षमता का उपयोग क्रांति को सफल बनाने के लिए किया जाना चाहिए था, वह लगातार कमजोर पड़ता चलता गया. इससे लोगों का विश्वास अपने नेताओं से उठता चला गया. मार्क्स भी इससे काफी निराश हुआ. परिणाम यह हुआ कि उसने स्वयं को अध्ययन और लेखन के प्रति समर्पित कर दिया. जो हो, मार्क्स का सपना आज भी मरा नहीं है. पूंजीवाद के इस इस घनघोर जंगल में, इस शोषणकारी व्यवस्था में आज भी उसकी प्रासंगिकता पूर्वतः बनी हुई है.

संघर्ष और विराम
पेरिस कम्यून की असफलता के बाद मार्क्स, ऐंगल्स और मिखाइल बकनाइन के समर्थकों के बीच असहमतियां बहुत बढ़ चुकी थीं. यहां तक कि दोनों के बीच समझौते की कोई गुंजाइश नहीं, यह मान लिया गया. मार्क्स के दबाव में हेग कांग्रेस के दौरान अराजकतावादियों को ‘फस्र्ट इंटरनेशनल’ से निष्कासित कर दिया गया. धीरे-धीरे संगठन अपनी प्रासंगिकता खोकर विवादों के घेरे में आने लगा. अंततः 1876 में उसको भंग कर दिया गया. मार्क्स अब क्रांति की असफलता के कारणों की खोज में जुटा हुआ था. उसकी पुस्तक ‘पूंजी’ का पहला खंड 1867 ही छपकर आ चुका था, जिससे उसकी प्रतिभा को वैश्विक स्वीकार्यता मिली थी. पुस्तक के शेष दो खंडों पर काम जारी था. उस ग्रंथ के द्वारा मार्क्स की योजना पूंजी के विभिन्न रूपों तथा उसके आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक संबंधों की गवेषणा करना था, लेकिन लेखकीय असंतुष्टि और शारीरिक व्याधियों के चलते पुस्तक के शेष दो अंश मार्क्स के जीवनकाल में प्रकाशित न हो सके. दोनों खंड क्रमशः 1884 और 1895 में ऐंगल्स के संपादन में प्रकाशित हुए, तब तक उसकी मृत्यु हो चुकी थी. 1871 में ही उसने फ्रांसिसी क्रांति को लेकर एक और पुस्तक की रचना की थी, उसका शीर्षक था—‘दि सिविल वार इन फ्रांस’.

मार्क्स के जीवन का अंतिम दशक शारीरिक रूप से बहुत कष्टदायक था. ‘दि कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ और ‘पूंजी’ में जिस श्रम-क्रांति का सपना उसने देखा था और जिसके लिए वह आजीवन संघर्ष करता आया था, कमजोर स्वास्थ्य के कारण अब उस दिशा में आगे बढ़ पाना कठिन हो चुका था. तो भी जर्मन और रूस के राजनीतिक परिदृश्य पर लिखी गई अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियांे के कारण वह चर्चा में बना रहा. मगर लगातार भागमभाग, अध्ययन और लेखन, ऊपर से आर्थिक अभावों के कारण बौद्धिक सक्रियता भी लंबे समय तक संभव न हो सकी. उसका स्वास्थ्य लगातार गिरता ही जा रहा था. ऊपर से बड़ी बेटी और पत्नी की मृत्यु ने उसको मानसिक रूप से अपंग कर दिया था. पत्नी जेनी ने उसके हर संघर्ष में एक सहधर्मिणी की भूमिका का निर्वाह किया था. वह सौंदर्य, स्नेह और समर्पण की मूर्ति थी. उसका न होना, जीवन से उमंगों और धैर्य का मिट जाना था. तो भी मित्रों के तीव्र आग्रह पर उसने स्वास्थ्य-लाभ के लिए यूरोप के पहाड़ी स्थलों, यहां तक कि अल्जीरिया की यात्राएं भी कीं. इसके बावजूद उसकी सेहत लगातार बिगड़ती गई. फेफड़ों की पुरानी बीमारी ही उसकी मृत्यु का कारण बनी. अंततः 14 मार्च, 1883 का वह दिन आ ही पहुंचा.

उस दिन, 2.45 बजे अपराह्न उस विलक्षण मेधा के स्वामी और जीवन के हर मोर्चे पर बौद्धिक सक्रियता दिखाने, श्रम-आधिकारिता के प्रबल पक्षधर, क्रांतिधर्मी लेखक ने जीवन की अंतिम सांस ली. मार्क्स की मृत्यु के तीन दिन पश्चात अपने शोक संदेश में उसके अभिन्न मित्र ऐंगल्स ने कहा था—

‘14 मार्च(1883) को, अपराह्न 2.45 बजे उस महान विचारक ने सोचना बंद कर दिया. उसको केवल दो मिनट के लिए अकेला छोड़ा गया था, जब हम वापस लौटे तो हमने उसको आरामकुर्सी पर धंसे हुए पाया, शांतिपूर्वक सोते हुए, किंतु हमेशा-हमेशा के लिए….उसकी मृत्यु से यूरोप और अमेरिका के संघर्षशील मजदूरवर्ग तथा इतिहास-विज्ञान की अपूरणीय हानि हुई है….डार्विन ने जैसे जीव-जगत के विकासवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था, वैसे ही मार्क्स ने मनुष्यता के इतिहास के विकास के सिद्धात को दुनिया के सामने रखा. उसने एक सहज आदर्श लोगों को समझाया कि मनुष्यमात्र के लिए भोजन, पानी, वस्त्र और आवास जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराना—धर्म, राजनीति, विज्ञान, कला आदि से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और मानवीय है…’10

ऐंगल्स के शब्दों में उस महान विचारक ने सोचना बंद कर दिया था, किंतु मार्क्स के साथ ही उसके युग का समापन नहीं हुआ. बल्कि आने वाले वर्षों में उसके विचार और संघर्ष लगातार प्रासंगिक होते गए. मार्क्स अपने जीवनकाल से अधिक प्रसिद्ध और अधिक प्रासंगिक होता गया. मार्क्स के जीवन के विश्लेषण से हम पाते हैं कि उसके व्यक्तित्व में मन-वचन-कर्म की गजब की एकता थी. उसने जैसा अनुभव किया, वही लिखा और जो लिखा, उसको अपने जीवन में उतारता भी रहा. अपने पूरे जीवन में वह, नियमित प्रतिष्ठापूर्ण लेखन के बावजूद, अपने लिए कोई स्थायी ठिकाना न बना सका. चाहता तो अपनी मेधा के बल पर वह आरामदायक जीवन का रास्ता चुन सकता था. कानून का विद्यार्थी रह चुका था. चाहता तो किसी अदालत में मजे की वकालत कर सकता था. मगर उसने अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीने का रास्ता चुना. वह उन लोगों के लिए जिया, जो सर्वहारा और उत्पीड़ित और शोषित थे, और जो लगभग उम्मीद खोते जा रहे, दिशाहीन थे. उसने शोषण के कारणों को समझा, इसलिए सर्वहारा वर्ग को हमेशा अपने हितों के लिए संगठित होने की प्रेरणा देता रहा.

मार्क्स की चर्चा करते समय उसकी पत्नी जेनी का कोई जिक्र न करना उस महान स्त्री और स्त्रीजाति के प्रति घोर कृतघ्नता होगी. यह कहना कठिन है कि अगर जेनी जैसी पत्नी का साथ न मिला होता तो भी क्या मार्क्स जीवनसंघर्ष में उतना ही सक्रिय रह पाता. क्या जेनी के साथ के बगैर पूंजी जैसा विशालकाय ग्रंथ रच पाना संभव था? बहरहाल, ये सब तो कयास की बातें हैं, जाने दीजिए. मगर वह जेनी ही थी जो धनी माता-पिता की पुत्री होने के बावजूद मार्क्स के साथ भीषण गरीबी और अभाव का जीवन जीती रही. कभी उफ् तक न की. खुद तंगहाली में रहते हुए वह बल्कि कदम-दर-कदम उसका हौसला बढ़ाती रही.
मार्क्स के लंदन के दिनों का उल्लेख जेनी ने इन शब्दों में किया है—

‘मैंने फ्रैंकफर्ट जाकर चांदी के बर्तन बेच दिए और कोलोन में फर्नीचर बेचना पड़ा. लंदन के महंगे जीवन में हमारी सारी जमा-पूंजी जल्द ही समाप्त हो गई. हमारा सबसे छोटा बच्चा जन्म से ही बीमार रहता था. एक दिन मैं स्वयं छाती के दर्द से पीड़ित थी कि अचानक मकान-मालकिन किराये के बकाया पाउंड मांगने के लिए आ धमकी. उस समय हमारे पास उसको देने के लिए कुछ भी नहीं था. वह अपने साथ दो सिपाहियों को लेकर आई थी. उसने हमारी चारपाई, कपड़े, बिछौने, दो छोटे बच्चों के पालने तथा दोनों लड़कियों के खिलौने तक कुर्क कर लिए. सर्दी से ठिठुर रहे बच्चों को लेकर मैं कठोर फर्श पर पड़ी हुई थी. अगले दिन हमें घर से निकाल दिया गया. उस समय पानी बरस रहा था और बेहद ठंड थी. पूरे वातावरण में मनहूसियत छायी हुई थी…’

और ऐसे विकट समय में दवावाले, राशनवाले और दूधवाला अपना-अपना बिल लेकर उसके सामने खड़े हो गए. उनका बिल चुकाने के लिए जेनी को बिस्तर आदि घर का बचा-कुचा सामान भी बेचना पड़ा. इसके बावजूद वह महान स्त्री मार्क्स को कदम-कदम ढांढस बंधाती रही. मार्क्स घर की गरीबी देखकर जब भी खिन्न होता, जेनी का जवाब होता था—

‘दुनिया में सिर्फ हम लोग ही कष्ट नहीं झेल रहे हैं.’

जेनी सही मायने में आदर्श स्त्री थी, जिसने अपने पति की खातिर कष्टों से समझौता किया, गरीबी में रही. मगर कभी भी अपने पति को उसका एहसास न होने दिया. बल्कि जब भी वह कमजोर पड़ता दिखाई दिया, वह उसकी हिम्मत बंधाने के लिए स्वयं आगे आ गई. दर्शनशास्त्र, इतिहास, राजनीति, कानून, नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र का व्याख्याता मार्क्स अपनी पत्नी के लिए एक भावुक कवि भी था. पत्नी जेनी के नाम 1836 में लिखी गई उसकी एक कविता का भावार्थ है—

जेनी दिक करने को तुम पूछ सकती हो
संबोधित करता हूं गीत क्यों जेनी को
सच तो यह है कि
तुम्हारी ही खातिर होती है मेरी धड़कन तेज
कलपते हैं बस तुम्हारे लिए मेरे गीत
तुम, बस तुम्हीं उन्हें उड़ान दे पाती हो
हर अक्षर से फूटता है तुम्हारा ही नाम
स्वर-स्वर को देती हो गंध-माधुर्य तुम्हीं
मेरी हर सांस हो निछावर अपनी देवि पर!
इसलिए कि अद्भुत मिठास से पगा है यह नाम
और कहती हैं कितना कुछ मुझसे उसकी लयकारियां
इतनी परिपूर्ण, इतनी सुरीली उसकी ध्वनियां
ठीक वैसे ही जैसे कहीं दूर आत्माओं की गूंजती स्वरवलियां
कि कोई अद्भुत-अलौकिक-विस्मयजनक सत्तानुभूति
कि कोई राग हो स्वर्णतारों के सितार पर.

यह कविता मार्क्स के दिल में उमड़ने वाले भरपूर प्यार की गवाही देती है. वह प्यार जो केवल जेनी और अपने परिवार तक सीमित नहीं था. अगर वहीं तक सीमित रहता तो उस जैसा प्रतिभाशाली विद्वान एक खुशहाल जिंदगी जी सकता था. उसका प्यार पूरी मनुष्यता के लिए था. गरीब-मजदूरों और कामगारों के लिए था, जो औद्योगिकीकरण की मार से बुरी तरह कराह रहे थे. इसलिए समस्त पूंजीवादी प्रलोभनों से परे रहते हुए वह साधारण से साधरणतम के बारे में ही सोचता रहा. वह आजीवन सक्रिय रहा. लेखन के अलावा आंदोलन के क्षेत्र में भी. शायद यही कारण है कि उसके लेखन में हर एक को कुछ न कुछ मसाला मिल जाता है. शायद इसलिए उसके विचारों का दुरुपयोग भी हुआ. उसके जीवन-संघर्ष से वैचारिक विकासक्रम को समझे बिना ही लोग उसके बारे में मनमाने निष्कर्ष निकालते रहते हैं. फिर भी दुनिया में उसके करोड़ों भक्त हैं, जिनका वह मागदर्शक, गुरु और आत्मचेता है. वे उसके लिखे पर श्रद्धा रखते हैं. उसका हर वाक्य उनके लिए अमृतवाक्य है. खासकर उसके द्वारा धर्म को लेकर की गई टिप्पणियां. उल्लेखनीय है कि मार्क्स धर्म का विरोधी नहीं था. वह उसको व्यक्ति का निजी मामला मानता था. इसलिए वह धर्म के साथ राजनीति और धर्मनीति का घालमेल करने का विरोधी था. दूसरी ओर करोड़ों लोग ऐसे भी हैं जिन्हें मार्क्स का लेखन चिढ़ाता है. थियोडोर ग्रो के शब्दों में—

‘कार्ल मार्क्स आधुनिक विश्व के इतिहास में सर्वाधिक विवादास्पद व्यक्तियों में से एक है. उसके विचारों को लेकर क्रांतियां रची गईं, करोड़ों लोग उनपर जान लुटा चुके हैं, यहां तक कि दुनिया पर परमाणविक युद्ध का खतरा मंडराने लगा है. उनीसवीं और बीसवीं दोनों शताब्दियों में उसके लेखन और दर्शन का सर्वाधिक दुरुपयोग किया गया, उनका गलत तरीके से इस्तेमाल किया गया. यहां तक कि उन्हें गलत समझा भी गया.’11
मार्क्स ने अपने विचारों को जिया. इसलिए उसके विचारों में जहां उसके जीवन संघर्ष की झलक है, वहीं ईमानदारी भी है. उसके विचारों से गुजरते हुए हम देखेंगे कि वे चाहे जितने विवादित सही, मगर उनकी प्रासंगिकता उस समय तक खत्म होने वाली नहीं है, जब तक कि इस पृथ्वी पर शोषणकारी आर्थिक-सामाजिक विषमताएं हैं. धर्म-जाति और क्षेत्र के नाम पर होने वाला शोषण है. जब तक ये हैं, तब तक मार्क्स का आवाह्नकारी स्वर हमें सतत प्रेरणा देता रहेगा. नीचे उसकी एक कविता का अनुवाद प्रस्तुत है—

आओ
हम बीहड़ और कठिन सुदूर
यात्रा पर चलें
चलें, क्योंकि छिछला,
निरुद्देश्य और लक्ष्यहीन
जीवन हमें स्वीकार नहीं
हम ऊंघते, कलम घिसते हुए
उत्पीड़न और लाचारी में नहीं
जिएंगे!
हम आकांक्षा, आक्रोश
आवेग और
अभियान से जिएंगे
अभिमान से जिएंगे
हम, असली इंसान की तरह
जिएंगे!

लेखकीय अवदान
अपने विद्यार्थी जीवन से ही मार्क्स ने खुद को लेखन के प्रति समर्पित कर दिया था. उसने रचानात्मक रूप से सक्रिय जीवन जिया. शारीरिक व्याधियों और भीषण आर्थिक तनावों के बीच वह लगातार लिखता रहा. बल्कि यह कहना चाहिए कि मुश्किलों और अभावों के बीच उसका अपना लेखन ही उसको संघर्ष की प्रेरणा देता रहा. अपने जीवनकाल में उसने विपुल वांङमय की रचना की. उसकी प्रमुख कृतियां निम्नलिखित हैं—
1. दि फिलास्फीकल मेनीफेस्टो आफ हिस्टारिकल स्कूल आफ ला॓, 1842.
2. क्रिटीक् आफ हीगेलस्: फिलास्फी आफ राइट, 1843.
3. आन दि जुइस क्विचन, 1844.
4. नोट्स आन जेम्स मिल, 1844.
5. इकानामिक एंड फिलास्फीकल मेनुस्क्रिप्ट आफ 1844, 1844.
6. दि होली फेमिली, 1845
7. थीसिस आन फायरबाख, 1845.
8. दि जर्मन आइडियालाजी, 1845.
9. दि पावर्टी आफ फिलास्फी, 1847.
10. वेज-लेबर एंड केपीटल, 1847.
11. मेनीफेस्टो आफ दि कम्युनिस्ट पार्टी, 1848.
12. दि एटींथ बू्रमायर आफ लुईस नेपोलियन, 1852.
13. गूंड्राइज, 1857.
14. ए कंट्रीब्यूशन आफ दि क्रिटीक आफ पालिटीकल इकानामी, 1859.
15. राइटिंग आन दि यू. एस. सिविल वार, 1861
16. थ्योरीज आफ सरप्लस वेल्यू, तीन खंडों में, 1862
17. वेल्यू, प्राइस एंड प्राफिट, 1865
18. केपीटल, प्रथम खंड, 1867
19. सिविल वार इन फ्रांस, 1871
20. क्रिटीक आफ दि गोथा प्रोग्राम, 1875
21. नोटस् आन वेगनर, 1883
22. केपीटल, दूसरा खंड (मरणोपरांत ऐंगल्स के सौजन्स से प्रकाशित), 1885
23. केपीटल, तीसरा खंड (मरणोपरांत ऐंगल्स के सौजन्य से प्रकाशित), 1894.

उपर्युक्त के अतिरिक्त उसने हजारों की संख्या में निबंध लिखे, जिनमें इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति, दर्शन, अंतरराष्ट्रीय संबंध, धर्म आदि की विस्तृत विवेचना की गई थी. वह अपने समय का विवादित मगर प्रतिभाशाली लेखक था. अपने समय में प्रचलित सभी प्रमुख विचारधाराओं का उसने अध्ययन करते हुए उनके प्रति अपनी प्रतिक्रिया मुखर स्वर में प्रस्तुत की थी, जिसके परिणामस्वरूप उसने अपने समर्थकों और आलोचकों की बड़ी जमात पैदा की. बीसवीं शताब्दी के महान क्रांतिकारी नेता चे ग्वेरा ने मार्क्स के बारे में कहा था—

“मार्क्स की प्राथमिकता थी कि वह सामाजिक विचारों के इतिहास में ठोस गुणात्मक एवं तात्कालिक परिवर्तन ला सके. इसके लिए उसने इतिहास की नई व्याख्या की, उसकी गतिशीलता को समझा-परखा, भविष्य का आकलन किया एवं गहन विश्लेषण के उपरांत उसने एक क्रांतिकारी संकल्पना भी सामने रखी कि—संसार की केवल व्याख्या से काम नहीं चलेगा, इसको बदलना ही चाहिए.’12

ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भानुक्रमणिका

1. That there was an amount of privation and suffering among that portion of the population connected with the lace trade, unknown in other parts of the kingdom, indeed, in the civilized world…Children of nine or ten years are dragged from their squalid beds at two, three, or four o clock in the morning and compelled to work for a bare subsistence until ten, eleven, or twelve at night, their limbs wearing away, their frames dwindling, their faces whitening, and their humanity absolutely sinking into a stone-like torpor, utterly horrible to contemplate.’ Capital,’ CHAPTER- I, Vol. i, p. 227- MARX, as quoted by Bertrand Russell in Proposed Roads to Freedom.
2. I lead a tormented life of solitude, illness and sleep deprivation – MARX.
3. …the main idea which should guide us in choosing a profession is the good of humanity and our own perfection… Man’s nature is such that he can attain his own perfection by working for the welfare and perfection of his fellows.- MARX.
5. Marx began to write very critical editorials on the poverty and state of oppression of some of the German workers. This irritated the Prussian Government and eventually, after Marx continued to print biting articles directed at the government of Prussia and other European nations about their political policies and treatment of their working class, they censored his newspaper and eventually had it suppressed.-Theodore Groh in Karl Marx: Life and Theory of a Sick and Angry Man.
6. …The ultimate causes of all social change and political revolutions are to be sought not in the minds of men, in their increasing insight into eternal truth and justice, but in changes in the mode of production and exchange; they are to be sought not in the philosophy but in the economics of the epoch concerned.”- MARX, The German Ideology.
7. In every society that has appeared in history the distribution of products, and with it the division of society into classes or estates, is determined by what is produced and how it is produced, and how the product is exchanged – Friedrich Engels.
8. Now and then the workers are victorious, but only for a time. The real fruit of their battles lies, not in the immediate result, but in the ever expanding union of the workers. This union is helped on by the improved means of communication that are created by modern industry, and that place the workers of different localities in contact with one another. – Karl Marx and Fredrick Engels in the Manifesto of the Communist Party.
9. The state is “nothing but a machine for the oppression of one class by another” and a new generation of socialists, “reared in new and free social conditions, will be able to throw the entire lumber of the state on the scrap-heap”. – Engels’ 1891 Preface to Marx, Civil War in France, Selected Works in one volume, Lawrence and Wishart, (1968), p256, p259
10. On the 14th of March, at a quarter to three in the afternoon, the greatest living thinker ceased to think. He had been left alone for scarcely two minutes, and when we came back we found him in his armchair, peacefully gone to sleep — but for ever…An immeasurable loss has been sustained both by the militant proletariat of Europe and America, and by historical science, in the death of this man…. Just as Darwin discovered the law of development or organic nature, so Marx discovered the law of development of human history: the simple fact, hitherto concealed by an overgrowth of ideology, that mankind must first of all eat, drink, have shelter and clothing, before it can pursue politics, science, art, religion, etc.; Engels’.
11. Karl Marx is one of the most disputed men in the history of our modern world. Revolutions have been fought, millions have died, and nuclear war threatened over what people thought he said. The writings and philosophies of Karl Marx are the most misused, misquoted, and altogether misunderstood documents of the 19th and 20th centuries. – Theodore Groh.
12. The merit of Marx is that he suddenly produces a qualitative change in the history of social thought. He interprets history, understands its dynamic, predicts the future, but in addition to predicting it, he expresses a revolutionary concept: the world must not only be interpreted, it must be transformed. —Che Guevara, Notes for the Study of the Ideology of the Cuban Revolution by, October 8 1960