अरस्तु ने कहा था, कुछ व्यक्तियों का जन्म दास बनने के लिए ही हुआ है। मैं इससे इन्कार करता हूं। क्योंकि मैं नहीं मानता कि कुछ लोग जन्मजात मालिक होते हैं—डेनियल वी. चेप्पल
कहा जाता है कि सभ्यता को दासों की जरूरत पड़ती है। मैं कहता हूं, गुलामों की मदद से कोई भी सभ्य और सुसंस्कृत समाज नहीं बनाया जा सकता—विल्हेम रीश
संस्कृति के बारे में जितनी अच्छी-अच्छी बातें संभव हैं, सब भारतीय संस्कृति में भी कही जाती हैं। जैसे कि भारतीय संस्कृति उदार है। समरस है। पुरानी है। नए विचारों का स्वागत करने वाली है। दास प्रथा के बारे में पूछा जाए तो अधिकांश का उत्तर होगा—‘नहीं, यह तो पश्चिम की विशेषता है। खासकर रोम की। भारत का इससे दूर-दूर तक नाता नहीं है।’ जवाब में कोई देवदासी का जिक्र छेड़ दे तो आस्था का मामला कहकर तुरंत दबा दिया जाएगा। बड़े-बड़े विद्वानों का भी यही हाल रहा है। ‘हिंदू सभ्यता’ में राधाकुमुद मुखर्जी इस कुप्रथा पर लगभग मौन साधे रहते हैं। रामविलास शर्मा कुछ ईमानदार हैं। उनके अनुसार यह प्रथा भारत में थी, मगर बहुत बड़े स्तर पर नहीं।1 हालांकि इससे हमारी समस्या कम नहीं होती। महाभारत(सभापर्व-52/45, विराटपर्व-18/21) में युधिष्ठिर द्वारा 88,000 स्नातकों में से प्रत्येक को 30, कुल 26,40,000 दासियां दान में देने का उल्लेख है। यह एक राजा द्वारा अवसर-विशेष पर दिए गए दान का उदाहरण है। धर्मशास्त्रों में एक बार में हजारों दासियां दान करने के उल्लेख कई जगह हैं। रामविलासजी दास-प्रथा के और कितने बड़े स्तर की कल्पना करते थे, कहना मुश्किल है। काणे थोड़ा संतुलित करने का प्रयास करते हैं—‘ऐसा प्रतीत होता है कि यहां दास का अर्थ गुलाम या अर्धदास है।’2 यहां ‘गुलाम’ और ‘दास’ में पारिभाषिक दृष्टि से क्या अंतर है, यह तो काणे साहब ही बता सकते हैं। रोम में अर्धदास को ‘शेरिफ’ अथवा ‘हेलोट’ कहा जाता था। वे कृषि-भूमि के साथ जुड़े होते थे। भूमि के खरीद-बिक्री में उनकी खरीद-फरोख्त भी शामिल होती थी। उपर्युक्त ऋचा में कृषि-भूमि अथवा खेती का कोई उल्लेख नहीं है। कौटिल्य या नारद के विभाजन में कृषिदास का अलग से कोई उल्लेख नहीं है। ए. एल. बाशम ने ‘दास’ शब्द का प्रयोग आक्रमणकारी आर्यों द्वारा पराजित प्राग्वैदिक अनार्यों के लिए किया है।
सिंधु सभ्यता में दास
भारत सहित प्राचीन सभ्यताओं में दास प्रथा के कम से कम 5200 पहले तक के प्रमाण उपलब्ध हैं। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो आदि सिंधु सभ्यता(3300—1750 ईस्वीपूर्व) के प्रमुख नगरों में बड़े-बड़े भवनों के साथ एक कमरे के मकान भी मिले हैं। उससे तत्कालीन समाज के आर्थिक-सामाजिक विभाजन का अनुमान लगाया जाता है। पुरातत्ववेत्ता जॉन मार्शल के अनुसार एक कमरे के मकान नौकरों अथवा दासों के हो सकते हैं। हालांकि यह केवल अनुमान है। व्हीलर ने हड़प्पा और सुमेरियन सभ्यता के बीच हाथीदांत, कपास के साथ-साथ दासों के व्यापार की संभावना भी व्यक्त की है। उसके अनुसार लागेश के बाउ के मंदिर परिसर में एक फैक्ट्री थी। उसमें 21 डबलरोटी बनाने वाले, 27 दासियां, 25 शराब खींचने वाले और छह दास, बुनकर और कताई करने वाले, लुहार तथा अन्य शिल्पकर्मी काम करते थे। व्हीलर के अनुसार कारखाने की संरचना हड़प्पा शैली के अनुरूप थी।3 अब यदि मान लिया जाए कि हड़प्पा और सुमेरियन सभ्यता के बीच दासों का व्यापार भी होता था, तो सिंधु सभ्यता में दासों के मौजूगी स्वतः प्रमाणित हो जाती है। दास प्रथा की उत्पत्ति का संबंध, खेती के विकास से भी बताया जाता है। उसके लिए अतिरिक्त श्रम की आवश्यकता थी। इसलिए आरंभ में ताकत के बल पर लोगों को खेतों में काम करने के लिए बाध्य किया जाने लगा। कुछ लोग जो प्रकृति-आधारित खेती की अनिश्चितता के स्थान पर निश्चित आजीविका को पसंद करते थे, वे दूसरों को अपना श्रम बेचने लगे होंगे। कालांतर में उसी से दास प्रथा का जन्म हुआ, फिर धीरे-धीरे इस प्रथा को समाज की स्वीकृति मिलने लगी। खेती के अलावा घरों, उद्यमों में भी दासों की मदद ली जाने लगी। ऐसा विकास के आरंभिक चरणों में सभी समाजों में हुआ था। फिर जैसे-जैसे राज्य नामक संस्था मजबूत हुई, दासप्रथा के अन्यान्य रूपों का विस्तार होता गया। गौरतलब है कि भारतीय और रोम तथा सुमेरियन समाज में दासों की स्थिति में बड़ा अंतर है। रोम और सुमेर में दास तत्कालीन अर्थव्यवस्था के उपकरण मात्र थे। वे खरीदे-बेचे जाते थे। उस दासप्रथा का जन्म सामंतशाही की चरम अवस्था में हुआ था। सिंधु सभ्यता में दासों की उपस्थिति के जो संकेत मिले हैं, वे रोम और सुमेर की तरह आर्थिक दास ही हैं। जिनका उस समय की अर्थव्यवस्था के संचालन में बड़ा योगदान था। लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, भारतीय दासप्रथा वर्णव्यवस्था के अनुरूप ढलने लगती है।
ऋग्वेदकालीन दासप्रथा
प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में ऐसे शताधिक विवरण मौजूद जिनसे तत्कालीन भारतीय समाज में दास प्रथा की बड़े स्तर पर उपस्थिति का पता चलता है। ऋग्वेद में ‘दास’ शब्द अनेक स्थानों पर आया है। उसमें दासों के खरीदने-बेचने, भेंट करने, उपहार अथवा दान में देने, यहां तक कि दान लेने के भी, अनेकानेक प्रसंग हैं। ऋग्वेद(8/56/3) के बालखिल्य सूक्तों में पृषध्र मुनि की उक्ति है—‘शतं मे गर्दभानां, शतमूर्णावतीनाम्। शतं दासाः अति स्रजः।।
‘मुझे एक सौ गधे, एक सौ भेड़ें और एक सौ दास दो।’—यहां दास को गधे और भेड़ के समकक्ष रखकर उसे मनुष्य की संपदा माना गया है।
ऋग्वेद में मोटे तौर पर दो प्रकार के दासों का उल्लेख है। पहले वे जो अपने स्वामी की संपत्ति कहे जाते थे। जिनके शरीर पर उनके मालिक का अधिकार होता था। यानी ऐसे दास जिनका जिक्र होते ही श्रीविहीन, दीन-हीन, अपने मालिक के इशारों पर नाचने वाले व्यक्ति की छवि मन में उभर आती है। इस श्रेणी में आर्य और अनार्य दोनों प्रजातियों के दास शामिल थे। दूसरी श्रेणी उन अनार्य दासों की थी, जो अपेक्षाकृत साधन-संपन्न थे। जिनके पूर्वजों ने सिंधु सभ्यता की नींव रखी थी। उस समय वह सभ्यता अपने पराभवकाल में थी, मगर उसका वैभव पूरी तरह क्षीण नहीं हुआ था। 8 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक में फैली उस सभ्यता के मूल बाशिंदों से आर्य कहीं जूझ रहे थे, तो कहीं मैत्री का हाथ बढ़ा रहे थे। ऋग्वेद(7/99/4) में वृषशिप्र नामक दास का उल्लेख है, जिसमें विष्णु और इंद्र की स्तुति करते हुए कहा गया है—‘तुमने वृषशिप्र नामक दास की माया को संग्राम में विनष्ट किया है।’ एक मंत्र(ऋग्वेद-10/22/8) से आर्यों एवं अनार्यों के बीच भीषण संघर्ष का पता चलता है। युद्धरत आर्य इंद्र की स्तुति कर, उससे अनार्यों के विनाश के लिए प्रार्थना करते हैं—‘हम सब चारों ओर से दस्युओं से घिर चुके हैं। वे यज्ञ कर्म नहीं करते(अकर्मन)। न वे किसी वस्तु को मानते हैं(अमंतु)। उनके व्रत हमसे भिन्न हैं(अन्यव्रत)। वे मनुष्यों जैसा व्यवहार नहीं करते(अमांतुष)। हे शत्रुनाशक इंद्र! तू उन दासों का विनाश कर।’ जाहिर है, इस श्रेणी के ‘दास’ केवल नाम के दास थे—‘दासों और दस्युओं, दोनों ही के कब्जे में अनेक किलाबंद बस्तियां थीं….माना जाता है कि घुमक्कड़ आर्यों की आंखें दुश्मनों की बस्तियों पर संचित संपत्ति पर लगी हुई थीं। उसके लिए दोनों में सतत संघर्ष होता रहता था….ऐसे दो दास प्रमुखों का उल्लेख किया गया है कि जो धनलोलुप माने गए हैं। कामना की गई है कि इंद्र दासों की शक्ति को क्षीण करें तथा उनके द्वारा जमा की गई संपत्ति को लोगों में बांट दें।’4
‘निरुक्त’ में ‘दास’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘दश्’ धातु से हुई है। इसका तात्पर्य संपन्न करना है। तदनुसार जो व्यक्ति अपने स्वामी के विविध कार्य संपन्न करता है, वह दास कहलाता है। इसका अर्थ ‘देना’ भी है। सवाल है कि दास का देने से क्या संबंध है? जिसकी देह पर भी उसके स्वामी का कब्ज़ा है, जिसे संपत्ति रखने का कोई भी अधिकार नहीं है, वह दूसरों को क्या देगा. ऋग्वैदिक काल के ‘तरुक्ष’ और ‘बल्बूथ’ नामक अनार्य दास इस कसौटी पर खरे नजर आते हैं। श्रेणी में आते थे। ऋग्वेद में दोनों का उल्लेख दास-प्रमुख के रूप में हुआ है। ऋग्वेद(8/46/32) में लिखा गया है—‘मैंने बल्बूथ नामक दास से सौ गौ और अश्व प्राप्त किए थे।’ बल्बूथ की भांति तरुक्ष नामक दासप्रमुख का उल्लेख भी दानदाता के रूप में आया है। इन दोनों की ओर से पुरोहितों को जो उपहार दिए गए थे उससे उनकी बड़ी सराहना हुई थी।5 ऋग्वेद(8/19/36) में त्रसदस्यु को पचास युवतियां दान करते हुए बताया गया है। निश्चय ही वे युवतियां दासकर्म के निमित्त दान की गई होंगी। ऋग्वेद(10/33/4) में त्रसदस्यु के पुत्र कुरुश्रवण राजा को भी श्रेष्ठ दाता बताया गया है—‘मैं कवष ऋषि हूं। मैं त्रसदस्यु के पुत्र कुरुश्रवण राजा के पास याचना करने गया था; क्योंकि वे श्रेष्ठ दाता हैं।’ अथर्ववेद के आरंभिक अंशों में भी दासप्रथा का विवरण दिया है। उसमें दासियों के संबंध में प्रमाण मिले हैं। उसमें एक दासी का उल्लेख है जिसके हाथ भीगे होते थे। वह ओखल-मूसल कूटती थी; तथा गाय के गोबर पर पानी छिड़कती थी।6
केवल संपदा नहीं, ज्ञान के क्षेत्र में भी दासों का हस्तक्षेप था। ऋग्वेद के उद्गाता ऋषियों में एक महत्त्वपूर्ण नाम कक्षीवान का है। उनका जन्म दीर्घतमस और उशिज नामक स्त्री जो दास कन्या थी, के संसर्ग से हुआ था। उशिज अंगदेश की महारानी की दासी थी। ऋग्वेद में एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण और लोकोपयोगी प्रसंग है, जुआरी का। उसके उद्गाता ऋषि कवष ऐलूष भी एक दासी की संतान थे। सूर्यकांत बाली ने ‘भारत गाथा’ में कवष ऐलूष को ‘वैदिक कविता को जमीन से जोड़ने वाला कवि’ कहा है। कवष के ऋग्वेद के दशम मंडल में कुल पांच(10/30-34) मंत्र हैं। जिनमें वह जुआरी की मनःस्थिति का वर्णन करता है। अंतः में उसे महत्त्वपूर्ण लौकिक संदेश तक ले जाता है—‘ओ जुआरी। जुआ मत खेल। मत खेल जुआ। जा अपने खेतों को देख। भार्या को देख। खेती करेगा तो धन आएगा। उसी से तुझे इज्जत मिलेगी। उसी से गौएं आएंगी। तेरी भार्या प्रसन्न होगी….घर जा। जुआ मत खेल।’ इस प्रसंग को महाभारतकार ने युधिष्ठिर के प्रसंग में ज्यों का त्यों अपना लिया गया है। बौद्ध धर्म के उभार से पहले भारत में भौतिकवादी दर्शन अपने शिखर पर था। उस समय के पांच प्रमुख आजीवक चिंतकों में से एक पूर्ण कस्सप को दास बताया गया है। बाकी दो आजीवक विद्वानों अजीत केशकंबलि और मक्खलि गोसाल की समाजार्थिक स्थिति भी दास की तरह ही थी।
ऋग्वेद(1/24) में शुनःशेप का कथासूत्र आता है। उस कथा का विस्तार ऐतरेय ब्राह्मण, भागवत पुराण, ब्रह्मपुराण आदि में भी देखने को मिलता है। कहानी के अनुसार राजा हरिश्चंद्र संतान की आकांक्षा के साथ वरुण की प्रार्थना करता है। वरुण प्रसन्न होते हैं। परंतु उनका वरदान सशर्त है—‘तुम्हारे संतान तो अवश्य होगी। लेकिन उसके लिए तुम्हें बलि देनी होगी।’ वरदान के फलस्वरूप हरिश्चंद्र के रोहित नामक पुत्र का जन्म होता है। लेकिन राजा बलि देना भूल जाता है। आखिरकार उसे याद दिलाया जाता है। रोग से पीडि़ता, दारुण अवस्था में हरिश्चंद्र 100 गायों के बदले अजीगर्त के पुत्र शुनःशेप को बलि के लिए खरीद लेता है। बाद में विश्वामित्र उसकी रक्षा करते हैं।
ऋग्वेद(2/12/4) तथा अथर्ववेद(20/34/4) में कहा गया है कि इंद्र ने दासों को गुफाओं में रहने को बाध्य कर दिया था। अनार्य दासों को आर्य ‘असुर’ मानते थे(ऋग्वेद, 9/71/2)। उन्हें पराधीन बनाने की जिम्मेदारी इंद्र पर डाली गई है। इंद्र से दासों को पराधीन करने के लिए जिस तरह बार-बार प्रार्थना की गई है, उससे लगता है, कि यह संबोधन उस समय के पूरे आर्येत्तर समुदाय के लिए रहा होगा, जो आर्यों के आगमन के पहले से ही इस भूभाग पर रहते आ रहे थे। ऋग्वेद में ‘दास’ के अलावा ‘दस्यु’ शब्द का भी कई बार प्रयोग हुआ है। सामान्यत दासों एवं दस्युओं को एक मान लिया जाता है। लेकिन ऋग्वेद में दस्युहत्या के उल्लेख हैं, जबकि दासहत्या का कोई उल्लेख नहीं है। दासों की अपेक्षा दस्युओं के विनाश तथा उन्हें पराधीन बनाने की चर्चा अधिक की गई है। इंद्र से अनुरोध किया गया है कि वे दस्युओं से युद्ध कर उन्हें परास्त करें, ताकि आर्यों की शक्ति बढ़ सके। ऋग्वेद(4/30/21) के एक प्रसंग में 30 सहस्र दासों को माया द्वारा मूर्छित करने का उल्लेख है। इससे पता चलता है कि दस्यु भारत आर्यों के आने से पूर्व शासक कबीले थे। ऋग्वेद में दस्युओं की हत्या की चर्चा कम से कम 12 स्थानों पर हुई है। अधिकांश हत्याएं इंद्र द्वारा ही कराई गई है।7 अंतर्जातीय युद्धों में दासों को भी सहायक सेना के रूप भर्ती किया जाता था। बावजूद इसके ‘कृष्णवर्ण अनार्यों को पराजित करना हंसी-खेल न था। अनार्य अपनी बढ़ी-चढ़ी सभ्यता के साथ अपने दुर्गों में सुरक्षित थे। ऋग्वेद(1/4/1/3) में उनके सैकड़ों पुरों और दुर्गों का उल्लेख है। उनमें लोहे(आयसी, 2/58/8), पत्थर(अश्ममयी, 4/30/20), लंबे-चौड़े(पृथ्वी), विस्तृत(उर्वी), गउओं से भरे हुए(गोमती, अथर्व 8/6/23), सौ खंबों वाले(शतभुजी) तथा शरतकालीन जलौघ से बचाने वाले दुर्ग शामिल थे.
अनार्य दास काले रंग(कृष्ण-योनि) के और अनास या चपटी नाक वाले थे। इसके अलावा कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक भिन्नताएं भी थीं; यथा—
1. उनकी भाषा वैदिक-संस्कृति से भिन्न थी जो स्पष्ट नहीं थी(मृध-वाक्)।
2. वे वैदिक कर्मकांड से शून्य थे।(अकर्मन)
3. वे वैदिक देवों को नहीं पूजते थे(अदेवयु)।
4. वे देवों के लिए भक्ति से रहित थे(अब्रह्मन्)।
5. वे यज्ञ से विरहित थे(अयज्वन्)।
6. वे वैदिक व्रतों का पालन नहीं करते थे।(अव्रत)।
7. उनके स्थान पर भिन्न प्रकार व्रतों या धार्मिक नियमों को मानते थे(अन्यव्रत)।
8. वे वैदिक देवों के निंदक थे(देवपीयु)।
9. वे लिंग की पूजा करते थे(शिश्नदेव)।
ऋग्वेद में इंद्र को पुरंदर और शत्रु हंता कहा गया है। इसलिए कि उसने अनार्यों के सैकड़ों दुर्गों को नष्ट किया था। हजारों हत्याएं की थीं। इंद्र ने ये हत्याएं क्यों कीं? इन्हें समझना कठिन नहीं है। आर्य अपने लिए बेहतर देश की खोज में भारत तक पहुंचे थे। भारत पहुंचने पर उनका सिंधुवासियों से सामना हुआ। जो अपनी नागरी सभ्यता पर गर्व करने वाले, भले और शांतिप्रिय लोग थे। आर्यों ने कहीं बलपूर्वक, तो कहीं सहयोग-समझौते से सिंधु सभ्यता के मूल निवासियों को अपने प्रभाव में लेना आरंभ किया। इस कार्य में उन्हें जैसे-जैसे सफलता मिली, उनका लक्ष्य भी बदलता गया। राजनीतिक विजय के बाद उनका लक्ष्य था, देव-संस्कृति की श्रेष्ठता को स्थापित करना; तथा अनार्यों की श्रम संस्कृति, जिसका विकास कृषि के विकास के साथ-साथ हुआ था, को हेय सिद्ध कर, धीरे-धीरे नष्ट कर देना।
गौरतलब है कि अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक श्रेष्ठता को श्रेष्ठतम मानकर, पराजित समूहों को अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक परिधि में लाने का काम लगभग सभी ब्राह्मणेत्तर धर्मों और संस्कृतियों में हुआ था। ईसाई और इस्लाम के अनुयायियों ने तो उसके लिए बल-बुद्धि दोनों का प्रयोग किया था। मगर ब्राह्मणों ने एकदम उलटा तरीका अपनाया था। वर्ण-व्यवस्था की मदद से उन्होंने न केवल आर्येत्तर समूहों को, अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सेदारी से दूर रखा, अपितु अपने ही एक हिस्से पर जिसे उन्होंने शूद्र की संज्ञा दी थी, ऐसे अनेक प्रतिबंध लागू कर दिए जिससे उनका सामाजिक जीवन, अत्यंत कष्टकारी होता गया। इसके पीछे आर्यों की कुंठा का योगदान भी रहा होगा। सिंधुवासी समृद्ध नागरी सभ्यता के उत्तराधिकारी थे, जो समकालीन संस्कृतियों से श्रेष्ठतम थी। 1500 ईस्वीपूर्व में आर्यों के आगमन तक, उसका प्राचीन वैभव यद्यपि क्षीण होने लगा था, तथापि घुमक्कड़ आर्यों की संस्कृति की अपेक्षा वे कहीं अधिक विकसित थे। यह जानते हुए कि भौतिक प्रगति के मामले में वे सिंधुवासियों से होड़ कर पाना असंभव है, आर्यों ने यज्ञ केंद्रित वायवी संस्कृति की नींव रखी। उन्होंने प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण किया। दावा करने लगे कि यज्ञादि के माध्यम से वे देवताओं से सीधे संवाद कर सकते हैं। आवश्यकता पड़ने पर उन्हें बुला भी सकते हैं। चूंकि उन दिनों सिंधु सभ्यता अपने अवसानकाल में थी, इसलिए एक समृद्ध सभ्यता के पराभव से निराश हुए सिंधुवासी धीरे-धीरे ब्राह्मणों की वायवी संस्कृति के प्रलोभन में फंसने लगे। ब्राह्मणों ने उन्हें आर्य संस्कृति में जगह दी, मगर इसके लिए उन्हें अपना आत्मसम्मान गंवाना पड़ा। ब्राह्मणों ने उन्हें शूद्र और दास के रूप में स्वीकार किया। दासों की कोई जाति नहीं थी। मगर कई शूद्र जातियों का सामाजिक स्तर शूद्र से भी बदतर था।
ऋग्वेद की कई ऋचाएं इसकी साक्षी हैं कि आरंभिक विजयों के साथ ही आर्यों को अपनी सांस्कृतिक विजय की चिंता होने लगी थी। वे अनार्यों के संसाधनों को कब्जाने के साथ-साथ उनकी संस्कृति को भी तहस-नहस कर देना चाहते थे। कभी छल तो कभी बल-पूर्वक वे लड़ाई को जीतते भी रहे। यह लड़ाई आसान नहीं थी। लोग ईसाइयों पर आरोप लगाते हैं कि मिशनरियों ने जनता के बीच जाकर लोगों को धर्मांतरण के लिए उकसाने, प्रलोभन देकर अपनी ओर मिलाने की कोशिशें कीं। वे इस्लाम के प्रसार हेतु जेहाद छेड़ने वाले मुस्लिमों को भी दोषी ठहराते हैं। जबकि भारत में सबसे पहला ‘जेहाद’ तो आर्यों ने अनार्यों के साथ किया था। बाद में वैसा ही जेहाद पुष्यमित्र शुंग ने वौद्धों का कत्लेआम करके किया था।
उपनिषदों में दासप्रथा
उपनिषदों को आमतौर पर दार्शनिक विमर्श के लिए जाना जाता है। कहा जाता है कि वेदों में जो दार्शनिक विचार सूत्र रूप में दिए हैं, उपनिषदों में आकर वे स्वतंत्र धारा का रूप ले लेते हैं। उपनिषदों में भी सबसे बड़ा है—छांदोग्योपनिषद। उसके चौथे अध्याय में राजा जानश्रुति और वायु को सृष्टि का मूल तत्व मानने वाले ऋषि रैक्व का संदर्भ आता है। रैक्व की ख्याति से प्रभावित जानश्रुति धर्मोपदेश की कामना के साथ अपनी पुत्री और धन-धान्य उन्हें भेंट कर देता है। उपनिषदों में ऐसे और प्रसंग भी हैं, जिनमें स्त्री के साथ दास जैसा व्यवहार किया गया है। कुछ विद्वान ऋग्वेद के दिवोदास को जो स्वयं कई ऋचाओं के उद्गाता थे, दासी-पुत्र मानते हैं।9
दासियों से मनोरंजन का काम लेने का भी उल्लेख है। तैत्तिरीय संहिता में सिर पर कलश रखकर नाचती-गाती हुई दासियों का वर्णन आया है। इसी ग्रंथ में दास के दान का भी उल्लेख है(2/2/6/3)। कठोपनिषद में दासियां नचिकेता को अपनी ओर लुभाने का यत्न करती हैं।11 ऐतरेय ब्राह्मण(39.8) में जिक्र आता है कि राजा ने राज्याभिषेक वाले पुरोहित को दस हजार दासियां और दस हजार हाथी दिए। वृहदारण्यकोपनिषद्(4.4.23) में आया है कि याज्ञवल्क्य से बृह्मविद्या की शिक्षा लेने के पश्चात जनक ने उनसे कहा, ‘विदेहों के साथ मैं स्वयं को दास बनने की कामना के साथ, आपको दान-स्वरूप प्रदान करता हूं।’ छांदोग्योपनिषद(7.24.2) में लिखा है, ‘इस संसार में लोग गायों, घोड़ों, हाथियों, सोने, खेतों, घरों एवं दासियों के साथ अपने घरों को समृद्ध करते हैं।’ इसी उपनिषद के एक प्रसंग में राजा अश्वपति ने सत्ययज्ञ से कहा था—‘खच्चरों से जुता हुआ यह रथ, दासियों तथा हार सहित प्रस्तुत है।12 इससे पता चलता है कि ऋग्वेदयुगीन दास प्रथा का वेदोत्तरकाल में खूब विकास हुआ था। यह प्रथा तत्कालीन अभिजन समाज के लिए गर्व की बात थी। यहां तक कि स्वयं को तापस और साधक कहने वाले तथाकथित वेदज्ञ ब्राह्मण भी उससे बचे न थे। आरुणि जब अपने पुत्र श्वेतकेतु के साथ ज्ञान-प्राप्ति की आकांक्षा में पांचाल नरेश प्रवाहण जाबालि के निकट पहुंचे तो वहां गाय, अश्व, परिवार और परिधानों के अतिरिक्त ‘दासी’ भी मौजूद थी।13
स्मृतिकालीन दासप्रथा
हिंदू धर्म में स्मृतियों का स्थान वेद-वेदांगों के बाद आता है। उन्हें हिंदू धर्म का आधारभूत ढांचा माना गया है। सभी धर्मशास्त्र, पुराण, महाकाव्य, सूत्र आदि स्मृतियों का अंग माने गए हैं। जहां तक दासप्रथा का सवाल है, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद, बृहस्पति, कात्यायन स्मृति सहित दोनों महाकाव्यों तथा अन्य धर्मशास्त्रों में उसका उल्लेख हुआ है। स्मृतियों का रचनाकाल बौद्ध धर्म के बाद से, चौथी शताब्दी तक फैला हुआ है। इस बीच दासों के कार्यक्षेत्र में भी वृद्धि हुई थी। गृह्मसूत्रों में सम्मानित अतिथियों के चरण धोने के लिए दासों की नियुक्ति का उल्लेख है। मनु(1.91, 8.413-414) के अनुसार शूद्रों का प्रमुख कर्तव्य है, उच्च वर्णों की सेवा करना। उसके बाद उसने जो व्यवस्थाएं की हैं, उनमें अधिकांश वही हैं, जो दासों के लिए थीं। धन-संचय का अधिकार न शूद्रों को था, न ही दासों को। यदि कोई शूद्र अथवा दास संपत्ति संचय में सफल हो जाए तो उसकी संपत्ति को छीनकर ब्राह्मणों को देने का नियम था। जैसे कुम्हार की संतान कुम्हार, जुलाहे की जुलाहा कही जाती थी, ठीक उसी प्रकार दास की संतान भी दास कहलाती थी। अंतर बस एक था। विशिष्ट परिस्थितियों में दास को स्वतंत्र किया जा सकता था। वह सामान्य जीवन जी सकता था। परंतु शूद्र को अपने जातिगत पेशे से हटकर काम करने की अनुमति नहीं थी। यहां तक कि आजाद होने के बाद भी दास पर उसकी जाति चिपकी रहती थी।
स्मृतिकाल तक दास प्रथा सांस्थानिक रूप ले चुकी थी। दास-दासियों को लेकर कानून बनाए जाने लगे थे। याज्ञवल्क्य किसी दास के साथ विवाद न करने की सलाह देते हैं। वहीं जैमिनी(6.7.6) ने शूद्रों के दान को निषिद्ध माना है, जबकि मनु ने शारीरिक दंड की व्यवस्था में दास एवं पुत्र को एक ही श्रेणी में रखा है(8.299-300)। आपस्तंबधर्मसूत्र(2.4.9.11) में आया है कि अतिथि के अकस्मात पहुंच जाने पर, खुद को, स्त्री या पुत्र को भूखा रखा जा सकता है, किंतु उस दास को नहीं, जो रात-दिन सेवा में लिप्त रहता है। नारद के अनुसार गृहस्वामी चाहे तो दास को पुत्र की भांति अपनी संपत्ति का एक हिस्सा प्रदान कर सकता है। वर्ण-व्यवस्था के बंधन दासों पर भी उसी प्रकार लागू होते थे। याज्ञवल्क्य (2.183) तथा नारद (39) के अनुसार ब्राह्मण के अतिरिक्त बाकी तीनों वर्ण ब्राह्मण के दास बन सकते थे। क्षत्रिय के दास केवल वैश्य अथवा शूद्र बन सकते थे। क्षत्रिय किसी वैश्य या शूद्र का तथा वैश्य शूद्र का दास नहीं सकता था। कात्यायन ब्राह्मण के दासत्व ग्रहण करने पर थोड़ी छूट प्रदान करते हैं। उनके अनुसार ब्राह्मण किसी ब्राह्मण का भी दास नहीं बन सकता। यदि बनना ही चाहता है तो उसे किसी चरित्रवान, एवं वैदिक ब्राह्मण का दास बनने की अनुमति है। वह भी केवल पवित्र कार्यों के लिए।14 कात्यायन(7.33) ने व्यवस्था थी कि संन्यास से भटके हुए ब्राह्मण को राज्य से बाहर निकाल देना चाहिए। लेकिन संन्यास भ्रष्ट क्षत्रिय एवं वैश्य राजा के दास होते हैं। कौटिल्य(3.13) एवं कात्यायन(7.23) के अनुसार यदि स्वामी दासी से संसर्ग करे और संतानोत्पत्ति हो तो दासी एवं पुत्र दोनों को दासत्व से मुक्ति मिल जाती है। दास की गवाही अमान्य थी। परंतु विशिष्ट परिस्थिति में जब कोई अन्य साक्ष्य अनुपलब्ध हो तो मनु(8.70) ने नाबालिग, स्त्री, नौकर आदि के साथ दास की गवाही को भी मान्य ठहराया है।
स्मृतिकाल तक दासों की कई कोटियां बन चुकी थीं। मनुस्मृति(8.415) में 7 प्रकार के दासों का उल्लेख है। कौटिल्य का मत भी मिलता-जुलता है, जबकि नारदस्मृति दासों की 15 कोटियों की लंबी सूची प्रस्तुत करता है—‘1. घर में पैदा हुआ, 2. खरीदा हुआ।, 3. दान अथवा किसी अन्य प्रकार से प्राप्त, 4. वसीयत से प्राप्त, 5. अकाल में रक्षित, 6. किसी अन्य स्वामी द्वारा प्रतिश्रुत, 7. बड़े ऋण से युक्त, 8. युद्धबंदी, 9. बाजी में जीता हुआ, 10. ‘मैं आपका हूं’ कहकर दासत्व ग्रहण करने वाला, 11. संन्यास से च्युत, 12. जो कुछ दिनों के लिए स्वेच्छापूर्वक दास बना हो, 13. भोजन के लिए दास बना हुआ, 14. दासी के प्रेम से आकृष्ट(बड़वाहृत) तथा 15. स्वयं को बेच देने वाला।15
‘अर्थशास्त्र’ के अनुसार स्मृतिकाल में दासों की खरीद-फरोख्त, उन्हें दान में लेने-देने, गिरवी रखने का प्रचलन बढ़ चुका था। कौटिल्य ने लिखा था कि प्रत्येक स्वतंत्र परिवार उदरदास(दास के पेट से उत्पन्न संतान) अवश्य रखता है। दास अपने स्वामी की संपदा कहे जाते थे। उन्हें गिरवी रखा जा सकता था। यहां तक कि उनकी हत्या भी की जा सकती थी। दासों को न्यूनतम न्याय देने के लिए स्मृतियों में कुछ अनुशंषाएं की गई थीं। परंतु व्यवहार में उनका उपयोग बहुत कम हो पाता था। इसलिए स्वामी द्वारा दास पर दंडात्मक कार्यवाही के विरुद्ध किसी अदालत में सुनवाई नहीं थी।16
उन दिनों दासों का जीवन अत्यंत कष्टकारी होता था। बीमार पड़ जाने पर उनके लिए इलाज की कोई व्यवस्था न थी। नियमानुसार दास अपना मूल्य चुकाकर अपनी आजादी खरीद सकता था। परंतु व्यवहार में ऐसा संभव ही नहीं था। इसलिए दास और उसका परिवार मालिक के लिए जो भी परिश्रम और धनार्जन करता था, उससे उत्पन्न आय उसके स्वामी की मानी जाती थी। दास का अपनी आय का कोई स्रोत नहीं था। इसलिए उसकी आजादी, सिवाय किसी चमत्कार के, असंभव जैसी थी। मुक्ति की चाहत में कई बार कुछ दास अपने स्वामी का घर छोड़कर भाग भी जाते थे। दास पर अत्याचार के समय मौन रहने वाला, उसके विरुद्ध मनमानी दंडात्मक कार्यवाही को दास-स्वामी का विशेषाधिकार मानने वाला राज्य, उस समय एकाएक बीच में कूद पड़ता था। राज्य के कर्मचारी भगोड़े दास को पकड़कर पुनः उसके स्वामी के सुपुर्द कर देते थे। खुद को गिरवी रखने वाला व्यक्ति यदि घबराकर भाग जाता तो उसे जीवन-भर के लिए दास बना लिया जाता था। मालिकों द्वारा दासियों का मान-भंग करने तथा उन्हें दूसरों के आगे पेश करना तो शान की बात मानी जाती थी।
स्मृतिकाल के दौरान दास-प्रथा पर काफी लिखा गया है। विशेषकर नारद और कात्यायन स्मृति में। नारद ने दूसरों की सेवा करने वाले(शुश्रूषक) को पांच भागों में बांटा है—1. वैदिक छात्र, 2. अंतःवासी, 3. पर्यवेक्षक(अधिकर्मकृत), 4. भृतक, तथा 5. दास। इनमें प्रथम चार को कर्मकार कहा जाता था। पवित्र कार्यों के समय उन्हें आवश्यकतानुसार बुलाया जा सकता था। दासों के लिए काम की कोई तय सूची नहीं थी। उनसे कोई भी काम लिया जा सकता था। नारद स्मृति(6.7) के अनुसार दासों के कुछ सामान्य कार्य थे—‘साज-सफाई करना, यथा झाड़ू लगाना, गंदे गड्ढों, मार्ग, गोबर, कूड़ा, तालाब आदि की सफाई करना गुप्तांगों को खुजलाना, मल-मूत्र फेंकना आदि। गौतम धर्मसूत्र(2.1.59) में भी ‘पुरुष दासादयः वंशोवंध्या’ कहकर समाज के उच्च वर्गों की सेवा को उनका कर्तव्य कहा गया है।
दासों के छूटने के नियम तथा उसके मुक्त होने की पूरी पद्धति थी। याज्ञवल्क्य(2.182) के अनुसार यदि दास किसी हमले या दुर्घटना के कारण स्वामी के संकट में पड़े जीवन की रक्षा कर ले, तो उसे मुक्त किया जा सकता है। नारद ने भी इसकी पुष्टि की है। दासत्व से मुक्ति का प्रावधान भी धर्मशास्त्रों में दिया गया है। नारद स्मृति के अनुसार स्वामी जल से भरे मिट्टी के एक घड़े को दास के कंधे से उतारकर उसे तोड़ डालता था। तदनंतर अन्न एवं पुष्पमिश्रित जल को दास के सिर पर छिड़कते हुए तीन बार उसके स्वतंत्र होने की घोषणा करता था।17 ध्यातव्य है कि यूनानी लेखक मेगस्थनीज, जो चंद्रगुप्त मौर्य की सभा में सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था—ने अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में भारत में दासप्रथा की मौजूदगी से इन्कार किया है। जबकि उस दौरान लिखे जा रहे सभी धर्मग्रंथ दास प्रथा की मौजूदगी का समर्थन करते हैं।
महाकाव्यों में दास प्रथा
भारतीय जनमानस में रामायण और महाभारत की बड़ी प्रतिष्ठा है। इनमें रामायण को महाभारत से पहला माना जाता है। परंतु जिस तरह उसमें ब्राह्मणवाद मुखर होकर आया है, वह बौद्ध धर्म से पहले की रचना नहीं हो सकती। अपने वर्तमान स्वरूप में दोनों ही ग्रंथ पुष्यमित्र शुंग के बाद की रचना है। हालांकि उनके कुछ कथासूत्र प्राचीन हो सकते हैं। ईसा पूर्व पांचवी-छठी शताब्दी में आजीवकों और बौद्धों की ओर से मिल रही चुनौतियों के कारण आभाहीन हो चुका ब्राह्मण-धर्म, अनुकूल माहौल में अपने राजनीतिक एवं सांस्कृतिक वर्चस्व को पुनःस्थापित करने में लगा था। इसके लिए समर्थन और विरोध दोनों नीतियों पर काम जारी था। एक ओर बुद्ध को दसवें अवतार के रूप में प्रतिष्ठित करके उनके विचारों को भारतीय धर्म-दर्शन की शाखा के रूप में मान्यता दी जा रही थी, दूसरी ओर ब्राह्मण धर्म को मजबूत करने के लिए वर्ण-व्यवस्था को दैवीय घोषित करने वाले ग्रंथ रचे जा रहे थे। उन सबका एकमात्र उद्देश्य था, जनसाधारण को यह विश्वास दिलाना कि ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ है और वर्ण-व्यवस्था उसका आदर्श विधान है।
जो लोग रामायण और महाभारत की अतिप्राचीनता का दावा करते हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए कि रामायण का मूल संस्करण, जिसे वाल्मीकि ने ‘पुलत्स्य वध’ शीर्षक से लिखा था, वह अनुपलब्ध है। महाभारत के पूर्व संस्करणों ‘जय’, ‘विजय’ और ‘भारत’ के बारे में भी हमारी जानकारी शून्य है। यहां तक कि हम उनकी शैली और कथा-वस्तु के बारे में कुछ भी दावे के साथ नहीं कह सकते। लेकिन इतना अवश्य कह सकते हैं कि इनके मूल कथानक अपने समय की साहित्यिक संपदा रहे होंगे। बाद की कृतियों में राम का अतिमानवीकरण, गौतम बुद्ध की श्रीलंका तथा पड़ोसी देशों में ‘धम्म विजय’ के बाद, ब्राह्मणों के मन में जन्मी कुंठा की सृजनात्मक परिणति थे। यह काम बौद्ध धर्म के कमजोर होने के बाद ही संभव था।
महाभारत में जिस प्रकार गणसंघों का प्रमुखत: उल्लेख हुआ है, वह रामायण में मौजूद समाज से करीब 200-300 वर्ष पुराने समाज की प्रतीति कराता है। उन दिनों भारत में गणराज्य काफी मजबूत अवस्था में थे। महाभारत छोटे राज्यों की अप्रासंगिकता को भी दर्शाता है। भारतीय समाज में यह बोध सिकंदर के आक्रमण के बाद बना था। उल्लेखनीय है कि सिंकदर के आक्रमण से पहले भी भारत पर यूनान की तरफ से दो बड़े हमले हो चुके थे। उनमें पहला हमला असीरिया की साम्राज्ञी सेमिरामिस की ओर से था। दूसरा आक्रमण ईरान के प्रसिद्ध विजेता कुरु की ओर से। कुरु को अंग्रेजी में साइरस लिखा जाता है। कुरु ने काबुल से लेकर इराक, शाम, टर्की, बेबिलोन, मिस्र तथा यूनान के कुछ हिस्से पर अपनी विजय पताका लहराई थी। भारत पर आक्रमण के बाद उसे सेमिरामिस की तरह ही शर्मनाक पराजय का रूप देखना पड़ा था। कुरु की मृत्यु भारतीय योद्धा के हाथों ही हुई थी। सिंकदर का आक्रमण इन सबमें बड़ा था। मगर उसका सामना चंद्रगुप्त मौर्य जैसे राजा से था, जिसके पास विश्व की सबसे विशाल सेना थी। उसमें छह लाख से ज्यादा पैदल सिपाही थे। चंद्रगुप्त ने उसमें से पांच लाख सैनिक सिंकदर से लड़ने के लिए उतारे थे। भारतीय कवियों, लेखकों ने पहली बार बड़ी सेना को दुश्मन से लोहा लेते हुए देखा था। उसी से बड़े राज्यों की अवधारणा ने जन्म लिया। कदाचित वही महाभारत की 18 अक्षौहिणी सेना के मिथ की प्रेरणा बना। उसका परिणाम रामायण और महाभारत के उपलब्ध आख्यानों के पुनर्लेखन के रूप में सामने आया। उसके बाद भी इन दोनों ग्रंथों में शताब्दियों तक प्रक्षेपण होते रहे हैं। दो हजार वर्ष पहले तक भारत में दास प्रथा, सामाजिक व्यवस्था का आवश्यक अंग बन चुकी थी। इसलिए रामायण और महाभारत में उनका खूब उल्लेख हुआ है। तत्कालीन परिस्थितियों में इतनी बड़ी सेना का खर्च उठाने के लिए भारी-भरकम अर्थव्यवस्था; तथा उसके लिए दासप्रथा का होना अपरिहार्य जैसा था। इसके प्रमाण इन दोनों महाकाव्यों में उपलब्ध हैं।
रामायण में राम के चरित्र को उदात्त बताया गया है। तुलसी उसे ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ तक कह जाते हैं। तुलसी के लिए ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ का मतलब ब्राह्मणवादी संस्कृति और वर्णव्यवस्था के प्रति अंध-समर्पण है। दास-दासियों के मामले में भी वह ठेठ परंपरावादी हैं। इसलिए विवाह में खुशी-खुशी दहेज लेते हैं। बकौल तुलसीदास—‘दहेज इतना अधिक था कि उसका वर्णन संभव ही नहीं है। स्वर्ण आभूषणों तथा मणियों से मंडप भर गया था। वहां हाथी, स्वर्णाभूषण, माणिक-मणियां, घोड़े, दास और दासियां तथा अलंकारों से सजी कामधेनु सरीखी बहुत-सी गौएं थीं।’
‘कहि न जाय कछु दायज भूरी, रहा कनक मणि मंडप पूरी
गज रथ तुरग, दास अरु दासी, धेनु अलंकृत काम दुहासी।
इस बात से वाल्मीकि भी इत्तफाक रखते हैं। राम के विवाह में दिए गए दहेज का वर्णन करते हुए वे भी गदगद हो जाते हैं—‘कन्या के पिता जनक ने दास-दासियों सहित, सोने, मोती-माणिकों और मुद्राएं दहेज में अर्पित की थीं।’18 यह तो राजा जनक द्वारा वरपक्ष यानी राम और उसके परिवार को दिए गए दहेज का वर्णन है। इसके अलावा उन्होंने सीता और अपनी बाकी पुत्रियों को भी सौ-सौ कन्याएं तथा उत्तम दास-दासियां दहेज के रूप में प्रदान की थीं। उत्तरकांड में अयोध्या के सामंत और छोटे राजाओं ने दासियां प्रदान की थीं।19 उन दिनों गुरु लोग आश्रमवासी हुआ करते थे। परंतु दासियों का दान लेने से उन्हें भी इन्कार न था। सो मर्यादापुरुषोत्तम गुरु, ब्राह्मणों और आचार्यों को कैसे भूल जाते। खुशी का अवसर नहीं था। वनवास के लिए निकलना था। राजमहल में क्लेश व्याप्त था। फिर भी गुरु को प्रसन्न करने के लिए राम ने उन्हें अपने दास-दासियों को भेंट कर दिया था—‘दासी-दास बोलाइ बहोरी, गुरहि सौंपि बोले कर जोरि’ (रामचरितमानस, अयोध्याकांड)। दशरथ का महल दास-दासियों से भरा हुआ था। राम का भवन हो या लक्ष्मण का; या फिर भरत की आरामगाह हो। सभी जगह दास-दासियों की भरमार थी। कैकई तो मंथरा नामक दासी को मैके से अपने साथ लेकर आई थी। चूंकि मंथरा के लिए कैकई ही उसकी स्वामिनी और सबकुछ थी। इसलिए वह चाहती थी कि भरत ही अयोध्या का भावी सम्राट बने। हनुमान का अपना आचरण दासत्व को पूरी तरह स्वीकार लेने वाला प्राणी जैसा है। उसकी अष्ठ सिद्धियां और नवनिधियां राम के चरणों में पड़े-पड़े गारत हो जाती हैं। शुनःशेप की कहानी रामायण में कुछ और विस्तार से प्रस्तुत है।
रामायण में हमारा तीन समाजों और संस्कृतियों से वास्ता पड़ता है। पहला अयोध्या और उसकी संस्कृति है। दूसरी किश्किंधा और तीसरी लंका की। किश्किंधा में बालि, सुग्रीव अंगद जैसे नेता हैं। वे आखेटक समुदाय से हैं जो प्रकृति से अपना भोजन जुटाते थे। बालि के राज्य में अथवा सुग्रीव के ठिकाने पर किसी दास के दर्शन नहीं होते। आवश्यकता पड़ने पर सभी वानर स्वेच्छा से राम की सेना में भागीदारी करते हैं। उनमें पदानुक्रम तो है परंतु दास और अदास का विभाजन नहीं है। लंकाकांड के दौरान हनुमान राम का संदेश लेकर लंका जाता है। वहां का वैभव देखकर वह हतप्रभ रह जाता है। लंका के सभी घर बराबर थे। धन-धान्य और वैभव से भरपूर। रामायण में लंका की अर्थव्यवस्था के बारे में कोई उल्लेख नहीं है। मगर जिस तरह की समृद्धि का वर्णन हनुमान करता है, उससे पता चलता है कि वहां अवश्य ही व्यापार केंद्रित अर्थव्यवस्था रही होगी, जबकि अयोध्या का समाज कृषि-केंद्रित था। जहां तक दास-दासियों का सवाल है, उनका उल्लेख न तो किश्किंधा के वानर समाज में था, न ही लंका के राक्षसों के बीच। यहां तक कि रावण के दरबार में भी किसी दास या दासी का उल्लेख नहीं है। अशोकवाटिका में राक्षसियां पहरा देती थीं। मगर वे सभी अनुचरी थीं। यह भी संभव है कि दास प्रथा को शान और समृद्धि का प्रतीक माना जाता था, इस कारण वाल्मीकि और तुलसी दोनों ने वहां दासों की कल्पना न की हो। यह बात पात्रों के चरित्र-चित्रण में भी नजर आती है। रावण के दरबारी जरूरत पड़ने पर अपने राजा से बहस करते, उसे समझाते हैं। राम के दरबारियों को यह सुविधा प्राप्त नहीं थी। वहां सिर्फ ‘हां’ में ‘हां’ मिलाने और जय-जयकार करने का अवसर था। कह सकते हैं कि समाज का दासभाव दरबारियों के चरित्र की भी विशेषता था, इसलिए वहां दास-प्रथा के मजबूत होने के सभी अवसर थे। रामायण का आदर्श भी ऐसा ही समाज है, जहां कुछ लोग मालिक हों और बाकी लोग दास जैसा आचरण करते हों।
महाभारत के नायक कृष्ण हैं। वे अंधक गणराज्य के मुखिया है। गणतंत्र में भरोसा रखते हैं। इसलिए दासत्व के लिए उनके यहां वैसी जगह नहीं है, जैसी राम के यहां हैं। कृष्ण स्वयं अपने साथियों-सहयोगियों के साथ मैत्री-भाव रखते हैं। मगर कृष्ण के देवत्व को मान्यता देने वाले ब्राह्मण उन्हें खुली छूट देने को तैयार नहीं थे। इतिहासचक्र के अचानक घूम जाने की बात है जिससे ब्राह्मणों को एक ग्वाले के देवत्व को स्वीकारना पड़ा। फिर भी इतना ध्यान उन्होंने रखा कि वे ब्राह्मण विरोधी न दिखें। ऋग्वेद में इंद्र को चुनौती देने वाले कृष्ण का नया रूपाकार ब्राह्मणवाद का आराधक हो, इस कारण उन्हें सुदामा के पैर धोते हुए दिखाया गया है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में अतिथियों के पांव धोने की जिम्मेदारी भी उन्हीं को ओटनी पड़ी। महाभारतकार उसी का महिमा मंडन करता है। यदि अतिथियों के पांव-प्रक्षालन करना इतना ही पुनीत कार्य था तो यह काम किसी ब्राह्मण को क्यों नहीं सौंपा गया? अथवा वह जिम्मेदारी युधिष्ठिर या उसके किसी भाई न स्वयं क्यों न संभाल ली? महाभारत में इस सवालों के लिए कोई जगह नहीं है। वैसे भी, जहां धर्म होता है, वहां सवाल या शंकाएं नहीं होतीं। केवल आस्था होती है। आंख मूंदकर विश्वास करना पड़ता है। अगर सवाल होते तो महाभारत धर्मयुद्ध कभी न बन पाता।
महाभारत में दास प्रथा का उल्लेख अनेक अवसरों पर हुआ है। हमने आरंभ में ही बता दिया है कि राजसूय यज्ञ कराने के उपलक्ष्य में युधिष्ठिर ने 88,000 ब्राह्मण पुरोहितों में से प्रत्येक को तीस दासियां उपहार स्वरूप दी थीं। वनपर्व में दिया है कि वैन्य ने अत्रि को एक हजार सुंदर दासियां प्रदान कीं।20 विराटपर्व(18.21) में 30 दासियां दान करने का एक और उल्लेख आया है। दासों का वर्णन जितना खुलकर दिया गया है, उससे लगता है कि समाज में शूद्र और दास में बहुत अंतर नहीं था। सभापर्व में युधिष्ठिर के महल में एक लाख दासियां होने का वर्णन हुआ है। यह वर्णन अतिश्योक्तिपूर्ण हो सकता है। संभव है हस्तिनापुर की कुल शूद्र स्त्रियों को ही युधिष्ठिर की दासी मान लिया हो। क्योंकि आगे उसमें लिखा है कि युधिष्ठिर अपनी दासियों का अनुरोध सुनने के लिए सदैव तत्पर रहता था। विराटपर्व(7.17) के अनुसार पांडवों के निजी कक्ष भी दास-दासियों से समृद्ध थे।। दास-दासियों की संख्या को लेकर यह अतिरंजना अन्य स्थानों पर भी पाई जाती है। उदाहरण के लिए देवयानी और शर्मिष्ठा के विवरण को ही लें। उन दोनों की एक-एक हजार दासियां बताई गई हैं। उन दिनों दहेज में दास-दासियां देने का चलन था। द्रोपदी के विवाह में भी द्रुपद की ओर से पांडवों को बड़ी संख्या में दासियां दी गई थीं।21 महाभारत काल में दास-दासियों की उपस्थिति के प्रचुर प्रसंग हैं। दुर्योधन के साथ जुआ खेलते समय युधिष्ठिर ने दावा किया था कि उसके पास एक लाख तरुण दासियां हैं। वे सुंदर हैं। सुवर्णमय मांगलिक आभूषण तथा मनोहारी वस्त्र धारण करती हैं। मणि और स्वर्णाभूषणों से लदीं, चौसठ कलाओं में निपुण उन दासियों को युधिष्ठिर अपना धन मानते थे।22
महाभारत एक वृहद ग्रंथ है। उसके भीतर अनेक उपकथाएं समाहित हैं। कद्रु-वनिता, नल-दमयंती, देवयानी, शर्मिष्ठा जैसे उपाख्यानों में भी दास प्रथा का उल्लेख है। इसमें भी नल-दमयंती का प्रकरण इतना रोचक है कि वह स्वतंत्र लोककथा के रूप में भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में ख्यात रहा है। इस उपकथा में भी जुए की बुराई को दर्शाया गया है। नल-दमयंती आख्यान के अंतिम हिस्से में पुष्कर जुए में खुद को हार जाता है। परिणामस्वरूप उसे अपनी स्वतंत्रता लुटाकर दास बनना पड़ता है। कालांतर में वह पुनः मुक्त हो जाता है। उन दिनों एक नियम यह भी था कि युद्ध में पराजित को, विजेता का दासत्व स्वीकारना वह आमतौर पर तब तक रहता था, जब तक फिरौती या बदले में कुछ हासिल न हो जाए।23 प्राय: विजेता को प्रसन्न करने के लिए बाकी भेंटों के अलावा दासियां भी भेंट की जाति थीं, इस कारण उन दिनों दास-दासियां प्रचुर संख्या में होती थीं। महाभारत(3.76.77)। लोपामुद्रा की सेवा में 1000 दासियां रहती थीं। एक प्रसंग में च्यवन ऋषि मछुआरे के जाल में फंसकर उसकी संपत्ति बन जाते हैं। आखिरकार एक राजा उन्हें खरीदकर उनकी स्वतंत्रता वापस दिलाता है। भरत दक्षिणा स्वरूप दासों की भेंट करते हैं। असल में वह शक्तिशालियों का समाज था। स्त्री, पुरुष, धन-धान्य, पशु, भूमि कुछ भी हो, इन सभी को ताकत के बल पर जीता जा सकता था। जीतने के बाद वे विजेता की संपत्ति मान लिए जाते थे। ताकत का बोलबाला था। जो ताकतवर था, वह लोगों गरीबों, विपन्नों और कमजोरों को कैद करने, उन्हें दास बनाने यहां तक कि हत्या करने की धमकी भी देते रहते थे। दास का कर्तव्य था, अपने प्राणों पर खेलकर भी अपने स्वामी के आदेश का पालन करना। कुरुक्षेत्र में युद्ध के दौरान एक अवसर ऐसा आता है जब भीष्म(भीष्मपर्व 4.15.534) कृष्ण को अपना स्वामी मानकर अपने हथियार डाल देते हैं—‘हे प्रभो! तुम मुझ पर चाहे जैसे आक्रमण करो, मैं तुम्हारा दास हूं।’ युधिष्ठिर द्वारा खुद को तथा अपने भाइयों को दाव पर लगा देने के बाद, पांडवों की स्थिति भी दास जैसी बन चुकी थी। दास बनने के साथ ही वे अपनी इच्छाएं, अपनी स्वतंत्रता और विरोध की क्षमता भी गंवा चुके थे। उनके शरीर, इच्छाएं सभी कुछ दुर्योधन के अधीन हो चुके थे, जिसने उन्हें जुए में जीता था। एक स्थान पर आता है कि पुत्र, पत्नी और दास का संपत्ति में कोई अधिकार नहीं होता, क्योंकि उनपर क्रमशः पिता, पति और स्वामी का अधिकार होता है।
दास प्रथा में स्त्रियों की और भी अधिक दुर्दशा होती थी। प्राचीन मनीषी मानते थे कि कन्या गिरवी रखे आभूषण की तरह है, जिसे मांगे जाने पर उसके वास्तविक स्वामी को वापस लौटाना ही धर्म है। इस धारणा का विकृत विस्तार मंदिरों में देवदासी प्रथा के रूप में मिलता है जिसमें ईश्वर को समर्पित करने के नाम पर नन्ही बालिकाएं मंदिर के पुजारियों को सौंप दी जाती थीं। महाभारत में एक और प्रसंग आया है जो उस समाज में स्त्री की दुर्दशा को दर्शाता है, जिसके अनुसार स्त्री की हैसियत उस समाज में दास और कहीं-कहीं तो उससे भी बदतर थी। विश्वामित्र ने ऋषि गालव से गुरु दक्षिणा के रूप में 800 श्यामकर्णी घोड़ों की मांग की। 800 श्यामकर्णी घोड़ों का प्रबंध करना हंसी-खेल नहीं था। अगर इससे दस गुनी दासियां मांगी होतीं तो कोई भी राजा पलक झपकते इंतजाम कर देता। लेकिन 800 श्यामकर्णी घोड़े! परेशान गालव अपने मित्र गरुड़ से मिला। गरुड़ ने उसे सम्राट ययाति के पास जाने की सलाह दी। ययाति के पास श्यामकर्णी घोड़े तो थे नहीं। परंतु द्वार पर आए याचक को लौटाए कैसे? अंतत: उसने माधवी नामक अपनी सुंदर पुत्री गालव ऋषि को सौंपते हुए कहा—
‘हे महर्षि! यह मेरी कन्या है। यह अपूर्व सुंदरी, लावण्यमयी एवं सर्वगुणसंपन्न है। तीनों लोकों में ऐसा कोई भी नहीं जो इसे वरण करने की इच्छा न रखता हो। इसमें सुर, नर, किन्नर, आर्यों, अनार्यों सभी को सम्मोहित करने की अभूतपूर्व शक्ति है। मैं इस कन्या को आपको अर्पित करता हूं। इसे किसी भी राजा के पास बेचकर आप आसानी से गुरु दक्षिणा का इंतजाम कर सकते हैं।’24
मानो लड़की न होकर कोई ‘हुंडी’ हो। अपने मित्र गरुण के साथ गालव माधवी को लेकर अयोध्या नरेश हर्यश्व के दरबार में पहुंचा। हर्यश्व के कोई पुत्र नहीं था। ऋषि ने दो सौ श्यामकर्णी अश्वों के बदले माधवी को उसके हवाले कर दिया—‘आप इससे एक पुत्र उत्पन्न कर लें।’(उद्योगपर्व 116.15)। हर्यश्व के माधवी से वसुमना नामक पुत्र पैदा हुआ। कुछ समय बाद गालव ने हर्यश्व से मालती को वापस ले लिया। तदनंतर उस ‘हुंडी’ को लेकर वह राजा दिवोदास के पास पहुंचा। वहां भी दो सौ घोड़ों के बदले उसने लड़की राजा को सौंप दिया(उद्योगपर्व 117.7)। दिवोदास के यहां माधवी से प्रतर्दन नामक पुत्र का जन्म हुआ। निश्चित अवधि के बाद गालव पुन: राजा दिवोदास के दरबार में जा धमका तथा उससे माधवी को वापस ले लिया। तदनंतर वह राजा उशीनर से मिला। राजा उशीनर से भी 200 घोड़े लेकर उसने माधवी को सौंप दिया। उशीनर और माधवी के संयोग से शिवि नामक पुत्र का जन्म हुआ। अब तक गुरु दक्षिणा के 600 घोड़ों का प्रबंध हो चुका था। बाकी दो सौ का प्रबंध कहां से किया जाए? आखिरकार गालव माधवी को लेकर विश्वामित्र के पास पहुंचा और पूरी कहानी सुनाने के बाद, उसने 200 घोड़ों के बदले माधवी को रखने को कहा। मेनका को देखकर आपा खो देने वाला विश्वामित्र भला क्यों इन्कार करता! उसने माधवी को रख लिया। दोनों के संयोग से अष्टक नामक पुत्र का जन्म हुआ(उद्योगपर्व 118.3-8)। बाद में गालव माधवी को उसके पिता के पास वापस लौटाने पहुंचता है। ययाति ने माधवी का स्वयंवर करने की इच्छा प्रकट की। अनिच्छा से चार अलग-अलग पुरुषों की संतान को जन्म देने के बाद बुरी तरह टूट चुकी माधवी ने विवाह से इन्कार कर, संन्यास धारण कर लिया।
इस घटना में माधवी की स्थिति दासी से भी बदतर है। सामान्य दासी का अपनी संतान पर अधिकार होता था। परंतु इस कहानी में माधवी पशुवत एक राजा से दूसरे राजा तक ले जाई जाती है। ले जाने वाला एक ऋषि है और उसका भोग करने वाले उस समय के प्रतिष्ठित राजा हैं, जिनपर न्याय की रक्षा का भार होता है।
बौद्धकालीन दासप्रथा
बौद्ध धर्म में अष्ठधम्म पद गृहस्थ जनों के लिए आचारसंहिता है। इसका पांचवा ‘धम्म’ ‘सम्यक आजीव’ है। बौद्ध धर्म गृहस्थ जनों के लिए धनार्जन का निषेध नहीं करता। किंतु चोरी, डकैती, हिंसा, लूटमार जैसे दूसरों के लिए कष्टकारी कार्यों द्वारा अर्जित धन को उसमें वर्ज्य माना गया है। ‘अपण्णकसुत्त’ में कहा गया है—‘वही व्यक्ति न्यायपथ पर है, जिसका मस्तिष्क शुद्ध एवं सात्विक है। जो अपने मन को प्रसन्न रखता है, तथा दास अथवा दासी रखने से बचता है।’ दीघनिकाय, ‘सामञ्ञफलसुत्त’ में ‘संतोष’ की स्थितियों का वर्णन करते समय कहा गया है—‘जैसे महाराज कोई पुरुष दास हो। जो पराधीन हो। जिसे अपनी इच्छा से कहीं भी आने-जाने का अधिकार न हो। समय आने पर जब वह दासता से मुक्त हो जाए। स्वतंत्र, अपराधीन, यथेच्छगामी हो जाए। तब उसके मन में ऐसे भाव होने के साथ प्रसन्न एवं आनंदित होना चाहिए—‘मैं पहले दास था, अब स्वतंत्र हूं। जहां जी चाहे वहां जा सकता हूं।’ भिक्षु संघ के नियमों के अनुसार समाज का कोई भी व्यक्ति उसकी दीक्षा ग्रहण कर सकता था। परंतु सैनिक,कर्जदार, दास आदि को भिक्षु संघ में शामिल होने के लिए संबंधित व्यक्ति की अनुमति लेनी पड़ती थी।
अंगुत्तर निकाय(5.177) के अनुसार बुद्ध ने पांच प्रकार की आजीविकाओं, जो दूसरों के लिए कष्टकारी हो सकती हैं, को अपनाने से मना किया है। जैसे हथियारों, विष, दास-दासी, वेश्यावृति, मांस तथा उसके उत्पादों की खरीद-बिक्री द्वारा अर्जित धन। इसका आशय यह नहीं है कि बौद्ध काल में दास प्रथा का अभाव था; अथवा बौद्ध धर्म की उपस्थिति से दास-प्रथा में परिमाणात्मक कमी आई थी। अन्य सभ्यताओं और संस्कृतियों की भांति बौद्धकाल में भी दासप्रथा अपने निकृष्टतम रूप में मौजूद थी। सस्ता श्रम, विकास की चाहत और स्वामी के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा—दासप्रथा की ऐसी देन थीं, जिसके कारण सुकरात से लेकर अरस्तु तक सभी ने उसे आवश्यक माना था। भारत में भी बुद्ध जैसे कुछेक अपवादों को छोड़कर लगभग सभी बुद्धिजीवी, दास प्रथा का या तो समर्थन कर रहे थे, अथवा उसकी ओर से मौन साधे हुए थे। ध्यातव्य है कि बौद्ध धर्म के प्रभाव में चलते यज्ञ-बलियों में कमी आई थी। बची हुई पशु-शक्ति का उपयोग उत्पादक कार्यों में होने लगा था। उसका सकारात्मक प्रभाव विकास पर भी पड़ा था। व्यक्तिगत संपत्ति की लालसा में निरंतर वृद्धि हो रही थी। उसके लिए सस्ता, लगभग मुफ्त श्रम उपलब्ध कराने वाली दासप्रथा का महत्त्व बढ़ता ही जा रहा था। यह भी कह सकते हैं कि अधिकाधिक लाभ की वांछा के कारण तत्कालीन व्यापारी वर्ग उसे छोड़ने को तैयार नहीं था।
बौद्धकाल तक बड़े राज्यों का बनना आरंभ नहीं हुआ था। उन दिनों भारत में मगध और उज्जैनी जैसे राजतंत्र थे। उनके साथ-साथ लिच्छिवी, वाहीक, शाक्य, मल्ल, वृष्णि जैसे गणों की भी प्रतिष्ठा थी। दासों की उपस्थिति राजतंत्र और गणतंत्र दोनों में थी। राजतंत्र में सेना के दरवाजे समाज के सभी वर्गों के लिए खुले थे।25 आवश्यकता पड़ने पर दासों को सेना में भी भर्ती किया जा सकता था। हालांकि उनका स्तर, बाकी सैनिकों से कमतर होता था। कई बार राजा युद्धकाल में मृत्युदंड पाए अपराधियों को दास के रूप में सेना में शामिल कर लेता था। वे सैनिकों और जानवरों की देखभाल के काम आते थे। सेना में भर्ती दासों को ‘दासकपुत्त’ कहा जाता था। उन्हें गृह-दास योद्धा का नाम भी दिया गया था। कई बार राजा किसी अपराधी का मृत्युदंड माफ करने के बाद, उसे अपनी सेना में शामिल कर लेता था।
कृषिकर्म के लिए भी दासों की मदद ली जाती थी। समाज के संपन्न वर्गों के पास हजारों एकड़ जमीन पर अधिकार होता था। इतनी बड़ी जमीन पर खेती करने के लिए दासों की मदद लेना तत्कालीन समाज का सामान्य चलन था। उस समय रोम की तरह भारत में दासों की दो श्रेणियां थीं। पहली श्रेणी में वे दास थे, जिनका दासत्व कृषि-भूमि से जुड़ा था। भूमि की बिक्री के साथ वे भी नए स्वामी के अधिकार में चले जाते थे। दूसरे स्वतंत्र दास थे। वे घरों और संस्थानों में काम करते थे। थेरीगाथा एक की कहानी के अनुसार, बौद्धकाल में बनारस के पास ‘दासग्राम’ था, जिसमें संपूर्ण आबादी दासों की थी। यह उन 14 गांवों में से एक था, जिनपर बुद्ध के शिष्य ‘पिप्पली मानव’ यानी महाकाश्यप का नियंत्रण था। विशाखा को दहेज में कृषि औजारों से भरी 500 गाडि़यां तथा सैकड़ों दास भेंट किए गए थे। उन दिनों दासों को अंतःवासी, अहेटक, केटक, दता, मानुस्स, सेवक, उपत्थका जैसे नाम दिए जाते थे, जबकि स्त्री दासों को अंतःपुरिका, अट्ठककारिका, इत्थी, पसेन दारिका आदि नामों से पुकारा जाता था। उनसे दासत्व की प्रवृत्ति तथा उसके कार्यक्षेत्र का बोध भी होता था।
बुद्ध के समकालीन दार्शनिकों में भौतिकवादी चिंतक पूर्ण कस्सप की बड़ी प्रतिष्ठा थी। वे अपने समय के महान आजीवक चिंतक थे। उनके जीवन के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं है। उनके नामकरण के साथ एक कहानी जुड़ी है। हालांकि उसपर विश्वास करना कठिन है। बौद्धग्रंथों के अनुसार वे एक दास थे। जो स्वामी उन्हें दास बनाने के लिए लाया था, उसके 99 दास पहले से ही थे। पूर्ण कस्सप के आने के बाद सौ होने पर, स्वामी को लगा कि उसके दासों की संख्या पूरी हो चुकी है, इसलिए स्वामी ने ही उसका नामकरण पूर्ण या पूरण कस्सप नाम दिया था। उस समय के दूसरे आजीवक एवं लोकायत चिंतकों मक्खलि गोसाल और अजित केशकंबलि की सामाजिक स्थिति भी एक दास की तरह थी। डॉ. धर्मबीर ने ‘महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल’(पृष्ठ-227) नामक पुस्तक में कबीर के ‘बीजक’ के शीर्षक की मुख्य प्रेरणा ‘महानारद कश्यप जातक’ के कथासूत्र को बताया है। उक्त जातक में बीजक आजीवक विद्वान है। उसका जन्म पानी लाने वाली दासी के गर्भ से हुआ था। दासता को उन्होंने करीब से देखा था। धर्मवीर के अनुसार बीजक, ‘अपने धर्म और दर्शन में आजीवक थे और दासता के विरोध में लड़ रहे थे।’
मेगस्थनीज चंद्रगुप्त के शासनकाल में भारत आया था। वह चंद्रगुप्त के दरबार में सेल्यूकस की ओर से राजदूत था। अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में मेगस्थनीज ने भारत में दासप्रथा की उपस्थिति से इन्कार किया है। जबकि उन्हीं दिनों रचे जा रहे बौद्ध साहित्य में दासों का खुला उल्लेख है। क्या मेगस्थनीज भारतीय दासप्रथा से सचमुच अनभिज्ञ था? अथवा उसने जानबूझकर उसे छिपाया था? जबकि वह स्वयं ऐसे देश से आया था, जहां जनसंख्या का करीब एक-तिहाई हिस्सा दास की श्रेणी में आता था। असल में मेगस्थनीज की जानकारी का स्रोत केवल ब्राह्मण थे। अतएव एक कारण तो यह हो सकता है कि ब्राह्मणों ने भारत में मौजूद दासप्रथा को जानबूझकर छिपाया हो। दूसरा कारण यह कि भारत में शूद्र एवं दास की स्थिति में बहुत अंतर नहीं था। इसलिए संभव है मेगस्थनीज स्वयं उस समय के शूद्रों एवं दासों के जीवन में अंतर करने में असमर्थ रहा हो।
उन दिनों दास प्रथा अपने चरम पर था। दासों के शरीर पर उसके स्वामी का अधिकार होता था। नाराज होने पर स्वामी उसे दंडित कर सकता था। एक जातक में एक दासी का उल्लेख हुआ है जिसे उसके स्वामी ने दूसरे व्यक्ति के पास काम के लिए भेजा था। जब वह काम करने में असमर्थ रही तो बेंतों से उसकी पिटाई की थी। दूसरी ओर दास द्वारा आत्म-उत्थान के भी उदाहरण है। कटहक का एक दास तीव्र बुद्धि था। वह स्वामी के पुत्रों के साथ पढ़ना-लिखना सीख गया। अन्य कर्मों के साथ-साथ वह भाषण कला में भी पारंगत था। मालिक ने प्रसन्न होकर उसे भंडारगृह के रक्षक के रूप में नियुक्त कर दिया था। लेकिन उसे सदैव यह भय रहता था कि उसे कभी भी किसी अपराध के कारण काम से हटाया अथवा प्रताडि़त किया जा सकता है।26
बौद्धकाल में दासों की उपस्थिति प्रायः सभी पेशों और उद्यमों में थी। विनयपिटक, दीघनिकाय, जातक कथाओं आदि में दासों की उपस्थिति बनी हुई है। बौद्ध साहित्य में आठ प्रकार के दासों का उल्लेख मिलता है—ध्वजाहृत(युद्ध में जीता गया), उदरदास(भरण-पोषण), आमाय दास(जीवकोपार्जन हेतु दासता स्वीकारना), भयाक्रांत दास(भय के कारण), स्वैच्छिक दास(स्वेच्छापूर्वक दासता को अपनाने वाला), क्रीतदास(धन देकर खरीदा गया), पादमूलिक(राजा और राजपरिवार का विश्वसनीय एवं अंतरंग दास), कम्मंतदास(खेत एवं कार्यशाला में काम करने वाला) तथा दौवारिक(द्वार पर नियुक्त रहकर स्वामी की रक्षा करने वाला)। ‘थेरवादी अट्ठकथा’ के अनुसार सेट्ठि सुदंत अनाथिपिंडक ने विहार की रक्षा के लिए एक दास दिया था। बौद्ध ग्रंथों में दासियों के भी भेद मिलते हैं। दासियां घर के प्रत्येक काम में सहयोग करती थीं। दासी की बेटी भी दासी ही कहलाती थी। ‘विदुर जातक’(जातक संख्या 545) के अनुसार कुछ लोग केवल दासी के पेट से जन्म लेने के कारण दास होते हैं। कुछ लोग धन से खरीदे जाने के बाद दास बनते हैं। कुछ भय से दास बनते हैं तो कुछ स्वयं दास बन जाते हैं।
दास को योनि मान लिया था। उससे पता चलता था की दासप्रथा को कुछ लोग दैवी विधान घोषित करने में लगे थे तदनुसार जो व्यक्ति एक बार दास बन जाता वह हमेशा दास ही बना रहता है। इसी जातक में एक जगह माणवक कहता है—’निश्चित रूप से मैं दास योनि में पैदा हुआ हूं। चाहे राजा की वृद्धि हो, चाहे अवृद्धि हो, दूर जाकर भी मैं देव का दास ही रहूंगा।’ ‘निमी जातक’ की बिरानी दासी को दासत्व उत्तराधिकार में मिला था। एक जातक में लापरवाह और आलसी ब्राह्मण स्त्री अपने पति को यह कहकर भिक्षा लेने के लिए भेजती है कि वह उसके लिए दासी खरीदकर लाए। पत्नी की इच्छा पूरी करने के लिए ब्राह्मण 700 कार्षापण मांग कर लाता है। उतने मूल्य में एक दासी खरीदी जा सकती थी। दासियां दहेज में भी दी जाती थीं। ‘सुप्पारक जातक’ के अनुसार विशारक को दहेज में दासियां प्रदान की गई थीं। गणिकाओं के यहां 500 दासियों के होने का उल्लेख है। ‘खंडहाल जातक’ में चंद्रकुमार स्वयं को दास बनाने के लिए समर्पित करता है—
‘देव! हमारा वध न करें। हमें दास बनाकर ‘खंडहाल’ को दे दें। पैरों में बेड़ी पड़ी रहने पर भी हम हाथी-घोड़ों का पालन करेंगे। देव हमारा वध न करें….हम हाथियों की लीद बटोरेंगे….हम घोड़ों की लीद बटोरेंगे….हमें चाहे जिसे दास बनाकर दे दें।’27
ऐसे ही वास्संत्र जातक में एक राजकुमार स्वयं को 1000 पण में बेच देता है। ‘कुस्सजातक’ से पता चलता है कि विधुर के घर में 700 दासियां थीं। दास-दासियों का प्रमुख कार्य परिवार के सदस्यों की सेवा करना था। अतिथियों के आने पर उनके पैर धोना, आवष्यकता पड़ने पर उनके पैर दबाना जैसे कार्य दासों के जिम्मे थे। ‘मझिम्मनिकाय’ के अनुसार ‘काली’ नामक एक दासी चावल पकाने, बिस्तर लगाने, गाय दुहने से लेकर दीपक जलाने जैसे काम करती थी। दासियां धाय का काम भी करती थीं। वे खासतौर पर लड़कियों को पालती-पोसतीं, उन्हें बड़ा करतीं और लड़की के विवाह के बाद, उसकी ससुराल वालों को दान दे जाती थीं। एक जातक कथा के अनुसार एक राजकुमार के 64 दासियां थीं। दासों का रोजमर्रा का जीवन आमतौर पर बड़ा ही कठिन था। वे अपनी नियति को जानते थे, इसलिए उनके सपने बहुत छोटे होते थे। एक जातक कथा में राजा ने प्रसन्न होकर अपने कुलपुरोहित से वरदान मांगने को कहा। इसपर पुरोहित ने अपने परिजनों के साथ-साथ घर में काम करने वाली दासी पुण्णा से उसकी आवष्यकता के बारे में भी पूछा। जवाब में पुण्णा अपने लिए मूसल, सूप तथा गारा मांगती है। दासियों को अपने स्वामी की काम-वासना का षिकार भी होना पड़ता था। जो दासियां सुंदर होतीं, वे अपने स्वामी की रखैल बनकर रहने से खुद को कृतार्थ समझने लगती थीं। उद्दालक जातक के अनुसार एक ब्राह्मण राजपुरोहित अपनी दासी पर आसक्त हो गया। आगे चलकर दासी के गर्भ से उद्दालक का जन्म हुआ। आगे चलकर वह बड़ा ऋषि बना। इस तरह हम देखते हैं कि बुद्ध ने हालांकि दासप्रथा को हेय माना, तथा दास अथवा दासी न रखने की सलाह दी थी। तथापि इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि बौद्ध काल में दासप्रथा पूरे जोरों पर थी।
प्राकृत भाषा में ‘दास’ का उल्लेख अन्य अर्थों में देखने को मिलता है। वह उसकी अब तक स्थापित सामाजिकी से बिलकुल अलग है. प्राकृत में दास का अर्थ है, देखना। ‘दर्शन’ का अर्थ भी यही है। ऐसे लोग जो संसार के आंतरिक और बाहरी रहस्यों को समझते थे, जितनी अंतर्चेतना प्रबल थी, उन्हें दास कहा जाता था। वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा, बिहार में प्राचीन भारतीय इतिहास के गंभीर अध्येता डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह के अनुसार, दास मूल रूप से बौद्ध थे. उनके अनुसार साँची और भरहुत के स्तूपों पर अनेक दास तथा दासी उपाधिधारक बौद्धों के शिलालेख हैं, जिन्होंने स्तूप-निर्माण में मदद की थी।’ वे लिखते हैं—
”अरहत दास थे, अरहत दासी थीं, यमी दास थे, जख दासी थीं….अनेक, सभी के नाम लिखे हुए हैं। एक बौद्धकालीन शिलालेख पर प्राकृत में ‘थूप दास’ का वर्णन मिलता है। उसपर लिखा है-‘मोरगिरिह्मा थूपदासस दान थंभे।’ थूप दास मोरगिरि(महाराष्ट्र) के निवासी थे। उन्होंने भरहुत के एक स्तंभ-निर्माण में मदद की थी। वैदिक साहित्य में वर्णित आर्यों का सांस्कृतिक संघर्ष इन्हीं बौद्ध दास-दासियों से हुआ था। वैदिक साहित्य इन दास-दासियों के बारे में बताता है कि ये लोग यज्ञ नहीं करते और न ये इंद्र-वरुण की पूजा करते हैं…स्पष्ट है कि ये बौद्ध हैं। प्राकृत भाषा में ‘दास'(दसन) का अर्थ द्रष्टा है। मगर आर्यों ने सांस्कृतिक दुश्मनी के कारण अपनी पुस्तकों में ‘दास’ का अर्थ ‘गुलाम/नौकर’ कर लिया है। दास और आर्यों का यह सांस्कृतिक संघर्ष 1500 ई.पू. में नहीं बल्कि मौर्य काल के बाद हुआ था।”
इस संबंध में अभी और शोध की अपेक्षा है. यह सच है कि समय और परिस्थितियों में आए बदलाव के कारण शब्द अपनी अर्थ-छवियां बदलती रही हैं। अठारहवीं-उनीसवीं शताब्दी में ‘अराजकतावाद’ शब्द ‘जनतंत्र’ की उच्चतम अवस्था का प्रतीक था। उसका अर्थ ऐसे राज्य से था, जहां के प्रबुद्ध नागरिक अपने आप में ही इतने अनुशासित और समर्पित हों कि राज्य की आवश्यकता और उसका औचित्य ही जाता रहे। आज यह शब्द एकदम भिन्न अर्थों में अव्यवस्था और कानून विरोध के संदर्भ में प्रयुक्त किया जाने लगा है। अराजक शब्द का उपयोग कई बार गाली की तरह भी किया जाता है.
जैन दर्शन भी बौद्ध दर्शन का समकालीन है। जैन धर्म में अहिंसा पर अत्यधिक जोर दिया गया है। वहां अहिंसा की परिभाषा बहुत व्यापक है। उसमें मनसा-वाचा-कर्मणा किसी भी प्रकार की हिंसा का निषेध है। चूंकि दास प्रथा में स्वामी दास के विवेक को पनपने नहीं देता। उसपर हमेशा अपना निर्णय लादे रहता है। दास से जीवन के कई मौलिक अधिकार जैसे संपत्ति संचय, छीन लिए जाते हैं। इसलिए कह सकते हैं कि प्रत्यक्ष न सही, परोक्ष में ही—जैन धर्म दास प्रथा का विरोध करता है। हालांकि उसमें सीधे तौर पर कहीं भी दास प्रथा का विरोध नहीं है। जैन दर्शन में महावीर स्वामी के आरंभिक अनुयायियों में चंदनबाला का उल्लेख मिलता है। वह महावीर स्वामी की प्रथम महिला शिष्या थी। कहानी के अनुसार चंदनबाला चंपानगरी के राजा दधिवाहन की बेटी थी। उसका मूल नाम वसुमती था। एक बार चंपानगरी पर पड़ोसी राजा शतानीक ने हमला कर दिया। आकस्मिक हमले से आक्रांत दधिवाहन जंगलों की ओर भाग गए। उनकी पत्नी और बेटी वसुमती को शत्रु सेना ने कैद कर लिया। बाद में उन्होंने वसुमती को बेचने के लिए कोशांबी के चौराहे पर खड़ा कर दिया। वहां उसे धन्नासेठ नाम के व्यापारी ने खरीद लिया। यह देखते हुए कि वसुमती किसी संभ्रांत घर की लड़की है, धन्ना ने उससे दासी का काम लेने के बजाए, चंदनबाला नाम देकर अपनी पुत्री की तरह उसका लालन-पालन किया। बदलते घटनाचक्र के दौरान चंदनबाला महावीर स्वामी के संपर्क में आई और उनकी शिष्या बन गई।
बुद्धेत्तर भारत में दास प्रथा
बाद के कालखंड में भी दास प्रथा की मौजूदगी के पर्याप्त प्रमाण हैं। संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिकम’ में दासों की मंडी का उल्लेख किया गया। एक व्यक्ति उधार चुकाने में असमर्थ रहता है। इसपर साहूकार के आदमी उसे पीटते हुए मंडी में ले जाते हैं। जहां उसको नीलाम करके अपना कर्ज वसूल लिया जाता है। भारतीय दास प्रथा की चर्चा मध्य एशिया की ओर से आए योद्धाओं की चर्चा के बिना पूरी नहीं हो सकती। अपने लिए स्थायी राज्य की चाहत में उन्होंने हजारों किलोमीटर लंबी कठिन यात्राएं की थीं। बीच-बीच में उन्हें अस्थायी सफलताएं भी मिलती रहीं। कारण है कि एक अंतराल के पश्चात उनके सहयोगी सैनिकों, जिनमें उनके अपने परिजन भी होते थे—की अपनी महत्त्वाकांक्षाएं अंगड़ाई लेने लगती थीं। जिससे विजित क्षेत्र के शासन-प्रशासन के अधिकार को लेकर उनके बीच सत्ता-संघर्ष शुरू हो जाता था। उससे बचने के लिए कुछ लड़ाकों ने दास प्रथा का सहारा लिया था। दास के पास सिवाय ‘स्वामीभक्ति’ के अपना और गर्व करने लायक कुछ नहीं होता था। यह प्रत्यय भी दास प्रथा को दैवीय उठान देने के मंशा के साथ मालिक ही दासों के मनस् में रोपते आए थे। समय के साथ दास उस अमानवीय प्रथा से अनुकूलित होने लगे। एक समय ऐसा आया, जब दास उन असमानताकारी पृथा को अपना चुके थे। परिणामस्वरूप स्वामीभक्ति उनके लिए बड़ा जीवनमूल्य, बन गई। इसकी पराकाष्ठा हमें पन्ना धाय के चरित्र में दिखाई पड़ती है। सोलहवीं शताब्दी की वह स्त्री जिसका स्तर समाज में दास जैसा ही था, महाराणा संग्राम सिंह के बेटे और मेवाड़ के भावी सम्राट उदय सिंह को बचाने के लिए, अपने बेटे चंदन को हत्यारे बनवीर के आगे कर देती है। बनवीर बिना कोई दया दिखाए एक झटके में उस मासूम की हत्या कर देता है। ऐसा उदात्त दासत्व सत्तानशीनों के बड़े काम का था, इसलिए राजस्थान के इतिहास में पन्ना धाय के त्याग का खूब महिमामंडन किया गया। पन्ना धाय जैसे स्वामीभक्त हर शासक की जरूरत थे। बगैर उनके बड़े और स्थायी राज्य स्थापित कर पाना असंभव था।
दास के लिए अपने मालिक के सुख-वैभव के अलावा कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं था। वे मानापमान की भावना से कोसों परे थे। इसे समझने के लिए एक खलीफा की यह स्वीकारोक्ति काफी होगी—
‘जब मैं दरबार में बैठता हूं तो एक गुलाम को बुलाकर अपने बगल में बिठा सकता हूं। इस तरह कि उसके और मेरे घुटने एक-दूसरे को जकड़ें। जैसे ही दरबार समाप्त हो जाए तो मैं उसे अपने घोड़े की मालिश को कह सकता हूं। उसे इसमें तनिक भी बुरा नहीं लगेगा। अगर में यही काम किसी और से करने को कहूं तो वह कहता, ‘मैं आखिर तुम्हारे पक्षधर का बेटा हूं।’ या ‘तुम्हारा खास साथी हूं।’ और मैं उसे राजी नहीं करवा पाता।’28
तो बात मध्य एशिया, ईरान और अफगानिस्तान के जुझारू लड़ाकों की हो रही थी। दसवीं शताब्दी में वे अपनी-अपनी सैन्य टुकडि़यों के साथ संघर्षरत थे। उन्हें जहां भी कमजोर राज्य दिखता, फौरन हमला कर देते थे। मगर वह जीत स्थायी न होती थी। कुछ दिनों बाद उनके अपने बीच भी सत्ता संघर्ष पनपने लगता था। उसे शांत रखने के लिए उन्हें या तो राज्य का बंटवारा करना पड़ता; अथवा अपने अधिकारों में कटौती करनी पड़ती थी। उससे मुक्ति के लिए कुछ महत्त्वाकांक्षी लड़ाकों ने प्रशिक्षित और ख्यातिनाम सैनिकों के बजाए, अपनी सेना में दासों को भर्ती करना शुरू कर दिया। उन्हें सैन्य-प्रशिक्षण देकर लड़ने लायक बनाया। प्रयोग कामयाब रहा। उदाहरण के लिए कुतबुद्दीन ऐबक शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी का गुलाम था। गौरी के साथ उसने कई युद्धों में हिस्सा लिया था। मुहम्मद गौरी ने भारत में गौरी-साम्राज्य की नींव डाली थी। परंतु उसका शासन ज्यादा लंबा न खिंच सका। अवसर मिलते ही कुतबुद्दीन ऐबक ने मुहम्मद गौरी के उत्तराधिकारियों से सत्ता छीन ली। कुतबुद्दीन ऐबक के बाद दिल्ली सल्तनत उसके भाई आरामशाह के हाथों में चली गई। वह अपने नामानुरूप ऐशोआरामपरस्त था। उसे मारकर इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत पर कब्जा कर लिया। इल्तुततमिश कुतबुद्दीन ऐबक का दास, यानी गुलाम का भी गुलाम था। विद्रोहियों के दमन के लिए उसने 40 भरोसेमंद गुलामों को लेकर ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ नामक संगठन बनाया था, जो साये की तरह उसकी सुरक्षा में रहता था। इल्तुतमिश दास-योद्धाओं से अपने बेटों से भी अधिक प्यार करता था। भारत में गुलाम वंश का शासन 84 वर्षों(1206—1290 ईस्वी) तक रहा। लेकिन वह गुलाम वंश का शासन था, गुलामों का नहीं। क्योंकि न तो उससे समाज के गुलामों के प्रति नजरिये में बदलाव आया, न बाकी गुलामों में उससे आत्मविश्वास का संचार हुआ था और न ही उन शासकों का गुलामों के प्रति नजरिया बाकी लोगों से बहुत ज्यादा अलग था।
दासों का जीवन बहुत चुनौतीपूर्ण और कष्टकारी होता था। इस मामले में शूद्रों की स्थिति भी उनसे खास अच्छी नहीं थी। अछूतों का तो और भी बुरा हाल था। डॉ. आंबेडकर ने छूआछूत को दास प्रथा से भी घृणित एवं निदंनीय माना है—
‘अस्पृश्यता, दासत्व से कहीं अधिक निकृष्ट है, क्योंकि यह अछूतों को उनके हाल पर ऐसे स्थान पर पटक देती है, जहां उनकी आजीविका का कोई साधन ही न हो….दास अपने स्वामी की संपत्ति होता था। इसलिए स्वामी द्वारा उसे मुक्त व्यक्ति के सापेक्ष वरीयता दी जाती थी। मूल्यवान होने के कारण उससे स्वामी के स्वार्थ भी जुड़े होते थे, वह दास के स्वास्थ की देखभाल करता था। रोम में दासों को दलदल और मलेरिया से ग्रस्त स्थान पर कभी नहीं ठहराया जाता था। वहां केवल मुक्त व्यक्तियों को ही नियुक्त किया जाता था।’29
बावजूद इसके भारतीय छूआछूत को हजारों वर्षों तक गले लगाए रहे। अंग्रेजों ने दास प्रथा को निंदनीय मानते हुए, 1843 में ही समाप्त कर दिया था। मगर छुआछूत को पूरी तरह खत्म करने के लिए संविधान के लागू होने तक प्रतीक्षा करनी पड़ी।
ओमप्रकाश कश्यप
9013 254 232
संदर्भ
1. डॉ. रामविलास शर्मा, मानव सभ्यता का विकास, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ-74
2. डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा उद्धृत, उपर्युक्त, पृष्ठ-74
3. मोर्टीमर व्हीलर, दि इंडस सिविलाइजेशन, कैंब्रिज यूनीवर्सिटी प्रेस, लंदन, 1968, पृष्ठ-34 & 135
4. रामशरण शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, राजकमल प्रकाशन, 1992, पृष्ठ- 17
5. उपर्युक्त, 25
6. यद्वा दास्र्याद्रहस्ता समत उलूखल मुसलम् शुम्भताप-अथर्ववेद, 12/3/13)
7. रामशरण शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, राजकमल प्रकाशन, 1992, पृष्ठ-16
8. राधाकुमुद मुखर्जी, हिंदू सभ्यता, पृष्ठ 89
9. रामशरण शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, 25
10. उदकुंभानधिनिधाम दास्यौ मार्जालीयं परिनृत्यंति पदों
निध्नतीरिदं मधुगायन्त्यों मधु वै दैवानां परममन्नाधाम—तैत्तिरीय संहिता, 7/5/101
- डॉ. रामविलास शर्मा, मानव सभ्यता का विकास, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ-74
12. प्रवृत्तोऽश्वतरीरथो दासीनिष्कोऽत्स्यन्नं पश्यसि—छांदोग्योपनिषद, 5.13.2
13. स होवाच विज्ञायते हस्ति, हिरण्यस्पापस्तं गौ, अश्वानां दासीनां—बृहदारण्यक उपनिषद(6.2.7)।
14. ओमप्रकाश प्रसाद, प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास, राजकमल प्रकाशन, 2006
15. गृह जातस्था, क्रीतो लब्धो, दायादुपागतः
अनाकाल भृतो, लोके अहितः स्वामिना च यः। 24
मोक्षितो महतश्चार्णात्प्राप्तो, युद्धात्पणार्जितः
तवाह मित्युपगतः प्रवज्यावसितः कृतः। 25
भक्तदासश्चविज्ञेयस्तथैव वडवाहतः
विक्रेता चात्मनः शास्त्रै दासाः पंचदशस्मृताः। 26
- श्रीपाद अमृत डांगे, आदिम साम्यवाद, हिंदी अनुवाद आदित्य मिश्र, राजकमल प्रकाशन, 1978, पृष्ठ 195
17. डॉ. सुरेद्र कुमार शर्मा अज्ञात, क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म, विश्व बुक्स प्रा. लिमिटेड,
18. ददौ कन्यापिता तासां दासीदासमनुत्तमम्।
हिरण्यस्य सुवर्णस्य मुक्तानां विद्रुमस्य च। रामायण, बालकांड, 1.74.5
19. रूपाजीवाश्म वादिन्यो वणिजश्य महाधनाः
शोभयंतु कुमारस्य वाहिनी सुप्रसारिताः।। उत्तरकांड-6.74.2
20. तस्माततेऽहं प्रदास्यामि विविधं वसु भूरि च
दासी सहस्राश्यामानं सुवस्त्राणामलंकृतम्।। वनपर्व, 185.34
21. ‘दासाश्च दास्याश्च सुमृष्ठवेषाः। संभोजकाश्चाप्युपजहृनुरत्नम्।। आदिपर्व-193।
22. शतं दासीसहस्राणि तरूण्यो हेमभद्रिकाः
कंबूकेयूर धारिष्यो निष्ककंठयः स्वलंकृता-महाभारत, 2.61.8
23. दासॊऽसमीति तवया वाच्यं संसत्सु च सभासु च।
एवं ते जीवितं दद्याम एष युद्धजितॊ विधिः।। महा.3.256.11
24. इयं सुरसुतप्रख्या सर्वधर्मोपचायिनी
सदा देवमनुष्याणामसुराणां च गालव।।
कांछिता रूपतो बाला सुता मे प्रतिगृह्यताम्
अस्याः शुल्कं प्रदास्यंति नृपा राज्यमपि ध्रुवम्।। उद्योगपर्व, 115.2-3
25. देवराज चानना, सलेवरी इन एन्शीएंट इंडिया, पिपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1960, पृष्ठ-40
26. डांगे, आदिम समाज, पृष्ठ 195
27. खंडहाल जातक, भदंत आनंद कौसल्यायन, जातक संख्या 542, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग।
28. सी.एन.सुब्रह्मण्यम, जब गुलाम सुल्तान बने, शैक्षिक संदर्भ, मार्च-अप्रैल 1996
29. कौन ज्यादा बुरा है—गुलामी या अस्पृश्यता?, डॉ. भीमराव आंबेडकर।