कल्याणकारी समाज का स्वप्न और मानवाधिकार

एक

इस युग को इसके भीषण अपराधों अथवा इसके आश्चर्यजनक आविष्कारों के लिए स्मरण नहीं किया जाएगा; अपितु इसके लिए स्मरण किया जाएगा कि इतिहास आरंभ होने के बाद यह पहला युग है, जिसमें मनुष्य जाति ने यह विश्वास करने का साहस किया है कि सभ्यता के समस्त लाभों को समूची मानव जाति के लिए उपलब्ध करा पाना व्यावहारिक दृष्टि से संभव है.’1

                                                                                                                                        —आर्नल्ड टायनबी

ईस्वास्योपनिषद का एक मंत्र है—पूर्णमदः पूर्णमिदं, पूर्णात् पूर्णमुदच्यते.’ अर्थात ‘यह भी परिपूर्ण है, वह भी परिपूर्ण है. उस परिपूर्णता से यह परिपूर्ण उपजा है.’ भारतीय दर्शन में इसे आत्मा और परमात्मा दोनों की परिपूर्णता के संदर्भ में लिया जाता है. चाहें तो इसका उपयोग मनुष्य एवं समाज दोनों के संबंध की व्याख्या हेतु भी कर सकते हैं, जैसे—‘यह(मनुष्य) भी स्वतंत्र है, वह(समाज) भी स्वतंत्र है. एक की स्वतंत्रता दूसरे की स्वतंत्रता से उपजी अथवा रक्षित है. यह दिखाता है कि मनुष्य और समाज दोनों की स्वतंत्रता एकदूसरे पर निर्भर हैं, परस्पर अन्योन्याश्रित. यदि मनुष्य समाज की निधि है तो मानवाधिकार उसका रक्षाकवच. वे सभ्य समाज के आभूषण हैं. मानवाधिकार और कानून में अंतर है. किसी राज्य का नागरिक होने के नाते, मनुष्य उसके कानूनों से स्वतः आबद्ध हो जाता है. मानवाधिकार मनुष्य को मनुष्य होने के नाते उसके जन्म से, स्वतः प्राप्त हो जाते हैं. राज्य अपेक्षा करता है कि नागरिक उसके बनाए कानूनों का इसी तरह पालन करें. मनुष्य अपेक्षा करता है कि राज्य उनके कानूनसम्मत अधिकारों के साथसाथ मूलभूत अधिकारों का भी संरक्षण करे. यदि राज्य ऐसा करने में अक्षम सिद्ध हो तो वह अपने होने का औचित्य खो देता है. परिणामस्वरूप भीतर ही भीतर अंतर्विरोध पनपने लगते हैं. इस तरह मानवाधिकार मनुष्य और समाज दोनों का रक्षा कवच हैं. वे समाजरूपी महासागर के हृदय में बसने वाली बहुमूल्य सीपी के समान हैं, जिनमें वह अपनी बूंदरूपी सदस्य इकाइयों की अस्मिता को सहेजकर रखता है. एक संस्था के रूप में समाज की शक्तियां और अधिकार उसकी सदस्य इकाइयों की ओर से आते हैं. वही उसे शक्तिशाली बनाते हैं. मानवाधिकार उन शक्तियों से जुड़े अधिकारों के दुरुपयोग से व्यक्तिमात्र की स्वतंत्रता की रक्षा करने का विधान हैं. उनके माध्यम से समाज सदस्य इकाइयों के प्रति सहृदय और उदार होने का दावा कर सकता है. दूसरे शब्दों में मानवाधिकार समाज की सदाशयता को दर्शाते हैं. दिखाते हैं कि अपनी सदस्य इकाइयों के प्रति वह कितना उदार, नम्य और जवाबदेह है. सभ्य समाजों में वे ऐसी शुभता का प्रतीक होते हैं, जिसपर कल्याण सरकार की नींव टिकी होती है. उनकी उपस्थिति में कोई भी सरकार अपना औचित्य सिद्ध करती है. अरस्तु के अनुसार ‘सामान्य नागरिक की भलाई, शासक की भलाई से अभिन्न नहीं होती.’ इसलिए मानवाधिकार शासक और शासित दोनों को, कर्तव्य एवं अधिकारों की तुला पर बराबरी पर ले आने का उपक्रम हैं. उनके आधार पर दोनों अपनी दायित्वपूर्ति की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं. मानवाधिकारों का महत्त्व इसलिए भी है कि वे व्यक्ति के उन मूलभूत अधिकारों की सुरक्षा करते हैं, जो उसे राज्य तथा अन्य दमनकारी शक्तियों की मनमानी से बचाकर, सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए अनिवार्य माने जाते हैं.

मानवाधिकार को सामान्यतः आधुनिक सभ्यता से जोड़कर देखा जाता है. कदाचित यह उचित भी है. मानवाधिकारों को संस्थानिक महत्ता आधुनिक समाज की देन है, लेकिन बीजरूप में यह उतना ही पुराना विचार है, जितनी मानवसभ्यता की शुरुआत. अंतर बस इतना है कि मानवाधिकार पहले सामाजिक आचारसंहिता का हिस्सा थे. उनका स्तर कानूनी न होकर व्यावहारिक था. भारत जैसे देशों में जहां धर्म मनुष्य की पूरी जीवनचर्या को अनुशासित करता है, मानवाधिकारों को भी धार्मिक आचारसंहिता के एक हिस्से के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है. यह भी कह सकते हैं कि धर्म को जनसाधारण के बीच लोकप्रिय बनाने में मानवाधिकारों का बहुत बड़ा योगदान रहा है. मेरी राय में मानवाधिकारों को धर्म से जोड़कर देखना उचित नहीं है. यह बात अलग है कि प्रत्येक धर्म की कुछ ऐसी अनुशंसाएं अवश्य होती हैं, जो मनुष्य के मौलिक अधिकारों से साधारणतः मेल खाती हैं. उनकी नींव समानता के सिद्धांत के आधार पर रखी जाती है, जो स्वयं प्राकृतिक न्याय की भावना पर आधारित होती है. चूंकि प्रकृति किसी के साथ भेदभाव नहीं करती, सभी के साथ समान व्यवहार करती है, प्रकृति की संतान होने के कारण मनुष्य को भी उसके मूलभूत अधिकार मिलने ही चाहिए—व्यक्तिस्वातंत्रय का समर्थन करता हुआ, यह भाव भारतीय और पश्चिमी धर्मग्रंथों में जगहजगह आया है. शुक्ल यजुर्वेद की एक ऋचा में प्रतिपालक की ओर से उद्घोषणा है—‘मैं सभी प्राणियों को मित्रभाव से देखता हूं.’2

समानता एवं मानवाधिकार

मित्रभाव से देखना सभी प्राणियों के प्रति समदृष्टि रखना है. राज्य की विश्वसनीयता के लिए यह अत्यावश्यक है. जहां बराबरी और मेलमिलाप है, वहां सामाजिक जीवन में राज्य की भूमिका घट जाती है. अनावश्यक सांस्कृतिक प्रतीकों का उपयोग घट जाता है. समाज के स्वयं अनुशासित होने से जीवन में प्रतीकों का असर कम होने लगता है. उनका स्थान वास्तविक चीजें ले लेती हैं. समाज अतीत अथवा स्मृतियों के बजाय वर्तमान में जीने लगता है. उसके सपने यथार्थोन्मुखी हो जाते हैं. ऐसे समाज में नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत रहते हैं, इस तरह कि बाहरी अनुशासन की उन्हें आवश्यकता ही नहीं पड़ती. ऐसा राज्य प्लेटो की आदर्श राज्यसंबंधी अवधारणा के निकट है, जिसके अनुसार ‘अच्छा मनुष्य और अच्छा जीवन अच्छे राज्य में ही पाया जा सकता है.’ वैसे भी आदर्श स्थिति यही है कि समाज में शासक और शासित का विभाजन ही न हो. यदि वह अपरिहार्य है तो शासक, शासित के प्रति मित्रभाव बनाए रखे. सरकार है तो वह न्यूनतम शासन करे. सभी नागरिकों को बराबरी की तुला पर रखकर देखे. उनके मौलिक अधिकारों पर आंच न आने दे. राज्य यदि अपने श्रेष्ठत्व को खो देगा तो उसके नागरिकों के लिए भी अपने श्रेष्ठत्व की रक्षा करना मुश्किल हो जाएगा. अच्छा राज्य और अच्छे नागरिक भिन्न व्याप्तियां नहीं हैं. सेबाइन लिखता है—

श्रेष्ठ मनुष्य ही श्रेष्ठ नागरिक होता है. और श्रेष्ठ नागरिक श्रेष्ठ राज्य में ही रह सकता है.’3

समानता का आशय यह नहीं है कि कोई व्यक्ति मनमानी करे और उसको आधार बनाकर दूसरा व्यक्ति भी मनमानी करने पर उतर आए. न ही इसका आशय अकेले व्यक्ति की स्वतंत्रता से है. मानवाधिकारों की गरिमा सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ है. व्यक्तिमात्र के प्रति निष्पक्ष, उदार सोच तथा उसे अपने विकास के लिए पक्षपात रहित अवसर उपलब्ध कराना भी मानवाधिकारों के उद्देश्य में शामिल है. तदनुसार किसी भी व्यक्ति को ऐसा अधिकार नहीं मिल सकता जिसके बल पर वह दूसरों को नुकसान पहुंचाकर अपना हित साध सके. स्वतंत्रता का वास्तविक आनंद सबके साथ, सामाजिक मर्यादा में, सहअस्तित्व की भावना के साथ भोगा जा सकता है. इस तरह समानता का वास्तविक अर्थ कुल समाज की स्वतंत्रता में अपनी स्वतंत्रता की खोज करना है. इसका आशय अवसरों की समानता से भी है. हालांकि ऐसे समाजों में जहां पहले से ही अत्यधिक समाजार्थिक विषमता हो, वहां समान अवसरों का सिद्धांत एक समरस, समानताआधारित समाज की स्थापना के लक्ष्य में कारगर नहीं हो सकता. स्पर्धा में पहले से ही आगे निकल चुके व्यक्ति तथा उसके एकदम पिछले सिरे पर मौजूद व्यक्ति के लिए अवसरों और न्याय की समानता के कोई मायने ही नहीं हैं. क्योंकि जब तक पीछे चल रहा व्यक्ति अगड़े व्यक्ति की स्थिति में पहुंचेगा, तब तक वह तेज गति से आगे बढ़ता हुआ, उससे बहुत आगे निकल चुका होगा. इस तरह दोनों के बीच का अंतराल बढ़ता ही जाएगा. ऐसी स्थिति में सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह समानता के साथसाथ न्याय की स्थापना के लिए भी कार्य करे. न्याय की स्थापना के अनेक तरीके हो सकते हैं. नैतिकता और निष्पक्षता की शर्त पर शासन उनमें से किसी का भी चयन कर सकता है. लेकिन सुशासन केवल सरकार का दायित्व नहीं है. वह व्यक्ति, समाज और राज्य तीनों के सम्मिलित श्रेष्ठत्व एवं दीर्घकालिक प्रक्रिया है. राज्य से अपेक्षा की जाती है कि वह न्याय के पक्ष में अनुकूल स्थितियों का सृजन करे. वहीं नागरिकों को चाहिए कि वे अपनी प्रबुद्धता का परिचय देते हुए, राज्य को न्याय की स्थापना में इतना सहयोग करें कि विकास और स्वतंत्रता के नाम पर खड़ी की गई संस्थाओं की संख्या निरंतर घटतेघटते, एक दिन उनका औचित्य ही जाता रहे.

सभी नागरिकों को बराबर अवसर उपलब्ध कराना राज्य का कर्तव्य है, तथापि समानता का अभिप्राय यह भी नहीं है कि आगे निकल चुके व्यक्तियों से संसाधन छीनकर उन्हें पिछड़ चुके व्यक्तियों में बांट दिया जाए. यह न केवल अव्यावहारिक है, बल्कि आगे निकल चुके व्यक्तियों के संदर्भ में मूलभूत स्वतंत्रता के सिद्धांत का उल्लंघन भी है. अतः ऐसे समाजों में जहां सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषमताओं का लंबा इतिहास रहा हो, समानता के लक्ष्य को प्राप्त करना काफी कठिन कार्य माना जाता है. प्रमुख सत्ताकेंद्रों पर विराजमान वे लोग अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए परिस्थितियों को अपनी ओर मोड़ने में कामयाब हो जाते हैं. समाज, संस्कृति, राजनीति तथा आर्थिक क्षेत्र में उनकी इतनी गहरी और मजबूत पकड़ होती है कि उन्हें बदल पाना आसान नहीं होता. लंबे समय तक एक जैसी स्थितियों में रहने के बाद जनता हालात से अनुकूलन कर लेती है. उसके अंदर बदलाव की इच्छा लगभग मर चुकी होती है. प्रतीकों के अतीत एवं उनके मनोविज्ञान को समझने के बजाय वह उन्हीं को सबकुछ मान लेती है. ऐसी जनता को भीड़ में ढालना आसान होता है. अतएव स्थिति का पूरा फायदा क्षुद्र राजनेता, पुरोहित और बाजारवादी शक्तियां उठाती हैं. ऐसे समाजों में जनता को परंपरागत विकास के अवसरों से हटाकर नए परिवर्तन हेतु तैयार करना भी समस्या होती है. ऐसे में जनसाधारण के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करते हुए विकास की निरंतरता को बनाए रखना कठिन हो जाता है.

समानता मानवाधिकारों की पुण्यभूमि है. उसकी मांग उतनी ही पुरानी है, जितनी राज्यसमाज का इतिहास. महाभारत के शांति पर्व में भीष्म अतीत के समानता पर आधारित, वर्गहीन समाज को याद करते हुए कहते हैं—‘एक समय था जब न राज्य होता था, न ही राजा. न दंड था, न ही दंड देने वाला. लोग स्वयस्फूर्त्त भाव से एक दूसरे की मदद और रक्षा करते थे.’4 प्राचीन भारत में गणतांत्रिक चेतना और कल्याण में सभी की समान भागीदारी की चिंता बौद्ध दर्शन में भी देखने को मिलती है. गौतम बुद्ध स्वयं गणतांत्रिक प्रणाली के समर्थकों में से थे. बौद्ध विहारों में आंतरिक गणतंत्र कायम था. उन दिनों शासनतंत्र विभिन्न जाति और वर्गों में विभाजित था. उस कृत्रिम विभाजन को धर्मसत्ता का समर्थन प्राप्त था. गौतम बुद्ध ने समाज के चातुवण्र्य विभाजन को चुनौती दी. यज्ञवेदियों पर दी जाने वाली पशुबलियों का जमकर विरोध किया. राज्य की विधिवत स्थापना के बाद, आर्थिकसामाजिकराजनीतिक समानता का विचार पहली बार संभवतः बौद्धकाल में ही लोगांे के सामने आया. गौतम बुद्ध ने बौद्धसंघ का गठन कर उसके दरवाजे सभी वर्गों के लिए खोल दिए. एक कहानी है कि मगध सम्राट अजातशत्रु की इच्छा वैशाली को जीतने की हुई. आक्रमण करने से पहले उसने अपने अमात्य वर्षकार को गौतम बुद्ध का आशीर्वाद लेने के लिए भेजा. वर्षकार के मुंह से मगधसम्राट की इच्छा जान लेने के पश्चात गौतम बुद्ध ने कहा—‘वैशाली के निवासी जब तक अपने निर्णय मिलजुलकर लेंगे, फैसलों में पारदर्शिता बनाए रखेंगे, हे राजन! उस समय तक वे अजेय रहेंगे.’ संकेत स्पष्ट था. बुद्ध कहना चाहते थे कि सम्मिलित जनशक्ति के आगे बड़े से बड़े साम्राज्य की शक्तियां भी क्षीण होती हैं. आजादी की महत्ता को समझने वाली कौम ही उसकी रक्षा करना जानती है. गौतम बुद्ध की बातों का ही प्रभाव था कि अजातशत्रु को वज्जि संघों पर आक्रमण का इरादा छोड़ना पड़ा था. मगध अमात्य के समक्ष गौतम बुद्ध वज्जि संघ की न केवल मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं, बल्कि अपने भिक्षु संघ में लोकतांत्रिक चेतना पर आधारित व्यवस्था भी लागू करते हैं, इससे उनकी इस प्रणाली के प्रति निष्ठा का आकलन किया जा सकता है.

समानता का विचार प्राणिमात्र के प्रति करुणा की भावना पर निर्भर होता है. एकपण्ण जातक में एक राजकुमार की कहानी है, जिसमें प्राणिमात्र के प्रति करुणा बरतने का संदेश दिया गया है. कहानी कुछ इस प्रकार है—

एक राजकुमार था. बहुत ही क्रूर और दुष्प्रवृति का मालिक. राजा के आग्रह पर उसके मंत्रियों, सभासदों आदि ने भरसक प्रयत्न किया कि उसको सही रास्ते पर लाया जाए. परंतु वह इतनी कुटिल प्रवृत्ति का था कि किसी की बात तक नहीं मानता था. बात महात्मा बुद्ध तक पहुंची. उन्होंने राजकुमार को अपने पास बुलाया. फिर उसको वे नीम के पौधे तक ले गए और बोले—

कुमार, जरा इस पत्ते को चखकर तो देखो. बताओ कि कैसा लगता है?’

कुमार ने नीम के पत्ते मुंह में चबाए. तत्काल उसका मुंह कड़वा हो गया. उसने बाकी पत्ते फौरन थूक दिए. मुंह के कड़वेपन से वह तिलमिला गया. क्रोधावेश में उसने पौधे को उखाड़ा और तोड़मसल का एक ओर फंेक दिया.’

अरेरे. यह क्या करते हो कुमार?’ गौतम बुद्ध ने पूछा.

यह जरासा पौधा यदि अभी से इतना कड़वा है तो बड़ा होने पर न जाने कितनी कड़वाहट उगलेगा. इसलिए इसको अभी नष्ट कर देना उचित होगा.’ इसपर बोधिसत्व ने उसको समझाया—

कुमार, यह जानकर कि यह कड़वा पौधा जब अभी इतना कड़वा है तो आगे जाकर न जाने कितनी कड़वाहट उगलेगा, तुमने इस पौधे को उखाड़कर फंेक दिया—तुमने जो व्यवहार इस पौधे के साथ किया है, वैसा ही व्यवहार इस राज्य के निवासी तुम्हारे साथ करेंगे. यह जानकर कि यह पथभ्रष्ट और क्रूर राजकुमार आगे चलकर कितना अनर्थ और अनाचार करेगा, वे तुम्हें उखाड़कर फेंक देंगे. इसलिए इस पौधे से शिक्षा ग्रहण करो और आगे से दूसरों के साथ दया और स्नेह का वर्ताव करो.’

संदेश के अनुसार व्यक्ति को चाहिए कि वह दूसरों के साथ वही व्यवहार करे, जैसा वह दूसरों से अपने प्रति चाहता है. इससे यह संकेत भी मिलता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सर्वोपरि होती है. वह कर्तव्यच्युत सम्राट को सत्ता से कभी भी बेदखल कर सकती है. राज्य यदि अनीति, अनाचार और क्रूरता भरा आचरण करता है तो प्रजा को उसे तत्क्षण उखाड़ फैंकने का अधिकार है—जातक के माध्यम से बुद्ध यह संदेश भी लोगों तक पहुंचाते हैं. बौद्ध काल में सम्राट अपनी प्रजा का पालनकर्ता, संरक्षक और मालिक होता था. उसका आचरण नियमों में बंधा हुआ था. कहने को वैशाली जैसे कुछ छोटेछोटे गणतंत्र भी थे, परंतु नाम के, क्योंकि उसमें केवल समाज के चुनींदा लोगों को हिस्सेदारी लेने का अधिकार था. उपर्युक्त राजनीति विज्ञान की भाषा में उसे कुलीनतंत्र भी कह सकते हैं. उसके बनिस्पत गौतम बुद्ध द्वारा स्थापित संर्घों में व्यक्ति को अपेक्षाकृत अधिक आजादी प्राप्त थी. तत्कालीन गणतंत्रों में राज्य का संघ पर कोई अधिकार नहीं था. राजा के सीमित अधिकारों का समर्थन करती एक और जातक कथा है. एक बार एक राजा की मुंह लगी पटरानी ने राजा से यह वर मांगा—

महाराज, मुझे राज्य पर अमर्यादित राज्य करने के अधिकार प्रदान किए जाएं.’ इसपर राजा ने महारानी को समझाया—

भद्रे राज्य के संपूर्ण निवासियों पर मेरा कोई अधिकार नहीं है. मैं उनका स्वामी नहीं हूं. मैं तो केवल उनका स्वामी और नियंत्रणकर्ता हूं जो राजकीय कर्तव्यों का उल्लंघन करते हुए, न करने योग्य कार्य कर दूसरों के जीवन में व्यवधान खड़े करते हैं. अतः मैं तुम्हें राज्य के समस्त निवासियों पर स्वामित्व प्रदान करने में असमर्थ हूं.’

इस कहानी को पढ़ते हुए किसी विचारक का यह कथन दिमाग में कौंध जाता है. राज्य और कानून के औचित्य पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए उसने कहा था—‘दुनिया के सारे कानून व्यर्थ हैं. इसलिए कि भले आदमी को उनकी जरूरत ही नहीं पड़ती और बुरे को उनके भरोसे सुधारा नहीं जा सकता. ऐसे में मनुष्यता का अभीष्ट केवल ऐसा राजसमाज हो सकता है, जिसमें कानूनों का न्यूनतम दखल हो. मानवाधिकार राज्य की उदारता को सामने लाकर शासक और समाज के बीच की दूरी को पाटने का काम करते हैं. गौरतलब है कि ईसा से छहसात सौ वर्ष पहले तक मथुरा, मगध जैसे कुछ बड़े राज्यों को छोड़कर अधिकांश राज्य छोटेछोटे थे. उनके बीच वर्चस्व का संघर्ष निरंतर चलता रहता था. तीसरी शताब्दी पहले जन्मा कौटिल्य भी राजशाही के नेतृत्व में कल्याणकारी राज्य के गठन का समर्थक था. वह मानता था कि राजा को बुद्धिमान, वीर, साहसी, दूरदृष्टा और उत्तम गुणों से परिपूर्ण होना चाहिए. उसे इतना संवेदनशील भी होना चाहिए कि प्रजा के कष्ठों का अनुभव कर उनका निदान कर सके. उसके राजनीतिक दर्शन का निचोड़ था कि राजा राज्य का स्वामी नहीं, प्रथम प्रबंधनकर्ता है. प्रजा पर अपनी मनमानी इच्छाएं थोपने को लेकर चाणक्य ने राजा को सावधान किया है—‘जनता का कोप सभी कोपों से बढ़कर है.’ प्रजा से संबंधित मामलों में जनसाधारण के हित को आगे रखने की बात चाणक्य के इस कथन से भी स्पष्ट हो जाती है—‘राजा चाहे न भी हो, पर यदि जनता की अवस्था उत्तम हो तो राज्य भलीभांति चल सकता है.’ यहां एक बोधकथा याद आ रही है. लेखक हैं, फ्रांसिसी क्रांति के महानायकों में से एक—संत साइमन. बोधकथा में साइमन ने अनोखी कल्पना की है—

कल्पना कीजिए कि फ्रांस में इस समय पचास प्रथम श्रेणी के चिकित्सक, पचास मूर्धन्य रसायनज्ञ, भौतिक विज्ञानी, उतने ही नौकर, दो सौ कुशल व्यापारी, छह सौ बड़े किसान, पांच सौ योग्य लुहार, बढ़ई, मोची, हलवाई इत्यादि समाप्त हो जाते हैं. ऐसा होते ही पूरा देश धराशायी हो जाएगा. उसका प्रभुत्व और समृद्धि भी तत्काल समाप्त हो जाएगी.

इसके विपरीत मान लीजिए कि यह सब तो सुरक्षित रहता है, परंतु राजपरिवार के सभी सदस्य, दरबारी, समस्त अधिकारीगण, मंत्री, पुरोहित, न्यायाधीश, भूस्वामी आदि एक झटके में नष्ट हो जाएं तब देश को दुख तो होगा, शोक भी अवश्य होगा, क्योंकि फ्रांस एक भावुक देश है, परंतु उससे देश का कोई वास्तविक अहित नहीं होगा.’

लघुकथा का संदेश स्पष्ट है. कोई भी देश राजा अथवा उसके दरबारियों से नहीं बनता. न ही शिखर पर विराजमान, सत्तासुख भोगनेवाले लोग उसको बनाते हैं. देश जनता की, सर्वसाधारण की विनिर्मिति होता है. वही उसका वास्तविक शक्तिकेंद्र होते हैं. लेकिन उनमें से अधिकांश जनता यानी अपनी ही अकूत शक्ति से अपरिचित होते हैं. इस कारण राज्य का संचालन शिखरस्थ लोगों के अधीन बना रहता है. कभी विकास, कभी सुखशांति और कभी सुरक्षा के नाम पर वे अपने शिखरत्व का औचित्य सिद्ध करने में लगे रहते हैं. यदि वे न हों तो भी जनता अपने विकास का रास्ता खोज लेती है. स्वार्थी सत्ताएं जनता को कभी धर्म, कभी जाति, कभी राज्यभक्ति तो कभी राष्ट्रप्रेम के नाम पर अनुकूलित करने की कोशिश हमेशा से करती आई हैं. भारत में स्मृतियों, ब्राह्मण ग्रंथों आदि के माध्यम से समाज को संगठित और अनुशासित करने के प्रयास महाभारत काल से ही आरंभ हो चुके थे. यद्यपि किसी न किसी रूप में वे सभी धार्मिक आचारसंहिता का हिस्सा थे. उनके लिए सदाचरण का अभिप्राय था, किसी तीसरी अज्ञातकाल्पनिक सत्ता को प्रसन्न करना, ताकि मोक्ष के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके. इस काल्पनिक शक्ति का मूल स्वरूप भरपूर लचीलापन लिए होता है. अपनी कल्पना के अनुसार व्यक्ति जैसा चाहे उसका रूप निर्धारित कर सकता है. धर्म का यह आचरण दिखने में भले ही लोकतांत्रिक लगे, असल में दिखावटी होता है. अवसर मिलते ही धर्म के अलंबरदार विरोधी शक्तियों को कुचलने के षड्यंत्र में जुट जाते हैं. धर्माधारित संहिताओं में मानवकल्याण लक्ष्य न होकर केवल उसका उपउत्पाद होता है. चूंकि मोक्ष के रूप में वह लक्ष्य व्यक्तिविशेष को ही प्राप्त हो सकता है; तथा उसकी राह में सांसारिक रिश्तेनातों को बाधक माना जाता था. इस कारण उस परंपरा में सामाजिक आचारसंहिताएं, अपने समग्र प्रभाव में ठेठ व्यक्तिवादी आयोजन बनकर रह जाती हैं. व्यक्ति समाज के बीच रहकर भी पूरी तरह से समाज का नहीं हो पाता. धर्म सांसारिक संबंधों को मोक्ष की राह में बाधा मानता है. भौतिक उपलब्धियों को हेय मानकर उनकी उपेक्षा करता है. परिणामस्वरूप विकास कुछ लोगों, जो उसकी वास्तविकता को समझते हैं, या उसकी कमजोरियों का लाभ उठाना जानते हैं—तक सिमट जाता है. हालांकि गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी ने मनुष्य और उसके सामाजिक दायित्वों के बीच से तीसरी शक्ति को निकालकर आचरण की शुद्धता पर पूरा जोर दिया था. लोगों पर उनका प्रभाव भी पड़ा था. लेकिन जब तक कोई विचार केवल विचार बना रहे, लोगों के रोजमर्रा के आचरण का हिस्सा न बने, तब तक उसका प्रभाव अस्थायी ही रहता है. सत्तासीन लोगों के निर्देश या उनकी नकल के आधार पर निर्णय लेने वाली जनता, शिखर पर परिवर्तन के साथ, प्रायः अपनी रुचियां और आचरण भी बदल लेती है. इससे स्वार्थी शक्तियां अपना वर्चस्व कायम रखने में सफल रहती हैं. यही कारण है कि संसार को कर्मक्षेत्र, विकास की चुनौती मानने के बजाय उसे मोह, माया, छलफरेब घोषित करने का रिवाज आज भी बड़े तबके में कायम है.

मानवअधिकारों की पृष्ठभूमि

मानवाधिकारों के प्रति चेतना यद्यपि सभी समाजों में सभ्यताकरण के आरंभ से ही दिखाई पड़ती है. तथापि इस दृष्टि से देखा जाए तो पश्चिम में स्थितियां अपेक्षाकृत अनुकूल थीं. सुकरात ने ‘सद्गुण ही ज्ञान है’ कहकर आचरण की सभ्यता को दार्शनिक विमर्श के केंद्र में ला दिया. उसके बाद प्लेटो, अरस्तु, जेनोफीन आदि ने एक तरह से सुकरात की विचारधारा को ही विस्तार देने का काम किया. आशय है कि जहां भारत की दार्शनिक चेतना के केंद्र में तीसरी अदृश्य, अज्ञात शक्ति हमेशा व्याप्त रही है. वही पश्चिम की विचारचेतना का केंद्रबिंदू मनुष्य बना रहा. हालांकि बीचबीच में चर्च ने भी लोगों को अपने प्रभाव में लेने की कोशिश की. कई बार उसको सफलता भी मिली. इसके बावजूवहां प्रगतिशील शक्तियां सक्रिय रहीं और समयसमय पर चर्च को मनुष्यता का रास्ता दिखाती रहीं. मानवकेंद्रित सामाजिक आचारसंहिता के गठन की नींव वहां ईसा से लगभग 1000 वर्ष पहले ही पड़ चुकी थी. विद्वानों के अनुसार यही समय महाभारत का भी है, जिसमें धर्म के नाम पर 3,93,660 हाथी, 27,55,620 घोड़े तथा 82,67,094 मनुष्यों को बलि देनी पड़ी थी. ‘संयुक्त राष्ट्र संघ जनसंख्या ब्यूरो’ के अनुसार ईसा से 1000 वर्ष पहले विश्व की कुल जनंसंख्या 5 करोड़ में, एशिया की अनुमानित जनसंख्या 3.3 करोड़ तथा यूरोप की जनसंख्या लगभग 90 लाख थी. इस तरह धर्म के नाम पर हुए उस युद्ध में, एशिया की जनसंख्या के लगभग एकचौथाई जनसंख्या तथा यूरोप की कुल जनसंख्या के बराबर सैनिक खेत हुए थे. शायद युद्ध की वे भयावह स्मृतियां ही थीं, जिनसे उबरने के लिए लोकायतों तथा आजीवकों ने धार्मिक कर्मकांडों का खुला विरोध किया. तदनंतर मध्यम मार्ग पर अमल करते हुए महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध ने अहिंसा पर आधारित धर्मदर्शनों की नींव रखी.

भारत की धर्मकेंद्रित सामाजिक आचारसंहिता के सापेक्ष पश्चिम में व्यक्तिकेंद्रित आचारसंहिता पर जोर दिया गया. अभी तक ज्ञात साक्ष्यों के आधार पर मनुष्य को केंद्र में रखकर प्राचीनतम न्यायसंहिता(कोड आ॓फ जस्टिस) के गठन का श्रेय 2300 ईस्वी पूर्व सुमेरियाई सभ्यता में, लागेश के बादशाह उरुकजीन को जाता है. उरुकजीन ने अपनी प्रजा को सूदखोर व्यापारियों के चंगुल से बचाने के नियम बनाए. साथ ही उसने विधवाओं और लावारिसों को कर में राहत देकर शासन को आमजन का हितैषी दिखाने की शुरुआत की. उरुकजीन के बाद मेसोपोटामिया सभ्यता के उर नगर के सम्राट नाम्मु ने लिखित आचारसंहिता को लागू किया. लगभग 2050 ईस्वी पूर्व लागू उस न्याय संहिता में मौत और अपहरण के अपराधी को मृत्युदंड का प्रावधान था. नाम्मु की न्याय संहिता में सामाजिक शुचिता का सम्मान करते हुए, स्त्रीपुरुष संबंधों को उस समय की प्रथाओं के अनुसार अनुशासित करने का प्रयास किया गया था. उसका विशेष आकर्षण दासों को दिए गए अधिकार थे. तदनुसार यदि कोई दास किसी दास स्त्री से विवाह करता था, तो स्त्री को दासत्व से मुक्ति मिल जाती थी. हालांकि दास को पहले की तरह ही काम करना पड़ता था. लेकिन यदि कोई दास स्त्री अथवा पुरुष, गैर दास पुरुष अथवा स्त्री से विवाह करे तो उस दंपति को अपनी प्रथम संतान गृहस्वामी को सौंपनी पड़ती थी. सार्वजनिक निर्णय तथा दो व्यक्तियों के बीच किए गए लिखित अनुबंध का महत्त्व था. यदि कोई पिता अपनी बेटी का किसी युवक से विवाह करने का सार्वजनिक निर्णय कर ले; और बाद में किसी कारणवश अपनी पुत्री का विवाह किसी और युवक से कर दे तो उसको वर पक्ष की ओर से प्राप्त स्त्रीधन और सौगातों से दो गुने मूल्य के बराबर धन, बतौर जुर्माना उस युवक को चुकाना पड़ता था.

उरनाम्मु के बाद अगला लिखित संविधान मेसापोटामिया सभ्यता में इसिन वासियों की ओर से लगभग 1870 ईस्वी पूर्व लिपितईस्तर नामक सम्राट द्वारा बनाया गया था. उसे देखकर लगता है कि उस समय तक कृषि का विकास हो चुका था. लोग खेतों को तैयार करने, तैयार खेत को कृषिकर्म हेतु दूसरों को उधार देने लगे थे. समाज में श्रमविभाजन आरंभ हो चुका था. परिणामस्वरूप दूसरों के श्रम से लार्भाजन की प्रवृत्ति बढ़ रही थी. फलदार बाग लगाने का चलन भी बढ़ा था. फलोद्यानों में चोरी की रोकथाम के लिए नियम बनाए जाने लगे थे. लिपितईस्तर की व्यवस्था के अनुसार दूसरे व्यक्ति के फलोद्यान में अनाधिकृत प्रवेश दंडनीय अपराध था. यदि कोई व्यक्ति दूसरे के बाग में जाकर वृक्ष को नुकसान पहुंचाता है तो उसे उद्यानस्वामी को पहुंचाए गए नुकसान के बराबर धनराशि का भुगतान बतौर जुर्माना करना पड़ता था. दूसरे के बाग में जाकर अनाधिकृत रूप से वृक्ष काटने पर एक मीना(330 ग्राम) चांदी के भुगतान की व्यवस्था उस दंड संहिता में थी. दासों का दायित्व गैर दास लोगों की सेवा करना था. इसिनवासियों की न्यायसंहिता में उनके हितों की रक्षा की कोशिश भी दिखाई पड़ती है. यदि कोई दासदंपति शहर में जाकर रहने गले, और शहर में कोई व्यक्ति उसको अपने मकान में आश्रय दे दे तो उस व्यक्ति को जिसने दासदंपति को अपने यहां आश्रय दिया है, बदले में उस परिवार को जिसे उस विवाह के कारण दास अथवा दासी को मुक्त करना पड़ा है, वैकल्पिक दास या दासी उपलब्ध कराएगा. उस समय तक राजसत्ता स्वयं को मजबूत करने में लगी थी. इसलिए राजा के विशेषाधिकारों की बढ़ोत्तरी होने लगी थी. न्यायसंहिता में राजगृह में सेवारत दासदासियों पर नजर रखना, उन्हें भड़काना/ दंडनीय अपराध माना जाता था. उसके लिए मृत्युदंड जैसी सजा का प्रावधान था.

बेवीलोनिया में लागू हम्मुरबी न्यायसंहिता अपेक्षाकृत विकसित थी. उसको बेबीलोन के सम्राट हम्मुरबी द्वारा ईसा से अनुमतः 1754 पहले लागु किया गया था. 282 सूत्रों में विभाजित उस न्यायसंहिता की कुछ शर्तों में आधुनिक विधिसिद्धांतों की झलक भी मिलती है. उदाहरण के लिए यदि किसी ठेकेदार द्वारा बनाया गया मकान अल्पावधि में ही गिर जाता है, तो उसकी जिम्मेदारी ठेकेदार की मानी जाती थी. उसे ठेकेदार की लापरवाही मानते हुए उसपर इमारत की कीमत जितना जुर्माना ठोका जा सकता था. लूटपाट, रहजनी और चोरीडकैती की रोकथाम हेतु सख्त नियम बनाए गए थे. हत्या जैसे संगीन अपराध की श्रेणी में रखकर, उनके लिए भी मृत्युदंड का प्रावधान किया गया था. हम्मुरब्बी की न्यायसंहिता की एक और विशेषता थी, न्यायव्यवस्था में ईमानदारी और निष्पक्षता को बढ़ावा देना. उसके अनुसार यदि कोई न्यायाधीश किसी मुकदमे की सुनवाई के बाद कोई लिखित व्यवस्था करता है, और यदि उसके द्वारा किया गया न्याय आगे चलकर गलत अथवा दुर्भावना पूर्ण माना जाता है, तो उस जज को प्रभावित पक्ष पर लगाए गए जुर्माने का 12गुना धन, बतौर जुर्माना भरना पड़ता था. साथ ही उसे न्यायाधीश के पद से हमेशा के लिए हटा दिया जाता था. समाज में अपशकुन विचार आरंभ हो चुका था. उसका प्रभाव न्यायव्यवस्था पर भी था. हम्मुराबी न्याय संहिता में 13 की संख्या को अशुभ मानते हुए उस स्थान को जानबूझकर खाली रखा गया है.

वे न्यायसंहिताएं समाज में समानता और बराबरी कायम करने के नाम पर लागू की गई थीं, लेकिन समानता की संकल्पना बड़ी स्थूल थी. उरनम्मु, लिपितईस्तर, हम्मुरबी आदि तत्कालीन न्यायसंहिताओं का मूलाधार यह विचार था कि अपराधी को उसके द्वारा किए गए अपराध जितना ही दंड मिलना चाहिए. आंख के बदले आंख, कान के बदले कान और खून के बदले खून. सभ्य समाजों में उसे न्यायोचित नहीं माना जाता. प्रायः बर्बर न्याय कहकर उसकी आलोचना की जाती है, मगर उस युग में जब समाज स्वयं को संगठित और संयोजित करने की कोशिश कर रहा था, समानता के विचार को, भले ही स्थूल रूप में लागू करना—अपने आप में क्रांतिकारी कदम था. उनके आधार पर शासन को सामाजिक मान्यता मिल जाती थी. कुछ समाजों में जहां धर्म कानून से अधिक प्रभावी है अथवा धर्मकेंद्रित कानूनव्यवस्था लागू है, इस प्रकार की न्याय व्यवस्था आज भी लागू है. हम्मुरबी के अलावा प्राचीनतम न्यायसंहिताओं में हतीती(1650 ईस्वी पूर्व), असीरियन(1075 ईस्वी पूर्व) तथा मोसाक न्याय संहिता आदि प्रमुख हैं. इतमें हतीती न्याय संहिता अपेक्षाकृत उदार व्यवस्था के चेहरे को दर्शाती थी. प्राचीन यूनान में दास को मालिक लोग अपनी संपत्ति मानते थे. उसको मनचाहा दंड देने का अधिकार उसके स्वामी को होता था. हतीती न्याय संहिता में दास के साथ भी मनुष्य जैसा व्यवहार हो, इसकी व्यवस्था दिखाई पड़ती है. यदि कोई स्वामी क्रोध के वशीभूत हो, दास अथवा दासी का कान चीर देता है तो उसपर तीन शेकेल(33 ग्राम) चांदी का जुर्माना लगेगा. हतीती न्याय संहिता में मृत्युदंड के प्रति घृणा का भाव दिखाई पड़ता था. यदि कोई गंभीर अपराध करे तो उसे कठिन श्रम का दंड दिया जाता था.

ईसा पूर्व छठी शताब्दी में जीवन में सामान्य नैतिकता को महत्त्व देने के प्रयास पूरब और पश्चिम में लगभग एक साथ प्रारंभ हुए थे. भारत में यह कार्य महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध के नेतृत्व में संभव हुआ तो पश्चिम में बौद्धिक क्रांति के अगुआ सुकरात, प्लेटो, अरस्तु आदि थे. सामान्य न्यायसंहिता को संविधान का रूप देने की सबसे पहली कोशिश एथेंस के शासक और धर्मशास्त्री ड्रेसो(650—600 ईसा पूर्व) की ओर से की गई. मगर ड्रेसो कुछ ज्यादा ही शुद्धतावादी था. उसके संविधान में मानवीय चूकों के लिए कोई स्थान नहीं था. गलती चाहे जानबूझकर की जाए अथवा अनजाने में हो, अपराध छोटा हो या बड़ा, दोनों के लिए मृत्युदंड का प्रावधान था. नतीजा यह हुआ कि निर्दोषों को भी सजा मिलने लगी. राज्य की ऐसी मनमानी लोगों को खलनी ही थी. धीरेधीरे जनता में विद्रोह पनपने लगा. आगे चलकर सोलोन(638—558 ईसा पूर्व) ने ड्रेसो की भूल का समाधान किया. उसने श्रमिकों और दासों के प्रति उदारता का प्रदर्शन करते हुए श्रमसंबंधी नियमों में छूट दी. व्यक्तिगत गुणों को बढ़ावा देते हुए कुलीनता का आधार जन्म के बजाय अर्जित धन को बना दिया. उसके विधान मंे अभिजात वर्ग में शामिल होने के लिए किसी कुल विशेष में सम्मिलित होना आवश्यक नहीं था, आवश्यक यह था कि अपने पुरुषार्थ का उपयोग करते हुए व्यक्ति अधिकतम धनोपार्जन के लक्ष्य में कितना सफल हो पाता है. इससे समाज में व्यक्तिगत गुणों को सम्मान मिलने लगा. जो योग्य थे, वे अपने कौशल से स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध कर उच्च वर्ग में सम्मिलित हो सकते थे. सोलोन द्वारा निर्मित संविधान को एथेंस सहित पूरे यूनान में सराहा गया. उस संविधान में संशोधन का अगला काम क्लेस्टींस की ओर से किया गया. क्लेस्टींस ने निर्वाचन की प्रणाली में सुधार कर, शासन को गणतांत्रिक स्वरूप प्रदान करने की कोशिश की. उसने एथेंस की न्याय प्रणाली में भी सुधार किए.

उरनाम्मु की न्यायसंहिता से लेकर सोलन के विधान तक जो सामान्य बात नजर आती है, वह यह कि सभी में दास प्रथा का समर्थन किया गया है. यह दिखाता है कि समाज में दास प्रथा का आगमन आज से 5000 वर्ष अथवा उससे भी पहले, आरंभ हो चुका था. उस समय तक समाज के कुछ वर्गों ने स्वयं को इतना संगठित कर लिया था कि अपने संगठन और समाजार्थिक सामर्थ्य के बल पर वे समाज के बड़े वर्ग से, उसके मनुष्य होने का अधिकार भी छीन सकते थे. यह मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों का हनन, एक तरह से अनैतिक कर्म था. धर्म उस समय तक संगठित नहीं था. फिर भी इस विभाजन को लेकर सामाजिकधार्मिक मान्यताओं में कोई विरोध नहीं था. यह मान लिया गया था कि कुछ लोग स्वाभाविक रूप से दास के रूप में जन्म लेते हैं; और कुछ लोग जो कथित भाग्यशाली हैं, उच्च परिवारों में पैदा होते हैं. न्याय संहिता में दूसरा आग्रह स्त्रीपुरुष संबंधों को लेकर था. स्त्री और दासों के प्रति वे संविधान, कदाचित उदारता का प्रदर्शन करते हुए नजर आते हैं. इसके बावजूद उन न्यायसंहिताओं में तत्कालीन शासन का अभिजनोन्मुखी चरित्र तथा पित्रसत्तात्मकता के प्रति झुकाव स्पष्ट नजर आता है. चोरी, डकैती, लूटमार जैसे अपराधों के लिए मृत्युदंड की व्यवस्था दर्शाती है कि उस समय समाज की तुलना में व्यक्ति का मूल्य बहुत कम रहा होगा. यह कदाचित स्वाभाविक भी था. उन दिनों पारिवारिक संबंध अपनी प्रारंभिक अवस्था में थे. स्त्रीपुरुष संबंध आमतौर पर कबीलों के भीतर सीमित रहते थे, जो अपेक्षाकृत बड़ा परिवार था. जंगली जानवरों तथा प्राकृतिक आपदाओं के अलावा दुश्मन कबीलों से समूह की रक्षा करना चुनौतीपूर्ण कार्य था. इसलिए जीवनसंभाव्यता कम रही होगी और मौत एक सामान्य घटना. पारिवारिक संस्था के अभाव में संतान किसी एक व्यक्ति के बजाय पूरे समूह की मानी जाती थी. यानी कुल मिलाकर तत्कालीन समाज सामूहिक संगठन थे. बड़ा परिवार जिनमें रिश्ते व्यक्ति की कार्यकुशलता, भोजन एवं सेक्स संबंधी आवश्यकताओं के अनुसार तय होते थे. व्यक्तिगत स्वतंत्रता से ज्यादा महत्त्व संगठन और सांगठनिक एकता को दिया जाता था. ऐसे में सामूहिक हितों के आगे व्यक्तिगत हितों की बलि देना, बहुत सामान्य रहा होगा. तदनुसार उन समाजों में मानवाधिकारों की खोज करना अतिरिक्त अपेक्षा कही जाएगी. फिर भी मनुष्य द्वारा समाज को व्यवस्थित करने के लिए की जानेवाली कोशिशों के रूप में उनका ऐतिहासिक महत्त्व है. उन न्यायसंहिताओं में इस तथ्य को लगभग उपेक्षित रखा गया था कि मनुष्य के चरित्र निर्माण पर उसके परिवेश का भी प्रभाव होता है.

साधारणतः कबीलाई युद्धों के लिए विख्यात पर्शियावासी भी वैचारिक क्रांति के क्षेत्र में पीछे न थे. उस दौर में पर्शियावासियों की दुनियाभर को सौगात थी, साइरस सिलिंडर. जिसे आज पूरी दुनिया में अभी तक ज्ञात मानवाधिकार के सर्वप्रथम दस्तावेज के रूप में मान्यता प्राप्त है. महान पर्शिया सम्राट साइरस द्वारा उत्क्रीडि़त ‘साइरस सिलेंडर’ की खोज 1879 में की गई. उसका अन्वेषक था, असीरियाईब्रिटिश मूल का प्रतिभाशाली पुरातत्ववेत्ता हरमुज्द रसम. हरमुज्द को ‘गिलगमेश का महाकाव्य’, ‘हैंगिंग गार्डन’ आदि खोजने का श्रेय भी प्राप्त है. ईसा से 539 वर्ष पहले साइरस ने बेबीलोन पर आसान जीत हासिल की थी. उसने धार्मिक वृत्ति के तानाशाह बादशाह नबोनिदस को पराजित किया था. अपने विजय अभियान को यादगार बनाने के लिए उसने एक सिलेंडर उत्क्रीडि़त कराया था. 22.5 सेंटीमीटर लंबे और अधिकतम 10 सेंटीमीटर व्यास का वह सिलेंडर असल में साइरस द्वारा बेबीलोन पर विजय का आख्यान है. इसीलिए कुछ विद्वान उसे साइरस का आत्मप्रशंसात्मक लेख भी मानते हैं, जैसा उस समय के राजाओं का सामान्य चलन था. फिर भी साइरस के उस सिलेंडर में ऐसा बहुत कुछ था, जिसने आधुनिक मानवाधिकारवादियों को प्रभावित किया है. साइरस के प्रचारात्मक आख्यान के अलावा सिलेंडर पर राज्य में, धर्म और रंग के आधार पर भेदभाव से मुक्ति तथा दासों को अपने मूल प्रदेश वापस लौट जाने की स्वतंत्रता की घोषणा है. सिलेंडर पर उत्क्रीडि़त पाठ का संयुक्त राष्ट्र संघ की छह भाषाओं में अनुवाद किया गया है. धर्म, रंग, जातीय आधार पर भेदभाव से मुक्ति, समानता जैसे साइरस सिलेंडर के संदेश को ‘मानवाधिकारों का सार्वत्रिक घोषणापत्र’ के प्रथम चार अनुच्छेदों के रूप शामिल किया गया है.

अपने अधिकारों के लिए पहली ज्ञात हड़ताल का श्रेय प्राचीन मिò के मजदूरों को जाता है. 1170 ईस्वी की यह घटना है. पूर्व मिस्र के बादशाह फेरों रामेस्स तृतीय के शासनकाल में मजदूर दायरअलमदीना में शाही कब्रिस्तान बनाने के काम में लगे हुए थे. जब उन्हें कई दिनों तक दैनिक मजदूरी के रूप में निर्धारित अनाज का भुगतान नहीं हुआ तो उनका धैर्य चुकने लगा. आखिर उन्होंने हड़ताल की घोषणा कर दी. उसपर तत्काल अमल करते हुए सभी मजदूरों ने अपने औजार रख दिए और निकट ही श्मशान में बने धर्मस्थान में जाकर बैठ गए. लगभग तीन हजार वर्ष पुरानी उस घटना का उल्लेख एडगर्टन विलियम ने अपनी पुस्तक ‘रामेस्स तृतीय के 29वें वर्ष में हड़ताल’ शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक में किया है. वर्णित घटना कुछ इस प्रकार है—

राजमिस्त्रियों और मजदूरों को फेरों रामेस्स तृतीय के लिए शाही कब्रिस्तान बनाने का काम सौंपा गया था. कब्रिस्तान को आलीशान बनाने में राजमिस्त्री जीजान से लगे थे. लेकिन फेरों को मजदूरों और उनके परिवारों की कतई चिंता न थी. परंपरा के अनुसार मजदूरों और मिस्त्रियों को मासिक आधार पर राशन दिया जाता था. फेरों रामेस्स के शासनकाल में राशन के भुगतान में अकसर विलंब होता था. काम शुरू होने के पांचवे महीने में राशन चार सप्ताह और छठे महीने वह दो सप्ताह विलंब से मिला था. इससे मजदूरों में आक्रोश था. 29वें महीने में जब 23वें दिन भी राशन नहीं मिला तो श्रमिकों का धैर्य चुक गया. उन्होंने हड़ताल कर दी. उस समय उनका अगुआ था—अमानख्त, जो बाकी मजदूरों की अपेक्षा समझदार और साहसी था. शाही कब्रिस्तान का काम रुकते ही हड़कंप मच गया. मजदूरों का नेतृत्व करता हुआ अमानख्त स्थानीय शासकों के पास पहुंचा. वहां उसने अपनी शिकायत तथा मजदूरों को निर्धारित वृत्तिका समयानुसार उपलब्ध कराते रहने की अपील की. स्थानीय शासकों ने मजदूरों की वैध मांग की उपेक्षा करते हुए उन्हें काम में जुटे रहने का निर्देश दिया. इससे श्रमिक भड़क उठे. अगले दिन मजदूरों का जत्था रामेस्स द्वितीय के श्मशान में बने धर्मस्थान तक पहुंचा और मजदूरी का भुगतान न होने तक हड़ताल जारी रखने की घोषणा कर दी. आखिर अधिकारियों को झुकना पड़ा. एडगर्टन के अनुसार उस सफलता से उत्साहित मजदूरों ने आगे भी कई बार हड़ताल का सहारा लिया.

उपर्युक्त न्यायसंहिताओं में राज्य अथवा समूह व्यक्ति पर हावी दिखाई पड़ता है. समूह के हित के लिए व्यक्ति का बलिदान, एकदम सहज, स्वाभाविक और तत्कालीन आचारसंहिता में मान्य था. व्यक्तिगत गुणों का सम्मान किया जाता था, तथापि व्यक्तिस्वातंत्रय जैसा कोई प्रत्यय उस समय के विचारकों के दिमाग में नहीं था. चीन में कन्फ्यूशियस तथा यूनान में अरस्तु ने मनुष्य को समाज के समानांतर रखकर विचार अवश्य किया. मगर उनका सोच भी कुलीनतावादी था. उनके आदर्श राज्य में दासों, कृषिमजदूरों और स्त्रियों की स्वतंत्रता संबंधी दृष्टिकोण मालिक लोगों के स्वतंत्रता संबंधी दृष्टिकोण से अलग था. स्वामी और दास के बीच अधिकार विभाजन को एकदम सामान्य मान लिया गया था. ध्यातव्य है कि परिवर्तनकामी राजनीतिक दर्शन के लिए प्लेटो(427 ईस्वी पूर्व—347ईस्वी पूर्व) अपने गुरु सुकरात से प्रेरित था, जिसने यह कहकर कि ‘सद्गुण ही ज्ञान है’—मनुष्यत्व की परख हेतु कसौटी का निर्माण किया था. स्वभाव से कवि, विचारों से दार्शनिक प्लेटो ने ऐसे आदर्श राज्य की कल्पना की थी, जिसमें सभी नागरिक एक समान नागरिक संहिता द्वारा शासित हों. उसका विचार था कि केवल दार्शनिक ही आदर्श शासक सिद्ध हो सकता है. अपने बाद के चिंतन में यह मानते हुए कि अकेले व्यक्ति के अधीन शासन कभी भी तानाशाही में बदल सकता है, उसने दार्शनिकों के समूह को सत्ता सौंपे जाने की अनुशंसा अपने ग्रंथों में की थी. लेकिन प्लेटो ने जिस आदर्श राज्य का सपना अपने ग्रंथों में देखा था, वह व्यवहार में बहुत कठिन था. इसलिए आदर्श राज्य का उसका सपना यथार्थ में कभी साकार नहीं हो सका. विचार और पंरपरा अथवा संस्कृति में भेद करते हुए प्लेटो ने विचार केंद्रित राजनीति की आवश्यकता पर जोर दिया; और इस तरह मनुष्य के अधिकारों के लिए जमीन तैयार की. कालांतर में अरस्तु ने उस समय तक प्रचलित प्रायः सभी राजनीतिक प्रणालियों यथा राजशाही, तानाशाही, गणतंत्र, कुलीनतंत्र आदि की अच्छाइयों और बुराइयों का विश्लेषण अपने राजनीतिक दर्शन में किया. अंतः में वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि कोई भी राजनीतिक दर्शन अपने आप में पूर्ण और सर्वत्र निरापद नहीं है. आदर्श राज्य के लिए विशिष्ट राजनीतिक दर्शन की अनुशंसा करने के बजाय उसने शासन के गुणों पर अपना ध्यान केंद्रित किया.

प्लेटो का मानना था कि शासन का कर्तव्य समाज में शुभत्व की स्थापना करना है. उसका यह सपना ‘रिपब्लिक’ और ‘दि ला॓ज’ जैसे ग्रंथों के रूप में सामने आया था. अरस्तु का विचार था कि शुभता को समर्पित शासन ही शुभ है. वह उच्च नैतिक गुणों से संपन्न राज्य का सपना देखता था. मानता था कि शासन की श्रेष्ठता का पैमाना समाज में शुभत्व की स्थापना है. अरस्तु ने दास प्रथा का वैसा विरोध नहीं किया, जैसा अपेक्षित था, तथापि उसने माना कि अपनी प्रवृत्ति और प्रकृति के अनुसार सभी मनुष्य एक हैं. अतएव सभी मनुष्यों को चाहे स्वतंत्र हों अथवा दास, कानून के अधीन होना चाहिए. अरस्तु ने सामान्य न्यायसंहिता को पहली बार संविधान का रूप देने की कोशिश की. उसने अच्छे और बुरे संविधान की विशेषताओं पर भी प्रकाश डाला. अपने दो महत्त्वपूर्ण ग्रंथों ‘राजनीति’ और ‘नैतिकता’ के माध्यम से अरस्तु ने यह विचार स्थापित किया कि केवल और केवल नैतिकता पर आधारित राज्य ही आदर्श राज्य की शर्तों को पूरा कर सकता है. प्लेटो की दार्शनिक राज्य की अवधारणा से हटकर अरस्तु का मानना था कि नैतिकता और उच्च मानवीय मूल्यों पर केंद्रित ‘राजतंत्र’, भीड़ की मानसिकता द्वारा संचालित ‘लोकतंत्र’ से श्रेष्ठ हो सकता है. राज्य के नैतिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि उसकी समस्त कार्रवाही पारदर्शी और सुस्पष्ट विधान के अनुसार संचालित हो. इससे प्रकारांतर में लिखित संविधान की संकल्पना को बल मिला.

सुकरात, प्लेटो, अरस्तु आदि विचारकों द्वारा रोपा गया समानता का सपना आगे भी लोगों की आंखों में झिलमिलाता रहा. कवि, नाटककार यूरीपीडस की गिनती यूनान के अत्यंत प्रतिभाशाली विचारकों में होती है. उसकी प्रसिद्धि में सर्वाधिक योगदान उसके दुखांत नाटकों का है, जबकि उसके दार्शनिक विचारों पर हम बुद्ध के मध्यममार्ग की छाया देखते हैं. ध्यातव्य है कि उस समय तक यूनान में दास प्रथा एवं अप्रत्यक्ष गुलामी के विरुद्ध आवाजें उठने लगी थीं. यूरीपीडस के एक नाटक में जोकास्टा नामक नौकरानी अपने पुत्र को समानता और सबके प्रति उदारता बरतने के लिए मध्यम मार्ग अपनाने की सीख देती है—

समानता मित्रों को एक करती है. शहरों को जोड़ती है तथा विदेशियों के प्रति भ्रातृत्वभाव उत्पन्न करती है. मनुष्य के लिए प्रकृति की एकमात्र व्यवस्था समानता है. समानता जीवन के समस्त मापदंडों का आधार है. यहां तक कि समस्त संख्याएं, द्रव्यमान आदि भी समानता की ही देन हैं.’5

दार्शनिक और गणितज्ञ के रूप में पाइथागोरस की ख्याति पूरी दुनिया में है. अपने समकालीन यूनानी दार्शनिकों की भांति वह भी सामाजिक समानता का समर्थक था. लेकिन गणितज्ञ होने के कारण पाइथागोरस की समानता की व्याख्या पर भी गणित का प्रभाव है. न्याय को परिभाषित करते हुए उसने कहा था—‘न्याय एक वर्ग संख्या है.’ वर्ग एक ऐसी ज्यामितीय रचना है, जिसकी समस्त भुजाएं समान होती हैं. समाज में भी इसी प्रकार विभिन्न वर्गों, व्यक्तियों के बीच समानता बोध का एहसास होना चाहिए. जैसे वर्ग को पूरा करने में उसकी प्रत्येक भुजा का समान महत्त्व होता है, ऐसे ही समाज के विभिन्न वर्गों को लगना चाहिए कि उनकी महत्ता है. समाज के साथ मिलकर भी वे अपनी स्वतंत्र पहचान और अस्मिता को सुरक्षित रख सकते हैं. पाइथागोरस के अनुसार यदि समाज में समानता, समरसता तथा राज्य की ओर से सभी नागरिकों को बराबर अधिकार प्राप्त हों, तो वह न्याय की ओर स्वतः अग्रसर हो जाता है. समाज में बढ़ती अधिकार चेतना का एक रूप एरिस्टोफेन के नाटक ‘लाइस्ट्रेटा’ में भी दिखाई पड़ता है. 411 ईस्वी पूर्व लिखे गए इस हास्य नाटक में लाइस्ट्रेटा नामक स्त्री प्रसिद्ध ‘पेलोपेनीशियन युद्ध’ के विरोध में ग्रीक महिलाओं को हड़ताल के लिए प्रेरित करती है. वह उनसे कहती है कि जब तक उनके पति युद्ध छोड़कर शांतिवार्ता के लिए तैयार नहीं हो जाते, तब तक वे उनके साथ सहवास न करें. युद्ध की त्रासदी झेल रही स्त्रियां शांति की खातिर लाइस्ट्रेटा का साथ देने को विवश हो जाती हैं. आज से लगभग 2500 वर्ष पहले के पुरुष प्रधान समाज में स्त्री चेतना के ये स्वर झकझोर देने वाले हैं.

ईसा पूर्व 342 ईस्वी में जन्मा क्रीटवासी जीनो प्रतिभाशाली दार्शनिक, स्टोइक दर्शन का जन्मदाता था. प्लेटो के आदर्श राज्य की परिकल्पना का विरोध करते हुए उसने मुक्त समाज की स्थापना पर जोर दिया था. उसने राज्य की संप्रभुता, शक्ति संपन्नता, नागरिकों के जीवन में हस्तक्षेप करने के उसके अधिकार, ताकत बटोरने हेतु सेनाएं खड़ी करने की प्रवृत्ति और साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं का विरोध करते हुए, व्यक्तिमात्र की नैतिकता तथा उसको संरक्षण प्रदान करने वाले नियमों का पक्ष लिया था. व्यक्ति की जटिल मनोरचना का विश्लेषण करते हुए जीनो ने लिखा था कि आत्मसंरक्षण और आत्मपरिवर्धन की प्रवृत्ति जहां मनुष्य को अहंवादी बनाती है, वहीं इसको संतुलित करने के लिए एक अन्य प्रवृत्ति भी मानव मन में सतत सक्रिय रहती है, वह है व्यक्तिमात्र में अंतनिर्हित उसका सामाजिकताबोध, जो विश्वभर के जनसमूहों को दूसरे जनसमूहों के साथ मैत्रीसंबंध बनाने; यानी मानवमात्र के बीच एकता का भाव पैदा करता है. उसने लिखा था कि दूसरों के साथ मिलजुलकर रहने का स्वभाव मनुष्य को प्रकृति की ओर से प्राप्त है. तदनुसार मैत्री और मेलमिलाप नैसर्गिक गुण हैं. उनकी सुरक्षा के लिए मनुष्य को न तो किसी कानून की आवश्यकता है, न पुलिस, न कोर्टकचहरी की. यहां तक कि उसे धर्म, धर्मालय, धनसंपदा, उपहार आदि की भी कोई आवश्यकता नहीं है. मनुष्य को अपने मनुष्यत्व का बोध रहे, इतना पर्याप्त है. दूसरों के साथ मैत्री, सामंजस्य और शांति बनाए रखने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखे, विलासिता के दुर्गुण को अपने मन में न पनपने दे. अपने अधिकार में ऐसी कोई वस्तु न रखे, जो समाज के दूसरे सदस्यों को सहज उपलब्ध न हो. यह दुर्भाग्य ही है कि जीनो के व्यक्तिमात्र की अधिकारिता के से जुड़े विचारों को उन दिनों बहुत महत्त्व नहीं दिया जा सका. इसका कारण उसके समकालीन प्लेटो और अरस्तु की उच्चस्तरीय ख्याति थी, जिनके विचार सुकरात के दर्शन की छत्रछाया में विकसित हुए थे.

मध्यकाल में व्यक्तिमात्र के अधिकारों का समर्थन मार्को जिरोलमो वाइड तथा फ्रांसिसी कविदार्शनिक ला बूइटी(1530—1563) के साहित्य में भी प्राप्त होता है. बूइटी असल में मानवतावादी विचारक था. उसने व्यक्तिमात्र की स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए उसके पक्ष में जोरदार तर्क दुनिया के सामने रखे. क्रीटवासी जीनो से प्रभावित बूइटी का विचार था कि मानवाधिकारों का हनन करते हुए, तानाशाही चाहे वह बलपूर्वक स्थापित की गई हो, अथवा किसी अन्य माध्यम से, बड़े से बड़ा तानाशाह केवल उस समय तक सत्ता शिखर पर बना रह सकता है, जब तक कि जनता उसको वहां बनाए रखना चाहती है. ऐसे तानाशाह को बलपूर्वक खदेड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती. जनता यदि अपने दासताबोध से बाहर आ जाए तो तानाशाही स्वतः दम तोड़ लेती है. इसलिए आजादी की चाह रखने वाली जनता को सबसे पहले स्वयं दासताचक्र से बाहर निकालना चाहिए. बूइटी को हम सत्याग्रह आंदोलन का आदि प्रवत्र्तक भी मान सकते हैं. यह बात चौंका सकती है कि 1575 में धार्मिक सुधारवादी नेता ह्युजनोट द्वारा प्रकाशित एक पंपलेट में बूइटी ने—‘कस्बों और शहर में रहने वाले लोगों से सिविल नाफरमानी का सहारा लेते हुए राज्य को दिए जाने वाला किसी भी प्रकार का टैक्स न चुकाने की अपील की थी.’ वह जनता द्वारा अपने अधिकारों के प्रति स्वयंस्फूत्र्त कार्रवाही थी.

मानवाधिकारों की जमीन तैयार करने में जेकुइस रा॓क्स का योगदान भी उल्लेखनीय है. फ्रांसिसी क्रांति के सूत्रधार आंदोलनकारी भीड़ को संबोधित करते समय उसने अपने वक्तव्य को ‘आक्रोश का घोषणापत्र’ नाम दिया था. व्यक्तिस्वातंत्रय के अभाव में जन्मी असमानता पर प्रहार करते हुए अपने ऐतिहासिक वक्तव्य में उसने कहा था कि ऐसे राज्य में जहां—

एक वर्ग शोषण द्वारा दूसरे वर्ग को भूखा मरने पर विवश कर दे, वहां आजादी सिवाय प्रेतछाया के कुछ नहीं है. जहां धनी अपने एकाधिकार और मनमानी द्वारा निर्धन व्यक्ति के जीवनमरण का फैसला करने लगे, वहां समानता सिवाय प्रेतछाया के कुछ नहीं है. जिस राज्य की तीनचैथाई जनता दिनोंदिन आसमान चढ़ती महंगाई से त्रस्त होकर रातदिन आंसू बहाती हो, वहां गणतंत्र सिवाय प्रेतछाया के कुछ नहीं है.’

अपने घोषणापत्र में रा॓क्स ने जनता से अपने अधिकारों को पहचानते हुए, उनके लिए संघर्ष करने तथा एक जुट होकर आततायी राजसत्ता को उखाड़ फेंकने का आवाह्न किया था. अठारवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक व्यक्तिस्वातंत्रय की मांग विस्तार ले चुकी थी. उन्हीं दिनों इमानुएल जोसेफ सीयेस(1748—1836) ने लोगों को अपने अधिकारों की रक्षा हेतु खड़े होने के लिए क्रांतिकारी काम किया, जिसने इतिहास की धारा ही बदल दी. कुलीन मध्यवर्गी परिवार में जन्मे सीयेस ने अपनी शिक्षा धार्मिक माहौल में पूरी की थी. समय आने पर उसको एक चर्च में पादरी की नौकरी मिल गई. लेकिन वह पादरी के परंपरागत कार्य में रमे रहने के बजाय सुधारवादी कार्यक्रमों में प्रवृत्त हुआ. अपने क्रांतिधर्मी विचारों को लेकर सीयेस ने कई छोटेछोटे परिपत्र लिखे, जिन्होंने समाज में नई चेतना का प्रसार किया. उसके लिखे परिपत्रों में ‘तीसरी दुनिया क्या है?(व्हा॓ट इज थर्ड एस्टेट?)’ शीर्षक से लिखा गए परिपत्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण है. उस परिपत्र में नए युग का संदेश निहित था. कालांतर में यही परिपत्र फ्रांसिसी क्रांति का प्रमुख उत्प्रेरक बना. राजशाही में मानवाधिकारों के हनन पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए सीयेस ने लिखा था—

तीसरी दुनिया क्या है?’

सबकुछ.’

अभी तक राजतंत्र में तीसरी दुनिया(जनसाधारण) की हैसियत कैसी है?’

तुच्छ, कुछ भी नहीं.’

हमारी हसरत क्या है?’

थोड़ेसे मानसम्मान की.’

किसी राष्ट्र की जीवंतता और समृद्धि के लिए क्या अनिवार्य है?’

व्यक्तिगत प्रयास एवं सामूहिक कर्तव्यपरायणता.’

मानवाधिकारों की नींव जिस नैतिक दर्शन पर रखी गई है, उसकी झलक हमें ईसा पूर्व पहली शताब्दी में जन्मे सिसरों के राजनीतिक दर्शन में भी दिखाई पड़ती है. सिसरो की कृति ‘नैतिक कर्तव्य’ इस संबंध में मील का पत्थर है. और यह नैतिकता प्राणिमात्र के प्रति समानताबोध से पैदा होती है. किसी को छोटा या बड़ा, मानना प्रकृति का अपमान करने जैसा है. सिसरो के शब्दों में, ‘मनुष्यों में अपनी अस्मिता की रक्षा करने की प्रवृत्ति जन्मजात होती है. जानवर और मनुष्य में सबसे बड़ा अंतर यह है कि जानवर अपने परिवेश और जैविक क्रियाओं के प्रति संवेदनशील रह सकता है, जबकि मनुष्य अपने मस्तिष्क के बल पर भविष्य के हल्केफुल्के आकलन के अनुसार निर्णय लेता है. मस्तिष्क मनुष्य के लिए प्रकृति की अमूल सौगात है. उसके पास स्मृति की धरोहर हमेशा रहती है, जिसमें वह अपने अनुभवों को संचित रखता है. निर्णय लेते समय वह अपने विवेक के आधार पर उसके पक्षविपक्ष में तर्क करता है. जीवन और प्रकृति के सामंजस्य पर जोर देते हुए सिसरो ने तर्कसम्मत निर्णय लेने पर जोर दिया था. उसका मानना था कि प्रत्येक मनुष्य व्यक्तित्व की दृष्टि से स्वतंत्र होता है. मानवमात्र की स्वतंत्र अस्मिता होती है, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए. देशसमाज की सीमाओं से परे यह अनंतिम सत्य है. इसलिए वही विधान सर्वोत्तम है जो मनुष्य की नैसर्गिक स्वतंत्रता का रक्षण करता हो. उसका मानना था कि प्राकृतिक विधान और सार्वत्रिक न्याय का योग, मानवमात्र को परस्पर निकट लाने में सहायक होगा. बिना किसी भेदभाव के वे संगठित होंगे. ये उदाहरण सिद्ध करते हैं कि मनुष्य और राज्य के संबंधों को निर्धारित करने, मनुष्य की प्राकृतिक स्वतंत्रता की रक्षा करने के प्रयास सभ्यता के विकास के आरंभिक काल में ही शुरू हो चुके थे. हालांकि उन्हें सफलता, काफी देर से मिल सकी. उस समय, जब राजनीति को धर्म के बजाय कानून से मर्यादित करने की कोशिश की गई. यह अनायास नहीं था. बल्कि इसके पीछे जनसाधारण के संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है.

ईसा पूर्व छठी शताब्दी में उठी वैचारिक क्रांति की लहर ने दुनिया की सभी सभ्यताओं को प्रभावित किया था. भारत में गौतम वुद्ध, मक्खलि घोषाल, कौत्स, अजित केशकंबलि, महावीर स्वामी आदि अपनीअपनी तरह से सामाजिक यथास्थिति के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे. चीन में मानवतावादी चिंतन का नेतृत्व महान शिक्षक कन्फ्यूशियस के हाथों में था. मानवता का वह महान शिक्षक आजीवन तरहतरह के पाखंड और धार्मिक जड़ता के विरुद्ध अलख जगाता रहा. सामान्य नैतिकता, प्राणिमात्र के प्रति करुणाभाव पर जोर दिया जाता था. चीनी विद्वान कन्फ्यूशियस जीवन और समाज में उच्चतम जीवनमूल्यों की स्थापना के लिए प्रयास रत था. वह स्वतंत्र, मानवीय चेतना का समर्थक था. सभी मनुष्य बराबर हैं, प्रकृति में कोई ऐसा प्राणी नहीं जो श्रेष्ठता में मनुष्य के बराबर हो, इसलिए मानवीय अस्मिता का सम्मान होना आवश्यक है—ऐसा उसका मानना था. यह लक्ष्य समानता के बगैर असंभव था. इसलिए कन्फ्यूशियस का कहना था कि मानवमात्र के साथ कानून के अनुसार पक्षपातरहित वर्ताब किया जाना चाहिए. दोषी को कानून के अंतर्गत दंड मिलना चाहिए. उसने जोर देकर कहा था कि राज्य न तो केवल कानून से चलता है, न केवल करुणा से. श्रेष्ठ शासक आवश्यकतानुसार कानून की गरमी और करुणा की नरमी से काम लेता है. आदर्श राज्य की कोशिश होनी चाहिए कि करुणा और सदाशयता का सर्वत्र प्रसार हो. सख्ती अथवा बलप्रयोग की आवश्यकता कम से कम पड़े. यह तभी संभव है जब समाज में सभी व्यक्ति अपनेअपने कर्तव्य को समझकर उसका पालन करें. कन्फ्यूशियस का मानना था कि ‘शासन जनता की जिम्मेदारी है. यदि जनता जागरूक होगी तो शासन की कम से कम जरूरत पड़ेगी.’ कन्फ्यूशियस के अनुसार, ‘पृथ्वी पर कोई भी प्राणी इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना मनुष्य.’ सभी व्यक्ति एक समान नहीं होते. चारित्रिक वैभिन्न्य एक अकाट्य सत्य है, मगर करुणा और उदारता कठोर व्यक्ति को भी अपने बस में कर लेती है.

समाज में विनीत भी होते हैं और कुटिल भी. कन्फ्यूशियस के अनुसार शासन का दायित्व है कि वह श्रेष्ठ लोगों और जीवन मूल्यों को संरक्षण प्रदान करे. जो चालाक हैं, स्वार्थी और दुष्प्रवृत्ति वाले हैं, उन्हें सुधार का अवसर देते हुए उनकी दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने का काम करे. यह कार्य जितनी सदाशयता के साथ हो, उतना ही अच्छा. कन्फ्यूशियस के अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी विनम्र व्यक्ति को प्रोत्साहित कर, उसे कुटिल लोगों का शासक बना दे तो लोग उसके अधीन हो जाएंगे. लेकिन यदि कोई कुटिल व्यक्ति को प्रोत्साहित कर उसे दूसरे कुटिल व्यक्तियों का शासक बनाना चाहे, तो वे कभी उसकी अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे.’6 यह समाज में सदगुणों की प्रतिष्ठा तथा मानवमात्र के उनके प्रति सम्मानभाव का द्ययोतक है. शुभता को प्राप्त करने का रास्ता क्या है? इस बारे में कन्फ्यूशियस स्पष्ट था. उसके अनुसार केवल शासन की शुभता से काम चलनेवाला नहीं है. इस प्रश्न के उत्तर में यह पूछने पर कि शुभता क्या है? कन्फ्यूशियस का कहना था, ‘शुभता प्राणिमात्र के कल्याण की वांछा है. यदि कोई व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता है, तो उसको चाहिए कि दूसरे व्यक्तियों के आत्मनिर्भर बनने में मदद करे. इसी तरह यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में सफलता की कामना करता है, तब उसे चाहिए कि दूसरों को सफल होने में भरसक योगदान दे.7

मानव अधिकारिता अन्योन्याश्रित पद है. यह समाज का गुण है. समाज में रहते हुए मनुष्य अपने अधिकारों की सुरक्षा तभी कर सकता है, जब उसके हृदय में दूसरों के अधिकारों के प्रति सम्मान हो. सरकार मानव अधिकारों को तभी वरीयता दे सकती है, जब वह मानवमात्र की महत्ता में विश्वास रखती हो. ‘व्यक्ति शासन की अपेक्षा महत्त्वपूर्ण है’—कन्फ्यूशियस को इसमें जरा भी संदेह नहीं है. इसलिए व्यक्तिमात्र की महत्ता को वह नएनए तर्कों द्वारा स्थापित करने की कोशिश करता है—‘राजा नाव है, जनसाधारण महासागर का जल. जल न केवल नाव को बहाकर ले जा चाहता है, अपतिु उसको डुबा भी सकता है.’ कन्फ्यूशियस की बात पर बल देता हुआ उसका शिष्य चीनी विद्वान मेनसियस(372—289 ईस्वी पूर्व) लिखता है कि मनुष्य, राज्य और सम्राट तीनों में ‘सर्वाधिक मूल्यवान है—मनुष्य. राज्य का नंबर उसके बाद में आता है. राजा इन दोनों से काफी पीछे है.’8 मनुष्य के श्रेष्ठत्व का आधार है उसका विवेक. उच्च मानवीय मूल्यों से भरपूर उसका व्यक्तित्व, लेकिन अनुदार राज्य में व्यक्तित्व रक्षण संभव नहीं है. अनुदार राज्य की नकारात्मक वृत्तियां उसके नागरिकों को भी उदार नहीं रहने देतीं. स्वार्थपूर्ण आचरण में लिप्त ऐसा राज्य अपने नागरिकों का विश्वास खो देता है. वे सहज मानवीय विवेक के बजाय भीड़ की मनोवृत्ति से काम करने लगते हैं. विवेक मनुष्यत्व की कसौटी है. यदि वह मनुष्य के पास न हो तो उसमें और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाता. कन्फ्यूशियस नागरिक चरित्र और राष्ट्रीय चरित्र में अंतर नहीं समझता, ‘यदि आपके हृदय में दूसरों के प्रति न्याय की भावना होगी, तो आपका चरित्र स्वतः उज्जवल हो जाएगा.न्याय के लिए वह राज्य से अनुकूल वातावरण के निर्माण की अपेक्षा रखता है. वहीं नागरिकों से भी उम्मीद करता है कि वे प्राणिमात्र के प्रति उदार रहते हुए न्याय को अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बनाएं—‘यदि आपका चरित्र उज्जवल होगा, तो परिवार में सामन्जस्य और सुखशांति रहेगी. यदि परिवार में सामंजस्य और सुखशांति होगी तो राष्ट्र में अनुशासन आएगा. यदि राज्य में अनुशासन होगा तो विश्व में शांति और समृद्धि आ जाएगी.’ कन्फ्यूशियस ने जोर देकर कहा था—‘दुनिया के महासागर में, सभी मनुष्य एक समान हैं.’ इसलिए दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार हरगिज मत करो, जैसा तुम अपने लिए नहीं चाहते.

चीन में व्यक्तिमात्र के प्रति समान व्यवहार और समान अधिकारिता की मांग कन्फ्यूशियस तक ही नहीं रुकती. चीनी विद्वान चुआंग जु(369—286) ने किसी भी प्रकार की अधिकारिता को मनुष्यता पर अंकुश माना था. उसका मानना था कि सत्ताएं अन्याय को बढ़ावा देती हैं. राज्यसत्ता में पलने वाले अन्याय का उल्लेख करते हुए उसने लिखा था कि सत्ता प्रायः अन्यायी का पक्ष लेती है. साधारण व्यक्ति के लिए कानून अनगिनत निषेधाज्ञाओं और प्रतिबंधों का जखीरा खड़ा कर देता है, जबकि शक्तिशाली को मनमानी करने के लिए खुला छोड़ देता है. कानून का लाभ उठाकर सत्ताशीर्ष पर विराजमान लोग जनसाधारण का शोषण, उत्पीड़न करते रहते हैं. राज्य का झुकाव समृद्धिशाली वर्ग की ओर होता है, वह पहले से ही सुविधासंपन्न वर्ग को और अधिक सुखसुविधाएं बटोरने का अवसर प्रदान करता है, जबकि निर्धन उसकी दया पर जीने के लिए विवश होता है. राज्य के मनमाने और मानवाधिकार विरोधी आचरण के बारे में चुआंग जु ने लिखा था कि उसके बनाए कानून ने—‘मामूली चोर को जेल भेज दिया गया है, जबकि खूंखार डकैत राज्याधिपति बना हुआ है.’ जीवन में कृत्रिमता के विरुद्ध चुआंगजु का मानना था कि प्रत्येक प्राणी अपने आप में पूर्ण है. प्राकृतिक रूप से समृद्ध. सामान्य जीवन जीने के लिए प्राणी को किसी बाह्यः साधन की आवश्यकता ही नहीं है. वह उदाहरण देता है—

घोड़ों के खुर होते हैं, जिनसे वे बर्फीली, फिसलनयुक्त सतह पर आसानी से चल सकें. बाल होते हैं ताकि तेज हवा और ठंड से उनकी रक्षा कर सकें. वे प्रकृति में सहज उपलब्ध भोज्यसामग्री पर निर्भर रहते हैं. घास खाते, पानी पीते तथा अपनी मजबूत ऐडि़यों के बल पर लंबी दौड़ भी लगाते हैं. यह घोड़ों का कुदरती लक्षण है. राजसी जीन उनके लिए व्यर्थ है.’

कहते हैं कि चुआंगजु के विचार सुनकर एक दिन पो लो नामक व्यक्ति उसके सामने पहुंचा और कहने लगा—

घोड़ों की देखभाग कैसे की जाए, यह मैं भलीभांति जानता हूं.’

कैसे?’ चुआंगजु के पूछने पर पो लो ने घोड़ों पर निशान लगाया, उन्हें बांधा, उनके खुरों को अच्छी तरह से साफ किया, वे भागें नहीं इसलिए उनके पैरों में रस्सा भी डाल दिया. उसके बाद उसने उनपर लगाम कसकर अश्वशाला में बांध दिया. युवक खुश था. लेकिन इस कोशिश में कुछ दिनों बाद दस में से दोतीन घोड़े मर गए. प्रशिक्षण देने के लिए उसने घोड़ों को भूखा और प्यासा रखा, उन्हें सरपट और दुलकी चाल से दौड़ाया. उनके बालों को तराशा. लगाम कसी. फिर एक दिन ऐसा भी आया जब उनमें से आधे घोड़ों ने दम तोड़ लिया.’

चुआंगजु का यह उदाहरण दर्शाता है कि कृत्रिमता जीवन को सुविधाजनक भले बनाए, किंतु वह अनेक व्यवधान भी खड़े करती है. मनुष्य को हालांकि सामाजिक प्राणी कहा जाता है, लेकिन सामाजिक होने का अभिप्राय प्रकृति से विलग हो जाना नहीं है. दूसरे सामाजिकता केवल मनुष्य का लक्षण नहीं है. यह गुण अन्य जीवों में भी पाया जाता है. चींटियों, मधुमक्खियों तथा पक्षियों की सामाजिकता पर अनेक ग्रंथ रचे जा चुके हैं. मनुष्य ने लंबा जीवन प्रकृति के सान्निध्य में बिताया है. अब भी प्रकृति पर उसकी निर्भरता कम नहीं हो पाई है. इसलिए उसकी सामाजिकता प्रकृति और नैसर्गिक नियमों से मुक्त नहीं हो सकती, जो जीवन में कृत्रिमता का निषेध करते हैं. जीवन की नैसर्गिक स्वतंत्रता के समर्थन में चुआंगजु एक के बाद एक कई तर्क देता है. वह लिखता है कि कुम्हार यह दावा करता है कि वह मामूली मिट्टी को मनमानी आकृति में ढाल सकता है, चाहे गोल हो या चैकोर, आयताकार हो अथवा वृताकार—उसके लिए कुछ भी कठिन या असंभव नहीं है. काष्ठकार यह गुमान करता है कि वह लकड़ी को जैसी चाहे वैसी आकृति देने में कुशल है. चाहे गोलाकार हो या घुमावदार. सीधी हो अथवा आड़ी—सब उसके लिए बाएं हाथ का खेल है. ऐसा ही दावा दूसरे शिल्पकर्मी भी कर सकते हैं. चुआंगजु के अनुसार उपर्युक्त उदाहरण में कुम्हार और काष्ठकार दोनों अपनीअपनी कला का बखान करते हैं. मिट्टी और लकड़ी स्वयं क्या चाहती हैं, उनकी अपनी खुशी किसमें है, यह उनमें से कोई नहीं जानना चाहता. जैसे पो लो ने घोड़ों से साथ वह किया जो वह चाहता था; या जो उसको सिखाया गया था. घोड़े स्वयं क्या पसंद करते हैं. किस कार्य में उन्हें सर्वाधिक खुशी हासिल होती है, यह उसने कभी जानने का प्रयास ही नहीं किया था. यही प्रवृत्ति शासक की होती है. हर शासक सत्ता पर सवार होते ही मनमानी पर उतर आता है. वह दावा करता है कि उसका शासन जनता के हक में, उसकी बेहतरी के लिए है. जनता स्वयं क्या चाहती है, यह जानने का वह कभी प्रयास तक नहीं करता. जनता के लिए ऐसा शासक जो केवल मनमानी करे, जनता की इच्छा और उसकी अधिकारों की उपेक्षा करे, अनावश्यक है.

मानवाधिकारों का हनन करने वाली सत्ता को अनावश्यक और अप्रासंगिक बताने वाला चुआंगजु पहला विद्वान नहीं था. उससे लगभग दो शताब्दी पहले जन्मे लाओजु ने साफ लिखा था कि सर्वोत्तम तो यह है कि सरकार हो नहीं. यदि सरकार बनाना अनिवार्य है, तो बुद्धिमानी इसमें है कि उसका स्वरूप एकदम सादा और सरल हो. वह कोई काम न करे. बस शांत बनी रहे. कुछ करना जरूरी समझे तो नागरिकों की अधिकारों का रक्षण करे. समाज में सुखशांति और समृद्धि के लिए व्यक्तिमात्र को पे्ररित करे. नागरिकों को बदलने, उन्हें उनका धर्म सिखाने के लिए वे अपनी ओर से कौनसा कदम उठाना चाहेंगे, इस प्रश्न के उत्तर में लाओजु जो कहता है, उससे व्यक्तिमात्र की स्वतंत्रता तथा उसकी स्वयंप्रभुता की आवश्यकता को बल मिलता है—

मैं कोई कदम नहीं उठाऊंगा. लोग खुद अपने आप को बदलेंगे. मैं खामोशी का पक्ष लूंगा, लोग स्वयं अपनी मंजिल तय कर लेंगे. मैं कोई कार्रवाही नहीं करूंगा, अपने उत्थान के लिए लोग स्वयं आगे आएंगे.’

लाओजु का मानना था—

संसार में लोगों पर जितने अधिक प्रतिबंध और निषेध थोपे गए हैं, उतनी ही यहां दरिद्रता है….दुनिया में जितने अधिक नियम, कानूनादि होंगे, उतने ही अधिक चोरडकैतदुराचारी यहां होंगे.’

लोककल्याण को ऊपर से थोपा नहीं जा सकता. लोगों का वास्तविक कल्याण तभी संभव है, जब वे स्वयं उसके लिए प्रयत्न करें. मानवसमूह की कुछ सामान्य विशेषताएं होती हैं, जो नैसर्गिक स्वतंत्रता के प्रति उसकी चाहत को दर्शाती हैं. उदाहरण के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपना भोजन स्वयं कमानाकरना पसंद करता है. अपने कपड़े वह स्वयं पहनता है. अनौपचारिक वातावरण में ऐसे अनेक कार्य हो सकते हैं, जिन्हें मनुष्य को स्वयं करने से प्रसन्नता प्राप्त होती हो. कहा जा सकता है कि ये उसके जन्मजात लक्षण हैं. इन कार्यों के लिए किसी बाहरी उपकरण, सहायता अथवा प्रेरणा की आवश्यकता भी नहीं पड़ती. इस स्तर तक मनुष्य को शासन की भी आवश्यकता नहीं है. यह आदिम अवस्था है. परंतु जब कोई समाज विकास की ओर अग्रसर होता है, तो वह पाता है कि विकास के लिए आवश्यक मानी जाने वाली सभी वस्तुओं का उत्पादन प्रत्येक के लिए संभव नहीं है. अपनी रुचि, स्वभाव, सामर्थ्य के आधार पर व्यक्ति किसी कार्यविशेष में ही निपुण हो सकता है. इन स्थितियों में कार्यविभाजन समाज की आवश्यकता बन जाता है. पूंजीवादी व्यवस्था में कार्यविभाजन का आधार लाभ की वांछा से किया जाता है. उससे समाज में स्पर्धा बढ़ती है, जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की दासता के लिए बाध्य करती है. इसलिए आवश्यक है कि कार्यविभाजन लार्भाजन के बजाय सामूहिक कल्याण की भावना से प्रेरित हो, ताकि मनुष्य की स्वतंत्रता किसी भी प्रकार से बाधित न हो. यह तभी संभव है जब मनुष्य स्वयं निर्णय ले. व्यक्ति के रूप में भी और समूह के रूप में भी. निर्णय ऊपर से थोपे न जाएं.

© ओमप्रकाश कश्यप

1. चेस्टर बाल्स द्वारा दिल्ली विश्वविद्यालय में दी गई भाषणमाला, ‘न्याय समाज के मूलाधार’ से उद्धृत, पृष्ठ 12.
2. मित्रस्याहं चक्षुसा सवाणिभूतानि समीक्षे.- शुक्ल यजुर्वेद 36/18.
3. good man must be a good citizen; a good man could hardly exist except in a good state.-George H. Sabine, History of Political Theory, Holt, Rinehart and Winston, Inc., USA, 1961
4- न राज्यं न च राज्यासीत, न दंडो न च दांडिकः।
स्वयमेव प्रजा सर्वा रक्षंति स्मः परस्परम।। शांतिपर्व, महाभारत.
5- Equality, which knitteth friends to friends,
Cities to cities, allies unto allies.
Man’s law of nature is equality.
. . . . . . . .
Measures for men equality ordained
Meting of weights and number she assigned.
The Tragedies of Euripides in English Verse by Euripides, Trans.
Arthur Sanders Way, Biblio Bazaar, 2010
6. If one promotes the straight and sets them on top of the crooked, they will be submissive; if one promotes the crooked and sets them on top of the straight, they will not be submissive.-Confucius, Quoted by Professor Gu Chunde in Confucian Human Rights Ideas and Their Influence on Modern Human Rights Thought.
7. I would describe goodness like this: one who desires standing, helps others to gain standing; one who wants success, helps others to attain success.” “Never do to others what you don’t want others do to you.-Confucius, Ibid.
8. The human being is the most precious, the state is second, and the ruler the least-Mencius, Quoted by Professor Gu Chunde in Confucian Human Rights Ideas and Their Influence on Modern Human Rights Thought.

ईश्वर : एक अवैज्ञानिक धारणा

क्या ईश्वर बुराई पर अंकुश लगाना चाहता है, लेकिन लगा नहीं सकता?

तब वह सर्वशक्तिमान नहीं है.

क्या वह अंकुश लगा सकता है, लेकिन उसकी इच्छा नहीं है?

तब वह विद्वेषी है.

वह कर सकता है और करने की इच्छा भी रखता है?

तब ये ढेर सारी बुराइयां कहां से आती हैं?

वह न तो कर सकता है, न ही करने की इच्छा रखता है?

तब उसे ईश्वर क्यों माना जाए?

              —एपीक्यूरस, लेक्टेंटियस द्वारा ”आ॓न दि एंगर आ॓फ गॉड”, 13.19.

स्पर्धा आधुनिक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का सबसे कारगर उपकरण है. एक तरह से मूलमंत्र. मान लिया गया है कि स्पर्धा रहेगी, तब तरक्की होगी. प्रतिभाशाली लोग आगे आएंगे. लोगों को अच्छे उत्पाद सस्ते मूल्य पर प्राप्त हो सकेंगे. इसलिए जो इस व्यवस्था को अपनाता है, जाने-अनजाने स्पर्धा में शामिल हो ही जाता है. लोग स्पर्धा को विकास का मूलमंत्र मानना चाहते हैं, मानें. उसमें सफलता व्यक्ति के प्रतिभा-कौशल से तय नहीं होती. वास्तविक परिणाम स्पर्धारत व्यक्ति/व्यक्ति-समूहों की आर्थिक-सामाजिक हैसियत पर निर्भर करते हैं. उन प्रक्रियाओं द्वारा तय होते हैं, जिन्हें साधारण भाषा में मौकापरस्ती कहा जाता है. दो उद्योगपति इसलिए स्पर्धा में रहते हैं, ताकि बाजार के अधिकतम हिस्से पर कब्जा कर, वहां अपने एकाधिकार का परचम लहरा सकें. भूखों की स्पर्धा उन्हें अपनी थाली में कटौती के साथ जैसे-तैसे जीते जाने की मजबूरी की ओर ढकेल देती है. मार्क्स के अलावा मिखाइल बकुनिन, विल्फ्रेद परेतो, जीतान मोसका आदि ने स्पर्धा की प्रवृत्ति का विद्वतापूर्ण विश्लेषण किया है. उनके अनुसार स्पर्धा असमान व्यक्तियों की बेमेल प्रतियोगिता है. उसका परिणाम असमानता की खाई के उत्तरोत्तर चौड़े होने के रूप में सामने आता है. चूंकि स्पर्धा लोकतांत्रिक मूल्यों एवं समानाधिकार के प्रसाद के रूप में व्यवहृत होती है, इसलिए उसका विरोध लोकतंत्र का प्रतिवाद मान लिया जाता है. शिखर तक पहुंचने तथा वहां टिके रहने की स्पर्धा में व्यक्ति को अनेक समझौते करने पड़ते हैं. कई बार सामान्य नैतिकता सहित उन मूल्यों को भी दांव पर लगाना पड़ता है, जिनके प्रति प्रतिबद्धता उस अभियान का औचित्य रही है. यह सब याद आया हिंदी के चर्चित ब्लॉग ‘साइंटिफिक वर्ल्ड’ चल रही एक बहस को पढ़कर. इस ब्लॉग पर एक चौंकाऊ, विज्ञान के नाम पर अवैज्ञानिक बहस पिछले दिनों ऐसे देखने को मिली, जैसे टीआरपी बढ़ाने के लिए टीवी चैनल सामान्य सूचनाओं को भी ‘न भूतो न भविष्यति’ कहकर परोस देते हैं. भले ही यह अनजाने में हुआ हो अथवा अतिउत्साह में, नजर साफ आ रहा था.

पिछले दिनों ‘साइंटिफिक वर्ल्ड’ पर दो आलेख प्रकाशित हुए हैं, उनमें पहला आलेख के पी सिंह का ‘क्या ईश्वर को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित किया जा सकता है?’ दूसरे आलेख, ‘ईश्वर की अवधारणा: विज्ञान की कसौटी!’ के लेखक विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी हैं. दोनों आलेख ईश्वरवादियों की ओर से लिखे गए हैं, इसलिए उनमें ईश्वर की सत्ता पर संदेह कम, विश्वास और आस्था की अभिव्यक्ति अधिक है. दोनों विद्वान आस्था-मंडित हैं. ईश्वरत्व में संदेह उन्हें छू भी नहीं पाया है. इसलिए दोनों अपनी-अपनी तरह से ईश्वर को प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं. मगर इकतरफा होने के कारण दोनों लेख ईश्वर-प्रचारक मंडली के प्रवचन बन जाते हैं. विज्ञान के नाम पर अवैज्ञानिकता का आशय यही है. लेखों में दिए गए तर्क भी नए नहीं हैं. कथावाचक किस्म के ‘गुरु महाराज’ ऐसे तर्क देते ही रहते हैं. के. पी. सिंह जिस आस्था को प्रश्नवाचक चिह्न के साथ आरंभ करते हैं, वैसी ही आस्था चतुर्वेदी जी के लेख में विस्मयादिबोधक चिह्न के साथ नजर आती है. गोया लेखों को विज्ञान की श्रेणी में लाने के लिए वे संदेह का हिस्सा पाठक के लिए छोड़ देना चाहते हैं. आपत्तिजनक यह नहीं है कि ब्ला॓ग पर दो ईश्वरवादियों ने अपने-अपने तर्क जुटाए हैं. निस्संदेह जैसा वे सोचते और महसूस करते हैं, उसको अभिव्यक्त करने का उन्हें पूरा-पूरा अधिकार है. आपत्तिजनक यह है कि इन लेखों को ऐसे ब्ला॓ग पर जगह मिली है जो स्वयं को विज्ञान के प्रति समर्पित बताकर बौद्धिक जड़ता एवं पाखंड के विरोध का अभियान चला रहा है. इसी प्रतिबद्धता के चलते उसको हजारों पाठक मिले हैं.

इन लेखों की कमजोरी है कि उनकी सामग्री उनके अपने ही शीर्षक से मेल नहीं खाती. शीर्षक से लगता है कि उनमें विषय का वस्तुनिष्ट विवेचन देखने को मिलेगा, मगर असलियत में सारे तर्क एकतरफा होने से लेख पूरी तरह आत्मपरक, निजी आस्था की प्रस्तुति तक सिमट गए है. दोनों में कहीं भी शंका अथवा संदेह को जगह नहीं है. इस विषय पर ऐसे लेखों की कमी नहीं है जिनमें लेखक पूर्वाग्रह अथवा पूर्व निष्पत्ति के साथ लिखना आरंभ करता है. अपने मत के समर्थन में जो भी तर्क जंचते हैं उन्हें सामने रखता जाता है. मगर पूर्वाग्रहों के दबाव में उस सामग्री की वस्तुनिष्ट समीक्षा करना भूल जाता है, जिसे उसने अपने मत के समर्थन में बतौर उद्धरण प्रयुक्त किया है. विचाराधीन आलेखों में से पहले में भारतीय संदर्भ अधिक हैं तो दूसरे में पाश्चात्य विद्वानों को अपने समर्थन में दिखाने की कोशिश की गई है.

 विज्ञान संदेह के साथ शुरू होता तथा उसी के साथ आगे बढ़ता है. उसमें ठहराव की स्थिति कभी नहीं आती. किसी वैज्ञानिक सत्य पर भरोसा करने से पहले प्रत्येक को उसे जांचने-परखने तथा प्रयोगों की कसौटी पर कसने की छूट प्राप्त होती है. ईश्वर एवं मानवीय आस्था के बीच विज्ञान को न लाएं तो भी उसके अस्तित्व पर संदेह एवं तदनुरूप उठनेवाली बहस नई नहीं है. भारत में भी ढाई-तीन हजार वर्षों से यह बहस लगातार चली आ रही है. वैदिक काल में ईश्वरवादी धारणा का खंडन करने वाले आजीवक और लोकायती संप्रदाय थे. वहीं आस्थावादियों के समर्थन में वैदिक धर्म की अनेक शाखाएं थीं. दर्शन की दृष्टि से वह भारतीय मेधा का सबसे प्रस्फुटनकारी दौर था. उसी दौर में वेदों को आप्त-ग्रंथ की संज्ञा दी गई. उन्हें दैवी उपहार माना गया. श्रद्धालु आचार्यों का एक वर्ग ‘आस्तिक’ बनाम ‘नास्तिक’ की बहस में वेदों को आप्तग्रंथ मनवाने जुटा रहा. बावजूद इसके नास्तिक दर्शनों की प्रतिष्ठा उतनी ही बनी रही, जितनी आस्तिक दर्शनों की थी. विचारों के उस लोकतंत्र ने सांख्य जैसे निरीश्वरवादी दर्शन को जगह थी तो कर्मकांड प्रधान मीमांसा दर्शन को भी. वैदिक धर्मों के विचलन के दौर में उभरे जैन और बौद्ध दर्शन ने ‘आत्मा’ और ‘ईश्वर’ पर केंद्रित बहसों में उलझने के बजाए मनुष्य के आचरण को महत्त्वपूर्ण माना. उन्होंने सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह आदि पर जोर देकर नैतिक एवं समाजोन्मुखी, जीवन जीने का आवाह्न किया. मानो सभ्यताओं के तार आपस में जुड़े हुए थे. लगभग उन्हीं दिनों भारत से हजारों मील दूर यूनान में भी कुछ वैसा ही हुआ. ईसा पूर्व छठी शताब्दी में वहां सुकरात, प्लेटो, जीनोफेन जैसे विचारकों ने अभिजन संस्कृति का पोषण करने वाले परंपरावादी सोफिस्टों को चुनौती दी. सुकरात ने ईश्वर को शुभ का पर्याय माना तथा उसकी प्राप्ति के लिए सद्गुण और सदाचरण पर जोर दिया. गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, सुकरात, कन्फ्यूशियस, प्लेटो जैसे दार्शनिकों का नैतिक प्रभामंडल इतना तेजोमय था कि उसका प्रभाव शताब्दियों तक बना रहा. आज भी ईसा से तीन से छह शताब्दी पूर्व का वह समय विश्व-इतिहास में बौद्धिक क्रांति का सफलतम दौर माना जाता है. आगे चलकर जितने भी राजनीतिक-सामाजिक दर्शन सामने आए, वे भी जो विश्व-परिदृश्य में परिवर्तन के वाहक बने, सभी की नींव इस दौर में पड़ चुकी थी.

विद्वान लेखकों द्वारा दिए गए तर्कों में प्रत्येक पर स्वतंत्र रूप से चर्चा संभव है. तथापि इस लेख की सीमा को ध्यान में रखते हुए मैं केवल स्टीफन डी. अनविन के उद्धरण की ओर दिलाना चाहूंगा. स्टीफन अनविन ने विशेषरूप से पुस्तक लिख, ‘ईश्वर के पक्ष-विपक्ष में आंकड़े जुटाकर ईश्वर के होने की प्रायिकता 67 प्रतिशत’ सिद्ध की है.’ मैंने वह पुस्तक नहीं पढ़ी है, किंतु उसपर पर्याप्त समालोचनात्मक सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध है. इस आलेख में आए गणितीय संदर्भ वहीं से लिए गए हैं. मेरी कोशिश उसी को आगे बढ़ाने की है, ताकि अनविन द्वारा प्राकलित ईश्वर की 67% प्रायिकता का सच पाठकों के सामने आ सके. अनविन भौतिक विज्ञानी हैं. डा॓क्ट्रेट उन्होंने सैद्धांतिकी भौतिकी की शाखा ‘क्वांटम गुरुत्च’ में की है. प्रसंगवश बता दें कि यह विज्ञान की वही शाखा है जिसके अंतर्गत आजकल विश्व-प्रसिद्ध ‘लार्ज हैड्रा॓न कोलीडर’ नाम का दीर्घकालिक और महत्त्वाकांक्षी प्रयोग चल रहा है. उससे जुड़े वैज्ञानिकों ने द्रव्यमान का कारण कहे जानेवाले मूलकण यानी ‘हिग्स बोसोन’ की खोज का दावा किया, जिसे वस्तुओं में भारता के लिए जिम्मेदार माना जाता है. विज्ञान की चुनौतियों के आगे लड़खड़ा रहे आस्थावादी यहां भी क्यों चूकने वाले थे. वैज्ञानिक अपने प्रयोग के आरंभिक निष्कर्षों के पुनरीक्षण में जुटे ही थे कि आस्थावादियों ने उसे तुरत-फुरत ‘गॉड पार्टिकिल’ का नाम दे दिया. जिसका हिग्स बोसोन की खोज में जुटी प्रयोगशाला सर्न के वैज्ञानिकों ने जोरदार विरोध किया. प्रयोगशाला से जुड़े वरिष्ठ अमेरिकी वैज्ञानिक पोलीन गा॓नन से 2011 में यूरोप के रेडियो पत्रकार ने जिनेवा में एक साक्षात्कार के दौरान जब कहा, ‘मैं मीडिया से हूं और मैं उसे यही(गॉड पार्टिकिल) कहता रहूंगा.’ तब गा॓नन का जवाब था, ‘यह सब आप ही का दिया गया नाम है….मैं इससे घृणा करता हूं.’ वैज्ञानिकों के न चाहने के बावजूद हिग्स बोसोन को ‘गॉड पार्टिकिल’ कहने का षड्यंत्र आज भी चल रहा है. षड्यंत्र इसलिए क्योंकि धर्मसत्ता, राजसत्ता, अर्थसत्ता और उनसे पालित-पोषित मीडिया में से कोई नहीं चाहता कि जनता विज्ञान को विज्ञान की तरह जाने. उसका विवेकीकरण हो. इसलिए वैज्ञानिक शोधों को तत्काल अपने पाले में खींच लेने, उनका तेज कम करने तथा उनसे लाभ उठाने की प्रवृत्ति प्रायः सभी समाजों में रही है. इससे धर्मग्रंथों का मूल संदेश गंडे-ताबीजों में कैद होकर रह जाता है. कंप्यूटर जन्मपत्री बनाने लगता है और टेलीविजन पर बाबा लोग भविष्य सुधारने का धंधा करने लगते हैं.

अनविन संयुक्त राष्ट्र के ऊर्जा विभाग के दूत रह चुके है. आजकल वे एक सलाहकार फर्म का संचालन करते हैं, जिसका काम विश्व की नामी-गिरामी पूंजीपति कंपनियों को आपदा प्रबंधन के मामले में सलाह देना है. अनविन की एक चर्चित पुस्तक The Probability of God: A Simple Calculation That Proves the Ultimate Truth. 2003 का उल्लेख चतुर्वेदी जी ने अपने आलेख में किया है. यह उनकी अध्ययनशीलता को दर्शाता है. अपनी पुस्तक में अनविन ने ईश्वर के अस्तित्व की संभाव्यता को गणित के माध्यम से सिद्ध किया है. इस निष्कर्ष में उनके व्यावसायिक स्वार्थ छिपे होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता. आपदा को ईश्वरीय कर्म सिद्ध कर देने से प्रबंधकीय कौशल पर लगनेवाले आरोप कम हो जाते हैं. शायद इसलिए वे ईश्वर के विचार को उसी प्रकार जीवित रखना चाहते हैं, जैसे अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए ज्योतिषी प्रारब्ध की संकल्पना को ऊल-जुलूल तर्क देकर पालता-पोषता है. हालांकि अनविन ने स्पष्ट किया है कि उन्होंने जो समीकरण दिए हैं, वे आवश्यक नहीं कि पूरी तरह खरे, अंतिम सत्य हों. वे केवल एक पक्ष यानी उस पक्ष को जो ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखता है, अपनी बात को और अच्छी तरह स्पष्ट करने के लिए कुछ उपकरण उपलब्ध करा रहे हैं. वे यह भी लिखते हैं कि ईश्वर विषयक विज्ञान की सभी मान्यताएं अधूरी हैं. अर्थात जिन संकल्पनाओं पर चलते हुए अनविन ईश्वरत्व की संभावना को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 67 प्रतिशत तक आंकते हैं, दूसरा उन्हीं संकल्पनाओं को अपनी तरह से प्रस्तुत कर, उनसे नए निष्कर्ष निकाल सकता है. वे भी गणितीय मापदंड पर उतने ही खरे उतरेंगे, जितने स्वयं अनविन के. कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसा हुआ है. उसकी चर्चा हम यथास्थान करेंगे. कुल मिलाकर मामला वहां भी आस्था का और आस्थावादियों के लिए है, गणित का नहीं.

अब बात उस गणित की जिसके आधार पर अनविन ने ईश्वर की प्रायिकता को कथितरूप से 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 67 प्रतिशत कर दिया है. पहले तो यह जान लें कि अनविन ईश्वर की 50 प्रतिशत संभाव्यता तक किस प्रकार पहुंचे हैं. इसके लिए उन्होंने न तो कोई सर्वे किया है, जो सांख्यिकी का मूल कर्म है, न ही किसी और माध्यम से आंकड़े जमा किए हैं. केवल काम-चलाऊ प्रतीतियों के सहारे अपने मंतव्य को गढ़ा है. यह साधारण से साधारण व्यक्ति भी जानता है कि ईश्वर को लेकर दो प्रकार की संभावनाएं बनती हैं. पहली, ईश्वर हो सकता है. और दूसरी ईश्वर नहीं हो सकता. इस तरह ईश्वर के होने या न होने की मूल प्रायिकता बराबर-बराबर अर्थात पचास प्रतिशत है. सिवाय संभाव्यता के अलावा इसके पीछे कोई और तर्क नहीं है. एक तरह से यह अनविन की मजबूरी भी थी. क्योंकि प्रायिकता को बढ़ाने के अनविन जिस गणितीय सूत्र का सहारा लेता है, वह सांख्यिकी-विद् रेवरेंड थामस बा॓यस का है. वह सूत्र तभी काम कर सकता है जब उसके लिए आधार अथवा प्राथमिक संभाव्यता मौजूद हो. इसलिए उन लोगों के लिए जो ईश्वर की संभावना को शून्य अथवा नगण्य मानते हैं, यह सूत्र और प्रकारांतर में अनविन के निष्कर्ष, किसी काम के नहीं हैं. उल्लेखनीय है कि जब कोई गणितज्ञ सांख्यिकीय आकलन करता है तो उसके आंकड़े किसी न किसी रूप में समाज से, अथवा किसी वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा ठोस परिगणनाओं के आधार पर जुटाए गए होते हैं. वे किसी व्यक्ति-विशेष के बारे में सत्य भले ही न हों, मगर वास्तविकता का एक सामान्य चित्र हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं, जो सामाजिक अध्ययन में बहुत कारगर सिद्ध होते हैं. उससे प्राप्त निष्कर्ष किसी न किसी सामाजिक यथार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं. आगे बढ़ने से पहले बा॓यस के सूत्र के बारे में जान लेना आवश्यक है. इसके लिए पहले कुछ उदाहरण—

मान लीजिए एक घर है. जिसका दरवाजा खुला हुआ है. एक आदमी उस घर में घुसता है. उसको किसी ने बाहर आते हुए नहीं देखा. तब उस व्यक्ति की, जब तक कोई और साक्ष्य न हो, घर में होने तथा न होने की संभावना बराबर-बराबर यानी पचास प्रतिशत होगी. सूत्र के गणितीय हिस्से पर आने से पहले एक और स्थिति. मान लीजिए एक व्यक्ति हर रोज घर में कुछ न कुछ फल लेकर अवश्य आता है. परिवार में दो बच्चे हैं. उनमें एक को केला पसंद हैं, दूसरे को अनार. व्यक्ति दोनों का मन रखने के लिए एक दिन केले लेकर आता है, दूसरे दिन अनार. इस तरह उसके किसी एक दिन केला या अनार लाने की संभावना 0.5 अर्थात 50 प्रतिशत होगी. पापा केला लाएंगे या अनार, यह बात बच्चे भी जानते हैं. एक दिन भाई-बहन छत पर थे कि पापा को हाथ में थैला लिए आते देखा. दोनों बच्चे बहस करने लगे—

‘आज पापा केला लाए हैं.’

‘नहीं अनार.’

‘पापा का फोन आया था, उस समय वे केले वाले के पास खड़े थे.’

‘तो क्या हुआ, जरूरी थोड़े ही पापा केले वाले के पास से केला लेकर ही आएं. वे केला बेचनेवाले से मना करके अनार वाले के पास भी जा सकते हैं.’

‘पापा जिस ठेली के पास खडे़ होते हैं, वहीं से फल खरीद लेते हैं.’

‘हमेशा ऐसा नहीं होता. एक बार मैंने स्वयं पापा को केले वाले को छोड़ अनारवाले के पास जाते हुए देखा था.’

अब मान लीजिए जहां से उन बच्चों के पिता फल खरीदते हैं, वहां केवल दो फलवाले खड़े होते हैं. उनमें से एक अनार बेचता है और दूसरा केला, तो जो बच्चा अपने पक्ष में अतिरिक्त तर्क दे पाएगा, उस दिन उस फल को लाने की संभावना उतनी ही बढ़ जाएगी. अनविन का 50 प्रतिशत वाला विचार यही कहता है. मान लीजिए लोगों से पूछा जाए कि ईश्वर है? कुछ लोग कहेंगे—‘हां’, कुछ कहेंगे—‘नहीं.’ जरूरत इस कवायद की भी नहीं है. आप एक सिक्का लीजिए, उछालिए. हेड और टेल आने की प्रायिकता बराबर होगी. अनविन ईश्वर न होने की संभावना को किनारे कर, शेष पचास प्रतिशत को उसके पक्ष में प्रमाण मान लेता है. यही उसके अनुसार ईश्वर की आधार प्रायिकता है. इस 50 प्रतिशत को 67 प्रतिशत तक पहुंचाने के लिए वह आगे भी ऐसी ही पूर्वापेक्षाओं का सहारा लेता है. जबकि बायस संभावनाओं की पड़ताल के लिए स्थितिजन्य साक्ष्य प्रस्तुत करता है. ठीक ऐसे ही जैसे कोई चतुर पुलिस अधिकारी किसी घटना की पड़ताल करता है.

कल्पना कीजिए प्लेटफार्म पर उतरता हुआ कोई आदमी चलती ट्रेन में खिड़की के बराबर बैठे एक पुरुष को अपने सहयात्री से बातचीत करते हुए देखता है. इससे पहले कि वह दूसरे व्यक्ति को पहचान पाए कि वह स्त्री है अथवा पुरुष, ट्रेन आगे बढ़ जाती है. दृष्टा इतना तो जान चुका है कि खिड़की के बराबर में बैठा यात्री पुरुष था. लेकिन जिससे वह बात कर रहा था, वह पुरुष भी हो सकता है, स्त्री भी. उसके स्त्री अथवा पुरुष होने की प्रायिकता बराबर, अर्थात पचास प्रतिशत होगी. अब यदि कोई तीसरा व्यक्ति दृष्टा से उन यात्रियों के बारे में पड़ताल करना चाहे तो उनकी बातचीत कुछ इस प्रकार होगी—

‘अच्छी तरह याद करके बताओ, दूसरा व्यक्ति पुरुष था अथवा स्त्री?’

‘मुझे याद नहीं आ रहा.’

‘ठीक है, दिमाग पर जोर डालो, याद करने की कोशिश करो. तुमने उसके बाल तो देखे ही होंगे. वे लंबे था या छोटे?’ पड़ताल कर रहा व्यक्ति अपनी तकनीक आजमाता है. जांचकर्ता का तर्क उसके ठोस अनुभवों पर आधारित है.

‘लंबे.’ दृष्टा को याद आता है. जांच करने वाला जानता है कि सामान्यतः स्त्रियां लंबे बाल रखती हैं. लेकिन सभी स्त्रियां बाल नहीं रखतीं. औसतन कितनी स्त्रियां लंबे बाल रखती हैं, इसके आंकड़े उसके पास हैं. यदि नहीं तो जुटाए जा सकते हैं. वह प्राप्त आंकड़ों से मिलान करके देखता है. लंबे बाल रखनेवाले हर चार व्यक्तियों में से आमतौर पर एक पुरुष होता है, तीन स्त्रियां. वह हिसाब लगाता है. उसके अनुसार जिस व्यक्ति से वह बातचीत कर रहा था उसके स्त्री होने की संभावना चार में से तीन, यानी 75 प्रतिशत है. प्रायिकता को बढ़ाने के लिए जांचकर्ता कुछ और सवाल कर सकता है. जैसे क्या उसने हाथ रचाए हुए थे? ऐसे साक्ष्यों के साथ प्रायिकता में आनुपातिक रूप से वृद्धि अथवा कमी आती जाएगी. बा॓यस के सूत्र का यही आधार है. इसी को विस्तार देते हुए वह स्थिति-विशेष के समर्थन में साक्ष्य जुटाता है और विशुद्ध गणितीय पद्धति का अनुपालन करते हुए सामान्य निष्कर्ष तक पहुंचता है.

बा॓यस के अनुसार यदि हम मान लें कि बातचीत स्त्री ‘स’ के साथ हो रही थी, तब यह मानते हुए कि समाज में स्त्री-पुरुष की संख्या लगभग बराबर है, बगैर किसी गहराई में जाए मान सकते हैं कि सहयात्री के स्त्री होने की प्राथमिक संभाव्यता सप्रथम= 0.5 होगी. जिसका आशय है कि पुरुष की बगल में बैठे सहयात्री के स्त्री अथवा पुरुष होने की संभावना बराबर-बराबर है. यदि यह मान लिया जाए कि उस सहयात्री के बाल लंबे थे और आंकड़ों से यह सिद्ध हो कि प्रत्येक चार स्त्रियों में से तीन(75 प्रतिशत) लंबे बाल रखती हैं तो बा॓यस के अनुसार लंबे बालों के आधार पर पुरुष के सहयात्री के, स्त्री होने की संभावना सलंब/म = 0.75 होगी. इसे बायस ने सशर्त प्रायिकता कहा है. अर्थात वह प्रायिकता जो घटना के लक्षणों तथा उपलब्ध साक्ष्यों के आधार से तय होती है. ऐसे ही जैसे मान लीजिए कि 25 प्रतिशत पुरुष लंबे बाल रखते हैं तो उपर्युक्त घटना में सहयात्री के लंबे बालों के आधार पर पुरुष होने की संभावना स/पु= 0.25 होगी. यहां यह मान लिया गया है कि बातचीत केवल स्त्री अथवा पुरुष के साथ हो रही थी, अन्य किसी प्राणी के साथ नहीं. बायस इससे अंतिम संभाव्यता अथवा कुल लाक्षणिक संभाव्यता को जानना चाहता है. इसके लिए वह निम्नलिखित सूत्र देता है—

                                                   सप्रथम x   सलंब/म

                     सअंतिम       =         ……………………….

                                                            स

                                                                     (स = कुल संभाव्यता)

                                                     सप्रथम x   सलंब/म

                                =       …………………………………………

                                             सप्रथम x   सलंब/म +   सप्रथम x स/पु

                                                0.75 x 0.50                        0.375

                                =   …………………………………… =     …………….

                                           0.50 x 0.75 + 0.50 x 0.25         0.500

                                                                                     = 75 % लगभग

इस तरह लंबे बाल के साक्ष्य के आधार पर उपर्युक्त उदाहरण में सहयात्री के स्त्री होने की संभावना 50% से बढ़कर 75% हो जाती है. साक्ष्यों की संख्या तथा उनकी कोटि का प्रभाव संभाव्यता के स्तर पर पड़ता है. डा॓क्टर रोगी से तथा पुलिस मुजरिम से जांच-पड़ताल के दौरान इसी तरह संभाव्यता को आगे बढ़ाती जाती है. अनविन उसी सूत्र को ईश्वर की संभाव्यता पुष्ट करने के लिए अपनाता है. बा॓यस के सूत्र को ईश्वर की परिगणना के लिए आधार बनाते समय अनविन यह दावा कतई नहीं करता कि उसने जो सूत्र दिया है, उससे सभी सहमत होंगे. वह स्वयं मानता है कि विज्ञान और गणित के माध्यम से ईश्वर की संभाव्यता को सिद्ध करना बहुत मुश्किल भरा काम है. उसका बस इतना दावा है कि वे लोग जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं, उसके तथाकथित गणितीय सूत्र का सहारा लेकर अपने मत को बेहतर ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं. वह जानता है कि उसके निष्कर्षों से लोग अपनी मान्यताएं बदलने को राजी नहीं होंगे. इसलिए अपने बचाव हेतु वह पर्याप्त संभावनाएं पहले ही सोच कर चलता है. कहने की आवश्यकता नहीं कि ईश्वरवादियों को अनविन के तर्क अपनी आस्था के प्रति चमत्कारी समर्थन प्रतीत होते हैं. ईश्वर की आधार-संभावना(सपूर्व = 50 प्रतिशत) तय कर लेने के पश्चात, बा॓यस के सूत्र में किंचित संशोधन के साथ वह अपना सूत्र प्रस्तुत करता है. निष्कर्ष संभाव्यता(सपश्चात) तक पहुंचने के लिए अनविन द्वारा प्रयुक्त सूत्र निम्नवत है—

                                                               सपूर्व x द

                सपश्चात            =                  ………………………….

                                                                सपूर्व x द + 1—सपूर्व

अनविन के अनुसार ‘द’ दिव्यता सूचकांक है. वह अपने दिव्यता सूचकांक को अलग-अलग अंक देकर गणना करता है. वे अंक भी अनविन द्वारा प्राकल्पित हैं. अलग-अलग स्थितियों के अनुरूप अनविन द्वारा प्रकल्पित दिव्यता सूचकांक निम्नलिखित हैं—

  1. पहली स्थिति में यह मानते हुए कि ईश्वर है और अकाट्य रूप से है, उसके विरोध के समस्त तर्कों को नकारते तथा पक्ष की प्रत्येक संभावना को स्वीकारते हुए वह दिव्यता सूचकांक ‘द’ को उच्चतम 10 अंक देता है. इससे वह दर्शाना चाहता है कि ईश्वर है और दस बार है.

2 दूसरी गणना के लिए वह यह मानते हुए कि ईश्वर है, एक नहीं दो बार है, वह दिव्यता सूचकांक ‘द’ को 2 अंक देता है.

  1. तीसरी गणना में वह दिव्यता सूचकांक को केवल 1 अंक देता है. इसका आशय है कि ईश्वर हो भी सकता है, नहीं भी.
  2. चौथी परिकल्पना में इस संभावना को मानते हुए कि ईश्वर नहीं है, वह दिव्यता सूचकांक को मात्र 0.5 अंक देता है.
  3. पांचवी स्थिति में वह दिव्यता सूचकांक ‘द’ को 0.01 अंक देता है. उस संभावना को और बढ़ा लेता है, जो मानती है कि ईश्वर नहीं है.

दिव्यता सूचकांक को तय करने का अनविन का अलग मापदंड हैं. सांख्यिकी आंकड़ों के साथ साक्ष्य पर भी विश्वास करती है, जबकि अनविन के यहां ऐसा कुछ भी नहीं है. दिव्यता सूचकांक के अलग-अलग निर्धारण हेतु वह पुनः प्रतिज्ञप्तियों की कल्पना करता है. जाहिर है ये प्रतिज्ञप्तियां आस्था के आधार गढ़े गए उसके छह भिन्न स्तर हैं—

  1. शुभत्व(द=10): अंकों के आधार पर यदि ध्यान से देखा जाए तो शेष संभावनाओं के मुकाबले यह शक्तिशाली संभावना है. कम से काम तुलनात्मक अंकों के आधार पर. यह कुछ ऐसा ही है कि तराजू के एक पलड़े में एक भारी-भरकम पत्थर तथा दूसरे में बिल्ली, खरगोश, चूहा, बकरी, बंदर को एक साथ चढ़ाकर यह निष्कर्ष निकाल लिया जाए कि वह पत्थर जंगल के सभी जानवरों से अधिक वजनदार है.
  2. सामान्य बुराइयां: यानी ऐसी बुराइयां जिनका होना समाज की विकास प्रक्रिया को गति देने के लिए आवश्यक है(द=0.5).
  3. प्राकृतिक बुराइयां : जैसे जंगलराज की स्थिति, महामारी आदि. जंगल में शक्तिशाली प्राणी अपने से छोटे प्राणी को खा जाता है. महामारी से मासूम बच्चे तक चल बसते हैं. यह नैतिकता की दृष्टि में अपराध है. यद्यपि जंगल में उत्तरजीविता के नियम के चलते यह स्वाभाविक अवस्था है. अनविन इसके लिए दिव्यता सूचकांक को 0.1 अंक देता है.
  4. आध्यात्मिक अनुभूतियां/अंतःप्राकृतिक चमत्कार : जैसे पूजा-पाठ, प्रार्थना, अंतरानुभूति आदि. जिससे मनुष्य को अपने अंतर्मन में झांकने से शांति की अनुभूति होती है(द=2).
  5. धार्मिक अनुभूतियां : स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देने के बाद इस प्रकार की अनुभूतियां कथित रूप से साधक को होती रहती हैं. अनविन इसे भी 2 अंक देता है.
  6. पुनर्जीवन /पराभौतिक चमत्कार : धर्म की नींव मृत्यु पश्चात सुख की लालसा पर टिकी हुई है. अधिकांश धर्मों में माना गया है कि मनुष्य मरने के बाद पुनः जन्म लेता है. इस चमत्कारपूर्ण धारण को अनविन अपने दिव्यता सूचक पैमाने पर मात्र 1 अंक देता है.

उपर्युक्त दिव्यता सूचकांकों को वह अपने सूत्र अलग-अलग रखकर गणना करता है. तदनुसार—‘ईश्वर के होने की प्रायिकता 67 प्रतिशत सिद्ध होती है.’ आगे वह जोर देकर कहता है, ‘यह संख्या व्यक्तिपरक है. इसलिए कि यह मेरे निजी साक्ष्यों के आकलन पर आधारित है.’ उदारता का प्रदर्शन करते हुए वह कहता है कि सूचकांकों को प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने हिसाब से आकलित कर सकते हैं. मगर उस अवस्था में अनविन का सूत्र लड़खड़ा जाता है. ‘साइंटिफिक अमेरिकन’ पत्रिका के जुलाई 2004 अंक में प्रकाशित एक आलेख में Skeptic के प्रकाशक मिशेल शर्मर अनविन के दिव्यता सूचकांकों को 1 से 10 अंक अपनी ओर से देते हैं. फिर उसी सूत्र के आधार पर ईश्वर की संभाव्यता का आकलन करते हैं, तो वह घटकर मात्र 2 प्रतिशत रह जाती है. एक अन्य गणना का उल्लेख पुस्तक की आलोचना के दौरान बा॓ब सीडेंस्टकर ने अपने लेख ‘कंप्यूटिंग दि प्रोबेबिलिटी आ॓फ गा॓ड’ में किया है. बा॓ब अनविन के दिव्यता सूचकांक में जैसे ही ऐच्छिक मान रखता है, ईश्वर की संभाव्यता और भी घटकर नगण्य(10—16) तक रह जाती है.

स्पष्ट है कि अनविन का आकलन उसकी व्यक्तिगत धारणा की अभिव्यक्ति है. हालांकि उसने कभी दावा नहीं किया कि वह ईश्वर को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित कर रहा है. और कोई भी उसको जांचकर वैसे ही निष्कर्ष पर पहुंच सकता है, जैसा कि दूसरे वैज्ञानिक प्रयोगों में होता है. इस पुस्तक को एक-दो को छोड़कर अधिकांश आलोचकों ने मजाक के रूप में लिया है. उनके अनुसार यह पुस्तक गणित के लिए पढ़ी जा सकती है, मनोरंजन के लिए पढ़ी जा सकती है, यदि आप ईश्वर के अस्तित्व पर भरोसा करते हैं, तब थोड़ी-बहुत तसल्ली के लिए पढ़ी जा सकती है. लेकिन यदि आप किसी दार्शनिक समस्या का समाधान इससे चाहते हैं, तब वह व्यर्थ की कवायद सिद्ध होगी. पुस्तक के समीक्षकों में से एक हेमंत मेहता लिखते हैं—‘पढ़ने में मजेदार. वैचारिकी का आश्चर्यजनक प्रयोग….अनविन को ऐसे लोगों की ओर खड़ा कर देता है, जिनका गणित से कोई वास्ता नहीं है.’ अनविन अपनी धारणाओं को लादने के लिए गणित का सहारा लेता है, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर बच निकलने का रास्ता भी तैयार रखता है. यह कोशिश कृति को मनोरंजक प्रयोग से आगे नहीं बढ़ने देती. बा॓यस के सूत्र का उपयोग चिकित्सा से लेकर अपराध-जांच तक कहीं भी किया जा सकता है, जहां प्रायिकता को बढ़ाने के लिए ठोस साक्ष्य उपलब्ध हों. जबकि अनविन के दिव्यता सूचकांक का कोई तार्किक आधार नहीं है. वह केवल उसकी मनोरचना है, जिसे उसने बेहिचक स्वीकारा भी है. उल्लेखनीय है कि विज्ञान को धर्म से जोड़ने अथवा धर्म और विज्ञान का साम्य दिखाने की कोशिश करनेवाले अनविन अकेले नहीं हैं. इस विषय पर पिछली दशाब्दियों में और भी पुस्तकें आई हैं. उनमें स्टीवन ब्रम्स की ‘सुपीरियर बीईंग्स : इफ दे एक्जिस्ट’, रिचर्ड दाकिन की ‘दि गार्ड डिल्यूजन’ आदि प्रमुख हैं. इनमें किसी न किसी प्रकार ईश्वर के विचार को विज्ञान से जोड़ने की असफल कोशिश की गई है.

अनविन के इस आत्मपरक लेखन के कई सामाजिक पहलु भी हैं. दिव्यता सूचकांक में शुभता को ईश्वर में स्थापित करना मनुष्यता के रास्ते अवरुद्ध करने जैसा है. आज हम पूंजीवादी अर्थतंत्र पर आरोप लगाते हैं कि उसने मनुष्य को भौतिकवादी बना दिया है. इतना स्वार्थी बना दिया है कि मनुष्य को सिवाय अपने सुख के, भोग और स्वार्थ-लिप्सा के कुछ भी नजर नहीं आता. इसी आधार पर अपसंस्कृतिकरण का रोना भी रोया जाता है. उस समय हम भूल जाते हैं कि जिसे हम बाजारवाद की देन बताते हैं, वैसी स्वार्थपरता, अकेले-अकेले सुख पाने की कामना का उपदेश तो धर्म सहस्राब्दियों से देता आया है. धर्म की ओर प्रवृत्त करने के लिए गुरु आमतौर पर अपने शिष्यों को समझाता है—‘यह संसार माया है. इसमें कोई भी तुम्हारा अपना नहीं है. भाई, बहन, पत्नी, माता-पिता, सभी से तुम्हारा स्वार्थ का नाता है. वे भी तुमसे स्वार्थ से बंधे हैं. कोई तुम्हारा साथ नहीं देने वाला. इसलिए यदि स्वर्ग का सुख पाना है, तो इस मोह-ममता को त्याग कर परमात्मा की शरण में आ.’ थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ गीता में कृष्ण ने यही कहा है. गीता निष्काम कर्म का संदेश देकर उसे संतुलित करने का प्रयास करती है. केवल अपने लिए सुख-समृद्धि और स्वर्ग की कामना, अनेक बार मनुष्य को सामाजिक दायित्वों की ओर से उदासीन बनाकर, घोर स्वार्थी आचरण की ओर प्रवृत्त कर देती है. दूसरे केवल अपने सुख की कामना तथा स्वार्थसिद्धि के लिए काम करना, सामाजिक नैतिकता को बिसार देना है. यह भुला देना है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है. भले ही वह समाज में अपने सुख और सुरक्षा के लिए शामिल हुआ हो, समाज के प्रति उसकी भी पर्याप्त जिम्मेदारियां हैं. प्रकट में प्रत्येक धर्म अपने माता-पिता, पड़ोसी, मित्र-सखा के प्रति उदारतापूर्वक पेश आने की सलाह देता है. लेकिन मोक्ष एवं कल्याण के नाम पर वही धर्म संसार को माया और विभ्रम बताकर मनुष्य को ऐसी अंध-स्पर्धा से जोड़ देता है, जिसकी अति उसे सामाजिक कर्तव्यों की ओर से उदासीन बनाती है. इसलिए हम देखते हैं कि भारत जैसे समाजों जहां सामान्य नैतिकता को भी धर्म के भरोसे छोड़ दिया जाता है, नागरिकबोध बहुत कम होता है. पूरा समाज एक भीड़ के आचरण को अपने स्वभाव का हिस्सा बना लेता है.

फिर एक अवैज्ञानिक कार्य को विज्ञान जितना महत्त्व दिए जाने का कारण? दरअसल, आस्तिक को उतना डर धर्म, ईश्वर या पापकर्म से नहीं लगता, जितना नास्तिक से लगता है. उस विचार से लगता है, जो ईश्वर को नकारता है. इसलिए जब भी वह किसी नास्तिक को देखता है, नकलीपन का एहसास उसे कचोटने लगता है. वह उसे बार-बार उकसाता है—‘अरे! यह ईश्वर को नहीं मानता! अगर नहीं मानता तो जीवित कैसे है?’ सामंती समाजों के देवता और भी बड़े सामंत होते हैं. देवत्व की अवमानना करने, यहां तक कि प्रसाद तक न खाने अथवा प्रसाद लेकर उसको खाना भूल जाने से भी उनकी त्योरियां चढ़ जाती हैं. आस्तिक यही सोचकर हैरान होता है कि ऐसे कोपवंत देवताओं के चलते उनके अस्तित्व को नकारनेवाला धरती पर सुरक्षित कैसे है? जरूर वह दिखावा करता है. अगर यह सचमुच ईश्वर को नकारता है तब तो ईश्वर का कोप उसे सताएगा ही. उस समय मैं भी इसका साथी न मान लिया जाऊं? ऐसे न जाने कितने अनजाने भय उस व्यक्ति को घेर लेते हैं. पक्ष में दिखने के लिए वह ईश्वर पर सवाल उठाने की संभावना को ही धिक्कारने लगता है. फिर चाहे कोई कितना ही कहे कि वह नास्तिक है—वह विश्वास ही नहीं करता. लोग यह मानने को तैयार ही नहीं होते कि नास्तिक होना भी भारतीय दर्शन-परंपरा का हिस्सा है. उस समय सौ में से अस्सी का एक ही जवाब होता है—‘हं…हं! नास्तिक में भी तो अस्तिः(नः+अस्तिः) छिपा हुआ है. उस समय कोई लाख तर्क दे कि ‘‘भइया, ‘अस्तिः’ को नकारने के लिए ही ‘नः’ उपसर्ग लगाया गया है.’’—बात उनके गले नहीं उतरती. जिद पर कायम रहने के लिए ईश्वरवादियों के रटे-रटाए तर्क होते हैं. उनके दिमाग की सुई हजार-दो-हजार साल पहले के समय पर अटकी होती है, जब साम्राज्यवादी लालसा में दर्शन का धार्मिकीकरण कर मनुष्य के सहजबोध को उससे बांध दिया गया था.

ईश्वरवादियों का दूसरा तर्क होता है, इस दुनिया को किसी ने तो बनाया है! वही शक्ति ईश्वर है. फिर ईश्वर को किसने बनाया है? ईश्वर को भला कौन बनाएगा? वह तो अनादि-अनंत और सर्वशक्तिमान है. यही बात हम इस सृष्टि के लिए कहें तो? कार्य-कारण का उनका नियम ईश्वर तक जाकर ठहर जाता है. उससे पीछे ले जाने में उनके पसीने छूटने लगते हैं. यदि उनपर जोर डाला जाए, कहा जाए कि यदि ईश्वर अनादि-अनंत हो सकता है तो सृष्टि क्यों नहीं? यदि ब्रह्मांड का विस्तार ही कल्पनातीत है तब उसके कथित निर्माता की कल्पना कैसे संभव है? उस समय बहस से कन्नी काटते हुए वे सृष्टि को ही ईश्वर मान लेंगे. यानी चिपके अपनी बात से रहेंगे. डरे हुए लोग ठहरे. उनका डर उनके किस पापबोध की परिणति है, वे जानें. विज्ञान और धर्म के रास्ते एकदम अलग हैं. विज्ञान संदेह का रास्ता है. ईश्वर आस्था का मसला. दिमाग की सुई एक जगह ठहर जाए, तब आदमी धार्मिक कहलाता है. उदाहरण के लिए इन दिनों भारत की ओर से भेजा गया मंगलयान रास्ते में है. सब कुछ ठीक ठाक रहा तो अगले कुछ दिनों में मंगल की कक्षा में होगा. मान लीजिए उस यान को किसी सुदूर ग्रह पर बैठा ऐसा व्यक्ति देखे जिसके दिमाग की सुई रामायण काल पर अटकी हुई है तो वह यही कहेगा—देखों धरती से फेंगी गई पवनपुत्र हनुमान की गदा आसमान में उड़ रही है.’ ऐसे ही दूसरा व्यक्ति जो किसी कारणवश महाभारत युग पर अटका हुआ है, उसे भीम की गदा बताएगा. इसे आप मजाक की तरह भी ले सकते हैं. लेकिन अशोक की लाट को भीम की गदा बतानेवाले लोग भी इसी देश-समाज में होते आए हैं.

अतिप्राचीन समाजों में धर्म की चाहे जो प्रासंगिकता रही हो, आज वह सामाजिक भेदभाव और ऊंच-नीच का कदाचित सबसे बड़ा मददगार है. शीर्षस्थ वर्गों के साम्राज्यवादी मंसूबों ने धर्म को राजनीति और समाज में प्रासंगिक बनाए रखा. करीब ढाई-तीन हजार वर्ष पहले यह महसूस किया जाने लगा था कि छोटे-छोटे राज्यों से काम नहीं चलनेवाला. हमलावर दुश्मनों से सुरक्षा के लिए बड़ी ताकत बनना होगा. ऐसे में धर्म ने आसंजक और संसजक दोनों का काम किया. इस अवधि में कुछ अच्छे परिणाम भी धर्म के कारण देखने को मिले. भौतिकता की आड़ के रूप में वह अनेक व्यक्तिगत और सामाजिक तनावों को कम करने का माध्यम बना है. धर्म का औचित्य बनाए रखने के लिए उसको नैतिक मूल्यों से जोड़ा गया था, लेकिन बाद में उन्हें धर्म का पर्याय बताना आरंभ कर दिया. उसकी सबसे बड़ी भूमिका सामजिक-आर्थिक और राजनीतिक विभाजन को शास्त्रीय रूप देने में रही, जिससे कालांतर में बड़े आर्थिक-सामाजिक विभाजनों को जगह मिली. धर्म का अतिवादी रूप महाभारतकाल में भी दिखाई पड़ता है, जब आर्यवर्त पर एकक्षत्र राज्य कायम करने के लिए कृष्ण चतुराई पूर्वक समस्त आर्यवर्त के राजाओं को परस्पर लड़वा देते हैं. सभी छोटे-बड़े राजा खेत रहते हैं. कौरवों को पराजित कर, देर-सवेर पांडव भी महाप्रयाण पर चले जाते हैं. आगे चलकर कुछ ऐसी ही कोशिश चाणक्य के नेतृत्व में नजर आती है.

सवाल है कि यदि कि विज्ञान ही सबकुछ है तो जीवन, मृत्यु जैसे प्रश्न अनुत्तरित क्यों हैं. इसके अलावा भी ऐसे अनेकानेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर विज्ञान नहीं दे पाया है. लेकिन विज्ञान ने कभी दावा भी नहीं किया कि उसने सबकुछ जान लिया है. धार्मिक प्रवृत्ति के लोग दुनिया के सारे ज्ञान को परमात्मा में अवस्थित मान लेते हैं. धीरे-धीरे अधिकांश के लिए यह परमात्मा को प्रसन्न रखने का कर्मकांड बन जाता है. धीरे-धीरे वह सुबह-शाम की आरती में सिमट जाता है. ऐसे आस्थावादी समाज में लोग 24—25 पृष्ठ रटकर सत्यनारायण की कथा सुनाने वाले पुरोहित को ‘पंडित’ मान लें, तो आश्चर्य कैसा! वैज्ञानिक को अपने ज्ञान का कभी गुमान नहीं होता. सच्चा वैज्ञानिक भली-भांति जानता है कि उसका अज्ञान उसके ज्ञान कहीं अधिक बड़ा है. इसलिए वह निरंतर और जानने के लिए प्रयासरत रहता है. अपने ही ज्ञान पर निरंतर संदेह करता है. इसी में उसकी सिद्धि है. इसके लिए विज्ञान की आलोचना करना उचित नहीं. अनसुलझे सवालों के उत्तर की खोज के लिए वैज्ञानिकों को पर्याप्त समय देना होगा. यूं भी सृष्टि की उम्र छोडि़ए, पृथ्वी की आयु के समक्ष भी विज्ञान की उम्र शिशु जितनी नहीं है. इस बारे में अमेरिकी लेखक हावर्ड बूस फ्रेंकलिन ने एक मजेदार उदाहरण दिया है—

‘‘पृथ्वी की उम्र लगभग साढ़े चार अरब है. हिम युग को पूरी तरह समाप्त हुए लगभग 10000 साल हुए हैं. तदनुसार पृथ्वी की उम्र हिम युग बीतने की अवधि के लगभग 4,50,000 गुना अधिक है. इसे समझने के लिए हम एक तस्वीर की कल्पना करते हैं. हम मान लेते हैं कि पृथ्वी की उम्र 45,000 फुट के समतुल्य है ठीक उतनी ही जिसपर कोई जेट वायुयान उड़ान भर सकता है. उस पैमाने पर यदि हिम युग की अवधि को दर्शाया जाए तो वह मात्र 1.2 इंच को दर्शाएगा. अब यदि आधुनिक विज्ञान के अवधि, जब उसने तकनीक और प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में कदम रखा, मात्र 200 वर्ष पुरानी घटना है. वह हमारे पैमाने पर मात्र 0.024 की ऊंचाई को दर्शाएगी. यह इतनी बारीक रेखा होगी, जैसे मामूली बाल पाइंट पेन द्वारा खींची गई रेखा की मोटाई.’’

सत्य से परे होने के बावजूद मैं अनविन के प्रयासों की सराहना करूंगा. उन्होंने ईश्वरत्व को गणित के आधार पर आकलित करने का विचार तो दिया. आगे और लोग भी आएंगे. जिसके फलस्वरूप पारंपरिक धर्म ने अपने चारों ओर जो बाड़ें लगाई हैं, वे कमजोर होंगी; तथा धर्म की वैज्ञानिकता पर बहस का सिलसिला आगे बढ़ेगा. तब शायद लोग महाभारत के इस सत्य को स्वीकारने को राजी हो जाएं—

गुह्यं ब्रह्म तदिदं वो ब्रीवीमि। न हिं मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचितः। (महाभारत, शांतिपर्व, 299/20)—एक बात बताता हूं, संसार में मनुष्य से श्रेष्ठ, मनुष्य के लिए मनुष्य से उपयोगी कुछ भी नहीं है. सच मानिए, ईश्वर भी नहीं.

[पुनश्चः: मुझे एक बात जानकर हैरानी होती है कि धर्म के नाम पर, अपने समय के शीर्षस्थ महारथियों, अठारह अक्षौहिणी सेना, देवता-राक्षस तथा यादव कुल का विनाश लिख देने के पश्चात महाभारतकार ने कानाफूसी के अंदाज में ही क्यों कहा कि ‘इस संसार में मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है.’ युद्ध में अपनों से लड़ाई छेड़ने के लिए अर्जुन को उकसानेवाले कृष्ण भी इस ‘परमसत्य’ को लोगों से छिपा ले जाते हैं और गीता इससे वंचित रह जाती है. अगर यह उपदेश पहले ही दे दिया होता तो क्या युद्ध होता? प्रजा यदि जानती कि मनुष्य के लिए एकमात्र श्रेष्ठतम मनुष्य है तो क्या वह दूसरों के कहने पर अपनों का गला काटने को तैयार होती? हरगिज नहीं! दरअसल शिखर पर विराजमान लोगों के लिए केवल वही मनुष्य होते हैं, जो उनके सगे या सत्ता के आसपास होते हैं. बाकी या तो सेवक होते हैं अथवा प्रजा. वे सुन न लें, इसलिए अच्छी बात हमेशा चुपके-चुपके कानाफूसी के अंदाज में, केवल अपनों के बीच कही जाती है, और उकसाने की जरूरत आ पड़े तो ‘धर्म-धर्म चिल्लाया जाता है.]

© ओमप्रकाश कश्यप

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