कबीर और तुलसी : कौन ज्यादा प्रासंगिक

विशेष रुप से प्रदर्शित

डॉ. रामचंद्र शुक्ल का पूर्वाग्रह ही है जो उन्होंने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में कबीर और तुलसी को एक ही समूह में रखा है। जबकि कबीर तुलसी, सूर, मीरा और रसखान जैसे व्यक्तिपरक भक्ति-भाव वाले कवि हरगिज नहीं हैं। उनकी अध्यात्म चेतना प्रखर है। वह सदैव नए सत्य की तलाश में रहती है। वे कहीं रहस्यवादी हैं, तो कहीं उच्छेदवादी। लोकहित की खातिर बड़ी से बड़ी सत्ता से टकरा जाने का साहस कबीर को अपने समय का विलक्षण कवि बनाता है। यही उन्हें अंतिम समय में काशी से मगहर प्रस्थान की हिम्मत देता है। शुक्लजी चाहते तो कबीर, तुलसी, पल्टूदास जैसे लोकवादी कवियों की अलग श्रेणी बना सकते थे। किंतु अव्वल तो लोकसत्ता को महत्व देना उनके संस्कार का हिस्सा नहीं है। दूसरे इससे उनके आदर्श कवि तुलसी की महिमा फीकी पड़ सकती थी। साहित्य का गुण मनोरंजन, संवेदनशीलता और सर्वकल्याण की भावना के अनुरूप पाठक के व्यक्तित्व का परिष्कार करना है। इसके अनुसार कबीर तुलसी की अपेक्षा बड़े सरोकारों वाले कवि हैं।  

अच्छी बात है कि अधिकांश विद्वान कबीर को तुलसी जैसा भक्त कवि न मानकर निर्गुण धारा का संत कवि मानते हैं। आखिर दोनों में अंतर क्या है? क्या इसी कसौटी पर दोनों के व्यक्तित्व की पड़ताल संभव है? भक्त हों या संत, दोनों ही अलौकिक शक्ति में भरोसा रखते हैं। दोनों मानते हैं कि सृष्टि का संचालन और नियंत्रण किसी परासत्ता के हाथों में हैं। संत कवि आमतौर पर उस शक्ति को निराकार मानते हैं, जबकि तुलसी सूर जैसे सगुण कवि साकार। अगर ऐसा है तो भी क्या फर्क पड़ता है? तुलसी ने तो उदारतापूर्वक कह भी दिया है, जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तिन तैसी। निर्गुण हो या सगुण, व्यक्ति का मन, जो पसंद को उसे पूजे! अपनाए!! साधना करे!!! पर क्या इतनी-सी ही बात है?

आगे बढ़ने से पहले उचित होगा कि ‘संत’ और ‘भक्त’ शब्दों के बारे में जान लिया जाए। दोनों ही शब्द संस्कृत साहित्य में आए हैं। प्रायः दोनों को समानधर्मा मान लिया जाता है। ‘भक्ति’ और ‘भजन’ दोनों शब्द ‘भज्’ धातु से बने हैं। इसका अर्थ है—‘सेवा करना’, ‘प्रेम के वशीभूत होकर अपने आराध्य के आगे समर्पित हो जाना’। उसके प्रति अटूट आस्था और विश्वास रखना। नारद भक्ति-सूत्र के अनुसार, ‘सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा’—‘भक्ति ईश्वर के प्रति प्रेमानुराग का प्रदर्शन करना’ है। श्रीमद्भागवद में नवधा भक्ति द्वारा उसके विभिन्न रूप या चरणों के बारे में बताया गया है, उसके अनुसार—

श्रवणं, कीर्तन, विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वंदनं, दास्यं, सख्यात्मानिवेदनम्।।

अर्थात श्रवण, कीर्तन, पूजा, नाम-स्मरण, पादसेवन, वंदन, अर्चन, दास्य-सख्य भाव से आत्मनिवेदन—इसी से भक्ति भाव सामने आ जाता है। भक्ति की पराकाष्ठा में भक्त अपने आराध्य को समर्पित हो जाता है। उसकी तलाश पूर्ण हो चुकी होती है। सिर्फ आराध्य को पाना शेष रह जाता है। भक्ति की पराकाष्टा में घर-परिवार, रिश्ते-नाते सब पीछे छूट जाते हैं। आस्था और विश्वास पर जोर दिया जाता है। तर्क अथवा संदेह के लिए उसमें कोई स्थान नहीं होता। इस तरह भक्ति ठेठ व्यक्तिपरक आयोजन है, जिसमें आत्मरति की भावना प्रधान होती है। जैसे-जैसे मनुष्य उसमें आगे बढ़ता है—सांसारिक रिश्ते-नाते, यहां तक कि लोक और लोककल्याण की भावना भी पीछे छूटती जाती है। जहां धर्म और उसके प्रति रूढ़ आस्था है, वहां भक्ति है। केवल हिंदू धर्म इसका अपवाद नहीं है। ईसाई धर्म में यीशु कहते हैं कि सभी को अपने पूरे दिल और दिमाग के साथ ईश्वर से प्यार करना चाहिए। यह सवाल करने पर पर कि हे स्वामी, धर्म में सबसे बड़ा विधान कौन-सा है? यीशु उत्तर देते हैं—‘अपने परमेश्वर यहोवा से, अपने सारे मन, प्राण और बुद्धि से प्रेम करना, यही सबसे बड़ी आज्ञा है।’(मत्ती 22/36/40)।

‘संत’ और ‘संतई’ में लोकोन्मुखता प्रधान होती है। ‘संत’ शब्द का प्रयोग सामान्यतः पवित्रात्मा, बुद्धिमान, परोपकारी, सज्जन और सदाचारी व्यक्ति के लिए किया जाता है। ऐसे व्यक्ति के लिए किया जाता है जो सांसारिक मोह-माया से परे, लोककल्याण में लीन रहता है। जो प्राणिमात्र का भला चाहता है। उसकी सारी साधना, तप परोपकार को ही समर्पित होते हैं। संत आत्ममुक्ति की साध तो रखता है, किंतु शेष दुनिया से संबंध तोड़कर नहीं। न ही उससे निर्लिप्त होकर रहता है। बल्कि संतई का स्तर के बढ़ने के साथ-साथ वह और अधिक उदार, और ज्यादा मानवीय तथा करुणामूलक होता जाता है। ‘संत’ का अंग्रेजी पर्याय, इसी से मिलता-जुलता शब्द Saint है, जिसका अर्थ है—पवित्र कर देना। संत के लिए आचरण पवित्र होता है। एक तरह से आदर्श की पराकाष्ठा पर स्थित माना जाता है, जिससे यह माना जाता कि उसमें वे  गुण और शक्तियां भी समा जाती हैं, जो ईश्वर में अभिकल्पित की जाती हैं। उसके पास आते ही मनुष्य का मन पवित्रताबोध से भर जाता है। पश्चिम में चमत्कार करने की शक्ति को संत का विशेष लक्षण माना गया है, तथापि यह आवश्यक नहीं है। कबीर के अनुसार जो निर्वैर और निष्कामी हो, विषय-वासनाओं से विरक्त रहता हो, वही संत है—‘निबैरी, निहकामता साईं सेती नेह। विशया सूं न्यारा रहे संतन का अंग सह।’

साफ है कि भक्ति में व्यक्तिपरक्ता है। प्रहलाद की भक्ति की प्रशंसा होती है। दृष्टांत के अनुसार रात-दिन की भक्ति के बाद वह अपने आराध्य को प्रसन्न करने में सफल होता है और ‘स्वर्ग में सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त कर लेता है।’ ऐसी भक्ति से दुनिया को क्या मिला, इसकी न तो भक्त को चिंता होती है, न ही उसके आराध्य को है। भक्त आमतौर पर संसार को मोह-माया मानकर उसे अपने लक्ष्य में बाधक मानता है, इसलिए वह इसे सुधारने पर कोई ध्यान नहीं देता। वह अपना सारा ध्यान कथित ‘परमपद’ को प्राप्त करने पर लगाए रहता है, ताकि बाद में उसे दुनिया में आना ही न पड़े। इस अंधी-दौड़ से उसे सचमुच कुछ हासिल होता है या नहीं, इस सवाल को छोड़ देते हैं। दूसरी ओर संत का पूरा ध्यान लोककल्याण पर निहित होता है। इसके लिए उपदेश से ज्यादा वह अपने आचरण से प्रेरणा जगाता है। वह परोपकार, दया, करुणा, समानता, बंधुता का प्रचार करता है, ताकि यह दुनिया बेहतर हो सके। संत कवि की कल्पना में उसके आराध्य, लोक यहां तक कि मुक्ति की कामना भी निहित हो सकती है। लेकिन भक्त-कवि की तरह उसकी यात्रा अकेली नहीं होती। बल्कि शेष समाज को साथ लेकर चलने की होती है।

अब सवाल है कि इनमें साहित्य किसके करीब है? या इनमें से कौन साहित्य को उसकी संपूर्ण मूल्यवत्ता के साथ अभिव्यक्ति दे सकता है? ‘भक्त’ और ‘संत’ के अंतर को समझ लेने के बाद इस प्रश्न का उत्तर दे पाना मुश्किल नहीं रह जाता। चूंकि भक्त कवि के लिए उसका आराध्य ही सब कुछ होता है, इसलिए वह जो लिखेगा उसकी प्रशंसा में ही लिखेगा। उसकी कविता बहुत कुछ चारणगीत की तरह होगी, जिसमें दोहराव और अतिश्योक्तियां स्वाभाविक है। जैसे चारण और भाट अपने आश्रयदाताओं की प्रशस्ति में लिखते-गाते थे, भक्त कवि अपने अलौकिक आराध्य की प्रशस्ति में लेखन करेगा। तुलसी का संपूर्ण साहित्य, रामचरितमानस से लेकर, कवितावली और विनयपत्रिका तक इसके अलावा क्या है? चूंकि इन कृतियों का संबंध धर्म-विशेष से है इसलिए हम इन्हें ज्यादा से ज्यादा  प्रचार-साहित्य कह सकते हैं।

तुलसी और मानस के प्रशंसक उनकी प्रशंसा में अकसर कहते हैं कि तुलसी ने रामचरित मानस में सामाजिक आदर्श को सामने रखा है। कुछ इससे भी आगे बढ़कर राम को आदर्श राजा दर्जा देकर रामराज्य का गुणगान करने लगते हैं। रामायण के आदर्श क्या हैं? पूछो तो तत्काल कह दिया जाता है कि रामायण हमारे सामने लक्ष्मण जैसे आज्ञाकारी भाई, भरत जैसे त्यागी, राम जैसे पुत्र, कौशल्या जैसी मां और सीता जैसी पत्नी का आदर्श सामने रखती है। थोड़ा आगे बढ़ें तो हनुमान जैसे भक्त और विभीषण जैसे मित्र इस सूची को और आगे बढ़ा देते हैं। यहां हम इन पात्रों के चरित्र का स्वतंत्र विश्लेषण न भी करें, तो भी यह मानना ही पड़ेगा कि जिन्हें रामचरितमानस में ‘आदर्श’ के रूप में दर्शाया गया है, असल में वे पारिवारिक या दरबारी आदर्श हैं। समाज में मनुष्य की क्या भूमिका होनी चाहिए? और समाज का अपनी इकाइयों के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए? यहां तक कि एक पड़ोसी का दूसरे पड़ोसी के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए—इस बारे में ‘मानस’ हमें कुछ नहीं बताता। वह ‘रामराज’ को आदर्श कहकर महिमामंडित करता है। मगर प्रजा के अधिकारों, उसकी इच्छा को लेकर उसमें कोई टिप्पणी नहीं है। रामराज्य को कल्याणकारी मान भी लिया जाए, तो भी इतना साफ है कि उसमें कल्याण(यदि वह कहीं है तो) तो ऊपर से थोपा हुआ प्रतीत होता है। प्रजा क्या चाहती है, राजा की इच्छा, महत्वाकांक्षा या जिद के आगे आगे उसका कोई मूल्य नहीं होता। एक शंबूक अपनी मर्जी से पढ़ना चाहता है तो राजा राम की तलवार उसकी गर्दन तराश देती है। तुलसी की वर्गदृष्टि, शूद्रों और स्त्रियों के प्रति उनके हेय विचारों पर तो चर्चा होती ही रहती है।  

समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे आधुनिक मूल्यों की बात तो जाने ही दीजिए। आस्था और भक्ति में इन मूल्यों को गैर-जरूरी और अप्रासंगिक मान लिया जाता है। निःशर्त समर्पण की शर्त के कारण, आत्मसम्मान और स्वाभिमान जैसे उदात्त मानवीय मूल्य भी भक्ति-मार्ग में बाधक मान लिए जाते हैं। कह सकते हैं कि भक्ति की पराकाष्ठा व्यक्ति को नितांत आत्मपरक बना देती है। इतना कि अपनी समूची प्रतिभा के बावजूद ‘भक्त’ अपने दैन्य और दास्यबोध से मुक्त नहीं हो पाता। इसे हम तुलसी की कविता में जगह-जगह रेखांकित कर सकते हैं। उनके जीवन का दैन्य(विडंबना) ही  उनकी कविता में समाया हुआ है। राम के प्रति अनन्य आस्था भी इसे कम नहीं कर पाती—

अगुण-अलायक-आलसी जानि अधम अनेरो

स्वारथ के साथिन्ह तज्यो तिजराको-सो टोटक, औचट उलटि न हेरो।। विनयपत्रिका, 272

(‘मुझे गुणहीन, नालायक, आलसी, नीच अथवा निकम्मा समझकर, स्वार्थी लोगों ने तिजारी के टोटके की तरह त्याग दिया है और भूलकर भी मेरी ओर नहीं देखा’); अथवा

तनु जन्यो कुटिल कीट ज्यों तज्यो मातु-पिताहूं।

काहे को रोष-दोष काहि धौं मेरे ही अभाग मोसां सकुचत छुई सब छाहूं। विनयपत्रिका, 275

(जैसे कुटिल कीड़ा(सांप) अपनी देह से उत्पन्न हुई केंचुली को छोड़ देता है; वैसे ही मेरे मातापिता ने मुझे जन्मते ही त्याग दिया था। मैं किस पर क्रोध करूं, और किसे दोष दूं? मेरे ही अभाग से सब मेरी छाया छूने से भी  सकुचाते हैं।’)

रामचरितमानस को पारिवारिक आदर्श(!) तक सीमित कर देना, कदाचित तुलसी की निजी कुंठा की ही देन था। उनके माता-पिता अत्यंत गरीब थे। भीख मांगकर गुजारा करते थे। ऊपर से, प्रतिकूल(!) नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उन्होंने तुलसी को बचपन में त्याग दिया था। सो उनका बचपन घोर विपन्नता के बीच, ही बीता था—

जायो कुल मंगन बधावो न बजायो सुनि, भयो परिताप पाप जननी-जनक को।

बारे तें ललात बिललात द्वार-द्वार दीन जानत हौं चारि फल चारि ही चनक को।(कवितावली, उत्तर कांड, 73)

(मैंने भिखमंगों के कुल में जन्म लिया। मेरा जन्म सुनकर बधावा नहीं बजाया गया, मेरे मातापिता को अपने पाप पा परिताप हुआ। मैं बचपन से ही भूख से व्याकुल होकर दरिद्रता के कारण अन्न के लिए द्वारद्वार बिललाता फिरता था।)

‘जाति के, सुजाति के, कुजाति के पेटागि-बस,

खाए टूक सबके विदित बात दुनी सो।कवितावली, 72  

(पेट की आग बुझाने के लिए मैंने जाति, सुजाति और कुजाति सबके टुकड़े खाए हैं। यह बात समूचा संसार जानता है।)

तुलसी के इस दैन्य का मुख्य कारण है श्रम से विलगाव। माता-पिता की ओर से मिला परजीविता का संस्कार, जिसे जाति-व्यवस्था में अपने अटूट विश्वास के चलते वे लांघ ही नहीं पाते। कवि होने के कारण बस इतना कर पाते हैं कि जो भौतिक जीवन में जो याचनाभाव लोक के प्रति है, कविता में वह आराध्य के प्रति मुखर होने लगता है। जिसे उन्हीं जैसा परजीवी समाज भक्ति का आदर्श बताने लगता है।

दूसरी ओर कबीर हैं। जन्म उनका भी अज्ञात कुल में हुआ था। माता-पिता हिंदू थे या मुसलमान, कभी इसे लेकर चिंता में नहीं पड़े।  पालन-पोषण एक श्रम-शील आजीवक परिवार में हुआ था। सो अपने ही श्रम के भरोसे जीना, मेहनत करके खाना, उन्हें संस्कार में मिला। एक मेहनतकश किसान, मजदूर या शिल्पकार की तरह कबीर का हृदय भी साफ है। आत्मविश्वास से भरा हुआ। वे करघा चलाते-चलाते कविता रचते थे। उनके चारों ओर अपना समाज था, जिसका वे भला चाहते थे। इसलिए उनकी कविता में न तो किसी प्रकार का दैन्य झलकता है न ही परिताप की भावना। भावना के वशीभूत होकर कभी-कभार खुद को राम की बहुरिया भी कह जाते हैं। लेकिन जब उनका स्वाभिमान हुंकारता है तो उसे भी आड़े हाथ लेने लगते हैं—

हम बहनोई राम मोर सारा, हमहिं बाप हरि पुत्र हमारा

कहै कबीर हरी के बूता, राम रमैतैं कुकरि के पूता—बीजक, 100

कबीर की कविता तुलसी की कविता जैसी  चारणगीत नहीं है। न ही वे भक्ति के नाम पर खुद को और समाज को पंगु बनाने का संदेश देते हैं। कबीर को खुद पर भरोसा है। इसलिए ईश्वर से कुछ अपेक्षा ही नहीं रखते। अपनी संतई में इतने निरपेक्ष हैं कि ईश्वर का नाम भी बिसर जाए तो खुशी मनाने लगाते हैं—भला हुआ हरि बिसरे मोरे सिर से टली बला।

सवाल यह है कि इतना कुछ होते हुए भी भक्ति को आदर्श क्यों मान लिया गया? कारण है—धर्मसत्ता और राजसत्ता का स्वार्थपूर्ण गठजोड़ और जातिप्रथा। स्वार्थ के कारण ये दोनों ही वर्ग नहीं चाहते थे कि निचले वर्ग के लोग सवाल करना सीखें। इसलिए भक्ति को महिमा-मंडित किया। इससे उन्हें तो लाभ हुआ, लेकिन उनके कहने पर भक्ति की राह पर चल पड़ा जनसमुदाय कब पत्थर की मूर्ति को अपना ईश्वर, ब्राह्मण को अपना देवता और नाम-पाठ को ही ज्ञान समझने लगा, यह वह समझ ही नहीं पाया। आस्था और विश्वास को ही सबकुछ मान लेने से वह जान ही नहीं पाया कि भक्ति का जन्म अज्ञानता और ज्ञान के टोटमीकरण की प्रक्रिया के दौरान हुआ है। नाम रटते-रटते भक्त नाम को ही सब-कुछ मानने लगता है, ठीक ऐसे ही जैसे मूर्ति को पूजते-पूजते व्यक्ति पत्थर को ही देवता मान बैठता है। खुद तुलसी इसी मानसिकता के शिकार नजर आते हैं—

राम नाम को कल्पतरु कलि कल्यान निवास

जो सुमिरत भयो भाग ते तुलसी तुलसीदास

कबीर नाम जप को सिवाय प्रदर्शन के कुछ नहीं मानते। ऐसे दिखावा करने वालों को वे आड़े हाथों लेते हैं—

राम कहे जो जगत गति पावै, खांड कहे मुख मीठा

पावक कहे पांव जो डाहै, जल कहे त्रिषा बुझाई

बिनु देखु बिनु अरस-परस बिनु नाम लिए का होई

धन के कहे धनिक जो होवै, निरधन रहै न कोई

कुल मिलाकर भक्ति के आवरण जहां तुलसी नाम रटने तक सीमित हो जाते हैं, वहीं, कबीर की संतई उन्हें ज्ञान के स्वागत को सदैव तत्पर रहती है—‘संतो भई आई ग्यांन की आंधी… ’

यह अनायास नहीं है कि बीती कुछ शताब्दियों में  ‘भगत’ और ‘भगतजी’ जैसे संबोधन दलित और पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। जबकि ब्राह्मण ने अपने लिए ‘पंडिज्जी’ संबोधन को सुरक्षित रखा हुआ है। कबीर इस षड़यंत्र का जगह-जगह पर्दाफाश करते हैं। उनकी कविता का यही गुण उसे युगप्रवर्त्तक और कालातीत बताता है, जबकि राम-राम रटते-रटते तुलसी(और उनके भक्त) कब जड़ हो जाते हैं, इसे वे स्वयं भी नहीं जान पाते।

ओमप्रकाश कश्यप