जनसंस्कृति के सरोकार और चुनौतियां

जनसंस्कृति का आशय ऐसी संस्कृति से है, जिसके निर्माण में अधिकाधिक लोगों की हिस्सेदारी हो. जो जनसाधारण की इच्छाओं एवं कामनाओं से अनुप्रेत हो. जिसमें समयानुकूल परिवर्तन की चाहत तथा आवश्यक गत्यात्मकता हो. जो थोपी हुई न होकर समाज के बहुसंख्यक वर्ग द्वारा खुले मन से आत्मसात की गई हो. सच यह भी है कि प्रत्येक संस्कृति में परस्पर विरोधाभासी तत्व अंतर्निहित रहते हैं. आमतौर पर संस्कृति की पहचान ऐसे प्रतीकों, रीति-रिवाजों द्वारा होती है, जिनसे समाज के वर्चस्वकारी वर्गों का प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध हो, जबकि उसकी आधारभूत संरचना उसके मेहनतकश वर्गों की छाप लिए होती है. साहित्यकार, कलाकार, शिल्पकार और अन्य संस्कृति-कर्मी, जो प्रायः मेहनतकश वर्गां से आते हैं—उसे निरंतर तराशते रहते हैं. किंतु अपनी निम्न समाजार्थिक हैसियत के कारण यह वर्ग दुनियादारी के मसलों में इतना अधिक उलझा होता है कि अपनी ही कृति का श्रेय लेने से चूक जाता है. यहां तक कि वह अपने योगदान की ओर से भी बेखबर बना रहता है. उसकी उदासीनता का लाभ उठाने के लिए उसी के समाज के ऐसे लोग आगे आ जाते हैं, जो बुद्धि-चातुर्य में जनसाधारण से बढ़कर होते हैं. सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करते हुए वे शेष जनसमाज को इच्छानुसार बदलने लगते हैं. यह प्रक्रिया बहुत धीमी होती है. इस तरह चलाई जाती है कि समाज के प्रभुवर्ग द्वारा थोपे जा रहे परिवर्तन संपूर्ण समाज का ऐच्छिक वरण लगने लगते हैं. ऐसे में सामाजिक परिवर्तन की लहर उठे तो उसके विरोध में पहली आवाज उन समूहों से आती है, जिनकी उस आंदोलन से लाभान्वित होने की संभावना सर्वाधिक है.

जैसे सामान्य धारणा है कि ईश्वर को अपनी सर्वप्रिय वस्तु भेंट करो तब वे प्रसन्न होते हैं. इस कसौटी के अनुसार देखा जाए तो नर्तक को ईश्वर के आगे वही नृत्य प्रस्तुत करना चाहिए, जो उसे सवार्धिक प्रिय हो; अथवा जिसमें वह सर्वाधिक प्रवीण हो. इसी प्रकार चित्रकार को यह अवसर मिलना चाहिए कि वह अपनी कल्पना तथा पसंद के अनुसार ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए चित्रांकन कर सके. मूर्तिकार, वस्त्र-निर्माता तथा अन्य संस्कृति-कर्मियों को भी यह स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए. व्यवहार में ऐसा नहीं होता. ऐसे अवसर पर हस्तक्षेप के लिए पुरोहित सदैव तत्पर होता है. मौका मिलते ही वह हाजिर हो जाता है. वह कहता है ऐसे नहीं वैसे नाचो. ईश्वर की तस्वीर वैसी मत बनाओ जैसा वह तुम्हारी कल्पना में है. ठीक वैसी बनाओ जैसी पूर्वजों के जमाने से बनती आई है. इस तरह उत्तराधिकार में मिली परंपराओं को ढोता आया पुरोहित, धर्म का स्वयं-घोषित विशेषज्ञ एवं व्याख्याकार मान लिया जाता है. उसकी पसंद ईश्वरीय पसंद का दर्जा प्राप्त कर लेती है. पुरातन को चुनौती देना, एक तरह से पुरोहित के विशेषाधिकारों को चुनौती देना भी है—इसलिए पुरोहित वर्ग हर उस संभावना को मिटाने की कोशिश करता रहता है, जो प्राचीनता पर सवाल उठाती हो.

अंततः सामान्य राय यह बन जाती कि ईश्वर पुरातन है तो उससे जुड़ी हर चीज, यहां तक कि उसकी पसंदें भी पुरातन होनी चाहिए. दोहरापन यहां भी बरता जाता है. केवल उन्हीं पसंदों को ज्यों का त्यों रखा जाता है, जिनका संबंध कर्मकांडों और लोक-दिखावे से हो. उन पसंदों को जिनसे समृद्धि और वैभव झलकता हो अथवा पौरोहित्य कर्म में सुविधा हो, भक्त की श्रद्धा अथवा सामान्य लोकाचार के बहाने अपना लिया जाता है. मूर्ति पर चढ़ावे के तौर पर नए चलन का गहना चढ़ सकता है, परंतु यदि कोई भिन्न तरीके से मूर्ति का शृंगार करना चाहे तो उसे परंपरा-विरुद्ध बताकर अमान्य कर दिया जाता है. इसी तरह प्रचार-प्रसार के लिए लाउडस्पीकर लगाया जाता है, किंतु आरती के थाल में दीपक के स्थान पर मोमबत्ती नहीं सजाई जा सकती. इस तरह धर्म और संस्कृति को लेकर मनुष्य की आस्था चंद मिथकों और प्रतीकों तक रूढ हो जाती है. समाज किसी न किसी रूप में जड़-संस्कृति का पालक-पोषक बन जाता है. पुरोहित वर्ग के लिए यह बहुत काम की चीज होती है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा उसका वर्चस्व परंपरा की आड़ में सुरक्षित बना रहता है.

धर्म की व्याख्या में लगे लोगों का पहला हमला व्यक्ति के आत्मविश्वास पर होता है. ईश्वर सनातन है तो उसकी पसंदें भी सनातन होंगी, यह सोचते हुए धर्माचरण में मानवीय विवेक की भूमिका समाप्त कर दी जाती है. मनुष्य शताब्दियों से चली आ रही परंपराओं के अनुसरण को ही परम-सिद्धि मान लेता है. इस तरह परंपरा-पोषक पुरोहित धर्म विशेषज्ञ के रूप में पहचाना जाने लगता है. हालांकि उसकी विशेषज्ञता लकीर पीटने से ज्यादा नहीं होती. मगर इसी के चलते पुरोहित की प्रत्येक पसंद को ईश्वर की पसंद मान लिया जाता है. धीरे-धीरे न केवल ईश्वर की अवधारणा, बल्कि पूरी परंपरा पुरोहित की इच्छा द्वारा संचालित होने लगती है. उसमें मानवीय विवेक की भूमिका कम हो जाती है. आवश्यक नहीं है कि पुरोहित की पसंद बाकी पसंदों से श्रेष्ठतर है. यह इसलिए होता है क्योंकि आत्मविश्वास के अभाव में, प्रत्येक मामले में पौरोहित्य की जरूरत महसूस करने वाले लोग अपनी पसंद को निम्नतर तथा पुरोहित की पसंद को श्रेष्ठतम माने रहते हैं. इस तरह पुरोहित की निजी पसंदें भी धर्म का हिस्सा मान ली जाती हैं. एक तरह से वे बेमेलकारी व्यवस्था के आगे खुद समर्पण कर देते हैं.

अपनी हैसियत का लाभ उठाकर अभिजात वर्ग संस्कृति को अपने स्वार्थ और पसंदों के अनुरूप ढालने में कामयाब हो जाता है. नतीजा यह होता है कि जनसामान्य की उपलब्धियां भी समाज के विशिष्ट वर्गों का अवदान लगने लगती हैं. भूमि सहित कोई भी प्राकृतिक संपदा किसी व्यक्ति अथवा समूह का विशेषाधिकार नहीं हो सकता. बावजूद इसके ईश्वरीय इच्छा के नाम पर अपने स्वार्थ को थोपता आया वर्ग आसानी से यह सब करने में कामयाब हो जाता है. परंपरा-अनुदेशक और परंपरा-वाहकों में बंटे समाज में परंपरा-अनुदेशक वर्ग के निर्णय, मनमाना रूप लेने लगते हैं. मनुस्मृति का रचनाकार पंडित, वर्गीय स्वार्थ को धर्म का नाम देकर ब्राह्मण को समस्त भू-संपदा का स्वामी घोषित कर देता है. उसके प्रभाव में समाजार्थिक असमानता ईश्वरीय विधान मान ली जाती है. इस अन्याय का विरोध करने के बजाए वृहद जनसमाज उसे चुपचाप स्वीकारता लेता है. विरोध की छिटपुट घटनाएं हों तो शिखरस्थ वर्ग आसानी से उनपर काबू पा लेता है. परंपरा-अनुदेशक और परंपरा-वाहकों में बंटे समाज में व्यक्ति का निर्णय-सामर्थ्य, उसके और सत्ता के मध्य दूरी पर निर्भर करता है. जैसे-जैसे दूरी बढ़ती है, निर्णयाधिकार उसी अनुपात में सिकुड़ता चला जाता है. ऐसे में परिवर्तनोन्मुखी आंदोलनों की चुनौतियां सघनतर तथा संघर्ष लंबा खिंचता जाता है. इस बीच सत्ताधारी वर्ग भी शांत नहीं रहता. विद्रोह की आशंका उसे हमेशा डराए रखती है. अतः जनाक्रोश की संभावना के साथ ही आंदोलनकारी समूहों को शांत करने की कोशिश शुरू हो जाती है. जहां यह संभावना कम हो, वहां संघर्षरत समूहों को बिखेरकर आंदोलन ठंडा कर दिया जाता है.

प्रतीकों और मिथकों की व्याख्या तथा उनके गूढार्थ को समझने के लिए जनसाधारण के पास न तो समय होता है, न ही तात्कालिक योग्यता, इसलिए वह अभिजात वर्गों द्वारा थोपी गई व्यवस्थाओं तथा उनके द्वारा दी गई व्यवस्था का अनुपालन करने लगता है. मोस्का के अनुसार, ‘अल्पसंख्यक अभिजन समूह के प्रत्येक सदस्य में कोई न कोई ऐसी विशेषता अवश्य होती है, जिससे वह सीधी स्पर्धा को परोक्ष स्पर्धा में ढालने में सफल हो जाता है.’ उसमें अकेले व्यक्ति की स्पर्धा आधुनिकतम प्रौद्यागिकी एवं स्वार्थ हेतु संगठित अभिजन-समुदाय से होती है. अभिजन संस्कृति की सफलता असमानता और दैन्य को दैवीय मान लेने में निहित होती है. इससे वर्ग-विभाजन को नियति का वरदान सिद्ध करने में आसानी रहती है. धीरे-धीरे पूरा समाज अभिजन और सामान्य-जन में ढल जाता है. जनसाधारण यह मान लेता है कि जो अभिजन हैं, वे उससे हर मायने में श्रेष्ठतर हैं. और विभिन्न प्रकार की संस्थाओं को संभालने में सक्षम हैं. यह सोच अंततः यथास्थितिवाद को बढ़ावा देता है. लगभग ढाई हजार वर्षों से भारतीय समाज इस प्रवृत्ति का शिकार होता आया है.

भारतीय संदर्भ में संस्कृतियों का द्वंद्व आज का नहीं है. बुद्ध-पूर्व भारत में भी लंबे समय तक सांस्कृतिक द्वंद्व चला था. उस समय भारत में दो मुख्य संस्कृतियां थीं. पहली ब्राह्मण संस्कृति. जिसे यज्ञ प्रधान होने के कारण ‘यज्ञ संस्कृति’ भी कह सकते हैं. दूसरी जनसंस्कृति. पहली के प्रणेता और समर्थक वे ऋषिगण थे, जो बस्तियों से दूर वन-प्रांतर में आश्रम बनाकर रहते थे. उनके आश्रम मानो उनका साम्राज्य थे, जहां केवल उन्हीं का अनुशासन चलता था. ऋषिगणों के अलग-अलग मंत्र, कर्मकांड, यज्ञ-विधियां थीं. यहां तक कि वेदों के पाठ में भी भिन्नता थी. लेकिन विजेता संस्कृति का दंभ और स्वयं को श्रेष्ठतम मानने की प्रवृत्ति उनमें एक समान थी. आश्रमों के बीच द्वंद्व भी चलते थे. परंतु बाहर के किसी व्यक्ति को उनके बीच हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार न था. स्वयं-घोषित दिव्यता के दावे के साथ वे क्षत्रिय सम्राटों पर सदैव दबाव बनाए रखने में सक्षम थे. जिनसे उन्हें यज्ञादि कर्मकांडों के लिए आवश्यक समिधा और अन्य वस्तुओं की आपूर्ति होती रहती थी. दूसरा वर्ग उन बुद्धिजीवियों का था, जो समाज के मेहनतकश वर्गों यथा किसान, शिल्पकार जैसे शूद्र वर्गों से आते थे. उनका ज्ञान स्वाध्याय द्वारा अर्जित था. वे निरे बुद्धिजीवी न थे. जीवन-संबंधी उनका बोध और तत्वज्ञान उनके जीवन-संघर्ष तथा प्रकृति से सीधे साहचर्य के फलस्वरूप जन्मा था. बौद्ध एवं जैन साहित्य में ऐसे छह दार्शनिकों का उल्लेख है जिन्हें महान तत्ववेत्ता, मत-संस्थापक, मार्गदर्शक और महाज्ञानी माना गया है. वे हैं—मक्खलि गोसाल(मंख), अजित केशकंबलि(चरवाहा), पूर्ण कस्सप(शूद्र), संजय वेलट्ठिपुत्त, पुकुद कात्यायन तथा निगंठ नागपुत्त. निगंठ नागपुत्त को महावीर स्वामी का उपनाम बताया गया है. पहले तीन विचारकों को भारत में यज्ञ संस्कृति के समानांतर तर्कसम्मत ढंग से जनसंस्कृति स्थापित करने का श्रेय दिया जा सकता है. हालांकि पर्याप्त वर्ग-चेतना के अभाव में उनके योगदान को भुला जा चुका है.

ध्यातव्य है कि भारतीय समाज में जाति की पकड़ मजबूत होने के बावजूद ऐसा कभी नहीं हुआ कि बौद्धिक संपदा केवल ब्राह्मणों का एकाधिकार रही हो, देष की रक्षा के लिए केवल क्षत्रियों ने दुष्मन से लोहा लिया हो और धनोपार्जन में एकमात्र वैष्य ही आगे रहे हों. समाज के सभी वर्ग, सभी क्षेत्रों में अपनी योग्यता दर्शाते रहे हैं. वैसे भी व्यवस्थाएं साधारण कोटि के मनुष्यों के लिए होती हैं. विषिष्ट प्रतिभाएं तटबंधों को लांघ आगे बढ़ जाती हैं. किंतु ज्ञान और संस्कृति के दस्तावेजीकरण का कार्य अभिजन पक्ष में होने के कारण गैर-अभिजन पक्ष के बौद्धिक, सामाजिक अवदान को उपेक्षित रखा गया. जिसकी परिणति इस वर्ग की बौद्धिक दासता के रूप में हुई. गांवों और कस्बों में आज भी भारत की मूल जनसंस्कृति के अवशेष देखे जा सकते हैं. किंतु अभिजन हितों का संरक्षण करने वाला मीडिया और बुद्धिजीवी उसपर ध्यान नहीं देते. न जनसंस्कृति के रचनात्मक अवदान तथा समाज में उसके योगदान को लेकर चर्चा हो पाती है. इसके अभाव में अभिजन संस्कृति जो मात्र दस-बारह प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधित्व करती है, उसे देश की मूल संस्कृति मान लिया गया है.

श्रेय और प्रेय को लेकर होने वाली इस तरह की बेईमानियां समाज में परजीवी वर्ग को जन्म देती हैं. व्यवस्था से लाभान्वित वर्ग प्रकारांतर में उसे अपना अधिकार समझने लगता है. वह संस्कृति के दिशा-निर्धारक प्रतीकों, मिथकों को इस तरह प्रस्तुत करता है कि वे उसी की निमिर्ति लगने लगते हैं. व्यवस्था से अनुकूलन हो जाने के बाद परंपरा-वाहक वर्ग उसमें बहुत अधिक फेरबदल नहीं कर पाता. वैसे भी परंपरा अनुदेशक वर्ग का पहला हमला परंपरा-वाहक वर्गों की एकता और अखंडता पर होता है. वह भली-भांति जानता है कि संख्या-बल में कई गुना अधिक परंपरा-वाहक समूह अपनी एकता के साथ अजेय है. किंतु परंपराओं के भीतर अनेकानेक रीति-रिवाज, उप-परंपराएं परंपरा-वाहक वर्गों को छोटे-छोटे समूहों में इस तरह बांट देती हैं कि संगठित परपंरा-अनुदेशक समूहों के आगे उनकी बंटी हुई शक्तियां निष्प्रभावी हो जाती हैं. मोस्का के हवाले से परेतो लिखता है—‘अल्पसंख्यक वर्ग बहुसंख्यक वर्ग पर केवल इसलिए राज कर पाता है, क्योंकि वह संगठित है.’ सवाल है कि बहुसंख्यक होने के बावजूद उत्पीड़ित वर्ग इसका विरोध क्यों नहीं कर पाता. एक उदाहरण की मदद से इसे समझा जा सकता है—

‘एक कारखाने में किसी काम को लेकर मालिक और मजदूर के बीच करार करते हैं. करार में कार्य-विशेष के लिए मजदूर की वृत्तिका निर्धारित कर दी जाती है. दोनों पक्षों की सहमति पर आधारित होने के कारण, प्रथम दृष्टया इसे उचित अनुबंध कहा जा सकता है. लेकिन श्रमिक हर समय मालिक के सामने बैठकर करार करने की हालत में नहीं होता. जरूरतें उसके निर्णयाधिकार पर भारी पड़ जाती हैं. प्रायः ऐसा होता है कि एक श्रमिक कार्यारंभ करता है, तभी दूसरा आ टपकता है. मालिक की चिरौरी करते हुए वह कहता है—

‘श्रीमान्! मुझे काम दीजिए. मैं इसे कम मजदूरी पर करने को तैयार हूं.’

पूंजीवादी उत्पादन तंत्र के लिए लाभ से बड़ी कोई नैतिकता नहीं होती. इसलिए बिना किसी देरी के कारखाना मालिक श्रमिक को काम सौंप देता है. एक दिन अचानक तीसरा श्रमिक आ धमकता है. उसकी जरूरत दूसरे से बड़ी है. अस्तित्व-रक्षा के लिए वह उससे भी कम वृत्तिका पर काम करने के लिए तैयार हो जाता है. पहले चरण में कारखाना मालिक और श्रमिक अनुबंध को लेकर बराबरी के स्तर पर थे. दूसरे और तीसरे चरण में जरूरतों की स्पर्धा होती है. जो श्रमिक अपनी जरूरत में जितनी ज्यादा कटौती करने को तैयार होता है, वह दूसरे को पछाड़ देता है. स्पर्धा के दौरान दूसरा श्रमिक पहले को और तीसरा दूसरे श्रमिक को टक्कर देता है. सिलसिला यहीं खत्म हो, यह आवश्यक नहीं है. संभव है तीसरे मजदूर को टक्कर देने के लिए चौथा श्रमिक उपस्थित हो जाए और वह उससे कहीं कम मजदूरी पर उतना ही काम करने की सहमति दे दे. यह श्रमिक और समाज दोनों के लिए अविकास का समझौता है, जिसे वह अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के कारण करने को बाध्य होता है. इस बीच कारखाना मालिक समझ चुका होता है कि वह अपना निर्णय थोपने में सक्षम है. अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए अगली बार वह वृत्तिका का निर्धारण मनमाने ढंग से करता है. इस तरह श्रम-मूल्यांकन का अधिकार श्रमिक के हाथों से खिसककर पूंजीपति वर्ग के पास चला जाता है. इससे मालिक का मुनाफा तथा मजदूर का घाटा बढ़ता ही जाता है.’ इस उदाहरण में एक-दूसरे के साथ स्पर्धा करते हुए श्रमिक नासमझ और खलनायक नजर आते हैं. ध्यान से देखें तो ऐसा नहीं है. असमानता-ग्रस्त समाजों में ऐसे समझौते, श्रमिकों की बाध्यता बन जाते हैं.

ग्राम्शी ने इसे सांस्कृतिक अधिपत्य अथवा सांस्कृतिक वर्चस्ववाद कहा है. यह वह स्थिति है जब समाज का बहुसंख्यक वर्ग, वह हिस्सा जो संस्कृति और संसाधनों का प्रमुख कर्ता है, अपने अवदान को भुलाकर अभिजन शक्तियों के आगे आत्मसमर्पण कर देता है. एक प्रकार से यह बहु-संख्यक वर्ग की बौद्धिक पराजय है. इसके समाधान के लिए ग्राम्शी का मत है कि बहुसंख्यक वर्ग को, जो सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक स्तर पर शोषित है, अपने वर्ग के बुद्धिजीवी पैदा करने चाहिए. ऐसे बुद्धिजीवी जो उस वर्ग के सामाजिक-सांस्कृतिक अवदान, समस्याओं और चिंताओं से परिचित हों. इस कथन के निहितार्थ को समझना आवश्यक है. ग्राम्शी केवल बहुजन वर्ग के बुद्धिजीवियों की आवश्यकता पर जोर नहीं देता. इसके साथ-साथ वह बहुजन समाज में बुद्धिजीवी पैदा करने की योग्यता को जरूरी मानता है, जो केवल जागरूक समाज में संभव है. वर्गीय चेतना के अभाव में उत्पीड़ित वर्ग के बुद्धिजीवी दूसरे पक्ष में जाकर कभी भी उसके हितों की उपेक्षा कर सकते हैं. राजनीति और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसा प्रायः देखने को मिलता है. रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उदित राज, मायावती, मुलायम सिंह यादव, नितीश कुमार, रामदास अठावले आदि ऐसे नेता हैं, जो बहुजन हितों की रक्षा के नाम पर राजनीति करते आए हैं. किंतु नीचे से कोई दबाव न होने के कारण, वे समय-समय पर उस वर्ग सहयोगी नजर आए, जिनके वर्चस्व से मुक्ति की कामना, उनकी शुरुआती राजनीति का मूल उद्देश्य थी.

वर्गीय हितों से पलायन का दोष पूरी तरह राजनेताओं के मत्थे मढ़ना भी उचित नहीं होगा. बुद्धिजीवियों की भांति कोई भी नेता वर्गीय हितों के प्रति तभी तक समर्पित रह सकता है, जब तक उस समाज में, जो उन्हें अपना नेता मानता है, पर्याप्त वर्गीय चेतना हो, ताकि अवसर आने पर वह अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों का भी मार्गदर्शन कर सके. संतराम बीए के शब्दों में, ‘लोकराज में….‘जैसी सरकार वैसी जनता नहीं’ वरन ‘जैसी जनता वैसी सरकार’ होती है.’ आगे वे लिखते हैं—‘यदि किसी देश की जनता सदाचारी, न्यायप्रिय, समता एवं बंधुभाव-संपन्न है, तो वहां की सरकार भी वैसी ही होगी. इसके विपरीत यदि वहां की जनता दुराचारी, अन्यायी, जन्म से ऊंच-नीच मानने वाली, मूढ़ विश्वासी, शुभाशुभ शकुन मानने वाली है तो वहां की सरकार में भी ये दुर्गुण अवश्य होंगे’(हमारा समाज, संतराम बीए). बहुसंख्यक समाज की ढुलमुल चेतना के कारण ही उसके नेता और बुद्धिजीवी, वर्गीय हितों से पलायन का साहस जुटा पाते हैं. राजनीति का गिरता स्तर, राज्य का अपने उद्देश्यों से भटकाव इस तरह के भटकावों में वृद्धि करता है. भारतीय संविधान के मूल में न्याय-राज्य की स्थापना का संकल्प अंतर्निहित है. किंतु सरकार, उसके काम करने का ढंग, विकास के नाम पर खड़ी की गई संस्थाएं, यदि उनके स्वरूप, स्तर और क्षमताओं पर बात न की जाए, तब भी वे न्याय-राज्य की स्थापना के प्रति ईमानदारी नहीं दर्शातीं. राज्य और समाज में जैसा स्तरीकरण पहले था, वैसा आज भी है. मुट्ठी-भर अभिजन समूह आजादी से पहले भी राज्य-समाज के शिखर-पदों पर विराजमान थे, आज भी वैसे ही विराजमान हैं. जनता की उदासीनता के चलते न्याय-राज्य की अवधारणा को चतुराई-पूर्वक कल्याण राज्य की अवधारणा तक सीमित कर दिया गया है. न्याय राज्य आधुनिक राजनीतिक दर्शनों की देन है. उसमें नागरिक अवसरों की समानता, संसाधनों के न्याय-पूर्ण वितरण के अवसर सहज प्राप्त होते हैं. राज्य इस जिम्मेदारी को अपना कर्तव्य समझकर उठाता है. इसके सापेक्ष ‘कल्याण-राज्य’ की कार्यशैली प्राचीन कुलीनतंत्र के सदृश होती है. जैसी कि रामराज के मिथ के रूप में हम भारतीय धर्मशास्त्रों में कल्पित करते आए हैं. उसमें राज्य में विभिन्न पदों पर आसीन लोग निचले वर्गों के प्रति उपकार-भाव से भरे होते हैं. विकास राज्य के कर्तव्य के रूप में न होकर ऊपर से नीचे की ओर छनकर आता है. समाज-कल्याण राज्य के नाम पर गठित विभिन्न संस्थाओं यथा महिला कल्याण, बाल कल्याण, आदिवासी कल्याण आदि की कार्य-शैली इसी प्रकार के उपकार-भाव से भरी  होती हैं. हम राज्य से निचले वर्गों के प्रति सद्भावनापूर्ण व्यवहार एवं न्यायभावना की उम्मीद करते हैं. न्याय राज्य में ये काम सरकार का कर्तव्य माने जाते हैं. सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह नागरिकों के प्रति कल्याण-भाव के बजाए कर्तव्यबोध के साथ पेश आए.

राजनीति का गिरता स्तर राज्य का अपने उद्देश्यों से भटकाव, इस तरह के पलायन में बृद्धि करता है. भारतीय संविधान के मूल में न्याय-राज्य की स्थापना अंतर्निहित है. किंतु सरकार, उसके काम करने का ढंग विकास और व्यवस्था के नाम पर खड़ी की गई संस्थाएं, यदि उनके काम करने के ढंग, स्तर और क्षमताओं पर टिप्पणी न की जाए तब भी न्याय राज्य की स्िापना के प्रति राज्य की जिम्मेदारी नहीं दर्शातीं. राज्य और समाज में जैसा स्तरीकरण पहले था, वैसा आज भी है. आजादी के पहले जिस पर चंद लोगों के हाथों में सत्ता थी, वैसे आज भी कुछ अभिजन संसाधनों पर कुंडली मारे बैठे हैं. कल्याण राज्य की अवधारणा को आधुनिकता की देन माना जाता है. कल्याण-राज्य को न्याय-समर्पित राज्य का पूरक बताया जाता रहा है. ‘कल्याण’ शब्द में उपकार-भाव निहित है. जबकि राज्य की स्थापना का मूल उद्देश्य न्याय की स्थापना होता है. चूंकि जनसाधारण इन बारीकियों को समझने के प्रति उदासीन बना रहता है, इसलिए शिखर पर बैठे नेतागण, चाहे वे अभिजन पक्ष के हों या उत्पीड़ित जनसमुदाय के अपने प्रतिनिधि, वे बहुत जल्दी दूसरी ओर पलायन कर जाते हैं. इन प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने के लिएओमप्रकाश कश्यप  कल्याण राज्य के स्थान पर न्याय-समर्पित राज्य की संकल्पना का विस्तार समय की आवश्यकता है. यही जनसंस्कृति का मुख्य सरोकार भी है.

ओमप्रकाश कश्यप