ओमप्रकाश कश्यप
‘पूंजी’ मार्क्स की सबसे बड़ी और महत्त्वाकांक्षी रचनाओं में से एक है. मार्क्स की यह पुस्तक उसके बीस वर्ष के गंभीर अध्ययन का सुफल थी. इसमें उसने अपने समय में प्रचलित दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाज–विज्ञान पर गंभीर विश्लेषण प्रस्तुत किया था. उसने इस पुस्तक को 1846 में लिखना आरंभ किया था. इस बीच उसने कई पुस्तकों की रचना की. हजारों की संख्या में लेख और अखबारों के लिए टिप्पणियां लिखीं. इसके साथ–साथ वह ‘पूंजी’ के लेखन में भी लगा रहा. तथापि उसके पहले खंड का प्रथम प्रकाशन 1867 में ही संभव हो सका. पहले खंड को प्रेस में भेजते समय ही वह उसके दूसरे और तीसरे खंड के ड्राॅफ्ट भी तैयार कर चुका था. मगर पुस्तक को और अधिक तराशने, उपयोगी बनाने के लिए वह उनपर निरंतर कार्य करता रहा. इसलिए उनका प्रकाशन मार्क्स की मृत्यु के बाद क्रमशः 1885 और 1894 में ही संभव हो सका. फ्रैड्रिक ऐंगल्स ने उसका संपादन किया था. पुस्तक अपने प्रकाशन के साथ ही चर्चा में आ गई. पहला संस्करण देखते ही देखते बिक गया. मूल पुस्तक जर्मन भाषा में लिखी और प्रकाशित हुई थी.
जर्मनी से बाहर पहली बार ‘पूंजी’ का पहला प्रकाशन 1872 में रूस में हुआ. पुस्तक का पहला संस्करण देखते ही देखते बिक गया. इससे मार्क्स की ख्याति एक सुविज्ञ अर्थशास्त्री और दार्शनिक के रूप में चातुर्दिक फैलती चली गई. इससे पहले उसकी छवि पूंजीवाद–विरोधी एक संघर्षशील और भावुक लेखक की थी. ‘पूंजी’ ने मार्क्स को इतिहास, दर्शन और अर्थशास्त्र के गंभीर अध्येता के रूप में स्थापित करने में मदद की.
पुस्तक के माध्यम से मार्क्स का उद्देश्य पूंजीवादी व्यवस्था की उत्पादन प्रविधियों और श्रम–शोषण को सामने लाना था. उसके अनुसार पूंजीवाद को बढ़ावा देने वाली शक्तियां श्रमिकों के शोषण तथा उनकी उपेक्षा में छिपी रहती हैं. निश्चित ही इसके पीछे धर्म, रूढ़ियां और क्षेत्रीय मान्यताएं भी हैं जो श्रमिकों को अपनी स्थिति से उदासीन बनाती हैं. मुक्ति की खोज में वह अज्ञानता के अंधकूपों में भटकता रहता है. पूंजीपति का लाभ या अधिलाभ मूल रूप में श्रमिक की वह मजदूरी होती है, जिसको कारखाना मालिक अनैतिक रूप में अपने लिए बचाकर रख लेता है. ऐसा वह संसाधनों का मालिक होने के दावे के साथ करता है. उसके इस दावे को अक्सर सरकार का समर्थन भी प्राप्त होता है. श्रमिक अपने श्रम–कौशल के माध्यम से लगातार अपने मालिक की पूंजी में वृद्धि करता चला जाता है, इससे वह अनजाने ही पूंजीवाद को बढ़ावा देने का अनुचित और अनचाहा काम भी करता है.
अपनी पुस्तक के माध्यम से मार्क्स की इच्छा वाणिज्य के सामाजिक पहलुओं पर विमर्श करने की थी. मगर उसमें पूंजी की इतने विशद् अर्थों में गवेषणा की गई कि इसके कारण ‘पूंजी’ को पूरी तरह से एक अर्थशास्त्रीय महाकाव्य की प्रतिष्ठा दी जा सकती है. पुस्तक में उसने पूंजीवादी समाज की संरचना के ऐतिहासिक संदर्भों को दर्शाते हुए वर्ग संघर्ष की अनिवार्यता को रेखांकित करने का काम भी किया था. अपने विषय और गंभीर निष्कर्षों के कारण पूंजी अपने प्रकाशन के साथ ही विद्वानों के बीच लोकप्रिय हो चुकी थी. इस पुस्तक ने पूरी दुनिया बुद्धिजीवियों दो वर्गों में बांट दिया था. एक ओर उसके समर्थक थे और दूसरी ओर उसके आलोचक. मगर मार्क्स की मेधा और उसकी विश्लेषण–सामथ्र्य का लोहा उसके आलोचकों ने भी माना था. आज भी उसके विचारों के आधार पर बुद्धिजीवियों में विभाजन साफ देखा जा सकता है. हालांकि भारत जैसे देशों में अधिकांश विद्धानों की नाराजगी मार्क्स की धर्म–संबंधी अवधारणाओं को लेकर है, जिनपर फायरबाख और बू्रनो बायर का प्रभाव था.
मार्क्स ने अपनी भारी–भरकम पुस्तक ‘पूंजी’ के पहले खंड को आठ खंड और 33 अध्यायों में विभाजित किया है. प्रत्येक अध्याय में पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के विशिष्ट पहलु के अध्ययन पर केंद्रित है. एक लेखक के रूप में वह जिस प्रकार गहराई में जाकर तथ्यों की पड़ताल करता है, वह उसकी विषय–संबंधी पैठ और अध्ययन की विविधता को दर्शाता है.
1. पहला अध्याय: उपभोक्ता सामग्री और धन
‘दि कैपीटल’ के प्रथम खंड के पहले तीन अध्यायों में मार्क्स ने उपभोक्ता सामग्री के मूल्य, विपणन, आदान–प्रदान, धन की उत्पत्ति आदि पर चर्चा की है. आरंभिक खंड से ही विषय की गंभीरता तथा उसके लेखक के गंभीर अध्ययन का अनुमान लगाया जा सकता है. मार्क्स ने स्वयं भी लिखा है कि—‘करीब–करीब सभी विज्ञानों में आरंभ की प्रक्रिया सदैव कठिन होती है…इस खंड में सम्मिलित उपभोक्ता सामग्री का विश्लेषण और उसकी प्रक्रिया काफी जटिल है.’ इसमें वह उन बिंदुओं को पारिभाषित और चिह्नित करता है, जिनपर आगे का चिंतन आधारित है. यदि पहले अध्याय को पूर्णतः आत्मसात कर लिया जाए तो शेष पुस्तक को समझना काफी आसान हो जाता है. वस्तुतः पहले ही अध्याय में ही उसने उपभोक्ता वस्तु, श्रम, मजदूरी आदि को लेकर ऐसी कई मौलिक स्थापनाएं की हैं, जिन्हें समझे बिना उसके अर्थदर्शन को समझ पाना असंभव–सा है. उपभोक्ता वस्तु के विश्लेषण से अध्याय की शुरुआत करते हुए वह लिखता है कि उपभोक्ता वस्तु—
‘हमसे स्वतंत्र कुछ ऐसी वस्तु है, जो हमारी इच्छा अथवा आवश्यकता को पूरा करती है.’
पुस्तक में वह यह नहीं बताता कि लोग किसी उपभोक्ता वस्तु को क्यों खरीदते या उसकी ओर आकर्षित होते हैं. इसको लेकर एक सामान्यबोध जो हम सबके दिमागों में होता है, मार्क्स उसे न तो छेड़ता है, न ही विस्तार देना चाहता है. वह सिर्फ इतना लिखता है कि उपभोक्ता सामग्री को खरीदना अपरिहार्य है; यानी कोई भी व्यक्ति उपभोक्ता वस्तु को इसलिए खरीदता है, क्योंकि उसके बिना उसको लगता है कि वह रह नहीं सकता. उसके अनुसार हर उपभोक्ता वस्तु अपने उपभोक्ता की आकांक्षा और उसकी आवश्यकता का हिस्सा होती है. वह लिखता है कि प्रत्येक उपभोक्ता वस्तु का एक पूर्वनिर्धारित मूल्य होता है, जो उसकी उपयोगिता को सुनिश्चित करता है. मार्क्स उसे ‘उपयोग–मूल्य’ की संज्ञा देता है. कोई वस्तु उपभोक्ता को आवश्यक लगती है, उसके उपभोग के पश्चात जो संतुष्टि उसको प्राप्त होती है, वही उसका उपयोग मूल्य है. उपयोग मूल्य मनोवैज्ञानिक तथ्य है. उसको मुद्रा के रूप में अभिव्यक्त कर पाना असंभव है. मार्क्स के अनुसार वस्तु का उपयोग मूल्य उसकी वह कीमत है, जो उसकी वास्तविक मूल्यवत्ता को दर्शाती है. यह बात अलग है कि मार्क्स लंबे विश्लेषण के बावजूद किसी वस्तु के वास्तविक ‘उपयोग मूल्य’ की गणना करने का कोई सूत्र हमें नहीं देता. बल्कि उसको हमारे सामने अनुमान लगाते रहने के लिए मुक्त छोड़ देता है. उपयोग मूल्य को दर्शाया कैसे जाए, उसके आकलन का आधार क्या हो, दो वस्तुओं के उपयोग मूल्य का स्तरीय यदि आवश्यक हो तो उसकी कसौटियां क्या हों, इस बारे में वह बस इतना सुझाता है कि वस्तु उपयोग में है, अतएव उसका ‘उपयोग मूल्य’ भी है.
तत्पश्चात वह वस्तु के विनिमय मूल्य पर आता है. इसका विश्लेषण करते हुए वह लिखता है कि एक बार जब कोई वस्तु विनिमय के लिए प्रस्तुत की जाती है, तो वह अपने विनिमय मूल्य से उस प्रक्रिया को अंतिम रूप देने का कार्य करती है. वस्तु का विनिमय मूल्य वस्तुतः वह राशि है, जिसपर क्रेता और विक्रेता दोनों एकमत होते हैं, तथा उसका विनिमय संभव होता है. इस तरह वह वस्तु की मूल्यवत्ता को दो हिस्सों में बांट देना चाहता है. जिसके एक ओर वस्तु का उपयोग मूल्य है, जिसका संबंध उसके उपभोग द्वारा उपभोक्ता को मिली संतुष्टि से है. दूसरा विनिमय मूल्य जो उस संतुष्टि को प्राप्त करने के लिए मुद्रा अथवा अन्य वस्तुओं के साथ आदान–प्रदान के रूप में उपभोक्ता द्वारा खर्च किया जाता है.
इसे स्पष्ट करने के लिए मार्क्स ने अनाज और लोहे के विनिमय का उदाहरण दिया था. उसने लिखा था कि लोहे और अनाज के उपयोग को लेकर कोई समानता नहीं है, फिर भी सामान्य व्यवहार में लोहे की एक खास मात्रा अनाज की खास मात्रा के साथ विनिमय की जाती है. इस उदाहरण द्वारा वह समझाना चाहता था कि हर वस्तु गुणात्मक दृष्टि से एक–दूसरे के समानांतर होती है. उसका किसी अन्य वस्तु की विशिष्ट मात्रा के साथ विनिमय संभव है. लेकिन किसी वस्तु को देखने–परीक्षण करने मात्र से उस वस्तु के विनिमय–मूल्य का निर्धारण कर पाना संभव नहीं है. इसलिए कि मूल्य कोई जड़ वस्तु नहीं है. किसी वस्तु का मूल्य व्यक्ति की अपनी आवश्यकता, बाजार में वस्तु की मांग पर निर्भर करता है. आवश्यकता की प्रखरता भी वस्तु के विनिमय मूल्य को प्रभावित करती है. विनिमय की जाने वाली वस्तुओं के मूल्य में परस्पर अंतर्संबद्धता होती है. अभिप्राय है कि किसी एक वस्तु के बिना दूसरी वस्तु का मूल्य–निर्धारण संभव नहीं है. अपने विश्लेषण द्वारा मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि किसी वस्तु का उपयोगिता–मूल्य केवल गुणवत्ता द्वारा और विनिमय मूल्य संख्या द्वारा बदला जा सकता है.
मूल्य के सिद्धांत का विश्लेषण करते समय मार्क्स ने श्रम–अवधि की संकल्पना प्रस्तुत की थी. यह संकल्पना मौलिक न होकर रिकार्डो से प्रभावित थी. उसका कहना था कि किसी वस्तु का मूल्य उसके निर्माण में लगी श्रम–अवधि द्वारा निर्धारित होता है. मार्क्स की यह अवधारणा उस समय की है जब मशीनों का वैसा स्वचालीकरण नहीं हुआ था, जैसा बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देखने को मिला. स्वचालित प्रौद्योगिकी ने उत्पादन में कार्मिक की भूमिका को और भी सीमित कर दिया था. लेकिन स्वचालीकरण पर आधारित अपेक्षाकृत प्रौद्योगिकी महंगी थी. इसलिए उत्पाद का मूल्य निर्धारित करते समय उसकी अपनी मूल्यवत्ता को नजरंदाज कर पाना असंभव है. हालांकि मार्क्स को इसका अंदेशा था. इसलिए उसके द्वारा उसके द्वारा वर्णित मूल्य में मशीनों और मानव–श्रम दोनों को सम्मिलित होना चाहिए. बहरहाल किसी वस्तु का श्रम–मूल्य उसकी उत्पादकता और अन्याय कारणों के अनुसार सतत परिवर्तनशील होता है. किसी वस्तु के मूल्य निर्धारण के लिए बाजार में उसकी मांग होना भी आवश्यक है. यदि कोई वस्तु बनती है और बाजार में उसकी खपत शून्य है तो इस परिभाषा के अनुसार उसे मूल्य–विहीन माना जाएगा. स्वाभाविक रूप से उस अवस्था में उसका श्रम–मूल्य भी शून्य ही होगा.
मार्क्स यहां स्पष्ट करता है कि यदि कोई व्यक्ति सिर्फ अपनी आवश्यकता के अनुसार किसी वस्तु का उत्पादन करता है, तब उस वस्तु का ‘उपयोगिता–मूल्य’ तो होगा, क्योंकि उसका सुनिश्चित उपयोगिता–मूल्य है, तथापि वह वस्तु ‘उपभोक्ता सामग्री’ नहीं कही जाएगी. दूसरे शब्दों में किसी वस्तु का मूल्य–निर्धारण और उसका ‘उपभोक्ता सामग्री’ की श्रेणी में आना तभी संभव है, जब वह दूसरों की दृष्टि में भी मूल्यवान हो. उसके उत्पादक और उपभोक्ता अलग–अलग हों. उपभोक्ता–बाजार में उसकी मांग हो. उसी अवस्था में उसके विनिमय मूल्य का निर्धारण संभव है.
मार्क्स के अनुसार उपभोक्ता–सामग्री की संकल्पना पूंजीवादी समाज की नींव है. वह ऐसी वस्तु है, जिसका उत्पादन, आवश्यकता पूर्ति से अधिक लाभ की वांछा के साथ, दूसरों को केंद्र में रखकर किया जाता है. मगर उसका व्यावसायिक लाभ केवल उसके उत्पादक को प्राप्त होता है. उत्पादक बाजार में वस्तु की मांग को ध्यान में रखकर उत्पादन करता है और जब कोई वस्तु बाजार में आती है, यानी उसका उपभोक्ता–वर्ग होता है, तब उसका उत्पादक वस्तु का मूल्य–निर्धारण केवल अपने लाभ को ध्यान में रखकर करता है. उसके सामने किसी प्रकार की कानूनी अथवा नैतिक बाध्यता नहीं होती. पूंजीवादी व्यवस्था में लाभ को नैतिकता की सीमाओं से बाहर माना जाता है. समाज व्यावसायिक लेन–देन को सहज रूप से स्वीकार लेता है.
औद्योगिक समाजों में जैसे–जैसे पूंजीवाद की पकड़ बढ़ती है, वस्तुओं के उपयोगिता मूल्य को नैतिकता के दायरे से एकदम बाहर कर दिया जाता है. यह कार्य कभी विकास तो कभी प्रतिष्ठा के नाम पर लगातार होता रहता है. ऐसे में बगैर यह जाने कि किसी वस्तु का कोई उपयोगिता–मूल्य है अथवा नहीं, उपभोक्ता सामग्री का उत्पादन सिर्फ पूंजीवादी नजरिये से उत्पादक के लाभ को ध्यान में रखकर किया जाता है. पूंजीवादी प्रलोभनों के चलते उपभोक्ता अनेकानेक ऐसे उत्पादों को अपनाता चला जाता है, जो उसके जीवन के लिए लगभग अनावश्यक होता है. ऐसा कभी प्रतिष्ठा तो कभी आधुनिक सुख–सुविधा के नाम पर किया जाता है. प्रायः जिसको राजनीतिक अर्थव्यवस्था कहा जाता है, जिसके बारे में सामान्यतः यह माना जाता था कि वह समाज के आर्थिक संसाधनों के व्यापक लोकहित में नियोजन की न्यायिक व्यवस्था है, व्यवहार में उसकी समस्त कार्यप्रणालियां धन के वितरण यानी कर–संग्रह तथा ‘राजनीतिक हिसाब–किताब’ तक सिमटकर रह जाती है. ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या करते हुए मार्क्स ने कहा था कि किसी समाज का आर्थिकीकरण उसके इतिहास का स्वाभाविक हिस्सा होता है. उसपर नियंत्रण रख पाना आसान नहीं होता. बल्कि किसी समाज की उत्पादन प्रविधियां ही उसके अंतःसंबंधों एवं उसके बाह्यः स्वरूप को निर्धारित करती है. व्यक्ति–विशेष के लिए तो यह संभव ही नहीं होता कि वह समाज की आर्थिक चाल को नियंत्रित कर सके.
आर्थिक विकास का यह दौर अपने साथ तरह–तरह की जटिलताएं लाता है, जिसको सामान्यतः विकास की संज्ञा दी जाती है, वह वास्तव में समाज के स्तर तथा उसमें उपभोक्ता–वस्तुओं की खपत, दूसरे शब्दों में उपभोक्ता–सामग्री के उत्पादन एवं पूंजी के बहुआयामी फैलाव को दर्शाता है. इस प्रकार आर्थिक आधार पर गठित समाज की समस्त गतिविधियां विभिन्न पूंजीवादी संस्थानों की असीमित उत्पादन क्षमता तथा उनके अंदरूनी संबंधों तक सीमित होकर रह जाती हैं, ताकि वे अपने वर्गीय हितों के अनुकूल, सामूहिक रूप से अधिक से अधिक लार्भाजन कर सकें. हालांकि पूंजीवादी उद्यमियों के बीच ऊपरी स्तर पर स्पर्धा नजर आती है. उपभोक्ताओं के बीच बराबर यह भ्रम बनाए रखा जाता है, कि स्पर्धा के कारण वस्तुएं सस्ती हो रही हैं. मगर होता इसका उल्टा है. स्पर्धा में बने रहने के लिए उपभोक्ता वस्तु के मूल्यों में गिरावट, श्रम–वृत्तिका में गिरावट के आधार पर तय होती है. जिसका नुकसान अंततः उपभोक्ता को ही उठाना पड़ता है. मार्क्स का मानना था कि राजनीतिक अर्थशास्त्र के अंतर्गत पूंजीवाद की व्याख्या वैज्ञानिक नियमों के अनुरूप, मगर निरपेक्ष भाव से की जा सकती है.
मार्क्स को वर्गसंघर्ष के सिद्धांत का जन्मदाता माना जाता है. और वह है भी. लेकिन अपने महाग्रंथ ‘पूंजी’ में उसने अपने लेखन को वर्ग–संघर्ष के बजाय पूंजीवादी समाज के संरचनात्मक विरोधाभासों के विश्लेषण पर अधिक केंद्रित किया है. ‘दि कैपीटल’ के प्रकाशन से बीस वर्ष पहले ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ में ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या और फिर सर्वहारा वर्ग से संगठित होकर वर्ग–संघर्ष का आवाह्न करने वाला मार्क्स, ‘पूंजी’ में विशुद्ध अर्थविज्ञानी की तरह व्यवहार करता है. वह मजदूरों को क्रांति के लिए ललकारने के बजाय, उन कारणों और विसंगतियों पर अपना ध्यान केंद्रित करता करता है, जो पूंजीवादी समाज की स्वाभाविक परिणतियां हैं और इस कारण उनमें क्रांति की प्रेरणा स्वयं अंतनिर्हित है. मार्क्स के अनुसार वे विसंगतियां अथवा संकट ‘उपभोक्ता वस्तु’ के परस्पर विरोधाभासी चरित्र में छिपे होते हैं, जो पूंजीवादी समाज का सबसे लोकप्रिय माध्यम है. स्मरणीय है कि मार्क्स ‘पूंजी’ में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की आलोचना तो करता है, मगर वह उसको विकास की अनिवार्य परिणति के रूप में स्वीकार भी करता है. पूंजीवाद की काट एवं पूंजीवाद में निहित है. साम्यवाद का कमल पूंजीवाद के पंक से ही खिलता है, ऐसा वह अपने विश्लेषण के दौरान बार–बार कहता है.
मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी समाज में प्रौद्योगिकीय सुधार और तदनुसार उत्पादकता में वृद्धि से उसके कुल धन में परिमाणात्मक वृद्धि अथवा उपयोग–मूल्य में तो वृद्धि होती है. मगर, उसके साथ धन का वास्तविक मूल्य जिसे उसका क्रय–सामथ्र्य भी कहा जाता है, निरंतर हृासमान रहता है. परिणामस्वरूप उत्पादकों के लाभानुपात में गिरावट आने लगती है. यह स्थिति पूंजीवादी समाज को शनैः–शनैः उसके अनिवार्य संकट, जो उसकी स्वाभाविक नियति है, की ओर ले जाता है. यह संकट ‘अतिशय समृद्धि के मध्य भीषण गरीबी’ के रूप में पूंजीवादी व्यवस्था की अनिवार्य दुरवस्था के रूप में सामने आता है. इसके परिणामस्वरूप पूरा समाज दो वर्गों में बंट जाता है. उनमें से एक वर्ग अतिशय भोग एवं विलासिता का शिकार होता चला जाता है, जबकि दूसरे वर्ग को जीवन की न्यूनतम वस्तुओं का भी अभाव झेलना पड़ता है. मार्क्स की सलाह थी कि राजनीतिक अर्थशास्त्रियों को पूंजीवाद का अध्ययन निरपेक्ष भाव से करना चाहिए, तभी उसकी बुराइयों का सर्वमान्य हल खोजा जा सकता है.
इसी खंड के दूसरे भाग में मार्क्स ‘उपभोक्ता सामग्री’ के निर्माण कार्य में लगे श्रम के दुहरे चरित्र का विश्लेषण करता है. श्रम और मूल्य के बीच अंतःसंबद्धता को दर्शाते हुए वह आगे लिखता है कि यदि किसी वस्तु के निर्माण में काम आने वाली श्रम–शक्ति की संख्या में फेरबदल हो तो वस्तु के मूल्य में भी समानुपातिक परिवर्तन होता है. अपने सिद्धांत की व्याख्या करते हुए वह लिनेन और सामान्य कपड़े का उदाहरण देता है. लिनेन के उत्पादन में चूंकि अधिक श्रम–शक्ति की खपत होती है, इसलिए बाजार में उसका मूल्य साधारण कपड़े की अपेक्षा लगभग दोगुना होता है. किसी वस्तु का बाजार–मूल्य उसके उपयोग–मूल्य से भिन्न होता है. बाजार–मूल्य वास्तव में वह राशि है, जिसके आधार पर किसी वस्तु की विपणन–दर निर्धारित की जाती है. जबकि वस्तु का उपयोग–मूल्य उसके उत्पादन में लगने वाला उपयोगी श्रम है. दोनों के मूल्यांकन का आधार वस्तुतः उनके उत्पादन में काम आने वाली श्रमशक्ति है. सीधे तौर पर देखा जाए तो साधारण धागे से बुने कपड़े और लिनेन का उपयोग–मूल्य बराबर है. इसलिए कि दोनों को पहनने के काम आना है. दोनों ही तन ढकने का माध्यम हैं, फिर भी उनका बाजार–मूल्य अलग–अलग है, जिसका निर्धारण उनमें लगने वाली भिन्न–भिन्न श्रमशक्ति के आधार पर किया जाता है. उपयोग मूल्य एकसमान होने के बावजूद बढ़े हुए बाजार–मूल्य को उपभोक्ता की प्रतिष्ठा से जोड़कर उत्पाद के पक्ष में माहौल बनाया जाता है. समाज में उपयोग–मूल्य की अपेक्षा बाजार–मूल्य का बढ़ता चलन वहां पूंजीवाद की बढ़ती जकड़बंदी की ओर संकेत करता है, जिसके चलते उपभोक्ता के चयन के मौलिक अधिकार को प्रभावित करने की चेष्ठा की जाती है. इस चेष्ठा को पूंजीवादी शक्तियां व्यावसायिक कूटनीति की संज्ञा देती हैं.
अगले चरण में मार्क्स विपणन मूल्य की अवधारणा को स्पष्ट करता है. उसके अनुसार बाजार में उपभोक्ता वस्तुएं प्रायः दो रूपों में सामने आती हैं. पहला—प्राकृतिक स्वरूप तथा दूसरा है, मूल्य स्वरूप. हम किसी वस्तु के बाजार मूल्य का आकलन उस समय तक करने में असमर्थ रहते हैं, जब तक कि उसके निर्माण–कार्य में लगी श्रम–शक्ति का अनुमान हमें न हो. और जैसा कि पहले भी कहा गया है, किसी चीज का ‘उपभोक्ता वस्तु’ होना बाजार में उसके उपभोक्ता की उपस्थिति को अवश्यंभावी बनाता है. यह दर्शाता है कि बाजार में उसकी मांग है. जैसे ही सामाजिक स्तर पर किसी वस्तु का बाजार मूल्य तय हो जाता है, उनका विपणन भी स्वाभाविक रूप से विस्तार लेता जाता है. वस्तुओं के बीच मूल्याधारित संबंध भी होता है, जिसके आधार पर विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का विनिमय संभव होता है. मार्क्स इसे एकदम सरल उदाहरण के माध्यम से समझाता है. उसके अनुसार—
मान लीजिए कि बीस गज लिनेन का मूल्य एक सिले–सिलाए कोट के बराबर है. इसका आशय यह होगा कि बीस गज लिनेन–के उत्पादन में लगा श्रम–मूल्य, एक कोट के निर्माण में लगे श्रम–मूल्य, जिसको उसका बाजार मूल्य भी कहा जा सकता है, के बराबर है. मार्क्स इसको एक समीकरण के रूप में व्यक्त करता है. उसके अनुसार—
बीस गज लिनेन बराबर = एक कोट.
चूंकि एक कोट = बीस गज लिनेन
अतएव बीस गज लिनेन के बराबर = बीस गज लिनेन.
लिनेन यद्यपि रोजमर्रा के काम आने वाली वस्तु है, तथापि हम उसका उपभोक्ता मूल्य उस समय तक तय कर पाना संभव नहीं है, जब तक कि उसका किसी अन्य वस्तु के साथ विपणन संबंध न हो. मार्क्स के अनुसार किसी वस्तु के मूल्य का निर्धारण उस वस्तु में अंतनिर्हित मूल्य की ओर इशारा कर देता है. किसी वस्तु का उपभोक्ता मूल्य प्रदर्शन की जा रही वस्तु पर दर्शाए गए मूल्य के समतुल्य होता है. हालांकि वस्तु पर दर्शाया गया मूल्य उसके उत्पादक द्वारा तय किया जाता है. यह एक विडंबनाजन्य स्थिति है. इसलिए कि किसान जो अनाज उपजाता है, उसको अपना दाम तय करने का अधिकार सरकारें प्रायः नहीं देतीं, इसलिए कि उसके पीछे पूंजी की ताकत का अभाव है. किसान अनाज का उत्पादन उसको अपनी आवश्यकता मानकर करता है. वह बाजार की भी आवश्यकता है, पूंजीवादी सरकारें और कभी–कभी संस्कार भी, उसे इसका बोध ही नहीं होने देते. किसान का अपनी भूमि के प्रति लगाव होता है. भारत जैसे देशों में तो कृष्ठ–भूमि को जननी के तुल्य मानने की परंपरा रही है. अब मां के ‘उपहार’ बाजार में व्यावसायिक लाभ के लिए कैसे उतारा जाए, किसान के आगे यह भी एक समस्या होती है, जिसके चलते वह अपनी उपज को ‘पूंजीगत उत्पाद’ स्वीकारने से झिझकता है, और उनके बदले वही मूल्य स्वीकार कर लेता है, जो पूंजीवादी तंत्र द्वारा निहित स्वार्थों के लिए मनमाने ढंग से तय किए जाते हैं.
कमोवेश यही श्रम की स्थिति है. मजदूर अपने श्रम का उत्पादक भले न हो, मगर वही उसकी एकमात्र पूंजी होती है. लेकिन श्रमिक अपना श्रम मात्र इसलिए बेचता है, ताकि उसके माध्यम से वह अपनी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके. पूंजीवादी तंत्र और उससे प्रभावित सरकारें किसान और श्रमिक में से किसी को भी उत्पाद–मूल्य निर्धारित करने की आजादी नहीं देतीं. उल्टे उन्हें बाजार के भरोसे छोड़ दिया जाता है, जहां उनके श्रम, कौशल एवं संसाधनों का भरपूर शोषण किया जाता है. येन–केन–प्रकारेण इस शोषण को धर्मसत्ता एवं राजसत्ता का समर्थन भी प्राप्त होता है. आशय यह है कि धर्मसत्ता, राजसत्ता और अर्थसत्ता तीनों ही श्रम के शोषण को एकजुट हो जाती हैं. पूंजीवादी व्यवस्था में श्रमिक से प्रतिरोध के सभी अवसर या तो छीन लिए जाते हैं, अथवा वे इतने मजबूत हो जाते हैं कि आर्थिक विपन्नता का मारा हुआ श्रमिक उनके विरोध की स्थिति में ही नहीं होता.
पुस्तक के इसी खंड में मार्क्स ने उपभोक्ता साम्रगी के उपयोग–मूल्य से इतर उसकी चलायमान प्रकृति का भी विश्लेषण किया है. वस्तुओं के मूल्य निर्धारण के लिए मुद्रा का उपयोग आजकल आम बात है. उससे पहले सहज विनिमय प्रणाली थी. जिसमें वस्तुओं का आदान–प्रदान जरूरत के अनुसार, उनके सामाजिक मूल्य को आधार बनाकर किया जाता था. मार्क्स के अनुसार सामाजिक मूल्य अथवा साधारण विनिमय प्रणाली के स्थान पर मुद्रा–आधारित विनिमय प्रणाली का चलन पूंजीवादी व्यवस्था का मुख्य लक्षण है. मुद्रा के उपयोग से विनिमय व्यावसायिक कूटनीति या लाभ का उद्यम मात्र बन जाता है. परिणामस्वरूप वस्तु का सामाजिक मूल्य गौण हो जाता है. वस्तुओं के मूल्यांकन में उनकी सामाजिक मूल्यवत्ता को गौण करने के लिए पूंजीवादी तंत्र राजनीति की भी मदद लेता है. उसके समर्थन पर पलने वाले अर्थशास्त्री उपभोक्ता सामग्री का मूल्यांकन करते समय उसके सामाजिक मूल्य, जो किसी वस्तु की मूल्यवत्ता का वास्तविक आधार है, की उपेक्षा कर देते हैं. उसने इस प्रवृत्ति को अवैज्ञानिक मानते हुए ‘अंधभक्ति’ या ‘बौद्धिक रूढ़िवाद’ की संज्ञा दी है. मार्क्स के अनुसार बौद्धिक रूढ़िवाद वास्तव में वह प्रक्रिया है जिसमें किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचते–पहुंचते अंततः यह भुला दिया जाता है कि उस विचार की व्युत्पत्ति समाज से हुई है, और तदनुसार उसके कुछ सामाजिक सरोकार भी हैं. इसका परिणाम यह होता है कि समाज विचार के मूलस्रोत, यानी वे तथ्य जो उस विचार का प्रेरणास्रोत रहे हैं, की उपेक्षा कर जाता है. नतीजा यह होता है कि व्यक्ति विचार को सहज–प्राकृतिक अथवा ईश्वरीय मानकर उसकी पूजा करने लगता है, जिससे समाज का वह वर्ग जो उस विचार से लाभान्वित हो सकता है, लगातार उपेक्षित और तिरष्कृत होता जाता है. इससे एक विचार जो उपयोगी एवं परिवर्तन का वाहक हो सकता है, रूढ़ि में ढलकर अपनी प्रखरता खो बैठता है.
मार्क्स ने बौद्धिक रूढ़िवाद अथवा जड़भक्ति की तुलना उस धार्मिक विश्वास से की है, जिसके अनुसार जीवन में व्यावहारिक रूप से असफल रहे लोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए एक अतींद्रिय शक्ति की परिकल्पना करने लगते हैं, मगर मानव–मस्तिष्क के ये उत्पाद यानी अतींद्रिय शक्तियां कालांतर में उनके अपने जीवन से परे, बल्कि पूरे मानव–समाज में एक स्वतंत्र सत्ता का रूप ले लेते हैं. जो काल्पनिक और मायावी होने के बावजूद यथार्थ से अधिक भरोसेमंद जान पड़ती हंै. मार्क्स के अनुसार उपभोक्ता सामग्रियां विनिमय के माध्यम से एक जीवन से दूसरे जीवन में प्रवेश करती जाती हैं. बाजार में आने से पहले वे उपभोक्ता–वस्तु न होकर मात्र उपयोगी वस्तु होती हैं; यानी उनके अपने बाजार का अभाव होता है. उसके विचार में ऐसा कोई रास्ता नहीं है जिससे किसी वस्तु की उपयोगिता को जांचा जा सके. उसके आकलन के लिए मात्र कुछ लक्षण होते हैं. मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था में बौद्धिक जड़वाद की स्थिति उस समय उत्पन्न होती है, जब सामाजिक आधार पर बंटे श्रमिकों को केंद्रीय सत्ता के द्वारा नियंत्रित किया जाता है, इस बीच उनके उत्पादन के संसाधन लगातार घटते चले जाते हैं. वस्तुओं के विपणन पर कोई नियंत्रण न होने पर वे यह कभी नहीं जान पाते कि उस वस्तु के उत्पादन की वास्तविक श्रम–लागत कितनी है. उस समय उनके श्रम का मूल्यांकन पुराने आंकड़ों के आधार पर कर लिया जाता है. इस प्रक्रिया का सीधा लाभ उत्पादक को होता है, जबकि मजदूरी की दरें पुराने स्तर पर बने रहने के कारण मजदूर न केवल विकास के अवसरों से वंचित रह जाता है, बल्कि निरंतर कम होती आय के कारण वह अपनी सामान्य जरूरतों को पूरा करने में भी असमर्थ रहता है. परिणामस्वरूप पूंजी का खिंचाव, केंद्र सरकार की ओर बना ही रहता है. इस प्रक्रिया में श्रमिक सदैव छला जाता है.
2. मुद्रा अथवा उपभोक्ता वस्तुओं का प्रचलन
पुस्तक के अगले और महत्त्वपूर्ण अध्याय में मार्क्स मुद्रा एवं उपभोक्ता वस्तुओं के प्रचलन तथा बाजार में उनकी गतिशीलता पर विचार करता है. मुद्रा के विभिन्न रूपों की वस्तुनिष्ठ समीक्षा करते हुए वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि उसका प्रमुख कार्य उपभोक्ता वस्तुओं को उनके निर्माण में काम आई श्रम–लागत के आधार पर अपने मूल्य को अभिव्यक्त करने की क्षमता प्रदान करना है. लेकिन वह अपने उद्देश्य में सदैव सफल हो यह आवश्यक नहीं है. उसके आधार पर किसी वस्तु की श्रम–लागत अथवा मूल्य के बारे में किया गया आकलन सच से परे, काल्पनिक अथवा यथार्थ से छतीस का आंकड़ा रखने वाला हो सकता है. इसका कारण यह है कि पूंजीवादी समाज में मुद्रा के मूल्य का निर्धारण समाज अथवा सरकार द्वारा किया जाता है. जबकि श्रम–मूल्य वस्तु–विशेष के उत्पादन में लगी श्रम–लागत का प्रदर्शन करता है. वह श्रम की यथार्थ स्थिति को दर्शाता है. यही कारण है कि आरोपित मूल्य युक्त मुद्रा, उपभोक्ता वस्तु का वास्तविक मूल्यांकन करने में असमर्थ रहती है.
किसी वस्तु द्वारा मूल्य के आकलन तथा उसके मानक–स्तर को बनाए रखने के लिए मुद्रा प्रायः दो दायित्वों का वहन करती है. पहला मूल्य का आकलन करते समय मानवीय श्रम का सामाजिक उदात्तीकरण करना. दूसरा किसी वस्तु के मानक मूल्य का अंकन उनके निर्माण में प्रयुक्त, धातु–विशेष की निश्चित मात्रा के बारे करना. यह कहीं भी किसी भी प्रकरण में हो सकता है, जहां वस्तु का मूल्यांकन किसी अन्य वस्तु में लगी श्रम–लागत के आधार पर पूरी ईमानदारी के साथ किया जाए. किंतु धातु–मुद्रा के रूप में किया गया आकलन प्रायः वास्तविकता से परे और काल्पनिक होता है, इसलिए कि इस प्रक्रिया के दौरान अक्सर वस्तु के सामाजिक मूल्यों की उपेक्षा की जाती है. यदि किन्हीं दो वस्तुओं के उत्पादन में खपी श्रम–लागत एक समान है तो, उस अवस्था में, आकलन की विश्वसनीयता बनाए रखना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है. मार्क्स का मानना था कि धातु–मुद्रा, चूंकि मानव का उत्पाद है, अतएव वह केवल वस्तु–विशेष के मूल्य का आकलन करने में सक्षम होती है,
पुस्तक के अगले के पृष्ठों में मार्क्स ने सुनिश्चित मूल्य–युक्त उपभोक्ता सामग्री को सम्मिलित किया है. वहां अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए वह गणितीय विश्लेषण का सहारा लेता है. वह उदाहरण देता है, मान लीजिए कि —
किसी उपभोक्ता क के ‘क’ का मूल्य = स स्वर्ण भार
इसी प्रकार ख वस्तु के ‘ख’ का मूल्य = द स्वर्ण भार एवं
ग वस्तु के ‘ग’ का मूल्य = र स्वर्ण भार
यहां ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ क्रमशः वस्तु क, ख और ग के सुनिश्चित द्रव्यमान की ओर तथा स, द, र उस वस्तु के सापेक्ष निश्चित स्वर्ण–द्रव्यमान की ओर संकेत करते हैं. वस्तुओं में विविधता के बावजूद वे एक विशिष्ट स्तर की मूल्यवत्ता रखती हैं. यह मूल्यवत्ता उनके और स्वर्ण की निश्चित मात्रा की ओर संकेत करती है, इसलिए मान लिया जाता है कि वस्तु विपणन–योग्य है. यह गुण किसी वस्तु को उपभोक्ता साम्रगी बनाने के लिए अनिवार्य है.
3. मूल्य
बाजार में यदि किसी वस्तु की मांग है, पूंजी के आधार पर उसका विपणन संभव है सामान्यतः यही मान लिया जाता है कि वह एक उपभोक्ता वस्तु है. इस मान्यता के अनुसार प्रत्येक उपभोक्ता वस्तु अपना खास मूल्य रखती है. यह बाजार में उसकी मांग के अनुरूप परिवर्तनशील होता है. नियमानुसार उपभोक्ता–मूल्य, वस्तु–विशेष के निर्माण में लगी श्रम–लागत को दर्शाता है. इसका आकलन सामान्यतः उस वस्तु के उत्पादन में लगे श्रम तथा अन्य वस्तुओं की श्रम–लागत के आधार पर लिया जाता है, ताकि उनके बीच अंतपर्रिवर्तनीयता बनी रहे. किसी वस्तु का मूल्य उसकी अंतपर्रिवर्तनीयता की जरूरत और बाजार में उसकी संभाव्यता का प्रतीक होता है.
उपभोक्ता वस्तु का अंतपर्रिवर्तनीय होना अनिवार्य है. इससे बाजार में उस वस्तु के स्तर एवं अन्य वस्तुओं के सापेक्ष संबंधों का निर्धारण होता है. सोना बाजार–मूल्य के हिसाब से आदर्श है. इसलिए कि न केवल उसकी बाजार में मांग होती है, बल्कि उसका मूल्य भी लगभग स्थापित होता है. यही कारण है कि सोने का उपयोग बाजार की आदर्श उपभोक्ता वस्तु की भांति किया जाता है, जिसके आधार पर किसी भी अन्य उपभोक्ता वस्तु का विपणन संभव है. इसलिए कि लगभग सभी समाजों में सोने का एक स्थापित मूल्य होता है. विपणन के लिए आदर्श धातु होने के बावजूद सामान्य प्रचलन में उसका उपयोग कम ही होता है. इसका कारण यह है कि सोने के आधार पर वस्तुओं का आदान–प्रदान हमेशा सहज नहीं होता.
मार्क्स ने उपभोक्ता वस्तुओं के विपणन के दौरान उनकी निरंतर परिवर्तशील स्थिति की ओर भी संकेत किया है. बाजार में वस्तुओं का मूल्य और उनकी आमद उनकी मांग के अनुरूप सतत परिवर्तनशील होती है. मार्क्स का मानना था कि वस्तु का ‘मूल्य’ उसके विक्रेता से संबद्ध होता है, जिससे उसके अधिलाभ की मात्रा तय होती है. क्रेता के लिए वस्तु का उपयोग मूल्य काम का होता है. वह वस्तु की खरीद के लिए तभी प्रेरित होता है, जब किसी वस्तु का उपयोग मूल्य उसके लिए उस वस्तु के बाजार–मूल्य से अधिक अथवा बराबर हो. उपभोक्ता सामग्री को बाजार में टिके रहने के लिए आवश्यक है कि ‘मूल्य’ के अलावा उसका ‘उपयोग मूल्य’ भी हो. इस प्रक्रिया को उसने सामाजिक खपत(सोशल मेटाबोलिज्म) कहा है. ‘सोशल मेटाबोलिज्म’ से मार्क्स का अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसमें कोई वस्तु—
‘उपयोग–मूल्य रहित हाथों(विक्रेता) से उन हाथों(उपभोक्ता) तक अंतरित होती है, जहां उसका उसका उपयोग–मूल्य हो.’
अंतरण की यह प्रक्रिया तभी संभव है जब विपणन के समय क्रेता के लिए उपभोक्ता वस्तु का उपयोग–मूल्य उसके ‘मुद्रा मूल्य’ से अधिक हो. यदि ऐसा नहीं है तो वह वस्तु की खरीद से किनारा करने लगेगा. परिणामस्वरूप कालांतर में वह वस्तु बाजार से गायब हो जाएगी. विपणन के दौरान विक्रय के लिए प्रस्तुत उपभोक्ता वस्तु तथा मुद्रा के बीच अघोषित स्पर्धा होती है, जिसमें उपभोक्ता वस्तु की स्थिति मुद्रा के समक्ष सदैव हीनतर होती है. मार्क्स के अनुसार उपभोक्ता वस्तु तथा बाजारू मुद्रा एक–दूसरे की प्रतिद्विंद्वी और अलग–अलग अस्तित्ववान होती हैं. विपणन की प्रक्रिया सोना अथवा मुद्रा के ‘अंतरण मूल्य’ एवं उपभोक्ता सामग्री के ‘उपयोग मूल्य’ की उपस्थिति में भी संभव हो पाती है. उपभोक्ता वस्तु के अंतरण मूल्य के कारण विक्रेता अथवा उसका स्वामी उसके विपणन द्वारा प्राप्त मुद्रा अथवा स्वर्ण–धातु का उपयोग, अपनी जरूरत की अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद के लिए कर पाता है. अपने सर्वव्यापी अंतरण मूल्य के कारण मुद्रा की भूमिका बाजार में अधिक महत्त्व रखती है. इसका परिणाम यह होता है कि उत्पादक उपभोक्ता वस्तुओं के ‘उपयोगिता मूल्य’ से अधिक ध्यान उसके ‘बाजार मूल्य’ की ओर देने लगता है. इन दोनों के बीच की रस्साकशी में वस्तु का बाजार मूल्य तो वही रहता है, मगर उसकी गुणवत्ता में लगातार गिरावट आने लगती है, परिणामस्वरूप उसका वास्तविक उपयोगिता मूल्य भी गिरने लगता है.
बाजार में मुद्रा के प्रचलन की शुरुआत किसी उपभोक्ता वस्तु की मुद्रा–आधारित अदला–बदली द्वारा होती है. हालांकि हर मुद्रा पूंजी का रूप ले, यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है. खरीद–फरोख्त की प्रक्रिया में उपभोक्ता वस्तु का अंतनिर्हित मूल्य, आर्थिक मूल्य का रूप ले लेता है. परिणामस्वरूप वह उपभोक्ता सामग्री प्रचलन से बाहर आकर उपभोग में ढल जाती है. उपभोक्ता सामग्री का बाजार से बाह्यागमन स्थायी भी हो सकता है और अस्थायी भी. अस्थायी बाह्यागमन की अवस्था में उस वस्तु का अंतरण आर्थिक मुद्रा में और प्राप्त आर्थिक मुद्रा का उपयोग पुनः किसी नवीन उपभोक्ता–सामग्री की खरीद के लिए किया जा सकता है; यानी वस्तु का क्रेता अधिलाभ–कामना अथवा किसी अन्य वस्तु से विनिमय के लिए, जिसका उसके लिए उपयोगिता–मूल्य पहले खरीदी गई वस्तु के उपयोगिता–मूल्य की अपेक्षा ज्यादा है, बाजार में उतार सकता है. स्पष्ट है कि बाजार में धन/मुद्रा की उपस्थिति उपभोक्ता वस्तुओं के प्रचलन को न केवल संभव बल्कि सरल–सुगम भी बनाती है. मुद्रा की सर्वस्वीकार्यता के बावजूद यह भी तथ्यगत है कि बाजार में प्रत्येक मुद्रा का स्वतंत्र मूल्य होता है, जो संबंधित देश की आर्थिक हैसियत और बाजार में उस मुद्रा की मौजूदगी के स्तर से निर्धारित होता है. मार्क्स के अनुसार किसी वस्तु का बाजार मूल्य जिन तीन बातों से प्रभावित होता है, वे हैं—
‘मूल्यों की गतिशीलता, बाजार में उपभोक्ता वस्तुओं की मात्रा तथा बाजार में मुद्रा के प्रचलन के वेग से प्रभावित होती है.’
बाजार में अपनी उपस्थिति को प्रभावी और गत्यात्मक बनाने के लिए मुद्रा सिक्कों के रूप में ढलती है. हर सिक्का अपने अंतनिर्हित मूल्य तथा सर्वस्वीकार्यता के लिए वस्तुओं के आदान–प्रदान में अपनी भूमिका का निर्वाह कहता है. अपनी सर्वस्वीकार्यता के कारण पहले स्वर्ण–मुद्रा का उपयोग किया जाता था. लेकिन उसकी कमी यह थी कि वह एक हाथ से दूसरे हाथ तक जाते–जाते घिसता जाता था, परिणामस्वरूप द्रव्यमान आधारित उसका मूल्य निरंतर कम होता रहता था. स्वर्णमुद्रा के उपयोग को लेकर अन्य खतरे भी कम नहीं थे. इसलिए आजकल राज्य के हस्तक्षेप से सिक्कों के बदले कागजी मुद्रा का उपयोग किया जाता है, जिसका प्रतीकात्मक मूल्य होता है. खतरे कागजी मुद्रा के भी कम नहीं हैं. वह राज्य की आर्थिक हैसियत तथा अंतरराष्ट्रीय उतार–चढ़ावों से भी प्रभावित होता है, तो भी आपेक्षिक रूप से मुद्रा ही विनिमय का सबसे उपयुक्त, सहज और विश्वसनीय माध्यम है.
बाजार में मुद्रा की मौजूदगी तथा उसके आधार पर वस्तुओं की निरंतर खरीद और बिक्री, विपणन की प्रक्रिया को संभव बनाती है. बाजार में स्वीकार्यता के आधार पर मुद्रा अथवा धन के विभिन्न रूप हो सकते हैं, जो अपने निर्दिष्ट मूल्यों के आधार पर विपणन प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में सहायक बनते हैं.
4. धन का पूंजी में अंतरण
‘दि दास कैपीटल’ लिखते समय मार्क्स की विवेचनात्मक क्षमता एकदम उफान पर रही होगी. बिना किसी प्रकार की जल्दबाजी और आपाधापी के वह पूंजी और तत्संबंधी प्रत्येक तथ्य का गहराई से अन्वीक्षण करता है. तदुपरांत बाजार में उसके महत्त्व और प्रभावोत्पादकता की गहन पड़ताल करने के बाद ही वह किसी निष्कर्ष तक पहुंचने का प्रयास करता है. उपभोक्ता वस्तुओं, उनकी मूल्यवत्ता तथा मुद्रा की अंतपर्रिवर्तनीयता के गुणों का विश्लेषण करता हुआ वह पूंजीवाद तथा उसके आधार पर विकसित वर्ग–संबंधों की गहन–गंभीर पड़ताल करता है. पुस्तक में वह न केवल पूंजी के बारे में विस्तार सहित बताता है, बल्कि उसकी उत्पादन–प्रविधियों पर की भी उतनी ही गहराई से समीक्षा करता है. मार्क्स का मानना था कि सभी प्रकार के धन–संपत्ति को पूंजी नहीं माना जा सकता. उसके अनुसार कुछ ‘धन सिर्फ धन’ होता है जबकि कुछ ‘धन पूंजी का रूप’ ले लेता है. ठीक ऐसे ही जैसे हर वस्तु उपभोक्ता वस्तु नहीं होती. उपभोक्ता वस्तु का स्तर प्राप्त करने के लिए प्रत्येक वस्तु को बाजार में अपना मूल्य स्थापित करना होता है. ठीक ऐसे ही धन अथवा संपत्ति को पूंजी का रूप लेने के लिए उसको उपभोक्ता वस्तुओं के बाजार में विपणन के दौरान अपनी सुनिश्चित मूल्यवत्ता दर्शानी होती है. मार्क्स के अनुसार बाजार में उपभोक्ता वस्तु के प्रचलन की दो प्रमुख प्रविधियां होती हैं—
क. साधारण प्रचालन अथवा सरल रैखिक प्रचालन
ख. पूंजी–उत्पादक एवं पुनरोत्पादन प्रचालन.
क. साधारण अथवा सरल रैखिक प्रचालन
साधारण अथवा सरल रैखिक प्रचालन में उपभोक्ता वस्तु का उत्पादन इसलिए किया जाता है, ताकि उसकी बिक्री से कोई अन्य उपभोक्ता वस्तु अर्जित की जा सके. मार्क्स ने इसे ‘खरीद के निमित्त बिक्री’ कहा था. यह प्रविधि छोटे अथवा सीमित समूह के मध्य विपणन के लिए आदर्श मानी जाती है. इसके अंतर्गत, खरीदी गई उपभोक्ता वस्तु अपने अंतनिर्हित उपयोग मूल्य के कारण बाजार से बाहर हो जाती है. मगर विक्रेता उसके बदले में प्राप्त धनराशि का उपयोग किसी अन्य भिन्न किस्म की उपभोक्ता वस्तु की खरीद के लिए कर सकता है, जिसका उसकी दृष्टि में विशिष्ट उपयोगिता–मूल्य है. इस बाजार में मुद्रा का प्रवाह बना रहता है. इस नियम के अंतर्गत हुए मुद्रा प्रचालन को मार्क्स द्वारा निम्न सूत्र के रूप में दर्शाया गया है.
उपभोक्ता वस्तु — धन — उपभोक्ता वस्तु.
यह वस्तु के प्रचालन की सामान्य अवस्था है. प्राचीन एवं अल्पविकसित समाजों में इसी प्रविधि को अपनाया जाता रहा है. गांवों में आज भी कुछ वस्तुओं का प्रचालन इसी प्रविधि के अनुसार किया जाता है. यह प्रविधि छोटे और स्थानीय बाजारों में जहां क्रेता और विक्रेता एक ही समाज का हिस्सा हों, अधिक उपयुक्त रहती है. उत्पादक एवं उपभोक्ता के निकटवर्ती संबंध होने के कारण इस प्रविधि में पूंजी का आधार उतना विकसित नहीं हो पाता.
ख. पूंजी–उत्पादक प्रचालन
प्रचालन की दूसरी सरल रैखिक प्रचलन का विलोम है. इसमें क्रेता अपने धन का निवेश किसी उपभोक्ता वस्तु की खरीद हेतु इस उद्देश्य के साथ करता है कि भविष्य में उसकी बिक्री द्वारा वह अतिरिक्त पूंजी अर्जित कर सकेगा. पहली प्रविधि का उपयोग प्रायः सीमित समाजों में अनिवार्य जरूरतों की पूर्ति के लिए जाता है. जबकि दूसरी प्रविधि पंूजी द्वारा संचालित अर्थव्यवस्था की सोची–समझी नीति का परिणाम होती है. इसमें क्रेता ही विक्रेता भी होता है. उसके लिए उपभोक्ता वस्तु का उपयोग–मूल्य अर्थविहीन होता है, इसके विपरीत उसकी निगाह वस्तु के बाजार मूल्य पर होती है. वस्तु का बाजार मूल्य ही उसको उसकी खरीद में निवेश के लिए उत्साहित करता है. मौद्रिक लाभ की संभावना के साथ ही वह मुद्रा के बदले प्राप्त की गई उपभोक्ता वस्तु को बेचकर पुनः मुद्रा प्राप्त कर लेता है. स्पष्ट है कि इस अवस्था में क्रेता के लिए वस्तु का उपयोग मूल्य कोई मायने नहीं रखता. इसके विपरीत उसकी निगाह वस्तु के बाजार मूल्य पर होती है. वही उसको विपणन प्रक्रिया में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करता है. इस स्थिति को आगे दिए गए सूत्र द्वारा भी अभिव्यक्त किया जा सकता है—
पूंजी — उपभोक्ता वस्तु — पूंजी.
इस प्रक्रिया को एक साधारण उदाहरण के माध्यम से भी समझा जा सकता है. पशुओं का व्यापारी पेंठ से दस भेड़ खरीदता है, फिर कुछ अवधि तक अपने पास रखने के बाद वह उन्हें दुबारा उन्हें उसी पेंठ में ले जाकर बेच आता है. यह कार्य वह लाभ के लिए करता है. हालांकि प्रत्येक स्थिति में लाभ ही हो, यह आवश्यक नहीं होता. दूसरी पद्धति का उपयोग मुख्यतः पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में किया जाता है. पूंजी को बढ़ावा देने वाली यह पद्धति बाजार के विस्तार के लिए भी अत्यावश्यक होती है. यदि कोई व्यक्ति अपने धन का निवेश उसपर बेहतर लाभ कमाने की वांछा से करता है, तो वह उसी वस्तु के विपणन पर ध्यान देगा जिसकी बाजार में मांग हो, जिसका अपना बाजार मूल्य हो. इसलिए वह अपनी पूंजी को सदैव परिचालन की अवस्था में रखता है. बाजार की मांग के अनुरूप वह एक के बाद दूसरी वस्तु में निवेश करता चला जाता है. उस अवस्था में पूंजी सदैव प्रचालन की अवस्था में होती है. विणपन की प्रक्रिया में उपभोक्ता वस्तु एक के बाद एक कई हाथों से होकर गुजरती है. हर प्रचलन के बाद वस्तु के मूल्य में विक्रेता के खर्चे और लाभांश जुड़ते चले जाते हंै, जिससे वह लगातार महंगी होती जाती है. क्रमिक विपणन की इस पद्धति में वस्तु का केवल बाजार–मूल्य बढ़ता है, जबकि उसका उपयोग मूल्य अपरिवर्तित रहता है. यह प्रविधि उपभोक्ता के हितों के प्रतिकूल होती है, लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था इसी पद्धति को अपनाती है. इससे उपभोक्ता वस्तु अपने अंतनिर्हित मूल्य में बगैर किसी वृद्धि के निंरतर प्रचालन रहती है.
उपभोक्ता वस्तु के प्रचालन की विभिन्न स्थितियों का विश्लेषण करने के उपरांत मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि बाजार में उपभोक्ता वस्तुओं का प्रचालन अथवा विपणन उनमें किसी भी प्रकार के अतिरिक्त मूल्य का सृजन नहीं करता. यद्यपि इस प्रक्रिया के दौरान श्रम की स्वाभाविक खपत होती है. चूंकि इस प्रक्रिया में वस्तु का अंतनिर्हित मूल्य अप्रभावी रहता है, उसमें किसी प्रकार की वृद्धि नहीं होती, अतएव प्रचालन की प्रक्रिया को गतिशील बनाए रखने के लिए कुछ न कुछ ऐसा अवश्य होना चाहिए, जो प्रचालन से भिन्न, उसका उत्प्रेरक हो. मार्क्स के अनुसार यह धन का पूंजी के रूप में बदलना है, उसने आगे लिखा है—
‘धन के पूंजी के रूप में ढलते जाने की प्रक्रिया का विकास इस नैसर्गिक नियम के आधार पर हुआ कि वस्तुओं का अंतरण(विपणन) इस प्रकार से किया जाए कि उनका विपणन–समतुल्यांक(बाजार मूल्य–उपयोगिता मूल्य) वस्तु के आरंभिक मूल्य के बराबर ही बना रहे.’
धन के विभिन्न रूपों, उसके साधारण रूप यानी जब वह सिर्फ धन की अवस्था में होता है तथा पूंजीवादी स्वरूप जब धन पूंजी का रूप ले लेता है, की व्याख्या करने के बाद मार्क्स उन स्थितियों का विश्लेषण करता है, जब कोई पूंजीपति अपनी आर्थिक हैसियत का लाभ उठाकर उपभोक्ता वस्तु के निरंतर प्रचालन से अपने लाभ में वृद्धि करता जाता है. उसका मानना था कि उपभोक्ता वस्तु का प्रचालन अथवा विपणन किसी अतिरिक्त मूल्य का सृजन नहीं करता. इस प्रक्रिया में केवल श्रम की खपत होती है. उस श्रम की उपादेयता केवल व्यापारी या पूंजीपति के लिए होती है, लेकिन उसका मूल्य उपभोक्ता को चुकाना पड़ता है, जिसके लिए वह श्रम किसी काम का नहीं होता. पूंजीवाद का विस्तार अपनी ही सोच जैसे मध्यस्थ व्यापारियों के बिना संभव नहीं है. इसके उपरांत वह एक पहेली की तरह पूछता है—चूंकि बाजार में उपभोक्ता वस्तु के प्रचालन के दौरान किसी प्रकार के मूल्य का सृजन नहीं होता, इसलिए प्रचालन में भी कुछ न कुछ ऐसा होना चाहिए जो स्वयं प्रचालन नहीं है. वास्तव में पूंजीवादी व्यवस्था में प्रचालन के अनेक स्तर ऐसे आते हैं, जब उपभोक्ता वस्तु उपभोक्ता तक जाने के बजाय केवल ऊपरी स्तर पर ही घूमती रहती है, जहां केवल वस्तु के बाजार मूल्य का ही महत्त्व होता है. इस कारण वस्तु अपने उपयोग–स्थल से सदैव दूर होती चली जाती है.
5. श्रमशक्ति का क्रय–विक्रय
साधारण धन और पूंजी की समीक्षा करने के बाद मार्क्स श्रम की विभिन्न स्थितियों पर विचार करता है. अपने विश्लेषण के अंतर्गत वह शारीरिक ही नहीं, मानसिक श्रम को भी सम्मिलित करता है. उसके अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु का उत्पादन करता है, जिसका निर्दिष्ट उपयोग मूल्य हो, तो वह श्रम की अवस्था में होता है. बाजार में श्रम–शक्ति की उपलब्धता श्रमिक की स्वतंत्रता पर निर्भर करती है. श्रमिक की स्वतंत्रता के दो पहलू हो सकते हैं. पहला तो यह कि वह श्रमिक के रूप में स्वतंत्र हो. उसको यह आजादी हो कि अपनी श्रम–संपदा का निवेश स्वेच्छापूर्वक एवं अपनी मर्जी के उत्पादन कार्य के निमित्त कर सके; और उसका पूरा लाभ भी उठा सके. इस दौरान उसको पक्का विश्वास होना चाहिए कि वह अपनी श्रम–शक्ति का निवेश एक निश्चित समय के लिए कर रहा है. अर्थात वह जब चाहे उस उत्पादन प्रक्रिया को छोड़ सकता है. यदि ऐसा नहीं है तो यह माना जाएगा कि श्रमिक अपने निर्णय के लिए स्वतंत्र नहीं है. उत्पादन प्रक्रिया से जुड़े रहना उसकी बाध्यता है. तब उसकी स्थिति दास के तुल्य ही मानी जाएगी, जिसके श्रम और श्रम–उत्पाद का सीधा लाभ उसके स्वामी को मिलता है. मार्क्स के अनुसार श्रमिक की स्वतंत्रता की दूसरी शर्त यह है कि वह पूरी तरह श्रम पर ही आश्रित होना चाहिए. क्योंकि यदि उसके पास अपने श्रम के अतिरिक्त भी बिक्री या निवेश के लिए कोई और माध्यम है, तब यह माना जाएगा कि वह उत्पादन का सामथ्र्य रखता है—अथवा उसके पास उत्पादन के लिए अनिवार्य कच्चा माल है. इन दोनों ही अवस्थाओं में वह श्रमिक के रूप में स्वतंत्र नहीं रह पाएगा.
यद्यपि मनुष्यों के बीच यह विभाजन कि उनमें से कुछ अपने श्रम के अतिरिक्त धन–संपत्ति अथवा उत्पादक–सामग्री के स्वामी हों; तथा कुछ के पास केवल अपनी श्रम–शक्ति हो—अनैसर्गिक है. यह उनके समाज के असमान आर्थिक विकास की ओर इशारा करता है. उत्पादन–संसाधनों के आधार पर उनकी आर्थिक–सामाजिक स्थिति में अंतर, उस समाज में मौजूद रही पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था का संकेतक है. मार्क्स का मानना था कि किसी समाज में पूंजीवादी शक्तियों का उदय और उनके अनुकूल स्थितियों का उत्पन्न होना, मात्र उसकी पूंजी और उपभोक्ता वस्तुओं के प्रचालन के आधार पर ही संभव नहीं है. उसका सीधा–सा अभिप्राय है कि श्रमिकों ने अपनी आजादी, हुनर और अपना श्रम, स्वेच्छा सहित अपने स्वामी–पूंजीपति के सुपुर्द कर दिया है, जो उत्पादनतंत्र और संसाधनों का स्वामी होने के कारण सदैव ेेलाभ की स्थिति में रहता है. वह श्रम–मूल्य का आकलन अपनी मर्जी से और अपने स्वार्थ के अनुरूप करता है. इससे शोषण की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है.
श्रम–शक्ति के मूल्यांकन का आदर्शरूप क्या हो? मार्क्स के अनुसार श्रम का मूल्यांकन उत्पादन और पुनःउत्पादन कार्यों में लगे श्रम के आधार पर किया जाता है. श्रम–शक्ति किसी भी जीवित व्यक्ति का वह सामथ्र्य होती है, जो वह बिना किसी अन्य साधन के खुद को जीवित रखने के लिए करता है. जिसके आधार पर व्यक्ति को आजीविका जारी रहने का भरोसा होता है. यह मनुष्य का वह प्राकृतिक सामथ्र्य है, जो आदिकाल से ही उसकी जिजीविषा का प्रतीक रहा है. प्रत्येक व्यक्ति की कुछ न कुछ मूलभूत आवश्यकताएं होती हैं. उन्हें जुटाने के लिए उसको कुछ न कुछ, शारीरिक अथवा मानसिक परिश्रम करना पड़ता है. यद्यपि श्रम के उत्पादक स्वरूप को बनाए रखने, शरीर को गतिशील बनाए रखने के लिए भोजन उसकी प्राथमिक अनिवार्यता होती है, तथापि मनुष्य का कार्य मात्र भोजन द्वारा ही नहीं चल जाता. समाज में रहने और वहां अपने सामान्य जीवन–स्तर को बनाए रखने के लिए उसको आवास एवं वस्त्र जैसी अन्य सामान्य सुविधाओं की भी आवश्यकता पड़ती है. श्रम–शक्ति के मूल्य का आशय व्यक्ति की उन सामान्य आवश्यकताओं के मूल्य से होता है, जिनका होना उस समाज में रहते हुए उसकी श्रम–शक्ति के स्तर को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अनिवार्य है. व्यक्ति की सामान्य आवश्यकताएं उसके देश और परिस्थितियों पर भी निर्भर करती हैं, जिन्हें स्पष्टतः पहचाना जा सकता है.
बाजार में श्रम–शक्ति की अबाध आपूर्ति पूंजी के हित में होती है. नियमित शिक्षण–प्रशिक्षण द्वारा श्रम–शक्ति की उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है. यह श्रमिक और उत्पादक दोनों के हित में होता है. तो भी पूंजीपति श्रम–परिष्कार हेतु किए गए व्यय को विशुद्ध व्यावसायिक दृष्टि से देखता है. वह सदैव इस प्रयास में रहता है कि इस मद में किए गए व्यय की न्यूनतम समय में अधिकतम भरपाई कर सके. श्रमिक की उत्पादकता को बनाए रखने के लिए उसकी मूलभूत आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाना जरूरी होता है. मूलभूत अनिवार्यताओं में भोजन–पानी तो प्राणीमात्र की नियमित जरूरत का हिस्सा होते हैं, जबकि वस्त्रादि की आवश्यकता एक अंतराल के बाद पड़ती है. मार्क्स ने इस बात के लिए विशेष आग्रहशील था कि श्रमिक के उपभोग की ये वस्तुएं उसको प्रचुर मात्रा में, उसकी मजदूरी के दम पर उपलब्ध होती रहनी चाहिए. मजदूरी की न्यूनतम सीमा क्या हो, इसका विश्लेषण वह पुस्तक के अगले अध्याय में करता है. मार्क्स के अनुसार न्यूतम वृत्तिका का स्तर इतना होना चाहिए, जिसके आधार पर वह अपनी शारीरिक–मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति बिना अपनी कार्यक्षमता को गंवाए पूरा कर सके.
मार्क्स के अनुसार उपभोक्ता सामग्री के रूप में श्रम–शक्ति की विडंबना यह है कि उसको उसके क्रेता तक एकाएक नहीं पहुंचाया जा सकता. बल्कि उसके लिए उत्पादन–कर्म जैसे माध्यम की आवश्यकता पड़ती है. श्रमशक्ति का यह गुण पूंजी पर निर्भरता का कारण है. श्रम–शक्ति का मूल्य श्रमिक की मूलभूत आवश्यकताओं के आधार पर पहले से ही निश्चित होता है. जबकि उपयोग–मूल्य की परिगणना बाद में की जाती है. पूंजीवादी व्यवस्था के अधीन संचालित प्रायः सभी देशों में पूंजीपति श्रमिक को उसकी मजदूरी का भुगतान एक निर्धारित अवधि बीतने से पहले नहीं करता. इसका अभिप्राय है कि श्रम के उपयोगिता मूल्य का लाभ प्रायः पूंजीपति के पक्ष में रहता है. श्रमिक को उसके श्रम का लाभ तत्काल और पूरा उपलब्ध हो, इसके लिए मार्क्स ने अपनी पुस्तक में कई सुझाव दिए हैं. जिनके बल पर पूंजीवादी समाज की बुराइयों से मुक्ति संभव है. श्रम–शोषण से मुक्ति का एक उपाय श्रम–शक्ति के सदुपयोग से भी है. श्रम–शक्ति के सदुपयोग को उसने तीन हिस्सों में बांटा है. श्रम अर्थात श्रम–प्रक्रिया. दूसरा वह आधार जिसपर श्रमिक अपनी श्रमशक्ति का उपयोग करता है और तीसरा श्रम–उत्पाद, जो श्रम और श्रम–प्रक्रिया के सुफल के रूप में प्राप्त होता है. विडंबना यह है कि श्रम–उत्पाद पूंजीपति की संपत्ति होता है. उसके मूल्य का निर्धारण वह अपने अधिलाभ की मात्रा को ध्यान में रखकर करता है. जबकि श्रमिक की वृत्तिका निर्धारण पूंजीपति द्वारा श्रमिक की मूलभूत आवश्यकताओं के आकलन के अनुसार किया जाता है. समाज में बेरोजगारी के चलते श्रम के बीच अघोषित प्रतिस्पर्धा शुरू होने से पूंजीपति का काम और भी आसान हो जाता है. जिससे वह वृत्तिका में कटौती करता है, परिणामस्वरूप श्रमिक को भी अपनी सामान्य आवश्यकताओं में कटौती करनी पड़ती है. दूसरी ओर बाजार पर एकाधिकार की स्थिति में पूंजीपति अपने अधिलाभ की मात्रा बढ़ाकर अपनी शर्तों के अनुरूप तय करता है. इस प्रक्रिया में जहां पूंजीपति सदैव लाभ की स्थिति में होता है.
6. स्थायी और अस्थायी पूंजी
पूंजी का उपयोग उत्पादकता की निरंतरता बनाए रखने, उसके लिए उपयुक्त श्रम, मशीनरी, कच्चे माल आदि की व्यवस्था करने के लिए किया जाता है. ‘दि कैपीटल’ में मार्क्स ने दर्शाया है कि पूंजी किस प्रकार कच्चे माल से लेकर श्रम आदि में अंतर्निहित उपयोग–मूल्य को बदलते हुए, उत्पाद में अपने लिए अधिशेष की व्यवस्था कर लेती है. अधिशेष वह राशि है जो किसी उत्पादन प्रक्रिया में कच्चे माल से लेकर, परिचालन तथा श्रम लागत तक हुए कुल व्यय को उसके उत्पाद के बाजार मूल्य में से घटाने के बाद प्राप्त होता है. पूंजीवादी व्यवस्था के लिए अधिशेष बहुत काम की चीज होती है. बल्कि यही वह प्रेरणा है, जिससे कोई पूंजीपति विशिष्ट उत्पादन–कर्म की ओर आकर्षित होता है. अधिशेष की अधिक मात्रा पूंजीपति के लाभानुपात की अधिकता को दर्शाती है. मार्क्स ने अधिशेष की गणना के लिए स्थायी पूंजी तथा अस्थायी पूंजी की संकल्पना प्रस्तुत की है. स्थायी पूंजी को परिभाषित करते हुए उसने लिखा है कि यह—
‘पूंजी का वह हिस्सा है, जो उत्पादन के माध्यम के रूप में उपयोग किया जाता है, जैसे कच्चा माल, सहायक सामग्री, श्रम तथा उसके साधन, जिनका मूल्य उत्पादन प्रक्रिया के दौरान परिमाणात्मक परिवर्तन से बचा रहता है.’
मार्क्स के अनुसार स्थायी पूंजी उत्पादन–प्रक्रिया के दौरान अपने परिमाणात्मक अपरिवर्तनकारी स्वरूप को बचाए रखती है. यहां तक कि कच्चे माल आदि की मूल्य–वृद्धि की स्थिति में भी उसके परिवर्तित मूल्य, बिना किसी नए मूल्य का सृजन किए स्वाभाविक रूप से उत्पाद में अंतरित हो जाते हैं, उसके अनुसार—
‘उत्पादन के स्रोत जो कच्चे माल के उपयोग–मूल्य को बदलने का दायित्व वहन करते हैं—वे उत्पाद में, श्रम–प्रक्रिया के दौरान उपयोगिता मूल्य में हुए उसके मूल्य–हृास से अधिक की वृद्धि करने में असमर्थ होते हैं.’
अस्थायी पूंजी और स्थायी पूंजी के भेद को दर्शाते हुए मार्क्स ने अस्थायी पूंजी को पूंजी का वह हिस्सा बताया है जो ऐसी श्रम–शक्ति के रूप में खर्च होता है, जो उत्पादन–प्रक्रिया के मध्य उसके मूल्य में परिवर्तन हेतु व्यय होती है. अस्थायी पूंजी के रूप में श्रमिक न केवल अपने सभी श्रम–कौशल का अंतरण करता है, बल्कि वह उत्पाद को अतिरिक्त मूल्यवत्ता भी प्रदान करता है, जो अधिशेष के रूप में जानी जाती है. पूंजीवादी व्यवस्था में मशीनरी का जैसे–जैसे स्वचालीकरण होता है, पूंजीपति की श्रम पर निर्भरता लगातार घटती जाती है. मशीनरी में हुए खर्च के बाद भी अपने लिए अतिरिक्त अधिलाभ की व्यवस्था कर लेता है. जिससे उसका लाभ निरंतर बढ़ता जाता है. अतिरिक्त लाभ का उपयोग वह पूंजी के रूप में और अधिक लाभार्जन के लिए करता है, जिसकी उसकी ओर पूंजी का निरंतर खिंचाव बना रहता है. पुस्तक में मार्क्स अतिरिक्त उत्पादन की स्थितियों की भी गंभीर समीक्षा करता है. उसके अनुसार अतिरिक्त उत्पादन का आशय उत्पाद की उस मात्रा से है जो अधिशेष मूल्य को दर्शाती है, जिससे मालिक का लाभ जुड़ा होता है.
7. कार्यदिवस
‘पूंजी’ के दसवें अध्याय में मार्क्स औद्योगिक प्रतिष्ठानों में कार्यदिवस की अवधारणा को स्पष्ट करता है. अपनी सामान्य जरूरतों की आपूर्ति के लिए मजदूर को निर्धारित घंटों तक कार्य करना पड़ता है. जब कोई श्रमिक अपनी आवश्यकता से अधिक समय तक कार्य करता है, तो वह उसका अतिरिक्त श्रम कहलाता है. पूंजीवादी व्यवस्था श्रमिक से आवश्यक श्रम–अवधि से सदैव अधिक कार्य लेने का प्रयास करती है. क्योंकि आवश्यक श्रम–घंटों अथवा उससे कम काम लेना उनके व्यावसायिक हितों के प्रतिकूल होता है. यह स्थिति श्रमिक और उद्योग–स्वामी के बीच द्वंद्वात्मकता को जन्म देती है, जिससे उनके बीच हितों की टकराहट शुरू हो जाती है.
आगे वह लिखता है कि किसी कारखाने का स्वामी वास्तव में पूंजी का ही मानवीकृत रूप होता है, जिसका एकमात्र उद्देश्य लाभार्जन होता है. वह कार्यदिवस के घंटों को सीमित रखने के लिए दो सुझाव देता है. पहला तो यह कि श्रम–शक्ति की भौतिक सीमाएं होती हैं. मजदूर भी अंततः एक प्राणी होता है. भोजन, वस्त्र, आराम और निद्रा उसकी मूलभूत आवश्यकताएं होती हैं, जिनके कारण एक सीमा के बाद उससे काम ले पाना असंभव होता है. भौतिक सीमाओं के अलावा कुछ नैतिक मर्यादाएं भी होती हैं, जो मनुष्य और पशु में अंतर करने, मनुष्य से काम लेते समय सामान्य शिष्ठता का पालन करने की अपेक्षा रखती हैं. नैतिक बाध्यताओं के कारण भी कार्यघंटों को एक सीमा से अधिक बढ़ा पाना असंभव होता है. वह लिखता है कि कारखाने में काम करने वाले—
‘प्रत्येक श्रमिक को अपनी सामाजिक और मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समय की दरकार होती है, उन आवश्यकताओं की संख्या और मात्रा उसकी सभ्यता के सामान्य मापदंडों द्वारा तय की जाती होती है.’
कारखाना मालिक चाहता है कि एक कार्यदिवस के दौरान श्रमिक से अधिक से अधिक काम लिया जाए, ताकि उसका मुनाफा बढ़ सके. दूसरे शब्दों में पूंजीपति किसी भी अन्य उपभोक्ता सामग्री के क्रेता की भांति वह अपनी उपभोक्ता वस्तु से अधिक से अधिक उपयोग मूल्य वसूल लेना चाहता है. श्रमिक के मामले में वह श्रम–कार्य होता है. श्रम–शक्ति का सामान्य गुण होता है कि वह अपनी कीमत से अधिक मूल्य की अधिरचना करती है. श्रम–शक्ति का मूल्य आमतौर पर सरकार या प्रशासन द्वारा अथवा उसकी सहमति पर पहले से ही तय किया गया होता है. बल्कि सभी उपभोक्ता सामग्रियां श्रम–शक्ति का ही ठोस रूपाकार होती हैं, जिनका लाभ पूंजीपति के पक्ष में जाता है.
श्रम के बारे में एक विडंबनाजन्य स्थिति यह है कि श्रमिक से आत्मनिर्णय के सारे अधिकार छीन लिए जाते हैं. यहां तक कि उसको अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भी पूंजीपति पर निर्भर होकर रहना पड़ता है. मार्क्स के अनुसार पूंजी की इमारत श्रम की लाश पर खड़ी होती है, जो चुड़ैल की भांति श्रमिक का खून चूसकर जीवित रह सकती है तथा जितना अधिक यह श्रम–शोषण करती है, उतना ही दीर्घायु प्राप्त कर लेती है. यही वह तर्क है तो एक पूंजीपति को कार्यदिवस के घंटों में वृद्धि के लिए निरंतर उकसाता रहता है.
यदि कोई कामगार जो अपनी एकमात्र उपभोक्ता वस्तु यानी श्रम को बेचने को उत्सुक है, चाहता है कि अगले कार्यदिवस तक वह पुनः अपने श्रम अर्थात अपनी एकमात्र उपभोक्ता सामग्री को पुनः जुटा सके तो इसके लिए उसको पर्याप्त भोजन, आराम, निद्रा आदि की आवश्यकता पड़ती है. आदर्श स्थिति यह है कि ये सुविधाएं श्रमिक को उसकी वृत्तिका से न केवल सहज उपलब्ध होनी चाहिए, बल्कि कुछ अतिरिक्त राशि जिसको उसके श्रम–लाभ की संज्ञा दी जा सकती है, भी मिलती रहनी चाहिए. ताकि वह अपने सामाजिक स्तर को बनाए रखने के साथ–साथ भविष्य की ओर से भी निश्चिंत रहे. उसको यह भरोसा रहे कि पूंजीपति उसके हितों को लेकर गंभीर है. मगर व्यावहारिक रूप में ऐसा नहीं हो पाता. स्वार्थी पूंजीपति श्रम के तात्कालिक लाभों पर ही विचार करता है. परिणाम यह होता है कि श्रमिक के लिए शोषणकारी स्थितियां लगातार बढ़ती जाती हैं. यदि कार्य–घंटों में वृद्धि होती है तो पूंजीपति–स्वामी को उतनी श्रम–शक्ति से जितनी वह एक दिन में जुटा पाता है, अधिक मात्रा में श्रम–शक्ति उपलब्ध होती है. इससे श्रमिक की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ता है. श्रम से अतिरिक्त मात्रा में काम लेेने से उसकी एक कार्यदिवस में श्रम–शक्ति सहेजने की मानवीय क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. यानी जो बात पूंजीपति के लिए लाभ का सृजन करती है, वही श्रमिक के लिए घाटे का सौदा बन जाती है.
मार्क्स अपनी बात को एक उदाहरण के जरिए साफ करता है. वह लिखता है कि मान लीजिए कि एक श्रमिक सामान्यतः तीस वर्ष तक कुशलतापूर्वक काम करने का सामथ्र्य रखता है. तब उसके कुल श्रम–कार्य के अनुसार उसकी एक दिन की श्रम–शक्ति का मूल्य होगा: 1/(365 गुणा 30) अथवा 1/10,950 वर्ष. यह तब है, जब श्रमिक से उसकी कार्यक्षमता के अनुरूप कार्य लिया जाता है. कार्य के साथ–साथ उसको आराम का भी पूरा अवसर दिया जाता है. लेकिन यदि श्रमिक से बहुत ज्यादा और प्रतिकूल परिस्थितियों में काम लिया जाता है, तब यह संभव है कि वह केवल 10 वर्षों तक ही अपनी कार्यक्षमता को बनाए रख सके. उस अवस्था में उसके एक दिन का श्रम–मूल्य होगा: 1/365गुणा10 अथवा 1/3650 काम लिया जाता है. स्पष्ट है कि उस अवस्था में श्रमिक को अपनी श्रमशक्ति का तीन गुना कार्य करना पड़ेगा, जबकि मालिक की ओर से उसको मात्र एक दिन के बराबर ही श्रम–मूल्य का भुगतान प्राप्त होगा. उस अवस्था में श्रमिक स्वयं को छला हुआ अनुभव करेगा. न्यायोचित यही है कि श्रमिक से उसकी कार्यक्षमता के अनुसार काम लिया जाए. साथ ही उसे अपने श्रम का अनुकूल मूल्य प्राप्त हो तथा मालिक को उसका कार्य. लेकिन ये दोनों स्थितियां विरोधाभासी हैं. उचित सामन्जस्य के अभाव में ये पूंजीपति और श्रमिक के हितों में टकराहट को जन्म देने वाली हो सकती हैं.
अपने विश्लेषण में मार्क्स ने न केवल श्रम की शोषणकारी स्थितियों का चित्रण किया है, बल्कि उसने बालश्रम और महिलाओं के मामले में श्रम को लेकर होने वाले अनाचार पर भी खुलकर लिखा था. पुस्तक में मार्क्स ने माचिस के कारखानों, डबलरोटी बनाने वाली फैक्ट्रियों, जूते के फीते, पाट्री, वालपेपर, लोहे का काम करने वाले, सिलाई, महिलाओं के लिए टोपी बनाने वाले कारखानों में श्रमिकों की अमानवीय स्थितियों का उल्लेख किया है. मार्क्स के अनुसार कानून की कमजोरी का लाभ उठाकर पूंजीपति अपने कारखानों में बालमजदूरों को नौकरी पर रखता है, ताकि कम भोजन और वेतन में उनसे अधिक से अधिक काम ले सके.
मार्क्स ने उदाहरण देकर बताया था कि उन कारखानों में अमानवीय परिस्थितियों में काम करते हुए बाल–मजदूरों को अनेक बार अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ जाता है. प्रतिदिन अठारह से बीस घंटे काम करते–करते उनके अंग अकड़ने लगते हैं. चेहरे पर पीलापन छा जाता है. अनेक बीमारियां उन्हें हर समय घेरे रहती हैं. समय पर उपचार न होने के कारण उनमें से बहुत असमय ही मौत का शिकार बन जाते हैं. दरअसल मार्क्स ने बालश्रम के मुद्दे को बहुत ही संवेदनशीलता से लिया था. वह भावुक कवि तो था ही. इसलिए यह भी नामुमकिन नहीं लगता कि कारखानों में बाल–श्रमिकों के उत्पीड़न और उनकी मौतों ने ही उसे पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की तीखी आलोचना के लिए प्रेरित किया हो. तत्कालीन समाज में श्रमिक वर्ग की दुर्दशा का वर्णन करते हुए मार्क्स ने पूंजीवादी व्यवस्था की कमजोरियों का भी खुलासा किया था.
पूंजीवादी कारखानों में हो रहे शोषण का विवरण पेश करते समय मार्क्स ने वहां जाने वाले डाॅक्टरों के अनुभवों तथा समय–समय पर समाचारपत्रों में प्रकाशित रिपोर्टाें का सहारा लिया था. उसने लिखा था कि कारखानों में बच्चों और स्त्रियों से लिया जाने वाला कार्य उनकी कार्यक्षमता से कहीं अधिक है. बदले में उन्हें बहुत कम मजदूरी मिलती है, जिससे वे अपनी सामान्य आवश्यकताएं पूरा कर पाने में भी असमर्थ रहते हैं. जिन परिस्थितियों में श्रमिकों को सामान्यतः कार्य करना पड़ता है, वे अप्रीतिकर और स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक हैं. और वे श्रमिकों के जीवन को शनैः–शनैः मौत के मुंह में ढकेल रही हैं. श्रमिक को श्रम का स्रोत बताते हुए उसने लिखा था कि कार्य के दौरान मजदूर को पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराना उतना ही अनिवार्य है, जैसे मशीन तेल की आवश्यकता पड़ती है तथा भाप के इंजन को कोयला और पानी की. इंग्लेंड के कारखानों में बाल–श्रमिकों की दुर्दशा का अत्यंत दयनीय चित्रण करते हुए उसने अपने महाग्रंथ ‘पूंजी’ में लिखा था कि—
‘हालांकि दावा एक सभ्य समाज का था, परंतु वहां पर फीते बनाने के कारखानों में काम करने वाले अधिकांश बाल–मजदूर गंदी, अभावग्रस्त और अमानवीय स्थितियों में कार्य करते थे. एक ही स्थान पर रहते हुए उन्हें वर्षों बीत जाते थे. इस बात का पता भी नहीं चल पाता था कि उनसे परे की दुनिया कैसी है. नौ–दस वर्ष के मासूम बच्चों को प्रातःकाल मुंह–अंधेरे चार बजे; और कभी–कभी तो प्रातः दो बजे से ही उनके गंदे बिस्तरों से खींचकर काम पर झोंक दिया जाता था, जहां उन्हें बिना किसी विश्राम के केवल इतने भोजन पर कि वे सिर्फ जीवित रह सकें, रात के दस–ग्यारह और कभी–कभी तो बारह बजे तक काम करना पड़ता था. उनका बदन नंगा रहता था. चेहरे भूख और कुपोषण से सफेद पड़े होते थे, आंखें हताशा से पथरा–सी जाती थीं. इस तरह भीषण अमानवीय स्थितियों में उनसे काम लिया जाता था.’
उन दिनों ब्रिटेन समेत पूरे यूरोप में जहां–जहां मशीनीकरण की हवा चली थी, बेरोजगारी का संकट बढ़ा था. गांवों में स्थिति और भी शोचनीय थी, क्योंकि वहां पर स्थानीय उद्योग–धंधे पूरी तरह चैपट हो चुके थे. भीषण गरीबी के कारण माता–पिता अपने बच्चों को उन नारकीय परिस्थितियों में काम पर भेजने के लिए के लिए विवश थे, जहां सामान्य स्थितियों काम करने की उनकी स्वयं की हिम्मत भी जवाब दे जाती. बाकी मजदूरों, कामगारों यहां तक की साधारण नौकरीपेशा लोगों की हालत भी संतोषजनक नहीं थी. काम के बोझ के कारण वे सदैव तनाव में रहते थे. इससे उनकी कार्यकुशलता भी नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई थी. सरकार और प्रशासन पूंजीपतियों के सतत दबाव में रहते थे, इसलिए उनसे मनचाहे फैसले करा लेना, स्थानीय पूंजीपतियों के लिए बहुत आसान था. एक उदाहरण द्वारा मार्क्स ने नई व्यवस्था के दौरान प्रशासन की कार्यप्रणाली में आए अमानवीय बदलावों की ओर इशारा किया गया था—
‘(एक बार) अचानक हुई रेल दुर्घटना ने सैकड़ों व्यक्तियों की जान ले ली थी. दुर्घटना के कारणों की पड़ताल कर रहे आयोग के सामने दुर्घटना के जिम्मेदार माने जा रहे तीन व्यक्तियों को बुलाया गया था. उनमें एक गार्ड था, एक इंजन–ड्राइवर और तीसरा था—सिगनलमेन. हालांकि उस दुर्घटना के लिए उन तीनों का दोष उतना नहीं था. केवल उनका दुर्भाग्य ही उस दुर्घटना का जिम्मेदार था. मुकदमें के दौरान तीनों ने लगभग एक ही बात कही. उन्होंने बताया कि दस–बारह वर्ष पहले तक उनकी ड्यूटी केवल आठ घंटे की होती थी. लेकिन पिछले पांच–छह वर्षों से उन्हें प्रतिदिन चौदह से बीस घंटे तक कार्य करना पड़ रहा है. अवकाशकालीन दिनों में तो, जब रेलगाड़ियों में सवारियों की भरमार रहती है, उनको बगैर आराम किए, बिना रुके, चालीस से पचास घंटे तक लगातार कार्य करना पड़ता है. तीनों ने एक स्वर में बताया कि वे कोई देवदूत नहीं, साधारण इंसान हैं. दुर्घटना के समय आलस्य ने उन्हें जकड़ लिया था. उनके दिमाग ने सोचना बंद कर दिया था, आंखें आगे देखने का सामथ्र्य खो चुकी थीं.’
दुर्घटना का विश्लेषण करते हुए मार्क्स ने आगे लिखा था कि ये सभी बातें स्वाभाविक हैं. यदि गंभीरतापूर्वक विचार करके देखा जाए तो तीनों ही निर्दोष सिद्ध होते हैं. दोष रेलवे प्रशासन का था जो उन कर्मचारियों से उनकी कार्यक्षमता से कई गुना काम लेने का अपराध कर रहा था. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से अदालत ने उन तीनों को अनुचित रूप से गाड़ी चलाने तथा मानवहत्या का दोषी पाया. यह निर्णय तत्कालीन व्यवस्था की प्रशासनिक खामियों को पूरी तरह नजरंदाज करने वाला और लगभग अमानवीय था. मार्क्स ने आगे लिखा था—
‘तब उन न्यायाधीशों ने मुकदमें पर अपना निर्णय सुनाते हुए तीनों अभियुक्तों को उपयुक्त सजा के लिए अगले न्यायालय को सौंप दिया. अपने फैसले में उन्होंने यह आशा जताई कि आगे से रेलवे विभाग मजदूरों को खरीद पर कुछ और धन खर्च करने की उदारता दिखाएगा, ईमानदारी से काम करेगा तथा न्यूनतम सरकारी खर्च में काम भी चलाएगा.’
न्यायाधीश की यह टिप्पणी न्यायभावना के पूरी तरह विरुद्ध और एक तरह से समूचे घटनाक्रम पर पर्दा डालने वाली थी. इसपर भी पूंजीपति समर्थक समाचारपत्रों को न्यायालय के इस निर्णय में खामी नजर आई तथा उसने निर्णय की आलोचना करते हुए न्यायाधीशों को खूब कोसा. इस उदाहरण से स्पष्ट है कि तत्कालीन पूंजीपतियों के लिए उनका मुनाफा ही सबकुुछ था. मानवीय स्वास्थ्य, संवेदनाओं यहां तक कि सरकारी नियमों–कानूनों आदि की उन्हें कोई चिंता ही नहीं थी. नई व्यवस्था ने आम आदमी, छोटे कर्मचारियों, शिल्पकर्मियों के शोषण एवं उत्पीड़न को बढ़ावा दिया था. एक और उदाहरण द्वारा मार्क्स ने तत्कालीन समाज के पूंजीवादी चेहरे, उस समय के प्रशासन की संवेदनहीनता एवं उनके अमानवीय चेहरे को बेनकाब करने का प्रयास किया है. इसके लिए वह ‘पूंजी’ में जून 1863 के अंतिम सप्ताह में दैनिक ‘लंदन’ में प्रकाशित एक अन्य समाचार का उल्लेख करता हैं—
‘‘जून 1863 के अंतिम सप्ताह में दैनिक समाचारपत्र ‘लंदन’ ने एक समाचार झकझोर देनेवाले शीर्षक के साथ प्रकाशित किया था. शीर्षक था—‘काम के बोझ के कारण मौत.’ समाचार में महिलाओं की टोपी बनाने वाली फैक्ट्री में काम करने वाली बीस वर्ष की एक युवती मेरी अन्ना वाॅकले के निधन की दुःखद सूचना प्रकाशित हुई थी. मेरी वाकले वस्त्र–निर्माण से जुड़े लंदन के एक प्रतिष्ठित कारखाने में कार्य करती थी, जो लंदन के टोप बनाने वाले बेहतरीन कारखानों में शुमार होता था. कंपनी की महिला मालकिन मेरी वाकले सहित वहां काम करने वाली बाकी लड़कियों का भी खूब शोषण करती. वह घाघ महिला मेरी को लुभावने नाम ‘एलीस’ द्वारा पुकारती थी. आगे की कहानी वही है जो कई बार सुनाई जा चुकी है. वह लड़की यानी ऐनी मेरी वाकले प्रतिदिन औसतन साढ़े सोलह घंटे कार्य करती थी. सीजन के दिनों में जब फैक्ट्री में काम का दबाव रहता, उसे तीस–तीस घंटे तक बिना आराम किए, लगातार कार्य करना पड़ता था. काम के बोझ से थकी हुई लड़कियों को काफी और शराब परोसी जाती, ताकि थकान की अनुभूति के बिना वे लगातार काम पर डटी रहें.
वेल्स की राजकुमारी का आगमन था. उसके स्वागत में सम्मानित परिवारों की महिलाएं एक नृत्य प्रस्तुत करनेवाली थीं. मेरी वाॅकले के कारखाने को उस विशेष अवसर के लिए पोशाकें तैयार करनी थीं. काम का दबाव अत्यधिक था. इसलिए एक छोटे–से कमरे में तीस लड़कियां एक साथ काम पर लगी रहतीं. उनमें से प्रत्येक के हिस्से में मात्र एक–तिहाई वर्ग फुट हवा आती थी. कारखाने में मेरी वा॓कले साठ और लड़कियों के साथ काम पर जुटी हुई थी. बिना किसी आराम के रात–दिन काम करते हुए उन्हें छब्बीस घंटे से अधिक बीत चुके थे. आखिर जब काम करते–करते बदन बुरी तरह टूटने लगा तो कारखाना मालिक की परवाह न कर वे सभी लड़कियां गत्ते खड़े करके बनाए गए एक बेहद संकरे स्थान पर आराम करने के लिए जोड़े बनाकर, उकड़ूं लेट गईं. आने वाले शुक्रवार के दिन मेरी बीमार पड़ी और तीसरे ही दिन; यानी रविवार को वह मर गई. उसकी रक्षा के लिए मेडम एलीस ने कोई चमत्कार नहीं किया, ना उसपर किसी ने कोई दया की. मरते समय मेरी वाॅकले के हाथ में वही काम था जिसे उसने पिछली रात सोने से पहले पूरा किया था. डाॅक्टर को बुलाने में भी लापरवाही बरती गई. उसे ठीक उस समय बुलाया गया जब कि कोर्ट में जूरी के सामने गवाही होनी थी. हड़बड़ी में डाॅक्टर ने वक्तव्य दिया कि—‘मिस मेरी एनी वा॓कले की मृत्यु एक भीड़ भरे कक्ष में घंटों तक लगातार कार्य करते रहने के कारण हुई है. जिस कमरे में वह बाकी लड़कियों के साथ काम कर रही थी, वह बहुत छोटा था, उसमें हवा आने–जाने का भी ढंग से इंतजाम नहीं था।’’
डा॓क्टर का वक्तव्य सत्य एवं प्रामाणिक था. सारा दोष कारखाना मालिकन का था, जो लड़कियों से उनकी कार्यक्षमता से कई गुना काम ले रही थी. न्याय के पक्ष में उसको दंडित किया जाना आवश्यक था. बावजूद इसके मामला जब न्यायालय में पहंुचा तो उसने कारखाने की मालिकन का ही पक्ष लिया. मामले की गंभीरतापूर्वक समीक्षा करने के बजाय अदालत ने उसके तुरंत निपटान पर जोर दिया. मार्क्स लिखता है—
‘‘डाक्टर को बहुत बाद में ज्यूरी के समय बयान देने के लिए बुलाया गया. सम्मानित न्यायाधीशों के समक्ष दिए गए बयान को सम्मानित रूप देते हुए अपने फैसले में जज ने लिखा—‘मृतक दिमागी मूर्छा के कारण मरी है. तथापि यह मानने का भी कारण है कि उसकी मृत्यु कार्य की अधिकता तथा एक ही कमरे में अत्यधिक भीड़ के कारण हुई है…’ जज की यह टिप्पणी एक तरह से समूचे घटनाक्रम पर पर्दा डालने वाली थी, इसपर भी ‘माॅर्निंग स्टार’ जैसे पूंजीपति समर्थक समाचारपत्रों को इस फैसले में खोट नजर आया. निर्णय की जमकर आलोचना करते हुए उन्होंने न्यायाधीशों को ‘श्वेत दास’ तक कहा था।’’
पूंजीपति कारखानों में हो रहे शोषण को लेकर हालांकि मार्क्स से पहले भी निरंतर लिखा जाता रहा था, किंतु जितनी प्रामाणिकता के साथ इस विषय पर मार्क्स ने लिखा, उसका प्रभाव दीर्घजीवी और युगांतरकारी था. कारखानों में हो रहे अनाचार को सामने लाने के लिए मार्क्स ने अखबारों, पत्र–पत्रिकाओं, बैठकों और सेमीनारों के माध्यम से समाज में चेतना लाने का काम किया. उसने न केवल स्वयं इस विषय पर लगातार लिखा, बल्कि समकालीन लेखकों को भी इसके लिए खूब प्रेरित किया.
मार्क्स की चिंता केवल श्रमिकों के कार्य–घंटे तय किए जाने तक ही सीमित नहीं थी. श्रम के सदुपयोग को लेकर भी उसने कई उपयोगी सुधार दिए थे. उसका मानना था कि स्थायी पूंजी यानी श्रम का उपयोग उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन हेतु किया जाता है. उसका सदुपयोग राष्ट्रकल्याण, श्रमकल्याण के साथ–साथ पूंजीपति के हितों के लिए भी आवश्यक है. यदि वह अनुपयोगी अवस्था में रह जाए तो समाज में श्रम का अतिरेक होने लगता है. यदि किसी कारखाना मालिक को रात–दिन कारखाना चलाने की आवश्यकता आन पड़ती है, तो वह शिफ्टों में काम लेने पर विचार करता है. यदि वह चाहे तो श्रमिकों को भरपूर आराम देने के साथ अतिरिक्त कार्य का न्यायिक भुगतान करके भी अपनी उत्पादकता में सुधार कर सकता है. हालांकि अतिरिक्त कार्य की भी सीमा है. वह कभी भी मजदूर की कार्यक्षमता से बढ़कर नहीं होना चाहिए. बावजूद इसके पूंजीपति स्वामी सामान्यतः यही प्रयास करता है कि वह न्यूनतम भुगतान के बदले अधिकतम काम ले सके. यह प्रवृत्ति न केवल शोषणकारी है, बल्कि श्रमिक के हितों के सर्वथा प्रतिकूल भी है. यह अनेक बुराइयों को जन्म देने वाली एवं आत्मघाती भी है.
यह सच भी किसी से छिपा नहीं था कि कारखाना मालिक समान कार्य के लिए बच्चों और स्त्रियों को कम मजदूरी देते हैं. उनमें अधिकांश से रात की पारी में, सर्वथा प्रतिकूल स्थितियों में काम लिया जाता है. वस्तुतः कारखाना मालिकों को लगता था कि दिन में काम करने वाले वयस्क श्रमिकों से देर समय तक काम लेने पर वे अगले दिन अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर पाएंगे. अधिकांश कारखाना–मालिक रात की पारी के लिए बच्चों को विशेषरूप से चुनते थे. कुछ काम ऐसे भी होते जिन्हें बच्चों से आसानी से कराया जा सकता था. ऐसे कार्यों के लिए प्रायः बच्चों को नौकरी पर रखा जाता और विषम परिस्थितियों के बावजूद उनसे काम लिया जाता था. कई बार ऐसा भी होता जब अगली पारी में काम पर आने वाला बालक छुट्टी पर होता है. उस अवस्था में उन्हें अगली पारी में भी लगातार काम करना पड़ता है. कई पारियों में चलने वाले कारखानों में ऐसी स्थितियां अक्सर उत्पन्न होती रहती हैं. बालश्रमिकों को उत्पीड़न से उबारने के लिए मार्क्स ने सलाह दी थी कि उनसे रात की पारी में काम लेने की प्रवृत्ति पर रोक लगनी चाहिए. यदि जरूरी हो तो यह कार्य सख्त कानून बनाकर किया जाना चाहिए.
मार्क्स कारखानों में कार्यघंटों को सीमित किए जाने के पक्ष में था. इसके लिए उसने न केवल समाचारपत्र–पत्रिकाओं में कई लेख लिखे थे, बल्कि इस संबंध में चलने वाले श्रम–आंदोलनों का भी नेतृत्व किया था. मार्क्स ने लिखा था कि आदर्श अवस्था तो यह होगी कि चैबीस घंटे काम करने वाले कारखानों के मालिक प्रत्येक कार्यदिवस के लिए अलग मजदूरों की नियुक्ति करें. ताकि श्रमिकगण अपनी अगली पारी के लिए भरपूर आराम कर सकें. किंतु यह एक विडंबना ही है कि पूंजीपति की निगाह में मजदूर का महत्त्व केवल काम करने वाली मशीन जितना होता है और कई मामलों में तो मशीन से भी कम. उसकी सदैव यही कोशिश होती है कि वह अपने अधीन श्रमिक से किसी भी प्रकार अतिरिक्त कार्य ले सके. श्रमिक का निजी जीवन, उसकी चिंताएं और एवं समस्याएं पूंजीपति के लिए अर्थविहीन होती हैं. यही नहीं, एक श्रमिक का औसत जीवनकाल भी पूंजीपति के लिए कोई मायने नहीं रखता, सिवाय इसके कि वह उससे किसी न किसी प्रकार अधिकतम काम ले सके.
मार्क्स इसे श्रमिकों के लिए भी चुनौतीपूर्ण मानता था. उसका मानना था कि कारखाना मालिकों द्वारा अपने श्रमिकों से आवश्यकता से अधिक काम लेना दोधारी तलवार पर चलने के समान है. इससे जहां श्रमिकों की कार्यक्षमता प्रभावित होती है, वहीं उनके मन में कारखाना–स्वामियों के प्रति आक्रोश भी पनपता है. अपनी क्षमता से बाहर लगातार कार्य करने से उनकी उनकी कार्यक्षमता में गिरावट आती है. यह स्थिति कालांतर में श्रमिक–स्वामी संबंधों में विघटन और तनाव की स्थितियों को जन्म देती है. उसका मानना था कि यदि श्रमिकों से उनके सामर्थ्य के अनुरूप काम लिया जाए और यह सोचकर काम लिया जाए कि अगले दिन भी उनकी कार्यकुशलता तो यथानुरूप बनाए रखना है, तो वह अपने हितों की बेहतर देखभाल कर सकता है. इसका परिणाम यह होगा कि कारखाना मालिक को लंबे समय तक दक्ष श्रमिकों की उपलब्धता बनी रहेगी. यदि किसी श्रमिक से निर्धारित कार्यघंटे पूरे होने पर भी काम लिया जाता है तो श्रमिक को अपनी कार्यकुशलता बनाए रखने के लिए अतिरिक्त भरण–पोषण की जरूरत पड़ेगी, ताकि वह काम के दौरान खर्च हुई ऊर्जा का पुनरुत्पादन कर सके और अगले दिन कारखाना–स्वामी को उसकी आवश्यकतानुसार श्रम–सामथ्र्य उपलब्ध हो सके. कारखाना मालिक जब ऐसा महसूस करने लगे तो समझना चाहिए कि उसने श्रम के महत्त्व को स्वीकार कर लिया है. मगर होता इसके विपरीत है. इसलिए कि दो श्रमिकों से काम लेने के बजाय एक ही श्रमिक के कार्यघंटे बढ़ाकर काम लेना पूंजीपति को अपेक्षाकृत सस्ता पड़ता है. अतएव अपने तात्कालिक हितों को प्रमुखता देते हुए वह एक ही श्रमिक से अतिरिक्त काम लेने के विकल्प को चुनता है. उसका लगातार यही प्रयास होता है कि अतिरिक्त कार्य भी वह न्यूनतम मजदूरी के भुगतान के आधार पर प्राप्त कर सके. इससे श्रमिक पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है. मार्क्स के अनुसार यह प्रवृत्ति पूंजीपतिवर्ग के लिए तात्कालिक रूप में भले ही लाभकारी हो, मगर अंततः इससे श्रमिक और पूंजीपतिवर्ग दोनों का ही नुकसान होता है. इससे श्रमिक की उत्पादकता घटती है. वहीं पूंजीपति को इसका खामियाजा गुणवत्ता में गिरावट और श्रमिक विद्रोह के रूप में भुगतना पड़ता है. सरकार पर भी श्रम–कल्याण कानून बनाकर उन्हें सख्ती से लागू करने का दबाव बना रहता है.
उस दिनों पूरे यूरोप में कार्यघंटों को निर्धारित करने के लिए बहस छिड़ी हुई थी. पूंजीवाद समर्थक अर्थशास्त्रियों तथा श्रमिक नेताओं–बुद्धिजीवियों के इस बारे में अलग–अलग विचार थे. अपने अभियान में उन्हें प्रारंभिक सफलता भी मिल रही थी. ओवेन जैसे उदार समाजवादी–पूंजीपति पहले ही अपने कारखानों में कार्यघंटों को सीमित करने की घोषणा कर चुके थे. सरकार और कारखाना–मालिकों पर भी पूरा–पूरा दबाव था. भोजनकाल को छोड़कर कार्यघंटों को सीमित किए जाने की अनिवार्यता को लेकर सभी वर्गों में सहमति बनती जा रही थी. इसी के परिणामस्वरूप सरकार कारखानों में अधिकतम कार्यघंटों को सिद्धांततः सहमति देने को तैयार हुई थी. इस निर्णय से उत्साहित मार्क्स की टिप्पणी थी—
‘औद्योगिक कारखानों में अधिकतम कार्यघंटे निर्धारित करने का निर्णय, पूंजीपतियों और श्रमिकों के बीच सैकड़ों वर्ष के संघर्ष का सुफल था.
यह मानने में भी कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि श्रम कानून बनाने और उन्हें लागू करने के पीछे जहां यूरोप के लाखों श्रमिकों का संघर्ष और बलिदान था, वहीं उसके प्रूधों, फ्यूरियर, संत साइमन, ओवेन, ब्लेंक, रूसो तथा मार्क्स जैसे चिंतकों का भी योगदान था, जिन्होंने न केवल विचार के स्तर पर बल्कि सक्रिय आंदोलनकारी के रूप में भी श्रम–कानूनों को बनाने और उन्हें गंभीरतापूर्वक लागू करने के लिए सतत संघर्ष किया था.
8. अधिशेष
‘पूंजी’ के अगले अध्याय में मार्क्स ने अधिशेष की दर की व्याख्या की है. अधिशेष पूंजी की वह मात्रा है जो उत्पाद के विक्रय मूल्य में से लागत मूल्य को घटाने पर प्राप्त होती है. पूंजीपति इसपर अपना अधिकार मानता है. स्वामी होने के नाते वह इसको अधिकार भाव से ग्रहण करता है. अधिशेष की मात्रा ही उत्पादन के प्रति उसकी रुचि और हितों को प्रभावित करती है. मार्क्स का मानना था कि पूंजीवादी व्यवस्था में अधिशेष की मात्रा पूंजीपतियों के अधीन कार्यरत श्रमिकों की संख्या पर निर्भर करती है. अधिशेष–दर में वृद्धि के लिए पूंजीपति अपने श्रमिकों से अधिक से अधिक कार्यघंटों तक काम लेना चाहता है, साथ ही लागत घटाने के लिए वह न्यूनतम मजदूरी का भुगतान करता है. यह शोषणकारी स्थितियों के बिना असंभव है. अधिशेष–मूल्य की मात्रा की गणना अधिशेष–मूल्य की दर को श्रमिकों की संख्या से गुणा करने पर प्राप्त की जा सकती है. यदि अधिशेष–मूल्य की मात्रा ‘अ’ तथा अधिशेष–मूल्य की दर ‘द’ एवं श्रमिकों की कुल संख्या ‘स’ हो तो मार्क्स के सूत्र के अनुसार—
अधिशेष मूल्य की मात्रा ‘अ’ = ‘द’ गुणा ‘स’
इस सूत्र से साफ होता है कि जैसे–जैसे शोषित श्रमिकों की संख्या बढ़ती है, मालिक का अधिशेष मूल्य उतना ही बढ़ता जाता है. दूसरे शब्दों में पूंजीवादी व्यवस्था में मालिक के लाभ का अनुपात श्रमिक के शोषण का अनुक्रमानुपाती होता है. अर्थात जैसे–जैसे मालिक के लाभ की संभावना बढ़ती है, श्रमिक का शोषण भी उसी अनुपात में बढ़ता चला जाता है. परिणामस्वरूप पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति लगातार लाभ की स्थिति में रहकर मजबूत होता जाता है, जबकि श्रमिक का घाटा बढ़ता रहता है. अधिशेष मूल्य का विश्लेषण करते हुए मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि पूंजीवादी निकाय में—
‘उत्पादित अधिशेष–मूल्य की मात्रा लगाई गई चल पूंजी तथा अधिशेष–दर के गुणनफल के बराबर होती है.’
स्पष्ट है कि मालिक के कुल लाभ की मात्रा शोषित श्रमिकों की संख्या तथा उनके शोषण की मात्रा पर निर्भर करती है. जैसे–जैसे श्रमिकों की संख्या बढ़ती है, मजदूरी पर होने वाला खर्च भी बढ़ता जाता है. यदि उसी अनुपात में उत्पादकता में वृद्धि न हो तो उसका लाभ मालिक के लाभ की मात्रा पर पड़ता है, जो घटती जाती है. यदि उत्पादन की मात्रा स्थिर रहे तो मालिक का लाभ मजदूरी की मात्रा के व्युत्क्रमानुपाती होता है. अतः उसकी कोशिश होती है कि वह न्यूनतम श्रमिकों से अधिकतम कार्य ले सके. इसके लिए वह अपने उद्योग में श्रमिकों की संख्या को घटाता चला जाता है. हालांकि वह दिखावा यही करता है कि श्रमिकों कम संख्या की भरपाई वह कार्यरत श्रमिकों को अधिक भुगतान द्वारा कर देगा. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता. चूंकि कोई भी श्रमिक अपने श्रम–मूल्य से अधिक योगदान देने में असमर्थ होता है, इसलिए यह सर्वथा असंभव है कि मालिक मजदूरों की घटाई गई संख्या की भरपाई कर सके. इस विश्लेषण के उपरांत मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि—
‘कार्यरत श्रमिकों की घटाई हुई संख्या की क्षतिपूर्ति असंभव है.’
अपने इस नियम की विवेचना करते हुए मार्क्स ने कारखाना मालिकों की इस प्रवृत्ति की आलोचना की थी, जिसके कारण वे श्रमिकों की संख्या घटाकर उत्पादन का स्तर बनाए रखने का प्रयास करते हैं. उसका कहना था कि कार्यदिवस की गणना श्रमिकों की औसत कार्यक्षमता के अतिरिक्त अन्य सभी सामान्य उतार–चढ़ावों को ध्यान में रखकर की जाती है. गणना के समय मालिक और मजदूर दोनों के हितों को ध्यान में रखा जाता है. इसलिए उसकी शर्तों का पालन करना श्रमिक और स्वामी दोनों के लिए ही अनिवार्य होना चाहिए. अपने विश्लेषण को आगे बढ़ाते हुए मार्क्स लिखता है उत्पादन प्रक्रिया के दौरान पूंजीपति अपनी पूंजी को दो भागों में बांट देता है. उसका एक हिस्सा उत्पादन के लिए अनिवार्य संसाधनों पर खर्च होता है, जिससे वह मशीनरी आदि की व्यवस्था करता है. पूंजी का दूसरा हिस्सा श्रम–शक्ति के भरण–पोषण के लिए किया जाता है, जो वह चल पूंजी के रूप में श्रम–शोषण का माध्यम बनता है. औद्योगिक स्पर्धा की स्थिति में लाभ की स्थिरता को बनाए रखने के लिए मालिक का ध्यान सीधे मजदूरी पर होने वाले खर्च पर जाता है. मशीनें और सयंत्र आदि चूंकि उसकी अपनी परिसंपत्ति होते हैं, इसलिए वह उनसे कोई छेड़छाड़ न कर मजदूरी में कटौती पर जोर देता है. यही नहीं लाभांश को बनाए रखने के लिए वह समय–बाह्यः घोषित हो चुकी तकनीक को अमल में लाता है और उसकी भरपाई के लिए श्रमिकों से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अधिक से अधिक काम लेने का प्रयास करता है. ये स्थितियां श्रमिकों की उत्पादकता पर दुष्प्रभाव डालती हैं.
9. सहकार
1848 में जिन दिनों मार्क्स कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो के माध्यम से श्रमिकों से एकजुट होकर शोषणकारी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का आवाह्न कर रहा था, उससे पहले ही सहकारिता स्वयं को पूंजीवादी व्यवस्था के सशक्त और शांतिमय विकल्प के रूप में स्थापित कर चुकी थी. रोशडेल पायनियर्स ने 1844 में लंदन में उपभोक्ता भंडार की स्थापना कर सहकारिता के क्षेत्र में एक अहिंसक क्रांति का आवगाहन किया था. आंदोलन उत्तरोत्तर विकासशील अवस्था में था. 1867 तक तो सहकारिता आंदोलन न केवल पूरे इंग्लेंड में बल्कि फ्रांस, जर्मनी, स्वीडन, डेनमार्क, स्पेन, रूस आदि अनेक देशों में अपनी पहचान कायम कर चुका था. पूंजीवादी चुनौतियों से निपटने के लिए तेजी से सहकारी समितियों का गठन किया जा रहा था. बावजूद इसके मार्क्स को लगता था कि सहकारिता द्वारा वैज्ञानिक समाजवाद के अपेक्षित लक्ष्य को प्राप्त कर पाना असंभव है. अपने महाग्रंथ ‘पूंजी’ में उसने पूरा एक अध्याय सहकारिता पर विचार के लिए सुरक्षित रखा था.
इस अध्याय में संगठन की कार्यशैली का विश्लेषण करते हुए उसने लिखा है कि एक पूंजीपति के अधीन कार्य करने वाला कार्यदल उतना ही कार्य करता है, जितना कि उतनी ही संख्या का दूसरा दल दूसरे पूंजीपति के कारखाने में उसी कार्य को करता है. किन्हीं भी दो समवयस्क व्यक्तियों की कार्यक्षमता में थोड़ा–बहुत अंतर हो सकता है. किंतु जब वे एक समूह के रूप में हों तो किसी एक की कमियों की भरपाई दूसरे व्यक्ति द्वारा आसानी से हो जाती है. इसी आधार पर अनेक समक्षमतावान कार्यदलों का गठन किया जा सकता है. मगर यह तभी संभव हो सकता है, जब समूह के सदस्यों की संख्या निर्धारित न्यूनतम सीमा पर हो. यदि समूह को उससे छोटा करते जाएं तो उनके द्वारा किए गए कार्य की मात्रा पर सदस्यों के व्यक्तिगत लक्षणों का असर साफ दिखने लगता है. छोटे समूहों में एक अपेक्षाकृत अधिक मजबूत एवं अधिक उत्पादक, जबकि दूसरा कमजोर यानी कम उत्पादन–सामथ्र्य वाला समूह हो सकता है. किंतु जब हम उन कार्य समूहों को एकसाथ कार्य करने का अवसर देते हैं तथा उनकी कार्यक्षमता का संयुक्त आकलन करते हैं, तो इस अंतर की भरपाई हो जाती है. इस उदाहरण के आधार पर मार्क्स ने सहकारिता को परिभाषित करते हुए लिखा है कि सहकारिता वह व्यवस्था है—
‘जब श्रमिकगण भारी संख्या में एक–दूसरे के कंधे से कंधा मिलाकर साथ–साथ, एक ही कार्य को योजनाबद्ध तरीके से, या अलग–अलग कार्यों को एक–दूसरे से संबद्ध होकर पूरा करते हैं.’
सहकारिता आंदोलन के बारे में मार्क्स का दृष्टिकोण था कि सहकारी समूह में सामाजिक संबंध प्राकृतिक स्पर्धा की स्थिति में आकर वही आचरण करने लगते हैं, जिनके निषेध के लिए उनका गठन किया जाता है और सहकार की मूल भावना के प्रतिकूल होते हैं. प्रकारांतर में वे पूंजीवादी व्यवस्था को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध होते हैं. जैसे कि सहकारिता सिद्धांतरूप में स्पर्धा का निषेध करती है, लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में स्वयं को टिकाए रखने के लिए उन्हें अघोषित स्पर्धा का सामना करना ही पड़ता है. इस दौरान वे अधिक से अधिक उपभोक्ता सामग्री का उत्पादन करने लगते हैं. मार्क्स ने सहकारी उद्यमों की इस बात के लिए भी आलोचना की है कि वे किसी कार्य–विशेष में लगने वाले समय को छोटा कर देते हैं. सहकारी संगठनों की आलोचना करते हुए उसने लिखा है कि यदि किसी उद्यम की—
‘श्रम–प्रक्रिया जटिल हो, तो समूह की सदस्यों का स्पष्ट बहुमत उत्पादन कार्य के विभिन्न चरणों को अलग–अलग कारीगरों के बीच बांटने की अनुमति दे देते हैं. जिससे उनकी कार्यक्षमता बढ़ती है. इससे किसी काम को पूरा करने में लगने वाला समय, अपने आप घट जाता है.’
मार्क्स के अनुसार पूंजीपति के लिए कर्मचारियों की बड़ी संख्या को थोड़े समय तक काम पर रखकर उन्हें मजदूरी देने की अपेक्षा, थोड़े कर्मचारियों को लंबे समय नौकरी देना आसान होता है. निष्कर्षतः पूंजीपति पूंजी का वह हिस्सा जिसके दम पर वह कर्मचारियों को कभी भी नौकरी पर रख सकता है, बचाकर रखता है. सहकारिता भी पूंजीवाद के प्रतिरोधी स्वर के रूप में उभरती है. स्वयं को बेहतर विकल्प के रूप में प्रस्तुत करते हुए वह पूंजी की ताकत को अपनी सांगठनिक क्षमता द्वारा संतुलित करने का प्रयास करती है. बावजूद इसके स्पर्धा में बने रहने के लिए अंततः सहकारिता आधारित उद्यम भी पूंजीवादी तरीकों को अपनाने लगते हैं. इस अवस्था में उनके समाजार्थिक हितों का संतुलन बिगड़ने लगता है. पूंजीवादी समूह की भांति सहकारी समूह भी केवल आर्थिक हितों तक सीमित होकर कार्य करने लगते हैं. मार्क्स को यह भी डर था कि सहकारी समूहों की ताकत बढ़ने पर उसको पूंजीपतियों के संगठित विरोध का सामना करना पड़ सकता है. उस अवस्था में सहकारी संगठन स्वयं को बचाए रखने के लिए अपने सामाजिक हितों की उपेक्षा कर सकते हैं. उस अवस्था में सहकार का उद्देश्य ही अधूरा रह जाता है. पूंजी की संगठित शक्ति के बारे में मार्क्स का विचार था कि—
‘इसलिए नहीं कि वह उद्योग–समूह का नेता है, और एक पूंजीपति है. बल्कि वह उद्योगों का नेता ही इसलिए है, क्योंकि वह पूंजीपति है.’
मार्क्स ने सहकारी समूह को पिरामिड की संज्ञा दी है. वह आगे उदाहरण देता है कि मान लीजिए नीलघाटी में पैदा होने वाले अनाज पर सम्राट का अधिकार है. उसकी यह क्षमता भी है कि वह अधिक व्यक्तियों को एक–दूसरे के साथ मिलकर कार्य करने, पिरामिड के रूप संगठित होकर अपेक्षाकृत कम समय में काम पूरा करने की प्रेरणा भी दे सकता है. इससे श्रमिकों को उनके काम के बदले पर्याप्त आमदनी नहीं हो पाएगी. मार्क्स द्वारा सहकारिता की आलोचना पूर्वाग्रहों से भरी लगती है. लेकिन वह सर्वथा असंगत भी नहीं है. दरअसल सहकारिता की कमजोरियों के रूप में वह जिन कारणों और समस्याओं को गिनाता है, समूह के सदस्य यदि जागरूक और अपने अधिकारों के प्रति सचेत हों, तो ये दुर्बलताएं ही उसकी शक्ति का रूप धारण कर लेती हैं.
क्रमश:….!