सामाजिकता की पहली जरूरत है, मानवीय आचरण. नैतिकता का अनुसरण. मनुष्य होकर मनुष्य जैसा व्यवहार. समाज द्वारा निर्धारित मर्यादाओं का पालन. सबके साथ जीते हुए, दूसरों के सुख–दुख में सहभागिता की पवित्र भावना. मिल–बांटकर खाने, न्याय और समानता की स्थापना के लिए अथक प्रयास करने, लोककल्याण के सपने के साथ जीने का परम–पुनीत संकल्प. इनमें से प्रत्येक अपने आप में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है. यह मानव–मात्र के लिए उसके जीवन का पवित्र लक्ष्य भी है. धर्म, साहित्य, विविध कलाएं, सांस्कृतिक प्रतीक, समस्त ज्ञान–विज्ञान, रीति–रिवाज, नैतिक मान्यताएं एवं कर्मकांड—ये सभी मनुष्य की, सामाजिकता के शुद्धतम स्वरूप को बनाए रखने की चिरंतन कवायद का खूबसूरत हिस्सा हैं. ये मानव–जीवन की उत्कृष्टता के आकलन हेतु तय कसौटियां भी हैं. इनमें से धर्म मनुष्य की सृष्टि के रहस्यों को जानने की आदिम लालसा और तज्जनित आध्यात्मिक विश्वास की परिणति है. इसके बावजूद मानवीय जिज्ञासा का यही एक पड़ाव नहीं. सभ्यता की सुदीर्घ यात्रा में वह जैसे–जैसे प्रकृति के रहस्यों से परिचित होता गया, उसकी यह अवधारणा निरंतर सुदृढ़ होती गई कि मात्र अध्यात्म–चिंतन से लौकिक कल्याण असंभव है. केवल तात्विक ज्ञान से व्यावहारिक उलझनों को सुलझा पाना संभव नहीं. क्योंकि तर्क की समाप्ति अक्सर किसी तर्क पर ही होती है. तर्क की विरामावस्था ने धर्म को जन्म दिया. इस तरह वह मनुष्य के बुद्धिकौशल की विरामावस्था थी. अल्पकालिक ठहराव था. ताकि वह अगले वौद्धिक उपक्रम की तैयारी कर सके. हुआ विपरीत. स्वार्थी लोगों ने ठहराव को ही लक्ष्य मान लिया और उसी को सिद्धि बताने लगे. बाकी लोगों को भी उनकी बातों पर विश्वास करना पड़ा. इसलिए कि अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए तब तक उन्होंने संसाधनों पर अधिकार जमा लिया था और बाकी लोग अपनी आवश्यकताओं के लिए उनपर निर्भर थे. उन्होंने ऐसे नियम बनाए कि मेहनत और कर्म–कौशल के बल पर जीने वाला समूह उनके अधीन होता गया. इसके लिए सामाजिक नियमों को शक्तिशाली बनाया गया.
उल्लेखनीय है कि सामाजिकता केवल मनुष्य की अनिवार्यता नहीं है. वह समाज के लिए भी उतनी ही आवश्यक है. इसलिए कि मनुष्य और समाज का संबंध अन्योन्याश्रित है. न मनुष्य का समाज के बगैर काम चल पाता है, न समाज का मनुष्य के बिना. इस सत्य को समझ लेना दोनों के लिए जरूरी है. यह भी कि मनुष्य द्वारा समाज का गठन सुख के स्थायित्व के लिए किया गया है. यदि कोई समाज अपनी सदस्य इकाइयों के हितों की रक्षा करने में नाकाम रहता है, तब तक उसके गठन का उद्देश्य भी अधूरा रह जाता है. इस तथ्य की आमतौर पर उपेक्षा की जाती है. यह कमी समाज की नहीं, उन लोगों की है जिनके हाथों में समाज की बागडोर होती है. वे समाज के संसाधनों तथा उसकी गतिविधियों को निहित स्वार्थ के अनुकूल ढालने लगते हैं.
मनुष्य हो अथवा समाज सभी को अपना लक्ष्य स्वयं तय करना पड़ता है. चूंकि समय कसौटियां खुद विनिर्मित करता है. अतएव धर्म आदि के अतिरिक्त मानव–व्यवहार को नियंत्रित और मर्यादित करने के लिए दूसरी संस्थाएं भी बनती चली गईं. विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक संस्थाओं और कर्मकांडों का विकास हुआ. आचार–विचार तय किए गए. इसी के साथ लोगों का यह विश्वास भी मजबूत होता चला गया कि सामाजिक एकता का आधार मनुष्य का नैतिकता में विश्वास है, न कि धर्म अथवा छद्म पारलौकिक सभ्यता के नाम पर बने कर्मकांड, रीति–रिवाज, परंपराएं इत्यादि. यह भी अनुभव किया गया कि खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए धर्म को नैतिकता का हाथ थामना ही पड़ता है. बिना नैतिकता के लक्ष्य–सिद्धि असंभव है.
और यह भी कि नैतिकता का साथ न हो तो धर्म की कोई प्रासंगिकता ही न रहे. लोक–कल्याण के लक्ष्य के बगैर परलोक–सिद्धि भी निरर्थक एवं बेमानी है. यह नैतिकता ही है जो मानवीय आचरण के निरंतर नए मानक गढ़कर, धर्म की राह को आसान एवं अनुकरणीय बनाती है. मानव जीवन का वास्तविक लक्ष्य निर्धारित करती है. उसको आगे बढ़ने की सतत प्रेरणा देती है और सबके साथ मिल–जुलकर रहना सिखाती है. बिना इसके न तो किसी सामाजिक संस्था का विकास संभव है, न कोई धार्मिक संस्था इसके अभाव में टिक सकती है. यही कारण है कि दुनिया में अनेक धर्म और उनके विभिन्न संप्रदाय होने के बावजूद उनकी मूलभूत अवधारणाएं, नैतिक मान्यताएं लगभग एक समान हैं. यही नहीं सृष्टि–संबंधी उनके सोच में भी एक सामान्य एकरूपता है, जो उनको आपस में जोड़ती है. विभिन्न समाजों के धार्मिक प्रतीकों में यदि कहीं अंतर है, तो उसका मूल उनकी भिन्न भौगोलिक परिस्थितियांे और सामाजिक रीति–रिवाजों में निहित है. चूंकि समाज से परे धर्म की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है, अतएव अपने घेरे से बाहर निकलते ही नैतिकता के पक्ष में बयान देना प्रत्येक धर्मावलंबी की मजबूरी बन जाता है. उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर हम कह सकते हैं कि नैतिकता धर्म का अनिवार्य लक्षण है, वही उसको प्रासंगिक बनाता है.
मनुष्यता का आशय उन आदर्शों, मानकों पर खरा उतरना है, जिन्हें कोई समाज अपनी एक इकाई होने के नाते अपने सदस्य–विशेष के लिए निर्धारित करता है. साथ ही अपेक्षा करता है कि सदस्य इकाइयां उनका पालन पूरी निष्ठा के साथ, उन्हें जीवन–मूल्य की गरिमा प्रदान करते हुए करें. यही मानवीयता की कसौटी भी है. इसलिए सामान्य संदर्भों में नैतिकता और मनुष्यता को परस्पर पर्याय मान लिया जाता है. सर्वकल्याण की यह भावना वैदिक साहित्य का मूलाधार रही है. अथर्ववेद का दशम् खंड मनुष्यता की प्रशस्ति एवं विश्व–कल्याण की पुनीत भावना से भरपूर है. इस कारण उसका नाम ही नृ सूक्त है. इस खंड के सातवें, स्कंभ नामक सूक्त में विश्व के मौलिक ढांचे की व्याख्या की गई है. यह मानते हुए कि सत्ता का उच्चतम रूप भी परमकल्याणकारी है, वेदमंत्रों के उद्गाता ऋषि मानव–संस्कृति की महानता का वर्णन करता समय मनुष्य–मात्र के लिए नैतिक आचरण की अनिवार्यता पर जोर देते रहे हैं. लंबी साधना एवं चिंतन–मनन के उपरांत अथर्ववेद का एक उद्गाता ऋषि इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि—
ये पुरुषे ब्रह्मे विदुस्ते विदुः परमेष्ठिनम्!
तसमाद् वे विद्वान पुरुषमिदं ब्रह्मेति मन्यते!
इन ऋचाओं का आशय है कि मानवता इस विभिन्नता से भरे हुए व्यापक विश्व का सांस्कृतिक स्वरूप है. उसको ठीक प्रकार से जानने का अभिप्राय है, परमसत्ता के सर्वोत्कृष्ट रूप को जानना. उसके करीब जाना. उसकी सघन अनुभूति करना. उससे प्यार करना और स्वयं को उससे परचाना. उसके साथ–साथ तालमेल बनाते हुए चलना. उन आदर्शों का पालन करना जो परमसत्ता के चारित्रिक लक्षण के रूप में प्रकट होते हैं. उदात्त जीवनमूल्यों को अपने दैनिक आचरण का अभिन्न हिस्सा बना लेना. उन्हें अपने जीवन की कसौटी की तरह व्यवहार में लाना. अपने व्यवहार और आचरण से दूसरों को किसी भी प्रकार का कष्ट न होने देना, यही मानवमात्र का कर्तव्य है, और उसके जीवन की सिद्धि भी.
आखिर मनुष्यता की सिद्धि संभव कैसे हो? कैसे उसकी और बढ़ा जाए? कैसे उसकी प्राप्ति को आसान और चिरस्थायी बनाया जाए? कैसे जाना जाए कि कोई कार्य कितना मानवीय है? मानवीय आचरण की कसौटी क्या हो? विचलन और विसंगतियों के दौर से कैसे सुरक्षित निकला जाए? फिर जीवन कोरा सिद्धांत तो नहीं! मनुष्य अपने अनुभवों से भी सीखता है. न जाने कितने समझौते, कितने सबक जीवन की पाठशाला को समृद्ध बनाते हैं, उन्हीं से आने वाली पीढ़ियां प्रेरणा भी लेती हैं. ऊपर से मानवीय संवेदनाओं की अलग ही रीति ठहरी. वे बुद्धि के नियंत्रण एवं सैद्धांतिक मर्यादाओं को अनावश्यक मानते हुए प्रेम और सहृदयता को अपनाने पर जोर देती हैं. तर्क को गैरजरूरी बताकर सहानुभूतिपूर्ण निर्णय का पक्ष लेती हैं. भले ही उनसे प्रचलित नियमों, मान्यताओं का उल्लंघन होता हो.
वस्तुतः मनुष्य के सामान्य जीवनदर्शन, नैतिकता के सर्वमान्य रूप की व्याख्या कर पाना इतना आसान भी नहीं है. न इनके बीच के अंतर को इतनी आसानी से व्यक्त किया जा सकता है. नैतिकता न तो अतार्किक और लिजलिजी भावुकता है, न कोरी संवेदनहीनता. वह तो स्थितियों, परिस्थितियों के अनुरूप सतत परिवर्तनशील सत्ता है, जो मानवता के विकास के लिए सतत लक्ष्य–निर्धारण करती रहती है और इस प्रकार सदैव बृहद लोककल्याण के प्रति समर्पित होती है. मनुष्यता की समृद्धि के लिए विवेकवान संवेदनशीलता आवश्यक है. यही नैतिकता का अभीष्ट है. जीवन के व्यवहार–पक्ष को नियंत्रित–मर्यादित करने के लिए ही नैतिकता का जन्म हुआ है. ज्ञान के विविध उपकरण, समस्त मानवीय कलाएं, साहित्य सभी आदिकाल से नैतिकता के अनुगामक रहे हैं. यह एक बहुआयामी पद है. इसीलिए इसकी अभिव्यक्ति तथा इसको सहजग्राह्यः बनाने के लिए विविध कलाओं का विकास हुआ, सांस्कृतिक मानक गढ़े जाते रहे हैं.
अक्षर को तो प्रायः सभी सभ्यताओं ने आदि, अनश्वर और ब्रह्म–स्वरूप स्वीकार किया गया. लेकिन आगे जब शब्दों की खोज एवं उनकी ताकत को पहचाना गया, आखर–आखर सहेजकर विराट ग्रंथावलियां रची गईं, तब उनकी परख के लिए पहली कसौटी नैतिकता को ही बनाया गया. उसको ज्ञान के विस्तार, उसकी व्याप्ति और मानवीय आकांक्षाओं का आदि प्रेरक बताया गया. नैतिकता के विविध रूपों की व्याख्या तथा मानव–मात्र के दिशा–निर्देशन के लिए वेदादि ग्रंथों महाकाव्यों की रचना हुई. कहानियों और दृष्टांतों का जन्म हुआ. इतिहासोपनिषद कोरे ज्ञान और कर्मकांडों में निपुणता के स्थान पर अंतश्चेतना के विस्तार पर जोर देता है. मानस–वेद को सर्वोच्च बताता हुआ वह कहता है—
‘यदि तुम ऋग्वेद के अध्येता हो तो तुमने अधिक से अधिक देवताओं के बारे में जाना होगा. यदि तुमने यजुर्वेद का अध्ययन किया है तो तुम याज्ञिक कर्मकांड के बारे में विस्तार से जानते होगे. यदि तुमने सामवेद का प्रणयन किया है तो तुम्हें जीवन के व्यवहार एवं उसकी रागात्मकता से संबंधित सामान्य बातों का बोध हो चुका होगा. किंतु मानव–मात्र में ब्रह्म के दर्शन करने के लिए आवश्यक है कि तुमने अपने अंतर्मन के मानस–वेद का विधिवत अध्ययन किया हो.’
अंतर्मन का मानस–वेद, यानी आत्मा की आवाज. अर्थात स्वयं की और उसके बहाने विराट विश्वात्मा की पहचान. परमविराट की निस्सीम विराटता की सघन आनंदानुभूति. चौतन्य का महाजागरण—अंतर्मन का मानस–वेद, यानी एक ऐसी आवाज जो सहअस्तित्व और सद्भावना का संदेश देती हो, जो लोगों को मिल–जुलकर रहना, एक–दूसरे के लिए जीना सिखाती हो. जो प्रकृति और पुरुष की महायुति, जिससे यह समूची सृष्टि उपजी है. माने मनुष्यता की शीर्षस्थ स्थिति. नैतिकता का उच्चतम आयाम, येन–केन–प्रकारेण जिसका आशय मानवीय आचरण की सर्वोच्च गरिमा से है. उस संस्कारशीलता से है जो मनुष्य होने के नाते मनुष्यमात्र को उसके समाज की ओर से विरासत में प्राप्त होती है और आने वाली पीढ़ियों के लिए मानक निर्धारित करती करती है.
भारतीय वांङमय में भी कहा गया है कि—
‘अठारह पुराणों का संदेश व्यास के मात्र दो वाक्यों में सन्निहित है…कि परोपकार पुण्य है; और दूसरों को पीड़ा पहुचाना महापाप.’
तो परोपकार कैसे संभव हो? कैसे दूसरों को पीड़ा पहुंचाए बिना अपने लिए लाभ–साधना संभव की जाए? जिसके पास विपुल संसाधन है, धन–संपदा जिसको विरासत में मिली हो, जिसे समाज में आगे बढ़ने पर कोई रोक–टोक नहीं, बल्कि पूरा समाज जिसके पक्ष में खड़ा हो, कदम–कदम पर मदद के लिए तैयार, उसके लिए तो यह कतई असंभव, अनहोनी बात नहीं. विरासत के दम पर खूब दिखाए दानवीरता. कमाए नाम, साथ में नामा भी. मगर जो संसाधनों के अभाव में जी रहा हो, जिसके लिए जिंदगी कदम–कदम संघर्ष हो, जिसे सामाजिक नियमों–विसंगतियों ने मिलकर सदैव प्रताड़ित–लांछित किया हो, जीवनारंभ में ही जिसको संसाधनों से वंचित कर दिया गया हो. जो अपने जन्म से ही वर्णव्यवस्था का शिकार रहा हो. जीवन के सामान्य अधिकार भी जिससे बलात् छीन लिए गए हों. वह आम आदमी जिसे कदम–कदम पर रोजी–रोटी के संघर्ष से गुजरना पड़ता हो. गरीबी की मार खाना, भूख से समझौता करते रहना जिसकी नियति है. वह क्या करे? कैसे जिंदगी की रोजमर्रा की समस्याओं से निजात पाए? कैसे पूरा करे अपने और अपनों के सपने? रोजमर्रा के संघर्ष में कैसे जीते जिंदगी की जंग!
जिंदगी दान पर नहीं चलती, न जीवन के लक्ष्य दूसरों की अनुकंपा के सहारे तय किए जाते हैं. चौरिटी के आसरे तन की भूख मिटाई जा सकती है, मन की नहीं. लंबे समय तक दूसरों की दया के सहारे जीना, अपने ही हाथों अपनी आत्मा का गला घोट लेना, अस्मिता को नीलाम कर देना है. सच्चा सुख अपने बूते जीवन का सफर तय करने में है. सपनों में नए–नए रंग भरना, उनके अनुकूल संकल्प धारण करना, फिर अपने सपनों को सच का कलेवर प्रदान करना ही मानवीय जिजीविषा की परख है. उसी से जीवन में सफलता का स्तर तय होता है. सफलता भी ऐसी नहीं जो केवल खुद को सुख देती हो. ऐसी कामयाबी से भौतिक सुख तो जुटाए जा सकते हैं. सत्ता–समृद्धि से नाता जोड़कर दूसरों पर रौब भी गांठा जा सकता है. पर उससे सचमुच की आत्मतुष्टि प्राप्त हो, मन को मनुष्यता के कल्याण का किंचित संतोष प्राप्त हो सके, जरूरी नहीं है. लेकिन ऐसी कामयाबी जिसमें सभी का साझा हो, जो अधिकाधिक व्यक्तियों के लिए सुखकारी हो, जिसके माध्यम से अधिक से अधिक लोगों के सपनों में रंग भरा जा सके, उन्हें नए–नए सपने देखने की प्रेरणा दी जा सके, ऐसी सफलता का वरण कैसे किया जाए? यह असंभव–सी बात संभव कैसे हो? संसाधनों के अभाव की खाई को कैसे पाटा जाए? न्यूनतक संसाधनों से अधिकतम लाभ कैसे कमाया जाए. कैसे अपनी अस्मिता का सौदा किए बगैर बाजार में अपनी मौजूदगी बनाई जाए. कैसे सच की जाएं कामनाएं, कामनाओं में छिपे सपने. हकीकत की दूरियां, कैसे पाटा जाए उन्हें? कैसे उनको अपने अनुकूल बनाया जाए?
प्रश्न शाश्वत–से हैं. पर उत्तर भी आसान है. दरअसल प्रकृति समस्याएं ही नहीं देती, उनके समाधान भी साथ लाती है. कदम–कदम पर अंतहीन समस्याएं हैं तो उनके उतने समाधान भी हैं. दमतोड़ू मुसीबतें हैं तो तन–मन को सहलाने, उत्साह बढ़ाने वाले अनमोल कारक भी हैं. जैसे गलबहियां डाले रहते हों दोनों. आगे–पीछे इसलिए रहते हैं ताकि मनुष्य के धैर्य और बुद्धिबल की परीक्षा ले सकें. सृष्टि का रचाव भी इसी से है. मनुष्य ने तो सहकार को मात्र कुछ सहस्राब्दी पहले पहचाना, अस्तित्व की लड़ाई में अपने स्वभाव का हिस्सा बनाया. परंतु प्रकृति का तो समूचा व्यवहार ही सहयोग एवं सहकार की उच्चतम भावना से बंधा है. धरती–आकाश, पर्वत–झील, हवा और गंध, नदी और किनारे, अग्नि और तेज, सूरज और चंद्रमा, गीत और नाद वगैरह–वगैरह….जरा इनकी गति और युति को पहचानिए. दिखने में इन सबके बीच भिन्नता नजर आती है. लगता है कि सब अलग–अलग मायारूप सृष्टि का हिस्सा बने हुए हैं. मगर उनकी भिन्नता, उनका आभासी द्वैत दरअसल हमारी ज्ञानेंद्रियों की सीमा है. प्रकृति की विराटता उसके गहन अंतर्संबंधों की परख कर सके, वैसी दिव्यता हमारी ज्ञानेंद्रियों को प्राप्त नहीं. ध्यान से देखा जाए तो उन सबके बीच एक अटूट तारतम्य नजर आता है. बाहरी आवरण है, जो भिन्नता की प्रतीति बनाए हुए है. सहअस्तित्व की भावना के साथ सब परस्पर जुड़े हुए हैं. सबके सब साथ–साथ सहकार करते, संसार रचते रहते हैं. बहुरंगी और बहुआयामी संसार. मानो कहते हों कि सहकार है तो सृष्टि है. सृष्टि है तो जीवन है. जिंदगी का स्वत्व, उसका उल्लास है. जीवन है तो सुख–दुःख हैं, समस्याएं हैं. परस्पर सहयोग है तो समस्याओं के समाधान भी हैं. सहकार है तो विकास की लंबी संभावनाएं हैं. उन संभावनाओं तक पहुंचने का सुनिश्चित रास्ता भी है. रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए वांछित आत्मबल है.
कुछ लोग सहकार को मानवीय सभ्यता की श्रेष्ठतम उत्पत्ति मानते हैं. मुझे इस मान्यता से संतोष नहीं होता. मुझे लगता है कि इसमें सहकार की पहुंच और उसकी उपादेयता को हल्का करने की कोशिश की गई है. वस्तुतः सहकार मानवीय सभ्यता की उत्पत्ति नहीं, बल्कि मानवीय सभ्यता सहकार की उपज, उसका बहुआयामी विस्तार है. यही सहकार पहले जीवन के लोक–व्यवहार का हिस्सा बना. आदिम मनुष्य पहले प्राकृतिक जरूरतों के लिए संपर्क में आया. फिर साथ–साथ रहने से वुद्धि–विवेक जन्मा तो सहयोग का वास्तविक महत्ता भी समझ आने लगी. प्राणी अकेला हो तो जंगली जानवर चुटकी में शिकार कर जाते. लेकिन समूह में हो तो बड़े से बड़े शिकार को पछाड़ आते. आदमी जब अलग–थलग रहता था, तो जीवन सिर्फ संघर्ष था. साथ–साथ रहने लगा तो जिंदगी उत्सव बनने लगी. जरूरतें बढ़ीं तो उसका अस्तित्व दूसरे क्षेत्रों में भी पांव पसारने लगा. जैसे–जैसे सहकार को पहचाना, जीवन आसान होता गया.
सहयोग
एक परिभाषा में अरस्तु ने भले ही मनुष्य को विवेकशील प्राणी की संज्ञा दी हो, मगर समाजविज्ञानी और हम सब आपसी व्यवहार में अक्सर यह दोहराते रहते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. और यह सही भी है. अकेले व्यक्ति से न तो समाज बनता है, न परिवार. किसी भी व्यक्ति के अस्तित्व की उपयोगिता दूसरों की उपस्थिति में ही देखी जा सकती है. सहअस्तित्व और सामाजिकता की भावना के सम्मान हेतु हम परस्पर सहयोग करते हैं. इसी के आधार पर हमारे संबंधों की व्याख्या की जाती है. मानव–समूहों के बीच अंतर्संबद्धता समाज में मुख्यतः दो स्तरों पर दृष्टिमान होती है. पहली परिवार के रूप में, जहां व्यक्ति संबंधों के निर्वाह के लिए सहयोग के लिए बाध्य होता है. व्यक्ति की सीमाएं, भविष्य के प्रति डर और अनिश्चितता का भाव उसको परिवार और उससे बाहर, समाज के दूसरे लोगों पर निर्भर होने को बाध्य करता है. इस आधार पर नए सहयोगाधारित संबंधों का जन्म होता है. पिता–पुत्र, पति–पत्नी, भाई–बहन आदि संबंधों के विभिन्न रूप परिवार के भीतर पारस्परिक सहयोग के स्तर को ही अभिव्यक्त करते हैं, तो सामूहिक कल्याण के आधार पर गठित किए गए श्रम–संगठन, किसान संघ जैसे उदाहरण सामाजिक सहकार की श्रेणी में आते हैं.
संबंधों की यह भावना परिवार और समूह के सदस्यों के बीच ‘हम’ की भावना का विस्तार करती है. यही भावना सहकार का मूलाधार है. ‘हम’ अथवा ‘अपनत्व’ की यह भावना जितनी प्रगाढ़ होगी, सहकार–संबंध उतने ही दीर्घजीवी और प्रभावी होंगे. परंतु क्या व्यापारिक संबंधों को सहयोगाधारित संबंधों की श्रेणी में गिना जा सकता है. इस प्रश्न का प्रारंभिक उत्तर तो ‘हां’ ही होगा. व्यापार भी एक प्रकार का सहयोग ही है, जिसमें दो व्यक्ति अथवा समूह पूंजी अथवा वस्तुओं के आदान–प्रदान के आधार पर अपनी जरूरतों को पूरा करते हैं. लेकिन व्यापारिक संबंधों की प्रगाढ़ता प्रायः पूंजीगत अथवा सीमित कालावधि वाले लाभों तक सीमित होती है. जरा–सा असंतुलन या परिस्थितिगत बदलाव उन संबंधों में भूचाल लाने में सक्षम होता है. इसके विपरीत पारिवारिक संबंधों में पूंजीगत लाभों की भूमिका गौण होती है. भरण–पोषण के लिए धन प्रत्येक परिवार की आवश्यकता होता है, किंतु वह सामान्यतः मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही कर पाता है. बाकी जरूरतों की पूर्ति के लिए उसको परिवार के शेष सदस्यों पर निर्भर रहना पड़ता है. उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह अपनी आय का बंटवारा भी सहर्ष स्वीकार लेता है.
अपनत्व की भावना व्यापारिक संबंधों के निर्वाह और उनकी सफलता के लिए भी जरूरी होती है. संयुक्त मंच पर अक्सर दो व्यापारिक समूह भी अपनेपन का इजहार करते हुए नजर आ सकते हैं. मगर उनके संबंध प्रायः बड़े पूंजी–लाभ की कामना तक सीमित हो हैं. इसलिए उनकी औसत आयु कम ही होती है. चूंकि व्यापारिक प्रतिद्विंद्वता कभी भी उनके संबंधों का खेल बिगाड़ सकती है, उनकी अपेक्षा वे संबंध अपेक्षाकृत दीर्घजीवी और स्थायी होते हैं जो जिनका आधार पूंजी अथवा आर्थिक मामलों से बढ़कर होता है. ऐसे संबंध जो मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के साथ–साथ उसकी सामाजिक एवं भावनात्मक जरूरतों की भी पूर्ति करते हों, वे अधिक स्थायी और व्यापकता लिए होते हैं. सहकारिता का गठन स्वेच्छिक सहभागिता के सिद्धांत के आधार पर किया जाता है. उसके संचालन में उसके सदस्यों का बहुआयामी सहयोग भी होता है. वे अपेक्षाकृत सहकारी समूह मनुष्य सामान्य जरूरतों और उनके सहयोग पर निर्भर होते हैं. यही कारण है कि उनके साथ जुड़ने के पश्चात व्यक्ति की भौतिक एवं भावनात्मक जरूंरतों की एकसाथ भरपाई संभव है.
सहकारी संबंधों को प्रायः अलाभकारी संगठन माना जाता है. अभिप्रायः यह नहीं है कि सहकारी संगठनों को पूंजी से चिढ़ होती है अथवा वे आर्थिक उपलब्ध्यों को कम महत्त्व देते हैं. सहकारी समूहों की महत्ता इसमें है कि वे मनुष्य की भौतिक एवं भावनात्मक आवश्यताओं में संतुलन रखते हुए विभिन्न प्रतिरोधी व्यक्तित्वों के बीच अनुकूलन का काम करते हैं. वे स्पर्धा की भावना का न्यूनीकरण करते हैं, ताकि उनमें खप रही ऊर्जा का उपयोग रचनात्मक कार्यों के लिए किया जा सके. सहकार के माध्यम से विकास के अवसरों और संसाधनों का बेहतर उपयोग संभव होता है. इसके द्वारा अलग–अलग स्रोत पर उपलब्ध संसाधनों को सदस्यों की मर्जी और सहयोग के आधार पर सभी के कल्याण के काम में लाया जा सकता है. विकास के समान बंटवारे और सामूहिकता की भावना से सामाजिक अंतद्वंद्वों का शमन होता है. जिससे प्रकारांतर में समाज के विकास को गति मिलती है. सहकारी समूह से जुड़ने के पश्चात मनुष्य को न केवल अपनी आर्थिक चिंताओं से मुक्ति मिलने की संभावना बढ़ जाती है, साथ ही भावनात्मक संतुष्टि और संबंधों की व्यापकता का अपेक्षाकृत स्थायी प्रभाव भी सहकारी समूहों में देखने को मिलता है. यही कारण है कि सभ्यता के आरंभ से ही समाज में सहयोग की उपस्थिति किसी न किसी स्तर पर हमेशा ही रही है.
सहकार की उपस्थिति
सहयोग की भांति सहकार भी मानव–समाज से उसकी उत्पत्ति के समय से ही जुड़ा है. उसके इतने विविध रूप हैं कि उनपर एक स्वतंत्र गं्रथ की रचना की जा सकती है. हालांकि जिस सहकारिता आंदोलन से आज हम सब परिचित हैं, उसका उद्भव उनीसवीं शताब्दी के दौरान यूरोप में हुआ था. बावजूद इसके यह भी एक जाना–माना तथ्य है कि सहकारिता का मूलदेश होने का दावा भारत समेत अनेक देश करते रहे हैं. इंग्लेंड के कस्बे रोशडेल में प्रवेश करते समय एक रेलवे पुल पर रोशडेल का परिचय देते हुए, चमचमाते अक्षरों में लिखा गया है—
‘रोशडेल: सहकारिता आंदोलन की जन्म–स्थली.’
इसी प्रकार रोशडेल मैट्रोपोलिटन काउंसिल की बेवसाइट पर अपने नगर का परिचय देते हुए बड़े अभिमान के साथ लिखती है—
‘विश्वव्यापी सहकारिता आंदोलन का घर.’
दुनिया की पहली सफल सहकारी समिति होने का गौरव भले ही लंदन की रोशडेल इक्वीटे्विल पायनियर्स को प्राप्त हो, मगर इंग्लेंड के ही विद्वानों का दावा है कि वहां पर पारस्परिक सहयोग एवं सहकारिता के आधार पर संगठित होने की शुरुआत उससे करीब तीन शताब्दी पहले, 1530 में म्युचुअल फायर इंस्योरेंस कंपनियों के रूप में हो चुकी थी. ये कंपनियां अपने सदस्यों को अग्निकांड से होने वाली हानि से सुरक्षा कवर प्रदान करती थीं. विश्व की आर्थिक महाशक्ति और पूंजीवाद के गढ़ कहे जाने वाले अमेरिका, जहां लगभग चालीस प्रतिशत नागरिक सहकारी समितियों से संबद्ध हैं, का दावा है कि वहां भी सहयोगाधारित बीमा व्यवसाय 1752 में ही आरंभ हो चुका था. इसी तरह के दावे और भी देशों के हैं. बल्कि देशों के भीतर भी सहकारिता आंदोलन की जन्मस्थली का श्रेय लेने की होड़ मची हुई है. इसमें सबसे ताजा उदाहरण इंग्लेंड का है. 7 अगस्त, 2007 को ‘दि गार्जियन’ में प्रकाशित एक सेवरिन काॅरेल की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि उपभोक्ता सहकारी आंदोलन की वास्तविक शुरुआत लगभग 240 वर्ष पहले, इंग्लेंड के ही फेनविक नामक कस्बे के निकट एक गांव से हुई थी.
दो प्रमुख इतिहासकारों जा॓न मैक्फेजीन(John McFadzean) तथा जा॓न स्मिथ (John Smith) की शोध के हवाले से रोशडेल के दावे को खारिज करते हुए का॓रेल कुछ इस तरह लिखते हैं कि—
इतिहास की पुस्तकों में गलत छपा है. सहकारी आंदोलन का जन्म लगभग 240 वर्ष पहले स्का॓टलेंड के एक गांव से हुआ था. वह गांव फेनविक नामक कस्बे से एकदम छूता हुआ था, जिसकी ख्याति वहां के जूता उद्योग, ऊनी और मलमल के कपड़ों और कृषि फार्महाउसों के कारण थी. उस दिन तारीख थी, 14 मार्च 1761. स्थान था स्थानीय शिल्पी जा॓न वा॓कर का एक कमरा, जो एक कपड़ा कारखाने में काम करता था. वाॅकर का घर अपने ही जैसे छोटे–छोटे झोंपड़ेनुमा घरों से घिरा हुआ था. आसपास में जुलाहों और मजदूरों की बस्ती थी, स्थानीय खेतों और कारखानों में काम करते थे. उनमें से अनेक इंग्लेंड के विविध प्रांतों से रोजी–रोटी की तलाश में वहां आकर बसे थे. उन्हें एक ही चीज एक दूसरे से जोड़ती थी, वह थी उनकी गरीबी. वा॓कर ने वह कमरा एकदम ताजा, एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए हाल ही में चूने से पुतवाया था.
उस दिन जा॓न वा॓कर के उस कमरे में कुछ स्थानीय जुलाहे दलिया के एक बोरे को ढकेलते हुए दाखिल हुए. वे संख्या में कुल पंद्रह थे. भीतर जाकर उन्होंने एक–दूसरे की ओर देखा. बिलकुल शांत मन से एक–दूसरे से हाथ मिलाते हुए उन्होंने एक संयुक्त प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर किए. पीले रंग के उस प्रतिज्ञापत्र पर लिखा था—
‘हम सदैव एक–दूसरे के प्रति ईमानदार और भरोसेमंद रहेंगे…हम एकदम सच्चा और खरा व्यवसाय करेंगे…तथा माल की बिक्री बिलकुल वाजिब दाम पर इस तरह से करेंगे कि वह न तो क्रय मूल्य से कम होगा, न बहुत ज्यादा.’
यह एक क्रांतिकारी कदम था. खेती के अलावा मलमल, कपड़े और जूता बनाने वाले कारखानों में काम करने वाले फेनविक के निवासियों में से अधिकांश गरीब बुनकर और मजदूर थे, जो संगठित प्रयास के माध्यम से अपनी रोजमर्रा की समस्याओं का निदान चाहते थे. उनके बारे में टिप्पणी करते हुए विद्वान शोधकर्ता मेक्फेजीन का कहना है कि—
‘कामगारों के सबसे निचले वर्ग में आने वाले वे लोग अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयास कर रहे थे; और उनमें यह योग्यता भी थी कि एक पुख्ता, विधिवत रूप से गठित सहकारी उद्यम के लिए जरूरी संसाधन जुटाकर उसका संचालन कर सकें, जो उनसे कुछ ही कदम की दूरी पर था, जिसकी उनसे पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.’
स्का॓टलेंड के राष्ट्रीय पुस्तकालय में ‘दि फेनविक बुनकर समिति’ से संबंधित उपलब्ध दस्तावेज बताते हैं कि उपभोक्ता भंडार की स्थापना के कुछ ही समय बाद समिति ने अपने सदस्यों तथा उनके परिजनों को आसान शर्तों पर दस से बारह शिलिंग तक का लघु–अवधि ऋण देना आरंभ कर दिया था. समिति की 1764 की एक बही में स्थानीय नागरिक मार्गेट मिशेल को दिए ऋण का ब्यौरा दर्ज करते हुए लिखा गया है—
‘फेनिक की मार्गेट मिशेल को उनकी जरूरत के लिए दिया गया—एक शिलिंग.’
कम समय में ही ‘फेनविक बुनकर समिति’ ने आशातीत सफलता प्राप्त की थी. चूंकि फेनविक के आसपास बुनकरों की भारी संख्या था और कस्बा कपड़ा उद्योग में तेजी से विश्वस्तर पर अपनी पहचान बनाता जा रहा था, इसलिए समिति ने करघों तथा कच्चे माल को खरीद कर उन्हें अपने सदस्य इकाइयों में बांटना आरंभ कर दिया. इसके थोड़े ही अर्से के बाद, 1769 में समिति ने खाद्य–साम्रगी की थोक बिक्री के क्षेत्र में कदम रखा, तथा उसमें भी सफलता प्राप्त की.
तय शर्तों के अधीन समिति का मुनाफा सदस्यों के बीच बांट दिया जाता था. इस बारे में जाॅन स्मिथ जोर देकर कहते हैं कि सदस्य इकाइयों के बीच लाभांश बांटने की वह व्यवस्था कुछ ऐसी ही थी, जैसी खोज का श्रेय रोशडेल पायनियर्स को दिया जाता है. यही नहीं, बदलती वैश्विक परिस्थितियों में शिक्षा की महत्ता को स्वीकारते हुए समिति ने सहभागिता के आधार पर 1808 में एक पुस्तकालय की स्थापना की, ताकि सदस्यगण, विशेषकर युवा पीढ़ी नए विश्व की चुनौतियों के अनुरूप स्वयं को तैयार कर सके. कुछ ही समय में पूरा फेनविक गांव सहकारिता आंदोलन से जुड़ गया. विकास की नई योजनाओं पर विचार करने तथा आपसी मामलों के निपटान के लिए गरीब श्रमिकों ने ‘फेनविक संसद’ का गठन किया था, जिसकी बैठक खुले प्रांगण में होती थी. बैठक में भाग लेने वालों की सुविधा के लिए ऐसे स्थान को चुना गया था, वह चौराहे पर पड़ता पर पड़ता था, ताकि सभी को वहां पहुचने में आसानी रहे. सदस्यों की सुविधा के लिए बैठकस्थल पर पेयजल का समुचित प्रबंध किया गया था. सहकारिता की ऐसी अलबेली–अनूठी शुरुआत करने के बावजूद फेनविक के बुनकरों और कामगारों को उसका श्रेय लेने से वंचित क्यों रखा गया? इस बारे में मेक्फेजीन का कहना है कि फेनविकवासियों ने—
‘अपने कार्य का शुभारंभ बहुत ही शालीन, लगभग गुपचुप तरीके से किया था. बैठक के दौरान बाहर से आने वालों पर नजर रखने के लिए उन्होंने चौकीदार तैनात किए गए थे. क्योंकि स्थानीय जमींदार नहीं चाहते थे कि उनके श्रमिक–कामगार एक ही स्थान पर इकट्ठे होकर खुद को और संगठित करने, ताकत बटोरने, अपने भीतर नया आत्मविश्वास पैदा करने, स्वयं को पूरी तरह आत्मनिर्भर बनाने अथवा अपना भविष्य अपने ही हाथों से संवारने के बारे में कोई योजना बनाएं.’
फेनविक के दुर्भाग्य एक कारण वहां की भौगोलिक परिस्थिति भी थी. वहां विकास के संसाधनों का अभाव था. बावजूद इसके इस तथ्य को अस्वीकारा नहीं जा सकता कि जिस सहकारिता आंदोलन ने उनीसवीं शताब्दी से पूरे विश्व को प्रभावित करना आरंभ किया और देखते ही देखते वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया उसकी वास्तविक शुरुआत और सैद्धांतिक अधिरचना फेनविक में ही हुई थी, जिसका श्रेय फेनविक और उन गरीब बुनकरों, कामगारों को मिलना ही चाहिए, जिन्होंने अपने संगठन के बल पर जमींदारों और कारखानेदारों के वर्चस्व तथा एकाधिकार को चुनौती देने का पहला संगठित और सारगर्भित प्रयास किया था.
आधुनिक सहकारिता आंदोलन के शुभारंभ का श्रेय रोशडेल पायनियर्स को दिया जाता है, इसलिए कि रोशडेल के उन बुनकरों ने सदस्यों के बीच सहकारिता के उपयोग के आधार पर लाभांश के बंटवारे की अनूठी व्यवस्था दुनिया के सामने रखी. अपने सिद्धांतों और संकल्पनिष्ठा के बल पर उन्हें अभूतपूर्व सफलता भी प्राप्त हुई. बावजूद इसके यह भी एक इतिहास–सम्मत तथ्य है कि रोशडेल पायनियर्स के टोड लेन स्थित उपभोक्ता भंडार की शुरुआत से काफी पहले फेनविक के गरीब बुनकर उपभोक्ता सहकारिता के आंदोलन का शुभारंभ कर चुके थे. यही नहीं, 1826 से 1835 के बीच ब्रिटेन के 250 से अधिक कस्बों और गांवों में सहकारी समितियां बन चुकी थीं. उनमें से एक ‘रोशडेल फ्रैंडली सोसाइटी’ भी थी, जिसकी असफलता से सबक लेते हुए उसके एक सदस्य चाल्र्स हावर्थ ने लाभांश के न्यायोचित बंटवारे की ‘डिवीडेंड’ जैसी व्यवस्था की परिकल्पना कर, रोशडेल से ही सहकारिता के नए युग का शुभारंभ किया. गांव–गांव में तेजी से खुलते उपभोक्ता भंडारों की संख्या को देखते हुए नेपोलियन ने इंग्लंेड को ‘परचूनियों का देश’ कहकर उसपर कटाक्ष भी किया था.
सहकारिता आंदोलन का शुभारंभ चाहे रोशडेल से हो अथवा फेनविक से, इंग्लेंडवासियों को अपनी उस वैश्विक देन पर सदैव गर्व रहा है—
‘इसे आप परंपरागत ब्रिटिश–स्वप्न का छूंछा हिस्सा; अथवा उसके शाही परिधान का लंगोटनुमा अवशेष भी मान सकते हैं. किंतु उसकी संरचना इतिहास बदलने और पूंजीवाद को ठोकर मारने के लिए की गई थी. इस मंजिल तक पहुंचने के लिए दूसरे देशों ने घृणित मारकाट और खूनखराबे का सहारा लिया, हम इंग्लेंडवासियों ने इसको प्राप्त करने के लिए सस्ते आटे और मक्खन जैसी वस्तुओं की बिक्री से शुरुआत की. इसपर टिप्पणी करते हुए नेपोलियन हमें ‘परचूनियों का देश’ कहा, पर हमें कतई आश्चर्य नहीं हुआ.’
सहकारिता आंदोलन के शुभारंभ का श्रेय चाहे जिस देश को मिले, इसके विश्वव्यापी प्रसार के लिए रोशडेल और फेनविक के गरीब बुनकरों एवं कामगारों के योगदान को भुला पाना असंभव होगा. इसलिए जब तक समानतावादी विचारों की मांग रहेगी, जब तक मानव–मन में यह विश्वास रहेगा कि सभी मनुष्य परस्पर बराबर हैं, कोई छोटा–बड़ा नहीं, जब तक समाज में व्याप्त ऊंच–नीच की आलोचना होती रहेगी और उससे आहत समाजविज्ञानी, कलाकार और बुद्धिजीवी उसके विरुद्ध आवाज उठाते रहेंगे, जब तक विकास के लिए स्थानीय संसाधनों के बेहतर दोहन की प्रासंगिकता बनी रहेगी, और जब तक पूंजीवाद का असमानतावादी, स्वार्थी चेहरा जनसाधारण को मुंह चिढ़ाता रहेगा, तब तक, हां तब तक फेनविक और रोशडेल के उन गरीब बुनकरों को बराबर याद किया जाता रहेगा, जिन्होंने अपने संगठन के दम पर पूंजी के साम्राज्य से टकराने का न केवल साहस किया था, बल्कि अपनी कामयाबी से उसको लगातार छकाने का अप्रतिम उदाहरण भी प्रस्तुत किया था.
© ओमप्रकाश कश्यप