राज्य की एकता और अखंडता सर्वोपरि है. इसके लिए प्लेटो ने सुझाव दिया था कि राज्य का आकार कभी भी तय सीमा से अधिक नहीं होना चाहिए. लोगों को अपने विकास के, तरक्की के अवसर भी मिलने चाहिए. इसके लिए उचित होगा कि प्रशासन को समानता के दायरे में रखा जाए. उसमें किसी भी प्रकार का वर्गीय विभाजन, ऊंच–नीच की भावना नहीं होनी चाहिए. लोगों में कर्तव्य–भावना जाग्रत हो, उनमें इतना विवेक हो कि वे राज्य के कल्याण के लिए आवश्यक नियम–कानून बना सकें. वे शारीरिक रूप से स्वस्थ और मजबूत हों, ताकि युद्धकाल में शत्रु के समक्ष मोर्चे पर डटे रह सकें—इसके लिए प्लेटो शारीरिक और बौद्धिक दोनों ही प्रकार की शिक्षा पर जोर देता है.
शिक्षा के बारे में उसके विचार आधुनिक के करीब तथा किसी भी प्रकार के पूर्वग्रह से मुक्त थे. वह समाज में स्त्री–पुरुष के बीच किसी भी प्रकार के भेदभाव को अस्वीकार करता था. उसका मानना था कि स्त्री और पुरुष बराबर हैं. इसलिए स्त्रियों को भी पुरुषों के समान पढ़ने–लिखने के अवसर मिलने चाहिए. उन्हें समाज के सर्वश्रेष्ठ संरक्षकों के अधीन रखा जाना चाहिए, जो उनके साथ समानतापूर्ण व्यवहार कर सकें. उल्लेखनीय है कि प्लेटो से जीवनकाल में एथेंस में स्त्री–पुरुष अधिकारों में काफी अंतर था. स्त्रियों को पुरुषों से अलग, एकांत स्थल पर रहना पड़ता था. सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेने की उन्हें मनाही थी. समाज में भी उन्हें केवल कामेच्छापूर्ति तथा संतानोत्पत्ति का साधन माना जाता था. ऐसे में प्लेटो ने खुलकर लिखा था कि उन्हें पुरुषों के समान ही शिक्षा तथा अन्य अवसर प्राप्त होने चाहिए, ताकि वे भी अपना विकास कर सकें. प्लेटो का यह विचार इस भावना से प्रेरित था कि मनुष्य की आत्मा ही महत्त्वपूर्ण है, वही ‘शुभ’ की संरक्षक है. लेकिन वह एक उभयलिंगी सत्ता है. हालांकि उसने माना कि स्त्री और पुरुष की स्वभावगत भिन्नताएं और शारीक्षिक क्षमताएं अलग–अलग हो सकती हैं. सामान्यतः ये समाज और स्थानीय लोकाचारों में अंतर का परिणाम होती हैं. तथापि यह भेद कहीं से भी प्राकृतिक नहीं है. अतः समाज को स्त्री के साथ बजाय किसी प्रकार का भेदभाव करने के, उन्हें वे सभी अवसर देने चाहिए जो उनके मानसिक और शारीरिक विकास के लिए अत्यावश्यक हैं.
प्लेटो ने यह भी स्वीकार किया था कि स्त्री और पुरुष को साथ–साथ शिक्षा देने, साथ–साथ व्यायाम कक्षाओं में हिस्सा लेने की अनुमति देने से कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां उत्पन्न हो सकती हैं. सामान्य लोकाचार के विपरीत होने के कारण लोग आरंभ में उनका उपहास भी उड़ा सकते हैं. एक प्रश्न के उत्तर में वह उन स्थितियों पर भी विचार करता है जब लड़के और लड़की को साथ–साथ व्यायाम करते देख, विशेषकर जब लड़कियां अर्धनग्न अवस्था में व्यायामरत हों, उत्पन्न हो सकती हैं. उस अवस्था में लड़के उनका उपहास भी कर सकते हैं. यदि स्त्री वुजुर्ग अथवा देखने में असुंदर है तो इसकी संभावना अधिक भी हो सकती है. इसके बावजूद व्यापक हित में उन्हें मात्र इसी कारण से शारीरिक और अकादमिक शिक्षा से वंचित नहीं किया जाना चाहिए.
‘रिपब्लिक’ के पांचवे खंड में वह स्त्री–पुरुष की शारीरिक एवं मानसिक भिन्नताओं पर चर्चा करता है और इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि ये आभासी हैं. पांचवे खंड में एडीमेंटस, पोलीमार्क्स और ग्लुकोन के साथ चर्चा में हिस्सा ले रहा सुकरात कहता है कि जिस प्रकार घर की देखभाल के लिए कुत्ते का चयन करते समय यह नहीं देखा जाता कि वह नर है अथवा मादा, केवल उसके गुणों पर ध्यान पर रखा जाता है, इसी प्रकार सामाजिक दायित्वों के अनुपालन के लिए भी स्त्री और पुरुष के भेद को नजरंदाज किया जाना चाहिए. यदि फिर भी कोई मानता है कि स्त्री और पुरुष की कार्यक्षमताओं में अंतर होता है तो भी कार्य–विभाजन के समय इस अंतर की उपेक्षा की जानी चाहिए. प्लेटो ने सुकरात से कहलवाया है—
‘…और यदि…स्त्री और पुरुष की देहयष्टि, उसके कार्य अथवा प्रदर्शन में यदि कोई अंतर लक्षित भी होता है, तो हम यह कहते हैं कि उस कार्य अथवा प्रदर्शन का दायित्व–भार उनमें से ही किसी अन्य को सौंप दिया जाना चाहिए(जो उस कार्य को करने में अधिक निपुण हों). लेकिन वह अंतर यदि सिर्फ बाहरी पहनावे और देह–रचना तक सीमित है तो इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि स्त्री पुरुष से भिन्न अथवा कमतर है तथा उसको किसी क्षेत्र–विशेष में शिक्षित किया ही नहीं जा सकता, इसलिए हमें अपने अभिभावकों तथा उनकी पत्नियों को एक ही स्तर की शिक्षा देनी चाहिए. इस मामले में किसी भी प्रकार का भेद करना अनुचित एवं न्याय भावना के विरुद्ध होगा.’
ऐसा नहीं है कि अपने विचारों में प्लेटो ने सर्वत्र उदारता ही बरती हो. यदि ऐसा होता तो आज से करीब चौबीस सौ वर्ष पहले ही यूनान में वास्तविक लोकतंत्र को बढ़ावा मिलता है. कम से कम उस दिशा में मौलिक चिंतन कुछ तो आगे बढ़ता. दरअसल प्लेटो और सुकरात दोनों ही स्पार्टा की सादगी से बेहद प्रभावित थे. एक युद्ध–समर्पित समाज बनाने के लिए स्पार्टा ने अपने नागरिकों से उनका निजी जीवन छीन रखा था. परंतु प्लेटो के लिए व्यापक राज्य हितों के लिए यह बलिदान बहुत मामूली था. यद्यपि सादगी की कीमत वहां के नागरिकों को अपने अस्मिताबोध से चुकानी पड़ती थी. राज्यहित के आगे वहां व्यक्तिहितों को गौण माना जाता था. यही नहीं, व्यक्ति को अपनी महत्त्वाकांक्षाएं, जीवन की खुशियां, यहां तक कि अपनी पारिवारिक पहचान भी राज्य के पक्ष में भुलानी पड़ती थी. प्लेटो सुदृद्ध राजनीतिक तंत्र के पक्ष में था. इसके लिए राज्य का अधिनायकवादी रवैया भी उसको स्वीकार्य था. शिक्षा, कला, स्वास्थ्य–रक्षण आदि के प्रति वह इसलिए आग्रहशील है. क्योंकि वह केंद्र की मजबूती और खुशहाली के लिए भी अत्यावश्यक है. प्लेटो की निगाह में राज्य के आगे व्यक्ति की अपनी इच्छा–आकांक्षाएं अर्थविहीन है. यहां तक वह बच्चों को भी उनके माता–पिता से अलग राज्य के संरक्षण में इस प्रकार पाले जाने का अनुमोदन करता है, ताकि माता–पिता और संतान में से कोई भी परस्पर पहचान न सके. प्लेटो की अंतिम संवादिका है—‘लॉज’. जिसमें वह ऐसी सलाह देता है, जो आधुनिक समाज में शायद ही मान्य हो. हालांकि उन दिनों स्पार्टा में ऐसी वही व्यवस्था थी, परंतु प्लेटो का इसे समर्थन इसलिए हैरान करने वाला है, क्योंकि वह संभवतः पहला विचारक है जो स्त्री–पुरुष समानता के पक्ष में आवाज उठाता है. स्त्री की शिक्षा एवं स्वास्थ्य–रक्षण की अनिवार्यता पर जोर देते हुए वह लिखता है कि—
‘अभिभावक वर्ग की पत्नियां तथा उनकी संतान संयुक्त होनी चाहिए. इस तरह कि किसी भी माता–पिता को उसकी संतान के बारे में कोई जानकारी न हो, न ही कोई बालक अपने माता–पिता के बारे में जान पाए.’
यह संदेह व्यक्त करने पर कि पत्नियों और बच्चों के संयुक्त रहने पर क्या विवाद नहीं होंगे? प्रत्युत्तर में प्लेटो आश्वस्त करता है कि स्थिति ठीक इसके विपरीत होगी. पत्नी और संतान के एक होने से लोगों के बीच परस्पर अधिक भाईचारा, विश्वसनीयता और पारिवारिकता भी पनप सकती है, जो उन्हें एक–दूसरे से सहयोग के लिए प्रेरित करेगी. संयुक्त पत्नियों और बच्चों की परिकल्पना के पीछे प्लेटो की असली मंशा अभिभावक वर्ग को पारिवारिक संबंधों तथा भावनात्मक बंधनों से मुक्त करने की थी, ताकि वे समाज के प्रति पूर्णतः एकनिष्ठ रहकर अपने दायित्वों का परिपालन कर सकें. उसका मानना था कि बच्चे और पत्नियां संयुक्त होंगे तो निजी संपत्ति की आवश्यकता भी खत्म हो जाएगी. इसलिए उससे बच्चों को राज्य के संरक्षण में रखने का सुझाव दिया था. यह संभावना व्यक्त करने पर कि संयुक्त संतान होने पर बच्चों की उपेक्षा होने लगेगी—प्लेटो की प्रतिक्रिया थी कि इससे लोग बच्चों के लालन–पालन पर संयुक्तरूप से अधिक ध्यान देंगे. बालक परिवार की आर्थिक हैसियत से मुक्त एक समानतापूर्ण वातावरण में पलेगा. इसलिए बच्चों के पालन–पोषण में कोई कमी नहीं आएगी.
परिवार की अवधारणा को समाप्त करने के पीछे प्लेटो का मानना था कि इससे एक ऐसे स्वयं अनुशासित शासकवर्ग का विकास हो सकेगा जो अधिक संगठित, एकात्मक, सहिष्णु तथा प्रतिद्विंद्वता की भावना से मुक्त हो. स्पार्टा का नागरिक जीवन युद्ध की अनिवार्यताओं से संचालित था. प्लेटो स्पार्टा की समाज–व्यवस्था से कितना प्रेरित था. इसका अनुमान उसकी इस मान्यता से भी लगाया जा सकता है कि वह जहां हृष्ट–पुष्ट बच्चों का विशेष ध्यान देने पर जोर देता है, ताकि वे बड़े होकर अच्छे सैनिक का धर्म निभा सकें. वह शारीरिक–मानसिकरूप से कमजोर बच्चों को शेष बच्चों से अलग रखने की सलाह देता है. अपने आदर्श राज्य में प्लेटो विवाह–संस्था को अनावश्यक मानता था. उसका मानना था कि—
‘समाज में स्त्री–पुरुष की एक संयुक्त जीवनचर्या होनी चाहिए….उनकी शिक्षा संयुक्त रूप से हो, उनके बच्चे संयुक्त परिवेश में रहें. फिर चाहे वे युद्ध पर हों अथवा शांति काल में आम शहरी का जीवन बिता रहे हों—बच्चों का पालन–पोषण भी संयुक्तरूप से करें. वे साथ–साथ काम करें, ऐसे ही जैसे कि कुत्ते एकजुट होकर शिकार करते हैं. स्त्रियों–पुरुषों के संबंध भी सामूहिक हों तथा वे अपने कर्तव्य का पालन इतनी निष्ठा के साथ करें, जितना कि वे अधिकतम कर सकते हैं. कोई भी कानून का उल्लंघन न करे, काम–संबंधों के प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखा जाए.’
बच्चों के संयुक्त पालन–पोषण की परिकल्पना के पीछे उसका विचार था कि इससे लोग अपने बारे में सोचना छोड़कर पूरे समाज के बारे में सोचेंगे. अपने राज्य के बारे में सोचेंगे. शिक्षा के बारे में प्लेटो के विचार अपने समय के किसी भी अन्य विद्वान की अपेक्षा कहीं अधिक प्रगतिशील थे. वह शिक्षा के मामले में किसी भी प्रकार की जोर–जबरदस्ती अथवा दबाव का विरोध करता था. उसका मानना था कि—
‘एक स्वतंत्र व्यक्ति को कुछ भी दबाव में नहीं सीखना चाहिए. अनिवार्य शारीरिक व्यायाम शरीर को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता, किंतु जोर–जबरदस्ती की शिक्षा कभी दिमाग में नहीं ठहरती…इसलिए दबाव को छोड़ो, बच्चों को खेल–खेल में सीखने दो.’
करीब 2400 वर्ष पहले जब तक यूनानी समाज में नागरिकबोध पर्याप्तरूप से विकसित नहीं हुआ था, प्रायः सभी समाज कबीलों में बंटे थे. उनके बीच आपसी युद्ध और तनातनी सामान्य बात थी. युद्ध के कारण भी मामूली होते थे. मगर उन युद्धों में अनेक निर्दोष मारे जाते थे. जो गिरफ्तार होते, उन्हें विजेता पक्ष दास बनाकर अपने अधिकार में ले लेता था. बाकी जीवन उन्हें इसी गुलामी में बिताना पड़ता था. ऐसे में राज्य में शांति–व्यवस्था बनाए रखना प्रत्येक विचारक की समस्या थी. इसका एक उपाय उन्हें मजबूत केंद्र के रूप में दिखाई देता था. भारत में चाणक्य की भांति प्लेटो भी एक सुदृढ़ केंद्र का समर्थक था. राज्य की संगठित ताकत को कोई खतरा न हो, इसलिए उसका सुझाव था कि राज्य यह ध्यान रखे कि उसके नागरिकों के दिमाग में क्या चल रहा है. खासकर बुद्धिमान लोगों के. स्पार्टा में तो कला, साहित्य आदि जो व्यक्ति को अंतर्मुखी बनाते हैं, को गैरजरूरी माना गया था. प्लेटो स्वयं भी स्पार्टा से प्रभावित था. युवावस्था में प्लेटो ने स्वयं भी प्रेम कविताएं लिखी थीं. शायद इसी लगाव के कारण वह साहित्य और कलाओं का सीधे विरोध तो नहीं करता. वह राज्य को ऐसे लोगों पर नजर रखने की सलाह देता है. उसके अनुसार—
‘राज्य का सबसे पहला काम होगा गल्पकथा लेखकों पर पाबंदी लगाना, और उसके बाद अच्छी और बुरी गल्पकथाओं का चयन करना, हम चाहेंगे कि माताएं और धाय बच्चों को वही कहानियां सुनाएं जो उनके लिए निर्धारित की गई हैं. उन कहानियों को बच्चों में लोकप्रिय बनाएं जो उनके हाथ–पैर सक्रिय बनातीं यानी उन्हें परिश्रम करना सिखाती हों. समाज में फिलहाल सुनी–सुनाई जा रही कहानियों में से अधिकांश बकवास हैं, इसलिए उनका विरोध किया जाना चाहिए.’
साहित्य और कलाओं में यथार्थवाद का समर्थक प्लेटो प्राचीन यूनानी कवियों होमर और हेसोद की रचनाओं को भी बच्चों के लिए नुकसानदेह मानता है. उसका मानना है कि इन कथाओं को बच्चों को सुनाना उनके आगे ‘झूठ बोलने, बल्कि भद्दा झूठ बोलने जैसा’ है. कलात्मक चित्रकला का विरोध करते हुए उसने कहा था कि चित्रकार अपनी कूंची से प्रकृति का जो चित्र खींचता है, उसका सच से कोई वास्ता नहीं होता. वह जिस फंतासी को अपने चित्र के माध्यम से दर्शाना चाहता है, वह बच्चों को एक ऐसी बनावटी दुनिया से परचाती से है, जो यथार्थ से एकदम परे है. इसलिए बच्चों को ऐसी चित्रकला और कथा–साहित्य से दूर रखना चाहिए. सुकरात का विचार था कि बच्चे यथार्थ और कल्पनाजगत में अंतर करने में असमर्थ होते हैं, इस कारण कभी–कभी वे कल्पनाजगत को ही वास्तविक संसार मानकर व्यवहार करने लगते हैं. इसलिए प्रारंभ में उन्हें ऐसी कहानियां सुनाई जानी चाहिए जो नैतिक शिक्षा देने वाली हों.
स्मरणीय है कि उस समय प्राचीन यूनान में कला और साहित्य की स्थिति भारत के रीतिकालीन कला–साहित्य के समान थी. यूनानी सम्राट प्रतिष्ठित कलाकारों एवं दार्शनिकों को अपने आश्रय में रखते थे. ऐसे उपकृत विद्वान अपनी प्रतिभा का उपयोग अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने के लिए करते थे. प्लेटो ने ऐसे साहित्य को बच्चों से दूर रखने को कहा है. उसका मानना था कि सभी मनुष्य अपने आप में अपूर्ण हैं और उनके अनेक लक्षण जानवरों से मिलते–जुलते हैं. मगर वह यह भी मानता कि शिक्षा के माध्यम से मनुष्य अपने आप को ऊपर उठा सकता है.
© ओमप्रकाश कश्यप
अन्तिम अनुच्छेद का मतलब ऐसा भी लिया जा सकता है कि यूनान 4- 500 ई० पूर्व भारत के 14- 1500 ईस्वी से समान राजाओं के चापलूसी में व्यस्त था, साहित्य के सन्दर्भ में।
प्लेटो ने विवेक, साहस, क्षुधा की बात कर के जबरदस्त आलोचना का पात्र भी बनता है। खासकर जब वह नागरिक सिर्फ दार्शनिक या सैनिकों को मानता हैं। दास प्रथा के बारे में कुछ नहीं कहता। हालाँकि झूठ के विरुद्ध यथार्थता का पक्ष लेकर यह कहना कि नकली या काल्पनिक कहानियाँ बच्चों में कृत्रिमता पैदा करती हैं, बहुत सही है और ध्यान देने लायक है।
संयुक्त जीवनचर्या में सभी स्त्री- पुरुष शामिल नहीं हैं। सिर्फ नागरिक( उसके अनुसार नागरिक) शामिल हैं। वह मानता है कि अच्छे या साहसी लोग ही अच्छी और साहसी संतान पैदा कर सकते हैं, इसलिए संयुक्त या कुछ अनैतिक किस्म की व्यवस्था का पक्षधर बनकर सामने आता है। जिसमें माताएँ बच्चों को दूध पिलाने जाएंगी लेकिन पता न चले कि किस बालक के माता- पिता कौन हैं ? एक तरह से पारिवारिक मोह से मुक्त और नागरिक के रूप में अधिक सोचने लायक व्यक्ति का निर्माण करना चाहता है।
लेख अच्छा है।