पूंजीवादी अर्थतंत्र और धर्म

पूंजीवाद लालच को बढ़ावा देता है. लेकिन लालच केवल पूंजीवाद के लिये ही अच्छी चीज़ है. सामान्य जन की निगाह में यह समाज-विरोधी और आत्मा का विनाश करनेवाली चीज़ है, कहने की ज़रूरत नहीं कि यह हमारे उन समुदायों के लिये बहुत ही बुरी चीज़ है जो परोपकार, करुणा और एकदूसरे के प्रति समान सरोकार में यकीन करते हैं.

                                        गैरी एन्गलर

                                                                                                     

 उनीसवीं शताब्दी को नई वैचारिक क्रांति का युग माना जाता है. वह दौर था, जब मानवीय चेतना अपने उफान पर थी. वैज्ञानिक और तकनीक के क्षेत्र में नए-नए आविष्कार हो रहे थे. तज्जनित परिवर्तनों ने समाज में नए संबंधों को जन्म दिया था. प्रौद्योगिकी-पूर्व समाजों में संबंध मुख्यतः धार्मिक-सामाजिक संहिताओं पर टिके होते थे. मुद्रा-आधारित आदान-प्रदान होता था, किंतु उनमें सामाजिक-धार्मिक नियमों के आगे आर्थिक नियमों की महत्ता अत्यल्प थी. नई व्यवस्था में आर्थिक कार्यकलाप निर्णायक होने लगे थे. तदनुसार जीवन के प्रमुख मार्गदर्शक नियमों की सफलता आर्थिक पहलुओं पर विचार कर, बगैर उनसे अनुकूलन के संभव न थी. उससे विशुद्ध अर्थकेंद्रित संबंधों के विकास को बल मिला. प्राचीन समाज अनुत्पादक या उत्पादकता से कटा हुआ समाज नहीं था. केवल उत्पादन तकनीक सरल होती थी. बावजूद इसके जीवन में उसका महत्त्व था. व्यक्तिगत कौशल तब भी समाज में पद-प्रतिष्ठा दिलाने में सक्षम था. बढ़ई, लोहार, बुनकर, कुंभकार, रंगरेज जैसे शिल्पकर्मी अपने हस्तकौशल के माध्यम से जीविका चलाते थे. उनकी आजीविका गांव-बस्ती के बाकी लोगों की जरूरत पर आधारित थी. शिल्पकार वर्ग अपने हुनर का उपयोग बाकी लोगों की संबंधित आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए करता था. अर्थलाभ या मुनाफे के लिए उत्पादन की संकल्पना उस समय तक जन्मी ही नहीं थी. मशीनों के आगमन के पश्चात यह संभव हुआ कि उत्पादन के लिए कार्य-विशेष में नैपुण्य अनावश्यक माना जाने लगा. मशीनें उसकी भरपाई करने में सक्षम थीं. इसलिए उत्पादन कर्म में सीधे दक्ष न होने के बावजूद व्यक्ति उत्पादन कर सकता था. महंगी होने के कारण नई प्रौद्योगिकी अधिसंख्यक वर्ग की पहुंच से बाहर थी. केवल आर्थिक रूप से सक्षम व्यक्ति उसे खरीद सकता था. उसके लिए आवश्यक था कि उस व्यक्ति का अपना हित सधता हो. इससे प्रकारांतर में लाभ और निवेश जैसी संकल्पनाओं ने जन्म लिया. कालांतर में लाभ की संकल्पना इतनी सिर चढ़ी कि मानवीय संबंध तक लाभ-अलाभ की कसौटी पर कसे जाने लगे. नई अर्थव्यवस्था का नारा था, मुनाफा और अधिकतम मुनाफा. येन-केन-प्रकारेण, ज्यादा से ज्यादा मुनाफा. परिणाम राजनीति पर आर्थिक विशेषज्ञों के बढ़ते प्रभाव के रूप में सामने आया. जिसके अंतर्गत बड़े राजनीतिक निर्णय भी आर्थिक विषयों को केंद्र में रखकर लिए जाने लगे.

परंपरागत समाजों में उत्पादन का मुख्य आधार व्यक्ति अथवा समाज की सामान्य आवश्यकताएं होती थीं. प्रौद्योगिकी द्वारा त्वरित उत्पादन संभव हुआ तो उसे खपाने के लिए नए बाजारों और उपभोक्ताओं की जरूरत पड़ने लगी. उससे उपनिवेशीकरण को बढ़ावा मिला. कालांतर में यह लगने लगा कि दास व्यक्ति अच्छा सेवक तो बन सकता है, उपभोक्ता नहीं. मुक्त भोग के लिए स्वतंत्रता का एहसास, भले ही वह आभासी हो, आवश्यक है. उसके फलस्वरूप औपनिवेशिक राज्यों की मुक्ति का सिलसिला आरंभ हुआ. प्रकारांतर में वह राजनीतिक संस्थाओं के कमजोर पड़ते जाने की भी शुरुआत थी. आगे चलकर उससे आंतरिक औपनिवेशीकरण का रास्ता साफ हुआ. आंतरिक उपनिवेश असल में मुक्त पूंजीवाद के ठिकाने थे. उनमें व्यक्ति और उसके परिवार से धरती-आसमान छीनकर उन्हें एक छत उपलब्ध करा दी जाती है. उस छत के नीचे सामान्यतः कमेरों की टीम रहती है. पति-पत्नी और वयस्क बच्चे सभी काम की भाग-दौड़ में व्यस्त रहते हैं. सामान्य स्थिति में दिन में छत के नीचे वे कम ही रह पाते हैं. उन्हें यह भ्रम होता है कि वे अपने तथा अपने परिवार के सुख के लिए अर्जन काम कर रहे हैं. ऊपरी तौर पर यह सही भी लगता है. क्योंकि उन उपनिवेश में रहने वाले परिवारों को सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए बड़ी-बड़ी उपभोक्ता कंपनियां, कारपोरेट घराने रात-दिन एक किए रहते हैं. बदले में वे व्यक्ति की कमाई का लगभग पूरा का पूरा हिस्सा, कभी किसी उपभोक्ता वस्तु की कीमत के नाम पर तो कभी सुख-सुविधा के नाम पर हड़प लेते हैं. एक आदमी सामान्यतः तीस-पैंतीस वर्ष तक काम करता है. लगभग इतनी ही आयु उस छत के नीचे बनी चारदीवारी की होती है. बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते हैं, वे अपने लिए नया ठिकाना खोजकर किसी नए उपनिवेश की शरणागत होते जाते हैं. तीस-चालीस वर्ष तक काम करने के बाद जब गृहस्वामी सेवानिवृत्ति प्राप्त होने को होता है, घर भी उसकी भांति जर्जर हो चुका होता है. इन उपनिवेशों में रहने वाले नागरिक सरकार की निगाह में मतदाता और उत्पादक की दृष्टि में निरे उपभोक्ता होते हैं. उपभोक्ताकरण के चलते राजनीतिक संस्थाओं का कार्य देश के आंतरिक उपनिवेशीकरण को बढ़ावा देने का रह जाता है.

नए ज्ञान-विज्ञान तथा उपभोक्ताकरण द्वारा पैदा की गई समस्याओं ने अनेक नई विचारधाराओं को जन्म दिया था. उनमें से अधिकांश का निशाना पूंजीवाद द्वारा पैदा की गई आर्थिक विषमताएं थीं. इस दौर में पूंजीवाद की वैचारिक विपन्नता भी नजर आने लगी थी. हालांकि धर्मसत्ता, राजसत्ता और अर्थसत्ता के व्यापक प्रत्यक्ष एवं परोक्ष समर्थन द्वारा वह पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने फैलाव में लगा था. करीब-करीब बेरोक-टोक. अपने आप में मग्न झूमते, टहलते समाजों को एकाएक भागते-हांफते हुए विकासोन्मुखी समाजों में बदल देने वाला पूंजीवाद मशीनों के कंधों पर सवार होकर आया था. आरंभ में मशीनों का दावा था कि वे मनुष्य को जानलेवा श्रम से मुक्ति दिलाएंगी. इसी उम्मीद के साथ एडम स्मिथ ने सरकार से कहा था कि वह केवल राजनीति पर ध्यान दे. उत्पादन के क्षेत्र को पेशेवर उत्पादकों के लिए छोड़ दे. कदाचित वह पहली घटना थी जब एक प्रखर बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री पूंजीवाद के समर्थन में उतरा था. उससे उत्साहित पूंजीवाद ने भरोसा दिलाया था कि वह ‘अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम सुख’ के लक्ष्य को संभव बनाएगा. निरंतर चलने वाले युद्धों और बढ़ती जनाकांक्षाओं के आगे पस्त पड़ चुके राजनीतिक संस्थान उत्तरोत्तर पूंजीवादी संस्थानों पर निर्भर होते जा रहे थे. परंपरागत अर्थव्यस्थाओं में सहयोग एक जीवनमूल्य था. एक-दूसरे पर निर्भरता सहयोगाधारित उत्पादन प्रणाली को अपरिहार्य बनाती थी. पूंजीवादी उत्पादकों के पास प्रौद्योगिकी की ताकत थी. उनका सारा दारोमदार स्पर्धा पर केंद्रित था. दावा यह किया जाता था कि स्पर्धा का होना उपभोक्ता के लिए लाभकारी है. असलियत में वह पूंजीवाद की ही हित-रक्षक थी. एक उत्पादक बाजार में मौजूद दूसरे उत्पादक से स्पर्धा कर बाजार पर अधिकार जमा लेने की कोशिश करता था. लेकिन उसके लाभानुपात में कमी न आए इसके लिए स्वचालीकरण जैसे, लागत में कटौती में सहायक नए-नए तरीके आजमाए जाते हैं. बाजार पर कब्जा जमाने को उत्सुक उत्पादक महंगे विज्ञापन, आकर्षक पैकेजिंग जैसे प्रलोभनकारी तरीके अपनाए हैं. लेकिन लागत में कटौती का सीधा असर उपभोक्ता और मजदूर वर्ग पर पड़ता है. उन्हें स्वयं स्पर्धा के बीच काम करना पड़ता है. इस तरह पूंजीपतियों के बीच अधिकतम लाभ और बाजार पर पकड़ के निमित्त होने वाली स्पर्धा, श्रमिक वर्ग द्वारा मजदूरी में कमी की स्पर्धा में परिवर्तित हो जाती है.

बहरहाल, प्रलोभनकारी विज्ञापन और हाशिये पर पड़े लोगों के लिए सुख के आश्वासन के साथ पूंजीवाद निरंतर आगे बढ़ता आया है. आरंभ से ही हाशिये के लोगों तथा सामंतवादी अर्थव्यवस्थाओं में उपेक्षित वर्गों के लिए उसके पास अथाह सपने थे. इस कारण जनसाधारण भी उसकी ओर उम्मीद-भरी दृष्टि से देख रहा था. उल्लेखनीय है कि पूंजीवाद के समर्थन में कोई ठोस विचारधारा नहीं थी. बावजूद इसके उसको समाज के सभी वर्गों का सहयोग प्राप्त था. नई प्रौद्योगिकी और उत्पादन तंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए पूंजीवाद को सुशिक्षित एवं तकनीक कौशल से संपन्न कार्यशक्ति की आवश्यकता थी. उसके फलस्वरूप समाज के उन वर्गों को अपने सामथ्र्य के आधार पर आगे बढ़ने का अवसर मिला था, जो उससे पहले शक्ति-संस्थानों पर आश्रित जीवन जीता था. उन वर्गों का, जिनमें समाज के संभवतः सबसे उद्यमशील, मेधावी और स्वप्नदृष्टा लोग सम्मलित थे, पूंजीवाद को पूरा समर्थन प्राप्त था. यही उसके त्वरित विकास का मुख्य कारण भी था. इस तरह बिना किसी ठोस विचारधारा के भी पूंजीवाद की विकास यात्रा अबाध जारी थी.

दूसरी ओर पूंजीवाद के विरोधियों के समर्थन में अनेक सशक्त विचारधाराएं एवं दर्शन थे. खास बात यह कि अपने विकास के लिए पूंजीवाद को धर्माधारित आचार-संहिताओं पर हमला करना पड़ा था. पूंजीवाद के विरोध में उभर रही विचारधाराओं की एक सामान्य विशेषता थी कि उन सभी के केंद्र में मनुष्य था. इस दृष्टि से वे परंपरागत धर्माधारित आचार संहिताओं से अलग थीं, जिनमें मानव जीवन का ध्येय किसी तीसरी शक्ति को प्रसन्न रखना बताया जाता था. चूंकि पूंजीवाद नई चमक-दमक के साथ व्यक्तिमात्र के सुख का आश्वासन देता था, इसलिए उसकी मौजूदगी आधुनिकता का एहसास कराती थी. पूंजीवाद विरोधी विचारधाराओं की कमजोरी थी—जनसाधारण के साथ उनके बौद्धिक स्तर पर संवाद का अभाव. श्रमिक वर्ग तथा उसके हितैषी बुद्धिजीवियों के बीच संवादहीनता पहले के विचारकों में नहीं थी. उनीसवीं शताब्दी में पूंजीवाद विरोधी विचारों की सफलता का कारण ही यह था कि उस दौर में दमित-शोषित वर्गों तथा विचारकों के बीच भरपूर संवाद होता था. चार्ल्स डिकेंस, कार्ल मार्क्स, रोजा लेक्जमबर्ग, अंतोनियो ग्राम्शी, लियोन ट्राटस्की, पीटर क्रोप्टोकिन केवल मौलिक और क्रांतिकारी चिंतक नहीं थे. विचारक के साथ-साथ वे प्रतिबद्ध आंदोलनकर्मी भी थे. बाद में कदाचित रूस और चीन की सफल क्रांतियों के उपरांत पूंजीवाद विरोधी चिंतन पर अकादमिशयनों का कब्जा होने लगा. जनता से कट जाने के बाद उनकी भाषा-शैली भी अभिजन वर्ग के अनुकूल होने लगी. इस बीच श्रमिक हितों की आवाज उठाने के लिए अनेक संगठन आगे आए. लेकिन उनके नेताओं के आचरण में न तो वैसी प्रतिबद्धता थी, न ही वैचारिक प्रखरता—जिनका होना किसी विचार को आंदोलन में बदलने के लिए अपरिहार्य माना जाता है. बुद्धिजीवियों और जनसाधारण के बीच सीधा संवाद के अवसर कम होने का नतीजा यह हुआ कि परिवर्तनकारी विचार, जनसाधारण की पहुंच से बाहर, पुस्तकालयों में कैद होने लगे. साधारण व्यक्ति के लिए पूंजीवाद की चालाकियों को समझना मुश्किल होने लगा. उधर धर्म, राजनीति और पूंजी के सहयोग से पूंजीवाद उत्तरोत्तर अपनी जड़ें जमाता गया. जनसाधारण के सामने एक ओर पूंजीवाद प्रणीत प्रौद्योगिकीय चमक-दमक थी, जो उसको लुभाने के लिए नित-नए उत्पाद के रूप में सामने आती थी. दूसरी और गूढ़ वैचारिक विमर्श. जो उसकी सामान्य समझ को देखते हुए बुद्धि-विलास ही कही जा सकती थीं. जबकि उपभोक्तावादी प्रलोभन बड़ी आसानी से उसकी समझ में आ जाते थे. स्वाभाविक रूप से प्रौद्योगिकीय नवीनता और वैचारिक आधुनिकता की मौन स्पर्धा में जनसाधारण प्रौद्योगिकी नवीनता के साथ था. अर्थात जनसाधारण की दृष्टि में आधुनिकता का पर्याय केवल वे उपभोक्ता सामग्रियां थीं, जिन्हें पूंजीवादी संस्थान लाभ-कामना के साथ बाजार में लगातार उतारते रहते थे.

पूर्ववर्त्ती अर्थव्यवस्थाओं में धर्म समाजार्थिक विषमताओं को बढ़ाने वाला सिद्ध हुआ था. असमानता को स्थायी बनाने में उसका योगदान कम न था. बावजूद इसके धर्म का दैवी विधान सरल था. वह लोगों की आंखों में सपने रोपता था. भले ही उन सपनों की संपूर्ण परिणति बिना मोक्ष के असंभव हो. धर्म के दैवी विधान में गरीब-अमीर सब बराबर थे. वह सभी को अपने-अपने सुख-संतोष के साथ जीने का आश्वासन देता था. इसलिए पूंजीवाद की भांति वह भी जनसाधारण को लुभाता था. मगर धर्म की आचार-संहिता तीसरी शक्ति को प्रसन्न करने की चाहत से गढ़ी गई थी. वह शक्ति अदृश्य और कल्पनाओं पर आधारित थी. इसलिए उसके बारे में प्रत्येक धर्म, संस्कृति ने अपनी-अपनी संकल्पनाएं गढ़ी थीं. उनमें अनेक समानताएं थीं तो अनगिनत विषमताएं भी, जो सभ्यताओं के संघर्ष को जन्म देती थीं. सरल और व्यावहारिक होने के बावजूद धर्म की अनगिनत व्याख्याएं ऐसी भी थीं, जिन्हें समझना जनसाधारण की बुद्धि से परे था. उसके लिए पुरोहित वर्ग की जरूरत पड़ती थी. पुरोहित जनता की आकाक्षाओं को पूरा करने के लिए दैवी विधान के स्वयंभू व्याख्याता की भूमिका निभाता था. बिना ईश्वर से मुलाकात या उसके दर्शन के ही वह भक्त और ईश्वर के बीच मध्यस्थ होने का दावा करता था. उसकी भूमिका विवादों और संदेहों से परे न थी. सत्ताओं से निकटता के कारण वह स्वयं तो सुखामोद में आलिप्त रहता था, जबकि जनसाधारण के लिए उसके पास संतोष और धैर्य की शिक्षा थी. पूंजीवाद की दृष्टि में ये दोनों ही मुक्त विकास के अवरोधक थे.

संतोष उपलब्ध संसाधनों के अधिकतम उपयोग पर जोर देता है. इससे बाजार में पूंजी के निर्बंध आवागमन पर नकारात्मक असर पड़ता है. जबकि धैर्य बिना विचारे कुछ न करने, हड़बड़ी के बजाय खूब-सोच समझकर निर्णय लेने की प्रेरणा जगाता है. इसलिए पूंजीवाद इन दोनों को ही अपने विकास का अवरोधक मानता है. किसी न किसी रूप में ये सब पारिवारिक संरचना से प्रभावित होने वाले मुद्दे हैं. इसलिए पूंजीवाद की ओर से उन्हीं को निशाना बनाया गया. छोटी-छोटी सेवाओं जिन्हें व्यक्ति अभी तक परिवार और समाज के दायरे में सहज ही प्राप्त कर लेता था, जिनके लिए अतिरिक्त पूंजी की आवश्यकता नहीं थी, को बाजार के दायरे में लाया गया. उसका परिणाम मानवीय संबंधों में हताशा के रूप में देखने को मिला. व्यक्ति के आत्मविश्वास को डिगाने के लिए समय-समय पर उसके दिलो-दिमाग को निशाना बनाया जाता रहा. नतीजन ‘विचारधारा का अंत’, ‘सकारात्मक सोच’ जैसे नारे समय-समय पर हवाओं के हमसफर बने. इस सबका एकमात्र ध्येय व्यक्ति को तार्किकता, विवेकीकरण आदि से मुक्त करना था. ये एक ओर पूंजीवाद के अंतर्विरोधों को दर्शाते थे, तो दूसरी ओर उसे लोकलुभावनकारी छवि प्रदान करते थे. व्यक्तित्व-निखार, कैरियरवादी सोच के माध्यम से पूंजीवाद खुद को युवावर्ग की निगाहों में अपरिहार्य बनाए रखना चाहता था. वहीं दूसरी ओर नकारात्मक विचारों, खासकर ऐसे विचारों से जो आलोचना-विमर्श को प्रोत्साहित करते हों, दूर रहने की अप्रत्यक्ष सलाह भी वह देता था. प्रकारांतर में वह युवावर्ग को ऐसे विचारों से दूर रखना चाहता था, जो उसके आलोचक होने के साथ सामाजिक असमानता, आर्थिक वैषम्य, गरीबी, बेरोजगारी, अवसाद, नफरत, सांप्रदायिकता आदि के लिए जिम्मेदार मानते थे. विरोधों से निपटने की उसकी अन्य रणनीति आलोचनाओं का समाहार करने के बजाय, प्रतिक्रियावाद का नाम देकर उनकी ओर से किनारा कर लेने की थी. हालांकि लोग भली-भांति समझने लगे थे कि लाभ-केंद्रित उत्पादन व्यवस्था व्यक्ति को अधिक से अधिक उत्पादन कर, अपनी क्षमताओं का समुचित इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित तो करती है, लेकिन अतिरिक्त उत्पादन को ठिकाने लगाने की कोशिश उसे सुविधा-भुक्कड़ समाज की ओर ले जाती है, जिसमें मनुष्य अपनी आवश्यकताओं से परे भी उपभोक्ता उपकरणों की अंधाधुंध खरीद करता रहता है. इससे पूंजीपति के मुनाफे में निरंतर बढ़ोत्तरी होती रहती है. उपभोक्ता के रूप में गर्वाया हुआ व्यक्ति खुद को ऐसी अनेकानेक सुविधाओं, यंत्रों और उपकरणों के बीच पाता है जिनमें से यदि सोचकर देखा जाए तो अनेक उसके किसी काम की नहीं होते. बल्कि उनमें से अधिकांश की क्षमताओं का पूरा-पूरा उपयोग वह कर ही नहीं पाता है.

किसी भी राष्ट्र की समृद्धि में उसके वैज्ञानिकों और तकनीशियनों का बड़ा योगदान होता है. वे उत्पादन तंत्र को आधुनिक एवं कार्यक्षम बनाए रखने में उपयोगी भूमिका निभाते हैं. न्याय का तकाजा है कि शोधार्थी को उसके उसके परिश्रम और मौलिक खोज का भरपूर प्रतिलाभ प्राप्त हो. सामान्य शोधार्थी यह सोचकर कि बौद्धिक संपदा कानून के अनुसार उसके शोध का लाभ उसे लगातार मिलता रहेगा, स्वयं को नए शोध पर केंद्रित रखता है. यह वैज्ञानिक में नए शोध की प्रेरणा जगाती है. पूंजीवादी अर्थ-तंत्र में अधिकांश शोध-संसाधनों पर पूंजीपतियों का अधिकार होता है. बौद्धिक कानून के चलते वे हर नए आविष्कार का व्यावसायिक लाभ लेते चले जाते हैं. हर चीज को मुनाफे की दृष्टि से परखने की प्रवृत्ति मनुष्यता का अवमूल्यन करती है. बाजार पर एकाधिकार की लालसा पारस्थितिकीय और पर्यावरण संबंधी समस्याएं भी पैदा करती है. अधिकतम उत्पादन की चाहत में व्यक्ति संसाधनों को भविष्य की चिंता किए बिना ही खर्च करता रहता है. अधिकतम मुनाफे के लिए वह स्वचालीकृत तकनीक का सहारा लेता है. जिससे कारखानों में श्रमिकों पर निर्भरता निरंतर घटती चली जाती है. बची हुई पूंजी को उत्पादक विज्ञापन और पैकेजिंग आदि पर खर्च करता है. स्पर्धा एकाधिकारवाद में ढलने लगती है. परिणामस्वरूप व्यक्ति अपने परिजनों और पड़ोसियों से अधिक प्रौद्योगिकीय उत्पादों पर भरोसा करने लगता है, जो उसके अकेलेपन और अवसाद दोनों को बढ़ाते हैं. अनियंत्रित उपभोक्ताकरण की दौड़ में ऐसे विज्ञापन बाजार में लाए जाते हैं जो मनुष्य को अपने समाज के प्रति संदेहशील बनाती है. उनके माध्यम से पूंजीपति मनुष्य को निरंतर भोग के लिए उकसाकर अपना उल्लू सीधा करता रहता है. मुनाफे की निरंतरता बनी रहे इसके लिए वह अपनी नीतियां अधिकतम उत्पादन और अंतहीन भोग को केंद्र में रखकर बनाता है; और विभिन्न प्रकार की सत्ताओं के सहयोग-समर्थन द्वारा कामयाब भी होता है.

हम सब मानते हैं कि उत्पादन समाज की जरूरत है. प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए अधिकतम सुख की कामना करता है. पूंजीवाद अधिकतम उत्पादन पर जोर देता है, तो इसमें सभी का हित है. इसके लिए उसकी सराहना करनी चाहिए. अगर ऐसा ही होता तो इस लेख की कदाचित आवश्यकता ही नहीं पड़ती. असल में पूंजीवाद की जो विशेषताएं नजर आती हैं, वही उसकी कमजोरियां भी हैं. पूंजीवाद उत्पादन के लिए उत्पादन करता है. मनुष्य की जरूरतें उसकी निगाह में पर्याप्त नहीं होतीं. अपने मुनाफे के लिए वह उपभोक्ता समाज में नई जरूरतें ‘क्रिएट’ करता है तथा वर्तमान जरूरतों को विस्तार देता जाता है. इससे समाज में अनावश्यक भोग की स्पर्धा आरंभ हो जाती है. उसमें जो गरीब है, कमजोर और विपन्न है, संसाधनों की कमी के कारण वह निरंतर कमजोर पड़ता जाता है. उत्पादन और मुनाफे के लिए पूंजीवाद मनुष्य की जरूरतों को उन दिशाओं में भी विस्तार देता है, जिससे मनुष्य के विकास का कोई वास्तविक संबंध नहीं होता. पूंजीवाद पर संस्कृति की कोई पकड़ नहीं होती, बल्कि वह खुद संस्कृति को अपने अधीन कर लेता है और सांस्कृतिक प्रतीकों का उपयोग अपने व्यावसायिक हितों की सुरक्षा के लिए करता है. उसके लिए न तो राष्ट्र की सीमाएं महत्त्व रखती हैं, न सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति संवेदनशीलता. इसलिए पूंजीवादी व्यवस्था में सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यों का निरंतर स्खलन होता रहता है. इससे समाज में अंतर्द्वंद्व पनपते हैं. नागरिकों का आत्मविश्वास खंडित होता है. इसका दुष्परिणाम सामाजिक विघटन के रूप में सामने आता है. आर्थिक संबंध प्रमुख हो जाने से परिवार और समाज के वे लोग जो वार्धक्य अथवा किसी और सांस्कृतिक अक्षमता के चलते उत्पादन नहीं कर पाते हैं, वे उपेक्षा और तिरस्कार का पात्र मान लिए जाते हैं. कमजोरी जाहिर न हो, इसलिए पूंजीवादी तंत्र ‘बाल सुधार गृह’, ‘ओल्ड एज होम’ जैसी व्यवस्थाएं करता है. उपभोक्ता संस्कृति सबसे अधिक युवावर्ग को ललचाती है. वह उपभोक्ता सामग्री यथा मोबाइल, इंटरनेट, टेलीविजन जैसे माध्यमों के जरिए अपनी अस्मिता की खोज करने लगता है. पूंजीवाद का निरंकुश विस्तार सांस्कृतिक क्षरण को जन्म देता है. युवावर्ग संस्कृति से कटकर पूरी तरह से बनावटी जीवन-शैली का दास बनकर रह जाता है. आशय है कि अपने लाभ के लिए पूंजीवाद संस्कृति के आगे संकट खड़े करता है. मनुष्य अपनी ही संस्कृति और परंपराओं को अविश्वास और हेय दृष्टि से देखने लगता है. निरंतर नई सुविधाओं से लैस करनेवाले बाजारवादी मूल्य उसे अपेक्षाकृत आधुनिक और विकासोन्मुखी दिखाई पड़ते हैं.

चूंकि संस्कृति से संपूर्ण कटाव संभव नहीं है, अतएव मनुष्य पर उसकी त्वरित प्रतिक्रिया होती है. बाजार एक ओर उसे अपने व्यक्तित्व का पूरक नजर आता है, दूसरी ओर वह उसे अपने अस्तित्व पर संकट नजर आता है. परंतु संस्कृति केवल भाववादी विमर्श नहीं है. वह एक बौद्धिक चेतना भी साथ लिए रहती है. पूंजीवाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस प्रकार के विमर्श को प्रोत्साहित और प्रायोजित करता है. इस बीच वह संपूर्ण प्रक्रियाओं को अपने स्वार्थ के अनुकूल मोड़ देने में कामयाब हो जाता है. यही कारण है कि पूंजीवाद में संस्कृति पर हमले के समय भरपूर बौद्धिक संरक्षण नहीं मिल पाता. परिणाम यह होता है कि उसमें निरंतर कुछ न कुछ विकृतियां प्रवेश करती जाती हैं. स्वार्थी तत्व सांस्कृतिक संस्थानों पर कब्जा जमाने में कामयाब हो जाते हैं. संस्कृति रक्षा के नाम पर पूंजीवादी प्रोपेगेंडा करते हैं. बाजार में मौजूद उपभोक्ता सामग्री की ओर ललचायी दृष्टि से देख रहा उपभोक्ता वर्ग, उसे अपनी अस्मिता का प्रतीक मानकर संस्कृति की ओर से उदासीन हो जाता है. यह स्थिति अनेक चरणों में लंबे समय तक चलती है. और प्रकारांतर में वह तमाशा बनकर रह जाती है. उल्लेखनीय है कि संस्कृति को लेकर सामंतवाद का वर्ताब भी अनैतिक ही होता है. वहां संस्थानों और सत्ताओं के चाटुकार हर जगह कुंडली मारे बैठे होते हैं. वे सांस्कृतिक प्रतीकों की चारण-व्याख्या करते रहते हैं. इससे वह अपनी चेतना खोकर रूढ़ परंपराओं में ढलने लगती है. ऐसी मृतप्रायः संस्कृति की ओर से युवावर्ग का ध्यान हटाना आसान होता है. पूंजी और सत्ता का गठजोड़ करीब-करीब अविजित होकर उभरता है. समाजार्थिक असमानता बढ़ती है. साथ में सामाजिक असंतोष भी, जो पूरे समाज को उद्वेलित करने का काम करते हैं. उनसे निपटने के लिए राज्य को अपनी शक्ति और श्रम दोनों खपाने पड़ते हैं. विकृतियों का जन्मदाता होने के कारण पूंजीवाद उनकी जिम्मेदारी लेने से कतराता है. उनके लिए वह राज्य को दोषी ठहराता है. इससे लोगों में राज्य के प्रति आक्रोश पनपने लगता है. राज्य का कमजोर होना भी पूंजीवाद को शक्तिशाली बनाता है. व्यवस्था-सुधार के नाम पर वह अपने चहेतों को केंद्र में ले आता है, जिनके लिए देश और लोकहित से अधिक समर्थक पूंजीपतियों के हित अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं. नतीजा यह होता है कि राजनीतिक संस्थान निरंतर कमजोर होते चले जाते हैं. उसका लाभ उठाकर पूंजीपति राज्य से मनमाने फैसले कराते रहते हैं.

पूंजीवाद सामंतवाद की कोख से जन्मा है. सामंतवाद की तरह वह भी बिना श्रम के धनार्जन करता है. उन संसाधनों पर कब्जा किए होता है, जो पूरे समाज की संपदा हैं. दोनों विचारधाराएं ज्ञान की मौलिकता से भय खाती हैं. मनुष्य के विवेकीकरण से उन्हें डर लगता है. सामाजिक प्रबोधीकरण उन्हें स्वार्थ के प्रतिकूल दिखाई पड़ता है. वे जानते हैं कि संगठित जनशक्ति के आगे पूंजीवाद के प्रलोभन तथा सामंतवाद के दबाव नाकारा सिद्ध होंगे. इसलिए मनुष्य को संगठित होने से रोकने के लिए तरह-तरह के आयोजन रचते रहते हैं. वे यह भी जानते हैं कि मनुष्य यदि संगठित होंगे, उनका संगठित सोच होगा, धर्म और परंपरा के नाम पर फैले अनेक प्रलोभनों से मुक्त होंगे तो उनकी प्रश्नाकुलता चिरयुवा बनी रहेगी. तब वे उनसे तरह-तरह के सवाल करेंगे—सामंतवाद को उसके असीमित अधिकार किसने दिए? उसकी विलासिता के पीछे खर्च होने वाली धनराशि का स्रोत क्या है? किसान और मजदूर की भांति सामंत तथा उसके गुर्गे खेतों, खलिहानों और खानों में जाकर पसीना क्यों नहीं बहाते? उन्हें गरीब किसान-मजदूरों की पीठ पर कोड़े बरसाने का अधिकार किसने दिया? वहीं पूंजीपति से पूछा जाएगा कि उसे बड़े-बड़े कल-कारखानों का मालिक किसने बनाया? धर्म आस्था की चीज है तो वह मंदिर को अपने घर-आंगन में बनबाने के बजाय फैक्ट्री के प्रागंण में क्यों ले आता है? क्यों उसके घर का बंगला और फैक्ट्री का आकार साल-दर-साल बढ़ता चला जाता है? और इस बीच मजदूर की पसलियां कुछ और साफ दिखने लगती हैं, आखिर क्यों? क्यों वह ऐसी वस्तुओं का निर्माण करता है, जो बहुसंख्यक लोगों की पहुंच से बाहर, उनकी निगाह में विलासिता की चीज हैं. जिनके अभाव में भी जीवन बिना किसी परेशानी के, आसानी से चल सकता है? क्यों वह उन चीजों को नहीं बनाता जो धरती पर अधिसंख्यक लोगों के अधिसंख्यक कष्टों का समाधान करने में सक्षम हों? धरती पर लगातार बढ़ रहे पारस्थितिकीय संकट के लिए जिम्मेदार कौन है? वगैरह-वगैरह.

ऐसे सवाल न उठाए जाएं, बल्कि इस प्रकार के परेशान कर देनेवाले प्रश्न लोगों के दिमाग में आएं तक नहीं, इसके लिए पूंजीवाद और सामंतवाद दोनों ही धर्म की मदद लेते हैं. दिमागों को अनुकूलित रखने में धर्म अफीम का काम करता है. इसके लिए पूंजीपति-सामंत धर्म-रक्षक और लोक-हितैषी दिखना चाहते हैं. यह काम वह लोगों के पैसे से ही करते हैं. पाई-पाई किसानों, शिल्पकारों और श्रमिकों के पसीने से जुटाई जाती है. किसी सामंत द्वारा जीवन-भर में इमारतों, सड़कों, पेड़-पौधों के निर्माण में लगाया गया धन, उस आय का नगण्य हिस्सा होता है, जिसे वह जनता से लगान आदि के रूप में लूटता था. बाकी धन सामंत, उसके परिवार तथा अधिकारियों के भोग-विलास पर खर्च होता था. जबकि लोकहित में किए गए कार्यों का शत-प्रतिशत श्रेय सामंत को जाता था. बिना किसी ठोस योगदान के वह समाज का कर्ता-धर्ता और मान-सम्मान का अधिकारी बना रह सकता था. आखिर जनता के दिमाग में यह बात कौन बिठाता है? जाहिर है, पुरोहित जिसे सामंत स्वार्थवश धर्मरक्षक और महात्मा नजर आता है. सामंतवाद द्वारा कवियों, कलाकारों और वीर-योद्धाओं का समय-समय पर सम्मान, पारितोषिक आदि उन्हें अपने ही रंग में रंगने के लिए दिए जाते थे. ताकि समाज की रचनात्मक मेधा सत्ता-सुख में डूबी रहे. लोकहित की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाए. कवि-कलाकार यदि मुक्त होंगे, उनका सोच निर्बंध होगा तो वे सामंतवाद और राजशाही के विरोध में आवाज उठा सकते हैं. वे जनता को समझा सकते हैं कि लोककल्याण के नाम पर खर्च की गई धनराशि उसके अपने श्रम से उपार्जित है. सेठ की समृद्धि और सम्राट एवं उसके परिजनों का सुख-वैभव उसके खून-पसीने की कमाई से अर्जित किया गया है.

वह जान जाएगा कि लोग इसलिए गुलाम नहीं होते कि गुलामी उन्हें प्रिय होती है. न ही वे केवल अपनी कमजोरी के कारण गुलाम होते हैं. आदमी तो दूर गुलामी तो जानवरों तक को अप्रिय होती है. लोग इसलिए गुलाम होते हैं, क्योंकि वे आजादी का मतलब नहीं समझते? धर्म और संस्कृति के नाम पर वे भरमाए हुए लोग होते हैं. वे यह भी नहीं समझ पाते कि अपने विकास का बीड़ा उन्हें स्वयं उठाना होगा. और यह भी कि राजा और सामंत की सेनाएं, जिनका खर्च अंततः जनता के सिर पड़ता है, जनसाधारण की सुरक्षा के लिए नहीं हैं. बल्कि वे स्वयं राजा की अपनी हिफाजत, उसके मानाभिमान की रक्षा हेतु हैं. वह जान जाएगा कि राजा तथा उसके रंगमहल की सुरक्षा के लिए फौज और हथियारों का जमाबड़ा रखता है. यह सारा का सारा काम वह जनता के खून-पसीने की कमाई से करता है. एक झोपड़ी में रहने वाले गरीब मजदूर, किसान का कोई सामंत भला क्या बिगाड़ सकता है! आक्रमणकारी को सामंत की हवेली की दौलत चाहिए, न कि झोपड़ी की गरीबी. गरीब-मजदूर के पास केवल अपना श्रम होता है, जिसकी आवश्यकता सभी को पड़ती है.

धर्म की ढाल पूंजीपति के लिए बहुत कारगर सिद्ध होती है. इसलिए वह धर्म को ताकतवर बनाकर जनता के बीच लाता है. वह नहीं चाहता कि जनता उससे सवाल करे कि हर साल उसके कारखानों की शॄंखला में एक और कारखाना कैसे जुड़ जाता है? फैक्ट्री में जो उत्पाद मजदूर और कारीगर की मेहनत से तैयार होता है, उसपर पूंजीपति अपना अधिकार कैसे जमा लेता है? कारखानेदार नहीं चाहता कि जनता पूछे कि जिसे ‘पूंजी’ अथवा धन कहा जाता है, उसका जीवन में इतना महत्त्व क्यों है? मनुष्य की सामान्य आवश्यकता का मोल रुपयों में आंकने वाली ताकतें कौन-सी हैं तथा उनका पूंजीपतियों तथा उनके चहेते धर्माचार्यों के संबंधों का अंतर्निहित सच क्या है? जीवन की सामान्य आवश्यकताओं यथा भोजन, परिवार, आवास और वस्त्रादि का महत्त्व मुद्रा के आगे गौण क्यों है? जिसकी जीवन में मौलिक आवश्यकता नहीं, उसको इतना महत्त्व क्यों दिया जाता है? मनुष्य के श्रम का मूल्यांकन मुद्रा में क्यों किया जाता है, उसकी मूलभूत आवश्यकताओं के रूप में क्यों नहीं? यदि यह सुविधा के नाम पर है तो सुविधा इसमें है कि मनुष्य को जितना भोजन चाहिए, उसका सीधे-सीधे प्रबंध हो. मनुष्य को आवास चाहिए तो उसे अपनी पसंद की जगह जरूरत लायक आवास बनाने की स्वतंत्रता हो. इस काम में शासन-प्रशासन भी उसकी मदद करें. सरकार या पूंजीपति जिसके लिए भी व्यक्ति काम करता है, वे उसकी मूलभूत आवश्यकताओं का सम्मानजनक समाधान निकालें. पूंजीवाद के लिए ये सवाल अप्रिय होते हैं. वह नहीं चाहता कि लोगों के दिमाग में इस तरह के प्रश्न उठें. इसलिए वह धर्म के नाम पर रूढि़यों को ले आता है, ताकि जनता का ध्यान भटका सके. धर्मसत्ता को अतिरिक्त महत्त्व देता है जो मनुष्य का ध्यान जीवन के मौलिक सवालों से हटाने में मदद करती हैं. भाड़े के बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री पालता है, जो हालात का उसके पक्ष में अनुकूलन करते रहें.

परिणाम यह होता है कि किसान सुबह से शाम तक पसीना बहाता है और अनाज व्यापारी उठा ले जाता है. मजदूर जी-तोड़कर मेहनत करता है और उसके पसीने की कीमत के रूप में कारखाना मालिक उसे इतना-भर देता है, ताकि उसकी सांसें चलती रहें और अगले दिन कारखाने में उपस्थित होकर मुनाफे की रफ्तार को बनाए रख सके. इन दिनों सरकार भी यही काम करने लगी है. मजदूरी के आकलन का सरकारी तरीका भी पूंजीपतियों के आकलन से भिन्न नहीं है. सरकारी दर पर मजदूर को जो मिलता है उससे वह केवल अपना और परिजनों का पेट भर सकता है. सुबह से शाम तक पसीना बहाने के बाद वह सिर्फ रोटी और शरीर तोड़ू थकान प्राप्त करता है. अपनी स्थिति से उसे रंज न हो इसलिए पूंजीपति धर्म की सेवाएं लेता है. धर्म उसके कष्टों, गरीबी और बेबसी को पूर्वजन्म का फल बताता है. कर्मकांडों का ऐसा आयोजन रचता है कि वह उनके बीच उलझकर रह जाता है. अपनी दुर्दशा के कारणों की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता. फैक्ट्रियां और कल-कारखाने उसके श्रम-कौशल से चलते हैं. वह उन्हें भी अपना मंदिर मान लेता है. यह उल्टी रीति है. जो कारखाने पूंजीपति के लिए मुनाफा उगलने वाले स्थान हैं, वे श्रमिक के लिए धर्मस्थान घोषित कर दिए जाते हैं. संकेत स्पष्ट हैं. पूंजीपति को तो मुनाफा इसी जन्म में तुरंत मिल जाता है, मगर श्रमिक को उसके लिए अगले जन्म तक का इंतजार करने को कहा जाता है. अभिजन वर्ग ऐसी चालाकियां कदम-कदम पर दिखाता है. उसपर आंखें मूंदकर विश्वास करने वाला, उसे अपना शुभेच्छु और सर्वेसर्वा मानने वाला श्रमिक वर्ग उन चालाकियों को समझ ही नहीं पाता है. शताब्दियों से जनसाधारण ऐसे ही शोषण का शिकार रहा है. सामंतवाद जो काम सरेआम करता था, दबे-ढके अंदाज में पाप-पुण्य की शरण लेकर करता था, चूक होने पर भूल के लिए जनाक्रोश भी सहता था, पूंजीपति उसे बहुत चतुराई से श्रेय-प्राप्ति के साथ करता है. धर्मसत्ता जो पहले सामंतों और साम्राज्यवादियों का संरक्षण करती आई थी, वह पूंजीवादियों के समर्थन में उतर आई है. मेहनतकश पहले भी शोषित था, आज भी है.

आखिर धर्मसत्ता के इतना शक्तिशाली होने का कारण क्या है? क्या सभी धार्मिक व्यक्ति जो धर्म और उसके बहाने मोक्ष की कामना करते हैं, जीवन से उकता चुके लोग हैं? सच तो यह है कि जो लोग पूजा-पाठ में विश्वास करते हैं, नियमानुसार धर्माचरण का दावा करते हैं, किसी से कम महत्त्वाकांक्षी नहीं होते. सांसारिक सुखों के प्रति उनका लगाव भी कम नहीं होता. भक्ति और पूजा-पाठ का ध्येय भी मरणेत्तर जीवन में मोक्ष कामना से जुड़ा होता है. मनुष्य की जिजीविषा ही ऐसी होती है कि जब तक बस चले लोग मृत्यु को टालना चाहते हैं. इसलिए धर्म और धार्मिक कर्मकांडों के ध्येय को लेकर प्रच्छन्न मान्यताएं चाहे जो हों, प्रकट में सभी श्रद्धालु इहलौकिक सुख-समृद्धि के लिए ही उन्हें अपनाते हैं. यदि धर्म केवल मृत्योपरांत कल्याण की दावेदारी करे तो तमाम प्रलोभनों के बावजूद कोई उसकी ओर झांके तक नहीं. इसलिए सभी धर्म प्रकारांतर में इस जीवन को सुखी एवं समृद्ध बनाने का भरोसा दिलाते हैं. हिंदू धर्म में लौकिक इच्छाओं की पूर्ति को धर्म, अर्थ और काम को मोक्ष की इच्छा से जोड़ा गया है. ऐसे में यदि व्यक्ति को सामान्य सुख-सुविधाओं का अकाल-भोगना पड़ता है, तो वह न केवल राजनीतिक और आर्थिक बल्कि धार्मिक शक्तियों के लिए भी बड़ी चुनौती है.

इन स्थितियों में धर्म से कदापि उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह पूंजीवाद को नाथने के प्रयास में सफल होगा. उस दिशा में प्रयास करेगा, इसमें भी संदेह है. यदि वह ऐसा करेगा तो उसके दानवीर यजमानों के छिटक जाने खतरा हो सकता है. क्योंकि उसके शक्तिशाली यजमान कोरी श्रद्धा के कारण धर्म की शरण में नहीं जाते, वे धर्म को अपने स्वार्थ के लिए एक औजार की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं, इसलिए उसकी मदद लेते हैं. इस तरह मंदिर और यज्ञादि पर कारखाना मालिक की ओर से किया गया खर्च पुजारी के लिए एक प्रकार का निवेश होता है, जिसे वह मुनाफे की निरंतरता हेतु श्रमिकों को अपने साथ जोड़े रखने की लालसा से करता है. यही कारण है कि पुजारी मंदिर आनेवाले की पूजा तो स्वीकारता है, उससे धार्मिक होने, धर्म की आचारसंहिता के पालन का व्यक्तिगत आग्रह नहीं करता. न ही कोई किसी से पूछता है कि इतने वर्षों तक धार्मिक बने रहकर उसने क्या तरक्की की है?

चार वर्ष का बालक भी पाठशाला जाए तो उसे हर बार मासिक टेस्ट से गुजरना पड़ता है. फिर साल-भर के बाद परीक्षा तथा समय-समय पर होने वाली दूसरी प्रतियोगिताएं. निर्धारित से कम स्तर का प्रदर्शन करने पर वह फेल भी हो सकता है. दूसरी ओर धार्मिक व्यक्ति एक ही आरती को प्रतिदिन गाता है. एक जैसी पूजा-अर्चना करते हुए जीवन गुजार देता है. मूर्ति के आगे उन मंत्रों का पाठ करता है, जिनका वह अर्थ भी न जानता हो. प्रार्थना याद हो यह भी जरूरी नहीं है? केवल पढ़ देने से भी संतोष हो जाता है. आप केवल माथे पर तिलक लगाकर भी धार्मिक होने का ऐलान कर सकते हैं, इसपर कोई सवाल खड़े करनेवाला नहीं है. यानी धर्म के प्रदर्शन में व्यक्तिगत प्रगति या विकास कोई मायने नहीं रखते. न केवल साधारण जन, बल्कि पुजारियों के लिए भी यही कसौटी है. एक पुजारी जीवन-भर एक ही प्रकार की आरती गाते हुए, एक तरह से घंटा बजाते हुए; और एक ही तरह से दीपक घुमाते हुए अपनी योग्यता पर खरा उतर सकता है. उसमें परिवर्तन या सुधार की बात करना परंपरा विरोधी मान लिया जाता है. कह सकते हैं कि धर्म सुधार की संभावना से, परिष्कार के विचार से परे है.

धर्म के समर्थक इसे आस्था का मामला बताते हुए परीक्षा की कसौटी से बचाने का तर्क देते हैं. आस्था का तर्क गलत भी नहीं है. किसी की राष्ट्र-भक्ति की जांच नहीं की जा सकती. दोनों की परख व्यक्ति के आचरण से संभव है. लेकिन राष्ट्रभक्ति लोगों की जीवनचर्या को उतना तय नहीं करती जितना धर्म करता है. धर्म न केवल मनुष्य की जीवनचर्या को निर्धारित करता है, बल्कि वह मृत्येत्तर जीवन को भी बेहतर बनाने का दावा करता है. हिंदू धर्म के चार पुरुषार्थ इस संसार में भरपूर सुख प्राप्त करने और अंत में इस ओर कभी न लौटकर आने की व्यवस्था हैं. लेकिन यदि यह संसार केवल माया है, मनुष्य को भरमाए रखने का उपक्रम है, तब इन पुरुषार्थों में ‘काम’ पर जोर दिए जाने का औचित्य क्या है? क्या ये चारों पुरुषार्थ हिंदू धर्म के अंतद्र्वंद्वों की अभिव्यक्ति नहीं हैं? दूसरी बात यह कि इन पुरुषार्थों का जिक्र केवल बौद्धिक विमर्श तक सीमित रह पाता है. जनसाधारण में ‘नियतिवाद’ और ‘भक्ति’ का ही बाहुल्य रहता है. ये दोनों ही संसार से पलायन का ही पक्ष लेते हैं. मोह-माया और ममत्व को इंसान की कमजोरी बताते हैं. सच तो यह है कि धर्म की ये व्याख्याएं समय-समय पर विभिन्न आचार्यों द्वारा दी जाती रही हैं. उनपर अपने समय और परिस्थितियों का भी प्रभाव रहता है. शायद इसीलिए धर्म में ये परस्पर विरोधाभासी तत्व घुस आए हैं. चूंकि धर्म के प्रत्येक रूप के साथ कोई न कोई कर्मकांड जुड़ा है और उसके माध्यम से पुजारीवर्ग के हित, इसलिए विरोधों का समाहार करने की गंभीर कोशिश कभी नहीं की जाती. यदि इस प्रकार का विचार भी किसी के दिलो-दिमाग में उठे तो उसको दबा दिया जाता है.

विडंबना यह है कि जनसाधारण को केवल आस्था का पाठ पढ़ाया जाता है. ‘कथावाचक’ किस्म के जितने भी धंधेबाज हैं हैं वे जनमत को भीड़ में बदल देने के लिए ऐसे ही आस्था का पाठ दुहराते रहते हैं. एक ही बात तरह-तरह से, अलग-अलग इन कथावाचक ‘भगवानों’ के मुख से सुनकर आमजन अपनी धार्मिक मान्यताओं का निर्धारण करता है. परंपराएं, साथ में गली-मुहल्ले में घूमने वाले पोंगा पंडित भी इसमें सहायक बनते हैं. कुछ वर्ष पहले दक्षिण के पदमनाभा मंदिर के पुराने खजाने की गिनती सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर की गई. एक लाख करोड़ रुपये से अधिक का चढ़ावा वहां मिला. वैष्णो देवी, तिरुअंतपुरम् मंदिर, साईं बाबा जैसे देश में पचासियों मंदिर हैं जहां प्रत्येक वर्ष अरबों रुपये का चढ़ावा आता है. जिसे वे स्वार्थी पंडे आस्था का प्रसाद कहकर पचाते रहते हैं. यह प्रश्न कोई नहीं पूछता कि जब भगवान इतना अमीर है तो उसके भक्त कंगाल क्यों हैं? और भगवान को यदि खजाने से मोह है तो वह भगवान कैसा? हाल हमें एक सर्वे में देश में गरीबों की संख्या लगभग 48 करोड़ बताई गई है. कुल जनसंख्या का लगभग 40 प्रतिशत. गत बीस वर्षों में आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में जितनी तेजी से अरबपतियों की संख्या बढ़ी है, उतनी ही संख्या इन कथावाचक किस्म के ‘भगवानों’ की बढ़ी है. उतना ही मंदिर का चढ़ावा बढ़ा है. और उतना ही पूंजीपतियों का मुनाफा. संकेत साफ है, ये सब आमजन को मूर्ख बनाकर, उसे दीन घोषित कर, उसकी सहजता और अल्पज्ञता का लाभ उठाकर—उसकी मजबूरियों के भरोसे धंधा करने की पूंजीवादी कवायद हैं. धर्म आदमी को ‘दीन’ बनाता है. दीनता का एहसास मजदूर के मन में भविष्य के प्रति भय और असुरक्षाबोध पैदा करता है. पुजारी और धर्माचार्य इस संसार को माया कहते है. किसी प्रकार के प्रलोभन में न आने का उपदेश वे अपने भक्तों को देते हैं. लेकिन खुद रत्न-जडि़त मुकुट पहनते हैं. स्वर्ण-आसन पर विराजमान होकर त्याग का पाठ पढ़ाते हैं. अवसर मिलते ही वे चंदा, प्रसाद, दक्षिणा, चढ़ावे, कर्मकांड आदि के बहाने लोगों से उनकी कमाई का महत्त्वपूर्ण हिस्सा ऐंठते रहते हैं. यह सब न भी करे, तो भी साधारण पुजारी, मामूली दक्षिणा, चढ़ावे, प्रसाद आदि के माध्यम से लोगों को कर्मकांड में उलझाए रखता है. यह लोगों को भरमाए रखने के लिए जरूरी है. पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था मनुष्य का निर्मानवीकरण कर उसे निखालिस उपभोक्ता में बदल देती है तथा उसकी कमाई को अपने लाभ में बदलती जाती है.

एक सामान्य नियम है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी आवश्यकता से अधिक अर्जित करने का सामथ्र्य रखता है. यदि उसको काम की पर्याप्त उपलब्धता है तो उपर्युक्त नियम के आधार पर, बिना किसी बाहरी सहायता के उसको उत्तरोत्तर विकासरत रहना चाहिए. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में चूंकि श्रम के मूल्यांकन पर श्रमिक का कोई अधिकार नहीं होता, इसलिए उसे अपने सामथ्र्य का पूरा लाभ नहीं मिल पाता. धर्म और पूंजीपति दोनों उसको ऐसी हालत में ले आते हैं, जिसमें वह केवल इतना काम पाता है कि उससे अपनी सांसों को चला सके. देह को इस लायक रख सके कि वह पूंजीपतियों के कारखानों को चला सके. विपन्नता अंततः उसकी नियति बन जाती है. धार्मिक आचार-संहिता में अंतनिर्हित समानता केवल विपन्नों के बीच ही संभव हो पाती है. सिसिल पाल्मेर के शब्दों में, ‘समाजवादी(समानतावादी) परिवेश केवल स्वर्ग में संभव है, जहां उसकी जरूरत नहीं है. और नर्क जैसी समानता तो उसे (आजीवन)जकड़े रहती है.’1 पूंजीपतियों द्वारा की जानेवाली श्रम की लूट पर पर्दा डालते हुए ‘पुजारी’ जगत की निस्सारता का तर्क देता है. जाते समय सिकंदर भी खाली हाथ था—कहते हुए वह श्रमिक के आत्मविश्वास को डिगाकर उसको समझौतावादी बनाने का काम करता है. लेकिन वे भूल जाते हैं सिकंदर ने बादशाहत विरासत में प्राप्त की थी. उसे कई गुना फैला, अपने उत्तराधिकारियों के लिए अच्छी-खासी सौगात छोड़कर उसने दुनिया से कूंच किया था. जब वह मरा तो मकदूनिया का साम्राज्य लगभग पूरी दुनिया पर था. उसने संघर्ष किया. वैभव-पूर्ण जीवन जिया. जिसके कारण दुनिया उसे ‘सिकंदर महान’ कहती है. लेकिन आम आदमी को क्या मिलता है? सिवाय भूख, अभाव, उत्पीड़न, अनाचार और तिरष्कार के. जीवन की निस्सारता का उपदेश देने वाले पोंगापंथी पुरोहित निजी संपत्ति की अवधारणा को चुनौती नहीं देते. प्रूधों के साथ स्वर मिलाकर नहीं कहते कि व्यक्तिगत संपत्ति चोरी का धन है. उसपर पूरे समाज का अधिकार होना चाहिए. कहा जा सकता है कि शोषक के मामले में धर्म और पूंजीवाद में अंतर नहीं. बल्कि दोनों परस्पर सहायक और संरक्षक की भांति काम करते हैं. एक व्यक्ति को दीन कहकर, उसका दीनताबोध बढ़ाकर, दूसरा उसे अनुशासित, उपभोक्ता बनाकर. एक मृत्यु-पार सुखों का लालच देता है. दूसरा उसे इसी जीवन को सुखमय बनाने का आश्वासन देता है. पहला संसार को माया और दृष्टि-भ्रम बताता है, दूसरा के लिए वह भोग का मैदान है. दोनों ही जनसाधारण को दबाए रखने में दक्ष होते हैं. समाजार्थिक विषमता के भरोसे उनका कारोबार चलता है. वे जनसाधारण की आय को इतना नहीं बढ़ने देते कि वह आत्मनिर्भर होकर रह सके. सामान्य सुख-सुविधाओं के साथ देनंदिन सुखों का भोग भी कर सके. आमजन के साथ दोनों ही छल करते हैं. अनुकूल अवसर देख उनके साथ तीसरा वर्ग और सम्मिलित हो जाता है, वह वर्ग राजनीति का है. जो अवसर के अनुसार धर्म और पूंजीस्वामी दोनों को अलग-अलग तरीके से महिमा-मंडित करता है. इस बीच उसकी अविरत दृष्टि स्वार्थ पर लगी रहती है. वे धर्म और पूंजीपति दोनों का बारी-बारी से उपयोग करता है.

इस गठजोड़ से मुक्ति का उपाय क्या है?

उपाय है भी या नहीं?

प्रश्न सीधे से हैं. पिछली कुछ शताब्दियों से ये प्रश्न सामाजिक बदलाव की कामना करनेवाले बुद्धिजीवियों के लिए भारी चुनौती रहे हैं. इसपर गहराई से चर्चा होती रही है. अनेक विचार आए हैं. मगर सभी की अपनी-अपनी सीमा, अपनी-अपनी खूबियां हैं. ठीक ऐसे ही जैसे हर स्वस्थ शरीर में बीमारी के लक्षण होते हैं और हर बीमारी अपने उपचार की संभावना लिए रहती है. आधुनिक चिकित्सा पद्धति की इस सैद्धांतिकी को मानवीय जीवन की विषमताओं के उपचार के लिए भी किया जा सकता है. आखिर समाज भी एक बड़ा शरीर है. मानव इकाइयां इसके विभिन्न अंग-उपांग हैं. यदि असमानता एक व्याधि है तो वह अप्राकृतिक और बाह्यारोपित है. इसलिए उसका उपचार भी संभव है. दूसरे शब्दों में उपचार के सूत्र भी व्याधि में ही छिपे हैं.

कैसे? चलिए आगे इसी पर विचार करके देखते हैं.

उपचार बेहद आसान है. धर्म, राजनीति, पूंजीवाद की कामयाबी में मनुष्य की अपने परिवेश के प्रति उदासीनता का बड़ा हाथ होता है. मनुष्य का अविवेकी आचरण, सामान्य विवेक की ओर से आलसीपन बरतना, स्थितियों को समझने से पहले ही उनके अनुसरण पर उतर आना—शीर्षस्थ वर्गों को स्वार्थ और मनमानी करने के लिए उत्साहित करता है. एक बार उन्हें पता लग जाए कि आपका मस्तिष्क सुस्त है या सोया हुआ है; अथवा सम्मोहन ग्रस्त हो चुका है तो वे एक के बाद एक प्रलोभन देकर उसे सुलाए रखने की कोशिश में जुट जाते हैं. सामंतवाद मनुष्य के मस्तिष्क पर हमला करता है. धर्म की ओट लेकर वह मनुष्य के सोच को लोकेत्तर दिशा दे देता था. वह बताता है कि उसने जो अर्जित किया है, वह दैवीय वरदान, उसके पूर्वजन्म के सत्कर्मों की देन है. इसलिए जो भी उसके जैसा बल-वैभव प्राप्त करना चाहता है, उसको दैव-कृपा प्राप्त करनी होगी. जो धर्माचरण द्वारा, पुजारी के कहे अनुसार आचरण करते रहने पर ही संभव है. साधारण मजदूर चूंकि बौद्धिक स्तर पर पर्याप्त परिपक्व नहीं होता, इस क्षेत्र में कार्यरत विचारकों की चिंतन-शैली उसके लिए अबोधगम्य होती है, गरीबी और समयाभाव के कारण भी वह उस ओर पर्याप्त ध्यान भी नहीं दे पाता है—इसलिए सामंत की बातों पर विश्वास करना उसकी विवशता बन जाता है. इससे उसकी मनमानी की ओर लोगों का ध्यान ही नहीं जाता था. जमींदार और राजा के धन पर पलने वाले पुरोहित और धर्माचार्य बदले में उनका गुणगान करते थे. उनकी लूट को शास्त्रीय बनाकर बाकी मनुष्यों को अभावों के साथ जीने का सबक सिखाने लगते थे. इसी को शास्त्रीय रूप देते हुए मनुस्मृति सहित अन्यान्य पुस्तकों में लिखा गया कि यह धरती और यहां की प्रत्येक चर-अचर संपदा ब्रह्म द्वारा रचित और ब्राह्मण के स्वामित्व में है.2 क्षत्रिय उसका रक्षक है. इसलिए ब्राह्मण खुद को समस्त राज्य-संपदा का वास्तविक स्वामी मानते हुए राज्य-का नेतृत्व करता था. राज्य संपदा की रक्षा का दायित्व क्षत्रिय का था, सो वह भी सत्ता-सुख में आलिप्त रहता था. भू-संपदा पर अधिकार जमाने के लिए क्षत्रियों और ब्राह्मणों में संघर्ष के भी अनेक उदाहरण हैं. महाभारत में परशुराम का उल्लेख है, जिसने इकीस बार क्षत्रियों से युद्ध कर उनका मान-मर्दन किया था. लेकिन बाद में जब यवनों के आक्रमण बढ़ने लगे तो ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने समझौता कर लिया. राजा ब्राह्मण के अधीन रहकर राज्य चलाने लगा. हालांकि इतिहास में जब भी अवसर मिला, ब्राह्मण भी राजा बना. समय-समय पर अवर्ण जातियां भी सत्ता का संचालन करते हुए देखी र्गइं. तो बात चल रही थी कि अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए सामंतवाद लोगों का शोषण के कारणों से दूर रखने के लिए ब्राह्मणों की मदद लेता था. पूंजीपति के लिए ये काम भाड़े पर पलनेवाले बुद्धिजीवी तथा सरकार करती है. वे वास्तव में कारण की तह में जाने ही नहीं देते.

इसलिए शोषण से मुक्ति का पहला रास्ता तो यही है कि शोषित अपने शोषकों की सचाई से परिचित हो. शोषण के बारे में जाने और शोषकों को पहचाने. यह तभी संभव है जब मनुष्य का विवेक स्वतंत्र हो. वह पूर्वाग्रह से परे हो. वह धर्म तथा अध्यात्म के अंतर को समझता हो और उनमें चयन का सामर्थ्य भी उसमें हो. मनुष्य को समझना होगा कि शोषण इहलौकिक और मनुष्य द्वारा थोपी गई असमानताकारी-उत्पीड़नकारी स्थिति है. जब मनुष्य यह समझ लेगा, तो वह उसकी मुक्ति की शुरुआत होगी. यानी शोषण से मुक्ति का रास्ता शोषक की पहचान तथा शोषण की व्याप्ति को समझने में निहित है. दूसरे आवश्यक है यह समझना कि उसकी दुर्दशा के कारण इहलौकिक हैं. उनसे मुक्ति का रास्ता भी इसी लोक में है. तीसरी शक्ति, बाहर की कोई भी शक्ति उसके उद्धार के लिए आनेवाली नहीं है. जो इसके कारणों के लिए पूर्वजन्म के तथाकथित विकारों को दोषी ठहराते हैं, वे स्वयं स्वार्थी हैं. झूठे भी हैं. उसे यह भी समझना चाहिए कि धर्म का उद्देश्य मनुष्य की जीवन की उत्पत्ति संबंधी जिज्ञासा को शांत करना रहा है. परंतु जिज्ञासाओं के समाधान का कोई एक रास्ता नहीं हो सकता. यदि जिज्ञासा का किसी एक रास्ते से समाधान हो जाता है, तो वह कौतूहल कहा जाएगा. जिज्ञासा तो चिरयुवा होती है. इसलिए धर्म मनुष्य के विश्वास की अभिव्यक्ति भले हो, वह मनुष्य की जिज्ञासाओं का पर्याय नहीं हो सकता. उसके लिए दर्शन और अध्यात्म की शरण में जाना पड़ेगा. इसलिए कहा जा सकता है कि धर्म ठहराव की अवस्था है. मनुष्य जब सोचना बंद कर देता है, उसका चिंतन जब एक ही स्थान पर जाकर जड़ हो जाता है, तब धर्म की उत्पत्ति होती है. वह प्रश्नों का समाधान नहीं, प्रश्नाकुलता की विरामावस्था है.

सत्ता चाहे किसी भी प्रकार की क्यों न हो, वह मनुष्य की प्रश्नाकुलता से घबराती हैं. इसलिए वह उसको अवरुद्ध करने के लिए तरह-तरह के टोटके करती रहती है. वैचारिकता के ठहराव या खालीपन को भरने के लिए कर्मकांडों का सहारा लेती है. उन्हें धर्म का पर्याय बताकर उसका स्थूलीकरण करती है. कहा जा सकता है कि धर्म की आवश्यकता जनसामान्य को पड़ती है. उन लोगों को पड़ती है, जिनकी जिज्ञासाएं या तो मर जाती हैं अथवा किसी कारणवश वह उनपर ध्यान नहीं दे पाता है. यही बात उसके जीवन में धर्म को अपरिहार्य बनाती है. दूसरे शब्दों में धर्म मनुष्य की मूल-भूत आवश्यकता न होकर, परिस्थितिगत आवश्यकता है. जनसाधारण अपने बौद्धिक आलस तथा जीवन की अन्यान्य उलझनों में घिरा होने के कारण धार्मिक बनता है. न कि धर्म को अपने लिए अपरिहार्य मानकर उसे अपनाता है. यहां तक कोई समस्या नहीं है. परंतु जीवन में सतत प्रगति करने का, आगे बढ़ने की चाहत तो जनसाधारण में भी होती है. साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपने जीवन में अनेकानेक जिम्मेदारियों को निपटाता है. समय-समय पर अनेक पारिवारिक आयोजनों को पूरा करता है. उन्हीं के आधार पर उसकी सामाजिक भूमिका का आकलन किया जाता है. यदि वह अतिरिक्त धन-संपदा जुटाने में सफल होता है तो साधारणतः उसकी प्रशंसा की जाती है. पूंजी अथवा धन को केंद्रित मानकर गढ़े गए समाज की यही कमजोरी कि वह मनुष्य की सफलताओं का आकलन अर्थोपार्जन के क्षेत्र में मिली सफलता के आधार पर करने लगता है. जीवन में अध्ययन के लिए कुछ वर्ष निर्धारित कर देने का भी शायद यही परिणाम है कि गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के पश्चात साधारणजन अध्ययन, अध्यापन और ज्ञानार्जन की सीधी कोशिशों से कट जाता है. इसे स्वाभाविक भी मान लिया जाता है. इसका दुष्परिणाम व्यक्ति के बौद्धिक ठहराव के रूप में सामने आता है. हालांकि वह अपने अनुभवों से निरंतर सीखता रहता है. लेकिन अकेले व्यक्ति के अनुभवों का दायरा भी सीमित होता है. जबकि अध्ययन के दौरान वह पीढि़यों के अनुभव से साक्षात करने लगता है. इस बीच ज्ञान और बुद्धि-विवेक के सामान्य उपकरणों के प्रति उसके मन में सम्मानभाव बना रहता है. उस समय वह दूसरों के अनुभव और ज्ञान से काम चलाता है. प्रकारांतर में वह मान लेता है कि जो ज्ञानार्जन में जुटे हैं वे उससे बड़े हैं और गृहस्थ की जिम्मेदारियों में फंसा होने के कारण वह उससे वंचित हो चुका है. इसलिए मामूली पोथी-पत्री के साथ घर पहुंचनेवाले पुरोहित को वह ‘पंडित’ के संबोधन से पुकारता है. जिस पुस्तक को वह स्वयं पढ़कर आसानी से समझ सकता है, बल्कि समझने लायक उसमें कुछ होता ही नहीं है, उसे परंपरा या अभ्यास की कमी अथवा ज्ञानार्जन की सीधी कोशिश से कट जाने के कारण ज्ञान का एकमात्र भंडार मानकर पूजता है और सुनकर खुद को धन्य समझने लगता है. यह विकट स्थिति है. जो समय-समय पर उसके शोषण का कारण बनती है. नई सभ्यता ऐसी स्थिति के उन्मूलन से ही जन्म ले सकती है. बात धर्म के उन्मूलन की हो या न हो, उसके नाम पर फैलाई जाने वाली जड़ता के उन्मूलन की अवश्य है. नाम रटते रहने को सच्चा ज्ञान तथा कर्मकांडों को ‘कर्तव्य’ की श्रेणी में रखना, मनुष्य की प्रबोधन क्षमता का अपमान करने जैसा है. जाहिर है नया रास्ता पुराने के संपूर्ण परिष्करण से ही निकल सकता है.

थोड़े घुमाव के बाद हम पुनः विचाराधीन मुद्दे पर लौटते हैं. क्या बेलगाम पूंजीवाद को लगाम लगाई जा सकती है? क्या पूंजीवाद के सांड पर सवारी संभव है? उत्तर ‘हां’ में है. हालंाकि ‘हां’ की स्थिति को व्यवहार में सच करने के लिए पर्याप्त संकल्प और आत्मविश्वास जरूरी है. और हां, न तो यह संकल्प नया है, न ही रास्ता. गत दो शताब्दियों से इसपर निरंतर विचार होता आया है. पूंजीवाद धन की ताकत की परिणति है. धन को अतिरिक्त महत्त्व दिए जाने का दुष्परिणाम होता है कि राज्य विधि के शासन के बजाय पूंजी की ताकत द्वारा संचालित होने लगता है. चूंकि विरोध आमतौर पर विपन्न अथवा साधनहीन वर्ग की ओर से किया जाता है, और उसका संबंध, शिखरस्थ वर्ग से होता है, अतएव उसका सामना करने के लिए शीर्षस्थ शक्तियां एकजुट हो जाती हैं. इसके लिए धर्म और राजनीति मिलकर पूंजीवाद की मदद करते हैं. धर्म पर कोई संकट आ पड़े तो पूंजीपति और राजनीतिज्ञ उसके प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन में उतर आते हैं. इसी प्रकार राजनीतिज्ञ के लिए कोई चुनौती खड़ी हो जाए तो पूंजी और धर्म मिलकर उसका उद्धार करते हैं. धर्म पूंजीवाद की लूट को शास्त्रीय समर्थन देता है. सामंतवाद पूंजीवाद को वर्चस्वकारी संस्कार देता है. दूसरों के श्रम पर अपनी प्रभुसत्ता गांठने का संस्कार. ऐसा नहीं है कि पूंजीवाद और सामंतवाद की दांत-काटी रोटी हमेशा रही हो. इतिहास साक्षी है कि पूंजीवाद ने सामंतवाद को खूब छकाया भी है. शिक्षा सामंतकाल में विशिष्ट वर्गों के लिए सुरक्षित थी. पूंजीपति को अपने कल-कारखानों के लिए प्रशिक्षित श्रमबल की आवश्यकता थी. उसके लिए शिक्षा के समाज के खास वर्गों तक सीमित रहने के काफी नुकसान थे. वह समझता था कि प्रतिभाएं किसी जाति-वर्ग का अधिकार नहीं होतीं; और लाभानुपात को बनाए रखने के लिए केवल पूंजी पर्याप्त नहीं है. बड़ा बाजार, उत्पाद को बाजार में खपाने के लिए दक्ष सेल्समैन तथा बाजार को निरंतर विस्तार देने के लिए हुनरमंद व्यापारिक प्रतिभाएं भी चाहिए. जो भारतीय समाज के वर्गीय ढांचे में संभव नहीं. इसलिए उसने शिक्षा को सबके लिए खोल दिया. कारखाने लगाने के लिए जमीन की आवश्यकता पड़ी तो राजसत्ता का सहारा लेकर काम निकाला. इससे सामंतवाद को हार मिली. सामंतों ने खुद मान लिया कि उनके अच्छे दिन लद चुके थे. इसलिए उन्होंने राजनीति और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में हाथ-पांव पसारने आरंभ कर दिए. अंततः उन्हें कामयाबी भी मिली. धर्म के प्रभाव में प्राचीन व्यवस्था से अनुकूलित मानस उन्हीं को अपना उद्धारक मानने लगे. सामंतवादी अर्थव्यवस्था का जोर कृषि पर था. भू-संपदा में उसके प्राण बसते थे. जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ जोतों का आकार घटता गया. उसके साथ-साथ सामंतवाद को कमजोर पड़ना ही था. यद्यपि कुछ सामंतों ने समय रहते उद्योगों की ओर कूंच अवश्य किया. मगर औद्योगिक संचालन के लिए जिस प्रकार की सूझबूझ की आवश्यकता पड़ती है, उसका उनमें अधिकांश के पास अभाव था. पूंजीवाद चूंकि स्वयं भी वर्चस्ववाद का समर्थक था. पूंजी-सामर्थ्य के सहारे वह दुनिया पर छा जाने का स्वप्न देखता था. इस तरह पूंजीवाद और सामंतवाद के बीच केवल दिखावटी एकता रही. हालांकि दोनों के बीच आवर्त्तन-प्रत्यावर्त्तन का दौर निरंतर चलता रहा. जो हो, आधुनिकता की स्पर्धा में पिछड़ने के पश्चात सामंतवाद को इतिहास बनते देर न लगी.

पूंजीवाद की ताकत उपभोक्ताकरण में छिपी थी. अब अगर मनुष्य स्वयं को निरा उपभोक्ता समझने से ही इन्कार कर दे तो? वह पूंजीवाद की इस मनमानी, मानवीय अस्मिता के क्षेत्र में अनावश्यक हस्तक्षेप से इन्कार कर दे तो—पूंजीवाद का तोता अपने आप दम तोड़ने लगेगा. उपभोक्तावाद का पुतला, जिसे पूंजीवाद ने प्राण दिए हैं, संस्कृतिदोही मानकर भी धर्म जिसे स्वीकारे रहता है, धराशायी हुआ तो पूंजीवाद को भी अविलंब घुटने टेकने पड़ेंगे. लेकिन क्या यह आसान है? आज हमें विज्ञान ने बहुत सुखमय, सुविधामय जीवन दिया है. मशीनें हमारे हिस्से का बहुत सारा काम निपटा देती हैं. पहाड़ खोदने, पुल बनाने, खान से अयस्क निकालने में अब पहले जितनी मेहनत और खतरे की आवश्यकता नहीं रह गई है. युवावर्ग मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट, वा॓टअप, मोटरसाइकिल, फैशन आदि के दीवाने हैं. ईमेल, इंटरनेट, वाटअप के माध्यम से वह पूरी दुनिया से जुड़ चुका है. दर्जनों सोशल साइट के माध्यम से वह समसामयिक मुद्दों पर खुलकर संवाद करता है. सुरक्षा के एहसास के साथ-साथ वह अपने समर्थन और प्रतिरोध दोनों ही दर्ज करता है. इस तरह वह मान चुका है कि वर्तमान समय में तकनीक से परहेज रख पाना असंभव है. ‘विज्ञान के बिना ज्ञान नहीं’ यह नई पीढ़ी की सैद्धांतिकी है. इसलिए ऐसी पीढ़ी के सामने दुनिया से दूर भागने, तकनीक से कन्नी काटने की बातें करना बेमानी है. न ही ऐसा कदम सफल हो सकता है. तकनीक का प्रयोग दुनिया की सात अरब से अधिक आबादी की भोजन-संबंधी जरूरतें पूरी करने के लिए भी आवश्यक है. पिछले चार-पांच दशकों में मानवाधिकारों को लेकर दुनिया-भर में सकारात्मक पहल हुई है. आज बिना गणतांत्रिक सोच के हम किसी नए राजनीतिक दर्शन की कल्पना कर ही नहीं सकते. आशय है कि भविष्य में कोई भी राजनीतिक दर्शन या आर्थिक विचार तभी स्वीकार्य हो सकता है, जब वह लोकतांत्रिक हो तथा मानवाधिकारों का समर्थन करता हो. पूंजीवादी अर्थतंत्र में दिखावे के लिए ही सही, दोनों को स्थान मिलता है. इसलिए आधुनिक अर्थशास्त्रियों में से अनेक उसे मानवीय विकास की प्रमुख व्यवस्था मानते हैं.

उल्लेखनीय है कि मानवाधिकारों तथा लोकतंत्र के लिए जिन विद्वानों ने मानवेतिहास में संघर्ष किया है, वे सभी विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था के समर्थक रहे हैं. रूसो ने विज्ञान के उपयोग को लेकर नकारात्मक विचार समाज के सामने रखे थे. लेकिन मानव कल्याण के लक्ष्य के प्रति उसकी नीयत एकदम साफ थी. असल में उसका विरोध विज्ञान को लेकर नहीं था. न ही वह विज्ञान को मनुष्य के विकास में बाधक मानता था. उसकी प्राथमिकता मानवीय स्वतंत्रता का रक्षण था. वह मानता था कि विज्ञान चाहे-अनचाहे उद्योगपतियों के हाथों का खिलौना बनकर रह जाता है. परिणामस्वरूप उसके लाभ समाज के खास वर्गों तक सिमट जाते हैं; और उन लोगों के लिए जिनके नाम पर वैज्ञानिक शोधों को अंजाम दिया जाता है, विज्ञान आर्थिक असमानता की खाई को और चौड़ा करने के कारण नुकसानदेह सिद्ध होता है. पूंजीपति के हाथों में पड़कर विज्ञान अधिसंख्यक की मौलिक स्वतंत्रता के लिए भी खतरा बन जाता है. रूसो के बाद थोरो, एडबर्ड कारपेंटर, गांधी, बर्ट्रेंड रसेल आदि ने भी विज्ञान के मानव-कल्याण के पक्ष में प्रयोग पर सहमति जताई थी. इन सभी विज्ञान को भौतिक लिप्सा में वृद्धि करने वाला था. जनमत पर अपनी पकड़ के बावजूद गांधी विज्ञान के प्रति मानवमात्र के सम्मोहन, जो निश्चय ही मनुष्य की आवश्यकताओं के दबाव में जनमा था, कम कर पाने में असमर्थ रहे थे. भारत के स्वतंत्र होते ही जब इसके पुननिर्माण की बारी आई तो गांधी के अनन्य भक्त जवाहरलाल नेहरू ने उच्च तकनीक को ही देश के आर्थिक विकास के लिए प्राथमिकता दी. उन्होंने रूस, आदि देशों से तकनीक के आयात पर भारी-भरकम कारखाने लगवाए. परिणामस्वरूप गांधी का ग्राम स्वराज आधारित विकास का सपना, कोरे विचार में सिमटकर रह गया. उसे लेकर जो संस्थान बने, वे अपने ही कर्ता-धर्ताओं की स्वार्थ-लिप्सा, अदूरदर्शिता, लालच और वर्गीय सोच के कारण भ्रष्टाचार का अड्डा बनते चले गए. आरंभ में सरकार ने अनुदान आदि के माध्यम से उनका पोषण करने का प्रयास किया, लेकिन जब सरकार ने अनुदान-समर्थन से हाथ खींचने आरंभ किए तो उनमें से अनेक बंद होने लगे. ‘हरिजन सेवक संघ’ जैसे संस्थान अपनी अदूरदर्शिता के कारण इतिहास में विलीन होने को हैं.

साफ है कि पूंजीवाद से निपटने के लिए हमें ऐसे औजारों, वैचारिक विकल्पों पर ध्यान देना पड़ेगा, जो लोक को निर्णयात्मक ताकत देते हों. जो गणतांत्रिक सोच वाले हों तथा समूह के साथ-साथ व्यक्ति को भी पर्याप्त मान-सम्मान देते हों. जिनसे जुड़कर व्यक्ति को अपने अस्तित्व के और ऊंचे होने का एहसास हो जाए. साथ ही जो विज्ञान और वैज्ञानिकता के प्रति सकारात्मक सोच रखते हों. सुख प्राप्त करना मानव-मात्र का अधिकार है. तकनीक की वास्तविक उपयोगिता तब है, जब वह अपना लाभ जन-जन तक पहुंचाने में सक्षम हो. उसके माध्यम से समाज में किसी भी प्रकार की स्पर्धा और भेड़चाल में वृद्धि न हो. वह समाज को छोटे-छोटे प्रतिस्पर्धी गुटों में बांधने के बजाय उसे एक करती हो.जिससे मानवीय अस्मिता को किसी प्रकार की ठेस न पहुंचे. पूंजीवाद की पैठ का एक कारण यह भी है कि उसने मनुष्य को समाज के बीच अकेला कर दिया है. मनुष्य तकनीक पर ज्यादा अपने पड़ोसी पर कम भरोसा करता है. यह खतरनाक स्थिति है. समाज में मनुष्य के बढ़ते हुए डर, संदेहवृत्ति को सामाजिक आंदोलन, सुधार समितियां, औपचारिक मिलन-स्थल भी कम नहीं कर पाते हैं. यह डर ही मनुष्य को कथावाचक किस्म के बाबाओं और स्वयंभू भगवानों की शरण में खींच लाता है. यदि पूंजीवाद पर चोट करनी है तो सबसे पहले अवांछित भय को लोगों के दिलो-दिमाग से बाहर निकालना होगा. व्यक्ति को उसके अकेलेपन की अनुभूति से बाहर लाना होगा. भरोसा दिलाना होगा कि संकट में सभी साथ-साथ हैं. दुख की बात है कि पढ़े-लिखे लोग आज भी कदम-कदम पर रूढि़यों का प्रदर्शन करते हैं. शादी-विवाह के अवसर पर गुण-मिलान, पत्रिका मिलान जैसे कर्मकांड पढ़े-लिखे वर्ग की सामाजिक चेतना का हिस्सा हैं. अधिकांश के मन में आज भी अनागत का भय विराजमान रहता है. इसलिए जब कोई घर बनाता है तो उसके सामने ‘नजरिया’ टांगना नहीं भूलता. छोटा बच्चा जरा-सा उदास नजर आए तो मां ‘नजर’ बचाने के लिए तत्क्षण काला टीका लगाकर किसी अनाम पड़ोसी को कोसने लगती है. जबकि उसी पड़ोसी के साथ हो सकता है उसका रोजमर्रा का लेन-देन हो बाकी सभी मामलों में दोनों के संबंध बहुत अच्छे हों. मगर मन में गांठ रखना, संबंधों में संदेह बना रहना किसी तीसरे के अवांछित हस्तक्षेप को आमंत्रित करता है. घर में निर्माण संबंधी दोष के कारण यदि दीवार में दरार आ जाए तो पढ़े-लिखे लोग भी पड़ोसी की बुरी नजर को दोष देने लगते हैं. यह सब भरी भीड़ में अकेले होने की अनुभूति और मन में पैठे अज्ञात के डर के प्रति होता है. आप इस डर, अकेलेपन की अनुभूति को बाहर निकाल फेंकिए. धर्म बेदम होने लगेगा, पूंजीवाद के बुरे दिन वहीं से शुरू हो जाएंगे.

डर और अकेलेपन के एहसास अचानक नहीं होता. इसे बनाए रखने में धर्म की बहुत बड़ी भूमिका होती है. धर्माचार्य इस संसार को माया बताता है. माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी के आत्मीय रिश्तों को दिखावटी और सांसारिक बताकर उनमें लिप्त न होने के बजाय किसी अदृश्य सत्ता को पाने पर जोर डालता है. गीता में कृष्ण कहते हैं, सभी धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में चला आ. किसलिए? धर्म यदि मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासा को दर्शाता है, तो प्रत्येक व्यक्ति को यह स्वतंत्रता मिलनी चाहिए कि वह जीवन-सत्य को अपनी तरह देखे. ऐसे में किसी ‘भगवान’ को यह अधिकार नहीं है कि अपनी सर्वोच्चता का दावा कर मनुष्य की आस्था और विश्वास पर छाने की कोशिश करे. यह मनुष्य को आजादी होनी चाहिए कि यदि उसका विवेक इजाजत देता है तो हर रोज अपने धर्म का परिष्कार करे. जरूरत पड़ने पर उसे बदल भी सके. लौकिक धर्मों में चाहे जो बिगाड़ हुआ हो, मगर उनका एक पहलू नैतिकता से भरा होता है. प्रायः सभी धर्म कमजोर के साथ नरमी से पेश आने, जरूरतमंद की मदद करने, पड़ोसी से प्रेम करने और आवश्यकता पड़ने पर उसकी सहायता करने, मिथ्याचरण पर रोक लगाने, आवश्यकता से अधिक धन-संचय न करने तथा न्यायपूर्ण ढंग से जीविकोपार्जन पर जोर देते हैं. सामाजिक अनुशासन और शांति के लिए यह सब अत्यावश्यक हैं. गीता के उपर्युक्त कथन में निरंकुशता समायी हुई है. धर्म किसी न किसी रूप में इसी को पोषता रहा है. चूंकि धर्म इस दुनिया के बजाय किसी बाहरी दुनिया को पाने पर जोर देता है, इसलिए उस पर आंख मूंदकर विश्वास करनेवाले, या किसी विश्वास को लेकर जड़ हो जाने वाले मनुष्य सांसारिक उपलब्धियों को लेकर कोई बड़े सपने नहीं पालते. लेकिन जो इसकी हकीकत समझते हैं, वे धर्म की शिक्षा केवल इसलिए लेते हैं, ताकि उसके बहाने जनसाधारण और भावुक किस्म के लोगों के मनो-मस्तिष्क पर राज कर सकें.

भारत के बारे में सामान्य राय यह भी है कि यहां के लोग संतोषी होते हैं. अपनी कम आमदनी में से भी वे भविष्य के लिए कुछ न कुछ बचाने की कोशिश करते हैं. यह नकद, जमीन या गहने किसी रूप में हो सकता है. प्रकृति आधारित अर्थव्यवस्था होने के कारण भी यह संभव है, क्योंकि प्रकृति जरूरत के अनुसार ही उपयोग की अनुमति देती है. और शेष को भविष्य के लिए संजोकर रखती है. भारतीयों के संतोषी होने का एक कारण यह भी है कि यहां मौसम प्रायः एक समान रहता है. बहुत परिवर्तन यहां नहीं आते. सघन पारिवारिकता में बंधे माता-पिता चाहते हैं कि अपनी संतान के लिए कुछ छोड़कर जाएं, अपने आप से बेहतर जीवन उन्हें दें. इसलिए आम भारतीय भविष्य के लिए कुछ न कुछ बचाने की कोशिश में निरंतर लगा रहता है. बाजार इस तरह की पूंजी को, घर में सहेजी गई मुद्रा अथवा कीमती धातुओं के गहनों को निष्क्रिय पूंजी मानता है. वह चाहता है कि पूंजी का बाजार में आवागमन बना रहे. लोग धन को सहेजने के बजाय उसको बाजार में लगाएं. उपभोग करें. इसलिए वह आम भारतीय की बचत की आदत को अपने लिए नुकसानदेह मानता है. यह भी जानता है कि सादा-सहज जीवन जीनेवाले, थोड़े में गुजारा कर लेनेवाले भारतीयों से पूंजी को एकाएक बाजार में निकलवा पाना आसान नहीं है. दूसरे उनकी बहुत-सी पूंजी भू-संपदा के रूप में सुरक्षित है, जिसे सीधे बाजार में नहीं लाया जा सकता. इसलिए शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के बहाने लोगों से भू-स्वामित्व छीनने की बात अकसर की जाती है. उसके लिए बहुमंजिला इमारतें बनवाई जाती हैं. आसमान में टंगे रहने वालों का अपनी अपने घर से से वैसा अनुराग नहीं होता, जो धरती पर, मिट्टी पर चलने-खेलने वालों का होता है. दूसरे उनका निर्माण अधिक से अधिक एक या दो परिवारों, माता-पिता और अविवाहित बच्चों को ध्यान में रखकर किया जाता है. युवा होने के साथ ही परिवार को बड़े घर की जरूरत महसूस होने लगती है, जो उस भवन के बनी-बनाई संरचना में संभव नहीं हो पाता. इसलिए विवाह होने के साथ ही जवान बच्चों द्वारा नए घर में पलायन, स्वतंत्र गृहस्थी बसने की संभावना लगातार बढ़ती जाती है. इससे पीढि़यों के बीच अपनापन नहीं बन पाता. रिश्तों में व्यक्तिपरकता बढ़ती है जो लोगों को परस्पर जुड़ने से हतोत्साहित करती है. ‘औलाद किसकी सगी है’, ‘मैं बूढ़ा हो जाऊंगा तो कोई मेरी मदद को नहीं आएगा’ जैसे विचार लोगों को बनावटी सुख-सामान जुटाने के लिए बाध्यक रते हैं. अपनी ही संतान द्वारा दुराचरण के विचारमात्र से भयभीत माता-पिता आसानी से पूंजीवाद के प्रलोभन स्वीकार लेते हैं. अपनी बचतराशि को अचल संपदा में निवेश करने के बजाय वे उसे बैंक या लाकर में ऐसी जगह रखते हैं, जिससे भविष्य में भी उनका पूंजी पर अधिकार बना रहे. मनुष्य भविष्य के प्रति आश्वस्त होगा, तभी वह अपने और अपने संतति के लिए कुछ कर पाएगा. यदि वह यह मान ले कि संकट एकदम सिर पर है, तो वह संपत्ति का जल्दी से जल्दी भोग करना चाहेगा. ताकि उसने अभी तक जो अर्जित किया है, उसका सुख लूट सके.

इसके उदाहरण इतिहास में भी खोजे जा सकते हैं. भारत के पश्चिम सीमावर्ती राज्यों को प्रायः विदेशी आक्रमणों का सामना करना पड़ता था. उत्तर में हिमालय, दक्षिण और पूर्व में विशाल महासागर होने के कारण यह देश विदेशी आक्रमणों से सुरक्षित था. इसलिए भारत पर अधिकांश आक्रमण पंजाब के रास्ते पश्चिम से हुए. बहुत से आक्रमणकारी यहां आए और देश के पश्चिमांचल को लूटकर चलते बने. उनका सामना पश्चिमी प्रांतों को ही करना पड़ता था. इसलिए हम देखते हैं कि पंजाब जो पश्चिम के रास्ते पड़ता है, के लोग जिंदादिल, लड़ाकू तथा खान-पान और मौज-मस्ती से भरा जीवन जीना पसंद करते हैं. उनके सापेक्ष उत्तर भारतीय अपेक्षा सुस्त, भाग्य-प्रेमी, भविष्य के प्रति आशावान, बचत करनेवाले, आराम पसंद लोग होते हैं. साफ है कि व्यक्ति का डर उसके क्रय-सामथ्र्य को प्रभावित करता है. यह तथ्य पूंजीपति तथा बाजार के विशेषज्ञों से छिपा नहीं है. इसलिए वे लोगों की संचित निधियों को बाजार में लाने के लिए उनके प्रति असुरक्षा का जाल बुनने में लगे रहते हैं. इस काम में पाखंडी ज्योतिषी तथा सनसनी फैलाने वाला मीडिया उनकी मदद करते हैं. जरूरत पड़े तो आतंकबाद का भय-दिखाकर सनसनी बनाए रखने से भी वे नहीं चूकते. चार-पांच वर्ष पहले एक फिल्म आई थी, जिसमें दिखाया गया था कि 2012 में दुनिया तबाह होने वाली है. फिल्म की कहानी कल्पित थी. ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार दूसरी अनेक कहानियां होती हैं. बावजूद इसके सनसनी फैलाने वाला मीडिया 2012 में दुनिया के समाप्त होने के बारे में की गई भविष्यवाणी को ही बार-बार उछालता रहा. रेलवे स्टेशनों पर अपनी सीट के आसपास लावारिस वस्तु को देखते ही पुलिस को सूचित करने की सूचना आज हमारे सूचनातंत्र में कदाचित सबसे अधिक बजनेवाला रिकार्ड है. इस तरह के प्रोपेगेंडा का तात्कालिक असर भले ही दिखाई न पड़े मगर दीर्घकालिक असर अवश्य पड़ता है. उससे उपभोक्ता संस्कृति के विस्तार में मदद मिलती है. इसलिए टेलीविजन, इंटरनेट, सिनेमा आदि के माध्यम से इस तरह के सनसनीखेज आयोजन लगातार चलते रहते हैं.

संयुक्त परिवार में रहनेवाले दंपतियों के बजाए एकल परिवार के सदस्यों को असुरक्षा का डर भयभीत करता है. उससे बचने के लिए वे बनावटी उपाय करते हैं. समूचा बीमा उद्योग अकेलेपन की अनुभूति से जन्मे भय तथा असुरक्षा के एहसास पर टिका है. वह समाज में भविष्य के सपनों से मुक्त होने, वर्तमान में जीने तथा ‘खाओ, पियो और मौज करो’ संस्कृति को अपनाने की प्रेरणा जगाता है. लोग अपनी बचत का उपयोग ऐसे करते हैं कि वह बाजारवादी ताकतों के लिए लाभकारी सिद्ध होती है. बाजार के लिए ऐसी ही पारिवारिक संस्कृति मुफीद होती है. इसलिए शहरीकरण पर जोर दिया जाता है. मीडिया पर निर्भर अर्थशास्त्री हवाई आकलन के बहाने प्रचारित करते रहते हैं कि देश को इतने वर्ष पश्चात, इतने नए आवास स्थलों की आवश्यकता होगी. उसके लिए इतनी जमीन चाहिए. पूंजीपतियों के लिए कुशल प्रबंधक का काम करने वाली सरकारें इसी को अपने लिए आदेश मानकर तत्काल भू-अधिग्रहण में लग जाती है. ताकि उस जमीन पर लाखों नए उपभोक्ता को बसाया जा सके. स्मार्ट सिटी बसाने के आश्वासन दिए जाते हैं, जो असल में पूंजीवाद के अवैध दुर्ग होते हैं, हालांकि उन्हें मध्यमवर्गीय सपनों की उड़ान का नाम दिया जाता है. बहुमंजिला मकानों में अनौपचारिक मिलन-स्थल के लिए कोई जगह नहीं होती. इस तरह वे मकान निजता के नाम पर व्यक्ति को अकेलेपन की ओर ढकेल देनेवाले दड़बे सिद्ध होते हैं. व्यक्ति के अकेलेपन को अपने व्यवसाय में ढाल लेने वाले उद्योगों की अलग शृंखला है. वह फिल्म, टेलीविजन, सुरक्षा उपकरणों के निर्माण तथा मनोरंजन के नित नए साधनों के रूप में सामने आती है. कुल मिलाकर गगनचुंबी इमारतों में बसे इंसान का अपने घर से उतना अनुराग नहीं होता, जितना गांव के पुराने घर या खुद बनाए गए घर से होता है. बहुमंजिला मकानों को ऐसे रैन-बसेरे कहा जा सकता है, जिसमें रहनेवाले खुद को उसका मालिक होने का एहसास पाल सकते हैं. असल में वे केवल रात बिताने का ठिकाना होते हैं. सुबह होते ही काम के लिए भागमभाग.

पूंजीपति सभ्यता इसे विकास की अनिवार्यता के रूप में दर्ज करती है. उसमें प्रत्येक नागरिक समय के साथ स्पर्धा लीन रहता है. लेकिन देखा जाए तो उस भागमभाग का अधिकांश अपने लिए कुछ और सुविधाएं बटोरने तक सीमित होता है. चूंकि उन संबंधों में किसी प्रकार की आत्मीयता नहीं होती, सभी एक पेशेवर संबंध से बंधे होते हैं, इसलिए उनमें अस्थिरता बनी रहती है. पेशे की अनिश्चितता और चलायमान मनःस्थिति धीरे-धीरे संबंधों में उतर आती है. तमाम सुख-सुविधाओं के बीच जो एक बात मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ती वह है अवसाद. तनाव, हताशा और तज्जनित रोगों के उपचार हेतु वह डा॓क्टरों, ज्योतिषियों और मनोचिकित्सकों के पास जाता है. वहां भी आराम न मिले तो तांत्रिक, ओझा तथा पोंगापंथियों की शरण लेता है. वे सब अपने-अपने पेशे के कुशल व्यापारी होते हैं, जिनकी निगाह रोग से अधिक रोगी की जेब पर केंद्रित होती है.

पुराना सवाल फिर उभर आता है, आखिर इससे मुक्ति का रास्ता क्या है?

एक उपचार तो स्पर्धा से बचाव का है. परंपरागत उत्पादन प्रणाली उत्पादन का आधार व्यक्ति की जरूरतें होती हैं. व्यक्ति की क्या जरूरत है वह विकास के साथ आगे बढ़ता हुआ व्यक्ति अपने आप चुनता है. इसमें उसकी रुचि, आय और परिवेश का स्वाभाविक योगदान होता है. व्यक्ति की जरूरतें उसके विवेक से पैदा हों, विकास की आवश्यकताओं से पैदा हों, उनका सम्मान किया जाना चाहिए. पूंजीवादी अर्थतंत्र में जरूरतें न तो मानवमात्र के विकास को केंद्र में रची जाती हैं, न कि वे मानवीय विवेक की स्वाभाविक उपज होती हैं. वे व्यक्ति से अधिक उत्पादकों का भला करती हैं. पूंजी-आधारित उत्पादन व्यवस्था आदमी को आदमी रहने ही नहीं देती. वह मनुष्य से उसकी जरूरतों को निर्धारित करने, अपनी रुचि के अनुसार उसको विकसित करने का अधिकार छीन लेती है. जरूरतें पैदा करने में भी प्रत्येक उत्पादक दूसरे को मात देने में लगा रहता है. इससे व्यक्ति से उसका व्यक्तित्व, आदमियत की पहचान छीन ली जाती है. आधुनिक अर्थशास्त्री इसे विकास का लक्षण बताते हैं. उनके अनुसार स्पर्धा होने से मनुष्य को सस्ती सेवाएं मिलती हैं. लेकिन किस कीमत पर? और क्या हमेशा? यदि कोई उत्पादक उपभोक्ता वस्तु को सस्ता करने के लिए तैयार है तो उसके दो ही कारण हो सकते हैं. या तो उस उत्पाद की बाजार में मांग नहीं है. अथवा उत्पादक को वस्तु सस्ती पड़ रही है. तकनीकी विकास के साथ-साथ उत्पादन क्षमता बढ़ती है, लागत घटती है तो उत्पादक को सस्ता बेचने पर भी पर्याप्त लाभ होता है. इस तरह अपरोक्ष रूप में तकनीकी सुधार का लाभ ग्राहक तक भी पहुंचता है. लेकिन यह उस अनुपात में नहीं जिस अनुपात में पूंजीपति का मुनाफा बढ़ता है. आवश्यकताएं पैदा करने के लिए पूंजीवादी कंपनियों के बीच होड़ मची रहती है. इन दिनों टेलीफोन का॓ल दरें पहले की अपेक्षा काफी सस्ती हैं. पहले ये बीस से पचास गुना तक थीं. लोगों को लुभाने के लिए पूंजीवाद के प्रलोभन हर समय अपना खेल खेलते रहते हैं. उनके चक्कर में फंसकर अच्छा-खासा व्यक्ति अपनी पहचान खोने लगता है. अतएव उपचार का पहला चरण स्पर्धा के उन्मूलन में छिपा है.

दूसरी महत्त्वपूर्ण चीज है, हितों का सामान्यीकरण. मनुष्य समाज में रहता है. अपने ज्ञान और जरूरत की चीजों का बड़ा हिस्सा दूसरों के सहयोग से प्राप्त करता है. समाज में यदि एक-दूसरे का सहयोग न हो तो जीवन असंभव हो जाए. पूंजीवाद यह दावा करता है कि वह व्यक्ति के जीवन को सुखी, संपन्न और सुरक्षित बनाए रखने में सर्वथा सक्षम है. उसके समर्थक भरे-विश्वास से कहते हैं कि समृद्धि जड़ नहीं होती. ऊपर के स्तर पर समृद्धि होगी तो वह निचले स्तर पर भी अवश्य लौटेगी. यह कोरा छल है. ध्यानपूर्वक देखा जाए तो बाजार में मौजूद सुख-साधन केवल उन लोगों के लिए होते हैं, जो उनका मूल्य चुकाने में सक्षम हैं. जिनके पास संसाधनों का अभाव है, वे अभावों में जीने के लिए अभिशप्त होते हैं. उचित यही है कि समाज में अधिकतम सुविधाएं प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त हों. मगर कभी संसाधनों के अभाव कभी किसी अन्य कारण से, सभी को सभी सुविधाएं प्राप्त नहीं हो पातीं. सामाजिकता और सांस्थानिकता की जरूरत ऐसे ही समय के लिए पड़ती है. इसके लिए आवश्यक होता है कि जीवन के लिए आवश्यक न्यूनतम सेवाओं का एक वर्ग बनाया जाए. ऐसी व्यवस्था की जाए कि वे सुविधाएं सभी को समान रूप से प्राप्त हों. उसके बाद जो संसाधन बचते हैं उनका उपयोग करते समय हितों के सामान्यीकरण के सिद्धांत पर विचार किया. उसमें लोग अपने श्रम, संसाधन, रुचियों और संकल्पों का इस प्रकार निवेश करें कि वह समाज के सभी वर्गांे के लिए अधिकतम कल्याणकारी सिद्ध हो. शोध, उत्पादन, व्यापार आदि के जरिए ऐसे कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाए, जिससे लोगों के सामान्य हित सधते हों. तदनुसार मनुष्य जो भी उत्पादन करे सामूहिक लाभ की कामना के साथ करे. व्यक्तिगत लाभ-हानि के लिए नहीं. यह अनुभूति बने कि जो बना रहा है, निर्माण कर रहा है, उसका लाभ उसके पूरे समूह को प्राप्त होगा और समूह के लोग जो उत्पादित कर रहे हैं, उसमें सभी का हित है. लाभ की यह अन्योन्याश्रितता समाज में निरर्थक स्पर्धा को कम करेगी.

कहा जाता है कि स्पर्धा मनुष्य का आदिम लक्षण है. यह बात वही लोग कहते हैं जिनका मानना है कि मनुष्य केवल अपने लिए जीता है. यह ठीक है कि दूसरों को पछाड़कर आगे निकलने, स्वयं को दूसरों पर श्रेष्ठ सिद्ध करने की वांछा मानव मन में सनातन काल से रही है. लेकिन इसपर नियंत्रण के प्रयास भी सनातन काल से होते आए हैं. शिकार के समय यदि कोई एक व्यक्ति आगे निकलकर शिकार में अग्रणी भूमिका निभाता था तो वह जानता था कि वह अकेला नहीं है. समूह के बाकी लोग उसके साथ हैं. यदि वह दूसरों से आगे निकल आया है तो उसके पीछे व्यक्तिगत साहस के अलावा उन लोगों का हौसला भी है जो पीछे उसके उत्साहवर्धन में लगे हैं. इसलिए शिकार के उपरांत भोजन पकाना और खाना सामूहिक उत्सव हुआ करता था. उल्लेखनीय है कि सभ्यता से पहले बहुत-सा समय मनुष्य ने जानवरों के बीच, उनके साथ जीवन की स्पर्धा करते हुए बिताया था. लेकिन जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हुआ, मनुष्य अपनी पाशविक वृत्तियों पर नियंत्रण करने लगा. सभ्यता के विकास के लिए यही आवश्यक था. यह कार्य भी बिना सामूहिकताबोध के असंभव था. खेलों का विकास मानवमन में छिपे अहंभाव को संतुलित करने, समाज के साथ अनुकूलन करने के लिए हुआ है. प्राचीनकाल में मनुष्य ऐसे अनेक सुखों से अपरिचित था, जो आज उसको सहज ही प्राप्त हैं. इसलिए यह मान लेना कि सभी सुख-सुविधाएं केवल स्पर्धा के कारण प्राप्त हुए हैं, बहुत बड़ी भूल होगी. यदि कोई वैज्ञानिक केवल अपने लिए शोध करता तो आज यह दुनिया इतनी तरक्की न करती.

बावजूद इसके यदि मान लिया जाए कि स्पर्धा ही विकास को ऊर्जा प्रदान करती है तो भी मानवीकरण की शर्त है कि मनुष्य अपने सुख का स्थानापन्न सहकार और सहयोग से करते हुए, सुख की सार्वजनिकता के विचार को अपनाए. आपत्तिस्वरूप कहा जा सकता है कि प्रत्येक मनुष्य की मनोरचना दूसरों से अलग होती है. वह अलग तरीके से सोचता है. उसकी पसंद दूसरों से अलग होती है. जिससे संभव है कि जो वस्तु दूसरों को पसंद है, वह उसको जरा-भी स्वीकार्य न हो. मनुष्य अपनी स्वतंत्रता गंवाने के लिए समाज में सम्मिलित नहीं हुआ है. बल्कि सुख और स्वतंत्रता में वृद्धि का विचार उसे समाज से जुड़ने रहने को बाध्य करता है. ठीक है, सामाजिक वैविध्य अपने आप में बड़ा गुण है, मगर हितों का सामान्यीकरण सभ्यता और संस्कृति दोनों की अनिवार्यता है.

सुख की सावर्जनिकता अथवा उसके सामान्यीकरण का प्रयास कोई पहला प्रयास नहीं है. प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ और ‘दि ला॓ज’ में ऐसी बस्तियों की बसावट का समर्थन किया था, जहां जीवन साझा हो. यहां तक कि पत्नी और बच्चे भी. प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में ऐसे समाज का नक्शा भी खींचा है. मगर उसमें संवाद एक तरफा था. पलड़ा समाज का भारी था. दूसरे पक्ष की मनःस्थिति को समझने की चाहत उसकी नहीं थी. वह नाटककार की तरह अपने पात्रों और स्थितियों को गढ़ने की शैली थी, जिसमें दक्ष नाटककार कुशलतापूर्वक अपने कल्पनाजगत को स्थापित करता है; और दावा बदलाव का करता है. लेकिन यह प्लेटो की नहीं, मनुष्य द्वारा आदर्श स्थितियों पर टिक न पाने की मजबूरी है. प्लेटो की आदर्श राज्य संबंधी अनुशंसाओं को सुकरात के शिष्यों जेनोफीन के अलावा अरस्तु ने भी नकार दिया था. आशय है कि जनता की आकाक्षाओं का शासन वही हो सकता है, जिसमें उसकी भावनाओं की कद्र हो. जो जनता की इच्छाओं द्वारा संचालित होता हो. जनता की इच्छाओं शुभत्व का वास हो, उसके लिए समाज में शुभत्व की उपस्थिति अपरिहार्य है. गणतंत्र में लोगों को अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होता है. वे उस समय वे उस समय तक सत्ता में बने रहते हैं, जितना संवैधानिक स्तर पर जनता द्वारा निर्धारित होता है. निश्चित अवधि के पश्चात समर्थन प्राप्त करने के लिए उन्हें जनता के बीच दुबारा आना पड़ता है. सैद्धांतिक स्तर पर यह सुंदर व्यवस्था है. मगर व्यवहार में अकसर वह नहीं होता जो जैसा जनता चाहती है. और जिस उम्मीद के साथ वह उन्हें संसद में भेजती है. प्रतिनिधि जनता के वोट से चुनने के बाद अपना कर्तव्य भूल जाते हैं. वे स्वार्थ-साधन में जुट जाते हैं. अपने और अपने अपने चहेतों की स्वार्थ सिद्धि के लिए कानून बनाते हैं. ठेकों में दलाली से लेकर विरोधी को छकाने के लिए दंगों तक का दुस्साहस वे कर जाते हैं. पूंजीवादी और धर्म-सत्ताओं से गठजोड़ कर जनता को बरगलाने का प्रयास करते हैं. और कई बार धोखादड़ी से संसद भी पहुंच जाते हैं.

धर्म सत्ता, राजसत्ता और अर्थसत्ता के स्वार्थी गठजोड़ तथा उसके आतंक से जनसाधारण को उबारने का एक ही उपाय है कि लोग अपने हितों को पहचानें. मिल-बैठकर हितों का सामान्यीकरण करें. समाज और परिस्थितियां चाहे जैसी हों, अपने समानधर्मा लोगों के साथ मिलकर एकजुट हों. बिखरी हुई शक्तियों को समेंटकर एक करें. प्रत्येक कार्य यह सोचकर करें कि वह उनके साथ-साथ दूसरों के लिए भी लाभकारी सिद्ध हो. हितों के सामान्यीकरण के लिए यह पहली शर्त है—सुख का परिष्करण. उसको तात्कालिक प्रलोभनों मुक्त करना. धर्म सत्ता जनसाधारण के बौद्धिक विकास को बांधे रखती है. कह देती है कि साधारण होने के कारण उन्हें अधिक पढ़ने-लिखने, अपनी आसपास की चीजों को समझने की जरूरत नहीं है. समाज में जो उनकी पूर्वनिर्धारित भूमिका है, वह उन्हें आनी चाहिए. व्यवस्था से अनुकूलित लोग इसे मान भी लेते थे. उनके लिए रोजी-रोटी के सवाल ही इतने बड़े होते हैं, जिंदगी के दूसरे मसलों पर विचार करने की फुरसत ही नहीं मिलती. मामूली आवश्यकताओं के लिए संघर्ष करते हुए वे अपना जीवन बिता देते हैं. चुनौती ऐसे लोगों को जागरूक करने की है. मनुष्य की खूबी उसका विवेकशील होना है. इसलिए प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने और अपने आसपास के लोगों के बौद्धिक परिष्करण पर भी ध्यान दे. इससे व्यक्ति में सुख के परिष्कार का संस्कार बनेगा. तब मनुष्य अनावश्यक प्रलोभनों से स्वयं को बचा सकेगा. ऐसे समाज जहां सभी या अधिकतम लोग जागरूक हों, वहां न तो सामंतवाद टिक सकता है, रन धर्म के नाम पर पुजारी वर्ग की मनमर्जी. न ही पूंजीवाद वहां पूरी तरह जड़ जमा सकता है.

© ओमप्रकाश कश्यप

        1 Socialism is workable only in heaven where it isn’t needed, and in hell where they’ve got it.-Cecil Palmer.

  1. सर्वं स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किन्चिज्जगतीगतम्, मनुस्मृति 1/100)

2013 in review

The WordPress.com stats helper monkeys prepared a 2013 annual report for this blog.

Here’s an excerpt:

The concert hall at the Sydney Opera House holds 2,700 people. This blog was viewed about 16,000 times in 2013. If it were a concert at Sydney Opera House, it would take about 6 sold-out performances for that many people to see it.

Click here to see the complete report.

छेलबेला : बचपन से दूर बचपन की कथा

मेरा बचपन’(छेलबेला) कवियों का कवि कहे जाने वाले रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा बच्चों के लिए लिखी गई पुस्तक है. शांतिनिकेतन के अपने सहयोगी गोसाईं जी के आग्रह पर कि बच्चों के लिए कुछ लिखा जाए, कविवर ने सोचा—‘बालक रवींद्रनाथ की कहानी ही लिखी जाए.’ बालक रवींद्रनाथ दूसरे बच्चों की भांति साधारण था. बल्कि अतिसाधारण कहिए. बच्चों की प्रतिभा को आंकने के जो सामान्य कसौटियां आजमायी जाती हैं, बालक रवींद्रनाथ उनपर कभी पूरा नहीं उतर पाता था. प्रतिभा का जो विस्फोट उसमें आगे देखने को मिला, आरंभिक जीवन में उसका कोई संकेत नहीं था

‘उन दिनों के प्रदीप में जितना उजेला था, उससे कहीं अधिक अंधेरा था. बुद्धि के इलाके में उस समय तक वैज्ञानिक सर्वे नहीं हुई थी. संभव और असंभव की चौहद्दियां उस समय एकदूसरे में उलझी हुई थीं.’

कवि के बचपन की स्मृतियों को संजोए ‘छेलबेला’ 1940 में रची गई. उसी वर्ष उसका प्रथम संस्करण बांग्ला में छपकर आया. हिंदी पाठकों के लिए पुस्तक उपलब्ध कराने का जिम्मा लिया डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने. उनके द्वारा अनूदित ‘छेलबेला’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरा बचपन’ अगले ही वर्ष बाजार में आ गया. इस आलेख के समस्त उद्धृण उसी पुस्तक से हैं. ‘छेलबेला’ में रवींद्रनाथ के बचपन से किशोरावस्था तक की कहानी है.

पुस्तक लिखते समय कविवर की आयु 79 वर्ष थी. सुखसमृद्धि और यशकीर्ति से भरपूर जीवन वे जी चुके थे. चौतरफा ख्याति और वैश्विक प्रतिष्ठा के बावजूद कोई सूनापन उनके मन में था. यूं तो रचनाकार कभी अपने कृतित्व से संतुष्ट नहीं होता. कुछ नया रचने और गढ़ने की ललक उसके मन में बनी ही रहती है. लेकिन रवींद्रनाथ ठाकुर की पीड़ा न रच पाने की पीड़ा नहीं है. वे उन विरलों में से थे जो जीवन के अंतिम क्षण तक अपनी रचनाधर्मिता को बचाए रखते हैं. अपने रचनाकर्म के प्रति आश्वस्तिबोध भी उनके मन में था. तभी तो जीवन की संध्याबेला में मृत्यु सन्निकट देख वे सारा लेनदेन साफ कर लेना चाहते हैं. 7 अगस्त 1941 को उनकी मृत्यु हुई, उससे मात्र एक सप्ताह पहले 30 जुलाई को सहायक के जरिये एक कविता उन्होंने रची थी. जिसमें उन्होंने आत्मीय स्वजनों को बहुत स्नेह और सम्मान के साथ याद किया था—

जन्म दिन निकट आतेआते मैं ढल रहा हूं. इस अवसान वेला में मैं चाहता हूं अपने सभी मित्र, उनका स्नेहिल स्पर्श. हृदय की अतल गहराइयों में मैं लूंगा जीवन की अनंत भेंट….मनुष्यता का आखिरी आशीर्वाद. मेरी झोली आज खाली है. जो कुछ मेरे पास देने को था, वह मैं लुटा चुका हूं. बदले में मैंने पाया है, थोड़ा प्यार, थोड़ी क्षमा. ये मेरे जीवन की अमूल्य निधियां हैं. मैं इन्हें अपने साथ उस सफर पर ले जाऊंगा जो वर्णनातीत है….’

कविता से यह स्पष्ट होता है कि उन्हें यशर्कीति थी. लेकिन कहीं कुछ असंतोष भी था. रवींद्रनाथ के जन्म के समय जमींदारी का वैभव क्षीण पड़ चुका था. अपने बचपन की स्मृति के बहाने कविशिरोमणि उसी वैभव को याद करने की कोशिश करते हैं. ‘छेलबेला’ इसी की कहानी है. बचपन की ओर लौटती हुई स्मृतिरेख ‘कलकत्ता’ से जा मिलती है—‘मेरा जन्म लिया था पुराने कलकत्ते में….’ अतीत की स्मृतियां वैसे भी गाढ़ी हुआ करती हैं. शायद उनसे कुछ पीछे छूट जाने का गम जुड़ा होता है. वही उन्हें आसानी से विस्मृत नहीं होने देता. रवींद्रनाथ की आंखों में भी पुराना कोलकाता मानो साकार हो उठता है, बढ़ी उम्र के बावजूद याददाश्त धोखा नहीं देती. एकएक चीज उन्हें याद आती है—‘शहर में उन दिनों छकड़े छड़छड़ करते हुए धूल उड़ाते दौड़ा करते और रस्सीवाले चाबुक घोड़ों की हड्डी निकली पीठ पर सटासट पड़ा करते.’ यहां हम कविवर की स्फटिकजैसी स्वच्छपारदर्शी स्मृति का अनुभव कर सकते हैं. स्मृति चित्रों की ऐसी बिंबात्मकता दुर्लभ है. अस्सी की उम्र में भी वेे ‘घोड़ों की हड्डी निकली पीठ’ पर चाबुकों की मार को साफसाफ देख पाते है. जैसेजैसे आगे बढ़ते हैं, वर्णन उतना ही करीबी और साफ होता जाता है, मानो बीच के पैंसठसत्तर वर्ष घटकर शून्य में ढल गए हों या उनके पास ऐसी कोई दृष्टि हो, जिससे वे अतीत को साफसाफ देख सकते हैं—

‘उन दिनों काम की ऐसी दम फुला देने वाली ठेलमठेल नहीं थी. इतमीनान से दिन कटा करते थे. बाबू लोग कश खींचकर पान चबातेचबाते आफिस जाते—कोई पालकी में और कोई साझे की गाड़ी में. जो लोग पैसेवाले थे उनकी गाड़ी पर तमगे लगे होते. चमड़े के आधे घूंघट वाले कोचबक्स पर कोचवान बैठा करता, जिसके सिर पर बांकी पगड़ी लहराती थी.’ शैली गज़ब और वर्णन इतना स्वाभाविक कि पढ़तेपढ़ते दृश्य आंखों में साकार हो उठते हैं.

उपन्यास बच्चों के लिए लिखा गया है. उपन्यास में बालक सिर्फ एक रवींद्रनाथ है. बाकी सब या तो नौकरचाकर और शिल्पकर्मी हैं; अथवा बड़े भाई बहन और भाभियां. दादा द्वारिकानाथ ठाकुर के तीन पुत्र थे—देवेंद्रनाथ, गिरींद्रनाथ तथा नगेंद्रनाथ. दादा बंगाल के प्रतिष्ठित व्यापारी थे. उनके राजसी ठाठबाट को देखते हुए लोग लोगों ने उन्हें ‘प्रिंस’ की उपाधि दी थी. रवींद्रनाथ पिता देवंेद्रनाथ की तेरह जीवित संतान में सबसे छोटे थे. समाज में उनके परिवार की काफी अच्छी प्रतिष्ठा थी. उस भरेपूरे समृद्ध परिवार में प्रतिभाओं की कमी न थी. साहित्य एवं कला का वातावरण था. सबसे बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ प्रसिद्ध कवि और दर्शनशास्त्री थे, मंझले भाई ज्योतिंद्रनाथ कवि और संगीतज्ञ. एक बहन स्वर्णकुमारी उपन्यासकार थीं और भाई सत्येंद्रनाथ ‘इंडियन सिविल सर्विस’ में प्रवेश करनेवाले प्रथम भारतीय. उन्होंने तिलक की प्रसिद्ध कृति ‘गीता रहस्य’ का बंगला अनुवाद किया था. ज्योतिंद्रनाथ की पत्नी कादंबरी देवी जिनसे रवींद्रनाथ का गहनानुराग था, भी कविताओं में रुचि रखती थीं. रवींद्रनाथ ने स्वयं लिखा है कि कादंबरी देवी उनकी कविताओं की प्रथम श्रोता और आलोचक थीं. ऐसे परिवेश में ही रवींद्रनाथ का बचपन बीता. पिता की चौदहवीं संतान और माता से असमय बिछुड़ जाने ने कारण, नौकरचाकरों और भाईबहनों से भरे परिवार के बावजूद वे अंतर्मुखी बनते चले गए.

रवींद्र परिवार के सदस्यों में कला और संस्कृति के प्रति तीव्र आकर्षण क्या अनायास था? इसके लिए पुराने कोलकाता की पड़ताल करनी पड़ेगी. उन दिनों वह भारत के प्रमुख नगरों में था. ‘पूरब का मोती’ कहे जाने वाला वह शहर ब्रिटिश साम्राज्य का दूसरा सबसे बड़ा नगर था, जिसकी पहचान अपने आलीशान भवनों से होती थी. ब्रिटिश और फ्रांसिसी व्यापारियों के संपर्क में आने पर कोलकाता के समाज में पुनर्जागरण की लहर व्याप्त थी. अंग्रेजी के संपर्क में आने से बाबू संस्कृति का जन्म हुआ जो पढ़ेलिखे बंगालियों की जमात थी. ब्रिटिश साम्राज्य को जमाने में इन बाबुओं का बड़ा योगदान था. ‘बाबू’ शब्द अच्छे अर्थों में प्रयुक्त नहीं था. यह उन लोगों को दिया गया संबोधन था जो पश्चिमी ढंग की शिक्षा पाकर भारतीय जीवनमूल्यों को हिकारत की दृष्टि से देखते तथा अंग्रेजों का कृपापात्र बने रहने के लिए खुद को उनके रंगढंग में ढालने के लिए प्रयत्नशील रहते थे.

जनसाधारण में बाबू लोगों की जीवनशैली को लेकर आकर्षण था. उनका दिखावटी सम्मान भी होता था, लेकिन यह मानते हुए कि वे ब्रिटिश सत्ता के सहयोगी हैं, लोग उनसे मन ही मन नफरत भी करते थे. यह बात बाबू लोग भी जानते थे. इसके बावजूद वे अपने जीवन की सिद्धि सत्तावर्ग से निकटता प्राप्त करने में मानते. स्वयं को अंग्रेजों का स्वामीभक्त और खैरख्वाह सिद्ध करने के लिए वे निरंतर प्रयत्नरत रहते. बदले में बस इतना चाहते थे कि अंग्रेज भी उनपर उतना ही विश्वास करें. लेकिन बाबू वर्ग के तमाम प्रयत्नों के बावजूद जब अंग्रेजों के बीच उनकी अस्वीकार्यता बनी रही तो उनका एक वर्ग छिटककर राष्ट्रवादियों में जा मिला. तब के राष्ट्रवादी नेताओं में से अधिकांश मध्यवर्म से आए थे. वे नई शिक्षा, विशेषकर यूरोप से आ रही खबरों से प्रभावित थे. वे अपनी राष्ट्रवादी चेतना का उपयोग अपनी स्वायत्तता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए करना चाहते थे. इसके फलस्वरूप समाज में नई बहसों का जन्म हुआ. इसी को इतिहास में पुनर्जागरण के नाम से जाना जाता है. आगे चलकर उसमें जमींदारी प्रथा, धर्म, दर्शन, समाज सुधार आदि मुद्दे भी सम्मिलित होते गए. राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक सुधारों को गति मिली, आर्थिक प्रगति का लंबा दौर चला. इसका लाभ बंगाल के साहित्य और संस्कृति दोनों को हुआ. रवींद्रनाथ का उदय इसी पुनर्जागरण काल की देन है.

छेलबेला’ में कविवर अपने परिजनों को याद करते हैं. नौकरचाकर तथा उस परिवेश को याद करते हैं, जो कभी पुराने कोलकाता की पहचान हुआ करता था. इनमें रोचक प्रसंग गड़ीवान को लेकर हैं, ‘जो बांटबखरे के मामले में नाराज होता तो ड्योढ़ी के सामने पूरा टंटा खड़ा कर देता.’ पहलवान जमादार शोभाराम के बारे में है जो, ‘वजनदार मुगदर घुमाता, बैठाबैठा भंग घोटता और कभीकभी बड़े आराम से पत्ता समेत पूरीपूरी मूली चबा जाता.’ अपने आसपास के परिजनों को याद करते हुए कवि अपनी उन शरारतों को भी नहीं भूल पाता जो बचपन की अक्षयनिधि कही जा सकती हैं, ‘‘हम लोग उसके कान के पास जोर से चिल्ला उठते—‘राधाकृष्ण’. वह जितना हीहांहां करके पैर पीटता उतनी ही हमारी जिद बढ़ती जाती. ईष्टदेवता का नाम सुनने को यह उसकी फंदी थी.’’ पढ़ने में वे साधारण थे. भावुक और कल्पनाशील मन निरंतर नए विषयों की तलाश में रहता था. पुस्तक को सामने देख उन्हें नींद आने लगती. इस बारे में, ‘न कहना ही अच्छा है. सब लड़कों में अकेले मूर्ख होकर रहने के समान गंदी भावना भी मुझे होश में न ला पाती.’

भूतप्रेत के किस्से उन दिनों आम थे. उस शनैःशनैः खंडहर में बदलती लंबीचौड़ी हवेली को यत्रतत्र झूलती लालटेनें भला कितना रोशन कर पातीं! उल्टा वे उसे और भी रहस्यमय बनाने का काम करती थीं. अंधेरा होते ही पेड़ डरावना साया बन जाते. बालक रवींद्र भूतों के ख्याल आते ही घबरा जाता, ‘मैं उधर से गुजरता तो दिल कहता रहता कि न जाने क्या पीछा कर रहा है, पीठ सनसना उठती. कोई महरी अचानक चुडै़ल की नकियान सुनती और धड़ाम से पछाड़ खाकर गिर पड़ती. वह भूतनी ही सबसे अधिक बदमिजाज थी. वह मछली पर ज्यादा चोट करती थी. घर के पश्चिमी कोने पर एक घने पत्तोंवाला बादाम का पेड़ था. एक पैर इसकी डाल पर दूसरा पैर तितल्ले के कार्निश पर रखकर कोई मूर्ति प्रायः ही खड़ी रहा करती—इसे देखा है, ऐसा कहने वाले उन दिनों अनेक थे. विश्वास करने वाले भी कम नहीं थे….आतंक ने उन दिनों चारों ओर अपना जाल ऐसा फैला रखा था कि मेज के नीचे पैर रखने से पैर सनसना उठते थे.’ बालमन के ये स्वाभाविक डर हैं जो उन दिनों आम थे. रवींद्रनाथ घटनाओं का वर्णन इतने सहजस्वाभाविक ढंग से करते हैं कि जिज्ञासा टूटती नहीं. पाठक मन में और अधिक जानने की उत्सुकता निरंतर बनी रहती है.

आजकल भूतप्रेत के किस्से को बच्चों और किशोरों के लिए अच्छा नहीं माना जाता. बालक पहले की अपेक्षा अधिक प्रबुद्ध भी हुआ है. उसमें वैज्ञानिक चेतना बढ़ी है. ऐसे प्रसंगों पर वह विश्वास भी नहीं करता. लेकिन जिस दौर की यह कहानी है, उसमें ऐसे विश्वास आम थे. न केवल जनसाधारण, बल्कि पढ़ेलिखें वर्ग के बीच भी. शताब्दियों से चले आ रही ये रूढ़ियां और अंधविश्वास जनसाधारण की दुर्दशा के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार भी हैं. ‘छेलबेला’ में कवि ने इन स्मृतियों को ज्यों का ज्यों समाहित किया है. मन में छिपा डर बालमन से कैसीकैसी डरावनी कल्पनाएं करवा लेता है, इसकी जीवंत अभिव्यक्ति देखिए, ‘उन सीड़भरी अंधेरी कोठरियों में जो लोग डेरा डाले हुए थे, कौन नहीं जानता कि वे मुंह बाये रहते थे. आंखें उनकी छाती पर हुआ करती थीं, दोनों कान सूप के समान होते थे और दोनों पैर उल्टी तरफ मुड़े हुए होते थे. मैं उस भुतही छाया के सामने से मकान के भीतर के बगीचे की ओर जाता, तो हृदय के भीतर उथलपुथल मच जाती, पैर में तेजी आ जाती थी.’ आगे कवि ने भावगीत ढेर सारे लिखे, जिनपर रहस्यवादी आवरण है. उनके बीजतत्व हम अतीत के डर और मुक्त आसमान में विचरण को छटपटा रही कल्पना के संगंुफन में देख सकते हैं.

बचपन की ओर लौटते हुए रवींद्रनाथ को दादी के जमाने की पालकी याद आती है, जिसका वैभव अतीत की कहानी कहानी बन चुका है. हवेली याद आती है, ‘जिसमें कितने अपने(थे), कितने पराये, कुछ ठीक नहीं.’ उन्हें ‘कांख में दबाये’ सब्जी लाती महरी की याद आती है, साथ में ‘कंधे पर कांवर रखकर’ पानी लाता दुक्खन, ‘नए फैशन की साड़ी का सौदा करने घर के भीतर घुसी आ रही’ तांतिन, ‘महावारी मजूरी पाने’ वाला दीनू सुनार, ‘कान में पांख की कलम खोंसे….मुखुज्जे के पास अपने बकाया का दावा करने चला आ रहा’ कैलाश भी उनकी सुदीर्घ स्मृति में साथसाथ आतेजाते हंै. स्मृति की वेगवती धारा ठहरती नहीं. उसके साथ बढ़ता कवि हवेली के आंगन में रूई धुनते धुनिया, काने पहलवान के साथ लस्टमपस्टम कुश्ती के दाव लगाते मुकंदलाल दरबान को भी भूल नहीं पाता. परिवेश की प्रामाणिक प्रस्तुति के लिए लेखक कथानक के विस्तार पर कम, पाठक को उससे अंतरंग बनाने पर ज्यादा जोर देता है. भाषायी समृद्धि के लिए उसके पास भरपूर मसाला है, फलस्वरूप शैली के बिंबात्मक होते देर नहीं लगती. पाठक को लगता है कि कवि की स्मृति के साथ वह भी उसके बचपन की यात्रा पर है.

बालक को कहानियां अच्छी लगती हैं. दूसरी चीजों की भांति रवींद्रनाथ को किस्सागोओं की भी कम न थी. वे भी हवेली में बहुसंख्यक थे. नहीं तो ठलवार के समय रवींद्रनाथ जैसे कद्रदान बालक को फुसलाने के लिए नौकरों में से ही कोई न कोई किस्सागो का वेश धारण कर लेता था. उन्हें ‘नुकीली दाढ़ी, सफाचट मूंछें, घुटी चांद’ वाले अब्दुल मांझी याद आते हैं जो उनको प्यारीप्यारी कहानियां सुनाया करते थे. वह कोरा किस्सागो न थे. सागरलहरों से नितनित संघर्ष रहता था उनका. अनथक संघर्ष के दौरान कुछ कहानियां भी स्वतः उभर आतीं, ‘भयंकर तूफान, नाव अब डूबी, अब डूबी. अब्दुल ने दांत से रस्सी पकड़ी और कूद पड़ा पानी में. तैरकर रेती पर आ खड़ा हुआ और रस्सी से खींचकर अपनी डोंगी निकाल लाया.’ इतनी रोमांचक कहानी का जल्दी अंत हो यह बालक के कौतूहल को स्वीकार कहां, ‘नाव डूबी नहीं, यों ही बच गई, यह तो कोई कहानी नहीं हुई….फिर क्या हुआ?’ और बालक के उकसाने पर अब्दुल मांझी जब शुरू होते हैं तो रुकने का नाम ही नहीं लेते थे, ‘फिर तो एक नया टंटा खड़ा हो गया. क्या देखता हूं कि एक लकड़बघ्घा है. ये उसकी बड़ीबड़ी मूंछें हैं. आंधी के समय उस पार के गंजघाटवाले पाकड़ के पेड़ पर चढ़ गया. आंधी का एक झोंका आया, उधर सारा पेड़ पर्ािं नदी में आ गिरा. और बाघराम बह चले पानी की धार में.’

उसके बाद तो कहानी ऐसी रफ्तार लेती कि पूछो मत. बीचबीच में मोड़ आते जो बालक रवींद्रनाथ की जिज्ञासा को बढ़ावा देने वाले सिद्ध होते. कुशल किस्सागो की भांति अब्दुल मांझी एक कहानी में दूसरी कहानी पिरोते हुए आगे बढ़ जाते. पुराने जमाने में बालक के मनोरंजन का बड़ा हिस्सा लोककहानियां पूरा करती थीं. मामूली घटना को रोचक अंदाज में किस्से के रूप में सुहाने वाले लोग उसको बहुत प्यारे लगते थे. बालक रवींद्र पालकी में घूमने जाता तो ऐसी ही कहानियां और प्रसंग देखने सुनने को मिलते. हवेली में नौकरों के बीच होता तो भी मनःरंजन के लिए किस्साकहानी का सहारा लिया जाता. वे उसके अकेलेपन को बांटते तथा कहानी का बीजतत्व बनकर उसके मानस में पैठते गए. जोडासांको मेसन की हवा में साहित्यगंध चौबीसों घंटे घुली रहती थी. कवि और काव्यरसिकों का वहां प्रायः आनाजाना था. उनके प्रभाव से रवींद्रनाथ की तुकबंदी की शुरुआत सातआठ वर्ष की अवस्था में ही हो चुकी थी.

रवींद्रनाथ के पिता अक्सर बाहर रहते थे. मां अस्वस्थ. इसलिए खेलने, खाने, घूमनेफिरने तक का अधिकांश समय नौकरों के साथ ही गुजरता था. जमींदारी का वैभव ढल रहा था, ‘हमारी चालढाल गरीबों जैसी ही थी. गाड़ीघोड़े की कोई बला नाममात्र को ही थी….पहनने के कपड़े निहायत सादे होते थे.’ असल में यह नौकरचाकरों से भरी उस हवेली का हाल था, जिसके मालिक का ध्यान अर्थाजन से हटकर समाज के पुननिर्माण पर टिका हुआ था. राजाराम मोहनराय(1772—1833) की मृत्यु के बाद ब्रह्मसमाज को संभालने का दायित्व उन्हीं के कंधों पर था. इसलिए वे जमींदारी तथा घरगृहस्थी के काम के लिए बहुत कम समय दे पाते थे. रवींद्रनाथ कृशकाय थे. इसका एक कारण भोजन पर नियंत्रण भी था. उसके पीछे रसोइया का योगदान भी कम न था. रसोइया ब्रजेश्वर को वे याद करते हैं, ‘सिर और मूंछों के बाल गंगाजमुनी. मुंह के ऊपर सूखी झुर्रियां, गंभीर मिज़ाज, कड़ा गला, चबाचबाकर बोली हुई बातें…’ ऐसे ब्रजेश्वर को उनकी देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी हुई थी. ऊपर से पवित्रता का ढोंग रचाने वाला ब्रजेश्वर स्वभाव से बड़ा ही पेटू था, ‘जब हम खाने बैठते तो एक पूरी अलग से ही हाथ में झुलाता हुआ पूछता, और दूं? कौनसा जवाब उसके मनमाफिक है, यह बात उसके गले की आवाज से भलीभांति समझ में आ जाती थी….दूध के कटोरे पर भी उसका खिंचाव उसकी सभ्हाल के बाहर था.’

इससे रवींद्रनाथ का बचपन से ही कम भोजन पर जीने का अभ्यास होता गया. इसने उन्हें कृशकाय भले बनाया हो, लेकिन आंतरिक मजबूती बढ़ती गई. भरोसा जमा कि वे शरीर से अच्छेखासे दिखने वाले बच्चों से कहीं अधिक ताकतवर हैं, ‘शरीर इस बुरी तरह से तंदुरुस्त था कि स्कूल से भागने का इरादा जब हैरान करने लगता तो शरीर पर तरहतरह के जुर्म करके भी उसमें बीमारी पैदा नहीं कर पाता. पानी में भिगोया हुआ जूता पहनकर दिनभर घूमता रहा, सर्दी नहीं हुई. कातिक के महीने में खुली छत पर सोया किया, कुर्ता और बाल भीग गए; लेकिन गले में जरासी खुसखुसाहटवाली खांसी का आभास भी नहीं पाया गया. और पेटदर्द नाम भीतरी बदहजमी की जो सूचना मिला करती है, उसे मैंने पेट में कभी अनुभव ही नहीं किया.’ अब्दुल मांझी ने बालक रवींद्रनाथ को कहानियां सुनासुनाकर गद्य का संस्कार दिया तो ब्रजेश्वर ने कविता का. वह रामायण की पदावलियां ऊंचे स्वर में गाता था. संगीत की प्रेरणा उन्हें अपने बड़े भाइयों तथा हवेली में आने वाले मेहमानों से मिली.

छेलबेला’ सही मायने में विश्वकवि की स्मृति यात्रा है. उस कवि की जो जीवन के अंतिम सोपान पर यादों को एकदम करीब जाकर दुलराता है. इस खूबी के साथ कि अतीतगंगा में नहाते हुए भी वर्तमान के प्रवाह को आंखों से ओझल नहीं होने देता. जो नए जमाने की खूबियों से परिचित है, तो पुराने का मोह भी उससे गया नहीं है. बड़ी शाइस्तगी के साथ वह दोनों का अंतर बयान करता है. हालांकि उसमें कवि का अतीतानुराग एकदम साफ नजर आता है,

पुराना जमाना राजकुंवर के समान था. बीचबीच में त्योहारपर्व के दिन जब उसकी मर्जी होती, अपने इलाके में दानखैरात बांट देता. आज का जमाना सौदागर का लड़का है. हर किस्म का चमकदार माल सजाकर सदर रास्ते की चौमुहानी पर बैठा है. बड़े रास्ते से भी खरीदार आते हैं, छोटे रास्ते से भी.’

और जब बड़े सौदागर होंगे तो डकैत भी होंगे. नौकरों का सरदार श्याम रवींद्रनाथ को कहानियां सुनाया करता था. उसकी अधिकांश कहानियां डकैतों की होती थीं. सुनते हुए बालक रवींद्र के रोंगटे खड़े हो जाते. इस तरह एक ओर ये दिल हिला देने वाले डरावने किस्से थे, दूसरी ओर संगीत शिक्षा. बड़े भाई हेमेंद्र दा ने रवींद्रनाथ को संगीत की शिक्षा देने की जिम्मेदारी संभाल ली थी. बाद में संगीत शिक्षा देने के लिए यदु भट्ट भी चले आए. पर बालक रवींद्र का मन मोहा उस अज्ञात गायक ने जो हवेली में आकर अचानक रहने लगा था. उसका संगीत शिक्षण का अंदाज दूसरों से हटकर था. उनके स्वभाव के खुलेपन ने रवींद्र को प्रभावित किया, ‘प्रातःकाल मैं उनको उनकी मच्छरदानी से खींचकर बाहर निकालता और उनका गान सुनता. जिनके स्वभाव में नियम से सीखना नहीं है, उनका स्वभाव बेकायदे सीखने का होता है.’ रवींद्र संगीत में जो नयापन है, उसमें इस बेकायदे की सीख का बहुत बड़ा योगदान है.

रवींद्रनाथ की प्रतिभा बहुआयामी है. लेकिन जब हम उनके जीवन का अध्ययन करते हैं तो यह साफ नजर आने लगता है, कि इसमें उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि से अधिक योगदान उनके परिवेश का था, जिसमें समाज के तरहतरह के लोगों की बहुतायत है. उनमें धुनिया है, कोचवान है. पहलवान, माली, तंबाकू कूटने वाला लड़का, दरबान, मांझी, दर्जी और अलगअलग प्रवृत्तिस्वभाव वाले नौकरनौकराइन हैं. बचपन में अपना अधिकांश समय उन्हें बंद हवेली में बिताना पड़ा. बाहर जाने का अवसर बहुत कम मिल पाता था, ‘किसीकिसी दिन आंगन में भालू नचाने वाला आ जाता. सपेरा सांप खेलाने आ जाता और जरासी नवीनता की झांकी दिखा जाता.’ किशोरावस्था तक वे उसी हवेली में रहे. यह संयोग ही है हवेली के भीतर ही उन्हें समाज के ऐसे चरित्र मिले जिन्होंने उन्हें जीवन की बहुवर्णी छटा से परचाया. ज्योतिंद्रनाथ के साथ उनके संबंध सहज ही थे. उनके विवाह के बाद रवींद्रनाथ को मानो एक साथी और मिल गया, कादंबरी देवी के रूप में. ज्योतिंद्रदा से उनकी निकटता थी, सो स्वाभाविक रूप से कादंबरी देवी के प्रति भी उनका स्नेह अपेक्षाकृत अधिक था. पहली बार ज्योतिदा ने ही उन्हें जमींदारी के काम के हवेली से बाहर निकालकर सियालदह चलने का अवसर दिया. किशोरावस्था की ओर बढ़ चले रवींद्रनाथ के लिए यह चमत्कार जैसा था, ‘उन्होंने समझ लिया होगा कि मेरा मन आकाश और हवा में उड़नेवाला है; वहां से मैं अपने आप खुराक पाया करता हूं.’

यह स्वीकारोक्ति दर्शाती है कि हवेली की भीड़भाड़ में भी बालक रवींद्रनाथ अकेलापन महसूस करता था. शायद यह हवेली के दायरे में रहने की बंदिश ही रही हो, जिसने उन्हें अंदरूनी रूप से इतना कल्पनाशील बनाया कि मन हमेशा हवापंखी रहता था. जमींदारी का अनुभव होने के बाद ही उन्होंने जाना कि ‘अभागी रैयत की दुहाई देने वाली रुलाई ऊपरवालों के कान तक पहुंच ही नहीं पाती थी. उनकी हुकूमत का रास्ता लंबा होकर सदर जेलखाने तक चला करता था.’ परिवेश की देन की भांति काव्य संस्कार बचपन से ही था. सियालदह यात्रा के दौरान मुक्त परिवेश में उसने खुलकर उड़ान भरी, ‘इसके साथ ही मेरी काॅपी पद्य से भरनी शुरु हो गई है. ये पद्य मानो आम की झड़ जानेवाली पहली बौर हैं, झड़ भी गए हैं.’ काव्य रचना के लिए उन्होंने चौदह शब्दों के छंद को अपनाया. उस समय कविता दूसरों को सुनाने का अधिक शौक न था. अधिक से अधिक भाभी कादंबरी देवी को सुनाकर उनकी राय ले लेते. और कादंबरी देवी ठहरीं ठेठ आलोचक. नवकवि को प्रोत्साहित करने के बजाय वे सीधेसीधे उसकी खबर लेतीं, ‘बहुठकुरानी का व्यवहार उल्टा था. कभी भी मैं लिखने वाला बन सकता हूं, यह बात वे किसी भी तरह मानने को राजी न थीं. सिर्फ ताने देतीं और कहतीं, तुम कभी भी बिहारी चक्रवर्ती की तरह नहीं लिख सकते.’ और रवींद्रनाथ की कविता कापियों से बाहर आतीआती रह जाती. पर कविता तो केसरगंध ठहरी. वह भला कहां छिपने वाली थी. एक दिन स्कूल में कविता लिखने की चुनौती मिली. कविता लिखी. कविता अच्छी थी. इतनी अच्छी कि किसी को विश्वास न हुआ कि एक किशोरवय का लड़का ऐसी कविता लिख सकता है. वह बालक रवींद्रनाथ की काव्य प्रतिभा का प्रथमांकुरण था, जिसकी ताजगी और चिकनेपन ने उनके होनकार कवि के दर्शन करा दिए थे. इसके बाद तो लोगों में भी उनकी काव्य प्रतिभा सराही जाने लगी. परंतु भाभियों का हाल दूसरा था. वे फिर भी उलाहना देती रहीं.

सियालदह में रहते हुए ही किशोर रवींद्र ने घुड़सवारी सीखी. ज्योतिंद्रदा के साथ शिकार पर भी गए. परंतु यह सब अधिक लंबा नहीं चला. एक दिन टट्टु उन्हें पीठ पर लेकर आंगन में घुस आया तो घुड़सवार से उनकी हमेशा के लिए छुट्टी कर दी गई. रवींद्रनाथ को इसका शायद ही कभी अफसोस हुआ हो. तब तक उन्हें मनोजगत में रमने का हुनर आ चुका था. जिज्ञासु मन नएनए प्रयोगों के लिए उकसाता रहता. एक दिन विचार आया कि फूलों के रंगीन रस से कविता लिखी जाए. रस निकालने की कोशिश की. परंतु कलम निगोरने लायक रस न निकला. तब उन्होंने सोचा कि एक मशीन बनाई जाए, जिससे फूलों का रस निकाला जा सके, ‘छेदवाला एक कटोरा और उसके ऊपर घुमाकर चला दिया जा सकने लायक एक इमामदस्ते का लोढ़ा, बस इतने से ही काम चल जाएगा. वह घुमाया जाएगा रस्सी में बांधकर एक चक्के से.’ ज्योतिदादा से कहा तो सामान हाजिर हो गया. जैसा सोचा था, मशीन तो वैसी बन गई, मगर फल वैसा नहीं मिल पाया. लोढ़ा घूमने से फूल कुचल जाते. कुचलकर कीचड़ में बदल जाते, लेकिन कलम निगोरने के लिए जो रस चाहिए वह पर्याप्त मात्रा में बाहर नहीं आ पाता था. जिंदगी में पहली बार इंजीनियरिंग का प्रयोग किया था. नाकामी मिली तो बालक रवींद्र ने मान लिया कि यह काम उसके लिए नहीं बना. इसके बाद हमेशा के लिए उससे कदम पीछे खींच लिए.

जोडासांको मेसन में बालक रवींद्रनाथ की आरंभिक पढ़ाई हुई. वहीं रहकर कविता सिरे चढ़ी. वहीं गीतसंगीत का अभ्यास हुआ और वहीं रहकर पारिवारिक पत्रिका ‘भारती’ का काम भी देखा. उनके एक भाई ब्रिटेन में थे. किशोर रवींद्रनाथ को भी आगे की पढ़ाई के लिए ब्रिटेन जाना पड़ा. वहां वे यूनीवर्सिटी में दाखिल हुए. विज्ञान और दूसरे विषयों की औपचारिक पढ़ाई में उनका मन ही नहीं लगता था. अधिक दिन नहीं टिक नहीं पाए. मानो औपचारिक शिक्षा के लिए वे बने ही नहीं थे, ‘मैं यूनीवर्सिटी में सिर्फ तीन महीने पढ़ सका था. लेकिन मेरी विदेश शिक्षा का प्रायः सारा का सारा मनुष्य की छत से आया था. जो हमारे मूर्तिकार हैं, वे सुयोग पाते ही अपनी रचना में नया मसाला मिला देते हैं….यह क्लास की पढ़ाई नहीं थी. यह साहित्य के साथ मनुष्य के मन का मिलन था….विलायत गया, पर बैरिस्टर नहीं बना.’ उस समय भारत से पढ़ाई के लिए विलायत जाने वाले अधिकांश युवाओं का सपना होता था, बैरिस्टर बनकर लौटना. रवींद्रनाथ कवि बनकर वहां गए थे, कवि ही बने रहे. पश्चिम में रहकर उन्होंने लिया कम, दिया ज्यादा. उनकी पाश्चात्य शिक्षा की यही उपलब्धि थी.

छेलबेला’ कवि के छहसात वर्ष की अवस्था से लेकर करीब सोलह वर्ष का होने तक की कहानी कहती है. हम बालक रवींद्र को ऐसे परिवेश में देखते हैं, जो सुरक्षित और पूरी तरह घिरा हुआ है. जिसमें उनका भरापूरा परिवार और परिजन हैं तो ढेर सारे कारीगर, शिल्पकर्मी, नौकरचाकर, साथ में हवेली में आने वाले मेहमान भी. जानेअजाने लोगों के बीच अपने अस्तित्व को बचाए रखने का एक ही उपाय था, कल्पयात्रा. कल्पना के पंखों के सवार वह धरती पर रहकर भी उड़ान में रहता. लेखक की विशेषता है कि वह व्यक्ति के पेशे या स्तर को न देखकर उनके काम को देखता है. उस समय शेष भारत की भांति बंगाली समाज में भी जातीय विभाजन था. पुस्तक में मांझी, जमादार, धुनिया जैसे जाति सूचक शब्द आए हैं. लेकिन रवींद्रनाथ इस आधार पर किसी प्रकार का स्तरीकरण नहीं पनपने देते. उस समय जब शीर्ष से देखने का चलन था, आधार से नहीं, ‘छेलबेला’ में शीर्ष और आधार दोनों ससम्मान मौजूद हैं. आसमान और धरती की तरह, फलस्वरूप कृति सीधे आत्मा में पैठकर संवाद करती है. गीतांजलि की कुछ कविताओं पर हम रूस के आंदोलन का असर पाते हैं. तो उसके पीछे निश्चय ही जोडासांको मेसन के सर्वहारा किस्म के लोग और सामंती चरित्र थे, जिनके बीच उनका बचपन बीता. उन्होंने ही उनको कविता और कहानी के लौकिक संस्कार दिए.

बावजूद इसके कुछ ऐसा है जिसको लगता है वे जानबूझकर भूल रहे हैं. ‘छेलबेला’ को कविवर ने आत्मीयता के साथ लिखा है. शायद इसी कारण यह हवेली से बाहर नहीं जा पाती. अगर जाना भी होता है, तो हवेली साथ जाती है. कृति में सिवाय रवींद्रनाथ और उनके भाईबहनों के लिए बाकी किसी बालक का न होना भी अखरता है. हवेली के दर्जनों नौकरचाकर के अपने परिवार और बच्चे भी रहे होंगे. आश्चर्यजनक रूप से रवींद्रनाथ समकालीन बचपन का उल्लेख नहीं कर पाते. कृति का शेष समाज और इतिहासचक्र से कटा होना ही इसकी सीमा है. कह सकते हैं कि यह रवींद्रनाथ के बचपन की कहानी है. इसलिए जो विषय एक बालक की समझ से संबंधित हो सकते हैं, उन्हीं को इसमें लिया गया है. लेकिन जिस तरह कवि पुराने कोलकाता तथा जोडासांको मेसन के जीवन को याद करता है, बारबार नए और पुराने के भेद की ओर ध्यानाकर्षित करता है, अपनी भाभियों पहनावे पर टिप्पणी करता है, ‘आजकल साड़ीशेमीज की जो चलन हुई है, उसे पहले पहल बहुठकुरानी ने ही शुरू किया था.’—उससे यह जमींदारी के ढहते कंगूरों की कहानी तो बन जाती है, अपने समय का दस्तावेज नहीं. यह कुछ ऐसा ही जैसे किसी भावुक बादशाह का अपने बचपन की यादों के बहाने, मसहरी पर लेटेलेटे हवेली के ढहते कंगूरों की पुरानी चमकदमक को याद करना. बावजूद इसके यह पुस्तक अपने प्रामाणिक वर्णन, भाषा की जिंदादिली तथा अनूठी बिंबात्मकता के लिए बारबार पढ़ी जाने योग्य है.

© ओमप्रकाश कश्यप

समाजवाद के मायने और चुनौतियां

एक समय था जब सभी स्वतंत्र थे. इतने स्वतंत्र कि स्वतंत्रता के कोई मायने ही नहीं थे. और इतने सुखी कि सुख क्या है, इसे शब्दों में शायद ही बता पाते. परिवार की भांति सब समूहबद्ध होकर रहते. मिलजुलकर शिकार करते. शिकार न मिलने पर प्रकृतिप्रदत्त कंदमूलफल से गुजारा कर लेते. मौसम सताता तो गुफाओं की शरण लेते. नहीं तो खुले अंचल में जीवन का उत्सव मनाते थे. प्रकृति की गोद में रहते हुए उन्होंने पृथ्वी की उर्वरा शक्ति को जाना. फलस्वरूप कृषियोग्य ठिकानों पर बड़ीबड़ी बस्तियां बसने लगीं. समय के साथ सभ्यता और सभ्यता के साथ समाज का दायरा बढ़ता चला गया. इसी के साथ उलझनें भी बढ़ी. सामाजिक जरूरतें आसानी से पूरी हों, इसके लिए श्रमविभाजन को अपनाया गया. इस बीच अपनी स्थिति का लाभ उठाकर समाज का एक वर्ग संसाधनों पर अनैतिक अधिकार का दावा करते हुए मालिक बन बैठा. सभ्यता के नाम पर, संस्कृति के नाम पर, धर्म, राष्ट्र और कुलपरंपरा के नाम पर इस वर्ग ने नियमों, कानूनों और आचार संहिताओं का ऐसा पहाड़ खड़ा किया कि वह वर्ग जिसने पूरे समाज के भले के लिए श्रमसंस्कृति को अपनाया था, जो अपना पसीना बहाकर दूसरों का पेट भरता, उनके सुखामोद और विलासिता की वस्तुएं पैदा करता था, वह भृत्य और मजदूर कहलाने लगा. उसका अपने मनमस्तिष्क तो दूर श्रम तक पर अधिकार न था. दूसरी ओर जिसने प्राकृतिक संसाधनों पर अनैतिक कब्जा किया हुआ था, जो दूसरों के श्रम पर जीने वाला, परजीवी और परावलंबी था—वह खुद को स्वामी बताकर दूसरों के श्रम का मूल्यांकन करने लगा. धर्म, राजनीति, अर्थतंत्र सब उसके अधिकार में आ गए. समयसमय पर इसके विरुद्ध आवाज भी उठी. हर युग में ऐसे उदारचेता विचारक हुए जिन्होंने समाज के अनैतिक स्तरीकरण को धिक्कारा. मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को अप्राकृतिक और अमानवीय कहकर उसकी भत्र्सना की. महाभारतकार ने कहा, ‘न हि मानुषात श्रेष्ठतरं हि किचिंत’सृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठतर कुछ भी नहीं है.’

बौद्धकाल में सम्राट से अपेक्षा की जाती थी कि वह खुद प्रजा का योग्य पालनकर्ता, संरक्षक और निदेशक सिद्ध करे. उसका आचरण नियमों से आबद्ध हो. जातक कथा के अनुसार एक बार एक राजा की मुंह लगी पटरानी ने राजा से यह वर मांगा—

महाराज, मुझे राज्य पर अमर्यादित राज्य करने के अधिकार प्रदान किए जाएं.’ इसपर राजा ने महारानी को समझाया—

भद्रे राज्य के संपूर्ण निवासियों पर मेरा कोई भी अधिकार नहीं है. मैं उनका स्वामी नहीं हूं. मैं तो केवल उनका स्वामी हूं जो राजकीय कर्तव्यों का उल्लंघन करते हुए, न करने योग्य कार्य कर दूसरों के जीवन में व्यवधान खड़े करते हैं. अतः मैं तुम्हें राज्य के समस्त निवासियों पर स्वामित्व प्रदान करने में असमर्थ हूं.’

उस समय सारी संपत्ति राज्य की मानी जाती थी. राजा उसका एकमात्र कर्ताधर्तास्वामी था, इसलिए उसे ‘भूपति’, ‘भूपालक’, ‘भूपेश’ आदि कहा जाता था. संपत्ति पर सामूहिक अधिकारिता का विचार, जो आरंभिक कबीलाई जीवन का गुण था, समाप्त हो चुका था. ऋषियों के आश्रम तक उनकी व्यक्तिगत संपदा कहे जाते थे. व्यक्तिगत संपत्ति का निषेध पहली बार बौद्ध दर्शन में देखने को मिलता है. बुद्ध ने जो बौद्ध विहार स्थापित किए, वे निजी अधिकारिता से बाहर थे. उन्होंने गणतांत्रिक पद्धति की भी सराहना की. हालांकि दुनिया के अन्यान्य हिस्सों की भांति, तत्कालीन भारतीय गणतंत्र एक प्रकार का कुलीनतंत्र ही था. उसमें केवल विशिष्ट लोग हिस्सा ले सकते थे. फिर भी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं और अकेले व्यक्ति की तानाशाही के बजाय वह उदार व्यवस्था थी. समाजवाद के बीजतत्व हमें प्लेटो के ‘रिपब्लिक’ में दिखाई पड़ते हैं. आदर्श राज्य की कल्पना करते हुए उसने राज्य का कार्यभार दार्शनिकों के निर्वाचित मंडल को सौंपने का सुझाव दिया था. प्लेटो का आदर्श राज्य का सपना किताबी पन्नों से बाहर भले न आ सका, लेकिन परिवर्तन का सपना देखने वाले दार्शनिकों, बुद्धिजीवियों को प्रभावित हमेशा करता रहा.

सत्ता की तानाशाही के विरुद्ध आवाज चीन में भी उठी थी. कन्फ्युशियस के समकालीन लाओत्से को समाज के आंतरिक सामथ्र्य पर पूरा भरोसा था. उसका मानना था कि सरकार को सरलतम और न्यूनतम होना चाहिए. सामाजिक मर्यादा और अनुशासन के नाम पर बने कानून और आचारसंहिताओं की आलोचना करते हुए उसने कहा था कि उनकी संख्या ‘बैल के शरीर के बालों से भी अधिक हैं.’ जिनके चलते ‘एक मामूली चैर को सलाखों के पीछे ढकेल दिया जाता है और एक डाकू राजकार्य चलाता है.’ चूंकि शिक्षा और उत्पादन के वैकल्पिक संसाधनों का अभाव था और अर्थव्यवस्था के एकमात्र स्रोत कृषिभूमि पर सामंत वर्ग अधिकार जमाए था. अतः उसकी मनमानी के चलते मानवीय स्वतंत्रता, मानसम्मान और गरिमा को महत्त्व देने वाले विचार पुस्तकों से बाहर अपना स्थायी प्रभाव न छोड़ सके. इसके लिए उन्हें अठारवीं शताब्दी तक प्रतीक्षा करनी पड़ी जब औद्योगिक क्रांति ने बहुमुखी हस्तक्षेप द्वारा रोजगार के अवसर पैदा किए. फलस्वरूप हुनरमंद शिल्पकारों, पेशेवरों की मांग बढ़ी और वे सामंती चंगुल से बाहर आ सके. शिक्षा के विस्तार ने उनके भीतर आजादी की ललक पैदा की, जिसने परिवर्तनकामी आंदोलनों, विचारों को जन्म दिया.

साम्राज्यवादी परिवेश और सामंती सोच के दिनों में व्यक्ति का अस्तित्व गौण था. नए सोच में व्यक्तिस्वातंत्रय पर जोर दिया जाने लगा. थाॅमस पेन ने लिखा कि मनुष्य ने समाज को अपने कल्याण के लिए चुना है. समाज की सर्वोच्चता तभी संभव है, जब निर्णय के समस्त अधिकार उसके अधीन हों. संसाधनों पर उसका कब्जा हो. हालांकि उसने माना कि समाज की संसाधनों पर अधिकारिता निःशर्त न होकर अनेक कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के साथ आती है. संसाधनों का उपयोग करते समय समाज को समझना चाहिए कि वह प्राकृतिक सत्ता नहीं है, बल्कि मनुष्यों द्वारा मनुष्य के कल्याण हेतु गठित किया गया है. मनुष्य समाज में इसलिए सम्मिलित होता है कि वह अपने सुख में वृद्धि कर सके. यदि ऐसा नहीं होता, समाज का कोई नागरिक मूलभूत सुविधाओं से वंचित रह जाता है, तो समाज के गठन का औचित्य ही समाप्त हो जाता है. अतः समाज का दायित्व है कि वह संसाधनों का उपयोग इस प्रकार करे ताकि उनका लाभ समाज के प्रत्येक नागरिक को प्राप्त हो सके. प्रत्येक नागरिक को यह विश्वास हो कि समाज उसकी इच्छाओं की पूर्ति करने में सक्षम है. जहां इच्छाओं का सर्वमान्य निर्धारण संभव न हो, वहां समाज बहुमत के आधार पर इच्छाओं के सामान्यीकरण की नीति को अपना सकता है. इच्छाओं के सामान्यीकरण अथवा सामान्य इच्छा के चयन के लिए गणतांत्रिक प्रणाली सर्वोपयुक्त पाई गई है, बशर्ते उसमें जन्म, वर्ण, रंग, भाषा, क्षेत्रीयता, कुलपरिवार, धर्म, संप्रदाय आदि के नाम पर कोई विशेषाधिकार न हों. यह समाज या उसके किसी भी वर्ग को मनमानी का अधिकार नहीं देती. बल्कि निरंतर यह बोध कराती है कि उनमें से प्रत्येक के बस उतने ही अधिकार हैं जो समाज के किसी भी अन्य नागरिक को प्राप्त हैं. यह शीर्षस्थ सत्ताओं, को उनकी जिम्मेदारियों से आबद्ध करती है. उसकी सफलता के लिए आवश्यक है कि सदस्यों के बीच असहमति का साहस और सहमति का विवेक हो. लोग अपना पक्ष रखने और दूसरे की सुनने में जितने निपुण और धैर्यवान होंगे, उतने ही परिपक्व निर्णय ले पाएंगे.

समाजवादी के अनुसार राज्य सामूहिक इच्छा की अभिव्यक्ति है. उसका कर्तव्य राज्यसंपदा की सुरक्षा एवं संवर्धन द्वारा समाज को विकास की ओर अग्रसर करना है. इसके बावजूद यह विडंबना ही कही जाएगी कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में समाजवाद ने जितनी तेजी से पांव पसारे था, उत्तरार्ध में वह उतनी ही तेजी से सिकुड़ने लगा था. सोवियत संघ के पतन के बाद तो हालात पूरी तरह बदल चुके हैं. समाजवाद की चर्चा करना, सामान्य अर्थों में प्रतिक्रियावादी होना और दिवास्वप्नों में जीना रह गया है. आखिर क्यों? क्या कारण है कि साम्यवादी आदर्श, दर्जनों प्रभावकारी दर्शन और अपने समय के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवियों के खुले समर्थन के बावजूद समाजवाद को पूंजीवाद से अपनी अधिकांश जंगे हारनी पड़ीं? दरअसल पूंजीप्रेरित बाजार ने लोगों को ऐसी अंधस्पर्धा की ओर ढकेल दिया है, जहां व्यक्ति अधिकाधिक अर्थोपार्जन से कुछ और सोच ही नहीं पाता. सामान्य नैतिकता केवल व्यावसायिक संबंधों तक सिमट जाती है. जनसाधारण में अपनी पैठ बनाने के लिए पूंजीवाद लोकप्रिय उपादानों का सहारा लेता है. फिर चाहे राजनीति हो या धर्म, वह सभी का सुविधानुसार उपयोग करता है. मानवाधिकार, व्यक्तिस्वातंत्रय जैसे नारों के साथ वह व्यक्तिगत सुखाकांक्षाओं को इस विनियोजित करता है मानो मनुष्य कोई समाजनिरपेक्ष प्राणी हो. उसके प्रभाव में व्यक्ति को केवल अपने अधिकार याद रहते हैं. भूल जाता है कि समाज के साथ उसका अनुबंध एकतरफा नहीं है. यह सही है कि व्यक्ति अपने सुख के लिए समाज में शामिल होता है. मगर उसको यह भी समझना होता है कि उसका सुख समाज के सम्मिलित आनंद से परे नहीं है. इसलिए समाज की ओर से उसके अधिकारों के साथसाथ कर्तव्य भी निर्धारित हैं. लोकप्रियता के आधार पर कामयाबी हथियाने की होड़ में पूंजीवादी मीडिया व्यक्ति को केवल उसके अधिकारों की याद दिलाता है, और उसकी दुरवस्था के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराता है. संचार माध्यमों की पीठ पर सवार पूंजीपति जनता को बड़ी आसानी से यह विश्वास दिला देते हैं कि उसे उसकी दुरावस्था और संकटों से बचाने की जिम्मेदारी सरकार की है. सरकार का दायित्व है कि कराधान के रूप में जुटाई गई धनराशि का उपयोग लोककल्याण के कार्यों में करे. यदि असफल रहती है तो लोगों को गुस्सा करने का पूरा अधिकार है. इससे वह जनाक्रोश के निशाने पर आ जाती है. विभिन्न प्रकार के दबावों से घिरी, अस्थिर, बौखलाई हुई सरकार से पूंजीपति मनमाने निर्णय कराने में सफल रहते हैं. स्वार्थी और नाकारा तत्वों की कमी सरकार में भी नहीं होती, लेकिन पूंजीवादी मीडिया के दबाव के चलते वे येनकेनप्रकारेण सरकार में बने रहते हैं. हालात में वास्तविक परिवर्तन शायद ही आता है.

विचार के क्षेत्र में लोकप्रियता की अपेक्षा दुराग्रहों की ओर ले जाती है और वैचारिक कठमुल्लापन अच्छेखासे विचार को संकुचित कर देता है. कई बार अक्षम्य किस्म की गलतियां भी हो जाती हैं. उदाहरण के लिए एडम स्मिथ के मूल्यांकन को लें. अठारहवीं शताब्दी के इस प्रतिभाशाली अर्थशास्त्री को पूंजीवाद का आदि उत्प्रेरक माना जाता है. इसके लिए प्रायः ‘लेजेज फेयर’ के समर्थन का उदाहरण दिया जाता है. मंजे हुए अर्थशास्त्री के रूप में स्मिथ ने वही कहा या लिखा था जो समाज के आर्थिक विकास को गति देने में सक्षम हो. उपलब्ध संसाधनों को अधिकतम उत्पादन सक्षम कैसे बनाया जाए, यह उसके चिंतन का विषय था. एक वैज्ञानिक की दृष्टि और दार्शनिक जैसी वस्तुनिष्ठता से उसने इसपर विचार किया. फिर जो उसको जंचा वही अभिव्यक्त किया. उसने माना कि प्रत्येक मनुष्य पहले अपना सुख देखता है, ‘हमारा भोजन कसाई या पावरोटी बनाने वाले की सौगात नहीं है. उनकी गर्ज थी जो उन्होंने मीट बेचने या रोटी बनाने का धंधा चुना.’ इस उक्ति से उसके द्रष्टिकोण की व्यावहारिकता का अनुमान लगाया जा सकता है.

उपलब्ध संसाधनों द्वारा अधिकतम उत्पादकता की वांछा समाजवाद के लिए भी निषिद्ध नहीं है. अंतर बस इतना है कि समाजवादी की निगाह में सामाजिक लाभ महत्त्वपूर्ण होते हैं. मौद्रिक लाभ की कीमत पर सामाजिक लाभों की उपेक्षा वह नहीं कर पाता. इसके बरक्स पूंजीवाद का सारा तामझाम उद्योग स्वामी के अधिकतम लाभ को समर्पित होता है. वहां शिखर की ओर जाते हुए लाभानुपात निरंतर बढ़ता जाता है. जबकि लाभ के विभाजन हेतु समाजवाद ‘अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम सुख’ की नीति अपनाता है. समस्त संपत्ति राज्य के अधीन होती है.प्रत्येक को उसकी योग्यता के अनुसार काम, हरेक को उसकी जरूरत के बराबर दाम’—के अनुसार वह उसका उपयोग करता है. व्यक्तिगत संपत्ति के बारे में भी स्मिथ के विचार समाजवादी भावना के अनुरूप हैं—‘जैसे ही किसी राष्ट्र की भूसंपदा निजी संपत्ति ठहरा दी जाती है, भूसामंत और सत्ता के अन्य ठेकेदार दूसरों की मेहनत की फसल काटने में जुट जाते हैं. स्वार्थ के वशीभूत हो वे प्राकृतिक संसाधनों को भी मंडी में उतार देते हैं.’ उत्पादन प्रविधियों की चर्चा के बाद वह उत्पादन प्रवृत्ति पर आता है. इस बारे में उसका सोच एकदम स्पष्ट है—‘यह सरासर अन्याय है कि पूरा का पूरा समाज उस दिशा में काम करने लग जाए, जिससे समाज के मुट्ठीभर लोगों का भला होता है.’ उत्पादन का स्वरूप जनसाधारण की जरूरतों के अनुसार तय होना चाहिए. इसके लिए वह साफ शब्दों में कहता है—‘अनाज जरूरत है, चांदी विलासिता.’ उपयुक्त मूल्यांकन के अभाव में स्मिथ के अर्थदर्शन में अंतर्निहित नैतिकतावादी मूल्यों की उपेक्षा हुई. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि पूंजीकेंद्रित अर्थतंत्र की नैतिक संभावनाओं की पड़ताल का काम भी पीछे छूट गया.

इसका मतलब यह नहीं कि पूंजीवाद सर्वथा निर्दोष प्रणाली है या वह समाजवाद जैसी ही कल्याणकारी व्यवस्था है. दरअसल विकासोन्मुखी एवं महत्त्वाकांक्षी समाजों में सरकार को लोगों की अपेक्षाओं पर जल्दी से जल्दी खरा उतरने के लिए त्वरित उत्पादन प्रणालियां अपनानी पड़ती हैं. नवीनतम प्रौद्योगिकी का लाभ समाज के अधिकांश लोगों तक कैसे पहुंचे? जिन लक्ष्यों को पूंजीवाद स्पर्धा के जरिये कैसे प्राप्त करता आया है, उन्हें सहयोग के आधार पर कैसे प्राप्त किया जाए? यानी पूंजीवादी उत्पादन त्वरा समाजवाद आदर्श के साथ कैसे संभव हो—बुद्धिजीवियों के समक्ष यह चुनौती हमेशा से रही है. उस दृष्टि से अपेक्षित काम न हो पाने का एक कारण तो पूंजीवाद पर मौलिक लेखन का अभाव है. बकौल अयन रेंड, ‘पूंजीवाद का कोई दार्शनिक आधार नहीं है.’ जबकि समाजवाद के समर्थन में लेखन गत दो शताब्दियों से निरंतर होता रहा है. हाल की शताब्दियों में मनुष्यता को किसी न किसी रूप में प्रभावित करने वाले जितने भी दार्शनिक, विचारक आदि हुए, उनमें से अधिकांश समाजवाद के समर्थक थे. दार्शनिकों के दुराव के कारण पूंजीवाद के समर्थन में जो लेखन मिलता है, वह समग्र अर्थदर्शन न होकर उत्पादन प्रविधियों का विश्लेषण है. उसका मूल विषय पूंजी के सफलतम उपयोग द्वारा अधिकतम उत्पादकता के लक्ष्य पर विचार करना है. चूंकि वह आर्थिक गतिविधियों की वस्तुनिष्ट व्याख्या करता है, इसलिए साधारणजन की हैसियत उसकी निगाह में उपभोक्ता तक सीमित रह जाती है. पूंजीवादी चाहता है कि उपभोक्ता उसका विनम्र अनुगामी बने. इसलिए वह जनप्रबोधीकरण की राह में तरहतरह के अवरोध, प्रलोभन आदि ले आता है. वह दिखावे के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करता है. मगर प्रकट में चाहता है कि वह जैसा चाहे लोग वैसा सोचें, जो सपने वह दिखाना चाहे वैसे सपने देखें. संबंध औपचारिकताओं में तक सिमट जाएं. लोग मित्रोंरिश्तेदारों और पड़ोसियों के रहते खुद को असुरक्षित महसूस करें. इससे उत्पन्न शून्य को भरने के निमित्त उसका सारा कारोबार चलता है. स्वार्थपरता के कारण पूंजीवादी समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महज छलावा बनकर रह जाती है. मुक्त सोच को न तो तानाशाही स्वीकार करती है, न पूंजीवाद.

पिछली कुछ शताब्दियों में पूंजीवाद को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. इसके बावजूद यदि वह फलताफूलता रहा है तो इसका कारण है कि अपने अभिजात्य समर्थन के बल पर वह प्रतिरोधी गुटों को छोटेछोटे वर्गों में बांट देता है और विभाजित समूहों की आपसी स्पर्धा और द्वंद्व के बीच अपना वर्चस्व बनाए रखता है. इसके बावजूद समाजवाद समर्थकों, उसके लिए संघर्ष करनेवालों तथा पूंजीवाद के आलोचकों की फेहरिष्त बहुत लंबी है. बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि पूंजीवाद जबजब निरंकुश हुआ है, तबतब उसे चुनौती देनेवाले पैदा हुए हैं. इटली का तानाशाह मुसोलिनी. अंतोनियो ग्राम्शी को कैद करके बहुत प्रसन्न था. उसे गुमान था कि उसने अपने सबसे बड़े विरोधी और प्रखरतम विचारक को काबू में कर लिया है. भरोसा था कि जेल की तंग कोठरी में ग्राम्शी का दिमाग भी बंधकर रह जाएगा. उसका दुनिया से कटना अपने आप से भी कट जाने जैसा होगा. परंतु हुआ एकदम उल्टा. जेल की अंधेरी दीवारों ने ग्राम्शी के दिलोदिमाग को और भी रोशन कर दिया. उसकी सुतीक्ष्ण मेधा दमन के उन रूपों को भी देखनेसमझने लगी, जो बाहर की भागमभाग में संभव न थे. अंधेरेबंद कमरों में भी उसने अपना लेखन जारी रखा. सरकार ने कागजकलम पर नजर रखनी शुरू की तो वे चोरीछिपे जेल में आनेजाने लगे. तानाशाह और उसके नौकरशाह उसके शब्दों से इतने घबराए कि सरकारी वकील को अदालत में अपील करनी पड़ी—

हुजूर हमें इस आदमी के दिमाग पर बीस वर्ष के लिए रोक लगा देनी चाहिए.’

यह घटना 1928 की है. ग्राम्शी आगे बीस वर्ष जी न सका. क्योंकि जेल की सलाखों ने उसके स्वास्थ्य को बहुत नुकसान पहुंचाया था. परंतु जब तक जिया, तानाशाह की ताकत उसके दिमाग को कैद कर पाने में असमर्थ रही. जेल में रहकर उसने 2848 नोट्स लिखे. आगे चलकर वे साम्यवादी चिंतन के नए अध्याय सिद्ध हुए. लगे हाथ एक उदाहरण और. चे ग्वेरा का जन्म अर्जेंटाइना में हुआ था. प्रशिक्षित डॉक्टर होने के नाते वह चाहता तो मजे की जिंदगी जी सकता था. मगर दक्षिण अमेरिकी देशों में पूंजी आधारित साम्राज्यवाद के कुरूप चेहरे से उसको ऐसी नफरत हुई कि उसने अपने जीवन का मकसद ही बदल दिया. अब उसका एकमात्र जुनून था, पूंजीवाद का समूल नाश. फिदेल कास्त्रो उसे पूंजीवाद के विरुद्ध लड़ाई में सर्वाधिक सशक्त नेता और योद्धा नजर आया तो वह उससे जुड़ गया. भले ही कास्त्रो की लड़ाई उनके अपने देश क्यूबा की आजादी के लिए थी. यह सोच कर कि एक भी देश यदि पूंजीवादी जबड़ों से बाहर निकलने में कामयाब हो जाता है तो वह समाजवाद की ही जीत होगी, उसने अपने देश से बाहर जाकर छापामार युद्ध का संचालन किया और क्यूबा की आजादी का सबसे जांबाज योद्धा बना. जीत के बाद कास्त्रो देश के नवनिर्माण में जुट गए. चे को भी मंत्रीपद सौंपा गया. मगर वह ठहरा समाजवादी योद्धा. पूंजी के साम्राज्य को उखाड़ फैंकने को उद्धत. सरकार में दूसरी स्थिति में होने के बावजूद एक दिन वह अचानक गायब हो गया. आखिर युद्धभूमि में उसने प्राण तजे.

ग्राम्शी ने साम्यवाद को अपना आदर्श माना था. मार्क्स से वह प्रभावित था, परंतु उसके विचारों को ज्यों का त्यों अपनाने के बजाय उसने उनकी नए सिरे से व्याख्या की. मार्क्स का कहना था कि पूंजीवादी समाजों में वर्गसंघर्ष अपरिहार्य है. बीसवीं शताब्दी में विकसित देशों को पूंजीवाद के हाथों में खेलते देख मार्क्सवाद की यह आधारभूत अवधारणा गलत सिद्ध होने लगी थी. तो क्या मार्क्सवाद झूठ है? उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं? ग्राम्शी ने इसी तथ्य से आगे विचार करना आरंभ किया था. आखिर वह इस नतीजे पर पहुंचा कि पूंजीवाद समाज की आर्थिक संपदा को ही कब्जे में नहीं ले लेता, वह लोगों के दिलोदिमाग पर भी अधिकार जमा लेता है. वह सभ्यता और विकसित संस्कृति का सपना लोगों के दिमागों में रोपता है. इससे उत्पीड़ित वर्ग में उत्पीड़क स्थितियों को समाप्त करने के बजाय उत्पीड़क की स्थिति में आने की होड़ मच जाती है. ग्राम्शी ने इसको सांस्कृतिक आधिपत्य का नाम दिया. उसने जोर देकर कहा था—‘आदमी तो सभी बुद्धिमान हैं, किंतु समाज में सभी का व्यवहार बुद्धिमानों जैसा नहीं होता.’ कारण है कि सत्तासीन अभिजात जनसाधारण के मस्तिष्क का अपने हितों के अनुरूप अनुकूलन कर लेता है. विपुल जनशक्ति को वह छोटेछोटे समूहों में इस तरह बांट देता है कि विरोधी जनसमूह सदैव अल्पमत में होता है. इसका निदान क्या हो? सर्वहारा वर्ग को सांस्कृतिक आधिपत्य के चंगुल से बाहर कैसे लाया जाए? इसके लिए ग्राम्शी ने सुझाव दिया कि यदि शोषित वर्ग सचमुच अपनी मुक्ति चाहता है तो पहले उसे बुर्जुआ के सांस्कृतिक वर्चस्व से बाहर आना होगा. समाज के शीर्षस्थ लोग जिनमें राजनेता, पुरोहित, व्यापारी और नवधनाढ्य बुर्जुआ वर्ग सम्मिलित है, परस्पर संगठित हो निजी हितों की सुरक्षा हेतु अभिजन संस्कृति को जन्म देते हैं. उसके प्रति सर्वजन का आकर्षण अंततः उसकी आर्थिकसामाजिक पराधीनता का कारण बनता है. वर्चस्व से मुक्ति समांतर श्रमसंस्कृति के विकास के बाद ही संभव है.

कार्ल मार्क्स की भांति मिखाइल बकुनिन भी अपने समय का चर्चित श्रमिक नेता था. पेरिस क्रांति के दौरान दोनों एक साथ थे, मगर ‘प्रथम इंटरनेशनल’ के दौरान उनके बीच वैचारिक दूरियां इतनी बढ़ीं कि रास्ते अलग करने पड़े. मार्क्स वर्गसंघर्ष पर विश्वास करता था. उसका मानना था कि वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए सर्वहारा क्रांति आवश्यक है. प्रूधों से प्रभावित बकुनिन ऐसे राज्य का सपना देखता था, जिसमें सत्ता पूरी तरह विकेंद्रीकृत, लोग संगठित, जागरूक एवं आत्मानुशासित हों. साथ में इतने प्रबुद्ध और अनुशासित कि राज्य की आवश्यकता ही न रहे. राजकता यानी ‘बिना राजा का राज्य’ जैसी अवधारणा नई न होकर भी लोगों को असंभव जान पड़ती थी. शताब्दियों से शासित होते आए, राज्य के प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष दमन के अनुरूप अनुकूलन कर चुके लोगों का ऐसा विश्वास नामुमकिन भी नहीं था. इसलिए अराजकतावादी विचारधारा की ओर जनसाधारण का रुझान कम रहा. फिर मार्क्स के समर्थन में उसका विपुल लेखन था. ‘दि कैपीटल’ में उसने पूंजीवादी के शोषणकारी चरित्र और उसकी जटिल प्रविधियों की गहन विवेचना की थी. उसकी प्रखर मेधा से उसके आलोचक भी अचंभित थे. उसके दम पर मार्क्स को बकुनिन से कहीं अधिक प्रतिष्ठा मिली. दुनियाभर में साम्यवाद के प्रति जबरदस्त रुझान के बावजूद अपने उच्चादर्शी स्वप्न के बल पर अराजकतावाद बुद्धिजीवियों को लुभाता रहा. बीसवीं शताब्दी में लियोन ट्राट्स्की, पीटर क्रोप्टोकिन, एम्मा गोल्डमेन ने अपने प्रखर लेखन द्वारा इस विचारधारा को आगे लाते हुए उसको साम्यवाद का विकल्प सिद्ध करने की कोशिश की. समकालीन बुद्धिजीवियों में नाॅम चाॅमस्की इसके समर्थक विद्वान हैं. अराजकतावाद के अलावा समिष्टवाद, सहजीवितावाद, श्रमिकसंघवाद, संघवाद आदि दर्शन समाजवाद के विकल्प के रूप में आए. मार्क्सवाद की अपेक्षा इन्हें थोड़ा सकारात्मक माना जा सकता है तो इसलिए कि ये शिखर को कमजोर कर बराबरी करने का नहीं सोचते, बल्कि धरातल को इतनी सुदृद्धता और उठान देने का सपना पालते हैं कि बुर्जुआ सत्ताएं अपना तेज गंवा इतिहास की चीज बन जाएं.

बीसवीं शताब्दी के मध्याह्न तक दुनिया में जो साम्यवादीसमाजवादी राज्य गठित हुए उनकी कमजोरी थी कि वह इच्छाओं के चयन की प्रणाली पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. एकदलीय व्यवस्था में वहां लोककल्याण के नाम पर अल्पमत की इच्छाओं को थोपा जाता रहा है. इसको दलीय तानाशाही भी कहा जा सकता है. ऐसी व्यवस्था नागरिकों के बहुमुखी विकास को अवरुद्ध करती है. पूंजीवाद जनसाधारण को उपभोक्ता मानकर उनकी उपेक्षा करता है, दलगत तानाशाही उसको श्रमइकाई तक सीमित कर देती है. माओ के कथन, ‘सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है’—के पक्ष में ऐतिहासिक साक्ष्य हो सकते हैं, किंतु इतिहास इस बात का भी साक्षी है कि बलप्रयोग द्वारा समाज में वास्तविक परिवर्तन लाना सरासर असंभव है. उससे केवल मुखौटे बदले जा सकते हैं. एक को मारकर दूसरा गोलीबाज सत्ता पर सवार हो जाता है और समाज का ढांचा ज्यों का त्यों बना रहता है. ऐसे अतिकामी विचारों के महिमामंडन की चूक इतिहास भी करता आया है, इस कारण उसको ‘अभिजन वर्ग की कब्रगाह’ कहा गया है.

आज समाजवाद के लिहाज से देखा जाए तो पूरी दुनिया दो हिस्सों में बंटी मिलेगी. एक तरफ वे लोग हैं जो इसके पक्ष में हैं. इसे मनुष्यता का पर्याय और दुनिया में सुखशांति के लिए आवश्यक मानते हैं, जिनकी निगाह में समाजवाद मनुष्यता का सबसे रुपहला सपना, आदर्शतम व्यवस्था है—वे इसकी जरासी आलोचना सुनना नहीं चाहते. दूसरी ओर इसके विरोधी हैं जो इसे निठल्लों का दिवास्वप्न, आर्थिक पिछड़ेपन का प्रमुख कारण मानते हैं. जिन्हें यह शब्द कानों में गर्म सीसे की भांति उतरता हुआ महसूस होता है. जिनके अनुसार समाजवाद गरीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार, कामचोरी और अन्यान्य बुराइयों की जड़ है. जरूरी नहीं कि जो लोग समाजवाद के पक्ष में हैं वे उसे भलीभांति समझते हों. न ही पूंजीवाद के समर्थक उसको पूरी तरह जानने का दावा कर सकते हैं. फिर भी दुराग्रह की पराकाष्ठा देखिए कि एक जगह मिल बैठने, मनुष्यता के संकटों का सर्वसम्मत समाधान खोजने के बजाय वे अपनेअपने खेमे में अड़े हुए दिखाई देंगे. दोनों के बीच संवाद की स्थिति न के बराबर है. बातचीत के हालात बनें भी तो पूर्वाग्रह पीछा नहीं छोड़ते. माना जाता है कि समाजवाद ऐसी विचारधारा है जिसमें लोकेच्छा और लोकहित सर्वोपरि होता है. वह न तो दिमागों को कैद करती है, न लोगों की जुबान पर ताला डालने में भरोसा रहती है. और पूंजीवाद? समर्थकों की माने तो उसका संपूर्ण कारोबार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अवसरों की समानता के सिद्धांत पर टिका है. पूंजीवादी चाहता है कि प्रत्येक मनुष्य आत्मनिर्णय हेतु स्वतंत्र हो, तभी वह अपनी स्वतंत्रता का भोग कर सकेगा. अपनीअपनी तरह से समाजवाद और पूंजीवाद दोनों विकासोन्मुखी एवं मनुष्य के अधिकतम कल्याण को समर्पित होने का दावा करते हैं. लेकिन एकदूसरे की आलोचना, बुराइयों पर चर्चा करतेकरते वे खुद पटरी से उतर जाते हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नारे के साथ पूंजीवाद अपना कारोबार जमाता है. सुरक्षा के नाम पर कानून, पुलिस, उपभोक्ता अधिकार, मानवाधिकार जैसी विशालकाय और अतिव्ययी संस्थाएं खड़ी कर देता है. व्यक्तिस्वातंत्रय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बढ़चढ़कर प्रचार करता है. लेकिन समाजवाद को समझने की कोशिश से पहले ही वह मान लेता है कि उसके दुराग्रहों से पार पाना असंभव है. परस्पर संवाद की कमी से न तो समाजवादसमर्थक सौ टका समाजवादी बन पाता है, न पूंजीवाद समर्थक शतप्रतिशत पूंजीवादी. आमनेसामने की बातचीत के अभाव में एकदूसरे की खूबियोंखामियों को समझना, संशोधनविस्तार द्वारा लोककल्याण की राह प्रशस्त करना कठिन हो जाता है. इससे विचारधारा के नाम पर छल करने वालों की बन आती है. नेता समाजवाद के नाम पर राजनीति करने लगते हैं. उद्यमी एकाधिकारवादी रवैया अपना लेते हैं. नतीजन समाजवाद के नाम पर भ्रम पनपने लगते हंै, पूंजीवाद के बहाने लूट. विचारधारा के कार्यान्वन में ऐसे छल हर समाज में होते हैं. इन्हें केवल और केवल संवाद की निरंतरता से दूर किया जा सकता है. ऋग्वेद का एक संदेश यहां हमारा मार्गदर्शन कर सकता है.

आ नो भद्रा कृत्वो यन्तु विश्वतः!

श्रेष्ठ विचारों को हर दिशा से आने दो….

© ओमप्रकाश कश्यप

2012 in review

The WordPress.com stats helper monkeys prepared a 2012 annual report for this blog.

Here’s an excerpt:

4,329 films were submitted to the 2012 Cannes Film Festival. This blog had 14,000 views in 2012. If each view were a film, this blog would power 3 Film Festivals

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बालसाहित्य और विज्ञानलेखन

सर्वप्रथम यह जान लेना उचित होगा कि आखिर विज्ञान लेखन है, क्या? वह कौनसा गुण है जो कथित विज्ञान साहित्य को सामान्य साहित्य से अलग कर, उसे विशिष्ट पहचान देता है? और यह भी कि किसी साहित्य को विज्ञान साहित्य की कोटि में रखने की कसौटी क्या हो? क्या केवल वैज्ञानिक खोजों, उपकरणों, नियम, सिद्धांत, परिकल्पना, तकनीक, आविष्कारों, उपकरणों आदि को केंद्र में रखकर कथानक गढ़ लेना ही विज्ञान साहित्य है? यदि हां, तो क्या किसी भी निराधार परिकल्पना या आविष्कार को विज्ञान साहित्य का प्रस्थान बिंदु बनाया जा सकता है? क्या वैज्ञानिक तथ्य से परे भी विज्ञान साहित्य अथवा विज्ञान फंतासी की रचना संभव है? कुछ अन्य प्रश्न भी इसमें सम्मिलित हो सकते हैं. जैसे विज्ञान साहित्य की धारा को कितना और क्यों महत्त्व दिया जाए? जीवन में विज्ञान जितना जरूरी है, उतना तो बच्चे अपने पाठ्यक्रम के हिस्से के रूप में पढ़ते ही हैं. फिर अलग से विज्ञान साहित्य की जरूरत क्या है? यदि जरूरत है तो पाठ्य पुस्तकों में छपी विज्ञानपरक सामग्री तथा विज्ञान साहित्य के मध्य विभाजन रेखा क्या हो? एकदूसरे से अलग दिखनेवाले ये प्रश्न परस्पर संबद्ध है. यदि हम साहित्य के वैज्ञानिक पक्ष को जान लेते हैं तो इनकी आसंगता स्वयं दस्तक देने लगती है.

विज्ञान वस्तुतः एक खास दृष्टिबोध, विशिष्ट अध्ययन पद्धति है. वह व्यक्ति की प्रश्नाकुलता का समाधान करती और क्रमशः आगे बढ़ाती है. आसपास घट रही घटनाओं के मूल में जो कारण हैं, उनका क्रमबद्ध, विश्लेषणात्मक एवं तर्कसंगत बोध, जिसे प्रयोगों की कसौटी पर जांचापरखा जा सके—विज्ञान है. इन्हीं प्रयोगों, क्रमबद्ध ज्ञान की विभिन्न शैलियों, व्यक्ति की प्रश्नाकुलता और ज्ञानार्जन की ललक, उनके प्रभावों तथा निष्कर्षों की तार्किक, कल्पनात्मक एवं मनोरंजक प्रस्तुति विज्ञान साहित्य का उद्देश्य है. संक्षेप में विज्ञान साहित्य का लक्ष्य बच्चों के मनस् में विज्ञानबोध का विस्तार करना है, ताकि वे अपनी निकटवर्ती घटनाओं का अवलोकन वैज्ञानिक प्रबोधन के साथ कर सकें. लेकिन वैज्ञानिक खोजों, आविष्कारों का यथातथ्य विवरण विज्ञान साहित्य नहीं है. वह विज्ञान पत्रकारिता का विषय तो हो सकता है, विज्ञान साहित्य का नहीं. कोई रचना साहित्य की गरिमा तभी प्राप्त कर पाती है, जब उसमें समाज के बहुसंख्यक वर्ग के कल्याण की भावना जुड़ी हो. कहने का आशय है कि कोई भी नया शोध अथवा विचार, वैज्ञानिक कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरने के बावजूद, लोकोपकारी हुए बगैर विज्ञान साहित्य का हिस्सा नहीं बन सकता. यही क्षीण मगर सुस्पष्ट रेखा है जो विज्ञानपरक सामग्री एवं विज्ञान साहित्य को विभाजित करती है.

विज्ञान कथा को अंग्रेजी में ‘साइंस फेंटेसी’ अथवा ‘साइंस फिक्शन’ कहा जाता है. एक जैसे दिखने के बावजूद इन दोनों रूपों में पर्याप्त अंतर है. अंग्रेजी शब्द Fiction लैटिन मूल के शब्द Fictus से व्युत्पन्न है. जिसका अभिप्राय है—गढ़ना अथवा रूप देना. इस प्रकार कि पुराना रूप सिमटकर नए कलेवर में ढल जाए. फिक्शन को ‘किस्सा’ या ‘कहानी’ के पर्याय के रूप में भी देख सकते हैं. ‘विज्ञानकथा’ को ‘साइंस फिक्शन’ के हिंदी पर्याय के रूप में लेने का चलन है. इस तरह ‘विज्ञानकथा’ या ‘साइंस फिक्शन’ आमतौर पर ऐसे किस्से अथवा कहानी को कहा जाता है जो समाज पर विज्ञान के वास्तविक अथवा काल्पनिक प्रभाव से बने प्रसंग को कहन की शैली में व्यक्त करे तथा उसके पीछे अनिवार्यतः कोई न कोई वैज्ञानिक सिद्धांत हो. ‘साइंस फेंटेसी’ के हिंदी पर्याय के रूप में ‘विज्ञानगल्प’ शब्द प्रचलित है. Fantasy शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन मूल के शब्द Phantasia से हुई है. इसका शाब्दिक अर्थ है—‘कपोल कल्पना’ अथवा ‘कोरी कल्पना’. जब इसका उपयोग किसी दूरागत वैज्ञानिक परिकल्पना के रूप में किया जाता है, तब उसे ‘विज्ञानगल्प’ कहा जाता है. महान मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने कल्पना को ‘प्राथमिक कल्पना’ और ‘द्वितीयक कल्पना’ के रूप में वर्गीकृत किया है. उसके अनुसार प्राथमिक कल्पनाएं अवचेतन से स्वतः जन्म लेती हैं. जैसे किसी शिशु का नींद में मुस्कराना, पसंदीदा खिलौने को देखकर किलकारी मारना. खिलौने को देखते ही बालक की कल्पनाशक्ति अचानक विस्तार लेने लगती है. वह उसकी आंतरिक संरचना जानने को उत्सुक हो उठता है. यहां तक कि उसके साथ तोड़फोड़ भी करता है. द्वितीयक कल्पनाएं चाहे वे स्वयंस्फूर्त्त हों अथवा सायास, चैतन्य मन की अभिरचना होती हैं. ये प्रायः वयस्क व्यक्ति द्वारा रचनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में विस्तार पाती हैं. साहित्यिक रचना तथा दूसरी कला प्रस्तुतियां द्वितीयक कल्पना की देन कही जा सकती हैं. प्रख्यात डेनिश कथाकार हैंस एंडरसन ने बच्चों के लिए परीकथाएं लिखते समय अद्भुत कल्पनाओं की सृष्टि की थी. एच. जी. वेल्स की विज्ञान फंतासी ‘टाइम मशीन’ भी रचनात्मक कल्पना की देन है. तदनुसार ‘विज्ञानगल्प’ ऐसी काल्पनिक कहानी को कहा जा सकता है, जिसका यथार्थ से दूर का रिश्ता हो, मगर उसकी नींव किसी ज्ञात अथवा काल्पनिक वैज्ञानिक सिद्धांत या आविष्कार के ऊपर रखी जाए.

विज्ञानगल्प’ में लेखक घटनाओं, सिद्धांतों, नियमों अथवा अन्यान्य स्थितियों की मनचाही कल्पना करने को स्वतंत्र होता है, बशर्ते उन वैज्ञानिक नियमों, आविष्कारों की नींव किसी ज्ञात वैज्ञानिक नियम, सिद्धांत अथवा आविष्कार पर टिकी हो. फिर भले ही निकट भविष्य में उस परिकल्पना के सत्य होने की कोई संभावना न हो. यहां तक आतेआते ‘विज्ञानकथा’ और ‘विज्ञानगल्प’ का अंतर स्पष्ट होने लगता है. ‘विज्ञानकथा’ में आमतौर पर ज्ञात वैज्ञानिक तथ्य या आविष्कार तथा उसके काल्पनिक विस्तार का उपयोग किया जाता है. जबकि ‘विज्ञान फेंटेसी’ अथवा ‘विज्ञानगल्प’ में वैज्ञानिक सिद्धांत अथवा आष्विकार भी परिकल्पित अथवा अतिकल्पित हो सकता है. हालांकि विज्ञानसम्मत बने रहने के लिए आवश्यक है कि उसके मूल में कोई ज्ञात वैज्ञानिक खोज अथवा आविष्कार हो. ‘विज्ञानकथा’ की अपेक्षा ‘विज्ञानगल्प’ में लेखकीय उड़ान के लिए कहीं बड़ा अंतरिक्ष होता है. इससे विज्ञानगल्प के अपेक्षाकृत ज्यादा मनोरंजक होने की संभावना होती है. इस कारण बाल एवं किशोर साहित्य; यानी जहां सघन कल्पनाशीलता अपेक्षित हो—उसका अधिक प्रयोग होता है. उपन्यास जैसी अपेक्षाकृत लंबी रचना में मनोरंजन अनुपात को बनाए रखना चुनौतीपूर्ण होता है. अतः दक्ष विज्ञान कथाकार उपन्यास लेखन के लिए गल्पप्रधान किस्सागोई शैली को अपनाता है. इससे साहित्य और विज्ञान दोनों का उद्देश्य सध जाता है. विश्व के चर्चित विज्ञान उपन्यासों में अधिकांश ‘विज्ञानगल्प’ की श्रेणी में आते हैं.

विज्ञान लेखन की कसौटी उसका मजबूत सैद्धांतिक आधार है. चाहे वह विज्ञान कथा हो या गल्प, उसके मूल में किसी वैज्ञानिक सिद्धांत अथवा ऐसी परिकल्पना को होना चाहिए जिसका आधार जांचापरखा वैज्ञानिक सत्य हो. वैज्ञानिक तथ्यों को समझे बिना ‘विज्ञानकथा’ अथवा ‘विज्ञानगल्प’ का कोई औचित्य नहीं बन सकता. अक्सर यह देखा गया है कि विज्ञान के किसी आधुनिकतम उपकरण अथवा नई खोज को आधार बनाकर अतिउत्साही लेखक रचना गढ़ देते हैं. लेकिन विज्ञान साहित्य का दर्जा दिलाने के लिए जो स्थितियां गढ़ी जाती हैं, उनका वैज्ञानिक सिद्धांत अथवा परिकल्पना से कोई वास्ता नहीं होता. न ही लेखक अपनी रचना के माध्यम से ब्रह्मांड के किसी रहस्य के पीछे मौजूद वैज्ञानिक तथ्य का उद्घाटन करना चाहता है. वह उसकी कल्पना से उद्भूत तथा वहीं तक सीमित होता है. ऐसी अवस्था में पाठक को चमत्कार के अलावा और कुछ मिल ही नहीं पाता. यह चामत्कारिता परीकथाओं या जादूटोने के आधार पर रची गई रचनाओं जैसी ही अविवेकी एवं निरावलंबी होती है. ऐसी विज्ञान फंतासी उतना ही भ्रम फैलाती हैं, जितना कि गैर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर रची गई तंत्रमंत्र और जादूटोने की कहानियां. बल्कि कई बार तो उससे भी ज्यादा. इसलिए कि सामान्य परीकथाओं में संवेदनतत्त्व का प्राचुर्य होता है. जबकि तर्काधारित विज्ञानकथाएं किसी न किसी रूप में व्यक्ति के हाथों में विज्ञान की ताकत के आने का भरोसा जताती हैं. अयाचित ताकत की अनुभूति व्यक्ति की संवेदनशीलता एवं सामाजिकता को आहत करती है. ‘विज्ञानकथा’ अथवा ‘विज्ञानगल्प’ की रचना हेतु लेखक को विज्ञान के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पक्ष का ज्ञान अनिवार्य है. कोई रचना ‘विज्ञानकथा’ है अथवा ‘विज्ञानगल्प’, कई बार यह भेद कर पाना भी कठिन हो जाता है. असल में यह अंतर इतना बारीक है कि जब तक वैज्ञानिक नियमों, आविष्कारों तथा शोधक्षेत्रों का पर्याप्त ज्ञान न हो, अच्छे से अच्छे लेखकसमीक्षक के धोखा खाने की पूरी संभावना होती है.

पश्चिमी देशों में विज्ञान लेखन की नींव उनीसवीं शताब्दी में रखी जा चुकी थी. विज्ञान के पितामह कहे जाने फ्रांसिस बेकन ने सोलहवीं शताब्दी में ‘ज्ञान ही शक्ति है’ कहकर उसका स्वागत किया था. बहुत जल्दी ‘ज्ञान’ का आशय, विशेषरूप से उत्पादन के क्षेत्र में, विज्ञान से लिया जाने लगा. सरलीकरण के इस खतरे को वाल्तेयर ने तत्क्षण भांप लिया था. बेकन की आलोचना करते हुए उसने कहा था कि विज्ञान का अतिरेकी प्रयोग मनुष्यता के नए संकटों को जन्म देगा. वाल्तेयर के बाद इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करनेवाला रूसो था. अप्रगतिशील और प्रकृतिवादी कहे जाने का खतरा उठाकर भी अपने बहुचर्चित निबंध Discourse on the Arts and Sciences में उसने सबकुछ विज्ञान भरोसे छोड़ देने के रवैये की तीखी आलोचना की थी. इसके बावजूद हुआ वही जैसा वाल्तेयर तथा रूसो ने सोचा था. बीसवीं शताब्दी में आइंस्टाइन के ऊर्जा सिद्धांत के आधार पर निर्मित परमाणु बम से तो खतरा पूरी तरह सामने आ गया. आइंस्टाइन ने ही सिद्ध किया था कि भारी परमाणु के नाभिक को न्यूट्रान कणों की बौछार द्वारा विखंडित किया जा सकता है. इससे असीमित ऊर्जा की प्राप्ति होती है. इस असाधारण खोज ने परमाणु बम को जन्म दिया. उसके पीछे था मरनेमारने का सामंती संस्कार. अकेला बम दुनिया की एकतिहाई आबादी को एक झटके में खत्म कर सकता है. माया कलेंडर की भांति यह डर भी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए पर्याप्त सिद्ध हुआ. भय के मनोविज्ञान ने उसको व्यापक लोकप्रसिद्धि प्रदान की. प्रकारांतर में उसने दार्शनिकों, वैज्ञानिकों समेत पूरे बुद्धिजीवी समाज को इतनी गहराई से प्रभावित किया कि विज्ञान बुद्धिजीवी वर्ग का नया धर्म बन गया. लोग उसके विरोध में कुछ भी कहनेसुनने को तैयार न थे. जबकि मनुष्यता के हित में उससे अधिक लोकोपकारी आविष्कार पेनसिलिन का था, जिसका आविष्कारक फ्लेंमिंग था. एडबर्ड जेनर द्वारा की गई वैक्सीन की खोज भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण और कल्याणकारी थी. फिर भी आइंस्टाइन को इन दोनों से कहीं अधिक ख्याति मिली. खूबसूरतरोमांचक परीकथा जितनी लोकप्रियता पा चुके आपेक्षिकता के सिद्धांत के आगे विज्ञान के सारे आविष्कार आभाहीन होकर रह गए. मनुष्यता के लिए कल्याणकारी आविष्कारक और भी कई हुए, परंतु उनमें से एक भी आइंस्टाइन की ख्याति के आसपास न पहुंच सका.

अपनी बौद्धिकता और कल्पना की बहुआयामी उड़ान के बावजूूद आपेक्षिकता का सिद्धांत इतना गूढ़ है कि उसे बालसाहित्य में सीधे ढालना आसान नहीं है. मगर आइंस्टाइन के शोध से उपजी एक विचित्रसी कल्पना ने बालसाहित्य की समृद्धि का मानो दरवाजा ही खोल दिया. आइंस्टाइन ने सिद्ध किया था कि समय भी यात्रा का आनंद लेता है. उसका वेग भी अच्छाखासा यानी प्रकाशवेग के बराबर होता है. अभी तक यह माना जा रहा था कि गुजरा हुआ वक्त कभी वापस नहीं आता. आइंस्टाइन ने गणितीय आधार पर सिद्ध किया था कि समय को वापस भी दौड़ाया जा सकता है. यह प्रयोगसिद्ध परिकल्पना थी, जो सुननेसुनाने में परीकथाओं जितना आनंद देती थी. शायद उससे भी अधिक. क्योंकि समय को यात्रा करते देखने या समय में यात्रा करने का रोमांच घिसीपिटी परीकथाओं से कहीं बढ़कर था. इस परिकल्पना का एक और रोमांचक पहलू था, समय के सिकुड़ने का विचार. आइंस्टाइन के पूर्ववर्ती मानते थे कि समय स्थिर वेग से आगे बढ़ता है. सूक्ष्म गणनाओं के आधार पर वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि अति उच्च वेगों का असर समय पर भी पड़ता है. विशिष्ट परिस्थितियों में समय को भी लगाम लग जाती है. समय में यात्रा जैसी अविश्वसनीय परिकल्पना ने मनुष्य के लिए अंतरिक्ष के दरवाजे खोल दिए. गणित की विश्वसनीयता के साथ प्रस्तुत इस परिकल्पना और तत्संबंधी प्रयोगों ने अनेक विश्वप्रसिद्ध विज्ञानकथाओं को मसाला दिया, जिसे राइटबंधुओं द्वारा आविष्कृत वायुयान से मजबूत आधार मिला. अंतरिक्ष जो अभी तक महज कल्पना की वस्तु था, जहां उड़ान भरते पक्षियों को देख इंसान की आंखों में मुक्ताकाश में तैरने के सपने कौंधने लगते थे, वहां अब वह स्वयं आजा सकता था. अंतरिक्षयात्रा को लेकर उपन्यासलेखन का सिलसिला तो आइंस्टाइन और राइट बंधुओं से पहले ही आरंभ हो चुका था. अब इन विषयों पर अधिक यथार्थवादी कौशल से लिख पाना संभव था.

सवाल है कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक विज्ञान साहित्य ने जो दिशा पकड़ी, क्या वह साहित्यिक दृष्टि से भी समीचीन थी? इसमें कोई दो राय नहीं कि बीसवीं शताब्दी के आरंभ में विज्ञान लेखन में तेजी आई. बालसाहित्य को अनेक सुंदर और मौलिक कृतियां इस कालखंड में प्राप्त हुईं. वह दौर उन्नत सामाजिक चेतना का था, मनुष्यता दो विश्वयुद्धों के घाव चुकी थी, अतः साहित्यकारों के लिए यह संभव ही नहीं था कि उसकी उपेक्षा कर सकें. इसलिए उस दौर के साहित्यकार जहां एक ओर बालसाहित्य को कल्पनाधारित मौलिक, मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक कृतियां उपलब्ध कर रहे थे, दूसरी ओर वाल्तेयर और रूसो की चेतावनी भी उन्हें याद थी. अपनी कृतियों के माध्यम से वे समाज को सावधान भी कर रहे थे. कह सकते हैं कि सावधानी और सजगता विज्ञान साहित्य के आरंभिक दौर से ही उसके साथ जुड़ चुकी थीं. विज्ञान साहित्य की शुरुआत का श्रेय लेने वाली मेरी शैली से लेकर इसाक अमीसोव(रोबोट, 1950), आर्थर सी. क्लार्क (ए स्पेस आडिसी, 1968), राबर्ट हीलीन(राकेट शिप गैलीलिया, 1947, डबल स्टार, 1956 तथा स्ट्रेंजर इन ए स्ट्रेंज लेंड, 1961) सभी ने विज्ञान के दुरुपयोग की संभावनाओं को ध्यान में रखा. मेरी शैली ने अपनी औपन्यासिक कृति ‘फ्रेंकिस्टीन’(1818) में दो मृत शरीरों की हड्डियों से बने एक प्राणी की कल्पना की थी. वह जीव प्रारंभ में भोलाभाला था. धीरेधीरे उसमें नकारात्मक चरित्र उभरे और उसने अपने जन्मदाता वैज्ञानिक को ही खा लिया. उपन्यास विज्ञान के दुरुपयोग की संभावना से जन्मे डर को सामने लाता था.

हिंदी में आरंभिक ‘विज्ञानकथा’ लेखन अंग्रेजी से प्रभावित था. औपनिवेशिक भारत में यह स्वाभाविक भी था. हिंदी की पहली विज्ञानकथा अंबिकादत्त व्यास की ‘आश्चर्य वृतांत’ मानी जाती है, जो उन्हीं के समाचारपत्र ‘पीयूष प्रवाह’ में धारावाहिक रूप में 1884 से 1888 के बीच प्रकाशित हुई थी. उसके बाद बाबू केशवप्रसाद सिंह की विज्ञानकथा ‘चंद्रलोक की यात्रा’ सरस्वती के भाग 1, संख्या 6 सन 1900 में प्रकाशित हुई. संयोग है कि वे दोनों ही कहानियां जूल बर्न के उपन्यासों पर आधारित थीं. अंबिकादत्त व्यास ने अपनी कहानी के लिए मूल कथानक ‘ए जर्नी टू सेंटर आफ दि अर्थ’ से लिया था. केशवप्रसाद सिंह की कहानी भी बर्न के उपन्यास ‘फाइव वीक इन बैलून’ से प्रभावित थी. इन कहानियों ने हिंदी के पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा. उनमें विज्ञानकथा पढ़ने की ललक बढ़ी. आरंभिक दौर में विज्ञान कथा श्रेणी में हिंदी में प्रकाशित ये कहानियां पाठकों द्वारा खूब सराही गईं. इन्होंने हिंदी पाठकों का परिचय नए साहित्यिक आस्वाद से कराया. जो कालांतर में हिंदी विज्ञान साहित्य के विकास का आधार बना. इसके बावजूद इन्हें हिंदी की मौलिक विज्ञानकथा नहीं कहा जा सकता. इन रचनाओं में मौलिकता का अभाव था. यही स्थिति देर तक बनी रही. हिंदी में विज्ञानसाहित्य के अभाव का महत्त्वपूर्ण कारण बालसाहित्य के प्रति बड़े साहित्यकारों में अनपेक्षित उदासीनता भी थी. अधिकांश प्रतिष्ठित लेखक बालसाहित्य को दोयम दर्जे का मानते थे. यहां तक कि बालसाहित्यकार कहलवाने से भी वे बचते थे. एक अन्य कारण था लेखकों और पाठकों में वैज्ञानिक चेतना की कमी तथा जानकारी का अभाव. जो विद्वान विज्ञान में पारंगत थे, वे लेखकीय कौशल के कमी के चलते इस अभाव की पूर्ति करने में अक्षम थे.

हिंदी की प्रथम मौलिक विज्ञानकथा का श्रेय सत्यदेव परिव्राजक की विज्ञानकथा ‘आश्चर्यजनक घंटी’ को प्राप्त है. बाद के विज्ञान कथाकारों में दुर्गाप्रसाद खत्री, राहुल सांकृत्यायन, डा. संपूर्णानंद, आचार्य चतुरसेन, कृश्न चंदर, डा. ब्रजमोहन गुप्त, लाला श्रीनिवास दास, राजेश्वर प्रसाद सिंह आदि के नाम उल्लेखनीय हैं. इस तरह हिंदी विज्ञान साहित्य का इतिहास कहानी साहित्य जितना ही पुराना है. हालांकि यह मानना पड़ेगा कि एक शताब्दी से ऊपर की इस विकासयात्रा में हिंदी विज्ञान साहित्य का जितना विस्तार अपेक्षित था, उतना नहीं हो पाया. इसका एक कारण संभवतः यह भी हो सकता है कि हिंदी के अधिकांश साहित्यकार गैरवैज्ञानिक शैक्षिक पृष्ठभूमि से आए थे. फिर उनके सामने चुनौतियां भी अनेक थीं. सबसे पहली चुनौती थी, विज्ञान कथा की स्पष्ट अवधारणा का अभाव. उस समय तक शिक्षा और साहित्य का प्रथम उद्देश्य था—बच्चों को भारतीय संस्कृति से परचाना. उन्हें धार्मिक और नैतिक शिक्षा देना. नैतिक शिक्षा को भी सीमित अर्थों में लिया जाता था. धार्मिक ग्रंथों, महापुरुषों के वक्तव्य तथा उनके जीवन चरित्र को नैतिक शिक्षा का प्रमुख स्रोत माना जाता है. धर्म के बगैर भी नैतिक शिक्षा दी जा सकती, यह कोई मानने के लिए तैयार न था. बालकों के मौलिक सोच, तर्कशीलता, मौलिक ज्ञान एवं प्रश्नाकुलता को सिरे चढ़ाने वाले साहित्य का पूरी तरह अभाव था. विज्ञान के बारे में बालक पाठशाला में जो कुछ पढ़ता था, वह केवल उसके शिक्षासदन तक ही सीमित रहता था. घरसमाज में विज्ञान के उपयोग, परिवेश में उसकी व्याप्ति के बारे में समझानेवाला कोई न था. परिवार में बालक की हैसियत परावलंबी प्राणी के रूप में बनी थी. घर पहुंचकर अपनों के बीच यदि वह वैज्ञानिक प्रयोगों को दोहराना चाहे तो प्रोत्साहन की संभावना बहुत कम थी. संक्षेप में कहें तो विज्ञान और उसके साथ विज्ञानलेखन की स्थिति पूरी तरह डांवाडोल थी. भारतीय समाज में वैज्ञानिक बोध के प्रति उदासीनता तब थी जबकि प्रथम वैज्ञानिक क्रांति को हुए चार शताब्दियां गुजर चुकी थीं. आजादी के बाद हिंदी विज्ञान साहित्य की स्थिति में सुधार आया है. तथापि मौलिक सोच और स्तरीय रचनाओं की आज भी कमी है.

एक प्रश्न रहरह दिमाग में कौंधता है. आखिर वह कौनसा गुण है, जो किसी रचना को विज्ञान कथा या वैज्ञानिक साहित्य का रूप देता है. विज्ञान गल्प के नाम पर हिंदी में बच्चों के लिए जो रचनाएं लिखी जाती हैं, वे कितनी वैज्ञानिक हैं? क्या सिर्फ उपग्रह, स्पेस शटल, अंतरिक्ष यात्रा या ऐसे ही किसी काल्पनिक अथवा वास्तविक ग्रह, उपग्रह के यात्रारोमांच को लेकर बुने गए कथानक को विज्ञान साहित्य माना जा सकता है? क्या अच्छे और बुरे का द्वंद्व विज्ञान साहित्य में भी अपरिहार्य है? कई बार लगता है कि हिंदी के विज्ञान साहित्य लेखक विज्ञान और वैज्ञानिकता में अंतर नहीं कर पाते. विज्ञान साहित्यलेखन के लिए गहरे विज्ञानबोध की आवश्यकता होती है. उन्नत विज्ञानबोध के साथ विज्ञान का कामचलाऊ ज्ञान हो तो भी निभ सकता है. वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न लेखक अपने परिवेश से ही ऐसे अनेक विषय खोज सकता है जो बालक के विज्ञान के प्रति रुचि तथा प्रश्नाकुलता को बढ़ाने में सहायक हों. तदनुसार विज्ञान साहित्य ऐसा साहित्य है जिससे किसी वैज्ञानिक सिद्धांत की पुष्टि होती हो; अथवा जो किसी वैज्ञानिक आविष्कार को लेकर तार्किक दृष्टिकोण से लिखा गया हो. उसमें या तो ज्ञात वैज्ञानिक सिद्धांत की विवेचना, उसके अनुप्रयोग की प्रामाणिक जानकारी हो अथवा तत्संबंधी आविष्कारों की परिकल्पना हो. विज्ञान गल्प को सार्थक बनाने लिए आवश्यक है कि उसके लेखक को वैज्ञानिक शोधों तथा प्रविधियों की भरपूर जानकारी हो. उसकी कल्पनाशक्ति प्रखर हो, ताकि वह वैज्ञानिक सिद्धांत जिसके आधार पर वह अपनी रचना को गढ़ना चाहता है, के विकास की संभावनाओं की कल्पना कर सके. यदि ऐसा नहीं है तो विज्ञान कथा कोरी फंतासी बनकर रह जाएगी. ऐसी फंतासी किसी मायावी परीकथा जितनी ही हानिकर सिद्ध हो सकती है. एक रचनाकार का यह भी दायित्व है कि वह प्रचलित वैज्ञानिक नियमों के पक्षविपक्ष को भलीभांति परखे. उनकी ओर संकेत करे.

निर्विवाद सत्य है कि समाज को रूढ़ियों, जादूटोने, भूतप्रेत आदि के मकड़जाल से बाहर रखने में पिछली कुछ शताब्दियों से विज्ञान की बहुत बड़ी भूमिका रही है. विज्ञान के कारण ही देश अनेक आपदाओं तथा जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न खाद्यान्न समस्याओं का सामना करने में सफल रहा है. अनेक महामारियों से समाज को बचाने का श्रेय भी विज्ञान को ही जाता है. ‘श्वेत क्रांति’, ‘हरित क्रांति’ जैसी अनेक उत्पादन क्रांतियां विज्ञान के दम पर ही संभव हो सकी हैं. मगर बीते वर्षों में संचार माध्यमों और बाजार ने विज्ञान को ‘आधुनिकता का धर्म’ की भांति समाज में प्रसारित किया है. लोगों को बताया जाता रहा है कि विज्ञान के विकास की दिशा स्वाभाविक है. जिन क्षेत्रों में उसका विस्तार हुआ है, वही होना भी चाहिए था. जबकि ऐसा नहीं है. बाजार पर दम पर फलनेफूलने वाले समाचारपत्रपत्रिकाएं निहित स्वार्थ के लिए मानव समाज को उपभोक्ता समाज में ढालने की कोशिश करते रहते हैं. वे व्यक्ति के सोच को भी अपने स्वार्थानुरूप अनकूलित करते रहते हैं. पढ़ेलिखे युवाओं से लेकर साहित्यकार, बुद्धिजीवी तक उनकी बातों में आ जाते हैं. इससे विज्ञान पर अंकुश रखने, लोककल्याण के लक्ष्य के साथ उसके शोध क्षेत्रों के नियमन की बात कभी ध्यान में ही नहीं आ पाती. उदाहरण के लिए बीसवीं शताब्दी के विज्ञान की तह में जाकर देख लीजिए. उसका विकास उन क्षेत्रों में कई गुना हुआ, जिससे पूंजीपतियों को लाभ कमाने का अवसर मिलता हो, उनका एकाधिकार पुष्ट होता हो. गांव में बोझा ढोने वाली मशीन हो या शहरी सड़कों पर दिखने वाला रिक्शा. उनमें प्रयुक्त तकनीक में पिछले पचास वर्षांे में कोई बदलाव नहीं आया है. जबकि कार, फ्रिज, मोटर साइकिल, टेलीविजन, कंप्यूटर, मोबाइल जैसी उपभोक्ता वस्तुओं के हर साल दर्जनों नए माडल बाजार में उतार दिए जाते हैं. हालांकि यह कहना ज्यादती होगी कि ऐसा केवल साहित्यकारों के विज्ञान के प्रति अतिरेकी आग्रह अथवा उनके अनुप्रयोग की ओर से आंखें मूंद लेने के कारण हुआ है. मगर यह भी कटु सत्य है कि समाजविज्ञानियों और साहित्यकर्मियों द्वारा विज्ञान के मनमाने व्यावसायिक अनुप्रयोग का जैसा रचनात्मक विरोध होना चाहिए था, वैसा नहीं हो पाया है. फ्रांसिसी बेकन का मानना था कि विज्ञान मनुष्य को जानलेवा कष्ट से मुक्ति दिलाएगा. आरंभिक आविष्कार इसकी पुष्टि भी करते थे. जेम्सवाट ने भाप का इंजन बनाया तो सबसे पहले उसका उपयोग कोयला खानों से पानी निकालने के लिए किया गया, जिससे हर साल सैकड़ों मजदूरों की जान जाती थी. विज्ञान साहित्य का अभीष्ट भी यही था कि वह विज्ञान के कल्याणकारी अनुप्रयोगों की ओर बुद्धिजीवियोंवैज्ञानिकों का ध्यानाकर्षित करे तथा उनके समर्थन में खड़ा नजर आए. लेकिन विज्ञान लेखन को फैशन की तरह लेने वाले लेखकों से इस मामले में चूक हुई. श्रद्धातिरेक में उन्होंने विज्ञानलेखन को भी धर्म बना लिया. प्रौद्योगिकी प्रदत्त सुविधाओं के जोश में वे भूल गए कि विज्ञान को मर्यादित करने की आवश्यकता आज पहले से कहीं अधिक है. अपने लेखन को संपूर्ण मनुष्यता के लिए कल्याणकारी मानने वाले साहित्यकारों का क्या यह दायित्व नहीं कि वे ऐसा सपना देखें जिनमें विज्ञान और तकनीक के जरिये देश के उपेक्षित वर्गों के कल्याण के बारे में सोचा गया हो! लोगों को बताएं कि मात्र प्रयोगशाला में जांचापरखा गया सत्य ही सत्य नहीं होता. ‘अहिंसा परमो धर्म’ परमकल्याणक सत्य का प्रतीक है. समाज में शांतिव्यवस्था बनाने रखने के लिए उसका अनुसरण अपरिहार्य है. हालांकि अन्य नैतिक सत्यों की भांति इसे भी किसी तर्क अथवा प्रयोगशाला द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सकता. विज्ञान ऐसे विषयों पर भले विचार न कर पाए, मगर साहित्य अनुभूत सत्य को भी प्रयोगशाला में खरे उतरे विज्ञान जितनी अहमियत देता है. विज्ञान तथा उसके अनुप्रयोग को लेकर नैतिक दृष्टि साहित्य में होगी, तभी तो विज्ञान में आएगी. कोरी वैज्ञानिक दृष्टि आइंस्टाइन के सापेक्षिकता के सिद्धांत से परमाणु बम ही बनवा सकती है.

मुझे दुख होता है जब देखता हूं कि विज्ञान सम्मत लिखने के फेर में कुछ साहित्यकार साहित्य के मर्म को ही भुला देते हैं. ऐसे में यदि उनका विज्ञानबोध भी आधाअधूरा हो तो विज्ञान कथा या गल्प की श्रेणी में लिखी गई रचना भी तंत्रमंत्र और जादूमंतर जैसी बे सिरपैर की कल्पना बन जाती है. कुछ कथित विज्ञानकथाओं में दिखाया जाता है कि नायक या प्रतिनायक के हाथों में ऐसा टार्च है जिससे नीली रोशनी निकलती है. वह रोशनी धातु की मोटी पर्त को भी पिघला देती है. ‘नीली रोशनी’ संबोधन ‘पराबैंगनीं तरंगों’ की तर्ज पर गढ़ा गया है. वे अतिलघु तरंगदैघ्र्य की अदृश्य किरणें होती हैं, जिन्हें स्पेक्ट्रम पैमाने पर नीले अथवा बैंगनी रंग से निचली ओर दर्शाया जाता है. दृश्य बैंगनी प्रकाश की किरणों की तरंगदैघ्र्य से भी अतिलघु होने के उन्हें ‘अल्ट्रावायलेट’ कहा जाता है. इस तथ्य से अनजान हमारे विज्ञान लेखक धड़ल्ले से नीली रोशनी का शब्द का प्रयोग भेदक किरणों के लिए करते हैं. मेरी दृष्टि में नीली किरणें फैंकने वाली टार्च और जादू के बटुए या जादुई छड़ी में उस समय तक कोई अंतर नहीं है, जब तक विज्ञान लेखक अपनी रचना में वर्णित वैज्ञानिक सत्य की ओर स्पष्ट संकेत नहीं करता. आप कहेंगे कि इससे रचना बोझिल हो जाएगी. पठनीयता बाधित होगी. तो मैं कहना चाहूंगा कि पठनीयता और विज्ञान की कसौटी दोनों का निर्वाह करना ही विज्ञान लेखक की सबसे बड़ी चुनौती होती है. इसलिए वैज्ञानिक कथाकार पूरी दुनिया में कम हुए हैं. साहित्यकार का काम वैज्ञानिक तथ्यों का सामान्यीकरण कर उनके और बालमन के बीच तालमेल बैठाने है. वह बालक को अपने आसपास की घटनाओं से जोड़ने की जिम्मेदारी निभाता है, ताकि उसकी जिज्ञासा बलवती हो. उसमें कुछ सीखने की ललक पैदा हो. विज्ञान को ताकत का पर्याय न मान पाए इसलिए वह बारबार इस तथ्य को समाज के बीच लाता है कि मनुष्यत्व की रक्षा संवेदना की सुरक्षा में है. संवेदनरहित फंतासी हमें निःसंवेद रोबोटों की दुनिया में ले जाएगी. साररूप में कहूं तो साहित्य का काम विज्ञान को दिशा देना है, न कि उसको अपनी दृष्टि बनाकर उसके अनुशासन में स्वयं को ढाल लेना. साहित्य अपने आपमें संपूर्ण शब्द है. तर्कसम्मत होना उसका गुण है. किसी रचना में साहित्यत्व की मौजूदगी ही प्रमाण है कि उसमें पर्याप्त विज्ञानबोध है.

© ओमप्रकाश कश्यप

opkaashyap@gmail.com

2011 in review

The WordPress.com stats helper monkeys prepared a 2011 annual report for this blog.

Here’s an excerpt:

A New York City subway train holds 1,200 people. This blog was viewed about 7,300 times in 2011. If it were a NYC subway train, it would take about 6 trips to carry that many people.

Click here to see the complete report.

अर्नेस्टो चे ग्वेरा : अप्रतिम क्रांतियोद्धा

विश्व के जिन गिने-चुने देशों में साम्यवाद आज भी अपनी मजबूत पकड़ बनाए हुए है, उनमें चीन, लाओस, वियतनाम, उत्तरी कोरिया के अलावा क्यूबा का नाम आता है. 26 जुलाई 1953 से दिसंबर 1956 तक चली क्यूबा जनक्रांति ने तानाशाह सम्राट फल्जेंसियो बतिस्ता को पदच्युत कर, फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में जनवादी सरकार स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी. उसके बाद ही 1961 में वह एक साम्यवादी देश बन सका. क्यूबा क्रांति में फिदेल ने एक वीर और दूरदर्शी सेनापति की भूमिका निभाई थी, जो अपने राष्ट्र की जनभावनाओं को समझते हुए शत्रु को परास्त करने की कुशल रणनीति बनाता तथा अंततः लोकोन्मुखी शासन-व्यवस्था द्वारा समाजार्थिक परिवर्तनों को गति प्रदान करता है. लेकिन क्यूबा समेत पूरे लातीनी अमेरिकी देशों में जनक्रांति का वातावरण तैयार करने, सेनापति कास्त्रो के कंधे से कंधा मिलाकर अग्रणी भूमिका निभाने, बाद में लोगों की अपेक्षा के अनुरूप परिवर्तनों को गति देने का जो अनूठा कार्य अर्नेस्तो चे ग्वेरा ने किया, उसका उदाहरण दुर्लभ है. चे की लोकप्रियता का इससे बड़ा प्रमाण भला और क्या हो सकता है कि जिस अमेरिकी साम्राज्यवाद से वह आजन्म जूझता रहा, उसी की कंपनियां चे की बेशुमार लोकप्रियता को भुनाने के लिए बनियान, अंडरवीयर, चश्मे आदि उपभोक्ता साम्रगी की बड़ी रेंज उसके नाम से बाजार में उतारती रहती हैं. चे ग्वेरा ग्राम्शी जैसा प्रतिभाशाली तो न था, किंतु उसको प्रसिद्धि फिदेल कास्त्रो से कहीं अधिक मिली. यही कारण है कि प्रसिद्ध ‘टाइम’ पत्रिका द्वारा चे को बीसवीं शताब्दी की दुनिया-भर की पचीस सबसे लोकप्रिय प्रतिभाओं में सम्मिलित किया गया है. बाकी प्रतिभाओं में अब्राहम लिंकन, महात्मा गांधी, नेलसन मंडेला आदि अनेक नेता सम्मिलित हैं.

उसका पूरा नाम था अर्नेस्तो चे ग्वेरा. लेकिन उसके चाहने वाले उसको केवल ‘चे’ नाम से पुकारते थे. अपनापन जताने के लिए बोले जाने वाले इस नन्हे से शब्द का अर्थ है—‘हमारा’, हमारा अपना. अत्यंत घनिष्टता और आत्मीयता से भरा है यह संबोधन. अपने साथियों में चे इसी नाम से ख्यात था. उसका जन्म 14 जून, 1928 को अर्जेंटीना के रोसारियो नामक स्थान पर हुआ था. पिता थे अर्नेस्टो ग्वेरा लिंच. मां का नाम था—सीलिया दे ला सेरना ये लोसा. कुछ विद्वानों के अनुसार अर्नेस्टो की वास्तविक जन्मतिथि 14 मई, 1928 थी. इस तथ्य को छिपाने के लिए कि विवाह के समय अर्नेस्टो की मां गर्भवती थी, उसके जन्म की तिथि को बाद में एक महीना आगे खिसका दिया गया था. चे अपने माता-पिता की पांच संतान में सबसे बड़ा था. माता-पिता दोनों का ही संबंध अर्जेंटीना के प्रतिष्ठित घरानों से था. पिता आइरिश मूल के थे, जबकि मां का संबंध स्पेन के नामी परिवार से था. उनका परिवार कभी अर्जेंटाइना के धनाढ्य परिवारों में गिना जाता था, लेकिन अर्नेस्टो के जन्म के समय उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर पड़ चुकी थी. तो भी उनके आदर्श तथा प्रतिबद्धताएं पूर्ववत थीं. अर्नेस्टो के पिता स्पेन की जनक्रांति के प्रबल समर्थक थे. क्रांतिकारी विचारधारा से ओतप्रोत परिवार में अर्नेस्टो को बचपन से ही गरीबों के प्रति हमदर्दी का संस्कार मिला. तीन चीजें मानो उसे उपहार में प्राप्त हुईं. पहली उसका उग्र, जिद्दी और चंचल स्वभाव, दूसरा दमे का रोग और तीसरी उत्कट जिजीविषा. अर्नेस्टो के पिता बेटे के उग्र स्वभाव पर गर्व जताते हुए कभी-कभी कह देते थे—‘लोग यह बात अच्छी तरह जान लें कि मेरे बेटे की शिराओं में आइरिश विद्रोही का लहू दौड़ता है.’ मां सीलिया स्त्री-स्वातंत्र्य और समाजवादी विचारधारा की समर्थक थी. अर्नेस्टो ने पिता से विद्रोही स्वर लिया और मां से समाजवादी, स्त्री-स्वातंत्र्यवादी प्रेरणाएं. लेकिन बचपन में जो कुछ सहा वह एकदम आसान नहीं था. मौत से संघर्ष की प्रेरणा उसको अपनी ही जिंदगी से मिली थी. शिशु अर्नेस्टो मात्र 40 दिन का था, जब उसको निमोनिया ने आ घेरा, जिससे वह मरते-मरते बचा. वह केवल दो वर्ष का था जब मई, 2 1930 को उसे दमा के पहले हमले का सामना करना पड़ा. अगले तीन वर्ष तो दमा मानो उसकी छाती पर सवार रहा. लगभग हर रोज दौरा, हर रोज मौत की ललकार सुनना, अपने जीवट के दम पर मौत को पछाड़ना. छापामार युद्ध का प्रारंभिक प्रशिक्षण उसको मानो मौत से मिला. माता-पिता अबोध अर्नेस्टो की हालत पर दुखी होते. पर बेबसी में कुछ कर न पाते थे. डा॓क्टरों की सलाह पर वे यहां से वहां यात्राएं करते. बार-बार स्थान बदलते. शायद कहीं पर बालक अर्नेस्टो को आराम मिले. लगातार उपचार कराते. एक के बाद एक स्थान बदलते हुए अंततः कुछ सफलता मिली. कोरडोबा नगर के पास एक छोटा कस्बा था, अल्टा ग्रेशिया. वहां की शुष्क जलवायु के बीच अर्नेस्टो को कुछ राहत मिली. माता-पिता की देखभाल और स्नेह-समर्पण भी काम आया. दमा पूरा शांत तो नहीं हुआ, पर उसका प्रकोप अवश्य घट गया. यही वह समय था जब उसको अपनी मां को निकटता से समझने का अवसर मिला. कमजोर होने के कारण उसके लिए पाठशाला जाना तो संभव नहीं था. मां ही उसको घर पर पढ़ाती थी. मां के अलावा और जो अर्नेस्टो की साथी बनीं, वे थीं पुस्तकें. घर में समाजवादी विचारधारा की पुस्तकें आती थीं. मां स्वयं विदुषी थी. पिता तो व्यापार के सिलसिले में अक्सर बाहर रहते थे. बेटे की छाती को सहलाते-सहलाते हुए मां सीलिया रात को उसके बिस्तर पर ही सो जाती थी. अर्नेस्टो ने अपने एकांत को पुस्तकों से समृद्ध करना आरंभ कर दिया. अल्टा ग्रेशिया की जलवायु अर्नेस्टो के स्वास्थ्य के लिए इतनी अनुकूल सिद्ध हुई कि उसके माता-पिता को उसको छोड़कर जाना संभव ही नहीं हो पाया. उसके बचपन का बड़ा हिस्सा उसी कस्बे में बीता. यहीं रहकर पिता ने अपने व्यापार को संभाला. मां ने स्वयं को अपने बच्चों की देखभाल के प्रति समर्पित कर अच्छी मां सिद्ध किया. अर्नेस्टो ने अपने भाई-बहनों के साथ यहां रहते हुए जो शांतिमय और स्नेह से भरपूर जीवन बिताया, वह उसके आगे सक्रिय जीवनकाल में कभी संभव न हो सका. अपने लक्ष्य को समर्पित चे ने निजी सुख के बारे में कभी सोचा भी नहीं.

बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्ष अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद स्वास्थ्यकारी सिद्ध हुए. 1913 के आसपास प्रतिव्यक्ति आय के मामले में ऊपर से वह तेरहवें स्थान पर था. यहां तक कि फ्रांस भी उससे पीछे था. लेकिन असल चुनौती अभी बाकी थी. बीसवीं शताब्दी के दूसरे वर्ष में अर्जेंटाइना की अर्थव्यवस्था में अचानक भारी बदलाव आया. वहां की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार मांस और गेहूं का निर्यात था. वैश्विक मंदी ने अचानक इन उत्पादों के मूल्य को जमीन पर ला दिया. 1926 से 1932 के बीच इन उत्पादों के दाम गिरकर लगभग आधे रह गए. इसका परिणाम यह हुआ कि कृषि क्षेत्र में बेरोजगारी से घिर गया. इसका प्रभाव दूसरे उद्योगों पर भी पड़ा. उद्योग-धंधे तबाह होने लगे. बेरोजगारी के मारे लोग गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन करने लगे. तब उन्हें एहसास हुआ कि शहरों में रहने वाले उनसे कितनी नफरत करते थे. अपने ही देश के लोग. जिनसे वे उम्मीद लगाए थे कि मंदी के दिनों में मदद करेंगे, संकट के समय काम आएंगे, सब अपने स्वार्थ में सिमटे हुए थे. अपनी चमक-दमक पर गर्व करने वाले अपने शहरी बंधु-बांधवों से गांव से आए लोगों को नफरत ही मिली. लेकिन नफरत भूख से तो बड़ी नहीं थी. मजबूरियों से भी बड़ी नहीं थी. रोजगार के लिए गांव छोड़कर शहर पहंुचे ये लोग आसपास के इलाकों में बसने लगे. कुछ ही वर्षों में उनकी बस्तियां बड़ी हो गईं. संख्याबल के आधार पर वे अच्छी ताकत बटोरने लगे. अर्नेस्टो उस समय मात्र पांच वर्ष का था. उसकी सेहत सुधरने लगी थी. अब वह आसपास के इलाकों में घूमने लगा था. कुछ दोस्त भी बना लिए थे. चोर-सिपाही का खेल, रेत के किले बनाकर तोड़ना, बचपन के उसके पसंदीदा खेलों में सम्मिलित थे. इसी बीच उसको एक नया शौक लगा, मोटरसाइकिल की सवारी का. पूरा इलाका पठारी था. अर्नेस्टो ऊंची-नीची चट्टानों पर मोटरसाइकिल को दौड़ाता हुआ निकल जाता. मानो शरीर की व्याधियों को चुनौती देना चाहता हो. परंतु मां ठहरी मां, वह मानने को तैयारी न थी कि अर्नेस्टो स्वस्थ हो चुका है; या उसमें शरीर की व्याधियों से जूझने, उनको चुनौती देने का अद्वितीय साहस है. वह बेटे को स्कूल भेजने से भी घबराती थी. मां के घने लाड़-प्यार के कारण अर्नेस्टो की प्रारंभिक पढ़ाई घर पर हुई. खुद मां ने उसको वर्णमाला सिखाई. अर्नेस्टो के बचपन को याद करते हुए 1967 में एक साक्षात्कार के दौरान मां सीलिया ने कहा था—

‘दमा के कारण अर्नेस्टो के लिए नियमित पाठशाला जाना संभव न था. अतः मैंने उसको घर पर ही वर्णमाला की शिक्षा दी. उसने केवल दूसरे और तीसरे ग्रेड की शिक्षा नियमित विद्यार्थी के रूप में प्राप्त की. पांचवे और छठे ग्रेड में भी वह यथासंभव स्कूल गया. उसके भाई-बहन स्कूल से मिले काम को उसकी का॓पी में उतार देते थे, जिसका वह घर पर अध्ययन करता था.’

मां की ओर से अर्नेस्टो को प्रारंभिक शिक्षा मिली तो उसके पिता ने उसको खेल, व्यायाम, स्पर्धा में टिके रहने के गुर समझाए. पिता ने ही उसको सिखाया कि किस प्रकार दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर शारीरिक दुर्बलताओं पर विजय पाना संभव है! इरादे मजबूत हों तो कैसे बड़े संकल्प आसानी से साधे जा सकते हैं! इसी से वह उन शारीरिक अक्षमताओं से उबर सकता है, जो उसकी जन्मजात बीमारी से उपजी हैं. यह पिता का ही संबल था कि दमे का शिकार चे बचपन में ही पिंग-पोंग, गोल्फ, तैराकी, पर्वतारोहण जैसे खेलों में पारंगत हो चुका था. दूसरों का नेतृत्व करने का गुण उसमें बचपन से ही था, जो लगातार निखर रहा था. माता-पिता से एक और संस्कार अर्नेस्टो को मिला, वह था, अच्छी पुस्तकें पढ़ने का. घर में क्रांति से जुड़ी पुस्तकें आती थीं. घर पर रहते हुए अर्नेस्टो उन्हें पढ़ता. उनमें व्यक्त विचारों पर सोचता. इसके फलस्वरूप 14 वर्ष की अवस्था तक वह सिंगमंड फ्रायड, अलेक्जेंड्र डूमा, राबर्ट फास्ट, जूलियस बर्ने की पुस्तकें पढ़ चुका था. रोमांचक साहित्य पढ़ने में उसको विशेष आनंद आता था. जेक लंडन की पुस्तकें उसको सर्वाधिक पसंद थीं. फ्रांसिसी कवि चाल्र्स बुडेलायर का प्रभाव भी उस पर पड़ा. उसने रूसो, कार्ल माक्र्स, पाब्लो नेरूदा, फ्रेड्रिको गारशिया लोर्का, अनातोले फ्रांस आदि क्रांतिकारी लेखकों की रचनाएं पढ़ी, जिन्होंने उसके भीतर बौद्धिकता का संचार किया. एल्टा ग्रेशिया में रहते हुए अर्नेस्टो को बहुत कुछ सीखने को मिला. एक तो यह विश्वास कि आत्मबल से किसी भी कमजोरी को दूर किया जा सकता है. दूसरे वहां रहते हुए वह समाज के विभिन्न वर्गों के संपर्क में आया था, जिससे उसको समाज को समझने का अवसर मिला था.

किशोरावस्था में अर्नेस्टो की मित्रमंडली असाधारणरूप से अलग थी. उसमें समाज के भिन्न वर्गों के किशोर सम्मिलित थे. जिनमें उसके पिता की भवन निर्माण कंपनी में काम करने वाले श्रमिकों के बच्चे, गरीब नौकरों के बच्चे, कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों के बच्चे भी सम्मिलित थे. अर्नेस्टो को सभी के साथ समान व्यवहार करने की प्रेरणा मिली थी, मां से—जो अमीर-गरीब सभी के साथ समान व्यवहार करना सिखाती थी. अर्नेस्टो का बचपन हंसी-खुशी बीत ही रहा था कि सहसा अल्टा ग्रेशिया के शिक्षा विभाग के कुछ अधिकारियों ने अर्नेस्टो के माता-पिता से संपर्क कर, उसको स्कूल भेजने का निर्देश दिया. इसके फलस्वरूप अर्नेस्टो के विधिवत अध्ययन का मार्ग प्रशस्त हुआ. मार्च 1937 में अर्नेस्टो स्कूल स्तर पर भर्ती हुआ. उस समय उसकी वयस् अपनी कक्षा के अन्य विद्यार्थियों की औसत वय से लगभग एक वर्ष अधिक थी. लेकिन मां के सान्निध्य में रहकर वह विश्व-साहित्य का गहन अध्ययन कर चुका था. इसलिए कक्षा में वह अपने सहपाठियों पर प्रभावशाली सिद्ध हुआ. मां के प्रभाव से ही उसका साहित्यिक पुस्तकों के प्रति अनुराग बढ़ा जो आजीवन बना रहा. स्कूल के दौरान अर्नेस्टो को अपने गुरुजनों से प्रशंसा मिलती थी, मगर था वह सामान्य विद्यार्थी ही. अर्नेस्टो के तीसरे ग्रेड के अध्यापक ने उसको याद करते हुए लिखा था—‘वह दुर्भाग्य का मारा, प्रतिभाशाली लड़का था जो अपनी कक्षा में सबसे अलग नजर आता, किंतु उसकी नेतृत्व क्षमता खेल के मैदान में नजर आती थी.’

कक्षा में उसका सदैव यही प्रयत्न होता कि उसके सहपाठी और अध्यापक उस पर ध्यान दें, किसी भी तरह वह उन सबकी नजरों में चढ़ा रहे. नायकत्व की उत्कट चाहत ही कालांतर में एक क्रांतिकारी योद्धा के रूप में विकसित हुई. यह संभवतः उस हीनताग्रंथि से उबरने की कोशिश का परिणाम था, जो निरंतर बीमार रहने के कारण उपजी थी. जो हो, विद्यार्थी जीवन से ही उसके मन में दूसरों से आगे निकलने, स्पर्धा में बने रहने की भावना का जन्म हो चुका था. इसके लिए कई बार वह अजीबोगरीब हरकतें कर जाता, जैसे बोतल से इंक को पी जाना, चाक चबाना, खान में विस्फोट करना, सांड से जूझना. इन सब कारनामों से वह अपने साथियों तथा अध्यापकों के बीच निरंतर लोकप्रिय बनता जा रहा था. अर्नेस्टो की एक अध्यापिका एल्बा रोसी ओवीडो जेलिया ने उसको याद करते हुए लिखा है—

‘मुझे याद आता है कि बच्चे झुंड बनाकर स्कूल की चारदीवारी में उसके पीछे-पीछे घूमते थे. वह किसी ऊंचे पेड़ पर चढ़ जाता और उसके साथी पेड़ के इर्द-गिर्द घेरा बनाकर खड़े हो जाते. वह दौड़ता तो बाकी उसका पीछा करने लगते. वह स्वयं को उनका नेता सिद्ध कर चुका था. शायद उनका एक परिवार था, लेकिन सामान्य परिवारों से पूरी तरह भिन्न. उसके साथी जानते थे कि बातचीत में दूसरों को प्रभावित कैसे किया जाता है और वे इसमें पारंगत भी थे. वे कभी, कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ते थे. वे दूसरों से एकदम भिन्न और इतने दंभी थे कि अपने बारे में कभी कुछ नहीं बताते थे, हालांकि उनमें सभी एक जैसे नहीं थे.’

अर्नेस्टो के परिवार के बारे में बाकी कुछ भी कहा जाए, दंभ वहां हरगिज नहीं था. उनका घर अतिथियों के लिए खुला था. कोई अपरिचित भी भोजन के समय वहां आता तो उसको ठहरने और भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता. उनके परिवार को दूसरों के बीच ‘बोमियन’ कहा जाता था. मां सेलिया घर की छवि को बनाए रखने का पूरा ध्यान रखती. अल्टा गे्रशिया की वह पहली स्त्री थी जो अपनी कार स्वयं चलाती, खुले में धूम्रपान का हौसला रखती और ब्लाउज पहन कर बाहर निकल आती थी. वह अमीर-गरीब सबके साथ स्नेह-भाव से पेश आती, बौद्धिक बहसों में खुलकर हिस्सा ले सकती थी. अर्नेस्टो पर मां के इसी दबंग व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ा था.

राजनीति में पदार्पण
नेतृत्व का गुण अर्नेस्टो के बचपन में ही निखार ले चुका था. किशोरावस्था बीतते-बीतते वह स्वयं को प्रखर मेधावी, दूरद्रष्टा, सघन इच्छाशक्ति, नेतृत्वकुशल युवक के रूप में ढाल चुका था, जिसकी चिंताएं तथा सामाजिक सरोकार अपने समवयस्क युवकों की अपेक्षा कहीं बड़े थे. यही वे दिन थे जब उसका राजनीति की ओर रुझान बढ़ा. राजनीतिक घटनाक्रम उसमें सहायक सिद्ध हुआ. 1936 में स्पेन में सेना ने अचानक विद्रोह कर दिया. जनरल फ्रांसिस्को फ्रेंको के नेतृत्व में स्पेन की सेना का एक समूह निर्वाचित सरकार को उखाड़ फेंकने पर तुला था. इस विद्रोही समूह को जर्मनी के निरंकुश सम्राट एडोल्फ हिटलर तथा इटली के बेनिटो मुसोलिनी का समर्थन प्राप्त था. विद्रोह में निर्वाचित सरकार के मुखिया मेनुइल अजन को सत्ता गंवानी पड़ी. 1939 में सैन्य-शक्ति के बल पर जनरल फ्रांसिस्को फ्रेंको सत्ता पर काबिज हो गया. युद्ध के दौरान अर्नेस्टो ग्वेरा उन युवकों में था, जो मान रहे थे कि उसमें निर्वाचित सरकार की विजय होगी. दीवार पर स्पेन का नक्शा टांगकर वह रिपब्लिकन सरकार तथा विद्रोही फासिस्ट सेनापति की युद्धरत सेनाओं की स्थिति तथा उनकी रणनीति के बारे में अनुमान लगाता रहता था. मेनुइल अजन और उसके सहयोगी उसकी निगाह में ‘अच्छे बच्चे’ थे. अर्नेस्टो को उनकी विजय का पूरा भरोसा था. यही वे दिन थे, जब अर्नेस्टो को लगा कि अपने विचारों को मूत्र्तरूप देने के लिए राजनीति सबसे उपयुक्त माध्यम है. लेकिन युद्ध का परिणाम उसके सोच की विपरीत दिशा में जा रहा था. रिपब्लिकन सेनाएं कमजोर पड़ने लगी थीं. फासिस्ट सेनापति फ्रेंको को बाहर से मदद मिल रही थी.

रिपब्लिकन की हार की संभावना बढ़ते ही एल्टा ग्रेशिया और आसपास के क्षेत्रों में शरणार्थी बढ़ने लगे थे. अर्नेस्टो उन्हीं के मुंह से फासिस्ट सेनाओं के उत्पीड़न की सच्ची कहानियां सुनता. अर्नेस्टो का परिवार भी रिपब्लिकन सेनाओं का समर्थक था. इससे उसका रिपब्लिकन विचारधारा से अनुराग बढ़ने लगा. विजय प्राप्ति के साथ ही फासिस्ट समर्थक उद्योगपति और व्यापारी उद्योग-धंधों को अपने अधिपत्य में लेते जा रहे थे. उनके बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए अर्नेस्टो के पिता ने एक फासिस्ट विरोधी संस्था की नींव रखी. संस्था का काम था, नाजियों का विरोध करने वाले नागरिकों से चंदा जुटाकर उसके माध्यम से जर्मनी द्वारा अर्जेंटीना में घुसपैठ के विरुद्ध युद्ध का संचालन करना. साथ ही अर्जेंटीना के विरुद्ध किसी भी प्रकार की जासूसी पर नजर रखना. अर्नेस्टो उस समय मात्र 11 वर्ष का था, मगर वह हमेशा अपने पिता के साथ रहता. पिता के साथ मिलकर वह संस्था की गतिविधियों के संचालन में भी हिस्सा लेता. इसके बावजूद फासिस्टों का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था. स्पेन के अलावा जर्मनी, इटली आदि कई देश उसकी जद में आ चुके थे. मध्य यूरोप में अपना प्रभाव जमा लेने के बाद फासिस्टों की महत्त्वाकांक्षाएं आसमान छूने लगी थीं. अब वे पूरी दुनिया पर शासन करने का इरादा रखते थे. अर्जेंटीना उनका सबसे निकटवर्ती पड़ाव बन सकता था. अर्जेंटीना प्रकटरूप में दूसरे विश्वयुद्ध से अलग था, किंतु भीतर ही भीतर वह जर्मनी का समर्थन कर रहा था. उसको उम्मीद थी कि जर्मनी की विजय से उसको नए बाजार मिलेंगे. मगर युद्ध खिंचने के साथ अर्जेंटीना की समस्याएं भी बढ़ती जा रही थीं.

मार्च 1942 में अर्नेस्टो ने हाईस्कूल के लिए ‘का॓लेजियो नेशनल डीन फेन्स’ में प्रवेश प्राप्त कर लिया. उस समय उसकी वयस् मात्र 14 वर्ष थी. अल्टा ग्रेशिया में कोई स्कूल न होने के कारण उसको कोरडोवा तक बस से जाना पड़ता था, जो उसके निवासस्थान से लगभग 32 किलोमीटर दूर था. अर्नेस्टो की मां दमा-ग्रस्त बेटे को इतने लंबे सफर की अनुमति देने को तैयार नहीं थी. इसलिए 1943 के ग्रीष्म में अर्नेस्टो का पूरा परिवार कोरडोवा के लिए प्रस्थान कर गया. इस घटना के बाद अर्नेस्टो के परिवार में बिखराव का सिलसिला आरंभ हो गया. उसके माता-पिता के रिश्ते उतने सामान्य न थे. दोनों में अकसर तनाव बना रहता था. 1943 में दोनों ने संबंध-विच्छेद कर लिया. इसका एक कारण अर्नेस्टो के पिता की स्त्रियों के प्रति तीव्र आसक्ति भी था. वह अपने ‘व्यापार’ के सिलसिले में प्रायः बाहर रहते. इस दौरान उनके युवा महिलाओं से संबंध बनते ही रहते थे. धीरे-धीरे उनके परिवार का धन समाप्त होने लगा, जो आगे चलकर उनके लिए बहुत हानिकर सिद्ध हुआ. अर्नेस्टो के पिता का भवन-निर्माण का कारोबार अब भी सामान्य था. उन्होंने पहाड़ी पर एक बंगला खरीद लिया. उसमें भी उनका काफी धन खर्च हो गया. तो भी उसका परिवार अपने लंबे सामाजिक संबंध अब भी पहले की तरह निभाए जा रहा था. बाहर से जो मेहमान मिलने आते वे उनके घर की हालत देखकर दंग रह जाते थे. उनके घर कुर्सियां, स्टूल आदि पुस्तकों से दबे होते. परिवार का वातावरण खुला था. बच्चे बाहर से साइकिल पर चढ़कर आते और उसी तरह आवासकक्ष को पार कर धड़धड़ाते हुए भीतर घुस जाते थे. अर्नेस्टो अपने खाली समय का उपयोग पढ़ने, खेलने तथा मित्रों के साथ गपशप करने में बिताता. दमे का उसका रोग अब भी उसी प्रकार था. रग्वी उसके प्रिय खेलों में से था. कोरडोवो में रहते हुए अर्नेस्टो का संपर्क था॓मस ग्रेनांडो से हुआ. कुछ ही दिनों के बाद दोनों पारिवारिक दोस्त बन गए. मित्रों के अलावा युवा अर्नेस्टो की साथी थीं, साहित्यिक पुस्तकें. पाब्लो नेरुदा, जा॓न कीट्स, फेडरिको गार्शिया लोर्का की कविताएं, एमिल जोला, आंद्रे जीद, विलियम फाॅकनर के उपन्यास उसको सर्वाधिक प्रिय थे. इसी अवधि में उसने सिंगमड फ्रायड, अनातोले फ्रांस को पढ़ा और उनसे प्रभावित हुआ. उसका अध्ययन विशाल था, इसके बावजूद कक्षा में वह औसत नंबर ही ला पाता था. शायद इसके पीछे उसके अनेक गतिविधियों में उसकी हिस्सेदारी तथा वह छोटी-सी नौकरी भी थी जो उसके पिता के अनुसार उसने अपना समय बिताने के लिए की थी. इस बीच निडरता उसके स्वभाव का हिस्सा बन चुकी थी.

मित्रों के बीच अर्नेस्टो के कई उपनाम थे. कुछ साथी उसको ‘एल लोको’ कहते, जिसका अर्थ है—‘बाबरा’. कुछ अन्य दोस्त उसको चांचो(सुअर) भी कहते थे. अर्नेस्टो के इस विचित्र स्वभाव के बारे में उसके मित्र ग्रेनांडो ने लिखा है कि उसको थोड़ा खतरनाक दिखना भी पसंद था. नदी किनारे पहुंचकर अक्सर वह शेखी बघारता था कि वह कितनी देर तक गहरे जल में छिपकर रह सकता है. उसको अकसर यह कहते सुना जाता—‘इस रग्बी की कमीज को धोए हुए मुझे पचीस दिन बीच चुके हैं.’ उम्र के साथ जहां उसके दोस्तों की संख्या में वृद्धि हो रही थी, वहीं उसका राजनीति के प्रति रुझान भी विकसित हो रहा था. पर जो नहीं बदला, वह था उसका दमा का रोग, जिसके कारण वह अकसर परेशान रहता था. इसके बावजूद वह था दूसरों से एकदम अलग. किशोरावस्था में उसके विद्रोही लक्षण उसके स्वभाव से झलकने लगे थे. एक किवदंति के अनुसार अर्नेस्टो का मित्र एक बार सैन्य कार्रवाही का विरोध करते समय गिरफ्तार कर लिया गया. अर्नेस्टो उससे मिलने पुलिस स्टेशन पहुंचा तो ग्रेनांडो ने उसको विरोध-प्रदर्शन का नेतृत्व करने की सलाह दी. इसपर अर्नेस्टो ने गुस्से में कहा था—

‘कैसा प्रदर्शन, क्या सिर्फ पुलिस की गालियां और मार खाने के लिए….हरगिज नहीं! इस तरह का कोई भी कदम मैं उस समय तक नहीं उठाऊंगा, जब तक मेरे पास एक अदद बंदूक न हो.’

यह उदाहरण दर्शाता है कि अर्नेस्टो के भीतर जुझारूपन की भावना बचपन में जन्म ले चुकी थी. संभव है यह उसकी जन्मजात बीमारी की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ हो. दवाओं के सहारे जूझती हुई जिंदगी ने प्रत्येक संघर्ष में कृत्रिम साधनों की आवश्यकता को सहज अपना लिया हो. 1946 में अर्नेस्टो ने हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की. वह आगे इंजीनियरिंग की पढ़ाई करना चाहता था. लेकिन घटनाक्रम अकस्मात इतनी तेजी-से बदला कि जिंदगी अनचाहे-अनचीन्हे रास्तों की ओर बढ़ चली. 1947 में अर्नेस्टो को कोर्डोबा में छोड़, उसका बाकी परिवार बुनोस एअर्स के लिए प्रस्थान कर गया. उस समय परिवार अर्थिक तंगी से गुजर रहा था. ऊपर से उसके माता-पिता के बीच मनमुटाव इतना अधिक बढ़ चुका था कि दोनों साथ रहने को तैयार न थे. उन्हीं दिनों अर्नेस्टो की दादी का, जिससे उसको गहरी आत्मीयता थी, निधन हो गया. इस घटना की दुःखद परिणति यह हुई कि अर्नेस्टो ने कोर्डोबा में टिके रहने का इरादा छोड़ दिया. इससे उसका इंजीनियर बनने का सपना धरा का धरा रह गया. बुनोस पहुंचकर अर्नेस्टो ने डा॓क्टरी की पढ़ाई के लिए दाखिला ले लिया. वह विज्ञान का विद्यार्थी रह चुका था. इससे पहले डाॅक्टरी के व्यवसाय में उसकी कोई रुचि न थी. तब चिकित्सा व्यवसाय में आने का अचानक निर्णय क्यों? इसके पीछे भी उसका अपनी दादी के प्रति अतिशय लगाव था. उसको लगता था कि दादी की मृत्यु केंसर से, समय पर उपचार न होने के कारण हुई है. इसका दूसरा कारण अपनी जन्मजात बीमारी के कारण को समझना भी हो सकता है. बहरहाल वह मन लगाकर डा॓क्टरी की पढ़ाई करने लगा. विद्यालय के खर्च निकालने के लिए उसने नौकरी भी कर ली. घर में अशांति का वातावरण था. उससे बचने के लिए अर्नेस्टो स्वयं को सदैव व्यस्त रखने का प्रयास करता. अपना अधिकांश समय वह घर से बाहर रहकर मित्रों के बीच बिताता, जिनके लिए वह अब भी एक ‘हीरो’ था. बुनोस में उसके पुराने मित्र हालांकि छूट चुके थे. परंतु नए मित्रों के बीच भी उसकी धाक वैसी ही थी. अपने संगठन सामथ्र्य और नए लोगों के बीच बहुत जल्दी घुलमिल जाने के उसके स्वभाव ने उसको मित्रों के बीच जल्दी ही लोकप्रिय बना दिया था. इस बीच घुमक्कड़ी का नया शौक उसको पैदा हुआ जो आजीवन बना रहा. साहित्य के प्रति पहले ही उसका गहनानुराग था. घुमक्कड़ी से उसके मन में इतिहास, राजनीतिक विज्ञान, समाजशास्त्र तथा दर्शन को जानने की ललक पैदा हुई. साथ ही उसने लिखना भी आरंभ कर दिया. स्थानीय समाचारपत्रों में उसके लेख प्रकाशित होने लगे थे. इसके बावजूद उसका मन अशांत था. यद्यपि डाॅक्टरी की पढ़ाई में वह मनोयोग से जुटा था, तो भी वह उसका पसंदीदा विषय न था. उसको बराबर यह लगता था कि उसके जीवन का मकसद कुछ और है. लेकिन लक्ष्य तय न कर पाने से जन्मी छटपटाहट उसको बेचैन किए रहती थी.

अर्नेस्टो का मन हमेशा कुछ नया करने को छटपटाता रहता. 1 जनवरी 1950 को उसका मन अचानक उचटा और वह साइकिल निकालकर लंबी यात्रा पर निकल गया. साइकिल को चलाने के लिए उसने एक छोटा इंजन लगाया हुआ था. पहला पड़ाव उसने कोर्डोबा में किया. वहां वह ग्रेनांडो से मिला, जो स्वयं चिकित्सा के क्षेत्र में आ चुका था और कोर्डोबा के कुष्ठ रोगालय में काम करता था. कुछ दिन कुष्ठ रोगियों के बीच कोर्डोबा में बिताने के बाद वह पुनः यात्रा पर बढ़ गया. अर्नेस्टो के लिए वह यात्रा बहुत परिवर्तनकारी सिद्ध हुई. उससे पहले तक वह शहरी जीवन में पला-बढ़ा था. गांव और गरीबी उसने देखी नहीं थी. मोटरसाइकिल की यात्रा से उसको ग्रामीण जीवन को निकटता से देखने का अवसर मिला. पहली बार उसने गांव में जमींदारों का उत्पीड़न देखा. देखा कि किस प्रकार ग्रामीण मजदूरों के श्रम से बड़े भूमिपति उत्तरोत्तर धनवान एवं शक्तिशाली बनते जा रहे हैं. पहली बार उसे अनुभव हुआ कि राजनीतिक सीमाओं से परे पूरा लातीनी अमेरिका दो भागों में बंटा हुआ है. एक छोर पर संपत्ति और संसाधनों पर कब्जा जमाए यूरोपीय मूल के जमींदार, उद्योगपति, सरमायेदार और व्यापारी हैं. दूसरी ओर मूल लातीनी मजदूरों के वंशज हैं, जो मात्र पेट-भर रोटी के लिए जी-तोड़ मजदूरी करते हैं. लेकिन रात-दिन परिश्रम करने पर भी अकसर उन्हें भरपेट भोजन प्राप्त नहीं हो पाता. पहली बार उसने समाज का उत्पीड़क और उत्पीड़ित में साफ-साफ विभाजन देखा. माक्र्स की कही बातें उसको अक्षर-अक्षर जमने लगीं. इस बीच उसने रूसी क्रांति का अध्ययन किया. वह लेनिन और स्टालिन के आंदोलन से प्रभावित हुए बिना रह न सका. खासकर स्टालिन ने उसको बहुत प्रभावित किया.

सामाजिक अनुभवों से अर्नेस्टो की राजनीतिक समझ साफ होती जा रही थी. उस समय वह वयस् के बाइसवंे पड़ाव पर था. युवावस्था अपनी छाप छोड़ रही थी. नया सोच और सपने भी उछाह मारने लगे थे. उन्हीं दिनों वह 16 वर्षीय मारिया डेल कर्मन चिचीना फेरेरा के संपर्क में आया. वह कार्डोबा के सबसे अमीर व्यापारी की बेटी थी. दोनों की प्रथम भेंट को प्यार में बदलते देर न लगी. चिचीना के परिवारवाले उस संबंध को तैयार न थे. इसके बावजूद उनका प्रेम गहराता गया. दोनों विवाह के लिए तत्पर थे. चिचीना की मां ने चालाकी से काम लिया. उसने अपनी बेटी को धमकी दी कि यदि उन दोनों का प्यार आगे बढ़ता है तो वह परिवार छोड़ देगी और गिरजाघर में जाकर नन बन जाएगी. चिचीना डर गई. उसको अपने पांव पीछे खींचने पड़े. प्रेम में निराश होने के बाद अर्नेस्टो ने स्वयं को पुनः पढ़ाई में लगा दिया. उसके मित्र अल्ब्रेट ग्रेनांडो की बहुत पुरानी इच्छा थी, एक बार समूचे दक्षिणी अमेरिका का भ्रमण करना. अकेले यात्रा पर निकलने की उसकी हिम्मत नहीं थी. उसने अर्नेस्टो के समक्ष प्रस्ताव रखा तो वह सहर्ष तैयार हो गया. 4 जनवरी 1952 को दोनों दोस्त मोटरसाइकिल पर सवार होकर यात्रा के लिए निकल पड़े. उनका पहला पड़ाव अर्जेंटीना के समुद्रीय क्षेत्र में बसा मिरामर नाम का शहर था. चिचीना वहीं अपने माता-पिता के साथ प्रवास पर थी. युवा अरमान लिए अर्नेस्टो ने उससे मुलाकात की. दोनों का प्रेम एक बार फिर परवान चढ़ने लगा. लेकिन अर्नेस्टो यात्रा को अधूरी छोड़ने को तैयार न था. कुछ दिन पश्चात दोनों मित्र आगे बढ़ गए. उनके पास बहुत कम पैसा था. भोजन के लिए भी वे स्थानीय निवासियों की अनुकंपा पर निर्भर थे. उस यात्रा में अर्नेस्टो को जीवन को गहराई से समझने का अवसर मिला. उसने लोगों के अभावग्रस्त जीवन को निकटता से देखा. उसके कारण भी उसकी समझ में आने लगे थे. अमेरिकी साम्राज्यवाद किस प्रकार अपने उपनिवेशों का शोषण करता है, यह उसने उस यात्रा के दौरान निकटता से देखा-समझा. एक डायरी वह सदा अपने पास रखता था. लोगों से मिलने के बाद अंतर्मन में जन्मी हलचल को व्यक्त करते हुए डायरी में उसने लिखा कि इस यात्रा से उसके भीतर बहुत कुछ बदला है. अब वह वैसा नहीं है, जैसा पहले था—

‘मुझे लगता था कि मेरे भीतर ही भीतर बहुत-कुछ पक चुका था, जो इस शहर के आपाधापी तथा धक्का-मुक्की से भरे जीवन में लंबे समय से मेरे मन में घुमड़ता आ रहा था. वह इस सभ्यता, घृणास्पद सभ्यता के नाम पर कलंक है, जिसके भीषण शोरगुल-युक्त वातावरण में असभ्य लोग पागलों की भांति दौड़ लगाए जा रहे हैं. सच कहूं तो यह शांति का शानदार विलोम है.’

यात्रा के बीच अर्नेस्टो को दिल दहला देने वाला संदेश मिला. संदेश चिचीना का था. उसने कहलवाया था कि वह और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकती. चिचीना की ओर से पूरी तरह निराश हो जाने के बाद वह यात्रा पर आगे बढ़ गया. वहां से वह चिली पहुंचा, जहां दोनों को नए अनुभव हुए. समाचारपत्रों में उन युवकों की यात्रा को लेकर खबरें छपने लगी थीं. एक अखबार ने लिखा था—‘लेप्रोसी के दो अर्जेंटीनाई डा॓क्टर मोटरसाइकिल से दक्षिणी अमेरिका की यात्रा पर.’ उन दोनों का काफिला जहां भी पहुंचता उन्हें देखने लोग उत्साह से जुट जाते. यात्रा को जनसमर्थन मिलने से दोनों का हौसला बढ़ा. उन्हें लगने लगा था कि अब वे अकेले नहीं हैं. बल्कि अपनापन लिए अनजाने लोग भी उनके साथ हैं. मोटरसाइकिल को अक्सर अर्नेस्टो चलाता था, जबकि ग्रेनांडो उसपर पीछे सवार रहता. यात्रा के बीच एक और घटना ने अर्नेस्टों के मन पर गहरा असर डाला. उस समय वह समुद्रतटीय नगर वालपरायसो से गुजर रहा था. रात्रि पड़ाव के समय जब अपने मित्र के साथ अर्नेस्टो ने एक निर्धन गृहस्थ के घर शरण ली तो यह जानकर कि वह अच्छा डाॅक्टर है, गृहस्थ ने उससे अपनी पत्नी का उपचार करने का अनुरोध किया. स्त्री को दमा और हृदयरोग था. अर्नेस्टो ने यथासंभव उसको ठीक करने की कोशिश की. लेकिन वह मरणासन्न स्त्री को बचा न सका. उस रात स्त्री को तिल-तिल कर मौत के मुंह में जाते हुए देख उसने अपनी डायरी में नोट किया—‘यह ऐसा समय है जब डा॓क्टर की संपूर्ण बुद्धिमत्ता, उसका अनुभव और कार्यकुशल होना किसी काम नहीं आता. इसके लिए समाज को बहुत कुछ बदलना होगा. हमें अपने चारों ओर व्याप्त अन्याय और अनाचार को रोकने के प्रयास करने होंगे. यह स्त्री मात्र एक महीना पहले अपना पेट भरने के लिए वेट्रेस का काम करती थी. गुजारा भले ही जैसे-तैसे होता था, परंतु वह एक सम्मान-भरा जीवन जीती थी.’ उसको लगा कि उस स्त्री की मौत स्वाभिक मौत नहीं है. पूरी व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदार है. 17 जुलाई, 1951 को वे वेनेजुएला पहुंचे. वहां के कुष्ठ रोगालय की ओर से ग्रनांडो को नौकरी का निमंत्रण प्राप्त हुआ, जिसको उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया. मित्र के नौकरी संभाल लेने के पश्चात अर्नेस्टो अकेला पड़ गया. वह यात्रा को आगे बढ़ाना चाहता था, किंतु मोटरसाइकिल के इंजन में अचानक आई बड़ी गड़बड़ी ने उसकी यात्रा में व्यवधान खड़ा कर दिया. परिणामस्वरूप अर्नेस्टो को यात्रा अधूरी छोड़कर वापस लौटना पड़ा. घर पहुंचते ही उसने स्वयं को एक बार पुनः अध्ययन को समर्पित कर दिया. जिनका अनुकूल परिणाम भी निकला. अप्रैल 1953 में डाॅक्टरी की अंतिम परीक्षा में पास होने के बाद उसने हर्षातिरेक में पहला फोन अपने पिता को किया, जिसमें उसने डाक्टर बन जाने की सूचना दी थी—‘मैं डा॓क्टर अर्नेस्टो ग्वेरा दे ला सेरना बोल रहा हूं.’ उसके पिता ने बाद में प्रतिक्रिया देते हुए बताया था कि ‘मैं उस समय अत्यधिक प्रसन्न था.’ लेकिन पिता की यह प्रसन्नता बहुत कम समय तक कायम रह सकी. उन्हें लगता था कि डा॓क्टर बन जाने के पश्चात अर्नेस्टो नौकरी की ओर ध्यान देगा. घर की जिम्मेदारी में हाथ बंटाएगा. मगर वह डा॓क्टरी क्या किसी भी बंधी-बंधाई नौकरी के लिए जन्मा ही नहीं था.

डा॓क्टर की डिग्री लेने के पश्चात अर्नेस्टो अपने लिए एक सुविधासंपन्न जीवन सुनिश्चित कर चुका था. उसके पिछले नियोक्ता डा॓. पिसानी ने उसे अपनी लैब में काम करने के बदले वेतन के रूप में आकर्षक धनराशि उपलब्ध कराने का आश्वासन भी दिया था. लेकिन उसके भीतर तो दुनिया को देखने-जानने की ललक थी. पहली यात्रा के अनुभव उसके साथ थे. लेकिन अपर्याप्त. वह दुनिया को जानने के लिए उसको बहुत-बहुत देखना चाहता था. कहीं न कहीं उस यात्रा के पीछे स्वयं को जानने-समझने की भी चाहत थी. इसलिए अवसर मिलते ही उसने तीसरी बार यात्रा पर निकलने की तैयारी शुरू कर दी. अपने अभियान के लिए उसने नए साथी को चुना. उसका नाम था—कार्लोस केलिसा फेरर. अक्टूबर, 1951 में अर्नेस्टो ने यात्रा का अगला चरण आरंभ किया. उसकी योजना आंदेस से चिली, वहां से बोलविया, पेरू, एक्वाडोर, कोलंबिया से गुजरते हुए पूरा दक्षिणी अमेरिका घूम लेने की थी. नौ महीने तक चली वह यात्रा अद्भुत रोमांच और नवीनतम अनुभवों से भरी थी. उसके द्वारा वह लातिनी अमेरिका की जमीनी सचाई के संपर्क में आया. उस यात्रा ने उसको वैचारिक रूप से समृद्ध और संकल्पवान भी बनाया. सफर में दोनों मित्र लोगों के साथ तरह-तरह से पेश आते. साधारण सैलानियों की भांति वे युवा लड़कियांे को ताड़ते, उनके साथ हंसी-ठिठोली करते. कभी-कभी मस्ती में उनका पीछा भी करने लगते. मन होता तो मदिरालय पहुंचकर नशा करते. यात्रा का पहला पड़ाव बोलेविया था, जहां वे 11 जुलाई 1953 को पहुंचे थे.

बोलेविया लातीनी अमेरिका का सर्वाधिक गरीब, विपन्न देश था, जो उन दिनों परिवर्तनकारी चक्र से गुजर था. 1952 से सत्ता संभालने के बाद ही बोलेविया के राष्ट्रपति विक्टर पा॓ज ऐस्टेंसरो ने देश को समाजवादी आदर्श के अनुकूल ढालना आरंभ कर दिया था. जिसमें सेना में कटौती, खानों का राष्ट्रीयकरण जैसे प्रमुख कदम थे. बदलते बोलेविया ने अर्नेस्टो को प्रभावित किया था: ‘साम्राज्यवादी अमेरिका को बोलेविया से सबक लेना चाहिए.’—उसकी प्रतिक्रिया थी. यात्रा के दौरान वे समुद्र तट से 5182 मीटर ऊपर स्थित टंगस्टन की खान को देखने पहुंचे. वहां कार्यरत इंजीनियर ने उन्हें वह स्थान दिखाया जहां क्रांति के दौरान खान मालिक के गार्ड ने मजदूरों तथा उनके बीबी-बच्चों पर मशीनगन से गोलियां बरसाई थीं. ‘अब यह खान पूरे देश यानी जनता की है.’—इंजीनियर ने गर्व से बताया था. यात्रा के दौरान बदलते बोलेविया ने अर्नेस्टो को प्रभावित किया था, लेकिन उसकी संतुष्टि बहुत सीमित समय के लिए थी. बहुत शीघ्र उसकी समझ में आने लगा कि वहां सबकुछ जनता की अपेक्षा के अनुसार नहीं था. अमेरिका के दबाव में नई सरकार ने भूमि-सुधारों की गति को आवश्यकता से बहुत धीमा कर दिया था. परिणामस्वरूप वहां जनाक्रोश भड़क उठा. 11 मार्च 1952 की शाम अर्नेस्टो तथा अल्बर्ट रात बिताने के लिए एक निर्धन मजदूर दंपति के घर टिके, जो प्रसिद्ध अटाकामा रेगिस्तान के अनाकोंडा की शुक्युईकामत खान में काम करते थे. खान मजदूर और उसकी पत्नी दोनों साम्यवादी विचारों के थे. अपनी आर्थिक दुर्दशा के बारे खान मजदूर ने उसको बताया कि मात्र कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने के कारण उसको तीन महीने जेल में बिताने पड़े हैं. इसी कारण स्थानीय तांबे की खानों में कोई उसको काम देने को तैयार नहीं होता. अर्नेस्टो माक्र्सवाद के बारे में बहुत कुछ पढ़ चुका था. लेकिन उन गरीब श्रमिकों से उसको बहुत कुछ सीखने को मिला था. वह खान मजदूर उसको ‘दुनिया में सर्वहारावर्ग का जीता-जागता उदाहरण’ प्रतीत हुआ. उस दंपति के साथ बिताई गई सर्द रात का उल्लेख करते हुए अर्नेस्टो ने अपनी डायरी में लिखा—

‘उनके पास रात बिताने के लिए एक मामूली कंबल तक नहीं था. अतः हमने उन्हें अपना कंबल दिया. उसके बाद मैंने तथा अल्बर्ट ने अपनी रात एक कंबल में लिपटकर जैसे-तैसे बिताई. वह मेरी अब तक बिताई गई सर्वाधिक ठंडी रातों में से एक थी, जिसने हमें उस अजनबी मजदूर, जो निस्संदेह मानव-प्रजाति का ही सदस्य था, के थोड़ा करीब ला दिया था.’

यात्रा के दौरान अर्नेस्टो ने देखा कि मजदूर माता-पिता अपनी बीमार संतान को मरते-तड़फते देखने को सिर्फ इस कारण विवश हैं, क्योंकि उनके पास डाॅक्टर की फीस चुकाने लायक पैसे नहीं हैं. अभावग्रस्तता को उन्होंने अपनी नियति, जिंदगी का स्वाभाविक हिस्सा मान लिया है. क्या डा॓क्टर के रूप में वह उनकी कुछ मदद कर सकता है? श्रमिक परिवारों की दुर्दशा देख अर्नेस्टो अपने आप से प्रश्न करता. अंतर्मन से तत्काल उत्तर आता कि—‘नहीं, इनकी समस्या केवल रोगों का उपचार कर देने से दूर होने वाली नहीं है. वास्तविक समस्या उस उत्पीड़न में छिपी है जो उन्हें आर्थिक असमानता के कारण कदम-कदम पर झेलना पड़ता है.’ रोग का वास्तविक कारण इनकी गरीबी और वह भयावह आर्थिक असमानता है, जो अमेरिकी साम्राज्यवाद के कारण जन्मी है. वह यह जानकर क्षुब्ध था कि अपनी जमीन, अपना देश होने के बावजूद वहां अमेरिकी कंपनियां शासन और प्रशासन पर हावी हैं. कमरतोड़ मेहनत करने के बावजूद उन्हें पेट-भर भोजन उपलब्ध नहीं है. सरकार भी उत्पीड़न में विदेशी कंपनियों का साथ देती है. वह यात्रा डाॅ. अर्नेस्टो के ‘क्रांतिकारी चे ग्वेरा’ में बदलने की यात्रा थी—

‘धीरे-धीरे वह समझने लगा था कि संयुक्त राज्य अमेरिका की शोषणकारी प्रवृत्ति ही दक्षिणी अमेरिका की गरीबी और अन्याय का मूल है.’

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आंद्रे की यात्रा में अर्नेस्टो का फिर भीषण गरीबी से साक्षात्कार हुआ. वहां उसने अधनंगे किसानों को जमींदारों के खेतों में काम करते हुए देखा. यात्रा का एक पड़ाव उसने कुष्ठ रोगियों की बस्तियों में भी किया. यह एक नया अनुभव था. कुष्ठ रोगियों के बीच आपसी भाईचारे और सहयोग की भावना ने उसको बहुत प्रभावित किया. पहली यात्रा में उसने कुल 4500 किलोमीटर की यात्रा की थी. दूसरी यात्रा में वह अर्जेंटीना, चिली, पेरू, एक्वाडोर, कोलंबिया, वेनेजुएला, पनामा तथा मियामी तक पहुंचा था, जिसमें उसने कुल नौ महीने के भीतर 8000 किलोमीटर से अधिक यात्रा की थी. दोनों यात्राओं से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि दक्षिणी अमेरिका अलग-अलग देशों का समुच्चय न होकर, एक राष्ट्र है जिसको स्वाधीनता की भावना क्षेत्रवार विभाजित करती है. राज्यों की सीमा से परे सभी क्षेत्रों में लगभग एक जैसी परिस्थितियां हैं. हर जगह बेहद गरीबी है. आर्थिक विषमता और तज्जनित उत्पीड़न, घोर अभावग्रस्तता है. पूरा क्षेत्र साम्राज्यवादी अमेरिका के आर्थिक-राजनीतिक शोषण का शिकार है. इससे उसके मन में सीमारहित स्पेनिश अमेरिका की अवधारणा का विकास हुआ, जिसको लेटिन की सुदीर्घ साहित्य-परंपरा आपस में जोड़ती है. जिसकी संस्कृति में राज्यवार भले ही थोड़ा-बहुत अंतर हो, समस्याएं एक समान हैं. यही संयुक्त स्पेनिश अमेरिका का विचार कालांतर में उसकी क्रांतिकारी गतिविधियों का उत्पे्ररक और मार्गदर्शक सिद्ध हुआ. बाद के वर्षों में अपनी लेटिन अमेरिका की यात्रा के दौरान उसने ‘भूख, गरीबी, बेरोजगारी और बीमारी से सीधा साक्षात किया.’ यात्रा में अर्नेस्टो ने गरीबी का ऐसा रौद्ररूप देखा कि उसको अपना डा॓क्टर होना निरर्थक लगने लगा. उसको लगने लगा कि ऐसे लोगों की सहायता के लिए डा॓क्टरी का पेशा व्यर्थ है. कुछ ही अर्से बाद उसने चिकित्सा के पेशे को छोड़कर राजनीति से जुड़ने का निर्णय कर लिया. यह बात अलग है कि कालांतर में क्यूबा की सरकार में मंत्री होने के बावजूद उसको लगने लगा था कि केवल राजनीति द्वारा सीधे-सीधे लक्ष्य प्राप्त कर पाना असंभव है. इसलिए मंत्रीपद और सारी सुख-सुविधाओं को त्यागकर वह एक बार फिर सैनिक की वेषभूषा में आया तथा मरणोपरांत छापामार सैनिक बना रहा.

दूसरी यात्रा में अर्नेस्टो ने मियामी को अपना अंतिम पड़ाव बनाया था. वहां एक महीने के प्रवास के दौरान घटी एक घटना ने उसके मन में अमेरिका-विरोध को और गहरा कर दिया जो आखिर तक बना रहा. जिन दिनों वह मियामी की यात्रा पर था. òोत बताते हैं कि सीआईए के इशारे पर उसको गिरफ्तार कर लिया गया. जबकि सीआईए के दस्तावेज में उसके अपराध का कोई उल्लेख नहीं है, जिसके लिए उसको गिरफ्तार किया गया था. कुछ विश्वसनीस स्रोतों के अनुसार अर्नेस्टो तथा उसके मित्र प्युर्टो रिकन ने मियामी के एक मदिरालय में हुड़दंग मचाते हुए अमेरिका के विरुद्ध कुछ सख्त टिप्पणियां की थीं, जिससे वहां की गुप्तचर संस्था को सक्रिय होना पड़ा था. बहरहाल, दूसरी यात्रा के बाद अर्नेस्टो ने डाॅक्टरी के पेशे को पूरी तरह त्यागकर राजनीति से जुड़ने का निर्णय ले लिया.उसकी राजनीति पर माक्र्स का प्रभाव था. रूस की क्रांति उसको आकर्षित करती थी, लेकिन वह बजाय लेनिन के जोसेफ स्टालिन को अपना प्रमुख प्रेरणास्रोत मानता था. किंतु स्टालिन जहां राजनीतिक रूप से अत्यंत महत्त्वाकांक्षी था, वहीं अर्नेस्टो की प्रतिबद्धता पूरे दक्षिणी अमेरिकी समाज के साथ थी. स्टालिन के लिए राजनीति सत्ता एवं शक्ति समेट लेने का माध्यम थी, वहीं अर्नेस्टो उससे समाज के उत्पीड़ित वर्ग का शोषण से मुक्ति का मार्ग खोजना चाहता था.

ग्वाटेमाला की यात्रा

अगस्त-1953 के मध्य में अर्नेस्टो तथा उसके सहयात्री ने बोलेविया से विदा ली और पेरू के रास्ते वेनेजुएला जाने का विचार किया. किंतु शीघ्र ही उन्होंने अपना रास्ता बदल लिया और ग्वाटेमाला को अपना लक्ष्य बनाया. नववर्ष की संध्या को दोनों मित्र ग्वाटेमाला पहुंचे. ग्वाटेमाला के लिए रवाना होने से पहले 10 दिसंबर, 1953 को अर्नेस्टो ने अपनी चाची बीट्रिज को सेन जोस, कोस्टा रीसा से एक संदेश भेजा था. पत्र में उसने लिखा था कि वे संयुक्त राष्ट्र की फल-उत्पादक कंपनियों के उपनिवेशों से गुजर रहे हैं. उन कंपनियों की ‘जोंक’ से तुलना करते हुए अर्नेस्टो ने उनके आतंक की चर्चा की थी. फल-उत्पादक कंपनियों की लूट और मनमानी ने उसे उत्तेजित किया था. इसके कुछ ही दिन पश्चात अर्नेस्टो ने स्टालिन की तस्वीर के आगे, जिसका कुछ ही दिन पहले निधन हुआ था, उस समय तक चैन से न बैठने की शपथ ली थी, जब तक कि वह उन जोंकों को मिटा नहीं देता. ग्वाटेमाला की आबादी मात्र तीस लाख थी. उसमें अधिकांश संख्या वहां के पुराने निवासियों की थी, जो भीषण गरीबी में जीवन बिताते थे. अर्थव्यवस्था कृषि आधारित थी. केला, काॅफी, गन्ना और कपास वहां की प्रमुख फसलें थीं. मगर देश की सत्तर प्रतिशत कृषि भूमि पर केवल दो प्रतिशत अमेरिकी और यूरोपीय मूल के लोगों का अधिकार था. अधिकांश भू-संपदा ‘यूनाइटेड फ्रुट कंपनी’ के अधिकार में थी. राष्ट्रपति अर्बेंज गुजमान के नेतृत्व में आर्थिक असमानता की खाई को पाटने का प्रयास आरंभ हो चुका था. साम्यवादी दलों के समर्थन पर राष्ट्रपति बने अर्बेंज ने कृषि-भूमि का भूमिहीनों में बंटवारा किया. इससे सबसे अधिक नुकसान ‘यूनाइटेड फ्रुट कंपनी’ को उठाना पड़ा, उसके कब्जे से 2,25,000 एकड़ भूमि राष्ट्रपति अर्बांज ने अधिग्रहीत की थी. यही आगे चलकर अमेरिका की नाराजगी और अर्बांज सरकार के पतन का कारण बनी. अर्नेस्टो ग्वाटेमाला के कृषि सुधारों से बेहद प्रभावित हुआ. वहां उसने पूरे नौ महीने प्रवास किया. लेकिन ग्वाटेमाला में सुधार का यह दौर अधिक दिनों तक कायम न रह सका. अमेरिकी सरकार और सीआईए के दबाव में अर्बांज सरकार को सत्ता में बने रहना दिनोंदिन कठिन होता चला गया. देश में गृहयुद्ध जैसे हालात बन चुके थे. सीआईए विद्रोह को हवा दे रहा था. साम्यवादी अर्बांज सरकार की मदद के लिए चेकोस्लोवाकिया ने हथियारों से भरा एक जहाज 15 मई, 1954 को भेजा था. किंतु अर्बांज तक पहुंचने से पहले ही सीआईए को उसकी भनक लग गई. तुरंत अमेरिका के इशारे पर सेना ग्वाटेमाला में घुस आई. उसका नेतृत्व कार्लोस कास्टिलो आम्र्स के हाथों में था. अर्नेस्टो के दिमाग पर तो अमेरिका को सबक सिखाने का जुनून सवार था. उसकी शुरुआत किस देश से, किन लोगों को साथ लेकर हो, यह उसके लिए सर्वथा अर्थहीन था. अर्बांज सरकार की सहायता के लिए वह उसकी सेना में सम्मिलित हो गया. सेना का गठन साम्यवाद-समर्थक युवाओं की ओर से किया गया था. अर्नेस्टो युद्ध में हिस्सा लेने को तत्पर था. लेकिन जून 1954 में अर्बांज ने देश छोड़ने का निर्णय कर मैक्सिको के दूतावास में शरणागत हो गया. उसने अपने विदेशी समर्थकों से भी तत्काल ग्वाटेमाला से निकल जाने का अनुरोध किया. अब अर्नेस्टो के लिए वहां रुके रहना मुश्किल ही था. उसने तत्काल मैक्सिको जाने का निर्णय कर लिया. अर्बांज सरकार के पतन के साथ ही ग्वाटेमाला में सुधारों का एक युग समाप्त हो गया. अर्नेस्टो के लिए ग्वाटेमाला के अनुभव हमेशा यादगार बने रहे. उन दिनों को याद करते हुए उसने आगे चलकर लिखा—

‘मैं अर्जेंटीना में जन्मा, क्यूबा में लड़ा, लेकिन मैं क्रांतिकारी बनूं, इसकी शुरुआत ग्वाटेमाला से हुई.’

मैक्सिको यात्रा के आरंभिक दिन बहुत कष्ट-भरे थे. अर्नेस्टो की जेब एकदम खाली थी. जितना धन वह घर से लेकर निकला था, वह समाप्त हो चुका था. नए देश में उसका न तो कोई परिचित था, न उसके पास कोई काम-धंधा, जिससे वह अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा कर सके. मैक्सिको में उसको अपने पिता के एक दोस्त का सहारा था. उसने अर्नेस्टो को एक कैमरा भेंट किया था. कोई और उपाय न देख अर्नेस्टो ने उसी से अमेरिका से आए सैलानियों की तस्वीरें खींचना आरंभ कर दिया, जिससे उसको कुछ सहारा मिला. मैक्सिको में ही उसकी भेंट पेरू मूल की अर्थशास्त्री हिल्डा जेडा अकोस्टा से हुई, जो कालांतर में प्रेमसंबंध में परिणित हो गई. प्रखर मेधावी हिल्डा के साम्यवादी नेताओं तथा क्रांतिकारी विचारकों से गहरे संबंध थे. अर्नेस्टो उससे सुरक्षित दूरी बनाए रखना चाहता था. तो भी दोनों की नजदीकियां धीरे-धीरे बढ़ती गईं. हिल्डा के माध्यम से ही उसकी भेंट मैक्सिको के साम्यवादी नेताओं और विचारकों से हुई. वहीं पर वह निर्वासित जीवन जी रहे क्यूबा के क्रांतिकारी नेता फिदेल कास्त्रो से मिला. वह मुलाकात दोनों के लिए परिवर्तनकारी सिद्ध हुई. दोनों पूरी रात बात करते रहे. दिन निकलने पर भी उनकी बातों का सिलसिला बना रहा. वह एक युगांतरकारी घटना थी, जिससे नए क्यूबा की तस्वीर गढ़ी जानी थी. फिदेल से अपनी पहली भेंट के पश्चात अर्नेस्टो ने अपनी डायरी में लिखा—

‘मैं जब उससे मिला वह मैक्सिकों की भीषण सर्दं रातों में से एक थी; और मुझे याद है कि हमारी पहली बातचीत विश्व-राजनीति को लेकर हुई थी. कुछ घंटे बाद सोने से पहले मैं अपने भविष्य की दिशा तय कर चुका था. वस्तुतः लातीनी अमेरिका की यात्रा, जिसका समापन ग्वाटेमाला में हुआ, के दौरान हुए अनुभवों के बाद, निरंकुश शासकों के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर मुझे आकर्षित करना कठिन नहीं रहा था. फिदेल ने मुझे असाधारण नेता की भांति प्रभावित किया था. मैं जानता था, उसने कई मुश्किलों का सामना किया है, उनके समाधान भी निकाले हैं….मैं उसके प्रखर आशावाद से प्रभावित में था. युद्ध और युद्ध की योजना को लेकर बहुत कुछ किया जाना बाकी था. सच तो यह है कि बातचीत के लिए चीखना-चिल्लाना भूलकर हम युद्ध के लिए तैयार हो रहे थे….’

मैक्सिको की यात्रा के दौरान अर्नेस्टो को उसका उपनाम मिला—‘चे’, स्पानी मूल के इस शब्द का आशय है—मित्र, भाई, सखा आदि. लातीनी अमेरिकी देशों में व्यक्ति विशेष के प्रति सघन आत्मीयता दर्शाने के लिए भी किया जाता है. अर्जेंटीना स्वयं लातीनी अमेरिकी देश है, किंतु बाकी देश अर्जेंटीना से आए लोगों को भी ‘चे’ का संबोधन करते है. चे ग्वेरा के साथ यह संबोधन इसलिए भी जुड़ा था कि वह अपने संपर्क में आने वाले लोगों को अनौपचारिक भाषा में अक्सर ‘चे’ कहकर बुलाता रहता था. बहरहाल यह संबोधन चे ग्वेरा के साथ सदैव के लिए जुड़ गया. कालांतर में वह इसी से पूरी दुनिया में पहचाना गया. मैक्सिको में उसकी आर्थिक स्थिति लगातार गड़बड़ाती जा रही थी. दूसरी ओर क्रांति के प्रति उसका विश्वास दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था. उसको लग रहा था कि राजदूत एवं राजनेता अमेरिकी साम्राज्यवाद को मतपत्र द्वारा नहीं जीत पाएंगे. उसको केवल बंदूक द्वारा पराजित किया जा सकता है. क्रांति को केवल क्रांति द्वारा ही पराजित किया जा सकता है. इस बीच उसकी मुलाकात निर्वासन की सजा झेल रहे क्यूबा के प्रमुख क्रांतिकारियों से हुई, जिनमें नीको ला॓पेज जैसा क्रांतिधर्मी भी था. ला॓पेज ने अर्नेस्टो को क्यूबा आंदोलन के बारे में काफी जानकारी दी. अर्नेस्टो ग्वाटेमाला की क्रांति को असफल होते देख चुका था, किंतु वह आशा से भरा हुआ था और ग्वाटेमाला के संघर्ष की कमजोरियों से बचना चाहता था. उस समय उसका एक ही उद्देश्य था, अमेरिका के समर्थन पर टिकी निरंकुश सत्ता को उखाड़ फेंकना. लेकिन यह सब उसका दिमागी फितूर ही बना रहता यदि उससे फिदेल कास्त्रो का साथ उसको न मिला होता. इस बीच 18 अगस्त 1955 को उसने हिल्डा जीडिया से विवाह कर लिया.

क्यूबा के लिए संघर्ष

क्यूबा से निर्वासित क्रांतिकारी नेताओं की बड़ी संख्या मैक्सिको में सजा भुगत रही थी. फिदेल ने उन्हीं को संगठित कर क्यूबा के दक्षिणी समुद्र तट की ओर से बतिस्ता सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए व्यूह रचना की. उसकी योजना छापामार युद्ध द्वारा निरंकुश सरकार को उखाड़ फेंकने की थी. अर्नेस्टो अमेरिका समर्थित किसी भी निरंकुश सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए स्वयं को प्रतिबद्ध कर चुका था. इसलिए वह फिदेल के छापामार दल में शामिल हो गया. सैन्य प्रशिक्षण मैक्सिको में आरंभ हुआ. अपनी निष्ठा, चुस्ती-फुर्ती और संकल्प के बल पर अर्नेस्टो प्रशिक्षण के अंत में ‘सर्वश्रेष्ठ गुरिल्ला’ सिद्ध हुआ. उसके सैन्य प्रशिक्षक कर्नल अल्ब्रेटो बाय ने उन दिनों को याद करते हुए कहा था—

‘‘चे ग्वेरा को कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था. उसके सर्वाधिक अंक थे. हर विषय में दस में दस. फिदेल ने जब उसकी अंकतालिका देखी तो मुझसे पूछा—‘ग्वेरा हर बार प्रथम स्थान पर क्यों है?’ ‘उसे होना ही चाहिए, इसलिए कि वह सर्वश्रेष्ठ है. वह ठीक वैसा है, जैसा कि मैं सोचता हूं’—मैंने बताया था. ‘मेरा भी उसके बारे में यही विचार है’—कास्त्रो का उत्तर था.’’

प्रशिक्षण के दिनों ही हिल्डा ने अर्नेस्टो की बेटी को जन्म दिया. 14 जून, 1956 को एक घटना और घटी. फिदेल कास्त्रो तथा उसके दो सहयोगियों को सम्राट बतिस्ता की हत्या के षड्यंत्र में गिरफ्तार कर लिया गया. उसके दस दिन बाद ही अर्नेस्टो भी क्यूबाई सेना के शिकंजे में फंस गया. परंतु आरोप सिद्ध न हो पाने के कारण एक महीने बाद ही फिदेल को रिहा कर दिया गया. अर्नेस्टो को मुक्त करने का खेल चलता रहा. अंततः अगस्त के मध्य में 57 दिन के कारावास के पश्चात उसको भी मुक्ति दे दी गई. इस घटना के बाद अर्नेस्टो का अमेरिका विरोध और भी मुखर हो गया. इरादे कुछ और मजबूत हुए थे. रिहा होने के तुरंत बाद वह कास्त्रो से मिला. दोनों मिलकर क्रांति को नए सिरे से अंजाम देने में जुट गए.

25 नवंबर, 1956 को अर्नेस्टो ने छापामार दस्ते के साथ मैक्सिको के रास्ते क्यूबा पर आक्रमण किया. उसके साथ केवल 82 छापामार योद्धा थे. भीषण युद्ध में अर्नेस्टो के 60 सिपाही मारे गए. यह एक बड़ी पराजय थी, किंतु अर्नेस्टो का हौसला बना रहा. बचे हुए 22 सैनिकों के साथ वह नए सिरे से संगठित होने के प्रयास में जुट गया. सीएरा मिस्ट्रा की पहाड़ियों में वह छापामार लड़ाई की तैयारी करता रहा. मलेरिया, मच्छर, भूख-प्यास से भरे उन दिनों को उसने ‘युद्ध के सबसे दर्दनाक दिन’ के रूप में याद किया है. उन दिनों वह एक छापामार सैनिक अथवा सैन्यदल का नेता मात्र नहीं था. हथियारों की कमी को पूरा करने के लिए उसने ग्रेनेड बनाने के कारखाने लगाए. अपने संघर्ष से जनसाधारण को परचाने के लिए उसने लोगों को पढ़ाना आरंभ किया. सैनिक अपवाह का शिकार न हों, इसके लिए वह नियमित रूप से समाचारपत्र पढ़ता और पढ़वाता. स्थानीय किसानों को साम्राज्यवादी अमेरिका के मंसूबों तथा उसकी शोषणकारी नीतियों के बारे में समझाता. कास्त्रो का दिमाग आमने-सामने की लड़ाई में दुश्मन को मात देने के लिए बना था. उसका संगठन-सामथ्र्य चामत्कारिक था. लेकिन जमीनी स्तर पर युद्ध की तैयारी करना, अपने विचारों और संघर्ष के लिए जनता की सहानुभूति बटोरने का काम अर्नेस्टो का था. असल में वह कलम और बंदूक दोनों का सिपाही था. यही कारण था जिससे उसके अभियान को स्थानीय जनता का सहयोग मिलता था. ‘टाइम पत्रिका’ ने उसको ‘कास्त्रो का दिमाग’ कहा है. वह अति की सीमा तक अनुशासनप्रिय था. अपनी सैन्य टुकड़ी को एकजुट और सुरक्षित रखने के लिए वह कुछ भी कर सकता था. युद्ध के दौरान पीठ दिखाना उसको नापसंद था. उसकी सेना में—

‘भगोड़ों को विश्वासघाती माना जाता था. बिना पूर्वसूचना के अवकाश पर जाने, युद्धक्षेत्र में पीठ दिखाने वाले सैनिकों को मृत्युदंड देने के लिए चे उनके पीछे सैनिक छोड़ देता था.’

अर्नेस्टो का मानना था कि भगोड़े सैनिक दुश्मन के हाथों में पड़कर संगठन के बारे में आवश्यक जानकारियां उन्हें दे सकते हैं. इससे क्रांति का लक्ष्य पीछे खिसक सकता है. ऐसे सैनिकों को वह स्वयं भी दंडित कर सकता था. यूटीमियो ग्वेरा इसका सटीक उदाहरण था, जिसने कास्त्रो से बदला लेने की मंशा से निकले एक सुरक्षाकर्मी का नेतृत्व किया था. यूटीमियो को क्यूबा की राष्ट्रवादी सेना ने गिरफ्तार कर लिया था. बाद में उसको इस शर्त पर छोड़ दिया गया था कि वह कास्त्रो के ठिकानों के बारे में सूचना देगा. यूटीमियो ने जो सूचना क्यूबा सरकार को भेजी उसके आधार पर क्यूबा सैनिकों ने विद्रोहियों के ठिकाने पर हमला बोल दिया. उसमें चे के अनेक क्रांतिकारी सैनिक मारे गए. जब यूटोमियो के विश्वासघात की सूचना चे तक पहुंची तो वह चुप हो गया. उसका क्या किया जाए इसका समाधान सिर्फ चे के दिमाग में था. यूटोमियो को मृत्युदंड दिया गया. बहुत दिन तक रहस्य बना रहा कि उसको गोली किसने मारी थी. चे की निजी डायरी में उसका उल्लेख मिलता है. यूटोमियो के साथ जो हुआ उससे चे की अनुशासनप्रियता तथा सख्त गुरिल्ला योद्धा की छवि का पता चलता है. चे ने लिखा है कि—

‘यूटीमियो के साथ-साथ बाकी सब लोग परेशान थे. इसलिए मैंने समस्या को ही खत्म कर करना उचित समझा. मैंने अपनी 0.32 बोर की केलीबर पिस्तौल निकाली तथा उसके मस्तिष्क के दाहिनी ओर से गोली दाग दी. क्षण-भर में गोली खोपड़ी के पार निकल गई. वह कुछ पल तड़फा और मर गया….’

फरवरी 1957 अर्नेस्टो के लिए बहुत कष्टकारी सिद्ध हुआ. उस दिन उसका दमा उखड़ा हुआ था. सांस लेने में भी भारी तकलीफ हो रही थी. वह अपने साथियों के साथ घात लगाए बैठा था. तभी जबरदस्त धमाका सुनाई पड़ा. सनसनाती हुई गोलियां हवा को चीरने लगीं. मौत मैदान में नाचने लगी. अर्नेस्टो समझ गया, क्यूबा के सैनिक उसकी खोज में भटक रहे थे. विद्रोही सैनिकों के लिए वहां टिके रहना कठिन हो गया तो वे चाॅकलेट और दूध के पाउडर को उठाकर वहां से आगे बढ़ गए. लेकिन अर्नेस्टो की हालत आगे बढ़ने की न थी. उसको लगातार उल्टियां हो रही थीं. ऊपर से उसकी दवाइयां भी समाप्त हो चुकी थीं. अंततः एक स्थानीय किसान को दवा का इंतजाम करने के लिए भेजा गया. क्यूबा के सैनिक चप्पे-चप्पे पर छाए हुए थे. दवा लेने गया किसान दो दिन बाद लौटा, केवल एक खुराक दवा के साथ. इस अवधि में अर्नेस्टो केवल अपनी इच्छाशक्ति के बल पर बीमारी से जूझता हुआ, स्वयं को क्यूबाई सैनिकों से बचाता रहा. उधर क्यूबा का तानाशाह सम्राट कास्त्रो के मारे जाने और विद्रोह के कुचले जाने का ऐलान कर रहा था. ऐसे में ‘टाइम मैग्जीन’ ने फिदेल कास्त्रो के जीवित होने तथा उसको स्थानीय लोगों के समर्थन की खबर दी. फलस्वरूप दुनिया-भर के पत्रकार कास्त्रो का साक्षात्कार लेने, उसका समाचार प्रकाशित करने के लिए उमड़ पड़े. कास्त्रो और अर्नेस्टो रातो-रात ‘हीरो’ बन गए. सम्राट बतिस्ता के उत्पीड़न और भ्रष्टाचार से दुखी लोग परिवर्तन की आस करने लगे. यह विद्रोहियों की नैतिक विजय थी, जिसने क्रांति को हवा देने का काम किया. युद्ध का अगला मोर्चा उवेरो में बना. उसमें चे ने कमांडर के रूप में विद्रोहियों का नेतृत्व किया था. उस मोर्चे पर 80 विपल्वी 53 क्यूबाई सैनिकों के सामने थे. उस युद्ध में विद्रोही दुश्मन सेना पर भारी पड़े. लड़ाई में क्यूबा सेना के 14 सैनिक मारे गए, 19 हताहत हुए तथा 14 को कैद कर लिया गया. विद्रोही सैनिकों में से मात्र 6 हताहत हुए थे. उस युद्ध में चे की भूमिका की प्रशंसा करते हुए हैरी नाम के एक ग्रामीण ने कहा था—

‘वह एकमात्र सैनिक था जो लड़ाई में हमेशा आगे रहता था. वह दूसरों के लिए एक मिसाल था. उसने यह कभी नहीं कहा कि जाओ और जाकर लड़ो. बल्कि हमेशा यही कहता था, लड़ाई में मेरा पीछा करो.’

युद्ध समाप्त होने के साथ ही चे का सैनिक शांत होकर उसके भीतर सिमट जाता था. उसके तुरंत बाद उसका डाॅक्टर सक्रिय हो जाता. वह तन-मन से घायलों की सेवा-सुश्रुषा में जुट जाता. उवेरो में मिली विजय से क्यूबा का एक भू-भाग विद्रोही सैनिकों के कब्जे में आ चुका था. उस सफलता पर प्रसन्न होकर कास्त्रो ने चे को कमांडेट का पद सौंपा था. छापामार सेना का एकमात्र कमांडर स्वयं कास्त्रो था. अपनी सफलता पर खुश होने, जीत का जश्न मनाने के बजाय चे ने युद्ध के अन्य मोर्चों पर काम करना आरंभ कर दिया. बिना जनसमर्थन के क्रांति संभव नहीं, यह सोचकर चे ने समाचारपत्र निकालने की योजना बनाई. पत्र के माध्यम से उसका दूसरा लक्ष्य बतिस्ता सरकार की कारगुजारियों को दुनिया के सामने लाना था. अंततः क्यूबा से ही ‘अल क्यूबानो लिब्रे’ नामक समाचारपत्र का प्रकाशन आरंभ किया गया. उसी वर्ष विद्रोही सेना की ओर से एक रेडियो स्टेशन की स्थापना भी की गई. उसमें भी चे की प्रमुख भूमिका थी. क्यूबा में क्रांति की सफलता में रेडियो स्टेशन की बड़ी भूमिका रही.

लास मर्सिडिस की लड़ाई क्यूबा क्रांति का निर्णायक मोड़ बनी. 29 जुलाई से 8 अगस्त, 1958 तक चली इस लड़ाई में बतिस्ता सरकार की योजना विद्रोहियों को एक ही झटके में समाप्त कर देने की थी. कास्त्रो के छापामार सैनिकों को जाल में फंसाने के लिए क्यूबाई सेनापति ने एक चाल चली थी. जिस स्थान पर छापामार सैनिक जमा थे, उसको 1500 सैनिकों ने चारों ओर घेर लिया, लेकिन चे को उसकी भनक लग गई. वह क्यूबाई सेनापति को मुंहतोड़ जवाब देने की तैयारी करने लगा. इस बीच सेनापति केंटिलो की ओर से उसको समर्पण का संदेश मिला. चे ने विचार करने के लिए समय मांगा और युद्धविराम का प्रस्ताव रखा. इसको विद्रोही सैनिकों की हताशा मानते हुए केंटिलो ने उसको स्वीकार कर लिया. उधर युद्धविराम की अवधि का फायदा उठाते हुए विद्रोही सैनिक पहाड़ियों में समा गए. एक प्रकार से वह केंटिलो की सेना की विजय ही थी, जो उसने बिना सैनिकों का खून बहाए प्राप्त की थी. लेकिन सम्राट बतिस्ता ने इसका दूसरा ही अर्थ लिया. उसको अपने सेनापतियों की निष्ठा पर ही संदेह होने लगा. इसका प्रतिकूल प्रभाव सैनिकों के मनोबल पर पड़ा. कास्त्रो को ऐसे ही अवसर की प्रतिक्षा थी. उसने छापामार सैनिकों के साथ आक्रमण कर दिया. चे को सांता क्लारा को कब्जाने की जिम्मेदारी सौंपी गई. वह क्यूबा का चैथा सबसे बड़ा शहर था. लेकिन वहां बतिस्ता सरकार ने अपनी पूरी सैनिक ताकत झोंकी हुई थी. छह सप्ताह तक चारों ओर से दुश्मन सेनाओं से घिरा चे युद्ध करता रहा. कई बार लगा हार सुनिश्चित है. उसे बचाने के लिए चे ने बड़े ही कौशल से अपने छापामार सैनिकों का नेतृत्व किया. आखिर जीत उसके पक्ष में रही. 28 दिसंबर 1958 को चे ने अपने सैनिकों के साथ कैबीरियन तट से कमाजौनी तक विजय मार्च किया. स्थानीय जनता, विशेषकर किसान उसके सैनिकों का हर्षातिरेक के साथ स्वागत कर रहे थे. चे कितना कुशल सेनापति था, इसका संकेत उसकी डायरी में लिखे एक घटनाक्रम से मिलता है—

‘‘मैंने एक सैनिक को पूरे युद्ध के दौरान सोते रहने पर फटकारा. उसने उत्तर में बताया कि लड़ाई में आदेश के बगैर फायरिंग शुरू करने के अपराध में उसके हथियार छीन लिए गए हैं. सुनकर मैंने हमेशा की तरह सूखे स्वर में कहा—‘अगर ऐसा है तो अपने लिए रायफल खुद जीतो. यदि तुम सचमुच बहादुर हो तो मोर्चे तक बिना किसी हथियार के जाना.’….सांता क्लारा में मैं घायलों का ढाढस बंधा रहा था. उसी समय एक मरणासन्न सैनिक ने मेरा हाथ पकड़ लिया. मैं कुछ कहूं, उससे पहले वह बोला, ‘कमांडर, क्या आप जानते हैं? आपने मुझे मोर्चे से हथियार लाने भेजा था. और मैंने वह कर दिखाया.’ यह वही सैनिक था जिसने बिना किसी आदेश के फायरिंग शुरू कर दी थी. कुछ मिनट के बाद वह शहीद हो गया. पर उस समय उसके चेहरे पर संतोष के भाव थे…कुछ ऐसे थे हमारे विद्रोही सैनिक.’’

सांता क्लारा के लिए चल रहे घमासान के बीच में ही बतिस्ता सरकार ने रेडियो से चे के मारे जाने तथा अपनी जीत का समाचार प्रसारित करा दिया था. लेकिन असलियत कुछ ही दिनों में सामने आ गई. मात्र 300 सैनिको की छापामार टुकड़ी के साथ चे कर्नल केसीलस लंपी को न केवल पराजित करने में कामयाब हुआ. चे की मौत का झूठ समाचारपत्रों के माध्यम से दुनिया के सामने आया. इससे बतिस्ता सरकार की खूब किरकिरी हुई. मुट्ठी-भर छापामार सैनिकों के साथ चे न केवल युद्ध में विजयी हुआ था, बल्कि वह सरकार द्वारा भेजी मोर्चे पर भेजी गई हथियारों से लदी रेलगाड़ी को भी अधिकार में ले चुका था. यह घटना राष्ट्रवादी बतिस्ता की सेनाओं का मनोबल तोड़ने वाली सिद्ध हुई. क्यूबाई सेना के सैनिक विद्रोहियों के साथ मिलने लगे. 1959 के नववर्ष संदेह में विद्रोहियों के रेडियो स्टेशन से सांता क्लारा पर कब्जे का संदेश दुनिया-भर में सुनाई पड़ा. जैसे ही राष्ट्रपति बतिस्ता को संदेश मिला कि उसके सेना के अधिकारी विद्रोहियों से मिलकर शांति-प्रस्ताव को आगे बढ़ाने की योजना बना रहे हैं, उसने घबराकर क्यूबा छोड़ दिया. उसके ठीक एक सप्ताह बाद, 8 जनवरी 1959 को फिदेल कास्त्रो और चे ग्वेरा ने विजयोल्लास के साथ हवाना में प्रवेश किया तो उनका स्वागत उत्साहित भीड़ द्वारा किया गया. क्यूबा की राष्ट्रवादी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए छेड़ा गया सैन्य अभियान लगभग पूरा हो चुका था. अब बारी राजनीतिक-आर्थिक परिवर्तन की थी, जिसमें क्रांति का वास्तविक लक्ष्य निहित था.

क्यूबा के सत्ता-परिवर्तन में फिदेल कास्त्रो के अलावा और भी कई छोटे-मोटे दल सम्मिलित थे, जो राष्ट्रवादी सरकार से असंतुष्ट चल रहे थे. तो भी इस विजय का सेहरा फिदेल कास्त्रो और चे ग्वेरा के सिर बंधा. इस क्रांति का बौद्धिक सूत्रधार केवल और केवल चे ग्वेरा था. चे के माता-पिता समेत उसका पूरा परिवार क्यूबा पहुंच चुका था. उनके मन में एक ही प्रश्न था. इस सफलता के बाद क्या चे क्यूबा में रुका रहेगा, या अर्जेंटीना वापस लौटकर अपने चिकित्सा के पेशे को संभालेगा. चे इस मुद्दे पर एकदम स्पष्ट था. उसका मानना था कि सिर्फ राजनीतिक सत्ता प्राप्त कर लेने से क्रांति का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता. अपने पिता से उसने कहा था—

‘जहां तक मेरे डा॓क्टरी के पेशे का सवाल है, यह स्पष्ट है कि मैं उसको बहुत पहले छोड़ चुका हूं. फिलहाल मैं एक योद्धा हूं, जो सरकार के साथ एकजुट होकर काम कर रहा है. मेरा अंत कैसा होगा? यह मैं भी नहीं जानता कि ये हड्डियां धरती के कौन-से हिस्से पर मेरा साथ छोड़ेंगी.’

जनवरी के अंतिम सप्ताह में चे की पत्नी और बेटी हिल्डा जेडिया भी उससे मिलने क्यूबा पहुंची. तब तक उनकी मुलाकात के मायने बदल चुके थे. छापामार युद्ध के दौरान चे अलीडा मार्क के संपर्क में आया था. उसके बाद से दोनों साथ-साथ रहते आ रहे थे. चे ने हिल्डा से तलाक देने की मांग की. परिणामस्वरूप 22 मई को दोनों एक-दूसरे से हमेशा के लिए अलग हो गए. उसके दस दिन बाद चे ने अलीडा से विवाह कर लिया. चे का अगला लक्ष्य क्यूबा का पुनःनिर्माण करना था. कास्त्रो ने सत्ता संभालते ही एक निर्णय लेते हुए उन सभी विदेशियों को जिन्होंने बतिस्ता सरकार को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में न्यूनतम दो वर्ष लगाए थे, क्यूबा की नागरिकता प्रदान कर दी. चे अब क्यूबाई नागरिक था. क्रांति की सफलता का भरपूर श्रेय भी उसको मिला था. उसका अगला लक्ष्य था बतिस्ता सरकार के अवशेषों पर प्रहार करना. उस मानसिकता को ध्वस्त करना, जो निरंकुशता को वरेण्य बनाती है. बतिस्ता के निरंकुश शासनकाल में विद्रोहियों ने अपनी अधीन प्रांतों में एक कानून लागू किया था, जिसके अनुसार गंभीर अपराध के लिए मृत्युदंड का प्रावधान था. इस कानून को ‘ले दे ला सीएरा’(सीएरा का कानून) कहा गया था. कास्त्रो ने सत्ता संभालते ही इस कानून को पूरे देश पर लागू कर दिया. जनसामान्य द्वारा इसका जोरदार स्वागत किया गया. उत्साह और जश्न के माहौल में क्रांति के अगले अतिवादी चरण की कल्पना शायद ही कोई कर पाया था. क्यूबा के प्रसिद्ध ‘ला कबेना फोर्टेस’ कारागार में सैकड़ों युद्धबंदी गिरफ्तार थे. उनको दंडित करने का काम चे ग्वेरा को सौंपा गया. क्रांति के लक्ष्य को लेकर गंभीर चे का मानना था कि हर उस व्यक्ति से मुक्ति पाना अनिवार्य है, जो उसके मार्ग में अवरोधक है. अपने एक मित्र बुनोस ऐरस को 5 फरवरी 1959 को लिखे गए पत्र में उसने लिखा था—

‘मृत्युदंड न केवल आवश्यक है, बल्कि यह क्यूबा की जनता द्वारा निर्धारित किया गया है.’

इसे हम क्रांति का स्याह पक्ष अथवा दमनात्मक कार्रवाही कह सकते हैं, निरंकुश सत्ता सदैव विपक्ष की उपस्थिति से आतंकित रहती है. जनता की मृत्युदंड के प्रति सहमति जताने का नाटक स्वयं फिदेल कास्त्रो द्वारा एक जनसभा के दौरान किया गया था. अमेरिका की समाचार एजेंसी ‘यूनीवर्सल न्यूजरील’ ने 22 जनवरी 1959 को एक समाचार प्रसारित किया था. उसके अनुसार उपस्थित जनसमुदाय से कास्त्रो ने अपील की थी कि क्या आप उन अपराधियों को मृत्युदंड देना चाहते हैं, जो भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं. जिन्होंने आपका वर्षों-वर्ष शोषण किया है. इसपर पूरे मैदान से आवाज आई थी—‘हां.’ कहा जाता है कि जनता का आक्रोश बतिस्ता सरकार द्वारा बीस हजार से अधिक क्यूबावासियों को मृत्युदंड दिए जाने से उपजा था. बहरहाल, चे के नेतृत्व में बिना किसी विधि-सम्मत प्रक्रिया के विद्रोहियों को मृत्युदंड दे दिया गया. कुल कितने विरोधियों को दंडित किया गया, इस बारे में अलग-अलग धारणाएं हैं. चे के अधीन काम करने वाले वकील जोन विलासुओ द्वारा लिखित एक दस्तावेज के अनुसार मृत्युदंड दिए जाने की कार्रवाही सोमवार से शनिवार तक चली थी. उसमें प्रतिदिन एक से सात; और कभी-कभी उससे अधिक कैदियों को मृत्युदंड की सजा दी गई—

‘मृत्युदंड की कार्रवाही सोमवार से शनिवार तक चलती रही, प्रत्येक दिन एक से सात कैदी, कभी अधिक भी दंडित किए गए. मृत्युदंड की सजा को फिदेल कास्त्रो, राॅल तथा चे का पूर्ण समर्थन प्राप्त था. उसका निर्णय ट्रिब्युनल अथवा कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से लिया गया था. सजायाफ्ता कैदियों पर गोली दागने के बदले फायरिंग स्क्वाड के प्रत्येक सदस्य को 15 पीसो तथा अधिकारियों को 25 पीसो दिए प्रति कैदी दिए गए थे. कुल मिलाकर ला कबना में जून 1959 तक दोनों ओर से करीब चार हजार व्यक्तियों को मृत्युदंड दिया जा चुका था.’

कुठ विद्वानों का मत है कि वास्तविक संख्या बहुत कम थी. चे ने उदारता दर्शाते हुए अनेक कैदियों को जहां तक उसके लिए संभव था, माफ भी किया था. बहरहाल, चे अपने संघर्षशील स्वभाव, दृढ़ इच्छाशक्ति, कभी हार न मानने वाली मनोवृत्ति के कारण क्यूबा को साम्राज्यवादी अमेरिका के चंगुल से लाने में सफल हो ही चुका था. इसको हम क्रांति की विडंबना कहें अथवा साम्यवादी राजनीति का लक्ष्य से अकसर भटक जाने वाला स्वभाव—प्रतिहिंसा साम्यवादी क्रांति की अवश्यंभावी घटना रही है. इस संभावना से माक्र्स तो माक्र्स, बल्कि प्लेटो भी परिचित था. इसलिए माक्र्स ने जहां वर्गहीन समाज की अभिकल्पना प्रस्तुत की थी, वहीं उससे लगभग इकीस सौ वर्ष पहले प्लेटो ने भी कुछ ऐसा ही डर दिखाते हुए दार्शनिक मंडल को सत्ता सौंपे जाने का सुझाव दिया था. माक्र्स का कहना था कि सत्ता प्रतिष्ठानों, उद्योगों पर अधिकार प्राप्त कर लेने के उपरांत सर्वहारा वर्ग को वर्ग-व्यवस्था के उन्मूलन की कार्रवाही आरंभ कर देनी चाहिए. उसने इसको साम्यवादी क्रांति का अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण चरण माना है. वर्ग-उन्मूलन के लिए किसी भी प्रकार की हिंसक कार्रवाही का समर्थन मार्क्स नहीं करता. प्लेटो का मानना था स्वभाव से उदार और विद्वत दार्शनिक मंडल को, राज्य के भीतर, अपने कार्यों के लिए हिंसा की आवश्यकता ही नहीं है.

समाजार्थिक सुधार
‘क्रांतिकारी न्याय’ के दायित्व से मुक्त होने के बाद चे ने क्यूबा में समाजार्थिक सुधारों की शुरुआत की, जो क्रांति का वास्तविक लक्ष्य था. क्यूबा पर कब्जा करने के कुछ दिन बाद ही उसने जनता के नाम जोरदार संदेश जारी किया था, जिसमें उसने कहा था कि क्यूबा की नई सरकार का प्रथम उद्देश्य सामाजिक न्याय कायम करना है. पहले चरण में भू-वितरण को प्राथमिकता दी जाएगी. उसके कुछ महीने पश्चात 17 मई 1959 को चे ने कृषि सुधार नियम’ लागू किया, जिसमें समस्त कृषि भूमि को बड़े कृषि फार्मों में बांटने का आदेश जारी किया गया था. प्रत्येक कृषिफार्म का क्षेत्रफल 1000 एकड़, लगभग 4 वर्ग किलोमीटर था. जिसके पास भी इससे अधिक कृषिभूमि थी, उसका अधिग्रहण कर उसको लगभग 67 एकड़ के कृषि भूखंडों में बांट दिया गया था. एक और कानून यह भी बनाया कि चीनी के लिए की जाने वाली खेती से विदेशियों को दूर रखा जाएगा. आर्थिक विषमता के उन्मूलन के लिए चे द्वारा उठाए गए कदमों का आम जनता ने खुलकर स्वागत किया. लेकिन चे का समाजवादी राज्य का सपना केवल क्यूबा तक सीमित नहीं था. वह पूरे लातीनी अमेरिका के साथ बाकी विश्व को भी साम्राज्यवादी अमेरिका से दूर रखना चाहता था. 12 जून, 1959 को वह तीन महीने की विदेश यात्रा के लिए रवाना हुआ. इस बार उसका पड़ाव मोरेक्को, सुडान, सीरिया, यूनान, पाकिस्तान, थाइलेंड, यूगोस्लाविया, ग्रीक, जापान आदि देश बने. यात्रा से पहले उसको विदा करने फिदेल कास्त्रो स्वयं हवाई अड्डे तक पहुंचे थे.

चे की जापान यात्रा का प्रमुख उद्देश्य दोनों देशों के बीच व्यावसायिक रिश्ते कायम करना था. वहां भी उसकी पुरानी ठसक जो अटूट सिद्धांतनिष्ठा से जन्मी थी, बरकार रही. जापान में उसने एक अनाम सैनिक की समाधि पर जाने तथा वहां श्रद्धासुमन अर्पित करने से यह कहकर इंकार कर दिया कि जापान ने दूसरे विश्वयुद्ध में लाखों निर्दोष सैनिकों का कत्लेआम किया था. इसके बजाय उसने हीरोशिमा जाने का यह कहते हुए विशेष आग्रह किया कि अमेरिकी सेना ने वहां जापान की राजशाही की निंदा किए बिना ही 14 वर्ष पहले बम फोड़ दिया था, जिससे लाखों जानें गईं, और अनगिनत लोग हताहत हुए. उस भीषण त्रासदी के लिए चे ने अमेरिकी राष्ट्रपति हेनरी ट्रूमेन को ‘पैशाचिक जोकर’ कहकर उसकी निंदा की थी. चे की यात्रा ने बुद्धिजीवियों में हलचल पैदा कर दी थी. ऐसे में जापान सरकार से अधिक मदद की अपेक्षा रखना अनुचित था. यात्रा के बीच उसने एक पोस्टकार्ड कास्त्रो सरकार को भेजा था, पत्र में उसमें लिखा था—

‘शांति के लिए संपूर्ण श्रद्धा से प्रयत्न से अच्छा है कि हममें से कोई एक हीरोशिमा के बारे में सोचे.’

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सितंबर, 1959 में चे को क्यूबा वापस लौटना पड़ा. फिदेल के नेतृत्व में क्यूबा की सरकार भूमि सुधारों को तेजी से लागू करने का प्रयास कर रही थी. चे को सूचना मिली कि नई भू-अधिग्रहण नीति के अंतर्गत सरकार ने भू-स्वामियों को अर्जित भूमि के बदले कम ब्याजयुक्त ‘बांड’ देने के बजाय मुआवजा बांटने का निर्णय लिया था. इससे नाराज होकर जमींदारों ने भू-वितरण की प्रक्रिया का विरोध कर रहे हैं. विरोधी नेताओं ने इसको ‘साम्यवादी निरंकुशता’ कहकर सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है. विद्रोहियों को पड़ोस के गैर साम्यवादी देशों सहित अमेरिका का भी समर्थन प्राप्त था. परिणामस्वरूप देश में सरकार विरोधी माहौल बनने लगा. कास्त्रो ने विरोधियों को कुचलने तथा भूमि-सुधारों को सख्ती से लागू करने का दायित्व चे को सौंप दिया. कानून के कार्यान्वन के लिए ‘राष्ट्रीय भूमि सुधार संस्था’ का गठन किया गया. चे उसका प्रमुख कर्ता-धर्ता मनोनीत हुआ. उसको उद्योगमंत्री का पद दिया गया. विद्रोही जमींदारों के दमन तथा भूमि सुधार कार्यक्रम को गति देने के लिए चे ने एक नए सैन्य दल का गठन किया. परिवर्तन के लिए उत्साही युवा तेजी से उस दल में भर्ती होने लगे. बहुत जल्दी उसके सैनिकों की संख्या एक लाख तक पहुंच गई. ‘राष्ट्रीय भूमि सुधार दल’ के सैनिकों से पहले तो उपद्रवी नेताओं, जमींदारों को सख्ती से कुचलने का काम लिया गया. फिर उन्हें जरूरतमंदों के बीच भूमि के बंटवारे का काम भी सौंप दिया गया. क्यूबा में हजारों हेक्टेयर कृषि-भूमि पर अमेरिका की पूंजीवादी कंपनियों का अधिकार था. उनके कब्जे से 4,80,000 एकड़ भूमि मुक्त कराई गई. इससे नाराज होकर अमेरिका ने क्यूबा से चीनी आयात पर प्रतिबंध लगा दिया. चीनी उद्योग क्यूबाई अर्थव्यवस्था की रीढ़ था. अमेरिका को विश्वास था कि इस कदम से क्यूबा सरकार का हौसला पस्त हो जाएगा. लेकिन चे जैसे जनक्रांति से उभरे नेता के लिए अमेरिकी तानाशाही का लोकतांत्रिक विरोध करना असंभव न था. अमेरिका की दादागिरी के विरोध में चे ने 10 जुलाई 1960 को ‘प्रेसीडंेशियल पैलेस’ के समक्ष विशाल प्रदर्शन किया, जिसमें एक लाख से अधिक श्रमिकों ने हिस्सा लिया. अपने भाषण में चे ने अमेरिकी राष्ट्रपति के कदम को उसके ‘आर्थिक आतंकवाद’ की संज्ञा दी दी.

क्यूबा के पुनर्निर्माण के लिए चे एक ओर तो भूमि-सुधार के क्षेत्र में मजबूत पहल कर रहा था, दूसरा मोर्चा उसने शिक्षा के क्षेत्र को बनाया हुआ था. 1959 से पहले क्यूबा में शिक्षानुपात मात्र 60-76 प्रतिशत था. ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रतिशत और भी कम था. शिक्षकों की कमी और सरकारी उदासीनता के चलते किसानों और मजदूरों का बड़ा वर्ग अशिक्षित था. जिसके अभाव में अमेरिकी कंपनियां उनका आर्थिक शोषण करती थीं. शिक्षा की महत्ता को समझते हुए चे ने उसके प्रसार के लिए 1961 को शिक्षा-वर्ष घोषित किया. अपने कार्यक्रम को विस्तार देते हुए उसने एक लाख स्वयंसेवकों के साथ ‘साक्षरता दल’ का गठन किया. इस दल के सदस्यों को नए स्कूल भवनों के निर्माण तथा प्रशिक्षित शिक्षक तैयार करने का दायित्व सौंपा गया. इसके अलावा ‘साक्षरता दल’ के सदस्य आदिवासी किसानों को पढ़ाने-लिखाने की जिम्मेदारी भी उठाते थे. आर्थिक सुधार कार्यक्रमों की तरह ही चे ग्वेरा के ‘क्यूबाई साक्षरता अभियान’ को भी अप्रत्याशित सफलता मिली. इस अभियान के अंतर्गत 7,07,212 प्रौढ़ों को साक्षर बनाने के साथ ही साक्षरता अनुपात को 96 प्रतिशत पहुंचा दिया गया. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति लाने का काम भी चे ने किया. शिक्षा को जनोन्मुखी बनाने के लिए उसने सभी विश्वविद्यालयों से सकारात्मक सोच अपनाने का आवाह्न किया. ‘यूनीवर्सिटी आॅफ लास विलाज’ में जमा हुए क्यूबा के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों के शिक्षाशास्त्रियों, कुलपतियों को संबोधित करते हुए उसने कहा कि अभी कुछ दिन पहले तक शिक्षा पर सफेदपोश अभिजन का वर्चस्व था. समय आ चुका है, अब हमें अपनी शिक्षानीति बदलनी होगी—

‘हमारी अगली चुनौती धूल-धूसरित किसानों, मजदूरों, कामगारों को शिक्षित करना है. यदि हम इस काम में चूक करते हैं तो कुपित जनता आपके दरवाजे तोड़कर भीतर चली आएगी और आपके विश्वविद्यालयों को ऐसे रंग से रंग देगी, जैसा वह पसंद करती है.’

विश्वविद्यालयों की शिक्षानीति पर टिप्पणी करते हुए 17 अक्टूबर, 1959 को दिए गए अपने महत्त्वपूर्ण भाषण में चे ने कहा था कि हमारे विश्वविद्यालयों ने प्राचीन सामाजिक परिपाटी को कायम रखते हुए अभी तक केवल डा॓क्टर, वकील और न्यायाधीश ही पैदा किए हैं. वे कृषि विज्ञानी, खेती को बढ़ावा देने वाले उत्साही कार्यकर्ता, अध्यापक, रसायनविद् और भौतिकविज्ञानी पैदा करने में अक्षम सिद्ध हुए हैं. उनकी अदूरदर्शिता के चलते हमारे यहां कोई अच्छा गणितज्ञ भी नहीं है. इसलिए शिक्षा-क्षेत्र में आमूल परिवर्तन की गुंजाइश है. उसका मानना था कि शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए राज्य को विश्वविद्यालयों के नीति-निर्धारण में हस्तक्षेप करना चाहिए. शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने के लिए समुचित कदम उठाए जाने चाहिए. अपने भाषण में उसने जोर देकर कहा था कि विश्वविद्यालय कोई हाथीदांत से बना आलीशान स्तंभ नहीं है, जिसको समाज से दूर अथवा क्रांति की परिधि से बाहर रखा जाए. यदि ऐसा किया गया तो हमारे विश्वविद्यालय आगे भी वकील ही पैदा करेंगे, जो हमारे लिए पूर्णतः अनावश्यक हैं. उसने शिक्षा सदनों में नए सोच के साथ सकारात्मक कदम उठाने का आवाह्न किया था.

पूंजीवाद पर लगातार हमले से अमेरिका की क्यूबा से नाराजगी बढ़ती ही जा रही थी. इसका कारण वे कंपनियां भी थीं, जिन्हें फिदल कास्त्रो तथा चे ग्वेरा द्वारा राष्ट्रीय पुनर्निर्माण तथा भूमि-सुधार के क्षेत्रों में उठाए गए कदमों के कारण भारी आर्थिक हानि का सामना करना पड़ा था. उनके दबाव में अमेरिका सरकार ने फिदेल कास्त्रो को अपदस्थ करने के लिए सीआईए को सक्रिय कर दिया. उसने आपरेशन ‘बे आ॓फ पिग्स’(सुअरों की खाड़ी) के नाम से क्यूबा के दक्षिणवर्ती तट से अपने सैनिक घुसाने आरंभ कर दिए. यह पूरी तरह अप्रत्याशित कदम था. तो भी फिदेल की छापामार रणनीति के आगे अमेरिका का यह प्रयास नाकाम सिद्ध हुआ. उधर आर्थिक सुधारों को गति प्रदान करने के लिए कास्त्रो ने चे को क्यूबा के केंद्रीय बैंक के अध्यक्ष बनाने के साथ ही वित्त मंत्रालय का दायित्व भी सौंप दिया गया. उद्योग मंत्रालय का दायित्व उसपर पहले से ही था. कास्त्रो के इस कदम से क्यूबा में चे की राजनीतिक हैसियत फिदेल कास्त्रो के बाद दूसरे नंबर हो गई. केंद्रीय बैंक का अध्यक्ष होने के नाते चे करेंसी नोट पर हस्ताक्षर करने का दायित्व चे ग्वेरा का था. नियमानुसार उसको अपने पूरे हस्ताक्षर करने थे, जबकि वह केवल ‘चे’ लिखता था. बहुत से लोगों को यह क्यूबा की करेंसी का अपमान लगा. चे अपने निर्णय पर अडिग रहा. कालांतर में चे के पुराने मित्र रिकार्डो रोजो ने इसपर टिप्पणी करते हुए कहा था कि, चे ने जिस दिन करेंसी और बिलों पर मात्र ‘चे’ हस्ताक्षर किए, उसी दिन उसने इस पूंजीवादी आस्था को चुनौती दे दी थी, जो धन को पवित्र मानती थी.’ अपने एक भाषण ‘आ॓न रिवोल्युशन मेडीशियन’ में चे ने कहा था कि—

‘मानवमात्र के जीवन का मूल्य धरती के सर्वाधिक धनी व्यक्ति की कुल संपत्ति से भी करोड़ों गुना अधिक है.’

क्यूबा को आत्मनिर्भर बनाने के लिए चे उसको आर्थिक मोर्चे पर सफल बनाना चाहता था. हालांकि उसको यह देखकर बहुत क्षोभ होता था कि देश-भर में लोग नैतिकता को ताक पर रखकर भी धनार्जन को उत्सुक हैं. हर कोई पूंजी की शरण में जाना चाहता है. चे ने पूंजीवाद को ‘भेड़ियों की लड़ाई’ के संज्ञा दी थी, जिसमें एक की जीत दूसरों के पराभव पर निर्भर करती है. अपने निबंध ‘मेन एंड सोशियलिज्म इन क्यूबा’ में उसने कहा था—

‘मानव केवल उसी अवस्था में मनुष्यता के उच्चतम शिखर को प्राप्त कर सकता है, जब वह किसी उत्पादन कार्य के निमित्त स्वयं को उपभोक्ता वस्तु के रूप में बेचे जाने के लिए बाध्य न हो.’

पूंजीवाद को टक्कर देने के लिए समाजवाद जरूरी है. लेकिन वह लोगों की वर्तमान धनलोलुपता के चलते संभव नहीं है. इसलिए मार्च 1965 के अपने लेख ‘सोश्यिलिज्म एंड मेन इन क्यूबा’ में चे ने नए नागरिक भी गढ़ने पर जोर दिया था. उसने जोर देकर कहा था कि समाजवादी अर्थव्यवस्था यदि व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं, लालच, स्पर्धा आदि को छोड़कर सामूहिक कल्याण की ओर उद्यत नहीं होती है तो वह अपने आंतरिक संघर्षों, युद्धों के कारण स्वतः मिट जाएगी. इसलिए वह समाज में ऐसी आमसहमति तथा जीवनमूल्यों की स्थापना चाहता था, जो बेहतर श्रमशक्ति तथा नागरिकों को बढ़ावा देते हों. जहां सहअस्तित्व की भावना नागरिकों के सहज संस्कार का हिस्सा हो. वह मानता था कि व्यक्तिगत लालसाएं इस लक्ष्य को दुर्गम बना सकती हैं. चूंकि घृणा, द्वैष, स्वार्थपरता मानव-व्यक्तित्व का हिस्सा हैं, इसलिए समानता, सद्भाव और सहअस्तित्व के लिए निजी लालसाओं एवं अहंता पर नियंत्रण भी आवश्यक है. इसके लिए नागरिकों को आत्मानुशासन में ढलना होगा. विकास को लेकर उसकी धारणा पूरी तरह जनवादी थी. एकदम स्पष्ट सोच, जिसको पूंजीवाद के खात्मे के लिए लागू करना जरूरी था. क्यूबा में साम्यवादी शासन की स्थापना के बाद उसने आर्थिक संचरना पर जोर दिया, उसके पीछे उसका वही क्रांतिधर्मी जनवादी सोच था. नए नागरिक समाज के साथ नई विकास नीति हो तो विकास के बारे में भी नई दृष्टि आवश्यक थी. चे के लिए विकास का अभिप्राय था कि मानवमात्र यह समझ ले कि वह निरा उपभोक्ता नहीं है, उससे बढ़कर भी बहुत कुछ है. समाज के सर्वांगीण विकास के लिए विकास के नए रास्ते भी चुनने होंगे. वे क्या हों इस बारे में चे का सोच एकदम स्पष्ट था—

‘मुक्त अर्थव्यवस्था प्रेरित विकास तथा क्रांतिधर्मी विकास में बड़ा अंतर है. पहले में समाज का धन कुछ भाग्यवान व्यक्तियों के हाथों में तक सिमटकर रह जाता है, जो सरकार के निकट तथा लेन-देन की कला में निपुण हैं. दूसरे में राज्य की कुल धन-संपदा जनता की विरासत होती है.’

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क्यूबा की राजनीति में चे की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी. अमेरिका की संस्था सीआईए द्वारा पोषित घुसपैठ नाकाम हो चुकी थी. क्यूबा की राजनीति पटरी पर आने लगी थी. इसके बावजूद चे को विराम नहीं था. उसको लग रहा था कि क्रांति का लक्ष्य अब भी अधूरा है. समाजवाद की मुख्य स्थापना कि प्रत्येक से उसके सामथ्र्य के अनुरूप तथा प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार, में व्यक्ति और समाज का संबंध निर्धारित है. इसमें दोनों परस्पर पूरक हैं. पर व्यक्ति और समाज के हितों में समन्वय कैसे बनाया जाए. कैसे अकेले व्यक्ति और बाकी समाज के हितों में तालमेल संभव हो जाए, विद्वानों के समक्ष यह चुनौती हमेशा से ही रही है. चे का विश्वास था कि समिष्ट और व्यक्तिष्ठ में तालमेल बनाए रखने के लिए स्वयंसेवी भावना और इच्छाशक्ति का होना जरूरी है. इसके लिए वह अपनी ओर से उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता था. इसलिए वह अविराम कार्यरत रहता. मंत्रालय के काम के पश्चात वह वह निर्माण कार्य, यहां तक कि सांझ ढले गन्ने की कटाई के लिए भी हाजिर हो जाता था. वह बिना पलक झपकाए घंटों तक निरंतर कार्य कर सकता था. आवश्यक मीटिंगें अक्सर आधी रात को बुलाता तथा भोजन करने का काम चलते-चलते निपटाता था. इसका अनुकूल प्रभाव दूसरे श्रमिकों-कामगारों पर भी पड़ता था. क्यूबा के नवनिर्माण में जुटा प्रत्येक श्रमिक अपने हिस्से का काम करने के बाद ही विश्राम के लिए जाता था. राष्ट्र की आवश्यकता को समझते हुए चे ने वेतनवृद्धि को उत्पादकता से जोड़ा हुआ था. जो कामगार अधिक कार्य करता, उसको अधिक आनुपातिक वेतन दिया जाता, इसके विपरीत यदि कोई कामगार निर्धारित से कम उत्पादन करता तो उसकी वेतन कटौती भी की जाती थी. इस नीति को श्रमिकों और कामगारों पर आरोपित करने के चे के तर्क भी अपने थे. उसका कहना था कि—

‘यह तर्क कोई मायने नहीं रखता कि एक बार में कोई व्यक्ति कितने पाउंड मांस खा सकता है, अथवा कोई कितनी बार समुद्र किनारे सैर के लिए निकल सकता है, अथवा अपने वर्तमान वेतन से कोई व्यक्ति विदेश से कितने आभूषण खरीदकर ला सकता है. असली बात तो यह है कि अपनी अधिकाधिक आंतरिक संपूर्णता एवं दायित्व-भावना के साथ कोई व्यक्ति अपने किए के प्रति कितना आश्वस्त है.’

अपने कर्म के प्रति आश्वस्ति, किए से संतोष…आत्मतुष्ठि चे के लिए सदैव अलभ्य रही. वह अपने आप से असंतुष्ठ रहने वाला प्राणी था. देश और समाज के लिए लगातार कार्य करते हुए भी उसको बराबर यह लगता था कि अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. माक्र्स का मानना था कि किसी एक देश अथवा राज्य में समाजवाद की स्थापना से ही व्यवस्था परिवर्तन का लक्ष्य पूरा नहीं हो जाता. समाजवादी आंदोलन को उस समय तक चलते रहना चाहिए, जब तक दुनिया के किसी भी देश में गैरसमाजवादी तंत्र मौजूद है. लातीनी अमेरिका के बाकी देशों में मौजूद औपनिवेशिक शोषण को देखकर उसको फिर अपने लक्ष्य का एहसास होने लगता था.

समाजवाद के लिए वैश्विक अभियान

जैसे-जैसे क्यूबा में साम्यवाद के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ रहा था, अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देशों की निगाहों में उसके प्रति रोष भी बढ़ता जा रहा था. पूंजीवादी सरकारें आर्थिक नियंत्रण के परंपरागत औजारों जैसे आयात पर पाबंदी, आयात शुल्क में वृद्धि, आयात में कटौती को कई-कई बार आजमा चुकी थीं. इसके बावजूद फिदेल के नेतृत्व और चे के अनुशासन में बंधा वह देश उत्तरोत्तर प्रगति की ओर अग्रसर था. पश्चिमी देशों से हुए आर्थिक नुकसान की भरपाई के लिए चे ने पूर्वी देशों से व्यापारिक संबंध बनाना आरंभ कर दिया था. इसके लिए उसने साम्यवादी देशों की यात्राएं कीं. 1960 में उसने चेकोस्लोवाकिया, उत्तरी कोरिया, पूर्वी जर्मनी, हंगरी आदि देशों की यात्रा कर वहां की सरकारों के साथ व्यापारिक अनुबंध किए. इससे क्यूबा की पश्चिम पर निर्भरता घटी. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आर्थिक-सामरिक ध्रुवों में बंटी दुनिया में क्यूबा पूर्वी देशों पर अतिरिक्त रूप से निर्भर होता गया. चे जहां कई मोर्चों पर कामयाब हो रहा था, वहीं कुछ मामले में असफलताएं भी उसके आगे चुनौती बनकर खड़ी थीं. आर्थिक मुद्दों को लेकर उत्पादन-वृद्धि के लिए श्रमिकों से किया गया उसका नैतिकतावादी आवाह्न भी लगभग असफल सिद्ध हुआ था. उनकी सकल उत्पादकता में कमी आई थी. अतिरिक्त उत्पादन से नकद आमदनी न होने के कारण अनुपस्थिति की दर में भी वृद्धि हुई थी. चे के विरुद्ध दूसरा मोर्चा समाजवाद विरोधी देशों ने खोला हुआ था. वहां की सरकारें उसको असफल सिद्ध करने के लिए रात-दिन एक किए थीं. क्रांतिकारी सरकार को ध्वस्त करने के लिए सीआईए के इशारे पर क्यूबा में की गई आतंकी घुसपैठ यद्यपि नाकाम हो चुकी थी, लेकिन यह चे भी समझता था कि पूंजीवाद के चंगुल में फंसा वह साम्राज्यवादी देश इतनी आसानी से बाज आने वाला नहीं है. अमेरिकी षड्यंत्र की प्रतिक्रिया में अगस्त 1961 में चे ने उरुग्वे में आयोजित ‘आर्गेनाइजेश्न आफ अमेरिकन स्टेट्स’ की एक कांफ्रेंस के दौरान व्हाइट हाउस के अधिकारी रिचर्ड एन. गुडविन के माध्यम से एक पर्चा अमेरिकी राष्ट्रपति जाॅन एफ. केनेडी को भेजा था, जिसमें उसने कटाक्ष करते हुए घुसपैठ के लिए धन्यवाद ज्ञापन किया था. उसने लिखा था—‘प्लेया गिरों(बे आफ पिग) के लिए बहुत आभार. घुसपैठ से पहले क्रांति की रफ्तार कुछ धीमी थी, अब वह पहले की अपेक्षा कहीं अधिक प्रबल है.’

उस बैठक में चे ने अमेरिका के गणतांत्रिक दावे की खिंचाई करते हुए कहा कि वहां गणतंत्र के नाम पर पूंजीवाद का नंगा नांच, रंगभेद जैसी अनेक कुरीतियां है. उसने आरोप लगाया था कि अपनी आर्थिक संपन्नता से बौराया अमेरिका वास्तविक सुधार कार्यक्रमों विरोधी है. इसलिए अमेरिकी विशेषज्ञों ने कभी भी भूमि-सुधार जैसे वास्तविक समाजवादी कार्यक्रमों का कभी समर्थन नहीं किया—

‘संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों ने कभी भूमि-सुधार कार्यक्रमों पर विचार नहीं किया. वे सदैव सुविधाजनक मामलों को आगे बढ़ाते रहे हैं, जैसे कि पेयजल की आपूर्ति. थोड़े शब्दों में कहा जाए तो वे टायलेट्स में क्रांति लाने की तैयारी करते हुए नजर आते हैं.’

वैश्विक समर्थन की उम्मीद में निकले चे को बड़ी कामयाबी सोवियत संघ के साथ मिली. सोवियत संघ ने, जो उन दिनों साम्यवादी देशों का अगुआ और विश्व की दूसरी महाशक्ति बना हुआ था, क्यूबा को यथासंभव सहायता प्रदान करने का विश्वास दिलाया, जिसमें विशेषरूप से हथियारों की सहायता थी. हालांकि बाद में अंतरराष्ट्रीय दबाव को देखते हुए सोवियत संघ ने क्यूबा को अपेक्षित हथियार सप्लाई को अवरुद्ध भी किया. 1964 में चे को विश्व-स्तर पर क्रांतिकारी नेता मान लिया गया था. उसी वर्ष दिसंबर में क्यूबाई प्रतिमंडल के नेता के रूप में उसने न्यू यार्क की यात्रा की. संयुक्त राष्ट्रसंघ की सभा को संबोधित अपने अविस्मरणीय भाषण में उसने उसकी रंगभेदकारी दृष्टि की कटु आलोचना की थी. संयुक्त राष्ट्र को रंगभेद की नीति के ललकारते हुए उसने कहा कि—

‘ऐसे लोग जो अपने बच्चों को मार डालते या उनके साथ नित-प्रति भेदभाव केवल इसलिए करते हैं कि उनकी चमड़ी का रंग काला है, वे जो काले लोगों के हत्यारों को मुक्त छोड़ देते हैं, उनको संरक्षण प्रदान करते हैं, इसके साथ-साथ वे लोग जो काले लोगों को महज इस कारण दंडित करते हैं क्योंकि वे मुक्त इंसान की भांति अपने मौलिक अधिकारों की मांग कर रहे हैं—ऐसे लोगों को जो निर्दोषों पर बेशुमार अत्याचार करते हैं, उन्हें स्वतंत्रता का संरक्षक कैसे माना जा सकता है.’

उसी भाषण में चे ने समाजवाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाते हुए आगे कहा था कि—

‘हम समाजवाद की स्थापना चाहते हैं, हमने स्वयं को ऐसे लोगों का हिस्सा घोषित किया है, जिन्होंने शांति के लिए अपना सब कुछ बलिदान किया है. यद्यपि हम माक्र्स और लेनिन के समर्थक हैं, इसके बावजूद हमनें स्वयं को गुटनिरपेक्ष देशों का हिस्सा घोषित किया है, अपने समानधर्मा गुटनिरपेक्ष देशों की भांति हम साम्राज्यवाद से जूझते रहे हैं. हम शांति चाहते हैं. हम अपने नागरिकों को बेहतर जीवन देना चाहते हैं. यही कारण है कि जहां तक संभव हो सका, अमेरिका द्वारा की गई लगातार उत्तेजनापूर्ण कार्रवाही के बावजूद हम खामोश बने रहे हैं. लेकिन हम अमेरिकी शासकों की मनःस्थिति को समझते हैं. वे हमसे हमारी शांति की बहुत बड़ी कीमत वसूलना चाहते हैं. हम उन्हें बता देना चाहते हैं कि वह मूल्य, शांति की वह कीमत जो वे हमसे वसूलना चाह रहे हैं, कभी भी हमारे आत्मसम्मान से बड़ा नहीं हो सकता.’

अपने भाषण के अंत में चे ने लातिनी अमेरिका को 20 करोड़ बांधवों का ऐसा परिवार माना था जो एकसमान त्रासदी का शिकार हंै. जहां भूखे आदिवासी हैं. गरीबी और विपन्नता है. किसान हैं, परंतु उनके पास खेती के लिए जमीन नहीं है, कामगार-श्रमिक-शिल्पकार हैं, परंतु वे पूंजीवाद उत्पीड़न की मार झेल रहे हैं. लेकिन इतने शोषण-उत्पीड़न के बावजूद उनके हौसले पस्त नहीं हुए हैं. उन्होंने अपनी जिजीविषा को, आगे बढ़ने के अपने संघर्ष को विपरीत परिस्थितियों में भी बनाए रखा है. अपने भाषण में उसने अमेरिका के पूंजीवादी शोषण की लगातार कटु स्वर में आलोचना की थी. अपनी उद्देश्यपूर्ण यात्रा के दौरान चे ने उरुवेयन साप्ताहिक के संपादक कार्लोस क्यूजनो को एक पत्र भी लिखा, जिसमें उसने अपने ख्यातिप्राप्त निबंध ‘सोश्यिलिज्म एंड मेन इन क्यूबा’ को नए सिरे से उद्धृत करते हुए अपने पूंजीवाद विरोध के कारणों की व्याख्या की थी. पत्र में उसने लिखा था—

‘पूंजीवाद के नियम-कानून अंधे हैं. ये समाज के बहुसंख्यक वर्ग की समझ से बाहर हैं. ये व्यक्ति केंद्रित भले हों, परंतु मनुष्य इनकी चिंता का विषय नहीं है. वह इनके बीच अपने सामने अंतहीन विस्तार पाता है, जो असलियत से पूरी तरह परे, वायवी होता है….सच्चा क्रांतिकारी प्रेम की महान अनुभूति से प्रेरणा लेता है तथा अपने आचरण से प्रत्येक क्रांतिधर्मी बंधु तक यह संदेश पहुंचाता है: हमेशा यह प्रयत्न करो कि मनुष्यता के प्रति तुम्हारा प्यार और समर्पण तुम्हारे देनंदिन आचरण का हिस्सा बनकर दूसरों के समक्ष एक उदाहरण बन जाए. यही तुम्हें कभी समाप्त न होने वाली, अजस्र ऊर्जा ताकत बनाएगा.’

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जनता के नाम चे का अंतिम संबोधन 24 फरवरी, 1965 को एशिया-अफ्रीका एकजुटता के पक्ष में अल्जीरिया में दिया गया भाषण था, जिसमें उसने समाजवादी देशों पर आरोप लगाया था कि वे क्षुद्र स्वार्थों में पड़कर विकसित पश्चिमी देशों के शोषण के प्रति मूक सहमतिपूर्ण रवैया अपनाए रहते हैं. वियतनाम का पक्ष लेते हुए उसने विकासशील देशों का आवाह्न किया था कि वहां कि जनता को पूंजीवाद के पतन के लिए ऐसे ही अनगिनत वियतनाम और बनाने चाहिए. स्पष्ट है कि वह पूंजीवाद विरोध को किसी एक देश अथवा राज्य की सीमाओं से बाहर निकालकर उसके लिए वैश्विक माहौल तैयार करने, संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय रूप देने का समर्थक था. संगठित विरोध की ताकत को वह न केवल स्वयं समझता था, बल्कि उसके पक्ष में लोगों को सतत जागरूक बनाए रखता था. जिसके कारण बीसवीं शताब्दी के क्रांतिद्रष्टाओं में उसका नाम अमर है.

अंतिम संघर्ष
क्यूबा सरकार में चे का पद दूसरे स्तर का था. वह चाहता तो एक वैभवयुक्त जीवन जी सकता था. जैसा कि उसके समकालीन अनेक माक्र्सवादी नेता करते आए थे, जिन्होंने माक्र्सवाद को सत्ता तक पहुंचने के लिए एक सीढ़ी के रूप में उपयोग किया था. चे के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता उसके निजी सुख, वैभव-विलास से कहीं बढ़कर थी. वह माक्र्स की इस अवधारणा का समर्थक था कि मजदूर का कोई देश नहीं होता और समाजवाद की सफलता किसी एक राष्ट्र की सीमा में रहकर संभव नहीं है—का समर्थक था. इसलिए क्यूबा में कामयाबी के बाद भी उसने सत्ता से अपनी निलिप्र्तिता को बनाए रखा. वह स्वयं को एक छापामार योद्धा या अधिक से अधिक छापामार दल का सेनापति मानता था. इसलिए जब भी उसको अवसर मिला, औपनिवेशिक शोषण के शिकार रहे देशों में समाजवाद की स्थापना के लिए प्रयास करता रहा. 1965 में वह कांगो की यात्रा पर निकल गया. उसको लगता था कि अफ्रीका की कमजोर राजसत्ता के चलते वहां क्रांति की नई इबारत लिख पाना संभव है. उसका इरादा विरोधियों को छापामार युद्ध का प्रशिक्षण देकर वहां क्रांति का शंखनाद करना था. किंतु अफ्रीका की जलवायु उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकर सिद्ध हुई. वहां पहुंचते ही उसका दमा बिगड़ गया. लगभग सात महीने तक वह उससे जूझता रहा. इस बीच उसने विद्रोह को आगे बढ़ाने की यथासंभव चेष्टा की. लेकिन नाकामी ही हाथ लगी. कांगो और अफ्रीका के अपने अनुभवों के बारे में उसने आगे चलकर लिखा कि—

‘मनुष्यता असफल सिद्ध हुई है. वहां संघर्ष की इच्छाशक्ति ही नहीं थी. नेतागण भ्रष्ट थे. दो टूक शब्दों में कहूं तो वहां कुछ करने की गुंजाइश ही नहीं थी.’

क्रांति की संभावनाओं की खोज के लिए चे ने नकली दस्तावेज के आधार पर पूरे यूरोप, उत्तरी अमेरिका आदि देशों की गोपनीय यात्राएं भी कीं. उन यात्राओं के बारे में उसके अभिन्न मित्र और क्यूबा के शासक फिदेल को भी कोई जानकारी नहीं थी. 1966 के आरंभिक महीने चे ने लगभग अज्ञातवास में बिताए. किसी को उसके बारे में कोई जानकारी न थी. हालांकि इस अवधि में वह क्रांति की संभावनाएं तलाश रहे विद्रोहियों से, मिला भी. परंतु वे मुलाकातें उसकी यात्रा की भांति सर्वथा गोपनीय थीं. उसके बारे में तरह-तरह के अनुमान लगाए जाते रहे. 1967 में मई दिवस के अवसर पर समाचारपत्रों में छपा कि चे लातीनी अमेरिका में क्रांति की नई जमीन तैयार करने में जुटा है. चे को मानो रोमांच में आनंद आता था. 1966 में उसने अपनी पहचान छिपाने के लिए अपने हुलिया में ही बदलाव कर लिया था. अपनी सदाबहार ढाढ़ी-मूंछ, जिससे वह दुनिया के युवाओं की धड़कन बन चुका था, उसने एक झटके में मुंडवा लिए थे. 3 नवंबर, 1966 को वह छिपते-छिपाते बोलेविया पहुंच गया. यह यात्रा उसने अडोल्फ मेना गोंजलज के नाम से, स्वयं को एक व्यापारी के रूप में की थी, जिसका अमेरिकी राज्यों के साथ मोटा कारोबार था. बोलेविया में वह मोनटेन के सूखे जंगलों में पहुंचा. उसका इरादा वहां पर एक छापामार दल का गठन करने का था. चे को अपने बीच पाकर बोलेविया के साम्राज्य-विरोधी संगठनों में नई जान आ गई. स्थानीय नेताओं की सहायता से चे को वहां प्रारंभिक सफलता भी मिली. उनके साथ मिलकर चे ने ‘नेशनल लिबरेशन आर्मी आॅफ दि बोलेविया’ का गठन किया, जिसके सदस्यों की संख्या कुछ ही अवधि में पचास तक पहुंच गई. कुछ ही महीनों में उस संगठन ने गुरिल्ला लड़ाई के लिए आवश्यक सभी हथियार जुटा लिए. बोलेविया के सैन्य टुकड़ियों को कई मोर्चों पर छकाकर चे ने वहां अपनी उपस्थिति दर्ज भी करा दी थी. इससे बोलेविया सरकार सतर्क हो गई. उसने छापामार दल पर काबू पाने के लिए अपनी सेना झोंक दी. सितंबर के महीने में सेना और विद्रोही छापामार दलों में जबरदस्त संघर्ष हुआ, जिसमें एक गुरिल्ला नेता की मौत हुई.

चे का बोलेविया अभियान अपेक्षित सफलता प्राप्त न कर सका, इसके कुछ कारण थे. वस्तुतः बोलेविया में अपना क्रांति-अभियान आरंभ करने से पहले उसको उम्मीद थी कि उसका सामना केवल वहां की सेना से होगा. वह इस तथ्य से अनजान था कि अमेरिका ने सीआईए के विशेष छापामार सैनिकों का एक दल बोलेविया भेजा हुआ था. उसके साथ आधुनिक हथियारों की एक खेप भी रवाना की थी. सीआईए के दल ने बोलेविया के जंगलों में घेरा डाला हुआ था. दूसरे चे को यह विश्वास था कि बोलेविया में उसको स्थानीय असंतुष्टों, विशेषकर मेरियो मेंजो की नेतृत्ववाली ‘बोलेविया कम्युनिस्ट पार्टी’ का समर्थन प्राप्त होगा. जबकि ऐसा न हो सका. बोलेविया के संघर्ष में पराजय का कारण छापामार संगठनों के बीच तालमेल तथा संपर्क साधनों की कमी भी थी. क्यूबा सरकार की ओर से उन्हें दो शार्टवेव ट्रांसमीटर दिए गए थे, लेकिन वे खराब निकले. परिणाम यह हुआ कि चे अपने सैनिकों के साथ आवश्यकता पड़ने पर संबंध न बना सका. एक और कारण यह भी था कि छापामार युद्ध छेड़ने से पहले चे और उसके साथी स्थानीय लोगों से अच्छे संबंध बना लेते थे, जिनसे उन्हें संघर्ष के दौरान मदद मिलती थी. बोलेविया में उन्हें इस प्रकार की कोई सहायता स्थानीय नागरिकों की ओर से नहीं मिली थी. स्थानीय नेताओं का चे के छापामार साथियों के साथ वैसा ही संबंध था, जैसा कांगों में उसके साथ हुआ था. चे ने अपनी डायरी में लिखा भी कि बोलेविया के किसानों की ओर से उन्हें कोई मदद न मिली, बजाय इसके वे छापामार योद्धाओं के बारे में बोलेविया के सैनिकों को उनकी खबर पहुंचाते रहे.

बोलेविया में चे को न केवल पराजय का सामना करना पड़ा, बल्कि वह उसके जीवन का अंतिम अभियान भी सिद्ध हुआ. उसकी पराजय के पीछे भी क्यूबा का योगदान था. फेलिक रोड्रिग्ज को घर के भेदी की भांति अमेरिका की गुप्तचर संस्था ने विशेष रूप से भर्ती किया था. रोड्रिग्ज का चाचा बतिस्ता सरकार में मंत्री था. क्यूबा में साम्यवादी क्रांति की सफलता के बाद उसको निर्वासित कर दिया गया था. चे के बोलेविया अभियान के दौरान वह सीआईए का विशेष सलाहकार बना हुआ था. 7 अक्टूबर 1967 को चे के छापामार योद्धाओं का पीछा कर रहे बोलेविया के विशेष सैन्यबल को एक गुप्तचर की ओर से उनके ठिकाने की खबर दी गई. उस समय चे अपने साथियों के साथ यूरो नामक संकरी खाड़ी में छिपा हुआ था. सीआईए के नेतृत्व में बोलेविया की सेना ने पूरी घाटी को घेर लिया. लगभग पचास छापामार योद्धाओं को पकड़ने के लिए बोलेविया सेना के 1800 सैनिक झांेक दिए गए. विद्रोही गुरिल्ला दस्ते के केंद्रीय घटक का नेतृत्व बोलेविया के विद्रोही छापामार नेता सीमोन क्यूबा सरबिया के हाथों में था, जो अपने साथियों के बीच ‘विली’ के नाम से जाना जाता था. विली के नेतृत्व में छापामार सैनिक बोलेविया सेना के घेरे को तोड़ने का प्रयास कर रहे थे. गुरिल्ला योद्धाओं तथा बोलेविया की सेना के बीच चल रही आंख-मिचैनी के बीच विली खाड़ी के सिरे तक लगभग पहुंच ही चुका था. चे उसके पीछे था. तभी मशीनगन से छूटा एक बम चे के पास फटा. उसकी टांग बुरी तरह घायल हो गई. आवाज सुनते ही विली तेजी से पलटा तथा उस चट्टान के पीछे पहुंचा जहां चे घायल पड़ा था. चे को अपने कंधों पर उठाकर विली तेजी से भागा. तब तक सेना की दूसरी टुकड़ी उनके सामने आ चुकी थी. वे दोनों ओर से घिरे थे. घायल होने के बावजूद चे और विली सेना के सामने डट गए. आमने-सामने की लड़ाई में एक गोली चे की खोपड़ी से टकराई और वह बुरी तरह घायल हो गया. दूसरी गोली ने उसकी एम-2 कारबाइन को क्षत-विक्षत कर दिया. मशीनगन के गोले से उनके चारों ओर आग धधक उठी थी. अदम्य साहस और वीरता का प्रदर्शन करते हुए विली ने चे को एक बार फिर उठा लिया और एक चट्टान के पीछे लिटाकर स्वयं मोर्चा संभाल लिया. सेना का दायरा सिकुड़ता जा रहा था. चे और उसके साथी बुरी तरह घिर चुके थे. विली बहादुरी से डटा हुआ था. सहसा एक सैनिक ने पीछे से आकर बंदूक की बट से उसके सिर पर वार किया. उसके गिरते ही कई और सैनिक वहां पहुंच गए. विली को बंदूक की नोंक पर ले लिया गया. तभी एक सैनिक की नजर चे पर पड़ी. उसके साथ और भी कई सैनिक चे की ओर झपटे. तब विली ने उन्हें ललकारा—‘तमीज से पेश आना, वह कमांडेंट ग्वेरा है.’

सैनिक ग्वेरा और विली को निकटवर्ती गांव ला हिग्वेरा में ले गए, वहां उन दोनों को एक स्कूल के छोटे कमरों में अलग-अलग बंद कर दिया गया. अगले दिन चे ने बोलेविया के अधिकारियों से बातचीत करने से मना कर दिया, लेकिन वह पहरा देने वाले सिपाहियों से बतियाता रहा. उस समय उसकी हालत बहुत खराब थी. गोली उसकी दाहिनी टांग में लगी थी. उसके बाल धूल-मिट्टी में सने थे. कपड़ों पर कीचड़ की मोटी पर्त सवार थी. चमड़े की पौशाक फटकर घुटनों तक लटक रही थी. प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार बदहाली के बावजूद चे का सिर स्वाभिमान से तना था. उसने चारों ओर खड़े सिपाहियों पर एक नजर डाली तथा उनमें से एक से धू्रमपान के लिए कुछ भी मांगा. इसपर एक सिपाही ने तंबाकू की पुड़िया उसको थमा दी. चे ने मुस्कराकर उसका धन्यवाद किया. चे के हाथ बंधे थे. पर उसका हौसला पस्त नहीं हुआ था. 8 अक्टूबर की रात्रि को जैसे ही बोलेवियन सेना के अधिकारी एस्पीनोसा ने प्रवेश किया, चे ने उसको जबरदस्त ठोकर मारी. अप्रत्याशित हमले से एस्पीनोसा का सिर दीवार से जा टकराया. गुस्से में उसने चे का पाइप छीन लेने का आदेश दिया.

अगली सुबह चे ने गांव की स्कूल टीचर से मिलने की इच्छा व्यक्त की. इसपर 22 वर्षीय जूलिया कोर्टेज उससे मिलने पहुंची. चे ने उसको स्कूल की दुर्दशा की ओर संकेत करते हुए कहा कि वहां का वातावरण जरा भी शिक्षानुकूल नहीं है. उसने कहा कि एक ओर शिक्षासदन की ऐसी दुर्दशा है, दूसरी ओर बोलेविया के अधिकारी मर्सिडीज गाड़ियों में घूमते हैं. उसने अपनी लड़ाई के उद्देश्य के बारे में बताया—‘यही वह वजह है, जिसके कारण हम लड़ रहे हैं.’ कोर्टेज ने बाद में चे के बारे में कहा था कि बातचीत के दौरान वह उसकी आंखों से आंखें नहीं मिला सकी. वे बेहद चमकीली मगर शांत थीं. उनसे प्यार छलकता था. कोर्टेज यह भी समझती थी कि वे आंखें अधिक दिन चमकने वाली नहीं हैं. अगले ही सुबह बोलेविया के निरंकुश राष्ट्रपति रेने बेरिनटोस ने चे को मृत्युदंड का आदेश सुना दिया. हालांकि अमेरिका सरकार चाहती थी कि उसको पनामा लाकर पूछताछ की जाए. लेकिन बोलेविया सरकार क्रांतिकारी चे को युद्ध में घेरकर मार डालने का श्रेय लूटना चाहती थी. उसको यह भी डर था कि चे के छापामार सैनिक उसको छुड़ाने के लिए बड़ी कार्यवाही कर सकते हैं. इसलिए अदालती कार्रवाही के फेर में पड़े बिना ही पूर्वनिर्धारित दंडात्मक कार्यवाही की गई. अमेरिका की नाराजगी से बचने के लिए चे के सैन्य कार्रवाही में मारे जाने का नाटक गढ़ा गया. चे को मृत्युदंड देने के लिए नियुक्त सार्जेंट मेरियो टेरन को को आदेश दिया गया कि वह कुछ ऐसा बानक बनाए, जिससे लगे कि चे की मौत अपने छापामार सैनिकों के साथ सैनिक कार्रवाही के दौरान हुई है. टेरन शराबी था. उसके तीन हमनाम दोस्त चे के छापामार दस्ते की कार्यवाही के दौरान मारे गए थे. इसलिए चे को मृत्युदंड देने के लिए उसने स्वयं अनुरोध किया था.

मृत्युदंड दिए जाने से कुछ ही क्षण पहले बोलेविया के सैनिक ने उपहास वाले अंदाज में चे से प्रश्न किया था—‘क्या तुम सोचते हो लोग तुम्हें हमेशा याद रखेंगे?’ कठिन से लगने वाले इस प्रश्न का उत्तर देने में चे को एक सेकिंड न लगी. उसने तत्काल कहा—‘नहीं, मैं बस क्रांति की अमरता के बारे में सोचता हूं.’46 कुछ देर बाद सार्जेंट टेरेन वहां पहुंचा. उसको देखते ही चे की आंखों में आक्रोश झलकने लगा. वह जोर से चिल्लाया—‘मैं जानता हूं, तू मुझे मारने आया है. गोली चला, कायर!’ उसने बोलेविया के सैनिकों को सुनाते हुए आगे कहा—‘यह समझ लो कि तुम सिर्फ एक आदमी को मारने जा रहे हो….क्रांति अमर है.’ ये दोनों प्रसंग दर्शाते हैं कि चे को क्रांति की अमरता पर अटूट विश्वास था. चे के उकसाने पर टेरेन नाराज हो गया. उसने अपनी रायफल से तत्काल गोली दाग दी. चे जमीन पर गिर पड़ा. चीख को दबाने के लिए उसने अपने दांत कलाई में गढ़ा दिए. गुस्साया टेरेन उसपर लगातार गोलियां दागता रहा. कुल मिलाकर उसने नौ गोलियां दागीं, जिनमें से पांच उसकी टांगों में, एक कंधे, एक छाती पर लगी. आखिरी गोली जिसने चे का प्राणांत किया, वह उसके गले को चीरती हुई निकली थी. एक विलक्षण छापामार योद्धा, मनुष्यता का परमहितैषी, समाजवादी चे वहीं शहीद हो गया. उसने जो रास्ता चुना था, उसकी अंततः यही परिणति थी. इसका पूर्वानुमान भी उसे था. इसलिए अपने लिए समाधिलेख की परिकल्पना उसने मृत्यु से बहुत पहले कर ली थी. एशियाई, अफ्रीकी एवं लातीनी अमेरिकी देशों की त्रीमहाद्वीपीय बैठक में उसने कहा था—

‘मौत जब भी हमें गले लगाए, उसका स्वागत खुले मन से हो. बशर्ते, हमारा समरघोष उन कानों तक पहुंचे जिन तक हम पहुंचाना चाहते हैं; जबकि हमारा दूसरा हाथ हथियारों को सहला रहा हो.’

चे के साथ पकड़े गए विली को पहले ही गोली से उड़ाया जा चुका था—‘मुझे चे से पहले मरने का गर्व है.’ चे द्वारा सुने गए उसके संभवतः यही अंतिम शब्द थे. चे को मृत्युदंड देने से ही बोलेवियन सैनिकों का कोप शांत नहीं हुआ था. उन्होंने चे के शव को कसकर हेलीकाॅप्टर के पैरों से बांध लिया. वहां से वे उसको निकटवर्ती गांव में ले गए, जहां एक पत्थर की शिला पर लिटाकर उसके चित्र लिए गए. चे को मृत्युदंड दिए जाने की सूचना पलक झपकते ही आसपास के क्षेत्र में पहुंच चुकी थी. सैकड़ों नागरिक उसके दर्शन को उमड़ पड़े. उसको देखने पहुंचे सैकड़ों लोगों में से अनेक की प्रतिक्रिया थी कि मृत्युशिला पर लेटे चे की चेहरा ईसामसीह की तरह नजर आ रहा था. उनमें से कुछ ने उसके बाल भी चुपके से ले लिए थे, मानो वे कोई दिव्य अवशेष हों. कुछ ऐसा ही अद्भुत वर्णन आंग्ल कला समीक्षक जाॅन बर्जर के शब्दों में प्राप्त होता है, जो उसने चे की मृत्यु से लगभग दो सप्ताह बाद उसके पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट के चित्र देखने के बाद कहे थे. बर्जर ने कहा था कि मृत्युशिला पर लेटे चे का आंद्र मेंटेग्ना की महान चित्रकृति ‘लेमेंटेशन ओवर दि डेड क्राइस्ट’ से मेल खाता था. वह मसीही मौत मरा है—बर्जर का आशय था. चे को मृत्युदंड दिए जाने की सूचना जैसे ही क्यूबा पहुंची वहां शोक की लहर व्याप गई. राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने तीन दिन के शोक की घोषणा कर दी. 18 अक्टूबर को लाखों की भीड़ को संबोधित करते हुए कास्त्रो ने कहा था—

‘यदि कोई हमसे पूछे कि आगामी पीढ़ी के रूप में हम कैसे मनुष्यों की कामना करते हैं, तब हमें निस्संकोच कहना चाहिए: उन्हें चे की भांति होना चाहिए….यदि हमसे कोई पूछे कि हमारे बच्चों की शिक्षा-दीक्षा कैसी हो? इस पर बगैर किसी संकोच के हमें उत्तर देना चाहिए: हम उन्हें खुशी-खुशी चे की भावनाओं से ओत-प्रौत करना चाहेंगे….यदि कोई हमसे प्रश्न करे कि हमारे लिए भविष्य के मनुष्य का मा॓डल क्या हो? तब मैं अपने दिल की गहराइयों से कहना चाहूंगा कि वह एकमात्र आदर्श पुरुष चे है, जिसके न तो चरित्र पर कोई दाग-धब्बा है, न ही कर्म पर….’

चे ने हमेशा एक प्रतिबद्ध जीवन जिया. जानलेवा दमा से वह हमेशा जूझता रहा. दमा का दौरा कई बार तो इतना प्राणघातक होता कि चे की जान गले में आ फंसती. कोई और होता तो उस जानलेवा बीमारी से अवसादग्रस्त होकर बैठ जाता. परंतु चुनौतियों का सामना करने, प्रतिकूल स्थितियों में संघर्ष करने तथा डटे रहने की प्रेरणा उसको अपनी मां से मिली थी. या शायद वह दमा ही था, जिसने लगातार हमले करके चे को मृत्यु की ओर से भयमुक्त कर दिया. फ्रांसिसी बुद्धिजीवी रेग्स डब्रे जो कुछ दिन के लिए उसके छापामार दल में रह चुके थे, ने बाद में एक साक्षात्कार के दौरान कहा था कि चे और उसके छापामार योद्धा, ‘जंगल की विकट परिस्थितियों का शिकार थे’. अंततः वे जंगल द्वारा ही ‘लील लिए गए’. डब्रे के अनुसार बोलेविया के जंगल की परिस्थितियां मनुष्य के लिए स्वर्था प्रतिकूल थीं. चे और उसके साथी कुपोषण और बीमारी का शिकार थे. उनके पास दवाइयां खत्म हो चुकी थीं. मच्छरों के काटने से चे तथा उसके साथियों के हाथों और पैरों पर सूजन आ चुकी थी. खुले आसमान के नीचे, तराई के क्षेत्र में संघर्षरत उन 22 छापामार सैनिकों के पास मात्र 6 रजाइयां थीं. इसके बावजूद उनका हौसला पस्त नहीं हुआ था. डब्रे ने चे की प्रशंसा करते हुए कहा था कि प्रतिकूल परिस्थतियों में भी वह लातीनी अमेरिका के सुंदर भविष्य की ओर से आशान्वित था. यह उम्मीद मृत्युपर्यंत बनी रही थी. उसको विश्वास था कि लातीनी अमेरिका के देश एक दिन साम्राज्यवादी अमेरिका के मंसूबों को पहचानकर, पूंजीवादी संघर्ष के विरुद्ध एकजुट होंगे.

मौत तो एक छोटा-सा पड़ाव है. चे ने अपनी डायरी में लिखा था कि वह, ‘फिर जन्म लेगा’ तथा अपने संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए नए सिरे से प्रयत्नरत होगा. चे को डायरी लिखने का शौक था. बोलेविया अभियान के बारे में उसकी हस्तलिखित डायरी प्राप्त होती है, जिसमें 30000 शब्दों में उसने अपने दैनिक अभियान का उल्लेख किया है. डायरी 7 नवंबर 1966, चे के बोलेविया में प्रवेश से आरंभ होती तथा 7 अक्टूबर, 1967 यानी पकड़े जाने से एक दिन पहले तक की उसमें प्रविष्ठियां हैं. आज वे डायरियां एक दस्तावेज हैं, जिनका एक-एक शब्द उसके लेखक की प्रतिबद्धता को दर्शाता है. डायरी में चे ने अपने अभियान की असफलता को स्वीकारा है. उसने लिखा है कि बोलेविया की सेनाओं की नजर में आ जाने के कारण उन्हें अपना अभियान बिना पर्याप्त तैयारी के लिए आगे बढ़ाना पड़ा. उसने अपने साथियों को दो हिस्सों में बांटा, लेकिन आपस में संपर्क न हो पाने के कारण वे दुश्मन सेनाओं से स्वयं को बचा पाने में नाकाम रहे. उसने बोलेविया के साम्यवादी दलों से भी मदद न मिलने पर अफसोस प्रकट किया है.

उल्लेखनीय है कि वोलेविया के समर में चे को मिली पराजय क्रांति की पराजय नहीं थी, न ही उसे पूंजीवाद की जीत उसको माना जा सकता है. हालांकि उसके बाद पूंजीवाद लगातार मजबूत हुआ है, उसने अपने सर्वभक्षी डैने भी फैलाए हुए हैं. पर इसका आशय यह नहीं है कि लोगों ने पूंजीवाद को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है. चे की पराजय राजनीतिक अवसरवादिता की कोख से जन्मी थी. उसको उम्मीद थी कि बोलेविया की कम्युनिस्ट पार्टी उसका साथ देगी. इस भरोसे के साथ कुल पचास छापामार योद्धाओं के दम पर उसने अमेरिका की पिट्ठु बोलेविया सरकार पर धावा बोल दिया था. उसने अपना अभियान गुप्त रखा हुआ था, इसलिए बाहर से सहायता की अपेक्षा भी कम ही थी. बोलेविया में कम्युनिस्ट नेताओं ने समाजवादी चे का साथ देने के बजाय अपने देश की पूंजीवादी शक्तियों का साथ देना उचित समझा, जो अमेरिका की मदद के भरोसे मालामाल होने का सपना देख रहे थे. यहां बोलेविया के साम्यवादी दलों की भूमिका नैतिकता की कसौटी पर परखी जा सकती है. लेकिन एक विचारधारा के दम पर गठित पार्टी के नेताओं का वह व्यवहार उसकी बौद्धिक चपलता और अवसरवादिता की ओर इशारा करता है. यह केवल बोलेविया तक सीमित नहीं था, बल्कि इसका प्रभाव-क्षेत्र समूचा विश्व था. उस समय दुनिया में साम्राज्यवादी गढ़ ढहने लगे थे. उपनिवेश आजाद हो रहे थे. वहां संरचनात्मक ढांचों को खड़ा करने की आवश्यकता थी, जिसकी ओर यूरोप की पूंजीवादी कंपनियां गिद्ध-दृष्टि लगाए थीं. उपनिवेशों को आजाद करने में भी उन्हें अपना मुनाफा दिख रहा था. गोया उन देशों को आजाद करने से पहले ही वे उन्हें अपना आर्थिक उपनिवेश बनाने की योजना बना चुकी थीं. उन कंपनियों ने लाभ कमाने की होड़ समाजवादी देशों के नेताओं और उद्यमियों में भी कम न थी. बल्कि कुछ तो लोकमानस की नब्ज को पहचानकर ही समाजवादी खेमे में आ घुसे थे.

चे की बहादुरी इंसानियत के लिए थी. वह पूरे लातीनी अमेरिका को अभिन्न मानता था. अर्जेंटाइना में वह जन्मा अवश्य, परंतु साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष के लिए उसने अपनी पहली कर्मभूमि क्यूबा को बनाया. उसको सफलता मिली, लेकिन क्यूबा में भी साम्यवादी शासन की स्थापना के बावजूद वह रुका नहीं, जबकि फिदेल ने उसको मंत्री पद के साथ अन्य कई दायित्वों से लाद दिया था. चाहता तो वह उसके बाद आराम की जिंदगी जी सकता था. लेकिन माक्र्स के कथन कि साम्यवाद का संघर्ष किसी एक देश में सर्वहारा की जीत से पूरा नहीं हो जाता, से प्रेरणा लेकर वह आजीवन संघर्ष करता रहा. अंततः एक योद्धा की भांति ही वीरगति को प्राप्त हुआ. इसलिए दुनिया में उसके करोड़ों प्रशंसक है. वह युवा पीढ़ी का ‘हीरो’, करोड़ों का प्रेरक और मार्गदर्शक है. तभी तो नेल्सन मंडेला ने चे ग्वेरा को हर उस मनुष्य का प्रेरणास्रोत बताया है, जो स्वतंत्रता को प्यार करता है. उसके जीना और मरना चाहता है. बीसवीं शताब्दी के महान फ्रांसिसी दार्शनिक ज्यां पाल दा सात्र्र ने चे को अपने समय के विलक्षण प्रतिभाशाली, संपूर्णतम व्यक्ति का सम्मान दिया है. ग्राहम ग्रीन के अनुसार चे ने समाज में वीरता, साहस, संघर्ष एवं रोमांच को सुंदरता से अभिव्यक्त किया है. क्यूबा के स्कूलों में बच्चे आज भी प्रार्थना करते हैं कि वे ‘चे की तरह बनेंगे.’ दुनिया-भर के युवकों में चे के प्रति गजब की दीवानगी देखने को मिलती है, जिसका लाभ उठाने के लिए पूंजीवादी कंपनियां ‘चे’ के नाम से उत्पादों की रेंज बाजार में उतारती रहती हैं. उन्हें सिर्फ बाजार चाहिए, प्रतिबद्धता नहीं. बाजार के लिए वे मनुष्यता की बोली भी लगा सकती हैं, लगाती रहती हैं. चे नई पीढ़ी का ‘आइकन’ है. विद्रोह का प्रतीक है. चे के नाम से बिकने वाले उत्पादों में बिकनी, टेटू, टोप, टी’शर्ट, पोस्टर आदि अनेक उपभोक्ता सामान सम्मिलित हैं. दूसरी ओर उसके आलोचकों की भी कमी नहीं है जो चे को हिंसक, कातिल आदि न जाने क्या-क्या कहते हैं.

समाजवाद: एक अपरिग्रही कामना
चे एक बुद्धिजीवी योद्धा था. जिसका दुनिया को लेकर एक सपना था और उस सपने को सच में बदलने का उसका ढंग भी दूसरों से अलग था. सिर्फ अलग, अनूठा नहीं. क्योंकि समाजवाद की स्थापना के लिए सशस्त्र संघर्ष का सहारा तो चे से पहले लेनिन, स्टालिन, ट्राटस्की, माओ जिदांग लेते आए थे. 1848 में ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ द्वारा श्रमिक क्रांति का आवाह्न करते समय स्वयं माक्र्स ने सर्वहारा के अधिपत्य हेतु सशस्त्र संघर्ष को उचित ठहराया था, हालांकि बाद में उसने अपनी मान्यताओं में संशोधन भी किया. समाजवादी क्रांति के लिए चे पहले भी कई विचारक, नेता स्वयं का बलिदान कर चुके थे. रोजा लेक्समबर्ग तथा अंतोनियो ग्राम्शी के उदाहरण तो उससे कुछ ही दशक पुराने हैं. इसलिए प्रश्न उत्पन्न होता है समाजवाद के इन प्रखर वक्ताओं, क्रांति-समर्थकों, बलिदानियों के बीच चे का क्या स्थान है? यदि अलग-अलग देशों में क्रांति के बाद के परिदृश्य को देखें तो संघर्ष में सफल होने के बाद लेनिन, स्टालिन, माओ जिदांग आदि का संघर्ष केवल अपने देश तक सीमित था. अपने देश में साम्यवाद की स्थापना के बाद उन्होंने या तो सशस्त्र संघर्ष से विराम ले लिया था अथवा उनका बाकी संघर्ष केवल अंतरराष्ट्रीय कूटनीति तक सिमटकर रह गया था. लेनिन और स्टालिन बारी-बारी से सोवियत संघ के राष्ट्र-अध्यक्ष बने. माओ जिदांग ने चीन की बागडोर संभाली और आज भी उन्हें चीनी गणराज्य के पितामह का गौरव प्राप्त है. इन सभी में एक समानता है कि अपने देश में समाजवादी क्रांति की सफलता के बाद इन सभी नेताओं ने सशस्त्र संघर्ष से किनारा कर लिया था. किंतु चे एक ऐसा समर्पणशील योद्धा था कि क्यूबा सरकार में मंत्रीपद प्राप्त करने के बावजूद संघर्ष में हिस्सा लेता रहा. वह अर्जेंटीना में जन्मा. क्यूबा के साम्यवादी संघर्ष में कामयाब हुआ और बोलेविया में सामाजिक क्रांति के लिए संघर्ष करता हुआ शहीद हुआ. माक्र्स ने कहा था कि मजदूर का कोई देश नहीं होता. चे ने अपने जीवन से सिद्ध किया कि साम्यवाद के योद्धा का भी कोई देश नहीं होता. अर्जेंटाइना में जन्म लेने के बावजूद पूरा लातीनी अमेरिका उसकी चिंताओं का विषय रहा. क्यूबा के लिए समाजवादी आंदोलन में सफल होने के बाद भी वह रुका नहीं, बल्कि कांगो, बोलेविया आदि लातीनी अमेरिकी देशों में पूंजीवादी वर्चस्व की कमर तोड़ने की लगातार कोशिश करता रहा. साम्यवादी योद्धा के रूप में उसका आदर्श स्टालिन रहा. 1953 में ग्वाटेमाला से गुजरते हुए अपनी चाची बीट्रिज को संबोधित एक पत्र में उसने लातीनी अफ्रीका के फल-उत्पादक देशों में साम्राज्यवादी अमेरिका द्वारा किए जा रहे शोषण का उल्लेख किया था. उल्लेखनीय है कि क्यूबा, बोलेविया, कांगो, ग्वाटेमाला सहित कई देश फल उत्पादन में अग्रणी होने के कारण उत्तरी अमेरिका की ‘फलों की टोकरी’ कहे जाते थे. अमेरिका के लिए फलों का व्यवसाय उसकी एक फर्म ‘यूनाइटेड फ्रूट्स’ द्वारा किया जाता था, जिसको अमेरिकी सरकार का पूरा संरक्षण प्राप्त था. पत्र में चे ने लिखा था कि—

‘अपनी यात्रा के दौरान मुझे ‘यूनाइटेड फ्रूट्स’ के आर्थिक उपनिवेशों से गुजरने का अवसर मिला. जिसने मुझे एक बार फिर यह अनुभव कराया कि ये पूंजीवादी जोंक कितने खतरनाक, घाघ और डरावने हैं. इनके शोषण को देखकर मैंने महान कामरेड स्टालिन की तस्वीर के आगे शपथ ली है कि जब तक इन पूंजीपति मगरमच्छों का पूरी तरह सफाया नहीं कर दूंगा, तब तक चैन से नहीं बैठूंगा.’

क्रांति को लेकर चे के कुछ नियम थे. अपने समकालीन माक्र्सवादी विचारकों से पूरी तरह अलग, आदर्श के बिलकुल करीब और मानवीय. अपनी मां को संबोधित एक पत्र में उसने अपने इसी जीवनदर्शन का उल्लेख किया था. पत्र में उसने अपनी मां को लिखा था कि—‘मैं न तो जीसस क्राइस्ट हूं. न ही कोई लोकोपकारक. ओ मेरी अच्छी मां! सच तो है कि मैं क्राइस्ट का विरोधी हूं….अपने समस्त हथियारों और रणकौशल के साथ, मैं उन मुद्दों के लिए जंग छेड़ता हूं जिनमें मुझे अटूट विश्वास है. मैं अपने दुश्मन का खात्मा कर देने में विश्वास रखता हूं, ताकि किसी दूसरे अवसर और स्थान पर मैं उसका शिकार न बनूं.’ चे का संघर्ष आमजन की स्वतंत्रता के लिए था. उस पूंजीवादी वर्चस्व से था जो लोगों को सिर्फ एक उपभोक्ता सामग्री में बदल देना चाहता है. लाभ की उस अवधारणा से था जो समाज में अंतहीन स्पर्धा को जन्म देती है तथा विकास के साथ अमीर-गरीब की खाई को लगातार चैड़ी करती जाती है. चे को अपने ऊपर न तो दंभ था, न अतिरिक्त मोह. वह स्वयं को दूसरों को आजादी सौंपने वाला मानने से भी इनकार करता था. मैक्सिको में एक भारी जनसमूह को संबोधित करते हुए उसने कहा था कि—‘मैं लोगों को आजादी दिलाने वाला नहीं हूं. दूसरों को आजादी दिलाने वाला कोई होता भी नहीं है. जनता स्वयं को स्वयं ही आजाद करेगी.’ चे का संघर्ष पूंजीवाद के विरुद्ध और समाजवाद की स्थापना के लिए था. अपने समकालीन मार्क्सवादी विचारकों से उसके अनेक मतभेद थे. अधिकांश मार्क्सवादी विचारकों का मानना था कि श्रमिक की आर्थिक आत्मनिर्भरता अंततः उसकी सामाजिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देगी. चे समाजवाद को केवल आर्थिक समानता तक सीमित करने के पक्ष में नहीं था. एक अवसर पर उसने कहा था—

‘मैं कोरे आर्थिक समाजवाद में रुचि नहीं रखता. हम आर्थिक विपन्नता के विरुद्ध संघर्षरत हैं. मगर इसके साथ-साथ हम लोगों को सामाजिक रूप से अलग-थलग कर देने के भी घोर विरोधी हैं.’

चे का संकेत लातीनी अमेरिका तथा अफ्रीका के अधिकांश देशों में व्याप्त रंगभेद की समस्या की ओर था. माक्र्सवाद के हवाले से उसने आगे कहा था कि मार्क्सवाद का मूल उद्देश्य व्यक्तिगत हितों के स्थान पर सामाजिक हितों को स्थानापन्न करना है. यदि मार्क्सवाद इसमें कोई चूक करता है तो यह मानना होगा कि वह वैचारिक स्खलन का शिकार है. वैसी स्थिति में उससे किसी सामाजिक-आर्थिक क्रांति की अपेक्षा करना व्यर्थ होगा. अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखने, भविष्य को संवारने के लिए उसे अपनी कसौटियां स्वयं ही बनानी होंगी. औपनिवेशिक शोषण की ओर संकेत करते हुए प्रगतिशील साप्ताहिक ‘मार्च’ के संपादक कार्लोस क्यूजिनो को संबोधित अपने पत्र में उसने लिखा था—

‘पूरी दुनिया में भुखमरी फैली है, लेकिन लोगों को पास भोजन का इंतजाम करने के लिए धन का अभाव है. विडंबना देखिए कि विकास की दृष्टि से पिछड़े, भुखमरी के शिकार देशों में, खाद्यान्न उत्पादन के रास्तों पर इसलिए रोक लगाई जा रही है ताकि अनाज को ऊंची कीमत पर बेचा जा सके, और लोगों को भूख की बड़ी कीमत चुकानी पड़े. यह लूटतंत्र की कठोरतम व्यवस्था है, जो जनता के आपसी रिश्तों को बिखेरने का काम करती तथा आपसी अविश्वास को बढ़ाती है.

लोगों के बड़े हिस्से को मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित कर देना, सामाजिक अन्याय का प्रतीक है. चे के अनुसार अन्याय का आशय लोगों को न्याय के अवसरों से वंचित कर देना है. 1964 में जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र की बैठक को संबोधित करते हुए चे ने कहा था कि न्याय ताकतवर लोगों के हितरक्षण का औजार बन चुका है. कानूनी दावपेंच इस वर्ग की स्थिति को और अधिक सुदृढ़ करने के काम आते हैं. इसी का लाभ उठाकर वह नियमों की अपने वर्गीय हितों के अनुकूल व्याख्या करता है, जिससे पूंजी का पलायन लगातार ऊपर की ओर होता चला जाता है. कला और संस्कृति जैसे लोकसिद्ध माध्यम भी इसमें सहायक बनते हैं. बावजूद इसके कि मनुष्य लंबे समय से कला एवं संस्कृति के माध्यम से होने वाले पूंजी अंतरण को रोकने के लिए प्रयासरत रहा है. ऐसी स्थिति में सबसे महत्त्वपूर्ण और क्रांतिकारी चाहत पूंजी के ऊपरी वर्ग की ओर अंतरण को रोकना है. चे का आशावाद युवाशक्ति में उसकी आस्था से जन्मा था. पर वह समझ चुका था कि पूंजीवाद ने युवाओं को भ्रमित कर ऐसी स्थितियां पैदा की हैं, जो सामान्य जन की समझ से पूरी तरह बाहर हैं. उसका मानना था कि पूंजीवादी समाज में जनसाधारण को अनुशासित-नियंत्रित करने के लिए जो नियम बनाए जाते हैं, वे न केवल निर्मम होते हैं, बल्कि लोगों की समझ से बाहर भी होते हैं. स्वार्थ-प्रेरित व्यवस्था उसकी कोई चिंता भी नहीं करती. व्यक्ति ही क्यों पूंजीवाद के जटिल नियम बहुसंख्यक समाज की समझ से भी बाहर होते हैं. वे बिना यह चिंता किए कि आम आदमी उनके बारे में क्या सोचता है, उसको प्रभावित करते हैं. पूंजीवाद यूं तो सभी के लिए समान अवसर प्रदान करने का दावा करता है, परंतु यथार्थ में विनियोजन के बहाने जनसाधारण को धन से वंचित कर दिया जाता है. यह कार्य विकास के नाम पर संपादित होता है, जिसका वास्तविक लाभ पूंजीपतियों और सत्ताकेंद्र पर बैठे लोगों तक ही पहुंच पाता है. अपने सुप्रसिद्ध निबंध ‘सोश्यिलिज्म एंड मेन इन क्यूबा’ में उसने लिखा था कि अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए—

‘पूंजीवाद बल का उपयोग करता है. इसके साथ अपनी कार्यशैली के बारे में लोगों को शिक्षित कर उन्हें उसके प्रति अभ्यस्त भी बनाता है. पूंजीवाद को बनाए रखने के प्रयत्न उन लोगों द्वारा जोर-शोर से किए जाते हैं, जो वर्ग-विभाजन के समर्थक हैं. कभी किसी दैवीय सिद्धांत के सहारे तो कभी भौतिक नियम का हवाला देकर वे वर्ण-विभाजन के औचित्य का समर्थन करते हैं. जनसामान्य को यह भ्रम बना रहता है कि वे ऐसे दैत्य की मनमानी के शिकार हैं, जिससे संघर्ष में जीत असंभव है. जब भी सुधार की कोई संभावना बनती है, पूंजीवाद उसके विरोध के लिए (धर्म और) जातिवाद को आगे कर देता है, जिससे विकास की समस्त संभावनाएं स्वतः धराशायी हो जाती हैं.’

पूंजीवाद का आंतक भले कितना गहरा हो, यह अधिक लंबा खिंचने वाला नहीं है. आने वाला युग समानता पर आधारित होगा, इसलिए कि अति और अनाचार की उम्र बहुत लंबी नहीं होती. समाजवाद की आहट के बीच हम देख सकते हैं कि नए स्त्री-पुरुष जन्म ले रहे हैं. ऐसे लोग जो पूंजीवाद से आजिज आ चुके हैं और किसी भी तरह इससे मुक्ति पाना चाहता है. यह तस्वीर अभी भले ही अधूरी हो. संभव है निकट भविष्य में यह पूरी ही न हो. तो भी यह एक सुखद संभावना है. इसलिए भी कि यह एक अंतहीन प्रक्रिया है. लंबी चलनेवाली प्रक्रिया. जो उस समय तक अनवरत गतिमान रहेगी जब तक शोषण की प्रतीक चालू आर्थिक संस्थाएं धराशायी होकर नए रूप में आ नहीं जातीं. हम देख रहे हैं कि व्यक्तिमात्र समाज के साथ समन्वय स्थापित करने, उसमें घुलमिल जाने के लिए प्रयासरत है. दूसरी ओर वह यह भी कामना करता है कि समाज उसको पर्याप्त महत्त्व दे. उसे समाज के संचालक और सचेतक के रूप में स्वीकारा जाए. ऐसे में जरूरी क्या है? व्यक्ति या फिर समाज? मनुष्य हालांकि पूंजीवाद से मुक्ति पाने के लिए संकल्परत है, लेकिन वह अपनी अस्मिता और पहचान को भी बचाए रखना चाहता है. दूसरों के साथ समन्वय रखते हुए भी वह इसे खोना नहीं चाहता. इसलिए भविष्य व्यक्ति और समाज दोनों को समान महत्त्व देने से बनेगा. वही व्यवस्था यहां टिकी रह पाएगी जो एकल और बहुल दोनों का सम्मान करती हो. यह कार्य एकदम आसान भी नहीं है. इसलिए कि क्रांति समाज की संपूर्ण-संगठित चेतना से ही सफलता प्राप्त करती है. और लोकचेतना की कमजोरी है कि उसको सतत जागरण की आवश्यकता पड़ती है. यही स्थिति अर्थव्यवस्था की भी है. उसको बदलने के लिए समाज के सोच और उत्पादनतंत्र को बदलना पड़ता है. मानव सभ्यता के गहन अध्ययन के बाद माक्र्स भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचा था. लेकिन सामाजिक परिवर्तनों की गति बहुत धीमी और ऊपर-नीचे होती रहती है. उसमें नर्मी-तेजी के दौर भी आते ही रहते हैं—

‘वैचारिक मनोभूमि पर किसी उत्पादक गतिविधि से बचे रहना, मनुष्य की भौतिक एवं आध्यात्मिक आवश्यकताओं में अंतर करने के बजाय काफी आसान है. लंबे समय से इंसान की यही कोशिश रही है कि वह कला और संस्कृति के कारण होने वाले सामाजिक प्रथक्कीकरण से स्वयं को मुक्त कर सके. लेकिन आठ या उससे अधिक घंटों तक जी-तोड़ परिश्रम करते हुए वह हर रोज मरता है. थक-हारकर वह पराभौतिक शक्तियों की अनुकंपा में शांति की खोज करने लगता है. समस्या का यह निदान अपने भीतर उसी बीमारी के गंभीर लक्षण समेटे हुए है. इसलिए व्यक्तिमात्र का यह कर्तव्य है कि वह भ्रमित हुए बिना अपने परिवेश से एकात्मता और एकलय कायम करे.’

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एकात्मता यानी निजता का विसर्जन—यही समाजवाद का लक्ष्य है. समाजवाद के आलोचकों को जवाब देते हुए चे ने कहा था कि—

‘समाजवाद अभी युवा है. स्वाभाविक रूप से वह कुछ गलतियां भी करेगा. ऐसा कई बार हुआ है जब क्रांतिकारियों को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. उस अवस्था में थोड़ी-बहुत उम्मीद बुद्धिजीवियों से की जाती है, जो प्रायः परंपरगत तौर-तरीकों से हटकर काम करते हैं. वही नए युग की चुनौतियों का सामना करने का हौसला देते हैं, लेकिन उनकी सामान्य कमजोरी और सीमा यह है कि वे अकसर उसी समाज से प्रेरित-प्रभावित होते हैं, जिसने उन्हें जन्म दिया है.’

बीसवीं शताब्दी के मध्याह्न में ही चे ने लोगों से इकीसवीं शताब्दी के लिए तैयार होने की अपील की थी. उसने कहा था कि हमें इकीसवीं शताब्दी के मनुष्य की रचना करनी चाहिए. यह कार्य यद्यपि यथार्थ में संभव नहीं है. यह एक लंबा लक्ष्य है, जिसको अपना लक्ष्य मानकर हमें उसके लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए. लोग पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शोषण के विरुद्ध संगठित हो रहे है. उनके दिलों में शोषण के प्रति तीव्र आक्रोश और संघर्ष की चेतना है. उस आक्रोश को हवा देने, संगठित ताकत में बदलने के लिए नए-नए विचार स्वागत को तैयार हैं. समाज की सक्रियता और वैचारिक चेतना ने उसके विकास को भी नए आयाम दिए हैं. आज का समय भले ही संघर्षयुक्त हो, अंधियारा भी हो. लेकिन नए विचारों की रोशनी में भविष्य हमारा है. इसके लिए हम हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ सकते. हमारा दायित्व है नई पीढ़ी को अंतद्र्वंद्वों से बचाना. उनकी संगठित ऊर्जा को रचनात्मक बनाए रखना. लेकिन मनुष्यता को हर स्थिति में रचनात्मक बनाए रखना असंभव है. इसलिए हमें अपनी आध्यात्मिक मान्यताओं, विश्वासों में आमूल बदलाव लाकर उन्हें कार्य से जोड़ना होगा. सभी को काम करने की आदत डालनी होगी. श्रम को हेय मानने वाली प्रवृत्ति को समाप्त कर उसके स्थान पर श्रम-संस्कृति को स्थापित करना होगा, किंतु सहòाब्दियों के अंतराल में परिस्थितियों से अनुकूलन कर चुकी लोकचेतना स्वतः बदलने वाली नहीं है. विशेषकर आर्थिकी के क्षेत्र में. इसके लिए प्रयत्न करने होंगे. एकजुट होकर उन शक्तियों से जूझना पड़ेगा जो जनसामान्य की दुर्दशा का कारण बनी हैं. बहुसंख्यक वर्ग के श्रम और संसाधनों के दम पर विलासितापूर्ण जीवन बिताती हैं. परिवर्तन की प्रक्रिया असमांग हो सकती है. उसमें त्वरण एवं अवमंदन की स्थितियां भी उत्पन्न हो सकती हैं. किंतु यह तय है कि सदाशयतापूर्ण प्रयत्नों का अनुकूल परिणाम आएंगे ही. जनसाधारण के प्रति सदाशयता, मानव-कल्याण की राह में निस्वार्थ समर्पण, मानवोचित संकल्प और दृढ़ इच्छाशक्ति मनुष्यता के प्रति अगाध प्रेम के बिना संभव नहीं. इसलिए सच्चे क्रांतिकारी के दिल में मनुष्यमात्र प्रति प्रेम छलकना चाहिए. हास्यास्पद कहे जाने का खतरा उठाते हुए भी चे कहता है—

‘हास्यास्पद दिखने का खतरा उठाते हुए भी मैं यह कहूंगा कि सच्चा क्रांतिकारी प्रेम की पवित्र भावना द्वारा निर्देशित होता है. बिना मानवप्रेम के प्रतिबद्ध क्रांतिकारी बन पाना संभव ही नहीं है.’

चे के अनुसार क्रांति की सफलता के लिए मानवमात्र का दिल जीतना आवश्यक है. तभी लक्ष्य की प्राप्ति संभव है. लेकिन केवल प्रेम ही सबकुछ नहीं है. क्रांति की वांछा के साथ प्रयास करने वाले व्यक्ति में नेतृत्व-कौशल भी अनिवार्य है. सफल नायक वही है जिसके दिल में मनुष्यता के प्रति अगाध प्रेम हो, जो आवश्यकता पड़ने पर बिना विचलित हुए ठंडे दिमाग से दृढ़ निर्णय ले सके. क्रांतिकारी का प्यार आदर्श होता है. कुछ पवित्र कारणों और समर्पण-भावना से प्रेरित. प्रेम के साधारण मानक उसको अस्वीकार्य होते हैं. क्रांतिकारी का अपना परिवार होता है, लेकिन आम आदमी की भांति वह अपने बच्चों को प्यार नहीं कर पाता. उसको अपने प्रणय सुख का भी बलिदान करना पड़ता है, ताकि क्रांति-चक्र को स्वतंत्ररूप से आगे बढ़ा सके. उसके मित्रों से अपेक्षा की जाती है कि वे क्रांतियज्ञ में आहुति देने के लिए स्वयं को तैयार रखें. इसलिए कि क्रांति से बाहर क्रांतिकारी का कोई जीवन नहीं होता. उसको प्रतिपल यह समझना होता कि मनुष्यता के प्रति उसका प्यार वायवी न हो. उसे निरंतर कुछ ऐसा सोचना-करना चाहिए, ताकि उसके दिल में मौजूद मनुष्यता के प्रति निष्ठा ठोस कार्यरूप धारण कर सके. दूसरे लोग उससे प्रेरणा लें. यदि ऐसा नहीं है तो इससे क्रांतिकारी अपने मकसद में कमजोर पड़ सकता है. उसका अभियान अधूरा रह सकता है.

सफल क्रांति के बाद भी आवश्यक नहीं कि सभी समस्याएं तत्काल सुलझ जाएं. प्रगतिगामी शक्तियां एक बार पराजित होकर दुबारा सक्रिय हो सकती हैं. उनपर अंकुश लगाने के लिए क्रांति की सफलता के बाद भी क्रांतिकारी को अपने अभियान में सक्रिय रहना पड़ सकता है. अतः यदि कोई मनुष्य यह सोचता है कि अपनी पूरी जिंदगी क्रांति को न्योछावर कर देने के बाद उसको उसकी समस्त चिंताओं से मुक्ति मिल जाएगी, पारिवारिक अभावों तथा रोजमर्रा की समस्याओं का समाधान हो चुका होगा, तो यह मान लेना चाहिए कि उसने क्रांति के उद्देश्य को सीमित कर दिया है. उस अवस्था में एक न एक दिन वह अपने कर्तव्य से विमुख हो जाएगा. क्रांतिकारी को अपने लक्ष्य के प्रति बलिदान के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए. उसको यह समझना चाहिए कि क्रांति और वीरतापूर्ण कार्यवाहियों की ऊंची कीमत चुकानी पड़ती है. क्रांति लंबी चलने वाली प्रक्रिया है. यह कम से कम उस समय तक जारी रहनी चाहिए जब तक प्रत्येक नागरिक क्रांति के उद्देश्यों को समझकर, विरोधी शक्तियों से टकराने को तत्पर न हो जाए. चे के अनुसार सबसे अंतिम और महत्त्वपूर्ण क्रांतिकारी चाहत है—‘मनुष्यमात्र को उसकी विरक्तियों से मुक्त कर देना.’ दूसरे शब्दों में अपनी आकांक्षाओं के दमन को रोकना तथा राजनीतिक-आर्थिक गतिविधियों में अपनी सार्थक भूमिका के निर्वाह के लिए सदैव तत्पर रहना. यह तभी संभव है जब आर्थिक संसाधनों पर राज्य का नियंत्रण हो. और राज्य लोकतांत्रिक व्यवस्था से अनुशासित होता हो. चे के अनुसार समाजवादी व्यवस्था में मनुष्य, स्पष्ट मानकीकरण के बावजूद, मनुष्यता के सर्वाधिक निकट होता है.

विरक्ति की बेड़ियां कटते ही सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य उन कारणों को समझने लगता है, जो उसके शोषण की वजह हैं. श्रमिक अपनी भूख के साथ-साथ मुक्तिचेतना की आवश्यकता को समझने लगता है. इससे नई संस्कृति का जन्म होता है, समानांतर संस्कृति. जहां मनुष्य पूंजी के आधार पर बने संबंधों से मुक्त होता है. जहां आर्थिक उपलब्धियां उसकी सामाजिक हैसियत को प्रभावित नहीं करते. नई संस्कृति के विकास के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने कार्य और संकल्पों को नया रूप दे. मनुष्य को उपभोक्ता समझे जाने वाली प्रवृत्ति से मुक्ति मिले. ऐसी व्यवस्था का विकास हो जिसमें प्रत्येक नागरिक के कर्तव्य पूर्वनिर्धारित हों. उत्पादनतंत्र पर समाज का अधिकार हो तथा मशीन को उस स्थल से अधिक महत्त्व प्राप्त न हो, जहां काम किया जाता है. यदि ऐसा होगा, तभी पूंजीवाद अपनी उन परिभाषाओं को बदलने पर विचार कर सकता है, जिनके आधार पर वह लोगों का शोषण करता है. मूल्य का नियम पूंजी और उत्पादन के शाश्वत अंतःसंबध को ही नहीं दर्शाता, वह पूंजीवाद की एकाधिकारवादी नीति का भी फलन है. असली मसला व्यक्तिमात्र को खुशी प्रदान करने का है—

‘यह बात कतई मायने नहीं रखती कि व्यक्ति-विशेष के पास खाने के लिए कितने किलोग्राम मीट है, या साल में कोई व्यक्ति कितनी बार समुद्री सैर के लिए जा सकता है, अथवा अपनी एक दिन की मजदूरी से आप अपनी पसंद की कितनी खूबसूरत वस्तुएं खरीदकर घर ला सकते हो. असली मसला व्यक्तिमात्र की सुखानुभूति का, उसके दिल में मौजूद संपन्नताबोध और संपूर्ण दायित्वबोध को विस्तार देने का है.

क्रांतिपथ पर सफलता युवाशक्ति की मदद के बगैर संभव नहीं. फिदेल कास्त्रो को लिखे गए एक पत्र में क्यूबा के उस क्रांतिकारी ने लिखा था—‘सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध युवाशक्ति ही हमारी आशा का एकमात्र केंद्र हैं. यही वह मिट्टी है जिससे हमें अपनी अपेक्षाओं की दुनिया का निर्माण करना है. हमें अपनी उम्मीदें युवाशक्ति के मन में बिठा देनी होंगी तथा उसको अपने साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार करना होगा. उसको यह अच्छी तरह से समझा देना होगा कि क्रांतिपथ पर आगे बढ़ने का अभिप्राय है—जिंदगी अथवा मौत—

‘क्रांति यदि सच्ची है तो उसमें एक ही चीज प्राप्त हो सकती है—जीत या फिर मौत!’

चे का लक्ष्य समाजवाद की स्थापना करना था. वह लातीनी अमेरिकी देशों में उत्तरी अमेरिका के पूंजीवादी साम्राज्यवाद द्वारा किए जा रहे शोषण का नंगा रूप देख चुका था. ग्वाटेमाला, कांगो, क्यूबा, बोलेविया आदि देशों में उसने पूंजीवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष को आगे बढ़ाने का काम भी किया था. उसको उम्मीद थी कि साम्राज्यवाद से लड़ाई में बाकी देश और संगठन भी उसकी मदद को आगे आएंगे. पूंजी-आधारित साम्राज्यवाद से चे का संघर्ष किसी एक देश या राज्य की सीमा तक बंधा हुआ नहीं था, बल्कि उन सभी देशों तक विस्तृत था, जो औपनिवेशिक शोषण का शिकार थे. चे जानता था कि उसका संघर्ष पूरा नहीं हुआ है. उसको अपनी गलतियों का भी भली-भांति एहसास था. अपनी बेटी हिल्डा को उसके दसवें जन्मदिवस 15 फरवरी 1966, पर संबोधित एक पत्र में उसने लिखा था—

‘याद रखना, तुम्हारी जिंदगी में संघर्ष से भरे कई वर्ष अभी आगे हैं. औरत होने के बावजूद तुम्हें अपने हिस्से के संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा. इस बीच तुम स्वयं को तैयार कर सकती हो. तुम अभी से क्रांतिकारी बनो, तुम्हारी उम्र में इसका अभिप्राय है कि तुम्हें अधिक से अधिक पढ़ना है, जितना संभव हो उतना पढ़ना है, और तुम सदैव इस प्रकार की चुनौतियों से जूझने को तैयार रहो….तुम्हें स्कूल में सर्वश्रेष्ठ बनने के लिए संघर्ष करना है. हर मामले में सबसे आगे, इसका मतलब तुम अच्छी तरह से जानती हो: अधिक से अधिक अध्ययन और क्रांतिकारी रवैया. दूसरे शब्दों में अच्छा आचरण, गंभीरता, क्रांति के लिए प्रेम, नेतृत्व-सामथ्र्य. तुम्हारी उम्र में मैं उस रास्ते पर नहीं था, लेकिन मैं एक भिन्न समाज में रहता था, जहां आदमी ही आदमी का दुश्मन था. तुम्हें एक अलग युग में रहने का अवसर प्राप्त हुआ है, तुम्हें इसका लाभ उठाना चाहिए.’

चे ने माक्र्सवाद से प्रेरणा ली. उसको आदर्श मानकर अपना संघर्ष जारी रखा. उससे पहले रूस में लेनिन, स्टालिन तथा चीन में माओ जिदांग ने राष्ट्रवादी सरकारों के विरुद्ध जनसंघर्ष का नेतृत्व किया था. बदले में लेनिन और स्टालिन ने बारी-बारी से रूस की सत्ता का सुख भोगा, माओ जिदांग ने चीन में एक राष्ट्रनायक और राष्ट्राध्यक्ष का सम्मानित जीवन जिया. जबकि चे ने अपना देश छोड़कर क्यूबा के संघर्ष में सिर्फ अपनी सिद्धांतनिष्ठा के कारण हिस्सा लिया था. साम्यवादी सरकार बनने के पश्चात फिदेल ने चे को क्यूबा सरकार में सम्मानित पद भी दिया. वरिष्ठता क्रम में उसकी स्थिति दूसरे नंबर की थी. इसके बावजूद चे को सत्ता की राजनीति कभी पसंद नहीं आई. वह आजन्म एक छापामार योद्धा बना रहा. क्यूबा में रहकर और बाद में ग्वाटेमाला, कांगो, बोलेविया में उसने समाजवाद की स्थापना के लिए सतत संघर्ष किया. वहां वह असफल हुआ. शायद इसलिए कि उन देशों में फिदेल जैसे सहयोगी सेनानायक का अभाव था. शायद इसलिए कि अमेरिका के पूंजीवादी साम्राज्यवाद द्वारा पोषित-संरक्षित सत्ताओं से टकराने के लिए जिस तरह के जनसमर्थन की आवश्यकता पड़ती है, उन देशों में उसका अभाव था. कांगो और वोलेविया में तो जिन साम्यवादी दलों से उसको सहायता की आस थी, वे संघर्ष के दौरान उदासीन बने रहे. वह एक आदर्शवादी क्रांतिकारी विचारक और छापामार नेता था. अपने लक्ष्य के प्रति सदा सतर्क. इसलिए सत्ता सुख और अन्यान्य प्रलोभन उसको बांध नहीं सके थे. मानवमात्र की स्वतंत्रता के समर्थक चे का कहना था कि—‘घुटनों के बल चलकर जीने से मर जाना बेहतर है.’

मनुष्यता के संरक्षण हेतु संघर्ष की अनिवार्यता को समझते हुए उसने कहा था कि हमें ‘यथार्थवादी होना चाहिए, लेकिन हमें असंभव की कामना भी करनी चाहिए.’58 अपने सिद्धांतों के प्रति आजन्म प्रतिबद्ध रहकर उसने एक योद्धा की भांति ही स्वयं बलिदान किया. वह जीवन में हर पल संघर्ष करता रहा. कभी अपने जानलेवा दमा से, कभी मनुष्यता के दुश्मनों, असमानमता के पक्षकारों से. और कभी साम्राज्यवाद से जो पूंजीवाद की शक्ल में दुनिया के गरीब और विकासशील देशों को अपने अधीन करता जा रहा था. संघर्ष की अपरिहार्यता को लेकर चे का मानना था कि—

‘हमें हर दिन संघर्ष करना चाहिए, उस समय तक संघर्ष करना चाहिए जब तक मनुष्यता के प्रति हमारा प्रेम हकीकत में न बदल जाए.’

चे जुलाई 1959 में भारत आया था. यहां उसने दिल्ली, कोलकाता आदि शहरों का दौरा किया था. भारत के बारे में चे के विचार मिले-जुले थे. हवाना वापस लौटने के बाद उसने अपनी भारत-यात्रा को लेकर एक रिपोर्ट लिखी, जो वहां के समाचारपत्र ‘वरदे ओलिवो’ में 12 अक्टूबर 1959 को प्रकाशित हुई थी. रिपोर्ट में चे ने भारत की आजादी की प्राप्ति में महात्मा गांधी के योगदान तथा नेहरू की प्रशंसा करते हुए इस देश के बारे में अपने विचारों को भी व्यक्त किया था—

‘यह बहुबिध और बहुत बड़ा देश अनेक प्रथाओं और रूढ़ियों का देश है. जिन समस्याओं में हम जी रहे हैं, उनसे उपजे विचार उन प्रथाओं और रूढ़ियों से बिलकुल भिन्न हैं. हमारा सामाजिक-आर्थिक ढांचा एक-सा है. गुलामी और औपनिवेशीकरण का वही अतीत, विकास की सीध की दिशा भी वही. इसके बावजूद कि ये तमाम हल काफी मिलते-जुलते हैं और उद्देश्य भी एक ही है, फिर भी इनमें रात-दिन का अंतर है. एक ओर जहां भूमि-सुधार की आंधी ने कांपाग्वेड़(क्यूबा) की जमींदारी को एक ही झटके में हिलाकर रख दिया और पूरे देश में किसानों को मुफ्त में जमीन बांटते हुए वह सफलतापूर्वक आगे बढ़ रही है: वहीं महान भारत अपनी सुविचारित और शांत पूर्वी अदा के साथ बड़े-बड़े जमींदारों को वहां के किसानों के लिए भूदान कर उनके साथ न्याय करना सिखा रहा है. दरअसल जो किसान उनकी खेती-बाड़ी को जोतते-बोते हैं, उन्हीं को एक कीमत अदा करने के लिए राजी कर रहा है. इस प्रकार एक ऐसी कोशिश हो रही है कि इस समूची मानवता में जो समाज जितना अधिक आदर्शमय और संवेदनशील, साथ में सबसे गरीब भी है, उसकी गरीबी की ओर असंवेदनशील दरिद्रता का प्रवाह किसी तरह अवरुद्ध हो सके.’

चे का सपना तो पूरी तरह हकीकत में नहीं बदल पाया, किंतु उसका संघर्ष अवश्य हकीकत बन गया. जिससे आज भी करोड़ों लोग प्रेरणा लेते हैं. वह माक्र्सवाद को समर्पित बीसवीं शताब्दी का शायद सबसे प्रतिबद्ध विचारक-योद्धा था. चे के बाद क्रांतिकारी समाजवाद की डोर लगभग कट-सी गई है. वह कुशल लेखक और विचारक था, जिसको छापामार युद्ध में विशेषज्ञता प्राप्त थी. इस विषय को लेकर उसने एक पुस्तक ‘गुरिल्ला वारफेयर’ भी लिखी थी. विद्रोही नेता चे एक श्रेष्ठ कवि भी था. बोलेविया अभियान की असफलता को लेकर उसने एक कविता भी लिखी थी. पत्नी अलीडा को संबोधित वह कविता उसकी आखिरी वसीयत के समान है. ‘हवा और ज्वार’ शीर्षक से लिखी गई यह कविता उसके आदर्शवादी सोच की ओर इशारा करती है—

हवा तथा ज्वार के विरुद्ध यह कविता मेरा संदेश तुम्हें सुनाएगी
छह सुरीले स्वरों छिपा है यह संदेश
दृश्य जिसमें भरी है कोमलता(घायल पक्षी के समान)
गहरे-गुनगुने पानी जैसी व्याकुलता
अंधेरा कक्ष जिसमें मेरी कविता की रोशनी है.
बेहद घिसा अंगुशताना, तुम्हारी उदास रातों के लिए और
एक चित्र हमारे बच्चों का
पिस्तौल की अतिसुंदर गोली, जो सदैव मेरा साथ निभाती है तथा
बच्चों की गहरी, प्रच्छन्न, कभी न मिटने वाली याद
जो कभी हम दोनों से ही जन्मी थी
जीवन के वे क्षण जो अभी शेष हैं मेरे लिए
ये सब में खुशी-खुशी क्रांति के नाम करता हूं.
हमारी एकता को सलामत रख सके, ऐसा उससे शक्तिशाली कोई नहीं.

कविता में चे ने सब कुछ क्रांति के नाम समर्पित करने को कहा था. वैसा उसने किया भी. औपनिवेशिक शोषण से मुक्ति तथा जनकल्याण हेतु क्रांति की उपयोगिता को उसने न केवल पहचाना, बल्कि उसके लिए आजीवन संघर्ष करता रहा. अंततः उसी के लिए अपने जीवन का बलिदान भी किया. उसकी वैचारिक निष्ठा श्लाघनीय थी. बुद्धि और साहस का उसमें अनूठा मेल था. विचार के साथ-साथ उसने समरक्षेत्रा में भी अनथक, अद्वितीय, वीरतापूर्ण संघर्ष किया. समाजवादी क्रांति का औचित्य सिद्ध करने के लिए वह लगातार वैचारिक लेखन करता रहा. समाजवाद और औपनिवेशिक शोषण पर दिए गए उसके भाषण आज एक वैश्विक बुद्धिसंपदा हैं. निष्पृह नेता तथा निर्भीक विचारक का गुण उसको अपने समकालीन विचारकों एवं नेताओं से अलग सिद्ध करता है. वह आदर्श क्रांतिकारी था. उसका संघर्ष किसी एक देश के लिए न होकर समूची मनुष्यता के हित में था. इसीलिए उसे वयस्कों और युवाओं में समान लोकप्रियता प्राप्त है. उसकी यही विलक्षणता उसे बीसवीं शताब्दी के विश्व के 25 महानतम व्यक्तित्वों में सम्मानित स्थान पर प्रतिष्ठित करती है.

ओमप्रकाश कश्यप
opkaashyap@gmail.com

2010 in review

The stats helper monkeys at WordPress.com mulled over how this blog did in 2010, and here’s a high level summary of its overall blog health:

Healthy blog!

The Blog-Health-o-Meter™ reads Fresher than ever.

Crunchy numbers

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A helper monkey made this abstract painting, inspired by your stats.

A Boeing 747-400 passenger jet can hold 416 passengers. This blog was viewed about 4,000 times in 2010. That’s about 10 full 747s.

In 2010, there were 10 new posts, growing the total archive of this blog to 59 posts.

The busiest day of the year was May 9th with 71 views. The most popular post that day was एडम स्मिथ: आधुनिक अर्थशास्त्र का निर्माता.

Where did they come from?

The top referring sites in 2010 were hi.wikipedia.org, saahityaalochan.blogspot.com, hi.wordpress.com, jantakapaksh.blogspot.com, and samajvad.wordpress.com.

Some visitors came searching, mostly for कार्ल मार्क्स, सामाजिक परिवर्तन, अमर्त्य सेन, and अर्थशास्त्र में प्रशिक्षित.

Attractions in 2010

These are the posts and pages that got the most views in 2010.

1

एडम स्मिथ: आधुनिक अर्थशास्त्र का निर्माता May 2009
5 comments

2

कार्ल मार्क्स : वैज्ञानिक समाजवादी March 2010
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3

अमर्त्य सेन के अर्थदर्शन की लोकपक्षधरता May 2010
4 comments

4

सामाजिक गतिशीलता एवं अंतर्विरोध July 2009
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5

लियोनार्दो दा विंसी: रचनात्मकता मेधा की गगनचुंबी उड़ान – ओमप्रकाश कश्यप March 2009
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पूंजी (दि कैपीटल): संक्षिप्त विमर्श : चार

1. इतिहास का संकट, पूंजीवाद एवं पूंजीवादी समाज की व्युत्पत्ति

मार्क्स ने पूंजीवाद की समीक्षा ऐतिहासिक संदर्भों के साथ की है. हालांकि कुछ विद्वान इसे इतिहास की अर्थशास्त्रीय व्याख्या भी कहते हैं. मगर इनमें से कुछ भी कहा जाए, बात लगभग एक ही है. इतिहास के अर्थशास्त्रीय अध्ययन द्वारा मार्क्स अपने इस बहुख्यात सिद्धात पर पहुंचा था कि सामाजिक परिवर्तनों का मुख्य आधार उत्पादन के साधनों में परिवर्तन है. उत्पादनपद्धति में आए परिवर्तन से ही उससे जुड़े संबंधों में बदलाव आता है. अर्थ सामाजिक संबंधों का निर्माता और निर्धारक बन जाता है. वही अन्य परिवर्तनों को दिशा देता है. पुस्तक के छबीसवें अध्याय में वह प्राचीन समाजों में पूंजी संचयन के सिद्धांतों के गूढ़ रहस्यों की पड़ताल करता है. मार्क्स के अनुसार प्राचीन समाज यानी पूंजीवादी समाज के उद्भव से पहले पूंजीसंचयन केवल धनसंचयन तक सीमित था. दूसरे शब्दों में उस समय तक धन पूंजी का रूप नहीं ले पाया था. पूरा समाज एक असंगठितसहयोगाधारित समाज था. उत्पादन की बजाय उसका जीवन प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करता था. शिकार आधारित भोजनव्यवस्था में देखा यह गया था कि कुछ व्यक्ति शिकार करने में निपुण हैं. उनका निशाना अचूक है. एक ही पत्थर में वे खूंखार जानवर को धराशायी कर सकते हैं. जरूरत पड़ने पर उससे स्वयं भिड़ सकते हैं. भारीभरकम शिकार को पीठ पर लादकर ठिकाने तक लेकर आ सकते हैं. कुछ ऐसे भी रहे होंगे, जिन्हें शिकार के नाम से ही डर लगता होगा. जिनका निशाना अचूक नहीं था. स्वाभाविक रूप से कबीले के लोग पहले व्यक्ति को ही नायक के रूप में स्वीकार कर सकते थे. दूसरों से उसको अपने लिए अधिक उपयोगी मान, उसकी बात भी मानते होंगे. कालांतर में ऐसे लोगों को समूह का नेतृत्व सौंपा जाने लगा. परिणाम यह हुआ कि मानवसमाज धीरेधीरे ताकतवर और कमजोर के रूप में बंटता चला गया. अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए ताकतवर लोगों ने संसाधनों को कब्जाना आरंभ कर दिया, परिणामस्वरूप दूसरे वर्ग के हाथों से संसाधन छिनते चले गए और वह पराश्रित होता गया.

मार्क्स के अनुसार आर्थिकसामाजिक परिवर्तन की आरंभिक प्रक्रिया महज धन की जमाखोरी तक सीमित नहीं थी, जिसने आगे चलकर पूंजीवादी संचयन और फिर पूंजीवादी समाज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया. प्रकारांतर में पूरा समाज सर्वहारा और पूंजीपतिवर्ग में बंटता चला गया. वास्तव में वह समाज के कुल संसाधनों के चंद लोगों के हाथों में सिमटने जाने का परिणाम था, जिसके कारण समाज का बड़ा हिस्सा, जो मेहनती एवं कुशल था और अपने श्रमकौशल के बल पर सम्मानजनक जीवन जीने की योग्यता रखता था, वह संसाधनविहीन और दूसरों पर निर्भर होता चला गया. कालांतर में उस वर्ग की संख्या बढ़ती ही चली गई. एक दिन पूरा समाज दो हिस्सों में बंट गया. पहला वह जिसका समाज के संसाधनों पर कब्जा था, लेकिन उन संसाधनों का वह स्वयं कोई उपयोग नहीं करता था. दूसरा वह जो उन संसाधनों के दम पर जीविकोपार्जन करता था और बदले में पहले वर्ग को संसाधनों का कब्जाधारकस्वामी मानते हुए एक निश्चित राशि, अधिलाभ, लगान, कर आदि के रूप में प्रदान करता था. धनसंग्रह की प्राचीन पद्धति का रहस्य इस तथ्य में निहित था कि वह एक थोड़ेसे पूंजीवादियों से भरे सर्वहारा समाज के बजाय एक हिंसक एवं निर्दयी समाज से जन्मा था. गुलामों और दासों को उनके सामंत जमींदारों से मुक्त कराना, वास्तव में उनके घरों, जमीनों, उनके उत्पादन के संसाधनों और आजीविका के साधनों से भी दूर करना था. इतिहास का अर्थशास्त्रीय दृष्टि से अध्ययन करता हुआ मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि—

तथाकथित प्राचीन पूंजीसंचय और कुछ नहीं, बल्कि समाज के उत्पादक वर्ग को उत्पादन के संसाधनों से अलग कर देने की प्रक्रिया है.’

मार्क्स के निष्कर्ष पश्चिमी समाज की सामाजिकआर्थिक गतिविधियों के अध्ययन का निकष थे. उसने सोलहवीं शताब्दी से पहले के समाज को पूंजीवादी अवशेषों से रहित समाज स्वीकार किया था. उल्लेखनीय है कि यूरोप के इतिहास में वैज्ञानिक प्रबोधन की शुरुआत ही पंद्रहवीसोलहवीं शताब्दी से होती है. वैज्ञानिक चेतना के विकास का पहला उपयोग उत्पादन में मशीनीकरण की शुरुआत के साथ हुआ था. जिससे संचित धन को पूंजी में बदलने, उसका उपयोग और अधिक धन कमाने का प्रचलन हुआ. भारत और अन्य एशियाई देशों में यह प्रक्रिया काफी देर से करीब सतरहवीं शताब्दी से ही आरंभ हो पाई थी. सतरहवींअठारहवीं शताब्दी के बौद्धिक आंदोलनों के फलस्वरूप समाज में लोकतंत्र का आगमन हुआ. व्यक्तिस्वातंत्रय का नारा पूंजीवाद के विकास में सहायक सिद्ध हुआ, क्योंकि उसके बहाने वह समाज पर उपभोक्तावादी संस्कार थोपने में सफल सिद्ध हुआ.

22. कृषिआश्रित समूहों को भूसंपदा से बेदखल करना

पूंजी’ के सताइसवें अध्याय में मार्क्स पश्चिमी समाज में औद्योगिकीकरण के बाद आए बदलावों तथा उन स्थितियों पर विचार भी विचार करता है, जिनके कारण एक सामंती समाज पूंजीवादी समाज में परिवर्तित होता चला जाता है. मार्क्स के अनुसार पंद्रहवीं शताब्दी के अंतिम दो दशक यूरोप में पूंजीवाद के उद्भव का समय था. उससे पहले इंग्लेंड में जमींदारी प्रथा थी. सामंतों और जागीरदारों के माध्यम से राजशाही राजनीतिक कार्यव्यवहार देखती थी. उस समय लागू विधान के अनुसार राज्य की समस्त भूसंपदा उसके राजा के अधीन होती थी. उसके प्रबंधन तथा लगान वसूली के लिए वह जागीरदारों और सामंतों की नियुक्ति करता था, जो जनता के साथ निरंकुश व्यवहार करते थे. विज्ञान ने परंपरागत ज्ञान के साथसाथ प्राचीनकाल से चली आ रही अर्थव्यवस्था को भी चुनौती दी थी. परिणामस्वरूप नई प्रौद्योगिकी का जन्म हुआ और उत्पादन के स्रोत अपढ़कुपढ़ सामंतों के हाथों से फिसलकर पढ़ेलिखे पेशेवरों और तकनीशियनों के हाथों में आ गए.

उल्लेखनीय है कि सामंती समाज के पतन के चिह्न चैदहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में ही दिखाई पड़ने लगे थे, जब किसानों से भूसंबंधी अधिकार छीने जा रहे थे. उस समाज में अधिकांश वे कृषक थे, जो जमींदारों और सामंतों के कब्जेवाली भूमि पर खेती करते थे. कठोर परिश्रम के बावजूद उन्हें नाममात्र की ही आमदनी थी. अपनी आजीविका के लिए उन्हें सामंतोंजागीरदारों की दया पर निर्भर रहना पड़ता था. उनमें कृषकों के अलावा बड़ी संख्या में वे मजदूर भी शामिल थे, जो खेती तथा दूसरे क्षेत्रों में मेहनतमजदूरी करके अपना जीवनयापन करते थे. जिन सामंतोंजमींदारों के लिए वे परिश्रम करते थे, वही उन्हें रहने के लिए छोटे झोपड़ीनुमा घर और जमीन का एक टुकड़ा दे देते थे. उस जमीन से अपने परिवार के भरणपोषण के लिए अन्न उपजा सकते थे. इसके अलावा कुछ सार्वजनिक जमीन भी होती थी, जिसपर वे अपने पशु चराते तथा लकड़ी, चारे और्र इंधनसंबंधी जरूरतें पूरी करते थे. कुल मिलाकर उन मजदूरों की हालत बंधुआ मजदूरों जैसी थी.

पंद्रहवीं शताब्दी के पश्चात हालात बदले. जमींदारों और सामंतों ने किसानों को भूमि से बेदखल करना प्रारंभ कर दिया. मजदूरोंकिसानों ने जो भूमि वर्षों की मेहनत के बाद, पसीना बहाकर कृषि के योग्य बनाई थी, वह भूसामंतों के कब्जे में जाने लगी. जमीन को संपदा मान लिया गया. भाड़े के लठैतों का डर दिखाकर किसानों को ऊबड़खाबड़ और बंजर जमीन की ओर खदेड़ा जाने लगा. वह भूमि जिसपर वे पीढ़ियों से खेती करते आए थे, जिसको उन्होंने वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद तैयार किया था, समाज के ताकतवर वर्ग की निजी संपत्ति में ढलने लगी. उल्लेखनीय है कि कपड़ा उद्योग के विकास के बाद इस वर्ग के पास ऊन और कपास की बिक्री से बेशुमार दौलत जमा हुई थी, जिससे उस वर्ग की महत्त्वाकांक्षाएं सातवें आसमान पर थीं. मार्क्स के अनुसार किसानों को बेदखल करने का दूसरा मुख्य कारण वे मशीनें थीं, जिन्होंने सबसे पहले कपड़ा उद्योग में दस्तक दी थी. पूंजीपतियों के पक्ष में अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के उपरांत वे अन्य उद्योगों के साथसाथ, कृषिक्षेत्र में भी अपनी उपस्थिति दर्शाने लगी थीं. मशीनों का आविष्कार हालांकि मनुष्य को कठोर परिश्रम से मुक्ति दिलाने के नाम पर किया गया था, मगर अनुभव में वे मनुष्य को ही काम से बेदखल करने में लगी थीं. कपड़ा उद्योग में वे यह काम कर चुकी थीं. लाखों बुनकर, रंगरेज, कपास ओटने वाली औरतें, मशीनों के आगमन के बाद बेरोजगार हो चुकी थीं.

अन्य क्षेत्रों की भांति कृषिकर्म भी उनके हमले से अछूता न था. जुताईबुबाईगहाई की भारीभरकम मशीनों ने कम मजदूरों द्वारा बड़े कृषि फार्मों पर खेती करना आसान कर दिया था. चूंकि यूरोप का कपड़ा उन दिनों शीर्ष पर था, इसलिए कपास आदि कृषि उपजों की मांग बढ़ी हुई थी. इसलिए भूसामंतों ने अपने खेतों को बड़े कृषिफार्मों में बदलना आरंभ कर दिया था. परिणामस्वरूप छोटे किसान अपने खेतों से बेदखल किए जाने लगे. सोलहवीं शताब्दी के अंत तक कपड़ा उद्योग के विकास के साथ ऊन की मांग में भी लगातार वृद्धि हो रही थी. ऊन की खेती के लिए भेड़ों के बड़ेबड़े बाड़े बनाए जा रहे थे. उनके चरागाह के लिए किसानों से जमीन छीनी जा रही थी. उनके झोपड़ों को उजाड़कर मिट्टी में मिला दिया गया. जमीन की आवश्यकता तेजी से बन रहे कारखानों के लिए भी थी. इसलिए कस्बों और गांवों में कृषियोग्य भूमि को कारखानों के नाम पर हड़पा जा रहा था. कारखानों, ऊनउत्पादक केंद्रों यहां तक कि भेड़ चराने के लिए भी मानवश्रम की आवश्यकता थी. मगर पहले वे संसाधनों के स्वामी की तरह काम करते थे, उनके शिल्प का सम्मान किया जाता था, मगर अब उन्हें समाज में तेजी से उभरते नवसामंतवर्ग के कारखानों में, उसके अधीन कार्य करना पड़ता था.

सतरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक भूसामंत अपनी स्थिति को काफी सुदृढ़ कर चुके थे. उन्हें धार्मिक और राजनीतिक शक्तियों का भी पूरा समर्थन प्राप्त था. हाथों से जमीन और रोजगार छिन जाने के कारण समाज में बेरोजगारों की संख्या बढ़ी थी. इसलिए भूसामंत जो आगे चलकर पूंजीपतिवर्ग में ढलने वाले थे, के पास पूरा अवसर था कि अपनी ताकत और स्थिति का लाभ उठाकर श्रमिकों से मनमानी दरों पर काम ले सकें. यही नहीं, श्रमिकोंकामगारों के शोषण का दौर भी आरंभ हो चुका था. मानवश्रम की जरूरत को पूरा करने के लिए बड़ेबड़े जमींदार और भूसामंत कृषिफार्मों और ऊन के कारखानों के नाम पर बड़ेबड़े बाड़े बनाने लगे थे. उन बाड़ों में सिर्फ पशुओं को ही नहीं, मजदूरों और कामगारों को भी कैद करके रखा जाता था. बाड़े में कैद लोगों में से अधिकांश भूसामंतों और जमींदारों के दास होते थे. जिनकी पशुओं की भांति ही खरीदफरोख्त की जाती थी.

मजदूरों का पूरा का पूरा परिवार उन बाड़ों में काम करता था. यहां तक कि छोटे बच्चों को भी बचपन से ही काम पर जोत दिया जाता था. मजदूरी के रूप में उन्हें सिर्फ पेट भरने लायक रोटी और तन ढकने को कपड़ा दिया जाता था. रहने के लिए ठिकाना, वह भी इसलिए ताकि पतिपत्नी मिलकर मजदूरों और गुलामों की नई पीढ़ी पैदा कर सकें. भूसामंतों, जमींदारों की आमदनी बढ़ने के साथ ही उनमें विलासिता के लक्षण भी पैदा होने लगे थे. किसानों से छीनी गई जमीनों, मगर खाली पड़े कुछ मैदानों को अरण्य क्षेत्र घोषित करने की प्रथा जोर पकड़ चुकी थी. उन अरण्यों का उपयोग हिरन के आखेट के लिए किया जाता. उल्लेखनीय है कि कृषियोग्य जमीन को आखेटस्थलों में बदल जाने का दुष्परिणाम जर्मनी में भीषण अकाल के रूप में देखने को मिला था. बावजूद इसके सरकार भूसामंतों के पक्ष में थी.

अठारहवीं शताब्दी में ब्रिटिश संदद में एक बिल पेश किया गया, जिसके द्वारा भूकब्जाधारकों को उसके कानूनी मालिक का रूप दे दिया गया. अब वे अपने कब्जे वाली जमीन का उपयोग निजी संपत्ति के रूप में करने को स्वतंत्र थे. इससे भूस्वामियों को बेरोजगार श्रमिकों के साथ मनमानी करने, उनसे अपनी शर्तों पर काम लेने का अधिकार मिल गया. कृषियोग्य भूमि के छिन जाने से लोग मजदूरी की तलाश में भटकने लगे. दूसरी ओर भूसामंतों, जमींदारों ने अपने कब्जेवाले विशाल कृषि मैदानों में मशीनों के सहारे खेती करना प्रारंभ कर दिया. खेती एक उद्योग में बदलने लगी. भूवंचित किसानों के पास अपनी आजीविका के लिए, सिवाय मजदूरी पर काम करने के और कोई चारा न था. यह एक सर्वहारा वर्ग था, जो रोजीरोटी की तलाश में कहीं तक जाने को विवश था. इन्हीं भूसामंतों ने अतिरिक्त पूंजी के दम पर कारखानों और उद्योगों की स्थापना की. आम जरूरत का वस्तुएं जिन्हें पहले हस्तकौशल से बनाया जाता था और जिनके द्वारा हजारोंलाखों लोगों को रोजगार मिलता था, वे मशीनों द्वारा बनने लगीं. जिससे उन उद्योगधंधों में लगे कारीगर बेरोजगारी का शिकार बनने लगे. विवश होकर वे भी नौकरी के लिए कारखानों और फैक्ट्रियों में भटकने लगे. उनपर नियंत्रण रखने के लिए कानून बनाए गए. पूंजीपतियों के समर्थन पर बनी सरकारें, अनुशासन और व्यवस्था के नाम पर मजदूरों और कामगारों के मौलिक अधिकार, जीविका के अधिकार के हनन में—पूंजीपतियों का साथ दे रही थीं.

23. भू-अधिग्रहण के विरुद्ध खूनी विद्रोह: बुर्जुआ वर्ग का उदय

भूमि छिन जाने के कारण समाज का बड़ा वर्ग बेरोजगारी का शिकार बना था. हजारों एकड़ जमीन जिसपर छोटे किसानमजदूर अपने पसीने से अन्न उपजाते थे, भूसामंतों और जमींदारों की संपत्ति बन चुकी थी. उन दिनों के सभी कानून भूसामंतों और जमींदारों के पक्ष में थे. यूरोप के जिन देशों में सरकार का चयन निर्वाचन द्वारा होता था. वहां एक प्रकार का कुलीनतंत्र था. सरकार के चुनाव में वही लोग चुनाव ले सकते थे, जिनके पास न्यूनतम वांछित क्षेत्रफल की कृषियोग्य जमीन हो. उससे पहले लोग या तो खेती पर निर्भर थे, अथवा आम उपयोग की उन वस्तुओं का निर्माण करते थे, जिनकी स्थानीय लोगों मेें खपत हो. उत्पादन लाभकेंद्रित न होकर, आवश्यकताकेंद्रित था. समाज में कारीगरोंशिल्पकारों को पूरा सम्मान मिलता था. बावजूद इसके, पारस्परिक आवश्यकताओं पर आधारित वह प्रणाली मशीनीकरण की मार झेलने में असमर्थ सिद्ध हो रही थी. मशीनों ने किसान और कामगार दोनों को बेरोजगार किया था. प्रौद्योगिकीय विकास के साथ ही समाज में विशिष्ट तकनीक क्षमता संपन्न दक्ष कामगारों की मांग भी बढ़ती जा रही थी. इसके लिए नए शिक्षासदन और प्रशिक्षण केंद्र खोले जा रहे थे. प्रशिक्षणप्राप्त कामगारों को अपेक्षाकृत अच्छे वेतन पर रखा जाता था. वे पूंजीपतिप्रबंधन के अपेक्षाकृत निकटवर्ती माने जाते थे. इससे श्रमिकों के बीच विषमता की खाई लगातार फैलती जा रही थी.

इसी समय को मार्क्स ने बुर्जुआ वर्ग के उद्भव का काल माना है. वह सामंतवाद और पूंजीवाद का संक्रमणकाल था. आरंभ में पूंजीवाद इतना विकृत भी नहीं हुआ था कि दूसरे के परिश्रम को अपनी प्रगति का आधार बनाया जा सके. न उद्योगों का उतना विकास हो पाया था कि उसमें सर्वहारा वर्ग के सभी बेरोजगारों को खपाया जा सके. न ही किसी एक की जमीन पर कब्जा जमाकर उसको भिखारी बना देने की रीतिनीति चलती थी. सोलहवीं शताब्दी तक यूरोपीय समाज तेजी से पूंजीवादी समाज में ढलने लगा था. बावजूद इसके उसपर परंपरा का पूरा दबाव था. यही वह कारण है जिससे सतरहवीं शताब्दी के आरंभ में ऐसे बहुत से नियम बनाए गए, जिनसे नागरिकों के अधिकारों को कानूनी संरक्षण दिया जा सके. लेकिन वे सभी कानून समाज के संपन्न और शक्तिशाली वर्ग के हित में थे. वही श्रमशोषण का मुख्य आधार थे. तो भी दासप्रथा के विरुद्ध सोलहवीं शताब्दी से ही आवाजें उठने लगी थीं. स्वयं दासों में भी अपने हालात को लेकर बेचैनी थी. वे आजाद होना चाहते थे. उस समय तक लोकप्रिय हो चुका मानवतावादी चिंतन और उससे जुड़े दार्शनिकविचारक और लेखक उनकी मांगों का समर्थन कर रहे थे. यूरोप के कई देशों में दासप्रथा पर कानूनी प्रतिबंध लगा दिया गया था. किसी भी व्यक्ति को बेगार और गुलामी के लिए बाध्य करना कानूनी अपराध था. कुछ देशों में तो दासता के लिए बाध्य करने पर मृत्युदंड का भी प्रावधान था.

समाज में अनुशासनसंबंधी नियम कड़े थे. कहींकहीं तो उनसे निरंकुशता की झलक भी मिलती थी. थाॅमस मूर के हवाले से मार्क्स ने बताया है कि सोलहवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में ही केवल चोरी के आरोप में लगभग 72, 000 नागरिकों को मृत्युदंड दिया गया था. नागरिक अधिकारांे के संरक्षण की पर्याप्त व्यवस्था न होने के कारण उनमें कुछ निर्दोष भी दंडित हुए होंगे. इसलिए कानूनों का विरोध होना स्वाभाविक था. परिणाम यह हुआ कि लोग रोजगार के वैकल्पिक रास्तों की तलाश करने लगे. निश्चित ही उन दिनों तेजी से बढ़ते उद्योग लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने का सर्वश्रेष्ठ क्षेत्र थे. लोग उनके माध्यम से सामंतवादी अत्याचारों से मुक्ति का सपना देख रहे थे. कारखानों का प्रबंधन पूंजीवादी नियमों के अनुसार किया जाता था. उनके लिए मजदूर का श्रम महज एक कामोडिटी, उपभोक्ता वस्तु जितना था, जिसको बाजार में बोली लगाकर कम से कम कीमत पर खरीदा जा सकता था—बिना यह सोचे कि मजदूर भी एक जैविक इकाई है. उसकी भी अपनी जरूरतें और सपने हो सकते हैं. कालांतर में जैसेजैसे मशीनीकरण का विस्तार हुआ, पूंजीवाद अपने पंजे फैलाता गया, फिर तो जहांजहां वह पहुंचा, मानवीय श्रम को उपभोक्ता वस्तु समझने की प्रथा भी वहांवहां फैलती गई. पूंजीवादी विस्तार के साथ सर्वहारा वर्ग और उसकी समस्याएं भी विस्तार लेती र्गइं. इसके साथ ही पूंजीवाद के प्रति आक्रोश भी परवान चढ़ता गया. इस जनाक्रोश को हवा देने में दार्शनिकों और बुद्धिजीवियों का भी पूरापूरा हाथ था.

24. पूंजीपति किसान की व्युत्पत्ति

पूंजीवादी व्यवस्था के सच को बेनकाब करने के लिए ‘पूंजी’ में मार्क्स एक ही प्रश्न को अनेक रूपों में जगहजगह उठाता है. उनतीसवें अध्याय में यह प्रश्न एक बार पुनः दोहराया गया है. वह पूछता है कि आखिर पूंजीवाद आया कहां से? इसका मूल उद्गम कहां है? किस प्रकार यह पूरी दुनिया में फैलने में कामयाब हुआ? वे कौनसी शक्तियां थीं, जो पूंजीवाद को अपने हितानुकूल मानकर उसको बचाए रखने का षड्यंत्र रचती थीं? अपने ही प्रश्नों पर विचार करते हुए मार्क्स इस परिणाम पर पहुंचा था कि ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो पूंजीपति का विकास वही घटना है, जब समाज में सर्वहारा वर्ग का जन्म हुआ था. दूसरे शब्दों में पूंजीपति और सर्वहारा दोनों का उद्गमकाल एक ही है. उसके अनुसार मनुष्यता के इतिहास में पूंजीवाद और सर्वहारा वर्ग का उद्गम वास्तव में इतिहास का वह हिस्सा है, जब मनुष्य में पहलेपहले धनसंग्रह की प्रवृत्ति का विकास हुआ. कालांतर में इसी से धन को पूंजी की भांति उपयोग करने और उसका पूर्ण आर्थिक लाभ उठाने की परंपरा को जन्म दिया.

न्यूटन का तीसरा नियम है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया साथसाथ और समान बलयुक्त होती है. पूंजीपति वर्ग के उदय के साथ सर्वहारा वर्ग का उद्भव भी ऐसी ही ऐतिहासिक और स्वाभाविक घटना थी. सर्वहारा वर्ग का विकास स्पष्टतः पूंजीवाद के विकास की परिणति था. उन दोनों के बीच स्वाभाविक द्वंद्वात्मकता थी, तो भी वे एकदूसरे के विकास को गति देने का उत्तरदायित्व निभा रहे थे. उनमें से पूंजीपतिवर्ग अपनी ताकत और पहुंच के बल पर पूरी दुनिया पर छा जाने का सपना देख रहा था. दूसरा करीबकरीब विपन्न और साधनविहीन सर्वहारा था. उसकी ताकत उसके संख्याबल में निहित थी, किंतु अन्यान्य कारणों से कई खेमों में बंटे होने के कारण वह किसी निर्णायक स्थिति में नहीं था. हालांकि उसकी भी वैश्विक व्याप्ति थी. मजदूर संगठन थे, मगर आपस में बंटे हुए. मार्क्स के अनुसार पूंजीवाद का उदय किसानों और मजदूरों को उनकी जमीनों से बेदखल करने की घटना से जुड़ा था. पंूजीपतियों का एक वर्ग ऐसा भी था जो मजदूरों और किसानों के बल पर खेती करने का सपना देख रहा था. अवसर का लाभ उठाते हुए उन्होंने उत्पादन प्रणाली का आमूल मशीनीकरण किया. पूंजी जमा की और उसके दम पर छोटे किसानों को उजाड़ना आरंभ कर दिया. उजड़े हुए जमीन से बेदखल लोग भूसामंतों, पूंजीपति किसानों के अधीन कार्य करने और उत्पीड़न सहने को विवश थे.

पूंजीपति किसानों और सर्वहारा वर्ग के साथ एक और वर्ग भी बड़ी तेजी से पनप रहा था, जो था तो सर्वहारा वर्ग का हिस्सा, मगर अपने बुद्धिबल के हिसाब से वह पूंजीपति वर्ग के हितों को प्रभावित करने में सक्षम था. यह स्थिति उसने आधुनिक शिक्षा और तकनीकी कौशल के बल पर अर्जित की थी. मशीनीकरण के दौरान विशिष्ट प्रशीक्षणयुक्त कार्मिकों की मांग बढ़ने पर इस वर्ग को आर्थिक लाभ भी पहुंचा था. पूंजीवाद के आगमन के पश्चात नवधनाढ्यों की श्रेणी में आए इस वर्ग को मार्क्स ने ‘बुर्जुआ’ वर्ग कहा है. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बीच, देखा जाए तो उसकी भूमिका कैटलिस्ट के समान थी. ‘पूंजीपतियों’ के साथ इस वर्ग के रिश्ते सहयोग और विरोध के थे. निहित स्वार्थों के लिए यह वर्ग कभी श्रमिकों के खेमे में जाकर उनसे अंतरंगता दर्शाता, उन्हें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने को उकसाता, तो कभी पूंजीपतियों का हितैषी बनकर श्रमिकों के हितों की बलि लेने से भी नहीं हिचकिचाता था.

चूंकि पूंजीपति और सर्वहारा एक ही सामाजिक प्रक्रिया से उद्भूत थे, अतएव जिस सामाजिक प्रक्रिया द्वारा सर्वहारावर्ग का जन्म हुआ था, उसी ने नए किसानों के लिए भी नियम बनाए थे. उनमें से एक नियम यह भी था कि भूसामंत अथवा पूंजीपति किसान अपने कृषिक्षेत्र के प्रबंधन का काम देख सकता था. वहां न्यूनतम मजदूरी के आधार पर नौकर रख सकता था. कालांतर में मजदूरी की दरों में गिरावट लगातार बनी रही, जिसका एक परिणाम मुद्रास्फीति के रूप में सामने आया, जो मजदूरी की दरों में अतिरिक्त गिरावट का कारण बना. उल्लेखनीय है कि अपनी स्थिति का अनुचित लाभ उठाते हुए पूंजीपति किसान मजदूरी की गणना मुद्रा की पुरानी दरों के आधार पर करता था. जिससे मजदूरों की वास्तविक आय काफी कम हो जाती थी. मजदूरी की दरों में आई भारी गिरावट और जमींदारों, भूसामंतों को दिए जाने वाले लगान में उत्तरोत्तर कमी का सीधा लाभ पूंजीपतिकिसानों को पहुंचा था. मार्क्स ने उदाहरण देकर इस स्थिति को स्पष्ट करने का पूरापूरा प्रयास किया है, जिसके परिणामस्वरूप परंपरागत जमींदारों और भूसामंतों के स्थान पर उन किसानों का वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा था, जो पूंजीवादी सिद्धांतों के अनुसार कृषिकर्म को वरीयता देते थे. यह वर्ग एक ओर जहां मजदूरों का शोषण करता था, वहीं सघन खेती को प्रोत्साहन के सरकार से मिलने वाली सुविधाओं का भी लाभ उठाता था.

25. कृषि-क्रांति का उद्योग-जगत पर प्रभाव

पूंजी’ के तीसवें अध्याय में मार्क्स कृषिउत्पादन में मशीनों के आगमन के बाद आई क्रांति और उसके प्रभावों की विवेचना करता है. वह दर्शाता है कि मशीनीकरण के बाद पूंजीपति वर्ग न केवल उत्पादन क्षेत्र पर, बल्कि अर्थव्यवस्था के प्रत्येक प्रत्येक क्षेत्र पर काबिज हो चुका था. यहां तक कि परंपरागत कृषिकर्म भी उसके आक्रमण से अछूता नहीं था. वह लिखता है कि—सतत एवं सुव्यवस्थित क्रम में कृषकसमूहों को उनकी कृषिभूमि से बेदखल किए जाने से पूरे यूरोप में बेरोजगारी बढ़ी थी. रिक्त कराई गई भूमि का उपयोग पूंजीवादी ढंग से खेती किए जाने अथवा कारखाने स्थापित करने के लिए होता था. यद्यपि नए कारखानों के लिए मजदूरोंकामगारों की आवश्यकता पड़ती थी. तो भी मजदूरों के हिस्से का अधिकांश कार्य मशीनों द्वारा निपटा दिए जाने के बाद कुल रोजगार अवसरों में कमी आई थी. बेरोजगारों की संख्या उन कारखानों में रोजगार प्राप्त श्रमिकों की संख्या से कहीं अधिक थी. सर्वहारावर्ग की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही थी. मार्क्स आगे लिखता है कि खेती करने वाले किसानों और मजदूरों को जमीन से बेदखल किए जाने के कारण बाजार में उपलब्ध श्रमशक्ति में कई गुना वृद्धि की थी. बेरोजगार हुए वे सभी श्रमिक आजीविका के लिए काम की तलाश में थे.

चूंकि बड़े फार्महाउसों में कृषिकार्य का मशीनीकरण हो चुका था, इसलिए बेदखल किए गए किसानों को वहां रोजगार मिलने की संभावना अत्यंत क्षीण थी. उनके पास सिवाय कारखानों और फैक्ट्रियों में मेहनतमजदूरी करने के लिए खुद को जीवित रखने का और कोई रास्ता न था. जो किसान अपना पसीना बहाकर खेतों में अपनी जरूरत का अन्न उपजा लेते थे, जो उससे पहले तक पूरे समाज का पेट भरते आए थे, अब उन्हें अपना पेट भरने के लिए दूसरों के आगे गिड़गिड़ाना पड़ रहा था. उनका नया अन्नदाता वह पूंजीपतिवर्ग था, जिसने उनसे उनके खेतों को हड़पकर उनमें बड़ीबड़ी मशीनें खड़ी कर दी थीं. उन्हीं के संसाधनों का दोहन करता हुआ वह तेजी से पूंजी बना रहा था. यही नहीं, अपनी आर्थिक हैसियत और श्रमिकों की मजबूरी का लाभ उठाते हुए वह उनका जमकर शोषण भी करता था.

मार्क्स के अनुसार कृषिक्षेत्र से भारी मात्रा में मजदूरों के बेदखल किए जाने से घरेलू बाजार में वृद्धि हुई थी. इसलिए कि जो किसानमजदूर अपनी जरूरत की वस्तुएं अपने खेतों में उगा लिया करते थे, अब उन्हें वे बाजार से खरीदनी पड़ती थीं. इस तरह जो किसान और खेतिहर मजदूर पहले दूसरों का पेट भरते थे, वे अब अपना पेट भरने के लिए कारखानों में बनाए जा रहे, उत्पादों पर निर्भर हो चले थे. इससे बाजार का विस्तार हुआ था. इसका आशय ही था, पूंजीपतियों के लिए अतिरिक्त मुनाफा, बाजार का उत्तरोत्तर फैलाव और पूंजीवाद का निरंतर विस्तार.

26. औद्योगिक पूंजीवाद की उत्पत्ति

मार्क्स के अनुसार पूंजीवाद का विस्तार एक ऐतिहासिक परिघटना थी. ‘पूंजी’ के अध्यायों में वह एक के बाद एक उन स्थितियों और परिवर्तनों का क्रमानुसार विश्लेषण करता है, जिनसे गुजरते हुए एक सरल समाज प्रकारांतर में औद्योगिक पूंजीवाद का शिकार हुआ और जिसके कारण समानताआधारित अर्थव्यवस्था चंद लोगों के वर्चस्व वाली अर्थव्यवस्था में बदलती जा रही थी. मार्क्स स्पष्ट करता है कि औद्योगिक पूंजीवाद का गुलाब, जमींदारी प्रथा की राख पर खिला था. बेलगाम मुनाफाखोरी के लिए जमीन उन मेहनतकश किसानों से हड़पी गई थी, जो पीढ़ियों से उसपर खेती करते आए थे. जमीन के साथ उनके भावनात्मक और बेहद करीबी संबंध थे. सामंतवादी शोषण और उत्पीड़न की विषम परिस्थितियों के बीच जो अपने जीवन को जैसेतैसे बचाए हुए थे. अपने परंपरागत उद्यमों से बेदखल हुए वे किसानमजदूरशिल्पकार जीवित रहने के लिए भारी संघर्ष से गुजर रहे थे. उनके पास बहुत कम विकल्प थे. अधिकांश लोगों ने पूंजीवादी उद्यमों की शरण ली थी. उनमें मजदूरी कर वे अपना जीवनयापन करने लगे. उनमें से कुछ ने जो व्यवहारकुशल और व्यावसायिक दृष्टि रखते थे, मशीनीकरण की शरण ली. उनमें से कुछ को सफलता भी मिली. लगातार मुनाफा कमाते हुए वे स्वयं को छोटे उद्यमियों की श्रेणी में स्थापित करने में सफल सिद्ध हुए. लेकिन ये सब संसाधनों की कमी का शिकार थे और अपनीअपनी सरकार से संरक्षण की आस लगाए हुए थे.

जमेजमाए उद्योगपति बाजार पर एकाधिकार चाहते थे. उनके पास संसाधनों की कमी न थी. अपने उद्योगों में वे बेहतर तकनीक का उपयोग कर सकते थे. उत्पादों के लिए नए बाजारों की खोज का उन्हें लंबा अनुभव था. किंतु अपने ही जैसे पूंजीपतियों से कड़ी स्पर्धा तथा बाजार पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए उन्हें भारी मात्रा में श्रमशक्ति की आवश्यकता थी. समस्या के समाधान के लिए पूंजीपतियों ने श्रमिकों को काबू में रखने के लिए दीघसूत्री योजना पर काम करना आरंभ कर दिया. यह योजना राजनीतिक सत्ता के साथ गठजोड़ पर टिकी थी. सरकार पर अपने दबदबे के कारण वे मनमाने कानून बनवाने में भी सक्षम थे. अठारहवीं शताब्दी में ब्रिटिश सरकार द्वारा आरंभ की गई राष्ट्रीय ऋणकोश, कराधान जैसी अनेक नई व्यवस्थाएं, पूंजीपतियों की योजना के अनुसार थीं, इन सबने येनकेनप्रकारेण पूंजीवाद को मजबूत करने का ही काम किया था. इससे छोटे उद्यमी, किसान स्पर्धा में पिछड़ने लगे थे.

इन सभी व्यवस्थाओं को यद्यपि सर्वतोन्मुखी विकास के नारे के साथ लागू किया गया था. तथापि इनका प्रभाव सीमित एवं श्रमविरोधी था. यह औपनिवेशिक सरंचना आर्थिक मोर्चे पर फतह और नए संसाधन जुटाने के लिए भले अत्यावश्यक हो, मगर मूल रूप में यह श्रमशोषण एवं बेगार के सिद्धांत पर टिकी थी. इसका पलड़ा हमेशा पूंजीपतियों के पक्ष में झुका होता था. परिणाम यह हुआ कि औद्योगिकीकरण के विस्तार और उद्योगों के बीच कड़ी स्पर्धा के बीच अधिकतम लाभ की संभावना के साथ कारखानों में बालमजदूरों की भर्ती और उनका खुलेआम शोषण किया जाने लगा. पूरा का पूरा बाजार पूंजीपति के लाभ के लिए काम में जुट गया. विडंबना देखिए कि यूरोपीय देशों में 1769 से 1770 के बीच पड़ा भीषण अकाल भी पूंजीपतियों के लिए मुनाफे का संदेश लेकर आया था. उसमें एक ओर जहां लाखों गरीबों, बेबसों, स्त्रियों और मासूम बच्चों को जान से हाथ धोना पड़ा, वहीं पूंजीपति जमाखोरों ने सरकारी उदासीनता और अकाल की स्थितियों का लाभ उठाते हुए खूब चांदी काटी थी. लाभ के सिद्धांत पर टिकी उस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में अधिकतम मुनाफा ही नैतिकता थी, इसलिए पुराने जीवनमूल्य धराशायी होने लगे थे.

मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी समाज में श्रमिक उसका सबसे शक्तिशाली केंद्रबिंदू हैं. अतएव श्रमिकवर्ग को काबू में रखने के लिए उन्हें संगठित होने, उधार लेने तथा ज्वाइंट स्टाॅक कंपनी की स्थापना के लिए प्रेरित किया गया. यह कार्य आधुनिक समाज में विकास और कल्याणकारी व्यवस्थाओं की स्थापना के नाम पर संपन्न हुए. मानवाधिकार और लोकतंत्र जैसी संस्थाओं ने भी अंततः पूंजीवाद को मजबूत करने का कार्य किया. इससे उत्साहित होकर अधिकांश कामगार ज्वाइंट स्टाॅक कंपनी, स्टाॅक एक्सचेंज तथा आधुनिक बैंक कर्जदारी के लिए प्रवृत्त हुए. उद्योगों को कर्ज प्रदान करने की अंतरराष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं ने, जो इस तथ्य को गोपनीय रखती थीं कि कर्ज के लिए वित्त की व्यवस्था किन òोतों से की जा रही है, कारखानों में श्रमिकों के शोषण को बढ़ाने का ही काम किया. आयकरदाताओं को टैक्स चुकाने और कर्ज लेने के लिए उकसाया जाता रहा. पूंजीपतियों ने जरूरी सेवाओं को भी बाजार में उतार दिया, ताकि उनके माध्यम से अपने लिए आय के नए स्रोत पैदा कर सकें. इसका उन्हें लाभ भी हुआ. बाजार के बहुमुखी विकास ने नई प्रौद्योगिकी की मांग पैदा की. नए क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी के आगमन से उनमें कार्यरत श्रमिककामगार, नाई, धोबी, दर्जी, बढ़ई, लुहार, स्वर्णकार आदि बेरोजगार होकर सड़क पर आ गए. कुल मिलाकर हालात ऐसे बनाए गए कि श्रमिक, कारीगर, हस्तशिल्पी सब के सब उसमें निरंतर उलझते ही गए. वास्तव में इस व्यवस्था से जुड़ा कोई भी व्यक्ति पूंजी के खूनी पंजों से बाहर जाने में असमर्थ था. वह सिर्फ छटपटा सकता था. अपसंस्कृतीकरण और महंगाई की बढ़ती दर से आहत हो सकता था. अपने हालात पर रो और छटपटा सकता था, लेकिन व्यवस्था में रहने, शोषण का शिकार होने और खुली आंखों से सबकुछ देखते जाने से अधिक कुछ और उसके बस में भी नहीं था. इन सभी परिवर्तनों के फलस्वरूप पूंजीवाद बेलगाम दौड़ता चला गया.

27. पूंजीवादी संचय की ऐतिहासिक प्रवृत्ति

प्रूधों का कहना था—व्यक्तिगत संपत्ति चोरी है….संपत्तिधारी व्यक्ति चोर है. मार्क्स हालांकि प्रूधों से कई मामलों में असहमत था. मगर व्यक्तिगत संपत्ति को लेकर उसकी कुछ मान्यताएं पू्रधों से मेल खाती हैं. इतिहास का भौतिकवादी अध्ययन करते हुए वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि उत्पादन के संसाधन सामाजिक परिवर्तन की मुख्य प्रेरणा रहे हैं, और इसके पीछे मनुष्य की संपत्ति संचय की प्रवृत्ति का भारी योगदान है. ‘पूंजी’ के बतीसवें अध्याय में मार्क्स पूंजीवादी संचय की प्रमुख वृत्तियों और उन अवस्थाओं का वर्णन करता है, जिनकी ओर वह उन्मुख है. लंबे चिंतनविश्लेषण के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि एक दिन श्रमिकवर्ग पूंजीवाद की, जो उसकी दुर्दशा का मूल कारण है, की वास्तविकता को पहचानेगा तथा संगठित होकर क्रांति का शंखनाद करेगा. वह पूंजीवाद का अंतिम दिन होगा. अध्याय के आरंभ में ही वह एक प्रश्न उठाता है—

‘‘प्राचीन पूंजीसंचयन ने अपने भीतर कौनसा परिवर्तन किया है?’ इस प्रश्न का उत्तर वह आगे स्वयं ही दे देता है—‘निजी संपत्ति का विलयन, जो उनके मालिकों ने कठोर परिश्रम द्वारा अर्जित की थी, अर्थात तात्कालिक उत्पादकों को बेदखल कर देना.’

पू्रधों से भिन्न मार्क्स ने निजी संपत्ति की अवधारणा का पक्ष लिया था. उसका मानना था कि श्रमिकों को निजी संपत्ति का अधिकार होना चाहिए, ताकि उसके द्वारा वे छोटेछोटे उद्यम स्थापित कर सकें. वह लघु उद्यमों की सामाजिक उत्पादकता को बनाए रखने एवं श्रमिक की अस्मिता और सम्मान की रक्षा के लिए आवश्यक मानता था. श्रमिक अपना बाॅस स्वयं है. चाहे वह हल जोतने वाला किसान हो अथवा हाथ में औजार लेकर काम करने वाला शिल्पकार. चाहे वह कारखानों में पसीना बहाकर रोजीरोटी कमाने वाला मेहनतकश श्रमिक हो अथवा दस्तकार. निजी संपत्ति ही उन सबके कल्याण की वाहक हो सकती है. वह लिखता है कि यद्यपि पूंजीवाद की नींव मजदूरों की भारी मात्रा में हुई बेदखली ने रखी है. निजी संपत्ति पूंजीपति के हाथों में पहुंचकर बहुआयामी शोषण का सबसे बड़ा हथियार बन चुकी है. उसके कारण जो श्रमिककामगार कभी मुक्त जीवन जीने के अभ्यस्त थे, अब विस्थापित मजदूर बनकर कष्टमय जीवन जी रहे हैं. पूंजीवाद के चंगुल में फंसकर वे अपना सबकुछ गंवा चुके, सर्वहारा हैं. पूंजीपतियों ने उनके श्रम को पूंजी में बदल दिया है. उसके माध्यम से वह लाचार श्रमिकों का मनमाना शोषण कर रहा है. मार्क्स स्पष्ट करता है कि पूंजीपति की निजी संपत्ति पूंजीवादी विनियोजन के रूप में अविरत विस्तार लेती जाती है. इस कोशिश में वह अपने संपर्क में आने वाली हर छोटी संपत्ति जिसमें श्रमिक की अपनी पूंजी यानी श्रम भी सम्मिलित है, को आभाहीन कर देती, उसको ग्रस लेती है. ऐसी स्थितियां पैदा कर दी जाती हैं, जिनमें श्रमिकवर्ग का शोषण अपरिहार्य हो जाता है.

पूंजी के अध्ययन से स्पष्ट है कि मार्क्स अपने चारों ओर पूंजीवाद का नंगा नाच देख रहा था. उसके चंगुल में फंसे मजदूरों को उसने छटपटाते हुए देखा था. बावजूद इसके वह पूरी तरह आशावान था. पूंजीवाद की विशद् समीक्षा करने के पश्चात वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि अपनी मौत को स्वयं न्योता देना पूंजीवाद की मूल प्रवृत्ति है. यह एक ऐसा भस्मासुर है, जो दूसरे के श्रमकौशल के आधार पर ताकत ग्रहण करता है. किंतु अपनी मौत का उद्यम भी साथ लिए चलता है. श्रमिकअसंतोष की अनियंत्रित स्थितियां कभी भी उसको धराशायी कर सकतीं हैं. इसलिए पूंजीवादी व्यवस्था जहां अपने लाभ के लिए सार्थक उद्यम करती है, वहीं वह श्रमिकों को भुलावे में रखने के लिए निरंतर प्रयासरत रहती है. ये भुलावे सांस्कृतिक पहचान, धर्म और विशिष्ट क्षेत्रीयताओं को अस्मितावादी पहचान देने के नाम पर लगातार जारी रहते हैं.

पूंजीवाद की आलोचना करते हुए उसने उसको ऐसा उपक्रम बताया है, जिसमें सामाजिक नियंत्रण, सहयोग और सहकारिता, प्रकृति की नियामक शक्तियों तथा समाज के उत्पादक बलों के मुक्त विकास के लिए कोई स्थान नहीं है. अपने विकास के दौर वह इन्हें हड़पता चला जाता है. पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपतियों के बीच आंखमिचैनी जैसा स्पर्धा का खेल चलता ही रहता है. तमाम व्यावसायिक मनमुटाव और लागडांट के एक भी पूंजीपति नहीं चाहता कि उनके उत्पादनतंत्र में कोई बाहरी शक्ति हस्तक्षेप करे. मगर श्रमिकों के पास संगठन की ताकत, श्रम की ताकत और उत्पादन की योग्यता होती है. उसका विश्वास था कि पूंजीपतियों के व्यापक और शोषणकारी तंत्र को संगठित उत्पादक न केवल उखाड़ फेंक सकते हैं, बल्कि अपने श्रमकौशल के दम पर सर्वकल्याणकारी और विकेंद्रीकृत उत्पादनतंत्र की नींव भी रख सकते हैं. खदेड़ने वालों को भी खदेड़ा जा सकता है, मुट्ठीभर हाथों में सिमटे गैरसामाजिक उत्पादनतंत्र का सामाजीकरण कर उसके लौकिक और मानवीय चरित्र को वापस लौटाना असंभव नहीं है—मजदूरों की कार्यक्षमता में अटूट विश्वास रखने वाले मार्क्स का यही मानना था.

मार्क्स निजी संपत्ति को उतना बुरा नहीं मानता, जितना कि प्रूधों मानता था. बल्कि वह बड़े उद्योगों के स्थान पर छोटे उद्यम लगाने के पक्ष में था, जिनपर श्रमिकों का नियंत्रण हो. जहां वे अपनी जरूरत का सामान बना सकें. जहां हुए उत्पादन का पूरा लाभ वहां कार्यरत श्रमिकों को मिलें. उत्पादनतंत्र के समाजीकरण की प्रक्रिया में उसने निजी संपत्ति को व्यक्तिमात्र की संपत्ति कहा था. वह मानता था कि पूंजीवाद के पतन के बाद, उत्पादन व्यवस्था श्रमिकों के हाथों में चले आने का अभिप्राय निजी संपत्ति की अवधारणा की पुनः स्थापना नहीं है. वह लिखता है कि उत्पादन के समाजीकरण की क्रिया है, जो—

यह निजी संपत्ति की पुनः स्थापना नहीं करती. बजाय उसके यह पूंजीवादी युग की उपलब्धियों एवं शिक्षाओं के आधार पर, व्यक्तिमात्र की संपत्ति की अवधारणा जैसे कि सहयोगसहकारिता, कृषिभूमि पर समाज के संयुक्त अधिकार तथा श्रमिकों द्वारा संचालित विकेंद्रीकृत उत्पादनतंत्र की स्थापना करती करती है.’

मार्क्स की समस्या थी कि पूंजीपति के हाथों में जाकर सर्वभक्षणकारी बन चुकी पूंजी को किस प्रकार लोकोपकारी सामाजिक संपदा में बदला जाए. वह कौनसी प्रक्रिया है जिसमें समाज की संपत्ति उसके सर्वांगीण विकास से प्रेरित हो, न कि मुट्ठीभर लोगों के वर्चस्व वाली पूंजीवादी व्यवस्था से. अपनी पुस्तक में वह लगातार इसपर विचार करता है. वह जानता था कि पूंजी, धर्म और राजनीति के दम पर बेहद शक्तिशाली बन चुके पूंजीपतियों का न तो हृदय परिवर्तन संभव है, न ही उस व्यवस्था से जो मनुष्यमात्र को उपभोक्ता और उसके आसपास की प्रत्येक वस्तु को उपभोक्तावस्तु में बदल देने को प्रयासरत हो, किसी भी प्रकार के परिवर्तन की उम्मीद करना उचित है. वह मानता था सरकार अथवा समाज की अन्य नैतिक शक्तियों द्वारा बेलगाम बन चुके पूंजीवाद को काबू में करना असंभव है. उत्पीड़न से मुक्ति के लिए सिर्फ उत्पीड़क वर्ग को ही आगे आना होगा. श्रमिक अभी तक जो उत्पादन पूंजीपति के लिए करता है, वह अपने लिए करे, पूरे समाज के लिए करे, तभी पूंजीवाद के विषैले दांत उखाड़े जा सकते /हैं.

निरीह मजदूर जो अपनी आजीविका के लिए भी दूसरों पर आश्रित हों, वे शक्तिशाली पूंजीपतियों को भला कैसे उखाड़ सकते हैं? विशेषकर तब जब समस्त कानून, सरकारी विधान उनके पक्ष में होकर, उनकी सुरक्षा के लिए सन्नद्ध हों. इस बारे में मार्क्स का मानना था कि श्रमिकवर्ग को यह अवसर पूंजीवाद की ओर से स्वयं ही प्राप्त होगा. इसलिए कि पूंजीवाद की सबकुछ हड़प लेने का स्वभाव ही उसपर भारी पड़ने वाला है. एक दिन वह स्वयं अपने आप को समाप्त कर लेगा. उस दिन श्रमिकोंकामगारों के पास अवसर होगा कि अपने श्रमकौशल और संगठित शक्ति के दम पर समाज को निर्दिष्ट परिवर्तन की ओर ले जा सकें. जहां समाज मुख्य हो. उत्पादन के साधनों पर व्यक्ति का कब्जा न होकर समस्त समाज का अधिकार हो. जहां उत्पादन उपभोगआधारित न होकर आवश्यकताआधारित हो. और जहां आवश्यकताएं व्यक्ति की निजी महत्त्वाकांक्षाओं का प्रतीक न होकर, सामाजिक चेतना द्वारा मर्यादित होती हों.

क्रमश:

ओमप्रकाश कश्यप