मार्क्सवाद—एक
कार्ल मार्क्स उन लेखकों में से था, जिनकी प्रतिष्ठा समय के साथ–साथ निरंतर परवान चढ़ती जाती है. जिन दिनों वह युवा था, फ्रांस में प्रूधों के विचारों का बोलबाला था. उस समय के अधिकांश बुद्धिजीवी और सामाजिक–राजनीतिक आंदोलन प्रूधों के ‘अराजकतावाद’ से प्रभावित थे. सामंतवाद और साम्राज्यवाद का उत्पीड़न झेल चुके लोगों द्वारा शासकविहीन राज्य की परिकल्पना की जा रही थी. हालांकि यह कोई अभिनव अभिकल्पना नहीं थी. ढाई हजार वर्ष पहले प्लेटो ऐसा ही सपना देख चुका था. प्राचीन भारत की वैराज्य की अवधारणा भी अराजकता से मिलती–जुलती थी. तो भी नया न होने के बावजूद, अराजकतावाद एक लुभावनी परिकल्पना थी, जिसको लेकर वुद्धिजीवियों के एक वर्ग में खासा उत्साह था. अराजकतावाद का प्रवर्त्तक प्रूधों खुद भी विलक्षण मेधा का स्वामी था. ‘संपत्ति चोरी है, व्यक्तिगत संपत्तिधारक चोर है…’ जैसे नारों से उसने पूंजीपतियों की खुलकर आलोचना की थी, जिसको बुद्धिजीवियों और आम जनता का खूब समर्थन मिला. प्रूधों के जीवनकाल में ही उसके समर्थकों और प्रशंसकों का बड़ा वर्ग था, वह स्वयं प्रखर विचारक था, इसलिए उसके जीवनकाल में मार्क्स को उतना महत्त्व नहीं मिल सका.
सच तो यह है कि वे मार्क्स की तैयारी, ज्ञान और जीवनानुभव बटोरने के दिन थे. वह आरंभ से ही गजब का पढ़ाकू था. युवावस्था में ही उसने प्राचीन यूनानी दार्शनिकों के साथ–साथ आधुनिकतम दर्शनशास्त्रियों जिनमें कांट, देकार्त, जा॓न लाक, स्पिनोजा, लाइबिनित्ज, डेविड ह्यूम, हीगेल, फायरबाख, बायर आदि प्रमुख थे, का गहरा अध्ययन किया था. मगर उसको सर्वाधिक प्रभावित किया था, हीगेल के द्वंद्ववाद ने. अपने प्रसिद्ध दार्शनिक सिद्धांत में हीगेल ने सृष्टि के विकास को शुभ और अशुभ के शाश्वत द्वंद्व के माध्यम से समझाने का प्रयास किया था. उसने इन्हें परस्पर विरोधी शक्तियां मानते हुए दोनों के अनिवार्य संघर्ष की ओर संकेत किया था. हीगेल परम आस्थावादी था. उसका विश्वास था कि हर वस्तु स्वाभाविक रूप से परम की ओर अग्रसर है. इस कारण उसका अवरोधक शक्तियों से, जो अपनी अज्ञानता के आधार पर उसका विरोध करती हैं, संघर्ष अपरिहार्य है. हीगेल के अनुसार अज्ञानता का मूल ऐंद्रियक ज्ञान की अपूर्णता में निहित है. हीगेल का विचार था कि मानवेंद्रियों द्वारा उपलब्ध ज्ञान अपूर्ण होता है. पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना मानवेंद्रियों के सामथ्र्य से बाहर है. विरोधी शक्तियों के संघर्ष की कल्पना पश्चिमी दर्शन के लिए यद्यपि नई नहीं थी. बाइबिल पहले से ही पाप और पुण्य के शाश्वत संघर्ष की ओर संकेत कर चुकी थी. स्वर्ग से आदम का निष्कासन भी इसी संघर्ष की परिणति था.
बाइबिल की इस स्थापना पर सभी परंपरावादी विश्वास करते थे. इसमें निहित नकारात्मक भाव सृष्टि के मूल को आकस्मिक घटना बताते हुए, उसको पापबोध से जोड़ता था. उसी का डर दिखाकर पादरीवर्ग जनसाधारण को भरमाए रखता था. इस संबंध में हीगेल, जेकोब बोह्म (Jakob Boehme, 1575 – 1624) से प्रभावित था. पेशे से मोची का काम करने वाले बोह्म सृष्टि के मूल में शाश्वत पाप की उपस्थिति से इनकार करता था. स्थानीय जर्मन भाषा में लिखी गई अपनी पुस्तक ‘वेग जू क्रिस्टो’ जिसका अंग्रेजी अनुवाद है— ‘दि वे टू क्राइस्ट’, में बोह्म ने सृष्टि की उत्पत्ति को परमसत्ता की सोची–समझी और रचनात्मक योजना बताया था, जिसके अनुसार मानवमात्र को आत्मनिर्भर बनाने के लिए वह उसको सृजनात्मकता से परिपूर्ण करना चाहती थी. अपने विचारों के लिए बोह्म को स्थानीय प्रशासन और परंपरावादियों के तीव्र विरोध का सामना करने के साथ, तदनुसार निष्कासन का दंड भी भोगना पड़ना था. बोह्म से प्रभावित हीगेल ने द्वंद्ववाद का उपयोग सृष्टि की उत्पत्ति संबंधी व्याख्या और तत्संबंधी तात्विक विवेचन के लिए किया था. उसका चिंतन विषय की दार्शनिक गवेषणा तक सीमित था. मार्क्स ने हीगेल के द्वंद्ववाद को जमीन पर लाते हुए उसको समाज में व्याप्त धार्मिक–सामाजिक ऊंच–नीच और शोषणकारी प्रवृत्तियों की व्याख्या का माध्यम बनाया. धार्मिक–राजनीतिक दबावों की उपेक्षा करते हुए उसने सामाजिक असमानता के कारणों की ऐतिहासिक–वैज्ञानिक आधार पर व्याख्या की, और जीवन के प्रति भौतिकवादी दृष्टिकोण को महत्त्व दिया.
यूरोप में पूंजीवाद मार्क्स के जन्म पहले ही अपने पांव जमा चुका था. जिन दिनों उसका जन्म हुआ, पूंजीवाद के दुष्परिणाम सामने आने लगे थे. लोगों में उनके विरुद्ध सांगठनिक चेतना उभरने लगी थी. पूंजीवाद से मुक्ति के लिए जगह–जगह प्रयास हो रहे थे. संघर्ष के एक छोर पर मजदूर और कामगार थे, अपनी गरीबी और शोषण से त्रस्त. दूसरे छोर पर पूंजीपति थे. किसी जमाने के जमींदार और सामंतगण जो उससे पहले भी आम जनता का शोषण करते हुए आए थे, अब वे मशीनीकरण का लाभ उठाकर पूरी दुनिया की पूंजी पर कब्जा जमाने में लगे हुए थे. उनका निजी जीवन विलासितापूर्ण था. उत्पादन–कर्म उनके लिए केवल पूंजी बटोरने का आयोजन था. इसलिए अपने कारखानों में वे मजदूर विरोधी तकनीक का उपयोग करते थे. पूंजीवादी उत्पादन परंपरागत तकनीक पर आधारित उत्पादन–व्यवस्था से एकदम अलग था, जब उत्पादन को जीवन की जरूरत के रूप में लिया था और उत्पादक समाज का स्वाभाविक हिस्सा होता था.
अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से मार्क्स ने भांप लिया कि समाज में उत्पादक और उपभोक्ता, शोषक और शोषित, अमीर और गरीब, पूंजीपति और सर्वहारा के बीच स्पष्ट विभाजन है. दूसरे शब्दों में हीगेल जिस सत्य का दर्शन सृष्टि की व्याख्या के निमित्त कर रहा था, मार्क्स को वही सत्य समाज के बीच दिखाई पड़ता था. लेकिन मार्क्स यदि केवल हीगेल तक ही सीमित रहता तो उसका चिंतन अकादमिक बहसों तक सिमटकर रह जाता. हीगेल एक प्रतिभाशाली दार्शनिक था. समकालीन विद्वान भी उसको सर्वाधिक जटिल मानते थे. मार्क्स के पास दार्शनिक का दिमाग और आंदोलनकारी का दिल था. उसके विचारों पर हीगेल के अतिरिक्त अनेक समकालीन और पूर्ववर्ती विद्वानों का प्रभाव था. असल में वह कुछ ऐसा ही था जैसे अलग–अलग खानों कुछ रसायन निकालकर नियति उन्हें एक बारूद का रूप दे दे. जबकि मार्क्स के कुछ विचार तो बारूद से भी अधिक प्रभावकारी माने गए हैं.
मार्क्स के विचारों को समग्रता से आत्मसात करने के लिए उसके प्रेरणास्रोतों के बारे में जानना आवश्यक है. मार्क्स के प्रमुख प्रेरणास्रोतों में प्लेटो, हीगेल के अलावा वाल्तेयर, रूसो, एडम स्मिथ, रिकार्डो, प्रूधों, फायरबाख, ब्रूनो बायर आदि सम्मिलित हैं. इनमें फायरबाख और बायर हीगेल के ही शिष्य थे. बायर धर्म के राजनीतिककरण का प्रबल विरोधी था. जबकि फायरबाख धर्म और राजनीतिक के मानवीय संबंधों को महत्त्व देते हुए उन्हें परस्पर करीब लाने का पक्षधर था. इनके अलावा मार्क्स ने अपने मित्र और सहयोगी ऐंगल्स से भी काफी कुछ ग्रहण किया था.
ऐतिहासिक भौतिकवाद
जार्ज विल्हेम फ्रैड्रिक हीगेल(1770—1831) ने राजनीति, दर्शन, विज्ञान, धर्म, इतिहास, समाज तथा कलाओं के विकास की व्याख्या के लिए द्वंद्वात्मकता के सिद्धांत को अपनाया था. मार्क्स हीगेल की निष्कर्ष तक पहुंचने की इस प्रविधि से प्रभावित था. प्राचीन ग्रीक दार्शनिकों ने भी इस युक्ति का उपयोग किया था. इस प्रविधि के आधार पर ऐतिहासिक विकासक्रम की व्याख्या करते हुए मार्क्स ने कहा था कि साम्यवाद कोई आधुनिक व्यवस्था नहीं.यह सृष्टि के आरंभ में भी था तथा पूंजीवादी उत्पीड़न का दौर समाप्त होने पर उसकी पुनःवापिसी सुनिश्चित है. मार्क्स के अनुसार सभ्यता के आरंभ में साम्यवाद की प्राथमिक अवस्था थी— सीधी और सरल. प्रकृति के सान्निध्य में जीने वाले, छोटे–बड़े कबीलों में बंटे हुए लोग एक–दूसरे की जरूरतों को समझते हुए संसाधनों का साझा करते थे. अर्थव्यवस्था सरल और पूरी तरह विकेंद्रीकृत थी. लोग मिल–जुलकर आमसहमति के आधार पर निर्णय लेते थे. उस अवस्था में न कोई शोषक था न शोषित. जीवन पूरी तरह प्रकृति–आश्रित था. इसलिए उसमें अनिश्चितता भी थी. लोग सामूहिक रूप से शिकार करते थे. कभी शिकार मिलता था कभी नहीं. कालांतर में अपने अनुभवों का लाभ उठाते हुए आदमी ने भविष्य के लिए बचाना आरंभ कर दिया. यह बचत जबतक भोजन–सामग्री की सुरक्षा तक सीमित थी, तब तक तो सबकुछ ठीक–ठाक रहा. बहुत जल्दी उस व्यवस्था की कमजोरियां सामने आने लगीं.
कालांतर में व्यापार में मुद्राओं और धातुओं का प्रचलन बढ़ने लगा. वस्तु विनिमय का मुद्रा–आधारित तरीका काफी आसान था. धातु की बनी मुद्राओं को लंबे समय तक सहेजे रखना, दूर तक लाना–ले जाना संभव था. कबिलाई जीवन में जिसकी बाजुओं में ताकत होती, जो दौड़कर शिकार को मार गिरा सकता था, जिसका निशाना अचूक होता, वह बहादुर और सम्मान का पात्र समझा जाता था. मगर मारे हुए शिकार को बहुत दिनों तक सुरक्षित रख पाना असंभव था. बाकी जरूरतें सीमित थीं. इसलिए उस दौर में मुद्रा आवश्यकता नहीं थी; या कहें कि बिना किसी किसी मुद्रा के उनका काम चल जाता था. पशु उत्पादों की अपेक्षा कृषि उत्पादों को अधिक दिनों तक सहेजा जा सकता था. मनुष्य की आवश्यकताएं भी बढ़ी थीं. बदली परिस्थितियों में यह संभव नहीं था कि व्यक्ति अपनी आवश्यकता की सभी वस्तुओं का उत्पादन कर सके, इसलिए समाज में एक शिल्पकार वर्ग का उदय होने लगा, जो अपने हस्तकौशल से लोगों की जरूरतों को पूरा करने में समर्थ थे. साथ ही विपणन की पुरातन पद्धति जो वस्तुओं के सहज आदान–प्रदान पर आधारित थी, से असुविधा होने लगी, जिससे मुद्रा के उपयोग को बढ़ावा मिला.
नई मुद्रा के प्रचलन से बहादुरी और कौशल के मायने ही बदलने लगे. अब जिसके पास संपत्ति थी, वह बिना कुछ किए दूसरों से अपनी जरूरत की वस्तुओं का विनिमय कर सकता था. अर्जित मुद्राओं के दम पर वह अपने लिए भोजन–वस्त्रादि खरीद सकता था. अपने लिए बहादुरों को खरीद सकता था. सेवादार जुटा सकता था. मुद्रा को सहेजना, लाना–ले जाना सुविधाजनक था. इसलिए समाज में पूंजी–आधारित विषमताएं पनपने लगी थीं. कबिलाई जीवन में अपंग और बीमार व्यक्तियों को छोड़कर हर व्यक्ति श्रम करता था. मगर पूंजी के उदय के साथ समाज में ऐसे वर्ग तेजी से विकास होने लगा था, जो केवल अपनी संपत्ति के बूते दूसरों से सेवा और सुविधाएं खरीद सकता था. संपत्ति के आधार पर उसको विशेषाधिकार प्राप्त थे. वह निष्क्रय और परजीवी वर्ग था, जो दूसरों के श्रम पर विलासिता आधारित जीवन जीता था. अभिप्राय है कि संपत्ति और संसाधनों के संचय की जिस प्रवृत्ति का जन्म भविष्य को आकस्मिक बाधाओं से बचाने के लिए हुआ था, कालांतर में उसका उपयोग दूसरों पर अधिपत्य बनाए रखने के लिए किया जाने लगा.
समाज में संपत्ति–संचय के प्रति लोगों की ललक बढ़ी तो आर्थिकरूप से संपन्न लोगों ने निर्धन–विपन्न वर्ग को गुलाम बनाना आरंभ कर दिया. उस समय राज्य छोटे, मात्र नगरों तक सीमित थे. मार्क्स ने इसे ‘दास समाज’ कहा है, यानी विकास की वह अवस्था जिसमें कबिलाई समाज नगर–राज्य में परिवर्तित होने लगता है. शक्तिशाली होने का एहसास, संपत्ति का अतिरेक तथा सत्ता का घमंड, इन सबका मिला–जुला रूप शीर्षस्थ वर्ग के विलासी जीवन का कारण बना. भविष्य के प्रति सुरक्षा के एहसास से विलासिता के नए–नए रूप सामने आने लगे, जो प्रकारांतर में अभिजात वर्ग के उद्भव और उसकी स्वतंत्र पहचान का कारण बने. उस समय तक अर्थव्यवस्था मुख्यतः देश–देशांतर के व्यापार पर निर्भर थी. व्यापारियों के काफिले दूर देश तक आते–जाते थे. उन्हीं के साथ सभ्यता और संस्कृति की यात्रा भी चलती रहती थी. जब तक व्यापार अर्थव्यवस्था का मूल था, तब तक नगर–राज्य की व्यवस्था विकासमान रही.
कालांतर में कृषि का विकास हुआ. आरंभ में कृषिकर्म निजी श्रम पर निर्भर था.धीरे–धीरे उसमें पशु–श्रम का उपयोग बढ़ने लगा. इससे कृषिकर्म अपेक्षाकृत आसान हो गया. बढ़ती जनसंख्या के पोषण के लिए अधिक अनाज की जरूरत थी. इसके लिए कृषि के नए क्षेत्रों की तलाश की जाने लगी. बड़े–बड़े कृषि फार्म और आश्रम बनाए जाने लगे, जो पशुबल के सहारे कृषि को अंजाम देते थे. उससे पहले तक धनार्जन का अभिप्राय मात्र धातुई मुद्रा जमा कर लेने तक सीमित था. मगर बदली परिस्थितियों में सिर्फ धातुओं को सहेजना बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं था. भोजन के लिए अनाज की जरूरत थी. अतिरिक्त अनाज को बेचकर अपने लिए पूंजी का इंतजाम किया जा सकता था. इसलिए समाज के एक वर्ग ने अनुकूल कृषिभूमि पर कब्जा जमाना आरंभ कर दिया, जो प्रकारांतर में सामंतवाद का उद्भव का कारण बना. अभिजातवर्ग के रूप में स्थापित लोग शासकवर्ग में तथा व्यापारी वर्ग शनै–शनै पूंजीपति वर्ग में बदलने लगा. विकास की इस तीसरी अवस्था को मार्क्स ने जागीरदारी की संज्ञा दी है, जिसमें समाज के मुट्ठी–भर लोग संसाधनों पर कब्जा जमाए रखकर बाकी लोगों पर हुक्म चलाने लगे थे. इसका परिणाम समाज के वर्गीय विभाजन के रूप में सामने आया, जो कालांतर में सामंतवाद के रूप में पहचाना गया.
विकास की चौथी और अनिवार्य अवस्था के रूप में मार्क्स ने पूंजीवाद का उल्लेख किया है. इसमें जागीरदारी प्रथा अपना औचित्य खो देती है. उन्नत प्रौद्योगिकी द्वारा सघन उत्पादन आरंभ से होने से उत्पादन–व्यवस्था में पूंजी का दखल बढ़ने लगता है, जो उत्पादन–प्रक्रिया पर एकाधिकार को बढ़ावा देता है. यह प्रवृत्ति बढ़ते–बढ़ते नैतिकता की सीमाएं पार करती जाती है. समाज के संसाधनों पर वर्ग–विशेष का अधिकार होने लगता है. पूंजी का केंद्रीयकरण अथवा पूंजीवाद समाज में प्रशासक वर्ग की नींद हराम करने लगता हैं. उसके आगे शासनतंत्र कमजोर पड़ता जाता है. दूसरी ओर पूंजीवादी कारखानों में नौकरी करने वाला मध्यवर्ग कालांतर में बड़ी ताकत कर रूप धारण कर लेता है. अपनी शिक्षा और तकनीकी कौशल के बल पर यह वर्ग शासक और पूंजीपति को प्रभावित करने की ताकत रखता है. लेकिन इस वर्ग की कमजोरी है कि यह आपस में बंटा होता है. इसका बड़ा और शक्तिशाली हिस्सा पूंजीपति वर्ग की सुरक्षा में जुटा होता है. यह अपने बुद्धि–सामथ्र्य का बड़ा हिस्सा, श्रम–कौशल के सहारे आजीविका कमाने वाले वर्ग, जिससे वह स्वयं ऊपर उठकर आया है, को दबाने के लिए करता है. यही पूंजीवाद को शोषण के नए–नए तरीके सुझाता है.
‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ में मार्क्स ने इस वर्ग को बुर्जुआ की संज्ञा दी है. मजदूरों–किसानों का वह वर्ग जिसके पास आजीविका का मुख्य माध्यम अपना श्रम है, को मार्क्स ‘सर्वहारा’(प्रोलेतरियत) कहता था. मार्क्स के अनुसार बुर्जुआ और सर्वहारा के बीच संघर्ष पूर्णतः स्वाभाविक और अवश्यंभावी है. यह ऐतिहासिक क्रम का सहज हिस्सा है. कम्युनिस्ट मेनीफेस्टों में उसने लिखा है—
‘सामंतवाद की राख से जन्मा आधुनिक बुर्जुआ समाज वर्ग–संघर्ष की अनिवार्यता से बच नहीं सकता. उस समय तक उसके बीच से शोषण की नई स्थितियां, नए वर्ग और नए–नए संघर्ष जन्मते ही रहते हैं. हमारा युग, जो असल में बुर्जुआ समाज का युग है, इसका प्रमुख गुण वर्ग–प्रतिद्विंद्वता है. वर्गीय प्रतिद्विंद्वता के निरंतर बढ़ते क्रम में संपूर्ण समाज दो परस्पर विरोधी, दुश्मनों की भांति एक–दूसरे के आमने–सामने डटे हुए वर्गों में बंटता ही जाता है. उन वर्गों का नाम है—बुर्जुआ और प्रोलेतरियत.’1
मार्क्स के दर्शन में बुर्जुआ (Bourgeoisie) और प्रोलेतरियत(Proletariat) शब्द अनेक बार प्रयुक्त हुए हैं. इन शब्दों को परिभाषित करते हुए ‘दि कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो’ में उसने लिखा है कि—
‘बुर्जुआ का आशय नवोदित पूंजीपतियों, उत्पादक कारखाना मालिकों तथा अपने उद्यमों में मजदूरों को नौकरी पर रखने वाले नियोक्ताओं से है. जबकि प्रोलेतरियत का अभिप्राय उन आधुनिक श्रमजीवी मजदूरों से है जिनके पास सिवाय अपने श्रम के, आमदनी/उत्पादन का कोई और जरिया नहीं है, अतएव अपनी आजीविका के लिए श्रम बेचना उनकी विवशता है.’2
बुर्जुआ और सर्वहारा के बीच एक अंतर यह भी होता है कि बुर्जुआ वर्ग की आंखों में सपने होते हैं, जिन्हें वह किसी न किसी तरह बनाए रखना चाहता है. जबकि सर्वहारा भविष्य से बचकर लगभग डरते हुए, सिर्फ वर्तमान को किसी तरह जी लेने को ही जीवन माने रहता है. इस वर्ग की आंखों में सपने का अवतरण अंततः क्रांति का बीजारोपण करता है. उस समय अपनी हैसियत बनाए रखने के लिए बुर्जुआ वर्ग मनमानी पर उतर आता है. इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप कामगारों के एक वर्ग में संघर्षचेतना का जन्म होता है. श्रमिक अपने अधिकारों के लिए संगठित होने लगते हैं. इससे बुर्जुआ वर्ग में पड़ने लगती है. सर्वहारा के मन में पल रहे आक्रोश का लाभ उठाने के लिए उसका एक वर्ग उनमें वर्गसंघर्ष की चेतना भरता है. विकास की यह पांचवी अवस्था श्रमिक–कामगारों के तानाशाहीपूर्ण रवैये से समझी जा सकती है. अगली अवस्था क्रांति की है. श्रमिकों के आक्रोश तथा अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की प्रेरणास्वरूप मध्यवर्ग क्रांति का आवाह्न करता है, जिसको व्यापक लोकसमर्थन प्राप्त होता है. क्रांति की सफलता श्रमिकों को सत्ता में भागीदारी का अवसर प्रदान करती है. मगर अर्से तक सामंतवादी वातावरण में जीते आए श्रमिक वर्ग के जीवन और कार्यशैली पर किसी न किसी रूप में सामंतवाद का प्रभाव होता है, जिसके परिणामस्वरूप सर्वहारा वर्ग अथवा उसके समर्थन पर टिकी सरकारें प्रारंभ में तो उसी का अनुसरण करती हैं. मगर धीरे–धीरे उनमें स्वतंत्र आत्मचेतना विकसित होने लगती है, जिससे पूरा समाज साम्यवाद की ओर बढ़ने लगता है. मार्क्स के सपनों का साम्यवाद पूरी तरह वर्गहीन और राज्यविहीन समाज था, जिसमें सभी को समान अधिकार प्राप्त होते हैं. वहां राजा–प्रजा–मालिक–मजदूर सभी का भेद समाप्त हो जाता है.
स्पष्ट है कि मार्क्स का राजनीतिक दर्शन मात्र वर्ग–संघर्ष तक सीमित नहीं था. बल्कि राजनीतिक दर्शन के केंद्रीय विचार के रूप उसने जिस साम्यवाद की परिकल्पना की थी, अपने आदर्शरूप में समाजवाद से कहीं अधिक स्पष्ट एवं कल्याणकारी अवस्था है. हीगेल का मानना था कि मनुष्यता के इतिहास की विशेषता छोटे–छोटे आंदोलनों का एक बड़े और भरोसेमंद आंदोलन के रूप में उभरना है. इसको मनुष्यता के विवेकीकरण की घटना भी कहा जा सकता है. अमेरिका में प्रचलित दासप्रथा का जोरदार शब्दों में विरोध करते हुए उसने कल्पना की थी कि सभ्यता के विकास के चरण में एक ऐसा दिन अवश्य आएगा जब ईसाई राष्ट्र दासप्रथा का जुआ अपने कंधोें से उतार फेंकेंगे. मार्क्स द्वारा जर्मन आदर्शवाद, ब्रिटेन के राजनीतिक अर्थदर्शन तथा फ्रांसिसी समाजवाद की आलोचना मुख्यतः फायरबाख और हीगेल से ही प्रेरित थी.
वस्तुतः मार्क्स का दर्शन हीगेल सूक्ष्म और अमूर्त्त आदर्शवाद को यथार्थ और भौतिकजगत के स्तर पर परिभाषित करने का प्रयास किया, जिसमें उसको पर्याप्त सफलता भी मिली थी. उसने लिखा था कि वह हीगेल के वुद्धि–केंद्रित प्रत्ययवादी आंदोलन को जमीनी स्तर पर ले आना चाहता है. मार्क्स फायरबाख की इस उक्ति से प्रभावित था कि ईश्वर वास्तव में मनुष्य की रचना है. शुभता के वे सभी लक्षण जिन्हें सामान्यतः ईश्वर में निहित माना जाता है, यह माना जाता है कि ईश्वर के बिना उनकी मौजूदगी असंभव है, वास्तव मनुष्यता की पहचान हैं. अपने गुरु हीगेल के तत्वचिंतन को भौतिक आधार देते हुए मार्क्स का कहना था कि भौतिक जगत एक सचाई है. हमारे विचार मात्र इसकी परिणति हैं, न कि विश्व की उत्पत्ति का कारण. इस प्रकार हीगेल तथा अन्य दार्शनिकों की देखा–देखी मार्क्स ने आभासी जगत तथा वास्तविकता के अंतर को महत्त्व दिया है. उसने इस मान्यता का खंडन किया था कि भौतिक जगत हमसे छिपा रहता है. इसके विपरीत उसका मानना था कि ऐतिहासिक–सामाजिक आदर्शवाद लोगों को अपने जीवन की वस्तुनिष्ट समीक्षा करने से रोकता है.
मार्क्स और दोनों का मानना था कि इतिहास और समाजविज्ञान के वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा सामाजिक अंतद्र्वंद्वों तथा उनकी प्रवृत्तियों के कारणों की पहचान की जा सकती है. यद्यपि मार्क्स के कुछ अनुयायी उसके विचारों के आधार पर यह दावा करने लगे थे कि साम्यवादी क्रांति एक अपरिहार्य और सुनिश्चित घटना है. जबकि मार्क्स इसे समस्त बुद्धिजीवियों के लिए चुनौती मानता था. फायरबाख पर लिखे गए अपने छोटे–छोटे निबंधों ‘थीसिस आॅन फायरबाख’ में उसने साफतौर पर लिखा था कि—
‘दार्शनिकों ने इस संसार की भिन्न–भिन्न प्रकार से मात्र व्याख्या ही की है, लेकिन असल चुनौती तो इसको बदलने की है.’3
एक ईमानदार और प्रतिबद्ध आंदोलनकारी की भांति वह आजीवन दुनिया को बदलने का प्रयास करता रहा. उसका लेखन भाग्यवाद पर नहीं टिका है. बल्कि उसमें सच्चे आंदोलनकारी का आत्मविश्वास और संकल्प नजर आता है. मार्क्स का मानना था कि क्रांतिकारी को अपना जीवन समाज को बदलने के लिए समर्पित कर देना चाहिए. अपने विचार को उसने पूरी ईमानदारी एवं निष्ठा के साथ जिया. उसके लेखन में जहां एक दार्शनिक जैसी मौलिकता है, वहीं आंदोलनकारी का तेज भी है. दुनिया में ऐसे बहुत कम जीनियस हुए हैं, जिनके विचार और कर्म में इतनी एकरूपता हो.
हीगेल के अतिरिक्त मार्क्स पर बैंथम, जेम्स मिल, एडम स्मिथ, प्रूधों, देकार्ते, डेविड रिकार्डो आदि विचारकों का भी पूरा प्रभाव था. हालांकि अपने समय के इन दोनों महान अर्थशास्त्रियों से मार्क्स का रिश्ता असहमति का था. स्मिथ की पहचान पूंजीवाद के समर्थक अर्थशास्त्री के रूप में थी. जबकि मार्क्स घोषित रूप में पूंजीवाद का प्रखर आलोचक था. स्मिथ ने न्यायशास्त्र की समीक्षा पर लिखे गए आलेख ‘लेक्चर आ॓न ज्युरिशप्रूडेंश’ में सभ्यता के ऐतिहासिक विकास के चार प्रमुख पड़ावों का उल्लेख किया था. उसने लिखा था कि अपनी विकासयात्रा के क्रम में मनुष्यता जिन चार प्रमुख स्तरों से गुजरती है, वे हैं—
1. आखेटक युग: यह सभ्यता की अर्वाचीन अवस्था है, जब मनुष्य कबीलों के रूप में धरती पर यहां से वहां विचरण करता रहता था. गुफाओं में जीवन बसर करता था. भोजन के लिए वन्यजीवों के शिकार पर निर्भर था. काल–विभाजन की भारतीय परंपरा में इतिहासकारों द्वारा इस युग को पूर्वपाषाण युग (3500 ईस्वी पूर्व) और पाषाणयुग कहा गया है.
2. पशुपालन युग: उत्तरपाषाण युग(3500 ईस्वी पूर्व से लेकर 1700 ईस्वी पूर्व तक) में आदिमानव को आग जलाना सीख चुका था. इस बीच उसको हिंò पशु और पालतु पशुओं के बीच भेद मालूम हो चुका था. उसने उपयोगी पशुओं को अपने काफिले के साथ रखना आरंभ कर दिया था. इस पशुओं से उसको भोजन और वस्त्र की प्राप्ति होती थी. इस युग में विपणन के लिए आदान–प्रदान प्रणाली मुख्य थी. पशुपालन व्यवस्था में भी जीवन प्रकृति के निकट था. भोजन की तलाश में पशुओं के साथ–साथ उसकी अविरत यात्राएं चलती ही रहती थी. यही सभ्यता के स्थानांतरण और उसके विकास का कारण था.
3. कृषि युग: एडम स्मिथ अनुसार आखेटक युग सामयिक बदलावों से गुजरता हुआ कालांतर में पशुपालन युग में बदल गया. अपने काफिले के साथ विचरते मनुष्य को अपने साथ–साथ पशुओं के भोजन की व्यवस्था भी करनी पड़ती थी. इसलिए वह प्रायः उन्हीं स्थानों पर पड़ाव डालता था, जहां पशुओं के लिए पर्याप्त चारा–पानी हो. धीरे–धीरे उसने प्रकृति की उर्वरा शक्ति को पहचानना आरंभ कर दिया. खेती की शुरुआत पशुओं के लिए चारा उगाने के काम से हुई थी. किंतु अतिशीघ्र मनुष्य ने समझ लिया कि उर्वरा धरती न केवल पशुओं के लिए बल्कि उसके अपने भोजन की व्यवस्था करने में भी सक्षम है. इसलिए उसने अपनी जरूरत की वस्तुओं को उपजाना आरंभ कर दिया.इससे भारत जैसे देशों में एक और जहां गांवों और पुरों का विकास हुआ, वहीं स्वतंत्र आश्रम–व्यवस्था भी पनपी, जिसके संस्थापक ऋषिगण जंगल में प्रकृति के सान्न्ध्यि में रहकर तत्वचिंतन करते थे. उन आश्रमों की व्यवस्था पशुपालन और कृषि पर संयुक्तरूप से निर्भर थी. आर्थिक स्वायत्तता के चलते वे आश्रम ज्ञान के मौलिक अनुसंधान के केंद्र बन सके. उन्हीं की प्रेरणा कालांतर में कृषि युग की आधारशिला बनी. एडम स्मिथ लिखता है—
‘इस तरह हम पाते हैं कि लगभग सभी देशों में समाज पशुपालन युग से कृषि की ओर मुड़ा है….लेकिन जैसे–जैसे जनसंख्या में विकास हुआ, मनुष्य ने खुद को स्वाभाविक रूप से कृषिकर्म के प्रति समर्पित कर दिया. कालांतर में समाज का फिर विकास हुआ. इस चरण में मनुष्य उपलब्ध वस्तुओं के बदले उन वस्तुओं का विपणन करने लगा, जो उसके लिए अपेक्षाकृत अधिक जरूरी थीं.’4
मार्क्स ने एडम स्मिथ के विचारों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्हें कल्पना की उड़ान कहा था. उल्लेखनीय है कि स्मिथ की भांति हीगेल ने भी मानव समाज के ऐतिहासिक विकास को पूर्वी, ग्रीक, रोमन एवं जर्मन में विभाजित किया था, किंतु उसने विकासक्रम को द्वंद्वात्मकता के सिद्धांत के द्वारा दर्शाया था. कालांतर में यह विचार भौतिक द्वंद्ववाद के नाम से जाना गया. विश्व के महानतम दार्शनिकों में से एक हीगेल ने अपने समकालीन और बाद के कमोबेश सभी विद्वानों को प्रभावित किया था. हीगेल की मृत्यु के बाद उसके समर्थक दो वर्गांे में बंट गए. एक वे जो प्रचलित धर्म एवं राजनीति से संतुष्ट थे तथा उन्हीं में संशोधन की कामना करते थे. दूसरे वर्ग के लोग सामंतवाद को पूंजीवादी व्यवस्था में ढलते देख नाखुश थे. समाज में बहुसंख्यक वर्ग के कल्याण के लिए वे उसमें आमूल परिवर्तन चाहते थे. इस वर्ग के विचार उग्र और क्रांतिकारी थे.
दूसरे समूह में मार्क्स के अतिरिक्त लुडबिग फायरबाख, ब्रूनो बायर, मैक्स स्टिमर, मोसेस होस तथा ऐंगल्स प्रमुख थे. इन सब विद्वानों के बीच भी पारस्परिक सहमतियां और असहमतियां थीं. मगर एक बात पर ये सभी एकमत थे कि समाज में व्याप्त विसंगितयों और असमानताओं के निदान के लिए उसमें व्यापक बदलाव की जरूरत है. मार्क्स हीगेल के ऐतिहासिक तत्ववाद से प्रभावित था. हीगेल का मानना था कि मनुष्यता का इतिहास उसके छोटे–छोटे खंडों की संपूर्णता की ओर यात्रा है. इसलिए यथार्थ और इतिहास को एक–दूसरे के प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखना चाहिए. हर वस्तु अपने परमलक्ष्य को पाने के लिए लालायित रहती है. यह एक क्रांतिकारी स्थापना थी. क्योंकि उसके पहले पूर्व और पश्चिम के प्रायः सभी समाज अपनी अस्मिता की खोज के लिए इतिहास और अतीत की शरण लेते थे तथा अपनी ऐतिहासिक मान्यताओं, भले ही उनमें मिथकीय तत्वों की कितनी ही बहुलता हो, को प्रामाणिक मानते हुए उनपर पूरा विश्वास भी करते हो. भारत समेत लगभग सभी ऐशियाई समाजों में यह प्रवृत्ति और भी उग्र, लगभग घातक रूप में मौजूद थी. हीगेल आदर्शवाद में विश्वास रखता था, किंतु मार्क्स ने उसके विचारों को भौतिकवादी आधार पर परखा था. अपनी पुस्तक ‘ए कंट्रीब्यूशन टू दि क्रिटीक आ॓फ पा॓लिटीकल इकाना॓मी’ की भूमिका में उसने लिखा था—
‘अपने अस्तित्व और सामाजिक विकास की सुदीर्घ परंपरा में मनुष्य ने अपनी इच्छा से एकदम स्वतंत्र कुछ सुनिश्चित रिश्ते, जिन्हें उत्पादन–संबंध कहा जा सकता है, स्थापित किए हैं. ये संबंध भौतिकवादी उत्पादन शक्तियों का आधार मजबूत करने के लिए पर्याप्त हैं. समाज की आर्थिक संरचना इन्हीं उत्पादक–संबंधों द्वारा निर्धारित होती है, तथा उसकी शेष संरचनाओं के लिए नींव का काम करती है. उसके ऊपर वैधानिक और राजनीतिक महासंरचनाएं आकार लेती रहती हैं. उन्हीं के अनुसार सामाजिक चेतना का विकास होता है. भौतिक उत्पादन को दिशा देने वाला तंत्र ही सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक परिवेश को निर्धारित करता है. मनुष्य की चेतना उसके अस्तित्व को नहीं गढ़ती, बल्कि उसका सामाजिक अस्तित्व ही उसकी चेतना को आकार देता है.’5
हीगेल के तत्ववादी चिंतन को भौतिक जीवन की समस्याओं और विसंगतियों के आधार पर परखने की प्रेरणा उसको फायरबाख से मिली थी, जिसका मानना था कि लोगों के सामाजिक–राजनीतिक विचार ही उनकी संपूर्ण चेतना और वास्तविक जरूरतों की नींव बनते हैं. वह मानता था कि प्राणीमात्र अपने परिवेश की उपज है तथा उसकी संपूर्ण चेतना मानवेंद्रियों की, बाह्यः दुनिया के साथ सतत संवाद की देन है. अपनी पुस्तक ‘दि ऐसेंन्स आॅफ क्रिश्चिनिटी’ में फायरबाख ने ईश्वर को मनुष्य की निर्मिति बताते हुए उसके गुणों को मनुष्यता का सहज लक्षण सिद्ध किया था. देखा जाए तो यह ईश्वर की सत्ता को चुनौती थी, क्योंकि उससे पहले धर्म की नैतिक मान्यताएं उसकी स्वीकृति का पर्याप्त आधार रही थीं.
फायरबाख द्वारा समाज की भौतिकवादी व्याख्या ने मार्क्स और एंेगल्स दोनों को ही प्रभावित किया था. उसे विस्तार देते हुए मार्क्स ने कहा था कि दृश्यमान संसार ही वास्तविक है और तत्संबंधी हमारे विचार ही वैश्विक चेतना हैं, न कि उसका कारण. हीगेल और अन्य आदर्शवादी दार्शनिकों की भांति मार्क्स ने भी वास्तविक जगत और दृश्यमान विश्व में अंतर स्वीकार किया था. हालांकि वह इस बात पर विश्वास करने को तैयार नहीं था कि भौतिक वस्तुएं मनुष्य को दुनिया के वास्तविक ज्ञान से परे ले जाती हैं. मार्क्स की यह विचारधारा तत्कालीन धार्मिक मान्यताओं के विपरीत थी. अतएव धर्माचार्यों द्वारा उसका विरोध स्वाभाविक था.
मार्क्स का मानना था कि मनुष्य के प्रचलित सामाजिक–ऐतिहासिक बोध ने उसके भौतिक जगत से संबंधित सोच को प्रदूषित किया है. मगर वह फायरबाख की भांति मनुष्यता को पूर्णतः निराकार और अमूत्र्त मानने के लिए तैयार नहीं था. न ही वह उसमें बदलाव की आवश्यकता से इनकार करता था. उसने कहा था कि सांस्थानिक क्रिश्चिनिटी अर्थात चर्च में ईश्वर की अभिकल्पना करना, प्रकारांतर में धार्मिक तानाशाही को बढ़ावा देना है. 1846 में प्रकाशित पुस्तक ‘दि जर्मन आइडियोला॓जी’ में मार्क्स और ऐंगल्स ने संयुक्तरूप से लिखा था कि—
‘जर्मन(पश्चिम) की दार्शनिक परंपरा के विपरीत जो मनुष्य के स्वर्ग से धरती पर आने की बात कहती है, हम उसके धरती से स्वर्ग तक आरोहण पर जोर देते हैं. हमारे निष्कर्ष जैविक वास्तविकताओं, आंदोलनरत महापुरुषों तथा उनके असल जीवन की प्रेरणाओं की देन हैं. इनके माध्यम से हम जीवन के प्रति अपने संकल्पों तथा उसकी प्रतिध्वनियों–प्रतिरूपों का निरूपण करते हैं….धर्म, नैतिकता, तत्वविज्ञान, आदर्शवाद तथा मानवीय अंतश्चेतना के तत्संबंधी सभी संकल्प, स्वतंत्रता के विभिन्न सादृश्यों–प्रतिरूपों को सहेजने में असमर्थ होते हैं. उनका अपना कोई इतिहास, विकास की कोई स्वस्थ परंपरा नहीं होती. लेकिन मनुष्य अपनी सभ्यता और संप्रेषणीयता के साथ–साथ अपने विचार तथा उसके परिणामों के अनुरूप सतत विकासशील रहता है. हम कह सकते हैं कि जीवन चेतना से निर्धारित नहीं होता, बल्कि चेतना मनुष्य के सोच तथा उसके उत्पादों द्वारा आकार ग्रहण करती है.’6
मार्क्स का सक्रिय जीवन में विश्वास था. कोरे विचारों में उसका विश्वास न था. वह चाहता था कि बुद्धिजीवियों–विचारकों को अपने लेखन के अलावा वास्तविक धरातल पर भी काम करना चाहिए. उसने स्वयं भी सक्रिय और आंदोलनकारी जीवन जिया था. उसका हर कदम चाहे वह लेखन हो या आंदोलन में हिस्सेदारी, समाज में आमूल परिवर्तन की वांछा से प्रेरित था. सामाजिक व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता पर जोर देते हुए उसने कहा था कि—
‘दार्शनिकों ने इस संसार की व्याख्या तरह–तरह से की है. असल बात तो इसको बदलने की है.’7
इन शब्दों से मार्क्स उसकी अपने विचारों के प्रति आस्था की झलक मिलती है. मार्क्स ने दर्शन को आकादमिक बहसों से बाहर लाकर उसको जमीनी स्तर पर खड़ा करने का युगांतरकारी कार्य किया था, जहां वह अपनी कल्याणकारी भूमिका में था. कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो में, फ्रांसिसी क्रांति से कुछ ही महीने पहले उसने दुनिया–भर के मजदूरों को पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध एकजुट होने का आवाह्न किया था—
‘सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवाय कुछ नहीं है, लेकिन जीतने के लिए दुनिया पड़ी है…दुनिया के सर्वहाराओ, एक हो जाओ!’8
मार्क्स के ये शब्द संसार–भर के शोषितों और उत्पीड़ितों के लिए मुक्ति–मंत्र बन गए. उसके आवाह्न की तत्काल प्रतिक्रिया हुई थी. मजदूर संगठनों ने पूंजीवाद का सामना करने के लिए अभूतपूर्व एकता का प्रदर्शन किया. ‘प्रथम इंटरनेशनल’ तो श्रमिक नेताओं की निजी महत्त्वाकांक्षाओं, हठधर्मी और स्वार्थपरताओं का शिकार होकर बिखरने लगा था, मगर लोगों के बीच मार्क्स के विचार उत्तरोत्तर स्वीकृति प्राप्त करते चले गए. उसके बाद जो क्रांतिधर्मी एकता की लहर उठी, उसने फ्रांस, रूस आदि देशों में सामंती व्यवस्थाओं को उखाड़ फेंकने का कार्य किया. यही क्यों उसके विचार किसी न किसी रूप में आज भी दुनिया की आधी आबादी के बीच सम्मानित जगह बनाए हुए हैं. बल्कि पिछले कुछ दशकों में पूंजीवाद के बढ़ते प्रकोप के बीच लोगों को मार्क्स के विचार, एक बार फिर प्रासंगिक आने लगे हैं.
धर्म–संबंधी विचार
कार्ल मार्क्स की वैचारिक दृढ़ता देखते ही बनती थी. अपने विचारों पर उसे पूरा भरोसा था. उन्हें तात्कालिक अभिव्यक्ति देने से भी वह नहीं सकुचाता था. एक ओर जहां वह समान विचारधाराओं को अपने चिंतन–विमर्श का हिस्सा बनाता था, वहीं विरोधी मान्यताओं से अपनी असहमति को तत्काल व्यक्त करने में भी उसको झिझक नहीं थी. चाहे उससे वरिष्ठ अराजकतावादी विचारक प्रूधों हो या नवहीगेलीयनवादी ब्रूनो बायर, मैक्स स्टीमर अथवा फायरबाख. इन सबसे उसका बौद्धिक संवाद निरंतर चलता रहता था. ये सभी विद्वान उस समय के यूरोप में अपनी बौद्धिक प्रखरता के कारण धाक जमाए हुए थे. इनमें मैक्स स्टीमर, बायर और फायरबाख दोनों का आलोचक था. मार्क्स इन सभी से कई मामलों में प्रभावित था, कई स्थान पर उनसे गंभीर असहमतियां भी थीं. उसके पांडित्य का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि फायरबाख, ब्रूनो बायर और प्रूधों, और मैक्स स्टीमर चारों से ही अपनी असहमति दर्शाते हुए उसने अलग–अलग पुस्तकों की रचना की थी. उसकी पुस्तक ‘हिस्टोरिकल मैट्रीयलिज्म’ मैक्स स्टीमर की पुस्तक ‘दि जर्मन आइडियोला॓जी’ का आलोचनात्मक विस्तार थी.
बायर धर्म को राजनीतिक स्वतंत्रता के रास्ते में बाधक मानता था. वह धर्म के उन्मूलन के बिना वास्तविक राजनीतिक स्वतंत्रता को असंभव मानता था. यह बात उसने यहुदियों को धर्म के आधार पर राजनीतिक स्वतंत्रता दिए जाने के प्रश्न पर कही थी. बायर की मान्यता थी कि राजनीतिक स्वतंत्रता केवल धार्मिक रूप से निरपेक्ष राष्ट्र–राज्य में ही संभव है; अर्थात ऐसा राज्य जहां स्वतंत्र सामाजिक पहचान, जैसे धर्म, जाति, वर्ण आदि के लिए कोई स्थान न हो. यहुदियों की स्वतंत्र राज्य की मांग पर उसने कहा था कि इस प्रकार की मांगे ‘मानवाधिकारों’ के असंगत हैं. उसका मानना था कि राजनीतिक स्त्रतंत्रता के लिए धर्म का उन्मूलन अपरिहार्य है और यदि यहूदी अपने लिए राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग करते हैं, तो उन्हें अपनी विशिष्ट धार्मिक मान्यताओं का उन्मूलन करना होगा, ताकि वे समाज के बाकी लोगों के साथ घुल–मिल सकें. उसने जोर देकर कहा था कि वास्तविक धार्मिक स्वतंत्रता केवल धर्म के उन्मूलन पर ही टिकी है.
मार्क्स का धर्म में यद्यपि कोई विश्वास नहीं था. फिर भी जनसाधारण की धर्म के प्रति आस्था को देखते हुए वह इस मामले में उदार कानून बनाए जाने के पक्ष में था, विशेषकर उस अवस्था तक, जब तक कि मनुष्यमात्र में इस बारे में पर्याप्त जागरूकता नहीं आ जाती. बायर की आलोचना करते हुए उसने कहा था कि यह कहना अनुचित है कि धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म सामाजिक जीवन में अपनी प्रासंगिकता खो देगा. उसने संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का उदाहरण देते हुए कहा था कि प्रूशिया की भांति वह धार्मिक राज्य नहीं है. लेकिन धर्मनिरपेक्ष अमेरिकी नागरिकों के सामाजिक जीवन में धर्म की महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता.
धर्मनिरपेक्षता की सीमाओं को दर्शाते हुए उसने जोर देकर कहा था कि—
‘धर्मनिरपेक्षता के आधार पर गठित राज्य धर्म का विरोध नहीं करते, वस्तुतः वे तो उसकी सत्ता को स्वीकार चुके होते हैं. नागरिकों की धार्मिक अथवा संपत्ति संबंधी मान्यताओं के उन्मूलन का अर्थ, धर्म अथवा संपत्ति का वास्तविक उन्मूलन नहीं है. यह केवल मनुष्यमात्र को उन सब वस्तुओं की ओर से अनमन्यस्क कर देने की नाकाम कोशिश करने जैसा है.’9
अपने निबंध में मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि धर्मनिरपेक्ष राज्य में नागरिक आध्यात्मिक और राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होने के बावजूद आर्थिक असमानता के कारण शोषण और उत्पीड़न के शिकार बन सकते हैं. मार्क्स के ये विचार आगे चलकर पूंजीवाद विरोधी दर्शन के रूप में और भी खुलकर सामने आए थे. अपने निबंध ‘आॅन दि ज्युश क्वश्चन, 1844’ में बायर की आलोचना करते हुए उसने कहा था कि वह राजनीतिक स्वतंत्रता एवं सामाजिक स्वतंत्रता में अंतर करने में नाकाम रहा है. उसका तर्क था कि आधुनिक राष्ट्र–राज्य में राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अपनी धार्मिक मान्यताओं का परित्याग अनिवार्य नहीं है. जैसा कि अमेरिका में हो रहा है. धार्मिक उन्मूलन केवल धर्म के स्थान पर मनुष्यता की स्थापना से संभव है, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में, पूंजी की मनमानी के चलते वह एकाएक संभव नहीं है. न ही यह अभी तक विश्व–इतिहास में संभव हो पाया है. इस निबंध का दूसरा खंड यहूदी और ईसाई धर्मों की मान्यताओं को लेकर था. पहले खंड की अपेक्षा इस छोटे खंड में मार्क्स ने यहूदियों और ईसाइयों की धार्मिक मान्यताओं का का तुलनात्मक अध्ययन किया था.
बायर ने लिखा था कि यहूदियों के लिए अपनी धार्मिक मान्यताओं को छोड़ना अपेक्षाकृत ज्यादा कठिन है. इस बारे में उसका तर्क था कि यहूदी धर्म, ईसाई धर्म से प्राचीन, उसका पूर्वज है. बल्कि ईसाई धर्म की उत्पत्ति ही यहूदी धर्म से हुई है. इसलिए धर्म से पूर्ण छुटकारा पाने के लिए जहां ईसाइयों को जहां मात्र एक पड़ाव करना होगा, वहीं यहूदियों को उसके लिए दो मंजिलें तय करनी होंगी. इसलिए कि अतीत के दबाव उनके ऊपर ज्यादा है.
बायर के तर्क का उत्तर देते हुए मार्क्स ने कहा था कि यहूदी धर्म उन विशेषताओं को नजरंदाज दिया जाना चाहिए, जिनकी ओर बायर ने इशारा किया है, इसलिए कि वे यहूदियों के आर्थिक जीवन को आध्यात्मिक नजरिये से पेश करती हैं. यह व्याख्या मार्क्स की भौतिकवादी दृष्टि के अनुरूप थी. उसी दृष्टि में सामाजिक परिवर्तन के लिए आर्थिक कारण अन्यान्य कारणों की अपेक्षा अधिक कारगर होते हैं. वह मानता था कि धर्म ने वास्तविक विकास की राह में अवरोधक का कार्य किया है. इस विवेचना को आधार बनाकर मार्क्स के आलोचकों ने उसे यहूदी धर्म का विरोधी सिद्ध करने का प्रयास किया है. बायर और मार्क्स के बीच लेखकीय वाद–विवाद चलता ही रहा. मार्क्स का मानना था कि पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव ने विशिष्ट धार्मिक पहचानों को गौण कर दिया है. लोग आर्थिक लाभ के लिए धार्मिक सीमाएं तोड़ रहे हैं. आम यहूदी की धनार्जन के प्रति तीव्र ललक और यूरोपीय देशों में पूंजी के प्रति आपाधापी को देखते हुए अंत में वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ईसाई लोग यहूदी बन चुके हैं. अब यह मनुष्यता(यहूदी और ईसाई दोनों) पर है कि वह खुद की व्यावहारिक यहूदीवाद से रक्षा करे—
‘यहूदी ने स्वयं को यहूदीपन से ही मुक्त किया है, न केवल इसलिए कि वह आर्थिक ताकत हासिल कर चुका है, बल्कि इसलिए भी कि उसके द्वारा और उसके बिना भी अर्थसत्ता वैश्विक सत्ता हासिल कर चुकी है तथा यहूदी का स्वभाव ईसाई राष्ट्रों का व्यावहारिक स्वभाव बन चुका है. यहूदीगण आज भी मुक्त हैं, इसलिए कि ईसाई राष्ट्र स्वयं यहूदी बन चुके हैं.’10
‘आ॓न दि ज्युश क्वश्चन’ में यहूदियों के धार्मिक–आर्थिक जीवन के बारे में की गई टिप्पणियों के कारण मार्क्स को ‘यहूदी विरोधी’ माना गया. मार्क्स के निबंध से प्रेरणा ग्रहण करते हुए हयाम मेकोबी ने कहा था कि आधुनिक व्यावसायिक दुनिया यहूदीवाद की विजय है. उसका संकेत दुनिया में पूंजी के लगातार बढ़ते वर्चस्व तथा उसके कारण जनसाधारण में धनार्जन के प्रति बढ़ती जा रही स्पर्धा की ओर था. उसने यहूदी धर्म को नकली धर्म की संज्ञा दी, जिसके लिए ‘धन ही ईश्वर’ है. मेकोबी का मानना था कि मार्क्स यहूदियों की पृष्ठभूमि से प्रभावित था, इसलिए उसने यहूदियों को ‘बुराई का प्रतीक’ माना है. उस समय तक समाज में यहूदियों की छवि एक धनलोलुप व्यक्ति की बनी हुई थी. शेक्सपियर से लेकर चाल्र्स डिकेन्स तक सभी ने यहूदियों का चित्रण समाज के खलनायक के रूप में किया था, जनमानस के बीच आम यहूदी की छवि कंजूस–शोषक साहूकार जैसी थी, जिसके लिए धन–संपत्ति और मुनाफा बटोरना ही सबकुछ है. उस समय के अधिकांश बुद्धिजीवियों की तरह मार्क्स भी मानता था कि—
‘यहूदीगण पूंजीवाद के समर्थक और समस्त बुराइयों का प्रतिनिधित्व करने वाले हैं.’11
मार्क्स ने धर्म को शोषण का माध्यम माना है. साधारणजन धर्म के भुलावे में रहकर अपने शोषण एवं आर्थिक दुर्दशा के वास्तविक कारणों से अनजान रहते हैं. वह मानता था कि पूंजीपतिवर्ग जनसामान्य की धार्मिक आस्थाओं का लाभ उठाकर उनका आर्थिक शोषण करता है. इसलिए धर्म को अफीम की संज्ञा देते हुए उसने श्रमिकों को उससे मुक्त होने की सलाह दी थी.
आर्थिक चिंतन
मार्क्स का आर्थिक चिंतन उसके द्वारा लिखित ‘पूंजी’ नामक ग्रंथ में विस्तार सहित सामने आया है. तीन खंडों में लिखे गए इस वृहद गं्रथ का केवल पहला भाग ही मार्क्स के जीवनकाल में प्रकाशित हो पाया था. शेष दो खंड उसके मित्र और सहयोगी ऐंग्लस के प्रयासों से क्रमशः 1885 और 1894 में प्रकाशित हो पाए थे. इस ग्रंथ में उसने पूंजीवादी व्यवस्था की उत्पादन पद्धतियों, कारकों तथा उनके माध्यम से श्रम–शोषण की स्थितियों का विवरण पेश किया है. वह इस तथ्य से सहमत था कि मनुष्य का स्वभाव सतत परिवर्तनशील होता है. सामाजिक परिवर्तन की शाश्वत प्रक्रिया को उसने ‘श्रम’ तथा उसके उत्पाद में बदलने की योग्यता को ‘श्रम–शक्ति’ की संज्ञा दी है.
मार्क्स का मानना था कि श्रम का उत्पाद में बदलना मूलतः शारीरिक एवं मानसिक अभिक्रिया है. उसने श्रम–संगठनों से जुड़े इतिहास का गहन अध्ययन किया था. मानवेतिहास के सूक्ष्म विश्लेषण के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि यूरोपीय पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का विकास सामंती अर्थव्यवस्था की देन है. पूंजी और संसाधनों के दम पर उन्होंने उत्पादन–व्यवस्था को कब्जा लिया है. उसका मानना था कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन प्रविधियां और तत्संबंधी तकनीक, उत्पादन–संबंधों की अपेक्षा क्षिप्र गति से परिवर्तित होती हैं.
उदाहरण के लिए मोबाइल या डीटीएच टेलीविजन सेवाओं को ले सकते हैं. पूंजीवादी संस्थानों के लाभ के सिद्धांत पर टिकी तकनीक एवं शोध संस्थान इस काम में लगातार लगे रहते हैं. शोध की निरंतर चलने वाली गतिविधियों के बीच लाभोन्मुखी आविष्कार और तकनीकी सुधार इतनी तेजी से होते हैं कि उनका व्यावसायिक उपयोग करने हेतु समाज में जगह बनानी पड़ती है. पूंजीप्रधान संस्थानों के लिए यह उनकी व्यावसायिक नीति का हिस्सा होता है, मगर त्वरित तकनीकी विकास का लाभ समाज का एक ही वर्ग उठा पाता है. जनसंख्या अनुपात की दृष्टि से यह बहुत कम होता है. सामाजिक विकास और आर्थिक विकास के बीच असंतुलन की स्थिति सामाजिक अंतद्र्वंद्वों को जन्म देती है. एक तत्वविज्ञानी के रूप में मार्क्स सामाजिक वर्गों को पूर्णतः वस्तुनिष्ठ मानने को तैयार न था. दरअसल वर्ग से उसका आशय एक जैसी परिस्थितियों में रह रहे जनसमुदाय से नहीं था. वर्ग की विषयनिष्ठ तरीके से व्याख्या करते हुए मार्क्स ने उसे सामाजिक विकासक्रम की देन माना है. कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो का पहला ही वाक्य है—
‘शुरुआत से लेकर अब तक के सभी समाजों का इतिहास, वस्तुतः वर्ग–संघर्ष का इतिहास रहा है.’12
साधारण जन अपनी योग्यता, अपनी कार्यक्षमता और उपलब्ध संसाधनों का कैसे उपयोग करें? क्या वे अपने श्रम–कौशल यानी अपने निकटतम संसाधन के उपयोग एवं उनकी विशेषताओं को पूरी तरह समझते हैं? मार्क्स इस समस्या के प्रति बेहद गंभीर था. उसका मानना था कि श्रम–शोषण का एक कारण श्रमिकवर्ग की अज्ञानता और श्रम के लाभों के प्रति उसकी उदासीनता भी है. सर्वहारा वर्ग जिसके पास संसाधन के रूप में केवल अपने श्रम की पूंजी होती है, वह श्रम की उपयोगिता तथा उसका पूर्ण लाभ उठाने के तरीकों से प्रायः अनजान होता है. पूंजीपतिवर्ग भी एक साजिश के रूप में श्रमिक को श्रम की उपयोगिता एवं लाभों से विमुख किए रहता है. पूंजीवाद जैसे–जैसे सशक्त होता है, श्रमिकवर्ग की अपने श्रम और उसके लाभों के प्रति असंप्रक्तता लगातार बढ़ती ही जाती है. इसके विपरीत वह पूंजीपतिवर्ग की उपलब्धियों के प्रति निरंतर मोहाविष्ठ होता जाता है. उत्पादन प्रक्रिया के दौरान वह उत्पाद से इतना अंतरंग हो जाता कि उसके विकास और समाज में उसकी मांग को अपना मान लेता है. इस भ्रम का उपयोग पूंजीपति निहित स्वार्थों के निमित्त करता है.
मार्क्स के अनुसार यह संभव है कि किसी श्रमिक को उसके श्रम के पूर्णाधिकार दे दिए जाएं. विचारणीय यह है कि क्या श्रमिक अपने श्रम का पूरा लाभ उठाने की स्थिति में है? मार्क्स का मानना था कि श्रमिक को श्रम के लाभों और उसकी उपयोगिता से विमुख कर देना इस छूट पर पानी फेर सकता है. यह एक प्रकार की आत्मिक हानि है, जिसके अंतर्गत किसी उत्पाद अथवा उपभोक्ता सामग्री के उत्पादन में लगा श्रमिकवर्ग उसके प्रति अंधभक्ति दर्शाने लगता है. वह यह मानने लगता है कि वस्तु–विशेष के उत्पादन से जुड़ना उसके लिए प्रतिष्ठा का विषय है, भले ही उससे उसका आर्थिक–सामाजिक जीवन उससे पूरी तरह अप्रभावित रहता हो. उत्पाद–विशेष के प्रति श्रमिक वर्ग की अंधश्रद्धा का उपयोग पूंजीपति वर्ग निहित स्वार्थों के लिए करता है.
मार्क्स के अनुसार यह वह अवस्था है जब किसी किसी वस्तु अथवा वस्तुओं, उपभोक्ता सामग्री आदि के उत्पादन में लगे लोग उस वस्तु अथवा उत्पादक सामग्री को अपने आचार–व्यवहार और व्यक्तित्व का हिस्सा मान लेते हैं. दूसरे शब्दों में श्रमिक अपना श्रम और संसाधन ऐसी वस्तुओं के उत्पादन–विपणन में खपाने लगता है, जिसका न तो उसकी उपयोगिता से कोई लेना–देना होता है, न वह अपने श्रम–कौशल का कोई आर्थिक–सामाजिक लाभ उठा पाता है. दूसरी ओर वह सदैव इस भ्रम में रहता है कि उस वस्तु का उत्पादन उसके लिए सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय है. और यह भी कि वस्तु–विशेष का आदान–प्रदान और समाज में उसका प्रचलन, उसके सामाजिक संबंधों को प्रतिबिंबित करता है. इससे उसका विकास रुक जाता है. मार्क्स ने इस प्रवृत्ति को प्रतिगामी अंधश्रद्धा का नाम दिया है.
उपभोक्ता सामग्री के प्रति जड़भक्ति को मार्क्स और ऐंगल्स ने ‘भ्रामक चेतना’ भी माना है, जिसके माध्यम से ‘आदर्शवाद’ को समझा जाता है. ‘आदर्शवाद’ शब्द का उपयोग भी यहां उसके परंपरागत अर्थों से हटकर किया गया है. इस शब्द से मार्क्स और ऐंगल्स का आशय समाज के किसी कालखंड विशेष में विशिष्ट वर्ग के वर्गीय हितों/स्वार्थों से था, जिसको अपनी अल्पज्ञता और भ्रम के कारण बाकी लोग सार्वभौमिक और चिरंतन मान लेते हैं. इससे वे उन कारणों की ओर से उदासीन हो जाते हैं, जो उनके आर्थिक पिछड़ेपन तथा सामाजिक अवनति का कारण रहा है. उनकी उदासीनता पूंजीपतिवर्ग को शोषण की नई नीतियां बनाने के लिए विवश कर देती है.
धर्म–दर्शन
मनुष्यता के लंबे इतिहास में धर्म सदा ही मानवीय चेतना का हिस्सा रहा है. दुनिया के सैकड़ों युद्ध इसी के नाम पर लड़े गए हैं. उनमें करोड़ों लोगों की जानें गई हैं. करोड़ों घर से बेघर हुए हैं. उन युद्धों में से हालांकि अधिकांश राजनीति, अर्थ अथवा वर्चस्व–भावना जैसे अधिकांश मामलों के लिए लड़े गए हैं. येन–केन–प्रकारेण इनमें सामाजिक संसाधनों, हस्तशिल्प और श्रमशक्ति का दुरुपयोग ही हुआ है. तथापि समाज का वह वर्ग जो धर्म और परंपरा के माध्यम से समाज, राजनीति, अर्थसत्ता आदि के शिखर पर बने रहना चाहता है, वह गाहे–बगाहे धर्म को ही इन सारी उपलब्धियों का मूल बताता रहता है. उसकी सारी कोशिशें लोगों को धर्मभीरू और भाग्यवादी बना देने की रहती हैं, ताकि उनका ध्यान ऐसे लोगों से हटा रहे, जो उनकी मेहनत और संसाधनों के बल पर मजे लूटते हैं और इस प्रकार जो उनकी दुर्दशा के वास्तविक जिम्मेदार हैं.
ईश्वर की प्रारंभिक संकल्पना भले ही आदि दार्शनिक जिज्ञासाओं की उपज रही हो, मगर जनसामान्य में उसकी व्याप्ति और उसको समाज और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बनाने के पीछे शीर्षस्थ वर्गों की शोषणवादी प्रवृत्ति का ही हाथ रहा है. यही कारण है कि वाल्तेयर, रूसो, नीत्शे, फायरबाख जैसे विचारक धर्म और ईश्वर की सत्ता को निरंतर चुनौती देते रहे हैं. भारत में भी निरीश्वरवादी लोकायतों की समृद्ध परंपरा रही है, जो सृष्टि को दृश्यमान जगत से परे कुछ भी मानने को तैयार न थे. यह बात अलग है कि धर्म और धर्माचार्यों को मिले राजनीतिक संरक्षण के कारण वे समाज में बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा करने में असमर्थ रहे हैं. बावजूद इसके समाज में लोकायतों की एक प्रच्छन्न परंपरा रही है. मार्क्स तो धर्म को एक प्रतिगामी शक्ति मानता था. अपने लेखों में उसने धर्म को अफीम की संज्ञा देते हुए सर्वहाराओं को उससे दूर रहने को कहा था.
मार्क्स की धर्म–संबंधी अवधारणा फायरबाख से प्रेरित थी. नवहीगेलीयनवादी फायरबाख की धर्म और ईश्वर संबंधी अवधारणा हीगेल के अध्यात्मबोध पर आधारित थी, जिसके अनुसार प्रत्येक कृति में उसके कृतिकार की चेतना समाहित होती है, तथा कृतिकार की सत्ता कृति से सदैव महत्तर होती है. प्रत्येक कृति मूलतः अपने रचनाकार में समाहित, उसकी चेतना का विस्तार होती है. फायरबाख की पुस्तक ‘दि ऐसेंस आ॓फ क्रिश्चिनिटी’ हीगेल के इसी अध्यात्मदर्शन को आगे बढ़ाती थी. मगर हीगेल की आध्यात्मिक चेतना का भौतिकवादी नजरिये से विश्लेषण करता हुआ फायरबाख इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि—
‘अपरिमेय की चेतना में लीन, सचेतन कर्ता अपनी मूल प्रकृति के अनुसार अपरिमित कर्म की सृष्टि करता है.’13
यह हीगेल के आदर्शवाद की प्रकृतिस्थ व्याख्या थी. यह उसके तत्ववादी चिंतन को भौतिकवादी आधार देता था. हालांकि हीगेल अपने इस प्रतिभाशाली अनुयायी के निष्कर्ष से असहमत था. इसलिए जब फायरबाख ने अपनी पुस्तक की प्रति हीगेल को भेजी तो उसने उसको लगभग उपेक्षित कर दिया था. संभवतः फायरबाख का अतिशय भौतिकवादी दृष्टिकोण, दर्शन में आदर्शवाद के समर्थक हीगेल को नापसंद था. पुस्तक के पहले खंड में धर्म के मूलतत्व की खोज करता हुआ फायरबाख जिस परिणाम पर पहुंचा उसको उसने ‘धर्म का वास्तविक अथवा मानवशास्त्रीय सारतत्व’ की संज्ञा दी थी. पुस्तक में उसने ईश्वर नामक प्रत्यय को ‘शाश्वत बोध का प्रतीक,’ ‘नैतिक उपस्थिति,’ ‘प्यार,’ आदि अनेक संज्ञाओं से विभूषित किया था. मगर अन्य अध्यात्मवादियों की भांति फायरबाख ईश्वर को सर्वेसर्वा मानने को तैयार न था, बल्कि वह उसको मानवीय चेतना का लघु संस्करण मानता था. उसके अनुसार पूर्ण चेतना–संपन्न मनुष्य के लिए ईश्वर एक मिथकीय परिकल्पना से अधिक कुछ नहीं है.
फायरबाख का मानना था कि मनुष्य ईश्वर से अधिक चेतना–संपन्न प्राणी है. दूसरों को जानने की योग्यता उसे ईश्वर से अधिक चेतना संपन्न सिद्ध करती है. अपने रोजमर्रा के व्यवहार में मनुष्य बहुत–सी वस्तुओं के संपर्क में आकर अपनी विचार–प्रक्रिया द्वारा उनके बारे में अपनी स्वतंत्र राय बना सकता है. ईश्वर के बारे में इसका कोई प्रमाण नहीं है. इसलिए फायरबाख ने तर्क द्वारा सिद्ध किया था कि मनुष्य से परे ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है. स्वर्ग–नर्क और पाप–पुण्य जैसी रूढ़िवादी धारणाओं पर पर प्रहार करते हुए उसने दावा किया था कि मनुष्य के सदगुण अपने आप में स्वर्ग हैं. वह स्वयं इतना योग्य है कि वह दिव्यता के लक्षणों को समझ–बूझ सके. धर्म के बारे में उसका मानना था कि मनुष्य के सत्कर्म और व्यवहार ही धर्म को दिव्य बनाते हैं. उनसे इतर धर्म की कोई महत्ता नहीं है—
‘‘इसलिए उस(फायरबाख)का दावा था कि, ‘यदि किसी मनुष्य को ईश्वर में संतोष मिलता है, तब वह उसमें अपनी ही तस्वीर देखेगा.’’14
फायरबाख के इन विचारों में प्राचीन यूनानी दार्शनिक जीनो के विचारों की छाया देख सकते हैं, जिसके अनुसार ईश्वर मात्र मानवीय संकल्पना है. यदि कुत्ते, बिल्लियों और दूसरे पशु–पक्षियों को भी सोचने–समझने की ताकत दे दी जाए और उनसे ईश्वर का चित्र बनाने को कहा जाए तो तत्संबंधी उनकी परिकल्पना उनके अपने कद–काठी और मनोभावों के अनुकूल होगी. फायरबाख के अनुसार धर्म में दिव्यता अथवा अतींद्रियता की खोज मनुष्य को ईश्वर की कल्पना तक ले जाती है, जिसके बारे में उसका मानना था कि वह प्रायः उन्हीं कार्यों दोहराता रहता है, जिन्हें मनुष्य पहले की पूरा कर चुका होता है. इससे भी यही सिद्ध होता है कि वह मानव–निर्मिति है. ईश्वर की अवधारणा की आलोचना करते समय फायरबाख यहीं शांत नहीं होता. उसने आगे कहा था कि—
‘ईश्वर अपने आप में सिवाय एक नकारात्मक सत्ता के और कुछ भी नहीं है…इसलिए कि मनुष्य के पास कल्पनाशक्ति है. ईश्वर मनुष्य द्वारा आविष्कृत होने के कारण मनुष्य की ही अनुकृति है.’15
इसी पुस्तक में फायरबाख ने ईसाई धर्म की आलोचना करते हुए लिखा था कि इतिहास के लंबे दौर में—
‘ईसाई धर्म न केवल तर्क और ज्ञान से दूर जा चुका है, बल्कि उसने मनुष्यता से भी किनारा कर लिया है.’16
फायरबाख द्वारा धर्म और ईश्वर की भौतिकवादी व्याख्याओं से मार्क्स बेहद प्रभावित था. उसने एक पुस्तक ‘थीसिस आ॓न फायरबाख’ भी लिखी थी, जिसमें उसकी विचारधारा को लेकर ग्यारह निबंध सम्मिलित थे. 1845 में लिखी वह पुस्तक 43 वर्ष बाद, 1888 में ही प्रकाशित हो सकी. उस समय तक मार्क्स की मृत्यु हो चुकी थी, लेकिन यही वह समय था जब विश्व–भर में मार्क्स के दर्शन को लेकर नए–नए प्रयोग किए जा रहे थे. मार्क्स का दर्शन परिवर्तनकामियों के विमर्श का प्रमुख केंद्र बिंदू बना हुआ था, तथा उसके आधार पर लगातार सशक्त होते पूंजीवाद–सामंतवाद का सामना करने की तैयारी की जा रही थी. ब्रिटिश सत्ता निरंतर पराभव की ओर अग्रसर थी. उसके उपनिवेश अपनी आजादी और अस्मिता के लिए संघर्ष करते लोग मार्क्सवाद के सहारे नए जीवन का सपना देख रहे थे.
मार्क्स और ऐंगल्स दोनों ही फायरबाख की इस स्थापना से भी सहमत थे कि मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं की नींव उसके सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों पर टिकी होती है. वह मानता था कि व्यक्ति–मात्र अपने वातावरण की उपज है तथा उसकी संपूर्ण चेतना, बाह्यः दुनिया के साथ उसकी ज्ञानेंद्रियों के निरंतर चलने वाले संवाद का परिणाम है. इसलिए उसने जीवन में बदलाव के लिए समाज की यथार्थवादी व्याख्या को अत्यावश्यक माना है. फायरबाख की स्थापना कि ईश्वर वास्तव में मनुष्य की निर्मिति है तथा वे सभी सद्गुण जिन्हें ईश्वर का लक्षण बताया जाता है, वस्तुतः मनुष्य की ही चारित्रिक विशेषताएं हैं, मार्क्स के चिंतन का आधार थे. उसी के आधार पर ऐसे राज्यों की स्थापना तेजी से बढ़ रही थी, जिनमें धार्मिक हस्तक्षेप कम से कम हो.
फायरबाख के चिंतन को आगे बढ़ाते हुए मार्क्स ने कहा था कि ‘वस्तुजगत वास्तविक है, तथा हमारी संपूर्ण चेतना उसी की उपज है. हीगेल तथा अन्य दार्शनिकों की भांति मार्क्स भी दृश्यमान अर्थात आभासी और वास्तविक जगत को एक–दूसरे से अलग मानता था, हालांकि वह फायरबाख की इस मान्यता को अस्वीकार करता था कि आभासी जगत मात्र आवरण है, जो वास्तविक सत्य को हमसे छिपाए रहता है. इसके सापेक्ष उसका मानना था कि मनुष्य के ऐतिहासिक–सामाजिक संस्कार उसे इस वस्तुजगत को गहराई से देखने से रोकते हैं. फायरबाख की आलोचना करते हुए मार्क्स ने कहा था कि उसने मानवतावाद को तत्परता से समेटने का प्रयास किया है, इसलिए वह पाठक को उसकी प्रचलित धारणा से आगे नहीं ले जाता. उचित होता कि वह धर्म के बरक्स मानवता को ठोस विकल्प के रूप में स्थापित करता. ताकि धार्मिक शोषण के शिकार लोग मुक्ति की नई डगर पा सकें.
ईसाई धर्म की इस मान्यता कि परमात्मा चर्च में निवास करता है, का विरोध करते हुए उसने कहा था कि इस गलत धारणा ने राजनीति को व्यक्ति–केंद्रित बनाने का काम किया है. इसके विपरीत वह दर्शन को यथार्थवादी नजरिये से देखने का पक्षधर था. ‘दि जर्मन आइडियोलाॅजी’ में मार्क्स और एंेगल्स ने लिखा था—
‘जर्मनी की दर्शन–परंपरा के सीधे विरोध में, जो मनुष्य का स्वर्ग से धरा पर अवरोहण दर्शाती है, हम धरा से स्वर्ग तक आरोहण की बात करते हैं. किसी सर्वमान्य निष्कर्ष तक ले जाने के लिए हमारा मंतव्य वह नहीं है जैसा कि लोग कहते, कल्पना करते अथवा ग्रहण करते हैं—न ही हमारा मंतव्य उससे है जो लोगों ने अभी तक बताया, कल्पना की, ग्रहण किया, सोचा–विचारा अथवा माना है. न वह है जैसा कि वे आपसी बात–चीत में व्यक्त करते आए हैं. हमारे निष्कर्ष सच्चे, कर्मठ मनुष्य तथा उसके वास्तविक जीवन–संघर्ष का निकष् हैं. हमने विकासचक्र के आदर्शात्मक परिवर्तनों तथा उनकी प्रतिध्वनियों का निरूपण किया है. हमारा मानना है कि मानव–मस्तिष्क में जन्म लेने वाले भ्रम भी अनिवार्यरूप से भौतिक जीवनचक्र, जो स्वतः प्रामाण्य और प्रयोगसिद्ध है, को प्रामाणिक रूप में ऊर्जस्वित और प्रेरित करते हैं. लेकिन नैतिकता, धर्म, तत्वविज्ञान, लोकादर्श तथा मानवीय संचेतनाओं के अन्य सभी रूप, स्वाधीनता के प्रतिरूपों को अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रख सकते. इसलिए कि उनका न तो कोई इतिहास है, न ही विकास की परंपरा, जबकि मनुष्य अपने भौतिक जीवन और तत्संबंधी आंतरिक संबंधों में लगातार सुधार करता जा रहा है. यही नहीं अपनी विचार प्रक्रिया तथा उसके परिणामों के साथ वह लगातार विकसित भी हो रहा है. इसलिए कि जीवन संचेतना से बंधा हुआ नहीं है, बल्कि चेतना जीवन से अनुबंधित है.’17
मार्क्स का भौतिकवादी चिंतन केवल दार्शनिक विवेचनाओं तक ही सीमित नहीं था. उसको लगता था कि इस तरह का आकादमिक चिंतन बहुत हो चुका है. अब उसकी सीमाआंे से बाहर आना होगा. इसलिए वह लेखन को व्यवस्था परिवर्तन का औजार बनाना चाहता था. उसका विचार था कि धर्म और अध्यात्म संबंधी मान्यताएं मजदूरों को वास्तविक मुद्दों से भरमाए रखती हैं. मार्क्स की धर्म–संबंधी अवधारणा उसके गहन अध्ययन और जीवनानुभव का परिणाम थी. यह मार्क्स ही था जिसने अपने काॅलेज के दिनों में लिखा था कि धर्म का प्राथमिक उद्देश्य सामाजिक एकता को बढ़ावा देना है. यही नहीं उन दिनों उसने धर्म के आदर्शात्मक कार्यों का विश्लेषण भी किया था, ताकि सामाजिक चेतना को अपेक्षित रूप दिया जा सके. उसने कहा था कि दर्शनशास्त्र का तात्कालिक कर्तव्य, जो इतिहास की सेवा ही होगी, यह है कि वह अपवित्र चेहरों से नकाब को अपने आप उतार फेंके. लंबे अनुभव के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि धर्म का वास्तविक कार्य समाज में आर्थिक असमानता को संरक्षण देना, बढ़ाना है. इसलिए वह व्यवस्था में आमूल बदलाव का पक्षधर था.
‘थीसिस आ॓न फायरबाख’ में उसने लिखा था कि—
‘दर्शनशास्त्रियों ने इस विश्व का उल्लेख–भर किया है, असली चुनौती तो उसको बदलने की है.’18
केवल दार्शनिक समाज को बदल सकेंगे, वह इस भ्रम में नहीं था. उन्हें वह समाज की प्रेरक शक्ति मानता था. उसकी मान्यता थी कि समाज में वास्तविक बदलाव सर्वहारा वर्ग की अटूट एकता और उसके क्रांतिकारी प्रयासों से ही संभव है. मनुष्य की मुक्ति केवल निजी संपत्ति की अवधारणा के समाप्त होने पर ही हो सकती है. उसका धर्म–संबधी चिंतन उसकी एक अन्य पुस्तक ‘आॅन दि ज्यूश क्वश्चन, 1844’ में भी सामने आया है. यह पुस्तक उसने नवहीगेलीयनवादी ब्रूनो बायर की पुस्तक ‘ज्यूश क्वश्चन’ की आलोचना करते हुए लिखी थी. बायर का विचार था कि धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म की कोई भूमिका नहीं होगी. इसकी प्रतिक्रिया देते हुए मार्क्स ने लिखा था कि धर्मनिरपेक्षता की भी सीमा होती है. धर्मनिरपेक्ष राज्य धर्म का विरोध नहीं करता, बल्कि परोक्षरूप में वह धर्म की सत्ता को स्थापित करता है. धर्मनिरपेक्षता की मान्यता में ही धर्म का समर्थन छिपा है. उसने आगे कहा कि धार्मिकता के लोप का अभिप्राय धर्म का विलोप हो जाना नहीं है. बल्कि यह व्यक्तिमात्र को उससे बच निकलने का रास्ता सुझाता है. लंबे चिंतन के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि धर्मनिरपेक्ष राज्य में लोग आध्यात्मिक तथा राजनीतिक रूप से मुक्त हो सकते हैं, मगर उनकी वास्तविक स्वाधीनता, उनकी आर्थिक असमानता के आधार पर बाधित हो सकती है. मार्क्स का मानना था कि बायर राजनीतिक मुक्ति और मानव–मुक्ति में अंतर करने में नाकाम रहा है.
यहूदियों के बारे में ब्रूनो बायर के तर्क का खंडन करते हुए मार्क्स ने लिखा था कि आधुनिक समाज में धार्मिक बंधनों से मुक्ति के लिए मात्र राजनीतिक स्वतंत्रता ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसके लिए संपूर्ण मानव–मुक्ति की आवश्यकता है. हालांकि भारी आर्थिक–सामाजिक ऊंच–नीच से युक्त विश्व में यह अभी असंभव है. उपचार यही है कि सर्वहारा वर्ग संगठित होकर क्रांति का अवगाहन करे. ‘आ॓न दि ज्यूश क्वश्चन’ के दूसरे हिस्से में उसने बायर की इस मान्यता का विरोध किया था कि यहूदियों के लिए धर्म से मुक्ति ईसाइयों की अपेक्षा कठिन है. बायर का मानना था, चूंकि यहूदी धर्म ईसाई धर्म से पुराना है और ईसाई धर्म उसका निक्ष है, अतएव जहां ईसाइयों को धर्म से मुक्ति के लिए केवल एक चरण पार करना होगा, वहीं यहूदियों को दो चरणों के पार जाना होगा. इस साधारणीकरण का विरोध करते हुए मार्क्स का कहना था कि यह सामान्यीकरण यहूदियों के आध्यात्मिक सोच को एकदम नजंरदाज कर जाता है. यह यहूदियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण विचार था, लेकिन बायर की आलोचना के समय धर्म के भौतिकवादी नजरिये से व्याख्या करते हुए मार्क्स ने यहूदियों के आर्थिक जीवन को लेकर कुछ ऐसी टिप्पणियां की थीं, जिनके कारण उसको यहूदियों का आलोचक माना गया. अपने पक्ष को स्पष्ट करने के लिए उसने सोलहवीं शताब्दी के विद्वान था॓मस मुंतजर से मदद दी थी. मार्टिन लूथर के समकालीन और उसके मुखर आलोचक मुंतजर संपत्ति के बढ़ते प्रभाव पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि प्रकृति पर निजी संपत्ति का अधिकार हो जाने के बाद, वह केवल कल्पना में सिमट जाएगी. अपने विचारों को एक रूपक में बांधते हुए मुंतजर ने लिखा था कि—
‘देखो, हमारा सम्राट और सभी शासकगण आज सूदखोर साहुकारों, चोरों और डाकुओं के नीचे दबे हुए हैं, उन्होंने सभी चराचर को अपने कब्जे में कर लिया है, समुद्र में रहने वाली मछलियों, हवा में तैरने वाले पक्षियों तथा इस वसुंधरा के सभी उत्पादों को, सभी को वहां पहुंचना चाहिए.’19
मार्क्स को लगता था कि अपनी तमाम नैतिकतावादी घोषणाओं के बावजूद धर्म लोगों का आर्थिक–सामाजिक और राजनीतिक शोषण करता है. इसलिए उसने मुंतजर की इस कल्पना को आगे बढ़ाते हुए कहा था कि—
‘सभी जीव–जंतु संपत्ति में ढल चुके थे, समुद्र में मछलियां, आकाश में पक्षी और धरती पर पेड़–पौधे सब, मगर हर प्राणी, यहां तक कि जीव–जंतुओं को भी, मुक्त होना चाहिए.’20
यह मुक्ति धर्म से मुक्ति में ही संभव है. यहूदियों की मुक्ति के प्रश्न पर उसने कहा था कि—
‘यहूदी खुद को यहूदीवादी तरीके से मुक्त कर चुका है. उसने न केवल वित्तीय सामथ्र्य प्राप्त कर लिया है, इसके साथ ही क्योंकि उसके द्वारा और उसके अलावा भी धन आज वैश्विक तातक बन चुका है तथा एक यहूदी की व्यावहारिक आत्मा ईसाई राष्ट्रों की पहचान बन चुकी है. यहुदियों ने स्वयं को मुक्त कर दिया है, और अब ईसाई लोग यहूदी बन चुके हैं.’21
मार्क्स की धर्म के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि वाल्तेयर, रूसो, फायरबाख, ब्रूनो बायर जैसे उद्भट विद्वानों की देन थी. मगर उसकी विशेषता है कि उसने अपने विचारों को छिपाया नहीं, बल्कि कदम–कदम पर श्रमिकों को शोषण के प्रति आगाह करते हुए धर्म से मुक्त होने, उससे दूर चले जाने का आवाहन करता रहा. उसकी निगाहों में एक महान साम्राज्य का सपना छिपा हुआ था. एक ऐसा साम्राज्य जिसमें धर्म या संपत्ति के आधार पर किसी प्रकार की ऊंच–नीच या पक्षपात न हो. लोग एक–दूसरे को चाहें और आपस में एक परिवार की भांति संवाद कर सकें. जिसमें सभी बराबर हों, धर्म, जाति, क्षेत्रीयता आदि के नाम पर किसी भी प्रकार की बंदिश या बंटवारा न हो.
ओमप्रकाश कश्यप
शब्दानुक्रमणिका
1. The modern bourgeois society that has sprouted from the ruins of feudal society has not done away with class antagonisms. It has but established new classes, new conditions of oppression, new forms of struggle in place of the old ones Our epoch, the epoch of the bourgeoisie, possesses, however, this distinct feature: it has simplified class antagonisms. Society as a whole is more and more splitting up into two great hostile camps, into two great classes directly facing each other — Bourgeoisie and Proletariat. Manifesto of the Communist Party By Karl Marx and Fredrick Engels.
2. By bourgeoisie is meant the class of modern capitalists, owners of the means of social production and employers of wage labour. By proletariat, the class of modern wage labourers who, having no means of production of their own, are reduced to selling their labour power in order to live. [Engels, 1888 English edition]
3. “philosophers have only interpreted the world, in various ways; the point however is to change it”, Marx Theses on Feuerbach.
4. we find accordingly that in almost all countries the age of shepherds preceded that of agriculture . . . But when a society becomes numerous . . . they would naturally turn themselves to the cultivation of land . . . As society was farther improved . . . they would exchange with one another what they produced more than was necessary for their support. –Adam Smith 1978: Lecture on Jurisprudence)
5. In the social production of their existence, men inevitably enter into definite relations, which are independent of their will, namely relations of production appropriate to a given stage in the development of their material forces of production. The totality of these relations of production constitutes the economic structure of society, the real foundation, on which arises a legal and political superstructure and to which correspond definite forms of social consciousness. The mode of production of material life conditions the general process of social, political and intellectual life. It is not the consciousness of men that determines their existence, but their social existence that determines their consciousness. – Marx in A Contribution to the Critique of Political Economy, 1859.
6. In direct contrast to German philosophy, which descends from heaven to earth, here we ascend from earth to heaven…. We set out from real, active men, and on the basis of their real life process we demonstrate the development of the ideological reflexes and echoes of this life process…. Morality, religion, metaphysics, all the rest of ideology and their corresponding forms of consciousness, thus no longer retain the semblance of independence. They have no history, no development; but men, developing their material production and their material intercourse, alter, along with this, their real existence, their thinking, and the products of their thinking. Life is not determined by consciousness, but consciousness by life. – Marx & Engels in The German Ideology, 1846.
7. the philosophers have only described the world, in various ways, the point is to change it” Marx in Theses on Feuerbach (1844).
8. The proletarians have nothing to lose but their chains. They have a world to win…WORKING MEN OF ALL COUNTRIES, UNITE! – Marx and Engels, The Communist Manifesto, 1848.
9. the “secular state” is not opposed to religion, but rather actually presupposes it. The removal of religious or property qualifications for citizens does not mean the abolition of religion or property, but only introduces a way of regarding individuals in abstraction from them -Marx On the Jewish Question, 1844.
10. The Jew has emancipated himself in a Jewish manner, not only because he has acquired financial power, but also because, through him and also apart from him, money has become a world power and the practical Jewish spirit has become the practical spirit of the Christian nations. The Jews have emancipated themselves insofar as the Christians have become Jews.- Marx On the Jewish Question, 1844.
11. Jews were the embodiment of capitalism and the representation of all its evils. Edward H. Flannery. The Anguish of the Jews: Twenty-Three Centuries of Antisemitism. Paulist Press. (2004). p. 168
12. The history of all hitherto existing society is the history of class struggles.-Marx, The Communist Manifesto, Chapter 1.
13. In the consciousness of the infinite, the conscious subject has for his object the infinity of his own nature”- Ludwig Feuerbach, The Essence of Christianity (German: Das Wesen des Christentums), 1841.
14. If man is to find contentment in God,” he claims, “he must find himself in God.- Ludwig Feuerbach, The Essence of Christianity.
15. God is no longer anything more to him than a negative being….because man is imaginative….God is a part of man through the invention of a God.’
16. Christianity has in fact long vanished not only from the reason but from the life of mankind.” Feuerbach.
17. In direct contrast to German philosophy, which descends from heaven to earth, here we ascend from earth to heaven. That is to say, we do not set out from what men say, imagine, conceive, nor from men as narrated, thought of, imagined, conceived, in order to arrive at men in the flesh. We set out from real, active men, and on the basis of their real life process we demonstrate the development of the ideological reflexes and echoes of this life process. The phantoms formed in the human brain are also, necessarily, sublimates of their material life process, which is empirically verifiable and bound to material premises. Morality, religion, metaphysics, all the rest of ideology and their corresponding forms of consciousness, thus no longer retain the semblance of independence. They have no history, no development; but men, developing their material production and their material intercourse, alter, along with this, their real existence, their thinking, and the products of their thinking. Life is not determined by consciousness, but consciousness by life. – Marx & Engels, The German Ideology (1846).
18. the philosophers have only described the world, in various ways, the point is to change it”.- Marx,Theses on Feuerbach (1844).
19. Look ye! Our sovereign and rulers are at the bottom of all usury, thievery, and robbery; they take all created things into possession. The fish in the water, birds in the air, the products of the soil – all must be theirs (Isaiah v.)^ Thomas Müntzer: Hoch verursachte Schutzrede, or Apology, 1524, Alstedter, English translation cited from Karl Kautsky: Communism in Central Europe in the Time of the Reformation, 1897, Chapter 4, VIII. Münzer’s Preparations for the Insurrection.
20. that all creatures have been turned into property, the fishes in the water, the birds in the air, the plants on the earth; the creatures, too, must become free. Marx 1844, On the Jewish Question.
21. The Jew has emancipated himself in a Jewish manner, not only because he has acquired financial power, but also because, through him and also apart from him, money has become a world power and the practical Jewish spirit has become the practical spirit of the Christian nations. The Jews have emancipated themselves insofar as the Christians have become Jews. Marx 1844:
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