रोजा लेक्समबर्ग : क्रांति की हुंकार

पूंजीवादी स्पर्धा श्रमिकों के शोषण एवं उत्पीड़न पर टिकी थी. उससे निपटने के लिए जर्मनी, पोलेंड, लिथुआनिया, आस्ट्रिया, स्पेन आदि देशों में श्रमिकबल संगठित होने लगे थे. जर्मन के धनवान यहूदी व्यापारी के बेटे फर्डीनेंड लेसली(1825—1865) जो 184849 की क्रांति में भी सक्रिय भूमिका निभा चुका था, जिसके लिए उसको निष्कासित कर, बर्लिन में रहने पर प्रतिबंध लगा दिया था, ने 1863 में ‘जनरल जर्मन वर्कर्स एशोसिएसन’ का गठन किया था. यह संगठन कुछ वर्षों श्रमसुधारों की मांग करता रहा. इस बीच लेसली ने जर्मन में सहकारिता आंदोलन के प्रवर्त्तक शुल्जेडीलिश का विरोध कर, अपने लिए खासी बदनामी भी बटोरी. सहकारिता आंदोलन स्वयं पूंजीवाद से संघर्ष कर रहा था. स्पर्धाविहीन उत्पादनतंत्र की स्थापना को समर्पित यह आंदोलन अल्प समय में ही स्वयं को पूंजीवादी व्यवस्था का सशक्त विकल्प सिद्ध कर चुका था. प्रकटरूप में उसका लक्ष्य भी साम्यवाद की अभिकल्पना के अनुरूप अर्थिक समानता पर आधारित समाज की स्थापना करना था. केवल उसका रास्ता भिन्न था. सहकारिता के माध्यम से एक मौन अहिंसक आर्थिक क्रांति यूरोप में जन्म ले चुकी थी. प्रारंभ में उसका केंद्र इंग्लेंड था, किंतु कुछ ही वर्षों में विश्व के अन्य हिस्सों पर भी वह अपनी पकड़ बना चुका था.

बहरहाल, लेसली द्वारा स्थापित संगठन उसकी की मृत्यु के पश्चात सुप्तावस्था में चला गया. इस बीच नई रणनीतियों पर काम होता रहा. पूंजीवाद को परास्त करने के लिए श्रमिक संगठनों के नएनए समीकरण बनतेबिगड़ते रहे. उनीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में केंद्रीय यूरोप में कई महान श्रमिक नेताओं का जन्म हुआ, आगे चलकर जिन्होंने जर्मन के समाजवादी आंदोलन को नई दिशा दी. उन नेताओं, विचारकों में फ्रेंज मेहरिंग, एडुअर्ड बर्संटीन, कार्ल कार्टस्की, आ॓गस्ट बेबल तथा रोजा लेक्समबर्ग आदि प्रमुख थे. इनमें रोजा लेक्समबर्ग तथा कार्ल का॓र्टस्की ने माक्र्सवाद की नई व्याख्या कर उसके लिए जर्मनी में नई जमीन तैयार करने का काम किया. इस बीच बिस्मार्क जैसा दूरदृष्टा नेता भी जर्मनी को मिला जिसने संगठित और शक्तिशाली जर्मन गणतंत्र की नींव रखी. यहां हम जर्मनी में जर्मनी में श्रमक्रांति की प्रमुख सूत्रधार रोजा लेक्समबर्ग के जीवनचरित के माध्यम से इस चर्चा को आगे ले जाने का प्रयास करेंगे.

रोजा लेक्समबर्ग का जन्म 5 मार्च, 1871 को रूस अधिकृत पोलेंड के जा॓मोक नामक स्थान पर हुआ था. परिवार यहूदी था. पिता इलीज लेक्समबर्ग लकड़ी का कारोबार करते थे. मां का नाम था—लीन लोवेंसटिन. घर की आय सीमित थी. बड़ी मुश्किल से परिवार का गुजारा होता. रोजा अपने पांच भाईबहनों में सबसे छोटी थी. बचपन से ही उसने दर्शा दिया था कि वह दूसरों से हटकर है. लेकिन नियति उसको बाहर से नहीं, भीतर से मजबूत बनाना चाहती थी. शायद इसीलिए जन्म के पांचवे वर्ष में वह गंभीररूप से बीमार पड़ी. कूल्हे का आपरेशन कराना पड़ा. महीनों तक बिस्तर पर रहने के पश्चात वह चलनेफिरने लायक तो हुई, पर शरीर में दोष आ गया. उसका मुड़ा हुआ बदन, लंगड़ी चाल, कमजोर शरीर समवयस् बच्चों के अच्छेखासे मजाक का विषय बन गया. मातापिता उसको देखकर चिंतित होते थे. पर रोजा के भीतर जो दूसरी लड़की छिपी थी—वह इरादों की पक्की, संकल्पवान, प्रखर मेधावी, पढ़ाकू और उदार थी. उस समय भला कौन सोच सकता था कि वह बीमार दिखने वाली कमजोर लड़की, जो ढंग से चल भी नहीं पाती थी, उपचार के दौरान जिसका ऐंठसा गया था, एक दिन पोलेंड और जर्मनी में मार्क्सवाद की नए सिरे से व्याख्या करेगी. अपनी संकल्पनिष्ठा के दम पर एक दिन वह सर्वहारा आंदोलन को नई दिशा देने में सफल सिद्ध होगी. उसकी आवाज इतनी बुलंद और प्रभावी होगी कि सुनकर पूंजीपतियों के कलेजे दहलने लगें. तानाशाह शासक का आसन डगमगाने लगे. अमेरिका के साम्यवादी नेताविचारक बेटर्म डी. वुल्फ ने रोजा लेक्सबर्ग के व्यक्तित्व के बारे में लिखा है—

 

रोजा को देखकर कोई यह नहीं बता सकता था कि आगे चलकर वह अभागिन लड़की नायिका बनेगी और श्रमिकों की कद्दावर नेता सिद्ध होगी. बचपन में कूल्हे के इलाज ने उसके शरीर को कमजोर और बेढंगा कर दिया था. वह लंगड़ाकर चलती. उसकी चाल बहुत भद्दी प्रतीत होती. लेकिन जब वह बोलना शुरू करती तो लोग देखते कि उसकी बड़ीबड़ी भावप्रवण आंखें मानो उपस्थित जनसमुदाय की सहनशीलता पर कटाक्ष कर रही हैं. संवेदना उनसे रहरहकर छलछलाती. उनमें संघर्ष की आतुरता, व्यंग्य और उपहास भरा होता. जब वह किसी सभा या बैठक के दौरान फर्श पर बैठती तो उसकी ऐंठी हुई देह मानो कुछ और तन जाती. उस समय वह कहीं अधिक प्रभावशाली नजर आती. उसकी आवाज तेज, ओजमय तथा कंपकपाती हुई बाहर आती और कानों से सीधे दिल में पैठती चली जाती. वह गाती भी बहुत सुंदर थी. उसकी वक्रोक्तियां मारक, तर्क बहुत गहरे और स्पष्ट होते. उसका भाषण सुनकर लोग उसकी प्रतिभा से चमत्कृत होते, पर सच में वह उनकी कल्पना से कहीं अधिक बुद्धिमान थी.’

रोजा जब नौ वर्ष की हुई तो उसके मातापिता वारसा के लिए प्रस्थान कर गए. वहां उसको सरकारी स्कूल में भर्ती करा दिया गया. स्कूल में रोजा ने सिद्ध किया कि वह अति साधारण, विकलांग लड़की असाधारण प्रतिभाशाली है. किशोरावस्था से युवावस्था की ओर बढ़ती रोजा अब समाज को समझने लगी थी. खुद उसका अपना जीवन अभावों से भरा था और वह जातनी थी कि उसका तथा अन्य सर्वहारा परिवारों का जीवन इतना त्रसदीमय क्यों है. समाज का आर्थिक स्तर पर विभाजन देख उसकी त्योरियां चढ़ जाती थीं. वह यह देखकर खिन्न होती कि आर्थिक असमानता की खाई उत्तरोत्तर गहराती जा रही है. श्रमिकों ने अपनी दुर्दशा को नियति की तरह स्वीकार लिया है. उन्हीं दिनों उसका संपर्क साम्यवादी आंदोलन के नेताओं से हुआ. माक्र्स के विचारों का रोजा पर जादुई असर हुआ. वह उसकी ओर खिंचती चली गई. राजनीति के प्रति आकर्षण के कारण वह वामपंथी दलों के संपर्क में आई. 1886 में उसने पोलेंड के वामपंथी दल की सदस्यता ग्रहण कर ली. श्रमिक आंदोलन में हिस्सा लेते समय उसका निर्भीक और प्रखर आंदोलनकारी रूप सामने आने लगा. असल में वह नई रोजा थी, जो अपनी शारीरिक अक्षमताओं को कदमकदम चुनौती देती, श्रमिकों का संगठित होने के लिए आवाह्न करते समय, दूसरों को चमत्कृत करती प्रतीत होती थी. उन दिनों पोलेंड में साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा था. श्रमिक पूंजीवाद के विरोध में संगठित हो रहे थे. रोजा ने अपनी राजनीति की शुरुआत ही हड़तालों और धरने के साथ की. सरकार सतर्क थी और ताकत के मद में चूर भी. परिणाम यह हुआ कि रोजा की पार्टी के चार प्रमुख नेताओं को मृत्युदंड सुनाते हुए उसपर प्रतिबंध लगा दिया गया. निशाने पर रोजा भी थी, किंतु पार्टी के बाकी प्रमुख नेताओं के साथ भूमिगत होकर वह स्वयं को बचाने में सफल हो गई. सरकार सख्ती पर थी. इसके बावजूद रोजा और उसके साथियों की भूमिगत कार्रवाहियां लगातार चलती रहीं.

1887 में रोजा ने विद्यालय की अंतिम परीक्षा में प्रवेश लिया. किंतु पूंजीपतियों द्वारा समर्थित सरकार उसके पीछे पड़ी थी. रोजा का पोलेंड में टिके रहना उसके लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता था. इस कारण उसने देश छोड़ने का निश्चय कर लिया. 1889 में गिरफ्तारी से बचने के लिए स्विटजरलेंड के लिए रवाना हो गई. इस बीच वह ज्यूरिख विश्वविद्यालय में प्रवेश ले चुकी थी. स्विटजरलेंड में रहते हुए उसने दर्शनशास्त्र, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, गणित, समाजविज्ञान आदि विषयों का गहरा अध्ययन किया. राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, मध्यकालीन इतिहास जैसे विषयों में तो उसने प्रवीणता प्राप्त की थी. स्विटजरलेंड में उसकी भेंट रूस के क्रांतिसमर्थक समाजवादी नेता अलेक्जेंद्र कोलोतई, जार्ज प्लेखनोव तथा पावेल एक्सींोड से हुई, जो वहां रूस से निष्कासन की सजा भुगत रहे थे. रोजा की बुद्धिप्रखरता तथा उसकी सिद्धांतनिष्ठा ने उन सभी को प्रभावित किया. 1890 में उसका संपर्क लिओ जोगीच्स से हुआ. दोनों प्रेमबंधन में बंध गए. बिना किसी रस्मोरिवाज के बना उनका यह स्नेहसंबंध मृत्युपर्यंत बना रहा.

लियो जोगीच्स तथा जुलियन मारक्लेवस्की के साथ मिलकर रोजा ने 1893 में एक समाचारपत्र की स्थापना थी, शीर्षक रखा—‘दि वर्कर्स का॓ज.’ उसका प्रमुख ध्येय श्रमिकों के बीच वर्गीय चेतना का विस्तार करना था. अपने प्रथमांक के साथ ही पत्र ने राष्ट्रवादी राजनीति का विरोध करना आरंभ दिया. इससे वह पोलेंड की समाजवादी पार्टी के निशाने पर आ गई. रोजा और उसके साथियों की मान्यता थी कि जर्मनी, रूस, आस्ट्रिया में संयुक्त समाजवादी क्रांति से ही आत्मनिर्भर पोलेंड का जन्म हो सकता है. पोलेंड के अन्य राजनीतिक दल जहां पोलेंड की रूस से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे, वहीं रोजा का मानना था कि संघर्ष का लक्ष्य राजनीतिक दासता तथा पूंजीवादी उत्पीड़न दोनों से संपूर्ण मुक्ति के लिए छेड़ा जाना चाहिए. 1898 में रोजा ने जर्मन निवासी गुस्ताव लुबेक से विवाह किया. इस विवाह का वास्तविक उद्देश्य जर्मनी की नागरिकता प्राप्त करना था, जहां वह अपेक्षाकृत सुरक्षित महसूस करती थी. विवाहोपरांत वह बर्लिन मे रहने लगी. वहां लियो जोगीच्स के साथ मिलकर उसने ‘सामाजिक गणतांत्रिक पार्टी’ की स्थापना की. वहीं उसका संपर्क प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक कार्ल कोटस्की से हुआ, जो आगे चलकर जर्मन में माक्र्सवादी विचारों के प्रचारप्रसार तथा समाजवादी क्रांति की सफलता में सहायक बना. इस बीच पोलेंड की स्वाधीनता को लेकर रोजा और लेनिन के बीच मतभेद उभरने लगे. रोजा पोलेंड के लिए पूर्ण स्वराज की मांग कर रही थी, जबकि लेनिन पोलेंड को महज राजनीतिक स्वायत्तता दिए जाने के पक्ष में था. अपने विरोध को रचनात्मक रूप देते हुए रोजा ने 1904 में ‘आर्गेनाइजेशन क्वश्चन्स आ॓फ रशियन डेमोक्रेसी’ की रचना की. इस पुस्तक में उसने लेनिन की वर्चस्वकारी राजनीति की आलोचना की थी. पुस्तक में उसने लिखा था—

लेनिन चाहते हैं कि समस्त स्थानीय समितियों के नामकरण का श्रेय पार्टी की केंद्रीय समिति को मिले. उसे जिनेवा से लीग तथा टाम्स से इर्कुटस्क तक पार्टी के स्थानीय संगठनों में अपने प्रतिनिधि नियुक्त करने का अधिकार भी प्राप्त हो. यही नहीं वह चाहता है कि केंद्रीय समिति को पार्टी की आचारसंहिता में पूर्वनिर्धारित कायदेकानून थोपने का अधिकार भी प्राप्त हो….अर्थात वह चाहते हैं कि वैचारिक निर्णय लेना का अधिकार सिर्फ केंद्रीय समिति तक सीमित हो, बाकी सब शाखाएं उस पर आश्रित हों.’

रोजा का मानना था कि यदि लेनिन के विचारों के आधार पर क्रांति हुई तो उसकी परिणति अंत में साम्यवादी तानाशाही के रूप में होगी. लेनिन की मृत्यु के बाद सोवियत संघ की राजनीति में आए परिवर्तनों ने रोजा की भविष्यवाणी को सत्य सिद्ध किया था. 1900 में रोजा ने यूरोपीय देशों की समाजार्थिक समस्याओं का विश्लेषण करते हुए एक लेख लिखा, जिसमें उसने ‘पूंजी’ तथा ‘श्रम’ के अंतःसंबंधों को बहुत गहराई से विवेचित किया था. 1905 में रोजा के जीवन का महत्त्वपूर्ण पड़ाव तब आया जब आ॓गस्ट बेबल ने उसको ‘सामाजिक गणतांत्रिक पार्टी’ के मुखपत्र ‘वोरवार्ट’(फारवर्ड) का संपादक नियुक्त किया. उस समय तक रूस में स्थिति बिगड़ चुकी थी. लेनिन के नेतृत्व में किसानश्रमिक संगठित होकर रूस की जारशाही से मोर्चा ले रहे थे. उसी वर्ष यानी 1905 में रूस में बोल्शेविक क्रांति भड़क उठी. रोजा लेक्समबर्ग और उसके सहयोगी लियो जोगीस्च को क्रांतिकारियों का साथ देने, उन्हें हिंसा के लिए भड़काने का आरोपी मानकर गिरफ्तार कर लिया गया. 1904 से 1906 की अवधि में रोजा को तीन बार जेल जाना पड़ा.

जर्मन सरकार की साम्राज्यवादी नीतियां एक बड़े युद्ध को आमंत्रित कर रही हैं—यह भांपते हुए रोजा ने जर्मन सरकार की युद्धप्रियता और साम्राज्यवादी ललक पर लगातार प्रहार करना शुरू कर दिया. वह चाहती थी कि श्रमिक वर्ग संगठित होकर हड़ताल आदि अहिंसक गतिविधियों द्वारा सरकार पर भरपूर दबाव बनाए, ताकि संभावित युद्ध को टाला जा सके. रोजा के विचार को सामाजिकगणतांत्रिक दल के सहयोगियों ने ही नकार दिया. इसे लेकर रोजा और कार्ल कोटस्की के मतभेद भी सामने आ गए. रोजा के कई सहयोगी पहले ही गिरफ्तार किए जा चुके थे. कुछ भूमिगत रहकर आंदोलन की जैसेतैसे मदद कर रहे थे. ‘रशियन सोशल डेमोक्रेट’ अपना पांचवा स्थापना दिवस मनाने जा रही थी. इस अवसर पर 1907 में रोजा लंदन पहुंची. वहां उसकी भेंट लेनिन से हुई. उसको अब भी भरोसा था कि मजदूर संगठनों के संयुक्त दबाव से युद्ध की विभीषिका को टाला जा सकता है. रोजा के विचार 1906 में ‘दि मास स्ट्राइक, दि पाॅलिटिकल पार्टी एंड ट्रेड यूनियनस’ में प्रकाशित हुए. लेख में उसने तर्क दिया था कि बड़ी हड़ताल द्वारा श्रमिकों को न केवल प्रगतिगामी बनाकर समाजवादी क्रांति के प्रति उन्मुख बनाया जा सकता है, बल्कि युद्धोन्माद में डूबी सरकारों को भी, जिनकी स्वार्थपरता एवं साम्राज्यवादी लालसा दुनिया को मौत के मुहाने की ओर ढकेल रही है, प्रतिहिंसात्मक गतिविधियों से दूर रहने के लिए बाध्य किया जा सकता है. उसने लिखा था कि जनांदोलन के रूप में हड़ताल स्वाभाविक और निर्णायक गतिविधि है. सर्वहारावर्ग और पूंजी के संघर्ष में तो वह एकदम अपरिहार्य और विशिष्ट औजार है. उसने लिखा था कि प्राचीनकाल में बड़े संघर्ष छावनियों और युद्ध के मैदानों में लड़े जाते थे. जबकि सर्वहारा का संघर्ष खुली सड़कों तथा गलियारों में लड़ा जाएगा, अंततः वह निर्णायक एवं परिवर्तनकामी सिद्ध होगा. 1907 में रोजा ने एक और दायित्व अपने कंधों पर उठा लिया. वह था ‘सामाजिक गणतांत्रिक पार्टी’ के नेताओं, विशेषकर नवयुवकों को समाजवादी विचारधारा से अवगत कराने का. 1914 तक वह अध्यापन कार्य में लगी रही. उसके शिष्यों में फ्रैड्रिक इबर्ट जैसे महान नेता थे. अध्यापक के रूप में उसका दायित्व माक्र्सवाद और समाजवादी दर्शन के बारे में शिक्षा देना था. किंतु उसके विचार माक्र्सवाद पुनरावृत्ति मात्र नहीं हैं. रोजा कई जगह पर माक्र्स से असहमत थी, जिसको उसने खुलकर अभिव्यक्ति दी थी. इस बारे में रोजा की प्रशंसा करते हुए बेर्टम दा. वाल्फ ने लिखा है—

अधिकांश जर्मन विद्वानों ने अपने लेखनकार्य में माक्र्सवादी विचारधारा को महज दोहराने अथवा उसकी पुनर्प्रस्तुतिकरण जैसा काम किया है. उनसे अलग रोजा लेक्समबर्ग ने पहले तो माक्र्सवाद से शालीन दूरी बनाए रखकर माक्र्स के मूल्य के श्रमसिद्धांत की मौलिक व्याख्या की, तत्पश्चात उसने पूंजी के दूसरे खंड की कमजोरियों की समीक्षा करते हुए स्वयं माक्र्स को ही कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया.’

रोजा के मौलिक सोच का सबसे अच्छा उदाहरण प्रथम विश्वयुद्ध में उसकी भूमिका थी, जिसमें उसने सर्वहाराशक्ति का उपयोग युद्ध की विभीषिका को टालने के लिए किया था. 1912 में यूरोपीय समाजवादी संगठन की बैठक हुई, जिसमें रोजा ने ‘सामाजिक गणतांत्रिक दल’ के प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया था. उस समय तक विश्व पर युद्ध के गहरे बादल मंडराने लगे थे. जर्मनी सेनाएं युद्ध की तैयारियों में लगी थीं. राष्ट्रवादी नेता युद्ध के समर्थन में थे. ऐसे चुनौतीपूर्ण दौर में 1913 में एक विशाल सभा को संबोधित करते हुए रोजा ने कहा था कि—‘‘यदि वे यह सोचते हैं कि हम अपने फ्रांसिसी तथा अन्य धर्मबंधुओं को मारने के लिए हथियार उठाने जा रहे हैं तो उन्हें हमारा एक ही अंतिम मगर करारा जवाब होगा, ‘नहीं, हम यह कार्य हरगिज नहीं करेंगे.’’

किंतु अतिमहत्त्वाकांक्षी और युद्धोन्मत्त राष्ट्राध्यक्षों के आगे रोजा की यह अपील नाकाम सिद्ध हुई. युद्ध छिड़ गया. नएनए देश उसमें शामिल होते चले गए. रोजा के लिए फिर परीक्षा की घड़ी थी. ‘सामाजिक गणतांत्रिक पार्टी’ के अधिकांश सदस्य युद्ध के समर्थन में थे. उन्होंने साम्राज्यवादी सरकार से समझौता करते हुए युद्ध के दौरान किसी भी प्रकार की हड़ताल न करने का वचन दिया था. रोजा यह देख हतप्रभ थी. राजनीतिक अवसरवादिता एक बार फिर विजयी हुई थी. प्रतिक्रियावादी नेता अपनी बात मनवाने में सफल रहे थे, जिसके विरुद्ध वह आरंभ से ही संघर्ष करती आ रही थी. पार्टीनीति की परवाह न करते हुए रोजा ने युद्धविरोध जारी रहा. युद्ध का विरोध करने के लिए उसने फ्रेंकफर्ट में भारी प्रदर्शन किया, जिसमें हिंस्र सैन्य अभियान का विरोध किया गया था. सरकार ने बलप्रयोग करते हुए उसको गिरफ्तार कर लिया गया.

रोजा न केवल प्रदर्शनों और जनसभाओं के माध्यम से जनता में चेतना लाने का प्रयास कर रही थी, साथ ही उसकी कलम भी अपना काम कर रही थी. 1913 में उसकी महान कृति ‘दि एक्युमुलेशन आ॓फ कैपीटल: ए कंट्रीब्यूशन टू एन इकानामिक एक्सप्लेनेशन आ॓फ इंपीयरिलिज्म’ प्रकाशित हुई, जिसमें पूंजी के साम्राज्यवादी चरित्र तथा उसकी वर्चस्वकारी रणनीति पर गंभीर विमर्श किया गया था. इस पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही रोजा लक्समबर्ग की गिनती अपने समय के मूर्धन्य विद्वानों तथा मार्क्सवादी विचारकों में होने लगी थी. इस पुस्तक के लिए रोजा की प्रशंसा करते हुए फ्रेंज मेहरिंग ने उसको, ‘मार्क्स और एंगल्स के सामाजिक विज्ञानवेत्ता उत्तराधिकारियों में सर्वाधिक प्रतिभाशाली शख्स’ की उपाधि से सम्मनित किया है.

दि एक्युमुलेशन आ॓फ कैपीटल’ के प्रकाशित होते ही रोजा को पार्टी की वामपंथी शाखा का प्रतिष्ठित सदस्य बना दिया गया था. उसका पूंजीवाद विरोध लगातार तीखा होता जा रहा था. प्रत्येक सभा में वह श्रमिकों को संगठित विरोध के लिए तैयार होने, एकजुट होकर बुर्जुआ समाज पर हमला बोलने का आवाह्न करती. उसका यह विश्वास कि हिंसात्मक कार्यवाही द्वारा पूंजीवाद को खदेड़ा जा सकता है, लगातार दृढ़ होता जा रहा था. उसकी बढ़ती लोकप्रियता ने जहां पार्टी के भीतर ही ईष्र्यालु पैदा कर दिए थे, वहीं उसके पुराने सहयोगियों यथा कार्ल कोटस्की तथा आ॓गस्त बबेल के बीच की दूरियां भी निरंतर विस्तार ले रही थीं. पार्टी की वामपंथी शाखा विश्वयुद्ध टालने के लिए लगातार प्रयासरत थी. 1914 में रोजा ने कार्ल लीबनेच्ट, क्लारा जेटकिन, लियो जोगीस्च, फ्रेंज मेहरिंग, पा॓ल लेवी आदि सहयोगियों के साथ मिलकर ‘दि इंटरनेशनल गु्रप’ नामक संगठन की स्थापना की. उद्देश्य था पूंजीवाद और साम्राज्यवादी सरकारों की युद्धोन्मत्ता के विरोध में जनचेतना पैदा करना. 1916 में इस संगठन का नाम बदलकर थे्रशिया के महानतम दासयोद्धा स्पार्टकस की स्मृति में ‘स्पार्टकस लीग’ कर दिया गया. यह वही स्पार्टकस(109 ईसा पूर्व—71 ईसा पूर्व) था जिसने तीसरे दास विद्रोह में साम्राज्यवादी रोम के विरुद्ध भीषण संघर्ष किया था तथा अपने अद्भुत रणकौशल से रोम की भारीभरकम सेना को कई बार पीछे हटने के लिए विवश कर दिया था. अपनी मित्रमंडली में रोजा ‘जीनियस’ के नाम से जानी जाती थी. वामपंथी विचारधारा को समर्पित ‘स्पार्टकस लीग’ ने ‘समाजवादी गणतांत्रिक पार्टी’ की युद्धनीति की आलोचना करते हुए जर्मनी के श्रमिकों का आवाह्न किया कि वे युद्ध के विरोध में आगे आएं. इससे चिढ़कर सरकार ने रोजा को कैद कर लिया. किंतु कारावास में रहकर भी वह क्रांतिकारी गतिविधियों का नेतृत्व करती रही. जेल में उसका समय लिखतेपढ़ते हुए बीतता था. मित्रों के माध्यम से उसके लेख बाहर प्रकाशित होते तो राष्ट्रवादी सरकार में सनसनीसी फैल जाती थी. जेल में रहकर ‘रूस की बोल्शेविक क्रांति’ पर लिखे गए लेख में रोजा ने उसकी आलोचना की थी. बोल्शेविक क्रांति के फलस्वरूप रूस में हुए सत्तापरिवर्तन को उसने ‘सर्वहारा का अधिनायकवाद’ कहकर बुलाना आरंभ कर दिया था. रोजा ने लिखा कि—

स्वाधीनता सदैव उस व्यक्ति को प्राप्त होती है, जो दूसरों से अलग हटकर नए ढंग से सोचता है.’

रोजा का अगला आलेख ‘दि क्राइसिस आॅफ सोशल डेमोक्रेसी’ था. इस लेख में उसने गणतांत्रिक प्रणाली के अंतर्विरोधों तथा उसकी चुनौतियों की चर्चा की थी. 1917 में सामाजिक गणतांत्रिक पार्टी की युद्धसमर्थक नीति के विरोध में उसके कुछ सदस्यों ने अलग होकर ‘इंडीपेंडेंट सोशल डेमोक्रिटिक पार्टी’ की स्थापना की तो रोजा की ‘स्पार्टकस लीग’ ने उससे गठबंधन कर लिया. 1918 की जर्मन क्रांति के बाद हुए परिवर्तन के दौरान सत्ता ‘इंडीपेंडेंट सोशल डेमोक्रिटिक पार्टी’ के अधिकार में आ गई. क्रांति की शुरुआत केल से, राजशाही तथा विश्वयुद्ध दोनों के खात्मे के पक्ष में कामगारों तथा सिपाहियों के विद्रोह के बाद हुई थी. रोजा लेक्समबर्ग का दृढ़ विश्वास था कि युद्ध श्रमविरोधी है. केवल वही शक्तियां युद्ध के समर्थन में हैं, जो किसी न किसी प्रकार साम्राज्यवाद और/अथवा पूंजीवाद से लाभान्वित हो सकती हैं. श्रमिक वर्ग के पास न तो पूंजी है, न ही राजनीतिक शक्ति, इसलिए विश्वयुद्ध में जर्मन की भागीदारी से इस वर्ग को कोई लाभ पहुंचने वाला नहीं है. ऊपर से युद्ध की विभीषिका के अलावा महंगाई और महामारी जैसी मानवनिर्मित आपदाओं का सामना अकेले इसी वर्ग को करना पड़ेगा. कार्ल माक्र्स ने कहा था कि श्रमिक का कोई एक देश नहीं, बल्कि विश्व समुदाय है. इसलिए उन्हें सारी दुनिया के मजदूरों के बारे में सोचना चाहिए. रोजा श्रमिकों के ऐसे ही श्रमिक गणतंत्र के पक्ष में संघर्षरत थी, इस उद्देश्य में वह क्षेत्रीयता और धार्मिक आग्रहों को बाधक मानती थी. उसका मानना था कि संघर्ष को गति देने के लिए श्रमिकों के मन में देश, जाति, वर्ण की सीमा से परे, विश्वबंधुत्व की भावना का विकास अपरिहार्य है. एक अवसर पर जर्मनी में यहुदियों के उत्पीड़न के बारे में एक प्रश्न पर उसने तत्काल कहा था—

आप मेरे पास केवल यहुदियों के दुखदर्द की समस्या लेकर क्यों आए हैं. मुझे उतना ही क्लेश पुटामाओ में आदिवासी मजदूरों, अफ्रीका में नीग्रो समुदाय के औपनिवेशिक उत्पीड़न पर है. मेरे दिल का कोना केवल यहुदियों के लिए सुरक्षित नहीं है, बल्कि समस्त विश्वसमाज, जहां तक चिड़ियों का बसेरा और बादलों का घेरा है—मेरा घर है.’

रोजा और उसके साथियों ने युद्ध को टालने के भरसक प्रयास किए. किंतु वे असफल रहे. युद्ध का विरोध करते हुए रोजा तीन बार जेल जा चुकी थी. लेकिन जेल भेजने के बाद भी अधिकारियों में उसकी दहशत कम नहीं हुई थी. यह रोजा द्वारा चलाए गए आंदोलनों का डर ही था कि कारावास के दौरान सरकार ने गोपनीयता के नाम पर उसके कारागार दो बार बदलवाया था. उसके लेखों पर पाबंदी लगाई जा चुकी थी. लेकिन रोजा की देह को कैद करना भले आसान हो, उसके सोच पर लगाम लगाना असंभव था. कारावास में रहते हुए रोजा ने जर्मनी में एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था—‘रूस की क्रांति’. इस लेख में उसने रूस की साम्यवादी सरकार की तीखी आलोचना की थी. उसने लिखा था कि रूस की बोल्शेविक सरकार असल में सर्वहारा वर्ग की निरंकुश सरकार है. यह लेख रोजा केे मित्रें के जरिये जेल से बाहर गया और प्रकाशित भी हुआ. इससे सरकार चिढ़ गई और रोजा को गिरफ्तार कर लिया. इस बार भी डरी हुई राष्ट्रवादी सरकार रोजा का ठिकाना बदलती रही. आखिर 8 नवंबर, 1918 को रोजा को जेल से रिहा कर दिया गया. उसी दिन एक और क्रांतिकारी साम्यवादी को मुक्त कराया गया था, उसका नाम था कार्ल लेबनेट.

रोजा के कारावास के दिनों में ‘स्पार्टकस लीग’ का आंदोलन बिखर चुका था. बाहर आते ही उसने एक बार फिर स्वयं को श्रमिक आंदोलन की तैयारियों में झोंक दिया. कार्ल लेबनेट के साथ मिलकर उसने लीग को नए सिरे से संगठित करना आरंभ कर दिया. श्रमिक चेतना के विस्तार के लिए उसने ‘रेड फ्लेग’ नामक समाचारपत्र का संपादन करना आरंभ किया. उस समाचारपत्र के माध्यम से रोजा ने राजनीतिक बंदियों की मुक्ति तथा मृत्युदंड को हमेशा के लिए समाप्त किए जाने की मांग सरकार के सामने रखी. श्रमिक आंदोलन को नए जोश के साथ आगे बढ़ाने की तैयारियां भी जोरों पर थीं. 14 दिसंबर, 1918 को रोजा ने ‘स्पार्टकस लीग’ के नए आंदोलन रूपरेखा को कार्यकर्ताओं के सामने रखा. यहां प्रसंगवश स्पार्टकस के बारे में जान लेना उचित होगा. स्पार्टकस थ्रशिया में जन्मा था. उसके जन्म के बारे में ठीकठीक जानकारी नहीं है, कुछ विद्वानों के अनुसार उसका जीवनकाल 109 ईसा पूर्व से 71 ईसा पूर्व है. वह प्रशिक्षित रोमन प्रशिक्षित सैनिक था. उसकी वीरता के किस्से रोम की सेनाओं में शान से सुनेसुनाए जाते थे. एक युद्ध में गिरफ्तार कर लिए जाने के बाद स्पार्टकस को भी दूसरे सैनिकों की भांति दास बना लिया गया. इसी से स्पार्टकस ने दासप्रथा के विरुद्ध संघर्ष के लिए युद्ध छेड़ दिया. मगर दास प्रथा के उन्मूलन में राजशाही सबसे बड़ी बाधक थी. स्पार्टकस ने दासों को राजशाही के विरुद्ध संगठित करना आरंभ कर दिया और अवसर मिलते ही राजशाही के विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया. कुछ ही अवधि में उसके साथ नब्बे हजार सैनिक और आ मिले. युद्ध में कई मोर्चों पर स्पार्टकस को भारी सफलता मिली. रोम को पड़ोसी राज्यों के आगे मदद के लिए हाथ पसारने पड़े. अंततः साम्राज्यवादी सेनाओं के साथ निर्णायक युद्ध में स्पार्टकस को पराजय का सामना करना पड़ा. सायरस नदी के तट पर लड़े गए उस युद्ध में स्पार्टकस की मौत के बाद उसके छह हजार सैनिकों को जीवित ही सूली पर चढ़ा दिया. युद्ध में उस दास सैनिक स्पार्टकस की हार हुई थी, परंतु वह मरकर भी स्वाधीनता की कामना करने वाले नरपुंगवों का प्रेरणासोत्त बन गया.

स्पार्टकस ने रोम से राजनीतिकआर्थिक दासता से मुक्ति का संघर्ष छेड़ा था. जिसमें रोम की जीत तो हुई, मगर उसको भारी जनहानि उठानी पड़ी थी. उससे भी बड़ा आघात उसकी प्रतिष्ठा को लगा था, वह विशाल साम्राज्य जो कभी अपनी वीरता और संपन्नता पर इतराता था, एक दास योद्धा से पराजित हो, यह गर्वोन्नमत रोमवासियों के लिए असह् था. हालांकि छह हजार दास योद्धाओं को एक साथ सूली पर चढ़ाए जाने से स्पार्टकस द्वारा छेड़ा गया संघर्ष बिखर चुका था, तथापि स्पार्टकस की वीरता और संघर्षभावना की गाथाएं दासों में नई आशाओं का संचार करने वाली थी. उनके बीच से दूसरा स्पार्टकस फिर कभी पैदा न हो, उनका ध्यान राजनीतिकआर्थिक मुक्ति की ओर से हटाने के लिए धर्म का सहारा लिया गया. उससे पहले यूनान में दार्शनिक तो जन्मे, लेकिन संगठित धर्म का कोई उदाहरण नहीं मिलता. उल्लेखनीय है कि जीसस को मसीह के रूप में सबसे पहले दासों ने स्वीकृति दी थी. बहरहाल इस प्रसंग पर अधिक चर्चा विषयांतर होगी.

रोजा को गणतांत्रिक प्रणाली में पूरा विश्वास था. उसका मानना था कि समाजवादी गणतांत्रिक प्रणाली का आशय केवल नियंत्रित अर्थव्यवस्था तक सीमित नहीं है. न ही गणतंत्र कोई ऐसी वस्तु है जिसे क्रिसमस के उपहार की भांति जनता को भेंट किया जा सके. उसका मानना था कि समाजवाद असल में वर्गभेदयुक्त व्यवस्था के उन्मूलन की स्थिति है, जिसका शुभारंभ ही वर्गविभाजित समाज के पतन से होता है. यह सर्वहारा की तानाशाही जैसा ही है. वह तानाशाही शब्द पर बहुत जोर देती है, किंतु स्पष्ट करती है कि उसकी तानाशाही लोकतंत्र की स्थापना के लिए होती है, न कि उसको उखाड़ फंेकने अथवा किसी भी प्रकार का नुकसान पहुंचाने हेतु. वह यथास्थितिवाद की पोषक न होकर रचनात्मक और सक्रिय होती है, तथा साम्यवाद की स्थापना के लिए बुर्जुआ समाज पर निरंतर प्रहार करती रहती है. इसलिए कि बिना बुर्जुआ समाज के उन्मूलन के समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त कर पाना असंभव है. सर्वहारा की तानाशाही को स्पष्ट करते हुए रोजा का आगे कहना था कि उसकी तानाशाही समूह यानी बहुसंख्यक वर्ग की तानाशाही है, न कि वर्गहीनता के नाम पर अल्पमत वाले समूह की निरंकुशता. उसका यह भी कहना था कि तानाशाही भले ही किसी वर्ग अथवा कुछ व्यक्तियों की क्यों न हो, सर्वथा अवरेण्य है. वह किसी भी जीवंत राज्य का पाथेय हो ही नहीं सकती. लेकिन बुर्जुआ वर्ग के उत्पीड़न से मुक्ति के लिए सर्वहारावर्ग की तानाशाही से गुजरना अनिवार्य स्थिति है. रोजा का मानना था कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही किसी न किसी रूप में लोकसमर्थित होनी चाहिए. नागरिकों जैसेजैसे राजनीतिक परिपक्वता आती है, सर्वहारावर्ग की तानाशाही उतनी ही परिपक्व होती जाती है. वह अपनी निरंकुशता भूलकर नागरिकों की सामान्य इच्छा को सुशासन में बदलने लगती है.

1918 के अंत में जर्मनी में ‘संविधान सभा’ के चुनावों की घोषणा हुई. रोजा को विश्वास था कि गणतांत्रिक प्रणाली के प्रति अपनी प्रतिबद्धता कायम रखते हुए ‘स्पार्टकस लीग’ उन चुनावों में हिस्सा लेगी. लेकिन उसके ही दल के अन्य सदस्य कूटनीतिक तरीके से सत्ता प्राप्त करने में विश्वास रखते थे. वे अपना आदर्श लेनिन को मानते थे. इस आशय का प्रस्ताव जब रोजा के सम्मुख आया तो उसका खंडन करते हुए उसने अपने समाचारपत्र में लिखा कि ‘स्पार्टकस लीग किसी भी ऐसे असंवैधानिक रास्ते से सत्ता में नहीं आना चाहेगी, जो सर्वहारा वर्ग की इच्छाओं के विरुद्ध हो. वह अपने सिद्धांतों, संघर्ष के रास्तों और लक्ष्यों से कभी समझौता नहीं करेगी.’ किंतु स्पार्टकस लीग के भीतर ही कुछ नेता रोजा का विरोध करने पर उतारू थे. सत्ता का आकर्षण उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता को धुंधला रहा था.

आंदोलन की नई रणनीतियों पर विचार करने के लिए दिसंबर 1918 में ‘स्पार्टकस लीग’ तथा कुछ स्वतंत्र समाजवादियों के तत्वावधान में रोजा ने एक बड़े सम्मेलन में हिस्सा लिया. उसी सम्मेलन में जर्मनी की पहली ‘कम्युनिस्ट पार्टी आ॓फ जर्मनी’ की नींव पड़ी, जिसका श्रमिक नेताओं ने जोरदार ढंग से स्वागत किया. कार्ल कोर्टस्की, रोजा लेक्समबर्ग, बेबेल आदि नेताओंविचारकों के नेतृत्व में, जर्मनी में माक्र्सवाद तेजी से विस्तार ले रहा था. लोग साम्यवाद की ओर आकर्षित होते जा रहे थे. उग्रपंथी कार्ल लेबनेट का विचार था कि सत्ता को बलपूर्वक उखाड़ फेंका जाए, अनेक नेता उसके समर्थन में थे. 1919 तक आतेआते बर्लिन में दूसरी क्रांति की सफलता के लिए माहौल बनता नजर आने लगा था. किंतु रोजा को हिंसात्मक कार्रवाही पर भरोसा न था. हिंसात्मक कार्रवाही की असफलता के रूप में ‘पेरिस कम्यून’ का उदाहरण उसके सामने था. मगर उस समय तक कम्युनिस्ट पार्टी समेत अनेक संगठनों पर अतिवादियों का कब्जा हो चुका था. रोजा की इच्छा के विरुद्ध ‘रेड फ्लेग’ के उग्र कार्यकर्ताओं ने हमला कर सरकार समर्थक समाचारपत्र के कार्यालय पर कब्जा कर लिया. नगर में अराजकता का वातावरण बनने लगा.

श्रमिक नेताओं के दमन के लिए उत्सुक सरकार तो मानो इसी अवसर की प्रतीक्षा में थी. विद्रोह को कुचलने के लिए सामाजिक गणतांत्रिक पार्टी के नेता फ्रैड्रिक एबर्ट तथा जर्मन के नए चांसलर ने सेना बुलाकर विद्रोह को किसी भी प्रकार कुचल देने का आदेश सुना दिया गया. आदेश मिलते ही सेना आंदोलनकारियों पर टूट पड़ी. हजारों कार्यकर्ता बंदी बना लिए. सैंकड़ों को बिना किसी मुकदमे और सुनवाई के मौत के घाट उतार दिया गया. 13 जनवरी 1919 तक विद्रोह कुचल दिया गया. इसके दो दिन बाद 15 जनवरी 1919 को रोजा लेक्समबर्ग, कार्ल लेब्कनेट, विलियम पीक आदि प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. सैन्य कमांडर वाल्डेमर पाबेस्ट और हा॓स्र्ट वान फ्लुकहार्टंग की द्वारा उनसे बलपूर्वक पूछताछ की गई. स्पष्टीकरण का अवसर दिए बिना ही रोजा को विपल्व का मुख्य सूत्रधार मानते हुए मृत्युदंड सुना दिया गया. आदेश मिलते ही रोजा को ओटो रुंग ने रायफल के बट के प्रहार से गिरा दिया. रोजा के गिरते के साथ ही लेफ्टीनेंट हरमन सूकोन ने उसके सिर पर गोली दाग दी. इसके बावजूद उनका गुस्सा शांत नहीं हुआ था. दरअसल जर्मनी की तानाशाही सत्ता के हथियारबंद कमांडर बेहद डरे हुए लोग थे. रोजा की नृशंस हत्या की सूचना पाकर श्रमिक भड़क सकते हैं. अंत उन्होंने रोजा का शव चुपकेसे बर्लिन की लेडवर नहर में बहा दिया गया. रोजा के साथी कार्ल लेबनेट को भी गोली से उड़ा दिया. जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के सौ से अधिक सदस्यों को मृत्युदंड दिया गया, जबकि हजारों कार्यकर्ताओं और श्रमिकों कैद कर लिए गए. सुरक्षा परिषदों को भंग करने के आदेश के साथ ही जर्मन क्रांति के पहले दौर का समापन हो गया. ठीक साढ़े चार महीने बाद, 1 जून, 1919 को रोजा के मृत शरीर की खोज की जा सकी. उसकी मृत्यु के लिए आ॓टो रुंग को दो वर्ष की सजा सुनाई गई. हालांकि नाजी हुकुमत द्वारा रुंग को दी गई सजा की भरपाई करते हुए बाद में उसको पुरस्कृत भी किया गया.

रोजा के अंतिम शब्द जो उसने मृत्युदंड से पहले लिखे थे. उसके शब्दों में जर्मन क्रांति की असफलता पर क्षोभ तो था, किंतु उसके प्रति विश्वास कम नहीं हुआ था. सर्वहारावर्ग में अपना भरोसा कायम रखते हुए उसने एक और क्रांति की अपरिहार्यता पर जोर दिया था—

वर्तमान नेतृत्व पूर्णतः असफल हो चुका है. नए नेतृत्व का जन्म जनता के बीच से जनता द्वारा किया जाना चाहिए. केवल जनता ही निर्णायक शक्ति है, वही वह चट्टान है जिसपर बनी इमारत पर क्रांति की शीर्ष विजयपताका फहराई जाएगी. इतिहास साक्षी है: जनता पहले भी उच्चतम स्थान पर थी, आगे भी रहेगी. हाल की उसकी पराजय अनेकानेक ऐतिहासिक पराजयों का मामूली हिस्सा है, जो अंतरराष्ट्रीय समाजवाद के लिए गर्व और गरमाहट प्रदान करने वाला है. भविष्य की विजयश्री वर्तमान की इन्हीं पराजयों की कोख से जन्म लेगी.(तानाशाह सरकार को ललकारते हुए उसने आगे लिखा था) ‘बर्लिन में हुकूमत कायम हो चुकी है!’ मूर्ख तानाशाह, तुम्हारी हुकूमत रेत पर बनी इमारत है. वक्त आ चुका है, क्रांति कल फिर तुम्हारा दरवाजा खटखटाएगी, और तुम्हारे दरवाजे पर खड़े होकर आंतक को फिर से ललकारेगी—‘मैं थी, मैं हूं और मैं हमेशा रहूंगी.’

रोजा का लोकतंत्र में पूरा विश्वास था. वह मनुष्यमात्र की स्वतंत्रता में भरोसा रखती थी. उसका मानना था कि केवल वही लोग स्वतंत्र हो सकते हैं, जो दूसरों से अलग हटकर, मौलिक सोच रखते हैं. उसने कहा था—

केवल सरकार के समर्थकों की आजादी अथवा किसी राजनीतिक दल के सदस्यों की आजादी, उनकी संख्या चाहे जितनी क्यों न हों—वास्तविक आजादी नहीं है. स्वाधीनता हमेशा उन लोगों का वरण करती है, जो दूसरों से हटकर सोचते हैं. न केवल न्याय की हठधर्मिता के कारण, बल्कि इसलिए कि वह सब कुछ जो राजनीतिक स्वाधीनता के निमित्त शिक्षाप्रद, स्वास्थ्यकारी तथा शुद्धिकारक है, कुछ विशिष्ट गुणों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है. उसके प्रभाव ‘स्वाधीनता’ के कुछ लोगों का विशिष्टाधिकार बन जाने के साथ ही बेअसर होने लगते हैं.’

लोकतंत्र की सफलता तभी संभव है, जब नागरिक अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता हो. प्रेस जागरूक हो. समाज में स्वातंत्रयचेतना हो. जनसाधारण को बिना किसी भेदभाव के निर्भयनिष्पक्ष मतदान की सुविधा प्राप्त हो. राज्यस्तर पर कल्याण का वितरण इस प्रकार हो कि सभी लोग समानरूप से उससे लाभान्वित हों तथा नागरिकों में लोकतंत्र तथा उसके आदर्शों के प्रति विश्वास की अखंड भावना हो. इनके अभाव में स्वाधीनता को प्रभावहीन होते देर नहीं लगती. विशेषकर सार्वजनिक निकायों में, जहां जनता की पूंजी लगी हो अथवा जिनका गठन लोककल्याण को ध्यान में रखकर किया गया हो, वहां स्वतंत्रता का वातावरण अनिवार्य है. इसके अभाव में उन्हें अपने लक्ष्य से भटकते, कुछ लोगों के स्वार्थसाधन का माध्यम बनते देर नहीं लगती. रोजा का मानना था कि,

आम मतदान की सुविधा के अभाव में, विधायिका और प्रेस की अबाध स्वतंत्रता के बगैर, अभिव्यक्तिस्वातंत्रय की अनुपस्थिति में, सार्वजनिक संस्थान निर्जीव बन जाते हैं, ऐसी स्थिति में केवल नौकरशाही पनप सकती है.’ अनियंत्रित नौकरशाही समाज को निरंकुशता और कालांतर में उसको अराजकता की ओर ले जाती है.

मृत्युदंड के समय रोजा की वयस् मात्र 48 वर्ष थी. उसने अपेक्षाकृत छोटा मगर सक्रिय और संघर्षशील जीवन जिया. शरीर की अपंगता को कभी मन पर सवार नहीं होने दिया. वह हमेशा श्रमिक हितों के प्रति सचेत रही. शायद ही कभी कोई अवसर ऐसा आया, जब उसने संघर्ष से मुंह मोड़ा हो. जर्मनवासी गुस्ताव लुबैक से विवाह भी किया तो महज इसलिए कि उसके माध्यम से जर्मन की नागरिकता प्राप्त कर सके, जहां माक्र्सवादी आंदोलन उभार पर था, कार्ल काॅस्र्टकी जैसे बुद्धिजीवी माक्र्स के विचारों की अधुनातन व्याख्या कर रहे थे. इसके बावजूद उसने अपने विचारों से कभी समझौता नहीं किया. जिस समय सभी नेता विश्वयुद्ध को अपरिहार्य मानकर मूकदर्शक बने हुए थे, रोजा ने युद्ध को श्रमिकहितों के प्रतिकूल मानते हुए उसके विरोध में कई आंदोलन किए. मृत्युपर्यंत वह युद्ध की विभीषिका को टालने के लिए प्रयासरत रही. समाजवाद के प्रति उसकी निष्ठा श्लाघनीय थी. यह निष्ठा उसके इन शब्दों में लक्षित है—

हमारे लिए न तो कोई न्यूनतम कार्यक्रम है, न अधिकतम. हमारा केवल और केवल एक लक्ष्य हैऐसा लक्ष्य जिसको हम आज और अभी प्राप्त कर सकते हैं. वह लक्ष्य है—समाजवाद.’

अपने विचारों से रोजा लेक्समबर्ग ने सिद्ध कर दिया था कि वह न केवल अपने सिद्धांतों पर अडिग थी, बल्कि उसका अडिग संकल्प पूंजीपतियों और साम्राज्यवादियों के दिलों में दहशत पैदा करने वाला था. उसकी हुंकार श्रमिकों में चेतना जगाती, संघर्ष की प्रेरणा देती थी. इसलिए उन डरे हुए लोगों ने रोजा की हत्या के तुरंत बाद उसके शव को नदी में बहाने जैसा अमानवीय कृत्य किया. लेकिन रोजा का बलिदान व्यर्थ नहीं गया. लोकहित में किया गया कोई बलिदान कभी व्यर्थ जाता भी नहीं. रोजा के बलिदान से फैली जनचेतना ने जर्मनी की तानाशाह सरकार को उखाड़ फेंकने में देर न की. जर्मन क्रांति ने बादशाहत को तो नवंबर 1918 में ही उखाड़ फेंका था. लेकिन उसक बाद जो अस्थायी सरकार बनी, वह भी अदूरदर्शी और अयोग्य थी. जिसके फलस्वरूप कम्यूनिस्ट पार्टी का असर दिनोंदिन बढ़ता चला गया. उसके बाद नाजी समर्थकों को सत्ता में आने का अवसर मिला.

रोजा लेक्समबर्ग और उसके साथियों का विरोध विश्वयुद्ध को टालने में असमर्थ रहा था. किंतु विश्वयुद्ध की घटना भी एक प्रकार से साम्राज्यवाद के लिए हानिकर ही सिद्ध हुई. युद्ध की विभीषिका, आंतरिक संघर्ष, महंगाई और बेरोजगारी से जूझ रहे यूरोपीय देशों में उपनिवेश विरोधी चेतना व्याप्त थी. लोग परंपरागत व्यवस्थाओं से आजिज आ चुके थे. विकल्प की खोज जारी थी. सभी अपनेअपने सुझाव दे रहे थे. ऐसे में परिवर्तनवादियों के लिए माक्र्सवाद सबसे लोकप्रचलित विचारधारा थी. अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया, रूस आदि में मानो एक साथ कई वैचारिक क्रांतियां जन्म ले रही थी. 1917 के प्रारंभिक महीनों में ही लेनिन के नेतृत्व में रूस के श्रमिकसंघों, सुरक्षाबलों तथा कृषकपरिषदों ने स्वयं को पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष में झोंक दिया था. जबरदस्त जनविद्रोह के फलस्वरूप वहां जारशाही का पतन हुआ. समाजवादी दलों के समर्थन से बनी सरकार ने आमचुनावों की घोषणा कर दी. संघर्ष का नेतृत्व लेनिन, स्टालिन, ट्रास्टकी आदि नेताओं के हाथ में था. अप्रैल 1917 में लेनिन स्विजरलेंड से रूस पहुंचा. वहां जारशाही के पतन पर खुशियां मनाते हुए उसने कृषकपरिषदों को सत्ता सौंपने का ऐलान कर दिया. चुनावों में लेनिन के दल को अधिकांश कृषकपरिषदों(सोवियत) का समर्थन मिला. अक्टूबर क्रांति की सफलता में लीओन ट्राटस्की का भी महत्त्वपूर्ण योगदान था. मार्क्स ने आर्थिक आजादी के लिए सर्वहारा संघर्ष की घोषणा की थी. लेनिन का मानना था कि राजनीतिक स्वतंत्रता आर्थिक स्वतंत्रता की पूरक है. आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए स्वाधीनता को अपरिहार्य मानते हुए उसने माक्र्सवाद का स्थानीयकरण किया था.

मार्क्स का विश्वास था कि कामगारसंघों का स्वयंस्फूर्त विद्रोह ही अंततः पूंजीवाद के पतन का कारण बनेगा. लेनिन के देश में पूंजीवाद का उतना विस्तार नहीं था, इसलिए वहां माक्र्स की परिकल्पना के सच होने की संभावना तात्कालिक रूप से न्यून थी. अतएव क्रांति की आवश्यकता को समझते हुए उसने माक्र्सवादी परिकल्पना को विस्तार देते हुए क्रांति की कामना के साथ कृषकपरिषदों तथा व्यावसायिक क्रांतिकारियों को उत्पे्ररित किया था, यही उसके जादुई नेतृत्व की करामात थी. 25 जनवरी 1918 को लेनिन ने नारा दिया था—‘सोवियत क्रांति अमर रहे.’ जारशाही के पतन के साथ ही उसने सभी मोर्चों पर युद्धविराम की घोषणा करते हुए सोवियत संघ में तत्काल आर्थिकराजनीतिक सुधारों की शुरुआत कर दी थी. उसने बड़े भूस्वमियों तथा गिरजाघर के कब्जेवाली कृष्टभूमि को, बिना किसी क्षतिपूर्ति का भुगतान किए कृषकपरिषदों में बांटने का आदेश जारी किया. 26 जनवरी 1918 को यानी सत्ता संभालने के अगले ही दिन उसने आर्थिककेंद्रों पर श्रमिकों के नियंत्रण के लिए नए नियम बनाए, जिनके अनुसार समस्त व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर श्रमिकोंसंघों का कब्जा हो गया. श्रमिक संघ के गठन की शर्त भी आसान रखी गईं. केवल पांच सदस्य मिलकर श्रमिक संघ का गठन कर सकते थे. उस संगठन को संस्थान के समस्त बहीखाते, स्टाॅक आदि को जांचने के अधिकार भी सौंप दिए गए. प्रतिष्ठान स्वामियों को श्रमिकसंघों के निर्देशों का पालन करना अनिवार्य था. श्रमिकसंघों एवं कृषक परिषदों के समर्थन से बनी बोल्शेविक सरकार ने राष्ट्रीयकृत बैंकिंग तथा उद्योगों की शुरुआत की. किसानों के ऋण माफ कर दिए गए. शांतिस्थापना के लिए उसने रूस के विश्वयुद्ध से बाहर आने की घोषणा कर दी. जनता तो युद्ध से आहत थी ही. लेनिन द्वारा सर्वहारा हित में उठाए गए कदमों के फलस्वरूप विधायिका के चुनावों में उसकी पार्टी का जबरदस्त जनसमर्थन प्राप्त हुआ. संविधान सभा द्वारा समाजवादी क्रांतिकारी नेता विक्टर चेरनाॅव को सोवियत गणराज्य का राष्ट्रपति नियुक्त किया गया. उसने बोल्शेविक के भूमि अधिग्रहण के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. बजाय इसके उसने श्रमिकों, सुरक्षा बलों तथा कृषक परिषदों की सत्ता को स्वीकार किया. बोल्शेविक के विरोध स्वरूप सोवियत संघ में एक बार फिर सत्तासंघर्ष आरंभ हो गया. बोल्शेविकों ने आरोप लगाया गया कि विधायिका का चयन पुरानी मतदाता सूची के आधार पर किया गया है. इसपर संज्ञान लेते हुए केंद्रीय समिति ने विधायिका को भंग करने की घोषणा कर दी. इसके फलस्वरूप 1922 में सोवियत संघ साम्यवाद की भावना को समर्पित पहला राज्य बना. रूस की बोल्शेविक क्रांति ने विश्वभर में साम्यवाद तथा उसके सहधर्मी आंदोलनों को हवा देने का काम किया. इससे सोवियत संघ में समाजवाद समर्थित साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों का वर्ग पैदा हुआ. प्राय हर भाषा में मार्क्सवादलेनिनवाद विचारधारा को लेकर बेशुमार लेखन हुआ. जिसके फलस्वरूप मार्क्सवाद और उसकी समानधर्मा विचारधाराओं को प्रगतिशीलता का प्रतीक मान लिया गया. जर्मनी, पोलेंड, इटली, लातीनी अमेरिका आदि देशों में क्रांतिज्वाल पहले ही धधक रही थी. सोवियत क्रांति की सफलता ने उसमें उत्पे्ररक का काम किया था.

1919 में लेनिन ने ट्राटस्की के साथ मिलकर दुनियाभर के समाजवादी दलों को अंतरराष्ट्रीय कामगार संगठन (कम्युनिस्ट इंटरनेशनल) के रूप में नए सिरे से संगठित करने का काम किया, जिसको साम्यवाद के इतिहास में ‘तीसरे इंटरनेशनल’ के रूप में जाना जाता है. मगर संघर्ष अभी बाकी था. कमांडर ट्राटस्की के नेतृत्व में रूस की लालसेना जारशाही समर्थकों से जूझ रही थी. उस घमासान में अंततः विजय लालसेना के सैनिकों के हाथ लगी. अब चुनौती सोवियत संघ को नए सिरे से संगठित करने तथा उत्पादक शक्तियों को उनके कर्तव्य से जोड़ने की थी. इसके लिए नई औद्योगिक नीति अपनाई गई, जिसमें लघु एवं मध्यम उद्योगों को छोड़कर बड़े उद्यमों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया. लघु एवं मध्यम उद्यमों के परिचालन का दायित्व कृषक परिषदों को सौंपा गया. यह एक प्रकार की मिश्रित अर्थव्यवस्था थी, जिसमें पूंजी के लाभों को अधिमान्य ठहराया गया था. वह उस माक्र्सवादीसाम्यवादी विचारधारा के भी प्रतिकूल थी, जिसके नाम पर क्रांति का आगाज किया गया था. किंतु लेनिन के अनुसार नई उद्योगनीति राज्य के विकास के लिए अनिवार्य थी. उसका मानना था कि लंबे समय से जारशाही के अधीन रह चुका देश समाजवाद के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है. उसको विश्वास था कि नई औद्योगिक नीति में लघु एवं मध्यम उद्योगों, धनी जमींदारों से करों के रूप में अर्जित धन देश के विकास में काम आएगा. लेकिन लेनिन का सपना अधूरा रह गया. दरअसल उसका सपना केवल उसका सपना था. क्रांति की सफलता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जोसेफ स्टालिन का सोच उससे एकदम भिन्न था. अतिमहत्त्वाकांक्षी स्टालिन विचारों से राष्ट्रवादी था. आशय यह कि साम्यवादी क्रांति के दौर में भी रूस की राजनीति में ऐसे नेता सक्रिय थे, जिनका मार्क्स अथवा साम्यवादी विचारों से दूर का संबंध था. बस इतना कि वे उसको अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की सीढ़ी बनाना चाहते थे. असफलता की अनुभूति लेनिन को भी थी—1923 में मरणासन्न लेनिन ने सोवियत संघ में क्रांति के भटकाव पर निराशा व्यक्त करते हुए कहा था कि रूस

बुर्जुआ जारशाही मशीन है….जिसको जहांतहां समाजवाद से चमकाया गया है.

और हुआ भी यही. 21 जनवरी, 1924 को लेनिन की मृत्यु के बाद ‘सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी’ पर स्टालिन का असर बढ़ता गया. स्टालिन पर साम्राज्यवाद का भूत सवार था. उसके प्रभाव के चलते सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने लेनिन की इस विचारधारा को सिरे से नकार दिया कि समाजवाद केवल सोवियत संघ तक सीमित नहीं रह सकता. ‘वैश्विक समाजवाद’ के स्थान पर उसने ‘एकदेशीय समाजवाद’ का नारा दिया. यह उग्र राष्ट्रवाद का आरोपण था, जिसको समाजवाद नाम दिया जा रहा था. कुछ नेता स्टालिन के नेतृत्व को जारशाही की वापसी के रूप में देख रहे थे. इसलिए वे सोवियत संघ में गणतंत्र की स्थापना की मांग कर रहे थे. उनको नजरंदाज करते हुए स्टालिन ने नौकरशाही और स्वयंभू सरकार की स्थापना पर जोर दिया. परिणामस्वरूप उसको अराजकतावादियों, गणतांत्रिक समाजवादियों तथा ट्राटस्कीसमर्थकों की ओर से समाजवाद के आदर्शों की अवहेलना करने के कारण भारी विरोध एवं तीखी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. लियोन ट्राटस्की के समर्थकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी, साथसाथ स्टालिन के साथ उसके मतभेद भी. स्टालिन ट्राटस्की को अपनी राह का रोड़ा समझ रहा था. दोनों नेताओं के मतभेद का चरमबिंदू उस दिन सामने आया, जब स्टालिन के भेजे एक हत्यारे ने ट्राटस्की की हत्या कर दी. सैन्य शक्ति के दम पर स्टालिन ने सोवियत संघ की सत्ता पर कब्जा जमाए रखा. किंतु इसका विपरीत असर उसकी ख्याति पर पड़ा. वह जनता के बीच लगातार अलोकप्रिय होता चला गया. लोगों को लगने लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है. स्टालिन की मनमानी के विरोध में आवाजें उठने लगीं. ट्राटस्की इसकी संभावनाएं पहले ही व्यक्त कर चुका था. उसने अभिजात्य वर्ग के हाथों में सत्ताशक्ति सिमटते जाने पर चिंता भी व्यक्त की थी. लेकिन सोवियत राजनीति पर स्टालिन के प्रभाव के कारण वह इससे अधिक कुछ कर पाने में असमर्थ था. स्टालिन के नेतृत्व में सोवियत सत्ता निरंकुश राजतंत्र में सिमटती जा रही थी. लोगों के राजनीतिक अधिकार सीमित कर दिए गए थे. यह स्थिति ख्रुश्चेव के शासन में संभल सकी.

ओमप्रकाश कश्यप

इकीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद की प्रासंगिकता

कुछ देर के लिए मार्क्स को एक सरल रेखा मान लिया जाए तो पूरी दुनिया, उसके दोनों तरफ बंटी मिलेगी. एक दिशा में मार्क्स के समर्थक होंगे, जिनके लिए मार्क्स का एकएक शब्द पवित्र और बौद्धिक चेतना की धरोहर है. वे मार्क्स के नाम पर, उसके विचारों के लिए अपने खून का एकएक कतरा बलिदान करने को तत्पर होंगे. दूसरी ओर मार्क्स के आलोचक हैं. जिनके लिए मार्क्स एक दुर्भावना, एक जिद, एक नासमझीभरा, अड़ियल और प्रतिगामी विचार है. हाल ही में बीबीसी रेडियो सेवा द्वारा ब्रिटेन के सर्वाधिक सम्मानित और प्रतिभाशाली दार्शनिकों का सर्वे कराया गया. उस सर्वे में साम्यवादी मार्क्स ख्याति के मामले में सबसे ऊंचे पायदान पर था. दार्शनिक के रूप में दुनियाभर में पहचाने वाले नाम यथा प्लेटो, अरस्तु, कांट, डेविड ह्यूम, देकार्त, जान ला॓क जैसे विचारक ख्याति के मामले मे उसके आसपास भी नहीं ठहरते. हीगेल मार्क्स का गुरु, जिससे उसने भौतिक द्वंद्ववाद का सिद्धांत ग्रहण किया था, आश्चर्यजनकरूप से इस सूची में कहीं भी नहीं है. और तो और मार्क्स के समकालीन प्रतिभाशाली दार्शनिकों में से एक भी इस सूची में स्थान पाने में असमर्थ रहा है. आखिर ऐसी कौनसी बात है, जो मार्क्स को अपने समकालीन और पूर्ववर्ती विचारकों से अलग सिद्ध करती है. मार्क्स ने एक साथ धर्म, दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास की गवेषणाएं की हैं. मगर मार्क्स खुद क्या है? दार्शनिक अथवा अर्थशास्त्री? ये सामान्य जिज्ञासा से जुड़े कुछ जरूरी प्रश्न हैं. हालांकि बहुतसे लोगों के लिए मार्क्स एक खलनायक भी है, जो अपने विचारानुकूल समाज के गठन के लिए खुल्लमखुल्ला हिंसा का सहारा लेता है. मगर वे भूल जाते हैं कि सामाजिक परिवर्तन के लिए मार्क्स द्वारा हिंसा का समर्थन उस तरह से नहीं है, जैसे कि पहले राजामहाराजा अपनी सनक में पड़ोसी राजा पर हमला बोल देते थे. मार्क्स की हिंसा मर्यादित है. वह समाज के बड़े वर्ग के कल्याण के लिए विशेष परिस्थितियों में जब बाकी सभी उपाय असफल सिद्ध हो चुके हों, केवल बुर्जुआ वर्ग को सत्ताच्युत करने के लिए हिंसा का समर्थन करना पसंद करता है. दूसरे पूंजीवादी चंगुल से मुक्ति के लिए हिंसा का समर्थन पेरिस कम्यून की असफलता से पहले की घटना है. पेरिस कम्यून की असफलता के बाद उसके विचारों में बदलाव आया था.

मार्क्स अपने समय की सबसे विवादित हस्तियों में से एक है. उसका रचनात्मक अवदान केवल अकादमिक चिंतनलेखन तक सीमित नहीं था. उसके लेखन में संघर्ष की लौ थी. हालांकि श्रमिकों के पक्ष में आवाज उठाने वाला वह पहला दार्शनिकलेखक नहीं था. उससे पहले रूसो जनसामान्य का सबसे बड़ा पैरोकार बनकर उभरा था. राबर्ट ओवेन, विलियम किंग, जोसेफ ब्लेंक आदि दार्शनिक चिंतक भी पूंजीवादी शोषण से उबरने के लिए श्रमिकों मजदूरों को और अधिक सुविधा दिए जाने की मांग कर चुके थे. इसी श्रेणी में चार्टिस्ट आंदोलनकारियों का नाम भी लिया जा सकता है, जिन्होंने जनाधिकारिता के लिए बड़े पैमाने पर वर्षों तक चलने वाला संघर्ष किया था. जनसाधारण के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में 1838 में एफ. ओ’क्रोनर एवं विलियम ला॓वेट के नेतृत्व में चले वर्षों लंबे संघर्ष में सैकड़ों चार्टिस्ट आंदोलनकर्मियों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया था. हजारों को निष्कासन की सजा मिली थी.

स्मरणीय है कि सोहलवीं शताब्दी में आरंभ हुए प्रौद्योगिकीकरण की रफ्तार उनीसवीं शताब्दी आतेआते अत्यधिक तीव्र हो चुकी थी. परंपरागत शिल्पकारों पर मशीनीकरण की मार तथा उनके संरक्षण के लिए सरकार की ओर से कोई योजना न होने के कारण ब्रिटेन समेत प्रायः सभी यूरोपीय देशों में बेरोजगारी का संकट बढ़ा था. गांवों में स्थिति और भी शोचनीय थी. क्योंकि कारखानों में बने सस्ते माल की आमद से स्थानीय उद्योगधंधे पूरी तरह चौपट हो चुके थे. भीषण गरीबी के कारण मातापिता अपने बच्चों को उन नारकीय परिस्थितियों में काम पर भेजने के लिए विवश थे, जहां सामान्य स्थितियों काम करने की उनकी हिम्मत भी जवाब दे जाती थी. बाकी मजदूरों, कामगारों यहां तक कि साधारण नौकरीपेशा लोगों की हालत भी संतोषजनक नहीं थी. काम के अत्यधिक बोझ के कारण वे सदैव तनाव में रहते थे. इससे उनकी कार्यकुशलता नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई थी. सरकार और प्रशासन पूंजीपतियों के सतत दबाव में रहते थे, इसलिए उनसे मनचाहे फैसले करा लेना, स्थानीय पूंजीपतियों के लिए बहुत आसान था. पूंजी का असमान वितरण, भीषण बेरोजगारी, नगरों में पर्यावरणसंबंधी लगातार बढ़ती समस्याएं आदि अनेक ऐसे कारण थे, जिन्होंने विचारकों के एक बड़े वर्ग को उद्वेलित किया था. पूंजीवाद प्रेरित औद्योगिकीकरण के विरोध में अनेक आंदोलन भी हो चुके थे, जिनमें लाखों श्रमिकों ने सहभागिता की थी. जिन्हें समाज के लाखों श्रमिकों का समर्थन मिला था.

पूंजीवादी शोषण से उबरने के लिए विद्वानों के अलगअलग सुझाव थे. विचारकों का एक दल सहकारिता के माध्यम से पूंजीवादी उत्पीड़न से उबरने का सपना देख रहा था. इस वर्ग में विलियिम किंग, राबर्ट ओवेन फ्यूरियर जैसे विचारक थे. साहित्यिक प्रेरणाएं भी परिवर्तनकारी आंदोलनों के साथ थीं. उनमें सबसे अग्रणी थे, उस समय के महान उपन्यासकार चाल्र्स डिकेन्स, जिन्होंने अपने उपन्यास ‘दि क्रिसमस कैरोल’ में ब्रिटिश समाज में पनप चुके सूदखोर वर्ग का सशक्त चित्रण किया था. रिकार्डो और एडम स्मिथ आदि अर्थशास्त्रियों का मानना था कि सिर्फ औद्योगिक समृद्धि द्वारा गरीबी से लड़ा जा सकता है. सरकार को चाहिए कि उत्पादन और विपणन से जुड़े मामले पूंजीपतियों और उद्यमियों के हवाले कर दे, ताकि वे परिस्थितियों के अनुकूल निर्णय लेने में सक्षम हों.

संगठित आंदोलन को मुक्ति का आधार मानने वाले विचारकों के भी दो अलगअलग वर्ग थे. उनमें से एक धड़ा सहकारिता आंदोलन के समर्थक विद्वानों एवं कार्यकर्ताओं का था, जो सफलता के लिए सहयोग को स्पर्धा से अधिक कारगर और उपयोगी मानते थे. दूसरे धड़े के विचारक मानते थे कि पूंजीवाद से मुक्ति के लिए पूंजीपतियों को कमजोर करना जरूरी है. यह केवल संगठित ताकत के बल पर संभव है. इसके लिए हिंसा का सहारा लेने में भी उन्हें संकोच नहीं था. प्रूधों, मार्क्स, ब्लेंक, बकुनाइन, ऐंगल्स आदि विद्वान पूंजीवाद के उग्र विरोधियों में आते थे.

उल्लेखनीय है कि मार्क्स से पहले ही हीगेल द्वंद्ववाद की सार्थकता को स्थापित कर चुका था. विचारक उसके विचारों की भांतिभांति से व्याख्या कर रहे थे. बल्कि उसके विचारों की व्याख्या के लिए ही दार्शनिकों के अलगअलग गुट बन चुके थे. ऐसे में मार्क्स ने द्वंद्ववाद की विशुद्ध भौतिकवादी दृष्टिकोण से विवेचना कर, सत और असत् का भौतिकीकरण कर दिया. मार्क्स के दर्शन में श्रमिक वर्ग ‘सत्’ का पर्याय था, जो अपने श्रमकौशल के आधार पर उत्पादन कार्य में प्रमुख भूमिका निभाता है. जो सही मायने में उत्पादक है. पूंजीपति वर्ग ‘असत्’ का प्रतीक है, जो दूसरों के श्रम को अपना बताकर मुनाफे का अधिकांश हिस्सा स्वयं हड़प जाता है, जिससे धनी लगातार धनवान तथा गरीब लगातार अधिक गरीब होता जाता है. परिणामस्वरूप समाज में अस्थिरता और असमानता बढ़ती है.

समाज में व्याप्त आर्थिक वैषम्य से निपटने के लिए भी विद्वानों के अलगअलग विचार थे. एक वर्ग का मानना था कि समाज में आर्थिक समानता स्थापित करना सरकार का दायित्व है, अतः सरकार को श्रमिकों के हितों की सुरक्षा हेतु समुचित कानून बनाने चाहिए. दूसरे वर्ग का विश्वास था कि पूंजीवाद का सामना केवल संगठित शक्ति द्वारा ही संभव है. इस वर्ग का सुझाव था कि श्रमिकों, छोटे उद्यमियों और व्यवसायियों को अपनेअपने संगठन बनाकर सहकार के माध्यम से पूंजीवाद के विरुद्ध सार्थक समर छेड़ा जा सकता है. इनसे अलग एक वर्ग कतिपय उदारपंथी विचारकों का था, उनका मानना था कि मनुष्यता के नाते पूंजीपति को स्वयं आगे आकर समाज के बड़े वर्ग के पक्ष में अतिरिक्त संपत्ति का परित्याग करना चाहिए. बहुत बाद में गांधी जी ने इसी भावना को ‘ट्रस्टीशिप’ के सिद्धांत के रूप में प्रकट किया था.

मार्क्स का विचार था कि स्वार्थी पूंजीपतियों को मनाना, उन्हें नैतिक जीवन जीने के लिए प्रेरित करना आसान नहीं है. ऐसे में शोषण से मुक्ति का एक ही उपाय है कि श्रमिकवर्ग संगठित होकर स्वार्थी पूंजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष की घोषणा कर दे. जिस दौर में मार्क्स यह घोषणा कर रहा था, वही दौर अस्मितावादी आंदोलन के उदय का भी था. फ्रांस में लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी थी. उसकी देखादेखी यूरोप के अन्य देशों में भी लोकतंत्र की मांग जोर पकड़ रही थी. ऐसे में मार्क्स का दर्शन लोगों को पे्ररित करने के लिए पर्याप्त था. अतएव जहांजहां मशीनीकरण जोर पकड़ चुका था, जहांजहां सामंत और जागीरदारी प्रथा शेष थी, वहां पर श्रमिक वर्ग माक्र्सवादी विचारधारा के अनुरूप संगठित होता चला गया. दूसरी ओर अमेरिका और यूरोप के दिन देशों में पूंजीवाद अपनी जड़ जमाए था, वहां मार्क्सवादी विचारधारा के ठीक विपरीत प्रतिक्रिया हुई. मीडिया और सरकार के सहयोग से वहां मार्क्स के कटुआलोचकों का वर्ग पनपा. मगर इस द्वंद्वात्मकता में मार्क्स की चर्चा दोनों ही पक्षों में होती रही.

मार्क्स के विचारों की वर्तमान संदर्भों में क्या प्रासंगिकता है! उसको अर्थशास्त्री माना जाए या दार्शनिक? या फिर राजनीतिक चिंतक? मार्क्स की ख्याति एक दार्शनिक के रूप में भी रही है. हालांकि उसका दर्शन के क्षेत्र में विशेष मौलिक योगदान बहुत कम है. धर्म को लेकर आलोचना फायरबाख और बायर से प्रभावित है. द्वंद्ववाद पर हीगेल उससे पहले ही गंभीर चिंतन कर चुका था, और वह दर्शनशास्त्र की प्रामाणिक धारा के रूप में मान्य हो चुका था. तत्वमीमांसा से वह कोसों दूर था. तो फिर वह कौनसी बात है, जो मार्क्स को जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों के बीच एकाएक जनता का नायक बना देती है. मार्क्स मूल रूप से अर्थशास्त्री था. बल्कि कहना चाहिए कि एडम स्मिथ के बाद मार्क्स ही वह अर्थशास्त्री है, जिसने पूरी दुनिया को प्रभावित करने में सफलता प्राप्त की थी. सच तो यह है कि मार्क्स का अर्थचिंतन एडम स्मिथ के मुक्त अर्थतंत्र को उसका खरा जवाब था. एडम स्मिथ ने अपने सिद्धांत ‘लेजेज फेयर’ द्वारा सरकारों से पूंजीपतियों के रास्ते से हट जाने का आवाह्न किया था. कहा था कि उद्योगों से सरकारी नियंत्रण हटाओ. पूंजीपतियों को निर्बंध ‘अपना काम करने दो.’

एडम स्मिथ की खुली अर्थव्यवस्था के विचार की आलोचना करते हुए मार्क्स ने कहा था कि औद्योगिक उदारता श्रमशोषण के दम पर ही संभव है. नियंत्रणहीन पूंजीवाद को उसने पूंजी का अराजक खेल माना, जिसमें उद्योगपतियों की भले चांदी कटे, मगर मजदूरों का शोषण बढ़ता ही जाता है. स्पर्धा में बने रहने के लिए पूंजीपति वर्ग मजदूरों की मजदूरी कम करता जाता है. कम वृत्तिका और महंगाई मिलकर मजदूरों और कामगारों के जीवन को उत्तरोत्तर कठिन बनाती है. नई प्रौद्योगिकी सिर्फ अमीरों का बैंक बैलेंस बढ़ाती है. और मजदूर की गरीबी, बेबसी तथा दुर्दशा. स्मिथ के कथन कि ‘उन्हें अपना काम करने दो’ के बदले में मार्क्स का कहना था कि ‘श्रमिकों को उनका हक दो’. हालांकि वह यह भी मानता था कि स्वार्थ में डूबे पूंजीपति श्रमिकों को उनका अधिकार आसानी से देने को तैयार नहीं होंगे. इसलिए वह संगठित विरोध का हिमायती था. उसने आवाह्न किया था कि शोषणकारी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ. तुम्हारे पास हुनर है. काम करने का सामथ्र्य, इच्छाशक्ति और लग्न है. साथ में वर्षों का अनुभव भी. अपनी ताकत, संगठन की ताकत, अपने कौशल और क्षमताओं को पहचानो, एकजुट होकर उत्पादनव्यवस्था को अपने हाथ में ले लो. कौटिक हाथ मिलकर अपने भविष्य का स्वयं निर्माण करो. उत्पादन का माध्यम बनने से, दूसरों के लिए पसीना बहाने से अच्छा है कि स्वयं उत्पादक बनो. आगे बढ़ो. तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है, मगर जीतने के लिए पूरी दुनिया पड़ी है. कफ और बलगम भरी छाती से निकले मार्क्स के ये भरभराते शब्द विश्वभर के कोटिक श्रमिकों के कंठ से निकली आवाज बन गए. ईसाइयों ने इन शब्दों को पवित्र बाइबिल की वाणी माना, हिंदु ने गीता की अमर सूक्तियां. मुस्लिमों इन्हें कुरआन की महान आदेश मानकर संगठित होने लगे. मार्क्सवाद जनमन की भाषा बन गया.

इकीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद की प्रासंगिकता क्या है? बाजारवाद के इस दौर में जब पूंजीवाद बेलगाम और करीबकरीब अराजक हो चुका है, मार्क्स के विचार कितनी दूर तक हमारा साथ दे सकते हैं? इस बारे में परस्परविरोधी मत सुने जा सकते हैं. मार्क्सवाद के आलोचकों ने बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही मान लिया था कि उसका पतन अवश्यंभावी है. मार्क्सवाद के सबसे बड़े गढ़ सोवियत संघ का बिखरना उन्हें अपने निष्कर्ष पर मुहर लगने जैसा प्रतीत होता है. उन्होंने बारबार कहा था, बल्कि आज भी यही दावा करते हैं कि मार्क्सवाद के दिन लद चुके हैं. समाजवाद का सपना बीते जमाने की बात हुई. उनके अनुसार यह जानकर भी जो उससे उम्मीद लगाए बैठे हैं, वे स्वप्नदृष्टा, कल्पनाजीवी हैं. उन भोले बच्चों की तरह हैं जिनकी दुनिया लालीपाप में समाई होती है. पर क्या संभव है किसी विचार का यूं ही एकाएक मर जाना?

यदि कोई पेरिस कम्यून की असफलता या सोवियत संघ के बिखरते जाने जैसी घटनाओं से ही उस विचार को अप्रासंगिक और समयबाह्यः मान बैठे और पूंजीवाद की सार्वकालिक जीत का दावा करने लगे तो यह उसकी नादानी ही कही जाएगी. इसलिए कि साम्यवाद नैतिकता और आदर्शवादी पहचान से युक्त एक अवस्था है, जिसकी संकल्पना लोकगीतों, धार्मिकसामाजिक आख्यानों, कविलेखकोंसाहित्यकारों के मानवतावादी सोच से प्रेरणा पाती है. पेरिस कम्यून में श्रमिक संगठनों और नागरिक सेना की जीत के फलस्वरूप जो अल्पकालिक सरकार बनी थी, उसके अपने मतभेद और आपसी अविश्वास थे. साथ में क्रांति का श्रेय लेने की, दूसरों पर छा जाने की आदिम लालसा भी थी. जो एक तरह से प्राचीन साम्राज्यवाद, सामंतवाद, कुलीनतावाद, ब्राह्मणवाद, यहां तक कि पूंजीवादी वर्चस्व का पर्याय थी.

क्रांति के जुनून में उन्होंने सबकुछ उलटपलट तो दिया था, जोशजोश में जनोन्मुखी व्यवस्था कायम करने की शुरुआती कोशिश भी की. किंतु आपसी मतभेद और तनाव के कारण वे ऐसा कोई तंत्र विकसित करने में असफल सिद्ध हुए थे, जो साम्यवादी मान्यताओं के अनुरूप एक दीर्घगामी व्यवस्था के गठन में सहायक बनता. पेरिसक्रांति के दो प्रमुख सूत्रधारों, मार्क्स और बेकुनिन के मतभेद तो जगजाहिर हैं ही. मार्क्स को लगता था कि क्रांति की सफलता के बाद बेकुनिन अपनी राजनीतिक ताकत को बढ़ाना चाहता है. जबकि बेकुनिन का मानना था कि मार्क्स की बढ़ती हुई भूमिका पेरिस में यहूदीवाद को बढ़ावा देगी. इसी प्रकार के मतभेदों के चलते साम्राज्यवादीपूंजीवादी ताकतों के मनसूबों को भांपने में असफल रहे थे. परिणाम यह हुआ था कम्यून पर फिर सशस्त्र सेनाओं का हमला हुआ और राजशाही दुबारी सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हुई. व्लादिमिर लेनिन के पेरिस कम्यून की असफलता के कारणों को चिह्नित किया है. एक समाचारपत्र में लिए लिखे गए लेख ‘पेरिस कम्यून का पाठ’ में उसने लिखा था कि कम्यून के नेताओं की

केवल दो बड़ी गलतियों ने उस दमदमाती ऐतिहासिक विजय के लाभों पर पानी फेर दिया. सच तो यह है कि सर्वहारा वर्ग के नेता आधे रास्ते पर ही आराम फरमाने लगे थे. अवैद्य कब्जाधारकों की संपत्ति का अधिग्रहण करके न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के करने के बजाय वे कुछ लोकप्रिय राष्ट्रीय मुद्दों के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास करते रहे. बैंक और ऐसे ही दूसरे अन्य संस्थानों का अधिग्रहण, जो बहुत जरूरी था, नहीं किया गया. सर्वहारा वर्ग के शासकों की दूसरी बड़ी भूल उनकी अतिशय दयालुता थी, जिसके कारण अपने दुश्मनों को कुचलने के बजाय वे उनके साथ दयालुतापूर्ण व्यवहार कर, उनके हृदयपरिवर्तन की उम्मीद करते रहे. जनक्रांति में सीधी सैन्य कार्रवाही की उपयोगिता को उन्होंने बहुत कम करके आंका था. बजाय इसके कि पेरिस के पूर्वशासकों से अपनी सुरक्षा के ठोस और पुख्ता इंतजाम करते, उन्होंने उन्हें आराम से दुबारा ताकत बटोरने का पूरापूरा अवसर दिया, जो मई महीने के भीषण खूनखराबे का कारण बना.’

 

कुछ ऐसा ही रूस में हुआ था. पेरिस क्रांति की असफलता ने मार्क्स को अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार का अवसर दिया था. सशस्त्र विद्रोह से उसका विश्वास घटा था. राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक अधिनायकवाद से दीर्घकालिक मुक्ति के नए रास्तों की खोज का सुफल ‘दि कैपीटल’ के रूप में सामने आया था, जिसे उसने इतिहास, दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र, विज्ञान आदि गहन अध्ययन के बाद लिखा था. पुस्तक में उसने वर्गहीन समाज की परिकल्पना की थी. स्मरणीय है कि पेरिस कम्यून को मार्क्स ने ‘सर्वहारा का अधिनायकवाद’ की संज्ञा दी थी. वह उसको साम्यवाद की स्थापना की दिशा में पहला चरण मानता था. साम्यवाद की परिकल्पना इस सोच पर आधारित थी कि द्वंद्व की स्थिति विपरीत शक्तियों में ही संभव है. उनसे बचाव का एक ही उपाय है कि समाज में शक्तिकेंद्र ही न रहें. इसलिए श्रमिक वर्ग सत्ता को हाथ में ले. मगर सत्ता हस्तांतरण से ही उसका काम पूरा नहीं हो जाता. उसके लिए आवश्यक है कि समाज में वर्गहीनता की स्थापना के प्रयास भी साथ ही आरंभ कर दिए जाएं. एक समरस समाज की स्थापना, साम्य की स्थापना उनका ध्येय हो, ऐसा उसने कहा था.

रूस में जो हुआ, वह क्रांति का पहला चरण था. वहां लेनिन के नेतृत्व में जारशाही के विरुद्ध संघर्ष का आवाहन किया गया था. जिसमें मजदूर वर्गों को जीत मिली और जारशाही के स्थान पर श्रमिकों की सरकार अस्तित्व में आई. अपने दायित्व को समझते उसने समाज के पुननिर्माण पर जोर दिया. उसका सुखद परिणाम भी मिला. क्रांति के समय रूस की हालत भारत से कहीं बदतर थी. देखते ही देखते वहां विकास का ऐसा दौर चला कि पचाससाठ वर्षों में उसने स्वयं को विश्व की दूसरी महाशक्ति के रूप में स्थापित कर लिया. बस यही उसकी विड़बना थी. क्रांति का पहला चरण पार कर सत्ता पर अधिकार जमा लेने के बाद उसकी कोशिश द्वंद्व की समस्त संभावनाओं को मेटने के लिए जहां वर्गहीन समाज की स्थापना करना था, वहीं उसने खुद को द्वंद्व में झोंकना प्रारंभ कर दिया. सोवियत सरकार असल में तलवार से तराजू का काम लेना चाहती थी. घोषित रूप उसका लक्ष्य साम्यवाद था, मगर असल में थी विरोधियों को परास्त कर, नंबर एक पर बने रहने की कामना. वह दुहाई न्याय की देती थी, मगर अपने नागरिकों के खूनपसीने की कमाई को, हथियारों और अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को विस्तार देने पर खर्च कर रही थी.

इन परिस्थितियों में भी रूस लंबे समय तक साम्यवादी बना रहा तो इसलिए कि मार्क्स ने अपने समर्थक लेखकोंबुद्धिजीवियों का बड़ा वर्ग पैदा किया था, जिनमें गोर्की, चेखव, टालस्टाय, दोस्तोयवस्की आदि महान साहित्यकार सम्मिलित थे. जो साम्यवादी विचारधारा के अनुरूप लगातार सारगर्भित और प्रतिबद्ध लेखन कर रहे थे. इससे वहां के जनमानस में साम्यवाद के प्रति आस्था बनी रही. बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रतिबद्ध साहित्य की चमकदमक खासकर उसमें नए चेहरों की आमद घटती चली गई. वहीं सरकार ने खुद को और भी महत्त्वाकांक्षी बना लिया था. साम्यवादी नीतियों के अनुरूप वर्गहीन समाज की स्थापना पर जोर देने के बजाय, सरकार अपने संसाधन पूंजीवाद के पर्याय बन चुके अमेरिका को परास्त करने पर तुली हुई थी. यह मजदूरों के दम पर बनी सरकार का वैभव प्रेम था. ब्राजील के दर्शनशास्त्री पाउलो फ्रेरा ने बड़े काम की बात कही है. ‘उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र’ में उसने लिखा है कि आमूल परिवर्तन के पहले दौर में, जिसको परिवर्तन की अपरिपक्व अवस्था भी कहते हैं, उत्पीड़ित अवसर मिलते ही वही करता है, जैसा उसने उत्पीड़क को करते हुए देखा है. इस अवस्था में उत्पीड़क और उत्पीड़ित की सिर्फ भूमिकाएं और सिर्फ चेहरे बदलते हैं, स्थितियां नहीं. इसलिए परिवर्तनकामी शक्तियों को, उन शक्तियों को समाज में वास्तविक परिवर्तन की चाहत रखती हैं, प्रारंभिक सफलता के साथ ही रुक नहीं जाना चाहिए. बल्कि आमूल परिवर्तन की कोशिश पहली सफलता के साथ ही आरंभ कर देनी चाहिए. सोवियत संघ के शासकों से भी यही अपेक्षित था कि वे साम्राज्यवादी गतिविधियों में उलझने के बजाय एक नीतिआधारित समाज की स्थापना पर जोर देते. ताकि वर्गहीन समाज की स्थापना संभव हो सके.

रूसी शासक यह भूल चुके थे कि जनता की सोचने की शक्ति भले ही धीमी हो, मगर उसमें छोटे वैचारिक परिवर्तन भी दूरगामी महत्त्व के सिद्ध होते हैं. पूंजीवादी सरकार में हथियारों के निर्माण से लेकर शोध तक का सारा काम पूंजीपति करते हैं. इसके लिए वे श्रमिकों का ऐसे ही शोषण करते हैं, जैसे कि बाकी अन्य उद्योग. लेकिन उनमें काम करने वाला श्रमिक बिना किसी वैचारिक प्रतिबद्धता के, सिर्फ आजीविका की खोज में उनके साथ जुड़ता है. असहमति अथवा असंतुष्टि की अवस्था में वह जब चाहे तब उसको छोड़कर अन्य उद्योग के साथ जुड़ सकता है. कानून उसके इस अधिकार की रक्षा करता है. हालांकि दूसरी जगह भी उसका शोषण होता है, और भौतिक स्थितियां उसके लिए बहुत अधिक बदलती भी नहीं है. तो भी एक उत्पादक को छोड़ आने का जो संतोष है, साथ ही चयन का आनंद और इसके पीछे निहित अस्मिताबोध श्रमिक का अपना और निजी होता है. इससे अधिक वह सामान्यतः अपेक्षा भी नहीं करता. इससे उसका आक्रोश एक सीमा से बाहर नहीं जा पाता.

सोवियत संघ में यद्यपि उपभोग को बढ़ावा देने वाली प्रौद्योगिकी को प्रतिबंधित किया गया था. मगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हथियारों की स्पर्धा और उसमें आगे निकलने की होड़ में वहां की सरकारें राष्ट्रीय आय का बड़े पैमाने पर निवेश कर रही थीं. इस होड़ का नागरिकों के वास्तविक कल्याण से कोई लेनादेना नहीं था. इससे वहां सामाजिक विकास की रफ्तार उतनी नहीं पहुंच पाई थी, जितनी कि साम्यवादी व्यवस्था में अपेक्षित थी. सोवियत नागरिक स्वयं को भावनात्मक रूप से ठगा हुआ महसूस कर रहे थे. इसपर टिप्पणी करते हुए सुविख्यात चिंतक किशन पटनायक ने लिखा था‘आधुनिकतावादी दिमाग, आधुनिक टेक्नालाजी(यंत्रेश्वर) के बारे में इतना ज्यादा अंधविश्वासी है कि उसके विकल्प की संभावनाओं पर सोच नहीं पाता. एक वैकल्पिक यंत्रप्रणाली की तलाश वह कर नहीं सकता. सोवियत रूस में यही हुआ. रूसी कम्युनिस्टों ने कुछ प्रकार की, खासकर उपभोग की टेक्नोलाॅजी को बड़े पैमाने पर प्रतिबंधित किया. लेकिन वैकल्पिक टेक्नोलाॅजी की तलाश के लिए उनका दिमाग तैयार नहीं था. अंततोगत्वा उनके दिमाग पर आधुनिकता का दबाव इतना गहरा हुआ कि रूस साम्यवाद छोड़ने को तैयार हो गया.’

सोवियत संघ में समस्त उत्पादन व्यवस्था श्रमिक संगठनों के और अंततः राज्य के अधीन थी, जिसका उपयोग उनके नेता अपने राजनीतिक मंसूबों को पूरा करने के लिए करते थे. आम मजदूर के लिए कुछ खास नहीं बदला था. उसके लिए शोषणकारी स्थितियों में अपेक्षित सुधार हो ही नहीं पाया था. इसलिए उस व्यवस्था से उनका हताश होना स्वाभाविक ही था. ऊपर से तयशुदा उत्पादन करना मजबूरी. यही कारण है कि वहां श्रमिकों के मन में व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ता ही गया. परिणाम सोवियत संघ के विघटन के रूप में सामने आया. बावजूद इसके सोवियत संघ के बिखराव को, मानवाधिकार के पतन के रूप में देखना अनुचित होगा. बस इतना कहा जा सकता है कि सोवियत नेताओं की निजी महत्त्वाकांक्षाओं और अदूरदर्शिता के कारण समाजवाद का प्रयोग वहां उतनी अपेक्षा के साथ सफल न हो सका.

दरअसल मार्क्सवाद की मौत का दावा वे करते हैं जो मानते हैं कि साम्यवाद का उद्भव मार्क्स के जन्म अथवा उसके विवेकीकरण के बाद की घटना है. जबकि ऐसा नहीं है. मार्क्स से पहले भी साम्यवाद था. लोग उपलब्ध सुविधाओं और संसाधनों का मिलजुल कर उपयोग करते थे. स्वयं मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा इसी मान्यता के आधार पर प्रस्तुत की है. मार्क्सवाद का अभिप्राय अर्थसत्ता का विकेंद्रीकरण, धर्मसत्ता का विलोपीकरण तथा राजसत्ता का लौकिकीकरण है. ये विचार मार्क्स से ढाई हजार वर्ष पहले जन्मे प्लेटो ने भी व्यक्त किए थे. प्रत्येक धर्म अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए इसी प्रकार की लोककल्याणकारी प्रार्थनाओं की अपने विस्तार की सीढी बनाता है. दूसरे शब्दों में मार्क्स के आलोचक वे हैं जो गलत तरीके से संसाधनों पर अधिपत्य जमाए हैं. जो सारा का सारा मुनाफा स्वयं लील जाना चाहते हैं. जो अपनी पूंजी और ताकत के दम पर वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं. जिन्हें दूसरों के श्रमकौशल पर जीने की, परजीवी होने की आदत पड़ चुकी है. मार्क्स के आलोचक वे हैं, जिन्होंने अपनी संपन्नता दूसरों के श्रम पर अर्जित की है. इसके कारण उन देशों के समाज में भारी आर्थिक असमानता है. ऐसे उदाहरण पूंजीवादी देशों में हर जगह हैं.

अमेरिका का ही उदाहरण लें, वहां पूंजीवाद के बाद स्थिति कितनी बिगड़ी है, वह सामने भले ही न आ पाती हो, क्योंकि जनता और बाकी शक्तियों के बीच पुल की भूमिका निभानेवाला मीडिया, पूंजीपतियों का पक्ष लेता है, और उनके हितों के अनुरूप खबरों की मार्केटिंग करता है. जबकि हालात कितने विकट हैं, यह देखकर मन संताप से भर जाता है. बेलगाम पूंजीवाद समाज को सर्वाधिक अमीर और भीषण गरीब लोगों में बांट रहा है, जो अमीर है, वही उत्पादक है. गरीब के श्रम का उपयोग कर वह उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन करता है. गरीब प्राप्त वृत्तिका का बड़ा हिस्सा उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद पर निवेश करता है. मजदूरी के रूप में उसको सिर्फ उतना ही मिल पाता है, जिससे वह अगले लिए काम पर जा सके. कई बार तो प्राप्त वृत्तिका उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी अपर्याप्त सिद्ध होती है.

एक रिपोर्ट के अनुसार 1994 में अमेरिका की 500 प्रमुख कंपनियां उस देश की कुल 92 प्रतिशत आमदनी पर कब्जा जमाए थीं, जबकि विश्वस्तर की 1000 सबसे बड़ी कंपनियों की सालाना आमदनी आठ अरब डालर है, जो दुनिया के कुल लाभ का एक तिहाई है. अमेरिका में ही केवल आधा प्रतिशत सर्वाधिक धनी कंपनियों के अधिकार क्षेत्र में वहां की 50 प्रतिशत संपत्ति आती है. यही नहीं अमीरों की अमीरी निरंतर बड़ती जा रही है. अमेरिका की सबसे धनी एक प्रतिशत जनसंख्या, वहां की राष्ट्रीय आय में 1978 में जहां केवल 17.6 प्रतिशत हिस्सेदारी रखती थी, वह मात्र दस वर्ष अर्थात 1989 में बढ़कर 36.3 प्रतिशत हो चुकी थी. स्मरणीय है कि पश्चिमी समाज में यही वह समय है, जिसे पूंजीवाद का सबसे सुनहरा दौर माना जाता है.

पूंजीवादी अमेरिका में पूंजी का कुछ हाथों में लगातार सिमटते जाना एक राष्ट्रीय समस्या बन चुका है. 2007 में वहां आई भीषण मंदी का खेल हम देख ही चुके हैं, जिसमें पचास से ऊपर भीमकाय बैंक दिवालियेपन का शिकार हुए थे. उससे पहले वहां बड़ी कंपनियों द्वारा छोटे उद्यमों के अधिग्रहण का दौर चला था, जो 1995 अपने चरमबिंदू पर था. मनोरंजन क्षेत्र की दिग्गज कंपनियां वाल्ट डिजनी, वाशिंगटन हाउस, दवा उद्योग की ग्लैक्सो, कागज उद्योग की स्का॓ट पेपर अपनेअपने क्षेत्र की वे महारथी कंपनियां थीं, जिन्होंने अपनी प्रतिद्वंद्वी कंपनियों को एकाएक निगल लिया था. चेज मेनहट्टन और केमीकल बैंक ने उसी वर्ष मिलकर, 297 अरब डा॓लर की भारीभरकम पूंजी के साथ, अमेरिका के सबसे बड़े बैंकिंग समूह की आधारशिला रखी थी. पूंजीवाद के चरमोत्कर्ष काल में सबकुछ चमकतादमकता हो, यह बात भी नहीं है. बहुत कुछ ऐसा भी था जो चमचमाती रोशनी के पीछे गहराये अंधेरे की हकीकत बयान करता था. अधिग्रहण के उस दौर में छोटी मछलियां आराम से बड़ी मछलियों का शिकार बन रही थीं. उसी वर्ष मित्शुबिशी बैंक और बैंक आफ टोकियो जो दुनिया के सबसे बड़े बैंकों में से थे, दिवालिया घोषित किए गए थे. अधिग्रहण और विलय का यह खेल यूरोपीय देशों में भी फैला और ब्रिटेन, स्विटजरलेंड, जर्मनी आदि अनेक देशों में पूंजी के बड़े मगरमच्छ छोटी मछलियों को निगलने लगे. इससे मार्क्स और ऐंगल्स की यह भविष्यवाणी सच सिद्ध हो रही थी कि पूंजी का सहज स्वभाव केंद्र की ओर खिसकते जाने का होता है. इस प्रकार वह कुछ समूहों तक सिमटकर रह जाती है. अधिग्रहण और विलयीकरण के इस खेल में हर बार कुछ कंपनियां बंद कर दी जाती हैं, जिसका कुफल उनमें कार्यरत श्रमिकों को बेरोजगारी के रूप में भोगना पड़ता है. स्पष्ट है कि

केंद्र की ओर पूंजी का सतत जमाव उत्पादन में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं करता, बल्कि इसका उल्टा ही होता है.’

बेरोजगारी का जिक्र हुआ है तो मार्क्स को एक बार पुनः याद करना पड़ेगा. कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो में उसने कहा था कि बुर्जुआ वर्ग लंबे समय तक सत्ता पर काबिज नहीं रह पाएगा. इसलिए कि वह गरीब और विपन्न वर्गों को अपने दम पर अपने राज्य में सहने की सहूलियत नहीं देता, बल्कि उनके बल पर अपने लिए सुविधाओं का अंबार लगा लेता है. इससे श्रमिक वर्ग के मन में आक्रोश पैदा होता है, जो लगातार बढ़ता जाता है, जो एक दिन बुर्जुआ वर्ग के सत्ताच्युत होने का कारण बनता है. हालांकि पूंजीवादी देशों में ऐसी खबरें प्रायः छनछनकर ही सामने आ पाती हैं. पूंजीपतियों से अस्थिमज्जा प्राप्त मीडिया तथा उन्हीं के दम पर पलने वाली सरकारें, उनपर पर्दा डालने का काम करती हैं. 2007 में छाई मंदी से ठीक पहले पूंजीवाद के समर्थक अर्थशास्त्रीविचारक उदार आर्थिक नीतियों का गुणगान करते नहीं थकते थे. 1995-1996 के पूंजीवाद के सुनहरे दौर में जब बड़ी कंपनियां अपेक्षाकृत छोटी कंपनियों का अधिग्रहण कर अपने विस्तारवादी मंसूबों को अंजाम दे रही थीं, उस समय संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, वैश्विक बेरोजगारों की संख्या 12 करोड़ से भी अधिक थी. ये वे आंकड़े थे, जो पूंजीपतियों के आसरे फलनेफूलने वाले मीडिया ने दिए थे. वास्तविक स्थिति और भी भयावह एवं चिंताजनक है. यदि अस्थायी और ठेके पर अल्पावधि के लिए काम करने वाले कर्मचारियों को भी बेरोजगारों की श्रेणी में रख लिया जाए तो दुनिया के कुल बेरोजगारों की संख्या एक अरब से ज्यादा हो सकती है.

संयुक्त राष्ट्र की उस रिपोर्ट के अनुसार पश्चिमी यूरोप में बेरोजगारों की संख्या दो करोड़ से भी अधिक थी, जो वहां की कुल जनसंख्या का करीब 10.6 प्रतिशत हैं. यही हाल यूरोप के ‘लौहपुरुष’(स्ट्रांग मैन) कहे जाने वाले जर्मनी का था, वहां हिटलर के पतन के बाद पहली बार बेरोजगारों की संख्या में जबरदस्त वृद्धि हुई थी और वह एक झटके में पचास लाख को पार कर चुकी थी. इनमें भी सबसे अधिक आश्चर्यजनक जापान की हालत है. अपनी वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति से पूरे विश्व को चैंका देने वाले जापान में 1930 के बाद पहली बार बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गई. हालांकि सरकारी आंकड़े वहां तीन प्रतिशत बेरोजगारी की बात स्वीकारते हैं, मगर वास्तविक बेरोजारों की संख्या का, कुल जनसंख्या का आठ से दस प्रतिशत होना, चिंताजनक स्थिति है. बढ़ती बेरोजगारी ने इस बार उन क्षेत्रों को भी प्रभावित किया है, जो इससे पहले रोजगार की दृष्टि से अत्यंत सुरक्षित और लाभदायक समझे जाते थे. इनमें अध्यापक, नर्स, डाॅक्टर, बैंक कर्मचारी, वकील आदि सम्मिलित हैं, जो अपनी व्यावसायिक योग्यता के दम पर रोजगार पाते रहे थे. 2007 के बाद तो बेरोजगारी ने युवाओं की कमर ही तोड़ दी है. अमेरिका, यूरोप आदि के देशों में बैंकों और बड़े उद्योगों के बंद अथवा दिवालिया होने के बाद दुनियाभर के श्रमिकोंकामगारों को छंटनी का शिकार होना पड़ा. उनकी संख्या करोड़ों में है.

उदार अर्थनीति की विडंबना है कि आर्थिक प्रगति का लाभ जहां चंद विकसित देश ही उठा पा रहे थे, जबकि छंटनी और दिवालियेपन का असर प्रायः छोटी और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को ही झेलना पड़ा है. इससे मार्क्स का यह कथन एक बार फिर प्रासंगिक लगने लगा, जिसमें उसने कहा था कि पूंजीवाद एक वैश्विक व्यवस्था के रूप में विकसित होगा. मगर विश्वबाजार का अस्तित्व लंबे समय तक टिके रहने वाला नहीं है. इसका अंत सुनिश्चित है. यह हमारे समय का बेहद निर्णायक समय है. सच तो यह है कि हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जिसमें कुछ भी निजी अथवा स्थानीय नहीं है. हमारी अर्थव्यवस्था, राजनीति, संस्कृति यहां तक कि कूटनीति भी स्थानीय नहीं है. सबकुछ वैश्विक और अंतरराष्ट्रीय है. प्रौद्योगिकी प्रेरित अंतरराष्ट्रीयकरण ने हमारी संवेदनाओं को भौंथरा किया है. आजकल युद्ध के समाचार भी तब तक रोमांचित नहीं करते, जब तक कि उनमें अंतरराष्ट्रीयता का पुट न हो. वैसे युद्ध अब राजनीतिक मसला नहीं रहा. बीसवीं शताब्दी ने जितने युद्ध झेले, उनके पीछे बाजार का अधिक हाथ था, जिनमें करोड़ों की जानें गईं. इनमें सबसे आखिरी युद्ध अमेरिका और इराक के बीच था, जिसमें एक महादेश की पूंजीवादी आकांक्षाओं ने अपने से कहीं छोटे देश को पहले तो बदनाम करने की साजिश की. फिर दादागिरी दिखाते हुए उसपर हमला बोल दिया.

यह दादागिरी राजनीति प्रेरित नहीं थी. न उसको देश के नागरिकों का समर्थन प्राप्त था. समर्थन था, पूंजीपतियों का, जो युद्ध में अपनेअपने लाभ देख रहे थे. एक वर्ग को युद्ध की तबाही के बाद उस देश में नवनिर्माण के लिए ठेके मिलने की उम्मीद थी. कुछ का धंधा हथियार बनानेबेचने का था. वे मानते थे कि युद्ध नवनिर्मित रासायनिक हथियारों के प्रदर्शन का अच्छा अवसर सिद्ध होगा, बाद में उनके ग्राहक भी आएंगे. इन महत्त्वाकांक्षाओं ने एक फलतेफूलते देश को तबाही के गर्त में ढकेल दिया. हैरानी की बात है कि जनता और बुद्धिजीवी उस युद्ध को केवल राजनीतिक मसला समझे रहे. युद्ध के वास्तविक जिम्मेदार व्यक्ति कभी सामने आ ही नहीं पाए. युद्ध से नाराज जनता ने बुश महाराज से कुर्सी तो छीन ली. नई उम्मीदों के साथ नया चेहरा राजनीति में आया. मगर पूंजीवादी मंसूबे खत्म नहीं हुए. यानी युद्ध की संभावनाओं और उससे जुड़ी पूंजीवादी आकांक्षाओं का कोई निदान आज तक नहीं खोजा जा सका.

समस्या है कि पूंजीवाद के इस खेल से बचा कैसे जाए? इसका एक ही हल है. किसी भी तरह किसान, मजदूर और कामगार वर्ग अपनेअपने हितों की रक्षा में एकजुट हों. अपनी वास्तविक जरूरतों का आकलन करें. उपलब्ध संसाधनों को जांचे परखें. तत्पश्चात अनुकूल प्रौद्योगिकी का चयन कर उत्पादन की जिम्मेदारी स्वयं संभालें. प्रौद्योगिकी भी ऐसी हो जो समूह के सदस्यों की कुशलता का उपयोग कर, उन्हें आर्थिकसामाजिक रूप में आत्मनिर्भर बनाती हो. लेकिन क्या यह इतना ही आसान है? आजकल सामान्य समझबूझ वाला बुद्धिजीवी भी मानता है कि उद्योगों को बंधनमुक्त होना चाहिए. सरकार उनपर कम से कम नियंत्रण रखे. वैश्विक अर्थव्यवस्था का विकास हो, ताकि उद्योगों को हर जगह एक जैसा वातावरण मिले. सभी देशों में लाइसेंस और परमिट की एकसी शर्तें, एक जैसे विधान हों. व्यवस्था हो कि उद्योगों को समाज के बहुसंख्यक वर्ग के विकास के लिए काम करने की पूरीपूरी छूट मिले. साथ में आवश्यक सुविधाएं भी. ऐसे में कैसे संभव है, पूंजीवाद के संकट से बच पाना. खासकर तब जब पूंजीवाद लगातार मजबूत और हिंò होता जा रहा हो. श्रमिक शोषण के नएनए रास्ते खोजे जा रहे हों. शोध का क्षेत्र पूंजीपतियों के हाथ में चले जाने से सारी प्रतिभाएं, सारे के सारे पेटेंट पहले से ही उनके हाथों में जा ही चुके हैं. पूंजीपतियों के लिए तो वैश्वीकरण भी एक अवसर है. यह वैश्वीकरण भी निरापद कहां है? इससे बड़ी विडंबना भला और क्या होगी कि पिछली शताब्दी में भूमंडलीकरण एवं अर्थव्यवस्था के अंतरराष्ट्रीयकरण की तमाम सूचनाओं के बावजूद भारत में आर्थिक विसंगतियां सिर चढ़कर बोल रही हैं. देश में रोजगार के जितने अवसर बढ़े हैं, बेरोजगारों की संख्या उससे कहीं अधिक बढ़ी है. उससे कहीं तेजी से देश में आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है.

पूंजीवाद के अंतरराष्ट्रीय फैलाव के कारण विभिन्न देशों के आंतरिक और बाह्यः तनावों में भी वृद्धि हुई है. राज्यों के विरोधाभास और भी खुलकर सामने आए हैं. पूंजी का खिंचाव अतिविकसित देशों की ओर बढ़ता ही जा रहा है. हालात को समझने के लिए सिर्फ एक उदाहरण पर्याप्त होगा. 1987 में संयुक्त राज्य अमेरिका अपने कुल सालाना बजट का मात्र छह प्रतिशत हिस्सा निर्यात के माध्यम से जुटाता था. 1997 में निर्यात का हिस्सा बढ़कर 13 प्रतिशत यानी दुगुने से भी अधिक हो चुका था. इकीसवीं शताब्दी की दहलीज पर सरकार की योजना 22 प्रतिशत के लक्ष्य को पाने की है. इससे अमेरिका जैसे विकसित देशों की अर्थव्यवस्था के रहस्य को समझा जा सकता है. विकसित देशों के पास तो पूंजी है, संसाधन हैं, इसलिए वे अपने उत्पादों के लिए बाजार की सतत खोज में रहते हैं. ऐसी तकनीक की खोज में रहते हैं, जिसकी स्थापना लागत भले ही अधिक हो, मगर जिसके माध्यम से उत्पादन व्यवस्था का अधिकाधिक स्वचालीकरण कर सकें. स्वचालीकरण की तीव्र प्रक्रिया में स्थापना लागत भले ही अपेक्षाकृत अधिक हो, मगर उत्पादनवृद्धि और प्रचालन लागत में भारी कमी से उद्योगपति को दीर्घकालिक लाभ मिलता है. दूसरी ओर श्रमिकों पर निर्भरता में लगातार गिरावट आती है. इससे पूंजीपति लगातार ताकतवर होता है और श्रमिक कमजोर.

इस स्थिति को मार्क्स ने 1848 में ही भांप लिया था. कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो में उसने लिखा था

सघन मशीनीकरण तथा श्रमविभाजन की त्वरित प्रक्रिया में सर्वहारा काम के दौरान अपनी समस्त कार्यकौशल और विशिष्टताएं खो बैठता है. इसका प्रतिकूल प्रभाव उसकी कार्यक्षमता पर पड़ता है. उसका उल्लास धीरेधीरे कम होने लगता है. एक दिन वह मशीनों का आश्रित बनकर रह जाता है. पूंजीवादी समाजों में श्रमिक के कौशल को कुंद करने, उसको मशीनों का दास बनाने की सर्वाधिक सरल और प्रचलित चाल है. इससे श्रमिक की उत्पादन लागत को लगभग पूरी तरह से, उसकी रोजमर्रा की आवश्यकताओं तक, सिर्फ उन आवश्यकताओं तक जिनसे वह अपना भरणपोषण कर, कलकारखानों के लिए मजदूरों की नई फसल पैदा कर सके, सीमित कर दिया जाता है. चूंकि किसी उपभोक्ता वस्तु, साथ ही उसके श्रम की कीमत उत्पादन लागत के तय होती है. अतएव जैसेजैसे श्रमिक का उत्पादन से मोहभंग बढ़ता है, काम के प्रति उसका विकर्षण बढ़ता जाता है. दूसरी ओर उसकी वृत्तिका भी उसी अनुपात में गिरती चली जाती है. इसी के साथ कामगार के ऊपर, चाहे वह कार्यघंटों में हुई बढ़ोत्तरी के कारण हो या तय समयसीमा में अधिक काम देने के दबाव का मामला, अथवा उच्च उत्पादनक्षमता युक्त मशीनरी के साथ काम करने के कारण उसके साथ तालमेल बनाए रखने की चुनौतीश्रम का दबाव भी लगातार बढ़ता जाता है.

सोवियत संघ के अवसान के बाद भारत आदि देशों में अमेरिकापरस्त अर्थशास्त्रियों एवं बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग पैदा हुआ है, जिसने पूंजीवाद को लगभग अपरिहार्य और विकल्पहीन मान लिया है. स्वयं अमेरिका की क्या स्थिति है, इस बारे में बहुत अधिक समाचार मीडिया में नहीं दिए जाते हैं. यह भी कहा जा सकता है कि अपने पूंजीवादी संबंधों की लाज रखने के लिए मीडिया उनपर पर्दा डाले रखता है. वस्तुतः आधुनिक अमेरिका की वही हालत है, जो मार्क्स के समय में तत्कालीन सर्वाधिक विकसित पूंजीवादी देश ब्रिटेन की थी. अंतर केवल इतना है कि ब्रिटेन अपने उपनिवेशों के दोहन के लिए राजनीति का सहारा लेता था, अमेरिका यह काम अपनी अर्थसत्ता के माध्यम से करता है. उसने पूरी दुनिया में अपने आर्थिक उपनिवेश बसाए हुए हैं, जिनपर वह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के माध्यम से राज करता है. उपनिवेशों के शोषण में बौद्धिक संपदा जैसे कानून उसके मददगार सिद्ध होते हैं. इसके बावजूद हालात संतोषजनक नहीं हैं. आक्रोश भीतर ही भीतर भड़क रहा है. इसके पीछे अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वे विसंगतियां हैं, जो धीरेधीरे सामने आ रही हैं. ऐलेन वुड के अनुसार अमेरिका में

गत बीस वर्षों के दौरान अमेरिकी श्रमिकों की वास्तविक मजदूरों में बीस प्रतिशत तक की भारी गिरावट दर्ज हुई है, दूसरी ओर उन्हें पहले की अपेक्षा प्रतिदिन दस प्रतिशत अधिक काम करना पड़ता है. कहा जा सकता है कि अमेरिका की औद्योगिक क्रांति वहां के श्रमिक वर्ग के हितों पर कुठाराघात के बाद संभव हो सकी है. उदाहरणार्थ, एक अमेरिकी कर्मचारी को एक वर्ष में औसतन 168 घंटे ओवरटाइम करना पड़ता है, जो एक महीने के कार्य के बराबर है. अमेरिकी आॅटोमोबाइल उद्योग के लिए यह विशेषरूप में सही है, जहां एक कार्यदिवस में नौ घंटे और सप्ताह में छह दिन कार्य करने का प्रावधान है. अमेरिकी मजदूर संगठनों के अनुसार यदि वहां कार्यसप्ताह को चालीस घंटों तक सीमित कर दिया जाए तो मात्र इसी से 59,000 नए रोजगार अवसर पैदा किए जा सकते हैं.’


ऐसा नहीं है कि अपने शोषण के विरोध में श्रमिकों में कोई चेतना या सुगबुगाहट न हो. बल्कि वहां आवाजें उठने लगी हैं. करीब पंद्रह वर्ष पहले 24 अक्टूबर, 1994 को टाइम पत्रिका में प्रकाशित एक आलेख में पूंजीवादी शोषण के विरोध में बढ़ते श्रमिकआक्रोश का उल्लेख किया गया था, जिसमें उन्होंने उदारवाद प्रेरित आर्थिक विस्तार को अपने हितों के प्रतिकूल बताया था. लेख में बताया गया था कि काम के अत्यधिक बोझ के कारण, श्रमिकों की दिनचर्या कारखाने में काम तथा ओवरटाइम करने के बाद घर जाकर नहानेखानेसोने और अगली सुबह फिर कारखाने के लिए दौड़ लगाने तक सिमट चुकी है. इसने वहां के सामाजिक जीवन को भी प्रभावित किया है. इससे जहां शिशु जन्म दर में गिरावट दर्ज की गई है, वहीं तलाक की घटनाओं में भी अप्रत्याशित तेजी आई है. जबकि 1980 तक लगातार विकासमान रही जीवनसंभाव्यता, उसके बाद लगभग स्थिर हो गई है. यह स्थिति अमेरिकी समाज के विकास की विडंबना को दर्शाती है. ब्रिटेन का हाल भी इससे भिन्न नहीं है. जब मादाम थैचर वहां की प्रधानमंत्री थीं तो उद्योगों में 25 लाख रोजगार अवसरों में गिरावट दर्ज की गई थी. बावजूद इसके वहां कारखानों के उत्पादनसामर्थ्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. कामगारों की संख्या में हुई भारी गिरावट के बावजूद उत्पादन स्तर पूर्ववत रहने का कारण केवल उन्नत मशीनों का उपयोग नही है, बल्कि मजदूरों का शोषण भी है. अत्याधुनिक तकनीक भी श्रमिकों के लिए राहतकारी सिद्ध नहीं हुई है. उनकी मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं. श्रमिकों एवं आम जनता को भुलावे में रखने के लिए नए उपकरणों को बड़ी तेजी से एक के बाद कर उतारा जा रहा है. ऐसे उत्पादों के निर्माण पर जोर दिया जा रहा है, जिनका वास्तविक विकास से कोई संबंध ही न हो. लोकतांत्रिक खुलेपन का उपयोग फैशन और नईनई उपभोक्तावस्तुओं के साथ, लोगों को मोबाइल और इंटरनेट पर खुली सेक्ससामग्री परोसने के लिए किया जा रहा है. तंत्रमंत्र और जादूटोने की बढ़ती लोकप्रियता का लाभ उपभोक्तासामग्री के प्रचारप्रसार के लिए किया है. इसका दुष्परिणाम यह है कि समाज में आर्थिक विषमता लगातार बढ़ रही है.

अमेरिका की भांति ब्रिटेन में भी श्रमिकों को अधिक देर तक कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है. उन्हें उस अवधि का वेतन भी नहीं दिया जाता. यही हाल यूरोप के बाकी देशों का है. वहां भी बड़ी औद्योगिक कंपनियां छोटे उत्पादकों को लीलती जा रही हैं. सबसे धनी और निर्धनतम व्यक्ति के बीच आय का अंतर लगातार बड़ता जा रहा है. भारत समेत ऐशियाई देशों में पूंजीवादी व्यवस्था को लागू हुए अधिक दिन नहीं हुए हैं. पश्चिम का अंधानुकरण करते हुए भारत ने उदार अर्थव्यवस्था को अपनाकर, गत पचीसतीस वर्ष से पूंजीपतियों को मनमानी करने का अधिकार दे दिया है. इससे पूंजी का तेजी से केंद्र की ओर खिंचाव जारी है. पिछले एक दशक में जहां देश में अरबपतियों की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई है, वहीं पैंतीस करोड़ नागरिकों को प्रतिदिन बीस रुपये से भी कम आय में जीवनयापन करना पड़ता है. बढ़ते जनाक्रोश के दुष्परिणामस्वरूप पिछले कुछ दिनों से देश में नक्सलवादी गतिविधियां बढ़ी हैं. सरकार और पूंजीपतियों के दबाव में अपनी जमीन और संसाधन लुटा चुके हजारों लोग विद्रोह में व्यवस्था के विरुद्ध हथियारबंद हो उठे हैं. छोटे कारखानों में मजदूरी की बुरी हालत है. वहां बिना किसी नोटिस के कार्यघंटों में 50 प्रतिशत तक वृद्धि हो चुकी थी. इससे पहले जहां श्रमिकों को केवल आठ घंटे काम करना पड़ता था, अब बारह घंटे उतने ही वेतन में काम करना उनकी विवशता बनती जा रही है. यही हालात एशिया के बाकी देशों में हैं. पश्चिम भी इनसे बचा नहीं है. मीडिया पूंजी की इस तानाशाही के विरुद्ध आवाज उठाने के बजाय उसके महिमामंडन में लगा रहता है. स्थिति पर गंभीरतापूर्वक विचार किए बिना उसका प्रयास मार्क्सवाद कठघरे में खड़ा करने का होता है, जिससे अंततः पूंजीवाद ही मजबूत होता है.

यह मार्क्स और ऐंगल्स ही थे, जिन्होंने हमारा परिचय सामाजिक विकास के इस सर्वमान्य और महत्त्वपूर्ण नियम से कराया था, जिसके अनुसार समाज का वर्तमान ढांचा पूंजीपतियों के अनुकूल विकसित हुआ है. यह उसी अवस्था में स्थिर रह सकता है, जब तक समाज की उत्पादक शक्तियां सुरक्षित हैं. कोई भी समाज इससे उस समय तक बच नहीं सकता, जब तक कि वह अपने समस्त संसाधन इस व्यवस्था के विकास के लिए, पूंजीवाद की समृद्धि के निमित्त झोंक नहीं देता. पूंजीवाद के समर्थक अक्सर इस बात का दावा करते हैं कि बाजार की समृद्धि का लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुंचता है. क्योंकि बाजार सभी को अपनी वस्तु का मूल्यांकन करने तथा उसके अनुसार उसका मूल्य वसूलने का आश्वासन देता है. उनके अनुसार यह व्यवस्था श्रमिक के लिए अधिक लाभकारी है. इसमें वह स्पर्धा का लाभ उठाकर अपने लिए ऐसे नियोक्ता की तलाश की तलाश कर सकता है, जहां उसको अधिकतम वृत्तिका की संभावना हो. यह एक दिवास्वप्न ही है. उन्हें जिस गुण में पंूजीवाद की सार्थकता नजर आती है, दरअसल वही उसकी कमजोरी है. नियम है कि बाजार में पूंजी की ताकत ही सर्वोपरि होती है. इसलिए वहां छोटी पूंजी को बड़ी पूंजी के आगे परास्त होना पड़ता है. किसान और श्रमिक के पास अपना श्रम या वे छोटे संसाधन पूंजी के रूप में होते हैं, जो बाजार में किसी प्रकार की ताकत बनने में नाकाम होते हैं. परिणामस्वरूप अपने मूल्यांकन के लिए वे सदैव दूसरों पर निर्भर रहते हैं, जहां उनकी योग्यता का न्यूनतर मूल्यांकन किया जाता है. यह स्थिति पूंजीवादी शोषण को जन्म देती है.

पूंजी की तानाशाही के चलते हम सिर्फ यह सोचकर तसल्ली कर सकते हैं कि किसी भी अन्य विधान की भांति पूंजीवाद का भी जन्म हुआ है. वह भी दूसरी विचारधाराओं की भांति इतिहास के साथ विकसित हुआ है, और आज वह जिस अवस्था में है, वह उसके चढ़ाव की चरम अवस्था है. यहां से उसका पतन अवश्यंभावी है. यही ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा है. यही मार्क्स के चिंतन का लक्ष्यबिंदू है. जब हम इस वैज्ञानिक तथ्य को समझ लेते हैं, तो यह समझना भी आसान हो जाता है कि इतिहास घटनाओं की भावहीन, अतार्किक, अनियोजित और आकस्मिक व्यवस्था नहीं है, जिसको चंद लोग अपनी मनमर्जी से हांक सकें. न ही यह कुछ लोगों की गतिविधियों का परिणाम है. बल्कि यहां जो घटता है, वह एक नैसर्गिक व्यवस्था के अनुसार संचालित होता है, जिसकी सुसंगत व्याख्या संभव है.

मार्क्स के ये विचार चाल्र्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत से प्रेरित थे, जिसने जीवजगत को परिवर्तनशील माना था. अपने अध्ययन द्वारा वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि जीवजंतुओं का भी अपना भूतवर्तमान और भविष्य होता है. विकासक्रम के दौरान उन्हें एक सतत परिवर्तनशील एवं विकासमान प्रक्रिया से अनिवार्यतः गुजरना पड़ता है. डार्विन की वैज्ञानिक खोज की सामाजिक विकास के संदर्भ में व्याख्या करते समय मार्क्स एवं ऐंगल्स का मानना था कि इस सृष्टि में पूर्णतः स्थायी और अपरिवर्तनशील सत्ता की कल्पना मात्र एक भ्रम है. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जो पूरी तरह स्थायी एवं अपरिवर्तनीय हो. सामाजिकतंत्र, चाहे जो भी हो, वह मानवीय भावनाओं के सीमित स्वरूप का प्रदर्शन करता है. अपने भरणपोषण के लिए प्रत्येक समाज उत्पादकता के संसाधनों को अपनाता है. उसके लिए जिन संसाधनों को वह चुनता है, उन्हीं पर उसके विकास की दिशा एवं गति निर्भर करती है. ऐतिहासिक भौतिकवाद का विवेचन करता हुआ मार्क्स अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि वर्तमान समाजों का अभी तक तक इतिहास वर्ग, संघर्ष का इतिहास रहा है.

मजदूर कोरी वितंडा नहीं चाहता. मार्क्स ने उसके हक की बात कही थी. अपने सुख, प्रतिष्ठा और परिवार के भविष्य को दाव पर लगाकर उसने उनके लिए संघर्ष किया था. मजदूर इस तथ्य को जानता है. अतएव मार्क्स उसके लिए देवता हैं. सच तो यह है कि मार्क्स ने हीगेल का द्वंद्ववाद का मानवीकरण किया था. वह उसको आकाश से उतारकर जमीन पर ले आया था. एक तत्ववादी चिंतन को विशुद्ध यथार्थ, लोकोपयोगी चिंतन के रूप में ढाल दिया था. उसका मानना था कि पूंजीवाद का खात्मा श्रमिकों द्वारा उत्पादनतंत्र पर कब्जा कर लेने मात्र से संभव नहीं है. उनके वास्तविक कल्याण के लिए व्यवस्था में आमूल बदलाव जरूरी है. ऐसी व्यवस्था की नींव रखनी होगी जो वर्गहीनता की समर्थक हो. तभी सामाजिकआर्थिक ऊंचनीच की खाई को पाटा जा सकता है. मार्क्स के आलोचकों का सोच केवल सत्ता परिवर्तन तक सीमित है. वे व्यवस्था परिवर्तन के संकल्प से दूर हैं. ऐसे आलोचकों द्वारा मार्क्स की आलोचना की कोई भी बात, उसके चेलेचपाटों की समझ में नहीं आतीं. उन्हें तो गोपियों जैसी साकार भक्ति चाहिए. उद्धव का ज्ञानयोग उनके किसी काम कर नहीं.

मार्क्स अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाजनीति में व्यापक परिवर्तन चाहता था. वह चाहता था कि अर्थनीति का ढांचा मुनाफे के आधार पर नहीं, मानवीय विकास और संवेदनाओं के अनुसार तय किया जाए. मार्क्स के अनुयायी दुनिया को उसी की निगाह से देखते हैं, सिर्फ उसको चाहते हैं. यही उनके लोकप्रिय अथवा अलोकप्रिय होने का कारण है. यही वह गुण है जिसने पूरी दुनिया को दो धु्रवों में बांट रखा है. मार्क्स के चिंतन में सर्वभक्षक पूंजीवाद का विकल्प उपलब्ध है, जिसने पूरी दुनिया की संपदा का प्रवाह विकसित देशों की ओर मोड़ दिया है. कहने को तो तमाम अंतरराष्ट्रीय संधियां देशों के बीच मुक्त व्यापार की बात करती हैं. प्रत्येक देश को यह अधिकार देतीं है कि वह अपने संसाधनों का उपयोग कर अपने उत्पादक सामथ्र्य का अधिक से लाभ उठा सके. मगर व्यवहार में विकसित देशों की अत्याधुनिक तकनीक और विपुल साधनों के आगे स्पर्धा में वे टिक ही नहीं पाते हैं. इसलिए उदार अर्थव्यवस्था का लाभ केवल विकसित देशों के लाभाधिकार तक सीमित होकर रह जाता है. ऐसे में मार्क्स का विश्लेषण हमें पूंजीवाद को गहराई से समझने और उसका सार्थक विकल्प खोजने में मदद कर सकता है.

मार्क्स का सारा जोर पूंजीवाद के चरित्र और उसकी विवेचना को लेकर था. इसी संकल्पना के साथ उसने ‘पूंजी’ की रचना की थी. मार्क्स के निधन के बाद से पिछले 127 वर्षों में पूंजीवाद के चरित्र में व्यापक बदलाव आया है. तो भी उसका मूल चरित्र लगभग वही है, जो उनीसवीं शताब्दी के दौरान था. बल्कि कई मायने में वह पहले से अधिक ताकतवर, क्रूर, उत्पीड़क एवं दुःखदायी हुआ है. स्वचालित प्रौद्योगिकी ने पूंजीपति को पहले से कहीं अधिक शक्तिशाली तथा निष्ठुर बनाया है. इसकी मार्क्स के जीवनकाल में केवल शुरुआत ही हो पाई थी. हाल के वर्षों में कंप्यूटरआधारित तकनीक ने मशीनों को इतना कार्यक्षम और स्वचालित बना दिया है, कि अनेक क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मशीनों का नियंत्रण रिमोट के माध्यम से संभव है. उन स्थानों में श्रमिक का कार्य केवल तैयार माल को सुरक्षित रखने या उसको गंतव्यस्थल तक लानेले जाने में सिमट गया है. वह मानवी हस्तकौशल एवं उसके तकनीकी ज्ञान की उपेक्षा करती है. चूंकि मशीनें तकनीकी कौशल की भरपाई आसानी से कर देती हैं, इसलिए पूंजीपति के लिए श्रमिक की भूमिका उत्पादनकार्य में मात्र सहायक तक सिमटकर रह जाती है. उन्नत प्रौद्योगिकी ने श्रमिकों के मन से ‘उत्पादकशक्ति’ होने की अनुभूति को छीनकर उन्हें कुंठाग्रस्त करने का काम किया है. श्रम का शोषण करना, अधिलाभ के बड़े हिस्से पर उत्पादक का अधिकार, अपने से छोटे उद्यमियों को स्पर्धा में परास्त कर बाजार पर एकाधिकार कायम कर लेने की इच्छा आदि आधुनिक पूंजीवाद के कुछ ऐसे अवगुण हैं, जो आज भी उनीसवीं शताब्दी के पूंजीवाद से मेल खाते हैं, जिनमें कतई सुधार नहीं हुआ है. इससे भी बड़ी बात यह हुई है कि पूंजीपतियों ने लंबी पहुंच वाले संचारमाध्यमों पर कब्जा करके प्रतिपक्ष की आवाज को न उभरने देने का पूरापूरा प्रबंध कर लिया है. कहा जा सकता है कि जिस वैज्ञानिक समाजवाद की परिकल्पना मार्क्स ने की थी, उसकी पहले से कहीं अधिक आवश्यकता आज है.

बावजूद इसके यह एक सामान्य जिज्ञासा का सवाल है कि मार्क्स की आज के संदर्भों में कितनी प्रासंगिकता है. क्या उसके विचारों को इकीसवीं शताब्दी में भी ज्यों का ज्यों अपनाया जा सकता है. दरअसल किसी भी कालखंड में मार्क्स के विचारों को संपूर्णता से आत्मसात नहीं किया गया. इसके कारण स्वयं मार्क्स के लेखन में ही सुरक्षित हैं. ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ में वह मजदूरों का सक्रिय क्रांति के लिए आवाह्न करता है. अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हिंसा का सहारा लेने में भी उसको संकोच नहीं है. पेरिस की रक्तरंजित क्रांति और तदनंतर कम्यून की स्थापना के पीछे भी माक्र्सवादी प्रेरणाएं ही थीं. मार्क्स के विचारों के आधार पर ही श्रमिक आंदोलन की नींव रखी गई. यद्यपि बाद में उसका हिंसक क्रांति से मोहभंग होता है और वह आमूल परिवर्तन के लिए, पूंजीवाद से साम्यवाद तक की यात्रा को दो हिस्सों में बांट देता है. उसके अनुसार क्रांति के पहले चरण में श्रमिक संगठन समस्त राजनीतिक और उत्पादनतंत्रों पर अपना अधिकार जमा लेंगे. उसके बाद वे आमूल परिवर्तन के लिए वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए प्रयासरत होंगे.

इतनी स्पष्टता के बावजूद मार्क्स के विचारों को लेकर उसके समर्थकों के बीच आज भी भारी मतभेद हैं. मार्क्स का राजनीतिकआर्थिक दर्शन दुनियाभर में ‘मार्क्सवाद ’ के नाम से जाना जाता है, जिसमें वह ऐतिहासिक द्वंद्ववाद के आधार पर पूंजीवाद की तीखी आलोचना करता है. परिवर्तन के लिए वर्गसंघर्ष को अवश्यंभावी मानते हुए उसमें सर्वहारावर्ग की जीत की ओर संकेत करता है. दावा करता है कि पूंजीवाद का अंत निश्चित है, वह अपनी ही कमजोरियों का शिकार होकर एक दिन धराशायी हो जाएगा. मार्क्स के इस विश्वास के बावजूद एक स्वाभाविकसा प्रश्न यहां उभरता है कि क्या ‘मार्क्सवाद ’ उसकी मान्यताओं का सहीसही प्रतिनिधित्व करता है. इस प्रकार की बहसें नई नहीं हैं. मार्क्स के जीवनकाल में ये आरंभ हो चुकी थीं. शायद ऐसी ही किसी बहस से तंग आकर अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले मार्क्स ने अपने साले पाल ला॓फर्ग और फ्रांस के चर्चित श्रमिक नेता जूल्स जूडे पर ‘क्रांतिकारी नारों की सौदेबाजी’ तथा उनका श्रमिकों की संगठित शक्ति में अविश्वास होने का आरोप लगाया था. उल्लेखनीय है कि जूडे ने अपने सहयोगियों से पार्लियामेंट हा॓ल से वर्गसंघर्ष की शुरुआत करने का प्रस्ताव रखा था, जिसका उसके साथियों ने जो संसदीय तरीकों में विश्वास रखते थे और मिलजुलकर रास्ता निकालने की नीति के समर्थक थे,जमकर विरोध किया था. इस घटना के बाद कुछ लोगों द्वारा यह आरोप लगाने पर कि जूडे ने जो किया, उसके पीछे मार्क्स की ही प्रेरणा थी, मार्क्स ने अपनी प्रतिक्रिया ऐंगल्स को संबोधित एक पत्र में व्यक्त की थी. उसने लिखा था कि

‘‘यदि यही मार्क्सवाद है तो मैं मार्क्सवादी नहीं हूं.’’

इस तरह मार्क्स के जीवनकाल में ही उसके विचारों के आधार पर समर्थकों के दो दल बन चुके थे. इनमें से एक वर्ग मार्क्स की उपभोक्ता सामग्री, उत्पादन, पूंजी, श्रम आदि को लेकर तर्कसम्मत गवेषणासामथ्र्य का प्रशंसक था, जिसके आधार पर उसने ‘दि कैपीटल’ नामक ग्रंथ की रचना की थी. यह पुस्तक साम्यवादी राज्य की अभिकल्पना प्रस्तुत करती थी. मार्क्स के प्रशंसकों का दूसरा वर्ग ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के साथ गहराई से जुड़ा था और मानता था कि समाजवाद की स्थापना के लिए क्रांति अपरिहार्य है. उसके अलावा परिवर्तन का कोई दूसरा रास्ता नहीं है. मार्क्स की मृत्यु के छह वर्ष उपरांत ऐंगल्स ने ‘दूसरा इंटरनेशनल’ की स्थापना की तो उसने भी राजनीतिक प्रतिरोध की नीति को अपनाया था. ‘दूसरा इंटरनेशनल’ को मार्क्स के सहयोग से स्थापित ‘प्रथम इंटरनेशनल’ की अपेक्षा अधिक सफलता प्राप्त हुई थी. रूस में साम्यवादी क्रांति के बीजतत्व ‘दूसरा इंटरनेशनल’ तथा प्रथम विश्वयुद्ध की असंगतियों से उपजे असंतोष का ही परिणाम थे. लेनिन ने स्वयं को मार्क्स के दर्शन और राजनीतिक चिंतन का असली उत्तराधिकारी घोषित करते हुए रूस में बोल्शेविक क्रांति की नींव रखी. दरअसल लेनिन की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं बड़ी थीं. उसने मार्क्स से उतना ही ग्रहण किया था, जितना उसको अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आवश्यक लगता था. मार्क्स का साम्यवाद सर्वहारा क्रांति से आगे की अवस्था थी. मगर रूस में बोल्शेविक क्रांति पहले चरण पर ही ठहर चुकी थी. बजाय इसके कि मार्क्स के विचारों पर पूरी तरह अमल करते हुए पूर्ण साम्यवाद की स्थापना के प्रयास किए जाएं, रूसी सरकार ने खुद को मारक हथियारों की दौड़ में शामिल कर लिया था. सर्वहारा कल्याण के अनुकूल वैकल्पिक प्रौद्योगिकी की खोज और उसके आधार पर साम्यवाद की स्थापना की ओर किसी का ध्यान ही नहीं था. इससे वहां के नागरिकों के मन में असंतोष पनपा जो अंततः सोवियत संघ के बिखराव का कारण बना. फिर भी यदि करीब अस्सी वर्ष तक रूस में साम्यवाद बना रहा तो इसके पीछे चेखव, गोर्की, दोस्तोयवस्की, अलेक्जांद्र पुश्किन, इवान तुर्गनेव जैसे महान लेखकों का हाथ था, जिसने उस व्यवस्था का एक रूमानी सपना अपने समाज को दिखाया था, जिसकी वास्तविक स्थापना के लिए रूसी समाज दशकों तक प्रतीक्षा करता रहा.

मार्क्स का मानना था कि साम्यवादी क्रांति विकसित औद्योगिक समाजों में ही सफल होगी. फ्रांस, जर्मनी, इंग्लेंड जैसे देशों को जहां औद्योगिक क्रांति फैल चुकी थी उसने साम्यवादी क्रांति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त बताया था. उसका मानना था कि विकसित समाजों में औद्योगिकीकरण के कारण समाज में आर्थिक असमानताओं में वृद्धि होती जाएगी, जो सर्वहारावर्ग को अपनी स्थिति में परिवर्तन के लिए एकजुट होने तथा उत्पीड़क पूंजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने की प्रेरणा देगी. इससे भिन्न व्लादिमिर लेनिन का विचार था कि साम्राज्यवादी शोषण तथा अनियोजित एवं असमान आर्थिक विकास के चलते सर्वहारा क्रांति के लिए पिछड़े देशों में अधिक संभावनाएं हैं. उसका मानना था कि पूंजीवाद जनित उत्पीड़क स्थितियों तथा आर्थिक असमानता का यह दबाव अपेक्षाकृत छोटे और पिछड़े समाजों में सर्वहारा क्रांति की अधिक संभावना पैदा करेगा. वहीं से क्रांति की हवा विकसित देशों की ओर बहेगी, जहां का समाज समाजवाद की स्थापना के तैयार है, तदनंतर वह रूस की ओर बढ़ेगी. ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के रूसी संस्करण की भूमिका में भी मार्क्स ने कुछ ऐसी ही संभावना व्यक्त की थी. इस संभावना पर विचार करते हुए कि सार्वजनिक भूस्वामित्व का अभ्यस्त रूसी समाज क्या साम्यवाद के ऊंचे आदर्शों को अपनाने के आसानी से तैयार होगा, उसने लिखा था कि संभावना यही है कि यदि रूसी क्रांति पश्चिम में सर्वहारा क्रांति के लिए प्रेरणा बनती है तो भूमि पर सार्वजनिक अधिकार का मुद्दा साम्यवाद के विकास का आधारभूत सिद्धांत सिद्ध होगा, इसलिए कि वह साम्यवाद का ही एक रूप है.

मार्क्स का यह विचार कि रूस पश्चिम की साम्यवादी क्रांति का प्रेरणास्रोत बन सकता है, लेनिन और उसके सहयोगी ट्राटस्की के चिंतनकर्म का आधार बना. ट्राटस्की और उसके सहयोगी इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि पश्चिम में साम्यवादी क्रांति की असफलता रूसी क्रांति और कालांतर में पश्चिमी देशों में सर्वहारा क्रांति को प्रेरित करेगी और इस तरह रूस वैश्विक सर्वहारा क्रांति का सूत्रधार बनेगा. इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए स्टालिन ने ‘एक देशीय समाजवाद’ की परिकल्पना से छलांग लगाकर विश्वव्यापी सर्वहारा क्रांति के लिए संघर्ष छेड़ने का आवाह्न किया था. स्टालिन का यह सोच 1930 में लाखों सर्वहारा मजूदरों की मौत का कारण बना, जिसके कारण स्टालिन के विरुद्ध जनाक्रोश फैला. महान रूसी लेखक सोल्झेनित्सिन ने जब स्टालिन के शासनकाल में चलने वाले कारावास शिविरों की अमानवीय स्थितियों का बयान अपने उपन्यास ‘दि गुलाग आर्किपैलेगो’ में किया तो उनको रूसी शासकों की ओर से तरहतरह की प्रताड़नाएं दी गईं. इस उपन्यास के लिए सोल्झेनित्सिन को निर्वासन की सजा भी भुगतनी पड़ी. स्टालिन की मृत्यु के बाद रूस की बागडोर जब निकिता ख्रुश्चेव के हाथों में आई तो उसने स्टालिनवाद को विकार मानते हुए, पूरी तरह नकार दिया. सोल्झेनित्सिन का निर्वासन भी समाप्त हुआ. इस तरह उस रक्तरंजित युग का अंत हुआ, जिसमें स्टालिन के नेतृत्व में साम्यवाद अधिनायकवाद का रूप ले चुका था,

रूस की भांति चीन भी कृषिआधारित अर्थव्यवस्था पर निर्भर था. वहां साम्यवादी क्रांति का अलख जगाने वाला माओ जि दांग था. ‘चीनी साम्यवादी पार्टी’ के स्थापक चेन दुजियु तथा दझाओ के साथ मिलकर उसने चीन में साम्यवादी क्रांति के पक्ष में माहौल बनाने के लिए लंबा संघर्ष किया था. वस्तुतः 1925 तक मार्क्सवादी चीनी नेता मानते आ रहे थे कि शहरी मजदूर ऐतिहासिक द्वंद्ववाद की भावना को समझकर अपने वर्गीय हितों के लिए आसानी से संगठित हो सकते हैं. इसलिए उनकी वर्गचेतना ही चीन में साम्यवादी क्रांति का सूत्रधार बनेगी. माओ किसान का बेटा था. साम्यवादी पार्टी की सदस्यता ग्रहण करने से पहले वह छह महीने तक एक क्रांतिकारी संगठन में काम कर चुका था. उसके बाद मार्क्सवाद के अध्ययन के लिए वह उससे अलग हो गया. बीजिंग में अध्ययन के दौरान उसकी भेंट ली दझाओ और चेन दुजियु से हुई. तीनों क्रांति के समर्थक थे तथा लक्ष्यप्राप्ति के लिए हिंसा का सहारा लेने से भी उन्हें परहेज नहीं था.

साम्यवादी क्रांति के लिए संघर्ष करते हुए माओ इस नतीजे पर पहुंचा कि क्रांति की सफलता के लिए शहरी मजदूरों के बजाय किसानों पर अधिक विश्वास करना चाहिए. इस विचार के लिए माओ को अनेक नेताओं और बुद्धिजीवियों की आलोचना का पात्र बनना पड़ा. परंतु आलोचनाओं से हतोत्साहित हुए बिना माओ किसानों को साथ लेकर माक्र्सवादी क्रांति की सफलता के लिए संघर्ष करता रहा. चीन के गांवों में विद्रोही किसानों को एकजुट करते हुए उसने चीनी सोवियत रिपब्लिक की नींव रखी. उसकी लालसेना ने चियांग केई शेक के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी सेना पर हमले आरंभ कर दिए. राष्ट्रवादी सेना की ताकत बड़ी थी. उसको जापान जैसे पड़ोसी देशों का समर्थन भी प्राप्त था. माओ ने छापामार युद्ध की शैली को अपनाया, जिसमें लालसेना को भारी सफलता मिली. बढ़ी हुई ताकत से वह जापानी मदद से लैस राष्ट्रवादी सेना को पराजित करने में सफल रहा. इस जीत ने उसको चीनी मजदूरों और किसानों का निर्विवाद नेता बना दिया. 1931 में उसे चीन की साम्यवादी पार्टी का नेता चुन लिया गया, इस पद पर वह अगले 45 वर्षांे तक बना रहा. अपने उग्र भाषणों से माओ ने चीनी जनता का दिल जीतने में सफलता प्राप्त की. धीरेधीरे उसकी ताकत बढ़ती गई. एक दिन ऐसा आया जब उसकी ख्याति चीन की सरहदों को पार कर सोवियत संघ पर छाने लगी. सोवियत संघ ने उसके आगे मदद का प्रस्ताव रखा. उस पेशकश को ठुकराते हुए वह अपने ही दम पर मुक्तिसंघर्ष को आगे बढ़ाता रहा.

अंततः 1949 में लंबे गृहयुद्ध के बाद माओ के नेतृत्व में चीन में साम्यवादी सेना को जीत हासिल हुई. उस समय रूस की ओर से नई सरकार को समर्थन के साथसाथ सहयोग की पेशकश गई. परिणाम की चिंता किए बिना ही माओ ने सोवियत संघ पर आरोप लगाया कि वहां साम्यवादियों के बीच कुछ ‘बुर्जुआ’ घुसपैठ कर चुके हैं. इस आलोचना से नाराज होकर सोवियत संघ ने 1960 में चीन को दी जाने वाली तकनीकी मदद से हाथ खींच लिया. उससे घबराए बिना माओ अपने दम पर चीन को समृद्धि की ओर आगे बढ़ाता रहा. उसकी दृढ़ आस्था थी कि तीसरे देशों में जहां औद्योगिक क्रांति अभी तक सफल नहीं हो पाई है, वहां कृषक संघों की मदद से सर्वहारा क्रांति को सफल बनाया जा सकता है. माओ की सफलता से मार्क्सवाद और लेनिनवाद की कमजोरियों को उजाकर किया था. यहां बताना प्रासंगिक होगा कि लेनिन के नेतृत्व में सोवियत संघ की सरकार द्वारा पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष का नारा देते हुए जनाधिकारों की व्यापक उपेक्षा की गई थी. इसकी भरपाई के लिए माओ ने चीन के अतीत और संस्कृति का सहारा लिया. परिणामस्वरूप वह चीनी समाज को एकता के सूत्र में बांधे रखने में सफल हुआ. उसके विचारों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर माओवाद के नाम से जाना जाता है, जो साम्यवाद की ही सहोदर विचारधारा है.

इकीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद की प्रासंगिकता

कुछ देर के लिए मार्क्स को एक सरल रेखा मान लिया जाए तो पूरी दुनिया, उसके दोनों तरफ बंटी मिलेगी. एक दिशा में मार्क्स के समर्थक होंगे, जिनके लिए मार्क्स का एकएक शब्द पवित्र और बौद्धिक चेतना की धरोहर है. वे मार्क्स के नाम पर, उसके विचारों के लिए अपने खून का एकएक कतरा बलिदान करने को तत्पर होंगे. दूसरी ओर मार्क्स के आलोचक हैं. जिनके लिए मार्क्स एक दुर्भावना, एक जिद, एक नासमझीभरा, अड़ियल और प्रतिगामी विचार है. हाल ही में बीबीसी रेडियो सेवा द्वारा ब्रिटेन के सर्वाधिक सम्मानित और प्रतिभाशाली दार्शनिकों का सर्वे कराया गया. उस सर्वे में साम्यवादी मार्क्स ख्याति के मामले में सबसे ऊंचे पायदान पर था. दार्शनिक के रूप में दुनियाभर में पहचाने वाले नाम यथा प्लेटो, अरस्तु, कांट, डेविड ह्यूम, देकार्त, जान ला॓क जैसे विचारक ख्याति के मामले मे उसके आसपास भी नहीं ठहरते. हीगेल मार्क्स का गुरु, जिससे उसने भौतिक द्वंद्ववाद का सिद्धांत ग्रहण किया था, आश्चर्यजनकरूप से इस सूची में कहीं भी नहीं है. और तो और मार्क्स के समकालीन प्रतिभाशाली दार्शनिकों में से एक भी इस सूची में स्थान पाने में असमर्थ रहा है. आखिर ऐसी कौनसी बात है, जो मार्क्स को अपने समकालीन और पूर्ववर्ती विचारकों से अलग सिद्ध करती है. मार्क्स ने एक साथ धर्म, दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास की गवेषणाएं की हैं. मगर मार्क्स खुद क्या है? दार्शनिक अथवा अर्थशास्त्री? ये सामान्य जिज्ञासा से जुड़े कुछ जरूरी प्रश्न हैं. हालांकि बहुतसे लोगों के लिए मार्क्स एक खलनायक भी है, जो अपने विचारानुकूल समाज के गठन के लिए खुल्लमखुल्ला हिंसा का सहारा लेता है. मगर वे भूल जाते हैं कि सामाजिक परिवर्तन के लिए मार्क्स द्वारा हिंसा का समर्थन उस तरह से नहीं है, जैसे कि पहले राजामहाराजा अपनी सनक में पड़ोसी राजा पर हमला बोल देते थे. मार्क्स की हिंसा मर्यादित है. वह समाज के बड़े वर्ग के कल्याण के लिए विशेष परिस्थितियों में जब बाकी सभी उपाय असफल सिद्ध हो चुके हों, केवल बुर्जुआ वर्ग को सत्ताच्युत करने के लिए हिंसा का समर्थन करना पसंद करता है. दूसरे पूंजीवादी चंगुल से मुक्ति के लिए हिंसा का समर्थन पेरिस कम्यून की असफलता से पहले की घटना है. पेरिस कम्यून की असफलता के बाद उसके विचारों में बदलाव आया था.

मार्क्स अपने समय की सबसे विवादित हस्तियों में से एक है. उसका रचनात्मक अवदान केवल अकादमिक चिंतनलेखन तक सीमित नहीं था. उसके लेखन में संघर्ष की लौ थी. हालांकि श्रमिकों के पक्ष में आवाज उठाने वाला वह पहला दार्शनिकलेखक नहीं था. उससे पहले रूसो जनसामान्य का सबसे बड़ा पैरोकार बनकर उभरा था. राबर्ट ओवेन, विलियम किंग, जोसेफ ब्लेंक आदि दार्शनिक चिंतक भी पूंजीवादी शोषण से उबरने के लिए श्रमिकों मजदूरों को और अधिक सुविधा दिए जाने की मांग कर चुके थे. इसी श्रेणी में चार्टिस्ट आंदोलनकारियों का नाम भी लिया जा सकता है, जिन्होंने जनाधिकारिता के लिए बड़े पैमाने पर वर्षों तक चलने वाला संघर्ष किया था. जनसाधारण के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में 1838 में एफ. ओ’क्रोनर एवं विलियम ला॓वेट के नेतृत्व में चले वर्षों लंबे संघर्ष में सैकड़ों चार्टिस्ट आंदोलनकर्मियों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया था. हजारों को निष्कासन की सजा मिली थी.

स्मरणीय है कि सोहलवीं शताब्दी में आरंभ हुए प्रौद्योगिकीकरण की रफ्तार उनीसवीं शताब्दी आतेआते अत्यधिक तीव्र हो चुकी थी. परंपरागत शिल्पकारों पर मशीनीकरण की मार तथा उनके संरक्षण के लिए सरकार की ओर से कोई योजना न होने के कारण ब्रिटेन समेत प्रायः सभी यूरोपीय देशों में बेरोजगारी का संकट बढ़ा था. गांवों में स्थिति और भी शोचनीय थी. क्योंकि कारखानों में बने सस्ते माल की आमद से स्थानीय उद्योगधंधे पूरी तरह चौपट हो चुके थे. भीषण गरीबी के कारण मातापिता अपने बच्चों को उन नारकीय परिस्थितियों में काम पर भेजने के लिए विवश थे, जहां सामान्य स्थितियों काम करने की उनकी हिम्मत भी जवाब दे जाती थी. बाकी मजदूरों, कामगारों यहां तक कि साधारण नौकरीपेशा लोगों की हालत भी संतोषजनक नहीं थी. काम के अत्यधिक बोझ के कारण वे सदैव तनाव में रहते थे. इससे उनकी कार्यकुशलता नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई थी. सरकार और प्रशासन पूंजीपतियों के सतत दबाव में रहते थे, इसलिए उनसे मनचाहे फैसले करा लेना, स्थानीय पूंजीपतियों के लिए बहुत आसान था. पूंजी का असमान वितरण, भीषण बेरोजगारी, नगरों में पर्यावरणसंबंधी लगातार बढ़ती समस्याएं आदि अनेक ऐसे कारण थे, जिन्होंने विचारकों के एक बड़े वर्ग को उद्वेलित किया था. पूंजीवाद प्रेरित औद्योगिकीकरण के विरोध में अनेक आंदोलन भी हो चुके थे, जिनमें लाखों श्रमिकों ने सहभागिता की थी. जिन्हें समाज के लाखों श्रमिकों का समर्थन मिला था.

पूंजीवादी शोषण से उबरने के लिए विद्वानों के अलगअलग सुझाव थे. विचारकों का एक दल सहकारिता के माध्यम से पूंजीवादी उत्पीड़न से उबरने का सपना देख रहा था. इस वर्ग में विलियिम किंग, राबर्ट ओवेन फ्यूरियर जैसे विचारक थे. साहित्यिक प्रेरणाएं भी परिवर्तनकारी आंदोलनों के साथ थीं. उनमें सबसे अग्रणी थे, उस समय के महान उपन्यासकार चाल्र्स डिकेन्स, जिन्होंने अपने उपन्यास ‘दि क्रिसमस कैरोल’ में ब्रिटिश समाज में पनप चुके सूदखोर वर्ग का सशक्त चित्रण किया था. रिकार्डो और एडम स्मिथ आदि अर्थशास्त्रियों का मानना था कि सिर्फ औद्योगिक समृद्धि द्वारा गरीबी से लड़ा जा सकता है. सरकार को चाहिए कि उत्पादन और विपणन से जुड़े मामले पूंजीपतियों और उद्यमियों के हवाले कर दे, ताकि वे परिस्थितियों के अनुकूल निर्णय लेने में सक्षम हों.

संगठित आंदोलन को मुक्ति का आधार मानने वाले विचारकों के भी दो अलगअलग वर्ग थे. उनमें से एक धड़ा सहकारिता आंदोलन के समर्थक विद्वानों एवं कार्यकर्ताओं का था, जो सफलता के लिए सहयोग को स्पर्धा से अधिक कारगर और उपयोगी मानते थे. दूसरे धड़े के विचारक मानते थे कि पूंजीवाद से मुक्ति के लिए पूंजीपतियों को कमजोर करना जरूरी है. यह केवल संगठित ताकत के बल पर संभव है. इसके लिए हिंसा का सहारा लेने में भी उन्हें संकोच नहीं था. प्रूधों, मार्क्स, ब्लेंक, बकुनाइन, ऐंगल्स आदि विद्वान पूंजीवाद के उग्र विरोधियों में आते थे.

उल्लेखनीय है कि मार्क्स से पहले ही हीगेल द्वंद्ववाद की सार्थकता को स्थापित कर चुका था. विचारक उसके विचारों की भांतिभांति से व्याख्या कर रहे थे. बल्कि उसके विचारों की व्याख्या के लिए ही दार्शनिकों के अलगअलग गुट बन चुके थे. ऐसे में मार्क्स ने द्वंद्ववाद की विशुद्ध भौतिकवादी दृष्टिकोण से विवेचना कर, सत और असत् का भौतिकीकरण कर दिया. मार्क्स के दर्शन में श्रमिक वर्ग ‘सत्’ का पर्याय था, जो अपने श्रमकौशल के आधार पर उत्पादन कार्य में प्रमुख भूमिका निभाता है. जो सही मायने में उत्पादक है. पूंजीपति वर्ग ‘असत्’ का प्रतीक है, जो दूसरों के श्रम को अपना बताकर मुनाफे का अधिकांश हिस्सा स्वयं हड़प जाता है, जिससे धनी लगातार धनवान तथा गरीब लगातार अधिक गरीब होता जाता है. परिणामस्वरूप समाज में अस्थिरता और असमानता बढ़ती है.

समाज में व्याप्त आर्थिक वैषम्य से निपटने के लिए भी विद्वानों के अलगअलग विचार थे. एक वर्ग का मानना था कि समाज में आर्थिक समानता स्थापित करना सरकार का दायित्व है, अतः सरकार को श्रमिकों के हितों की सुरक्षा हेतु समुचित कानून बनाने चाहिए. दूसरे वर्ग का विश्वास था कि पूंजीवाद का सामना केवल संगठित शक्ति द्वारा ही संभव है. इस वर्ग का सुझाव था कि श्रमिकों, छोटे उद्यमियों और व्यवसायियों को अपनेअपने संगठन बनाकर सहकार के माध्यम से पूंजीवाद के विरुद्ध सार्थक समर छेड़ा जा सकता है. इनसे अलग एक वर्ग कतिपय उदारपंथी विचारकों का था, उनका मानना था कि मनुष्यता के नाते पूंजीपति को स्वयं आगे आकर समाज के बड़े वर्ग के पक्ष में अतिरिक्त संपत्ति का परित्याग करना चाहिए. बहुत बाद में गांधी जी ने इसी भावना को ‘ट्रस्टीशिप’ के सिद्धांत के रूप में प्रकट किया था.

मार्क्स का विचार था कि स्वार्थी पूंजीपतियों को मनाना, उन्हें नैतिक जीवन जीने के लिए प्रेरित करना आसान नहीं है. ऐसे में शोषण से मुक्ति का एक ही उपाय है कि श्रमिकवर्ग संगठित होकर स्वार्थी पूंजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष की घोषणा कर दे. जिस दौर में मार्क्स यह घोषणा कर रहा था, वही दौर अस्मितावादी आंदोलन के उदय का भी था. फ्रांस में लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी थी. उसकी देखादेखी यूरोप के अन्य देशों में भी लोकतंत्र की मांग जोर पकड़ रही थी. ऐसे में मार्क्स का दर्शन लोगों को पे्ररित करने के लिए पर्याप्त था. अतएव जहांजहां मशीनीकरण जोर पकड़ चुका था, जहांजहां सामंत और जागीरदारी प्रथा शेष थी, वहां पर श्रमिक वर्ग माक्र्सवादी विचारधारा के अनुरूप संगठित होता चला गया. दूसरी ओर अमेरिका और यूरोप के दिन देशों में पूंजीवाद अपनी जड़ जमाए था, वहां मार्क्सवादी विचारधारा के ठीक विपरीत प्रतिक्रिया हुई. मीडिया और सरकार के सहयोग से वहां मार्क्स के कटुआलोचकों का वर्ग पनपा. मगर इस द्वंद्वात्मकता में मार्क्स की चर्चा दोनों ही पक्षों में होती रही.

मार्क्स के विचारों की वर्तमान संदर्भों में क्या प्रासंगिकता है! उसको अर्थशास्त्री माना जाए या दार्शनिक? या फिर राजनीतिक चिंतक? मार्क्स की ख्याति एक दार्शनिक के रूप में भी रही है. हालांकि उसका दर्शन के क्षेत्र में विशेष मौलिक योगदान बहुत कम है. धर्म को लेकर आलोचना फायरबाख और बायर से प्रभावित है. द्वंद्ववाद पर हीगेल उससे पहले ही गंभीर चिंतन कर चुका था, और वह दर्शनशास्त्र की प्रामाणिक धारा के रूप में मान्य हो चुका था. तत्वमीमांसा से वह कोसों दूर था. तो फिर वह कौनसी बात है, जो मार्क्स को जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों के बीच एकाएक जनता का नायक बना देती है. मार्क्स मूल रूप से अर्थशास्त्री था. बल्कि कहना चाहिए कि एडम स्मिथ के बाद मार्क्स ही वह अर्थशास्त्री है, जिसने पूरी दुनिया को प्रभावित करने में सफलता प्राप्त की थी. सच तो यह है कि मार्क्स का अर्थचिंतन एडम स्मिथ के मुक्त अर्थतंत्र को उसका खरा जवाब था. एडम स्मिथ ने अपने सिद्धांत ‘लेजेज फेयर’ द्वारा सरकारों से पूंजीपतियों के रास्ते से हट जाने का आवाह्न किया था. कहा था कि उद्योगों से सरकारी नियंत्रण हटाओ. पूंजीपतियों को निर्बंध ‘अपना काम करने दो.’

एडम स्मिथ की खुली अर्थव्यवस्था के विचार की आलोचना करते हुए मार्क्स ने कहा था कि औद्योगिक उदारता श्रमशोषण के दम पर ही संभव है. नियंत्रणहीन पूंजीवाद को उसने पूंजी का अराजक खेल माना, जिसमें उद्योगपतियों की भले चांदी कटे, मगर मजदूरों का शोषण बढ़ता ही जाता है. स्पर्धा में बने रहने के लिए पूंजीपति वर्ग मजदूरों की मजदूरी कम करता जाता है. कम वृत्तिका और महंगाई मिलकर मजदूरों और कामगारों के जीवन को उत्तरोत्तर कठिन बनाती है. नई प्रौद्योगिकी सिर्फ अमीरों का बैंक बैलेंस बढ़ाती है. और मजदूर की गरीबी, बेबसी तथा दुर्दशा. स्मिथ के कथन कि ‘उन्हें अपना काम करने दो’ के बदले में मार्क्स का कहना था कि ‘श्रमिकों को उनका हक दो’. हालांकि वह यह भी मानता था कि स्वार्थ में डूबे पूंजीपति श्रमिकों को उनका अधिकार आसानी से देने को तैयार नहीं होंगे. इसलिए वह संगठित विरोध का हिमायती था. उसने आवाह्न किया था कि शोषणकारी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ. तुम्हारे पास हुनर है. काम करने का सामथ्र्य, इच्छाशक्ति और लग्न है. साथ में वर्षों का अनुभव भी. अपनी ताकत, संगठन की ताकत, अपने कौशल और क्षमताओं को पहचानो, एकजुट होकर उत्पादनव्यवस्था को अपने हाथ में ले लो. कौटिक हाथ मिलकर अपने भविष्य का स्वयं निर्माण करो. उत्पादन का माध्यम बनने से, दूसरों के लिए पसीना बहाने से अच्छा है कि स्वयं उत्पादक बनो. आगे बढ़ो. तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है, मगर जीतने के लिए पूरी दुनिया पड़ी है. कफ और बलगम भरी छाती से निकले मार्क्स के ये भरभराते शब्द विश्वभर के कोटिक श्रमिकों के कंठ से निकली आवाज बन गए. ईसाइयों ने इन शब्दों को पवित्र बाइबिल की वाणी माना, हिंदु ने गीता की अमर सूक्तियां. मुस्लिमों इन्हें कुरआन की महान आदेश मानकर संगठित होने लगे. मार्क्सवाद जनमन की भाषा बन गया.

इकीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद की प्रासंगिकता क्या है? बाजारवाद के इस दौर में जब पूंजीवाद बेलगाम और करीबकरीब अराजक हो चुका है, मार्क्स के विचार कितनी दूर तक हमारा साथ दे सकते हैं? इस बारे में परस्परविरोधी मत सुने जा सकते हैं. मार्क्सवाद के आलोचकों ने बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही मान लिया था कि उसका पतन अवश्यंभावी है. मार्क्सवाद के सबसे बड़े गढ़ सोवियत संघ का बिखरना उन्हें अपने निष्कर्ष पर मुहर लगने जैसा प्रतीत होता है. उन्होंने बारबार कहा था, बल्कि आज भी यही दावा करते हैं कि मार्क्सवाद के दिन लद चुके हैं. समाजवाद का सपना बीते जमाने की बात हुई. उनके अनुसार यह जानकर भी जो उससे उम्मीद लगाए बैठे हैं, वे स्वप्नदृष्टा, कल्पनाजीवी हैं. उन भोले बच्चों की तरह हैं जिनकी दुनिया लालीपाप में समाई होती है. पर क्या संभव है किसी विचार का यूं ही एकाएक मर जाना?

यदि कोई पेरिस कम्यून की असफलता या सोवियत संघ के बिखरते जाने जैसी घटनाओं से ही उस विचार को अप्रासंगिक और समयबाह्यः मान बैठे और पूंजीवाद की सार्वकालिक जीत का दावा करने लगे तो यह उसकी नादानी ही कही जाएगी. इसलिए कि साम्यवाद नैतिकता और आदर्शवादी पहचान से युक्त एक अवस्था है, जिसकी संकल्पना लोकगीतों, धार्मिकसामाजिक आख्यानों, कविलेखकोंसाहित्यकारों के मानवतावादी सोच से प्रेरणा पाती है. पेरिस कम्यून में श्रमिक संगठनों और नागरिक सेना की जीत के फलस्वरूप जो अल्पकालिक सरकार बनी थी, उसके अपने मतभेद और आपसी अविश्वास थे. साथ में क्रांति का श्रेय लेने की, दूसरों पर छा जाने की आदिम लालसा भी थी. जो एक तरह से प्राचीन साम्राज्यवाद, सामंतवाद, कुलीनतावाद, ब्राह्मणवाद, यहां तक कि पूंजीवादी वर्चस्व का पर्याय थी.

क्रांति के जुनून में उन्होंने सबकुछ उलटपलट तो दिया था, जोशजोश में जनोन्मुखी व्यवस्था कायम करने की शुरुआती कोशिश भी की. किंतु आपसी मतभेद और तनाव के कारण वे ऐसा कोई तंत्र विकसित करने में असफल सिद्ध हुए थे, जो साम्यवादी मान्यताओं के अनुरूप एक दीर्घगामी व्यवस्था के गठन में सहायक बनता. पेरिसक्रांति के दो प्रमुख सूत्रधारों, मार्क्स और बेकुनिन के मतभेद तो जगजाहिर हैं ही. मार्क्स को लगता था कि क्रांति की सफलता के बाद बेकुनिन अपनी राजनीतिक ताकत को बढ़ाना चाहता है. जबकि बेकुनिन का मानना था कि मार्क्स की बढ़ती हुई भूमिका पेरिस में यहूदीवाद को बढ़ावा देगी. इसी प्रकार के मतभेदों के चलते साम्राज्यवादीपूंजीवादी ताकतों के मनसूबों को भांपने में असफल रहे थे. परिणाम यह हुआ था कम्यून पर फिर सशस्त्र सेनाओं का हमला हुआ और राजशाही दुबारी सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हुई. व्लादिमिर लेनिन के पेरिस कम्यून की असफलता के कारणों को चिह्नित किया है. एक समाचारपत्र में लिए लिखे गए लेख ‘पेरिस कम्यून का पाठ’ में उसने लिखा था कि कम्यून के नेताओं की

केवल दो बड़ी गलतियों ने उस दमदमाती ऐतिहासिक विजय के लाभों पर पानी फेर दिया. सच तो यह है कि सर्वहारा वर्ग के नेता आधे रास्ते पर ही आराम फरमाने लगे थे. अवैद्य कब्जाधारकों की संपत्ति का अधिग्रहण करके न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के करने के बजाय वे कुछ लोकप्रिय राष्ट्रीय मुद्दों के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास करते रहे. बैंक और ऐसे ही दूसरे अन्य संस्थानों का अधिग्रहण, जो बहुत जरूरी था, नहीं किया गया. सर्वहारा वर्ग के शासकों की दूसरी बड़ी भूल उनकी अतिशय दयालुता थी, जिसके कारण अपने दुश्मनों को कुचलने के बजाय वे उनके साथ दयालुतापूर्ण व्यवहार कर, उनके हृदयपरिवर्तन की उम्मीद करते रहे. जनक्रांति में सीधी सैन्य कार्रवाही की उपयोगिता को उन्होंने बहुत कम करके आंका था. बजाय इसके कि पेरिस के पूर्वशासकों से अपनी सुरक्षा के ठोस और पुख्ता इंतजाम करते, उन्होंने उन्हें आराम से दुबारा ताकत बटोरने का पूरापूरा अवसर दिया, जो मई महीने के भीषण खूनखराबे का कारण बना.’

 

कुछ ऐसा ही रूस में हुआ था. पेरिस क्रांति की असफलता ने मार्क्स को अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार का अवसर दिया था. सशस्त्र विद्रोह से उसका विश्वास घटा था. राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक अधिनायकवाद से दीर्घकालिक मुक्ति के नए रास्तों की खोज का सुफल ‘दि कैपीटल’ के रूप में सामने आया था, जिसे उसने इतिहास, दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र, विज्ञान आदि गहन अध्ययन के बाद लिखा था. पुस्तक में उसने वर्गहीन समाज की परिकल्पना की थी. स्मरणीय है कि पेरिस कम्यून को मार्क्स ने ‘सर्वहारा का अधिनायकवाद’ की संज्ञा दी थी. वह उसको साम्यवाद की स्थापना की दिशा में पहला चरण मानता था. साम्यवाद की परिकल्पना इस सोच पर आधारित थी कि द्वंद्व की स्थिति विपरीत शक्तियों में ही संभव है. उनसे बचाव का एक ही उपाय है कि समाज में शक्तिकेंद्र ही न रहें. इसलिए श्रमिक वर्ग सत्ता को हाथ में ले. मगर सत्ता हस्तांतरण से ही उसका काम पूरा नहीं हो जाता. उसके लिए आवश्यक है कि समाज में वर्गहीनता की स्थापना के प्रयास भी साथ ही आरंभ कर दिए जाएं. एक समरस समाज की स्थापना, साम्य की स्थापना उनका ध्येय हो, ऐसा उसने कहा था.

रूस में जो हुआ, वह क्रांति का पहला चरण था. वहां लेनिन के नेतृत्व में जारशाही के विरुद्ध संघर्ष का आवाहन किया गया था. जिसमें मजदूर वर्गों को जीत मिली और जारशाही के स्थान पर श्रमिकों की सरकार अस्तित्व में आई. अपने दायित्व को समझते उसने समाज के पुननिर्माण पर जोर दिया. उसका सुखद परिणाम भी मिला. क्रांति के समय रूस की हालत भारत से कहीं बदतर थी. देखते ही देखते वहां विकास का ऐसा दौर चला कि पचाससाठ वर्षों में उसने स्वयं को विश्व की दूसरी महाशक्ति के रूप में स्थापित कर लिया. बस यही उसकी विड़बना थी. क्रांति का पहला चरण पार कर सत्ता पर अधिकार जमा लेने के बाद उसकी कोशिश द्वंद्व की समस्त संभावनाओं को मेटने के लिए जहां वर्गहीन समाज की स्थापना करना था, वहीं उसने खुद को द्वंद्व में झोंकना प्रारंभ कर दिया. सोवियत सरकार असल में तलवार से तराजू का काम लेना चाहती थी. घोषित रूप उसका लक्ष्य साम्यवाद था, मगर असल में थी विरोधियों को परास्त कर, नंबर एक पर बने रहने की कामना. वह दुहाई न्याय की देती थी, मगर अपने नागरिकों के खूनपसीने की कमाई को, हथियारों और अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को विस्तार देने पर खर्च कर रही थी.

इन परिस्थितियों में भी रूस लंबे समय तक साम्यवादी बना रहा तो इसलिए कि मार्क्स ने अपने समर्थक लेखकोंबुद्धिजीवियों का बड़ा वर्ग पैदा किया था, जिनमें गोर्की, चेखव, टालस्टाय, दोस्तोयवस्की आदि महान साहित्यकार सम्मिलित थे. जो साम्यवादी विचारधारा के अनुरूप लगातार सारगर्भित और प्रतिबद्ध लेखन कर रहे थे. इससे वहां के जनमानस में साम्यवाद के प्रति आस्था बनी रही. बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रतिबद्ध साहित्य की चमकदमक खासकर उसमें नए चेहरों की आमद घटती चली गई. वहीं सरकार ने खुद को और भी महत्त्वाकांक्षी बना लिया था. साम्यवादी नीतियों के अनुरूप वर्गहीन समाज की स्थापना पर जोर देने के बजाय, सरकार अपने संसाधन पूंजीवाद के पर्याय बन चुके अमेरिका को परास्त करने पर तुली हुई थी. यह मजदूरों के दम पर बनी सरकार का वैभव प्रेम था. ब्राजील के दर्शनशास्त्री पाउलो फ्रेरा ने बड़े काम की बात कही है. ‘उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र’ में उसने लिखा है कि आमूल परिवर्तन के पहले दौर में, जिसको परिवर्तन की अपरिपक्व अवस्था भी कहते हैं, उत्पीड़ित अवसर मिलते ही वही करता है, जैसा उसने उत्पीड़क को करते हुए देखा है. इस अवस्था में उत्पीड़क और उत्पीड़ित की सिर्फ भूमिकाएं और सिर्फ चेहरे बदलते हैं, स्थितियां नहीं. इसलिए परिवर्तनकामी शक्तियों को, उन शक्तियों को समाज में वास्तविक परिवर्तन की चाहत रखती हैं, प्रारंभिक सफलता के साथ ही रुक नहीं जाना चाहिए. बल्कि आमूल परिवर्तन की कोशिश पहली सफलता के साथ ही आरंभ कर देनी चाहिए. सोवियत संघ के शासकों से भी यही अपेक्षित था कि वे साम्राज्यवादी गतिविधियों में उलझने के बजाय एक नीतिआधारित समाज की स्थापना पर जोर देते. ताकि वर्गहीन समाज की स्थापना संभव हो सके.

रूसी शासक यह भूल चुके थे कि जनता की सोचने की शक्ति भले ही धीमी हो, मगर उसमें छोटे वैचारिक परिवर्तन भी दूरगामी महत्त्व के सिद्ध होते हैं. पूंजीवादी सरकार में हथियारों के निर्माण से लेकर शोध तक का सारा काम पूंजीपति करते हैं. इसके लिए वे श्रमिकों का ऐसे ही शोषण करते हैं, जैसे कि बाकी अन्य उद्योग. लेकिन उनमें काम करने वाला श्रमिक बिना किसी वैचारिक प्रतिबद्धता के, सिर्फ आजीविका की खोज में उनके साथ जुड़ता है. असहमति अथवा असंतुष्टि की अवस्था में वह जब चाहे तब उसको छोड़कर अन्य उद्योग के साथ जुड़ सकता है. कानून उसके इस अधिकार की रक्षा करता है. हालांकि दूसरी जगह भी उसका शोषण होता है, और भौतिक स्थितियां उसके लिए बहुत अधिक बदलती भी नहीं है. तो भी एक उत्पादक को छोड़ आने का जो संतोष है, साथ ही चयन का आनंद और इसके पीछे निहित अस्मिताबोध श्रमिक का अपना और निजी होता है. इससे अधिक वह सामान्यतः अपेक्षा भी नहीं करता. इससे उसका आक्रोश एक सीमा से बाहर नहीं जा पाता.

सोवियत संघ में यद्यपि उपभोग को बढ़ावा देने वाली प्रौद्योगिकी को प्रतिबंधित किया गया था. मगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हथियारों की स्पर्धा और उसमें आगे निकलने की होड़ में वहां की सरकारें राष्ट्रीय आय का बड़े पैमाने पर निवेश कर रही थीं. इस होड़ का नागरिकों के वास्तविक कल्याण से कोई लेनादेना नहीं था. इससे वहां सामाजिक विकास की रफ्तार उतनी नहीं पहुंच पाई थी, जितनी कि साम्यवादी व्यवस्था में अपेक्षित थी. सोवियत नागरिक स्वयं को भावनात्मक रूप से ठगा हुआ महसूस कर रहे थे. इसपर टिप्पणी करते हुए सुविख्यात चिंतक किशन पटनायक ने लिखा था‘आधुनिकतावादी दिमाग, आधुनिक टेक्नालाजी(यंत्रेश्वर) के बारे में इतना ज्यादा अंधविश्वासी है कि उसके विकल्प की संभावनाओं पर सोच नहीं पाता. एक वैकल्पिक यंत्रप्रणाली की तलाश वह कर नहीं सकता. सोवियत रूस में यही हुआ. रूसी कम्युनिस्टों ने कुछ प्रकार की, खासकर उपभोग की टेक्नोलाॅजी को बड़े पैमाने पर प्रतिबंधित किया. लेकिन वैकल्पिक टेक्नोलाॅजी की तलाश के लिए उनका दिमाग तैयार नहीं था. अंततोगत्वा उनके दिमाग पर आधुनिकता का दबाव इतना गहरा हुआ कि रूस साम्यवाद छोड़ने को तैयार हो गया.’

सोवियत संघ में समस्त उत्पादन व्यवस्था श्रमिक संगठनों के और अंततः राज्य के अधीन थी, जिसका उपयोग उनके नेता अपने राजनीतिक मंसूबों को पूरा करने के लिए करते थे. आम मजदूर के लिए कुछ खास नहीं बदला था. उसके लिए शोषणकारी स्थितियों में अपेक्षित सुधार हो ही नहीं पाया था. इसलिए उस व्यवस्था से उनका हताश होना स्वाभाविक ही था. ऊपर से तयशुदा उत्पादन करना मजबूरी. यही कारण है कि वहां श्रमिकों के मन में व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ता ही गया. परिणाम सोवियत संघ के विघटन के रूप में सामने आया. बावजूद इसके सोवियत संघ के बिखराव को, मानवाधिकार के पतन के रूप में देखना अनुचित होगा. बस इतना कहा जा सकता है कि सोवियत नेताओं की निजी महत्त्वाकांक्षाओं और अदूरदर्शिता के कारण समाजवाद का प्रयोग वहां उतनी अपेक्षा के साथ सफल न हो सका.

दरअसल मार्क्सवाद की मौत का दावा वे करते हैं जो मानते हैं कि साम्यवाद का उद्भव मार्क्स के जन्म अथवा उसके विवेकीकरण के बाद की घटना है. जबकि ऐसा नहीं है. मार्क्स से पहले भी साम्यवाद था. लोग उपलब्ध सुविधाओं और संसाधनों का मिलजुल कर उपयोग करते थे. स्वयं मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा इसी मान्यता के आधार पर प्रस्तुत की है. मार्क्सवाद का अभिप्राय अर्थसत्ता का विकेंद्रीकरण, धर्मसत्ता का विलोपीकरण तथा राजसत्ता का लौकिकीकरण है. ये विचार मार्क्स से ढाई हजार वर्ष पहले जन्मे प्लेटो ने भी व्यक्त किए थे. प्रत्येक धर्म अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए इसी प्रकार की लोककल्याणकारी प्रार्थनाओं की अपने विस्तार की सीढी बनाता है. दूसरे शब्दों में मार्क्स के आलोचक वे हैं जो गलत तरीके से संसाधनों पर अधिपत्य जमाए हैं. जो सारा का सारा मुनाफा स्वयं लील जाना चाहते हैं. जो अपनी पूंजी और ताकत के दम पर वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं. जिन्हें दूसरों के श्रमकौशल पर जीने की, परजीवी होने की आदत पड़ चुकी है. मार्क्स के आलोचक वे हैं, जिन्होंने अपनी संपन्नता दूसरों के श्रम पर अर्जित की है. इसके कारण उन देशों के समाज में भारी आर्थिक असमानता है. ऐसे उदाहरण पूंजीवादी देशों में हर जगह हैं.

अमेरिका का ही उदाहरण लें, वहां पूंजीवाद के बाद स्थिति कितनी बिगड़ी है, वह सामने भले ही न आ पाती हो, क्योंकि जनता और बाकी शक्तियों के बीच पुल की भूमिका निभानेवाला मीडिया, पूंजीपतियों का पक्ष लेता है, और उनके हितों के अनुरूप खबरों की मार्केटिंग करता है. जबकि हालात कितने विकट हैं, यह देखकर मन संताप से भर जाता है. बेलगाम पूंजीवाद समाज को सर्वाधिक अमीर और भीषण गरीब लोगों में बांट रहा है, जो अमीर है, वही उत्पादक है. गरीब के श्रम का उपयोग कर वह उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन करता है. गरीब प्राप्त वृत्तिका का बड़ा हिस्सा उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद पर निवेश करता है. मजदूरी के रूप में उसको सिर्फ उतना ही मिल पाता है, जिससे वह अगले लिए काम पर जा सके. कई बार तो प्राप्त वृत्तिका उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी अपर्याप्त सिद्ध होती है.

एक रिपोर्ट के अनुसार 1994 में अमेरिका की 500 प्रमुख कंपनियां उस देश की कुल 92 प्रतिशत आमदनी पर कब्जा जमाए थीं, जबकि विश्वस्तर की 1000 सबसे बड़ी कंपनियों की सालाना आमदनी आठ अरब डालर है, जो दुनिया के कुल लाभ का एक तिहाई है. अमेरिका में ही केवल आधा प्रतिशत सर्वाधिक धनी कंपनियों के अधिकार क्षेत्र में वहां की 50 प्रतिशत संपत्ति आती है. यही नहीं अमीरों की अमीरी निरंतर बड़ती जा रही है. अमेरिका की सबसे धनी एक प्रतिशत जनसंख्या, वहां की राष्ट्रीय आय में 1978 में जहां केवल 17.6 प्रतिशत हिस्सेदारी रखती थी, वह मात्र दस वर्ष अर्थात 1989 में बढ़कर 36.3 प्रतिशत हो चुकी थी. स्मरणीय है कि पश्चिमी समाज में यही वह समय है, जिसे पूंजीवाद का सबसे सुनहरा दौर माना जाता है.

पूंजीवादी अमेरिका में पूंजी का कुछ हाथों में लगातार सिमटते जाना एक राष्ट्रीय समस्या बन चुका है. 2007 में वहां आई भीषण मंदी का खेल हम देख ही चुके हैं, जिसमें पचास से ऊपर भीमकाय बैंक दिवालियेपन का शिकार हुए थे. उससे पहले वहां बड़ी कंपनियों द्वारा छोटे उद्यमों के अधिग्रहण का दौर चला था, जो 1995 अपने चरमबिंदू पर था. मनोरंजन क्षेत्र की दिग्गज कंपनियां वाल्ट डिजनी, वाशिंगटन हाउस, दवा उद्योग की ग्लैक्सो, कागज उद्योग की स्का॓ट पेपर अपनेअपने क्षेत्र की वे महारथी कंपनियां थीं, जिन्होंने अपनी प्रतिद्वंद्वी कंपनियों को एकाएक निगल लिया था. चेज मेनहट्टन और केमीकल बैंक ने उसी वर्ष मिलकर, 297 अरब डा॓लर की भारीभरकम पूंजी के साथ, अमेरिका के सबसे बड़े बैंकिंग समूह की आधारशिला रखी थी. पूंजीवाद के चरमोत्कर्ष काल में सबकुछ चमकतादमकता हो, यह बात भी नहीं है. बहुत कुछ ऐसा भी था जो चमचमाती रोशनी के पीछे गहराये अंधेरे की हकीकत बयान करता था. अधिग्रहण के उस दौर में छोटी मछलियां आराम से बड़ी मछलियों का शिकार बन रही थीं. उसी वर्ष मित्शुबिशी बैंक और बैंक आफ टोकियो जो दुनिया के सबसे बड़े बैंकों में से थे, दिवालिया घोषित किए गए थे. अधिग्रहण और विलय का यह खेल यूरोपीय देशों में भी फैला और ब्रिटेन, स्विटजरलेंड, जर्मनी आदि अनेक देशों में पूंजी के बड़े मगरमच्छ छोटी मछलियों को निगलने लगे. इससे मार्क्स और ऐंगल्स की यह भविष्यवाणी सच सिद्ध हो रही थी कि पूंजी का सहज स्वभाव केंद्र की ओर खिसकते जाने का होता है. इस प्रकार वह कुछ समूहों तक सिमटकर रह जाती है. अधिग्रहण और विलयीकरण के इस खेल में हर बार कुछ कंपनियां बंद कर दी जाती हैं, जिसका कुफल उनमें कार्यरत श्रमिकों को बेरोजगारी के रूप में भोगना पड़ता है. स्पष्ट है कि

केंद्र की ओर पूंजी का सतत जमाव उत्पादन में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं करता, बल्कि इसका उल्टा ही होता है.’

बेरोजगारी का जिक्र हुआ है तो मार्क्स को एक बार पुनः याद करना पड़ेगा. कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो में उसने कहा था कि बुर्जुआ वर्ग लंबे समय तक सत्ता पर काबिज नहीं रह पाएगा. इसलिए कि वह गरीब और विपन्न वर्गों को अपने दम पर अपने राज्य में सहने की सहूलियत नहीं देता, बल्कि उनके बल पर अपने लिए सुविधाओं का अंबार लगा लेता है. इससे श्रमिक वर्ग के मन में आक्रोश पैदा होता है, जो लगातार बढ़ता जाता है, जो एक दिन बुर्जुआ वर्ग के सत्ताच्युत होने का कारण बनता है. हालांकि पूंजीवादी देशों में ऐसी खबरें प्रायः छनछनकर ही सामने आ पाती हैं. पूंजीपतियों से अस्थिमज्जा प्राप्त मीडिया तथा उन्हीं के दम पर पलने वाली सरकारें, उनपर पर्दा डालने का काम करती हैं. 2007 में छाई मंदी से ठीक पहले पूंजीवाद के समर्थक अर्थशास्त्रीविचारक उदार आर्थिक नीतियों का गुणगान करते नहीं थकते थे. 1995-1996 के पूंजीवाद के सुनहरे दौर में जब बड़ी कंपनियां अपेक्षाकृत छोटी कंपनियों का अधिग्रहण कर अपने विस्तारवादी मंसूबों को अंजाम दे रही थीं, उस समय संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, वैश्विक बेरोजगारों की संख्या 12 करोड़ से भी अधिक थी. ये वे आंकड़े थे, जो पूंजीपतियों के आसरे फलनेफूलने वाले मीडिया ने दिए थे. वास्तविक स्थिति और भी भयावह एवं चिंताजनक है. यदि अस्थायी और ठेके पर अल्पावधि के लिए काम करने वाले कर्मचारियों को भी बेरोजगारों की श्रेणी में रख लिया जाए तो दुनिया के कुल बेरोजगारों की संख्या एक अरब से ज्यादा हो सकती है.

संयुक्त राष्ट्र की उस रिपोर्ट के अनुसार पश्चिमी यूरोप में बेरोजगारों की संख्या दो करोड़ से भी अधिक थी, जो वहां की कुल जनसंख्या का करीब 10.6 प्रतिशत हैं. यही हाल यूरोप के ‘लौहपुरुष’(स्ट्रांग मैन) कहे जाने वाले जर्मनी का था, वहां हिटलर के पतन के बाद पहली बार बेरोजगारों की संख्या में जबरदस्त वृद्धि हुई थी और वह एक झटके में पचास लाख को पार कर चुकी थी. इनमें भी सबसे अधिक आश्चर्यजनक जापान की हालत है. अपनी वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति से पूरे विश्व को चैंका देने वाले जापान में 1930 के बाद पहली बार बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गई. हालांकि सरकारी आंकड़े वहां तीन प्रतिशत बेरोजगारी की बात स्वीकारते हैं, मगर वास्तविक बेरोजारों की संख्या का, कुल जनसंख्या का आठ से दस प्रतिशत होना, चिंताजनक स्थिति है. बढ़ती बेरोजगारी ने इस बार उन क्षेत्रों को भी प्रभावित किया है, जो इससे पहले रोजगार की दृष्टि से अत्यंत सुरक्षित और लाभदायक समझे जाते थे. इनमें अध्यापक, नर्स, डाॅक्टर, बैंक कर्मचारी, वकील आदि सम्मिलित हैं, जो अपनी व्यावसायिक योग्यता के दम पर रोजगार पाते रहे थे. 2007 के बाद तो बेरोजगारी ने युवाओं की कमर ही तोड़ दी है. अमेरिका, यूरोप आदि के देशों में बैंकों और बड़े उद्योगों के बंद अथवा दिवालिया होने के बाद दुनियाभर के श्रमिकोंकामगारों को छंटनी का शिकार होना पड़ा. उनकी संख्या करोड़ों में है.

उदार अर्थनीति की विडंबना है कि आर्थिक प्रगति का लाभ जहां चंद विकसित देश ही उठा पा रहे थे, जबकि छंटनी और दिवालियेपन का असर प्रायः छोटी और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को ही झेलना पड़ा है. इससे मार्क्स का यह कथन एक बार फिर प्रासंगिक लगने लगा, जिसमें उसने कहा था कि पूंजीवाद एक वैश्विक व्यवस्था के रूप में विकसित होगा. मगर विश्वबाजार का अस्तित्व लंबे समय तक टिके रहने वाला नहीं है. इसका अंत सुनिश्चित है. यह हमारे समय का बेहद निर्णायक समय है. सच तो यह है कि हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जिसमें कुछ भी निजी अथवा स्थानीय नहीं है. हमारी अर्थव्यवस्था, राजनीति, संस्कृति यहां तक कि कूटनीति भी स्थानीय नहीं है. सबकुछ वैश्विक और अंतरराष्ट्रीय है. प्रौद्योगिकी प्रेरित अंतरराष्ट्रीयकरण ने हमारी संवेदनाओं को भौंथरा किया है. आजकल युद्ध के समाचार भी तब तक रोमांचित नहीं करते, जब तक कि उनमें अंतरराष्ट्रीयता का पुट न हो. वैसे युद्ध अब राजनीतिक मसला नहीं रहा. बीसवीं शताब्दी ने जितने युद्ध झेले, उनके पीछे बाजार का अधिक हाथ था, जिनमें करोड़ों की जानें गईं. इनमें सबसे आखिरी युद्ध अमेरिका और इराक के बीच था, जिसमें एक महादेश की पूंजीवादी आकांक्षाओं ने अपने से कहीं छोटे देश को पहले तो बदनाम करने की साजिश की. फिर दादागिरी दिखाते हुए उसपर हमला बोल दिया.

यह दादागिरी राजनीति प्रेरित नहीं थी. न उसको देश के नागरिकों का समर्थन प्राप्त था. समर्थन था, पूंजीपतियों का, जो युद्ध में अपनेअपने लाभ देख रहे थे. एक वर्ग को युद्ध की तबाही के बाद उस देश में नवनिर्माण के लिए ठेके मिलने की उम्मीद थी. कुछ का धंधा हथियार बनानेबेचने का था. वे मानते थे कि युद्ध नवनिर्मित रासायनिक हथियारों के प्रदर्शन का अच्छा अवसर सिद्ध होगा, बाद में उनके ग्राहक भी आएंगे. इन महत्त्वाकांक्षाओं ने एक फलतेफूलते देश को तबाही के गर्त में ढकेल दिया. हैरानी की बात है कि जनता और बुद्धिजीवी उस युद्ध को केवल राजनीतिक मसला समझे रहे. युद्ध के वास्तविक जिम्मेदार व्यक्ति कभी सामने आ ही नहीं पाए. युद्ध से नाराज जनता ने बुश महाराज से कुर्सी तो छीन ली. नई उम्मीदों के साथ नया चेहरा राजनीति में आया. मगर पूंजीवादी मंसूबे खत्म नहीं हुए. यानी युद्ध की संभावनाओं और उससे जुड़ी पूंजीवादी आकांक्षाओं का कोई निदान आज तक नहीं खोजा जा सका.

समस्या है कि पूंजीवाद के इस खेल से बचा कैसे जाए? इसका एक ही हल है. किसी भी तरह किसान, मजदूर और कामगार वर्ग अपनेअपने हितों की रक्षा में एकजुट हों. अपनी वास्तविक जरूरतों का आकलन करें. उपलब्ध संसाधनों को जांचे परखें. तत्पश्चात अनुकूल प्रौद्योगिकी का चयन कर उत्पादन की जिम्मेदारी स्वयं संभालें. प्रौद्योगिकी भी ऐसी हो जो समूह के सदस्यों की कुशलता का उपयोग कर, उन्हें आर्थिकसामाजिक रूप में आत्मनिर्भर बनाती हो. लेकिन क्या यह इतना ही आसान है? आजकल सामान्य समझबूझ वाला बुद्धिजीवी भी मानता है कि उद्योगों को बंधनमुक्त होना चाहिए. सरकार उनपर कम से कम नियंत्रण रखे. वैश्विक अर्थव्यवस्था का विकास हो, ताकि उद्योगों को हर जगह एक जैसा वातावरण मिले. सभी देशों में लाइसेंस और परमिट की एकसी शर्तें, एक जैसे विधान हों. व्यवस्था हो कि उद्योगों को समाज के बहुसंख्यक वर्ग के विकास के लिए काम करने की पूरीपूरी छूट मिले. साथ में आवश्यक सुविधाएं भी. ऐसे में कैसे संभव है, पूंजीवाद के संकट से बच पाना. खासकर तब जब पूंजीवाद लगातार मजबूत और हिंò होता जा रहा हो. श्रमिक शोषण के नएनए रास्ते खोजे जा रहे हों. शोध का क्षेत्र पूंजीपतियों के हाथ में चले जाने से सारी प्रतिभाएं, सारे के सारे पेटेंट पहले से ही उनके हाथों में जा ही चुके हैं. पूंजीपतियों के लिए तो वैश्वीकरण भी एक अवसर है. यह वैश्वीकरण भी निरापद कहां है? इससे बड़ी विडंबना भला और क्या होगी कि पिछली शताब्दी में भूमंडलीकरण एवं अर्थव्यवस्था के अंतरराष्ट्रीयकरण की तमाम सूचनाओं के बावजूद भारत में आर्थिक विसंगतियां सिर चढ़कर बोल रही हैं. देश में रोजगार के जितने अवसर बढ़े हैं, बेरोजगारों की संख्या उससे कहीं अधिक बढ़ी है. उससे कहीं तेजी से देश में आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है.

पूंजीवाद के अंतरराष्ट्रीय फैलाव के कारण विभिन्न देशों के आंतरिक और बाह्यः तनावों में भी वृद्धि हुई है. राज्यों के विरोधाभास और भी खुलकर सामने आए हैं. पूंजी का खिंचाव अतिविकसित देशों की ओर बढ़ता ही जा रहा है. हालात को समझने के लिए सिर्फ एक उदाहरण पर्याप्त होगा. 1987 में संयुक्त राज्य अमेरिका अपने कुल सालाना बजट का मात्र छह प्रतिशत हिस्सा निर्यात के माध्यम से जुटाता था. 1997 में निर्यात का हिस्सा बढ़कर 13 प्रतिशत यानी दुगुने से भी अधिक हो चुका था. इकीसवीं शताब्दी की दहलीज पर सरकार की योजना 22 प्रतिशत के लक्ष्य को पाने की है. इससे अमेरिका जैसे विकसित देशों की अर्थव्यवस्था के रहस्य को समझा जा सकता है. विकसित देशों के पास तो पूंजी है, संसाधन हैं, इसलिए वे अपने उत्पादों के लिए बाजार की सतत खोज में रहते हैं. ऐसी तकनीक की खोज में रहते हैं, जिसकी स्थापना लागत भले ही अधिक हो, मगर जिसके माध्यम से उत्पादन व्यवस्था का अधिकाधिक स्वचालीकरण कर सकें. स्वचालीकरण की तीव्र प्रक्रिया में स्थापना लागत भले ही अपेक्षाकृत अधिक हो, मगर उत्पादनवृद्धि और प्रचालन लागत में भारी कमी से उद्योगपति को दीर्घकालिक लाभ मिलता है. दूसरी ओर श्रमिकों पर निर्भरता में लगातार गिरावट आती है. इससे पूंजीपति लगातार ताकतवर होता है और श्रमिक कमजोर.

इस स्थिति को मार्क्स ने 1848 में ही भांप लिया था. कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो में उसने लिखा था

सघन मशीनीकरण तथा श्रमविभाजन की त्वरित प्रक्रिया में सर्वहारा काम के दौरान अपनी समस्त कार्यकौशल और विशिष्टताएं खो बैठता है. इसका प्रतिकूल प्रभाव उसकी कार्यक्षमता पर पड़ता है. उसका उल्लास धीरेधीरे कम होने लगता है. एक दिन वह मशीनों का आश्रित बनकर रह जाता है. पूंजीवादी समाजों में श्रमिक के कौशल को कुंद करने, उसको मशीनों का दास बनाने की सर्वाधिक सरल और प्रचलित चाल है. इससे श्रमिक की उत्पादन लागत को लगभग पूरी तरह से, उसकी रोजमर्रा की आवश्यकताओं तक, सिर्फ उन आवश्यकताओं तक जिनसे वह अपना भरणपोषण कर, कलकारखानों के लिए मजदूरों की नई फसल पैदा कर सके, सीमित कर दिया जाता है. चूंकि किसी उपभोक्ता वस्तु, साथ ही उसके श्रम की कीमत उत्पादन लागत के तय होती है. अतएव जैसेजैसे श्रमिक का उत्पादन से मोहभंग बढ़ता है, काम के प्रति उसका विकर्षण बढ़ता जाता है. दूसरी ओर उसकी वृत्तिका भी उसी अनुपात में गिरती चली जाती है. इसी के साथ कामगार के ऊपर, चाहे वह कार्यघंटों में हुई बढ़ोत्तरी के कारण हो या तय समयसीमा में अधिक काम देने के दबाव का मामला, अथवा उच्च उत्पादनक्षमता युक्त मशीनरी के साथ काम करने के कारण उसके साथ तालमेल बनाए रखने की चुनौतीश्रम का दबाव भी लगातार बढ़ता जाता है.

सोवियत संघ के अवसान के बाद भारत आदि देशों में अमेरिकापरस्त अर्थशास्त्रियों एवं बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग पैदा हुआ है, जिसने पूंजीवाद को लगभग अपरिहार्य और विकल्पहीन मान लिया है. स्वयं अमेरिका की क्या स्थिति है, इस बारे में बहुत अधिक समाचार मीडिया में नहीं दिए जाते हैं. यह भी कहा जा सकता है कि अपने पूंजीवादी संबंधों की लाज रखने के लिए मीडिया उनपर पर्दा डाले रखता है. वस्तुतः आधुनिक अमेरिका की वही हालत है, जो मार्क्स के समय में तत्कालीन सर्वाधिक विकसित पूंजीवादी देश ब्रिटेन की थी. अंतर केवल इतना है कि ब्रिटेन अपने उपनिवेशों के दोहन के लिए राजनीति का सहारा लेता था, अमेरिका यह काम अपनी अर्थसत्ता के माध्यम से करता है. उसने पूरी दुनिया में अपने आर्थिक उपनिवेश बसाए हुए हैं, जिनपर वह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के माध्यम से राज करता है. उपनिवेशों के शोषण में बौद्धिक संपदा जैसे कानून उसके मददगार सिद्ध होते हैं. इसके बावजूद हालात संतोषजनक नहीं हैं. आक्रोश भीतर ही भीतर भड़क रहा है. इसके पीछे अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वे विसंगतियां हैं, जो धीरेधीरे सामने आ रही हैं. ऐलेन वुड के अनुसार अमेरिका में

गत बीस वर्षों के दौरान अमेरिकी श्रमिकों की वास्तविक मजदूरों में बीस प्रतिशत तक की भारी गिरावट दर्ज हुई है, दूसरी ओर उन्हें पहले की अपेक्षा प्रतिदिन दस प्रतिशत अधिक काम करना पड़ता है. कहा जा सकता है कि अमेरिका की औद्योगिक क्रांति वहां के श्रमिक वर्ग के हितों पर कुठाराघात के बाद संभव हो सकी है. उदाहरणार्थ, एक अमेरिकी कर्मचारी को एक वर्ष में औसतन 168 घंटे ओवरटाइम करना पड़ता है, जो एक महीने के कार्य के बराबर है. अमेरिकी आॅटोमोबाइल उद्योग के लिए यह विशेषरूप में सही है, जहां एक कार्यदिवस में नौ घंटे और सप्ताह में छह दिन कार्य करने का प्रावधान है. अमेरिकी मजदूर संगठनों के अनुसार यदि वहां कार्यसप्ताह को चालीस घंटों तक सीमित कर दिया जाए तो मात्र इसी से 59,000 नए रोजगार अवसर पैदा किए जा सकते हैं.’

ऐसा नहीं है कि अपने शोषण के विरोध में श्रमिकों में कोई चेतना या सुगबुगाहट न हो. बल्कि वहां आवाजें उठने लगी हैं. करीब पंद्रह वर्ष पहले 24 अक्टूबर, 1994 को टाइम पत्रिका में प्रकाशित एक आलेख में पूंजीवादी शोषण के विरोध में बढ़ते श्रमिकआक्रोश का उल्लेख किया गया था, जिसमें उन्होंने उदारवाद प्रेरित आर्थिक विस्तार को अपने हितों के प्रतिकूल बताया था. लेख में बताया गया था कि काम के अत्यधिक बोझ के कारण, श्रमिकों की दिनचर्या कारखाने में काम तथा ओवरटाइम करने के बाद घर जाकर नहानेखानेसोने और अगली सुबह फिर कारखाने के लिए दौड़ लगाने तक सिमट चुकी है. इसने वहां के सामाजिक जीवन को भी प्रभावित किया है. इससे जहां शिशु जन्म दर में गिरावट दर्ज की गई है, वहीं तलाक की घटनाओं में भी अप्रत्याशित तेजी आई है. जबकि 1980 तक लगातार विकासमान रही जीवनसंभाव्यता, उसके बाद लगभग स्थिर हो गई है. यह स्थिति अमेरिकी समाज के विकास की विडंबना को दर्शाती है. ब्रिटेन का हाल भी इससे भिन्न नहीं है. जब मादाम थैचर वहां की प्रधानमंत्री थीं तो उद्योगों में 25 लाख रोजगार अवसरों में गिरावट दर्ज की गई थी. बावजूद इसके वहां कारखानों के उत्पादनसामर्थ्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. कामगारों की संख्या में हुई भारी गिरावट के बावजूद उत्पादन स्तर पूर्ववत रहने का कारण केवल उन्नत मशीनों का उपयोग नही है, बल्कि मजदूरों का शोषण भी है. अत्याधुनिक तकनीक भी श्रमिकों के लिए राहतकारी सिद्ध नहीं हुई है. उनकी मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं. श्रमिकों एवं आम जनता को भुलावे में रखने के लिए नए उपकरणों को बड़ी तेजी से एक के बाद कर उतारा जा रहा है. ऐसे उत्पादों के निर्माण पर जोर दिया जा रहा है, जिनका वास्तविक विकास से कोई संबंध ही न हो. लोकतांत्रिक खुलेपन का उपयोग फैशन और नईनई उपभोक्तावस्तुओं के साथ, लोगों को मोबाइल और इंटरनेट पर खुली सेक्ससामग्री परोसने के लिए किया जा रहा है. तंत्रमंत्र और जादूटोने की बढ़ती लोकप्रियता का लाभ उपभोक्तासामग्री के प्रचारप्रसार के लिए किया है. इसका दुष्परिणाम यह है कि समाज में आर्थिक विषमता लगातार बढ़ रही है.

अमेरिका की भांति ब्रिटेन में भी श्रमिकों को अधिक देर तक कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है. उन्हें उस अवधि का वेतन भी नहीं दिया जाता. यही हाल यूरोप के बाकी देशों का है. वहां भी बड़ी औद्योगिक कंपनियां छोटे उत्पादकों को लीलती जा रही हैं. सबसे धनी और निर्धनतम व्यक्ति के बीच आय का अंतर लगातार बड़ता जा रहा है. भारत समेत ऐशियाई देशों में पूंजीवादी व्यवस्था को लागू हुए अधिक दिन नहीं हुए हैं. पश्चिम का अंधानुकरण करते हुए भारत ने उदार अर्थव्यवस्था को अपनाकर, गत पचीसतीस वर्ष से पूंजीपतियों को मनमानी करने का अधिकार दे दिया है. इससे पूंजी का तेजी से केंद्र की ओर खिंचाव जारी है. पिछले एक दशक में जहां देश में अरबपतियों की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई है, वहीं पैंतीस करोड़ नागरिकों को प्रतिदिन बीस रुपये से भी कम आय में जीवनयापन करना पड़ता है. बढ़ते जनाक्रोश के दुष्परिणामस्वरूप पिछले कुछ दिनों से देश में नक्सलवादी गतिविधियां बढ़ी हैं. सरकार और पूंजीपतियों के दबाव में अपनी जमीन और संसाधन लुटा चुके हजारों लोग विद्रोह में व्यवस्था के विरुद्ध हथियारबंद हो उठे हैं. छोटे कारखानों में मजदूरी की बुरी हालत है. वहां बिना किसी नोटिस के कार्यघंटों में 50 प्रतिशत तक वृद्धि हो चुकी थी. इससे पहले जहां श्रमिकों को केवल आठ घंटे काम करना पड़ता था, अब बारह घंटे उतने ही वेतन में काम करना उनकी विवशता बनती जा रही है. यही हालात एशिया के बाकी देशों में हैं. पश्चिम भी इनसे बचा नहीं है. मीडिया पूंजी की इस तानाशाही के विरुद्ध आवाज उठाने के बजाय उसके महिमामंडन में लगा रहता है. स्थिति पर गंभीरतापूर्वक विचार किए बिना उसका प्रयास मार्क्सवाद कठघरे में खड़ा करने का होता है, जिससे अंततः पूंजीवाद ही मजबूत होता है.

यह मार्क्स और ऐंगल्स ही थे, जिन्होंने हमारा परिचय सामाजिक विकास के इस सर्वमान्य और महत्त्वपूर्ण नियम से कराया था, जिसके अनुसार समाज का वर्तमान ढांचा पूंजीपतियों के अनुकूल विकसित हुआ है. यह उसी अवस्था में स्थिर रह सकता है, जब तक समाज की उत्पादक शक्तियां सुरक्षित हैं. कोई भी समाज इससे उस समय तक बच नहीं सकता, जब तक कि वह अपने समस्त संसाधन इस व्यवस्था के विकास के लिए, पूंजीवाद की समृद्धि के निमित्त झोंक नहीं देता. पूंजीवाद के समर्थक अक्सर इस बात का दावा करते हैं कि बाजार की समृद्धि का लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुंचता है. क्योंकि बाजार सभी को अपनी वस्तु का मूल्यांकन करने तथा उसके अनुसार उसका मूल्य वसूलने का आश्वासन देता है. उनके अनुसार यह व्यवस्था श्रमिक के लिए अधिक लाभकारी है. इसमें वह स्पर्धा का लाभ उठाकर अपने लिए ऐसे नियोक्ता की तलाश की तलाश कर सकता है, जहां उसको अधिकतम वृत्तिका की संभावना हो. यह एक दिवास्वप्न ही है. उन्हें जिस गुण में पंूजीवाद की सार्थकता नजर आती है, दरअसल वही उसकी कमजोरी है. नियम है कि बाजार में पूंजी की ताकत ही सर्वोपरि होती है. इसलिए वहां छोटी पूंजी को बड़ी पूंजी के आगे परास्त होना पड़ता है. किसान और श्रमिक के पास अपना श्रम या वे छोटे संसाधन पूंजी के रूप में होते हैं, जो बाजार में किसी प्रकार की ताकत बनने में नाकाम होते हैं. परिणामस्वरूप अपने मूल्यांकन के लिए वे सदैव दूसरों पर निर्भर रहते हैं, जहां उनकी योग्यता का न्यूनतर मूल्यांकन किया जाता है. यह स्थिति पूंजीवादी शोषण को जन्म देती है.

पूंजी की तानाशाही के चलते हम सिर्फ यह सोचकर तसल्ली कर सकते हैं कि किसी भी अन्य विधान की भांति पूंजीवाद का भी जन्म हुआ है. वह भी दूसरी विचारधाराओं की भांति इतिहास के साथ विकसित हुआ है, और आज वह जिस अवस्था में है, वह उसके चढ़ाव की चरम अवस्था है. यहां से उसका पतन अवश्यंभावी है. यही ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा है. यही मार्क्स के चिंतन का लक्ष्यबिंदू है. जब हम इस वैज्ञानिक तथ्य को समझ लेते हैं, तो यह समझना भी आसान हो जाता है कि इतिहास घटनाओं की भावहीन, अतार्किक, अनियोजित और आकस्मिक व्यवस्था नहीं है, जिसको चंद लोग अपनी मनमर्जी से हांक सकें. न ही यह कुछ लोगों की गतिविधियों का परिणाम है. बल्कि यहां जो घटता है, वह एक नैसर्गिक व्यवस्था के अनुसार संचालित होता है, जिसकी सुसंगत व्याख्या संभव है.

मार्क्स के ये विचार चाल्र्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत से प्रेरित थे, जिसने जीवजगत को परिवर्तनशील माना था. अपने अध्ययन द्वारा वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि जीवजंतुओं का भी अपना भूतवर्तमान और भविष्य होता है. विकासक्रम के दौरान उन्हें एक सतत परिवर्तनशील एवं विकासमान प्रक्रिया से अनिवार्यतः गुजरना पड़ता है. डार्विन की वैज्ञानिक खोज की सामाजिक विकास के संदर्भ में व्याख्या करते समय मार्क्स एवं ऐंगल्स का मानना था कि इस सृष्टि में पूर्णतः स्थायी और अपरिवर्तनशील सत्ता की कल्पना मात्र एक भ्रम है. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जो पूरी तरह स्थायी एवं अपरिवर्तनीय हो. सामाजिकतंत्र, चाहे जो भी हो, वह मानवीय भावनाओं के सीमित स्वरूप का प्रदर्शन करता है. अपने भरणपोषण के लिए प्रत्येक समाज उत्पादकता के संसाधनों को अपनाता है. उसके लिए जिन संसाधनों को वह चुनता है, उन्हीं पर उसके विकास की दिशा एवं गति निर्भर करती है. ऐतिहासिक भौतिकवाद का विवेचन करता हुआ मार्क्स अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि वर्तमान समाजों का अभी तक तक इतिहास वर्ग, संघर्ष का इतिहास रहा है.

मजदूर कोरी वितंडा नहीं चाहता. मार्क्स ने उसके हक की बात कही थी. अपने सुख, प्रतिष्ठा और परिवार के भविष्य को दाव पर लगाकर उसने उनके लिए संघर्ष किया था. मजदूर इस तथ्य को जानता है. अतएव मार्क्स उसके लिए देवता हैं. सच तो यह है कि मार्क्स ने हीगेल का द्वंद्ववाद का मानवीकरण किया था. वह उसको आकाश से उतारकर जमीन पर ले आया था. एक तत्ववादी चिंतन को विशुद्ध यथार्थ, लोकोपयोगी चिंतन के रूप में ढाल दिया था. उसका मानना था कि पूंजीवाद का खात्मा श्रमिकों द्वारा उत्पादनतंत्र पर कब्जा कर लेने मात्र से संभव नहीं है. उनके वास्तविक कल्याण के लिए व्यवस्था में आमूल बदलाव जरूरी है. ऐसी व्यवस्था की नींव रखनी होगी जो वर्गहीनता की समर्थक हो. तभी सामाजिकआर्थिक ऊंचनीच की खाई को पाटा जा सकता है. मार्क्स के आलोचकों का सोच केवल सत्ता परिवर्तन तक सीमित है. वे व्यवस्था परिवर्तन के संकल्प से दूर हैं. ऐसे आलोचकों द्वारा मार्क्स की आलोचना की कोई भी बात, उसके चेलेचपाटों की समझ में नहीं आतीं. उन्हें तो गोपियों जैसी साकार भक्ति चाहिए. उद्धव का ज्ञानयोग उनके किसी काम कर नहीं.

मार्क्स अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाजनीति में व्यापक परिवर्तन चाहता था. वह चाहता था कि अर्थनीति का ढांचा मुनाफे के आधार पर नहीं, मानवीय विकास और संवेदनाओं के अनुसार तय किया जाए. मार्क्स के अनुयायी दुनिया को उसी की निगाह से देखते हैं, सिर्फ उसको चाहते हैं. यही उनके लोकप्रिय अथवा अलोकप्रिय होने का कारण है. यही वह गुण है जिसने पूरी दुनिया को दो धु्रवों में बांट रखा है. मार्क्स के चिंतन में सर्वभक्षक पूंजीवाद का विकल्प उपलब्ध है, जिसने पूरी दुनिया की संपदा का प्रवाह विकसित देशों की ओर मोड़ दिया है. कहने को तो तमाम अंतरराष्ट्रीय संधियां देशों के बीच मुक्त व्यापार की बात करती हैं. प्रत्येक देश को यह अधिकार देतीं है कि वह अपने संसाधनों का उपयोग कर अपने उत्पादक सामथ्र्य का अधिक से लाभ उठा सके. मगर व्यवहार में विकसित देशों की अत्याधुनिक तकनीक और विपुल साधनों के आगे स्पर्धा में वे टिक ही नहीं पाते हैं. इसलिए उदार अर्थव्यवस्था का लाभ केवल विकसित देशों के लाभाधिकार तक सीमित होकर रह जाता है. ऐसे में मार्क्स का विश्लेषण हमें पूंजीवाद को गहराई से समझने और उसका सार्थक विकल्प खोजने में मदद कर सकता है.

मार्क्स का सारा जोर पूंजीवाद के चरित्र और उसकी विवेचना को लेकर था. इसी संकल्पना के साथ उसने ‘पूंजी’ की रचना की थी. मार्क्स के निधन के बाद से पिछले 127 वर्षों में पूंजीवाद के चरित्र में व्यापक बदलाव आया है. तो भी उसका मूल चरित्र लगभग वही है, जो उनीसवीं शताब्दी के दौरान था. बल्कि कई मायने में वह पहले से अधिक ताकतवर, क्रूर, उत्पीड़क एवं दुःखदायी हुआ है. स्वचालित प्रौद्योगिकी ने पूंजीपति को पहले से कहीं अधिक शक्तिशाली तथा निष्ठुर बनाया है. इसकी मार्क्स के जीवनकाल में केवल शुरुआत ही हो पाई थी. हाल के वर्षों में कंप्यूटरआधारित तकनीक ने मशीनों को इतना कार्यक्षम और स्वचालित बना दिया है, कि अनेक क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मशीनों का नियंत्रण रिमोट के माध्यम से संभव है. उन स्थानों में श्रमिक का कार्य केवल तैयार माल को सुरक्षित रखने या उसको गंतव्यस्थल तक लानेले जाने में सिमट गया है. वह मानवी हस्तकौशल एवं उसके तकनीकी ज्ञान की उपेक्षा करती है. चूंकि मशीनें तकनीकी कौशल की भरपाई आसानी से कर देती हैं, इसलिए पूंजीपति के लिए श्रमिक की भूमिका उत्पादनकार्य में मात्र सहायक तक सिमटकर रह जाती है. उन्नत प्रौद्योगिकी ने श्रमिकों के मन से ‘उत्पादकशक्ति’ होने की अनुभूति को छीनकर उन्हें कुंठाग्रस्त करने का काम किया है. श्रम का शोषण करना, अधिलाभ के बड़े हिस्से पर उत्पादक का अधिकार, अपने से छोटे उद्यमियों को स्पर्धा में परास्त कर बाजार पर एकाधिकार कायम कर लेने की इच्छा आदि आधुनिक पूंजीवाद के कुछ ऐसे अवगुण हैं, जो आज भी उनीसवीं शताब्दी के पूंजीवाद से मेल खाते हैं, जिनमें कतई सुधार नहीं हुआ है. इससे भी बड़ी बात यह हुई है कि पूंजीपतियों ने लंबी पहुंच वाले संचारमाध्यमों पर कब्जा करके प्रतिपक्ष की आवाज को न उभरने देने का पूरापूरा प्रबंध कर लिया है. कहा जा सकता है कि जिस वैज्ञानिक समाजवाद की परिकल्पना मार्क्स ने की थी, उसकी पहले से कहीं अधिक आवश्यकता आज है.

बावजूद इसके यह एक सामान्य जिज्ञासा का सवाल है कि मार्क्स की आज के संदर्भों में कितनी प्रासंगिकता है. क्या उसके विचारों को इकीसवीं शताब्दी में भी ज्यों का ज्यों अपनाया जा सकता है. दरअसल किसी भी कालखंड में मार्क्स के विचारों को संपूर्णता से आत्मसात नहीं किया गया. इसके कारण स्वयं मार्क्स के लेखन में ही सुरक्षित हैं. ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ में वह मजदूरों का सक्रिय क्रांति के लिए आवाह्न करता है. अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हिंसा का सहारा लेने में भी उसको संकोच नहीं है. पेरिस की रक्तरंजित क्रांति और तदनंतर कम्यून की स्थापना के पीछे भी माक्र्सवादी प्रेरणाएं ही थीं. मार्क्स के विचारों के आधार पर ही श्रमिक आंदोलन की नींव रखी गई. यद्यपि बाद में उसका हिंसक क्रांति से मोहभंग होता है और वह आमूल परिवर्तन के लिए, पूंजीवाद से साम्यवाद तक की यात्रा को दो हिस्सों में बांट देता है. उसके अनुसार क्रांति के पहले चरण में श्रमिक संगठन समस्त राजनीतिक और उत्पादनतंत्रों पर अपना अधिकार जमा लेंगे. उसके बाद वे आमूल परिवर्तन के लिए वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए प्रयासरत होंगे.

इतनी स्पष्टता के बावजूद मार्क्स के विचारों को लेकर उसके समर्थकों के बीच आज भी भारी मतभेद हैं. मार्क्स का राजनीतिकआर्थिक दर्शन दुनियाभर में ‘मार्क्सवाद ’ के नाम से जाना जाता है, जिसमें वह ऐतिहासिक द्वंद्ववाद के आधार पर पूंजीवाद की तीखी आलोचना करता है. परिवर्तन के लिए वर्गसंघर्ष को अवश्यंभावी मानते हुए उसमें सर्वहारावर्ग की जीत की ओर संकेत करता है. दावा करता है कि पूंजीवाद का अंत निश्चित है, वह अपनी ही कमजोरियों का शिकार होकर एक दिन धराशायी हो जाएगा. मार्क्स के इस विश्वास के बावजूद एक स्वाभाविकसा प्रश्न यहां उभरता है कि क्या ‘मार्क्सवाद ’ उसकी मान्यताओं का सहीसही प्रतिनिधित्व करता है. इस प्रकार की बहसें नई नहीं हैं. मार्क्स के जीवनकाल में ये आरंभ हो चुकी थीं. शायद ऐसी ही किसी बहस से तंग आकर अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले मार्क्स ने अपने साले पाल ला॓फर्ग और फ्रांस के चर्चित श्रमिक नेता जूल्स जूडे पर ‘क्रांतिकारी नारों की सौदेबाजी’ तथा उनका श्रमिकों की संगठित शक्ति में अविश्वास होने का आरोप लगाया था. उल्लेखनीय है कि जूडे ने अपने सहयोगियों से पार्लियामेंट हा॓ल से वर्गसंघर्ष की शुरुआत करने का प्रस्ताव रखा था, जिसका उसके साथियों ने जो संसदीय तरीकों में विश्वास रखते थे और मिलजुलकर रास्ता निकालने की नीति के समर्थक थे,जमकर विरोध किया था. इस घटना के बाद कुछ लोगों द्वारा यह आरोप लगाने पर कि जूडे ने जो किया, उसके पीछे मार्क्स की ही प्रेरणा थी, मार्क्स ने अपनी प्रतिक्रिया ऐंगल्स को संबोधित एक पत्र में व्यक्त की थी. उसने लिखा था कि

‘‘यदि यही मार्क्सवाद है तो मैं मार्क्सवादी नहीं हूं.’’

इस तरह मार्क्स के जीवनकाल में ही उसके विचारों के आधार पर समर्थकों के दो दल बन चुके थे. इनमें से एक वर्ग मार्क्स की उपभोक्ता सामग्री, उत्पादन, पूंजी, श्रम आदि को लेकर तर्कसम्मत गवेषणासामथ्र्य का प्रशंसक था, जिसके आधार पर उसने ‘दि कैपीटल’ नामक ग्रंथ की रचना की थी. यह पुस्तक साम्यवादी राज्य की अभिकल्पना प्रस्तुत करती थी. मार्क्स के प्रशंसकों का दूसरा वर्ग ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के साथ गहराई से जुड़ा था और मानता था कि समाजवाद की स्थापना के लिए क्रांति अपरिहार्य है. उसके अलावा परिवर्तन का कोई दूसरा रास्ता नहीं है. मार्क्स की मृत्यु के छह वर्ष उपरांत ऐंगल्स ने ‘दूसरा इंटरनेशनल’ की स्थापना की तो उसने भी राजनीतिक प्रतिरोध की नीति को अपनाया था. ‘दूसरा इंटरनेशनल’ को मार्क्स के सहयोग से स्थापित ‘प्रथम इंटरनेशनल’ की अपेक्षा अधिक सफलता प्राप्त हुई थी. रूस में साम्यवादी क्रांति के बीजतत्व ‘दूसरा इंटरनेशनल’ तथा प्रथम विश्वयुद्ध की असंगतियों से उपजे असंतोष का ही परिणाम थे. लेनिन ने स्वयं को मार्क्स के दर्शन और राजनीतिक चिंतन का असली उत्तराधिकारी घोषित करते हुए रूस में बोल्शेविक क्रांति की नींव रखी. दरअसल लेनिन की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं बड़ी थीं. उसने मार्क्स से उतना ही ग्रहण किया था, जितना उसको अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आवश्यक लगता था. मार्क्स का साम्यवाद सर्वहारा क्रांति से आगे की अवस्था थी. मगर रूस में बोल्शेविक क्रांति पहले चरण पर ही ठहर चुकी थी. बजाय इसके कि मार्क्स के विचारों पर पूरी तरह अमल करते हुए पूर्ण साम्यवाद की स्थापना के प्रयास किए जाएं, रूसी सरकार ने खुद को मारक हथियारों की दौड़ में शामिल कर लिया था. सर्वहारा कल्याण के अनुकूल वैकल्पिक प्रौद्योगिकी की खोज और उसके आधार पर साम्यवाद की स्थापना की ओर किसी का ध्यान ही नहीं था. इससे वहां के नागरिकों के मन में असंतोष पनपा जो अंततः सोवियत संघ के बिखराव का कारण बना. फिर भी यदि करीब अस्सी वर्ष तक रूस में साम्यवाद बना रहा तो इसके पीछे चेखव, गोर्की, दोस्तोयवस्की, अलेक्जांद्र पुश्किन, इवान तुर्गनेव जैसे महान लेखकों का हाथ था, जिसने उस व्यवस्था का एक रूमानी सपना अपने समाज को दिखाया था, जिसकी वास्तविक स्थापना के लिए रूसी समाज दशकों तक प्रतीक्षा करता रहा.

मार्क्स का मानना था कि साम्यवादी क्रांति विकसित औद्योगिक समाजों में ही सफल होगी. फ्रांस, जर्मनी, इंग्लेंड जैसे देशों को जहां औद्योगिक क्रांति फैल चुकी थी उसने साम्यवादी क्रांति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त बताया था. उसका मानना था कि विकसित समाजों में औद्योगिकीकरण के कारण समाज में आर्थिक असमानताओं में वृद्धि होती जाएगी, जो सर्वहारावर्ग को अपनी स्थिति में परिवर्तन के लिए एकजुट होने तथा उत्पीड़क पूंजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने की प्रेरणा देगी. इससे भिन्न व्लादिमिर लेनिन का विचार था कि साम्राज्यवादी शोषण तथा अनियोजित एवं असमान आर्थिक विकास के चलते सर्वहारा क्रांति के लिए पिछड़े देशों में अधिक संभावनाएं हैं. उसका मानना था कि पूंजीवाद जनित उत्पीड़क स्थितियों तथा आर्थिक असमानता का यह दबाव अपेक्षाकृत छोटे और पिछड़े समाजों में सर्वहारा क्रांति की अधिक संभावना पैदा करेगा. वहीं से क्रांति की हवा विकसित देशों की ओर बहेगी, जहां का समाज समाजवाद की स्थापना के तैयार है, तदनंतर वह रूस की ओर बढ़ेगी. ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के रूसी संस्करण की भूमिका में भी मार्क्स ने कुछ ऐसी ही संभावना व्यक्त की थी. इस संभावना पर विचार करते हुए कि सार्वजनिक भूस्वामित्व का अभ्यस्त रूसी समाज क्या साम्यवाद के ऊंचे आदर्शों को अपनाने के आसानी से तैयार होगा, उसने लिखा था कि संभावना यही है कि यदि रूसी क्रांति पश्चिम में सर्वहारा क्रांति के लिए प्रेरणा बनती है तो भूमि पर सार्वजनिक अधिकार का मुद्दा साम्यवाद के विकास का आधारभूत सिद्धांत सिद्ध होगा, इसलिए कि वह साम्यवाद का ही एक रूप है.

मार्क्स का यह विचार कि रूस पश्चिम की साम्यवादी क्रांति का प्रेरणास्रोत बन सकता है, लेनिन और उसके सहयोगी ट्राटस्की के चिंतनकर्म का आधार बना. ट्राटस्की और उसके सहयोगी इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि पश्चिम में साम्यवादी क्रांति की असफलता रूसी क्रांति और कालांतर में पश्चिमी देशों में सर्वहारा क्रांति को प्रेरित करेगी और इस तरह रूस वैश्विक सर्वहारा क्रांति का सूत्रधार बनेगा. इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए स्टालिन ने ‘एक देशीय समाजवाद’ की परिकल्पना से छलांग लगाकर विश्वव्यापी सर्वहारा क्रांति के लिए संघर्ष छेड़ने का आवाह्न किया था. स्टालिन का यह सोच 1930 में लाखों सर्वहारा मजूदरों की मौत का कारण बना, जिसके कारण स्टालिन के विरुद्ध जनाक्रोश फैला. महान रूसी लेखक सोल्झेनित्सिन ने जब स्टालिन के शासनकाल में चलने वाले कारावास शिविरों की अमानवीय स्थितियों का बयान अपने उपन्यास ‘दि गुलाग आर्किपैलेगो’ में किया तो उनको रूसी शासकों की ओर से तरहतरह की प्रताड़नाएं दी गईं. इस उपन्यास के लिए सोल्झेनित्सिन को निर्वासन की सजा भी भुगतनी पड़ी. स्टालिन की मृत्यु के बाद रूस की बागडोर जब निकिता ख्रुश्चेव के हाथों में आई तो उसने स्टालिनवाद को विकार मानते हुए, पूरी तरह नकार दिया. सोल्झेनित्सिन का निर्वासन भी समाप्त हुआ. इस तरह उस रक्तरंजित युग का अंत हुआ, जिसमें स्टालिन के नेतृत्व में साम्यवाद अधिनायकवाद का रूप ले चुका था,

रूस की भांति चीन भी कृषिआधारित अर्थव्यवस्था पर निर्भर था. वहां साम्यवादी क्रांति का अलख जगाने वाला माओ जि दांग था. ‘चीनी साम्यवादी पार्टी’ के स्थापक चेन दुजियु तथा दझाओ के साथ मिलकर उसने चीन में साम्यवादी क्रांति के पक्ष में माहौल बनाने के लिए लंबा संघर्ष किया था. वस्तुतः 1925 तक मार्क्सवादी चीनी नेता मानते आ रहे थे कि शहरी मजदूर ऐतिहासिक द्वंद्ववाद की भावना को समझकर अपने वर्गीय हितों के लिए आसानी से संगठित हो सकते हैं. इसलिए उनकी वर्गचेतना ही चीन में साम्यवादी क्रांति का सूत्रधार बनेगी. माओ किसान का बेटा था. साम्यवादी पार्टी की सदस्यता ग्रहण करने से पहले वह छह महीने तक एक क्रांतिकारी संगठन में काम कर चुका था. उसके बाद मार्क्सवाद के अध्ययन के लिए वह उससे अलग हो गया. बीजिंग में अध्ययन के दौरान उसकी भेंट ली दझाओ और चेन दुजियु से हुई. तीनों क्रांति के समर्थक थे तथा लक्ष्यप्राप्ति के लिए हिंसा का सहारा लेने से भी उन्हें परहेज नहीं था.

साम्यवादी क्रांति के लिए संघर्ष करते हुए माओ इस नतीजे पर पहुंचा कि क्रांति की सफलता के लिए शहरी मजदूरों के बजाय किसानों पर अधिक विश्वास करना चाहिए. इस विचार के लिए माओ को अनेक नेताओं और बुद्धिजीवियों की आलोचना का पात्र बनना पड़ा. परंतु आलोचनाओं से हतोत्साहित हुए बिना माओ किसानों को साथ लेकर माक्र्सवादी क्रांति की सफलता के लिए संघर्ष करता रहा. चीन के गांवों में विद्रोही किसानों को एकजुट करते हुए उसने चीनी सोवियत रिपब्लिक की नींव रखी. उसकी लालसेना ने चियांग केई शेक के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी सेना पर हमले आरंभ कर दिए. राष्ट्रवादी सेना की ताकत बड़ी थी. उसको जापान जैसे पड़ोसी देशों का समर्थन भी प्राप्त था. माओ ने छापामार युद्ध की शैली को अपनाया, जिसमें लालसेना को भारी सफलता मिली. बढ़ी हुई ताकत से वह जापानी मदद से लैस राष्ट्रवादी सेना को पराजित करने में सफल रहा. इस जीत ने उसको चीनी मजदूरों और किसानों का निर्विवाद नेता बना दिया. 1931 में उसे चीन की साम्यवादी पार्टी का नेता चुन लिया गया, इस पद पर वह अगले 45 वर्षांे तक बना रहा. अपने उग्र भाषणों से माओ ने चीनी जनता का दिल जीतने में सफलता प्राप्त की. धीरेधीरे उसकी ताकत बढ़ती गई. एक दिन ऐसा आया जब उसकी ख्याति चीन की सरहदों को पार कर सोवियत संघ पर छाने लगी. सोवियत संघ ने उसके आगे मदद का प्रस्ताव रखा. उस पेशकश को ठुकराते हुए वह अपने ही दम पर मुक्तिसंघर्ष को आगे बढ़ाता रहा.

अंततः 1949 में लंबे गृहयुद्ध के बाद माओ के नेतृत्व में चीन में साम्यवादी सेना को जीत हासिल हुई. उस समय रूस की ओर से नई सरकार को समर्थन के साथसाथ सहयोग की पेशकश गई. परिणाम की चिंता किए बिना ही माओ ने सोवियत संघ पर आरोप लगाया कि वहां साम्यवादियों के बीच कुछ ‘बुर्जुआ’ घुसपैठ कर चुके हैं. इस आलोचना से नाराज होकर सोवियत संघ ने 1960 में चीन को दी जाने वाली तकनीकी मदद से हाथ खींच लिया. उससे घबराए बिना माओ अपने दम पर चीन को समृद्धि की ओर आगे बढ़ाता रहा. उसकी दृढ़ आस्था थी कि तीसरे देशों में जहां औद्योगिक क्रांति अभी तक सफल नहीं हो पाई है, वहां कृषक संघों की मदद से सर्वहारा क्रांति को सफल बनाया जा सकता है. माओ की सफलता से मार्क्सवाद और लेनिनवाद की कमजोरियों को उजाकर किया था. यहां बताना प्रासंगिक होगा कि लेनिन के नेतृत्व में सोवियत संघ की सरकार द्वारा पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष का नारा देते हुए जनाधिकारों की व्यापक उपेक्षा की गई थी. इसकी भरपाई के लिए माओ ने चीन के अतीत और संस्कृति का सहारा लिया. परिणामस्वरूप वह चीनी समाज को एकता के सूत्र में बांधे रखने में सफल हुआ. उसके विचारों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर माओवाद के नाम से जाना जाता है, जो साम्यवाद की ही सहोदर विचारधारा है.

 

ओमप्रकाश कश्यप