महामना ज्योतिराव फुले तथा ‘सत्य-शोधक समाज’

भारत में सामाजिक न्याय की जरूरत शताब्दियों से रही है। परंतु उसे लक्ष्य बनाकर सार्थक, सशक्त एवं सफल आंदोलन चलाने का श्रेय प्रथमत: फुले को ही जाता है। उन्होंने जातिप्रथा, पुरोहितवाद के साथ-साथ समाज में बड़े पैमाने पर व्याप्त आर्थिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज बुलंद की। यह मानकर कि हिंदू धर्म से टकराए बगैर जाति सहित, समाज में व्याप्त तरह-तरह की कुरीतियों का समाधान असंभव है—उन्होंने हिंदू धर्म को सीधी चुनौती पेश की। हजारों वर्षों से मिथ एवं पुराकथाएं जनसाधारण के लिए शास्त्र का काम करती आई हैं, यह देखते हुए फुले ने ‘गुलामगिरी’ में लोक-प्रचलित मिथों की पड़ताल की। फलस्वरूप ऐसे आंदोलन का जन्म हुआ, जो आगे चलकर देश के विभिन्न भागों में जातिवाद विरोधी आंदोलनों की प्रेरणा बना।

महामना फुले

ज्योतिबा फुले का जन्म एक साधारण माली परिवार में पेशवाई का गढ़ कहे जाने वाले पुणे में हुआ था। पेशवाई शासक जातीय दंभ तथा अस्पृश्यों पर अत्याचार के लिए जाने जाते हैं। शूद्रों और अतिशूद्रों को जातीय उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने के लिए फुले ने उन्हें संगठित होने की सलाह दी। अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले तथा अन्य सहयोगियों की मदद से उन्होंने कई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। लोगों को अशिक्षा, पुरोहितशाही, जातीय भेदभाव, उत्पीड़न, भ्रष्टाचार आदि के विरुद्ध जागरूक करने हेतु जो पुस्तकें उन्होंने रचीं—उनमें गुलामगिरी, किसान का कोड़ा, ब्राह्मणों की चालाकी, तीन रत्न(नाटक) आदि प्रमुख हैं।

‘सत्य शोधक समाज’ की स्थापना

आंदोलन को संगठित रूप आगे बढ़ाने हेतु उन्होंने 24 सितंबर, 1873 को ‘सत्य शोधक समाज’ की नींव रखी। उन दिनों समाज सुधार का दावा करने वाले, ‘ब्रह्म समाज’(राजा राममोहनराय), ‘प्रार्थना समाज’(केशवचंद सेन), पुणे सार्वजनिक सभा(महादेव गोविंद रानाडे) जैसे अनेक संगठन कार्यरत थे। लेकिन वे सभी द्विजों द्वारा, द्विजों की हित-सिद्धि के बनाए गए थे। वे चाहते थे कि समाज में जाति रहे, बस जातिभेद चला जाए। शूद्रों-अतिशूद्रों की शिक्षा को लेकर राजा राममोहनराय और केशवचंद सेन दोनों के विचार था कि पहले समाज के उच्च वर्गों में शिक्षा के न्यूनतम स्तर को प्राप्त कर लिया जाए। ऊपर के स्तर पर शिक्षा अनुपात बढ़ेगा तो उसका अनुकूल प्रभाव निचले स्तर पर भी देखने को मिलेगा। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे ‘रिसाव का सिद्धांत’ कहते हैं। इसके अनुसार ऊपर के वर्गों की समृद्धि धीरे-धीरे रिसकर समाज के निचले वर्गों तक पहुंचती रहती है। वे भूल जाते थे कि प्राचीनकाल में जब हर द्विज बच्चे को अनिवार्यतः गुरुकुल जाना पड़ता था, ब्राह्मणों का शिक्षानुपात लगभग शत-प्रतिशत होता था, निचली जातियों का शिक्षानुपात शून्य पर टिका रहता था।

सत्यशोधक समाज के उद्देश्य

‘सत्य शोधक समाज’ के गठन के प्रमुख उद्देश्य थे—‘शूद्रों-अतिशूद्रों को भट्ट, जोशी, पुजारी, पुरोहित, सूदखोर आदि की सामाजिक-सांस्कृतिक दासता से मुक्ति दिलाना। धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यों में ब्राह्मण पुरोहित की अनिवार्यता को खत्म करना। शूद्र-अतिशूद्रों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करना, ताकि वे उन धर्मग्रंथों को स्वयं पढ़-समझ सकें जिन्हें ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के लिए गढ़ा है। सामूहिक हितों की प्राप्ति के लिए उनमें एकजुटता का भाव पैदा करना। धार्मिक एवं जाति-आधारित उत्पीड़न से मुक्ति दिलाना। पढ़े-लिखे शूद्रातिशूद्र युवाओं के लिए प्रशासनिक क्षेत्र में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना।

सत्यशोधक समाज का फैलाव

शूद्रों एवं अतिशूद्रों का फुले पर विश्वास था। इसलिए ‘सत्य शोधक समाज’ को भी उन्होंने हाथों-हाथ लिया। कुछ ही वर्षों में उसकी शाखाएं मुंबई और पुणे के शहरी, कस्बाई एवं ग्रामीण क्षेत्रों में खुलने लगीं। एक दशक के भीतर तो वह संपूर्ण महाराष्ट्र में पैठ जमा चुका था। समाज की सदस्यता सभी के लिए खुली थी, फिर भी मांग, महार, मातंग, कुन्बी, माली जैसी अस्पृश्य एवं अतिपिछड़ी जातियां तेजी से उससे जुड़ने लगीं। लोगों ने शादी-विवाह, नामकरण आदि अवसरों पर ब्राह्मण पुरोहितों को बुलाना छोड़ दिया। इससे ब्राह्मणों ने निचली जातियों को यह कहकर भड़काना शुरू कर दिया कि बिना पुरोहित के उनकी प्रार्थनाएं ईश्वर तक नहीं पहुंच पाएंगीं। घबराए हुए लोग फुले के पास गए। फुले ने उन्हें समझाया कि तमिल, बंगाली, कन्नड़ आदि गैर-संस्कृत भाषी लोगों की प्रार्थनाएं ईश्वर तक पहुंच सकती हैं, तो उनकी अपनी भाषा में की गई प्रार्थना को ईश्वर भला कैसे अनसुना कर सकता है। उन्होंने कहा कि जहां बहुत जरूरी हो, वहां अपनी ही जाति के अनुभवी व्यक्ति को पुरोहित की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। स्वयं फुले ने कई अवसर पर पुरोहिताई की।

बिना पुरोहित के विवाहसंस्कार

एक परिवार में शादी होने वाली थी। पुरोहितों ने घर आकर डराया कि बिना ब्राह्मण एवं संस्कृत मंत्रों के हुआ विवाह ईश्वर की दृष्टि में अशुभ माना जाएगा। उसके अत्यंत बुरे परिणाम होंगे। गृहणी सावित्रीबाई फुले को जानती थी। फुले को पता चला उन्होंने ‘सत्यशोधक समाज’ के बैनर तले विवाह संपन्न कराने का ऐलान कर दिया। सैकड़ों सदस्यों की उपस्थिति में वह विवाह खुशी-खुशी संपन्न हुआ। प्रत्येक व्यक्ति कोई न कोई उपहार लेकर पहुंचा था। उस घटना के बाद ब्राह्मण सतर्क हो गए। एक अन्य घटना में ब्राह्मणों ने घुड़सवार भेजकर दूल्हे के पिता को धमकी दी। लोगों को यह कहकर भड़काया कि फुले उन्हें ईसाई बना देना चाहते हैं। लेकिन फुले इन धमकियों से कहां डरने वाले थे। अप्रिय घटना से बचने के लिए उन्होंने प्रशासन से मदद मांगी। पुलिस की निगरानी में वह विवाह सफलतापूर्वक संपन्न हो सका।

लोगों तक बातें पहुंचाने का निराला अंदाज

ज्योतिराव अपना संदेश लोगों तक कैसे पहुंचाते थे, इसका एक रोचक किस्सा रोजलिंड ओ’ हेनलान ने अपनी पुस्तक दिया है—एक बार फुले अपने मित्र ज्ञानोबा सासने के साथ पुणे के बाहर स्थित एक बगीचे के भ्रमण के लिए गए। वहां एक कुआं था, जिससे उस बगीचे की सिंचाई होती थी। जैसे ही दोपहर का अवकाश हुआ, सभी मजदूर खाना खाने बैठ गए। यह देख फुले कुएं तक पहुंचे और कुएं के डोल को चलाने लगे। काम करते-करते उन्होंने गाना भी शुरू कर दिया। मजदूर उन्हें देखकर हंसने लगे। फुले ने उन्हें समझाया, ‘इसमें हंसने जैसा कुछ नहीं है? मजदूर लोग काम करते हुए अकसर गाते-बताजे हैं। केवल मेहनत से जी चुराने वाले लोग ही फुर्सत के समय वाद्ययंत्रों का शौक फरमाते हैं। असली मेहनतकश जैसा काम करता है, वैसा ही अपना संगीत गढ़ लेता है।’

सत्य शोधक समाज के माध्यम से फुले ने शूद्रों और अतिशूद्रों को अपने विकास और मान-प्रतिष्ठा अर्जित करने का जो रास्ता करीब 146 वर्ष पहले दिखाया था, सामाजिक न्याय के संदर्भ में आज भी उतना ही जरूरी और प्रासंगिक है।

ओमप्रकाश कश्यप