‘सृष्टि के आरंभ में सभी प्राणी एक पुनीत स्थल पर निवास करते थे. वे सुगंधित हवाओं का आनंद लेते. सुरम्य धरा पर मग्न–मन नृत्य करते थे. तब उन्हें न तो भोजन की आवश्यकता थी, न वस्त्रों की, न निजी संपत्ति थी, न सरकार, न ही किसी प्रकार का कानून. धीरे–धीरे सृष्टि के पतन का आरंभ हुआ. मनुष्य सुरम्य लोक से पतित होकर पृथ्वी पर आ गिरा. अब उसे भोजन और आवास की आवश्यकता महसूस होने लगी. मनुष्य की आरंभिक पवित्राता और कीर्ति धुल चुकी थी. वर्ण–व्यवस्था का आरंभ हुआ और लोगों ने एक दूसरे के साथ अनुबंध के आधार पर रहना आरंभ किया. परिवार और निजी संपत्ति उस अनुबंध का हिस्सा बने. इसी के साथ चोरी, हत्या, लूटमार, पर–स्त्राीगमन जैसे अपराध होने लगे.
View original post 6,396 और शब्द