राबर्ट ओवन की कमजोरियां
इस आलेख के पहले दो अंकों में हमने राबर्ट ओवेन के जीवन संघर्ष, उसके त्याग एवं उपलब्धियों बारे में जाना. उसके सपनों और महत्त्वाकांक्षाओं को समझने का प्रयास भी किया. ओवेन के लंबे जीवन की गहन पड़ताल से सिद्ध होता है कि वह एक महान स्वप्नदृष्टा, कामयाब उद्यमी एवं उदार इंसान था. धार्मिक प्रतीकों में कोई आस्था न होने के बावजूद, मानवीय करुणा एवं त्याग का परिचय देते हुए वह गरीब मजदूरों एवं कामगारों के उत्थान के लिए आजीवन कार्य करता रहा. मगर उसकी नाकामियों को देखकर लगता है कि अनुभवों से सबक लेने के गुण का उसमें संभवतः अभाव था. संभवत: अपनी अतिशय उदारता के कारण वह व्यक्तियों को पहचानने में अकसर भूल कर जाता था, इसीलिए अपने जीवन में वह एक ओर तो नई से नई उपलब्धि अर्जित करता रहा, वहीं दूसरी ओर उन्हें किसी न किसी रूप में गंवाता भी रहा. वह बेहद संवेदनशील और भला इंसान था, इसलिए अपने धन का बड़ा हिस्सा उसने दूसरों के कल्याण के लिए खर्च किया. उस समय तक खर्च करता रहा जब तक कि उसकी समस्त पूंजी समाप्त नहीं हो गई. इस बीच उसके साथी उसको छोड़कर जाते रहे. तब भी वह अपने संकल्प पर अडिग रहा. ओवेन को सहकारी आंदोलन का जनक होने का श्रेय प्राप्त है और यह अन्यथा भी नहीं है. उसके जीवन संघर्ष, वैचारिक दृढ़ता, नैतिकतावादी सोच, महान कार्यों, ईमानदारी, जनप्रतिबद्धता और सहजीवन पर आधारित कालोनियों के विस्तार के लिए किए गए कार्य को देखते हुए, उसको यह श्रेय मिलना स्वाभाविक ही है.
ओवेन ने सहकारिता के आदर्श को समाज में स्थापित करने के लिए तमाम प्रयास किए. वह स्वयं एक गरीब परिवार से आया था. अपने परिश्रम के बल पर उसने मेनचेस्टर के कपड़ा उद्योग के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी. जमीन से उठकर वह शिखर तक पहुंचा और अपनी प्रतिभा के आधार पर लंबे समय तक वहां टिका रहा. स्वयं को कामयाब उद्यमी सिद्ध करते हुए उसने तरक्की की कई सीढ़ियां पार कीं. आजीवन आलोचनाओं में घिरे रहने के बावजूद वह न तो घबराया न कभी अपने प्रयासों को मंद ही होने दिया. वह मानता था कि समाज में किसी अकेले व्यक्ति का विकास कोई मायने नहीं रखता, सिवाय मनुष्य के अपने अहं की संतुष्टि के. वह अपने समय के सुखवादी विचारकों से प्रभावित था और सभी के लिए सुख की सुलभता की कामना करता था. उसका मानना था कि—
‘मजदूर यदि कष्ट में हों तो मालिक का सुख उठाना पाप है. मालिक को समझना चाहिए कि रात–दिन कठिन परिश्रम करके फैक्ट्रियों को कमाऊ बनाने वाले मजदूरों का जीवन यदि कष्टकर है, तो उसे मुनाफे को बचाकर रखने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. अपने कर्मचारियों के लिए आवश्यक सुविधाओं का प्रबंध करना उसका नैतिक कर्तव्य है और उसके आगे उसकी बाकी उपलब्धियां अर्थहीन हो जाती हैं.’
ओवेन की यह मान्यता दिखावटी न थी. अवसर मिलते ही उसने अपने मजूदरों के जीवन–स्तर में सुधार के लिए कार्य करना शुरू कर दिया था. सबसे पहले उसने मजदूरों की समस्याओं की पहचान की, फिर उनके निदान के लिए मजदूरों के सहयोग से ही उपाय करने प्रारंभ किए. उसके सारे प्रयास स्वयंस्फूर्त थे. कल्याण कार्यक्रमों के संचालन में उसके अपने संसाधन लगे थे. इससे उसके उद्योगों पर अतिरिक्त व्यय बढ़ा था. लेकिन श्रमिक–कल्याण कार्यक्रमों पर होने वाले खर्च में लगातार वृद्धि के बावजूद, ओवेन की मिलों के कुल मुनाफे में निरंतर इजाफा हो रहा था. ओवेन को मिली कामयाबी ने यह भी दर्शा दिया था कि श्रमिकों के कल्याण के लिए खर्च किया जाने वाला धन गैरउत्पादक नहीं है, बल्कि उसकी वही उपयोगिता है, जो किसी कारखाने में नवीनतम प्रौद्योगिकी की होती है.
अपने सिद्धांतों की व्यावहारिकता सिद्ध करने, उन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए ओवेन ने अपनी जीवन–भर की पूंजी, दांव पर लगा दी थी. वह चाहता था कि इस कार्य के लिए अन्य उद्यमी भी आगे आएं, समाज के प्रति अपने कर्तव्य को समझें तथा उसके पुनर्निर्माण में भागीदारी करें. वह जानता था कि समाज में व्याप्त गरीबी और दिशाहीनता के लिए धार्मिक जड़ताएं भी जिम्मेदार हैं. वे मनुष्य को वास्तविक समस्याओं तथा उनके कारण के बारे में सोचने का अवसर ही नहीं देतीं. सदा भरमाए रखतीं हैं. इस कारण मनुष्य न तो अपनी प्राथमिकताएं तय कर पाता है, न ही उपलब्ध अवसरों का लाभ उठाने में कामयाब होता है. अज्ञानता का एक कारण अशिक्षा भी है. शिक्षा की उपयोगिता को समझते हुए उसने अपनी मिलों में कार्यरत बालश्रमिकों के अध्ययन की समुचित व्यवस्था भी की थी. ये सब प्रयास क्रांतिकारी प्रभाव के थे. जिससे यथास्थिति की समर्थक शक्तियों द्वारा उसकी आलोचना अवश्यंभावी थी.
ओवेन ने समाज में धर्म के नाम पर तेजी से फैलते जा रहे यथास्थितिवाद का जमकर विरोध किया था. वह उनके विरोध का परिणाम भी भली–भांति जानता था. जानता था कि उस अवस्था में उसका धर्मिक बहिष्कार भी किया जा सकता है, उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी धूमिल पड़ सकती है. इसके बावजूद वह अपने सिद्धांतों पर डटा रहा. धर्मिक जड़ताओं और सामाजिक अनाचार के लिए जिम्मेदार शक्तियों पर हमला करने से उसे कोई नहीं रोक सका. अंततः जैसा ओवेन ने सोचा था, वही हुआ भी. उसका सामाजिक बहिष्कार किया गया. सामाजिक अतिवादियों के इस कुकृत्य पर प्रेस चुप्पी साधे रहा. गोया वह भी षड्यंत्र में साझीदार हो. अमेरिका में अपने प्रयोग के विफल हो जाने के पश्चात, जिसमें ओवेन ने अपना सारा भविष्य दांव पर लगा दिया था, उसने स्वयं को श्रमिकों के सुपुर्द कर दिया. उसके आगे के तीन वर्ष उसने मजदूरों के बीच रहकर उनके लिए कार्य करते हुए बिताए. इंग्लैंड का प्रत्येक सामाजिक आंदोलन, श्रमिकों की मार्फत हुई कोई भी नई पहल, राबर्ट ओवेन के नाम से जुड़ी है. किसी अकेले व्यक्ति के लिए यह साधारण उपलब्धि नहीं है.
ओवेन ने सदैव पूरे समूह को साथ लेकर चलने का प्रयास किया था, किंतु आवश्यकता पड़ने पर उसका साथ देने के लिए सिवाय इक्का–दुक्का बुद्धिजीवियों के कोई आगे नहीं बढ़ सका. उसके साझीदार ही कारखाने को घाटे में जाते देख अलग होने लगे थे. लेकिन यह न तो अफसोस की बात है, न ही इसके नेपथ्य में किसी विषादगीत जैसी ध्वनियां हैं. प्रकृति का यह शाश्वत–सा नियम है कि अपने अभियान के आरंभ में प्रत्येक महापुरुष निपट अकेला होता है. दुनिया उससे टकराती है, हतोत्साहित करने का प्रयास करती है. फिर धीरे–धीरे उसके महत्त्व को पहचानने लगती है, तत्पश्चात उसके अनुयायियों की उत्तरोत्तर बढ़ती संख्या आंदोलन का रूप लेती जाती है.
ओवेन को अपने प्रयासों में असफलता मिली. इसे साहचर्यवादी अर्थशास्त्रियों की वैचारिक नाकामी भी कहा जा सकता है. चाहें तो इसे हम सहकारिता आंदोलन की शुरुआती असफलता भी मान सकते हैं. ठीक ऐसे ही जैसे कोई बालक चलना सीखने से पहले लड़ता–झगड़ता, गिरता और उठता है. देखा जाए तो यह आवश्यक भी है, क्योंकि केवल इसी से मनुष्य को नए अनुभवों की खेप प्राप्त होती है, जो उसके लिए नई संभावनाओं के द्वार खोलती है. ओवेन के सहकारी प्रयास की असफलता के पीछे भी निश्चित रूप से कुछ कारण थे, जिन्हें हम निम्नलिखित रूप में वगीकृत कर सकते हैं—
1. हालांकि भारत और पश्चिमी देशों में सहयोगाधारित आर्थिक संगठन उससे पहले भी कामयाबी दर्शा चुके थे. मगर शताब्दियों से विशेषकर सामंतवाद के उभार के दौर में ही वे लुप्तप्रायः थे. पूंजीवाद के दौर में जब अधिकांश विद्वान स्पर्धा को विकास के लिए अपरिहार्य मान रहे थे, साहचर्य पर आधारित संगठन बनाना कतिपय पुराना और अस्वीकृत मान लिया गया विचार था. ओवेन उसको दुबारा केंद्र में लाकर समीचीन बनाने का प्रयास क्रिया था. किंतु तत्कालीन समाज के लिए उस समय तक यह सिद्धांत चूंकि नया था, उसके लिए जिस प्रकार के ईमानदार प्रयास एवं लोकतांत्रिक परिवेश की आवश्यकता थी, उतनी जागरूकता ओवेन द्वारा बनाई गई समितियों के सदस्यों में नहीं थी. यहां तक कि ओवेन के साथी भी उस विचार को पूरी तरह आत्मसात नहीं कर पाए थे.
2. ओवेन का आंदोलन पूंजी अथवा उसके नाम पर किसी भी प्रकार के वर्चस्व के विरुद्ध था. वह पूंजी के संपूर्ण विकेंद्रीकरण का समर्थक था. चूंकि उन दिनों नई तकनीक का आगमन शुरू ही हुआ था, अतः उद्योगपति चाहते थे कि जितनी जल्दी हो सके, उच्च निवेश द्वारा खरीदी गई तकनीक से अधिकतम लाभ कमा लिया जाए. अतएव ओवेन का सर्वकल्याण के लिए देखा गया सपना और उसके लिए तात्कालिक रूप से किए गए प्रयास, पूंजीपतियों को अपने हितों के विरुद्ध जान पड़े. उस समय भी सरकारीतंत्र पर पूंजीवादियों का प्रभाव था. आवश्यकता पड़ने पर ओवेन ने अपने अभियान में जब सरकारी मदद की कोशिशें कीं, तो अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए पूंजीपतियों ने सरकार को विवश कर दिया कि वह ओवेन के प्रयासों को किसी भी प्रकार की सहायता या समर्थन आदि न दे. प्रशासन और सरकार पर अपनी पकड़ होने के बावजूद अपनी योजनाओं के समर्थन के लिए ओवेन सरकार और पूंजीपतियों पर किसी भी प्रकार का दबाव बनाने में असफल रहा.
3. ओवेन में संगठन क्षमता का अभाव था. तत्कालीन पूंजीपतियों ने ओवेन द्वारा बनाई गई समितियों से अच्छे और अधिक खपत वाले माल की थोक खरीद करने का भी षड्यंत्र किया, ताकि समिति के भंडारों पर उनकी कमी हो तथा लोगों का उनसे विश्वास कम हो. चूंकि उनके पास पर्याप्त पूंजी थी, तथा दीर्घकालिक लाभों के लिए वे तात्कालिक घाटा उठाने का सामर्थ्य भी रखते थे, अतः उन्हें अपने मकसद में सफलता भी मिली. परिणामत समिति के भंडारग्रहों, विक्रय केंद्रों पर आवश्यक वस्तुओं की कमी पड़ने लगी, जिससे उपभोक्ता बाजार की ओर मुड़ने लगे. ओवेन मजदूरों को पूंजीवादी शक्तियों के इस षड्यंत्र के विरुद्ध संगठित करने में नाकाम रहा.
4. हीगेल से प्रेरित कार्ल मार्क्स. एंजिल्स आदि विद्वानों के विचार अपेक्षाकृत उग्र थे. वे श्रमिकों को यह समझाने में सक्षम रहे थे कि उनकी समस्याओं का निदान केवल वर्ग–संघर्ष में निहित है. उन्होंने राबर्ट ओवेन, विलियम किंग आदि की ‘कल्पनाशील’ व्यक्ति कहकर खिल्ली उड़ाई थी, जिससे मजदूरों का बड़ा वर्ग कार्ल मार्क्स के विचारों की ओर झुकता चला गया. प्रूधों जैसे विद्वानों ने यद्यपि व्यक्तिगत संपत्ति को हेय बताते हुए उसकी निंदा की थी. उसके बरक्स पूंजीपति अपने उत्पादों को सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक बताने लगे थे. उनके प्रलोभनों के आगे जनसाधारण का बहकते जाना स्वाभाविक–सी बात थी.
6. ओवेन के प्रयासों की असफलता के पीछे एक कारण यह भी था कि वर्षों के शोषण एवं हताशा भरे जीवन ने मजदूरों–गरीबों को अकर्मण्य एवं भाग्यवादी बना दिया था. वे प्रायः अशिक्षित अथवा अल्पशिक्षित थे. उनमें पर्याप्त अधिकार चेतना एवं जागरूकता का अभाव था, जिसकी किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए आवश्यकता थी.
7. सहकारी प्रयासों के प्रति सरकार की उदासीनता के चलते उसके लिए बाहरी पूंजी की आमद या अन्य स्रोतों से कर्ज मिलने की संभावना कम से कम थी. गरीब मजदूर इस स्थिति में नहीं थे कि वे अपने ओर से सुरक्षित निवेश के लिए आवश्यक धन का प्रबंध कर सकें. जैसा कि हमने रोशडेल पायनियर्स के प्रकरण में भी देखा कि अपना उद्यम प्रारंभ करने के लिए भी सदस्यों का जिस न्यूनतम निवेश की आवश्यकता थी, उतना प्रबंध करने की हैसियत भी मजदूरों की नहीं थी. ओवेन ने पूंजीपतियों से कल्याण कार्यक्रमों में धन लगाने के लिए अनुरोध किया था, जिसका बहुत कम प्रभाव पड़ा. पूंजी की कमी के कारण भी शुरू किए गए सहकारी प्रयास अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असमर्थ रहे थे.
हालांकि आगे चलकर, धीरे–धीरे ही सही, लोगों को सहकारिता की महत्ता समझ में आने लगी थी. यह भी सत्य है कि आपने प्रारंभिक वर्षों में सहकार एक प्रतिक्रियात्मक गतिविधि थी, जिसकी व्युत्पत्ति असमान विकास के कारण हुई थी; और उसको आगे बढ़ाने वाला वह वर्ग था, जिसके हितों को तीव्र मशीनीकरण ने आघात पहुंचाया था. औद्योगिक क्रांति ने नागरीकरण की गति को बढ़ावा तो दिया था, मगर उसका लाभ आमजन को नहीं मिल पा रहा था. इसके एक ओर तो सरकारी उपेक्षा, उदासीनता और उसकी अदूरदर्शी नीतियां थीं, दूसरी ओर मिल–मालिकों की न्यूनतम निवेश से अधिकतम लाभ कमाने की प्रवृत्ति और श्रमिक–कल्याण के प्रति उपेक्षा का भाव. इन सब कारणों से नगरों में आर्थिक विसंगतियां बहुत तेजी से बढ़ी थीं.
एक तरफ गरीब बस्तियां…छोटे–छोटे घर, गंदगी–भरा माहौल और भुखमरी जैसी स्थितियां थीं, दूसरी ओर चिकनी सड़कें, गगनचुंबी अट्टालिकाएं तथा विलासिता के दूसरे साजोसामान थे. पूरा समाज जैसे दो वर्गों में बंट चुका था. एक तरफ धनाढ्य लोगों की बड़ी–बड़ी आलीशान कोठियां, भव्य प्रासाद आदि शोभायमान थे, तो दूसरी ओर कुकरमुत्तों की तरह उग आईं, गंदी स्लम बस्तियां, जिनमें सामान्य जनसुविधाओं का अभाव था. औद्योगिक क्रांति से शिल्पकारों से काम छिना था, मशीनीकरण से पहले जो शिल्पकार सम्मान का जीवन जी रहे थे, जिनका संगठित व्यापार देश–विदेश के बीच फैला हुआ था, उन्हें विवश होकर नौकरी से गुजारा करना पड़ रहा था. इससे मजदूर वर्ग की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई थी, परिणामतः स्लम बस्तियों की संख्या में उत्तरोतर वृद्धि होती जा रही थी. उसी अनुपात में उनकी समस्याएं भी बढ़ती जा रही थीं. इसलिए लोगों का संगठित होना स्वाभाविक ही था.
कोई भी नया आंदोलन जनमत के सहयोग के बिना नहीं चल पाता. ओवेन अच्छा पूंजीपति तो था, किंतु लोगों को प्रभावित करने की कला का उसमें अभाव था. इस कारण वह मजदूरों के मन में अपने कार्यक्रमों के प्रति विश्वास जगाने में नाकाम रहा था. कहीं न कहीं मजदूरों के मन में उसको लेकर संदेह बना हुआ था, दूसरी ओर पूंजीपति वर्ग भी उसको अपने हितों का विरोधी मान चुका था. ध्यातव्य है कि उन दिनों साम्यवाद का जोर था. हीगेल के दर्शन का राजनीतिक उपयोग करते हुए मार्क्स ने मजदूरों के कल्याण के लिए श्रमिकों तथा स्वामियों के संघर्ष को अनिवार्य बताया था, जिसे मजदूर वर्ग का पूरा समर्थन प्राप्त था. पूरी दुनिया में परिवर्तनकारी राजनीति का दौर चल रहा था. मार्क्स की प्रेरणा पर असंतुष्ट वर्ग लगातार संगठित होता जा रहा था.
ओवेन ने मजदूरों की स्थिति के प्रति दयालुता का प्रदर्शन करते हुए उनकी स्थिति में सुधार के लिए अनेक कदम उठाए, किंतु अपनी कतिपय कमजोरियों के कारण वह श्रमशक्ति को आमूल परिवर्तन के लिए प्रेरित–संगठित कर पाने में असमर्थ रहा. अपनी असफलताओं एवं कतिपय कमजोरियों के बावजूद ओवेन ने जो किया, वह परिवर्तनकारी राजनीति के इतिहास में अनुपम है. उसने लंबा और कर्मयोगी जीवन जिया. समाज से जितना लिया, उससे अधिक लौटाने के लिए वह सदैव कृतसंकल्प बना रहा. मनुष्यता के भले के लिए कम से कम दो क्षेत्रों में उसका योगदान मौलिक अविस्मरणीय बना रहेगा. पहला शिक्षा के क्षेत्र में, उसने अपनी मिलों में काम करने वाले बालश्रमिकों की पढ़ाई की नियमित व्यवस्था की. उनके लिए पाठशालाएं खुलवाईं. और दूसरा सहकारिता के प्रचार–प्रसार में. उसने न केवल सहकारी समिति की स्थापना की, बल्कि मजूदरों के कल्याण के लिए National Equilable Labour Exchange की स्थापना भी की, जिसमें वस्तुओं का आदान–प्रदान उसमें लगी श्रमशक्ति के आधार पर किया जाता था. यह वस्तु विनिमय की तार्किक व्यवस्था थी, जिसमें किसी वस्तु के मूल्य का आकलन उसमें लगे श्रम–घंटों के अनुसार किया जाता था. ओवेन की ही प्रेरणा पर आगे चलकर रोशडेल पायनियर्स ने एक कामयाब सहकारी संगठन की नींव रखी, जो आगे चलकर सहकारिता आंदोलन के विकास में एक क्रांतिकारी प्रयास सिद्ध हुआ.
राबर्ट ओवेन का प्रभाव
राबर्ट ओवेन का पूरा जीवन संघर्षमय रहा. अपने विचारों को व्यावहारिक रूप से कामयाब बनाने के लिए वह आजीवन प्रयास करता रहा. ध्यातव्य है कि ओवेन का उद्देश्य मात्रा आर्थिक–सामाजिक विषमताओं का निर्मूलीकरण नहीं था, बल्कि समाज के चरित्र में परिवर्तन के माध्यम से मनुष्य की सहयोगकारी प्रवृत्ति को सभी कर्तव्यों के लिए नियामक बनाना था. वह एक गरीब परिवार से आया था. उसका बचपन अभावों में व्यतीत हुआ था. बावजूद इसके उसने अपने सपनों को कभी मरने नहीं दिया. अल्प आयु में ही वह नौकरी करने के लिए मजबूर हो गया. धार्मिक कर्मकांड में उसकी कोई आस्था नहीं थी, किंतु ईसाई धर्म के सेवा और कल्याण के सिद्धांत में वह विश्वास करता था और आजीवन उसी के लिए कार्य करता रहा. अपनी प्रतिभा, दूरदर्शिता तथा उद्यमशीलता के दम पर उसने खूब धनार्जन किया. मगर धन उसकी मनोवृत्ति को बदल पाने में असफल रहा. इसलिए कि उसके लिए धन साध्य न होकर साधन–मात्र था; जिसके द्वारा जीवन के उच्चतर उद्देश्यों की पूर्ति की जा सके, जिसके लिए वह आजीवन प्रयोग करता रहा. यह बात अलग है कि उनमें से एक में भी उसे स्थायी सफलता प्राप्त न हो सकी. इसके बावजूद उसके प्रयासों को निष्फल मान लेना उचित न होगा. अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, ओवेन ने अपने समकालीन विचारकों को गहराई से प्रभावित किया था. उसने अपने बहुत से अनुयायी भी बनाए. उसने लोगों को प्रेरित किया कि वे ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ के लिए विकास की वैकल्पिक पद्धति को अपनाएं, जिसमें संसाधनों के विकेंद्रकरण पर जोर दिया जाता है.
यहां यह स्वीकार करने में भी कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि एक विचारक के रूप में ओवेन में मौलिकता का अभाव था. उसने केवल प्रचलित विचारों के कार्यान्वन पर काम किया. इस मामले में वह अपने पूर्ववर्ती और समकालीन विचारकों से अलग और काफी आगे था. जिस रास्ते को दूसरे विचारक कोरा आदर्शवादी दृष्टिकोण, अव्यावहारिक और कल्पना की उड़ान कहकर टाल दिया करते थे, ओवेन उसी पर आजीवन निष्ठापूर्वक चलता रहा और ईमानदारी से नए–नए प्रयोग भी करता रहा. उसकी महानता इसमें है कि उसने मानव–कल्याण के जुड़े प्रत्येक पक्ष पर विचार करने के साथ–साथ, उसके के लिए कारगर योजनाएं भी बनाईं. जिनकी प्रेरणा से दुनिया–भर में एक नए आंदोलन का जन्म हो सका.
ओवेन को एक ओर जहां सहकारिता आंदोलन का पितामह होने का गौरव प्राप्त है, वहीं शिशु पाठशालाओं को आरंभ करने का श्रेय भी उसी को जाता है. शिशु पाठशालाओं की स्थापना जैसे कल्याणकारी कदम उठाने के पीछे ओवेन की कोई व्यावसायिक महत्त्वाकांक्षा नहीं थी. इसके पीछे उसका लक्ष्य गरीब मजदूरों के बच्चों को शिक्षा से जोड़कर उन्हें बेहतर नागरिक बनाना था. यद्यपि ओवेन द्वारा प्रारंभिक वर्षों में श्रमिक कल्याण के नाम पर किए गए कार्यों के पीछे, कहीं न कहीं उसके व्यावसायिक हित छिपे थे. किंतु बाद में, विशेषकर सहकार बस्तियों की स्थापना के बाद मिली असफलता के पश्चात, वह पूरी तरह मानवतावादी हो गया था. अपने समस्त धन, कार्यक्षमता एवं ऊर्जा के साथ उसने समाज–कल्याण के कार्यों में हिस्सेदारी शुरू कर दी थी. अपने प्रयासों में उसे स्थायी सफलता भले ही न मिल पाई हो, मगर सहकार की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने और उसके लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने में वह अपेक्षित रूप से सफल रहा था.
ओवेन के विचारों से प्रेरणा लेकर कालांतर में डा॓. विलियम किंग, फ्यूरियर, जोसेफ ब्लैंक, आदि ने सहकारिता के प्रयासों को आगे बढ़ाया. फ्यूरियर ने फ्रांस में सहकारिता आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए वही कार्य किया, जो इंग्लैंड में ओवेन द्वारा किया गया. दोनों में राबर्ट अधिक प्रयोगशील था, जबकि फ्यूरियर ने की पैठ सैद्धांतिक मामलों में अधिक थी. सहकारिता के सिद्धांत पक्ष को मजबूत करने के लिए उसने काफी कार्य किया था. डा॓. विलियम किंग ने सहकारिता के प्रचार के लिए ‘दि को–आपरेटर’ नामक समाचारपत्र निकाला और उसके माध्यम से सहकारिता और समाजवादी विचारधारा को जन–जन तक पहुंचाने का कार्य किया. लगभग उसी दौर में चार्ल्स हावर्थ, विलियम हूपर, आदि लंदन के अठाइस बुनकरों ने संगठित होकर रोशडेल पायनियर्स के नाम से एक बड़ी सहकारी संस्था की स्थापना की गई. हालांकि चार्ल्स हावर्थ उससे पहले भी एक और सहकारी समिति का गठन कर चुका था. लेकिन उसका पहला प्रयोग बुरी तरह असफल रहा था. उसके कारण हावर्थ को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ा था. बाद में अपनी ही गलतियों से सबक लेते हुए हावर्थ ने अपने अठाइस मजदूर साथियों के साथ एक ओर समिति की स्थापना की. जिसकी कामयाबी ने सहकारी आंदोलन की ताकत से सारे विश्व को चौंका दिया.
ओवेन ने सहकारी आंदोलन का सूत्रपात किया, किंतु आजीवन कोशिश तथा तमाम संसाधनों को झोंक देने के बाद भी उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई थी. कारण संभवतः यह रहा कि समाज के बाकी लोगों का विश्वास जिनसे वह सहकार की अपेक्षा रखता था, जिनके माध्यम से आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहता था और कदाचित जिन्हें उसकी सर्वाधिक आवश्यकता भी थी, उनका विश्वास जीत पाने में वह असमर्थ रहा था. उसकी मिल में काम करने वाले मजदूरों तथा सामान्यजन के मन में भी उसको लेकर किंचित संदेह की स्थिति बनी रही. दूसरी ओर मार्क्सवादी विद्वानों ने ओवेन, ब्लैंक, विलियम किंग आदि साहचर्य समाजवदियों की आलोचना करते हुए आरोप लगाया था कि उनके द्वारा दिखाया गया समाजवाद का सपना सिर्फ एक कल्पनालोक था.
एक और बात जो ओवेन की सफलता के आड़े आई वह यह थी कि वह स्वयं एक उद्योगपति पहले था. अपने कारखानों में कार्यरत मजदूरों की स्थिति में सुधार के लिए उसने जितने भी कदम उठाए, उनसे उसके मुनाफे में कल्पनातीत वृद्धि हुई थी. इससे यह संकेत भी गया कि उसके द्वारा चलाया जाने सुधारवादी आंदोलन महज उसकी उत्पादन नीति का हिस्सा था. यह बात इससे भी सिद्ध होती थी कि ओवेन के कारखानों में अपेक्षाकृत पुरानी तकनीक पर आधारित मशीनें लगी थीं. उन्हें चलाने के लिए अधिक श्रम की आवश्यकता पड़ती थी. इसके बावजूद वही कारखाने मुनाफा उगल रहे थे. अतएव ओवेन के आलोचकों को यह कहने का अवसर भी मिल गया कि ओवेन द्वारा मजदूर–कल्याण के नाम पर उठाए जा रहे सभी कदम, पुरानी तकनीक से ध्यान हटाने की कोशिश हैं.
इसके साथ कहीं न कहीं यह विचार भी हवा में था कि सहकारिता आंदोलन को मुख्यतः बड़ी सहकार बस्तियों, जिन्हें फ्लेंथ्रापी कहा जाता था, के माध्यम से ही आगे बढ़ाया जा सकता है अर्थात कहीं न कहीं उस आंदोलन को समाज के संपन्न वर्ग और उसकी दयालुता के साथ जोड़ा गया था. जनसामान्य के मन में आत्मविश्वास पैदा कर उसे स्वयं अपनी स्थिति के प्रति जागरूक बनाने तथा समस्याओं के निस्तारण के लिए बिना किसी की सहायता से आगे बढ़ने का विचार उस समय तक आम नहीं हो पाया था. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि अठारहवीं शताब्दी तक दुनिया के सभी देशों में सामंतवाद का बोलबाला था. राजसत्ता और राजनीति समेत अनेक स्तरों पर हुआ. सामाजिक स्तर पर वर्ग और जाति बनाकर, धर्मसत्ता निहित स्वार्थों के लिए आमजन के शोषण में लिप्त थे.
ऐसे परिवेश में सहकार को लोक–प्रचलन में लाने, केंद्रीय व्यवस्था बनाने के लिए उसपर व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों स्तर पर काम करने की आवश्यकता थी. इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए संत साइमन, फूरियर, विलियम किंग, लुइस ब्लैंक, प्रूधों आदि विद्वानों ने सहकारिता आंदोलन को स्थापित करने के लिए भिन्न–भिन्न स्तर पर कार्य किया. उसे एक ओर जहां पुष्ट वैचारिक आधार देने का काम इन विचारको ने किया, वहीं व्यावहारिक रूप से सहकारी समितियों का गठन करके आंदोलन को आगे ले जाने की योजनाओं को भी बाखूबी अंजाम दिया गया. प्रारंभिक दौर में हालांकि सफलताएं हल्की–फुल्की रहीं, किंतु उन्हें आधार मानकर जो भूमिका गढ़ी गई, आगे चलकर उसी के आधार पर नए समाज का जन्म संभव हो सका.
इन विचारकों की महत्ता इस अर्थ में है कि उन्होंने सहकारिता का सैद्धांतिक स्वरूप स्पष्ट करने में अपनी प्रतिभा से योगदान दिया, जिससे सहकारिता को शास्त्रीय मान्यता मिलने लगी. परिणामतः उसके आलोचकों को जवाब देना आसान हुआ, साथ ही वैकल्पिक अर्थदर्शन को मजबूत आधार मिला. यद्यपि मैकाले जैसे साम्राज्यवाद के समर्थक लोग, काल्पनिक समाजवादी कहकर उनका मजाक भी उड़ाते रहे, शायद इसलिए कि विकास के प्रति साहचर्य समाजवादियों का दृष्टिकोण बहुत कुछ आदर्शवादिता का शिकार था. या इसलिए कि वह अनोखा और अधुनातन था. क्योंकि उससे पहले तक सभ्यता के आरंभ, यानी जहां तक भी उनकी निगाह जाती थी, उन्होंने शिखर पर कुछ ही लोगों को विराजमान देखा था. दुनिया–भर का इतिहास किसी न किसी महानायक की या तो प्रणयगाथा है, उसका विजय अभियान या फिर पराभव की दारुण कथा. उसी को पढ़कर उनका मानस विकसित हुआ था. विकास के लिए जरूरी संसाधन आज भी उन्हीं लोगों के पास थे, इसलिए उनके लिए उनके लिए यह संभव भी न था कि एकएक अपने संस्कारों के दबाव से हटकर सोच सकें.
संभव है कि त्वरित परिवर्तनों के कारण स्थिति में बदलाव का डर भी उन्हें प्रतिकूल विचारों से दूर रखने का एक कारण रहा हो. ऐसे लोगों के लिए यह कल्पना करना बहुत ही कठिन था कि जनसाधारण जो अभी तक दूसरों की दया–दृष्टि पर निर्भर रहा है, वह न केवल अपना बल्कि पूरे राष्ट्र का भाग्यविधाता भी बन सकता है. राजनीतिक दृष्टि से देखें तो यह राज्य के राष्ट्र में परिवर्तित होते जाने की घटना थी, जिसने आम आदमी को केंद्र में लाकर महत्त्वपूर्ण बनाने का कार्य किया था.
जो हो, उस समय परिवर्तन की डोर ऐसे समाजवादी चिंतकों के हाथ में थी, जिनकी प्रतिबद्धता किसी एक सत्ता–प्रतिष्ठान या व्यक्ति विशेष के प्रति न होकर पूरे समाज के प्रति थी. व्यक्तिवादी विचारों के प्रति समाज की आग्रहशीलता ने भी इन बदलावों को आगे ले जाने में मदद की थी. ध्यान रहे कि व्यक्तिवाद के समर्थन में सबसे पहले पूंजीपति ही आगे आए थे. कहा जा सकता है कि यह विचार उन्हीं के पोषित विद्वानों द्वारा समाज में आरोपित किया गया था. क्योंकि व्यक्तिवाद प्रकारांतर में उपभोक्तावाद का ही एक रूप था, जो कि मशीनों द्वारा सघन उत्पादन के सिद्धांत के आधार पर बनाए जा रहे उत्पादों की खपत के लिए अत्यावश्यक माना गया था. यह सोचकर कि अपने समूह या समाज की और झांकते रहने वाला व्यक्ति अच्छा उपभोक्ता नहीं बन सकता, पूंजीपतियों तथा उनके पिट्ठू विद्वानों व्यक्तिवाद का गुणगान किया जाने लगा था. किंतु शिक्षा के प्रचार–प्रसार के साथ, नई व्यक्तिवादी विचारचेतना ने पूंजीवाद के समक्ष ही चुनौतियां पेश कर दी थीं. अपनी विपुल नागरिक संख्या तथा उसकी संगठन क्षमता के चलते, अब वह अपनी राह अलग बनाना चाहता था.
कहना न होगा कि मध्यवर्गी चेतना को ऐसा करने का अवसर भी पूंजीवाद और उसकी समर्थक शक्तियों ने ही दिया था. एक ओर शिखर पर छा जाने की की लालसा ने उद्योगपतियों को अधिक लालची और अमानवीय बनाया था, दूसरी ओर अंधाधुध मशीनीकरण ने बेरोजगारी को बढ़ावा देकर सामाजिक असंतोष में वृद्धि कर दी थी. स्थिति उस सपने से एकदम अलग थी, जो मशीनीकरण के आगमन के समय लोगों को दिखाया गया था. विकास के सभी दावे जो औद्योगिकीकरण के साथ सरकार और पूंजीपतियों द्वारा जनता से किए गए थे, वे सभी व्यर्थ सिद्ध हो चुके थे, जिससे समाज में खदबदाहट थी.
इसी असंतोष और बढ़ती जनाकांक्षाओं को व्यक्तिस्वातंत्र्य के हिमायती विचारक सामाजिक परिवर्तन का औजार बनाने का प्रयास कर रहे थे. वे अधिकांशतः कविहृदय, भावुकता और संवेदनाओं से भरे थे और एक नए समरस सौहार्दपूर्ण समाज का सपना देखते थे. यह उम्मीद करते थे कि महज सामूहिक प्रयासों से, बगैर राजसत्ता और दूसरे शक्ति केंद्रों की मदद के, एक समानता–आधारित समाज के सपने को सच किया जा सकता है. जिन लोगों से वे यह उम्मीद बांधे हुए थे, वे सभी साधनविहीन विपन्न, इधर–उधर बिखरे कलाकार, असंगठित मजदूर, बेरोजगार शिल्पकार, गरीब कामगार आदि थे, जिनमें से अधिकांश अशिक्षित या अल्पशिक्षित थे. एक खामाख्याली भी उन लोगों को थी कि पूंजीपति और संपन्न लोग इनकी बातों में आकर अपनी समस्त संपत्ति इनके कहने पर न्योछावर कर देंगे. वे यह भी सोच बैठे थे कि अपने अतिसीमित संसाधनों, किंतु विपुल जनसंख्याबल के आधार पर बड़े पूंजीपतियों और उनके भारी–भरकम कारखानों को टक्कर दे सकते हैं.
दूसरी ओर समाज के बड़े वर्ग का सोच तब भी पूरी तरह सामंतवादी और पुरातन था. औद्योगिक क्रांति एवं नए आविष्कारों का लाभ उठाकर सामंत और रजबाड़े अपनी पूंजी का निवेश नए–नए कारखानों को आगे बढ़ाने में कर रहे थे, उनके पास विपुल संसाधन थे और एकजुटता भी. समाज में लोकतंत्र की बयार से घबराए वे लोग उत्पादन के नए साधनों में निवेश बढ़ा रहे थे. बदलाव का जो सपना औद्योगिकीकरण के साथ देखा गया था, वह सिर्फ अपना चोला बदल रहा था. सामंतवादी नख–दंत कूटनीति के ला॓कर में छिपाए जा रहे थे. उनके स्थान पर यत्नपूर्वक डिजाइन की गई मा॓डली मुस्कान को होठों पर चस्पां किया जा रहा था. बावजूद इसके समाजवादी विचारकों का मानना था कि परिवर्तन संभव है, क्योंकि वास्तविक शक्ति जनता के हाथों में है. इस विचारधारा के पीछे मार्टिन लूथर किंग, रूसो, वाल्तेयर, आदि की प्रेरणा थी और बैंथम, जेम्स मिल, फ्यूरियर, प्रूधों आदि का योगदान, जिसने जनतांत्रिक विचारों को आगे बढ़ाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था. प्रकारांतर में इन वैचारिक आंदोलनों का सहकारिता को भी भरपूर लाभ मिला.
राबर्ट ओवेन ने सहकरिता के क्षेत्र में मौलिक प्रयोग किए. उसने अपनी मिलों में काम करने वाले कारीगरों को मानवीय वातावरण प्रदान करने की कोशिश की. मजदूर बच्चों को शिक्षा देने के लिए पाठशालाएं खुलवाईं, इसीलिए उसको सहकारिता के साथ–साथ शिशु शिक्षा केंद्रों का जनक भी माना जाता है. ओवेन के प्रयासों का मजदूरों की ओर से भी स्वागत किया गया, जिससे उसका उत्पादन स्तर लगातार बढ़ता चला गया. यहां तक कि इंग्लैंड में आई भयंकर मंदी के दौर में उसकी मिलें मुनाफा उगल रही थीं. ओवेन की सफलता ने उसके आलोचकों का मुंह बंद कर दिया था. उससे समाजवादी विचारकों को दोहरा लाभ मिला था. एक तो वे यह बात उदाहरण देकर समझा सकते थे कि मजदूरों को दी जाने वाली सुविधाएं अनुत्पादक नहीं हैं. वे भी एक प्रकार का निवेश हैं, जिनके आधार पर लाभानुपात को बढ़ाया जा सकता है. दूसरे सहकारी प्रयासों से, भले ही वे प्राथमिक स्तर पर किए गए थे और कालांतर में असफल भी सिद्ध हुए थे, श्रमिक वर्ग में एक नई चेतना का प्रादुर्भाव हुआ था. उन्होंने अपने श्रम के मूल्य को समझा, संगठन की शक्ति को पहचाना और पाया कि उन्हीं के श्रम पर भारी मुनाफा कमाने वाला पूंजीपति वर्ग, उसका वास्तविक मूल्य देने से कतराता है. उसका राजनीतिक निकष् साम्यवाद के रूप में तथा वाणिज्यिक परिणाम सहकारिता की स्थापना का कारण बना.
इस तरह नए विचार की स्थापना के लिए जिस प्रकार के माहौल की आवश्यकता होती है, वह प्राथमिक स्तर पर ही सही, धीरे–धीरे बनने लगा था. या कहें कि अनुभवों के दौर से गुजर रहा था. यही कारण है कि ओवेन को मिली असफलता के बावजूद नई सहकारी समितियां बनने का सिलसिला बंद होने या हल्का पड़ने के बजाय उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा था. ओवेन के तुरंत बाद विलियम किंग ने दो सहकारी समितियों का गठन किया था. हालांकि उसका प्रयास भी असफल रहा था. लगभग उन्हीं दिनों इंग्लैंड में टोड लेन के बेरोजगार मजदूर बढ़ती महंगाई से त्रस्त होेकर कुछ नया करने को संकल्पबद्ध हो रहे थे. उनमें कुछ सहकारिता के लिए एकदम नए थे, तो कुछ अपने अपने अनुभव का लाभ उठाकर पिछली पराजय के दाग धो डालना चाहते थे.
उनके प्रयासों की परिणति 1844 में एक कामयाब सहकारी संस्था के रूप में हुई. रोशडेल पायनियर्स को मिली सफलता से एक बात और भी साफ हो गई थी कि सहकार में सफलता तभी संभव है, जब उसकी शुरुआत वह स्वयंस्फूर्त भाव से की गई हो. ध्यान रहे कि इससे पहले के सभी प्रयास या तो ओवेन जैसे दयालु उद्यमियों की देन थे अथवा ब्लैंक, फ्यूरियर और विलियम किंग जैसे बुद्धिजीवियों–विचारकों के. रोशडेल पायनियर्स के रूप में पहली बार मजदूर–कारीगर स्वयं संगठित होकर आगे आए थे. चूंकि वे सभी औद्योगिक परिवेश से परिचित थे, इसीलिए समिति को उन्होंने एक नैतिक–व्यावसायिक आधार देने का प्रयास किया था. उनका प्रयास सफल रहा और वही भविष्य के सहकारिता आंदोलन के लिए दिशानिर्देशक बनकर आगे बढ़ चला.
उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सहकारिता आंदोलन को पूरे विश्व में प्राथमिकता मिलने के पीछे एक कारण सरकारों का यह डर भी था, कि बढ़ती लोकचेतना के दबाव के आगे आम नागरिकों की उपेक्षा लंबे समय तक कर पाना संभव न होगा. क्योंकि उन्हीं दिनों राजनीति पर अस्तित्ववादी एवं साम्यवादी विचारों की झलक साफ दिखने लगी थी. लेनिन, मार्क्स, फ्रैड्रिक ऐंग्लस, आल्वेयर कामू, नीत्शे, मिल आदि विद्वान एक ओर जहां व्यक्तिवादी चिंतन को विस्तार दे रहे थे, वहीं दूसरी ओर वे पूर्ण समाजवादी राज्य की स्थापना के लिए मजदूरों का आवाह्न भी कर रहे थे, जिसका असर तत्कालीन वैश्विक राजनीति पर साफ दिखने लगा था. इसलिए जनाक्रोश को रोके रखने के लिए साम्राज्यवादी, सामंतवादी और राजशाही समर्थकों का झुकाव भी सहकारिता आंदोलन की ओर दिखने लगा था. क्योंकि सहकारिता ही ऐसा आंदोलन था जो उफनते जनाक्रोश को सकारात्मक दिशा देने में सक्षम था. सहकारिता न केवल लोकसामथ्र्य का उपयोग उद्यमिता के विकास हेतु करने के लिए सहकारिता बेहतरीन विकल्प थी, अपितु बदलते आर्थिक परिवेश में वह राष्ट्र को विकास की पटरी पर बनाए रखकर उसे बाकी दुनिया के साथ–साथ आगे ले जाने में भी कामयाब हो सकती थी. यही कारण है कि सहकारिता को वैश्विक समर्थन मिलता चला गया. यह समाज की संगठित ऊर्जा को सकारात्मक दिशा देकर उसको उपयोगी कार्य में लगाने का उद्यम भी था.
इस शृंखला में हमने अभी तक अपना अध्ययन केवल यूरोपीय विचारकों तक सीमित रखा है. ऐसा हरगिज नहीं है कि जिस उदारवादी सर्वतोन्मुखी कल्याणकारी विचारधारा का प्रतिनिधित्व पश्चिमी विचारक कर रहे थे, उसका भारत और एशियाई देशों में अभाव था. पश्चिमी देशों में फूट रही ज्ञान की उजली रोशनी के सापेक्ष हमारे यहां केवल अंधकार, वैचारिक जड़ता व्याप्त थी. यहां हमें ध्यान रखना होगा कि भारत समेत लगभग संपूर्ण दक्षिण एशिया उन दिनों ब्रिटिश उपनिवेश था और कमजोर, परंतत्र जातियां हताशा में अपने धर्म और संस्कृति की ओर झुक जाती हैं. राजनीतिक सम्मान गवां देने के बाद सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने का संघर्ष प्रारंभ हो जाता है. सभी पुरातन समाजों में एक परजीवी–वर्ग भी रहा है, जिसका काम तो मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान करना होता है, लेकिन वह धीरे–धीरे कर्मकांड तथा दूसरे अनुष्ठानों के जरिए पूरी जीवनपद्धति पर कब्जा जमाए रहता है. धर्म और संस्कृति की रक्षा के नाम पर वह निहित स्वार्थों का ही पोषण करता है.
परतंत्रता के दौर में निराशा में डूबा समाज इसी वर्ग के पास उम्मीद की आस लेकर आता है, किंतु भ्रमों का शिकार होता है. स्वार्थ में डूबा वह परजीवी वर्ग लोगों को अतीतोन्मुखी बनाए रखता है. इससे मौलिक चिंतन की संभावना क्षीण होती चली जाती है. फिर भारत जैसे विशाल भूभाग, विविध संस्कृतियों से युक्त देश ने तो शताब्दियों लंबी गुलामी देखी थी. इसलिए यहां मध्यकाल में मौलिक चिंतन का अभाव रहा है. इस बीच स्थानीय स्तर पर जो प्रयास हुए, ज्ञान की वर्तिकाएं जलीं, विपरीत वातावरण के कारण वह उन्हें भी दुनिया तक पहुंचाने में असफल रहा. समाज का जातीय स्तर पर विभाजन भी मौलिक ज्ञान की खोज में बाधक बना. लंबे समय तक धर्म–ग्रंथों को रट्टा मार कर पढ़ लेना ही यहां विद्वता का प्रतीक माना जाता रहा. उसी के दम पर समाज का एक वर्ग लंबे समय यहां के बौद्धिक और सांस्कृतिक नेतृत्व को संभाले रहा. उस अवस्था में मौलिकता की खोज तथा उसको सम्मान मिल पाना असंभव ही रहा.
प्राचीन और मध्यकालीन भारत में स्थानीय स्तर पर व्यापारियों और उद्यमियों के बीच ऐसे संबंध खूब बने जो आधुनिक सहकारिता के सिद्धांत के अनुरूप भले ही न हों, मगर उसकी भावना के बहुत करीब थे. क्षेत्रीय स्तर पर विशेषकर ग्रामीण समाज में, सहकारिता पर आधारित आत्मनिर्भर समूहों की उपस्थिति प्रायः हरेक युग में बनी रही. ‘कामये दुःखताप्तनाम्, प्राणिनाम् आर्तिनाशनम्’ की कामना भारतीय जनसंस्कृति का प्रधान लक्षण रही है. भारतीय संस्कृति में धनार्जन को चार पुरुषार्थों में से एक तो जाना गया, परंतु भारतीय वांङ्मय में धन को वैसी महत्ता कभी नहीं मिल सकी, जो संतोष और अपरिग्रह को सहज ही उपलब्ध रही. आवश्यकता से अधिक संचय करने वाला यहां चोर माना गया है. श्रीमद्भागवत् में कहा गया है कि—
‘मनुष्य को केवल उतना प्राप्त करने का अधिकार है, जितने से उसका पेट भर सके, उससे अधिक संचय करने वाला व्यक्ति चोर है, दंडनीय है.’
ऐसा भी नहीं है कि सुखवादी परंपरा जिसका अनुसरण करते हुए मिल, बैंथम आदि विद्वानों ने पश्चिमी जगत में वैचारिक क्रांति को जन्म दिया, उसका भारत में कोई स्थान नहीं है या भारतीय विद्वान उससे अपरिचित थे. बल्कि बैंथम से हजारों साल पहले भारत में यह परंपरा चार्वाक या लोकायत दर्शन के नाम से प्रसिद्ध थी, और जनमानस में उसका पर्याप्त प्रचार–प्रसार था. किंतु यहां की परिस्थितियों में बहुत अधिक प्रचलित नहीं हो सकी. सत्ता तथा धर्म की स्वार्थी गठजोड़ ने ऐसे विचारों की हमेशा भर्त्सना की, यद्यपि आचरण में वे सभी लोकायती ही बने रहे. जो हो भौतिकवादी विचारधारा भारतीय संस्कृति का कभी सम्मानजनक हिस्सा नहीं बन सकी. चाहें तो हम यह भी कह सकते हैं कि वह कभी भी मुख्यधारा में नहीं आ सकी.
इसका कारण यह है कि भारतीय परंपरा में धर्म और दर्शन के क्षेत्र में जितना विचार हुआ, उसका एक अंश भी आर्थिक विचारों के क्षेत्र में नहीं हो सका. एकमात्र कौटिल्य के अर्थशास्त्र के सहारे इस देश को अर्थविज्ञानी सिद्ध करने के प्रयास शताब्दियों होते रहे; और किसी न किसी बहाने आज भी जारी हैं. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि आर्थिक मामलों को व्यवहार का हिस्सा मानते हुए उसको लिखकर सुरक्षित रखने से भी लोग बचते रहे हों. तो भी प्रोफेसर आर. सी. माजूमदार जैसे विद्वानों ने प्राचीन भारत में आर्थिक परिवेश का गंभीर और प्रामाणिक अध्ययन किया है. कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में व्यापारिक श्रेणियों अथवा गिल्डों का उल्लेख किया गया है, जिनको आधुनिक सहकारी समितियों के प्रारंभिक रूप कहा जा सकता है. गुप्तकाल और बाद में मुगलकाल में भी स्थानीय स्तर पर अर्थव्यवस्था की स्थिति मजबूत रही है.
डा॓. सत्यकेतु विद्यालंकार जैसे विद्वानों का तो मानना है कि सहयोगी संगठन बनाकर व्यावार की शुरुआत भारत में वैदिक युग में भी आरंभ हो चुकी थी. सहकारिता के प्राचीन भारतीय स्वरूप का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं—
‘उत्तर–वैदिक युग में ही विविध शिल्पों का अनुसरण करने वाले सर्वसाधरण जनता के व्यक्ति अपने संगठन बनाकर आर्थिक उत्पादन में तत्पर हो गए थे. यह स्वाभाविक था, क्योंकि शिल्पियों के लिए पूर्णतया स्वच्छंद रूप से कार्य कर सकना संभव भी नहीं था. संगठित होकर ही वे अपने कार्य को सुचारू रूप से संपादित कर सकते थे.’
ओवेन के द्वारा बसाई की बस्तियां, सहकारी उद्यम हालांकि बहुत लंबे समय तक कामयाब नहीं रह सके, बावजूद इसके सहजीवन के उसके विचार को विश्वव्यापी सराहना मिली. आगे चलकर दुनियाभर में विचारकों और सामाजिक आंदोलनकर्मियों ने सहजीवन को विस्तार देने के लिए ऐसी ही अनेक बस्तियों की स्थापना की. भारत में देवेंद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, विनोबा भावे ने जगह–जगह पर सहजीवन को आगे बढ़ाने के लिए आश्रमों की स्थापना की.
©ओमप्रकाश कश्यप