संकट में दुकानदार

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देश का खुदरा बाजार इन दिनों हलचल में है. सफाई अभियान के नाम पर महानगरों में दुकानों को बंद किए जाने का सिलसिला पिछले दिनों लगभग हर रोज की चर्चा का विषय रहा. दिल्ली महानगर योजना-2001 के कार्यान्वन के तत्वावधान में आए अदालती फैसलों के आगे, सरकार और विपक्ष दोनों बाजार को बचाने के नाम पर बेनतीजा राजनीति करते रहे. सब के सब बिके हुए लोगकुछ अपने स्वार्थ के हाथों तो कुछ को विदेशी कंपनियों ने खरीद रखा है. इसके बावजूद बड़ेबड़े दावे, दरअसल अपने देश की राजनीति इस स्तर पर पहुंच चुकी है कि नेताओं की बात पर न तो कोई विश्वास करता है, न मीडिया को छोड़कर कोई उनका नोटिस लेता है. जी हां, केवल नोटिस, उनकी बात को गंभीरता से अपना मीडिया भी नहीं लेता. नोटिस लेना उसकी मजबूरी है. अगर रोजीरोटी का सवाल न हो तो शायद वह उनकी ओर झांके तक नहीं.

 

इस बीच दिल्ली मास्टर प्लाॅन-2021 भी लागू किया गया. किंतु तस्वीर ज्यांे की त्योंनेताओं और सरकार की राजनीतिक रोआपीटी एक तरफ रही और प्रशासन दुकान बंद कराने का काम करता रहा. वर्षों से चले आ रहे भारीभरकम, सजीलेलजीले शोरूम एकाएक बंद कर दिए, किए जा रहे हैं. माॅल संस्कृति के विस्तार के आगे नत अपना मीडिया, चुप और निःसंवेद बना रहा, चूंकि खबरें दिखाना उसका पेशा है, इसलिए रेडियो, टेलीविजन इत्यादि पर खबरों का प्रदर्शन वस्तुनिष्ट ढंग से होता रहा. उसका सोच और संवेदना नई आर्थिक नीति के प्रतीक माॅल्स की पक्षधर ही बनी रही, क्योंकि उसको पूरेपूरे पेज के विज्ञापन केवल माॅल्स ही दे सकते हैं, गलीमुहल्ले में खुली दुकानें नहीं. नेतागण भी राजनीति के अवसर को छोड़कर चुप ही हैं. कारण साफ है, उनकी या तो किसी न किसी माॅल में प्रत्यक्ष या परोक्ष साझेदारी है अथवा उन्हें अपना भविष्य उधर ही नजर आता है. उन्हें धंधा भी चाहिए और चुनाव लड़ने के लिए चंदा भी. धंधे और चंदे को केंद्र में रखकर मतदाता को भरमाने का षड्यंत्रा अनेक रूपों मंे रचा जाता है. ऐसे सर्वभक्षी नेताओं को गलीमुहल्लों के दुकानदार सिवाय वोट के दे ही क्या सकते हैं. उस अदने से वोट के लिए भी दर्जनों पार्टियां हैं. कह नहीं सकते कि किसके हिस्से आए. तो माॅल्स को फायदा पहंुचाने के लिए जमेजमाए दुकानदारों को अपने स्थान से बेदखल करने के खेल की शुरुआत देश की राजधानी हुई. लेकिन माॅल्स और उनकी संभावनाएं केवल राजधानी तक सीमित नहीं हैं, इसीलिए मौके का फायदा उठाते हुए राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्रा में जितने भी विकास प्राधिकरण, नागरिक संस्थान हैं, तकरीबन सभी ने आवासीय इलाकों में खुली हुई दुकानों को बंद कराने का अभियान छेड़ा हुआ है.

 

आवासीय क्षेत्रों को व्यावसायिक गतिविधियों से बचाए रखना चाहिए, यह एकदम सही है. इसका कोई भी समझदार व्यक्ति समर्थन करेगा. किंतु इस समस्या के लिए अकेले वे दुकानदार ही दोषी नहीं हैं, जो आवासीय इलाकों में दुकान आदि खोलकर उनका कथित दुरुपयोग करने लगते हैं. हमारे विकास प्राधिकरणों की नीतियां तथा उनमें पल रहा भ्रष्टाचार भी इसके लिए कहीं न कहीं उत्तरदायी है. यह भी सच है कि आवास कालोनी बसाते समय सभी विकास प्राधिकरण स्वाभाविक रूप से दुकानों तथा अन्य जनसुविधाओं का प्रावधान रखते हैं, किंतु देखा यह गया है कि आवासीय कालोनी के विकास और उसके लिए सुव्यवस्थित बाजार के निर्माण के बीच दस से पंद्रह साल का अंतर होता है. अगर दुकानें बना भी दी जाएं तो उनके मालिक उस समय तक दुकान खोलने से कतराते हैं, जब तक कालोनी न्यूतम स्तर तक विकसित न हो जाए. इस अवधि में लोगों की जरूरतों को पहचानते हुए लोग आवासीय परिसरों का उपयोग दुकान आदि व्यावसायिक गतिविधियों हेतु करने लगते हैं. जाहिर है इनमें बड़ी संख्या बेरोजगारों, नौकरी से रिटायर्ड उन जरूरतमंद लोगांे की होती है, जो आजीविका के लिए या खाली समय में कुछ आय के बहाने कोई न कोई धंधा लेकर बैठ जाते हैं. जिनके पास इतनी पूंजी नहीं होती कि मान्य व्यावसायिक परिक्षेत्रों में दुकान आदि का प्रबंध कर सकें. चूंकि काॅलोनी के लोगांे की जरूरतें भी उनसे जुड़ी होती हैं, इस कारण प्रारंभ में सब उन्हें सहजता से ही लेते हैं. काॅलोनी विकासमान अवस्था में होती है, इसलिए प्रशासन अथवा स्थानीय संस्थाएं भी उसे नजरंदाज कर देती हैं. हालांकि इस बहाने इंजीनियर तथा अन्य प्रशासनिक कर्मचारी अपनी स्थिति का फायदा उठाते हुए लोगों को निरंतर लूटते रहते हैं.

 

परेशानी तब होती है जब बस्ती की जनसंख्या के साथसाथ वाहनों की भीड़ तथा दुकानोें की संख्या भी बढ़ती चली जाती है. जमीनों की कीमतें आसमान छूने लगती हैं. उस समय प्रशासन को वहां पर दुकाने अलाॅट करने या व्यावसायिक गतिविधियों के नाम पर खाली पड़ी जमीन की नीलामी से मोटी रकम कमाने की सुध आती है. स्पष्ट है कि इस बीच प्रशासन से साठगांठ कर कुछ नेता और दलाल भी आवासीय

 

कालोनियों में पनपने लगते हैं. उनकी निगाह कालोनी में खाली पड़ी महंगी व्यावसायिक जमीन पर होती है. मोटी रकम खर्च करके व्यावसायिक स्थल का प्रबंध करने वाले व्यवसायी चाहते हैं कि आवासीय परिसरों में चल रही व्यावसायिक गतिविधियां बंद हों, ताकि वे ज्यादा से ज्यादा लाभ कमा सकें. उसको किसी न किसी प्रकार हथिया लेने के लिए वे शासनप्रशासन के साथ जोड़तोड़ करके कानून और नैतिकता के साथ खिलवाड़ करने लगते हैं.

 

आवासीय कालोनियां जो वक्त के साथसाथ अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहती हैं, उनको इस स्थिति तक लाने में कहीं न कहीं उन दुकानदारांे का भी योगदान होता है, जो प्रारंभ में भले ही अपने व्यावसायिक हित अथवा रोजगार की खातिर, दुकान के माध्यम से रोजमर्रा की वस्तुओं को उपलब्ध कराके, लोगों को वहां आकर बसने के लिए प्रेरित और आकर्षित करते हैं. यह दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रा में बसी उन कालोनियों के बारे में भी सच है, जो वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाने को आतुर हैं. अगर प्रशासन आवासीय इमारतों के साथसाथ व्यावसायिक स्थल विकसित करने तथा उनका इस्तेमाल करने का समानरूप से प्रयास करे, तो आवासीय परिसरों में दुकान खोलने जैसी समस्या संभवतः जन्म ही न ले. वैसी स्थिति में लोगों की आवासीय परिसरों में दुकान खोलने की हिम्मत ही न पड़ेगी, क्योंकि वहां चल रही दुकानंे व्यवस्थित बाजारों से स्पर्धा कर पाने में असमर्थ रहेंगी तथा वहां पर दुकानदारी करना प्रायः घाटे का सौदा सिद्ध होगा. लेकिन सभी जानते हैं कि दक्ष व्यवसायी घाटे के सौदे से हमेशा बचते हैं. इसलिए नई कालोनियों में वे प्राधिकरण से दुकान खरीदकर भले ही डाल दें, उसको चलाने की जहमत वे तब तक नहीं उठाते, जब तक की एक तयशुदा लाभ की सुनिश्चितता न हो. जब काॅलोनी भर जाती है तो वही दुकानदार अपने धन और पैठ के कारण जड़ जमा चुके दुकानदारों को उखाड़ने पर उतारू हो जाते हैं. चूंकि कानून और प्रशासनिक फैसले उनके पक्ष में होते हैं, अतः उन्हें अपने लक्ष्य में कामयाबी भी मिलती है. एक तरह से तो यह कानून की ही जीत होती है, परंतु इस जीत के लिए अक्सर जमेजमाए लोगों को अपनी जड़ों से उखड़ना पड़ जाता है. अच्छेभले घर तबाह हो जाते हैं. बेरोजगारी बढ़ती है. कर्ज से घबराकर लोग आत्महत्या करने लगते हैं, जो लोग बेरोजगारी का सामना करने में विफल रहते हैं, उन्हें परिस्थितियां कभीकभी अपराध की दुनिया मंे ढकेल देती हैं.

 

देखा जाए तो यह इकतरफासी लड़ाई जरूरतमंदों तथा बड़े दुकानदारों, सरमायेदारों के बीच है. बड़े दुकानदारों से आशय उन व्यवसायियों तथा वाणिज्यिक संस्थानों से है जिनके पास पूंजी का बफर स्टाॅक है, जो किसी उदीयमान कालोनी में दुकान खरीदकर उसके विकसित होने का इंतजार कर सकते हैं, जो व्यावसायिक स्थलों पर बड़े शोरूम खोलकर चल पूंजी को अपनी ओर खींचने तथा अपने उत्पादों के लिए नई जरूरतें क्रिएट करने का सामथ्र्य रखते हैं. हालफिलहाल यह संकट केवल शहरी क्षेत्रों तक सीमित था. कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले छोटेमोटे दुकानदार इसकी आंच से बाहर थे. किंतु अब स्थितियां बदल रही हैं. बहुत जल्दी गांव के दुकानदार भी इसकी चपेट में आने वाले हैं. दोनों के मूल में ताकतें एक जैसी ही हैं. इधर कुछ वर्षों से खुदरा बाजार में संगठित क्षेत्रा का आगमन हुआ है, इनमें बड़ीबड़ी कंपनियां हैं, जिनका व्यवसाय दुनिया के कई देशों तक फैला हुआ है. प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक किशन पटनायक के अनुसार राज्य में, राज्य की ही सत्तासामथ्र्य सर्वोपरि होने चाहिए. व्यवस्था के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए यह अत्यावश्यक है. जबकि अब तो भारत की कुछ ऐसी कंपनियां हैं जिनकी कुल हैसियत देश के कई राज्यांे की आर्थिक स्थिति से बढ़कर है. वालमार्ट का खुदरा व्यापार तो देश के कुल खुदरा व्यापार से भी अधिक है. अपनी ताकत और पहंुच के दम पर ऐसी कंपनियां सरकार और प्रशासन से मनमाने फैसले करा ले जाती हैं. राजनीतिक नेतृत्व ऐसी कंपनियों के आगे असहाय महसूस करता है. इसीलिए मजबूरी में वह या तो आर्थिक ताकतों के समर्थन में खड़ा होता है अथवा अपनी स्थिति का फायदा उठाने के लिए, किसी न किसी प्रकार से उनकी मदद करना चाहता है. छोटे दुकानदार भी समझ चुके हैं कि इन सुरसामुखी नेताओं तथा बड़े व्यापरियों के आगे उनकी हैसियत किसी भिनगे जैसी ही है, अतएव विस्थापन को अपनी नियति स्वीकार चुकने के बाद वे या तो अपनी दुकानों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाने की तैयारी कर चुके हैं अथवा सबकुछ औनेपोने भाव बेचकर किसी नए धंधे की तलाश में हैं. किंतु प्रौद्योगिकी एवं बाजार की घोर स्पर्धा के बीच नए स्थान पर धंधा जमाना अथवा नए व्यवसाय की शुरुआत करना रोज एक अग्निपरीक्षा से गुजरने के समान होता है. खासकर ऐसे व्यक्तियों के लिए जो एक ही स्थान पर काम करते हुए उम्र का बड़ा हिस्सा पार कर चुके हों, जिनके सिर पर जिम्मेदारियों का बोझ हो, संसाधनों की अत्यल्पता और समय का अभाव भी हो.

 

स्थितियां विस्तृत गवेषणा की मांग करती हैं. खुदरा व्यापार के क्षेत्रा में अनंत संभावनाएं देख रहे वाणिज्यिक प्रतिष्ठान, बड़ीबडी कंपनियां इस बार देश के ग्रामीण खुदरा बाजार पर धावा बोलने की होड़ में हैं. यह हमला नई भाषा और नएनए सांस्कृतिक प्रतीकों के माध्यम से किया जा रहा है. ‘ठंडे का तड़का’ के नाम पर कोका कोला का भोग, कुछ मीठा हो जाए के नाम पर चाॅकलेट का चस्का लगानागाय को सौंदर्य प्रतियोगिता तक घसीटते हुए सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में समेट लेने का इरादायह बाजार की नई भाषा और प्रतीक रचना है. आधुनिकीकरण के नाम पर इसी को सामाजिक यथार्थ में बदलने की तैयारी चल रही है. वालमार्ट, न्यूबीज, आदित्य बिड़ला ग्रुप, रिलायंस जैसी बड़ीबड़ी देशीविदेशी कंपनियों समेत करीब दर्जनभर संस्थान अवसर की ताक में हैं. सैन्सेक्स के रोजरोज चढ़ते ग्राफ को देखना, देश की

 

तरक्की के बारे में जगहजगह सुनना बड़ा ही खूबसूरत और नेक लगता है. लेकिन यह जानकर जोर का धक्का लगता है कि इस विकास का मायाजाल समाज के मुट्ठीभर लोगों के लिए इसी धरा पर स्वर्ग की सृष्टि करता है, तो संख्या में उससे कहीं बड़े वर्ग से, जीवन के मामूली संसाधन भी छीनकर उन्हें रोज नारकीय स्थितियों की ओर ढकेल रहा है. इस परिवेश में विकास के मुहावरे का प्रतीक सिवाय एक भ्रम के और कुछ भी नहीं है। इस प्रतीक रचना को ही सामाजिक यथार्थ में बदलने की तैयारी चल रही है.

 

जरा ध्यान दें तो समझ जाएंगे कि देश के खुदरा बाजार पर छा जाने को आकुल भीमकाय कंपनियों में से अधिकांश संचार के क्षेत्रा में साथसाथ काम कर चुकी हैं. कड़ी प्रतियोगिता में भी उन्होंने पंद्रह करोड़ से अधिक ग्राहक ‘कूट’ लिए हैं. देशभर में करीब ग्यारह करोड़ तो जीएसएम मोबाइल धारक ही हैं. बेसिक फोन तथा सीडीएम तकनीक पर आधारित फोन की संख्या भी लगभग पंद्रह करोड़ होगी. अभी तक उनका सारा जोर संचारक्रांति पर था. वहां अब खाली मैदान नहीं रहा. बाजार में टेलीफोन कंपनियां अपनेअपने हिस्से पर कब्जा जमाए हैं. भविष्य में ग्राहकों की जो आमद होगी वह उनमें बंटती चली जाएगी. थोड़ाबहुत इधरउधर करने के लिए सेटअप तैयार हो चुका है. बस उसकी देखभाल करने और बनाए रखने की आवष्यकता है. अब इन कंपनियांे ने ग्रामीण बाजार का दोहन करने का इरादा बनाया है तो यह समयानुकूल फैसला ही है. ध्यान रहे कि आज भी देश के खुदरा बाजार के पिचानवें प्रतिशत पर असंगठित क्षेत्रा के दुकानदारों का कब्जा है. यह स्थिति कब तक रहेगी, यह बता पाना सरल नहीं है. क्योकि बड़ी कंपनियां जहां भी जाएंगी, पूूरी तैयारी के साथ वहां के लोगांे की आकांक्षाओं को पहचानकर, उनके अनुरूप स्वयं को ढालते हुए जाएंगी. इसलिए किसी ठोस रणनीति के अभाव में उनका सामना करना आसान न होगा.

 

हम जानते हैं कि पिछले कुछ दिनों से चीन से होने वाले आयात ने हमारे लघु और कुटीर उद्योग क्षेत्रा की कमर तोड़कर रख दी है. आगे भी माल की खरीद के लिए चीन की कंपनियों से बातचीत की जा रही है. जो वस्तुएं भारतीय उत्पादक उन्हें सस्ती दे सकते हैं, उन्हें भारतीय उत्पादकों से ही खरीदा जाएगा. जैसे कि जीन की पेेंट बेचने के लिए डेनिम से ग्रामीण बाजारों के अनुकूल जीन बनाने के लिए बातचीत की जा रही है. रिलायंस बड़ेबड़े किसानों से आवश्यक फलों और सब्जियों की खरीद कर रही है. पिछले दिनों कंपनी द्वारा हिमाचल प्रदेश में सेव, गुजरात में आम के बाग खरीदे जाने के भी समाचार मिले हैं. आगे से कंपनी सब्जियों के लिए भी जमीन खरीदकर वहां पर सघन खेती को बढ़ावा दे सकती है. दूसरी कंपनियां भी ग्रामीण बाजार में खपत के लिए फिलहाल माल वहीं से खरीदेंगी जहां से सस्ता पड़ेगा. आगे चलकर जिन वस्तुआंेे की खपत देखेंगी वे उन्हें अपने यहां भी बना सकती हैं अथवा उनके उत्पादन में लगे कारखानों को खरीद सकती हैं या फिर लीज पर भी ले सकती हैं. अभी तक बड़ी कंपनियां ब्रांड पर एकाधिकार का सपना देखती थीं, अब उन्हें ब्रांड के साथसाथ बाजार पर एकाधिकार के सपने भी आने लगेंगे.

 

ध्यातव्य है कि चीन के साथ हमारे राजनीतिक संबंध कभी भी संदेह से परे नहीं रहे हैं. इस बात को ‘हिंदी चीनीµभाईभाई’ का नारा देने वाले हमारे राजनीतिज्ञ भले ही न जानते हों. मगर पूंजीपतियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों से कुछ भी छिपा हुआ नहीं है. प्रतिकूल राजनीतिक स्थितियों में चीन से सस्ते माल की सप्लाई बाधित होने पर उनके व्यावसायिक हितों पर कोई आंच न आए, इसके लिए देश में ही चीन की तर्ज पर ‘विशेष आर्थिक क्षेत्रा’ बसाए जाने की योजना पर बड़े जोरशोर से काम हो रहा है. जहां विशेष सुविधाएं देकर उद्यमियों को बसाने का काम, जनमत के भारी विरोध के बावजूद बेशर्मी से जारी है. जिस चीन की तर्ज पर विशेष आर्थिक क्षेत्रा विकसित किए जा रहे हैं, उसके अपने आर्थिक परिक्षेत्रों में कामगारों की हैसियत ठीक ऐसी ही है जैसी किसी भट्टी को जलाए रखने के लिए कोयले की होती हैै, जो अपना श्रम गलाकर उत्पादन प्रक्रिया को संपन्न करने का काम करता है. श्रम कानूनों की तो बात ही बेकार है. क्योंकि विशेष आर्थिक क्षेत्रा देश के मौजूदा श्रम कानूनों की पहुंच से परे हैं. इसी का लाभ उठाते हुए वहां एक मजदूर या तकनीशियन को बिना किसी ओवरटाइम के बारहबारह घंटे काम करना पड़ता है. विशेष आर्थिक क्षेत्रों को विकसित करने की जिम्मेदारी सरकार ने टाटा, सलेम समूह, रिलायंस, महिंदरा एंड महिंदरा जैसी कंपनियों पर डाल दी है. इनमें से कुछ स्वयं अथवा अपने किसी सहयोगी के साथ देश के खुदरा बाजार में हाथ आजमाने का सपना देख रही हैं. यह महज संयोग है अथवा साजिश, इसका खुलासा आने वाला समय ही करेगा.

 

ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी रोजगार का एकमात्रा साधन हैµखेती. लेकिन वह भी अब बहुत फायदेमंद नहीं रही. बढ़ती जनसंख्या के साथ जोतों का आकार तेजी से सिमटा है. इस कारण कृषि उत्पादन में चिंताजनक स्थिति तक गिरावट आई है. ग्रामीण युवाओं के पास आजकल बहुत विकल्प भी नहीं हैं. क्योंकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन के साथ रोजगार सृजन का जो स्तर बढ़ा है या कि बढ़ा हुआ प्रतीत होता है, उसमें ग्रामीण युवाओं के लिए बहुत अवसर नहीं हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियां अक्सर ‘ए’ क्लास की प्रतिभाओं की तलाश में रहती हैं. हमारा ग्रामीणक्षेत्रा अभी इस योग्य नहीं हुआ कि प्रतिभासृजन के मामले में शहरी क्षेत्रों के साथ स्पर्धा कर सके. इसका कारण वहां प्रतिभाओं की नहीं, बल्कि संसाधनों की कमी है. आजादी के बाद स्थानीय स्तर पर रोजगार को बढ़ावा देने के लिए अनेक कार्यक्रम बनाए गए. लेकिन भ्रष्टाचार एवं अदूरदर्शिता के कारण

 

सारे सपने हवाहवाई होते चले गए. कारपोरेट जगत की नई कंपनियां ऊंची पगार पर ऐसे शहरी युवकों की भरती करती हैं, जो मोटी रकम खर्च कर के शिक्षा पूरी करके आए हैं तथा जल्दी से जल्दी अपने खर्च की भरपाई कर लेना चाहते हैं. दूसरे शब्दों में जो उन शिक्षा संस्थानों की उपज है जो शिक्षा का व्यापार एक कामोडिटी की तरह करते हैं. वहां विद्यार्थियों को भी सिखाया जाता है कि प्राणिमात्रा एक कामोडिटी है. ऐसे संस्थानों से प्रश्षिक्षित होकर निकले हमारे युवा मनुष्य को मात्रा उपभोक्ता समझते हैं. उनका जीवनदर्शन पूजींवादी संस्थानों के अनुकूल होता है.

 

जो लोग अब भी इस खुशफहमी में हैं कि खुदरा बाजार के ग्रामीणीकरण से ग्रामोद्योगों तथा उन भारतीय उद्योगों को भी लाभ पहुंचेगा जो नए ग्राहकों की तलाश में हैं, तो उन्हें जितनी जल्दी से हो सके इस खुशफहमी से बाहर आ जाना चाहिए. नए खुदरा बाजारों के लिए माल वहीं से खरीदा जाएगा जहां से सस्ता मिलेगा. भले ही इसके लिए सरकार को अपनी आयातनीति में बदलाव के लिए बाध्य क्यों न किया जाए. अब जरा इसका भी हल्कासा जायजा लें कि ग्रामीण बाजार में कारपोरेट जगत के हस्तक्षेप के क्या परिणाम होने वाले हैं. देश में गांवों की कुल संख्या करीब छह लाख है. वहां के लोगों की आम जरूरतों की पूर्ति अभी तक छोटे दुकानदार करते आ रहे हैं. इन दुकानदारों की संख्या गांव की जनसंख्या के अनुसार घटतीबढ़ती है. यह बीस से लेकर पचास तक कुछ भी हो सकती है. दुकानदारी समाज के एक वर्ग का पैत्रिक व्यवसाय रही है. लेकिन आजादी के बाद जातीय समीकरण और उनके व्यवसायों में काफी बदलाव आया है. पढ़ेलिखे या साधारण प्रशिक्षित युवा भी नौकरी के अभाव में दुकान खोलकर बैठ जाते हैं. इनमें महिलाओं की संख्या भी काफी है. एक और कारण भी दुकानदारी के व्यवसाय से जुड़ने का यह रहा है कि जो लोग नौकरी के तनावों से बचना चाहते हैं, उन्हें भी दुकानदारी करना मुफीद लगता है. ध्यान रहे कि जब हम दुकानदारी कह रहे हैं तो हमारा आशय साधारण परचून और किराना दुकानदारी से लेकर हलवाई, नाई, धोबी, प्लंबर आदि ऐसे दुकानदारों से भी है, जिन्होंने अपनी पेशवर दक्षता के कारण उस व्यवसाय को अपनाया हुआ है. कारपोरेट सेक्टर केवल छोटे दुकानदारों पर ही हमलावर नहीं हैं, उनके निशाने पर वे सेवाकर्मी भी होंगे जो किसी न किसी रूप में परंपरागत सेवाओं से जुड़े हैं. ऐसे सभी दुकानदारों की कुल संख्या प्रति गांव यदि तीस भी मान ली जाए जो देशभर में लगभग एक करोड़ अस्सी लाख दुकानदार या पेशेवर केवल गांवों में हो सकते हैं. नगरों, महानगरों और कस्बों की संख्या भी कम नहीं हैं. वहां पर यह संख्या यदि डेढ़दो करोड़ भी हुई तो देश में दुकानों तथा परंपरागत सेवाकर्मियों की संख्या तीन से चार करोड़ तक संभव है. इन प्रकार देश के पंद्रहबीस करोड़ लोग प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से दुकानदारी के पेशे से जुड़े हुए हैं.

 

आने वाले वर्ष उन्हीं के लिए खतरे की घंटी होंगे. हाल के वर्षों में अचल संपत्ति के मूल्यों में भारी उछाल आने से ग्रामीण लोगों के पास अतिरिक्त धन की आमद हुई है. अभी तक यह स्थिति केवल बड़े नगरों तक सीमित थी. किंतु अब गांव भी इससे अछूते नहीं हैं. शहरों के पास जिनकी जमीनें बिक रही हैं, उनमें से बहुत से किसान अपनी रकम का निवेश दूरदराज के गांवों में कर रहे हैं. जिससे वहां की जमीनों के भाव भी आसमान छूने लगे हैं. जमीन जाने से गांवों में रोजगार के साधन भी घट रहे हैं. ऐसे हालात में जिम्मेदारी तो सरकार की है कि वह इस अतिरिक्त धन को उत्पादक कार्य में लगाने के लिए योजना लाए. सरकार नहीं चेती, मगर लगता है कि पूंजीवादी संस्थानों ने अपनी गिद्धदृष्टि उसपर जमा दी है. वे बाजार के प्रलोभनों को पूरे जोरशोर से गांवों में उतारने की तैयारी कर रहे हैं.

 

यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि बाजार के साथसाथ उसके संस्कार भी गांव तक जाएंगे. ऐसा नहीं है कि हमारे गांव अभी तक इन संस्कारों से अछूते थे. लेकिन सीधे संपर्क के अभाव में बाजार अपना काईंयापन ग्रामीण क्षेत्रों पर थोप नहीं पाया था. संगठित बाजार के माध्यम से इन संस्कारों की घुसपैठ आगे और भी तेजी सेे होगी, जिसका निशाना भारतीय समाज की परंपरागत मान्यताएं होंगी, जिन्हें हम संस्कृति और संस्कार के नाम से जानते रहे हैं. इसके कुछ अच्छे परिणाम भी हो सकते हैं. संभव है कि शताब्दियों पुरानी जातीय संस्कारों की बेड़ियां, जिन्हें जनतंत्रा भी तोड़ने में असमर्थ रहा है, उसे बाजार के हाथों छिन्नभिन्न होते हुए हम देखें. लेकिन इसका परिणाम शुभ ही होगा, यह कहना कठिन है. क्योंकि बाजार बौद्धिक रूप से पस्त व्यक्तिवाद की कामना करता है. वह ऐसा समाज चाहता है, जिसमें बौद्धिक हलचलें, सिवाय बाजारवाद को प्रश्रय देने वाली बहसों के, कम से कम हों. बाजार की कोशिश प्रत्येक मानवीय संबंध का व्यावसायिक विकल्प खड़ा करने की रहती है. उस समय भी हालांकि मानवीय आवश्यकताएं समाज को आपस में जोडे़ रह सकती हैं. लेकिन वे उसी को उपलब्ध होंगी जो उनकी कीमत चुका सकता है. कीमत चुकाने में असमर्थ व्यक्ति उस अवस्था में एकाकी और निढ़ाल होता जाएगा. सामंतवाद में संसाधनों पर समाज के ताकतवर वर्ग का कब्जा होता. अपनी मर्जी और स्वार्थ को देखते हुए वही बाकी लोगांे को उनके जीने लायक साधन उपलब्ध कराता है. दूसरे शब्दों में सामंतवाद में समाज के दो वर्ग होते हैं, एक वह जो संसाधनों का भोग करता है. दूसरा वह जिसके बल पर संसाधनों का भोग किया जाता है. नई आर्थिक संरचना समाज को दुबारा इसी आधार पर विभाजित करने जा रही है.

 

बाजार के वर्चस्व के चलते राजनीति कमजोर पड़ी है. हम जरा याद करें तो समझ जाएंगे कि राजनीति के स्थापित आदर्श बाजार ने बड़ी तेजी से खंडित किए हैं. यानी जिन जीवनमूल्यों के दम पर राजनीति लोक में अपनी पैठ कायम करती थी, वे अब बेमानी होते जा रहे हैं. यह क्या

 

अनायास है कि करीब एक सौ पचीस करोड़ के देश पर शासनव्यवस्था का नेतृत्व करने वाली केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के पास एक भी ऐसा व्यक्तित्व नहीं है, जिसकी कुल देश के जनमानस मेें स्वीकार्यता हो. क्या इसीलिए स्वयं को भारतीय संस्कृति और परंपरा से जोड़ने वाली भारतीय जनता पार्टी को भी बारबार अटलविहारी की शरण में आना पड़ता है, जिनकी छवि मीडिया द्वारा बड़े जतन से तैयार की गई है और मीडिया के ही समर्थन पर टिकी हुई है? अटलविहारी वाजपेयी जैसी उदारवादी छवि भी मीडिया को इसलिए गढ़नी पड़ती है क्योंकि भारतीय मानस अभी भी अपनी परंपरा और संस्कृति से दूर नहीं आ पाया है. जिस दिन यह मजबूरी नहीं रहेगी उस दिन शैंपू, लोशन, कार, मोबाइल, कोक, चाॅकलेट यहां तक कि कंडोम्स और शैंपेन बेचने वाले नौटंकियों तक के नाम पर ही वोट मांगे जाएंगे.

 

हाल के वर्षों में मीडिया के प्रभाव के कारण तथा आधुनिकतावादी सोच के चलते बाजारवादी व्यवस्था के समर्थकों में भी बढ़ोत्तरी हुई है. संचारक्रांति की कामयाबी ने भी आधुनिक उदारवादी व्यवस्था के प्रति लोगों के मन में सकारात्मक सोच विकसित किया है. बाजारवाद के समर्थक इस बात को भूल जाते हैंे कि इस तथाकथित उदारवादी व्यवस्था की कितनी बड़ी कीमत देश को अदा करनी पड़ी है. पिछले दशक में सरकार ने लोककल्याण के कार्यक्रमों के लिए धन खर्च करने से जितना हाथ खींचा है, उतना आजादी के बाद के वर्षों में कभी देखने में नहीं आया. शिक्षा, स्वास्थ्य, लोकपरिवहन, बिजली आदि अनेक मामलों में सरकार ने अपनी जिम्मेदारी निजी संस्थानों को सौंपना शुरू कर दी है. शिक्षा को इंसानियत की अनिवार्यता के बजाय एक कामोडिटी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसको कीमत देकर खरीदा जा सकता है तथा समय आने पर जिसकी ऊंची कीमत वसूल भी की जा सकती है. इसका परिणाम यह हुआ है कि उत्कृष्ट प्रतिभाएं ऊंचे वेतन के लालच में विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्रा को छोड़कर प्रबंधन के क्षेत्रा की ओर पलायन कर रही हैं. हम कुछ नया गढ़ने के बजाय, केवल गढ़े हुए की सैल्समेनी कर रहे हंै.

 

व्यक्तित्व ध्वंस और हताशा के बीच उम्मीद की किरण के लिए जरूरी है कि समाज में नागरिकताबोध को विस्तार दिया जाए. ऐसी संस्थाएं खड़ी की जाएं जो स्वयं को बाजार के प्रलोभनों और उनके संसाधनों से दूर रखने का सामथ्र्य रखती हों. ऐसे ठोस सामाजिक आंदोलनों को बढ़ावा दिया जाए, जो बिखरे जनमानस को सही रास्ते पर ला सकें. उसकी ऊर्जा को सकारात्मक दिशा देने के लिए सहकारिता भी एक कारगर माध्यम बन सकती है. इतिहास भले ही पीछे न जाए, वक्त भले ही आगेआगे चलने के लिए जाना जाता हो, मगर परिस्थितियां बारबार लौटकर वापस आती हैं. उस अवस्था में पुराने औजारों को नई परिस्थितियों के अनुरूप तराशकर काम निकाला जा सकता है. बाजार को सहकार के सहारे नई दिशा देने का कार्य जरूरी नहीं पेशेवरों द्वारा ही किया जाए. यह कार्य उन छोटेछोटे दुकानदारों को जोड़ने से भी संभव है, जिन्हें नई बाजारव्यवस्था से खतरा है. वह उन मजदूरों और शिल्पकारों द्वारा संगठन बनाकर भी किया जा सकता है, जिनकी रोजीरोटी पर चीनी माल की घुसपैठ से संकट पैदा हो चुका है. देश के छोटे और मंझोले उद्योग भी इस अस्मिता की लड़ाई में आगे आ सकते हैं, जिनके लिए संगठित बाजार चुनौती बनता जा रहा है. प्राचीन भारत में छोटे कामगारों के बड़ेबड़े संगठन(श्रेणियां) जो अपने व्यवसाय के लिए दुनियाभर में जाने जाते थे, हमारी प्रेरणा के स्रोत हो सकते हैं. हम टोड लेन लंदन के उन बुनकरों और साधारण मजदूरों से भी प्रेरणा ले सकते हैं, जिन्होंने सबसे पहला सहकारी उपभोक्ता स्टोर खोलकर उस समय के बड़ेबड़े उद्योगपतियों के सामने चुनौती पेश की थी, जिन्होंने दिखा दिया कि व्यावसायिक कामयाबी के लिए झूठ और फरेब जरूरी नहीं हंै, बल्कि नैतिकता के आधार पर भी सफलतापूर्वक आगे बढ़ते हुए विकास के इच्छित लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है. इसी कारण उनके द्वारा चुना गया ‘रोशडेल पायनियर्स’ नाम वर्षों तक पूरी दुनिया के लिए प्रेरणादायी बना रहा, व्यावसायिक नैतिकता के पक्षधर उन्हें आज भी सम्मानपूर्वक याद करते हैं.

 

 

ओमप्रकाश  कश्यप

 

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