समकालीन दर्शन तथा उसकी प्रमुख समस्याएं

इस आलेख के शीर्षक के रूप में मैंने ‘समकालीन दर्शन तथा उसकी प्रमुख समस्याएं’ को चुना है. किंतु यह आरंभ में ही स्पष्ट करना उचित होगा कि इसमें समकालीन दर्शन के अधिकांश संदर्भ पाश्चात्य दर्शन से आएंगे. कुछ पाठकों को यह अरुचिकर लग सकता है. विशेषकर उन्हें जो भारत की समृद्ध चिंतनपरंपरा से परिचित हैं, मगर कदाचित अपने पूर्वग्रहों के कारण, गत एक हजार वर्षों से उसमंे उत्पन्न बौद्धिक ठहराव की स्थिति को वे या तो स्वीकारना नहीं चाहते अथवा उन्हें इसका बोध ही नहीं है. यह एक विडंबना ही है कि पांचवीछठी शताब्दी तक दुनिया को दर्शन का पाठ पढ़ाने वाले और इस आधार पर विश्वगुरु के पद पर दावेदारी गांठने वाले भारत में, शताब्दियों से कोई नया दार्शनिक विचारयानी ऐसा कोई विचार जिसको भारतीय दर्शन परंपरा का मौलिक विस्तार माना जा सके, पनप ही नहीं पाया. यहां तक कि जैन और बौद्ध दर्शन भी, जिन्होंने ईसा से पांचछह शताब्दी पहले से लेकर छठी शताब्दी बाद तक, न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया में भारतीय चिंतन को अभिनव पहचान एवं गरिमा प्रदान की थीµजिसके कारण वे देश भूभारती को आज भी सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, बाद में धीरेधीरे अपनी स्वाभाविक चमक खोने लगे थे. उसके बाद का तो पूरा का पूरा युग वैचारिक जड़ता, निरर्थक बहसों, कर्मकांडों, धर्म के नाम पर थोपे गए ढकोसलों तथा सांप्रदायिक उन्मादों का है. इस संबंध में डा॓. हजारी प्रसाद द्विवेदी की टिप्पणी दृष्टव्य है. उन्होंने आठवीं शताब्दी बाद के युग को टीका युग की संज्ञा देते हुए, उसकी वास्तविक स्थिति पर बहुत यथार्थपरक ढंग से लिखा है

दसवीं शताब्दी के बाद, बल्कि आठवीं शताब्दी के बाद ही, हमारे देश में टीका युग चलने लगा. यानी कोई मौलिक चिंतन, नए सिरे से सोचना संभव नहीं, बल्कि पुराने ग्रंथों में जो कुछ कहा गया है, उसका हम भाष्य कर सकते हैं, टीका कर सकते हैं, टीका की टीका, उसकी भी टीका, सातसात पुश्तों तक टीकाएं चलती रहीं. टीकाओं का युग आ गया. ज्ञान की धारा अवरुद्ध हो गई. यह टीका वाली प्रवृत्ति, गुरु नानक का जिस समय आविर्भाव हुआ था, उस समय अपनी चरम अवस्था में पर आई हुई थी. नतीजा यह हुआ कि हिंदु शास्त्रों के विपुल भंडार में से केवल तीन ग्रंथ चुन लिए गएइनको प्रथानत्रयी कहते हैं. तीन ग्रंथ या ग्रंथ समूह. इनमें से एक है उपनिषद अथवा दस या ग्यारह उपनिषद, जिनपर आदि शंकराचार्य ने अपना भाष्य लिखा था; अद्वैत मत के प्रतिपादन के लिएदूसरी श्रीमद् भगवद्गीता, और तीसरा वेदांत सूत्रबादरायाण का लिखा हुआ वेदांत सूत्र.’1

स्मरणीय है कि वैदिक मुनियों से लेकर, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, यूनानी दार्शनिक थेल्स, सुकरात, प्लेटो और अरस्तु आदि के समक्ष प्रमुख दार्शनिक समस्याएं परमसत्ता, भ्रांति, ज्ञान, सद्गुण, सृष्टि, मनस् और इनके औचित्य आदि की व्याख्या को लेकर थीं. प्राचीन मनुष्य यह सोचकर कि मैं क्यों जन्मा? इस सृष्टिमात्र का औचित्य क्या हैआश्चर्य से भर जाता था. प्राचीन भारतीय मुनियों ने यद्यपि हिरण्यगर्भ सूक्त के माध्यम से सृष्टि की उत्पत्ति की व्याख्या करने का प्रयास अवश्य किया था. तथापि सृष्टि और जीवन की उत्पत्ति तथा इनके औचित्य से जुड़े अनगिनत प्रश्न मनीषियों को सहस्राब्दियों से उलझाते रहे हैं. प्राचीन भारतीय मुनियों से लेकर यूनानी और अरबी दार्शनिकों ने अपनेअपने अनुभव एवं बौद्धिक सीमाओं के अनुसर इस प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयास भी किया, मगर एक भी विद्वान इस विराट सृष्टि से जुड़े अनगिनत प्रश्नों का सर्वमान्य उत्तर देने में समर्थ न हो सका. महात्मा बुद्ध ने तो आत्मा, परमात्मा संबंधी समस्याओं को ‘अव्यक्तअव्याख्येय’ कहकर इनसे जुड़े प्रश्नों को सतत टालते रहने का प्रयास भी किया. जबकि जैन दर्शन ने स्यादवाद् के माध्यम से समस्त संभावनाओं को सम्मिलित रूप से परखकर एक आमराय बनाते हुए, सत्य तक पहुंचने का सुझाव दिया. मृत्यु का भय मनुष्य को इस संसार से दूर भागने, अमरता की खोज के उकसाता रहा है. मृत्योपरांत के सत्य को जानने की अभिलाषा भी विभिन्न धार्मिकदार्शनिक विश्वासों के क्रमिक विकास का आधार बनी. उसी के आधार पर विभिन्न सांस्कृतिक प्रतीकों, कर्मकांडों, स्वर्गनर्क, अवतारवाद, पापपुण्य आदि की प्रासंगिकताएं गढ़ी गईं.

नवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में आदि शंकराचार्य(788-820) ने वेदों की नवीन व्याख्या करते हुए वैदिक दर्शन को नए सिरे से व्याख्यायित करने का युगपरिवर्तनकारी कार्य किया था. इसके लिए उन्होंने प्रायः सभी प्रमुख उपनिषदों, श्रीमद्भागवद् और बह्मसूत्रों का भाष्य लिखा. अद्वैत दर्शन की स्थापना के लिए उन्होंने उस समय के अनेक विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ में हिस्सा लिया, जिसमें उनका मंडन मिश्र के साथ हुआ शास्त्रार्थ जगत्प्रसिद्ध है. अपने मत के प्रतिपादन के लिए वे वस्तुतः अपने समकालीन मीमांसा दर्शन, जो उन दिनों सर्वाधिक लोकप्रिय दर्शन थाके प्रकांड विद्वान कुमारिल भट्ट से शास्त्रार्थ करना चाहते थे. कुमारिल भट्ट मंडन मिश्र के शिष्य थे. मंडन मिश्र स्वयं वेदशास्त्र एवं कर्मकांड के ज्ञाता विद्वान थे. कुमारिल भट्ट से शास्त्रार्थ की कामना लिए शंकराचार्य जिस समय उनसे मिलने प्रयाग पहुंचे, वे घोर प्रायश्चित भावना का शिकार होकर एक कंदरा में स्वयं को मद्धिम अग्नियुक्त चिता के आगे समर्पित कर चुके थे. वहां पहुंचकर शंकराचार्य को ज्ञात हुआ कि कुमारिल भट्ट ने बौद्ध दर्शन को समझने तथा तर्कशास्त्र के दौरान बौद्ध मतालंबियों को परास्त करने की कामना के साथ उसका अध्ययन किया था. किंतु वैदिक परंपरा में किसी एक गुरु के अनुशासन में रहते हुए, बिना उसकी अनुमति के विद्याध्ययन करना पाप की श्रेणी में आता है. जैसे ही कुमारिल भट्ट को इसका बोध हुआ, उनका मन आत्मग्लानि से भर गया. तीव्र पायश्चित भावना से ग्रसित होकर उन्होंने खुद को धीमी चिता के हवाले कर दिया. जिस समय शंकराचार्य उनसे मिलने पहुंचे, कुमारिल भट्ट स्वयं को अग्निसमर्पित कर चुके थे. उन्होंने शंकराचार्य को अपने गुरु मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने की सलाह दी. तब वे उनसे मिलने के लिए प्रस्थान कर गए जो उस समय महिष्मति(आजकल सहरसा, बिहार), में विहार कर रहे थे. बड़ेबड़े दिग्गज विद्वानों की उपस्थिति में शंकराचार्य और मंडनमिश्र का शास्त्रार्थ पंद्रह दिनों तक चलता रहा. अंततः मंडनमिश्र की पराजय हुई. इसपर उनकी पत्नी भारती मिश्र ने, जो उस शास्त्रार्थ में निर्णायक की भूमिका निभा रही थीं, यह कहकर कि अर्धांगिनी होने के नाते उनपर विजय पाए बिना उनके पति मंडन मिश्र को पराजित नहीं माना जा सकता, शंकराचार्य को पुनः बहस के लिए आमंत्रित किया. शास्त्रार्थ हुआ. अंततः भारती मिश्र को भी हार माननी पड़ी. शास्त्रार्थ की शर्तों के अनुसार मंडन मिश्र ने संन्यास ग्रहण कर लिया. वे सुरेश्वराचार्य के नाम से साधु बनकर वैदिक धर्म के प्रचारप्रसार में जुट गए.

अप्रासंगिक लगने वाली इस घटना का यहां उल्लेख तत्कालीन समाज में गुरु की हैसियत का अनुमान लगाने के लिए किया गया है, जो उन दिनों सत्ताकेंद्र का रूप ले चुका था. अपनी सत्ता को अक्षुण्ण रखने के लिए वह ज्ञान के आयोजनोंप्रयोजनों पर भी नियंत्रण रखने का काम करता था, जो एक तरह से अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था. गुरुशिष्य परंपरा के कुछ लाभ थे, तो हानियां भी कम नहीं थीं. गुरु की अनुमति के बिना विद्याध्ययन पर अंकुश भी कालांतर में मुक्त चिंतन का अवरोधक तथा वैचारिक जड़ता की स्थिति का कारण बना, जिनके रहते ज्ञान का मौलिक अनुसंधान असंभव ही था. शंकराचार्य की अपनी प्रतिभा तो असंदिग्ध, बल्कि कालचेतना से भी आगे थी. अल्प आयु में ही वे वेदवेदांगों का विशद् अध्ययनमनन कर चुके थे. उनकी ज्ञानचेतना और बौद्धिक मेधा विराट थी, यही कारण है कि शास्त्रार्थ में बड़ेबड़े विद्वान उनके आगे टिक नहीं पाते थे. खुले शास्त्रार्थ में उद्भट विद्वानों को परास्त कर उन्होंने वैदिक धर्म की पुनःस्थापना करने का युगांतरकारी कार्य भी किया था. इसके लिए उन्हें मीमांसकों के अलावा सांख्य दर्शन के आचार्यों, वैशेषिकों और नैयायिकों से भी शास्त्रार्थ करना पड़ा था. शंकराचार्य ने रूढ़ियों और कर्मकांडों से ग्रस्त समाज में अद्वैत दर्शन के रूप में एकेश्वरवाद की स्थापना की और ज्ञानमार्गी धारा का समर्थन किया. उनके द्वारा देश के चारों कोनों में स्थापित मठ, आगे चलकर वेदांत दर्शन के प्रचारप्रसार में सहायक बने. मठों की स्थापना के पीछे उनका ध्येय था कि वे अध्ययनमनन का केंद्र बनकर वेदांत की परंपरा का उत्तरोत्तर विकास करने में सहायक सिद्ध होंगे. इससे धार्मिकदार्शनिक शोध को विस्तार मिलेगा. मगर कालांतर में वे मठ धर्मसत्ता के शक्तिशाली केंद्र के रूप में स्थापित होते चले गए. अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए वहां मौजूद पुजारी, मठाधिपति राजसत्ता, कुटिल नीति, ओछे हथकंडों, मिथ्याडंबरोंµयहां तक कि षड्यंत्रों का सहारा भी लेने लगे. इससे वहां वैचारिक जड़ता और अज्ञानता का प्रवेश स्वाभाविक ही था.

अद्वैत दर्शन की स्थापना के लिए शंकराचार्य ने उपनिषदों, बृह्मसूत्र एवं गीता पर सारगर्भित भाष्य लिए थे. उनका दर्शन वैदिक धर्मग्रंथों से उद्भूत था. तत्कालीन समाज में वेदांत की प्रासंगिकता एवं उपयोगिता का आकलन इससे भी किया जा सकता है कि उन दिनों प्रचलित अधिकांश दर्शन वैचारिक जड़ता और वितंडा का शिकार हो रहे थे. जनसाधारण की उनमें रुचि निरंतर घटती जा रही थी. यहां तक कि एक सहस्राब्दि से अधिक लोकमानस पर छाये रहे जैन और बौद्ध दर्शन की लोकप्रियता भी खतरे में थी. मींमासा दर्शन कर्मकांड प्रधान था, जबकि तर्क और विश्लेषण पर आधारित न्याय और वैशेषिक दर्शनों का प्रभाव समाज के प्रबुद्ध वर्ग तक सीमित था. जनसाधारण में उनकी कोई प्रतिष्ठा न थी. शंकराचार्य ने एक ओर तो शास्त्रार्थ के माध्यम से अपने विरोधियों को वेदांत अपनाने के लिए बाध्य किया, दूसरी ओर जनसाधारण को प्रभावित करने के लिए भक्ति को भी पर्याप्त महत्त्व दिया. उनके द्वारा लिखित पद ‘भज गोविंदम्, भज गोविंदम्, गोविंदम भज मूढ़मते’ आगे चलकर भक्ति परंपरा के विस्तार का मूल मंत्र तथा बौद्ध एवं जैन धर्म के प्रभाव के चलते वैदिक धर्मदर्शन की लुप्तप्रायः प्रतिष्ठा वापस दिलाने वाला सिद्ध हुआ. हालांकि प्रकारांतर में भक्ति आंदोलन के विस्तार, विशेषरूप से सगुण भक्ति के रूप में थोपे गए अवतारवाद के बढ़ते प्रभाव में वेदांत की चिंतनमनन और ज्ञानसाधना की प्रवृत्ति, वांछित विस्तार न ले सकी. उसके स्थान पर खोखले कर्मकांड और मिथ्याडंबर छाते चले गए. एक समृद्ध दर्शन विभिन्न पंथों, संप्रदायों में विभाजित होता गया. उसकी क्षतिपूर्ति के लिए कोई नया दार्शनिक विचार जन्म न ले सका. वेदांत के पश्चात नवींदसवीं शताब्दी से भारतीय दार्शनिक परंपरा में पसरा शूण्य अभी तक यथास्थति बनाए हुए है. यूं, इस बीच छुटपुट प्रयास अवश्य हुए, लेकिन वे एक प्रकार से पुराने मतों का ही विस्तार थे, जिसके लिए डा॓. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘टीकाकरण’ शब्द का उपयोग किया है.

बदलते सामाजिकराजनीतिक परिवेश में शंकराचार्य द्वारा स्थापित वैदिक धर्मदर्शन की परंपरा उसके विस्तार का कारण तो बनी, सत्ताकेंद्रों का समर्थन भी उसको मिला, जिससे बौद्धदर्शन के प्रभाव में आई प्रजा, पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित होने लगी. चूंकि उस समय तक देश में बौद्धदर्शन की परंपरा लगभग चैदह सौ वर्ष पूरे कर चुकी थी, इसलिए उसकी काट एवं उसपर अपनी वरीयता दर्शाने के लिए मठाधीशों ने वैदिक परंपरा को सनातन कहना आरंभ कर दिया, वेदों को अपौरुषेय मान लिया गया. यह कदम वैदिक युग से चली आ रही नवान्वेषण की चिंतनधर्मी परंपरा के लिए घातक सिद्ध हुआ. इसके लिए अन्य कारण भी जिम्मेदार थे. उस समय देश का राजनीतिक वैभव उतार पर था. महाप्रतापी गुप्तवंश का पतन हो चुका था और भारत छोटेछोटे राज्यों में विभाजित था. उनके बीच सत्ता और वर्चस्व के लिए संघर्ष होते ही रहते थे. देश की राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाने के लिए विदेशी आक्रामक अपनी गिद्धदृष्टि इसपर जमाए हुए थे. देश पर न केवल बाहरी आक्रमण आरंभ हो चुके थे, बल्कि देश के बड़े भूभाग पर विधर्मियों का कब्जा बढ़ता ही जा रहा था. भारतीय शासकों के विधर्मियों के साथ युद्ध में निरंतर परास्त होते जाने से जनसाधारण पर हताशा व्याप्त होने लगी थी. बाहर से आए आक्रामक सिंधु के इस पार रहने वाले भारतीयों को हिंदू कहते थे, अतएव वैदिक दर्शन के स्थान पर हिंदू दर्शन या हिंदू धर्म रूढ़ होता चला गया. जो अपनी जड़ें वैदिक दर्शन की परंपरा में खोजता था, लगभग भटका हुआ था. जिसके अनुयायी अपने ही देवताओं से लगभग हताश हो चुके थे. इसलिए त्राण की खोज में उन्हें पीरऔलियाओं की शरण में जाने से भी गुरेज नहीं था.

विचारशैथिल्य के उस दौर में मात्र एक टीका के आधार पर अलगअलग संप्रदाय बनने लगे. परिणाम यह हुआ कि समाज छोटेछोटे समूहों में बंटता चला गया. मामूली कर्मकांड यहां तक कि वृथा रूढ़ियों को लेकर भी बहसें होने लगीं. विवेक के स्थान पर टोनेटोटके प्रभावी होते गए. धर्म का वास्तविक उद्देश्य मानव समाज को जोड़े रखना, उसके नैतिक स्तर को ऊंचा उठाना तथा विभिन्न मतमतांतरों के बीच समन्वय की भावना का विस्तार करना हैआपसी मतभेदों, क्षुद्र स्वार्थपरता, निरर्थक वितंडावाद तथा वैचारिक जड़ता के बीच यह बात पूरी तरह भुला दी गई. यह मान लिया गया कि सृष्टि का सारा ज्ञान प्रथानत्रयी में सुरक्षित है. उससे बाहर कुछ नहीं. और तो और संप्रदाय के गठन का आधार ही मौलिक सोच न होकर टीका को बना दिया गया. द्विवेदी जी आगे लिखते हैं

‘…तो संप्रदाय वह होगा जिसके पास अपना एक भाष्य होगा. अपनी एक टीका जरूर होनी चाहिए और टीका के लिए टीका(तिलक) भी लगाने की जरूरत है. वह इसका सूचक है कि इसके पास एक टीका है. उसका अपना मंत्र होना चाहिए. उसका अपना ईष्टदेव होना चाहिए.’2

किसी प्राचीन ग्रंथ की टीका लिखकर और मात्र एकाध मंत्र की रचना से न केवल विद्वानों में नाम गिनाया जा सकता था, बल्कि नए संप्रदाय की नींव रखना भी संभव था. कहा जा सकता है कि अवतारवाद एवं आडंबरवाद के चलते उन दिनों नए संप्रदाय के गठन के लिए न तो स्वतंत्र विचारधारा की जरूरत रही थी, न स्वतंत्र दर्शन और न ही समस्याओं के तार्किकतात्विक विवेचन की. ऐसे में संप्रदायों के गठन के पीछे शक्तिसत्ता का प्रदर्शन होना स्वाभाविक ही था. यह सत्ता कहीं धर्मसत्ता का प्रतीक थी तो कहीं पर राजनीति समर्थित. इससे उन लोगों को भी अपना प्रभुत्व जमाने का अवसर मिलता था, जिनके लिए धर्मदर्शन का अभिप्राय महज सत्ता कब्जाना था. जाति के आधार पर बंटे समाज में, उसी के आधार पर जन्मना विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के मन में ऐसी महत्त्वाकांक्षाओं का पनपना अस्वाभाविक भी नहीं था. ‘मठाधीश’ होना प्रारंभ में भले ही सम्मान और बौद्धिक गरिमा का प्रतीक शब्द रहा हो, मगर आगे चलकर यह शब्द बौद्धिक जड़ता और सर्वसत्तावाद का पर्याय बनता चला गया. फलतः संप्रदाय और उनका गठन लोककल्याण अथवा ज्ञानचेतना की पवित्र भावना से प्रेरित न होकर, वर्चस्वभावना और ताकत का प्रतीक बनता चला गया. अक्सर यह भी होता था कि नए संप्रदाय के गठन का विचार पहले बनता, संप्रदाय तत्पश्चात गठित होता. शास्त्रीय मान्यता उसके भी बाद मिल पाती. कई बार ऐसा भी होता कि टीका या संप्रदायग्रंथ बाद में रचा जाता, संप्रदाय की रूपरेखा या उसकी अभिकल्पना पहले गढ़ ली जाती. ऐसे संप्रदायगठन के पीछे प्रायः धार्मिकसामाजिक सत्ता पर सवारी गांठने की प्रवृत्ति का हाथ होता था, जो पचास सौ नहीं बल्कि शताब्दियों तक लगातार उत्प्रेरक का काम करती रही. टीकाकरण, जिसे आज की भाषा में भावानुवाद भी कह सकते हैं, की प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हुए डा॓. हजारीप्रसाद द्विवेदी एक और ऐतिहासिक प्रसंग का उल्लेख करते हैं

‘‘यह सब कहते हैं कि वृंदावन में एक शास्त्रार्थ सभा हुई. चैतन्य देव बड़े भारी भक्त थे बंगाल के; और उनके शिष्यों ने बड़ा साहित्यिक कार्य भी किया है. भक्ति पर जितना अच्छा ग्रंथ उन्होंने लिखा है, उतना भारतवर्ष में कम लोगों ने लिखा। तो वृंदावन की एक सभा में उनसे पूछा गया कि तुम्हारा कोई संप्रदाय है? उन्होंने कहा‘है’, तो कहने लगे‘टीका कहां है तुम्हारे पास? किस ग्रंथ पर तुमने टीका लिखी है? कोई टीका नहीं है इसलिए तुम अलग हो जाओ.’ तो बलदेव विद्याभूषण ने एक दिन की मोहलत मांगी और रातोंरात किसी तरह अपने को जात में दाखिल किया.’’3

उपर्युक्त उद्धरण से आप अनुमान लगा सकते हैं कि आठवीं शताब्दी के बाद से बीसवीं शताब्दी तक भारत में नए दार्शनिकबोध के नाम पर शून्य पसरा हुआ है. दरअसल अपनी अद्वितीय प्रतिभा और तर्कसामथ्र्य के बल पर शंकराचार्य ने वेदांत को जिस ऊंचाई तक पहुंचाया था, उनसे यह मान लिया गया कि वेदांत के आगे कुछ हो ही नहीं सकता. परंपराजीवी हिंदू मानस वैसे भी स्वयं को वेदों की छाया से बाहर नहीं लाना चाहता. इसलिए शताब्दियों बाद भी भारतीय मनीषा वहीं ठहरी हुई है, जहां लगभग एक हजार वर्ष पहले शंकराचार्य ने उसको छोड़ा था. अतएव भारतीय दर्शन में जब भी समकालीनता की चर्चा होती है, तो बात अधिक से अधिक उनीसवीं शताब्दी में चलने वाले चंद सुधारवादी आंदोलनों तथा स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, महर्षि अरविंद आदि के विचारों तक सीमित होकर रह जाती है. हालांकि हम सभी जानते हैं कि ये सभी विद्वान, समाजसुधारक अपने विचारों, संप्रदायों और हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहें तो ‘टीकाकरण’ के माध्यम से वैदिक परंपरा का ही ‘अनुसंधान’ कर रहे थे. शताब्दियों तक विधर्मियों की दासता भोग चुके हताश भारतीयों के लिए अतीतोन्मुखी होकर अपनी स्मृतियों की तलहटी में छिप जाना अस्वाभाविक भी नहीं था.

बाद के महापुरुषों में सर्वपल्ली राधाकृष्णन, महात्मा गांधी, आचार्य रजनीश भी आते हैं. इनमें से प्रथम दो ने राजनीति के साथसाथ समाजकर्म को भी समानरूप से साधने में महारत हासिल कर ली थी, जिससे उन्हें व्यापक लोकसमर्थन हासिल हुआ. उसके बल पर वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख सूत्रधार बने. गांधी जी ने अपने नाम से किसी स्वतंत्र विचार अथवा ‘वाद’ के प्रचलन का समर्थन कभी नहीं किया, बल्कि अपने जीवनकर्म ही को अपना संदेश माना. फिर भी कुछ विद्वान गांधीवाद का दार्शनिक सिद्धांत की तरह उल्लेख जरूर करते हैं, गांधी जी विचारों की परिधि बहुत व्यापक थी, उसमें समाजविज्ञान, आर्थिकी, मानविकी और राजनीति का पूर्ण समन्वय है. किंतु यदि हम उसमें किसी स्वतंत्र दार्शनिक विचार की खोज करें तो हमें संभवतः निराश रह जाना पड़ेगा. डा॓. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय दर्शन के प्रकांड अध्येता थे. इसका प्रमाण भारतीय दर्शन पर उनका विशाल ग्रंथ है, उनकी दृष्टि मानवतावादी और समन्वयकारी थी. उन्होंने वैदिक धर्मदर्शन की नैतिकतावादी व्याख्या पर जोर दिया, मगर वे किसी नए दार्शनिक विचार के प्रणयन का खतरा नहीं उठा सके. आशय है कि ये दोनों महापुरुष कहीं न कहीं वैदिक धर्म अथवा औपनिषदिक दार्शनिक परंपरा का ही विस्तार कर रहे थे.

यहां आचार्य रजनीश पर विशेष चर्चा प्रासंगिक है. बीसवीं शती के इस विलक्षण प्रतिभाशाली आघ्यात्मिक गुरु को अनेक विद्वान दार्शनिक की मान्यता देते हैं. स्वयं रजनीश अपने भक्तों के बीच खुद को ‘ओशो’ कहलवाकर प्रचार करते रहे. अधिकाधिक लोगों को अपने विचारों और वक्तृत्वकला से प्रभावित करने की महत्त्वाकांक्षी ललक ने ही उन्हें दुनिया के उन गिनेचुने प्रवाचकों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया था, जो समाज के बड़े वर्ग को अपना अनुयायी बना लेने में सफल होते हैं. अपने प्रवचनों में उन्होंने भारतीय धर्मदर्शन और सांस्कृतिक प्रतीकों की अधुनातन व्याख्याएं कीं और अपना अलग प्रशंसक वर्ग पैदा किया. अधिकांश विद्वानों का मत है कि लोकायतों की भांति रजनीश भी मुक्तभोग के समर्थक थे. जबकि मेरे विचार में वे भोग को नियंत्रण मुक्त करने के बजाय, उसको लेकर मानवमन में पलने वाली स्वाभाविक कुंठाओं से मुक्ति का आवाह्न कर रहे थे. ‘संभोग से समाधि तक’ शीर्षक के अंतर्गत दिया गया उनका लंबा प्रवचन वस्तुतः कामेच्छाओं के अनुचित शमन तथा उनको लेकर मनुष्य की स्वाभाविक कुंठाओं से मुक्ति की खोज का उद्यम है. लेकिन जैसा कि अक्सर देखा गया है, गलत हाथों में पड़कर क्रांतिकारी विचार अपनी ही जड़ें काटने लगते हैं. कालांतर में रजनीश दर्शन के नाम पर भी स्वच्छंदतावादी जीवनशैली उभरने लगी. उनके आश्रम की गतिविधियों को लेकर रहस्यमयी किवदंतियां बनने लगीं.

ठीक पांच सौ वर्ष पहले जन्मे जा॓न काल्विन नामक फ्रांसिसी विचारक का मानना था कि स्वर्ग की कल्पना व्यर्थ है। ईश्वर ने अपने परमानंद के लिए ही इस सृष्टि की रचना की है। मनुष्य धरती पर रहकर ही स्वर्ग जैसी सुविधाएं जुटा सकता है। काल्विन की यह विचारधारा चर्च की तात्कालिक मान्यताओं के विरुद्ध, सीधेसीधे उसकी सत्ता को चुनौती थी। अतः काल्विन का विरोध स्वाभाविक था। इसके लिए उसको जेनेवा से निष्कासन भी झेलना पड़ा था। बीसवीं शताब्दी में रजनीश भी कुछ इसी प्रकार का प्रस्ताव रख रहे थे. दोनों के बीच करीब साढ़े चार सौ वर्ष का अंतर था, लेकिन विरोध का सामना रजनीश को भी करना पड़ा. मेरी दृष्टि में रजनीश की विचारधारा और उनके द्वारा प्रस्तावित जीवनशैली का एक राजनीतिक पहलू भी था. उनकी धार्मिकदार्शनिक स्थापनाएं, जानेअनजाने समाजवादी विचारधारा के विरुद्ध जा रही थीं, जिसके लिए फ्रांस और रूस में दुनिया की दो महान क्रांतियां हो चुकी थीं. भारत भी उनके प्रभाव से अछूता नहीं था. दुनियाभर के करोड़ों लोग उसी के माध्यम से नए समानताधारित समाज का सपना देख रहे थे. रजनीश संन्यास और वैराग्य संबंधी परंपरागत मान्यताओं को चुनौती देते हुए संसार से पलायन के बजाय, सबके बीच रहकर चुनौतियों का सामना करने और उनसे सतत जूझने की प्रेरणा दे रहे थे, वह बाजार के लिए विशेष लाभकारी था. कभीकभी लगता है कि रजनीश धर्मदर्शन के फालूदे को पूंजीवाद की आइसक्रीम के साथ खपाने का प्रयास कर रहे थे. उस समय पूरी दुनिया परस्पर शीतयुद्ध में फंसे दो ध्रुवों में बंटी हुई थी, जिसके एक छोर पर साम्यवादी रूस था, दूसरे पर अमेरिका जहां पूंजीवाद अपनी जड़ें गहरी कर चुका था और उसकी निगाह भारत जैसे एशियाई देशों पर थी. इसलिए रजनीश जब अमेरिका गए तो वहां उनका जोरदार स्वागत किया गया. लेकिन धर्म का उच्छ्रंखलतावादी रूपजैसा कि रजनीश के प्रतिपक्ष के रूप में प्रचारित किया जा रहा था, किसी भी समाज अथवा धर्म में स्वीकार नहीं था. धर्मदर्शन और पूंजीवाद की युति बाजार के दीर्घकालिक हितों के विरुद्ध होने के कारण स्वयं पूंजीपति उसके साथ बहुत दूर तक जाने को तैयार नहीं थे. शायद इसलिए कि धर्म की जड़ें अतीत में होती हैं और अतीत के प्रति सघन व्यामोह त्वरित सामाजिक परिवर्तन के प्रयासों में, खासकर जैसा कि बाजारवादी शक्तियां चाहती हैं, अवमंदक का कार्य करता है.

रजनीश का प्रभाव प्रायः समाज के ऊपरी वर्गों तक सीमित था, जिनकी क्रय क्षमता पर्याप्त थी. इसलिए अमेरिकी प्रवास के आरंभिक दिनों में रजनीश के विचारों को वहां खूब मानसम्मान मिला. लेकिन अकेला उच्च आय वर्ग तो बाजार की महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा कर नहीं सकता था. इसके लिए समाज के मध्यम और अल्पआयवर्ग का साथ भी अत्यावश्यक, जिनके बीच धर्म और उसके प्रतीकों, कर्मकांडों की पूरी पैठ थी. यही कारण है कि कालांतर में रजनीश की विचारधारा पूंजीवाद समर्थित धार्मिक यथास्थितिवादियों को खलने लगीं. पूंजीवादी शक्तियां भी तब तक संभवतः मान चुकी थीं कि रजनीशदर्शन के आधार पर उससे आगे की यात्रा असंभव, इसलिए उन्होंने धीरेधीरे अपने हाथ खींचने शुरू कर दिए. परिणामस्वरूप रजनीश को अमेरिका की धरती का मोह छोड़कर भारत लौटना पड़ा. यहां के परिवेश में रजनीश के विचार चैंका देने वाले जरूर थे. लेकिन दार्शनिक दृष्टि से उनके पास भी नया कुछ नहीं था. मुक्त भोग अथवा भोग को लेकर कुंठाओं से मुक्ति का जो आवाह्न रजनीश कर रहे थे, चार्वाकपंथी उनसे बहुत पहले तथा उनसे कहीं अधिक तार्किक रूप में सामने ला चुके थे. कहने का आशय है कि प्रकांड मेधा के धनी रजनीश ने अपने प्रवचनों द्वारा धार्मिकसांस्कृतिक प्रतीकों की अभिनव व्याख्याएं तो कीं, मगर वे ऐसा कोई विचार दे पाने में असमर्थ रहे, जो भारतीय दर्शन को मौलिक विस्तार देता हो.

पश्चिम में दर्शनशास्त्र के पर्याय के रूप में Phylosophy शब्द प्रचलित हुआ, जो दो शब्दों Philos तथा Sophia शब्दों से मिलकर बना है. इनमें Sophia का अर्थ क्रमशः प्रज्ञा अथवा बुद्धि एवं Philos का अभिप्राय प्रेम या अनुराग है. इस तरह Phylosophy का अर्थ हुआ प्रज्ञा अथवा बुद्धि के प्रति सहजानुराग. कुछेक अपवाद छोड़ दिए जाएं तो पाश्चात्य समाज में प्रज्ञावान मनुष्य को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था. प्लेटो ने तो यहां तक कहा था कि राज्य की बागडोर दार्शनिकों और विद्वतजनों के हाथों में होनी चाहिए. इसके समानांतर भारतीय परंपरा में दर्शन का अभिप्रायः जीवन के मूलभूत रहस्यों की खोज एवं परमसत्ता से साक्षात्कार की स्थिति से लिया जाता है. इसके लिए मन एवं आचरण की शुद्धता तथा सर्वकल्याणधर्मी चिंतन अनिवार्य है. भारतीय दर्शनों में योग को परमसत्ता से साक्षात्कार का एक सशक्त माध्यम बताया गया है. दूसरी ओर विज्ञान एवं बुद्धिविवेक के सहयोग के आधार पर इस सृष्टि के रहस्यों के बारे में अधिक से अधिक जान लेना या जान लेने की कोशिश करना ही पश्चिमी दर्शन की विशेषता है. बुद्धि और विज्ञान के प्रति सहज अनुराग से बंधे होने के कारण पश्चिमी दर्शनशास्त्री नए वैज्ञानिक आविष्कारों से तत्काल प्रेरणा लेते रहे हैं. विज्ञान जैसे ही कोई नई खोज करता है, तत्पे्रेरित दार्शनिक विचार भी समानांतर रूप में विकासमान होने लगता है. यही कारण है कि पंद्रहवी शताब्दी के बाद की वैज्ञानिक क्रांति पाश्चात्य दर्शन के क्षेत्र में भी समानरूप से क्रांति की वाहक सिद्ध होती है. समकालीन पाश्चात्य दर्शन के प्रमुख आधारस्तंभ, सुविख्यात दर्शनशास्त्री फ्रांसिस बेकन, डेविड ह्यूम, जा॓न ला॓क, देकात्र्त, स्पेंसर, बर्कले, लाइबिन्त्जि, स्पिनोजा, हीगेल, वाल्तेयर, कांट आदि पंद्रहवी शताब्दी के बाद की ही उपज हैं.

यह ध्यान देने की बात है कि आठवीं और विशेषरूप से दसवीं शताब्दी के बाद भारत में जहां टीकाकरण के माध्यम से महज परंपरापोषण किया जा रहा था, वहीं पश्चिम में उसके प्रति आलोचनात्मक रवैये की शुरुआत हो चुकी थी. पीटर अबेलार्ड (1079 1142) ने यह कहकर कि प्राचीनतम धर्मों और धर्मग्रंथों के बीच बहुत अधिक अंतर नहीं है, पूरे समाज में भूचाल ला दिया था. इसपर विशेषकर पादरीवर्ग जो ईसाई धर्म के श्रेष्ठतम होने का दावा कर रहा था, नाराज हो उठा. अबेलार्ड के विरुद्ध विरोध की लहर उठने लगी. उससे विचलित हुए बिना अबेलार्ड ने कहा कि वास्तविक धर्मग्रंथ तो सत्य है. उस तक पहुंचने के लिए किसी धर्म अथवा धर्माचार्य की मध्यस्थता की आवश्यकता नहीं है. सत्य क्या है, इसका स्पष्टीकरण करने के बजाय उसने उसके बारे में लोगों को अपने विवेकानुसार स्वयं निर्णय लेने के लिए छोड़ दिया था. स्पष्ट है कि अबेलार्ड ने धार्मिक साक्षात्कार अथवा तत्संबंधी अनुभूतियों के लिए पादरी समेत दूसरे धर्माचार्यों की अनिवार्यता पर प्रश्न उठाए थे. वह चाहता था कि हर व्यक्ति जो सत्य को प्राप्त करना चाहता है, उसके लिए वह अपनी क्षमताओं के अनुरूप विचार करे. संदेह को जिज्ञासा और ज्ञान का मूलमंत्र मानते हुए अबेलार्ड ने एक मूलमंत्र दिया

संदेह हमें जांचपड़ताल के लिए प्रेरित करता है, जांचपड़ताल हमें सत्य तक ले जाती है.’4

पीटर अबेलार्ड ने सत्य को ही ईश्वर माना था. जैसे आगे चलकर गांधीजी ने स्वीकार किया. पर अबेलार्ड के विचार यहीं तक सीमित नहीं थे. उससे लगभग डेढ़ सह्स्राब्दि पहले जब सुकरात ने कहा था कि ‘उस(परमात्मा) को पहचानो’(Know thyself)] तब एक तरह से वह भी परमसत्य की ही प्रतिष्ठा कर रहा था. बल्कि सुकरात से भी हजारों वर्ष के मनुष्य की स्वाभाविक जिज्ञासा परमतत्व अथवा परमसत्ता की खोज में ही निहित थी, जिसके माध्यम से सृष्टि के मूल स्वरूप तथा उसके कारण की व्याख्या की जा सके. इस बीच कुछ भौतिकवादी विचारक भी आए, जिन्होंने परमात्मा की सत्ता को चुनौती दी. लेकिन कुल मिलाकर सारे विमर्श आत्मापरमात्मा और उनके जागतिक संबंधों की खोज तक सिमटे रहे. अबेलार्ड ने सुकरात की उक्ति में संशोधन करते हुए कहा, ‘खुद को पहचानो’(Know yourself) उसका मानना था कि सृष्टि के रहस्यों की खोज में स्वयं से परे जाने की जरूरत नहीं है. उसकी तलाश अपने ही भीतर, खुद की पहचान के साथ की जानी चाहिए. मनुष्य के मनमस्तिष्क को समझकर भी सृष्टि के रहस्यों का निदान संभव है. सत्य की खोज के लिए इतर से अंतर की यात्रा की चेष्टा पूर्व में भी प्रारंभ हो चुकी थी. ग्यारहवीं शताब्दी में दक्षिण भारत के निगुर्णाश्रयी भक्ति परंपरा के संतकवि भी परमात्मा को पाने के लिए अपने अंतर्मन में झांकने की अलख जगा रहे थे. योग दर्शन का तो आधार ही, अपने भीतर की शक्तियों को एकाग्र कर उन्हें आत्मबल एवं अभ्यास द्वारा इतना ऊंचा उठाना है कि आत्मा और परमात्मा के बीच जो द्वैत आभासमान है, वह तिरोहित हो और परमात्मा का साक्षात संभव हो सके. कबीर पढ़ेलिखे तो नहीं थे, लेकिन उन्होंने भी परमात्मा की खोज में इधरउधर भटकने, धर्मालयों में माथा टेकने, मालाजप करने वाले रूढ़िवादियों को लगभग ललकारते हुए कहा था कि ‘तेरा साईं तुज्झ में जागि सके तो जाग.’

अभिप्राय है कि धर्मदर्शन को लेकर पीटर अबेलार्ड से शुरू हुआ आलोचनात्मक विमर्श, आने वाली शताब्दियों में पश्चिमी दर्शन की प्रमुख विशेषताओं में शुमार होता चला गया. उनीसवीं शताब्दी तक आतेआते तो सुकरात और प्लेटो जैसे अध्यात्मवादियों की खुलेआम खिल्ली उड़ाई जाने लगी. जर्मन कविदार्शनिक नीत्शे ने सुकरात का उपहास करते हुए कहा था

सुकरात तो जोकर ठहरा, उसे कौन गंभीरता से लेता है.’5

सुकरात ही क्यों, नीत्शे तो ईश्वर को भी नहीं बख्शता था. ईश्वर की अवधारणा जोरदार शब्दों में खंडन करते हुए उसने कहा था‘ईश्वर मर चुका है, और हमने उसकी हत्या की है.’6 ज्ञान की परंपरा तथा नए आलोचनात्मक विमर्श का स्वागत करने में वाल्तेयर भी पीछे नहीं था. उसका कहना था कि

मनुष्यता की कल्याण के लिए अतीत की उपयोगिता यह जानने के लिए है कि पुराने जमाने के लोग कैसे सोचते थे, न कि यह पता लगाने में कि वे क्या करते, और कैसा खातेपीते थे.’7

वस्तुतः पंद्रहवी शताब्दी से पश्चिम में औद्योगिकवैज्ञानिक क्रांति की शुरुआत हो चुकी थी. जिसके प्रभाव के चलते वहां परंपरागत चिंतन को लेकर एक आलोचनात्मक युग का सूत्रपात हुआ था. धर्म, दर्शन, राजनीति, समाज, संस्कृति आदि कुछ भी उसकी पहंुच से बाहर नहीं था. काॅपरनिकस की पुस्तक ‘दि रिबोल्युशनिबस् आॅरबियम’ (De Revolutionibus Orbium, 1543) तथा न्यूटन की ‘प्रिंसीपिया मेथेमेटिका’ (Philosophie Naturalis Principia Mathematica, 1687) ने वहां वर्षों से चली आ रही अवैज्ञानिक धारणाओं को चुनौती देते हुए नए ज्ञानविज्ञान की ओर संकेत किया था. बेकन ने ‘ज्ञान ही शक्ति8 कहकर नई शोधों का खुले मन से स्वागत किया था. उसको विश्वास था कि कि मशीनें आनेवाले दिनों में मनुष्य की मुक्ति की वाहक सिद्ध होंगी, जिससे तत्कालीन समाज में नई तकनीक और मशीनीकरण को लेकर जो स्वाभाविक संकोच, डर आदि थे, वह कम होने लगे थे. इसी आधार पर बेकन को आधुनिक विज्ञान का पितामह माना जाता है, जिसके फलस्वरूप आगे चलकर समाज में नए ज्ञान और आविष्कारों को स्वीकार्यता मिलने लगी थी.

पंद्रहवीं शताब्दी से शुरू हुए बौद्धिक पुनर्जागरण के काल में जहांजहां तकनीक और विज्ञान गए, वहांवहां बौद्धिकसामाजिक आंदोलन चले, जिन्होंने यूरोप समेत पूरी दुनिया को प्रभावित करने और बदलने का काम किया. लेकिन भारत जैसे ब्रिटिश उपनिवेशों की स्थिति भिन्न थी. अंग्रेजी दासता से पीड़ित ये देश प्रौद्योगिकीय क्रांति और तज्जनित परिवर्तनों से न केवल अछूते थे, बल्कि घोर अतीतोन्मुखी वातावरण में जी रहे थे. उसकी मेधा हताश और पलायनोन्मुखी हो चुकी थी. परिणाम यह हुआ कि दर्शनचिंतन की धुरी भारत आदि एशियाई देशों से खिसककर फ्रांस, जर्मनी और इटली जैसे देशों में चली गई, जो उन दिनों पुनर्जागरण के प्रभाव में थे. वहां उसने एक के बाद एक धर्म, दर्शन, राजनीति, समाज, अर्थशास्त्र, विज्ञान आदि अनेक क्षेत्रों में कई मौलिक विचारों को जन्म दिया. पीटर अबेलार्ड की ज्ञानाश्रयी परंपरा को फ्रांसिस बेकन, डेविड ह्यूम, जाॅन लाॅक, देकात्र्त, स्पेंसर, लाइबिन्त्जि, बर्कले, स्पिनोजा, इमानुएल कांट, हीगेल आदि ने अपनीअपनी तरह से विस्तार दिया और पाश्चात्य दर्शन की परंपरा को समृद्ध करने में अपना योगदान दिया. इन दार्शनिकों का चिंतन कमोबेश परंपरा से पोषित था, मगर उनकी कसौटियां एकदम अलग थीं, जो नए वैज्ञानिक सिद्धांतों और आविष्कारों से अनुप्रेत थीं. बेकन ने वैज्ञानिक आविष्कारों को मानवमुक्ति से जोड़ते हुए उनका जोरदार ढंग से स्वागत किया था, तो लाइबिन्त्जि सृष्टि की उत्पत्ति एवं संचालन का कारण शुभ के संवाहक छोटेछोटे चिद्बिंदुओं को मानता था. स्मरणीय है कि लाइबिन्त्जि से सैकड़ों वर्ष पहले, वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद मुनि ने भी सृष्टि की उत्पत्ति का मूल अतिलघु कणों को माना था. बकर्ले ने ‘दृष्टि ही समष्टि है’ कहते हुए इस सृष्टि और उससे जुड़ी प्रत्येक विचारधारा को व्यक्ति सापेक्ष माना था. यह विचारधारा आगे चलकर अस्तित्ववादी दर्शन में अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत एवं नैतिकतावादी स्थापनाओं के रूप में विकसित हुई.

आधुनिक पश्चिमी दर्शन की बात करें तो वह मुख्यतः संदेहवाद(डेविड ह्यूम), अनुभववाद(जाॅन लाक), समीक्षावाद(इमानुएल कांट), अवयवीवाद(ह्नाइटहैड), विकासवाद(डार्विन, हर्बट स्पेंसर), सर्वेश्वरवाद (स्पिनोजा), यथार्थवाद(रसेल), चिद्बिंदुवाद या आध्यात्मिक बहुत्वाद (लाइबिनित्जि), अस्तित्ववाद(किर्कगाद, सार्त्र), व्यवहारवाद (विलियम जेम्स) आदि दर्जनों धाराओं में बंटा हुआ है. यदि गंभीरतापूर्वक विवेचन किया जाए तो परस्पर भिन्न नजर आती इन विचारधाराओं में से कई ऐसी हैं, जिनमें परस्पर सामन्जस्य एवं एकरूपता है. जैसे विकासवाद एवं नवविकासवाद, भौतिकवाद के ही नवविकसित रूप हैं. भौतिकवादी और विकासवाद के समर्थक स्पेंसर, डार्विन आदि इस सृष्टि को अपने आप में पूर्ण मानते हैं, उनकी निगाह में इसकी उत्पत्ति के पीछे आत्मा अथवा ईश्वर जैसी कोई पारलौकिक सत्ता नहीं है. न ऐसी किसी ऐसी सत्ता की कल्पना की जा सकती है, जिसको विज्ञान के द्वारा जानना असंभव हो. जैसेजैसे विज्ञान परिपक्व होता जाएगा, इस सृष्टि के रहस्यों से भी पर्दा हटता जाएगा. इन दार्शनिकों का मानना था कि आनेवाले वर्षों में विज्ञान न केवल सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़े प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम होगा, बल्कि उसके औचित्य से भी पर्दा हटा सकेगा, साथ ही उन प्रश्नों के उत्तर भी दे सकेगा, जो सहस्राब्दियों से मानवमस्तिष्क की समस्याएं बने हुए हैं.

भौतिकवादियों से अलग स्पिनोजा समस्त चराचर को परमसत्ता का विस्तार मानता था. उसके अनुसार समस्त सृष्टि शुभ का विस्तार है. यदि इसमें कोई अशुभ अथवा किसी भी प्रकार से जो विक्षोभ आभासित है, उसके लिए मानवीय कमजोरियां जिम्मेदार हैं. उसके अनुसार असीमित परमसत्ता को समझना और उसकी व्याख्या करना सीमित मानवेंद्रियां के सामथ्र्य से परे है. मनुष्य जब भी ऐसा करता है, उससे चूक होती है. अपनी दुर्बलताओं को समझने के बजाय वह इस सृष्टि जो परमात्मा की दोषमुक्त और महानतम रचना है, में खोट निकालने लगता है. इस संदर्भ में हीगेल भी स्पिनोजा का समर्थक था. उसका मानना था, कि अपरिमित परमसत्ता का साक्षात सीमित सामथ्र्ययुक्त मानवेंद्रियों की पहुंच से परे है. स्पिनोजा के सर्वेश्वरवाद के पीछे भारतीय उपनिषदों और सुकरात का अध्यात्मवाद है. वह इस समस्त चराचर सृष्टि को इस परमसत्ता का विस्तार मानता था. उपनिषदों में भी ‘सर्व खाल्विदं ब्रह्म’ कहकर इस चराचर जगत को परमसत्ता का ही विस्तार माना गया है, जो निर्विकल्प, विकारहीन एवं सर्वथा संपूर्ण है. यदि कहीं अभाव है, यदि इसमें कहीं विकार अथवा विक्षोभ नजर आता है, तो उसका कारण मानवीय स्वभाव की कमजोरी अथवा उसकी अज्ञानता है. सर्वेश्वरवादियों की दृष्टि में मनुष्य की अज्ञानता ही उसकी समस्याओं की जननी है. भौतिकवादी विचारकों की भांति व्यवहारवादी दार्शनिक भी इस सृष्टि को वास्तविक और सत्य मानते हैं. उनके अनुसार जो प्रत्यक्ष है, अनुभूति का विषय और मनुष्य के लिए उपयोगी है, वही सत्य है. हीगेल और कांट जैसे अध्यात्मवादियों जो इस सृष्टि को पूर्ण मानते थे, का विरोध करते हुए प्रसिद्ध व्यवहारवादी विचारक विलियम जेम्स ने कहा था किµ‘इस सृष्टि को पूर्ण मानना सर्वथा प्रतिक्रियावादी विचार है, क्योंकि इससे विकास की समस्त संभानाएं समाप्त हो जाती हैं. ऐसे में मनुष्य को करने के लिए कुछ रह ही नहीं जाता.’ व्यवहारवाद और उपयोगितावाद इस मामले में एकदूसरे के करीब हैं कि दोनों की सृष्टि को वास्तविक और ज्ञेय मानते हैं.

विकासवाद, व्यवहारवाद, उपयोगितावाद जैसी दर्शन की आधुनिक विचारधाराओं पर वैज्ञानिक शोधों का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है. उल्लेखनीय है कि दर्शनशास्त्र संबंधी भिन्न मतों, विचारधाराओं के बावजूद पूर्व और पश्चिम के प्राचीनतम दर्शनशास्त्रियों के समक्ष लगभग एकसमान समस्याएं रही हैं. जो सहज मानवीय जिज्ञासाओं का विस्तार थीं. पहली सृष्टि की उत्पत्ति और उसके पीछे निहित कारण और उसका औचित्य. दूसरी परमात्मा अथवा परमसत्ता का स्वरूप तथा उसको जानने अथवा प्राप्त करने के उपाय तथा आत्मा एवं परमात्मा के संबंधों की व्याख्या. तीसरी ज्ञान का आधार एवं उसका औचित्य, ज्ञानप्राप्ति के प्रमुख साधन, बुद्धि एवं ऐंद्रियानुभव की प्रामाणिकता. आदिकाल से ही दार्शनिक इन शाश्वत दार्शनिक प्रश्नों से जूझते आ रहे हैं. लेकिन तब तक विज्ञान का इतना विस्तार नहीं हुआ और मनुष्य अपने ज्ञान के लिए निजी अनुभवों और तपसाधना(अध्ययन) पर निर्भर था, वह इस सृष्टि का कारणस्वरूप परमात्मा को मानता था. विराट प्रकृति के आगे सृष्टि उसको एक जंजाल लगती थी, इसलिए मृत्यु भय से मुक्त होना, मोक्ष प्राप्त करना उसका प्रमुख आध्यात्मिक ध्येय हुआ करता था. मगर जैसेजैसे विज्ञान ने प्रकृति और मानवजीवन के गुत्थियों को सुलझाना आरंभ किया, अंतरिक्ष की यात्राओं, चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में आई क्रांति, भौतिकी के अभूतपूर्व आविष्कारों तथा जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान के चमत्कारों ने मनुष्य के सामने एक के बाद एक बौद्धिक ज्ञान के इतने सोपान खड़े कर दिए कि उसको यह भरोसा होना लगा कि सृष्टि की व्याख्या बिना किसी पारलौकिक अथवा काल्पनिक सत्ता की मदद से भी की जा सकती है. विज्ञान और उसके आविष्कारों, उपलब्धियों का दबाव इतना अधिक था कि दार्शनिकों को भी अपनी विचारधारा में तदनुरूप संशोधन करना पड़ा. फिर तो जैसेजैसे प्रयोगशालाओं में कृत्रिम जीवन की संभावनाएं बढ़ती गईं, दर्शनशास्त्रियों ने भी ईश्वर, आत्मा, परमात्मा, पापपुण्य और स्वर्गनर्क जैसी मान्यताओं से किनारा करना आरंभ कर दिया है.

पश्चिम में आज की मौजूदा सर्वाधिक लोकप्रिय विचारधाराओं में तीन प्रमुख हैं—

1. व्यवहारवाद अथवा प्रागेमेटिज्म

2. विश्लेषणात्मक अथवा तर्कमूलक दर्शनशास्त्र

3. अस्तित्ववाद

व्यवहारवादी दार्शनिकों में अमेरिका के विलियम जेम्स प्रमुख हैं. अध्यात्मवाद प्रत्येक जागतिक कर्म तथा उसके लक्षणों, वस्तु आदि को पूर्वनियोजित मानता है. सृष्टि के केंद्र में परमात्मा को रखकर वह उसके रहस्यों को समझना चाहता है. वह परमात्मा को अपना सुदूर लक्ष्य मानता है तथा अपने और उसके बीच की जागतिक दूरी को पाटने के लिए वह सतत प्रयत्नशील रहता है. व्यवहारवादी दृश्यमान जगत से परे किसी भी सत्ता की उपस्थिति को पूरी तरह नकारते हैं. सृष्टि के केंद्र में मनुष्य को रखते हुए वे जागतिक सत्यों की वस्तुनिष्ठ व्याख्या करने का प्रयास करते हैं. जो वस्तु मनुष्य की दृष्टि से और पहुंच से परे है, उस वस्तु का मानवजीवन के लिए कोई उपयोग नहीं है. इसलिए प्रकृति, पुरुष, ब्रह्म, स्वर्गनर्क, पापपुण्य जैसी अवधारणाएं व्यवहारवादियों की निगाह में कोई मूल्य नहीं रखतीं. वे जगत को गतिशील मानते हैं. उनके अनुसार मनुष्य के कर्म पूर्वनिर्धारित न होकर उसके अपने विवेक एवं चयन पर निर्भर होते हैं. व्यवहारवादी के लिए किसी वस्तु का मूल्य उसकी जीवन में उपयोगिता से तय होता है. यदि कोई वस्तु जीवन में उपयोगी है, तो वह सत्य भी है. यह अध्यात्मवादियों की उस धारणा के विपरीत है जिसके अनुसार वे किसी वस्तु में अंतर्निहित सत्य को ही उसकी उपयोगिता का आधार मानते हैं. इस सत्य का आकलन परमसत्ता से उसकी निकटता के आधार पर किया जाता है. दूसरी ओर व्यवहारवादियों के लिए ‘उपयोगिता ही प्रामाणिकता’ है. चूंकि ईश्वर का ऐंद्रियक साक्ष्य संभव नहीं है, अतएव वह भी सत्य नहीं है, इसलिए वह ईश्वर के अस्तित्व को भी नकार देते हैं. हालांकि भौतिकवादियों की भांति व्यवहारवादी दार्शनिक ईश्वर की अवधारणा का सामान्यतः सीधेसीधे विरोध नहीं करते. बल्कि वे उसे जनसामान्य की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान करने, उसके आचरण को नियंत्रित, मर्यादित बनाने के लिए जरूरी मानते हैंµऔर उसे उस समय तक स्वीकृति देने के पक्ष में हैं, जब तक कि मनुष्य का ज्ञानविज्ञान इस जीवन और सृष्टि से जुड़े सभी प्रश्नों की तार्किक व्याख्या देने में सफल नहीं हो जाता. अमेरिकी व्यवहारवाद वस्तुतः यूरोप के मानववाद (शिलर) से प्रेरित है, जो इस चराचर जगत को मनुष्य की कर्मशाला मानता है.

मानववादी भी इस सृष्टि की व्याख्या मनुष्य को केंद्र में रखकर करते हैं. उनके अनुसार मनुष्य इस सृष्टि का सर्वश्रेष्ट प्राणी है. वह विवेक से काम लेता है. वह अपनी स्थिति में सुधार करने में सक्षम है. अतएव सृष्टि के सारे आयोजन मनुष्य के लिए हैं. उसके बिना या उससे परे वे प्रयोजनविहीन हैं. उनकी उपयोगिता मानवजीवन को अधिकाधिक सुखसुविधामय बनाने में है. मनुष्य अपने कार्यों के संपादन हेतु पूरी तरह स्वतंत्र तथा स्वायत्त है. यहां भारतीय मानववाद और पाश्चात्य मानववाद में एक गुणात्मक अंतर देखने में आता है. भारतीय मानववाद में व्यक्ति नैतिक आचरण को केंद्र में रखकर, समस्त जीव समुदाय के सुखों पर विचार करते हुए, तदनुसार निरपेक्ष कर्म करने में विश्वास रखता है. जबकि पश्चिमी दर्शन में सुख का अभिप्रायः अपेक्षाकृत स्थूल संदर्भों में, प्रायः भौतिक सुखों से लिया जाता है. पूर्व और पश्चिम के दार्शनिक रुझानों में एक बड़ा अंतर यह भी देखने को मिलता है, कि वहां मनुष्य और उसकी चिंताएं दार्शनिक विवेचना का मूल विषय हैं. इसके विपरीत भारतीय दर्शन में, चिंतन का मूल विषय ब्रह्म यानी परमसत्ता को बनाया गया है. इहलोक भारतीय दर्शन की समस्या नहीं है. क्योंकि वह तो माया है, अभासी है, इसमें मन को रमाए रखना माया के प्रभाव में आकर अपने वास्तविक लक्ष्य को बिसरा देना है. माया से परे जाने के लिए सतत आत्मपरिष्कार जरूरी है, जो दीर्घ तपश्चर्या, सतत साधना, चित्तवृति निरोध, अस्तेय, अपरिग्रह तथा योग जैसी नैतिक व्यवस्थाओं द्वारा संभव है.

विश्लेषणात्मक अथवा तर्कमूलक दर्शनशास्त्र के विचारक यथा बट्रैंड रसेल, जी ई मूर, ए एन व्हाइटहैड, इसे विज्ञान का विषय मानते हैं. उनके अनुसार दर्शनशास्त्र विज्ञानों का विज्ञान है, लेकिन केवल जटिल वैज्ञानिक सूत्रों अथवा प्रयोगशाला के उपकरणों से गूढ़ दार्शनिक स्थापनाओं की समीक्षा कर पाना असंभव है. इस आधार पर दर्शनशास्त्र विज्ञान होते हुए भी उससे आगे और विशिष्ट है. दरअसल दर्शनशास्त्र सर्वसत्ता का विज्ञान होने के कारण एक ओर तो उपलब्ध वैज्ञानिक खोजों और आविष्कारों से प्रेरणा लेता है, साथ ही उसके लिए निरंतर नई चुनौतियां भी पेश करता रहता है. वह ज्ञान की प्रविधियों, मनस्, आत्मन्, बुद्धि आदि की सीमाओं पर विचार करता है, ताकि उनके आधार पर प्राप्त वस्तुगत बोध को परखा; और जहां तक हो सके विस्तार किया जा सके. उसका उद्देश्य ज्ञान की विभिन्न प्रविधियों और उनकी प्रामाणिकता का तार्किक विश्लेषण करना है. एक परिभाषा में रसेल ने माना है कि ‘दर्शनशास्त्र, विज्ञान के आधारभूत सिद्धांतों का तार्किक अध्ययन है.’10

अपनी तार्किक पद्धति का अनुसरण करते हुए रसेल ने बर्कले की मान्यता कि ‘दृष्टि ही समष्टि है’ को चुनौती दी है. रसेल का मानना था कि इस तरह की पूर्वस्थापित धारणाएं न केवल मस्तिष्क और ऐंद्रियक बोध को सीमाओं में बांधकर वास्तविक ज्ञान के आड़े आती हंै, बल्कि वे ज्ञान की उन संभावनाओं को ही समाप्त कर देती हंै, जो एकाधिक व्यक्तियों अथवा एक ही व्यक्ति द्वारा किसी वस्तु को अलगअलग अवसरों, दृष्टियों से देखने पर प्राप्त होता है. यदि हम मेज का ही उदाहरण लें तो ऐंद्रियक बोध से उसके रंगरूप, आकार, ठोसपन, गंध आदि का बोध हो सकता है, लेकिन मेज के बारे में जानकारी अथवा उसमें सन्निहित ज्ञान केवल उसकी भौतिक संप्रतियों अथवा ऐंद्रियक बोध तक ही सीमित नहीं है. उसके बारे में संपूर्ण बोध के लिए मनुष्य को न केवल ज्ञान की अब तक उपलब्ध अवधारणाओं, शोधों के परे जाना पड़ सकता है, बल्कि उस अवस्था में भी उसकी पकड़ से बहुत कुछ छूटा रह सकता है. रसेल के अनुसार ‘दो और दो चार’ एक प्रचलित गणितीय सत्य हो सकता है, जिसको हम अपने जीवन में अकाट्य सत्य के प्रमाण के रूप प्रस्तुत करते रहते हैं. लेकिन आवश्यक नहीं है कि जो गणितीय सत्य हो, वही दार्शनिक सत्य भी हो, क्योंकि दार्शनिक सत्यों के वास्तविक बोध के लिए हमें प्रचलित ज्ञान के उपयोग के साथ अपनी कल्पनाशक्ति, समस्त इंद्रियबोध के साथ अंतहीन स्थितियों और तार्किक विश्लेषणों की शरण में जाना पड़ सकता है. व्यवहारवादी दार्शनिकों की भांति विश्लेषणवादी अथवा तर्कमूलक दार्शनिक भी निरीश्वरवादी हैं. वे ईश्वर के प्रत्यय को स्वीकारते तो हैं, मगर उसको बहुत महत्त्व नहीं देना चाहते, क्योंकि उसको तर्क के माध्यम से सिद्ध कर पाना असंभव है. अतः आत्मा और परमात्मा जैसी अंतहीन समस्याओं से उलझने के बजाय वे ज्ञान की प्रविधियों तथा उसकी प्रामाणिकता की खोज पर अधिक ध्यान देने लगे हैं, ताकि उसके माध्यम से मानवजीवन को सुखी एवं संपूर्ण बनाया जा सके.

विश्लेषणात्मक दर्शनशास्त्र की दो प्रमुख प्रवृत्तियां हैं— पहली कि यह सैद्धांतिक समस्याओं से जूझता है और उनसे बौद्धिक विमर्श करता हुआ निरंतर समृद्धि ओर अग्रसर रहता है. दूसरे अधिकांश विश्लेषणवादी अपनी दार्शनिक स्थापनाओं के लिए वैज्ञानिक ज्ञान की मदद तो लेते हैं, मगर वे उसको विज्ञान मानने के लिए सहमत नहीं हैं. उनके अनुसार यह भी आवश्यक नहीं है कि सभी दार्शनिक स्थापनाएं केवल मनुष्य के सकारात्मक बोध को विस्तार दें. विश्लेषणवाद चूंकि तर्क और ज्ञान की नए उपकरणों, प्रविधियों की खोज पर जोर देता है, इस कारण अधिकांश विश्लेषणवादी दार्शनिक अकादमिक क्षेत्रों से संबद्ध थे. रसेल के अलावा डेविडसन, आर्मस्ट्रांग, शीर्ले आदि ने तर्कमूलक दर्शनशास्त्र को आगे बढ़ाने में काफी योगदान दिया. मगर धीरेधीरे दर्शनचिंतन की यह धारा अपने आप अवरुद्ध होती चली गई.

विश्लेषणात्मक दर्शनशास्त्र तथा व्यवहारवाद की भांति अस्तित्ववाद भी ईश्वर की सत्ता को मानने के लिए तैयार नहीं है. अस्तित्ववादियों ने ईश्वर, सृष्टि, आत्मा, परमात्मा, अवतारवाद जैसी दर्शनशास्त्र की परंपरागत समस्याओं को महत्त्वहीन माना है. उनके अनुसार ये दर्शनशास्त्र की वास्तविक समस्याएं नहीं हैं. अस्तित्ववाद मनुष्य को महत्त्च देता है और मानता है कि दर्शनशास्त्र का वास्तविक उद्देश्य मनुष्य, उसकी परिस्थितियों एवं तत्संबंधी असंगतियों पर विचार करना है. अस्तित्ववादियों के अनुसार मनुष्य का व्यक्तित्व अर्थात आत्मन् तथा बाह्यसत्ता दोनों अलगअलग हैं. उनके अनुसार प्रत्येक वस्तु के अंदर कोई न विशिष्ट गुण निहित होता है, जिसे बुद्धि के माध्यम से जाना और अभिव्यक्त किया जा सकता है. वस्तु का गुण ही उसे बाकी वस्तुओं से अलग और खास सिद्ध करता है. वही उसकी पहचान को सुनिश्चित करता है. यही उसकी स्वतंत्र सत्ता का प्रतीक है, यही आत्मन् को उसके बोध के लिए आकर्षित करता है. कहा जा सकता है कि किसी वस्तु का बुद्धिजन्य और वर्णनीय होना ही उसका सत्तावान होना है. किंतु आत्मन् को सीधेसीधे जानना असंभव है. न उसका वर्णन ही किया जा सकता है. न उसको देख पाना संभव है. इसलिए न तो वह बुद्धिजन्य है, न सत्तावान. फिर आत्मन् की प्रतीति कैसे होती है. जब उसे जाना ही नहीं जा सकता तो उसको बाकी वस्तुओं से अलग और विशिष्ट कैसे ठहराया जा सकता है. अस्तिववादी कहते हैं कि आत्मन् को बुद्धि के माध्यम से जानना असंभव है, किंतु उसको भावनाओं एवं अंतर्दृष्टि के माध्यम से अनुभव तथा विश्लेषित किया जा सकता है. बुद्धिजन्य होने के कारण वस्तुएं सत्तावान होती हैं, जबकि अनुभवजन्य होने के कारण आत्मन् अस्तित्ववान. इसी आधार पर इस दर्शन को अस्तित्ववाद की संज्ञा दी गई है.

अस्तित्ववादी विचारधारा में प्रत्येक व्यक्ति यानी आत्मन् का अपना विशिष्ट महत्त्व है, उसकी विलक्षणता को समझ पाना असंभव है. आध्यात्मवादी मानते हैं कि सीमित इंद्रियों द्वारा असीमित परमात्मा को जानना असंभव है, इसके समानांतर अस्तित्ववादी व्यक्ति को अज्ञेय और असत्तावान मानते हैं. उनके अनुसार इंद्रियां सत्ता को जानने का माध्यम हैं, जबकि मनुष्य अस्तित्ववान है. इसलिए ऐंद्रियसामथ्र्य द्वारा उसका बोध असंभव है. हां, आत्मन् को अनुभव किया जा सकता है. अस्तित्ववादी दार्शनिक पश्चिम में उनीसवीं शताब्दी में चले व्यक्ति स्वातंत्रय आंदोलनों से प्रभावित थे. उनका मानना था कि वर्तमान मशीनीकरण एवं पूंजीकेंद्रित सभ्यता मनुष्य के नैसर्गिक गुणों के उत्थान में बाधक हैं. सामंतवादी गुणों से विनिर्मित यह व्यवस्था समिष्ट के लिए व्यष्टि के बलिदान को उचित मानकर उसका महिमामंडन करती है. इसलिए यह व्यक्तिविरोधी है. मनोविज्ञान, समाजविज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, नीतिशास्त्र, व्यवहार विज्ञान आदि ज्ञान की लोकप्रचलित धाराओं में मनुष्य का उल्लेख एक साधारण इकाई की भांति किया जाता है. स्वार्थकेंद्रित व्यवस्थाएं जीवंत मानवीय इकाइयों का उपयोग साधारण उत्पाद की भांति करती हैं. इससे भावनात्मक शोषण को बढ़ावा मिलता है. आत्मन् का प्रमुख गुण उसका स्वातंत्रय और स्वतंत्र अस्मिता है. वर्तमान सभ्यता के प्रभाव में आत्मन् अपने वास्तविक स्वरूप को भूलती जा रही है. उसका मूल लक्षण अर्थात स्वातंत्रय और अस्मिताबोध उससे छिनता जा रहा है, जिसके लिए यह समाज और वे विषमतामूलक स्थितियां जिम्मेदार हैं, जो समाज के कुछ वर्गों द्वारा उनके स्वार्थ के लिए पैदा की गई हैं.

अस्तित्ववादियों का मानना है कि आधुनिक समाज, धर्म, राजनीति का गठन इस प्रकार किया गया है कि इसमें आत्मन् की विस्तार की सभावनाएं बहुत कम हैं. यही नहीं प्रत्येक विषय पर पहले से तैयार योजनाएं तथा बौद्धिक क्रियाएं आत्मन् से अपने विवेक के अनुसार चयन के अवसर छीन लेती हैं. दूसरे शब्दों में वे उसे लगातार परतंत्र बना रही हैं. अस्तित्ववादी मानता है कि वास्तविक जीवन, तथ्यों के बौद्धिक विवेचन में न होकर क्रियात्मक, भावनात्मक तथा अनुभवात्मक जीवन में है. भावनात्मक मूल्यों को महत्ता देने के कारण अस्तित्वादी दर्शन जनसाधारण से न केवल सीधे संबद्ध दिखाई पड़ता है, बल्कि उसके मूल अधिकारों के संरक्षण के लिए समर्थन भी देता है. यही कारण है कि अस्तित्ववादी विचारधारा को फ्रांस, इंग्लेंड आदि देशों के नागरिक आंदोलनों में खूब लोकप्रियता मिली. प्रकारांतर में यह नए वर्गों में भी सामाजिक चेतना का विस्तार करने में सहायक सिद्ध हुई. प्रसिद्ध अस्तित्ववादी दार्शनिक सात्र्र ने नोबल पुरस्कार को जब ‘आलू का बोरा’ कहकर लौटाया, तब परिवर्तनवादी शक्तियों द्वारा उनका जोरदार स्वागत किया गया. आगे चलकर हालांकि अस्तित्ववादी दर्शन दो धाराओं में बंट गया, जिनमें एक वर्ग आस्तिक और ईश्वर की सत्ता में विश्वास करने वाला था, जबकि दूसरा नास्तिक और ईश्वर की सत्ता से इंकार करता था. किर्कगाद आस्तिक था, जबकि सार्त्र नास्तिक. मगर दोनों ही वर्ग मानवीय स्वतंत्रता और उसके अस्मिताबोध को पर्याप्त महत्त्व देते हैं.

समकालीन पाश्चात्य दर्शनों के उपर्युक्त विहंगावलोकन से दो प्रमुख तथ्य उभर कर आते हैं. पहला तो यह कि आधुनिक दर्शन ज्ञान की प्रविधियों की खोज एवं उनके आकलन को अपने विवेचन का प्रमुख विषय मानता है. उसके अनुसार मनुष्यता का वास्तविक कल्याण ज्ञान के उत्तरोत्तर और नियमित विकास पर निर्भर है. दूसरा तथ्य यह कि ईश्वर, आत्मा, परमात्मा, जीव, स्वर्गनर्क, कार्यकारण तथा पापपुण्य जैसी अवधारणाएं जो कभी दर्शनशास्त्र की प्रमुख चिंताओं में सम्मिलित थीं, उनको लेकर आधुनिक दर्शनशास्त्री बहुत व्यग्र नहीं हैं. वे मान चुके हैं कि इन अवधारणाओं को तर्क द्वारा सिद्ध कर पाना असंभव है, अतएव इन्हें अप्रामाणिकअव्याख्येय मानकर छोड़ देना अथवा इनकी ओर से तटस्थ बने रहना ही अच्छा है. आशय स्पष्ट है कि मनुष्य और उसकी मूल समस्याएं आधुनिक दर्शन की चिंताओं में सबसे पहले स्थान पर अवस्थित है. आधुनिक दर्शनशास्त्री विज्ञान को महत्त्व देते हुए उसे ज्ञानार्जन के प्रामाणिक स्रोत के रूप में मान्यता प्रदान करता है. उससे प्रेरणा लेता हुए वह उसके सर्वकल्याणकारी उपयोग पर जोर देता है. यही कारण है कि समकालीन पाश्चात्य दर्शन की अवधारणाओं और नवीनतम वैज्ञानिक आविष्कारों के बीच गहरी अंतर्संबद्धता दिखाई पड़ती है. अपने उत्तरआधुनिक सोच, विज्ञान एवं तकनीक से कदमताल मिलाकर चलने के बावजूद पश्चिमी दर्शनों की समस्याएं भी कम नहीं हैं, बल्कि एक अजीबसी बेचैनी और अपने ही प्रति बौद्धिक अविश्वास वहां के चिंतनजगत में दिखाई पड़ता है. यह हालांकि न तो विशेष चिंता का विषय है, न ही अस्वाभाविक स्थिति. इसलिए कि मनुष्य का समस्त ज्ञान और उपलब्धियां उसके बौद्धिक असंतोष एवं वैचारिक छटपटाहट का सुफल रही हैं. किंतु इसी के कारण नई दार्शनिक प्रज्ञप्तियां अकादमिक क्षेत्रों में सिमटकर रह जाती हैं. लोकसमर्थन के अभाव में वे अल्पजीवी रह जाती हैं.

यह सर्वज्ञात तथ्य है कि धर्म और दर्शन प्रारंभ से ही अंतःसंबद्ध रहे हैं. दुनिया के प्रत्येक धर्म के गठन के पीछे किसी न किसी दार्शनिक विचार की भूमिका रही है. इसलिए दर्शन को धर्म का आधारस्तंभ, उसके आगे चलने वाली मशाल कहा जाता है. धर्म के रूप में दर्शन के आगे मनुष्य की साधारण जिज्ञासाएं और उसके विश्वास महत्त्वपूर्ण होते हैं. वह धर्म को भीड़ का आचरण बनने से बचाकर उसके नैतिक आधार को पुष्ट करने का काम करता है. गूढ़ दार्शनिक मान्यताओं के स्थायित्व के लिए लोकसमर्थन जरूरी शर्त है. दुनिया की विभिन्न दार्शनिक विचारधारों में वही लोकप्रिय और टिकाऊ सिद्ध हुई हैं, जिनके बौद्धिक और लौकिक आधार दोनों पुष्ट थे. धर्म, शुष्क बौद्धिक विवेचनाओं को जनसामान्य के स्तर तक लाने, उनका साधारणीकरण करने का कार्य नियमित रूप से करता रहता था. इससे उसका तार्किक पक्ष तो सधता ही था, धार्मिक प्रतीकों, मान्यताओं के पीछे छिपा गहन दार्शनिकबोध धर्म को रूढ़िग्रस्त होने से बचाता है. हालांकि भारत में भी सांख्य, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा आदि ऐसेे दर्शन थे, जिनका प्रभाव प्रायः तत्वविज्ञानियों तक सिमटा हुआ था. शुष्क बौद्धिकता के कारण सामान्यजन इनकी ओर बहुत कम आकर्षित होते थे. दूसरी ओर जैन, बौद्ध, वेदांत आदि ऐसे दर्शन भी थे, जो बौद्धिकों के साथसाथ जनसामान्य में भी उतने ही लोकप्रिय थे. जन से गहरा जुड़ाव ही उनकी ताकत था. यही कारण है कि जैन और बौद्ध जैसे धर्म जब भारतीय सीमाओं से बाहर गए तो उनके पुष्ट दार्शनिक आधार के कारण वहां के नागरिकों ने उनका सहर्ष स्वागत किया और उनके अनुसार अपनी जीवनपद्धति को ढालने की कोशिश भी की.

समकालीन दर्शन की कमजोरी ही कही जाएगी कि उसको जनसमाज से जुड़ने और लोकमान्यताओं का हिस्सा बनने की कोई उत्सुकता नहीं है. दर्शन हमेशा से ही धार्मिक मान्यताओं का मार्गदर्शक रहा है. लेकिन समकालीन दर्शन है कि वह न तो धर्म से संवाद करता और न ही उसके परिष्कार के लिए प्रयासरत दिखाई पड़ता है. यही कारण है कि कथावाचक स्तर के अतिसाधारण पंडामौलवी आदि खुद को धर्मदर्शन का व्याख्याकार घोषित कर जनसाधारण का भावनात्मक शोषण करते रहते हैं. खुद को धर्मप्राण मानने वाले जनसामान्य की भी आधुनिक दार्शनिक स्थापनाओं में कोई रुचि नहीं है. धर्म को आस्था का विषय मानकर वह उसके विरुद्ध उठने वाले सभी प्रश्नों, शंकाओं को किनारे करता चला जाता है. इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि प्रत्येक धर्म लगातार रूढ़ और अतीतोन्मुखी बनता जा रहा है. दर्शनशास्त्री मानवकल्याण की कामना के साथ समस्त ज्ञानविज्ञान और मानवीय अनुभवों को तर्क की कसौटी पर कसता है, अतएव प्राचीनकाल में धर्म की स्थापना के पूर्व उसके दार्शनिक प्रत्यय की संकल्पना कर ली जाती थी. फिर जैसेजैसे कोई दार्शनिक विचार जनता में प्रतिष्ठा प्राप्त करता जाता, युगानुकूल नए प्रतीक एवं घटनाएं भी उससे जुड़ती चली जाती थीं. दर्शन और नीति का आधार नए धर्म के विकास का कारण बनता था. आधुनिक दर्शनशास्त्रियों को जितनी चिंता अपनी मान्यताओं को तर्क की कसौटी पर खरा उतरने की होती है, उतनी लोक से जुड़ने या अपनी विचारधारा को समाज तक पहुंचाने की दिखाई नहीं पड़ती. इसलिए उसकी अवधारणाएं शुष्क बौद्धिक विवेचन से आगे नहीं बढ़ पातीं.

जन्ममृत्यु, पापपुण्य, स्वर्गनर्क किसी न किसी रूप में आमजन के मनस् में छाये रहते हैं. दुनिया में कुछेक अनीश्वरवादियों को छोड़कर जनसंख्या का अधिकांश ईश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों का है. अमरता की कामना, मनुष्य की एक ऐसी अलभ्य वांछा है, जो उसको जीवनभर भटकाती है. हालांकि विश्व का कोई भी धर्म अमरता की इच्छा नहीं जगाता. सभी मृत्योपरांत अनिवर्चनीय आनंद के नाम पर अपना धंधा जमाए रहते हैं. वैज्ञानिक आधार न होने के बावजूद लोग अमरता के नाम पर छलने को तैयार रहते हैं. यही निराधार इच्छा जनसाधारण के मन में धर्म की जरूरत पैदा करती है. इस सहज मानवीय दुर्बलता के कारण छुटभैये कथावाचक, पोंगा पंडित, भ्रष्ट पादरी, मुल्ला और मौलवी लोगों को अपने पक्ष में बरगलाने में कामयाब हो जाते हैं. ईश्वर है या नहीं, इनमें से एक भी बात दुनिया के बड़े से बड़े तर्क से सिद्ध नहीं की जा सकती. इसलिए महात्मा बुद्ध ने ऐसे प्रश्नों पर मौन की नीति अपनाई थी. लेकिन उनके अनुयायियों ने बुद्ध के मौन को भी लोक के स्तर पर लाकर उसकी अपनीअपनी तरह से व्याख्याएं की हैं. ईश्वर के बार में आधुनिक दर्शनशास्त्री क्या सोचते हैं, यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है. मुख्य बात यह है कि इन प्रश्नों को लेकर उनके और जनसाधारण के बीच किसी प्रकार का संवाद नहीं हो पाता. दार्शनिक अवधारणाएं अकादमिक अहमन्यता का शिकार होकर अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारने का काम कर रही हैं. इसलिए भी कि संसार में अधिकांश लोग ईश्वर की सत्ता पर विश्वास रखते हैं. धर्म और राजनीति के अलंबरदारों के स्वार्थ मनुष्य के इसी भ्रम पर टिके हैं. इसलिए वे इसे न केवल बनाए रखना चाहते हैं, बल्कि भिन्नभिन्न माध्यमों से उसको और अधिक पुष्ट भी करते रहते हैं. बौद्धिक बहसों में सिमटा आधुनिक दर्शन इस विचार पर जनसाधारण से सीधे संवाद करने से कतराता है. यह एक विडंबनाजन्य स्थिति है कि समकालीन दर्शनशास्त्रियों ने जनसाधारण के आध्यात्मिक विश्वासों को उसी के ऊपर छोड़ दिया है.

अकादमिक अहमन्यता की शिकार होकर दार्शनिक गवेषणाएं उत्तरोत्तर जटिल होती जा रही हैं. यदि हम भावना को भी मानवीय व्यक्तित्व का एक लक्षण माने तो उसके विश्वासों के आधार पर बनी ईश्वर की छवि अथवा उसकी प्रतीति को लेकर आधुनिक दर्शन के पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं है. अस्तित्ववाद आत्मन् का महिमामंडन तो करता है, लेकिन महान आत्मन् अपनी वास्तविक स्थिति को क्यों भूला हुआ है, इसका उसके पास कोई ठोस उत्तर नहीं है. इसके लिए वह मनुष्य की बनाई हुई ठोस व्यवस्थाओं को दोषी ठहराता है, लेकिन एक जीवंत मनुष्य के रूप में तो वे भी अलगअलग ‘आत्मन्’ ही हैं, भले ही स्वार्थसमर्पित अथवा भटके हुए क्यों न हों. ‘उपयोगिता ही प्रामाणिकता’ के आधार पर व्यवहारवाद हर वस्तु का आकलन मनुष्य के लिए उसकी उपयोगिता के आधार पर करना चाहता है. परंतु इस सृष्टि में मनुष्य को आए मुश्किल से एकदो करोड़ वर्ष हुए हैं. जबकि इस ब्रह्मांड की वयस् अरबों वर्ष पुरानी है. तो क्या यह माना जाए कि करोड़ों वर्ष पहले जब इस सृष्टि पर मनुष्य का आगमन नहीं हुआ था, यह प्रयोजनविहीन थी. विकास के क्रम में यह भी हो सकता है कि भविष्य में मानव प्रजाति लुप्त हो जाए और उसके स्थान पर कुछ नई प्रजातियां जन्म ले लें. उस समय इस सृष्टि की उपयोगिता का क्या होगा, क्योंकि दर्शनशास्त्र के अध्ययनक्षेत्र में तो काल और कालातीत सभी विषय आते हैं, तभी उसको विज्ञानों का विज्ञान और शास्त्रों का शास्त्र कहा गया है. विज्ञानवादी तथा तर्कमूलक विश्लेषणवादी ईश्वर के प्रत्यय को कोई अहमियत नहीं देते. वे तर्क को सर्वोपरि मानते हुए उसी के माध्यम से सृष्टि की समस्याओं की तह तक जाना चाहते हैं, लेकिन मनुष्य कोई जड़ पदार्थ नहीं है. उसके मन में पलनेवाली, और पलपल अपना रूप बदलने वाली संवेदनाओं की सर्वमान्य तार्किक व्याख्या कैसे संभव है. और जो सर्वमान्य नहीं, वह तर्क की कसौटी पर खरा कैसे उतर सकता है.

जाहिर है कि आज भी ऐसी बहुतसी समस्याएं हैं जिनका उत्तर दर्शनशास्त्र के पास भी नहीं है. उसकी अधिकांश मान्यताएं एकदूसरे को काटती हैं और कभीकभी तो वे कोरा वाग्जाल ही महसूस होती हैं. बावजूद इसके दर्शनशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता को नजरंदाज नहीं किया जा सकता. बल्कि वर्तमान परिवेश में जब धर्म भी राजनीति और बाजार के हाथों में खेलने लगा है, वे उसका उपयोग अपनी जरूरत के अनुसार कभी महज खेल की भांति, तो कभी हथियार की तरह करते हैंµयह दर्शनशास्त्र ही है जो निरपेक्षभाव से मानवीय विवेक को परिपक्वपरिपुष्ट करने का धर्म निभाता है, अत इसका अध्ययन धार्मिक मान्यताओं के पीछे अंतनिर्हित सत्य को परखने, उसके नाम पर रचे जा रहे प्रपंचों से बचने तथा धार्मिक प्रतीकों का मौजूदा परिवेश में आकलन करने के लिए अत्यावश्यक है, भले ही मनुष्य की समस्त जिज्ञासाओं का समाधान अभी दर्शनशास्त्र के पास न हो. रसेल का मानना था कि मानवीय जिज्ञासाएं अनंत हो सकती हैं. इतनी कि उन सबका हल दर्शनशास्त्र के पास भी न हो. बावजूद इसके, वे दर्शनशास्त्र के अध्ययन को अनिवार्य मानते थे. उनका कहना था किµ

दर्शनशास्त्र का अध्ययन अत्यावश्यक है, न केवल मानवीय जिज्ञासाओं के सटीक समाधान के लिए, क्योंकि सभी प्रश्नों का कोई सर्वसुसंगत उत्तर हो ही नहीं सकता, सिद्धांततः भी ऐसा होना संभव नहीं है, दर्शनशास्त्र का अध्ययन अत्यावश्यक इसलिए है, कि इससे जुड़े प्रश्न हमारी धारणाओं को मौलिक विस्तार देते हैं, वे हमारे भीतर यह विश्वास जगाते हैं कि इस संसार में क्या संभव है, साथ ही ये हमारी कल्पनाशक्ति को प्रचुर उर्वर बनाते हुए, हमारे दृष्टिबोध और विवेक दोनों को कुंठित करते वाली हमारी जड़ और हठधर्मितापूर्ण मान्यताओं को फीका करते जाते हैं. दर्शनशास्त्र का अध्ययन इसलिए भी अनिवार्य है कि इस अनंत ब्रह्मांड पर विचार करते हुए हमारा मस्तिष्क उत्तरोत्तर विकासमान रहता है, जिससे हम उस परमसत्ता को पहचानने लगते हैं, जिसने जो इसमें अंतर्निहित परमशुभ की संरचना की है.’

दरअसल दर्शनशास्त्र की महत्ता इसमें नहीं है कि वह हमारी जिज्ञासाओं का समाधान लेकर आता है, उसकी महत्ता इसमें भी है कि वह हमें नएनए प्रश्न करने को प्रेरित करता है, और हममें इतना धैर्य पैदा करता है, कि हम दूसरों की बात गंभीरतापूर्वक सुन सकें, उनके साथ खुले मन से संवाद कर सकें, विशेषकर ऐसे समय में जब प्रत्येक धर्म सिर्फ अपनी सुनता और उसी के प्रति हठधर्मिता दिखाता है.

ओमप्रकाश कश्यप

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    हजारी प्रसाद द्विवेदी का आलेख गुरुनानक: व्यक्तित्व और संदेश, भारतीय जनजीवन: चिंतन के दर्पण में, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, प्रष्ठ 11-12, अक्टूबर 1993.

2

    वही

3

    वही

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    …by doubting we come to inquiry; and through inquiry we perceive truth- Peter Abelard.

5

    Socrates was a buffoon who got himself taken seriously-Nietzsche.

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    God is dead and we have killed him- Nietzsche, the German poet-philosopher.

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    …it is better to know how men thought in former times than how they acted.- Voltaire

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    The Knowledge is Power.

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    The Philosophy is – ‘the logical study of the foundations of the sciences.’ Bertrand Russell

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    Thus…Philosophy is to be studied, not for the sake of any definite answers to its questions, since no definite answers can, as a rule, be known to be true, but rather for the sake of the questions themselves; because these questions enlarge our conception of what is possible, enrich our intellectual imagination and diminish the dogmatic assurance which closes the mind against speculation; but above all because, through the greatness of the universe which philosophy contemplates, the mind also is rendered great, and becomes capable of that union with the universe which constitutes its highest good. – The Problems of Philosophy, by Bertrand Russell.

6 thoughts on “समकालीन दर्शन तथा उसकी प्रमुख समस्याएं

  1. बहुत ही ग्यानवर्द्धक आलेख है इसे बार बार पढ्ने और प्रचारित प्रसारित करने की आवश्यकता है संग्रहणीय आलेख के लिये धन्यवाद्

  2. ओमप्रकाश जी,
    हिन्दी विकि पर दर्शन-विषयक लेखों की बहुत कमी है। आपसे निवेदन है कि हिन्दी विकि (hi.wikipedia.org/) पर दर्शन एवं अन्य विषयों पर महत्वपूर्ण लेखों का योगदान करें।

    • ब्लागिंग करते हुए पुस्तक लेखन बिलकुल छूट-सा गया था. इधर एक प्रकाशक पुस्तक लेखन के लिए लगातार दबाव डाल रहा था. इसलिए ब्लाग लेखन को कुछ समय के लिए विराम देना पड़ा. बहुत जल्दी मैं वापस लौटूगा, आपके सुझाव के लिए आभार
      ओमप्रकाश कश्यप

  3. बहुत ही अच्छा जैसे की आपने लिखा की बौद्ध दर्शन आत्मा परमात्मा को अव्यक्त व् अव्याख्येय कहता है वैसे आपका लेख इतना सटीक और विश्लेषित है कि इसे मैं अपने शब्दों के व्यक्त या व्याख्या नही कर सकता ।
    ऐसे ही और सुंदर व् सटीक लिखने की माँ सरस्वती आपको शक्ति दे ऐसी मंगल कामना सहित बहुत धन्यवाद।।

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