हिंदी बालसाहित्य : परंपरा एवं आधुनिक संदर्भ

तुम उन्हें अपना प्यार दे सकते हो, लेकिन विचार नहीं. क्योंकि उनके पास अपने विचार होते हैं. तुम उनका शरीर बंद कर सकते हो, लेकिन उनकी आत्मा नहीं, क्योंकि उनकी आत्मा आने वाले कल में निवास करती है. उसे तुम नहीं देख सकते हो, सपनों में भी नहीं देख सकते हो, तुम उनकी तरह बनने का प्रयत्न कर सकते हो. लेकिन उन्हें अपने जैसा बनाने की इच्छा मत रखना. क्योंकि जीवन पीछे की ओर नहीं जाता और न ही बीते हुए कल के साथ रुकता ही है.’

बालमनोविज्ञान को उजागर करती, बच्चों में विश्वास दर्शाने वाली यह उक्ति खलील जिब्रान की है. कई शताब्दियों पहले कही कही गई यह बात आज भी उतनी ही सच एवं महत्त्वपूर्ण है जितनी कि उस जमाने में थी. मामूलीसी लगने वाली यह बात बालकों के मनोविज्ञान को पूरी तरह स्पष्ट करती है. यह उन साहित्यकारों पर एक असरकारक टिप्पणी है जो बच्चों को ‘निरा बच्चा’ मानते हैं तथा उन्हें जादूटोने या परीकथाओं जैसी अतार्किक रचनाओं द्वारा बहलाने का प्रयास करते हैं. उनके लिए भी जो यह सोचकर बच्चों के लिए नहीं लिखते कि इससे उनकी रचनात्मक मेधा को क्षुद्रतर समझा जाएगा या बालसाहित्यकार कहलाने से उन्हें वह प्रतिष्ठा नहीं मिल पाएगी जो कदाचित प्रौढ लेखन द्वारा संभव है. यह स्थिति कमोबेश हर भाषा में है. लेकिन हिंदी में संभवतः कुछ ज्यादा ही है. कुछ महीने पहले की एक घटना हैप्रतिष्ठित सरकारी संस्थान द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में, कहानी प्रतियोगिता के अंतर्गत बच्चों को सम्मानित किया जाना था. वहां बच्चों तथा बड़ों में समान रूप से लोकप्रिय और एक ख्यातिलब्ध साहित्यकार से जब बोलने के लिए कहा गया तो उन्होंने जोर देकर कहा कि वे अपना हर आलेख पहले बड़ों के लिए लिखते हैं. बाद में उसी को बच्चों के लिए तैयार करते हैं. गोया उन्हें डर था कि एक बालपत्रिका के मंच से वक्तव्य प्रस्तुत करने के कारण उन्हें केवल बालसाहित्यकार न समझ लिया जाए. उन्हें लगा कि इससे उनकी प्रतिष्ठा घटेगी. एक अन्य वरिष्ठ साहित्यकार ने बालकहानियों की पुस्तक की भूमिका लिखने को केवल इसीलिए टाल दिया था कि कहीं पाठक उन्हें बालसाहित्यकार ही न मान लें. यह मानसिकता अधिकांश लेखकों की है. तथाकथित बड़े लेखक बच्चों के लिए लिखने से प्रायः कतराते रहे हैं. कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने नाम का लाभ उठाते हुए बालसाहित्य के नाम पर अखबारों के लिए कुछ उल्टासीधा लिखा और कमाई की या उनके नाम का फायदा उठाते हुए प्रकाशकों ने उनका लिखा जो भी अल्लमगल्लम हाथ लगा उसे बालसाहित्य के नाम के साथ छाप दिया. जबकि बालसाहित्य लेखन उनके लिए ठलवार की चीज ही बना रहा. जिससे उनके बालसाहित्य में वैसी मौलिकता और ताजगी नहीं आ पाई जिनके कारण उनको साहित्यिक पहचान बनी थी. इन्हीं कुछ कारणों के चलते हिंदी में मौलिक बालसाहित्यलेखन की परंपरा विरल रही है.

ध्यातव्य है कि अन्य समाजों की तरह भारत में भी साहित्य श्रुति परंपरा से आया है. जिसमें बच्चों तथा बड़ों के साहित्य के बीच विशेष विभाजन नहीं था. सबसे पहले उसका स्वरूप लोकसाहित्य का था. वही उस दौर में लोगों के मनोरंजन का साधन बना. लोकगीतों मे जो सरस और सहज थे उन्हें लोरियों के रूप में बालमनोरंजन के लिए अपना लिया गया. कथासाहित्य के क्षेत्र में राजामहाराजाओं के जीवनचरित्र और पौराणिक विषयों को ही लंबे समय तक बालसाहित्य का पर्याय माना जाता रहा. आगे के वर्षों में भी यदि पंचतंत्र और हितोपदेश को छोड़ दिया जाए तो ऐसी कोई और कृति नहीं है जिसे विशुद्ध बालसाहित्य की कोटि में रखा जा सके. इनमें हितोपदेश तो पंचतंत्र की कहानियों का पुनप्र्रस्तुतिकरण ही है. हालांकि पंचतंत्र और हितोपदेश की कथाओं के आधार पर बालमनोविज्ञान के अनुरूप नईनई कहानियां सालोंसाल गढ़ी जाती रहीं हैं. आज भी न केवल हिंदी बल्कि दुनिया की अन्य भाषाओं के बालसाहित्य पर पंचतंत्र का असर देखा जा सकता है. मौलिक एवं बदलते समय की जरूरतों के आधार पर बालसाहित्य की रचना का कार्य हिंदी में अर्से तक नहीं हो सका. कारण साफ है. अशिक्षित तथा असमान आर्थिक वितरण वाले समाजों में जहां शीर्षस्थ वर्ग संसाधनों पर कुंडली मारे बैठा, भोग और लिप्साओं में आकंठ डूबा हो, समाज का बहुलांश घोर अभावग्रस्तता का जीवन जीने को विवश होता है. जिससे वहां कला एवं साहित्य की धाराएं पर्याप्त रूप में विकसित नहीं हो पातीं. ना ही उनके सरोकार पूरी तरह स्पष्ट हो पाते हैं. भारत में जहां का समाज करीबकरीब ऐसी ही स्थितियों का शिकार था, तार्किक सोच के अभाव का फायदा यथास्थिति की पक्षधर शक्तियों ने खुलकर उठाया और वे मौलिक बालसाहित्य के विकास में अवरोधक का कार्य करती रहीं. परिणामतः हिंदी बालसाहित्य में भूतप्रेत, भाग्यवाद, उपदेशात्मक कहानियों, राजारानी, जादूटोने, जैसे विषयों की भरमार रही. या फिर लोककथाओं की भोंडी प्रस्तुति को ही बालसाहित्य के नाम पर परोसा जाता रहा.

दरअसल, पंचतंत्र के समय से ही भारतीय बालसाहित्यकार इस मानसिकता के शिकार रहे हैं कि बच्चे नादाननासमझ हंै, उन्हें समझानेसुधारने की जिम्मेदारी सिर्फ उन्हीं पर है और अपनी रचनाओं के द्वारा वे इस दायित्व का निर्वहन करने में समर्थ हैं. याद कीजिए कि पंचतंत्र की पृष्ठभूमि में भी महिलारोप्य नामक वह राज्य है जहां का राजा बिगड़ैल राजकुमारों यानी अपने बेटों से परेशान है. जिन्हें सुधारने की उसकी सारी कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं. तब विष्णु शर्मा नाम का एक पंडित उन्हें सुधारने के दावे के साथ वहां पहुंचता है. निराश राजा अपने चारों पुत्रों को उनके हवाले कर देता है. विष्णु शर्मा उन्हें एकएक कर कई कहानियां सुनाते हैं. प्रत्येक कहानी में सबक, जीवन के लिए व्यावहारिक संदेश है. पुस्तक के अंत में चारों लड़कों के चतुरसुजान हो जाने का संकेत मिलता है. हालांकि आगे चलकर महिलारोप्य नामक राज्य का क्या हुआ, उन बेटों ने ऐसे कौनकौन से काम किए जिनसे उनकी विद्वता और समझदारी का संकेत मिल सके, इसका इतिहास में हमें कोई उल्लेख नहीं मिलता. हमें उन विष्णुशर्मा नामक महाशय की किसी और कृति के ना तो दर्शन होते हैं न ही उनके नाम से किसी अन्य कृति के होने का ऐतिहासिक उल्लेख है.

अगर हम पंचतंत्र के लेखनकाल को देखें जो हटेल के अनुसार लगभग दो सौ ई. पू. की रचना है, तो वह कालखंड भारतीय इतिहास में स्वर्णयुग के नाम से दर्ज है. उस समय भारत में समुद्रगुप्त का राज्य था. बौद्ध धर्म उससे तीन शताब्दियों पहले ही स्थापित हो चुका था और हीनयानमहायान से गुजरता हुआ वह अपनी दार्शनिक विचारधारा को परिपक्व करने में लगा था. उससे करीब दो शताब्दी पहले ही नागार्जुन शून्यवाद के माध्यम से बौद्ध दर्शन को तार्किक ऊंचाई प्रदान कर चुके थे. बौद्धों, जैनियों, वैदिक धर्माब्लंबियों तथा शैवों में परस्पर तर्कवितर्क होते रहते थे. एक प्रकार से वह महान बौद्धिक उपलब्धियों तथा राजनीतिक स्थिरता का समय था. जहां एक ओर चरक जैसे प्रखर आयुर्वेदाचार्य तथा वाराहमिहिर जैसे समर्थ खगोलविज्ञानी थे. वहीं दूसरी ओर कवि भास मुद्राराक्षस जैसी अमर कृति की रचना कर रहे थे. वैदिक साहित्य की परंपरा में भी कई महत्त्वपूर्ण उपनिषद् उस काल तक लिखे जा चुके थे. तर्कशास्त्र का निरंतर विकास होने से कपिल मुनि के न्याय और कणाद के वैशेषिक दर्शन की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी. अतएव बहुत संभव है कि ऐसे उच्च बौद्धिक वातावरण में पंचतंत्रकार ऐसी पुस्तक जिसके पात्र केवल जंगली जानवर हों और जो केवल बच्चों को ध्यान मे रहकर लिखी गई हो, को अपने नाम से सामने लाने की हिम्मत न जुटा पाए हों. तभी उन्होंने विष्णु शर्मा के छद्म(!) नाम से यह पुस्तक लिखी. उन्हें इस बात कदाचित आभास ही नहीं था कि एक दिन उनकी कृति दुनियाभर की चहेती पुस्तक बन जाएगी और उनका छद्म नाम ही सबकी जुबान पर होगा. चूंकि उस जमाने में स्वतंत्र बालसाहित्य की अवधारणा विकसित नहीं हो पाई थी. अतः कोई विलक्षण मेधा का धनी रचनाकार केवल बच्चों को ध्यान में रखकर लेखन करे, यह उस जमाने में मुश्किल रहा होगा.

किंतु इससे पंचतंत्र का महत्त्व कम नहीं हो जाता. युगांतरकारी कृतियां अक्सर देर से पहचानी जाती रही हैं. ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब किसी श्रेष्ठतम कृति का मूल्यांकन करने में वक्त लगा. वैसे भी प्रतीकों के माध्यम से संवादन की कला उस युग में प्रचलित नहीं हो पाई थी. वस्तुतः पंचतंत्र अपने समय से बहुतबहुत आगे की रचना थी. जिसका मूल्यांकन शताब्दियों के बाद किया जाना था. पंचतंत्रकार ने संभवतः अनजाने ही अपने मौलिक और सजर्नात्मक सोच से एक ऐसी कृति को जन्म दिया था जिसकी टक्कर की बालसाहित्य विषयक कृति दूसरी नहीं मिलती. इससे पहले साहित्यिक रचनाएं प्रायः देवताओं या राजामहाराजाओं को केंद्र में रखकर लिखी जाती थीं अथवा उनके पात्र समाज के उच्चवर्गीय और जानेपहचाने चरित्र होते थे. पचतंत्र के अनूठेपन के कारण ही देशविदेश की सभी भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ और इसके लेखक को जगतख्याति मिली. आगे चलकर यद्धपि कथासरित्सागर जैसी कृतियों ने इस कमी को पाटने का प्रयास किया. जिसको पर्याप्त सराहना और स्वीकृति भी मिली. किंतु उनकी रचना मूलतः प्रौढ़ पाठकों को ध्यान में रखकर की गई थी. चंूकि उन दिनों सारा का सारा बालसाहित्य मुख्यतः श्रुति परंपरा पर आधारित था. अतः कथासरित्सागर, जातक कथाएं, सिंहासन बतीसी, वैतालपचीसी, हितोपदेश, अकबरबीरबल के चुटुकले, तेनाली राम की कहानियां, गोपाल भांड के कारनामे, मुल्ला नसरुद्दीन की कहानियां, ढोलामारूं, नलदमयंती के किस्से जैसी रचनाएं, श्रुति के माध्यम से ही वरिष्ठ पीढ़ी से बालपाठकों तक भी पहुंचती रहीं और बच्चेबूढ़े सभी उन्हें सुनतेगुनते रहे हैं.

बालमनोविज्ञान के अनुरूप सहज संप्रेषणीय एवं मौलिक साहित्य की संकल्पना, आधुनिक युग की ही देन है. यह बात भी ध्यान में रखने की है कि मध्यकालीन भारत यानी इतिहास का वह लंबा दौर जो विदेशी आक्रातांओं के हमलों, पराधीनता और भारी उथलपुथल का रहा है; उसमें बालसहित्य के क्षेत्र में बहुत कम काम हुआ है. यहां तक कि भारतेंदु तथा द्विवेदी युग में भी जब साहित्य की दूसरी विधाओं में नएनए प्रयोग हो रहे थे, बालसाहित्य के क्षेत्र में प्रायः जड़ता ही व्याप्त रही. जिन थोड़ेसे साहित्यकारों ने बालसाहित्य की धारा को नया मोड़ देने की कोशिश की, परंपरावादियों के वर्चस्व के कारण उनका प्रभाव बहुत सीमित रहा. इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि गुलाम मानसिकताएं प्रायः अपने भविष्य की ओर से मुंह मोड़े रहती हैं. उनमें अपने भविष्य निर्माण हेतु जरूरी चेतना का अभाव भी होता है.

ब्रिटिश उपनिवेश होने के कारण भारत में बौद्धिक जागरण की प्रक्रिया कतिपय विलंब से, उनीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में शुरू हुई. जिसमें परंपरा एवं संस्कृति की विशेषताओं को सहेजने के साथसाथ आधुनिक ज्ञानविज्ञान को अपनाने पर जोर दिया जाने लगा. विज्ञान के क्षेत्र में निरंतर हो रहे अधुनातन आविष्कारों ने उत्पादन प्रणाली को सरल और तीव्र बनाने में मदद की जिससे रोजगार के वैकल्पिक साधनों का विकास हुआ और लोगों की कृषि पर निर्भरता घटी. मगर तेजी से हो रहे नागरीकरण से बूढे और बच्चे अलगथलग पड़ने लगे. अभी तक वे एकदूसरे की मनोरंजन संबंधी जरूरतों को आपस में ही पूरा कर लेते थे. निरंतर बढ़ती व्यस्तता ने बच्चे और मातापिता के बीच की दूरियों में भी इजाफा किया. इस कारण बच्चों के अकेले पड़ते जाने का खतरा बढ़ता गया. चूंकि टेलीविजन उस समय तक अपने पांव पूरी तरह नहीं पसार पाया था. इसलिए मनोरंजन के नए माध्यम रूप में पुस्तकें समाज में अपना स्थान बनाने लगीं. मशीनीकरण के बाद जिन्हें छापना और पाठकों तक पहुंचाना पहले की अपेक्षा बहुत आसान था. इन सभी कारकों से बालसाहित्य के प्रचारप्रसार को बहुत बल मिला.

बालसाहित्य के विकास का दौर कहीं न कहीं गद्य के विकास से भी जुड़ा है. गद्य लेखन में बृद्धि और उसमें हो रहे नएनए प्रयोगों ने पद्य के शताब्दियों से चले आ रहे वर्चस्व को सार्थक चुनौती पेश की थी. चूंकि गद्य का संसार पद्य की अपेक्षा अधिक व्यापक और विविधतापूर्ण तो था ही, उसमें विचारों की स्पष्ट एवं त्वरित अभिव्यक्ति भी संभव थी. साथ ही गद्य लेखन के लिए पद्य जैसे अनुशासन की भी आवश्यकता भी नहीं थी. जिससे वैचारिक अभिव्यक्ति अपेक्षाकृत व्यापक एवं सरल हुई. गवेश्षणात्मक लेखन और विचारों के सहज आदानप्रदान के लिए गद्य बदले समय की जरूरत बनकर लगातार लोकप्रिय होता चला गया. जिससे नए क्षेत्रों में काम करने का मार्ग प्रशस्त हुआ. पूर्वाग्रहयुक्त होकर इसका श्रेय हम भले ही अंग्रेजी भाषा को न दें परंतु सही मायनों में वह समय नए ज्ञान के उदय और तार्किकता के विस्तार का था. जिससे नए क्षेत्रों में काम की शुरुआत हुई. प्रकारांतर में उसका लाभ बालसाहित्य को भी मिला. उधर तेजी से सिकुड़ते जा रहे परिवारों मे बच्चे निरंतर महत्त्वपूर्ण होते जा रहे थे. अतः उनके मनोरंजन एवं मानसिक विकास के लिए ऐसे साहित्य की आवश्यकता थी जो केवल उन्हीं को ध्यान में रखकर गढ़ा गया हो. इसलिए केवल बच्चों को ध्यान में रखकर लिखने और छपने के काम को बढ़ावा मिला.

बदलते समय और संस्कृतियों के सम्मिलन के दौर में अन्य चीजों की तरह बालसाहित्य का भी आदानप्रदान हुआ. इसी दौर में साहित्य के आदानप्रदान की दर में भी तेजी आई. जिससे भारतीय रचनाएं विदेशों में फैलीं तो बाहर का बालसाहित्य भी हिंदुस्तान में आया. परिणामतः आलिफलैला, गुलीवर की रोमांचक कहानियां, ग्रिम बंधुओं की लोककथाओं और हेंस एंडरसन की परीकथाओं से भारतीय पाठकों का परिचय हुआ. शिशु, बालसखा, वानर जैसी कई स्तरीय बालपत्रिकाएं के अस्तित्व में आने से भारत में बालमनोविज्ञान के अनुरूप, बालसाहित्य लेखन को गति प्राप्त हुई. हिंदी बालकथा लेखन में मौलिकता की शुरुआत करने का श्रेय भी कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद को जाता है. प्रेमचंद के युग तक स्वतंत्र बालसाहित्य की संकल्पना पनपी ही नहीं थी. तो भी बालमनोविज्ञान को केंद्र में रखकर उनहोंने जिन थोड़ीसी कहानियों की रचना की है उनमें गुल्लीडंडा, बड़े भाईसाहब, ईदगाह, आत्माराम, पंचपरमेश्वर, पुरस्कार जैसी रचनाएं आज भी हिंदी बालसहित्य की बेजोड़ उपलब्धियां हैं. बालमनोविज्ञान की परख, कथानक की नवीनता और उसकी सहज प्रस्तुति द्वारा प्रेमचंद ने भारतीय बालसाहित्य को न केवल नई दिशा दी; बल्कि उसे समसामयिक जीवनमूल्यों से समृद्ध भी किया. पाठकों ने भी इन कहानियों को हाथोंहाथ लिया. हालांकि पे्रमचंद के समय और उनके बाद भी साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग लगातार ऐतिहासिक एवं पौराणिक कहानियों के प्रस्तुतीकरण की हिमायत करता रहा.

जहां तक हिंदी बालसाहित्य को स्वतंत्र पहचान मिलने का सवाल है उसकी शुरुआत आजादी के बाद और मुख्यतः छटे दशक से मानी जा सकती है. इस बीच हिंदी बालसाहित्य ने लंबी यात्रा तय की है. प्रकाशन संबंधी सुविधाओं, शिक्षा के प्रसार, वैज्ञानिक चेतना आदि के चलते आज बड़ी मात्रा में बालसाहित्य लिखा जा रहा है. इस बीच अनेक उत्कृष्ठ रचनाएं बालसाहित्य के नाम पर आई हैं. जिनपर हम गर्व कर सकते हैं. बालसाहित्य के प्रति परंपरागत सोच में भी बदलाव आया है. किंतु यह कहना आज भी बहुत मुश्किल है कि हिंदी बालसाहित्य खुद को अतीत के मोह से बाहर लाने में सफल रहा है. यहां अतीत के प्रति मोह से हमारा आशय परंपरा के प्रति दुराग्रहों और किसी भी प्रकार के बदलावों को नकारने की प्रवृति से है. आधुनिक बालसाहित्य में दो प्रकार की प्र्रवृतियां साफ नजर आती हैं. आज भी एक बड़ा वर्ग है जो परंपरा और संस्कृति के प्रति मोह से इतना अधिक ग्रस्त है कि उनमें किसी भी बदलाव की संभावना को नकारते हुए वह बारबार अतीत की ओर लौटने पर जोर देता रहा है. इस वर्ग के हिमायती साहित्यकार मानते हैं कि प्राचीन भारतीय वांड्मय में वह सबकुछ मौजूद है जो आज के बालक के मनोरंजन, शिक्षण तथा व्यक्तित्वविकास संबंधी सभी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम है और प्रायः राजारानी, जादूटोने, उपदेशात्मक बोधकथाओं, लोककथाओं की भोंडी प्रस्तुति और परीकथाओं के लेखन या पुनर्प्रस्तुति मात्र से ही वे अपने साहित्यिक कर्म की इतिश्री मान लेते हैं. इनसे भिन्न दूसरे वर्ग के साहित्यकार परंपरा से हटकर आधुनिक सोच और ज्ञानविज्ञान के उपकरणों से बालसाहित्य का मसौदा चुनते हैं और उपदेशात्मक लेखन के बजाए संवादात्मकता पर विश्वास रखते हैं.

दोनों ही वर्गो के लेखकों के अपनेअपने दुराग्रह हैं. लोकतांत्रिक तकाजे तथा ज्ञान के विस्तार की संभावना को देखते हुए मतांतरों का सम्मान भी किया जाना चाहिए. किंतु हैरानी तो तब होती है जब हम विद्वतजनों को अपनेअपने खेमे में बुरी तरह सिमटा हुआ पाते हैं. जिससे वे बाहर आना तो दूर वे पारस्परिक विमर्श के लिए भी तैयार नहीं होते. उनकी रचनाएं और अभिव्यक्तियां प्रायः दूसरे की आलोचनाप्रत्यालोचना तक सिमटी रह जाती हैं. दूसरे पक्ष की खूबियों को जानेसमझे बिना उसपर आरोपण का अंतहीन सिलसिला चलता रहता है. इससे उनका अपना भले ही कुछ अहित न होता हो लेकिन इससे साहित्य तथा समाज पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है. एक तो इससे वास्तविक स्थिति सामने नहीं आ पाती. दूसरे मानवीय मेधा का क्षरण सामान्यतः गैररचनात्मक कार्यों में होता रहता है.

जादूटोने या परीकथाओं को लेकर हिंदी बालसाहित्य में बहस अर्से से चली आ रही है. बालसाहित्य में परीकथाओं के पक्षधर विद्वानों का तर्क है कि इनसे बालकों की कल्पनाशक्ति का विकास होता है. वे ये भी मानते हैं कि आधुनिक जीवनबोध से भरपूर परीकथाएं बच्चों की साहित्य संबंधी सभी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हैं. इसी प्रकार जादूटोने और नकारात्मक चरित्रों वाली कहानियों के द्वारा बालपाठकों को इस संसार की वास्तविक स्थितियों और पात्रों से परचाया जा सकता है. ताकि वे मानसिक रूप से खुद को परिस्थितियों से मुकाबले के लिए तैयार कर सकें. इस वर्ग का आरोप है कि यथार्थवादी दृष्टिकोण की कहानियां मनोरंजन के स्तर पर काफी कमजोर रह जाती हैं. वे बालकों के मन में नैराश्य की भावना उत्पन्न करती हैं. जिससे उनका स्वाभाविक विकास अवरुद्ध होता है. उनका यह दृष्टिकोण भी एकांगी है. जादूटोने तथा अतिमानवीय शक्तियों का विस्तार आगे चलकर काॅमिक्स के रूप में सामने आया. जिससे हीमैन, स्पाइडर मैन जैसे अतिमानवीय चरित्रों को गढ़ा गया. भारत में शक्तिमान के नाम से भारतीय संस्करण तैयार किया गया. जिसका बच्चों ने भरपूर स्वागत किया. लेकिन ऐसे चरित्रों की लोकप्रियता के बावजूद यह माना जाता रहा कि ये बच्चों को यथार्थ से परे फंतासी की दुनिया में ले जाते हैं. जिनसे गुरजता हुआ बालक एक काल्पनिक दुनिया में रहने का आदी हो जाता है. यथार्थ के संपर्क में आकर उसका वायवी दुनिया का मिथक जब कभी टूटता है, जिसे कि स्वाभविक रूप से एक दिन टूटना ही है, तो बच्चे के दिल को भारी चोट पहुंचती है. ऐसी स्थितियां कभीकभी बहुत भयावह और मारक हो जाती हैं. इसलिए कामिक्स के आगमन के साथ ही उसकी आलोचनाएं होने लगी थीं. आज कामिक्स की बिक्री घटी जरूर है मगर कारण रचनात्मक साहित्य न होकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में कार्टून चैनलों की भरमार है. ऐसी अवस्था में वायवी कथानकों को बालसाहित्य का आधार बनाए जाने का कोई औचित्य नजर नहीं आता.

इसीलिए परीकथाओं के आलोचक मानते हैं कि ऐसे कथानक अंधविश्वास तथा रूढ़ियों को बढ़ावा देते हैं. बच्चों की स्वाभाविक जिज्ञासा एवं तर्कशक्ति को कंुद कर उन्हें अविवेकी और रूढ परंपरावादी बनाते हैं. किंतु परीकथाओं के महत्त्व को एकाएक नकार पाना संभव नहीं है. निश्चय ही बच्चे बड़ों की अपेक्षा अधिक कल्पनाशील होते हैं. अतः स्वाभाविक रूप से वे उन कहानियों के प्रति ज्यादा आकर्षित होते हैं जिनमें कल्पनाशक्ति का प्राचुर्य हो. बड़े होने पर यही गुण उन्हें प्रकृति के रहस्यों को जानने में सहायक सिद्ध होता है. साहित्य, कला ही नहीं यहां तक कि वैज्ञानिक आविष्कारों के लिए लिए भी कल्पनाशक्ति की आवश्यकता पड़ती है. कई वैज्ञानिक खोजें आदमी की कल्पना की उड़ान के दम पर ही संभव हो पाई हैं. लेकिन कल्पना या फंतासीयुक्त लेखन के लिए आवश्यक है कि कथानक के साथ विवेक और तार्किकता भी पर्याप्त रूप में जुडे़ हों. इनके अभाव में कल्पनाशीलता महज मायालोक ही गढ़ सकती है. जो बच्चों को सिवाय मतिभ्र्रम के और कुछ दे पाने में असमर्थ होगा. हैरी पा॓टर शृंखला की पुस्तकें इसका ताजातरीन उदाहरण हैं. ऊलजुलूल कथानक से भरपूर ये उपन्यास मनोरंजन की शर्त पर भले ही खरे उतरते हों किंतु अपने व्यापक प्रभाव में ये बच्चों को बरगलाने तथा उनके विवेक को कुंठित करने वाले हैं. इन्हें बाजारवाद की पोषक ताकतों द्वारा अपने शक्तिशाली प्रचारतंत्र की मदद से, विवेकहीन उपभोक्ताओं की पीढ़ी तैयार करने के लिए उतारा गया है. स्वस्थ बालसाहित्य के लिए मौलिकता एवं वैज्ञानिक दृष्टि जरूरी है. परीकथाओं के पक्षधर हिंदी साहित्यकार हैंस एंडरसन से प्रेरणा ले सकते हैं. जहां परीकथाएं आधुनिक जीवनबोध से हमेशा जुड़ी नजर आती हैं. और वे अपने समाज की खूबियों और खामियों से पाठकों को जोड़े रखती हैं.

इस बात में भी कोई दम नहीं है कि बच्चों के लिए लिखने के लिए पात्र अवास्तविक दुनिया से ही लिए जाएं. तभी बच्चे उसे रस लेकर पढ़ सकेंगे. बालक का कल्पनाशील दिमाग नएनए आसमान जरूर नापता रहता है. मगर उसकी सामान्य प्रेरणाएं अपने समाज से ही उपजती हैं. सूचनाक्रांति ने उसे पहले से कहीं अधिक तार्किक और चैतन्य बनाया है. वह अब स्कूली जीवन से ही समझने लगता है कि जादूगरी हाथ की सफाई से ज्यादा कुछ नहीं है. अतएव जादूटोने या परीकथाओं के रहस्यमय संसार से उस कुछ देर के लिए रोमाचित तो किया जा सकता है मगर उससे अधिक देर तक प्रभावित कर पाना संभव नहीं है. यदि जीवन की नकारात्मक स्थितियों से बालपाठकों को परिचित कराना जरूरी है तो उसके लिए पात्र वास्तविक जीवन से भी लिए जा सकते हैं. आधुनिक विज्ञान और बाजारवाद ने जहां जीवन को सुविधामय बनाया वहीं इसने अनेक विसंगतियों को भी जन्म दिया है. विज्ञान की दुनिया काल्पनिक होकर भी विश्वसनीयता के धरातल पर खड़ी होती है. उसके साथ संभाव्यता निहित होने के कारण वैज्ञानिक फंतासियों में आगत के प्रति एक तार्किक विश्वास भी जुड़ा होता है. अतः वैज्ञानिक खोजों को आधार बनाकर ऐसे साहित्य की रचना आसान तथा समीचीन भी है जो बालकों में कल्पनाशीलता को बढ़ावा दे. यही क्यों? विज्ञान के दुरुपयोग की आशंकाओं तथा तज्जनित त्रासदियों को लेकर भी बच्चों के लिए आधुनिक जीवनमूल्यों से भरपूर साहित्य की रचना की जा सकती है.

कभीकभी बच्चों को यथार्थ के नाम पर केवल मशीनी यहां तक कि आसपास के वातावरण की बोझिल कथानक वाली रचनाएं परोस दी जाती हैं. यानी उद्देश्यपरकता के नाम पर पठनीयता को दरकिनार कर दिया जाता है. ऐसे में ध्यान रखना जरूरी है कि साहित्य एवं तथ्यपरक लेखन में मूलभूत अंतर होता है. मनोरंजन साहित्य का प्रमुख उद्देश्य होता है. तथ्यपरकता के दबाव में कथ्य की रोचकता पर आंच आने पर साहित्य का उद्देश्य ही अधूरा रह जाता है. और यह भी जान लेना चाहिए कि तथ्यपरक लेखन के लिए दूसरे विषयों की भरमार है. उन्हीं से कुछ पल विश्राम पाने के लिए बालपाठक साहित्य की शरण में आता है. अतः यथार्थवादी लेखन के दबाव में कथानक इतना इतना नीरस भी न हो कि बालपाठकों को कहानी और स्कूल में पढ़ाए जाने वाले पाठयक्रम में कोई अंतर ही नजर न आए. ऐसी स्थिति में वह रचना से विमुख हो जाता है तथा पुस्तक से भागने लगता है. यदि किसी रचना को पढ़ पाना ही संभव न हो उसका उद्देश्य अपने आप बेकार चला जाता है. ऐसी रचनाएं ही बच्चों को कामिक्स तथा कार्टूनों के मायावी संसार में ले जाती हैं. जिनका वास्तविक दुनिया, उसकी समस्याओं और सवालों से कोई संबंध नहीं होता.

कुछ ऐसी ही बात लोककथाओं की बालसाहित्य में प्रस्तुति को लेकर कही जा सकती है. हिंदी ही क्यों दुनियाभर में लिखे जा रहे बालसाहित्य का अधिकांश हिस्सा लोककथाओं अथवा उनकी पुनर्प्रस्तुति से निसृत होता है. लोकसाहित्य किसी भी समाज की महत्त्वपूर्ण धरोहर होता है. लोकजीवन की विशेषताओं को अगली पीढ़ी तक ले जाने और उनके बीच सातत्य बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि बालक अपने समाज की परंपराओं तथा ज्ञान की विरासत से परिचित हों. ताकि सामाजिक अनुभवों का लाभ भावी पीढ़ियों को मिल सके. लोककथाएं पीढियों के बीच ज्ञान और अनुभव के संचरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती रही हैं. अतः प्रारंभ से ही वे बालसाहित्य का जरूरी हिस्सा रही हैं. किंतु लोककथाओं के आधार पर बच्चों के लिए सृजन करते समय आवश्यक है कि विषयोंकथानकों का चयन बच्चों के आय वर्ग एवं रुचि के अनुसार ही किया जाए. भारत के संदर्भ में यही बात पौराणिक कथाओं की पुनर्प्रस्तुति के लिए भी की जा सकती है.

बच्चों के लिए लिखना आमतौर परकाया प्रवेश जैसा चुनौतीपूर्ण होता है. उसमें न केवल बालमनोविज्ञान को समझने जैसी चुनौती होती है बल्कि अपने से अधिक जिज्ञासु और ऊर्जावान मस्तिष्क की अपेक्षाओं पर खरा उतरना होता है. ऐसा वही साहित्यकार कर पाते हैं जिनमें नया सोचने और उसको रोचक ढंग से प्रस्तुत कर की क्षमता होती है. जो अपने पूर्वाग्रहों को पीछे छोड़कर सृजनात्मकता बनाए रखते हैं. आज आवश्यकता मौलिक साहित्य की परंपरा को आगे बढ़ाने की है. यह काम परीकथाओं के माध्यम से भी हो सकता है, बशर्ते उन्हें आधुनिक संदर्भों से जोड़े रखा जाए. सृजनात्मक मेधा परीकथा, विज्ञान या अन्य किसी भी माध्यम का उपयोग अपनी मौलिक अभिव्यक्ति के लिए सफलता पूर्वक कर सकती है. जिनमें रचनात्मकता का अभाव है वे तो कंप्यूटर का उपयोग भी भविष्य जानने और जन्मपत्री बनाने के लिए करेंगे. यह अच्छी बात है कि हिंदी के कई बालसाहित्यकार ऐसे हैं जिन्होंने बालसाहित्य को रचनात्मक जड़ता से उबारने के लिए अपनी कलम का खूब इस्तेमाल किया. उन्होंने सृजनात्मक लेखन के साथसाथ भरपूर समीक्षात्मक लेखन भी किया; ताकि आने वाले साहित्यकारों किए एक कसौटी कर निर्माण हो सके. इनमें भूपनारायण दीक्षित, हरिकृष्ण तैलंग, हरिशंकर परसाई, मनहर चैहान, हरिकृष्ण देवसरे, जहूरबख्श, मस्तराम कपूर ‘उर्मिल, डा. प्रकाश मनु, रमेश तैलंग, देवेंद्र कुमार, शेरजंग गर्ग आदि के नाम उल्लेखनीय हैं.

आज आवश्यकता है कि हिंदी बालसाहित्य इन्हीं की परंपरा को निरंतर विस्तार दिया जाए. ताकि वे बच्चे जो टेलीविजन और इंटरनेट के कारण साहित्य से कट से गए हैं उन्हें वापस पुस्तकों की दुनिया में लाया जाए. यह जानते हुए कि पढ़ना एक चारित्रिक विशेषता है. जिसका अभ्यास धीरेधीरे तथा बचपन से किया जाता है, बच्चों के लिए ज्ञानविज्ञान और संवेदनशीलता से भरपूर मौलिक सामग्री उपलब्ध कराई जाए. इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा उपलब्ध करायी जा रही सामग्री बच्चों के ज्ञान और मनोरंजन संबंधी जरूरतों को तो निश्चय ही पूरा कर रही है. किंतु वह बच्चों को अपने समाज से काटकर उनमें एक खास दायरे में शामिल हो जाने की भूख भी पैदा कर रही है. वह दायरा है कामयाब उपभोक्ता का जिसमें अपने सुखसुविधा के लिए सभी कुछ खरीद लेने का सामथ्र्य है. घटती पठनीयता पर जारजार आंसू रोने वाले भी जानते हैं कि बालक के हाथों से पुस्तक का छूट जाना पूरी एक पीढ़ी को अपनी परंपरा तथा ज्ञान की धरोहर से वंचित हो जाने जैसी दुर्घटना है. अतः बालकों को ऐसा साहित्य उपलब्ध कराया जाए जो उन्हें परंपरा का अनुयायी बनाने की अपेक्षा उसका पोषक और अन्वेषक बनाए.

ओमप्रकाश कश्यप


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